Book Title: Vakya Rachna Bodh
Author(s): Mahapragna Acharya, Shreechand Muni, Vimal Kuni
Publisher: Jain Vishva Bharti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध (संस्कृत वाक्यरचना बोध) युवाचार्य महाप्रज्ञ सपादकः मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' मुनि विमलकुमार पनि जीवन काम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - वाक्यरचना बोध (संस्कृत वाक्यरचना बोध) युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक मुनि श्रीचन्द 'कमल' मुनि विमलकुमार © जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रथम संस्करण : फरवरी, १९६० मूल्य : सौ रुपये प्रकाशक । जैन विश्व भारती, लाडनं (राज.)/ मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित बन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१३०६ । VAKYARACHANA BODH Yuvacharya Mabaprajna ___Rs. 100.00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन लगभग चार दशक पूर्व हमारे धर्मसंघ में साधु-साध्वियों के लिए एक नया पाठ्यक्रम बना । योग्य, योग्यतर और योग्यतम-इन तीन श्रेणियों में सात वर्षों के प्रशिक्षण का क्रम निर्धारित हुआ। इस क्रम से अनेक साधु-साध्वियों ने अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। अध्ययनकाल में कुछ ऐसे पाठों की अपेक्षा का अनुभव हुआ, जो संस्कृत भाषा सीखने में उपयोगी हो। इस अपेक्षा की पूर्ति के लिए मुनि नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) को निर्देश दिया गया। उन्होंने काम हाथ में लिया और तत्परता के साथ उसे पूरा कर दिया। उस समय तैयार की गई वह कृति संस्कृत पढने वाले विद्यार्थी साधुसाध्वियों के काम आती रही। इस वर्ष मुनि श्रीचन्द और मुनि विमलकुमार ने उसको समीचीन रूप से सम्पादित कर दिया। अब वह 'वाक्यरचना बोध' नाम से संस्कृत पाठकों के हाथ में पहुंच रही है। संस्कृत भाषा के जिज्ञासु विद्यार्थी इसका उपयोग कर पूरी तरह से लाभान्वित होंगे, ऐसा विश्वास है। जैन विश्व भारती, लाडनूं गणतंत्र दिवस १९६० आचार्य तुलसी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति संस्कृतवाक्यरचना एक बड़ा ग्रन्थ बन गया । बहुत पुरानी बात है । आज से बयालीस वर्ष पूर्व जो सन्त पढते थे उनकी उपयोगिता के लिए इस ग्रन्थ का निर्माण किया। उस समय इसका आकार छोटा था। कभी उसका उपयोग होता रहा और कभी वह अनुपयोग की अवस्था में भी रहा। दो वर्ष पूर्व इसकी उपयोगिता के विषय में चर्चा चली। मुनि श्रीचंदजी 'कमल' और मुनि विमलकुमार जी ने इसके संपादन का कार्य हाथ में लिया। दो वर्ष के कठोर श्रम और सतत अध्यवसाय के बाद यह कार्य सम्पन्न हुआ। आकार भी बढा है और प्रकार भी बढा है, उपयोगिता भी बढी है। मुनिद्वय का श्रम इसमें स्पष्ट मुखर हुआ है। संस्कृत विद्यार्थी के लिए यह एक स्वात्मनिर्भर ग्रन्थ बन गया है । इसके परिशिष्टों की तालिका भी लम्बी है। प्रथम परिशिष्ट में शब्दरूपावली। ' दूसरे परिशिष्ट में धातुरूपावली । तीसरे परिशिष्ट में जिन्नन्त आदि की धातुओं के रूप । चौथे परिशिष्ट में प्रत्ययरूपावली। पांचवें परिशिष्ट में उपसर्ग से धात्वर्थपरिवर्तन । छठे परिशिष्ट में एकार्थ धातुएं। बयासी पाठों में विभक्त यह ग्रन्थ संस्कृतबोध की संहिता के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। हमारे धर्म संघ में संस्कृत आज भी जीवित भाषा है। सैकडों साधु-साध्वियां, समणियां और मुमुक्षु इसका अध्ययन करते हैं । आचार्यश्री तुलसी ने इसके पल्लवन में अपनी सक्रिय प्रेरणा से रुचि ली है हमारी अपनी उपयोगिता के लिए लिखा हुआ ग्रन्थ दूसरों के लिए उपयोगी बन सकता है। यह योगक्षेम वर्ष का एक उपहार है संस्कृत में रुचि रखने वालों के लिए। युवाचार्य महाप्रज्ञ २१ जनवरी १६६० जैन विश्व भारती लाडनूं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय तेरापथ धर्मसंघ में ५८ वर्ष पूर्व एक सर्वांगीण व्याकरण भिक्षुशब्दानुशासन की रचना हुईं। उसकी प्रक्रिया कालुकौमुदी पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो भागों में वि० सं० २००८ में प्रकाशित हुई। इस धर्मसंघ में सभी साधुसाध्वियां इसी के माध्यम से संस्कृत भाषा का अध्ययन करते रहे। इससे पूर्व वि० सं० २००४ में वाक्य रचना का निर्माण हुआ। यह मुनि श्री नथमलजी (वर्तमान में युवाचार्य महाप्रज्ञ) की कृति थी। उसके तीन विभाग थे। साधुसाध्वियों के पाठयक्रम में यह थी। उसमें अक्षरज्ञान से लेकर कृदन्त के प्रत्ययों तक का संक्षिप्त बोध था। उसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध है । प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं तीन भागों का ही विस्तृत रूप है। इसमें ८२ पाठ हैं। अक्षर, व्यंजन, वाक्य, विभक्ति बोध, पुरुष-वचन, वर्तमान, भूत, भविष्यत्काल के ३ पाठ, धातु, वाच्य, लिंगबोध के २ पाठ, विशेषण और विशेष्य, संख्यावाची शब्द, स्त्रीप्रत्यय के २ पाठ, कारक के ७ पाठ, समास के ७ पाठ, तद्धित के १५ पाठ, क्रियाविशेषण, बिन्नन्त, सन्नन्त, पदव्यवस्था और विभक्त्यर्थ प्रक्रिया के दो-दो पाठ, कृदन्त के प्रत्ययों के १८ पाठ हैं। इन पाठों में अक्षर बोध से लेकर कृन्दत के प्रत्ययों तक की विस्तृत जानकारी है। कालु कौमुदी का पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध इसमें समाविष्ट है। पूर्वार्द्ध का शब्दसिद्धिकारक ट्लिंग और धातुसिद्धिकारक १० गण इसमें नहीं हैं। शब्दसिद्धि के स्थान पर शब्दरूपावली और धातु के १० लकारों की सिद्धि के स्थान पर धातुरूपावली दी गई है। विद्यार्थी को शब्दसिद्धि और धातुरूपसिद्धि के प्रपंच में फंसाया नहीं गया है, सिद्ध किया गया रूप उसके सामने प्रस्तुत है। वह सुगमता से उसका प्रयोग कर सकता है। इस पुस्तक में श्री भिक्षु शब्दानुशासन के सूत्रों का प्रयोग किया गया है। इसकी संज्ञाएं पाणिनीय व्याकरण से भिन्न है। तिबादि आदि विभक्ति और कृदन्त के प्रत्ययों की संज्ञा के साथ पाणिनीय व्याकरण की संज्ञाएं भी दी गई हैं, जिससे अन्य पाठकों को भी कठिनाई की अनुभूति न हो। इसमें सूत्रों को नियम की संज्ञा दी गई है। सूत्र के आगे भिक्षुशब्दानुशासन व्याकरण के प्रमाण हैं। सूत्रों की वृत्ति न देकर उसका हिन्दी अर्थ दिया गया है, जिससे पाठक को समझने में सुगमता हो। कहीं-कहीं पर उदाहरण और प्रत्युदाहरण भी दिए गए हैं। कालु कौमुदी के (पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध) सूत्रों के अतिरिक्त अनेक सूत्र इसमें दिए गए हैं, जो विषय को स्पप्ट करते हैं। पांचों संधियों के सूत्रों को पाठ के Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह अन्तर्गत 'सन्धि विचार' नामक शीर्षक में दिया गया है । प्रत्येक पाठ में संधि के ३ से लेकर ७ सूत्र तक दिए गए हैं, जो एक विषय से संबन्धित हैं। संधि के सूत्रों को खोल कर इतना स्पष्ट किया गया है कि विद्यार्थी सुगमता से संधि को समझ सकता है। १४ पाठ तक संधि के सूत्र दिए गए हैं। तीसरे. पाठ से तीसवें पाठ तक शब्दरूपावली के शब्दों को याद कराया गया है। 'प्रत्येक पाठ में एक या दो शब्दों के रूप याद कराए गए हैं। रूपों की समानता होने से कहीं-कहीं चार शब्दों को भी याद कराया गया है। उसकी तरह चलने वाले अन्य शब्दों का संकेत भी दिया गया है। इसी प्रकार गण की धातुओं के रूप तीसरे पाठ से लेकर बावनवें पाठ तक याद कराए गए हैं और अन्य धातुओं की सदृशता का निर्देश भी साथ में दिया गया है। उससे अगले पाठों में शब्द तथा धातु के रूपों को लिखवाया गया है जिससे रूप स्मृति में स्थिर हो जाएं। चौथे पाठ से शब्दसंग्रह प्रारंभ होता है जो अन्तिम पाठ बियासीवें तक चलता है। प्रत्येक पाठ में १५।२० शब्दों को अर्थ सहित दिया गया है, जिससे शब्दकोश समृद्ध बनता है। चौथे पाठ से चौबीसवें पाठ तक अव्ययों को दिया गया है। प्रत्येक पाठ में ४।५ अव्ययों को हिन्दी अर्थ सहित दिया गया है। पाठ में प्रयुक्त होने वाले अव्ययों तथा धातु रूपों को 'प्रयोगवाक्य' शीर्षक के अन्तर्गत संस्कृत में उनका वाक्य बनाकर दिया गया है । संस्कृत में अनुवाद करो' के अंतर्गत विद्यार्थी से संस्कृत में वाक्य बनाए गए हैं। प्रत्येक पाठ के अभ्यास शीर्षक में पाठ में पठित सामग्री के विषय में प्रश्न किए गए हैं। इस प्रकार एक शब्द का दो-तीन प्रकार से प्रयोग होने से वह स्थिर हो जाता है। कारक की सात विभक्तियों को सात पाठों में विस्तार से समझाया गया है। अव्ययीभाव समास के अव्ययों के अर्थ देकर, समास की पूर्व अवस्था सहित समास कर दिखाया गया है। १५ पाठों में तद्धितप्रत्ययों को विस्तार से समझाया गया है। प्रत्येक प्रत्यय को समझने के लिए पर्याप्त अवकाश दिया गया है। इसी प्रकार कृदन्त के प्रत्ययों को विस्तार से व्याख्या सहित समझाया गया है। प्रत्ययों के रूपों को बनाने की सरल विधि भी समझाई गई है। प्रथम परिशिष्ट में ७६ शब्दों के रूप दिए गए हैं। पहले तेरापंथ सम्प्रदाय में प्रचलित शब्दरूपावली सश्लोक दी गई है। उसके बाद कालुकौमुदी में समागत शब्दों के रूप अतिरिक्त शब्दावली के नाम से दी गई है। परिशिष्ट २ में १३२ धातुओं के सम्पूर्ण रूप तथा लगभग ४३१ धातुओं के १० लकारों के एक-एक रूप दिया गया है । परिशिष्ट ३ में लगभग ३६५ धातुओं के जिन्नन्त, सन्तन्त, यङन्त, यङ्लुगन्त और भावकर्म के तिबादि और द्यादि के एक-एक रूप दिए गए हैं। इनके प्रत्येक के एक-एक धातु के आत्मनेपद और परस्मैपद के सारे रूप दिए गए हैं। परिशिष्ट ४ में चार सौ से ऊपर धातुओं के क्त, शतृ, शान आदि १३ प्रत्ययों के रूप हैं। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात परिशिष्ट ५ में १२५ धातुओं को उपसर्ग से होने वाला अर्थ परिवर्तन के साथ दिया गया है। परिशिष्ट ६ में एक अर्थ में होने वाली अनेक धातुओं को अकारादि क्रम से दिया गया है। परिशिष्ट २, ३ और ४ में प्रयुक्त धातुओं को संस्कृत और हिन्दी अर्थ सहित अकारादि क्रम से "अकारादि धातुओं की अनुक्रमणिका' के नाम से दी गई है। वह परिशिष्ट २ से पहले है। अन्त में दृष्टिदोष और प्रेसदोष की अशुद्धियों के लिए शुद्धिपत्र है। इस प्रकार वाक्यरचना के लिए पर्याप्त सामग्री इस पुस्तक में है। ___ दो वर्ष पूर्व आचार्यश्री तुलसी ने मुझे (मुनि विमल कुमार को) 'वाक्य रचना' के संपादन का आदेश देते हुए कहा-उसकी हस्तलिखित प्रति खोजकर संपादन करो। उसकी एक प्रति लेकर जब मैंने दिखाई तो आपने कहा-मूल प्रति खोजो। संघपरामर्शक मुनिश्री मधुकरजी ने मूल प्रति खोजकर मुझे दी। मूल प्रति की प्राप्ति पर आचार्य श्री ने प्रसन्नता व्यक्त की। मैंने आचार्य श्री के आदेश को युवाचार्य श्री से निवेदन किया। उन्होंने भी सहमति व्यक्त की। ४-५ मास में संपादन कर मैंने युवाचार्य श्री को दिखाया। संशोधन के लिए आपने मुनिश्री श्रीचन्दजी का नाम सुझाया। फिर हम दोनों ने यथाशक्ति संपादन किया जिसका फलित रूप यह पुस्तक है । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी प्रेरणा देते हैं, मार्ग दर्शन देते हैं और गति भी देते हैं। आपकी दृष्टि में सृष्टि है। आपने प्रेरणा दी उसी की परिणति यह पुस्तक है। श्रद्धापूरितमानस से वंदन कर हम यही मांगते हैं कि आप समय-समय पर प्रेरणा देते रहें। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने हमारी परीक्षा ली है, जो अक्षर बोध हमने सीखा था। परीक्षा-परीक्षा ही होती है । सरल दीखने वाला प्रश्न भी कभीकभी परीक्षक की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। हमने परीक्षा दी है। उत्तीर्णता आपके हाथ में है। युवाचार्य श्री समय-समय पर कार्य की प्रगति की जानकारी लेकर हमारी गतिशीलता में त्वरता भर देते । किन शब्दों में हम आपकी कृतज्ञता ज्ञापित करें। शब्दों की सीमित शक्ति कृतज्ञता का स्पर्श मात्र करती है। सभक्ति वंदन कर हम आप से यही चाहते हैं कि ऐसी परीक्षा बार-बार हो, जिससे ज्ञान को खोलने का अवसर मिले और शक्ति का उपयोग हो। हम कृतज्ञ हैं मुनिश्री दुलहराजजी के जिन्होंने संपादन में हमारा सहयोग किया और अमूल्य सुझाव भी दिए। हम आभारी हैं संघपरामर्शक मुनिश्री मधुकरजी के जिन्होंने मूल प्रति प्राप्त कराई और समय-समय पर आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराई। मुनिश्री हीरालालजी और मुनिश्री विनयकुमार जी के भी हम आभारी हैं जिन्होंने हमारे प्रतिदिन के कार्य में हाथ बंटाकर हमारा सहयोग किया। गवर्नमेण्ट संस्कृत कॉलेज बीकानेर के पूर्व प्राचार्य पं० विश्वनाथ मिश्र ने Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ पुस्तक को आद्योपान्त पढकर संशोधन सुझाया और अपना पूर्वमत लिखकर दिया। उनका यह सहयोग भुलाया नहीं जा सकता। भाषातत्त्वविभाग कलकत्ता विश्वविद्यालय के अध्यापक श्री सत्यरंजन वन्द्योपाध्याय ने अपना पूर्वमत लिखकर हमारा उत्साह बढाया है। भाई जगदीश के सहयोग से यह पुस्तक इतनी जल्दी पाठक के हाथों में है। उन सभी लेखकों का हम आभारी हैं जिनकी पुस्तकों का हमने सहयोग लिया है । पाठकों से निवेदन है कि वे इस पुस्तक पर अपना अमूल्य अभिमत व सुझाव दें जिससे भविष्य में और अधिक हृदयग्राही बन सके। पाठकों से एक सुझाव हमारा भी है कि शुद्धिपत्र से अशुद्धियों को दूर कर पढ़ें जिससे शंका पैदा ही न हो। मुनि श्रीचंद 'कमल' मुनि विमलकुमार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोमत युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित 'वाक्यरचना बोध' नामक पुस्तक का आद्योपान्त अवलोकन किया। संस्कृत व्याकरण में प्रवेश के इच्छुक व्यक्तियों के उद्देश्य से लिखी गई यह पुस्तक अपने उद्देश्य की पूर्ति में सर्वथा उपयोगी है। संस्कृत की व्याकरण लिखना कठिन कार्य है। इसके लिए व्यापक वैदुष्य के साथ प्रयोग क्षेत्र का विस्तृत ज्ञान अपेक्षित है। यह बात विकल्पातीत है कि युवाचार्य महाप्रज्ञ का व्यापक वैदुष्य इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त है। ___ अक्षर विज्ञान से इस पुस्तक का आरंभ किया गया है। वर्षों के सम्प्रयोगजन्य विकृतियों का परिचायक सन्धिप्रकरण का प्रस्तुतीकरण, उदाहरण और प्रत्युदाहरण के माध्यम से इस प्रकार किया है जिससे जिज्ञासु व्यक्ति सन्धि के नियमों को सुगमता से हृदयंगम कर लें। वर्ण सम्बन्धी विचार के अनन्तर वर्णसमूह पदों की निष्पत्ति की प्रक्रिया को बडे सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है । सूत्रों का उल्लेख और उनका अर्थ बता कर पद की निष्पत्ति करके तत्सम पदान्तर का मार्ग यहां सुगम बना दिया गया है । __क्रिया वाक्यप्रयोग का प्रधान साधन है। क्रिया की निष्पत्ति धातु से होती है। गणभेद से क्रिया नानारूपवती होती है। प्रस्तुत पुस्तक में सारे गणों का प्रस्तुतीकरण जिस सरल प्रणाली से किया गया है वह अपने में अपूर्व हैं। व्याकरण के क्षेत्र में ण्यन्त, सन्नन्त आदि प्रक्रिया भाग का विवेचन बहुत कठिन समझा जाता रहा है । किन्तु इस पुस्तक में उस कठिन भाग को समझाने का जो प्रयास किया गया है वह सर्वथा श्लाघ्य है। प्रत्येक पाठ के बाद अभ्यास का जो क्रम यहां अपनाया गया है, वह विषय को सरल बनाने तथा उसके दृढ़तर संस्कार के लिए नितान्त उपयोगी है। पुस्तक की भाषा हिन्दी होने के कारण प्रतिपाद्य विषयों की सुबोधता सहज ही हो गई है। उदाहरण और प्रत्युदाहरणों के माध्यम से प्रयोगों की शुद्धाशुद्धि का परिज्ञान इसका स्तुत्य प्रयास है। आधुनिक व्यावहारिक शब्दों के लिए संस्कृत शब्दों का चयन तथा उनकी निर्मिति इस पुस्तक की अपनी विशेषता है। इस पुस्तक में जिन नियमों का उल्लेख किया गया है उनके आधार भिक्षु शब्दानुशासन के सूत्र हैं । तथापि प्रतिपादनशैली इतनी सरल है कि यह पुस्तक अन्य व्याकरण के पाठकों के लिए भी सर्वथा उपयोगी है। इस पुस्तक की अपनी एक विशेषता Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें उपसर्ग से धातुओं के परिवर्तित अर्थ, १३२ धातुओं के पूरे रूप तथा ४३१ धातुओं के दस लकारों के एक-एक रूप दिये गए हैं। यह कार्य सर्वथा नवीन है। इन सब उपयोगी चीजों को देखते हुए यह निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि यह पुस्तक अद्यावधि प्रकाशित व्याकरण ज्ञानोपयोगी समस्त पुस्तकों में सर्वाधिक उपयोगी है। यह न केवल व्याकरण शास्त्र की पुस्तक है अपितु जैसा कि इसका नाम है यह पुस्तक संस्कृत वाक्य रचना के लिए बहुत ही उपयोगी है। __ इस पुस्तक के सम्पादन में मुनि श्रीचन्द्रजी 'कमल' तथा विमल मुनिजी का श्रम सर्वथा श्लाघ्य है। व्याकरण जैसे कठिन और शुष्क विषय को उपयोगी एवं सर्वग्राह्य संस्करण को बनाने हेतु मुनिद्वय के श्रम की जितनी प्रशंसा की जाये वह थोडी है । जिज्ञासु व्यक्तियों को संस्कृत वाङ्मय में प्रवेश के लिए यह पुस्तक अजिह्मा राजपद्धति है। इसके विश्वजनीन प्रसार की कामना के साथ । विश्वनाथ मिश्र पूर्व प्राचार्य २१ जनवरी, १९६० गवर्नमेन्ट संस्कृत कॉलेज जैन विश्व भारती बीकानेर . लाडनूं जैन विश्व भारती लाडनूं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा रचित मुनि श्रीचन्दजी और मुनि विमल कुमारजी द्वारा सम्पादित 'वाक्यरचना बोध' नामक संस्कृत ग्रन्थ आधुनिक शैली में लिखा गया है। प्रारम्भिक संस्कृत ज्ञान के लिए व्याकरण के उन सभी बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है जिनके द्वारा विद्यार्थी सरलता से संस्कृत भाषा में योग्यता प्राप्त कर सकता है। साधारणतः संस्कृत व्याकरण लिखते समय विद्वानों को काफी चिन्तनमनन करना पड़ता है। इसमें मन का तात्त्विक रूप से भी चिन्तन रहता है। व्याकरण और भाषातत्व का ज्ञान करते समय कुछ बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना होता है। भाषा पढते समय हम व्याकरणांश को चार श्रेणी में विभाजित करते प्रथम विभाजन-जिसका नाम है ध्वनि तत्त्व। ध्वनि-तत्त्व में ध्वनियां कितनी, ध्वनि का उच्चारण, रीति, ध्वनि का स्वरूप-विश्लेषण आदि का उल्लेख किया जाता है। . द्वितीय विभाजन में रूपतत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है। रूपतत्त्व का अर्थ है शब्द की गठन प्रणाली का स्वरूप विश्लेषण। इसमें शब्द-रूप, विशेषण, सर्वनाम, क्रिया, क्रियाविशेषण, उपसर्ग, संयोजक और मनोभाव Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह प्रकाशक शब्द का स्वरूप विश्लेषण करना पडता है। तीसरा विभाजन है वाक्यरीति-किसी भी भाषा में वाक्य रचना कैसे की जाती है, इसका स्वरूप विश्लेषण किया जाता है । कर्ता, कर्म, क्रिया का सम्यक् संयोजन करने के सन्दर्भ में व्यवस्थित चर्चा की जाती है । चतुर्थ विभाजन में शब्दार्थतत्त्व यानी शब्द के अर्थ का स्वरूप विश्लेषण होता है। इस प्रकार चार विभाजन व्याकरण में रहते हैं। परन्तु हर भाषा के लिए विभाजन का अनुसरण करना जरूरी नहीं होता। सिर्फ व्याकरणकर्ता के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि विद्यार्थी वर्ग को भाषा-ज्ञान सीखाते समय कौन-सा विषय अधिक जरूरी है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'वाक्यरचना बोध' इसी ढंग से लिखा गया है। एक सामान्य बुद्धि वाले विद्यार्थी के लिए भी यह ग्रन्थ व्याकरण और भाषातत्त्व का ज्ञान आसानी से कराने में उपयोगी सिद्ध होगा। ग्रन्थ का वैशिष्टय इस बात में निहित है कि अक्षर वर्ण से शुरू होकर व्याकरण सम्बन्धी सभी विषयों को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है । पाठांशों का क्रम भी सीखने की दृष्टि से व्यवस्थित है। वाक्य के विश्लेषण बिना भाषा सीखी नहीं जा सकती, इसलिए वर्णविश्लेषण के बाद वाक्यरीति का क्रम रखा है। वाक्य प्रयोग में विभक्ति आवश्यक है, इसलिए वाक्य के बाद विभक्ति प्रकरण का उल्लेख है। क्रिया के बिना वाक्य पूरा नहीं बनता, अतः क्रिया के विषय में ज्ञान कराया गया है। इसी तरह यथाक्रम से काल, वाच्य, लिंग, संख्यावाची शब्द, स्त्री प्रत्यय, कारक, समास, शतृ-शानच्, उपसर्ग, तद्धित, णिजन्त, सन्नन्त, यङप्रत्यय आदि सभी का विश्लेषण व्याख्यायित है। सम्पूर्ण ग्रन्थ की रचना, उसमें किए गए विभाजित पाठ, अभ्यासअनुशीलन विद्यार्थी वर्ग के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे, ऐसी आशंसा करता हूं। मैं चाहता हूं कि इस ग्रन्थ का प्रचार-प्रसार भी अधिक से अधिक किया जाए। श्री सत्यरंजन वन्द्योपाध्याय अध्यापक, कलकत्ता विश्व विद्यालय भाषातत्त्व विभाग २६-१०-८९ Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका Wm الہ سله س १. अक्षर और वर्ण २. व्यञ्जन ३. वाक्य ४. विभक्तिबोध ५. पुरुष, वचन ६. काल १ (वर्तमानकाल) ७. काल २ (भूतकाल) ८. काल ३ (भविष्यत् काल) ६. धातु १०. धातु प्रकरण ११. वाच्य १२. लिंगबोध (१) १३. लिंगबोध (२) १४. विशेषण और विशेष्य १५. संख्यावाची शब्द १६. स्त्रीप्रत्यय (१) १७. स्त्रीप्रत्यय (२) १८. कारक प्रकरण (कर्ता) १६. कर्म २०. साधन २१. दानपात्र २२. अपादान २३. संबंध २४. आधार २५. कर्ता का क्रिया के साथ अन्वय २६. निमित्तार्थक क्रिया २७. पूर्वकालिक क्रिया २८. शतृ और शान प्रत्यय (१) २६. शतृ, शान (२) ३०. समास (१) अव्ययीभाव » xur rur 9 ." MO. 9. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह १०५ ११० ११५ ~ ~ ~ ~ ~ १३५ १३८ १४१ १४५ १४६ १५३ १५६ ३१. समास (२) तत्पुरुष ३२. समास (३) बहुव्रीहिसमास ३३. समास (४) द्वन्द्वसमास ३४. समास (५) अलुक्समास ३५. समास (६) एकशेष ३६. समासान्त प्रत्यय ३७. उपसर्ग ३८. तद्धित (१) अपत्य ३६. तद्धित (२) समूह ४०. तद्धित (३) ४१. तद्धित (४) ४२. तद्धित (५) शेषाधिकार (१) ४३. तद्धित (६) शेषाधिकार (२) ४४. तद्धित (७) इकण अधिकार ४५. तद्धित (८) भाव ४६. तद्धित (8) ४७. तद्धित (१०) प्रमाण ४८. तद्धित (११) संख्या ४६. तद्धित (१२) मत्वर्थप्रत्यय ५०. तद्धित (१३) स्वार्थिकप्रत्यय ५१. तद्धित (१४) तर, तम, इष्ठ, ईयस् ५२. तद्धित (१५) ईषदसमाप्त, अभूततद्भाव आदि ५३. क्रियाविशेषण ५४. जिन्नन्त (१) ५५. जिन्नन्त (२) ५६. सन्नन्त (१) ५७. सन्नन्त २ (उ, अ प्रत्यय) ५८. यङ्प्रत्यय ५६. यङ्लुगन्त ६०. नामधातु ६१. पदव्यवस्था प्रक्रिया (१) ६२. पदव्यवस्था प्रक्रिया (२) ६३. विभक्त्यर्थ प्रक्रिया (१) ६४. विभक्त्यर्थ प्रक्रिया (२) ६५. तव्य, अनीय प्रत्यय १६० १६३ १६६ १७० १७४ १७७ १८१ १८५ 2. w १६५ w is ४.००० w is on २१४ २१७ २२० २२३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६. य, क्यप् प्रत्यय ६७. घ्यण् प्रत्यय ६८. अच् आदि प्रत्यय ६६. णक, तृच्, तृन् प्रत्यय ७०. ख, प्रत्यय ७१. खश् और णिन् प्रत्यय ७२. क्त, क्तवतु प्रत्यय ७३. क्वसु, कान प्रत्यय • ७४. शीलादि प्रत्यय ( १ ) ७५. शीलादि प्रत्यय ( २ ) ७६. शीलादि प्रत्यय ( ३ ) ७७. भाव ७८. भावाकर्त्री (१) ७६. भावाकर्त्री (२) ८०. अनट्, खल प्रत्यय ८१. एककर्तृकपूर्व कालिक क्रिया ( १ ) क्त्वा, णम् ८२. पूर्वकालिक क्रिया (२) क्त्वा, णम् परिशिष्ट १ शब्दरूपावली ० धातु की अकारादि अनुक्रमणिका परिशिष्ट २ धातुरूपावली परिशिष्ट ३ ञिन्नन्तसन्नन्तादि धातुरूपावली परिशिष्ट ४ प्रत्ययरूपावली परिशिष्ट ५ उपसर्ग से धातु का अर्थपरिवर्तन परिशिष्ट ६ एकार्थ धातुएं शुद्धिपत्र पन्द्रह २२६ २२६ २३२ २३५ २३८ २४१ २४४ २४६ २५१ २५४ २५७ २६० २६३ २६६ २६६ २७२ २७५ २८१ २६६ ३२० ४६८ ५५८ ५६४ ६०६ ६२३ Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १ : अक्षर और वर्ण अक्षर-जिसके दो टुकडे न हो सके उसे अक्षर कहते हैं। जैसे-अ, इ, उ, ऋ, लु। वर्ण-प्रत्येक पूर्ण (स्वर सहित) ध्वनि को वर्ण कहते हैं। जैसेक, ख, ग......"