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________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अद्भुत कलाचातुरीथी दुष्यन्तनी कामांधता, पापमयता, नीतिभीरूता अने प्रणयहीनता निवारी तेना प्रतिनी तिरस्कारबुद्धि वाचकना मनमां थती अटकावी ऊलटी, ऊंडी मानबुद्धि अने पूज्यभाव उत्पन्न कर्यो छे. ते ज प्रमाणे महाभारतनी शकुन्तला लोलुप, मोहवश अने कंईक धृष्ट पण छे, जोके तेनुं वर्तन प्रसंगोचित छे खलं परंतु नाटकनी शकुन्तला विनीतहृदयी, कोमल स्वभाववाळी अने स्त्रीसहज लज्जाथी युक्त छतां आत्मसंमानथी संपूर्ण अन्वित छे. जेम सर्व रीते मूळ इतिवृत्त दुष्यन्त अने शकुन्तलानी स्वाभाविक मानुषी वृत्तिओने प्रतिबिंब पाडे छे तेम नाटकमां पण तेमनी मानुषी वृत्तिओनी स्वाभाविकता जाळववा उपरांत पात्रोन पात्रत्व उन्नत अने आदर्शभूत थयेलुं छे. अने ए ज एनी खूबी छे.'' आ रासमां वस्तु उक्त नाटकमांथी लीधेनुं स्पष्ट छे. मात्र पोते जैन साधु छे तेथी अहिंसाना सिद्धान्तने चीवटथी वळगी रहेवाना कारणे यत्रतत्र फेरफार कर्यो छे : जेवो के माछलीना उदरमाथी धीवरने मळेली मुद्रिकाने आ रासमां तेने सरवरपाळेथी मळेली जणावी छे; शकुंतलाने दुष्यन्त भूली जतां ते 'आ कयां कर्मे बन्यु' एम कही विलाप करे छे तेमां जैन भावना तरवरे छे, वगेरेवगेरे. नाममा जे प्राकृत फेरफार छे ते ए छे के कण्व ऋषिने 'कंठ', दुष्यन्तने 'दुक्कंत', शकुंतलाने 'सकुंतला', 'सिकुंतला' ए नाम अपायां छे. १०४ ढूंकनी आ कृतिमां देशी ढाळो अने छंदो जुदाजुदा मुकाया छे अने ए रीते लोकप्रचलित देशीओ - लोकरागोनो उपयोग जैन कविओए तेरमा सैकाथी ते छेवट सुधी कर्यो छे ए एमनु समग्र साहित्य जोतां जणाशे. आ रास एक अति जूनी प्रतमाथी उतार्यो छे. ते प्रतमां आ रास तेमज आ कर्ताकृत 'अवंतिसुकुमाल पर पंच ढालक' (पांच ढालनी सज्झाय - स्वाध्याय) तेमज छेवटे हरियाली छे, अने वचमां लक्ष्मीरत्नउपाध्यायशिष्यकृत 'सुरप्रिय ऋषि स्वाध्याय' छे के जे कवि पण विक्रम सोळमा शतकमां थया छे. आ प्रतमां बे बाजुवाळा एवा चार पत्रो छे ने ते खीचोखीच नाना पण सुंदर अक्षरोमां लखेला छे. दरेक पत्रनी बंने बाजु पर २३ पंक्तिओ छे. छेवटे 'पं. खेमकुशल लखितं' एम जणाव्युं छे. आ प्रति मारी पासे छे के जे सुभाग्ये एक साहित्यरसिक भाई पासेथी प्राप्त थई छे. तेना कागळ परथी ते सोळमी सदीना अंतमा या सत्तरमीना प्रारंभमां लखायेली लागे छे. ते प्रत परथी अक्षरश: उतारो करी आ कृति अत्रे मकवामां आवे छे. जनी जैन प्रतमां 'ख' ने बदले 'ष' लखाय छे तेम अत्र पण छे पण तेनो उच्चार 'ख' ज थतो अने तेथी उतारामां 'ख' मूक्यो छे ने रूपो जूनां छे ते बताववा मूळ रूपो ज मूकवामां आव्यां छे. आ प्राचीन कृतिथी - भालणना समयनी कृतिथी भाषाशास्त्रीने घणुं मळी रहेशे.) [कवि अने कृति माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.२३९-४४. तथा ४९५-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.१९५. 'जैन गूर्जर कविओ' मा हस्तप्रत सुरतना लक्ष्मीदास सुखलाल पासेथी मळेली जणाववामां आवी छे. - संपा.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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