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श्रीविजयनेमिसूरीश्वरग्रंथमालारत्नम्-६७ स्वपरसिद्धान्तपारावारपारीण - शब्दावतार - परमाहतकुमारपालभूपालप्रतिबोधक-कलिकालसर्वज्ञश्रीमदहेमचन्द्रसूरीश्वर
भगवता प्रणीतम्
छन्दोनुशासनम्
[ तस्य प्रथमोधिभागः]
द्वपरिशासनसम्राट-सूरिचक्र चक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-स्व० ५० पू०
श्रीमविजयनेमिसूरीश्वरस्य पट्टालङ्कारेण व्याकरणवाचस्पति-पाखविशारद-कविरत्नेति
पदालंकृतेन स्व० ०० पू० आ० श्रीमविजयलावण्यसूरीश्वरेण विरचिता प्रद्योतनामा विवृतिः ।
सम्पादक: संशोधकश्चशास्त्रविशारद-कविदिवाकर-व्याकरणरत्न-पू० आ०
श्रीमविजयदक्षसूरीश्वरस्य पट्टधर-साहित्यरत्न-शाखविशारद-कविभूषण-आ०
श्रीविजयसुशीलसूरिः।
-प्रकाशिकाश्रीज्ञानोपासकसमितिः, बोटाद(सौराष्ट्र)
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455555555559 9999999 श्रीविजयनेमिसूरीश्वरग्रंथमालारत्नम्-६७ स्वपरसिद्धान्तपारावारपारीण - शब्दावतार - परमाहंतकुमारपालभूपालप्रतिबोधक-कलिकालसर्वज्ञश्रीमदहेमचन्द्रसूरीश्वर-491.
भगवता प्रणीतम्- 24
छन्दोनुशासनम्
[तस्य प्रथमो विभागः]
परिशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-स्व० प० पू०
श्रीमविजयनेमिसूरीश्वरस्य पट्टालङ्कारेण व्याकरणवाचस्पति-शाखविशारद-कविरत्नेति
पदालंकृतेन स्व० ५० पू० आo श्रीमविजयलावण्यसूरीश्वरेण विरचिता प्रद्योतनामा विवृतिः ।
सम्पादक: संशोधकश्चशाखविशारद - कविदिवाकर - व्याकरणरत्न-पू० आ०
श्रीमविजयदक्षसूरीश्वरस्य पट्टधर-साहित्यरत्न-शाखविशारद-कविभूषण-आ० - श्रीविजयसुशीलसूरिः।
-प्रकाशिकाभीज्ञानोपासकसमितिः, बोटाद(सौराष्ट्र)
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प्रकाशक:
श्रीज्ञानोपासक समित्याः प्रमुखः शा० चीमनलाल हरिचन्द्र बगड़िया, बोटाद सौराष्ट्र (गुजरात )
वीर सं० २४६५ ]
नकल - १०००
फ
सहायक
आ ग्रंथना प्रकाशनमां शासनप्रभावक परमपूज्य आचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्ष सूरीश्वरजी म० श्रीना उपदेशथी मरुधरस्थ सनवाडानिवासी शा० धरमचंद रूपाजीए २०००) रूपियानी सहायता आपी छे ते बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
मुद्रक :
मखतूरमलजी कुम्भट
कुम्भट प्रिण्टर्स घोड़ों का चौक, जोधपुर (राज.)
नेमि सं० २० [ विक्रम सं० २०२५ प्रथमावृत्तिः मूल्यम् : १० रुपिया
आ० श्री विजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमन्दिर ठे० जैनमन्दिर पासे,
बोटाद, सौराष्ट्र (गुजरात )
प्राप्तिस्थानम् -
卐
सरस्वती पुस्तक भंडार
रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद ( गुजरात )
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* समर्पणम् *
शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवत्तिं तपोगच्छाधिपतिभारतीयभव्य विभूति श्रखण्डब्रह्मतेजो मूर्त्ति अद्वितीयप्रतिभाशालि सच्चारित्रचूडामणि - श्रीवल्लभीपुरनरेशाद्यनेकभूपालप्रतिबोधक - श्रीकदम्बगिरिप्रमुखप्रभूतप्राचीनतीर्थोद्धारक - पञ्चप्रस्थानमय सूरिमन्त्रसमाराधक-न्यायव्याकरणाद्यनेकग्रन्थ सर्जक सिंह - गर्जनासमनिरुपम प्रवचनकारक चिरंतनयुगप्रधान - समान- सर्वतन्त्र स्वतन्त्र-वचन सिद्ध-सौराष्ट्रसूर्य - प्रात:स्मरणीय- परमपूज्य - परमोपकारि- परमकृपालु परमगुरुदेव भट्टारकाचार्य महाराजाधिराज
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श्रीमद्रविजयनेमिसूरीश्वराणां सच्चरण-करण-शील - शालिसुकोमल करपङ्कजेभ्यः सादरं सविनयं सबहुमानं समर्पयति
इदं छन्दोनुशासनं महाग्रन्थरत्नम्
परमगुरुसौरभमधुलिट् विजयसुशीलसूरिः
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श्रीसनवाडामां शासनप्रभावनापूर्वक उजवायेल अद्भुत प्रतिष्ठामहोत्सव
राजस्थानान्तर्गत मरुधरप्रदेशमां आवेल विश्वविख्यात श्री अर्बुदाचल अने श्रीजीरावलाजी महातीर्थं निकटवर्ती श्रीसनवाडा गाममां आवेल पांच सौ वर्ष जेटला प्राचीन जिनमन्दिरनो जीर्णोद्धार वि० सं० २००८ थी श्रीसंघे शरु करेलो ते वि० स० २०१९ मां पूर्ण थतां, तेमां मूलनायक श्रीशान्तिनाथ भगवानादि जिनबिम्बोनी प्रतिष्ठा कराववानौ निर्णय कर्यो हतो.
ए समये सनवाडा श्रीसंघ प्रतिनिधिमण्डल जावाल बिराजता स्व० पू० शासनसम्राटना सुप्रसिद्ध पट्टालंकार परमशासनप्रभावक पूज्यपाद आचार्यप्रवर श्रीमद् विजयलावण्यसूरीश्वरजी म० श्री आदि ने प्रतिष्ठा अंगे पधारवा माठे साग्रह विनंति करतां प० पू० आ० म० श्री आदिए तेनो स्वीकार कर्यो, जेथी सनवाडा श्रीस घने अतीव आनंद थयो हतो.
प्रा बाजुथी प्रतिष्ठा महोत्सवना मंगलमय मुहूर्ती स्व० पू० शासनसम्राट्ना पट्टालंकार परमशासनप्रभावक प० पू० श्राचार्यवर्य श्रीमद् विजयोदयसूरीश्वरजी म० श्रीना पट्टधर परमशासनप्रभावक प० पू० आचार्यप्रवर श्रीमद् विजयनंदनसूरीश्वरजी म० श्रीनी पासेथी वैशाख शुद १४ ने मंगलवारना
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[ आ ] दिवसथी महोत्वसनो प्रारंभ अने जेठ वद ६ [वैशाख वद ६] ने बुधवारना दिवसे शुभ मुहूर्त प्रतिष्ठा तथा अष्टोत्तरीस्नात्र, तेमज सातम ने गुरुवारना दिवसे उद्घाटन वगेरेनां आवतां श्रीस घे सोत्साहपूर्ण तैयारी करी लीधी. श्री संघ आमन्त्रण-पत्रिका काढी गामने शणगायु. चलचित्रनी धार्मिक विविध रचनाओ करवामां आवी. सुमेरपुरथी श्रीवर्द्धमान जैन विद्यालयनी बेन्ड साथे संगीतमंडली बोलावरावी. विधिकारकने बोलाव्या. मंजराज-रथ-इन्द्रध्वज आदि पण बहारथी आवी गया. आ बाजु प० पू० ० श्रीमद् विजयलावण्यसूरीश्वरजी म०
श्री पण वराडमां शासनप्रभावक महामहोत्सवपूर्वक वैशाख शुद छठना दिवसे नूतन जिनमन्दिरमा मूलनायक श्री शीतलनाथ भगवान आदि जिनबिम्बो वगेरेनी महामंगलकारी प्रतिष्ठा करी तथा स्व पट्टधर पू० उपाध्याय श्रीदक्षविजयजी म० श्री ने विधिपूर्वक आचार्यपदथी समलंकृत करी, पू० अभिनवाचार्य श्रीविजयदक्षसूरीश्वरजी म०, पू० पं० श्रीसुशील विजय म०, पुं० पं० श्रीचंदनविजय म०, पू० मु० श्रीजितेन्द्रविजय म०, पू० मु० श्रीमनोहरविजय म०, पू० मु० श्रीरत्नशेखर विजय म० तथा पू० बालमुनि श्रीअभयशेखर विजय म० आदि परिवार सहित विहार द्वारा सनवाडा पधारतां श्रीसंघे भावमोनु भव्य सामैयु कयु. . वैशाख शुद १४ ने मंगलवारथी महोत्वसनो प्रारम्भ थयो. जेठ (वैशाख) वद ६ ने बुधवारना दिवसे बन्ने पू० आ० म० श्री आदिना वरद हस्ते प्रतिष्ठा थई. तेमां- .
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[
इ ]
दानाण
.४००१) रूपियाना आदेशथी मूलनायक श्रीशान्तिनाथ भगवान
शा० धरमचन्द रुपाचन्दजीए बिराजमान कर्या. तेमज सुन्दर परिकर पण पोताना तरफथी नूतन करावी. विधि
पूर्वक स्थापन कयु. १६०१) रूपियाना आदेशथी मूलनायकनी जमणी तरफ श्रीऋषस
देव भगवान शाह धूलचन्द हिंदुजीए बिराजमान कर्या. १२०१) रूपियाना प्रादेशथी मूलनायकनी डाबी तरफ श्रीचन्द्रप्रभ
भगवान शाह रुपाजी मोतीजी वेलांगरीवालाए
बिराजमान कर्या. ६०१) रूपियाना आदेशथी गरुध्यक्षको भूति शाह चुनीलाल
दानाजीए बिराजमान करी. ६०१) रूपियाना आदेशथी निवासीवानी भात शाह अमी
चन्द खुबाजीए बिराजमान करी. ८०१) रूपियाना आदेशथी प्रासादेवीको भूति शाह नेमिचन्द
गोवाजीए बिराजमान करी. ४००१) रूपियाना आदेशथी दंड शाह धूलचन्द हिंदुजी ए
चढाव्यो. ४००१) रूपियाना प्रादेशथी रडु शाह केवलचन्द डुगरमलजीए
चडाव्यु. ३५०१) रूपियाना प्रादेशथी धजा शाह डुगरमलजी दानाजी - तरफथी चढावी.. . १००१) रूपियाना आदेशथी रंगमंडप उपर रघु शाह लालचन्द
वनाजी शीरोडीवालाए चढाव्यु. ..
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[ई]
१००१) रूपियाना प्रादेशथी खेडामंडप उपर झंडु शाह गेनमल भभूतमलजी जावालवालाए चढाव्यु.
८०१) रूपियाना प्रदेशथी शणगार छत्री उपर इंदु शाह बाबुलाल मुलाजी सीरोहीवालाए चढाव्यु .
१५०१ ) रूपियाना प्रादेशथो हाथी पर बेसी तीर शाह धरमचन्द रुपाजीए बांधयु.
५०१) रूपियाना प्रादेशथी भाणेंकस्थम्भ शाह धरमचन्द रुपाजीए रोप्यो.
६०१ ) रूपियाना प्रदेशथी सातमने दिवसे द्वारीद्द्घाटन शाह मगनलाल दलीचन्दजी वेलांगरीवालाए क्युं .
तदुपरांत शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवर्त्ति तपागच्छाधिपति प०पू० आचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी गुरुमहाराज श्रीजीनी चरणपादुका पण संघ तरफथी स्थापन करवामां आवी.
स्वामिवात्सल्य-वैशाख शुद १४ मंगलवारे शाह अमीचन्द खुबाजी तरफथी थयुं .
नोकारशी - जेठ (वैशाख) वद ४ सोमवारे शाह धूलचन्द हिंदुजी अने शाह नेमिचन्द गोवाजी तरफथी थई.
नोकारशी - जेठ (वैशाख) वद ५ मंगलवारे शाह धूपचन्द खबाजी अने शाह डुंगरमल दानाजी तरफथी थई.
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[ उ ]
फलेचुंदडी [झांपे चोखा ] - जेठ (वैशाख) वद ६ बुधवारे
प्रतिष्ठाना दिवसे शाह धरमचन्द रुपाजी तरफथी थई. तेमज अष्टोत्तरी स्नात्र पण एमना ज तरफथी मणावायु. नोकारशी - सातमना दिवसे संघ तरफथी करवामां आवी.
प्रतिष्ठाना प्रसंगे सर्व मली ६५०००) रूपियानी आवक
थई हती.
आ प्रमाणे प० पू० आ० म० श्री आदिनी शुभ निश्रामां सनवाडा नगरमां शासनप्रभावनापूर्वक अभूतपूर्व प्रतिष्ठामहोत्सव अद्भुत उजवायो हतो.
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* प्रकाशकीय निवेदन
छन्दशास्त्रमां विशिष्ट स्थान धरावतो एवो आ अनुपम ग्रंथ छे. तेनो प्रथम विभाग प्रकाशित करतां अमो अपूर्व आनंद अनुभवीए छोए. मूल आ ग्रंथना रचयिता कलिकालसर्वज्ञ पूज्य आचायप्रवर श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा छे.
तेना ऊपर प्रद्योत नामनी विशद वृत्ति स्वर्गस्थ - शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवति तपोगच्छाधिपति भारतीयभव्यविभूति कदम्बगिरिप्रमुख प्राचीन अनेकतीर्थोद्धारक - अनेकभूपप्रतिबोधक - अद्वितीय - प्रतिभासम्पन्न - सर्वतंत्रस्वतंत्र - वचन सिद्ध बालब्रह्मचारी प०पू० आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी म० श्रीना स्वर्गीय सुप्रसिद्धपट्टालंकार साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति शाखविशारद - कविरत्न साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक निरुपमप्रवचनकारक - बालब्रह्मचारी प० पू० आचार्यवर्य श्रीमद् विजयलावण्यसूरीश्वरजी म० श्रीए बनावेली आ ग्रंथमां आपवामां आवी छे, जे मूलग्रंथने विशदपरणे अद्भुत प्रकाश करनारी छे.
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आ ग्रंथना सम्पादक अने संशोधक पण प्रद्योत टीकाकार महर्षिना प्रधान पट्टधर - शासनप्रभावक - शास्त्रविशारद - कविदिवाकरव्याकरणरत्न - देशना दक्ष - बालब्रह्मचारी प० पू० आ० श्रीमद् विजयदक्षसूरीश्वरजी म० श्रीना पट्टधर शासन
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[ ए ] प्रभावक-शाखविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण-प्रखरवक्ता -लेखपटुबालब्रह्मचारी प० पू० आ० श्रीमद् विजयसुशीलसूरीश्वरजी म० श्रीए तेओधीना स्वर्गीय पू० प्रगुरुदेवनी आज्ञाथी आ ग्रंथनु सम्पादन अने संशोधन कार्य सुन्दर करेल छे. तेमज अमारी साग्रह विनंतिथी प्रस्तावना पण लखी आपेल छे. ए बदल अमारी श्री ज्ञानोपासक समिति वन्दन करवापूर्वक तेओश्रीनो आभार माने छे. तेमज आ ग्रंथना द्वितीय विभाग- पण सम्पादन अने संशोधन कार्य करवा माटे पुनः विनंति करे छे.
आ ग्रंथ प्रकाशनमां प० पू० आ० श्रीमद् विजयदक्षसूरीश्वरजी म. श्रीना सदुपदेशथी, राजस्थानान्तर्गत मरुधरस्थ सनवाडानिवासी देवगुरुभक्तिकारक-श्रमरणोपासक शा० धरमचन्द रुपाजीए रूपिया २०००) नी सहायता आपी छे ए बदल एमनो आभार मानीए छोए.
तेम ज आ ग्रंथर्नु मुद्रण कार्य करनार जोधपुरवाला कुम्भट प्रिण्टर्सना मालिक शा0 मखतूरमलजी कुम्भट नो पण आभार मानीए छोए.
लि.
श्री ज्ञानोपासक समिति ना प्रमुख बगडीया चिमनलाल हरिचंद
तथा कार्यवाहक प्रमुख बगडीया हसमुखलाल दीपचंद
बोटाद (सौराष्ट्र)
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शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवर्ती - सर्वतन्त्र स्वतन्त्र- तपोगच्छाधिपति - भारतीय भव्य विभूति-तीर्थ रक्षैकदक्ष- बालब्रह्मचारी- प्रौढप्रतापी- परमपूज्यमहाप्रभावक - जगद्गुरु - आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजयने मिसूरीश्वरजी महाराज साहेब
जन्म - वि० सं० १९२९ कार्तिक शुद १ श्रीगौतमस्वामी केवलज्ञानदिन महुवाबन्दर ( सौराष्ट्र )
दोक्षा- वि० सं० १६४५ जेठ शुद ७ भावनगर ( सौराष्ट्र )
गणिपद- वि० सं० १९६० कार्तिक वद ७ वलभीपुर ( सौराष्ट्र ) पंन्यासपद - वि० सं० १६६० मागसर शुद ३ वलभीपुर (सौराष्ट्र ) आचार्यपद - वि० सं० १६६४ जेठ शुद ५ भावनगर (सौराष्ट्र ) स्वर्गगमन - वि० सं० २००५ आसोज ( दीवाली पर्व तथा वर्तमान शासनाधिपति श्रीमहावीर मोक्षकल्याण दिन स्वजन्मभूमि महुवा (सौराष्ट्र)
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स्वर्गस्यशासनसम्राटश्रीना पट्टालङ्कार:व्याकरणवाचस्पति-कविरत्न-शास्त्रविशारद-साक्षरशिरोमणि-सातलाखश्लोक प्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-अनुपमव्याख्यानसुधावर्षी
बालब्रह्मचारी पूज्यपाद जैनाचार्य श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरजी महाराज साहेब
जन्म-वि० सं० १६५३ भाद्रवा वद ६ बोटाद ( सौराष्ट्र) दीक्षा-वि० सं० १९७२ आषाढ शुद ५ सादड़ी (राजस्थान ) बड़ी दीक्षा-वि० सं० १६७३ मागसर शुद ५ सादड़ी ( राजस्थान ) प्रवर्तकपद-वि० सं० १९८९ कार्तिक वद २ अमदाबाद (गुजरात) गणिपद-वि० सं० १६६० मागसर शुद ८ भावनगर ( सौराष्ट्र ) पंन्यासपद-वि० सं० १९६० मागसर शुद १० भावनगर ( सौराष्ट्र ) , उपाध्यायपद-वि० सं० १९६१ जेठ वद ११ महुवा ( सौराष्ट्र ) आचार्यपद-वि० सं० १९६२ वैशाख शुद ४ अमदाबाद (गुजरात) स्वर्गवास-वि० सं० २०२० फागण वद ६ खीमाडा (राजस्थान)
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9 ॐ ह्रीं अहं नमः॥ HRELIMSHIRSANEEYEESHAANEMA
किञ्चित्प्रास्ताविकम् ।। HeATIENHEATERIAL
अये कविकुमुदकलितकविताकौमुदीचुम्बनचातकाः संस्कृत-प्राकृतवाङ्
महोदधिस्नातकाः !
छन्दःशास्त्रस्य प्रयोजनम् "नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा । कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ॥"
-अग्निपुराणम् इति सुभाषितानुसारं कविता, तद्रसानुभवः, तद्विरचनाशक्तिश्च प्रमुखता भजते मानवीयगुण-समुदाये इति सर्वेषां वो विदितमेव । कवित्वलाभाय काव्यरसास्वादाय च छन्दोज्ञानमतितरामावश्यकम् । अज्ञातछन्दोभेदश्च जनः पद्यकाव्यं सम्यक्पठितुमपि न पारयति, कुतस्तस्य पद्यनिर्माणशक्तेः सम्भावना । यद्यपि "छन्दोविचितेवृत्तसंशयच्छेदः" इति पूर्वाचार्यवाक्यमुदाहरता ग्रन्थकृता वृत्तसंशयनिराकरणमेव छन्दोविचितेः-छन्दःसंग्रहशास्त्रस्य प्रयोजनत्वेनोक्तं मङ्गलश्लोकवृत्ती। तथापि "काव्योपयोग: वृत्तसंशयच्छेदादिना" इति कथयता काव्यनिर्माणोपयोगोऽप्यादिशब्देन संगृहीत एव। वैदिकास्तु वेदस्य षडङ्गमध्ये छन्दोऽपि पठन्ति । तथा चोक्तम्
"शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं ज्योतिषां गतिः । छन्दोविचितिषष्ठश्च षडङ्गो वेद उच्यते ॥” इति ।
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[ ख 1
किञ्च छन्दमामपरिज्ञानात् प्रत्युत प्रत्यवायः श्रूयते । यथा
"यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दोदैवत ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाध्यापयति वा स स्थाणुं वर्छति गर्तं वा पतति प्रमीयते वा, पापीयान् भवति यातयामान्यस्य छन्दांसि भवन्ति ।" इति (शतपथब्राह्मण - ऋषिछन्दोदैवतम् ) ब्राह्मणज्ञानपूर्वकमेव मन्त्रो व्यवहारयोग्योऽन्यथा तत्प्रयोगेण स्थावरयोनौ पतनम्, श्रधःपतनम्, मृत्युर्वा लभ्यते पाप भाक्त्वं चेति तदाशयः । एवं च यथा वेदमन्त्राणां छन्दोज्ञानपूर्वकमेव व्यवहारे साफल्यं तथा लौकिककाव्यस्यापि छन्दोज्ञानपूर्वक एव व्यवहारः समुचित इति तद्विज्ञानार्थं छन्दः शास्त्रप्रवर्तन सप्रयोजनम् ।
छन्दः शब्दनिर्वचनम्
तत्र किमिदं छन्द इति जिज्ञासा समुदेति । छन्द: शब्दस्य बहुष्वर्थेषु प्रयोगो दृश्यते; 'अभिप्रायश्छन्द श्राशयः' इति कोशानुसारमभिप्राये; वेदे, वर्णमात्रानियताक्षरव्यूहेषु च । तत्र सर्वत्रानुगत किमप्येकं छन्दोलक्षणमन्वेषणीयम् इति केषाञ्चिदाग्रहः । अत्रापरे इत्थमाहुः प्राणमात्रा छन्द इति सर्वं वस्तु केनापि प्राणिति, तत्र यद्येन प्राणिति तद्वस्तुनो मात्रा छन्द इति । मात्रा च पुनरवच्छेदः । सच मानेन वा प्रतिष्ठया वा तुलितकेन वा क्रियमाणो वस्तुस्वरूपमर्यादाबन्धः । यद्यपि वेदेषु प्रयुक्तस्य छन्दः शब्दस्य निर्वचनं बहुधा छादयतेर्धातोराश्रयणेन दृश्यते, तथाहि - " स च्छन्दोभिरछन्नस्तस्मात् छन्दांसीत्याचक्षते । ते छन्दोभिरात्मानमाच्छादयन् तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्; ते छन्दोभिरात्मानं छादयित्वोपायन्, तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्" "छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात् कर्मणः" इत्यादि । एवं च प्राच्छादकत्वमेव छन्द:शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं न त्ववच्छेद इति लभ्यते । आच्छादकानामवच्छेदकत्वसम्भवेऽपि, अवच्छेदकानामाच्छादकत्वासम्भवात् । अत एव तु लोकेऽपि मानस्य प्रतिष्ठा - यातुलितकस्य मा छादकत्वाप्रसिद्धिरिति केचित् तन्न; अप्रसिद्धेर्निरूपयितुमशक्यत्वात् । तथा हि केयमप्रसिद्धि: ? लौकिकानामप्रतिपत्तिर्वा स्वरूपतोऽसत्त्वं वा । नाद्यः, न हि लौकिकानामप्रतिपत्त्या प्रमाणसिद्धोऽर्थः प्रत्याख्यातु ं युक्तः । प्रतिपत्ति लोके दृष्ट्वा प्रमाणान्तरैरसिद्धोऽप्यर्थ: स्वीकर्तुमपि न शक्यः । व्यवहार
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[
ग
]
सिद्धिप्रवणो हि लोको वस्तुमत्त्वानपेक्ष एव । 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशुन्यो विकल्प इति पातञ्जलसूत्रानुसारं विकल्पवृत्त्यैव व्यवहरतां जनानामसत्यप्यर्थे प्रतिपत्तिदर्शनात् । अत एव शृङ्गारादिरसानामरूपत्वे प्रमाणतः सिद्धेऽपि हास्यशृङ्गारकीर्त्यादीनां शुक्लत्वं, प्रेमानुरागवीरादीनां रक्तत्वं, क्रोधपापापकीर्त्यादीनां कृष्णत्वमनृतमपि व्यवहारतः कवयः प्रयुञ्जते । वेदादिप्रमाणैः सूर्यस्य स्थिरत्वे सिद्धेऽपि लौकिकाश्चलत्वं व्यवहरन्ति, पृथिव्याश्चलत्वे प्रमाणप्रतीतेऽपि तामचलामाहुः।
एवं घटशब्दप्रयोजकाकारान्तःकरणवृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यस्यैकत्वात् तदभिन्नतयैवैकत्वेन प्रतिपन्नस्य, मृत्तिकाविलक्षणसंनिवेशात्मकघटरूपावच्छिन्नचैतन्यस्य घटत्वतया तदवच्छिन्नत्वेन घटशब्दसङ्केतसिद्धया तत्तद्वयवहारोपपत्तौ सत्यामपि, समवायसम्बन्धेनावयवेषूत्पन्नः कश्चिदपूर्वोऽवयवी घटशब्दवाच्य इति मन्यन्ते ।
किमधिकेन लोके हि सर्वत्रवार्थे त्रिविधा प्रतिपत्तिदृश्यते-पारमार्थिकी व्यावहारिकी प्रातिभासिकी चेति । पारमार्थिकी, वास्तविकीत्यनर्थान्तरम् । व्यावहारिकी, औपयोगिकी, औपचारिकीत्यनान्तरम् । प्रातिभासिकी, आध्यासिकी वैकल्पिकीत्यनान्तरम् । यथा काचे स्फटिकबुद्धि: प्रातिभासिकी, काचद्धिावहारिकी, मृद्बुद्धि : पारमाथिकी । एवं पृथिव्यपेक्षया सूर्यस्य स्थिरता वास्तविकी, पृथ्वी परितः सूर्यस्य वार्षिकगतिः पूर्वाभिमुखीना व्यावहारिकी, पृथिवीं परितः सूर्यस्य दैनिकी गतिः पश्चिमाभिमुखी प्रातिभासिकी। इत्येवं सर्वत्र प्रतीतेस्त्रविध्यं परीक्षकाणां प्रत्यक्षम् । तत्र प्रातिभासिक्या मिथ्यात्वमेव, वास्तविक्याः सत्यत्वमेव, व्यावहारिक्याः सत्यानृतत्वम् । अत एवाहुः शारीरकभाष्ये शङ्कराचार्याः 'सत्यानृते मिथुनीकृत्य लोकव्यवहारः' इति । अन्यथासतोऽपि व्यवहारानुरोधेनान्यथाप्रकल्पितरूपस्य लोके व्यवहार दर्शनात् । तस्मान्नतादृशलौकिकप्रतिपत्त्यभावमनुरुध्य प्रमाणसिद्धः कश्चिदर्थः प्रत्याख्यातुं शक्यते इति ।
. अथ द्वितीयः पक्षः-स्वरूपतोऽसत्त्वमप्रसिद्धिरिति; तदपि न । छादकत्वस्यव छन्दःपदशक्यतावच्छेदकतया तत्र तदसत्त्वानवक्लृप्तेः । नन्वेवं शास्त्रव्युत्पत्त्यो
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[घ]
पूर्वं प्रदर्शितेन छन्दशब्दनिर्वचनचयेन चाच्छादकत्वं छन्दःपदशक्यतावच्छेदकमस्तु तावता मानाद्यवच्छेदानां वर्णमात्राद्यवच्छेदानां चाच्छादकत्वं न प्रतीतिपथमवतरतीति चेन्न, छादकत्वस्यैव छन्दः पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वमभ्युपगन्तॄणां छन्दः पदाभिधेयेषु तेष्ववच्छेदेषु छादकत्वस्यास्तित्वबोधन एव तात्पर्यावसायात् । ननु तर्हि कीदृगाच्छादकत्वमेषामिष्टमिति चेत्, इतरेतराच्छादकत्वमिति गृहाण । ननु च भोः येन तद्वस्तुस्वरूपं न प्रतिपद्यते तिरोहितं भवति तस्मिन्नन्तर्धानसाधने संवरणे आच्छादनशब्दो दृष्टः, यथा घटाच्छादितः प्रदीपः, पटाच्छादितो घटः, रजसाच्छादितो भानु:, स्तनयुगपरिणाहाच्छादिना वल्कलेन इत्यादौ । प्रकृते पुननैतदेवं दृश्यते, न चावच्छेदेन तदवच्छिन्नं वस्तु किञ्चिदन्तर्धत्ते तस्मादनाच्छादका एवावच्छेदका इति प्रतिपद्यन्ते इति चेत्, सत्यम्, न केवलमन्तर्धानमेवाच्छादनशब्दस्य विषयः । किं तर्हि ? बहवो विषयास्तच्छब्दस्योपलभ्यन्ते तथा हि; 'अन्नाच्छादनभागयम्', 'आच्छाद्य चार्हयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्' ( कन्यां दद्यादिति शेषः ) इत्यादी उपसंव्यानमाच्छादनम् । 'आभूषणाच्छादिताङ्गी' 'छदयति सुरलोकं यो गुणैर्यं च युद्धे । सुरयुवतिविमुक्ताश्छादयन्ति सजश्च । इत्यादिषु पर्याधानं छादनम् । 'चन्दनच्छन्नगात्रः' 'तैलाच्छन्नं कलेवरम्' घृताच्छन्नं व्यञ्जनम्' इत्यादिषु चचितकं छादनम् । 'मेघाच्छन्नेऽह्नि दुर्दिनम् 'कटकच्छन्नमार्गेषु' इत्यादिष्ववरोध प्राच्छादनम् । छादयन्नाननं वेगैरर्दयन्नङ्गमञ्जनैः । निरुच्यते छदिरिति दोषो वक्त्रं प्रधावित: || ” ( - सुश्रुतः) इत्येव - मादिषु दूषणमाच्छादनम् इत्येवमनेके विषयाश्छादनस्य भवन्ति । न चैतेषु छाद्यस्यान्तर्धानं दृश्यते, प्रयुज्यते च स श्राच्छादनशब्दः । तदित्थं तस्यानका सिद्धे यदिदं गोपनापरपर्यायं रक्षाभिप्रायमाच्छादनं तदिहावच्छेदकानुगतं द्रष्टव्यम् । अवच्छेदकावच्छिन्नस्य स्वरूपतोऽप्रच्यवनेन गोपनं भवति ।
अत्र कश्चित् प्रत्यवतिष्ठते — नेदमनैकाथ्यं युक्तम्, प्रकरणवशप्राप्तार्थेषु शक्तिस्वीकारे शक्यतावच्छेदकानन्त्यापातात् । वस्तुतस्तु अपवारणे छादयतिः पठितो धातुपाठेषु । अपवारणं च द्विविधम् । एकदिग्वृत्तित्वे आवरणम्, अनेकदिग्वृत्तित्वे च संवरणम् । इदं च संवरणं वस्तुतः स्वरूपानुगतमपि द्वेधापृथग्दृष्टमपृथग्दृष्टं च । तथा हि 'मेघच्छन्नम्' इत्यादावावरकत्वेन, उपसंवीत
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घटादीनां बहिरवस्थानां व्याप्यवत्तिनां दिग्देशकालपरिमाणादीनां च संवरकत्वेन प्रतिपत्तिः । अनेकदिवत्तिनोऽप्येकदिवत्तित्वाव्याघातात् संवरणेऽप्यावरणशब्दः प्रयोगार्ह इत्यन्यदेतत् । उभयोरेवानयोरर्थयोः दृष्टिसम्बन्धप्रतिबन्धकत्वमेवाच्छादनशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् । प्रतिबन्धकतावच्छेदकं च दृग्दृश्यान्तरालवत्तित्वं व्यवधानापरपर्यायम्। 'मेघच्छन्नेऽह्नि दुर्दिनम्' इत्यत्र अहःशब्दस्य तत्प्रवर्तकसूर्यपरतया तदंशुपरतया वा विवक्षणात् तददर्शन मेघरूपावरणप्रयोज्यम् । तथा च छन्नाच्छादितादिशब्दानां प्रतिबद्धदर्शनार्थकत्वात्, अवच्छेदावच्छिन्नानां चानवरुद्धदर्शनत्वेनाभिप्रेतत्वात्, नावच्छेदानामाश्छादकत्वम्; अनाच्छादकत्वाच नावच्छेदश्छन्दः इति चेत्; अत्रोच्यते-नैकान्ततस्तावद् हगवगेधकस्यैवाच्छादकत्वं वक्तुं शक्यम्, एकान्ते स्थितवतां पुसां 'छन्ने स्थाने तिष्ठामः' इति प्रतिपत्तिदर्शनात् । न च वर्षातपात् कृच्छ छत्राच्छादिवर्मणः' इत्यादौ च सर्वावयवैर्दय॑मानस्यापि पुस:छत्रच्छन्नत्वोपचारात् । एवं दृष्टिप्रतिबन्धनरपेक्ष्येऽपि अवरोधकेषु आच्छादकत्वोपचारश्चन्द्रातपादौ व्यवहृतः । तथा चेतरसम्बन्धापवारकत्वमेवाच्छादकत्वमिति निष्कर्षः । इतरत्वं तु कचिद् दृष्टेः, क्वचित्तु प्रतिविघातकानामर्थानाम् । तत्र दृष्टिसम्बन्धापवारणे छन्नस्य गुप्तत्वं गूढत्वापरपर्यायम्। प्रतिविघातकदोषसम्बन्धापवारणे छन्नत्वं, गुप्तत्वं, रक्षितत्वापर. पर्यायम् । तथा चावच्छेदानामपि, अवच्छित्रस्वरूपानुगतया यावदवयवप्रच्यावकदोषसम्बन्धापवारकतया सिद्धमेव स्वरूपाच्छादकत्वं छन्दःशब्दप्रवृत्ती निमित्तमिति । इत्थं च मात्रावर्गनियताक्षरव्यूहरूपस्यापि तच्छन्दोव्यक्तिस्वरूपाच्छादकत्वेन छन्दस्त्वं सिद्धम् । अभिप्रायेऽपि मनसः स्वरूपाच्छादकत्वरूपं छन्दस्त्वम् । वेदानां च छन्दः परिच्छिन्नस्वरूपतया छन्दस्त्वं रूढिप्राप्तमिति सर्वेषां छन्दःशब्दप्रतिपाद्यानामर्थानां सङ्ग्रहोऽवमेयः । स्वमते तु पद्यच्छन्दसः चन्दनादाह्लादनाच्छन्दस्त्वमुक्तमाचार्यैरिति दिक् ।
. .. छन्दो-भेदाः । तदिदं छन्दो बहुधा विभक्तं दृश्यते छन्दःशास्त्राभिः । तदित्यम् .. (१) छन्दःशब्दप्रवृत्तिविषयः पद्यजातं द्विधा-पद्यं जातिश्च । यत्र नियत
वर्णव्यवस्थया छन्दःसिद्धिस्तद्वत्तम् । यत्र तु नियतमात्राव्यवस्थया
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छन्दःसिद्धिः सा जातिः । तथा चाह पिङ्गलच्छन्दःशास्त्रटीकायां हलायुधः____ "पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा। ..
एकदेशस्थिता जातिवृत्तं लघुगुरु स्थितम् ॥” इति । (२) परे तु वृत्तिर्जातिरिति द्विधा विभज्य तयोरुभयोरपि वृत्तशब्देन छन्द:
शब्देन च व्यवहारमिच्छन्ति । वर्णवृत्तं वर्णच्छन्दः, मात्रावृत्तं मात्राच्छन्द
इति तथा चैषां मते छन्दो-वृत्तशब्दयोः पर्यायवाचित्वम् । (३) छन्दःपरिमलकारास्तु वृत्तच्छन्द: शब्दयोः पर्यायत्वं प्रत्याचक्षते । मात्रा- क्षरसंख्यया नियता वाक् छन्दः, गलसमवेतत्वरूपेण नियता वाग वृत्तमित्येवं
व्यवस्थापयन्ति । (४) अन्ये पुनरन्यथा विभज्य व्याचक्षते तथा हि-पद्यच्छन्दस्तावत् त्रेधा-वैदिक
(प्राकृतं वा) लौकिक (संस्कृतादिलोकभाषानिबद्धम्), उभयसाधारणं च । तत्र लौकिक त्रेधा गणच्छन्दः, मात्राच्छन्दः अक्षरच्छन्दश्चेति । तथा च संगृह्णन्ति--
"प्रादौ तावद्गणच्छन्दो मात्राच्छन्दस्ततः परम् । .. तृतीयमक्षरच्छन्दः छन्दस्त्रेधा तु लौकिकम् ॥ ... प्रार्याधुद्गीतिपर्यन्तं गणच्छन्दः समीरितम् । ........ मात्राच्छन्दश्चूलिकान्तमौपच्छन्दसिकादिकम् ।
सामान्याद्युत्कृति यावदक्षरच्छन्द एव च ॥” इति ॥ (५) परे तु पद्यच्छन्दश्चतुर्घा विभेजुः-अक्षरच्छन्दः, मात्राच्छन्दः, अक्षर
गणच्छन्दो मात्रागणच्छन्दश्चेति भेदात् । यत्र मात्राणां न्यूनातिरेकेऽप्यक्षरसंख्यानं तदक्षरच्छन्दः यथाऽनुष्टुबादि । यत्राक्षराणां न्यूनातिरेकेऽपि मात्रासंख्यानं तन्मात्राच्छन्दः । यथोपच्छन्दसिकवतालीयादिकम् । यत्र पुनरक्षरगणानां क्रमसन्निविष्टानां व्यवस्थया छन्दःस्वरूपसिद्धिस्तत्राक्षराणां गुरुलघुस्थानानां च नियतत्वादक्षरगणच्छन्दस्त्वेन व्यवहारः। यथेन्द्रवज्रा-स्रग्धरा-वसन्ततिलका-मन्दाक्रान्तादि । .. एवं यत्र मात्रागणानां
'..
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[
छ
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क्रमसं निविष्टानां व्यवस्थया छन्दःसिद्धिस्तत्राक्षरनियमाभावान्मात्रागण... . छन्दस्त्वेन व्यवहारः, यथा-आर्या-दोहा-कुण्डलिकादीति। ... ... वस्तुतस्तु प्रोक्तरूपेण विभक्तेषु गणवृत्तेषु वर्णव्यवस्थासामान्यात् वर्णवृत्तानतिरिक्तत्वं पश्यन्तिं विवेचकाः। तथा च वर्णवृत्तं मात्रावृत्तमिति द्वयमेव पद्यच्छन्दोविभाजकमिति युक्तमुत्पश्यामः।
स्वमते तु 'वृत्तम्' ( १.१२ ) इति सूत्रवृत्ती-प्राङ्मात्राच्छन्दोभ्यो यदभिधास्यते तद्वत्तत्संज्ञ ज्ञेयम् । तच्च स्थिरे गुरुलघ्वक्षरविन्यासमिष्यतेपाटनसंयोगयोरभावात् । मात्राच्छन्दांसि तु जातिरिति प्रसिद्धानि" इत्युक्त्वा पूर्वोदाहृतं हलायुधटीकास्थितं पद्यमेव स्वमतोपोद्वलकत्वेन विन्यस्तम्, यदाहु:
"पद्य चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा ।" इति । . एव च वृत्तं जातिरिति द्विधंव विभागः संमतः। तत्र वृत्ते यत्र यो गणो यावद्भिर्यथोक्तलघुगुरुप्रस्तारक्रमवद्भिरक्षरनिरूपितः स तथैव निबद्धव्य इति तत्र गुरुलघूनां स्थिरत्वं, न तु मात्राच्छन्दोवत् गुरोर्ल घुद्वयकल्पनया पाटनं, लघुद्वयस्यैकगुरुत्वकल्पनया वा संयोगस्तत्र भवतीति तस्याक्षरवृत्तत्वम् । मात्राच्छन्द:सु, तु यथाकथंचित्तावन्मात्रापूतिरिति नाक्षरविन्यासे स्थिरतेति भेदः । . तत्र वस्तुगत्या नियतस्थानानियतस्थानाभिर्वा मात्राभिनियताक्षरव्यूह एव छन्दः, मात्राप्रस्तारस्वरूपाणां वर्णप्रस्तारेषु वर्णप्रस्तारस्वरूपाणां वा मात्राप्रस्तारेषु च यथायथमन्तर्भावः क्रियते। ततो वर्णवृत्तमात्रावृत्तंति भेद. करणमापाततो निर्मूलं प्रतिभाति । तथापि वर्णगणविशेषरूप पिण्डापेक्षया वर्णवृत्तत्वम्, तदुपेक्षया च मात्रावृत्तत्वमिति विभागपरिकल्पनेति विज्ञेयम् । - तेषु च छन्दःप्रकारभेदेषु वर्णात्मकेषु मात्रात्मकेषु वा उक्ताद्यवान्तरजातयः परिकल्पिता इति' वृत्तेष्वपि कथं जातिपरकल्पनेति न भ्रमितव्यम्; तासां सामान्यबोधकत्वेन मात्रात्मकछन्दोवाचिजातेव्यतिरेकात् । वर्णवृत्तसमुदायान्तर्गतोक्तादिजातयः तत्तदक्षरसंख्याव्यवस्थितानां वृत्ताना' परस्परव्यावत्तिकाः सामान्यरूपा इति बोध्यम् । न ताबता वृत्तं जातिरिति द्विधाकल्पितस्य विभागस्य व्याघात इति ।
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अपरो भेदप्रकारः
पुनरपि छन्दांसि समाधं सम-विषमभेदात् त्रिधा विभक्तानि । समः पादः समम् (१.१३. - १,१५.) इत्यादिसूत्रं रेष विभाग आचार्येण प्रपश्वितः । अन्यरपि पूर्ववतिभिः परवत्तिभिश्च छान्दसिकंरेष विभागः स्वीकृतः । अन्यरेषां लक्षणसूत्राणि न कृतानि दृश्यन्ते । अत्र तु कृतानीति विशेषः । अन्येऽपि द्विपदी, पचपदी, षट्पद्यष्टपद्यादिभेदा: प्राकृतच्छन्दः प्रकरणे व्यावणिताः, ते च प्रकाराः सर्वेऽपि प्राय एष्वेव त्रिषु -समार्ध - सम-विषमेषु यथायथमन्तर्भवन्तीति विभज्य नोक्ताः ।
वृत्तानां नामानि
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अथ यान्येतानि श्रीः, स्त्री, पद्ममित्यादीनि छन्दसां नामानि पठ्यन्ते तान्येतानि यादृच्छिकानि, रूढानि, योगरूढानि, यौगिकानि वेति जायते विचारणा । तत्र तावत् येऽन्यत्रार्थे लोके यौगिकत्वेन प्रसिद्धास्तेऽत्र प्रयुज्य - मानाः शब्दा योगरूढाः, ये चावयवार्थवजिता यथा नर्कुटकादयस्ते यदृच्छाशब्दा एव । सर्वेषां रूढिकल्पना तु न युक्ता, यत एकस्यैव वृत्तस्य आचार्यभेदेन भिन्नानि नामानि दृश्यन्ते । एतच्च तत्र तत्राचार्येण प्रदर्शितमेव । कतिचिश्च नामानि श्रुतिगतिमनुरुध्य प्रवत्तितानि दृश्यन्ते यथा - द्रुतविलम्बितम् रथोद्धता, भुजङ्गप्रयातम्, शार्दूलविक्रीडितमित्यादीनि एषां छन्दसां श्रवणे, उच्चारणे वा तादृशार्थावगतिर्ज्ञायते । तानि च यौगिकान्यपि सन्तु । नात्रं करूपताग्रह आचार्याणामिति प्रतीयते ।
यतिनियमः
'श्रव्यो विरामो यतिः' (छन्दोऽनु. १.१६ ) इति सूत्रेण तद्वृत्त्या चाचार्येण यतिनियमाः स्फुटं प्रतिप्रादिताः । न ह्येत्रमन्यत्र छन्दोग्रन्थेऽस्य विषयस्य वर्णनं दृश्यते । छन्दःशास्त्रसम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येषु केचन यतिनियमं नेच्छन्ति । ते च स्वाभाविकमेवैतन्मन्यन्ते, यथारुचि स्वत एवात्र लोका यतन्ते इति तेषामभिप्रायः । आचार्य हेमचन्द्रतः किञ्चित्प्राचीनेन जयकीर्तिना चैवं तेषां विभागः प्रदर्शितः स्वकीये छन्दोऽनुशासने -
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[झ ]
"वाञ्छन्ति यति पिङ्गल-वष्ठि-कौण्डिन्य-कपिल - कम्बलमुनयः । नेच्छन्ति भरत-कोहल माण्डव्याश्वतरसैतवाद्या
केचित् ॥ " इति (१.१३. )
स्वयम्भूनाम्ना काव्यदर्पणकर्ता स्वग्रन्थे यद्यपि जयदेवस्यापि यतिनियमाङ्गीकार उक्तः । तथा हि
"जयदेव पिङ्गला सक्कयंमि दोच्चि प्र जई समिच्छति । मंडव्व-भरह- कासव-सेयवपमुहा न इच्छति ॥” इति (१.४४ )
दृश्यते च तदीयग्रन्थे सूत्रेषु तत्र तत्र यतिविचारः - यथा “म्रोन्नी याश्च त्रयः स्युः स्वरमुनितुरगैः स्रग्धरा स्याद्विरामः " ( जयदेवछन्दः, ७.२४ ) इत्येवमादयः । तथापि जयकीर्त्तिनाऽत्र तन्नामानुल्लेखः अन्ते च छन्दोवित्समुदाये तन्नामोल्लेखश्च तदीयग्रन्थपरिचयात् सम्भाव्यते । यद्यपि प्रामाणिकैतिहासिकमतानुसार जयदेवो दशमशतक केशवीयवर्ष - पूर्वधा पूर्वमेवाभूदिति निश्चीयते; तत्समयसमुद्भूतेन पिङ्गलच्छन्दः शास्त्रटीकाकहलायुधेन स्वग्रन्थे तदुल्लेखात् । जय कीर्तिश्चैकादशशतकसमुद्भूत इति तावत्कालपर्यन्तं जयदेवग्रन्थस्य प्राप्तप्रचारत्वं सम्भाव्यते । तथापि मुद्रणालययुगाभावात् तदीयग्रन्थप्राप्तिः, नवीनतया वा तन्मतोल्ले जानावश्यकता वा सम्भाव्यते इति नेदं दोषावहम् । यतेर्लक्षणं चात्रोक्तं तत्र
"वाग्विरामो यतिः स्यात् संस्थाप्यते श्रुतिसुन्दरम् ।
पादान्ते सूचितस्थाने युक्वादान्ते विशेषतः ॥” इति (११० ) एतच्च लक्षणं 'श्रव्यो विरामः' इति पदद्वयेनं वाचार्येण संगृहीतमिति विज्ञायते । अन्यैश्च पिङ्गलं विहाय यतिमिच्छिद्भिरपि यतिलक्षणं स्वकीयग्रन्थे प्रदर्शितं न दृश्यते । पिङ्गलसूत्रस्य 'यतिविच्छेद:' ( ६.१ ) इत्यस्य व्याख्यायां हलायुधेन बहुप्रपञ्चित यतिविषये, तदेव चात्रानुगतं दृश्यते ।
छन्दः शास्त्र सम्प्रदायः
प्रकृतग्रन्थे स्वकीयमङ्गलश्लोक व्याख्यावसरे वृत्तो 'पूर्वाचार्य शासनस्यानु'
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इति लिखता आचार्येणास्य शास्त्रस्याचार्य परम्पराप्राप्तत्वं स्पष्टमुद्घोषितम् । तत्र किमानुपूर्वीकेयमाचार्य परम्परेति विचारणायां प्रस्तुतायाम् तत्र तत्र ग्रन्थेषु समुद्दिष्टनाम्नामाचार्याणां नामान्येवोल्लेखयोग्यानि न तु तेषामानुपूर्वी विज्ञातु शक्यते, तत्तद्ग्रन्थनुपलम्भात्, प्राचीनतरेतिहासस्य प्राप्ताभावात् ।
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तथाहि प्र प्रदर्श्यमानरीत्या पिङ्गलेन स्वसूत्रेषु यास्क ताण्डि-सैतवकाश्यपानामुल्लेखः कृतः । ते च यद्यपि शास्त्रान्तरेष्वपि प्रसिद्धा आचार्याः, परं तेषां छन्दोग्रन्था इदानीं न समुपलभ्यन्ते इति न तदीयविषये किमपि वक्तुं शक्यम् । जयकीर्तिना स्वकीये छन्दोऽनुशासने पूर्वोदाहृतयतिनियमाङ्गीकर्तृतद्भिन्नाचार्य नामसूचकपद्ये पिङ्गल- वसिष्ठ - कौण्डिन्य-कपिल - कम्बल-भरत - कोहलमाण्डव्याश्वतराणां नामानि कीर्तितानि तेषामपि ग्रन्था अनुपलब्धा एव । एवमनेनैव विदुषा स्वग्रन्थसमाप्तिसमये पद्यमिदमुक्तम्
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" माण्डव्य - पिङ्गल-जनाश्रय-सैतवाख्यश्रीपादपूज्य - जयदेवबुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान् छन्दोऽनुशासनमियं जयकीर्तिनोक्तम् ॥" (८.१६)
सम्प्रति तु
एतेन ज्ञायते यदेषां छन्दोग्रन्थास्तदानीमुपलब्धा आसन् । एषु केवलं जयदेवकृतं 'छन्द:' एव समुपलभ्यते । एतावता केवलमेतेषां प्राच्यछान्दसानां स्थितिमात्रं ज्ञायते । केदारकृतो वृत्तरत्नाकरनामा छन्दोग्रन्थः साम्प्रतमपि पठनपाठने भूयसोपयुज्यते । ऐतिहासिकगवेषका एनमेकादशशत के समुद्भूतं मन्यन्ते । यावत्यष्टीका एतत्कृत छन्दोग्रन्थस्य समुपलभ्यन्ते न सावत्यः कस्याप्यन्यस्य छन्दोग्रन्थस्यैतावतैवास्य लोकप्रियत्वमनुमातु शक्यते । अनेन केवलं लौकिकसंस्कृतच्छन्दसामेव लक्षणानि रचितानि । अतएवास्य ग्रन्थ:: estarefनबद्ध एव । महाकविकालिदासकृतत्वेन प्रसिद्धः श्रुतबोधनामाछन्दोग्रन्थोऽपि लघुकलेवर एकः प्रचलति । किन्त्वस्य बालोपयोगिल घुसङ्ग्रहरूपतया न नीतिनिर्धारकत्वमिति नायमेतत्परम्पराप्रवेशार्हः । भारते छन्द:शास्त्रे लोकानां रुचि महत्या सीदिति पुराणादिष्वपि तेषां लक्षणादिदर्शनेन
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[ ट ]
परिज्ञायते । तथा च गरुडपुराणेऽपि प्रथमखण्डस्य २०६ तमाध्याये केषांचिच्छन्दसां लक्षणानि संगृहीतानि । भरतनाट्यशास्त्रे पञ्चदशाध्याये छन्दसां लक्षणानि सम्यनिरूपितानि । दृश्यते च प्रकृतग्रन्थेऽपि लक्ष्यछन्दसो नामान्तरवर्णनस्थले भरतस्य नाम बहुधा समुल्लिखितमाचार्येण । एवं च समुपलभ्यमानप्राचीनतरछन्दोग्रन्थेषु तस्यैव पूर्वमुल्लेखो योग्यः । यद्यपि ततः परमस्य विषयस्य विस्तारः कृतः तथापि तस्य मौलिकता न लुप्यते । एतावता परम्पराप्राप्तमेवेदं शास्त्रमाचार्येण सुनिबद्धमिति तदीयमङ्गलश्लोकवृत्त्या यदुद्भासितं तत्सम्यगेवेति सिद्धम् । छान्दसिकेषु पिङ्गलाचार्य: परमादरणीयः सम्प्रति समुपलभ्यमानेषु सर्वेष्वेव छन्दोग्रन्थेषु अयमेतच्छास्त्रोपज्ञातेव समाहतो दृश्यते । एतदीयामेव शैली परेश्रिताः । लोकेषु च पिङ्गलशास्त्रं छन्दःशारूपर्यायतया प्रथितम् । ... उपालम्यमानछन्दोग्रन्थानां परिचयः (१) तत्र तावत् समुपलभ्यमानमौलिक छन्दोग्रन्थेषु सर्वतः प्राचीनतया सर्वसम्मत
पिङ्गलछन्दःशास्त्रद्वयमेव ( पिङ्गलछन्दःशास्त्रम्, प्राकृतपिङ्गलश्च ) । परत: समुपलभ्यमानेषु सर्वेष्वेव ग्रन्थेषु तस्य नामतोऽर्थतश्च समुल्लेखस्य दर्शनात् ।
तत्र चैतेषामाचायणां नामानि उल्लिखितानि दृश्यन्ते-यास्क: (पि. छ. शा. . ३.३०) ताण्डी (पि.छ.शा. ३.३६), सैतवः (पि.छ.शा. ५.१८७ ७.१०),
काश्यपः (पि.छ.शा. ७.६) इति । (२) तत: परमुपलब्धग्रन्थेषु जयदेवच्छन्दसो नाम समायति । अयं दशम
शताब्दयां ततः पूर्व वा समुद्भूतो यत उत्पलभट्टविरचितायां वराहमिहिर
कृतबृहत्संहितायाष्टीकायां ६६६ ईशवीयवर्षलिखितायां १०३ तमे - अध्यायेऽस्य नाम कीर्तितमस्ति । आचार्येणापि स्वग्रन्थेऽयमुल्लिखितः - (२.२६७; ३.५१-५२)। अयं च दाक्षिणात्य इति बहवः सम्भावयन्ति ।
अस्योल्लेखो भट्टहलायुधेन श्वेतपटशब्देन कृतः । वृत्तरत्नाकरटीकाका :: सुल्हणेन च 'शूद्रश्वेतपट-जयदेवेन' इत्येवंरूपेणास्योल्लेखः कृतः इति
श्वेताम्बरसम्प्रदायोऽयमित्यायाति, अनेन च वैदिकानामपि. छन्दसां ५ लक्षणानि कृतानीति श्वेताम्बरत्वमस्य सन्दिग्धमेव प्रतिभाति । प्रायो
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[ 8 ] जनाचार्यः कृतेषु छन्दोग्रन्थेषु वैदिकच्छन्दसां लक्षणानि न विहितानि
स्वार्थ उपयोगाभावात् । (३) अस्मात् परं जयकीर्तेः छन्दोऽनुशासनमुपलभ्यते । तच्च प्रकृत ग्रन्थवदष्ट
भिरधिकाराख्यरध्यायः समापितम् । तत्र केवलं लौकिकसंस्कृतभाषायामुपयुक्तानि छन्दांस्येव लक्षितानि । अयमपि जैनाचार्य एव, यतो मङ्गलश्लोकेऽनेन श्रीवर्धमानस्य नतिः प्रयुक्ता। अयं च जयदेवादर्वाचीन आचार्यहेमचन्द्राच्च प्राचीन इत्यतिहासिकाः साधयन्ति । स्पष्टमेतदुक्तं HD. वेलङ्करनाम्ना प्राध्यापकेन स्मरसंगृहीतस्य 'जयदाम'नाम्नो वृत्त
कुसुमोच्चयस्य भूमिकायामाङ्ग्लभाष निबद्धायाम्। (४) 'स्वयम्भूछन्दः'कर्ता स्वयम्भूनामकोऽपि जैनाचार्य एव। एतत्कृतग्रन्थ:
एशियाटिकसोसाइटीनाम्न्याः समितेः पत्रिकायां १९३५ तमेशवीयवर्षे मुद्रित इति पूर्वोतवेलङ्करमहाशयस्य भूमिकात एवावगम्यते, अनेन च प्राकृतच्छन्दसामपि लक्षणानि विहितानि । अयमपि ईशवीयदशमशताब्दी
समुद्भूत एवेति तत एव ज्ञायते । (५) एक 'विरहाङ्क'कर्तृक 'वृत्तजातिसमुच्चय'नामक पुस्तकमपि एशियाटिक
सोसाइटीनाम्न्यां संस्थायामेवोलभ्यते । तदीयसमयः तत्कर्तुः परिचय श्च न ज्ञायते इति तस्य पौर्वापर्य निश्चेतुमशक्यम्. तथापि प्राचीनश्रेण्यामेव
तदुल्लेखोऽन्यः कृत इति वयमपि तं प्राचीनमेव मन्यामहे ।। (६ ) अतः परं केदारस्य समयः स चैकादशशतकसमुद्भ त: वृत्तरत्नाक रक्तति
च इति पूर्वमुक्तमेव । (७) अतः परं चाचार्यहेमचन्द्रस्यायं ग्रन्थ एव सर्वाङ्गपूर्णो विभाति ।
पिङ्गलाच यं विहाय प्रायः सर्वैरेव छन्दोलक्षणकर्तृभिः, लक्षणसूत्रं तद्वत्तस्य पादरूपेण, पूर्णवृत्तरूपेण वा निबद्धम् । अनेन तु पिङ्गलाचार्यरीतिरेवानुसृता। यथासम्भवमल्पाक्षगणि सूत्राणि रचितानि । पिङ्गलसूत्रवद् दुर्बोधं मा भूदिति शिष्यपरम्परोपकारार्थमन्यस्वकीय ग्रन्थवद् अस्यापि विवृतिराचार्येण स्वयमेव विहितेति बहूपकृतं लोकानाम् । एतद्ग्रन्थस्य
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[ ड ] परिचयश्चानुपदमेव दास्यते । अतः परं केचनार्वाचीनाः प्राचीना अपि
छन्दोग्रन्थाः प्रचलिता लोके, यथा(८) कविदर्पणम्-अज्ञातकर्तृ कम्, प्राय आचार्येणापि चचितं स्वग्रन्थे । (8) उत्पलीया टीका बृहत्संहताया १०३ तमाध्यास्य, एषाऽपि छन्दःपरिचयोप
कृतेति तत्र तत्र तदुल्लेखादवगम्यते, 'विजयानगरम्-सस्कृतमालायां मुद्रिता । (१०) छन्दोमञ्जरी गङ्गादासकृता, सम्प्रति प्रचलितपरीक्षास्वपि सन्निविष्टा ।
सा च वृत्तरत्नाकरतोऽपि सुबोधेति साऽपि बहूपयोगिनी छन्दोरसिकानाम् । (११) मन्दारमन्दचम्पूनामा छन्दोग्रन्थ: काव्यमालाया मोहमयीतः प्रचलिताया
द्विपञ्चाशत्तमकुसुमरूपेण मुद्रित इति श्रूयते । छन्दःकौस्तुभनामा छन्दोग्रन्थ: बहुत्र छन्दःशास्त्राणां टीकादिषु समुदाहृतो मूलेऽपि क्वचित्क्कचिदुल्लिखितः सम्प्रति पुण्यपत्तनस्थभाण्डारकरभाण्डारे ८६४ संख्याङ्कितो मातृकारूपेणैव स्थित इति नास्माकमद्यावधि दृग्गोचरीभूतः। ईशवीयषोडश
शतकसमुद्भ तस्य मैथिलकवेर्दामोदरस्य । (१२) वाणीभूषणं नाम छन्दोग्रन्थस्तत्कालीयमिथिलाशासकानाम् ओइनवार
वंश्यानां राज्ञां प्रशस्तिपद्योदाहारणैर्युतो विदुषां मनोहारी। नातोऽधिकाश्छन्दोग्रन्थाः सम्प्रति समुपलब्धा इति प्रतिभाति ।
प्रकृतग्रन्थस्य विशेषः प्रकृतमिदं कलिकालसर्वज्ञेन पूज्यश्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरेण कृतं छन्दोऽनुशासनं यद्यपि पूर्वाचार्याणामेव शैलीमनुसरति, तथापि स्वकीयां विशिष्टतां बिभ्रत् मौलिकतां न जहातीत्यविवादम् । अयं च ग्रन्थ: सूत्रमयलक्षणः स्वकृतोदाहरणैश्छन्दोनामाङ्कितैस्तथानिबद्धो यथा व्युत्पित्सूनामतीवसारल्यमावहति । छन्दसां नामानि यथासम्भवं पूर्वाचार्यग्रन्थप्रसिद्धान्येव स्थापितानि । यत्र च केनाप्याचार्येण सह भेदः सोऽपि सूचितः-यथा भरतेन सह नामविसंवादस्तत्र तत्र बाहुल्येन सूचितः ।
यद्यपि प्रस्तारक्रमेणैकैकजातेः कोटिशोऽपि भेदाः सम्भवन्तीति तत्र तत्र प्रद्योते सूचितमेव । तथापि प्रस्तारान्तर्गता एव भेदा: कविभि: स्वमहाकाव्या
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[ ]
न
दिषु अन्यत्र वा प्रयुक्ता ये च पठ्यमानाः श्रूयमाणा वा कर्णसुखमुत्पादयन्ति त एव भेदा इह लक्षिता:, इति कारणादेव लक्षितच्छन्दसां संख्यायाः कोऽपि क्रमो वात्रावलोक्यते । एषैव च रीतिरन्येषामपि छन्दोलक्षणकर्तृणामिति नायं विशेषः । यथैकस्या त्रिष्टुब्जातेः भेदा: प्रकृतग्रन्थे अष्टाविंशतिः, पिङ्गलछन्द:शास्त्रे द्वादशभेदा एव लक्षिताः । कचिदितोऽपि न्यूना अधिका वा । तावता कस्यापि ग्रन्थस्य न्यूनत्वमाधिक्यं निर्णेयम्, किन्तु ग्रन्थकर्तु बहुद्रष्टृत्वमल्पद्रष्टत्वं च परापतत्येव । तादृशविचारे च क्रियमाणे पूर्वेभ्य आचार्येभ्यः, परेभ्यश्चायं विशिष्यते यथासम्भवमधिकभेदोपदर्शकत्वात् । तथा च दण्डकप्रकरणं नैतावदुपबृंहितमन्यैर्यथा प्रकृतग्रन्थकर्त्रा । किञ्च सर्वस्य छन्दसः स्वयमुदाहरणोपन्यासोऽपि पूर्णरूपेण नापरत्र दृश्यते । पिङ्गल छन्दःशास्त्रादी चोदाहरणानि टीकाकृद्भिरेवोपन्यस्तानि । ग्रन्थस्यास्यान्यग्रन्थेभ्यः : तुलनारूपेण सम्यगालोचने तु प्रस्तावनाया अस्याः कलेवरं बहुलीभूतं स्यादिति तत्परित्यक्तम् । विवेचकैः स्वयमेव परस्परमेलनेन परिज्ञातुं सुशकमित्यस्माकं विश्वास: ।
प्राकृत भाषा च्छन्दोविषये तु अयं प्रशस्यतर एव । यतः प्राकृत छन्दांसि मुख्यतया प्राकृतपिङ्गले लक्षितानि । किन्तु तत्र संस्कृतेऽपि व्यवह्रियमाणानां छन्दसां लक्षणानि प्राकृतभाषयैवोपनिबद्धानीति प्राकृतानभ्यासजुषां सम्यगुपकाराय न भवन्तीति सम्प्रति तत्पठनपाठने वैरल्यं जातम् । वृत्तजातिसमुच्चये 'विरहाङ्क' कृतेऽपि प्राकृतच्छन्दसां विचारः समुपलभ्यते, किन्तु स ग्रन्थो विरलप्रचार इति नोपकर्ता लोकानामिति विज्ञायते । स्वयम्भूच्छन्दसोऽप्येषैव गतिरिति प्राकृत छन्दोविषयेऽयमेव ग्रन्थः कल्पवृक्षायत इति निर्विवादम् ।
ग्रन्थकर्तृ' परिचयादिः
कलिकालसर्वज्ञाः सर्वतन्त्रस्वतन्त्रगतय आचार्यहेमचन्द्रसूरयो बहुतरनिबन्ध रचयितारः सर्वजनविदिताः, राजद्वय सम्मानिततया च निर्णीतसंसार स्थितिसमयाश्चेति तेषां समयनिरूपणाद्यर्थमन्यमिव बहुत्रैविस्तरेण विचारितमितीदानीमिह न तत् प्रपञ्च्यते । एतच्चानुशासनं तेषां प्रधानकृतिषु तृतीयां
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________________
[
ण
]
पुरमारूढमिति 'सिद्धशब्दकाव्यानुशासनः' इति मङ्गलश्लोकस्थस्ववचसैव प्रमाणितम् । ___एवं च सर्वशास्त्रोपकारकतया पूर्वशब्दानुशासनानां च न्यूनातिरेककठिन्यादिदोषदुष्टतया सकलसंस्कृतमहोदधिप्रविविक्षजनतोपकारार्थं शब्दानुशासननिरूपणकार्य संसाध्य, ततः परं सुखपूर्वकचतुर्वर्गफलप्राप्त्यादिरूपप्रयोजनं काव्यं व्याचक्षाणः काव्यानुशासनं सर्वाङ्गपूर्णं रचयामासेति शब्दकाव्यानुशासनयोः पूर्वापरचर्चया निर्णीतम् । काव्यानुशासनविरचनानन्तरं काव्योपयोगिछन्दसां निरूपणं स्मृतिपथमारूढमुपेक्षानह चेति तदनुशासनमिदं पूर्वानुशासनानुगतमपि पूर्व प्रदर्शितदिशा स्वकीयं वैशिष्ट्य बिभ्रद् अतिसरलपद्धत्या प्रकाशितम् । तदपि परानुशासनानुगतमपि न मौलिकतां जहातीत्यावेदितमेव । प्राध्यापकवेलङ्करसम्पादिते जयदामनामनि वृत्तकुमुमोच्चये जयदेवच्छन्द:-जयकीतिकृतच्छन्दोनुशासनम् -- केदारविरचितवृत्तरत्नाकरः - आचार्यहेमचन्द्रविरचित - छन्दोनुशासनम् - इति ग्रन्थचतुष्टयसङ्ग्रहरूपे - एतच्छन्दोऽनुशासनसूत्राण्येव प्रकाशितानि । तत्र प्रत्यध्यायं - 'आचार्यहेमचन्द्रानुस्मृतेच्छन्दोऽनुशासने' इत्येवं लेखेनास्य स्मृतिरूपत्वं प्रकटितम्-अन्यत्र च "इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञच्छन्दोऽनुशासनवृत्ती" इत्येवमुल्लेखो दृश्यते । तथा च सूत्राणां स्मृतिरूपत्वेन न नूतनोद्भावितत्वं, वृत्तेश्च नूतनत्वमित्यायाति, अत्र किं तत्त्वमिति परीक्षकैः शोधनीयम् ।
टीकाकर्तृपरिचयः । जगद्गुरु - शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवति-तपोगच्छाधिपति-विविधतीर्थोद्धारक - परमपूज्यचार्यप्रवर-श्रीविजयनेमिसूरीश्वरपट्टालङ्कराः व्याकरण - वाचस्पति - कविरत्न - शास्त्रविशारदेत्यादिपदवीविभूषिताः सप्तलक्षश्लोकाधिकपरिमितख्याकग्रन्थसम्पादकाः प्रगुरुदेवाः पूज्या: श्रीविजयलावण्यसूरीश्वराः छन्दोनुशासनस्योदाहरणादिसहितस्य सकलजनसुबोधतामापादयितुं प्राञ्जलया नातिसंक्षेपविस्तरया च सरण्या प्रद्योतनामकमिदं व्याख्यारत्नं कृत्वा बहूपकृतवन्तो जिज्ञासूनामिति टीकादर्शनेनैव प्रकटीभविष्यति सर्वेषामिति
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________________
[ त ]
तद्विषये बहुलेखनमनावश्यकं मन्ये। एतेषां जन्म भाद्रकृष्णषष्ठ्या १६५३ मिते विक्रमवत्सरे सौराष्ट्रजनपदान्तर्गते बोटादनगरेऽभूत् । आषाढशुक्लपञ्चम्यां १९७२ तमे विक्रमवत्सरे राजस्थानान्तर्गते सादडीग्रामे च दीक्षिता एते । महादीक्षा च एतैः मार्गशुक्लपञ्चम्यां १९७३ मिते विक्रमवत्सरे लधा। कातिककृष्णद्वितीयायां अमदाबादे १६८९ विक्रमवत्सरे प्रवर्तकपदमाप्तम् । मार्गशुक्लाष्टम्यां १६६० विक्रमवत्सरे भावनगरे सौराष्ट्रान्तर्गते गणिपदमुपलब्धम् । मार्गशुक्लदशम्यां १९६० तमे विक्रमवर्षे भावनगर एव पन्यासपदमपि गताः। ज्येष्ठकृष्णनवम्यां १९९१ तमे विक्रमवर्षे चोपाध्यायतया ख्याताः महुआनगरे सौराष्ट्रान्तर्गत एव। वैशाखशुक्लचतुर्थ्यां १९६२ तमे विक्रमवर्षे चाचार्यपदमलङ्कृतम् । दैवदुर्विपाकाच्च सर्वथा ग्रन्थादिरचनासामर्थ्य भाजोऽपि सततं यथोपलब्धसमयस्य तदर्थमेवोपयोगं कुर्वाणा अपि शरीरशथिल्यात् २०२० विक्रमवत्सरे फाल्गुनकृष्णनवम्यां राजस्थानान्तर्गत (राणावतों का)खि माडा ग्रामे दिवमगमन् ।
एतश्च सर्वशास्त्रप्रविष्टप्रखरमतिभिः समयानुसारं लोकानां मतिवैभवमान्द्यमवलोक्य शास्त्रीयग्रन्थानां च सर्वजनसुखसंवेदनीयतासिद्धयर्थं तद्वयाख्याने स्वसमय उपयुक्तः । सर्वतोऽधिकं पू० आचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरविरचित-सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनीय-स्वोपज्ञशब्दमहार्णवन्यासस्य देवयोगाद् यत्र तत्र बहुत्रुटितस्यानुसंधानं तदीयप्रकाशनव्यवस्थापनं च विधाय महदुपकृतं शासनस्येति सर्वविदितमेव । एवं काव्यानुशासनस्यापि सवृत्तिकस्य टीका महता सौष्ठवेन विरचिता साऽपि भागशः प्रकाशिता प्रकाशयिष्यमाणा च । तृतीयमिदं छन्दोऽनुशासनमपि दुख्यिाविषमूच्छितव्याख्यातं वा न तिष्ठेदित्येतस्यापि टीका रचितव। परं विधिगतिवशतो नास्य प्रकाशनं तैः स्वाग्रे सम्पादितमभूदिदिति खेद एव विदुषां, येन चात्र पुनस्तेषां दृष्टिपातः सम्यङ् नाभूत् ।
सम्पादकस्य निवेदनम् मया प्रगुरुवराणां तेषां कृपादृष्टिपूतेन यथामतिविभवमस्य सम्पादनं कृतमपि, अस्थिरनिवास-बहुतरलोकप्रभावनादिकार्यचञ्चलेन कियत्तत्र पारितमिति
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निर्णतं पाठका एव प्रमाणम् । किन्तु मुद्रणपूर्वरूपानवलोकनजन्यमशुद्धीनां बाहुल्यं पश्चादृष्टिपथमारूढम् । पुस्तकस्यास्य पुनर्मुद्रणं विना लोकदृष्टिपथप्रापणमनुचितमिति विचार्य किंकर्तव्यमूढेन किञ्चिन्नि”तुमपारयता, कृतस्य व्ययस्य नष्कल्यं मा भूदिति भक्तजनप्रेरणामधिगत्य द्वितीयाध्यायान्त एव भागः सम्प्रति प्रकाशितः । सति सर्वथा विश्वसनीयशुद्धमुद्रणप्रबन्धेऽग्निमोऽपि ग्रन्थो यथासम्भवं झटित्येव लोकदृष्टिपथमवतारयिष्यत इति विश्वसिमि ।
अत्र यद्यपि शुद्धिपत्रमपि योजितम्; किन्तु तदल्पकलेवरमिति तत्र सर्वासामशुद्धीनां परिमार्जनमसम्भवमासीदिति घ-धयोः, भ-मयो, ब-वयोः परस्परव्यत्ययः, अनुस्वार-विसर्ग-रेफादीनां त्रुटेराधिक्यम् वा स्थूलतरमशुद्धं विभाव्य न परिहृतम् । किञ्च लक्षणसमन्वयस्थले प्रायः त्रुटेरधिकस्थानेऽस्ति। तदीयपरिमार्जनमपि क्लेशावहमिति तदपि प्राय: परित्यक्तमेव । अक्षरस्यातिलघुतया दृष्टिच्युतिदोषजा अपि बहुतराशुद्धयः शोधनेन वञ्चिताः सम्भाव्यन्त इति ताः सर्वा अपि गुणग्रहणपरः सुधीभिः स्वयमेव संशोध्य व्यवहर्तव्या इति विनतः प्रार्थयेयमित्यतोऽन्यन्न किमपि तत्परिमार्जनसाधनम् ।
यथावस्थमेतत्पाठकानां पुरतः स्थापयतो ममतावानेव हों यत्परमगुरूणां तेषां परिश्रमः जनानां किश्चिदप्युपकुर्वन्, निर्वाणपदमास्थितानामपि तेषां चेतसि परमं प्रमोदमाधास्यतीति ।
अन्ते च
"गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव न संशयः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥"
इति सूक्तिमवलम्ब्य समाधानं सम्भावयन् सन्तोषमासादयामि ।
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अस्य च प्रकाशने साहाय्यं कृतवतां श्रेय:परम्परां हृदयेनाशंसमानस्तेषां धर्मभावनायाः कर्तव्यभावनाया वा संवर्धनाय परमेशमभ्यर्थये । अस्य प्रकाशयित्र्याः समितेः सम्यानामपि कृते शतशो धन्यवादाः शुभाशंसाश्चेति शिवम् ।
वीरसंवत् २४९४. - लेखकविक्रमसंवत् २०२४
शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवत्ति · तपो. चैत्रशुक्ला त्रयोदशोतिथिः,
| गच्छाधिपतिश्रीविजयनेमिसूरीश्वर - गुरुवारः ।
स्य पट्टालटार • व्याकरणवाचस्पति - दिनाङ्क ११-४-६८ [श्रीमहावीरप्रभोः जन्मकल्याणक
शास्त्रविशारद • कविरत्न : श्रीविजयदिवसः ]
लावण्यसूरीश्वरस्य पट्टधर - शास्त्र -
विशारद · कविदिवाकर - व्याकरणरत्न • स्थानम्
श्रीविजयदक्षसूरीश्वरस्य पट्टधर • - राजस्थानान्तर्गतमरुधरस्थं शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण....श्रीराणकपुरमहातीर्थम्
विजयसुशीलसूरिः
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.
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासने
विषयानुक्रमणिका
प्रथमा
rMM2M
3 = = = = = = 4 ..
विषय प्रद्योतकारमङ्गलाचरणम् ___अथ प्रथमोऽध्यायः । सावतरणमङ्गलाचरणम् वर्णगणनिरूपणम् मात्रागणनिरूपणम् समानानां संख्यात्वसङ्केतः ह्रस्वस्य ल्संज्ञा, प्रस्तारे तत्स्वरूपं च ह्रस्वस्य पादान्ते गुरुत्वम् , गुरोः .
प्रस्तारे स्वरूपं च ह्रस्वस्य जिह्वामूलीयादिपरत्वे गुरुत्वम् दीर्घप्लुतयोगे संज्ञा गुरोद्विमात्रत्वकल्पनम् प्राकृते एदोतोर्ह स्वत्वम् सामान्यतो वृत्तचतुर्थांशस्य पादसंज्ञा वर्षच्छन्दसां वृत्तसंज्ञा समाधसमविषमवृत्तनिरूपणम् .
.
. 2.
2
= = = = = 6
M
.
२६
२२
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________________
विषय
यति निरूपणम् त्र्यादिसंख्यानां गादिसंज्ञा
अथ द्वितीयोऽध्यायः
छन्दोऽधिकारः
पादाधिकारः
[ न ]
उक्ता जातिः एकाक्षरा एकैकवर्णवृद्धया प्रत्युक्तादिजातिः एकगुरुरूपपादा उक्ता 'श्री' एका सोदा० गुरुद्वयपादा प्रत्युक्ता, द्विभेदा 'स्त्री' 'दुःखं' च १. उक्ताजातौ श्रीरित्येकं वृत्तं सोदाहरणम् २. वर्णद्वयपादाया प्रत्युक्ताया भेदत्रयं, - 'स्त्री', 'दुखं' 'सुखम् '
३. वर्णद्वयपादाया मध्यमायाश्चत्वारो भेदा:'नारी' 'केशा' 'मृगी' 'मदनः '
४. वर्णचतुष्टयपादाया प्रतिष्ठाया भ्रष्टौ भेदा:कन्या, सुमुखी, विलासिनी, समृद्धि:, मृगवधूः, व्रीडा, सुमति, सोमप्रिया इति
५. वर्णपञ्चकपादायाः सुप्रतिष्ठाया दशभेदा:प्रीतिः, विदग्धकः, पङ्क्तिः, रतिः, सती, नन्दा, जया, सावित्री, घनपङ्क्तिः, अभिमुखीति ६.. वर्णषट्कपादाया गायत्र्याः ऊनविंशतिभेदा:सावित्री, तटी, रमणी, तनुमया, गुरुमध्या, सोमराजी, शशिवदना, मालिनी, कामलतिका,
पृष्ठे
२८
४८
५०
५०
५१
५२
५३
५४
५३
५५
५८
६१
पंक्ती
१
२२
ܗ
१
१६
११
१
१६
१२
१६
२०
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________________
८.
[ प ]
विषय
मुकुलम्, शफरिका, कच्छपी, लघुमालिनी, विमला, जला, सुनन्दा, विक्रान्ता, सूचोमुखी, शिखण्डिनीति
७. सप्ताक्षरपादाया उण्णिहो विंशतिर्भेदा:-. गन्धर्वी उष्णिक्, कुमारललिता, मदलेखा, उद्धता, भ्रमरमाला, हंसमाला, कलिका, विधुवक्त्रा, सरलम्, चित्रम्, हरिविलसितम्, शारदी, मधुकरिका, विमला, सुभद्रा, कुमुद्वती, मुदिता, मनोज्ञा, दीप्ते ति अष्टाक्षरपादाया अनुष्टुभः षोडशभेदा:विभा, अनुष्टुब्, विद्युन्माला, चित्रपदा, सुमालती, माणवकं, नाराचम्, हंसरुतम्, ललितगतिः, सिंहलेखा, प्रमाणी, समानी, गुणलयनी, मही, रतिमाला, वितानमिति ६. नवाक्षरपादाया बृहत्या ऊनविंशतिभेदा:वक्त्रं, बृहतिका, हलमुखी, भुजगशिशुसृता, उदयम्, उत्सुकम्, भद्रिका, उपच्युतम्, अक्षि, कनकम्, तारम्, सौम्या, रुचिरा, विशाला, मकरलता, शशिलेखा, लघुमणिगुणनिकरः, सिंहाक्रान्ता, कामिनीति
1
१०. दशाक्षरपादायाः पङ्क्तेर्भेदा विंशतिः - मत्ता, पङ्किका, शुद्धविराट् पणवः, मयूरसारिणी,
पृष्ठे
६५ १७
७५
८५
पंक्तौ
६६
१
१६
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________________
विषय
__ पृष्ठे पंक्ती त्वरितगतिः. रुक्मवती, चित्रगतिः, निलया, उषिता, मणिरङ्गः, बन्धूकम्, मनोरमा, उपस्थिता, कलिका, मृगचपला, कुमुदिना, उद्धतम्, विपुलभुजा, मालेति
१०६ १८ ११. एकादशाक्षरपादायास्त्रिष्टुभोऽष्टाविंशति -
अंदा:- रोचकम्, अच्युतम्, लयग्राहिः, दोधकम्, विदुषी, श्रीः, उपस्थिता, उपस्थितम्, वातोर्मी, ( अस्या भेदद्वयम् ) भ्रमरविलसितम्, वृन्ता, पतिता, रथोद्धता, स्वागता, भद्रिका, श्येनी, सुमुखी, एकरूपम्, मोहनकम्, उत्थापनी, मुखचपला, कमलदलाक्षी, अशोका, सारणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवनेति इह संकररूपा उपजातिः १४ चतुर्दशधा तस्या एकमुदाहरणं वृत्तौ। त्रयोदशोदाहरणानि प्रद्योते
१३६ १६ न केवलमिन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोः, इन्द्रवंशा
वंशस्थयोरेव सङ्करोऽपित्वन्यजातीनामपीति १५०५ १२. द्वादशाक्षरपादाया जगत्या जातेः षट्
त्रिंशद्भेदाः-इन्द्रवंशा, वंशस्थम्, कलहंसा, चन्द्रवर्त्म, तोटकम्, द्रुतविलम्बितम्, पुट:, ततम्, उज्ज्वला, कामावतारः, कुसुमविचित्रा, जलोद्धतगतिः, भुजङ्गप्रयातम्, स्रग्विणी,
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________________
..
पृष्ठे
पंक्ती
२६
.. विषय मौक्तिकदाम, कल्याणम्, प्रियंवदा, ललिता, प्रमिताक्षरा, वैश्वदेवी, जलघरमाला, नव-, मालिनी, मालती, प्रमुदितवदना, प्रभा, तामरसम्, विभावरी, कुमुदिनी, ललना, कामदत्ता, मेघावली, पुष्यविचित्रा, मणि
माला, केकिरवम्, ह्रोः, कोल इति १५३ १३. त्रयोदशाक्षरपादाया अतिजगत्या: षड्विंशति
अंदा:-उर्वशी, सुवक्त्रा, अङ्गरुचिः, प्रहर्षिणी, रुचिरा, मत्तमयूरम्, क्षमा, श्रेयोमाला, कुटिलगतिः, क्षमा, चन्द्रिणी, चन्द्रिका, मञ्जुभाषिणी, चन्द्रलेखा, लयः, विद्युन्मालिका, नन्दिनी, मदललिता, कुटजम्, गौरी, लक्ष्मीः , अभ्रकम्, कोटुम्भः, सुदन्तम्, कमलाक्षी,
त्वरितगतिरिति १४. चतुर्दशाक्षरपादाया शक्वर्या द्वाविंशतिर्भेदा:
अपराजिता, अलोला, प्रहरणकलिता, करिमकरभुजा, वसन्तः, लक्ष्मी:, जया, ज्योत्स्ना, सिंहः, राजरमणीयम्, असम्बाधा, वसन्ततिलका, वलना, सुकेसरम्, उपचित्रम्, धृतिः, दर्दुकः, स्खलितम्, इन्दुवदना, शरभललितम्, शरमा कुटिलमिति
१६४
१७७
२२
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________________
पंक्ती
२१०
१४
विषय १५. पञ्चदशाक्षरपादाया अतिशक्वर्याः एक
विंशतिर्भेदा:- ऋषभः, शशिकला, सक्, मणिगुणनिकरः, मालिनी, चन्द्रोद्योतः, उपमालिनी, चित्रा, चन्द्रलेखा (अस्या द्वितीयः प्रकारः), एला, प्रभद्रकम्, तूणकम्, कलभाषिणी, सुन्दरम्, गौः, भोगिनी, शिशुः, केतनम्, मृदङ्गः, कामक्रीड़ेति षोडशाक्षरपादाया अष्टिजातेस्त्रयोविंशतिर्भेदा:-मणिकल्पलता, शरमाला, संगतम्, कामुकी, (अस्याः प्रकारान्तरम् ), चलधृतिः, अचलधृतिः, अङ्गना, ऋषभगजविलसितम्, ललितपदम्, जयानन्दम्, महिषी, मदनललिता, वाणिनी (अस्या अन्यः प्रकारः), पञ्चचामरम्, चित्रम्, सुरतललिता, शैलशिखा, वरयुवतिः, ललना, वेल्लिता,
कोमललतेति । १७. सप्तदशाक्षरपादाया अत्यष्टेः चतुर्दशभेदा:
शिखरिणी,पृथ्वी,वंशपत्रपतितम्,अतिशायनी, मन्दाकान्ता, भाराक्रान्ता, हारिणी, हरिणी, पद्मम्, रोहिणी, वसुधारा, अवितथम्,
कोकिलकम्, वाणिनीति १८. अष्टादशाक्षरपादाया धृतेरेकविंशतिर्भेदाः
काञ्ची, मणिमाला, कुसुमितलतावेल्लिता,
२२५
५
२४३
१
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________________
२५४
२३
.. विषय चित्रलेखा, चन्द्रलेखा, चलम्, केसरम्, चन्द्रमाला, ललितम्, भ्रमरपदम्, शार्दू लललितं, कुरङ्गिका, अनङ्गलेखा, उज्ज्वलम्, निशा, पङ्कजवक्त्रा, सुरभिः, क्रीडा, हरिणीपदम्
भङ्गिः , बुबुदम्-इति १६. ऊनविंशत्यक्षरपादाया अतिधृतेस्त्रयोदशभेदाः
शार्दूलविक्रीडतम्, वायुवेगा, मकरन्दिका, छाया, रतिलीला, पुष्पदाम, वञ्चितम्, मुग्धकम्, ऊजितम्, तरलम्, माधवीलता,
तरुणीवदनेन्दुः, सुवदना इति २०. विंशत्यक्षरपादायाः कृतेरेकादशभेदा:
सुवदना, वृत्तम्, भत्तेभविक्रीडितम्, मुद्रा, शोभा, चित्रमाला, सद्रत्नमाला, नन्दकम्, कामलता, दीपिकाशिखा, शशाङ्करचितम्
२७२
७
इति
२८३
एकविंशत्यक्षरपादायाः प्रकृतेरष्टौ भेदा:स्रग्धरा, कथागतिः, ललितविक्रमः, मत्तक्रीडा, चन्दनप्रकृतिः, सिद्धिः, वनमञ्जरी, तरङ्गः,
भद्रकम्-इति. २२. द्वाविंशत्यक्षरपादाया प्राकृतेः पञ्चभेदा:: मद्रकम्, महास्रग्धरा, मदिरा, वरतनुः, ___. दीपचिरिति
२६३
२६६
२५
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________________
पंत
२५
७
विषय
पृष्ठे २३. त्रयोविंशत्यक्षरपादाया विकृतेः सप्तभेदा:
अश्वललितम्, मत्ताक्रीडा, शङ्खः, हंसगतिः,
चित्रकम्, चपलगतिः, वृन्दाकरम्, इति ३०४ २४. चतुर्विशत्यक्षरपादाया: संकृतेः सप्तभेदाः
तन्वी, ललितलता, मेघमाला, सुभद्रम्,
द्रुतलघुपदगतिः:, संभ्रान्ता,विभ्रमगतिः-इति ३११ २५. पञ्चविंशत्यक्षरपादाया अभिकृतेश्चत्वारो
भेदा:-कौञ्चपदा, हललयः, हंसपदा, चपलम् इति
३१८ २६. षड्विंशत्यक्षरपादाया उत्कृतेः पञ्चभेदाः
भुजङ्गविजृम्भितम्, अपवाहः, आपीडः, वेगवती, सुधाकलश इति
३२२ २७-३०. सप्तविंशत्यक्षरपादामारभ्य त्रिंशदक्षर
पादान्ताः शेषजातयः पञ्च-मालाचित्रम्, प्रमोदमहोदयः, नृत्तललितम्: ललितललिता, पिपीलिकेति
३२७ ३५-४५ शेषजाती -पञ्च- दश - पञ्चदशाक्षरवृद्ध
पादा:-करभ-पणव-मालाः दण्डकजातिषु सप्तविंशत्यक्षरपादा चण्डवृष्टि: ३३८ पत्रककरगणवृद्धया-अर्ण-अर्णव-व्याल-जीमूतलीलाकर-उद्घाम-शङ्खइत्यादयः
३४० प्रचितो दण्डकः
३५०
५
१३
३३४
१
१०
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पृष्ठे
पंक्ती
३५२ ३५५
विषय पन्नग-दम्मोलि - हेलावली - मालती - केलि___ कङ्केल्लि-लीला-विलास इत्यादयो दण्डकाः चण्डकालो दण्डक: सिहविक्रान्तो दण्डकः मेघमाला दण्डकः मत्तमातङ्गो दण्डकः कुसुमास्तरणो दण्डक: सिंहविक्रीडो दण्डक: अनङ्गशेखरो दण्डका अशोकपुष्पमञ्जरी दण्डकः कामबाणो दण्डक: भुजङ्गविलासो दण्डकः उत्कलिका दण्डक:
३५६ ३५७ ३५६ ३६०
३६१
३६२ ३६३ ३६५१
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स्वर्गस्थ पू० आ० श्रीविजय लावण्यसूरीश्वरभोना पट्टधर शास्त्रविशारद - कविदिवाकर-व्याकरण रत्न पू० आ० श्रीविजयदक्षसूरीश्वरजी महाराज
जन्म - वि० सं० १९६८ भाद्रपद सुद १४ महेसाणा (गुजरात) दीक्षा- वि० सं० १९८७ मागशर वद २ करेडातीर्थ (मेवाड़) बड़ी दीक्षा - वि० सं० १६८७ महा सुद ६ उदयपुर (मेवाड़) गणिपद- वि० सं० २००० कार्तिक वद ६ वेरावल (सौराष्ट्र) पंन्यासपद - वि० सं० २००७ वैशाख सुद ३ अमदाबाद (गुजरात) उपाध्यायपद- वि० स० २०१६ कार्तिक वद ३ वलभीपुर (सौराष्ट्र ) आचार्यपद - वि० सं० २०१६ वैशाख सुद ६ वराडा (राजस्थान)
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........ ......... पू० आ० श्रीविजयदक्षसूरीश्वरश्रीना पट्टधर
शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण पू० आ० श्रीविजयसुशीलसूरीश्वरजी महाराज
जन्म-वि० सं० १९७३ आसोज सुद १२ चाणस्मा (गुजरात) दीक्षा-वि० सं० १९८८ कार्तिक वद २ उदयपुर (मेवाड़) बड़ी दीक्षा-वि० सं० १९८८ महा सुद ५ सेरसातीर्थ (गुजरात) गणिपद-वि० सं० २००० कार्तिक वद ६ वेरावल (सौराष्ट्र) पन्यासपद-वि० सं० २००७ वैशाख सुद ३ अमदाबाद (गुजरात) उपाध्यायपद-वि० सं० २०२१ महा सुद ३ मुंडारा (राजस्थान) आचार्यपद-वि० सं० २०२१ महा सुद ५ मुंडारा (राजस्थान)
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सुवृत्तवदनचन्द्राय श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राय नमो नमः ।। आशशवशीलशालिने श्रीनमीश्वराय नमो नमः ॥ अप्रतिमप्रतिभाभासुरेण प्रौढप्रतापशालिना कलिकालसर्वज्ञेन परमाहतकुमारपालभूपालमौलिलालितचरणरेणुना भगवता श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरेण विरचितं ma...स्वोपजवृत्तिसमलकृतmmms है छन्दोऽनुशासनम् ॥
तदुपरि चतपोगच्छाधिपति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसम्राटजगद्गुरु-श्रीविजयनेमिसूरीश्वरपटालङ्कारेण 'व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न' इति पदालंकृतेन श्रीविजयलावण्यसूरिणा
प्रणीत:
प्रद्योतः गोभिर्दोषानुषतां तततिमिरतति लीलयाऽलं लुनानं, सच्चक्रानन्दनिष्णं निखिलकुवलयोल्लासदं ध्वस्तजाडयम् । लोकानां बान्धवत्वं निखिलतनुयुतमित्रभावं वधानं, वन्दे देवेन्द्रवन्धं समविदमनघं श्रीजिनेन्द्र दिनेन्द्रम् ॥१॥ क्षमापालालिघीशालि-लालिताििङ्घ्रसरोरुहम् । निबन्धालिप्रसूनालि-मालाकारं गुणालयम् ॥२॥ कलिकाले च सर्वज्ञ, पारीन्द्रं वादिदन्तिषु। सूरीन्द्रं हेमचन्द्र तं, कस्को हिं न नमेत् सुधीः ॥३॥ युग्मम् ॥ नौमि श्रीनेमिसूरीशं, गुरुराजं जगद्गुरुम् । सर्वतन्त्रस्वतन्त्रं च, जन्मतो ब्रह्मचारिणम् ॥४॥ द्विषापि हि सुशीलाय, पल्यासाय कृते मुदा। तन्यते किल प्रद्योतः, श्रीमल्लावण्यसुरिणा ॥५॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० १, सू० १.]
अथ प्रथमोऽध्यायः ।
अर्ह ।। शब्दानुशासनविरचनानन्तरं तत्फलभूतं काव्यमनुशिष्य तदङ्गभूतं छन्दोऽनुशासन मारिप्समानः शास्त्रकार इष्टाधिकृतदेवतानमस्कारपूर्वकमुपक्रमतेवाचं ध्यात्वाऽऽहंतीं सिद्धशब्द- काव्यानुशासनः । काव्योपयोगिनां वक्ष्ये, छन्दसामनुशासनम् ॥१॥
अर्हद्भिः कृता " कृते " [ सिद्धहे ० ३. ३. १६२. ] इत्यणि- आर्हती वाक् द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् । यद्यपि द्वादशाङ्गी सूत्रतो गणधरैनिर्ममे, तथापि तदर्थस्यार्हदुपदिष्टत्वादार्हतीत्युच्यते । यदाह
"अत्थं मासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।" [ १. १ ] ॥ इति । सूत्रमपि चाचिन्त्यार्ह त्प्रभावादेव गणधरैर्ग्रथ्यत इत्यार्हत्येव वागिति न विरोधः । सिद्धं प्रतिष्ठां प्राप्तं, शब्दानां - नामा -ऽऽख्यादिभेदानां प्रकृति-प्रत्ययादिविभागेन, काव्यस्य च गुणा - sऽलङ्कारादिविवेचनेन पूर्वाचार्य शासनस्यानु - पश्चात्, शासनं - सन्दर्भो यस्य स सिद्धशब्दकाव्यानुशासनः । ध्यानं - प्रणिधानम्, तच्चेह मानसो नमस्कारः । काव्योपयोगिनामिति - गद्यकाव्ये न छन्दसामुपयोग इत्यर्थात् पद्यं काव्यमिह गृह्यते, उपयोगः - साहायकं वृत्तसंशयच्छेदादिना, यदाह"छन्दोविचितेर्वृत्तसंशयच्छेदः" [१२] ॥
इदमभिधेयप्रयोजनम् । काव्योपयोगाभावाच्च न वैदिकानि छन्दांसीह लक्षयिष्यन्ते । छन्दसामिति - कर्मणि षष्ठी, चन्दनादाह, लादनात् छन्दांसि वर्ण-मात्रानियमितानि वृत्तानि तेषाम् । अनुशिष्यतेऽनेनेति - अनुशासनं शास्त्रम् । वक्ष्य इति - तृतीयत्रिकप्रयोगाद् ' अहम् " इति लभ्यते । ननु भवतु 'वाचं ध्यात्वार्हतीं' इतीष्टदेवतास्तुतिः, अधिकृतदेवतास्तुतिस्तु कथमियम् ? नह्यधिकृतानि छन्दांसि अर्हत्प्रणीतानि; मैवं वोचः, न हि सूक्तं किश्विदर्हतामुपदेशमन्तरेण जगत्यस्ति, यत् सिद्धसेनः
"सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः ।
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[अ० १, सू० १.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
तवैव ताः पूर्वमहार्णवोडता, जगत्प्रमाणंजिनवाक्यविषाः ॥" [१-३] । इति सर्वमवदातम् । अनेन च श्लोकेन शब्द-काव्य-च्छन्दोऽनुशासनानामेककर्तृत्वमुक्तम् ॥ सू-१॥
अथ प्रथमोऽध्यायः । प्रद्योतः-स्वोपज्ञछन्दोऽनुशासनस्य वृत्तिमारिप्समानः शिष्टपरम्पराचारानुमितावश्यकर्तव्यताकं मङ्गलमाचरन् व्याख्यातृ-श्रोतृणामप्यनुषङ्गतो मङ्गलार्थ ग्रन्थादौ निबध्नाति कलिकालसर्वज्ञः सर्वतन्त्रस्वतन्त्रो भगवान् श्रीहेमचन्द्रसूरिराज:-'अहं' इति । इदं च पदं स्वयमेव व्याख्यातमाचार्येण स्वोपज्ञशब्दानुशासनस्य बृहद्वतो, तथाहि-'अहं'इत्येतदक्षरम् परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकम्, सिद्धचक्रस्यादिबीजम्, सकलागमोपनिषद्भूतम्,अशेषविघ्नविघातनिघ्नम्, अखिलदृष्टादृष्टफलसङ्कल्पकल्पद्रुमोपमम्, आशास्त्राध्ययनाध्यापनावधि प्रणिधेयम्, इति । एतेनैतत्पदस्य स्वरुपा-भिधेय-तात्पर्याणि संक्षेपतो निरूपितानि, अक्षरमिति हि स्वरूपकथनम्, 'परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकम्' इत्यभिधेयम्, सिद्धचक्रस्येत्यादि च तात्पर्यम् । 'अशेषविघ्नविघातनिघ्नम्' 'अखिलदृष्टादृष्ट फलसङ्कल्पकल्पद्रुमोपमम्' इति च विशेषणद्वयं प्रकृते तत्प्रणिधानस्य तदुल्लेखस्य च प्रयोजनस्फोरकम् । तथा च सकलविघ्नविघातपूर्वकं सङ्कल्पितग्रन्थसमाप्तितत्प्रचारादिदृष्टफलस्य, अध्येतृपरमपरातत्त्वज्ञानप्रयोजकतयाऽनुषङ्गतो जायमानपुण्योपचयरूपादृष्टफलस्य च कामनया परमरहस्यभूतस्यास्य प्रणिधानम्, शिष्या अप्येतत् कुर्युरिति शिक्षार्थ तदुल्लेखश्च कृत इति निगूढाशयः । 'अह" इत्यस्य ग्रन्थंघटकत्वमाश्रित्येदं व्याख्यानम् ॥ __ ग्रन्थादौ कृतस्य मङ्गलस्य पीठिकामारचयन् शब्दशास्त्राऽलङ्कारशास्त्ररचनानन्तरमस्य रचना मया कृतेति व्याख्यातृ-श्रोतृन् प्रति बोधयति-शब्दानुशासनविरचनानन्तरमित्यादिना, शब्दानामनुशासनस्य-सिद्धहेमशब्दानुशासननाम्ना प्रसिद्धस्य संस्कृत-प्राकृतव्याकरणशास्त्रस्य, विरचनं-ग्रन्थरूपेण प्रकाशनं तस्य अनन्तरम्- अव्यवहितोत्तरकालं, तत्फलभूतं तस्य-शब्दानुशासनस्य फलभूतं-प्रयोजनस्थानीयं, काव्यं कविकृतिविषयं गुणाऽलङ्कारादि, अनुशिष्य पूर्वाचार्यपरम्पराप्राप्तमार्गेणोपदिश्य, तदङ्गभूतं तस्य-काव्यस्य, अङ्गभूतं
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १.] शरीरसन्निवेशप्रकारप्रदर्शकतया समुपकारकं, छन्दोऽनुशासनं छन्दसाम्-उक्तादीनां वृत्तानाम्, अनुशासनं-पिङ्गलाचार्यादिपरम्पराप्राप्तस्यार्थस्य सङ्ग्रथनम्, आरिप्समानः आरब्धुमिच्छन् प्राथमिककृतिविषयतामानिनीषुरिति यावत्, शाखकारः प्रकृतच्छन्दोऽनुशासनरचयिता आचार्यः श्रीहेमचन्द्रसूरिः, इष्टाघिकृतदेवतानमस्कारपूर्वकम् इष्टा-पूज्यत्वेनेच्छाविषयीभूता च सा अधिकृतस्य-प्रकृतस्य वाङ्गमयरूपस्य ग्रन्थस्य, देवता-अधिष्ठात्री देवी, तस्या नमस्कारः-स्वावधिकोत्कृष्टत्वप्रकारकबोधानुकूलमानसिककायिकोभयव्यापार विशेषकरशिरःसंयोगादिरूपः, पूर्वः-प्रथमकृतिविषयो यथा स्यात् तथा कृत्वा, उपक्रमते क्रममारभते प्रवर्तत इति यावत् ।
अयमाशयः- सर्वस्यामिधेयस्य वागधीनतया पूर्व वाचः संस्काराय शब्दानुशासनमुपदिष्टम्, तदनु तत्प्रयोगविषयस्य काव्यस्य स्वरूपं गुणालङ्कारादयश्च काव्यानुशासने समुपदिष्टाः, काव्यं च गद्य-पद्यात्मकत्वेन द्विविधमिति पद्यरूपस्य, बहुशो गद्यरूपस्यापि तस्य छन्दोबद्धतया छन्दांस्यपि तदङ्गभूतानीति निरूपणीयतां प्राप्तानि, तन्निरूपणस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तिपूर्वकबहुतरप्रचाराय मङ्गलमाचरणीयमिति "आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि मङ्गलम्" इत्युक्ततया आशिषोऽपि देवतादिप्रसादाशंसनरूपतया देवादिनमस्कारलभ्यत्वेन वाचः प्रसराय वागधिष्ठात्र्या देवताया एव पूज्यत्वेनेष्टतया प्रकृतविषयाधिकृतत्वेन तन्नमस्कारमेव पूर्वमाचर्य तदनु ग्रन्थ आरम्यत इति ।
वाचमित्यादि । “सिद्धशब्द-काव्यानुशासनः [अहं] आर्हती वाचं ध्यात्वा काव्योपयोगिनां छन्दसाम् अनुशासनम् वक्ष्ये" इत्यन्वयः । पदार्थनिर्वचनपूर्वकं वाक्याथं विवृणोति-अर्हद्भिः कृतेत्यादिना। अर्हद्भिरिति-"अर्ह पूजायाम्" चतुस्त्रिंशतमतिशयान् सुरासुरादिकृतपूजां वा अर्हन्तीति-अर्हन्तः "सुग्द्विषा-ऽ हः सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये" [ सि० ५. २. २६. ] इति अतृश् प्रत्ययः, अरिहननात् रजोहननात् रहस्याभावाच्चेति वा-अर्हन्तः, पृषोदरादित्वात साधुः, तैरहद्भिः, तीर्थङ्कररित्यर्थः। कृता तत्त्वरूपेण गणधरादिभ्यः समुपदिष्टा -आर्हती "कृते" [ सि० हे० ६. १. १६२. ] इति सूत्रेण कृतार्थेऽणि विहिते मादिस्वरवृद्भौ स्त्रियामणन्तत्वात् डीप्रत्यये आर्हती इति सिध्यतीत्यर्थः, ताहशी या वाक् तामिति । का सा वाग् ? इत्याह-द्वादशाङ्ग गणिपि
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
५
[अ० १, सू० १.]
टकमिति - प्रवचनरूपपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादश अङ्गानि यस्य तद् द्वादशाङ्खं प्रवचनम्, यद्वा अङ्गशब्दस्य पात्रादिगणे वैकल्पिकपाठकल्पनात् द्वादशानामङ्गानां समाहार इति 'द्वादशाङ्गं द्वादशाङ्गी' इति रूपद्वयम् । अङ्गानि च द्वादशेमानि - १ आचाराङ्गम्, २ सूत्रकृताङ्गम्, ३ स्थानाङ्गम्, ४ समवायाङ्गम्, ५ भगवत्यङ्गम्, ६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्, ७ उपासकदशाङ्ग म्, ८ अन्त कृद्दशाङ्गम्, ६ अनृत्तरौपपातिकाङ्गम् १० प्रश्नव्याकरणाङ्गम् ११ विपाकाङ्गम् १२ दृष्टिवादाङ्गमिति, तदेतत् द्वादशाङ्गं गणिपिटकमित्युच्यते गुणानां साधूनां वा गणो विद्यतेऽस्येति-गणी आचार्य:, गणिर्वा साङ्गप्रवचनाध्येता, तस्य पिटकमिव सर्वार्थरत्नाधारत्वाद् गणिपिटकम्, तन्नाम्ना द्वादशाङ्गी गणिपिटकमुच्यते । यथा- पिटके तृणकाष्ठादिनिर्मिते पात्रविशेषे सर्वाणि प्रयोजनीवस्तूनि संगृह्यन्ते तथाऽत्रापि ऐहिकामुष्मिकफलप्रदानामागमानां संग्रह इति पिटकसंज्ञा सार्थिका ।
शय:
अत्र शङ्कते - यद्यपि द्वादशाङ्गी सूत्रतो गणघरै निर्ममे इति - अग्रे समुदुधियमाणप्रमाणानुसारं द्वादशाङ्गीसूत्राणि गणधरैर्निमितानीति प्रमीयते, ततश्च न सा आर्हती वागिति तस्या आर्हतीत्वेन निर्देशोऽनुचित इति शङ्का, तत्राह - तथापि तदर्थस्य अर्हदुपदिष्टत्वादार्हतीति उच्यते इति, अयमासूत्राणां गणधरकर्तृकत्वेऽपि तेषामर्हदुपदिष्टार्थानुसारित्वादर्ह तामेव तत्कर्तृत्वं युज्यत इति सा वागार्हत्येवेति बोध्यम् । उक्तार्थ आगमप्रमाणमाहयदाह - "अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं" [ १-१ ] इति- अर्थं भाषते अर्हन् सूत्राणि ग्रन्थन्ति गणधरा निपुणम्" इति संस्कृतम् । तेषामाहं तत्वे युक्तयन्तरमाह - सूत्रमपि चाचिन्त्यात्प्रभावादेवेत्यादि, गणधरेषु न स्वतस्तादृशः प्रभावो येन तथाविधानि सर्वविषयव्यापीनि सूत्राणि ग्रथ्यन्ते स्म किन्तु अचिन्त्यमहिम्नामर्हतामुपदेशस्यैव स प्रभावो येन ते ता दृशसूत्राणां निर्माणे प्रभवो जाता:, तथा च यत्प्रभावप्रभवत्वं तेषां सूत्राणां तदीयत्वमेव तेषु व्यवहर्तव्यमिति तेषामार्हतत्वेनोल्लेखो न विरुद्ध इत्यर्थः ।
'सिद्धशब्द- काव्यानुशासनः' इति पदं व्याचष्टे - सिद्ध प्रतिष्ठां प्राप्तमित्यादिना, न केवलं भूतकृतिविषयत्वं सिद्धत्वमपि तु प्रतिष्ठात्वेन प्रतिष्ठा च शिष्टसम्प्रदायमान्यता, तथा च निर्माणोत्तरकालमेव उभयोरनुशासनयोः शिष्ट
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० १ सू० १. ] परिगृहीतत्वं व्यज्यते, तेन चास्मिन्नपि वक्ष्यमाणे छन्दोऽनुशासने सोत्साहा प्रवृत्तिरित्यपि प्रतीयते । शब्दाश्च काव्यानि चेति शब्द - काव्यानि तेषामनुशासनमिति विग्रहे द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणस्यानुशासनपदस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् शब्दानुशासनं काव्यानुशासनं चेति लभ्यते, तत्र शब्दानुशासनपदं व्याचष्टे - शब्दानामित्यादिना, केषां शब्दानामित्याह- नामाऽऽख्यातादिभेदानामिति - आदिपदेनोपसर्ग-निपातयोः सङ्ग्रहः । अनुशासनप्रकारमाह-प्रकृति-प्रत्ययादिविभागेनेति - प्रकृतिः - नाम - धात्वादिः प्रत्ययाः - स्यादयः, कृतः, तद्धिता:, स्त्रीप्रत्ययादयश्च; आदिपदेन आगमाऽऽदेश-विकरणादयः, तेषां विभागेनयथायथं विवेकेन, संस्कृत्येति क्रियापदमध्याहृत्य तदनुरोधेन हेतौ तृतीया । यदाह
.
"प्रकृतिप्रत्ययोपाधिनिपातादिविभागशः ।
पदान्वाख्यानकरणं शास्त्रं व्याकरणं विदुः " ॥ इति ।
काव्यानुशासनपदं व्याचष्टे - काव्यस्य चेत्यादिना - काव्यस्य कविप्रयोगविषयस्य शब्दस्यार्थस्य च गुणालङ्कारादिविवेचनेन गुणा:- माधुर्योज:प्रसादाः, अलङ्काराः- अनुप्रासादयः शब्दालङ्काराः, उपमादयश्चार्थालङ्काराः, आदिपदेन रस-भाव- तदाभास- नित्यानित्यदोषादयः, तेषां विवेचनं स्वरूपनिर्वचनपूर्वकं यथावद्वर्णनं, तेन परिचाय्येति क्रियापदाध्याहारः ।
अनुशासनपदं व्याचष्टे - पूर्वाचार्यशासनस्यानु इति, अयमाशयः नास्माभि: किमपि नूतनशास्त्रमेतद्विषये प्रवत्तितमपि तु पूर्वाचार्यशासनमनुसृत्यैव लोकोपकाराय सरलया पद्धत्या शासनं कृतमिति तदीयशासनपश्चाद्भावित्वेनेदमनुशासनमिति व्यवह्रियते इति । शासनशब्दस्यापि लोकप्रसिद्धार्थापेक्षयाऽर्थान्तरमाह - सन्दर्भ इति - सन्दर्भश्च पूर्वापरीभावेन संग्रन्थनम् । वक्तुर्विशेषणत्वसम्पत्यं बहुव्रीहिसमासविग्रहमाह - यस्य स सिद्धशब्द - काव्यानुशासन इति ।
ध्यात्वेति पदार्थान्तर्गतं ध्यानमिह किमित्याह- ध्यानं प्रणिधानम् इति । प्रणिधानं च विषयविशेषे मनस एकाग्रता, तदिह किस्वरूपेत्याह - तच्चेह मानसो नमस्कार इति - स्वावधिकोत्कृष्टत्वप्रकारकबोधानुकूलो व्यापार एव नमस्कारः, स च कायिक- वाचिक -मानसिकभेदात् त्रिविधः, कायिकः कर-शिरः
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[अ० १ सू० १.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनु (सनप्रद्योते
संयोगादिरूपः, वाचिकः शब्दप्रयोगरूपः, मानसिकच मनसैव तदर्हत्वस्वीकारः । तथा चात्र ध्यानेन मानसिकः प्रणिपात एव बोध्यत इत्यर्थः ।
काव्योपयोगिनामिति छन्दसां विशेषणमुक्तमिति सर्वत्र काव्ये छन्दसामुपयोगे एव संगच्छेतेति काव्यस्य गद्यपद्यात्मकत्वेन द्वैविध्यात् गद्ये च प्रकृतच्छन्दसामनुपयोगान्न्यूनतेति शङ्कायामाह -गद्यकाव्ये न च्छन्दसामुपयोग इत्यर्थात् पद्यं काव्यमिह गृह्यत इति, अर्थादिति - अर्थमनुरुध्येत्यर्थः, “गम्ययपः कर्माधारे" [ २. २.७४ ] इति पञ्चमी । तथा च यद्यपि गां पद्यमुभयमपि काव्यमेव तथाऽपीह छन्दसामुपयोगरूपार्थानुरोधेन पद्यरूपमेव काव्यं काव्यपदेन गृह्यत इति न न्यूनता । उपयोगपदस्य यथाकथंचिदुपकारसाधारणपरत्वेनेह विशिष्योपयोगप्रकारमाह- उपयोगः साहायकं वृत्तसंशयच्छेदादिनेति, कवयो हि न छन्दांस्यनुरुध्य काव्यानि विरचयन्ति किन्तु स्वभावत एव तत्तच्छन्दोरूपेण तेषां वाक् प्रसरति, बोद्धृणां च तत्र संशयः सम्भवति-किमिदं छन्दः ? इति तादृशसंशयच्छेद एवैतच्छास्त्र प्रयोजनम्, तथा च काव्यसम्बन्धिवृत्तसंशयच्छेदे साहायकम् - उपकार एवास्य शास्त्रस्य, शास्त्रप्रतिपाद्यानां छन्दसां चोपयोग इति विशकलितार्थः । छेदादीत्यत्रादिपदेन च यतिसंशयच्छेदोपकारकत्वं तत्तच्छन्दोऽनुसरणेन काव्यानिर्माणोपकारकत्वं च विज्ञेयम् । उक्तार्थे पूर्वाचार्य सम्मतिमाह - "छन्दोविचितेर्वृ त्तसंशयच्छेदः” इति-विचयनं विचितिः सङ्ग्रहः, छन्दसां विचितिश्छन्दोविचितिः, तस्याः-तामाश्रित्येत्यर्थः, अत्रापि “गम्मयपः ० " [ २. २. ७४. ] इति कर्मणि पञ्चमी; वृत्तेषु - वृत्तविषये यः संशयः सन्देहस्तस्य छेदः - निवृत्तिरित्यर्थः [१. २. ] ।
मङ्गलाचरणेनैवानुबन्धचतुष्टयस्यापि सूचनं भवतीति पूर्वाचार्यपरिपाटी, तां स्फोरयन्नाह - इदमभिधेयप्रयोजनमिति - अभिधेयस्य-ग्रन्थप्रतिपाद्य विषयस्य, प्रयोजनं - यमर्थमधिकृत्य प्रवृत्यते तदित्यर्थः । अयमाशयः - विषय - प्रयोजना -ऽधिकारि-सम्बन्धा अनुबन्धचतुष्टयपदवाच्याः, तत्र छन्दांसि प्रकृतग्रन्थप्रतिपाद्यानीति विषयः, विषयस्य च प्रयोजनत्वमावश्यकमिति वृत्तसंशयच्छेदः प्रयोजनम्, तज्जिज्ञासुश्चाधिकारी, सम्बन्धरच प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव:, इति चतुर्णामप्यनुबन्धानां प्रकृतपद्येन सूचनमिति । आर्षी गायत्री - त्रिष्टुबादीनां वेदप्रसिद्धानां छन्दसामिह कथनाभावात् न सर्वेषां छन्दसामिह संग्रह इति न्यून
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १.] तेति शङ्कायामाह-काव्योपयोगाभावाच्चेत्यादि,प्रकृते हि काव्योपयोगिनामेव छन्दसां लक्षणं विवक्षितमिति वेदानां काव्यबहिभूर्तत्वेन तच्छन्दसामिह कथनस्यानावश्यकत्वेन तानि नेह लक्षयिष्यन्ते स्वरूपप्रतिपादनेन निरूपयिष्यन्ते ।
छन्दसामित्यत्र षष्ठीविभत्त्यर्थः क इत्याह-कर्मणि षष्ठीति-"कर्मणि कृतः" [ सि० सू० २. २. ८३. ] इति विहितेति भावः । छन्दःशब्दव्युपत्तिमाहचन्दनादालादनादिति-चदु आह्लादे दीप्तौ च पठितो भौवादिको धातुः, तस्मादौणादिकोऽस्प्रत्ययः, पृषोदरादित्वादु वर्णव्यत्ययेन चकारस्य छकार इति छन्दःशब्दध्युत्पत्तिः । पर्यायमाह-वर्णमात्रानियमितानि वृतानीति-इह हि द्विविधानि वृत्तानि, कानिचिद् वर्णनियमितानि कानिचिन्मात्रानियमितानि, वर्णैः-वर्णसन्निवेशविशेषः, नियमितानि-बद्धस्वरूपाणि, मात्राभिः-कालविशेषोपलक्षिताभिः, नियमितानि वृत्तानि-मात्रावृत्तानि, मात्रा चेत्थं लक्षिताऽभियुक्त:-"कालेन यावता पाणिः पर्येति जानुमण्डले । सा मात्रा कविभिः प्रोक्ता" इति, तेषां वृत्तानामनुशासनं छन्दोऽनुशासनम् । अनुशासनपदं व्युत्पादयतिअनुशिष्यतेऽनेनेति, तथा च करणेऽनः, तच्चेदं शास्त्रमिति, अनेन शास्त्रेण भरतादिपूर्वाचार्यशिष्टानि छन्दांसि अनुशिष्यन्ते। कर्तुरिहानुक्तेराक्षेपलभ्यत्वमित्याह-वक्ष्य इति तृतीयत्रिकप्रयोगादिति-क्रिया हि कर्तारं विनाऽनुपपन्ना तमाक्षिपति, सा चेह वक्ष्य इति तृतीयत्रिकेकवचनरूपा, तृतीयं च त्रिकमस्मधुपपदे सत्येव भवति "त्रीणि त्रीणि-अन्ययुष्मदस्मदि" [सि० सू० ३. ३. १७.] इत्यनुशासनात् । तथा चास्मदः प्रयोगं विनाऽनुपपद्यमानस्तृतीयत्रिकप्रयोगोऽस्मच्छब्दप्रतिपाद्यं कर्तारमाक्षिपतीति-अहमिति [कर्ता] लभ्यते ।
प्रकृतपद्यावतरणिकायाम्-'इष्टाऽधिकृतदेवतानमस्कारपूर्वकम्' इत्युक्तं, तत्र शङ्कते-ननु भवतु 'वाचं ध्यात्वाऽर्हतीम्' इति इष्टदेवतास्तुतिः, अधिकृतदेवतास्तुतिस्तु कथमियम् ? इति, अयमर्थः-आहती वाक् परमेष्ठिसम्बन्धादहिततरेति प्रसादनीयत्वेनेष्टा भवितुमर्हति अधिकृतानां-प्रकृतानां छन्दसां देवतात्वं तु तस्या न युक्तमिति तावानंशस्तत्रासङ्गतः । तत्र हेतुमाह-नाधिकृतानि छन्दांस्यहत्प्रणीतानि इति, अधिकृतानि-प्रकृतग्रन्थप्रतिपाद्यानि, छन्दांसि-वृत्तानि,न अर्हद्भिः प्रतिपादितानि,अपितु पूर्वाचार्य:भरतादिमुनिभिरेव प्रतिपादितानीति आर्हत्या वाचस्तद्देवतात्वं-तदधिष्ठात्रीत्वं
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[अ० १, सू० १.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते न युक्तमिति भावः । उत्तरयति-मैवं वोचः इति-वचे—गो वा अद्यतन्या द्विती यत्रिकैकवचनम्, माङो योगादडागमाभावः, एवम्-उक्तप्रकारेण, मा-नहि, वोच:-कथय, कुत इत्याह-नहि सूक्तं किञ्चिदित्यादि । जगति संसारे, किमपि सूक्तं शोभनवचनम्, अर्हतां तीर्थकराणाम्, उपदेशम् आद्योच्चारणम् अन्तरेण विना न अस्ति । सर्वमेव लोकहिताधायकं वचनं अहंदुपदेशसम्बद्धमेवेति छन्दसामपि सूक्तान्तगर्तत्वात् परम्परयाऽपि अर्हत्प्रभवत्वमेवेति भवत्याहत्या वाचोऽधिकृतदेवतात्वम् ।
उक्तार्थे श्रीसिद्धसेनदिवाकरवचनसम्मतिमाह-यत्-श्रीसिद्धसेनः-"सुनिश्चितमित्यादि । “परतन्त्रयुक्तिषु याः काश्चन सूक्तसम्पदः स्फुरन्ति ताः तवैव [इति] नः सुनिश्चितम् [यतः]पूर्वमहार्णवोद्धृताः जिनवाक्यविपुषः जगत्प्रमाणम्" इत्यन्वयः । परेषां-जैनागमानुयायिमिन्नानां, तन्त्रेषु-आगमेषु, युक्तिषु-युक्तिप्रतिपादकसंग्रहेषु च, याः काश्चन विरलाः, सूक्तसम्पदः शुभवचनात्मकसम्पत्तयः, स्फुरन्ति विद्योतन्ते, ताः सर्वाः, तवैव त्वत्सम्बन्धिन्य एव, यतः पूर्वमहार्णवोद्धृताः सर्वाङ्गभ्यः पूर्व तीथङ्करैरभिहितत्वात् पूर्वाणि, तानि च उत्पातादीनि लोकबिन्दुसारपर्यन्तानि आगमग्रन्यात्मकानि चतुर्दश, तान्येव महार्णवः-सवार्थ रत्नसंग्राहित्वात् स्वयम्भूरमणनामा सर्वतो महान् समुद्रः, तत उद्धृताः-स्वाप्रतिमप्रतिभया प्राकटय नीताः, जिनवाक्यविपुषः अर्हद्वचनबिन्दव एव जगत्प्रमाणं विश्वस्मिन् व्यवहारे प्रमाणभूताः, नान्यत् किञ्चन सांसारिकेहिकामुष्मिकव्यवहारे प्रामाण्यं प्राप्तुमर्हति । ततश्च यत्किञ्चिदिह शुभं प्रमाणभूतं च वचनमुपलभ्यते तत् सर्वमर्हत्सम्बध्येवेति छन्दसामपि तदधीनत्वं सिद्धम् । इत्थमशेषशङ्काकलङ्कप्रक्षालनं कृतमिति निगमयति-इति सर्वमवदातमिति, इति-इत्थं प्रकारेण, सर्वे-प्रकृतमङ्गलश्लोकवणितं वस्तु, अवदातं-दोषसम्बन्धरहितम् ।
ननु प्रकृतग्रन्थमङ्गलश्लोके पूर्वविरचितयोः शब्द-काव्यानुशासनयोश्चर्चायाः किमौचित्यमिति चेदत्राह-अनेन च श्लोकेनेत्यादि,अयमाशयः-महति संसारे निरवधौ च काले भवति केषांचित् संशयो यत्-इमानि अनुशासनानि नैककर्तृकानि, अपि तु पृथक् पृथगेवतेषां कर्तारः, कालभेदेन देशभेदेन कर्तृनामैक्य सम्माव्यत इति तदुच्छेदायात्र श्लोके 'सिद्ध-शब्दकाव्यानुशासनः' इति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते [अ० १, सू० २.] कर्तविशेषणत्वेनोक्तमिति त्रयाणामपि शब्दानुशासन-काव्यानुशासन-च्छन्दोऽनुशासनानामेककर्तृकत्वप्रतिपादनम् । किञ्चैतेन सकलस्य वाग्व्यवहारस्योपकारकाणि शास्त्राणि मथकैनैव लोकोपकृतये रचितानीति स्वशक्तिव्यापकत्वमपि सूचितं भवतीति विज्ञेयमिति ।। अ० १, सू०-१॥ सर्वादि मध्या-न्तग्लौ त्रिकौ म्नौ भ्यौ नौ स्तौ वर्णगणाः ॥२॥
सर्वादि-मध्या-ऽन्ती गुरु-लघू ययोस्तो यथाक्रम 'म्नौ भ्यो नो स्तो' इत्येवं संज्ञो ज्ञेयो। चतुग्लादीनामपि मादिसंज्ञा मा भूदिति नियमार्थमाह-त्रिको, प्रयः प्रमाणमनयोस्तौ "मानम्" [सिद्धहे० ६.४.१६९.] इति के त्रिको। तत्र सर्वग्लो-स्नो, आदिग्लो भ्यौ, मध्यग्लौ-नौ, अन्तग्लो-स्तौ । सर्वेषां न्यासःsss म, न, ॥ म, Is य, ।। ज, I र, ॥ स, ऽऽ। त । पठन्ति च
"मस्त्रिगुरुस्सिलघुश्च नकारो, मादिगुरुश्च तथादिलघूर्यः।
जो गुरुमध्यो मध्यलघूरः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः॥" इति वर्गगणाः [२-१ ] ॥ सू०-२॥
प्रद्योतः-सर्वा-ऽऽदि-मध्याऽन्तेति-वर्णमात्रामेदेन वृत्तानां द्वैविध्यमुक्तं पूर्वकारिकावृत्ती, तत्र संक्षेपतो वृत्तानां स्वरूपनिरूपणाय वर्णगणा मात्रागणाश्च कल्पिताः, तेषु प्रथमं वर्णगणानाह प्रकृतसूत्रेण । सूत्रं विवृणोति-सर्वाऽऽदिमध्या-ऽन्तौ गुरु-लघू ययोरिति-सर्वश्च आदिश्च मध्यश्च अन्तश्चेति संख्यासामान्यविवक्षया द्वन्द्वः, ग् च ल चेति पृथक् द्वन्द्व समासः, सर्वादिमध्यान्तशब्दा अधिकरणार्थपराः, ततस्तयोः पदयोः समानाधिकरणो बहुव्रीहिः, सर्वादिशब्दानां पृथक् पृथक् द्वन्द्वान्ते श्यमाणाभ्यां ग्लाभ्यां सम्बन्धः, तथा च म्ना-वित्यादिपदानामपि गणद्वयपरत्वेन पृथक् पृथक् सम्बन्धकल्पने-सर्वगः त्रिक:-मः १, सर्वलः त्रिक:-न: २, आदिगः त्रिक:-भः ३, आदिल: त्रिक:-यः ४, मध्यगः त्रिक:-जः ५, मध्यल: त्रिक:-रः ६, अन्तगः त्रिक:-सः ७, अन्तल: त्रिक:-तः ८, इत्येवं विशकलितो बोघः। सर्वादीत्यादिपदं त्रिकावित्यस्य विशेषणम्; त्रिकाविति चोद्देश्यपरं संज्ञिबोधकम्,म्नावित्यादि च संज्ञाबोधकम्, तदाह-यथाक्रमं म्नौ म्यौ नौ स्तौ इत्येवंशंज्ञौ ज्ञेयाविति । यद्यपि एतेषां द्वन्द्वपदानां समुदायरूपेणैव संज्ञात्वं प्राप्नोति विधेयबोधकपदत्वेन स्वात
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[अ० १, सू० ३] न्त्र्यात् तथापि इतरेतरयोगद्वन्द्वे सर्वपदार्थस्य तुल्यं प्राधान्यमिति भवति प्रत्येकं संज्ञात्वम् । ननु 'आदि-मध्य-अन्त'पदानां महिम्ना समुदायस्य वर्णत्रयात्मकत्वं स्वत एव प्रतीयत इति त्रिकाविति समुदायस्वरूपबोधकं पदं व्यर्थमेवेति चेदत्राह-चतुग्लादीनामपि मादिसंज्ञा मा भूदिति नियमार्थमाह-त्रिकाविति, अयमाशयः-आदिमध्यान्तेति पदत्रयमहिम्ना एक-द्वि-वर्णात्मकस्य समुदायस्य व्यावृत्तावपि चतुरादिवर्णात्मकानां समुदायानां व्यावृत्तिर्न स्यादिति तेषां व्यावर्तनाय त्रिकाविति पदं नियमार्थम्-त्रिकावेव, न चतुष्कः पञ्चको वेत्यादि । त्रिकाविति पदं व्युत्पादयति-त्रयः प्रमाणंमनयोस्ताविति-समुदायो प्रत्ययार्थः । प्रत्ययविधिसूत्रमाह-"मानम्" [सि० है० ४. ६. १६३.] इति के इति-मानमित्यर्थे "संख्याडतेश्चाशत्-ति-ष्टेः कः" [सि० ६.५.१३०.] इति विहित क इति भावः। सूत्रपाठानुसारं सम्बन्धमाह-तत्र सर्वग्लो म्नौ इत्यादिना । प्रत्येक विशकलितः सम्बन्धः पूर्वमुक्त एव । यत्र गणे यो वर्णो विशिष्य गुरुर्ल घुर्वोक्तस्तत्र तदतिरिक्तौ लघू गुरू वा यथाक्रमं विज्ञेयो । गुरोलंघोश्च न्यासप्रकारं वक्ष्यति पञ्चम-षष्ठाभ्यां सूत्राभ्यां "ह्रस्वो ल्-ऋजुः" "ग्-वक्रः" इति । तथा च ऋज्वी रेखा ।' लघुसूचिका, वका 'ड' रेखा गुरुसूचिका। तदनुसारमेव वर्णगणानामेषां न्यासप्रकारमाह-सर्वषां न्यास इति । एवं च-सर्वगुरुः ऽऽऽ त्रिक:-मः, सर्वलघुः ॥-नः, आदिगुरुः ।-भः, आदिलघुः Iss-यः, मध्यगुरुः ।।-जः, मध्यलघु: ।ऽ-रः, अन्तगुरुः ॥5- सः, अन्तलघुः ssI- तः, इति न्यासक्रमः ॥ 441.2/2454
स्वोक्तार्थे पूर्वाचार्यसम्मतिमाह-पठन्ति च-मस्त्रिगुरुः इत्यादि, "त्रिगुरुः:-मः, त्रिलघु:-नः, आदिगुरु:-भ, आदिलघु:-यः, गुरुमध्य:-जः, मध्यलघु:रः, अन्तगुरु;-सः, अन्तलघुश्च-तः, कथितः" इत्यन्वयः, स्पष्टश्चार्थः। वर्णगणवर्णनपरिसमाप्तिमाह-इति वर्णगणाः इति । सू०२ प्रमाणवचनम् १।।सू०२॥
द्वि-त्रि-चुतुष्-पञ्च-षट्कला द-त-च-प-षा- द्वि-त्रि-पञ्चा-ऽष्ट-त्रयोदशभेदा मात्रागणाः ॥३॥
कला मात्रा, द्विकलो-दसंज्ञः, त्रिकल:-तसंज्ञः, चतुष्कल:-चसंज्ञः, पञ्चकल:पसंज्ञः, षटकल:-बसंज्ञः। इति द्वि-त्रि-चतुष्-पञ्च-षण्णामादिप्रतीकेन "कृ
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० ३.] तृ-रा-स-दिवा-द-र०" इत्यादिवत् दादिसंज्ञा मात्रागणाः। ते च यथासंख्यं द्वि-त्रि-पञ्चा-अष्ट-त्रयोदशभेदाः, तत्रवगणो द्विभेदः- 5, 0, तगणस्त्रिभेद:-15, s, m, चगण: पञ्चमेदः-s, us, Is, su, m, पगणोऽष्ट भेदः- Iss, sus, us, I, II, II, III,
s m , षगणत्रयोदशमेद:- ss, ||s, ISIS, Sus, Ims, ISI, SISI, I, III, iisil, isilt, silt, inul,
"सर्वगः सर्वलो दस्त आदिमान्तिमसर्वलः ।
सर्वान्तमध्यमाद्यग चः समस्तलो मतश्च सः ॥ [३-१] पआबन्तलघुग्लान्तः स्यादुपान्त्यगुरुः स च । आधुत्तरगुरुः सोऽपि गुर्वादिः सकलोऽपि च ॥ [३-२] पः सर्वगो द्वघाबलः स्यादाद्योपान्त्यलघुस्तथा। आधान्तिमगुरुश्चेव पर्यन्तगुरुरेव च ॥ [३-३] माधन्तल उपान्त्याधग उपान्त्यगुरुस्तथा ।
पाचगो मध्यगश्चाबुत्तरगादिश्च सर्वलः ॥" [३-४] इति संग्रहश्लोकाः ॥सू० ३॥
प्रद्योतः-अथ मात्रागणानाह-द्वि-त्रि-चतुष्-पञ्च-षट्कला० इति-द्वे च तिस्रश्च चतस्रश्च पञ्च च षट् च-द्वित्रिचतुष्पञ्चषट्, ता:-[तावत्यः]कला:-मात्रा ये-षु ते-द्वित्रिचतुष्पञ्चषट्कलाः, दश्च तश्च चश्च पश्च षश्चेति ते-द-त-चप-षा; । नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणमिति दादयो द्विकलादीनां संज्ञाः । तदाहद्विकलो दसंज्ञ इत्यादिना । एषां कथं द्विकलादिबोधकत्वमित्यत्राह-द्वितचतुष्पञ्चषण्णामादिप्रतीकेनेति-द्विकलस्यादिः दकारः, त्रिकलस्य तकारः, चतुष्कलस्य चकारः, पञ्चकलस्य पकारः, षट्कलस्य षकार इति । नैषा प्रक्रियाऽस्माभिरेव कल्पिता, अपि तु पूर्वाचार्यरप्यनया व्यवहारः कृत इत्याह"कृतरासदिवादर०" इत्यादिवदिति-कृ तृ रा स दिवा द र भूत दिवा, शु च राष्ट दिवैक र पूर्ण दिवा" इति ज्योतिःशास्त्रीयवचने कृ-त-रा इत्यादयः 'कृष्णपक्ष-तृतीया-रात्रि' इत्यादिपदानामर्थे प्रयुक्ता भद्राविचारप्रकरणे । कृ
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[अ० १; सू० ४] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते कृष्णपक्षे, तृ- तृतीयायाम, रा-रात्रौ, भद्रा भवतीत्यर्थः; एवं-स-सप्तम्याम्, दिवा-दिवसे भद्रा। शु- शुक्लपक्षे, च-चतुर्थ्याम्, रा- रात्री, भद्रा; अष्टअष्टम्याम्, दिवा-दिवसे, भद्रा; एक-एकादश्याम, र-रात्री, भद्रा; पूर्ण-पूर्णिमायाम, दिवा- दिवसे भद्रा । कृष्णपक्षे-तृतीयायायां दशभ्यां च रात्री भद्रा, सप्तम्यां चतुर्दश्यां च दिवा भद्रा, शुकपक्षे- अष्टम्यां पूर्णिमायां च दिवसे भद्रा, एकादश्यां चतुर्थ्या च रात्री भद्रा भवतीति भावः । निगमयति- दादिसंज्ञा मात्रागणा इति । तथा चैते पञ्च मात्रागणाः । एषां कलापर्यायेण प्रत्येकं कति भेदा इत्याकाङ्क्षायामाह-द्वि-त्रि-पञ्चा-ऽष्ट-त्रयोदशमेवाः इतिप्रथमो विकल:-एकगुरुऽ-लघुद्वयाभेिदेन द्विविध एव । द्वितीयस्त्रिकल:लघ्वादिाऽ-लघ्वन्ता-लघुत्र य।।भेदेन त्रिविधः । तृतीयश्चतुष्कल:-गुरुद्वयऽऽ-लघुद्वयादिगुर्वन्त।।ऽ-गुरुमध्या-गुर्वादिलघुद्वयान्ता -लघुचतुष्टय।।भेदेन पञ्चविधः । चतुर्थः पञ्चकल:-लध्वादिगुरुद्वयाऽ-लघुमध्यगुरुद्वयऽ। ऽलघुत्रयादिगुर्वन्त।।।5-गुरुद्वयादिलघ्वन्ता -लघुद्वयगुरुलघु।।।-लधुगुरुलघुवय-1डा-गुरुलघुत्रया -लघुपञ्चक।।-॥भेदेनाष्टविधः पञ्चमः । षट्कल:गुरुत्रयऽऽऽ-लघुद्वयगुरुद्वय।।-लघुगुरुलघुगुरु।।5-गुरुलघुद्वयगुरुज।ऽ-लघुचतुष्टयगुरु -लघुगुरुद्वयलघु।ऽऽ)-गुरुलघुगुरुलघुऽ।ऽ।-लघुत्रयगुरुलघु।।।5।-गुरुद्वयलघुद्यऽऽ।।-लघुद्वयगुरुलघुद्वय।।।।-लघुगुरुलघुत्रया।।।-गुरुलघुचतुष्टय-5 -लघुषट्क।॥भेदेन त्रयोदशविध इति विवेकः । एतदेध संगृह्णाति-सर्वगः सर्वलो दस्त इत्यादिना । 'सर्वगः, सर्वलः' इति द्विविधो दः । 'आदिमल:, अन्तिमल:, सर्वल:' इति त्रिविधः-तः । सर्वगः, अन्तगः, मध्यगः, आदिगः, समस्तलश्च' इति पञ्चविध:- चः, मतः [३-१] ॥ 'आदिलघुः, मध्यलघुः, गुर्वन्तः, लध्वन्तः, उपान्त्यगुरुः, आद्युत्तरगुरुः, गुर्वादिः, सर्वलघुः' इत्यष्टभेदः- पः स्यात् । [ ३ । २ ] 'सर्वगुरुः, लघुद्वयादिः, आद्योपान्त्यलघुः, आधान्तिमगुरुः, अन्तगुरुः [३-३], आद्यन्तलघुः, उपान्त्याद्यगुरुः, उपान्त्यगुरुः, गुरुद्वयादिः, मध्यगुरु;, आद्युत्तरगुरुः, आदिगुरुः, सर्वलघु:-षः स्यादित्यन्वयः [३-४] ॥ स्वरूपाणि च पूर्वमुक्तान्येव ॥ सू०-३ ॥
समानकादिः ॥ ४॥ ग्लो मारयो दावयन समानेन लक्षिता एकाबिसंख्या भवन्ति । यावतियः
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सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० ५.] समानस्तावतिया गादयोऽपि गृह्यन्ते । ग-१, गा-२, गि-३, गी-४, गु-५, गू-६, गृ-७, 4-८, ग्ल-६, ग्ल-१० । एवं लादयोऽपि ॥ सू०-४॥
प्रद्योतः-पूर्वनिर्दिष्टानां वर्णगणानां मात्रागणानां गुरु-लध्वोश्च नियतसंख्यकानां लाघवेन निर्देशस्योपायमाह-'समानेनकादिः' इति । सूत्रस्य सूक्ष्माक्षरत्वादमिषेयार्थस्य सूचनमात्रपरत्वाच्च विवरणमाह वृत्तिकृत्- ग्लो मादयो दादयश्चैत्यादि। ग्लौ गुरु-लघुप्रतीकभूतो गकार-लकारी मादयः मगणादिवर्णप्रतीकभूताः म-न-भ-य-ज-र-स-ताः, दादयश्च द्विकलादिमात्रागणप्रतीकभूताः-द-त-च-प-षाश्च, समानेन “लदन्ताः समानाः" इति [सि० सू० १. १. ७.] सङ्केतिता अकारादयो लुकारपर्यन्ता वर्णाः समानसंज्ञाः, तेन तेन स्वरेण लक्षिताः उपलक्ष्य निर्दिष्टाः, एकादिसंख्या भवन्ति प्रथमेन समानेनोपलक्षिता एकसंख्याबोधकाः, द्वितीयेन द्वयोः, तृतीयेन त्रयाणामित्येवं क्रमेण दशसंख्यापर्यन्तं स्वं बोध्थार्थ सूचयन्ति । तदेव स्फोरयन्नाह-यावतिथः समानस्तावतिथा गादयोऽपि गृह्यन्ते इति-यावतिथः-यत्संख्यायाः पूरणः, समानः-स्वरः, तावतिथा:-तावत्संख्याकाः, गादयोऽपि-गुरु-लघु-मादिदादिगणा अपि, गृह्यन्ते-प्रतीतिपदवीं गच्छन्ति । तदेव स्वरूपतो दर्शयतिग-१ गा-२ गि-३ इत्यादिना ग्ल १० पर्यन्तम् । प्रकृतमर्थमतिदिशतिएवं-लादयोऽपीति-ल-१ ला-२ लि-३ इत्येवं लघु संख्या, म-१ मा-२ मि-३ इत्येवं मगणादिसंख्या, द-१ दा-२ दि-३ इत्येवं द्विकलादिगणसंख्या च विज्ञेयेति भावः ॥ सू०-४॥
ह्रस्वो ल ऋजुः ॥ ५ ॥ ह्रस्वो-मात्रिको वर्णो संज्ञो भवति, स च प्रस्तारे ऋजुः स्थाप्यः ।।सू०-५॥
प्रद्योतः-मादयो वर्णगणा दादयश्च मात्रागणा द्वितीय-तृतीयसूत्राभ्यां निरूपिताः, तत्स्वरूपपं च प्रदर्शितम्, लघु-गुर्वोः 'ल्-ग' संज्ञा च न निरूपिता नवा तत्स्वरूपं प्रदर्शितमिति तत्प्रदर्शनायाह-ह्वस्वो लजः इति-"ह्रस्वः ल् ऋजुः' इति पदच्छेदः । विवृणोति-ह्रस्वो मात्रिको वर्णो 'ल'संज्ञो भव तीति-"एकमात्रो भवेद्बस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते" इत्यमियुक्तोक्तया एक
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__ [अ० १, सू० ६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
मात्रयोच्चार्यों वर्णो ह्रस्वः, स चात्रानुशासने ल् इति व्यवह्रियत इत्यर्थः । 'ह्रस्वो ल्' इत्येतस्यार्थमुक्त्वा शिष्टस्य 'ऋजुः' इत्यंशस्यार्थमाह-स च प्रस्तारे ऋतः स्थाप्य इति-'ल्' इत्यस्य देहलीदीपन्यायेन पूर्वत्र परत्र चान्वयः, पूर्व प्रति अस्य विधेयरूपेणोपस्थितिरिति संज्ञापरत्वम्, परम् 'ऋजु' इति पदं प्रति च उद्देश्यत्वेनोपास्थितिरिति स ऋजुः ऊर्ध्वाधः सरलक्रमेण स्थितरेखा'।'रूपेण प्रस्तारसमये स्थापनीय इत्यर्थः ॥ सू०-५॥
वा-ऽन्ते ग वक्रः ॥ ६ ॥ पदान्ते वर्तमानो ह्रस्वो गसंज्ञो भवति, स च प्रस्तारे वक्र: स्थाप्यते । वेति व्यवस्थितविभाषा, तेन यत्र "ौ ग्लो समानी" [२. ८३.] इत्यादावपवादस्तत्र गसंज्ञो न भवति । वंशस्थादौ च पादान्ते लघोगुरुत्वं न भवति । यदाह
"वंशस्थकादिचरणान्तनिवेशितस्य, गत्वं लघोर्नहि तथा श्रुतिशर्मदायि । श्रोतुर्वसन्ततिलकादिपदान्तवति-लो गत्वमत्र विहिनं विबुधर्यथा तत् ॥" [६-१] । वासु विवक्षावशात् गुरुत्वं लघुत्वं च । यदाह
"ओजसंख्या यदाभीष्टा, ध्रुवासु विरतौ तदा। गो लता युग्मसंख्ये तु, विरतो गुरुता लघोः ॥" [६-२] । तथागुरुअ चिम एक्लहू, विरामविसयंमि विसमसंखाए। जमललहू लहुअ चिअ समसंखासंठिओ होइ ॥" [६-३] ॥ सू०-६ ॥
प्रद्योतः-द्विमात्रस्य गसंज्ञां वक्ष्यति, क्वचिद् ह्रस्वस्यापि गसंज्ञाऽमिमतेति प्रकरणात् तां कथयन् गुरुस्वरूपमप्याह-वाऽन्ते ग वक्रः इति । विवृणोतिपादान्ते वर्तमानो ह्रस्वो गसंज्ञो भवतीति । अन्तपदस्य समुदायसापेक्षत्वात् कस्यान्ते इत्याकाङ्क्षाया व्याख्यानमात्रनिवर्त्यत्वेनाह-पादन्ते इति । पादश्च पद्य चतुर्थाशः, तदन्ते यदि लघुर्मवेत् स यथाप्रयोजनं 'ग्'संज्ञो भवति । सर्वत्र गुरुत्वाभावात् वेत्याह, तच्चाने स्वयमेव स्फोरयिष्यति । 'वक्रः' इत्यशं व्याख्याति स च प्रस्तारे वक्रः स्थाप्यते इति-'ग्' इत्यस्य पूर्वसूत्रोक्तरीत्या पूर्वत्र परत्र च विधेयत्वेनोद्देश्यत्वेन यथायथं सम्भन्धात् स चेत्यर्थलाभः, वक्र: सर्पगत्युपलक्षितकुटिलरेखा''रूपेण प्रस्तारे स्थापनीय इत्यर्थः। वेति व्यस्थितविभाषा तेन यत्रेत्यादि- वेति पदेन विभाषार्थो विकल्पः सूच्यते, सा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० १, सू० ६. ]
व विभाषा व्यवस्थिता, विविधया यथालक्ष्यं भिन्नयाऽवस्थया उपलक्षिता । तत्फलमाह - तेन यत्र "जैं ग्लौ समानी" [ छ० सू० २-८३] इत्यादावपवाद इति, अयमाशयः - सामान्यतः पादान्तस्थस्य लघोर्गुरुत्वं भवति, किन्तु यत्र विशिष्य पादान्तस्थस्य लघुत्वं कथ्यते तत्र "सामान्यशास्त्र तो नूनं विशेषो बलवान् भवेत्” इति न्यायेन पादान्तस्थस्य लघोर्लघुत्वमेव तिष्ठति, न गुरुत्वं भवति, यथा ' ग्लो' इति समानीच्छन्दसो लक्षणे पादान्तलघोरेव लक्षघटकत्वं विशिष्य कथ्यते तत्र पादान्तस्य गुरुत्वं न भवति । न केवलमपवादस्थल एव किन्तु श्रुतिसुखानुरोधेनापि पादान्ते लघोर्गुरुत्वं न भवतीत्याहवंशस्थादौ च पादान्ते लघोर्गुरुत्वं न भवतीति । तत्र पूर्वाचार्यसम्मतिमाह - वंशस्थकादीति - "यथा विबुधैर्वसन्ततिलकादिपदान्तवति-लो गत्वं विहितं श्रुतिशर्मदायि तथा वंशस्थकादिचरणान्तनिवेशितस्य लघोगंत्वं न श्रुतिशमं दायि" इत्यन्वयः । वसन्ततिलकाच्छन्दसो लक्षणं च “भो जो गौ वसन्ततिलका” [२-२३१] इति, तत्र पादान्ते गुरुद्वयं प्रोक्तमिति कदाचिल्लघु पादान्ते प्रयुक्तमपि गुरुत्वं प्राप्यत एव, तथैव च श्रुतिसुखं भवति; तथा "जतज्रा वंशस्थम्” [२-१५६ ] इति लक्षितस्य वंशस्थस्य पादान्ते रगणस्य कथनात् अन्ते गुरोरौचित्येऽपि यदि लघुः प्रयुज्येत तर्हि स लघुरेवोच्चारितः श्रुतिसुखदायी भवति न तु स गुरुत्वं प्राप्यते इत्येवमेवास्य नियमस्य व्यस्थितत्वं बोध्यमिति समुदितार्थ : [६-१] ॥
पादान्तस्य लघौर्गुरुत्वे स्थानवशाद् व्यवस्थान्तरमाह- ध्रुवासु विवक्षावशाद गुरुत्वं लघुत्वं च इति - ध्रु वासु- षष्ठाध्याये वक्ष्यमाणासु षट्पदीचतुष्पदी - द्विपदी प्रमिन्नासु छन्दोजातिषु, विवक्षावशात् - कवेरितिशेष:, [पादान्तस्य] गुरुत्वं लघुत्वं च गुरोरपि पठितस्य लघुत्वं लघोरपि पठितस्य गुरुत्वं च भवतीति भावः । तत्र पूर्वाचार्योक्तां व्यवस्थामाह-यदाह-अ -ओजसंख्या यदाऽभीष्टेति । ध्रुवासु वक्ष्यमाणासु षट्पद्यादिषु, विरतौ पादान्ते, ओजसंख्या अयुग्मपादमात्रासंख्या, यदाऽभीष्टा यत्र पूरयितुमीष्टा, तदा तत्र गः गुरोः, लता लघुता । युग्मसंख्ये युग्मपादयोः, [ यदा अमीष्टा तदा ] विरतौ पादान्ते, लघोः गुरुता भवतीति भावः [ ६-२ ] ॥ क्वचिदन्यथैवेत्याह-तथा-गुरुअ चिअ एकलहू इति, विसम संखाए
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[अ० १, सू० ७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते विषमसंख्यायाम्-प्रथम-तृतीययोः पादयोः, विरामविसयंमि विरामविषये पादारते, एक्कलहू एकलघुः [विवक्षावशात्] गुरुअ च्चिअ होइ गुरुरिव भवति । समसंखासंठिओ समसंख्यासंस्थितः-युग्मपादान्तस्थ इत्यर्थः । जमललहू युग्मलघु:-गुरुः, लहुअ चिअ होइ लघुरिव भवतीत्यर्थः, [६-३] ॥ सू०-६ ॥
-क-) (प-विसर्गा-ऽनुस्वार-व्यञ्जना- हादिसंयोगे ॥७॥ जिह्वामूलीये उपध्मानीये विजर्जनीये अतुस्वारे व्यञ्जने हादिवजिते संयोगे च परे ह्रस्वोऽपि गो भवति वक्रश्न ।'अहादि'इति समस्तव्यस्तसंग्रहात-हसंयोगे हसंयोगे रसंयोगे च न गुरुः। आदिशब्दाद् यथा दर्शनम् । हादिसंयोगे च यथा
"स्पृष्टं त्वयेत्यपहियः खलु कीर्तयन्ति ।" [७-१]॥ तथा"तव हियाऽपहियो मम ह्रीरभूत, शशिग्रहेऽपि द्रुतं न ता ततः। वहलभ्रामरमेचकतामसं, मम प्रिये ! क्व समेष्यति तत् पुनः॥" [७-२] "धनं प्रदानेन श्रुतेन काँ" [७-३] । इत्यादि । "लोलासिताब्जमुत दर्पणमातपत्रं, कि दन्तपत्रमथ किंशुकमोलिरत्नम् । किंचामरं तिलकबिन्दुरथेन्दुबिम्बमेतद् दिवो निह नुतदीप्ति मुदे न कस्य ।।" [७-४]। प्राकृतेऽपि यथा"जह हाउं ओइण्णे अग्भुत्तमुल्हसिअमंसुअलुतं । जह य ण ण्हामो सि तुमं सच्छे गोलानईतूहे ॥" [७-५] । भग्भुत्तं अभिषिक्तम्, तूहं तीर्थम् । तथा"वोब्रहद्रहमि पडिआ०" [७-६] "कुवलयखित्तद्रहि०" [७-७] । इत्यादि । एषु अतीवप्रयत्नत्वं संयोगस्य गुरुत्वाभावे हेतुः। तीवप्रयत्ने तु भवत्येव गुरुः । यथा- "बर्हमारेषु केशान०" [७-८] । केचित् तु- क-)(पयोरपि परत्र स्थितयोः पूर्वस्य लघोगुरुत्वं नेच्छन्ति । यथा
"प्रणतसुखरधरणनृप)(परमविजितमदमदनजननमरणः ।
सकलुषजनसलिलकतक कनकमयसुतनु जिनवर ! वृषम ! जय ॥" [७-६] ॥ सू०-७॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० ७.] प्रद्योतः-लघोर्गुरुत्वस्य नियमान्तरमाह-क-)(प-विसर्गानुस्वार० इति । सूत्रं विवृणोति-जिहामूलीये क-खाभ्यां प्राग् विसर्गस्थानीयो वज्राकारो जिह्वामूलीय इति कथ्यते, तस्मिन् परतः प्रयुज्यमाने, उपध्मानीये पफाभ्यां प्राग विसर्गस्थानीयो गजकुम्भाकार उपध्मानीय इति कथ्यते, तस्मिन परतः प्रयुज्यमाने, विसर्जनीये विसर्गे, अनुस्वारे स्वरात् परतः प्रयुज्यमाने भकारादिस्यानीये बिन्दुरूपे, व्यञ्जने स्वरवियुक्त व्यञ्जनमात्रे, हादिवजिते संयोगे च 'ह-र' एतयोः प्रत्येक मिलित्वा वा संयोगं वर्जयित्वाऽन्यस्मिन् संयोगे च, परे परतः प्रयुज्यमाने सति, ह्रस्वोऽपि गो भवति वक्रश्च एतच्च पूर्वानुसृतार्थवर्णनम् । एतास्ववस्थासु ह्रस्वस्यापि गुरुत्वं भवति स च वक्र: वक्ररेखारूपेण प्रस्तार्य इत्यर्थः । 'अहादि' इति संयोगपर्युदासो न केवलं हकारोत्तररेफरूपसंयोगपरोऽपि तु यथाकथंचित् एतद्वर्णद्वयसंयोगपर इत्याह'अह्लादि' इति समस्तव्यस्तसंग्रहात्-हसंयोगे हसंयोगे रसंयोगे चेति । अयमाशयः-'ह्र' इति हकारोत्तररेफरूपः संयोगः समस्तः, वर्णान्तरैरपि हकाररेफयोः प्रातिस्विकसंयोगो व्यस्तः, संयोग इत्युभयोरेवात्र ग्रहणं विनिगमकाभावात् लक्ष्यानुरोधाच्च । 'अहसंयोगे' इत्येव वक्तव्ये आदिपदोपादानं किमर्थमित्याशङ्कायामाह-आदिशब्दाद् यथादर्शनम् इति-आदिशब्दोपादानेन यथालक्ष्यमन्यसंयोगेऽपि लघोर्गुरुत्वं न भवतीत्यर्थः ।
उदाहरति-हादिसंयोगे यथेति-ह्रादिसंयोगे लघोर्गुरुत्वं यत्र न भवति तदुदाह्रियत इत्यर्थः । स्पृष्टं त्वयेति । त्वया मम किञ्चिदङ्गं यन्न स्पर्शनीयं तत् स्पृष्टम्-आमृष्टमिति, अपहियः अपगतलज्जाः [ललनाः] कीर्तयन्ति उद्घोषयन्तीत्यर्थः । अत्र वसन्ततिलकायां छन्दसि द्वितीयस्य भगणस्य लध्वन्तत्वेन पकारस्य लधुत्वं युक्तं तद्धि यदि ह परे गुरुत्वं भजेत तर्हि छन्दोभङ्गः स्यादिति गुरुत्वं न भवति [७-१] ॥
ह्र संयोगान्तरे च परतो गुरुत्वाभावमुदाहरति-तथा-तव हियेतिहे प्रिये ! तव भवत्याः, ह्रिया-लज्जया कारणेन, अपहियो निर्लज्जस्यापि मे, ह्री:-लज्जा, अभूत्, अतः शशिग्रहेऽपि चन्द्रग्रहणसमयेऽन्धकारप्रादुर्भावेऽपि न घृता हस्ते गृहीता। तत् तादृशं, बहलं-घनीभूतं, भ्रामरमेचकं-भ्रमरसम्बन्धिरूपवत श्यावर्ण, तामसं-तमः पुनः, क्व समेष्यति कस्मिन् समये सङ्गतं
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[अ० १, सू० ७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते भविष्यतीत्यर्थः । अर्थे रामणीयकामावेऽपि उदाहरणमात्रसम्पतये कल्पितमिदं पद्यम् । अत्र द्रुतविलम्बितच्छन्दसि प्रथमो नगणो द्वितीय-तृतीयौ भगणाविति व-प-मानां प्रथमपादे, 'शि-पि' इत्येतयोद्वितीयपादे, लस्य तृतीयपादे, मस्य चतुर्थपादे, लघुत्वमेव युक्तं, किन्तु प्रथमपादे 'ह्र-ह्रि-ह्री' इत्येतेषु, द्वितीयपादे 'ग्र-पु' इत्येतयोः, तृतीये 'भ्रा' इत्येतस्मिन्, चतुर्थे 'प्रि' इत्येतस्मिन् परतो गुरुर्व प्राप्तम्, तत् अह्रादिपर्युदासान्न भवतीति न च्छन्दोभङ्गः [७-२]॥
उदाहरणान्तरमाह-धनं प्रदानेनेत्यादि, प्रदानेन-सत्पात्रसमर्पणेन धनं [शोभते] श्रु तेन-सच्छास्त्रश्रवणेन कर्णो [शोभेते] इत्यादिरूपेणान्वयः । अत्रोपेन्द्रवज्राच्छन्दसि द्वितीयस्य तगणत्वेन 'प्रदानेन' इत्यत्र नकारस्य लघुत्वं युक्तं, तस्य श्रुशब्दे परे गुरुत्वं प्राप्तं न भवति [७-३] ॥
पुनरप्युदाहरति- लीलासिताजमिति, एतत्-परिदृश्यमानं, दिव:आकाशस्य, निह्नतदीप्ति-आच्छादितकान्ति वस्तुविशेषः, [दिवः स्त्रीत्वेनाध्यवसितायाः] लीलासिताब्जं-क्रीडाथं श्वेतकमलं किम् ?, उत दर्पणं किम् ? उत आतपत्रं-श्वेतच्छत्रं किम् ? अथ दन्तपत्रं-ताटकं किम् ?, अथवा किशंकवत्-पलाशपुष्पवत्, प्रकाशमानं मौलिरत्नं किरीटस्थं रत्नं किम् ? अथवा चामरं किम् ?, तिलकबिन्दुः-तिलकीकृतश्वेतचन्दनबिन्दुः किम् ? अथ-अथवा इन्दुबिम्बं-चन्द्रमण्डलं किम् ?, यदस्तु तदस्तु, किन्तु तत् कस्य मुदे नेत्यन्वयः । अत्र वसन्ततिलकाच्छन्दसि प्रतिपादं द्वितीययस्य भगणत्वेन पञ्चमस्य 'नि' इत्यस्य लघुत्वमपेक्षितं तत् 'हनुरूपे संयोगे न प्राप्तमिति प्रकृतनियमाल्लघुत्वं तिष्ठत्येव [७-४] ॥
इत्यं संस्कृते समुदाहृत्यान्यत्राऽप्युदाहर्तुमाह-प्राकृतेऽपि यथेति-प्राकृतेऽपि प्रकृतसूत्रानुसारं हसम्बन्धिसंयोगे गुरुत्वं यथा न भवति तथोदाहियत इत्यर्थः । जह ण्हाउ० इति-यथा-"स्नातुभवतीर्णे अभिषिक्तयुत्स्रस्तमंशुककपर्यन्तम् । यथा च न स्नातोऽसि त्वं स्वच्छे गोदानदीतीर्थे ।।" इति संस्कृतम् । अत्र च्छन्दोऽनुशासनपर्याय इत्थम्-"जह हाउं ति-स्नातुमवतीर्णे सात्त्विकभाववशात् आद्रं सत् उत्सस्तम्, अंशुकपर्यन्तम् "अखंतो पेरन्ते" इति वचनात्, उद्धृतशफरीं दृष्ट्वा चकितो न स्नात इति संटङ्कः" इति। अत्र केचिदेवमाहुः-त्वयि
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० ७.] स्नातुमवतीर्णे जलेन आद्रं कस्याश्चित् अंशुकान्तम्-अञ्चलम्, सात्त्विकभावातिरेकात् उत्स्रस्तम्-शरीरादपगतम् । यथा च-येन हेतुना च "न नग्नां स्त्रियं पश्येत्" इति निषेधात् तदर्शनं परिहरन् त्वम्, स्वच्छ-निर्मले. गोदानद्याः, तीर्थे-जलावतारे, न स्नातोऽसि इत्यर्थ इति । अत्रार्याच्छन्दसि व्हे संयोगे परतो गुरुत्वाभावान् मात्राधिक्यम् [७-५] ॥
तथा-वोद्रहद्रहमि पडिआ इति"ते विअ सुहया" ते च्वेअ पंडिआ ते जयंति जिअलोए। वोद्रद्रहम्मि पडिआ तरंति जे चेव लीलाए॥" इति पूर्णा आर्या ।
"त एव सुभगाः त एव पण्डिताः ते जयन्ति जीवलोके । ग्रामीणतरुणहदे पतिताः तरन्ति ये चैव लीलया ॥” इति संस्कृतम् । ग्रामीणाशिक्षितयुवकानां मध्ये निमग्ना अपि ये लीलया ततः पृथग् भवन्ति त एव सुभगाः, त एव पण्डिता, त एव जीवलोके विजयिन इति भावः । अत्र द्रहेति द्ररुपे संयोगेऽपि परतः पूर्वस्य गुरुत्वं न भवतीति न मात्रावृद्धिः । अत्र "द्रे रो नवा" [सि० ८. २. ८०.] इति सूत्रेण द्रशब्दरेफस्य विकल्पेन लोपेनात्र रेफस्य लोपाभावो विज्ञेयः [७-६] ॥ . एवं-"कुवलयखित्तद्रहि" इत्यादि, "पंकयपंकि वहोडि कुवलयखित्तद्रहि" इत्यादि रूपेण क्वापि समायाता मात्राजातिरियमपूर्णाऽस्पष्टा चेति नानूद्यते । अत्रापि 'द्रहि' इति द्रशब्दे परे पूर्वस्य लधोनं गुरुत्वमित्येतावन्मांत्रण प्रकृतोपयोगः । पर्यायेऽत्थम्-"कुवलयखितद्रहि ति-पंकयपंकि वहोडि, कुवलयखितद्रहि । बिवति वाडिहि घल्लि, ससहरु...''गहि । निम्मवि करवयणा-हर पुह लीलावहिं । उग्घीट्ठी निअसिट्टी निवाइ पयाइहि।" इति । अत्र कथञ्चिदियं संस्कृतच्छाया-पङ्कजानि पङ्के क्षिप्त्वा, कुवलयानि क्षिप्त्वा ह्रदे; विम्बानि वाटिकायां क्षिप्त्वा, शशधरं [गगनात्] गृहीत्वा । निर्माय कर-नयना-ऽधरमुखानि लीलावत्याः । उद्धृष्टा [उत्कृष्टा] इव सृष्टिः, निष्पादिता प्रजापतेः ॥ [७-७] ॥
प्रकृतसूत्रवणितहादिवर्ज़नं न केवलं वाचनिकमपि तु सहेतुकमपीत्याह-एषु अतीवप्रयत्नत्वं संयोगस्य गुरुत्वाभावे हेतुरिति । एषु प्रदर्शितेषु उदाहरणेषु, अतीवप्रयत्नत्वं तीव्रप्रयलोच्चार्यत्वाभावः, संयोगस्य संयुक्तवर्णस्य, गुरुत्वा
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[अ० १ सू० ७.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्यते
भावे पूर्वलघोर्गुरुतासम्पादकत्वाभावे, हेतुः कारणमित्यर्थः । अयमाशयःसंयोगस्योच्चारणे तत्पूर्वं स्थितः स्वरस्तीव्र प्रयत्नेनोच्चार्थत इति तत्र मात्राधिक्यं भवतीति गुरुत्वं जायते, यत्र तीव्रप्रयत्नं विनैव संयोगपूर्वस्थितस्य स्वरस्योच्चारणं क्रियते तत्र गुरुत्वं न जायत इति स्वाभाविकमिति । यत्र तीव्र प्रयत्न आवश्यक एव तत्र गुरुत्वं जायत एवेत्याह- तीव्रप्रयत्ने तु भवत्येव गुरुः इति । उदाहरति- बहंभारेषु केशान् इति - मेघदूते यक्षेण विरहिणा कामिनोक्तस्य पद्यस्यांशोऽयम् । स हि प्रियां प्रति संदेशं मेघद्वारा प्रेषयन् प्रियां सम्बोध्याह
"श्यामास्वङ्गं चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं,
वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिनां, बर्हभारेषु केशान् ।
उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीविचिषु भ्रूविलासान्,
हन्तैकस्मिन् क्वचिदपि न ते चण्डि ! सादृश्यमस्ति ||" [ उ० मे० ४६ ] ॥ ते अङ्गं श्यामासु - प्रियङ्गुलतासु, दृष्टिपातं नेत्र व्यापारं चकितहरिणीप्रेक्षणे - चकितायाः - शङ्किताया हरिण्याः, प्रेक्षणे - नेत्र व्यापारे वक्त्रच्छायांमुखकान्तिं, शशिनि - चन्द्रमसि, केशान् शिखिनां - मयूराणां बर्हमारेषु, भ्रूवि - लासान् - कटाक्षक्रीडाः, प्रतनुषु क्षुद्रासु, नदीविचिषु-सरित्त रङ्गेषु, उत्पश्यामि - उत्प्रेक्षया साक्षात्करोमि, हे चण्डि ! कोपने ! क्वचिदपि - एकस्मिन् वस्तुनि, ते सादृश्यं न अस्ति, येनैकत्रीभूतं तद् दृष्टा विनोदमुपलमे, इति हन्त दुःखमित्यर्थः । अत्र बर्हेति पदे रेफयुक्तस्य हकारस्योच्चारणं तीव्रप्रयत्नसापेक्षमिति तस्मिन् परतो विद्यमाने पूर्वस्य गुरुत्वं जायत एवेति भावः [ ७-८ ]॥ अत्र मतान्तरमाह- केचित् त्विति केचित् - अनिर्दिष्टनामान आचार्याः, क- - ) ( पयोरपि परत्र जिह्वामूलीयोपध्मानीययोरपि परतः सतोः, पूर्वस्य लघोः तदव्यवहिनपूर्वस्थितस्यापि मात्रिकस्य स्वरस्य गुरुत्वं प्रकृतसूत्रोक्तनियमप्राप्तं गुरुभावं नेच्छन्ति न स्वीकुर्वन्ति । उदाहरति-यथा- प्रणतसुरवरेति, कनकमयसुतनु ! कनकमयी- सुवर्णवर्णा सुतनुर्यस्य तत्सम्बोधनं- हे कनकमयसुतनु ! हे जिनवर ! वृषभ ! परमविजितमदमदनजननमरणः परममत्यन्तं विजितानि, मदः - अहङ्कारः, मदन: - कामः, जननम् - उत्पत्तिः, मरणं प्राणवियोगश्चेति मदमदनजननमरणानि येन सः, प्रणतसुरवरधरणनृपः प्रणताः सुरवरा धरणा नृपाश्च यस्मै सः, सकलुषजनसलिल
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०१, सू०८-६] कतकः सकलुषा:-सकल्मषपङ्का जना एव सलिलं तस्य [नर्मल्याय] कतक:पङ्कापनोदकः फलबिशेष इव, त्वं जय सर्वोत्कर्षेण वर्तस्वेत्यर्थः । अत्र पथ्यायां जातो चतुष्कलत्रये विराम इति जिह्वामूलीयोपध्मानीयाम्यां पूर्वस्य गुरुत्वे त्रयोदशकला भवन्तीति मात्रावृद्धिः स्यादिति गुरुत्वं नाभीयते इत्युदाहरणतात्पर्यम् [७-८] ॥ सू० ७ ॥
दीर्घ-प्लुतौ ॥८॥ द्विमात्र-त्रिमात्री वर्णी 'ग'संज्ञो भवतः, वक्रो च ।। सू० ८॥
प्रद्योतः-लघोर्गुरुत्वप्राप्ति विचार्य वस्तुतो गुरुत्वस्य विधायकं सूत्रमाहदीर्घप्लुताविति । व्याख्याति-द्विमात्र-त्रिमात्रौ वर्णाविति-द्वे मात्रे-उच्चारणकालकले यस्य स द्विमात्रः, तिस्त्रो मात्रा:- उच्चारणकालकला यस्य स त्रिमात्रः, तौ च वर्णी, अर्थात् स्वरी तयोरेव तादृशत्वसम्भवात; ग़संज्ञो भवतः । वक्र इत्यप्यनुवृत्तमुद्देश्यपारवश्याद् द्विवचनान्ततया विपरिणते, तदाह-वक्रो चेति- प्रस्तारे वक्ररेखया संकेतनीयाविति भावः ॥सू०-८।।
स द्विमात्रः ॥ ६ ॥ स 'ग्'संज्ञो द्विमात्रो भवति । एकमात्रे असती मात्रा आरोप्यते, त्रिमात्रे सती निराक्रियते ॥ सू०-६॥
प्रद्योतः-द्वि-त्रिमात्रयोर्वर्णयोः साधारण्येन गसंज्ञाविधानात् गसंज्ञा कि द्वयोर्मात्रयोर्बोधिका तिसृणां मात्राणामुभयोर्वेति संशये प्राप्ते इदमुच्यते-स द्विमात्रः इति । विवृणोति- स गसंज्ञो द्विमात्रो भवतीति- वस्तुत एकमात्रो द्विमात्रस्त्रिमात्रो वा भवतु, प्रज्ञायां सत्यां स साधारण्येन द्विमात्र एव गण्यत इत्यर्थः । फलितमाह- एकमात्रे असती मात्रा आरोप्यते, त्रिमात्रे सती मात्रा निराक्रियत इति । अयमाशयः-यत्र पादान्ते लघोरपि गसंज्ञा भवति, तत्र अविद्यमानव द्वितीया मात्रा आरोप्यते, आरोपश्च बाघसमानकालीनमाहार्यज्ञानम्, वस्तुगत्या एकस्या मात्रायाः श्रुतत्वेन द्विमात्रत्वज्ञानं बाधितमपि तत्समानकालीनमाहायं द्विमात्रत्वज्ञानं गृहीतं भवति । यत्र च वस्तुतः प्लुतत्वादिना त्रिमात्रत्वं श्रूयते तत्रापि गसंज्ञया द्विमात्रत्वमारोप्यत इति विद्यमानापि तृतीयामात्रा निरानियते-अपह नूयत इति ।।सू०-६॥
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_[अ० १, सू० १०.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २३
एदोती पदान्ते प्राकृते ह्रस्वौ वा ॥ १० ॥ पदान्ते वर्तमानौ एकार-ओकारी प्राकृतभाषायां वा ह्रस्वो भवतः । यथा
"पसगयवसम्मलिआएं उड्डोणससिविहंगाएं । पवलाई गलंति निसालयाएं नक्खत्तकुसुमाइं॥" [१०-१] "उअ पोमरायमरगयसंवलिमा गहयलाओं ओमरह।
गहसिरिकंठभट्ट व्व कठिआ कोरिछोली ॥" [१०-२] 'ई हिं' इत्येतयोहं स्वत्वं शम्दानुशासने सानुनासिकत्वविधानात् सिमिति नेहोच्यते । अपभ्रंशे तु-अपदान्तयोरपि "कादिस्थदोतोरबारलाघवम्" [सिद्धहे० ८. ४. ४१०.] इति "पदान्ते उँहुँ हिं हं काराणाम्" [ सिद्धहे० ८.४. १११.] इति च ह्रस्वत्वं शब्दानुशासने निर्णीतमिति नेहोच्यते ॥सू०-१०॥ . प्रद्योतः-इत्थमेकमात्र-त्रिमात्रयोविषये गसंज्ञा द्विमात्रत्वप्रतिज्ञामुक्त्वा कचिद् द्विमात्रस्यापि एकमात्रत्वं भवतीति वस्तुतो गुरोरपि तस्य लघुत्वं भवतीति विशेषमाह-एदोतो पदान्ते प्राकृते ह्रस्वी वेति । विवृणोति-पदान्ते वर्तमानौ एकार-ओकारौ प्राकृतभाषायां वा ह्रस्वौ भवतः इति-पदान्ते पादान्ते वर्तमानयोरेकार-ओकारयोः प्राकृते यथालक्ष्यं हस्वत्वं भवतीति वस्तुतो द्विमात्रयोरपि तयोरेकमात्रित्वं भवतीत्यर्थः । एकार-ओकारयोरिति असंदेहाय सन्ध्यभावः ॥
क्रमश उदाहरति-यथा एकारस्यकमात्रत्वमुदाहियत इत्यर्थः। पच्चूस० इति- "प्रत्यूषगजवरोन्मूलिताया उड्डीनशशिविहंगायाः ।
धवलानि गलन्ति निशालताया नक्षत्रकुसुमानि ॥” इति संस्कृतम् । आर्याप्रमेदेऽस्मिन् ऊनत्रिशंन्मात्रामितपूर्वार्धपूर्तये प्रथम-द्वितीय-तृतीयपादानामन्ते समागतस्यैकारस्य ह्रस्वत्वं भवति । मुद्रिते पुस्तके द्वितीयपादान्तस्थस्य एकारस्य ह्रस्वत्वं न प्रदर्शितं, तस्यापि वस्तुतो द्विमात्र त्वस्यैव ह्रस्वत्वसूचकचिह्नन निर्देशनं न कृतमिति नोचितं प्रतिमाति, तथा सति मात्राधिक्यं स्यात् ।
अर्थश्च-प्रत्यूषः-प्रमातमेव गजवरः, तेन उन्मूलितायाः-विच्छेदं नीतायाः, उड्डीनः शशी चन्द्र एव विहंगः:-पक्षी यस्यास्तस्याः, निशालतायाः-लतात्वेना
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० ११.] घ्यवसिताया निशायाः, धवलानि नक्षत्राण्येव कुसुमानि गलन्ति-पतन्तीति । प्रातःकाले चन्द्रोऽस्तं याति, नक्षत्राणि च दृष्टिपथाद् विलीयन्ते इति वस्तुस्थितिः, तत्र निशां-रात्रि लतात्वेन रूपयित्वा तस्यां स्थितस्य चन्दस्य विहंगमत्वं, नक्षत्राणां च कुसुमत्वं रूपितम्, निशाया उच्छेदकरः प्रातः कालो गजत्वेन निरूपितः, गजोन्मूलितलतायाः पक्षिण उड्डयनं पुष्पाणां पतनं च स्वाभाविकमिति रूपकोपस्थापितः स्वभावोक्तिरलङ्कारः [१०-१] ॥
ओकारस्यकमात्रत्वं यथा-उअ पोमरायेति । “पश्य पद्मरागमरकतसंवलिता नभस्तलात् अवतरति । नभःश्रीकण्ठभ्रष्टा इव कण्ठिका कीरश्रेणिः ॥" इति संस्कृतम् । आकाशात् पतन्ती शुकश्रेणिमक्लोक्य कश्चित् कञ्चित् प्रत्याह-पद्मरागर्मरकतमणिभिश्च संवलिता-मिश्रिता, नभःश्रीकण्ठभ्रष्टा नभःश्रियः-आकाशलक्ष्म्याः , कण्ठात् भ्रष्टा-पतिता, कण्ठिका-कण्ठाभरणमिव, कीरश्रेणिः-शुकपङ्क्तिः , नभस्तलात्- आकाशात्, अवतरति-नीचरायाति । अत्र नभःश्रीः स्त्रीत्वेनाध्यवसिता, शुकपङ्क्तिश्च रक्त-हरितवर्णमणिविशेषनिर्मितया मालयोपमिता, शुकानां चञ्चवो रक्तवर्णा इति पद्मरागमणिस्थानीयाः, शरीरं च हरितमिति मरकतमणिस्थानीयम्, मालारूपेण मण्डलीभूय पतनाच्च मालासाम्यम् । अत्र ‘णहयलाओ' इत्योकारस्य ह्रस्वत्वं भवतीति ऊनत्रिंशन्मात्रा जायन्ते, अन्यथा त्रिशंन्मात्राः स्युः [१०-२] ॥
प्राकृताऽपभ्रंशादिषु कानिचिच्छन्दानुशासनसिद्धान्येव लघुत्वानि प्रकृतोपयोगित्वाद् विवृणोति-'हँ हिँ' इत्यादिना, एतयोः सानुनासिकत्वं प्राकृतशब्दानुसासने विहितम्, सानुनासिकत्वं हि न काञ्चिन्मात्रामाधत्तेऽपि तु तस्य । नासिकयोच्चार्यत्वमात्रं विधत्ते इति न तेन मात्रावृद्धिरिति ह्रस्वत्वं तिष्ठत्येव । अपभ्रंशे तु उच्चारणलाघवार्थ सूत्रस्य मुक्तमेवेत्याह- अपभ्रंशे तु कादिस्थदोतोरिति, पदान्ते० इति च आभ्यां सूत्राभ्यामेकारौकारयोः सानुस्वाराणाम् 'उँ' इत्यादीनामुच्चारणे लाघवं विधीयते, ततश्चेह पुनस्तस्य विधानमानवश्यकमिति न कथ्यते इत्याह- ह्रस्वत्वं शब्दानुशासने निर्णीतमिति नेहोच्यत इति ॥ सू०-१०॥
तुर्योंशः पादोऽविशेषे ॥ ११॥ छन्दसनतुर्यों भागः पादसंज्ञः, अविशेषे-सामान्यामिषाने । यत्र तु 'द्विपदी
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[अ० १, सू० ११-१२] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते पञ्चपदी षट्पदी अष्टपदी च' इति विशेषाभिधानं तत्र द्वितीयाद्यंशोऽपि पावः ॥सू०-११॥
प्रद्योतः-अथ पादसंज्ञामाह-तर्योऽशः पादोऽविशेषे इति । विवृणोतिछन्दसश्चतुर्थो भाग इत्यादिना, छन्दस इति प्रकरणबलादायातम्, तस्य चत्वारो भागा भवन्ति, तेष्वेको भागः पाद इत्याख्यायत इत्यर्थः। द्वितीयाध्याये "पादः" [२-२] इत्यधिकृत्य एकाक्षरपादादीनां छन्दसां कथनं प्रस्तोष्यमाणमिति तदेव पादसंज्ञाप्रयोजनस्थलम् । 'अविशेषे' इत्युक्तम्, तस्याशयमाह- यत्र तु द्विपदीत्यादि । अयमाशयः-वृत्तं जातिश्चेति द्विघा विभक्तानि छन्दांसि, तत्र वृत्तानि चतुष्यदान्येव भवन्ति, जातयस्तु द्विपदी [ चतुष्पदी ] पञ्चपदी षट्पदी अष्टपदीत्येवं विशिष्योक्ताः, तत्र चतुष्पद्यास्तुरीयोंऽशः पादश्वेदविशेष एव वृत्तेभ्यः, द्विपदीपञ्चपद्यादिषु व्यभिचार इति तद्वारणाय 'अविशेषे' इत्युक्तम्, तेषु विशेषस्य विधानान्नायं निययो यत् तुरीयोंऽश एव पादः स्यादिति, तत्र द्वितीय-पञ्चमाद्यंशानामपि पादत्वात्, तुर्यत्वादि च विपरीतगणनायां प्रथमादावप्यस्त्येवेति सर्वेषां भागानां पादत्वम् । तथा च सापेक्षं तुर्यत्वादि, एवं-द्वितीयाद्यंशोऽपीत्यत्रापि विज्ञेयम् । चतु( परिकल्पितस्यैकस्य छन्दस एको भागः पादः, द्विधा परिकल्पिताया द्विपद्यादेरेकोऽश इत्यादिरूपेण बोध्यम्, यस्य च्छन्दसो यावन्तो भागाः परिकल्पितास्तेषां प्रत्येकं पादसंज्ञेति यावत् ॥ सू०-११ ॥
वृत्तम् ॥१२॥ प्राइ मात्राछन्वेभ्यो यदभिधास्यते तद् वृत्तसंज्ञं ज्ञेयम् । तच्च स्थिरगुरुलध्वभरविन्यासमिष्यते पाटन-संयोगयोरभावात्। मात्राछन्दांसि तु जातिरिति प्रसिद्धानि । यदाहुः
"पद्धं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा ।" [१२-१] । प्रद्योतः-पादस्य तुर्यांशस्य कथनात् सम्पूर्णस्य का संज्ञेत्याकाङ्क्षायामाहवृत्तमिति । विवृणोति-प्राक् मात्राछन्दोभ्य इति-आर्यादयो मात्रानियमितानि च्छन्दांसि मात्राच्छन्दांस्युच्यन्ते, तेभ्यः पूर्व यानि च्छन्दांस्युच्यन्ते तेषां वृत्तसंज्ञाऽधिक्रियते । तत्र यो विशेषस्तमाह-तच स्थिरगुरु-लघ्वक्षरविन्यासमिष्यते
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १३.] इति-स्थिर:-नियतरूपः, गुरुभिलघुभिश्चाक्षरविन्यास:-संनिवेशो यस्य तथाभूतमित्यर्थः । अयमाशयः- वृत्ते यत्र यो गणो यावद्भिर्यथोक्तलघुगुरुप्रस्तारक्रमवद्भिनिरूपितः स तथैव न्यसनीयः, न तु तस्य यथेच्छं विन्यासः, एतदेव स्यष्टयति- पाटन-संयोगयोरभावात् इति- गुरोलघुद्वयकल्पना पाटन, लघुद्वयस्य एकगुरुत्वकल्पना संयोगः, तयोरभावात्- वृत्तच्छन्दसि तथा विधानस्यासंमतत्वात् । अयमर्थः- मात्राच्छन्दसि यावत्यो मात्रा यत्र पादेऽर्थे वा नियतास्ताः स्वेच्छानुसारं लघुभिर्गुरुभिर्वा पूर्यन्ते, यत्र गुरोविन्यास आवश्यकस्तत्र लघुद्वयमपि विन्यस्यते, यत्र च लघुद्वयस्य विन्यास उक्तस्तत्र गुरोरेकस्य विन्यासेनापि छन्दः पूर्यते, न त्वेवं वर्णवृत्ते, तत्र यत्र स्थाने यो गुरुर्लधुर्वा विन्यसनीयत्वेनोक्तः स तथैव विन्यस्यते, न तु तत्र लघुद्वयेन सह गुरोः परस्परविनिमयः शक्यः कर्तुमिति ।
एवमक्षरच्छन्दसां वृत्तसंज्ञामुक्त्वा पारिशेष्यसिद्धमर्थमाह-मात्राच्छन्दांसि तु जातिरिति प्रसिद्धानि इति- मात्राभिनियमितानि मात्राच्छन्दांसि, तानि जातिरिति संज्ञया व्यवह्रियन्ते इति भावः। यद्यप्यक्षरच्छन्दःस्वपि एकाक्षरजातिरिति द्वयक्षरजातिरित्येवं प्रकृत्य उक्तादिजातयोऽमिधास्यन्ते तथापि तत्र जातिशब्द: सामान्यपरो न तु छन्दोभेदपर इत्यवगन्तव्यम् । एवं छन्दसां द्वेधा विभागो न केवलं मयैव परिकल्पितोऽपि तु पूर्वाचार्यव्यवहारोऽपीदृश एवेत्याहयवाहुः- "पधं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा" इति- [ का० ६० १-११ ] अत्र चतुष्पदीति कथनं बाहुल्याभिप्रायकं द्विपदी-पञ्चपद्यादीनामपि वक्ष्यमाणत्वात् पूर्वसूत्रे चर्चितत्वाच [१२-१] ॥१२॥ वृत्तं च समा-ऽर्धसम-विषममेवात् त्रेधा । तत् क्रमेण लक्षयति
समैः पादः समम् ॥ १३ ॥ पाश्चतुभिस्तुल्यलक्षणः समं वृत्तम् ॥ सू-१३ ॥
प्रद्योतः- इत्थं वृत्तपरिचयानन्तरं तद्भेदनिरूपणं प्राप्तावसरमिति तदर्षे सूत्रेऽवसरसङ्गतिमाह- वृत्तं समा-ऽर्धसम-विषमभेदात् अधेति, अयमभिप्राय:- अग्रे त्रिधा वृत्तानि निरूपितानि, तत्र कानिचित् समवृत्तानि कानिचिदर्षसमवृत्तानि कानिचिद् विषमवृत्तानि । अयं च भेदः प्रतीत एवेति न
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[अ० १, सू० १४-१५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते सूत्रेण तद्वर्णनम्, किन्तु विशिष्यैव समादिवृत्तानां लक्षणान्याख्यायन्ते, तदाहतत् क्रमेण लक्षयतीति- उक्तविभागसिद्धमेव समादिवृत्तं प्रातिस्विकरूपेण वर्णयतीत्यर्थः । तथा च सूत्रम्- समैः पादैः समम् इति । व्याख्यातिपादश्चतुभिस्तुल्यलक्षणः समवृत्तमिति- यत्र वृत्ते चत्वारोऽपि पादाः समानेन लक्षणेन युक्तास्तद् वृत्तं सममित्याख्यायत इत्यर्थः। अयमर्थः- सममिति न वृत्तान्तरेण साम्यमादायोच्यतेऽपि तु स्वावयवानां चतुर्णामपि पादानां साम्यमादायवेति ॥१३॥
समाधमर्धसमम् ॥ १४ ।। यस्य तुल्ये अर्धे तदर्धसमं वृत्तम् ॥ सू-१४ ॥ प्रद्योतः-क्रमप्राप्तमसमं लक्षयति-समाधमर्धसममिति । व्याख्यातियस्य तुल्ये अर्धे, यस्य- वृत्तस्य, अर्ध- समांशद्वयं द्वि-द्विपादात्मकम्, तुल्येसमानलक्षणलक्षिते, तदर्धसममिति-विज्ञेयमित्यर्थः, अयमाशयः- सर्वेषां पादानां साम्याभावश्चेत् तथापि द्वाभ्यां पादाभ्यां निर्मितयोरयोः साभ्येऽर्धसममिति । यद्यपि समवृत्तेऽपि अर्धयोः साम्यमस्त्येव तथापि समवृत्तभिन्नत्वे सतीत्यपि विशेषणं देयमित्यत्र तात्पर्यम्, अर्धयोरेव साम्यं न तु पादानामित्येवं परत्वात् सूत्रस्य । अर्धसमवृत्तानि हरिणप्लुतादीनि तृतीयाध्याये निरूपयिष्यन्ते ॥१४॥
__ अन्यद् विषमम् ॥ १५ ॥ आभ्यामन्यद् विषमं वृत्तम् ॥ सू-१५॥ प्रद्योतः-पारिशेष्याद् विषमवृत्तस्य वर्णनमवसरप्राप्तं, तदाह-अन्यद विषममिति । विवृणोति-आभ्यामन्यद् विषमं ज्ञेयमिति- आभ्यां पूर्वसूत्रद्वयलक्षिताभ्यां समाऽर्धसमवृत्ताभ्याम्, अन्यद्-विपरीतं विषमं वृत्तं ज्ञेयमित्यर्थः, समैः पादः, अर्धाभ्यां च विगतं समं- साम्ययुक्तं स्वरूपं यस्य तद् विषममित्यर्थः। अर्धसमवृत्तानि अर्धे साम्यं बिभ्रति, विषमं तु क्वापि साम्यं न दधातीत्यर्थः । विषमवृत्तानि वक्त्रादीनि तृतीयाध्याय एव वर्णयिष्यन्ते ॥१५॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्यो श्रव्यो विरामी यतिः ॥ १६ ॥
विरमणं विरामो विश्रामः, स श्रुतिसुखो यतिसंज्ञः । सा च तृतीयान्तेषु धादिनिर्देशेषुपतिष्ठते । गावयश्च साकाङ्क्षत्वात् यतिरित्यनेन सम्बध्यन्ते । तेन गाद्यवच्छिन्नैरभर्रर्यतिः क्रियत इत्ययमर्थः सिध्यति । तत्रैषा यत्युपदेशोपनिषत् पठते
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[अ० १, सू० १६. ]
"यतिः सर्वत्र पादान्ते श्लोका तु विशेषतः ।
गादिच्छिन्नपदान्ते च लुप्तालुप्तविभक्तिके ।" [१६-१] ।
तत्र 'यतिः सर्वत्र पादान्ते' यथा
" नमोऽस्तु वर्धमानाय स्पर्धमानाय कर्मणा । तज्जयावात मोक्षाय परोक्षाय कुतीथिनाम् ॥” [१६-२] । न पुनरेवं यथा
" नमस्तस्मै महादेवाय शशाङ्कार्धधारिणे ॥" [१६-३] । 'श्लोका तु विशेषतः' इत्यत्र सन्धिकार्याभावः स्पष्टविभक्तिकत्वं च विशेषः । यथा
"नमस्यामि सदोद्भुतमिन्धनीकृतमन्मथम् ।
ईश्वराख्यं परं ज्योतिरज्ञानतिमिरापहम् ॥” [ १६-४] ।
अत्र 'ईश्वरम्' [ ईश्वराख्यम् ] इत्यस्य पूर्वमकारेण सन्धिनं कर्तव्यः । स्पष्टविभक्तिकत्वं चात्रैव । न त्वेवं यथा
"सुरासुरशिरोरत्नस्फुरत्किरणमञ्जरी
पिञ्जरीकृतपादाब्जद्वन्द्वं वन्दामहे शिवम् ||" [ १६-५ ] । 'गादिच्छिन्नपदान्ते च लुप्तालुप्तविभक्तिके' यथा
“उत्तुङ्गस्तनकलशद्वया लोलाक्षी विपुलनितम्बशालिनी च ॥" [ १६-६ ] । "यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु ॥" [१६-७ ] इति । "लुप्तालुप्तविभक्तिके" इति 'यतिः सर्वत्र पादान्ते' इत्यनेनापि सम्बध्यते ।
यथा
''नमस्तुङ्गशिरश्चुम्बिचन्द्रचामरचार वे । त्रैलोक्यनगरारम्भमूलस्तम्भाय शम्भवे ।।" [१६ -८] । तथा" वशीकृत जगत्कालं कण्ठेकालं नमाम्यहम् ॥" [१६-६ ] इति । तथा
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
"कचित् तु पदमध्येऽपि गकारादौ यतिर्भवेत् । यदि पूर्वापरौ भागौ न स्यातामेकवर्णको ॥" [१६-१०] । यथा
"पर्याप्तं तप्तचामीकरकटकतटे श्लिष्टशीतेतरांशी ॥" [१६-११] इति । तथा
"कूजकोयष्टिकोलाहलमुखरभुवः प्रान्तकान्तारवेशाः॥" [१६-१२] इति । तथा
"हासो हस्ताप्रसंवाहनमपि तुलितादीन्द्रसारद्विषोऽस्य ॥" [१६-१३] ।
"वैरिश्चानां तथोचारितचतुरऋचां चाननानां चतुर्णाम् ॥" [१६-१४] इति ।
"खड्गे पानीयमालादयति हि महिषं पक्षपाती पृषत्कः ॥" [१६-१५] इति । 'गकारादौ' इति किम् ? पदमध्ययतिः पावान्ते मा मूत् । यथा- . "प्रणमत भवबन्धक्लेशनाशाय नारायणचरणसरोजद्वन्द्वमानन्दहेतुम् ॥" [१६-१६] । पूर्वोत्तरभागयोरेकाक्षरत्वे तु पदमध्ये यतिर्दुष्यति । यथा"एतस्या गण्डतलममलं गाहते चन्द्रकक्षाम् ॥" [१६-१७] इति । "एतासां राजति सुमनसां दाम कण्ठावलम्बि ॥" [१६-१८] इति । "सुरासुरशिरोनिघृष्टचरणारविन्दः शिवः ॥" [१६-१६] इति । "पूर्वान्तवत् स्वरः सन्धौ कचिदेव परादिवत् ॥" [१६-२०] । योऽयं पूर्वापरयोरेकादेशः स्वरः सन्धी विधीयते स कचित् पूर्वस्यान्तवा भवति, कचित् परास्यादिवत्, उभयादेशत्वात् । यथा
"स्यावस्थानोपगतयमुनासंगमेवामिरामा ॥" [१६-२१] । "जम्मारातीभकुम्भोद्भवमिव दधतः ॥" [१६-२२] इति । तथा"विक्कालाधनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ॥" [१६-२३] इति । पराविवद्भावो यथा
"स्कन्धे विन्ध्याद्रिबुद्धचा निकषति महिषस्याहितोऽसूनहार्षीत् ॥" [१६२४] इति । - "शूलं तूलं तु गाढं प्रहर हर हृषीकेशकेशोऽपि वक
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते [अ० १, सू० १६.] चक्रेणाकारि कि ते० ॥" [१६-२५] इति । अत्र हि स्वरस्य परादिवद्भावे व्यअनमपि तद्भक्तत्वात् तदादिवद् भवति । 'यदि पूर्वापरी भागौ न स्यातामेकवर्णको ॥" [१६-२६] । इति अन्तादिवद्धावविधावपि सम्बध्यते । तेन"अस्या वक्त्राब्जमवजितपूर्णेन्दुशोभं विभाति ॥" [१६-२७] । इत्येवंविधा यतिन भवति । "प्रष्टव्यो यतिचिन्तायां याद्यादेशः परादिवत् ॥" [१६-२८] । यथा"अच्छिन्नप्रसराणि नाथ ! भवतः पातालकुक्षौ यशांस्यचापि अपयन्ति कोकिलकुलच्छायासपत्नं तमः ॥" [१६-२६] । "विततघनतुषारक्षोक्शुभ्रासु दूर्वास्वविरलपदमाला श्यामलामुल्लिखन्तः ॥" [१६-३०] इति । "नित्यं प्राक्पदसम्बद्धाश्चादयः प्राक्पदान्तवत् ॥" [१६-३१] । बादिभ्यः पूर्व यतिन कर्तव्येत्यर्थः । यथा"स्वादु स्वच्छं च सलिलमिदं प्रीतये कस्य न रस्यात्॥" [१६-३२] इति । 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा' इति किम् ? अन्येषां पूर्वान्तवद्धावो मा भूत् । यथा"मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ॥" [१६-३३] इति । "इत्योत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे ॥" [१६-३४] इति । "परेण नित्यसम्बद्धाः प्रादयश्च परादिवत् ॥" [१६-३५] । प्रादिभ्यः परा यतिनं भवतीत्यर्थः । "दुःखं मे प्रतिक्षिपति हृदये दुःसहस्त्वद्वियोगः ॥" [१६-३६] इति । 'परेण नित्यसम्बद्धाः' इति किम् ? अन्येभ्यः परापि यतिर्यया स्यात् । "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ॥" [१६-३७] । अयं च चादीनां प्रादीनां चंकाक्षरत्वेन कालराणामेव पदान्तयतावन्ताविबद्भाव इष्यते, न त्वनेकाक्षराणां पदमध्ययतौ । तत्र हि पदमध्येऽपि चामीकरादिष्विव यतेरभ्यनुज्ञातत्वात् । तत्र चादीनां यथा
"प्रत्यादेशावपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम् ॥" [१६-३८] इति । प्रादीनां यया-"दुरास्तप्रमोद हसितमिव परिस्परमासां सखीमिः ॥"
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [१६-३६] इति ।
तदेतत् सर्व श्रव्यपदेनेव गतार्थमिति न सूत्रितम् । अनिविष्यतिकेऽपि च छन्दसि श्रव्येव यतिः करणीया । न पुनरेवं यथा
"तेन शशिमुखि! गतेन सखि! कि प्रियेण कुरु मानमपि तस्मिन् । स तव वरतनु! समदनः स्वयमेव समेति चरणयुगम् ॥" [१६-४०] इति । तयाहि
"अबह्वापि मधुरा मनो हरति भारती। तमोनिचयसंकाशा मत्तनादेव कोकिला ॥" [१६-४१] इति ॥सू-१६॥ प्रद्योतः- छन्दोविषयाः संज्ञाः कथयन्नवसरप्राप्तां यतिमाह- श्रव्यो विरामो यतिः इति । विवृणोति-विरमणं विराम इति-विपूर्वस्य रमेर्गतिविच्छेदोऽर्थः, तथा चैकधारया पठ्यमानस्य च्छन्दसो मध्ये पाठविच्छेदो विरामः, पर्यायमाह-विश्रामः इति- स एव विश्रामोऽत्र शास्त्रे यतिरित्याख्यायत इत्यर्थः । भावव्युत्पत्त्याऽर्थवर्णनमिदम्, आधारव्युत्पत्त्या तु विरमन्त्यति विराम इति, तथा च विश्रामस्थानं यतिरित्यायाति । यद्यपि यतिशब्देन न कापि व्यवहृतं तथापि अधिकारार्थमेतदुक्तमित्यनुपदं स्फुटीकरिष्यते । श्रव्यपदं व्याचष्टे-श्रुतिसुखः इति-श्रुतिभ्यां कर्णाभ्यां सुखः-सुखकर इत्यर्थः, यथा पठ्यमानस्य च्छन्दस: श्रवणात् सुखमनुभूयते तथा विरामे यतिरिति भावः । विरामश्चार्धमात्राकालव्यवच्छेदः पादमध्ये, पादान्ते च मात्राकालव्यवच्छेदः, द्वितीयपादान्ते च मात्राद्वयव्यवच्छेद इति केचित् । तदाह
"श्लोकेऽर्धमात्रा तु यतो विरतो मात्रयाऽन्तरम् । विच्छेदे त्वत्र मात्रे द्वे अवसाये ततोऽधिकम् ॥” इति ।
तत्र यतिः पादमध्यविश्रामः, विरतिः पादान्तविश्रामः, विच्छेदः श्लोकाविश्रामः, अवसायः श्लोकसमाप्तिः, तत्र मात्राद्वयादप्यधिको विश्राम इति विज्ञेयम् । संज्ञाप्रयोजनमाह- सा च तृतीयान्तेषु ग-घादिनिर्वशेषूपतिष्ठत इति- अनेत सूत्रेण या यतिसंज्ञा विधीयते साऽग्ने "त्र्यादिर्गादिः" [ १-१७ ] इति सूत्रपरिभाषणानुसारं श्यादिवर्णबोधकश्छन्दोलक्षणसूत्रस्थैर्ग-धादिभिस्तृतीयानिर्दिष्टः पदैः सह सम्बध्यते । यथा-"स्तो ल्गो माणवकं पः" [२-७७] इत्यत्र यतिरित्युपस्थितौ चतुभिर्वर्णर्यतिरित्यर्थो भवति । तदाह- गाद्यवच्छि
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] न्नरक्षरर्यतिः क्रियत इत्ययमर्थः सिध्यतीति- गाद्यवच्छिन्नाश्च त्रित्वादिसंख्योपलक्षिताः ॥ ..