। संस्कृत में कुल ४७ वर्ण हैं। उनमें १४ स्वर और ३३ व्यंजन हैं। स्वर स्वर-अन्य वर्ण की सहायता के बिना जिसका उच्चारण हो सके उसे स्वर कहते हैं । अ, आ, इ, ई, उ,ऊ, ऋ, ऋ, लु, ल, ए, ऐ, ओ, औ-ये स्वर उत्पत्ति के अनुसार स्वरों के दो भेद हैं-शुद्धस्वर और संधिस्वर । शुद्धस्वर-जो स्वर बिना किसी संयोग के बनता है उसे शुद्ध स्वर कहते हैं । अ, इ, उ, ऋ, लु–ये पांच शुद्धस्वर हैं। शुद्धस्वर को मूल स्वर या ह्रस्व स्वर कहते हैं। संधिस्वर–दो स्वरों के संयोग से जो स्वर बनता है उसे संधिस्वर कहते हैं। संधिस्वर के दो भेद हैं-१. दीर्घ संधिस्वर २. संयुक्त संधिस्वर दीर्घ संधिस्वर-एक जैसे स्वरों के मेल से जो स्वर बनता है उसे दीर्घ संधिस्वर कहते हैं। जैसे अ+अ मिलकर आ बनता है। अ+आ मिलकर आ बनता है। इ+इ मिलकर ई बनता है। इ+ई मिलकर ई बनता है। उ+उ मिलकर ऊ बनता है। उ+ऊ मिलकर ऊ बनता है। ऋ+ऋ मिलकर ऋ बनता है। ऋ+ ऋ मिलकर ऋ बनता है। लु+ल मिलकर ल बनता है। लु+ल मिलकर ल बनता है। (देखें पृष्ठ ३ नियम १) संयुक्त संधिस्वर-विभिन्न स्वरों के मेल से जो स्वर बनता है उसे संयुक्त संधिस्वर कहते हैं । जैसे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध अ+इ मिलकर ए बनता है। आ+ इ मिलकर ए बनता है। अ+ ए मिलकर ऐ बनता है। आए मिलकर ऐ बनता है। अ+उ मिलकर ओ बनता है। आ+-उ मिलकर ओ बनता है। (देखें पृष्ठ ३ नियम २) स्वरों के ३ भेद हैं-ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत । ह्रस्व की १ मात्रा, दीर्घ की २ मात्रा और प्लुत की ३ मात्रा होती है। प्लुत के आगे ३ लिखकर उसका संकेत करते हैं। जैसे आ ३ । यहां आ दीर्घ नहीं, प्लुत है। ____ जाति के अनुसार स्वरों के दो भेद हैं-सवर्ण और असवर्ण अर्थात् सजातीय और विजातीय । . सवर्ण-जिन वर्णों का स्थान और आभ्यन्तरप्रयत्न एक होता है, उन्हें सवर्ण कहते हैं । अ, आ परस्पर सवर्ण हैं । इसी प्रकार इ, ई तथा उ, ऊ सवर्ण हैं। असवर्ण-जिन वर्णों का स्थान और आभ्यन्तरप्रयत्न समान नहीं होता उन्हें असवर्ण कहते हैं । अ और इ, अ और उ असवर्ण हैं । उच्चारण के अनुसार स्वरों के दो भेद और हैं-सानुनासिक और निरनुनासिक। सानुनासिक-जिन वर्णों का उच्चारण मुख और नासिका के संयोग से होता है, उन्हें सानुनासिक कहते हैं। - जैसे--अं, आं, ईं आदि । ङ, ञ, ण, न, म अनुनासिक ही होते हैं । निरनुनासिक-जिन वर्णों का उच्चारण नाक की सहायता के बिना होता है, उन्हें निरनुनासिक कहते हैं । जैसे-अ, आ, इ आदि । ___ यदि मुंह से पूरा-पूरा श्वास निकाला जाये तो शुद्ध निरनुनासिक ध्वनि निकलती है। किन्तु यदि श्वास का कुछ भी अंश नाक द्वारा निकाला जाये तो अनुनासिक ध्वनि निकलती है । अनुनासिक स्वर का चिह्न चन्द्र-बिंदु (-) है। स्वरजन्य अक्षर-स्वरों से बने हुए अक्षर को स्वरजन्य अक्षर कहते हैं। जैसे इ अथवा ई स्वर अ के साथ मिलकर य बनता है । उ अथवा ऊ स्वर अ के साथ मिलकर व बनता है। ऋ अथवा ऋ स्वर अ के साथ मिलकर र बनता है । ल अथवा ल स्वर अ के साथ मिलकर ल बनता है । (देखें पृष्ठ ३ नियम ३) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर और वर्ण संधिविचार नियम १- (समानानां सवर्णे दीर्घः सह १।२।१२) अ, इ, उ, ऋ, लु के आगे इनके ही सणिक वर्ण परे होने पर वे परस्पर दीर्घ हो जाते हैं। जैसे-दण्ड-+ अग्रम् = दण्डाग्रम् । श्री+ईशः = श्रीशः। भानु+उदयः= भानूदयः। होतृ-+ऋकार:=होतकारः । होतृ+लकारः --होतकारः । ऋ और ल परस्पर विकल्प से सवर्णिक होते हैं। ". नियम २– (अवर्णस्येवर्णादावेदोदरलः ११२।१३) अवर्ण के आगे इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण और लवर्ण होने पर अवर्ण सहित इवर्ण को ए, उवर्ण को ओ, ऋवर्ण को अर् और लवर्ण को अल हो जाता है। जैसे—जिन+इन्द्रः = जिनेन्द्रः । नव- उदकम् = नवोदकम् । रमा-- उपमा - रमोपमा। जिन+ ऋद्धिः-- जिद्धिः । तव+लकारः - तवल्कारः । __ नियम ३-- (इवर्णादीनां स्वरे यवरलाः १।२।१) इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण और लवर्ण के आगे असवर्ण स्वर होने पर इवर्ण को य, उवर्ण को व्, ऋवर्ण को र्, और लुवर्ण को ल हो जाता है । जैसे—गौरी+अत्र - गौर्यत्र । मधु+ अत्र = मध्वत्र । पितृ+अर्थः- पित्रर्थः । लु-- अनुबन्धः= लनुबन्धः । अभ्यास १. अक्षर और वर्ण में क्या अन्तर है ? २. शुद्धस्वर और संयुक्तस्वर कौन-कौन से हैं ? ३. किन स्वरों के योग से कौन-सा संयुक्तस्वर बनता है ? ४. किन दो स्वरों के योग से कौन-कौन सा अक्षर बनता है ? ५. ऋवर्ण के आगे असवर्ण स्वर हो तो क्या रूप बनता है ? तीन । उदाहरण दो। ६. इवर्ण के आगे समान स्वर और असवर्ण स्वर होने से क्या-क्या रूप बनता है ? तीन-तीन उदाहरण देकर समझाओ? ७. प्लुत किसे कहते हैं ? उसका संकेत क्या है ? ८. नीचे लिखे शब्दों की संधि करो-- धन+आगमः रत्न+-अतुल: दिन- ईशः गिरि+ईशः सूर्य+उदयः मधु + उदकम् राम+ऋद्धिः पितृ+ऋणम् विद्या+आलयः रवि+अस्तम् पाठशाला- अत्र साधु+अयम् Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २: व्यञ्जन व्यञ्जन-जो वर्ण स्वरों की सहायता से बोले जाते हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं । व्यंजन ३३ हैं, वे ये हैं—क,ख,ग्,घ,ङ्,च्,छ्,ज्,झ्,न्,ट्,,ड्,ढ्,ण,त्,, द्ध्,न्,प्,फ्,ब्,,म्,य,र,ल,व्,श् ष्,स्,ह । संयुक्तव्यंजन-दो व्यञ्जनों के संयोग से जो वर्ण बनता है उसे संयुक्तव्यंजन कहते हैं। जैसे क् और ष मिलकर क्ष् बनता है। ज और ञ् मिलकर ज्ञ बनता है । क् और व मिलकर क्व बनता है। र और म् मिलकर म्ब नता है। म् और र् मिलकर म्र बनता है । त् और र मिलकर त्र बनता है । द् और र् मिलकर द्र बनता है। त् और य् मिलकर त्य् बनता है। प् और त् मिलकर प्त् बनता है। ल और ल मिलकर ल्ल बनता है । ह, और य मिलकर ह्य बनता है । व और र मिलकर व् बनता है। क् और र् मिलकर - बनता है। म् और न मिलकर म्न् बनता है । स् और र मिलकर स्र, बनता है । ब और द् मिलकर ब्द् बनता है। द्+र और य् मिलकर द्रय् बनता है। प+त् और य मिलकर प्त्य बनता है । श्+र और य मिलकर श्य बनता है। व्यंजनों में दो वर्ण और हैं जो अनुस्वर और विसर्ग कहलाते हैं। अनुस्वार का चिह्न स्वर के ऊपर एक बिन्दु (-) है और विसर्ग का चिह्न स्वर के आगे दो बिन्दु (:) है-अं, अः । व्यंजनों की तरह इनके उच्चारण में भी स्वर की आवश्यकता होती है। अन्तर यह है कि स्वर इनके पहले आता है और व्यंजनों के बाद में आता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जन प्राण । उच्चारण के अनुसार व्यंजनों के दो भेद हैं- अल्पप्राण और महा महाप्राण - जिन वर्णों में 'ह' की ध्वनि का प्राण मिलता है वे महाप्राण कहलाते हैं । जैसे - क + ह = ख, च + ह = छ । इस प्रकार के व्यंजन महाप्राण कहलाते हैं । ये १४ हैं - वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ अक्षर ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ और श, ष, स, ह । अल्पप्राण -- जिन वर्णों में 'ह' की ध्वनि का प्राण नहीं मिलता वे सब - अल्पप्राण कहे जाते हैं। ऊपर के कहे गये १४ व्यंजनों को छोडकर शेष १६ व्यंजन अल्पप्राण हैं । वे ये हैं—क, ग, ङ, च, ज, ञ, ट, ड, ण, त, द, न, प,ब,म, य, र, लव । ५ श, ष, स,ह को ऊष्म वर्ण भी कहा जाता है, क्योंकि इनके उच्चारण में विभिन्न स्थानों का परस्पर संघर्ष होता है और भीतर से श्वास जोर से लेना पडता है । पांच वर्गों के २५ व्यंजनों को स्पर्शवर्ण भी कहते हैं, क्योंकि इनके उच्चारण में जीभ, कण्ठ, तालु आदि का स्पर्श होता है । य, र, ल, व को अन्तस्थ कहते हैं । ङ्, ञ, ण्, न्, और म् को अनुनासिक कहते हैं । प्रत्येक वर्ग के प्रथम और द्वितीय अक्षर तथा श, ष, स और विसर्ग को अघोष या परुषव्यंजन कहते हैं । प्रत्येक वर्ग के तृतीय, चतुर्थ और पंचम वर्ण तथा य, र, ल, ब, ह को घोष या मृदुव्यंजन कहते हैं । संधिविचार नियम ४ - ( कुटुतुपु वर्गाः १ । १ । १ ) कुवर्ग में क, ख, ग, घ, ङ, व्यंजन होते हैं । चुवर्ग में च, छ, ज, झ, ञ व्यंजन होते हैं । वर्ग में ट, ठ, ड, ढ, ण व्यंजन होते हैं । वर्ग में त, थ, द, ध, न व्यंजन होते हैं । वर्ग में प, फ, ब, भ, म व्यंजन होते हैं । नियम ५. - ( आद्यन्ताभ्यां प्रत्याहारे १|१|५ ) प्रत्याहार में दो वर्णों का उल्लेख होता है । उसमें आदि के वर्ण से लेकर अन्त तक के वर्ण ग्रहण किये जाते हैं । प्रत्याहार के वर्णों की रचना इस प्रकार है - अइउऋलृ - एऐओओ - ह्यवरल - ञणनङ म झढधघभ - जडदगब-खफछठथ चटतकप - शषस । जैसे - अस प्रत्याहार में अ से लेकर स तक के सारे वर्ण और झभ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वाक्यरचना बोध प्रत्याहार में झ से भ तक के वर्ण ग्रहण किए जाते हैं। नियम ६-(अन्त्यस्वरादिष्टि: १३१२३४) अन्तिम स्वर से लेकर के वर्णों की टिसंज्ञा होती है। राजन् में अन् की टिसंज्ञा है। नियम ७-(अन्त्यात् पूर्व उपधा १११।३५) अन्तिम वर्ण (चाहे स्वर हो या व्यंजन) से पहले वर्ण की उपधासंज्ञा है। _ 'राजन्' में अन्तिम वर्ण न है । उससे पहला वर्ण ज का अ है। इसलिए अ की उपधासंज्ञा है। नियम ८-(आदैदौदारो वृद्धिः १।१।३६) आत्, ऐत्, औत्, आर् इनकी वृद्धिसंज्ञा है। नियम ६–(एदोदरो गुणः १।१।३७) एत्, ओत्, अर् इनकी गुणसंज्ञा है। नोट-वर्ण के आगे त् या कार लगाने से उस मात्रा का ही बोध होता है । जैसे—अत्, आत्, ककार । स्वर के आगे वर्ण शब्द लगाने से ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों ग्रहण किए जाते हैं। जैसे-अवर्ण-अ, आ, आ ३ । अभ्यास १. व्यंजन किसे कहते हैं ? वे कौन-कौन से हैं ? २. अनुस्वार और विसर्ग क्या व्यंजन हैं ? यदि हां तो दूसरे व्यंजनों से इनमें क्या अन्तर है ? ३. महाप्राण और अल्पप्राण में क्या भेद है ? वे कौन-कौन से हैं ? . ४. घोष या अघोष संज्ञा किन-किन वर्गों की है ? ५. टुवर्ग में कौन-कौन से वर्ण होते हैं ? ६. प्रत्याहार का क्या तात्पर्य है ? इसका प्रयोग क्यों किया जाता है ? ___ झस प्रत्याहार में कौन-कौन से वर्ण ग्रहण किये जाते हैं ? ७. हस, अल और जब प्रत्याहार में कौन-कौन से वर्ण हैं ? ८. कार, त् और वर्ण ये शब्द वर्ण के आगे लगाने से किसका बोध होता ६. टिसंज्ञा और उपधासंज्ञा किसे कहते हैं ? दो-दो उदाहरण दो। १०. वृद्धि और गुण संज्ञा किन-किन स्वरों की है ? । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३ : वाक्य विचार व्यक्त करने का साधन भाषा है । भाषा वाक्यसमूह से बनती है । वाक्यसमूह शब्द और क्रियावाची शब्द समूह से बनता है । शब्द अक्षरा या उनके समूह से बनते हैं । इसको दूसरे शब्दों में ऐसा भी समझा जा सकता है— अक्षर या अक्षरसमूह से शब्द बनता है । शब्दसमूह से वाक्य बनता है । वाक्यसमूह से भाषा बनती है । वाक्य में कम से कम एक कर्त्ता और एक क्रिया होती है । उसमें कर्त्ता अतिरिक्त कर्म, साधन आदि भी हो सकते हैं । वाक्य में कर्ता, कर्म, साधन आदि के विशेषण और क्रियाविशेषण भी हो सकते हैं । उसमें क्रिया के साथ अर्धक्रिया का भी प्रयोग हो सकता है । जैसे— १. रामः गच्छति — यहां रामः कर्ता है और गच्छति क्रिया है । २. रामः कटं करोति — यहां रामः कर्ता है, करोति क्रिया है और कटी कर्म है | ३. रामः लेखन्या लिखति — यहां रामः कर्ता है, लिखति क्रिया है और लेखन्या साधन है | ४. रामः साधुभ्यो भिक्षां ददाति - यहां रामः कर्ता है, भिक्षां कर्म है, तिक्रिया है और साधुभ्यो संप्रदान है । ५. रामः अश्वात् पतति — यहां रामः कर्ता है, पतति क्रिया है और अश्वात् अपादान है । ६. रामस्य पुस्तकं सुन्दरं अस्ति -- यहां पुस्तकं कर्ता है, सुन्दरं पुस्तक का विशेषण है, रामस्य सम्बंध है और अस्ति क्रिया है । ७. रामः कटे शेते — यहां रामः कर्ता है, शेते क्रिया है और कटे आधार है । कर्ता आदि के विशेषण और क्रिया का विशेषण 'विशेषण और विशेष्य' पाठ १४ में देखें । एक वाक्य में क्रिया के साथ अर्धक्रिया का भी प्रयोग हो सकता है । धातु में तुम्, क्त्वा, यप् आदि प्रत्यय लगाकर अर्धक्रिया का रूप बनाया जाता है । अर्धक्रिया का कर्म अलग होता है । उसमें द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे— १. सः पाठं पठितुं विद्यालयं गच्छति । २. गां आनेतुं धनपाल: अरण्यं गच्छति । ३. रामः पुस्तकं पठित्वा गृहं गच्छति । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध ४. सः लेखं लिखित्वा गृहं गच्छति । ५. बालं विहाय इन्दुबिम्बं ग्रहीतुं कः इच्छति । नोट-जिन शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या १)। पुल्लिग में अकारान्त शब्दों के रूप जिन की तरह चलेंगे। भू धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या १) संधिविचार नियम १०- (अवर्जानामिनः १११८) अवर्ण को छोडकर इवर्ण; उवर्ण, ऋवर्ण, लवर्ण, ए, ऐ, ओ, औ और प्लुत स्वरों की नामिसंज्ञा होती है। नियम ११- (लुदन्ताः समानाः १११।६) अ, इ, उ, ऋ, ल-इनके ह्रस्व और दीर्घ स्वरों की समानसंज्ञा होती है। नियम १२-(एऐओऔ सन्ध्यक्षराणि १।१।१०) ए, ऐ, ओ, औ ये .. सन्ध्यक्षर स्वर हैं। नियम १३-(ह्रस्वो लघुः १११।१३) ह्रस्व स्वरों की लघुसंज्ञा होती नियम १४---(दीर्घः १११।१५) दीर्घ स्वरों की गुरुसंज्ञा होती है। नियम १५ --(संयोगे गुरुः १।१।१४) संयोग आगे होने पर पूर्व के हस्व स्वर की गुरुसंज्ञा होती है । नियम १६- (स्वरानन्तरिता हसाः संयोगः १११।१७) दो-तीन आदि हसों के बीच में कोई स्वर न हो तो उनकी संयोगसंज्ञा होती है। संयोग से पूर्व ह्रस्व स्वर की गुरुसंज्ञा होती है। जैसे-वत्स । यहां त् और स् के बीच में स्वर न होने से त्स् की संयोगसंज्ञा है। अभ्यास १. शब्द किससे बनता है ? २. वाक्य में कम से कम क्या होना चाहिए ? ३. वाक्य में क्या-क्या हो सकते हैं ? ४. समानसंज्ञा में कौन-कौन से वर्ण होते हैं ? ५. संयोगसंज्ञा किसकी होती है ? संयोगसंज्ञा से क्या कार्य होता है ? ६. नीचे लिखे शब्दों में किन-किन वर्गों की संयोगसंज्ञा है वत्स, विद्या उज्ज्वल, धर्मात्मा, मिथ्यात्व, विद्वज्जन्य । ७. नामिसंज्ञा के पांच उदाहरण लिखो। -... ८. राम घर को जाता है। उसके पास पुस्तक नहीं है। इनमें अक्षर, शब्द और वाक्य कौन-कौन हैं ? ६. सध्यक्षर स्वरों के ४ शब्द लिखो। १०. गुरुसंज्ञा और दीर्घसंज्ञा में क्या अन्तर है ? Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४ : विभक्तिबोध शब्दसंग्रह सर्वः (सब) । विश्व (सब) । उभौ (दोनों) । उभयौ (दोनों)। अन्यः (दूसरा) । अन्यतरः (दोनों से एक)। इतरः (दूसरा)। कतरः (कौनसा-दो में से कोई)। कतमः (कौनसा–तीन या उससे अधिक संख्या में से कोई) । स्यः (वह) । सः (वह) । यः (जो)। असौ (वह)। अयं (यह) । एषः (यह) । एकः (एक) । द्वौ (दो)। त्वं (तू) । अहं (मैं) । भवान् (आप) । कः (कौन)। ये सर्वनाम शब्द हैं। तीनों लिंगों में इनका प्रयोग होता है। यहां पुल्लिग में उनका रूप दिया गया है। - धातु-पां-पाने (पिबति) पीना। प्रां-गन्धोपादाने (जिघ्रति) सूंघना। म्नां--अभ्यासे (मनति) अभ्यास करना। दां-दाने (यच्छति) देना। अव्ययस्वर् (स्वर्ग), अन्तर् (बीचमें), प्रातर् (सुबह), पुनर् (बार-बार)। सर्व और पूर्व शब्द के रूप पुल्लिग में याद करो। इनके रूप जिन शब्द की तरह चलते हैं, कुछ भिन्नता है। (देखें परिशिष्ट १ संख्या २,४४)। पा और घ्रा धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या २,३) । आकारान्त धातुओं के रूप प्रायः पा की तरह चलते हैं। संयोग आकारान्त धातुओं के रूप घ्रा धातु की तरह चलेंगे। विभक्तिबोध जो नाम या क्रियाएं हमारे व्यवहार में आती हैं उन सबके अन्त में विभक्ति लगी हुई होती है। विभक्ति का अर्थ है-विभाजन करने वाला प्रत्यय । जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध होता है उसे विभक्ति कहते हैं। विभक्तियां नाम और क्रियाओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को, भिन्न-भिन्न काल को सूचित करती हैं । नाम के अन्त में सात विभक्तियां लगती हैं। सि आदि में होने के कारण उनकी संज्ञा स्यादिविभक्ति है। इनका स्पष्ट विवेचन आगे कारक प्रकरण में मिल सकेगा। यहां केवल उनका स्थूल अर्थ बताना ही उपयुक्त है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध १. कर्त्ता में प्रत्यय होने से कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति होती है । वर्तमान काल में इसका चिन्ह क्रिया के आगे 'है' होता है । जैसे -- शिष्य पढता हैशिष्यः पठति । कहीं-कहीं इसका चिन्ह नाम के आगे 'ने' भी होता है । जैसेमहावीर ने कहा - महावीरोऽवदत् । उसने कहा- सोऽवदत् । २. कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । इसका चिन्ह 'को' है । जैसेवह गांव को जाता है- - सः ग्रामं गच्छति । कहीं-कहीं 'को' चिन्ह द्वितीया विभक्ति में नहीं भी मिलता है । जैसे—वह पुस्तक पढता है - सः पुस्तकं पठति । १० ३. साधन में तृतीया विभक्ति होती है । इसका चिन्ह 'से और द्वारा' है । जैसे - लक्ष्मण ने बाण से रावण को मारा - लक्ष्मणः बाणेन रावणं जघान । वह रजोहरण से पूंजता है - सः रजोहरणेन प्रमार्जति । ४. सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है । इसका चिन्ह ' के लिए' और 'को' है । जैसे— राम साधु को भिक्षा देता है - रामः साधुभ्यो भिक्षां ददाति । ५. अपादान में पंचमी विभक्ति होती है | इसका चिन्ह 'से' है । जैसे - मोहन गांव से आता है— मोहन: ग्रामात् आगच्छति । ६. सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है । इसका चिह्न 'का, के, की ' है । जैसे - मोहन का पुत्र – मोहनस्य पुत्रः । ७. अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है । इसका चिह्न 'में' या 'पर' है । जैसे - वन में सिंह है -- वने सिंहः अस्ति । ८. संबोधन में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे – हे जिन । सर्वनाम के शब्दों में संबोधन विभक्ति नहीं होती है । कर्त्ता आदि कारकों के चिह्न, विभक्ति और वचनों को इस रूप में याद कर सकते हैं कारक १. कर्त्ता चिह्न है, ने को विभक्ति एकवचन सि प्रथमा द्वितीया २. कर्म ३. साधन से, द्वारा तृतीया ४. सम्प्रदान के लिए, को चतुर्थी ५. अपादान से पंचमी ६. सम्बन्ध का, के, की षष्ठी ७. अधिकरण में, पर सप्तमी अम् टा ङे ङसि ङस् ङि संधिविचार द्विवचन औ औ बहुवचन जस् शस् भिस् भ्याम् भ्याम् भ्यस् भ्याम् ओस् ओस् भ्यस् आम् सुप् नियम १७ - ( ऋणे प्रवसन कम्बलदशार्णवत्सरवत्सतरस्यार् ९।२।१४ ) प्र, वसन, कम्बल, दश, ऋण, वत्सर, वत्सतर शब्दों के आगे ऋण शब्द होने Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तिबोध ११ 22 पर इनके अवर्ण को ऋण के ॠ सहित आर् हो जाता है । जैसे - + ऋणम् = प्रार्णम् । वसन + ऋणम् वसनार्णम् । कम्बल + ऋणम् - कम्बला - र्णम् । ऋण + ऋर्णम् = ऋणार्णम् । वत्सर + ऋणम् = वत्सरार्णम् । वत्सतर + ऋणम् =वत्सतरार्णम् । नियम १८- ( ऋत्युपसर्गस्य १।२।१६ ) ॠकार आदि वाली धातु परे होने पर उपसर्ग के अवर्ण को धातु के ॠ सहित आर् हो जाता है । जैसे - प्र + ऋच्छति = प्राच्छति । - नियम १६ - ( एदोतोऽतः पदान्ते १।२ । ३२ ) पदान्त में स्थित एत् और ओत् से आगे यदि 'अ' हो तो उसका लोप हो जाता है और 'अ' के स्थान पर 5 चिह्न लिखा जाता है । जैसे - ते + अत्र - तेऽत्र । पटो + अत्र = पटोऽत्र । अभ्यास १. विभक्ति किसे कहते हैं ? वे कितनी हैं ? २. विभक्तियों के चिह्न ( पहचान ) का सरल तरीका क्या है ? ३. अकार के आगे ऋण का ॠकार होने पर क्या बनता है तथा किन शब्दों से बनता है ? ४. उपसर्ग के अवर्ण को आर् कहां होता है ? ५. साधो --- अयम् — यहां सन्धि करने से क्या रूप बनेगा और किस नियम से बनेगा ? ६. संधि विच्छेद करो -- वसनार्णम्, ऋणार्णम्, कम्बलार्णम्, केऽत्र, लोकेऽस्मिन्, उपाच्छंति, पराच्छंति । ७. संधि करो - प्र + ऋणम्, वत्सर + ऋणम्, हरे + अव, अधीते + अधुना, अपवरके + अस्मिन्, विद्यालये + अस्मिन् प्र + ऋच्छति । ८. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ - दूसरा, वह, तुम, जो, दोनों में एक, दो, सब । ६. जिन शब्द के रूप लिखो । १०. भू धातु के १० लकारों के रूप लिखो । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५ : पुरुष और वचन शब्दसंग्रह स: (वह) । तो (वे दोनों) । ते (वे सब) । त्वम् (तू) । युवां (तुम दोनों) । यूयं (तुम सब) । अहं (मैं)। आवां (हम दोनों) । वयं (हम सब)। अर्भकः (बालक)। नृपः (राजा)। नरः (मनुष्य) । कुर्कुरः (कुत्ता)। नाम के आगे स्यादिप्रत्यय लगते हैं वैसे ही क्रिया के आगे तिप् आदि प्रत्यय लगते हैं। इन्हें तिबादिप्रत्यय कहते हैं। ___सोमपा और दन्त शब्द के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४५, ४६) । प्रथमपुरुष मध्यमपुरुष उत्तमपुरुष एकवचनभवति भवसि भवामि द्विवचनभवतः भवथः भवावः बहुवचनभवन्ति भवथ भवामः इसी तरह पठ्, लिख्, गम् (गच्छ), धाव् आदि धातु के तिबादि के रूप चलेंगे। इंक् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या १३) पुरुष, वचन कर्ता तीन भागों में विभाजित किये जाते हैं-प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष । प्रथमपुरुष को अन्यपुरुष भी कहते हैं। संस्कृत में प्रत्येक पुरुष के तीन-तीन वचन होते हैं-एकवचन, द्विवचन और बहुवचन । जहां एक का बोध कराना हो वहां एकवचन, जहां दो का बोध कराना हो वहां द्विवचन और जहां दो से अधिक का बोध कराना हो वहां बहुवचन का प्रयोग किया जाता है। नीचे लिखे चार्ट से सरलता से समझा जा सकता है एकवचन द्विवचन प्रथम पुरुष- वह वे दोनों वे सब मध्यम पुरुष- तुम तुम सब उत्तम पुरुष हम दोनों हम सब जहां क्रिया का सम्बन्ध कर्ता से होता है वहां क्रिया के रूप कर्ता के वचन के अनुसार चलते हैं । कर्ता में एकवचन हो तो क्रिया में भी एकवचन, कर्ता में द्विवचन हो तो क्रिया में भी द्विवचन और कर्ता में बहुवचन हो तो बहुवचन तुम दोनों Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष और वचन तो क्रिया में भी बहुवचन आता है । जैसे— सः गच्छति - वह जाता है । तो गच्छतः - वे दोनों जाते हैं । ते गच्छन्ति वे सब जाते हैं । त्वं गच्छसि – तू जाता है । युवां गच्छथः – तुम दोनों जाते हो । यूयं गच्छथ - तुम सब जाते हो । अहं गच्छामि - मैं जाता हूं । आवां गच्छावः— हम दोनों जाते हैं । वयं गच्छाम: - हम सब जाते हैं । इन तीनों पुरुषों के अतिरिक्त जितने भी नाम हैं उनके साथ अन्य - पुरुष की क्रिया आती है । जैसे- 1 रामः गच्छति - राम जाता है । वृक्षः अस्ति - वृक्ष है । अश्वः गच्छति — घोडा जाता है । श्रीः वर्धते — लक्ष्मी बढती है । १२: संधिविचार - नियम २०- ( एदैतोरयाय १|२|३) एकार और ऐकार के आगे स्वर होने पर एकार को अय् और ऐकार को आय् आदेश हो जाता है । जैसे— ने + अनम् नयनम् । नै + अक: = नायकः । नियम २१ - ( ओदौतोरवावौ १।२।४) ओकार और औकार के आगे स्वर होने पर ओकार को अव और ओकार को आव आदेश हो जाता है । जैसे - भो + अनम् भवनम् । पौ + अक: = पावकः । नियम २२- ( एदैतो रैत् १।२।१६ ) अवर्ण के आगे एकार और ऐकार होने पर अवर्ण सहित एकार और ऐकार को ऐकार हो जाता है । जैसे— तव + एषा - तवैषा । जिन + ऐश्वर्यम् = जिनैश्वर्यम् । नियम २३ - ( ओदौतोरौत् १।२।२२) अवर्ण के आगे ओकार और औकार होने पर अवर्ण सहित ओकार और औकार को औकार हो जाता है । जैसे - श्रमण + ओघः - श्रमणौघः । चैत्र + औत्कण्ठ्यम् = चैत्रौत्कण्ठ्यम् । प्रयोग वाक्य सः पठति । तौ पठतः । ते पठन्ति । त्वं लिखसि । युवां लिखथः । यूयं लिखथ । अहं गच्छामि । आवां गच्छावः । वयं गच्छामः । अर्भकः लिखति । अर्भकौ पठथः । अर्भकाः गच्छन्ति । सर्वे दुग्धं पिबन्ति । उभौ तिष्ठतः । अन्यः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध गच्छति । त्वं मनसि । अहं तस्मै पुस्तकं यच्छामि । एषः पठति । अयं लिखति । असौ धावति । अमी धावन्ति । कतमः पठति ? कतरः लिखति ? कतरः सुन्दरं लिखति ? य: पिबति सः कोस्ति ? वयं गृहं गच्छामः । बालकः दुग्धं कथं न पिबति ? तत्र पुनः पुनः कथं गच्छति अर्भकः । प्रातः नृपःपत्रं पठनि। संस्कृत में वाक्य बनाओ वह पढता है । वे दोनों लिखते हैं। वे सब जाते हैं। तं लिखता है। तुम दोनों जाते हो। तुम सब पढते हो। मैं जाता हूं। तुम दोनों पढते हो। हम सब लिखते हैं । मनुष्य जाते हैं। बालक पढते हैं। राजा लिखता है। कुत्ता दौडता है । दो कुत्ते दौडते हैं। कौन पानी पीता है ? वह फूल को सूंघता है । वे दोनों स्कूल जाते हैं । दोनों में से एक पढता है। कौन सा लडका तेज दौडता है ? जो दान देता है वह कौन है ? दोनों में से कौनसा बालक पाठ का अभ्यास करता है ? यह पुस्तक किसकी है ? आप कौन हैं ? अभ्यास १. पुरुष के तीन प्रकार कौन-कौन से हैं ? २. प्रत्येक पुरुष में कितने वचन होते हैं ? वे कौन-कौन से हैं ? ३. क्रिया का प्रयोग किसके अनुसार होता है ? ४. एकार और ऐकार से आगे स्वर होने पर क्या बनता है ? ५. अव और आव किस स्वर से परे कौन सा स्वर होने से बनता है ? ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो__ बालक, राजा, मनुष्य, कुत्ता, वे दोनों, हम सब । ७. सर्व और पूर्व शब्द के रूप लिखो। ८. गम् और पठ धातु के तिबादि के रूप लिखो। ६. पा धातु के णबादि, क्यादादि और द्यादि के रूप लिखो। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६ : काल १ (वर्तमान काल) शब्दसंग्रह मुनिः (मुनि) । तरणिः (सूर्य)। ऋषिः (मुनि) अरिः (शत्र) । अग्निः (आग) । कविः (कवि) । भूपतिः (राजा)। नृपतिः (राजा) । यतिः (संन्यासी) । गिरिः (पहाड)। मरीचिः (किरण) । सेनापतिः (सेनापति) । रविः (सूर्य) । कपिः (बन्दर)। शकुनिः (पक्षी) । पतिः (पति) । सखि: (मित्र)। धातु-जि-जये (जयति) जीतना। क्षि–क्षये (क्षयति) क्षय होना। इं—गतौ (अयति) जाना। दूं--गतौ (दवति) जाना। सुंप्रसवैश्वर्ययोः (सवति) उत्पन्न होना, ऐश्वर्य होना। अव्यय-सत्यम् (सत्य), नक्तम् (दिनरात), दिवा (दिन), दोषा (रात्रि)। मुनि शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ३) इकारान्त पुल्लिग शब्दों के रूप मुनि की तरह चलेंगे। पति, सुधी और सखि शब्द के रूप 'मुनि' शब्द से कुछ भिन्न चलते हैं। उन्हें परिशिष्ट १ संख्या ४७,४६,४८ को देखकर याद करो। जि और दु धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ४,५) 'क्षि' धातु तक के रूप परस्मैपद में 'जि' की तरह और उकारान्त धातुओं के रूप 'दु' की तरह चलते हैं । 'ई' धातु के रूप कुछ भिन्न चलते हैं। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ४१) वर्तमान काल काल के स्थूल रूप से तीन विभाग हैं-वर्तमानकाल, भूतकाल और भविष्यत्काल । इन तीनों कालों की संस्कृत में दस विभक्तियां होती हैं । वे ये हैं(१) तिबादि (२) यादादि (३) तुबादि (४) दिबादि (५) द्यादि (६) णबादि (७) क्यादादि (८) तादि (5) स्यत्यादि (१०) स्यदादि । वर्तमानकाल में प्रथम तीन विभक्तियों का प्रयोग होता है। १. तिबादि (प्रारब्धः अपरिसमाप्तश्च कालो वर्तमानः) जो काल प्रारम्भ हो गया है, समाप्त नहीं हुआ है उसे वर्तमानकाल कहते हैं-ऐसा व्याकरणाचार्यों का कथन है। तिबादि विभक्ति का प्रयोग वर्तमानकाल में Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध होता है । जैसे—शैक्षः पठति-शैक्ष पढता है। शिशुः हसति-शिशु हंसता है। रामः गच्छति-राम जाता है। सः वदति-वह बोलता है। २. यावादि-इसका प्रयोग कर्तव्य का उपदेश, क्रिया की प्रेरणा और संभावना में होता है। जैसे कर्तव्य का उपदेश-प्राणिनो न हिंस्यात्-प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिये। क्रिया की प्रेरणा–प्रतिक्रमणमवश्यं कुर्यात्-प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। भोजनं कुर्यात्-भोजन करना चाहिए। दशवकालिकं अधीयीत-दशवकालिक पढना चाहिए। अत्र आसीत—यहां बैठे। अत्र शयीत-यहां सोवें। व्रतं रक्षेत्-व्रत की रक्षा करें। ३. तुबादि-इसका प्रयोग किसी को आशीर्वाद देने, विधि और संभावना में होता है । जैसेआशीर्वाद-त्वं सुखी भव-तुम सुखी बनो। चिरं जीवतु भवान्-आप चिरकाल तक जीएं । विधि- त्वं पाठं पठ-तुम पाठ पढो । प्रसीदन्तु गुरुपादाः-गुरुदेव प्रसन्न हों। संभावना-अत्र आस्ताम् --यहां बैठो। अत्र शेताम्-यहां सोवो। व्रतं रक्षतु-व्रत की रक्षा करो। संधिविचार नियम २४-(एदोतोरुपसर्गस्य लोप: १।२।२६) उपसर्ग के अवर्ण का लोप हो जाता है धातु का एकार और ओकार आगे हो तो। प्र+एजते = प्रेजते । उप+ओषति = उपोषति । नियम २५-(नत्येधत्योः १।२।२७) एति और एधते धातु का एकार परे हो तो उपसर्ग के अवर्ण का लोप नहीं होता। प्र+ एति=प्रेति । प्र+ एधतेप्रैधते । नियम २६-- (एवेऽनवधारणे १२।२६) अवर्ण का लोप हो जाता है अनिश्चय अर्थ में एव शब्द पर हो तो। अद्य+एव =अद्येव गच्छ। निश्चय अर्थ में हो तो—अद्य+एव = अद्यैव । नियम २७-(ओष्ठौत्वोः समासे वा ११२।३१) समास में अवर्ण से परे ओष्ठ और ओतु शब्द परे हो तो अवर्ण का लोप विकल्प से होता है। . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान काल बिम्ब + ओष्ठी == बिम्बोष्ठी, स्थुलतुः । बिम्बोष्ठी । प्रयोग वाक्य मुनिः क्रोधं जयेत् । तरणिः अस्तं अयति । भूपतिः अरि क्षयति । कवयः कवितां कथं न लिखेयुः ? गिरौ रवेः मरीचयः पतन्ति । सेनापतिः कपीनां सहयोगेन जयति । माता सुतं प्रसवति । महिषी कदा प्रसोष्यति ? संस्कृत में अनुवाद करो १७ स्थूल+ ओतुःस्थूलोतुः, राजा शत्रु को जीतता है । कवि लिखता है । पहाड़ पर बन्दर है । संन्यासी आगम पढता है । सेनापति घर जाता है । राजा शत्रु का क्षय करता है । संन्यासी को क्रोध जीतना चाहिए । सेनापति को घर जाना चाहिए । उसे लिखना चाहिए । हमें आगम पढना चाहिए। मुझे क्रोध जीतना चाहिए । तुम लिखो । तुम दोनों आगम पढो । तुम दोनों घर जाओ । सेनापति घर जाए । अभ्यास १. वर्तमान काल में कितनी विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है ? २. यादादि विभक्ति का प्रयोग किस अर्थ में किया जाता है ? दो-दो वाक्य बनाओ । ३. तुबादि विभक्ति किस अर्थ में और किस काल में प्रयोग की जाती है ? ४. तुबादि और यादादि विभक्ति एक ही है या दोनों में भिन्नता भी है, है तो कहां ? ५. दु धातु के रूपों की समानता किस धातु से कर सकते हैं ? ६. संधि करो और बताओ किस नियम से ऐसा किया गया है प्र + एलयति । इहेव तिष्ठ । इहैव तिष्ठ । परा + एति । उप + एधते । प्र + एजते । ७. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ मुनि, सूर्य, राजा, पहाड, किरण, सेनापति, पक्षी । ८. सोमपा और पाद शब्द के रूप लिखो । ६. जि और दु धातु के तिबादि, यादादि, क्यादादि के रूप लिखो । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७ : काल २ (भूतकाल ) शब्दसंग्रह साधु: (साधु) । भानुः (सूर्य) । गुरु: (गुरु) । सूनुः (पुत्र) । तरुः (बाण) । इन्दु: ( चन्द्रमा) । शिशुः (पशु) । सिन्धुः ( समुद्र ) | आख: इषुः ( वृक्ष ) । वायु: (हवा) । (बालक) । रिपु: ( शत्रु) । ( चूहा ) । पशुः धातु — स्मृ – चिन्तायाम् ( स्मरति ) याद करना । स्वं – शब्दोपतापयोः (स्वरति ) शब्द करना, दुःख करना । सूं - गतौ ( सरति ) जाना । ऋ - प्रापणे ( ऋच्छति ) प्राप्त करना । तृ – प्लवनतरणयोः (तरति ) प्लवन करना, तैरना | अव्यय - ह यस् ( बीता हुआ कल ), शम् (सुख), भृशम् (बहुत), सर्पादि ( शीघ्र ), आशु (शीघ्र ) । साधु और स्वयंभू शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४,५०) उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप साधु की तरह चलते हैं । स्मृ धातु के रूप याद करो । ऋकारान्त धातुओं के रूप प्राय: 'स्मृ' की तरह चलेंगे । (परिशिष्ट २ संख्या ६) 'ऋ' धातु के रूप कुछ भिन्न चलते हैं । (देखें परिशिष्ट २ संख्या ८ ) । तु धातु के रूप याद करो । ऋकारान्त धातुओं के रूप तृ की तरह चलेंगे (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७) । भूतकाल जो काल बीत गया उसे भूतकाल कहते हैं । भूतकाल में तीन विभक्तियों का प्रयोग होता है(१) दिबादि (२) द्यादि (३) णबादि दिबादि - इसका प्रयोग अनद्यतनभूत में होता है । अद्यतन का अर्थ है— आज होने वाला । आज से पहिले हो चुका वह अनद्यतनभूत है । इसकी व्याकरणाचार्यों द्वारा की गई मर्यादा यह है कि बीती हुई रात के बारह बजे से आज की रात के बारह बजे का काल अद्यतन है और उससे पहला काल अनद्यतनभूत है । दिवादि विभक्तियां इसी 'अनद्यतन' भूत के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं । जैसे— सः दिनद्वयात् प्रागेव अतः अगमत् - - वह दो दिन पहले ही यहां से चला गया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २ (भूतकाल) आचार्यप्रवराः एकमासात् प्राग अत्र आगमन्—आचार्यप्रवर एक मास पहले यहां आये थे। परश्वः तव पुत्रः अभवत्-परसों तुम्हारे पुत्र हुआ था। ह्य : मम उपवासः अभवत्-कल मेरे उपवास था। पूर्वे मंगलवारे त्वं किं अकथय:-पूर्व मंगलवार को तुमने क्या कहा था ? द्यादि-इसका प्रयोग सामान्यभूत में होता है । जैसे—अहं तत्र अगमम् -मैं वहां गया था। स: लेखं अलेखीत्-उसने लेख लिखा था। रामः कार्यं अकार्षीत्-राम ने कार्य किया था। गोष्ट्टयां कुमारप्रशान्तः निबंधं अपठीत्-गोष्ठी में कुमार प्रशान्त ने निबन्ध पढा था। णबादि-इसका प्रयोग परोक्षभूत अर्थात् अपनी अवस्था से पहले जो हो गया हो उसमें होता है । जैसे—भिक्षुः बभूव-भिक्षु स्वामी हुए थे। भरतं विजिग्ये बाहुबली-बाहुबली ने भरत को जीता था। पार्श्वनाथः चतुर्यामं धर्म व्याजहार—पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म कहा था । तीर्थंकरः धर्म दिदेश-तीर्थकर ने धर्म की देशना दी थी। संधिविचार ___ नियम २८-(असंधिरदसोमुमी १।२।३५)-अदस् शब्द के रूप के अन्त में जहां मु, मी हो जाते हैं उनकी स्वर परे होने पर भी संधि नहीं होती है । जैसे---अमुमु+ ईचा=अमुमु ईचा । अमी+अश्वाः=अमी अश्वाः । नियम २६-(ईदूदेद् द्विवचनं स्वरे १।२।३६)-जिन शब्दों के द्विवचन के अंत में ई, ऊ, और ए होते हैं उनसे आगे स्वर परे होने पर भी संधि नहीं होती है। जैसे-मुनी+एतौ = मुनी एतौ। साधू+इमौ =साधू इमौ । माले-आनय =माले आनय । पचेते+ अत्र=पचेते अत्र। नियम ३०- (मणीवादीनां वा ११२।३७) मणि, रोदसी, दंपती आदि द्विवचनान्त शब्दों की स्वर परे होने पर संधि विकल्प से होती है। जैसेमणी+इव-मणीव, मणी इव । दंपती+इव= दंपतीव, दंपती इव । रोदसी+इव रोदसीव, रोदसी इव । नियम ३१-(ओन्निपातः १।२।३८) जिन निपात शब्दों के अन्त में 'ओ' हो तो उनसे परे स्वर होने पर भी संधि नहीं होती। जैसे-अहो+ अत्र - अहो अत्र । उताहो-!- अत्र - उताहो अत्र । नियम ३२- (धावोदितौ ११२।४२) संबोधन में 'ओ' अन्तवाले Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध शब्दों से आगे 'इति' शब्द हो तो संधि विकल्प से होती है। जैसे-साधो+ इति --- साधविति, साधो इति । प्रयोगवाक्य गुरुः शिष्यमस्मरत् । दिनेशः गुरुमस्मार्षीत् । मुनिः भगवन्तं महावीर सस्मार । विहगः अस्वरत् । सः पुस्तकमपठत् । अहं व्याकरणमपाठिषम् । किं भिक्षुस्वामी संस्कृतं पपाठ ? सर्पः असरत् । धनपाल: लेखनी आर्च्छत् । रामः विजयं आर । नदीमतरत् हरिषेणः । हनुमान: सिन्धुं ततार। तुरगः अधावत् । कुक्कुरः नीरमपात् । नृपः रिपुमजयत् । भोजः कालिदासाय धनं ददौ । संस्कृत में अनुवाद करो तुमने क्या याद किया ? रमेश ने कल क्या पढा था ? युधिष्ठिर ने सत्य का पाठ पढा । किसने स्वर किया ? किस लडके ने कल नदी को तैरा ? कल का पाठ किसने शीघ्र याद किया ? कवि को क्या मिला ? उसने सुख के लिए जिनेश्वरदेव को याद किया। वह अभी गया। वृक्ष पर पक्षी बोले । हेमचन्द्राचार्य ने भगवान का स्मरण किया। उसने बच्चे को क्या कहा ? क्या भिक्षु स्वामी ने दूध पीया था ? मोहन ने पुस्तक कब पढी ? भारमल स्वामी ने सब कुछ सहा । राम ने गंगा को कब तैरा ? अभ्यास १. भूतकाल में कौन-कौन सी विभक्तियां प्रयोग में आती हैं ? २. अनद्यतनभूत का समय कौन सा है ? ३. दिबादि और द्यादि में क्या अन्तर है ? ४. णबादि विभक्ति का प्रयोग कहां होता है ? ५. कौन-कौन से नियम से इन की संधि होती है और क्या रूप बनेगा ? उताहो+- इदम्, पटो+इति, अहो+ईशाः, कुण्डे+अत्र, अथो+अस्मै, अमू+इति, अघो- एहि । ६. स्मृ और त धातु के दिबादि और णबादि के रूप लिखो। ७. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो__हवा, बाण, चन्द्रमा, बालक, समुद्र, चूहा, सूर्य । ८. मुनि, पति और सखि शब्दों के रूप लिखो। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८ : काल ३ ( भविष्यत् काल ) शब्दसंग्रह भूआ । ( याता ) लडकी । पितृ (पिता) बाप । वप्तृ ( वप्ता) बाप | मातृ (माता) मां । भ्रातृ (भ्राता) भाई । स्वसृ ( स्वसा ) बहिन | पितृष्वसृ ( पितृष्वसा ) न ( नप्ता) पोता । भर्तृ ( भर्ता ) पति । देवृ (देवा) देवर । यातृ देवरानी जेठानी । ननान्दृ ( ननान्दा ) ननंद | दुहितृ ( दुहिता) जामातृ (जामाता) जमाई | मातृष्वसृ ( मातृष्वसा ) मौसी । सवितृ सूर्य । त्वष्टृ ( त्वष्टा) बढई । अग्रज : ( बडा भाई ) । अनुज: ( छोटा भाई ) । जनक: (बाप) । पितामहः ( दादा ) । प्रपितामहः (परदादा ) । मातामहः (नाना ) । प्रमातामह: ( परनाना ) । पितृव्यः (चाचा) । पितृव्यपुत्रः ( चचेरा भाई ) । सहोदर : ( सगा भाई ) । भ्रातृव्यः (भतीजा) । सविता ) हृन् – हरणे (हरति, हरते ) हरण करना । भृंन् — भरणे ( भरति, भरते) भरना । धृन् -- धारणे ( धरति, धरते ) धारण करना । डुकुंन्—करणे ( करोति, कुरुते ) करना । अव्यय - श्वस् ( आनेवाला कल ), ओम् ( स्वीकार करना ), अथ (इसके बाद), अकस्मात् ( अचानक ), अग्रतः (आगे), इव ( तरह) । कर्तृ और पितृ शब्दों को याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ६, ५) कृ धातु और हृ धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६,१० ) । घृ के रूप हृ की तरह चलेंगे । ( भविष्यत्काल 1 आगे होने वाले काल को भविष्यत्काल कहते हैं भविष्यत्काल में चार विभक्तियों का प्रयोग होता है (१) क्यादादि (२) तादि (३) स्यत्यादि ( ४ ) स्यदादि । क्यादादि - इसका प्रयोग आशीर्वाद देने के अर्थ में होता है । जैसे— त्वं पंडित भूयाः - तुम पंडित होवो | भवान् चिरंजीवो भूयात् -- आप चिरंजीवी हों । त्वं विद्वान् भूयाः - तुम विद्वान् होवो ! भवान् श्रमणो भूयात् - आप श्रमण बनो । सा विदुषी भूयात् - वह विदुषी बने । सीता भावितात्मा भूयात् - सीता भावितात्मा बने । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध तादादि-इसका प्रयोग अनद्यतनभविष्यत् अर्थात् एक दिन के बाद में होने वाली क्रिया में होता है। अहं श्वः इदं पाठं पठितास्मि--मैं कल यह पाठ पढूंगा। श्वः भविता आचार्यपदारोहणं दिवस:-कल आचार्य का पदारोहण दिवस होगा। पंचदिवसपश्चात् आचार्याः अत्र आगन्तार:-पांच दिन के बाद आचार्य यहां आयेंगे। आदित्यवारे परीक्षापरीणामः आगन्ता-सोमवार को परीक्षा परिणाम आयेगा। परश्वः सः उपवासं कर्ता-परसों वह उपवास करेगा। स्यत्यादि-इसका प्रयोग सामान्य भविष्यत् के अर्थ में होता है। जैसे अहं परीक्षायामुत्तीर्णो भविष्यामि-मैं परीक्षा में उत्तीर्ण होऊंगा। मासेन सः आगमिष्यति-वह एक मास से आयेगा। रामः कार्यं करिष्यति--राम कार्य करेगा। मोहनः पाठं पठिष्यति–मोहन पाठ पढेगा। त्वं किं करिष्यसि-तुम क्या करोगे ? स्यदादि-जहां एक काम के न होने से भविष्य में होने वाले दूसरे कार्य का अभाव दिखाना हो वहां क्रियातिपत्ति का प्रयोग किया जाता है । क्रियातिपत्ति का अर्थ है-एक क्रिया के हुए बिना दूसरी क्रिया का न होना । क्रियातिपत्ति में स्यदादि विभक्ति होती है। क्रियातिपत्ति को सूचित करने के लिए यत्, चेत् आदि शब्दों का प्रयोग करना होता है। जैसे सः चेत् अभ्यासं अकरिष्यत् तर्हि उत्तीर्णः अभविष्यत्—यदि वह अभ्यास करता तो उत्तीर्ण होता । यदि सः गुरूनुपासिष्यत तदा शास्त्रान्तरगमिष्यत्-यदि वह गुरु की उपासना करता तो शास्त्र के भीतर चला जाता । यदि सुवृष्टिरभविष्यत् तदा सुभिक्षमभविष्यत्-यदि अच्छी वर्षा होती तो सुकाल होता। संधिविचार नियम ३३-(झसा जबाः २।१।१०८) यदि पद के अन्त में सस प्रत्याहार हो तो उसे जब (वर्ग का तीसरा अक्षर) हो जाता है। जैसेवाक्+ ईशः= वागीशः । षट् + अत्र=षडत्र । नियम ३४- (नमे जबा अमा वा पदान्ते ॥३॥१) पदान्त में स्थित Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ३ (भविष्यत् काल) २३ वर्तमान जब प्रत्याहार को बम परे हो तो अम (वर्ग का पांचवां अक्षर) विकल्प से होता है। जैसे—एतद्+मुरारिः=एतन्मुरारिः, एतमुरारिः । वाग्+मधुरा - वाङ्मधुरा, वाग्मधुरा। नियम ३५-(प्रत्यये १।३।२) पद के अन्त में जब प्रत्याहार हो तो उसको नित्य नम होता है, यदि प्रत्यय का अम आगे हो तो। षड्+नाम् = षण्णाम् । वाङ्मयम् । नियम ३६-(जबाद्धो झभाः ११३।४) यदि पद के अन्त में जब प्रत्याहार हो, उससे आगे 'ह' हो तो उसे झभ (वर्ग का चौथा अक्षर) विकल्प से हो जाता है । नजदीक में जिस वर्ग का जब हो उसी वर्ग का झभ हो जाता है । जैसे-तत्+ हितम् = तद्धितम्, तहितम् । वाक् +हरिः- वाग्धरिः; वाम्हरिः। प्रयोग वाक्य पिता नीरं पास्यति । भ्रातरौ गृहं गमिष्यतः। जामातारः किं करिष्यन्ति ? भर्ता किं लेखिष्यति ? त्वष्टा धनं हरिष्यति । नप्ता गृहे स्थास्यति । भूपतिः शत्रून् जेता। सविता तमः हर्ता। याता कूपात् नीरं भर्ता । क्रीडाक्षेत्रे किं भविता ? मातृष्वसा मह्यं किं दाता ? यदहं गृहं अगमिष्यम् तदा पुस्तकं प्राप्स्यम् । राजपुरुषः यच्चौरान न्यग्रहीष्यत् तदान्यायोऽन्तमगमिष्यत् । अग्रजः चेत् तथाविधां चेष्टा नाकरिष्यत् तदा नैवंविधो विद्वान् अभविष्यत् । यदि सहोदरः श्रमं अकरिष्यत् तदाऽवश्यं सफलोऽभविष्यत् । संस्कृत में अनुवाद करो मेरा छोटा भाई कविता करेगा। मां तप करेगी। राजा शत्रु को जीतेगा । देवर पुस्तक पढेगा । ननंद वस्त्र धारण करेगी। पिता पुत्र को याद करेगा । वृक्ष पर पक्षी बोलेंगे । तुम्हारा चचेरा भाई लेख लिखेगा। गुरु दुःख का हरण करेंगे। नाना प्रातः गुरु का स्मरण करेंगे। परनाना खेत में पानी देंगे। यदि तुम भगवान् का स्मरण करते तो स्वस्थ हो जाते । यदि दादा क्रोध को जीत लेते तो सफल हो जाते । यदि वह धर्म करता तो सुखी होता। यदि परदादा विद्वान् होते तो अभिमान नहीं करते। यदि मेरा भाई नम्र होता तो मूर्ख नहीं रहता। यदि वर्षा होती तो सुकाल होता। अभ्यास १. संधि करो-एतत्+हि, कतिचिद् +नियमाः, अवदीद्+निकषात्म जन्मा, तद्+माधुर्यम्, असकृद्+निषिद्धः, वाग्+नयति, ककुब्+ हासः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वाक्यरचना बोध २. संधि विच्छेद करो किन्नाम, मधुरवानिकरः, ककुन्भिः, षड्भिः । ३. किस नियम से बने हैं वाङ्मात्रम्, षड् ढलानि, तन्नयनम्, एतन्मुरारिः। ४. पितृ, मातृ और कर्तृ शब्द के षष्ठी और तृतीया के रूप लिखो।। ५. पशु, शिशु, सेनापति, कवि, पति, शकुनि इनके रूप किस शब्द की __ तरह चलेंगे ? ६. ह और कृ धातु के द्यादि, णबादि और स्यदादि के रूप लिखो। ७. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो भूआ, पति, ननंद, जमाई, मौसी, दादा, नाना, चाचा, भतीजा। ८. साधु और स्वयंभू शब्दों के रूप लिखो। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ६। धातु जितने भी नाम हैं वे धातुओं के प्रत्यय लगाने से ही बनते हैं। जितनी भी क्रियाएं हैं वे भी धातु के प्रत्यय लगाने से बनती हैं । नाम और क्रिया दोनों की जननी धातु है, इसलिए धातु को समझना अत्यावश्यक है। पहचान और व्यवस्था की दृष्टि से धातुओं को १० गणों में विभक्त किया गया है। उनकी पहचान के लिए धातु के अन्त में अक्षरों का अनुबन्ध जोडा जाता है। अदादयः कानुबन्धा, श्चानुबन्धाः दिवादयः । स्वादयस्तानुबन्धाः स्युर्जानुबन्धास्तुदादयः ॥१॥ रुधादयो रानुबन्धाः, वानुबन्धास्तनादयः । क्रयादयः शानुबन्धा स्यु र्णानुबन्धाश्चुरादयः ॥२॥ (१) भ्वादिगण-कोई अनुबन्ध नहीं है । जैसे-भू सत्तायाम् । (२) अदादिगण—क अनुबन्ध । जैसे-पांक् रक्षणे । (३) दिवादिगण-च अनुबन्ध । जैसे—दिवुच् क्रीडायाम् । (४) स्वादिगण-त अनुबन्ध । जैसे--कुंन्त अभिषवे (५) तुदादिगण-ज अनुबन्ध । जैसे—तुदंन्ज् व्यथने । (६) रुधादिगण-र अनुबन्ध । जैसे-रुबॅन्र् आवरणे । (७) तनादिगण-व अनुबन्ध । जैसे-तनुन्व् विस्तारे । (८) क्यादिगण-श अनुबन्ध । जैसे-ग्रहन्श् उपादाने । (६) चुरादिगण-ण अनुबन्ध । जैसे-चुरण स्तेये। (१०) कण्ड्वादिगण-कोई अनुबन्ध नहीं । जैसे-कण्डून् गात्रविघर्षणे । गण की आदि धातु के आधार पर गण का नामकरण हुआ है। व्यवस्था की दृष्टि से गण की धातुओं को भिन्न-भिन्न प्रत्यय व कार्य होते हैं। (१) भ्वादिगण—शित् संज्ञक प्रत्यय परे होने पर धातु से अप् प्रत्यय होता है। (२) अदादिगण-अप् प्रत्यय का लुक् होता है । (३) दिवादिगण की धातुओं को यन् प्रत्यय होता है । (४) स्वादिगण की धातुओं को नु प्रत्यय होता है। (५) तुदादिगण की धातुओं को अन् प्रत्यय होता है। (६) रुधादिगण की धातुओं को नम् प्रत्यय होता है। (७) तनादिगण की धातुओं को उप् प्रत्यय होता है। (८) क्रयादिगण की धातुओं को ना प्रत्यय होता है। .. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध __(8) चुरादिगण की धातुओं को स्वार्थ में त्रिच् प्रत्यय होता है । (१०) कण्ड्वादिगण को धातुओं को स्वार्थ में यक् प्रत्यय होता है। धातु के आगे 'ङ्' आत्मनेपद का प्रतीक है। जैसे-'पू' पवने । धातु के आगे 'न्' उभयपद का परिचायक है । जैसे-लषन् कान्तौ। धातु के आगे कुछ न लगा हो वह परस्मैपद का प्रतीक है । जैसे—णट नृत्तौ । परस्मैपदी धातु के परस्मैपद के प्रत्यय और आत्मनेपदी धातु के आत्मनेपद के प्रत्यय लगते हैं। ____ नोट-विद्वस्, पुस्, चंद्रमस् शब्दों के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या १४,५६,१५) । तिबादि प्रत्यय (लट्) परस्मैपद आत्मनेपद प्रथमपु० मध्यमपु० उत्तमपु० प्रथमपु० मध्ममपु० उत्तमपु० एकवचन तिप् सिप् मिप्ते द्विवचन तस् थस् वस् आते आथे वहे बहुवचन अन्ति थ मस् अन्ते ध्वे महे .. यादादि प्रत्यय (विधिलिङ्) यात् यास् याम् ईत ईथास् ईय याताम् यातम् याव ईयाताम् ईयाथाम् ईवहि यात याम ईरन् ईध्वम् ईमहि तुबादि प्रत्यय (लोट्) _ हि आमिप् ताम् स्व ऐप् ताम् तम् आवप् आताम् आथाम् आवहैप् अन्तु आमप् अन्ताम् ध्वम् आमहैप् दिबादि प्रत्यय (लङ) सिप् अमिप् त थास् इ तम् व आताम् आथाम् वहि त म अन्त ध्वम् महि द्यादि प्रत्यय (लुङ) सि .. अम् थास ताम् तम् व आताम् आथाम् वहि अन् त म अन्त ध्वम् महि जबादि प्रत्यय (लिट) णप् थप् णपए से ए अतुस् अथुस् व आते आथे वहे. उस् अ .... म ... . इरे ध्वे महे युस berpe En ता ཆའ ཆ རྒྱ ས ཟླ ཆ བ བྷྱཱ ཙྪཱ༢ ཟླ ༣ མོ མ ཀ༔ अन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातु २७ क्यादादि प्रत्यय (आशीलिङ) क्यात् क्यास् क्यासम् सीष्ट सीष्ठास् सीय क्यास्ताम् क्यास्तम् क्यास्व सीयास्ताम् सीयास्थाम् सीवहि क्यासुस् क्यास्त क्यास्म सीरन् सीध्वम् सीमहि तादि प्रत्यय (लुट्) ता तासि तास्मि ता तासे ताहे तारौ तास्थस् तास्वस् तारौ तासाथे तास्वहे तारस् तास्थ तास्मस् तारस् ताध्वे तास्महे स्यत्यादि प्रत्यय (लुट्) स्यति स्यसि स्यामि स्यते स्यसे स्ये स्यतस् स्यथस् स्यावस् स्येते स्येथे स्यावहे। स्यन्ति स्यथ स्यामस् स्यन्ते... स्यध्वे 'स्यामहे ___ स्यदादि प्रत्यय (लुङ) स्यत् स्यस् स्यम् स्यत स्यथास् स्ये स्यताम् स्यतम् स्याव . स्येताम् स्येथाम् स्यावहि स्यन् स्यत स्याम स्यन्त स्यध्वम् . स्यामहि अभ्यास .. १. किस गण की धातुओं का क्या अनुबन्ध जाता है ? २. रुधादिगण, दिवादिगण, चुरादिगण की धातुओं से कौनसा प्रत्यय होता है ? ३. अप, नु, अन्, उप ना प्रत्ययों का आगम किन-किन गण की धातुओं __ को होता है ? ४. आत्मनेपद और परस्मैपद की धातुओं की क्या पहचान है ? ५. तिबादि के आत्मनेपद के, द्यादि के परस्मैपद के और णबादि के सब प्रत्यय लिखो। ६. कर्तृ और पितृ शब्दों के रूप लिखो। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्मक धातुएं पाठ १० : धातुप्रकरण लज्जासत्ता स्थितिजागरणं, वृद्धिक्षयभयजीवितमरणम् । शयनक्रीडारुचिदीप्त्यर्थं, धातुगणन्तमकर्मकमाहुः ॥ धातु - व्रीडच् ( व्रीड्यति ) लज्जा करना । लज, लस्ज (लजते, लज्जते) लज्जा करना । भू (भवति) होना । अस् ( अस्ति ) होना । ष्ठा ( तिष्ठति) ठहरना । आसक् (आस्ते ) बैठना । जागृक् ( जागति) जागना । वृधुङ् (वर्धते ) बढना । ञिभींक् ( बिभेति ) डरना । क्षि (क्षयति) क्षय होना । जीव ( जीवति) जीना। मंज् ( म्रियते ) मरना । रुचङ् (रोचते ) प्रिय लगाना, अच्छा लगना । दीपीच् ( दीप्यते) दीप्त होना | भांक् ( भाति ) दीप्त होना । शब्दसंग्रह मातुलः ( मामा ) । मातुलपुत्रः ( मामा का बेटा ) । पुत्र: (बेटा) । स्वस्रीयः (भानजा ) । भागिनेय: ( भानजा ) । दोहित्र : ( लडकी का बेटा ) | पौत्रः ( पोता ) । प्रपौत्रः ( प्रपोता ) । मातृष्वस्रीयः (मौसेरा भाई ) । श्वसुर : (ससुर) । ज्येष्ठः (जेठ) । श्यालः ( शाला ) । मातृष्वसृपतिः ( मौसा ) | पितृष्वसृपति: ( फूफा ) । भगिनीपति: ( बहनोई) । पैतृष्वस्रीयः ( फूफेरा -माई ) । अव्यय - अत्र ( यहां ), कुत्र ( कहां), यत्र ( जहां ), तत्र ( वहां ), सर्वत्र . ( सब जगह ) । गो, दण्डिन् और पथिन् शब्दों के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ७,६,५१) । धातु —ष्ठा धातु के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट २ संख्या ११) धातुप्रकरण क्रियावाची शब्दों को धातु कहते हैं । धातु के सामान्यतया दो भेद हैं - अकर्मक और सकर्मक | अकर्मक - जहां क्रिया का व्यापार और उसका फल एक निष्ठ होते हैं, उस क्रिया को अकर्मक कहते हैं । जैसे— रमणः हसति ( रमण हंसता है ) । यहां हंसने की क्रिया और उसका विनोद रूप फल दोनों 'रमण' नामक एक व्यक्ति में ही होते हैं इसलिए यह अकर्मक क्रिया है । अकर्मक धातु को पहचानने Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुप्रकरण का मुख्य लक्षण यही है कि जिसके उच्चारण करने पर कर्म की आवश्यकता न जान पडे अर्थात् 'क्या' ऐसा प्रश्न न उठे वह क्रिया अकर्मक होती है। जैसेआचार्याः तिष्ठन्ति-आचार्य विराजते हैं। धन वर्धते—धन बढ़ता है। इसमें कहां, किसलिए आदि प्रश्न हो सकते हैं किन्तु क्या ऐसा प्रश्न नहीं होता है। सकर्मक-जहां क्रिया का व्यापार और फल दो वस्तुओं के आश्रित होते हैं वह सकर्मक क्रिया होती है। सकर्मक धातु को पहचानने का मुख्य लक्षण यही है जिसका उच्चारण करते ही 'क्या' का प्रश्न उठे। जैसे-शैक्षः पठति । स: पश्यति । नवदीक्षित पढता है, वह देखता है, जब हम ऐसा उच्चारण करते हैं तो उसी समय यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि क्या पढता है, क्या देखता है । इस प्रश्न को समाहित करने के लिए हमें कहना होगा कि 'दशवैकालिक' पढता है, सूर्य को देखता है । यहां कर्म की अपेक्षा है अतः धातु सकर्मक है। सकर्मक धातुओं के तीन भेद हैं—एककर्मक, द्विकर्मक और अविवक्षित कर्म । एककर्मक-जिस वाक्य में धातु से एक ही कर्म आता हो वह एककर्मक धातु है । जैसे-त्वं पानीयं पिब । यहां पानीयं (पानी) कर्म है। त्वं नमस्कारं कुरु । त्वं विद्यां पठ । सः कटं करोति । __ द्विकर्मक—जिस वाक्य में धातु से दो कर्म आते हैं वह द्विकर्मक धातु कहलाती है। द्विकर्मक धातुओं का विस्तृत वर्णन आगे के पाठों में किया जायेगा । अविवक्षितकर्म—जिस वाक्य में धातु सकर्मक हो और कर्म आ सकता हो पर उसकी विवक्षा न करें उसे अविवक्षितकर्म कहते हैं। जैसेअहं गच्छामि । त्वं कुरु । भवान् गच्छतु । गौः चरति । इन वाक्यों में कर्म की विवक्षा न होने के कारण ये सब अविवक्षित कर्म हैं अर्थात् इनमें कर्म की विवक्षा नहीं की गई है। अविवक्षितकर्म का प्रयोग एक अच्छा और सम्बन्धात्मक प्रयोग माना जाता है । जैसे—दो मनुष्यों के बीच यह बातचीत हुई कि मैं कल अमुक गांव जाऊंगा और वह ठीक उसी निर्दिष्ट गांव को जा रहा है, तब उसे इतना ही कहना पर्याप्त है कि मैं जाता हूं। अमुक गांव आदि कहने की जरूरत नहीं । चालू प्रकरण में कर्म का प्रयोग न करने पर भी कहने वाले का भाव समझ में आ जाता है। संधिविचार नियम ३७– (स्तोः श्चुभिः श्चुः १।३।५)--शकार और चवर्ग का योग होने पर सकार और तवर्ग के स्थान पर शकार और चवर्ग हो जाता है। सकार को शकार और तवर्ग को चवर्ग हो जाता है। जैसे—कस् + शेते --- Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कश्शेते । तत् + चित्रम् = तच्चित्रम् । भवान् + शेते - भवान् शेते । नियम ३८ - ( शात् १।३।९ ) शकार से परे तवर्ग को चवर्ग नहीं होता । प्रश्न:, विश्नः । वाक्यरचना बोध नियम ३६ - (ष्टुभि: ष्टुः १।३।६ ) षकार और टवर्ग से परे सकार और तवर्ग में से कोई हो तो सकार को षकार और तवर्ग टवर्ग हो जाता है । षष्ठः, कष्टीकते, तट्टीकते, तण्णकारेण, ईट्टे । नियम ४०- - (न पदान्ताट्टोरनाम्नवतिनगरीणाम् १।३।७ ) पद के अन्त में टवर्ग हो, उससे आगे सकार तथा तवर्ग हो तो स को ष और तवर्ग को टवर्ग नहीं होता, नाम्, नवति और नगरी शब्दों को छोडकर । षड्नयनम्, षट् सीदन्ति । तीन शब्दों को होता है -- षण्णाम्, षण्णवतिः, षण्णनगर्यः । नियम ४१ - (तो: षि १।३।८ ) षकार परे हो तो तवर्ग को टवर्ग नहीं होता । भवान् षष्ठः । नियम ४२ क — . ( लि ल : १ । ३ । १० ) तवर्ग से परे लकार हो तो तवर्ग को लकार हो जाता है । तल्लुनाति, विद्वाल्लिखति । नकार को सानुनासिक कार हो जाता है । ख - ( संषाद्ध से लोप: १।३।६० ) स और एष से परे विसर्ग का लोप हो जाता है, इस परे हो तो । सः + याति [ स याति । एषः -- गच्छति: एष गच्छति । — सन्धिरेकपदे नित्यो, नित्यो धातूपसर्गयोः ॥ नित्यः समासे वाक्ये तु स विवक्षामपेक्षते ॥१॥ एक पद में, धातु और उपसर्ग में, समास में सन्धि नित्य होती है । वाक्य में इच्छानुसार है । संधि कर भी सकते हैं और नहीं भी । प्रयोगवाक्य स खल्वन्यायकर्मणि लज्जते अत एव महान् अस्ति । साधुसंगतौ तिष्ठति यः स जागति नक्तं दिवा स्वं प्रति । न्यायो वर्धते, अन्याय क्षयति, एतादृश: कः समयः ? यो बिभेति स जीवन्नपि न जीवति अपितु म्रियत एव । यः शेते मोहनिद्रायां प्रतिपलं क्रीडति च स नास्ति महान् । यस्मै रोचते योगः स भासते भुवि भानुमानिव । संस्कृत में अनुवाद करो पिता रात को जागता है । देवरानी जेठानी से लज्जा करती है । बहन के साथ बैठती है । लडकी और जंवाई (जामाता) दोनों को दूध प्रिय लगता है । दादा, दादी और बडा भाई मामा के पास क्यों गये ? भानजा किससे डरता है ? शाला और श्वसुर क्या कहते हैं ? फूफे का लडका कब यहां से चला गया ? पति और बहनोई व्यापार साथ में करते हैं । मामा गाय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुप्रकरण से डरता है । जेठ जेठानी को प्रिय लगता है । नाना अच्छी तरह जीता है पर नानी मर रही है । दादा और पोता घूमने जाते हैं। बहू ससुर से लज्जा करती है । वहां जाने से क्या होगा ? मोहन रात्रि में किसलिए जगा था ? वृक्ष क्यों नहीं बढता है ? तुम क्यों डरते हो ? मुझे चावल अच्छे नहीं लगते। मनुष्य की आयु प्रतिदिन क्षीण हो रही है। पिता पुत्र को देखता है। मदन कल घर गया था ? जो राग और द्वेष को जीत लेता है वह जिन होता है । अभ्यास १. नियमपूर्व संधि करो जलाशयात् + जलम् । तत्+-जलम् । कियत्+च। तत्+चेतः । तत्+ जयति । भवान्+जातः । भवान्। शयानः । २. अकर्मक धातु किसे कहते हैं ? ३. अकर्मक और अविवक्षित कर्म में क्या अन्तर है ? अकर्मक, द्विकर्मक और अविवक्षितकर्मक के दो-दो वाक्य बनाओ। ४. अकर्मक धातुएं कौन-२ सी हैं, श्लोक लिखो ? ५. भगिनी और पति के रूप किस शब्द की तरह चलेंगे ? ६. डरना, मरना, जीना, बढना, बैठना, प्रियलगना-इन अर्थो में कौन-कौन ___ सी धातु हैं ? ७. विद्वस्, पुस्, चंद्रमस् और अनडुह, शब्दों के रूप लिखो। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ११ : वाच्य शब्दसंग्रह नदी (नदी) । नारी (स्त्री) । पत्नी (पत्नी) । जननी ( माता ) | पृथ्वी (पृथ्वी) । पुत्री ( लडकी ) । पितामही ( दादी ) । मातामही (नानी) । प्रमातामही ( परनानी ) । पितृव्यपत्नी ( काकी, चाची ) । भातृपुत्री ( भतीजी ) । मातुलानी (मामी) । पौत्री (पौती ) । प्रपौत्री ( प्रपोती ) । भगिनी ( बहिन ) । श्याली ( शाली) । ज्येष्ठानी (जेठानी) । देवराणी ( देवरानी) । सौभाग्यक्ती ( सुहागिन स्त्री ) । भातृजाया ( भाभी ) । स्नुषा ( पुत्रवधू) । विधवा (विधवा) । निशा ( रात्री ) । निलयनक्रीडा ( आंखमिचौनी) । रथ्या (सडक) । धातु-धेंट् - पाने ( धयति ) पान करना । ध्यें - चितायाम् ( ध्यायति ) चिंतन करना । ग्लें, म्लैं - हर्षक्षये ( ग्लायति म्लायति ) थकना, मुरझाना । गें— शब्दे (गायति) गाना । देप्— शोधने (दायति) शोधन करना । ष्ट्यें, - संघाते (ष्ट्यायति, स्त्यायति) जमना । ष्णै--- वेष्टने ( स्नायति ) वेष्टित करना । धेट् और ध्यें धातु के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट २ संख्या १२,१४) । एकारान्त धातुओं के रूप घेंट् की तरह और ऐकारान्त धातुओं के रूप प्रायः यें की तरह चलते हैं । आत्मन्, राजन्, युवन् और मरुत् शब्दों के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट १ संख्या ५२,१०,५३,११) । वाच्य जो हम कहना चाहें उसे वाच्य कहते हैं । वाच्य के तीन प्रकार हैंकर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य । जिस प्रकार नाम के आगे 'सि' आदि विभक्ति आती है वैसे ही धातु के आगे 'तिप्' आदि विभक्ति (प्रत्यय) आती हैं । धातु के आगे जो प्रत्यय आते हैं उनके आधार पर वाच्य के तीन नामकरण किए गए हैं। यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिसमें प्रत्यय आता है उसकी प्रधानता हो जाती है । प्रत्यय कर्त्ता, कर्म, साधन आदि कारकों में आता है । कर्तृवाच्य --- जहां धातु से प्रत्यय कर्त्ता में होता है उसे कर्तृवाच्य कहते हैं । कर्तृवाच्य में कर्त्ता में प्रत्यय होने के कारण कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति होती है । क्रिया कर्त्ता के अनुसार चलती है । जैसे—छात्रः पाठं पठति । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाच्य छात्रौ पाठं पठतः । छात्राः पाठं पठन्ति । त्वं पाठं पठसि । अहं पाठं पठामि । कर्मवाच्य-जहां धातु से प्रत्यय कर्म में होता है उसे कर्मवाच्य कहते हैं। कर्मवाच्य में कर्म में प्रत्यय होने के कारण कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। क्रिया कर्म के अनुसार चलती है । जैसे-छात्रेण पाठः पठ्यते । छात्रेण पाठौ पठ्येते । छात्रेण पाठा: पठ्यन्ते । तेन विद्या पठिता। तेन रत्नं गृहीतम् । भाववाच्य-भाव का अर्थ है क्रिया। जहां धातु से प्रत्यय क्रिया में ही होता है उसे भाववाच्य कहते हैं। क्रिया में प्रत्यय होने से क्रिया का संबंध कर्ता आदि कारकों से नहीं रहता। कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है । कर्ता में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन होने पर क्रिया में कर्ता का कोई प्रभाव नहीं रहता। कर्ता के सब पुरुषों में और सब वचनों में क्रिया का रूप एक समान रहता है। भाववाच्य में कर्म नहीं हो सकता। जहां कर्म रहेगा वहां भाववाच्य नहीं होगा, वह कर्मवाच्य बन जाएगा । जैसे-तेन गम्यते । ताभ्यां गम्यते । तैः गम्यते । त्वया गम्यते । युवाभ्यां गम्यते । युष्मामिः गम्यते मया गम्यते । आवाभ्यां गम्यते । अस्माभिः गम्यते । भाववाच्य में क्त आदि प्रत्यय होने से क्रिया में नपुंसकलिंग और एकवचन होता है । जैसे-मया गतम् । तेन गतम् । (संधिविचार) नियम ४३ (उदः स्थास्तम्भोः सः १।३।६४) उद् उपसर्ग से परे स्था और स्तम्भ धातु के स् का लोप हो जाता है। उत्थानम्, उत्तम्भनम् नियम ४४ (खसे चपा झथानाम् १।३।४०) खस परे होने पर झथ प्रत्याहार के स्थान पर चप हो जाता है। जैसे-तत्+-शान्तिः=तच् शान्तिः । नियम ५५ (चपाच्छश्छोऽमे वा ११३॥३) पद के अंत में चप हो और सामने शकार हो तथा उससे आगे अम प्रत्याहार हो तो शकार को छकार विकल्प से होता है। जैसे तत्-- शान्तिः तच्छान्तिः, तच्शान्तिः । वाक्+ शूरः--वाक्शूरः, वाक्छूरः ।। नियम ४६ (झ्नो ह्रस्वाद् द्विः स्वरे ११३।२२) ह्रस्व स्वर से परे पदः के अंत मे ङ, ण, न हो और सामने स्वर हो तो ङ, ण, न, द्वित्व हो जाते हैं। जैसे, प्रत्यङ्-- इदं-प्रत्यङ्ङिदम् । सुगण् । इह =सुगण्णिह । कुर्वन्+आस्ते कुर्वन्नास्ते। नियम ४७ (स्वरात् ११३।२५) स्वर से परे छकार द्वित्व हो जाता है । तवच्छत्रम्, वृक्षच्छाया, आच्छादयति, माच्छिदत्, ह्रीच्छति, गच्छति, म्लेच्छति । निपम ४८ (अनाङ्माङो दीर्घाद् वा छ: १।३।२३) आङ्, माङ् को Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध छोड़कर दीर्घ स्वर पदान्त में हो तो छकार विकल्प से द्वित्व हो जाता है । लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछाया । वधूच्छत्रम, वधूछत्रम् । नौच्छाया, नौछाया; कुटीच्छाया, कुटी छाया। प्रयोगवाक्य बालकः निलयनक्रीडां करोति । योगिनः सवितारं पश्यन्ति । शिष्यो गुरुं प्रणमतः । विनीतः पूर्वजान अनुहरति । युवां पाठं पठथ । गुरुणा त्वं कथ्यते । बालकेन निलयनक्रीडा क्रियते । शिष्याभ्यां गुरुः प्रणम्यते । योगिनः सविता दृश्यते । गुरुणा विनेयो उपदिश्येते । विनीतेन पूर्वजाः अनुह्रियन्ते । मातुलेन भागिनेयः अपाठि। प्रपोठ्या भगिनी भीयते । पितामहेन पुत्री स्मर्यते । मातध्वसपत्या स्वश्वसुराय पुस्तकं दीयते । भागिनेयेन पौत्रः जागर्यते । छात्राभ्यां पठ्यते । छात्र : पठ्यते । त्वया पठ्यते । आवाभ्यां पठ्यते । अस्माभिः पठ्यते । -शुक्लपक्षे चन्द्रमसा वय॑ते । संस्कृत में अनुवाद करो बहिन नदी तैरती है । सीता राम की पत्नी थी। पृथ्वी पर कौन बैठा है। सीता जना की पुत्री थी। मेरी दादी प्रतिपल प्रभु का चिंतन करती है। कर्मवाच्य में परिवर्तन करो परदादी क्यों दुखी है । भतीजी क्या गाती है । मामी जैनागमों का अभ्यास करती है । पौत्री पाठ पढती है । जेठानी की बहन घर जाती है । देवरानी देवर से पूछती है । दादी पत्र लिखती है । भाभी बार-बार फूल सूंघती है । सुहागिन स्त्रियां पानी पीती हैं । वैद्य रोग की चिकित्सा करता है । अभ्यास १. कर्तृवाच्य किसे कहते हैं ? कर्ता में कौन सी विभक्ति होती है। २. कर्ता में प्रथमा और तृतीया विभक्ति किस वाच्य में होती है। ३. कर्म में द्वितीया और प्रथमा विभक्ति कहां-कहां होती है। ४. कर्ता और कर्म को गौण करने वाला कौन सा वाच्य है। उसमें क्या किया जाता है। ५. संधिकरो सूर्य+छाया । तेन+छन्नम् । यावत्+शक्यः । काचित्+शिक्षा । अस्मिन+अस्ति। . भवान् + अयम् । भवन्+एषा। इयत्+शीतलम् । एतस्मिन्+ अक्षवाटे। ६. संधि विच्छेद करो उत्यानम्, कियच्छीतलम् । कस्यचिच्छेष्ठिनः । गृहमेतच्छोभते, एतच्छक्तिः । तच्छक्तिः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाच्य ३५ ७. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखोकाकी, मामी, पौती, शाली, भाभी, जेठानी, पुत्रवधू आखमिचौनी, सड़क । ८। भवत्, महत् और पठत् शब्द के पंचमी और सप्तमी के रूप लिखो। ६. धेट और ध्ये धातु के यादादि और तुबादि के रूप लिखो। १०. गो, दण्डिन् और पथिन् शब्दों के रूप लिखो। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १२ : लिंगबोध (१) शब्दसंग्रह गौः (गाय) । ग्लोः (चन्द्रमा) । कट: (चटाई)। सूदः (रसोइया) । कोषः (खजाना) । तन्तुवायः (जुलाहा) । आपणिकः (दुकानदार) । हस्तिपकः (महावत)। भारकः (कुली) । आखेटकः (शिकारी। प्रस्तरः (पत्थर)। मशकः (मच्छर) । कार्षापणः (पैसा) । कुड्मलः (कली) । बुद्धिः (बुद्धि) । मतिः (बुद्धि)। भूमिः (भूमि)। पङ्क्तिः (पंक्ति) । औषधिः (दवा) । श्रेणिः (कक्षा) । प्रीतिः (प्रेम) । अनुरक्तिः (अनुराग)। ny-10-04u.i• Aun१६ -- on(तकति) हंसना । णट-नृती (नटति) नाचना । शठ-कैतवे (शठति) कपट करना। गद-व्यक्तायां वाचि (गदति) बोलना । णद-अव्यक्ते शब्दे (नदति) अव्यक्त शब्द करना । रद-विलेखने (रदति) खोदना, उखाडना । चल-कम्पने (चलति) कम्पित होना । ज्वल-दीप्ती (ज्वलति) जलना। अव्यय-अलं (वस) । किं (क्या) । न (नहीं) । च (और) । पुनः (फिर) । एकदा (एक दिन)। सीता और नदी शब्दों के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या १७, १९) स्त्रीलिंग में आप अन्तवाले शब्द सीता की तरह और ईकारान्त शब्द नदी की तरह चलते हैं। पठ धातु के रूप याद करो। देखें (परिशिष्ट २ संख्या १५) तक से लेकर ज्वल तक के रूप पठ धातु की तरह चलते हैं। लिंगबोध ___ संस्कृत में तीन लिंग होते हैं-पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग । जिस प्रकार विभक्ति और वचन के बिना नाम का प्रयोग नहीं होता उसी प्रकार लिंग के बिना भी उसका प्रयोग नहीं होता। इसलिए लिंग का ज्ञान भी आवश्यक है । हिन्दी में पुरुषवाची शब्द पुल्लिग और स्त्रीवाची रा.५ Intein ९ ९॥ 111 ९ १९ तत्त न एता सरल नियम नहा है। कई शब्द केवल पुल्लिग होते हैं, कई शब्द केवल स्त्रीलिंग और कई शब्द केवल नपुंसकलिंग होते हैं। कई शब्द त्रिलिंगी भी होते हैं । प्रस्तुत पाठ में पुल्लिग और स्त्रीलिंग शब्दों के पहचान के नियम बताए जाएंगें। इससे अगले पाठ में नपुंसक और त्रिलिंगी शब्दो के पहचान के नियम बताए जाएंगे। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगबोध (१) ३७ नियम ४६-जिन शब्दों के उपधा में क, ट, ण, थ, प, भ; म, य, र; ष, स हो वे पुल्लिग होते हैं। क-आनक:-दुंदुभिः । ट-नट:-नट । ण-गुण:-गुण । थ–निशीथः--आधीरात । प–क्षप:--लताओं का समूह । भ-दर्भः-दूब । म-संग्राम:-युद्ध । य-भागधेयः-हिस्सेदार। र-निर्दर:-गुफा । ष - गवाक्षः-झरोखा । स-कर्पास:-चोला। नियम ५०-जिन शब्दों के अन्त में स्, न, उ और अन्त शब्द हों वे शब्द पुल्लिग होते हैं। स्-चंद्रमस्-(चंद्रमा)। न्--ग्रावन् == (पत्थर)। उ-मन्तुः(अपराधे) । अन्त ---पर्यन्त - (अवसान) । . स्त्रीलिंग नियम ५१–मातृवाची नाम स्त्रीलिंग होते हैं । जैसे-हस्तिनी= हथिनी। अश्वा = घोडी। मत्सी मच्छली । नियम ५२-तिथिवाची, नदीवाची, बुद्धिवाची, पृथ्वीवाची, लक्ष्मीवाची नाम स्त्रीलिंगी होते हैं। जैसे-- तिथिवाची-प्रतिपदा (एकम), पूर्णिमा (पूनम), अमावस्या (अमावस)। नदीवाची-निम्नगा, सरित्, तटिनी, कूलंकषा। बुद्धिवाची-मनीषा, बुद्धिः, मतिः, धिषणा । पृथ्वीवाची-वसुधा, उर्वी, वसुंधरा, रत्नगर्भा । लक्ष्मीवाची-रमा, कमला, इन्दिरा । नियम ५३–प्राणियों के अपने अंगवाची इकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-गोधिः (ललाट), कटिः (कमर), पालिः (कान की पाल)। नियम ५४-तल प्रत्यायान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं, तल में ल इत् जाता है। स्त्रीलिंग होने के कारण आप् प्रत्यय आता है जिसमें 'आ' शेष रहता है । त और आ मिलकर ता बन जाता है। जैसे-जनता, सुंदरता, मधुरता; साधुता इत्यादि। कुछ स्त्रीवाची शब्द पुल्लिंग भी होते हैं । जैसे-दारा। संधिविचार नियम ५५- (मोनुस्वारयमौ हसे सवर्णी १२३॥१८) पद के अन्त में मकार हो उससे परे हस हो तो मकार को अनुस्वार और यम दोनों हो जाते Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वाक्यरचना बोध हैं । आगे जो हस हो उसका सवर्ण यम होता है । त्वं करोषि, त्वङ्करोषि । त्वं चरसि, त्वञ्चरसि । त्वं टीकसे, त्वण्टीकसे । त्वं तरसि, त्वन्तरसि । त्वं पचसि, त्वम्पचसि । अहंयुः अहय्यु:, त्वं लोकः त्वल्लोकः । संवत्सरः संवत्सरः। नियम ५६–(म्नां झपे नमः सवर्णोऽपदान्ते ११३।३४) अपदान्त में मकार और नकार हो, आगे झप हो तो उनको (म, न को) झप का सवणिक बम हो जाता है, सब कार्य करने के बाद । गन्ता, शङ्किता, अञ्चिता, कुण्ठिता, नन्दिता, कम्पिता। __नियम ५७– (हशसेऽनुस्वारः ११३।३५) अपदान्त में मकार और नकार हो, सामने हकार और शस हो तो मकार, नकार को सब कार्य करने के बाद अनुस्वार हो जाता है। स्वनड्वांहि, दंशः, यशांसि, पुंसि, पयांसि। नियम ५८-(नोऽप्रशान: सक् छतेऽमपरेऽनुनासिकश्च वा १।३।१३) प्रशान् शब्द को छोड़कर न् अन्तवाले शब्दों को सक् का आगम हो जाता है छत परे हो और उससे आगे अम प्रत्याहार हो तो। न् का अनुनासिक और सानुनासिक हो जाता है। जैसे-भवान्+तनोति =भवाँस्तनोति, भवांस्तनोति । भवाँस्छादयति, भवांस्छादयति । भवाँष्टीकते, भवांष्टीकते । प्रयोगवाक्य तस्य गहे गौरस्ति । ग्लौः स्वच्छोऽस्ति । कटं क: करोति ? सूद: समये भोजनं पाचयति । भूपस्य कोषे प्रचुरं धनं अस्ति । तन्तुवायः कुत्र अस्ति ? अहं संस्कृतं पठामि । बालिका तकति । नार्यः नटन्ति । शिशुः बहिर्गन्तुं हठति । वयं न शठामः । शीला त्वां कि अगदत् ? शब्दाः नदन्ति । हिमाद्रिः वायुना न चलति । अग्निः ज्वलति । संस्कृत में अनुवाद करो इस गाय का मालिक कौन है ? चन्द्रमा आकाश में है ? इस चटाई का कर्ता रमेश है। रसोइया क्या करता है ? राजा का खजाना समृद्ध है। जुलाहे ने यह क्या किया ? दुकानदार को नम्र होना चाहिए । कुली उसका भार ले जाता है। शिकारी अभी तक क्यों नहीं आया ? पत्थर में भगवान् नहीं है। उसका पैसा कौन ले गया ? मच्छरों का यहां क्या काम है ? तुम क्या पढ़ते हो ? शीला क्यों नाचती थी? द्रौपदी क्यों हंसी ? रमेश क्यों हठ करता है ? जो सरल होता है वह माया नहीं करता । बहिन ने क्या कहा ? दादी क्यों कांपी ? कैकयी को मंथरा ने क्या कहा? अभ्यास १. स्त्रीलिंग शब्दों की क्या पहचान है ? नियम ५१, ५२ को स्पष्ट करो। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगबोध (१) ३९ २. तल प्रत्यय के तीन रूप लिखें। ३. नीचे लिखें शब्दों के लिंग बताओ और साथ में नियम भी। आनक, कमला, गर्भ, संग्राम, गवाक्ष, चंद्रमस्, अश्वा, दृष्टान्त, निम्नगा; मति, गोधि, उर्वी । ४. संधि करो नियमान् +च । विशिष्टान्+च । शास्त्रादीन्+च । कान्+च । ५. निम्मलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो चटाई, रसोइया, दूकानदार, कुली, शिकारी, पत्थर, मच्छर, कली। ६. मरुत्, आत्मन्, राजन् और युवन् शब्दों के रूप लिखो। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १३ : लिंगबोध (२) शब्दसंग्रह स्कन्धावार: ( छावनी ) । राजपुरुषः (पुलिस) । कासार : ( तालाब ) । कर्दमः (कीचड़ ) । कापटिकः ( बेईमान ) । अनिलः (हवा) । चटक: (चिड़िया) । घुरः ( गाडी का धुरा, जुवा ) । भस्त्र: (धमनी) । कृष्णपक्षः (कृष्णपक्ष ) । कालायसं ( लोहा) । रत्नं ( रत्न) । गुल्मं ( पुलिसचौकी) । ओदनं ( चावल ) । पुष्पं (फूल) । सलिलं (जल) । पद्मं ( कमल) । धातु — लप, जल्प - व्यक्तायां वाचि (लपति, जल्पति ) बोलना । जप - मानसे च ( जपति) जाप करना । चर - भक्षणे च चाद्गती ( चरति ) खाना और जाना । दल - विशरणे ( दलति) नष्ट करना । फल -- निष्पत्ती ( ( फलति ) उत्पन्न होना । रक्ष - पालने ( रक्षति ) रक्षा करना । मह — पूजायां ( महति ) पूजा करना । वज, व्रज-गतो ( वजति, व्रजति) जाना । अज---- क्षेपणे च, चाद् गतो (अजति) फेंकना और जाना । अव्यय - सर्वदा (हमेशा) । यदा ( जब ) । तदा ( तब ) । इत: ( यहां से) । अत : ( इसलिए ) । रत्न शब्द के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट १ संख्या २५ ) अकारान्त नपुंसक लिंग के शब्द रत्न की तरह चलते हैं । भवत्, महत् और हसत् शब्दों को याद करो । ( देखे परिशिष्ट १ संख्या १३, ५४, ५५ ) अज धातु के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट २ संख्या ५१ ) लप से लेकर व्रज तक के रूप पठ धातु की तरह चलते हैं । वज- व्रज के रूप णबादि प्रत्ययों में पठ से भिन्न चलते हैं । (देखें परिशिष्ट २ संख्या ५२, ५३ ) नियम नियम ५ न त, ल, ये जिनकी उपधा में होते हैं वे शब्द नपुंसक - लिंगी होते हैं । जैसे—अजिन (अजिनम् ) मृग की चमड़ी । चक्रवाल चक्र'वाम्) समूह | अद्भुत ( अद्भुतम् ) आश्चर्य । नियम ६० – स्तु, संयुक्त त और र जिनके अन्त में होते हैं वे शब्द नपुंसकलिंगी होते हैं । जैसे - वस्तु ( वस्तु) पदार्थं । अग्र ( अग्रम् ) आगे । गोत्र ( गोत्रम् ) नाम । शुक्र (शुक्रम्) वीर्यं । श्मश्रु ( श्मश्रु) दाढ़ी । लक्ष्य (लक्ष्यम्) लक्ष्य । निमय ६१ - द्विस्वर वाले सकारान्त और मन् प्रत्यय जिनके अन्त में Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ लिंगबोध ( २ ) हों वे शब्द नपुंसक होते हैं जैसे -- रोचिस् (रोचिः ) किरण | यशस् ( यश:) यश । शर्मन् ( शर्म ) सुख । वर्मन् (वर्म) कवच | हेमन् (हेम) स्वर्ण । दामन् (दाम) माला । पामन् ( पाम ) खुजली | वर्त्मन् ( वर्त्म) मार्ग । धामन् ( धाम तेज । वर्ष्मन् ( वर्ष्म) शरीर । नियम ६२ त्व और ट्यण् प्रत्ययान्त शब्द भी नपुंसकलिंगी होते हैं । ट्यण् प्रत्यय में आदि स्वर की वृद्धि और शब्द के अन्त में अकार या इकार का लोप होकर 'य' मिल जाता है । जैसे— मधुरत्व ( मधुरत्वम् ), गंभीरत्व ( गंभीरत्वम् ), माधुर्य (माधुर्यम् ) गाम्भीर्य ( गाम्भीर्यम् ) । कुछ स्त्रीवाची शब्द नपुंसकलिंगी भी होते हैं । जैसे— कलत्र ( कलत्रम्) । - त्रिलिङ्गी नियम ६३ – गुणवाची शब्द - काला, - पीला, नीला, सफेद, अच्छा बुरा, सुन्दर, मधुर आदि गुणवाची शब्द त्रिलिंगी होते हैं । जैसे - कृष्णः पक्षः । कृष्णा गौ: । कृष्णं शरीरम् नियम ६४ - संख्यावाचीशब्द -एक, दो, तीन, चार- ये त्रिलिंगी होते हैं । एको मुनिः । एका साध्वी । एकम् रत्नम् । नियम ६५ – परिमाणवाचीशब्द – थोड़ा, अधिक, लम्बा, चौड़ा, छोटा, बड़ा आदि परिमाणवाची शब्द त्रिलिंगी होते हैं । अल्प: आहारः । अल्पा भक्तिः । अल्पं सामर्थ्यम् । नियम ६६ - सर्व, विश्व, उभ, उभय, त्यद्, तद्, यद्, अदस्, इदम्, आदि सर्वादिगण के सब शब्द त्रिलिंगी होते हैं । सर्वे लोकाः । सर्वा शक्तिः । सर्वं जगत्) संधिविचार नियम ६७--- -- ( अतोत्यु: १ (३(४६) (हबे १1३1५० ) – अकार से परे विसर्ग को उकार हो जाता है यदि अकार या हब प्रत्याहार परे हो तो । जैसे—कः+ अत्र – कोऽत्र । जिनः + अर्च्य : जिनोऽचर्य: । जिन: + वन्द्यः = जिनोवन्द्यः । धर्मः + जयति धर्मोजयति । नियम ६८- - (विसर्गस्य सरछते १।