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ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो
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आशा
अवधु ! ए जगका आकारा, कोइ कस्या न करणहारा. पृथ्वी पानी पवन आकाशा, देखत होत अचंबा, इत्यादिक आधेयै परगट, दीसत कोइ न थंभा. अवधु !० १ या भरमै भूले जगवासी, करता कारण गावे, करमरहित जगकर्ता कारक, कयसे कर संभावे ? अवधु !० २ कर्तु अकर्तु अन्यथा करणे, समरथ साहेब माया, घटपट घटनायै पुन पटवी, या रस जग निर्माया. अवधु !० ३ कस्यो न कोई करै न करसी, एह अनादि सुभावे, बिनस्यो कबही न बिनसे ये जग. जिन-आगम जिन गावे. अवधु !० ४ अगनशिला पंकज नहि प्रगटै, शशक उठे नहि सींगा, आकाश न हुवे फुलवारी. कयसो माया अंगा ? अवधु !० ५ कृत बिनाश अकृत अविनाशी, शब्दप्रमाण प्रमाणे, ये लक्षण तुमरी लछनाए, संकर दूषण आते. अवधु !० ६ अंत आदि बिन लोक न कहीस्यो, घण अहीरण संडासी, प्रथम पछे घटना नहि संभव, समकाले हि घडासी. अवधु !०७ प्रथम पछे पुरषा नहि नारी, तैसे ईंडां पंखी, बीज वृक्ष नहि पीछे पहेले, है समकाल अपेखी. अवधु ! ८ लोक अनादि अनंत भंगथी, है खट द्रव्य बसेरा, याके अंते ज्ञानसार पद, सब सिद्धोका डेरा. अवधु !० ९ ३. ज्ञानसारकृत जिनमत विषयक पद
सारंग अवधु ! जिनमत जगउपकारी, या हम निश्चे धारी. अवधु !० १ सरबमें सर्वांगे माने, सत्ता भिन्न स्वभावे, भिन्न भिन्न षड मत गम भाखे, मत ममत हठ नावे. अवधु !० २ नयवादी अपनो मत थापे, ओर सहु उत्थापे, एहने थाप उत्थापक बुद्धि, एक एक देश व्यापे. अवधु !० ३ जे जे सिद्धांतोमां भाख्या, खट मत अंग बतावे, जिनमतने सर्वांगी दाखे, पण न विरोध जणावे. अवधु !० ४
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