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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह
संघसुमुद्दसुचंद, साहुरयणसूरिप्पवरो, लक्खण अक्व क्क] अणेग. साहिच्चागमगंथधरो. २१ जगविस्सुअ परभागु, विज्जासायर सूरिवरो, निम्मलनाणपहाणु, निरइआर गुरु चरणघरो. २२ सिरि मुणिसुंदरसूरि, भूरि विबुह जण पत्तजउ, नाण-गभ्भ-वेरग्गि, बालि कालि जोगहिअवउ. २३ सिरि जयचंद सुसूरि, दूरीकउ जणदुहनिवहो, सिद्धंतह उवएसि, पयडियभविअणमुखपहो. २४ भुवणसुंदरसूरि गुरुराय, नायसव्वगंथत्थभरो, निअदंसणमित्तेण, बहुजण परमप्पीइकरो. २५ वायग पंडिअ साहु, महतर पवयणि साहुणि अ, नामगहणि जयकारि, चउविह सिरि संघिहिं थुणि अ. २६ इअ गुरुगुणनामं, थुणइ पगामं जो नरु बहुभत्तिहिं भरिउ,
जग-जगडण कामं, दोसारामं दलइ सुसिरि मुत्ती वरिउ. २७ - इति श्री तपागच्छ श्री गुरुवावली समाप्ता.
(एक पत्रनी प्रति, कुल पंक्ति २८, दरेक पंक्तिमा ५४ अक्षरो, सोमसुन्दरसूरि स्तुति साथे, मारी पासे)
[जैन सत्यप्रकाश, मे १९४२, पृ.४६३-६५]
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