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यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल
४७३ वचन; जे माटे अपुनर्बंधकना दयादिक गुण उपदेशपदादिक ग्रंथमां वीतराग देवनी सामान्य देशनाना विषय कह्या छे. २१
___ 'जननी क्रियाए अपुनर्बंधक होय पण अन्यदर्शननी क्रियाए न होय ज' एवं जे कां छे ते न मानवं; जे माटे सम्यग्दृष्टी स्वशास्त्रनी ज क्रियाए होय अने अपुनर्बंधक अनेक बौद्धादिक शास्त्रनी क्रियाए अनेक प्रकारनो होय एवं योगबिंदु प्रमुख ग्रंथमां कडं छे. २२ _ 'असद्ग्रहपरित्यागेनैव तत्त्वप्रतिपत्तिार्गानुसारिता' एवं वंदारवृत्तिमां कर्तुं छे ते माटे 'जैनशासनना तत्व जाण्या विना मार्गानुसारी न होय ज' एवो एकान्त पण न घटे, जे माटे ए तंत ग्रहतां मेघकुमार हस्तिजीवने पण मार्गानुसारिपणुं न आवे, योग्यता लइए तो कोइ दोष नथी. २३ ___भगवतीसूत्रमा ज्ञानरहीत क्रियावंत देशाराधक कह्यो छे ते भांगानो स्वामी खारीने टीकामां बालतपस्वी वखाण्यो छे ते मार्गानुसारी ज मिथ्यात्वी होय ए अर्थ उवेखीने ए भांगानो स्वामी द्रव्यक्रियावंत अभव्य जे कहे छे आप-छंदे ते न घटे, जे माटे अभव्यादिकने देशथी आराधकपणुं नथी. 'व्यवहारे अराधकपणुं तेहने छे' ते पण न घटे, जे माटे ए मुग्ध व्यवहार लेखामां नहि. लिंगव्यवहारनी परि क्रियाव्यवहार पण अपुनबंधकादि परिणाम विना पंचाशकादिक ग्रंथे निरर्थक कह्यो छे. २४
'निह्नवे क्रियाज्ञा नथी भांगी अने सत्काज्ञा [सम्यक्त्वाज्ञा] भांगी छे ते माटे देशाराधक तथा देशविराधक कहिये' एवं लख्युं छे ते सर्व विरूद्ध, जे माटे ते सर्वया आज्ञाबाह्य ज कह्या छे. २५ _ 'जेने ज्ञान छते पाम्या चारित्रनो भंग होय अथवा चारित्रनी अप्राप्ति होय ते देशविराधक' एवं भगवतीसूत्रनी वृत्तिमा लख्युं छे तेमां ‘चारित्रनी अप्राप्ति देशविराधक न घटे' एवं लख्युं छे ते प्रगट पूर्वाचार्यनी आशातनानुं वचन, जे माटे परिभाषा लेतां कोई दोष नथी. २६
'सव्वप्यवायमूलं दुवालसंगं जओ जिणक्खायं,
रयणागरतुल्लं खलु तो सव्वं सुंदरं तमि.' ए उपदेशपद गाथामा अन्य दर्शनमा पण जीवदयादिक सुंदर वचन छे ते दृष्टिवादना, ते माटे तेनी आशातनाए दृष्टिवादनी आशातना थाय एवो अर्थ छे ते उथाप्यो छे. २७
तेनी वृत्तिमां ‘उदधाविवेत्यादि काव्यनी साक्षी लखी छे ते अयुक्त' एवं का छे. २८
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