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________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो Jain Education International ९४ हूआ जे तीथंकर हुसिइ, जनमसमय परि एह जि तिसिह, इणि उठइ जिनवरनां स्नात्र, करिज्यो जिम निर्मल हुई गात्र. ८९ जिहां जिन बोलई तिहां सिउं वाद, धुरि उत्सर्ग अनइं अपवाद, एक जि जीवदया यति तणई, ए उत्सर्ग सहूको भणइ. द्रव्य क्षेत्र नई काल जि भाव, ते ऊपरि तुम्हे धरिज्यो भाव, जे पद छई अपवादह तणूं, लाभ छेहानूं कारण घणूं. ऋषिनई विराधना जल तणी, तिम बीजी वरजी छइ घणी, कल्पसूत्रमईं मन उल्लासि, सुणिउ सुललित सहिगुरू पासि. ९२ वीर तणु तिहिं वचनविलास, सुणि एकई ऊणा पंचास, आलावा बोल्या जिनराज, रिषिनईं सामाचारी काजि. तिहिं विहरिवा तणइ अधिकारि, ते आलावउ हीइ विचारि, कही कुणाला नामिईं किसी, इंद्र तणइ नहीं नगरी इसी . ऐरावती नदी तसु तीरि, गाऊ अंढइ वहइ नितु नीरि, इसि उपहट उल्लंघी वेगि, आगइ मुनि जाता संवेगि. एक पय जलि भीतर थलि एक, इणि परि जइ आवता अनेक, दोषरहित भिक्षानई काजि, न गणी विराधना रिषिराजि. इम अपवाद तणां पद जोइ, निश्चईं भंगि भलां फल होइ, केवलि वात प्रकासई इसी, ते मानतां विमासण किसी. त्रिणि ऊकाला वलिआ पखई, फासु नीर कहई ते झखई, चाल - धोअणनूं जल जेउ, बि घडी पूंठि फासू तेउ. ग्लान महारिषि सहिगुरूतणी, उपधि विधिईं सिउं धोवी [घेवो] भणी, ए त्रिणि तिहिं बोली उक्ति, जोज्यो पिंडतणी नियुक्ति. यतिनई रोगि चिकित्सा कही चउमासी पडिकमणुं सही, सूतिकर्म तीथंकर तणा, अठाइ दिनि उत्सव घणा. १०० थानक वीस कह्यां छई सही, जेह विण तीथंकर पद नहीं, छठ अनइं अठम तप जेउ, वली विशेषत जाणे तेउ. १०१ शत्रुंजय तीरथ गिरनार, सिद्धखेत्र थापना विचार, छठइ अंगि अनइ आठमइ, ए छ बोल कह्या मझ गमई. १०२ गहिला गामट मूढ गमार, पभणइ श्री सिद्धांतविचार, योग अनइ उपधांन विहीन, जाते दिनि ते थासिई दीन. १०३ For Private & Personal Use Only ९० 669 ९१ ९३ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ ४९३ www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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