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________________ आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो १८७ रागद्वेषादिक अरि मूलथी उखेडी संजमरूम रणरंगभूमिका आरोपीने वैरी निकंदन कीधां, जे भगवाने पोतानी निरावरणीनी कला ओपी एतले निर्मल करी. ६ द्रव्यथी चोवीहार तप, भावथी निरासंस संनिरनुबंध, वली शिवसुख – मोक्षनुं हेतु क्षमाप्रधान गुणे करी ‘तवेणं वोदानफलें' इत्यागमवचनात्. जिम भगवाने एहवा तप तप्या ते तपवीरताए वर - प्रधान पंडित वीर्यना विनोदथी वीरता साधी. विशेषपणे राजई - शोभे ते वीर, अथवा 'विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते तपवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर' इति स्मृत:. ७ वली दर्शन ज्ञान चारित्रनी वली त्रिविध वीरता कहे छे : महापदे करी शोभित महाज्ञान महादर्शन महाचारित्र तेहनी शोभा भावथी भासे 3. महाशब्दें प्रधान कहीइं. ए त्रीया तत्त्वनी वासनाईं करी भवीजनमनरूप जे भाजन तेणई वास्या छै. ८ । वीरमां धीर अथवा कर्म विदारवाने वीर, वली लोकालोकप्रकासें धीर, धृति - धैर्य धीर, तेनां कोटीर मुगट समान. वलि कृपारसनो निधान परमा(नंद)रूप जे पयोद क# मेध तेणे करी व्यापतो पसरतो करूणावेली. सीचतो छे, वली आJ पोतानी संपदा एतले स्वरूपें एक चेतन स्वभाव मांटई - निमित्तइं तदावर्ण टालवा रूपइं. ९ बंध उदय सत्ता भावे करी कर्मना अभाव कीधा छै. त्रिविध प्रकारे एहवी वीरता प्रगटपणे जेहनी जाणी, एहवी ज गणधरें त्रीपदी रूपं आणी छे - हृदयमा ज्ञान दर्शन चारित्र भावे करी. १० स्थानक मिथ्यात्वादिक ज्ञापक, स्थानक अविरतादि गुणस्थानक गुणठाणुं प्रमत्तादि अथवा अविरति, प्रमत्त क्षीणमोहादि त्रिविध गुणठाणे त्रिदोष काढ्यो, अथवा प्रमत्त क्षीणमोह अयोगी इत्यादिक स्थानकें अज्ञान असंजम असिद्ध ए त्रिदोषनो शोष - नाश कीधो. वली रोषतोषनो शोष जेणे कीधो पाप कष्ट [पुष्टि], पुन्य कष्ट [तुष्टि], उभयनाश इत्यादि त्रिविधनी वीरता कहे छे. ११ सहज स्वभाव परम मैत्री परम करूणा रूप सुधारसवृष्टि अमृतने वर्षण सीचवें करीने, त्रिविध लोकनो त्रिविध तापनो नाश थाइं. मिथ्यात्वाविरति कषाय ताप अथवा जन्म जरा मरण ताप – तेहनो नाश थाईं. वली देखें त्रिभुवन – स्वर्ग मृत्यु पातालना एकेक भाव – पदार्थनें सहज स्वभावथी उत्पाद, नाश, ध्रौव्यपणे जोइयें. १२ । ज्ञानविमल गुणना गण - समुदाय रूप जे मणी तेहना भूधर – पर्वत रोहणाचल छे, एहवा भगवान श्री महावीर स्वामि जगनायक ज्ञानवंत जयवंता वरतो छो; वली दायक - देणहार छो, अक्षय क्षायकि भावें थया जे अनंत सुख सकल कर्मना नाशथी तेहना सदा - निरंतर आपस्वरूपें भोक्ता छो. १३ इतिश्री महावीर जिन स्तवन संपूर्ण थयो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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