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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सतरभेदि जिनपूजा करी, आविउ वीर पासि संचरी, चउद सहस मुनिवर मनि धरूं, देव कहु तु नाटक करूं. ४४ धन. वीर न बोले, अनुमति हुई, तु तिणि परि मंडी जूजूइ, पहिरिया सुर सरिखा सिणगार, पय घम घम घुघर घमकार. ४५ दुंदुभि गयणंगणि गडगडी, सरमंडल भूगल दडदडी, धप मप धो धो मद्दल साद, आलविउ तिणइं अनुपम नाद. ४६ नवल छंदि नवि चूकु ताल, रंज्या इंद्रचंद्र भूपाल, तव जिन वीर मौन परिहरई, साते पदे प्रशंसा करइ. ४७ द्रव्यपूजानी जाणे सही, ऋषिनें अनुमति देवी कही, ए अक्षर बोल्या छे किहां, जोयो रायपसेणी जिहां. ४८ कुसुमादिक लेइ मनरंगि, सतरे भेदे छठइ अंगि, दोवइ सयंवरमंडप ठाणि, जिन पूज्या मोटे मंडाणि. ४९ जीवाभिगम मांहि छे तथा, विजय देवपूजानी कथा, जिनपूजा ऊथापी जिहां, रे कुमति ते अक्षर किहां. ५० तीरथ अष्टापद गिरनार, नंदीसर शत्रुजय सार, भगवइ अंगि कह्या छे वली, कई मुनिवर कई जिन केवली. ५१ ए एकईं वंद्या विण सही, असुर प्रतिइं ऊंची गति नही, तां गति जां सोहम्मु लहई, तीरथ नहीं तु इम का कहइ. ५२ जंघा चारण विद्या होई, सुरगिरि नंदीश्वरे तूं जोइ, अष्टापदि जइ आवइ इहां, वंदई चैत्य वली हुइ जिहां. ५३ भगवई अंगि जिसि वीससइ, ए अक्षर नुमइ उद्दिसइ, श्री आवश्यकि वली विशेषि, हृदयकमलि तस आणी देख. ५४ रिषभ तणी वाणी मनि धरी, थापी भरति भली परि करी, जिणहर जिणप्रतिमा चउवीस, अष्टापदि प्रणमूं निसिदीस. ५५ जिवि घणे इहां सिवपद लहिलं, सिद्धिक्षेत्र तिणि कारणि कहिलं, इक सु थूभ कराव्यां जोइ, जिम भू चलणि न चंपइ कोइ. ५६ एक बोल ए काढिउ मथी, प्रतिमा भराविवी कही नथी, घडतां लागइ पातक घणूं, पाथरमांहिं किसिउं जिनपणूं. ५७ ईस्यां वचन दूरिइं परिहरू, एहनुं उत्तर छई पाधरू, आज लगई जोउ बहु ठामि, चंपानगरी जीवतसामि. ५८
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