यतिसंज्ञामुक्त्वा तद्विषये व्यवस्था पूर्वाचार्यरुक्तां व्याचिख्यासुराह-तत्रैषा यत्युपदेशोपनिषत् पठ्यत इति- यतेरुपदेशस्य उपनिषत्- रहस्यभूतं वचनं, पठ्यते पूर्वाचार्यरिति शेषः । सा च चतुःश्लोकात्मिका अभियुक्तपरम्पराप्रसिद्धा पूर्वरपिहलायुधादिभिः छन्दःशास्त्रव्याख्यातृभिरेभिरेव शब्दैः प्रस्तुता स्वीयवृत्त्यादौ । क्रमशो व्याख्यातुं पृथक् पृथक् तदीयांशानुद्धरति-"यतिःसर्वत्र पादान्ते" इत्यादिना, सर्वत्र श्लोके पादान्ते-प्रतिपादसमाप्ती, यति:- विरामः, श्लोकार्पे द्वितीयपादान्तभावे तु, विशेषतः प्रथम-तृतीयपादान्तापेक्षयाऽधिककालं, वक्ष्यमाणविशेषवती च यतिरित्यर्थः। स्वाभाविकी यतिमुक्त्वा लक्षणेषूक्तां यतिमप्याह- गादिच्छिन्नपदान्ते चेति- गादिभि:- त्र्यादिवर्णवोधकैलेक्षणान्तर्गतैस्तृतीयान्तपदैः, छिन्नानि- अवच्छिन्नानि पृथग्बोधितानि यानि पदानि तेषामन्तेऽपि यतिः; तानि पदान्येव विशिनष्टि-लुप्ताऽलुप्तविभक्तिके इति- लुप्ताऐकार्थ्यनिमित्तककृतविलोपा, अलुप्ता-श्रूयमाणा वा, विभक्तिः- स्यादिर्यस्मिन् तादृशे गादिच्छिन्नपदान्तेऽपि यतिः । एतच्च पूर्वार्धोपात्तस्य पादान्ते' इत्यस्यापि विशेषणमिति वक्ष्यति । अत्र त्रिधा यतिरुक्ता पादत्रयेण, तां क्रमश उदाहरनाह- तत्र यतिः सर्वत्र पादान्ते यथेति । क्वेत्याह- नमोऽस्तु वर्षमानायेत्यादि, कर्मणा घात्यादिभेदमिन्नेन सह, स्पर्घमानाय अभिभवेच्छायुक्ताय, तज्जयावाप्तमोक्षाय तस्य-कर्मणो, जयेन- अभिभवेन, अवाप्तोऽधिगतो मोक्षो येन तथाभूताय, कुतीथिनाम् अनुचितसम्प्रदायानुगामिनां कृते, परोक्षाय अज्ञातस्वरूपाय, वर्षमानाय तन्नामकतीर्थङ्कराय, नमः प्रहृत्वम्, अस्तु भवत्वित्यन्वयः। अत्र सर्वत्र पादान्ते परस्परासंसर्गात् विश्रामोऽव्याहत एव [ १६-१] ॥
प्रत्युदाहरणमाह- न पुनरेवं यथा नमस्तस्मै महादेवायेति- एवं पुनर्न यतिविधेया यथा- उदाह्रियमाणे "नमस्तस्मै" इत्यादिपद्ये दृश्यते, अत्र हि प्रथमपादस्यान्ते यतिरुचिता, किन्तु पदस्यासमाप्ततया सा न सम्भवति, केवलं 'य' कारस्य द्वितीयपादे पाठेनार्थबोधेऽपि विच्छेदापत्तेः। किञ्च तत्र 'वा' इत्यन्तस्य नैकार्थ्यनिमित्तकलुप्तविभक्तिकत्वं नवाऽलुप्तविभक्तिकत्वमिति नैषा
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते यतिर्युक्तेति भावः । शशाङ्कार्घधारिणे अर्घचन्द्र युक्तललाटाय, तस्मै प्रसिद्धाय, महादेवाय शिवाय, नम इति तदर्थः [१६-२] ॥ ___ इत्थं प्रथमपादोक्तां यतिमुदाहृत्य द्वितीयपादोक्तयतेरुदाहरणावसरे पूर्व तदर्थ स्पष्टयति- 'इलोकार्धे तु विशेषतः' इत्यत्र सन्धिकार्याभावः स्पष्टविभक्तिकत्वं च विशेषः इति, अयमाशयः- साधारण्येन यतिस्तु यथा प्रथमपादान्ते तथैव द्वितीयपादान्तरूपे श्लोकार्धेऽपि भवत्येव किन्तु प्रथमपादान्तस्य द्वितीयपादादिना सह सन्धिरपि भवति, किन्तु द्वितीयपादान्तस्य तृतीयपादादिना सह सन्धिर्न भवति । किञ्च प्रथमपादान्ते विभक्तेः स्पष्टताऽनावश्यकी पदमध्येऽपि क्वचित् प्रथमपादान्तविश्रामदर्शनात् तस्य सर्वानुमतत्वाच्च, किन्तु द्वितीयपादान्ते विभक्तेः स्पष्टता तृतीयपादादिना सहासम्बन्धार्थमावश्यकीत्येव श्लोकार्धयतौ विशेष इति ।
तथा च समुचितां पादार्धयतिमुदाहरति- नमस्यामि सदोद्भूतमिति, सदोदभूतं कालत्रयेऽपि प्रकाशमानम्, इन्धनीकृतमन्मथम् इन्धनीकृतःस्वललाटनेत्रोत्थवह्नह्यतामानीतः, मन्मथः- कन्दर्पो येन तत्, ईश्वराख्यम् ईश्वरेति नाम्ना आख्यायमानम्, अज्ञानतिमिरापहम् अज्ञान- वस्तुतत्त्वाप्रकाश एव तिमिरमन्धकारः, तमपहन्ति- नाशयतीति तथाभूतम्, परं ज्योतिः उत्कृष्टतरं तेजः, नमस्यामि प्रणमामीत्यन्वयः [१६-३ ] ॥ अत्र यते: साधारण्येऽपि यो विशेषस्तमाह- अत्र ईश्वरमित्यस्येत्यादिना, अत्र 'ईश्वराख्यम्' इति प्रतीकोपादानं युक्तम्, ईश्वरमिति पदस्य तृतीयपादादावदृष्टत्वात्, तथा च 'ईश्वरमित्यस्य, इति लेखो लेखकप्रमादादायात इति संभावयामः । पूर्वार्धान्ते समागतस्य 'म्'कारस्य तृतीयपादादिना ईकारेण सह सन्धिःमेलनं न कर्तव्यः; मात्राकालविच्छेदमाश्रित्य तेन सह संहिता न कार्या, तथा च न कृताऽपि । किञ्चान्योऽपि विशेष इत्याह- स्पष्टविभक्तित्वं च अत्रैव स्पष्टविभक्तिकत्वांशस्यापि इदमेवोदाहरणं युक्तमिति भावः । ___ प्रत्युदाहरणं दर्शयितुमाह-न त्वेवं यथा-सुरासुरेति- सुरासुराणां- देवदानवानां, शिरःसु यानि रत्नानि तेषां स्फुरन्तीभिः- उद्गच्छन्तीभिः, किरणमञ्जरीभिः- प्रकाशकलिकाभिः, पिञ्जरीकृतं- चित्रितं, पादाब्जद्वन्द्वं- चरणकमलयुगलं यस्य तादृशं, शिवं, वन्दामहे- प्रणमाम इत्यन्वयः । अत्र तृतीयपादेन सह द्वितीयपादस्यापि सम्बन्धात् तस्य समस्तपदतया स्पष्टविभक्तिकत्वं
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] नास्ति, तथा च समासस्थपूर्वोत्तरपदयोर्मध्ये यावानेव कालो विच्छेदस्य स एवात्र समाश्रयितुं युज्यते, न च तावता श्लोकार्धविरतिः स्पष्टीभवतीति 'श्लोकार्धे तु विशेषतः' इत्युक्ता विशिष्टा यतिर्नेहेत्येवं न प्रयोज्यमिति समुदितार्थः [ १६-४ ] ॥
तृतीयां यतिमुदाहर्तमाह- गादिच्छिन्नेति- व्याख्यातोऽयमंशः । उत्तुङ्गस्तनेति- इदं पद्यं पिङ्गलछन्दःशास्त्रे हलायुधेन प्रहर्षिणीच्छन्दस उदाहरणत्वेन उदाहृतम्, तत्र पूर्वार्धमात्रमत्र पठितं तावतैवोदाहरणसम्पत्तेः । उत्तरार्धे तु तत्रेत्थमुक्तम्- "बिम्बोष्ठी नरवरमुष्टिमेयमध्या सा बाला भवतु मनःप्रहर्षिणीति ॥” इति । उत्तुङ्गम्- अत्युन्नतं, स्तनकलशद्वयं- कलशोपमं कुचयुग्मं यस्याः सा, नताङ्गी स्तनभारभङ्गुरशरीरा, लोलाक्षी चपलनयना, विपुलनितम्बशालिनी विपुलेन- विशालेन, नितम्बेन- कटिपश्चाद्भागेन, शालतेशोभते तच्छीला, बिम्बोष्ठी बिम्बवत् स्वनामप्रसिद्धपक्कफलवत् रक्तवर्णी ओष्ठौ यस्याः सा, नरवरमुष्टिमेयमध्या नरवरस्य-पुरुषश्रेष्ठस्य तत्सहवासोचितस्य, मुष्टया मेयं- परिच्छेद्यं कृशतरमिति यावत्, मध्यम् - उदरप्रदेशो यस्याः, तथाभूता बाला- प्रथमावतीर्णयौवना, मनःप्रहर्षिणी मानसोल्लाससम्पादिका भवत्वित्यन्वयः । अत्र "म्रो जो गः प्रहर्षिणी गैः" [२-१९७] इति लक्षणानुसारं समस्ते लुप्तविभक्तिकेन गावच्छिन्नपदेन, असमस्ते च अलुप्तविभक्तिकेन गावच्छिन्नपदेन, अवच्छिन्नेषु पदेषु यतिः स्पष्टा। अन्ये तु पद्यमिदं केवलं लुप्तविभक्तिकस्य गावच्छिन्नपदान्तस्योदाहरणमिति व्याचक्षते, तन्मते उत्तुङ्गेत्यत्र ऐकाथुन 'लोलाक्षी, बिम्बोष्ठी, बाला' इति पदेषु ड्याः परत्वनिमित्तत्वेन च विभक्तेलृप्तत्वमिति यथाकथंचिल्लुप्तविभक्तित्वमस्त्येव । परं तैरेव लुप्तविभक्तिपदव्याख्यानसमये ऐकार्थ्यनिमित्तलुपैव लुप्तविभक्तित्वं ग्राह्यमित्युक्तमिति पूर्वापरविरोधस्तेषां स्पष्टः । तथा च लोलाक्षीत्यादीनां लुप्तविभक्तिकत्वेऽपि नात्र लुप्तविभक्तिकत्वरूपेण ग्रहणमिति युक्तमुत्पश्यामः । अस्तु वा तल्लुप्तविभक्तघंशस्यैवोदाहरणम्, स्पष्टमलुप्त विभक्तिकमुदाहर्तुं तादृशस्थलविशेषस्यापि सत्त्वात् [ १६-५] ॥ .. तत्रोदारणान्तरमाह- यक्षश्चक्र इति, कालिदासकवेर्मेघदूतस्याद्यपद्यस्यांशोऽयम् । पूर्ण च पद्यं यथा
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते "कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः, शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येन भर्तुः । यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु, स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥” इति । स्वाधिकारप्रमत्तः पूजावसरसम्पादनीयपुष्पपूर्तिरूपस्वनियोगाच्च्युतः, कश्चित् अज्ञातनामा, यक्षः देवयोनिविशेषः, कान्ताविरहगुरुणा कान्तया सह विरहो-वियोगः, तेनैव गुरुणा-दुर्वहेन, वर्षभोग्येन एकाब्दपर्यन्तस्थायिना, भर्तः यक्षेश्वरस्य कुबेरस्य, शापेन कान्तासक्तरेवैवं त्वं स्वाधिकारात् प्रच्यवसे इति वर्ष यावत् तया वियुक्तो भवेत्याक्रोशेन, अस्तङ्गमितः- नष्टो महिमा- स्वेच्छाविहारादिरूपमैश्वर्यं यस्य तादृशः सन्, जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु जानकीशरीरसम्पर्कपरिपूतसलिलेषु, रामगिर्याश्रमेषु चित्रकूटस्थमुनिनिवासेषु, कीदृशेषु ? स्निग्धच्छायातरुषु निबिडनमेरुवृक्षयुक्तेषु, वसति निवास, चक्रे इत्यन्वयः। अत्र मन्दाक्रान्ताच्छन्दसि "मो भ्नौ तौ गौ मन्दाक्रान्ता घ-चैः” [ २-२६० ] इति लक्षिते चतुभिः षड्भिश्च विरामस्य युक्तत्वात् 'यक्षश्चक्रे' इति चतुरक्षरांशस्यालुप्तविभक्तिकत्वम्, 'जनकतनया' इति षडक्षरांशस्य तु लुप्तविभक्तिकत्वमेव, तथा प्रथमपादादौ घावच्छिन्नांशस्य लुप्तविभक्तिकत्वं चावच्छिन्नांशस्य त्वलुप्तविभक्तिकत्वमेवेत्येवं विचारेऽस्यापि लुप्तालुप्तविभक्तिकोदाहरणत्वमेवेति नैतयोः कश्चिद् भेद उदाहरणयोरिति युक्त मुत्पश्यामः [ १६-६ ] ।
इत्थं कारिकोक्तां त्रिरूपामपि यतिमुदाहृत्य 'लुप्तालुप्तविभक्तिके' इत्यंशस्य प्रथमपादविषयेऽपि सम्बन्ध इत्याह- लुप्तालुप्तविभक्तिके इति यतिः सर्वत्र पादान्ते' इत्यनेनापि सम्बध्यत इति, तथा च पादान्तयतेरपि द्वैविध्यं सम्मतमिति भावः । तदुदाहरति- यथा नमस्तुङ्गेति, [ हर्षाख्यायिकागतं ] पद्यमिदं हलायुधेन छन्दःशास्त्रवृत्तौ मङ्गलत्वेनोक्तम् एतद्विषयोदाहरणत्वेन च। तुङ्गशिरश्चुम्बी-उन्नतमस्तकारूढः, चन्द्र एव चामरस्तेन चारु:-सुन्दरस्तस्मै, त्रैलोक्यमेव नगरं-पुरं, तस्यारम्भे-तदादौ, मूलस्तम्भाय- आधारस्थाणवे, शम्भवे महेश्वराय, नम इत्यन्वयः । यथा कस्यचिन्नगरस्य समारम्भसमये चामरान्वितो मूलस्तम्भः स्थाप्यते तथैवायमपि त्रैलोकस्य मूलभूतः
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सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] स्थाणुः शिरसि चन्द्ररूपेण चामरेण शोभित इति रूपकेण सूच्यते । अत्र प्रथमतृतीयपादान्तयोलृप्तविभक्तिकत्वं द्वितीयचतुर्थपादान्तयोश्चालुप्तविभक्तिकत्वम् [१६-७] ॥
उदाहरणान्तरमाह- वशीकृतेति, इदमपि पद्यं हलायुधेन स्ववृत्तावुदाहृतम्, उत्तरार्धं चास्येत्थमुक्तम्- “महाकालं कलाशेषशशिलेखाशिखामणिम्" इति । वशीकृतो जगतां-सर्वेषां जङ्गमानां कालो-यमो येन तं, कण्ठेकालं कण्ठे स्थितः काल:- विषपानोद्भूतः कालिमा यस्य तं, कलाशेषा-एककला. मात्रावसाना, शशिलेखा- चन्द्ररेखैव, शिखामणि:- चूडारनं यस्य तं, महाकालंतदाख्यं शिवम्, अहं नमामि, इत्यन्वयः । अत्रापि प्रथम-द्वितीयपादान्तयोरलुप्त विभक्तिकत्वं तृतीयपादान्तस्य लुप्तविभक्तिकत्वं चतुर्थे पुनरलुप्तविभक्तिकत्वमिति [ १६-८ ] ॥
यतिव्यवस्थाविषयिणी द्वितीयां कारिकामाह-क्वचित् तु पदमध्येऽपीति, क्वचित् तु पूर्वोकव्यवस्थाभिन्नस्थलेऽपि विरलविषये, पदमध्येऽपि स्याधन्तादिरूपपदासमाप्तावपि, गकरादौ गाद्यवचिन्न भागे, यतिः विश्रामः, भवेत् सम्भाव्यते; किमविशेषेण नेत्याह- यदि पूर्वापरौ भागाविति, यदि चेत्, पूर्वापरौ गाद्यवच्छिन्नसमुदायस्थः पदस्य प्रथमोऽशः, अवशिष्यमाणश्च उत्तरोंऽशः, एकवर्णको एकाक्षरमात्री, न स्यातां न भवेताम् । अयमाशय:यत्या विच्छिद्यमानस्य पदस्य विच्छिन्नोंऽशः परिशिष्टांशश्च एकवर्णाधिकः स्यात् तदैव पदमध्ये यतिरनुमता नान्यथेति । पदमध्ये यतीरुदाहरति- यथापर्याप्तमित्यादि, मयूरकवेः सूर्यशतकस्य कस्यचित् पद्यस्य पादोऽयम्, तप्तचामीकरं- दाहशोधितसुवर्णमयं, कटकतटं- प्रान्तभागो यस्य तादृशे, श्लिष्शीतेतरांशो श्लिष्टा:- संलग्नाः, शीतेतरा- उष्णाः, अंशवः- किरणा यस्मिन् तादृशे, [सुमेरौ तव तेजः] पर्याप्तं परितो व्याप्तमिति सम्बन्धः । अत्र स्रग्धराच्छन्दसि छावच्छिन्नः [ सप्तभिः] अक्षरैर्यतिरिति तदवच्छिन्नो भागः 'चामीकर' इति पदस्य मध्ये एव समाप्त इति तस्य भागस्यानेकवर्णत्वम्, अवशिष्टस्य 'कर' इति भागस्यापि तथात्वमिति यतेरौचित्यम् [ १६-६] ॥
उदाहरणान्तरमाह-तथा-कूजत्कोयष्टि० इति- कूजतां- शब्दायमानानां, कोयष्टीनां- टिट्टिभानां, कोलाहलः- आरावः, मुखरिता- शब्दपूर्णा, भूपेषां
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[अ० १ सू० १६. ]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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तादृशाः, प्रान्तस्था:- समीपस्था:, कान्तारदेशा:- वनभूमयः, इत्यन्वयः । स्त्रग्धरावृत्तेऽत्र 'कूजत्कोयष्टिकोला' इत्यन्तो भागोऽत्र यतौ विच्छिद्यते, तत्र च 'कोलाहला' इति पदं मध्ये भिन्नम्, परतोऽपि च 'हल' इति समुदायो नेकाक्षर इति यतेर्व्यस्थितत्वम् [१६-१०] ।।
पुनरुदाहरति- तथा हासो हस्ताग्रेति, अत्र हलायुधवृत्तौ 'द्विषोऽस्य' इत्यस्य स्थाने 'द्विषोऽसौ' इति पाठः समुपलभ्यते, स एव चार्थवर्णनाय कथमपि युक्तः प्रतिभाति । यद्यपि एतेषां चतुर्णामप्युदाहरणानां पूर्णपाठस्यालभ्यतया नार्थवर्णनासौकर्यं तथापि तावत एवांशस्य व्याख्यानमिह क्रियते यावानिहोपलब्ध: । तुलित: - तोलितः, अद्रीन्द्राणां - प्रधानपर्वतानां, सारो - बलं येन स- इन्द्रः, तस्य द्विट् शत्रुर्महिषासुरः, तस्यास्य हस्ताग्रसंवाहनमपि कराग्रभागेन [ देव्याः ] पादसंवाहनमपि, हास:- उपहासः । अत्रापि 'संवाहन' इति पदमध्य एव यतिः स्रग्धरायां छैर्यतेरुक्तेः तथा च शिष्यमाणः पदांशो नैकाक्षर इति व्यवस्थानुकूल्यम् [ १६-११ ] ।।
भूय उदाहरति- वैरिञ्चानामिति, अत्र 'चतुरऋचाम्' इत्यंशस्य स्थाने 'रुचिरऋचाम्' इति पाठो हलायुधानुमतः तथा चार्थस्यापि वैमत्यमिति तं पाठमाश्रित्यैव व्याख्यायते - तथोच्चारितरुचिरऋचां तथा - उचितरूपेण, उच्चारिता रुचिरा:- सुन्दरा ऋचो यैस्तेषां वैरिचानां ब्रह्मसम्बन्धिनाम्, चतुर्णाम्, आननानां मुखानाम्, इत्यर्थः । अत्रापि 'उच्चारित' इति पदस्य मध्ये एव यतिः, उभयोर्भागयोश्च द्वयक्षरत्वमिति व्यवस्थिता यतिः [ १६-१२ ] ॥
चतुर्थ मुदाहरणमाह- खड्गे पानीयमिति, इदं चोदाहरणं पूर्वपादसम्बन्धं विना व्याख्यानायोग्यम्, पूर्वेषां पादानां चानुपलब्धेर्न व्याख्यायते । अत्रापि आह्लादयतीति पदस्य मध्य एव यतिः, उत्तरांशस्य त्र्यक्षरत्वं पूर्वांशस्य च द्वयक्षरत्वमित्युभयोरेकवर्णत्वाभावः स्पष्टः [ १६-१३ ] ॥
पदकृत्यं पृच्छति - गकारादौ किमिति, सामान्यतः 'अनेकवर्णकपूर्वोत्तरभागवत्पदमध्येऽपि यतिः' एतावदेवोच्यतामिति भावः । उत्तरयति - पदमध्ययतिः पादान्ते मा भूदिति, अयमाशयः - गकारादाविति कथनेन गाद्यवच्छिन्नायाः पादमध्यतेरियं व्यवस्थेति गम्यते, तदनुपादाने च सर्वयतिविषय
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] त्वावगमात् पादान्तयतावपि पदमध्यतयाऽनुमतिः स्यादिति पदमध्ये पादान्तयतिरपि संमता स्यात्, तथा चोदाह्रियमाणस्थले यतिः साध्वी स्यात्, न चासाविष्यते । अनिष्टां यतिमुदाहरति- यथा-प्रणमत भवबन्धेति- भवबन्धः- संसारसम्बन्धिबन्धनमेव, क्लेश:- दुःखं, तस्य नाशाय, आनन्दहेतं सुखोत्पत्तिकारणम्, नारायणचरणसरोजद्वन्द्वं विष्णुपदकमलयुगं, प्रणमतेत्यन्वयः । अत्र नारायणेति पदमध्ये यतिः पादान्तस्थेति श्रोतुः कर्णसुखं नोत्पादयतीति न श्रव्यत्वमस्याः; गकारादाविति यदि प्रकृतव्यवस्थायां नोच्येत तीस्या अपि व्यवस्थितत्वं स्यादिति पर्यवसितोऽर्थः [ १६-१४] ॥ ___ 'यदि पूर्वापरौ भागौ न स्यातामेकवर्णको' इत्युक्तविशेषस्य फलं दर्शयतिपूर्वोत्तरभागयोरेकाक्षरत्वे तु पदमध्ये यतिर्दुष्यतीति- यत्र विच्छिद्यमानस्य पदस्य पूर्वाशः परांशो वा एकवर्णक एव तर्हि पदमध्ये चेद् यतिः क्रियते साऽश्रव्यतया दुष्टा भवतीत्यर्थः। * प्रत्युदाहरणान्याह- यथा-एतस्या गण्डतलमिति-अमलं निर्मलम्, एतस्या गण्डतलं कपोलस्थलं चन्द्रकक्षां शशाङ्कसाम्यं गाहते प्राप्नोति । अत्र मन्दाक्रान्ताच्छन्दसि घावच्छिन्ने 'गण्डतल'स्य प्रथमेऽक्षरे यतिरायातीति सा न श्रव्या [१६-१५ ] ॥
एवम्- एतासां राजति० इति- एतासां पुरोवत्तिनीनां वनितानां, कण्ठावलम्बि गलावम्बलमानं, सुमनसां दाम पुष्पमाल्यं, राजति शोभते इत्यन्वयः । अत्रापि मन्दाक्रान्तायां घावच्छिन्ने राजतीत्यस्याद्याक्षरे यतिरश्रव्यवेति [ १६-१६ ] ॥
तथा- सुरासुरेति- सुरासुराणां- देवदानवानां, शिरोभिः- मस्तकः, निघृष्टं- नतिततिभिः कृतघर्षणं, चरणारविन्दं- पादकमलं यस्य तादृशः, शिव इत्यन्वयः । अत्रानुष्टुभि पादान्तयतिः 'निघृष्ट' इति पदमध्येऽपरश्च भागः 'ष्ट' इति एकाक्षर एवेत्यश्रव्यत्वमिति [ १६-१७ ] ॥
अथ सन्धिस्थले यतिव्यवस्थायां विशेषाख्यायिकां कारिकां व्याख्यातुं तदर्घ पृथक कृत्वाह-पूर्वान्तवत् स्वरःसन्धौ० इति, विवृणोति-योऽयं पूर्वपरयोरेकादेश इति- स्वरादेशेषु द्वैविध्यं कश्चिदेकस्थानिकः कश्चित् पूर्वपरोभयस्थानिकश्च, तत्रकस्थानिके तु न संशयः, उभयस्थानिक एव सन्देहो यदयं पूर्वस्थानिकत्वेन गृह्येत परस्थानिकत्वेन वा, तन्निर्णये सत्येव गाद्यवच्छिन्नभागस्थितस्य तस्य
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते यतिस्थानत्वं निर्णीतं स्यादिति तन्निर्णयमाह- योऽयं पूर्वपरयोरेकादेश इत्यादिना, आकारादयः केचिदादेशा उभयोः स्थानिनोः स्थाने विधीयन्त इत्येकादेशतया व्यवह्रिन्ते, तेषु प्रत्येकस्य विषये लक्ष्यानुसारं क्वचित् पूर्वस्थानिकत्वमिति पूर्वभागस्यान्तवद्भावः समाश्रीयते, क्वचित् परस्थानिकत्वमाश्रित्य उत्तरभागस्यादिवत्वं समाश्रीयते, तत्र कारणमाह- उभयादेशत्वादिति- स हि उभयोः स्थाने विहित इति तयोरुभयोधर्म प्राप्नोति तत्स्थानापन्नस्तद्धर्म लभते इति न्यायात् । तत्र लोकव्यवहारमपि दृष्टान्ततयोपोद्वलकत्वेन दर्शयतियथा-पित्रोः पुत्रः पितुश्च मातुश्च भवतीति- माता च पिता च- पितरौ, तयोरुभयोरपि शुक्रशोणिताभ्यां लब्धोत्पत्तिः पुत्र उभयोरपि जन्यत्वेन व्यवह्रियत इति भावः । तत्रायं विशेषो यद् दृष्टान्तस्थले युगपदुभयजन्यत्वाश्रयणेऽपि व्यवहारे न कश्चिद् विरोधः, इह शास्त्रे च समकालं पूर्वान्तत्वं परादित्वं च नाश्रीयते शास्त्रीयव्यवहाराननुगुणत्वात्, एतदर्थमेव वैयाकरणः कैश्चित् 'उभयत आश्रयणे नान्तादिवत्' इति न्यायः स्वीक्रियते। तथा च क्वचित् पूर्वस्यान्तवत् कचित् परस्यादिवदित्येव सिद्धान्तः ।।
तत्र पूर्वान्तवद्भावमुदाहर्तुमाह-स्यावस्थानोपगतयमुनेति, पूर्वमेधे पद्यमिदम्। "तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्द्धलम्बी, त्वं चेदच्छस्फटिकविशदं तर्कयेस्तिर्यगम्भः । संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्त्रोतसि च्छाययाऽसौ, स्यादस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा ।।" इत्येवंरूपम् । व्योम्नि आकाशे, पश्चार्द्धलम्बी शिरोभागं नीचैः कृत्वा लम्बमानः, सुरगज इव ऐरावत इव, तिर्यक् ऊर्ध्वाधोरूपेण स्थितः, त्वं मेघः, अच्छस्फटिकविशदं स्वच्छस्फटिकवत् अवदातं, तस्याः जाह्नव्याः, अम्मः जलं, पातुं तर्कयेश्चेत् [ तदा ] असौ जाह्नवी, स्रोतसि प्रवाहे, संसर्पन्त्या चलन्त्या, भवतः तव मेघस्य, च्छायया, अस्थानोपगतयमुनासङ्गमेव प्रयागातिरिक्तस्थानलब्धकालिन्दीसंसर्गव, अभिरामा मनोहरा स्यादिति सम्बन्धः । अत्र 'अस्थान-उपगत' शब्दयोरन्ताद्योः स्थाने जात ओकाररूप एकादेशः पूर्वस्यान्तवद् भवतीति 'नो' 'इत्यत्र' छावच्छिन्ने भागे स्रग्धराछन्दसो यतिः श्रव्या [ १६-१८ ] ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० १, सू० १६. ]
उदाहरणान्तरमाह-जम्भारातीभेति, सूर्यशतके मयूरकवेः पद्यस्यांशोऽयम्, अत्र 'सान्द्र सिन्दूर रेणुम्' इति पादशेषः । जम्भारातिः - इन्द्रः, तस्य इभ :- गज ऐरावतः, तस्य कुम्भे- ललाटे, उद्भव:- उत्पत्तिर्यस्य तादृशमिव, सान्दंनिबिडं सिन्दूररेणुं दधत् इत्यन्वयः । अत्र स्रग्धराच्छन्दसि छावच्छिन्नःसप्तमिर्वर्णे विराम इति कुम्भशब्दाकारस्य उदुद्भवशब्दोकारेण सह ओकाररूप एकादेशः पूर्वान्तवद् भवतीति 'कुम्भो' इत्यन्ते यतिः श्रव्या जाता [ १६-१८ ] ॥
"
उदाहरणान्तरमाह - दिक्कालेति, 'स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे' [ भर्तृहरेः - नी० श० १ ] इत्युत्तरार्धमस्य हलायुधवृत्तौ दृश्यते । दिक्कालादिभिः, अनवच्छिन्ना - अव्यावर्त्तिता, अत एव अनन्ता - अपर्यन्ता, चिन्मात्रा - चैतन्येकस्वभावा, मूर्ति- स्वरूपं यस्य तस्मै, स्वानुभूतिः - स्वापरोक्षानुभव एव, एकं - केवलं, मानं - प्रमाणं यत्र तस्मै शान्ताय अव्याकुलाय, तेजसे परप्रकाशरूपाय [ ब्रह्मणे ] नमः, इति । अयमाशयः - त्रिधा ह्यवच्छेदो भवति - दिशा कालेन वस्तुना च सर्वत्र सर्वदा सर्वस्वरूपेण स्थितस्य वस्तुनो दिशा कालेन वस्त्वन्तरेण वा व्यावृत्तिर्न संभवतीत्यपरिच्छिन्नं तदनन्तमिति सिध्यति, न च तस्य चैत्यन्यकैवल्यादतिरिक्तं स्वरूपमिति पूर्वार्धन, स्वानुभूतिमात्रवेद्यत्वं सर्वोपद्रवशून्यत्वं स्वप्रकाशत्वं चोत्तरार्धेनोक्तमिति । अत्रानुष्टुप्छन्दसः प्रथमपादान्तस्य उत्तरपादादिस्थितेन 'अनन्त' शब्दाकारेण सह दीर्घ इति तस्य पूर्वान्तवद्भावेन पादान्तयतेरीचित्यमिति [ १६-२० ] ॥
इत्थं पूर्वान्तवद्भावानुदाहृत्य परादिवद्भावमुदाहर्तुमाह- परादिवद्भावो यथेति - यथा यतो परादिवद्भाव आश्रीयते तदुदाह्रियत इत्यर्थः । स्कन्धे इति, इदं च वाक्यं पूर्वपादानामज्ञातत्वे उपलब्धमात्रेऽशेऽस्पष्टमिति न व्याख्यायते । अत्र 'महिषस्य अहितः' इति पदयोरन्तादी दीर्घेणं कीभूताविति परादिवद्भावे सति 'स्या' इत्यंशः परतो नीयत इति 'महिष' इत्यन्तभागेऽपि स्त्रग्धराच्छन्दसरछावच्छिन्नाक्षरे यतिरदुष्टेति समन्वयः [ १६-२१ ] ॥
परादिवद्भावस्योदाहरणान्तरमाह - शूलं तूलं तु गाढं प्रहरेति - हे हर ! तूलं तूलोपमतया सुखदमिव, शूलं स्वायुधं त्रिशूलं, प्रहर, हे हृषीकेश ! विष्णो !, ते चक्रेण केशोऽपि किं वक्रः, अकारि तेनापि मम न कापि पीडेति
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__ ४१
[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते भावः । अत्र 'हृषीक-ईश' इत्यनयोः सन्धिः परादिवदिति 'हृषी' इत्यन्तेऽपि स्रग्धरायाश्छावच्छिन्ने यतिरदुष्टेति [ १६-२१ ] ।
नन्वस्तु परादिद्भावे सत्यपि स्वरांशस्यैव परतो गतिः, व्यञ्जनांशः कथं परतो नीयते तस्यकादेशाविषयत्वादित्याशङ्कायामाह- अत्र हि परादिव. द्भाव इति, अयमाशय:- व्यञ्जनानि न स्वतन्त्राणि, तानि कंचित् स्वरमाश्रित्यवोच्चारयितुं शक्यन्ते, तत्र पूर्वस्य परस्य च स्वरस्याश्रयतायां समुपस्थितायां परमेव स्वरमाश्रयन्तीति स्थितिः । तदुक्तमभियुक्तः- "नटभाविद् व्यञ्जनानि भवन्ति" इति, अयमभिसन्धिः- यथा नटभार्याः पूर्वस्मिन् परस्मिश्चानुरक्ते जने समुपस्थिते पूर्वस्योपभुक्ततया परमेवाश्रयन्ति तथैव व्यञ्जनान्यपि परभक्तानि- पराश्रितानि भवन्तीति । तथा व्यञ्जनानी स्वरपारवश्यात् तस्य [ स्वरस्य ] परादित्वे तस्यापि पराधीनत्वमेवेति तदादिवदेव तदिति । अत्र विशेषमाह- "यदि पूर्वापरौ भागौ न स्यातामेकवर्णको" इति अन्तादिवद्धावविधावपि सम्बध्यत इति, अयमाशय:- अन्तवद्भावेन आदिवद्भावेन च या यतिरधस्तात् प्रतिपादिता तत्रापि, पूर्वोत्तरभागयोरेकवर्णत्वं नोचितमिति। तत्फलमाह-तेन-"अस्या वक्ताब्ज." इत्येवंविधा यतिर्न भवतीति- अवजिता-निजिता, पूर्णेन्दो:- सकलकलायुतचन्द्रस्य, शोभा-कान्तिर्येन तादृशमस्याः, वक्ताब्जं- मुखकमलं, विभाति शोभते, इत्यन्वयः । अत्र मन्दाक्रान्ताच्छन्दसि प्रथमा घावच्छिन्ना द्वितीया चाववच्छिन्ना च यतिः पूर्वान्तवद्भावेन 'वक्ता' इत्यन्ते, परादिवद्भावेन 'पू' इत्यन्ते च भागे समापतति, परन्तु प्रथमायां द्वितीयायां च पूर्वोत्तरभागयोरुमयोरप्येकवर्णत्वमेव भवतीति अदुष्टा यतिनं भवतीत्याशयः [१६-२३] ।। __ एवमुभयादेशस्थले व्यवस्थामुदाहृत्य एकस्थानिकादेशविशेष व्यवस्थामाहद्रष्टव्यो यतिचिन्तायां याद्यादेशः परादिवदिति- यतिचिन्तायां यतिविवारप्रसङ्गे, याद्यादेशः एकस्थानिको 'य-व-र-ल' इत्येवंरूप आदेशः, परस्य- निमित्तभूतस्वरस्य, आदिवत्, द्रष्टव्य इत्यर्थः ।
उदाहरति- यथा- अच्छिन्नेति, 'अत्यासन्ननिषण्णपन्नगवधूगीतोत्सवप्रक्रमे, पत्यु गभृतां ददन्ति किमपि प्रीति मुहुः श्रोत्रयोः ।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
अच्छिन्नप्रसराणि नाथ ! भवतः पातालकुक्षौ यशां
यद्यपि क्षपयन्ति कोकिलकुलच्छायासपत्नं तमः ॥” इति पूर्ण पद्यम् । हे नाथ ! अच्छिन्नप्रसराणि अव्याहतप्रचाराणि भवतः तव यशांसि, अद्यापि, पातालकुक्षौ क्षित्यधोभागे, अत्यासन्ननिषण्णाः- अतिसमीपोपविष्टाः, याः, पन्नगवध्वः- नागवनिताः, तासां गीतोत्सवस्य - संगीतविनोदस्य, प्रक्रमेअवसरे, भोगमृतां सर्पाणां पत्युः स्वामिनो वासुकेः, श्रोत्रयोः चक्षुषोः, सर्पाणां चक्षुःश्रवत्वात् किमपि अनिर्वचनीयं यथा स्यात् तथा प्रीतिम् आह्लादं ददति किन कोकिलकुलच्छाया सपत्नं पिकसमूहकान्तिसदृशं, तमः अन्धकारं क्षपयन्ति नाशयन्ति इत्यन्वयः । लोकत्रयप्रसरद्य शसस्ते प्रियतरा समुज्वला च कीर्तिर्नागवधूभिरपि गीयते येन तत्पत्युर्नागराजस्य प्रीतिस्तत्रत्यान्धकारस्य नाशश्वाद्यापि जायत इति भाव:, अनेन यशसो विस्तारः सकलजीवाह्लादकत्वं च वर्णितम् । अत्र तृतीयपादान्तसमागतस्य 'यशांसि' इति पदसम्बन्धिन इकारस्य स्थाने जातो यादेशः परादिवद् भवतीति 'यशां' इत्यत्रैव पादान्तयतिः श्रव्यतां नातिक्रामति [१६-२४] ॥
"
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[अ० १ सू० १६. ]
उदाहरणान्तरमाह - विततघन० इति - वितताः - विस्तृताः, घनाः सान्द्राः, तुषारक्षोदा: - हिमकणाः, तैः शुभ्रासु - श्वेतीभूतासु, दूर्वासु, श्यामलां श्यामवर्णाम्, अविरलपदमालां निबिडपदपङ्क्तिम्, उल्लिखन्तः प्रकाशयन्तः, इत्यक्षरार्थः । हिमाच्छादितदूर्वायुक्तभूमौ चलनाद्विमस्य गलने दुर्वावर्णस्य प्रकाशात् पदपङ्क्तिः श्यामला भातीति भावः । अत्र प्रथमपादान्तस्थ 'दूर्वासु' इति पदसम्बन्धिन उकारस्य स्थाने जातो वकारः परस्य निमित्तभूतस्य स्वरस्यादिवद् भवतीति तेन सहैव तस्योच्चार्यतया छिन्नेऽपि पदे पूर्वपादान्तयतिर्न दुष्यतीति [ १६ - २५ ] ॥
स्वरसन्धिविषये यतिव्यवस्थामुक्त्वा चादिनिपातविषये यतिव्यवस्थामाहनित्यमिति - प्राक्पदेन सम्बद्धाश्वादयः पूर्वपदस्यान्तवद् भवन्तीति ततः प्राग् यतिरनुचितेति तदर्थः । तदेव वृत्त्या आह- चादिभ्यः पूर्वं यतिर्न कर्तव्ये - त्यर्थः इति । व्यावर्त्ययति प्रदर्शयति- यथा - स्वादु स्वच्छं चेति - स्वादु सुरसं, स्वच्छं निर्मलं च, इदं सन्निकृष्टस्थितं सलिलं जलं कस्य प्रीतये तृप्तये, न स्यात् - सर्वस्य तृप्तिकारणं स्यादेवेति भावः । अत्र मन्दाक्रान्ताच्छन्दसि
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[अ० १, सू० १६. ]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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धेरचैश्च यतिरिति स्वच्छमित्यत्र यतिरुचिता किन्तु तत्सम्बद्ध: 'चः' ततो विभिद्यत इति एतादृशस्थले चादेः पूर्वं यतिरनुचितेति सङ्गतिः [१६-२६]॥
पदकृत्यं पृच्छति - 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धाः' इति किमिति - चादयः प्राक्पदान्तवद् भवन्तीति केवलमुच्यतां चादीनां प्रायः पूर्वपदेनैव सम्बन्ध इति 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा:' इति विशेषणं व्यर्थमिति प्रष्टुराकृतम् । उत्तरयतिअन्येषां पूर्वान्तवद्भावो मा भूदिति - ये चादयः पूर्वेण परेण च सम्बद्ध्यन्ते, केवलं परेणैव वा सम्बद्धास्तेषां परादिवद्भावो भवति, स यथा स्यात्, पूर्वान्तवद्भावो न स्यादित्येतदर्थं 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा:' इत्यस्योपादानमावश्यकमिति भावः । तादृशं स्थलमुदाहरति यथा - मन्दायन्ते इति,
"तां कस्यांचिद् भवनवलमौ सुप्तपारावतायां,
नीत्वा रात्रि चिरविलसनात् खिन्नविद्युत्कलत्रः । दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान् वाहयेदध्वशेषं,
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ।" [ पू० मे० ३८ ] इति पूर्ण पद्यम् ।
यक्षो मेघस्य मार्गक्रमं वर्णयन्नाह सुप्ताः पारावता:- कपोता यस्यां तादृशि, कस्यचित् स्वेच्छास्वीकृतायामनिर्दिष्टायां, भवनवलभौ प्रासादाग्रस्थितकपोतपालिकायां, तां तत्रोपस्थितां, रात्रि नीत्वा अतिवाह्य, चिरविलसनात् बहुकालं विद्योतनात्, अथ च कलत्रत्वेन रूपितत्वात् बहुकालकृतरतिक्रीडाया हेतोः, खिन्नविद्यतकलत्रः खिन्ना - शिथिला विद्युदेव चपलैव कलत्रं भार्या यस्य तादृशो भवान् मेघः, सूर्ये दृष्टे इति - दिनादावित्यर्थः, अध्वशेषं शिष्टं पन्थानं, वाहयेत् लङ्घयेत् । तत्समर्थनायार्थान्तरं न्यस्यतिसुहृदां मित्राणाम्, अभ्युपेतार्थकृत्याः स्वीकृतप्रयोजनीयकार्या जनाः, न खलु नैव, मन्दायन्ते गतिशैथिल्यमाश्रयन्ति इत्यर्थः । अत्र चाद्यन्तर्गतो नकारो यद्यपि प्राक्पदसम्बद्ध एव, तथापि तस्य चकारवत् नित्यं प्राक्पदसम्बन्धाभावात् तत्पूर्वमपि यतिरविरुद्धा, अन्यथा स्वादु स्वच्छं चेति पूर्वोदाहरणवत् तेरनौचित्यं स्यादिति परादिवद्भावो न स्यात्, भवति च स इति 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा:' इति कथनमावश्यकमिति [ १६-२७ ] ॥
पूर्वसम्बद्धमपि अनित्यसम्बद्धं प्रत्युदाहृत्य परसम्बद्धं प्रत्युदाहरति- इत्यौत्सुक्यादिति,
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] "धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः, सन्देशार्थाः क पटुकरणः प्राणिभिः प्रापणीयाः । इत्योत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे, कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥" [ पू० मे० ५] इति पूर्ण पद्यम् ।
कविकुलतिलकः कालिदासो निर्जीवं मेघं प्रति यक्षस्य प्रार्थना कथमुचितेति शङ्कामपनयनाह-धूमज्योतिःसलिलमरुतां बाष्पतेजोजलवायूनां, संनिपातः सङ्घातस्वरूपः, मेघः क ? पटुकरणः विचारपूर्वकयथोचितव्यापारसमर्थेन्द्रियः, प्राणिभिः जीवैः, प्रापणीयाः नेयाः, सन्देशार्थाः वाचिकाभिधेयाः, क? अनयो कत्र समावेश इति, औत्सुक्यात प्रबलौत्कण्ठ्यात्, इति पूर्वोक्तविवेकम्, अपरिगणयन् अनिर्धारयन्, गृह्यकः यक्षः, तं मेघ, ययाचे सन्देशप्रापणार्थ प्रार्थयामास; प्रकृतमथं समर्थयितुमर्थान्तरं न्यस्यति-हि यतः, कामाततः परस्परसंश्लेषाभिलाषविकलाः, चेतनाचेतनेषु जीवाजीवेषु, प्रकृतिकपणाः स्वभावत एव दैन्यप्रदशिनो भवन्ति, इत्यर्थः । अत्र नजयुक्तस्य परेनिपातस्य गणयतिना परेण सम्बद्धत्वात् तस्य परादिवत्त्वमेव भवतीति 'इत्यौत्सुक्या' इत्येतावत्येव यतेविश्रान्तिः, सा च 'चादयः प्राक्पदान्तवत्' इति सामान्यनियमाश्रयणे नोचिता स्यादिति 'नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा' इति विशेषाश्रयणमावश्यकमेवेति [ १६-२८ ] ॥
प्रादिविषये व्यवस्थान्तरमाह-'परेण नित्यसम्बद्धाः' इति- प्रादयो ये नित्यं परेण सम्बध्यन्ते ते परादिवदेव भवन्तीत्यर्थः । तथा च फलितार्थमाहप्रादिभ्यः परा यतिन भवतीत्यर्थः इति-परेण सम्बद्धेभ्यः प्रादिभ्यः पूर्वमेव यतिर्भवति, तदन्ते यतिनं भवतीति भावः । प्रत्युदाहरति- दुःखं मे इतिदुसहः सोढुमशक्यः, त्वद्वियोगः त्वया सह विरहः, मे हृदये दु:खं प्रतिक्षिपति प्रवेशयतीत्यर्थः, अत्र 'प्र' इत्यस्य क्षिपतीति क्रियया नित्यसम्बन्धात् ततः परा तमभिव्याप्य मन्दाक्रान्ताच्छन्दसो घावच्छिन्नभागे यतिर्न भवतीति प्रकृते यतिभङ्गदोषः स्पष्टः, स न विधेय इति समन्वयः [ १६-२६] ॥
पदकृत्यं पृच्छति- 'परेण नित्यसम्बद्धाः' इति किमिति- प्रादयश्च परादिवदित्येवोच्यतामिति प्रष्टुराशयः। क्वचित् प्रादिभ्यः पराऽपि यतिरिष्टा,
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[अ० १ सू० १६. ]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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सा चैवं सामान्यनियमाश्रयणे न स्यादित्युत्तरयति - अन्येभ्यः परावि यतियथा स्यादिति - नित्यपरसम्बद्धातिरिक्तेभ्यः प्रादिभ्यः पराऽपि यतिर्यथा भवति तथा भवेदेवेत्येतदर्थमेव नित्यं प्राक्पदसम्बद्धा:' इति कथनमावश्यकमित्यर्थः । तादृशं स्थलं दर्शयति- श्रेयांसि बहुविघ्ना नीति - महतामपि परमैश्वर्यशालिनामपि, श्रेयांसि परमकल्याणानि, बहुविघ्नानि अनेकप्रतिबन्धयुक्तानि भवन्तीत्यन्वयः । अत्रापीत्यस्य पूर्वसम्बद्धत्वेन ततः पराऽपि पादान्तयतिरदुष्टा, सामान्यतः प्रादीनां परादिवत्वाश्रयणे इह यतेर्दुष्टत्वं स्यात् ततो नित्यपरसम्बन्धित्वमवश्यं निवेशनीयमिति भावः [ १६-३० ] ॥
पूर्वोक्तचादिप्रादिविषयकयतिनियमे विशेषं दर्शयितुमुपक्रमते - अयं च चादीनां प्रादीनां चेति, अयमर्थ:- चादयः प्रादयश्च बाहुल्येनैकाक्षरा एव, अतः पदान्ते प्राप्ताया यतेर्यथायथं पूर्वान्तवद्भावेन परादिवद्भावेन वा व्यवस्था विहिता, ये च केचिदनेकाक्षराचादयः प्रादयो वा तेषां विषये तु पदमध्येsपि [ अपीत्युक्त्या 'ततः पूर्वमपि ततः पश्चादपि' इत्याक्षिप्तम् ] यतेरौ - चित्यमभ्यनुज्ञातम्, यथा चामीकरादिशब्देषु मध्येऽपि यतेरौचित्यं पूर्वमुक्तं तद्वत् । तत्र पूर्वक्रममनुरुध्य पूर्वमनेकाक्षरचादिविषये, ततः पूर्वमपि यतिमुदाहरति- प्रत्यादेशादपीति
" रुद्धापाङ्ग प्रसरमलकै रञ्जन स्नेहशून्यं,
प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम् । त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या, मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति ॥" [ उ० मे० ३७ ] इति पूर्ण
पद्य म् ।
मेघाय स्वप्रिया वृत्तान्तं कथयन् यक्ष आह- त्वयि मत्संदेशवाहके, आसन्ने समीपप्राप्ते सति, अलकैः ललाटप्रान्तकेशैः, रुद्धापाङ्गप्रसरम् अस्तव्यस्ततया नेत्रोपरिपतनात् प्रतिबद्धापाङ्गव्यापारम्, अञ्जनस्नेहशून्यं [ प्रोषितपतिकाचारपरिशीलनात् ] कज्जलसम्बन्धिस्निग्धतारहितम्, मधुनः मदोत्पादकस्य मद्यस्य, प्रत्यादेशात् [ प्रोषितपतिकानियमानुरोधेन ] परित्यागात्, अपि [ मदफलस्य विलासस्याङ्गभूतयाऽपि भ्रूविक्षेपस्यानवसरत्वमपिशब्देन द्योत्यते ] विस्मृत भ्रूविलासं विस्मृतः - अनभ्यासवशात् स्मृतिपथादपि विच्युतः, भ्रूविलासः - कटा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १६.] क्षप्रेक्षणं यस्य तथाभूताम्, मृगाक्ष्याः चञ्चलविलोचनायाः प्रियायाः, नयनम्, उपरिस्पन्दि शुभप्राप्तिसूचकतयोपरिभागे स्फुरत् सत्, मीनक्षोमात् मत्स्यकृतालोडनात्, चलकुवलयश्रीतुलां चञ्चलनीलकमलकान्तिसाम्यम्, एष्यति प्राप्स्यति, इति शङ्क तर्कयामि । कुवलयेन सह नेत्रस्योपमा कविभिर्दीयते, किन्तु तत्र कटाक्षविक्षेपाऽञ्जनसम्बन्धभ्रूविलासादयो न भवन्तीति साम्यं सम्यक्तया न घटते, संप्रति च मत्प्रियानेत्रमपि ततद्विशेषशून्यमेव, केवलं शुभसूचकोपरिभागस्फुरणयुक्तम्, तच्च मत्स्यसंपर्कात् कुवलयेऽपि सम्पन्न मिति साम्प्रतमेवोमयोः पूर्ण साम्यमिति कवेरुत्प्रेक्षा । अत्र चाद्यन्तर्गतस्य अपेः प्रत्यादेशादिति प्राक्पदेन सम्बन्धसत्त्वेऽपि अनेकवर्णतया ततः पूर्वमपि मन्दाक्रान्ताच्छन्दसो घावच्छिन्नभागे विरामोऽदुष्ट इति सङ्गतिः [ १६-३१ ] ।। । चादिविषये पूर्वान्तवद्भावाभावमुदाहृत्य प्रादिविषये परादिवद्भावाभावमुदाहरति-प्रादीनां यथा- दूरासूढप्रमोदमिति-आसां प्रकृतानां वनितानाम्, सखीभिः सवयोभिः सहचरीभिः सह, परिस्पष्ट हसितं दरारूढप्रमोदमिव यर्थताः सखीभिः सह मिलित्वाऽतिस्पष्टरूपेण हसन्ति तथाऽनुमीयते- आसां प्रमोदो हर्षों दूरमारूढ इत्यर्थः। अत्र स्रग्धधराच्छन्दसि छावच्छिन्ना द्वितीया यतिः 'परि' इत्येतस्य अन्ते पततीति, परेःप्रादितया तस्य परादिवद्भावौचित्येऽपि अनेकवर्णत्वेन न सा व्यवस्थाऽत्र युक्तेति न दोष इति संगतिः [ १६-३२ ] ।।
एतत् सर्वमन्योक्तयतिव्यवस्थामाश्रित्य कथितम्, तथा चास्यावश्यकत्वमपि अनुमतमेव, अप्रतिषिद्धं परमतमनुमतं भवतीति पसिद्धेः, एवं च स्वग्रन्थे एतद्विषये सूत्राभावादनुशासनेऽपूर्णतेति शङ्कामपाकुर्वन्नाह- तदेतत् सर्व श्रव्यपदेनैव गतार्थमिति, अयमर्थः- "श्रव्यो विरामो यतिः" [ १-१६ ] इति सूत्रव्याख्याप्रसङ्गेन
"यतिः सर्वत्र पादान्ते श्लोकार्धे तु विशेषतः । गादिच्छिन्नपदान्ते च लुप्तालुप्तविभक्तिके ॥१॥ कचित् तु पदमध्येऽपि गकारादौ यति वेत्। यदि पूर्वापरो भागी न स्यातामेकवर्णको ॥२॥ पूर्वान्तवत् स्वरः सन्धौ क्वचिदेव परादिवत् । द्रष्टव्यो यतिचिन्तायां याद्यादेशः परादिवत् ॥३॥
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[अ० १, सू० १६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
नित्यं प्राक्पदसम्बद्धाश्चादयः प्राक्पदान्तवत् । परेण नित्यसम्बद्धाः प्रादयश्च परादिवत् ॥४॥"
इति कारिकाचतुष्टयमनुसृत्य यत् किश्चिद् यतिविषये व्यवस्थापितं तदिह सूत्रे सन्नि वेशितेन श्रव्यपदेनैव संगृहीतमिति तदर्थं न पृथक् सूत्रप्रणयनमावश्यकम् । श्रव्यत्वं हि श्रुतिसुखकरत्वमिति तत्सूत्रविवरण एवोक्तम्, तथा च प्रोक्तकारिकाचतुष्टयेन तथैव यतेर्व्यवस्था प्रदर्शिता यथा श्रोतुः श्रवणसुखमुत्पद्यते, विपरीतस्य श्रोतुर्वैमुख्यापादकत्वमिति हेयत्वमेव, एवं च कारिकाचतुष्टयेन तत्सम्बद्धन वा व्याख्यानेन न किञ्चिदिहि विशिष्य विधातुमिष्टमिति । किञ्च, एतावता यते: श्रुतिसुखायैव विन्यास इति यत्र यतिर्नोपदिष्टा तत्रापि स्वेच्छया तथा यतिः कल्पनीया यथा श्रव्यता स्यादित्युपदिशति- अनिर्दिष्टयतिकेऽपि च्छन्दसीति, अयमाशयः-वर्णच्छन्दःस्वेव केषुचिद् यतिनिर्दिष्टा मात्राछन्द:सु तु सा नोच्यते तथापि तत्राऽपि तथैव यतिः करणीया यथा श्रव्यता भवेत् । तादृशयतेः सूत्रेणानिर्देशेऽपि उदाहरणेषु व्यक्तीभावादनिष्टामेव यति प्रदर्शयति परित्यागार्थम्- न पुनरेवं यथा तेनेत्यादि- एवं पुनर्यतिर्न विधेया यथोदाह्रियमाणे पद्ये दृश्यत इत्यर्थः । अत्र मानमपीत्यस्य पाठस्य स्थाने 'मानमयि' इति पाठस्य स्थितिः सम्भाव्यते तथैव शोभनार्थगतेः । अपेरत्रासंश्लिष्टार्थत्वमेव । “अयि शशिमुखि ! सखि ! तेन प्रियेण गतेन किं, तस्मिन् मानं कुरु, हे वरतनु ! समदनः स तव चरणयुगम्, स्वयमेव समेति" इत्यन्वयः । काचित् सखी कुपित्वा गतं प्रियं प्रति शोचन्तीं नायिका प्रोत्साह्यन्त्याह- अयि शशिमुखि !- शशी चन्द्र इव मुखं यस्यास्तत्सम्बुद्धौ-हे चन्द्रानने ! सखि ! समानसुखदुःखे !, [ एतेन हितोपदेशपात्रत्वमप्रतारणीयत्वं च सूचितम् ] तेन-पूर्वोपभुक्तेन, प्रियेण-तवापि प्रीतिपात्रेण, गतेन- त्वां विहायान्यत्र यातेन, किं- न किमपि, ते अत्याहितम् । कुत इत्थं कथयसीत्याशङ्कायामाह- हे वरतनु !- वरा सर्वावयवकमनीया तनूः- शरीरं यस्यास्तथाभूते !, समदन:-कामपीडायुक्तः, सः-तव प्रियः, तव- भवत्याः पूर्वोक्तसौन्दर्यशालिन्याः, चरणयुगं- पादद्वन्द्वं प्रति, [तवानुनयनाय प्रणिपतितुम् ] स्वयमेव- दूतीप्रेषणादिकं विनव, समेति- समागच्छन्नेवास्ति, न तु समेष्यति, वर्तमानसामीप्यविवक्षया भविष्यति वर्तमानकालप्रयोगः । अत्र यतिः कापि न प्रतीयत इत्यस्य पद्यस्याश्रव्यत्वम् [ १६-३३] ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० १, सू० १७.] प्रकृतयतिविचारमुपसंहरन्नाह- तथा हि इत्यादि, एतावता विचारेण योऽर्थः प्रतिपादयितुमिष्टः सोऽनया कारिकयोच्यत इति भावः । अबह्वर्थापीतिनास्ति बहुः- अन्तर्निगूढबाहुल्यवान् अर्थो यस्यास्तथाभूताऽपि, मधुरा स्थानप्रयुक्तयत्यादिना सुखश्रव्या, भारती वाणी, मनः हरति स्ववशं नयति, दृष्टान्तेनोक्तमर्थं समर्थयति- तमोनिचयसंकाशा अन्धकारसमूहाकृतिरपि, मत्तनादा मदयुक्तं नदन्ती, कोकिला पिकी इवेत्यर्थः । कोकिला दर्शने कुरूपापि श्रुतिसुखदशब्देन यथा मनो हरति तथैव श्रव्या भारत्यपीति भावः ।।
यत्यादिदोषयुक्तं वचनं कियच्छ्र तिदुःखावहं भवतीत्यत्र प्राकृतपिङ्गले इत्थमुक्तम्
"जेम ण सहइ कणअतुला तिलतुलिअं अद्धअद्धेण । तेम ण सहइ सवणतुला अवछन्दं छन्दभङ्गेण ॥ अबुह बुहाणं मज्झे कव्वं जो पढइ लक्खणविहूणं । भुअग्गलग्गखग्गेहिँ सीसं खुडिअं ण जाणेइ [१-१०, ११ ] इति । "यथा न सहते कनकतुला तिलतुलितमर्धान । तथा न सहते श्रवणतुला अपच्छन्दश्च्छन्दोभङ्गेन । अबुधो बुधानां मध्ये काव्यं यः पठति लक्षणविहीनम् । भुजाग्रलग्नखड्गैः शिरः खण्डितं न जानाति ।। इति संस्कृतम् ।
अस्यार्थः- कनकमानतुलायां तिलार्धार्धमपि चेत् प्रक्षिप्यते तदपि तुलया विरुध्यत एव, एवं यदि कश्चिन्मूर्खः पण्डितसमाजे छन्दःशास्त्रीययतिमात्रादिलक्षणहीनं काव्यं पठति, तां श्रवणतुला न सहते, प्रत्युतायं दोषः खड्गेन शिरश्छेदवद् दुःखकर इति स [ अबुधो ] न जानातीति [ १६-३४ ] ॥
व्यादिर्गादिः ॥१७॥ त्रि-चतुरादिः संख्या क्रमेण 'ग-घ-कादि संज्ञा ॥ सू० १७॥
! इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञच्छन्दोऽनुशासनवृत्ती संज्ञाK ध्यायः प्रथमः समाप्तः ॥१॥ ग्रन्थानं-१२५, अ० १८।
।
एवं यति निरूप्य छन्दोलक्षणोपयुक्तां गादिसंज्ञामाह-व्यादिर्गादिरिति । तदेव विवृणोति- त्रिचतुरादिसंख्या क्रमेण ग-घ-ङादिसंज्ञा इति, अय
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[अ० १, सू० १७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते माशय:- पूर्व यतिसंज्ञासूत्रे वृत्तौ "सा च तृतीयान्तेषु गघादिनिर्देशेषूपतिष्ठते" इत्युक्तम्, स च गघादिनिर्देशः किमर्थबोधक इति शङ्कापनोदोऽनेन क्रियते, गकारादयो वर्णमालायां स्वक्रमप्राप्तां संख्या बोधयन्तीति तत्र तृतीयस्य गस्य त्रित्वसंख्याबोकत्वम्, चतुर्थस्य घस्य चतुष्टसंख्याबोधकत्वमिति त्र्यादिसंख्यानां गादिः संज्ञेति । गादिसंज्ञाप्रदेशाश्च-"म्नौ जो गः प्रहर्षिणी गैः” [२-१९७] "म्तो ल्गौ माणवकं धः" [२-७७ ] इत्येवमादयो बोध्याः ॥ सू० १७ ।।
। इति कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते स्वोपज्ञवृत्तिH संकलिते छन्दोऽनुशासने प्रथमाध्याये तपोगच्छाधिपति- सर्व
तन्त्रस्वतन्त्र- श्रीविजयनेमिसूरीश्वरपटालंकारेण 'व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न' इति पदालंकृतेन
श्रीविजयलावण्यसूरिणा प्रणीत: प्रद्योतः ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १ - २. ]
अथ द्वितीयोऽध्यायः ।
छन्दः ॥। १॥
आ शाखपरिसमाप्त:, 'छन्द:' इत्यधिकृतं वेदितव्यम् ॥ १ ॥
छन्दोऽनुशासनोपयोगिनीः संज्ञाः प्रथमाध्यायेनोक्त्वा छन्दांसि विवक्षुरप्रे वक्ष्यमाणसूत्रेषु सर्वत्रोपस्थास्यत् 'छन्दः' पदमधिकरोति - "छन्दः" इति । सूत्रस्यैकपदरूपत्वात् पदान्तरं विना च वाक्यार्थ बोधानुपयुक्तत्वात् सूत्रस्य नैरर्थंक्यशङ्कायामाह - आ शाखपरिसमाप्तेरिति - शास्त्रस्य - प्रकृतच्छन्दोऽनुशासनस्य, समाप्तिमभिव्याप्य, 'छन्दः' इति पदमधिकृतं - सर्वत्र सम्बध्यमानं वेदितव्यं ज्ञातव्यमित्यर्थः । तथा चाधिकारसूत्रमिदं वक्ष्यमाणानां सूत्राणामुपकारकमिति स्वांशेऽबोधकत्वेऽपि परत्र बोधजननात् सार्थक्यमासादयति । एवं च -
,
" संज्ञा च परिभाषा च विधिनियम एव च । प्रतिषेधोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम् ॥”
५०
इति परिगणितेषु सूत्र लक्षणेषु षष्ठी विधाऽस्य सूत्रस्येति । एतच्च सूत्रं छन्दोलक्षणसूत्रेष्वेवाधिकृतं बोध्यम्, न तु " पादः " [ २-२ ] इत्येवमादिष्वधिकारसूत्रेषु तेषामपि विधिसूत्रोपकारकत्वेन गुणरूपत्वात्, “गुणानां च परार्थत्वादसम्बन्धः समत्वात् स्यात्' इति न्यायानुसारं परस्परसम्बन्धानर्हत्वात्; तथा च "अपेक्षातोऽधिकारः" इति न्यायेन यत्रैतस्यापेक्षा तत्रेदं सम्बध्यत इति पर्यवसितम् ॥ अ० २, सू० -१ ॥
पादः ॥ २ ॥ पाद इत्यधिकार आ शास्त्रपरिसमाप्तेः ॥२॥
अन्यदप्यधिकारसूत्रमाह - " पादः" इति । अस्याप्येकपदत्वेन स्वार्थबोधाक्षमत्वात् परार्थत्वे विज्ञातेऽधिकारार्थत्वमेव योग्यतया प्रतीतमित्याह- पाद इत्यधिकार आ शास्त्रपरिसमाप्तेरिति, तथा च पूर्वसूत्रवदिदमपि यत्र यत्र
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[अ० २, सू० ३.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
लक्षणसूत्रेऽपेक्ष्यते तत्र तत्र सम्बध्यत इत्यर्थः । एवं चाग्रे यावद्भिरक्षरमंत्राभिर्वा यस्य छन्दसो लक्षणं वक्ष्यते तस्यैकः पादस्तादृशलक्षणयुक्तः, तावद्भिर्वर्मात्राभिर्वा तदीय: पादो विज्ञेय इति यावत् । यद्यप्यग्रे पूर्वार्धपरार्धयोरप्यार्यादिच्छन्दःसु मात्रासंख्या नियता न तु प्रतिपादम्; एवं च तेषु 'पाद' इत्यस्याधिकारो न सम्बध्यत इति तस्य विच्छेदोऽभ्युपेयः, तथाप्यार्याप्रकरणानन्तरं गलितकादिच्छन्दसि पुनः पादानुसार्येव लक्षणमिति तत्रैतस्याधिकार आवश्यक एवेति "अपेक्षातोऽधिकारः" इति न्यायानुसारं मण्डूकप्लुत्या तत्राधिकारोपस्थितिः स्वीकार्येति साधुक्तम् आ शास्त्र परिसमाप्तेरिति ॥ २ ॥ अ० २, सू०-२ ।।
इदानीमेकाक्षराद्या: षड्विंशत्यक्ष रावसानाइछन्दोजातीराहएकाक्षरोक्ता जातिः ॥ ३ ॥
एकाक्षरपादा उक्ता नाम मेदसंग्रहात्मिका जातिः ॥ ३॥
५१
आरम्यमाणस्य छन्दोलक्षणग्रन्थस्याधिकारसूत्रानन्तरं पठ्यमानं प्रकरणमवतारयति - इदानीमेकाक्षराद्याः षड्विंशत्यक्षरावसानाइछन्दोजातीराहेति - एकाक्षरपादं छन्द आदौ षड्विंशत्यक्षरात्मकपादं च छन्दोऽवसाने यासां तादृशीः, छन्दोजाती :- स्वावान्तरविशेषसहितानि छन्दः सामान्यानि, आह- कथयति, वक्ष्यमाणैः सूत्रैरित्यर्थः । तत्रैकाक्षरच्छन्दोजाति प्रथमेन वस्तुतस्तृतीयेन सूत्रेणाह - एकाक्षरोक्ता जातिरिति - अत्र पदत्रयम् - एकाक्षरा उक्ता जातिरिति च । तथा चार्थमाह- एकाक्षरपादा इत्यादिना, एकाक्षरमात्रः पादो यस्यास्तादृशी छन्दोजातिः 'उक्ता' इति संज्ञिता । तादृशस्य च्छन्दस एकत्वेनैकव्यक्तिमात्रवृत्तिधर्मस्य जातित्वाभावात् कथं जातिरिति व्यवहार इति चेत् ? अत्राह - भेदसंग्रहात्मिकेति - छन्दोभेदसंग्रह एव आत्मा स्वरूपं यस्याः सा इत्यर्थः तथा च उक्तात्वं न सामान्यरूपमपि तु औपाधिको धर्मं विशेष एकाक्षरपादच्छन्दोवृत्तिरिति न काऽपि हानिरिति । क्वचित् पिङ्गलच्छन्दः शास्त्रादावस्य च्छन्दसश्छन्दोजातेर्वाऽस्याः 'उक्था' इति नाम दृश्यते, अर्थविशेषाननुगमात् पारिभाषिकनाम्नि नियामकाभावाच्च नात्र किञ्चिन्निर्णायकमिति यदृच्छाशब्दवदपर्यनुयोजनीयमेतत् ॥ अ० २, सू० - ३ ॥
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५२
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ४-५.] अत्युक्ता-मध्या-प्रतिष्ठा-सुप्रतिष्ठा-गायत्री-उष्णिग-अनुष्टुब-बृहतो-पङ्क्ति त्रिष्टुब-जगती अतिजगती-शक्करी अतिशक्करी-अष्टि-अत्यष्टि धृति-अतिधृ. तयः-एकै कवृद्धाः ।।४।।
उक्तात एकंकाक्षरवृद्धपादा अत्युक्तादयः । तत्र व्यक्षरा- अत्युक्ता जातिः, ध्यक्षरा- मध्या, चतुरक्षरा-प्रतिष्ठा, एवं- यावदेकोनविंशत्यक्षरा-अतितिः
॥४॥
षड्विंशत्यक्षरावसानानां जातीनां वर्णनस्य प्रकृतत्वाद् द्वयक्षरादिजातीराह- अत्युक्ता-मध्या० इत्यादिना सूत्रेण । व्याख्याति-उक्तात एकैकाक्षरवृद्धपादा अत्युक्तादय इति- तासां छन्दोजातीनां किमपि विशिष्य लक्षणमपि तु अक्षरसंख्यैव तत्तज्जातिनियामिकेत्यर्थः । एतानि नामानि संज्ञामात्रप्रयोजनानि न तु तत्राऽक्षरार्थानुगमः कश्चित् । छन्दोऽनुशासनविधायकः पूर्वाचार्यरपि यानि नामानि समाश्रितानि तान्येव परम्पराप्राप्तानीमानि नामानि, तथा च प्रत्येकं विविच्य परिचाययति- तत्र द्वचक्षरा-अत्युक्ता जातिरित्यादिना, द्वे अक्षरे यस्याः पादे सा द्वयक्षरा, जातिः छन्दःप्रभेदः, अत्युक्ता नामेत्येवंरूपेण व्याख्येयम् । षड्विंशत्यक्षरावसानाः' इत्युक्तमत्र तु पूर्वसूत्रलक्षितयोक्तया सह एकोनविंशतीनामेव कथन मिति किमत्रैव विंशत्यक्षरादिपादानामपि संनिवेश उत तानि पृथग वक्ष्यन्ते इति शिष्यसंशयोच्छेदायाहएवं-यावदेकोनविंशत्यक्षरा-अतितिरिति-विंशत्याद्यक्षरपादानामग्रिमसूत्रेण संगृह्य संज्ञाया वक्ष्यमाणत्वेनैकोनविशत्यक्षरपादानामेवात्र संनिवेश इति भावः, एकेन ऊना-एकोना "ऊनार्थ०" [ ३. १. ६७. ] इति समासः, एकोना चासो विंशतिरिति कर्मधारये पुंवद्भावे च- एकोनविंशतिरिति, एकानविंशतिरिति पाठे तु- एकेन नविंशतिरेकानविंशतिरिति "नविंशत्यादि." [३. १. ६६.] इति समास एकशब्दस्य चादन्तागमः, सूत्रनिर्देशबलात् नबोऽदादेशो ड: समासान्तश्च न भवति । अ० २, सू०-४॥
कृतिः प्राविसमभ्युदश्च ॥५॥ __ 'प्र-आङ्-वि-सम्-अभि-उद्' इत्येतेभ्यश्च परा कृतिरेकेकवृताक्षरा । विशत्यक्षरा-कृतिः, एकविंशत्यक्षरा-प्रकृतिः, द्वाविंशत्यक्षरा-आकृतिः, त्रयो
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५३
[अ० २, सू० ६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते विशत्यक्षरा-विकृतिः, चतुर्विशत्यक्षरा- संकृतिः, पञ्चविंशत्यक्षरा- अमिकृतिः, [ एवं ] षड्विंशत्यक्षरा- उत्कृतिः, इति [ यावत् ] ॥५॥
विशत्यादिषड्विंशत्यवसानाक्षरपादानां छन्दसां जातीः संक्षेपेणाहकृतिःप्राविसमभ्युदश्चेति, क्वचित् 'प्रावि' स्थाने 'प्राङ्वि' इति पाठः 'कृतिः' इति चान्ते। विवृणोति-'प्र-आङ्' इत्यादिना, विंशत्यक्षरपादा जातिः कृतिः, सवैकैकाक्षरवृद्धपादा क्रमश:- 'प्र-आङ्-वि-सम्-अभि-उद्' इत्येतैः षड्भिरुपसर्गर्युक्तेन कृतिशब्देनोच्यन्ते । तथा च योऽर्थः पर्यवसन्नस्तं विविच्य दर्शयतिविशत्यक्षरा-कृतिरित्यादिना-विंशतिरक्षराणि पादे यस्याः सा विंशत्यक्षरा जातिः, कृतिरित्याख्यायते, एकविंशतिरक्षराणि पादे यस्याः सा- प्रकृतिरित्युच्यते जातिः, द्वाविंशतिरक्षराणि पादे यस्याः सा- आकृतिर्जातिः, त्रयोविंशतिरक्षराणि पादे यस्याः सा- विकृतिनाम्नी छन्दोजातिः, चतुर्विंशतिरक्षराणि यस्याः पादे सा-संकृतिरिति, अत्र समः परत्वेऽपि भूषणाद्यर्थाविवक्षया नस्सट, पञ्चविंशतिरक्षराणि यस्याः पादे सा-अभिकृतिर्जातिः, एवं षड्विंशतिरक्षराणि यस्याः पादे सा- जातिरुत्कृति म । इतिशब्दः प्रकृतच्छन्दोजातिवर्णनपूत्तिद्योतकः । अ० २, सू०-५॥ अथासामेव जातीनामुपयोगिनो मेदानाह
उक्तायां गः श्रीः ॥६॥ उक्तायां जातो गुरुरेकाक्षरः पादः, स च श्रीनामा । यथा-गी-,ः । श्रीः, स्तात् ॥६-१॥ ___ अथ प्रतिजातिच्छन्दोभेदानुदाहर्तु सूत्राण्यवतारयति- अथासामेव जातीनामुपयोगिनो भेदानाहेति- अतः परमुक्ताद्युत्कृत्यन्तानां कथितानां छन्दोजातीनामुपयोगिनः-घटकतया समवेतान्, भेदान्-विशेषान्, आह-अग्रिमः सूत्रः कथयतीत्यर्थः । तत्र प्रथमोपस्थितामेकाक्षरपादामुक्तामेवाह- उक्तायां गः श्रीः इति । विवृणोति- उक्तायां जाताविति- उक्तासंज्ञिकायामेकाक्षरपादच्छन्दोजातो एको गुरुरूप एव पादः, तच्च छन्दः श्रीर्नामेति तदर्थः । उदाहरति- यया- "गी-झुः। श्रीः, स्तात् ॥” इति- कस्मैचित
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ७-८.] कश्चिदाशिषं प्रयुङ्के- गी:- वाणी, धी:- बुद्धिः, श्री:- लक्ष्मीश्च, स्तात्भवतु ।
"अहरहर्नयमानो, गामश्वं पुरुष पशुम् । वैवस्वतो न तृप्यति, सुराया इव दुर्मदी।"
इत्यादी विनाऽपि चं चार्थो द्योत्यत इति गीरादीनां समुच्चयो गम्यते । आद्यस्य च्छन्दसः श्रीरिति नामकथनेनाशीर्वादार्थकस्यवोदाहरणस्य च दानेनाचार्यस्य माङ्गलिकत्वं व्यक्तम्, सहि सर्वेषां व्याख्यात-श्रोतुणामनायासेन मङ्गलार्थमेवैवं छन्दोनामोदाहरणं च प्रयुक्तवान् । अस्य चैकाक्षरपादत्वेन तस्याप्यक्षरस्य गुरुरूपत्वेन नियतत्वादन्येषां प्रभेदानामसम्भव एवेत्यस्यां जातावेकमेव च्छन्दः । उदाहरणेषु यथाकथंचिच्छन्द नाम्नः समावेशनमिति रीतिः ॥ अ० २, सू०-६ ॥
अत्युक्तायां गौ स्त्री ॥ ७ ॥ यथा-भ्रात-, दृष्टा । इष्टा, सा खी।। ७. १. ॥ पमित्येके ।। ७. १. ॥ द्वयक्षरात्मकपादायामत्युक्तायां छन्दोविशेषमाह- 'अत्युक्तायां गौ स्त्री' इति- गाविति गुरुद्वयरूपः पादो यस्याः सा-स्त्री, अत्युक्ताजाति विशेष इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-भ्रातरिति- हे भ्रातः ! इष्टा- इच्छाविषयीभूता, सा-पूर्व चचिंता स्त्री, दृष्टा- लोचनविषयीकृता । अत्र चतुर्वपि पादेषु गुरुद्वयमिति लक्षणसमन्वयः । अस्यैव च्छन्दसो मतान्तरानुसारं नामान्तरमाह- पद्ममित्येके इति- एके आचार्या गुरुद्वयात्मकपादं छन्दः पद्ममित्यादुः । प्राकृतपिङ्गले च गुरुद्वयपादस्य 'काम' इति नामोक्तम्, तथा च नात्रकरूपा आचार्यपरम्परा, यथाशास्त्रं संज्ञाभेदेऽपि जाति विषये न विवादः ।। अ० २, सू०-७॥
लौ मदः ॥ ८ ॥ जय, जिन ॥ जित-, मद! ॥ ८.१ ॥ पुष्पमिति कश्चित् ॥ ८.१॥
अत्युक्ताया एव द्वितीयं विशेषमाह- "लौ मदः" इति- लघुद्वयरूपो द्वयक्षरः पादो यस्य तत् 'मद' इत्याख्यायत इत्यर्थः उदाहरति-जय, जिनेतिहे जितमद !- वशीकृताहकार ! जिन ! [त्वं] जय- सर्वोत्कर्षेण वर्तस्वेत्यर्थः,
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[अ० २, सू० - ११.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
५५
'जितमद:' इति पाठेतु - हे जिन ! त्वं जितमदः सन् जयेत्यर्थः । अस्यापि नामान्तरमाह - पुष्पमिति कश्चिदिति । प्राकृतपिङ्गले च मध्विति नाम लघुद्वयरूपपादस्य छन्दसः ॥ अ० २. सू० -८ ॥
ग्लो दुःखम् ॥६॥
यथा - कस्य, नात्र । दुःख -, मस्ति ॥ ६. १ ॥
अत्युक्तायास्तृतीयं प्रभेदमाह - "ग्लौ दुःखम्" इति - एको गुरुद्वितीयो लघुरिति अक्षरद्वयरूपः पादो यस्य तच्छन्दो दुःखमित्याख्यायत इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - "कस्य, नात्र । दुःखमस्ति ” इति - प्रतिपादमाद्यो वर्णो गुरुद्वतीयो लघुः । अत्र - संसारे, कस्य - जनस्य, दुःखं- प्रतिकूलवेदनीयं कर्मफलं; न, अस्ति, अपि तु सर्वस्य तादृशफलं भवत्येवेत्यर्थः, तात्त्विकदृष्ट्या विचारे तु अत्र यत्किञ्चिदनुमूयते तत् सर्वं दुःखमेवेति ॥ अ० २, सू०-६ ॥
गौ सुखम् ॥१०॥
यथा - जिनः, स वः । क्रियात् सुखम् ॥ १०१ ॥
चतुर्थं प्रभेदमाह - "लगौसुखम् " इति प्रथमो लघुद्वितीयो गुरुरिति लघुगुरुरूपाक्षरद्वयपादवत् छन्दः सुखमिति कथ्यत इत्यर्थः । यथा- जिनः, स वः । क्रियात्, सुखम् ॥ इति - अत्र प्रतिपादं प्रथमो लघुर्द्वितीयो गुरुरिति लक्षणसमन्वयः । अर्थश्च - स - प्रसिद्धानुभावः, जिनः, वः- • युष्माकं सुखंअनुकूलवेदनीयं कर्मफलं क्रियात्- विदध्यात् इति । इत्येवमत्युक्तायाः ४ चत्वारो भेदा व्याख्याताः ॥ अ० २, सू० - १० ॥
"
मध्यायां मो नारी ॥११॥
यथा - निःसारे, संसारे । सारं कि, स्यान्नारी ॥। ११.१ ॥
अथ तृतीयाया मध्यायाः प्रकारानुपक्रमते- मध्यायां मो नारीतिमगणरूपमक्षरत्रयं पादे यस्य तन्नारीनामकं छन्दो मध्यायां जातौ प्रथमो भेदो वेदितव्य इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- 'निःसारे, संसारे । सारं कि,
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५६
[अ० २, सू० १२. ]
स वृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते स्यान्नारी' ॥ इति - अत्र गुरुत्रयात्मक - मगणरूपः पादः । अर्थश्च - निःसारेसाररहिते, संसारे, सारं वरं कि स्यात् ? इति प्रश्ने उत्तरमाह - नारीतिसांसारिकदृष्ट्या तस्या एव अनुपमत्यागमयीत्वात् सा हि मातृरूपेण स्वकीयं सर्वमपि सुखं पुत्रार्थं त्यजति, पत्नीरूपेणाऽपि स्वसुखनिरपेक्षव स्वामिनं सुखयति, आत्मानं च तत्रैव विलापयतीत्यहो तदीया निःस्वार्थता, तथा च सर्वश्रेष्ठत्वं तस्याः । विरक्तदृष्या व्याख्याने तु निःसारे संसारे नारी कि सारं स्यात् ? इति काकुः, नैव स्यादित्याकृतम्, तस्या एव सकलबन्धहेतुत्वात्, तत्र सारत्वसन्देहो - ऽपि वृथै - वेत्यर्थः । अत्र यद्यपि हैमलिङ्गानुशासनरीत्या न्याय्येऽर्थे सारशब्दस्य क्लीबत्वम्, तथाहि - तत्र कारिका -
"धर्मं दानादिके, तुल्यभागेऽर्धं ब्राह्मणं श्रुतौ ।
न्याय्ये सारं, पद्ममिभबिन्दी, काममनुमतौ ।। "
[ न० लि० ७ ] इत्युक्तम्, अत्र च न न्याय्येऽर्थे प्रयोगः, तथा च क्लीबत्वं न युक्तमिति सारं किमिति कथनं न युज्यते; तथापि " सारो बले स्थिरांशे च, न्याय्ये क्लीबं, वरे त्रिषु" इति नानार्थवर्गेऽम रोक्त्या वरे श्रेष्ठेऽर्थे तस्य त्रिलिङ्गत्वमिति सामान्यविवक्षया सारं किमिति प्रयोगो बोध्यः ॥ अत एव "असारे खलु संसारे सारं सारंङ्गालोचना" इत्याद्यपि संगच्छते ॥ अ० २, सू०-११ ॥
यः केशा ॥१२॥
यथा-:
-पुरंध्री, सुवेशा । इयं सा, सुकेशा ॥ १२१ ॥ बूरिति भरतः ॥ १२.१ ॥
मध्याया जातेद्वितीयं प्रकारमाह - "यः केशा" इति । आदिलघूत्तरगुरुद्वयरूपस्त्रिवर्णात्मके यगणरूपः पादो यस्य तच्छन्दः केशा नामेत्यर्थः । उदाहरतिपुरंध्री, सुवेशेत्यादि - अत्र प्रतिपादमाद्यक्षरस्य लघुत्वं शिष्टयोश्च गुरुत्वमिति यगणात्मकः पादः स्पष्टः । सा इयं - प्रत्यक्षदृश्यमाना, सुवेशा- सुन्दरनेपथ्या, सुकेशा - शोमनकेशवती, पुरन्ध्री- पतिव्रता, अस्ति, इति स्वरूपकथनमर्थः । अत्र मतान्तरमाह - द्यूरिति भरतः इति भरतो नाट्यशास्त्र- कर्ता, इदं छन्दः घूरिति नाम्ना व्यवहरतीत्यर्थः ।। सू० २-१२ ॥
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[अ० २, सू० १३-१४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
५७ रो मृगी ॥१३॥ यथा-वल्लभा, गेहिनी । या मृगी-, लोचना ॥१३.१॥ तडिदिति भरतः॥१३.१॥
मध्याया जातेस्तृतीयं प्रभेदमाह- "रो मृगी" इति- लघुमध्यवर्णत्रयात्मकरगणरूपपादयुक्तं मृगीनामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- वल्लभा गेहिनीति- या गेहिनी- गृहिणी, मृगीलोचना- मृग्या लोचने इव लोचने यस्यास्ताहशी [सा] वल्लभा- पत्युः प्रिया भवतीत्यर्थः । अत्र चतुर्णामपि पादानां मध्यलघुत्वं स्पष्टम् । अत्रापि मतान्तरमाह- तडिदिति भरतः इतिभरत आचार्य इदं छन्दः 'तडित्' इत्याहेत्यर्थः । अ० २, सू०-१३ ॥
सो मदनः ॥ १४ ॥ यथा- विरहे-,ऽभ्यधिकम् । मदनो वहति ॥ १४.१॥रजनीति भरतः । केचित्तु-'म्न-भ्य-ज्र-स्ताम्' एककोऽपि- अब्धिः, शङ्खः, शुभ्रं, दुग्धम, इत्याहुः ॥ १४.१ ॥ ३॥४॥
मध्याया जातेश्चतुर्थं विशेषमाह- सो मदन इति- सगणेन- लघुद्वयैरगुरुभिनिर्मिताः पादा यस्य तन् मदनो नाम च्छन्दः । उदाहरति- यथा- । विरह इति- मदनः- कामः, विरहे- प्रियायाः प्रियस्य वा विच्छेदे, अभ्यधिकं- संयोगावस्थातोऽतिशयितं, दहति चेतस्तापयतीत्यर्थः । अस्यैवच्छन्दसो नामान्तरमपि मतान्तरेणाह- रजनीति भरत इति- भरतनाट्यशास्त्रे गायत्रीच्छन्दसः पूर्वं छन्दसां नामानि सम्प्रति नोपलभ्यन्ते, तथापि तस्याकररूपत्वेन सम्भाव्यतेऽन्येषामपि तत्रोल्लेख:, कालविच्छेदाच्च स पाठोभ्रष्ट इति मध्याया जातेस्त्र्यक्षरत्वेन सर्वेरेव गणस्तस्या निर्माणं संभवतीति गणसंख्यासमा अस्य च्छन्दसो भेदा इति केषांचिन्मतं सूचयति- केचित् तु- 'म्न-भ्यज्र-स्ताम्'एकैकोऽपीति- एषां गणानां प्रत्येकमपि मध्याभेदपाद-रूपतां याति, तत्र- म-य-र-सानां पादानां सत्त्वे याश्छन्दः संज्ञास्ता उपरिष्टादुत्ता एव, शेषाणां न-भ-ज-तानां पादानां संज्ञा अपि तदूहिता आह- अब्धिः, शङ्खः शुभ्रं, दुग्धमिति- अत्र कस्य का संज्ञेति विशिष्यानुक्तत्वात् तदनुसारिग्रन्थस्य चानुपलब्धत्वात् विशिष्य निर्णेतुमशक्यमिति विरमामः ।। अ० २, सू०-१४॥
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५९
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५-१७.]
प्रतिष्ठायां म्गौ कन्या ॥१५॥ मगणो गुरुश्च । यथा- सर्वैर्देवैः, येहां चक्रे। सेयं मन्ये, धन्या कन्या ॥१५.१॥
अथ चतुरक्षरपादां प्रतिष्ठाजाति वर्णयितुं प्रथमभेदमाह-प्रतिष्ठायां म्गो कन्येति- प्रतिष्ठाजात्यन्तर्गतं मगणेन- गुरुत्रयेण, गुरुणा चकेन, चतुर्भिगुरुभिरिति यावत्, विरचितपादं कन्यानामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-सर्वदेवरिति-या सर्वे:-देवैः-सकलः सुरैः, ईहांचक्र-प्राप्तमभिलषिता, सा इयं कन्या-बाला, 'धन्या' इति [अहं ] मन्ये-उत्प्रेक्षयामीत्यर्थः । अत्र चतुभिगुरुभिर्वर्णः पादाः कृताः ।। अ० २, सू०-१५ ॥
भगौ सुमुखी ॥१६॥ भगणो गुरुश्च । यथा- क्षीणतनु-, मंद्विरहे । याऽश्रुमुखी, सा सुमुखी ॥१६. १ ॥ ललितेति भरतः ॥ १६.१ ॥
प्रतिष्ठाजातेद्वितीयं भेद माह- "गौ सुमुखी" इति- भगणेन गुरुणकेन लघुद्वयेन-), गुरुणा चकेनेति चतुभिर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् सुमुखीनामकं वृत्तमित्यर्थः। उदाहरति-यथा-क्षीणतनुरिति-या सा- प्रसिद्धरूपा, सुमुखीसुन्दरानना, मद्विरहे- मया सह विच्छेदे, क्षीणतनु:- कृशशरीरा, अश्र मुखीनेत्रजलक्लिन्नानना, च भवतीत्यर्थः। अत्र प्रतिपादं भगणस्य 51, गुरोःऽच सन्निवेशः स्पष्टः । अस्यैव भरताभिमतं नामान्तरमाह- ललितेति भरत इति- अदोऽपि छन्दो भ० ना० शास्त्रे न लक्षितं दृश्यते ॥ अ० २, सू०-१६ ॥
ज्गौ विलासिनी ॥१७॥ जगणो गुरुश्च । यथा- न लभ्यते, घनस्तनी। धनं विना, विलासिनी ॥१७.१ ॥ जयेति भरतः ॥ १७.१ ॥
प्रकारान्तरेण प्रतिष्ठामाह- "ज्गौ विलासिनी" इति- 11 आद्यन्तलघुगुरुमध्यजगणेन, गुरुणा चैकेन निर्मितपादं छन्दो विलासिनी नाम । उदाहरति- यथा-न लभ्यत इति- घनस्तनी- कठोरनिबिडकुचा, विलासिनी
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[अ० २, सू० १८ - १६. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
५६
सर्वविधविलसनरतिनिपुणा स्त्री, धनं विना- वित्तरहितेन जनेन, न लभ्यतेन प्राप्यत इत्यर्थः । अत्र प्रतिपादं प्रोक्तलक्षणस्य स्थितिः स्पष्टैव । भरताभिमतं नामान्तरमाह - जयेति भरतः इति - भरत इदं छन्दो जयानाम्ना व्यवहरतीत्यर्थः ॥ अ० २, सू०-१७ ॥
गौ समृद्धिः ॥ १८ ॥
रगणो गुरुश्च । यथा- पुण्यपात्रे, शुद्धचित्तं । या प्रदत्ता, सा समृद्धिः ।। १८.१ ॥ पुण्यमिति भरतः ।। १८.१ ॥
प्रतिष्ठायांश्चतुर्थं प्रभेदमाह- "गौ समृद्धिः" इति - रगणेन SIS, गुरुणा चैकेन S, विरचितः पादो यस्य तच्छन्दोऽत्र समृद्धिनाम्ना व्यवह्रियत इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पुण्यपात्रे इति - शुद्धचित्त :- फलाभिसन्धिराहित्येन निर्मलान्तःकरण, पुण्यपात्रे - पुण्ये - सत्यवचनस्वधर्माचरणादिभिः पवित्रे, पात्रे - दानोद्देश्ये जने, या प्रदत्ता- वितीर्णा, सा समृद्धिरिति कथ्यते, सैव समुचिता सम्पदित्यर्थः । अस्यैव भरतसम्मतं नामान्तरमाह - पुण्यमिति भरतः इति 'पु [S] ण्य [ 1 ] पा[s]त्रे [s]' इत्येवंरूपेण लक्षणसमन्वयः प्रतिपादमुनयः ॥ अ० २, सू० - १८ ।।
गौ मृगवधूः ||१६||
नगणो गुरुच । यथा- तव पुरो, नयनयोः । किमिव सा, मृगवधूः ॥ १६.१ ॥
पञ्चमं प्रतिष्ठायाः प्रकारमाह - “न्गौ मृगवधूः " इति - नगणेन III, गुरुणा च विरचितः पादो यस्य तच्छन्दो मृगवधूर्नाम । उदाहरति- यथातव पुर इति- किसा- प्रकृतनिर्वचना स्त्री, तव नयनयो:, पुर:- अग्रे, मृगवधूरिव - हरिणीव चञ्चलनेत्रा भीतेव वा भवति ? | 'त [1] व [ | ] [ 1 ]रो [s]' इत्येवं रूपेण लक्षणानुगतिः स्पष्टा । सर्वत्र चैतेषु छन्दःसु छन्दसो नामाऽपि प्रकृतार्थान्वय्यर्थतया समावेशितमिति न विस्मर्तव्यम्, तदनुरोधेनैव च नाथंचारुत्वे व्यवसाय इत्यपि बोध्यम् ॥ अ० २, सू० - १६. ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २०-२२.]
गौ व्रीडा ॥२०॥ यगणो गुरुन्न । यथा- तथा तेन, कृतं भ; । यथा चित्ते, ऽभवद् वीडा ॥२०.१॥
प्रतिष्ठायाः षष्ठं प्रकारमाह-रगो वीडेति- यगणेन ।ऽऽ, गुरुणा 5 च निर्मितः पादो यस्य तच्छन्दो व्रीडा नाम । उदाहरति-यथा- तथा तेन इति- भर्ना- स्वामिना, न तु प्रियेण, तथा- तेन प्रकारेण, कृतमाचरितं, नपा- येन प्रकारेण, चित्ते, वीडा- लजा, अभवत्- जातेत्यर्थः । अत्र 'य[0]था[5]चि[5]ते[s]' इत्येवं रीत्या प्रतिपादं लक्षणानुगतिः ॥२, सू० २०॥
सगौ सुमतिः ॥२१॥ सगणो गुरुश्च । यथा- भज धर्म, वद सत्यम् । त्यज पापं, सुमतिः सन् ॥ २१. १. ॥ भ्रमरीति भरतः ॥ २१.१ ॥
सप्तमं प्रकारमाह- "स्गो सुमतिः" इति- सगणेन ॥s, गुरुणा ऽ च, विरचिताः पादा यस्य तत् सुमतिनामकं छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथाभज धर्मम् इति-सुमतिः- निर्दुष्टबुद्धिः, सन्- भूत्वा, धर्म शास्त्रगुरुपदिष्टं सद कार्य, भज- अनुतिष्ठ, सत्यं- यथार्थ, वद- ब्रूहि, पापम्- असदाचरणं, त्यज-वर्जयेत्यर्थः। 'भ[1]ज[1]स[5]त्यं [s]' इति रीत्या पादे लक्षणाऽनुगतिः, समवृत्ततया च चतुष्वपि पादेषु तथैव वर्णविन्यासः ॥ अ० २, सू०-२१ ॥
___ त्गौ सोमप्रिया ॥२२॥ तगणो गुरुश्च । यथा- विभ्राजते, खे रोहिणी। चारुधुतिः, सोमप्रिया ॥ २२.१॥४॥८॥
प्रतिष्ठाया अष्टमं प्रभेदमाह- "त्गौ सोमप्रिया" इति- तगणः ऽऽI, गुरुरेकः 5, इति वर्णचतुष्टयेन निर्मिताः पादा यस्य तत् छन्दः ‘सोमप्रिया' नाम्ना व्यवह्रियत इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-विभ्राजते इति- खे- आकाशे, चारुद्युतिः- सुन्दरच्छविः, सोमप्रिया- निशाकरप्रीतिपात्रम्, रोहिणी- स्वनामप्रसिद्धा तारा, विभ्राजते- सर्वाभ्यस्तारकाभ्योऽतिरिच्य शोभत इत्यर्थः ।
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[अ० २, सू० २३-२४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते 'वि[s]भ्रा[s]ज [1]ते[s]' इत्येवंरूपेण प्रतिपादं लक्षणसमन्वयोऽवसेयः ॥ अ० २, सू०-२२ ॥
सुप्रतिष्ठायां रो गौ प्रीतिः ॥२३॥ यथा- यस्य नवार्थाः, नैव कामिन्यः । नापि वैराग्यं, तस्य का प्रीतिः ॥ २३.१ ॥
[ इत्थं प्रतिष्ठायामष्टौ भेदा उक्ताः, प्रस्तारक्रमेण च १६ षोडश भेदाः स्युरिति वृत्तरत्नाकरे निर्दिष्टम् ] ___ एवं चतुरक्षरां छन्दो जाति निरूप्य पञ्चाक्षरां सुप्रतिष्ठानाम्नी छन्दोजाति सप्रभेदां निरूपयति- "सुप्रतिष्ठायां रो गौ प्रीतिः" इति- 'र:-रगणः , गुरू ss' इत्येवंस्वरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् छन्दः सुप्रतिष्ठायां- सुप्रतिष्ठासंज्ञकछन्दोजातिमध्ये 'प्रीतिः' इति नाम्ना व्यवह्रियत इत्यर्थः । उदाहरतियथा- यस्य नैवार्थाः इति- यस्य- जनस्य, अर्थाः- धन-धान्यादिसम्पदः, न एव- निश्चितरूपेण न सन्ति, कामिन्य:- कामभोगोपयुक्ताः स्त्रियः, न एव सन्ति, अपि- अन्यच्च, वैराग्यं- मोक्षोपयोगि विषयवैतृष्ण्यं न- अस्ति, तथा च विषयसतृष्णस्य सर्वविषयशून्यस्य तस्य का प्रीतिः- क आनन्दः, किमपि न सुखमित्यर्थः । सर्वथा विषयविरक्तस्यात्यन्तिकी प्रीतिः, तदभावे अर्थकामोपभोगसम्भवे क्षणिकाऽपि प्रीतिः, उभयशून्यस्य च तस्य का प्रीतिसंभावनेति तात्पयंम् । 'य[s]स्य[] नै [s]वा[s]र्थाः[s]' इति लक्षणसंगतिः।।अ० २, सू०-२३ ।।
रल्गा विदग्धकः ॥२४॥ रगणो लघुगुरू च । यथा- यौवनेन वा, कार्मणेन वा। यो न दग्धको, सौ विदग्धकः ।। २४. १ ॥ वागुरेति भरतः ॥ २४. १ ॥
सुप्रतिष्ठायामेव द्वितीयं प्रकारमाह- "गा विदग्धकः" इति- 'र्रगणः sis, ल्- लघुः, [1], ग्- गुरुः [s]' इत्येवं पञ्चभिर्वविहिताः पादा यस्य तद् वृत्तं विदग्धको नाम । उदाहरति- यथा- यौवनेन वेति- यःपुमान्, यौवनेन- युवत्वकृतेन कामगर्वादिविकारेण, कार्मणेन- स्वक्रियाकृतदुर्विपाकेन वा, न दग्धक: इति- न प्लुष्टान्तःकरणः, स एव विदग्धक:- चतुर
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रयोते [अ० २, सू० २५-२६.]
इत्यर्थः । वि - विगतः, दग्धक इति व्युत्यत्त्या विदग्धकशब्दस्य तत्रैव प्रयोग उचित इति तात्पर्यम् । 'यौ[S]व[1]ने [s]न [1] वा [s]' इत्येवं लक्षणंसंगतिः सर्वपादेषु । अस्यैव भरतकृतं नामान्तरमाह - वागुरेति भरतः इति
॥ अ० २, सू० - २४. ॥
भो गौ पङक्तिः ॥ २५ ॥
यथा - फाल्गुनमासे, फुल्लवनान्ते । पावकतुल्या, किंशुकपङ्क्तिः ॥ २५.१।। अक्षरोपपदेत्यन्ये । कुन्तलतन्वीति भरतः ।। २५.१ ।।
अत्रैव जातौ तृतीयप्रकारमाह - “भो गौ पङ्क्तिः" इति - 'भः - भगणः । ।, गौ- गुरू ऽऽ' इत्येवंरूपैर्वर्णैः पञ्चभिर्विहिताः पादा यस्य तत् 'पङ्क्तिः' इत्याख्यातं छन्दः । उदाहरति- फाल्गुनमासे इति- फुल्लवनान्ते - फुल्ला:- विकसिताः, वनान्ताः - कान्तारप्रदेशा यस्मिन् तादृशे फाल्गुनमासे, किंशुकपङ्क्तिःपलाशतरुमाला, पावकतुल्या- वर्णतोऽग्नि- सदृशी, विरहिणां कृते च कर्मणाऽपि तथैव दाहिकेत्यर्थः । अस्य नामान्तराण्याह- अक्षरोपपदा इत्यन्ये इति - अन्ये आचार्याः अक्षरोपपदा पङ्क्तिः - 'अक्षरपङ्क्तिः' इति प्रकृतच्छन्दोनाम निर्दिशन्ति । कुन्तलतन्वीति भरतः इति - भरत आचार्यः 'कुन्तलतन्वी' इति प्रथगेवास्य नाम कथयति । 'फा [ 5 ]ल्गु [ 1 ] न [ | ] मा [s]से [s]' इत्येवं लक्षणसंगतिः । वृत्तरत्नाकरच्छन्दोमञ्जर्योरपि प्रकृतस्वरूपस्य च्छन्दसः पङ्क्तिरित्येव नाम ॥ अ० २, सू० - २५ ।।
लगा रतिः ॥ २६ ॥
मगणो लघुगुरू च । यथा- साधुचरणा-, म्भोजयुगले । हन्त विदुषो, राजति रतिः ।। २६.१ ।।
अस्यामेव चतुथं प्रकारमाह - "लगा रतिः" इति - ' भगण: SII, लघु [ 1 ], गुरु: [s]' एतत्स्वरूपैर्वणैः कृताः पादा यस्य तच्छन्दः 'रतिः' इत्याख्यायते । उदाहरति- यथा - साधुचरणेति - विदुषः- ज्ञानिनः, साधुचरणाम्भोजयुगले - साधुचरणावेव अम्भोजं - कमलं तस्य युगले - द्वन्द्वे, रति:- अनुरागः,
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[अ० २, सू० २७-२६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते राजति- शोभते, हन्तेति तद्विरुद्धाचारिषु खेदाभिव्यक्तये । 'सा[s][i]च[1] [1]णा[s]' इत्येवं लक्षणसंगतिः । अ० २, सू०-२६ ॥
जो गौ सती ॥२७॥ यथा-स्वभर्तृभक्ता, विशुद्धशीला। निरीहचित्ता, सती सतीयम् ॥२७.१.॥
शिखेति भरतः ॥२७.१.॥ अत्रव पञ्चमं प्रभेदमाह- "जो गौ सती" इति- 'जगणः 151, गुरुद्वयं ss' इत्येवं प्रकारर्वणैर्विहिताः पादा यस्य तच्छन्दः 'सती' नाम । उदाहरतियथा-स्वभर्तभक्तति- इयं-प्रकृतवर्णिता काचित् स्त्री, स्वभर्तृभक्ता-स्वस्वामिनि भक्तियुक्ता, विशुद्धशीला- विशुद्ध परपुरुषसम्पर्कशून्यं शीलं स्वभावो यस्याः सा, निरीहचित्ता- निःस्पृहमानसा, सती- सम्पद्यमाना, सती- सचरित्रेति कथ्यत इति शेषः। 'स्व [1] भ[s]र्तृ[1] भ[s]क्ता[5]' इति रूपेण लक्षणसमन्वयः । अस्यैव भरताभिमतं नामान्तरमाह-शिखेति भरतः इति - भरत आचार्योऽस्य च्छन्दसः शिखेति नामाहेत्यर्थः ।। अ० २, सू०-२७ ॥
त्लगा नन्दा ॥२८।। तगणो लघुगुरू च । यथा- चित्ते सरला, वेषे तरला। दाने पृथुला, नन्दा महिला ॥ २८.१ ॥
षष्ठं प्रभेदमाह- "लगा नन्दा" इति- 'तगणःSI, लघुः[1], गुरुः[s]', इत्येवंरूपैर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् 'नन्दा' नामकं छन्दः। उदाहरति-यथाचित्ते सरलेति- चित्ते- चेतसि, सरला- आर्जवयुक्ता, वेषे- नेपथ्यविधी, तरला- चञ्चला, दाने-वित्तविसर्गे, पृथुला- महत्त्ववती, महिला- भद्रा स्त्री, 'नन्दा' इत्याख्यायत इत्यर्थः । 'चि[s]त्ते[5] स[1] [1]ला[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२८ ॥
रलगा जया ॥२६॥ यगणो लघुगुरू च । यथा- ममानीयत, मनः कान्तया । मुखेनोबसजिताम्भोजया ॥ २६. १. ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ३०-३१.] सुप्रतिष्ठाया एव सप्तमं प्रकारमाह- "टलगा जया" इति । विवृणोतियगणो लघुगुरू चेति- 'यगणः।ऽऽ, लघुः[1], गुरुः[s]' इत्येवं-रूपैर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् 'जया' नामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-ममानीयतेति- मुखेन- स्वीयाननेन, जिताम्भोजया- अमिभूतकमलया, कान्तयाकामिन्या, उल्लसत्- प्रसन्नं, मम मनः, अनीयत- स्ववशं नीतमित्यर्थः। अत्र पादान्तस्थस्य लघोरपि वा गुरुत्वस्य "वाऽन्तेऽवक्रः"[१६] इति सूत्रेणानुशिष्टत्वात्। 'म[1]मा[s]नी[s]य[1]त[5]' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू०-२६॥
म्लगाः सावित्री ॥३०॥ मगणो लघुगुरू च । यथा- जैनेन्द्रं मुखं, दिश्यावः सुखम् । जिग्ये येन सा, सावित्री प्रभा ॥ ३०.१॥
अस्या एवाष्टमं प्रकारमाह- "म्लगाः सावित्री" इति । विवृणोतिमगणो लघुगुरू चेति- 'मगणःऽऽऽ, लघुः[1], गुरुः[s]' इत्येवंप्रकारैः पञ्च. भिर्वर्णः कृतस्वरूपाः पादा यस्य तत् 'सावित्री' नामकं छन्द इत्यर्थः। उदाहरति-यथा- जैनेन्द्र मुखम् इति- येन सा- प्रसिद्धा, सावित्री- सवितुरियं सा, सूर्यसम्बन्धिनी, प्रभा- कान्तिः, जिग्ये-जिता [तत्] जैनेन्द्रं- जिनेन्द्रस्येदं तत्, मुखम्- आननम्, व:- युष्मभ्यं, सुखं- कल्याणं, दिश्यात्- दद्यादित्यर्थः। अत्र 'जै[s]ने[5]न्द्र [5], मु[]खं[s]' इति लक्षणसङ्गतिः॥अ०२, सू०-३०॥
सो गौ घनपक्तिः ॥३१॥ यथा- क्रियया होनं, यदिह ज्ञानम् । रहिताम्भोभिर्-, घनपङक्तिः सा ॥ ३१. १.॥
अस्या एव जातेनवमं विशेषमाह- "सो गौ घनपङ्क्तिः " इति- 'सगणः ॥s, गुरुद्वयं ,च' इति स्वरूपैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तच्छन्दो घनपङ्क्तिर्नामेत्यर्थः । उदाहरति- यथा- क्रियया हीनमिति- इह- संसारे यत् ज्ञानं क्रियया- तदनुकूलाचरणेन हीनं-रहितं, सा अम्भोमिः- जलः, रहिता- शून्या, घनपङ्क्तिः - मेघमाला, तत्तुल्येत्यर्थः । यथा निर्जलेन मेघाऽम्बरेण किमपि न फलं तथा सहशाचरणशून्येन ज्ञानेनापि न किञ्चित् फलमित्यभिप्रायः । 'क्रि[] य[]या[5] ही[5] नं[5]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २. सू०-३१॥
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[अ० २, सू० ३२-३३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
न्लगा अभिमुखी ।।३२॥ नगणो लघुगुरू च । यथा- शशिवदना, मृगनयना । अभिसरति, त्वदभिमुखी ॥३२.१॥ मृगचपलेत्यन्यः । कमलमुखीति भरतः ॥ ३२.१ ॥ ५॥१०॥
तस्या एव दशमं विशेषमाहः "लगा अभिमुखी" इति । विवृणोतिनगणो लघुगुरू चेति- 'नगणः ।।। लघुत्रयात्मको वर्णगणः, लघुः[1], गुरु:[s]' इत्येवंप्रकारवर्गविहिताः पादा यस्याः तत् 'अभिमुखी' नामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-शशिवदना इति-शशिवदना- शशी चन्द्र इव वदनं यस्याः सा, मृगनयना- मृगस्य नयने इव नयने यस्यास्तादृशी च काचिदङ्गना, त्वद्भिमुखी त्वामभिलक्ष्य,अभिसरति- रहःस्थानं गच्छतीत्यर्थः। अत्र 'श[1]शि] [1] [1] द[1]ना[s]' इत्येवं लक्षणसमन्वयः । अस्या नामान्तरमप्याह-मगचपलेत्यन्ये इति- अन्ये आचार्या इदं छन्दो 'मृगचपला' इत्याह । कमलमुखीति भरतः इति- भरत आचार्योऽस्य च्छन्दसः कमलमुखीति नामाहेत्यर्थः । इत्थं सुप्रतिष्ठाच्छन्दसो दश भेदाः कथिताः परं प्रस्तारक्रमेण च द्वात्रिंशद् भेदा भवन्तीत्यटमाध्याये स्पष्टीभविष्यति । निदिष्टं चान्यरेतत्संख्यया, न तु लक्षणः, तथा सति ग्रन्थानन्त्यप्रसङ्गादिति प्रसिद्धा एव भेदा लाक्षणिकर्लक्षिता इति विज्ञेयम् ।। अ० २, सू-३२ ॥
गायत्र्यां मौ सावित्री ॥३३|| यथा- देवानां यः स्त्रणः, साक्षात् क्षोभं निन्ये । स ब्रह्मा ब्रह्मा किं, यत्कान्ता सावित्री ॥ ३३.१॥
अथ षडक्षरछन्दोजाति गायत्री प्रभेदैर्वणयितुमुपक्रमते- गायत्र्यां मौ सावित्रीति- मगणद्वयं sss sss, षड् गुरवः, तैः कृताः पादा यस्य तद् गायत्रीजातिच्छन्दसां मध्ये 'सावित्री' इति नाम्ना प्रसिद्धमित्यर्थः। यद्यपि सुप्रतिष्ठायामपि "म्लगाः सावित्री"[२।३०] इति सावित्रीच्छन्दो लक्षितं तथाऽपि जात्याव्यवच्छेदसंभवान्न परस्परसंकर इति विज्ञेयम् । उदाहरति- यथा- देवनामिति- यः, देवानां [कृते स्त्रणैः- स्त्रीसम्बन्धिभिर्विकारैः, साक्षात्- प्रत्यक्षमेव, क्षोभं- मनश्वाञ्चल्यं, निन्ये- प्रापयामास स ब्रह्मा- तादृशो ब्रह्मा किञ्च सावित्री- तन्नाम्नी देवी, यत्कान्ता- यस्य पत्नीत्वेन ख्याता, स ब्रह्मा, कि
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ३४-३५.] ब्रह्मा- ब्रह्मत्वेन कथनीयः ? नैव कथनीय इत्याकूतम् । क्वचित् 'देवः किं स ब्रह्मा' इत्येवं तृतीयः पादः । अत्र प्रतिपादं गुरुषट्कस्य विन्यास इति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू०-३३ ॥
म्रौ तटी ॥३४॥ मगणरगणौ । यथा- कामेभ्यो निस्पृहं, यस्योः स्यान्मनः । किं कुर्यात तस्य सा, मन्दाकिन्यास्तटी ॥३४.१॥
गायत्र्या द्वितीयं प्रकारमाह-म्रो तटीति- म्राविति पदं व्याख्याति-मगणरगणाविति- 'मगणः ऽऽऽ, रगणः Is', इत्येवं गणद्वयेन निर्मिता: प दा यस्य स 'तटी'नामको गायत्रीच्छन्दोविशेषः इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-कामेभ्यो निःस्पहमिति- यस्य- पुरुषधौरेयस्य, उच्चैः- उन्नतं, मन:- चेतः, कामेभ्यःविषयाभिलाषेभ्यः विषयेभ्यो वा, निस्पृहं-प्रार्थनाशून्यं स्यात्, तस्य सामन शान्त्यर्थं प्रसिद्धा, मन्दाकिन्या:- देवनद्याः, तटी- प्रान्तभूमिः, किं कुर्यात्किमर्थं भावयेत्, स्वत एव वितृष्णस्य तस्य कृते तस्या वैयर्थ्यमेवेति भावः । 'का[s]मे [5]भ्यो[s] नि[s]स्पृ[1]ह[s]' इत्येवं रीत्या लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-३४॥
सौ रमणी ॥३५॥ यया- रजनीरमण-,प्रतिभे-वदने। तिलकं शशकं, कुरुते रमणी ॥३५.१।।
नलनीति भरतः ॥३५.१॥ गायत्र्यास्तृतीयं प्रभेदमाह- “सौ रमणी" इति- 'सगणद्वयं ॥5॥' यस्य प्रतिपादं तत् गायत्रीच्छन्दोजातिकं 'रमणी' नामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- रजनीरमणेति- रमणी- रमणशीला स्त्री, रजनीरमणप्रतिभे- रजन्या:- रात्रः, रमण:- पतिश्चन्द्रः, तद्वत् प्रतिभा- कान्तिर्यस्य तादृशे, वदने- मुखे, शशकं-- शशसदृशं, तिलक- विशेषकं, कुरुते- विदघाती त्यर्थः । सर्वथा शशाङ्क सादृश्यप्राप्त्यर्थं शशसदृशं तिलकं रचयतीति भावः । 'र[1]ज[1]नी[s]र[1]म[1]ण[s] [अग्रे संयोगसत्त्वाल्लघोरपि णकारस्य गुरुस्वात्]लक्षणसंगतिः । अस्या एव भरतोक्तं नामान्तरमाह- नलिनीति भरतः इति । अ० २, सू०-३५ ॥
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[अ० २, सू० ३६-३८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
त्यौ
तनुमध्या ॥३६॥
तगणयगणौ । यथा - लावण्यपयोधिः, सौभाग्यनिधानम् । सा कस्य न हृद्या, बाला तनुमध्या ॥ ३६.१ ॥
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गायत्र्याश्चतुर्थं प्रकारमाह - "त्यो तनुमध्या" इति । त्याविति पदं व्याख्याति- तगण - यगणाविति - 'तगण : ' SSI, यगणः, Iss' इति गणद्वयेन कृताः पादा यस्य तत् गायत्र्यां तनुमध्येतिनामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- लावण्यपयोधिः इति - लावण्यस्य पयोधि:- समुद्र इव आकरभूता, सौभाग्यनिधानं - सौभाग्यस्य - सर्वमाङ्गल्यस्य निधानं निधिः, तनुमध्याकृशोदरी, सा- पूर्ववर्णिता, बाला- प्रथमावतीर्णयोवना, कस्य - जनस्य, हृद्या - हृदयप्रिया, न- सर्वस्य हृदयप्रिया भवत्ये - वेत्यर्थ: । ' ला [s] व [s][1] प [1] यो [s]धिः [s] ' इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू०-३६ ।।
भौ गुरुमध्या ॥ ३७॥
सगणभगणौ । यथा- चपला केकर, नयना सा किल । रमणीकोविद !, गुरुमध्या तव ।। ३७.१ ।।
अस्या एव पञ्चमं विशेषमाह - " स्भौ गुरुमध्या " इति । 'भौ' इति पदं व्याख्याति - सगण - भगणौ इति 'सगणः ॥5, भगणः ।।' एवंरूपैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् गायत्रीजातो 'गुरुमध्या 'नामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा चपला केकरेति - हे रमणीकोविद ! रतशीलकामिनी- विशेषज्ञ !, चपला- चरित्रचाञ्चल्यवती, केकरनयना - केकरे - निम्नोन्नते नयने यस्यास्तादृशी, गुरुमध्या - स्थूलोदरी, सा- पूर्ववणिता स्त्री, तव किल - तवैवेत्यर्थः । 'च[1]प[1]ला[S], के[1] []र[1]' इत्येवं रूपेण लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - ३७ ।।
यौ सोमराजी ॥ ३८ ॥
यथा - स वः पातु कुन्व-, त्विषा देहमासा । समुद्योतितान्तो, जिनः सोमराजी ॥ ३८.१ ।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ३६.] षष्ठं विशेषमाह- "यो सोमराजी" इति- 'यगणद्वयं' iss Iss' इत्येवं रूपेण निर्मिताः पादा यस्य तत् 'सोमराजी' इतिनामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा-स वः पातु इति-कुन्दत्विषा-कुन्दं-माघमासप्रभवं श्वेतपुष्पं, तद्वत् त्विट- कान्तिर्यस्यास्तादृश्या, देहभासा- शरीरकान्त्या, समुद्योतितान्त:-सुप्रकाशितसमीपदेशः, सोमराजी-सोमश्चन्द्रः, तद्वत् राजते- शोभते, सोमेन- स्वकीयलाञ्छनेन राजते तच्छील:, चन्द्रप्रभनामा जिनः, व:- युष्मान्, पातु- रक्षतादित्यर्थः । 'स[1] वः[5] पा[5]तु[1] कु[s]न्द[s]' [संयोगे गुरुः" इति लक्षणादस्य गुरुत्वम्] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-३८ ॥
न्यौ शशिवदना ॥३९॥ नगणयगणौ । यथा- मनसिजलीला-कुलगृहभूमिः । कुवलयनेत्रा, शशिवदनेयम् ॥३६.१॥ मुकुलितेत्यन्यः । मकरशीर्षेति भरतः ॥३६.१॥
अस्या एव सप्तमं प्रभेदमाह- "न्यौ शशिवदना" इति । न्याविति पदं व्याचष्टे- नगण-यगणाविति- 'नगणः ।, यगणः ।ऽऽ' इत्येवं प्रकारः, षड्भिर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'शशिवदना' इत्याख्यातं गायत्रीजातिच्छन्दः । उदाहरति- यथा- मनसिजलोलेति- कुवलयनेत्रा- कुवलयं- नीलकमलमिव, नेत्रं यस्याः सा, शशिवदना- चन्द्रमुखी, इयं-प्रत्यक्षभूता काचिदङ्गना, मनसिजलीलाकुलगृहभूमिः- मनसिजस्य- कामस्य, लीलाया:- विलासस्य कुलगृहभूमिः- परम्पराप्राप्तनिवासस्थानम्, अस्तीत्यर्थः । 'म[0]न[1]सि[1]ज[1]ली[s]ला[s]' इत्येवं लक्षणयोगः । अस्यैव नामान्तरेणापि व्यवहारं सूचयति- मुकुलितेत्यन्यः इति- अन्य आचार्य इदं छन्दो मुकुलितेत्याह । मकरशीर्षेति भरतः इति- भरत आचार्य इदमेव 'मकरशीर्षा' नाम्ना व्यवहरति, तथाहि
"लघुगण आदी, भवति चतुष्कः । गुरुयुगमन्ते मकरशीर्षा ॥” इति १५॥४॥
नाम्नो यौगिकार्थेन च्छन्दसि सम्बन्धाभावात् यथारुचि आचार्यर्व्यवहारः
शादि
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[अ० २, सू० ४०-४१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते कृतः, भविष्यति वा तेषां मनसि क्वचित् कश्चिदर्थानुगमः, किन्तु सर्वत्र तथानुगमस्य दुर्बोधत्वमेवेति यदृच्छाशब्दत्वमेवैषामिति प्रतिभाति ॥ अ० २, सू०-३६ ॥
रमौ मालिनी ॥४०॥ रगणमगणौ यथा- केतकीसंसृष्टः, मालतीसंपृक्तः। पङ्कजरहन्तं, मालिनी सोपास्ते ॥४०.१॥
अष्टमं प्रकारमाह-रौ मालिनीति। 'र्मी' इति पदं व्याख्याति- रगणमगणाविति- 'रगणः' 515, मगणः ऽऽऽ' इति प्रकृतगणद्वयेन निर्मिताः पादा यस्य तत् 'मालिनी' इति नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथाकेतकीसंसृष्टः इति- सा- पूर्ववर्णिता, मालिनी- मालाधारिणी स्त्री, मालाकार पत्नी वा, केतकीसंसृष्टः- केतकीभिः- केतकीवृक्षोद्भूतपुष्पैः, संसृष्टः- मिश्रितः, मालतीसम्पृक्तः- मालतीभिः- स्वनामख्यातलतापुष्पः, सम्पृक्तः- मिलितैः, पङ्कजः- कमलः, अर्हन्तं- देवम्, उपास्ते-पूजयतीत्यर्थः । 'के [s]त[1]की [5]सं[5][s]क्तः[s]' इति रूपेण सर्वत्र पादे लक्षणानुगतिविज्ञेया ॥ अ० २, सू०-४० ॥
भ्यो कामलतिका ॥४१॥ भगणयगणौ। यथा- भाति मृदुपाणि-, पल्लवमनोज्ञा । हासकुसुमश्रीः, कामलतिकेयम् ॥४१.१॥
नवमं विशेषमाह- "भ्यो कामलतिका" इति । 'भ्यो' इति पदं व्याकरोति- भगण-यगणाविति- 'भगणः ॥, यगणः ।ऽऽ' इत्येवं गणद्वयान्तर्गतवर्णं रचिताः पादा यस्य तत् 'कामलतिका' नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- भाति मृदुपाणी इति- मृदुपाणीपल्लवमनोज्ञा- मृदूकोमलौ, पाणी- करौ पल्लवाविव, ताम्यां मनोज्ञारमणीया, हासकुसुमश्रीःहास:- मुखविकार एव, कुसुमानि-पुष्पाणि, तैः श्री:- शोभा यस्याः सा, इयंप्रत्यक्षदृश्यमाना वराङ्गना, कामलतिका- कामस्य- विषयसुखस्य [प्रस
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सृवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
[अ०२, सू०४२-४३.]
वित्री ] लतिका इव लतिकैव वा, विभाति - शोभते । रूपकोद्वलिताऽतिशयोक्तिरलङ्कारः । 'भा[5]ति [ 1 ] मृ[1]दु [ 1 ] पा [S]णि ' [ " वाऽन्ते ग् वक्रः" इति सूत्रेण पादान्तस्थस्य लघोगुर्रुत्वानुशासनात् ] लक्षणसंगतिर्बोध्या । अ० २, सू०-४१ ।।
७०
म्सौ मुकुलम् ॥४२॥
मगणसगणी । यथा- यातोऽस्तं शशभृन, मार्तण्डोऽभ्युदयम् । व्याकोशं कमलं, नीलाब्जं मुकुलम् ॥ ४२.१ ॥ वीथीति भरतः ॥४२.१ ॥
यता
दशमं विशेषमाह - ""सौ मुकुलम् " इति । 'सौ' इति पदं व्याख्यातिमगण- सगणाविति - मगणः sss, सगणः ॥15, आभ्यां गणाभ्यां निर्मिताः पादा यस्य तत् मुकुलमिति ख्यातं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथायातोऽस्तमिति - प्रातः कालवर्णनमिदम् । शशभृत् - चन्द्र:, अस्तं - दृष्टिविष - शून्यत्वं यातः- प्राप्तः, मार्तण्ड:- सूर्य:, अभ्युदयं - प्राकट्य यातः, कमलं - पङ्कजं, व्याकोशं प्रफुल्लतां, 'यातम्' - इति लिङ्गविपरिणामेनान्वयः, नीलाब्जं - नीलकुमुदिनीपुष्पम्, मुकुलं- भावप्रधानो निर्देश इति मुकुलतां कुड्मलतां यातमित्यन्वयः । सामान्यतः कमलानां दिवा विकासः कुमुदिन्या रात्राविति प्रसिद्धिः । अब्जत्वं चोमयत्र समानमिति प्रातर्मुकुलितत्वानुरोधेनात्राब्जपदं कुमुदिनीबोधकमेवेत्यसेयम् । 'या[S]तो [s]स्तं [S],श [1]श [|]भृत् [S]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्यैव नामान्तरं भरतानुशिष्टमाह - विथीति भरत इति ॥ अ० २, सू० - ४२ ॥
"
नौ शफरिका ॥४३॥
नगणरगणौ । यथा- कुवलयेक्षणे, रमयतो मनः । तव विलोचने, शफरिकाचले ॥४३.१॥ गिरेति भरतः ॥ ४३.१ ॥
I
एकादशं प्रकारमाह - " त्रौ शफरिका" इति । 'नौ' इति पदं व्याख्यातिनगण - रगणाविति नगण: ।11, रगण: SIS, आम्यां विरचिताः पादा यस्य तत् शफरीकेति ख्यातं गायत्रीच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कुवलयेक्षणे इति - हे कुवलयेक्षणे ! - कुवलये- नीलकमले इव, ईक्षणे नेत्रे यस्यास्तत्सम्बोधने,
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[अ० २, सू० ४४-४५.]
सृवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
७१
शफरिका चले- शफरिकेव - क्षुद्रमत्स्यजातिविशेष इव चले - चञ्चले, तव - भवत्याः, विलोचने - विशाले नयने, मनः- चेत:, [ अर्थान्मम ] रमयतः- रति विधत्तः इत्यर्थः । अत्र 'कु[1] व[1]ल[1]ये[s]क्ष [ 1 ]णे [s]' इति लक्षणसंगतिः । अस्यैव भरताभिमतं नामान्तरमाह - गिरेति भरतः इति ।। अ० २, सू० - ४३ ॥
नौ कच्छपी ॥४४॥
रगणनगणौ । यथा - लक्ष्यते सरसि, चन्द्रमः सदृशि । लक्ष्मकान्तिरिह, कच्छपी पयसि ॥ ४४.१ ॥
द्वादशं प्रभेदमाह - "नौ कच्छपी" इति । र्नाविति पदंव्याचष्टे - रगण - नगणाविति - 'रगण: SIS, नगणः ॥ इति, ताम्यां विरचिताः पादा यस्य तत् 'कच्छपी' नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा लक्ष्यते इति - इह - अस्मिन्, सरसि - जलाशये, चन्द्रमः सदृशि - चन्द्रतुल्ये निर्मले जले, कच्छपी - कमठी, लक्ष्मकान्तिः- लक्ष्मण:- चन्द्रस्थितचिह्नविशेषस्य, कान्तिः - छविरिव कान्तिर्यस्यास्तादृशी, लक्ष्यते - दृश्यते इत्यर्थः । अत्र 'ल [S]क्ष्म [1]ते [5] स [1]र[1]सि [s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - ४४ ॥
भ्रौ लघुमालिनी ॥४५॥
भगणरगणौ । यथा- स्वद्वदनाग्रतो, मण्डलमैन्दवम् । संप्रति लक्ष्यते, श्रीलघु मालिनी [नि ! ] ॥ ४५.१ ॥
त्रयोदशं भेदमाह - "भ्रौ लघुमालिनी " इति । भ्राविति पदं व्याख्यातिभगण - रगणाविति - भगण: SII, रगण: 5/5 इति, ताम्यां निर्मिताः पादा यस्य तत् 'लघुमालिनी' नामकं गायत्रीच्छन्दोजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - त्वद्वदनेति - अत्र श्लोकान्तस्थं 'मालिनी' इति पदं छन्दोदृष्ट्या छन्दोनामविन्यासदृष्ट्या छन्दःपूर्तिदृष्ट्या च दीर्घान्तं निर्दिष्टमपि अर्थान्वयानुरोधेन ह्रस्वान्तमेव सम्बोधनपरतया न्यस्तं स्यादिति चारु प्रतिभाति, प्रायो लेखकप्रमादादेव दीर्घान्तत्वं दृश्यत इति प्रतिभाति । छन्दोनामविन्यासस्तु आनुषङ्गिकतया गौण एव अर्थानुरोध एवावश्यकः । रगणास्वरूपसिद्धिश्च
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ४६-४७.] "वाऽन्ते ग्वक" इत्यनुशासनवशादेवाभ्युपेया, तेन हि पादान्तस्थस्य लघोर्गुरुत्वं प्राप्यते । तथा च हे मालिनि ! सम्प्रति ऐन्दवं मण्डलं- चन्द्रमसो बिम्ब, त्वद्वदनाग्रत:- तव मुखस्य समक्षम्, श्रीलघु- श्रिया- शोमया, लघु-न्यूनं, लक्ष्यते- विज्ञायत इत्यर्थः । त्वद्[5]व[1]द[1]ना[s]ग्र[1]त:[5]' इति लक्षणसमन्वयो ज्ञेयः । 'अन्तिमे पादे च सम्बोधनान्तपाठे वैकल्पिकगुरुत्वेनैव निर्वाह इत्युक्तम् । अ० २, सू०-४५ ।।
स्यौ विमला ॥४६॥ सगणयगणौ । यथा-निपतन्ति यस्मिन्, सरला दृशस्ते । तमुपैति लक्ष्मी-, विमला च कोतिः ॥ ४६.१ ॥
चतुर्दशं प्रकारमाह- स्यौ विमलेति । स्याविति पदस्यार्थमाह- सगणयगणाविति- सगणः ।।5, मगणः ।ऽऽ इति, ताम्यां विरचिताः पादा यस्य तत् 'विमला'नामकं गायत्रीजातिच्छन्दः इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-निपतन्तीतिते- वर्ण्यमानस्य महापुरुषस्य, सरला:- ऋजवः कृपार्द्राः, दृश:- दृष्टिपाता:, यस्मिन्- सुजने, निपतन्ति- विषयित्वं, प्राप्नुवन्ति, तं- जनं, लक्ष्मी:सम्पदधिष्टात्री देवी, विमला- निर्मला, कीर्तिः- स्वख्यांतिश्च, उपैतिप्राप्नोतीत्यर्थः । 'नि[1][1]त[s]न्ति[1]यस् [s]मिन[s]' इति लक्षणयोगः ॥ अ० २, सू०-४६ ॥
त्रौ जला ॥४७॥ तगणरगणौ । यथा- जातास्तव द्विषत्-, स्त्रीणां दृशो नृप !। अधान्तमअभिः, पर्यस्तकलाः ॥ ४७.१॥
पञ्चदशं प्रकारमाह- "त्री जला" इति । त्राविति पदं व्याख्यातितगण-रगणाविति- तगणः ।,रगण: Is इति, ताम्यां विरचिताः पादा यस्य तत् 'जला'नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-जातास्तवेति । हे नृप !- राजन् !, तव- भवतः, द्विषत्स्त्रीणां-शत्रुपत्नीनां, दृश:नेत्राणि, अश्रुमिः-, नेत्रजलः, अश्रान्तं- सततं, पर्यस्तकाला:- प्रसृताञ्जनाः,
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[अ० २, सू० ४८-४६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते जाता:- सम्पन्ना इत्यन्वयः । अत्र 'कजला' इति पदांश एव 'जला' इति छन्दोनाम निविष्टं बोध्यम् । 'जा[s]ता[5]स्त[1]व[5],द्वि[1]षत्[s]' इत्थं लक्षणसमन्वयः प्रतिपादमवसेयः ।। अ० २, सू०-४७ ॥
म्यौ सुनन्दा ॥४८|| मगणयगणौ । यथा- श्रीमत्पार्श्वनाथ !, त्वत्पादाब्जयुग्मे । भूयानिविकल्पा, भक्तिर्मे सुनन्दा ॥ ४८.१ ॥
षोडशं प्रभेदमाह- "म्यौ सुनन्दा" इति । म्यावित्यस्यार्थमाह- मगणयगणाविति- 'मगण: sss, यगणः ।ऽऽ इति, ताभ्यां निर्मितः पादो यस्य तत् सुनन्दा नाम गायत्रीजाति- च्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-श्रीमदितिश्रीमांश्चासौ पार्श्वनाथः श्रीमत्पार्श्वनाथः, तत्सम्बोधने- हे श्रीमत्पार्श्वनाथ !, त्वत्पादाब्जयुग्मे- तव पादावेवाब्जं- कमलं, तयोर्युग्मे- युगले, मे- मम, निर्विकल्पा-निःसंशया, सुनन्दा-सुष्ठु नन्दयती-ति सा, भक्तिः- श्रद्धासहितोऽनुरागः, भूयात्- अस्तु, इत्यर्थः । 'श्री[s]मत्[s]पा[s] [1]ना[5]थ[s]'. ["वान्ते विक्रः" इति सूत्रानुसारं पादान्तस्थस्य' लघोर्गुरुत्वात् थस्य गुरुतायां सत्यां यगणस्वरूपनिष्पत्तिः] इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-४८ ।।
ममौ विक्रान्ता ॥४६॥ भगणमगणो । यथा- नो भटसिंहास्ते, त्वद्रिपुपुर्यन्तः । वासरति सिंहाः, बिभ्रति विक्रान्ताः॥४६.१॥
सप्तदशं प्रकारमाह- "म्भौ विक्रान्ता" इति । म्भाविति पदं व्याख्यातिमगण-मगणाविति- 'भगणः ।,मगण: sss' इत्येवं- प्राकारैर्वर्णैः प्रकृताः पादा यस्य तत् 'विक्रान्ता' नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थ । उदाहरतियथा- नो भटसिहास्ते इति-[हे नृप !] त्वद्रिपुपुर्यन्त:- तव शत्रोः पुरीमध्ये, ते- प्रसिद्धाः, विक्रान्ताः- शूराः, भटसिंहा:- भटाः सिंहा इव पराक्रमशीला:, नो- न, वासरति- निवासानुरागं, बिभ्रति- धारयन्ति, किन्तु विक्रान्ताः सिंहाः- केशरिणः [एव], शून्ये तत्र वासरति विभ्रतीत्यर्थः । 'नो[s], भ[1]ह[1]सिं[5] हा[5]स्ते[5]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-४६॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ५०-५१.]