३।४४ ) ( वाशसे १ | ३ | ४५ ) विसर्ग को सकार आदेश हो जाता है छत प्रत्याहार परे हो तो । शम प्रत्याहार परे होने पर विसर्ग को 'स' विकल्प से होता है । जैसे - कः + तरति = कस्तरति । कः + चरति कश्चरति 1 कः + टीकते = कष्टीकते । शुद्धः + साधुः - शुद्धस्साधुः, शुद्धः साधुः । = नियम ६९ - ( अवर्णभोभगोअघोभ्यो लोपः १ । ३ । ५१ ) अवर्ण, भोस्, भगोस् और अघोस् से परे विसर्ग का लोप हो जाता है हब प्रत्याहार परे होने पर । जैसे— श्रमणाः + गच्छन्तिः श्रमणा गच्छन्ति । भोः + गच्छसि भो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ गच्छसि । भगोः + हससि - भगो हससि । अघो: - यासि = अघोयासि । प्रयोगवाक्य वाक्यरचना बोध स्कन्धावारः इतः कियत् दूरमस्ति । राजपुरुषाः नगरे किं कुर्वन्ति ? अस्माकं ग्रामे एकोsपि कासारः नास्ति । कर्दमे गजोऽस्ति । कापटिकानां विश्वासं मा कुरु । प्रातः शीतः अनिलः चलति । युधिष्ठरः अर्जुनं जगाद । सर्वदा जिनं जप | गौ: वने चरति । पापानि दल । क्षेत्रे कि फलति । मां रक्ष । जिनं मह त्वं वज । स व्रजति । संस्कृत में अनुवाद करो छावनी में कोन है ? पुलिस क्या करती है ? तालाब में पानी नहीं है । कीचड़ में पैर मत रखो | वह बेईमान है । अभी पूर्व में हवा चलती है । चिड़िया वृक्ष पर बैठी है । गाडी की धुरा कहां है ? लोहार धमनी से लोहा धमता है । कृष्णपक्ष में चन्द्रमा नहीं बढ़ता है। पुलिस चौकी कहां है ? ये रत्न किनके हैं ? मुझे चावल अच्छे नहीं लगते । फूल में सुगंध नहीं है । आचार्यश्री ने तुम्हें क्या कहा ? मुनि जाप करता है । गाय क्या खाती है ? जो पापों को नष्ट करता है, वह महान् है । वृक्ष पर फल फूलते हैं । माता पुत्र की रक्षा करती है । मोहन गांव जाएगा। मैं सदा जिनेश्वर देव की भाव पूजा करता हूं । अभ्यास १. किस उपधावाले शब्द नपुंसकलिंग में होते हैं ? २. द्विस्वर वाले और मन् प्रत्यय अंत वाले कौन से शब्द हैं ? ३. त्रिलिंग शब्दों के क्या नियम हैं ? ४. कौनसा शब्द स्त्रीवाची होने पर भी नपुंसकलिंग में प्रयुक्त होता है। ५. निम्नलिखित शब्दों में कौन से शब्द किस लिंग के हैं ? अजिन, वस्तु, त्रि, श्मश्रु, दामन् माधुर्य, श्वेत, विस्तृत । ६. सन्धि करो - लग्नाः+तम् । कृपाणपाणि: + तनोति । कः + अयं । यतः + अचिन्तितः निर्णीताः + ते । कः + साधकः । जिन: + तरति । गावः + चरन्ति । जिना: + गच्छन्ति । ७. संधि विच्छेद करो । सर्वज्ञयं शुद्धसम्यक्त्व, रामस्तरीतुं, भगोव्रजसि, अधोयासि । ८. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो पुलिस, कीचड़, चिड़िया, धमनी, बेईमान, लोहा, पुलिस, चौकी, चावल | ६. सीता और नदी शब्दों के रूप लिखो ।. १०. पठ धातु के सारे रूप लिखो । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १४ : विशेषण और विशेष्य शब्दसंग्रह उन्मादः (पागलपन)। प्रतिश्यायः (जुकाम)। चिकित्सकः (वैद्य) । अनाचारः (अकरणीय)। पर्यंकः (पल्यंक) । प्रजा (प्राणी)। पथ्यं (हितकारी) शर्करोदकं / शर्बत) ) उपवनं (बगीचा) । कृशः (दुर्बल) । तीक्ष्णः (तेज) । मन्दः (मन्द) । हरितः (हरा) । कृष्णः (काला) । श्वेतः (सफेद)। नीलः (नील) । रक्तः (लाल)। पीतः (पीला) । सज्जनः (सज्जन) । दुर्जनः (दुष्ट) । दक्षः (चतुर) । सुंदरः (सुंदर)। परिमाण वाचक शब्द - गुजा (रत्ती) । कणमा (छटांक) द्विकणमे (अधपाव)। माषक: (माशा)। तोलकः (तोला)। कणमाचतुष्टयं (पाव भर) । अर्धसेरकं (आधा सेर) । सेरकं (सेरभर) । धटिका (धड़ी, पंसेरी)। धारा (दश सेर) । अर्धमणः (२० सेर) । मणः (मण)। धातु-वाछि -- इच्छायाम् (वाञ्छति) इच्छा करना । तकि-कृच्छजीवने (तङ्कति) कष्ट साध्य जीवन जीना । खजि --गुति वैकल्ये (खजति) लंगडाना । गुजि- अव्यक्ते शब्दे (गुञ्जति) गूंजना। लुटि---स्तेये (लुण्टति) लूटना । णिदि--कुत्सायां (निन्दति) निंदा करना। चदि-दीप्त्याह्लादनयोः (चन्दति) दीप्ति और आनंद होना । टुनदि - समृद्धी (नन्दति) समृद्ध होना । ऋदि, क्लदि-रोदनाह्वानयोः (क्रन्दति, क्लन्दति) रोना और बुलाना । चुबिवक्त्रसंयोगे (चुम्बति) चुम्बन करना । काक्षि ---कांक्षायां (काङ्क्षति) इच्छा करना । दधि, वारि शब्द याद करो। अक्षि, अस्थि के रूप दधि की तरह चलते हैं। (देखें परिशिष्ट १ संख्या २६,२७) । ____ वाछि धातु के रूप याद करो। तकि से लेकर काक्षि तक वाछि की तरह रूप चलेंगे । (देखें परिशिष्ट २ संख्या १६) । विशेष्य, विशेषण जो शब्द अर्थवान् हो उसे नाम कहते हैं। जैसे-महावीरः, बालकः, गौः, वृक्षः, ग्रामः, पुस्तकम् । जिस नाम के पीछे विशेषण जुड़ जाता है तब वह नाम विशेष्य बन जाता है। विशेषण द्वारा जिसकी विशेषता जानी जाती है उसे विशेष्य कहते हैं। जैसे-दुष्टो मनुष्यः-इसमें मनुष्य विशेष्य है और दुष्ट विशेषण । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध नाम और क्रिया की अवस्था में भेद दिखलाने वाले शब्दों को विशेषण कहते हैं। विशेषण के दो भेद हैं-नामविशेषण और क्रियाविशेषण।। जिस शब्द से नाम की कोई विशेषता जानी जाती है उसे नामविशेषण कहते हैं । जैसे-दुष्टो मनुष्यः दुष्टतां न जहाति । इस वाक्य में दुष्ट.शब्द मनुष्य का विशेषण है। यह उस मनुष्य की विशेषता यानि एक अवस्था बतलाता है-वह मनुष्य दुष्ट है। सब मनुष्यों जैसा नहीं है, इसका बोध कराता है। नामविशेषण के मुख्यतया चार भेद हैं-सार्वनामिक, गुणवाचक, संख्यावाचक और परिमाणवाचक । (१) सार्वनामिक विशेषण-संज्ञा के स्थान पर जिन शब्दों का प्रयोग होता है उन्हें सर्वनाम कहते हैं। संस्कृत में सर्वनाम शब्द निम्न है- तद्, एतद्, इदम्, युष्मद्, अस्मद् इत्यादि । जहां सर्वनाम विशेषण होता है उसे सार्वनामिक विशेषण कहते हैं । जैसे-अहं रामः । (२) गुणवाचक विशेषण-जहां गुणवाचक शब्द विशेषण बनते हों उसे गुणवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे-नवीनं पुस्तकम् । विस्तृतं स्थानम् । चतुष्कोणः पर्वतः । दुर्बलं शरीरम् । सज्जनः पुरुषः । (३) संख्यावाचक विशेषण-जहां संख्यावाचक शब्द विशेषण बनता हो उसे संख्यावाचक विशेषण कहते हैं । जैसे- द्वादशः आगमः । (४) परिमाणवाचक विशेषण-जहां परिमाणवाचक शब्द विशेषण बनता हो उसे परिमाणवाचक विशेषण कहते हैं । जैसे—अल्पं दुग्धम् ।। क्रियाविशेषण-जिस शब्द से क्रिया की विशेषता जानी जाती है उसे क्रियाविशेषण कहते हैं। जैसे–मन्दं गच्छति-इस वाक्य में 'मन्द' शब्द चलने की विशेषता बतलाया है अर्थात् हमें इस बात का बोध कराता है कि चलने की अवस्था कैसी है। क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति, नपुंसकलिंग और एकवचन होता है । जैसे-- उच्चजल्पति । मृदु पचति । क्रूरं पश्यति । संधिविचार नियम ७०- (सोऽह्न : २।१।१०५) पद के अंत में अहन् शब्द के अंत को सकार आदेश हो जाता है। नियम ७१ - (स्रोविसर्गः २।१११०३) पद के अंत में सकार और रेफ को विसर्ग आदेश हो जाता है। अहो राजते, अहो रूपम् । नियम ७२-(रोऽरस्यादि भे २।१।१०६) पदान्त में अहन शब्द हो तो उसके अंत को रकार आदेश हो जाता है, आगे रकार और स्यादिप्रत्ययों में भ आदि प्रत्ययों को छोड़कर । नियम ७३-(र: १।३।५६) रकार का विसर्ग बना हो वह वापस रकार हो जाता है यदि अब परे हो तो । अहरहः, अहर्गणः, अहर्भवः, प्रातरत्र, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण और विशेष्य अन्तर्गतः । नियम ७४ – (नामिनो रोडबे १।३।५५ ) नामि (अवर्ण को छोड़ ) स्वरों से परे विसर्ग को रकार हो जाता है अब प्रत्याहार परे हो तो । मुनिः + अत्र = - मुतिरत्र । साधुः + आयाति साघुरायाति । बुद्धिरियम् । साघुरयं । === == नियम ७५– (रोरिलोपो दीर्घश्चादिदुत: १।३।३६ ) रकार से आगे कार हो तो पूर्व रकार का लोप हो जाता है और उससे पूर्व स्वर अ, इ, उ हो तो उन्हें दीर्घ हो जाता है । निर् + रक्त = नीरक्तं । दुर् + रमणीयंदूरमणीयं । पुनर् + रमते पुनारमते । प्रातर् + रौति = प्रातारीति । प्रयोगवाक्य ४५ == तस्य उन्मादं पश्य । प्रतिश्याये शीतलं पेयं न पेयं । कुशलचिकित्सकानां निदानं महत्त्वपूर्णं विद्यते । कृष्णा धेनुः मधुरं दुग्धं ददाति । इदं वस्त्रं श्वेतं कथं जातम् ? कृशो बालः बुद्धिमानस्ति पाठशालायां । वृक्षेऽस्मिन् कियन्ति पत्राणि हरितानि संति ? त्वं मंदं वद । अनाचारः अनाचरणीयोऽस्ति । अहोरूपं अहो ध्वनिः कस्याः कथायाः सारोऽस्ति ? देवेन्द्र: पुस्तकं वाञ्छति । दस्यवः जनान् आतङ्कन्ति । बालः खञ्जति । गुरोः शब्दाः अद्यापि गुञ्जन्ति । चोरः धनिकान् लुण्ठति । गुरुं मा निन्द्याः । भूप: नंदति । शिशुः क्रन्दति क्लन्दति वा । जननी पुत्रं चुम्बति । वयं पुस्तकं कांक्षामः । अभ्यास १. विशेषण और विशेष्य किसे कहते हैं ? २. विशेषण के भेद और प्रभेद कितने हैं ? ३. क्रियाविशेषण से आप क्या समझते हैं ? संस्कृत में अनुवाद करो यह कुशल चिकित्सक है । यह पल्यंक काला है । शर्बत मीठा है । सदा हितकारी भोजन करो । मोहन का बगीचा सुंदर है । जैन मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं । नीलो गाय को देखो। मुझे लाल रंग दो । सज्जन पुरुष की संगति करो । दुष्ट व्यक्ति से दूर रहो । मामी कहां गिरी ? यदि तुम झुक जाते तो तुम्हारा कार्य हो जाता । काली गाय खेत में चर रही है। उसने मधुर पेय पीया था । प्रतिदिन पाव भर दूध पीना चाहिए । मोहन को दश सेर चावल दो। मुझे एक तोला घी दो । यह एक छटांक दूध है । तुम आधा मन पानी से नहाते हो। तुम वहां से पांच घड़ी पानी ले आओ । मण भर दूध कहां से आएगा ? महेंद्र धीरे-धीरे बोले । मोहन क्या चाहता है ? गुफा में शब्द गूंजते है । बालिका क्यों लंगडाती है ? पथिक को किसने लूंटा ? किसी की निंदा मत करो । राजा समृद्ध है । तुम क्यों रोते थे मां ने पुत्र का चुम्बन कब लिया । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ४. नियम पूर्वक संधि विच्छेद करो - अहर्भुङ्क्ते, अहरधीतं अहर्ददाति, साधुरात्मवान्, मतिरेषा, पटूराजा; • उच्चरोति, पुनारक्षणीयं प्राताराज्यं प्रातर्गतः, शान्तिरेव साधनैरितरे, शांतेरुपायाः, विरतिद्वितीयम् । ५. संधि करो - बहिः + इति, उच्चैः + उच्चैः सर्वैः + अपि अन्तर् + राष्ट्रीयः । ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो पागलपन, जुकाम, शर्बत, पल्यंक, पीला, बगीचा, अधपाव, माशा, छटांक, आधा सेर, मण | - वाक्यरचना बोध ७. रत्न, महत्, भवत् और हसत् शब्दों के रूप लिखो । ८. अज, वज, व्रज धातु के रूप लिखो । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १५ : संख्यावाची शब्द संख्यावाची शब्द एक से लेकर दस तक स्वतंत्र चलते हैं। उसके आगे ग्यारह से निन्नानवें तक यौगिक शब्द हैं। दो संख्याओं के योग से संख्यावाची शब्द का बोध होता है। (क) एक शब्द अकारान्त है, द्वि और त्रि शब्द इकारान्त हैं। चतुर् शब्द रकारान्त और षष् शब्द षकारान्त है । पंच, सप्त, अष्ट, दस शब्द नकारान्त है । दस से लेकर अठारह तक के शब्दों के अन्त में दशन् होने से दस की तरह रूप चलते हैं। एकोनविंशति से लेकर नवविंशति तक के शब्द विंशति की तरह चलते हैं। तीस से लेकर उनसठ तक के शब्द त्रिंशत् की तरह चलते हैं। एकोनषष्टि से लेकर नवनवति (६६) तक के शब्द ह्रस्व इकारान्त हैं। (ख) तीन से लेकर अठारह तक की संख्या बहुवचन में चलती है । एकोनविंशति से लेकर नवविंशति तक के सारे शब्द एक वचनान्त स्त्रीलिंग हैं । जहां इन संख्याओं में कई वर्गों का निरूपण करते हैं वहां इनमें बहुवचन भी होता है । जैसे--धर्मशास्त्रस्य विंशतयः पुस्तकानि संति (धर्मशास्त्र की वीसों पुस्तके हैं। एक से लेकर चार तक के शब्द तीनों लिंगों में व्यवहृत होते हैं । पांच से अठारह तक की संख्या के शब्द तीनों लिंगों में एक समान चलते हैं। विंशति, सप्तति, अशीति, नवति शब्द तथा ये जिनके अन्त में हों उनके रूप बुद्धि की तरह चलते हैं । त्रिंशत्, चत्वारिंशत्, पञ्चाशत् ये शब्द तथा ये जिनके अन्त में हों उनके रूप स्त्रीलिंग में सरित् की तरह चलते हैं। षष्टि का रूप स्त्रीलिंग में बुद्धि की तरह चलता है। (ग) शतं, सहस्र, अयुतं, नियुतं, प्रयुतं आदि शब्द नित्य एकवचनान्त नपुंसकलिंग शब्द है । इनके रूप नपुंसक के रत्न की तरह चलते हैं। (घ) सौ से ऊपर की संख्या के लिए बीच में अधिक शब्द जोड़ा जाता है । जैसे-एकाधिकं शतम् । द्वयधिकं शतम् । व्यधिकं शतम् । (ङ) दो सौ की संहा और तीन सौ की संख्या को दो प्रकार से कह सकते हैं। जैसे-द्विशती, शतद्वयम् । त्रिशती, शतत्रयम् । चार सौ से लेकर नौ सौ तक-चतुःशती, पञ्चशती, षट्शती, सप्तशती, अष्टशती; नवशती। (च) करोड़ (कोटि), दश कोटयः, अर्बुदं (अरब), खवं (खरब), नीलं (नील), पद्म (पद्म), शंखं (शंख), महाशंख (महाशंख), संख्येयं (संख्येय), असंख्येयं (असंख्येय), अनन्तं (अनन्त)। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 वाक्यरचना बोध १. एक २.द्वि an sinx ४. चत्वारः ५. पञ्च ६. षट् ७. सप्त ८. अष्ट ६. नव १०. दश ११. एकादश १२. द्वादश १३. त्रयोदश . १४. चतुर्दश १५. पञ्चदश १६. षोडश १७. सप्तदश १८. अष्टादश १६. एकोनविंशति २०. विंशतिः २१. एकविंशतिः २२. द्वाविंशतिः २३. त्रयोविंशति २४. चतुर्विंशतिः २५. पञ्चविंशतिः २६. षड्विंशतिः २७. सप्तविंशतिः २८. अष्टाविंशतिः २६. एकोनविंशतिः ३०. त्रिंशत् ३१. एकत्रिंशत् ३२. द्वात्रिंशत् ३३. त्रयस्त्रिंशत् ३४. चतुस्त्रिशत् संख्यावाची शब्दः ३५. पञ्चत्रिंशत् ३६. षट्त्रिंशत् ३७. सप्तत्रिंशत् ३८. अष्टात्रिंशत् ३९. नवत्रिंशत् एकोनचत्वारिंशत्, ४०. चत्वारिंशत् ४१. एकचत्वारिंशत् ४२. द्विचत्वारिंशत्, द्वाचत्वारिंशत् ४३. त्रयश्चत्वारिंशत् ४४. चतुश्चत्वारिंशत् ४५. पंचचत्वारिंशत् ४६. षट्चत्वारिंशत् ४७. सप्तचत्वारिंशत् ४८. अष्टचत्वारिंशत्, अष्टाचत्वारिंशत् ४६. नवचत्वारिंशत्, एकोनपञ्चाशत् ५०. पञ्चाशत् ५१. एकपञ्चाशत् ५२. द्विपंचाशत्, द्वापञ्चाशत् ५३. त्रिपञ्चाशत्, त्रयःपञ्चाशत् ५४. चतुःपञ्चाशत् ५५. पञ्चपञ्चाशत् ५६. षट्पञ्चाशत् ५७. सप्तपञ्चाशत् ५८. अष्टपञ्चाशत्, अष्टापञ्चाशत् ५६. नवपञ्चाशत्, एकोनषष्टिः ६०. षष्टिः ६१. एकषष्टिः . ६२. द्विषष्टिः, द्वाषष्टिः ६३. त्रिषष्टिः, त्रयःषष्टिः ६४. चतुःषष्टिः ६५. पञ्चषष्टिः ६६. षट्षष्टिः ६७. सप्तषष्टिः ६८. अष्टषष्टिः अष्टाषष्टिः Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यावाची शब्द ६६. नवषष्टिः एकोनसप्ततिः ८५. पञ्चाशीतिः ७०. सप्ततिः ८६. षडशीतिः ७१. एकसप्ततिः ८७. सप्ताशीतिः ७२. द्विसप्ततिः, द्वासप्ततिः ८८. अष्टाशीति: ७३. त्रिसप्ततिः, त्रयःसप्ततिः ८६ नवाशीतिः, एकोननवतिः ७४. चतुःसप्ततिः ६०. नवतिः ७५. पञ्चसप्ततिः ६१. एकनवतिः ७६. षट्सप्ततिः ६२. द्विनवतिः, द्वानवतिः ७७. सप्तसप्ततिः ६३. त्रिनवतिः, त्रयोनवतिः ७८. अष्टसप्ततिः, अष्टासप्ततिः ६४. चतुर्णवतिः ७६. नवसप्ततिः एकोनाशीतिः । ६५. पञ्चनवतिः ८०. अशीतिः १६. षण्णवतिः ८१. एकाशीतिः ६७. सप्तनवतिः ५२. द्वयशीतिः ६८. अष्टनवतिः, अष्टानवतिः ८३. त्र्यशीतिः ६०. नवनवतिः, एकोनशतम् ८४. चतुरशीतिः १००. शतम् एक, द्वि, त्रि और चतुर् शब्दों के रूप तीनों लिंगों के याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ३६, ४०, ६६, ७०) प्रयोगवाक्य मम पंच भ्रातरः सन्ति । ज्येष्टभ्रातुः चतस्रः पुत्र्यः सन्ति । मम कनिष्ठभ्रातुः एकः पुत्रः तिस्रः पुत्र्यश्च सन्ति । भगवतः महावीरस्य सप्त गणा आसन् । आचार्यवरा: अत्र एकादशवादनसमये आगमन् । विंशतिः जना एतत् कार्य कुर्युः। त्रिंशत् गावः अनेन मार्गेण अगमन् । चत्वारिंशत् छात्रा अत्र अपठन् । अस्माकं विद्यालये अशीतिः बालिकाः पठन्ति । पितामहः मह्य एकाधिकशतं रुप्यं ददौ । मोहनस्य पार्वे कोटि धनं अस्ति । अस्मिन् देशे अब्जं पुरुषा निवसन्ति । खर्व, नीलं, पद्म, शंखं च धनमपि तृप्ति न ददाति । संस्कृत में अनुवाद करो ___ मोहन के एक लड़का और दो लड़की हैं। उसके तीन भाई और चार बहिनें हैं। अध्यापक के पास पांच छात्र और छह छात्राएं पढ़ती हैं। मेरे सात भुआएं हैं । तुम्हारे आठ मामा हैं । मेरे दादा के पास नव गायें और दस घोड़े हैं। बीस आदमी खेत जाते हैं । तीस मनुष्य यहां कार्य करते हैं । चालीस स्त्रियां गाना गाती हैं। पचास छात्राएं परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई । साठ छात्र परीक्षा में फेल हो गये । सत्तर महिलाएं यहां से गई थी । अस्सी साधु यहां Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध बैठे हैं। नब्बे आदमी आज यहां आये थे। इस विद्यालय में सौ बालक और दो सौ बालिकायें पढ़ चुकी हैं। भगवान महावीर के चौदह हजार साधु थे। दो सौ करोड़ रूपये भी एक वर्ष में खर्च करना सरकार के लिए कठिन नहीं अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करोतव एकः भगिनी अस्ति । मम तिस्रः पितृव्याः सन्ति । चतस्रः पुरुषाः कुत्र गमिष्यन्ति । पंच छात्रः मम पार्वे अपठन् । अस्मिन् वृक्षे दश विहगः अतिष्ठन् । विंशतिः स्त्री कूपे जग्मुः । अस्मिन् कार्ये पंचशतपुरुषाः रताः सन्ति । २. विंशति से आगे की संख्या और सौ से पहले के लिए कौन-कौन से नियम ३. कौन सी संख्या के दो-दो रूप बनते हैं ? ४. संख्यावाची शब्दों में कौन से शब्द स्त्रीलिंग है और कौन से पुल्लिग और कौन से त्रिलिंगी। ५. नीचे लिखी संख्या के लिए संस्कृत में क्या शब्द हैं। तेरह, नियासी, पचाणव, पचपन, पद्म, दो सौ, तीन सौ, पैंतीस, अठारह, छव, पैंसठ; सत्तावीस। “६. दधि और वारि शब्दों के रूप लिखो। ४७. वाछि धातु के रूप लिखो। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६ : स्त्री प्रत्यय (१) शब्दसंग्रह खट्वा (खाट) । अजा (बकरी) । एडका (भेड)। अश्वा (घोडी) । कोकिला (कोयल)। चटका (चिडिया)। मूषिका (चूहिया)। बाला (लड़की)। वत्सा (बछडी)। सुपर्वा (देवता)। महिषी (रानी, भैंस)। मही (पृथ्वी)। रजनी (रात)। शुनी (कुतिया)। कौमुदी (चांदनी)। विदुषी (विद्वान् स्त्री)। प्राची (पूर्वदिशा)। प्रतीची (पश्चिमदिशा) । उदीची (उत्तरदिशा) । कुमारी (अविवाहित बालिका)। धातु-शुच- शोके (शोचति) शोक करना। कुच-उच्चः शब्दे (कोचति) ऊंचे स्वर से शब्द करना। लुट ---विलोटने (लोटति) लोटना । चुप-मंदगती (चोपति) धीरे-धीरे चलना । उषु, प्लुषु-दाहे (ओषति; प्लोषति) जलना। पुष-पुष्टी (पोषति) पुष्ट करना। बुध--बोधने (बोधति) जानना । लुञ्च-अपनयने (लुञ्चति) दूर करना । बुक्क-भषणे (बुक्कति) भूकना। लक्ष्मी, स्त्री और श्री शब्द के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या ६०,५८,५९) __ शुच धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २, संख्या १७) कुच से पुष धातु तक के रूप शुच की तरह चलते हैं, उषु के रूप कुछ भिन्न चलते हैं (देखें परिशिष्ट २ संख्या ५४) । बुक्क के रूप लुञ्च की तरह ही चलते हैं । लुञ्च के रूप देखें (परिशिष्ट २ संख्या ५५) । स्त्रीप्रत्यय पुल्लिग शब्दों को स्त्रीलिंग में परिवर्तित करने के लिए जो प्रत्यय लगाए जाते हैं उन्हें स्त्रीप्रत्यय कहते हैं। वे चार हैं-आप्, ई, ऊङ् और ति । इनमें पिछले दो प्रत्यय बहुत ही कम काम में आते हैं । आप् और ईप् प्रत्यय ही अधिक लगते हैं। आप का रूप कहीं पर काप् और डाप् के रूप में भी मिलता है। आप और ईप् में प् इत् चला जाता है। आप्प्रत्ययान्त शब्द के रूप सीता की तरह और ईपप्रत्ययान्त शब्द के रूप नदी की तरह चलते हैं। (ईप्यतः ८।४.७२) से ईप्प्रत्यय परे होने पर अकारान्त शब्द के 'अ' का लोप हो जाता है। नियम ७६ क-(आवतः स्त्रियाम् २।३।१) अकारान्त नाम से स्त्रीलिंग में आप् प्रत्यय होता है । खट्वा, सर्वा, या, सा। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ वाक्यरचना बोध ख-(अजादेः २।३।२) अज आदि शब्दों से आप् प्रत्यय होता है । अजा, एडका, अश्वा, कोकिला, चटका, मूषिका, बाला, वत्सा, मंदा, ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा, कन्या। ग-(अतइदनित्काप्ययत्तक्षिपकादीनाम् २।३।९५) यत्, तत्, क्षिपका आदि शब्दों को छोड़कर अकारान्त नाम से इकार हो जाता है, काप् (क+आप्) प्रत्यय आगे हो तो । क प्रत्यय ऐसा हो जिसका अ इत् नहीं गया हो। कारिका, पाचिका, पाठिका, मुण्डिका । नियम ७७ -(ह्रस्वश्चाभाषितपुंस्कात् २।३।१०४) जो शब्द पुल्लिग में कहे गए हों उन्हें भाषितस्क कहते हैं। अभाषितपुंस्क शब्द से परे आप् को इ और ह्रस्व विकल्प से होता है, अनित् काप् परे हो तो। गङ्गिका, गङ्गका, गङ्गाका । परमखट्विका, परमखट्वका, परमखट्वाका। नियम ७८- (नृतोऽस्वस्रादेः २।३।७) नकारान्त और (स्वस, तिसृ, चतसृ, ननान्द, दुहित, यात, मातृ इन सात शब्दों को छोड़कर) ऋकारान्त शब्दों से ईप् प्रत्यय होता है । दण्डिनी, शुनी। की, ही। नियम ७६ क- (उदृदितोऽधातोः २।३।८) उकार और ऋकार इत् जाने वाली धातुओं को छोड़कर, उकार और ऋकार इत् जाने वाले प्रत्ययों के शब्द या अप्रत्ययों के शब्द से स्त्रीलिंग में ईप् प्रत्यय होता है। भवती, गोमती, विदुषी, पचन्ती, पठन्ती। ख--(मनो डाब् वा २।३।४) मन् अंत वाले शब्दों से आप् प्रत्यय होता है । सीमा। नियम ८०- (अनो बहुब्रीहेः २।३।५) बहुव्रीहि समास होने पर अन् अंत वाले शब्दों से डाप् प्रत्यय विकल्प से होता है । सुपर्वा । नियम ८१- (उपधालोपिनो वा २।३।१४) बहुव्रीहिसमास होने पर अन् अंत वाले शब्दों की उपधा का लोप होने पर ईप् प्रत्यय विकल्प से होता है, आप् प्रत्यय भी । बहुराज्ञी । बहुराजा, बहुराजानौ, बहुराजानः । बहुराजा; बहुराजे, बहुराजाः। नियम ८२- (अञ्च: २।३।६) अञ्चु उत्तरपद में हो तो ईप् प्रत्यय होता है । प्राची, प्रतीची। नियम ८३-(मुख्यात् षिट्टिदणञ्नस्नोयेकणीकण्क्वरपः २।३।२०) ए अनुबन्ध और ट् अनुबन्ध प्रत्ययान्त शब्द तथा अण, अन्, नन्, स्नन्, एय, एयण, एयञ्, इकण, ईकण, क्वरप्-इन प्रत्यायन्त शब्दों से ईप् प्रत्यय होता है । षाक-वराकी, भिक्षाकी । चरट- कुरुचरी, मद्रचरी। अण्-तपोऽस्या अस्तीति तापसी । अञ्--विदस्य अपत्यं स्त्री बैदी । नञ्-स्त्रैणी । स्नञ्पौंस्नी। एयण-वैनतेयी। एयञ्–शैलेयी। इकण-अक्षिकी। ईकण्शाक्तीकी, याष्टीकी । क्वरप्–सृत्वरी, जित्वरी। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्यय (१) ५३ प्रयोगवाक्य भूपः सर्वाः भूमी: अधिकरोति । या बाला अत्र समागच्छत् सैव तत्रागमत् । मम एका ज्येष्ठा एका च कनिष्ठा भगिनी अस्ति । अस्य पुस्तकस्य कारिका पाठिका च का अस्ति ? रोग ही औषधिः का विद्यते ? इमां कवितां की बालिका सुन्दरी नास्ति । भ्रात: ! त्वं मा शुच । गर्दभः लोटति । मोहनः चोपति । अग्निः तृणानि ओषति प्लोषति वा । दुग्धः बालस्य शरीरं पोषति । कि सोहनः प्राकृतं बोधति ? मुनिः केशान् लुञ्चति । संस्कृत में अनुवाद करो खाट पर कौन सोया है ? बकरी खेत में है। भेड कूए पर है । घोडी सुन्दर है । कोयल मधुर गाती है । चिडिया वृक्ष पर बैठी है। बछडी गाय का दूध पीती है। देवता भी त्यागियों को नमस्कार करते हैं। सूर्य पूर्वदिशा में उगता है और पश्चि नदिशा में छिपता है। उत्तरदिशा की ओर सिर कर नहीं सोना चाहिए। तुम गाय का दूध पीते हो या भैस का । मुनियों के लिए पृथ्वी सुन्दर शय्या है। रात में तुम कहां गए थे ? कुमारी लड़कियां कहां खेलती हैं ? कुतिया के कितने बच्चे हैं ? चन्द्रमा की चांदनी सभी का मन हरती है । साध्वियों में कौन विदुषी है ? तुम शोक क्यों करते हो ? कुत्ता घर में ही लोटता है । चोर धीरे-धीरे चलता है। वन में आग जलती है। फलों का रस मनुष्यों को पोषण देता है। क्या तुम संस्कृत जानते हो ? क्या तीर्थंकर लोच करते हैं ? अभ्यास १ निम्नलिखित वाक्यों में शुद्ध, अशुद्ध बताओएतासु मध्यमं कन्यं कथय । दण्डिनी कदा वनमव्रजत् । किं सा भवती स्वसा अस्ति ? पुस्तकं पठन्तीं सा कदा अस्वपत् । इमा तापसी असुंदरा चकास्ति । मातुलि ज्ञापय साध्व्यो तव गृहे भिक्षार्थमागमताम् । २ निम्नलिखित शब्दों के स्त्रीलिंग के रूप बताएं अज, मंद, अश्व, भवत्, विद्वस्, पचत्, पठत्, कारक, पाठक, मूषक, बाल; मंद, श्वन्, दण्डिन् । ३ बहुराजन् का स्त्रीलिंग में क्या रूप बनेगा ? ४ शत प्रत्ययान्त शब्दों के स्त्रीलिंग में किस नियम से क्या रूप बनता है ? ५ नीचे लिखे शब्दों में किस नियम से और किस प्रत्यय से ईप हुआ हैकुरुचरी, भिक्षाकी, तापसी, स्त्रणी, आक्षिकी, याष्टीकी, वराकी, वैनतेयी, शैलेयी, जित्वरी। ६ निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो__ घोडी, चूहिया, कोयल, कुतिया, भेड, बकरी, रात, भैंस, पूर्वदिशा। ७ एक, द्वि, त्रि और चतुर् शब्दों के तीनों लिंगों के रूप लिखो। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १७ : स्त्रीप्रत्यय । . जर पिपासा शब्दसंग्रह भवानी, गौरी, रुद्राणी, मृडानी, शर्वाणी (पार्वती) । शबली (कर्बुर वर्णवाली, चितकबरी)। गवयी (रोज-एक प्रकार का पशु जो गाय के समान होता है) । हयी (घोडी) । अनडुही (गाय)। मत्सी (मछली) । कुक्कुटी (मुर्गी) । मक्षिका (मक्खी । यूका (जू)। शोणी (पीला और लाल वर्णवाली घोड़ी)। कमला (लक्ष्मी)। मातुली (मामी)। सिंही (शेरनी)। सर्पिणी (साँपिन)। मार्जारी (बिल्ली)। मणिपूच्छी (जिसकी पंछ में मणि है)। सुनासिकी (जिसकी नाक अच्छी है)। कृशोदरी (जिसका पेट पतला है)। सपत्नी (सौत) । इन्द्राणी (इन्द्र की स्त्री)। धातु-अर्ह-पूजायाम् (अर्हति) पूजा करना। अर्च-पूजायां (अर्चति) पूजा करना। तर्ज-भर्त्सने (तर्जति) भर्त्सना करना । गर्जशब्दे (गर्जति) शब्द करना । नर्द, गर्द-शब्दे (नर्दति, गर्दति) शब्द करना। तर्द-हिंसायां (तर्दति) हिंसा करना । कर्द-कुत्सिते शब्दे (कर्दति) खराब शब्द करना । खर्द-दशने (खर्दति) दंशना, काटना । चर्व-अदने (चर्वति) खाना । गर्व-दर्प (गर्वति) गर्व करना। धेनु, वधू, स्वस और मातृ शब्दों के रूप याद करो। (परिशिष्ट १ संख्या २०, ६१, ६२, ६३) अहं और तर्ज धातु के रूप याद करो (परिशिष्ट २ संख्या ५६, ५७) अर्च के रूप अहं की तरह चलेंगे। नई से लेकर गर्व धातु तक के रूप तर्ज की तरह चलेंगे। नियम नियम ८४ क-(गौरादिभ्यः २।३।२७) गौर आदि शब्दों से ईप् प्रत्यय होता है । गौरी, नदी, शबली, गवयी, हयी, अनडुही। न (main m. -.v...2 ईप् प्रत्यय परे होने पर । मत्सी। ग- (हसात् तद्धितस्य ८।४।७४)हस् से परे तद्धित के य प्रत्यय का का लोप हो जाता है, ईप् प्रत्यय परे हो तो । मनुषी। नियम ८५- (वयस्यचरमेतः २।३।२५) अंतिम वयस् (अवस्था) को छोड़कर शेष अकारान्त वयस् शब्दों से ईप् प्रत्यय होता है । कुमारी, किशोरी, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्यय (२) तरुणी। नियम ८६--- (जातेरयोपधनित्यस्त्रीशूद्रात् २।३।३६) य उपधा वाले शब्द, नित्यस्त्रीजातिवाचक शब्द और शूद्र शब्द को छोड़कर जातिवाची अकारन्त नाम से ईप् प्रत्यय होता है । मृगी, हंसी, ब्राह्मणी, कुक्कुटी, शूकरी । य उपधा-इभ्या, क्षत्रिया, वैश्या, आर्या । नित्यस्त्री-मक्षिका, यूका, शूद्रा । नियम ८७-(शोणादे: २।३।३४) शोण आदि शब्दों से ईप् प्रत्यय विकल्प से होता है। शोणी, शोणा । चण्डी, चण्डा। कमली, कमला। विशाली, विशाला। कल्याणी, कल्याणा। उदारी, उदारा । कृपणी, कृपणा । नियम ८८ --- (इन्द्रवरुणभवशवरुद्रमृडानामानुक् च २।३।५५) भर्ता वाची इन्द्र आदि शब्दों से ईप् प्रत्यय होता है और आनुक् (आन् ) का आगम होता है । इन्द्रस्य स्त्री इन्द्राणी, वरुणानी, भवानी, शर्वाणी, रुद्राणी, मृडानी। __नियम ८६ - (मातुलाचार्योपाध्यायाद् वा २।३।५६) मातुल, आचार्य और उपाध्याय शब्दो से ईप् प्रत्यय होता है और आनुक् का आगम विकल्प में होता है । मातुलानी, मातुली। उपाध्यायानी, उपाध्यायी। आचार्यानी आचार्थी। नियम ६० क-(आर्यक्षत्रियाद् वा २।३।६०) आर्य, क्षत्रिय शब्द से ईप् प्रत्यय होता है और आनुक् का आगम विकल्प से होता है। आर्याणी, आर्या । क्षत्रियाणी, क्षत्रिया। -- (असहनविद्यमान . . . . . २।३।४५) पूर्वपद में सह और विद्यमान शब्द तथा नसमास को छोड़कर स्वअंगवाची अकारान्त शब्दों से ईप्रत्यय विकल्प से होता है। पीनस्तनी, पीनस्तना । अतिकेशी, अतिकेशा। यहां नहीं होता है--सहकेशा, अकेशा । विद्यमानकेशा । ग--(नाभि कोदरौष्ठजवादन्तकर्णशृङ्गाङ्गगात्रकण्ठात् २।३।४६) पूर्वपद में सह और विद्यमान शब्द तथा नसमास को छोड़कर नासिका आदि स्वाङ्गवाची शब्दों से ईप्रत्यय विकल्प से होता है। सुनासिकी, सुनासिका । कृशोदरी, कृशोदरा बिम्बोष्ठी, बिम्बोष्ठा । यहाँ ईप नहीं होगासहनासिका अनासिका, विद्यमाननासिका इत्यादि । घ - (पुच्छत् २।३।४८) पूर्वपद में सह, विद्यमान और नञ् समास को छोड़कर पुच्छ शब्द से ईप् प्रत्यय विकल्प से होता है। दीर्घपुच्छी, दीर्घपुच्छा। अतिपुच्छी, अतिपुच्छा। ___ङ- (कवरमणिविपशरादे: २।३।४६) कवर, मणि, विष और शर शब्द पूर्वपद में हो तो पुच्छ शब्द से ईप् प्रत्यय होता है। कबरपुच्छी, मणिपुच्छी, विषपुच्छी, शरपुच्छी। नियम ६१-इतोक्त्यर्थाद् वा २।३।७५) क्ति अर्थ वाले प्रत्ययान्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध शब्दों को छोड़कर अकारान्त शब्दों से ईपप्रत्यय विकल्प से होता है । रात्री, रात्रिः । धूली, धूलिः । भूमी, भूमिः । क्ति अर्थ वाले–कृतिः, अजननिः। नियम ९२-(उतोगुणादखरुसंयोगोपधात् २।३।७८) खरु और संयोग उपधा को छोडकर उकारान्त गुणवाची शब्दों से ईप्प्रत्यय विकल्प से होता है । पट्वी, पटुः । साध्वी, साधुः । लध्वी, लघुः। मृद्वी, मृदुः ।। . नियम ९३-(यूनस्ति: २३।८६) युवन् शब्द से ति प्रत्यय होता है । युवतिः। नियमः ६४-(नारी सखी २।३।७४) ईप् प्रत्ययान्त नारी और सखी शब्द निपात हैं। नारी, सखी। नियम ९५-(सपत्न्यादौ २।३।६९) समान, एक, वीर, पिंड, भ्रातृ और पुत्र शब्द पूर्वपद में हों तो पति शब्द से ईप् प्रत्यय होता है और पति के इ को नकार आदेश हो जाता है। समानः पतिः अस्या सपत्नी, एकपत्नी, वीरपत्नी, पिण्डपत्नी, भ्रातृपत्नी, पुत्रपत्नी । प्रयोगवाक्य इयं कुमारी किशोरी तरुणी वा यत्र गच्छति तत्र त्वं मा गच्छ। इयं मृगी हंसी वा सुंदरी नास्ति । श्रेष्ठिनः भायाँ कृपणी अस्ति । उदारां भायाँ लब्ध्वा सः प्रसन्नोऽभवत् । उपाध्यायानीं दृष्ट्वा सोऽनमत् । क्षत्रियाणी न कदापि तिरस्कारं सहते । रात्र्यां वर्षा अभवत् । इमा भूमी पवित्रा विद्यते । जनाः जिनेश्वरं अर्चन्ति । भूपः चौरं तर्जति । गगने बलाहकाः (बादल) मर्जन्ति, नर्दन्ति, गर्दन्ति वा । दस्युः कं अतर्दत् ? काकः कर्दति । सर्पः शिशु संस्कृत में अनुवाद करो पार्वती को कौन नहीं जानता? इन गायों में चितकबरी गाय अच्छी हैं। मैंने जंगल में कभी रोज की पत्नी को नहीं देखा । रमेश की घोडी कैसी है ? माय दूध क्यों नहीं देती ? मछली का आधार पानी है। यहां अनेक मुर्गियां हैं। भोजन पर मक्खी बैठी है। सिर में जुएं कहां से आती हैं ? सतीश की कोडी लाल और पीलेवर्ण वाली है। लक्ष्मी की माया विचित्र है । सुशीला सतीश की मामी है । यह स्त्री सुन्दर नाक वाली है। यह पतले पेट वाली लडकी है। महिमा के एक सौत है। रमा किस देव की पूजा करती है ? दादी ने नौकर की क्यों भर्त्सना की ? बादल क्यों गरजते हैं ? पशु की हिंसा मत करो। कौन-सा पक्षी खराब बोलता है। बालक को किसने काटा ? विमला क्या खाती है ? रावण क्यों घमंड करता था ? Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्यय (२) १७ अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों में शुद्धाशुद्ध बताओ आचार्यां दृष्ट्वा सो कथमधावत ? इदं वचनं श्रुत्वा स क्षत्रियां अकुप्यत् । आर्या कुकार्य न कुरुते । कुमाराणी कुत्र व्रजति ? मृगिणी किं करोति ? क्षत्रिया कुत्र व्रजति । २. निम्नलिखित शब्दों के स्त्रीलिंग के रूप और नियम बताएंमत्स्य, इभ्य, आचार्य, मातुल, पटु, साधु, ब्राह्मण, मृग, हंस, शूकर, इन्द्र, कुमार, तरुण, युवन् । ३. उकारान्त गुणवाची स्त्रीलिंग शब्दों के चार उदाहरण दो। ४. नारी, युवति शब्द किस नियम से बने हैं ? ५. नीचे लिखे शब्दों के संस्कृत रूप लिखो। मछली, मुर्गी, शेरनी, मक्खी, जूं, पार्वती। ६. नीचे लिखे शब्दों में कौन-सा रूप शुद्ध है गौर किस वियम से ? दीर्घपुच्छी, दीर्घपुच्छा । विषपुच्छी। धूलिः, धूली । अजननिः, कृशोदरा, कृशोदरी, अकेशा, अतिकेशा, कल्याणा। ७. लक्ष्मी, स्त्री और श्री शब्दों के रूप लिखो। ८. शुच्, उषु और लुञ्च धातु के रूप लिखो। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १८ : कारक प्रकरण (कर्ता) शब्दसंग्रह किं वदन्तिः , जनश्रुतिः (अफवाह) । परुषा (आक्षेप शब्द) । आमेडितम् (एक को दुबारा बुलाना)। खाकरिः (गधे की आवाज)। कल्हः (गले की आवाज) । सिंजितम् (गहने की आवाज)। चर्चरी, चर्डटी (गाडी की आवाज) । प्रतिध्वनिः (गूंज) । घोत्कार: (घुर्राटे)। घोषितम् (घोकना) । खरकः (चमडे की आवाज) । वाशितम् (चहचहाना)। वृंहितम् (चिंघाडना)। चीत्कारः (चिल्लाना) । कलाभाषणम् (तुतली आवाज)। नश्वरी (दीनता के शब्द)। कलरवादः (धीमी आवाज) । तुम्बुकः (नाक से बोलना)। रुशती (निंदा के शब्द)। मालुकी (प्रेम के शब्द)। हुति: (फिजूल बोलना) । लालकः (बच्चों की तरह बोलना)। क्वणनम्, क्वणितम् (वीणा के शब्द) । हक्कारः (बुलाना)। गद्गदः (भराई हुई आवाज)। शून्या (मोह की आवाज)। रंभणम्, तन्दनम् (गाय की आवाज)। लल्लरः (रुक कर बोलना) । जांगली (लोभ की आवाज)। खंडिता (विरह की आवाज)। भीरिता (शोक की आवाज) । आख्यानी (संदेश के शब्द)। घुघुरी (सूअर की आवाज) । कल्या (हित की आवाज)। (धातु) अञ्चु-गतो (अञ्चति) जाना और पूजा करना । हू - कौटिल्ये (हूच्छंति) कुटिलता करना । मुर्छा-मोहसमुच्छाययोः (मूर्च्छति) मूच्छित होना । एज-कम्पने (एजति) कम्पन होना। धीर्, वाच, सरित् शब्दों को याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या २१, २३, ६४)। अञ्चु और एज़ धातु के रूप याद करें (देखें परिशिष्ट २ संख्या ५८,५६) । हूर्छा और मूर्छा के रूप समान चलते हैं। कारक क्रिया के साथ जिनका सीधा संबंध (अन्वय) होता है उन शब्दों को या क्रिया के होने में जो निमित्त बनते हैं उनको कारक कहते हैं। कारक छह हैं-(१) कर्ता (२) कर्म (३) साधन (करण) (४) दानपात्र (सम्प्रदान) (५) अपादान (६) आधार। ये सब कारक दो प्रकार के होते हैं-मुख्य (उक्त) और गौण (अनुक्त)। जिस कारक के अर्थ में प्रत्यय होता है वह कारक मुख्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक प्रकरण (कर्मा) और शेष कारक गौण होते हैं। मुख्य सब कारकों में प्रथम विभक्ति होती है और गौण कारकों में क्रमशः कर्म में द्वितीया, कर्ता एवं साधन में तृतीया, दानपात्र में चतुर्थी, अपादान में पंचमी एवं आधार में सप्तमी विभक्ति होती है। कारक में होने वाली विभक्तियों को कारक विभक्ति कहते हैं और कारकों के सिवाय दूसरे शब्द एवं अर्थों को मानकर जो द्वितीया आदि विभक्तियां होती हैं वे 'उपपद विभक्तियां' कहलाती हैं। षष्ठी विभक्ति सम्बन्ध में होती है । सम्बन्ध कारक नहीं है क्योंकि वह क्रिया से सीधा संबंध नहीं रखता। कर्ता क्रिया की सिद्धि में कर्ता का स्थान सबसे प्रधान है । यः क्रियां करोति स कर्ता-- जो क्रिया करता है उसे और जिस शब्द से क्रिया करने वाले का बोध हो उसे कर्ताकारक कहते हैं। कर्ता तीन प्रकार के होते हैं-- (१) स्वतंत्रकर्ता (२) प्रेरककर्ता-प्रयोक्ताकर्ता (३) कर्मकर्ता। (१) स्वतंत्रकर्ता-न परैः प्रेर्यते यः स स्वतंत्र:-दूसरों की प्रेरणा के बिना ही अपनी इच्छानुसार कार्य करने वाला कर्ता 'स्वतंत्रकर्ता' होता है। जैसे-शिष्यः गुरुं प्रणमति-शिष्य गुरु को प्रणाम करता है। (२) प्रेरककर्ता- स्वतंत्र कर्ता को प्रेरित करने वाला कर्ता 'प्रेरक कर्ता' होता है । जैसे—उपाध्यायः शिष्येण गुरुं प्रणामयति-उपाध्याय शिष्य से गुरु को प्रणाम करवाता है। (३) कर्मकर्ता—'कर्म एव कर्ता कर्म कर्ता'-- कर्म ही जहां कर्ता हो जाता है वह कर्मकर्ता है। जैसे—पच्यन्ते शालयः स्वयमेव-चावल अपने आप पकते हैं। इसकी पूर्व अवस्था है- सूदः शालीन् पचति अर्थात् रसोइया चावल पकाता है । कर्ता के व्यापार का जब कर्म में आरोप कर दिया जाता है तब कर्म ही कर्ता बन जाता है। उपर्युक्त वाक्य में सूद कर्ता है और चावल कर्म है । सूद की क्रिया (चावल पकाने की क्रिया) का चावलों में आरोप किया गया है-चावल अपने आप पकते हैं। नियम ६६-(नाम्नः प्रथमा २।४।४४)-नाम से प्रथमा विभक्ति होती है । अश्वः, गुणः, शुक्लः, कारकः, वृक्षः, स्त्री, कुलं, कुमारी, गंगा, कम्बलः, गोः, कृष्णः। नियम ६७– (आमन्त्रणे २।४।४५)-संबोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। हे देवदत्त ! प्रयोगवाक्य विद्यते इयं जनश्रुतिः । स आटेंडितं कथं करोति । क्वणनं कस्मै न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० वाक्यरचना बोध रोचते। तस्य हक्कारं श्रुत्वा सोऽत्र आगमत् । गद्गदेन स स्वदुःखं तस्मै अकथयत् । रंभणं श्रुत्वा गोपालः प्रसन्नो जातः । मोहनस्य लल्लरोऽपि मात्रे रोचते । इयं भीरिता कुतः याति । भूपस्य आख्यानीं श्रुत्वा स प्रसन्नोऽभूत् । मोहनः चत्रेण पानीयं गृहात् बहिः निस्सारयति । वत्सराजः अजितेन गृहं प्रमार्जयति । क्रियते कटः स्वयमेव । भिद्यते कुसूलः (अन्नकोष्ठ) स्वयमेव । सिध्यते ओदनः स्वयमेव । मातुलः कस्मिन् दिने राजमार्ग अञ्चिष्यति । सः हूच्छति । लक्ष्मणे मृत्यु गते रामः मुमूर्छ । वायुना वृक्षं एजति । संस्कृत में अनुवाद करो गधे की आवाज कर्कश होती है। उसके गले की आवाज मधुर है । उसके कानों में गहने की आवाज आई। गाड़ी की आवाज सुनकर वह जाग गया । वह घुर्राटे लेता है। बार-बार पाठ को घोकने से (दुहराने से) वह याद हो जाता है। चिडियों का चहचहाना अच्छा नहीं है। जंगल में हाथी चिंघाड़ रहा था। वह क्यों चिल्ला रहा था? बच्चों की तुतली आवाज सभी को प्रिय लगती है । वह दीनता के शब्द क्यों कर रहा था ? उसकी धीमी आवाज भी सुन्दर थी। नाक से बोलना अच्छा नहीं है । गुरुओं के प्रति निंदा के शब्द मत सुनो। फिजूल मत बोलो । सुरेन्द्र किस देव की पूजा करता है ? दादी क्यों मूच्छित हुई ? कुटिलता मत करो? गाय क्यों कांपती है । अभ्यास (१) स्वतंत्रकर्ता, प्रेरककर्ता और कर्मकर्ता के दो-दो वाक्य बनाओ। (२) निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो परुषा मधुरं न भवति । आम्रडितः श्रुत्वाऽपि चर्चरी शृणेति । प्रति बन्यां कस्य वृहितोऽस्ति । बालकस्य घोषितः वायुना प्रसरति । (३) प्रथमा विभक्ति कहां होती है ? (४) एज धातु के बादि के रूप लियो । (५) निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो। गधे की आवाज, चमडे की आवाज, धीमी आवाज, निंदा के शब्द, फिजूल बोलना, तुतली आवाज, गाडी की आवाज, गहने की आवाज, गाय की आवाज, विरह की आवाज, संदेश के शब्द । (६) धेनु, वधू, स्वस और मातृ शब्दों के रूप लिखो। (७) अर्ह और तर्ज धातु के रूप लिखो। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६ : कर्म शब्दसंग्रह कारागारम् (जेल) । खवाष्पम् (बर्फ, ओस) । कार्यालयः (काम करने का स्थान दफ्तर) । विचित्रालयः (अजायबघर, म्युजियम)। चिकित्सालयः (अस्पताल)। न्यायालयः (कचहरी) । न्यायाधीशः (जज) । लेखहार:, पत्रवाहकः (डाकिया) । पत्रालयः (डाकघर)। शुल्कशाला (चूंगीघर)। पण्यभोजनालयः (होटल)। बन्दी (कैदी)। उपशल्यम् (मैदान)। निगडम् (बेडी)। वादी (पूर्ववक्ता, मुद्दई (दावा करने वाला)। अक्षपटलः (दफ्तर) । उपचार: (आदर सूचक शब्द)। साक्षी (गवाह) । साक्ष्यम् (गवाही) । प्रतिभूः (जामिन, किसी की जमानत करने वाला) । प्रातिभाव्यम् (जमानत) । आवेदनपत्रम् (अर्जी) । उत्कोचः, उपदानम् (लंचा, घूस) । लेखकः (क्लर्क)। वाक्कीलः (वकील)। शिल्पगृहम् (कारखाना)। अनुग्रहः (बक्शीश)। कारागाराध्यक्षः (जेलर) । प्रतिवादी (मुद्दालय) । अभियोगः (मुकद्दमा) । दण्डः (सजा) । निबन्धपुस्तकः (रजिस्टर) । उपसत्तिः (बयान)। उपसर्जनम्, अन्वासनम् (कारखाना, शिल्पगृह)। प्रतिवादी (प्रतिवाद करने वाला) । प्रतिपक्षी, मुद्दालेह (जिस पर दावा किया गया हो) । कुसीद: (सूद) । अव्यय-निकषा (समीप) । समया (समीप)। हा (दुःख, खेद)। अन्तरा (बीच में)। अन्तरेण (बिना)। येन तेन (जैसे तैसे)। उपरि (ऊपर) । अधः (नीचे) । अधि (भीतर) । सर्वत: (चारों ओर) । उभयत: (दोनों ओर)। अभितः (चारों ओर)। परितः (चारों ओर)। धातु-- हसे-हसने (हसति) हंसना । कटे-वर्षावरणयोः (कटति) वर्षा और आवरण । पथे-गती (पथति) जाना । मथे-विलोडने (मथति) मथना । मील-निमेषणे (मीलति) आंख मीचना। शील-समाधौ (शीलति) समाधि होना । जीव-प्राणधारणे (जीवति) प्राण धारण करना। . गिर्, दिश्, उपानह शब्दों को याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या २२, २४,६५) ____ हस और जीव धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६०, ६१) जिन धातुओं का 'ए' इत् जाता हो उनके रूप हस की तरह चलते हैं। मील, शील धातु के रूप जीव की तरह चलते हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध क्रियते क; स्वक्रियया निष्पाद्यते यत् तत् कर्म-कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जो वस्तु निष्पन्न करता है या जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पडता है उसे कर्म कहते हैं। कर्म की यह विस्तृत परिभाषा है। संक्षेप में 'यत् क्रियते तत् कर्म' अर्थात् कर्ता जो कुछ करता है वह कर्म है। कर्म के तीन भेद किये जाते हैं-(१) निर्वयं (२) विकार्य (३) प्राप्य । (१) निर्वयं-इसका अर्थ है उत्पाद्य । उत्पाद्य वस्तुएं दो श्रेणी की होती है। एक तो वे जो जन्म से उत्पन्न हो, जैसे-माता सुतं प्रसूते । दूसरी वे हैं जो अविद्यमान हों और उनका निर्माण किया जाये, जैसे- तन्तुवायः कटं करोति । (२) विकार्य-वर्तमान वस्तु को अवस्थान्तरित करने से अथवा कर्ता की क्रिया से वस्तु के स्वभाव-परिवर्तन होने से जो विकार होता है उस कर्म को 'विकार्य' कहते हैं । जैसे-स्वर्णकारः काञ्चनं कुण्डलीकुरुते । कृशानुः काष्ठं दहति । (३) प्राप्य-जिसमें क्रिया से कुछ भी विशेषता न होती हो उसे प्राप्य कहते हैं । जैसे-चक्षुष्मान् आदित्यं पश्यति । इसमें न तो कुछ भी उत्पन्न होता है और न विकृत। कर्मकारक में द्वितीया विभक्ति होती है और शब्दों के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है। कारक से जो विभक्ति होती है उसे कारक विभक्ति कहते हैं, शब्दों के योग में होने वाली विभक्ति को उपपदविभक्ति कहते हैं। दोनों में कारक विभक्ति बलवान् होती है। प्रत्येक कारक के लिए यह नियम है। नियम ९८-(कर्तुाप्यं कर्म २।४।३)-इसमें कर्ता के व्याप्य को ही कर्म कहा है । परन्तु व्याप्य शब्द का अर्थ विशाल है। इसमें हम उत्पाद्य, विकार्य और प्राप्य इन सबका समावेश कर सकते हैं। नियम ६६-(गौणात् २।४।४६)-कर्तृवाच्य में कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे—स पुस्तकं पठति ।। नियम १०० -- (क्रियाविशेषणात् २।४।४८)-क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-स सत्वरं धावति । नियम १०१-(निकषासमयाहाधिगन्तरान्तरेणातियेतेनैः २।।४६) निकषा, समया, हा, धिग, अन्तरा, अन्तरेण, अति, येन, तेन इत्यादि शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-निकषा पर्वतं नदी। समया पर्वतं वनम् । हा देवदत्तं वर्धते व्याधिः । धिग् जाल्मम् । अन्तरा निषधं नीलवन्तं च मेरुः । ज्ञानमन्तरेण न सुखम् । अतिकुरून् पाण्डुसेना। येन तेन वा पश्चिमां गतः। - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम नियम १०२-(सर्वोभयाभिपरिभिस्तसन्तैः २।४।५०)-सर्वतः (सब ओर से), उभयत: (दोनों ओर से), अभितः (सब ओर से), परितः (चारों ओर से) इन तस् प्रत्ययान्त शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-सर्वतो ग्रामं वनानि । उभयतो ग्रामं वनानि । अभितो ग्रामं क्षेत्राणि । परितो ग्राम क्षेत्राणि । नियम १०३-- (उपर्यधोधिभिद्वित्वे २।४।५१)-उपर्युपरि, अधोऽधः, अध्यधि इन शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-उपर्युपरि ग्राम मेघो याति । अधोऽधो ग्रामं निधानानि सन्ति । अध्यधि ग्राम क्षेत्राणि संति-गांव के भीतर-भीतर खेत है। नियम १०४-(उपेन चोत्कृष्टे २।४।५५)-उत्कृष्ट अर्थ में उप और अनु उपसर्ग से युक्त नाम से द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-उपसर्वज्ञ सुरा:-देवताओं में सर्वज्ञ उत्कृष्ट हैं। अनुसिद्धसेनं कवयः-कवियों में सिद्धसेन उत्कृष्ट है। नियम १०५--(कालाध्वनोरत्यंतसंयोगे २।४।५६)-कालवाची और मार्गवाची शब्दों से यदि ये शब्द निरन्तरता के द्योतक हों तो उनसे द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे–मासमधीते । क्रोशं पर्वतः । नियम १०६ - (प्रतिपर्यनुभि गिनि च २।४।५३)-भागी, लक्षण, वीप्सा और इत्थंभूत अर्थों में प्रति, अभि, परि और अनु शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे---- भागी--- यदत्र मां प्रति मां परि मां अनु वा स्यात् तद्दीयताम् । लक्षण ---- वृक्षं प्रति परि अनु वा विद्योतते विद्युत् । वीप्सा- वृक्षं वृक्षं प्रति परि अनु वा सेचनम् । इत्थंभूत-साधुमैत्रो मातरं प्रति परि अनु वो। नियम १०७---(अधेः शीङ्स्थासामाधार: २।४।१४)-अधि उपसर्ग पूर्वक शी, स्था और अस् धातु के योग में आधार की कर्म संज्ञा हो जाती है। जैसे-ग्राममधिशेते मुनिः । ग्राममधितिष्ठति आचार्यः । ग्रामं अध्यास्ते वैद्यः । प्रयोगवाक्य कारागारध्यक्ष: कारागृहं कदा गमिष्यति ? प्रतिवादी किं वदति ? किं त्वं तस्य उपसत्तमश्रौषीः । तस्य साक्ष्यं को दास्यति ? अहं तस्य प्रतिभाव्यं न नेष्यामि । तस्योपरि कोऽभियोगं करिष्यति ? चौरं दंडं देहि । निबन्धपुस्तके सोहनः किं लिखति ? शिल्पगृहं निकषा न कोऽपि ग्रामोऽस्ति । मम नगरं समया काऽपि नदी नास्ति । कारागृहं अक्षपटलं च अन्तरा अनेकानि गृहाणि सन्ति । धिक् साधु यो साध्वाचारं सम्यक् न पालयति । जिनदर्शनमन्तरेण किम् । उपश्रमणं गृहस्थाः। अन्वर्जुनं योद्धारः । क्रोशं कुटिला नदी। स रजनी कथापुस्तकं अपठत् । गुरुकुलमधितिष्ठति शिष्य: । पर्वतमध्यास्ते Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध मर्कटः। बिना प्रयोजनं मा हस। रमा दधि कदा अभक्षत् ? जैनमुनयः रात्रौ न पयन्ति । सा नयनं अमीलत् । मुनिः शीलति । शिशुः जीवति ।। ___ संस्कृत में अनुवाद करो। कार्यालय को जाओ। क्या तुम बर्फ खाओगे ? जेल के पास एक म्युजियम है। अस्पताल के चारों ओर वृक्ष हैं। न्यायाधीश कचहरी को कब जायेंगे ? डाकिया डाकघर को कब आयेगा? चूंगीघर के चारों ओर मकान नहीं है। इस कैदी को जेल में ले जाओ। मैदान के दोनों ओर क्या है ? साधुओं में आचार्य प्रमुख है। उसकी साक्षी कौन देगा? तुम्हारी जामिन कौन लेगा? विद्यार्थी ने अध्यापक को अर्जी दी थी। तुमने पुलिस को घस दी थी। कारखाने से लेकर मेरे घर तक मकान ही मकान है। मझे क्या बक्शीश दोगे ? लाडनूं के ऊपर-ऊपर वायुयान उड़ रहा है। गृहस्थ से साधु श्रेष्ठ है। गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है। गांव और विद्यालय के बीच में जल है। नास्तिक को धिक्कार है। संसार के ऊपर-ऊपर सूर्य हैं। गांव के नीचे-नीचे जल है। धर्म के बिना सुख नहीं मिलता। मां आसन पर बैठी है । दादाजी घर में सोए हैं। उसने १२ वर्ष तक अध्ययन किया। वह पांच दिन तक लिखता है। साधु कोस भर चलता है। द्रौपदी क्यों हंसी ? माताजी ने दही क्यों नहीं मथा ? क्या रमेश गांव गया था ? शीला समाधि में है। जब तुम यहां आए थे मेरे मामा जीवित थे। अभ्यास (१) निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो-- नद्याः परितः वृक्षाणि सन्ति । ग्रामस्य निकषा एकः विद्यालयोऽस्ति । नगरस्य समया एकं शिल्पगृहं अस्ति । रामे मोहने च अन्तरा सोहनोऽस्ति । धिक् मिथ्यादृष्टेः । गृहस्य सर्वतः, उभयतः, अभितः परितो वा नराः सन्ति । उपगणीशस्य श्रमणाः। (२) निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयुक्त करो पत्रालयः, न्यायालयः, शिल्पगृहम्, कारागृहम्, निबन्धपुस्तकः, अध्यधि, अधोऽधो, निकषा, हा, अन्तरा। अभितः, परितः समया, अन्तरेण, येन, तेन इन शब्दों के योग में किस नियम से द्वितीया विभक्ति होती है। (४) नियम सं० १०५ (कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे) के तीन वाक्य बनाओ। (५) क्रियाविशेषण के चार वाक्य बनाओ। ६) कर्म कितने प्रकार के हैं ? प्रत्येक के दो-दो उदाहरण लिखो। (७) आधार की कर्म संज्ञा करने वाला कौन-सा नियम है ? उसके दो वाक्य बनाओ। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म (८) कारक विभक्ति और उपपद विभक्ति किसे कहते हैं ? दोनों में बलवती कौन-सी है ? (8) निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो अजायबघर, चूंगीघर, मैदान, बेड़ी, घूस, जेलर, रजिस्टर, कारखाना, बर्फ, डाकघर, कचहरी, डाकिया, जज । (१०) धीर, वाच, सरित् शब्दों के रूप लिखो। (११) अञ्चु और एज़ के रूप लिखो। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २० : साधन शब्दसंग्रह शंकुला (सरीता)। दण्ड: (डंडा)। परशुः (कुल्हाड़ी)। गुलिका, गुटिका (गोली) । कृपाणः (तलवार)। कर्तरी (कैंची)। यष्टिः (लाठी)। भुशण्डिः (बन्दूक)। चपेटः, चर्पटः (तमाचा)। लवित्रम् (चाकू) । सूचिः (सूई)। दोरकम् (धागा)। शतघ्नी (तोप)। संदंशक: (चिमटा) । संडसी (संडासी)। मुष्टिः, मुस्तुः (मुक्की) । शास्त्रवरूथम् (टैक) । ऋष्टिः (दुधारी तलवार)। गुलिकास्त्रम् (पिस्तौल)। नालास्त्रम् (बंदूक) । गुलिकायन्त्रम् (मशीनगन)। स्फोटास्त्रम् (बंब)। कुक्षिभृतास्त्रम् (राईफल)। तोमरः (संगीन)। शस्त्रम् (आयुध)। धनु: (धनुष)। शरः (बाण) । इषः (बाण) । खड्गपिधानकम् (म्यान) । फलकम् (ढाल)। क्षुरिका (छुरी)। असिपुत्री (छुरी) । करपालिका (कटार)। त्रिशीर्षकम् (शुल) । तरवारिः (तलवार) । खड्गः (तलवार)। - धातु-त्यजं-हानी (त्यजति) छोडना। तपं- संतापे (तपति) तपना। चूष-पाने (चूषति) चूसना । पूष-वृद्धी (पूषति) वृद्धि करना। लूष, मूष-स्तेये (लूषति, मूषति) चुराना । भूष-अलंकारे (भूषति) अलंकार करना। अव्यय-अति (अधिक) । अद्य (आज) । अधुना, इदानीं (अब) । अन्तरेण, ऋते (बिना)। अन्तरा (बीच में) । इह (यहां) । शश्वत् (निरन्तर)। ___ मधु और कर्तृ शब्द (नपुंसक) को याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या २८, ६६) त्यज और भूष धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६२, ६३) तप के रूप त्यज की तरह चलते हैं । चूष से लेकर मूष तक के रूप भूष की तरह चलते हैं। साधन ___ 'साध्यते येनेति साधनम्', क्रियते येनेति करणम्-जिसके द्वारा कार्य किया जाता है उसे साधन या करण कहते हैं। किन्तु एक कार्य करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनेक वस्तुएं सहायक होती हैं, क्या उन सबको साधन मानना चाहिए या उनमें से किसी एक को? इस प्रश्न को समाहित करने के लिए हमें साधन की एक पूर्ण या मंजी हुई परिभाषा की ओर दृष्टि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -साधन डालनी होगी। वह है-'साधकतमं साधनम्' अर्थात् कार्य-सिद्धि में जितने सहायक होते हैं वे सब साधन नहीं कह ला सकते । साधन तो वही है जो साधकतम हो यानी क्रियासिद्धि में सबसे अधिक निकट सम्पर्क रखता हो । जैसे-परशुना लता छिनत्ति । साधन दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर। करणं द्विविधं ज्ञेयं, बाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः । धान्यं लुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा ॥ विवक्षा से अन्य कारकों से भी साधन बनाया जा सकता है। जैसेसाधवे भिक्षां दत्ते-इसको 'भिक्षया साधु सत्करोति' इस तरह परिवर्तित करके कर्म के स्थान में 'भिक्षया' साधन किया जा सकता है । विवक्षा से साधन को कर्तृकारक बनाया जा सकता है। जैसे—असिना छिनत्ति। यहां असि साधन है । असिः छिनत्ति-यहां असि कर्ता है। कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे —गुरुः शिष्येण पूज्यते । मैत्रेण स्थीयते । नियम नियम १०८-- (अपवर्गे तृतीया २।४।५७) कालवाची और मार्गवाची शब्दों से निरन्तर संयोग से फल प्राप्ति होने पर तृतीया विभक्ति होती है । जैसे --मासेनावश्यकमधीतम् । क्रोशेन शाकुन्तलमधीतम् । नियम १०६-(कर्तृसाधनहेत्विथं भूतलक्षणेषु २।४।५८)- कर्ता, साधन, हेतु और इत्यंभूतलक्षण (किसी विशेष वस्तु से उसकी पहचान होती है) में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-चैत्रेण कृतम् । दात्रेण लुनाति । दानेन कीर्तिः । कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् ।। नियम ११०.- (सहार्थे २।४।५६) साकम्, सार्धम्, समम्, अमा, युगपत् आदि सह अर्थवाले शब्दों के योग से तृतीया विभक्ति होती है । जैसे -शिष्येण साकं गतो गुरुः । पुत्रेण युगपद् स दर्शनार्थं गतः ।। नियम १११-(येनाङ्गिविकारः २।४।६०)---जिस विकृत अंग से जीव का विकार जाना जाता है उससे तृतीया विभक्ति होती है। जैसेअक्षणा काण: । पादे खञ्जः । नियम ११२-(निषेधार्थकृताद्यैः २।४।६१)-निषेधार्थक कृतं, भवतु, अलं, किं, पूर्णम्, पर्याप्तम् आदि शब्दों के योग से तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- कृतं तेन । अलं अतिप्रसंगेन । कि गतेन । भवतु तेन । तेन पूर्णम् । पर्याप्तं धनेन । नियम ११३-(प्रकृत्यादय आख्यायाम् २।४।६)-प्रकृति आदि शब्दों की साधन नंज्ञा होती है यदि उनका अर्थ प्रसिद्धि का वाचक हो तो। जैसे-प्रकृत्या चारः। प्रायेण धार्मिकाः । नाम्ना चैत्रः । जात्या क्षत्रियः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध वर्णेन गौरः। प्रयोगवाक्य कविता शंकुलया पूगफलं कर्तति । दण्डेन बालकः कं अहनत् ? गणेशः परशुना वृक्षं छिनत्ति । सैनिक: जनान् गुल्मिकाभिः हन्ति । योद्धा युद्धे कृपाणेन शत्रोः शिरः अभिनत् । क्रोशेन दशवकालिकोऽधीतः। पुत्रेण साकं, समं, साधं, अमा, युगपत् वा सोऽत्र आगमत् । कर्णेन 'बधिरः कोऽस्ति ? सोहनः स्वभावेनोदारः आसीत् । अलं तव सेवया । माता पुत्रं अत्यजत् । सा इखं चूषति । बालः पूषति । चौरः धनं मूषति । कमला भूषति । संस्कृत में अनुवाद करो तुम कैंची से क्या करते थे ? सुरेन्द्र लाठी से गाय को मार रहा था । सिपाही बंदूक से गोली छोड़ रहा था। नरेन्द्र चाकू से क्या कर रहा था ? वीणा धागे से कपड़ा सीयेंगी । भारतीय सैनिकों ने तोप से कितने सैनिकों को मारा ? माता संडासी से बर्तन पकड़ रही थी। सैनिक टैंक से वायुयान गिराना सीख रहा है। शत्रु ने दुधारी तलवार से कितने सिर काटे ? राम ने धनुष से बाण छोड़ा। युद्ध में सैनिक के पास पिस्तौल, बन्दूक, मशीनगन, बंब, राईफल, फलक, कटार आदि के साथ अनेक शस्त्र होते हैं। म्यान में तलवार रखो। कसाई ने छुरे से बकरे को मार दिया। जटा से संन्यासी ज्ञात होता है। मोहन ने नगर को क्यों छोड़ा ? लड़की आम चूसती है। बालक का शरीर बढ़ता है। तुमने किसकी चोरी की ? मुनियों में आचार्य अलंकृत होते हैं। रजोहरण से जैन साधु की पहचान होती है। गुरु शिष्य के साथ आज कहां गये ? शत्रु आंख से काना है। धनपाल कान से बहरा है। पशु पैर से लंगड़ा है। निर्मल स्वभाव से सज्जन है। अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो सविता दोरकात् किं करिष्यति ? पितामहः सहोदरात् साकं अमा वा कुत्र अगमत् ? भिक्षुकः नयनात् काणोऽस्ति । किं तस्मात् कार्यात् ? अलं गमनात् । धनात् भवतु । २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो___ अन्तरेण, अन्तरा, अलम्, अमा, सूचिः, असिपुत्री। ३. तृतीया विभक्ति कहां होती है ? भाववाच्य में, कर्तृवाच्य में या कर्म वाच्य में ? ४. इत्थंभूतलक्षण और अपवर्ग किसे कहते हैं ? प्रत्येक के दो-दो उदा__हरण दो। ५. नीचे लिखे शब्दों में किस-किस नियम से तृतीया विभक्ति होती है Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन पर्याप्तं, साकं, अमा, युगपत्, अलं, भवतु । ६. 'अपवर्गे तृतीया' से तुम क्या समझते हो? दो उदाहरण लिखो। ७. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो बन्दूक, लाठी, गोली, तोप, टैंक, पिस्तोल, राईफल, म्यान, शूल; कटार, छुरी। ८. गिर्, दिश् और उपानह, शब्दों के रूप लिखो। ६. हस और जीव धातु के रूप लिखो। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २१ : दानपात्र शब्दसंग्रह तूलिका ( पेंसिल) । फलकम् (बोर्ड) । रेखा ( लकीर ) । पुस्तकपीठम् ( टिकटी) । वेष्टनम् ( बस्ता ) । काष्ठपट्टिका ( तख्ती ) । वस्त्रबंधनम् (कपड़े की जिल्द) । पीठम् ( मूढा ) । चतुष्पादिका ( चौकी) । सुखोपवेशिका ( सोफा या आराम कुर्सी) । पुरस्कार : ( इनाम ) । काष्ठपटलम् ( तख्ता) | आसन्दी आसन्दिका (कुर्सी) । लेखनी, कलम : ( कलम ) । कागदः, पत्रम् ( कागज ) । संचिति: ( जमा करना) । काष्ठपीठ: ( डेस्क) । काष्ठासनम् (बेंच ) । पादफलकम् (मेज ) । श्रेणि: ( कक्षा ) । अनुपस्थिति : ( गैरहाजिरी ) । योग: ( जोड) । संकलनम् ( हिसाब की जोड) । व्यवकलनम् ( बाकी ) । निबन्ध - पुस्तक: (रजिस्टर ) | भाग : ( भाग ) । रेखागणितम् ( रेखागणित ) । बीजगणितम् (बीजगणित ) । रोचते ( अच्छा लगता है ) । क्रुध्यति ( क्रोध करता है) । ति ( द्रोह करता है ) । ईर्ष्यति ( ईर्ष्या करता है) । असूयति ( बुराईं निकालता है ) । स्पृहयति ( चाहता है ) । अनुगृणाति ( अनुमोदन करता है) । प्रतिगृणाति ( प्रतिज्ञा करता है ) । श्लाघते ( प्रशंसा करता है ) । हनुते ( छिपाता है ) । कल्पते ( समर्थ होता है ) । संपद्यते ( उत्पन्न होता है ) - आशृणोति, प्रतिशृणोति ( प्रतिज्ञा करता है) । धातु - वद - व्यक्तायां वाचि ( वदति) बोलना । जगत्, कर्मन् और नामन् शब्दों के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ : संख्या ३१,२९,३०) वद धातु के रूप याद करो (परिशिष्ट २ संख्या ६४ ) दानपात्र ( दानपात्रे चतुर्थी २|४|६३) कर्म के द्वारा अथवा क्रिया के द्वारा श्रद्धा, उपकार या कीर्ति की इच्छा से जिसको कोई वस्तु दी जाये अथवा जिसके लिए कोई कार्य किया जाये उसे 'दानपात्र' कहते हैं । दानपात्र में चतुर्थी विभक्ति होती है । जैसे— श्रमणाय भिक्षां ददाति (श्रमण के लिए भिक्षा देता है ) । यहां श्रमण को श्रद्धा से भिक्षा दी जा रही है इसलिए श्रमण की 'दानपात्र' संज्ञा है । कार्यं निवेदयति ( गुरु को कार्य निवेदन करता है) । यहां गुरुः को निवेदन किया जाता है इसलिए गुरु की 'दानपात्र' संज्ञा है । कार्य कर्म है । युद्धाय संनह्यते - यहां वाक्य में कर्म नहीं केवल क्रिया है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानपात्र रजकस्य वस्त्रं ददाति-धोबी को वस्त्र देता है। राज्ञः करं ददाति-राजा को कर देता है। इनमें वस्तु का देना अवश्य है पर वह श्रद्धा आदि की भावना से नहीं दिया जाता अतः इनकी दानपात्र संज्ञा नहीं है । नियम ११४- (रुच्यर्थानां प्रीयमाणः २।४।३३) रुचि अर्थ वाली धातुओं के योग में जिस व्यक्ति को जो पदार्थ रुचता हो (अच्छा लगता हो) उस व्यक्ति में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे—मैत्राय रोचते मोदकः। चैत्राय स्वदते दधि । नियम ११५– (क्रुधदुहेासूयार्थानां यं प्रतिकोपः २।४।३७)-क्रुध्; द्रुह, ईर्ष्या और असूया इन अर्थ वाली सभी धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोध, द्रोह, ईष्र्या, असूया आदि की जाये उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे--- चैत्रः मैत्राय द्रुह्यति । तात: मात्रे कुप्यति । रामः तेभ्यः ईय॑ति । बालकः बालकेभ्यः अस्यति । नियम ११६– (समर्थार्थनमःस्वस्तिस्वाहास्वधावषड्भिः २।४।६७) समर्थ और उसके अर्थ वाले शब्दों से तथा नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा और वषड् आदि शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे—युवाभ्यामहं समर्थोऽलं क्षमः प्रभुर्वा । नमो जिनेन्द्राय । स्वस्ति पूज्याय । स्वाहा अग्नये । स्वधा पितृभ्यः । वषड् इन्द्राय । नियम ११७-(तादर्थं २।४।६४) किसी वस्तु से किसी वस्तु का निर्माण किया जाता हो तो उस निर्मित वस्तु में चतुर्थी विभक्ति होती है यदि उपादानवस्तु का साथ में प्रयोग हो तो। जैसे—स घटाय मृत्तिका आनयति । नियम ११८- (श्लाघह नुस्थाशपां जीप्स्यमानः २।४।३४) श्लाघ, ह नु, स्था और शप इन धातुओं के योग में जिसको बताया जाता है उसकी संप्रदान संज्ञा होती है। उससे चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-मैत्राय श्लाघते, मैत्राय ह नुते । मैत्राय शपते । मैत्राय तिष्ठते (स्थेय अर्थ में स्था धातु आत्मने पद होती है भिक्षुशब्दानुशासन-३।३।३३) । यथा- त्वयि मयि वा तिष्ठते विवादः । नियम ११६-(धारेरुत्तमर्ण : २।४।३५) धारय् धातु के योग में जो ऋण देने वाला है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे- चैत्राय शतं धारयति मैत्रः (मैत्र चैत्र का सौ रुपये का ऋणी है)। नियम १२०- (स्पृहेरीप्सितो वा २।४।३६) स्पृह धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है। जैसे-विमला धनाय धनं वा स्पृहयति । राजेशः पुष्पेभ्यः पुष्पाणि वा स्पृहयति । मुनिसंगीत: संगीताय संगीत वा स्पृहयति । निमय १२१- (अनुप्रतिभ्यां गृणः २।४।४१) अनु, प्रति उपसर्ग सहित गृणाति धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-- आचार्याय अनु Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध | आचार्या प्रतिगृणाति । ( आचार्योक्तमनुवदति, प्रशंसन्तं वा प्रोत्साहयति इत्यर्थः) । ७२ नियम १२३ - ( प्रत्याङ्भ्यां श्रुवः पूर्वकर्ता २ |४| ४० ) प्रति और आ उपसर्गं सहित (शृणोति ) धातु के योग में पूर्वकर्ता में चतुर्थी विभक्ति होती है । जैसे - मंत्राय विद्यां प्रतिशृणोति आचार्य: ( आचार्य मैत्र को विद्या देने की प्रतिज्ञा करता है) । द्विजाय गामाशृणोति चैत्रः (चैत्र ब्राह्मण को गाय देने की प्रतिज्ञा करता है) । नियम १२४ - ( गतेरप्राप्ते वा २।४।७०) शरीर से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता हो और उस स्थान तक नहीं पहुंचा हो तो उस स्थान में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है । जैसे - मुनिः ग्रामं ग्रामाय वा गच्छति । . सावित्री ब्राह्मीविद्यापीठं ब्राह्मीविद्यापीठाय वा गच्छति । नियम १२५ - ( हितसुखाभ्याम् ( २/४/७२ ) हित और सुख शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है । ग्रामस्य हितं ग्रामाय हितं । चैत्रस्य सुखं, चैत्राय सुखम् । 1 नियम १२६ - ( तदायुष्य कुशलार्थार्थराशिषि २४७३) हितार्थ, सुखार्थ, आयुष्यार्थ, कुशलार्थ, अर्थार्थ - इनके योग में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है, आशिष् गम्यमान हो । हितार्थ - हितं पथ्यं वा जीवेभ्यो जीवानां वा । सुखार्थ - सुखं शं शर्म वा भव्येभ्यो भव्यानां वा भवतात् । आयुष्यार्थे - आयुष्य भूयात् चैत्राय चैत्रस्य वा । कुशलार्थे - कुशलं क्षेमं कल्याणं मद्रं भद्रं वा भूयात् संघस्य संघाय वा । अर्थार्थ - - अर्थः प्रयोजनं कार्यं वा भूयात् चैत्रस्य चैत्राय वा । - चतुर्थी के अर्थ में अर्थम् और कृते इन दो अव्ययों का प्रयोग किया -जाता है । कृते योग में षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे- अहं भोजनार्थं व्रजामि । अहं भोजनस्य कृते व्रजामि | नियम १२७ – (कृप्यर्थानां विकारे २/४/६५ ) कल्पते, संपद्यते, जायते - धातुओं के योग में पदार्थ से जिसमें विकृति होती है उसमें चतुर्थी विभक्ति - होती है । जैसे - मूत्राय कल्पते यवागूः । ख- नियम १२८ - ( मन्यस्यानादरेऽनावादिभ्यः २/४/७१ ) अनादर अर्थ में 'मन्' धातु के साथ द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होती है । जैसे- - न त्वां तृणं तृणाय वा मन्ये । प्रयोगवाक्य द्विजाय गां ददाति । शिष्याभ्यां गुरुः धर्ममुपदिशति । जिनदत्ताय रोचते जिनभक्तिः । मूर्खः सज्जनाय क्रुध्यति, रुष्यति, दुह्यति, ईर्ष्यति असूयति वा । 'चन्दनबाला पठनार्थं पठनस्य कृते वा विद्यालयं गच्छति । सुरेन्द्रः राजेन्द्राय सहस्रं धारयति | कविः यशसे काव्यं करोति । बिद्या ज्ञानाय कल्पते, संपद्यते Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानपात्र जायते वा । तपस्विनां सुखं भूयात् । शिष्यः गुरवे अनुगृणाति प्रतिगृणाति वा । दीर्घमायुः चिरंजीवितं वा अस्तु मैत्राय मैत्रस्य वा। उच्चाराय कल्पते यवान्नम् । श्लेष्मणे कल्पते दधि । कुंडलाय हिरण्यम् । संयमाय श्रुतम् । धर्माय संयमम् । मोक्षाय धर्मम् । अहं त्वां अवदम् । आचार्यः शिष्यं अवादीत् । यः सत्यं वदिष्यति सः प्रथमो भविष्यति । य: जनापवादान् वदिता स गार्होऽस्ति । संस्कृत में अनुवाद करो पिता ने पुत्र को पेंसिल, बस्ता, कलम, कापी और कोर्स की पुस्तकें दी। विद्यालय के लिए एक बोर्ड लाओ। किरण ने पुस्तक रखने के लिए एक टिकटी ली। अध्यापक के लिए मूढ़ा, चौकी या कुर्सी लाओ। आचार्यश्री के के लिए तख्ता लाओ। संगीता को चावल अच्छे नहीं लगते । पत्नी पति पर क्यों गुस्सा कर रही थी ? विजया मेरे से ईर्ष्या करती है । मैंने यह बात गुरुदेव से निवेदन कर दी। अहंतों को मेरा नमस्कार हो । कुसुम कुसुम को चाहती है। प्राणियों का सुख हो। तुम्हारा हित हो। सोहन भोजन के लिए जाता है। रमेश रमा से सौ रुपये ऋण लेता है। यह लकीर छोटी है। विजय तिपाई पर बैठा है । विद्यार्थी जोड, बाकी, गुणा, भाग, रेखागणित और बीजगणित नहीं जानता है । विमला को हिसाब मिलाना नहीं आता। इस कक्षा में आज कितने विद्यार्थियों की अनुपस्थिति है ? जो सत्य कहता है वह भगवान के • तुल्य है । असत्य मत बोलो। जो सत्य बोलेगा उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करोसाधं भिक्षां देहि । वीरेन्द्रः दुग्धं रोचते । मधुकर: गुरुं निवेदयति । नरेन्द्रः तं कुप्यति । नमः त्वाम् । मोहनः भद्रं भूयात् । गुरुं द्रुह्यति ।। २. हित, अनुगृणाति स्पृह., श्लाघते, असूयति, रोचते, क्रुध्यति, नमः, तिष्ठते; स्वदते, क्षमः--इनके योग में चतुर्थी विभक्ति किन-किन नियमों से होती २. निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग करो व्रजति, कुशलम्; कृते, क्षमः, क्रुध्यति, रोचते, स्पृहयति, अनुगणाति । ४. मधु और कर्तृ शब्द के रूप लिखो। ५. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो___ टिकटी, चौकी, कलम, कुर्सी, बेंच, जोड, बाकी, रजिस्टर, पेंसिल । ६. त्यज और भूष धातु के रूप लिखो। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २२ : अपादान शब्द संग्रह पोतघाट : ( बंदरगाह ) । पादयानम् ( बाईसिकल) । पारियाणिक: ( मुसाफिर के लिए गाडी ) । चित्ररथः, तैलरथ: ( मोटर ) । वाष्पगम् (रेलगाडी) । लोहसरणी (रेल की लाइन ) । पथकोट:, स्थैषणम् ( स्टेशन ) । अग्निपोतः (अगनवोट) । जलयानम् (जहाज) । वायुयानम् ( हवाईजहाज ) । वहनदलम् (टिकट) । भूतैलसार : ( पेट्रोल) । घोरणम् (वग्धी ) । आंगलभाषा ( अंग्रेजी) । निरीक्षणम् (इन्सपेक्शन) । निरीक्षक (इन्सपेक्टर) अध्यापकः ( पढ़ानेवाला) । समयविभागः ( टाइमटेबल) । विश्वविद्यालय: ( युनिवर्सिटी) । पादकंदुकम् ( फुटबाल) । विज्ञानम् ( साइन्स) । विधा ( टयूशन) । पोष्यपोषम्, गुणवेतनम् ( पेन्शन) । शुल्कम् (फीस) । वेतनम् ( तनख्वाह ) | उत्कर्षः ( तरक्की) । उपढौकनम् (भेंट ) । उत्कोचः, उपदा ( रिश्वत ) । अनुवाद:(तर्जुमा) । आज्ञापनम् (लाइसेंस ) । - (धातु) गम्लृ - गतो ( गच्छति ) जाना । घस्लूं - अदने (घसति ) । खाना । पत्लुं—पतने ( पतति ) गिरना । षद् - विशरणगत्यवसादनेषु ( सीदति ) नष्ट होना, जाना और विषाद करना । दृशृं - - प्रेक्षणे ( पश्यति ) देखना | अव्यय - साम्प्रतम् ( अब ) । स्वयम् ( अपने आप ) । जातु ( कदाचित् ) । तथाहि (जैसा कि ) । ध्रुवम्, नूनम् ( निश्चय ) । मा ( मत ) । सहसा ( एकदम ) । भृशम् (बहुधा) । पयस् शब्द के रूप याद करो (परिशिष्ट १ संख्या ३२ ) । मनस् और धनुष शब्द के रूप पयस् की तरह चलते हैं । गम् और दृश् धातु के रूप याद करो (परिशिष्ट २ संख्या १८, १९ ) । घस् से सद् तक के रूप प्रायः गम् की तरह चलते हैं । कुछ रूपों में भिन्नता है अपादान अपायः विश्लेषः - अलग होने का नाम अपाय या विभाग है । उसकी Conwove को क ै. ܕ दौड़ते हुए घोडे से गिरता है) । यह विभाग शरीर से संबंध रखता है । बुद्धि पूर्वक विभाग में शरीर से अलग होने की कोई जरूरत नहीं होती, केवल बुद्धि से ही अलगाव होता है । जैसे - रामः शत्रुभ्यो बिभेति (राम शत्रुओं से डरता Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपादान है) । मोहनः धर्मात् प्रमाद्यति (मोहन धर्म से प्रमाद करता है)। इन दोनों वाक्यों में शत्रु और धर्म से बुद्धि द्वारा राम और मोहन दूर होते हैं । नियम १२६---(प्रभृत्यन्यार्थारादिशब्दैः २।४।८१) प्रभृति, आरभ्य, अन्य अर्थ वाले शब्द (भिन्न, व्यतिरिक्त, पथक, विलक्षण, इतर, हिरुक), आरात् (दूर और निकट का वाचक) और दिशावाची शब्दों के योग में पंचमी विभक्ति होती है । जैसे—कार्तिक्याः प्रभृति । आरभ्य ग्रीष्मात् । भिन्नश्चैत्रात् व्यतिरिक्तः पटात् । पृथग् गजात् । विलक्षणोऽश्वात् । इतरश्चैत्रात् । हिरुक गार्यात् । आराद् ग्रामात् क्षेत्रम् । ग्रामात् पूर्वस्यां दिशि वसति ।। नियम १३० ---- (पर्यपाभ्यां वर्जने २।४।७६) परि और अप अव्यय वर्जन (छोडकर) अर्थ में हों वहां उसके योग में पञ्चमी विभक्ति हो जाती है। जैसे–परिपाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः । अपपाटलिपुत्रं वृष्टो मेघः । आराणावासात् ग्रीष्मप्रकोपः । नियम १३१- (ऋते द्वितीयापञ्चम्यौ २।४।१२४) ऋते (वर्जन के अर्थ में अव्यय) शब्द के योग में द्वितीया और पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-ऋते धर्म धर्माद् वा कुतः सुखम् । नियम १३२-(दूरान्तिकार्थबहिभि : २।४।८४) दूर और अन्तिक अर्थ वाले शब्दों तथा बहिः के योग में पंचमी और षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-- दूरं ग्रामात् ग्रामस्य वा। नियम १३३–(आख्यातर्युपयोगे २।४।७८) पढ़ाने वाले वाचक शब्द से पंचमी विभक्ति होती है यदि उपयोग विषय (नियमपूर्वक विद्याध्ययन) हो तो। जैसे- उपाध्यायादधीते शिष्यः । आचार्यात् आगमयति । साधोः शृणोति । प्रत्येकबुद्धात् अधिगच्छति । नियम १३४---- (आङावधी २।४।७७) अवधि अर्थ में आङ् (आ) शब्द के योग में पंचमी विभक्ति होती है जैसे---आबालेभ्यो जिनभक्तिः । आटमकोरात् वृष्टो मेघः । आउदयपुरात् शीतलहरः । प्रयोगवाक्य सः ग्रामादायाति । सा मार्जारात् बिभेति । ऋते ज्ञानं ज्ञानाद् वा न मुक्तिः । नगरादुत्तरस्यां दिशि एका वसतिरस्ति । पूर्वो ग्रीष्माद् वसन्तः । पश्चिमो रामात् युधिष्ठिरः । कालुरामाचार्यादधीते शिष्य: । साधोः शृणोति । स्वयंबुद्धादधिगच्छति । परिजयपुरात् वृष्टो मेघः । आकुमारेभ्यो यशः गौतमस्य । शैशवात् प्रभृति । तद्दिनादारभ्य । प्रव्रज्याया अनन्तरम् । सः साम्प्रतं स्वयं आगमिष्यति । सहसा विदधीत न क्रियाम् । त्वं दुष्कर्म मा कुरु । जातु शैशवदशापरवशो । मर्त्य : गच्छति । बाल: मिष्टान्नं घसति । वृद्धः भूमो कथमपतत् ? बालिका सीदति । नरेन्द्रः सीमां कदा ददर्श ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वाक्यरचना बोध संस्कृत में अनुवाद करो "बंदरगाह से नगर कितना दूर है ? बाईसिकल से कौन गिरा ? रेलगाड़ी रेललाइन से कैसे नीचे उतरी ? युनिवर्सिटी से मेरा घर नजदीक है । मोहन अध्यापक से अंग्रेजी पढ़ता है । जहाज से मोहन गिर गया । हवाईजहाज से कितने आदमी उतरे ? हाथी घोडे से भिन्न है । मेरे गांव के दूर और नजदीक अनेक खेत हैं। इस नगर की उत्तरदिशा में एक मंदिर है । मदन को छोडकर सभी बालक आ गये । प्राण के बिना शरीर का क्या महत्त्व है ? घर के बाहर कौन बैठा है ? बालक अध्यापक से पढता है । छोटों से लेकर बडों तक वह प्रिय है । गाडी में पेट्रोल नहीं है । माणक टिकट के लिए स्टेशन गया है। सुबोध विज्ञान की अध्यापिका है । इसका अनुवाद कौन करेगा ? तुमको कितनी पेन्शन मिलती है ? स्कूल की कितनी फीस है ? मेरी तरक्की हो गई। सुरेन्द्र ने तुमको क्या भेंट दी ? रिश्वत मत लो। तुम कहां जाओगे ? दादाजी क्या खायेंगे ? तुम कहां गिरे ? आप क्यों खिन्न होते हैं ? तुमने जैन विश्व भारती कब देखी ? अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो मुनि: नगरेण आयाति । बालिकाः गोभिः बिभेति । ऋते धर्मेण न सुखम् । अध्यापकेन छात्रः पठति । परिचंदेरीं सो गतः । आछात्रान् तस्य कीर्तिः । ग्रामेण अन्तिकं एक: विद्यालयोऽस्ति | नगरेण बहिः एका नदी अस्ति | २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करें पथकोट, वाष्पगम्, पादफलकम्, दूरम्, ऋते, ध्रुवम्, भृशम् । ३. परि, ऋते और आङ अव्ययों के योग में कौन सी विभक्ति किस नियम से होती है ? प्रत्येक के दो-दो वाक्य बनाओ । ४. अपाय किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का होता है ? प्रत्येक के तीन उदाहरण स्वयं बनायें । ५. निम्नलिखित शब्दों के संकृस्त रूप लिखो रेलगाडी, स्टेशन, पेट्रोल, मोटर, युनिवर्सिटी, पेन्शन, तरक्की, रिश्वत, लाइसेंस, फुटबाल | ६. जगत्, कर्मन् और नामन् शब्दों के रूप लिखो । ७. वद धातु के रूप लिखो । