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दीपविजयकृत कविवचन विशेनां बे कवित
[कविपरिचय माटे जुओ ‘सुरतनी गझल'. - संपा.]
घोरेकुं घोरा गधेकुं गधा केहेंसी, कायरकुं कायर अरू सूरनकुं सूर हैं, सपूतकुं सपूत कपूतकुं कपूत केहेंसी, न्यायकुं न्याई अरू अन्याईकुं दूर हैं, साहनकुं साह चोरनुं चोर केसी, मूरखकुं मूरख अरू पंडितकुं पूर हे, कहत कविराज दीप सुनिओ सुजांन लोक, कवि तो देखती तेंसी कहेंसी जरूर हैं. १ पुन:जतीकुं जती अरू सतीकुं सती केहेंसी, कपटीकुं कपटी अरू ध्यांनीकुं ध्यानी हे, मुंजीकुं मुंजी अरू धीरनकुं धीर केहेंसी, दासीकुं दासी अरू रांनीकुं रांनी हे, गंडिएकुं गंडिए अरू मरदकुं मरद केसी, सुंबनकुं सूंब अरू दांनीकुं दांनी हे, कहते कविराज दीप सुनिओ सुजान लोक,
कवि तो देखसी तेंसी केहेंसी प्रमांनी हे. २ (कविना हस्ताक्षरमां विजयधर्मसूरि पासेनी प्रत, सुरतनी गझल साथे, पत्र ५-१३)
[जैनयुग, कारतक-मागशर १९८५, पृ.४६]
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