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________________ .१४५ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन आ पीयु चाल्यो गिरनार, मुजने छोडी रे, आ शिवरमणी-शुं रंग, प्रीत एणे जोडी रे. १२.२ आ खोटी जग माहे प्रीति, जे नर करशे रे, थिर नहीं जग माहे कोय, सुकृत हरशे रे. १२.३ पामी ते मन वैराग्य, संयम लीधु रे, आ राजुल सती गुण जाण, कारण कीधुं रे. १२.४ आ संवत सत्तर पंचाj, रही चोमासे - रे आ पोरबंदर शुभ ठाम, मनने उल्लासें रे. १२.५ श्री विजयरत्नसूरिंद, वाचक देव बोले रे, वारी हुँ नेम जिणंद, नहीं तुम तोले रे. १४.५ ३९. ऋद्धिहंसकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी (कर्ता रूपहंसना शिष्य छे.) [देशाईए कर्तानाम ऋद्धिविजय गणेलं, पण ते ऋद्धिहंस गणवू जोईए. ऋद्धिहंसशि. मुक्तिहंसे सं.१७९०मां लखेली प्रत मळे छे. (जैन गूर्जर कविओ भा.५ पृ.२०५) तेथी कर्ता, सं.१८मी सदी उत्तरार्धमां थयेला गणाय. कर्ता-कृति 'जैन गूर्जर कविओ'मां नोंधायेल नथी, परंतु गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३६ पर नोंधायेल छे ('ऋद्धि') अने कृति 'प्राचीनमध्यकालीन बारमासा संग्रह' (शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेल छे. - संपा.] सखी, माघ तो वाघ समान, मास में दीठो रे, आवे जो पीउ घेर, तो मुज मीठो रे; ए तो सरवर नदीमें नीर, टाढे ठरिया रे, दव जिम दाधां वन, शीतें भरियां रे. ८.१ हुं एकलडी नार[निराधार], टाढें कंपुं रे, पीउ पीउ मुखथी वाण, अहोनिश जंपुं रे; सूतां किम ही न जाय, वेरण रातडी रे, राजुल कहे, महाराय, सुणो मुज वातडी रे. ८.२ फागुण मासें फाग, पीउ-संगे गोरी रे, ऊडे अबिर गुलाल, खेले होरी रे; ए तो केशरनी पिचकारी, भरीने छांटे रे, तिम तिम विरहिणी-देह, सूके उच्चाटे रे. ९.१ वाहाला विण कोण साथ, होली रमीये रे, सखी, गहिला जिम गेह, सेरीये भमीये रे; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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