स्मौ सूचीमुखी ॥५०॥ सगणमगणौ । यथा- अधुना पञ्चेषो-,नवतीक्ष्णास्त्रत्वम् । इह जज्ञे सूची, मुखया केतक्या ॥ ५०.१॥
अष्टादशं प्रकारमाह- स्मो सूचीमुखीति । स्माविति पदं व्याचेष्टेसगण-मगणाविति- 'सगणः ।,मगण: sss' इत्येवंरूपैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् ‘सूचीमुखी'नामकं गायत्रीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- अधुनेति- अधुना- सम्प्रति, इह- अत्र, सूचीमुख्या- सूची इव [तीक्ष्णं] मुखमप्रभागो यस्यास्तया, केतक्या- केतकीपुष्पेण, पञ्चेषोः- पञ्चबाणस्य कामस्य, नवतीक्ष्णास्प्रत्वं- नूतनशितप्रहरणत्वम्, जेज्ञ- जातम्, इत्यर्थः । 'अ[1]धु[1]ना[s], पञ्[5]चे[s]षोः[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू०-५५ ॥
यमौ शिखण्डिनी ॥५१॥ यगणमगणौ । यथा- हहा पान्थस्त्रीभिः, पिघीयन्ते कर्णाः । मुहुातन्वाने, शिखण्डिन्यारावम् ॥ ५१.१॥ ६।१६ ॥
ऊनविंशं प्रभेदमाह- रमौ शिखण्डिनीति । य्मावित्यस्यार्थमाह- यगणमगणाविति- 'यगणः ।ऽऽ, मगणः ' ईति, ताम्यां विहिताः पादा यस्य तत् गायत्र्यां 'शिखण्डिनी'नामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-हहेतिशिखण्डिनि- मयुरे, मुहुः- वारं वारम्, आरावं- दीर्घकेका, व्यातन्वानेकुर्वाणे सति, पान्थस्त्रीभिः- पथिक-प्रोषित-जनकान्ताभिः, कर्णाः- श्रोत्राणि, पिधीयन्ते- मुद्रयन्ते, इति हहा- दुःखमित्यर्थः । मयूरशब्दस्य मेघागमनबोधकतयाऽतिदुःखजनकत्वेन प्रियविप्रययुक्तानां तासां कृते दुःश्रवत्वमिति तच्छ्रवणपरिहाराय ताः कर्णान् पिदधतीत्यर्थः । 'ह[1]हा[s]पा[s]न्थ[s] स्त्री[s]भिः[s]' इत्येवं रीत्या सर्वत्र पादेषु लक्षणसमन्वयः । इत्येवं गायत्र्या ऊनविशतिर्भेदा वर्णिताः, प्रस्तारक्रमणे तु चतुःषष्टिर्भदा विज्ञेयाः। तदुक्तं भरतनाट्यशास्त्रे- "वृत्तानि तु चतुःषष्टिर्गायत्र्यां कीर्तितानि तु" [अ० १४. का० ५५] ॥५० २, सू०-५१॥
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[अ० २, सू० ५२-५३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
उष्णिहि मौ गो गन्धर्वी ॥५२॥ यथा- स श्रेयांसि श्रेयांसः, श्रीमान् देवः पुष्णातु । क्षोभायाभूयश्चित्ते, गान्धर्वो न क्रीडापि ॥५२.१ ॥
___ अतः परं सप्ताक्षरपादामुष्णिक्छन्दोजाति वर्णयितु- मुपक्रमते- "उष्णिहि मौ गो गान्धर्वी" इति । मगणद्वयं गुरुश्चेति-'sss sss s' इत्येवंस्वरूपैर्वण: कृताः पादा यस्य तत् 'गान्धर्वी' नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- स श्रेयांसीति- स:-' जिनशासनप्रसिद्धः, श्रीमान्– ज्ञानादिलक्ष्म्या युक्तः, श्रेयांस:- श्रेयांसनामा, देव:- तीर्थंकरः, श्रेयांसि- कल्याणानि, पुष्णातु- वर्धयतु, स कः ? यञ्चित्ते- यस्य मनसि, क्षोभाय- विकाराय, गान्धर्वीगन्धर्वैः कृता, क्रीडा- नृत्यादिरूपाऽपि नाभवत्- समर्था न जाता, गान्धर्वी क्रीडां पश्यतोऽपि यस्य चित्तचाञ्चल्यं नासीदित्यर्थः । 'स[], श्रे[5]यां[5]सि,[5] श्रे[s]यां[s]सः[s]' इत्येवं रीत्या सर्वत्र पादेषु लक्षणसंङ्गतिः ।। अ० २, सू०-५२ ।।
रजौ ग उष्णिक् ॥५३॥ रगणजगणौ गुरुश्च । यथा- उष्णिहीव संसृती, स्याध्रुवं रजो गुरु । नो भवेद्यदि क्षितौ, श्रीजिनेन्द्रशासनम् ॥ ५३.१ ।। शिखेति भरतः ॥ ५३.१ ॥
द्वितीयं प्रकारमाह- "र्जी ग उष्णिक्" इति । र्जी ग इत्यस्यार्थमाहरगण-जगणौ गुरुश्चेति- 'रगण: sis, जगणः ।51, गुरु:ऽ' इत्येवंप्रकारैर्वणविहिताः पादा यस्य तत् 'उष्णिग्'नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- उष्णिवीहेति- संसृतौ- संसारे, उष्णिहीव- 'उष्णिक्'छन्दसीव, रजः- पापरूपा धूलिः, गुरु- महत्, ध्र वं- निश्चितं स्यात् [ उष्णिहि छन्दसि रगणात् परो जगणः, गुरु च ध्रुवं भवत्येवेति उपमेये सामान्यधर्मस्य तादृशशब्दाभिधेयार्थस्य समन्वयः ] यदि क्षितौ- पृथिव्यां, श्रीजिनेन्द्रशासनंश्रीमतो जिनेन्द्रस्य उपदेशः, नो स्यात्- न भवेत्, इत्यर्थः । अत्र 'उ[s]ष्णि [1]ही[s]व[1], सं[5]सृ[1]तौ[s]' इति रीत्या सर्वत्र पादेषु लक्षणसंङ्गतिः ।
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सवृत्ति च्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० ५४.]
अस्यैव च्छन्दसो नामान्तरमाह - शिखेति भरत इति - सम्प्रति भरतनाट्यशास्त्रे नेदनुपलभ्यते ॥ अ० २, सू०-५३ ॥
सौ गः कुमारललिता ॥५४॥
जगणसगणी गुरुश्च । यथा - नरेन्द्रगणसेना-, वृतः प्रथितशक्तिः । दधासि नृपते ! त्वं, कुमारललितानि ॥ ५४.१ ॥
अत्र केचिद् द्वाभ्यां विरतिमिच्छन्ति ।
,
इदं वदनपद्मं प्रिये ! तव विभाति । इह व्रजति मुग्धे ! मनो भ्रमरतां मे ।। ५४.२ ।।
अस्या एव जातेस्तृतीयं प्रभेदमाह - “ज्सौ गः कुमारललिता" इति । ज्साविति पदं व्याचष्टे - जगण - सगणाविति - 'जगण: ISI, गुरु : 5' इत्येवंरूपैर्वर्णेविहिताः पादा यस्य तत् 'कुमारललिता' नामकं मुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - नरेन्द्रेति - हे नृपते !- राजन् ! नरेन्द्र गणसेनावृतः- नरेन्द्रगणानां - राजसमूहानां सेनाभिः घृत:- सहितः, प्रथितशक्तिः - प्रसिद्धसामर्थ्यः, त्वं कुमारललितानि - कुमारस्य - देवसेनापतेः स्कन्दस्य, ललितानि - चरितानि दधासि - धारयसि । कुमारोऽपि हि नरेन्द्रा इव गणाः प्रमथादयः, तेषां सेनाभिर्वृतो भवति, शक्तिश्च तस्य प्रहरणत्वेन प्रसिद्धेति प्रथितशक्तिरस्ति । तथा च तत्सदृशस्त्वं स इव रिपुषु पराक्रमविलासं दधासीत्यर्थः । 'न[1]रे[s]न्द्र[1]ग[1]ण[1]से [s]ना [s]' इत्येवं लक्षणसङ्गतिः ।
अत्र विशेषमाह - अत्र केचिद द्वाभ्यां विरतिमिच्छन्तीति, तथा च द्वो वर्णौ, पञ्चवर्णौ चेति खण्डद्वयेन वृत्तं पठन्तीति पिङ्गलच्छन्दःशास्त्रस्य वृत्तौ हलावेनापि चैतदुक्तम् - अत्र केचिद् द्वाभ्यां पञ्चभिश्च यतिमिच्छन्तीति । अत्रोदाद्रियमाणं च पद्यमपि तत्रोल्लिखितम्, तथाहि - इदं वदनपद्ममितिहे प्रिये ! तव इदं वदनपद्मं - वदनमेव पदुमं मुखकमलं विभाति- शोभते; हे मुग्वे ! इह - तव मुखकमले, मनः, भ्रमरतां - मधुकरवद्र सलोलुपत्वं व्रजतिप्राप्नोति, चुम्बनेच्छा जायत इति भाव: । द्वाभ्यां यतिरस्त्येव, लक्षणसं गतिश्च पूर्ववदत्राप्यवसेया ॥ अ० २, सू०-५४ ॥
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[अ० २, सू० ५५-५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
म्सौ गो मदलेखा ॥५५॥ मगणसगणो गुरुश्च । यथा- यावत् केसरिनादो, नायाति श्रुतिमार्गम् । तावद् गन्धगजानां, गण्डे स्यान् मदलेखा ॥५५.१॥
चतुर्थं प्रकारमाह- म्सौ गो मदलेखेति । म्साविति पदं व्याख्यातिमगण-सगणाविति- 'मगणः sss, सगणः ।।5, गुरु ऽ' इति प्रकारेण सप्तभिवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'मदलेखा' नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-यावदिति- यावत्- यत्कालपर्यन्तं, केसरिनाद:- सिंहगर्जनं, श्रुतिमार्ग- कर्णपथं, न आयाति- नागछति, तावत्- तत्कालपर्यन्तमेव, गन्धगजानां- मत्तहस्तिनां, गण्डे - कपोले, मदलेखा- दानवारिराजि, स्यात्भवेत् ।
"यस्य गन्धमुपाघ्राय, परे माद्यन्ति हस्तिनः । सन्ततंच मदस्रावी, सोऽयं गन्धगजः स्मृतः ।।" इति परिभाषानुसारं प्रचुरमदवानपि गजः सिंहनादं श्रुत्वा तथाभीतो भवति येन तस्यातुलबलसूचिका दानपङ्क्तिरपि विच्छन्ना भवतीति तात्पर्यम् । अत्र 'ता[5]वद्[s], ग[5]न्ध[1]जा[5]नां[s]' इत्येवं रूपेण लक्षणानुगतिः ॥ अ० २, सू०-५५ ॥
रौ ग उद्धता ॥५६॥ रगणसगणौ गुरुश्च । यथा-या बभूव सुदर्पा, वैरिणां नृप ! सेना । त्वत्प्रतापविलासे, सोद्धताऽपि गतश्रीः ॥५६.१॥
पञ्चमं भेदमाह- सौ ग उद्धतेति । राविति पदं व्याख्याति- रगणसगणाविति- 'रगणः sis, सगणः ।।5, गुरुः ऽ' इत्येवंप्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'उद्धता'नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-या बभूवेति- हे नृप !- राजन् !, या वैरिणां- रिपूणां, सेना, सुदर्पा- सम्यगदर्पवती, बभूव, उद्धता- अन्येषां कृते दुर्घषां अपि, सा त्वत्प्रतापविलासेतव प्रतापस्य क्रीडायां- तव सैन्योपरोधे सति, गतश्री:- विनष्टशोभा, जाते
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० ५७-५८ . ]
त्यर्थः । अत्र 'या [s], ब[1]भू [5] [1], सु[ 1 ] द [5] [5]' इत्येवंरूपेण सर्वपादेषु लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-५६ ॥
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त्सौ गो भ्रमरमाला ॥५७॥
तगणसगणी गुरुश्च । यथा- कुन्वे विचकिले वा, मन्दारकुसुमे वा । प्रीत्या मधुरसाढ्ये, भ्रान्ता भ्रमरमाला ॥५७.१।।
प्रकारमाह - त्सौ गो भ्रमरमालेति । त्साविति ग इति च पदं व्याख्याति - तगण - सगणौ गुरुश्चेति - ' तगण: SSI, सगणः॥ऽ, गुरु ऽ' इत्येवंरूपेवर्णैवहीताः पादा यस्य तत् 'भमरमाला' नामक मुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- -कुन्दे इति- विचकिले - विकसिते, कुन्दे- माघमासोद्भवे पुष्पविशेषे, मन्दारकुसुमे - अर्कपुष्पे वा, मधुरसाढ्य - मधुना - परागेण, रसेन - मकरन्देन च, पूर्णे, प्रीत्या - उभयत्र समानाभिलाषेण, भ्रमरमाला - मधुकरपङ्क्तिः, भ्रान्ता - गतागतलोला, भवतीत्यर्थः । 'कु[s]न्दे [s], वि [ 1 ]च[1] कि [1] [s], वा [s] ' इत्येवं लक्षणसंङ्गतिः ॥ अ० २, सू० -५७ ।। रौ गो हंसमाला ॥५८॥
रगणद्वयंगुरुश्व । यथा - शंवलालीनिराशा, पङ्कजे बद्धवासा । कि बकोटावलीयं हन्त सा हंसमाला ॥ ५८.१ ॥
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सप्तमं प्रभेदमाह - रौ गो हंसमालेति- रगणद्वयं SIS SIS, गुरुश्च इत्येवंप्रकारंसप्तभिर्वर्णैर्विहिताः पादा यस्याः सा हंसमाला ज्ञेया, तत् 'हंसमाला' नामक मुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - शैवलाली निराशेति - शैवलालीनिराशा - शैवलपङ्क्तौ निःस्पृहा, [ किन्तु ] पङ्कजे- कमले, बद्धवासा - नियतवसतिः, इयं - प्रत्यक्षदृश्यमाना, बकोटावली - तुच्छबकपङ्क्तिः, किम ? - प्रश्ने, उत्तरयति - हन्त - खेदः [ भवान् बक-हंसयोरन्तरं न वेत्तीति खेद प्रकाशकारणम् ], सा हंसमाला - हंसपङ्क्तिः । अत्र बकोटाशब्दोऽपरिचितः प्रायः देश्य इति प्रतिभाति । 'बलाकावली' इति पठितव्ये बकोटावलीति भ्रान्त्या पठितंप्रतिलिपिकारेणेति न निश्चिनुमः । ' [s] []ला[s]ली[s]नि[1]रा[S]शा [s]' इत्येवं लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - ५८ ॥
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[अ० २, सू० ५६-६०.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
मौ गः कलिका ॥५६॥ भगणद्वयं गुरुश्च । यथा- स्पर्शनमात्रवशाद, या मकरन्दमुचा। किं भ्रमर! भ्रमता, सा कलिता कलिका ॥५६.१॥ सोपानमित्यन्यः । भोगवतीति भरतः ॥५६.१॥
अष्टमं प्रभेदमाह- भौ गः कलिकेति- 'भगणद्वयं | , गुरुश्चऽ' इति सप्तभिर्वर्णैः कृतपादं 'कलिका' नाम उष्णिग्जातिच्छन्दः । उदाहरति- यथास्पर्शनमात्रवशादिति- या स्पर्शनमात्रवशात्- सम्पर्कमात्रेण, मकरन्दमुचामकरन्दं पुष्परसं मुश्चतीति [मुलविभुजादित्वात् के.स्त्रियामापि]- मकरन्दमुचा, हे भ्रमर ! भ्रमता- सर्वतोऽटता भवता, सा- तादृशी, कलिका- कुड्मलम्, कलिता- प्राप्ता, किम् ? भ्रमरकलिकान्योक्तया कश्चित् कामुकोऽतिशयसहृदयायाः कस्याश्चित् बालायाः प्राप्ति पृष्टः । 'स्प[5]र्श[1]न [1]मा[s] [1] [1] शात[s]' इति लक्षणानुगतिः । अस्य च्छन्दसो नामान्तरमाह- सोपानमित्यन्यः इति- एतदेवच्छन्दः कश्चित् सोपानमिति व्यवहरतीत्यर्थः । भोगवतीति भरतः इति- भरत आचार्य इदमेव भोगवतीनाम्ना व्यवदिशतीत्यर्थः । नाम्न: परिभाषामात्रत्वमित्युक्तं प्रागेव ।। अ० २, सू०-५६ ॥
म्सौ गो विधुवक्त्रा ॥६०॥ भगणसगणो गुरुश्च । यथा- अह्नि विरहतप्ता, रात्रिमभिलषन्ती। उद्यति विधुबिम्बे, म्लायति विधुवक्त्रा ॥६०.१॥
नवमं प्रकारमाह- सौ गो बिधुवक्त्रेति । 'सो गः' इति पदद्वयं व्याख्याति- भगण-सगणो गुरुश्चेति- 'भगणः ॥, सगणः ।।s, गुरु ऽ' इत्येवं सप्तभिर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् विधुवक्त्रेतिनामकमुष्णग्जातिच्छन्दः इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- अह्नीति- अह्नि- दिवसे, विरहतप्ता- वियोगज्वालया दग्धा, [प्रयो दैनो ग्रीष्म एव तापहेतुरिति बुद्धया] रात्रिममिलषन्ती- रात्रिप्रवृत्तिमिच्छन्ती, विधुवक्त्रा- चन्द्रमुखी, विधुबिम्बे- शशिमण्डले, उद्यति। उदयं गच्छति सति, म्लायति- ग्लानिमधिगच्छति, चन्द्रोदयस्यातिशयमदनोदीपकत्वाद् विरहिण्याः कृतेऽसहनीयत्वमिति तापवृद्धया म्लानिरुचितवेति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६१-६२.] भावः । अत्र 'अ[ऽह्नि[1], वि[1] [1]ह[1]त[5]प्ता[5]' इति लक्षणानुगतिः सर्वत्र पादेषु । अ० २, सू०-६० ॥
म्भौ गः सरलम् ॥६१॥ मगणमगणी गुरुश्च । यथा- पापाभ्यासात्कुटिलं, चेतो रोत्रं भजते । शामाभ्यासव्यसनाद्, षम्यं ध्यानं सरलम् ॥ ६१.१ ॥
दशमं प्रकारमाह- म्भौ गः सरलमिति । म्भाविति पदं व्याख्यातिमगणभगणाविति- 'मगण:ऽऽs, भगणः ॥, गुरुः ऽ' इत्येवं सप्तभिर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् सरलमिति उष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-पापाभ्यासादिति- पापाभ्यासात्- दुष्कृतसेवनात्, कुटिलं- वक्रतां गतं, चेतः- मनः, रौद्रं-दुर्ध्यानविशेषं, भजते- प्राप्नोति । शास्त्राभ्यासव्यसनात्शास्त्राणां- सदनुशासनानाम्, अभ्यासस्य-सततानुशीलस्य, व्यसनात्-व्यवसायात, धयं- धर्महितं, ध्यानं-चिन्तनं, सरलं- सुगममित्यर्थः । 'पा[s]पा[s] भ्या[5]साद[s], कु[i]टि[]]ल[5' इत्येवं रूपेण सर्वत्र पादेषु लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-६१ ॥
म्नौ गश्चित्रम् ॥६२॥ भगणनगणौ गुरुश्च । यथा- कोतिरिह भवतः, कुन्दकुसुमसमा । रअयति हृदयं, चित्रमिदमधिकम् ॥ ६२.१ ॥ ___ एकादशं प्रकारमाह- म्नौ गश्चित्रमिति । म्नाविति पदं व्याख्यातिभगणनगणाविति- 'भगणः ॥, नगणः ॥, गुरु: ऽ' इत्येवंप्रकारर्वणः कृताः पादा यस्य तत् चित्रमिति नाम उष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-कोतिरिहेति- इह- संसारे, कुन्दकुसुमसमा- माघमासोत्पन्नश्वेतपुष्पसदृशी, भवतः कीर्तिः, हृदयं रञ्जयति- रक्तं करोति, इदम्, अधिकम्अतिशयेन, चिलम्- आश्चर्यम् । स्वयं श्वेताया भवतः रागोत्पत्तिहेतुत्वमाश्चर्यम्, रागश्च वर्णान्तरोत्पादः, स च न श्वेतया कतुं शक्यत इति विरोधाभासः । रागस्याह्लादरूपत्वेन च तत्परिहारः । 'की[5]ति[i]रि[i][i], भ[][]तः[5]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-६२ ॥
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[अ० २, सू० ६३-६४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
नौ गो हरिविलसितम् ॥६३॥ यथा- सपदि बलिनृपान्, समिति नियमयन् । प्रथयसि न विभो, नहरिविलसितम् ॥ ६३.१ ॥ चपलेत्यन्ये । द्रुतगतिरिति भरतः ॥ ६३.१ ॥
द्वादशं प्रभेदमाह- "नौ गो हरिविलसितम्" इति । नगणद्वयं ॥ ॥, गुरुश्चऽ' इतिरूपैः सप्तभिर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् हरिविलसितं नाम उष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सपदीति- हे विभो ! समिति- संग्रामे, बलिनृपान्- बलिनो राज्ञः, सपदि- शीघ्र, नियमयन्वशीकुर्वाणः, त्वम्, हरिविलसितं- सिंहक्रीडाम्, अथ च वामनावतारो यो हरि:- विष्णुः, तस्य लीलां न प्रथयसि- न प्रख्यापयसि, इति न, अपि तु प्रख्यापयस्येव । वामनो हरिः समिति- सभायां, बलिं नृपं यज्ञसदसि पादत्रयमितभूमिदानाय कृतप्रतिशं तदपूर्ती नियमितवान्, इति पौराणिकी प्रसिद्धिः । त्वमपि बलिरिव नृपाः, तान्, बलिनो नृपान् वा समिति- संग्रामे, नियमयसि, इति हरि-विलासमेव प्रकटीकरोषीत्याशयः । अस्य नामान्तरमाह-चपलेत्येन्ये इति- अन्ये आचार्या इदमेवच्छन्द: 'चपला' इत्याहुः । द्रुतगतिरिति भरतः इति- भरत आचार्य इदं छन्दो द्रुतगतिरित्याह । 'स[1][1]दि[1], व[1]लि[][i] पान[s]' इति लक्षणानुगति: सर्वत्र पादेषु द्रष्टव्या ॥ अ० २, सू०-६३ ॥
म्जौ गः शारदी ॥६४|| मगणजगणी गुरुश्च । यथा- उज्ज्वलनिशाकरा, चारकमलाकरा । कस्य न मनोरमा, श्रीर्भवति शारदी॥ ६४.१ ॥
त्रयोदशं प्रकारमाह- म्जौ गः शारदीति । भ्जाविति पदं व्याचष्टेभगण-जगणाविति- 'भगणः ।।, जगण: ।।, गुरुश्च ऽ' इति तैः सप्तभिविरचिताः पादा यस्य तत् 'शारदी'नामकमुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-उज्ज्वलेति- उज्ज्ववलनिशाकरा- उज्जवल:- सुप्रकाश:, निशाकरः- चन्द्रो यस्यां सा, चारुकमलाकरा- चारूणां कमलानां- सुन्दराणां पङ्कजानाम्, आकर:- समूहो यस्यां सा, शारदी- शरतसम्बन्धिनी, श्री:शोभा, कस्य- जनस्य, मनोरमा- चेतोमोदजननी, न भवति- सर्वस्य मनो
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६५-६६.]
रमा भवत्येवेत्याकूतम् । 'उज् [5] ज्व [1] ल [ 1 ]नि [1] शा[5]क [1] रा [5]' इति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू०-६४ ॥
नगा मधुकरिका || ६५॥
तगणनगणौ गुरुच । यथा- पान्थ ! श्रय दयितां प्राप्तो मधुसमयः । गायन्त्यनुविटपं, प्रीता मधुकरिकाः ।। ६५.१ ।। वज्रमित्यन्यः ।। ६५.१ ॥
चर्तुदशं प्रकारमाह- नगा मधुकरिकेति । त्नगा इति पदं व्याख्यातितगण - नगणौ गुरुश्चेति- ' तगण: SS), नगण: III, गुरु:ऽ' इत्येवंप्रकारैर्वर्णै विरचिताः पादा यस्य तत् 'मधुकरिका' नामकमुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पान्थेति - पान्थ ! हे गृहप्रोषित !, मधुसमय:- वसंन्तर्तुः, प्राप्तः - समागतः [ इति हेतोः ] दयितां - कान्तां श्रय- प्राप्नुहि, तस्याः समीपं गच्छेति भावः । वसन्तागमनमेव हेतुनोपपादयति, अनुविटपं- प्रतिवृक्षं प्रतिशाखं वा प्रीताः- मधुपानतुष्टाः, मधुकरिका:- भ्रमर्य:, गायन्ति - गानं कुर्वन्ति, भ्रमरोगानेन वसन्तागमनमभिलक्ष्य तदुद्भवदुःखापानोदाय दयितासमीपगमनं तवोचितमिति भावः । ' पा[S]न्य [s], श्र [1] [ 1 ], द [ 1 ]यि [1] तां [s]' इति लक्षणसमन्वयः सर्वत्र पादेष्ववसेयः । अस्यैव नामान्तरमाह - वज्रमित्यन्य इति - अन्य आचार्य इदमेव वच्चमित्याहेत्यर्थः ॥ अ० २, सू०-६५ ॥
स्जो गो विमला ॥६६॥
सगणजगणी गुरुश्च । यथा - समशत्रु मित्रता - मवलम्ब्य निर्ममः । मज वीतरागतां विमलात्मको भव ।।६६.१।।
पञ्चदशं प्रकार माह- स्जौ गो विमलेति । स्जाविति पदं व्याख्यातिसगण - जगणाविति - ' सगणः ॥15, जगण: 151, गुरुश्र 5' इत्येवंरूपैर्वणैर्विहिताः पादा यस्य तत् 'विमल' नामक मुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - समेति - समशत्रु मित्रतां - समे- तुल्ये, शत्रुमित्रे यस्य स समशत्रु मित्रः, तस्य भावस्तामित्यर्थः । अवलम्ब्य - आश्रित्य निर्मम:- क्वापि स्वीयत्वबुद्धिरहितः सन् वीतरागतां निःस्पृहत्वं, भज- माश्रय, विमलात्मक:- निर्म
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[अ० २, सू० ६७-६८ . ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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लान्तःकरणो भवेत्यर्थः । ‘स[]म[1]श [s]त्रु []मि[s]त्र []तां[5]' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू०-६६ ॥
जौ गः सुभद्रा ||६७।।
जगणरगणी गुरुश्च । यथा - कुमारपाल ! देव, त्वदीयविक्रमेण । महौजसः सुभद्रा, पतेः स्मृतं न केन ।। ६७.१ ॥
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षोडशं प्रकारमाह - “ज्ज्रौ गः सुभद्रा" इति । त्राविति पदं व्याख्याति - जगण - रगणा विति- 'जगण: 15), रगण: SIS, गुरुश्च 5' इत्येवंरूपै - र्वर्णैर्विहिताः पादा यस्य तत् सुभद्रा नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथाकुमारपालेति - हे कुमारपाल ! - तन्नामक !, देव !- राजन्, त्वदीयविक्रमेण - तव पराक्रमेण, महौजसः -- प्रचुरपराकमस्य, सुभद्रापतेः - अर्जुनस्य, केन जनेन, न स्मृतं - न ध्यातम्, तव पराक्रमं दृष्ट्वा सादृश्योद्वोधित संस्कार: सर्वोपि जनोऽर्जनं स्मरत्येवेत्यर्थः। 'कु [ । ]मा [S]र [5] [5]ल[1], दे[s]व[1]' इत्येवं सर्वत्र पादे लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - ६७ ॥
न्यौ गः कुमुद्वती ॥ ६८ ॥
नगणगणी गुरुच । यथा- पतिविरहे यान्य- मुखमपि नापश्यत् । कलयति सा श्लाघाम, इह कुमुदिन्येका ॥ ६८.१ ॥
सप्तदशं प्रकारमाह- न्यौ गः कुमुद्वतीति । न्याविति पदं व्याचष्टे - नगण-यगणाविति - 'नगण: 111, यगण: Iss, गुरुः ऽ' इत्येवंप्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'कुमुद्वती' नामक मुष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथापतिविरहे इति - या [ कुमुद्वती], पतिविरहे - पत्युः - चन्द्रस्य, विरहे - वियोगे सति, अन्यमुखं- पतिभिन्न [ सूर्यरूप ] पुरुषमुखम् अपि [ किमुतान्येन सह वार्ता - लापादि, ] न अपश्यात् - नावलोकितवती, इह संसारे, सा, एका अद्वितीया, कुमुदिनी - कुमुद्वती, श्लाघां प्रशंससनीयतां, कलयति - अधिकरोति, पतिरहितानां कुलस्त्रीणां धर्मस्य सम्यक्पालनेन सैवेका प्रशंसाभाजनमित्यभिप्रायः दिवा कुमिदिन्याः सङ्कुचितत्वस्य कविसमयसिद्धत्वेन, सर्वाङ्गसंङ्कोचे च नेत्रस्यापि मुद्रितत्वावश्यंभावेन तया परमुखदर्शनमपि परिह्रियते इति कवेरा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६९-७०.] कूतम् । 'प[]ति [1]वि[1]र[1]हे[s], [s]या[s]न्य[s]' लघोरप्यन्त्यस्य "वाऽन्ते ग् वक्रः" इति गुरुत्वाल्लक्षणसंङ्गतिः ।। अ० २, सू०-६८ ।।
यसौ गो मुदिता ॥६६॥ यगणसगणो गुरुश्च । यथा- लतानां कलिकाभिः, प्ररोहत्पुलकेव । वसन्तागमनेऽस्मिन, वनश्रीर्मुदितेयम् ॥६९.१॥
अष्टादशं प्रकारमाह- यसौ गो मुदितेति । यसावित्यस्यार्थमाह- यगणसगणाविति- 'यगणः ।ऽऽ, सगणः ।।5,गुरुश्च ऽ' इत्येवं प्रकारैः सप्तभिर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् मुदिता नाम उष्णिग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-लतानामिति- अस्मिन्- प्रकृते, वसन्तागमने- वसन्तऋतुप्रवृत्ती, लतानां- वल्लीनां, कलिकाभिः- पुष्पकोरकः, प्ररोहत्पुलका- उद्भिद्यद्रोमाञ्चा, इयं- प्रत्यक्ष दृश्यमाना, वनश्री:- नवनायिकात्वेनाध्यवसिता वनशोभा, मुदिता- प्रसन्ना इव, इत्युत्प्रेक्ष्यत इत्यर्थः । नायिका काचिन्नायकमागतमभिलक्ष्य यथोद्गतरोमाञ्चा भवति तथैवेयं वनशोभाऽपि नायकं वसन्तमागतं वीक्ष्य कलिकारूपरोमाञ्चर्युक्ता स्वमोदं प्रकटयतीति भावः । 'ल[1]ता[s]नां[s], क[1]लि[1] का[s]भिः[5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ २, सू०-६६ ॥
त्रौ गो मनोज्ञा ॥७०॥ नगणरगणो गुरुश्च । यथा- भुवनजत्रमन्त्रं, रतिपतेरधीते। पिकगिरा मधुश्री-रतिमनोज्ञयाऽसौ ॥७०.१॥
ऊनविशं प्रभेदमाह- त्रौ गो मनोजेति । ब्रावित्यस्यार्थमाह- नगणरगणाविति-'नगणः ।।।, रगण: Is, गुरुश्च [s]' इति तैः सप्तभिर्विरचिताः पादा यस्य तत् 'मनोज्ञा'नामकमुष्णग्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथाभवनेति- असो- पूर्ववणिता, मधुश्री:- वासन्ती शोभा, रतिपते:-कामस्य, भुवनजंत्रमन्त्रं- संसारविजयशीलं मन्त्रम्, अतिमनोज्ञया- परमाह्लादिकया, पिकगिरा- कोकिलारावेण, अधीते- अभ्यस्यतीत्यर्थः । कोकिलकुजनश्रवणेन सकलं भुवनं कामस्य वशंगतं भवतीति प्रसिद्धिः, सैव प्रकृते चारुतया रूपकेण वर्णिता । 'भु[1]व[1]न[1] जै[5]त्र[1]म[5]न्त्रं[s]' इति रूपेण लक्षणानुगतिः ॥ अ० २, सू०-७०॥
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[अ० २, सू० ७१-७२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
स्रौ गो दीप्ता ||७१।। सगणरगणो गुरुश्च । यथा- नवसिन्दूरभासो, मुकुलाः किंशुकेऽमी । ध्रुवमाग्नेयबाणाः, रतिनाथस्य दीप्ताः ॥ ७१.१ ॥ ७॥२०॥
विशं प्रभेदमाह- स्त्रौ गो दीप्तति । स्रावित्यस्यार्थमाह- सगण-रगणाविति- सगणः ।।७, रगण: Is, गुरुश्चऽ' इत्येवंप्रकारैर्वर्णेविहिताः पादा यस्य तत् 'दीप्ता'नामकमुष्णिग्जातिछन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नवसिन्दूरेति- किंशुके- पलाशवृक्षे, अमी- दूरे दृश्यमानाः, नवसिन्दूरभास:- नवाःनूतनास्तथा, सिन्दूरस्य भा इव भा येषां ते, मुकुला:- कोरकाः, रतिनाथस्यकामदेवस्य, दीप्ता:-ज्वलन्तः, आग्नेयबाणा- अग्निदेवताः, अतिदाहकाः, शराः, इति ध्र वं- निश्चितम् । किंशुककोरकाणां बसन्तसमयस्मारकाणामत्युद्दीपकतया कामबाणत्वेनोत्प्रक्षेयम् । 'न[1] व[1] सि[5]न्दू[s]र[1]भा[s]सः [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-७१ ॥ ___ एवं सप्ताक्षरपादाया उष्णिगजातेविंशतिर्भेदाः प्रतिपादिताः, प्रस्तारक्रमणे तु १२८ प्रभेदा अस्याः, तथाह्य तं भरतनाट्यशास्त्रे- "शतं विंशतिरष्टौ च वृत्तान्युष्णिह्यथोच्यते'' ।। [१४।५५] ।।
अनुष्टुमि त्रौ गौ विमा ॥७२॥ तरगगाः । यथा- देव ! त्वयि क्षमानाथे, क्षीणान्यभूभुजां कीतिः । पूर्वाद्विभाजि मार्तण्डे, का वा विभास्तु ताराणाम् ॥ ७२.१ ॥
अथाष्टाक्षरपादाया अनुष्टुब्जातेः प्रभेदान् वर्णयितुमुपक्रमते- अनुष्टिभि त्रौ गौ विभेति । त्रौ गावित्यस्यार्थमाह- तरगगाः इति- तगणः ।, रगण: 151, गुरुद्वयम्' इत्येवंप्रकारैर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् 'विभा'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-देव ! त्वयोति- हे देव !राजन् !, त्वयि- भवति, क्षमानाथे- पृथ्वीपतौ सति, अन्यभूभुजां- त्वदितरराजानां, कीर्ति:- प्रशस्तिः, क्षीणा- नष्टा, प्रकृतमथं समर्थयति- मार्तण्डेसूर्ये, पूवाद्रिभाजि-उदयाचलमारूढे सति, ताराणां- नक्षत्राणां, विभा-प्रभा, का अस्तु- सूर्योदये सति ताराणां प्रभा नश्यतीति यथा नाश्चर्यकारणं तथा त्वयि राजनि विद्योतमाने सामान्यनृपाणां कीर्ति: क्षीयत इति न किमप्याश्चर्य
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू०७३-७४.]
मित्यर्थः । 'दे [s] [s], त्व [ 1 ]यि [S], क्ष [ 1 ] मा [S]ना [S]थे [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - ७२ ॥
र्यो ल्गावनुष्टुप् ॥७३॥
रयलगाः । यथा -- कुर्वते विवेकात ये विरागहेतुष्वपि । ते पठन्ति चित्रं मुहु-, बलिशा अनुष्टुबुधिया ॥ ७३१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह - "र्यो ल्गावनुष्टुप्” इति । र्यो ल्यावित्यस्यार्थ - माह - रयलगाः इति - 'रगण: SIS, यगण: ISS, लघु: [ 1 ], गुरुश्व [S]' इत्येवंरूपैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'अनुष्टुप् ' नामक मनुष्टुब्जातिच्छन्दः । उदाहरति- यथा - कुर्वते इति ये विरागहेतुषु वैराग्यकारणेषु सत्स्वपि, विवेकारति- विवेके - वस्तुत्वविचारे, अरतिम् - अननुरागं कुर्वते, ते बालिशाःजडा:, चित्रं नामोष्णिग्जातिच्छन्दः, अनुष्टुब्धिया- अनुष्टुब्जातिच्छन्दोबुद्धघा पठन्ति येषां विवेककारणे सत्यपि न विवेकस्तैश्छन्दो जातिभेदोऽपि न विवेचयितुं शक्यत इति भाव: । 'कु [S]र्व [ 1 ] ते[s], वि [ 1 ]वे [5] का[5]र[1]ति[s]' इत्थं लक्षणसमन्वयोऽवसेयः ॥ अ० २, सू०-७३ ।।
गीर्गी विद्युन्माला ॥७४।।
" समानेनेकादिः " [१४] इति वचनाद् गोरिति गचतुष्टयं गृह्यते । मौ गाविति तु न कृतं चतुमिचतुभिर्यथा विरतिर्ज्ञायेतेति । यथा- सत्यं रम्याभोगा भोगाः, कान्ताः कान्ताः प्राज्यं राज्यम् । किं कुर्वन्तु प्राज्ञा यस्माद्, आयुविद्युन्मालालोलम् ।। ७४.१ ।।
तृतीयं प्रभेदमाह - गीर्गीविद्युन्मालेति । पदार्थबोधायाह- समानेनैकादिरिति वचनादित्यादि- समनिनैकादिरिति प्रथमाध्यायचतुर्थसूत्रेण यावतिथः समानतावतिथस्य गादेर्ग्रहणं भवतीत्युक्तम्, तथा च गीरिति पदे चतुर्थः समान इति चत्वारो गाः [ गुरवः ] उच्यन्ते, तदाह- गीरिति गचतुष्टयं गृह्यत इति, तथा चाष्टभिर्गुरुवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'विद्युन्माला' नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । ननु पूर्वप्रकृतानुसारं गणेनापि प्रकृतार्थबोध: सम्भवति, तथा च मगणद्वयं गुरुद्वयं चेति बोधनाय "मौ
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[अ० २, सू० ७५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते गौ" इति सरलया रीत्यापि सिद्धत्येवेति किमिति वक्रगतिरियमाश्रितेति शङ्कायामाह- मौ गाविति तु न कृतं चतुभिश्चतुभिर्यथा विरतिविज्ञायेतेति, अयमाशयः- मो गाविति कथनेन यद्यपि अभीष्टार्थबोधः सम्भवतिः, किन्तु प्रकृतपाठप्रयोजनं यत् गुरुचतुष्टयस्य सह पठनीयत्वं, मध्ये च किञ्चिद् विश्रम्यापरचतुष्टस्य पठनीयत्वमिति विरामः [ यतिः ] यथा- कथनं विनापि विज्ञायतेति उदाहरति- यथा- सत्यमिति- भोगा:- विषयाः, रम्याभोगा:- रम्य आभोगः परिपूर्णता येषां तादृशाः भवन्तीति, सत्यं- यथार्थम्, कान्ताः- वनिताः, कान्ताः- कमनीया भवन्तीत्यपि सत्यम्, राज्यं- नृपत्वम्, प्राज्यं-प्रभूतं परितोषकारणमित्यपि सत्यम्; [ किन्तु ] प्राज्ञा; [एमिः] किं कुवन्तु- कस्मै प्रयोजनाय एतत् सर्वं परिगृह्णन्तु, यस्मात्- हेतोः, आयु:जीवनकाल:, विद्युन्मालालोलं- सौदामिनीपङ्क्तिवच्चपलम् । आयुषः स्थिरत्वे हि कान्तादीनां रमणीयत्वमनुभवितुं शक्यते तदेव च प्रा विद्युदिव चपलमिति प्रत्यक्षीक्रियते, ततश्चैतत् सर्व परित्यज्यते ते स्थिरसुखप्राप्तये पुण्यमेव संचिन्वन्तीत्यर्थः। 'स[5]त्यं[s], र[5]म्या[s] भो[5]गाः[5]' इति सर्वगुरुत्वं प्रतिपादमनुगतं द्रष्टव्यम् । अ० २, सू०-७४ ।।
मो गौ चित्रपदा ॥७५।। यथा- व्योमनि सागरतीरे, पर्वतश्रृंगनिकुले। भ्राम्यति भीमकुलेन्दो, चित्रपदा तव कीतिः ॥ ७५.१ ॥
चतुर्थ प्रभेदमाह- भौ गौ चित्रपदेति- भगणद्वयं गुरुद्वयं च ॥ ॥ s' इत्येवंप्रकारवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् चित्रपदानामानुष्टुब्जातिछन्दः । उदाहरति- यथा- व्योमनीति- हे भीमकुलेन्दो!- भीमभूमिपवंशशशाङ्क !, चित्रपदा- चित्राणि पदानि स्याद्यन्तत्याद्यन्तरूपाणि चरणनिक्षेपरूपाणि वा यस्यास्तादृशी, तव-भवतः, कीर्तिः-प्रशस्ति:, व्योमनि- आकाशे, सागरतीरेसमुद्रतटे, पर्वतशृङ्गनिकुञ्ज- गिरिशिखरस्थितलतागुल्मे च, भ्राम्यति- पर्यटति, सर्वत्र सा जनर्गीयत इत्यर्थः। अत्र स्त्रीत्वेनाध्यवसितायाः कीर्त्याः सर्वजनाकर्षणाथं रुचिरपादन्यासपूर्वकं परिभ्रमणं तस्याः स्वैरिणीत्वं व्यञ्जयति । 'व्यो[म[1]नि[1], सा[5]ग[1] []ती[s]रे[5]' इत्येवं रीत्या लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-७५ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ७६-७७.]
त्रौ ल्गौ सुमालती ॥७॥ नरलगाः । यथा- परिहतोत्पलावली, कनककेतकी तथा । भ्रमर मालतीकृते, तदिति सा सुमालती ॥ ७६.१ ॥
पञ्चमं प्रभेदमाह- त्रौ ल्गौ सुमालतीति । 'नौ ल्गौ' इति पदद्वयार्थमाह-नरलगाः इति- 'नगणः ।।।, रगण: 5Is, लघुः ।, गुरु: ' इत्येवमष्टभिवणैः कृताः पादा यस्य तत् ‘सुमालती'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-परिहतेति- हे भ्रमर ! मालतीकृते- मालतीपुष्परसपानसमीया [ त्वया ] उत्पलावली- कमलपङ्क्तिः , परिहृता- परित्यक्ता, तथा कनककेतकी- सुवर्णकेतक्यपि [परिहृता], तदिति- तस्मादेव हेतोः, सा सुमालती सर्वतः शोभना मालतीति ख्यातेत्यर्थः । 'प[i]रि[][]तो[5]त्प[i]ला[s]व[1]ली[5]' इत्येवंक्रमेण सर्वत्र पादेषु लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-७६ ॥
म्तो ल्गौ माणवकं धैः ॥७७॥ मतलगाः। धैरिति "व्यादिर्गादिः" [१-१७ ] इति वचनाचतुमिरिति लम्यते । यतिरिति चोपतिष्ठते, तेन चतुभिर्यतिरिति सिद्धम् ॥ यथा- शीतरुजान्योऽन्यरणद्, दन्तरवैविस्वरकम् । साम पठन माणवको, शासि मुहुर्यत्र शुकः ॥ ७७.१॥
षष्ठं प्रभेदमाह- स्तौ ल्गौ माणवकं घेः। भ्तौ ल्गाविति पदद्वयस्यार्थमाह- भतलगाः इति- 'भगणः ।, तगण: , लघुः ।, गुरुः ऽ' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् माणवकं नामानुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । रिति पदस्यायं तस्य वाक्यान्वयित्वं ज्याचष्टे-घेरिति "त्र्यादिर्गादिः" इति वचनादित्यादि- प्रथमाध्याये सप्तदशसूत्रं "त्र्यादिर्गादिः” इति, तेन च गकारादिव्यञ्जनानां स्वानुक्रमगतसंख्याबोधकत्वमनुशिष्टम्, "श्रव्यो विरामो यतिः" इति प्रथमाध्याये षोडशसूत्रेण यतेः परिभाषोपदिष्टा, तृतीयान्तगादिपदनिर्देशस्थले च 'यतिः' इत्यस्योपस्थितिरिति वृत्तौ प्रतिपादितम्, तथा चेहाऽपि परित्यस्यानन्तरं यतिरित्युपतिष्ठते। तथा च योऽर्थो लब्धस्तमाहतेन चतुभिर्यतिरिति सिद्धमिति, एवं च पादमध्ये चतुर्थवर्णान्तेऽपि विराम
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[अ० २, सू० ७८-७९.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते इति लभ्यते, पादान्ते विरामस्तु स्वाभाविक एव “यतिः सर्वत्र पादान्ते" इति कारिकया प्रतिपादित एव । तथा चोदाहरति- यथा- शीतरुजेतिशीतरुजा- जाड्यक्लेशेन, अन्योऽन्यरणद्दन्तरवै:- परस्परकटकटाशब्दं कुर्वतां दन्तानां शब्दः कारणभूतैः, विस्वरकं- विकृतोदात्तादिस्वरवद् यथा स्यात् तथा, साम- सामवेदं, पठन्- अधीयानो, माणवक:- बटुः, यत्र- यस्यां पुरि, शुक:- कीरैः, अशासि- अनुशिष्टः- किमेवं विस्वरं करोषीति तजित इत्यर्थः, सततशुद्धवेदाध्यनाध्यापनश्रवणात् समुत्पन्नवदुष्पाः शुका अपि यत्र सन्ति तत्रान्येषां सचेतसां मनुजानां कीदृशी विद्यापारगामितेति किं वर्णनीयमिति भावः । अत्र 'शी[s]त[1] [1]जा[5]न्यो[s]न्य[1]र[1]णत्[s]' इत्येवं लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-७७ ॥
गौ ल्गौ नाराचम् ॥७८|| तरलगाः । यथा-- दुरवैरिदन्तिनां, कुम्भस्थलेषु निश्चलः । त्वत्कोतिकेतुवंशवन्, नाराच एष शोभते ॥ ७८.१॥
सप्तमं प्रकारमाह- त्रौ ल्गौ नाराचमिति । 'त्रौ ल्गो' इति पदद्वयं व्याख्याति- तरलगाः इति- 'तगणः ऽऽ, रगण: sis, लघुः ।, गुरुः ऽ' एभिवर्णः- ईदशैर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् नाराचं नामानुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-दुर्वारेति- दुरवैरिदन्तिनां- दुर्वारा:- दुःखेन वारयितुं शक्या ये वैरिणां- शत्रूणां, दन्तिनो- गजास्तेषां कुम्भस्थलेषु- मस्तकाप्रभागेषु, निश्चल:- दूरं निखातत्वेन स्थिरः, एष- प्रत्यक्षदृश्यमानः, नाराच:तव बाणः, त्वत्कीतिकेतुवंशवत्- तव कीर्त्याः सूचक: केतु:- ध्वजः- चिह्नत्वत्कीतिकेतुध्वजः, तस्य वंशवत्- वेणुदण्डवत्, शोभते- विराजत इत्यर्थः । तव वैरिणां गजकुम्मेषु स्थिरा बाणास्तव कीत्ति सूचयन्तीति तात्पर्यम् । 'दु [s];[s]र[1][s]रि[1]द[s]न्ति[1]नां[s]' इति लक्षणानुगतिः ॥ अ० २, सू० ७८ ॥
म्नौ गौ हंसरुतम् ॥७॥ मनगगाः । यथा- मजीरकणितयोग्यां, कुर्वाणं श्रवणमोग्याम् । आदत्ते बत मनांसि, यूनां हंसरुतमेतत् ॥ ७६.१ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ८०-८१.] अष्टमं प्रकारमाह- "म्नौ गौ हंसरुतम्" इति । म्नौ गाविति पदद्वयार्थमाह- मनगगाः इति- 'मगणः ऽऽऽ, नगणः ॥, गुरुद्वयम् ऽ' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् हंसरुतं नामानुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-मञ्जीरेति-मञ्जीरयोः- नूपुरयोः, क्वणितस्य- ध्वनितस्य, योग्याम्अभ्यासं, श्रवणभोग्यां- कर्णपेयां, कुर्वाणं- विदधत्, एतत्- अग्रे श्रयमाणं, हंसरुतं-हंसानां वचनम्, यूना- तरुणानां, मनांसि- चेतांसि, आदत्ते- कर्षयति, बत- इति खेदे । हंसरुतं श्रुत्वा कान्तापादस्थितमजीरध्वनि स्मरन्तो युवानस्तत्राकृष्टाः सन्तः खेदमनुभवन्तीत्यर्थः । 'म[5] जी[s]र[5] @[1]णि[1]त[1]यो[s]ग्यां[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू० ७६ ॥
न्जौ ल्गो ललितगतिः ॥८॥ नजलगाः । यथा- मणिरसनास्वनिताद्, अनुसतहंसकुलैः। श्रितमिव शिष्यपदं, ललितगतौ सुतनोः ॥ ८०.१॥
अनुष्टुभ एव नवमं प्रभेदमाह- जो ल्गौ ललितगतिरिति । न्जौ ल्गावित्यस्यार्थमाह- नजलगाः इति- 'नगणः ॥, जगणः ।।, लघुः ।, गुरुश्च । इत्येवंरूपर्वणैः कृताः पादा यस्य तत् 'ललितगति'नामकमनुष्टुजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- मणिरसनास्वनितादितिसुतनो:- ललिताङ्गयाः, मणिरसनास्वनितात्- मणिनिर्मितायाः काञ्च्याः शब्दात् हेतोः, अनुसृतहंसकुल:- अनुगामिहंसगणः, लणितगतौ- सविलासगमने, शिष्यपदम्- अन्तेवासिस्थानं, श्रितमिव- प्राप्तमिव ! मणिरसनानादं श्रुत्वा तदनुकूलकूजनशिक्षार्थ हंसगण अस्याः सुतनोरनुसरणं करोति, यथा शिष्या गुरुमनुसरन्ति, ततश्च तैः शिष्यत्वमिव प्राप्तमित्युत्प्रेक्षते कविः । 'म [1]णि[1]र[1]स[1] ना[s] स्व[1]नि[1]ताद्[s]' इति लक्षणसमन्वयः सर्वत्र पादेषु बोध्य: ॥ अ० २, सू० ८० ॥
ओ गौ सिंहलेखा ॥१॥ रजगगाः । यथा- पर्णपातमात्रभीत !, कृष्णसारपोत ! तात ! किं विलम्बसे महात्मन् !, स्वं जहीहि सिंहलेखाम् ।। ८१.१॥
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[अ० २, सू० ८२. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रधोते
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दशमं प्रभेदमाह - ज गौ सिहलेखेति । ज गाविति पदद्वयस्यार्थमाहरजगगाः इति - 'रगण: SIS, जगण : ISI, गुरुद्वयम् SS' इत्येवंप्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् 'सिंहलेखा' नामक मनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- पर्णपातेति - पर्णपातमात्रेण - कूचित् पतत्पत्रस्य शब्दं श्रुत्वा तम्मात्रेण - केवलेनैव तेन भीत ! - त्रस्त !, कृष्णसारपोत ! - कृष्णसारस्य- मृगविशेषस्य, पोत ! - पुत्र !, तात ! - वात्सल्यभाजन ! महात्मन् ! - अक्षुद्र !, कि विलम्बसे ? - कुतोऽग्रे न चलसि त्वं सिंहले खां - केसरिगणनां - [ प्रायः कश्चित् सिंहोऽत्र तिष्ठति तस्यैव पदशब्दोऽयं किमिति शङ्कां ] जहीहि - त्यज । अत्र प [S] [] प [s]त[1] मा[5]त्र [1] भी [s]त! [s]' 'कृ[s]ष्ण [1] सा[5]र[ 1 ] पो [s] त ! [ 1 ] ता [s] त ! [s]' इत्युभयत्रापि पादान्तस्य लघुत्वेऽपि "वाऽन्ते ग्वक्रः” [ १-६ ] इति सूत्रानुसारं बैकल्पिकगुरुत्वमाश्रित्य लक्षणसंगतिर्बोध्या ॥ अ० २, सू० ८१ ॥
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जौ लगौ प्रमाणी ॥८२॥
जरलगाः । यथा— तव प्रभातुमिच्छतां यशश्चुलुक्य भूपते ॥ समग्रमानजित्वरी, जगन्त्रयी प्रमाण्यभूत् ।। ८२.१ ।। मत्तचेष्टितमिति भरतः ।। ६२.१ ॥
एकादशं प्रकारमाह- ज्रौ लगौ प्रमाणीति "त्रौ लगौ" इत्यस्यार्थमाहजरलगा : इति - 'जगण: [1], रगण: SIS, लघु: [ 1 ], गुरुश्च [s] ' इति तादृशैवर्णैः : कृताः पादा यस्य तत् 'प्रमाणी' नामक मनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति यथा - तवेति - हे चुलुक्यभूपते ! तव यश:- कीर्ति, प्रमातुमिच्छतां - परिच्छेतुमभिलषतां कृते, समग्रमानजित्वरी - सर्वविधप्रमाणमूर्धन्या, जगन्त्रयीत्रैलोक्यमेव, प्रमाण्यभूत् - प्रमाणतां गता, अप्रमाणं प्रमाणं समपादीति प्रमाण्यभूत् इति व्यन्तता प्रमाणीशब्दस्येति तस्य क्रियया सह समासादैकपद्यम्, यद्वा 'प्रमाणी अभूत्' इति पदद्वयम् प्रमीयतेऽनयेति प्रमाणी, एवंविधा जगन्त्रयी, अभूत् - जातेत्यर्थः । तव यशः कियत्पर्यन्तं व्याप्तमिति जिज्ञासमानानां कृते, तस्य त्रिलोकीव्याप्त त्वेन सैव प्रमाणतां यातेत्यर्थः । ' त [1] [s], प्र[1] मा[5]तु[\]मि[ऽ]च्छ[।]तां[s]' इति लक्षणसमन्वयः सर्वत्र पादेषु ।। अस्य
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ८३-८४.] नामान्तरमाह- मत्तचेष्टितमिति भरतः इति, तथाहि तल्लक्षणम्____ "चतुर्थं च द्वितीयं च, षष्ठमष्टममेव च । गुरुण्यष्टाक्षरे पादे, यत्र तन्मत्तचेष्टितम् ।।" इति [भ० ना० शा० १५।२०.] ॥ अ० २, सू०-८२. ।।
रजौ ग्लौ समानी ॥३॥ रजगलाः । यथा- रागरोषमोहदोष-, दारुदावपावकस्य । तीथिकः समं जिनस्य, नो समानिका कलापि ॥ ८३१॥
द्वादशं प्रकारमाह- "र्जा ग्लौ समानी" इति । र्जी ग्लावीत्यस्यार्थमाहरजगलाः इति- 'रगणः ऽ।ऽ, जगणः ।।, गुरु: 5, लघुः ।' इति प्रकारवर्ण विहिताः पादा यस्य तत् 'समानी'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- रागदोषेति- रागरोषमोहदोषदारुदावपावकस्य- रागः- आसक्तिः, रोष:- क्रोधः, मोहः- अज्ञानं वैचिन्त्यं वा, तदात्मका ये दोषाः, त एव दारूणि- काष्ठानि, तत्र दावपावकस्य- दावाग्निरूपस्य, दाहपावकस्येति पाठेतुतेषां दाहेऽग्निस्वरूपस्येत्यर्थः । जिनस्य, तीथिकै:- अन्यः संप्रदायप्रवतक: समं- सह, समानिका- तुल्या, कलाऽपि- मात्राऽपि, नास्तीति सर्वेभ्यस्तस्य श्रेष्ठत्वमिति भावः । 'रा[s]ग[1] रो[s]ष[1] मो[1]ह[1]दो[s]ष[0]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-८३ ।।
न्सौ गौ गुणलयनी ॥८४॥ नसगगाः । यथा- गुरुगुणचिता स्फीता, परिहृतरजःपुआ। मुनितनुरियं साध्वी, न गुणलयनी साधो ! ।।८४.१॥
त्रयोदशं प्रकारमाह-न्सौ गौ गुणलयनीति । न्सौ गावित्यस्यार्थमाहनसगगाः इति- 'नगणः ॥5, सगणः ॥5, गुरुद्वयम् ss' इत्येवंप्रकारवर्गविहिताः पादा यस्य तत् 'गुणलयनी'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-गुरुगुणेति-हे साधो ! गुरुगुणचिता- गुरुभिः- श्रेष्ठः, गुणः- शमादिभिः, चिता- व्याप्ता, स्फीता-सुसंस्कृता,परिहृतरजःपुञ्जा-परिहृतं- दूरीकृतं, रजःपुलं- रजोगुणसमूहः पापसमूहो वा यया तादृशी, साध्वी, इयं, मुनितनु:
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[अ० २, सू० ८५-८६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
६३ ऋषिशरीरम्, गुणलयनी- जवनिका न, गुणलयन्यपि गुरुभि:- महद्भिः, गुण:रज्जुभिः, चिता, स्फीता भवति, रजःपुञ्चनिवारिका साध्वी च भवतीति तस्या एव वर्णयितुं प्रकृत्वं प्रतीयते, तामपन्हुत्य अप्रकृताया मुनितनोस्तादृश्याः स्थापनमित्यपन्हुत्यलङ्कारोऽत्र । 'गु[1] रू[1]गु[1]ण[1]चि[1]ता[s]स्फी[s]ता[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू०-८४ ॥
सौ ल्गौ मही ॥५॥ ससलगाः । यथा- भृशमात्मवतः कला, ननु यस्य परिस्फुटाः । स हि काञ्चनपुष्पिता, सकलां चिनुते महीम् ।। ८५.१॥
चतुर्दशं प्रभेदमाह- सौ ल्गौ महीति । सौ ग्लावित्यस्यार्थमाह- ससलगाः इति- सगणद्वयम् ॥॥s, लघुः ।, गुरुश्च [s]' इत्येवंप्रकारवर्गविहिताः पादा यस्य तत् 'मही'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाभशमिति-यस्य आत्मवतः- स्थिरचित्तस्य जनस्य, कला:-विविधज्ञानमात्राः, भृशम्- अत्यर्थं, परिस्फुटा:- स्पष्टीभूताः, 'ननु' इति कोमलामन्त्रणे निश्चये वा, स- जनः, काञ्चनपुष्पिता- सुवर्णकुसुमैश्वितां, वित्तपूर्णामित्यर्थः, सकलांसमग्रा, महीं- वसुमतों, संचिनुते- अवचितवित्तां करोति । सकलकलानिपुणस्य जनस्य कृते सकला पृथ्वी समभिलषितपूरिका भवतीति तात्पर्यम् । भृ[1]श[1]मा[5]त्म[1]व[1]तः[s], क[1]ला[s]' इतिलक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-८५॥
नौ गौ रतिमाला ॥८६॥ ननगगाः । यथा- ततिरिह करिणां ते, क्षरदुरुमदवारिः। नृपवर ! जलदानाम्, इव विचरति माला ।। ८६.१ ॥
पञ्चदशं प्रकारमाह-नौ गौ रतिमालेति । नौ गावित्यस्यार्थमाह-ननगगाः इति- नगणद्वयं ॥,1, गुरुद्वयं च ' इत्येवंप्रकारैर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् ‘रतिमाला'नामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथाततिरिहेति-हे नृपवर !- राजश्रेष्ठ !, क्षरदुरुमदवारि:-क्षरत्- स्यन्दमानम्, उरु- अधिकं, मदवारि- मदजलं यस्याः सा, ते-तव, करिणां- हस्तिनां,
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशाषनप्रद्योते [अ० २, सू० ८७.] ततिः- समूहः, जलदानां- मेधानां, माला- पङ्क्तिः इव, विचरति-[ संग्रामभूमौ ] परिभ्रमति । मेघेभ्योऽपि जलं स्रवति, कृष्णवर्णाश्च ते भवन्ति, गजा अपि ते दानवारिस्त्राविणः कृष्णवर्णाश्चेति जलदा इव राजन्ते इत्यर्थः । 'त[1]ति[1]रि[1]ह[1] क[1]रि[1]णां[s]ते[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-८६ ॥
__अन्यद्वितानम् ॥८७|| उक्तावक्ष्यमाणाच्चान्यत् समवृत्तं छन्दो वितानसंज्ञम् ।
यथा-त्वयि तेजोभिरशेषं, जगदुद्द्योतयतीदम् । उदयत्येष इदानी, सविता नाथ ! मुधव ।। ८७.१ ॥ ___ तथा- कङ्कालमालभारिणं, कन्दर्पदर्पदारिणम् । संसारबन्धमोचनं, वन्दामहे त्रिलोचनम् ॥ ८७.२ ॥
तथा- तस्याः स्मरामि सुन्दरं, चन्द्रोपमानमाननम् । कन्दर्पचापमगुर-, भ्रूविभ्रमोपशोभितम् ॥ ८७.३ ॥ __तथा-तृष्णां त्यज धर्म भज, पापे हृदयं मा कुरु । इष्टा यदि लक्ष्मीस्तव, शिष्टाननिशं संश्रय ।। ८७.४ ॥ इत्यादि ।। ८१६ ।।
संग्रहरूपेण षोडशं प्रकारमाह- अन्यद् वितानमिति । सूत्रं व्याख्यातिउक्ताद् वक्ष्यमाणाच्चेति- अष्टाक्षरपादस्य च्छन्दसो ये प्रकारा उक्ताः, ये च तृतीयाध्याये वक्ष्यन्ते तेभ्योऽन्यानि यानि अष्टाक्षरपादानि समवृत्तानि तानि सर्वाणि विताननाम्ना व्यवहरणीयानीत्यर्थः । अन्यरपि पिङ्गलादिभिरियमेव व्यवस्था कृता, तत्र हि समानी-प्रमाणीभेदेन प्रकारद्वयमेवोक्त्वा "वितानमन्यत्" [अ० ५, सू०-८ ] इत्युक्तम्, व्याख्यातं च हलायुधेन- आभ्यां समानी-प्रमाणीभ्यामन्यदष्टाक्षरपादं छन्दो 'वितानं' नामेति, उदाहृतं च तत्र"कङ्कालमालमारिणम्" इत्याद्यग्रे निर्दिश्मानं पद्य त्रयम् । __ तत्र स्वकृतमुदाहरणं पूर्वमाह- यथा- त्वयि तेजोभिरिति- हे नाथ ! त्वयि- भवति, तेजोभिः- स्वप्रभामिः, इदं- प्रत्यक्षवति, अशेष- सकलं, जगत्- विश्वम्, उद्योतयति- प्रकाश्यति सति, इदानीं- संप्रति, एषः-- पुरोऽवलोक्यमानः, सविता- सूर्यः, मुधव- व्यर्थमेव, उदेति- उदयं गच्छति ।
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[अ० २, सू० ८७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते सवितुः- कार्यस्य, तव तेजोभिरेव कृतत्वेन तदुदयनं संप्रति व्यर्थमेवेति भावः । 'त्व[1]यि[1],ते[s]जो[s]भि[1]र[1]शे[s]ष[s]' इत्येवंप्रकारेण सगणभगणाभ्यां गुरुद्वयेन च पादनिर्मितिः ॥१॥
उदाहरणान्तरमाह-तथा-कङ्कालेति- कङ्कालमालभारिणं- कङ्कालस्यशरीरास्थिपञ्जरस्य मालां बिभर्तीति तच्छीलं "मालेषीकेष्ट०" [२।४।१०२] इति सूत्रेण मालाशब्दस्य ह्रस्वः । कन्दर्पदर्पहारिणं- कन्दर्पस्य- कामस्य, दर्पगवं हरतीति तच्छीलं, दारिणमिति पाठे तु-हरतिस्थाने दृणातीति ज्ञेयम्, संसारबन्धमोचनं- संसारबन्धस्य- जन्मजरामरणादिदुःस्वरूपसांसारिकबन्धनस्य, मोचनं- छेदकं, त्रिलोचनं- शिवं, वन्दामहे- प्रणमामः । अत्र तगण-रगणाभ्यां ssi sis, लगाभ्यां ।। च पादनिर्माणमिति । यद्यपि नाराचच्छन्दसि 'त्री ल्गो नाराचम्"[ २-७८ ]इति सूत्रेण वणितेऽन्तर्भवति, तथापि 'कन्दर्प' इति शब्दे रेफपकारसंयोगस्य गुरुत्वानाधायकत्वे तगणस्वरूपं दुष्यतीति न तेन च्छन्दसा निर्वाह इति वितानेऽन्तर्भाव इष्टः ॥२॥
तृतीयमुदाहरणमाह- तस्याः स्मरामीति- चन्द्रोपमानं- चन्द्र उपमानं यस्य तत, चन्दस्य उपमानमिति वा, कन्दर्पचापभगुरध्रुविभ्रमोपशोभितं- कन्र्दपस्य- कामस्य, चापवद् भगुरा- निम्नोन्नता या भ्रूस्तस्या विभ्रमेण- विलासेन, उपशोभितम्- विराजमानम्, तस्याः- प्रियायाः, सुन्दरम्, आननं- मुखं, स्मरामि- ध्यायामि, सम्प्रति तस्या विरहेपा तन्मुखस्मरणमेव मे सन्तोषायेति भावः । अत्रापि तगण-रगणाभ्यां ल-गाभ्यां च पादपूर्तिरिति नाराचलक्षणाक्रान्तत्वेऽपि 'कन्दर्प' इत्यत्र द्वितीयस्य वैकल्पिकं लघुत्वमिति वितानमध्येऽन्तर्भावः ॥३॥
चतुर्थमुदाहरणमाह- तृष्णां त्यजेति-तृष्णां-विषयेषु स्पृहां, त्यज-परिहर, धर्म-सुकृताचरणं, भज- सेवस्व, पापे- दुष्कृते, हृदयं- मनो, मा कुरुन प्रवर्तय, यदि तव लक्ष्मीः, इष्टा- अभिलषिता [ तर्हि ] शिष्टान्- सदाचारिणो जनान्, अनिशं- सततं, संश्रय- अनुगच्छ तानाश्रयेति वा । 'तृ[s] ष्णां[s], त्य[1]ज[i], ध[s]म[s], भ[1]ज[1]' इत्येवं पादपूर्त्या पूर्वोक्तच्छदसां लक्षणायोगेन वितानत्वमेवात्र विज्ञेयमिति ॥४॥ एवं षोडश प्रकारा अष्टाक्षरच्छन्दस उक्ता इत्याह- इत्यादि ८-१६ इति । प्रस्तारक्रमेण तु षट्
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ८८-८६.] पञ्चाशदधिकशतद्वयं भेदा भवन्ति, तदुक्तं भरतनाट्यशास्त्रे- “षट्पञ्चाशच्छते द्वे च वृत्तानामप्पनुष्टुभि'' [ १५।५६ ] इति ॥ अ० २, सू० ८७ ।।
बृहत्यां मो मौ वक्त्रं जै ॥८८।। हुरिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- बिभ्रमसारभ्रूविक्षेपं, मन्मथलीलालीलागारम् । कस्य न चित्ते कुर्यात् क्षोभ, बालकुरङ्गाक्षीणां वक्त्रम् ।। ८८.१ ॥
अथ नवाक्षरपादां बृहतीजाति वर्णयितुमाह- "बृहत्यां भो मौ वक्र " इति । तत्र डैरित्यस्यार्थमाह- जैरिति पञ्चभिर्यतिः इति, तथा चायं सूत्रार्थ:- भगणः ।, मगणद्वयं sss, sss' इत्येवंरूपनवभिर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् ब्रहतीजातिकं 'वक्र' नाम च्छन्दः, तत्र च पञ्चभिः परिशिष्टैश्चमिश्च "यतिः सर्वत्र पादान्ते' इत्युक्ततया पादान्ते सर्वत्र यतिनियमात् यतिभवति । उदाहरति- यथा- विभ्रमेति- विभ्रमसारभ्रूविक्षेपं- विभ्रमाणां- विलासानां, सार:- सर्वस्वभूतः, भ्रूविक्षेयः- कटाक्षपातो यत्र तादृशं, मन्मथलीलालीलागारं- मन्मथलीलाया:- कामक्रीडायाः, लीलागारं- क्रीडागृह, बालकुरङ्गाक्षीणां- बाल:- शिशुः, करङ्गः- मृगः- बालकुरङ्गः, तस्य- अक्षिणी इव अक्षिणी यासां तासां, वक्त - मुखम्, कस्य- जनस्य, चित्ते- हृदये, क्षोभं- चाञ्चल्यं, न कुर्यात्- अपि तु सर्वस्यैव हृदि चाञ्चल्यं कुर्यादेवेत्यर्थः । 'वि[5]भ्र[1] म[1]सा [s] र[s]भ्रू[s]वि[5]क्षे[s]पं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ८८. ।।
नो रौ बृहतिका ॥८६॥ यथा- विशदवृत्तलब्धात्मनः, शुचियशोयतेर्भूपते । तव कमण्डलुर्वारिधिर्, बृहतिका च मन्दाकिनी ।। ८६.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह- नो रौ बृहतिकेति- 'नगणः ॥, रगणद्वयं sis, ISI च' इति प्रकारवर्णविहिताः पादा यस्य तत् 'बृहतिका' नाम बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा विशदवृत्तेति- हे भूपते !, विशदे- उज्जवले, वृत्ते- चरित्रे, लब्धः- प्रतिष्ठित आत्मा यस्य तस्य, अथ च विशदमुज्जवलं वृत्तं येषां तेषु लब्धात्मन:- प्राप्तस्वरूपस्य, शुचियशोयते:-पवित्रकीर्तिकसाधोः, अथ च शुचि-पवित्रं यश एव यति:- विश्रामस्थानं यस्य यावद्यशःप्राप्ति कर्तव्यनिष्ठस्य तस्य, तव वारिधि:- समुद्रः, कमण्डलु:-जलपात्रम्, मन्दाकिनी
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[अ० २, सू० ६०-६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते च बृहतिका- प्रच्छादनपटः, भूपर्तयतित्वेन रूपणात् यतेः कमण्डलुधारणं द्वितीयवस्त्रधारणं च प्रसिद्धमिति वारिधी कमण्डलुत्वोपचारो मन्दाकिन्यां च प्रवारत्वोपचारः । भूलोके समुद्रपर्यन्तं, दिवि च मन्दाकिनीतीरपर्यन्तं तव निर्बाधा गतिरिति व्यङ्गयम् । 'वि[1] श[1]द[1][s]त्त[1]ल[s]ब्धा[s]त्म [1]नः' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २. सू० ८६ ॥
रनसा हलमुखी ॥१०॥ रनसाः । यथा- दन्तुरं कपिशनयनं, यन्मुखं विकचिबुकम् । ता स्त्रियं सुखममिलषन, दूरतस्त्यज हलमुखीम् ।। ६०.१ ॥
तृतीयं प्रभेदमाह- नसा हलमुखीति । 'रगणः sis, नगणः ।।।, सगणः ॥ इत्येवंप्रकारर्वविहिताः पादा यस्य तत् हलमुखीतिनामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यया- दन्तुरं कपिशनयनमिति- दन्तुरं-- उन्नतदन्तयुक्तं, कपिशनयनं- कपिशे पिङ्गले नयने यत्र तादृशं, विकटचिबुकं-- विकटं- करालं, चिबुकं- हनु यत्र तादृशं च, यन्मुखं- यस्या मुखं स्यात्, सुखम्- आनन्दम्, अभिलष्टन्- इच्छन्, त्वम्, तां हलमुखीं- हलाकारवक्रां स्त्रियं, दूरतः- समीपमप्राप्तामेव, त्यज- परिहरेत्यर्थः ।। अ० २, सू० ६०॥
नौ मो भुजगशिशुसृता ॥६१।। यथा- नयनविलसितरस्याः, कथमिव बत मूर्छा ते । भुजगशिशुसता यद्वा, ऽवगतमुरगकन्येयम् ।। ६१.१॥ वक्रगतेरित्यर्थः, शिशुपदस्य साभिप्रायत्वात् । यथा च- अभ्यस्यता तु तरुणीगतिवक्रिमाण- मुन्मूलिताः फणिशिशो भवतापराधाः ॥ ६१.२ ।। इति । मधुकरिकेति भरतः ॥ ६१.२ ॥
चतुर्थ प्रभेदमाह- नौ मो भुजगशिशुसृतेति । 'नगणद्वयं मगणश्च ।।।, ॥ sss' इत्येवंप्रकारवर्गविहिताः पादा यस्य तत् 'भुजगशिशुसृता' नाम बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नयनविलसितैरिति - अस्याः- प्रकृताङ्गनायाः, नयनविलसितैः- नेत्रलीलाभिः, ते- तब, मूर्खासर्वेन्द्रियक्रियाशून्यता, कथमिव- केन प्रकारेणाभूत्, बत इति- खेदे कोमलालापे वा। इति प्रश्नानन्तरं स्वयमेवोत्तरयति- अवगतं- मूळयाः कारणं
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सवृत्तिछन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६१.] ज्ञातं, किं तदित्याह- इयं भुजगशिशुस्ता- सर्पपोतगतिः, यथा सर्वपोतः कुटिलतरं गच्छति तथैवेयमित्येनां दृष्ट्वा सर्पस्मरणाद् भीतस्त्वं मूच्छित इत्यर्थः । कारणान्तरमाह-यद्वा, इयम् उरगकन्या-नागजातीया बाला, अलौकिकरूपाया अस्या उरगकन्यात्वं सम्माव्यते, तासां च दृष्टिविषत्वमिति प्रसिद्धिरिति सद्दृष्टिपातेन मूर्छा सम्मवतीत्यर्थः । अवगतेहेतुं स्फोरयति- वक्रगतेरित्यर्थः, अस्या वक्रां गतिं दृष्टवा मयतदवगत मिति भावः । कथं वक्रगतेरस्यार्थस्यावगतिरिति चेदत्राह-शिशपदस्य साभिप्रायत्वादिति- 'भुजगसृता' इत्यनुक्त्वा भुगजशिशुसृतेति कथने शिशुपदं यदुपात्तं तस्य कश्चिदमिप्रायोऽवश्यमिति मन्दाकुटिला च गतिरनेनावगम्यते ।
किमियं भवदीयवोत्यप्रेक्षाऽथवा कविसम्प्रदायसिद्धोऽप्यमर्थ इति शङ्कापनोदाय पूर्वकविचनसंवादमाह-यथा च-अभ्यस्यतेति- क्वाचित्कं पूर्वकविपद्याधमिदं हलायुधवृत्तावपि प्रकृतार्थसंवादायोदाहृतम् । हे फणिशिशो!- उरगबाल!, तरुणीगतिवक्रिमाणं-युवतिपादविक्षेपकौटिल्यम्, अभ्यस्यता- पुनः पुनरनुकुर्वता भवता, अपराधाः-स्वजातिस्वभावसंपादिता दंशादिदोषाः, उन्मूलिता:उद्धृताः, तु इति पक्षान्तरे । तथा च पद्योतरार्धमिदमिति प्रतीयते, पूर्वाधंऽनेन सर्पशिशुना कृतानामपराधानामुल्लेख इति प्रत्तीयते। प्रकृते च तरुणीगति- वक्रिमायाः फणिशिशुनाऽनुकरणस्यैव स्वामीष्टार्थप्रतिपादकत्वमिति तावन्मात्रेणात्रेतदुद्धरणमिति ज्ञेयम् । अस्य नामान्तरमपीत्याह-मधुकरिकेति भरतः इति- भरत आचार्य इदमेवच्छन्दो मधुकरिकेति नाम्ना व्यवहरती त्यर्थः । तथा च तदीयं वचनम्
"नवाक्षरकृते पादे त्रीणि स्युनधनानि च । गुरूणि यस्याः सा ज्ञेया नाम्ना मधुकरी यथा ॥" इति । [ भ. ना. शा. १५-२८ ]
गरुडपुराणे तु 'शिशुभृता' इत्येव नाम दृश्यते, तथाहि- "नो मः शिशभृता भवेत्” [१।२०६।५ ] इति तत्रोक्तम् । छन्दःकौस्तुभादौ तु- "भुजगशिशुभृता" "भुजगशिशुयुता" "भुजगशिशुवृता" "भुजगशिशुसुता" इत्येव मादीनि समानासराणि नामानि दृश्यन्ते । 'न[0]य[1]न[1]वि[1]ल[1]सि[1] [5][s]स्याः [b]' इत्येवं लक्षणसमन्वयोऽवसेयः ।। अ० २, सू० ११ ॥
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[अ० २, सू० ६२-६४ ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
भजसा उदयम् ॥२॥
यथा - सुभ्रु ! भवदीयवदने, सत्यपि नितान्तरुचिरे । निस्त्रप इर्वष सहसा, वाञ्छति शशाङ्क उदयम् ।। ६२.१ ।।
६६
पञ्चमं प्रभेदमाह - भजसा उदयमिति- 'भगण - जगण - सगणाः SII. Ist. IS' इत्येवंप्रकारैर्वर्णे विहिताः पादा यस्य तत् 'उदयं' नाम बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - सुभ्रु इति - हे सुभ्रु ! - सुन्दर भ्रुकुटे !, नितान्तरुचिरे - अतिशयकमनीये, भवदीयवदने- तव मुखे, सत्यपि निस्त्रपः- निलंज इव, एष - प्रत्यक्षस्थितः, शशाङ्कः चन्द्र:, सहसा अविचार्येव, उदयं- दृष्टिपथातिथित्वं, वाञ्छति - अभिलषति । शशाङ्काधिकशोभाशिलिनि तव मुखे पूर्वं लोकदृष्टिमागते तेनोदेतुमयुक्तं तथापि यदयमुदयमिच्छति तेन निर्लज्जोऽविचार्यकारी चेति विज्ञायत इति भावः । अत्र 'सु [s] भ्रु [1], भ [ 1 ] व [ 1 ]दी [s]य[1]व[1]द[1]ने [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ६२ ॥
भौ र उत्सुकम् ||१३||
यथा - आपदि दीनमनोरथं संपदि हर्षपरायणम् । मा कुरु मानस चापलं, संस्मर तत्त्वमनुत्सुकम् ॥ ६३.१ ।।
"
षष्ठं प्रभेदमाह - भौ र उत्सुकमिति - 'भगणद्वयं रगणश्च 511. S. SIS' इत्येवंरूपैर्वर्णे विहिताः पादा यस्य तत् उत्सुकं नाम बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - आपदिति - हे मानस ! आपदि - विपत्तौ दीनमनोरथंदीन: - कृपणः, मनोरथो यस्मिन् तादृशं सम्पदि- वृद्धी, हर्षपरायणम् - आनन्दैकरसं, चापलं - चाञ्चल्यं मा कुरु- न विधेहि, अनुत्सुकं सत् - औत्सुक्यरहितं यथा स्यात् तथा तत्त्वम् - आत्मनो यथार्थस्वरूपं, संस्मर - अनुध्यायेत्यर्थः । 'आ [S] प [1]दि [1], दी [1]न [1] [ | ] नो[5] र[1]थं [5] ' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ६३ ।।
1
र्नरा भद्रिका ॥ ६४ ॥
रनराः । यथा- पुण्यपापजलर्वाधिते, सौख्यदुःखलतिके स्वयम् । तज्जहीहि परिविप्लवं साधुता हृदय ! भद्रिका ।। ६४.१ ।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६५. ] सप्तमं प्रकारमाह- नरा भद्रिकेति- 'रगणः, नगणः, रगणः, Is Im sis' इत्येवंरूपवर्णविहिताः पादा यस्य तत् भद्रिका नाम बृहतीजातिवृत्तमित्यर्थः । उदाहरति- यथा-पुण्यपापजलवधिते इति-हे हृदय ! सौख्यदुःखलतिके- सौख्यं च दुःखं चेति सौख्यदुःखे, ते एव लतिके- वल्लयो, स्वयम्आत्मना त्वयंव, पुण्यपापजलवर्धिते,- पुण्यं च पापं च पुण्यपापे, ते एव जलं तेन वर्धिते- वृद्धि नीते, तत्- तस्माद्धेतोः, परिविप्लवं- चित्तोद्वेगं, जहीहित्यज, साधुता- मुनिव्रतम्, भद्रिका- श्रेयस्करी । त्वया पुण्यजलेन सौख्यलतिका, पापजलने च दुःखलतिका स्वयमेव वर्धिता, इति सौख्येन दुःखेन वा यस्तव चित्तोद्वेगः स वृथव, स्वकृते फले क उद्वेगः, यथा कृतं तथा भुक्ष्व, कः खलु स्वोत्पादितफलानि न भुङ्क्ते। यदि पुनरीदृशफलभोगस्य समीहा न भवेत् तहि साधुतां श्रय यत्र न पुण्यपापे भवत इति न तज्जन्यसुखदुःखे भविष्यत इति कंवल्यं प्राप्स्यसि, अत एव साधुता भद्रिकेत्याख्यायत इति तात्पर्यम् । 'पु[s] व्य[1]पा[s]प[1]जल[1][s]धि[1]ते[s]' इति लक्षणसङ्गतिः सर्वत्र । अ० . २, सू० ६४ ॥
नौ र उपच्युतम्॥६५॥ यथा- नृपः कुरु करुणां जने, परिहर खलसंगमम् । विमृश सुरविमानतस्-, त्रिदशपतिमुपच्युतम् ।। ६५.१ ॥
अष्टमं प्रकारमाह-नौर उपच्युतमिति । 'नगणद्वयं रगणश्च ॥ ॥, जा' इतिरूपवर्णविहिताः पादा यस्य तत् 'उपच्युतं'नाम बहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरणमाह-यथा-नृपेति- हे नृप!- राजन् !, जने करुणां कुरु, खलसंगम- दुर्जनैः सह सम्बन्धं, परिहर- त्यज, सुरविमानत:- देवविमानाद, उपच्युतं- पतितं, त्रिदशपतिम्- इन्द्रं, विमृश- विचारय । यदा पुण्यक्षयात सुरपतिरपि नीचैः पतति, तस्यापि आधिपत्यं विनाशशीलं तहिं तवाधिपत्यं स्थिरं स्थास्यतीति का प्रत्याशा, अतो यावत् न प्रच्यवसि तावदेख दीने जने दयां कुरु तेन पुण्यवृद्धिर्भविष्यति, खलसंगति त्यज, तेन च पापसंचयो न भविप्यतीति न ते च्युतिशङ्का स्थास्यतीति भावः । 'नृ[1]प[1], कु[1][], क[1] रु[1]णां[s], ज[1]ने[5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ६५ ॥
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[ अ० २, सू० ६६-६७ ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
जसा अक्षि ॥ ६६॥
सजसाः । यथा - विषमास्त्र एष इति यत्, कवयो वदन्ति तदसत् । प्रहरत्ययं हि मदनः, सुतनो ! तवाक्षिललितैः ॥ ६६.१ ।।
१०१
नवमं प्रभेदमाह - "जसा अक्षि" इति - सगण - जगण - सगणाः 115, 151, IIS' इतिरूपैर्वर्णे विहिताः पादा यस्य तत् 'अक्षि' नामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- विषमास्त्र इति एष मदनः, विषमास्त्र :- विषमं - कठोरं [ विषमसंख्यायुक्तं तद्वाच्यानां पञ्चत्वात् ] अस्त्रं यस्य तादृश इति यत् कवयो वदन्ति तत्, असत् - मिथ्या, हि- यतः, हे सुतनो ! - सुन्दरगात्रे !, अयं - मदन:, तव - भवत्या, अक्षिललितैः - दृष्टिविलासः, प्रहरति । तथा च ललितास्त्र इति वक्तव्ये विषमास्त्र इति कथनं तेषामसत्यमिति भावः । अत्र पञ्चवाणत्वात् कामस्य विषमास्त्रत्वमिति प्रकृतं प्रतिषिध्य कठोरास्त्रपरत्वं स्थापित मित्यनुत्यलंङ्कारोऽपि व्यज्यते । 'वि [ 1 ]ष [ 1 ] मां [s]स्त्र [1], ए []ष [1], इ[ 1 ]ति [ 1 ], यत् [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ६६ ॥ मः सौ कनकम् ॥६७॥
यथा- मिथ्यादर्शनदिग्धमनाः, पापं धर्मधिया मनुते । गाढोन्मत्तरसान्धदृशां, मृत्पिण्डोऽप्यथवा कनकम् ।। ६७१ ।।
1
दशमं प्रकारमाह- मः सौ कनकमिति- 'मगणः सगणद्वयं च sss, 115, ॥ इतिरूपैर्वर्णे विहिताः पादा यस्य तत् कनकं नाम बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- मिथ्यादर्शनेति- मिथ्यादर्शनेन - विपरीतश्रद्धया, दिग्वम् उपलितं पुष्टमिति यावत् मनो यस्य सः, पापं दुष्कृतं धर्मंधिया - सुकृतबुद्धया, मनुते - जानाति, अथवा गाढोन्मत्तरसान्धदृशां - गाढेनघनेन, उन्मत्तरसेन - धत्तूरद्रवेण, [ तत्सेवनेन ], अन्धदृशां - आच्छन्नदृष्टीनां जनानां कृते, मृत्पिण्डोऽपि - लोष्टमपि, कनकं - सुवर्णम् । मादकद्रव्यसेवने दूषितविपरीतं पश्यति तथा मिथ्याज्ञानदूषितान्तःकरणैरपि पापमेव धर्मदृष्टया द्रुष्टुं युज्यत इति भाव: । 'मि [s] या [5] [5]र्श[1]न [1] दि[s]ग्ध[1] [] नाः [s] ' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ६७ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ६८-६६.]
सौ मस्तारम ॥१८॥ यथा- सकलासुमतां रक्षाय, यतितव्यमितीयत् तत्त्वम् । रसवादविदा तत् सारं, यदि वार्तिक ! रक्त तारम् ॥ ६८.१ ॥
एकादशं प्रभेदमाह- सौ मस्तारमिति- सगणद्वयं मगणश्च ।।5. S. ऽऽऽ' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् तारनामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सकलेति- सकलासुमतां- सर्वप्राणिनां, रक्षायै- अहिंसनाय, यतितव्यं- प्रयत्नः करणीयः, इति इयत्- एतावदेव, तत्त्वं- सर्वसिद्धान्तरहस्यम्, एतत्समर्थनायार्थान्तरं न्यस्यति- वातिक !- वार्ता लोकयात्रा प्रयोजनमस्येति वार्तिकः, तत्सम्बोधने- हे वार्तिक ! - रसवादिन् !, रसवादविदां- रसायनप्रयोगनिपुणानां भवादृशां, तत्- तदेव, सारं- मुख्यं, यदि रक्तं- तानं द्रव्यं, तारं- रूप्यं, क्रियेतेति शेषः । यथा रसशास्त्रविदां रसस्य रसान्तरपरिवर्तनं मुख्यं तथा स्वभावतो हिंसापरायणस्य प्राकृतजनस्य अहिंसायां स्थितिरेव तत्त्वं- सारभूतमिति भाव: । 'स[1]क[1]ला[5]सु[1] म[]तां[s],र[5]क्षा[5] ये [5]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ९८ ।।
सिः सौम्या ॥६६॥ सिरिति सगणत्रयम् । यथा- निजजीवितमात्ररसात्, कृतनिष्कृपकर्मतते! । मृगयामधुमद्यरते!, कुरु धर्ममसौम्यमते! ॥ ६६.१ ॥
द्वादशं प्रभेदमाह- सिः सौम्येति- "सम्मानेनकादि:" [१-४] इति संख्यापरिभाषानुसारमाह- सिरिति सगणत्रयम् इति- ।. ।5. ।।5.' इत्येवंप्रकारणे: कृता: पादा यस्य तत् सौम्यानामक बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निजजीवितेति-निजजीवितमात्ररसात्- स्वजीवनमात्राभिलाषेण, कृतनिष्कृपकर्मतते !- कृता- विहिता, निष्कृपा- भूतदयारहिता, कर्मतति:- कार्यसमूहो येन सः, तत्सम्बोधनं, मृगया-मधु-मद्यरते!- मगयायां मधुनि मद्ये च रति:- प्रसक्तिर्यस्य सः, तत्सम्बोधनं, असौम्यमने!-क्रूरबुद्धे!, धर्म- सुकृताचरणं, कुरु इत्यर्थः । स्वजीवितमात्ररक्षार्थ त्वया बहवो जीवा हिंसिताः, पुष्पेभ्यः सञ्चितं क्षौद्रं, मद्यं च माध्वीकादि सेवितं येन तब बुद्धिः
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[अ० २, सू० १००-१०१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १०३ क्रूरा जाता, अथ ते यदि सौम्यबुद्धिताऽभिमता यां विना न शान्तिः, तर्हि धर्माचरणं विधेहीति भावः । 'नि[1]ज[1] जी[s] वि[1]त[1]मा[i][1][i]. ते! [s]' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू०-६६ ।।
तम्या रुचिरा ॥१०॥ तभयाः । यथा- नादायि यश्चरणपद्म-,द्वन्द्वं तव क्षणमपीश! । तेराश्रितं वनमजल-दावज्वलत्तरु चिराय ॥ १००.१ ॥
त्रयोदशं प्रकारमाह- तभ्या रुचिरेति- तगण-भगण-यगणाः 'I, SI, is,' इति, तैः कृताः पादा यस्य तत् रुचिरानामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-नाश्रायोति- हे ईश ! य:- जनैः, तव- भवतः परमेश्वरस्य, चरणपद्मद्वन्द्वं- पादकमलयुगलं, न अश्रायि- न शरणीकृतम्, तैः, अजस्रदावज्वलत्तर- सततदावाग्निप्लुष्यद्वक्षं, वनं, चिराय- दीर्घकालहेतोः, आश्रितं- शरणीकृतम्, इत्यर्थः । तव चरण युगलसेवां विना न शान्तिरिति तात्पर्यम् । 'ना[5]श्रा[s]यि[1], ये [5]श्च[1] र[1]ण[1]प[s][s]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-१०० ।।
नस्या विशाला ॥१०१॥ नसयाः। यथा- नृपतिलक ! मातु कीर्तिस्-तव भुवि कथं तु यस्याः । भवति सकला त्रिलोकी, यदियमपि नों विशाला ॥ १०१.१ ॥ ___चतुर्दशं प्रकारमाह- नस्या विशालेति- नगण-सगण-यगणाः ॥, us, ॥' इत्येवंप्रकारैर्वणः कृताः पादा यस्य तत् विशालनामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नृपतिलकेति- हे नृपतिलक !- राजश्रेष्ठ !, तव- भवतः, कीतिः- यशः, भुवि- पृथव्यां, कथं- केन प्रकारेण, मातुपरिच्छिद्यताम्, यत्- यस्मात्, इयं सकला- पूर्णा, त्रिलोकी- त्रिजगत् यस्याःमातुमिति शेषः, नो विशाला- नातिरिक्ता । यस्याः परिच्छेदः कथमपि त्रिलोक्या कर्तुं शक्यते सा केवलायां भुवि कथं मात्विति भावः । तुशब्दः पूर्वार्धोतादादुत्तरार्धवक्ष्यमाणस्यार्थस्य परिच्छेदमाह । 'नृ[1]प[1]ति [1]ल[I]क[i], मा[5]तु[1] की[s]तिः[5]' इत्येवं लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० १०१ ॥
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१०४
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १०२-१०३.]
तन्मा मकरलता ॥१०२।। तनमाः । यथा- भमे! भवदरिनारीणा-मार्दाअननयनास्रोघः । आसूत्रि कुचतटे भ्रष्ट-नव्या मकरलताङ्गिः ॥ १०२.१ ॥
पञ्चदशं प्रकारमाह- तन्मा मकरलतेति- तगण-नगण-मगणाः 'sI, Im, sss' इत्येवंरूपवर्णः कृताः पादा यस्य तत् मकरलतानामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- भैमे इति- भीमस्य राज्ञोऽपत्यं भैमिः, तत्सम्बोधने हे भैमे ! [ भीमस्य वृद्धमपत्यं भैमिर्जयसिंहदेवस्तस्य सम्बोधनमिति पर्यायकारः ] भवदरिनारीणां- तव शत्रुस्त्रीणाम्, आर्द्राञ्जननयनास्तौधः-- आद्रंसद्यःकृतम्, अञ्जनं ययोस्ते आर्द्राञ्जने, ते च नयने- नेत्रे, तयोरस्रोधः- अश्रुकणकुलैः, भ्रष्टः- नीचैः पतितः, कुचतटे- स्तनप्रान्ते, नव्या- नूतना, मकरलताभङ्गि:-मकराकरवल्लीरचना, [ मत्स्याकृतिपत्ररचना ] आसूत्रि-निबद्धा। स्वया रिपूणां निगडनात् पतिवियुक्तास्ता: सततं रुदन्ति, इति नेत्रजलेन सह सद्यो धतमञ्जनं स्तनोपरि पतति, तेन च कस्तूरीरचित-मकरवल्लीसृष्टिरिव तत्र भवतीति भावः । 'भ[5]मे![s], भ[i][i]द[5]रि[5]ना[5] री[s]णां[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० १०२ ॥
नज्याः शशिलेखा ॥१०३|| नजयाः । यथा- कलयति पाण्डुरभावं, तव विरहे सुतनुः सा। सुभग! यथा दिवसादौ, गलितरुचिः शशिलेखा ॥ १०३.१ ।।
षोडशं प्रकारमाह- नज्याः शशिलेखेति- नगण-जगण-यगणाः 'm, is, Iss,' इत्येवंरूपैर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् शशिलेखानामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-कलयतीति- तव-भवतः, विरहे- वियोगे, सापूर्वपरिचिता, सुतनुः- शुभाङ्गी, पाण्डुरभावं-श्वेतिमानं, कलयति-प्राप्नोति । किमिवेत्याह- यथा- हे सुभग ? दिवसादौ- प्रातःकाले, शशिलेखा- चन्द्रविम्बं, गलितरुचि:- नष्टकान्तिः , भवति । 'क[[ल[1] य[0]ति[1], पा[s]ण्डुर]भा[5][5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१०३ ॥
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[अ० २, सू० १०४-१०६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
नौ सो लघुमणिगुणनिकरः ॥ १०४॥
यथा - अपरमणिगुणगणः, सरिदधिप ! तव कियान् । हरिहृदि विलसति - लघुमणिगुणनिकरः ॥। १०४.१ ।।
य
१०५
सप्तदशं प्रकारमाह- नौ सो लघुमणिगुणनिकरः इति - नगणद्वयं सगणश्व 'III, III, IIऽ,' इति प्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् लघुमणिगुणनिकर इति बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - अपरमणीति - हे सरिदधिप ! - नदीपते समुद्र !, तव - भवतः, अपरमणिगुणगणः - स्थूलमणिमालासमूहः, क्रियान्- कया संख्यया परिच्छेद्यः, यत् - यस्मात् लघुमणिगुणनिकर:- क्षुद्रमणिमालासमूहः, हरिहृदि - विष्णोर्वक्षसि, विलसति - शोभते । यस्य तव क्षुद्रणयोऽपि तथा महार्घा यद् विष्णुनाऽपि स्ववक्षसि धार्यन्ते तस्य स्थूलमणिगणानां का गणना भवितुमर्हतीति भाव: । 'अ [ 1 ] प [ 1 ]र [ 1 ] म [ 1 ]णि[1]गु[1]ण[1]ग[1]ण[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१०४ ॥ सम्साः सिंहाक्रान्ता ॥ १०५ ॥
मभसाः । यथा- त्वद् दृष्टेयं भवति विभो !, दीना प्रत्यर्थनृपचमूः । राहुग्रस्तेव शशिकला, सिंहाक्रान्तेव मृगवधूः ।। १०५.१ ॥
अष्टादशं प्रभेदमाह - मभ्सा सिंहाक्रान्तेति - मगण भगण-सगणाः sss, SII, III, इति, एवंप्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् सिंहाक्रान्तानामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - त्वदृष्टेति - हे विभो ! - सर्वथा समर्थ !, इयं प्रत्यर्थिनृपचमूः - शत्रुराजसेना, त्वद्दृष्टा - स्वयाऽवलोकिता सती, दीना - कृपणा भवति, किमिवेत्याह- रादुग्रस्ता - संहिकेयाक्रान्ता, चन्द्रकला- चन्द्रलेखा इव, [ किञ्च ] सिहक्रान्ता - केसरिकृतास्कन्दा, मृगवधूःहरिणाङ्गना इव, रादुग्रासे शशिकला सिंहाक्रमणे च मृगी यथा दीना भवति तथा तव रिपूणां सेना तवाग्रे जायत इति भावः । त्वद् [S] दृ [s]ष्टे [s]यं [s]भ[1]व[1]ति[1]वि[1]भो[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १०५ ॥ रज्राः कामिनी ॥ १०६॥
जराः । यथा - यत्प्रसादतो जयत्ययं, पुष्पसायको जगत्त्रयम् । उासन्नवी
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१०६ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १०६-१०७.] नविभ्रमा- स्ताः स्तवीमि हन्त ! कामिनीः ।। १०६.१ ॥ तरंगवतीत्यन्यः ॥ १०६.१ ॥ १६॥
ऊनविशं प्रकारमाह- रत्राः कमिनीति- रगण-जगण-रगणा: 'sis, IsI, sis,' इति, एवंप्रकारैर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् कामिनीनामकं बृहतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- यत् प्रसादतः इति- अयं पुष्पसायकःकुसुमबाणः कामः, यत्प्रसादत:- यासां कामिनीनां प्रसादतः- कृपादृष्टया, जगत्वयं-त्रिलोकी, जयति- स्ववशे करोति, उल्लसन्नबीनविभ्रमा:- उल्लसन्तोविकसन्तः, नवीनाः, विभ्रमा:- विलासा यासां ताः, ता:- पूर्वाक्तगुणयुक्ताः, कामिनी:- कमनीया अङ्गनाः, स्तवीमि- प्रशंसामि, हन्त! इत्याश्चर्ये । एतावानासांप्रभावो यदासां कृपाकटाक्षमात्रसाहाय्येन कोमलतरपुष्पप्रहरणोऽपि कामत्रिलोकीं वशीकरोतीत्याश्चर्यमिति भावः । 'य[s]त्प्र[1]सा[s]द[1]तो [s], ज[1]य[s]त्य[1] यं[s] इति लक्षणसङ्गतिः। अस्या एव नामान्तरमाह-तरङ्गवतीत्यन्यः इति- अन्य आचार्य इदमेबच्छन्दस्तरङ्गवतीति नाम्ना व्यवहरतीत्यर्थः । इत्थं नवाक्षरपादाया बृहतीजातेरूनविंशतिभेदाः- ।। ६.१६ ॥ प्रस्तारगत्या तु द्वादशधिका पञ्चशती गणना भवति । तदुक्तं भरतेन- “शतानि पञ्चवृत्तानां बृहत्यां द्वादशैव तु" इति [ म० ना० शा० १५५५६ ] । अ० २, सू०-१०६॥
पङ्क्तौ ममस्गा मत्ता घेः ॥१०७|| ममसगाः । धरिति चतुभिर्यतिः । यथा- आताम्रत्वं वपुषि दधानो, घूर्णन पृथ्वीतलपतनेच्छुः । द्राग्वारुण्यां निहितकरोऽयं, मत्तावस्थां प्रथयति भानुः ॥ १०७.१ ॥ इयं च यद्यपि वानवासिकायामन्तर्भवति तथापि विशेषसंज्ञार्थमुक्ता । एवमन्यत्रापि ॥ १०७.१॥
दशाक्षरपादायाः पङ्क्तिजातेर्भेदान् वक्तुभारमते- 'पङ्क्तौ मभस्गा मत्ता घः' इति, मभस्मा इत्यस्यार्थमाह- मभसगाः इति । चैरित्यस्यार्थमाहचतुभिर्यतिरिति- "त्र्यादिर्गादिः" [१-१७] इति परिभाषासूत्रबलेन 'धवर्णस्य' चतुःसंख्यावाचकत्वादिति भावः । तथा चायं सूत्रार्थ:- मगण-भगणसगणा गुरुश्च, 'sss, sis, us, 5 इत्येवंरूपवर्णविहिताः पादा यस्य तत् मत्तानामकं
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[अ० २, सू० १०८. ]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१०७
पङ्क्तिजातिच्छन्दः, तत्र च प्रतिपादं चतुर्थाक्षरे यतिः - विराम इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- आताम्रत्वमिति वपुषि - शरीरे, आताम्रत्वं- ईषद्रुक्तत्वं, दधानः- धारयन्, घूर्णन्- भ्राम्यन्-, पृथ्वीतलपतनेच्छु:- पृथ्वीतलेपृथ्व्या उपरि, पतनस्य इच्छु:- अभिलषिता, वारुण्यां- मदिरायां पश्चिमाशायां च द्राक् - झटिति, निहितकरः- स्थापितहस्तः, प्रेरितकिरणश्च, अयं भानु:- सूर्यः, मत्तावस्थां - मत्तस्य मद्यादिना विक्षिप्त चेतसो जनस्य, अवस्थांस्थिति, प्रथयति - प्रकटीकरोतीत्यर्थः, सायं सन्ध्यायां सूर्यस्य, मदिरादिपानेन च विक्षिप्तस्य जनस्य सदृशी स्थितिरिह वर्णिता । 'आ [S] ता [S] [s] त्वं [s], व [ 1 ]पु [ 1 ]षि [ 1 ], द [ 1 ]धा [s]नो [s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अत्र विशेषमाहइयं च यद्यपि वानवासिकायामन्तर्भवतीति- तृतीयध्याये " द्वादशश्च वानवासिका”[ ६७ ] इति लक्षिता । द्वादशश्चकारान्नवमश्च यत्र लघुर्भवति सा वानवासिकेति सूत्रार्थः । चतुर्थभिश्चतुर्मात्रगणैविरचितपादस्य मात्रासम छन्दसो यस्य प्रतिपादं द्वादशी नवमी च मात्रा लघुवर्णे पतति तद्वृत्तं वानवासिकेति भावः । मत्ताछन्दस्यपि षोडश मात्रा: प्रतिपादं सन्ति, तत्र नवमी द्वादशी च मात्रा लघुनि वर्णे पतति, तथा च वानवासिकयैव गतार्थमिदं छन्द इति पूर्वपक्षार्थः, उत्तरपक्षमाह - तथापि विशेषसंज्ञार्थमुक्तेति, भयमाशयःइदं छन्दो न केवलं मात्रावृत्तेऽन्तर्भवति, अपि तु अक्षरवृत्तेऽप्यस्त्यस्यावकाशः, तत्र च नामान्तरेणापीदं व्यवहर्तुं शक्यत इति शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थं पृथगप्युक्तेति भावः । न केवलमत्रैवायं व्यवहारोऽन्यत्रापि क्वचिदक्षरवृत्त-मात्रावृत्तयोः समतायामिदं ज्ञेयमित्यतिदिशति - एवमन्यत्रापीति यत्र क्वचनान्यत्रापि च्छन्दसि समानपादता प्रतीयेत तत्र सर्वत्र विशेषसंज्ञार्थमेव पृथगुक्तिर्बोध्येति भाव: ।। अ० २, सू० - १०७ ॥
-
जगाः पक्तिका ||१०८||
रयजगाः । यथा - भ्रूविलासदूरीकृतोल्लसत्- कामकार्मुकां कान्तिशालिनीम् । मज्जुगुञ्जिमञ्जीरराजितां, पश्य कामिनीपङ्क्तिकामिमाम् ।। १०८.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह - र्यज्गाः पङ्क्तिका इति- रगण-यगण - जगणा गुरुश्च 'SIS. Iऽऽ. ISI. ऽ' इत्येवंप्रकारैर्वणैः कृताः पादा यस्य तत् पङ्क्तिका नाम
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१०८ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १०६-११०.] पङ्किजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- भ्रूविलासेति- भ्रूविलासदूरीकृतोल्लसत्कामकार्मुका- भ्रूविलासेन- भृकुटिलीलया, दूरीकृतं- तिरस्कृतम्, उल्लसत्- स्फुरत्, कामकार्मुकं- मदनधनुर्यया ताम्, कान्तिशालिनीद्युतिमतीम्, मञ्जुगुञ्जिमञ्जीरराजितां- मधुररणन्नू पुरशोमिताम्, इमां- प्रकृते दृश्यमानां, कामिनीनां-स्त्रियां, पङ्क्तिकाम्- आवलिं, पश्य- अवलोकयेत्यर्थः । 'भ्रू[s]वि[1]ला[s]स[1][s]री[s] कृ[1]तो[s]ल्ल [1] सत्[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१०८ ।।
मस्जगाः शुद्धविराट् ॥१०६॥ सम्यग्ज्ञानचरित्रपात्रता, यो दधे भुवनकबान्धवः । त्रैलोक्यस्पृहणीयतां गतः, सत्यं शुद्धविराडयं मुनिः ॥ १०६.१ ॥
तृतीयं प्रकारमाह- मस्जगाः शुद्धविराडिति- मगण-सगण-जगणा गुरुश्च 'sss. ||s. Is1. s.' इत्येवंप्रकारैर्वणः कृताः पादा यस्य तत् शुद्धविराट् नाम पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- समग्ज्ञानेति- यः, भुवनैकबान्धव:- भुवनस्य- सकललोकस्य एकबान्धवः- प्रधानबन्धुः, सम्यग्ज्ञानचरित्रपात्रता- सम्यग्ज्ञानं च चरित्रं च ते, तयोः पात्रतां- भाजनत्वं दधेधारयति स्म, त्रैलोक्यस्पृहणीयतां- त्रिजगच्छलाघनीयत्वं, गतः- प्राप्तः, अयं मुनिः- साधुः, सत्यं- निश्चितं, शुद्धविराट- शुद्धः- निष्पापः सन् विराजतेशोभते इति तादृशः इत्यर्थः । सम्यगज्ञानादिभिः सकलप्राणिहितकरणेन च पवित्रो मुनिः सत्यमेव शुद्धः सन् सर्वाधिकं शोभते, तेन च सकलजनश्लाधतीयतां प्राप्नोतीति भावः । 'स[5] म्यग् [s]ज्ञा[5]न[1]च [1]रि[s] [1]पा[s] [1]तां[5]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१०६ ।।
मन्यगाः पणवो ङः ॥११०॥ मनया गुरुश्च । डैरिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- स्याद्वादामृतमुदिते चित्ते, शास्त्रोक्तिः कटुरितरा भाति । एवं संसदि चतुरङ्गायां, जल्पामो जयपणवं वत्वा ॥ ११०.१॥ कुवलयमालेति भरतः । केचित् तु यगणस्थाने सगणं मन्यन्ते ॥ ११०.१॥
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[अ० २, सू० १११.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
चतुर्थ प्रभेदमाह- मन्यगाः पणवो रिति- मन्यगा इत्यस्यार्थमाहमनयागुरुश्चेति । जैरित्यास्यार्थमाह- जैरिति पञ्चभिर्यतिरिति । तथा च सूत्रार्थः- मगण-नगण-यगणा गुरुश्च 'sss, , Iss, s' इत्येवंप्रकारर्वर्णविहिताः पादा यस्य तत् पणवो नाम पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-स्याद्वादेति- स्याद्वादामृतमुदिते- स्याद्वादोऽनेकान्तवादः, स एवामृतंमृत्युहारकतयाऽमृतायमानं, तेन मुदिते- प्रसन्ने, चित्ते- चेतसि, इतराअन्या, शास्त्रोक्ति:- शास्त्रवार्ता, कटुः- अरसनीया, भाति- विज्ञायते, एवम्उक्तप्रकारेण, चतुरङ्गायाः वादि-प्रतिवादि-सभ्य-सभापतिरूपाङ्गचतुष्टययुक्तायां, संसदि- सभायां, जयपणवं- विजयवाद्य घोषं, दत्त्वा- कृत्वा, जल्यामःकथयामः ।
अस्या नामान्तरमाह- कुवलयमालेति भरत इति- भरतनाट्यशास्त्रे पाठभेदेनास्या नामभेदो लक्ष्यते । तथा बडोदामुद्रिते पुस्तके मुख्यपाठस्थाने यल्लक्षणं दत्तं तत्र उत्पलमालिकेति नाम दृश्यते, यथा
"दशाक्षरकृते पादे त्रीण्यादी त्रीणि नधने । यस्या गुरूणि सा ज्ञेया पङ्क्तिरुत्पलमालिका ॥" इति
[ ] एवं कोष्ठकमध्ये यः पाठः प्रदत्तस्तत्र कुवलयमालेति नाम दृश्यते । यथा
"त्रीण्यादौ यदि हि गुरूणि स्युश्चत्वारो यदि लघवो मध्ये । पङ्क्तावन्तगतमकारः स्याद् विज्ञेया कुवलयमालारव्या।" इति लक्षणेऽपि भेदमाह- केचित् तु यगणस्थाने सगणं मन्यन्ते इति- अत्र तृतीयं सगणं न्यस्यन्तीति भावः । तथा चादी त्रयो गुरवः ततः पञ्चलघवस्ततो गुरुद्वयमिति 'ssss' छन्दोरूपं भवति । परिमिदमुपलब्धेषु छन्द:शास्त्रेषु न दृश्यते । 'स्या[s]द्वा[5]दा[5] मृ[]त[1] मु[1]दि[1]ते[5], चि[5]ते[s]' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू०-११० ।।
रज्रगा मयूरसारिणी ॥१११॥ रजरा गुरुश्च । यथा-या घनान्धकारडम्बरेषु, प्रीतमानसा विसर्पतीह । सोमयन्यपि क्षणाद् भुजंगान, संत्यजेन्मयूरसारिणी ताम् ॥ १११.१ ॥
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सुवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ११२.] पञ्चमं प्रभेदमाह- रज्रगा मयूरसारिणीति- रगण-जगण-रगणा गुरुश्च 'SIS, ISI, sis, s' इत्येवंप्रकारवर्णेविहिताः पादा यस्य तत् मयूरसारिणीनामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-या घनान्धकारेतिया घनान्धकारडम्बरेषु- घनानि-निबिडानि, अन्धकारडम्बराणि-तमस्तोमाः, तेषु, पक्षान्तरे- घन:- मेधः, कृतेषु अन्धकारडम्बरेषु, इह प्रीतमानसाप्रसन्नहृदया, भुजङ्गान्- सर्पान्, अथ च विहान्, अपि क्षणात्- अचिरेण, क्षोभयन्ती- चित्तोद्वेगं नयन्ती, विसर्पति- सर्वतः परिभ्रमति, ताम्- पूर्वोक्तगुणयुक्ताम्. मयूरसारिणीं- मयूरीव सरति सच्छीला ताम्, [ मृगक्षीरादेराकृतिगणत्वात् वद्भावः ] संत्यजेत् । अयमाशयः- यथा मयूरी मेधान्धकारबाहुल्यमालोक्य प्रसन्ना सती सानपि भीषयन्ती इतस्ततः परिभ्रमति तथैव या स्त्री निबिडे ऽन्धकारे प्रसन्ना सती, सर्वदा सङ्गसौलभ्यादनुद्विग्नहृदयानां वेश्यास्वामिनामपि चित्तोद्वेगं वर्धयन्ती यत्र तत्राभिसरति तां स्त्रियं परिहरेदिति । 'या[s], घ[1]ना[5]न्ध[1] का[5][1]ड[5]म्ब [1][5][i][पादान्तस्थस्य विकल्पेन गुरुत्वात् ] लक्षणसङ्गतिः । द्वितीयपादान्तेऽपि वैकल्पिकगुरुत्वाश्रयणमावश्कमेव ।। अ० २, सू०-१११ ॥
___ नज्नगास्त्वरितगतिः ॥११२।। नमना गुरुश्च। यथा- दिनकरपीतशुचिरुचि-श्वरमगिरेः शिखरतटीम् । अनुसरति अपित इव, त्वरितगतिः सितकिरणः ॥ ११२.१॥
षष्ठं प्रभेदमाह-नज्नगास्त्वरितगतिरिति । नज्नगा इत्यस्यार्थमाह-नजना गुरुश्चेति- 'नगण-जगण-नगणा गुरुश्च 'III, II, III, ' इत्येवंप्रकारर्वविहिताः पादा यस्य तत् त्वरितगतिनामक पििङ्क्तजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-दिनकरेति- दिनकरपीतशुचिरुचि:- दिनकरेण- सूर्येण, पीता-आत्मसात्कृता, शुचिः- पवित्रा, रुचिः- कान्तिर्यस्य सः, सितकिरण:शुक्लरश्मिः चन्द्रः, अपित इव- लज्जित इव, त्वरितगतिः- शीघ्रगमनः सन्, चरमगिरेः- अस्ताचलस्य, शिखरतटीं- कूटप्रान्तभागम्, अनुसरति- अपर्सपति, अन्योऽपि हीनकान्तिस्त्रपया कापि निलयितुं पलायत इति स्वाभाविके. नार्थेन प्रकृतस्य प्रातःकालिकचन्द्रस्यावस्था समर्थितेति अर्थान्तरन्यासम्वनिः ।
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[अ० २, सू० ११३-११४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते 'दी[1]न[1] क[1]र[1]पी[5]त[1]शु[1]चि[1] [1]चिः[5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-११२ ॥
भ्मस्गा रुक्मवती ॥११३॥ ममसा गुरुश्च । यथा- ये विजितात्मानो नयनिष्ठा, जाग्रति लोके रक्षितुकामाः । स्यानियतं तेषां वसुधेयं, रुक्मवती मृन्मय्यपरेषाम् ॥ ११३.१ ॥ चम्पकमाला सुमावेति चान्ये । पुष्पसमद्धिरिति मरतः ॥ ११३.१॥
सप्तमं प्रकारमाह-मस्गा रुक्मवतीति । मस्गेत्यस्यार्थमाह- भमसा गुरुश्चति- भगण-मगण-सगणा गुरुश्च 'II, sss, us, ' इत्येवंरूपवर्णः कृताः पादा यस्य तत् रुक्मवतीनामकं पििङ्क्तजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-ये विजितात्मानः इति-विजितात्मानः- वशीकृतचित्ताः, नयनिष्ठा:नीतिपरायणाः, लोकं- सकलजनतां, रक्षितुकामा:- पालयितुमभिलपन्तः, ये जना जाग्रति- नित्यमुद्योगलग्नाः तिष्ठन्ति, तेषां कृते, इयं वसुधा- पृथ्वी, रुक्मवती- सुवर्णमयी, नियतं- निश्चितं स्यात्, अपरेषाम्- उक्तविपरीताचरणानां कृते, मृन्मयी- मृत्तिकाबहुलैव स्यात्, इत्यर्थः । स्थिरचित्तो निपुणो लोकोपकारी च लक्ष्मीपात्रं विपरीतो दरिद्र एवेति भावः । 'ये[s]वि[1]जि [1]ता[5]त्मा[5]नो[s]न [1]य[1] नि[s]ष्ठाः[s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्यवच्छन्दसो नामान्तराण्याह- चम्पकमाला सुभावेति चान्य इति- कालिदासः स्वकीये श्रुतबोधे चम्पकमालामाह- यथा
"तन्विगुरुस्यादाद्यचतुर्थ पञ्चमषष्ठं चान्तमुपान्त्यम् । , इन्द्रियबाणयंत्र विरामः सा कथनीया चम्पकमाला ॥" इति
एतत् समानमेव लक्षणम् । काश्चिदन्य एतच्छन्दः सुभावत्याह । पुष्पसमृद्धिरिति भरतः इति- भरतनाट्यशास्त्रे च सम्प्रति न तत्पाठोऽवलोक्यते ॥अ० २, सू०-११३ ॥
भिगो चित्रगतिः ॥११४॥ भत्रयं गुरुश्च । यथा- यस्य न कापि कला न मति-नं व्यवसायलवोऽपि तथा । सोऽपि कथंचन जीवति चेद, देवमिदं खलु चित्रगति ॥ ११४.१ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ११५.] अष्टमं प्रभेदमाह- भिगो चित्रगतिरिति । भीत्यस्यार्थमाह- भत्रयमिति- "समानेनकादिः" [ १-४ ] इति नियमात् तृतीयस्य समानस्य भित्वसंख्या बोधकत्वाद् भीत्यस्य भगणत्रयबोधकत्वम्, तथा च- भगणत्रयं गुरुश्च 'SI, SI, SII,' इत्येवंरूपैर्वविहिताः पादा यस्य तत् चित्रगतिरितिनामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- यस्येति- यस्य- जनस्य, कापि कला- कस्यापि सांव्यहारिकस्य विषयस्य शिल्पादेर्शानं नास्ति, न मतिः- शास्त्राभ्यासजा बुद्धिरपि नास्ति, तथा व्यवसायलव: अपि न-स्वल्पोऽपि व्यापारो नास्ति, सोऽपि कथंचन- केनापि प्रकारेण, जीवति- प्राणान् धारयति, यद्वा जीविकां चालयति चेत्- यदि [ तर्हि ] इदं देवं- भाग्यं, चित्रगति- आश्चर्यवृत्तिकं, खलु- निश्चयेन । शिल्प-विद्या-व्यापाराणां मध्ये किमपि जीविकासाधनभावश्यक, तदभावेऽपि कश्चिद् यदि निर्वहति तदा चित्रमेव तदिति भावः । य[s]स्य[1], न[1], का[s] पि[i], क[1]ला[5], न[1] म[1]ति:[5] इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-११४ ॥
निगौ निलया ॥११५॥ नत्रयं गुरुश्च । यथा- अपि सरिदधिपतिसुता, हरिमपि परिहरति यत् । अधमपुरुषकृतति, धिगहह कमलनिलयाम् ॥ ११५.१ ॥
नवमं प्रकारमाह- निगो निलयेति । नीत्यस्यार्थमाह- नत्रयमितिनगणत्रयं गुरुश्चेति , , , ' एवंप्रकारवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् निलयानामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अपि सरिदिति- यत्- यस्मात्, सरिदधिपतिसुता- समुद्रपुत्री लक्ष्मीः, हरिमपि-विष्णुमपि, परिहरति- त्यजति, 'अपि' इति संभावनायाम्, संभाव्यते कदाचिल्लक्ष्या हरेरपि त्यागः, ततश्च, अधमपुरुषकृतरति- अधमपुरुषेषु- नीचजनेषु, कृता रतियर्या तथाभूतां, कमलनिलयां- कमलवासिनी लक्ष्मीम्, 'धिक्' इति अनादरशब्दः, अस्तु इति शेषः, 'अहह' इति दुःखातिरेके । 'अ[1]पि[1]स[1]रि [0]द[1]धि[1][1]ति[i][i]ता[1]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २ सू०११॥१॥
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[अ० २, सू० ११६-११७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते ११३
जिगावुषिता ॥११६॥ जत्रयं गुरुश्च । यथा- स कि वद नीचसमाश्रयो, न कि कथय स्थितिरुनते। म चापलमुज्झसि लक्ष्मि ! कि, न चेद् उषिता जलधामनि ॥ ११६.१ ।।
दशमं प्रकारमाह- जिगावुषितेति । जिगावित्यस्यार्थमाह- जत्रयं गुरुश्चेति जगणत्रयं गुरुश्च 151, ISI, ISI, s.' इत्येवंप्रकारर्वर्णेविहिताः पादा यस्य तत् उषितानामकं पङितजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-स किं वदेति, हे लक्ष्मि !, स- प्रसिद्धः, नीचसमाश्रयः- नीचजनसङ्गतिः, नीचस्थानस्थितिश्च, किं ? कुतः कारणात्, इति वद- कथय, उन्नते- उच्चैःप्रकृतिके जने, उच्चस्थाने च, स्थितिः किं न- कस्मान्नेति कथय, चापलं- नीचाश्रयणादिरूपं चाश्चल्यं, कि न, उज्झसि- त्यजसि, चेत्- यदि, जलधामनि- समुदे, जडस्य गृहे वा. [ डलयोरेक्यात् ], न उषिता- न कृतनिवासा स्याः । यदिदं ते सर्व चाञ्चल्यं नीचर्गामिनीत्वादि च तत् सर्वं जलधाम्नि निवासादेव जाडयस्यासङ्कादिति भावः । 'स[i], किं[s], व[1]द[1], नी[5]च[1]स [1]मा[5] श्र[1]यः[5]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-११६ ।।
रः सौ गो मणिरङ्गः ॥११७|| यथा- धीमतां हि गुणो विशदश्री-र्जायते गुणिसंगमवाप्य । शोभते नितरां न किमङ्गे, कुङ्कुमारुणिते मणिरङ्गः ॥ ११७.१ ॥
एकादशं प्रकारमाह- रः सौ गो मणिरङ्गः इति- रगणः सगणद्वयं गुरुश्च, '15, 15, 15, 5' इत्येवंप्रकारैर्वर्णेविहिताः पादा यस्य तत् मणिरङ्गनामक पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- धीमतां हीति- गुणिसङ्गगुणिभिः सह सङ्गतिम्, अवाप्य- अधिगत्य, धीमतां- बुद्धिमतां जनानां, गुणः, विशदश्री:- समुजवलशोभः, जायते। अर्थान्तरन्यासेनैतत् समर्थयति- कुकुमारुणिते-ककुमेनेषद्रक्ततां नीते, अङ्गे- शरीरे, मणिरङ्ग:- माल्यादिस्थितस्य मणे रागः, नितराम्- अत्यथं, न शोभते किम् ?- अपि तु शोभत एव । गुणिनोः परस्परसङ्गत्योभयोगुणस्य पृद्धिरेवेति तात्पर्यम् । 'धी[s]म[1]तां[s], हि[1], गु[1]णो[s], वि[1] श[1]द[s]श्रीः[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-११७ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० ११८-११६.]
भनौ म्गो बन्धूकम् ॥११८॥ मनमा गुरुश्च । यथा- एतदभिनवभास्वद्विम्बं, शोणरुचिरुचिरं प्राग्वघ्वाः । शेखरितनवबन्धूकश्री-बन्धुपदमधुना संधत्ते ॥ ११८.१ ॥
द्वादशं प्रकारमाह- नौ म्गो बन्धूकमिति । स्पष्टयति- भमना गुरुश्चे. ति- भगण-नगण-मगणा गुरुश्च, 'sis, Im, sss, s' इत्येवंप्रकारवर्णविहिताः पादा यस्य तत् बन्धूकमिति पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथाएतदभिनवेति- प्राग्वध्वाः- पूर्वदिशो वधूस्वरूपायाः, एतत्- परिदृश्यमानं, शोणरुचिरुचिरं- रक्तवर्णतया सुन्दरम्, अभिनवभास्वद्विम्बं- अभिनवः- अचिरोदितः, भास्वान्- सूर्यः, तस्य बिम्बं- मणुलं, स एव बिम्बं मुखमिति वा, अधुना- सम्प्रति, शेखरितनबबन्धूकश्रीवन्धुपदं- शेखरितं- मौलो धृतं, यद् नवं- प्रत्यग्रविकसितं, बन्धूकं- रक्तवर्ण पुष्पम्, तस्य या श्री:- शोभा तस्या बन्धुपदं- सकुल्यत्वं, संधत्ते- धारयति । 'ए[5]त[1]द[1]भि[1] न[1][]]भा[5] स्व[s] द्वि[s]म्बं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-११८ ।।
नज्गा मनोरमा ॥११॥ मरजा गुरुश्च । यथा- निखिलदीनदुःखदारिणी, सकलबन्धुसंविभागकृत् । गुणिजनामृतार्णवोपमा, भवति सा रमा मनोरमा ॥ ११६.१ ॥
त्रयोदशं प्रकारमाह- प्रज्गा मनोरमेति । व्याख्याति- नरजा गुरुश्चेति- नगण-रगण-जगणा गुरुश्च, 'n, is, I51, 5' इत्येवंप्रकारवर्गविहिताः पादा यस्य तत् मनोरमानामकं पङितजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथानिखिलेति-निखिलदीनदुःखदारिणी- निखिलानां- सर्वेषां, दीनानां, दुःखस्य दारिणी- नाशिका, सकलबन्धुसंविभागकृत्-सकलानां बन्धूनां कृते संविभागंसमानभोजनादिव्यवस्थां करोतीति सा गुणिजनामृतार्णवोपमा- गुणिजनानां कृते अमृतार्णवोपमा- अमृतसमुद्रसदृशी, [या] रमा- लक्ष्मीः , सा मनोरमामनसो मोदजननी, भवति- जायत इत्यर्थः । दीनहिता सर्वभोग्या गुणिजनसंतोषिणी च लक्षमीरानन्दाय, तद्विपरीता दुःखायेति भावः । '
निखि[i]ल[i]दी[s]न [1]दुः[5]ख[1]दा[5]रि[0]णी[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥म.
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[अ० २, सू० १२०-१२१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
तो जौ ग उपस्थिता ॥१२०॥ यथा-एषा भवतः समराङ्गणे, राजन जयसिद्धिरुपस्थिता। कीतिः कुपितेव भवत्प्रिया, सद्योऽभिससार दिगन्तरम् ॥ १२०.१ ॥ अत्र द्वाभ्यां यतिरित्येके ॥ १२०.१ ॥ ___ चतुर्दशं प्रकारमाह-- तो- जौ ग उपस्थितेति- तगणो जगणद्वयं गुरुश्च 'ssi. Is. In ' इत्येवंप्रकारैर्वः कृताः पादा यस्य तत् उपास्थितानामकं पङ्किजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- एषा भवत इति- हे राजन् ! समराङ्गणे- संग्रामभूमौ, भवतः- तव, जयसिद्धिः- विजयलक्ष्मीः , उपस्थिता-प्राप्ता, [ इति हेतोः ] भवत्प्रिया- तवाधिकवत्सला कीर्तिः कुपिता इव- सपत्नीसमागम दृष्टया क्रुद्धा इव, सद्य:- तत्कालमेव, दिगन्तरं- सर्वा दिश: प्रति, अभिससार- पलायिता, स्वप्रियमन्यसङ्गतं दृष्ट्वा कोपः, कोपाचान्यत्र गमनं स्त्रीणां स्वभावः । स्वाभाविकेनानेनार्थेन संग्रामे विजयेन तव कीर्तिदिगन्तरव्यापिनी जातेति व्यङ्गयम् । 'ए[s]षा[s], भ[1][1]तः[s], स[]म[1] रा [s]ङ्गाणे[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अत्र मतान्तरमाह- अत्र द्वाभ्यां यतिरित्येके इति- अत्र प्रतिपादं द्वितीयाक्षरे यतिरित्येके आचार्या आहुः, तथा च द्वितीयाक्षरे- पादान्ते च यतिरिति भावः, तथा च 'एषा, राजन् !, कीर्तिः, सद्यो,' इत्येतेषु स्थानेषु विश्रामः कार्यः । एतच्च पिङ्गलछन्दःशास्त्रे "उपास्थिता त्जी ज्यो" [ ६।१४ ] इति सूत्रव्याख्यायां हलायुधेनाप्युक्तम्- "अत्र द्वाभ्यामष्टाभिश्च यतिरित्याम्नायः" इति । तथा च सम्प्रदायप्राप्तोऽयमर्थो न क्वापि निबद्ध इत्यायातम् ।। अ० २, सू०-१२० ॥
मस्गाः कलिका ॥१२१|| रमसा गुरुश्च । यथा- कुन्दष्टि हृष्ट: परिचुम्बन, कि न रे रोलम्ब त्रपसे स्वम् । तत्तथा येन प्रागनुरागात्. कोडितं मालत्याः कालिकायान् ॥१२१.१॥
पञ्चदशं प्रकारमाह- रमस्गाः कलिकेति । रमस्गा इत्यस्यार्थमाहरमसा गुरुश्चेति- रगण-मगण-सगणा गुरुश्च 'Sis. sss.15 5' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् कलिकानामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- कुन्दयष्टिमिति- हे रोलम्ब !-- भ्रमर !, त्वं- भवान्, कुन्दयष्टिं
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रयोते [अ०२, सू० १२२-१२३.]
कुन्दलतां, परिचुम्बन्- परितः कलिकामु विकसितेषु पुष्पेषु पत्रादिषु च मुखं योजयन्, हृष्टः सन् कि न त्रपसे - लज्जसे, येन त्वया, प्राक् - कुन्दस्य विकासात् पूर्वं, मालत्याः कलिकायाम्, अनुरागात्- स्नेहं प्रदर्श्य, तत् तथा तथा तथा, अनेकप्रकारैरित्यर्थः, क्रीडितं विलसितम् पूर्वमन्यत्र स्वस्नेहं प्रदश्यं पश्चादत्र znacna zur gàfa wa: 1 g[s]a[1][s]fg[s], {[5]x:[5], q[1]fz[1] [s]म्बन्] [5] इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० -१२१ ।।
भत्नगा मृगचपला ॥१२२॥
भतना गुरुश्च । यथा- साधु समाधावविचलता - माश्रय हे मानस ! सततम् । वाञ्छसि यद्यव्ययपदवीं मा कुरु वृत्ति मृगचपलाम् ॥। १२२.१ ॥
षोडशं प्रभेदमाह - भत्नगा मृगचपलेति । भत्नगा इत्यस्यार्थमाहभतना गुरुश्चेति- भगण-तगण - नगणा गुरुश्व 'S I. SSI. 111. 5. ' इत्येवंप्रकारं - वर्णेः कृताः पादा यस्य तत् मृगचपलानामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- साध्विति, हे मानस ! - चेतः ।, यदि चेत्, अव्ययपदवींअविनाशिस्थानं कैवल्यं, वाच्छसि - समीहसे, तहि समाधी- ध्याने, साधुसम्यक्, अविचलतां - स्थिरतां सततं सर्वदा, आश्रय- धारय, मृगचलांमृगवत् चञ्चलां वृत्ति- कृति, मा कुरु- न विधेहीत्यर्थः, समाधी स्थिरतां विना नित्यपदस्य कैवल्यस्य प्राप्तिरससम्भविनीति भावः । 'सा [s] धु[1], स[0] मा[S][S]व[1]वि[1]च [1]ल [1] ताम् [S]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१२२ ।।
मो नौ गः कुमुदिनी ॥ १२३॥
यया - आसाद्य प्रियमिह शशिनं, निर्गच्छन्द्रमरकुलमिषात् । मूतं दुःखमिव विरहजं, तत्कालं वमति कुमुदिनी ॥ १२३.१ ॥ कुसुमसमुदितेत्यन्ये
।। १२३.१ ।।
सप्तदशं प्रकारमाह- मो नौ गः कुमुदिनीति- मगणो नगणद्वयं गुरुव ' sss. 111. 111. 5' इति, एवंप्रकारंवंगः कृताः पादा यस्य तत् कुमुदिनीनामकं पङ्क्तिः जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- मथा - आसाद्येति, कुमुदिनी - कुमुद्वती, इह प्रियं शशिनं - चन्द्रम्, आसाव- प्राप्य, निर्गच्छद्रमरकुलमिषात्
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[अ० २, सू० १२४-१२५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते ११७ अन्तस्तलाबहिर्भवद्रोलम्बमालाव्याजात्, मूर्त- सशरीरं, विरहज- वियोगकालोत्पन्न, दुःखं, तत्कालं- प्रियप्राप्तिसमसमयमेव, वमतीव- उद्धिरतीवेत्युप्रेक्षा । चन्द्रोदये सति कुमुदिनी विकसतीति तदन्तरवरुद्धा भ्रमराः कृष्णवर्णा निःसरन्तीति सा वियोगजं दुःखमिव वमतीति प्रतीयते, दुःखस्यापि कृष्णवर्णनायाः कविसमयसिद्धत्वात् । 'आ[s]सा[5]ध[s], प्रि[1]य[1]मि[1] हश[1]शि [s][s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्या नामान्तरमपीत्याहकुसुमसमुक्तेित्यन्ये इति- अन्ये आचार्या इदं छन्दः कुसुमसमुदितेति व्यवहरन्तीति भावः ।। अ० २, सू०-१२३ ॥
'मः सौ ग उद्धतम् ॥१२४।। यथा- सर्पद्धिस्तव दिग्जययात्रा- स्वेभिर्देव तुरंगमसैन्यः । प्राज्यरुद्धतमध्वरजस्तां, वृद्धि प्राप न वृन्दमरीणाम् ॥ १२४.१ ॥
अष्टादशं प्रकारमाह- मः सौ ग उद्धतमिति- मगणः सगणद्वयं गुरुश्चेति, 'sss. Is. 5. .' इत्येवं प्रकारैर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् उद्धतं नाम च्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सर्पद्भिरिति, हे देव !, तव- भवतः, दिग्जययात्रासु- दिग्विजयप्रयाणेषु, सर्पद्भिः- गच्छद्भिः, एमिः प्राज्य:प्रभूतः, तुरङ्गमसैन्यः- अश्वसेनाभिः, उद्धतम्- उपरि क्षिप्तम्, अध्वरजःमार्गधूलिः, तां वृद्धि प्राप, अरीणां- शत्रूणां, वृन्दं- समूहः,[तैरुद्धतं]तां बृद्धि न प्रापेत्यन्वयः । अध्वरजः इव शत्रुवृन्दमपि उद्धतं किन्तु पूर्वं रजोयथा वृद्धि प्राप्तं तथा परं [अरिवृन्दं] न प्राप्तमित्याश्चर्यम्, समानक्रियया फले भेदस्यायुक्तत्वात् । 'स[5]4 [s]द्भि[s]स्त[1]व[1], दिग्[5]ज [1]य[1]या[s]त्रा[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१२४ ।।
नज्यगा विपुलभुजा ॥१२५।। नजया गुरुश्च । यथा- रिपुवनिताजननिःश्वास-रविरतमुष्णतरैः क्लान्ता । मजति चुलुक्य ! जयश्रीस्ते, विपुलभुजाविटपिच्छायाम् ॥ १२५.१ ॥
ऊनविशं प्रभेदमाह- नज्यगा विपुलभुजेति । नज्यगा इत्यस्यार्थमाहनजया गुरुश्चेति- नगण-जगण-यगणा गुरुश्चेति, III. IsI. Iss. ' एवं.
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समृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० १२६. ]
प्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् विपुलभुजानामकं पङ्किजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति यथा रिपुवनिता इति रिपुवनिताजन निःश्वसितैः- शत्रुकान्तानां निःश्वासवायुभिः, उष्णतर:- अत्युष्णैः, अविरतं क्लान्ता - म्लायमाना, जयश्री :- विजयलक्ष्मी:, हे चुलुकय ! ते - तव, विपुलभुजाविटपिच्छायां- विपुले भुजे - बाहू एवं विटपिनो, तयोः, छायाम् - अनातपप्रदेशं, भजतिश्रयते, उष्णक्लान्तो जनश्छायामाश्रयत इति स्वभावस्तेन रिपुघातदुःखितानां वनितानामुष्णं निःश्वासः क्लान्ताया जयश्रियो विजयिलुक्यनृपतिभुजच्छायाश्रयणं युक्तमेवेति भाव: । 'रि [1] [0] व [ 1 ]नि[]ता[5]ज [1]न [1]निः[s]वा [s] [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १२५ ।।
राजस्गा माला ॥ १२६॥
सजसा गुरुश्च । यथा- गगनाङ्गणे कुमुदषण्ड श्रियमुद्वहन्ति निपतन्त्यः । भवदीक्षणोत्सवसतृष्णाः, नृप ! सुभ्रुवां नयनमालाः ॥ १२६.१ ॥ प्रमितेश्यन्ये ।। १२६.१ ॥ १०।२० ॥
विशं प्रभेदमाह - स्जस्गा मालेति । अर्थमाह- सजसा गुरुश्चेतिसगण-जगण-सगणा गुरुश्च '115. 151. 115. 5. ' इत्येवंप्रकारवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् मालानामकं पङ्क्तिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- गगनाङ्गणे इति, हे नृप ! भवदीक्षणोत्सवसतृष्णाः - भवत ईक्षणमेवोत्सवस्तस्मिन् सतृष्णा: - साभिलाषाः, सुभ्रुवां- शोमनभ्रुकुटिशालिनीनां, नयनमाला:नेत्रपङ्कयः, गगनाङ्गणे - आकाशतले, निपतन्त्यः, कुमुदषण्डश्रियं - नीलकुमुदिनीपुष्पवनशोभाम्, उद्वहन्ति - धारयन्तीत्यर्थः । भवन्तमीक्षितुं शतशः पततन्योऽङ्गनानां दृष्टयः स्वप्रभया आकाशे कुमुदिनीपुष्पवनशोभां धारयन्तीति भावः । 'ग[1]ग[1]ना[5]ङ्ग [1]णे[5], कु[1] मु[1][1] [5]ण्ड[5]' इति [ पादान्तस्थस्य वा गुरुत्वानुशासनात् ] लक्षणसमन्वयः । अस्या नामान्तरमाह - प्रनितेत्यन्ये इति - अन्ये केविदाचार्या इदं छन्द प्रमितानाम्ना व्यवहरन्तीत्यर्थः ॥ अ० २, सू० -१२६ ॥
एवं दशाक्षरच्छन्दसो विंशतिर्भेदा उक्ताः | १०|२०|| प्रस्तारक्रमणे तु अस्य
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[अ० २, सू० १२७ - १२८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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१०२४ भेदा भवन्ति, तदुक्तं भरतेन "पङ्क्तयां सहस्त्रं वृत्तानां चतुर्विंशतिरेव तु" [ भ० ना० १५।५७ ] इति ।।
त्रिष्टुभि भौ रो गौ रोचकम् ॥१२७॥
यथा- कुम्मभुवो जयतीह माहात्म्यं तद् वडवामुखतेजसश्वापि । यस्य जगत्प्रलय प्रगल्भोमि-रश्वति रोचकगोचरं सिन्धुः ।। १२७.१ ।।
अतः परमेकादशाक्षरपत्निदायात्रिष्टुप्छन्दसो भेदानाह - त्रिष्टुभि भौ रो गौ रोचकमिति - भगणद्वयं रगणो- गुरुद्वयं च, 'SI SII SIS. SS. ' इत्येवंप्रकारैर्वणैः : कृताः पादा यस्य तत् रोचकं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - कुम्भभुव इति इह - संसारे, कुम्भभुव:- घटयोनेरगस्यत्स्य मुनेः, वडवामुखतेजसः - वडवाया मुखमिव मुखं यस्य तस्य तेजस:अग्नेः [ वडवानलस्य ] च, माहात्म्यं यस्य मुनेस्तेजसश्च जगत्प्रलयप्रगल्मोमिः - संसारनाशसमर्थं तरङ्गः, सिन्धुः- समुद्रः, रोचकगोचरं - रुचि बुभुक्षापिपासादि विषयत्वम्, अञ्चति - गच्छतीत्यर्थः । जगति सर्वतोऽधिक मगत्स्य मुनेवर्डवानलस्य च महत्वं यत् ताम्यां पीतः समुद्रः, जगत्प्रलयसमर्थोऽपि न तत् कर्तुं प्रभवतीति भाव: । 'कु [s]म्भ [ ] मु[1] वो[s], ज[1]य [1]ती[s]ह[ ], मा [S] हा [S] रम्यं [s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - १२७ ।।
रः सौ ल्गावच्युतम् ॥१२८॥
यथा - त्वं दधासि विभो ! परमेष्ठिता- मोश्वरत्वमपि त्वयि राजति । अच्युतत्वमपि त्वमुपचितः कोऽपरस्त्वदृते जिन ! देवता ॥ १२८.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह - रः सौ लगावच्युतमिति- रगणः सगणद्वयं लघुगुरुचेति, 'SIS. 115. 115. IS' एवं प्रकारैर्वर्णे विहिताः पादा यस्य तत् अच्युतं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- त्वं दधासोति, हे जिन ! - विभो ! त्वं परमेष्ठिनां परमे - सर्वोच्चे पदे तिष्ठति तच्छील: परमेष्ठी, तस्य भावस्ताम्, अथ च पितामहतां ब्रह्मत्वं दधासि - धारयसि त्वयि ईश्वरत्वम् अपि- सर्जेश्वर्यशालित्वम्, अथ च शिवत्वं राजति- शोभते, त्वम्, बच्युतत्वं - च्युतिरहितत्वम्, अथ च विष्णुत्वम् उपाश्रितः- प्राप्तः, त्वदृते
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सृवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते [अ०२, सू० १२६ - १३० . ]
त्वां विहाय, अपर:- अन्यः कः देवता ? सर्वदेवभयो भवानेवेति भावः । 'त्वं [s]द [ 1 ]धा [s] सि[ । ]वि [1] भो[S] [1]र[1] मे [S]ष्ठि [1] ताम्' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १२८ ।।
तिर्गौ लयग्राहि ॥। १२६ ।।
तगणत्रयं गुरुद्वयं च । यथा- वीणानिनादानुबन्धेन हृद्यं, काश्वीरणत्कारचित्रीयमाणम् | नव्याङ्गहारप्रकाराभिरामं दत्ते प्रमोदं लवग्राहि लास्यम् ॥
१२६.१॥
तृतीयं प्रकारमाह- तिर्गौलयग्राहि इति - "समानेने कादिः” [१-४] इति नियमादाह - तगणत्रयं गुरुद्वयं चेति- तगणत्रयं गुरुद्वयम्, 'SSI, SSI, SS!, ss' इत्येवंप्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् लयग्राहिनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छद इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - वीणानिनादेति, विणानिनादानुबन्धेन - वीणारणनानुगतत्वेन, हृदयं - हृदयस्य प्रियं, काञ्चीरणत्कार चित्रीयमाणं- काञ्च्या:- मेखलायाः, रणत्कारेण - ध्वनिना, चित्रीयमाणम् - अद्भुततां प्राप्तम्, नव्याङ्गहारप्रकाशभिरामं नव्येन - नूतनेन, अङ्गहारप्रकारेण - गात्रभङ्गी विशेषेण, अभिरामं सुन्दरं, लयग्राहि- गानस्वरानुगतं, लास्यं स्त्रीकर्तृकं नृत्यं प्रमोदं दत्ते - आनन्दमादघति । 'वी [s]णा[S]नि [1]ना [s] दा[s]नु [1] ब[s]न्धे [s]न [1] हृ [s]द्यं [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १२८ ॥ भिर्गो दोधकम् ॥ १३०॥
त्रयं गुरुद्वयं च । यथा- पुष्करमम्बुद गजतधीरैः, श्रव्यमदो धकधकृतिनादेः । व्यञ्जितपाठकृतिध्वनिपाद-, न्यासमसाविह नृत्यति सुभ्रूः ।। १३०.१ ॥ उपचित्रेयम् ।। १३०.१ ॥
चतुर्थं प्रकारमाह- भिर्गोदोधकमिति । भिरित्यस्यार्थः- भगणत्रयं गावित्यस्यार्थ :- गुरुदयं चेति, तथा च 'SII. 51. 51. 55' इत्येवं - प्रकारैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् दोधकं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति यथा- पुष्करमिति, अदः पुष्करं - मृदङ्गम्, अम्बुदगजितधीर:मेघगर्जनवद्गम्भीरैः, धकधोंकृतिनादः - धकं नाम वादित्रं तस्य ये धोंकृतिनादास्तरिति पर्याये, केचित् त्वेवमाहुः - 'धकधों' इत्येवमव्यक्तस्य शब्दस्या
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[अ० २, सू० १३१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१२१ नुकरणं- धकधोंकृतिरिति, तस्या नादैः शब्दः, श्रव्यं- श्रवणयोग्यं श्रुतिसुखमिति यावत्, व्यवञ्जित पाठकृति- पाठस्य कृती उपाध्यायः, व्यञ्चितः, पाठकृतिन उपाध्यायस्य ध्वनिः पद्न्यासेन यत्र नत्ये, एतत् क्रियाविशेषणमितिपर्याये, केचित् तु एवमाहुः- व्यञ्जिता- व्यक्तीकृता, पाठकृतिः- गीतादिनाटो यस्मिस्तत्, ध्वनिपादन्यासं- ध्वनी गीतलये, पादन्यासः- पादप्रक्षेपो यस्मिस्तद् यथा स्यात् तथा, असौ- पूर्ववणिता, सुभ्रूः- सुन्दरभृकुटिमती नारी, नृत्यति- नर्तनं करोति। 'पु[s]ष्क[1] र[1]म[s]म्बु[1]द[1]ग[s]जि[1]त[1]धी[5]रैः[5]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्य मात्राछन्दस्यप्यन्तर्भाव इत्याहउपचित्रेयमिति-तृतीयेऽध्याये "ग्युपचित्रा" [६६॥ ] अजमुखश्चीगन्तो नवमे गुरावुपचित्रेति वणितमात्रासमकच्छन्दसि चतुभिश्चतुष्कलः कृतपादा उपचित्रा भवतीति वक्ष्यते, नवमश्च गुरुरिहाप्यस्त्येवेति तत्राप्यस्य च्छन्दसोऽन्तर्भाव: सुशकः, किन्तु संज्ञाविशेषप्रदर्शनार्थं वर्णच्छन्दःप्रकरणेऽप्यस्यान्तर्भावः वृत इति प्राग्वदवसेयम् ॥ अ० २, सू०-१३० ॥
सिल्गा विदुषी ॥१३१॥ सत्रयं लघुगुरू च । यथा- कुरुते तरसा न हि चापलं, स्वयमेव न चार्थयते परम् । प्रकटं कुरुते न वियाततां, प्रमदा विदुषी भवतीदृशी ॥ १३१.१ ॥
पञ्चमं प्रकारमाह- सिल्गा विदुषीति । अर्थमाह- सगणत्रयं लघुगुरू क्षेति, तथा च ||s. ॥5. IIS. ।' इत्येवंरूपवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् विदुषीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कुरुते तरसेति, तरसा- सहसा, चापलं- वागादिकृतं चाञ्चल्यं, न कुरुते, परं- प्रियमपि, स्वयमेव- आत्मनव, न अर्थयते- न याचते, प्रकटं- प्रकाशरूपेण, वियाततांधाष्टयं प्रागल्भ्यं वा न कुरुते, ईदृशी प्रमदा- स्त्री, विदुषी भवति- संज्ञाना कथ्यते । अयं हि शालीनाङ्गनानां स्वभाव:- यत् हृदये चाञ्चल्यं, सङ्गमस्पृहां, तदनुकूलं प्रागल्भ्यं च धारत्यन्योऽपि पुरुषप्रर्वत्तनां विना स्वत एव पूर्व न प्रकटयन्तीति, तत् सर्व या जानाति सैव विदुषी, विपरिता च पामरीति गण्यते । 'कु[1][1]ते[s]त[1][1]सा[5]न[1] हि[1]चा[s]प[1]लं [1]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१३१ ।।
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१२२ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रषोते [अ० २, सू० १३२-१३३.]
भत्ना गौ श्री ॥१३२॥ हुरिति पश्चमियंतिः, भतना गुरुद्वयं च, यथा- या सुजनानामुपकरणाय, प्रद्विषतां च प्रतिकरणाय । मानधनानां भवति नराणां, श्रीरितरा स्यात् परिकरमात्रम् ।। १३२.१ ।। सान्द्रपदमित्यन्ये । रुचिरेति भरतः। यतिनियमाभावे इदमेव प्रत्यवबोधः ।। १३२.१ ।।
षष्ठं प्रभेदमाह- भरना गौ श्री रिति । विवृणोति- डैरिति पञ्चभियतिः , भतना गुरुद्वयं चेति- भगण-तगण-नगणा गुरुद्वयं च, I. . . s' इत्येवंरूपवर्णे कृताः पादा यस्य तत् श्रीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्दः । अत्र च पश्चमिर्वर्णविराम इति । उदाहरति- यथा-या सुजनानामिति, याश्रीः, सुजनानां- सौजन्यशालिनां जनानां, उपकरणाय- सहायताये, प्रद्विषतांशत्रूणां च, प्रतिकरणाय- प्रत्यपकारं कर्तुं [ प्रभवति ], मानधनानां- मा. निनां नराणां, [सा ] श्री:- लक्ष्मी: स्यात्, इतरा- एतद्विपरीता, परिकरमात्रं- सामग्रीमात्रमित्यर्थः । अत्र 'या[5] सु[1] ज[i]ना[s]ना[5][i][i]क[i][]णा[s]य[1]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्य नामान्तरमाह- सान्द्रपदमित्यन्ये इति-केचिद्-अन्ये इदं छन्दः सान्द्रपदमित्याहुरित्यर्थः । छन्दःकौस्तुभे सान्द्रपदे कश्चिद्भदो दृश्यते, यथा- सान्द्रपदं भूतो नगलघुभिश्चेति । रुचिरेति भरतः इति- भरत आचार्य इदं छन्दो रुचिरेत्याह । अस्यैव प्रकारान्तरेण- नामान्तरमाह-यतिनियमाभावे इदमेव प्रत्यवबोधः इतियतिरिति यति नियमस्यानाश्रयणे इदमेव च्छन्दः 'प्रत्यवबोध'संज्ञयोच्यत इत्यर्थः ।। अ० २, सू०-१३२. ।।।
तो जो गावुपरिथता ॥१३३।। यया-या मानमहाविषणिताङ्गो, नाभूत कलयापि वशंवदा ते । लोलम्मलयानिलदोलितात्मा, प्रीत्या सविलासमुपस्थिता सा ॥ १३३.१॥
सप्तमं प्रभेदमाह- तो जो गावुपस्थितेति- तगणो जगणद्वयं गुरू च, 's. II. I. ' इत्येवंप्रकारर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् उपस्थितानामकं त्रिष्टुब्जाविच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-या मानमहा वषेति,
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[अ० २, सू० १३४-१३५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १२३ मानमहाविषपूणिताङ्गी- मान एव महाविषं तेन चूर्णिताङ्ग- भ्रान्तशरीरा, या-सी, कलया अपि- मात्रयाऽपि ते- तव, वशंवदा- अनुकूला, न अभूत, लोलन्मलयानिलदोलितात्मा- चञ्चलदक्षिणपवनकम्पिताऽन्तः- करणा, सा प्रीत्या- सस्नेह, सविलासं- सविभ्रमं च, उपस्थिता- समीपं प्राप्तेत्यर्थः, दक्षिणानिलो मानापगमकारणमिति भावः । 'या[s], मा[s]न[1]म[1] हा[s]. वि[1]ष[1]घू[s]णि[1]ता[s]ङ्गी[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥अ० २, सू०-१३३. ॥
जस्ता गावुपस्थितम् ॥१३४॥ जसता गुरुद्वयं च । यथा- शिलीमुखतति सत्पक्षनादा, मुहुनिदधतं बाणा. सना) । पुरः शरतुं संप्रेक्ष्य राजन !, उपस्थितमरिस्त्वामेव मेने ॥ १३४.१ ।।
अष्टमं प्रभेदमाह- जस्ता गावुपस्थितमिति । अर्थमाह- जसता गुरुद्वयं ति- जगण-सगण-तगणा गुरू च, '11. s. ssi. ss' इत्येवंत्रकारर्वणैः कृताः पादा यस्य तद् उपस्थितं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाशिलीमुखेति, हे राजन् !, वाणासनाङ्गे- बाणश्च आसनश्चेति- बाणासनो, बाणवृक्षबीजकवृक्षो. तयोरङ्गे- उत्सङ्गे, सत्पक्षनादां- सन्- विद्यमानः, पक्षयो दो यस्यां तां, शिलीमुखतति- भ्रमरपङ्क्तिः , मुहुः- वारं वारं, निदधतं-धारयन्तं, शरदतुं, पुरः- अग्रे, उपस्थितं- समागतं, प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा , अरि:- तव शत्रुः, [तादृशं] त्वामेव पुर, उपस्थितं मेने । त्वमपि हि सत्पक्षनादां- सन् पक्षस्य पक्षयोर्वा पुंखलग्नयोः, नादो यस्यां तां, शिलीमुखतति
गणपति, दाणासनाङ्गे- धनुषि, दघसि, शरदतुश्च तवाभियानसमयस्तेन दृष्टपूर्व इति शरदतुमुपस्थितं विलोक्य स त्वामेवोपपस्थितं मेने इति भावः । 'शि[ ]ली[5]मु[s]ख[s]त[1]ति[s],सत्[s]प[5]क्ष[1]ना[s]दां[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१३४॥
मात् तो गौ शालिनी चैः ॥१३५॥ नवमस्तद्वयं गुरुद्वयं च । रिति चतुभिर्यतिः। यथा- ऊर्मीमङ्गीनिर्मिमाणा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १३६.] धुनीना, व्यातन्वाना वीरुधा लास्यलीलाम् । उज्जम्भन्ते शालिनीवारपाक-, स्फारामोदाः शारदा वायवोऽमी ॥ १३५.१ ॥
नवमं प्रकारमाह- मात् तो गौ शालिनी घेः इति । अर्थमाह- मस्तद्वयं गुरुद्वयं च, धरिति चतुभिर्यतिरिति- मगणः, नगणद्वयं, गुरुद्वयं च, 'sss. ss1. si. ss.' इत्येवंप्रकारैर्वर्णेविहिताः पादा यस्य तत्, यत्र च चतुभिर्यतिस्तत् शालिनीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा-ऊर्मीभङ्गोरिति, धुनीनां- नदीनाम्, ऊर्मीभङ्गी:- तरङ्गखण्डान्, निर्मिभाणाःकुर्वन्तः, वीरुधां- वल्लीनां, लास्यलीलां-नृत्यक्रीडां, व्यातन्वाना:- वर्धयन्तः, शालिनीवारपाकस्फारामोदा:- शालयः- कृष्टपच्या व्रीहयः, नीवारा:अकृष्टपच्याः, तेषां पाक:- पक्वैः शस्यः, स्कारामोदा:- प्रकट सुरभयः, शारदाः-शरहतुसम्बन्धिनः, अमी वायव:- वाताः, उज्जम्भन्ते- बहलीभवन्ति। त्रिभिविशेषणैर्वायूनां शीतलमन्दसुगन्धित्वं ध्वनितम् । 'ऊ[s] [5] भ[s] ङ्गी[5]नि[s]मि[1]मा[5]णा[s], धु[i]नी[s]नां[5]' इति लक्षणसमन्वयः । चतुभिश्च यतिरपि स्पष्टा ।। अ० २, सू०-१३५ ॥
ममता गौ वातोर्मी ।।१३६॥ घेरिति वर्तते । यथा- त्वच्छत्रूणां विपिनं प्रस्थितानां, क्षिप्तः पांशुईशि वातोमिकाभिः ॥ तापः सूर्येण च मूनि प्रकीर्णः, को वा नास्कन्दति संप्राप्तभङ्गान् ।। १३६.१ ॥
दशमं प्रभेदमाह- ममता गौ वातोर्मोति । यतिनियमोऽपीति सूचयतिघेरिति वर्तते इति । तथा च मगण-भगण-तगणा गुरुद्वयं च 'sss. I. I. s' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् वातोर्मीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- त्वच्छत्रूणामिति, विपिनं- वनं, प्रस्थितानांचलितानां, त्वच्छत्रूणां- भवदरीणां, दृशि- नेत्रे, वातोमिकाभिः- वायुप्रवाहैः, पांशुः- धूलि:, क्षिप्त:- पातितः, सूर्येण च मूधिन- मस्तकोपरि, ताप:- दाहः, प्रकीर्णः- प्रक्षिप्तः [अर्थान्तरं न्यस्यति] को वा सम्प्राप्तभङ्गान्- परिभूय पलायितान्, न आस्कन्दति- नाकामति, अपि तु सर्व एव तादृशान् आस्कन्दस्येव । त्वया परिभूतास्त्वच्छत्रवो वनं प्रति चालिताः, तत्रापि प्रतिकूलेन
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[अ० २, सू० १३७-१३८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १२३ सधूलिवातेनाक्षिविधातः समुपास्थितः, छत्राभावाच्च सूर्येणापि तसास्ते इति भावः । 'त्व[5]च्छ[s][s]णां[s], वि[]पि[i] नं [s], प्र[स्थि[i]तां[s]नां[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-१३६ ॥
मो भौ गौ वा ॥१३७॥ वातोा एव लक्षणान्तरम् । घेरिति वर्तते । यथा- घोराकारा घनघोषविशेषा, दूरोत्क्षिप्तक्षितिरेणुविमिश्रा । लोकक्षोभं सहसा विदधाना, वातोर्मीयं कुरुते जगदन्धम् ।। १३७.१ ॥ . एकादशप्रभेदत्वेन पुनस्तामेव लक्षणान्तरेणाह- मो भौ गो वेति । छन्दोनामनिर्देशाभावान्न्यूनाताशङ्कां परिहर्तुमाह- वातोा एव लक्षणान्तरमिति । यतिनियमः स एवेत्याह-घेरिति वर्तते हति । तथा च मगणो भगणद्वयं गुरुद्वयं च, 'ss. si. sn.s' इत्येवंप्रकारवर्णविहिताः पादा यस्य, चतुर्भिश्च यतिर्यत्र तत् वातोाश्छन्दसः प्रकारान्तरं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-घोराकारा इति, घोराकारा- भयंकरस्वरूपा, घनघोषविशेषा- घनानां- मेधानां, घोषेण विशेष:- अधिक्यं यस्याः सा, दूरोत्क्षिप्तक्षितिरेणु विमिश्रा- दूरोत्क्षिप्ता:- भारादुद्भूता ये क्षितिरेणव:पृथ्वीपांशवः, तविमिश्रा- सहिता, सहसा- अकस्मात, लोकक्षोभं- जनचाञ्चल्यं, विदधाना- कुर्वती, इयं वातोर्मी- वायुमण्डली, जगत्-विश्वम्, अन्धं- लोचनविफलं, कुरुते- विदधाति । 'घो[s] रा[s]का[5] रा[5], घ[0] न[1] घो[s]ष[1]वि[1]मि[s]श्रा[s]' इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू०१३७ ॥
मम्नल्गा भ्रमरविलसितम् ॥१३८॥ मभना लगुरू च । घरिति वर्तते । यथा-प्रत्याख्याताप्यसि कमलवनं, याता तत् किं करतलचलनः । मुग्धे ! विद्धि स्फुटकमलधिया, वक्त्रापातिभ्रमरविलसितम् ॥ १३८.१॥ वानवासिकेयम् ।। १३८.१॥
द्वादशं प्रकारमाह-मम्नल्गा भ्रमरविलसितमिति । अर्थमाह- मभनाघर्गरुश्चेति, परिति वर्तते इति च । तथा च मगण-भगण-नगणा लघु
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते . [अ० २, सू० १३९.] गुरुश्चेति, 'sss. sn.m.s' इत्येवंप्रकारवर्णविहिताः पादा यस्य तद, चतुभिश्च यतिर्यत्र तत् भ्रमरविलसितं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-प्रत्याख्यातेति, प्रत्याख्याताऽपि- निषिद्धाऽपि, कमलवनं याता- गता, असि, तत्- तस्मात्, करतलचलनः-- [भ्रमरवारणार्थ] हस्तचालनक्रियाभिः, किं- किमपि, न साध्यम्, हे मुग्धे ! ऋजुमतितयाऽज्ञातस्वपद्मिनीत्वे, स्फुटकमलधिया-विकसितपद्मबुद्धया, वक्रापातिभ्रमरविलसितंवके- मुखोपरि, आपतन्ति तच्छीला ये भ्रमरा:- द्विरेफाः, तेषां विलसितंलीलां, विद्धि- जानीहि । इमामेव बाधामभिलक्ष्य त्वं मया कमलवनं प्रति गन्तुं निषिद्धा, तदनादृत्य तत्र गतात्वं तत्रत्यभ्रमरैरर्धफुल्लकमलानि त्वन्मुखादल्पामोदानि हित्वा त्वन्मुखोपर्येव विलासः क्रियते, साम्प्रतं हस्तचालनैस्ते वारयितुमशक्या इति भावः । 'प्र[sत्या[s] ख्या[s]ता[जाप्य [1]सि[1], क[1]म[1]ल[1]व[1] नं [5]'. इति लक्षणसमन्वयः। अस्य च्छन्दसो मात्रासमच्छन्दस्यप्यन्तर्भावमाह- वानवासिकेयमिति- तृतीयाध्याये "द्वादशश्व वानवासिका" [६६] इति सूत्रेण वणिते वानवासिकेतिनाम्नि मात्रासमकच्छन्दसि यानि लक्षणानि कथितानि तान्यत्रापीति भावः ।। अ० २, सू०१३८ ॥
नौ सो गौ वृन्ता ॥१३९।। घेरिति वर्तते । यथा-जिनपतिगुरुपदपीठे यो,-शटमतिरिह लुठति प्रोत्या। विगलति निखिलमघं तस्मात्, परिणतफलमिव वृन्तान्तात् ॥ १३६.१ ॥
त्रयोदशं प्रभेदमाह- नौ सो गौ वृन्ता इति । अत्रापि पूर्ववद् यतिनियम इत्याह-घेरिति वर्तते इति । तथा च नगणद्वयं सगणो गुरुद्वयं च, 'il.
1. s. ss' इतीहशर्वर्णः कृताः पादा यस्य, तथा चतुर्मिर्यतिर्यत्र तत् वृन्तानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- जिनपतीति, यः, अशठमतिः- निष्कपटबुद्धिः सन्, जिनपति:- जिनप्रवर एव, गुरु:- सर्वहितोपदेष्टा तस्य, अथवा जिनपतेर्गुरोश्च पदपीठे- पादधान्यां, प्रीत्या श्रद्धयाऽनु. रोगेण वा लुटति- नम्रीभवति, तस्मात्- जनात्, वृन्तात्- गृच्छात्, परिणतफलमिव- पक्वफलामिव, निखिलमधं- सर्व पापं. विगलति- निपतति ।
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[अ० २. सू० १४०-१४१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १२७ 'जि[1][][1]ति[1] गु[][][][]पी[s][s]यो[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१३६ ।।
__न्यमा गौ पतिता चैः ॥१४०॥ नयमा गुरुद्वयं च । चरिति षड्भियंतिः । यथा- वहति न मन्दं दक्षिणवायु- धमति न तूर्ण चूतपरागः । दधति न पिक्यः पञ्चमरापं, किमु पतिता त्वं पादतलेऽस्य ।। १४०.१ ॥
चतुर्दशं प्रकारमाह-न्यभा गौ पतिता चैः। सूत्रार्थमाह- नयभा गुरुद्वयं च, चैरिति षड़भिर्यतिरिति- नगण-यगण-भगणा गुरुद्वयं च, 'm. Iss. Sl. ss' इतीहशर्वर्णः कृताः पादा यस्य, षड्भिश्च वर्णयंतिर्यत्र तत् पतितानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- वहति नेति, दक्षिणवायु:- मलयानिल:, मन्द- शनैः, न वहति- न चलति, चूतपराग:आम्रमञ्जरीरेणुः, तूर्ण- शीघ्रं, न भ्रमति- दिशि दिशि न व्याप्नोति, पिक्य:कोकिलाः, पञ्चमरागं- प्रसिद्ध स्वं पञ्चमस्वरं, न दधति- न धारयन्ति, ताः पञ्चमरागेण न गायन्तीत्यर्थः, तथापि त्वम् [ मानं विहाय ] अस्य- प्रकटा. पराधस्य पुरुषस्य, पादतले- चरणोपरि [ तत्प्रसादनाय ] किमु पतिताकुत: प्रणता । सत्सु एतेषु कारणेषु तवाधीरात्वं युक्तं, तदभावे यदेवं कृतवत्यसि तदाश्चमिति भावः। 'व[1] [1] ति[1], न[1], म[s]न्दं द[5]क्षि[1]ण[1]वा[s]युः[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१४० ॥ .
