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तपगच्छनी पट्टावली
(आ अधूरी पट्टावली अमोने जैन एसोसियेशन ओफ इंडिया पासेना हस्तलेखोमांथी मळी आवी हती अने ते जे प्रमाणे लखायेली हती ते प्रमाणे विशेष फेरफार कर्या वगर अमे उतारी लई अत्र मूकी छे तेथी मूळ प्रति प्रमाणे संस्कृत श्लोकोमा अशुद्धि एम ने एम रही छे. वळी आ जैन प्राचीन गद्य साहित्यनो उत्तम नमूनो पूरो पाडे छे. ते अधूरी प्रत होवाथी तेनी साल मालूम पडी नथी ए खेदनी वात छे छतां बेएक सैका उपर आ प्रत लखायेली जणाय छे.)
[श्री देशाईने मळेली प्रत आरंभ अने अंत बन्ने स्थाने खंडित छे. आ ज पट्टावलीनी अखंड प्रत मळी आवतां मुनि जिनविजये 'जैन साहित्य संशोधक' खं.१ अं.३मां तथा 'विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह'मां 'वीर वंशावलि अथवा तपागच्छ वृद्ध पट्टावली' ए नामे प्रकाशित करेल छे. ए जोतां जणाय छे के श्री देशाईए मूळ पट्टावलीनु भाषारूप सुधारी कंईक अर्वाचीन कर्यु छे. ने शब्दार्थो पण कर्या छे. एम पण देखाय छे के श्री देशाईने मळेली हस्तप्रतमां पट्टावलीनो लगभग त्रीजो भाग नथी.
___ अहीं जिनविजयजी संपादित पट्टावलीनो पाठशुद्धि करवामां तथा पाटांतर दर्शाववामां लाभ लीधो छे. पण आरंभअंतना खूटता भागो उमेर्या नथी. कृति अखंड रूपे प्रकाशित थई गई होवा छतां देशाई-संपादित वाचना अहीं साचवी लेवानुं योग्य एटला माटे गण्युं छे के केटलेक स्थाने आ वाचना पण जिनविजयजीसंपादित वाचनाना पाठने सुधारे छे ने एमां छूटी गयेली वीगतोने पण कोइ वार साचवे छे.
आ पट्टावलीना कर्तृत्व, रचनाकाळ अने एना स्वरूप विशे जिनविजयजी आ प्रमाणे नोंध करे छे : “आ पट्टावलीनो कर्ता कोण छे ते काइ आदि-अंतमां लख्यु नथी. पट्टावलीनी पूर्णाहुति संवत् १८०६मां थयेला विजयऋद्धिसूरिना स्वर्गवास साथे थाय छे तेथी एम अनुमान करी शकाय के ए ज समय दरम्यान एनी संकलना थई होवी जोईए. पट्टावलीनो कर्ता आणंदसूरगच्छानुयायी कोई यति होवो जोईए, कारणके एमां विजयसेनसूरि पछीनी जे परंपरा आवी छे ते ते ज पक्षनी छे अने विजयदेवसूरि जेवा प्रसिद्ध आचार्य अने तेमना समुदायमाथी क्रियाउद्धार करी संवेग पक्ष स्थापनार सत्यविजय पंन्यास आदिनो एमां जराये उल्लेख नथी.
पट्टावली-कर्ता खरेखर बहु संग्राहक रुचिवाळो छे एमां संदेह नथी. तेणे पोतानी ए पट्टावलीमा मळी आवती दरेक ऐतिहासिक हकीकतने नोंधवानी काळजी लीधी छे. आटला विस्तार साथे लखायेली बीजी कोई पट्टावली अमारी जाणमां आवी नथी. एमां वळी संवत सुध्धांनो उल्लेख करेलो छे. जे अन्यत्र मळवो बहु दुर्लभ छे. जोके घणाक ठेकाणे संवतना आंकडाओमां मोटी भूलो पण करेली छे.' – संपा.]
१. सुधर्मानी उत्पत्ति : जंबुद्विपमा दक्षिणार्ध भरतमा कुल्लाग संनिवेश नामे नगरे
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