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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
दूहा श्री विमलहर्ष वाचक प्रगट शांतिचंद्र उवझाय, श्री सोमविजय वाचक विबुध सहजसागर मन भाइ. २८ सीहविमल उर कनकविजय श्री धनविजय मुणिंद, पढइ सुगुणविजयादि बुध विवेकहर्ष आणंद. २९
चाल हीर तेरे वयण थइकइ लख्य छ्योरे बंध, गुनहगार हजार छूटे तुझ चरण संबंधि, पसुअ पंखी चीतरादिक छूटे द्यइ आसीस, शाहि अकबर हीरजी गुरु जीवउ कोडि वरीस. सुंद. ३० ईसा यु कहिरी महिरि सुचरण तेरे भेटि, शाहि कहइ गुरुजी सुणु मइं जाणतां हुँ नेटि, इसा भी दिन कबही युं आवइ जिउ न मारइ कोइ, सउंगंधि इतनी बहुत राखुं सो चरण तेरे सोहि. सुंदर० ३१
साहि कहइ तब शेख-सुं, अइ निरीह गुरुराज, मई तीन बेर फिरि फिरि कह्या, सु कच्छ्यु फुरमावु काज. ३२ इनकुं कछ्यु हाजित नहीं, जीवदया बेहिसाब, जगतगुरु गुरूकुं कहउ, मइ दीना खरा खताब. ३३
[चाल] जगत्रके -उपगार कारणि किआ बहुत आशान, जीजिआ जगमई छ्युडाया छ्युडाया सब दाण, साहि अकबर तोहि बगस्या श्री शत्रुज गिरिनारि, जिहां हुअ अविचल किआ मुगता अइ सुकृत संसार. सुंदर० ३४ शांतिचंद अरु भाणचंद दोउ भले सदगुरु-सीस, साहिके दरबारि जिणि बधाइ धर्म-जगीस, श्री हीरविजय सूरिंद, सदगुरु विजयसेनसूरीश, चिर जयु जिहां जगि ससि दिवाकर द्यइ विवेकहर्ष आसीस. सुंदर० ३५
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