रनरल्गा रथोद्धता॥ १४१॥ रनरा लघुगुरु च । यया- तावकीनकटके रथोद्धताः, धूलयो जगति कुर्युरन्धताम् । चेदिमाः करिघटा मदाम्भसा, भूयसा प्रशमयेन सर्वतः ॥ १४१.१ ॥ अपरान्तिकेयम् ।। १४१.१॥
पञ्चदशं प्रकारमाह- रनरल्गा रथोद्धतेति । रनरल्गा इत्यस्यार्थमाहरतरा लघुगुरू चेति, 'sis. 11. SIS. Is' इतीदृशैर्वणः कृताः पादा यस्य तत् रथोद्धतानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-तानकोनेति, तावकीनकटके- तव सेनासनिवेशे, रथोद्धता:- रथसचारोद्गताः धूलयः
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१२८ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १४२-१४३.] रजांसि, जगति- संसारे, अन्धतां- दृष्टिप्रतिबन्ध, कुर्यु:- विदध्युः, चेत्यदि, इमाः- घूलीः, करिघटा- गजश्रेणी, भूयसा- प्रभूतमेन, मदाम्मसादानजलेन, सर्वतः- सर्वासु दिक्षु, न प्रशमयेत्- न शान्ति नयेत् । गजश्रेण्या दानजल मेराीकरणे धूलयो न प्रसृता इति जगदान्ध्यं न जातिमिति भावः । 'ता[5]व[1] की[5]न[1]क[1][1] के [s], र[1] थो[s] [1]ता: [s'इति लक्षणसमन्वयः ।
अस्या० मात्रासमच्छन्दस्यप्यन्तर्भावमाह- अपरान्तिकेयम इति- तृतीयेध्याये “वैतालीयादेर्युक्पादजा अपरान्तिका" ।। ५६ ॥ इति सूत्रेण लक्षिते षोडशमात्रके मात्रासमच्छन्दसि अस्यान्तर्भावः संभवतीत्यर्थः । अस्यापि प्रतिपादं षोडशमात्राणां सत्त्वात् । यद्यपि तत्र प्रदर्शितेषु तद्भदेषु न कोऽपीदृशः समुपलभ्यते यः सर्वथा रयोद्धतामनुकुर्यात्, तथापि मात्रासंख्यासाम्येनेयमपि तत्रान्तर्भवितुं शक्नोतीतिभावः ॥ अ० २, सू०-१४१ ॥
रनभा गौ स्वागता ॥१४२।। रनमा गुरुद्वयं च । यथा- वल्लभं सुरभिमित्रमनङ्ग, दाक्षिणात्यपवनं सुहृवं छ । पृच्छतोह परपुष्टविघुष्टः, स्वागतानि नियतं वनलक्ष्मीः ।। १४२.१ ॥
षोडशं प्रकारमाह- रनभा गौ स्वागतेति । अर्थमाह- र-न-भा गुरुद्वयं चेति- रगण-नगण-भगणा गुरुद्वयं च, 'sis. III. . ss.' इतीदृशैर्षणैः कृताः पादा यस्य तत् स्वागतानामकं छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- वल्लभमिति, वनलक्ष्मी:- वनशोभादेवता, वल्लभं- प्रियं, सुरभिमित्र- सुरभे:वसन्तस्य, मित्रं- सखायम्, अनङ्ग- कामं, सुहृदं- स्वसखायं, दाक्षिणात्यपवनं- दक्षिणदिग्वायुं च, परपुष्टविघुष्टैः- परपुष्टः- पिकः, तस्य विघुष्टैःअसकृदारावैः, नियतं- निश्चितं, स्वागतानि- किं सुखपूर्वकमागतं भवद्भयामित्यादि, शोभनमागतं भवतोः किमित्यदि वा, परिपृच्छति-जिज्ञासते इत्यर्थः।। 'व[s]ल्ल [1] भं[], सु[1] I]भि[1]मि[s][1]म[1] न[5] का[s]: इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१४२ ॥
नौ रल्गा भद्रिका ॥१४३।। मद्यं रो लघुगुरू च । यथा- परिहर नितरां परापदं, कुरु जिनवचनेऽनुरापिताम् । इति तव चरतः परे भवे, भवतु सपदि भद्रिका गतिः ॥१४३.१॥
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[अ० २, सू० १४४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१२६ सप्तदशं प्रभेदमाह- नौ रल्गा भद्रिकेति । अर्थमाह-नद्वयं रो लघुगुरूचेति- नगणद्वयं रगणो लघुगुरू च, '1. III. sis. Is.' इतीदृशैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् भद्रिकानामकं त्रिपुष्टब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथापरिहरेति, परापदं- अन्यजनदुःखं, परिहर- निवर्तय, जिनवचने- जिनस्योपदेशवाक्ये, अनुरागितां- श्रद्धालुत्वं, कुरु-विधेहि, इति- इत्थं, चरत:कुर्वाणस्य, तव- भवतः, परे- अन्यस्मिन्, भवे- जन्मनि, सपदि- शीघ्र, भद्रिका कल्याणी, गति:- स्थितिः, भवतु- जायताम् ।
अस्य नामान्तरमाह- अपरवक्त्रमिति भरतः इति- भरत आचार्योऽस्य च्छन्दसोऽपरवक्त्रमिति नामाहेत्यर्थः । मात्रासमच्छन्दस्यप्यस्यान्तर्भावमाहउत्तरान्तिकेयमिति- तृतीयाध्याये "ओजजा चारुहासिनी" [ ६० ] इति सूत्रेण वैतालीयादेविषमपादजाता चारुहासिनीति लक्षिता, तामेवैके- वैतालीयोत्तरान्तिकेति कथयन्ति, तस्याश्च चतुर्वपि पादेषु प्रत्येक चतुर्दश मात्रा भवन्ति, अस्य [ भद्रिका ]च्छन्दसोऽपि प्रतिपादं चतुर्दशमात्राः सन्तीति तन्नाम्नाऽपीयं व्यवहर्तुं शक्यत इत्यर्थः । क्वचिच्च 'चाहहासिनीयम्' इत्यपि पाठः । 'प[1]रि[1]ह[1] [1], नि[1]त[1] रां[s], प[1]रा[s]प[1]दं [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१४३ ॥
रज्रल्गा श्येनी ॥१४४॥ रजरा लघुगुरू च । यथा- भ्रान्तगृध्रवृन्दकङ्कमण्डलश्येनिका त्वदीयवैरिवाहिनी । आपतत्कृतान्तदरौकिकर-व्याकुलेव लक्ष्यते क्षमापते ॥ १४४.१ ॥ निःश्रेणिकेत्यन्ये ॥ १४४.१ ।।
___ सप्तदशं प्रकारमाह- रचल्गाः श्येनीति । व्याख्याति- रजरा लघुगुरू चेति- रगण-जगण-रगणा लघुगुरू च, 'sis. Is1. SIS. Is.' इतीदृशैर्वणैः कृताः पादा यस्य तत श्येनीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथाभ्रान्तगध्रति, हे क्षमायते !- राजन् !, त्वदीयवैरिवाहिनी- तव शत्रूणां सेना, भ्रान्तगृध्रवृन्दकङ्कमण्डलश्येनिका- भ्रान्तानि गृध्रवृन्दानि- कङ्कमण्डलानिश्येन्यश्च [ भ्रान्ताः ] यत्र तादृशी सती, आपतत्कृतान्तरौद्रकिङ्करव्याकुला इव- आपतन्तः- समन्तादागच्छन्तः, ये कृतान्तस्य- यमस्य, रौद्राः- भय
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ० २, सू० १४५ - १४६.]
ङ्कराः, किङ्कराः - अनुचराः, तैः, व्याकुला - विपर्यस्ता इव, लक्ष्यते - ज्ञायते । त्वदीयशत्रवाहिन्यां यत्र तत्र मृतानां सैनिकानां देहोपरि गृध्राः कङ्काः श्येन्यश्च पतन्ति, उपरि भ्रमन्ति वा तेनेदं लक्ष्यते यत् यमस्येमे किङ्करा एषां प्राणानादातुमागताः, तैरियं सेना व्याकुलेति । अस्या नामान्तरमन्यसम्मतमाहनिःश्रेणिकेत्यन्ये इति - अन्ये आचार्या इमां निःश्रेणिकेत्याहुरित्यर्थः । ' भ्रा[5]न्त[+] [5] [] वृ[s]न्द [1]कङ् [s]क [0]म [s]ण्ड[1][3] [ अग्रेसंयुताक्षरसत्त्वात्पादान्तस्थत्वाद् वा गुरुत्वम् ] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१४४ ।।
नो जौ लगो सुमुखी ॥ १४५ ॥
यथा - कनकरुचिर्धनपीनकुचा, मनसिजविभ्रमकेलिगृहम् । चलनयनानवकुन्ददती, न हरति कस्य मनः सुमुखी ।। १४५.१ ।। द्रुतपादगतिरिति
भरतः ।। १४५.१ ।।
अष्टादशं प्रकारमाह- नो जौ लगौ सुमुखीति - नगणो जगणद्वयं लघुगुरू च, '।।1. IऽI. ISI. Iऽ.' इतीदृशैर्वणैः कृताः पादा यस्य तत् सुमुखीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कनकरुचिरिति, कनकरुचि :- सुवर्णकान्ति:, घनपीनकुचा - घनौ निविडौ, पीनी - स्थूली च कुचीस्तनौ यस्याः सा मनसिजविभ्रमकेलिगृहं - मनसिजस्य- कामसम्बन्धी यो विभ्रमः - विलासस्तस्य केलिगृहं - क्रीडागारभूता, चलनयना - चञ्चलनेत्रा, नवकुन्ददती - नवं- नवीनं कुड्मलावस्थं यत् कुन्दं - माघमासिकं श्वेतपुष्पं, तदिव दन्ता यस्याः सा सुमुखी- सुन्दरमुखी कामिनी, कस्य मनः- चेतः, न हरतिन स्ववशं नयति, अपि तु सर्वस्यापि मनो हरत्येवेत्यर्थः । अस्यापि नामान्तरमाह - द्रुतपादगतिरिति भरत इति भरत आचार्य इदं छन्दो द्रुतपादगतिनाम्ना व्यवहरतीत्यर्थः । 'क [ 1 ]न [ 1 ] [ 1 ]रु [1] चि[s]र्घं [1] न [ 1 ] पी [s] - न [ 1 ] कु[ | ] चा [s] ' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १४५ ॥
मस्जा गावेकरूपम् || १४६ ||
मसजा गुरुद्वयं च । यथा- काष्ठे वा कनकेऽथवा मणी वा, लोष्टे वा रम
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[अ० २, सू० १४७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते गोषु वा तृणे वा । शापे वा स्तवनेऽपि वा वितृष्णं, साधूनां मन एकरूपमेव ॥ १४६.१ ॥
ऊनविशं प्रकारमाह- मस्जा गावेकरूपमिति । व्याख्याति- मसजा गुरुद्वयं चेति- मगण-सगण-जगणा गुरुद्वयं च 'sss. S. Is1. ' इतीदृशैवर्णैः कृताः पादा यस्य तत् एकरूपं नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- काष्ठे वेति, काष्ठे- दारुणि वा- अथवा, कनके- सुवर्णे, मणौ- रत्ने- वा, लोष्टे- मृत्पिण्डे वा, रमणीषु- रतिदात्रीषु स्त्रीषु वा, तृणे वा, शापे- आक्रोशे वा, स्तवनेऽपि- स्तुतावपि वा, साधूनां- यतीनां, वितृष्णं- निस्पृहं, मन:- चेतः, एकरूपमेव- समानस्वरूपमेव, न क्वापि आदरो नवा क्वापि निरादरः, सर्वत्र माध्यस्थ्यमेवाश्रयतीति भावः । का[s]ष्ठे[s] वा[s]क[1]न[1] के [s]थ[1]वा[s]म[1]णौ[5]वा[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-१४६.॥
तो जौ ल्गौ मोटनकम् ॥१४७॥ यथा- दन्तद्युतिद्यौतदिगन्तरया, रम्यं नवयौवनया विहितम् । साचीकृतलोलविलोचनकं, दृष्टं भवता मुखमोटनकम् ॥ १४७.१ ॥
विशं प्रभेदमाह- तो जौ ल्गौ मोटनकमिति- तगणो जगणद्वयं लघुगुरू च, 'sI. Is1. ISI. I.' इतीहशर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् मोटनकं नाम त्रिष्टुन्जानिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-दन्तद्युतिधौतेति-दन्तद्युतिभिः- दशनकान्तिभिः, धौतानि दिगन्तराणि- सर्वादिशो यया तया, नवयौवनया-नवम्-चिरप्रादुर्भुतं, यौवनं-तारुण्यं यस्या-स्तया, विहितं- कृतं, रम्यंमनोहरं, साचीकृतलोलविलोचनकं- साचीकृते- वक्रीकृते, लोले- चञ्चले, विलोचने- नेत्रे यत्र तद् यथा स्यात् तथा, मुखमोटनकम्- आननपरिवर्तनं, भवता, दृष्टम्- अवलोकितम्, [ किमिति ] प्रश्नः काका सूचितः । 'द[5] न्त[s][1]ति[1]द्यौ[5]त[1]दि[1]ग[5]न्त[1][1]या[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१४७ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशाषनप्रद्योते [अ० २, सू० १४८-१४६.]
तमजल्गा उत्थापनी ॥१४८।। __यथा- सर्पद्विपेन्द्रभरकम्प्रमही-, प्रभ्रश्यददिशिखरध्वनिभिः । अम्भोधिमध्यशयितस्य हरे- रुत्थापनी जयति ते पृतना ॥ १४८.१ ॥
एकविशं प्रभेदमाह- तमजल्गा उत्थापनी इति- तगण-भगण-जगणा लघुगुरू च, 'si. sI. II. Is' इतीदृशर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् उत्थापनी. नामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सर्पदिति, सर्पद्विपेन्द्रभरकम्प्रमहीप्रभ्रश्यददिशिखरध्वनिभि:- सर्पन्तो-यतस्ततश्चलन्तो मे द्विपेन्द्राःमहागजाः, तेषां भरेण- भारेण, कम्प्रा- चलन्ती या मही तस्यां प्रभ्रश्यन्तःपतन्तो येऽद्रि शिखरा:- पर्वतकूटाः, तेषां ध्वनिभिः-- शब्दैः; अम्भोधिमध्यशयितस्य हरे:- समुद्रान्तः शेषश्ययां निद्रितस्य विष्णोः, उत्थापनी- निद्रापनयनकारिणी, ते- तव, पृतना- सेना, जयति- रिपूनभिभूय र्वद्धते इत्यर्थः । 'स[5]पंद्[s]द्वि[1]पे[s]न्द्र [1]भ[1] [1]क[s]म्प्र[1]म[i]ही[1]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१४८ ॥
तो नौ ल्गौ मुखचपला ॥१४६॥ यथा- आकाङ्क्षसि यदि सुखमसमं, जन्मापि विमलमिह मनुषे । नागीमिव निरवधिकुटिलां, नारी परिहर मुखचपलाम् ॥ १४६.१ ।।
द्वाविंशं प्रभेदमाह- तो नौ ल्गौ मुखचपलेति- तगणो नगणद्वयं लघुगुरू च, si. m..is.' इतीदृशणैः कृताः पादा यस्य तत् मुखचपलानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-आकाङ्क्षसीति, यदि-चेत्, असमं- निरुपम, सुखम्-आनन्दम्, आकाङ्क्ष सि-वाच्छसि [ तथा ] विमलंनिर्मलं, जन्म- जीवनसमयं, [ यदि ] मनुषे- अनुजानासि, तर्हि नागीमिवसर्पिणीमिव, निरवधिकुटिलां- नि:सिमजिह्मतायुक्तां, मुखचपलां- मुखे- मुखव्यापारे वाचि, चपलां- चञ्चलां, नारी- स्त्रियं, परिहर- वर्जयेत्यर्थः । 'आ[5]का[s]ङ्क्ष[]सि[1], य[1]दि[i], सु[1]ख[1]म[1]स[1] मं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१४६ ॥
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[अ० २, सू० १५०-१५१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१३३ न्यनल्गाः कमलदलाक्षी ॥१५०॥ नयनलगाः यथा- विरहनिदाघः सुभग ! हठा-दतिशयदीर्घाकृतदिवसः । कृतगुरुतापः कृशयति तां, कमलदलाक्षी सरितमिव ।। १५०.१ ॥ रुचिरमुखीति भरतः ॥ १५०.१ ॥
त्रयोविंशं प्रकारमाह- न्यनलगाः कमलदलाक्षीति । न्यनल्गा इति विवृणोति- नयनलगा इति- नगणो यगणो नगणो लघुगुरू चेति, 'm. Iss. m..' ईदृशैर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् कमलदलाक्षीतिनामकं त्रिष्ट्रब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा-विरहनिदाघः इति, हे सुभग !सौभाग्यशलिन् !, अतिशयदीर्घोकृतदिवसः- अत्यन्तवधितदिनः, कृतगुरुताप:विहितमहादाहः, विरहनिदान:- वियोगग्रीष्मर्तुः, कमलदलाक्षीं- कमलदले इव- पद्मपत्रे इव, अक्षिणी- नेत्रे यस्यास्तादृशीं ताम्, सरितमिव- नदीमिव, हठात्- अतिप्रसह्य, कृशयति- तनूकरोति । काचित् दूती विरहिणीवृत्तान्तं नायकाय कथयति, तव विरहे सा ग्रीष्मे सरिदिव हठात् कृशा जायत इति । तत्र विरहे निदाघत्वारोपः, नायिकायां च नद्या उपमा यथा संघटेत तथा पदविन्यासः कृत एव । निदाघे हि दिवसा दीर्घा भवन्ति, विरहेऽपि ते कठिनतयाऽतिवाह्यन्ते इति र्दीधीभूताः प्रतीयन्ते, निदाघो यथा तापं करोति तथा विरहोऽपि, यथा च नायिका कमलदलाक्षी, तथा सरिदपि कमलदलान्येवाक्षिणी यस्या इति समासाश्रयणात् । तथा चात्र रूपकपोषित उपमालङ्कारः। 'वि[1][i]ह[1]नि[1]दा[s]घः [5]सु[1] भ[1]ग[1][i]ठात्[s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह- रुचिरमुखीति भरतः इति- भरत आचार्य इमां रुचिरमुखीत्याहेत्यर्थः । अ० २, सू०-१५० ॥
स्मनल्गा विमला ।।१५१॥ समनलगाः । यथा- शरदायातेयं गगनमणे-रिव तेजः प्रौढि तव भजताम् । नृप ! कीतिर्योत्स्ना तुहिनरुचे-रिव दिक्षु भ्राम्यत्वतिविमला ।।१५१.१॥
चतुर्विशं प्रकारमाह- स्मनल्गा विमलेति । स्मनलगा इति पदं विवृ. णोति- स्मनलगाः इति- सगण-मगण-नगणा लघुगुरू च, 's. sss..
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५२-१५३.]
s' इतीदृशवणेः कृताः पादा यस्य तत् विमलानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा शरदायातेयमिति, हे नृप !, इयं शरत् आयाता- शरन्नामकोऽयमृतुः प्राप्तः, गगनमणेः- सूर्यस्य इव, तव- भवतः, तेजःप्रतापः, प्रौढिं- प्रकर्ष, भजतां- प्राप्नोतु, तुहिनरुचे:- चन्द्रस्य, ज्योत्सनाकौमुदी इव, [तव कीर्तिः, अतिविमला- परमनिर्मला सती, दिक्षु- आशासु, प्रसरतु- व्याप्नोतु । शरदि राजानो दिग्विजयाय प्रतिष्ठन्ते, त्वमपि प्रस्थाय स्वतेजः प्रकाशय येन दिक्षु कीर्तिरपि प्रसरिष्यतीति नृपप्रोत्साहनमिदम् । श[1][1]दा[s]या[s]ते[s]यं [5]ग[1]ग[1]न[1]म[1]णे:[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१५१ ॥
नस्ना गावशोका ॥१५२।। नसना गुरुद्वयं च । यथा- अलिवलयहंकृतिभिरुच-रियमिह निषेधति भवन्तम् । वनभुवमितः पथिक ! मा गाः, कुसुमितसमुल्लसदशोकाम् ॥ १५२.१ ॥
पञ्चविशं प्रकारमाह- नस्ना गावशोकेति । नस्ना गावित्यस्यार्थमाहनसना गुरुद्वयं चेति- नगण-सगण-नगणाः गुरुद्वयं च, 'm, us. . ss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् अशोका नाम त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अलिवलयेति, हे पथिक ! इयं- वनभूः, इह- वनाद् बहिरेव, उच्चैः- दीर्घः, अलिवलय हुंकृतिभिः- मधुकरनिकरक्रोधशब्दैः, भवन्तं- त्वाम्, इत:- अस्मात् स्थानात्, कुसुमितसमुल्लसदशोकां- कुसुमित:पुष्पितः, समुल्लसन्- शोभमानः, अशोकः- तन्नामकवृक्षो यस्यां तादृशीम्, वनभुवं- कान्तारभूमि, मा गाः- न गच्छेः, इति निषेधति- वारयति । कान्तावियुक्तो भवान् अशोकपुष्पाणि वीक्ष्य नितान्तं तप्स्यतीति इत एव निवर्तस्वेति वनभूः स्वयमेव भ्रमरशब्दस्त्वामाहेत्यर्थः । 'अ[1]लि[1] व[1] ल[1]य[1]हु[s] कृ[1]ति [1]भि[1] रु[s] चैः[s]' इति लक्षणसमन्वयः सर्वेषु पादेष्विति ॥ अ० २, सू०-१५२ ॥
सज्या ल्गौ सारणी ॥१५३॥ सजयलगाः । यथा- मदनस्त्रिलोचनभालाग्निना, ज्वलितः क्षणादिह जीवेत
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[अ० २, सू० १५४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते कथम् । त्रिवलीतरंगजुषः स्युन चेद्, रससारसारणयः सुभ्रवः ॥ १५३.१ ॥
षड्विशं प्रकारमाह- सज्या ल्गो सारणीति । सज्या ल्गावित्यस्यार्थमाह-सजयलगाः इति- सगण-जगण-यगणा लघुगुरू च, 's. Is1. Iss. Is.' इतीहरिक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् सारिणीनामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-मदन इति, त्रिलोचनभालाग्निना-त्रिलोचनस्यत्रिनेत्रस्य शिवस्य, भालाग्निना- ललाटपावकेन, ज्वलितः- दग्धः, मदन:कामः, इह- संसारे, क्षणात्- अचिरादेव, कथं- केन प्रकारेण, जीवेत्पुनः प्राणान् धारयेत्, चेत्- यदि, त्रिवलीतरङ्ग जुष:- त्रिवली- उदरमध्यस्थरेखात्रयम् एव तरङ्गाः तान्- जुषन्ते- दधतीति ताः, रससारसारणय:- रसेषु सारः शृङ्गारः, तस्य सूचिकाः, अन्यत्र रसं- जलमेव सारः, तस्य प्रवाहिकाः, नद्यः इव], सुभ्रवः- शोभनभृकुटयः स्त्रियः, न स्यु:- न भवेयुः । अत्र कामस्य दाहानन्तरमेव । पुनरुज्जीवनं स्त्रीषु नदीत्वारोपेण समर्थितम्, नद्यो हि जलं प्रवहन्त्यो दग्धं वस्तु यथा जीवयन्ति तथा कामिन्योऽपि दग्धं मदनं जीवयन्ति । नद्यो हि तरङ्गवत्यस्तथा स्त्रियोऽपि वलिमध्याः, नद्यो रसस्य[जलस्य] प्रवाहिकाः, स्रियोऽपि रसस्य [शृङ्गारस्य] प्रवाहिका इत्युभयोः साम्यम् । 'म[1]द[1]न:[s]त्रि[1]लो [5]च[1]न[1]भा[5]ला[s]ग्नि[1]ना[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१५३ ॥
तौ जो गाविन्द्रवज्रा ||१५४॥ यथा- स्वस्वागमाचारपरायणानां, पुण्यात्मनां यः कुरुते विरुद्धम् । क्षोणीभुजस्तस्य भवत्यवश्यं, रौद्रेन्द्रवज्राभिहतस्य पातः॥ १५४.१ ॥
सप्तविशं प्रकारमाह- तौ जो गाविन्द्रवज्रति- तगणद्वयं जगणो गुरुद्वयं च, 'ssI. SsI. Is1. ss.' इतीदृशंरक्षरेः कृताः पादा यस्य तत् इन्द्रवज्रानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- स्वस्वागमेति, यः- क्षोणीभुक्, स्वस्वागमाचारपरायणानां- स्वस्वेषां- यथासम्प्रदायं प्रातिस्विकानाम्, आगमानाम्- आचारोपदेशकशास्त्राणां, प्रतिपाद्या ये आचाराःसामयिकव्यवहारास्तेषु, परायणानां- तदनुष्ठानतत्पराणां, पुण्यात्मानां- सुकृतिनां, विरुद्धं- प्रतिकूलं, कुरुते- विदघाति, रौदेन्द्रवज्राभिहतस्य- घोर
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ० २, सू० १५५ - १५६.]
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वासववज्रताडितस्य तस्य, क्षोणीभुजः- राज्ञः, अवश्यम् - निश्चितं पातःपतनं भवति - जायते । पुण्यात्मनां प्रतीपाचरणं राजभिः परिहर्तव्यमिति भाव: । 'स्व [5] स्वा[5]ग[1]मा[s]चा[s]र [1] [1] [s] []णा [s]नां[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १५४ ॥
१३६
जतजा गावुपेन्द्रवज्रा ।। १५५ ।।
यथा - दधासि धात्रीं विदधासि दुष्ट, क्षमाभृतां निर्दलनं प्रसह्य । कुमारपाल ! क्षितिपाल ! कस्त्वम् - उपेन्द्रवज्रायुधयोस्तदत्र ॥। १५५.१ ।।
अष्टाविशं प्रकारमाह- जतजा गावुपेन्द्रवज्येति- जगण-तगण-जगणाः गुरुद्वयं च, 'Ist.ssi. ist ss. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् उपेन्द्रवज्रानामकं त्रिष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दधासीति, धात्रीं - पृथ्वीं, दधासि - धारयसि दुष्टक्षमाभृतां - दुष्टराजानां दुष्टपर्वतानां च, प्रसहय - हठात् निर्दलन - संमर्दनं विदधासि करोषि [ तत्] हे कुमारपाल ! - तन्नामक !, क्षितिपाल ! - राजन् ! त्वं भवान्, अत्र- - संसारे, उपेन्द्रवज्रायुषयोः - उपेन्द्रः - विष्णुः, वज्रायुधः - इन्द्रः, एतयोर्मध्ये, क: ?, पृथ्वीधारणं विष्णोः कार्यं, क्षमाभृन्निर्दलनं चेन्द्रस्य कार्यं, त्वं चोभयमपि करोषीति तयोर्मध्ये त्वं क इति जिज्ञासा जायत इति भावः ! 'द [ 1 ]धा [ 5 ]सि [ 1 ]धा [5] श्री [S]वि[1]द [1]धा [s]सि [s] ' [ पादन्तस्य गुरुत्वात् ] इतिलक्षणसमन्वयः ॥ अ०-२, सू० -१५५ ।।
एतयोः परयोश्च संकर उपजातिश्चतुर्दशधा ॥१५६॥
एतयोरिन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोः संकरोऽन्योन्यपादमीलनमुपजातिः । सा च प्रस्तारभेदाच्चतुर्दशषा । एवं परयोरिन्द्रवंशा-वंशस्थयोः संकर उपजातिश्चतुर्दशव | स्थापना SIII, III, SII, ISI SISI, ISSI, SSSI, IIIS, SIS, ISIS, SSIS, VISS, SISSI, Iऽऽऽ. आद्यभेदोदाहरणं यथा- प्रायः पुमांसोऽभिनवार्य लाभे, गुणोज्ज्वलेष्वप्यकृतादराः स्युः । अवाप्य कुन्दं मधुपो हि जज्ञे, गतोपजातिभ्रमणाभिलाष: ।। १५६.१ ।। एवमन्येष्वप्युदाहार्याः । समवृत्तप्रस्तावेऽप्युपजातीनामुपन्यासो लाघवार्थः ।। १५६.१ ।।
अथात्र त्रिष्टुब्जातवेव सङ्कररूपामुपजातिमुदार्हतुमाह- एतयोः परयोश्च
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[अ० २, सू० १५५-१५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते संकर उपजातिश्चतुर्दशधेति । विवृणोति- एतयो- इन्द्र-वज्रोपेन्द्रवज्रयोः सरः- अन्योऽन्यपादमीलनमपजातिरिति- उपरि इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा छन्दसी लक्षिते, तयोः प्रत्येक चत्वारः पादाः, तथा चाष्टानां पादानां परस्यमेलनेन यच्छन्दो जायते तदेवोपजातिरिति कथ्यते। तत्र कतिभेदाः संभाव्यन्ते इत्याशङ्कायामाह- सा च प्रस्तारभेदाचतुर्दशघेति, चतुष्पादात्मकः प्रकृतः श्लोकः, तत्र पादस्यादी गुरुणि लघुनि वाक्षरेसति चतुरक्षरात्मक: प्रस्तारः षोडशविधो भवति, तथाहि- ssss. sm. Isl. ssil. III. Sis1. Issi. sssi Ms. SIS. ISIS. ssis. Iss. SIऽऽ ।ऽऽऽ. 1, इति । तत्र गुरुचतुष्टयेन इन्द्रवज्राच्छन्दः, लघुचतुष्टयेन उपेन्द्रवज्राछन्दः, मध्यगश्चतुर्दश:दैरुपजातिच्छन्दो भवति । अयमाशयः- चतुरक्षरप्रस्तारस्तावत् षोडशविधः, तत्र गुरुचतुष्टयेनेन्द्रवज्रायाश्चतुष्पादज्ञानम्, चतुर्वपि पादेषु इन्द्रवज्राया आदी गुरुरिति शेषेण लघुचतुष्टयेन, उपेन्द्रवज्रायाश्चतुर्वपि पादेषु आदौ लघुरिति पादचतुष्टयज्ञानं भवति । मध्ये चोपेन्द्रवज्रापादमादिं कृत्वा चतुर्दशोपजातयो भवन्ति । तथा च प्रस्तारस्थापनां वक्ष्यति । इत्थं यथा त्रिष्टुब्जाती इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोः सङ्करस्तथा जगतीजातावपि वर्ण्यमानयोरिन्द्रवशां वंशस्थयोरपि सङ्करस्तदाह- एवं परयोरिन्द्रवंशा-वंशस्थयोः सङ्कारः, उपजातिश्चतुदशधैवेति- जगतीजातिछन्दसि इन्द्रवंशा-वंशस्थे वणिते, तयोरपि पादा गुरुलघुभ्यां निर्दिश्यन्ते, इन्द्रवंशापादानां गुरुणा वंशस्थपादानां च लघुना निर्देशः, तत्र सर्वगुरुः इन्द्रवंशा, सर्वलघुर्वंशस्थम्, मध्ये च चतुर्दश भेदा एव भवन्तीति प्रस्तारानुसारं ज्ञेयम् । तथाहि स्थापनामाह- स्थापनेति, प्रथमः प्रस्तार:'sn' इति, तस्यार्थः- प्रथमः पाद इन्द्रवज्रायाः, शेषास्त्रय उपेन्द्रवज्राया इति, एवं सर्वत्र गुरुस्थाने इन्द्रवज्राया लघुस्थाने उपेन्द्रवज्रायाः पादा ज्ञेयाः, तथा च-15. ss.s. sis. Isst. sssi. ms. sus. Isis. sss. ॥ss. sss. Isss. इति, एषां नामानि प्राकृतपिङ्गले यथा- “कीर्तिः।ऽऽऽ, वाणी , माला ||ss, शाला sss, हंसी ।।s, माया ॥5, जाया II, बाला sss!! आर्द्रा ।ऽऽI, भद्रा II, प्रेमा ॥, रामा ssII, ऋद्धिः ।।।, वृद्धिः ॥s" इति [ २.१२२ ] तत्र 'sun' इति प्रथमस्य भेदस्योदाहरणं दर्शयति- आद्यभेदोदाहरणं यथेति, प्रायः इति- इयं जाया, प्रायः- बाहुल्येन, पुमांसः- पुरुषाः,
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१३८ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५५-१५६.] अभिनवार्थलाभे- नूतनवस्तुप्राप्ती, गुणोज्ज्वलेष्वपि- [प्राचीनेषु वस्तुषु पूर्वापेक्षयां ] गुणसमृद्धेष्वपि, अकृतादरा:- अकृतबहुमानाः, स्यु:- भवेयुः, तत्रार्थान्तरन्यासमाह-हि- यत:, मधुप:- भ्रमरः, कुन्दं- नवीनं माध्यपुष्पं, अवाप्यप्राप्य, गतोपजातिभ्रमणामिलाष:- गतः- नष्टः, उपजातिषु- जातिजातीयकुसुमप्रभेदेषु, भ्रमणस्य, अभिलाष:- स्पृहा यस्य तथा भूतो जज्ञे इत्यर्थः । भ्रमरो यथा नवविकसितं कुन्दं दृष्ट्वा प्राचीनेषु कुन्दापेक्षयाधिकसुरभिष्वपि, उपजातिपुष्पेषु आदरहीनो भवति तथा पुरुषा अपि नूतनां नायिकां प्राप्य गुणवतीमपि पूर्वामनाद्रियन्त इति भावः । लक्षणसमन्वयश्च 'प्रथमपादे इन्द्र वज्रावत् शेषेधूपेन्द्रवज्रावत् ज्ञेयः । १५६।१ । ___ प्रथममुपजातिभेदं स्वयमुदाहृत्य ग्रन्थगौरवभिऽन्येषामुदाहरणमादिशतिएवमन्येष्वप्युदाहार्या:- यथेदमाद्योपजातिभेदस्योदाहरणमुपन्यस्तं तथा शेषेष्वपि त्रयोदशभेदेषूदाहरणानि स्वयमेवन्वेषणीयानीति भावः ॥ अ० २, सू०-१५६ ॥
तदिह शिष्टानां त्रयोदशभेदानामुदाहरणानि ग्रन्थान्तरत् संगृह्य लिख्यन्ते व्याख्यायन्ते च । तथाहि- उपेन्द्रवज्रायाः प्रथमः पादः, द्वितीय इन्द्रवज्रायाः शेषावुपेन्द्र वज्राया इति 'siss' संकेतितो द्वितीयो भेदो वाणीनामा यथा
"यः पूरयन् कीचकरन्ध्रभागान् दरीमुखोत्थेन समीरणेन । उद्गास्यतामिच्छति किन्नराणां तानप्रदायित्वमिवोपगन्तुम् ॥"
[ कु० संभव० १।८ ] यः- हिमालयः, दरीमुखोत्थेन- दरी- गुहैव, मुखं तस्मादुत्थितेन- निर्गतेन, समीरणेन- वायुना, कीचकरन्ध्रभागान्- कीचकानां वायुप्रेरणेन स्वनतां वंशानाम्, रन्ध्रभागान्- छिद्र प्रदेशान्, पूरयन्, उद्गास्यतां- करिष्यमाणगानानां, किन्नराणां- किम्पुरुषाख्यदेवविशेषाणां, तानप्रदायित्वं- गानाम्भात् पूर्वमेव तदनुकूलस्वरमूर्च्छना तानस्तस्य प्रदायी- दाता, तस्य भावस्तत्, उपगन्तुंलब्धुम् इव, इच्छति- अभिलषति । अंत्र प्रथमे तगणद्वयं जगणो गुरुश्च, द्वितीये जगण-तगण-जगणाः गुरुद्वयम्, तृतीयचतुर्थयोश्च पुनः- तगणद्वयं जगणो गुरुद्वयं चेति लक्षणसमन्वयः [ उपजाति-२ ] ॥ .. तृतीयस्य मालानामकस्योपजातिभेदस्य ॥s' यत्रोपेन्द्र वज्रायाःप्रथमार्धम्,
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[अ० २, सू० १५५-५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते इन्द्रवज्राया उत्तराधं चेति विन्यासः । तस्योदाहरणं यथा
"कपोलकण्डूः करिभिविनेतुं विघट्टितानां सरलद्रुमाणाम् । यत्र स्नुतक्षीरतया प्रसूतयाः सानुनि वायुः सुरभीकरोति ॥ [कुं० सं० ११६] यत्र- हिमालये, कपोलकण्डू:- गण्डस्थरवर्जूः, विनेतुं- शमयितुं, विधट्टितानां- घर्षितानां, सरलद्रुमाणां- देवदारुवृक्षाणां, स्नुतक्षीरतया- स्नुतंस्यन्दमानं क्षीरं यस्य तस्य भावस्तया, प्रसूतः- समुत्पन्नो गन्धः- आध्राणः, सानूनि- शिखराणि, सुरभीकरोति- सुगन्धयतीत्यर्थः । अत्र प्रथम-द्वितीययोः पादयोः जतजगणाः गुरुद्वयंच, तृतीय-चतुर्थयोः- तगणद्वयं जगणो गुरुश्चेति लक्षणसमन्वयः ॥ [ उ० जा० ३ ] ॥
चतुर्थस्य शालानामकस्य 'ssis' इत्येवं स्थापितस्य प्रथमार्च इन्द्रवज्रया, तृतीये पादे उपेन्द्र वज्रया, चतुर्थे पुनरिन्द्रवज्रयानिबद्धस्योदाहरणं यथा
"उद्वेजयत्यङ्गुलिपाणिभागान् मार्गे शिलीभूतहिमेऽपि यत्र । न दुर्वहश्रोणिपयोधरार्ता भिन्दन्ति मन्दां गतिमश्वमुख्यः ॥"
[कु० सं० १।११] यत्र- हिमालये, अङ्गुलिपाणिभागान्- अङ्गुलीनां-पादाङ्गुलीनां, पार्श्व. भागान्- प्रान्तान्, उद्वेजयति- पीडयति, शिलीभूतहिमे- शिलीभूतं शिलावस्था प्राप्त, हिमं यत्र तादृशेऽपि, मार्गे-पथि, दुर्वहश्रेणिपयोधरार्ताः- दुर्वहोस्थूलतया बोढुमशक्यौ, यो श्रोणी पयोधरौ च, तेषां भरेण आर्ता:- पीडिताः, अश्वमुख्य:- अश्यस्य मुखमिव मुखं यासां ता देवजातिविशेषस्त्रियः, मन्दां गति- शनैर्गमनक्रम, न भिन्दन्ति- न विच्छिन्दन्ति । यद्यपि हिममये मार्गे शत्यात् पादयोः पीडा भवतीति क्षिप्रगत्या तन्मार्गलङ्घनप्रयत्नः स्वभावप्राप्तस्तथापि श्रोणि-पयोधरयोः [ नितम्बकुचयोः ] दुर्वहत्वेन क्षिप्रगतेराश्रयितुमसामर्थ्यात् ता मन्दमेव गच्छन्तीत्यर्थः ।। अत्र तृतीयपादवर्जमिन्द्रवज्रया, तृतीये चोपेन्द्रवज्रया निबन्ध इति स्पष्टम् ॥ [ उ० जा० ४ ] ॥
पञ्चमस्य हंसीनामकस्य 'Isis' इत्येवं स्थापितस्य प्रथमतृतीययोरूपेन्द्रवज्रया, द्वितीयचतुर्थयोश्चेन्द्रवज्रया निर्मितस्योदाहरणं यथा
"पदं तुषारस्नुतिधौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वापि हतद्विपानाम् । विदन्ति मार्ग नरवरन्ध्रमुक्त-मुक्ताफलः केसरिणां किराताः ॥"
[कु० सं० ११६]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ० २, सू० १५५ - १५६.]
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यस्मिन् - हिमालये, किराता:- वनेचराः मानवाः, हतद्विपानां- मारितगजानां, केसरिणां-सिंहानां, तुषारस्नुतिधौतरक्तं- तुषारस्य - हिमस्य स्तुत्याक्षरणेन, घौतं रक्तं- रुधिरं यस्य तादृशं पदं चरणाङ्कमदृष्ट्वापि नखरन्ध्रमुक्तै:नखच्छेदपतितः, मुक्ताफलैः - मौक्तिकैः, मार्ग - पन्थानं विदन्ति - जानन्ति । सिहहतं गजं दृष्ट्वा तद्धन्तुः सिंहस्यान्वेषणे प्रवृत्ताः किराताः शोणिताक्तपादचिह्न न तन्मार्गमनुसरन्तो हिमस्नुत्या रक्तस्य धौतत्वेन पादचिह्नालाभेऽपि हतगजमस्तकस्थसिंहपादनखलग्नमुक्ताफलानां मार्गे नखविकासात् पतितानां प्राप्त्या तेनैव तद्गमनमार्गं जानन्तीति भावः । अत्र प्रथम- तृतीययोःजतजा गौ, द्वितीयचतुर्थयोः - तौ जो गाविति || [ उ० जा० ५ ]
अयमाशय:
षष्ठस्योपजातिभेदस्य मायानामकस्य '115' इत्येवं स्थापितस्योदाहरणम् - "प्रसीद विश्राम्यतु वीर ! वज्रं शरैमंदीयैः कतमः सुरारिः । बिभेतुमोधीकृत बाहुवीर्यः स्त्रीभ्योऽपि कोपस्फुरिताधराभ्यः || ” [ कु० ३18 ] शिवं वशीकर्तुमाहुतस्याविदितकार्यस्य कामस्येन्द्रं प्रति स्वपराक्रम - ख्यापनपरं वाक्यमिदम्, हे वीर ! प्रसीद- आज्ञाप्रदानेन मामनुगृह्णीष्व, वज्र - कुलिशं [ तव प्रधानमस्त्रम् ] विश्राम्यतु- निर्व्यापार एव तिष्ठतु, कतमः - बहुषु क:, सुरारिः- देवशत्रुः, मदीयै:- मत्सम्बन्धिभिः शरैः - बाणैः, कोपस्फुरिताधराम्य:- कोपेन - क्रोधेन, स्फुरितं स्पन्दमानम्, अधरम् - अधरोष्ठो यासां ताभ्यः, स्त्रीयोsu - कामिनीभ्योऽपि बिभेतु- त्रस्यतु । यदि कश्चिदसुरस्तव प्रतिकूलतह स्वशरैरहतं स्त्रीणामपि वश्यं - वश्यं कर्तुं प्रभवामीति त्वया तद्विषये स्वास्त्र व्यापारो न कार्यं इत्यर्थः । अत्राद्यपादत्रये जतजा गौ शेषे च तौ जो गाविति लक्षणसंगति ॥ उ० जा ० ६ ॥
सप्तमस्योपजातिभेदस्य जायानामकस्य 'SI||' इत्येवं स्थापितस्योदाहरणं यथा"कालक्रमेणाथ तयोः प्रवृत्ते, स्वरूपयोग्ये सुरतप्रसङ्गे । मनोरमं यौवनमुद्वहन्त्या, गर्भोऽभवद् भूधरराजपत्न्याः || ”
[ कु० सं० १।२६ ] अथ- हिमवतो विवाहानन्तरं, कालक्रमेण - गच्छता कालेन तयो: - हिमवन्मेनकयोः, स्वरूपयोग्ये- उभयोरनुरूपे, सुरतप्रसङ्गे - रहःक्रीडाविलासे, प्रवृत्ते - समारब्धे सति मनोरमं चेतःप्रसादकं यौवनं - तारुण्यम्, उद्वहन्त्याः
१४०
"
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[अ० २, सू० १५५-१५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १४१ धारयन्त्याः, भूधरराजपत्न्याः- पर्वतपतिभाया मेनकायाः, गर्भ:- सन्तानोत्पत्तिसंभावना, अभवदित्यर्थः । अत्र प्रथमे पादे तो जो गौ, द्वितियादिषु त्रिषु जतजा गौरिति विवेकः । यद्यपि चतुर्थे प्रथमाक्षरस्य संयोगपरत्वनिमित्तकं गुरुत्वं प्राप्तमिति स्थापनाप्रतिकूलता समायाति तथापि रसंयोगे गुरुत्ववर्जनात् समाधेयम् ॥ उ० जा० ७ ॥
अष्टमस्योपजातिभेदस्य बालानामकस्य ‘sssi' इत्येवंस्थापितस्योदाहरणं यथा
"यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं, मेरी स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे । भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च, पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥"
[कु० सं० १।२] सर्वशैला:- हिमवदतिरिक्ताः सर्वे पर्वता:, यं- हिमवन्तं, वत्सं- तर्णकं, परिकल्प्य- विधाय, दोहदक्षे- दोहनकार्यक्षमे, मेरो- तन्नामके पर्वते, दोग्धरिदोहकर्तरि, स्थिते सति, भास्वन्ति- प्रकाशमानानि, रत्नानि- मणीन्, महोषधीश्च, पृथूपदिष्टां- पृथुना राज्ञा गोत्वेन निर्दिष्टाम्, धरित्री- पृथ्वी, दुदुहुःनिःसारयामासुः, दुहेर्द्विकर्मकत्वात् पृथ्व्या अपि कर्मत्वम् । अत्र पादत्रये तो जो गौ, शेषे च जतजा गाविति विज्ञेयम् ॥ [उ० जा०६] उपजातेरष्टमप्रभेदस्य आर्द्रनामकस्य 'Issi' इत्येवं स्थापितस्योदाहरणं यथा"दिवाकराद् रक्षति यो गृहासु, लीनं दिवा भीतमिवान्धकारम् । क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, ममत्वमुच्चैःशिरसां सतीव ।।"
[कु० सं० १११२ ] य:- हिमालयः, दिवा- दिवसे भीतमिव- त्रस्तमिव, गृहासु- कन्दरासु, लीनं- छन्नम्, अन्धकारं- तमः, दिवाकरात्- सूर्यात्, रक्षति- स्थापयति, शरणं-स्वाश्रयं, प्रपन्ने- प्राप्ते, समागते, क्षुद्रेऽपि- नीचेऽपि जने, उच्चैःशिरसांउन्नतमस्तकानां जनानां, सतीव- सज्जन इव, ममत्वम् - आत्मीयताबुद्धिः । अस्य तथा गूढा गुहाप्रदेशाः सन्ति यत्र दिवसेऽपि अन्धकारस्तिष्ठत्येवेति विशेषार्थः, शरणागतस्य क्षुद्रस्यापि रक्षणं समुन्नता जनाः कुर्वन्त्येवेति सामान्येन समर्थितः । अत्र प्रथम-चतुर्थयोः पादयोर्जतजा गौ, द्वितीय-तृतीययोश्च तो जो गाविति विवेकः ॥ उ० जा० ६॥
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१४२ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५५-१५६.]
अथोपजातेदंशमप्रभेदस्य भद्रानामकस्य 'sisi' इत्येवं स्थापितास्योदाहरणं यथा
"अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः । पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य, स्थितः पृथ्व्यिा इव मानदण्डः ॥"
[कु० सं० १११ ] उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा- देवस्वरूपः, पूर्वापरी- प्राच्य-पाश्चात्यो, तोयनिधी- समुद्री, वगाह्य- तयोरवगाहनं कृत्वा, स्थित:- मध्ये वर्तमानः, पृथ्व्यिाः - भूमेः, मानदण्ड:-परिमाणकाण्ड इव, हिमालयो नाम नगाधिराजःगिरीशः, अस्तीत्यर्थः । अत्र प्रथम-तृतीययोः- तो जो गौ; द्वितीय-चतुर्थयोश्च जतजा गो इति विवेकः । भद्रेव पिङ्गलछन्दःसूत्रे आख्यानकी कथिता, "आख्यानकी तो ज्गौ ग्, ज्तौ ज्गो ग्” [ पि० सू० ५।३७ ] इति सूत्रेण 'यस्याः प्रथमे पादे तो जो गौ, द्वितीये पादे ज-तजा गौ, च पूर्वार्धे, एवमुत्तरार्धेऽपि सा आख्यानकी ज्ञेयेति तदर्थः [ उ० जा०६] ॥ उपजातेरेकादशभेदस्य प्रेमानामकस्य ||si' इत्येवं स्थापितस्योदाहरणं यथा
"अनन्तरत्नप्रभवस्य तस्य, हिमं न सौभाग्यविलेपि जातम् । एको हि दोषो गुणसन्निपाते, निमज्जतीदुनोः किरणेष्विवाङ्कः ॥"
[कु० सं० ११३ ] अनन्तरत्नप्रभवस्य- असंख्यमणिसमुद्भवस्थानस्य, तस्य- हिमवतः, हिमंतुषारः, सौभाग्यविलोपि- सुभगत्वनाशकं, न जातं- नाभवत्, हि-यतः, इन्दोः- चन्द्रस्य, किरणेषु- रश्मिषु, अङ्कः- लाञ्छनम् इव, गुणसन्निपातेगुणसङ्घ, एकादोषः निमजति- प्रतीतिविषयतां न गच्छति न गण्यते वा । अतिशैत्यसत्वेऽपि हिमालय स्पृहणीय एवेति भावः । अत्र पूर्वऽधेचतुर्थे च पादे उपेन्द्रवज्रायाः तृतीये इन्द्र वज्रायाः न्यासः [उ० जा० ११] ॥ उपजाते द्वादशप्रभेदस्य रामानामकस्य ।। इत्येवं स्थापनीयस्योदाहरणं यथा
यश्चाप्सरोविभ्रमण्डनानां, सम्पादयित्रीं शिखरै बित्ति । बलाहकच्छेदविभक्तरागा- मकालसंध्यामिव धातुमत्ताम् ॥
[कु० सं० ११४] यश्च हिमालयः, अप्सरोविभ्रममण्डनानाम्- अप्सरसां विभ्रमार्थ- वि.
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[अ० २, सू० १५५-१५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१४३ लासार्थ, यानि मण्डनानि- प्रसाधनानि, तेषां सम्पादयित्रीं- पूर्रायत्री, बलाहकच्छेदविभक्तरागां- बलाहकस्य- मेघस्य, ये छेदाः- खण्डनानि, तैविभक्तः- मध्ये च्छिन्नः, रागो- वर्णो यस्यास्तादृशीम्, अत एव अकालसन्ध्यामिव- सायंकालातिरक्तकाले, जातां सन्ध्यामिव, धातुमत्तां- धातव:स्वर्णादयः, सन्ति यस्य तस्य भावस्तत्तां, बिभर्ति- धारयति । विलासार्थमागतानामप्सरसां कृते मण्डनसाधनानि तत्र सुलभानीति भावः । अत्र पूर्वार्ध तौ जो गौ, उत्तरार्धे जतजा गाविति विवेकः ॥ उ० जा० १२॥ त्रयोदशप्रभेदस्य 'ऋद्धि'नामकस्य ।।'इत्येवं स्थापनीयस्योदाहरणं यथाप्रसन्नदिक पांसुविविक्तवातं, शसस्वनानन्तरपुष्पवृष्टि । शरीरिणां स्थावरजङ्गमानां, सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव ।।
[कु० सं० १।२३ ] प्रसन्नदिक्-प्रसन्ना:- प्रकाशा दिशो यस्मिन् तत्, पांमुविविक्तवातंपाँसुभि:-धूलिभिः, विविक्ता:- रहिता वाता यस्मिस्तत्, शङ्खस्वनानन्तरपुष्पवृष्टि-शङ्खस्वनस्य-कम्बुशब्दस्य, अननन्तरम्- अव्यवहितपश्चात्, पुष्पवृष्टिःकुसुमवर्षणं यत्र तत्, तज्जन्मदिनं- पार्वत्या जन्मदिवसः, स्थावर-जङ्गमानांजडचेतनानां, शरीरिणां- देहिनां, सुखाय- आनन्दाय, बभूवेत्यर्थः । अत्र द्वितीये पादे तो जो गौ, अन्यत्र जतजा गाविति विवेकः ।। उ० जा० १३ ॥
चर्तुदशप्रभेदस्य बुद्धिनामकस्य 'sus' इत्येवं स्थापनीयस्योदाहरणं यथा• अत्रोपजातिविविधा विदग्धः, प्रयोज्यते तु व्यवहारकाले ।
अतः प्रयत्नः प्रथमं विधेयो, भूपेन पुरत्नपरीक्षणाय ॥ भट्ट हलायुधः ॥
अत्र काव्यमार्गे, व्यवहारकाले- क्रयविक्रयव्यवहारे [च] विदग्धःचतुरः, विविधा- अनेकप्रकारा, उपजाति:- संकरजातिः [मण्यादेरपि सङ्करजातिर्भवति] प्रयोज्यते- व्यवह्रियते, अत:, भूपेन- राज्ञा, 'रत्नपरीक्षणायपुरुषरत्नपरीक्षार्थ, प्रयत्नः-प्रयासः, प्रथमं- सर्वतः पूर्वं विधेयः- कर्तव्यः । यथा काव्यमार्गे छन्दःसु विविधा उपजातयो भवन्ति तथा मणिष्वपि भवन्तीति किं पुरलम्, किंस्त्रीरत्नमिति, सम्यक् परीक्ष्य नृपस्तत्संग्रहः कार्य इति भाव । अत्र प्रथम-चतुर्थयोः पादयोरिन्द्रवज्रा, द्वितीय-तृतीययोश्चो पेन्द्रवज्रति विन्यासः ॥ उ० जा० १४ ॥
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सुवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५५ - १५६.]
इत्थमेकादशाक्षरपादयोरिन्द्र वंशोपेन्द्र वंशयोः सङ्करे यथा उपजातश्चतुर्दश तथैव द्वादशाक्षरपादयोरिन्द्रवंशा-वंशस्थयोरपीति वृत्तौ प्रोक्तमेव, तदीया अपि दशभेदा ग्रन्थान्तरात् संगृह्य कथ्यन्ते । अत्रापि चतुष्पाद प्रस्तारस्य पूर्व एव क्रमः, द्विमात्रचिन्हेनेन्द्र वंशापादः, एकमात्रचिन्हेन वंशस्थपाद इत्यवगन्तव्यम् । तत्र 'SIII' एवं स्थापितस्य प्रथमस्य भेदस्योदाहरणं यथा
किं बूथ रे व्योमचरा महासुराः स्मरारिसूनुप्रतिपक्षवर्तिनः । मदीयबाणव्रणवेदना हि साऽघुना कथं विस्मृतिगोचरी कृता ॥
१४४
[ कु० सं० १५।४० ]
रे! स्मरारिसूनुप्रतिपक्षवत्तनः - स्मरारिसूनोः - कार्तिकेयस्य, प्रतिपक्षे-सपक्षे, [ अन्यत्र प्रतिपक्षशब्दस्य विपक्षपरत्वेन - प्रतिकूलः पक्ष इति व्युत्पत्तिमनुसृत्य प्रयोगेऽपीह न तदर्थे प्रयोगेऽपि तु प्रतिगतः पक्षमिति प्रतिपक्षोऽनुकूल एव ] वर्तन्त इति तादृशाः, महासुराः- महान्तो देवाः ! व्योमचराः ? आकाशस्थिता भवन्त किं ब्रूथ ? - किं कथयथ, सा- प्रसिद्धा, मदीयबालव्रणवेदना- मदीयबाणैः कृतानां व्रणानां वेदना, अधुना - सम्प्रति, कथं - केन प्रकारेण, विस्मृतिगोचरीकृता - विस्मृति पथमानीतेत्यर्थः । कार्तिकेयेन स योद्धुमागतं तारकं प्रति देवैः 'त्यजाशु गर्वाम्' इत्यादि कथितम्, तदुत्तरे प्रतिवचनमिदमिति तदनुरूपमेव व्याख्यातम् । अत्र प्रथमे तो जो शेषेषु ज्तो जावित्युभयोः संकरः । जगत्युपजाति० १ ॥
द्वितीयभेद: ' 15 || ' स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणं यथा
पुरोगतं दैत्यचम् महार्णवं दृष्ट्वाभितश्चक्षुमिरे महासुराः । स्मरारिसुनोर्न यनै ककोणके ममुर्महास्तस्यरणेऽवेहलया || [ कु० सं० १५ ] महासुराः- महान्तो देवाः, पुरोगतम् - अग्रतः स्थितम् दैत्यचनू महार्णवं - दैत्यसेनासमुद्रं दृष्ट्वा - अवलोक्य, अभितः - सर्वतः चुक्षुभिरे - कम्पिताः । भहा:- रिपुसैन्यानि तस्य स्मरारिसूनोः - कार्तिकेयस्य, नयनकोणके- नेत्ररूयैकस्मिन् प्रान्तभागे अवहेलया - तुच्छहृष्ट्या ममुः - मिताः । यान् मटान् दृष्ट्वा देवा भीताः, तान्, अनादरेण नेत्र कोणेन दृष्टंव कार्तिकेयस्तिरश्चकारेत्यर्थः । अत्र प्रथम-तृतीय- चतुर्थी पादा वंशस्थस्य द्वितीय इन्द्रवंशाया इति सङ्करः ॥ जगत्युपजाति -२ ॥
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- [अ० २, सू० १५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १४५
तृतीयः प्रभेद: ॥' एवंस्थापितश्चेत् ? तस्योदाहरणं यथानिम्नाः प्रदेशाः स्थलतामुपागमन्, निम्नत्वमुच्चैरपिसवंतश्चते । तुरङ्गमाणां व्रजतां खुरः क्षताः, रथैर्गजेन्द्रः परितः समीकृताः ॥ कु० सं० १४१४४ ॥ [देवसेनाप्रयाणसमये] व्रजतां- गच्छतां, तुरङ्गमाणाम् - अश्वानां, खुरैः क्षताः, उच्चैः प्रदेशाः सर्वतः, निम्नत्वं- निचस्त्वम्, उपागमन्- प्राप्ताः, रथैः, गजेन्द्रः, परित:- सर्वतः, समीकृता:- निम्ना नीचाः प्रदेशाः, स्थलतां- सममूभित्वम्, उपागमन् इत्यर्थः । उच्चःस्थानस्य खुराधातान्समत्वं नीलम च रथगजः पूरणात् समत्वं जातमिति भावः । अत्र पूवासिलवंशाषा उत्तः राधं च वंशस्थस्येति सङ्करः ॥ जगत्युपजाति० ३॥ चतुर्थः प्रभेदः, 'usi' इत्यं स्थापितश्चेत् ? तस्योदाहरणम्-... परस्परं वज्रधरस्य सौनिकाः, द्विषोऽपि योद्धं स्वरोद्धतायुधाः। वैतालिक श्रावितमानसत्क्रमा-भिधानमीयुविजयैषिणो रण।
. ॥कु० सं०१५॥५२ ।। योद्ध- युद्धं कर्तु, स्वकरोद्धृतायुधाः- स्वकरः स्वहस्तैः, उद्धृतानि-धारितानि, आयुधानि यस्तथाभूताः, वज्रधरस्य- इन्द्रस्य, सैनिकाः, द्विषः-शत्रोस्तारकस्यापि [ सैनिकाः ] विजयेषिण:- स्वस्वविजयमिच्छन्तः, वैतालिकश्रावितमानसत्क्रमाभिधानं- वैतालिक:- स्वस्वचारणैः, श्रावितानि- श्रुतिपथं नीतानि, मानश्च सत्क्रमश्चेति भानसत्क्रमौ, तयोरभिघानानि- वार्ताः यस्मिन् तद् यथा स्यात् तथा, परस्परम्- अन्योन्यं प्रति, ईयुः- संगतानीत्यर्थः । अत्र प्रथम-द्वितीय-चतुर्थपादा वंशस्थस्य, तृतीय इन्द्रवंशायाः इति स्पष्टम् ॥ जगत्युपजातिः ४ ॥
पञ्चमः प्रभेदः 'sis' इत्थं स्थापितश्चेत् तदा तस्योदाहरणम्ऊर्वीकृतास्या रविदत्तदृष्टयः, समेत्य सर्वे सुरविद्विषः पुरः । श्वानः स्वरेण श्रवणान्तशातिना मिथो रुदन्तः करुणेन निर्ययुः ॥ कु० सं० १५।२४ ॥ [तारकासुरस्य युद्धयात्राप्रसंङ्गेऽपशुकनप्रस्तावे पद्यमिदम्] ऊर्वीकृतास्या:- आकाशोन्मुखाः, रविदत्तदृष्टयः- सूर्यावलोकिनः, मिथः- परस्परं, करुणेन- शोकेन, श्रवणान्तशतिना- कर्णान्तकष्टप्रदेन, स्वरेण- बुक्कनेन सह, रुदन्तः- अश्रु विसृजन्तः, सर्वेः श्वान:- कुक्कराः, सुरविद्विषः- सुरारेस्तार
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५६.] कस्य, पुर:- अग्रे, समेत्य- आगत्य, निर्ययु:- [वामेन] निष्क्रान्ताः । अत्र प्रथम-तृतीययोः पादयोरिन्द्रवंशा शेषयोश्च वंशस्थम् ॥ जगत्युपजा० ५।।
षष्ठः प्रभेदः 'sss।' इत्थं स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणम्अभ्याजतोऽभ्यागततूर्णतर्णकान्, निर्याणहस्तस्य पुरो दुधुक्षतः। वर्गाद् गवां हुंकृतिचारुनियंतीमरिर्मधौरक्षत गोमताल्लिकाम् ॥ [शिशुपालवघे १२।४१] द्वारकां गच्छतः श्रीकृष्णस्य यात्रायां शुभशकुनवर्णनप्रसंङ्गपद्यमिदम्, मघो:- तन्नामकस्य दैत्यस्य, अरि:- शत्रुः, श्रीकृष्णः, अभ्यागततूर्णतर्णकान्-दोहनसमये दोग्धारं दृष्ट्वा साम्प्रतमयं पयः पाययिष्यतीति प्रत्यांशया, अभ्यागताः- अभिमुखमुपगताः, तूर्णा:- त्वरया युक्ता ये तर्णकाः- वत्सास्तान्, अभ्याजत:- गोरभिमुखं प्रेरयतः, निर्याणहस्तस्य-बन्धनरज्जुकरस्य, दुधुक्षतःगां दोग्धुमिच्छतः, पुरुषस्य, पुर:- अग्रे, गवां वर्गात्- समूहात्, [ निःसृत्य ] हंकृतिचारु-हुमित्यव्यक्तमधुरो वत्सं प्रति स्नेहप्रकाशकः शब्दः, तत्करणेन चार-सुन्दरं यथा स्यात् तथा, निर्यतीं-दोहनस्थानमागच्छन्ती, गोमतल्लिकांश्रेष्ठां गाम्, ऐक्षत- अपश्यदित्यर्थः । अत्र पादत्रये तो जौ, चतुर्थे ज्तो वो इति संकरः ॥ जगत्युपजाति-६ ॥ सप्तमो भेदः Issi' इत्यं स्थापितश्चे? तस्योदाहरणम्न जामदग्न्य: क्षयकालरात्रिकृत्, स क्षत्रियाणां समराय वल्गति । येन त्रिलोकी सुभटेन तेन ते, कुतोऽवकाशः सह वि ग्रहग्रहे ॥
[कु० सं० १५१३७ ] कार्तिकेयेन सह योद्धमायान्तं तारकं प्रति देवानामुक्तिरियम् । क्षत्रियाणां क्षयकालरात्रिकृत्- क्षयार्था कालरात्रि:- कृष्णपक्षीया चर्तुदशीरात्रि:- क्षयकालरात्रिः, तां करोतीतितच्छीलः, जामदग्न्यः-परशुरामः, येन कार्तिकेयेन सह समराय- युद्धं कर्तुं, न वल्गति-न प्रौढीभवति, त्रिलोकी, सुभटेनत्रयाणां लोकानां समाहार:- त्रिलोकी, तस्यां सुमटेन- सर्वतः प्रधानेन वीरेण, तेन- कार्तिकेयेन सह, विग्रहग्रहे- युद्धस्वीकारे, ते- तव क्षुद्रदत्यस्य, कुतःकेन हेतुना, अवकाशः- संभावनेत्यर्थः । सर्वक्षत्रियान्त कृतः परशुरामस्यापि जेताऽयमित्यनेन सह का तव युद्धकथेति भावः । अत्र प्रथमे चतुर्थे च पादे वंशस्थलक्षणम्, द्वितीये तृतीये चेन्द्रवंशालक्षणमित्येतयोः संङ्करः॥जगत्युपजा-७॥
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[अ० २, सू० १५६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१४७ अष्टमः प्रकार: '5' इत्थं स्थापितश्चेत् ? तस्योदाहरणम्निवार्यमाणैरभितोऽनुयायिभि-ग्रहीतुकामैरिव तं मुदुर्मुहुः । अपाति गृधेरभिमौलि चाकुल-भविष्यदेतन्मरणोपदेशिभिः ।
[कु० सं० १५।२६] कार्तिकेयेन सह योद्धं गच्छतस्तारकासुरस्य मार्गेऽपशुकनवर्णनप्रस्तावे पद्यमिदम् । अनुयायिमिः- तारकानुचरः, अभितः- सर्वतो दिशि, निर्वायमाण:परिह्रियमाणः, मुहर्मदुः-वारंवारं, तं- तारकं, ग्रहीतुकाम:- ग्रसितुमिच्छद्भिः, इव, आकुलैः- व्यग्रेः, भविष्यदेतन्मरणोपदेशिभिः- भविष्यत् एतस्य मरणमुपदिशन्ति- सूचयन्तीति तच्छीलः, गृधः, अमिमौलि-तारकमस्तकामिमुखम्, अपाति- पतितमित्यर्थः । अत्रादितः पादत्रये वंशस्थलक्षणं, चतुर्थे पादे चेन्द्रवंशालक्षणमिति तयोः सङ्करः ।। जगत्युपजाति-८॥ नवमः प्रभेदः ''इत्थं स्थापितश्चेत् ? तदा तस्योदाहरणम्खातं खुरै रथ्यतुरङ्गपुङ्गव-रुपत्यकानां कनकस्थलीरजः । गतं दिगन्तान् प्रखरैः समीरणर्दाहभ्रमं भूरि बमार भूयसा ॥
[कु० सं० १४।२० ] देवसेनायाः प्रस्थानकालिकं वर्णनमिदम् । रथ्यतुरङ्गपुङ्गवः- रथे युक्तारथ्याः, ये तुरङ्गपुङ्गवाः- अश्वश्रेष्ठाः, अथवा तुरङ्गाः- अश्वाः, पुङ्गवाःवृषाश्च तैः, खुरैः,- चरणनखैः, खातं- विदारितं, भूरि- अधिकतरम्, उपत्यकानां-पर्वतोद्धभूमिसम्बन्धि, कनकस्थलीरजः- सुवर्णमयभूमिपांसुः, प्रखरःतीव्रः, समीरणः- वायुभिः, दिगन्तान्- सर्वदिक्प्रान्तभागान्, गतं- व्याप्तं सत्, भूयसा- बाहुल्येन, दाहभ्रमं- दिग्दाहभ्रन्ति, बमार- पुपोषेत्यर्थः । अत्र प्रथम-चतुर्थयोः पादयोरिन्द्रवंशाया द्वितीय- चतुर्थयोश्च वंशस्थस्य लक्षणमिति तयोः सङ्करः ॥ जगत्युपजातिः-६ ॥
दशमः प्रभेदः 'Iss' इत्थं स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणं यथानितान्तमुत्तुङ्गतुरङ्गहेषित-रुहामदानद्विपबृंहितैः शरैः। चलवजस्यन्दननेमिनिः- स्वन-श्चाभूनिरुध्च्छ्वासमथाकुलं नमः ॥
[ कु० सं० १४-४१] तारकेण सह युद्धाय गच्छति देवसैन्ये जातायाः स्थितेर्वणनमिदम् । निता
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५६. ] न्तम्- अत्यन्तं, उत्तुङ्गतुरङ्गहेषितैः- अत्युच्चाश्वशब्दः, शतैः- अनन्तः, उद्दामदानद्विपबंहितः- उद्दामं निरतिशयप्रवृत्तं, दानं- मदो येषां तादृशा ये द्वियाः- हस्तिनः, तेषां हितैः- गजितः, चलवजस्यनन्दननेमिनिःस्वनैःचलन्तः- कम्पमाना ध्वजा येषां तादृशानि, यानि स्यन्दनानि तेषां नेमिनि:स्वनैः- चक्रप्रान्तभागशब्दः, नभः- आकाशं, निरुच्छवासं- निखकाशम्, अथ-किञ्च, व्याकुलं- व्याप्तं, अभूदित्यर्थः । अत्र प्रथम-तृतीयोः पादयोः वंशस्थम, द्वितीय-चतुर्थयोश्च पादयोरिन्द्रवंशाच्छन्द इति तयोः सङ्करः ॥ जगत्युपजातिः-१० ॥
एकादशः प्रकारः 's' इत्येवं स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणं यथाश्रुत्वेति वाचं वियतो गरीयसी, क्रोधादहङ्कारपरो महासुरः। प्रकम्पिताशेषजगत्रयोऽपि स-नाकम्पतोच्चैदिवमभ्यधाच्च सः ॥
[कु० सं० १५॥३६ ] उभयोः पक्षयोः सेनासु परस्परं सन्नद्वासु देव कृते भर्त्सने तदुत्तरदानाय तारकस्योद्यतस्यावस्थावर्णनम् । वियत:- आकाशात्, इति- पूर्वोक्तां वाचं श्रुत्वा, क्रोधात्- कोपात, अहङ्कारपर:- गर्वोन्मुखः, महासुरः- तारकः, प्रकाम्पिताशेषजगत्रयः- प्रकम्पितं भीषितम्, अशेष- सम्पूर्ण, जगत्रयं येन तथाभूतः सन्नपि, उच्चैः- अतिशयम, आकम्पत- अभैषीत्, दिवम्- आकाशं प्रति, अभ्यधात् च- अब्रवीच्चेत्यर्थः । अत्र प्रथम-ततीय-चतुर्थेषु पादेषु इन्द्रवंशायाः, तृतीये वंशस्थस्य च लक्षणमिति तयोः सङ्करः ॥ जगत्युपजातिः-११ ।। द्वादशो भेदः ॥ऽ' इत्थेवं स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणं यथाकटुस्वरः प्रालपताम्बरस्थिताः, शिशोर्बलात् षड्दिनजातकस्य किम् । श्वानः प्रमत्ता इव कातिके निशि, स्वरं वनान्ते मगधूर्तका इव ।।
[कु० सं० १५।४५] देवानां वचनं श्रुत्वा तारक उवाच- हे अम्बरस्थिता:- आकाशवर्तिनः, षड्दिनजातकस्य- षड् दिनानि जातस्य यस्य स षड्दिनजातः, स एव षड्दिनजातकः, तस्य, शिशोः- कार्तिकेयस्य, बलात्, कातिके निशि- कार्तिकमासीयरात्री प्रमत्ताः- श्वानः- कुक्करा इव, वनान्ते- वनमध्ये, मृगधूर्तका:शृगाला इव, स्वैरं- यथेच्छं, कटुस्वरैः किं प्रालपथ- प्रलापं कुरुथेत्यर्थः ।
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[अ० २, सू० १५६. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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अत्र प्रथमार्धे वंशस्थलक्षणमुत्तरार्धे इन्द्रवंशालक्षणमिति तयोः सङ्करः । जगत्युपजातिः - १२ ॥
त्रयोदशः प्रकारः ‘SIऽऽ' इत्येवं स्थापितश्चेत् तस्योदाहरणम्पद्म रनन्वीतवधूमुखद्युतो, गता न हंसैः श्रियमातपत्रजाम् ।
दूरेऽभवन् भोजबलस्य गच्छतः, शैलोपमातीतगजस्य निम्नगाः । शिशुपाल वध-१२-६१ ।
शैलोपमातीतगजस्य - पर्वत सादृश्यातिक्रान्तहस्तिनः गच्छतः - चलतः, भोजबलस्य - भोजराज सैन्यस्य, पद्मः - स्वीयकमलैः, अनन्वीत - वधूमुखद्युत:- अननुगतबलान्तर्गतवनिताकान्तस्यः, हंसै :- स्वचारिभिः कलहंसः, आतपत्र जां- छत्रसम्बन्धिनीं श्रियं - शोभां न गताः- न प्राप्ताः, निम्नगाःनद्यः, दूरेऽभवन् - दूरं प्रसृताः । अयं भावः - भोजराजबले याः भहानां स्त्रियतासांमुखेन नद्याः पद्मानि निर्जितानि, छत्रैहंसा निर्जिताः, गजैः शैला निर्जिता इति भीत्या नद्यः पलायिता इति सैन्यानि सुखेन पारं गतानीति । अत्र प्रथम- तृतीय- चतुर्थेषु पादेषु इन्द्रवंशालक्षणाम्, द्वितीये च वंशस्थलक्षणमिति तयोः सङ्करः ॥ जगत्युपजातिः - १३ ॥
चर्तुदशप्रकारस्य 'Iऽऽऽ' इत्येवं स्थापितस्योदाहरणं यथा
"
महाचमूनामधिपाः समन्नतः सन्नय सधः सुतरामुदायुधाः । तस्थुर्विन प्रक्षितिपालसङ्कुले तस्याङ्गणद्वारि बहिः प्रकोष्ठके ॥
,
[ कु० सं० १५६ ] तारकस्य प्रमाणसमये सुतराम् - अत्यन्तम्, उदायुधाः- उद्यतशस्त्राः, महाचमूनामधिपाः- महासेनापतयः समन्ततः- सर्वतः संनहय- सज्जीभूय, विनम्र क्षितिपालसङ्कुले - नम्रीभूतै राजभिर्व्याप्ते, तस्य - तारकस्य, अङ्गणद्वारि - अजिरद्वारभूमौ बहिः प्रकोष्ठ के - बाह्यालिन्दे, तस्थुः - स्थिता इत्यर्थः । अत्र प्रथमे पादे वंशस्थम्, द्वितियादिषु इन्द्रवंशेति तयोः सङ्करः । जगत्युपजातिः - १४ ॥
अत्र समवृत्त प्रकरणे विषमवृत्तस्योपजातेश्वर्चा किमर्थमित्याशङ्कायामाह - समवृत्तप्रस्तावेऽप्युपजातीनामुपन्यासो लाघवार्थः इति । अयमाशय:नेयमुपजातिः सर्वथा विषमवृत्तं, किन्तु समाक्षराणां सजातीयातामेव सङ्कररूपेति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० १५७.]
समवृत्तत्त्वमप्यत्रास्त्येव, तथापि यद्यस्या विषमवृत्तत्वापृहस्तहिं लाघवार्थ:लघुनोपायेन तदुपदेशार्थ एवेह समवृत्तप्रस्तावे तदीयविचारोऽवसेयः, पृथगीदृशच्छन्दसो विचारे हि प्रकरणान्तरनिर्माणगौरवं स्यात् भवेच्च प्रयत्नाधिक्यमिति तत्परिहारायैवात्र तदुपन्यास इत्यर्थः ॥ अ० २, सू० - १५६ ।।
१५०
सर्वजातीनामपीति वृद्धाः ॥१५७॥
सर्वजातीनां मुक्तादीनां प्रायो गायत्र्यादीनां मितः परासां जगत्यादीनां कृतनामाकृतनामविसदृशप्रस्ताररूपस्वस्वपादानां स्वल्पमेदानां सङ्कर उपजातिरिति बहुश्रुताः प्राहुः । यथा त्रिष्टुभः स्वप्रस्तारेण -
कामे काहि कमियं खु दुक्खं, छिदाहि दोसं विणएज रागं ।। १५७.१ ।। तथा - सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कार्यग्गिरा मो मणसा य निच्चं ।। १५७.२ ।। परजातिप्रसारेण यथा - युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः, स्कन्धोऽर्जुनो मोमसेनोser शाखा । मद्रीसुतौ पुष्पफले समृद्ध, मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्रह्मणाश्च ।। १५७.३ ।। जे आवि मंदेत्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुएत्ति नञ्चा ।। १५७.४ ।। ११।३० ॥
इत्थं सजातीयानामेव सङ्करस्योपजातित्वं स्वमेतनोक्त्वा विजातीय वृत्तानामपि संकर उपजातिरिति केषांचित् - प्राचां मतमुपन्यस्यति - सर्वजातीनामपीति वृद्धाः इति । सूत्रं विवृणोति - सर्वजातीनामित्यादिना । सर्वजातीनामित्यस्यैव व्याख्यानम्— उक्तादीनामिति । उक्तादयः सुप्रतिष्ठान्ता जातयो न विशेषतो व्यवहारगोचरा इति मनसिकृत्याह - प्रायो गायत्र्यादीनामिति - ततः प्रारभ्यैव छन्दसां काव्यादिषु व्यवहारस्य दर्शनादिति भावः । मध्येऽस्य विचारस्य प्रस्तुतत्वात् किं गायत्र्या आरम्य त्रिष्टुप्पर्यन्तानामेव सङ्करविषयेऽयं विचार उत परतो वर्णितानामपीति शङ्कामपनुदन्नाह - इतः परासां जगत्यादीनामिति - इतः परासामपि जगतीमारम्य उत्कृतिपर्यन्तानां जातीनामिह सर्वजातीनामित्यनेन सङ्ग्रह इति भावः । ननु सर्वजातीनां प्रस्तारप्राप्ताः सर्वे भेदा नात्र नामधारं कथिता इति कथितानामेवेह ग्रहणमुताकथितानामपीत्याकाङ्क्षायामाह - कृतनामाकृतनामविसदृशप्रस्ताररूपस्व-स्वपादानामिति - कृतं निर्धारितं नाम येषां ते कृतनामानः, न कृतं नाम येषां तेऽकृतना
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[अ० २, सू० १५७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१५१
मानः, एवं विसदृशप्रस्ताररूपाः परस्परभिन्नस्थापनाक्रमरूपाः स्वस्वपादा येषां तेषामित्यर्थः । किं गायत्र्या सह उत्कृत्या अपि सङ्करोऽभिमत इत्याशङ्कायामाह - स्वल्पभेदानामिति - नहि षडक्षरपादया गायत्र्या सह षड्विंशत्यक्षरपादाया उत्कृतेस्तत्सदृशाया वा अन्यस्या बहुभेदवत्या जातेः सङ्कर इह ग्राह्योऽपि तु स्वल्पभेदानामेवेति तथा चैकैकाक्षरैर्न्यूनाधिकानामेव सङ्करो ग्राह्यो न तु बहुभिरक्षरैर्न्यूनाधिकानामिति पर्यवसितम् । वृद्धा इत्यस्यार्थमाहबहुश्रुता इति - तथा च नात्र वयसा वृद्धत्वं ममामिप्रेतं, नवीना अपि श्रुतानेकपूर्वाचार्यव्यवहारा इह वृद्धा इत्युक्ता इति भावः ।
अथ समजातेविसदृशस्व प्रस्तारस्योपजातिमुदाहरति यथा- त्रिष्टुभः स्वप्रस्तारेणेति - एकादशाक्षरवृत्तजातेरेकादशाक्षरेणान्येनाकृतनाम्ना सह संकरो यथेत्यर्थः । कामे कमाहिँ इति दशवैकालिकसूत्रस्य द्वितीयाध्ययनगतपञ्चमगाथायाश्चरणद्वयमिदम्, सम्पूर्णगाथा चेत्थम् - आयावयाहि चय सोगमल्ल, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं ।
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छिदाहि दोसं विणइज्जरागं, एवं सुही होहिसि संपराए ।
ग्रीष्मे आतपनां गृहाण, त्यज सुकुमारताम्, कामान् अतिक्राम, क्रमितं खलु दुःखम्, एवं सुखी भविष्यसि सम्पराये, इति भावः । अत्र प्रथम: पादस्त्रिष्टुब्जातीयोऽप्यकृतनामा, द्वितीयस्तु इन्द्रवज्जाया इति विज्ञेयम् ।। १५७।१ ।
एवमुदाहरणान्तरमप्याह- सक्कारए सिरसेति- सत्कारय शिरसा प्राञ्जलिकः कायेन गिरा भो मनसा च नित्यमितिच्छाया । अत्रापि प्रथमः पादोऽकृतनामा, द्वितीया - इन्द्रवज्याया इति त्रिष्टुभ एवात्र सङ्करः ।। १५७।२ ।।
इत्थं सजातीयप्रस्तारेण सङ्करमुदाहृत्य विजातीयप्रस्तारेण सङ्करमाहपरजातिप्रस्तारेण यथेति । युधिष्ठिर इति युधिष्ठिरः - प्रथमः पाण्डवः, धर्ममय:- धर्मप्रचुरः, धर्मस्वरूपो वा, महाद्रुमः, अर्जुन:- मध्यमपाण्डवः, अस्य- वृक्षस्य, स्कन्ध:- मूलशाखा, भीमसेनः - द्वितीयः पाण्डवः, अस्य वृक्षस्य शाखा - अचान्तरविटप:, माद्रीसुती - नकुल सहदेवी [अस्य ] समृद्धे पुष्पफले, कृष्णः, ब्रह्म, ब्राह्मणाश्च [ अस्य ] मूलमित्यन्वयः । अत्र प्रथमे पादे व शस्थम्, स्कन्ध इति द्वितीये पादे लयग्राही, तृतीये इन्द्रवज्जा, चतुर्थे च शालिनीति छन्छश्चतुष्टयस्य सङ्करः ।। १५७-३ ।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १५८.] प्राकृतेऽपि परजातिप्रस्तारेण सङ्करं दर्शयति- जे आवि मंदेत्ति- 'यश्चापि मन्देति गुरुं विदित्वा बाला इमे अल्पश्रुता इति ज्ञात्वा' इतिच्छाया। अत्र च प्रथमे पादे इन्द्रवज्रायाः, द्वितीये च वक्ष्यमाणंकेकिरवच्छन्दः । इत्थं च प्राचां मतेन परजातीयसङ्करेणापि उपजातिप्रयोगः आगमपुराणादिप्रसिद्ध इति दर्शितम् । भट्ट हलायुधस्तु पिङ्गलच्छन्दः- शास्त्रवृत्तौ स्वल्पभेदानामेकजातीयच्छन्दसामेव सङ्करस्योपजातित्वमिति षष्ठेऽध्याये प्रतिपादितवान् । तट्टिपणीकृता च भिन्नजातीनामपि सङ्कर इति नव्यमतत्वेन प्रतिषाद्य- "वस्तुतस्तु सर्वैरपिच्छन्द:शास्त्रकाररुपजातेः समवृत्ताधिकार एवाम्नानात् विषमाक्षरवृत्तमिश्रणस्याप्युपजातित्वेऽर्धसमविषमवृत्तेष्वतिव्याप्तेः “अत्रानुक्तं गाथा" [पिङ्गलसूत्र० ८।१] इति सूत्रवैयर्थ्यप्रसङ्गात्, छन्दोभङ्गदोषस्य निर्विषयत्वापत्तेश्च समाक्षरयोर्द्वयो मिश्रणमेवोपजातित्वमिति युक्तम् । तथा च रत्नाकरे- "इत्थं किलात्यास्वपि मिश्रितासु स्मरन्ति जातिष्विदमेव नाम ।" इति तल्लक्षणे इत्थं पदप्रयोगोऽपि स्वरसतः सङ्गच्छते । +++ + अत एव माण्डूक्योपनिषद्भाष्ये
"यो विश्वात्मा । विधिजविषयान् प्राश्य भौगान् स्थविष्ठान्, पश्चाच्चान्यान् स्वमतिविभवान् ज्योतिषा स्वेन सूक्ष्मान् । सर्वानेतान् पुनरपि शन; स्वात्मनि स्थापयित्वा, हित्वा सर्वान् विशेषान् विगतगुणगणः पात्वसौ नस्तुरीयः ।।"
इति शङ्करभगवत्पादीयशलोके "न च चतुर्थपादे वृत्तलक्षणाभावादासाङ्गत्यमाशङ्कनीथं गाथालक्षणस्य तत्र सुसंपादत्वात्" इत्यानन्दज्ञानोक्तिः । ++++ भागवतायुदाहरणानि त्वार्षत्वाल्लौकिके नातीवोपयुज्यन्ते । क्वचिल्लौकिके तथा दर्शनं तु दोष एवेति समाक्षरजातिवृत्त? द्वयमिश्रणमेवोपजातिरिति प्रचां मतमेव निर्बाधमिति प्रतिपादितम् ॥ इत्थमेकादशाक्षरपादायास्त्रिष्टुब्जातेस्त्रिशद् भेदा उक्ताः । प्रस्तारगत्या तु २०२८ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन- "श्रेष्टुभे द्वे सहस्त्रे च चत्वारिंशत् तथाष्ट च ।" इति [भ.ना. शा. १४।५६.] ॥
जगत्यां तौ जाविन्द्रवंशा ॥१५८॥ ततजराः । यथा-दारेषु सुग्रीवकपीश्वरस्य यद्, रागानुबन्धं सहसा व्यप
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[अ० २, सू० १५६. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते श्वयः। तत् ते प्लवंगाधिपते ! किमुच्यते, हन्तेन्द्रवंशानुगुणं त्वया कृतम् ॥१५८.१॥
अथ जगतीजातिच्छन्दसां लक्षणान्युपक्रमते- जगत्यां तौ नाविन्द्रवंशेति, तौज्राविति विशदयति- ततजरा इति- तगणद्वयं जगण-रगणौ च 's1. ss1. IS1.11.' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य तत् इन्द्रवंशानामकं जगतीजातिछन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दारेष्विति-हे प्लवंगाधिपते!- वानेश्वरबालिन् ! यत् सुग्रीवकपीश्वरस्य सुग्रीवनाम्नः स्वानुजस्य वानराधिपतेः, दारेषुस्त्रियां, सहसा- हठात्, रागानुबन्ध- प्रणयसम्बन्धं, व्यपञ्चयः- व्यतनोः, तत् ते- तुभ्यं, किमुच्यते- किं साधुतयाऽसाधुतया वा वर्ण्यते, हन्त- इति खेदे, त्वया इन्द्रवंशानुगुणम्-इन्द्रपुत्रत्वात् तदीयचरितानुरूपं, कृतं-विहितम् । त्वत्पितापि परदाररतत्वेन ख्यात इति तद्वंश्यस्त्वं तदनुरूपमेवाचरितवानसीति भावः । 'दा[s]रे[5] [1], सु[s]ग्री[5]व[1]क [1]पी[5] श्व[1] [5] स्य[i], यत्[5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१५८ ॥
जतज्रा वंशस्थम ॥१५६।। यथा-पुरूरवो-नाहुषि-पूरवः पुरा, दधुर्धरां धारयतेऽधुना भवान् । अपूर्वमेतच्चरितं न तावकं, वदन्ति वंशस्थमिदं महोपते! ॥ १५६.१॥ वसन्तमारी, अभ्रवंशा चेत्यन्ये ॥ १५९.१॥
द्वितीयं प्रभेदमाह- जतजा वंशस्थमिति । जतज्रति- जगण-तगणजगण-रगणाः 'Isi, ssI, ISI, sis' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् वंशस्थं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतति-यथा-पुरूरवो-नाहुषि-पूरवः इति, पुरा- त्वत्तः पूर्वस्मिन् काले, पुरुखो- नाहुषि-पूरव:- पुरुरवाश्च, नहुषस्यापत्यं पुमान्- नाहुषिश्च, पुरुश्चेति ते, एते चन्द्रवंशीयाः पुराणप्रसिद्धा राजानः, धरां- पृथ्वीं, दधुः- धारयामासुः, अधुना-सम्प्रति भवान् धारयते। एतत्- तावकं- तव चरित्तम्, अपूर्वमद्भुतं न, इदं वंशस्थं- वंशक्रमागतं, वदन्ति- कथयन्ति । तव वंश्याः पूर्व राजानो यथा अनायासेन पृथिवीं पालयामासुस्तथा त्वमपि पालयसि, तदिदमन्येषां कृते यथा तथा वाऽस्तु, भवतः कृते तु कौलिको धर्म एष इति भावः । पु[1] रू[5]र[1]वो[5]ना[s] []षि
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१५४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १६०-१६१.] [1][s]र[1]व:[s], पु[0] रा[s]' इति लक्षण संगतिः। अस्यैव च्छन्दसो नामान्तरमाह- वसन्तमञ्जरी अभ्रवंशा चेत्यन्ये इति । अ० २, सू०-१५६ ।।
नमज्याः कलहंसा ॥१६०॥ यथा- गुणलवेऽपि सुभग! प्रियसख्या, गुणिकथाक्रमवशात् प्रकृते ते । घटयते किमपि नाटितलज्जा, कृतकमाशु सुतनुः कलहं सा ॥ १६०.१॥ द्रुतपदा, मुखरं चेत्यन्ये ॥ १६०.१॥ ___ तृतीयं प्रभेदमाह- नभज्याः कलहंसेति- नगण-भगण-जगण-यगणाः 'm, sh, Ish, Iss,' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् कलहंसानाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-गुणलवेऽपीति- हे सुभग !सौभाग्यशालिन् !, प्रियसख्या- स्वप्रियवयस्यया, गुणिकथाक्रमवशात्- गुणिनां चर्चाप्रसङ्गेन, ते-तव, गुणलवेऽपि- सुचरितांशेऽपि, प्रकृते- प्रस्तुते सति, सापूर्वोक्ता, सुतनु:- अङ्गना, नाहितलज्जा- प्रदर्शितत्रपा यथा स्यात् तथा, आशु- शीघ्र, किमपि- अनिर्वचनीयं, कृतकं- कृतिमं, कलहं- विग्रहं, घटयते- प्रपञ्चयति । तथा सा त्वयि अनुरक्ता यथा पुनः पुनस्तव कथाविस्ताराय व्याजेन तव चर्चाप्रसंङ्गे कलहं करोति यथा त्वं कथयसि नासावेवमिति कथिते हि तत्सखी स्वमतसाधनाय यथा भूयो भूयस्तव गुणानावर्तयेदित्याशया । अस्यापि नामान्तरे आह- द्रुतपदा मुखरं चेत्यन्ये इति- अन्येऽद्भुश्छन्दः द्रुतपदेति मुखरं चेति यथारुचि कथयन्तीत्यर्थः । गु[]ण[1]ल[1]वे[5]पि[i], सु[1] भ[]ग ![s]प्रि[1]य[1]स[5]ख्या[s]' इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू०-१६० ॥
नमसाश्चन्द्रवत्म ॥१६१॥ रनभसाः । यथा- संहिकेयमयविह्वलमनसः स्वप्रमाभिरिह दक्षमुनिसुताः। नाममात्रमपि सोढुमपटवश्, चन्द्रवर्त्म रचयन्ति हततमः ॥ १६१.१ ।।
चतुर्थं प्रकारमाह- नभसाश्चन्द्रवर्मेति- रगण-नगण-भगण-सगणाः 's1. S.m.s.s.' इतीहोरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् चन्द्रवर्त्मनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सैहिकेयेति, संहिकेयभयविह्वल
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[अ० २, सू० १६२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१५५ मनसः-सैहिकेयातू- राहोः, यद् भयं तेन, विह्वलमनसः- व्याकुलीकृतचित्ताः, दक्षमुनिसुताः- दक्षप्रजाप्रतिकन्याः सप्तविंशतितारकाः, नाममात्रमपि- राहोः नाम 'तमः' तन्मात्रमपि सोढुं- क्षन्तुम्, अपटव:- असमर्थाः सत्यः, चन्द्रवर्मआकाशम्, स्वप्रभाभिः- स्वीयप्रकाशः, हततमः- नष्टान्धकारं, रचयन्तिविदधति । तमसि नष्टे राहुरेव नष्ट इति ताराणां ज्ञानमिति भावः । 'मैं [s]हि[1] के [5]य[1]भ[1] य[1]वि[s] ह्व[1]ल[1]म[1]न[1]सः[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१६१ ॥
सीस्तोटकम ।।१६२॥ सोरिति चत्वारः सगणाः । यथा-परलोकविरुद्धकुकर्मरतं, बहिरार्जवमादधतं कुटिलम् । विषकुम्ममिवेद्धसुधापिहितं, त्यज मित्रमतोटकतंकगुणम् ॥१६२.१ ।। मात्रासमकमिदम् ॥ १६२.१ ॥
पंञ्चमं प्रकारमाह- सीस्तोटकमिति । "समानेनकादिः" [१-४] इति नियमादीकारस्य चतु: संख्यापरत्वेनाह- सीरिति चत्वारः सगणाः इति, तचा च ।।...|s.' इतीदृशवर्णः कृताः कृताः पादा यस्य तत् तोटकं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-परलोकेति । अत्र पद्ये त्यजमित्रमिति तुरीये पादे पाठोऽस्ति, क्वचिच्च त्यज भृत्यमिति पाठः, स एव च समीचीनः प्रतिभाति, मित्रशब्दस्य क्लीबत्वेन तद्विशेषणतया द्वितीये पादे 'आर्जवमादधतम्' इति पाठासङ्गतिः स्यात्, तथा च भृत्यमिति पाठमवलम्ब्यैव व्याख्यायते । परलोकविरुद्धकुकर्मरतं- परलोकः- स्वर्गादिः, तद्विरुद्धंतत्र हितानाधायकं, यत् कुकर्म- कुत्सिताचरणं, तत्र रतं- लग्नं, बहिःप्रत्यक्षम्, आर्जवम्-सरलत्वम्, आदघतं- धारयन्तं, [किन्तु अन्तः] कुटिलंवक्रम, इद्धसुधापिहितं- प्रदीप्ता- मृताच्छन्नं, विषकुम्भममिव- विषपूर्णघटमिव, अतोटेकतैकगुणं- कलहे सत्यपि कार्याच्छेदः- अतोहकता सेवाया अत्याग एव एकः- केवलो गुणो यस्य तादृशं मृत्यं त्यजवर्जयेत्यन्वयः । 'प[1][I]लो[5] क[1]वि[1] रु[s]घ[1]कु[1]क[s]म [1]र [1]तम्[s]' इति लक्षणसमन्वयः । सगणस्य चर्तुमात्रत्वेन चतुर्भिश्चतुर्मात्रगणेनिमित्त मात्रासमकवृत्तेऽप्यस्यान्तर्भावः कर्तुं शक्यत इत्याह- मात्रासम
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १६३.] कमिदमिति- तृतीयाध्याये- "अजमुखश्चीर्गन्तो नवमे ले मात्रासमकम्" [६५] इति सूत्रेण मात्रासमकं वर्णितम्, अत्रापि जगणो मुखे नास्त्येव, नवनमात्राया लधुत्वमप्यस्ति, चत्वारश्चतुर्मात्रगणा अपि सन्त्यैवेति तत्रान्तर्भावः सुशकः । नामान्तरस्यापि संभवादिह वर्णवृत्ते प्रकरणेऽपितदुक्तिः ॥ अ० २, सू०-१६२ ॥
नमभ्रा द्रुतविलम्बितम ॥१६३॥ यथा- परुषसान्द्रवचोरचनाञ्चिता, रुदितहासविलोलविलोचना। अवचनं कथयत्यतिरागिता, द्रुतविलम्बितचित्रगतैरियम् ॥ १६३.१ ॥ हरिणप्लुतमिति भरतः॥ १६३.१॥
षष्ठं प्रभेदमाह- नभभ्रा द्रुतविलम्बितमिति- नगण- भगण- भगणरगणाः 'm, II, II, sis' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् द्रुतविलम्बितं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- परुषसान्द्रेति, परुषसान्द्रवचोरचनाञ्चिता- [ अत्र सान्द्रेत्यस्य स्थाने साद्रेति पाठः स्यात्, तर्हि अर्थप्रतीतो सामञ्जस्य मधिकं भवेत्, तथापि प्रकृतपाठमवलम्ब्यैव व्याख्यायते ] परुषाणि- रूक्षाणि, सान्द्राणि- श्लक्ष्णानि च, वचांसि तेषां रचनया-प्रयोगेण, अञ्चिता- पूजिता, रुदितहासविलोलविलोचना- रुदितं च हासश्च [कदाचित् रोदनम्, परतश्च झहित्येव हसनमिति भावः] ताभ्यां विलोलेचञ्चले, विलोचने- विशाले लोचने यस्याः सा इयम्, द्रुतविलम्बितचित्रगतैःद्रुतानि- झटिति विलम्बितानि- मन्दानि चेति द्रुतविलम्बितानि, तानि च चित्राणि गतानि द्रुतविलम्बितचित्रगतानि, तैः, अवचनं- कथनं विनैव यथा स्यात् तथा, अतिरागिताम्- अतिशयमनुरक्तात्वम्, कथयति- प्रकटयति । परस्परविरुद्धयोः परुषसान्द्रवचसोः, रुदितहासयोः, द्रुतगत- मन्दगतयोश्च प्रयोगेण नायके स्वकीयोऽनुराग एव दृढीक्रियतेऽनयेति भावः । 'प[1] रु[1]ष[1]सा[s]न्द्र[1]व[1]चो[5]र[1]च[1]ना[s]ञ्चि[1]ता[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्यनामान्तरमाह- 'हरिणप्लुतमितिभरतः' इति, तथाहि
चतुर्थमन्त्यं दशमं सप्तमं च यदा गुरु । भवेद्धि जागते पादे तदा स्याद्धरिणप्लुता ॥” इति भ० ना० शा० १५।६८ ॥ अ० २, सू०-१६३ ॥
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[अ० २, सू० १६४-१६५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
नौ म्यौ पुटो जैः ॥१६४|| ननमयाः। जैरित्यष्टभिर्यतिः । यथा- तरललवणिमाम्भ:पूर्णकुम्भी, सुचरितफलपाकोलासवल्ली। सुतनु ! तव विराजत्यङ्गसंगा- नयनपुटनिपेया यौवनश्रीः ॥ १६४.१॥
सप्तमं प्रकारमाह- नौ म्यौ पुटो जैरिति । नौ म्याविति व्याख्यातिननमया इति, जैरित्यस्यार्थमाह- जैरित्यष्टभिर्यतिरिति । "त्र्यादिर्गादिः" [१-१७] इति सूत्रणात् गादयो वर्णाः क्रम शस्त्र्यादीनां संख्यानां बोधका इत्युक्तनयेन जकारास्याष्टसंख्यावाचकत्वादयमर्थः । तथा च नगणद्वयं मगणयगणौ च Isssss' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य, अष्टभिश्च वर्णः प्रतिपादमध्ये विरामो यत्र तत् पुटो नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- तरल लवणिमेति-हे सुतनु !- शोभनाङ्गि !, तरलंचञ्चलं, यल्लवणिमाम्भ:- लावण्यरूपं जलं, तेन पूर्णा कुम्मीव- घटीव, सुचरितफलपाकोल्लासवल्ली- सुचरितस्य- पुण्यस्य यत् फलं, तस्य पाक:परिपक्वत्वम्, उल्लास:- विकासश्चेति तयोः, वल्लीव- लतेव, नयनपुटनिपेया- नेत्राञ्जलिभिनिःशेषेण पातुं योग्या, यौवनश्रीः- तारुण्यशोभा, तवभवत्याः, अङ्गसङ्गात्- गात्रसम्पर्कात्, विराजति- विशेषेण शोभत इत्यर्थः । त[1][1]ल[1]ल[1]व[1]णि[1]मा[s]-भ:[s]पू[s]] [1] कु[s]म्मी[s]' इति लक्षणसमन्वय: ॥ अ० २, सू०-१६४ ॥
नौ म्रौ ततम ॥१६५।। ननमराः । यथा- नववयसि वियुक्तानां योषिता, प्रिय! कथय निराशानां का गतिः। त्वमपि सुभग!गन्ता देशान्तरं, गगनमपि च मेघव्यूहैस्ततम् ॥१६५.१॥
अष्टमं प्रभेदमाह- नौ सौ ततमिति । नौ म्राविति विवृणोतिननमराः इति- नगणद्वयं मगण-रगणौ च II, II, sss, sis' इत्येवंरूपर्वण: कृता: पादा यस्य तत् ततं नाम जगत्यां जाती छन्द इत्यर्थः। उदाहरतियथा- नववयसि इति- हे सुभाग !- सौभाग्यशालिन् ! [ एतेन संबोधनेन त्वं तु सर्वत्रापि स्वानुकूलान् भोगान् प्राप्स्यस्यैवैकाहमेव शोचनीयेति ध्वनयति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १६६.] 'क्क भोगमाप्नोति न भाग्य भाग जनः' इत्युक्ते: प्रिय ! न तु स्वामिन् ! इति, [तेन च न केवलं तवाहमिति, त्वमपि मे प्रिय इति स्वस्यानन्याभिलाषिणीत्वं ध्वनयति ] नववयसि- नूतने तारुण्ये, वियुक्तानां- पतिविरहितानां, निराशानां- समये प्रियसंयोगाशारहितानां, योषितां- स्त्रीणां, [ सर्वासामेव स्त्रीणां कृतेऽयं प्रश्नो न तु केवलं ममैवेति योषितामिति बहुवचनेन ध्वनितम्, किञ्च न पुरुषाणां कृते ईदृशः प्रश्नः, तेषां सर्वत्र सर्वदा स्वातन्त्र्यात् ] का गतिःक: प्राणरक्षोपायः [इति ] कथम । कुत इयं विचारणा समुपास्थितेति चेदत्राहत्वमपि देशान्तरं- दूरप्रदेशं, न तु ग्रामान्तरं यतो झटिति प्रत्याववर्तनाशा स्यात्, गन्ता-कश्चिद् दिनर्भविष्य द्गमनः, [न तु साम्प्रतमेव, तेन च विचारावसरो व्यक्तः ] मेघव्यूहै:- मेघसमूहैः, गगनमपि ततं- व्याप्तम्, मेघेनैकेन गगनाच्छादनेऽपि कदाचित् तस्य [ मेघस्य ] गमनं सम्भाव्यते, यदा तु तेषां समूह एव व्यापकरूपेणागतस्तदा नास्ति झटित्यस्य दुःखकरस्य गमनमिति महानयं संकट उपस्थितः, अस्मात् रक्षोपायमवधार्य ततस्त्वया गन्तव्यमिति ध्वनिः॥ 'न[1]व[1] य[1]सि[1], वि[1]यु[s]क्ता[s]नां[s], यो[5]षि[1]तां[s]' इति लक्षणसंङ्गतिः ।। अ० २, सू०-१६५. ॥
नौ भ्रावुज्ज्वला ॥१६६॥ ननमराः । यथा- विनयितमनसोऽपि निरन्तरं, बत विदधतु किं नु विवेकिनः । नयनगतिरियं हि सुदुःसहा, चकितमृगशामहहोज्ज्वला॥१६६.१॥ चलनेत्येके ॥ १६६.१॥
नवमं प्रभेदमाह- नौ भावुजवलेति । नौ भ्राविति व्याख्याति-न-नभ-राः इति- नगणद्वयं भगण-रगणौ च ',m, sh, sis, इत्येवंप्रकारैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् उज्जवलानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदा. हरति- यथा-विनयितमनसोऽपीति-निरन्तरं- सततं, विनयितमनसःविनम्रीकृतं- सन्मार्गे स्थिरीकृतं, वशीकृतं वा, मन:- चेतो येषां ताहशा अपि, विवेकिनः- युक्तायुक्तविवेकनिपुणाः, किं नु विदधतु- इतोऽधिकं किमेभिः कर्तु शक्यम्, तथापि यदि तेषां चेतोऽवशं भवति तत्रास्ति कारणान्तरमित्याह-हियतः, चकितमृगहशा- चकितानां- कुतोऽपि कारणाज्जाताशङ्कानां, मृगाणां
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[अ० २, सू० १६७ - १६८. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
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शाविव दृशौ यासां तासां स्त्रीणाम्, उज्ज्वला - प्रदीप्ता, इयं प्रत्यक्षदृश्यमाना, नयनगतिः - नेत्रचमत्कृतिः, सुदुःसहा- सोटुमशवक्या, अइह - इति दुःखे । विविधोपायैर्वशीकृत चेतसामपि मृगनयनानां सुदुःसह - कटाक्षपानानन्तरं न स्ववशे मनस्तिष्ठतीति तत्र तेषां कोऽपराध इति भाव: । 'वि [1] [] यि []त []म [] न [1] सो[5]पि [1],नि[1]र[5]न्त [][s]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्य नामान्तरमाह - चलनेत्रेत्येके इति केचिदिदं छन्दः चलनेत्रानाम्ना व्यवहरन्तीति भावः ॥ अ० २, सू० १६६ ।।
तीः कामावतारः ॥१६७॥
तोरिति चत्वारस्तगणाः । यथा - मध्ये नताङ्गघा नवा रोमराजीति, यन्मन्यते मुग्धलोको न तत् किं तु । तुङ्गस्तनास्था निकाकुट्टिमारूढ, कामावताराय निःश्रेणिकां विद्धि १६७.१ ॥
1
दशमं प्रभेदमाह - ती: कामावतार इति । “समानेनैकादिः " [१-४] इति नियमादाह - तीरिति तगणाः चत्वारः इति - चतुभिः तगणैः 'SSI.SSI. SSI.SSI' इतीदृशैर्वणैः कृताः पादा यस्य तत् कामावतारो नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - मध्ये नताङ्गयाः इति- मुग्धलोक:ऋजुबुद्धिर्जनः, नताङ्गया : - कुचयुगमरेण मध्यस्य भुग्नत्वान्नम्रगात्रायाः, मध्येउदरप्रदेशे, नवा - नूतना, रोमराजी - लोमपतिरिति यत् मन्यते तत् न, इयं रोमराजी नेत्यर्थः । तर्हि किं तदित्यत आह- तुङ्गस्तनास्थानिकाकुट्टिमारूढकामावताराय - तुङ्गो - अत्युन्नतौ, स्तनावेव आस्थानिका - कामस्य सभा, तस्याः कुट्टिमे - दृढीकृतोपरितनभूमी, आरूढो यः काम:, तस्यावताराग- नीच - तागतं कर्तुं निःश्रेणिकां - सोपानपङ्क्ति, विद्धि जानीहि । उपर्यास्थानिका नीचैश्च तस्य [ कामस्य ] मन्दिरमिति उभयत्र गतागताय निःश्रेणिकाऽवश्य कीति हृदयम् । 'म [S]ध्ये [s], न [1] ता[S]ङ्गघा [s], न[1]वा [S], रो[S]म []रा [ 1 ] जी [ 1 ]ति [ 1 ]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १६७ ।।
,
न्यौं
न्यौ कुसुमविचित्रा ॥ १६८ ॥
नयनया: । यथा - सरसिजवक्त्रा कुवलयनेत्रा, विकचजपोष्ठी विचकिलदन्ता ।
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१६०
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १६६.]
इयमनुरूपा ननु कुसुमेषो-जयति धनुः श्रीः कुसुमविचित्रा ।। १६८.१ ।। इयं मदनविकारा गजलुलितं वा अन्येषाम् ।। १६८.१ ।।
एकादशं [लक्ष्यमाणभेदेषु ] प्रभेदमाह - न्यौ न्यौ कुसुमविचित्रेति । न्यौ न्याविति व्याख्याति - नयनयाः इति - नगण - यगण - नगण - यगणाः ' ।।। ।ऽऽ. ।।। . iss' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् कुसुमविचित्रा नाम जगतीजातीच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा- सरसिजवक्त्रेति, सरसिजवक्त्रा - सरसिजं - कमलमेव वक्त्रं यस्याः सा, पक्षान्तरे - सरसिजमिव वक्त्रं यस्या: सेति, कुवलयनेत्रा कुवलयं - नीलकमलमेव नेत्रं यस्याः सा, पक्षान्तरे - कुवलयमिव नेत्रं यस्या: सेति, विकचजयोष्ठी - विकचा - विकसिता जपा- - अतिरिक्तकुसुमविशेष एव ओष्ठो यस्याः सा, पक्षान्तरे जपेव ओष्ठो यस्याः सा विचकिलदन्ता- विचकिलानिकुन्द कुसुमान्येव दन्ता यस्याः सा, पक्षान्तरे - विचकिलानीव दन्ता यस्या सेति, कुसुमविचित्रा - कुसुमैरन्यैर्नानाविधैः पुष्पैर्वि चित्रा - अद्भुता, [ उभयत्र ] इयंप्रत्यक्षदृश्यमाना, कुसुमेषो:- पुष्पबाणस्य, धनुः श्रीः- धनुषः शोभाभूता, धनुःश्रीखि ज्ञायमाना काचित् कामिनी वा, जयति - सर्वोत्कर्षेण वर्तते, ननुनिश्चितमित्यर्थः : । अत्रेयमिति प्रत्यक्षवाचकेन निर्देशात् काञ्चिदङ्गनामाश्रित्य कथने तस्या एव कामधनुषः शोभारूपताकथनेन सर्वेषां विशेषणानां पक्षान्तरे व्याख्यानम् । मुख्यवृत्त्या तु कामस्य पुष्पवाणत्वेन पुष्पविरचितावयवा वसन्त शोभैव कामस्य धनुःश्रीरिति समायाति । 'स[]र[1]सि [1]ज [1] [s]क्त्रा [S], कु[1]व[1]ल[s] [s]ने[s]त्रा[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्या आचार्यान्तराभिमते नामान्तरे आह- इयं मदनविकारा गजलुलितं वाऽन्येषामिति - यथारुचि नाम्ना व्यवहार इति भावः ॥ अ० २, सू० - १६८ ॥
ज्सज्सा जलोद्धतगतिश्चः ॥१६६॥
जसजसाः । चैरिति षड्भिर्यतिः । यथा - विकासिकुसुमं सदाफलयुतं, निसर्गशिशिरं तटे विटपिनम् । निपातितवती हहा सरिदियं, निकामकलुषा जलोद्धतगतिः ।। १६६.१ ॥
लक्षितक्रमेण द्वादशं प्रकारमाह- ज्सज्सा जलोद्धतगतिश्चैरिति । व्याख्याति - जसजसाः । चैरिति षड्भिर्यतिरिति- जगण-सगण-जगण-सगणाः
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[अ० २, सू० १७० . ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१६१
' 151. ।। 5. II. ।। 5' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य षड्भिश्च यतियंत्र तत् जलोद्धतगतिनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - विकासिकुसुममिति - विकासिकुसुमं - प्रफुल्लपुष्पं, सदाफलयुतं - सर्वदा फलैर्युक्तं, निसर्गशिशिरं - स्वभावतः शीतलं, तटे- तीरे, विटपिनं वृक्षम्; निकामकलुषा - अत्यन्त पङ्किला, जलोद्धतगतिः- जलेन उद्धता - सदर्पा गतिर्यस्याः सा, इयं सरित् नदी, निपातितवती- अपातयत् हहा ? दुःखे । नदीवृक्षान्योक्या कयाचन दुश्चरित्रया कलङ्कितः सत्पुरुषः शोच्यते । 'वि [ । ] का [S]सि[1]कु[1]सु[1]मं[s], स[1]दा[1]फ[1]ल[1]यु[1]तं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १६६ ॥
भुजंगप्रयातम् ॥१७०॥
रिति चत्वारो यगणाः । यथा- न सूरिः सुराणां गुरुर्नासुराणां पुराणां निपुर्नापि नापि स्वयंभूः । खला एव विज्ञाचरित्रे खलानां, भुजंगप्रयातं भुजगा विदन्ति ॥ १७०.१ ।। अप्रमेयेति भरतः ।। १७०.१ ॥
लक्षितवृत्तानां क्रमसंख्यया त्रयोदशं प्रभेदमाह - योर्भुजङ्गप्रयातमिति । " समानेनैकादिः” [१-४] इति न्यायेनाह - योरिति चत्वारो यगणाः इति, यथा च - 'Iss. Iss Iss Iss. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् भुजङ्गप्रयातं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- न सूरिरिति - सुराणां देवानां मध्ये, सूरिः- विद्वत्वेन ख्यातो गुरुः, न असुराणां - दैत्यानां, गुरुः शुक्रः, न पुराणां - त्रिपुरस्य, रिपुः- शत्रुः शिवोऽपि न स्वयंभूःब्रह्म अपि न, [ किन्तु ] खलानां - कुटिलमतीनां चरित्रे - व्यवहारे, खला:कुटिलमतय एव विज्ञा:- विशेषेण ज्ञातार:, [ यथा - ] भुजङ्गप्रयातं - भुजङ्गानां गति, भुजङ्गाः - सर्पाः [ एव ], विदन्ति - जानन्ति । न [ 1 ], सू[5]रिः[5], सु[1]रा[s]णां[s], गु[1]रु[s]र्ना[s]सु[s]रा[s]णां[s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह- अप्रमेयेति भरतः इति - तथाहि
"आद्यं चतुथं दशमं सप्तमं च यदा लघु । पादे तु जागते यस्या अप्रमेया तु सा मता ।।" भ० ना० शा० १५।७२ ॥ अ० २, सू० - १७० ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १७१-१७२.]
रीः स्रग्विणी ॥१७॥ रोरिति रगणाचत्वारः । यथा- तारकामल्लिकामालिकामालिनी, चारचन्द्रप्रभाकेतकीशालिनी । भोगभाजां भुजंगेश्वराणां प्रिया, सेयमुज्जृम्भते शर्वरी स्त्रग्विणी ॥ १७१.१ ॥ पणिनीति भरतः ।। १७१.१ ।।
लक्षितवृत्तानां क्रमेण चतुर्दशं वृत्तमाह-रीः स्रग्विणीति । अर्थमाहरीरिति चत्वारो रगणाः इति, तथा च 'sis. Is. sis. sis.' इतीदृशेरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् स्रग्विणी नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- तारकेति- तारकामल्लिकामालिकामालिनी- तारकाःनक्षत्राण्येव, मल्लिका:- कुसुमविशेषाः, तासां मालिका- पङ्क्तिः , सैव माला यस्याः सा, चारुचन्द्रप्रभाकेतकीशालिनी- चारुः- शोभना, चन्द्रप्रभव केतकीपुष्पविशेषः, तया शालते- शोभते तच्छीला, भोगभाजां- वनितासंभोगयुक्तानां, भोगिनां- फणावतां वा, भुजंगेश्वराणां- महाविटानां महानागानां वा, प्रिया-प्रेमास्पदम्, स्रग्विणी- माल्ययुक्ता, सा इयं शर्वरी- रात्रिः, उज्जम्भते- विकासं प्राप्नोति । 'ता[s]र[1]का[s]म[5]ल्लि[1]का[s]मा[s]लि[i]का[5]मा[s]लि[1]नी[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अस्या नामान्तरमाह-पमिनीति भरतः इति, तथाहिद्वितीयं पञ्चमं चैव ह्यष्टमकादशे तथा।
"पादे यत्र लघुनि स्युः पद्मिनी नाम सा मता ॥” इति [ भ० ना० . शा० १५२७४ ] । अ० २, सू०-१७१।।।
जीर्मोक्तिकदाम ॥१७२|| जीरिति जगणाश्चत्वारः। यथा- समाधिपयोपिनिमग्नमदीन-मनीहमकाममवाममनाधि । जिनेन्द्र मनो मम वाञ्छति नाम, न विभ्रमधाम न मौक्तिकदाम ॥ १७२.१ ॥
लक्षितक्रमेण पञ्चदशं वृत्तमाह- जीौक्तिकदामेति । जीरित्यस्यार्थमाह- जगणाश्चत्वारः इति, तथा च 151. 1. 15. 15.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् मौक्तिकदामनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यया-समाधिपयोषीति- समाधिपयोधिनिमग्न- समाधिः- मनस
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[अ० २, सू० १७३-१७४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते एकाग्रता, स एव पयोधिः- समुद्रः, तत्र निमग्नम्, अदीनम्- अकृपणम्, अनीहं- निरभिलाषम्, अकाम- कामवर्जितम्, अवाम-निष्कपटम्, अनाधिमानसदुःखहीनं, मम मनः, हे जिनेन्द्र !, विभ्रमधाम- विलासावासं, न वाञ्छति, मौक्तिकदाम- मुक्ताहारं च न वाञ्छति, नामेति कोमलालापे। 'स[1]मा[s]धि[1]प[1]यो[s]धि[1]नि[1]म[s]ग्न[1]म[1]दी[s]न[1]' [म्कारस्यानिमपादस्थाकाराश्रितत्वान्नकारस्य न गुरुत्वम् ] इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१७२ ॥
मीः कल्याणम ॥१७३।। मीरिति मगणाश्चत्वारः। यथा- आदित्रष्टा यः सर्वेषां सन्मार्गाणां, प्रत्यादेष्टा यः पापानां त्रैलोक्येऽस्मिन् । तत्त्वज्ञानात् संसाराधेः प्रातः पारं, विश्यात् देवः श्रीनामेयः कल्याणं सः ॥ १७३.१॥ काञ्चनमिदमिति कश्चित् ॥ १७३.१॥
जगत्यां लक्षितक्रमेण षोडशं प्रभेदमाह- मी: कल्याणमिति । मीरित्यस्यार्थमाह- मगणाश्चत्वारः इति, तथा च 'sss.sss.sss.sss.' इतीदृशैर्वर्णः कृताः पादा यस्य तत् कल्याणं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- आदिस्रष्टेति- यः सर्वेषां सन्मार्गाणां- सत्पथानाम्, आदिस्रष्टाप्रथमप्रवर्तकः, यः, अस्मिन् त्रैलोक्ये पापानां- दुष्कर्मणां पापाचारिणां च, प्रत्यादेष्टा- वारकः, तत्वज्ञानात् संसाराब्धेः पारं प्राप्तः स: श्रीनाभेयो देवः कल्याणं दिश्यात्- दद्यात्, इत्यन्वयः । 'आ[s]दि[5][5]ष्टा[s], यः[s], स[5][s]षां[s] स[s]न्मा[5][s]णां[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अस्य नामान्तरमाह- काश्चनमिदमिति कश्चिदिति ॥ अ० २, सू०-१७३ ॥
नाद् मज्राः प्रियंवदा ॥१७४|| नगणात् परे मजराः । यथा- प्रणयतत्परमिमं सखि ! प्रियं, मधुरमालप मयैव शिक्षिता। विधुरिता समदकोकिलारवर्, यदि भविष्यसि मयो प्रियंवदा ॥ १७४.१ ॥ मत्तकोकिलमित्यन्ये ॥ १७४.१ ॥
लक्षितक्रमेण सप्तदशं प्रकारमाह- नाद भत्राः प्रियंवदेति । व्याख्याति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १७५.] नगणात् परे भजराः इति, तथा च नगण-भगण-जगण-रगणाः '.sin. Ist. sis.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् प्रियंवदानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा-प्रणयतत्परमिति- हे सखिन !, प्रणयतत्परंकुतोऽपि कारणात् त्वया सह कलहे सत्यपि मदीयसत्प्रेरणया पुनः प्रणये तत्परं- पादपतनादिना तव परितोषाय उद्यतम्, इम- पुरोवत्तिनं, प्रियं प्रति मधुरं- प्रियवचनम्, आलप- कथय [इति] मयैव शिक्षिता- उपदिष्टा, असि, [ तथापि तदनादृत्य प्रतिकूलभाषिणीत्वम् ] यदि- चेत्, मधौ- वसन्ते, विधुरिता- तेन वियुक्ता सती, समदकोकिलारव:- मत्तकोकिलालापः, प्रियंवदा- अनुकूलभाषिणी भविष्यसि ? इत्येका व्याख्या, परा च- यदि विधुरिता अनेन प्रियेण विरहिता मधो वसन्ते समदकोकिलालाप:- उन्मत्तपरभृतिकाशब्दः प्रियंवदा भविष्यसि तहि [साम्प्रतमेव] मयैव शिक्षिता प्रणयतत्परमिमं प्रियं मधुरमालप । सखीति सम्बोधनेन हितोपदेशपात्रत्वम् व्यजयते । अयमाशय:- भग्ने वसन्ते समागते कोकिलशब्दं श्रुत्वा विप्रयोगदु:सहात्वं स्वयमेवेनं प्रति प्रियभाषिणी भविष्यसीति निश्चितम्, तथा च तव मानस्य किमपि मूल्यं न भविष्यति, साम्प्रतं च मदुपदेशानुल्लङ्घनीयताव्याजेन स्वयं पादप्रणतस्य प्रियस्योपरि कृपाविधानव्याजेन च यदि अनुकूलवादिनी भवसि तदा सर्वथा ते मानरक्षा जायत इति । नामान्तरमाह- मत्तकोकिलमित्यन्ये इति-केचिदन्ये इदमेवच्छन्दो मत्तकोकिलमिति व्यवहरन्तीत्यर्थः । प्र[1]ण[1] य[1]त[s] स्प[i][1]मि[1]म [s], स[1]खि![5] प्रि[1][s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१७४ ॥
ताल्ललिता ॥१७५॥ तगणात परे भजराश्चेत् तदा ललिता । यथा- प्रामेऽत्र पाप ! कलहंसतां बघा, बत्से अपां नहि किमन्ध ! भाव्यताम् । रम्यं वपुर्न मधुरं न ते रुतं, रे काकपाक ! ललिता न वा गतिः ॥ १७५.१ ।।
लक्षितक्रमेणाष्टादशं भेदमाह- ताल्ललितेति । तगणात्परे भजराश्चेत्
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[अ० २, सू० १७६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते तदा ललितेति- 'sI. I. Is1. sis' इतीदृशैरक्षरः पादविन्यासश्चेत् तदा ललितानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- ग्रामेब्रेतिहे पाप !- दुराचारिन् !, अत्र ग्रामे- विज्ञजनविरहिते प्रदेशे, कलहंसतांमरालतां [सतां कलहं च], दधत्- धारयन्, अपां- लज्जां, किं- कुतो, न धत्से- नानुभवसि ? हे अन्ध !- एकाक्षतया काणत्वसत्त्वेन एकत एव दर्शनात परतोऽन्धत्वं, तव स्पष्टमिति भावः, भाव्यता- विचार्यताम्, [यत्] रम्यं[हंसवत्] सुन्दरं, वपुः- शरीरं, ते- तव, नास्ति । मधुरं- कोमलं, श्रुतिसुखं वा, ते रुतं- शब्दः, नास्ति, किंच रे काकपाक !- वायसपोत !, वा- अथवा, ते ललिता- मञ्जुला, गति:- पादविक्षेपरीति, न अस्ति । काकपाकाऽन्योक्त्या कश्चिद् धूर्तस्वस्वरूपानभिज्ञ इव मूर्खसमाजे आत्मानं विज्ञं ख्यापयन् विज्ञतापरिचायकगुणहीनतां स्वस्य स्मार्यते। 'ग्रा[s]मे [s] [0], पा[s]प! [1], क[0] ल[1]ह[s]स[1]तां[s], द[1]धत्[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१७५ ॥
स्जौ सौ प्रमिताक्षरा ॥१७६|| सजी सदयं च । यथा- बहुभिः किमाललपितः कुषियां, सरसाभिधेयघटनारहितः । रसभावमावितषियां हि वरं, प्रमिताक्षराऽपि रचनाऽर्थवती ॥ १७६:१ ॥ चित्रेयम् ॥ १७६.१ ॥
लक्षितक्रमाद् ऊनविंशं प्रभेदमाह- स्जौ सौ प्रमिताक्षरेति । अर्थमाहसजो सद्वयं चेति- सगण-जगणी सगणद्वयं च '...' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा अस्य तत् प्रमिताक्षरानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- बहुभिरिति । अत्र प्रकृतमुद्रितमुस्तके किमाललपि तैरिति मुख्यःपाठः, पाठभेदश्च- आलिलपितैरिति दृश्यते, सोऽपि नाधिकं सामञ्जस्यं वहति, नायं सख्योः परस्परालापविषयः, अपि तु विचारकगोष्ठीविषय एवेति प्रकृतमेव पाठमाहत्य व्याख्यायते, कुधियां- कुमतीनां जनानां, सरसाभिषेयघटनारहित:- सरसा:- रससहिता ये, अभिधेयाः- वाच्यार्थाः, तेषां घटनाविन्यासः, तेनरहितः, आल:- अलन्ति अर्थतो व्यभिचरन्तीति अलाः, त एव आलाः, आलानि च तानि लपितानि- भाषितानि, तैः, किम् ?- किमपि न
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १७७.]
प्रयोजनम् [ किन्तु ] रसभावभावितधियां - रसाश्च - भावाश्चेति तैः, भावितासंस्कृता धीर्येषां तथाविधानम्, अर्थवती- सार्थिका - प्रमिताक्षरा - स्वल्पाक्षराऽपि, रचना - कृतिः, वरं - प्रियाभवतीत्यर्थः । अस्य च्छन्दसो मात्रासमकवृत्तावन्तर्भावमाह - चित्रेयमिति - तृतीयाध्याये मात्रासमकप्रकरणे "नवमश्वचित्रा" । [ ६८ ] इति सूत्रम् । तदर्थ:- नवमो लघुश्चकारात् पञ्चमाष्टमी च [ लघू ] यत्र भवतः सा [ चतुभिः - चतुर्मात्रगणैः कृता ] चित्रेति, प्रमिता - क्षराऽपि चतुरचतुर्मात्रगणैविहिता - नवमपञ्चमाश्च लघवः सन्त्येवेति तत्राऽप्यस्यान्तर्भावः सुशकः, वर्णवृत्तेऽपि प्रस्तारान्तर्भूतत्वात् इहोक्त इति भावः । 'ब [ 1 ] हु [ 1 ]भि: [s], कि [s]मा[s]ल [1]ल [ 1 ]पि [1] तैः [s], कु [ 1 ] धि [ 1 ] यां[s]' इति लक्षणसमन्वयः, मात्रासमकलक्षणसमन्वयश्च तत्प्रकरण एव विज्ञेयः ॥ अ० २, सू० - १७६ ।।
मौ यो वैश्वदेवी ङः ॥१७७||
रिति पश्चभिर्यतिः । यथा- जिष्णुवित्तेशो धर्मराजः प्रचेताः, ईश: श्रीनाथस्तेजसां धाम चेति । यत् त्वं प्रख्यातः श्रीचुलुक्यक्षितीश !, ब्रूमस्तेनेयं वैश्वदेवी तनुस्ते ।। १७७.१ ।। चन्द्रकान्तेत्यन्ये ॥ १७७.१ ।।
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लक्षितेषु विंशं प्रकारमाह- मौ यौ वैश्वदेवी डंः इति । जैरित्यस्य सम्बन्धमाह - ङेरिति पञ्चभिर्यति रिति, तथा च भगणद्वयं यगणद्वयं च 'ऽऽऽ.ऽऽऽ.İऽऽ.Iऽऽ.' इत्येवं विन्यस्तैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् जगतीजाती वैश्वदेवीनामकं वृत्तमित्यर्थः । उदाहरति- यथा- जिष्णुवित्तेश इतिश्री लुक्यक्षितीश !- चुलुक्यवंशीयराजन् ! यत् - यस्मात् त्वं जिष्णु:विजयशीलः [ इन्द्रश्च ], वित्तेश:- धनस्वामी [ कुबेरश्च ], धर्मराज:- चर्तुविषस्य धर्मस्याधिष्ठाता शासको वा [ यमश्च ], प्रचेताः - प्रकृष्टचेतोयुक्तः [वरुणश्च ], ईश:- ऐश्वर्यवान् [शम्भुश्च ], श्रीनाथ :- लक्ष्मीपतिः [ विष्णुश्र्च ] तेजसां धाम - गृहम् [ सूर्यश्च ], इति प्रख्यातः- एभिर्नामभिः प्रसिद्ध:, तेन कारणेन, ते- तव, इयं तनुः- इदं शरीरम्, वैश्वदेवी- विश्वेषां देवानां सम्बन्धिनइति [a], ब्रूमः - कथयाम इत्यन्वयः । त्वं सर्वदेवमय इति भावः । अस्यनामान्तरमाह- चन्द्रकान्तेत्यन्ये इति । जि [s]ष्णु:[s], वि[s] ते [s]
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[अ० २, सू० १७८-१७६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १६७ शो[s], ध[s]म [1] राs]जः[5], प्र[s]चे[5]ताः[s' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१७७ ॥
म्भौ स्मौ जलधरमाला पैः ॥१७८|| ममसमाः । रिति चतुभिर्यतिः। यथा- त्वत्सेनाभिः कृतरिपुधामप्लोषे, दृष्ट्वा व्योम्नि स्फुरदुरघूमस्तोमम् । ग्रीष्मेऽप्युत्काः सपदि मयूरा राजन, शब्दायन्ते जलधरमालाभ्रान्त्या ॥ १७८.१ ॥ कान्तोत्पीडेत्यन्ये ॥ १७८.१ ॥
लक्षितेष्वेकविशं प्रकारमाह- म्भौ स्मौ जलधरमाला छरिति । अर्थमाह- मभमसाः। चैरिति चतुभिर्यतिरिति- मगण-भगण-मगण-सगणाः 'sss.si.sss.ss' इतीहौरक्षरः कृताः पादा यस्य, चतुभिश्च यतिर्यत्र तत् जलघरमालानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- त्वत्सेनाभिरिति- हे राजन् ! त्वत्सेनाभिः- तव बलः, कृतरिपुधामप्लोषे-विहितशत्रुगृहदाहे सति, व्योम्नि- आकाशे, उरुधूमस्तोमं- बहलधूमसमूहम्, स्फुरत्प्रकाशमानं, दृष्ट्वा - अवलोक्य, ग्रीष्मेऽपि- तपर्तावपि, मयूरा:- बहिणः, जलधरमालाभ्रान्त्या- मेघपङ्क्तिभ्रमेण, उत्का:- उत्कण्ठिताः सन्तः, सपदिशीघ्र, शब्दायन्ते- केकारावं विदधति, इत्यर्थः । अस्य नामान्तरमपीत्याहकान्तोत्पीडेत्यन्ये इति । 'त्व[s]त्से [5]ना[5]भिः[5], [1]त[1]रि[i]यु[1]धा[s]म[5]प्लो[s]षे[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०१७८ ॥
न्जौ भ्यौ नवमालिनी जैः ॥१७६॥ नजभया: । जैरित्यष्टमियंतिः । यथा- कलयति वैरिभूमिपतिलक्ष्मी, परिमलहारिकोतिकुसुमोघम् । सपदि ददाति तुभ्यमनवचं, नृप ! नवमालिनीयमसिलेखा ॥ १७६.१॥
लक्षितक्रमेण द्वाविशं प्रकारमाह- जो भ्यो नवमालिनी जैः इति । अर्थमाह- नजभयाः। जैरिति अष्टभिर्यतिरिति । 'नगण-जगण-भगणयगणाः 1.si.sss' इतीहशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्, अष्टश्चि यतियंत्र तत् नवमालिनी नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १८०.] कलयतीति- हे नृप !- राजन् !, इयं- तव हस्ते विद्यमाना, असिलेखाकरबालयष्टिः, सैव नवमालिनी- नवीनस्वभावा मालाकारपत्नी, वैरिभूमिपतिलक्ष्मी- शत्रुराजलक्ष्मी, [कुसुमोधमूल्यत्वेन], कलयति- स्वीकरोति, तुभ्यंभवते, अनवद्यम्- निर्मलम् परिमलहारिकीर्तिकुसुमोघं- परिमलेन- सौरभेन, हारि- मनोहरं, कीर्तिकुसुमोघं- यशःपुष्पसमुहं, सपदि- शीघ्रमेव, ददातिवितरति । मालिन्या अयं स्वभावो यत्- यस्मात्, मूल्यं गृह्णाति तस्मै कुसुमानि ददाति, इयं च तेऽसिलेखारूपा काचित् नवीनैव मालिनी या रिपुनृपान्मूल्यरूपेण तदीयधनं गृह्णाति कीर्तिकुसुमसमूहं च तुभ्यं ददातीति भावः। 'क[1]. ल[1]य[1]ति[1], [s]रि[1] भू[s]मि[1][i]ति[1]ल[5]क्ष्मीम्[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१७६ ॥
न्जो जौ मालती ॥१८०॥ नजजराः । यथा- भ्रमर ! सखे ! व्रज यत्र सा प्रिया, कथय दशामिति मे तदप्रतः । अभिनवपुष्पितरम्यमालती-, परिमलमुल्लसितं पिबाथवा ।। १८०.१॥ वरतनुरित्यन्ये ॥ १८०.१ ।।
लक्षितवृत्तक्रमेण त्रयोविशं प्रकारमाह- जो नौ मालनीति । अर्थमाहनजजराः इति- नगण-जगण-जगण-रगणाः 'm.si.si.sis' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् मालतीनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- भ्रमरेति हे सखे !- मित्र !, भ्रमर !- मधुप !, यत्र सा- प्रसिद्धा, प्रिया- मम दयिता, [तत्र] व्रज- गच्छ, तदग्रत:- तस्याः समीपे, मे- मम, इति- यथा त्वया दृष्टा तथा दशाम्- अवस्थां, कथय- ब्रूहि, अथवा [यदि त्वमपि स्वप्रियाविरहमसहिष्णुस्तहिं] अभिनवपुष्पितरम्यमालतीपरिमलम्अभिनवा- नूतना, पुष्पिता-पुष्पसमये [ऋतौ] स्थिता, कुसुमिता या मालतीस्वनामख्यातपुष्पजातिः, तस्याः परिमलं- सौरभम्, उल्लसितं- सोल्लासं यथा स्यात् तथा, पिब- आस्वादय, ईदशे हि समये प्रियां त्यक्त्वा गमनमनुचितमिति विचार्य पक्षान्तरमयमुपस्थापितवान् 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः" इति नीत्या यथाऽहं प्रियावियोगखेदमनुभवामि तथा अयमपि गमने खेदमनुभविष्यतीति विचार्य वा पक्षान्तरमिदमुपन्यस्तवान् ।
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[अ० २, सू० १८१-१८२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते 'भ्र[1]म[1] [1], स[1] खे[s]!, व[1]ज[1], य[s]त्र[1], सा[s],प्रि[1]या[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अस्य नामान्तरमाह- वरतनुरित्यन्ये इति- अन्ये आचार्या इदं छन्दो वरतनुरित्याहुरित्यर्थः । अ० २, सू०-१८०.१ ॥
नौ रौ प्रमुदितवदना ॥१८१॥ यथा- स्खलितवचसि भर्तरि भृकुटिं, प्रियसखि ! घटयेत्यपि प्रेरिता । अविदितरसविभ्रमा बालिका, प्रमुदितवदना भवत्युन्मुखी ॥१८१.१ ॥ चञ्चलाक्षीत्यन्ये । गौरीत्यपरे ॥ १८१.१ ॥
लक्षितक्रमेण चतुर्विशं प्रकारमाह- नौ रो प्रमुदितवदनेति- नगणद्वयं रगणद्वयं च '1.1.SIS.SIS.' इतीहवर्णः कृताः पादा यस्य तत् प्रमुदितबदनानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- स्खलितवचसीति- प्रियसखि !, भर्तरि- स्वामिनि, स्खलितवचसि- प्रमादात् तवाह्यानेऽन्यनायिकाया नामप्रयोगं कुर्वाणे सति, भ्रूकुटिं- कटाक्षभङ्गं रचयविधेहि, इति शिक्षिता- उपदिष्टा अपि, अविदितरसविभ्रमा- अज्ञातरसविलासा, प्रमुदितवदना- प्रसन्नानना सती बालिका उन्मुखी भवति- उपर्यवलोकिनी भवति । अयमर्थ:- बाला प्रथमं मया ‘भर्ता यदि नामस्खलनं कुर्यात् तर्हि त्वं कोपप्रकाशनार्थ भ्रूकुटि रचयः' इति शिक्षिताऽपि अज्ञातप्रणयकोपरसास्वादतया, सति तथावसरे, हसन्ती प्रत्युर्मुखमवलोकते, न तु कोपप्रदर्शकं किमपि करोतीति । स्ख[1]लि[1]त[1][1]च[1]सि[1], भ[5]त [0] रि[1], भ्रू[s]कु[1]टिं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अस्य नामान्तरे अपीत्याहचञ्चलाक्षीत्यन्ये, गौरीत्यपरे इति । अ० २, सू०-१८१॥
सा प्रभा छः ॥१८२।। ___ सा- प्रमुदितवदना, छः- सप्तभिर्यतिश्चेत् प्रमा नाम । यथा-प्रचुरविभवता नवं यौवनं, विमललवणिमा समग्राः कलाः । सकलमपि सखे! तदेतन्मुषा, यदि मृगनयना न हेमप्रभा ॥ १८२.१॥
लक्षितेषु पञ्चविंशं प्रकारमाह-सा प्रभा छैरिति । सूत्रं व्याख्याति- साप्रमुदितवदना, छः- सप्तभियंतिश्चेत प्रभा नामेति- गणविन्यासे यथा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १८३.] स्थितेऽपि सप्तभिर्वर्णर्यतिनियममात्रस्याश्रयणात् प्रमुदितवदनैव प्रभेत्याख्यायत इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रचुरविभवतेति- प्रचुरं- प्रभूतं, विभवंवित्तं यस्य सः प्रचुरविभवः, तस्य भावस्त्तत्ता, नवं- नूतनं, यौवनं- तारुण्यं, विमललवणिमा- निर्मलं लावण्यं, समग्रा:- पूर्णाः, कला:- शिल्पादिविद्याः, हे सखे !- मित्र !, सकलमपि तत् एतत् मुधा- मिथ्या, यदि चेत् हेमप्रभाकनककान्तिः, मृगनयना- हरिणनेत्रा, अङ्गना न [ अस्ति ], विभवादेस्तदैव साफल्यं यदि तेन सह सुन्दरी कान्ताऽपि भवेत्, न चेत् साऽस्ति सर्वमेव तद् विफलमिति भावः । 'प्र[1][]] [1] वि[1] भ[1][i]ता[s], न[D][s], यौ. [s] [1] नं [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१८२॥
न्जज्यास्तामरसम ॥१८३॥ नजजयाः। यथा- सततविकाससमुधुरशोभं, सकलकलङ्ककलापरिमुक्तम् । तव वदनं मदिराक्षि ! किमेतद्, भवति न तामरसं न च चन्द्रः॥१८३.१॥ कमलविलासिनीत्यन्ये ॥ १८३.१॥
लक्षितक्रमेण षड्विशं प्रकारमाह-न्जज्यास्तामरसमिति । व्याख्यातिनजजया इति- नगण-जगण-जगण यगणा: '.si.si.ss' इतीदृशैर्वणः कृताः पादा यस्य तत् तामरसं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरतियथा- सततविकासेति- हे मदिराक्षि !- मदिरे- मदशीले अक्षिणी- नेत्रे यस्यास्तत्सम्बोधने हे मदिराक्षि !, सततविकाससमुधुरशोभं- सततं- रात्रि. न्दिवं यो विकास:- प्रफुल्लता, तेन समुधुरा- उत्कटा शोभा यस्य तादृशं, तथा सकलकलङ्ककलापरिमुक्तं- सकलं- सम्पूर्ण, कलङ्ककलाभि:- लाञ्छनांशैः, परिमुक्तं- शून्यम्, एतत् तव वदनं किम् ?- कस्मिन् वस्तुनि अत्तर्भूतम्, तामरसं- पद्मं न भवति, चन्द्रश्च न भवति, पद्मस्य दिवैव विकासः, तवमुखस्य रात्रिन्दिवमिति पद्माद् भेदः, चन्द्रो न सर्वदा पूर्णः, नवा कलङ्कपरिमुक्त इत्येतयो स्यान्तर्भावः, वस्त्वन्तरं चैतत्सदृशं दृष्टमेव नेति किमेतदिति शङ्कोत्पन्नेति भावः । 'स[i][i][1]वि[1]का[s]स[5]स[1] मु[s][][1]शो[s]भं[5]' इति लक्षणसमन्वयः। अस्य नामान्तरमपीत्याह-कमलविलासिनीत्यन्ये इति ॥ अ० २, सू०-१८३ ॥
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[अ० २, सू० १८४-१८५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
ज्रज्रा विभावरी ॥१८४॥ जरजराः । यथा- पयोनिधेरवाप्य तोयसंपदं, मवान् बलाहकेन पश्य यत् कृतम् । य एष तस्य हर्षकारणं सुतः, स एव संवृतो विभावरीपतिः ॥ १८४.१ ॥ वसन्तचत्वरमित्यन्ये ।। १८४.१ ॥
लक्षितक्रमेण सप्तविंशं प्रकारमाह- बज्रा विभावरीति । वज्राविति विवृणोति-जरजराः इति- जगण-रगण-जगण-रगणाः 'IsI.SIS.IsI.sis' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् विभावरीनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पयोनिधेरिति-पयोनिधे:- समुद्रात्, तोयसम्पदं- जलसम्पत्तिम्, अवाप्य- प्राप्य, बलाहकेन- मेघेन, यत् कृतम्- आर्चारतं [ तत् ] पश्य- अवलोकय, [ किं तदित्याह-] तस्य समुद्रस्य हर्षकारणं- सुखसाधनभूतः [ जलवृद्धि कर: ], सुतः-पुत्रः, स एव विभावरीपतिः- निशानाथश्चन्द्रः, आच्छादितः। पयोनिधिमेघान्योक्त्या कश्चित्स्वोपजीव्यस्य प्रतिकूलाचारी वर्ण्यते। प[1]यो[s]नि[1] घे[5]र[1]वा[s]प्य[I],तो[s] य[1] सं[5]प[1]दं[s' इति लक्षणसमन्वयः । नामान्तरमाह-वसन्तचत्वरमित्यन्ये इति ।। अ० २, सू०-१८४ ॥
र्यन्याः कुमुदिनी ॥१८५॥ रयनयाः । यथा- बोषितापि रम्यः करनिकरस्ते, हासलेशमासादयति न यस्मात् । मुञ्च मुञ्च तस्मादिह नलिनीयं, रोहिणीपते ! हन्त कुमुदिनीतः ।। १८५.१॥
लक्षितेष्वष्टाविशं प्रकारमाह-रयन्याः कुमुदिनीति । रयन्या इति विवृ. णोति- रयनयाः इति- रगण-यगण-नगण-यगणाः 'IS.ISS.I.Iss.' इत्येवंप्रकारैर्वणः कृताः पादा यस्य तत् कुमुदिनीनामक जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-बोधितापीति- हे रोहिणीपते !- चन्द्र !, इयं नलिनीकमलिनी, ते- तव, रम्यैः- मनोहरः, करनिकर:- किरणसम्हैः, बोधिताकृतप्रबोधा अपि, यस्मात्- यतो हेतोः, हासलेशमपि- विकासमात्रमपि, [कापुनरत्यानुकूलाचरणस्य प्रत्याशा] न आसादयति तस्मात् [इमां] मुश्च मुश्चपरिहर परिहर, तहिक मे गतिरिति चेत् ? इत:- अस्मिन् प्रदेशे, कुमुदिनी
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १८६ - १८७.]
