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________________ ३२४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दूहा जास जामलि घणउ, बोलई बालगोपाल, धर्मसागर उवझायनइं, वंदन करूं त्रिकाल. २४८ राग सिंधुओ भवि अनुमोदो रे मुनिवर एहवा, जेहवा धनो अणगारो जी; हीरजी धर्मसागर कडी जोडला, हुंता अवनी माहिं सारो जी. भवि० १४९ पांचमि दिन रे श्री संघ वीनवइ, 'बोल दिउ मुनिराजो जी; देव थयां रे पच्छइ आवq, सांनिधि देवानइं काजो जी'. भवि० १५० वलतुं रे भगवनजी इम भणइ, 'जे त्रिभुवनि विख्यातो जी; साहि अकब्बरा जेणई बुझव्यो, हीरविजय जगतातो जी. भवि० १५१ वाहलु हतुं रे जिनशासन घj, जगगुरूनइ दिनरातो जी; ते तो रे हीरजी इहां नवि आवीआ, कुंन हमारी वातो जी. भवि० १५२ पांचमइ आरइ रे श्री संघ सांभलो, वीरवचन संभारो जी; देव थइ रे को आवइ नहीं, हवणां ए अवधारो जी'; भवि० १५३ छट्टि दिनई रे श्री संघ पूछीउं, 'वांछा सी तुम सारो जी,' 'शुद्धपणई रे जिनधर्म भाषाइ [भासइ], होज्यो तिहां अवतारो जी.' भवि० १५४ मुनिजन सहू रे गुरूनइं वानवदई (वीनवइ), 'तुम छइ देह-समाध्यो जी'; 'केवली सरखी मुझ काया अछइ, नहीं रागद्वेष न व्याध्यो जी.' भवि० १५५ सातमि दिन रे मध्यराति गुरू भणइ, 'अणसण | सुझ[मुझ] सारो जी; परभव जातां रे जीवनइं संबलं, सफल करू अवतारो जी.' भवि० १५६ वलतुं रे श्री पंडित इम भणई, 'शकुन जोवा पस्तातो जी; जोयां पछी रे अनशन देइस्युं, ए मुझ मनमाहि वातो जी.' भवि. १५७ __ - श्री गणेश:: (पत्र ६-१३, प्र. कांतिविजयजी पासेनी) (आम अधूरी प्रत रही छे पण सुभाग्ये आ पछीनुं अनुसंधान, एक फाटेतुं पार्नु मुनि जशविजयने मळेलु के जे बीजी प्रतनुं छे, तेमांथी मळी आवे छे. ते नीचे प्रमाणे छे.) ... रे गुरूजी इम भाषीउं, शकुन जोवा नहीं लागो जी; स्वयं मुखइ रे अनशन उचरइ, होज्यो पुण्यनउ भागो जी. भवि० १५८ नवमा दिवसइ रे सहु तिहां गव्य (?) जागीउं, खण नवि कीजइ विलंबोजी; नांदि मांडीनइ रे अनशन आदरू, काज सारू अविलंबो जी. भवि० १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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