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________________ ५२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह प्रतिसमयें अपरापर रूपें, थावाथी सवि वस्त रे, [कार्यरूप छे नही को कारण इम च्यारे वदे व्यस्त रे.] सु० ७४ तव सवि नयमय जिणमय बोले, मूको निज मत कूप रे; शब्द अर्थ बुद्धि परिणति भावे, सवि च[उ] पज्झय रूप रे. सु. ७५ एह विलक्षण निज आश्रयनें[नय], भेद अभेदना कार रे; प्रत्येके द्रव्यादि विकल्पे, आश्रयभेद अपार रे. सु. ७६ जव एके वस्तुए चउनी विवक्षा होए, अभेदक त्यारे रे, एम नय-समुदयथी सवि लहीए, शास्त्र-अर्थ सुविचारे रे. सु. ७७ - इति निक्षेपा स्वरूप. अथ संग्रहनय स्वरूप कथनं. ढाल ७ : राग केदारो गोडी; कपूर होए अति उजलू रे - ए देशी नैगमादिक अंगीकर्या रे, अर्थ सकल विस्तार, सामान्य रूपे संग्रहे रे, ते संग्रहनय सार रे. ७८ भविजन धारो गुरू-उपदेश, एहथी नाशे कुमत-कलेश रे. भ. आंचली केवल सत्ता मात्रने रे, अंगीकरे नय एह, सकल विशेष सत्ता रूपे रे, अंतरलीना लेह रे. भ. ७९ वृक्षादिकनी प्रतीतिका रे, होइ वनस्पतिजन्य, जेणे जेह पतीजीए रे, तेहथी ते नहीं अन्य रे. भ० ८० अंगुल्यादिक हस्तथी रे, जिम कांइ भिन्न न होय, वनस्पति सामान्यथी रे, तिम वृक्षादिक जोय रे. भ. ८१ इम दृष्टांतें भावीए रे, शत शब्दं सवि भान, तह द्रव्यत्वादिक रूपे रे, सवि द्रव्यादिक ग्यान रे. भ. ८२ ए पणि निक्षेपा चउ रे, माने प्रत्येके एक, कोइ कहे ए थापना रे, वंछे नही सुविवेक रे. भ० ८३ नामसंकेत विशेष छे रे, ते थापनाए संत, ते माटे नामनिक्षेप रे, थापना संग्रह हुंत रे. भ० ८४ तेह मृषा पित्रादिके रे, विहित संकेत विशेष, शब्दपुद्गलरूप नाम छे रे, थापना आकृतिविशेष रे. भ. ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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