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________________ १७५ केटलांक तीर्थंकर स्तवनो १. यशोविजयकृत ऋषभजिन स्तवन [तपगच्छ नयविजयशि. उपाध्याय यशोविजयजीनो कवनकाळ सं.१८मी सदी पूर्वार्ध छे. तेओ प्रथम पंक्तिना दार्शनिक हता. अनेक शास्त्रीय विषयोनी, कथात्मक तथा स्तवनसझायादि प्रकारनी तेमनी असंख्य कृतिओ संस्कृत, प्राकृत अने गुजरातीमां मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.१९७-२३४, गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३३२-३४ तथा जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास. आ अने पछी- स्तवन 'यशोविजयगणी विरचित गूर्जर साहित्य संग्रह भा.१'मां 'नवनिधान स्तवनो' अंतर्गत छपायां छे. अहीं एने आधारे पाठशुद्धि अने पूर्ति करेल छे. - संपा.] ऋषभदेव सुखकारी[हितकारी], जगतगुरू ऋषभ. [प्रथम तीर्थंकर प्रथम नरेसर, प्रथम यति ब्रह्मचारी. ज. १] वरसीदान देइनें [तुम] जगमें, इलति इति निवारी, तैसे काही करत नहि करूणा, साहिब बेर हमारी. जगत. २ मांगत नहि हम हाथी घोरे, धन कन कंचन नारी, दिउ निज चरणकमलकी सेवा, इयाही लगें मोहे प्यारी. जगत. ३ भवलीलावासित सुर डारे, तो परि सबही उवारी, मैं मेरो मन निश्चल करिके, तुम आणा सिर धारी. जगत. ४ देव नहि दूजो कोइ जगमें, यासं होई दिलदारी, दिल ही दलाल प्रेमकें वीचिं, तिहां हठ खांचि गमारी. जगत. ५ तुम्ह हो साहिब मैं हुं बंदा, इया मत दे बीसारी, श्री नयविजय विबुध सेवक के, तुम्ह हो परम उपगारी. जगत. ६ २. यशोविजयकृत अजितनाथ स्तवन अजितदेव मुझ वालहो, जिउं मोरा मेहा, जिउं मधुकर मनि मालती, पंथी मनि गेहा. अजित. १ मेरे मनि तुहि रुच्यो, प्रभु कंचनदेहा, हरि हर बंभ पुरंदरा, तुझ आगइ केहा. अजित. २ तुंही अगोचर को नही, सज्जनगुन-रेहा, चाहे ताकुं चाहिईं, धरि धर्मसनेहा. अजित. ३ जगतवच्छल जगतारनो, तुं बिरूद वदेहा, वीतराग हुइ वालहा, किउं करि हो छेहा. अजित. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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