कुमुद्वती [ त्वया सह बद्धभावा] वर्तत इति भावः । चन्द्रनलिन्याद्यन्योक्त्या काचिद् दूती नायकस्य अन्यासङ्गपरिहारपूर्वकं स्वपक्षनायिकायां प्रसक्ति प्रस्तौति । 'बो [s]धि] [1] ता [s]पि [ 1 ], ₹ [s] म्यैः [s], क [ 1 ]र[+]नि [ 1 ]क [ 1 ] : [s], ते [s] ' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १८५ ॥
तौ सौ ललना ङः ॥ १८६॥
मतनसाः । रिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- रम्यनितम्बां नवतनुलतिकां, संसृततृष्णां गजगतिरुचिराम् । विन्ध्यधरित्रीं तव नृप ! रिपवः, संप्रति मेजुनं तु निजललनाम् ॥ १८६.१ ।।
लक्षितक्रमेण ऊनविशं प्रभेदमाह - भ्तौ न्सौ ललना ङेरिति । अर्थमाहमतनसाः । ङेरिति पञ्चभिर्यतिरिति- भगण-तगण-नगण-सगणाः 'SII. SSI. IIIIIS' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् ललनानामकं जगतीजातिछन्दः, यत्र च पञ्चभिर्यतिरित्यर्थः । उदाहरति- यथा- रम्यनितम्बामिति - हे नृप ! सम्प्रति त्वया आक्रमणे कृते सति तव रिपव:- शत्रवः, रम्यनितम्बां - रम्य:- रमणयोग्यः, नितम्ब:- कटिपश्चाद्भागः, पक्षे प्रान्तभागो यस्याः, तां नवतनुलतिकां - नवा - नूतना, तनुलता- देहवल्ली, यस्यास्तां, पक्षान्तरे - नवा तनुः - कोमला लतावल्ली यस्यां ताम्, संभृततृष्णां- संभृतापोषिता, तृष्णा - प्रियप्राप्त्यभिलाषा, पक्षान्तरे दुर्लङ्घयगहन प्रदेशतया पिपासा च यस्यां तां गजगतिरुचिरां- गजस्येव गतिः- पादन्यास:, तेन रुचिरांशोभनां, पक्षान्तरे - गजानां गतिः- प्रचारस्तेन रुचिरां, विन्ध्यधरित्रीं - विन्ध्यपर्वतभूमि, [ पक्षान्तरेण व्याख्यातविशेषणां ], भेजुः शिश्रियः, निजललनांस्वकान्तां [ प्रथमपक्षतया व्याख्यातविशेषणैर्युक्ताम् ] न भेजुः । तव भयेन पलायितास्ते स्वप्रियाविशेषणोपलक्षिततया विन्ध्यभूमिमेव भेजुः प्रियां च स्वपुर एव परितत्यजुरिति भाव: । 'र [s] म्य [ 1 ]नि [] त [s]म्बां [s], न [1]व[1]त [1]नु[1]ल [ 1 ]ति [ ।] कां [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १८६ ॥
नौ यौ कामदत्ता ॥ १८७॥
ननरयाः । यथा- निकृतिकलुषया घिया वितीर्ण, बहुतरमपि निष्फलत्वमेति । सुकृतममृतकारणं प्रसूते, ध्रुवमिह कणिकापि कामदत्ता ।। १८७.१ ।।
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[अ० २, सू० १८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१७३ लक्षितक्रमेण त्रिशं प्रभेदमाह- नौ र्यो कामदत्तेति । 'नौ र्यो' इति पदद्वयं व्याख्याति- न-न-र-याः इति- नगणद्वयं रगण-यगणो 'm.m.sis. Iss' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् कामदत्तानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निकृतिकलुषयेति, निकृतिकलुषया- अनादरदृष्टिदूषितया, धिया- बुद्धया, वितीणं- दत्तं, बहुतरमपि- अत्यधिकमपि, निष्फलत्वं- कालान्तरभाविफलशून्यत्वम्, एति-प्राप्नोति, कामदत्ता- कामस्वेच्छानुसारं, सम्प्रदानप्रीतिपूर्वं दत्ता- वितीर्णा, कणिकापि- क्षुद्रांशोऽपि, इह- संसारे, अमृतकारणं- मोक्षप्राप्तिसाधनं, सुकृतं- पुण्यं, प्रसूते- जनयतीत्यर्थः । कस्मैचिदनादरेणाधिकमपि दत्तं दातुः कृते न सफलं, संपूज्य दत्तं स्वल्पमपि बहुफलमिति भावः । 'नि[1] कृ[1]ति [1]क[1]लु[1]ष[1]या[s], धि[1]या[s], वि[s]ती[s]][s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१८७॥
नो रिर्मेघावली ॥१८॥ रिरिति रगणत्रयम् । यथा- स्तनितघोरघोषाट्टहासाकुला, तरलतारविषुज्छटालोचना। विरहिणीजनप्राणघातोद्यता, नमसि राक्षसीयं न मेघावली ॥१८८.१॥ वसन्तेति कश्चित् ॥ १८८.१ ॥
लक्षितक्रमेण एकत्रिंशं प्रकारमाह-नो रिर्मेघावलीति । रिरिति रगणत्रयमिति- “समानेनकादि:" [ १.४ ] इति नियमात्, इकारस्य त्रित्वाबोधकत्वादिति भावः । तथा च नगणः रगणत्रयं च ||.SIS.SIS.SI.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् मेघावलीनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-, यथा- स्तनिघोरेति, स्तनितघोरघोषाट्टहासाकुला- स्तनितस्यगर्जितस्य, घोरः, घोष एव अट्टहास:- उच्चैर्हास्यं, तेन आकुला, तरलतारविधुच्छट्टालोचना- तरला- चञ्चला, तारा- कनीनिका, सैव विधुच्छट्टा- सौदामिनीमाला, लोचनं यस्याः सा, विरहिणीजनप्राणघातोद्यता- विरहिणीजनानां- पतिवियुक्तानां कामिनीनां, प्राणघाताय, उद्यता- तत्परा, नभसिआकाशे, इयं- दृश्यमाना, मेघाबली न- मेघमाला न, किन्तु राक्षसी । उभयोविशेषणसाम्येन विरहिणीप्राणघातकत्वेन राक्षसीत्वमेवास्यां युज्यत इति इति भावः । 'स्त[1]नि[1]त[1]घो[s] र[1]घो[5]षा[5][i] हा[s]सा[5] कु
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१७४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १८६-१६०.] [1]ला[s]' इति लक्षणसमन्वयः। नामान्तरमाह- वसन्तेति कश्चिदिति ।। अ० २, सू०-१८८ ॥
त्यौ त्यो पुष्पविचित्रा ॥१८६।। तयतयाः। यथा- भ्राम्यभ्रमरव्याकीर्णोद्धरगन्धा, मन्दारवती सन्तानप्रसवाव्या । नाभेयजिनस्योद्दामा सुरनाथर, विष्ठचा रचिता पूजा पुष्पविचित्रा ॥१८६.१॥
लक्षितक्रमेण द्वात्रिंशं प्रभेदमाह-त्यौ त्यो पुष्पविचित्रेति। त्यो त्याविति व्याख्याति- तयतया: इति- तगण-यगण-तगण-यगणाः 'sI.Iss.sI.Iss' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् कुसुमविचित्रानामकं जगतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- भ्राम्यभ्रमरेति, सुरनाथैः- देवेशः, भ्राम्य
भ्रमरव्याकीर्णोद्धरगन्धा- भ्राम्यद्भिः- इतस्ततश्चलद्भिः, भ्रमरैः- रोलम्बः, व्याकीर्णः- सर्वतः प्रसारितः, उद्धरः- उत्कटो गन्धो यस्याः सा, मन्दारवतीदेवतरुविशेषपुष्पयुक्ता, सन्तानप्रसवाढ्या-सन्तानस्य-देवतरुविशेषस्य, प्रसवैःपुष्पैः, पल्लवैश्च, आन्या- पूर्णा, उद्दामा- सूत्ररहिता निबन्धा वा, कुसुमविचित्रा- कुसुमैः- पुष्पैः, विचित्रा- विलक्षणा, नाभेयजिनस्य-आदिनाथतीर्थकरस्य, पूजा, दिष्टया- भाग्येन, रचिता- कृता । 'भ्रा[s]भ्य[s] [i]म[i] र[5]व्या[5]को[s]l[5][]र[1]ग[s]न्धा' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१८६॥
सा मणिमाला चैः ॥१०॥ सा- पुष्पविचित्रा, चैः- षड्भिर्यतिश्चेन्मणिमाला । यथा- सन्तोषधनानां का नाम समृद्धि-चारित्रसुधाप्ती धिक्कामपिपासाम् । निर्बोजसमाधावास्तां सुरसौख्यं, जैनी यदि कण्ठे वाक् कि मणिमाला॥१६०.१॥
त्रयस्त्रिशं प्रकारमाह-सा मणिमाला चैरिति । व्याख्याति-सा-पुष्पविचित्रा चैः-षड्भिर्यतिश्चेन्मणिमाला। पुष्पविचित्रा पूर्वलक्षिता सा यथोक्तगणरेव विन्यस्ता यदि प्रतिपादं षष्ठेऽक्षरे यत्या युता स्यात् तहि मणिमालानामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा-सन्तोषधनाना
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[अ० २, सू० १६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते मिति- सन्तोषधनानां- सन्तोष:- आत्मतृप्तिः, स एव धनं येषां तेषां कृते, समृद्धि:- हिरण्यधान्यादिसम्पतिः, का नाम- किमर्थसाधिका?, चारित्रसुधातो- सुचरितामृतलाभे सति, कामपियासां-विषयाभिलाषां, धिक्- सा निन्दनीयेत्यर्थः । निर्बीजसमाधी- निर्विल्पकध्याने सति, सुरसौख्यं- देवानामपि सौख्यम्- आस्ताम्, न तदभिलाष इति भावः, यदि कण्ठे जैनी-जिनोपदिष्टा, वाक् अस्ति तर्हि, मणिमाला- रत्नस्रक्, कि- कस्मै प्रयोजनायेति भावः । अत्र सन्तोषधनानां; का नाम समृद्धिः चारित्रसुधाप्ती; धिक् कामपिपासाम्, 'निर्वीजसमाधावास्तां सुरसौख्यं जनी यदि कण्ठे वाक्, किं मणिमाला ॥' इत्येवं विरामचिह्नस्थाने यतिः कार्या, एतावन्मात्रेण च पूर्वलक्षिताद् विशेषः ॥ अ० २, सू०-१६० ॥
स्यौ स्यौ केकिरवम् ॥१६॥ सयसयाः । यथा- पथिक ! प्रयाहि त्वरयव नो चेत्, पुरतः समुजम्मिणि मेघकाले। भवतो द्विजिह्वस्य हरिष्यतेऽसून, समदध्वनत्केकिरवः प्रचण्ड: ॥ १६१.१॥
चतुस्त्रिशं प्रकारमाह- स्यौ स्यौ केकिरवमिति । स्यौ स्याविति व्याख्याति- सयसयाः इति- संगण-यगण-सगण-यगणाः ॥5.15.15.s' इतीदशैरक्षरः कृताः पादा यत्र तत् केकिरवं नाम जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-पथिक ! प्रयाहीति- हे पथिक !- अध्वनीन !, त्वरयैव- शीघ्रमेव, गृहं गच्छ, नो- न गमिष्यसि, चेत्- यदि [तर्हि] पुरत:अने, मेघकाले- वर्षौ, समुज्जृम्भिणि- सम्यग् वृद्धि गते सति, प्रचण्ड:भयङ्करः, समदध्वनत केकिरवः-समदः- मत्तः, अत एव ध्वनन्-शब्दं कुर्वाणः, यः केकी- मयूरः, तस्य रव:- शब्दः, द्विजिह्वस्य- सर्पतुल्यस्य द्वे मिथ्यासत्यभाषिणी, जिह्व यस्येति व्युत्पत्त्या, आगमनसमयमसत्यं कथितवतस्तवाऽपि सर्पवत् द्विजिह्वत्वमिति भावः, असून्- प्राणान्, हरिष्यते- नाशयिष्यति । केकिरवं श्रुत्वा सर्पा अपि भीता भवन्ति त्वमपि तादृश इति वर्षातॊः पूर्वमेव गृहं याहि यदि नो चेत् केकिरवं श्रुत्वा त्वं न जीविष्यसीति भावः । 'प[1]
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१७६ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १६२-१९३.] थि[1]क! [s], प्र[1]या[s]हि[s], त्व[1]र[1]ये [s]व[1], नो[5] चेत्[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-१६१ ॥
निसौ हीः ॥१६२॥ निरिति नगणत्रयं सश्च । यथा- सितमहसि धवलयति धरां, सुभग ! कुरु यदिह समुचितम् । तव विशदगुणहृतहृदया, ह्रियमपि परिहरति सुतनुः ॥ १९२.१ ॥
लक्षितेषु पञ्चत्रिशं प्रकारमाह- निसौ होरिति । व्याख्याति- निरिति नगणत्रयं सश्चेति- नगणत्रयं सगणश्च ॥॥॥॥' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् ह्रीनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथासितमहसि इति- हे सुभग !- सौभाग्यशालिन् ! सितमहसि- श्वेतांशी चन्द्रे, धरा- पृथ्वीं, धवलयति- उजवलयति सति, इह- समये स्थाने च, यत् समुचितं- तव तस्याश्चयोग्यं, तत् कुरु- विधेहि, [यतः] तव- भवतो गुणहृतहृदया- गुणैः- दाक्षिण्यदिभिः, हृतं- वशीकृतं, हृदयं यस्याः सा, सुतनु:शोभनाङ्गी सा ह्रियमपि- परमधनरूपां लजामपि, परिहरति- त्यजति, किमुतान्यदिति शेषः । अयमाशयः- इयं शुभाङ्गी लज्जामपि परिहृत्य तद्गुणवशीकृता कौमुदीसनाथेऽत्र समये ईदृशे स्थाने चागतेति त्वमपि तत्सहशमाचरेति । 'सि[]त[1]म[1]ह[1]सि[1], ध[1] व[I]ल[1]य[1]ति[1], ध[1] रा[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१६२ ॥
ज्सौ स्यौ कोलः ॥१६३॥ जससयाः । यथा- चुलुक्यनृपते ! त्वयि बिभ्रति क्षमा, विहाय धरणीधरणप्रयासम् । पयोधिपुलिने रमतां यथेच्छं, स संप्रति चिराय पुराणकोलः ॥ १९३.१ ॥ १२॥३६ ॥
लक्षितक्रमेण षट्त्रिंशं प्रकारमाह- ज्सोस्यो कोल इति । जसौ स्याविति । विवृणोति- जससयाः इति:- जगण-सगण-सगण-यगणाः '..sss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् कोलनामकं जगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- चुलुक्यनृपते ! इति, हे चुलुक्यनृपते ! त्वयि- भवति, मां
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[अ० २, सू० १६४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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पृथ्वीं, बिभ्रति - धारयति सति स पुराणकोल:- पुरातनवराहः [ आदिवराहः ], धरणीधरणप्रयासं- पृथ्वीभारोद्वहनपरिश्रमं विहाय - त्यक्त्वा, पयोधिपुलिने - समुद्रतीरे, चिराय - बहुकालं यावत् यथेच्छं - कामानुकुलं, रमतां - कीडामनुभवतु, तत्कार्यस्य त्वयैव कृतत्वेन स निश्चिन्त इति भावः । 'चु[']लु[s]क्य[ । ]नृप[1]प[1]ते[s], त्व[1]यि, [1] बि[5]भ्र [1]ति [s], क्षां[s]' इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू० - १९३ ॥
"
अतिजगत्यां नतिगा उर्वशी ॥ १६४ ॥
नगण: तगणत्रयं गुरुश्च । यथा- अजननिर्योषितामस्तु वंशे सतां, मलिनिमानं स्वशीलेन यास्तन्वते । भगवतो वासुदेवात् प्रसूतापि हि, त्रिदशवेश्यात्वमङ्गीचकारोर्वशी ॥। १६४.१ ।।
इत्थं जगतीजातेः प्रसिद्धा भेदा लक्षितास्ते च षट्त्रिंशत्, तथा च द्वादशाक्षरपादस्य षट्त्रिंशदिति सूचितम् ।। १२ । ३६ ।। इति । प्रस्ता रगत्यातु ४०६६ भेदा भवन्ति । तथा च
"सहस्राण्यथ, चत्वारि नवतिश्च षडुत्तरा ।
जगत्यां सर्ववणानां वृत्तानामिह सर्वशः || ”
इति भरतनाट्यशास्त्रे १५ शेऽध्याये ५८ ।। इति जगती ॥
अतिजगतीजाति ॥ अथ अतिजगती । वर्णयितुमुपक्रमते - अतिजगत्यां नतिगा उर्वशितीति । नतिगा इत्यस्यार्थमाह- नगणः, तगणत्रयं, गुरुश्चेति, तथा च ' ।।1.55 1.551. SSI.S' इत्येवं त्रयोदशभिरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् उर्वशीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- अजननिरितिसतां - सज्जनानां, वंशे - कुले, योषितां - स्त्रीणाम्, अजननि:- अनुत्पत्तिः, अस्तु - भवतु, याः, योषितः स्वशीलेन - स्वचरितेन [ कुले ] मलिनिमानंकलङ्कं तन्वते - विस्तारयन्ति । हि यतः, भगवतः - सर्वैश्वर्यं निघेः, वासुदेवात्- विष्णोः, प्रसूता - लब्धोत्पत्तिः, अपि, उर्वशी - स्वनामख्याता अप्सराः, त्रिदशवेश्यात्वं - देववाराङ्गनात्वम् अङ्गीचकार - स्वीकृतवती । 'उर्वशी हि वासुदेवस्य उरोजाता' इति श्रुतिः, यदि च तादृशोच्च कुलप्रसुतायास्तस्या इत्थं शीलं तर्हि सामान्यकुलजानां का कथेति कवेरभिप्रायः । ' अ [1]ज [1] न [1] नि
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१७८ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० १९५-१९६.] [s]र्यो[s]षि[1]ता[5]म[s]स्तु[२], वं[]शे[s]स[1]तां[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-१६४॥
न्जो ज्रौ गः सुवक्त्रा ॥१६५॥ नजजरगाः । यथा- हृतहृदय: खलु यद्विलासलक्ष्म्या, रतिमपि पुष्पशरस्तुणाय मेने । लवणिमवारितरंगिणी किलषा, हरति न साऽपि मुनेमनः • सुवक्त्रा ॥ १६५.१ ॥ अचलेत्यन्ये ॥ १६५.१ ॥
लक्षणीयेषु द्वितीयं प्रभेदमाह-न्जो नौ गःसुवक्त्रेति । विवृणोति-नजजरगाः इति- नगणो जगणद्वयं रगणो गुरुश्च 1.151 ISI.SIS.5' इतीहशेरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् सुवक्त्रानामकम् अतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- हृतहृदय इति- यद्विलासलक्ष्म्या- यस्याः- सुवक्तायाः, विभ्रमशोभया, हृतहृदयः- वशीकृतचेताः, पुष्पशर:- कुसुमेषुः, रति- रमणीषूपमानभूतां स्वपत्नीमपि, तृणाय मेने-खलु तिरश्चकार खलु । एषा-सुवक्त्रा, लवणिमवारितरङ्गिणी- लावण्य जलप्रवाहिणी, किलेति प्रसिद्धी, लावण्यनदीस्वेनैषा विश्रुतेति भावः, साऽपि सुवक्त्रा- सुमुखी, मुनेः- वशीकृतमनसो यतेः, मनः- हृदयं न हरति- न वशीकरोति ॥ 'ह[1][i][1]त[1][1]द[1]यः [s], ख[1]लु[1] य[s] वि[1]ला[s]स [1]ल[1]क्ष्म्या[s]' इति लक्षणसंगतिः । नामान्तरमस्याह- अचलेत्यन्ये इति । अ० २, सू०-१६५ ॥
भीगावङ्गरुचिः ||१६६॥ भचतुष्टयं गुरुश्च । यथा- येन विधिप्रतिपक्षतयेव सदाऽकारि कृतार्थक एव दरिद्रजनः । कस्य मुदं न ददाति नृपो भरतः, सोऽङ्गरुचिप्रतिषिसहस्रकरः ॥१९६.१॥
तृतीयं प्रकारमाह- भीगावङ्गरुचिरिति । विवृणोति- भचतुष्टयं गुरुश्चेति- “समानेनकादिः" [१.४.] इति नयमात् भीत्यस्यार्थः- भगणचतुध्यं, ग इत्यस्य- गुहरिति च; तथा च 'sin.sn.sil.sn.s' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् अङ्गरुचिनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- येनेति- येन- भरतेन राज्ञा, विधिप्रतिपक्षतया इव- विधेः
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[अ० २, सू० १६७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१७६ ब्रह्मणः, प्रतिपक्षः- प्रतिकूलाचारी, तस्य भावस्त्तया इव, दरिद्रजन:- अर्थहीनो लोकः, सदा- सर्वदा, कृतार्थक एव- कृतः- सम्पन्नः, अर्थ:- धनमभिलाश्च यस्य तादृश एव, अकारि- कृतः, अङ्गरुचिप्रतिषिद्धसहस्रकरः- अङ्गरुच्या- शरीरशोभया, प्रतिसिद्धः- तिरस्कृतः, सहस्रकर:- सूर्यश्चन्द्रश्च येन सः, स- प्रसिद्धः, भरतनृपः कस्य जनस्य, मुदं- हर्ष, न ददाति- अपि तु सर्वस्यापि ददात्येति भावः । विधिना 'अयं निश्चितं दरिद्रो भविता' इति भाले विलिख्योत्पादितस्य जनस्य कृतार्थतासम्पादनेन विधिप्रातिकूल्यमस्मिन् नृपे स्पष्टम्, स्वकान्त्या च सूर्याचन्द्रमसोरपि प्रतिनिधिरयं सर्वजनकरञ्जक इति भावः। 'ये[s] न[1], वि[1]धि[s]प्र[1]ति [1]प[s]क्ष[। त[1]ये[] व[i], स[1] दा[5]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१९६ ॥
म्नौ नौ गः प्रहर्षिणी गैः ॥१९७|| मनजरगाः । पैरिति त्रिभिर्यतिः । यथा- उत्प्रेवत्रिदशधनुश्छलेन वर्षा-, लक्ष्म्योद्यन्मणिरुचिचित्रतोरणस्रक् । पञ्चेषो पनजयोत्सवैकचिह्नमाबद्धा सपदि मनःप्रहषिणीयम् ॥ १६७.१ ॥
लक्षितक्रमेण चतुर्थप्रकारमाह- म्नौ नौ गः प्रहर्षिणी गैरिति । 'विवृणोति- मनजरगाः। गैरिति त्रिभिर्यतिरिति- मगण-नगण-जगण-रगणा गुरुश्च ‘sss...IsI.sis.s' इतीदृशैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् तथा, त्रिभिर्वगर्यतिश्च यत्र तत् प्रहर्षिणीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-उत्प्रेङ्कदिति- वर्षालक्ष्म्या- वर्षर्तुशोभया, उत्प्रेडन्त्रिदशधनुश्छलेनउत्प्रेङ्खतः- उपरिचलतः, त्रिदशधनुष:- देवेन्द्र बाणासनस्य, छलेन- व्याजेन, आबद्धा- ग्रथिता, पञ्चेषोः- पञ्चबाणस्य कामस्य, भुवनजयोत्सवैकचिह्नभुवनजयः- सर्वलोकविजय एव उत्सव:- आमोदावसरः, तस्य एकं- प्रधानं, चिह्न लक्षणम्, इयं- प्रत्यक्षदृश्यमाना, मणिचित्रतोरणस्रक- मणिभिःनानारत्नः, चित्रा- अनेकवर्णा, तोरणस्रक- द्वारमाला, साद- शीघ्र, मन:प्रहर्षिणी- चेतोमोदजननीत्यर्थः । अत्र प्रतिपादं प्रभाक्षरत्रये यतिः । 'उत्[5]प्रे[5]ङ्ख[s]त्रि[1]द[1]श[1]ध[1]नुश्[5] छ[1]ले [s]न[1], व[5]र्षा[s] इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-१६७ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० १६८ - १६६.] उभौ स्जो गो रुचिरा घेः ॥ १६८ ॥
जभसजगाः । धैरिति चतुभियंतिः । यथा - समुल्लसद्दशन मयूखचन्द्रिकातरङ्गिते तब वदनेन्दुमण्डले । सुलोचने कलयति लाञ्छनच्छवि, घनाञ्जनद्रवरुचिरालकावली ॥। १६८.१ ॥
१८०
पञ्चमं प्रभेदमाह- ज्भौ स्जौ गो रुचिरा घैरिति । विवृणोति - जभसजगा इति । धैरिति चतुर्भिर्यतिरिति- जगण-भगण- सगण जगणा गुरुश्च '151.511.115.151 . ' इतीदृशैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् चतुर्भिश्च वर्णैर्यं तिर्यत्र तत् रुचि रानामक मतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - समुल्लसदिति - हे सुलोचने ! - सुनयने !, समुल्लसद्दशनमयूखचन्द्रिकातरङ्गिते - समुल्लसतां - प्रकाशमानानां दशनानां दन्तानां मयूखचन्द्रिकया - कान्तिकौमुद्या, चरङ्गिते - कृतप्रवाहे, तव - भवत्याः, वदनेन्दुमण्डलेमुखशशिबिम्बे, घनाञ्जनद्र वरुचिरा - गाढकञ्जलरससुन्दरा, अलकावली - केशमाला, लाञ्छनच्छवि- कलङ्कशोभां कलयति - धारयतीत्यर्थः । स [ 1 ]मु[s]ल्ल [1] सद्[S]द[1] श[1]न[1]म[1]यू[s] ख[1] [s]न्द्रि [ 1 ] का [s]' सर्वत्र पादे चतुर्भिर्यतिः, इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - १६८ ॥
तौ यसो गो मत्तमयूरम् ॥१६६॥
मतयसगाः । घंरिति वर्तते । यथा- प्रावृट्लक्ष्म्या निश्चितमत्रावतरन्त्याः, या कल्पितकोलाहलमुच्चैः । जल्पन्तोऽमी हन्त निदाघापसरेति, प्रातीहाय मत्तमयूराः कलयन्ति ॥ १६६.१ ॥
षष्ठं प्रभेदमाह - म्तौ सौ गो मत्तमयूरमिति । विवृणोति - मतयसगाः । धैरिति वर्तते इति- मगण-तगण यगण - सगणा गुरुश्च 'Sss.SSI. Iss. S.S.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत्, तथा पूर्वसूत्राद् वैरित्यस्यानुवृत्त्या चतुभिश्च यतियंत्र तत् मत्तमयूरनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रावृट्लक्ष्म्या इति- संभूय- एकीभूय, उच्चैः- तारस्वरेण कल्पितकोलाहलं- कृतमहानादं यथा स्यात् तथा, अमी- दूरादु दृष्टिगोचराः, मत्तमयूरा:- उन्मत्तर्बहिणः, अत्र- भूतले, निश्चतं निर्णीतरूपेण, अवतरन्त्याः- आगच्छन्त्याः प्रावृटलक्ष्म्या :- वर्षर्त्तुशोभायाः, अग्रे
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[अ० २, सू० २००-२०१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १८१ आगमनात् पूर्वमेव, निदाद्य!- ग्रीष्मर्तों !, अपसर- दूरं गच्छ, इति जलपन्तःकथयन्तः, प्रातीहार्य- प्रतीहारस्य कर्म, कलयन्ति- धारयन्तीत्यर्थः । 'प्रा[s]वृट्[5]ल[5]क्ष्म्या[s], नि[s]श्चि[1]त[1] म[s]त्रा[s]व[1]त[1][5]न्त्या' इति लक्षणसंगतिश्चतुर्भिश्च यतिरिति ।। अ० २, सू०-१६६ ॥
नौ त्रौ गः क्षमा ॥२००॥ ननतरगाः । घेरिति वर्तते । यथा- अयि! जड!यतिबन्धो! किमङ्गशौचः, कचिदपि सुकृतं स्यान्मुधासि मूढः । यदिह च परलोके च साधु तत्त्वं, शृणु कुरु हृदयस्थां क्षमामजनम् ॥ २००.१॥
सप्तमं प्रभेदमाह- नौ त्रौ गः क्षमेति । विवृणोति- ननतरगाः। घेरिति वर्तते इति- नगणद्वयं तगण-रगणो गुरुश्च ॥...ssI.SIS.s.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य, परित्यनुवृत्त्या चतुभिश्च यतिर्यत्र तत् क्षमानामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अयि जडेतिअयि ! इति कोमलामन्त्रणे, हे जडं !- मूर्ख !, यतिबन्धो !- क्षुद्रयते !, अङ्गशौचैः- शरीरशुद्धिभिः, क्वचिदपि- क्वापि काले देशे वा, सुकृतं- पुण्यं, स्यात्- भवेत्, किम् ? मुधाव्यर्थमेव, मूढः- मूर्खः, असि, यत् इह- अत्र लोके, परलोके च- परस्मिन् स्वर्गादिरूपे लोके- स्थाने च, साधु- कार्यसाधकं, तत्त्वं [स्यात् तत्], शृणु- आकर्णय, अजस्रं- सततं, क्षमा- शान्ति, हृदयस्थां अन्तःकरणप्रतिष्ठितां, कुरु- विधेहि । 'अ[1]यि[1], ज[1]ड[1], य[1]ति[1]ब[5]न्धो[s], कि[s]म[s] [[1]शो[5] चैः[s]' इति लक्षणसमन्वयः, श्चतुर्मिश्च यतिरिति ।। अ० २, सू०- २०० ॥
मौ जो गः श्रेयोमाला ॥२०१|| धरिति वर्तते । यथा- लक्ष्मीलीलाग रं विनम्रपुरंदरभ्राम्यद्भुङ्गश्रेणीकृतस्तवनध्वनि । नेत्रानन्दं ताम्राङ्गुलीदलबन्धुरं श्रेयोमालां दद्याज्जिनेन्द्रपदाम्बुजम् ॥ २०१.१॥
अष्टमं प्रभेदमाह- मौ जौ गः श्रेयोमालेति । सूत्रं पूरयति- घेरिति वर्तते इति । मगणद्वयं जगणद्वयं गुरुश्च 'sss.sss.11.15..' इतीहशरक्षरः कृताः पादा यस्य, चतुर्भिश्च यतिर्यत्र तत् श्रेयोमालानामकमतिजगतीजाति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २०२.] च्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- लक्ष्मीलोलागारमिति- लक्ष्मीलीलागारं- लक्ष्म्या:- सर्वसम्पदः, लीलागारं- क्रीडास्थानं, विनम्रपुरन्दरभ्राम्यदुभृङ्गश्रेणीकृतस्तवनध्वनि-विनने- प्रणामार्थ प्रणते, पुरन्दरे- इन्द्रे, [ सति तच्छिरोमाल्यानुगताः ] भ्राम्यन्ती- चलन्ती या, भृङ्गश्रेणी- मधुकरमाला, तया कृतः- विहितः, स्तवनध्वनिः- स्तुतिशब्दो यस्य तत्, नेत्रान्दनं- नेत्रयोःनयनयोः कृते, आनन्दं- सुखस्वरूपं, यद्वा नेत्राणि आनन्दयतीति नेत्रानन्दम्, ताम्राङ्गुलीदलबन्धुरं- ताम्रः- रक्तवर्णः, अङ्गुलीदलैः, बन्धुरम्- उन्नतानतम्, जिनेन्द्रपदाम्बुजं- जिनेन्द्रस्य पदाम्बुजं- चरणकमलं, श्रेयोमालाकल्याणपरम्परां, दद्यात्- वितरेत्, इत्याशी:प्रार्थना । 'ल[5]क्ष्मी[s]ली[s] ला[s]गा[s]रं[s], वि[1]न[5]म्र[1][i][5]न्द[I] र[s]' [ संयोगे गुरुत्वात् ] इति लक्षणसमन्वयः, चतुर्भियतेः सत्त्वात् ।। अ० २, सू० २०१॥
नौ तौ गः कुटिलगतिश्छः ॥२०२॥ छरिति सप्तभियंतिः । यथा- यदसरलतरभ्रूविभुग्नालका, कुटिलगतिरतिप्रौढवागवक्रिमा । तदियमघटि भोः कौतुकात् कामिनी, नियतमनृजुना केनचिद् वेषसा ।। २०२.१ ॥ नर्तकीत्यन्ये ।। २०२.१ ॥
लक्ष्यमाणक्रमेण नवमं प्रकारमाह- नौ तौ गः कुटिलगतिश्छरिति । छैरिति सप्तभिर्यतिरिति- नगणद्वयं तगणद्वयं च गुरुश्च ॥..51...' इतीहशर्वर्णैः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् कुटिलगतिनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- यदसरलेति-यत्- यस्मात्, इयं- वर्ण्यमाना, कामिनी, असरलतरभ्रूः- कुटिलतरकटाक्षा, विभुग्नालकाभङ्गुरललाटकेशा, कुटिलगति:- वक्रगमना, अतिप्रोढवाग्विक्रमा- अतिप्रौढ:- परमोद्धतः, वाचो विक्रमः- वचनविन्यासो यस्यास्तादृशी [ अस्ति], तत्- तस्मात् कारणात्, अनृजुना- कुटिलेन, केनचित्- अज्ञातेन, वेधसाब्रह्मणा, कौतुकात्- लीलया, अघटि- निर्मिता भोः। नहि सर्वसामान्यसृष्टिकर्तुविधातुरीहशस्त्रीनिर्माणकर्तृत्वं सम्भवति, तस्मादन्य एव कश्चिद् विधाताऽस्या इति भावः । सर्वत्र पादे सप्तभिर्यतिः । 'य[1]द[1]स[I] र[1]ल[1]त[1]र[5]भ्रू[s]वि[1] भु[s] ग्ना[s]ल[1]का[s] इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू०-२०२॥
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[अ० २, सू० २०३-२०४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १८३
नौ नौ गः क्ष्मा ॥२०३॥ ननमरगाः । छरिति वर्तते । यथा- त्वदरिमृगशामावासप्रदानाद, भयमिव परमं राजन् ! धारयन्तः । प्रचलति भवतः सैन्ये दिग्जया, प्रतिदिशमगमन कम्पं मामृतोऽमी ॥ २०३.१ ॥
दशमं प्रकारमाह-नौ भ्रौ गः क्ष्मेति । विवृणोति- ननमरगाः । छरिति वर्तते इति- नगणद्वयं मगण-रगणो गुरुश्च ..sss.sis.s' इतीहशैवर्णेः कृताः पादा यस्य तव, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् क्ष्मानामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- त्वदरीति-हे राजन् ! त्वदरिमृगदृशां- त्वच्छत्रुरमणीनाम्, आवासप्रदानात्-निवासस्थानदानात् हेतोः परमम्अत्यन्तं, भयं, धारयन्त:- बिभ्राणा इव प्रतिदिशं- सर्वासु दिक्षु अमी क्ष्माभृतः- पर्वताः, भवतः- तव, सैन्ये- बले, दिग्जयार्थ-दिशो विजेतुं, प्रस्थितेचलिते सति, कम्पं- चलनम्, अगमन्- प्रापुः । अन्योऽप्यपसधी राजानमागच्छन्तं वीक्ष्य भयात् कम्पते, एते च साक्षादेव राजापराधिनः राज्ञः शत्रूणां पक्षपातित्वादिति ससैन्यं राजानभागच्छन्तं विचार्य कम्पन्ते । अत्र दिग्विजययात्रार्थ त्वयि प्रस्थिते त्वदरिमृगदृशः पलाय्य पर्वतगृहासु निलीनाः, बलभरेण मेदिनी कम्पितेति तत्रस्थाः पर्वता अपि कम्पिता इत्येष वाच्योऽर्थो भङ्गयन्तरेण प्रतिपादितः । भयमिव धारयन्त इति कम्पस्य हेतुत्वेन कथितमिति हेतूस्प्रेक्षेयम् । त्वदरिमृगदृशामिति सप्तमेऽक्षरे यतिः। एवं सर्वत्र पादेऽवसेयम् । 'त्व[1]द[0]रि[0]म[]ग[1] [1]शा[s]मा[s]वा[s]स[1]दा[s]नात्[s]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-२०३ ॥
रमौ रौ गश्चन्द्रिणी चैः ॥२०४॥ यमररगाः । चैरिति षड्भिर्यतिः । यथा- धरामारं बिभ्रल्लीलया बाहुदण्डे, जयत्येष श्रीमानूजितः क्षोणिनाथः । भुजंगीभिर्गातैरुज्ज्वलयद्यशोभिवं. भूव प्रोद्दामश्चन्द्रिणी नागभूमिः ॥ २०४.१ ॥
एकादशं प्रकारमाह- रमौ रौ गश्चन्द्रिणी चरिती । विवृणोति- यमररगाः । चैरिति षड्भिर्यतिरिति- यगण-मगणी रगणद्वयं गुरुश्च 'Iss.sss. SIS.Iss.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य, षड्भिरक्षरेश्च यतिर्यत्र तत्
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१८४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २०५-२०६.] चन्द्रिणीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- धराभारमिति- बाहुदण्डे- भुजोपरि, धराभारं- पृथ्वीभरं, लीलया- अनायासेन, बिभ्रत्- धारयन्, श्रीमान्- लक्ष्मीपात्रम्, अजित:- बलवान्, एष- वर्ण्यमानः, क्षोणीनाथः- पृथ्वीपतिः, जयति- सर्वोत्कर्षेण वर्तते । भुजङ्गीभिः- नागीभिः, गीतैः- गानविषयीकृतः, प्रोहाम:- उत्कट:, यद्यशोभि:- यत्कीतिभिः, नागभूमि:- पातालं, चन्द्रिणी- चन्द्रयुक्ता बभूव । आकाशे चन्द्र इति प्रसिद्धिः परं त्वद्यशोगानस्तत्रापि चन्द्रवत् प्रकाशस्य सत्त्वेन चन्द्रिणीव नागभूमिर्जातेति भावः । 'धराभारं बिभ्रत्' इत्येवं षड्भिर्यतिः सर्वत्र पादेषु । ध[I]रा[s]भा[s] [5]बि[5]भ्र[5]ल्ली [s]ल[I]या[s], बा[s]हु[s]ण्डे[5]' इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-२०४ ॥
नौ ? गश्चन्द्रिका ॥२०५॥ ननरयगाः । यथा-निखिलकुवलयप्रपञ्चितानन्दा, परिणतशरकाण्डपाण्डुरच्छाया । इह जगति चुलुक्यचन्द्र ! निस्तन्द्रा, प्रसरति तव कीर्तिचन्द्रिका नित्यम् ॥ २०५.१ ॥
लक्षितेषु द्वादशं प्रकारमाह- नौ यौँ गश्चन्द्रिकेति । विवृणोति- ननरयगा इति-नगणद्वयं रगण-यगणो गुरुश्च '.m.sis.Iss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् चन्द्रिकानामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- निखिलेति- हे चुलुक्यचन्द्र !- चुलुक्यवंशोद्यततक !, निखिलकुवल. यप्रपञ्चितानन्दा- निखिले- सम्पूर्णे, कुवलये- पृथ्वीमण्डले, चन्द्रविकाशिकमले च, प्रपञ्चितो-विस्तृत आनन्दो यया सा, परिणत- शरकाण्डपाण्डुरच्छाया- परिणतशरकाण्डवत्- पक्वशरयष्टिवत्, पाण्डुरा- श्वेता, छायाकान्तिर्यस्याः सा, निस्तन्द्रा- अमन्दा, सोल्लासा च, तव- भवतः, कीर्तिचन्द्रिका- प्रशस्तिकौमुदी, इह जगति- अस्मिन् संसारे, नित्यं- सततं, प्रसरति- परितो व्याप्नोति । नि[1]खि[1]ल[1] कु[1]व[1] ल[1]य[s]प्र[1]. प[s]ञ्चि[i]ता[s]न [5]न्दा[5]' इति लक्षणसमन्वयः। अ० २, सू०-२०५॥
ज्तौ स्जौ गो मञ्जुभाषिणी ॥२०६|| जतसजगाः। यथा- नरेन्द्र ! रुष्टे त्वयि महीभुजां मतिनवे पृषधर्मणि न
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[अ० २, सू० २०६-२०७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते १८५ चित्रवर्मणि । कटु कणन्ती लुठति शृङ्खला पदद्वये न कान्तानुशयमञ्जुभाषिणी ॥ २०६.१ ॥
त्रयोदशं प्रकारमाह- ज्तौ स्जौ गो मञ्जुभाषिणोति । विवृणोतिजतसजगाः इति- जगण-तगणी सगण-जगणी गुरुश्च Isi.ssI.S.Is1.5.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् मजुभाषिणीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नरेन्द्रेति- हे नरेन्द्र !- राजन् !, त्वयिभवति, रुष्टे- क्रुद्धे सति, भूभुजाम्- अन्यनृपाणाम्, मतिः- बुद्धिः, नवे- सद्य: समुत्पाटिते, पृषञ्चर्मणि- मृगचर्मणि भवति, [ व्रतग्रहणेच्छेति भावः ] चित्रवर्मणि-विचित्रे कवचे न, तथा पदद्वये- चरणयुगले, कटु- श्रतिकठिनं यथा स्यात् तथा, क्वणन्ती- शब्दं कुर्वाणा, शृङ्खला- वेणी, लुठति- पतति, अनुशयमजुभाषिणी- पश्चात्तापेन मधुरं जलपन्ती कान्ता न लुठति । त्वयि रुष्टे रिपवो मृगचर्म-परिधाना भवन्ति, कवचं जहति, तत्पदयोश्च शङ्खला पततिबद्धा भवन्ति, अनुनयवचना कान्ता न पततीत्यर्थः । 'न[][s]न्द्र[1], रु[5]टे[s], त्व[1]यि[I], भू[s] [1]जां[s], म[1]तिः[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥अ० २, सू०-२०६ ॥
न्सौ रौ गश्चन्द्रलेखा ॥२०७॥ नसररगाः। यथा- सुभग ! सुखवं मोहजालं जनानां, हृदयहरणं बन्धनं लोचनानाम् । सुललितवपुः सा सखे ! पीयते ते, विरहतमसा चन्द्रलेखेव तन्वी ॥ २०७.१॥
चतुर्दशं प्रभेदमाह- न्सौ रौ गश्चन्द्रलेखेति । विवृणोति- नसररगाः इति- नगणः सगणो रगणद्वयं गुरुश्च '.s.sis.sis.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् चन्द्रलेखानामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- सुभगेति- अत्र सुभगसुखदमिति समस्तः पाठो दृश्यते, किन्तु सुभगेति सम्बोधनपदं पृथगेव स्वीक्रियते चेत् अर्थयोजनायां सामञ्जस्यमधिकं भवतीति तथैव स्वीकृत्य व्याख्यायते । हे सुभग !- सौभाग्यशालिन् !, जनानां सुखदं मोहजालं- सुखकरं मोहबन्धनं, हृदयहरणं- चेतोवशीकरणम्, लोचनानांनेत्राणां, बन्धनम्- आकर्षकं, सुललितवपु:- सुन्दरशरीरा, सा तन्वी- पूर्व
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१८६ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २०८-२०६.] वपिता कोमलाङ्गी, हे सखे !- मित्र!, चन्द्रलेखा- शशीकला इव, ते- तव, विरहतमसा- वियोगान्धकारेण, राहुरूपेण, पीयते- निगीर्यते । काचित् दूती नायकं प्रति नायिकाया विरहदुःखं निवेदयन्ती कथयति- तव विरहेण सा तथा क्षीयते यथा राहुणा कृष्णपक्षान्धकारेण वा चन्द्र लेखेति त्वरितं तां सम्भावयेति । सु[1]भ[1]ग[1] सु[1] ख[1][5]ब[5]ध[1] नं [sलो[s][1] ना[s]नां[s] इति लक्षणसंगति ।। अ० २, सू०-२०७ ।।
न्सौ जो गो लयः ॥२०८॥ ' नसजजगाः । यथा- त्वमसि शरणं प्रसीद जगत्पते ! वितर सुतरां ममेह समीहितम् । चरणकमले जिनेश्वर ! तावके, भवतु मनसश्चिरं परमो लयः ॥ २०८.१॥
पञ्चदशं प्रभेदमाह- सौ जो गो लयः इति । विवृणोति- नसजजगाः इति । नगणः सगणो जगणद्वयं गुरुश्च .II.SI.I.S.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् लयनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथात्वमसोति-हे जगत्पते !- लोकेश !, जिनेश्वर !-जिनप्रधान !, त्वं शरणंरक्षास्थानम्, असि- भवसि, इह- संसारे, मम- तव भक्तस्य, समीहितंवाञ्छितं फलं, सुतरां- सम्यक्प्रकारेण, वितर- देहि, तावके- भवदीये, चरणकमले-पादपद्म, चिरं-बहुकालं यथा स्यात् तथा, मनस:- मम चित्तस्य, परमः- आत्यन्तिकः, लय:- अन्तर्भावः, भवतु- जायताम् । तव चरणकमले लीनमनसो मम सर्वदुःखनिवृत्तिः समीहितप्राप्तिश्च सुतरां भविष्यत्येवेति भावः। 'स्व[1]म[1]सि[1], श[1][i][s], प्र[1]सी[s]द[1], ज[1]गत्[5][1] ते[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२०८ ॥
न्सौ तौ गो विद्य न्मालिका ॥२०॥ नसततगाः । यथा- घनतमसि नष्टान् द्रष्टुमत्र क्षणे, निखिलपथिकान संहारबुद्धघा ध्र वम् । बत परिगृहीताः प्रावृषा दीपिकाः, स्फुरितरुचिविद्युन्मालिकाव्याजतः ॥ २०६.१॥
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[अ० २, सू० २१०] सवृत्तिच्छन्दोऽनुश शनप्रद्योते
१८७ षोडशं प्रभेदमाह-न्सौ तौगो विद्युन्मालिकेति । विवृणोति- नसततगा इति- नगण-सगणो तगणद्वयं गुरुश्च 1.15...5.' इतीहशरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् विद्युन्माला नामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- घनतमसीति- प्रावृषा- वर्षतुना, घनतमसि- मेघकृतेऽन्धकारे निबिडेऽन्धकारे वा, नष्टान्- पलायितान्, निखिलपथिकान्- सर्वान् पान्थान्, संहारबुद्धया- मारणेच्छया, अत्र क्षणे- अस्मिन् समये, द्रष्टुम्- अवलोकयितुम्, स्फुरितरुचिविद्युन्मालिकाव्याजतः- स्फुरिता- परित: चञ्चूर्यमाणा, रुचिः- कान्तिर्यस्यास्तादृश्याः, विद्यन्मालिकायाः-तडित्पङ्क्तेः, व्याजत:छलेन, दीपिका:- प्रकाशज्वालाः, परिगृहीता:- संचिताः, बत इति खेदे, 'सर्वे यूयं गृहं गच्छत' इति प्रावृष आज्ञामवर्षीय इतस्ततः प्रवास एव छन्नान् पथिकानपराधिनो मारयितुमन्धकारबहुले घनसमये स्फुरत्सौदामिनीमिषेण दीपिकाः प्रसार्य सर्वान् पान्थानन्वेषयितुं प्रवृत्ता प्रावृडिति भावः । 'घ[1]न[1]त[1]म[1]सि[1], न[s]ष्टान्[s], द्र[s]ष्टु[s]म[s]त्र[s]क्ष[s]पो[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२०६ ।।
स्जौ स्जौ गो नन्दिनी ॥२१०॥ सजसजगाः यथा- वसुधाधिपत्यमिह देव! नार्थये, जिननाय! नापि पुरुहूतसंपदम् । वरदोऽसि चेन्मम तदा सदा मतिर्भवताद् भवद्गुणगणाभिनन्दिनी ॥२१०.१. ।। कनकप्रमा, जया, सुमङ्गलीति च केचिदाहुः । मनोवतीति भरतः ॥२१०.१॥
लक्षितक्रमेण सप्तदशं प्रभेदमाह- स्जो स्जौ गो नन्दिनीति । विवृणोतिसजसजगाः इति- सग्ण-जग्ण-सगण-जगणा गुरुश्च 'I.ISI.IIS.Is1.5.' इतीदृशंरक्षरैः कृताः पादा यस्य त नन्दिनीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-वसुधाधिपत्यमिति, हे जिननाथ!-देव!, इहलोके, वसुधाधिपत्यं- भूमीश्वरत्वं, न अर्थये- न याचे, पुरुहूतसम्पदं- देवेन्द्रसम्बिन्धिनी तत्सदृशीं वा, सम्पदं- सम्पत्तिमपि, न अर्थये, चेत्- यदि, वरदःसमीहितप्रदाता, असि, तदा मम- तव सेवकस्य, मतिः- बुद्धिः, सदा- सर्वस्मिन् काले, भवद्गुणगणाभिनन्दिनी- श्रीमद्गुणगणस्तविका, भवतात्
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २११-२१२.] भूयात्, [इति वरं देहीति शेषः] नाहमोहिकं राज्यं नापि स्वाराज्यमिच्छामि, केवलं भवदीगुणानुवादेन समयं या पायितुमिच्छामिति भावः । 'व[1] सु[1]धा [5]धि[1]प[5]त्य[1]मि[1]ह[1], दे[5]व[5], ना[5][1]ये[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ।। अस्य नामान्तरण्याह-कनकप्रभा, जया, सुमङ्गलोति केचिदाहरिति । मनोवतीति भरत इति च ॥ अ० २, सू०-२१० ।।
न्जौ सौ गो मदललिता ॥२११।। नजनसगाः । यथा- कलितकलङ्कशितिसिचयसंपत्, करदलितेद्धतिमिरयमुनाम्बुः । प्रथयति गौरवपुरमृतरश्मिर्मुशलधरस्य समदललितानि ॥ २११.१. ॥
अष्टादशं प्रकारमाह- जौ सौ गो मदललितेति । विवृणोति- नजनसगाः इति- नगण-जगण-नगण-सगणा गुरुश्च 1.51.11.15.5.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य, तत् मदललितानामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कलितेति- कलितकलङ्कशितिसिचयसम्पत्कलिता- स्वीकृता, कलङ्कमिव शितिसिचयस्य- नीलवरस्त्रस्य, सम्पत्लक्ष्मीर्यन, करदलितेद्धतिमिरयमुनाम्बु:- करैः-किरणैः [ हस्तैश्च ], दलितंदूरीकृतम्, इद्धतिमिरमिव- घोरान्धकार इव, यमुनाम्बु- कालिन्दी [नील] जलं येन सः, मुसलधरस्य- बलभद्रस्य, गौरवपुरमृतराश्मि:- धवलशरीराभिन्नश्चन्द्रः, समदललितानि- मत्तक्रीडितानि, प्रथयति- प्रख्यापयति । अत्र बलदेवस्य गौरवपुषः चन्द्रत्वेन रूपणं प्रदर्शितम्, चन्द्र कलङ्कमिव तस्य शरीरे नीलबस्त्रमस्ति, चन्द्रोऽन्धकारं दूरीकरोति एतद्वपुरपि नीलं यमुनाजलं दूरीकरोतीति कथा पुराणेषु प्रसिद्धा, तथा च चन्द्रं दृष्ट्वा बलभद्रस्य मत्तक्रीडितानि स्मृतिपथमवतरन्तीति चन्द्रस्तत्प्रथने कतृत्वं प्रप्त इवेति रूपकग - त्प्रेक्षा। 'क[1]लि[1]त[1]क[i][5]क[1]शि[1]ति[1]सि[1]च[1]य[i]सं [5]पत्[s]' इति लक्षणसङ्गति ॥ अ० २, सू० २११ ॥
स्जौ सौ गः कुटजम् ॥२१२॥ सजससगाः । यथा- परमं प्रकर्षमधिरुह्य विद्ध्यात्, किमिव प्रवासविष
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[अ० २, सू० २१२ - २१३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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मस्थितिभाजाम् । कुरुते यतः प्रथमतोऽपि धनर्तुः कुटजप्रसूनरजसा जगदन्धम् ।। २१२.१ ।। भ्रमर इत्यन्यः ।। २१२.१ ॥
ऊनविंशं प्रकारमाह- स्जौ सौ गः कुजटमिति । विवृणोति - सजससगाः इति - सगण - जगणी समणद्वयं गुरुश्च ।।5. SI. ।। 5. ।।5.15.S. ' इतीदृशेरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् कुटजनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । यथा परममिति, घनर्तु:- मेघसमयः, परमं - चरमं प्रकर्षम् - उत्कर्षम्, अधिरुह्य - सम्बाय्य, प्रवासविषमस्थिति भाजां - प्रवासे- गृहाद् दूरस्थाने निवासे, विषमां कठिनां, स्थितिम् - अवस्थां भजन्तीति तादृशानां जनानां, किमिव - अवर्णनीयं तत्तदुःखं विदध्यात् - कुर्यात्, यतः- यस्मात् कारणात्, प्रथमतः- प्रारम्भसमये अपि, कुटजप्रसूनरजसा- कुटनानां नीपानां प्रसून र-जसा- पुस्परागेण, जगत्- संसारम्, अन्धं - दृष्टिविकलं, कुरुते - विदधाति । येनादावेव सर्वं जगदन्धीकृतं स स्वप्रकर्षसमये स्वत एव विषमस्थितौ पतितानां पान्यानां कृते कानि कानि दुःखानि दद्यादिति कथं वर्णयितुं शक्यत इति भावः । प [ 1 ] र [1] [5], प्र [1] का [s] [ 1 ]म []धि[1] रु[5] ह्य[+] वि[1] द [s] ध्यात्[s] ' इति लक्षणसमन्वयः । २१२।११ अस्य नामान्तरमाह - भ्रमर इत्यन्य इति ॥ अ० २, सू० २१२ ॥
1
नौ सौ गो गौरी ॥२१३॥
ननतसगाः । यथा - ननु भव कुसुमेषो ! निशितशस्त्रस्तृणमसि यतिनोऽस्य प्रशमवृत्तेः । क्वचिदपि खलु तेऽन्ये मनसि येषां निवसति मृगनेत्रा कनकगौरी
।। २१३.१ ।।
विशं प्रभेदमाह - नौ सौ गो गौरीति । विवृणोति-न-न-त-स-गा इति - नगणद्वयं तगण - सगणी गुरुश्च ।।। ।।।.SSI.11S.S.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् गौरीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - ननु भवेति- हे कुसुमेषो ! - पुष्पबाण !, निशितशस्त्रः - तीक्ष्णायुधः, भवभूयाः, ननु इति कोमलामन्त्रणे, प्रशमवृत्ते - अन्तरिन्द्रियनिग्रहशीलस्य, अस्य यतिन: - जिते
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___ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २१४.] न्द्रियस्य साधोः, [कृते], तृणम्- अतिदुर्बलः, असि- भवसि, अयं त्वां तृणमिव मन्यत इति भावः । ते अन्ये- तथा भूताः परे जनाः, क्वचिदपि-क्वापि भवेयुः, 'येषां मनसि- चित्ते, कनकगौरी- काञ्चनधवला, मृगनेत्रा- हरिणनयना [कामिनी], निवसति खलु- निश्चितं वासं विदधाति । अयमाशयः- काम:कुसुमबाण इति प्रसिद्धः, स यदि तीक्ष्णशस्त्रोऽपि स्यात् तथापि निगृहीतेन्द्रिणां यतिनां किमपि कर्तुं न शक्नोति किमत कुसुमबाणतादशायाम् । ये च केचन कनकगौरी कामिनीमेव हृदये कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति ते यत्र वचन भवेयुः, तल्लक्ष्यतां- कामबाणवेध्यतां यास्यन्ति, न यतिन इति । 'यति' शब्द इकारान्तो मुन्यादिषु प्रसिद्धः, 'यतिन्' इति च इन्ननन्तः, यमनं- यतमिति भावक्तान्तान्मत्वर्थीयेनेना सिद्धोऽन्य एवेन्द्रियनिग्रहशालिवाचक इति तस्यैवेह प्रयोगः । 'न[1]नु[1], भ[1]व[1], कु[1]सु[1]म[5]षो[5], नि[1]शि[1]त[1]श[5]स्त्रः [s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२१३ ॥
त्मौ स्जौ गो लक्ष्मीः ॥२१४॥ नभसजगाः । यथा- विद्वद्गणरुचितमुदीर्यते सदा सिदेशनन्दन! पुरुषोत्तमो भवान् । य त्वां स्वयंवरविधिनाभ्युपेयुषी लक्ष्मीरियं रणमकराकरोत्थिता ॥ २१४.१. ॥
लक्षितक्रमेण एकविशं प्रकारमाह- त्मौ स्जो गो लक्ष्मीरिति । विवृणोति-तमसजगाः इति- तगण-भगण-सगण-जगणा गुरुश्च 'ss.s.s. ।s.s.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् लक्ष्मीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-- विद्वद्रणैरिति, हे सिद्धेशनन्दन !- सिद्धराजसूनो !, भवान् पुरुषोत्तम:- पुरुषेषु, उत्तम:- श्रेष्ठः, अथ च विष्णुः [इति], विद्वद्गणैः- विदुषां समूहैः, सदा- सर्वदा, उचितं- योग्यम्, उदीर्यते- कथ्यते, यत्- यस्मात्, रणमकराकरोत्थितारण:- संग्राम एव मकराकरः- समुद्रः, तस्मादुत्थिता- निर्गता, इयं- प्रत्यक्षमवलोक्यमाना, लक्ष्मी:- [राजलक्ष्मीः], स्वयंवरविधिना- स्वेच्छास्वीकारप्रकारेण, त्वां- भवन्तम्, अम्युपेयुषी- समुपगता । समुद्रादुत्थिता लक्ष्मीः पुरुषोत्तमं [विष्णुं] स्वयं वृतवतीति पुराण
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[अ० २, सू० २१५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१६१ प्रसिद्धिमनुरुध्य रणसमुद्रोत्थितया लक्ष्म्या स्वयं वृतं त्वां विद्वजना यत् पुरुषोत्तमं कथयन्ति तदुचितमेवेति भावः । 'वि[s][5][1]] [5] रु[1]चि[1] त[1]मु[1]दी[5]र्य [1]ते[5], स[1]दा[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२१४ ॥
त्भौ जौ गो अभ्रकम् ॥२१५॥ तभजजगाः । यथा- अभ्यस्यतीव रसवादकलामयं सान्ध्यः क्षणोऽभिमतचन्द्रमहोदयः । तारौषधिप्रकटनाभिरतः सखे ! प्रोद्दीपयन विविधवर्णमिहाभ्रकम् ॥ २१५.१ ॥
द्वाविशं प्रभेदमाह- त्मौ जौ गो अभ्रकमिति । विवृणोति-तभजजगाः इति । तगण-भगणी जगणद्वयं गुरुश्च ‘ss1.51.11.5.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् अभ्रकं नाम अतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरतियथा- अभ्स्यति वेति, हे सखे !- मित्र !, इह- अस्मिन् समये, अभिमतचन्द्रमहोदयः- अमित:- इष्टः, चन्द्रस्य- शशिनः, महोदयो यस्य, पक्षे- अभिमत:- इष्टः, चन्द्रस्य- सुवर्णसम्बन्धी, महोदयः- महाचन्द्रोदयनामा रसो यस्य स:, तारौषधिप्रकटनाभिरत:- तारा:- नक्षत्राण्येव ओषधयः, तेषां प्रकटनेप्रकाशने, अभिरत:- लग्नः पक्षे तारं- रुप्यमेव, ओषधि:- भैषज्यं, तस्य प्रकटने-प्रकाशने, अभिरतः- लग्नः, विविधवर्णम्- अनेकरूपम्, अभ्रकमेघ, पक्षे रसविशेषं स्वनाम्ना प्रसिद्धम्, प्रोद्दीपयन्- प्रकाशयन्, पक्षे वह्निना संस्कुर्वन्, अयं- दृश्यमानः, सांध्यः- सायंकालिकः, क्षणः- कालकला, रसवादकलां- रसायनप्रक्रियाम्, अभ्यस्यतीव- शीलयतीवेत्युत्प्रेक्षा । यथा रासायनिकज्ञानाभिलाषी महाचन्द्रोदय निर्माणेच्छु रूप्यादिसंस्कारं करोति तथा सान्ध्यक्षणस्य चन्द्रमहोदयः, ताराप्रकाशश्चेष्ट इति तदर्थं रसवैद्यः अभ्रकं भस्मीकर्तुं प्रोज्वालयति, सान्ध्यक्षणोऽपि नानावर्णमेघ प्रकाशयति, इत्युमयोः साधर्म्मदृष्टेः सान्धयक्षणस्य रसवाद कलशिक्षणमुत्प्रेक्ष्यते । 'अ[5]भ्य[5] स्य [1]ती[5]व[1], [1]स[1]वा[5]द[1]क[1]ला[s]मयं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२१५॥
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सृवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २१६-२१७.] म्तौ स्रौ गः कोदुम्भो ङः ॥ २१६ ॥
मतसरगाः । डैरिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- लक्ष्मीः कान्ताभिविकचनेत्रोत्पलामिस्ताम्बूलं पत्रः परिणतं वनवासैः । काव्यं कोदुम्भाभिधनवच्छन्दसे वं चेतो हारित्वं भजति वैदग्धभाजाम् ॥ २१६.१ ॥
1
१६२
लक्षितवृत्तानां क्रमानुसारं त्रयोविंशं प्रकारमाह- म्तौ खौ गः कोदुम्भो ङेरिति । विवृणोति - मतसरगाः । ङेरिति पञ्चमितिरिति - मगणतगण-सगण - रगणा गुरुश्च SSSSSI.VIS.SIS.S.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्यतत्, पञ्चभिश्च यतियंत्र कोट्टुम्भनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - लक्ष्मीः कान्ताभिरिति, लक्ष्मीः- धनधान्यादिसम्पत्, वि. कचनेत्रोत्पलाभिः - विकचे - विकसिते, नेत्रोत्पले - नयनकुवलये यासां ताभिः कान्ताभिः, चेतोहारित्वं- हृदयहारिणीत्वं भजते- प्राप्नोति, ताम्बूलं - चूर्णपूगादिसहितं नागवल्लीपुटकं, परिणतैः- परिपक्क, वानवासः - वनवासदेशोद्भवैः, कोङ्कणदेशात् पूर्वो भागो वनवासदेशः, तथा च रतिरहस्ये - “सर्वंसहा मध्यमवेगभाजस्त्रियो रमन्ते वनवासदेश्या:" [ ५।१८ ], पत्र:- दलैः, चेतोहारित्वं भजति, वैदग्ध्यभाजां - काव्यकरणचातुरीमताम् इदं काव्यं, कोदुम्भामिधनवच्छन्दसा - कोदुम्भनामकनूतनवृत्तेन चेतोहारित्वं भजत इत्यन्वयः । 'ल [s]क्ष्मीः [s] का [s] न्ता [s] भि: [s], वि[1][1]च [1] [5] त्रो[5] त्प[s]ला [s]भिः [s]' इति लक्ष्णसंगतिः ॥ अ० २, सू० - २१६।१ ॥
,
स्यो स्जौ गः सुदन्तम् ॥ २१७ ॥
सयस जगाः । यथा - त्रिदिवं व्रजद्भिदिविषत्पतेः पुरः सुभटैर्जवान्निर्दलिता इवार्गलाः । करवालघातं त्रुटितास्तदा समिद्वसुधासु दन्ताः करिणां चकाशिरे ।। २१७.१ ॥
चतुवि प्रकारमाह- स्यौ स्जौ गः सुदन्तम् इति । विवृणोति - सयसजगाः इति - सगण - मगण- सगण जगणा गुरुश्च '11S. ISS. IS.ISI. S. ' इतीहरौ - रक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् सुदन्तनामकमतिजगतिजातिच्छन्द इत्यर्थः ।
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[अ० २, सू० २१८. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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उदाहरति- यथा - त्रिदिवमिति, तदा- तस्मिन् समये, सुभटैः - वीरैः, समिद्वंसुधासु - युद्धभूमिषु, करवालघातै:- खड्ग प्रहारैः, त्रुहिताः - छिन्नाः, करिणांहस्तिनां दन्ताः, त्रिदिवं - स्वर्गं ब्रजद्भिः - गच्छद्भि: [ सुभटैः ], जवाद्वेगात्, निर्दलिता:- भग्नाः, दिविषत्पतेः- इन्द्रस्य, पुर:- नगर्याः, अर्गला इव - कपाटपिधानदण्डा इव, चकाशिरे- शुशुभुः । संग्रामे रिपुसैन्यं निहत्य तन्तानां च दन्तांरिछत्वा स्वगं प्रति वेगाद्गच्छद्भिर्वीरैर्भग्नाः स्वर्गस्यार्गला इवेह करिदत्ताः प्रतिभान्तीत्यर्थ: । 'त्रि [1] दि[1]वं [s], व्र[1]ज [s]द्भिः[5], दि [ 1 ]वि [ 1 ]ष [s]त्प [ 1 ] ते: [ 5 ], पु[1]र: [ 5 ] ' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२१७ ॥
नौ सौ गः कमलाक्षी ॥२१८॥
यथा- विरचितनिबिडतरोत्कलिकाभिः, कमिव नवमदजुषं न विदध्युः । सपदि शरदि सरितः कलहंसप्रकटितगतिललिताः कमलाक्ष्यः ।। २१८.१ ।।
लक्षितेष्वस्य भेदेषु पञ्चविंशं प्रकारमाह- नौ सौ गः कमलाक्षीति- नगणद्वयं सगणद्वयं गुरुश्च ।।। ।।। ।ISIS. S. ' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् कमलाक्षीनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- विरचितेति, शरदि - शरहतो, कलहंसप्रकटितगतिललिता :- कलहंसैः - मरालैः, प्रकटितानि गतिललितानि - गमनक्रीडितानि यासु ताः, कमलाक्ष्य:- कमलान्येवाक्षीणि यासां तथाभूताश्च सरितः - नद्यः, विरचितनिबिडतरोत्कलिकाभिःनिर्मित घनवीचिभिः, कमिव - जनं, सपदि शीघ्र, नवमदजुषं- नूतनमत्तभावभाजिनं, न विदध्युः - न कुर्युः, अपि तु सर्वमेवजनं तथाविधं कुर्युरिति । कमलाक्षीति विशेषणमहिम्नाऽक्षिप्ताः कामिन्योऽपि कलहंसवत् प्रकटितानि गतिललितानि याभिस्तथाभूता भवन्ति, ताश्च विरचितनिबिडत रोत्कलिकाभि:- कृतघनरणरणकैः, कमिव जनं शरदि सपदि नवमदजुषं न विदयुरिति कवेराकूतम् || 'वि[1]र[0]चि[0]त[1]नि [1] बि[1]ड [1]त[1]रो [s]त्क [ 1 ]लि[1] का [s]भि: [s] ' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - २१८ ॥
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१९४ सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-२१६-२२०.]
नीगौ त्वरितगतिः ॥२१॥ नगणचतुष्टयं गुरुश्च । यथा- नृवर ! तव धनुरधिगतगुणं, ध्वनति च युधि भयवशतरला । कलयति च पिचुनिचयतुलनां त्वरितगतिररिनृपतिपृतना ॥ २१६.१ ॥ लघुगतिश्चपला वेत्यन्ये ॥ २१६.१ ॥ १३॥२६ ॥
लक्षितेषु षड्विशं प्रकारमाह- नीगौ त्वरितगतिरिति । विवृणोतिनगणचतुष्टयं गुरुश्चेति- “समानेनैकादिः" [ १-४ ] इति नियमेन नीत्यस्य नगणचतुष्टयवाचकत्वादिति भावः, तथा च .....' इत्येवं रूपवर्णः कृताः पादा यस्य तत् त्वरितगतिनामकमतिजगतीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नृवरेति, हे नृवर !- मनुजश्रेष्ठ !, अधिगतगुणम्- आरूढज्यं, तव- भवतः, धनु:- कोदण्डं, युधि- सङ्ग्रामे, ध्वनित च- शब्दं करोति, किंच, अरिनृपतिपृतना- शत्रुराजबलं, भयवशतरला- दरेण चञ्चला, त्वरितगति:- शीघ्रगमना सती, पिचुनिचयतुलनां- तूलसमूहसमतां, कलयति चधारयति च, तव धनुषि अधिज्ये सत्येव [ तत्समकालमेव ] तव रिपवस्तूलानीव यतस्ततः पलायन्ते इति भावः । अस्य नामान्तरे आह- लघुगतिश्चपला वेत्यन्य इति । 'नृ[1][i][i], त[1][i], ध[i][i]र[1]धि[1] ग[1]त[1][[]] [s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२१६ ॥ ___ इत्थमतिजगतीजातेः प्रसिद्धतराः षड्विशतिभेदा लक्षिताः, प्रस्तारगत्या तु त्रयोदशाक्षरपादस्य वृत्तस्य ८१९२ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन
"शतमष्टी सहस्त्राणि द्वयधिका नवतिः पुनः। जगत्यामतिपूर्वायां वृत्तानां सर्वशो भवेत् ॥” इति [भ० ना० शा० १५५६] ॥ १३-३६ ॥
॥ इत्यतिजगती॥
शक्कर्यां नौ सौ ल्गावपराजिता छैः ॥२२०॥ ननरसलगा: । छैरिति सप्तभिर्यतिः । यथा- शशधरवदनं कुशेशयलोचनं, शुचिरचिरुचिरं ललाटतटस्थितम् । विशवकरुणयाधिवासितमृद्धयो, जिनमनुसरता भवन्त्यपराजिताः ॥ २२०.१ ॥
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[अ० २, सू० २२१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१६५ ___ अतः परं चतुर्दशाक्षरपादां शक्करीजाति वर्णयितुमुपक्रमते- शक्कर्यां नो र्सी भगावपराजिता छैरिति । विवृणोति- ननरसलगाः। छैरिति सप्तभिर्यतिरिति- नगणद्वयं रगण-सगणी लघुगुरु च .m.sis.s.is.' इत्येवंरूपवर्णः कृताः पादा यस्य तत्, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् अपराजितानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- शशधरवदनमिति, शशधरवदनंचन्द्राननं, कुशेशयलोचनं- शतपत्रसमाननेत्रं, शुचिरुचिरुचिरम्- उज्जवलकान्तिभासितम्, ललाटतटस्थितं- स्वस्य सदा तं प्रति प्रह्वत्वेन स्वललाटप्रान्ते वर्तमानमिव, विशदकरुणया अधिवासितं- निर्मलदयया भावितं, जिनं- देवम्, अनुसरताम्- आनुकूल्येन सेवमानानां जनानाम्, ऋद्धयः- सम्पदः, अपराजिताः- परानभिभवनीयाः, भवन्ति- जायन्त इत्यर्थः । श[1][][] [1] व[1]द[1] नं [1], कु[1] [5] श[1]य[1]लो[s]च[s]नं [s]' [सप्तभिश्च यतिः] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२२० ।
म्सौ म्मौ गावलोला ॥२२१॥ मसमभगगा: । छैरिति वर्तते । यथा- आत्मारामपदकव्यापाराभिरताना, संसाराधिरगाधस्तेषां गोष्पदमात्रम् । अन्तस्तत्त्वसमाधेः प्राणायामनिरोधान, नासावंशनिषण्णा येषां दृष्टिरलोला ॥ २२१.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह- म्सौ म्भौ गावलोलेति । विवृणोति- मसमभगगाः । छरिति वर्तते इति- मगण-सगण-मगण-भगणा गुरुद्वयं च 'sss.us. sss.sil.s' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्, सप्तमिश्च यतिर्यत्र तत् अलोलानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- आत्मारामेति, आत्मारामपदैकव्यापाराभिरतानाम्- आत्मनि- स्वस्वरूप एव, आ-समन्ताद् रमणम्- आत्मारामः, तत् च पदं- स्थानं, तत्र मनसः स्थितिविशेषः, तस्य य एको- मुख्यो व्यापारः, तत्राभिरतानां लग्नानां, तेषां- मनुजधुरीणानां कृते, अगाधः- दुस्तरः, संसाराब्धि:- जगत्समुद्रः, गोष्पदमात्रं- गवां पदचिह्नमिव सुतरम्, तेषां केषां? येषां- जनानाम्, अन्तस्तत्त्वसमाधे:- अन्तस्तत्त्वे- आभ्यन्तररहस्ये वस्तुनि, समाधेः- चितकाग्र्यात्, प्राणायामनिरोधात्- निरोघाख्यकुम्भकप्राणायामात्, नासावंशनिषण्णा- नासिकाग्रभागस्थिता, दृष्टिः,
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ० २, सू० २२२ - २२३.]
अलोला - स्थिरा भवति । ये समाधी स्थिराः सन्त आत्मतत्त्वं चिन्तयन्ति ते सुखेन संसारसागरं तरन्तीति भावः । आ [s]त्मा [S]रा[S]म [1] प [1] दै[S]क[1] व्या [S]पा [5] रा [S]भि[1]र [1] ता [s]नां[s]' [ सप्तभिश्च यतिः ] इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू०-२२१ ॥
नौ नौ लगौ प्रहरणकलिता ॥२२२॥
ननमनलगाः । छरिति वर्तते । यथा- तव गुणनिकरैरपि दृढविपुलं, रहिसमुदयः सपदि नियमितः । नरपतितिलक त्वमिह भुजलतां प्रथयसि किमसिप्रहरणकलिताम् ।। २२२.१ ॥
"
तृतीयं प्रकारमाह- नौ नौ लगौ प्रहरणकलितेति । विवृणोति - नन-भ-न लगाः । छैरिति वर्तते इति - नगणद्वयात् परतो भगणनगणौ लघुगुरुश्च ।।। ।।। ।।।।।. 5. ' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्, सप्तमिश्च वर्णैर्यतिर्यत्र तत्, प्रहरणकलितेतिनामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - तव गुणनिकरैरिति, हे नरपतितिलक ! - राजश्रेष्ठ !, दृढविपुलै : - दृढ :- स्थास्नुभिः, विपुलैः- आयामवद्भिश्च तव - भवतो, गुणनिकरै: - गुणा: - शौयादयः, गुणाः- रज्जव इव तेषां समूहैः, अहितसमुदयःशत्रुसमूहः, सपदि - शीघ्र, नियमितः- नियन्त्रितः, [ ततः ] त्वं असिप्रहरणकलितां - खड्गप्रहारशालिनी, भुजलतां - बाहुवल्लीम्, इह जगति, कि- कस्मै प्रयोजनाय प्रथयसि - प्रख्यापयसि । यदि असि प्रहारिण्या भुजलतायाः कार्यं रिपुनियनं गुणैरेव कृतं तर्हि भुजलताख्यातिर्व्यर्थं वेति भाव: । त [s] [ 1 ], गु[1] [ 1 ]नि [1] []₹[s]र[1]पि[1], दृ[1] ढ[1]वि[1]पु[1] लै: [s] ' इति सप्तमिश्च यतेः सत्त्वादपि लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - २२२ ॥
यो गौ करिमकरभुजा ॥२२३॥
ननमयलगाः । छेरिति वर्तते । यथा- रणभुवि नृपते ! निस्त्रिंशदण्डेन ते, रिपुभटकरटिप्रोत्माथिना जृम्भितम् । जलनिधिजठरे पाठीनकूर्मावली करिमकरभुजोर्वेणेव तेजस्विना ।। २२३.१ ।।
चतुर्थं प्रभेदमाह - नौ म्यौ लगौ करिमकरभुजेति । विवृणोति - ननमय
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[अ० २, सू० २२४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
१६७ लगा इति । छैरिति वर्तते इति च, नगणद्वयात् परतो मगण-यगणी लघुगुरुश्च ॥.m.sss.ISS.15.' इतीदृशैरक्षरैः कृता: पादा यस्य तत्, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् करिमकरभुजानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- रणभुवीति, हे नृपते !- राजन् !, रणभुवि- संग्रामाङ्गणे, रिपुमटकरटिप्रोन्माथिना- शत्रुसैन्यस्थगजमर्दकेन, ते- तव, निस्त्रिंशदण्डेन- खड्गयष्टया, जलनिधिजठरे- समुद्रोदरे, पाठीनकूर्मावलीकरिमकरभुजा-पाठीनोमत्स्यविशेषः, कूर्म:- कमठश्च, तयोरावली- समूहः, करिणो- गजाः, मकरायादोविशेषाश्च, तान् भुङ्क्ते इति तेन, तेजस्विना- दीप्तिमता, और्वेण- वडवानलेनेव, जम्भितं- स्वोत्कर्षः प्रकाशितः । समुद्रे वडवानल इव समराङ्गणे तव निस्त्रिंशश्वकासांचक्रे इति भावः । 'र[1] [1] [1]वि[i], नृ[1]प[1]ते[s], नि[s]स्त्रि[s]श[i][5]ण्डे[s]न[1]ते[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० २२३. ॥
नौ तौ गौ वसन्तः ॥२२४॥ ननततगगाः । छरिति वर्तते । यथा- सखि ! भवति भवच्छलषगण्डूषपादतहतिभिरियं यत्प्रसूनप्रसूतिः । कुरबकबकुलाशोकमुख्यमाणां, तदिह ननु तवायत्तसंपद् वसन्तः ॥ २२४.१ ॥ नन्दीमुखीत्येके ॥ २२४.१ ॥
पञ्चमं प्रकारमाह- नौ तौ गौ वसन्तः इति । विवृणोति- नन-ततगगाः इति । छरिति वर्तते इति च । नगणद्वयात्परतस्तगणद्वयं लघुगुरू च '.in.ssi.ss1.15.' इतीदृशैर्वणः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् वसन्तनामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सखि ! भवतोति- हे सखि ! यत्- यस्मात् भवच्छ्ले ष-गण्डूष-पादप्रतिहतिभि:- भवत्याः श्लेषः- आलिङ्गन, गण्डूष:- निष्ठीवनं, पादप्रतिहृतिः- चरणप्रहारः, तैः कुरबकबकुलाशोकमुख्यद्रुमाणां- कुरबकश्च बकुलश्च अशोक ? चेति ते मुख्याः प्रधानानि येषां तेषां द्रुमाणां- वृक्षाणाम्, इयं- दृश्यमाना, प्रसूनप्रसूतिः- पुष्पोद्गमः, भवति- जायते, तत्- तस्मात् कारणात्, इह- जगति, वसन्तः, तवायत्तसंपत्- त्वदधीनलक्ष्मीकः, ननु निश्चितम् । अयमाशयः
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २२५.] "पादाघातादशोको विकसति बकुलो योषितामास्यमद्यः" इत्यादिकविसमयप्रसिद्धया सुन्दर्या आलिङ्गन-मद्य गण्डूष-पादाघातः कुरबकादिषु वासन्तपुष्पवृक्षेषु पुष्पोद्गमो भवतीति स्थिती वसन्तस्त्वदधीनसम्पदेवेति काचिच्चाटुकारिणी नायिकामाहेति । 'स[1]खि [1], भ[1]व[1]ति,भ[1] व[s]च्छले[s]ष[s]ग[s] ण्डू[s]ष[1]पा[s]दा[s]' इति लक्षणसङ्गतिः। अस्य नामान्तरमाह- नन्दीमुखीत्येके इति । अ० २, सू०-२२४ ।।।
म्रौ तौ गौ लक्ष्मीः ॥२२५॥ मरततगगाः । छरिति वर्तते । यथा- मामद्वैतानुरागां मान्यतेऽसौ तृणाये त्येवं दीर्भाग्यदुःखोन्मूलनं चिन्तयंती। मन्ये त्वत्खड्गधारां तन्द्रतं कर्तुकामा, कामं सिद्धेन्द्रसूनो सेवते राजलक्ष्मीः ॥ २२५.१ ॥
षष्ठं प्रकारमाह- म्रौ तौ गौ लक्ष्मीरिति । विवृणोति- मरततगगाः। छरिति वर्तते इति- मगण-रगणो तगणद्वयं गुरुद्वयं च 'sss.sis.sst.ssi.ss.' इत्येवंरूपर्वणः कृताः पादा यस्य सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् लक्ष्मीनामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः॥ उदाहरति- यथा-मामद्वैतेति, हे सिद्धेन्द्रसूनो !कुमारपाल !, राजलक्ष्मी:- राज्ञां लक्ष्मीः - श्रीः, 'असौ- कुमारपालः, अद्वैतानुरागाम्- अनन्यानुरक्तां मां, तृणाय- तुच्छां, मन्यते- जानाति', इत्येवं चिन्तयन्ती- ध्यायन्ती, दौर्भाग्यदुःखोन्मूलनं-दौर्भाग्येन यद् दुःखं-कुमारपालकृतावहेलनोत्थं कष्ट, तस्य उन्मूलनं- नाशसाधनम् । अत्र सप्तमो वर्णो यतिस्थानं, तत् परपदेन संहितमिति यतिभङ्ग इव भाति, तद्वतम्- असिधाराव्रतं, कर्तुकामा- आचरितुमिच्छन्ती, त्वत्खड्गधारां- तवासिधारां, कामम्अत्यन्तं, सेवते- भजते इति मन्ये । तव खड्गेन राज्ञां लक्ष्मीः स्ववशमानीयत इति दृष्टम्, तत्र हेतुश्चायमेव यत् सा त्वत्कृतां निजावहेलनां दृष्ट्वा कठिनतरमसिधाराव्रतं कर्तुकामेव तवासिधारा सेवत इत्युत्प्रेक्षे, इति भावः । 'मा[s] म[5]a[s]ता[s]नु[1] रा[s]गां[s], म[5]न्य[1]ते[5]सौ[s], [1]णा[s] ये[s] इति लक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू०-२२५ ॥
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[अ० २, सू० २२६-२२७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
मो रौ सो ल्गौ जया ॥२२६॥ मररसलमाः । छरिति वर्तते । यथा- माद्यद्गन्धद्विपानां लसद्दशनाशनिकोडाघातः समन्ताद् विदारितसानवः। यस्योच्च: सह्यविन्ध्योजयन्तहिमालयाः, शैलाः शंसन्ति संप्रत्यपीह दिशां जयान ॥ २२६.१॥
सप्तमं प्रकारमाह-मो रौ सो ल्गौ जयेति । विवृणोति-मररसलगाः। छैरिति वर्तते इति- मगणो रगणद्वयं सगणोलघुगुरुश्च ॥.sis.sis. ..' इतीहौरक्षरैः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् जयानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः ।। उदाहरति- माद्यद्ग्रन्धेति, माद्यद्गन्धद्विपानां-माद्यन्तो ये गन्धद्विपा:- महाकरिणस्तेषां, लसद्दशनाशनिक्रीडाघातै:- लसन्ति- भासमानानि, दशनानि- दन्ता एव, अशनयः- वज्राणि, तेषां क्रीडाघातै:- लीलाप्रताडनैः, समन्तात्- सर्वतः, विदारितसानव:- दलितकूटाः, सह्यविन्ध्योज्जयन्तहिमालयाः- सह्यः, विन्ध्यः, उज्जन्तः, हिमालयेश्चेति स्वस्वनाम्ना ख्याताः, शैला:- पर्वताः, यस्य- राज्ञः, दिशां जयान्- दिग्विजयान्, सम्प्रत्यपि- बहुतरे काले व्यतीतेऽद्यापि, उच्चैः- उन्नतस्थानात्, शंसन्ति-कथयन्ति एतद्गजैभिन्नानि सर्वदिशां शैलाग्राणि अद्याप्यस्य सर्वदिग्विजयस्मारकाणीति भाव । 'मा[s]द्य[s][s]न्ध[s]दि[1]पा[s]नां[s],ल[1]स[5]द्द[1] श[5]ना[s]श[1]नि[s]' इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-२२६ ॥
म्रम्यल्गा ज्योत्स्ना ॥२२७।। मरमयलगाः । छरिति वर्तते । यथा - दृप्यत् पातालकुक्षौ स्फूर्जदगुहायां गिरेर्मूर्च्छत् कान्तारमध्ये भूपाल ! घोरं तमः । नागीनां किंनरीणां पोलिन्दवामध्रुवां, क्रीडागानेषु कीतिज्योत्स्नाऽधुना हन्ति ते ॥ २२७.१ ॥
अष्टमं प्रकारमाह- म्रम्यलगा ज्योत्स्नेति । विवृणोति- मरमयलगाः । छैरिति वर्तते इति- मगण-रगण-मगण-यगणा लघुगुरू च 'sss. SIS.sss...' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्चाक्षरर्यतिर्यत्र तत् ज्योत्स्नानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दृप्यत्पाता
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २२८.] लकुक्षौ इति, नागीनां- पातालनिवासिनीनां नागस्त्रीणां, किन्नरीणां, गिरिगुहावासिनीनां किंपुरुषाङ्गनानां, पोलिन्दवामध्रुवां- कान्तारवासिनीनां पुलिन्दजातिस्त्रीणां, क्रीडागानेषु- लीलागीतेषु, ते कीर्तिज्योत्स्ना- यश:कौमुदी, पातालकुक्षौ- पातालतले, दृप्यत्- गवं वहत्, गिरेः- पर्वतस्य गुहायां- कन्दरायां, स्फूर्जत्- स्फुरत्, कान्तारमध्ये- वने, मूर्च्छत्- परिभ्रमत्, घोरं तमःगाढमन्धकारं, हन्ति- नाशयति । [s]प्य[s]त्पा[s]ता[s]ल[1]कु[s]क्षौ[s], स्फू[5]जंद[s][[1]हा[s]यां[5],गि[1]२:[s]' सप्तभिश्चयतिरिति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० २२७ ॥
नम्रसल्गाः सिंहः ॥२२८|| नमरसलगाः । छैरिति वर्तते । यथा- समदनागेन्द्राणां कपोलविपाटने, स किल सद्योऽजिघ्रत् प्रियवदनाम्बुजम् । तदिति शक्यं चित्रं चरित्रमहाद्भुतं, हरिणपोष्टुं न सिंहविजृम्भितम् ॥ २२८.१ ।।
लक्षितक्रमेण नवमं प्रकारमाह- नम्रसल्गाः सिंहः इति । विवृणोतिनमरसलगाः इति । छरिति वर्तते इति- नगण-मगण-सगण-रगण-सगणा लघुर्गुरुश्च 1.ऽऽऽ.IIS.SIS.S.IS.' इतीहशैवर्णः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतियंत्र तत् सिंहनामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथासमदेति, स:- सिंहः, समदनागेन्द्राणां- मत्तमहागजानां, कपोलविपाटने- गण्डस्थलविदारणसमये, सद्य:- तत्समकालमेव, प्रियावदनाम्बुजं- स्वदयिता [सिंही]मुखपङ्कजम्- अजिव्रत्- अचुम्बत्, किलेति प्रसिद्धौ । तत् इतितदेवंप्रकारं, चित्रं- विलक्षणं, चरित्रमहामृतम्- आचरणरूपमाश्चयं, सिंहविजृम्भितं- सिंहपराकान्तं, हरिणपोत:- मृगशावकः, द्रष्टुम्- अवलोकयितुम्[अपि], न शक्यं- न योग्यम् । सिंहो हि तथा विक्रमशाली धीरश्च भवति- यथा स एकतो मत्तगजस्य कपोलं भेदयति परतश्च स्वप्रियामुखं चुम्बति, वीर शृङ्गाररसयोरीदृशं योगपद्यं कर्तुं का कथा मृगपोतैः [साधारणजनः] ईदृशमाश्चर्यपूर्ण वस्तु द्रष्टुमपि न शक्यत इति भावः । अत्र सर्वत्र
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[अ० २, सू० २२६-२३०.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २०१ पादेषु सप्तभियंतिः स्पष्टव । 'स[1]म[1]द[1]ना[s]गे[s]न्द्रा[s]णां[1], क[1] पो[s]ल[1]वि[1]पा[८] [1]ने[s]' इति लक्षणसङ्गति ॥ अ० २, सू०-२२८॥
__ ज्सौ रनौ गौ राजरमणीयम ॥२२॥ जसरनगगाः । छरिति वर्तते । यथा- समुद्धृतधरित्रीतलः प्रमुदितार्यो, विनम्रतरधाराषरानुसृतपादः । चुलुक्यनृप ! कीतिदधत् त्रिपथगां त्वं, विभासि खलु शैलाधिराजरमणीयः ॥ २२६.१ ।।
दशमं प्रकारमाह- जसो नौ गौ राजरमणीयमिति । विवृणोति- जसनरगगाः । छैरिति वर्तते इति- जगण-सगण-रगण-नगणाः गुरू च 'Is.s. sis...' इतीदृशैर्वर्णः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् राजरम. णीयं नाम शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-समुद्धृतधरित्रीति, हे चुलुक्यनृप ! समुद्धृतधरित्रीतल:- समुद्धृतं- प्रचलनाद् रक्षितं धरित्रीतलंभूतलं येन सः, प्रमुदितार्य:- प्रमुदिता आर्याः-श्रेष्ठा येन [पक्षान्तरे- आर्यागौरी ], विनम्रतरधाराधरानुसृतपाद:- विनम्रतरः, धाराधरैः- धाराऽधिपतिभिर्नरवर्मराजादिभिः पर्वतैश्च, अनुसृता:- अनुगताः, पादाः- चरणाः प्रत्यन्त पर्वताश्च यस्य सः, त्रिपथगां कीर्ति- स्वर्गमर्त्यपातालगामिनी कीर्ति, पक्षान्तरे कीत्तिमिव त्रिपथगां- गङ्गा, दधत्- धारयन्, त्वं शैलाधिराजरमणीय:- हिमालयवन्मनोहरः, विभासि- शोभसे । चुलुक्यनृपतेः शैलाधिराजस्य च समानविशेषणैर्युक्तत्वेनोपमानोपमेयभावः प्रतिपादितः । विशेषणानां साम्यं च पूर्वप्रतिपादितदिशा स्पष्टमेव । सप्तभिश्च यतिः सर्वत्र, चतुर्थपादे च यद्यपि सप्तमाक्षरस्य पदद्वयसन्धिस्थलत्वं तथापि बहुतरकविप्रयोगानुसारमियान् दोषः सोढव्यः । 'स[1] मु[s][]त[1][1]रि[s]त्री[s]त[1]ल:[s], प्र[1] मु[1]दि[1]ता[I]यें: [s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२२६ ॥
म्तौ न्सौ गावसंबाधा डैः ॥२३०॥ मतनसगगाः । रिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- नंतलमाङ्क किमुत कटुरसं बाधा-, हेतुः संलीनं विषमिह सहजप्रीत्या। तेनायं मूछा विरचयति सुधारश्मिः, शङ्क निःशङ्कः सपदि विरहिलोकानाम् ॥ २३०.१ ॥
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सृवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० २३१.] एकादशं प्रकारमाह-म्तौ सौ गावसम्बाधा जैरिति । विवृणोतिमतनसगगाः। रिति पञ्चभिर्यतिरिति-मगण-तगण-नगण-सगणा गुरूच 'sss.ssi..is.ss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य, पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत् असम्बाधानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-नैतल्लक्ष्माडू इति, अङ्के- चन्द्रस्य मध्ये, एतत्- परिदृश्यमानं, लक्ष्म- लाञ्छनं, न, उततहि, किम् ?, कटुरसं- कटुरसयुक्तं, बाधाहेतु:- सर्वस्य, स्वास्थ्य- बाधनकारणं- विषं- गरलं [समुद्रोत्थितम्], सहजप्रित्या- सहजात- बन्धुप्रेम्णा, इह- चन्द्रमसि, संलीनं- श्लिष्टं, तेन- हेतुना, अयं- प्रत्यक्षदृश्यः, सुधाराश्मिः- अमृतदीधितिः [अपि] चन्द्रः, निःशङ्कः सत् विरहिलोकानां- वियोगिजनानां, सपदि- स्वोदयसमकालमेव, मूर्खा- संमोहं, विरचयति- करोति, [इत्यह] मन्ये- उत्प्रेक्षे । सुधाकरस्य मूर्खाकारणत्वमसंभवीति वियोगिमूर्छाकरत्वं तस्यानुपपन्नमिति लाञ्छनस्य विषश्लेषत्वोत्प्रेक्षणेन मूर्छाहेतुत्वं साधितमिति हेतूत्प्रेक्षेयम् । नै[5]त[5]ल्ल[s]क्ष्मा [s]ङ्के[s], कि[1]. मु[1]त[1],क[1]g[1][i]सं [s], बा[s]धा[s]' इति पञ्चभिश्च यतिरिति च लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२३०॥
त्भौ जौ गौ वसन्ततिलका ॥३१॥ मजजगगाः । यथा- सत्कणिकारचितविभ्रममासमानां, नव्यस्फुरद्रुचिरपत्रलतावलीकाम् । दिष्टया वसन्त ! तिलकाञ्चितचारुशोभा, कान्तां वनश्रियमिमां त्वमुपागतोऽसि ॥ २३१.१॥ उर्षिणी सैतवस्य । सिंहोन्नता काश्यपस्य ॥२३१.१॥
द्वादशं प्रकारमाह- त्भौ जौ गौ वसन्ततिलकेति । विवृणोति- तभजजगगाः इति । तगण-भगणी जगणद्वयं गुरुद्वयं च 'ssI.SI.IsI.IsI.ss.' इतीदृशरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् बसन्ततिलकानामकं शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सत्कणिकारचित्तेति, हे वसन्त ! सत्कणिकारचितविभ्रमभासमानां- सद्भिः, कणिकारैः- वृक्षविशेषः, चितां, वीनां- पक्षिणां, भ्रम:सर्वतः परिभ्रमणं, तेन भासमानां, पक्षान्तरे च सत्या कणिक्या- कर्णाभरणविशेषेण, रचित:- कृतो यो विभ्रमः- विलासस्तेन भासमानां, नव्यस्फु
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[अ० २, सू० २३२. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
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दुचिरपत्रलतावलीकां - नव्यानूतना, स्फुरन्ती - संचलन्ती, पत्राणां लतानां चावली यस्यास्तां, पक्षे नव्या स्फुरन्ती- प्रकाशमाना पत्रलता - पत्राकाररचनाविशेषः, वली - उदरस्था त्रिवली च यस्यास्तां, तिलकाञ्चितचारुशोभांतिलकै:- वृक्षविशेषैः, अश्विता - पूजिता, चारुशोभा यस्यास्तां, पक्षान्तरे तिलकेन - भालबिन्दुना, अश्चिता- चारुशोभा यस्यास्तां, कान्तां - कमनीयाम्, इमां - प्रत्यक्षदृश्यमानां वनश्रियं - वासन्तिकीं वनलक्ष्मीं, त्वम् दिष्टया - भाग्येन, उपागतः - प्राप्तवान् असि । वनश्रियो विशेषणैः काचित् तादृशीं कामिनीमाक्षिपद्भिर्वसन्तान्योक्त्या कस्यचन नायकस्य तादृग्गुणोपेताया नायिकायाः प्राप्तिः सम्भाव्यते - प्रशस्यते । भाग्यादेव तादृशकान्ताया लाभ इति तस्याकृतम् । अत्र समासोक्तिरलङ्कारः । 'सत्[s]क[S]णि[1]का[S]र[1] चि [1] [ 1 ] वि[5] [5] [] चा [s] रु [1] शो [s]भां[s]' इति लक्षणसङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह - उद्धर्षिणी सैतवस्य, सिहोन्नता काश्यपस्येति - सैतवनामा आचार्य इदं छन्द उद्धर्षिणीति नाम्ना, काश्यपश्च सिंहोन्नतानाम्ना व्यवहरतीत्यर्थः । अ० २, सू०-२३१ ॥
नौ भौ गौ वलना ॥२३२॥
रनभ भगगाः । यथा - नव्ययौवननटस्य तनोति नियोगं, निश्चितं वरतनुविकसन्मुखरागा । हस्तकैरभिनयं कुरुते ब्रुवती यद्, व्यतेनुऽङ्गवलनादि पदे पद एषा ।। २३२.१ ।। लतेत्यन्यः ।। २३२.१ ।।
त्रयोदशं प्रकारमाह - नौ भौ गौ वलनेति । विवृणोति - रनभभगगाः इति - रगण-नगण - भगणद्वय - गुरुद्वयानि 'SIS . ।। ।। II. 55. ' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् वलनानामक शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - नव्ययौवनेति, विकसन्मुखरागा - विकसन् - विकासमधिगच्छन्, मुखरागः- वदनशोभा यस्याः सा, एषा - प्रत्यक्षदृष्टा, वरतनुः- शुभाङ्गी, नव्ययौवननटस्य- नव्यं- सद्यः प्रारब्धं यौवनमेव नटः- नाट्यशिक्षकस्तस्य, नियोगं - व्यापृति, निश्चितं - निशङ्कं तनोति - अनुवर्तनेन विस्तारयति, यत् - यस्मात्, ब्रुवती - किञ्चिदालपत्ती, हस्तकैः - कोमलैः करैः, अभिनयं -
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२०४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २३३-२३४.] वाार्थनाटनं, कुरुते, पदे पदे- प्रतिपदम्, अङ्गबलनादि- शरीरमोटनादि, व्यश्तुते- घटयति [च] । यदियं वाच्यार्थ हस्तविभ्रमादिभिर्नाटयति, यच्च प्रतिपदं गात्रभङ्गादि करोति तेन विज्ञायते सद्यः समागतेन यौवनेन समुपदिष्टं व्यापार विस्तारयतीति भावः ॥ अस्य नामान्तरमाह- लतेत्यन्य इतिअन्य आचार्य इदं छन्दो लतेति नाम्ना व्यवहरतीति भावः। 'न[5]व्य[1] यौ[5]व[1]न[1]न[1]ट[5]स्य[i], त[i]नो[5]ति[1], नि[]यो[5]ग[5]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२३२॥
वत्रल्गाः सुकेसरम् ॥२३३|| नरनरलगाः । यथा- घटयसे ज्यया किमिति काम! कार्मुकं, यदभवत् पुरस्तव जगद् वशंवदम् ॥मधुकरीनिनादमयमन्त्रमन्त्रितर्, जलरुहां सुकेसरपरागचूर्णकः ॥२३३.१॥
चतुर्दशं प्रकारमाह- नत्रल्गाः सुकेसरमिति। विवृणोति- नरनरलगा इति- नगण-रगण-नगण-रगणा: लघुगुरू च 'ms.m.sis.s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् सुकेसरं नाम शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- घटयसे ज्ययेति, हे काम !, कार्मुकं- धनुः, ज्यया- मौा, किमिति- कस्मै प्रयोजनाय, घटयसे- योजयसि, यत्- यस्माद्धेतोः, पुर:- कार्मुकेज्यायोजनात् पूर्वमेव, मधुकरीनिनादमयमन्त्रमन्त्रितै:- मधुकरीणां- म्रमरीणां, निनादमय:- शब्दपूर्णः, मन्त्रः, मन्त्रित:- कृतसंस्कारः, जलरुहां-कमलानां, सुकेसरपरागचूर्णकैः- सुन्दरकेसरोद्गतैः परागचूर्णकैः पुष्परजोभिः, जगत्- विश्वम्, तव- भवतो, वशंवदम्- आयत्तम्, अभवत्- अजायत । जगदशीकरणायव त्वया धनुषि मौर्वी नियोज्यते, तच्चेत् पूर्वमेव मधुकरीशब्दसहकृतः कमलपरागः कृतं तर्हि ते व्यर्थोऽयं परिश्रम इति भावः । कारणात् पूर्वमेव कार्यसिद्धिरूपातीशयोक्तिः । घ[i][i]य[1]से [s], ज्य[1]या[5],कि[1] मि[1]ति [1],का[0]म[I], का[s][] कं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२३३ ॥
नीवुपचित्रम् ॥२३४|| नीरिति नगणाश्चत्वारो गद्वयं च । यथा- अनुसर हिमकरकिरणसमूह,
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[अ० २, सू० २३५. ] सवृत्ति च्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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भज नवकिसलयमृदुशयनीयम् । प्रियसखि ! ननु शरदियमुपतस्थे, यदभिसरति दिनपतिरुपचित्रम् ।। २३४.१ ।।
पञ्चदशं प्रकारमाह- नोर्गावुपचित्रम् इति । विवृणोति - नीरिति नगणाश्चत्वारो गद्वयं चेति, तथा च ' ।।।।।।।।।।।।.ऽऽ. ' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् उपचित्रं नाम शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - अनुसरेति, हे प्रियसखि ! हिमकरकिरणसमूहं चन्द्रकरनिकरम्, अनुसर आनुकूल्येन भज, नवकिसलयमदुशयनीयं- नूतनपत्र रचितकोमलशय्यां, भज - आश्रय, इयं शरत्- ऋतुः, उपतरथे- समागता, ननु इति निश्चये, यत् - यस्मात्, दिनपतिः - सूर्य:, उपचित्रं - चित्रायाः समीपम्, अभिसरतिगच्छति । चित्रामुपगते भानी शरत् प्रवृत्ता भवतीति तत्र यदाचरितुमुचितं तत् कुर्वेति भावः । 'अ[ । ]नु[] स [1] [], हि[ ]म[1]क[+]र[+] कि[1]र[1] [] स [1] मू[s]हं[s]' इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - २३४ ॥
न्ज जल्गा धृतिः ॥। २३५।।
नजभजलगाः । यथा - विहर नितम्बबिम्बफलिके सुदृशां, गत निघनानि संचिनु धनानि भृशम् । रचय चिरं च सुन्दरनराधिपतां तदपि न किचनास्ति तव चेन धृतिः ।। २३५.१ ।। मणिकटकमित्यन्ये ॥ २३५.१ ॥
लक्षितक्रमेण षोडशं प्रभेदमाह - न्जभ्जल्गा धृतिरिति । विवृणोतिनजभजलगाः इति - नगण - जगण - भगण- जगणा लघुगुरू च ' ।।1. 151. S।।. 151. - 15. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् धृतिनामकं शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-' - विहरेति, [रे जीव ! ] सुदृशां - सुनयनानां, नितम्बबिम्बफलके-- कटिपश्चान्मण्डलाकारपट्टके, विहर- विहरणं विवेहि, भृशम् - अत्यर्थ, गतनिधनानि - अक्षयतया मतानि धनानि - वित्तानि संचीतु- अर्जय, चिरंबहुकालपर्यन्तम् [आत्मनः ] सुन्दरनराधिपतां - शोभननृपत्वं च रचय - साधय, तदपि - तथापि, किञ्चन - किमपि फलं न अस्ति चेत्- यदि, तव - भवतः, धृतिः - सन्तोष:, न [ अस्ति ] धृति विना सर्वे कामा: प्राप्ता अपि नान्तस्तोषाय भवन्तीति सर्वतः प्राथम्येन तदर्थमेव यत्नो विधेय इति भावः । अस्य नामान्तरमाह - मणिकटकमित्यन्ये इति । अन्ये केचन इदं छन्दो मणि
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २३६-२३७.] कटक नाम्ना व्यवहरन्तीत्यर्थः । वि[1]ह[1] [1]नि[1]त[s]म्ब [1] वि[s] फ[s] लब[1]ल[1] के [s]सु[1]द[1] शां[5] इति लक्षणसङ्गति ॥अ० २, सू०-२३५॥
भौ रसल्गा ददुकः ॥२३६।। ममरसलगाः । यथा- मृत्युमुपैति यदा कणशो दल-, त्येष तदापि न हन्त विश्वसनोचितः । कालमवाप्य पुनर्जनश्रवणज्वरं, दुर्जनददुरकः करोति कटूक्तिभिः ॥ २३६. १॥
सप्तदशं प्रकारमाह- भौरसल्गा दर्दुरकः इति । विवृणोति- भभरसलगा इति । भगणद्वयं रगणः सगणः लघुगुरू च 'sn.sil.sis.s.s' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् दर्दु रकनामकं शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- मृत्युमुपैतीति । एष:- बुद्धिस्थः दुर्जनदर्दुरकः- दुजन इव दर्दु रकः, दुर्जनो दर्दुरक इवेति च, यदा मृत्युम्- प्राण वियोगम्, उपैति- गच्छति, यदा(च) कणश:- कणेन- कणेन वा दलति- विदीर्यते, तदपि न विश्वसनोचितः- विश्वास पात्रता- योग्यः, कुत इत्याह कालंस्वानुकूलसमयं [ वर्षाकालं च ] अवाप्य- लब्ध्वा कटूक्तिभिः- स्वीकटु रटनैः पुनः- भूयः जनश्रवणज्वरं- लोककर्णपीडां करोति विधत्ते । दर्दूरो [ भेकः] वर्षाक्षये मृतोऽपि मृत्सुलीनोऽपि पुनवर्षागमे जीवति कटु रटति चेति प्रसिद्धिः, तदुपमया दुर्जनोऽपि जनसृत प्रायतां नीतोऽपि दण्डयातनर्दलितोऽपि पुनः स्वानुकुलं समयमधिगम्य कटुप्रलापादिभिः सजनान्वेदयत्येवेति भावः । मृ[s]त्यु[1] मु[1][s]ति[1] य[1]दा[s]य[1]दा[s]क[1] ण[1]शो[s]द[I]ल[5] त्येषेत्यग्रिमपादे संयोग सत्त्वादस्य गुरुत्वम्, यद्यपिपादान्ते इत्यं पद विच्छेदोऽनुचितः, तथापि यतिविचारप्रसङ्गे- "द्रष्टव्यो यति चिन्तायां पाद्यादेशः परादिवात्" इत्युक्ततया एवं प्रयोगस्य साधुत्वमनुज्ञातम् ] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० २३६ ॥
__म्जस्नाद्गौ स्खलितम् ॥२३७॥ मजसनेभ्यः परी गौ । यथा-पुष्पशररम्यतनुता सलवणत्वं, वाङ्मधुरता चतुरता बहुकलत्वम् । सर्वमपि चास्य सुभगस्य रतये मे, केवलमिदं व्यथयति स्खलितगोत्रम् ॥ २३७.१॥ महिता, कान्ता, वनमयूरनेत्यन्ये ॥२३७.१।।
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[अ० २, सू० २३८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२०७ अष्टादशं प्रकारमाह- भस्नागौ स्खलितम् इति । विवृणोति- भजसनेम्यः परोगाविति । भगण-जगण-सगण-नगणेभ्यः परी गुरू '।।s.s.m. ss.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् स्खलितं नाम शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-पुष्पशरेति । अस्य- पूर्वप्रकान्त नाम्नः सुभगस्य- सौभाग्य शालिनः, पुष्पशररम्यतनुता- कामदेव सदृशं शरीरसौन्दर्यम्, सलवणत्वं- लावण्यसाहित्यम्, वाङ्मधुरता- वचसि माधुर्यम्, चतुरता- व्यवहारनपुण्यम्, बहुकलत्वम्- बहीभिः कलाभिः शिल्पादिभिः सहितत्वम्; सर्वमपि च अन्यदप्येतद्सम्बन्धि सकलं वस्तु मे- मनःस्मिन् अनुरक्तायाः रतये- तोषाय, केवलम्- एकम् इदं- बहुशोऽनुभूतम्, स्खलित गोत्रम्- नाम्नि स्वलनम्- प्रमनाम्नः प्रयोगे कर्तव्ये परस्त्रीनाम प्रयोगः व्यथयति पीडयति । सर्वथा समादरणीय गुणोऽप्ययं नाम स्खलेना न्यस्यामनुरक्ततया प्रतीयमानो मां दुःखाकरोतीत्यर्थः । 'पु[s]ष्प[1]श[1] र[1]र[s] म्य[1]त[1]नु[1]ता[5]ता[s]स [1]ल[1]व[1]ण[s]त्वं [s]' इति लक्षण संङ्गतिः ।। अ० २, सू० २३७ ।।
ल्गौ चेदिन्दुवदना ।।२३८।। मजसनेभ्यः परौ लघुगुरू चेदिन्दुवदना । यथा- सस्पृह इव त्वयि रतेरपि दयितस्, त्वद्वदनवीक्षणवशाद् गलितधनुः । ताडयति नैष भवतीं शरनिकरर्-, इन्दुवदने न रमणे तदसि रता ॥ २३८.१. ॥
ऊनविशं प्रकारमाह- ल्गौचेदिन्दु वदनेति । सूत्रान्तरात्पदाध्याहारेण सूत्रं व्याख्याति- भजसनेभ्यः परौ लघुगुरूचेदिन्दु वदनेति । पूर्वसूत्रोक्तभगण-जगण-सगण-नगणेभ्यः परोलघुगुरू '1.51.5.1.15.' इत्येव यदि पाद विन्यास: स्यात्- तर्हि तत् इन्दुवदना नामकं शक्वरीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सस्पृहइवेति । हे इन्दुवदने ! चन्द्रानने ! त्वद्वदनवीक्षणवशात्- त्वन्मुखाव लोकनात् हेतोः गलितधनुः हस्ताद्धृष्टचापः रतेः- प्रसिद्धायाः कामपत्न्या दमितः- पतिः कामः त्वयिभवत्यां सस्पृहः- साभिलाषः इव एष कामः भवतीं शरनिकरः- बाणसमूहैः न ताडयति- न पीडयति तत्- तस्मात् कारणात् रमणे- स्वपतो न
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २३८-२३६.]
रता - अनुरक्ता असि । अयमाशयः तव पतिः कामेन भृशं शरैस्ताडयतेइति सभवत्यां भृशमनुरक्तः, त्वां तु कामोऽपि स्पृहयत इति त्वयि सन प्रहरति- त्वदा लोकनादेव गलितचापो भवति - इति कामपीडया रहितात्वं स्वपतौ नानुरज्यस इति । स [s] स्पृ [)] ह [ 1 ] इ[1]व[s]त्व [1] यि [1]र[1]ते [5] [1]पि [1]द [1] पि[ ]त: [s]' इति लक्षणसंङ्गातिः ॥ अ० २, सू० - २३८ ॥
न्भन्ता गौ शरभललितम् ॥२३६॥
नमनतगगाः । यथा- वहसि गन्धकरटिघटां पृष्टदेशे, कररदः प्रहरसि च ताम्बुवाहे । दलयसि क्षितिधरशिरः पादपातंर्, इदमहो शरभ ललितं ते न यत्नः ॥ २३६. १ ॥
विंशं प्रकारमाह - न्भन्ता गौशरमललित मिति । विवृणोति - नभनतगगा इति । नगण-भगण-नगण तगणा: गुरू च ' 111.511.111.55Iऽऽ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् शरभललितं नाम शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- वहसि गन्ध करटि घटामिति । हे शरम ! पक्षिराज ! [ अष्टपादूर्ध्वनयन ऊर्ध्वपाद चतुष्टयः ॥ इति लक्षणलक्षितो महा विहगः शरभः ] पृष्ठदेशे स्वपृष्ठभागे गन्धकरटिघटां- गन्धगजसमूहं वहसि - धारयसि, कररवैः- हस्तसहितदन्तैः मत्ताम्बुवाहे मदयुके मेघे [ अथवा मत्त इति सम्बोधनम् ] प्रहरसि च - प्रहारं च करोषि क्षितिघरशिरःपर्वत शिखरं पादपातै:- चरणनिक्षेपैः दलयसि - मर्दयसि इदं पूर्वोक्तं सर्वमाश्चर्यकारि कर्म ते- तव ललितं- क्रीडितं न यत्न:- नायास [इति ] अहो - आश्चर्यम् । करिघटायाः पृष्ठेनोद्वहनम्, जलधरे दन्तैः हस्ताभ्यां च प्रहारः सहैव च गिरिशिखर दलनमित्येतावत्सर्वमाश्चर्यं यौगपद्येन कुर्वन्नपित्वं न परिश्रममनुभवसि - इति अहो तव बलमिति भावः । व []ह[1] सि [1]गं [s]ध [+]क [0]र [1]टि[1]ध[1]टां[s]पृ[s]ष्ठ[1]दे[s]शे [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २ सू० - २३६ ॥
तच्छरमा घचैः ॥२४०॥
तच्छर मललितं घचंश्चतुभिः षड्मिश्वद्यतिः शरभासंज्ञम् । यथा- मृगरिपुः
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[अ० २, सू० २४०-२४१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २०६ शशकतुलनां यत्पुरस्तात्, कलयति द्विरददलनव्यक्तकेलिः । तव सुतः स इह शरभोऽनन्यवीरः, सुतवती ननु शरभिके स्वं तदेका ॥ २४०.१ ॥
एकविंशं प्रभेदमाह- तच्छरभा घचैरिति । विवृणोति- तच्छरभललितं घचैश्चतुभिः षड्मिश्चेद्यतिः, शरभासंज्ञम् इति । पूर्वोक्तं शरमललितं छन्दः चतुभिरक्षरः षड्मिश्चाक्षरर्यति युक्तं चेत् शरमासंज्ञं भवतीत्यर्थः। उदाहरति- यथा- मृगरिपुरिति । द्विरददलन व्यक्तकेलि:- द्विरदानां गजानां दलने मर्दने व्यक्ता स्पष्टा केलि: क्रीडा यस्य स मृगरिपुः- सिंहः यत्पुरस्तात्- यदग्रे शशकतुलना- तुच्छमृगविशेषसादृश्यं कलयति धारयति स तादृशः तव भवत्याः सुतः-पुत्रः शरभः अनन्यवीरः- असमशूरः, तत्तस्मात् हे शरमिके ! त्वम् एका- अद्वितिया सुतवती- पुत्रिणी ननु निश्चितम् । यः किल गजानपि क्रीडया दलयति स सिंहोपि, तव पुत्रस्याग्रे शश इव नीचैः स्थितो भीत इव भवतीति तव पुत्रोऽसौ शरमो वीरेषु मुख्यं इति तन्मात्रत्वं, पुत्रिणीणां धुरि गणनीयेति भावः । वर्णविन्यासः शरभललितवत् मृगरिपुः शशकतुलना, इत्येवंरूपेण चतुभिः षड्भिश्च यतिरपि ॥ अ० २, सू०-२४० ॥
म्भन्या गौ कुटिलम ॥२४१॥ मभनयगगाः । घरिति वर्तते । यथा- श्रीचौलुक्यक्षितिपतिलक दिग्यात्रार्थ, त्वत्सन्येऽस्मिन् प्रसरति किल पातालेन्द्रः । न्यश्चमीमरकुटिलितमना मन्ये, साहाय्यार्थ रचयति भुजदण्डानुचः ॥२४१.१॥ हंसश्येनीत्येके ॥२४१.॥१४॥२२॥
द्वाविशं प्रभेदमाह- म्भन्या गौ कुटिलमिति । विवृणोति- मभनयगगाः धचैरिति वर्तन इति । मगण-भगण-नगण-यगणाः गुरूचेति 'sss.su.s.iss. ss.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य चतुमिः षड्मिश्च यतिर्यत्र तत् कुटिलं नाम शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- श्रीचौलुक्येति । हे श्री चौलुक्यक्षितिप-तिलक ! श्रिया युक्तः चुलुक्यवंशोद्भव एव क्षितिपानां तिलकः श्रेष्ठः तत्सम्बोधनम्, अस्मिन्- अग्रतः स्थिते त्वत्सन्ये- तव बले दिग्यात्रार्थ दिशां जयाय यात्रा दिग्यात्रा तदर्थ प्रसरति सति-प्रचलति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २४२.] सति पातालेन्द्रः- शेषनागः न्यञ्चद्भूभीभर कुटिलितमूर्ना न्यञ्चन्ती नीचंगच्छन्ती या भूमी-पृथ्वी तस्या भरेण भारेण कुटिलितानां वक्रीभूतानां मूघ्नां शिरसां साराह्यार्थसाहायकाय, भुजदण्डान्- बाहुस्तम्भान् उच्चैः- उपरिभाग स्यात् रचयति- विद्घाति किल निश्चयेन [ इत्यहं ] मन्ये तर्कयामि । तथा तब बलं विशालं यत् तच्चलने पृथ्वी तथा भारिणी भवतियेन तद्वहने शेषशिरांसि न क्षमाणीति स शिरः साहाय्याम हस्तानपि तत्र योजयतितिभावः । अस्य नामान्तर माह हंसश्येनीत्येक इति । श्री[s]चौ[s] लु[s]क्य[5]क्षि[1]ति[1]प[1]ति[1]ल[1]क[1]दिग्[s]या[s]त्रा[s][5] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० २४१ ॥ इत्येवं शक्करी जातिच्छन्दसां द्वाविंशती भैंदा लक्षिताः प्रस्ताररीत्या त्वस्य चतुर्दशाक्षरच्छन्दसः १६३८४ भेदाः भवन्ति । तदुक्तं भरतेन- "शतानि त्रीण्यशीतिश्च सहस्त्राण्यपि षोडश । वृत्तानि चैव चत्वारि शक्कर्याः परिसंख्यया" इति [भ० ना० शा० १४।६०] ॥ २४१ ॥ इति शक्करी जातिच्छन्दः । अ० २, सू०-२४१ ।।
अतिशक्वर्या स्जसस्या ऋषमः ॥२४२॥ सजससयाः । यथा- जगतां विभुः पृथुजटापिहितांसदेशः, सततं महषिगणसेवितपादपमः । मकरध्वजप्रमथनप्रथितप्रभावः, ऋषभध्वजः स भगवान भवतोऽस्तु भूत्यै ।। २४२.१॥ ___ अथातः पश्चदशाक्षर पादामति शक्करीजाति वर्णयितुमुपक्रमते- अति शक्वर्या स्ज सस्या ऋषभ इति । विवृणोति-सजससया इति । सगणजगणाभ्यां परतः सगणद्वयं जगणश्च ॥S..s.s.ss.' इतीहशरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् ऋषभनामकमति शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-जगतामिति । जगतां- भुवनानों विभूः- व्यापक: स्वामीच पृथुजटापिहितं प्रदेश:- पृथ्वीभिरायामिनीमिर्जटाभिः असंस्कृतकेशः पिहितः छन्नः अंसदेशः स्कन्धप्रान्तो यस्य सः, सततं- सर्वदा महर्षि गणन्- जितपाद पद्मः सप्तमहर्षिभिः, महर्षिभिः गणेः प्रथामदिभिश्चेति वा पूजितं पादपद्मं यस्य सः, मकरध्वजप्रमथन प्रथित प्रभावः- मकरध्वजस्य कामस्य प्रमथने दलने प्रथितः प्रसिद्धः प्रभावो यस्यः सः, स प्रसिद्धः भग
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[अ० २, सू० २४३. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्यो
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वान् सर्वेश्वर्य सम्पन्नः ऋषभध्वजः - ऋषभः वृषोघ्वजश्चिन्हं यस्य सः वृषाङ्कः आदिदेव ईश्वरस्य भवतः - भूत्यै कल्याणाय अस्तु - भूयात् । ज [ 1 ] ग[1] तां [s][वि][1]भुः [s][[1] थु[1]ज [1] हा [S]पि [1] हि []तां[s] स [1] दे[s] श: [s] इति लक्षण संङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - २४२॥
नीसौ शशिकला ॥२४३॥
नोरिति नगणाश्चत्वारः सच । यथा- अरतिमति हि मम वपुषि विदषतों, तिरयसि यदि नवजलद शशिकलाम् । स्वयमपि किमिति न कलयसि करुणा, यदिह विरचयसि कटु रसितमहो ।। २४३.१ ।। अत्र सप्तभियंतिरित्येके । चन्द्रावर्तेति पिङ्गलः ॥ २४३.१ ॥
द्वितीयं प्रकारमाह- नी सौ शशिकलेति । विवृणोति नीरिति नगणाश्चत्वार सश्चेति । तथा च ' ।।। ।।। ।।। ।।। । ' इतीदृशैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् शशिकला नामकमति शक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाअरतिमतीति । हे नवजलद ! नूतन वारिद ! मम वपुषि - शरीरे अतिअत्यन्तम् अति तापं विदधतीं- कुर्वतीं शशिकलां - चन्द्रलेखां यदि तिरयसि - अन्तर्दधासि [हि ] स्वयमपि - स्वविषयेऽपि करुणां दयां किमति - कस्माद्धेतोः न कलयसि - न करोषि यत् इह - भम समीपे कटु- दुःसहं रसितं - गर्जितं विचयसि करोषि इत्यहो - आश्चर्यम् । काचिद्विरहिणी रात्री शशिकलया तप्यमाना तस्मिन्क्षणे तदाच्छादकं मेघमागतं विलोक्य तस्य स्तुतिपूर्वकं दु:खान्तरदायित्वमाह । यदित्वया शशिकला जनितं दुःखंदृतं तर्हि शनैस्तूष्णीमेव तिष्ठ, गर्जितं वर्जयेति भावः । अ[1]र [ 1 ]ति [0]म [ ]ति [ 1 ] हि [ 1 ] म [1]म [1]व [ 1 ]पु [1]षि[1]वि[1]द[0] [s]तीं[s] इति लक्षणसमन्वयः । अस्य लक्षणे भेदमाह- अत्र सप्तभिर्यतिरित्येक इति । चन्द्रावर्त्तेति पिङ्गल इति च । पीङ्गल छन्दः शास्त्रे चन्द्रावर्ता नौ नौ स्' [ ७।११ ] इति सूत्रेणास्यैवच्छन्दसः 'चन्द्रवर्ता' इति नाम कृतम् । तस्य व्याख्यायां च भट्टहलायुधेनोक्तम्- अत्रस्वरैर्वसुभिश्च यति रित्याम्नाय इति । तत्र स्वराः सप्त वासवोष्टी, सप्तमिर्यतिरित्युक्तेऽपि पारिशेष्यादृष्टभिरपि यतिः सिद्धैव तावता पाद पूर्ती 'यतिः सर्वत्र पादान्ते' इति नियमात् । तथा च तेनोक्ते उदाहरणे तथा
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२१२ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २४४-२४५.] यति रपि दृश्यते । स्वकीये चोदाहरणे [प्रकृते पद्ये ] न तथा यति ईश्यतेइति नासो नियम आश्रित इत्यायाति । प्राकृत पिङ्गले चास्यैवच्छन्दसः _ 'शरभ' इति नाम कृतम् ॥ अ० २, सू०-२४३ ॥
सा स्रक चैः ।।२४४॥ सा शशिकला चैः षड्भिर्यतिश्चेत् स्रक्संज्ञा । यथा- प्रसरति तव सुभग विरहदहने, शृणु यदजनि किमपि कुबलयदृशः । सरसिजमपि तपति नवविचकिल, स्नगपि सपदि जनयति भृशमरतिम् ॥ २४४.१ ॥ मालेति पिङ्गलः ॥ २४४.१ ॥
तृतीयं प्रभेदमाह-सास्रक चैरिति । विवृणोति- सा शशिकला चैरिति षड्मियतिश्चेत् स्रक संज्ञेति । पूर्वोक्तं शशिकलानामकमेवच्छन्दः षड्मिर्यतो सत्यां सक्नाम्ना प्रसिद्ध मति शकरी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- प्रसरति तवेति । हे सुभग !- सौभाग्यशालिन् तव- भवतो विरहदहने वियोगवह्नौ प्रसरति-विस्तृते सति कुवलयदृशः- उत्पलाक्ष्याः यत् किमपि अनिर्वचनीयं [दुःखम्] अजनि- अभूत् [तत्] शृणु [आकर्णय] सरसिजम्- कमलम् अपि [ किमुतान्यत् ] तपति- सन्तापं जनयति नवविचकिलरक- नूतनमदनपुष्पमालापि सपदि- अटिति भृशमत्यन्तम् अरतिम्- अशान्ति जनयति- उत्पादयति । तथा च यथा त्वद्विरहोनस्यात्तथा विधेहिति भावः । गण विन्यासः पूर्ववदेव, केवलं षड्मियतिविशेषः तथा च प्रसरति तव, शुणु यदजनि, इत्येवं रूपेण षष्ठेऽक्षरे विरम्य पठनीयमिति । अस्यापि नामान्तरमित्याह-मालेतिपिङ्गल इति। तथा च पिङ्गलछन्दः शास्त्रे सूत्र-मालतुनवको चेत् [७।१२] इति 'सैव चन्द्रावर्ता माला' नाम भवेद् यदि षष्ठे नवमे च यतिः, इति तद्वयाख्यायां भट्टहलायुधः। षड्मियति रिति स्वमतेऽपि पारिशेष्यान्नवनिद्वितीया यति रायात्येवेति साम्यम् ॥ अ० २, सू०-२४४ ॥
मणिगुणनिकरो जैः ॥२४५॥ शशिकलव जैरष्टमिश्च धतिर्मणिगुणनिकरः । यथा- नृवर यशसि मतिरविकलकलता, भुजबलमनुपममतिनयपरता । नतिरनुगुरुजनमुचितचतुरता, त्वपि जयति नृपतिमणिगुणनिकरः॥ २४५.१ ॥
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[अ० २, सू० २४६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशाशनप्रद्योते
२१३
चतुर्थ प्रकारमाह- मणिगुणनिकरो जैरिति । विवृणोति - शशिकलेवजैरष्टमिश्चेद्यतिमंणिगुण निकर इति । चतुमिनंगणैः सगणेन च या शशिकला लक्षिता पूर्वतर सूत्रे सैवाष्टभिरक्षरैयतो सत्यां मणिगुणनिकर इति ख्यातमति शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - नृवर यशसोती । नृवर ! - हे पुरुष श्रेष्ठ ! यशसि - कीर्तिविस्तारे मतिः- बुद्धिः, अविकल कलता अविकलाः अशेषाः कला यस्य सोऽविकलकलस्तस्य भावः, अनुपमंअतुलनीयं भुजबलं - बाहुवीर्यम्, अतिनयपरता - अतिशयिताऽन्य नृपापेक्षया समधिका नयपरता नीतिमार्गनिष्ठा, अनुगुरूजनम् - गुरुजनसमीपे नति:-, नम्रता, उचित चतुरता- उचिते कर्तुं योग्ये कर्मणि चतुरता कौशलम् [इति] नृपतिमणिगुणनिकरः नृपति मणीणां - राजश्रेष्ठानां गुणनिकर:गुणसमूहः त्वयि - भवति जयति - सर्वोत्कर्षेण वर्तते । नृवर यशसि मनि, इत्येवं प्रतिपादमष्टमे विरामः इति ॥ अ० २, सू०-२४५ ॥
नौ म्यौ यो मालिनी ॥ २४६ ॥
ननमययाः । जैरिति वर्तते । यथा- प्रतिमुहुरिह दोलान्दोलनव्यापृतानां, कुवलयनयनानामाननैरुल्ल सद्भिः । विमललवणिमाम्भश्चन्द्रिकां द्राक् किरद्भिर् नवशशधर मालामालिनीवाभवद् द्यौः ।। २४६.१ ।। नान्दीमुखीति भरतः ।। २४६.१ ।।
पञ्चमं प्रकारमाह- मौ भ्यौ यो मालिनिति । विवृणोति - न न मययाः । जैरिति वर्तते इति । नगणद्वयात्परतः भगण: ततो यगणद्वयम् ' 111.111.ऽऽऽ. Iss. ISS.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य अष्टभिर्यंतिश्च यत्र तत्मालिनीनामकमति शक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा प्रतिमुहुरिति । इह - वसन्ते प्रतिमुहुः वारं वारं दोलान्दोलनव्यापृतानाम् - दोलायाम् आन्दोलिकायां यत् आन्दोलनं तस्मिन् व्यापृतानां संलग्नानां कुवलयनयनानम्उत्पलनेत्राणां कामिनीनाम् उल्लसद्भिः प्रकाशमानैः द्राक् - झटिति विमल लवणिमाम्भचन्द्रिकां- निर्मललावण्यरसज्योत्सां किरद्भि: - विक्षिपद्भिः आननं:- मुखैः द्यौः आकाशतलम् नवशशधरमालामालिनी - नूतनचन्द्र पङ्क्तिशालिनी इव अभवत् - जाता । दोलारूढानामङ्गनानामाननान्याकाशे
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२१४
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २४७-२४८.] यतस्ततः सञ्चरन्ति स्वप्रकाशं च परितः किरन्तीति तेषां चन्द्रसादृश्यस्य स्पष्टतया चन्द्रसमूहव्याप्तमिव नभोऽभवदिति भावः । अस्य नामान्तरमाहनन्दी मुखीति भरत इति । तथाहि "आदौ षड् दशमं चैव लघु चैवत्रयोदशम् । यत्रातिशाकरे पादे ज्ञेया नान्दीमुखी तु सा" इति [ भ.ना.शा. १९३] तथा च लक्षणसमन्वयः 'प्र[]]ति[1] मु[][]रि[I]ह[I]दो[5]ला [s]न्दो[s]ल[1]न[1]व्या[s][1]ता[s]नां[s]' इति ॥आ० २, सू०-२४६॥
नौ मो रौ चन्द्रोद्योतः ॥२४७|| ननमरराः । जैरिति वर्तते । यथा- ज्वलति सुभग तस्यास्त्वद्विप्रयोगानले, भवति न खलु किचित् प्रीत्यै कुरङ्गीदृशः । सपदि दहति देहं यच्चान्दनोऽपि द्रवः, प्रथयति नवचन्द्रोद्दयोतोऽपि नेत्रव्यथाः ॥ २४७.१ ॥
षष्ठं प्रकारमाह- नौ मो रौ चन्द्रोद्योत इति । विवृणोति- नन-म-र रा:-जैरिति वर्तत इति । तथा च नगणद्वयात्परतः मगणो रगण द्वयम् ॥. m.sss.sis.sis.' इतीदृशै रक्षरः कृताः पादा यस्य, अष्टमिश्च यतिर्यत्र तत् चन्द्रोद्योत इति नामकमति शकरी जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथाज्वलति सुभगेति । हे सुभग!- सर्व सौभाग्यशालिन् तस्याः- बुद्धिस्थायाः पूर्वप्रकान्ताया वाऽङ्गनायाः त्वद्विप्रयोगानले- त्वया सह विरहरूपेऽग्नी ज्वलति- दीप्यमाने सति कुरङ्गीदृशः- मृगनयनायाः किश्चितकिमपि वस्तु प्रीत्यै- मनस्तोषाय न भवति- न जायते । यत्- यस्मात् चान्दनः- चन्दन निःसृतः द्रवः- रसः अपि देहं- शरीरं सपदि- शीघ्रमेव दहति- तापयति, नवचन्द्रोद्योतः- सद्यः समुदितस्य चन्द्रमसः प्रकाशः अपि नेत्रव्यथाः अक्षिपीडाः प्रथयति- विस्तारयति । त्वदीय-विरहोत्थितस्तापश्चन्दन रसेन- चन्द्रिकास्पर्शेण वा न विरमति प्रत्युत वर्धत एवेति यथा त्वदीयो विरह एव नस्या तथा यतेथा इति नायिका दूत्याः संख्या वा अभिप्रायः । 'ज्व[1]ल[1]ति[1]सु[1] भ[1]ग[1]त[s] स्या[७]स्त्व[s]द्वि[5]प्र[i]यो[s]गा[5]न[s]ले [s]' इति लक्षण संगतिः ॥ अ० २, सू०-२४७ ॥
नौ तभ्रा उपमालिनी ॥२४८|| ननतमराः । जैरिति वर्तते। यथा- नृपवर रिपवस्ते विहाय पुरस्थिति,
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[अ० २, सू० २४६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२१५ नवनवमुनिमुद्राजुषः खलु संप्रति । विदधति तृणपोटजान्यभिजाह्नवीयमुनमनु च चर्मण्वतीमुपमालिनि ॥ २४८.१ ॥
सप्तमं प्रकारमाह- नौ तभा उपमालिनीति । विवृणोति न-न-त-भ-रा:जै-रिति वर्तते इति । तथा च नगणद्वयात्परतः तगण भगण रगणा: '.. ssI.s.sis.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य अष्टभिश्च यतिर्यत्र तत् उपमालिनीनामकमनुष्टुब्जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति-यथा-नृपवरेति नपवर!हे राजश्रेष्ठ ! ते- तव रिपवः- शत्रवः-पुरस्थिति- नगरनिवासं विहाय परित्यज्य सम्प्रति- इदानीं नवनवमुनिमुद्राजुष- नूतनातिनूतनयति चेष्टा सेविनः खलु- निश्चितम् अभिजाह्नवीमुनम्- भागीरथीकालिन्द्योः समीपे, चर्मण्वतीम्- अनुच चर्मण्वत्या नद्याः समीपे च उपमालिनि च मालिन्याः समीपे च तृणपोटजानि- शाद्धलपल्लवाच्छादितानि गृहाणि [कुटी:] विदधाति- विरचयन्ति । त्वयापराजितास्ते पुरे निवासायाक्षमा यत्र तत्र नदी समीपेऽरण्ये वा कुटीनिर्माय मुनिवृत्तिभाज इव जाता इति भावः । नप1] व[1][1]रि[1]प[1]व[s]स्ते[s], वि[i]हा[s]च[1][i]र[s]स्थि[1]ति[s]' इति लक्षण समन्मयः ।। अ० २, सू० २४८ ॥
मिर् यो चित्रा ॥२४६|| मिरिति मगणत्रयं यगणद्वयं च । जेरिति वर्तते । यथा- शत्री मित्रे हये। ऽरण्ये संमदे वा गदे वा, राज्ये भक्षे रत्ने लोष्ठे काञ्चने वा सृणे वा। स्रोतस्विन्यां कामिन्यां वा निन्दने वा स्तुतौ वा, चित्रां चित्तावस्थां हित्वा संध. येथा: समाधिम् ॥ २४६.१ ॥ मण्डूकी, चञ्चला वेत्यन्ये ।। २४६.१ ॥
अष्टमं प्रभेदमाह मिर् यो चित्रेति । विवृणोति- मिरिति मगणत्रयं यगणद्वयं च जैरिति वर्तते इति । उदाहरति- यथा-शत्रौ मित्रे इति। शत्रौ- रिपो, मित्रे सुहृदि[वा], हये- प्राकारे, अरण्ये- वने [वा], संमदे हर्षे, गदे रोगे वा, राज्ये- राजकर्मणि भक्षे- भिक्षुवृत्तौ वा रत्ने- मणौ लोष्ठे मृत्पिण्डे वा, काश्चने- सुवर्णे तृणे वा], स्रोतस्विन्यां- नद्यां कामिन्यां- कान्तायां वा, निन्दने- निन्दायां स्तुती प्रशंसायां वा, चित्रांभिन्नां चित्तावस्थां- चेतोवृत्ति हित्वा- विहाय समाधिम्- तत्त्व चिन्तनार्थ
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२१६
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २५०.] मेकाग्रयम् संश्रयेथाः, अवलम्बस्व । कश्चित कारुणिकः संसारदुःखोद्धारोपायं पृष्ट एवमाह- शत्रुमित्रादिषु परस्परविरुद्धेषु सांसारिक पदार्थेषु मे चेत. सो निः स्पृहत्वं यथा स्यात्तथा सर्व समं पश्यन् चित्तैकाग्रयं साधयेति । 'श[5]ौ[s]मि[5][s]ह[5]h [s]र[s]ण्ये[s], सं[5]म[1]दे[s]वा[5]ग[1]दे[s]वा[s]' इति लक्षण समन्वयः ।। अस्यानामान्तरमाह- मण्डूकी चञ्चला वेतन्ये इति । इदमेव चन्दोऽन्ये मण्डूकीनाम्ना पञ्चलानाम्नात्राहुरिति ॥ अ० २, सू० २४६ ॥
माद्रम्ययाश्चन्द्रलेखा छैः ॥२५०॥ मगणात्परे रमययाः। छरिति सप्तभिर्यतिः। यथा- राजन् सत्यं तदेतद् बमोऽद्भुतं वर्णनं ते, दोर्दण्डस्थामभिः स स्पर्धा करोतु त्वदीयाम् । आच्छिन्यायो मुरारेर्वक्षःस्थलात् कौस्तुभं वा, यः कर्षेचन्द्रलेखां शंभोर्जटामाण्डलाद्वा ॥ २५०.१॥
लक्षितक्रमेण नवमं प्रभेदमाह-माद्रम्ययाश्चन्द्रलेखा-छैरिति । विवृणोति- मगणात्परे रमययाः । छैरिति सप्तमिर्यति रिति । मगण रगण मगणेभ्यः परतो यगण द्वयम् 'sss.sis.sss.Iss.Iss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् चन्द्रलेखा नामकमतिशक्करी जातिच्छन्दः सप्तभिर्यतियुक्तमित्यर्थः । उदाहरतियथा-राजन् सत्यमिति । हे राजन् ! तत् एतत् सम्प्रत्येव वक्ष्यमाणं ते- तव अद्भुतमाश्चर्यभूतं वर्णनं स्वरूपाख्यानं ब्रूमः- कथयामः सः- जनः भवतःतव दोर्ददण्डस्थामभिः-बाहुदण्डदाढयः सह त्वदीयां- त्वया सह स्पर्द्धाप्रतिप्रक्षतां करोतु- विदध्यात् यः मुरारे:- विष्णोः वक्षः स्थलात- उरोभूमेः कौस्तुभं- मणिश्रेष्ठं स्वनाम्नाख्यातम् आछिन्द्यात्- प्रसह्य हरेत् वाअथवा शम्भोः शिवस्य जटामण्डलात- शिर स्थितजटीभूतकेशकलापात् चन्द्रलेखां- शशिलेखां कर्षयेत्- बलादु गृण्हीयात् । यथा विष्णोर्वक्षः स्थलात् कौस्तुभग्रहणं यथा वा शिवशिरतो निशाकरकलाकर्षणमसम्भवि, तथैव त्वया सह बाहुबले स्पर्धाऽपि न सम्भवतीतिभावः । रा[s]जन् [s]स[5]त्यं [s] त[1]दे[s]तत्[5][5]मो[s]द्भु[s]तं[5]व[5][1]नं [s]ते[s] इति लक्षण सङ्गतिः ॥ अ० २, सू० २५० ॥ .
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२१७
[अ० २, सू० २५१-२५२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
राद्वा ॥२५॥ रगणात्परे यदि रम्ययास्तदा वा चन्द्रलेखा । ररमययाः । छैरिति वर्तते। यथा- एक एव क्षणोऽसावानन्दनिष्यन्दहेतुः, सत्कृतः प्राक्तन कश्चित् सखेऽद्य प्रबुद्धम् । नेत्रनीलोत्पलानां पीयूषवृष्टि किरन्ती, यत्पुरः कम्बुकण्ठी सा चन्द्रलेखेव दृष्टा ॥ २५१.१॥
लक्षितेषु दशमं प्रकारमाह राद्वेति । विवृणोति- रगणात्परे यदि रम्भयास्तदा वा चन्द्रलेखा। ररमययाः। छैरिति वर्तते इति । तथा चायमर्थ:- रगणद्वयं मगणः यगणद्वयं च 'SIS.SIS.sss.Iss.Iss' इतीदृशैवणेः कृताः पादा यस्य सप्तमिश्च यतिर्यत्र तत् प्रकारान्तेण चन्द्रलेखानामकमतिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा एक एव क्षणोऽसाविति । हे सखे ? मित्र ? मे- मम असौ- अनिर्वाच्यः एक एव- अद्वितीयः क्षण: कालांशः आनन्दनिः ष्यन्द हेतुः- सुखप्रसरकारणम्, [किञ्च ] प्राक्नः पुराचीर्णः सत्कृत पुण्यैः अद्य अस्मिन् क्षणे प्रबुद्धम् फलोन्मुखीभूतम् यत्- यस्मात् नेत्रनीलोत्पलानां- नयननीलकमलानाम् [स्वकीयानाम सम्बन्धिनी] पीयूष वृष्टि- अमृतवर्षां किरन्ती क्षिपन्ती सा-पूर्ववर्णिता कम्बुकण्ठी शङ्खसदृश वाऽङ्गना चन्द्रलेखा इव- शशिकला इव पुरः- अग्रतः दृष्टा- दृष्टिविषयी कृता । अद्य यस्मिन् क्षणे सा मया ऽवलोकिता स क्षणः पुराकृतसुकृतफलोन्मुखी भावादागतो मम परमानन्द प्रसर कारणं जात इति भावः । ए[s]क[1]ए[5]व[s]क्ष [1]णो[s]सा[s], वा[s]न[s]न्द[1]निः[s]ष्य[s]न्द[1] हे[s] तुः[5] इति लक्षण सङ्गतिः ।। अ० २, सू०-२५१ ।।
स्जनन्या एला ः ॥२५२।। सजननयाः । रिति पञ्चभिर्यतिः। यथा- चलितैर्घटोद्भवमुनिविशममि यस्य, प्रबलैर्बलैर्बलमथनसदृशमूर्तः। निषिषेविरे चिरमुदषितटवनान्ताः, परितो लसद्वहललवलिबकुलैलाः ॥ २५२.१ ॥
एकादशं प्रकारमाह- स्जनन्या एलाडैरिति । विवृणोति-सजननयाः। डैरिति पञ्चभिर्यतिरिति । सगण-जगणी नगणद्वयं यगणश्च ॥s.
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२१८
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २५३.] 11.m.in.ss.' इतिदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य पञ्चभिश्चयतिर्यत्र तत् एलानामकमतिशक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति-यथा-चलितैरिति । बलमथनसदृशमूर्त:- बलस्य तन्नामकस्यासुरस्य मथनः मर्दनः इन्द्रः तस्य, बलस्य ओजसो मथन:- कामः- तस्य वा सदृशी मूर्तिर्यस्य तस्य, यस्यप्रकृतवर्णनीयस्य राज्ञः घटोद्धवमुनिदिशम्- कुम्भोद्भवस्य मुनेरगस्तस्य दिशं दक्षिणाम् अभि- अभिमुखं चलितैः- प्रस्थितैः प्रबलैः- दुर्धर्षेः बलः सैन्यैः परितः सर्वतः लसदहल लवलिबकुलैला:- लसन्त्यः शोभमानाः बहला:- समधिकाः लव लयश्च बकुलाश्च एलाश्च-येषु ते उदधि तट वनान्ताः समुद्रतटवनप्रान्त भागाः निषिषेविरे परिमुक्ताः। यस्य बलानि समुद्रपर्यन्तमनिवारितं गत्वा सुखेन तत्र यथा कामं निविशन्तीति न कोऽपि मध्ये तन्निवारक इति भावः । च[1]लि[1]ते [5] [1]टो[s]द्भ[1]व[1]दि[1]शं[s]म[1]भि[1]य[s]स्य[s] [प्रबलैरिति संयुक्तादि पदे परतो गुरुत्वम् ] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-२५२ ॥
न्जमज्राः प्रमद्रकम ॥२५३॥ नजमजराः । यथा- जयति जगत्त्रयोपकृतिकारणोदयो, जिनपतिभानुमान परमधाम तेजसाम् । भविकसरोरुहां गलितमोहनिद्रकं, भवति यदीयपादलुठनात् प्रभद्रकम् ॥ २५३.१॥
लक्षित क्रमेण द्वादशं प्रकारमाह- जज्राः प्रभद्रकमिति। विवृणोतिनजमजराः इति । नगण-जगण-भगण-जगण-रगणाः 'm.is.s.si.sis.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् प्रभद्रकं नामतिशक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- जयति जगत्रयेति । जगत्रयोपकृति कारणोदयः- जगत्रयस्य त्रिलोक्याः उपृकृतिकारणम्- उपकारहेतुभूतः उदयःप्राकट्यं यस्य सः, तेजसाम्-महसाम् परमधाम-प्रधानं स्थानम् जिनपतिमानुमान- जिनपतिरेव भानुमान सूर्यः जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते, यदीयपादलुठनात् यस्य पादयोः चरणयोः लुठनात् साष्टाङ्गं पतनात् भविकसरोरुहां- भक्तकमलानां गलितमोहनिद्रकं- गलिता मोहरूपा निद्रा यस्मिन्तथा भूतं प्रभद्रकं- प्रकृष्टं कल्याणं भवति जायते । अत्र जिनपतेः सूर्यस्य च
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[अ० २, सू० २५४ - २५५. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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साम्यं रूपकेण निरूपितम् । सूर्योऽपि त्रिलोक्या उपकारायोदेति तेजसां च धाम भूतः, सरोरूहां निद्राभङ्गकारणञ्चेत्ययमपि; तथा भूतोदयः, तेजसां धाम, भक्तानां मोहनिद्राक्षयकरश्चेति सुसङ्गतं साम्यम् | ज [ 1 ] [ ]ति [ 1 ]ज [ 1 ]ग[5] [1] यो[s] प [ 1 ][ []ति []का [5]र [ 1 ] णो [s] [1]य: [s] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - २५३ ॥
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र्जर्जरास्तूणकम् ॥२५४॥
रजरजराः । यथा - स्फीतनव्यगन्धलुब्धषट्पदौघसेविताश्-, चैत्रमासि पश्य भान्ति चूतमञ्जरीशिखाः । ऊर्ध्वदृश्यमानकङ्कपत्रकृष्णपक्षकास्, तृणका इह वीरमन्मथेन लम्बिताः ।। २५४.१ ।।
त्रयोदशं प्रकारमाह- रास्तूकणकम् इति । विवृणोति - रजरजरा इति । रगण - जगण - रगण जगण - रगणाः 'SIS.ISI.SIS. SI.SIS.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् तूणकं नामाति शकरी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- स्फीतेति स्फीतगन्धलुब्धषट्पदौध सेविताः- स्फीतेन वृद्धिगतेन गन्धेन सौरभेण, लुब्धैः- आकृष्टैः षट्पदौधैः - भ्रमरसमूहैः सेविताः जुष्टाः नृतमञ्जरीशिखा:- आम्रमञ्जर्यग्रभागाः ऊर्ध्वदृश्यमानकङ्कपत्र कृष्णपक्षका :- ऊर्ध्वमुपरि दृश्यमानाः कङ्कपत्रस्य - कङ्कनामक पक्षि- पक्ष निर्मितपुंखस्य शरस्य कृष्णपक्षाः कृष्णवर्णाः पक्षा येषुते वीरमन्मथेन - शूरकन्दर्पेण लम्बिताः उध्वार्धः स्थापिताः तूणकाः शरधय इव भान्तिःशोभन्ते इति पश्य - अवलोकय । आम मञ्जर्या अग्रभागेषु कृष्णवर्णाः भ्रमराः उपविष्टा इति तत्सहिताः मञ्जर्यः कामदेवस्य कङ्ककृष्णपक्षयुक्तबाणसहित तूणीरा इव शोभन्ते इति भाव: । स्की [s] [1] [S]व्य][ । ] ग [s]न्ध [ 1 ]लु [s] CET [ 1 ] षट् [S] प [ 1 ] दौ[s]द्य [1] से [s] वि[1]ताः इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-२५४ ।।
S
नो जौ भ्रौ कलभाषिणी ॥ २५५ ॥
नजजभराः । यथा- स्फुरति च दक्षिणमारुतो मृदुशीतलः, प्रतिदिशमुलसितं च केसररेणुभिः । पिकयुवतेः प्रसूताश्च पञ्चमगीतयस्, तदपि सखे मयि न प्रिया कलभाषिणी ।। २५५.१ ।। अरविन्दमित्येके ।। २५५.१ ।।
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२२०
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २५६.] चतुर्दशं प्रभेदमाह- नो जौ भ्रौ कल भाषणिती। नगणः-जगणद्वयम् भगण-रगणौ '.si.si.sn.sis.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् कल भाषिणीतिनामकमतिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथास्फुरति चेति । हे सखे ! मृदुशीतलः मन्दः शत्ययुक्तश्च दक्षिणवायु:दक्षिण दिग्पवनः स्फुरति प्रवहति च- किञ्च प्रतिदिशं सर्वासु दिक्षु केसररेणुभिः- पुष्परागः उल्लसितम्- प्रसृतम् चिकयुवतेः- कोकिलायाः पश्चमगीतयः- पञ्चमस्वरेण गानाति प्रसूताश्च- उद्भूताश्च, तदपि एतावति दुर्विषहसंयोगे सत्यपि प्रिया दयिता मयि मद्विषये कलभाषिणी मञ्जुवचना न अपि तु कठोर वचनव वर्तत इति दु.खमिति भावः अस्य नामान्तरमपीत्याह अरविन्दमित्येक इति । एके आचार्या छन्दोऽरविन्दमिति व्यवहरन्तीत्यर्थः । स्फु[1]र[1]ति[1]च[1]द[s]क्षि[1]णा[1]मा[s] रु[1] तो[s] मृ[1] []शी[s]त[1]ल:[5] इति लक्षण संगतिः ॥ अ० २, सू०२५५ ।।
रानमभ्राः सुन्दरम् ॥२५६।। रगणात्परे नमभराः । यथा-निर्ममे सपदि पत्रलता न कपोलयोर, नापि यावकरसो निहितोऽघरपल्लवे। वल्लभाभिसरणोत्सुकया सुदृशानया, सुन्दरत्वमधिकं तदपि प्रतिपद्यते ॥ २५६.१॥ मणिभूषणं, रमणीयं चेत्येके ॥ २५६.१ ॥
लक्षितक्रमेण पञ्चदशं प्रभेदमाह- रानभम्राः सुन्दरमिति । विवृणोति- रगणात् परे न-भ-भ-राः। रगण नगणी भगणद्वयं रगणश्च 'sis... sI.Sin.sas.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् सुन्दरं नामातिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-निर्ममे सपदीति । वल्लभाभिसरणोत्सुकया- वल्लभं प्रियं प्रति अमिसरणे रमणार्थमभिमुखगमने उत्सुकया उत्कण्ठितया अनया प्रत्यक्षगोचरया सुदृशा- सुनेत्रयाऽङ्गनया सपदिझटिति कपोलयोः- गण्डस्थलयोः पत्रलता कस्तूर्यादिद्रव्यनिर्मितो रचना विशेषः न निर्ममे न रचितः, अधरपल्लवे- स्वत एव नूतनपत्रवर्णेऽधरे यावकरसः- अलक्तकद्रवः अपि न निहितः- न स्थापितः तदपि सौन्दर्य
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[अ०] २, सू०२५७-२५८. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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साधनोपयोगाभावेऽपि अधिकं तदुपयोगापेक्षा बहुतरं सुन्दरत्वम् - रमणीयत्वं प्रतिपद्यते- प्राप्यते । यद्यपि कृत्रिम सौन्दर्यसाधनानामुपयोगः त्वराहेतोर्न विहितस्तथापि स्वाभाविकमेव सौन्दर्य मौत्सुक्येन सम्पन्नमिति भावः । नि[5] [1] मे [5] स [1] 4 [ ]दि [1] [5]त्र [ 1 ]ल [ ] ता [s]न [1] क [1] पो[s] ल[1]योः[s] इति लक्षण समन्वयः । अस्य नामान्तरे आह मणिभूषणं रमणीयं चेत्येक इति । केचिदिदं छन्दो मणिभूषणनाम्नाऽपरे च रमणीयमिति नाम्ना व्यवहरन्तीति भावः ॥ अ० २, सू० - २५६ ॥
नाद्गौः ||२५७||
नगणात्परे नमस्राश्चेत्तदा गौर्नाम । ननभभराः । यथा - अनुदिनमपि हन्त दुहन्ति कवीश्वराम्, त्रुटति न च यदीयसदुक्तिपयः शुचि । हृदयमुकुरमध्यमधिश्रयतां सदा, निरुपमचरितप्रथिता मम सैव गौः ।। २५७.१ ।।
षोडशं प्रकारमाह- नौ द्गौ रिति । विवृणोति - नगणात्परे नभभ्राश्चेत् तदा गौर्नाम । न-व-भ-भ-राः इति । पूर्ववणितलक्षणे प्रथमं न्यसनीय रगण स्थाने नगणस्य विन्यासश्चेत्तदा गौर्नामातिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । तथा च '।।।।।।5।।.5II.SIS. ' इतीदृशोन्यासक्रमः सिद्धयति । उदाहरतियथा- अनुदिन मपीति । हन्त इत्याश्चर्ये, कवीश्वराः - महाकवयः अनुदिनमपि प्रतिदिवसमपि दुहन्ति सदुक्तिरूपं दुग्धं निः सारयन्ति, [ तथापि ] शुचि पवित्रं यदीयसदुक्तिपयः- यस्याः सद्धचनरूपं दुग्धं न त्रुटति न विच्छिद्यते, निरुपमचरितप्रथिता - असामान्य चरित्रेण प्रख्याता सैव गौः वाक् [वागधिष्ठात्री देवता] मम - भक्तस्य हृदयमुकुरमध्यम् - अन्तः करणादर्शान्तः प्रदेशे सदा-सर्वदा अधिश्रयताम् - प्रतिष्ठिता भवतु । प्रसिद्धा गौदुह्यमानाऽल्पकालेनैव पयसा विच्छिद्यते, इयं च सर्वदा नवनवं सदुक्तिपयः प्रस्तुत इति तामहं स्वहृदय एव स्थापयितुमिच्छामिति भावः । अ [ | ]नु [] दि [ 1 ] न [1] [ 1 ] प [ 1 ]ह[5]न्त[1]दु[0]ह[5]न्ति [1]क[1]वी[s] श्व[1]राः [s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० - २५७ ।।
नौ रो यौ भोगिनी ॥२५८॥
यथा- दधति तव चुलुक्यचन्द्र धात्रीं भुजेडस्मिन्, भजतु जलनिधी चिराय
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २५६.] निद्रामुपेन्द्रः । विदधतु दिगिमाः करेणुकामिविलासं, सममभिरमतां च वासुकि गिनीमिः ॥ २५८.१॥
सप्तदशं प्रकारमाह- नौ रो यो भोगनीति । नगणद्वयं रगणः यगणद्वयं च'.m.sis.Iss.Iss.' इतीहशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् भोगिनीनामक मतिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दधति तवेति । हे चुलुक्य चन्द्र ! चुलुक्य वंश प्रदीप । अम्मिन् विश्रुते तव भुजे- बाहो धात्री- पृथ्वीं दधति- धारयति सति उपेन्द्रः- विष्णुः जलनिधौसमुद्रे चिराय- बहुकालं. निद्रां- स्वापं भजतु- सेवताम्, दिगिभाः दिग्गजाः करेणुभिः- हस्तिनीभिः सह विलासं- रतिक्रीडां विदधतुकुर्वन्तु, वासुकि:- नागराजश्व भोगिनीभिः- नागीभिः समं- सह अभिरमताम्- रतिक्रीडामनुभवतु । अयमाशयः विष्णुः, दिग्गजाः नागराजश्च पृथ्वीपालने तदुद्वहने च लग्नाः भवन्ति, किन्तु तेषां सर्वेषामेव कायं त्वदीय बाहुनव सम्पादितमिति ते सर्वेः निर्भराः सुखं तिष्ठन्त्विति । द[1][1]ति[1] त[1]व[1] [[]]लु[s] क्य[1]चं[5][s]धा[5]त्रीं[5] भु[]जे[5]स्मिन्[s] इति लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू०-२५८ ॥
त्जसस्याः शिशुः ॥२५९|| तजससयाः । यथा- त्वं नासि दृशोः पथि विमुक्त तथापि नाथ, पापं भुवने तव गिरो जिन नाशयन्ति । त्रस्यन्ति हि शैलशिखरान्तरितस्य दूराल लीलाध्वनितेन मृगराजशिशोर्गजेन्द्राः ॥२५६.१॥ ..
अष्टादशं प्रकारमाह-जसस्याः शिशुरिति । विवृणोति- तजससयाः इति । तगण जगणी सगणद्वयं मगणश्च 'ss.sI.S.S.Iss.' इतीहौरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् शिशुनामकं जगतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- त्वं नासीति । हे नाथ स्वामिन्- ! जिन ! विमुक्त ! कर्मरागादिबन्धन- रहित ! त्वं दृशोः पथि नेत्रद्वयविषयः न- असि न भवसि, तथापि तव गिरः- उपदेशवचनानि भुवने- संसारे पापं- कल्मषं नाशयन्ति घ्नन्ति । हि यतः गजेन्द्रा:- महागजाः शैलशिखरान्तरितस्य- पर्वतकूटव्यवहितस्य [अपि] मगराजशिशोः सिंह- शावकस्य
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[अ० २, सू० २६०-२६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २२३ दूरात्- बहुव्यहितस्थानादपि लीलाध्वनितेन- क्रीडाप्रसङ्गकृतगर्जनेन त्रस्यन्ति बिम्यति । यथा सिंहशिशुमपश्यन्तोऽपि तच्छन्दश्रवणेनैव गजेन्द्रा अपि त्रासंलभन्ते तथा तवादर्शनेऽपि तव वचसैव लोकानांपापं नश्यतीति भावः । त्वं[s]ना[s]सि[i][i] शो[s]प[1]थि[1]वि[1] मु[5]क्त [1]त[1]पा[s]पि[1] ना[5]थ [1] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२५६ ॥
भ्यसस्याः केतनम् ॥२६०॥ मयससयाः । यथा- कोकिलवधूनां कलपञ्चमरागगीतिश, चूतविटपानां नवपलवसंपदश्च । दक्षिणसमीरो मृगशावहशां कटाक्षाः, बिभ्रति हि जंत्रायुषतां झषकेतनस्य ॥ २६०.१ ॥
ऊनविशं प्रकारमाह- भ्यसस्याः केतनमिति । विवृणोति भय ससया इति । भगण-यगणो सगणद्वयं यगणश्चेति 'su:ISS.S.IS.Iss.' इतीदृशैरक्षरः कृता पादा यस्य तत् केतनं नाम अतिशक्करी जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- कोकिल वधूनामिति । कोकिलवधूनां- पिकीनां कल पञ्चमरागगीतिः कला अव्यक्तमधुरा पञ्चमरागस्य स्वनामप्रसिद्धस्य गीतिः गानम्, चूतविटपानाम्- आम्रशाखानाम् नवपल्लव सम्पदः- नूतनपत्र सम्पत्तयः, दक्षिणसमीरः- दक्षिणदिग्भवो मलयवायुः, मृगशावदृशां मृगशावस्य हरिणपोतस्य हक् इव हक् यासाँ तासामङ्गनानां कटाक्षा:- साकुतविलोकनानि च झषकेतनस्य मीनध्वजस्य कामस्य जैत्रायुधतां विजयिशस्त्रतां बिभ्रति- धारयन्ति हि इति निश्चये। कामः पुष्प बाणतया केवलं प्रसिद्ध एव, अस्यायुधकृत्यं तु कोकिल गीतादिभिरेव सम्पाद्यत इति भावः । को[s] कि[1] ल [1] व [1] धू [s]नां[5]क[]ल[1][s]च[1]म[1]रा[5]ग[1]गी[s] तिः[5] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू०-२६० ॥
त्मौ जौ रो मृदङ्गः ॥२६१॥ तमजजराः। यथा-कृत्वा जगत्त्रयजयं मकरध्वजप्रभुः, संगीतकं सपदि कारयते रतेः पुरः । आकाशरङ्गभवने नरिनति नर्तकी, विद्युत्, धनतुरपि मेघमृदङ्गवादकः ॥२६१.१॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २६२.] विशं प्रकारमाह-त्मौ जौ रो मृदङ्ग इति । विवृणोति- तभजजरा इति। नगण-भगणी जगणद्वयं रगणश्च ‘ssi.s1.11.1st sis' इतीदृशैर क्षरः कृताः पादा यस्य तत् मृदङ्गनामकमतिशकरीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- कृत्वा जगत्रयजयमिति । मकरध्वजप्रभुः मकरध्वजः काम एव प्रभुः राजा जगत्रयजयं- त्रिभुवनविजयं कृत्वा- विधाय, सपदि- शीघ्र रतेः- स्वपत्न्याः पुरः अग्रे संगीतकं- गानवाद्यादि युक्तं महोत्सवं कारयते विदधाति । तदित्थम्- आकाश रङ्ग भवने- आकाशरूपे प्रेक्षागृहे विद्युत् सौदामिनी (एव) नर्तकी नृत्यशिल्पिनी नरिनति भृशं नृत्यति, धनतुः मेघकाल: अपि- मेघमृदङ्गवादक:- मेघा एव मृदङ्गास्तेषां वादकः अस्ति । अयमर्थः मेघर्तोः प्रारम्भ एव सर्वं जगत्काम वशंबदं भवति, ततश्च कामोदिग्विजयोत्सवे सौदामिनी नर्तकी मेघरूपमृदङ्गावादकं च वर्षतुं विधाय प्रीणयतीति । क[s]त्वा[5]ज[1]गत्[5]त्र[1]य[1]ज[1]यं [s]म[1]क[i] र[s] ध्व[1]ज[s]प्र[s]भुः[5] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू०-२६१. ।।
मुः कामक्रीडा ॥२६२॥ मुरिति पञ्च मगणाः । यथा- उक्ता वाचं नो दत्ते तल्पे शेते व्यावृत्ताङ्गी, पर्याक्षिप्तक्षोमप्रान्ता प्रस्थातुं काङ्गत्याशु । कामक्रीडावार्तागोष्ठीप्रारम्भेऽप्युचाडां, पत्ते पत्यूः प्रीत्यै वामारम्भाप्येवं सा बाला ॥२६२.१ ॥१५॥२१॥
एकविशं प्रकारमाह- मुः काम क्रीडेति । विवृणोति- मुरिति पञ्चमगणाः इति । तथा च 'sss.sss.sss.sss.sss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् कामक्रीडानामकमतिशक्करीजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाउक्ता वाचमिति । उक्ता किञ्चित्पृष्टाऽपि वाचं- प्रत्युत्तरवाक्यं नो दत्तेनैव वितरति, तल्पे- शय्यायां व्यावृताङ्गी-पराङ्गमुखशरीरा शेते- शयनक्रियां नाटयति, पर्याक्षिपृक्षौमप्रान्ता पर्याक्षिप्तः शरीरात्पृथक् विकीर्णः क्षौमप्रान्तः- वखाग्रभागः यस्याः तथा सती आशु- शीन प्रस्थातुंबहिर्गन्तुं कांक्षति- इच्छति- [नतु गच्छति] कामक्रीडा वार्ता गोष्ठी प्रारम्भे अपि कामक्रीडावातार्थ इति विलासचर्चाय गोष्ठयाः सखीभिः सहालापप्रसङ्गस्य प्रारम्भेऽपि प्राथमिकस्थिता वपि उच्चैः- अत्यन्तं क्रीडां- लज्जां
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[अ० २ सू० २६३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२२५ धत्ते- धारयति, एवम् उक्त प्रकारेण वामारम्भा प्रतिकूलाचरणाऽपि सा बाला पत्युः- प्रीत्यै प्रियस्यानन्दाय भवतीतिशेषः । उ[s]क्त [s]वा[5]चं[s] नो[s]द[5] ते [s]त[s]ल्पे[5]शे [s] ते[1]व्या[s][s] त्ता [5] ङ्गी [5] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२६२ ।।
अष्टौ नज्रा भौ गो मणिकल्पलता ॥२६३॥ . नजरभभगाः । यथा- उपलतृणस्वरूपचिन्तामणिकल्पलता-, व्यतिकरतो मुधव मेरुर्मदमुद्वहति । जयति यदुज्जयन्त एकोऽयमचिन्त्यफलं, प्रदददलंकरोति नेमिः स्वयमेष जिनः ॥ २६३.१ ॥
इत्थं पञ्चदशाक्षरजातेरतिशवर्या एकविंशतिप्रभेदा वणिताः । प्रस्तारगत्या तु अस्याः ३२७६८ भेदाः भवन्ति। तदुक्तम्- "द्वात्रिंशत्तु सहस्त्राणि, सप्तचैव शतानि च । अष्टौ षष्टिश्च वृत्तानि, ह्याश्रयन्त्यति शक्करीम् ॥ "इति [ भ० ना० शा० १४।६१ ] इत्यतिशक्करी" ॥ अथ षोडशाक्षरपादाया अष्टिजाते दार्वर्णयितुमुपक्रमते- अष्टौ नज़ा भी गो मणिकल्पलतेति । विवृणोति- नजर भभगाः इति । नगणभगणरगणाः भगणद्वयं गुरुश्च 'm.si.sis.sn.sn.s.' इतीदृशैर्वर्णैः कृता पादा यस्य तत् मणिकल्पलतानामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- उपलतृणेति । अत्र पद्ये तृतीयपादे एकोऽयमचिन्त्यफलमिति पाठः समुपलभ्यते, तत्र-एकः अयम्अचिन्त्य फलम्- एवं पदच्छेदो लभ्यते, स च नाथं दृष्टया सामञ्जस्यं याति, "एको, यमचिन्त्यफलं" इत्थं पाठे स्वीकृते तु- यमिति द्वितीयान्तं पृथक्कतूं शक्यत इति मवत्यर्थसङ्गतिरिति तथैव पाठं परिकल्प्य व्याख्यायते । मेरुःसुमेरु पर्वतः उपतृणस्वरूपचिन्तामणिकल्पलताव्यतिकरतः उपलंच तृणं चेति उपलतृणे ते स्परूपं ययोः ते च- चिन्तामणि कल्पलते तयोः व्यतिकरतः सम्बन्धान मुधैव व्यर्थमेव गर्वम- अहङ्कारम् उद्वहति-धारयति, यत्- यस्मात् एकः- अद्वितीयः उज्जयन्तः एतन्नाम्नाख्यातः पर्वतः जयतिसर्वोत्कर्षेण वर्तते, यम् उज्जयन्तम् अचिन्त्यफलं प्रददत् अचिन्त्यं मनसाऽप्यगम्यं फलमभीष्टं वितरन् एष प्रसिद्धः नेमिः- एतनाम्ना प्रसिद्धः जिन:रागादिजय शीलोदेवः स्वयम्- आत्मनैव अलङ्करोति- शोभयति । अय
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २६४.] माशयः चिन्तामणि- कल्पलतयो र्धारणात्- सुमेरुपर्वतः स्वात्मानं सर्वतः श्रेष्ठं मन्यते तन्नोचितम् यतः चिन्तामणि: उपल एव [प्रस्तरविशेष एष ] कल्पलतापि तृणमेव, तयोश्च यथा कथंचित् मनसाभीष्टस्य फलस्य प्रदातृत्वम् यत्र च मनसोऽप्यगम्यस्य फलस्य प्रदाता भगवान् नेमिजिनः स्वयमेव वसति स उज्जयन्त एव सर्वेभ्यः पर्वतेभ्यः श्रेष्ठ इति । उ[1]प[1][][][5]स्व [1] रु[s]प[1]चि[s]न्ता[s]म[1]णि[1] क[1]ल्प[1]ल[i]ता[s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू०-२६३. ॥
मीः स्गो शरमाला ॥२६४॥ भोरिति भचतुष्टयं सगौ च । यथा- ऐक्षवकार्मुक कोसुमसायक भटमानिन्, मुञ्च चतुर्मुखशंभुचतुर्भुजजयगर्वम् । उत्तमसंयमवर्मवृतात्मनि जिननाथे, संप्रति शम्बरसूदन संहर शरमालाम् ॥ २६४.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह- भीः स्गो शरमालेति। विवृणोति- भीरिती भगण चतुष्टय सगौ चेति । भगणचतुष्टयात्परतः सगणो गुरुश्च 'sI.si.sil.sil. 11.5.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् शरमालेति नामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- ऐक्षव कार्मुकेति ! हे ऐक्षवकार्मुक ! इक्षोरिदमैक्षवं कार्मुकं धनुः यस्य तत्सम्बोधनम् झटमानिन् ! आत्मानं भटं मन्यते इति सः तत्सम्बोधनम्, कौसुमसायक!- कुसुमैः कृता कौसुमा सायका यस्य: सः तत्सम्बोधनम्, हे काम, चतुर्मुखशम्भुचतुर्भुजजयगर्वम्ब्रह्मविष्णुमहेशवशीकरणाभिमानं मुञ्च- त्यज, हे शम्बर सूदन ! शम्बरारे काम, उत्तम संयम वर्मवृतात्मनि- उत्तमः श्रेष्ठः संयमः बाह्यान्तरिन्द्रियनिग्रह एव वर्म कवचं तेन वृतः पिहित आत्मा स्वरूपं यस्य तादृशे जिननाथे जिनपंती सम्प्रति सद्यः शरमालाम् बाणपङ्किम् संहर सङ्कोचय निवारयेति वा । ब्रह्मादिनपि स्ववशे कुर्वाण स्तवमस्मिन् संयमशीलेऽपि चेत्प्रहरिष्यसि तहि ते सर्वमद्यपर्यन्तं प्राप्तं यशः क्षयं गमिष्यतीति, नात्रत्वया प्रहर्तव्यमिति भावः । ऐ[5]क्ष[i][] का[s], [i]क[s]कौ[s]सु[1]म[1]सा[s]य[1]क[i] भ[1][I]मा[5]निन्[5] इति लक्षण समन्वय: । अ० २, सू०-२६४ ॥
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[अ० २, सू० २६५-२६६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २२७
भुगौ संगतम् ॥२६५॥ भुरिति पञ्चमगणा गुरुश्च । यथा- वीर तवासिपथेन गौररिभित्रिदिवं, तत्र दिवस्पतिमानिभिराकुलित: प्रबलः । अघ हरिविमृशन् सचिवैः सह तद्विजये, त्वन्नवसंगतकल्पनमोपयिकं मनुते ॥ २६५.१ ॥ पप्रमुखी, सुरतावसथं, उद्धरणं, सोपानकं चान्येषाम् ॥ २६५.१ ॥
तृतीयं प्रकारमाह-भुगौ संगतमिति । विवृणोति- भुरिति पञ्च भगणा गुरुश्चेति । एवञ्च '.s.s.sII.SI.S.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् संगतं नामाष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरणम्- यथा-वीर तवासिपथेनेति । हे वीर ! तव- भवतः असिपथेन खङ्गमार्गेण त्रिदिवं- स्वर्ग गतैः प्राप्तः, तत्र स्वर्गे दिवस्पतिमानिभिः आत्मानं दिवस्पति स्वर्गलोकनाथं मन्यन्ते इति तादृशैः प्रबल:- बलशालिभिः अरिभिः- शत्रुभिः आकुलितःत्रस्तः हरिः- इन्द्रः तद्विजये तस्यारेः विजयविषये सचिवैः- मन्त्रिभिः सह विमृशन- विचारयन् त्वन्नवसंगतकल्पनम्- तव भवतः नवं नूतनं संगतम् मित्रत्वम् तस्य कल्पनम् औपयिकम्- उपायभूतं मनुते- स्वीकरोति । त्वदरयस्त्वया खड्गेन च्छिन्नाः स्वर्ग प्राप्य तत्रात्मानमेव तत्रत्यं नाथं मन्यमानाः इन्द्रमपि व्याकुलयन्ति । तद्विजयश्च कथंस्यादिति विचारप्रसङ्गे इन्द्र स्तेषां विजयिनं त्वामेव सख्येन संग्रहीतुमिच्छतीतिभावः वी[1][i]त[1]वा[s]सि[1][1]थे[s]न[1][i][s][1]रि[1] मि[s]स्त्रि[1] दि [1][s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अस्यनामान्तराण्याह-पद्ममुखी, सुरतावसथं उद्धरणम् सोपानकं चान्येषामिति । तथा च यथारुचि भिन्न ममिरिदं व्यवहरन्तीति भावः ॥ अ० २, सू०-२६५. ॥
मुगौ कामुकी ॥२६६ ॥ मुरिति मगणपश्चकं गुरुश्च । यथा- संवृत्तोऽयं सन्ध्याकालः प्राप्तोऽस्ताने शृङ्ग भानुर्, विस्फूर्जद्भिवन्तिस्तोमरेकीभूतं काष्ठाचक्रम् । चापाकृष्टि व्यातन्वानः कन्दर्पोऽपि क्रीडत्युच्चर, गच्छन्त्येतास्त्यक्ताशडू कोसस्थानं कामक्योऽपि ॥ २६६.१ ॥
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र
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २६७.] चतुर्थप्रकारमाह- मु गौ कामुकीति । विवृणोति- मुरिति मगणपञ्चंगुरुश्चेति । तथा च 'sss.sss.ssssss.sss.s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् कामुकीनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा- संवृत्तोऽयमिति। अयं संध्याकाल:- सायं समयः संवृत्त:- अभूत् । भानुः- सूर्यः अस्ताद्रेःअस्ताचलस्य शृङ्ग- शिखरै प्राप्तः, विस्फूर्जद्भिः- प्रसरद्भिः ध्वान्तस्तोमैः- अन्धकार समूहैः काष्ठाचक्रम्- दिशामण्डलम्, एकीभूतम् ऐक्यंगतम्, चापाकृष्टि- धनुर्ध्याकर्षणं व्यातन्वानः-विस्तारयन् कन्दर्पः-कामः अपि उच्चैः अतिशयं क्रीडति- रमते एताः दृश्यमानाः कामुक्यः- कामिन्य अपि त्यक्ताशङ्कां नि:सन्देहं यथा स्यात् तथा क्रीडास्थानं- रतिगृहं गच्छन्ति-व्रजन्ति । सन्ध्यासमये तमसि सर्वतो व्याप्ते कामशरमीताः कामुक्यः परदर्शनस्य सन्देहान्निवृत्ताः पत्या सहरन्तुं क्रीडागृहं यान्तीतिभावः । सं[5]वृ[5]त्तो[s]यं[s] सं[5]ध्या[s]का[s]ल:[5]प्रा[s]प्तो[s]स्ता[5]द्रेः[5][s]ङ्ग[5] भा[s]नु:[s] इति लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू०-२६६ ।।
सुगौ वा ॥ २६७ ॥ सुरिति सगणपञ्चकं गुरुश्चेदियमपि कामुको। यथा- अपयाहि पितामह चित्तविलोमिनि धिक् त्वाम्, अपि कौशिककामुकि न त्वमपि त्रपसे किम् । असि हास्यपदं नलकूबरकामिनि यतः, कुलिशातिदृढेऽत्र जिनेन्द्रहृदि प्रविविक्षा ।। २६७.१ ।। सोमडकमित्यन्ये ॥ २६५.१ ॥
पञ्चमं प्रकारमाह- सु गौवा इति । विवृणोति- सुरिति सगणपश्चकं गुरुश्चेदियमपि कामुकीति । तथा च ISIS.Is.s.is.s.' इतीदृशैर्वणेविन्यासश्चेत्प्रतिपादं तहिं तदपि कामुकीनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अपयाहीति । हे पितामह चित्तविलोमिनि ! पितामहस्य ब्रह्मणः चित्तं विलोमयति तच्छीला तस्याः सम्बोधनम् तिलोत्तमे, त्वां धिक् ईदृशमनुचितं कर्मकरोषीत्यतस्त्वं निन्दा पात्रमसिं, अपयाहि- दूरंगच्छ । अयि कौशिककामुकि!- कौशिकस्य इन्द्रस्य विश्वामित्रस्य वा ( व्यञ्जनया-उलूकस्येति-गम्यते ) कामुकि- उर्वशि! त्वमपि न पसे किम् त्वया स्वतएवात्र विषये लज्जा कार्येति भावः, हे नलकूबर कामिनि !- नल
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[अ० २. सू० २६८- २६९.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२२६
1
कूवरस्य तन्नाम्नाख्यातस्य कुबेरपुत्रस्य कामिनि रम्भे । हास्यपदं - हास्यस्थानमसि - भवसि यत् - यस्मात् वः तिलोतमाप्रभृतीनाम् कुलिशातिहढेवज्रादप्यधिककठोरे अत्र- अस्मिन् जिनेन्द्र हृदि - जिनपते हृदये प्रविविक्षा - प्रवेष्टुमिच्छा अस्ति । स्वकीयं स्वकीयं कुत्सितं कर्मजानन्त्योऽपि भवत्यः साधारण जनवदत्रापि जिनपती स्वाधिकारं वाञ्छन्ति तत्केवलं भवतीनां हास्यायैवेति भावः । अ [ 1 ] प [1] या [S] हि [ 1 ]पि[\] ता [S]म [1]ह[1] चि[s] त्त [ 1 ]वि [1] लो [s] मि [ 1 ] धिक् [S] त्वाम् [S] इति लक्षण समन्वयः । अस्यनामान्तरमाह सोमडकमित्यन्ये इति ॥ अ० २, सू०-२६७ ।।
नुगौ चलधृतिः || २६८||
नुरिति नगणपञ्चकं गुरुव । यथा- प्रणमदखिलसुरपतिकनकमुकुट-, स्फुटरुचिनिचितनखमणिकिरणचये । कुरु जिनचरणजलरुहि नमनर्संच, चलधृतिमपजहि च विषयसुखधियम् ।। २६८.१ ॥
षष्ठं प्रभेदमाह - नु गौ चलधृतिरिति । विवृणोति - नुरिति । नगण पञ्चकं गुरुश्चेति । तथा च ' ।।।।।।।।।।।।।।।..' इतीदृशैरक्षरैः कृताः, पादा यस्य तत् चलधृतिनामकंष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रणमदिति । प्रणमदाखिलसुरपतिकनक- मुकुटस्फुट रुचिनिचितनखमणिकिरणचये प्रणमन्- नम्रीभवन् - यः अखिलसुरपतिः - सर्वदेवेन्द्रः तस्य कनकमुकुटस्य स्वर्णकिरीटस्य स्फुटरुचिभिः प्रकटकान्तिभिः निचिताः मिश्रिताः नखमणीनां नखरत्नानां किरणचयाः रश्मिसमूहा यस्य तस्मिन्, जिनचरणजलरुहि निपादपद्म अचलधृति - निश्चलसमाधि नमनरुचि - प्रणतिकामनां कुरु - विधेहि विषय सुख धियम् - विषयेषु सुख बुद्धिम् अपजहि- त्यज । प्र[1]ण[+]म [1]द [1]खि [1]ल[1]सु[1][1]ति [1]क[1]न[1]क[']मु[']कु[1] [s] [ संयोगादौ द्वितीयपादे परतोऽस्य गुरुत्वम् ] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० - २६८ ।।
नुलावचलधृतिः ॥ २६६॥
नुरिति नगणपश्वकं लघुश्च । यथा- विलुलितचिकुरमघर निहितदशनम्,
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संवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० २७०.]
अविरलपुलक निचितकुचयुगमयि । रतिरसरभसमणितमुखरितमिह विलसति तव सखि सुरतमचलधृति । २६६.१ ॥
२३०
सप्तमं प्रभेदमाह - नुलावचलधृतिरिति । विवृणोति - नुरिति नगणपञ्चकं लघुश्चेति । तथा च '।।।।।।।।।।।।।।।.।' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् अचलधृतिनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- विलुलितेति । अयि सखि ! विलुलितचिकुरम्- विकीर्णकेशम् अधरनिहितदशनम् - अधरोष्ठस्थापितदन्तम् अविरलपुलकनिचितकुचयुगम् - अविरलैः धनैः पुलकै रोमाञ्चैनिचितं व्याप्तं कुचयुगम् - स्तनयुगलं यस्मिन् तत्, रतिरसरभसम णितमुखरितम् - रतिरसस्य मैथुनान्दस्य रभसेन औद्धत्येन यत् मणितं रतिकूजितम् तेन मुखरितम् - वाचालम् इह - अत्रस्थाने अचलधृति निश्चलधैर्यम् तव - भवत्याः सुरतम् - रति विलसितं विलसति - शोभते । वि [1] लु[1]लि [1] [ 1 ] चि[1] कु[+]र[+]म[+]ध [1]र[1] नि[1] हि [1] त [] द [1]श [1] न [1] म् [ अचलेत्यादि द्वितियपादादिस्वर भक्तो मकार इति न पूर्वपादान्तनस्य गुरुत्वकृत् ] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० - २६६ ॥
भौ जिगौ मङ्गलमङ्गना घेः ॥२७०॥
नभौ जिरिति जगणत्रयं गुरुश्व । घंरिति चतुभिर्यतिः । यथा- कुटिलतां धृतवती गुरुभोगमदोद्धता, विदधती प्रलयवेपथुसादपरंपराम् । विषधरीव पुरतः स्फुरिता यतिनामहो, विचरतां सुगतिमार्गममङ्गलमङ्गना ।। २७०.१ ।।
अष्टमं प्रभेदमाह - न्मौ जिगो मङ्गलमङ्गनाद्ये रिति । विवृणोति - न भौजिरिति जगणत्रयं गुरुश्च । द्यैरिति चतुर्भिर्यतिरिति । नगण भगणौ - जगणत्रयं गुरुश्च '1।1.5।.ISI.İSI.ISI. S. ' इतीदृशैरक्षरैः कृता पादा यस्य तत् मङ्गलमङ्गनानामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कुटिलतामिति । कुटिलतां वक्रगति घृतवती स्वीकृतवती गुरुभोगमदोद्धता - गुरुणा भोगभदेन विलासदर्पेण फणादर्पेण वा उद्वता उच्छृङ्खला प्रलयवेपथु साद परम्पराम्- प्रलयो मूर्च्छा, वेपथुः कम्पः, साद: स्तम्भः तस्य परम्परां श्रेणि विदधती - कुर्वती विषधरी- सर्पिणी इव अङ्गना स्त्री; सुगतिमागं - मोक्षपथं विचरतां तत्र गच्छतां यतिनाम् अमङ्गलम् अपशकुनस्वरूपा पुरतः -
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[अ० २, सू० २७१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २३१ अग्रतः स्फुरिता प्राप्ता । यथा क्वापि सत्कार्याय गच्छतामग्रे समायाता सर्पिणी अमङ्गलसूचिका तथा मोक्षमार्गे गच्छतां यतिनामपि- अग्रतः समागता अङ्गना अमङ्गलसू चिकेति-द्वयोः साधयं विशेषणरुक्त्वा साधितम् । कु[1] टि[1]ल[1]तां[s] [1]त[1] व [1] ती[s]गु[1] [1] भो [s]ग[1]म[1]दो[s]द्ध [1]ता[s] इति लक्षण समन्वयः ॥ २७१।१ । अ० २, सू०-२७० ॥
भ्रनिगा ऋषभगजविलसित छः ।।२७१।। भरी नगणत्रयं गुरुश्च । छरिति सप्तभिर्यतिः । यथा- अद्भुततुङ्गमूर्तिरतिशयललितगतिर्, देव समग्रक्रर्मवनविदलनरसिकः । निर्भरमन्तरङ्गरिपुबलविजयपटुर्, नाथ दधासि तत् त्वमृषभगजविलसितम् ॥ २७१.१ ॥ मत्तगजविलसितमिति भरतः ॥ २७१.१॥
नवमं प्रभेदमाह- भ्रनिगा ऋषभगज विलसितं छै रिति । विवृणोतिभरौ- नगणत्रयं गुरुश्च । छैरिति सप्तभिर्यतिः। भगण-रगणौ नगणत्रयं गुरुश्च 'I.sis.m....' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् सप्तमिश्चयति युक्तम्- ऋषभगजविलसितं नामाष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरतियथा- अद्भुततुङ्ग ति। हे नाथ ! हे देव ! अद्भुततुङ्गमूर्तिः- अद्भुता आश्चर्यविषया तुङ्गा उन्नतामू मुर्तिर्यस्य सः, अतिशयललितगतिः- अतिशयललिता अत्यन्तमनोहरा गतिर्यस्य सः, समग्रकर्मवनविदलनरसिकःसमग्रस्य अशेषस्य कर्मवनस्य- कर्माण्येव वनं तस्य, कर्माणीव वनन्तस्येति वा, विदलने प्रमर्दने रसिकः उत्कण्ठितः अन्तरङ्गरिपुबलविजयपटुःअन्तरङ्गानां आभ्यन्तराणां रिपूणां शत्रूणां कामादीनां बलस्य; अन्तः स्वस्वामिविषयमध्ये अङ्गति गच्छति इति- अन्तरङ्ग मद्रिपुबलं तस्य वा विजये पटुः कुशलः त्वं निर्भरं स्वच्छन्दं ऋषभगजविलसितम् श्रेष्ठकरिक्रीडां दधासि- धारयसि । अत्र देवे जिने श्रेष्ठ गजे च समानानां विशेषणानां प्रयोगेण साम्यं प्रतिपादितम् । अ[s] []त[1]तु[s]ङ्ग[]मू[s]ति, [1] [1] ति[1]श[1]य[1]ल[1]लि[0]त[1]ग[1]तिः[5] इतिलक्षण सङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह- मत्तगजविलसितमिति भरत इति । भरत आचार्य इदं छन्दो मत्तगज विलसित नाम्ना प्राहेत्यर्थः । सम्प्रति समुपलभ्यमाने [वडोदरा
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२३२ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २७२-२७३.] संस्करणे तु 'अग्रवृषभगजविलसितम् इभविलसितम्- इति च पाठ समुपलभ्यते । कचिन्मत्तगजविलसितमित्यपि पाठः इति पाद टिप्पण्यां निर्दिष्ठम् । तथा च तत्रापि यथारुच्येव पाठः स्वीकृतः ।। अ० २, सू०-२७१ ॥
निजस्गा ललितपदं ङः ॥२७२।। निरिति नगणत्रयं जसगाश्च । रिति पञ्चभिर्यतिः । यथा- चुलुककुलजलनिषिशशाङ्क तव दीनं, रिपुनिवहमतितरलकातरमुपेक्ष्य । त्वदसिरुचितमसि वितते युषि भवन्तं, ललितपदमभिसरति वीर जयलक्ष्मीः ॥२७२.१।।
दशमंप्रकारमाह-निजस्गा ललितपदं रिति । विवृणोति-निरिति नगणत्रयं जसगाश्च । जैरिति पञ्चभिर्यतिरिति । नगणत्रयात्परतो जगण सगणो गुरुश्च 'm.m.in.s.is.s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चमिश्च यतिर्यत्र तत् ललितपदं नाम अष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- चुलुककुलेति! हे चुलुककुलजलनिधिशशाङ्क ! चुलुककुलमेव जलनिधिः समुद्रः तस्य (वृद्ध) शशाङ्कः चन्द्रः स इव तत्सम्बोधनम्, हे वीर ! युधि- संग्रामे त्वदसिरुचितमसि- त्वत्खङ्गकान्तिरूपे ध्वान्ते वितते विस्तृते सति जयलक्ष्मीः- विजयश्रीः दीनं-कृपणं अतितरलकातरं- अतिचञ्चलमति भीरं च तव- भवतो रिपुनिवहं शत्रुसमूहम् उपेक्ष्य अनादृत्य ललितपदं चित्रपदविन्यासपूर्वं यथास्यात्तथा, भवन्तं- त्वाम् अभिसरति- समुपैति । अन्यापि कामिनी कातरं दीनं च पतिमुपेक्ष्य तमसि वीरं सुन्दरं चान्यं पुरुषमुपैति तथा तवारिं त्यक्त्वा जयलक्ष्मीस्त्वामायातीति भावः । चु[1]लु[]क[1] कु[1] ल[1]ज[1][i] नि[1]धि[1] शा[s][1]त[1] व[1]दी[s]न [s] इति लक्षण समन्वयः । अ० २, सू०-२७२ ॥
यमन्सर्गाः जयानन्दं चैः ॥२७३।। यमनसरगाः । चैरिति षड्भिर्यतिः । यथा- नमच्छकश्रेणीमणिमुकुटकोटी. विटकर, निघष्टाघ्र देव प्रबलजडताचण्डमानो। सुधाधारासाररिव सदसि वाचा प्रपञ्चर्, जयानन्दस्यन्वं सपदि जगतामादधानः ॥ २७३.१ ।। प्रवरललितमित्येके ॥ २७३.१ ॥
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[अ० २, सू० २७४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२३३
एकादशं प्रभेदमाह - य्मन्सर्गाः जयानन्दं चैरिति । विवृणोति- यमन सरगाः । चैरिति षड्मिर्यतिरिति । यगण-मगण-नगण-सगण-रगणाः गुरुश्च 'İऽऽ.ऽऽऽ.।।।.।।ऽ.ऽ।ऽ.s.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य षडमिश्च यतियंत्र तत् जयानन्दं नामाष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - नमच्छक्रेति । नमच्छक्रश्रेणीमणिमुकुट कोटी विटङ्क :- नमतां प्रणमतां शक्राणा मिन्द्राणां श्रेण्याः पङ्ले: मणिनिर्मितानां मुकुटानां कोट्याः शतलक्षाणां ये विटङ्का अग्रभागाः तैः निघृष्टाङ्घ्र - घाषित चरण ! प्रबलजडताचण्डभानो प्रबलाया जडताया जाड्यस्य मौर्यस्य शैत्यस्य च ( कृत ) चण्डभानो सूर्य ! हे देव ! सदसि सभायां सुधाधारासारै:- अमृतप्रवाह वर्षाभिः इव वाचां - वाणीनां प्रपञ्चः विस्तारैः सपदि - तत्कालमेव जगतां - सर्वेषां लोकानाम् जयानन्दस्यन्दं - जयानन्दयोः विजयप्रीत्योः स्यन्दं द्रवम् आदघानः, 'असि' इति शेषः । अथवा आनन्द स्पन्दं आदधानः ( त्वं ) जय सर्वोत्कर्षेण वर्तस्वेति पदविच्छेदेन व्याख्यायां न क्रियापदानिर्देश रूपात्रुटि: । न [ 1 ] म [S]च्छ[s]क्र[s]श्रे[s]णी [s], म [ 1 ]णि [ 1 ] मु[1]कु[1]
[ 1 ] को [S] टी [s]वि [1] [5] : इति लक्षण समन्वयः । अस्य नामान्तरमाहप्रवरललितमित्येके इति । तथा च मंदार मकरन्दे 'य- मौ- नः स्त्रीगरच प्रवरललितं नाम वृत्तम्' इति । भरतनाट्यशास्त्रेऽप्यस्य 'ललित प्रवरं' प्रवरललितमिति द्विधानाम निर्दिष्टं पाठ भेदेन । तथाहि - आद्यात्पराराणि वे पञ्च द्वादशं सत्रयोदशम् । अन्त्योपान्त्ये च दीर्घाणि ललितप्रवरं हितत् ॥ इति १५६८ ॥ यदा टमी पादस्थो भवत इह चेत् न्सो तथा र्गों, तथा षड्मिश्चान्यैर्यतिरपि च वर्णैर्यथा स्यात् । तदप्यष्टी नित्यं समनुगतमेवोक्तमन्यैः, प्रयोगज्ञैर्वृत्तं प्रवरललितं नामतस्तु । इति [ १५/६६ ] ॥ अ० २, सू०-२७३ ।।
भौ नौ न्गो महिषी त्रैः ॥ २७४ ॥
भरनरनगाः । अंरिति दशभियंतिः । यथा- सिद्धनरेन्द्रनन्दन भवद्विपक्षनगरे, संप्रति सौ भित्तिलिखितास्तुरंगमचमूः । वीक्ष्प नितान्तकोपकुटिलेक्षणा प्रति मुहुः, शूङ्गविघट्टनविघटयत्यरण्यमहिषी ।। २७४.१ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २७५.]
