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सुभाषित दुहा पंचोत्तरी
चरण धरत चिंता करत, नही सुहावत सोर; सुवरणकुं ढुंढत फिरै, कवि व्यभिचारी चोर. ४० एक ननो सौ दु:ख हरै, चुपको हरै हजार; अणबोल्यौ लाख ज लहै, कोउ न पांमे पार. ४१ कंत पवज्जण चल्लियो, ए मुझ मत्थय सूल; भाषासमिति न जांनहीं, जिनशासननौ मूल. ४२ तज न सकै मनको विभौ, छती तजी कडे जात; तुलछी, धन वे मानवी, छती देत छटकात. ४३ कंचन तजवी सहल है, और त्रियाको नेह; परनिंदा ने ईरषा, तजवो दुरलभ एह. ४४ राजा जोगी अगनि जल, याचक वरण जेता; सुलटा. सौ सहुकौ हुवै, ऊलटा हुवै एता. ४५ उज्जल पंख गरीब गति, निरख धरत पग ध्यान; हम जान्यौ तुम साधु हो, निपट कपटकी खांन. ४६ पढणौ गुणनौ चातुरी, ए तो वात सहिल्ल; कामदहन मन वस करन, गगनचढण मुसकिल्ल. ४७ कागा किसका धन हरै, कोईल किसकुं देय; जीहा तणे हिलोलडै, जग अप्पणो करेय. ४८ वेश्या किसकी भारज्या, मंगन किसको मीत; देय देय जब नां दियै, तबही छंडे प्रीति. ४९ दिल अंदर दरियाव, खंधी लग्यो छो फिरै; डुब्बी मार मंझाव, मंझाइ माणिक लहै. ५० विसइ पसइ सवेस, मोकें थाय धुताइयो; में जाण्यो दरवेस, ते तौ बाजनिया इभुच्छरौ. ५१ हां नेहि नियां पोय, इन वेसे आउं न विसां; तातें जेडा होय, कातीजें जे हत्थमें. ५२ मन मंजूस गुण रयण है, चुप कर दीना ताल; ग्राहक हुय तौ खोलियै, कुंची वचन रसाल. ५३ जीहा कर कच्छोटडी, जो तीनुं वस हुंत; सज्जन ! हीडो मलपता, दुज्जन कहा करंत ? ५४
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