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________________ १७६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जे जिनवर हई भरतमें, ऐरवत विदेहा, जस कहे तुझ पद प्रणति थइ, सब प्रणमे तेहा. अजित० ५ (पाटण भंडार) [क्र.१,२ : जैनयुग, भाद्रपद १९८४, पृ.१] ३. रूपचंदकृत ऋषभदेव स्तवन [कविए श्लेषथी पोतानुं नाम गूंथ्यं छे एम गणाय. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१' (पृ.३६८) 'नाथ निरंजन' शब्दोनो उपयोग करता एक रूपचंदने जुदा तारवे छे ते आ कदाच होय. 'जैन गूर्जर कविओ'मां आ कृति नोंधायेली नथी. - संपा] राग भैरव आज तो वधाई राजा नाभिकें दुवार रे, मरूदेवीनें बेटा जाया, जाया ऋषभकुमार रे. आज० १ अजोध्यामें उच्छव हुवो, मुख बोले जयकार रे, घनन घनन घंटा वाजे, पात्र करे थेइकार रे. आज. २ इंद्राणी मिलि मंगल गावे, लावे मोतीमाल रे, चंदन चरची पाए लागे, प्रभु जीवो चिरकाल रे. आज. ३ नाभिराजा दांन देवे, देवें अक्षत धार रे, गाम नगर पुर पाटण देवे, देवे मणिभंडार रे. आज. ४ हाथी देवे साथी देवे, देवे रथ तोखार रे, हीर चीर सिरबंध पितंबर, देवें सब सिणगार रे. आज. ५ तीन लोकमें दिनकर प्रगटीया, घर घर मंगलमाल रे, केवल कमला रूप निरंजन आदीसर दयाल रे. आज. ६ [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३८८] ४. आनंदकृत अंतरीक्ष पार्श्वनाथ विनति पद [ जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ कृति नोंधायेली नथी. कर्तानी विशेष ओळख प्राप्य नथी. - संपा.] मेरे इतनो चाहीयें, नित दरसण पाएँ, चरणकमल-सेवा करूं, चरणे चित ल्यावं. १ मेरे० शिवमंदिर के महेलमें, प्रभु पास बसाउं, निपट नजीकें होय रहुं, मेरो जीव रमाबु. २ मेरे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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