लक्षितक्रमेण [ न तु प्रस्तारक्रमेण ] द्वादशं प्रकारमाह- भ्रौ त्रौ न्गौ महिषीर्जरिति । विवृणोति - भरनररगाः । जैरिति दशभिर्यतिरिति । भगण-रगण-नगण-रगण - नगणा गुरुश्च ' 51.5 5.111.5 5.111.5. ' इतीदर्शर्वर्णैः कृताः पादा यस्य, दशमिश्च वर्णैयतिर्यत्र तत् महिषीनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सिद्धनरेन्द्रेति । हे सिद्धनरेन्द्रनन्दन ! सिद्धराज सुत ! सम्प्रति तवाक्रमणानन्तरं भवद्विपक्षनगरे - त्वदीयशत्रुपुरे अरण्यमहिषी - वनजामहिषजातिस्त्री सौधमित्ति लिखिताः प्रासादकुड्योत्कीर्णाः तुरङ्गमचमूः - अश्वसेना: वीक्ष्य - अवलोक्य नितान्त कोप कुटिलेक्षणा- अत्यन्तक्रोधवक्रीकृतलोचना सती प्रतिमुहुः- प्रत्येकं वारं वारं शृङ्गविघट्टनैः - विषाणघर्षणः विघटयति - त्रोटयति । भवदाक्रमणेन रिपुषु पुरं त्यक्त्वा पलायितेषु तत्रारण्यजन्तूनां निवासात् - प्रासादेषु सञ्चारेण तत्रोल्लिखिता अश्वसेनाः समवलोक्य जातिसिद्धिवैरेण महिष्यस्ताः शृङ्ग. विघटयन्तीति भाव: । सि [S]द्ध[1]न [\]\[s]न्द्र [1]नं[s]द[1]न [1]भ[1] [5] द्वि[1] [5]क्ष [1] [] ग [1][s] इति लक्षणसमन्वयः । प्रतिपादं च दशमाक्षरे विरम्य पाठे सुश्रवत्वमिति ॥ अ० २, सू० - २७४ ॥
२३४
म्भौ न्मौ न्गौ मदनललिता घचैः ॥२७५||
ममनमनगाः । घर्चरिति चतुभिः षड्भिश्च यतिः । यथा- गाढाकान्ता कुचयुगभरेणार्ता च विरहे, नित्योद्विग्नातिघनजघनप्राग्भारघरणे । सध्रीचीभिघृतकरतला कान्ते कृतरतिर् मन्दं मन्दं मदनललिता याति प्रियगृहम् ।। २७५.१ ।।
त्रयोदशं प्रकारमाह- म्भौ न्मौ न्गौ मदनललिता घचैरिति । विवृणोतिमभनमनगाः । धचैरिति चतुभिः षड्मिश्च यतिरिति । मगण-भगणनगण-मगण-नगणा गुरुश्च 'ऽऽऽऽ।। ।।। ऽऽऽ ।।1.5. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य चतुभिः षड्भिश्च यतियंत्र तत् मदनललिता नामकमष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - गाढाक्रान्तेति । कुचयुगभरेण - स्तनद्वन्द्वभारेण गाढाक्रान्ता - अत्यदिता, विरहे प्रिय वियोगे च आर्त्ता- पिडिता, अतिघन जघन प्राग्भारधरणे - अतिनिबड नितम्बभारोद्वहने नित्योद्विग्ना
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२३५
[अ० २, सू० २७६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते सततभीता [ अतएव ] सध्रीचीभिः- सहगमनशीलाभिः सखीमिः धृतकरतला- अवलम्बितहस्ता कान्ते कृतरतिः प्रियविषये कृतप्रीतिः मदनललिता कामावस्थया- मनोहराङ्गना मन्दं मन्दं प्रियगहं याति शनैः शनैः वल्लभागारं प्रविशति । गा[5]ढा[5] का[s]न्ता[s], कु[1]च[1]यु[1]ग[1] भ[1][s], णा[s][5]च [1] वि[1] [2]हे[1] इति चतुभिः षड्मिश्च विच्छिद्यपठनात् श्रव्यत्वम् । यद्यपि प्रथमे पादे षष्ठेऽक्षरे या द्वितीया यतिः 'रे' इत्यत्र प्राप्ता सा च पदमध्ये पततीति नोचिता- पदमध्ये यतेः क्वाचित्कत्वेन स्वीकारेऽपि पूर्वापरभागयोरेकाक्षरत्वे तद्वर्जनात् । तथाहि- प्रोक्तम् "क्वचित्तु पदमध्येऽपि गकारादौ यति भवेत् । यदि पूर्वापरी भागौ न स्यातामेकवर्णकौ ॥” इति तथापि पूर्वभागस्य वर्णद्वयात्मकत्वसत्वात्कथंचित्सन्तोष्टव्यम् ॥ अ० २, सू०-२७५ ॥
न्जम्जर्गा वाणिनी ॥२७६|| नजभजरगाः । यथा- अविरलपुष्पबाणललितानि दर्शयन्ती, परिमलहारितामरसवक्त्रमुद्वहन्ती। मदकलराजहंसगमनानि भावयन्ती, शरदिह मानसं हरति हन्त बाणिनीव ॥ २७६.१ ॥
चतुर्दशं प्रभेदमाह- जम्जर्गा वाणिनीति । विवृणोति नजमजरगा इति । नगण-जगण-भगण-जगण-रगणाः गुरुश्च ॥.s.sI.IsI.SIS.ऽ.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् वाणिनीनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- अविरलेति। अविरलपुष्प बाणललितानि अविरलानि धनानि पुष्पाणि येषु ते च बाणा वृक्ष विशेषाः तेषां ललितानि विलासानि, पक्षे अविरलानि- निबिडानि पुष्पबाणस्य कामस्य ललितानि विलासानि दर्शयन्ती प्रकटयन्ती, परिमलहारितामरसवक्त्रम् परिमलेन सौरमेण हारि मनोहरं तामरसं कमलमेव वक्त्रम्- मुखम्, पक्षे तादृशं तामरसमिववक्त्रम् उद्वहन्ती'धारयन्ती मदकलराजहंसगमनानि- मदेन समयप्राप्तेन विकार विशेषेण कला अव्यक्तमधुरभाषिणो ये राजहंसा मरालाः तेषां गमनानि गतीः, पक्षे तादृशराजहंसानाम् गमनानीव गमनानि भावयन्ती प्रकट्यन्ती शरद् ऋतुविशेषः बाणिनी विदग्धमत्तनायिका इव मानसं चेतः हरति स्ववशं
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० २७७ - २७८.]
नयति । अत्र शरदा सह बाणिन्याः साधारणविशेषणः सादृश्यं व्यक्तम् । अ[1]वि[1]र[। ]ल[1]पु[1]ष्प [1]बा[S]ण[1]ल [1]लि[1]ता[S]नि [1] [5] [1] [s]न्ती [s] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - २७६ ॥ नजिर्गा वा ॥ २७७৷৷
नगणो जत्रयं रगणो गुरुश्च यदा तदापि वाणिनी । यथा- कुरु करुणां वितर प्रतिवाचमत्र कां वा, हृदि दयितां निदधासि निमीलिताक्षियुग्मम् । अयमपि ते ननु दासजनोऽनुकम्प्य एव, जयति स वीरजिनो गदितो द्युवाणिनोभिः ।। २७७.१ ।।
पञ्चदशं प्रभेदमाह - न जिर्गा वेति । विवृणोति - नगणोजत्रयं रगणोगुरुश्च यदा तदापि वाणिनीति । पूर्ववणिताया वाणिन्या एव प्रकारान्तरेणापि विन्यासः, स यथा नगण: जगणत्रयं रगणः गुरुश्च '111. ISI.ISI. 1st.sis. s.' इतीदृशं रक्षरैः । उदाहरति- यथा- कुरुकरुणामिति । करुणां अस्माकमुपरि दयां कुरु विधेहि, अत्र प्रतिवाचं- प्रत्युत्तरं वितर- देहि, कां वा दयितां प्रियां हृदि स्वान्तः करणे निमीलिताक्षियुग्मम्- निमिलितं पिहितं अक्षियुग्मम् नेत्रद्वयं यत्र तद्यथा स्यात्तथा निद्धासि धारयसि । अयमपि अस्मद्रूपोपि दासजन:- भक्तलोक: ते- तव अनुकम्प्यः- अनुग्राह्य एव [इति] द्यु वाणिनीभिः संगमदेवेन मायया निर्मिताभिः स्वर्लोकीय विदग्धमत्तकामिनीभिः गदितः- उक्तः स प्रसिद्धः वीरजिनः- महावीरेति प्रसिद्धोऽर्हन् जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । कु[ ]रु[1]क[+]रु[1]णां[s]वि [ 1 ] त[1] [5] [5]ति [ 1 ] वा [s]च[0]म[5]त्र [] कां [s] वा [s] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० - २७७ ।।
+
ज्रज्रज्गाः पञ्चचामरम् ॥२७८॥
जरजरजगाः । यथा- त्वदीयपादपङ्कजे निधाय भक्तिमुज्ज्वलां, मनुष्यकोटका वयं विदध्महे किमद्भुतम् । यदीयजन्मनो महोत्सवं तथा प्रचक्रिरे, जिनेन्द्र सप्तविंशतिश्च पञ्च चामराधिपाः ।। २७८.१ ॥
लक्षितक्रमेण षोडशं प्रकारमाह- ज्रज्रज्गाः पञ्चचामरमिति । विवृणोति- जरजरजगाः इति । जगण - रगण - जगण रगण जगणा: गुरुश्च
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[अ० २, सू० २७९.] .. सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
:२३७ II.ISI.ISI.SIS.Is1.5.' इतीहशेरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् पञ्चचामरं नामाष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- त्वदीयपादपङ्कज इतिः । हे जिनेन्द्र ! त्वदीयपादपङ्कजे- भवदीय चरणकमले उज्ज्वलाम्-सुप्रकाशाम् भक्ति- श्रद्धां निधाय- संस्थाप्य मनुष्यकीटका:- क्षुद्रमानवाः वयं किम् अद्भुतं- आश्चर्यं विदध्महे- कुर्महे, न किमप्यद्भुतमाचराम इति भावः, कुत इत्याह- यदीयजन्मनः- यत्प्राकट्यस्य महोत्सवं- महान्तमुत्सवं सप्तविंशतिश्च पञ्च च द्वात्रिंशत्संख्याकाः अमराधिपाः- देवेन्द्राः तथा अनिर्वचनीयेन प्रकारेण प्रचक्रिरे विहितवन्तः। यदीयाराधनाममराधियाअपि कृतवन्तस्तदीयभक्तिप्रकटनं क्षुद्रमानवानां कृते साधारण एव धर्म न किमप्यत्राश्चर्यमिति भावः । त्व[1]दी[s]य[1]पा[s]द[5]पं[1]क[1]जे[s] नि[1]धा[s]य[1] भ[5]क्ति[I] मु[s]ज्जव[1]लां[1] इति लक्षण समन्वयः ॥अ०.२, सू०-२७८ ॥
- रजर्जर्गाश्चित्रम् ॥२७९|| रजरजरगाः । यथा- कान्तिरिन्दुकौमुदीसहोदरा वचोविलासः, सर्वदा सुधोज्ज्वलो यशश्च दुग्धसिन्धुबन्धुः । क्षुण्णशङ्खसोदरा गुणास्तवामलं चरित्रं, चित्रमेतदेभिरीश मे मनस्तथापि रक्तम् ॥ २७६.१॥ .. ...
सप्तदशं प्रभेदमाह- ईशित्रभू- इति । विवृणोति- रंजरजरगा इति रगण जगण-रगण-जगण-रगणा-गुरुश्च 'sis.sI.SIS.ISI.ISI.sis.s.' इतीदृशरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् चित्रं नामाष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- कान्तिरिन्दु कौमुदी सहोदरेति । हे ईश तव- भवतः कान्ति:- द्युतिः इन्दुकौमुदीसहोदरा- चन्द्रज्योत्सना सदृशी, वचोविलासः वाग्विभ्रमः सर्वदा- सदा सुधोज्वल:- सुधावत्- चूर्णवत् शुक्ल: यशः कीर्तिश्च दुग्धसिन्धुबन्धु:-क्षीरसागर समानः गुणाः दयादाक्षिण्यादयो धर्माः क्षुण्णशङ्खसोदराः क्षुण्णाः कृतक्षोदः शङ्खः कम्बुः तस्य सोदराः सदृशाः चरित्रम्- व्यवहारः अमलं- निर्मलम् तथापि एवं सर्वेषां श्वेतत्वेऽपि मे- तव भक्तस्य मनः चेतः एमिः तव कान्त्यादिभिरेव रक्तम्- रक्तवर्णम्अथ च अनुरक्तमिति चित्रम्- आश्चर्यम् । स्वयं श्वेतैस्तमममनसो, रक्ती
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २८०.] करणमवश्यनाश्चर्य प्रदमिति भावः । का[s]न्ति [1]रि[s][i]को [s]मु[1] दी[s]स[1]हो[s]द[]] [[s]व[1]चो[s]वि[1]ला[s]सः[5] इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-२७६ ॥
म्रस्ताः सुरतललिता ॥२८०॥ मनसतरगाः। यथा- संप्राप्ते मधुसमयसाम्राज्ये पिकीसमूहाः, शंसन्ति प्रतिदिशमिदं मन्ये नितम्बिनीनाम् । मानित्वं त्यजत सुभगंमन्यत्वमस्तु दूरे, कन्दर्पः सुरतललितोपाध्यायकं प्रपेदे ॥ २८०.१ ॥
अष्टादशं प्रकारमाह- म्रस्तर्गाः सुरतललितेति । विवृणोति- मनसतरगा इति मगण-नगण-सगण-तगण-रगणा गुरुश्च 'sss..SI.SI.sis.s.' इतीहशैरक्षरः कृता पादा यस्य तत् सुरतललितानामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सम्प्राप्ते मधुसमयेति । मधुसमयसाम्राज्येवसन्तर्तुशासनाधिकारे सम्प्राप्ते- प्रारब्धे पिकीसमूहाः- कोकिलापङ्क्तयः प्रतिदिशं- सर्वासु दिक्षु नितम्बिनीनाम्- स्त्रीणां कृते इदं वक्ष्यमाणं वस्तु शंसन्ति- कथयन्ति [ इत्यहं ] मन्ये तर्कयामि । किं तदित्याह-मानित्वं मानवतीत्वं त्यजत- परिहरत सुभगंमन्यत्वं- आत्मानं सुभगं मन्यते इति सः, तस्य भावः तत्- दूरे अस्तु तदपि मनसोऽपसारणीयम् कुत इत्याहकन्दर्पः- कामः सुरतललितोपाध्यायकं- सुरतललितस्य कामक्रीडा विलसितस्य औपाध्यायकं उपाध्यायोऽध्यापयिता तस्य भावं प्रपेदे प्राप्तः । कन्दर्पो यत्र स्वयमेव सुरतललितमुपदिशति तत्र का वः शक्तिस्तत्प्रतिकूला चरण इति पश्चादव श्यं परिहर्तव्ये प्रणयमाने सौभाग्याभिमाने च वरमादावेव तत्परित्याग इति भावः । सं[s]प्रा[s]प्ते[s]म[1][1]स[1]म[1]य[1]सा[5]म्रा[5] ज्ये[s] य[s]पि[1]की[5]स[I] मू[]हाः[5] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२८०॥
भ्रो न्भौ भगौ शैलशिखा ॥२८१॥ भरनममगाः । यथा- शीतरुजा विधुतचिबुकंः कृतदन्तरवो, गाढतरप्रयुक्तगजदन्तकराभिनयः । शैलशिखाप्रदेशमधिरुह्य तुषारऋती, पश्यति भास्करोत्यपथंतव वै रिजिनः ॥ २८१.१ ॥
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[अ० २, सू० २८२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २३६
ऊनविशं प्रकारमाह- भ्रौ न्मौ भगौ शैलशिखेति । विवृणोति- भरनभमगा इति । भगण-रगण-नगणाः भगणद्वयं गुरुश्च 'sI.sas..SII.SIL.5.' इतीहशेरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् शलशिखानामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । यथा- शीतरुजेति शीतरुजा जाड्यक्लेशेन विधूतचिबुकैः कम्पितहनुभिः कृतदन्तरवः विहित दशनकटाकटाशब्दः, गाढतरप्रयुक्तगजदन्त कराभिनयः- गाढतरमत्यन्तं प्रयुक्तः कृतः गजदन्तयोः- करिदशनयोः कराभ्याम् सूर्याभिमुखं प्रसारिताभ्याम् अभिनयः अनुकरणं [प्रायो. वा करीबन्धनाम्ना प्रसिद्धः] येन तादृशः तव वैरिजनः शत्रुवर्गः, तुषारऋतौ- हेमन्ते शैलशिखाप्रदेशम् पर्वताग्रभागम् अधिरा- आरुह्य भास्करोदयपथं पश्यति सूर्योदयमार्गमवलोकयति । त्वयापहृतसर्वस्वः भयात्वलाप्य गिरिगृहासु लीनः, तत्र शीतत्राणयोग्यवस्त्राभावात् कथं चिदपनीतरात्रिः सूर्योदयात् प्रागेव गिरिशिखरमधिरुह्य स्थित स्तवरिपुः आतपतापाय सूर्योदयं प्रतीक्षमाण स्तिष्ठतीति भावः । शी[s]त[1][i] जा[s]वि[1]धू[5]त[1]चि[1]बु[1] कैः[5] कृ[1] त[1] द[s] न्त[1] र[1]व:[s] इति लक्षणसमन्वयः । अत्र प्रथमपादे 'विधुत' इति ह्रस्वो धू धातु: पठ्यते परं तथा सति रगणस्वरूप हानिरिति छन्दो भङ्गः स्यादिति दीर्घपाठः कल्पनीयः ॥ अ० २, सू०-२८१ ॥
__भ्रौ नौ न्गौ वरयुवतिः ॥२८२॥ भरयननगाः । यथा- स्फूर्जति संगरप्रदोषे तुरगखरखुर-, क्षुण्णरजोन्धकारघोरे विलसति नृपते । वैरिमहीभुजां समन्तात्सुरवरयुवती., संगमहेतुरेकदूती भवदसिलतिका ।। २८२.१॥
विशंप्रकारमाह- भ्रौ नौ न्गौ वरयुवतिरिति । विवृणोति-भरयननगा इति । भगण-रगण-यगणा नगणद्वयं गुरुश्च 'su.sis.Iss.....' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् वरयुवतिनामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- स्फूर्जति संगरेति । तुरगखरखुरक्षुण्णरजोडन्धकारपोरे तुरगानामश्वानां खरस्तीवः खुरः पाद क्षुण्णानां मर्दितानां रजसाम् धूलीनाम्
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० २८३.]
अन्धकारेण घोरे भयङ्करे संगरप्रदोषे संग्रामसन्ध्यासमये स्फूर्जति विलसति सति, हे नृपते ! वैरिमहीभुजां शभु भूतानां नृपाणां समन्तात् सर्वतः सुरवरयुवती सुराणां सम्बन्धिन्यः सजातीया वा वरभुवत्यः सुरवरभुवत्यः ताभिः संगमहेतुः संमेलन कारणं एकदूती प्रधानदूतिका भवदसिलतिका, त्वदीयकृपाणवल्ली विलसति शोभते । अयमाशयः, भवदसिलतया संग्रामे हता भवद्रिवपः सुरयुवतीभिः सह संगच्छन्तीति वस्तुतत्त्वम् । तत् च संध्यारूपकेणअसिलतायाः दूतीत्व कल्पनया शोभनतां नीतम् । प्रदोषसमये दूत्यः नायकान् नायिकाभि: सह संगमयन्तीति प्रसिद्धम् । इहापि तुरगखुरजोमिरन्धकारे जाते संग्रामः सन्ध्यासमयतां प्रतिपद्यते, तत्रच रिपवः [मृताः] सुर भुवतीभिः सह सङ्गच्छन्ते । तत्र संगमहेतु रसिलतिका दूतीवेत्याकूतम् । स्फू[S]र्जं [ 1 ]ति [ 1 ] [S] ग [1] [s] प्र [1] दो[s] षे[s] तु[1] र[1] ग[1] ख[1] र[1] खु[1] [5] [ संयोगे गुरुत्वात् ] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० - २८२ ॥
नीगा ललना || २८३॥
रगणो नगणचतुष्टयं गुरुश्च । यथा- दिक्षु चक्षुरनिलहत कुवलयतरलं, प्रक्षिपत्यतनुमृगपतिनिनदचकिता । सिद्धराजसुत भजति मृगयुवतितुलां सांप्रतं वनभुवि तव रिपुनृपललना ।। २८३.१ ।।
एकविंशं प्रकार माह- नगा ललनेति । विवृणोति रगणो नगणचतुष्टयं गुरुश्चेति । 'ऽ।ऽ।।।।।।।।।।।।.5. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् ललनानामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दिक्षु चक्षुरिति । हे सिद्धराजसुत ! सिद्धराजपुत्र ! साम्प्रतं त्वयारिपुषु हनेषु विद्राव्य यतस्ततः प्रहितेषु वा रिपुनृपललना शभुराजवनिता अनिलहतकुवलयतरलं वायुकम्पित नीलकमलवच्चपलं चक्षुः नेत्रं दिक्षु सर्वासु आशासु प्रक्षिपति पातयति, वनभुविअतनुमृगपतिनिनदचकिका अतनुः महान् - यो मृगपतिः सिंहः तस्य निनदेन गर्जितेन चकिता भीता सती मृगयुवतितुलां हरिणतरुणीसादृश्यं भजति प्राप्नोति । पतिविहीना भवद्रिपुकामिनी नगरात्पलाप्य वनंगता तत्र च स्वभावभीताऽपि - सिंहनादं श्रुत्वाऽतितरां भीतासती यतस्ततातरलं नेत्रं
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[अ० २ सू० २८४-८५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २४१ क्षिपन्ती परिभाणमपश्यन्ती मृगीव शोभत इति भावः । दि[s]क्षु[1]च [1]क्षु[D][I] नि[1]ल[1]ह[1]त[1] कु[1][i]ल[1]य[1]त[1][i][s] इति लक्षण समन्वयः । अ० २, सू०-२८३ ।।
सौ नौ मो गो वेल्लिता ॥२८४|| यथा- सरितां कमितुः स्तबकितघनफेनव्याजाद्-, विततेषु तटेषु बहललवलीच्छायेषु । श्रममावती त्रिजगति संचारर्, नियतं नृप वेल्लितसुखममजत् त्वत्कोतिः ॥ २८४.१ ॥
द्वाविंशं प्रकारमाह- सौ नौ मो गो वेल्लितेति । सगणद्वयात्परतो नगणद्वयं मगणो गुरुश्च [15.1.1..sss.s.] इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् वेल्लिता नामक मष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-सरितामिति । हे नप ! बहललवलीच्छायेषु बहलाभिः बहुतराभिः लवलीभिः लताविशेषः छाया अनातपो येषु तेषु सरितां नदीनां कमितुः प्रियस्य सागरस्य विततेषु विस्तृतेषु तटेषु पुलिनेषु त्रिजगति त्रिलोक्यां सञ्चारैः सततं गतागतः श्रमम्- खेदम्- आप्तवती प्राप्ता त्वत्कात्तिः तव प्रशास्ति गाथा, स्तवकितघनफेनव्याजात स्तवकितानां गुच्छाकारं प्राप्तानां धनानां निबिडानां फेनानां व्याजात् कपटात् वेल्लित सुखम् आन्दोलनानन्दम् नियतं निश्चितं . यथास्यात् तथा अभजत् प्रापत् । अयमाशयः- स्वल्प दूरगमन श्रान्तापि ललना छायाप्रदेशं प्राप्य विश्राम्यति तत्र का कथा त्रिलोकी भ्रमणश्रान्ताया भवत्कीत्ति कामिन्या इति सापि मार्गप्राप्तं लवलीच्छायावत्समुद्र प्रदेशमागत्य- तरङ्गान्दोलित फेनमिषण- आन्दोलन सुखमपि प्राप्तातवकीतिरेव फेनरूपेण परिणतीति । स[1]रि[1]तां[s]क[1]मि[1]तुः[s]स्त[i][1]कि[1]त[1][1]न[1] के [5]न[s]व्या[s]जा[s]त्- इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू०-२८४.१॥
म्तौ स्तौ त्गौ कोमललता घङ ॥२८५॥ मतसततगाः । घरिति चतुभिः पञ्चमियंतिः । यथा- मत्तालीनां स्निग्ध
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २८५.] मधुरोगारमहर्गीतकर्, अक्षिप्तोऽस्यारोहणमृगः स्वच्छन्दचारी यतः । मन्वं मन्दं दक्षिणमरुद्वात्येष तेनाधुना, सद्यः पुष्यत्कोमललतालास्यकशिक्षागुरुः ॥ २८५.१॥
- त्रयोविंशं प्रकारमाह-म्तो स्तौ त्गो कोमललता धडैरिति । विवृणोति- मतसततगाः। घरिति चतुभिः पञ्चभिर्यतिरिति । मगणनगण-सगणास्तगणद्वयं गुरुश्च [sss..si ssi ssi.s] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्, चतुभिः पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत् कोमललता नामकमष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- मत्तालीनामिति । अत्र चतुर्थचरणे पुष्यत्कोमल० इत्यस्य स्थाने पुष्प्यत्कोमलेति पाठोऽर्थ दृष्ट्या साधीयान् प्रतिभाति स एव स्थिीरीकृत्य व्याख्यायते । यतः यस्माद्धेतोः अस्य वायो: आरोहणमृगः वाहन हरिणः मत्सालीनां उन्मत्तमधुकराणां मुहुः वारं वारं स्निग्धमधुरोद्गारः कोमलमिष्टप्रवाहिभिः गीतकैः गानः आक्षिप्तः आकृष्टः सन्- स्वच्छन्दचारी स्वरितां गतः तेन हेतुना सद्यः पुष्प्यत्कोमललतालास्यैकदीक्षागुरुः सद्यः तत्कालमेव पुष्प्यन्तीनां पुष्पोत्पत्तिमतीनां कोमललतानां मृदुवल्लीनां लास्यस्य नृत्यस्य एक मुख्यः दीक्षा गुरुः शिक्षकः एष सद्योऽनुभूयमानः दक्षिणमरुत् दाक्षिणात्यवायुः अधुना सम्प्रति मन्दं मन्दं शनैः शनै: वाति गच्छति । वसन्ते वायुमन्दगतिर्भवतीति प्रसिद्धम् । तत्र हेतुरुत्प्रेक्ष्यते- यतो वायो हिनभूतो मृगः मधुनामत्तानां भ्रमराणां गीतैराकृष्टः सन् स्वेच्छयैव गच्छति न वायुप्रेरणामनुवर्ततेऽत एवंष मन्दं मन्दं वातीति । म[s]त्ता[s]ली[s]नां[s], स्नि[5] ग्ध[]म[1]धु[1] रो[s]. द्वा[s] [s] [][s]र्गी[s]त[1] कैः[s] इत्येवं चतुभिः पञ्चभिश्च यत्या सह लक्षण समन्वयः । २८५.१॥ इत्थं शोडशाक्षर पादाभा अष्टि जातेर्यथा प्रयोगं त्रयास्त्रिंशभेदा उक्ताः । प्रस्तारगत्या तु अस्या ६५५३६ संख्यका भेदा भवन्ति । तदुलं भरतेन-"पञ्चषष्टिसहस्ताणि सहस्ताधं तु संख्यया । षड्विंशच्चव वृत्तानि तथा ष्ट्यांगदितानि तु ॥" [ भ० ना० शा० १४.६२ ] १६-२२ ॥ इत्यष्टिः ॥
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[अ० २, सू० २८६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २४३
अत्यष्टौ यम्नस्भल्गाः शिखरिणी चैः ॥२८६|| यमनसभलगाः । चैरिति षड्भिर्यतिः। यथा- हरन् सर्वाम्भोजश्रियमविरतं सिन्धुपतिना, कृतार्थस्तन्वानो निशितमसि विद्योतमसमम् । सुधांशुस्तद्वंशे त्वमिव जयसिंहक्षितिपते, कलापूर्णः पश्योदयशिखरिणीहाभ्यु दयते ॥ २८६.१॥
अथात्यष्टिजाति सप्तदशाक्षरपादां वर्णयितुमुपक्रमते-अत्यष्टौ यम्नस्भल्गाः शिखरिणी चैरिति । विवृणोति-यमनसभलगाः। चैरिति षड्भिर्यतिरिति । यगण-मगण-नगण-सगण-भगणाः लघुगुरू च [iss.sss.1.15..15.] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् शिखरिणी नामकमत्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-हरन् सर्वाम्भोजेति । हे जयसिंह क्षितिपते ! जयसिंह-नाम्नाख्यातः क्षितिपतिः पृथ्वीशः तस्य सम्बोधनम्, अविरतं सततम् सर्वाम्भोजश्रियम् सर्वेषामम्भोजानां कमलानां श्रियम् शोभाम् [ राजपक्षे ] सर्वां सम्पूर्णा भोजश्रियं धाराधिपतेः भोजस्य सप्ताङ्गराज्यलक्ष्मी [ सम्प्रति नहिर वर्माधीनाम् ] हरन् नाशयन् पक्षे- आत्माधीनां कुर्वन् सिन्धुपतिना समुद्रेण कृतार्थः कृतप्रयोजनः, पक्षे सिन्धुपतिना सिन्धुदेशराजेन कृतार्थः सत्कृतः निशि रात्री तमसि अन्धकारे सति असमम् निरुपमं विद्योतम् प्रकाशं तन्वानः विस्तारयन्- पक्षे निशितम् तीक्ष्णम् असभम् असिविद्योतम् खङ्गप्रभां तन्वानः, सुधांशुः चन्द्रः, तद्वंशे तस्य चन्द्रस्य कुले त्वमिव तत्सदृशः कलापूर्णः सकलकलाभि: सम्पन्नः चन्द्रः इह उदयशिखरिणि उदयाचले अभ्युदयते अभिमुखमुदयं गच्छति इति पश्य । गुणस्त्वंच चन्द्रश्च पूर्वोक्तरीत्या समानौ, यथा च चन्द्रपरम्परायां पूर्णकलोऽयं चन्द्र उदेति, तथैव चन्द्रवंशीयराजानां परम्परायाम् त्वमपि कलापूर्णः समुदयं गच्छसीति भावः। ह[1]रन्[s]स[5];[s]म्भो[]ज[s], श्रि[1] य[1]म[1] वि[i][i][5]सि[5]धु[1]प[1]ति[1]ना[s] इति षड्भिर्यत्या सह लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू०-२८६.१॥
ज्सजस्यल्गाः पृथ्वी जैः ॥ २८७ ॥ जसजसयलगाः। रित्यष्टभिर्यतिः। यथा- स्ववीयरिपुभूभुजां पुरि पुरा
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२४४
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू० २८७ ] रिवेश्माग्रतो, निरीक्ष्य चमरी वृषं सपदि मन्मथव्याकुला । परिम्पृशति जिह्वया ककुदकेन कण्डूयते, निमीलितविलोचना किल चुलुक्यपृथ्वीपते विलम्बितगतिरिति भरतः ॥ २८७.१॥
द्वितीयं प्रकारमाह- जसजस्थल्गाः पृथ्वी जैरिति । विवृणोति जसजसयलगाः । जैरित्यष्टभिर्यतिरिति । जगण-सगण-जगण-सगण-यगणाः लघुगुरू च [is.IIS.IS.IIS.ISS.IS.] इतीदृशंरक्षरः कृताः पादायस्य, अष्टभिश्च यतिर्यत्र तत् पृथ्वीनामक मत्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः उदाहरति- यथा- त्वदीयरिपुभूभुजामिति । हे चुलुक्यपृथ्वीपते ! त्वदीयरिपुभूभुजां तव शत्रुभूतानां राज्ञां पुरि नगरे पुरारिवेश्माग्रतः शिवमन्दिर मुखे वृषं अश्ममय शिववाहनभूतं वृषभं निरीक्ष्य दृष्ट्वा सपदि तत्कालमेव मन्मथव्याकुला कामपीड़िता चमरी वनगौः जिह्वया रसनया परिस्पृशति लेटि निमीलितविलोचना स्पर्शसुखेन मुद्रितनयना सती ककुदकेन स्कन्धोपरिस्थ मांसपिण्डेन कण्डूयते गात्रविघर्षणं करोति किलेत्यतिटे । अयमाशयः त्वयोरिपुषु निहतेषु तदावासनगरं शून्यमिति तत्र वनपशव एव यतस्ततः संचरन्तीति वनगौरपि तत्र संचरन्ती पुगण पुरारिमन्दिराग्रतस्तदीय वाहनवृषमूत्तिं दृष्ट्वा वास्तविक वृषबुद्धया स्वकामचेष्टाभिस्तमनुरजयितुं यतत इति । त्व[1]दी[s]य[1] रि[1][I] भू[s] भु[I] [s], पु[1]रि[1] [1] रा[s]रि[1]वे[s]श्मा[s] ग्र[1] तः[5] अष्टमेऽक्षरे यत्या, च लक्षण समन्वयः । अस्यनामान्तरमाह विलम्बित गतिरिति भरत इति, तथाहि "यदा द्विरुदिती हि पादमभिसंश्रितो सौ भिको तथैव च पुनस्तयोमिधनमाश्रितो यो लगौ । तदष्टिरति पूर्विका यतिरपि स्वभावाद्यथा, विलम्बितगतिस्तदा निगदिता द्विज नामतः । [ भ. ना. शा. १५-११४ ] । अ० २, सू०-२८७१ ।। . भ्रौ न्भौ न्लो गो वंशपत्रपतितं औः ॥२८॥
भरननलगाः । रिति दशमियतिः । यथा- जर्जरसारिमध्यलुटिताः कचिदपि गजिनो, भङ्गुरवंशपत्रपतिताः कचिदपि रथिनः । कापि च सादिनो हततुरंगमबलपिहिताः, शत्रुबलेऽभवंस्त्वयि रणाङ्गणमवतरति । वंशवलमित्यन्ये ॥ २८८.१ ॥
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[अ. २, सू० २८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२४५ तृतीयं प्रकारमाह- भ्रौ न्भी न्लो गो वंशपत्रपतितं बैरिति । विवृणोति भरनभनलगाः । जैरिति दशभिर्यतिरिति । भगण-रगण-नगण-भगण-नगणाः लघुगुरू च [sI.SIS....is.] इतीदृशर्वर्णः कृताः पादा यस्य दशभिश्च यतिर्यत्र तत् वंशपत्रपतितं नामात्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- जर्जरसारीति त्वयि रणाङ्गणम् संग्रामभूमिम् अवतरति प्राप्ते सति शत्रुबले रिपुसन्ये गजिनः गजारूढा भटाः क्वचिदपि कस्मिश्चिदलक्षिते प्रदेशे जर्जरसारिमध्यलुठिताः जर्जराणां भिन्नानां सारीणां गजपृष्ठस्थाशिबिकानां मध्येऽन्त: लुठिताः पतिताः, रथिनः रथारूढा भटाः क्वचिदपि कस्मिश्चित्प्रदेशे जर्जरवंशपत्रपतिताः जर्जरवंशेभ्यः भग्नयुगाधारकाष्ठेभ्यः पत्रेभ्यो वाहनेभ्यः रथेभ्यः पतिताः, सादिनः अश्ववाराः कापि क्वचित्प्रदेशे हततुरङ्गमबलपिहिताः हतेन मृतेन तुरङ्गमबलेन अश्वसैन्येन पिहिताः छन्ना अभवन् आसन् । त्वयि युद्धभूमिगते प्रायो रिपवः सर्वे नष्टा एवये केचन गजादिसेनायां जीविता आसन् ते तत्रतत्रोकेषु स्थलेषु निलीय स्थिता इति भावः । ज[s] [1] [1] सा[s]रि[1]म[s]ध्य[1]लु[1]ठि[1] ताः[s] क्व[1]चि[1]द[1]पि[1]ग[1]जि[1]नः[5] इति दशमियत्या लक्षणसमन्वयः। अस्य नामान्तरमाह- वंशदलमित्यन्ये इति ।। अ० २, सू०२८८.१ ॥
सौ ज्मौ जो गावतिशायिनी ॥२८॥ ससजमजगगाः । रिति वर्तते । यथा- माघस्य इति धौतपुरन्ध्रिमत्सरान सरसि मजनेन, षियमाप्तवतोऽतिशायिनीमपमलाङ्गमासः । अवलोक्य तदेति यादवानपरवारिराशेः, शिशिरेतररोचिषाप्यपां ततिषु मक्तुमीषे । पादवीत्यन्ये ॥ २८६.१॥
- चतुर्थ प्रकारमाह- सौज्मौ जो गावति शायिनीति । विवृणोति ससजभजगगाः। रिति वर्तते इति । तथा च सगणद्वयं जगण-भगण-जगणाः गुरुद्वयं च [sis.s.si.s.si.ss.] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य, दशभिश्च यतियंत्र तत् अतिशायिनी नामकमत्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति
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૨૪૬
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ. २, सू०-२६०.] यथा- माघस्य इति धातेति । जलक्रीडावसानवर्णनमिदम्- इति पूर्वोक्तप्रकारेण धौतपुरन्ध्रिमत्सरान् धौतः प्रक्षालितः पुरन्ध्रीणाम् सुचरितानां कीणां मत्सरो द्वेषः यः तान् सरसि मज्जनेन ह्रदे स्नानेन अतिशायिनी बहुलां श्रियम् कान्तिम् अवाप्तवतो लब्धवतः, अपगतमलाङ्गभासः अपगतं जलेन क्षालितं मलं यम्याः तथा भूता अङ्गभाः शरीरकान्तिः येषां तान् यादवान यदुवंशीयान् श्रीकृष्णयोधान् इति एवं रूपान् अवलोक्य प्रेक्ष्य तदा तस्मिन् काले शिशिरेतररोचिषा सूर्येण अपि अपां जलानां ततिषु राशिषु मङ्लुम् बुडितुम् ईषे इष्टम् । जलक्रीडायां सर्वाभि: सह यथायोगं क्रीडया-सपत्नीनां परस्परं मत्सरः नाशितः, स्वयं च ते निर्मलकान्तयः सञ्जाता इति यादवानां स्नानफलमवलोक्य तदवाप्तुमिव सूर्योऽपि स्नातुमियेष । सूर्यास्तसमयोजात इति भावः । अस्य नामान्तरमाह- 'यादवीत्य ये' इति । अन्ये इदं छन्दो यादवीत्यादुरित्यर्थः । इ[1]ति[1] धौ[s]त [[][s] न्ध्रि[1] म[5] त्स[I] रान्[s] स[1] र[1] सि[1]म[5]ज[1]ने[5]न[5] द्वितीय पादादिभूत संयोगेऽस्य गुरुत्वम् ) दशमिर्यतिरिति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू०-२८६.१॥
मो नौ तौ गौ मन्दक्रान्ता घचैः ॥२९०|| ममनततगगाः । घरिति चतुभिः षड्भिश्च यतिः । यथा- जन्मस्नाने स चरमजिन: स्वर्णकुम्भौघधारा-, सारं सोढा कमिति पुरा वघ्रिणा शडितेन। दृष्टः पश्चाजयति चरणागुष्ठपर्यन्तलीला-, मन्दाक्रान्तामर गिरिशिरः कम्पतो विस्मितेन श्रीधरेति भरतः ॥२६०.१॥
पञ्चमं प्रकारमाह- मो भौ तो गौ मन्दाकान्ता घचरिति । विवृ. णोति- मभनततगगाः। घचैरिति चतुभिः पञ्चभिश्च यतिरिति । मगण भगण-नगणाः नगणद्वयं गुरुद्वयं च [sss.51.11.SsI.ss.ss ] इती दृशेरक्षरः कृताः पादा यस्य, चतुभिः पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत् मन्दाक्रान्तानामक मत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- जन्मस्नाने स इति । जन्मस्नाने जन्मकालिके प्राथमिकाभिषेके पुरा प्रथम- स्वर्णकुम्भौघधारासारं
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[अ. २, सू०-२६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२४७ कनकमय कलससमूह निःसृत धाराप्रपातं कथं सोढा इति शङ्कितेन जातशङ्केन वज्रिणा महेन्द्रेण दृष्टः अवलोकितः, पश्चात-चरणाअष्टपर्यन्तलीलामन्दाक्रान्तामरगिरिशिरः कम्पतः चरणस्य पादस्य अङ्गुष्ठपर्य-तेन वृद्धाङ्गुलिप्रान्तेन लीलया अनायासेन मन्दं यथास्यात्तथा आक्रान्तस्य अमरगिरेः सुमेरोः शिरः कम्पत: शिखर चलनात्- विस्मितेन चकितेन वज्रिणा दृष्टः स चरमजिन: चतुर्विंश तीर्थङ्करः जयति । जन्म समये यस्य सौकुमायं दृष्ट्वा अयं कथं जन्माभिषेके कनककलशधारापातं सहिष्यतीति इन्द्रस्य शंकाऽभूत् पश्चाच्च यदा तदीयपदाङ्गुष्ठप्रान्तभारेणामरगिरिः कम्पितस्तदा कथं जातमात्रस्येयान्भार इत्याश्चर्यमभूदिति भावः । ज[s]म्न[s] स्ना[s]ने [s], स[1]च[1][i] म[1]जि । 'नः[s], स्व[5][कु[sjम्भौ [s]घ[1]धा[s] रा[5] इत्यं चतुर्भिः षड्भिश्च यतिभ्यां लक्षण समन्वयः । अस्य नामान्तरमाह- श्रीधरेति भरत इति । तथा हि मो भनी चस्यूश्चरणरचितास्तौ गुरूच प्रविष्टा-श्छेदः श्विष्टो यदि च दशभिः स्यात्तथान्यश्चतुभिः । अत्यष्टौ च प्रतिनियमिता वर्णत: स्पष्टरूपा सा विज्ञेया द्विजमुनिगणः श्रीधरानामतस्तु (भ० ना० शा० १५-१०८) केवलमियानत्र भेदो यत् श्रीधरायाम् उक्त मतेन (भरतमतेन) दभि चतुर्भिश्च यतिः स्वमते च मन्दाक्रान्तायां चतुभिः षड्भिश्चेति । कालिदासादि कृतश्लोकेष्वपि- ( त्वदीयलक्षणग्रन्थे श्रुतबोधेऽपिच ) चतुभिः षडभिः (पारिशेष्यात्सप्तभिः ) च यतिरिति दृश्यते । भरत नाट्यशास्त्रेऽपिच मुख्योदाहरण रूपेण यत्पद्यमुपन्यस्तमस्ति तत्र चतुभिः षभिः [ परिशेषे सप्त भिश्च ] यनिर्दृश्यत इति उपरिलिखितं भरतनाट्यशास्त्रस्थं लक्षणं प्रक्षिप्त प्रतिभाति । मूलरूपं लक्षणं च-कारिकाभ्यां प्रदत्तं, तत्र यतिनियमो न दत्तः, तथा चात्र यथा श्रव्यता सम्पद्यत तथा यतिः कार्येतिः समायाति । परिवत्तिभिः सर्वेरेव लक्षणकारः चतुभिः, षड्भिः , सप्तभिश्च यतेराहतत्वेन, तदेव भरतस्याप्यनुकूलपिति प्रतीयते ॥ अ० २, सू०-२६०.१ ॥
मनरसल्गाः भाराक्रान्ता ॥२९१।। मभनरसलगाः । घचंरिति वर्तते । यथा- चौलुक्येन्द्र स्वमिह न हि चेदिमा किल धारयः, कूर्मकोडाधिपणिपतिद्विपादिषु सत्स्वपि । सत्या ते करटिघटया दिशां विजये तदा, भाराकान्ता नृप वसुमती क्षणानिपतेवध: ॥२६१.१॥
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२४८
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-२६२ ] · षष्ठं प्रकारमाह- मनरसल्गा: भाराकान्तेति । विवृणोति मभनरसलगाः। घचैरिति वर्तत इति । मगण-भगण-नगण-रगण-सगणाः लघुगुरूच [sss.su.III.SIS.S.15.] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य चतुभिः पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत् भाराकान्तानामा मत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- चौलुक्येन्द्रेति । हे चौलुक्येन्द्र ! त्वं चेत् यदि इह लोके इमां वसुमती न धारयेः न बिभृयाः, तदा-कूर्मक्रोडाधिप फणिपतिद्विपाद्रिषु कच्छपमहावराह-शेषनाग-दिग्गज-कुलपर्वतेषु पृथ्वीधारकेषु सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि, दिशां- आशानां विजये जयप्रसङ्गे सर्पन्त्या चलन्त्या ते तव करटिघटया हस्तिसमूहेन भाराकान्ता भारेणनम्रीभूना वसुमती पृथ्वी अधः नीचः निपतेत् भ्रश्येत् । चौ-[s]लु[s]क्ये[5]न्द्र, [5]त्व[1]मि[1]ह[1] न[1]हि[1]जे[s], दि[1]मां[s]कि[1]ल[1]धा[s] र[1]ये:[5] इति चतुर्भिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सूत्र-२६१.१॥
मभ्नम्यल्गाः हारिणी ॥२९२॥ ममनमयलगाः । घचैरिति वर्तते । यथा-प्रासादेषु त्वदरिनगरे शून्यत्वमासेदुषि, श्रीचौलुक्य क्षितिपतिशिरश्चूडामणे संप्रति । प्रेखोलन्तो विषधरशतालम्बिताः कञ्चुका, व्यातन्वन्ति ध्वजपटतुलामुच्चमनोहारिणीम् ॥२६२.१॥
सप्तमं प्रकारमाह- मम्नम्यल्गाः हारिणीति । विवृणोति मभनमयलगाः । घचरिति वर्तत इति । मगण-भगण-नगण-मगण-यगणाः लघुगुरू च [sss sil. m.sss Iss.Is ] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य चतुर्भिः षड्भिश्च यतिर्यत्रतत् हारिणीनामकमत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-प्रासादेषु इति । क्षितिपतिशिरश्चूडामणे ! क्षितिपतीनां भूमिपानां शिरचूडामणे मूर्धमुकुटरत्न श्रीचौलुक्य ! श्रियायुतः चौलुक्यः चुलुक्यवंशसंभूतः तत्सम्बोधनम्, शून्यत्वम् जनसंपर्कराहित्यम् आसेदुषि प्राप्तवति त्वदरिनगरे तवशत्रूणां पुरे सम्प्रति अद्यत्वे विषधरशतैः शतश: सर्पः व्यालम्बिताः ऊर्ध्वाधः प्रसारिताः प्रेङ्खोलन्तः आन्दोलन्तः कञ्चुकाः सूक्ष्मत्वचः उच्चैः अतिशयम मनोहारिणीम् रमणीयां ध्वजपटतुलां केतुवस्त्रसादृश्यं व्यातन्वन्ति
शून्यसप्रति अद्यत्वे विआन्दोलन्तः कला के
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[अ० २, सू०-२६३] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२४९ विस्तारयन्ति। शून्ये नगरे सर्पादीनामेव निवासात्- सर्पः मुक्ताः कञ्चका लम्बमाना: वायुप्रेरणया प्रेङ्खन्तश्च श्वेतपताकासादृश्यं भजन्त इति भावः । प्रा[s]सा[s]दे[5]षु[s]. त्व[1]द[1]रि[1]न[1][1]रे[s]; शू[s]न्य[s]त्व[1] भा[s]से [s][s]षि[s] (द्वितीय पादाकि संयोगे पयतः सत्यस्य गुरुत्वम्)चतुर्भिः षङ्गिश्च थतिरपीति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू०-२६२.१ ॥
न्सौ म्रौ स्लो गो हारिणी चधैः ॥२९३॥ नसमरसलगाः। चर्धरिति षड्भिश्चतुभिर्यतिः । यथा-कथय किमियं लक्ष्मच्छाया शुचेस्तु भवेत् कथं, तव हिमरुचे यद्वोत्सङ्गे कृतः कृपया ध्र वम् । नमसि रभसाद् बद्घाटोपप्रषावितलुग्धक, क्षुमितहरिणीगर्भाद् भ्रष्टः कुरंमक एव हि ।। वृषभललितमित्येके ॥२६३.१॥
अष्टमं प्रकारमाह- सौ म्रौ स्लो गो हरिणी चचैरिति । विवृणोतिनसभरसलगाः। चर्घ षडभिश्चभिश्च यतिरिति । नगण-सगण-मगणरगण-सगणा: लघुगुरू च [m. IIs. sss. SIS. II. Is ] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्, षडिभश्चतुर्भिश्चयतिर्यत्र तत्, हरिणीनामक मत्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-कथयेति । हे हिमरूचे ! शीतकान्ते चन्द्र ! इयं दृश्यमाना लक्ष्मच्छाया लाञ्छन कान्तिः किम् ? इति कथय; (अवचने स्वयमेव समाधत्ते) तु किन्तुः शुचेः शक्कस्य पवित्रस्य वा (तव इयं) कथं भवेत कुतः सम्भाव्यते, (लाञ्छनं हि अपवित्रस्य जनस्य भवति) यद्वा अथवानभसि आकाशे बद्धाटोपप्रधावितलुब्धक-क्षुमितहरिणीगर्भात्- बद्धाटोपं कृताडम्बरं यथास्यात् तथा प्रधावितात् कृतानुसरणप्रयत्नात्- लुब्धकात्- व्याघात् क्षुभिनाया भीनाया हरिण्या: गर्भात् उदरात्- रभसात वेगाद् भ्रष्टः पतित: कुरङ्गकः बालमृग एव कृपया कारूण्येन उत्सङ्ग क्रीडे कृतः स्थापितः ध्र वम् निश्चितम् । चन्द्रमसि निर्मले कलङ्गाशङ्कामपह नुत्यव्याधानुद्रुतहरिणीगर्भपतित्कुरङ्गशावकधारणमुत्प्रेक्षितमित्यपह नुति-गर्भोत्प्रे क्षा । अस्य नामान्तरमाह- वृषभललितमित्येक इति । केचिदिदं छन्दो वृषभललितनाम्नाव्यवहरन्ति- इति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ०२, सू० - २९४.]
भावः । क [ 1 ]थ [ 1 ] [ 1 ] कि [ 1 ]मि [1][3], ल [5]क्ष्म [s]च्छा [s] या [5]; शु [1]चे[s]स्तु[1]क[1]थं[s]भ [ ] वेत्[S], षड्भिश्चतुभिश्च यत्या लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सूत्र - २६३.१ ॥ ।
नः स्मो तो गौ पद्मम् ||२९४||
नसमततगगाः । चर्धरिति वर्तते यथा- त्यजत मनुजा जातेर्गव कि तयेकया स्यात्. गुणपरिचयो लोकेऽत्यन्तं हन्त दत्ते प्रतिष्ठाम् । अजनि चुलुकाचान्ताम्भोषिः कुम्भजन्माप्यगस्त्यः, कुलगृहमभृद्देव्या लक्ष्म्याः पङ्कजातं च पद्मम् ।।२६४.१।।
नवमं प्रकारमाह - नः स्मौ तौ गौ पद्मम् इति । विवृणोति - न-स-मततगगाः । चरिति वर्तत इति । नगण सगण - मगणाः नगणद्वयं गुरुद्वयं च [ 111.15 SSS SS SS SS ] इतीहरीरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् षड्भिश्चतुभिश्च यतियंत्र तत् पद्म' नामात्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथात्यजत मनुजा इति । हे मनुजाः मनुष्याः ! जातेः ब्राह्मणत्वादिजन्मलभ्यसामान्यस्य गवं अभिमानं त्यजत परिहरत तथा जात्या एकया केवलया 'एव कि स्यात् किमपि नस्यात्- इति भावः । हन्त ! गुणपरिचयः गुणाभ्यासः लोके अत्यन्तं अतिशयं प्रतिष्ठां सम्मानं दत्ते प्रदिशति । कुम्भजन्मा घटोत्पत्तिः अपि अगस्त्यः तन्नामा मुनिः चुलुकाचान्ताम्भोषिः चलुकेन आचान्तः पीतः अम्भोधिः समुद्रो येन तथा भूतः अजनि जातः, पङ्कजातम् पङ्कादुत्पन्नम् पद्मम् कमलम् - लक्ष्म्याः देव्याः कुलगृहम् प्रधानागारम् अभूत् । गुणविना केवलमुच्च कुलसम्मूतत्वमात्रेण गर्यो न कार्यः, तस्याकिञ्चित्करत्वात् । क्षुद्रकुलोत्पन्नोऽपि गुणैर्युतश्चेत्स प्रशस्य एवेति सामान्योऽर्थः विशेषाभ्यां घटादुत्पन्नस्यागस्त्यस्याम्भोधिपानम् - पङ्कादुत्पन्नस्य कमलस्य लक्ष्मीगृहत्वमित्येताभ्यामर्थाभ्यां समर्थित इत्यर्थान्तरन्यासोऽयम् । स्य [1]ज[1]त[1]म[1]नु[1]जा[s], जा[5]ते [s][s]र्व[s], कि [s] त [1] ये [s] क [1] या [s] स्यात् [s] इति षड्भिश्चतुर्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सूत्र - २६४.१ ॥
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[अ० २, सू०-२६५-२६६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २५१
___ नस्मम्यल्गा रोहिणी ॥२९५|| नसममयलगाः । चर्घरिति वर्तते । यथा- कुवलयमुदं व्यातन्वानः पूर्णोबसन्मण्डलः, शिरसि घटयन पादन्यासं निःशेषपृथ्वीभृताम् । उदयमधुना प्राप्तः भीमसिद्धेन्द्रसूनो भवान्, इव कृतबुधानन्दः सोऽयं श्रीरोहिणीवल्लभः ॥२९५.१॥
दशमं प्रकारमाहे- नस्मम्यल्गाः रोहिणीति । विवृणोति-नसममयलगाः। चरितिवर्तत इति । नगण-सगणी-मगणद्वयं यगणोलघुगुरू च [111.15.sss.sss ISS.IS.] इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य, षड्भिश्चतुभिश्च यतियंत्र तत् रोहिणीनामकमत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाकुवलयमुदमिति । श्रीमत्सिद्धेन्द्रसूनो ! नियायुक्तः सिद्धेन्द्रस्य सिद्धराजस्य सूनुः पुत्रः तत्सम्बोधनम्- कुवलयमुदं कमल प्रसादं व्यातन्वानः कुर्वाणः, पक्षे कुवलयस्य भूमण्डलस्य मुदं हर्ष व्यातन्वान: पूर्णोल्लसन्मण्डलः पूर्ण सकलकलाभिः, सकलैश्वाङ्गः सम्पन्नं उल्लसत् प्रकाशमानं मण्डलं विम्बं राज्यं च यस्य सः, निःशेषपृथ्वीभृताम् सकलभूधराणां- सकलराज्ञां च शिरसि शिखरे मस्तके च पादन्यासं चरणनिःक्षेपं घटयन् रचयन् कृतबुधानन्दः कृत: सम्या दितोबुधस्य स्वपुत्रस्य, पक्षे पण्डितस्य आनन्दो येन सः, सः अयं श्रीरोहिणीवल्लभः चन्द्रः भवानिव त्वमिव अधुना सम्प्रति उदयं प्रकाशं, पक्षे उन्नति प्राप्तः अधिगतः। राज्ञः चन्द्रस्य च समान विशेषणः, साम्यं प्रदर्शितम् । कु[1]व[1]ल[1]य[1]मु[1][s]; व्या[5]त[5] न्वा[5]नः[s]; पू[s] ![5]ल्ल[5]न्म[s]ण्ड [1]ल:[s], इति षड्भिश्चतुर्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सूत्र-२६५.१ ॥
नुर गौ वसुधारा डैः ॥२९६|| नुरिति पञ्च नगणाः गुरुद्वयं च । रिति पञ्चभिर्यतिः यथा- प्रणतसुरविसरमणिमुकुटतटकोटि-, परिघटितचरणनखरुचिनिचयरम्ये । इह भवति भगवति विहरति जिननाथे, प्रतिभवनभिपतति जगति वसुधारा ॥२६.६.१॥
एकादशं प्रकारमाह- नुर् गौः वसुधाङरिति । विवृणोति-नुरिति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-२६७.] पञ्चनगणाः गुरुद्वयं च । डैरिति पञ्चमिर्यतिरिति । तथा च [...
.. ss ] इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चमिश्च यतिर्यत्र तत् वसुधानामकमत्यष्टि जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रणतसुरेति । प्रणतसुर ............ रम्ये प्रणतस्य प्रणामार्थ नम्रस्य सुरविसरम्य देवसमूहस्य मणिमुकुटानां मणिनिर्मितकिरीटानां तटकोटिभ्यां प्रान्ताग्रभागाभ्यां परिघटिताः सम्बद्धाः ये चरणनखाः तेषां रुचिनिचयेन किरणसमूहेन रम्ये सुन्दरे भगवति सर्वेश्वर्यसम्पन्ने जिननाथे जिनेन्द्रे भवति त्वयि विहरति विहारं कुर्वति सति इह जगति अस्मिन् लोके प्रतिभवनम् प्रतिगृहम् वसुधारा स्वर्णात्नादि प्रवाहः अभिपतति वर्षति । प्र[1][1]त[1] सु[1] र[1]वि[1]स [1] [1]म[1] णि[1]मु[1] कु[1]ट[1]त[1]ट[1]को[5]टि[s] पादान्तस्थस्य वैकल्पिक गुरुत्वेन लक्षण समन्वयः । अ० २, सूत्र-२६६.१ ।।
न्जम्जजा ल्गाववितथम् ॥२९७॥ नजमजजेभ्यः परी ल्गो। यथा- शृणु परमोपदेशमिह मुग्धमते सततं, भवजलधेः परेण यदि यातुमनास्त्वमसि । विसृज परिग्रहं भज कृपां त्यज कामकथाम, अवितथवाग्भवापहर मा परकीयधनम् ॥ नर्कटकमिति जयदेवः ।।२९७.१॥
द्वादशं प्रकारमाह- जम्जजा ल्गाववितथमिति । विवृणोति- नजभजजेभ्यः परो लघुगुरू इति । नगण-जगण-भगण-जगणद्वयात्परतो लघुगुरू [m. IsI. I. I. I. I.] इतीदृशंरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् अवितथं नामात्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- शृणु परमोपदेशमिति । हे मुग्धमते ! अपरिपक्कबुद्धे इह संसारे सततम् अजस्रम् परमोपदेशं उत्तम हितवाक्यं शण आकर्णय, यदि भवजलधेः संसारार्णवस्य परेण उत्तरं तट यातुमनाः गन्तुं कृतचित्तः त्वम् असि, (तर्हि) परिग्रहं विषय संग्रहं विसृज त्यज, कृपां भूतेषु दयां भज सेवय, कामकथां मदनवार्ता त्यज परिहर, अवितथवाक् सत्यवचनो भव एधि, परकीयधनम् अन्यवित्तम् मा नहि अपहर अनुचितरूपेण गृहाण । संसारपारं गन्तुमिच्छतः कृते एतावानेव परतोपदेश इत्यर्थः। शृ[s]णु[1][i][i]मो[s]प[1]दे[s]श[i]मि[1]ह[1] मु[s]
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[अ० २, सू०-२६८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२५३ ग्ध [1] म [1] ते [s] स [1] त [1] सं [s] इत्ति लक्षण समन्वयः । अस्य नामान्तरमन्य सम्मतमाह नर्कुटकमिति जयदेव इति । तथा हि स्वकीयच्छन्दोऽनुशासने स आह- नजभजजालगीच यदि नकुंटके तुतदा । (७।१८). इत्ति । तथा च लक्षणसाम्येऽपि नामान्तरे एव विसंवादः ॥१० २, सू० २६ ।१।।
तत् कोकिलक छचैः ॥२९८।। तदवितथं छचः सप्तभिः षड्भिश्च यतिश्चेत् कोकिलकसंज्ञम् । यथाकलयति कोकिले मधुरपञ्चमगीतिमिमां, मलयसमीरणो भवति पश्यत नाव्यगुरुः । इह हि यदाज्ञया नवनवाद्भुतभङ्गिजुषः, किसलयहस्तकान् वितनुते सहकारलता ॥२६८.१॥ इह केचिदष्टभिः पञ्चभिश्च यतिमिच्छन्ति ॥२६८.१॥
त्रयोदशं प्रकारमाह-तत्कोकिलकं छचरिति। विवृणोति-तद् अवितथं चछः सप्तमिः षड्भिश्च यतिश्चेत् कोकिलकसंज्ञमिति। तथा च गणविन्यासस्य पूर्वसमत्वेऽपि केवलं विरामभेदादेव नामभेदः । उदाहरति-यथाकलयतीति । कोकिले पिके मधुरपञ्चमगीतिम् श्रुतिसुखपञ्चमम्वरगानम् कलयति गायति सति मलय-समीरणः दक्षिणदिग्वायुः नाट्यगुरुः नृत्यशिक्षकः भवति जायते (इत्ति) पश्यत अवलोकयत, हि यतः इह वसन्तसमये यदाज्ञया यस्य मलय समीरणस्य आज्ञया निर्देशेन सहकारलता आम्नवल्ली नवनवादभुतभडिजषः नूतनातिनूतनकौटिल्यशालिनः . किसलयहस्तकान् नूतनपल्लवरूपहस्तचालनानि वितनुते करोति ॥ म [1] ल [1] य [1] स [1] मी [5] र [1] णो [s], भ [1] व [1] ति [1] प [5] श्य [1] त [1], ना [s] ट्य [1] गु [0] रु: [s] इति सप्तमिःषड्भिश्च यति पूर्वकं पूर्वच्छन्दसो लक्षणसमन्वयः । अत्र परामिमतं भेदमाह इह केचिदष्टमिः पञ्चभिश्च यतिमिच्छन्तीति। अष्टमे पञ्चमे च विरताववितथं वृत्तं कोकिलकसंज्ञमिति तेषामाशयः, परमीशमुदाहरणं मृग्यम् ।।अ० २. सू० २९८॥१॥
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२५४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-२६६-३००.]
गौ चेद्वाणिनी ॥२९९॥ नजमजजेभ्यः परी गौ चेद्वाणिनीसंशम् । यथा- परभृतकूजितानि जरठेभुरसो नवेन्दुर्, मलयसमीरणो मलयजं मधुसंगमश्च । अपि न तथा हरन्ति मिलितानि मनो यथेदं, मदभरललभाषितमहो खलु वाणिनीनाम् ॥२६६.१.१७॥१४॥
चतुर्दशं प्रकारमाह- गौचेद्वाणिनीति । विवृणोति- नजभजजेभ्यः परौगोचेद्वाणिनीसंज्ञमिति । पूर्वोक्त पञ्च गणेभ्यः परो गुरू 'In. Ish ॥. Is1. IS1. ss.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् बाणिनी नामक मत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा-परभृतेति । परभृतकूजितानि परभृतानां कोकिलानां कूजितानि वचनानि, जर ठेस्रसः परिपक्वेक्षुद्रवः, नवेन्दुः नूतनशशी मलयसमीरणः दक्षिणदिपवनः, मलयजं चन्दनम्, मधुसङ्गमः वसन्तप्रवृत्तिः-(एतानि) मिलितानि संमिलितानि अपि तथा तेन प्रकारेण मन: चेतो न हरन्ति न स्ववशं नयन्ति यथा येनप्रकारेण इदं श्रुयमाणम् बाणिनीनाम्- मत्तानांविदग्धस्त्रीणां मदभरलल्लभाषितम् मदभरेण मदातिरेकेणलल्लं मनोहरंभाषितम् वचनम् मनोहरतीतिशेषः । अन्न सर्वेषामेव संमोहनानां मूर्धन्यम् मत्तविदग्धस्त्रीभाषितमिति तात्पर्यम् । प[i][1] भृ[1]त[1] कू[s]जि[1]ता[s]नि[1]ज[i][i] ठे[5] क्षु[1] र[i] सो [s]न[1]वे[5]न्दुः[s] इति लक्षणसमन्वयः । इत्थं सप्तदशाक्षराया अत्य ष्टिजातेश्चतुर्दशभेदा उक्ताः । प्रस्तारगत्या तु १३१०७२ मिताः भेदा भवन्ति तदुक्तं भरतेन 'एकत्रिंशत्सहस्राणि वृत्तानां च द्विसप्ततिः। तथा शत सहस्रच छन्दस्यत्यष्टिसंज्ञिते ॥ इत्युकम् ( भ. ना. शा. १४॥६३ ) ॥अ० २, सू० २६६।१।१७।१४।। इत्यत्यष्टि:
धृत्यां नभ्या रौ काञ्ची टैः॥३००|| मरमयरराः । टेरिति एकादशभिर्यतिः । यथा- संप्राप्तेऽस्मिन् जगचक्षुषि रवी प्रत्यग्गिरेगह्वरं, प्रेयःसंकेतवेश्माभिसरणे धत्से पिधानांशुकम् । मुग्धे ध्वान्तानुरूपं किमु मुधैवौत्सुयक्योगात कणत-, काञ्चीमजीरकोलाहलमिम शक्ता निषेईन चेत् ॥३००.१॥ वाचालकाञ्चीत्यन्ये ॥३००.१॥
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[अ० २ सू०-३०१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२५५ अथाष्टादशाक्षरपादां धृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते- धृत्यां भ्रभ्यारौ काश्ची टैरिति । विवृणोति- मरभयरराः। टैरिति एकादशभिर्यतिरिति। मगण-रगण-भगण-यगणा रगणद्वयं 'sss. SIS. I. Iss. sis. I.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् धृतिनामकमत्यष्टिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सम्प्राप्तेऽस्मिन्निति । हे मुग्धे ! अपरिपक्कबुद्ध ! अस्मिन् प्रत्यक्षदृष्टपूर्वे जगच्चक्षुषि लोकनेत्रे रवौ सूर्ये प्रत्यग्गिरेः पश्चिमाचलस्य गद्वरं गुहां सम्प्राप्ते गते सति, प्रेयःमतवेश्माभिशरणे प्रियतमेन सङ्केतितस्य अभिसरणस्थानत्वेनोलस्य वेश्मनः अभिसरणे प्रतिगमनसमये, ध्वान्तानुरूपम् तमसातुल्यरूपम् पिधानांशुकम् आवरणवस्त्रं मुधैव व्यर्थमेव किसु कुतो घत्से धारयसि- चेत् यदि इमं सर्वतः श्रूयमाणम्- क्वणत्काञ्चीमञ्जोरकोलाहलम् कणतोः शब्दायमानयोः काञ्चीमञ्जीरयोः रसनानूपुरयोः कोलाहलं घोररवम् औत्सुक्ययोगात् उस्कण्ठापारवश्यात् निषेधुं निवर्तमितुं न शक्ता न समर्था । सायं समये जाते कृष्णाभिसारिका त्वं तमसि निलीम गमनाथं कृष्णवस्त्रं पिधाय यद्गच्छसि तस्य यत्कार्य लोकरज्ञायमानत्वं तच्चेक्वणतोरनयोर्भुषणयोः शब्देन विफलीकृतं तहि तादृशवस्त्रपिधानमपि व्यर्थमेवेति पूर्वमेतयोः शब्दमेव वारयेति भावः। सं[s]प्रा[s]प्रे[स्मिन् [s]ज[1] ग[5] च[s][1] षि[1] [1]वौ [s] प्र[5]त्य[s]ग्गि[1]रे [5] गं[5] [1] रम् [s] इति लक्षअसमन्वयः। अस्य नामान्तरेणापि व्यवहार इत्याह- चाचालकाश्वीत्यन्ये इति ॥अ० २, सू० ३००।१।।
मिम्भसा मणिमाला ॥३०१।। भत्रयं ममसाश्च । टैरिति वर्तते । यथा- देव तवारिनरेशपुरन्ध्रीवक्त्राम्बुजशशिनः, प्रोलसिताधिकविस्मयमुवी संवीक्ष्य भुजगताम्" प्राभूतसारकृते निरवद्यामद्याप्यनवरतं, मूर्धनि धारयते यणिमालां पातालपरिवृढः ॥३०१.१॥ - द्वितीयमस्याजातेः प्रभेदमाह-भिम्भसा मणिमालेति । विवृणोति-भत्रयं मभसाश्च ।-टैरिति वर्तते इति । तथा च मगणत्रयात्परतः मगण-मगण सगागाः SII. I sl. sss. I. 15. इतीदृशैरक्षरः कृता: पापा यस्य, एकादशमिभिश्च यतिर्यक् तत् मणिमालानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति
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२५६
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३०२.] यथा- देव तवारीति । हे देव ! राजन- अरिनरेशपुरन्ध्रीवकाम्बुजशशिनः अरिनरेशानां शत्रुनृपाणाम् पुरन्ध्रीणाम् सच्चरितानां स्त्रीणां वक्त्राम्बुजानां मुखानां कृते शशिनः चन्द्रसमानस्य तव भवतः उवों महती भूज. गतां सपंतां पक्षे उर्वी पृथ्वी भुज-गताम् बाहुधृतां प्रोल्लसिनाधिकविस्मयम् प्रोल्लसितः वृद्धिंगत: अधिकः विस्मय आश्चर्यो यत्र तद्यथास्यात्तथा संवीक्ष्य अवलोक्य पातालपरिवुढः पातालस्वामी शेषः प्राभृतसारकृते उपायनश्रेष्ठहेतवे निर वद्यां निष्कलङ्कां मणिमालां रत्नस्रजम् अद्यापि एतत्कालपर्यन्तमपि अनवरतं सततं मूर्धनि शिरसि धारयते स्थापयति । अयमाशय:- एतावाकालपर्यन्ते शेषनागः पृथ्वीं धारयति स्म, सम्प्रति तब हस्तेन साघृतेति भारोद्वहनानिवृत्तः शेषः सन्तोषेण तुभ्यं प्राभृतरूपेणार्पयितु निर्दोषां मणिमालां सर्वदा शिरसि धारयति अथ च स एतावत्कालपर्यन्तं स्वीयामेव भुजगतां गुरुतरां मन्यते स्म, सम्प्रति तव गुर्वी भुजगतां वीक्ष्य स्वात्मानं त्वत्तो न्यूनं बोधयितु तवोपायनाथ मणिमालां धारयते इति । दे[5]व [1]त[1]वा[s]रि[1] न[1] [5]श [1] [] [5]घ्री[s], व[5] का[5]म्बु[1]ज [[श[1]शि[1]नः[5] इति एयाशाक्षरैर्यत्या, लक्षणसमन्वयः ॥० २, सू० ३०१॥१॥
मना यिः कुसुमितलतावेल्लिता उचैः ॥३०२।। मतना यगणत्रयं च । चैरिति पञ्चभिः षड्भिश्च यतिः । यथा-कविस्कन्ये कुसुमितलतावेल्लिता मन्दमन्दं, क्रीडादोलेयं स्मरविरचिता दाक्षिणात्यानलेन । अस्यां खेलन्ती रतिरतितरां हन्त गीति तनोति, व्याकूजन्मत्तभ्रमररमणीहुंकृतीनां छलेन ॥३०२.१॥
तृतीयं प्रभेदमाह- मत्ना यिः कुसुमितलतावेल्लिता उचैरिति । विवृणोति मतना यगणत्रयं च । उचैरिति पञ्चभिः षभिश्च यतिरिति । मगण तगण-नगणेभ्यः परतो यगणत्रयम्- sss. ss I. Iss. Iss Iss. इतीदृशेरक्षरैः कृताः पादा यस्य, पञ्चभिः षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् कुसुमितलतावेल्लितानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- कङ्कलिस्कन्धे इति । अत्र द्वितीयपादान्ते 'दाक्षित्यानलेन' इति मुद्रितः पाठः, सनोचितः किन्तु 'दाक्षिणानिलेन' इति समीचीनः पाठः कल्पनीयः । कङ्कल्लिस्कन्धे
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[अ० २, सू० - ३०३. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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अशोकशाखामूले दाक्षिणात्या निलेन दक्षिणदिग्भववायुना मन्दं मन्दं शनैः शनैः कुसुमितलतावेल्लिता पुष्पितवल्लीकम्पिता स्मरविरचिता कामदेवनिर्मिता इयं दृश्यमाना क्रीडादोला लीलान्दोलनिका ( अस्ति ) अस्यां दोलायां खेलन्ती क्रोडन्ती रतिः कामजाया व्याकूजन्मत्तभ्रमर रमणीहुकृतीनाम् व्याकूजन्ती स्वनन्ती या मत्ताभ्रमरी तस्या हुङ्कृतीनां हुमित्याकारक शब्दानां छलेन व्याजेन अतितराम् अत्यन्तं गीति गानं तनोति विस्मारयति हन्त इत्याश्र्चर्ये । अन्यापि वनिता दोलारूढा गीति गायति । अत्र च या कुसुमितेलता वायुना कम्पिता सैव दोला, तस्यां च मधुकरीणां शब्दः श्रूयत इति तस्यां दोसायामारूढा रतिरेव गायती त्युत्प्रेक्ष्यते । क [5] ङ्के [s]ल्लि[S]स्क [s]न्वे[s]; कु[ 1 ]सु[1]मि [ 1 ] त [1] ल [1] ता [S], वे [s]ल्लि [1] ता [S] म [S]न्द [ 1 ] [s]न्दं [s] इति पञ्चभिः षड्भिव यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३०२।१।।
घछैश्चित्रलेखा ॥ ३०३॥
चतुभिः सप्तभिश्च यतिश्चेत् संव चित्रलेखा । यथा- पश्योष्णांशोरभ्युदयमधुना सूचयन्ती पुरस्तात्, सन्ध्या सेयं चित्रयति गगनाभोगवेश्मान्तराले । शङ्खच्छेदस्वच्छरुचिरुचिराननभित्तिप्रभागानु, वर्णैः पीताता त्र शितिकपिशंस्तम्बती चित्रलेखाः ॥३०३.१॥
चतुर्थं प्रकारमाह - घछँश्चित्रलेखेति । विवृणोति चतुभि: सप्तभिश्च यतिश्चेत् सैव चित्रलेखेति । पूर्वोक्तं कुसुमितलतावेल्लितानामकमेवच्छन्दः चतुभिः सप्तभिश्च यत्या युक्तं चित्रलेखानाम्ना व्यवहृतं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पश्योष्णांशोरिति । सा इयं प्रत्यक्षगोचरा सन्ध्या प्रातः सन्धिवेला अधुना सम्प्रति उष्णांशोः सूर्यस्य अभ्युदयं - प्रकाशतां सूचयन्ती प्रकटयन्ती पुरस्मात् अग्रे गगनाभोगवेश्मान्तराले आकाशमण्डलरूपगृहाभ्यन्तरे शङ्खच्छेदस्वच्छरुचिरुचिरान् शङ्खच्छेदवत् कम्बुखण्डवत्र स्वच्छया शुभ्रया रुच्या कान्त्या रुचिरान् - सुन्दरान् अभ्रभित्तिप्रभागान् अभ्रं मेघ एव भित्ति कुड्यं तस्य प्रभागानु प्रदेशान् पीताताम्रशितिकपिशैः पीतं च, आता ब-ईषद्रक्तं च शितिनु च कृष्णं च कपिशश्च कृष्णलोहितञ्च तंः वर्णः
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३०४.] रूप: चित्रलेखाः रेखाचित्राणि चित्रयति विलिखति इति पश्य अवलोकय । प्रातःकालिकाकाशस्य वर्णनमिदम् । तत्र संध्या चित्रकरी गगनवेश्मनि स्वच्छमेघकुज्योऽनेकवणे श्चित्रं करोति इति वर्णनीयम् । अस्य च प्रयोजनंसूर्याद्भय - दयसूचनमिति भावः । प[5]श्यो[s]ष्णां[s]शो[s], र[1]म्यु[1]द[1] य[1]म [1][i]ना[5], सू[5]च[1] य[5]न्ती[s] [1] []स्तात्[s] इतिलक्षणसंगतिः ॥१० २, सू० ३०३।१।।
मभ्रा यिश्चन्द्रलेखा ॥३०॥ मभना यगणत्रयं च । घछरिति वर्तते । यथा- ज्वालं ज्वालं शुभग तव महान विप्रयोगानलस्तां, वाहं दाहं किमिव विरचयेदन्यदस्मात्परेण। लावं लावं विकचकमलिनीश्चूर्णयत्यं हिघातैर, लेख लेखं शकलयति तथा सा नखश्चन्द्रलेखाम् ॥३०४.१॥
पञ्चमं प्रभेदमाह- मम्नायिश्चन्द्रलेखेति । विवृणोति मभना यगणत्रयं च । घरिति वतंत इति । मगण-भगण-नगणेभ्यः परं यगणत्रयम्- 'sss. I. 1. Iss. Iss. Iss.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत्, चतुभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् चन्द्रलेखानामकं घृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- ज्वालंज्वालमिति । हे सुभग ! सौभाग्यशालिन् ! तव भवतः महान् विप्रयोगानलः विरहवह्निः तां पूर्वकथिताम् ज्वालं ज्वालं मुहुर्मुहुः प्रज्वाल्य, दाहं दाहम् अतिशयं हग्ध्वा अस्मात्यरेण इतोऽप्यधिक किमिव अनिर्वचनीयां कामप्यस्थां विरचयेत् विघ्यात् ? सा विकचकमलिनीः विकसित पद्मिनी: लावलावं छित्वा छित्वा अंहिघातः पादताडनः चूर्णयति शकलीकरोति, तथा तेनैव प्रयारेण चन्द्रलेखां चन्द्राकारां रेखां लेखंलेख आलिख्यालिख्य नखैः करजः शकलयति खण्डशः करोति । तच विरहाग्निदग्धा सा तथोन्मत्ती भूता यथा किमप्मन्यन्नाचरति- उद्दीपकविभागेषु प्रसिद्धी कमलचन्द्रमसो नाशयितुं प्रवृत्तेव, कमलानि साक्षादेव छित्मा चूर्णयति चन्द्रप्रतिकृतीश्च नाशयतीति भावः । ज्वा[s]ल [5]ज्वा[s]लं[s], सु[1] भ[1]ग[1] त[1] व[1] म[1]हान[s], वि[s]प्र[1]यो[5]गा[s]न[1]ल[5]न[s]लां[s] इति चतुर्भि: षड्भिश्च यस्या लक्षणसमन्वयः ॥१० २, सू० ३०४॥१॥
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[अ. २, सू०-३०४-३०६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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म्भन्जभ्राश्चलम् ॥३०५॥ मभनजभराः । पछरिति वर्तते । यथा- शास्त्राभ्यासे व्यसनमनुपमं परो. पकृतो रतिः, सत्पात्रेषु प्रणयपरतया प्रदानमनारतम् । प्रीतिः पादाम्बुलहि जिनपतेर्भवेदमलात्मनां, विद्युल्लेखाजलधरपटलीचलात्मनि जीविते ॥३०५.१॥
षष्ठं प्रभेदमाह- मभन्जभ्राश्चलमिति । विवृणोति- मभनजभराः। घछरिति वतंत इति । मगण-भगण-नगण-जगण-भगण-रगणा, sss. I. .. 151. SII. Is इतीदृशंरक्षरैः कृताः पादा यस्य चतुभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् चलं नाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- शाखाभ्यास इति । शाखाभ्यासे शास्त्राणां परिशीलने अनुपमं असमं व्यसनम् आसक्तिः परोपकृतौ अन्येषामुपकरणे रतिः अनुरागः, सत्पात्रेषु दानोचितसत्सम्प्रदाने प्रणयपरतया स्नेह पारवश्येन । नतु करुणयाऽनादरेण वा । अनारतम् सततम् प्रदानम् धनादि वितरणम्, विद्यलेखाजलधरपटलीचलात्मनि विद्युल्लेखा सौदामिनी माला- जलधरपटली मेघमाला च तयोरिव चलात्मनि चञ्चले जीविते जीवनसमये, जिनपतेः पादाम्बुवरुहि चरणकमले प्रीतिः श्रद्धाः (इत्येतत्सर्वम्) अमलात्मनां निर्मल चेतसाम् भवेत् स्यात् । निर्मलात्मनामेन शास्त्राभ्यासादि सम्भवतीति भावः । शा[5]स्त्रा[5]भ्या[5]से [s], व्य[i]स[1]न[1]म[1]नु[1]प[1] मं[s]; प[[रो[s]प[1][i]तौ[s][1]तिः [5] इति चतुभिः सप्तभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ।।अ० २, सू० ३०५॥१॥
रमौ न्यौ रौ केसरम् ॥३०॥ मभनयरराः । घछैरिति वर्सते । यथा-सारंगाणां न कुलमिह न वा यूथं महाष्ट्रिणां, कर्णातिथ्यं न च भजति कटुर्गन्धहिपानां ध्वनिः। पत्कि दिक्ष क्षिपसि रभसया नेत्रे स्वमुद्यतकरो, यद्वा ज्ञातं विधुवति पअनस्त्वत्केसरं केसरिन् ॥३०६.१॥ ___ सप्तमं प्रभेदमाह-म्भौ न्यो रौ केसरमिति-विवृणोति-मभनयरराः। घछरिति वर्तत इति । मगण-भगण-नगण-यगणेभ्यः परी नगणी- sss. s. m. Iss. SIS. sis. इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य चतुभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३०७ ] तत् केसरनामकं घृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सारङ्गाणामिति हे केसरिन् ! सिंह ! इह अत्रस्थाने सारङ्गाणां मृगाणां कुलं समूहो न, महादष्ट्रिणाम् महतां शूकरादीनां यूथं संघो न, गन्धद्विपानां मत्तगजविशेषाणां कटुः विरस: ध्वनिः जित शब्दः च कर्णातिथ्यं श्रवणविषयतां न भजति न गच्छति, तत् तस्मात् उद्यत्करः सन्नह्यद्धस्तः सन् रभसा सम्भ्रमेण दिक्ष सर्वादिशः प्रति नेत्रे नयने किमु कुतः क्षिपसि प्रेरयसि ? यद्वा अथवा ज्ञातं तव नेत्रक्षेपकारणं विज्ञातम् पवनः वायुः त्वत्केसरं तवसटां विधुवति कम्पयति । केसरिणो यानि सम्भ्रमकारणानि मृगादीनां पशूनां समीपे संचारादीनि तेषामभावे कुतः सम्भ्रम इति शङ्कायां स्वयमुत्तरितं कविना, वायुनाऽपि सटायाः कम्पनं स न सहते इति तस्य स्वभाव इति भाकः । सा[5][s]गा[s]णां,[s] न[1] कु[1]ल[1]मि[1]ह[1]ल[1]वा[s]; यू [s][s]म[i]हा[s]यं [s]त्रि[1]णां[s] इति चतुभिः सप्तभिश्च यत्या लक्षण सङ्गतिः ॥अ० २, सू० ३०६॥१॥
नौ मौ रौ चन्द्रमाला छधैः ॥३०७।। नरमवययाः छर्घ रिति सप्तभिश्चतुभिश्न यतिः। यथा- सरसि सरसिजं तद्वाकाशे पार्वणं चन्द्रबिम्ब, कुवलयनयने तावत्साम्यं नामजत्त्वन्मुखस्य । जनयतु कनक म्भोजश्रेणीर्लक्षशः स्वर्गसिन्धुर्-, घटयतु यदि वा सोऽपि स्रष्टा कोटिशश्चन्द्रमालाः ॥३०७.१॥
अष्टमं प्रभेदमाह- नौ मौ यो चन्द्रमाला छधरिति । विवृणोति-न-नम-म-य-याः । छरिति सप्तभिश्चतुभिश्च यतिरिति । नगणद्वयं मगणद्वयं यगणद्वयं च 'm. m. sss. sss. Iss. Iss' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य, सप्तभिः चतुर्भिश्च यतिर्यत्र तत् चन्द्रमालानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सरसिसरसिजमिति । सरसि सरोवरे तत् प्रसिद्धसौन्दर्य सरसिजम् कमलम्, वा अथवा आकाशे पावर्ण पर्वणि पूर्णिमायां भवं चन्द्रबिम्बम् शशिबिम्बम्, हे कुवलयनयने उत्पल नेत्रे त्वन्मुखस्य तवाननस्य तावत् सर्वथा साम्यं सादृश्यं न अभजत् न गतम्; (ततश्च. तदर्थम्) स्वर्गसिन्धुः देवनदी गङ्गा लक्षशः असंख्याताः कनकाम्भोजश्रेणीः
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[अ. २, सू०-३०८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६१ स्वर्ण कमलपङ्क्तींः जनयतु उत्पादयतु, यदि वा अथवा स प्रसिद्धः स्रष्टा प्रजापतिः अपि कोटिशः असंख्याताः चन्द्रमालाः शशिश्रेणी: घटयतु रचयतु । कमलचन्द्रमण्डलाभ्यां प्राकृताभ्यां त्वन्मुखसाम्यं प्रान्तुं न शक्यदे, विशिष्यरचितैः स्वर्णकमललक्षः चन्द्रमालाभिश्च कोटिश: सृष्टाभिरेव त्वन्मुखसाम्यं प्राप्तुं शक्यत इति भावः । स[1][1]सि[1]स [1][1]सि[1]जं, [s] तद्[5]वा[5] का[5शे[s]; पा[s] [1][s]चं [s] [1]बि[5]म्बं [s] इतिसप्तभिश्चतुर्भिश्च यत्या लक्षण-समन्वयः ।।अ० २, सू० ३०७।१॥
नौ म्तौ भ्रौ ललितम् ॥३०८|| ननमतभराः। छरिति वर्तते। यथा-परममुपशमं वर्मीकृत्य स्थितेऽत्र महामुनी, प्रहरणमपरं दध्या: किचिनिशातमतीव यत् । पशुपतिविजयं स्मारं स्मारं पराक्रमर्गावत:, कलयसि ललितं पौष्पं शस्त्रं मनोभव कि मुषा ॥३०८ १॥
नवमं प्रकारमाह- नौ म्तो भ्रौ ललितमिति । विवृणोति-न-न-म-त-भराः। छरिति वर्तत इति । नगणद्वयं मगण-नगण-भगण-रगणाः '.. sss ss1. 50 5.' इतीदर्शवणैः कृताः पादा यस्य सप्तभिश्चतुर्भिश्च यतिर्यत्र तत् ललितं नाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- परममुप. शममिति। परमम् आत्यन्तिकम् उपशमम् अन्तरिन्द्रियनिग्रहम् वर्मीकृत्य कवचरूपेण नियुज्य स्थिते शिरतरे अत्र महामुनी अस्मिन् मुनिप्रवरे अपरम् पौष्पात् अन्यत् किञ्चित् किमपि प्रहरणम् आयुधं दध्याः धारयेः यत आयुधम् अतीव अतिशयितम् निशातम् तीक्ष्णं (स्यात्) हे मनोभव चेतोजन्मन् ! पशुपतिविजयं शिववशीकरणम् स्मारं स्मारम् स्मृत्वा स्मृत्वा पराक्रमवितः स्ववीरत्वदर्पितः त्वम् ललितं सुकरम् पौष्पं कौसुमम् अखम् प्रहरणं मुधा व्यर्थं कि कुतः कलयसि धारयसि । येन पौष्पेण शरेणत्वं पशुपतिमजैषीः तदुपर्येवं गर्वं कृत्वाऽत्रापि मुनी प्रहारं कर्तुमिच्छसीति व्यर्थी ते चेष्टा, यतोऽनेन उत्तम उपशमः कवचीकृतस्तत्र पौष्पाणां नव प्रहरणानां गतिर्नास्ति अतोऽन्यत्किमपि निशातमायुधं चिन्तयेति भावः । प[1][]म [1][][I] श[1] मं[5], व[5]र्मी[5] कृ[I]त्य[s]; स्थि[1]ते[5] [1]म[1] हा[5] मु[नौ[s], इति सप्तभिश्चतुभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥अ० २, सू० ३०८॥१॥
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२६२ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३०६-३१०.]
भ्रनिसा भ्रमरपदं झैः ॥३०॥ मरौ नगणरत्रयं सश्च । रिति नभिर्यतिः। यथा- वारिदमुक्तवारिभरपरिशमितघनरजा, उद्गतरोहिणीशकरधवलितसकलककुप । कस्य धर्ति बदाति न हि शरहतुरजनिरियं, चुम्बनलालसझम्रमरपदविदलितकुमुदा ॥३०६.१॥
दशमं प्रकारमाह- भ्रनिसा भ्रमरमदं जैरिति । विवृणोति- भरौ नगणत्रयम्- सश्च । झरिति नवमियंतिरिति । भगणरगणी नगणत्रयं सगणश्च 'sil. SIS. 1. 1. 1. ॥s' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य नवभिश्च यतिर्यत्र तद् भ्रमरपद नाम धृतिजाति च्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-वारिवमुक्तेति । वारिदमुक्तवारिभर परिशमित धनरजाः वारिदेन मेघेन मुक्तेन वृष्टेनवारिभरेण जलसमूहेन परिशमितं शान्तिनीतं धनं निबिडं रजो यया सा, उदगतरोहिणीशकरधवलितसकलक कुप उद्गतः उदयं प्राप्तः यो रोहिणीशः चन्द्रः तस्य करैः किरणः धवलिताः स्वच्छी कृताः सकलाः सर्वाः ककुमो दिशो यया सा, चुम्बनलालसभ्रमरपदविदलितकुमुदा चुम्बने लालसा स्पृहा येषां तादृशानां भ्रमराणां मधुकराणां पदेश्वरणः विदलितानि मदितानि कुमुदानि यस्यां सा इयं प्रत्यक्षगोचरा शरहतुरजनिः शारदीरात्रिः कस्य जनस्य धृति सन्तोषं न ददाति अपितु सर्वस्य सन्तोषं ददात्येवेतिभावः । वा[1]रि[1]द[1] मु[s]क्त[1]वा[s]रि[1] भ[i][i], प[1]रि[1] श[1] मि[1] त[1][i]न[1][1]जा:[s] इति नवभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ॥० २, सू. ३०६॥१॥
म्सौ सौ त्सौ शार्दूलललितं ठः ॥३१०॥ मसजसतसाः । ठरिति द्वादशभिर्यतिः । यथा- नष्टं त्यक्तमिथःप्रतीक्षणरसः सारंगमिथुनेर् , यातं विस्मृतशङ्गभारविधुरंध्रीणसकुलः । लीनं पल्वलपङ्क एव सठसा क्रोडर्ध्वनति चेत्, छान्ताचाविधित्सयापि हि भवान् शार्दूल ललितम् ॥३१० १॥
एमादशं प्रकारमाह-म्सौ सौ त्सो शार्दूलललितं ठेरिति । विवृणोति मसजस तसाः । ठेरिति द्वारशभिर्यतिरिति । मगण-लगण-जगण-सगण-तगण
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[अ० २, सू०-३११.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६३ हिंसगणाः- 'sss. S. 11. 15. . ' इतीहशैरक्षरः कृताः पादा यस्य द्वादशभिश्च यतिर्यत्र तत् भ्रमरपदं नाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- नष्टं त्यक्तमिथ इति । हे शार्दूल! भवान् कान्तचाटुविधित्सया स्ववनिताप्रसादनचिकीर्षया अपि ललितं सुन्दरं (न तु घोरम् ) ध्वनति शब्दं करोति चेत्-यदि, तहि-त्यक्तमिथः प्रतीक्षणरसैः त्यक्तः परिहृतः मिथः प्रतीक्षणस्य- पारस्परिकप्रतीक्षाया रसः अभिलाषो यैः तैः, सारडामिथुनः मृगद्वन्द्वैः नष्टं पलायितम्; विस्मृतशृङ्गभारविधुरैः विस्मृतः शङ्गाणां भारो यत्रतद्यथास्यात्तथा विधुरैः पीडितः वाोणसकूलैः गण्डकपशुसमूहैः यातं वनं त्यक्त्वा चलितम् क्रोडैः वराहैः पावलपङ्क क्षुद्रजलाशयकर्दमे एव लोनम् प्रच्छन्नीभूतम् । अयमाशय: सिंहस्य शब्देनान्ये वन्या जीवास्तथा बिभ्यति- यथा मृगद्वन्द्वं परस्परप्रतीक्षायां प्रसिद्धमपिप्रियां प्रत्युक्ते मधुरेऽपि सिंहशब्दे कर्णगते सति- मृगो मृगी वा मृगं काप्यन्तरितमप्रतीक्ष्यब पलायते, वार्धाणसाः शङ्गभारेण तथाऽभिभूता भवन्ति यथा ते न झटिति कापि प्रतिष्ठन्ते, परं तेऽपि तं भारं विस्मृत्य वनं त्यक्त्वा गच्छन्ति, वराहा अपि झटिति क्वापि गन्तु मक्षमा: पल्वल-पङ्के एव निमग्नां स्वात्मानं गोपयन्तीति । न[5ष्टं[s]त्य[5]क्त[1]मि[1]थ:[5]प्र[1]ती[5]क्ष[1] ण[i][1] [s]; सा[s]र[s]ग[1]मि[1] थु[1]न:[5] इति द्वादशभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ।।अ० २, सू० ३१०.१॥
म्तन्जभ्राः कुरङ्गिका ङछः ॥३११॥ मत जमराः । छरिति पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिः । यथा- अस्या वक्त्रेन्दी विजयिनि चिराय लाञ्छनजिते, प्रालेयांशो त्वं स्फुरसि दिवि पृष्ट नित्यमचेतनः । साकूतालोकाद्भुतनयनतकेलिनिजितलोचना, यारण्ये तस्थावुचितचतुरेह सैव कुरङ्गिका ॥३११.१॥
द्वादशं प्रकारमाह- म्तन्जभ्राः कुरङ्गिका छैरिति । मतनजभराः। ङछरिति पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिरिति । 'मगण-तगण-नगण-जगण-भगणरगणा: 'sss. ssI. I. IsI. Sh. Sus.' इतीदृशैरक्षरः कृता: पादा यस्य तत् पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र १त् कुरङ्गिका नामकं- धुतिजातिच्छन्द इत्यर्थः।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० - ३१२.]
1
उदाहरति- यथा - अस्या वक्त्रेन्दाविति । प्रालेयांशो ! हे हिमकिरण ! लाञ्छन जिते कलङ्करहिते अस्या: कामिन्या वक्त्रेन्दौ मुखचन्द्रे चिराय बहुकालकृते विजयिनि विजयशालिनि सति त्वं दिवि आकाशे स्फुरसि सचरसि ? हे घृष्ट नित्यं सत्यं अचेतनः जडः असि । या- साकूता लोकादभुतनयनकेलि निजितलोचना साकूतः साभिप्राय: आलोकः दर्शनम्, अद्भुता आश्चर्यकारिणी नयनकेलिः नेत्रक्रीडा च ताभ्यां निर्जिते निश्चितं पराजिते लोचने यस्याः सा तथा भूतासती अरण्ये वने तस्थौ उवास, इह लोके सा कुरङ्गिका मृगी एवं उचितचतुरा उचिते कर्तुयोग्ये कार्ये चतुरा निपुणा । हे चन्द्र त्वमस्या मुखेन विजितोऽप्याकाशे संचरन् स्वधाष्टर्यं ख्यापयति तस्माज्डोऽसि, याच मृगी साभिप्रायावलोकनाश्चर्यकारि क्रीडाशालिभ्यामस्या नेत्राभ्यां स्व लोचनयो: विजितत्वे सति लज्जयाऽरण्ये गत्वा (निलीय) वाचकार सेव समुचिताचार निपुणेतिभावः । अ [s] स्या[5] [s] क्ले [5]न्दी [s], वि [1] [:]यि [ 1 ]नि [1] चि [1] रा [5] [ 1 ], ला[5] ञ्छ [1]न [1] व [s] जि [1] [s] इति पञ्चभि: सप्तभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ श्र० २, सू० ३११।१ ।।
सौ मौ यावनङ्गलेखा चङः ॥ ३१२ ।।
नसममययाः । चरिति षड्भिः पश्चभिश्च यतिः । यथा - प्रियसखि मधुं मा मावज्ञा पर्मानयेनं यथावत् तव हि बकुले क्रीडामित्रेऽस्मिन् पुत्रके चूतवृक्षे । भवनपरिखापद्यन्यां सख्यां न्यस्तरोलम्बवर्णा-, वलिकिसलय व्याजा देतेनानिन्थिरेऽनङ्गलेखाः ॥ ३१२.१ ॥ विबुधप्रियेत्यन्ये ॥ ३१२.१॥
त्रयोदशं प्रभेदमाह - न्सौ मौ यावनङ्गलेखा चरिति । विवृणोति - नसममययाः । चङेरिति षड्भिः पञ्चभिश्च यतिरिति । नगण-सगणी, मगणद्वयं, यगणद्वयञ्च '111. 115. sss. sss Iss. Iss. ' इतीह शैरक्षरैः कृताः पादा यस्य षड्भिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् अनङ्गलेखानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रियसखीति । हे प्रियसखि स्निग्धसहचरि मधुं वसन्तं मा स्म अवज्ञासी: मावगणय, एनं यथावत् उचितरूपेण मानय सन्कुरु कुत इत्याह- एतेन वसन्तेन तव भवत्याः क्रीडामित्रे लीलासुहृदि बकुले, अस्मिन् पुरो दृश्यमाने पुत्रके पुत्रवत् पयः सेकेन पोषिते चतवृक्षे
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[अ० २, सू० ३१३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६५
आम्रतरी, सख्यां सहचरीरूपायां भवनपरिखापद्मिन्यां प्रासादस्य परितः खाते जलाधारे स्थितायां कमलिन्यां न्यस्तरोलम्बवर्णावलिकिसलयव्याजात् न्यस्ताः लिखिताः रोलम्बावलयः भ्रमरपङ्क्तय (एव) वर्णावलयः अक्षरपङ्क्तयो येषु तादृशानां किसलयानां नूतनपत्राणां व्याजात् कपटात् अनङ्गलेखाः मदनविषया: लिपयः आनिन्यिरे समानीताः । यतोऽनेन वसन्तेन तव बन्धूनां मित्र पुत्र सखीनां परस्परप्रेमसूचकदलानि - रोलम्बावलिरूपाक्षरपङ्क्ति सहितानि समानीतानि अतस्त्वयाऽयं सत्करणीयो नत्ववगणनीय इति भावः । अत्र बकुलादो मित्रत्वाद्यारोपः रोलम्बावली कृष्णवर्णायामक्षरपङ्क्तित्वारोपः किसलये पत्रत्वारोपश्चकृत इति वसन्तस्य नर्मसचिवत्वं ध्वनितम् । प्रि [ 1 ]य [ 1 ] स [ 1 ]खि [ 1 ] [ 1 ]धुं [s], मा[S]स्मा [s] [5] सी: [s]; मा [1] न [1] यै [s] नं [S] [1] था [S] वत् [S] इति षड्भिः पञ्चभिश्च यत्यालक्षणसंगतिः । अस्या नामान्तरमाह - विबुधप्रियेत्यन्ये इति । परे इदं छन्दो विबुधप्रियेत्याहुरित्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३१२।१ ॥
सौ जो भ्रावुज्ज्वलं जैः ॥ ३१३॥
रसजजभराः । जैरित्यष्टभिर्यतिः । यथा- पाणिपादविलोचनाननपद्मकाननशालिनी, निम्ननाभिमहाहृदा त्रिवली तरंग विभूषिता । कुकुमारुणंपीवस्तनचक्रवाकयुगाविता, केलिसिन्धुरिवोज्ज्वला मदनस्य राजति कामिनी ॥३१३.१॥ मालिकोत्तरमालिका वेत्यन्ये ॥ ३१३.१॥
चतुर्दशं प्रभेदमाह - सौ जौ भ्रावुज्जलं जैरिति । विवृणोति - रसजजभराः । जैरित्यष्टभिर्यतिरिति । रगण-सगणी जगणद्वयं भगणरगणौ‘ऽ।ऽ. ।।5. 151. 151. ।IS SIS. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य अष्टभिश्च यतियंत्र तत् उज्ज्वलं नाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पाणिपादेति । पाणिपादविलोचनाननपद्मकाननशालिनी पाणी च पादौ विलोचने विशालनेत्रे च आननं च इत्येतान्येव पद्मकाननम् - ( सर्वेषां पद्मोपमत्वात् ) कमलवनम् तेन शालते शोभते तच्छीला, निम्ननाभि-महाहदा निम्ना- गभीरा नाभिः एव महा-हृदः यस्यां सा त्रिवलीतरङ्गविभूषिता त्रिवली वलित्रयमेव ( उदरस्थं ) तरङ्गाः ऊर्मयः तेन विभूषिता शोभिता,
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३१४.] कुङ कुमारणपीवरस्तनचक्रवाकयुगाञ्चिता कुङ्कुमेन अरुणो रक्तौ पीवरी पीनी स्तनावेव चक्रवाकयुगम् तेन अश्चिता पूजिता उज्ज्वला दीप्ता मदनस्य कामस्य केलिसिन्धुः क्रीडानदी इव कामिनी अङ्गना राजति शोभते । पा[s] णि[1]पा[s]द[1]वि[1]लो[s]च[1] ना[s]; न[1]न[1]प[s][1]का[s]न[1] न[1] शा[5]लि[1]नी[5] इत्यष्टभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अस्या नामान्तरमाह- मालिकोत्तर मालिका वेत्यन्ये इति । अन्ये इमां मालिकाम् अथवा उत्तरमालिकामाहुरिति भावः ॥अ० २, सू० ३१३॥१॥
नौ रीनिशा डैः ॥३१४॥ नद्वयं रचतुष्टयं च । रिति त्रयोदशभियंतिः। यथा- मलयजरसलिलरम्याङ्गमाजां सिते वाससी, शरदि हवि च विभ्रतीनां विशुद्धां नवकावलीम् । विकचकुमुदकर्णपूराश्चितानां कुरङ्गीहशां, हिमरुचिकिरणावदाताभिसतुं निशा प्रेयसी ॥३१४.१॥ तारकेत्यन्ये ॥३१४.१॥
पञ्चदशं प्रभेदमाह- नौ रीनिशा डैरिति । विवृणोति-नद्वयं रचतुष्टयं च। डैरिति त्रयोदशभिर्वतिरिति । नगणद्वयं रगणचतुष्टयं च ॥ 1. SIS. Is. Is. sis.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य त्रयोदशभिश्च यतिर्यत्रतत् निशानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- मलयजरसेति । शरदि शरह तो मलयजरसलिप्तरम्याङ्गभाजां मलयजरसेन श्रीखण्डचन्द्रनद्रवेण लिप्तम् उपदिग्धम् अत एव रम्यं सुन्दरम् अङ्गं शरीरं भजन्तीति तासां सिते शुक्ले वाससी वस्त्रे, हृदिच उरसि च विशुद्धाम् अनवद्याम् नवैकावलीम् नवां नूतनाम् एकावलीम् एकसूत्रां मौक्तिकमालां बिभ्रतीनां धारयन्तीनां निकचकुमदकर्णप्रराश्चितानाम विकचाभ्यां विकसिताम्यां कुमुदाभ्यां रात्रिविकासिपङ्कजाभ्यां (कृतेन) कर्णपूरेण अञ्चितानां शोभितानाम् कुरङ्गीदृशाम् मृगनयनाम् स्त्रीणाम्, हिमरुचिकिरणावदाता हिमरुचिः शीतकान्तिः चन्द्रः तस्य किरणः अवदाता स्वच्छा निशा रात्रिः अभिसर्तुम् प्रियगृहं गन्तुम् प्रेयसी प्रियतमा। शरदि शुक्लाभिसारिकाणां सर्वथा शुक्ल रुपकरणः शोभितानां कामिनीनां कृते शुक्लपक्षीया रात्रिः प्रियतरा भवतीति भावः । म [1] ल [1] य [1] ज [0] र [1] स [1] लि [s] स [1]
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[अ० २, सू० ३१५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६७ र [5] म्या [5] ङ्ग [1] भा [5] जां [s]; सि [1] ते [5] वा [5] व [0] सी [s] इति त्रयोदशभिरक्षरैर्यत्यालक्षणसमन्वयः । अस्या नामान्तरमाहतारकेत्यन्ये इति । अन्ये इदं छन्दः तारकेत्याहुरिति भावः ॥ अ० २, सू० ३१४।१ ॥
नौ सौ त्यो पङ्कजवक्त्रा घझैः ।।३१५॥ ननससतयाः। घझरिति चतुभिनवभिश्च यतिः । यथा- इह किमु विलसति सर्वऋतुभीः किं नु मृगाक्षी, बहुजनजडिमविजृम्भणहेतुः कुन्दरदा वा । अमि. नवमृदुतरपलवपाणिः संभृततृष्णा, समुदितनिविडपयोधरमारा वङ्कजवक्त्रा ॥३१५.१॥
षोडशं प्रकारमाह- नौ सौ त्यो पङ्कजवक्त्रा घझरिति । विवृणोतिननससतयाः। घरिति चतुभिर्नवभिश्च यतिरिति । नगणद्वयं सगणद्वयं त..ण-यगणो '.. ॥s. IIs. ssi. Iss' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य चतुभिनवभिश्च यतिर्यत्र तत् पङ्कजवक्त्रानामकं धुतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-इह किमु इति । इह अत्र स्थाने समये वा सर्वऋतुश्री: सशेषामृतूनां सर्वस्वं विलसति शोभते किमु-? वा अथवा- बहुजनजडिमविज़म्भणहेतुः बहूनां जनानां जडिम्नः शौत्यस्य आलस्यस्य वा विज़म्भणस्य वृद्धः हेतुः कारणम्, कुन्दरदा कुन्दवत् माध्यपुष्पवत् रदाः दन्ता यस्याः सा, अभिनवमृदुतरपल्लवपाणिः नूतन कोमलतर वाबेव, तत्सदृशौ वा पाणी यस्याः सा संभततृष्णा संभृता पचिता तृष्णा पिपासा आसक्तिश्च यस्यां सा, समदितनिबिडपयोधरभारा समुदितः वृद्धिंगत: निबिडानां घनानां पयोधराणां मेघानां भारः यस्यां पक्षे समुदितयोः वृद्धिंगतयोः निबिडयोः पयोधरयो: भारा यस्या सा पङ्कजवक्त्रा पङ्कजं कमलमेव वक्त्रं मुखं यस्याः पक्षे पङ्कजमिव मुखं यस्याः सा मृगाक्षी विलसति किं नु- इति वित। हेमन्ते जडता शैत्यं, अस्यां च जडता प्रालस्यम्, शिशिरे कुन्द पुष्पाणि, अस्याश्च दन्ता एव कुन्दानि, वसन्ते पल्लवाः अस्यां च पल्लवाविबव पाणी, ग्रीष्मे तृष्णा, अस्यामपि कामिनां तृष्णा, वर्षासु पयोधराः मेघाः, अस्या अपि पयोधरौ स्तनो, शरदि पङ्कजानि अस्या अपि पङ्कजवन्सुखमिति- अस्या सवं.
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुसाशनप्रद्योते [अ० २, सू०-३१६.) ऋतुश्रीत्व सन्देहो भुक्त एवेति भावः । इ [1] ह [1] कि [1] मु [1], वि [1] ल [1] स [1] ति [1] स [s] + [1] ऋ [1] तु [s] श्रीः [s]; किं [s] नु [0] मृ [I] गा [5] क्षी [5] इति चतुभिर्नवभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३१५॥१॥
स्नज्नम्साः सुरमिस्त्रिः ॥३१६|| सनजनमसाः । त्रिरिति श्रीन वारान पञ्चभियंतिः । पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्चमिश्च यतिरित्यर्थः । यथा- स्फुटदुज्ज्वलबकुलाकुलमधुपावलिरसितः, पवनाहतलवलीदलपटलरतिचदलः । मदने प्रियसुहृदि प्रतिभुवनं कृतविजये, सुरभिर्धवमिह गायति परिनृत्यति मुदितः ॥३१६ १॥
सप्तदशं प्रकारमाह- स्वज़्नन्साः सुरभिस्त्रिरिति । विवृणोति- सनजनभसाः। त्रिरिति त्रीन् बारान् पञ्चभिर्यतिः । पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्चभिश्च यतिरित्यर्थ इति । सगण-नगण-जगण-नगण-भगण-सगणा: '. ॥ 11. . 50. .' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चभिश्च त्रिवारं यतयो यत्र तत् सुरभिनामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- स्फुटदुजलेति । इह अस्मिन्समये सुरभिः वसन्तः प्रियसुहृदि प्रियमित्रे मदने कामे प्रतिभुवनं सर्वास्मिन् जगति कृतविजये विहित पराभये सतिः स्फुटदुज्वलबकुलाकुलमधुपावलिरसितैः स्फुटन्ति विकसन्ति उज्वलानि दीप्तानि बकुलानि पुष्पविशेषाणि तेषु आकुला व्याप्ता या मधुपावलिः मधुकरश्रेणी तस्या रसितैः शब्दः, अतिचपलः अतिशयचञ्चलैः पवनाहतलदलीदलदटलैः वायुना आहतः कृताधातैः लवलीदलपटलः लतादिशेषपत्रसमूहैः सुदितः हर्षितः सन् गायति गानं करोति परिनृत्यति, नर्तनं च करोति । अयमाशयः बसन्तस्य मित्रं कामोऽस्मिन् समये सर्वाणि भुवनानि जितवानिति मुदितोवसन्तः बकुलपुष्पेषु मधुकराणां नादेन गायतीव, पवनाहतलतानां लास्येन नृत्यतीवेत्युत्प्रेक्षेति । स्फु [1] ट [1] दु [s] ज्ज्व [I] ल [i], ब [1] कु [1] ला [s] कु [1] ल [0], म [1] धु [1] पा [s] व [1] लि [1], र [0] सि [0] तैः [5] इति त्रि:पञ्चभियंत्या लक्षणसमन्वयः ॥अ० २, सू० ३१६॥१॥
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[अ० २, सू०-३१७-३१८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २६९
यमौ न्सौ सौ क्रीडा चचैः ॥३१७।। यमनसतसाः। चचैरिति षड्भिः षड्भिर्यतिः । यथा- यदि प्राप्तो भ्वषं यदि विरहितो विन्ध्याचलभुवा, वियुक्तः कान्ताभिर्यदि च तदपि स्तम्बरमपते। नरेन्द्र स्ते पूजां रचयति सदा कि चंष भवता, रणक्रीडामंत्री घटयति ततो मा गाः शुचमिमाम् ॥३१७.१॥
अष्टादशं प्रकारमाह- यमौ सौ सौ क्रीडा चर्चरिति । विवृणोति- यमनसतसाः। चचरिति षड्भिः षभिर्यतिरिति । यगण-मगण-नगण-सगण-तगणसगणाः 'Iss. sss. I. S. I. I.' इतीहशेरक्षरैः कृताः पादा यस्य षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् क्रीडानाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- यदि प्राप्त इति । हे स्तम्बेरमयते ! गजश्रेष्ठ ! यदि चेत् बन्धं बन्धनं पाररन्त्र्यं प्राप्तः लन्धवानसि, यदि विन्ध्या-चलभुवा विन्ध्यपर्वतप्रान्तभूम्या विरहितः पृथग्भूतः असि, यदि च कान्ताभिः करेणुभिः वियुक्तः रहितः असि, तदपि तथापि नरेन्द्रः राजा ते तव पूजां सत्कृति रत्रयति करोति किं च एष राजा भवता सह रणक्रीडामैत्री संग्रामरूपक्रीडायां सख्यं घटयति करोति, तत: तस्मात् इमाम् अनुभूयमानां शुचं शोकं मागांः मा विद्ध्याः। स्वातन्त्र्यं विहाय यद्यपि बन्धन प्राप्तोऽसि स्वमातृभूमेः स्वप्रियोतश्च वियुक्तोऽपि तथाप राजसत्कारं रात्रमित्रतां च प्राप्तवानसीति शोकं त्यजेतिभावः । य [0] दि [1] प्रो [5] प्तो [5] ब [s] घं [s], य [1] दि [0] वि [1] र [1] हि [1] तो [s], वि [5] न्ध्या [s] च [1] ल [1] भु [1] वा [s] इति षड्भिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३१७॥१॥
न्सो म्तो भ्रौ हरिणीपदं चचैः ॥३१८॥ नसमतभराः। चरिति षड्मिश्चतुर्भिश्च यतिः । यथा- अधिगुणधनुर्दण्डं पश्यंलुब्धकं गहने बने, सरमसमपक्रामन्नयकुश्चिन्तयन्निति ताम्यति । सरस. मधुरोगारंगीतैर्वागुराभिरिव प्रिया-, हह निगडिता दत्ते नेषा सांप्रतं हरिणी पदम् ॥३१८:१॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३१६.] ऊनविंशं प्रकारमाह- सौम्तो भ्रो हरिणीपदं चरिति । विवृणोतिनसमतभराः । चघरिति षड्भिश्चतुभिश्च यतिरिनि । नगण-सगण-मगण तगण-भगण-रगणाः '. Is. sss. SsI.SI. SIS.' इतीदृशरक्षरः कृताः पादा यस्य षड्भिश्चतुभिश्च यतियंत्र तत् हरिणीपदं नाम घृतिजातिच्छन्दः इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अधिगुणेति । अधिगुणधनुर्दण्डं अधिगुणं अधिज्यः धनुदण्डः चापवंशः यस्य ताहशम्- लुन्धकं व्याधं गहने घने वनेऽरण्ये पश्यन् अवलोकयन् सरभसम् सवेगम्- अपक्रामन् लुब्धकदृष्टिविषयादपसन् न्यकुः मृगः 'अहह दुःखम्- वागुराभिः पाशरज्जुभिः इव सरसमधुरो. द्वारः रसान्वितमाधुर्यप्रवाहिभिः गीतैः लुब्धकगान: निगडिता कृत पादबन्धा इव एषा प्रिया हरिणी पदं पलायनार्थ चरणन्यासं न दत्ते-न ददाति इति चिन्तयन् विचारयन् ताम्यति क्लिश्यति । उभावपि काचित्स. मीपदेश एव चरन्ती लुब्धकेन गीतविमोह्य घातयितुमिष्टी, तत्र मृगः किंचित्सावधानो लुब्धकमधिज्य धनुर्हस्तं दृष्ट्वा अपसतुं प्रयतमानः स्वप्रियां च केवलं गीतानुरागबद्धामालोक्य चिन्तया क्लिश्यतीति भावः । अ [1] धि [1] गु [0] ण [1] ध [1] नु [s]; दं [5] डं [5] प [5] श्यं [5]; ल्लु [5] ब्ध[0] कं [5] ग [1] ह [1] ने [s] व [1] ने [s] इति षड्भिश्चतुभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः। अ० २, सू० ३१८।१ ।।
मीन्या मङ्गि ॥३१॥ भगणचतुष्टयं नयौ च । यथा- मा कुरु संपदि संमदमापदि विसृज विषाद पीनजनेषु कृपां कुरु संस्मर चिरपुरुषाणाम् । संत्यज पापचरित्रमुदञ्चय सुचरितमालाम्, अद्भुतभङ्गिरियं पुरुषोत्तमसरणिरनिन्या ॥३१९.१॥ बिच्छत्तिरिति कश्चित् ॥३१६.१॥
विशं प्रकारमाह- भीन्या भङ्गिरिति । विवृणोति- भगणचतुष्टयं नयोचेति । भगणचतुष्टयं नगण-भरणी च 'II. I. I...Iss.' इती. दृशैरक्षरः कृता पादा यस्य तत् भङ्गिनामकं घृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- माकुरु सम्पदीति । सम्पदि अभ्युदये संमदं हर्ष मा कुरु न विधेहि, आपदि विपत्तो विषादं दुःखं विसृज त्यज, वीनजनेषु
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[अ० २, सू०-३२०.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशोलनप्रद्योते
२७१ आश्रित कष्टलोकेषु कृपां कष्टप्रहाणेच्छां कुरु विधेहि, चिरपुरुषाणाम् पुराणपुरुषाणां संस्मर तच्चरित्रं ध्याय, पापचरित्रम् तुष्कृताचरणं संत्यज परिहर, सुचरितमालम् सुकृताचरण श्रेणीम् उदश्चय वर्धय, इयं पूर्वोक्ता अदभुतमङ्गिः आश्चर्यविषयविच्छित्तिः अनिन्द्या अनवद्या पुरुषोत्तमसरणिः श्रेष्ठपुरुषाचारपद्धतिः । सुखदुःखयोः समता, दीनेषु दया, गुरुजनचरितध्यानम्, पापाचरणत्यागः, सुचरितसमृद्धिरित्येष श्रेष्ठजनमार्ग इति भावः। मा [s] कु[1] रु [1] सं [s] प [1] दि [0] सं [5] म [1] द [1] मा [s] प [1] दि[D] वि [1] स [0] ज [1] वि [0] षा [s] दं [5] इतिलक्षणसंगतिः । अस्य नामान्तरमाह- विच्छित्तिरिति कश्चिदिदि । कश्चिदाचार्य इदं घन्दो 'विच्छित्ति' रित्याहेत्यर्थः ।। अ० २, सू० ३१६।१॥
स्जौ स्जो त्रौ बुबुदम् ॥३२०॥ सजसजतराः । यथा- असमं धन्नयपयो गभीरमध्यः सनातनो, विमलो मयत्यविरतं जिनेन्द्रसिद्धान्तवारिधिः । अतिपेशलंगम गणस्तरंगिते यत्र सर्वदा, क्षणदृष्टनष्टतनुभिः कुदृष्ठितनुभिर्बुदबुदायितम् ॥३२०.१॥
एकविंशं प्रकारमाह- स्जो स्जो त्रौ बुदबुदमिति । विवृणोति- सजसजतराः इति । सगण-जगण-सगण-जगण-तगण-रगणा: '. Is1. S. Is1. ssI. ss.' इतीहरिक्षर कृताः पादा यस्य तत् बुबुदं नाम धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- असममिति अनुपमम् असाधारणं वा नयपयः नेगमादि नय रूपं जलम् दधत् धारयन् गभीरमध्यः गभीरं मध्यं मध्यप्रदेश: अन्तरभिप्रायो वा यस्य- नित्यस्थितिभागापेक्षयेदमुक्तम् सनातनः नित्यः, विमलः दोषमलरहितः जिनेन्द्रसिद्धान्तवारिधिः जिनपतिसिद्धान्तसमुद्रः
अविरतं सततं जयनि सर्वोत्कर्षण वर्तते । अतिपेशलः बहुसुन्दरः गभगणः सदृशपाठसमूहैः तरङ्गिते जाततरने सततगतिशालिनि यत्र यस्मिन् सिद्धान्त. समुद्रे क्षणदृष्टनष्टतनुभिः पूर्वक्षणमालस्य कृते दृष्टापश्चान्नष्टा तनुः स्वरूप येषां तादृशै कुदृष्टिभिः मिथ्याज्ञानः सर्वदा सर्वस्मिन् काले बुबुदाणितम्बुबुदवदाचरितम् । अ [1] स [1] मं [5] द [1] ध [s] न [0] य [1] प. [1] यो [5] ग [0] भी [s] र [1] म [s] ध्यः [s] स [1] ना [s] त [1]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३२१.] नो [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३२०११ ॥ इत्थं धृतिजातिच्छन्दसां प्रसिद्धाः एकविंशति भेदा वर्णिताः। प्रस्तार गत्या तु २६२१४४ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन 'धृत्यामपि हि पिण्डेन वृत्तान्याकल्पितानि तु । तज्जैः शतसहस्र द्वे शतमेकं तथैव च ।। द्विषष्टिश्च सहस्राणि चत्वारिंशञ्च योगतः । चत्वारि चैव वृत्तानि समसंख्याश्रयाणि तु ॥ (भ. ना. शा. १४।६५) ॥ इति धृतिः ।। अतिधृत्यांम्सौ ज्सौ तौ गः शार्दूलविक्रीडितं ठैः ॥३२१॥
मसजसततगाः । ठरिति द्वादशभिर्यतिः। यथा-मामृत्युंगव कोशकन्दरमुखानिर्गस्य ते संगर-, क्रीडासून्मदर्वरिवारणघटाकुम्भस्थलीः पाटयन् । दंष्ट्रालो नवलग्नमौक्तिकमणिस्तोमरसॉलेखया, जिह्वालः करवाल एष तनुते शार्दूलविक्रीडितम् ॥३२११॥
अथ- उनविंशत्यक्षराम्- अतिधृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते अतिधृत्यां म्सौ सौ तौ गः शादलविक्रीडितं ठेरिति । विवृणोति-मसजसततगाः। ठेरिति द्वादशभियंतिरिति । मगण-सगण-जगण-सगणा: तगणद्वयं गुरुश्च 'sss. Is. Is1. ||s. ssi. ss1. s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् द्वादशभिश्च यतिर्यत्र तत् शार्दूलधिक्रीडितं नाम अति धृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-मामृदिति । हे क्ष्माभृत्पुंगव ! माभृतां राज्ञां पक्षे पर्वतानां पुङ्गवः श्रेष्ठः, तत्सम्बोधनम्, एष ते करवालः खङ्गः, संगरक्रीडातु संग्रापरूपकेलिषु कोशफन्दरमुखात् कोशः खङ्गपिधानमेव (पक्षेस इव) कन्दरः गुहा तस्यामुखात् निर्गत्य बहिर्भूय, उन्मदवैरिवारणघटाकुम्भस्थलीः उन्मदानां मत्तानां वैरिवारणानां शत्रुगजानां पक्षे शत्रूणा मिव गजानां घटायाः समूहस्य कुम्भस्थलीः स्तकभागान् पाटयन विदारयन् नवलग्नमौक्तिकमणिस्तोमः नवलग्नाः सद्य: सम्बद्धा ये मौक्तिकमणयः गजमुक्ताः तेषां स्तोमैः समूहैः दंष्ट्रालः दट्रावानिव, असृग्लेखया रुधिररेखया जिह्वालः जिह्वावानिव शार्दूलविक्रीडितम् व्याघ्रविलसितम् तनुते विस्तारयति । व्याघ्नः स्ववैरिभिर्गजैः सहसंगरक्रीडायाम्- गुहातो निःसरति तेषां कुम्भस्थलानि पाटयतीति प्रसिद्धम्- सच दंष्ट्रालो जिह्वालश्च भवति; तव
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[अ० २, सू०-३२२-३२३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते २७३ खङ्गोऽपि कोशकन्दरातो बहिर्भूय वैरिगजानाम् कुम्भस्थलानि पाटयति, पाटनसमये तन्मध्यस्थमुक्तायुक्तधारया दंष्ट्राल इव, लग्नशोणितेन चरक्तवर्णेन जिह्वाल इव भवतीति व्यक्तं तस्य शार्दूलवद्विक्रीडितमिति भावः । क्ष्मा [s] भृ [s] त्' [s] ग [1] व [1] को [s] श [1] कं [5] न्द [1] र [0] मु [1] खा; [s] न्नि [5] 1 [1] त्य [1] ते [s] सं [s] र [s] संयोगेरतो गुरुत्वम्) इति द्वादशमियत्यालक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू० ३२१११ ॥
म्सौ ज्सौ न्सौ गो वायुवेगा ॥३२२।। मसजसनजगा: हैरिति वर्तते। यथा- त्यक्त्वा पुत्रकलत्रबन्धुसुहृदां व्यतिकरमासा, नित्यं संस्मर वीतरागचरणाम्बुरुहयुगं रहः । हंहो चित्त चिरं प्रसीद किमिदं न हि हतजीवितं, जानीषे घनवायुवेगनिहताभ्रपटलगत्वरम् ॥३२२.१॥
द्वितीयं प्रकारमाह- म्सौ सौ न्जो गो वायुवेगेति । विवृणोति- मसजसनजगाः। ठेरिति वर्तत इत्यर्थः । मगण-सगण-जगण-सगण-नगणजगणा गुरुश्च, 'sss. s. II. Is. . Isi. s.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य द्वादशभिश्च यतिर्यत्र तत् वायुवेगानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- त्यक्त्वा पुत्रकलत्रेति । पुत्रकलत्रबन्धुसुहृदाम् सुतस्त्रीभ्रातृमित्राणां व्यतिकरम् सम्बन्धम् अञ्जसा झटिति त्यकावा विहाय होचित्त ! अये चेतः रहः एकान्ते निर्जने वने वीतरागचरणाम्बुरुहयुगं वीतरागस्य निर्गतसकलप्रणयस्य जिनस्य चरणाम्बुरुहयुगम् पादपद्मद्वन्द्वं नित्यं सततं संस्मर चिन्तय चिरं प्रसीद सर्वदा प्रसन्नस्तिष्ठ, इद वर्तमानम् हतजीवितम् दुष्टजीवनम् घनवायुवेगनिहताभ्रपटलात्वरम् निबिडानिलवेगप्रेरितमेघसमूहवत् चञ्चलम् न जानीषे किम् ? यतश्च इदं वायुवेगपराहतमेघघटासमानं चञ्चलमतः सर्वसम्बन्धिस्नेहं त्यक्त्वा । एकान्तं गत्वा जिनचरणस्मरणं कुर्वन् चेतः प्रसादयेति भावः। त्य [s] क्त्वा [s] पु [s] त्र [1] क [1] ल [s] त्र [1] बं [s] धु [1] सु [1] हृ [1] दां [s]; व्य [1] ति [1] क [1] र [0] मं [s] ज [1] सा [s] इतिलक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० ३२२॥१॥
यमौ न्सौ रौ गो मेघविस्फूजिता चचैः ॥३२३।। यमनसररगाः । चर्चरिति षड्भिः षड्भिश्च यतिः । यथा- निरन्धानस्तापं
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३२४.] जगति कलयंश्चस्डकोदण्डदण्डं, पदं व्यातन्वान: सततमखिलक्ष्मामृतां चोपरिष्टात् । निकामं दुर्धर्षा दिशि दिशि समुहासयन वाहिनीच, स्वमुच्चैश्चौलुक्येश्वर घटयसे मेघविस्फूजितानि ॥३२३.१॥ रम्भेति स्वयंभूः ॥३२३.१।।
तृतीयं प्रकारमाह- रमौ सौ रौ गो मेघविस्फूजिता चचैरिति । विवृणोति- यमनसररगाः। चचैरिति षड्भिः षड्भिश्च यतिरिति । यगण-भगण-नगण-सगणा-रगणद्वयं गुरुश्च 'Iss. sss. III. S. Sis. sis. S.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य षड्भिः षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् मेघविस्फूजितानामकं धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निरुन्धानस्तापमिति । हे चौलुक्येश्वर ! चुलुक्यवंशसभूतराजन् ! तापं दुःखम्- पक्षे ऊष्माणं निरन्धानः वारयन् जगति संसारे चण्डकोदण्डदण्डं भयङ्करचाप यष्टिं स्वीयां पक्षे इन्द्रस्य सततम् सर्वदा अखिलक्ष्माभृतां सर्वेषां राज्ञां पर्वतानां वा उपरिधात् मूर्धनि पदं चरणं व्यातन्वानः विस्तारयन् निकामम् अत्यन्तं दुर्धर्षाः अपरिभवनीयाः वाहिनीः सेनाः नद्यश्च दिशिदिशि प्रतिदिशं समुल्लासयन् वृद्धि नयन् त्वम् भवान् उच्चैः अत्यन्तं मेघविस्फूजितानि वारिदविक्रान्तानि घटयसे रचयसि । यथा वारिदः सूर्यतापवारकः इन्द्रधनुर्धारकः सर्वपर्वतोपरि संचारी नदीप्रवाहवर्धकच, तथात्वमपि सर्वेषां क्लेशवारक: सर्वराजशिरःसुपादस्थापकः दुर्धर्षसैन्यसञ्चालकश्चेति मेघविक्रान्तानुरूम विक्रान्तं दर्शयसीतिभावः । नि [D] रु [s] न्धा [s] न [s] स्ता [5] पं [s], ज [1] ग [0] ति [0] क [0] ल [1] यं [5]; श्वं [s] ड [1] को [5] दं [s] ड [1] दं [5] डं [s] इति षड्भिः षड्भिर्यत्या लक्षणसमन्वयः॥ अस्यनामान्तरमाह- रम्भेति स्वयंभूरिति । स्वयम्भूनामा आचार्य इदं छन्दो रम्भेत्याहेत्यर्थः । अ० २, सू० ३२३॥१॥ - यमौ न्सौ जो गो मकरन्दिका ॥३२४॥
यमनसजजगाः चर्चरित वर्तते । यया-इमा बाला त्रासाकुलमृगवधिलोलविलोचना, किमु त्वं निःशङ्को व्यथयसि मुहुवियातविचेष्टितः । परिमोद चण्डमुसलपरिघः सहेत न मालती, मृदुभ्राम्यभृङ्गीपदपरिचयागलन्मकरविका ॥३२४.१॥
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[अ० २, सू०-३२५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२७५ चतुर्थ प्रकारमाह- रमौ सौ जो गो मकरन्दिकेति । विवृणोतियमनस नजगाः। चचैरिति वर्तते इति । यगण-मगण-नगण-सगणा जगणद्वयं गुरुश्च Iss sss. IIS. Is1. Is1. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य षड्भिः षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् मकरन्दिकानामकमतितिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- इमां बालामिति । त्वं त्रासाकुल मृगवधूविलोलविलोचनां त्रासेन भयेन आकुला उद्विग्ना या मृगवधूः तस्याः इव विलोले चञ्चले विलोचने विशालनयने यस्यास्तथाभूतां इमां प्रत्यक्षस्थिताम् बाला किशोरी निःशङ्कः सन् वियातविचेष्टितैः धृष्टव्यवहारैः मुहुः भूयो भूय: किमु कुतः व्यथयसि दुःखाकरोषि मृदुभ्राम्यद्भङ्गीपदपरिचयात् मृदु सुकोमलं यथास्यात्तथा भ्राम्यन्ती चञ्चूर्यमाणा या भृङ्गी तस्याः पदेन चरणेन परिचयात्- सम्पर्कात् गलन्मकरन्दिका स्यन्दद्रसा मालती स्वनाम्नाख्याता पुष्पजातिः चण्डः घोरः मुसलपरिधः मुसलः परिश्च परि. क्षोदं चूर्णनम् न सहेत न क्षमेत । कमपि धृष्टं स्वभावानभिज्ञं नायकं परिबोधयन्ती नमसखी कथयति- यथा भृङ्गोमालत्या रसं मृदुनोपायेन गृह्णाति तथा त्वयापीयमप्रोढा नायिका सुकुमार चेष्टितैरेव भोग्येति । इ [1] मां [s] बा [5] लां [5] त्रा [s] सा [s]; कु [ ] ल [1] मृ [1] ग [0] व [1] धू[s]; वि [1] लो [s] ल [1] वि [0] लो [s] च [1] नां [s] इति षड्भिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसङ्गतिः ॥ १० २, सू० ३२४।१ ॥
रमौ न्सौ तौ गश्छाया ॥३२५।। यमनसततगाः । चचैरिति वर्तते । यथा- फलं कालाक्रान्तं कुसुममरसं पत्रं न भोगास्पदं, बहिस्तत्कार्कश्यं किमपि सहजं निःसारमन्तर्वपुः । विवृद्धि गृध्राणां धिगुपकरणं शाखाप्रपञ्चो न ते, किमन्यत्ताल स्याद्विरलविरला छायापि नो शीतला ॥३२५.१॥
पञ्चमं प्रभेदमाह-रमौ सौ तौ गश्छायेति । विवृणोति- यमनसततगाः। चचैरिति वर्तते इति । यगण-मगण-नगण-सगणाः तगणद्वयं गुरुश्र 'Iss. sss. 1. Isi. ssi. ssI. 5.' इतीहशैरक्षरः कृताः पादा यस्य षड्भिः षड्भिश्च यतियंत्र तत् छायानामकमतिधृति जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा
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२७६
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २. सू०-३२६.] फलं कालाक्रान्तमिति । हे ताल ! वृक्षविशेष ते फलं कालाकातं कालेन कृष्णवर्णचिह्नन, आक्रान्तं व्याप्तम्, अथ च कालदोषेण दूषितम्, धिक् निन्दास्पदम्, कुसुमं पुष्पम् अरसम् रसरहितं धिक्, निन्दास्पदम्, पत्रं दलम् भोगास्पदम् भोगविषयं न-न कोऽपि जीवस्तव पत्रमपि भुङ्क्ते इति तदपि धिक्, बहिः त्वचि किमपि अनिर्वचनीयं कार्कश्यम् काठिन्यम्अन्तर्वपुः शरीरमध्यम्- सहजम् स्वभावतः निःसारम् साररहितम्, तदपि धिक्, गृध्राणाम् मृतपशुभक्षिणां पक्षिणाम् उपकरणम् उपकारसाधनम्(तेहि उच्चस्तालोपरि स्थित्वा दूरत एम शवं पश्यन्तीति- तेषामुपकरणभूताम् ) विवृद्धिम् उन्नति धिक् , ते शाखाप्रपञ्चः विटपविस्तार: न अस्ति, अन्यत् एभ्योऽतिरिक्तं त्वदीयं किं स्यात किमपि नेति भावः, अस्त्वेका मदीया छायेति चेत्तत्राप्याह विरलविरला घनीभावरहिताऽतिसच्छिद्रेति यावत् छायाऽपि शीतला तप्तापहारिणी न (अस्ति) तालान्योक्त्या कश्चिदत्युन्नतः सर्वथा परोपकारशून्यसमृद्धिः पुरुषो निन्द्यते । फ [1] लं [s] का [5] ला [s] का [s] न्तं [s], कु [0] सु [1] म [1] म [1] र [1] सं [s]; प [5] [5] न [1] भो [s] गा [5] स्प [1] दं [s] इति षड्भिः षड्भिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३२५॥१॥
त्रिर ज्सौ गो रतिलीला ॥३२६॥ श्रीन वारान् जगणसगणो गुरुश्च । जसजसजसगाः । चचरित्यनुवर्तते । यथा-दुनोति बत लां कराम्बुजतले निवेशितकपोलां, किमप्यहरहस्तथा कथमपि त्ववीयविरहाग्निः । यथा वरतनुर्न पङ्कजदलनं मौक्तिककलापर्, न चन्दनरसन चन्द्रकिरणः करोति रतिलीलाम् ॥३२६.१।।।
षष्ठं प्रकारमाह- त्रिर् ज्सौ गो रतिलोलेति । विवृणोति- त्रीन वारान् जगणसगणी गुरुश्च । जसजसजसगाः । चचरित्यनुवर्तते इति । 'निर्' इति त्रिशब्दाद्वारार्थे सुचारूपम् तेन त्रीन वारानित्यर्थलाभः । तदेव स्पष्टयति जसजसजसा इत्यनेन । तथा च जगण-सगण-जगण-सगण-जगण-सगणा गुरुश्च is.. ||s Is1. |S. ISI. ||S. .' इतीदृशैरक्षरैः कृता पादा यस्य षड्भिः षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् रतिलीलानामकमतिधृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः ।
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[अ० २, सू०-३२७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रमोते
२७७ उदाहरति- यथा-दुनोति बत तामिति । वदीयविरहाग्निः त्वत्सम्बन्धि वियोगवह्निः कराम्बुजतले पाणिकमलमध्ये निवेशितकपोलां स्थापितगण्डस्थलाम्- शोचन्तीमिति यावत् तां पूर्वप्रक्रान्तां कान्तां अहरहः प्रतिदिनं तथा तेन प्रकारेण- किमपि अनर्वचनीय स्वरूपं यथास्यात्तथा- कथमपि अनिर्वचनीयप्रकारं यथास्यात्तथा दुनोति तापयति वत इति खेदे । तथेत्युक्तमिति तदाकांक्षा पूरयन्नाह- यथा- वरतनुः सुगात्री सा पङ्कजदलैः कमलपत्रः रतिलीला तिचेष्टाम् न करोति, मौक्तिककलापैः मुक्तासमूहैः रतिलीलां न करोति, चन्दनरसैः श्रीखण्डद्रवः रतिलीलां न करोति, चन्द्रकिरणः शशिरश्मिभिः (च) रतिलीलां न करोति । तथा तीवस्तव विरहाग्नितापो यत् पङ्कजादिभिः शैत्योपचारैरपि न शाम्यतीति भावः । दु [1] नो [5] ति [1] व [0] त [1] तां [s]; क [0] रा [5] म्बु [1] ज [1] त [1] ले [s]; नि [1] वे [5] शि [1] त [0] क [1] पो [s] लां [s] इति षड्भि: षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३२६॥१॥
म्तौ न्सौ रौ गः पुष्पदाम ङछैः ॥३२७।। मननसररगाः । कुछ रिति पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिः। यथा- सेयं साकाङ्क्षा त्वयि मृगनयना संगताङ्गो विलासर्. लीलालोलभूदिवि कमलवनं कुर्वती नेत्रपातः। हहो पश्यतद्विरहविधुरया ते यया सावहित्थं, प्रक्षिप्तं कण्ठे मिकसितबकुलासूत्रितं पुष्पदाम ॥३२७.१॥
सप्तमं प्रकारमाह- म्तो सौ रौ गः पुष्पदाम छैरिति । विवृणोतिमतनसररगाः । उछैरिति पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिरिति । मगणतगणनगणसगणा रगणद्वयं गुरुश्च 'sss. ssi. m. us. Is. sis. s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् पुष्पदामनामकमतिधतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- सेयं साकांक्षेति । विलासः विभ्रमैः सङ्गताङ्गी शोभितशरीरा, लीलालोलभ्रः लीलया कौतुकेन लोला चञ्चला भ्रूः भ्रुकुटिर्यस्याः सा, दिवि आकाशे नेत्रपातैः लोचनप्रक्षेपः कमलवनं पद्मकाननं कुर्वती विदधाना सा इयं प्रत्यक्षगोचरा मृगनयना मृगस्यनयने इव नयने यस्याः सा त्वयि भवति साकांक्षा साभिलाषा ।
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२७८
सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३२८.] हंहो ! भो: ? ते तव विरहविधुरया वियोग खिन्नया यया मृगनयनया एतत् प्रत्यक्षम्- विकसितबकुलासूत्रितं विकसितैः प्रफुल्लः बकुलैः पुष्पविशेषः आसूत्रितं पिनद्धं पुष्पदाम कुसुममाल्यम् कण्ठे ( तव ) गले सावहित्यं आकारगृहनपूर्वकं प्रक्षिप्तम्- परिधापितम्- ( इति) पश्य । यया तव गले पुष्पमाल्यं समर्पितं सात्वयि अवश्यं साभिलाषेति भावः । से [s] यं [5] सा [s] कां [5] क्षा [s], त्व [1] यि [1] मृ[1] ग [1] न [1] य [1] ना [s]; सं [s] ग [I] ता [s] ङ्गी [s] वि [1] ला [s] सैः [5] इति पञ्चभिः षभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३२७।१॥
म्तौ न्सौ तौ गो वञ्चितम् ॥३२८।। मतनसततगाः । छरिति वर्तते । यथा- कैश्विचाकिरविदितसुकृतः शुकाविमुक्तात्मभिः, कोलीभूयान्यविहितपशुगणाघात: परैर्यज्वभिः । जैने धर्मेऽस्मिन् सति सततकृपापीयूषपात्रेऽप्यहो, स्वच्छन्दं धूर्तेरहह कुटिलया बुद्धचा जगद् वञ्चितम् ॥३२८.२॥ बिम्बितमित्यन्यः ॥३२८ ॥
अष्टमं प्रकारमाह- म्तौ सौ तौ गो वञ्चितमिति । विवृणोति-- मतनसततगाः । ङछैरितिवर्तते इति । मगण-तगण-नगण सगणाः तगणद्वयं गुरुश्च 'sss. ssi. | ॥s. 51. 551. s.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् वश्चितनामकभतिधृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-कैश्चिच्चार्वाकरिति । सततकृपापीयूषपात्रे सततं सर्वदा कृपापीयूषस्य दयाऽमृतस्य पात्रे निधाने अस्मिन् प्रसिद्ध जैने जिनप्रवत्तिते धर्म सुकृतमार्गे सति विद्यमाने अपि अहो आश्चर्यम्- चार्वाकः नास्तिक: अविदितसुकृतैः अज्ञातपुण्यः शूकाविमुक्तात्मभिः दयाहीनः कश्चित् अज्ञातः, कोलीभूय कोलमार्गमाश्रित्य विहितपशुगणधातः विहितः पशुगणस्य जीवसमूहस्य आधातो हिंसनं यः तादृशः अन्यैः कश्चनाज्ञातः, यज्वभिः यज्ञकारः परः अन्यश्च कश्चित् धूतः वञ्चकः कुटिलया वक्रया बुद्धचा मत्या स्वच्छन्वं स्वरं यथास्यात्तथा जगत विश्वम्, वञ्चितम् प्रतारितमित्यहह दुःखम् । के [s] श्चि [s] चा [s] [s] कैः [s], र [1] वि [1] दि [0] त [1] सु [1] कृ [1] तैः [s]; शू [s] का [s] वि [1] मु[s]
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[अ० २०-३२९-३३०] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
क्ता [s] त्म [1] भि: [s] इति पञ्चभि: षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३२८।१ ॥
२७६
मौनौ रौ गोमुग्धकं चछैः ॥३२६॥
यमननररगाः । चछैरिति षड्भिः सप्तभिश्च यतिः । यथा- परिभ्राम्यभृङ्गं श्वसितपरिमलैर्ज पापाटलोष्ठं गिरा लीलालापप्रणयमधुरया सदानन्ददायि । स्फुरत्यन्तश्चित्तं लिखितमिव सखे ममाद्यापि तस्याः, प्ररूढप्रेमायाश्वकितमृगदृशो मुखं मुग्धकं तत् ।। ३२९.१ ॥
नवमं प्रभेदमाह - यमौ नो रो गो मुग्धकं चछेरिति । विवृणोति - यमननररगाः । चछैरिति षड्भिः सप्तभिश्च यतिरिति । यगण-मगणौ-नगणद्वयं रगणद्वयं गुरुव 'Iss. sss 11 111. Bis sis s.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य, षड्भि. सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् मुग्धकनामकमतिधृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा परिभ्राम्यदिति । हे सखे ! मित्र ! श्वसितपरिमलैः श्वाससौरभैर्हेतुभिः परिभ्राम्यद्भृङ्गः सर्वतः चञ्चूर्यमाणभ्रमरम्, जपापाटलोष्ठं जपावत्पुष्पविशेषवत् - पाटलं रक्तमोष्ठं यस्य तत्, लीलालापप्रणयमधुरया क्रीड़ा - सहितवचोविन्यासपरिचयेनेष्टरसया गिरा वाण्या सदानन्ददायि सर्वदासुखदातृ प्ररूढ़ प्रेमायाः प्रगाढ़स्नेहायाः चकितमृगदृशः चकितस्य भीतस्य मृगस्य दृशाविव दृशौ यस्याः तस्याः, तस्याः पूर्वप्रक्रान्ताया: कामिन्याः मुग्धकम् मनोहरं तत् मुखं वक्रं अद्यापि साम्प्रतमपि मम अन्तश्चित्तं चेतोमध्ये लिखितमिव उत्कीर्णमिव स्फुरति विद्योतते । प [1] रि [s] भ्रा [s] म्यद् [s] भृ [s] ङ्गं [s], श्व [1] सि [1] त [1] १ [1] रि [1] म [1] लै [5], र्ज [1] पा [5] पा [5] ट [1] लो [s] ठं [s] इति षड्भिः सप्तभिश्व यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३२६।१ ।।
रः सौ तो जो ग ऊर्जितं ञः ॥ ३३० ॥
रससतजजमाः । नैरिति दशभिर्यतिः । यथा- नेक्षसे किमहो जलरिक्तां स्वामपि तावदिमां तनूं, नो निषेधसि चण्डमरीचेर्बुः सहमातपजृम्भितम् । शारदे समयेऽपि तदस्मिन् पूरितपर्वतकन्दरा, प्यूजितस्तनितानि दधानस्तोयद कि न हि लज्जसे । ३३०.१ ।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३३१.] दशमं प्रकारमाह- रः सौ तो जो गः जितं जैरिति । विवृणोतिरससतजजगाः। रिति दशभिर्यतिरिति । रगणः सगणद्वयं तगण: जगणद्वयं गुरुश्च, 'sis. S. I. I. II. Is1. 5.' इतीदृशैरक्षरः कृता पादा यस्य दशभिश्च यतिर्यत्र तत् जितं नामातिधृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नेक्षस इति । हे तोयद ! जलरिक्ताम् वारिविहीनाम् अपि स्वाम् स्वकीयाम् इमां सर्वदृग्गोचरं तनं शरीरं कि न ईक्षसे पश्यसि, अहो इत्याश्चर्यम्, चण्डमरीचेः तीक्ष्णदीधितेः सूर्यस्य- दुःसहम अविषह्यम् आतपभितम् धर्मप्रभावम् नो निषेधसि वारयसि तत तस्मात् अस्मिन शारदे शरदृतुसम्बन्धिनि समये कालेऽपि पूरितपर्वतकन्दराणि पूरितानि भरितानि पर्वतानां कन्दराणि गुहास्थानि यः तानि गजितानि गर्जनध्वनीन् दधानः धारयन् कि न लज्जसे त्रपसे । जलवर्षणं सूर्यातपवारणं च तवप्रयोजनम्- तयोरेकमप्यकुर्वाणो वृथा गर्वं प्रदर्शयन् कुतो न त्रपसे इति भावः । कमप्युपकारं जनानामनाचरन् स्वगवं दधानः कश्चिन्मेघान्योक्त्या प्रबोध्यते । ने [s] क्ष [1] से [s] कि [I] म [[ हो [s] ज [1] ल [1] रि [s] क्तां [s], स्वा [5] म [1] पि [1] ता [s] व [1] दि [1] मां [s] त [1] नूं [s] इति दशभिर्यत्यालक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० ३३० ।।
नभ्रसा जौ गस्तरलम् ॥३३१॥ नभरलजजगाः । यथा-श्रय विशुद्धधिया जिनेश्वरपारपङ्कजभृङ्गता, प्रकटय प्रशमं भजस्व गुरुनधीष्व सदागमम् । विरचयार्थिजनं कृतार्थमिमं कुरुष्व तपः परं, तरलमायुरिदं गृहाण तदीयमेतदहो फलम् ॥३३१.१॥
एकादशमं प्रभेदमाह-नभ्रसा जो गस्तरलमिति । विवृणोति-नभरसजजगाः इति । नगण-भगण-रगण-सगणा जगणद्वयं गुरुश्च '. I. SIS. ॥. 51. ISI. S.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य दशभिश्च यतिर्यत्र तत् तरलं नामातितिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- श्रय विशुद्धेति । विशुद्धधिया निर्मलमत्या जिनेश्वरपादपङ्कज भृङ्गनाम् जिनपतिचरणकमलमधुकरत्वम् श्रय प्राप्नुहि, प्रशमम् अन्तरिन्द्रियनिग्रहं प्रकटय आविष्कुरु, गुरून् श्रेष्ठजनान भजस्व सेवस्व, सदागमम् सच्छास्त्रम् अधोव्व
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[अ० २, सू०-३३२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते पठ, अर्थिजनं याचकलोकम् इमं प्रत्यक्षदृष्टं, कृतार्थम् विहितप्रयोजनम् विरचय विधेहि, परम् उत्कृष्टम् तपः कृच्छादिव्रतं कुरुष्व आचर, इदम् वर्तमानम् आयुः जीवनम् तरलम् चञ्चलम्, तदीयम् तत्सम्बन्धि- एतत् पूर्वोक्तप्रकारम् फलं प्रयोजनं गृहाण अर्जय, अहो हर्षे । चञ्चलेनायुषा स्थिरफलसाधनं जिनेश्वरपादप्रणामादिफलमवश्यमर्जनीयमिति भावः । श्र [1] य [1] वि [1] शु [5] द्ध [1] धि [1] या [5] जि [1] ने [s] श्व [1] र [1] पा [s] द [1] प [s] ङ्क [1] ज [1] भृ [s] ङ्ग [1] तां [s] इति दशभिर्यत्यालक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३३१।१ ।।
म्रौ भः सौ ज्गौ माधवीलता छैः ॥३३२॥ मरभससजगाः । छरिति सप्तभिर्यतिः । यथा-निःसामान्यं तवैतत् किमपि बिराजति दक्षिणानिल, प्रावीण्यं यत्प्रगल्भामिह सहकारलतामनुव्रजन् । अश्रान्तं साभिलाषः स्पृशसि समुन्नयसे विधूनय-, स्यालिङ्गस्याशु चुम्बस्यभिनवकोमलमाधवोलताम् ॥३३२.१॥
द्वादशं प्रभेदमाह- म्रौ भः सौ ज्गौ माधवीलताछरिति । विवृणोतिमरभससजगाः। छरिति सप्तभिर्यतिरिति । मगण-रगण-भगणाः सगणद्वयं जगणो गुरुश्च 'sss. SIS. S.. ||s. . Is1. s.' इतीहशैरक्षरै कृताः पादा यस्य षड्भिश्च यतिर्यत्र तत् माधवीलतानामकंमतिधृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निःसामान्यमिति । हे दक्षिणानिल दक्षिणदिग्वायो ! तव भवतः निःसामान्यम् असाधारणम् किमपि अनिर्वचनीयम् एतत प्रावीण्यां चातुर्यम् विराजति शोभते, यत् प्रगल्भाम् प्रौढाम् सहकारलताम् चूतवल्लीम् अनुवजन् आनुकूल्येनानुशीलयन्, साभिलाषः सतृष्णः अभिनवकोमलमाधवीलताम् नूतनांमृदी माधवीलताम्- अश्रान्तं सततं स्पृशसि, समुन्नयसे उच्चैः उत्थापयसि; विधूनयसि कम्पयसि, आशु शीघ्रम् आलिङ्गसि श्लिष्यसि, चुम्बसि (च) मुखेन योजयसि । दक्षिणानिलोक्याप्रगल्भां स्वप्रियामनुकूलयन्नपि काञ्चन नवीनां नायिकां सर्वथा रमयन् कश्चिदक्षिणनायकः स्तूयते । निः [s] सा [s] मा [s] न्यं [5] त [1] वै [s] तत् [s], कि [i] म [1] पि [1] वि [i] रा [s] ज [1] ति [1] द [s]
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स वृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० - ३३३. ]
क्षि [1] णा [s] नि [1] ल [s] ( प्रावीण्यमिति संयोगादी पदतो गुरुत्वात् ) सप्तभियंत्यालक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३३२।१ ।।
सूगो तरुणीवदनेन्दुः ||३३३॥
सगणाः षट् गुरुश्च । यथा - मृगनाभिविनिर्मितपत्र लतावलिलाञ्छनधारी, जननेत्रचकोर महोत्सव कृत्कमलद्युतिहारी । जगतां विजयाय निबद्धमती लक्ष्मणि सद्यो जयति प्रतिपन्नसहायपदस्तरुणीवदनेन्दुः ॥ ३३३.१ ॥ १६।१३ ।।
त्रयोदशं प्रकारमाह- सूगौ तरुणीवदनेन्दुरिति । विवृणोति - सगणाः षट् गुरुश्चेति । तथा च ' ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥s. S. ' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् तरुणीवदनेन्दुनामकमति धृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- मृगनाभिविनिर्मितेति । मृगनाभिविनिमितपत्रलतावलिलाञ्छनधारी मृगनाभ्या कस्तूर्या विनिर्मिताया: रचितायाः पत्रलतावल्या: रचनाविशेषपङ्क्तेःलाञ्छनस्य - तद्रूपस्य अङ्कस्यधारी धारक:- - तद्रूपं लाच्छनं धारयति तच्छील: इतिवा, जननेत्रचकोर महोत्सवकृत् जनानां नेत्राण्येव चकोराः तेषां महोत्सवं परमानन्दं करोतीति तादृशः, कमलद्युतिहारी कमलानां पद्मानां द्युति कान्ति हरति तच्छीलः, जगतां लोकानां विजयाय पराभवाय निबद्धमतौ निश्चितबुद्धी भषलक्ष्मणि कामे सद्यः तत्कालमेव प्रतिपन्नसहायपदः प्राप्तोपकर्तृ नियोगः तरुणीवदनेन्दुः युवतिमुखचन्द्रः जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । चन्द्रः लाञ्छनधारी, चकोरानन्दकृत् - कमलसङ्कोचकः कामस्य जगद्विजये सहायश्च तथाचायमपि - तरुणीमुखचन्द्र: इति सर्वथासाम्येन तद्रूपेणरूपणमिति भावः । मृ [1] ग [1] ना [5] भि [1] वि[1] नि [s] मि [1] त [1] प [5] त्र [1] ल [1] ता [5] व [1] लि [1] ला [5] ञ्छ [1] न [1] धा [s] री [s] इतिलक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३३३।१ ।। इति ऊनविंशत्यक्षरपादाया अतिवृतिजातेस्त्रयोदशप्रभेदावर्णिताः । प्रस्तारगत्या तु अस्याजातेः ५२४२८८ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन - "अतिधृत्यां सहस्राणि चतुर्विंशतिरेव च । तथा शतसहस्राणि पञ्चवृत्तशतद्वयम् । अष्टाशीतिश्च वृत्तानि वृत्तज्ञैः कथितानि तु ॥ ( भ० ना० शा० १४।६६ ) ।। इत्यतिधृतिः ॥
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[अ० २, सू०-३३४-३३५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
कृतौ म्रौ भनौ यभौ लगौ सुवदना छछैः ॥ ३३४॥
मरभनय भलगा छछैरिति सप्तभि: सप्तभिर्यतिः । यथा- आकल्पं कल्पयित्वाभिनवमृगमदेरामुच्य च शिति, क्षौमे कृत्वा विभूषां मरकतमणिभिर्गन्तुं प्रियगृहम् । औत्सुक्याद्यावदस्थात् पथि मुखशशिना तावद्धततमी, ज्योत्स्नी जातेति मूर्छामभजत सहसा कष्टं सुवदना ॥३३४.१ ।।
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अर्थावंशत्यक्षरां कृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते - कृतौ स्रौ भनौ य्भौ लगौ सुवदना छछेरिति । विवृणोति - मरभनयभलगाः । छछैरिति सप्तभिः सप्तभियंतिरिति । मगण - रगण भगण-नगण-यगण भगणा लघुगुरू च ' sss. ऽ ऽ ऽ।। ।।1. Iss. 511 15' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य, सप्तभिश्च यतियंत्र तत् सुवदनानामकं कृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाआकल्पमिति । सुवदना सुमुखी काचित् औत्सुक्यात् प्रियसङ्गमौत्सुक्यात्यावत् - अभिनवमृगमदैः नूतनकस्तूरिकाभिः आकल्पं नेपथ्यरचनां कल्पयित्वा विधाय, शितिक्षौमे कृष्णवस्त्रे आमुच्य परिधाय, मरकतमणिभिः कृष्णवर्णरत्नैः विभूषां अलङ्कृति कृत्वा विरच्य प्रियगृहं अभीष्टजनागारं गन्तुम् अभिसर्तुम् - यावत् पथि मार्गे अस्थात् स्थितवती तावत् मुखशशिना स्वसुखचन्द्रमसा हततमी दुष्टाकृष्णनिशा ज्योत्स्नी सुप्रकाशा जाता सम्पन्ना इति हेतोः सहसा तत्कालमेव मूर्छाम् मोहम् अभजत प्राप्ता (इति) कष्टम् दुःखम् । कृष्णाभिसारिका कृष्णवर्णै रेवोपकरणैः स्वगोपनार्थं वेशं विधाय मार्गे समायाता किन्तु तस्या मुखप्रकाशेनैव सर्वतः प्रसूतेन शुक्लपक्षनिशाऽभवदिति स्वप्रयासं व्यथं ज्ञात्वा प्रियसमागमविघ्नेन मूच्छितेति भावः । आ [5] क [s] ल्पं [s] क [s] ल्प [1] यि [s] त्वा [s]; भि [1] न [1] व [1] मृ [1] ग [1] म [1] दे [5]; रा [5] मु [s] च्य [1] च [1] शि [1] ति [5] ( 'क्षौमे' इति संयोगे परतो गुरुत्वम् ) सप्तभि: सप्तभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३३४।१ ॥
दशग्ला वृत्तम् ॥ ३३५॥
गुरुलघु दशवारानावृत्तौ वृत्तं नाम वृत्तम् । यथा- प्रीणिताखिलाथिदानमूजिता रिजिष्णु पौरुषं महर्षि, चित्रकृज्जितेन्द्रियत्वमेवमद्भुतान् गुणान् बध
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३३६.] नरेन्द्र । रामपार्थधुन्धुमारमुख्यपूर्व भूमिपालवृत्तमत्र, सत्यतां चिराय नोतवानसि त्वमुच्चकैश्चुलुक्यचन्द्र ॥३३५.१॥
द्वितीयं प्रभेदमाह- दश ग्ला वृत्तमिति । विवृणोति- गुरुलघूदशवारानावृत्तो वृत्तं नाम वृत्तमिति । गुरुलघू दशवारान् 'si. si. si. s. s. si. sI. I. I. 5.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् वृत्तं नाम कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- प्रीणिताखिलार्थीति । हे चुलुक्यचन्द्र ! चुलुक्यवंशशशाङ्क ! नरेन्द्र राजन् ! प्रीणिताखिलाथि तोषितसकलयाचकम् दानम् वितरणम्, अजितारिजिष्ण, ऊर्जितानां बलवताम् अरीणां शत्रूणां जिष्णु जयशीलं पौरुषम् बलम् महर्षि-चित्रकृत् महर्षीणां महामुनीनाम् (अपि) चित्रकृत् आश्चर्यजनकं जितेन्द्रियत्वम् इन्द्रियजयः एवम् उक्तप्रकारेण अद्भुतान् आश्चर्यकरान् गुणान् दधत् धारयन् त्वम् भवान् अत्र संसारे रामपार्थधुन्धुभारमुख्यपूर्वभूमिपालवृत्तम् राम: परशुरामः, पार्थः अर्जुनः धुन्धुभारः स्वनाम्नाप्रसिद्ध: पार्थिवः (एते) मुख्याः प्रधानानि येषु तादृशानाम् पूर्वभूमिपालानाम् प्राचीनमहीपानाम् वृत्तं चरित्रम् चिराय वहोः कालादनन्तरम् उच्चकैः अत्यन्तं सत्यतां यथार्थत्वं नीतवान् प्रापितवान् असि । परशुरामः 'त्यागःसप्तसमुद्रमुद्रितमही नित्यजिदानावधिः' एवं रूपेण प्रसिद्धो दाता, पार्थः प्रसिद्धो विजेता धुन्धुभारः अप्सरोभिरप्यनपनीत धैर्यः एवं भूतत्वेनैते प्रसिद्धाः, किन्तु तत्र लोकानां विश्वासो नाभूत्, किन्तु चिरकालादपि पश्चात्त्वाम् तादृशे रद्भुतगुणैरुपेतं दृष्ट्वा तेषां चरित्रेषु सत्यता प्रतीतेति भावः । प्री [s] णि [I] ता [s] खि [1] ला [s] थि [1] दा [s] न [1] मू [s] जि [1] ता [s] रि [1] जि [5] ष्णु [1] पौ [5] रु [1] षं [5] म [1] ह [5] षि [1] इतिलक्षणसंगतिः । अ० २, सू० ३३५॥१॥
स्मौ नौ म्यौ ल्गौ मत्तेमविक्रीडितं डैः ॥३३६।। समरनमयलगाः। डैरिति त्रयोदशभिर्यतिः । यथा- उदयाद्रेः प्रसरन्नयं दिनपतिः प्रत्यग्रसन्ध्यातप-, स्फुटसिन्दूररुचिविसूत्रित - तमःसंदोहवल्लीवनः । तनुते वाजिजवोल्लसत्कशपुरःकामत्सुपर्णाग्रज-, प्रतिकारोपरिवल्गदायतकरो मत्तेभविक्रीडितम् ॥३३६॥१॥
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[अ० २, सू०-३३७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२८५ तृतीयं प्रभेदमाह- स्भौ नौ म्यौ ल्गौ मत्तेभविक्रीडितं डेरिति । सभरनमयलगाः। डैरिति त्रयोदशभिर्यतिरिति । सगण-भगण-रगणनगण-मगण-यगणाः लघुगुरू 's. s. sis. 1. sss. Iss. Is.' इत्येवंप्रकाररक्षर कृताः पादा यस्य, त्रयोदशभिश्च यतिर्यत्र तत् मत्तेभविक्रीडितं नाम कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- उदयाद्रेरिति । (अत्र द्वितीये पादे 'स्फुटसिन्दूररुचिविसूत्रित' इत्येवंरूपेण समस्तः पाठोदृश्यते, किन्तु- छन्दोदृष्टयाऽर्थदृष्टया च स्फुटसिन्दूररुचिविसूत्रित' इत्येवं पृथक् पदत्वं न्याय्यमिति तथैव व्याख्यायते) उदयाद्रेः उदयाचलात् प्रसरन् निर्गच्छन् प्रत्यग्रसन्ध्यातपस्फुटसिन्दूररुचिः प्रत्यग्रेण नवीनेन सन्ध्यातपेन सान्ध्यप्रतापेन स्फुटा स्पष्टा सिन्दूरस्य रुचिरिव रुचिः कान्तिर्यस्य तादृशः, विसूत्रिततमः संदोहवल्लीवनः विसूत्रितं विघट्टितं तयः सन्दोहवल्लीनां अन्धकारपटलीलतानां वनं येनतादृशः अयं प्रत्यक्षदृष्टः दिनपति: सूर्यः वाजिजवोल्लसत्कशपुरः क्रामन्सुपर्णाग्रजप्रतिकारोपरिवल्गदायतकरः वा जीनामश्वानां जवाय वेगाय उल्लसन्ती उपरिस्फुरन्ती कशा अश्वताडनरज्जुः यस्य तादृशो यः पुरः क्रामन् अग्रेसरः सुपर्णाग्रजः अरुणः तस्य प्रतिकाराय निषेधाय वल्गन् चलन् आयतः लम्बमान: करः हस्तः (किरणो) यस्य तादृशः सन् मत्तेभविक्रीडितं उन्मत्तगजलीलां तनुते विस्तारयति । उ [1] द [1] या [s] द्रेः [s] प्र [1] स [1] र [5] न्न [1] यं [s] दि [1] न [1] प [1] तिः [s]; प्र [s] त्य [s] ग्र [1] सं [5] घ्या [s] त [1] प [s] ( स्फुटेति संयोगे गुरुत्वात् ) इति त्रयोदशभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३३६॥१॥
नो भौ मः सौ ल्गो मुद्रा टैः ॥३३७|| नभममससलगाः । टैरिति एकादशभिर्यतिः । यथा- अयमरण्यमहीष्वपि चूतास्वादकषायितकोकिला-, कलकलच्छलतश्चिरमाज्ञामस्खलितामिह वर्तयन् । कुपितमानवतीकलहानामन्तकरः पुरतः सखे, मकरकेतुमहीपतिमुद्राव्यापरणं तनुते मधुः ॥३३७.१॥ उज्ज्वलमित्यन्ये ॥३३७.१॥
चतुर्थ प्रकारमाह- नो भौ मः सौ ल्गो मुद्रा टैरिति । विवृणोति
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० - ३३८. ]
नभभमससलगाः | टैरिति एकादशभिर्यतिरिति । नगणोभगणद्वयं लघुगुरू च ‘1।1. 5।1. 5।1. ऽऽऽ. ।।5. 115. 15. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य एकादशभिश्च यतिर्यत्र तत् मुद्रानामकं कृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाअयमरण्येति । हे सखे ! अयं मधुः वसन्तः अरण्यमहीषु वनभूमिषु अपि चूतास्वादकषायित कोकिलाकलकलच्छलतः चूतास्वादेन आम्रमञ्जरी रसानुभवेन कषायितायाः रक्ताया कोकिलायाः पिक्या : कलकलच्छलतः अव्यक्तमधुरकोलाहल व्याजेन इह संसारे अस्खलिताम् अप्रतिवद्धाम् आज्ञां मदनस्य निदेशं चिरं बहुकालं वर्तयन् स्थापयन् कुपितमानवतीकलहानाम् कुपितानां प्रियं प्रति कृतकोपानाम् ( अतएव ) मानवतीनाम् - मानिनीनां स्त्रीणां कलहस्य विरोधस्य ( प्रियं प्रति) अन्तकरः नाशकः पुरतः अग्रेमकरकेतु महीपतिमुद्रा व्यापरणं कामनृपशासनप्रवृत्ति - तनुते करोति । वसन्तर्तुः वनेष्वपि ( किमुत सतत भोगपरायणेषु नगरेषु ) कोकिलालापच्छलेत कामाज्ञां दुर्वारां सूचयन् मानिनीनां मानं भञ्जयन् राज्ञो मदनस्य शासनहारक इव प्रतिभातीति भावः । अ [1] य [1] म [1] र [5] ण्य [1] म [1] ही [s] ष्व [1] पि [1] चू [s] ता [s]; स्वा [s] द [1] क [1] षा [s] यि [1] त [1] को [s] कि [1] ला [5], इति एकादशभिर्यंत्यालक्षणसमन्वयः । अस्य नामान्तरमाह - उज्ज्वलमित्यन्ये इति । अन्ये इदमेव उज्ज्वलनाम्ना व्यवहरन्तीत्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३३७।१ ।।
२८६
यमौ नौ तो गौ शोभा चछेः ॥३३८ ||
यमननततगगाः । चछैरिति षड्भिः सप्तभिश्च यतिः यथा- गता लाक्षारागद्युतिरघरदलात्पत्रवल्ली विलुप्ता कपोले पर्यस्तं तिलकमलिकतो लम्बितः केशपाश: । च्युतः कर्णोत्तंसः करमणिबलयं त्रस्तमसस्तथापि, प्रियेण प्रत्यग्रः प्रथयति महतीं संगमो हन्त शोभाम् ।। ३३८.१ ।।
पञ्चमं प्रकारमाह- यमौ नौ तौ गौ शोभा चछेरिति । विवृणोतियमननततगगाः । चछैरिति षड्भिः सप्तभिश्च यतिरिति । यगणमगणी; नगणद्वयं तगणद्वयं गुरूच ' Iss. sss. 111. 111. SSI SSI. SS. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य षड्भिः समभिश्च यतिर्यत्र तत् शोभानामकं कृतिजातिच्छन्द
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[अ० २, सू० - ३३६. ] सवृत्तिं च्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- गतालाक्षेति । अस्याः कामिन्याः अधरदलात् अधरोष्ठपल्लवात् लाक्षारागद्युतिः अलक्तकरञ्जनकान्तिः गता चुम्बनवशालुप्ता, कपोले गण्डस्थले पत्रवल्ली कस्तूरीकृता पत्रलताभङ्गिः विलुप्ता चुम्बनादेव विनष्टा अलिकतः भालस्थलात् तिलकं चन्दनादिकृतो विन्दुः पर्यस्तम् परिश्रमस्वेदात् - विकीर्णम् (अलिकतः ) केशपाशः कचसमूहः लम्बितः नीचैरागतः कर्णोत्तंसः कर्णालङ्कारः च्युतः विपरीतरतप्रसक्त्या पतितः करमणिवलयम् हस्तस्थितं मणिनिर्मितं कङ्कणम् स्रस्तम् सम्मर्द • वशात् पतितम् तथापि प्रियेण वल्लभेन सह प्रत्यग्रः नूतनः संगमः विलासः महतीं विपुलां शोभां कान्ति प्रथयति प्रख्यापयति, हन्त इत्याश्चर्ये । शोभातुषु लाक्षारागादिषु नष्टेष्वपिप्रियसङ्गमसुखसंजातमुखविकासविशेषेण महतीशोभाजायते । उक्तं हि केनचित् - " तनिम्नाराजन्ते सुरतमृदिता बालवनिता: " इति । ग [1] ता [s] ला [s] क्षा [s] रा [s] ग [5], द्यु [1] ति [1] र [1] ध [1] र [1] द [1] लात् [s] ; प [5] त्र [1] ब [5] ल्ली [s] वि [1] लु [s] सा [s] इति षड्भिः मप्तभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३३८।१ ।।
२८७
म्रौ भनौ तौ गो चित्रमाला छचैः ॥ ३३६ ॥
मरभनततगगाः । छचैरिति सप्तभिः षड्भिश्व यतिः । यथा- सा काङ्क्षत्यन्यमेवायमपि बत तां सारसौन्दर्यलक्ष्मीर् एषा चंतं वरांकी तरुण निवहोमूं च लावण्यपुण्याम् । एवं प्रत्यप्रकेलीकुशलललितं बद्धहासं वसन्ते, देव: पुष्पायुधोऽसौ रमयति रति दर्शयंश्चित्रमालाम् ||३३६. १ || सुप्रभेत्यन्यः ।।३३६.१ ।।
षष्ठं प्रकारमाह- नौ नौ तौ गौ चित्रमाला छचैरिति । विवृणोति - मरभनततगगाः । छचैरिति सप्तभिः षड्भिश्च यतिरिति । मगण-रगणभरण-नगणाः तगणद्वयं गुरूच ' sss. SIS. SII. 111. sst. SSI. ss.' इतीदृशैरक्षर : कृता: पादा यस्य सप्तभि: षड्भिव यतिर्यत्र तत् चित्रमालानामकं कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- सा कांक्षत्यन्यमिति । सा अस्य मनोगता कामिनी अन्यमेव अस्माद्भिन्नमेव पुरुषं कांक्षति प्रियत्वेने च्छति
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२८८
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३४०.] अयमपि तदनिष्टोजनोऽपि बत इति खेदे ताम् अन्याभिलाषिणी ( कांक्षति ) सारसौन्दर्यलक्ष्मीः सारसौन्दर्यस्य उत्तमलावण्यस्यलक्ष्मी: अधिष्ठात्री एषा वराकी दीनाङ्गना एतं स्वप्रेयस्यानिष्टं जनं (कांक्षति) तरुणनिवहः युवजनसमूहः लावण्यपुण्याम लावण्याधायिसुकृताम् अमूं मनोरथगतां कांचित् (कांक्षति ) एवं उक्तप्रकारेण प्रत्यग्रकेलोकुशल ललितः नूतनक्रीडानिपुणविलासः बद्धहासं अनुबद्धहास्यं यथास्यात्तथा- रति स्वप्रेयसी चित्रमालाम् आश्चर्यपरम्परां दर्शयन् ज्ञानविषयतां नयन् वसन्ते सुरभी असौ प्रसिद्धः पुष्पायुधः कुसुमबाणो देवः कामः रमर्यात विनोदयति । कामो वसन्ते स्वप्रभावेण वशीकृताम् परस्परभावबन्धरहितान् अनिच्छन्तीमपि कामयमानात् तेषां मुग्धत्वोपरिहासं पश्येमं मदीयप्रभावमिति सूचयंश्च विनोदयतीति भावः । उक्ताचेयं रीतिर्भर्तृहरिणापि नीतिशतके- “यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं सजनोऽन्यसक्तः । अस्मत्कृतेच परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥ इति । सा [s] कां [5] क्ष [5] त्य [5] न्य [1] में [s] वा [s], य [1] म [1] पि [1] ब [1] त [1] तां [s]; सा [s] र [1] सौ [5] न्द [s] [1] ल [s] क्ष्मीः [s] इति सप्तभिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ।।अ० २, सू० ३३९।१।। अस्य नामान्तरमपीत्याह-सुप्रभेत्यन्य इति । अन्यः कश्चिदिमां सुप्रभेत्याहेत्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३३६॥१॥
म्नौ स्नौ म्यौ ल्गौ सद्रत्नमाला उजैः ॥३४०॥ मनसनमयलगाः। रिति पञ्चभिरष्टभिश्च यतिः । यथा- सन्ध्यान्ते प्रतिदिशमियं समुदिता ताराततिः शोभते, श्यामाया अभिसरणकेलिरभसादभ्रष्टव मुक्तावलिः। यद्वा व्योमनि मनसिजेन लिखिता जैत्रप्रशस्तिनिजा, विस्फूर्जधनतमतमिस्रफणिनां सद्रत्नमालाथवा ॥३४०.१॥
सप्तमं प्रभेदमाह- म्नौ स्नौ म्यौ ल्गौ सद्रत्नमाला उजैरिति । विवृणोति- मनसतमयलगाः। जैरिति पञ्चभिरष्टभिश्च यतिरिति । मगण-नगण-सगण-नगण-मगण यगणाः लघुगुरू च 'sss. I. I. 1. sss. Iss. Is.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चभिरष्टभिश्च यतिर्यत्र तत्
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[अ० २, सू० - ३४१.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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सद्रत्नमालाना मकं कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - सन्ध्यान्ते प्रतिदिशमिति । सन्ध्यान्ते सायंकालावसाने प्रतिदिशं सर्वासु दिक्षु समुदिता सम्यगुदयमापन्ना ताराततिः नक्षत्रराजिः श्यामायाः रात्रिरूपकामिन्याः अथच - षोडशवर्षाया: कामिन्याः अभिसरण केलिरभसात् प्रियं ( चन्द्र ) प्रतिगमन क्रीड़ा वेगात् भ्रष्टा विकीर्णा मुक्तावलिः मौलिकपङ्क्तिः इव शोभते राजति । यद्वा- मनसिजेन कामेन व्योमनि आकाशे निजा स्वकीया जंत्रप्रशस्तिः विजयस्तुति: ( स्वर्णाक्षरे: ) लिखिता लिपिकर्मीकृता । अथवा- - विस्फूर्जद्घनतमतमित्रफणिनां विस्फूर्जन्तः विक्रामन्तः ये घनतमतमित्र फणिनः निबिडतरान्धकारसर्पाः तेषां - ( शिरःस्था ) सद्रत्नमाला सतां रत्नानां माला अस्ति । रात्रौ नभसि स्थिता ताराततिस्त्रिधोत्प्रेक्षिता । स [s] न्ध्या [s] न्ते [s] प्र [1] ति [1], दि [1] श [1] मि [1] [s] स [1] मु [1] दि [1] ता [1]; ता [s] रा [5] त [1] ति: [S] शो [s] भ [1] ते [5] इति पञ्चभिरष्टभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३४०।१ ।।
भीरसल्गा नन्दकम् ||३४१||
भगणचतुष्टयं रसलगाश्च । यथा- अद्भुत संगरसागर मन्थन संभवां कलयन श्रियं, दोष्णि दधद्वसुधावलयं च कुमारपालमहीपते । त्वं बलिराज नियन्त्रणविश्रुतविक्रमः पुरुषोत्तमः, केवलमेष जगद्विजयी त्वदसिद्विषां न तु नन्दकः
।। ३४१.१ ।।
अष्टमं प्रभेदमाह - भोरसल्गा नन्दकमिति । विवृणोति - भगणचतुष्टयं रसलगाचंति । भगणाश्चत्वारः रगण-सगणी लघुगुरूच 'SII. SII. S. Sil. sis. 115. 15. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् नन्दकं नाम कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अद्भुत संगरेति । हे कुमारपाल - महीपते ! तन्नामकराजन् ! अद्भुत संगरसागरमन्यनसंभवाम् अद्भुतस्याश्चर्यकरस्य संगरसागरस्य संग्रामसमुद्रस्य मन्थनात् संभवः उत्पत्तिर्यस्याः ताम्, श्रियं लक्ष्मीं कलयन् धारयन् दोष्णि बाहौ वसुधावलयं पृथ्वीमण्डलं दधत् धारयन् बलिराजनियन्त्रणविश्रुतविक्रमः बलिनां सैन्यसमृद्धिमता
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुसाशनप्रद्योते [अ० २, सू०-३४२.] मयि राज्ञां नियन्त्रणं नियमने विश्रुत: प्रसिद्धः विक्रमः पराक्रमः यस्य सः, पक्षे बलिराजस्य बलिनाम्नो राज्ञः नियन्त्रणे संयमने विश्रुतः प्रसिद्धी विक्रमः विशिष्टः पादक्षेपो यस्य सः, त्वम् भवान्, पुरुषोत्तमः पुरुषेषु श्रेष्ठः, अथ च विष्णः; तु किन्तु केवलम् एकः जगद्विजयी संसारजेता त्वदसिः त्वदीयः खङ्गः द्विषां शत्रूणां न नन्दकः नानन्दयिता, अथ च 'नन्दक' नामा न । उक्त सागरमन्थनोद्भवलक्ष्मीपरिग्रहेण, पृथ्वीधारकत्वेन, बलिनृपनियामकत्वेन च त्वं विष्णुरेवासि, तव च विष्णोश्च एक एव भेदो यत् तदसिः (विष्णुखङ्गः) सर्वेषां कृते 'नन्दक' एव (तन्नामकत्वात् ) त्वदसिस्तु मित्राणां नन्दकोऽपि द्विषां न नन्दक इति भावः । अ [5] { [1] त [1] सं [5] ग [1] र [0] सा [s] ग [1] र [I] मं [s] थ [1] न [1] सं [s] भ [1] वां [5] क [1] ल [i] यत् [5] श्रि [1] यं [5] इति लक्षणसमन्वयः ॥अ० २, सू० ३४१।१॥
भ्रौ न्भौ भ्रौ ल्गौ कामलता ॥३४२|| भरनमभरलगाः । यथा- कौतुकमात्रमेव भवतो दि शस्त्रपरिग्रहे तदा, चापशिलीमुखान् घटयितुं कुरु चूतदलावमोटनम् । कस्य मनः करोति न हि वश्यमसौ पुरतो यतः स्फुरन्, काम लतावलीतरलनो मलयानिल एष ते सखा ॥३४२.१॥ उत्पलमालिकेत्यन्ये ॥३४२.१॥
नवमं प्रभेदमाह- भ्रौ न्भौ भ्रौ ल्गो कामलतेति । विवृणोति- भरनभभरलगाः इति भगण-रगण-नगणाः भगणद्वयं रगणोलघुगुरूच 'II. SIS.
