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________________ ३३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छज्जीवरक्खण अइ विचक्खण लोयबोहण सायरो, जगचंद गणहर वाणि जलहर जयउ जाम दिवायरो. १ तेह तणइ पाटि ४५ श्री देवेंद्रसूरि, जेहरइं अज्ञान गिउं दूरि, जेहे गुरे श्री दिनकृत्यसूत्रवृत्ति, पांच कर्मग्रंथ-सूत्र-वृत्ति, सिद्धपंचासिकासूत्र वृत्ति, श्री धर्मरत्नवृत्ति, सुदर्शनाचरित्र, त्रिनि भाष्य प्रमुख अनेक ग्रंथ कीधा, जे श्री गुरु खंभाइति नगरि कुमारविहार प्रासादि, मेघ जिम गंभीर नादि, धर्मदेशनां ४ वेद वखाणता, ब्राह्मणादिक अनेक सभ्य आवता, तिहां १८ शत मुहपती तणउ व्यापार, जेहे कीजइ षडविध आवश्यक विचार. ___ तेह तणा शिष्य ४६ श्री विद्यानंदसूरि श्री धर्मघोषसूरि, हूया बि वांधव अतिशय तणइ पूरि, जे श्री विद्यानंदसूरि रहइं संवत् १३०२ वरी [करी] कन्या तणउ परिहार, चारित्रकन्या तणउ अंगीकार. सुख संपदा तणइ सागरि, पाल्हणपुरि नगरि, पाल्हणविहार प्रासादि, अनेक तूर्य निनादि, १३२३ आचार्यपद, संघनई मनि आणंद संपद, प्रासाद मंडपि कुंकुमवृष्टि, लोके ते वात दीठी निज दृष्टि, मनमाहि विस्मय अपार, तउ पात्रि अंबिका अवतार, लोक हऊ सावधान, तीणं इसिउं वचन बोलिउं प्रधान, ए उत्तम पुरुष पदठवणि, देवे उच्छव किउ इणि भवणि, ए वड महिमा देखि, तउ संघ नाचइ हर्षविशेषि, अनेकि सीकिरिधर व्यवहारीया तणउ संयोग, तिणि प्रासादि ५०० वीसलपुरीय भोग. तथा – श्री धर्मघोषसूरि सुविचार, जेरहि [ह]उं १३२७ पदठवण आचार, जेहे गुरे अतिशय लगइ योग्य अवधारिउ, सा. पेथड परिग्रहपरिमाण संक्षेपतउ निवारिउ; जेणंइं पेथडसाहि ८४ उत्तुंग तोरण प्रासाद कराव्या, ७ ज्ञानभंडार भराव्या, अनइ २१ धडी सुवर्ण, श्री शत्रुजय मूलप्रासाद कीधउ वर्णि सुवर्णि; जेह तणउ पुत्र, सा. झाझणदे पवित्र, जीणइं बिहु तीर्थ एकूज ध्वज, देईअनइ आत्मा कीधउ अरज. अनइ जे गुरुरहइ देवकई पाटणि, सुमुद्रिइं दिखाडिउं चिंतामणि, अनइ तिहां गोमुख यक्ष, का[उ]सगप्रभावि हऊउ प्रत्यक्ष, उपदेश देई बूझविउ, मिथ्यात्व करतउ ते पाप सूझविउ. ___ तथा - विद्यापुरि ग्रामि, जाणी वडां मूकावियां जूआं, ते संध्यानइ समइ पाषाण हूआं. तथा – एकदा प्रभाति देतां उपदेश, कुणई एकि गलइ विकुर्विया केश, श्राविका जाणी दुष्ट, तउ आसणि विलाइउ पट्ट, जाती देखी लोके हसी, पाछी आवीनइ खूणइ खुसी, गुरु कन्हइ ए स्वरूप पूछी, तउ श्रावके ते अतिघणउं दोछी, पछइ ऊठी पाये पडइ, तउ पाटलउ जूउ अडवडइ. ___ तथा - उज्जयिनी नगरि, एक वसइ योगी पणि प्रत्यनीक, ते माहात्मानइं दिखाडइ बीक, तेह कारण माहतमा तिहां न जाइं, तिम तिम योगी हियामाहि न माई. एकदा गुरु तिहां आव्या, तउ योगीइं बोलाव्या, रहियो धीर थाई इण गामि, गुरि भणिउं रहिया छउं इण ठामि, पटि आछादी कुंभ, गुरि कीधर ध्यान अदंभ, योगी गाढ आरड करंत, तर नमिट गुरुपय अणमग्न. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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