1. I. I. 15.' इतीदृशैरक्षरः कृता: पादा यस्य तत् कासलतानामकं कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति-यथा- कौतुकमात्रमेवेति । हे काम ! भवतः तव यदि चेत् शत्रपरिग्रहे आयुधसंग्रहे कौतुकमेव औत्सुक्यमेव तदा तर्हि चापशिलीमुखान् धनुषिबाणान् घटयितुं योजयितुम् चूतदलाबमोटनम् आम्रपल्लवत्रोटनम् कुरु विधेहि । यतः यस्माद्धेतोः पुरतः तवाग्रे एव स्फुरन्- गच्छन् लतावलीतरलनः वल्लीपङ्क्तिचालक: असौ प्रसिद्धः ते सखा मित्रम् एष अनुभूयमानः मलयानिलः मलयपर्वतपवनः कस्य मनः चेतः वश्यं स्वाधीनं तवाधीनं वा न करोति न विदधाति, अपि तु सर्वस्यैव मनः ते वशं नयतीति भावः। अयमाशयः शस्त्रधारणं हि कस्यचिदजितस्य
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[अ० २, सू० - ३४३ . ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योत
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जयाय भवति, यदि ते मित्रेण दक्षिणवायुनैव सर्वं जगत् तव वशेनीतम्, तर्हि तव शस्त्र धारणं व्यर्थमेव, यदि तत्र तवौत्सुक्यम् तर्हि यत्किञ्चिदपि पत्रादिकं स्वधनुषायोजय, न तु दुर्वारान् विजयिन: पौष्पान् बाणानिति । की [5] तु [1] क [1] मा [5] त्र [1] मे [s] व [1] भ [1] व [1] तो [s] य [1] दि [1] श [5] स्त्र [1] प [ 1 ] रि [5] ग्र [1] हे [s] त [1] दा [s] इति लक्षणसमन्वयः । अस्य नामान्तरमाह - उत्पलमालिकेत्यन्ये इति । अन्ये केच - नाचार्या इमाम् ' उत्पलमालिका' इति नाम्ना व्यवहरन्तीत्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३४२।१ ।।
नौ नौ नौ लगौ दीपिकाशिखा गचैः ॥३४३॥
भनयननरलगाः । गचैरिति त्रिभिः षड्भिश्च यतिः । यथा- प्राक्तनसुकृतसमूहेबलवदिह समुल्लसत्यपि, दुर्नयकरणमनीषा श्रियमपहरति क्षणान्नृणाम् । पश्यत यदनुपभुक्तऽपि हि विनिहिततैलपूरणे, निर्भरचलितसमीरो दलयति खलु दीपिकाशिखाम् ॥३४३.१॥
दशमं प्रभेदमाह - नौ नौ नौ लगौ दीपिकाशिखागचैरिति । विवृगोति-भनयननरलगाः । गचैरिति त्रिभिः षड्भिश्च यतिरिति । भगणनगण-यगणा नगणद्वयं रगणोलघुगुरू च- '511. 111. 155 111. 111. sis. 15. ' इतीरक्षरैः : कृताः पाता यस्य त्रिभिः सप्तभिश्च यतियंत्र तत् दीपिकाशिखानामक कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति, यथा- प्राक्तनसुकृतेति । इह जगति प्राक्तनसुकृतसमूहे पूर्वकृतपुण्यराशौ बलवत् सबलं यथास्यात्तथा समुल्लसति विद्यमाने सत्यमपि, दुर्नयकरणमनीषा दुष्कृताचरणसमीहा क्षणात् अचिरादेव नृणाम् मनुष्याणाम् श्रियं लक्ष्मीम् अपहरति नाशयति, हि यतः विनिहिततैलपूरणे कृतस्नेहपूत्तौं अनुपभुक्तेऽपि अदग्धेऽपि निर्भरचलितसमीरः वेगप्रवातवायुः दीपिकाशिखाम् प्रदीपज्वालाम् दलयति नाशयति खलु ( इति ) पश्य अवलोक्य । कृततैलपूर्तेरदग्धतैलस्य दीपस्य यथा वायुवेगवशान्नाशः, तथा प्राक्तनसुकृते सत्यपि सम्प्रतिकृतेन पापेन, पापाचरणेच्छयैव वा - तत्सुकृत फलं लक्ष्सीः झटिति नश्यतीति भावः । प्रा [s] क्त [1] न [1], सु [1] कृ [1] त [1] स [1] मू [5] हे [5]; ब [s] ल [1]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३४४.] व [i] दि [1] ह [1] स [1] मु [5] ल [1] स [5] त्य [1] पि [5] ( पादान्तस्य वागुरुत्वानुशासनात् ) त्रिभिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३४३॥१॥
त्मौ ज्मौ ज्भौ ल्गौ शशाङ्करचितम् ॥३४४॥ तमजभनमलगाः । यथा- त्वं निजितोऽसि निरवद्यया वरतनोमुखाम्बुजरुचा, विस्तीर्णनेत्रललितः कुरङ्गहतकोऽयमप्यवजितः। युक्त शशाङ्क रचितं त्वया यदमुना सहैक्यमधुना, संग: समानगुणयोगिभि भवति देहिनां समुचितः ॥३४४.१॥२०॥११॥
___ एकादशं प्रकारमाह- भौ भी ज्भौ गौ शशाङ्करचितम् इति । विवृणोति-तभजभजभलगाः इति । तगण-भगण-जगण-भगण-जगण-भगणा लघुगुरू च 'ss). I. II. I. IsI. I. I.' इतीदृशंरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् शशाङ्करचितं नाम कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथात्वं निजितोऽसीति । हे शशाङ्क ! चन्द्र ! त्वं निरवद्यया निःकलङ्कया वरतनोः शुभाङ्गयाः मुखाम्बुजरचा मुखकमलकान्त्या निजितः कृतपराभूतिः असि, अयम् चन्द्रमसि लीनः कुरङ्गहतकः दीनमृगः अपि विस्तीर्णनेत्रललितः विशालनयनविलासः निर्जितः यत् अधुना अस्यां स्थिती अमुना मृगेण सह साधं त्वया ऐक्यम् अभेदः रचितम् कृतम् (तत्) युक्तम् उचितम्, ( यतः) समानगुणयोगिभिः सदृशगुणसहितैः सह सङ्गः मेलनम् देहिनाम् प्राणिनां कृते समुचितः युक्तः भवति । उभावपिचन्द्र. हरिणी कामिन्या मुखनेत्राभ्यां निजिताविति हेतोरेव- तयोरेकत्र स्थितिरितिकविना भङ्गयोत्प्रेक्षितम् । त्वं [5] नि [5] जि [1] तो [5] सि [1] नि [1] र [1] व [5] द्य [1] या [s] व [1] र [i] त [I] नो [5] , [1] खा [s] म्बु [1] ज [1] रु [0] चा [5] इति लक्षणसमन्वयः ॥१० २, सू० ३४४।१।। इत्थं विंशत्यक्षरायाः कृतिजातेरेकादशभेदा लक्षिताः प्रस्तारगत्या तु १०४८७६ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन कृतौ शतसहस्राणि दशप्रोक्तानि संख्यया । चत्वारिंशत्तथाष्टौ च सहस्राणि, शतानिच । पञ्च षट्सप्ततिश्चैव वृत्तानां परिमाणतः॥ इति (भ० ना० शा० १४।६८) २१।११। इति कृतिः ।।
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[अ० २, सू० - ३४५-३४६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते प्रकृतौ म्रौ नौ यिः स्रग्धरा छछेः ||३४५ ||
मरभना यगणत्रयं च । छछेरिति सप्तभि: सप्तभिर्यतिः । यथा- आवास: पर्णशाला वपुषि च वसनं नूतना त्वक्तरूणां, पाणावाषाढयष्टिः शिरसि च चिकुरैर्नव्यगुम्फो जटानाम् । कर्णेऽक्षत्रग् धरायाः परिवृड विपिने त्वद्भयात् संप्रतीत्थं वृत्तिद्वित्रं र होभिस्त्वदरिनृपजनैः शिक्षिता तापसानाम् ।। ३४५.१ ।।
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२६३
अथ एकविंशत्यक्षरां प्रकृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते 'प्रकृतौ नौ नौ यिः स्रग्धरा छछैरिति । विवृणोति - मरभना यगणत्रयं च । छछैरिति सप्तभि: सप्तभिर्यतिरिति । मगण-रगण- भगण-नगणेभ्यः परं यगणत्रयम् - 'sss. 515, 511. 111. 1ss. iss Iss ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य सप्तभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् स्रग्धरानामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - आवास इति । हे धरायाः परिवृढ ! क्षितेः स्वामिन् ! त्वदरिनृपजनैः त्वच्छत्रुराजसमूहैः सम्प्रति अद्यत्वे द्वित्रैरहोभि: द्वाम्यां त्रिभिर्वा दिन: विपिने वने पर्णशाला पत्रादिनिमिताकुटी आवासः निवासस्थानम्, वपुषि शरीरे तरूणाम् वृक्षाणाम् नूतना सद्य उत्पाटिता त्वक् वल्कलं वसनम् आच्छादनम् पाणौ हस्ते आषाढदण्डः व्रतिनां कृते विहिता पलाशादिकाष्ठकृता यष्टिः, शिरसि मस्तके च चिकुरैः केशैः जटानाम् गुम्फः ग्रथनम्, इत्थं पूर्वोक्तप्रकारेण त्वद्भयात् त्वत्तोभीतेः तापसानां वृत्तिः शिक्षिता तपस्विनां व्यवहारोऽनुशीलितः । त्वत्तो भीता स्तव रिपवः तपस्विषु ते कृपां दृष्ट्वा, विपिने गत्वां सर्वं तेषामाचरणं स्वीकृतवन्त इति भावः । आ [s] वा [s] स: [s] प [s] र्ण [1] शा [s] ला [5], व [1] पु [1] षि [1] च [1] व [1] स [1] नं [5]; नू [5] त [1] ना [s] त्व [s] क्त [1] रू [5] णां [s] इति सप्तभिः सप्तभिर्यत्या लक्षणसमन्वयः ।। अ०२, सू० ३४५ । १ ।। त्रौ नौ ज्भौ रः कथागतिः ||३४६ ॥
तरमनजभराः । छछरिति वर्तते । यथा- केष्वव्य खर्वगर्वाद्विधुरितभुवनेष्वन लगजितैर्, अम्मोधरेष्विव शु श्रवणपथगतेष्वमूद्विनिमीलितम् । माखण्डलस्य कामप्यभजत नयनासितोत्पलकाननं, प्रीति चुलुक्यचन्द्र प्रकृतनूपकथागते त्वयि तु क्षणात् ।। ३४६. १।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३४७.] द्वितीयं प्रभेदमाह- त्रौ नौ ज्भौ रः कथागतिरिति। विवृणोतितरभनजभराः। छछरिति वर्तते इति । तगण-रगण-भगण-नगण-जगणभगण-रगणाः 'ssi. SIS. I. 1. II. I. SIS.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य सप्तभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् कथागतिनामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-केष्वपीति । ( अत्र अखण्डगर्वाद्विधुरितत्यस्यस्थाने वधिरितेति पाठः समीचीनः प्रतिभाति । तथापि प्रकृतपाठमवलम्ब्यापि व्याख्यायते ) हे चुलुक्यचन्द्र, चुलुकवंशप्रकाशक ! अखर्वगर्वात महादत्-ि अनर्गलगजितैः असम्बद्धप्रलापैः विधुरित भुवनेषु दुःखाकृतजगत्सु- वधिरितभुवनेषु इति पाठेसति वधिरितानि कर्णव्यापाररहितानि कृतानि भुवनानि यस्तेष्वित्यर्थः- सच समीचीनोमेघसाम्योपपत्तेः- अम्भोधरेष्विव मेघोष्विवकेष्वपि अनितिनामसु राजसु आखण्डलस्य सहस्राक्षस्येन्द्रस्य नयनासितो. त्पल काननम् नेत्रनीलकमलवनम् विनिमीलितम् मुद्रितम् अभूत्, प्रकृतनृपकथागते प्रकृतायां प्रस्तुतायां नृपकथायां राजचर्चायां कमात्सम्प्राप्ते त्वयि भवति तु-क्षणात् सद्य एव कामपि अनिर्वचनीयां प्रीति प्रसादम् अभजत प्राप्तम् । नृपकथाप्रसङ्गेन केवलं गर्वमुद्वहताम्- पराक्रमविधुराणां स्वबलमुच्चै?षयतां राज्ञां चर्चा श्रुत्वा शक्रस्याक्षीणि विनिमीलितानि, तत्रैव च क्रमात्तवचर्चायां समागतायां क्षणादेव तान्यक्षीणि प्रसन्नतां यातानीति भावः । के [s] ष्व [s] प्य [i] ख [s] + [1] ग [s] वर्वाद् [5], वि [1] धु [] रि [1] त [1] भु [1] व [1] ने [s] ष्व [1] न [5] 1 [I] ल [1] ग [s] जि [1] तैः [5] इति सप्तभिः सप्तभिर्यत्यालक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० ३४६।१॥
भ्रौ त्रौ त्रौ रो ललितविक्रमो औः ॥३४७॥ भरनरनरराः । रिति दशभिर्यतिः । यथा- सद्गुणरत्नरोहणगिरे यशोधवलिताखिलाशामुख, द्वेषिवधूमुखाम्बुजविधो वयं किमिव वर्णयामस्तव । यस्य वशंवदत्रिभुवनश्चिरं विबुधसुन्दरीमण्डलर्, जम्भरिपोश्चमत्कृतिरसं दधललितविक्रमो गीयते ॥३४७.१॥ तृतीयं प्रकारमाह- भ्री श्री ब्रो रो दलितविक्रमो बैरिति । विवृणोति
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[अ० २, सू०-३४८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६५ भरनरनरराः । जैरिति दशभिर्यतिरिति । भगण-रगण-नगण-रगण नगणाः रगणद्वयं च '.. sis. III. sis. I. sis. sis.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य दशभिश्च यतिर्यत्र तत् दलितविक्रमनामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा सदगुणरत्नेति। हे सदगुणरत्नरोहणगिरे सद्गुणाः एव रत्नानि तेषां कृते रोहणगिरे उत्पत्तिपर्वत ! यशोधवलिताखिलाशामुख ! यशोभिः कीतिभिः धवलितानि श्वेतीकृतानि अखिलाशानां सर्वदिशां मुखानि येन तत्सम्बोधनम्, द्वेषिवधूमुखाम्बुजविधो ! द्वेषिणां शत्रूणां वधूनां मुखाम्बुजानां मुखकमलानां कृते विधो चन्द्र ! वयं प्राकृताः जनाः तव भवतः किमिव केनरूपेण वर्णयामः स्तुमः, यस्य तव वशंवदन्तिभुवनः वशीकृतत्रिजगत् ललितविक्रमः सुन्दरपराक्रम: जम्भरिपोः इन्द्रस्य चमत्कृतिरसं चमत्कारास्वादं दधत् बिभ्राण: विबुधसुन्दरीमण्डलैः देवाङ्गनाससूहैः चिरं बहुकालपर्यन्तं गीयते स्तूयते । यस्य पराक्रम यशांसि इन्द्रमपि चमत्कुर्वन्ति, देवाङ्गनाभिरपि गीयन्ते तस्य वर्णने वयं किमिति शक्ताः इत्यर्थः । स [5] द्गु [1] ण [0] र [s] न [D] रो [5] ह [1] ण [1] गि [1] रे [5] य [1] शो [5] ध [1] व [1] लि [1] ता [s] शा [s] मु [1] ख [s] (द्वेषिभिरिति संयोगे गुरुत्वात्) दशभिर्यत्याचलक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू० ३४७॥१॥
मौ तनिसा मत्तक्रीडा जङः ।।३४८|| मद्वयं तगणो नत्रयं सश्च । जङरिति अष्टभिः पञ्चभिश्च यतिः । यथा- नो जानीते कृत्याकृत्यं विलुठति च धरणितलशयने, भूयो भूयो मूर्छा धत्ते द्रढयति न शिथिलमपि वसनम् । अर्थापेतं निःसंबन्धं वचनमपि वदति नदतितरां, मत्तक्रीडाभाप्ता बाला सुभग तव नवविरहविधुरा ॥३४८.१॥
चतुर्थ प्रकारमाह- मौ तनिसा मत्तक्रीडाजडैरिति । विवृणोति- मगणद्वयं तगणो नत्रयं सश्च । जडैरिति अधभिः पञ्चभिश्च यतिरिति । मगणद्वयं तगणो नगणत्रयं सगणश्च 'sss. ssi. . . . .' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य अष्टभिः पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत्- मत्तक्रीडानामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- नोजानीत इति । हे सुभग !
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३४६.] सौभाग्यशालिन् ! तव भवतः नवविरहविधुरा नूतन वियोगेन दुःखिनी बाला प्रथमवयस्काऽङ्गना मत्तक्रीडाम् उन्मत्तलीलाम् आप्ता गता कृत्याकृत्यं कर्तव्याकर्तव्यं नो जानीते न वेत्ति धरणितलशयने पृथ्वीतलशय्यायाम विल्ठति विपरिवतंते, च, भूयोभूयः बाहुल्येन मूर्छाम् अचैतन्यं धत्ते धारयति शिथिलम् शरीराद् भ्रश्यमानम् अपि वसनम् वस्त्रं न द्रढयति स्वस्थाने स्थापयितुं न द्रढी करोति मर्थापेतम् अभिधेयहीनम् निःसम्बन्धं परस्परसम्वन्धरहितं वचनं वाक्यं वदति जल्पति अपि, नदतितराम् अतिशब्दं च करोति । एवं सर्वथा दयनीयेति भावः । नो [5] जा [s] नी [s] ते [s] कृ [s] त्या [s] कृ [s] त्यं [s]; वि [1] लु [1] 3 [1] ति [1] च [1]; ध [I] र [1] णि [1] त [1] ल [1] श [1] य [1] ने [s] इति अष्टभिः पञ्चभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू० ३४८॥१॥
तनिसाश्चन्दनप्रकृतिः ॥३४९|| रजता नत्रयं सश्च । यथा- दर्शनाद्यदीह संतापमपहरति तदपि बत तया, नाजितं धनं प्रभूतं जरसि सुखवमतिसरलतया। कि तु चन्दनप्रकृत्या सखि सततमपि फलरहितया, दुर्भुजंगपृष्टया यौवनमिदमफलमहह गमितम् ॥३४६.१॥
पञ्चमं प्रकारमाह-जंतनिसाश्चन्दनप्रकृतिरिति । विवृणोति- रजतानत्रयं सश्चेति । रगण-जगण-तगणा: नगणत्रयं सगणश्च 'sis. ISI. I. I.
. . .' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् चन्दनप्रकृतिनामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दर्शनादिति । यदि यद्यपि इह जगति दर्शनात स्वप्रत्यक्षीकरणादेव सन्तापम् अपहरति नाशयति तदपि तथापि बत इतिखेदे, तया प्रक्रान्तया स्त्रिया अतिसरलतया अतिशयऋजुतया जरसि वार्धके सुखदम् सुखसाधनम् प्रभूतं बहुतरं धनं न अजितम् स्वायत्तीकृतम् । किंतु हे सखि चन्दनप्रकृत्या चन्दनवदतिशीतलस्वभावया, सततम् सर्वदा ( यौवने ) अपि फलरहितया स्वसौदर्यादिजन्यादरधनप्राप्त्यादि प्रयोजन शून्यया दुर्भुजंगघृष्टया दुष्टविटवञ्चितया इदं यौवनं तारुण्यम् अफलं निरर्थक गमितम् अतिवाहितम् अहह इति नितान्तखेदे ।
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[अ० २, सू०-३५०.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रमौते
२९७ सर्वसौभाग्ययोग्यत्वेऽपि दुष्टवञ्चनापतिता सा किमपि स्वकीय यौवन फलं न प्राप्तवतीति भावः । द [5] र्श [1] ना [s] [घ [1] दी [5] ह [1] सं [s] ता [s] प [I] म [1] प [1] ह [1] र [1] ति []] ब [1] त [1] त [1] द [s] पि [1] त [1] भा [s] इति लक्षणसंगतिः ।।अ० २, सू० ३४६।१॥
न्जभजिराः सिद्धिः ॥३५०।। नजमा जत्रयं रश्च । यथा- सततनमत्पुरंदरशिरःशुचिरत्नकिरीटमालिका, विमलमयूखशेखरितपादनखद्युतिजालशालिनम् । विपुलदयानिधि प्रणयिकल्पतरुं भजत जिनेश्वरं, यदि भवकातरस्त्वमिह वाञ्छसि सिद्धिमनुत्तमां सखे ॥३५०.१॥ चित्रलता, रुचिरा, शशिवदना चेत्यन्ये ॥३५०.१॥
षष्ठं प्रभेदमाह- न्जभजिराः सिद्धिरिति । विवृणोति-नजभाजत्रयंरश्चेति । नगण-जगण-भगणा जगणत्रयं रगणश्च I. II. I. I. IST. Is1. sis.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् सिद्धिनामकम् प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-सततेति । हे सखे ! भवकातरः संसारभीतः त्वं इह संसारे अमुत्तमाम् सर्वतः श्रेष्ठां सिद्धि साफल्यम् यदि चेत् वाञ्छसि कामयसे (तर्हि) सततनभत्पुरन्दरशिरःशुचिरत्नकिरीटमालिका- विमलमयूरवशेखरितपादनखद्युतिशालिनम् सततं सर्वदा नमतां प्रणमतां पुरन्दराणामिन्द्राणां शिरःसु शुचीनां विशुद्धानां रत्नानां मणीनां किरीट मालिकायाः मुकुटश्रेण्याः विमलः निर्मलैः मयूरवैः किरणः शेखरिताभिः शिरसिधृताभिः पादनरवद्युतिभिः चरणनखकान्तिभिः शालते शोभले तच्छीलस्तम् विपुलदयानिधिम नियुक्तं विशालं दयानिधिम् कृपाऽऽकरम् प्रणयिकल्पतरुं भक्तकल्पद्रुमम् सुजिनेश्वरम् भज सेवय । अत्र तुतीय चरणे 'भजत जिनेश्वरम्' इति पाठो मुद्रित पुस्तके लभ्यते । परं चतुर्थचरणे 'सखे यदि त्वं सिद्धि वाञ्छसीति, एकवचनस्य प्रयुज्यमानतया बहुवचनान्ताया भजतेति क्रियाया असङ्गत्या- तं पाठमनादृत्य- भज-सुजिनेश्वरमितिपाठः कल्पित स्तथैव व्याख्यातश्च । संसारोद्धारहेतवे देवेन्द्रादिभिरपिपूज्यं जिनेश्वरमेव भजेति समुदितो भावः । स [1] त [1]) त [1] न [1] मत् [s] पु [I] रं [1] द [1] र [1] शि [0] रः [1] शु [1] चि [1]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३५१.] र [5] ल [i] कि [1] री [s] ट [1] मा [5] लि [1] का [s] इतिलक्षणसमन्वयः। अस्या नामान्तराचित्रलता- रुचिरा- शशिवदना चेत्यन्ये इति । अन्ये आचार्या यथारुचि इदमेव च्छन्दः केचित् चित्रलतेत्याहुः, केचिद्रुचिरेति परेशशिवदनेति चेत्यर्थः ।। अ० २, सू० ३५०।१॥ :
.. नजीभ्रा वनमञ्जरी ॥३५१।। नगणो जगणचतुष्टयं भरो च । यथा- सह धनुषा समदो मदनः किल शीतदीधितिमोलिना, सुहृविह भस्म कृतस्तव दीसहुताशपिङ्गलया हशा। इति हि मघो कुमते स्मर मा विचरान्तिके तरलभ्रुवां, विरहजुषां सकलज्वलिताङ्ग मृतां वपद् वनमञ्जरीः॥३५१.१॥
सप्तमं प्रभेदमाह- नजीभ्रावनमञ्जरीति । विवृणोति- नगणो जगणचतुष्टयं भरोचेति । नगणः जगणाश्चत्वारः भगणरगणी च . IIIsI. 11. IST. S. sis.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत्- वनगञ्जरीनामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- सहधनुषेति । हे मधो ! वसन्त ! शीतदीधितिमोलिना हिमकरकिरीटिना शिवेनं दीप्तहुताशपिङ्गलया प्रज्वलिताग्निपीतरक्तया दृशा दृष्टया तव सुहत् मित्रम्- समदः सगर्वः मदनः कामः धनुषा चापेन सह इह संसारे भस्म रक्षाधूलिः कृतः विहितः इति हे कुमते कुत्सित बुद्धे मधो स्मर ध्याय । विरहजुषां वियोगिनीनाम् सकलज्वलिताङ्गभृताम् सम्पूर्णदीप्तशरीरशालिनीनाम् तरलभ्रवाम् चञ्चलभृकुटीनामङ्गनानाम्- अन्तिके समीपे वनमञ्जरीः वनपुष्पकलिका दधत् धारयन्-मा विचर मा गच्छ। शिवः शीतकिरणमौलि: अतएव शान्तस्वभावः, केवलं प्रदीप्तेन एकेनाक्षणा- दुर्मदमपिमदनं धनुषापुष्पः सह भस्मकृतवान्, तत् स्मृत्वास्वभावत एव तरलभ्रुवां सर्वाङ्गज्वालाशालिनीनामासां निकटे गमने कृते सति तव कादशा भविष्यतीति विचार्यत्वया वनमजारीः कामबाणभूताः हस्ते दधता तासां समीपे न गन्तव्य मितिभावः । स [i] ह [1] ध [1] नु [0] षा [5] स [0] म [0] दो [5] म [0] द [0] न [s] कि [0] ल [0] शी [s] त [1] दी [5] धि [1] ति [0] मौ [5] लि [0] ना ]s] इतिलक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३५१।१।।.
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[अ० २, सू०-३५२-३५३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
२६६ त्री रनौ रस्तरंगः ॥३५२॥ रनरनरनराः । यथा- निर्ममो भव विधेहि पञ्चपरमेष्ठिसंस्मरणमन्वहं, संयमं कुरु भज क्षमा यदि समीहसे सुखमनश्वरम् । यौवनं किल तडिल्लता. चपलमभ्रचञ्चलमिदं धनं, जीबितव्यमपि मारताहतसरित्तरंगतरल सखे ॥३५२.१॥२१॥८॥
अथाष्टमं प्रभेदमाह-त्री रनौ रस्तरङ्ग इति । विवृणोति- रनरनरनराः इति । रगण-नगण-रगण-नगण-रगण-नगण-रगणा: 'sis. I. sis. III. SIS. 1. 5.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् तरङ्गनामकं प्रकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- निर्ममो भवेति । हे सखे ! यदि चेत् अनश्वरं अविनाशि सुखं कल्याणं समीहसे वाञ्छसि ( तर्हि ) निर्ममः संसारे आत्मीयतारहितः भव अन्वहं प्रतिदिनं पञ्चपरमेष्ठिसंस्मरणम् पञ्चानां परमेष्ठिनाम् अर्हत्-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधूनां संस्मरणम् ध्यानम् विधेहि कुरु संयमम् इन्द्रियजयं कुरु विधेहि, क्षमा शान्ति भज सेवय । इदं सम्प्रतिवर्तमानं यौवनं तारुण्यं तडिल्लता विद्युहल्लीवत् चञ्चलम् इदम् भुज्यमानमर्त्यमानं च धनम् वित्तम् अभ्रचञ्चलम् मेघवत् अस्थिरम् जीवितव्यम् जीवनसमय: अपि मारुताहतसरित्तरङ्गतरलम् मारुतेन वायुना आहतानां प्रेरितानां सरित्तङ्गाणाम् नदीवीचीनाम् इव तरलम् चञ्चलम् अस्ति । आत्मानं तरुणं धनिनं चिरजीविनं च मत्वा यन्ममत्वं विषयेषु क्रियते तत्परित्यज्य परमेष्ठिनां प्रतिदिनं संस्मरणम् इन्द्रियजयम् अहिंसां च समाश्रय तदेव शाश्वतं सुखं लप्स्यसे इतिभावः । इत्थमेकविंशत्यक्षरायाः प्रकृतिजातेरष्टभेदा वणिताः । प्रस्तारगत्यातु २०६७१५२ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन- तथाशतसहस्राणां प्रकृती विंशतिर्भवेत् । सप्त वै गतितान्यत्र नवतिश्चैव संख्यया । सहस्राणि शतंचैक द्विपञ्चाशत्तथैव च । वृत्तानि परिमाणेन वृत्त र्गदितानितु ॥ इति ( भ० ना० शा० १४१७०) ॥अ० २, सू० ३५२।१॥११॥८॥
आकृतौ भ्रौ नौ नौ न्गौ मद्रक ञः ॥३५३।। भरनरनरमगाः । जैरिति दशभिर्यतिः । यथा- देवजगत्रयकतिलक प्रमो प्रणयिलोककल्पविटपिन, पुण्यवतां शिरोमणिपदस्यमाजि जिननाय तैरिह
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ० २, सू० - ३५४.]
1
जनैः । ये विकचैचिराय चरणारविन्दयुगमर्चयन्ति कुसुमैर्, मद्रकमन्दगोतिभिरभिष्टुवन्ति च चरित्रमत्र भवतः ।। ३५३.१ ।।
अथ द्वात्रिंशत्यक्षरामाकृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते आकृतौ भ्रौ त्रौ श्रो गौ मद्रकं जैरिति । विवृणोति - भरनरनरनगाः । त्रैरिति दशभिर्यतिरिति । भगण-रगण-नगण - रगण-नगण-रगण-नगणाः गुरुश्च 1511. SIS. 111. SIS. 111. SIS. III. S. ' इतीदृशं रक्षरः कृताः पादा यस्य, दशभिश्च यतियंत्र तत् मद्रकं नामाकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- देवजगत्त्रयेति । अत्र पद्ये मुद्रितपुस्तके द्वितीयपादे 'शिरोमणिपदव्यभाजि' इति समस्तः पाठो दृश्यते । सच नार्थसम्बन्धानुकूलः । पर्यायविवरण- पादटिप्पणीसमवलोकनेन च 'पदं व्यभाजि' इति पाठः प्रतीयते स एव च समुचित इति तमेवावलम्ब्य व्याख्यायते । हे जगत्त्रयैक तिलक ! जगत्त्रयस्य त्रिलोक्या एकं तिलकं भालभूषणमिवेति तत्सम्बोधनम्, प्रभो निग्रहानुग्रहसमर्थ ! प्रणयिलोक कल्पfar ! भक्तभविकल्पपादपभूत ! जिननाथदेव ! तैः जनैः इह लोके शिरोमणिपदं श्रेष्ठतमं स्थानं व्यभाजि विभज्यस्वीकृतम् ये अत्रभवतः पूज्यस्य तव विकचैः विकसितैः कुसुमैः पुष्पैः चरणाविन्दयुगं पादसरसीरुह युग्मम् अर्चयन्ति पूजयन्ति - चरित्रम् सुचरित लीलां - मद्रकमन्दगीतिभिः मद्रका इव मन्दा गीतयः मन्दस्वरगानानि तैः अभिष्टुवन्ति सर्वतः शंसन्ति । हे देव- इह लोके तएव श्रेष्ठतमा ये भक्त्या तव पादपूजां चरन्ति तव गुणांश्च गायन्तीति भावः । दे [s] व [1] ज [1] ग [5] त्र [1]
[s] क [1] ति [1] ल [1] क [5]; प्र [1] भो [5] प्र [1] ण [1] यि [1] लो [5) क [1] क [5] ल्प [1] वि [1] ट [1] पिन् [s] इतिदशभिर्यत्यालक्षणसङ्गतिः तः ॥ अ० २, सू० ३५३।१ ।।
स्तौ त्नो स्रौ र्गो महास्रग्धरा जछेः ॥ ३५४ ॥ सततनसररगाः । जछैरिति अष्टभिः सप्तभिश्च यतिः । यथा- अभि नागान्याति योऽयं स मम मम पुनर्यच्छिरो हुंकरोति, प्रचलोऽयं यत्कबन्धः प्रहरति स तु मे प्राणनाथोsस्तु सल्य: । दलयन् यो दुष्टभूषानहमहमिकया स्वर्गसीमन्तिनीनां परिशुधावेति वाचो वरवरणमहास्रग्धराणां रणेषु ॥ ३५४.१ ॥
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[अ० २, सू०-३५५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
द्वितीयं प्रभेदमाह- स्तौ नौ सौ ! महास्नग्धरा जछरिति । विवृणोति- सततनसररगाः । जछैरिति अष्टभिः सप्तभिश्च यतिरिति । सगणः तगणद्वय नगणसगणौ रगणद्वयं गुरुश्च ॥s. ssI. ss) 1.. . sis. s.' इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य अष्टभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् महास्रग्धरानामकमाकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अभि नागानिति । यः कश्चित् वीरतमः रणेषु संग्रामेषु दुष्टभूपान् दुर्जनान् राज्ञः दलयन् विदारयन् 'यः अयं दृश्यमानः नागान गजान् अभि अभिमुखं याति गच्छति स मम स मम प्राणनाथः अस्तु; यच्छिरः यस्य मस्तकं हुंकरोति हुमितिशब्दं प्रकटयति, स मम, अयं प्रचलः चलन् यत्कबन्धः यस्य शिरोरहितशरीरम् प्रहरति शत्रूणामुपरि शस्त्र क्षिपति हे सख्यः स मम प्राणनाथः अस्तु, (इति) अहमहमिकया अहं पूर्व वरेयमहं पूर्वमिति त्वरया- वरवरणमहास्रग्धारणम् वरवरणार्थ महास्रजः महतीर्मालाः धरन्तीति तासां स्वर्गसीमन्तिनीनाम् स्वर्लोकाङ्गनानाम् वाचः वचनानि परि शुश्राव आकर्णयां चकार । अयमाशय: अनेन राज्ञा हतानां भूपानां वरणार्थप्सरसः परस्परमित्थमालपन्ति- एकाकथयति- योगजाभिमुखमपि गच्छति स मर्यववरणीयः, द्वितीयोवाच यस्य कृत्तमपि शिरो रिपून्प्रति सरोषमेव वचनमुच्चरति स मयव वरणीयः अन्याप्रवीति यस्य कबन्धोऽपि प्रहरति स मम वर इति वीराणां पराक्रमानुरूपं तासा माकर्षणमिति । तादृशा अपि वीरा अनेन निर्दलिता इति परमार्थ: । अ [1] भि [1] ना [s] गान् (s] या [s] ति [1] यो [s] यं [s]; स [1] म [1] म [I] म [1] म [1] पु [1] न [s]; र्य [s] च्छि [1) रो [5] हुं [s] क [1] रो [5] ति [s] (पादान्तस्य वैकल्पिक गुरुत्वात् संयोगे परतो वा गुरुत्वात् ) इति अष्टभिः सप्तभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३५४।१ ।।
भृगौ मदिरा ॥३५५॥ भृगाविति भगणसप्तकं गुरुश्च । यथा- ह्रोविनियन्त्रणविघ्नमपाकुरुतेऽभिनवावतरद्वयसां, प्रौढपुरन्ध्रिजनस्य तथा तिरयत्यपराधपदं सहसा । कोपपदेन च गोत्रपरिस्खलितं न च कारयते तबसौ, कामसखी मदिरेह सतर्षमभाजि चिरं किल कामजन: ॥३५५.१॥ लताकुसुममित्यन्ये ॥३ ५१॥
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३०२ __ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३५६.]
तृतीयं प्रकारमाह- भृगौ मदिरेति । विवृणोति- भृगाविति भगणसप्तकं गुरुश्चेति । तथा च 'I. I. I. I. I. I. S. 5.' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत्- मदिरानामकमाकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- ह्रीविनियन्त्रणेति । कामसखी नर्मसहचरी मदिरा सुरा अभिनवावतरद्वयसाम् अभिनवं नूतनम् अवतरत् समागच्छत् वयः यौवनं यासां तासां कामिनीनाम् होवियन्त्रणविघ्नम् ह्रिया लजाया यद्विनियन्त्रणम् स्वच्छन्दाचारनियमनम् - तदेव विघ्नम्- केलिप्रवृत्तावन्तरायः तम् अपाकुरुते नाशयति, तथा प्रौढपुरन्ध्रिजनस्य प्रगल्भसतीजनस्य ( अग्ने ) अपराधपदं प्रियस्यापराधस्थानम् सहसा झटिति तिरयति आच्छादयति, गोत्रपरिस्खलितं नामसवलनम्- ( प्रकृतनायिकाया आह्वाने तद्विरुद्धनायिका नामोचारणम् ) च कोपपदेन कोपस्थानत्वेन त कारयते न भावयते, तत् तस्मात् असो मदिरा कामिजनैः कामिभिः कामिनीभिश्च चिरं बहुकालं यावत् सतर्ष सतृष्णं यथास्यात्तथा अभाजि जसेवि किल। यथा काचिन्नमसखी नवोढाया ह्रियमपहरति, तथा मदिरापि, प्रौढाश्च स्त्रियो यद्यपि ह्रीरहिता भवन्ति, तथापिताः प्रियस्य पर वनितासङ्गश्रुत्वा सकोपा भवन्ति ता: नर्मसहचरी अनुनयति, मदिरा च तथा ता मादयति यत् ता तमपराधं न स्मरन्ति तत्रापि तस्याः (मदिराया) नर्म सखीसाभ्यम्; नार्योगोत्रपरिस्खलने कुप्यन्ति तत्रापि नर्मसखी ता अनुनयति मदिरा च तथा मादयति येन तदुपरि तासां ध्यानमेव नगच्छतीति तस्याः सर्वथोपकारकत्वं विज्ञाय कामिजनाः सतृष्णं तां सेवन्त इति भावः । ह्री [s] वि [1] नि [0] य [s] न्त्र [1] ण [1] वि [s] घ्न [1] म [1] पा [5] कु [1] रु [1] ते [s] भि [1] न [1] वा [5] व [1] त [0] र [5] = [0] य [1] सां [5] इतिलक्षणसमस्वयः । अस्य नामान्तरमन्यसम्मतमाह- 'लताकुसुममित्यन्ये इति ।।९२, सू० ३५५॥१॥
मत्यनीगा वरतनुः ॥३५६॥ मतया नगणचतुष्टयं गुरुश्च । यथा- चक्षुःसौन्दयं मृगवघ्वां परभृतयुवतिषु मधुरगिरं, यातं हंसीषु स्मितमुद्बुद्धनवविवकिलकुसुमततिषु । रोलम्बश्रेण्यां
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[अ० २ ० - ३५७ ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
३०३
कचलक्ष्मों वदनरुचिरमपि विकचकमले, न्यासं कृत्वा सा खलु याता कचिदपि मम वरतनुरधुना ॥ ३५६.१।।
चतुर्थं प्रभेदमाह - मत्यनीगा वरतनुरिति । विवृणोति - मतया नगणचतुष्टयं गुरुश्चेति । मगण-तगण यगणाः नगणचतुष्टयं गुरुच 'sss. sst. Iss. ।।। ।।। ।।। ।।।. . इतीदृशं रक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् वरतनुनामकमाकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- चक्षुः सौन्दर्यमिति । अधुना सम्प्रति मम सा वरतनुः शुभाङ्गी, चक्षुः सौन्दर्यं नेत्रशोभां मृगवध्वां हरिण्याम्; मधुरगिरं मिष्टां वाणीम् परभृतयुवतिषु कोकिलतरुणीषु, यातं गमनं हंसीषु मरालाङ्गनासु, स्मितम् ईषद्धासम्- उद्बुद्धनवविच किलकुसुमततिषु उद्धानां विकसितानाम् नवानां प्रत्यग्राणां विचकिलानाम्पुष्पविशेषाणां ततिषु समूहेषु, कचलक्ष्मी केशशोभां रोलम्बश्रेण्याम् भ्रमरमालायाम्, वदनरुचिम् मुखकान्तिम् अपि विकचकमले विकसितपद्म न्यासं निःक्षेपं कृत्वा विधाय क्वचिदपि कस्मिश्चित् स्थाने याता गता खलु । विधुरस्य परिदेवनमिदम् । यथा कश्चित् क्वापि जिगत्रिषुः स्वकीयन्धनमेकत्र न स्थापयति विभज्य किचित् किञ्चिद्वहूनां हस्ते निःक्षिपति कस्यचिन्न्यासा - पहार बुद्धावपि न सकलधनहानि सम्भवनेति बुद्धया, तथामत्प्रियापि स्वकीयमसाधारणं वस्तु चक्षुः सौन्दर्यादि हरिण्यादिषु न्यस्य - गतेति नासामिदं सर्वमपि तु तस्या एवेत्यपि भावः । च [s] क्षु: [s] सौ [s] न्द [s] र्य [s] मृ [1] ग [1] व [s] ध्वां [s] प [1] र [1] मृ [1] त [1] यु [1] व [1] ति [ 1 ] षु [1] म [1] धु [1] र [1] गि [1] [s] इतिलक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३५६।१ ।।
-
सौ सौ सौ जगौ दीपार्चिष्ठैः ॥३५७ ॥
मसजसजसजगाः । ठेरिति द्वादशभिर्यतिः । यथा- प्रायो दुष्कृतकर्मसु स्वयममी प्रयान्ति पिशुनाः सहायतां यद्वत्तद्वदनिन्दनीयसुकृतक्रियासु भृशमन्तरायताम् । वह्नौ संततजन्तुसंकुलमहावनप्लुषि सखा समीरणो, दीपाचव्यखिलोपकारिणि भवत्यकाण्डकुपितान्तकः खलु ॥ ३५७.१।२२।५।।
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३०४
सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३५८.] पञ्चमं प्रभेदमाह- म्सौ सौ सौ ज्गौ दीपाविष्ठरिति । विवृणोतिमसजसजसजगाः। ठेरिति द्वादशभिर्यतिरिति । मगण-सगणजगणसगण जगण-सगण-जगणा गुरुश्च 'sss. Is. II. I. Is1. II. ISI. s.' इतीहीरक्षरः कृताः पादा यस्य द्वादशभिश्चयतिर्यत्र तत् दीपाचिर्नामकाकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-प्रारोदुष्कृतेति । अमी प्रसिद्धाः पिशुनाः सूचकाः यद्वत्- यथा दुष्कृतकर्मसु पापाचरणेषु स्वयम् प्रेरणां विनैव सहायताम् सहकारित्वं प्रयान्ति गच्छन्ति प्रायः बाहुल्येन, तद्वत् तथैवअनिन्दनीयसकृयक्रियासु अनवद्यपुण्यकार्येषु भृशम् अत्यन्तम् अन्तरायताम् प्रतिबन्धकत्वं प्रयान्ति । उक्तमथं सदृशेनार्थेन- समर्थयति- समीरणः वायु: संततजन्तुसङ्कुलमहावनषिः सन्ततं सततं जन्तुभिः जीवः सङ्कुलं व्याप्त महावनं प्लुष्यति दहति इति तथा भूते वह्नौ हुताशने सखा मित्रम् अखिलोपकारिणि सर्वलोकहितकरायां दोपाचिषि प्रदीपज्वालायाम् (वह्नि रूपायामेव) अकाण्डकुपितान्तकः अकाण्डे असमयेकुपितः कृतक्रोधः अन्तकः यम इव मारकः भवति जायते खलु निश्चयेन । यथा वह्नः जीवसङ्कुलवनदाहनरूपे पापाचरणे वायुः मित्रम्, अर्थप्रकाशरूप परोपकार पुण्याचरणे च शत्रुः, तथा पिशुना अपि, पापाचरणे स्वतः सहायतां व्रजन्ति, पुण्याचरणे च विरोधित्वमितिभावः । प्रा [s] यो [5] दु [s] कृ [1] त [0] क [s] म [1) सु [5] स्व [1] य [0] म [1] मी [s] प्र [0] या [s] न्ति [0] पि [i] शु [1] नाः [5] स [1] हा [s] य [0] तां [s] इतीलक्षणसमन्वयः। इत्थं द्वाविंशत्यक्षराया आकृति जातेः पञ्चभेदावणिताः । प्रस्तारगत्यातु . ४१९४३०४ भेदा भवन्ति, तदुक्तं भरतेन ‘चत्वारिंशत्तथकं च सहस्राणां शतानितु । तथा चेह सहस्राणि नवतिश्चतुरुत्तरा। शतत्रयं समाख्यातं ह्याकृत्यां चतुरुत्तरमिति । (म० ना० शा० १४१७२) ॥अ० २, सू० ३५७।१।।
२२॥५ ॥ इत्याकृति जातिः ।। विकृतौ न्जौ म्जौ म्जौ म्लो गोऽश्वललितं टैः ॥३५८।।
नजमजमजमलगा: । टैरित्येकादशभिर्यतिः । यथा- निरयमहान्धकूपमसमान्धकारभरविलोकमतुलं, निपतितगाढमोहपटलान्धजन्तुविविषप्रलापतु. मुलम् । प्रवचनचक्षुषेक्षत इमं चिराय तनुभृत्तथापि बलवच्-, चपलतरेन्द्रि
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[अ० २, सू० - ३५.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३०५
याश्वललितै विकृष्ट इह तत्क्षणान्निपतति ॥३५८ १॥ अत्र केचित्सप्तम भगणस्थाने जगणमिच्छन्ति ।। ३५८. १ ।।
अथ त्रयोविंशत्यक्षरां विकृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते विकृतौ न्जौ जौ जौ लौ गोऽश्वललितं टैरिति । विवृणोति - नजभजभजभलगाः । टंरित्येकादभिर्यतिरिति । नगण-जगण भगण जगण भगण- जगण भगणाः लघुगुरूच '111. 151. SHISH. S11. ISI SI IS' इतीदृशैर्वर्णैः कृताः पादा यस्य, एकादशभिश्च यतिर्यत्र तत् अश्वललितं नाम विकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निरयमहान्धकूपेति । तनुभृत् देही इमं निरयमहान्धकूपम् निरयं नरकमेव महान्धकूपम् विशालं प्रकाशरहितं कूपं, असममहान्धकारदुर्विलोकम् असमेन केनापि तुलना होनेन महान्धकारभरेण घोरान्धतमसमूहेन दुविलोकम् चक्षुर्व्यापारशून्यम्, अतुलम् निरुपमम् निपतितगाढ़मोहपटलान्ध जन्तुविविधप्रलापतुमुलम् - निपतितानां तस्मि निमग्नानां गाढ़मोहपटलेन निबिडाज्ञानसमूहेन अन्धानाम् - अन्तर्बहिर्दृष्टिशून्यानाम् जन्तूनाम् जीवानां विविधप्रलापैः बहुप्रकार रोदनैः तुमुलं सङ्कुलम्, प्रवचनचक्षुषा सदुपदेशलोचनेन ईक्षते जानाति तथापि बलवन्ञ्चपलेन्द्रियाश्वललितैः बलबत् अतिशयं चपलानि चञ्चलानीन्द्रियाण्येताश्वा हयाः तेषां ललितः विलासः विकृष्ट इव आकृष्ट इव तत्क्षणात् सद्यः इह पूवक्तकूपे निपतति स्खलति, वीतरागाणां प्रवचन: उक्तरूपं नरककूपं जानन्नपि जन इन्द्रियपारवश्येनानीश इव तत्र निमज्जतीति भावः । नि [1] र [1] य [1] म [1] हा [5] न्ध [1] कू [s] प [1] म [1] स [1] मा [s]; न्ध [1] का [s] र [1] भ [1] र [1] दु [s] वि [1] लो [s] क [1] म [1] तु [1] लं [s] इत्येकादभिर्यत्यालक्षणसङ्गतिः । अत्रान्योक्तं विशेषमाह- अत्रकेचित् सप्तमभगणस्थाने जगणमिच्छन्तीति । अस्मिन् छन्दसि सप्तमो गणो भगणोऽस्माभिर्न्यस्तः, तत्स्थाने केचिज्जगणमिच्छन्ति इति भावः ॥ अ० २, सू० ३५८ ।१ ॥
मोतो नीलगा मत्ताक्रीडा जङेः ॥ ३५९ ॥
ममता नगणचतुष्टयं लघुगुरू च । जर्जरित्यष्टाभिः पञ्चभिश्व यतिः । हस्तक्षेपैर्वारंवारं विदलयति किल निकरमवनिरुहां, पादानुच्चैः क्षोणी
यथा
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६०.] न्द्राणां विघटयति दशनकुलिशविकषणः । वेगावेगात्पादन्यासनमयति च फणपटलमुरगपतेर्, इत्थं मत्ता क्रीडामा विरचयति नृपवर तव करिघटा । ॥३५६.१॥ ___ द्वितीयं प्रकारमाह-मौ तो नोल्गा मत्ताकोडा जडैरिति । विवृणोतिममता नगण चतुष्टयं लघुगुरू च । जरित्यष्टाभिः पञ्चभिश्चयतिरिति । मगणद्वयं तगणः नगणचतुष्टयं लघुगुरू च 'sss. sss. ssI. I. I. 1. 1. 15.' इतीहशरक्षरैः कृताः पादा यस्य अष्टाभिः पञ्चभिश्च यतिर्यत्र तत् मत्ता. क्रीडानामकं विकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-हस्ताक्षेपरिति। हे नृपवर ! तव मत्ता उद्भूतमदा करिघटा गजश्रेणि: अवनिरुहांनिकरम् वृक्षाणां समूहम् हस्ताक्षेपैः शुण्डाप्रहारैः वारंवार भूयोभूयः विदलयति विदारयति किल, क्षोणोन्द्राणाम् पर्वतानाम् (क्षोणीन्द्रशब्दः पर्वतेन प्रसिद्धः क्षोणीधर-क्षोणीभृदादि शब्दवत् 'क्षोणीध्र' शब्दोऽत्र प्रयोक्तमुचित इति प्रतिभाति ) उच्चैः उन्नतान् पादान् पर्यन्तपर्वतान् दशनकुलिशविकषणः दशनानि दन्ता एव कुलिशानि वज्राणि तैविकषणः उत्खननः विघटयति विदा यति, उरगपतेः शेषनागस्य फणपटलम् भोगसमूहं च वेगावेगात् जवावेशात् पादन्यासः चरणनिपातः ( भारवर्धकः) नमति अध:करोति च, इत्थमुक्तप्रकारेण क्रीडामात्रं लीलां केवलां विरचयति करोति- न तु युद्धम् । रिपूणां, तव करिघटां दृष्ट्र व पलायितानां प्रतिपक्षाभावात्- सा तत्प्रान्ते क्रीडामात्रं करोतीति भावः। ह [5] स्ता [s] क्षे [s] 4 [s] [s] रं [5] वा [s] रं [1]; वि [1] द [0] ल [0] य [1] ति [1]; कि [0] ल [1] नि [1] क [1] र [1] म [1] व [0] नि [1] रु [1] हां [5] इति अष्टाभिः पञ्चभिश्च यत्यालक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३५९।१॥
ताज्जूल्गाः शङ्खः ।।३६०।। तगणात्परं जगणषटकं लघुगुरू च । यथा- चौलुक्यनरेश्वर वैभववासव वीर गोरिमवारिनिधे, सौन्दर्यमनोभव कान्तिनिशाकर सेवककल्पतरो भवतः । को नाम कुणानिह संकलयेत् किल वच्मि तु किचन ते यशसां संपर्कमवाप्य स शङ्खधरोऽभवद्रिसुताकमितु सदृशः ॥३६०.१॥
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[अ० २, सू०-३६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३०७ तृतीयं प्रकारमाह- ताज्जूल्गाः शङ्ख इति । विवृणोति- तगणात्परं जगणषटकं लघुगुरू चेति । तथा च 'ss. I. Is1. II. II. ISI. ISI. Is.' इतीशरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् शङ्कनामकं विकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- चौलुक्यनरेश्वरेति। वैभववासव ! वैभवेन समृद्धया वासव ! इन्द्रसदृश ! वीर गभोरिमवारिनिधे ! गभीरिम्णि अगाधतायां वारिनिधिः समुद्र इव, तत्सम्बोधनम्, सौन्दर्यमनोभव ! सौन्दर्य मनोहरतायां मनोभव: कामइवेति तत्सम्बोधनम्, कान्तिनिशाकर कान्तो द्युतो निशाकर: चन्द्र इवेति तत्सम्बोधनम्, सेवककल्पतरो सेवकानां परिचारकाणां कृते कल्पतरु: इवेति तत्सम्बोधनम्, चौलुक्यनरेश्वर ! चुलुक्यवंशोद्भवनप ! भवतः गुणान् को नाम सङ्कलयेत् किल, साकल्येन गणयेत् किल, तु किन्तु किंचन स्तोकं वच्मि कथयामि, ते यशसां तव कीर्तीनां सम्पर्कम् स्पर्शम् अवाप्य प्राण्य स प्रसिद्धः कृष्णवर्ण: शजधरः कम्बुपाणिः विष्णुः अद्रिसुताकमितुः पार्वतीपतेः शिवस्य सदृशः तुल्यः श्वेतः अभवत जातः । त्वत्कोत्तिधवलीकृतशरीरो विष्णुरपि शिववच्छवेतोऽभवदित्येतावतव तव यशसोऽवर्णनीयत्वं सिद्धमिति भावः । चौ [s] लु [5] क्य [1] न [1] रे [s] श्व [1] र [1] वै [s] भ [1] व [1] वा [s] स [1] व [0] वी [5] र [1] ग [1] भी [s] रि [1] म [1] वा [s] रि [1] नि [1] घे [s] इति लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू० ३६०।१॥
नाद्धंसगतिः ॥३६१॥ नगणात्परं जगणषटकं लघुगुरू च। यथा- मदनगजेन्द्रमहोदयमादधती सहसा विमलप्रसरल, लवणिमसिन्धुरनिद्रितनीलसरोरुहचारुललनयना । विशदतराम्बरसंपदिय रजनीकरबिम्बमुखं दधती, शरदिव संश्रितहंसगतियुवतिविदधाति न कस्य मुदम् ।।३३१.१॥ महातरुणीदयितमित्यन्ये ।।३६१.१।।
चतुर्थ प्रभेदमाह- नाद्धंसगतिरिति । विवृणोति- नगणात्परं जगणषटकं लधुगुरू चेति । तथा च- 1. Is1. ISI II. Is1. Is1. ISI. IS.' इत्येवं वर्णविन्यासश्चेत्प्रतिपादं तदा हंस गतिरित्याख्यातं विकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- मदनेति । मदनगजेन्द्रमहोदयम् काममहा.
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६२.] वारणाभ्युदयम् आवधती कुर्वती, सहसा हठात् विमल प्रसरल्लवणिमसिन्धुः विमल: निर्मल: प्रसरन् विकीर्यमाणो योगवणिमा तस्य सिन्धुः प्रवाहयुक्त'नदीव, पक्षे विमल: प्रसरंश्च लवणिमा- यस्याः तादृशी सिन्धुः नदी यस्याम्, अनिद्रितनीलसरोरुहचारुलसन्नयना अनिद्रितं विकसितं यत् नील सरोरुहं तद्वत् चारुणीलसती च नयने यस्याः, पक्षे, तादृशानि सरोरुहाण्येव नयने यस्याः, विशवतराम्बरसंपत् विशदतरा अतिस्वच्छा अम्बरयोः वस्त्रयोः संगत् सम्पत्तिर्यस्याः, पक्षे विशदतरम् अम्बरमेव सम्पद् यस्याः, रजनीकरविम्बमुखम् चन्द्रमण्डलवन्मुखम्- पक्षे चन्द्रमण्डलरूपं मुखं दधती धारयन्ती, संश्रितहंसगतिः संश्रिता हंसानां गतिरिव गतिर्यया, पक्षे संश्रिता हंसर्गतिर्यस्याम् सा- इयं, युवतिः तरुणी शरत् शरहतुः इव कस्य जनस्य मुदं हर्ष न विदधाति करोति । समानं विशेषणः शरदा सहयुवत्य' साम्यमुक्त्वा तस्या मनोमोदजननीत्वं वर्णितम् । वर्षासु पङ्किलभूमो गजानां सञ्चचारे खेद इति शरत्तेषां कृतेऽभ्युदयदायिनी, तद्वत्- युवतिरिति मदन गजेन्द्रस्यमहोदयदायिनी कामोत्तेजकशशिनर्मल्यादीनां प्रादुर्भावात्, वर्षासु नद्यो रजस्वला इति लावण्यविहीना भवन्ति गरदि च तासां लावण्यं प्रसरति, युवतिरपि स्वभावत एवेति, शरदि सरोरुहाणि विकसन्ति तानि च तस्या नेत्र स्थानीयानि युवतेरपि नयनं सरोरुह सदृशम्, शरदिआकाशं विशदं भवति युवतिरपि विशदाम्बरधारिणी, शरदि चन्द्रः प्रकाशते स च तस्यामुखमिव, युवतेश्व मुखं चन्द्रबिम्बमिव , वर्षासु हंसा न संचरन्ति शरदि समायातायां तेषां संचारो भवति, युवतिश्च स्वभावत एव हंसगतिभाश्रयतीति शरदिव स्वर्गुण. रेषा सर्वेषां मोदजननी भवतीति विशकलितोऽर्थः म [1] द [1] न [0] ग [1] जे [5] न्द्र [1] म [0] हो [5] द [1] य [1] मा [5] द [0] ध [1] ती [s] स [0] ह [0] सा [5] वि [1] म [1] ल [s] प्र [1] स [1] रभ-[5] इति लक्षणसङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह-महातरुणीदयितमित्यन्य इति । म० २, सू० ३६१.१ ॥
त्री नौ रल्गाचित्रकम् ।।३६२।। रनरनरनरलगाः । यथा- श्रयतां नृपकुमारपाल तव दर्शनत्वरितया
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[अ० २, सू०-३६२-३६३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३०९ व्यधायि यत्, पादतामरसयोः सुवर्णकटके कराम्बुरुहयोश्च नूपुरे । हारदाम च नितम्बबिम्बफलके भृशं हृदि च रत्नमेखला, निर्ममे जतुरसोऽलिकेऽधरदले च चित्रकमधीरचक्षुषा ॥३६२ १॥
पञ्चमं प्रभेदमाह-त्री रनौ रल्गाश्वित्रकम् इति । विवृणोतति-रन-रनरन-रलगा इति । रगण-नगण-रगण-नगण-रगण-नगण-रगणा: लघुगुरूचSIS.III.SIS.11.515.11.SIS.IS. इतीदृशंरक्षरैर्यस्य पदानां विन्यासः तत् चित्रकं नाम विकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- श्रूयतामिति । हे नृपकुमारपाल ! राजन् कुमारपाल ! तव भवतः दर्शनत्वरितयाअवलोकनसम्भ्रमवत्या अधीरचक्षुषा चञ्चलनेत्रया कयाचिदङ्गनया यत् व्यधायिकृतं तत् श्रूयताम् आकर्ण्यताम्, पादतामरसयोः चरणकमलयोः सुवर्ण कटके स्वर्णकङ्कणे- हस्तधारणयोग्ये (पिनद्धे ) कराम्बुरुहयोः करकमलयोः च नपुरे पादधारणयोग्ये मञ्जीरे ( परिहिते ) नितम्बबिम्बफलके श्रोणीमण्डलपट्टके च हारदाम भौक्तिकमाला कृता हृदि हृदये वक्षःस्थलेच रत्नमेखला मणिनिर्मिता रसना, अलिके भाले जतुरसः अलक्तकम्, अधरदले अधरोष्ठे च चित्रकम्-तिलकम् निर्ममे विहितम् । त्वां राजमार्गेण समायान्तं श्रुत्वा तथा त्वरिता याता यथा सर्वाण्याभरणानि विपरीत स्थान एव धारितानि, कि कुत्र परिधेयमिति नावधारितवतीति भावः । श्रू [s] य [i] तां [s] = [0] प [0] कु [1] मा [s] र [1] पा [s] ल [1] त [1] व [0] द [s] शं [1] न [s] त्व [1] रि [1] त [1] या [s] व्य [1] धा [s] यि [1] यत् [5] इति लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू० ३६२.१ ।।
भ्मौ स्मौ निल्गाश्चपलगतिः ॥३६३॥ भमसमा नत्रयं लघुगुरू च । यथा- भूमिभृतामङ्केषु विलासं स्वरुचिसदृशमति हि दिदधती, सस्वरमानीता स्फुटमुच्चैः पटह इव नदति यशसि निजे । दुर्ललिता स्तम्बेरमकान्तेव नृपवर दृढतरगुणगणः, साधु भुजस्तम्मे भवता श्रीरतिचपलगतिरिह निगडिता ॥३६३.१॥
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३१०
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ०२, सू० - ३६४.]
षष्ठं प्रकारमाह- मी स्भो निल्गाश्चपलगतिरिति । विवृणोति - भमसभा नत्रयं लघुगुरूचेति । भगण-मगण सगण भगणेभ्यः पर नगणत्रयं लघुगुरुच - ऽ।।.ऽऽऽ.।।ऽ.ऽ।।.।।।.।।।.।।1.15 इतीदृशैरक्षरः कृतः पादो यस्य तत् चपलगतिनामकं विकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा भूमिभृतामिति । हे नृपवर ! राजश्रेष्ठ ! पटह इव मुरज इव निजे स्वीये यशसि कीता स्फुटं स्पष्टं उच्चैः तारं नदति ध्वनति सति, भूमिभृतां राज्ञां पक्षे पर्वतानाम् अङ्केषु क्रोड़ेषु समीपदेशेषु च स्वरुचि सदृशं स्वैरं विलासं क्रीडां अतिहि भृशं विदधती कुर्वती दुर्ललिता स्वच्छन्दचारिणी स्तम्बेरमकान्ता हस्तिनी इव अतिचपलगतिः अतिशयचञ्चलगमना श्रीः लक्ष्मी दृढतरगुणगणैः स्थिरतर शौर्यादिनृपगुण समूहैः परत्र - स्थिरतर रज्जुसमूहैः सत्वरं शीघ्रम् भवता त्वया आनीता आकृष्टा भुजस्तम्भे बहुरूपे आलाने निगडिता बद्धाच । अयमाशयः यथा पहहेनदति सति काचन पर्वतचरी चञ्चलाच हस्तिनी रज्जुभिर्बद्धा समानीयते स्तम्भे च निगडिता क्रियते, तथा राज्ञामुत्सङ्गे स्थिता चञ्चला श्रीः त्वया निजयशसि कीर्त्यमाने सति स्वगुणै
कृष्ण समानीयते स्वभुस्तंम्भे बद्धा स्थिरीक्रियते चेति । भू [5] मि [1] भृ [1] ता [S] मं [5] के [5] षु [1] वि [1] ला [s] सं [s] स्व [1] रु [1] चि [1] स [1] ह [1] श [1] म [0] ति [1] हि [1] वि [1] द [ 1 ] घ [1] ती [s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० ३६३.१ ।।
ज्सौ सौ यिल्गा वृन्दारकम् ॥ ३६४ ॥
जसजसा यत्र्यं लघुगुरू च । यथा - तदंह्निपरिताडनं सरभसं कचाकर्षणं स्वेच्छया चोजित, मुखाम्बुरुहचुम्बनं प्रति मुहुर्नखंदारणं निर्विशङ्क जवात् । नरेन्द्रतिलक त्वदीयपरिपन्थिनां तुल्यकालं तदेतत्कृतं, शिवाभिरिह संगरे गगनसीनि वृन्दारकप्रेयसीभिस्तथा ।। ३६४, १ ॥
सप्तमं प्रकारमाह- ज्सौ ज्सौ यिल्गा वृन्दारकमिति । विवृणोति- जसजसा - यत्रयं लघुगुरूचेति । जगण सगण जगण सगण यगणत्रयं लघुगुरूच 151. 115. IS1.।।5.151.115.1ऽऽ.।ऽऽ.।SS. 15. इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् वृन्दारकं
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[अ० २ सृ०-३६५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
नाम विकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - तदंहिपरिताडनमिति । हे नरेन्द्रतिलक ! राजभूषण ! इह वर्तमाने संगरे युद्धे - शिवाभिः शृगालीभिः तथा वृन्दारक प्रेयसीभिः देवाङ्गनाभिः त्वदीयपरिपन्थिनां तवशत्रूणां तदेतत् अधोनिर्दिश्यमानं कर्म तुल्यकालम् एकस्मिन्नेव समये कृतम् - विहितम् किं तत् - इत्याह- तदंहिपरिताडनम् तेषां तवशत्रूणां अह्रिभिः चरणैः परिताड़नम् आहतनम् ( शिवाभिः), तेषां अंहयोः चरणयोः परिताडनम् संवाहनं ( वृन्दारक प्रेयसीभिः ) सरभसं सवेगं स्वेच्छया स्वैरं च ऊर्जितं बलवत् यथास्यात्तथा कचाकर्षणं केशाकर्षणं ( द्वाभ्यामपि ), मुखाम्बुहचुम्बनम् मुखकमलेन सह स्ववतृसंयोगः, प्रतिमुहुः वारंवारं जवात् वेगात् निविशङ्कां वारणाशङ्कारहितं नखं : करजैः दारणम् विदलनञ्च इति । अयमाशयः त्वदरीणाम् शरीरम् - भुवि शिवाभि:, दिविचाप्सरोभिरुक्त प्रकारेण उपभुज्यतेस्म । द्वयमपि तदेकस्मिन्नेव काले सम्भवत् - इति विचित्रम् । त [] दं [5] ह्रि [1] प [1] रि [1] ता [S] ड [1] नं [s] स [1] र [1] भ [1] सं [5] क [1] चा [s] क [s] र्ष [1] णं [s] स्वे [s] च्छ [1] या [s] चो [s] जि [1] तम् [s] इति लक्षण समन्वयः । इत्थं त्रयोविंशत्यक्षरायाः विकृतिजातेः सप्त भेदा वर्णिताः । प्रस्तारगत्यातु अस्याः ८३८८६०८ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन ज्ञेयाशतसहस्राणामशीतिस्त्र्याधिका बुधैः । अष्टाशीति सहस्राणि वृत्तानां षट्छतानि च । अष्टौ चैवतु वृत्तानि विकृत्यां गदितानि तु । ( भ. ना. शा. १४.७३ ) अ० २, सू० ३६४१ ।। २३.७ ।। इति विकृतिः ॥
३११
संकृतौ तौ सौ भौ न्यौ तन्वी ठेः ॥ ३६५ ॥
भतनसभभनयाः । तैरिति द्वादशभिर्यतिः । यथा - दन्तमयूखाः शशधररुचयो वागमृतं रतिरमणधनुर्भूर्, लोचनलक्ष्मीस्तुलयति कमलं नूतन विद्रुमसुहृदधरश्च । चम्पकगर्भप्रतिकृति च वपुर्ह सगतेर नुहेरति च यातं वच्मि विशेषं कमपरमथवा रम्यमहो किमिव हि न हि तन्व्याः ।। ३६५.१ ।।
अथ चतुर्विंशत्यक्षरां संकृति जाति वर्णयितु मुपक्रमते संकृतौ भ्तौ न्सौ भो न्यो तन्वी ठैरिति, त्रिवृणोति भतनसभभनयाः । ठंरिति द्वादशभिर्यतिरिति ।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २. सू०-३६६.] भगण-तगण-नगण-सगणा-भगणद्वयं नगण-यगणों ..ssi...sII.SI.. ।ss. इतीदृशंरक्षरैः कृताः पादा यस्य द्वादशभिर्यतिर्यत्र तत् तन्वी नामकं संकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दन्त मयूखा इति । तन्व्याः कृशाङ्गया: दन्तमयूखाः दशनकिरणाः शशधररुचयः चन्द्रकान्तयः वाक् वचनम् अमृतम् अभृतवत्सुम्वकरम्, भ्रूः भृकुटि: रतिरमणतनुम् कामदेवचापतुल्यम्, लोचनलक्ष्मीः नेत्र शोभा कमलं पद्मम् तुलयति समतां नयति अधरः अधरोष्ठं च नूतनविद्रुमसुहत नवीनविद्रुमसदृशम्, वपुः शरीरं च चम्पकगर्भप्रतिकृति चम्पकस्य स्वनामख्यात पुष्पस्य गर्भः अन्त: प्रदेशस्तस्य प्रतिकृति समानाकारम्, यातं गमनं च हंसगतेः मरालगमनस्य अनुहरति अनुकरोति, अपरम् इतोभिन्नं कं विशेषं आधिक्यं वच्मि कथयामि, अथवा किमिव नहि रम्यम् अहो सर्वमेव तस्य रम्यमित्याश्चर्यमित्यर्थः । रत्यङ्गान्युपरिष्ठाद्वर्णितानि तेषां रम्यत्वं किमुवक्तव्यं सर्वमेवतत्सम्बन्धि रम्यमेवेति भावः । द [s] न्त [i] म [1] यू [s] खाः [s] श [0] श [1] ध [1] र [1] रु [1] च [1] यो [s]; वा [s] ग [I] मृ [1] तं [s] र [1] ति [0] र [i) म [1] ण [] [1] नु [s] भ्रू: [5] इति द्वादशभिर्यत्या लक्षण सङ्गतिः ॥ ३६५.१॥
नौ म्नौ ज्नौ न्यौ ललितलता छछः ॥ ३६६ ॥ ननमनजन नयाः । छछरिति सप्तभिः सप्तभियंतिः यथा- परिमलदिलु. ठन्मधुकरकबरी- विरचितनिरवधिशोभाम्, अभिनवकुसुमस्मितसुभगचि मृदुतरकिसलयपाणिम् । इह मधुसमये विलसति नियतं मनसिजशरपरिविद्धस्, तनुललितलतायुबतिमयमहो कलयति मलयसमोरः ॥ ३६६.१ ॥
द्वितीयं प्रकारमाह- नो नो नो न्यो ललितलता छछरिति । विवृणोति ननभनजननयाः । छछैरिति सप्तभिः सप्तभियंतिरिति । नगणद्वयं भगणनगणी जगणः नगणद्वयं यगणश्च-m.m.stm.s .m.iss इतीदृशैरक्षरः कृता: पादा यस्य सप्तभिः सप्तभिश्च यतिर्यत्र तत् ललितलता नामकं संकृति जातिच्छदः इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- परिमतेति । इह अस्मिन् मधुसमये
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[अ०२, सू० - ३६७.]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
वसन्ते मनसिजशर परिविद्धः कामबाण पीडितः मलयसमीर: मलयाचलनिर्गतो वायुः नियतं निश्चितं विलसति कामक्रीडामाचरति कथमित्याहमरिमलविलुङन्मधुकरकबरीविरचितनिरवधिशोभाम् परिमलेन सीरभेविलुतो ये मधुकरास्ते कवरी केशपाश इवेति तया विरचिता विहिता निरवधि: असीमा शोभा ययाताम् अभिनवकुसुम स्मितसुभगरुचिम् नूतन पुष्पमेवस्मितस्य सुभगारुचिः यस्याः ताम् मृदुतरकिसलयपाणिम् मृदुतरोऽतिकोमल: किसलयएव पाणिर्यस्याः ताम् तनुललितलत। युवतिम् तन्वी कुशाललिता मनोज्ञालतंत्र युवतिः ताम् अयं ( मलयसमीर: ) कलयति स्वाधीनां करोति । लतेयं कामिनीव पूर्वोक्त सर्वावयवरम्या तामयं स्ववशे करोतीति, तया सह विलसतीवेति भावः । प [1] रि [1] म [1] ल [1] वि [1] लु [1] ' [s], न्म [1] धु [1] क [1] र [1] क [1] ब [1] री [s], वि [1] र [1] चि [1] त [1] नि [1] र [1] व [1] धि [1] शो [s] भा [s] इति सप्तभिः सप्तभिश्चयत्या लक्षणसङ्गतिः ।। ३६६.१ ।।
३१३
नौ रूर्मेघमाला ॥ ३६७ ॥
नगणद्वयं रगणषट्कं च । यथा - त्रिभुवनविजयाय बद्धाभिमानस्य शृङ्गारयोः प्रयाणक्षणे, कनकघटितदण्डमेतत्किमा भाति नीलातपत्रं लसत्सर्वतः । नवतपविगमश्रिया दीप्रदीपेऽथ कि कज्जलार्थं धृतं कपरं, भ्रममिति विदधाति बोक्ष्योन्नतां मेघमालां जनो विद्युतालंकृताम् ॥ भृङ्गम्जनीलाल केत्येके ॥ ३६११ ॥
तृतीयं प्रभेदमाह - नीरूर्मेघमालेति । विवृणोति- नगणद्वयं रगणषहकं - चेति । तथा च ।।। ।।। SIS. SIS. SIS SIS.SIS.SIS. इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य तत् मेघमाला नामकं संकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथात्रिभुवनेति । जनः लोकः त्रिभुवनविजयाय त्रिलोकीं जेतुं बद्धाभिमानस्य कृताहंकारस्य शृङ्गारयोनेः कामदेवस्य प्रयाणक्षणे यात्रा समये कनकघटितदण्डम् सुवर्णविरचितदण्डं, सर्वतः सर्वस्यां दिशि लसत् शोभमानं नीलातपत्रम् नीलवर्णं छत्रम् एतत् दृश्यमानम् आभाति शोभते किम्
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३१४
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० - ३६८ . ]
अथ अथवा नवतपविगमश्रिया नवा नूतना तपविगमस्य प्रावृषः श्री: शोभा तया दोप्रदीपे प्रज्ज्वलत्प्रदीपे कज्जलार्थम् अञ्जननिर्माणार्थं घृतं स्थापितं कर्परं मृत्पात्रखण्डं किम् ? इति विद्युता सौदामिन्या अलंकृताम् शोभिताम् मेघमालां घनपतलीं वीक्ष्य अवलोक्य भ्रमं सन्देहं विदधाति धारयति । विद्युता सह मेघमालोक्य- तस्मिन् कश्चिञ्जनः सुवर्णदण्डयुक्तं नीलवर्ण छत्रस्य कामेन विजयप्राणसमये धृतस्य भ्रमं विदधाति, तत्र विद्युत् दण्डाकारा मेघमाला च छत्राकारा मता । अपरचं प्रावृश्रिया ( स्त्रीत्वेनाध्यवसितया ) कज्जलस्य निर्माणार्थं विद्युद्रूपेदीपे घृतं कज्जलपात्रमेतदिति भ्रमं विदधातीति भावः । त्रि [1] भु [1] व [1] न [1] वि [1] ज [ 1 ] या [5] य [1] ब [s] द्धा [5] भि [1] मा [5] न [s] स्य [1] शुं [5] गा [5] र [1] यो [5] : [s] प्र [1] या [s] ण [s] क्ष [ 1 ] णे [s] इति लक्षण समन्वयः । अस्य नामान्तरमाह - भृङ्गाब्जनीलालकेत्येके इति । एके आचार्या इदं भृङ्गाब्ज नीलालकेत्यादुरित्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३६७१ ॥
भः सुभद्रम् ॥ ३६८॥
भुरिति भगणाष्टकम् । यथा शौर्यमृगेन्द्र चुलुक्धनरेन्द्र महत्त्वगिरीन्द्र गभीरिमसागर, दोष्णि चिरं निखिलाचलसिन्धुयुतं वसुधावलयं तव बिभ्रति । अद्भुतभारपरिश्रममुक्ति- समुच्छ्वसितो भुजगाधिपतिस्त्वयि शंसति संतत - मेव सुभद्रमखण्ड महोदयमस्त्विति संप्रति ॥ ३६८.१ ॥
चतुर्थ प्रकारमाह- भृः सुभद्रमिति । विवृणोति भूरिति भगणाष्टकमिति । तथा च 511.511.511.51 1 511.511.SI SII. इतीदृशैवर्णेः कृताः पादा यस्य तत् सुभद्रं नाम संकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथाशौर्यमृगेन्द्रेति । हे शौर्य मृगेन्द्र ! शौर्येण पराक्रमेण मृगेन्द्रः सिंह इवेति तत्सम्बोधनम्, महत्त्वगिरीन्द्र महत्त्वेन वैपुल्येन गिरीन्द्रः पर्वतः इवेति तत्सम्बोधनम्, गभीरिम सागर ! गभीरिम्णा गाम्भीर्येण सागरः समुद्र इवेति गभीरिमसागरः तत्सम्बोधनम् हे चुलुक्यनरेन्द्र ! तब भवतः दोष्णि बाहौ निखिला चल सिन्धुयुतं सकलपर्वतसागरसहितं वसुधावलयं भूमण्डलं
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[अ० २, सू० - ३६८-३६६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
चिरं बहुकालं बिभ्रति धारयति सति अद्भुतभारपरिश्रममुक्तिसमुछवासितः अद्भुतेन सर्वाश्चयंकरेण भारेण यः परिश्रमं तस्मात् या मुक्तिः तया समुछवासितः जातोछवासः एष भुजगाधिपतिः शेषनागः त्वयि भवति सम्प्रति गच्छति समये अखण्ड महोदयम् अखण्डः सकल: महोदयः यस्मिंस्तत् सुभद्रम् सुकल्याणम् अस्तु इति सततं सर्वदा शंसति कथयति । सपर्वतसागरां भहीं विभ्राणः शेषनागो भारेण परिश्रान्त स्त्वया तस्याः स्वभुजेन धारणे कृते श्रमविमुक्त्या जातोच्छ्वासः त्वां सुभद्राशीमिरभिनन्दयतीति भावः । शौ [s] र्यं [1] मृ [1] गे [s] द्र [1] चु [1] लु [s] क्य [1] न [1] रे [s] न्द्र [1] म [1] ह [s] त्व [1] गि [1] री [5] न्द्र [1] ग [1] भी [s] रि [1] म [1] सा [s] ग [1] र [1] इति लक्षणसंगतिः ॥ अ० २, सू० ३६८.१ ।।
३१५
मितनिसा द्रु तलघुपदगतिः ॥ ३६९ ॥
त्रयं तगणो नत्रयं सच । यथा मुञ्चत नूपुरकङ्कणकावी: कणितभरविरचितकलकलाः, स्वीकुरुताशुर्गात समयोऽयं न खलु समदगजललितगतेः । संभ्रमवान् स्ववधूरनुशासगिरिसरिदभिमुखमतिकृपणः, संप्रति सिद्धपते तव याति द्रुतलघुपदगति रिपुनिवहः ।। ३६६.१ ॥
पञ्चमं प्रभेदमाह-भितनिसा द्रुतलघुपदगतिरिति । विवृणोति- भत्रयंतगणो नत्रयं सचेति । भगणत्रयं सगणश्च SII.5]1.ऽ।। ऽऽ।।।।।।।।।।।।5. इतीदृशं - रक्षः कृताः पादा यस्य तत् द्रुतलघुपदगतिनामकं संकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- मुञ्चतेति । हे सिद्धपते ! सिद्धराज ! सम्भ्रमवान् भीत: त्वरितश्च अतिकृपणः परमदीनः तव भवतः रिपुनिवहः शत्रु समूहः सम्प्रति त्वदभियानसमये, क्वणितभर विरचितकलकलाः क्वणितभरेण गुञ्जनबाहुल्येन विरचितः कृतः कलकलः कोलाहलो याभिस्तथाभूता: नूपुरकङ्कणकाचीः नूपुरे मञ्जीरे, कङ्कणे वलये काची रसना चेति ताः मुञ्चत त्यजत, आशु गत शीघ्रगमनं स्वीकुरुत माश्रयत, अयं साम्प्रतिकः समयः कालः समदगज ललितगतेः मत्तकारिमनोज गमनस्य न खलु नास्ति निश्वयेन,
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ०२, सू० - ३७०.]
इदम् इत्थम् स्ववधूः स्वाङ्गना: अनुशासत् शिक्षयन् गिरिसरिदभिमुखं पर्वतनदी ममिलक्ष्य याति गच्छति । त्वयाभियुक्तः पलायमानः तव शत्रुः स्वस्त्रियः इत्थं शिक्षयन्- गिरिनदीममिसरति- यत्- चरणहस्त श्रोणीतटाश्रितानि शब्दं कुर्वन्ति- भूषणानि मुञ्चत- अन्यथा तच्छब्दं श्रुत्वापि सिद्धराजसैन्यानि मम गति जानीयुः, किच त्वरितं व्रजत- नायं समयो मन्दगतेरिति । मु [S] ञ्च [1] त [1] नू [5] पु [1] र [1] कं [5] क [1] ण [1] का [5] श्री: [5] क्व [1] णि [1] त [1] भ [1] र [1] वि [1] र [1] चि [1] त [1] क [1] ल [1] क [1] लाः [s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० ३६६ १ ॥
न्यौ भ्तो निसौ संभ्रान्ता ॥ ३७० ॥
नयमता नगणत्रयं सच । यथा- रचयतु जन्मस्नानविधो वस्त्रिजगदधिपचरमजिनपतेः, सुरपतितुङ्गोत्सङ्गनिषण्णस्य किमपि बलविलसितमतुलम् । मृ चरणाङ्गुष्ठाप्रसमाकान्तिविधुर चलितकनकशिखरिस्फुट भयसंभ्रान्तामर - यक्षोरगपति निखिल दुरितवलम् ।। ३७०.१ ।
षष्ठं प्रभेदमाह - न्यो तो निसौ संभ्रान्तिति । विवृणोति - नयभता नगणत्रयं सवेति । नगण-यगण भगण-तगणा नगणत्रयं सगणश्च 111 155.511. ।।।।।।।।।।।5. इतीदृशं रक्षरः कृताः पादा यस्य तत् सम्भ्रान्ता नामकं संकृति जातिच्न्द इत्यर्थः । उदाहरति यथा रचयत्विति । सुरपतितुङ्गोत्सङ्गनिषण्णस्य सुरपतेरिन्द्रस्य तुङ्गोत्सङ्गे उच्चैः क्रोडे निषण्णस्य उपविष्टस्य त्रिजगदधिपचरम जिनपतेः त्रिलोकीभर्तुं अन्तिम तीर्थकरस्य महावीर स्वामिनः जन्मस्नानविधौ जन्मकालिकाभिषेक विधि समये मृदुचरणागुष्ठसमाक्रान्ति विधुरचलित कनकशिखरि - स्फुटभयसम्भ्रान्तामरयक्षोरगपति मृदुः कोमलो यः चरणाङ्गुष्ठः तस्याग्रेण या समाक्रान्तिः तथा विधुरः पीडितोऽतएव चलितः कम्पितो यः कनकशिखरी सुमेरुः तस्माद् स्फुटेन स्पष्टेन भयेन सम्भ्रान्ताः भीताः अमराणां यक्षाणामुरगाणां च पतयो यस्मिंस्तत् किमपि अनिर्वचनीयम् - अतुलम् असमम् बलविलसितम्
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__ [अ० २, सू०-३७१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते।
पराक्रम क्रीडितम् वः तद्रक्तानाम् निखिलदुरितवलनम् सर्वपापसहारम् रचयतु करोतु । र [1] च [1] य [0] तु [1] ज [s] म [5] स्ना [s] न [i] वि [1] द्यौ [s] व [s] स्त्रि [1] ज [0] द [s] धि [1] प [1] च [1] र [1] म [1] जि [1] न [1] प [1] तेः [s] इति लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू० ३७०.१॥
म्सौ ज्सौ तौ भ्रौ विभ्रमगतिः ॥ ३७१ ॥ मसजसततभराः । यथा- दृष्टा त्वत्पृतनातुरंगमखुरो तं धरित्रीरजो गगनाङ्गणे, तत्तद् तिमतीं विहाय सपदि स्वां राजधानीमपि प्रियजीविताः । गच्छन्तोऽनुगिरीन् पलायनविधिप्रत्यूहहेतुं मुहुः सहचारिणां, दाराणां कलहं. सविभ्रमति निन्दन्ति चौलुक्यचन्द्र तवारयः ॥ ३७१.१ ॥
सप्तमं प्रभेदमाह- म्सो ज्सी तो भ्रो विभ्रमगतिरिति । विवृणोति- मसजसततभराः इति मगण-सगण-जगण-सगणाः तगणद्वयं भगण रगणौ च sss.S.ISI IIs ssi ssi. Is sis. इतीहरिक्षरः कृता: पादा यरय तत् विभ्रमगतिनामकमनुष्टुन्जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- दृष्टवेति । हे चौलुक्यचन्द्र ! चुलुक्यनपवशप्रकाश, प्रियजीविताः प्रियं सर्वापेक्षयाऽभीष्टं जीवितं जीवनं येषां तथा भूताः तव भवतः अरयः शत्रवः गगनाङ्गणे आकाशे त्वत्पृतनातुरङ्गमखुरोधूतं त्वत्सैन्यहयखुरोत्थापितं धरित्रीरजः पृथ्वी धूलिं दृष्ट्वा विलोक्य तत्तद्भूतिमती तथाविधसर्वसम्पत्समृद्धां स्वां स्वकीयां राजधानीमपि राज्यदुर्गमपि विहाय त्यक्त्वा गिरीन पर्वतान् अनु अभिमुखं गच्छन्तः पलायनविधि प्रत्यूहहेतुं पलायनकार्यप्रतिबन्ध कारणभूतां सहचारिणां सहगच्छन्तीनां दाराणां पत्नीनां कलहंसविभ्रमगति कलहंसानां मरालानां विभ्रमगतिमिव विभ्रमगतिम् सविलासगमनं मुहुः वारंवारं निन्दन्ति कुत्सयन्ति । तवाक्रमणं दृष्ट्वा सर्वसम्पत्समृद्धमपि निजावासं परित्यज्य पद्भिर्गच्छन्तस्तव शत्रवः मन्दं सविभ्रमं च गच्छन्तीनां पत्नीनां पलायने विघ्नं सम्भाव्य तास्त्वरयन्तीत्यर्थः । ह [5] ष्वा [5] त्वत् [5] पृ [1] त [1] ना [s] तु [1] रं [s] ग [0] म [1] खु [1] रो [s] भू [s]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३७२.] तं [5] ध [1] रि [1] श्री [5] र [1] जो [s] ग [1] ग [1] ना [s] ङ्ग []] णे [s] इति लक्षण समन्वयः ॥ अ० २, सू० ३७१.१ ॥ इत्थं चतुर्विशत्यक्षरायाः संकृतिजातेः सप्तभेदा उक्ताः । प्रस्तारगत्यातु १६७७७२१६ भेदा भवन्ति । तदुक्तं भरतेन- "तथा शतसहस्राणि सप्तषष्टिश्च, सप्ततिः । सप्तचैव सहस्त्राणि, षोडश, देशते तथा ॥ कोटिश्चवेहवृत्तानि संकृतौ कथितानि वै।" ( भ० ना० शा० १४.७४ ) इति संकृतिः ।
अभिकृतौ भस्मनीगाः क्रौञ्चपदा ङङजैः ॥ ३७२ ॥ भमसभा नगणचतुष्टयं गुरुश्च । इङरिति पञ्चभिः पञ्चभिरष्टभिश्च यतिः । यथा-प्रोजन्य पुराणि त्वमययोगानृपवर भवदरिरतिशयविधुरो दूरमरण्यं प्राप्य कलत्रैः सह समजनि गतिरयवशतृषित: । सारसनादात् स स्वयमादी प्रसरति कियदपि भुवमय सहसा, प्रेक्ष्य चकोरक्रौञ्चपदानां ध्रुवमिह सरिदिति निगरति दयिताः ॥ ३७२.१ ॥
अथ पञ्चविंशत्यक्षरामभिकृति जाति वर्णयितु मुपक्रमते- अभिकृती मस्मनीगाः क्रौञ्चपदा ङङजैरिति । विवृणोति भ-म-सभा नगणचतुष्टयं गुरुश्च । उङजैरिति पञ्चभिः पञ्चभिरष्टभिश्च यतिरािंत । भगणमगण-सगण-भगाः नगणचतुष्टयं गुरुश्च | sss Issi.ln.mm.in.5 इतीदृशरक्षरः कृताः पादा यस्य पञ्चभि: पञ्चभिरष्टभिश्च यतिर्यत्र तत् क्रौञ्चपदा नामकमभिकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- प्रोज्झ्य पुराणीति । हे नृपवर ! अतिशयविधुरः परमदुःखितः भवदरिः तव शत्रुः त्वद्धययोगात् त्वत्तो भीतेः पुराणि नगराणि प्रोज्झ्य त्यक्त्वा कलत्रैः अङ्गनाभिः सह साकम् दूरम् विप्रकष्टम् अरण्यं वनं प्राप्य गत्वा गतिरयवश तृषितः गमनवेगवशात् पिपासितः समजनि जातः, आदौ प्रथमं स शत्रुः स्वयम् आत्मनकाकी सारसनादात् सारसपक्षिशब्दमाकण्य कियदपि किञ्चिद्र प्रसरति अग्रे गच्छति अथ अनन्तरं सहसा अकस्मात् चकोरक्रौञ्चपदाङ्का चकोराणां चातकानां क्रोश्चानां कुरराणां पद: अङ्कः चिन्हं यस्यां तादृशीं भुवं पृथ्वी प्रेक्ष्य अवलोक्य इह अत्र ध्र निश्चितं सरित् नदो इति
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[अ० २, सू० - ३७३.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
दयिताः प्रियाः प्रति निगदति कथयति । त्वद्भयात् पलायमानस्तवारिः प्रथमं कलत्रैः सहैव चलति पश्चात् तृषार्तः कलत्राणि हित्वा स्वयमग्रे गत्वा जलपक्षिपदचिन्हितां भूमिमवलोक्य अत्र समीपे एव सरिदिति स्वस्त्रिय आश्वासयतीति भावः । प्रो [s] ज्झ्य [1] पु [1] रा [5] णि [s], त्व [s] गात् [S], नृ [1] प [1] व [1] र [1] भ [1] [ 1 ] त: [s] इति
द्भ [1] य [1] यो [s] व [1] द [1] रि [1]; र [1] रा [ 1 ]
य [1] तृ [1] षि
लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू० ३७२.१ ।।
३१६
नीसभिगा हंसलयो जछैः ॥ ३७३ ॥
नगणचतुष्टयं सगणो भगणत्रयं गुरुश्च । जछैरिति अष्टभिः सप्तमिश्च यतिः । यथा- भवशतविरचितनिरवधिसुकृतं स्त्वत्कृतधर्मपथोऽधिगतः प्रणयिनि मयि कुरु तदसभकरुणां पश्य सुधारसपूर्ण दृशा । अभिमततरमिति वितर जिनपते शक फणीन्द्रनरेन्द्रनुत, प्रतिदिनमपि तव पदकमलयुगे देव भवेयमहं सलयः ॥ ३७३१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह - नीसभिगा हंसलयो जछेरिति । विवृणोति नगणचतुष्टयं सगणो भगणत्रयं गुरुश्च । जछैरिति अष्टभिः सप्तभिश्च यतिरिति । तथा `च ।।।.।।। ।।। ।।। ।।5.511. 51. II. 5. इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य अष्टभिः सप्तभिश्च यतियंत्र तत् हंसलयो नामाभिकृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा - भवशतेति । शक्रफणीन्द्रनरेन्द्रनुत ! देवेन्द्र नागेन्द्र मानवेन्द्रः त ! स्तुत है जिनपते ! हे जिनेन्द्र ! भवशतविरचितनिस्वधिसुकृतैः जन्मशतविहिता सीमपुण्यः त्वत्कृतधर्मपथः त्वदाख्यातधर्ममार्गः अधिगतः आश्रितः तत् तस्मात् प्रणयिनि श्रद्दधाने मयि जीवे असम करुणां अनुपमदयां कुरु विधेहि, सुधारसपूर्णदृशा अमृतजलभरितदृष्टया पश्य अवलोकय, प्रतिदिनम् प्रत्यहः अपि तव भवतः पदकमलयुगे चरणाविन्दद्वन्द्वे अहं सलयः सैकाग्रतः भवेयम् स्याम् हे देव ! इति इत्थंभूतं अभिमततरं वाञ्छित तरं वितर देहि । अनेकजन्मार्जित पुण्यजातैरहं त्वदीयं समयं प्रपन्नः । इति प्रसन्नः करुणां विधाय ददस्व वं पादयुगे सुभक्तिमिति भावः । म [1] व [1]
-
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुसाशनप्रद्योते [अ० २, सू०-३७४.] श [1] त [0] वि [1] र [1] चि [1] त [1], नि [1] र [I] व [1] धि [1] सु [0] कृ [1] तैः [s]; त्व [s] स्कृ [1] त [1] घ [5] म [1] प[0] थो [s] धि [1] ग [0] त: [5] इति लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू० ३७३.१ ॥
त्यो मौ नीगौ हंसपदा ः ॥ ३७४ ।। तयमभा नगणचतुष्टयं गुरुश्च । रिति वशभियंतिः। यथा- अम्भोगवनं व्याकोशमिवं सलिलमतिविमलमिति वनसरसि, भ्रान्तोऽपि हि मा कार्षार्गमनं यदिह विचरति हरिणशिशुनयना। तस्या अतिरम्यां वोक्ष्य गति निरुपमितिमतिशयमधिगतवर्ती, ह्रीतः सपदि त्वं हंसपदाद पदमपि चलसि न खलु नियतमः ॥ ३७४.१॥
तृतीयं प्रभेदमाह- त्यो भो नीगौ हंसपदा रिति । विवृणोति- तयभभा नगणचतुष्टयं गुरुश्च । रितिदशभिर्यतिरिति तगग-यगणो भगणद्वयं नगण चतुष्टयं गुरुश्च 55 ISS.SI.S. ..|| 5 इतीदृशैरक्षरः कृताः पादा यस्य दशभिश्च यतिर्यत्र तत् हंसदानामकमभिकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा- अम्भोजवनमिदमिति । हे हंस! मराल ! इदम् दृश्यमानम् अम्भोजवनम् कमलषण्डं व्याकोशम् प्रफुल्लम् सलिलं जलम् अतिविमलम् परमस्वच्छम् इति हेतो: वनसरसि विपिनमध्यस्थजलाशये भ्रान्तः अपि भ्रमपरीतोऽपि गमनं मा कार्षीः न कुर्याः, यत् यस्मात् इह वनसरोऽन्तिके हरिणशिशुनयना मृगशावकलोचना विचरति भ्रमति, तस्याः मृगनयनाया: अतिरम्यां परमरपणीयां अतिशयं अत्यन्तं यथास्यात तथा निरुपमितिम् उपमान शून्यताम् अधिगतवतीं प्राप्तां गतिं गमनरीतिं वीक्ष्य अवलोक्य, ह्रोतः लज्जित: सपदि तत्कालमेव नियतमदः नियन्त्रितगर्वः सन् त्वं प. दात्पदम् प्रथमाश्रितस्थानात्- पदमात्रम्- अपि न चलसि चलिष्यसिवर्तमानसामीप्यात वर्तमानाप्रत्ययः । इह त्वदतिजयिनी मृगनयना तव मदं हरिष्यतीति तत्र मा गा इति भावः । अ [s] भो [5] ज [1] व [0] नं [5] व्या [s] को [s] श [1] मि [1] दं [s]; स [1] लि [0] ल [0] म [1]
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[अ० २, सू०-३७५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३२१ ति [1] वि [1] म [1] ल [1] मि [1] ति [1] व [1] न [1] स [1] र [1] ति [1] (भ्रान्त इति संयुक्ते गुरुत्वान् ) दशभिर्यत्या लक्षण समन्वयः ।। अ० २, सू० ३७४.१॥
न्जज्या नीगौ चपलम् ।। ३७५ ॥ नजजया नगणचतुष्टयं गुरुश्च । यथा-कचिदपि चूतलतामुपभुङ्क्त कचिदपि पिबति विकिललता, कचिदपि चुम्बति माधविकां च कचिदपि परिसरति च लवलीम् । बहुविधपुष्पसमृद्धिनिधाने विलसति नवतरमधुसमये, चपलभुजंगविलासमजलं कलयति मधुकर इह मुक्तिः ।। ३७५.१ ॥
चतुर्थं प्रकारमाह- अन्जज्या नीगौ चपलमिति । विवृणोति-नजजया नगणचतुष्टयं गुरुश्चेति । नगणो जगणद्वयं यगणः नगणचतुष्टयं गुरुश्चेति ।।.51. Is1. ॥. . . . . . इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् चपलं नामाभिकृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- क्वचिदपोति । वहतरपुष्पसमृद्धिनिधाने बहुतराणाम् अनेकविधानां पुष्पाणां कुसुमानां समृद्धः सम्यक् सम्पत्तेः निधाने आकरे इह अस्मिन् नवतरमधुसमये सद्यः प्रवृत्तवमन्तकाले विलसति शोभमाने सति मुदितः प्रसन्नः मधुकरः भ्रमरः क्वचिदपि कुत्रचित्प्रदेशे चूतलताम् आम्नवल्लीम् उपभुंक्त सेवते, क्वचिदपि परत्र कुत्रचित्स्थाने विचकिललतां स्वनाम्नाख्यातां वल्लीं पिबति आस्वादयति, क्वचिदपि च अन्यस्थानेषु माधविकां माधवीलतां चुम्बति वक्त्रेण योजयति, क्वचिदपि च कस्मिश्चित् प्रदेशे च लवलीम् प्रियङ्गुलताम् परिसरति परितो भ्रमति ( इति ) अजस्रं संततं चपलभुजङ्गविलासम् चपलस्य कामिनीषुदर्शित चाञ्चल्यस्य भुजङ्गस्य वेश्यास्वामिनो विलासं लीलां कलयति स्वीकरोति । वेश्यासु यथा भुजङ्गा बह्वीभिः सह यथेच्छं क्रीडन्ति तथा भ्रमरोऽपि विविधाभिलताभिः सह विलसतीति भावः । क [1] चि [1] द [1] पि [1] चू [s] त [1] ल [1] ता [s] मु [1] प [1] / [s] क्ते ]s] क्व [1] चि [1] द [1] पि []] पि [1] ब [0] ति [1] वि [1] च [1] कि [1] ल [1] ल [1] तां [5] इति लक्षण समन्वयः । इत्थं पञ्चविंशत्यक्षराया: अभिकृति जातेश्चत्वारो भेदा निरूपिताः । प्रस्तारगत्यातु ३३५५४४६२
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३७६.] इति संख्या भवति । तदुक्तं भरतेन- तथा शत सहस्राणि पञ्चविंशच्च संख्या। तिस्रः कोट्यः, सहस्राणि चतुष्पञ्चाशदेव च । शतानि चत्वारि तथा द्वात्रिंशत्प्रविभागतः । वृत्तान्यभि कृती चव छन्दोज्ञः कथितानि वै ॥ इति ( भ. ना० शा० १४.७६ ) ॥ ३७५.१ ॥ इत्यभि कृतिः । उत्कृतौ मौ तो निरसल्गा भुजंगविजृम्मितं जटैः॥३७६|| . ममता नगणत्रयं रसलगाः । जटैरिति अष्टाभिरेकादशमिश्च यतिः । यथाकापि स्वरं करकोउन्महिषशतमचकित चरत्कुरंगकुलं क्वचित, कापि क्रीडाव्यप्रकोड क्वचिदपि मदजडविहरन्मतंगजसंकुलम् । सिंहक्ष्वेडारौद्रं कापि क्वचिवपि विषविषममहाभुजंगविजृम्भितं, श्रीचौलुक्यक्षोणीनाथ स्फुटमजनि भवदरिमहीभुजामधुना पुरम् ।। ३७६.१ ।।
अथ षड्विंशत्यक्षरामुपकृतिजाति वर्णयितुमुपक्रमते- उत्कृतौ नौ तो निरसल्गाभुजङ्गविजृम्भितं जहैरिति । विवृणोति ममता नगणत्रयं रसलगाः । जटैरिति अटाभिरेकादशभिश्च यतिरिति । मगणद्वयं नगणः नगणत्रयं रगणसगी लघुगुरू च sss.ssss.11.11.10 sis.s.15 इतीदृशर्वणः कृताः पादा यस्य अष्टाभिरेकादशभिश्च यतिर्यत्र तत् भुजङ्गविजृम्भितं नामोत्कृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-क्वापिस्वैरमिति । श्रीचौलुक्यक्षोणीनाथ ! चुलुक्यवंशोद्भव ! राजन् ! अधुना सम्प्रति भवदरिमहीभुजाम् त्वच्छत्रुनृपाणां पुरम् नगरम् वापि कुत्रचित्प्रदेशे स्वैरं स्वच्छन्दं करकी उन्महिषशतम् क्रूरं घोरं यथास्यात्तथा क्रीडन्ति खेलन्ति महिषशता नियत्र तथाभूतम् क्वचित् अन्यत्र- अचकितचरत्कुरङ्गकुलम् अचकितं विश्वस्तं यथास्यात्तथा चरन्ति कुरङ्गकुलानि मृगयूथानि यस्मिस्तथाभूतम्, क्वापि क्वचिदपि प्रदेशे क्रीडाव्यग्र क्रोड क्रीडायां लीलायां व्यग्राः व्यस्ताः कोडाः शूकरायस्मिस्तथा भूतम्; क्वचिदपि प्रदेशान्तरे मदजडविहरन्मतंगजसंकुलम् मदेन दानोद्भेदेन जडैः निष्क्रिय विहरद्भिः विलासशीलमतंगजेहस्तिभिः संकुलम् व्याप्तम् क्वापि प्रदेशे सिंहक्ष्वेडारौद्रं सिंहानां क्ष्वेडाभिः गजितध्वनिभिः रौद्रं भयंकरम्, कचिदपि प्रदेशे विषविषममहाभुजंग विजम्भितम् विषेण विषमाणां भयङ्कराणा महाभुजङ्गानां विजृम्भितम्
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[अ० २, सू० - ३७७ ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३२३
ऊर्जितं यत्र तथाविधम् स्फुटं स्पष्टम् अजनि जातम् । स्वया विद्रावितेषु शत्रुषु तेषां नगरस्यारण्यता संजातेति तत्र नानाविधाः श्यापदा एव निवसन्ति ततस्तैरिद मुक्तरूपं जातमिति भावः । का [s] पि [s] स्वै [s] रं [s] क्रू [s] र [5] क्री [s] ड [5]; न्म [1] हि [] ष [1] श [1] त [1] म [1] च [1] कि [1] त [1] च [1] रत् [s]; कु [1] रं [s] वा [1] कु [1] लं [5] क्व [1] चित् [s] इति अष्टाभिरेकादशभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३७६।१ ।
मनूसगगा अपवाहो झचचैः ॥ ३७७ ॥
मो नगणषट्कं सगगाश्च । भचचंरिति नवभि: षड्भिः षड्भिश्च यतिः । यथा - यः श्लाध्यः प्रतिदिनमपि मदनदहनगरुडगमनचतुरास्याद्यैर्, गेयो यः सुरपतिपरिषदि च किमपि मुदितविबुधरमणीवृन्दैः । चौलुक्यान्वयजलनिधिहिमकर कियदिह तव नृपवर तस्यैतद् यत्सवं कृतमरिबलमपरथमपभटमपगजमपवाहं च ।। ३७७.१ ॥
द्वितीयं प्रभेदमाह - मनूसगगा अपवाहो झचचैरिति । विवृणोति - मो नगणषट्कं सगगाश्च । भचचैरिति नवभि: षड्भिः षड्भिश्च यतिरिति । मगणः नगणषट्कं सगणो गुरुद्वयं च 'ऽऽऽ ।। ।।। ।।। ।।। ।।. III. ॥s. ss. ' इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य नवभिः षङ्भिः षङ्भिश्च यतियंत्र तत् अपवाहो नामोत्कृतिजातिरित्यर्थः । उदाहरति- यथा - यः श्लाघ्य इति । यः त्वम् प्रतिदिनमपि प्रतिदिवसमपि मदनदहन गरुडगमनचतुरास्याद्यं मदनस्य दहनः शिवः गरुडेन गमनं यस्य सः विष्णुः चत्वारि आस्यानिमुखानि यस्य सः ब्रह्मा ते आद्माः प्रथमा येषां तादृशैः देवः श्लाघ्यः प्रशस्य:, यः त्वं सुरपतिपरिषदि इन्द्रसभायाम् मुदितविबुधरमणीवृन्दैः 'हर्षित सुराङ्गनासमूहैः किमपि अनिर्वचनीयं यथास्यात्तथा गेयः गान विषयीकृतः च, हे चौलुक्यान्वयजलनिधिहिमकर! चौलुक्यवंशसागरसंभूतशशाङ्क ! नृपदर ! राजश्रेष्ठ, तस्य पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टस्य तव भवतः एतत् अग्रे उच्यमानम् इह संसारे कियत् किं परिमाणं वर्णनीयम् - यत् सर्वम् निखिलम् अरिबलम् शत्रुसैन्यम् अपरथम् रथशून्यम्, अपभटम्
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३७८.] पलायितयोधम् अपगजम् निहतकरि अपवाहम् यिगतहयं च कृतम् रिहितम् । यस्य प्रशंसां देवा अपि कुर्वन्ति तस्या कृते शत्रु सैन्यस्य चतुर्णामप्यङ्गानामु-मूलतं कियदाश्चर्यजनकमिति भावः । यः [5] श्ला [s] घ्यः [5] प्र [1] ति [1] दि [I] न [I] म [I] पि [1], म [I] द [1] न [1] द [1] ह [1] न [1], ग [1] रु [1] ड [1] ग [1] म [0] न [0], च [1] तु [1] रा [s] स्या [5] द्यः [5] इति नवभिः षड्भिः षड्भिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३७७ ॥
भो नौ स्मौ निल्गा आपीडो डैः ॥ ३७८ ॥ ' मननसमा नगणत्रयं लघुगुरू च । डरिति त्रयोदशभिर्यतिः । यथा- पश्य विविषवरविटपिनिकुअश्यामीकृतविपुलतरकटकभूर्, आश्रमशतलसदिभहरिमैत्रीप्रेक्षारसवदमरयुवतिजनः । रेवतकगिरिरयमिह पुरस्ताद्यस्मिन् जिनचरणनमनमिलिता, शेषसुरपतितदमलपुष्पापोडैर्भवति सुगभिरयमनिलः ॥३७८.१॥
तृतीयं प्रभेदमाह- भो नो स्मौ निल्गा आपीडो डैरिति । विवृणोतिभननसमा नगणत्रयं लघुगुरूच । डैरिति त्रयोदशभिर्यतिरिति । भगणो नगणद्वयं सगण मगणी नगणत्रयं लघुगुरुच. ...s.sss..... 15. इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य त्रयोदशभिश्च यतिर्यत्र तत् आपीडं नामोत्कृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- पश्यविविधेति । इह अत्र पुरस्तात् अग्रे अयं दृश्यमान: विविधवरविटपिनिकुञ्जश्यामी कृतविपुलतरकटकभूः विविघः नानाप्रकारैः वरविटपिनां श्रेष्ठपादपानां निकुञ्जः गुल्मैः श्यामीकृता कृष्णवर्णतां नीता विपुलतरा सुमहती कटकभूः मेखलाप्रान्तभूमिः यस्य स: आश्रमशतलसदिभहरिमैत्रीप्रेक्षारसवदभरयुवतिजनः आश्रमशतेषु अनन्त तपस्विनिवासेषु लसन्ती शोभभाना या इभहरिमैत्री गजसिंह सख्यम् तस्य प्रेक्षाया मवलोकने रसवान् औत्सुक्ययुक्त: अमरयुवतिजन: देवतरुणीलोकः यस्मिन् सः, रेवतकगिरिः तदाख्य- पर्वतः अस्ति (तं ) पश्य अवलोकय यस्मिन् पर्वते अयम् अनुभूयमानः अनिलः वायुः जिनचरणनमनमिलिताशेषसुरपतिपतदमलपुष्पापीडः जिनचर
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[अ० २, सू० - ३७६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्मौते
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णयोः नमनाय प्रणामाय मिलितानाम् संगतानाम् अशेषाणां सर्वेषाम् सुरपतीनाम् इन्द्राणाम् पतन्तः जिनपादयोर्लुतो ये पुष्पापीडाः कुसुमगुम्फाः तैः सुरभिः 'सुगन्धिः अस्ति । अग्रे सोऽयं रैवतकगिरियंत्र निवसतो जिनपतेः प्रणामार्थमागतानां सुरेन्द्राणां पुष्पमुकुटैः तत्पादपतितैरत्रत्यो वायुः सुरभीकृत इति भाव: । प [s] श्य [1] वि [1] वि [1] ध [1] व [1] र [1] वि [1] ट [1] पि [1] नि [1] कु [s] ञ्ज [5]; श्या [5] मी [5] कृ [1] त [1] वि [1] पु [1] ल [1] त [1] र [1] क [1] ट [1] क [1] भूः [s] इति त्रयोदशभिर्यत्यालक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३७८।१ ॥
जौ न्सौ मनिल्गा वेगवती ॥। ३७९ ॥
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नजनसभा नगणत्रयं लघुगुरू च । यथा - नभसि भृशं स्तनति मरितदिक्कन्दर मभिनवजलधरपटले, घृतमुदि नृत्यति च मधुर के का कलकलजुषि समदशिविकुले । स्फुटितकदम्बकुटज सुमनः सर्जपरिमल मिलदलिनि च वने, मनसिशये च भुवनजयसंवेगवति वत मवसि पथिक कथम् ।। ३७९.१ ॥
चतुर्थं प्रकारमाह- न्जो न्सो भनिल्गा वेगवतीति : विवृणोति, न-ज-न-सभा नगणत्रय लघुगुरू चेति । नगण जगण नगण सगण भगणा नगणत्रयं लघुगुरू च ' 111. 151. ।। . ॥5. SH. ।। ।।। ।।। IS.' इतीदृशैरक्षरे: कृता पादा यस्य तत् वेगवती नामकमुत्कृतिजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति यथानभसीति । हे पथिक ! नभसि आकाशे अभिनवजलधर पटले नूतनपयोदमण्डले भरितदिकन्दरं भरिताः पूरिताः दिश: कन्दराणि पर्वतदर्यश्च यस्मिन् तद्यथास्यात्तथा भृशम् अत्यर्थं स्तनति शब्दायमाने सति, मधुरकेकाकलकलजुषि मधुरं मिष्टं के कायाः स्ववाचः कलकलं कोलाहलं जुषते सेव इति तादृशि समदशिखिकुले मत्तबहिणसमूह धृतमुदि हषंयुक्तं नृत्यति नृत्यं कुर्वति च वने अरण्ये च स्फुटिसकदम्बकुटज - सुमनः सजपरिमलमिलदलिनि स्फुटितानां विकसितानां कदम्बानां कुटजानां सुमनसां - ( मालतीनां ) सर्जाणां च परिमलैः सौरभैर्हेतुभिः मिलन्तः सङ्गच्छन्तः अलिनो भ्रमरायत्र तादृशे ( वर्षा समये ) सति, मनसिशये कामे च भुवनजयसंबेग
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८०.] वति लोकविजयसम्भ्रमयुक्ते सति कथं केन प्रकारेण भवसि वर्तसे (वत्तिष्यसे ) इति बत दुःखम् । एतावान् समयो गृहात् बहिः स्थितेन भवता कथं कथमप्यपवाहितश्चेत् अस्तु किन्तु पूर्वोक्त रूपे, वर्षासमये, तवकागतिभविता यत्र मदनोजगद्विजयाय त्वरते, तद्विचार्य झटिति गृहं संश्रयेति भावः । न [1] भ [1] सि [1] भृ [1] शं [s] स्त [1] न [0] ति [0] भ [1] रि [1] त [1] दि [s] क [5] न्द [0] र [1] म [1] भि [1] न [1] व [1] ज [1] ल [0] ध [1] र [1] प [0] ट [1] ले [5] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ ३७६.१॥
नजभजिम्जल्गाः सुधाकलशो ढैः ॥ ३८० ॥ नजभा जत्रयमजलगाः। ढेरिति चतुर्दशभियंतिः । यथा- अयमनुनीय सर्वसुरकार्यकृते मम वल्लमेन दिविषत्पतिना, ननु विनियोजितः कवलितश्च ततत्रिपुरान्तकृन्नयनहव्य भुजा । इति हृदये विचिन्त्य परिजीवयितुं मकरध्वज सपदि पूर्वविशा, नियतमुदासि संप्रति सुधाकलशः परिपूर्णशीतचिबिम्बमिषात् ॥ ३८०१॥
पञ्चमं प्रकारमाह- नजभजिम्जल्गाः सुधाकलशो ढेरिति । विवृणोति नजमा-जलय-भजलगाः। द्वैरिति चतुर्दशभिर्यतिरिति । नगण-जगणभगणा जगणत्रयं भगण-जगणी लघुगुरुच ISI.SI.SI.'s.sI.IS1 S1.51.Is. इतीदृशैरक्षरैः कृताः पादा यस्य चतुर्दशभिश्च यतिर्यत्र तत् सुधाकलशो नामोत्कृति जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अयमनुनीयेति । मम (पूर्वदिशः) वल्लभेन प्रियेण दिविषत्पतिना इन्द्रेण सर्वसुरकार्यकृते सकलदेवकार्यार्थम् अनुनीय अनुकूलयित्वा अयं मदनः विनियोजितः शिवविजयार्थ नियुक्तो ननु निश्चयेन, तत: तदनन्तरं त्रिपुरान्तकृन्नयनहव्यभुजा त्रिपुरारि-शिव-नेत्र वह्निना कवलितः भुक्तः ( दग्धः) च; इति हृदये चित्ते विचिन्त्य विचार्य सपदि शीघ्रमेव मकरध्वज कामं परिजीवयितं संजीवयितुं पूर्वदिशा प्राच्या ककुभा परिपूर्वाशीतरुचिबिम्बमिषात् पूर्णचन्द्रमण्डलच्छाव सम्प्रति अधुना 'सुधाकलशः' अमृतपूर्ण कुम्भः नियतं निश्चितम् उदासि उत्थापितः । पूर्वदिशा- मम प्रियेणेन्द्रेणैव कामः शिव
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[अ० २, सू०-३८१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते विजये नियोजितोऽतएव शिवनेत्राग्निा दग्ध इति तदुजीवनाय-मयोद्योगः कार्य इति विचार्य सुधाकलशमुत्थाप्य तमुज्जीवयितुं प्रयत्यते स- एवायं पूर्णचन्द्रः प्रतिभातीति भावः । अ [0] य [0] म [1] नु [1] नी [5] य [0] स [s] 4 [0] सु [1] र [1] का [s] 4 [1] कृ [1] ते [s], म [1] म [1] व [s] त्ल [1] भे [s] न [1] दि [1] वि [1] षत् [s] प [1] ति []] ना [1] इति चतुर्दशभिर्यत्यालक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० ३८०।१॥ इत्यं षड्विंशत्यक्षराया उत्कृति जातेः पञ्चभेदा निरूपिता: प्रस्तारगत्या तु३७१०८८६४ भेदा भवन्ति तदुक्तं भरतेन "षट्कोट्यस्तु, सहस्राणां शतानि टेकविंशतिः । अष्टौ चैव सहस्त्राणि शतान्यष्टी तथैव च । चतुष्पष्टिस्तु ह्य त्कृतावपि संख्यया ॥ इति (भ ना. शा. १४।७८) । इत्युत्कृतिः ।।
इति-उक्तादिजातिप्रकरणम् ।।
___ अथ शेष-जातिप्रकरणम् । शेषजातौ मतिनायि मालाचित्रं टैः ॥ ३८१॥ मस्तगणत्रयं नगणद्वयं यगणत्रयं च एषां समाहारद्वन्द्वः । टेरिति एकादशभिर्यतिः । यथा-पान्थाः शीघ्र यात नातः परं वः क्षणमपि यदिह शुभं तत्र गत्वाश्रयध्वं, कान्तां नो चेदत्र तां देवतां स्वां स्मरत सपदि भवतो हन्त संह. तुकामः । कालोऽयं जीमूतनामाभ्युपैति स्तनितबधिरितमहीमण्डलश्चण्डविद्युन्मालाचित्रास्त्रप्रहारीति दूरात् कथयति शिखिनिवहस्तारकेकारवेण ।। ३८१.१ ॥
षड्विंशत्यक्षरान्ताः सर्वसम्भताश्छन्दो जातयो वर्णिताः तत: परमन्यैर्दण्डका एवोक्ताः किन्तूदाहरणेषु जातिच्छन्दोभिः साम्यदर्शनात्काश्चनान्या अपि जातयः स्वाभिमता: शेषजातित्वेनोक्ताः । तासां वर्णनमुपक्रमते- शेषजातो मतिनाभि मालाचित्रं ठेरिति । मतिनायीति विवृणोति- मस्तगणत्रयं नगणद्वयं यगणत्रयं च एषां समाहारद्वन्द्व इति । मकारो मगण परः, तिरिति समानेन कादिरिति न्यायात्तगणत्रय परः एवं 'ना' इत्याकार विशिष्टत्वान्नगणद्वयपरम्, तथैव 'यि' इति यगणत्रयपरमिति भावः । तेषां समाहारद्वन्द्वभाश्रित्य कीबत्वं प्रयुक्तमिति भावः टैरिति एकादशभिर्यतिरिति ।
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सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८२.] तथा च मगणः तगणत्रयं नगणद्वर्य यगणत्रयम् 'sss. ssi. ssI. SsI. . . Iss. Iss. Iss.' इत्येवं प्रकारः सप्तविंशत्यक्षरै कृताः पादा यस्य एकादशभिश्च यतिर्यत्र तत् मालाचित्रं नाम शेषजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथापान्थाःशीघ्रमिति । शिखिनिवहः मयूरसमूहः तारकेकारवेण उच्चतरया केफाख्यवाचा- हे पान्थाः ! प्रवासिनः ! शीघ्र त्वरितं यात स्वगृहं गच्छत, यत् यस्मात् इह प्रवासे अतः परं अम्मात्समयादग्रे वः युस्माकम् क्षणमपि किश्चित्कालमपि न शुभम्- न कल्याणसंभावना । तत्र गृहम् गत्वा प्राप्य स्वां कान्तां प्रियाम् आश्रयध्वम् सेवध्वम्, नो चेत् यदि सा न स्यात्अथवा तस्याः सकाशं गन्तुं भवन्तो न समर्थाः ( तर्हि ) अत्र अस्मिन्नेव स्थाने स्वां स्वकीयां स्वाराध्यां वा तां देवताम् पूर्वोक्तां कान्तारूपां देवतां स्मरत रक्षार्थं ध्यायत, ( कुत इतिचेदत्राह-) भवतः युष्मान् सपदि शीघ्न सहर्तुकामः नाशयितुमिच्छन् स्तनितबधिरितमहीमण्डलः स्तनितेन गजितेन बधिरितं कर्णव्यापाररहितं कृतं महीमण्डलं पृथ्वीतलं येन तथा भूतः चण्डविद्युन्मालाचित्रास्त्रप्रहारी चण्डा भीषण विद्युन्मालव चित्रास्त्रम् अद्भुतशस्त्रं तत्प्रहरतीति तच्छील: जीभूतनामा मेघनामधारी अयं कालः यमः ( अथ च श्यामवर्णः ) अभ्युपैति सभागच्छति, इति इत्थं दूरात् कालस्य संहारव्यापाराद्विप्रकृष्ट पूर्वकालादेव कथयति । मेघागमनं विलोक्य मयूराः तार केकारवं कुर्वन्तीति वस्तुस्थितिः । पान्थानां गृहगमनाय प्रेरणमेव तत्प्रयोजनम्, तस्य हेतुश्च कान्ता विरहिणां तेषां मेधेन संहारसंभावनवेति उत्प्रेक्षितं कविना । पा [s] न्थाः [s] शी [s] न [5] या [s] त [I] ना [s] तः [s] प [1] रं [s] वः [5]; क्ष [ ] ण [1] म [1] पि [1] य [1] दि [1] ह [1] शु [1] भं [s] त [s] त्र [I] ग [s] त्वा [s] श्र [5] य [s] ध्वं [5] इति एकादशभियंत्यालक्षणसंगतिः ।। अ० २, सू० ३८११ ज्ञ
म्तौ स्तौ निसल्गाः प्रमोदमहोदयो घछटः ॥ ३८२ ।।
मतयता नगणत्रयं रसलगाश्च । घछटैरिति चतुभिः सप्तभिरेकादशभिश्च यतिः । यथा- काप्युग्रीवा प्रास्थित बद्धोत्कण्ठं करकलितशिथिलवसना दबाव च काचन, स्तम्भं दधे कापि च काचिच्चासी- दतिशयितबहलपुलकाकुरोल
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[अ० २, सू०-३८२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३२४ सिताङ्गिका । काचिच्चके भूषणमङ्गे काचित् तिलकमकृत नवमलिके चुलुक्यमहीपतो, यात्रां कृत्वोपेयुषि पौरस्त्रीणां समजनि निरवधिरधुना प्रमोदमहोदयः ।। ३८२.१ ॥
यथा वा- वन्द्या देवी पर्वतपुत्री नित्यं मधुमधुरकमलवदना पुरन्ध्रयधिदेवता, देवः स्तुत्या किनरगेया भक्त्यावरचरितमहिषमथनी जगत्रयनायिका । सिद्धध्या केसरियाना कामं रणचतुररसिकहृदया त्रिलोचनवलमा, वीरैः पूज्या दर्पणपाणि नूनं गुणनिलयलटभललिता सतीषु धुरंधरा ॥ ३८२.२ ॥
अथोनत्रिंशदक्षरपादां शेषजातिमुदाहरति-म्तो प्तौ निसल्गाः प्रमोदमहोदयो घछटैरिति । विवृणोति- मतयता नगणत्रयं रसलगाश्च । घछटैरिति चभिः सप्तभिरेकादशभिश्च यतिरिति । मगणः तगणः यगणः तगणः नगणत्रयं रगणः सगणः लघुगुरू च 'sss. ऽऽ.. Iss. ss. 1.
.. sis. ॥s. Is.' इतीदृशैरूनत्रिंशद्भिरक्षरः कृताः पादा यस्य, चतुभिः सप्तभिरेकादशभिश्च यतिर्यत्र तत् शेषजातिषु प्रमोदमहोदयो नाम वृत्तमित्यर्थः । उदाहरति- मथा- काऽप्युद्प्रोवेति । चुलुक्यमहीपतो चुलुक्यवंशीये राजनि यात्रा परराष्ट्राक्रमणं कृत्वा विधाय उपेयुषि परावृत्य प्राप्तवति सति अधुना सम्प्रति पौरखीणां नगरसुन्दरीणां (तद्दर्शनलालसां) प्रमोदमहोदयः आनन्दोत्पत्तिवाहुल्यम् समजनि अभूत् । कथमिति चेत्तासां चेष्टा आहकाऽपि काचन नागरी बद्धोत्कण्ठं संभृतौत्सुक्यं यथास्यात्तथा उद्ग्रीवा गीवामूर्वीकृत्य प्रास्थित तद्दर्शनाय प्रस्थिता। काचन च करकलितशिथिलवसना हस्तधृत-प्रभ्रश्यद्वस्त्रा ( वस्त्रसंयमनविलम्बमसहमाना हस्तेनैव तदलम्बमानेति भावः) दधाव द्रुतं ययौ । कापि च स्तम्भं चेष्टाशन्यत्वं दध्र धारयामास (अतित्वरया जातः सम्भ्रमा निश्चेष्टा जातेति भावः ) काचिच्च अन्या अतिशयितबहलपुलकाङ्कुरोलसिताङ्गिका अतिशयिताः अतिभूमि गता बहलाः प्रभूताः ये पुलकाङ्कुराः रोमहर्षाः तैरुल्लसितम् शोभितम् अङ्गं यस्यास्तादृशी ( सात्विकभावोद्रेकात् ) आसीत्अभूत् । काचित् अङ्ग शरीरे भूषणम् अलङ्कारं दधे धारयामास ( जनानां दृष्टावनलङ्कृताया आदराभावमभिलक्ष्य त्वरयाऽलङ्करणं दधारेत्यर्थः ) काचित् अलिके भाले नवं प्रत्यग्रं तिलकं विशेषकम् अकृत
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८३.] विरचितवती- इति, एवं भूताचरणस्तासां प्रमोदमहोदयो ज्ञात इति भावः । का [5] प्यु [5] दुग्री [s] वा [s], प्रा [s] स्थि [1] त [0] ब [s] द्धो [s] स्क [s] ण्ठं [5]; क [1] र [1] क [1] लि [1] त [1] शि [1] थि [1] ल [1] व [1] स [1] ना [5]; द [1] धा [s] व [1] च ]] का [s] च [1] न [1] इति चतुभिः सप्तभिरेकादशभिश्च यत्या लक्षणसमन्वयः । अ० २, सू० ३८२।१ ।। ___ अस्यैवच्छन्दसं उदाहरणान्तरमाह-वन्द्यादेवीति । पर्वतपुत्री अचलकन्या देवो नित्यं प्रतिक्षणं वन्द्या प्रणम्या । सा कीदृशीत्याह- मधुमधुरकमलवदना मधुनामकरन्देन मधुरं सुन्दरं कमलम् पद्ममिव वदर्न मुखं यस्याः सा, पुरन्ध्रयधिदेवता पुरन्ध्रीणां सतीनाम् अधिदेवता अधिष्ठात्री देवी, देवैः सुरैः स्तुत्या स्तोतुं योग्याः भक्त्या श्रद्धया किनरगेया किन्नरैः देवयोनि विशेषः गेया गानविषयीकृता, अवरचरितमहिषमथनी निकृष्टाचारि महिषासुरमदिनी, जगत्त्रयनायिका त्रैलोक्यनेत्री सिद्धैः देवजातिविशेषैः कामम् अत्यन्तं ध्येया ध्यानकर्मीकृता केसरियाना सिंहवाहना रणचतुररसिकहृदया रणे संग्रामे चतुरा च रसिकहृदया- सरसान्तः करणा च- सा, त्रिलोचनवल्लभा त्र्यम्बक प्रिया, वीरैः शूरैः पूज्या पूजाकर्मीकृता, दर्पणपाणिः दर्पणम् आदर्श: पाणौँ यस्याः सा, नूनं निश्चितं गुणनिलयलटभललिता गुणनिलया गुणानां निधिः, सा चासौ लटभललिता लटभं बालभावाश्रितं ललितं क्रीडितं यस्याः सा, सतीषु सच्चरितासु घुरंधरा अग्रगण्या। अत्रापि पूर्ववल्लक्षणसमन्वयः, यतिनियमश्च द्रष्टव्यः । अ० २, सू० ३८२।२। २६॥१॥
द्विर्मजसना म्यौ नृत्तललितम् ॥३८३।। द्वौ वारी मजसन इत्येते गणाः। भयौ च केवलौ। भजसनमजसनमया इति । थथा- अद्य कलहंसललने ललितमन्थरगतौ सपदि मानय सपत्नरहितं स्वं, कोकिलविलासिनि विधेहि कलगीतिरचना- चतुरतामदममन्दमतिमत्त।। दुर्ललितनृत्तललितं युवमयूर रचय त्वमपि संप्रति चिराय गतशङ्कः, सर्वगुणकेलिसदनं चकितबालमृगलोलनयनां प्रियतमामिह विना ताम् ॥३८३.१॥ ३०॥१॥
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[अ० २, सू०-३८४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३३१ अथ त्रिशदक्षरां शेषजातिमाह- द्विर्भजसना म्यौ नृत्तललितमिति । विवृणोति- भयौ चकेवलौ द्वौ वारौ भजसन इत्येते गणाः, भयौ च केवलौ भजसन भजसनभया इतीति । तथा च भगण-जगण-सगण-नगण-भगणजगण-सगण-नगण-भगण-यगणा:-51.ISI.IIS.III.SIL.ISI.IIS.I.SIL Iss. इतीदृशैः त्रिंशता अक्षरैः कृताः पादा यस्य तत् नृत्तललितं नाम शेष जातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- अद्य कलहंसेति । इह अस्मिन् काले चकितबालमृगलोलनयनां चकितस्य भीतस्य बालमृगस्य नयने इव नयने यस्याः सर्वगुणकेलिसदनं सर्वेषां गुणानां केलिसदनं क्रीडागृहं तां हृदयस्थितां प्रियतमां वल्लभां विना तदभावे अद्य अस्मिन् दिने हे कलहंसललने ! मरालपत्नि ! स्वं आत्मानं ललितमन्थरगतौ सुन्दरमन्दगमने सपत्नरहितं प्रतिपक्षहीनं मानय भावय हे कोकिलविलासिनि पिककामिनि अमन्दमतिमत्ता तीक्ष्णबुद्धिगविता सती कलगीतिरचनाचतुरतामदम् अव्यक्तमधुरगानविधान नैपुण्यगवं विधेहि कुरु । हे युवमयूर तरुणबर्हिन् ! त्वमपि चिराय बहुकालकृते गतशङ्कः प्रतिभटशङ्कारहितः सन् सम्प्रति गच्छति काले दुर्ललित नृत्तललितम् स्वच्छन्दनर्तन विलासम्- रचय विधेहि । मत्प्रियायाः सत्त्वे भवताम् तया विजित गुणानां स्व-स्वगुणप्रख्यापनस्यावसरो नासीत्- सम्प्रति तस्या अभावात् यथेच्छं स्वगुणगर्व प्रकाशयतेति भावः । अ [5] द्य [2] क [1] ल [1] हं [s] स [1] ल [I] ल [1] ने [s] ल [1] लि [1] त [1] मं [s] थ [1] र [i] ग [1] तो [s] स [1] प [1] दि [I] मा [s] न [1] य [1] स [1] प [s] ल [1] र [1] हि [D] तं [s] स्वं [s] इतिलक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३८३।१ ॥ ३०॥१॥
द्वादश ना ल्गौ ललितलता त्रिज्ञैः ॥३८४॥ द्वादश नगणा लघुगुरू च । त्रि.रिति त्रीन वारान दशभिर्यतिः । यथाजिनचरणसरसिरुहपरिचरणरतमनसि परमशममुपदधति फलितपरमलये, विषयबलदलनजुषि बत तरुणि विफलमतिचतुरतरनयनगतिमिह यतिनि तनुषे । वज मदन निजसदनमपसरणमुपरचय पिकतरुण रणरणकमुपजनयसि नहि, प्रकटयसि मधुसमय किमिति नवमदमुदितमधुपकुलकलरणितमुखरललितलताम् ॥ ३८४.१ ॥ ३८।१।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८५.] . अथाष्टात्रिंशदक्षरां शेषजाति वर्णयति- द्वादश ना ल्गो ललितलताविरिति । विवृणोति- द्वादश नगणा लघुगुरू च । त्रिरिति त्रीन्वारान् दशभिर्यतिरिति । तथा च . . . . . . . . . .
...' इतीहशेरष्टात्रिंशता वर्ण: कृताः पादा यस्य दशभिर्दशभिर्दशभिश्च यतिर्यत्र तत् ललिबलतानामकं शेषजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरतियथा-जिनचरणेति । हे तरुणि ! युवते ! जिनचरणसरसिरहपरिचरण रतमनसि जिनचरणावेव सरसिरहे कमले तयोः परिचरणे सेवने रतम् आसक्तं मनो यस्य तादृशे, परमशमम् निरतिशयशान्तिम् उपदधति धारयमाणे, कलितपरमलये प्राप्तनितान्तलीनतावस्थे विषयदवदलनजुषि विषयदवस्य सांसारिकभोग्यवस्तुदावाग्नेः दलनं नाशनं जुषते सेवते इति ताशि यतिनि जितेन्द्रिये इह मुनी अतिचतुरनयनगतिम् परमनिपुणनेत्रव्यापारं विफलं व्यर्थ तनुषे विस्तारयसि इति बत् खेदः । हे मदन ! काम ! निजसदनं स्वावासं व्रज गच्छ, हे पिकतरुण! कोकिलयुवक ! अपसरणम् पलायनम् उपरचय कुरु, हि यत: रणरणकम् औत्कण्ठ्य न उपजनयसि उत्पादयसि; प्रयोजनाभावात्- त्वयापि न स्थेयमिति भावः । हे मधुसमय ! वसन्त” ! नवमदमुदितमधुपकुल कलरणितमुखरललितलताम् नवेन मदेन हर्षेण मुदितस्य प्रसन्नस्य मधुपकुलस्य भ्रमरसमूहस्य कलरणितेन मधुरगुञ्जितेन मुखरां वाचालां ललितलताम् सुन्दरवल्ली किमिति किमर्थं प्रकटयसि, तयापि नास्य मनो विकारणीयमिति भावः । जिनचरणाश्रिते शान्ते ध्याननिमग्ने यतिनितरुण्या मदनस्य वसन्तसमस्य वा न प्रभाव: संभवतीति तैव्यर्थमेव तत्समीपे स्थीयत इति भावः । जि [1] न [1] च [1] र [1] ण [i] स [1] र [1] सि [0] रु [0] ह [0], प [1] रि [D] च [1] ण [0] र [1] त [1] म [1] न [1] सि [1]; प [1] र [1] व [1] श [1] म [1] मु [0] प [1] द [I] ध [1] ति [1]; क [1] लि [1] त [1] प [1] र [1] म [2] ल [1] ये [s] इति दशभिस्त्रियंत्यालक्षण संगतिः ।। अ० २ सू० ३८४०१ ॥३८।१।।
मौ तनीजम्राः पिपीलिका जणैः ॥३८५|| मवर्य तगणो नयणचतुष्टयं जभराः। जगैरिति अष्टमिः पञ्चदभिश्न
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[अ० २. सू०-३८५.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते यतिः। यथा- निष्प्रत्यूह पुण्यां लक्ष्मीमविरतमभिलषसि यदि रमयितुं सुखं च यदीच्छसि, स्थातुं न्यायोन्मीलबुद्ध लघुभिरपि सह बहुमिरिह कुरु मा विरोधपदं तदा। विस्फूर्जत्फूत्कारं कीडाकवलितसकलमगकुलमजगरं भुजंगममुन्मवं, संघातं कृत्वा पश्यता ग्लपितवपुषमनवधि: चितरुजा अवन्ति पिपीलिकाः ॥ ३८५१ ॥ ३०॥१॥
त्रिंशदक्षरपादां शेषजाति प्रकारान्तरेणाह-मौत नीजभ्राः पिपीलिका जणैरिति । विवृणोति- मद्वयं तगणो नगणचतुष्टयं जभराः । जणैरिति अष्टभिः पञ्चदशभिश्च यतिरिति । मगणद्वयं तगणो नगणचतुष्टयं जगणभगण-रगणाः 'sss. sss. ssi. m. .. . II. I. sis.' इतीदृशैत्रिशता अक्षरः कृता: पादा यस्य अष्टभिः पञ्चदशभिश्च यतिर्यत्र तत् पिपीलिकानामकं शेषजातिच्छन्द इत्यर्थः । उदाहरति- यथा- निष्प्रत्यूहमिति । हे न्यायोन्मीलबुद्धे ! न्यायेन सत्पथेन उन्मीलन्ती विकसन्ती बुद्धिर्यस्य तत्सम्बोधनम्, यदि चेत् पुण्यां पवित्रां लक्ष्मी सम्पदम् अविरतं सतबं रमयितुं स्वात्मनि सलील स्थापयितुम् अभिलषसि इच्छसि, सूखं निर्दुःखं स्थातं च यदि इच्छसि अभिलषसि, तदा इह संसारे लघुभिः क्षुद्रैः अपि बहुभिः अनेकः सह साकं विरोधपदम् विरुद्धव्यवहारं मा कुरु । विस्फूर्जस्फूत्कारम् विस्फूर्जन उच्चै रुद्गच्छन् फूत्कारः शब्दविशेषो यस्य तं क्रीडाकलितसकलमृगकुलम् क्रीडया अनायासेन कवलितं भक्षितं सकलं समग्रं मृगकुलम् हरिणवृन्दं येन तथाभूतम् उन्मदं मत्तं भुजंगमम्- सर्पम् अजगरम् तज्जातीयम् एताः पिपीलिकाः क्षुद्रकीटजातयः संघातं समूहं कृत्वा विधाय अनवधिरुजा असीमपीडया ग्लपितवपुषं क्षीणशरीरं कृत्वा अदन्ति खादन्ति ( इति ) पश्य अवलोकय । क्षुद्रतमा अपि पिपीलिका घोरमजगरमपि निहत्य खादन्तीति दृष्ट्वा लघुभिरपि बहुभिविरोधः परिहरणीय इति भावः । नि [s] प्र [s] त्यू [s] हं [s] पु [s] ण्यां [s] ल [s] क्ष्मी [5]; म [1] वि [1] र [1] त [1] म [1] भि [1] ल [i] ष ]] सि [1] य [1] दि [1] र [1] म [1] पि [1] तुं [5]; सु [1] खं [s] च [1] य [1] दी [s] च्छ [1] सि [s] ( पादान्तस्य विकल्पेन गुरुत्वात् ) इति अष्टभिः पञ्चदशभिश्च यत्यालक्षणसंगतिः । अ० २, सू० ३८५ ॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८६.] एषैव नीपरतः पञ्चदशपञ्चदशलवृद्धा क्रमेण
करम ३५-पणव ४०-मालाः ४२ ॥३८६|| एषत्र पिपीलिका चतुर्यो नगणेभ्यः परतः पञ्चविंशमिश्च लघुमिवृद्धा शेषगणेषु तथैव स्थितेषु क्रमेण करभादयो भवन्ति । तत्र पञ्चभिवृंदा पिपीलिकाकरमः । यथा- नित्यं लक्ष्मच्छायाच्छन्नः कलयतु कथमिव तव वदनरुचिममतरुचिश्चिरं क्षयसंयुतः, तुल्यं नाब्जं स्फूर्जयूलीविधुरितजननयनयुगमतिमदुकरचरणस्य निर्मलचारुणः ! कण्ठस्येयं दासी श्यामा परभृतयुवतिरपि मधुपरिचयकलविरुतिनिसर्गकलध्वनेः, भ्रूवल्लीभङ्ग छकाया हरिणनयनमचतुरमतिललिततनु करभोरु नो सदृशं दृशः ॥३८६,१॥३५॥१॥
दशभिर्वृद्धा पिपीलिकापणवः । यथा- रुन्दोऽमन्दः कुन्दच्छायः शरदमलघनतुहिनविकचकुमुदवनहरहसितसितः शशाङ्ककरोज्ज्वलः, तारः पारावारापारः स्थलजलगगनतलसकलभुवनपथधवलनपरिचितः प्रसाधितदिङ्सुखः। लोकालोकच्छेदं गत्वा दृढकठिनविकटदिगवधितटघटनविवलनवलयितो वि. शुद्धयशश्चयः, प्रोत्तुङ्गः श्वेतप्राकारो ध्वनिगुणपणव तव जयति नृपवर नवललितवसतेजगत्रितयश्रियः ॥३८६.२॥४०॥१॥
पञ्चदशभिवृद्धा पिपीलिकामाला । यथा- उत्फुल्लाम्भोजाक्ष्यास्तस्याः कुसुमशरसुभगतव विरहदव इह हि जयिनि समुपचरणविषये व्यधायि सखीजनः, अङ्गे वासः कर्पूराम्भस्तिमितशुचि तुहिनकिरणकरपरिभवचतुरधवलिम कुचतटयुगे सुमौक्तिकदाम च । रम्भागुल्मं लीलागारं मलयजरसोलवसुघमभिनवविकचकुमुदवनदलसमुदयश्च तल्पककल्पना, नव्या मौलो महीमाला तदिदमखिलमपि दवहुतवहरुचि परिचितमहिम विरचयति मुहुः प्रदाहमहाज्वरम् ॥३८६.३॥४५॥१॥
शेषजातिप्रकरणम् ।
अथ दण्डकाः । यत् किश्चिद् दृश्यते छन्दः षड्विंशत्यक्षराधिकम् । शेषजात्यादिकं मुक्त्वा तत् सर्व दण्डकं विदुः ॥३८६४॥
अस्यैवच्छन्दसः प्रभेदानाहः एव नीपरतः पञ्च-दश-पञ्चदशलवृद्धा क्रमेण
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[अ० २, सू०-३८६.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते ३३५ करभ-३५-पणव-४०-मालाः ४५ इति । विवृणोति- एषैव पिपीलिकेत्यादिना। तथा च पूर्वो के पिपीलिकाच्छन्दसि नगण चतुष्टयादग्रं पञ्चलघुषुवधितेषु तत: परतो जगण भगण रगणेषु पूर्ववत् स्थितेषु 'पिपीलिकाकरभ' नामकं शेषजातिच्छन्दः, तथा नगण-चतुष्टयात्परतः दशसुलघुषु वर्धितेषु शेषेषु यथास्थानं स्थितेषु 'पिपीलिकपणव' नामकम् - एवम्- नगणचतुष्टयात्परतः पञ्चदशसुलघुषु वधितेषु शेषेषु यथास्थानं स्थितेषु 'पिपीलिकामाला'नामकंशेषजातिच्छन्द इत्यर्थः। तत्र मगणद्वयं तगणः नगण चतुष्टयं पञ्चलघवः जगण-भगण-रगणाः 'sss. sss. . . . . . . Is.. | .' इतीदृशैः पञ्चत्रिंशता वर्णैः कृताः पादा यस्य तत् पिपीलिकाकरभनामकं शेषजातिच्छन्द इति, तस्योदाहरणमाह- यथा- नित्यंलक्ष्मच्छायेति । हे करभोरु ! करभी मणिबन्धादाकनिष्ठं करबहिर्भागौ इव ऊरू यस्याः तत्सम्बोधनम् नित्यं सर्वदा लक्ष्मच्छायाच्छन्नः कलङ्कधुतिग्रस्तः चिरंबहुकालात् क्षयसंयुत। प्रतिदिनं क्षीयमाणः अमृतरुचिः सुधाकिरण: चन्द्रः तव भवत्या वदनरुचिम् मुखकान्ति कथमिव केन प्रकारेण (कथमपिनेति भावः) ललयतु धारयतु । स्फूर्जधूली-विधुरितजननयन युवम् स्फूर्जन्त्या उधूल्यमानया धूल्या विधुरितं पीडितं जनानां नयनयुगं येन तत् अब्ज कमलं निर्मलचारुणः विमलसुन्दरस्य ( तव ) अतिमदुकरचरणस्य अतिमृदोः परमकोमलस्य करचरणस्य पाणिपादस्य तुल्यं लमानं न: (अस्ति) श्यामा कृष्णवर्णा इयं प्रत्यक्षदृष्टी परभृतयुवतिः कोकिलतरुणी अपि मधुपरिचयकलविरुतिः मधुना वसन्तेन पुण्यरसेन वा परिचयात् संपर्कात् कला अव्यक्तमधुरा विरुतिः गानं यस्या स्ताहशी निसर्गकलध्वनेः सहजमधुरशब्दस्य (तव ) कण्ठस्य गलविवरस्य दासी परिचारिका । हे अतिललिततनु परमसुन्दरस्वरूपे ! अचरं भावाभिव्यक्ती अनिपुणं हरिणनयन् मृगनेत्रन् भ्रूवल्लीभङ्ग भ्रुकुटिलता कोटिल्ये छकाया विदग्धायाः ( तव ) दृशः दृष्टेः सदृशं तुल्य नो नास्ति । मुखेन सह चन्द्रस्योपमानत्वं प्रसिद्ध किन्तु कलङ्की क्षययुक्तः स निष्कलङ्कस्य प्रतिदिनं वृद्धकान्तेः तववदनस्य साम्यं कथंयातु। कमलस्य पाणिपादस्योपमानत्वं प्रसिद्धम्- किन्तु तधूलीसंयुतं, निर्मलस्य तस्योपमानत्वं कथं लभताम् कण्ठस्योपमा कोकिला
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स वृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० - ३८६ . ]
कण्ठेन प्रसिद्धा किन्तु स- . केवलं वसन्तसम्बन्धेनम धुरः तव कण्ठस्तु स्वभावत एव मधुर इति तत उत्कृष्टः । नयनयोः मृगनयनाभ्यामुपमादीयते, परम्मृगनयने न भ्रूभङ्गे विदग्धे तवनयने च तत्र निपुणे इति ततः स्पष्टं श्रेष्ठे इति भाव: । नि [s] त्यं [s] ल [s] क्ष्म [s] च्छा [s] या [s] च्छ [s] न्नः [s] क [1] ल [1] व [1] तु [1] क [1] थ [1] मि [1] व [1] त [1] व [1] व [1] द [ ] न [1] रु [1] चि [1] म [1] मृ [1] त [1] रु [1] चि [s] वि [1] रं [s] क्ष [1] य [1] सं [5] यु [1] तः [s] इतिलक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० ३८६ । १ । ३५।१ ।।
:
अथ पूर्वोक्तेषु द्वितीयं प्रकारमाह- 'दशभिर्वृद्धा पिपीलिकापणव' इति । पिपीलिकाच्छन्दसि नगणचतुष्टयात्परतो दशलघवो वृद्धा: तया च मगणद्वयं तगणः नगणचतुष्टयं दशलघवः जगण-मगण- रगणाः ' sss. sss. ssI. III. ।।।. ।।।. ।।।, ।।।।।।।।।।. 151. SII. SIS.' इतीदृशैर्वणैः कृताः पादा यस्य तत् पिपीलिकापणव इत्युक्तम् । तदुदाहरणं यथा- रुन्दोऽमन्द इति । हे ध्वनितगुणपणव ! ध्वनितः शब्दं कुर्वन् गुणानां पणवः पटहो यस्य गुणा एव वा पणवो यस्य तत्सम्वोधनम् हे नृपवर राजश्रेष्ठ ! नवललितवसतेः नूतनसुन्दरावासस्य जगन्त्रितयश्रियः जगत्त्रितयस्य त्रैलोक्यस्य श्रीः लक्ष्मीः यस्य तस्य तव भवतः प्रोत्तुङ्गः समुन्नतः श्वेतप्राकारः शुभ्रोवरणः जयति सर्वोकर्षेण वर्तते । तमेव विशिनष्टि - रुन्दः विशालः अमन्दः अनीचः कुन्दच्छायः कुन्दवन् माध्यपुष्पवत् छायाकान्तिर्यस्य सः, शरदमलघन - तुहिन - विकचकुमुदवन - हरहसित-सितः शरद: शरहतोः अमलाः निर्मलाः घनाः, तुहिनम् - हिमम् - विकचं विकसिर्त कुमुदवनम् - हरस्य शिवस्य हसितम्एतेषामिव सितः शुभ्रः शशाङ्ककरोज्ज्वलः शशाङ्ककरैः चन्द्रकिरणैः उज्ज्वलः सुप्रकाशः, तारः विशुद्धः पारावारापारः पारावारवत् समुद्रवत् अपारः अनन्तः स्थल-जल - गगनतल - सकलभुवनपथ - धवलनपरिचितः स्थलं भूः जलं समुद्रादिप्रदेश :- गगनतलम् आकाशम् सकलभुवनपथः सर्वलोक मार्गः एतेषां धवलने श्वेतीकरणे परिचितः अभ्यस्तः, प्रसाधितदिङमुखः प्रसाधितानि भूषितानि दिशां मुखानि येन तादृशः, लोकालोकच्छेदं लोका लोकनानी मानसोत्तरवर्तिनो गिरेः पर्यन्तम्- गत्वा दृढ़कठिन विकट
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[अ०२, सू० - ३८६. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
३३७
दिगवधितट घटन विवलन- वलयितः दृढानि सवलानि - कठिनानिकर्कशानि - विकटानि विशालानि च दिगवधितटानि दिशां सीमापराकाष्ठाः तेषां घटने रचने यद्विवलनं प्रयतनं तेन वलयितः वलयाकारतां गतः विशुद्धयशश्चयः विशुद्धो निर्मलो यशश्चयः कीर्तिसमूहो यस्य सः, इति । पूर्वार्धन प्राकारस्यातिशुभ्रत्वं वैपुल्यं च वर्णितं तृतीयेन पादेन वैपुल्येन सह दृढत्वादिकं वर्णित मितीदृशस्तव प्राकारः सर्वप्राकारेभ्योऽतिशयित इति भाव: । रुं [s] दो [s]; मं [s] दः [s] कुं [5] द [s] च्छा [s] य: [s] श [1] र [1] द [1] म [1] ल [1] घ [1] न [1] तु [1] हि [1] न [1] वि [1] क [1] च [1] कु [1] मु [1] द [1] व [1] न [1] ह [1] र [1] ह [1] सि [1] त [1] सि [1] तः [s] रा [1] शा [5] ङ्क [1] क [1] रो [s] ज्ज्व [1] ल: [s] इतिलक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० ३८६ । २ ।। ४०।१ ।।
तस्यैव तृतीयं प्रभेदमुदाहर्तुमवतारयति- पञ्चदशभिर्वृद्धा पिपीलिका मालेति । पिपीलिकाच्छन्दस्येव नगणचतुयात्परतः पञ्चदशलघवः शेषे च पूर्ववत् जभराश्चेत् पिपीलिकामालेत्युक्तम्- तथा च मगणद्वयं तगणः नगणचतुष्टयं पञ्चदश लघवः जगण - भगण-रगणाः 'ऽऽऽ ऽऽऽ ऽऽ। ।।... ।।।, ।।।।।।।।।।।।।।।. ।ऽI SII. SIS.' इतीदृशैः चत्वारिंशता अक्षरः कृताः पादा यस्य तत् पिपीलिकामालाच्छन्दः । उदाहरणम् - यथा- उत्फुल्लाम्भोजेति । हे कुसुमशरसुभग ! कुसुमशरः कामः तद्वत् सुभग सुन्दर ! जयिनि विजयशीले इह अस्मिन् तव भवत: विरहदवे वियोगाग्नौ उत्फुल्लाम्भोजाक्ष्याः विकाक्षिसरोज समाननयनायाः तस्याः पूर्ववर्णिताया अङ्गनायाः समुपचरण विषये सम्यक्–सेवा प्रबन्धे - अङ्ग शरीरे कर्पूराम्भस्तिमितशुचि कपू - रभिश्रितेनाम्भसातिमितं क्विन्नं शुचि पवित्रं च वासः वस्त्रं, कुचतटयुगे स्तनप्रान्तद्वये तुहिनकिरणकरपरिभव चतुरधवलिम तुहिन किरणस्य शीतद्युतेः कराणां किरणानां परिभवे विजये चतुरः निपुणो धवलिमा श्वत्यं यस्य तादृशं मौक्तिकदाम मुक्तामाल्यं च मलयजरसक लितवसुषम् चन्दनप्रवसिक्तभूमिकम् रम्भागुल्मम् कदलीकुञ्जं लीलागारम् क्रीडागृहम्, अभिनवविकच कुमुदवनदलसमुदयैः सद्यः प्रफुल्ल कुमुदकुसुमसमूहपत्रनिवहैः च तल्पकल्पना शयनरचना मौलौ शिरसि नव्या नूतना मल्ली
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३३५
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ० २, सू० - ३८७.]
माला मल्लिकापुष्पस्रग्- व्यधायि विहितम्; तत् पूर्वोक्तम् इदम् अखिलम् सर्वम् अपि ववहुतवह रुचि परिचितमहिम दबहुतवहरुचिभिः दावाग्नि ज्वालाभिः परिचितः शिक्षित: महिमा माहात्म्यं येन तथा भूतं सत् मुहुः भूयो भूयः प्रवाहमहाज्वरम् परितापमहा रोगम् विरचयति विदधाति । तव विरहतप्ताया स्तस्याः शान्त्यर्थं शरीरे शीतं वस्त्रं कुचतटे मुक्तामाला, रम्भाकुले चन्दनसिक्तभूमौ पुष्पदलः शय्या, शिरसि मल्लिकास्रक् इत्येतत्सर्वं यत् सखीजनविहितं तत्सर्वं दाहमेववर्धयतिस्म कामोद्दीपकत्वादिति भावः । उत् [5] फु [s] ल्ला [5] म्भो [s] जा [5] क्ष्या [s] स्त [s] स्या: [s] कु: [1] सु [1] म [1] श [1] र [1] सु [1] भ [1] ग [1] त [1] व [1] वि [1] र [0] ह [1] द [1] व [1] इ [0] ह [1] हि [1] ज [1] यि [1] नि [1] स [1] मु [1] प [1] च [1] र [1] ण [1] वि [1] ष [1] ये [s] व्य [1] घा [5] यि [1] स [1] खी [5] ज [1] नं: [s] इति लक्षणसङ्गतिः ॥ अ० २, सू० ३८६ । ३ ।। ४५ । १ ।। इतिशेषजाति प्रकरणम् ॥
तत्र
नाऋ चण्डवृष्टिः || ३८७॥
ना इति नगणद्वयं ऋ इति रगणसप्तकं च । समाहारो द्वन्द्वः । यथाअभिनवतर दुर्मदोद्दामपाथोदमालाप्रतिच्छादिते सर्वतो व्योमनि, स्फुटितकुटजकेतकीपांसुपुच्छाच्छोटिताशेषविश्यं न्द्रदिग्मारुते । मुदितनिखिलनीलकण्ठः कृते क्रूरके कारवव्याकुले ताण्डवाडम्बरे, कथमिव चलितोऽसि भोः पान्थ हित्वा प्रियां चण्डवृष्टिप्रपाताकुले वर्त्मनि ॥। ३८७.१ ।। चण्डवृष्टिप्रपात इत्यन्ये ॥३८७ः१॥
अथ दण्डकाः 1
अथ दण्डक जातीरुपवर्णयितः ग्रन्थान्तरोक्तां दण्डक परिभाषा माह- यत्कि - चिदृश्यते छन्द इति । शेषजात्यादिकं शेषजातिः पुरस्तादुक्ताताम्आादिपदेन समशीर्ष विषमशीर्षनाम्नी चतुर्थाध्यायान्ते वक्ष्यमाणेवृते- ते च मुक्त्वा विहाय षविशत्यक्षराधिकम् - सप्तविंशत्यादिभिरक्षरः कृतपाद छन्दः यत् किश्चिद दृश्यते कविप्रयुक्तलभ्यते तत्सर्वं दण्डकं दण्डकनाम्ना
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[अ० २, सू०-३८७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते क्य तं विदुः जानन्ति पूर्वेकवय इति शेषः। अथ दण्डकजातीयेषु छन्दः सुवर्णनीयेषु, प्रथमं प्रभेदमाह- तत्र- ना” चण्डवृष्टिरिति । विवृणोतिना इति नगणद्वयं ! इति रगणसप्तकं चेति । समाहारोद्वन्द्व इति । ना च रऋ चेत्यनयोः समाहारद्वन्द्वे कृते क्कीबत्वात्सेलुंगिति भावः। तथा च ॥. m. sis. SIS. SIS. sis. sis. sis. sis.' इतीदृशैः सप्तविंशत्या अक्षरः कृताः पादा यस्य तत् चण्डवृष्टिनामकं दण्डकजातीयं छन्द इत्यर्थः। उदाहरतियथा- अभिनवेति । भोः पान्थ ! हे प्रवासिन् ! सर्वतः सर्वस्यां दिशि व्योमनि आकाशे अभिनवतरदुर्मदोद्दामपाथोदमालाकुले अभिनवतरा अतिनूतनाः दुर्भदाः दुर्वारगर्वाः उद्दामाः उच्छृङ्खलाः ये पाथोदाः मेघाः तेषां मालया घटया आकुले व्याप्ते सति, ऐन्द्रदिङमारते इन्द्रो देवता अस्या इति ऐन्द्री पूर्वा दिक्- आशा तस्या मारुते वायो स्फुटितकुटजकेतकी पांसुपुखच्छटाच्छोटिताशेषदिशि स्फुटितानां विकसितानां कुटजानां केतकीनां च स्वस्वनाम्नाख्यातानां पुष्पाणां पांसुपुञ्जानां परागसमूहानां छटाभिः घटाभिः आच्छौ टिताः आक्रान्तोः अशेषाः सर्वा दिशो येन तथा भूते सति, मुदितनिखिलनील कण्ठः प्रसन्नसकलमयूरः, कृते विहिते, करकेकारवव्याकुले
बेण दुःश्रवेण केकारवेण तदीय शब्देन व्याकुले आक्रान्ते ताण्डवाडम्बरे नृत्यविस्तारे सति, वर्मनि मार्गे सचण्डवृष्टिप्रपाताकुले चण्डाया दुःसहाया वृष्टयाः प्रपादेन निर्भरणेन आकुले आक्रान्ते सति प्रियां वल्लभां हित्वा विहाय कथमिव केन प्रकारेण चलितः प्रस्थितः असि। ईदृशे घोरे समये प्रियां परित्यज्य गमनं ते सर्वथाऽनुचितमिति- ईदृशे समये यात्रवानुचिता तत्रापि प्रिया परित्याग इति महाननर्थ इति वा भावः । अ [0] भि [1] न [1] व [0] त [I] र [1] दु [5] म [1] दो [s] द्दा [5] म [1] पा [s] थो [5] द [1] मा [s] त्वा [s] प्र [1] ति [s] च्छा [s] दि [1] ते [s] स [s] + [I] तो [5] व्यो [s] म [1] नि [s] (स्फुटितेति संयोगे गुरुत्वात्) लक्षणसङ्गतिः । अस्य नामान्तरमाह 'चण्डवृष्टिप्रपात' इत्यन्ये इति । पिङ्गल छन्दः शास्त्रे 'प्रधमश्चण्डवृष्टिप्रयातः' (पि. ६. शा. ७।३४) इति सूत्रं दृश्यत, तत्रापि 'प्रपात' इत्यपि पाठान्तरमिति पाद टिप्पण्यां दृश्यते । इहापि- 'प्रयात' इति पादान्तरं पादटिप्पण्यां दृश्यते इति पिङ्गलमतमेवेदमुक्तमिति प्रतिभाति ।। अ० २, सू० ३८७.१॥
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योत [अ०२, सू० - ३८८.]
यथोत्तरमेक करवृद्धा अर्णार्णवव्यालजीमूतलीलाकरोद्दामशङ्खादयः ||३८||
३४०
चण्डवष्टेरूर्ध्वमेकं करगणवृद्धाः क्रमेणार्णादयो दण्डकाः । तत्र नगणाभ्यां . परंरष्टभी रगणैरर्णः । यथा - अविरलगुरुशाखिनोऽरण्यभागान् समुत्तुङ्गशृङ्गाबलशालिनः सर्व भूमीभृतो, विपुलतरतरंगसंसंगिनी: कूलिनीरुच्छ्रितानेकसौधान् पुरग्रामदेशानपि । स्थगयति तमसि प्रपन्ने सपत्नत्वमुन्मुक्तषं र्यस्य पाथो निघेमंक्षु रज्यद्वपुः कुपित इव तदर्णस: प्रोद्ययौ तस्य संहारकारी समुद्यत्करोऽयं निशाबलभः ॥ ३८८, १॥
नवभिरर्णवः । यथा- प्रसृत निबिडमारुतान्दोलिताश्वत्थसंशीर्णपर्णौघविस्फारवातोलिकापूर्यमाणाम्बरे, घनवनदवदह्यमानासिलकरशाहूं लपोतो.टोनादसंत्रस्तमातङ्गयूथाकुले । दिनकरकरतप्तकोलावली श्रीयमाणार्द्रतल्ले लस• लोकलोलवा चालामाद्यन्महा-, र्णवपयसि ननु प्रिय ग्रीष्मकालेऽधुना मा स्म गामानय त्वं हि पीनस्तनाश्ले षसोख्यानि मे ॥ ३८८.२ ।।
दशभिर्व्यालः । यथा - चिरवहदरघट्टसंपूर्यमाणोच्छलत्सारिणीतोयधारामिरामं सबैकान्तकान्तप्रसर्पलता, बहलिततरुगुल्मकेलीगृहं ये पुरोद्यानमुद्दामलीला जुषः स्त्रीसखाश्चाह चेरुश्चुलुक्येश्वर। तृषितकर टियूथ मल्लूक संदोहकोलव्रजव्याकुलाश्यान कल्लोलिनीवारि दुर्वारसूर्यद्युति, व्यतिकर विधुरीकृतव्यालiosमानामुद्दण्डकान्तारमीयुस्त्वदीयद्विषस्तेऽधुना ॥ ३८८.३ ।।
एकादशभिजीमूतः । यथा- जिनपतिपदपङ्कजस्पर्शपुष्पीकृताशेषशृङ्गः पुरस्तादयं तत्तदाच संप निवानं भुवो भूषणं, प्रतिविपिननिकुञ्जकूजत्पिकीपश्वमोच्चारसंवगतस्वर्ग सीमन्तिनीवर्गगोतिप्रपञ्चाभिरामोऽन्वहम् । कुरुबकसहकारकारस्कराशोक जम्बूकदम्बेगुवीवेणुकान्तारम ला प्रतिच्छन्नमार्तण्डचण्डातपः, प्रतिटविनिविष्टजीमूतसंदोहनिर्मुच्यमानामृतासारपूर्णोद्वहनिर्भरः पश्य दिष्टयोज्जयन्तो गिरिः ॥ ३८८४ ॥
द्वादशभिलीलाकरः । यथा - घनपरिमलसारकर्पूरपानोयतिम्यद्दुकूलं कुकूलधियं पद्मिनीपलवस्त्रस्तरः खादिराङ्गारविस्फूजितं, तुहिन किरणचन्द्रिका हन्त हालाहलत्वं नवं चन्दनं तप्तलोहोपमां वेणुवीणा निनादोऽपि कर्णज्वरत्वं
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[अ० २, सू०-३८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते ३४१ वषत् । अयि तव विरहे यवस्या मृगाक्ष्या झवन्नामधेयाक्षरोचारमय कर. भाजुषः सांप्रतं सर्वमेवामजद् व्यत्ययं, तदतिसुभग सान्द्रपीयूषलीलाकरस्तबचोमिः समाश्वासयनां चिरायान्यथा तु त्वमेवात्र निःशूकचूडामणिः ॥३८८.५॥ - त्रयोदशभिरुद्दामः । यथा- वलयितवरकन्धरं वल्गदुत्तुङ्गतेजस्विगन्धर्वराजीखुरक्षुण्णविश्वंभराक्षोदसंदोहविक्षेपणादुर्दिनाउम्बरं, प्रथममपि निरीक्ष्य सप्रेमकान्तामुखाम्भोरुहालोकने स क्षणं कौतुकी नष्टुकामोऽपि यावद्भवत् त्युन्मनास्त्वद्विपक्षवजः । नृप तव सहसा जयश्रीविलासैकधामाभ्रमातङ्ग-संस्पघिनोऽभ्रंकर्षविग्रहर्मोषणाः क्षोभयन्तो जगजितजितः, उतमदजलनिझरे
वस्तधूलीवितानाः कृतान्ता इवोद्दामगन्धद्विपास्तावदाविर्भवन्तश्विरान्मूर्छयामासुरेनं विभो ॥३८८ ६॥ ...
चतुर्दशभिः शङ्खः । यथा- अमरपतिकरिभ्रमं बिभ्रतीमाः समग्राः कलङ्गः कलाविभ्रमं धारयत्यत्रिनेत्रप्रसूतस्य कृष्णो बहत्यन्धकध्वंसकर्तुतुलां, कुवलयवनमातनोति धियं पौण्डरीकी कलिन्दात्मजा जलकन्योज्ज्वलं बारि पत्ते विधत्तेऽअनाद्रिविलासं च कैलासपृथ्वीभृतः । कलयति लवणोदधिः क्षीरपायो. धिलीलायितं शेषशोभामशेषाहयः प्राप्नुवन्तीन्द्वनीलाश्च मुक्तामणीनां समासादयन्ति त्विषं, विचकिलहरहासनीहारहारेन्दुशङ्कावदातरमीमिः स्फुरद्धिमहीपालचूडामणे शासनश्वर्यवज्रायुध त्वद्यशोराशिमिः ॥३८८.७॥
आदिशब्दात् पञ्चदशभिः समुद्रः षोडशभिर्भुजंग इत्येवमादयो यथेष्टकृतनामानो यावदेकोनसहस्राक्षरः पारस्तावद्भवन्ति ॥३८८.७॥
यथा पूर्वमुक्तादिजातिच्छन्दःसु एकैकाक्षरवृद्धया जातिभेदा उक्ताः तथाऽत्रापि एककगणवृद्धया छन्दोभेदावर्ण्यन्ते- यथोत्तरमेकैकरवृद्धाः अर्णाणवन्यालजोभूतलीला करोद्दाम शङ्खादय इति । विवृणोति चण्डवृष्टेरूवमेकैकरगणवृद्धाः क्रमेणार्णादयो दण्डकाः इति । नगणद्वयं सप्तरगणाः इति चण्डवृष्टिपादन्यास उक्तस्तत्रकै करगणवृद्धौ कृतायाम्- अर्णः, अर्णवः, व्यालः, जीमूतः, लीलाकरः, उद्दामः शङ्ख इत्येवमादयोदण्डका भवन्ति इत्थं च नगणद्वयात्परत: चतुर्दशरगणपर्यन्तं नामान्युक्तानि । ततः परमपि रगणवृद्धो आराम-संग्राम-सुराम-वैकुण्ठ-सारकासार-विसार-संहार-नीहार-मंदार
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स वृत्तिच्छन्दोऽनुसाशन प्रद्योते [अ०२, सू० ३८८. ]
केदार - आसार-सत्कार- संस्कार- माकन्द - गोविन्द - सानन्द - सन्दोह - आनन्द्र- इत्येते आदि पदे ग्राह्या इति तर्कवाचस्पतिः । स्वमते च समुद्र - भुजंगादय: आदिपदेन गृह्यन्ते इति वक्ष्यति । इत्थं प्रथमं प्रभेदं वर्णयति - तत्र - नगणाभ्यां परंरभी रगणैरिति । तथा च नगणद्वयम् - रगणाष्टकम् ' 111. 111 515. SIS. SIS. Sis. sis. sIS SIS SIS. ' इतीदृशैर्वर्णेः कृताः पादा यस्य तत् अर्णनामक दण्ड जातिच्छन्द इत्यर्थः । तथा चोदाहरति यथा- अविरलेति । अविरल गुरुशाखिनः अविरलाः घनाः गुरवः महान्तश्च शाखिनो वृक्षा यत्र तादृशान् अरण्यभागान् वनप्रदेशान् समुत्तुङ्गशृङ्गावलीशालिनः समुत्तुङ्गाभि: अत्युन्नताभिः शृङ्गावलीभि; शेखरसमूहैः शालन्ते शोभन्ते इति तान् सर्वभूमीभृतः सर्वान् पर्वतान्, विपुलतरतरंङ्गससङ्गिनी: विपुलतरैः महामहद्भिस्तरङ्गः ऊर्मिभिः संसङ्गः संपर्को यासां तथा भूताः कूलिनी: तटिनी (नदी) उच्छ्रितानेकसौधान् उच्छ्रिताः उन्नता अनेके सौधा: प्रासादा येषु तान्- पुरग्रामदेशान् नगर ग्रामभागान् अपि स्थगयति आच्छादयति, सपत्नत्वं शत्रुत्वं प्रपत्रे प्राप्ते तमसि अन्धकारे सति, उन्मुक्त'धेयस्य त्यक्तघृतेः पाथोनिधेः समुद्रस्य, ( एवं सर्वान् व्याप्नुवदि नमो यामपि व्याप्स्यतीति शङ्कितस्य) मंक्षु शीघ्रं कुपित इव कृतक्रोध इव रज्यद्वपुः रक्तवर्णशरीरः समुद्यत्करः समुद्यन्तः समुदयः प्राप्नुवन्तः करा: किरणा यस्य तादृशः, तस्य तमसः संहारकारी विनाशकृत् निशावल्लभः चन्द्रः तदर्णसः समुद्रजलमध्यात् प्रोद्ययौ निः सृतः । वनपर्वतनगर ग्रामादिषु सर्वत्र तमसाच्छन्नेषु भीतं समुद्रमालोक्य तम सः संहाराय समुद्रजलादेव चन्द्रो बहिरगत इति भावः । अ [1] वि [1] र [1] ल [1] गु [1] रु [1] शा [5] खि [1] नो [5] र [5] ण्य [1] भा [s] गान् [s] स [1] मुं [s] तु [5] ङ्ग [1] शू [S] ङ्गा [s] व [1] ली [s] शा [s] लि [1] न: [s] स [s] [1] भू [S] मी [s] भृ [1] तः [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० सू० ३८८।१ ।।
अतः परं नवभीरगणैः कृतपादमर्णवमुदाहर्तुं माह- नवभिरर्णवः इति । तथा च नगणद्वयात्परतः नव रगणाः ।।1. 111. SIS. SIS. sis sis sis. sts. SIS. SIS. SIS' इतीहरौरक्षरः कृताः पादा यस्य सोर्णवनामा दण्डक इत्यर्थः ।
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[अ० २, सू०-३८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते तथोदाहरति- यथा-प्रसृतनिबिडेति । हे प्रिय ! वल्लभ ! प्रसृतनिबिउमारुतान्दोलिताश्वत्थसंशीर्णपर्णोधविस्फारवातोलिकापूर्यमाणाम्बरे प्रसृतः सर्वतः प्रसरं गतो निबिडः बहुलीभूतो यो माहतः वायुस्तेनान्दोलितानां कस्पितानामश्वत्थानां संशीणः पतितः पाँधैः पत्रसमूहैः विस्फारया वृद्धिगतया वातोलिकया वात्यया आपूर्यमाण माच्छाद्यमानमम्बरं यस्मिन् तथा भूते, घनवनदवदह्यमानाखिलकरशार्दूलपोतोद्भटोन्नादसंत्रस्तमातङ्गयूथाकुले घनेन बहुलीभूतेन वनदेवतारण्यदावाग्निना दह्यमानानां प्लुष्यमाणानां क्रूराणां भयङ्कराणां शार्दूलपोतानां तरक्षुशिशूनाम् उद्भटः उच्चस्तरैः उन्नादः ऊर्ध्वजितैः सत्रस्तानां भीतानां मातङ्गानां हस्तिनां यूथेव समूहेन आकुले व्याकीर्णे, दिनकरकरतप्तकोलावलीश्रीयमाणातल्ले दिनकरस्य सूर्यस्य करः किरणः तप्तान. जाता संतापानां कोलानां शूकरणाम् आवल्या पक्त्या श्रियमाणानि शरणीक्रियमाणानि आर्द्राणि क्लिन्नानि तल्लानि अकृत्रिमसरांसि यस्मिन् तथाभूते लसल्लोलकल्लोलवाचालमाथन्महार्णव पयसि लसद्भिः शोभमानः लोलः चञ्चलः कल्लोलेः मिभिः वाचालम् बहुवदत् माद्यत् गर्वितम् अर्णवस्य समुद्रस्य पय: जलं यस्मिस्तस्मिन् ग्रीष्मका निदाधसमये त्वं मा स्म गाः न गच्छेः, मे मम पीनस्तनाश्लेषसौख्यानि पीनयोः स्थूलयोः स्तनयोः कुचयोराश्लेषस्य आलिङ्गनस्य सौख्यानि आनन्दानि मानय स्वीकुरु । पणौंधसंकुलाभिर्वात्याभिराकाशे समाकुले वनव्याघ्रकोलादि सन्तापिनि समुद्रतरङ्गवर्धकेऽस्मिन् ग्रीष्मसमये दूरदेशगमनं विहाय ममालिङ्गन सौख्यमेवानुभवेति भावः । प्र [1] स [1] त [1] नि [0] बि [s] ड [1] मा [s] रु [I] ता [s] न्दो [5] लि [1] ता [s] श्व [s] त्य [1] सं [5] शी [s] र्ण [0] प [s] णौ [5] ध [1] वि [s] स्फा [5] र [1] बा [s] तो [s] लि [0] का [1] पू [s] र्य [0] मा [s] णा [5] म्ब [1] रे [5] इति लक्षणसङ्गतिः ।। अ० २, सू० ३८८।२॥ __ अथ नगणद्वयात्परतो दशभी रगणः कृतं न्यालनामानं दण्डकं वर्णयितुमवतारयति- दशभिाल इति । तथा च नगणद्वयात्परतो दशरगणाः ॥... SIS sis. SIS. sis. sis. SIS. Is. sis sis. SIS. इतीदृशः षट्त्रिंशता अक्षरः कृताः पादा यस्य स व्यालनामा दण्डक इत्यर्थः । उदाहरति- यथा-चिर
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३४४ सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८८.] वहदिति । हे चुलुक्येश्वर ! चुलुक्यवंशसंभूतनृप ! उद्दामलीलाजुषः स्वच्छन्दक्रीडासेवितः स्वीसखाः वनितासहायाः ये त्वदीयद्विषः तवशत्रवः चिरवहदरघट्टसंपूर्यमाणोच्छलत्सरिणीतोयधाराभिरामम् चिरं बहुकालं वहद्भिः चलद्भिः अरघट्टः कूपात्तोयनिःसारणमन्त्रः संपूर्यमाणानां जलेरापूर्यमाणानाम् उच्छलताम उद्धतं यथास्यात्तथा गच्छतां सारिणीतो. यानां प्रणालिकाजलानां धाराभिः प्रवाहैः अभिरामं सुन्दरं यथास्यात्तथाभूतं सदैकान्तकान्तप्रसर्पल्लतावहलिततरुगुल्मकेलीगृहम् सदा सर्वदा एकान्ते निभृतप्रदेशे कान्तं सुदरं यथास्यात्तथा प्रसर्पन्तीभिः चलन्तीभिः लताभिः बहलिताः पुञ्जीभूताः तरवोवृक्षा; गुल्मानि कुञ्जानि च तान्येव केलीगृहं क्रीडागारं यत्र तादृशं पुरोधानम् नगरोपवनम् चारु सुन्दरं यथा स्यात्तथा चेकः विजः: ते त्वदीयद्विषः अधुना सम्प्रति तवाक्रमणानन्तरम् तृषितकरटियूथभल्लूकसन्दोहकोलवजव्याकुलाश्यानकल्लोलिनीवारि तृषितः पिपासितः करटियूथैः गजघटाभिः, भल्लूक सन्दोहैः ऋक्षसमूहः, कोलवज: शूकरवृन्दैः व्याकुलम् आक्रान्तम्- अतएव आश्यानं शुष्कप्राप्यं कल्लोलिन्या नद्या वारि जलं यत्र तथाभूतम्- दुर्वारसूर्यधुति दुर्वारा सच्छायवृक्षाभावाद्वारयितुमशक्या सूर्यद्युतिः दिवाकर किरणाः यत्र तादृशम्, व्यतिकरविधुरीकृतव्यालसंरुध्यमानद्रुमच्छायम् व्यतिकरात् व्यवायात् विधुरीकृतः विच्छेदितः व्यालः सर्पः संरुध्यमाना उपभोगार्थ वार्यमाणा द्रुमाणां वृक्षाणां छाया यत्र तादृशं उद्दण्डकान्तारम् घोरमरण्यम्-ईयु: प्राप्तवन्तः। ये त्वदीयशलव; पूर्वं पुरोवने कान्ताभिः सह विजहुः ते त्वया विद्राविताः शुष्क प्रायनदीकम्, घोरातपपरीतम्, कान्तावियुक्त कुपितसर्पाकान्तवृक्षच्छायम् वनं प्राप्ताः । तत्रापि तेषां सर्वथा दुःखमेवेति भावः । चि [0] र [1] व [1] ह [1] द [1] र [0] घ [5] [1] सं [5] y [s] यं [1] मा [s] गो [s] च्छ [1] त्सा [s] र [I] णी [s] तो [s] य [i] धा [s] रा [s] भि [] रा [s] म [s] स [1] दै [s] का [s] न्त [1] का [s] न्त [5] प्र [1] स [s] पं [5] ल्ल [1] ता [5] इति लक्षणसमन्वयः ।।अ० २, सू० ३८८॥३॥
अथ नगणद्वयात्परत एकादशरगणकृतपादां जीमूतनामानं दण्डकं वर्णयितु मवतारयति- एकादशभिजी'त इति । नगणद्वयात्परत एकादशभीरगणः
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[अ० २, सू०-३८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३४५ कृताः पादा यस्य स जीमूतनामादण्डक इत्यर्थः । तथा च . . sis. SIS. sis. SIS SIS. SIS. SIS. SIS SIS. SIS. SIS.' इतीशैर्वणः ऊनचत्वारिंशद्भिः कृता: पादा यस्य स जीमूतनामा- यथा जिनपतीति । दिष्चा सौभाग्यात् पुरस्तात् अग्रे अयं दृश्यमानः उज्जयन्तः तन्नाम्ना प्रसिद्धः गिरिः पर्वतः इति पश्य अवलोकय । तमेव विशिष्टि- जिनपतिपदपङ्कज स्पर्शपुण्यीकृताशेषशङ्गः जिनपते: पदपङ्कजयो: चरणकमलयोः स्पर्शन संपर्कण पुण्योकृतानि पवित्रतां नौतानि अशेषाणि सर्वाणि शृङ्गाणि यस्य सः, तत्तदाश्चर्यसम्पनिदानम् तेषां तेषामाश्चर्य सम्पदाम् अद्भुतसम्पत्तीनां निदानं कारणम् . भुवः पृथिव्या भूषणम् अलङ्कारभूतः; अन्वहं प्रतिदिनं प्रतिविपिननिकुञ्जकूजत्- पिकपञ्चमोच्चारसंगितस्वर्गसीमन्तिनीवर्गगीतिप्रपञ्चाभिराभिः प्रतिविपिनं सर्वेषु अरण्यभागेषु- निकुओषु लतागृहेषु कूजन्तीनां पिकीनां पञ्चमोच्चारैः पञ्चमनाद गानः तं वर्गितस्यैकत्रीभूतस्य स्वर्गसीमन्तिनीवर्गस्य देवाङ्गनासमूहस्य गीतिप्रयश्चन गानविस्तारेणाभिरामः सुन्दरः, कुरबकसहकारकारस्कराशोकजम्बूकदम्बेडगुदीवेणकान्तारमालाप्रतिच्छन्नमार्तण्डचण्डातपः कुरबकाः सहकारा: कारस्कराः अशोकाः जम्ब्वः कदम्बा, इंगुद्यः वेणवश्चेति- स्वस्वनाम्नाख्यातानां वृक्षाणां कान्तारमालाभिः वनसमूहै: प्रतिच्छन्नः वारितो मार्तण्डस्य सूर्यस्य चण्ड: दुः सहः आतपः धर्मः यत्र तादृशः, प्रतितट विनिविष्टजीमूतसंदोह निर्मुच्यमानामृतासारपूर्णोद्वहनिर्भरः प्रतितट पर्यन्तभागेषु विनिविष्टः प्रसृतः जीमूत सन्दोहैः मेधसमूहैः निर्मुच्यमानेन वृष्यमाणेन अमृतसारेण जल वर्षणेन पूर्णाः उद्वहन्तः उच्चः स्थानात्पतन्तः निझराः प्रपाता यत्र तादृशः । जि [1] न [1] प [1] ति [1] प [1] द [1] पं [5] क [1] ज [5] स्प [s] र्श [1] पु [s] ण्यी [5] कृ [i] ता [s] शे [s] ष [1] 7 [s] ङ्गः [s] पु [s] स्ता [s] द [1] यं [s] त [5] त्त [0] दा [s] श्च [s] र्य [1] सं [5] प [s] नि [1] दा [s] नं [s] भु [1] बो [s] भू [s] ष [1] णं [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३८८।४॥
अथ नगणद्वयात्परतो द्वादशभीरगणः कृतपादं लीलाकरनामानं दण्डकमवतारयति- द्वादशभिौलाक र इति । तथा च नगणद्वयं द्वादशरगणाः
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३८८.] 'im. I. SIS SIS. SIS. sis. SIS. SIS. Is. sis. sis. SIS. SIS. Sis.' इतीदृर्शीद्वचारिंशदक्षरः कृताः पादा यस्य स लीलाकरनामा दण्डक इत्यर्थः। उदाहरति- यथा- घनपरिमलेति । अयि ! अतिसुभग ! हे अत्यन्त सुन्दर ! भवन्नामधेयाक्षरोचारमन्त्रक रक्षाजुषः भवतो नामधेयाक्षराणाम् उच्चारः कथनम् एव मन्त्र: स एव एका केवलारक्षा विरहे प्राणरक्षणोपायः तां चुषते इति तया भूताया अस्याः मृगाक्ष्याः मृगनेत्राया अङ्गनायाः तव विरहे भवता सह वियोगावस्थायाम् यत् यस्मात् घनपरिमलसारकपूरपानीतिम्यद्कूलं घनं बहुलं परिमलम् सौरभमेव सारः मुख्यं यत्र तादृशेन कर्पूरपानीयेन घनसारमिश्रितजलेन तिम्यत् क्लिद्यमानम् दुकूलं वस्त्रं कुकूलश्रियं करीषाग्निशोभां दधत् धारयत्- पद्मिनीपल्लवस्त्रस्तरः कमलिनीदलशयनीयम्- खदिराङ्गारविस्फूजितम् खदिरकाषसंभूताग्निप्रभावं दधत्, तुहिनकिरणचन्द्रिका शीतरश्मिज्योत्सा हन्त इति दुःखे हालाहलत्वं हाविषत्वं दधती, नवं प्रत्यग्रघृष्टं चन्दनं श्रीखण्डद्रवः तप्तलोहोपमा अग्निदग्धलौह सादृश्यं दधत्, वेणुवीणानिनादः वंशीवल्लोक्योः शब्दः अपि कर्णज्वरावं श्रोत्रदाहकत्वं दधत् ( इत्थं ) सर्वमेव पूर्वोतं सकलं वस्तु व्यत्ययं वैपरीत्यम् अभजत् गतम् तत् तस्मात् सान्द्रपीयूषलीलाकरैः घनसुधाचमत्कारकारकः तैः प्रसिद्धः वचोभिः वाक्यः एतां मृगाक्षी चिराय बहुकालार्थ समाश्वासय आश्वस्तां विधेहि, अन्यथा तद्वपरीत्ये तु अत्र अस्या कष्टजनने त्वमेव निःशकचूडामणिः निर्दय शिरोमणिः असि । अस्याः तव विरहादेव सर्व सुखकारि वस्तु दुःखकारणमभूत् तस्मात् त्वदीयरनुकूलवंचोभिरेवेयं सुखिनी स्यादिति भावः । घ [1] न [1] प []] रि [1] म [1] ल [1] सा [s] र [1] क [s] y [s] र [I] पा [5] नी [5] य [1] ता [s] म्य [s] दुदु [1] कू [5] लं [s] कु [1] कू [s] ल [5] त्रि [1] यं [5] प [5] नि [1] नी [s] प [5] ल्ल [1] व [5] स्र [5] स्त [1] र: [s] खा [s] दि [I] रा [s] ङ्गा [s] र [1] वि [s] स्फू [s] जि [1] तं [5] इति लक्षणसमन्वयः। अ० २, सू० ३८८।५।।
अथ नगणात् परतः त्रयोदशभि: रगणः कृतपादम्- उहामनामानं दण्डकमुपवर्णयितुमाह त्रयोदशभिरुद्दाम इति । नगणद्वयं वयोदश रगणाः ॥.
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[अ० २, सू० - ३८८. ]
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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111 51s. sis sis sis sis sis sis sis. IS SIS SIS. SIS. SIS. ' इतीदृशैः पञ्चचत्वारिंशता वर्णैः कृताः पादा यस्य सः उद्दामनामा दण्डक इत्यर्थः । उदाहरति यथा- वलयितेति । त्वद्विपक्षव्रजः तवशत्रुसमूहा प्रथममपि गजघट | लोकनात्पूर्वमपि वलयितवरकन्धरं वलयिता भुग्नीकृता वरा श्रेष्ठा कन्धरा ग्रीवा यस्मिन् कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा वल्गदुत्तुङ्गतेजस्विगन्धर्वराजीखुरक्षूण्णविश्वम्भराक्षोदसंदोह - विक्षेपणादुदिनाडम्बरम् वल्गताम् धावमानानाम् उत्तुङ्गानाम् अत्युन्नतानाम् तेजस्विनाम् स्फूर्तिमतां गन्धर्वाणाम् अश्त्रानां राज्याः मालायाः खुरैः पादैः क्षुण्णाया मर्दिताया विश्वम्भरायाः पृथ्व्याः क्षोदानां चूर्णानां संदोहस्य समूहस्य विक्षेपणया प्रसारणेन दुर्दिनस्य मेघाच्छन्नदिनस्य आडम्बरः विस्तारो यत्र तं निरीक्ष्य अवलोक्य, क्षणं किञ्चित्कालार्थं सप्रेमकान्ता मुखाम्भोरुहालोकने सप्रेम्णः सानुरागाया कालाया मुम्वमेवाम्भोरुहं कमलं तस्य अवलोकने दर्शने कौतुकी औत्सुक्यवान् उन्मनाः युद्धादुद्गतचेताः यावत् नष्टुकामः पलायितुमिच्छः अपि भवति जायते तावत्- हे नृप सहसा अतर्कितं यथास्यात्तथा- जयश्रीविलासाभ्रमातङ्गसंस्पधिनः जयश्रियाः विजयलक्ष्म्या : विलासः क्रीडास्थानम् यः अभ्रमातङ्गः ऐरावतः, तेन सह संस्पर्धितः स्पर्धाशीला: अभ्रंकषैः आकाशचुम्बिभिः विग्रहैः शरीरे: भीषणाः भयजनका: ऊर्जितैः बलवद्भिः गजित : शब्दः जगत् संसारं क्षोभयन्तः धर्षयन्तः स्रुतमदजलनिर्भरैः स्रुतस्य द्रुतस्य मदजलस्य दामवारिणः निर्भरः प्रवाहैः ध्वस्तधूलीवितानाः ध्वस्त : नाशितो धूलीवितानः रजोविस्तारो यैः तादृशाः कृतान्ता इव यमा इव तव भवतः उद्दावगन्ध द्विपाः विशृङ्खलमहागजाः आविर्भवन्तः धूलीशान्त्या प्राकट्य गच्छन्तः हे विभो ! एतं तव विपक्षव्रजम् चिरात् बहुकालं यावत् मूर्छयामासुः मूर्छितं चक्रुः । पूर्वं केवलं धूलीपटलमेव दृष्ट्वा दूरे यावत् तव सैन्यं तावत्प्रियामुखं गन्तुं पलायितुकामा अपि तव शत्रवः गजमदैर्धुलीपटलेशान्ते महतो गजान् दृष्टवमूर्च्छिता इति भावः । व [1] ल [1] यि [1] त [1] व [1] र [1] कं [ 5 ] ध [1] रं [s] व [s] लग [1] दु [5] तं [s] ग [1] ते [s] ज [5] स्वि [1] गं [5] ध [5] वं [1] रा [5] जी [5] खु [1] र [5] क्षु [s] ण्ण [1] वि [5] श्वं [s] भ [1] रा [s] क्षो [5] व [1]
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३४८
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२सू० - ३८८.]
सं [s] दो [s] ह [1] वि [s] क्षे [s] प [1] णा [s] दु [s] दि [1] ना [s] ड [5] म्ब [1] रं [s] इति लक्षणसमन्वयः ।। अ० २, सू० ३८८.६ ।।
अथ नगणद्वयात्परतः चतुर्दशभीरगणैः कृतपादं शङ्खनामानं दण्डकमुदाहर्तुं - मवतारयति - चतुर्दशभिः शङ्खः इति । नगणद्वयं चतुर्दश रगणाः '|||. ||. SIS. SIS. SIS SIS. SIS. SIS. SIS SIS- SIS. SIS SIS. SIS. SIS. SIS'ûtदृशैरष्टाचत्वारिशता अक्षरैः कृताः पादा यस्य स शङ्खनामा दण्डक इत्यर्थः । तदुदाहरणमाह- यथा - अमरपति करोति । शासनैश्वर्यवज्रायुध ! शासनं निग्रहानुग्रहौ - ऐश्वर्यमकुण्ठिताज्ञत्वं ताभ्यां वज्रायुध इन्द्रसदृश ! महीपालचूडामणे ! राजशिरोमणे ! विचकिल - हरहास - नीहार-हारेन्दुशङ्खावदातैः विचकिल मतिश्वेत पुष्पविशेषः मदनापरपर्यायः, हरहासः शिवाट्टहासः श्वेतेषु प्रसिद्धः नीहारः हिमम् हार। मौलिकमाल्यम्, ईन्दुः चन्द्रः शङ्खः कम्पुः- एतानीव अवदाताः निर्मलाः तैः, अमोभिः प्रख्यातं स्फुरद्भिः सर्वत्र प्रसृमरैः त्वद्यशोराशिभिः तवकीर्तिव्रातैः समग्राः अशेषाः इभाः हस्तिनः अमरपतिकरिविभ्रमं अमरपतिकरिणः इन्द्वगजस्थैरावतस्य भ्रमं सन्देहे विभ्रति धारयन्ति, अभिनेत्रप्रसूतस्य अत्रिनेत्रात् तन्नामक ऋषिनयनान् प्रसूतस्य उत्पन्नस्य चन्द्रस्य कलङ्कः लाञ्छनं कलाविभ्रमं कलाया: षोडशांशलेखायाः विभ्रमं विलासं धारयति, कृष्णः केशवः अन्धकध्वंसक ' अन्धकासुरनाशकस्य शिवस्य तुलां साम्यं वहति धारयति, कुवलयवनं नीलोत्पत्रमृदं पौण्डरीकीं श्वेतकमल सम्बन्धिनीं श्रियं शोभाम् आप्नोति प्रकाशयति कलिन्दात्मजा कालिन्दी-यमुना जह्नकन्योज्ज्वलं जह्रुकन्या गङ्गा तस्या इव उज्ज्वलं श्वेतं वारि जलं धत्ते धारयति, अञ्जनाद्रिः कज्जलपर्वतः च कैलासपृथ्वीभृतः कैलासपर्वतस्य विलासं लीलां धत्ते तद्वर्णो भवति, लवणोदधिः क्षारसमुद्रः क्षीरपाथोधिललायितं दुग्धोदधि बिलास कलयति धारयति, अशेषाहयः सर्वे सर्वाः शेषशोभाम् शेषनाग - कान्ति प्राप्नुवन्ति, इन्द्रनीलाः इन्द्रनील मणयः च मुक्तामणीनां मौक्तिकानां त्विषं कान्ति समासादयन्ति । अतिस्वच्छतरैः सर्वता व्याप्तैस्त्वद्यशोभिः सर्वं श्वेत कृतमिति सर्वे गजा ऐरावत निभाः जाताः चन्द्रकलङ्कोऽपि तदीय कला विशेषतां गतः कृष्णः शिववच्छ्वेतोऽभूत्, नील कमलं श्वेतोत्पलतां गतम्,
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[अ० २, सू०-३८८.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते यमुनाया नील जलमपि श्वेतमभूत् सर्वे समुद्राः क्षीरोदधयो जाताः सर्वे सर्पाः शेषनाग इव बभूवुः कञ्चगिरिः कैलासवर्णोऽभवत् इन्द्र नील मणिः मुक्तासादृश्यं गत इति भावः । अ [1] म [1] र [1] प [1] ति [1] क [1] र [s] भ्र [1] में [s] बि [s] भ्र [1] ती [s] भाः [s] स [1] म [s] ग्राः [5] क [1] लं [s] कः [5] क [1] ला [s] वि [5] भ्र [1] मं [s] धा [s] य [s] त्रि [1] ने [s] त्र [5] प्र [1] सू [5] त [5] स्य [0] कृ [s] ष्णो [s] व [1] ह [5] त्य [s] न्ध [1] क [s] ध्वं [s] स [0] क [s] तु [5] स्तु [1] लाम् [s] इति लक्षणसमन्वयः ॥ अ० २, सू० ३८८७ ॥ इत्थं सूत्रोक्ता अर्णादयः शङ्खान्ता दण्डका वर्णिताः। सूत्रे च 'शङ्खादय' इति आदिपदम् उपात्तं तेन केषां संग्रह इत्याह- आदिशब्दात्पञ्चदशभिः समुद्रइत्यादिना। अयमर्थः नगणद्वयात्परत: अष्टरगणेभ्य आरभ्य चतुर्दश रगणपर्यन्तं ये दण्डकास्ते- शङ्खात्रनामभिरुक्ताः ततः परमपि- एकंकरगणवृद्धया दण्डक भेदा भवन्ति, तेषां नामानि च यथेष्टं बुधः कल्पितानि- अन्यरपि कल्पनीयानि । तेषु- यथा- नगणद्वयात्परतः पञ्चदशभीरगणः कृता: पादा यस्य स समुद्रनामा दण्डकः, नगणद्वयात्परत: षोडशभीरगणैः कृताः पादा यस्य स भुजंगनामा दण्डक इति, अस्माभिः नाम कल्पयित्वा कथितं तथा कल्पनीयम् । तदुदाहरणानि च ऊह्यानि । किमस्य विधेः कचिद्विरामोऽस्ति न वा ? अस्ति चेत्कियदवधिरित्याशङ्कायामाह-यावदेकोनसहस्राक्षरैः पाद इति । एकोन सहस्राक्षरात्मकः पादो दण्डक कल्पनाया अवधिरिति भावः । पिङ्गलाचार्येण तु चण्डवृष्टिप्रपातादग्रे- एकैकर वृद्धया कल्पिता: सर्वेऽपि दण्डकाः प्रचितसंज्ञका एव । तवृतिकृता हलायुधेन च- यथेष्टं नामकल्पनाऽप्यनुमता। तथाहि तदीयः श्लोक:- "प्रथमकथितदण्डकश्चण्डवृष्टिप्रपाताभिधानो मुने: पिङ्गलाचार्यनाम्नो मतः प्रचित इति ततः पर दण्डकानामियं जातिरेकैकरेकाभिवृद्धया यथेष्टं भवेत् । स्वरुचिरचितविशेषरशेषः पुनः काव्यमन्येऽपि कुर्वन्तु वागीश्वराः भवति यदि समान संख्याक्षरैःयत्र पादव्यवस्था ततो दण्डकः पूज्यतेऽसौ जनैः ॥ इति ॥ 'शेषः प्रचितः' (पि. छ. शा. ६।३६ ) इति सूत्रव्याख्यायांमिदमुक्तम्, तस्यायं भावः, नगणद्वयात्परतः सप्तभीरगणः चण्डवृष्टिप्रपाताभिधो दण्डक: कथितः ततः परमेक
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सवृतिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ०२, सू० - ३८९.]
करगणवृद्धया विन्यस्तपादानां दण्डकानां 'प्रचित' इति समुदायसंज्ञा पिङ्गलाचार्यस्य मता; तत्तद्विशेषनामानि तु स्वरुचि रचितानि वागीश्वराः कुर्वन्तु न तत्र नियमः इति । स्वमते च रगणस्थाने सप्तभिः यगणादिभी रचितपादानां 'प्रचित' संज्ञाऽग्रिम सूत्रेण शास्यते, 'शेषः प्रचित:' ( ७/३६ ) इति पूर्वोक्त पिङ्गलसूत्रव्याख्यानेऽपि केचित् शेषशब्दस्य यगणादि राचितदण्डक परत्वं स्वीकुर्वन्ति इति तहिप्पण्यामुक्तम् । तथा च नगणरद्वयात्परतः सप्तरगणैः कृतपादं दण्डकं विहाय सर्वे दण्डकाः प्रचितसंज्ञा इत्येकं मतम्, नगणद्वयात्परतो सप्तभिः यगणादिभी रचितपादा दण्डकाः प्रचितसंज्ञा इत्यपरं मतमिति निष्कर्ष: ॥ अ० २, सू० ३८८७ ॥
नाभ्यां रवद्यादयः प्रचितः ॥ ३८९ ॥
नगणद्वयात् परे यादयः सर्वे वर्णगणा यदा भवन्ति तदा प्रचितः । रवद् इत्यतिदेशात्सप्तभिर्यैः प्रचितः । ततः परमेर्केकयादिवृद्धा अर्णार्णवव्यालजीमूतलीलाकरोद्दामशङ्खादयोऽत्रापि भवन्ति । यथा - विलसदुरुतरवारि प्रचण्डे महावाहिनीव्यूहविस्फारणव्यक्तशक्तौ, प्रकटयति रुचिराखण्ड कोदण्डदण्डं दिशत्युच्च के राजहंसप्रणाशम् । प्रशमयति निखिलं मेदिनीचक्र संतापविस्फूजितं न्यकृत प्रतापे, प्रचितधनवलयुक्त नभस्यायमाने चुलुक्येश्वरे को न धत्ते प्रमोदम् ।।३८६.१॥
एवमादिषु शेष गणेषूदाहार्यम् । एकैकगणवृद्धया च अर्णाणवव्यालजीमूतलीलाकरोद्दामशङ्खादयोऽप्युदाहार्याः ।
अथ नगणद्वयात्परत यगणादिभिः प्रत्येकं सप्तभिः रचितपादस्य दण्डकस्य संज्ञामुदाहरणं च वक्तुमुपक्रमते - 'नाभ्यां रवद्यादयः प्रचित' इति । विवृणोति - नगणद्वयात्परे यादयः सर्वे गणा इत्यादिना । नगणद्वयादग्रे यथायथं यदि सर्वे गणा: ( पर्यायश: ) प्रयुज्यन्ते तदा स सर्वोऽपि दण्डकः प्रचित संज्ञां लभते इत्यर्थः । यथा - नगणद्वय सप्तयगणः कृताः पादा यस्य स प्रचितः, नगणद्वयात्परतः सप्तभिर्भगणैः कृताः पादा यस्य सोऽपि प्रचित:, एव मन्येऽपि तगणादयः परिवर्तनीयाः । इत्थं स्वाशयं स्पष्टयितुं पुनराह - रवत्रित्यतिदेशात्सप्तभिर्यैः प्रचित इति । पूर्वत्र नगणद्वयात्परतः सप्तभी
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[अ०२, सू० - ३८९ ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
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artis ' चण्डवृष्टि' नामादण्डक उक्त तथा यादिविषयेऽप्यतिदिश्यते इति सप्तभिरेव पादिभिः कृतस्य दण्डकस्य 'प्रचित' संज्ञा ज्ञेया । संख्यान्तर विशिष्टैर्यादिभिः कृतानां तु संज्ञान्तं रगणवदेव विज्ञेयम् । तदेवाह - ततः परमेकैकयादिवृद्धा अर्णार्णवव्यालजीमूतलीलाकरोद्दामशङ्खादयोऽत्रापि भवन्तिइति । यथा यथोत्तरमेकैकरगणवृद्धत्रा अर्णादयो दण्डकाः पूर्वमुक्तास्तथा यथोत्तरमेकैकयगणादिवृद्ध्याऽपि विज्ञेया इति भावा । एवं प्रथमः प्रचितादण्डकःनगणद्वयं सप्त यगणाः '111. 111. iss Iss Iss iss Iss Iss. 155. ' इतीदृशेः सप्तविंशत्या अक्षरैः कृतपादः । तदुदाहरणमाह- यथा - विलसदुरुतरेति । विल्सदुरुतरवारिप्रचण्डे विलसता उरुणा महता तरवारिणा खङ्गेन प्रचण्डे - पक्षे विलसता उरुतरेण अत्यधिकेन वारिणा जलेन प्रचण्डे - भयङ्करे, महावाहिनीव्यूहविस्फारण व्यक्तशक्तौ महतो वाहिनी व्यूहस्य सैन्यसंनिवेशविशेषस्य पक्षे नदीप्रवाह विशेषस्य च विस्फारणे वर्धने व्यक्ता स्पष्टा शक्तिर्यस्य तादृशे, रुचिराखण्डको दण्डदण्डम् रुचिरं सुन्दरं च तत् अखण्डं पूर्णं कोदण्डदण्डं चापदण्डम् इन्द्रधनुश्च - प्रकटयति दर्शयति, राजहंस प्रणाशम् राजानोहंसा इवेति तेषां प्रणाशम् पलायनम्, अन्यत्र राजहंसानां मरालानां प्रणाशं पलायनम् ( प्रावृषि राजहंसाः पलाय्य मानसं गच्छन्तीति प्रसिद्धि:) उच्चकैः अत्यन्तं दिशत आज्ञापयति, निखिलं समग्रं मेदिनीचक्रसंताप विस्फूजितम् मेदिनीचक्रस्य पृथ्वीमण्डलस्य संतापः दुष्टैः कृतं पीडनम्, सूर्यश्मिकृतमौष्ण्यं वा तस्य विस्फूजितम् प्राबल्यम् - प्रशमयति नाशयति न्यकृतार्कप्रतापे न्यक्कृतः तिरस्कृतः अर्कस्य सूर्यस्य प्रतापो येन तस्मिन् - ( राजपक्षे प्रभावस्य तैक्ष्ण्येन सूर्य प्रतापतिरस्कारः, नभस्य पक्षे च छायया सूर्यप्रतापतिरोधानम् ) प्रचितघनबलयुक्ते प्रचितं समुदितं धनं बहुलीभूतं बलं सैन्यं तेन युक्ते, पक्षे प्रचितेन घनबलेन मेघसंन्येन युक्ते, चुलुक्येश्वरे चुलुक्यवंशीयनृपे नभस्यायमाने भाद्रपदमासवदाचरति सति कः जनः प्रमोदं प्रहर्ष न धत्ते न धारयति, अपि तु सर्व एव धारयतीति भावः । समानः विशेषणं राज्ञो भाद्रपदस्य च साम्यमुक्त्वा यथा भाद्रपदे जना नन्दन्ति तथाऽस्मिन् राजनि - तथा भूते सत्यपीति भावः । वि [1] ल [1] स [1] दु [1] रु [1] त [1] र [1] वा [5] रि [5] प्र [1] चं [s] डे [s]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २ सू०-३६०-३९१.]
म [1] हा [s] वा [5] हि [1] नी [s] व्यू [s] ह [1] वि [5] स्फा [5] र [1] ण [S] व्य [s] क्त [1] श [s] क्तौ [s] इतिलक्षणसमन्वय ॥ अ० २, सू० ३८६।१ ।।
नग्भ्यामष्टादिराः पन्नग दम्भोलि - हेलावली-मालतीकेलि कङ्कल्लि लीलाविलासादयः ॥ ३९० ॥
नगणाद्गुरोश्च परे अष्टादिसंख्या रगणा येषु ते यथासंख्यं पन्नगादयो दण्डका भवन्ति । तत्राष्टरगणः पन्नगः । यथा- अविकलध्यान संतान धूमध्वजज्योतिराडम्बरप्लुष्टनिःशेषकर्मेन्धनो, विदलितोदग्र भूयः कषायश्विरायैष पायादपायात् स वः पार्श्वनाथो जिनः । कमठदैत्ये च गाढोपसर्गक्रियाकर्कशे तत्प्रतीकारबद्धप्रयत्ने भृशं प्रकटितात्यन्तभक्तौ तदा पन्नगेन्द्रे च यस्याभवन् दृष्टिपाताः कृपार्द्राः समाः ॥ ३६० १॥ एवमेकैकरगणवृद्धयान्येऽपि षडुदाहार्या:
॥३६०.१॥
इत्थं नगणद्वयात्परतो यगणैः सप्तभीरचितस्य प्रचितस्योदाहरणमुक्त्वा प्रकृतविधि मन्यत्राप्युतिदिशति एवमादिषु शेषगणेषूदाहार्यम् । यगणरगणाभ्यां शिष्टाये नगणातिरिक्ताः पञ्चगणाः मगण- भगण - जगण• सगण-तगणाः तेष्वपि नगणद्वयात्परतः सप्तसु विन्यस्तेषु प्रचितनामा दण्डक उदाहार्यं इति भावः । रगणवत् यगणांदिष्वपि - एकैकवृद्धया अर्णादिदण्डकव्यवस्थां पूर्वोक्तामुदाहतुमपि अतिदिशति - एकैकगणवृद्धया च अर्णार्णवेत्यादि । रगणवद्यगणादीनपि एकोन सहस्राक्षरपादं यावद्वर्धयित्वा तेषामपि यथारुचि अर्ण - अर्णव इत्यादि नामभिः प्रत्याय्य तेषामप्युदाहरणानि समूह्यानीति भावः ॥ अ० २, सू० ३६०।१ ।।
लोर्यथेष्टं राश्चण्डकालः ॥३९१||
लघुप कात्परे यच्छया क्रियमाणा रगणाश्चण्डकालः । यथा- विविधमणिमेखलाश्रेणिविश्राणितश्रीणि हित्वा पुराण्याशु चान्तः पुराण्युच्चकैः, करटितुरगादिसेनासहस्राणि च स्वीकृत च्छद्मकर्मन्दिवेषास्त्वदीयद्विषः । प्रतिदिशममी गिरीणां महाकन्दराः शाखिगुल्मानि कूलंकषा कूलरन्ध्राणि च स्फुरति
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[अ० २, सू०-३६१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३५३ तव चण्डकाले कराले कृपाणे सदा संश्रयन्ते महीपालचूडामणे ॥३६१.१॥ एवमेककरगणवृद्ध याप्युदाहार्यम् ॥३६१.१॥
प्रकारान्तरेण दण्डकान् विभजते- नऽभ्यामष्टादिराः पत्रग-दम्भोलि. हेलावली-मालती-केलि-कङ्कलि-लीलाविलासादयः इति । विवृणोतिनगणाद्गुरोश्च पर इति, नगणः एकः गुरुरेक- अष्टौ रगणाः पन्नगः, नगणाद्गुरोश्च परतो नवरगणाः दम्भोलि:, नभ्यां परे दश रगणाः हेलावली- एवं क्रमेण चतुर्दश रगणान्ताः मालत्यादयः लीलाविलासपर्यन्ता विज्ञेयाः। तत्र प्रथमं प्रकारमाह अपरगणः पन्नग इति । नगणाद्गुरोश्च परतः अष्टौ रगणाः 'm. s. SIS. sis. sis. sis. sis. sis. sis. sis.' इतीदृशैरष्टाविंशत्या अक्षरः कृताः पादा यस्य स पन्नगनामादण्डक इत्यर्थः । उदाहरति- यथाअविकलध्यानेति । अविकलध्यानसन्तानधूमध्वजज्योतिराडम्बरप्लुष्ट निःशेषकर्मेन्धनः अविकल: सपूर्णो ध्यानसन्तानः एकाग्रप्रत्ययप्रवाहः इव धूमध्वजो वह्निः तस्य ज्योतिषः प्रकाशस्य तेजसो वा आडम्बरेण विस्तारेण प्लुष्टं दग्धं निःशेष सकलं कर्मेन्धनं कर्मरूपं काष्ठं यस्य सः विदलितोदग्रभूयः कषायः विदलितः विशीर्णः उदग्रः महान् भूयान् बहुलीभूतः कषाय: वासनामलं यस्य सः; एष सः पाश्वनाथः जिनः वः युष्मान् अपायात् विनाशात्-चिराय बहुकालं यावत् पायात् रक्षेत् । यस्य पार्श्वनाथस्य गाढ़ोपसर्गक्रियाकर्कशे गाढया बहू लीभूतया उपसर्गक्रियया उपद्रवाचारेण कर्कशेकठोरे तत्प्रतीकारबद्धप्रयत्ने तस्या उपसर्गक्रियायाः प्रतीकाराय संशोधनाय बद्धः विहितः प्रयत्नः पश्चातापादि रूपो येन तथाभूते च कमठदैत्ये तन्नाम्नि राक्षसे, प्रकटितात्यन्तभक्तौ दर्शितातिशयश्रद्धे पन्नगेन्द्रे सर्पराजे च तदा तस्मिन् काले कृपााः दयाशीतलाः दृष्टिपाताः नेत्रव्यापाराः भृशं अत्यर्थ समाः तुल्या अभवन् जाताः । अपकारिणि शरणागते निजभक्ते च यस्य समो भावः, ध्यानाग्निदग्धकर्मा विगतकषायश्च स जिनः युष्मान् पात्विति भावः । अ [1] वि [1] क [1] ल [5] ध्या [5] न [1] सं [s] ता [s] न [1] धू [s] म [s] ध्व [1] ज [s] ज्यो [5] ति [1] रा [s] ड [s] म्बा [1] र [s] प्नु [1] ष्ट [1] निः [5] शे [s] ष [1] क [s] में [1] न्ध [1] नः [s] इति लक्षणसंगतिः । एवमेकैकशश्चतुर्दशसंख्या
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६१.] पर्यन्तं रगणवृद्धया दम्भोल्यादयोऽप्युदाहार्या इत्यतिदिशति- एवमेकैकरगणव द्वयाऽन्येऽपि षड्दाहार्या इति । नगणद्गुरोश्च परतः, नवभीरगणैः दम्भोलि: दशभिर्हेलावली, एकदशभिः मालतो, द्वादशभिः केलि: त्रयोदशभिः कङ्कोल्लिः चतुर्दशभिश्च लीलाविलास इति षडेतेऽपि स्वबुध्योदाहरणीया इतिभावः । अ० २, सू० ३६१।१ ।।
अथ दण्डकस्यैव प्रकारान्तरमाह- लोर्यथेष्टं राश्चण्ड काल इति । विवृणोति- लघुपञ्चकात्परे यदृच्छया क्रियमाणारगणाश्चण्डकालः इति । समानेनैकादिरिति परि भाषणानु- लुरिति पञ्चलध्वक्षरवाचकः, तथा च पञ्चलघवः ततः परे यथेच्छं इच्छामनविक्रम्य- अष्टौ आरभ्य यावदेकोन सहस्राक्षरपादं रगणानां विन्यासश्चेत्स सर्वोऽपि दण्डक: चण्डकालनामा विज्ञेय इत्यर्थः । तत्र लघुपश्चकम् - रगणाष्टकम्- इतिप्रथमः प्रभेदः । लघुपञ्चकं रगणाष्टकम्- '... SIS. sis. Is sis. sis. sis. SIS. SIS.' इतीशैरुन त्रिंशता वर्णैः कृताः पादा यस्य स चण्डप्रपाद नामा दण्डकः। तदुदाहरणंयथा- विविधमणिमेखलेति । हे महोपालचूडामणे ! राज्ञां शिरोमणे ! चण्डकाले भयङ्करे कृष्णवर्णे च भयङ्करयमसहशेवा कराले निष्कृपे तव भवतः कृपाणे तरवारौ स्फुरति चञ्चले सति स्वीकृतच्छद्मकर्मन्दिवेषाः स्वीकृतोऽङ्गीकृतः छद्मना कपटेन कमन्दिनां भिक्षूणां घेषः स्वरूपं यः तादृशाः अमी त्वदीयद्वषः तव शत्रव. विविधमणिमेखलाश्रेणिविधाणितश्रीणि विविधाभिः अनेकप्रकाराभिः मणिमेखलानां मणिनिर्मित खड़बन्धानां श्रेणिभिः समूहैः विश्राणिता प्रदच्चा श्रीः शोभा येभ्यः तानि पुराणि नगराणि, तया- विविधाभिः मणिमेखलाश्रेणिभिः मणिनिर्मित रसनादामभिः विश्राणिताश्रीय तथा भूतानि उच्चकैः उन्नतानि अन्तःपुराणि- अवरोधङ्गना आशु शीन हित्वा त्यक्त्वा (भिक्षुभिः- यतिभिरपिपुराणि अन्तःपुर।णि च विहायव प्रव्रज्यते, इति आकृतम् ) करटितुरगसेनासहस्राणि च करटिनां हस्तिनां तुरगाणामश्वानां च सेना-सहस्राणि बह्वीः सेनाश्च हित्वा प्रतिदिशं सर्वासु दिक्षु गिरीणां पर्वतानां महाकन्दराः महतीगुंहाः शाखिगुल्मानि वृक्षकुञ्जानि कूलङ्कषाकूलरन्धाणि कूलङ्कषाणां नदीनां कूलरन्घ्राणि तटस्थछिद्राणि च सदा सर्वदा संश्रयन्ते सेवन्ते । तव रिपवः पुरं पुरन्ध्रीश्च
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[अ० २, सू०-३९२.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३५५ विहायभिक्षु वेषेण पर्वतगुहादिषु निलीय तिष्ठन्तीति भावः। वि [1] वि [1] ध [1] म [i] णि [1] मे [s] ख [i] ला [5] श्रे [s] णि [1] वि [s] श्रा [5] णि [1] त [s] श्री [s] णि [I] हि [s] त्वा [s] पु [1] रा [s] ण्या [s] शु [1] चा [s] न्तः [s] पु [I] रा [s] ण्यु [s] च [1] कै: [s] इति लक्षणसमन्वयः। लघुपञ्चक त्परतो यथेष्ष्ट रगणन्यासस्यैकं प्रभेदमुक्त्वा प्रमेदान्तराणामूहनायातिदिशति- एवमेकैकरगणवद्धयाऽप्युदाहार्या इति । एकैकं रगणं वर्धयित्वा विन्यस्तपादा अन्येऽप्येवमेवोदाहरणीयाश्चण्डकालनामानो दण्डका इति भावः ॥ अ० २, सू० ३६१।१॥
याः सिंहविक्रान्तः ॥३९२॥ लो: परे यथेष्टं यगणा यत्र स सिंहविक्रान्तः । यथा- तरुणतरणितेजः प्रतप्तां वराहा इवारण्यभागेषु मुस्ताक्षति पल्वलान्ते, विदधति किल केचित्तथान्ये महाभूभृतां कन्दराः कौशिकौघा इवाभिश्रयन्ते । विपिनगहनमध्ये पुनः केऽपि शाखामृगक्रीडितं विभ्रति प्रत्यनीकक्षितीश :, प्रकटयति सदा सिंहविक्रान्तलीलामननां त्वयोमा धरित्रीश चौलुक्यचन्द्र ॥३६२.१॥ एवमेकैकयगणवृद्धयाप्युदाहार्यम् ॥३६२.१॥
___ लो:- (लघुपश्चकात्) यथेष्टं रगणविन्यासात्मकदण्डकमुक्त्वा यगणविन्यासेन तमाह- 'याः सिंह विक्रान्त' इति । विवृणोति- लोः परे यथेष्टं यगणा यत्र स सिहविक्रान्त इति । लघुपञ्चकात्परतो यथेष्टं यगणविन्यासे सिंहविक्रान्तनामा दण्डक इत्यर्थः । तत्र लघुपश्चकात् अष्टौयगणा इति प्रथमः प्रभेद: तथा च ॥ Is Iss. Iss. Iss. Iss. Iss. Iss. Iss.' इतीदृशेरूनत्रिंशता वर्णैः कृताः पादा यत्र स सिंहविक्रान्तो- यथा- तरुणतरणीति । हे चौलुक्यचन्द्र ! चुलुक्यकुलप्रकाशक ! धरित्रीश! पृथ्वीपते ! त्वयि भवति इमां प्रत्यक्षाम् अनूनाम् पूर्णा सिंहविक्रान्सलीलां सिंहस्य केशरिण इव विक्रान्तलीलां पराक्रमप्रदर्शनक्रीडां, सदा प्रकटयति आविस्कुर्वाणे सति प्रत्यनीकक्षितीक्षाः प्रतिभटराजाः केचित् तरुणतरणीतेजः प्रतप्ताः प्रौढसूर्य सभाप्रदग्धा: वराहाः शूकरा इव पल्वलान्ते क्षुद्रजलाशयतटे मुस्ताक्षतिः मेघनामतृणमूलोत्पाटनं विदधति किल कुर्वन्ति ननु, तथा अन्ये
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६३.] कौशिकौघाः ऊलूक समूहाः इव महाभूभृतां महापर्वतानां कन्दराः दरीः अभिश्रयन्ते सेवन्ते । केऽपि तेष्वेव कतिचन पुनः भूयः विपिनगहनमध्ये विपिनस्य वनस्य गहनं निबिडं मध्यम् अन्तः प्रदेशः तत्र शाखामृगाक्रीडितम् शाखाभृगाणां वानराणाम् आक्रीडितम् विलासं विभ्रति धारयन्ति । यदा त्वं सिंहवत् पराक्रमं प्रकटयसि तदा तव रिपवोऽपि वनपशव इवाचरन्तीति केचिद्वराहा इव पल्वलान्ते मुस्ता अन्विष्य तन्मात्र भोजना दिनानि यापयन्ति, केचन उलूका इव गुहासु निलीथ तिष्ठन्ति, परे च कान्तारमध्ये वृक्षावृक्षं धावन्तो मर्कटवृत्ति श्रयन्त इति भावः । त [1] रु [1] ण [1] त [1] र [1] णि [1] ते [s] जः [s] प्र [0] त [s] प्ता [s] व [i] रा [s] हा [s] इ[1] वा [s] र [s] ण्य [1] भा [s] गे [s] षु [1] मु [s] स्ता [s] क्ष [1] ति [s] प [s] ल्ल [1] ला [s] न्ते [s] इति लक्षणसंगति ॥ अ० २, सू. ३६२॥१॥
__लूगिभ्यां मेघमाला ॥३९३।। लघुषट्कात् गुरुत्रयाच परे यथेष्टं यत्र प्रयुज्यन्ते स मेघमाला नाम दण्डकः । यथा अविरल मदपायोनिर्भरप्लावितक्षोणिपीठा महाशल शृङ्गायमाणाः, कपिशरुचिलसद्दन्ताशनिद्योतरौद्रा महाजितत्रासिताशेषलोकाः । रिपुनरपतिमातंगा: क्षणादेव देव प्रणाशं ययुः संयुगान्तयुगान्ता-,निल इव विपुलप्राणे महामेघमाला महीपालधुर्य त्वयि प्रोज्जहाने ॥३ ३,१॥ एवमेकैकयगणवृद्धधान्येऽप्युदाहार्याः ॥३९३.१॥
यगणविन्यासयुक्तमेव दण्डकान्तरमाह- लगिभ्यां मेघमालेति । विवणोति- लघुषट्कात् गुरुत्रयाच परे यथेष्टुं यगणायत्र प्रयुज्यन्ते स मेघमाला नाम दण्डकः इति । षरख्याबोधकेन ऊकारेणसहचरितो ल: लधुषट्कबोधकः, तृतीयेन नामिना इकारेण सहचरितो गः गुरुत्रयबोधक इति लघुषट्कात् गुरुत्रयादित्यर्थोलब्धः । यथेष्टमिति कथनेन संख्या या अनियमेऽपि प्रथमोपस्थितायाः सप्तविंशति संख्याया एव पूर्तिर्यथा स्यात्तथैव न्यासः प्रदर्शनीय इति लघुषट्कं गुरुत्रयं यगणषट्क चेति 'I. 1. sss. Iss. ISS. Iss. ।ऽऽ. Iss. Iss.' इतीदृशैः सप्तविंशत्या अक्षरैः कृतपादं मेघमालानामानं दण्डक
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[अ० २, सू०-३६४.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३५७ मुदाहरति- यथा- अविरलमदेति हे महीपालधुर्य नृपाग्रगण्य ! युगान्तानिले प्रलयसमयवायौ इव विपुलप्राणे महाबलवति त्वयि भवति संयुगान्तः संग्राममध्यं प्रोज्जिहाने प्रयाते सति महामेघमालाः विपुलपयोदपङ्कय इव- अविरलमदपाथो निझरप्लावितक्षोणिपीठाः अविरल: निरन्तरं स्रवन् मदः एव पाथः जलं तस्य निर्भरेण प्रपातेन प्लावितम् सम्यगाच्छादितं क्षोणिपीठं पृथ्वीतलं यः ते, महाशैलशृङ्गायमाणाः महान्ति विपुलानि शैलश ङ्गाणि पर्वतशिखराणि इव आचरन्तः कपिशरुचिलसद्दन्ताशनिद्योतरौद्राः कपिशरुचयः श्वेतपीतवर्णा: लसन्तः शोभमाना दन्ता एव अशनयः वज्राणि तेषां द्योतेन प्रकाशेन रौद्राः भयङ्कराः महागजितत्रासिताशेषलोकाः महागजितेन बिपुलनादेन त्रासिताः भीषिता अशेषलोकाः सर्वे मनुष्या यैः तादृशाः रिपुनरपतिमातङ्गाः शत्रुराजगजाः हे देव नृप क्षणादेव शीघ्रमेव प्रणाशं पलायनं ययुः प्रापुः । प्रलयकालिके बलवति वायौ वाति यथा मेघमाला प्रणश्यति, तथा बलवतित्वयि संग्नामभूमि प्राप्ते सति रिपुबलस्था महागजा अपि पलायिता इति भावः । अ [1] वि [1] र [] ल [1] म [1] द [I] पा [s] थो [s] नि [s] # [1] र [s] प्ला [s] वि [1] त [s] क्षो [s] णि [1] पी [s] ठा [s] म [1] हा [5] शे [s] ल [1] शृ [s] गा [s] य [1] मा [s] णाः [s] इति लक्षणसमन्वयः । इत्थं लघुषट्कात् गुरुत्रयाच्च परतो यगणषट्ककृतं दण्डकमुदायहत्य- यथेष्टमिति सूचितां यगणवृद्धिमाश्रित्य कृतानामुदाहरणायादिशति- एवमेकैकयगणवृद्धया न्येऽप्युदाहार्या इति । एकैकस्य यगणस्ववृद्धया कृतानां मेघमालानामुपाहरमूह्य मितिभावः ॥ अ० २, सू० ३६३।१।।
यथेष्टं रा मत्तमातंगः ॥३९४॥ स्वेच्छया यत्र रगणाः प्रयुज्यन्ते स मत्तमातंगः । पुनर्यथेष्टग्रहणं लूगिन्यामित्येतस्य निवृत्त्यर्थम् । थथा- पुष्पचापस्य चापषियं बिभ्रती भगुरभूविलासः स्मितस्मेरकस्तूरिका-, केलिपत्रावलोभङ्गिविभ्राजिगण्डस्थलेनेन्दुबिम्बानुकारं सदा कुर्वती। चारुवकोक्तिगभैंर्वचोभिविदग्धरमन्दं च पीयूषनिष्यन्दमातन्वती, मत्तमातंगलीलागतिः काश्चनच्छेदगोरी मुदं कस्य नाविष्करोति प्रिया॥३९४.१॥ एवमेकंकरगणवृद्धचान्यदप्युदाहार्यम् ॥३६४.१॥
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३५८
सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६४.] अथकंकगणनिमितान् दण्डकान् वर्णयितुमुपक्रममाणः केवलरगण निर्मितदण्डकमाह- यथेष्टं रा मत्तमातङ्ग इति । विवृणोति- स्वेच्छयायत्र रगणाः प्रयुज्यन्ते समत्तमातङ्ग इति । केवलं रगणानामेव यत्र नवादिसंख्याक्रमेणविन्यास: स मत्तमातङ्गनामा दण्डक इत्यर्थः । ननु यथेष्टमिति पदं पूर्वतः समनुवृत्तमेवेति तस्येह सूत्रे पुनः कथनं किमर्थमिति चेदवाह- पुनर्यथेष्टग्रहण लूगिभ्यामित्यस्य निवृत्त्यर्थमिति । पूर्वसूत्रे यथेष्टमिति पदमनुवृत्तं लूगिम्यामित्यनेन सम्बद्धम्, अत्र तन्मात्रानुवृत्तिर्न सम्भवति, किन्तु तेन सम्बद्धस्यैवानुवृत्तिः स्यात् साच नेष्टेति सर्वथा पूर्वसूत्रानपेक्षत्वबोधनाय यथेष्टमिति पदमिहावश्यकमिति भावः। अथ प्रथमं नवभी रगणः मत्तमातङ्गम् 'Sis. SIS. SIS. sis. SIS SIS. SIS. SIS. Is.' इतीदृशैः सप्तविंशत्या अक्षरः कृतमुदाहरति- यथा- पुष्पचापस्येति । भङगुरभ्रविलासः कुटिलकटाक्षविक्षेपः पुष्पचापस्य कामस्य चापश्रियं धनुःशोभा बिभ्रती धारयन्ती, स्मितस्मेरकस्तूरिकाकेलिपत्रावलीभङ्गिविभ्राजिगण्डस्थलेन स्मितेन ईषद्धासेन स्मेरेण विकसितेन- कस्तूरिकायाः केलिपत्रावलीभङ्गया, क्रीडा कल्पित- पत्रलतारचनया विभाजितेन गण्डस्थलेन कपोलफलकेन तदा सर्वदा इन्दुबिम्बानुकारं चन्द्रमण्डलानुकृति कुर्वती विदधती (तथा) चारुवक्रीलिगभः सुन्दरकुटिलार्थभितः विदधैः चातुर्यपूर्णः वचोभिः वाक्यः अमन्दम् अधिकम् पीयूष निष्यन्दम् अमृतप्रवाहं च आतन्वती कुर्वाणा मत्तमातङ्गलोलागतिः मत्तस्य मदशालिनो मातङ्गस्य गजस्य लीलागतिः सविलासगमनम् इव लीलागतिः यस्याः सा, काश्चनच्छेदगौरी सुवर्णखण्डवत् गौरवर्णा प्रिया वल्लभा कस्य जनस्य मुदं हर्ष न आविष्करोति प्रकटयति अपितु सर्वस्थैव प्रकटयति भ्रूभङ्गया कामचापानुकारिणी, कस्तूरी रचना शोभितेन सस्मित कपोलेन सकलङ्कचन्द्रमन्डनानुकारिणी, वक्रोक्तिसहित चतुरवचनविन्यासकुशला, गजगामिनी कनकवर्णा च वल्लभा सर्वस्यैव जनस्यानन्ददायिनीति भावः ॥ इत्थं नवभीरगणैः कृतं मत्तमातङ्गमुदाहृत्य दशादि रगणकृतानपि मत्तमातङ्गदण्डकानुदाहर्तुमतिदिशति- एवमेकैकरगणवृद्धयाऽन्यदप्युदाहार्यमिति ॥ अ० २, सू० ३६४।१॥
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[अ० २, सू० - ३६५ . ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते
साः कुसुमास्तरणः ||३९५||
यथेष्टं गणा यत्र प्रयुज्यन्ते स कुसुमास्तरणः । यथा - सुभग त्वयि दूरमुपेयुषि सा न कदाचिदुपैति विलासगृहाभिमुखं विकचान्जबने न ददाति दृशं शिशिरागुरुचन्दनपङ्कमपाकुरुते । न च हृष्यति चाटुकरीषु सखीष्वपि पक्कपलाण्डुनिभं वहते वदनं कुसुमास्तरणानि पिनष्टितरां परिमुह्यति शीतलशीतमयूखकरैः ॥ ३९५.१ ।। एवमेकैकसगण वृद्ध धान्यवप्युदाहार्यम् ।। ३६५.१ ।।
३५६
अथ केवल सगणरचितं दण्डकमाह- साः कुसुमास्तरण इति । विवृणोति - यथेष्टं सगणा यत्र प्रयुज्यन्ते सकुसुमास्तरण इति । यथेष्ट - मित्युक्त्या नियमाभावेऽपि प्रथमोपेस्थितं नवसगणात्मकेव - ॥5. ॥5. . ।।5. ।।5. ।।5. 115. ।।5. 115. ' इतीदृशैः सप्तविंशत्या अक्षरैः कृतं कुसुमास्तरणनामकं दण्डकमुदाहरति- यथा - सुभग त्वयीति । हे सुभग सुन्दर, सौभाग्यशालिन्नितिवा त्वयि भवति दूरम् विप्रकृष्टदेशम् उपेयुषि गतवति सति सा तव प्रिया कदाचित् कस्मिन्नपि समये विलास गृहाभिमुखं क्रीडागार - संमुखत् - न उपैति न गच्छति, विकचाब्जवने प्रफुल्लकमलकाबने दृशं दृष्टि न ददाति न क्षिपति शिशिरागुरुचन्दनपङ्कम् शिशिरं शीतम् - अगुरो | चन्दनस्य च पङ्कम्- कर्दमम् अपाकुरुते दूरं क्षिपति, सखीषु सहचरीषु; चाटुकरीषु प्रियवादिनीषु अपि न हृष्यति न प्रसीदति, पक्वपलाण्डु निर्भ पक्कः कालकृतपरिपाकः पलाण्डुः कन्दविशेषः स्वनाम्ना ख्यातः तन्निभं तत् सदृशं - वदनं मुखं धत्ते धार-ति, कुसुमास्तरणापि पुष्परचितशय्याः पिनष्टितराम (अनिद्रता गात्र परिवर्तः) अतिशयेन मर्दयति, शीतलशीतमयूरवकर : शीतलः शीतभयूखस्य चन्द्रस्य करें: किरण: परिमुह्यति चेतनां त्यजति । प्रियविरहतप्तया न क्वापि सुखमनु भूयत इति भावः । सु [1] भ [1] ग [5], त्व [1] यि [1] व [s], र [1] मु [1] पे [s], यु [1] षि [ 1 ] सा [5], न [1] क [1] दा [5], चि [1] दु [1] पै [s], ति [1] वि [1] ला [5], स [1] गृ [1] हा [5], भि [1] मु [1] खं [s] इति लक्षणसमन्वयः । अत्रापि यथेष्टमित्युक्त्या स्वेच्छया - एकोनसहस्रक्षपादं यावत् सगणकल्पनाऽनुमतेत्याह एवमेकैकस गणवृद्धघाऽन्य
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ०२, सू० - ३६६.]
दप्युदाहामिति । दशादि संख्ययासगणान्विन्यस्यापि कुमुमास्तरणो विज्ञेय इति भावः ॥ अ० २, सू० ३६५।१ ।।
३६०
याः सिंहविक्रीडः ॥३९६ ॥
यत्र यथेष्टं यगणाः प्रयुज्यन्ते स सिंहविक्रीडः । यथा - कचित्पङ्कशङ्काभ्रमत्कोलदंष्ट्रासमुल्लेखनिष्पिष्ट वेश्मान्तकाचावनीकं कचिन्नालिकेरीफलास्फालनव्यग्रशाखामृगश्रेणिपर्याकुलोद्यानभागम् । कचित्तप्तमज्जन्महासैरिभोहामशङ्का तच्छलद्दीधिकावारिसान्द्रं कचित् सिहविक्रीडबूत्कारघोरं चुलुक्येन्द्र जज्ञे पुरं त्वद्विपूणामिदानीम् ॥३६६.१॥ एवमेकैकयगणवृद्ध्यान्यददाहार्यम् ।।३६६.१।।
केवलेन यगणेन कृतं दण्डकं वर्णयति याः सिंहविक्रीड इति । विवृणोतियत्र यथेष्टं यगणाः प्रयुज्यन्ते स सिंहविक्रीडः इति । केवलं स्वेच्छया विन्यस्तः यगणैरेव निर्मितपाद: सिंह विक्रीडनामा दण्डक इत्यर्थः । तत्र नव यगण: 'Iss. Iss. Iss. Iss. iss iss Iss ss. iss ' इतीदृशैः सप्तविंशत्या - वर्णैः कृताः पादा यस्य स सिंह विक्रीडी दण्डनो यथा- क्वचित्यङ्कशङ्केति । हे चुलुक्येन्द्र ! चुलुक्यवंश्यनृप ! इदानोम् सम्प्रति त्वद्विपूणां तव शत्रूणां पुरं नगरं - क्वचित् कस्मिश्चित्स्थाने पङ्कशङ्गा भ्रमत्कोलदंष्ट्रासमुल्लेखनिष्पिष्टं वेश्मान्तकाचावनीकम् पङ्कशङ्कया कर्दमभ्रमेण भ्रमतां चञ्चूर्यमाणानां कोलानां दंष्ट्रया समुल्लेखेन निष्पिष्टा चूर्णिता वेश्मान्तस्य गृहप्रान्तस्य काचावनी काचनिर्मिता भूः यत्र तादृशं क्वचित् अन्यत्र स्थाने नगिकेलीकलास्फालनव्यग्रशाखामृगश्रेणिपर्याकुलोद्यानभागम् नारिकैरीफलस्य आस्फालने त्रोटन र्थमान्दोलने व्यग्रया पर्यस्तया शाखामृग श्रेव्या वानरसमूहेन पर्याकुलम् परित आकीर्ण उद्यानभागः उपवनप्रदेशो यत्र तादृशम्, क्वचित्कुत्रचित्स्थाने तप्तमज्जन्महासैरिभोद्दामशङ्गाग्रघातोच्छलद्दीर्घिकावा
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रिसान्द्रम् तप्ताः रविकर प्रदग्धाः अत एव मज्जन्तः पयसि प्रविष्टा ये महासैरिभाः महान्तो वन महिषाः तेषाम् उद्दामैः विशृङ्खलैः शृङ्गाग्रघातैः विषाण कोटिताडनैः उच्छलता उपरि गच्छता वारिणा जलेन सान्द्रम् क्लिन्नम्, क्वचित् - एकत्र प्रदेशे सिंहविक्रीडबूत्कारघोरं सिंहस्य विक्रीडेन विविध
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[अ० २ सू०-३६७.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते क्रीडाप्रसङ्गेन यः बूत्कारः कटुरव्यक्तश्वशब्द: तेन घोरं भयंकरं जज्ञे जातम् । तव रिपव: पुरं विहाया न्यत्र गता इति तत्रारण्यतां गते आरण्यकानां पशूनामीदृशानि चेष्टितानि अभूवन्निति भावः । क्व [1] चित् [5] पं [5] क [1] शं [s] का [5] भ्र [1] मत् [5] को [s] ल [1] दं [s] ष्ट्रा [5] स [1] मु [5] ल्ले [s] ख [1] नि [5] पि [5] ष्ट [1] वे [s] क्ष्मा [5] न्त [1] का [1] चा [s] व [1] नी [s] कं [s] इति लक्षणसमन्वयः । अत्रापि पूर्ववदेकैकगणवृद्धयादण्डकानुदाहर्तुमतिदिशति- एवमेकैकयगणवृद्धयान्यदप्युदाहायमिति ॥ अ० २, यू० ३६६।१॥
ल्गावनङ्गशेखरः ॥३९७! यत्र यथेष्टं निरन्तरी लघुगुरू प्रयुज्यते सोऽनङ्गशेखरः । यथा-विशालभाललोलघूर्णमानकज्जलोज्ज्वलालकद्विरेफमालिकोपशोभिते, विबुद्धहावमुग्धचारुपक्ष्मलालसभ्रमत्सुतारदीर्घनेत्रपत्रसुन्दरे । अमन्दकुन्दकुङ्मलाग्रकोमलोलसद्युतीद्ध ददन्तपङ्क्तिकेसरालये, प्रियामुखाम्बुजेऽघरं चिराय मध्विवापिबन्ननारतं भवेदनङ्गशेखरः ॥३६५.१) एवं लघुगुरुवृद्ध धान्यदप्युदाहायम ॥३६७.१॥
___ अथ प्रकारान्तरेण दण्डकमाह 'ल्गावनङ्गशेखर' इति । विवृणोतियत्र- यथेष्ठं निरन्तरौ लघुगुरू प्रयुज्येते सोनङ्गशेखर इति । यत्र पादे यथेष्टं (षड्विंशति संख्यातोऽधिकसंख्यापूरणयोग्यं-) यथेच्छं निरन्तरौ अश्यवहिती लघुगुरू लघोरन्तरं गुरुः, इत्येवं क्रमेणं प्रयुज्यते स अनङ्गशेखरनामादण्डक इत्यर्थः। तत्र प्रथमोपस्थित चतुर्दशलघुगुरु युग्मविन्यस्तपादः 's. 15. Is. Is. Is. 15. Is. Is. IS. 15. IS. 15. 15. 15.' इत्येवं रूपैः वर्णैः कृतो दण्डक उदाह्रियते- यथा- विशाल भालेति । विशालभाललोलधूर्णमानकज्जलोज्ज्वलालकद्विरेफमालिकोपशोभिते विशाले विस्तृते भाले अलिके लोलाः चञ्चलाः धूर्णमाना भ्रमन्त: कज्जलवत् अञ्जनवत् उज्जलाः आस्वन्तः अलकाः कुन्तला एव द्विरेफमालिका भ्रमरपङ्क्तिः तया उपशोभिते सुन्दरे विशुद्धहावमुग्धचारुपमलालसभ्रमत्सुतारदीर्घनेत्रपत्र सुन्दरे विशुहावेन निर्दुष्टशृङ्गारचेष्टया मुग्धं मनोहरं चारु सुन्दरं पक्ष्मलम् लोम
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
[अ०२, सू० - ३६८. ]
युक्तम् अलसम् आलस्यपूर्णम् भ्रमत् घूर्णमानं सुतारं शोभन कनीनिकावत् दीर्घं विशालं यत् नेत्रपत्रम् नयनदलं तेन सुन्दरे शोभिते अमन्दकुन्दकुड्मलाग्र कोमलल्लसतीद्धशुद्धदन्तपङ्क्तिकेसरालये अमन्दानि उत्तमानि कुन्दकुड्मलाग्राणि माध्यपुष्पकलिकाग्रभागाः तद्वत् कोमलानि मृदुलानि उल्ल सन्ति द्युतीद्धानि कान्तिसमृद्धानि शुद्धानि च दन्तपति.केसराणि दशनमालारूप किञ्जल्काः तेषाम् आलये निधाने प्रियामुखाम्बुजे वल्लभावदनप मधु पुष्परस : मद्यं वा तदिव अधरं अधरोष्ठं चिराय बहुकालं यावत् पिवन चुम्बयन् अनारतं सततं अनङ्गशेखरः कामपरतन्त्रः कामिशिरोमणिर्वा भवेत् स्यात् । वि [1] शा [5] ल [1] भा [s] ल [1] लो [s] ल [1] धू [1] र्ण [1] मा [s] न [1] क [5] ज [1] लो [5] ज्ज्व [1] ला [5] ल [1] क [S] द्वि [1] रे [s] फ [1] मा [5] लि [1] को [s] प [1] शो [S].भि [i] ते [S] इति लक्षणसमन्वयः । अत्रापि यथेच्छं लघुगुरूवृद्धिकृतान्मेदानुदाहर्तुमाह एवं लघुगुरुवृद्धयाऽन्यदप्युदाहार्यमिति ॥ अ० २, सू० ३६७।१ ।।
ग्लावशोक पुष्पमञ्जरी ||३९८ ॥
यत्र यथेष्टं निरन्तरौ गुरुलघु प्रयुज्येते सोऽशोकपुष्पमञ्जरीनामा दण्डकः । यथा - अस्तमाश्रितस्तुषार भारपातदग्ध सर्व पुष्प जाति संचयो हिमर्तुरा, सर्वतो वसन्तनामधेय एष जृम्भते प्रियः सखा तवेह देव पुष्पचाप । विष्टपत्रयीपराजयेच्छ्या गृहाण नूतनान् शिलीमुखानखण्डितैकवीर, चारुचतकोरकानशोकपुष्पमञ्जरीर्नवाः स्मितानि केसराणि पाटलाश्च ॥ ३६८.१ ।। एवं गुरुलघुवृद्धघान्यदप्युदाहार्यम् || ३६८.१ ।।
लघुगुरू परम्परारूपं दण्डकमुदाहृत्य गुरुलघुपरम्परात्मकं तदाह ग्लावशोकपुष्पमञ्जरीति । विवृणोति यत्र यथेष्टं निरन्तरौ गुरुलघु प्रयुज्येते सोऽशोक पुष्पमञ्जरीनामा दण्डक इति । तथा च गुरोः पश्चाल्लघुः इत्येवं क्रमेण न्यूनतश्चतुर्दश वर्णयुग्मं यावदेकोन सहस्राक्षरपादं यस्य पादे प्रयुज्यते सः ‘51. 51. 51. 51. 51. St. SI. SI. S. SI. SI. 51. 51. 51.' इत्येवं रूपर्वर्णैः कृतपादः, अशोकपुष्पमञ्जरीनामा दण्डक इत्यर्थः । उदाहरति- यथा - अस्तमा
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[अ० २, सू० - ३६६ . ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते
३६३
श्रित इति । हे अखण्डितैकवीर ! अखण्डितः क्वाऽप्रतिबद्धप्रसरः एकः प्रधानं वीरः, तत्सम्बोधनम् पुष्पचाप ! कुसुमधन्वन् देव ! अद्य साम्प्रतं तुषारभारपातदग्ध - सर्वपुष्पजातिसञ्चयः तुषारभारस्य हिमसमूहस्यपातेन पतनेन दग्धः नाशितः सर्वपुष्पजातीनां सर्वेषां पुष्पसामान्यानां संचयः समूहो येन सः, हिमतु: हेमन्तः अस्तम् विनाशम् आश्रितः प्राप्तः इह अत्र तव भवतः प्रियः प्रेमास्पदम् सखा मित्रम् वसन्तनामधेयः वसन्तसंज्ञकः ऋतुः सर्वतः सर्वस्यां दिशि जृम्भते वर्धते । विष्टपत्रयोपराजयेच्छया त्रैलोक्यविजयाभिलाषेण नूतनान् नवीनान् शिलीमुखान् वाणान् चारुचूतकोरकान् सुन्दरा म्रकलिकाः, नवाः नूतना अशोकपुष्पक खरीः अशोकपुष्पगुच्छानि स्मितानि विकसितानि केसराणि तन्नामकपुष्पाणि पाटलाः पाटलपुष्पाणि च (पञ्चसंख्यानि ) गृहाण धारय । कामः पुष्प चाप:, पुष्पबाणश्च, हिमतुः पुष्पनाशक:, तथा च हिमर्तोरपगमे, पुष्पसमर्धके वसन्ते च प्रवृत्ते कामस्त्रैलोक्य विजयाय प्रवर्तते, तदर्थं च कविस्तं प्रोत्साहयति, तदीय पश्चसंख्यकान् बार्णांश्च चूतकोरकादीन् नामतो निर्दिशति, तानि गृहीत्वा त्रिलोकीं विजयस्वेति भावः । अ [5] स्त [1] मा [5] श्रि [1] त [s] स्तु [1] षा [s] र [1] भा [[ ] र [1] पा [5] त [1] द [s] ग्ध [1] स [s] र्व [1] g [s] ष्प [1] जा [s] ति [1] सं [s] च [1] यो [s] हि [1] म [s] तु [i] र [S] द्य [1] इति लक्षणसमन्वयः । एवं गुरुलघुवृद्धयान्यदप्युदाहार्यमिति । यथा गुरुलघु क्रमेण चतुर्दश युग्मंरेतदुदाहृतम् - तथा यथेष्टं गुरुलघुपरम्परां वर्धयित्वा यावते कोनरुहस्राक्षरपादं दण्डका उदाहरणीया इत्यर्थः ॥ अ० २, सू० ३६८।१ ॥
ता गौ कामबाण ! ॥ ३९९ ॥
यत्र यथेष्टं तगणा अन्ते गुरुद्वयं च प्रयुज्यते स कामबाणः । यथा - त्वद्विप्रयोगे नवे बालिकाया मनोभृशरक शशास्त्यं प्रयत्नात्सखीभिः समन्तात्, प. थोजिनीपल्लवैः कल्पितं चारु तल्पं समासूत्रिता नूतनंहरियष्टिर्मृणालैः । रम्भादलैः कोमलनिर्मितं तालवृन्तं कृतश्चान्दनेन द्रवेणाङ्गरागः किलास्याः, तीव्रव्यथां प्रत्युतैतद्वितन्वत्समग्रं कठोराशयाशिषियत् कामबाणत्वमुग्रम् ।। ३६६.१ ॥ एवमेककतगणवृद्ध चान्यदप्युदाहार्यम् ॥३६६.१ ।।
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-३६६.] पुनरन्यथा दण्डकं वर्णयति- ता गौ कामबाण: इति । विवृणोति- यत्र यथेष्ट तगणा अन्ते गुरुद्वयं च प्रयुज्यते स कामबाणः इति । यथेष्टतगणेभ्यः परेऽन्ते गुरुद्वयमिति यत्र पादबन्धः स कामबाणनामा दण्डक इत्यर्थः । तत्र षड्विंशतेरधिकवर्णकृतपादत्वे एव दण्डकः, तादृशी संख्या च नवभिस्तगणान गुरुद्वयं विना नसम्भवतीति तादृशविन्यासे ऊनत्रिंशद्वर्णकृतपादस्यव प्रथम मुपस्थितिरिति- नवतगणाःगुरुद्वयं 'ssi. ssi. ssi. ssi. ssI. SS1. SsI. ssi. ss1. ss.' इतीहशैरक्षरैः कृतपाद: कामबाणनामा दण्डक उदाह्रियते यथा- त्वद्विप्रयोग इति । हे कठोराशय ! कठोरः निर्दय आशयः हृदयभावो यस्य सः, तत्सम्बोधनम्, नवे सद्यः समुपस्थिते त्वद्विप्रयोगे तवविरहे बालकायाः मुग्धाया मनोभूशरले शशान्त्यै मनोभूशरैः कामबाणः (कृतस्य) क्ल शस्य शान्त्य उपशमाय सखीभिः सहचरीभिः प्रयत्नात् प्रयासात्- समन्तात् सर्वतः पाथोजिनीपल्लवैः कमलिनीदलैः चारु सुन्दरं तल्यं शयनं कल्पित रचितम्, नूतन नवीनमृणालैः बिसः हारयष्टिः माला समासूत्रिता गुम्फिता, कोमलैः मृदुलैः रम्भादलः कदलीपत्रः ताल वृन्तं व्यजनं निर्मितम् विरचितम्ः चान्दनेन चन्दन सम्बन्धिना द्रवेण रसेन अस्या बालायाः अङ्ग
रागः शरीरशोभा कृतः विहितः किल निश्चयेन, एतत् पूर्वोक्तम् समग्रम् सकलं वस्तु प्रत्युत वैपरीत्येन तीव्रव्यथां दुःसहपीडां वितन्वत् विस्तारयत् उपम् घोरं कामबाणत्वम् मदनशरत्वम् अशिश्रियत्, प्राप्तवत् । ईदृशीबालां विहाय दूरं गतो यतोऽतएव कठोराशय स्त्वमसि, तत्तस्या अवस्थामिमां ज्ञात्वा मृदुलाशयो भवेत्याकूतम् । त्वद् [s] वि [s] प्र [1] यो [s] गे [s] न [1] वे [s] वा [s] लि [1] का [5] या [5] म [1] नो [5] भू [5] श [1] र [5] क्लै [5] श [1] शा [5] न्त्य [s] प्र [1] य [5] लात् [s] स [1] खी [s] भिः [5] स [1] म [s] न्ताः [5] इतिलक्षणसमन्वयः । अत्रापि यथेष्टवृद्धिमुदाहत्तुमतिदिशति- एवमेकंकतगणवृद्धघाऽन्यदप्युवा. हार्यम्- इति । यथा नवभिस्तगणरन्ते गुरुद्वयसहितः कृतपादो दण्डकोऽयमुदाहृतस्तथा दशादिसंख्ययावधितस्तगणैरन्ते गुरुद्वयेन, यावदेकोन सहस्राक्षरपादं यथेच्छमुदाहार्यमिति भावः । अ० २, सू० ३६६।१ ।।
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[अ० २, सू० - ४००. ] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासन प्रद्योते भा गौ भुजङ्गविलासः ||४००|
यत्र यथेष्टं भगणाः प्रयुज्यन्तेऽन्ते च गुरुद्वयं स भुजंगविलासः । थथा - पीनघनोन्नतव तविशालतरस्तन मण्डल गाढनिपीडन कष्ट किताङ्गः, कोमलबाहूमृणाललता दृढवेष्टितकण्ठतटः परिचुम्बनविभ्रमपात्रम् । वासगृहे बहलोच्छ्वसिता गुरुधूमलतानिचिते शयने मृदुनि क्षणदायां, यो दयितां रमयत्यतिसंभ्रममानजुषं स भुजङ्गविलासधुरामिह धत्ते ||४००१ ।। एवमेकैक भगणवृद्धयायदप्युदाहार्यम् ॥ ४०० १ ॥
३६५
तगणवद् भगणेनापि गुरुद्वयान्तेन पादेन दण्डकं वर्णयति भा गौ भुजङ्गविलास इति । विवृणोति - यत्र यथेष्टं भगणाः प्रयुज्यन्तेऽन्ते च गुरुद्वयं स भुजङ्ग विलास इति यथेष्टं स्वेच्छानुरूपं - नवादिमारभ्य एकोनसहस्राक्षरपादपूर्ति यावत् भगणा अन्ते द्वयेन युक्ता यदि न्यस्यन्ते तर्हि स भुजङ्गबिलासनामा दण्डक इत्यर्थः । तथा च नव भगणाः गुरुद्वयम् - इति प्रथमोपस्थितम् - ' SH. SH. SIM SII. S. SI. 511 511 511. ss' इतीहशंरक्षरः कृतपाद दण्डकमुदाहरति- यथा- पोनघनोन्नतेति । पीनघनोन्नत वृत्तविशालतरस्तनमण्डलगाढ निपीडनकण्टकिताङ्गः पीनो स्थूलो धनी कठोरी उन्नती उत्तुङ्गी वृत्तौ मण्डलाकारी ( एवं कृत्वा) विशालतरी अति त्रिपुलो यो स्तनी कुची तयोर्मण्डलस्य समूहस्य गाढमत्यन्तं निपीडनेन मर्दनेन कण्टकितम्र रोमाञ्चितम् अङ्गं शरीरं यस्य तादृशः, कोमलबाहुमृणाललता दृढ़परिवेष्टित कण्ठतटः कोमलो मृदुलो बाहू एव मृणाललता बिसवल्ली तया दृढं गाढं परिवेष्टितः कण्ठतटः यस्य तादृशः परिचुम्बनविभ्रमपात्रम् परिचुम्बनस्य यो विभ्रमः विलासः तस्य पात्रम् भाजनम् यः जनः क्षणदायां रात्रौ वासगृहे शयनागारे मृदुनि कोमले वहलोच्छ्वसिता गुरुधूमलतानिचिते बहलमत्यधिकं यथा स्यात्तथा उदवसितया उद्भूयमानया अगुरुधूमलतया अगुरोः सुगन्धिकाष्ठस्य घूमलतया धूमपङ्क्तया निचिते व्याप्तं शयने शय्यायाम् अतिसम्भ्रममानजुषं अतिशयितं सम्भ्रमं साध्वसं मानञ्च जुषते तच्छीलाम् दयितां कान्ता रमयति क्रीडयति स जनः भुजङ्गविलासधुराम् भुजङ्गानां विटानां यो विलासः विलसनरीतिः तस्य धुराम् अग्रभागं धत्तं धारयति । पी [5] न [1] ध [1] नो [5] न [1] त [1] वृ [1] त [1] वि [1] शा [i]
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सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रद्योते [अ० २, सू०-४०१ ] ल [1]त[1] [1]स्त[1] न [1] में [1] ड [1] ल [1] गा [1] ढ [1] नि [1] पी [1] ड [0] न [1] कं [1] ट [1] कि [1] ता. [1] ङ्गः [1] इति लक्षणसमन्वयः । पूर्ववत् एकै कगणवृद्धिमतिदिशति- एवमेकैकभगणवृद्धयाऽन्यदप्युदाहार्यमिति । अन्तिम गुरुद्वयात्पूर्वमेकैकं भगणं वर्घयि त्वा यावदेकोन सहस्राक्षरपादं भुजङ्गविलास दण्डका उदाहार्या इतिभावः । अ० २, सू० ४००।१।।
नाभ्यां पञ्चमात्रैरुत्कलिका ॥४०१।। द्वाम्यां नगणाभ्यां परैर्यथेष्टं पञ्चमात्रैर्गणरुत्कलिका नाम । यथा- स्मितबकुल शिरीगकङ्कल्लिकको नय्यप्रसूनावलीपरिमलविलोलरोलम्व- रोलाकुलीकृताखिलचालीलावनो, मदुमलयसमीर- शैलूषशिक्षाक्रमानुगुणविविधाङ्गहारप्रयोगप्रपञ्चप्रवल्गलतानर्तकीरम्यरङ्गावनिः ! अभिनवसहकारकोरकास्वादमाद्यत्- पिकयुवतिपञ्चमोच्चारमन्त्रास्त्रसाधितविषममानिनीमानदुर्गः समन्तादयं, कमिव सपदि संततोत्कलिकमिह नो विधत्ते जनं हेलया निजिताशेषलोकस्य देवस्य कामस्य निर्याजबन्धुर्मधुः ॥४०१.१॥ एवमेककपञ्चमात्रवृद्धचान्यदप्युदाहाय॑म् ।।४०१:१॥ दण्डकप्रकरणम् । :वर्णगणात्मकाद् दण्डकानुक्त्वा वर्णमालोभयगणसंयुक्तान् दण्डकान् वर्णयति- नाभ्यां पञ्चमात्रैरुत्कलिकेति । विवृणोति- द्वाभ्यां नगणाभ्यां परैर्यथेष्टं पञ्चमात्रगणरुत्कलिकानामेति । आदौ नगणद्वयं विन्यस्य ततः परं यथेष्टं पञ्चमात्रगणः त्रिवर्णतः पञ्चवर्णात्मकान्तः, न्यस्तः चेत् स उत्कलिकानामकोदण्डक इत्यर्थः । तत्र तगणद्वयं द्वादश पञ्चमात्र गणा इत्येवं रूपं दण्ड कमुदाहरति- यथा- स्मितबकुलेति । अयम् अचिर प्रवृत्तः हेलया अनायामेन निजिताशेषलोकस्य विजितसमस्त भुवनस्य : कामस्य देवस्य कामदेवस्य निर्व्याजबन्धुः अकपटमुहृत्- मधुः वसन्तः इह अस्मिन् समये समन्तात् सर्वतः कमिवजनं सपदि शीघ्र सन्ततोत्कलिकम् विस्तृतीत्सुक्यम् नो विधत्ते अपितु सर्वं जनं विधत्त एवः। मधुमेव विशिनष्टि त्रिभिः पादः- स्मितबकुलशिरीषकङ्कल्लिककोलनव्यप्रसूनावलीपरिमल विलोल- रोलम्बरोलाकुलीकृताखिल चारुलीलावनः स्मितानां विक
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[अ० २, सू०-४०१.] सवृत्तिच्छन्दोऽनुशासनप्रमौते सितानां बकुलाः शिरीषाः, कङ्कल्लयः, कक्कोला:- स्वस्वनाग्नाख्याताः पुष्पवृक्षाः तेषां नव्यप्रसूनावल्या: नूतनपुष्पमायाया परिमलेन सौरभेण विलोलाः इतस्ततः परिभ्रमन्तो ये रोलम्बाः भ्रमरा तेषां रोलैः कलकलैः आकूलीकृतं पर्याकुलीभूतम् अखिलं समग्रं चारुसुन्दर लीलावन क्रीडोद्यानं येन स:, मृदुमलयसमीरशैलूषशिक्षाक्रमानुगुण विविधाहारप्रयोगप्रपञ्चप्रवल्गलतानर्तकीरम्यरङ्गावनिः, मृदुः मन्दशीत: मलयसमीरो दक्षिणवायुरेव शैलूपो भरतः- नाट्योपदेष्टा- तस्य शिक्षाक्रमस्य उपदेशरीते: अनुगुणेन अनुसारिणा विविधाङ्गहारस्य बहुविधशरीरचेष्टायाः प्रयोगस्य व्यवहारस्य प्रपश्चन विस्तारेण प्रवल्गन्ती परिचलन्ती या लतानर्तकी वल्लीरूपा नृत्यशिल्पिनी तस्याः रम्या सुन्दरा लीलावनिः क्रीडा मित: अभिनवसहकारकोरकास्वाद माद्यत्-पिकयुवतिपञ्चमोच्चारमन्त्रास्त्रसाधितविषममानिनीमानदुर्गः अभिनवाः नूतनानां सहका-कोरकाणां आम्रमुकुलानाम् आस्वादेन रसनेन माद्यन्त्याः जातमदाया: पिकयुवते: कोकिलतरुण्या पञ्चमोच्चारमन्त्रस्त्रेण पञ्चमस्वर मानरूपमन्त्रयुक्तेन रक्षासाधनेनायुधेन माधित: वशीकृतः विषमः वटिनः मानिन्या मानरूपः दुर्ग: येन तादृशः : स्मि [1] त [1] ब [1], कु [1] ल [1] शि [1], री [1] प [1] क [1]१, के [1] ल्लि [i] क [1] २, को [1] ल [1] न [1] ३, व्य [1] प्र[1] मू [1] ४, ना [1] व [0] ली [0] ५, प [1] रि [1] म [1] ल [:] वि [1] ३, लो [1] ल [1] रो [1]७, लं [1] ब [1] रो [1)८, ला [0] कु [1] ली [0]S, कृ [1] ता [1] खि [1] ल [1] १०, चा [1] र [1] ली [1]११, ला [1] व [1] नः [1] १२, इतिलक्षण समन्वयः । यथेष्टमिति सूचितार्थमाह- एवमेकैकपश्चमात्रवृद्धयाऽन्यदप्युदाहायमिति । नगणद्वयात्परतो द्वादशभिः पञ्चमात्रगणैर्यथेदमुदाहृतं तथा एकेक पश्चमात्रगणवृद्धया न्ये पि उत्कलिकानामानो दण्डका उदाहार्या: यावदेकोन सहस्राक्षरपादम् इस्यर्थः । यद्यपि मात्रागणवृद्धावक्षरसंख्या न नियता तथापि-यावदेकोनसहस्राक्षरः पाद इति पूर्वमुक्ततया मात्रागणवृद्धावपि स नियमः स्वीकार्य एव, तदपवादस्यानुक्तत्वात् ।।इति दण्डक प्रकरणम्।।
इति छन्दोनुशासन व्याख्यां द्वितीयोऽध्यायः ।।
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सप्रोते छन्दोऽनुशासने प्रथमभागस्य * शुद्धिपत्रम् *
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अशुद्धम
पटालङ्कारेण विप्रुषाः
स्वरुपा
परमपरा
धिकृत
वृतानि
०त्रिकेक
यूक्तमिति
० मिन्नानां
सर्वे
सम्मा
मथैकेनैव
सर्वषां
एतदे
समानैकादिः
यार्थ
बोध्यार्थं
स्वरूपपं
इत्यभियुक्तो
पदान्ते
शुद्धम
पट्टालङ्कारेण
विप्रुषः
स्वरूपा
परम्परा
धिकृत
वृत्तानि
O
त्रिकैक
युक्तमिति
भिन्नानां
सर्वं
सम्भाव्यते
मयंकेनैव
सर्वेषां
देव
समानेनं कादिः
भिधेयार्थस्य
बोध्याथं
स्वरूपं
इत्यभियुक्तो
पादान्ते
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१५
अशुद्धम्
ऽमिति
पादन्ते
सम्मन्धात्
विबु
[ii]
लघौगुरुत्वे
प्रभिन्नासु
पूरयितुमीष्टा
अमीष्टा
पादाग्
विजर्जुनीये
अतुस्वारे
जिहामूलीये
० स्थानीये
मावेऽपि
सम्पतये
गुरुवं
निहृत
द्वितीययस्य
स्नातुभव०
युत्त्रास्त
मंशुकक
उद्धृत
विअ
च्वेअ
ग्रामीणा
लधोर्न
शुद्धम
ऽभिमतेति
पादान्ते
सम्बन्धात्
विबधै
घोर्गुरुत्वे
प्रभिन्नासु
पूरयितुमिष्टा
अभीष्टा
पादान्ते
विसर्जनीये
अनुस्वारे
जिह्वामूलीये
स्थानीये
भावेऽपि
सम्पत्तये
गुरुत्वं
निहनुत
द्वितीयस्य
स्नातुमव
मुत्स्रस्त
मंशुक
उद्वृत्त
चिन
चेअ
ग्रामीणा
लघोर्न
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________________
[
iii
]
शुद्धम्
पृष्ठे २०
पङ्क्तो १८
१४
अशुद्धम् 'मांत्रण मेघदूते बर्हमारेषु ० मुपलमे
ब्यवहिन विपरिणते
बर्बोधिका गप्रज्ञायां बाघ गसंज्ञा प्रमेदे प्रतिमाति प्रमातमेव विध्छेद उड्डयन नमानी पतन्ती
मात्रेण मेघदूते बहभारेषु मुपलभे
व्यवहित विपरिणमते
|धिका ग्संज्ञायां बाध गसंज्ञया . प्रभेदे . प्रतिभाति प्रभातमेव । विच्छेदं उड्डयनं नभःश्री पतन्ती शासने सूत्रमुक्त० . मनावश्यकम् द्विध चतुष्पदा० नियमो पूर्व यानि स्पष्टयति भिधास्यन्ते
सासने
८
सूत्रस्य मुक्त. मानवश्यकम् द्विघा चतुष्यदा० निययो पूर्व यानि स्यष्टयति मिधास्यन्ते
"
१२
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________________
[ iv
1
पक्ती
अशुद्धम्
शुद्ध
२७
१३
साभ्ये स्कन्धे विरामे अनेत ० भावे तु वर्षमास्पर्घसा वर्षमा. शशाङ्काघ अर्धचन्द्र हर्तमाह ०मध्यतेरियं ०भागस्यादिवत्वं अम्मः सान्द सप्तमिवर्णः मूर्ति-स्वरूपं रुमयो भोगमृतां घेश्चश्च वलमो दुसहः परादिवत्वा
भूरयाऽपि मीनक्षोमात् मेवोमोयः
साम्ये स्कन्धे विरामो अनेन भागे तु वर्धमास्पर्धमा० वर्धमा० शशाकार्ध अर्धचन्द्र हर्तुमाह मध्ययतेरियं भागस्यादिवत्त्वं अम्भः सान्द्र सप्तभिर्वर्णः मूत्तिः स्वरूपं रुभयो भोगभृतां घेश्चश्च वलभी दुःसहः परादिवत्त्वा •भूततयाऽपि मीनक्षोभात् मेवोभयोः
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________________
[ v
]
पङ्क्तो
अशुद्धम्
४६
१२
,
१५
दुरासूढ स्रग्धधरा पसिद्धेः स [अवुधो] पटालङ्कारेण ऽम्युपेयः आरम्यमाण किमपि षड्विंश पद्ममि पद्ममित्यादुः ०दनुमूयते वृथ-वेत्यर्थ ०वर्णात्मके शोमन घूरिति यस्यास्ताहशी गुरो:ऽच वघूरिव
गुरुपदिष्टं लघु अमिभूत वाऽन्तेऽवक्र सावित्री प्रमा मेघाऽम्बरेण इत्याह
दूरारूढ स्रग्धरा प्रसिद्धः [स अबुधो पट्टालङ्कारेण ऽभ्युपेयः आरभ्यमाण न किमपि षड्विंश पद्यमि . पद्यमित्याहुः ०दनुभूयते वृथवेत्यर्थः ०वर्णात्मको शोभन
धूरिति
६२
२२
यस्यास्तादृशी गुरोश्च वधूरिव गुरूपदिष्टं लघुः अभिभूत वाऽन्तेग्वक्र: सावित्री प्रभा मेघाडम्बरेण
११
.
इत्याहुः
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________________
[
vi ]
पक्ती
अशुद्धम्
शुखम्
२०
षडक्षरच्छन्दो
देवानां
षडक्षरछन्दो देवना० पदा किमर्थ विदघातीसत्त्वाल्लधोरपि भवत्ये-वेत्यर्थः मृदुपाणी चोमयत्र आम्यां शफरीका
२२.
पादा कमर्थं विदधातीसत्त्वाल्लघोरपि भवत्येवेत्यर्थः मृदुपाणि चोभयत्र आभ्यां शफरिका क्ष्य ताभ्यां रगण शोभया ताभ्यां अश्रुभिः प्रकार
ताम्यां
22
रगणा
शोमया
ताम्यां अश्रुमिः प्राकार
2
ट
0
व्याचेष्टे तीक्ष्णास्प्रत्वं जेज्ञ
व्याचष्टे । तीक्ष्णास्त्रत्वं जज्ञे
22
ताम्यां मयुरे विप्रययुक्तानां
ताभ्यां मयूरे विप्रयुक्तानां
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ਧਰਨੇ
७४
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२४
२६
[ vii ]
अशुद्धम
प्रस्तारक्रमणे
स्याध्र ुवं
उष्णिवीर्हति
जगण: 151, गुरुः
नामकं मुष्णि ०
लाघेनापि
दाद्रियमाणं
मनः
गुरु
विच्छन्ना
न्घ [ 1 ] जा (5)
उद्धेतेति
गदर्पवती
भमर
किम ?
भोगवतीति
व्यवदिशती
बिधु
गुरु
प्रयो
रात्रिममि
चित्नम् चपलेत्येन्ये
उज्जववलनिशा०
उज्जवल:
शरत सम्बन्धिनी
शुद्धम
प्रस्तारक्रमेण
स्याद् ध्र ुवं
उष्णिहीवेति
जगण: ISI, सगणः 115, गुरुः
नामक मुष्णि
इक्षायुवेनापि दाहि यमाणं
मे मम मनः
०
गुरुः
विच्छिन्ना
न्ध [ 1 ]ग [ 1 ] जा [S]
उद्ध
पव
भ्रमर
किम् ?
भोगवतीति
व्यपदिशती
विधु
गुरु:
प्रायो
रात्रिमभि
चित्रम्
चपलेत्यन्ये
उज्ज्वल निशा
उज्ज्वलः
शरत्सम्बन्धिनी
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| viii
|
अशुद्धम्
शुद्धम्
पृष्ठे पङ्क्तो ८२ १३
0
८४
दुःखापानोदाय ऽर्जनं अपश्यात् प्रशंससनीयतां कोकिलकुजन बसन्त बाणत्वेनोत्प्रक्षेयम् प्रस्तारक्रमणे ल्यावित्यस्यार्थ वस्तुत्वविचारे सभनिनकादि. समानतावतिथस्य चतुष्टस्य [एमिः ] कुवन्तु परित्यज्यते वैदुष्पाः केतुघ्वजः गजकुम्मेषु
दुःखापनोदाय ऽर्जुनं अपश्यत् प्रशंसनीयतां कोकिलकूजन वसन्त बाणत्वेनोत्प्रेक्षेयम् प्रस्तारक्रमेण ल्गात्रित्यस्यार्थः वस्तुतत्त्वविचारे समानेनकादि समानस्तावतिथस्य चतुष्टयस्य [एभिः ] कुर्वन्तु परित्यज्य वैदुष्याः केतुः गजकुम्भेषु विदधत् ललित.
८७
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विदधत्
क्वचित्
लणित. कूचित् बैकल्पिक प्रभातु० जगन्त्रयी
वैकल्पिक प्रमातु 'जगत्त्रयी
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अशुद्धम्
०न्त्रयी
ग्लावीत्य •
वैचिन्त्यं
रजः पुच
'गु [1] रू [1]
समग्रा
मेधानां
दानवारिस्त्राविण:
• मालमारिणम् प्रकाश्यति
दुःस्वरूप
चन्दस्य
विरहेपा
• मप्पनुष्टुभ
O
० चतुमिच भ्रूविक्षेयः
करङ्गः
उज्जवले
• मुज्जवलं
भूपतयतित्वेन
अभिलष्टन्
सम्भाव्यते
कश्चिदमिप्रायो भवदीयं वोत्यप्रेक्षा
प्रतीयते
शुद्धम
०त्त्रयी
ग्लावित्य •
वैचित्त्यं
रजःपुञ्ज
'गु [1] रु [1]
समग्रां
मेघानां
दानवारित्राविणः
• मालभारिणम्
० प्रकाशयति
दुःखरूप
चन्द्रस्य
विरहेण
• मप्यनुष्टुभ
डैः
चतुभिश्च
भ्रूविक्षेपः
कुरङ्गः
उज्ज्वले
उज्ज्वलं
भूपतेर्यं तत्वेन
अभिलषन्
सम्भाव्यते
कश्चिदभिप्रायो
भवदीयवोत्प्रेक्षा
प्रतीयते
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________________
ਝੂਠੇ
६८
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[ x ]
अशुद्धम्
स्वामीष्टार्थ
शिशमृता
पापजलने
तावदेख
तद्वच्यानां
• मित्यपहनुत्यलंङ्कारो
मधुनि, ०मने
विशालनामकं
o नयनस्तौ
अ द्रं
मकराकर
क्रियांन्
महार्घा
ण [5]
सभ्सा:
त्वदृष्टेति
रादुग्रस्ता
सिंहक्रान्ता
रादुग्रासे
पूर्वाक्त०
द्वादशधिका
धवर्ण
ईषदु
तृतीयध्याये
पक्तिका
०शोभिताम्
शुद्धम
स्वाभीष्टार्थ
शिशुभृता
पापजलेन
तावदेव
तद्वाणानां
0 मित्यपहनुत्यलङ्कारो
मधुनि, म
विशालानामकं
नयन । स्रौघैः
आर्द्र
मकराकार
कियान्
महार्घा
ण: [S]
मभ्साः
त्वद्दृष्टेति
राहुग्रस्ता
सिंहाक्रान्ता
राहुग्रासे
पूर्वोक्त०
द्वादशाधिका
घवर्ण
ईषद्र
तृतीयाध्याये
पङ्क्तिका
शोभिताम्
4
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________________
[
xi
]
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
१०८
१०६
अशुद्धम् समग्ज्ञानेति ०श्लाधतीयतां चतुरङ्गायाः जल्यामः लघवो विहान् मेधान्धकार •मावश्कमेव काश्चिदन्य
सम्यग्ज्ञानेति श्लाघनीयतां चतुरङ्गायां जल्पामः लघवो विटान् मेघान्धकार मावश्यकमेव कश्चिदन्य
१११
११२
भित्व
त्रित्व
१
I save you more EE *W 202 ** 2#T
११४
साधनमावश्यक जाड्यस्यासङ्गादिति समुज्ज्वल भनमा मण्डलं नवबन्धूक उपस्थिता.
११५
साधनभावश्यकम् जाडयस्यासङ्कादिति समुज्जवल. भमना मणुलं नबबन्धूक उपास्थिता० दृष्टवा उपास्थिता कालिकायाम् त्रया, कु [s] मृगचलां प्राप्तिरससम्भविनी निर्गच्छन्द्रमर० मथा निर्गच्छन्द्रमर
उपस्थिता कलिकायाम् त्रपा कुं[s] मृगचपलां प्राप्तिरसम्भविनी निर्गच्छभ्रमर यथा निर्गच्छद्भ्रमर
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[ xii ]
अशुद्धम
उद्धरतीवेत्युत्प्रेक्षा कृष्णवर्णनायाः
सा [s] ध [5]
हश
एमि:
बृद्धि
चुलुकय !
विशं
• सतूष्णा:
शोमन
पत-तन्योs
केविदाचार्या
प्रस्तारक्रमणे
• पत्निदाया ०
प्रगल्मो
मु [1]
परमेष्ठिनां
सवदेवभयो
विणानिनादा०
हृदयं
० प्रकाशभिरामं
• मादधति
गुरुदयं
व्यवितः
पदन्यासेन धारयत्यन्योऽपि
शुद्धम
उरितीवेत्युप्रेक्षा कृष्णवर्णीतायाः
सा [S] द्य [S]
ह [1] श
एभिः
वृद्धि
चुलुक्य !
विंशं
सतृष्णाः
शोभन
पतन्त्योऽ
केचिदाचार्या
प्रस्तारक्रमेण
०पादाया०
• प्रगल्भो
भु [s]
परमेष्ठितां
सर्वदेवमयो
वीणानिनादा
हृद्यं
प्रकाशाभिरामं
• मादधाति
गुरुद्वयं
व्यञ्जितः
पदन्यासेन धारयन्त्योऽपि
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२४
२५
अशुद्धम
विपरिता
घूर्णिताङ्ग
अभूत
राजन
[ xiii ]
आसनश्चेति
भ्रमरपङ्क्तिः
शरदतुं
दधसि
नवमस्तद्वयं
वीरुधा
धैरिति
निर्मिभाणा:
स्काराभोदाः
मङ्गात्
चालिताः
• विधातः समुपास्थितः
मेधानां; अधिक्य
•बुद्धया, वक्रापाति
वक्रे
चतुमि०
रोगेण; गृच्छात्
• फलामिव • मधं
तदाश्चमिति
धूलयो
रतरा
तानकीनेति
शुद्धम
विपरीता
घूर्णिताङ्गी
अभूत
राजन्
असनश्चेति
भ्रमरपङ्क्ति
शरदृतुं
दधासि
मस्तद्वयं
वीरुधां
घैरिति
निर्मिमाणाः
स्फारामोदाः
भङ्गात्
चलिता:
० विघातः समुपस्थितः
मेघानां; आधिक्य
बुद्धया, वक्त्रापाति
वक्त्रे
चतुभि०
रागेण; गुच्छात्
O
• फलमित्र; ० मघं
तदाश्चर्यमिति
धूलयो
रनरा तावकीनेति
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[ xiv ]
अशुद्धम्
धूलीः प्रभूतमेन
मदनाम्मसा
योद्धता किमित्यदि
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का [s] ' इति गतिः ॥
चाहहासिनीयम् • कृतान्तन्द्ररी०
क्षमायते
दन्तद्युतिद्योत
दन्तद्युतिधौतेति
नवम् - चिर०
[S] त
सर्पद्विपेन्द्र
शेषश्ययां
र्वर्द्धते
निः सिम
सौभाग्यशालिन्
• दीर्घोकृत •
दधीभूताः
स्मनलगाः
पुण्यात्मानां
विदघाति
रौदेन्द्र०
शुद्धम्
धूली: प्रभूततमेन
मदनाम्भसा
रथोद्धता०
किमित्यादि
ङ्गं [s]' इति गतिः ।
अपरवक्तूमिति
भरतः । उत्तरान्तिकेयम् ॥
१४३.१ ।।
चारुहासिनीयम् ।
• कृतान्त रौद्र०
क्षमापते
दन्तद्युतिधीत दन्तद्युतिधौतेति नवमचिर०
धौ [s] त
सर्प द्विपेन्द्र
शेषशय्यां
वर्द्धते
निःसीम सौभाग्यशालिन्
• दीर्घीकृत •
दीर्घीभूताः
समनलगाः
पुण्यात्मनां
विदधाति
रौद्रेन्द्र
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________________
[ xv ]
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
अशुद्धम् अष्टाविशं सि [s]] [पादन्तस्य गुरुत्वात्]
,
२७
१३७
४
१३८
त्रियुब्जातवेव परस्यमेलनेन TOTSSSIT ०पेक्षयां गौरवभिऽन्येषा० स्वयमेवन्वषणी० ग्रन्थान्तरत् गानाम्भात् सानुनि गण्डस्थरवर्जू विधट्टि दुर्वहश्रेणि.
अष्टाविंशं सि [1] दु [5] ष्ट [s] [पादान्तस्य संयोगादेश्च
गुरुत्वात् विष्टब्जातादेव परस्परमेलनेन बालाsss), ०पेक्षया गौरवाभियाऽन्येषा स्वयमेवान्वेषणी० ग्रन्थान्तरात् गानारम्भात् सानूनि गण्डस्थखर्जूः विघट्टि दुर्वहश्रोणि
" १३६
२३
३
बोढ०
वोढु.
अश्यस्य ०रूपेन्द्रवज्रा नरवरन्ध्र स्नुत्या घोतं सिहहतं हिमस्नुत्या बिभेतुमोधीकृत माहुत.
अश्वस्य ०रुपेन्द्रवज्रा नखरन्ध्र सुत्या धोतं सिंहहतं हिमस्रुत्या बिभेतु मोधीकृत माहूत.
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________________
[
xvi ]
पंक्ती
अशुद्धम्
१४०
१६
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१९
,
२१
१४२
१
१४४
१
स्वशररहतं वश्यं वश्यंकतं लक्षणसंगति द्वितियादिषु गृहासु स्थापितास्यो पांमु विविध अननन्तरं उपजातरचतुर्दश दशभेदा •चिन्हेनेन्द्र० साऽघुना प्रयोगेऽपि मदीयबालवण गर्वाम् दैत्यचम् महार्णवं •श्चक्षुमिरे ममुर्महस्तस्यरणे दैत्यचनूमहार्णवं भहाः नयनकोणके ख्यकस्मिन् तुच्छदृष्ट्या, मटान् दृष्टव
स्वशररहं तं वश्यकर्तु लक्षणसंगतिः द्वितीयादिषु गुहासु स्थापितस्यो० पांसुविविक्त अनन्तरं उपजातयश्चतुर्दश चतुर्दशभेदा चिहनेन्द्र० साऽधुना प्रयोगोऽपि मदीयबाणवण गर्वम् दैत्यचमूमहार्णवं रचुक्षुभिरे ममुर्भटास्तस्य रणे दत्यचमूमहार्णवं भटा: नयनककोणके स्यकस्मिन् तुच्छष्ट्या ; भटान् दृष्टव
२६
, १४५
,
निचस्त्वम्
नीचस्त्वम्
११
सौनिकाः
सैनिकाः
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१४५
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[ xvii ]
अशुद्धम्
विजयेषिण
• घानानि
पशुकन
श्रवणान्तशतिना
कुक्कराः
गोमतालिकाम्
सुमटेन
मुदुर्मुहुः
गृधैरभि०
पशुकन
मुहुर्मुदुः
अमि०, ०भिमुखम्
० भ्रन्ति, बमार
रुट्टाम
द्वियाः; बृंहित निखकाशम्
जगत्रयोsपि
शेषजरत्रयः, जगत्रयं
इत्थेव
• वनिताकान्तस्यः
भहानां
समन्नतः, सधः
द्वितियादिषु सजातीयातामेव
• वृत्तत्वापृह• लाघवार्थ:
शुद्धम
विजयैषिणः
० धानानि
ऽपशकुन
श्रवणान्तशातिना
कुक्कुराः गोमतल्लिकाम्
सुभटेन
मुहुर्मुहुः गृध्ररभि०
ऽपशकुन
मुहुर्मुहुः
अभि०, ०भिमुखम्
● म्रान्ति, बभार
O
रुद्दाम
द्विपाः, बृंहितैः निरवकाशम्
जगत्त्रयोsपि
शेषजगत्त्रयः, जगत्त्रयं
इत्येवं
O
• वनितास्यकान्तयः
भटाना
समन्ततः सद्यः
द्वितीयादिषु सजातीयानामेव
• वृत्तत्वाग्रह
लाघवार्थः
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________________
[ xviii ]
पृष्ठे
अशुद्धम्
.:
शुद्धम्
पक्तो ६
१५०
, १५१
१५ २३
दीनां मितः मद्रीसुतौ; ब्रह्मणाश्च स्वमेतनोक्त्वा धर्मप्रचुरः अचान्तर व'शस्थम् छन्छ. प्रतिषाद्य किलात्यास्वपि ०दासाङ्गशङ्कनीथं २०२८ भेदा वानेश्वर महोपते ! पुरूखो पुरुरवाश्व चरित्तम् नाहितलज्जा कृतिम अन्येऽद्रु'. प्रजाप्रति आदघतं कुम्भममिव अतोहकता . मृत्यं
। दीनामितः माद्रीसुतौ; ब्राह्मणाश्च स्वमतेनोक्त्वा धर्मप्रचुर अवान्तर वंशस्थम् छन्द प्रतिपाद्य किलान्यास्वपि दसाङ्गशङ्कनीयं २०४८ भेदा वानरेश्वर महीपते पुरूरवो पुरूरवाश्च चरितम् नाटितलज्जा
१५४
१२
कृत्रिम
"
२१
अन्येऽद‘ss. प्रजापति आदधतं कुम्भमिव अतोटकता भृत्यं
२४
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अशुद्धम
वि [1] रु [S] घ
लघुत्व ०
सन्त्यैवेति
साद्रेति
झहित्येव
कुम्मीव
कथम
भ्रावुज्जवलेति
उज्जवला
सोमशवक्या
कटाक्षपाना
कुचयुगमरेण
तस्यावताराग
जातीच्छन्द
जयोष्ठी
अतिरिक्त
यस्या सेति
श्रीखि
भुजगा
लघूनि
हे सखिन !
व्यजयते
• रीति
धूर्त स्वस्वरूपा
तथाविधानम्
चतुर्भिश्चतु •
शुद्धम
वि [1] रु [5] द्ध
लघुत्व ०
सन्त्येवेति
सति ।
झटित्येव
कुम्भीव
कथय
नावज्ज्वलेति
उज्ज्वला
सोढुमशक्या
कटाक्षपाता
कुचयुगभरेण
तस्यावताराय
जातिच्छन्द
जपोष्ठी
अतिरक्त
यस्याः सेति
श्रीरिव
भुजंगा
लघूनि
हे सखि !
व्यज्यते
रीति:
धूर्तः स्वस्वरूपा तथाविधानाम्
चतुभिश्चतु०
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________________
[
xx ]
पृष्ठे
पङ्क्तो
अशुद्धम्
शुखम
१६७
७
१६८
३
१७३ १७४
१७ ५
१७५
३
द्यरिति
घरिति अष्टश्चि
अष्टभिश्च कुसुमोध
कुसुमौष पुष्पसमुह
पुष्पसमूह भ्रकुटिं
भ्रूकुटिं ह्याने
ह्वाने रचय
घटय प्रत्युर्मुख
पत्युमुख त्रित्वाबोध
त्रित्वबोध सुरनाथर
सुरनाथ जगति
जगती कामपियासां
कामपिपासा दशैरक्षरैः
दृशेरक्षरः
प्रयाहि गृह वर्षातॊः
वर्षा : दाक्षिण्यदिभिः दाक्षिण्यादिभिः तद्गु नृप (); क्षां
नृ (1); क्षमा अतिजगती जाति ॥ अथ अथ अतिजगती ॥ अतिअतिजगती ।। वर्णयितु० जगतीजाति वर्णयितु० सुवक्तायाः
सुवक्तायाः ह(1) द(1) ह(1) त(1) ह(1)त(1) लाश्च
लाषश्च प्रतिसिद्धः
प्रतिषिद्धः सर्वजनकरखक सर्वजनरञ्जक उत्प्रेडन्तिदश .. उत्प्रेङ्क्षत्रिदश
१७६
त्वद्गु
१७७
५
१७८
१६
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________________
[
xxi ]
पृष्ठे
पङ्क्ती
अशुद्धम्
शुद्धम्
१७६
१७६
२५
१८०
प्रथमाक्षरत्रये Is...' इतीदृशै. तरङ्गिते धरिति निदाघ चतुभिश्च •लीलागारं माल्यानुगता] चतुभिर्यतेः वाग्वक्रिमा वाचो वक्रिमा वचनस्य
१८२
वक्रता
१८३ १८४
प्रभाक्षरत्रये ।।.' इतीही चरङ्गिते धरिति निदाद्य श्चतुर्मिश्च ०लीलाग रं •माल्यानुगता;] श्चतुर्भियतेः ०वागविक्रमा वाचो विक्रमः, वचनविन्यासो चरिती प्राहामः वंशोद्यततक शशीकला वर्षतुना आज्ञाभवधीर्य सग्ण-जग्ण
गुणगणस्तविका नाहमोहिक भवदीगुणानु या पयितुमिच्छामिति नीलवरस्त्रस्य गौरवपुरमृतराश्मि नीलबस्त्र
१८६ १८७
चरिति प्रोद्दामः वंशोद्योतक शशिकला वर्षतुना आज्ञामवधीर्य सगण-जगण
गुणगणस्ताविका नाहम हिक भवदीयगुणानु० यापयितुमिच्छामीति नीलवस्त्रस्य गौरवपुरमृतरश्मिः नीलवस्त्र.
१८८
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________________
[ xxii ]
पृष्ठे १८८ १८६
पङ्क्तो २६ १०
कुटजानां पुष्परागेण
,
२५
१०६
अशुद्धम् विद्ध्यात्
विदध्यात् कुटनानां पुस्परागेण प्रशमवृत्ते
प्रशमवृत्तेः किमत
किमुत इन्ननन्तः स्मो०
भौ० य त्वां
यत् त्वां त्मी
भौ तमसजगाः
तभसजगाः मो
भौ Is), 5' इतीही II, II,ऽ' इतीही अभ्स्यति वेति । अभ्यस्यतीवेति रुप्यमेव
रूप्यमेव निर्माणेच्छ निर्माणेच्छू साधर्म्म
साधर्म्य कलशिक्षण
कलाशिक्षण यतिर्यत्र-कोटुम्म० यतिर्यत्र तत् कोदुम्भ० •भाजस्त्रियो
भाजः स्त्रियो -मगण
-यगणजगतिजाति . जगतीजाति त्रुहिताः
। त्रुटिता: . तन्तिानां
तद्दन्तिनां दन्तांरिछत्वा
दन्तांश्छित्वा करिदत्ता
करिदन्ताः
,
२५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ xxiii ] पृष्ठे पङ्क्तो . अशुद्धम्
शुद्धम् : १६४ १९४ २५ •मृद्धयो
मृद्धया १६५ २ भगावप०
ल्गावप० लघुगुरु च
लघुगुरूच १६६ रिपुनियनं
रिपुनियमनं १६७ यष्टया
यष्टया भवच्छलष०
भवच्छ्ले ष० तहतिभिरियं
प्रतिहतिभिरियं अशोक चेति
अशोकश्चेति १६८
मान्यते
तन्द्रत १६६ माद्यद्ग्रन्धेति
माद्यद्गन्धेति हिमालयेश्चेति हिमालयश्चेति प्रियवदनाम्बुजम् प्रियावदनाम्बुजम्
मगण-सगण-रगण ... मगण-रगण२०२ सहजप्रित्या
सहजप्रीत्या • -राश्मिः
रश्मिः भजजगगा
तभजजगगाः सकर्णिकारचित्तेति सत्कणिकारचितेति १७ . व्यतेश्नु
व्यश्नुते २५ निशङ्क
निःशङ्क २६ . किञ्चिदालपत्ती .. किञ्चिदालपन्ती १ . वार्ष्यार्थ
वाच्यार्थ २. व्यश्तुते
व्यश्नुते २२. ०रूपातीशयोक्तिः । ० रूपातिशयोक्तिः २०५७ आनुकुल्येन
आनुकूल्येन उपतरथे .. उपतस्थे
मन्यते तव्रतं
6260Rn nxnwww
२०३
२०४
.
.
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ xxiv ]
अशुद्धम्
शुद्धम्
पृष्ठे पङ्क्तो २०५ ११
, २२ २०६ ३
२०५
MMM... . . .
. .
२०८
कुर्वेति संचीतु ददुर्कः तदपि स्वीकटुवेदयम्भस्नाद्री मनः स्मिन् स्वलनम् प्रम्नाम्नः नाभस्खलेनापृष्टदेशे गौशरमललि० अद्वितिया वर्तन चंगच्छन्ती साराहार्थं उपरिभाग स्यात् विद्घाति साहाय्याम योजयतिति जगणश्च पिहितं प्रदेशः गणन्-जित ईश्वरस्य जा [1] ह [5]
कुर्विति संचिनु दर्दुरक: तदापि स्वीयकटुवेधय भ्जस्नादौ ममास्मिन् स्खलनम् मभ नाम्न नामस्खलनेनापृष्ठदेशे गौशरभललि अद्वितीया वर्तत चर्गच्छन्ती साहाय्यार्थ उपरिभागस्थान् विदधाति साहाध्याय योजयतीति यगणश्च
पिहितांसदेशः गणपूजित ईश्वरश्च ज [1] टr [s]
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२५
११
१४
२३
21
११
२०
२४
अशुद्धम
चत्वार सश्चेति
विचयसि
दुःखंदृतं
पीङ्गल
[ xxv ]
चन्द्रव
वासावो
• दृष्टिमिरपि
०
नटिति
सूत्र
यशसोती
मनि
मालिनिति
नगणद्वयात्
o नयनानम्
० ज्योत्सां
तभा
● मनुष्टुब्जाति ०जाह्नवीमुनम्
शाद्धल
वि [ 1 ] हा [s]च [ 1 ]
अरण्ये
चन्दो
चाहुरिति
• माण्ड
प्रतिप्रक्षतां
शिवशिरत्मे
शुद्धम
चत्वारः सश्चैति
विरचयसि
दुखं हृतं
पिङ्गल
चन्द्रावर्ता
वसवो
दष्टभिरपि
भटिति
सूत्रं
यशसीति
मति
मालिनीति
नगणद्वयात्
नयनानाम्
ज्योत्स्नां
तभ्रा
०मतिशक्करीजाति
• जाह्नवीयमुनम्
O
शाद्वल
वि [1] हा [5] [1]
अरण्ये
छन्दो
प्राहुरिति
• मण्ड
प्रतिपक्षतां शिवशिरसो
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२१७
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१७
[ xxvi ]
अशुद्धम
रम्भया०
प्राक्नैः
[ स्वकीयानाम
· शङ्खसदृशवाऽङ्गना
इतिह
०
मुनमस्तस्य
परिमुक्ता:
न्जज्राः
नामतिशकरी
जगत्रय ( ३ )
उध्वार्धः भान्तिः
आम मज्जर्या
कल भाषणिती
दिग्पवन
पुष्परागः; चिकयुवतेः
आचार्यां छन्दो०
रान्नभभ्राः
नभम्राश्
कवीश्वराम्
नौ दुगो रिति
सद्धचन ०
०मिच्छामिति
भुजेडास्मिन्
मगणश्च
जगतिजाति०
साकुत
शुद्धम
रमयय ०
प्राक्तनैः
[ स्वकीयानां शङ्खसदृशग्रीवाऽङ्गना
इतीहरौ ०
मुनेरगस्त्यस्य
परिभुक्ता:
न्जभज्राः
नामातिशक्करी
जगत्त्रय ( ३ )
ऊर्ध्वाध:; भान्ति
आम्रमञ्जर्या
कलभाषिणीति
दिक्पवनः
पुष्परागैः, पिकयुवतेः
आचार्या एतत् छन्दो०
रान्नभभ्राः
नभभ्राश्
कवीश्वरास्
नादगौरिति
सद्वचन ०
मिच्छामीति
भुजेऽस्मिन्
यगणश्च
प्रतिशक्करीजाति०
साकूत
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१६
१६
१६.
[ xxvii ]
अशुद्धम्
त्मौ
नगणभगणौ
जगत्रयजयं
वशंबद
प्रीणयतीति
व्यावृताङ्गी
पराङ्गमुख० पर्याक्षिपृ० कामक्रीडावातार्थं
" इति विलास ०
क्रीडां
एकाऽयमचिन्त्य ० जातेर्भेदावयितु० :
नगणभगणरगणाः
पृथक्क
उपतृण ०
एतनाम्ना
भटमानिन्
कौसुभा सायकाः
कुर्बाण स्तवस्मिन्
मगणपश्चं
० नामकंष्टिजाति
प्रणभदाखिल०
मैथुनान्दस्य
न्मौ ०मङ्गना उन्नतामू मुर्ति
शुद्धम
भौ
तगणभगणौ
जगत्त्रयजयं
वशंवदं
पत्नी प्रीणयतीति
व्यावृत्ताङ्गी
`पराङ्मुख ०
"पर्याक्षिप्त०
कामक्रीडावार्तार्थ
रतिविलास ०
व्रीडां
एको यमचिन्त्य जातेर्भेदान्वर्णयितु
नगणजगण रगणाः
पृथक्कर्तुं
उपलतृण ०
एतन्नाम्ना
भटमानिन्
कौसुमाः सायकाः कुर्वाणस्त्वस्मिन्
मगणपञ्चकं
० नामकमष्टिजाति
प्रणमदखिल ० मैथुनानन्दस्य
मो,
• मङ्कना
उन्नत मूर्ति
०
घं
O
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________________
[ xxviii ] अशुद्धम्।
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
२३१ २१ २३३६
२३४
४
२३७
मद्रिपुबलं पङलेः (कृत) आनन्द स्पन्दं वर्णंयति० सिद्धिवरेण धचैरिति पिडिता
ममराधिया धन শহিমু चन्द्रज्योत्सना क्षुण्णाः कृता पादा विधुतचिबुकः वै रिजिनः न्मो भयात्वलाप्य रजाइन्धकारे शभु भूतानां वरभुवत्यः भुवतीभिः हनेषु शभुराज निनदचकिका यतस्ततातरलं
यद्रिपुबलं पङ्क्तेः (कृते) आनन्दस्यन्दं वर्णर्यति० सिद्धवरेण घचरिति पीडिता ०ममराधिपा धर्मो न श्चित्रम् चन्द्रज्योत्स्नाक्षुण्णः कृताः पादा विधूतचिबूकैः वैरिजनः न्भौ भयात्पलाय्य रजोऽन्धकारे शत्रुभूतामां वरयुवत्यः युवतीभिः हृतेषु হাল
निनदचकिता यतस्ततस्तरलं
२३८
TNN
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________________
पृष्ठे
[ xxviv ] अशुद्धम्
पंक्तो
शुद्धम्
२४१ २४२
१ १
परिभाण० अक्षिप्तो पुष्यत्कोमल. धडैरिति थीरीकृत्य शोडशाक्षर पादाभा त्रयास्त्रिंशद्
परित्राण आक्षिप्तो पुष्प्यत्कोमल घरिति स्थिरीकृत्य षोडशाक्षरपादाया त्रयस्त्रिशद् तदुक्तं सहस्राणि, सहस्रा त्रिंशच्चैव असमम् ज्सजस्यगा:
,
२३
तदुलं
१८
२४३ २४४
लेढि
०सहस्ताणि, सहस्ता विशच्चैव असभम् ज्सजस्थगा लेटि त्वयोरिपुषु पुनस्तयोमिधनद्विज नामतः ०मध्यलुटिताः गजपृष्ठस्थाशितत्रतत्रोकेषु धातेति मङ्लुम् यादवीत्यादुरित्यर्थः मन्दक्रान्ता
भो; मन्दाकान्ता नगणद्वयं प्रथम
त्वदीयरिपुषु पुनस्तयोनिधन द्विजर्नामतः मध्यलुठिताः गजपृष्ठस्थशितत्रतत्रोक्तेषु
२४५
२४६
धौतेति
मङ्क्तम् यादवीत्याहुरित्यर्थः मन्दाक्रान्ता नौ, मन्दाक्रान्ता तगणद्वयं प्रथम
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२४७
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भशुद्धम्
( स्वदीय०
परिवर्तिभिः
यतेराहतत्वेन
भाराक्रान्तानामाकं
• पादावि संयोगे पयतः
षङ्गिरच
हारिणी
हिमरूचे !
शुक्कस्य
भीनाया
करून
कलङ्गाशङ्का
नगणद्वयं
चलुकेन; समुदो
सम्यादितो
वसुधाङेरिति
वसुधा
स्वर्णानादि
नर्कटकमिति
सेवय
- तोपदेश
परो
जरठे रसः
श्रुयमाणम्
अन्न
मुवोत्सुक्योगात्
शुद्धम
( तदीय०
परवर्तिभिः
राहतत्वेन
भाराक्रान्तानामक
• पादादिसंयोगे परत:
षभिश्च
हरिणी
हिमरुचे !
शुक्लस्य
भीताया
कारुण्येन
कलङ्काशङ्का
तगणद्वयं
चुलुकेन; समुद्रो सम्पादितो
वसुधारा रिति
वसुधारा
स्वर्ण रत्नादि
नर्कुटक मिति
सेवस्व
मोपदेश
पगै
ठेक्षुरस:
· श्रूयमाणम्
अत्र
! मुधैवौत्सुक्ययोगात्
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२५५
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[ xxxi ]
अशुद्धम
गद्वरं
प्रेयः मङ्केतवेश्मभि शरणे
० स्थानत्वेनोलस्य
किसु; घत्से
• मितुं
निलीम
•र्भुषणयोः
लक्ष असमन्वय:
यणिमालां
मगणत्रात्; सगागा:
ग्रतिर्यत्र
०
• वक्राम्बुज
प्रोल्लसिनाधिक एतावाकालपर्यन्ते
साति
या शाक्षरैर्यत्या
कुसुमितेलता
पुरस्मात्
कम्बुखण्डवत् शितिन् च
मभ्रा
हग्ध्वा अस्मात्यरेण
पादुताडनै:
प्रयारेण
तच
छित्मा
शुद्धम्
गद्वरं
प्रेयःसङ्केतवेश्माभिसरणे
• स्थानत्वेनोक्तस्य
किमु; धत्से
०यितुं
निलीय
० भूषणयोः
लक्षणसमन्वयः
मणिमालां
भगणत्रयात्; सगणः
गतिर्यत्र
वक्ताम्बुज प्रोल्लसिताधिक
एतावत्कालपर्यन्तम्
साधृतेति
एकादशाक्षरैर्यत्या कुसुमितलता
पुरस्तात्
कम्बुखण्डवत्
शितिश्च
मस्ना
दग्ध्वा अस्मात् परेण
पादताडनं:
प्रकारेण
तव
छित्त्वा
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________________
शुद्धम्
पृष्ठे २५६
पंक्ती २
[ xxxii ] अशुद्धम् पछरिति पादाम्बुवरुहि -त्मनामे रभौ
कि पअनस्त्वत् नगणी
,
१६
घछरिति पादाम्बुरुहि -त्मनामेव म्भौ तत्कि पवनस्त्वत्० रगणो
नरमवययाः कनक म्भोज प्रान्तुं न शक्यदे मगण-नगण शिरतरे नव नगणरत्रयं ०लालसझैभ्रमर० जैरिति धनरजाः सठसा कोडै०; छान्ता एमादशं द्वारशभि० मगण-लगण हिंसगणाः कान्तचाटु ( न तु घोरम् ) गो मृगी, वा मृगं .
ननममययाः कनकाम्भोज प्राप्तुं न शक्यते मगण-तगण स्थिरतरे तव नगणत्रयं ०लासभ्रमर झरिति घनरजाः सहसा कोडे०; कान्ता एकादशं द्वादशभि मगण-सगण सगणाः कान्ताचाटु (न तु धीरम् ) मृगो मृगी, मृगी वा मृगं
" "
२६ २७
२६३१
१२
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[ xxxiii ] अशुद्धम्
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
२६३
१५
२६४
२६५
२६७
निमग्नां मत जभराः
नयनतकेलि. पत् तस्माज्डोऽसि पद्मन्यां सन्कुरुते कुकुभारुणं त्रयोदभिर्वतिरिति निकचकुमुद वङ्कज सशेषामृतूनां कोमलतर वादेव भारा यस्या सा पल्लवाविबर्व भुक्त एवेति
रतिचदलः स्वज्नम्साः त्रि.रिति स्फुटदुज्जलेति सर्वास्मिन्,-पराभये
सतिः अतिचपलः
दलदटले लतादिशेष०, सुदितः प्राप्तो न्बधं
निमग्ना मतनजभराः नयनकेलि तत् तस्माज्जडोऽसि पप्रिन्यां सत्कुरुते कुकुमारुण त्रयोदशभियंतिरिति विकचकुमुद पङ्कज सर्वेषामृतूना कोमलतरपल्लवावेव भारो यस्याः सा पल्ल्ववाविव युक्त एवेति रतिचपलः स्नज्नम्साः त्रिरिति स्फुटदुज्ज्वलेति सर्वस्मिन्,-पराजये सति
२६८
अतिचपलः
दलदपटलैः लताविशेष०; मुदितः प्राप्तो बन्धं
२६९
२
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________________
शुद्धम् ..
२७०
[ xxxiv | पृष्ठे पङ्क्तो : अशुद्धम्
१० . . स्तम्बेरभयते ११ पाररन्त्र्यं १३ . . सत्कृति १४ रत्रयति १६. विद्ध्या १७ . वियुक्तोऽपि तथाप
पश्यंलुब्धकं ०मपक्राभनयकु.
विषयादपसन् भरणी तुष्कृताचरणं सुचरितमालम्
कश्चिदिदि , २२ गभगणः
पूर्वक्षणमालस्य , २५ बुबुदाणितम् २७२ १०
रहालेखया विक्रीडितम् शाहूलधिक्रीडितम्
स्तकभागान् २७३ . ७
कलयंश्चस्डकोदण्ड यगण-भगण
चचरित २७५ ३ . sss. |s. " २६ misi. ssi..
." m
स्तम्बेरमपते पारतन्त्र्यं सत्कृति रचयति विदध्या: वियुक्तोऽसि तथापि पश्यँल्लुब्धकं •मपक्रामन्नयकु विषयादपसरन् यगणी दुष्कृताचरणम् सुचरितमालाम् कश्चिदिति गदगण पूर्वक्षणमात्रस्य बुबुदायितम् रसृग्लेखया विक्रीडितम् शार्दूलविक्रीडितम् मस्तकभागान् ज्सौ कलयंश्चण्डकोदण्ड यगण-भगणचर्चरिति sss. 1. . . Is. si.
22
"
२२
सौ
२७४
and
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[ xxxv ] अशुद्धम्
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
२७६८
१२ .
२७५
१५
दूरत एम तप्तापहारिणी मननसररगा मिकसित लोचनप्रक्षेपः ०पशुगणधात
दूरत एव .. तप्तापहारिणी मतनसरगाः विकसित लोचनप्रक्षेपः पशुगणाघातः
२२
२७८ २८०
तो
मेघान्योक्त्या नभरसजजगाः एकादशं . भृङ्गताम् ।
२८१
२०
प्रावीण्यं:
मेघान्योक्त्या नभरलजजगाः एकादशमं भृङ्गनाम् प्रावीण्यां नूतनांमृदी दक्षिणानिलोक्या पदतो प्रसूतेन नित्यजिदाना० तयः भगणद्वयं लघुगुरूच
२८२ २८३ २८४ १६ २८५ १२ २८६१
नूतनां मृद्वी दक्षिणानिलोक्त्या परतो प्रसृतेन निर्व्याजदाना० तमः भगणद्वयं मगणः सगणद्वयं
लघुगुरूच लापच्छलेन भगण-नगणाः मौक्तिकपङ्क्तिः तन्नामकराज मपि राज्ञां नियन्त्रणे sh. SIS. Is
०लापच्छलेत
भरण-नगणा: ..
२८७ . २४ २८६ ५
मौलिकपङ्क्तिः
२६०१
तन्नाभकराजन् । मयि राज्ञां नियन्त्रणं
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________________
[xxxviJ
पृष्ठे
पंक्ती
अशुद्धम
शुद्धम्
॥ २१ २४
२६० " , २६१ २९२ २६३
" २९४
२४ २४ २५ ५
कामलता कौतुकमात्रमेव लतावलीतरलनः लक्ष्मीः १०४८५७६ केष्वप्यखर्व० अम्भोधरेष्विवाशु (द्विधुरितेत्यस्य मेघेष्विव -त्पलकानम् वशंवदत्रि
,
२०
मूच्छी
कासलता कौतुकमेव लतावलीतरलनः लक्ष्सीः १०४८७६ केष्वव्यखव० अम्भोषरेष्विव शु (द्विधुरितत्यस्य मेघोष्विव -त्पत्र काननम् वशंवदन्तिमूर्खा निःसंबन्धं SSS.SS1 द्रढीकरोति मर्थापेतम् •द्युतिजाल. अमुत्तमाम मयूरवशेखरित मयूरव: पादनरवद्युतिमिः नियुक्तं नामान्तराचित्रलतावनगञ्जरी •सरित्तङ्गतरलं गतितान्यत्र
निःसम्बन्धं sss.sssss. दृढीकरोति अपितम्
धुतिजाल. अनुत्तमाम मयूखशेखरित मयूखै: पादनखद्युतिभिः विपुलं नामान्तराण्याह-चित्रलतावनमञ्जरी •सरित्तरङ्गतरलं गदिताम्यत्र
२६७
" २६८
" २६६
१६ २०
२ १२ ३
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________________
[ xxxvii ] अशुद्धम्
पृष्ठे
पंक्ती
शुद्धम्
३०१३
३०२ ३०३
तगणद्वय
सहास्रग्धारणम् वरणार्थप्सरसः अन्याप्रवीति कामजनः नामसवलनम् वदनरुचिरमपि ततिपु जिगत्रिषुः • हानिसम्भवनेति ० सुकृयक्रियासु महावनपुषिः बसममहान्धकार घोरान्धतमसमूहेन चञ्चलानीन्द्रियाण्येताश्वाः पूवक्तॊकूपे वारंवार कुणानिह ०कमितु सदृशः प्राष्य भौक्तिक समायान्त
लगणद्वयं महास्नग्धराणाम् वरणार्थमप्सरसः अन्या ब्रवीति कामिजनः नामस्खलनम् वदनरुचिमपि ततिषु जिगमिषुः हानिसम्भावनेति सुकृतक्रियासु •महावनप्लुषि असमान्धकार: घोरान्धतमससमहेन चञ्चलानीन्द्रियाण्येवाश्वाः पूर्वोक्त कूपे वारंवारं गुणानिह ०कमितुः सदृशः प्राप्य मौक्तिक समायान्तं नत्रयं परं नगणत्रयं लघुगुरून लक्ष्मीः पटहे
३०६
१०
३०७ ३०६
१३
नत्रथं
पर नगणत्रय लघुगुरु च लक्ष्मी पहहे
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
[xxxviii]
पृष्ठे पङ्क्तो
अशुद्धम्
शुद्धम्
३१०
१५
३१२
स्वभुतम्भे
स्वभुजस्तम्भे · ISI.115.151.115 ISS ISI.IIS.Iss आहतनम्
आहननम् स्ववक्तसंयोगः
स्ववक्तसंयोगः मशीतिस्त्र्याधिका ० मशीतिस्त्र्यधिका गतेरनुहेरति च • गतेरनुहरति च रतिरमणतनुम्
०रतिरमणधनुः तस्य
तस्या परिमतेति
परिमलेति परिमलविलुन्मधुकर परिमलविलुठन्मधुकर विलुष्न्तो
विलुठन्तो भृङ्गब्ज०
भृङ्गाब्ज. रगणषहकं
रगणषट्कं घतपतलों
घनपटली सिन्धु युत
सिन्धुयुतं समुछवासितः समुछ्वासितः
, जातोछवासः जातोछ्वासः भगणत्रयं सगणश्च
भगणत्रयं तगणः नगणत्रयं
सगणश्च Ill iss. Sil. : 111. ISS. SIJ. Ssl. जातिन्दः •तुड्गोत्सङ्ग तुङ्गोत्सङ्ग तद्रक्तानाम्
तद्भक्तानाम् नामकमनुष्टुब्जाति० नामकं सुकृतिजाति० नृपवश०
नृपवंश सगण-भगाः
•सगण-भगणाः
३१४
३१५
,
१८
३१६
॥
१८
जातिच्छन्दः
१८
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
[xxxviv]
अशुद्धम्
शुद्धम्
पृष्ठे पङ्क्तो ३१६ १६ , २२
३२०६ ३२१ २
" २७ ३२२८
निरवधिसुकृतेः भरित दृष्टया समयं तयभभा गुरुत्वात ३२५५४४३२ व्यग्रक्रोडं मौ तो जटैरिति तगणः नगणत्रयं रगणसगणी श्वापदा यत्सर्वं .
रास्याद्यः नृपवर .. विगतहयं
३२३
निस्वधिसुकृतैः ०भरित दृष्टया समय . .. तयमभा गुरुत्वान् ३३५५४४६२. व्यग्रक्रोड नौ तो जहैरिति नगण: नगणत्रयं रगणसगी श्यापदा यत्सवं
रास्याचे नृपदर यिगतहयं तस्या नामुन्मूलतं .. . . . ०पादयोलुप्न्तो नगणत्रय मत्तबहिणसमूहु स्फुटिस कदम्ब० नजमा-जलयपरिपूर्वाशीतरुचि. ३७१०
.
२ १२ २० २५ १
" ३२४
तस्य
३२५
२
, "
२२ . २३
०नामुन्मूलनं om... •पादयोल्ठन्तो नग मत्तबहिणसमूहे स्फुटितकदम्ब० नजमा-जत्रय
परिपूर्णशीतरुचि .. .. ६२१०
Page #453
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________________
पृष्ठे
३२७
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अशुद्धम
चतुष्पष्टिस्तु मतिनाभि
सप्तविंशत्यक्षरं कृता
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भीषण
जगत्रयनायिका
सिद्धग्र्या
दर्पणपाणि तूं नं ० त्रिशद्भिरक्षरैः (तद्दर्शनलालसा) ( ० जातः सम्भ्रमा० )
योग्याः
• ० मदिनी
यस्याः
यतिनि
नयणचतुष्टयं
माला: ४२
पञ्चभिर्दशभिव
'अथ दण्डकाः '
शुद्धम
चतुष्षष्टिस्तु
मतिनायि सप्तविंशत्यक्षरः कृता
केकाख्यवाचा
भीषणा
थथा
यथा
भयोच केवलौ द्वौ वारौ द्वौ वारी
यस्यास्तां
यतौ
नगणचतुष्टयं
माला: ४५
पञ्चभिर्दशभिः पञ्चदशभिश्व 'अथ दण्डका' इत्यारभ्य
'तत् सर्वं दण्डकं विदुः'
इत्यन्तो ग्रन्थः ३३८ तमपृष्ठे १३ ' शपङ्क्तेश् योजनीयम्
• क्षयसंयुतः
क्षयसंयुता
जगत्त्रयनायिका
सिद्धैर्घ्येया
दर्पणपाणिर्न न
० त्रिशताक्षरः
(तद्दर्शनलालसानां)
( ० जातसम्भ्रमा० )
योग्याः
• मदनी
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________________
[ XIL ]
पृष्ठे पक्ती
अशुद्धम्
शुखम्
३३५
१५
"
२०
३३७ ३३८
१८
३३६१
•नयन युवम् •नयनयुगम् तुल्यं लमानं नः तुल्यं समानं न पुण्यरसेन
पुष्परसेन : भृगनेत्रन्
मृगनेत्रम् • लोकनाम्नी
लोकनाम्नो चत्वारिंशता पञ्चचत्वारिंशता दिग्मारुते
दिङ्मारुते वक्ष्यमाणे वृते वक्ष्यमाणे वृत्ते क्यातं
ख्यातं सचण्डवृष्टि
चण्डवृष्टि प्रपादेन
प्रपातेन प्रधमश्चण्ड०
प्रथमश्चण्ड पादान्तरं
पाठान्तरं श्रीयमाणाद्वैतल्ले . ०श्रीयामाणातल्ले ०ल्लोकल्लोलवाचाला, लोलकल्लोलवाचाल एकादशभिजीभूतः एकादशभिर्जीमूतः ०कान्तारमला० ०कान्तारमाला द्वादशभिलीलाकरः द्वादशभिर्लीलाकरः झवन्नामवेया. मवन्नामधेया० यावद्भवत्
यावद्भवआदि पदे ग्राह्या आदिपदेन ग्राह्या प्रपत्रे
प्रपन्ने व्याप्नुवदि नमो यामपि व्याप्नुवदिदं तमो मामपि समुदयः
समुदयं बहिरगतः
बहिर्गतः माहतः
३४०
३४१
३४२
मारुतः
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________________
[ XIIL ]
पृष्ठे पक्तो
अशुद्ध
शुद्धम् .
३४३
४
यूथेन
कस्पिताना
कम्पिताना यूथेव तप्तान जाता संतापानां तप्तानां जातसंतापानां श्रियमाणानि
श्रीयमाणानि ०माथन्महार्णव माद्यन्महार्णव ग्रीष्मका
ग्रीष्मकाले न्यालनामानं
व्यालनामानं दशभिाल इति दशभिाल इति क्रीडासेवितः
क्रीडासेविनः च्छलत्सरिणी
•च्छलत्सारिणी० निःसारणमन्त्रः निःसारणयन्त्रः उच्छलताम
उच्छलताम् पुरोधानम्
पुरोद्यानम् त्वदीयशलवः
त्वदीयशत्रवः पुरोवने, विजहुः पुरोपवने, विजह. कृतपादां
कृतपादं एकादशभिजीत एकादशभिर्जीमूत तं वगितस्य. संवगितस्यै० गीतिप्रयञ्चन
गीतिप्रपञ्चेन तया भूताया
तथाभूताया खदिरकाष.
खदिरकाष्ठ हाविषत्वं
महाविषत्वं वंशीवल्लोक्योः वंशीवल्लयोः कर्णज्वरावं
कर्णज्वरत्वं वयोदश
त्रयोदश शत्रुसमूहा
'शत्रुसमूहाः
३४५
३४६
३४७३
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________________
[ XIIIL ]
पृष्ठे पक्तो
अशुद्धम्
शुद्धम्
३४७
११
"
१२
३४८
११
सानुरागाया कालाया पलायितुमिच्छः संस्पधितः शरीरेः; गजितः दामवारिणः उद्दावगन्धद्विपा प्रियामुखं गन्तुं मौलिकमाल्यम्; ईन्दुः इन्द्वगमस्थरावतस्य सन्देहे -त्पत्रमृदं विलास; सर्वाः नील जलमपि कञ्चगिरिः शङ्खात्रनामभि० ० रेकैकरेकाभिवृद्धया तद्दिप्पण्यामुक्तम् न्यकृतार्क०
परत यगणादिभिः पादिभिः संज्ञान्तं प्रचितादण्डकः सूर्याश्मिकृत. न्यकृतार्क०
सानुरागायाः कान्ताया पलायितुमिच्छुः संस्पधिनः शरीर, गजिनः दानवारिण: उद्दामगन्धद्विपाः प्रियामुखं द्रष्टुं मौक्तिकमाल्यम्, इन्दुः इन्द्रगजस्यरावतस्य सन्देह त्पलवृन्दं विलासं; सर्पा नील जलमपि कज्जलगिरिः शङ्खान्तनामभि० ० रेकैकरेफाभिवृद्ध्या तट्टिपण्यामुक्तम् • न्यकृतार्क० ०परतो यगणादिभिः यादिभिः संज्ञान्तरं प्रचितो दण्डकः सूर्यरश्मिकृत न्यक्कृत ०
" "
१२ २५
" ३५१
२० २
१६ . २० .
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पृष्ठे
३५२
३५३
13
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३५५
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पङ्क्तौ
१४
५
१२
२०
२
૪
५
१२
१३
१५
१७
१६
२०
२१
२२
५
१३
२३
[ XIVL ]
अशुद्धम्
नग्भ्यामष्टादि०
• मन्यत्राप्युति० म्यामष्टादिराः गुरुरेक-अष्टौ नभ्यां परे
०
• कर्मेन्घनः; सपूर्णो
पश्चातापादि
नगद्गुरोश्च कोलिः; स्वबुध्योदा०
भाषणान् लुरिति इतीहरुन
चण्डप्रपाद
• यमसहशेवा
घेषः
• खड़बन्धानां
प्रदच्चा
अवरोधङ्गना
शीघ्र
शुद्धम
(इत पूर्व १३ 'श पङ्क्तितः
' इत्थं नगणद्वयादित्यादिः
पतिपर्यन्तः
२०
"
1
श
समूह्यानीति
भावः ।
19
अ. २, सू. ३६० ।। १ ।। इत्यन्तो भागः पठनीयः )
• मन्यत्राप्यति०
नग्भ्यामष्टादिराः
गुरुरेक:- अष्टी
नग्भ्यां परे
• कर्मेन्धन: संपूर्णो पश्चात्तापादि०
नगणाद् गुरोश्च कङ्केल्लिः, स्वबुद्धघो०
भाषणात् लोरिति इतीहरून
-
चण्डप्रपात
• यमसदृशे वा
वेषः
० खङ्गबन्धानां
प्रदत्ता
अवरोधाङ्गना
शीघ्र
लघुपचकत्परतो यथेष्ट लघुपचकात्परतो यथेष्टं
• क्षितीश: सिहविकान्सलीलां
क्षितीशाः सिंहविक्रान्तलीला
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३५५
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पङ्क्ती
२४
२५
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२६
१६
१७
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१७
१६
२०
१५
१६
१७
२३
१५
१६
२२
२८
१४
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१६
१६
२०
२१
अशुद्
आविस्कुर्वाणे
• क्षितीक्षा .;
• तरणीतेजः
सूर्य सभा प्रदग्धाः
- पतिमातङ्गाः
प्रोज्जहाने
गणषट्कचेति • पयोदपङ्कय
• मुदायहृत्य
यगणस्ववृद्धया
मुपाहरमूह्यमितिभावः
तदा सर्वदा
चारुवक्रोलि
विदधैः
• मन्डनानुकारिणी
संमुखत्
अगुरो ।
- मयूर व करैः
• कल्पनाऽनमतेत्याह
० संरिभोद्दाम
• विक्रीडी दण्डनो
०
कचित्यङ्कशङ्केति
पङ्कशङ्गा
नगिली - कला०
श्रेव्या
पर्याकुलम्
0
आविष्कुर्वाणे क्षितीशा:
तरणितेजः
सूर्य प्रभाप्रदग्धाः
- पतिमातङ्गाः प्रोज्जिहाने
गणषट्कं चेति
पयोदपङ्क्त
O
• मुदाहृत्य यगणस्य वृद्धया मुदाहरणमूह्यमिति भावः
सदा सर्वदा
चारुवक्रोति
विदग्धः
० मण्डलानुकारिणी
संमुखम्
अगुरोः
- मयूखकरैः
० कल्पनानुमतेत्याह
सैरिभोद्दाम
• विक्रीडो दण्डको
O
कचित्पति
पङ्कशङ्का नारिकेली - फला०
श्रेण्या
पर्याकुल:
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पृष्ठे
३६१
14
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11
11
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1
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३६७
16
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पंक्तौ
११
१८
२५
२७
२१
२२
२८
५
१०
१२
२
१०
११
१८
२०
२३
१३
१६
४
५
१०
१२
१४
१५
२७
[ XVIL ]
अशुद्धम्
विबुद्धहाव
अश्य
आस्वन्तः
विशुहावेन
लघुगुरू परम्परा
कामबाण !
एवमेकक ०
गणान् गुरुद्वयं
बालकाया
तल्यं
थथा
सभृजङ्ग
अन्ते द्वयेन
दृढ परिवे
परिवेष्टितः
उद्घसितमा
सततोत्कलिक०
वर्णगणात्मकाद्
• पुष्पमायाया
चारुसुन्दर विविधाङ्कहार
क्रीडाभूमित:
अभिनवाः
मन्त्रस्त्रेण
वठिनः
० व्याख्या
०
शुद्धम
विशुद्धहाव
अव्य
भास्वन्तः
विशुद्धहावेन
लघुगुरुपरम्परा०
कामबाण:
एवमेकैक
गणैः गुरुद्वयेन
बालिकाया
तल्पं
यथा
०
सभुजङ्ग
अन्ते गुरुद्व
दृढवे
वेष्टितः
उच्छ्वसित संततोत्कलिक०
वर्णगणात्मकान्
• पुष्पमालायाः
चारु सुन्दरं विविधाङ्गहार०
क्रीडाभूमि:
अभिनवानां
मन्त्रास्त्रेण
कठिन: व्याख्यायां
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________________ प्रकाशक:- | मुद्रक :श्रीज्ञानोपासकसमित्याः / मखतूरमलजी कुम्मट प्रमुखः कुम्भट प्रिण्टर्स शा० चीमनलाल हरिचन्द्र बगड़िया, घोड़ों का चौक, बोटाद, सौराष्ट्र (गुजरात) जोधपुर (राज.) पर सहायकआ ग्रंथना प्रकाशनमां शासनप्रभावक परमपूज्य आचार्यवर श्रीमदृविजयदक्षसूरीश्वरजी म० श्रीना उपदेशथी मरुधरस्थ सनवाडानिवासी शा० धरमचंद रूपाजीए 2000) रूपियानी सहायता आपी छे ते बदल तेमनो / आभार मानवामां आवे छे. वीर सं० 2465] नकल-१००० नेमि सं० 20 [विक्रम सं० 2025 प्रथमावृत्तिः मूल्यम् : 10 रूपिया प्राप्तिस्थानम्आ० श्रीविजयलावण्य | सरस्वती पुस्तक मंडार सूरीश्वरज्ञानमन्दिर रतनपोल, हाथीखाना, ठे. जैनमन्दिर पासे, अहमदाबाद बोटाद, सौराष्ट्र (गुजरात) ( गुजरात )