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ : २३ संबंध शब्दसंग्रह काय: (शरीर) । शिरः शिर) । नयनम् (आंख) । कर्णः (कान) । रदनः (दांत) । नासिका (नाक) । ललाटम् (ललाट)। वदनम् (मुख) । हस्तः (हाथ) । पाद: (पैर) । उदरम् (पेट)। अङ्गुलिः (अंगुली) । अङ्गुष्ठः (अंगूठा) । केशः (बाल)। अधर: (होठ) । गुदम् (गुदा) । जत्रु (कंधे और काख का जोड, हंसुली-कंधे से छाती को जोडने वाली हड्डी) । अंत्रम् (आंत)। कफोणिः, कूर्परः (कोहुनी-बाहु और भुजा का जोड)। छुटिका (टखना--- एडी के ऊपर हड्डी की गांठ) । जंभः (दाढ) । वलिः (झुरीं)। कमन्धः, कवन्धम् (धड) । पशुका (पंसुली–दोनों पार्श्व भागों की हड्डी)। कंकालः (हड्डियों का ढांचा) । फुप्फसम् (फेफडा) । दन्तवेष्ट: (मसूडा) । अव्यय --उपरिष्टात् (ऊपर)। परस्तात् (आगे) । पुरस्तात् (आगे)। पश्चात् (बाद) । पुरः (आगे) । सदृशः, समः (समान) । उच्चैः (ऊंचे)। नीचैः (नीचे) । अद्य (आज) । अति (अधिक) । धातु --वदिङ्-अभिवादनस्तुत्योः (वन्दते) वंदन करना, स्तुति करना । लोकृङ्--दर्शने (लोकते) देखना। त्रैङ—पालने (त्रायते) रक्षा करना । लघिङ्-भोजननिवृत्तौ च (लंघते) लंघन करना। सर्व शब्द के स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग के रूप याद करो (परिशिष्ट १ संख्या ६७) वदिङ् धातु के रूप याद करो। (परिशिष्ट २ संख्या २०) आत्मने पद धातुओं के रूप प्रायः वदिङ् की तरह चलते हैं। सम्बन्ध (शेषे २।४।८७) सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है । सम्बन्ध अनेक प्रकार का होता है १. स्वस्वामिसंबंध-राज्ञः पुरुषः । २. जन्यजनकसंबंध-दशरथस्य पुत्रः । . ३. अवयवावयविसंबंध--पशोः पाद: । ४. आधाराधेयसंबंध-वृक्षस्य शाखा । ५. प्रकृतिविकारभावसंबंध-क्षीरस्य विकारः । ६. समूहसमूहिभावसंबंध- गवां समूहः । ७. समीपसमीपिभावसंबंध-कुम्भस्य स्वामी । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध ८. पाल्यपालकभावसंबंध-पृथिव्याः स्वामी । 8. अश्याशनभावसंबंध-गोधमानामश्नीयात् । १०. शिक्षणीयशिक्षणभावसंबंध–सुभाषितस्य शिक्षते । ११. ज्ञानज्ञेयभावसंबंध—आवश्यकसूत्रस्य जानीते । नियम १३५-- (कर्तृकर्मणोः कृति २।४।८६) कृदन्त प्रत्ययों के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे—तव गमनम् । शास्त्रस्य प्रणेता। तीर्थस्य कर्ता। नियम १३६ - (निर्धारणेऽविभागे सप्तमी च २।४।११२) अविभाग गम्य होने पर निर्धारण अर्थ में वर्तमान नाम से षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे---नृणां नृषु वा क्षत्रियः शूरः ।। · नियम १३७-(तुल्यार्थस्तृतीयाषष्ठ्यो २।४।१२२) तुल्य अर्थ वाले शब्दों के योग में वर्तमान नाम से तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे—जिनेन जिनस्य वा तुल्यः, समः, सदृशो वा कालुरामाचार्यः । नियम १३८-रिरिष्टात्स्तादस्तादतसादसन्तैः २।४।८८) रि; रिष्टात्, स्तात्, अस्तात्, अतस्, आत् और अस्-इन प्रत्यय अंत वाले शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-रि-उपरि ग्रामस्य । रिष्टात्उपरिष्टात् ग्रामस्य । स्तात्-परस्तात् ग्रामस्य । अस्तात्-पुरस्तात् ग्रामस्य । अतस्-दक्षिणतो ग्रामस्य । आत्-पश्चात् ग्रामस्य । अस्-पुरो ग्रामस्य, अधो ग्रामस्य । नियम १३६-(कृत्यानां कर्तरि वा २।४।६३) कृत्यसंज्ञा वाले (तव्य, अनीय, य, क्यप, ध्यण्) प्रत्ययों के योग में कर्ता में षष्ठी और तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-भवतः भवता वा उद्यमो कार्यः, करणीयः, कृत्यो वा। . नियम १४०-(वैकत्र द्वयोः कर्मणोः २।४।६२) द्विकर्मक धातुओं के योग में एक वाक्य में जहां दो कर्मों का प्रयोग हो वहां किसी एक कर्म में षष्ठी विभक्ति विकल्प से होती है। जैसे -पयसो दोहको गां गोर्वा । यहां पयः और गां ये दो कर्म है इनमें गां कर्म में षष्ठी विभक्ति विकल्प से हुई है । पयः पयसो वा दोहको गो:-यहां पयः कर्म में षष्ठी विभक्ति विकल्प से हुई है। प्रयोगवाक्य बालकस्य पठनम् । ओदनस्य भोजकः । साधूनां साधुषु वा आचार्यः प्रमुखोऽस्ति । गवां गोषु वा कृष्णा बहुक्षीरा । मुनिना मुनेः वा सदृशः अयं श्रावकः । भिक्षोः स्वामिनः पश्चात् भारीमालोऽभूत् । तव पुरः पुरस्तात् वा कोऽस्ति ? अहं प्रतिदिन गुरुं वन्दे । भवान् किं लोकते ? माता पुत्रं त्रायते । सुरेन्द्रः भोजनं लङ्घते । शिष्य: गुरुं वन्दते। . संस्कृत में अनुवाद करो उसका शरीर सुंदर है । मोहन का शिर, आंख, कान, दांत और Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध ७९ ललाट सुन्दर हैं । चंदन के हाथ में पुस्तक है। गाय के कितने पैर होते हैं ? बच्चा मां के पेट में कितने महीने रहता है ? तुम्हारी अंगुलियां छोटी हैं। सोहन का अंगूठा बडा है । मां के बाल सफेद हैं । सीता के होठ लाल हैं। उसके गुदा में पीडा है। शरीर में कितनी आंतें होती हैं ? दादाजी के घटने और दाढ में दर्द है। बूढे के मुख पर झुर्रियां हैं । यह सैनिक का धड है । मोहन के पंसुली में अति दर्द है । मेरा फेफडा स्वस्थ है। तपस्वी का शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र है। दादी के मसूडे में आज पीडा है। विद्यार्थियों में प्रदीप पढने में कुशल है । आचार्य तीर्थंकर के तुल्य होते हैं। मेरे घर के ऊपर एक सांप बैठा है । आचार्य सुधर्मा के बाद जंबू स्वामी आचार्य हुए थे। छोटे मुनि रत्नाधिक साधुओं को वंदना करते हैं । अभ्यास १. निर्धारण अर्थ में और तुल्य अर्थ वाले शब्दों के योग में कौनसी विभक्ति किस नियम से होती है ? २. वाक्य बनाओ वन्दिष्ये, अलोकिष्ट, अलङ्घत, त्रायिष्यते, वदनम्, अधरः । ३. संबंध कितने प्रकार के होते हैं ? ४. कृत्य प्रत्यय के योग में कौन सी विभक्ति होती है ? ५. निम्नलिखित वाक्यों में कौन से शुद्ध है और कौन से अशुद्धबालानां पवन: चंचलोऽस्ति । विद्यार्थिभिः रमेशः दक्षोऽस्ति । आचार्येण सदृशः कोऽपि वक्ता नास्ति ? युष्मत् तुल्यः कोऽपि नास्ति ? ग्राम अधः किमस्ति ? गहस्य पुरस्तात् एकः उपाश्रयः चकास्ति । पुस्तकं पठिता क्वास्ति ? ओदनस्य भोजकः व्रजति । साध्वीभ्यः साध्वीप्रमुखा मुख्या विद्यते । अध्यापकेषु सुरेन्द्रः निपुणोऽस्ति । ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखें__दांत, पेट, अंगूठा, होठ, दाढ, फेफडा, मसूडा, गुदा, धड, नाक । ७. पयस् शब्द के रूप लिखो। ८. गम् और दृश् धातु के रूप लिखो। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २४ : आधार शब्दसंग्रह मज्जा (मज्जा-नली की हड्डी के भीतर भरा मुलायम पदार्थ) । सृक्कणी (ओष्ठ का प्रान्त भाग) । वेणि: (बालों की चोटी) । जंघा (जांघ)। शिश्नम् (लिंग)। कललः (झिल्ली)। प्लीहा (तिल्ली)। स्नायुः, सिरा (नाडी, नस)। पार्श्वः (शरीर के काख और कमर के बीच का पसलियों वाला भाग)। कण्डरा (भोजन की बडी नाडी)। पिप्लुः (मसा, तिल) । गुम्फः (मूंछ)। रोमकूपः (त्वचा के छोटे-छोटे छेद जिनसे रोएं निकलते हैं)। फालः, सीमन्तः (मांग)। गलः, कंठः (कंठ)। अंसः (कंधा) । भुजः, बाहुः (बाँह, भुजा)। भुजकोटर: (काँख)। रसना (जीभ) । तालु (तालु) । ग्रीवा (गर्दन)। भ्रू : (भौंह) । स्तन: (स्तन) । पृष्ठम् (पीठ) । नाभिः (नाभि) । कटि: (कमर)। ईश्वरः, अधिपतिः (मालिक) । दायादः (हिस्सेदार)। धातु-लोचुङ-दर्शने (लोचते) देखना । भ्राजुङ् ---दीप्तौ (भ्राजते) दीप्त होना । स्फुटङ्-विकसो (स्फुटते) विकसित होना। चेष्टङ्-चेष्टायाम् (चेष्टते) चेष्टा करना। यतीङ्-प्रयत्ने (यतते) प्रयत्न करना। अव्यय-सहसा (एकदम) । भृशम् (बहुत)। अवश्यम् (जरूर) । साक्षात् (आँखों के सामने) । मिथः (परस्पर)। किंचित् (कुछ)। अहो (आश्चर्य) । तर्हि (तो) । समीपम् (पास)। तत् शब्द के तीनों लिंगों के रूप याद करो (परिशिष्ट १ संख्या ३४) । यत्, एतत् शब्द के रूप थोडे अन्तर के साथ तत् की तरह ही चलते हैं। (देखें संख्या ३५, ३८) । लोचङ् से यतीङ् तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं। आधार जिसमें क्रिया हो रही है उसे आधार कहते हैं। वह छव प्रकार का होता है-- (१) औपश्लेषिक (२) सामीप्यक (३) अभिव्यापक (४) वैषयिक (५) नैमित्तिक (६) औपचारिक । (१) औपश्लेषिक-जिस आधार से संलग्न पदार्थ का बोध हो उस आधार को औपश्लेषिक कहते हैं। जैसे-कटे शेते-चटाई पर सोता है । तरौ वसति-वृक्ष पर रहता है। इनमें चटाई और वृक्ष आधार है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार ८१ सोले बाल और रहने ला शाने आधारभूत चटाई और वृक्ष से संलग्न रहते है। इसलिए ऐने आधार को 'औपश्लेषिक' आधार कहा जाता है। (२) सामीप्यक-जिससे समीपता का बोध हो उसे 'सामीप्यक आधार' कहते हैं। जैसे ----वटे गाव:-गायें बरगद के नीचे खड़ी है। अशोके सीता आमाञ्चके ----अशोक वृक्ष के नीचे सीता बैठी थी। इनसे गायें और सीता का बरगद के नीचे या आसपास रहना जाता है । (३) अभिव्यापः - व्याप्य का बोध कराने वाले शब्द को 'अभिव्यापक __ आधार' कहते हैं। जैसे—क्षीरे घृतम् । तिलेषु तैलम् । कुसुमेषु गन्धः । यहाँ दूध, तिल और कुसुम व्यापक हैं और घी, ते और गंध व्याप्य हैं। (४) वैषयिक-जिससे विषय (निवास करने के क्षेत्र) का बोध हो उसे 'वैषयिक आधार' कहते हैं। जैसे-तपोवने तपस्वी वसति । अरण्ये सिंहो गर्जति । (५) नैमिनिक जिस शब्द से होने वाले कार्य के निमित्त की सूचना मिलती है उसे 'नैमित्तिक आधार' कहते हैं। जैसे--युद्धे संनह्यते ...--- युद्ध के लिए तैयार होता है। पर्वणि सज्जति--पर्व के लिए तैयार होता है। यहाँ लड़ने के लिए तैयार होने का और सज्जित होने का निमित्त युद्ध और पर्व हैं । ) औपचारिक-उपचार यानि संकेत को मान कर जो कहा जाता है उसे 'औपचारिक आधार' कहते हैं। जैसे-वृक्षाग्ने विद्युत् ... वृक्ष पर बिजली चमक रही है । अगुल्य ग्रे करिशतम्-अङ्गुलि की नोक पर सौ हाथी है । यह उपचार से कहा जाता है। अमुल्यग्रे चन्द्रमाः । नियम १४१-- (यस्य भावेन भावलक्षणम् २।४।१०६) एक प्रसिद्ध क्रिया से दूसरी अप्रसिद्ध क्रिया का काल जाना जाये तो पहली क्रिया में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे—स गोषु दुह्यमानासु आगत:-वह गायों के दुहने पर आया । नियम १४२-(षष्ठयनादरे २।४।१११) अनादर भाव से किसी की उपेक्षा कर क्रिया करने से अनादर भाव वाले में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे- रुदति मातरि पुत्रः प्रावाजीत्- रोती हुई माता को छोड पुत्र दीक्षित हो गया। रदत्या: मातुः पुत्रः प्रावाजीत् । नियम १४३ --- (स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैर्वा २।४ ११३) स्वामी, ईकर, अधिपति, दायाद, साक्षि, प्रतिभू, प्रसूत आदि इन शब्दों के योग में पष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे --- गवां गोषु वा स्वामी, ईश्वरः, अधिपतिः, दायादः, साक्षी, प्रतिभूः, प्रसूतो वा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध जैसे― चर्मणि द्वीपिनं नियम १४४ - ( निमित्तात्कर्मसंयुक्तात् २।४।१०८) निमित्त यदि कर्म संयुक्त हो तो निमित्त में सप्तमी विभक्ति होती है । इन्ति - चर्म ( चमड़े) के लिए हाथी को मारता है । चर्मणि द्वीपिनं हन्ति, दन्तयो र्हन्तिकुञ्जरम् । केशेषु चमरीं हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हतः ॥ सीमा - अण्डकोशः । पुष्कलक: गन्धमृगः । = ८२ - नियम १४५ - ( साध्वसाधुभ्याम् २।४।१०५) साधु और असाधु शब्द से सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - साधुमैत्रो मातरि-मंत्र माता के प्रति साधु है । असाधुत्र मातुले - मंत्र मामा के प्रति असाधु है । विनीतः गुरो साधुः । नियम १४६ - ( साधुनिपुणाभ्यामर्चायामऽप्रश्यादौ २४ । १०४) प्रति, परि, अनु, अभि इन अव्ययों का प्रयोग न हो तो साधु और निपुण शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - मातरि साधुः, पितरि निपुणः । प्रति, परि, अनु और अभि का प्रयोग होने पर द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे - साधुत्र मातरं प्रति, मातरं परि, मातरमनु, मातरमभि । नियम १४७ - ( स्वस्वामिनोरऽधिना २/४ । १०७ ) अधि शब्द स्व और स्वामी के अर्थ में प्रयुक्त होता हो वहाँ गौण नाम में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - ( स्व अर्थ में ) - अधि मगधेषु श्रेणिकः — मगध का श्रेणिक । ( स्वामी अर्थ में ) - अधि श्रेणिके मगधाः - श्रेणिक का मगध । प्रयोगवाक्य मुनिः भूमौ तिष्ठति । उपाश्रये अनेके आपणाः सन्ति । मृत्तिकायां तैलमस्ति । नरके नैरयिकाः वसन्ति । भूपः तीर्थयात्रायां व्रजति । तस्मिन् वृक्षे ..अनेके पक्षिणः सन्ति । गृहस्वामिनि बहिर्गते चौराः समाययुः । विलपति सुते सागता । गृहानां गृहेषु वा कोऽस्ति स्वामी ? रमेशः दुग्धे गां दोग्धि । दुर्जनः सज्ज असाधुरस्ति । सहसा कान्ता भ्रातरं अलोचत । मुनिसंघे आचार्यः 'भ्राजते । अहं अवश्यं चेष्टिष्ये प्रयतिष्ये वा । अनुवाद करो संस्कृत में अध्यापक कुर्सी पर बैठा है । स्कूल में लडके खेल रहे हैं । फूल में गंध है। गायें वन में है । शरीर में आत्मा है । मुनि विहार के लिए तैयार होते हैं | आचार्य श्री का प्रवचन हुआ, देहली से साधुओं ने दर्शन किये । पुत्र के रोने पर भी पिता चला गया । घोड़ों का स्वामी कौन है ? शिकारी केश के लिए चमरी गाय को मारता है । राजेन्द्र मेरे लिए अच्छा है । गोपाल मनीष के लिए अच्छा नहीं है । भाभी के ओष्ठप्रान्त में दर्द है । सरोज चोटी कर रही है । उसकी जांघ पर तिल है । हमारे शरीर में अनेक नाडियाँ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार है। भोजन बडी नाडी में कितने घंटे बाद जाता है ? तुम्हारे शरीर में कितने तिल है ? स्त्रियों के मूंछ नहीं होती। सौभाग्यवती स्त्रियों की मांग में सिंदूर है। विजय के कंठ में मधुरता है। मेरी भुजा फडक रही है। राजू पिता के कंधे पर बैठता है। युवक की काँख में केश है। शरीर में जीभ, तालु, ग्रीवा, भौंह, स्तन, पीठ, नाभि और कमर कहाँ है ? अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों में कौन से शुद्ध हैं और कौन से अशुद्ध, बतायें ? आचार्यः पटें विराजते । मम गृहं उद्यानं अस्ति । मनुष्यक्षेत्रे मनुष्या: निवसन्ति । धर्मेशः विद्यालयं संनह्यते । वर्षौ समागते मुनिवरा: आयान्ति । मं भुक्ते सो समागतः । वनं हस्ती वसति। २. आधार कितने प्रकार के होते हैं ? औपचारिक, सामीप्यक और अभिव्यापक के दो दो उदाहरण दो। ३. नियम १४१ (यस्य भावेन भावलक्षणम्) का उदाहरण देकर स्पष्ट करो। ४. प्रति, परि और अभि के योग में किस नियम से कौनसी विभक्ति होती ५. सर्व शब्द के तीनों लिंगों के रूप लिखो। ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो___ जांघ, नाडी, तिल, मूंछ, गर्दन, पीठ, तिल्ली, काँख, भौंह, बहुत । ७. वदिङ् धातु के रूप लिखो। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २५ : कर्ता का क्रिया के साथ अन्वय शब्दसंग्रह ग्रास: (कोर) । वटक: (बडा)। शाकः (साग)। खण्ड: (खांड) । बुभुक्षित: (भूखा) । तृषितः (प्यासा) । निघसः (भोजन) । पाथम् (पानी)। कुण्डलिनी (जलेबी)। नवनीतम् (मक्खन)। घृतम् (घी) । दधि (दही)। पुंसवनम् (दूध)। मोदकः (लड्डू)। पक्वान्नम् (पकवान) । तक्रम् (मट्ठा, छाछ) । दाधिकम् (लस्सी)। पिष्टिका (कचौडी)। राज्यक्तम् (रायता) । पायसम् (खीर)। धातु-स्पदिङ्---किञ्चिन्चलने (स्पन्दते) स्पन्दित होना, चलित होना। ददङ्-दाने (ददते) देना। स्वदङ्, स्वाद-आस्वादने (स्वदते, स्वादते) आस्वादन करना। बाधृङ्-बिलोडने (बाधते) पीडा करना । दधङ् -धारणे (दधते) धारण करना। टुवेपृङ्, कपिङ्-चलने (वेपते, कम्पते) कांपना । त्रपूषङ्- लज्जायाम् (त्रपते) लज्जित होना । डुलभषङ् --प्राप्ती (लभते) प्राप्त करना । क्षमूषङ्-सहने (क्षमते) सहन करना । मुदङ्-हर्षे (मोदते) हर्षित होना । एधङ्-वृद्धी (एधते) बढ़ना। अदस् और इदं शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ३६,३७) । एधङ धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६६) स्पदिङ् से लेकर मुदङ् तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं । एक साथ कर्ता दो हों तो द्विवचन की क्रिया, कर्ता तीन या तीन से अधिक हों तो बहुवचन की क्रिया आएगी। क्रिया किस कर्ता के अनुसार होगी उसके लिए नियम ध्यान से पढ़ें। नियम १. (त्यदादिः ३११११३६) २. (पुमान्स्त्रिया ३।१।१४२) ३. (नपुंसकमनपुंसकेनैकत्वं च वा ३।१।१४४) क-कर्ता प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष-इन तीनों पुरुषों के एक साथ हों तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार चलेगी। जैसे—स: अहञ्च गच्छावः । स त्वं अहञ्च पठामः । अहं युवाञ्च ॥४ामः । ख--कर्ता यदि प्रथमपुरुष और मध्यमपुरुष के एक साथ हों तो क्रिया मध्यमपुरुष के अनुसार चलेगी। जैसे-स त्वं च पठथः । तौ त्वं च पठथ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता का क्रिया के साथ अन्वय ते त्वं च पठथ । ग- यदि सभी कर्ता प्रथमपुरुष के होंगे तो क्रिया प्रथमपुरुष के अनुसार चलेगी। जैसे - रामः गोपालश्च गच्छतः । सुभाषः विजयः सुदर्शनश्च गच्छन्ति । ८५ घ कर्ता भिन्न-भिन्न वचन के हों तो क्रिया समीप के कर्ता के अनुसार होगी । जैसे - ते वा अयं पारितोषिकं गृह्णातु । ङ जब एक क्रिया के अनेक कर्ता हों परन्तु वे एक साथ न समझे जाकर अलग-अलग स्वीकार किये जायें तो क्रिया में एकवचन ही होता है । जैसे --न मां त्रातुं तातः प्रभवति न चाम्बा न च भवती-मुझे न तो पिता बचा सकते हैं, न माता और न आप | च -- जब दो या अधिक कर्ता के आगे कर्ता के रूप में सर्वनाम आये तो किया उसी अन्तिम सर्वनाम के अनुसार होगी। जैसे - माता पिता चेति स्वभावात् द्वितयं हितमस्ति । छ --- -जब भिन्न-भिन्न पुरुष के दो या तीन कर्ता 'वा' से सम्बन्धित हों तो क्रिया अपने समीर के कर्ता के अनुसार होगी । जैसे - सा वा यूयं वा तद् कर्म अकुरुत ---- उसने तुम लोगों ने यह काम किया । ज यदि क के साथ दो या तीन पद 'च' से जुड़े हों तो किया मिली हुई संख्या के अनुसार होगी। जैसे - तयोः जगृह्तुः पादान्, राजा राज्ञी च मागधी- -राजा और भागधी रानी ने उन दोनों का पैर पकड़ा । झ - दम्पती, पितरी, अश्विनौ इनके रूप द्विवचन में चलते हैं । इनके साथ किया द्विवचन में आती है । जैसे - दम्पती, पितरी अश्विनौ वा गच्छतः । ञ -- - हस्त, नेत्र, पाद, कर्ण आदि शब्द हिन्दी भाषा में बहुवचन के रूप में होते हैं परन्तु उनका भाव द्विवचन का होता है । संस्कृत में भाषान्तर करने के समय उनका भाषान्तर द्विवचन में ही करना चाहिए। जैसे- स हस्ती पादौ च प्राक्षालयत् - उसने हाथ, पैर धोये । सा लोचने न्यमीलत् — उसने आंखें बन्द कर ली । ट - द्वय, युगल, युग, द्वन्द्व -- ये चारों 'दो' अर्थ के बोधक हैं । ये शब्द के अन्त में जुड़ते हैं और नपुंसकलिंग एकवचन होते हैं । इनके साथ क्रिया एकवचन में रहती है । जैसे- छात्रद्वयं, छात्रयुगलं, छात्रयुगं, छात्रद्वन्द्वं वा पुस्तकानि पठति । ठ - यदि एक वाक्य में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्द हों तो सर्वनाम और क्रिया पुल्लिंग होंगे। यदि पुं०, स्त्री०, नपुंसक तीनों हों तो सर्वनाम और क्रिया नपुंसक होंगे। जैसे- शुक्लः पटः, शुक्ला शाटी - ताविमौ क्रीती । शुक्लः पटः, शुक्ला शाटी, शुक्लं अन्तरीयं तानि एतानि प्रक्षालितानि । ड-- यदि एक वाक्य में संज्ञाशब्द और सर्वनाम हो तो सर्वनाम शेष Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध रहेगा । कई सर्वनाम होंगे तो अन्तिम शेष रहेगा । जैसे-स रामश्च =तो। ढ-बहुवचन से दो से अधिक का बोध होता है लेकिन संस्कृत में कुछ शब्द ऐसे हैं जो रूप में तो बहुवचन हैं परन्तु उनका भाव एकवचन का ही रहता है। जैसे-दाराः, आपः, वर्षाः, सिकता:, सुमनसः, अक्षताः, लाजाः, असवः, प्राणाः; अप्सरसः, समाः। (अप्सरस्, वर्षा, समा सुमनस् इनका कहींकहीं एकवचन में भी प्रयोग मिलता है।) - ण-(गुरावेकस्मिश्च १११६६७) पूज्य के अर्थ में एकवचन और द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का भी प्रयोग होता है। जैसे - एष मे पिता, एते मे पितरः । अयं तपस्वी, इमे तपस्विनः । गुरुशिष्यो, गुरुशिष्याः। त-जातिवाची नाम में एकवचन और बहुवचन होता है । जैसेक्षत्रियो वीरः, क्षत्रिया: वीराः । थ-(अस्मदो द्वयोश्च १।१।६५) अस्मद् शब्द के एकवचन और द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का भी प्रयोग होता है। अहं ब्रवीमि, वयं ब्रूमः । आवां ब्रूवः, वयं ब्रूमः । अहं पण्डितो ब्रवीमि (मैं पण्डित कहता हूं), वयं पण्डिताः ब्रूमः। द-देशों के नाम संस्कृत भाषा में सदा बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-अहं गतः कदाचिद् कलिङ्गान्-मैं कभी कलिंग गया था। ध-जब देश के नाम के साथ 'देश' या विषय शब्द जुडे हों तब एकवचन में प्रयोग करना चाहिए। जैसे-अस्ति मगधदेशे पाटलिपुत्रं नाम नगरम्-मगधदेश में पाटलिपुत्र नाम का एक नगर है। न-व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के बहुवचन प्रयोग से वंश या जाति का बोध होता है । जैसे—रघूणामन्वयं वक्ष्ये-मैं रघुवंशियों का वर्णन करूंगा। जनकानां रघूणां च सम्बन्धः कस्य न प्रिय:-जनक और रघुवंश वालों का सम्बन्ध किसको प्रिय नहीं है। प-पात्र, आस्पद, स्थान, पद, प्रमाण, भाजन आदि शब्द जब विधेय के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब ये सदा एकवचन नपुंसकलिंग में रहते हैं। चाहे कर्ता किसी भी वचन और लिंग में हो, क्रिया सदा कर्ता के अनुकूल होती है। उद्देश्य के रूप में होंगे तो अन्य बचन भी होंगे। जैसे—गुणाः पूजास्थानं गुणिषु-गुणियों में गुण ही पूजा के स्थान हैं। ___ संस्कृत में अनुवाद करो राम, तुम और मैं कल साथ में भोजन करेंगे। मोहन और मैं कल बाजार गये थे। मैं और तुम संस्कृत पढेंगे। सीता और तुम इस पुस्तक को पढो। मोहजीत और मुनिसुव्रत भजन गायेंगे। मोहन, सोहन और निर्मल कलकत्ता कब जायेंगे । तुम और हम सब ध्यान करेंगे। राम या तुम शीघ्र घर जाओ । आचार्यश्री प्रवचन करते हैं। भगवन् ! तेरा स्मरण करना किसको Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता का क्रिया के साथ अन्वय ८७ अच्छा नहीं लगता? आचार्यश्री की वाणी का आस्वादन करो। वृक्ष बढता है । सूत्र सूत्र को बाधता है। संन्यासी शिखा धारण करता है। वह क्यों कांपती है ? बहू लज्जित होती है। राम धन पाता है । मुनि दूसरे के कठोर वचन को भी सहन करते हैं । मैं प्रसन्न हूं। शास्त्रों में पुरुषों के लिए बत्तीस और स्त्रियों के लिए अट्ठाईस कोर का विधान है । गुरु ने शिष्य से पूछा-तुम इतने बडे कैसे खा गये ? प्राकृतिक चिकित्सक कहते हैं रोटी और साग अलग-अलग खानी चाहिए। प्राचीनकाल में मुनिजन एक समय भोजन करते थे। समुद्र का पानी खारा होता है । शंकर को जलेबी, मक्खन, घी, दूध और दही अच्छे लगते हैं । देवकी ने आये हुए मुनियों को भक्तिभाव से लड्डू दिये । अशोक के घर आज अनेक पकवान बने हैं । उसका शरीर स्पन्दित हो रहा है । तुम मुझे क्या दोगे? अभ्यास १. नीचे लिखे नियमों का भाव बताओ और एक-एक वाक्य बनाओ। च, द, प, ठ, ग, घ, झ, ण । २. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखें बडा, खांड, जलेबी, घी, लड्डू, मट्ठा, कचौडी, रायता, प्यासा, भूखा । ३. तत्, यत् और एतत् शब्दों के रूप लिखो। ४. यतीङ् धातु के रूप लिखो। ५. निम्नलिखित वाक्यों में शुद्ध, अशुद्ध बतायेंपितरो गच्छन्ति । छात्रद्वयं पठन्ति । वर्षाः वर्षन्ति । अप्सरसः क्रीडति । प्राणाः गच्छति । आप: वहति । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २६ : निमित्तार्थक क्रिया शब्दसंग्रह (तुम् प्रत्यय के रूप) कर्तुम् (करने के लिए)। व्यवस्थितुम् (व्यवस्थित करने के लिए)। वधितुम् (बढ़ने के लिए)। स्नातुम् (स्नान करने के लिए) । लेखितुम् (लिखने के लिए)। पठितुम् (पढने के लिए)। ज्ञातुम् (जानने के लिए)। कथयितुम् (कहने के लिए) । वक्तुम् (बोलने के लिए)। जेतुम् (जीतने के लिए)। पर्यटितुम् (टहलने के लिए)। उदञ्चितुम् (खींचने के लिए)। पराजेतुम् (हराने के लिए)। प्रक्षालयितुम् (धोने के लिए)। नर्तितुम् (नाचने के लिए) । वन्दितुम् (वन्दन के लिए) । केतुम् (खरीदने के लिए) । पातुम् (पीने के लिए)। गन्तम्, यातुम् (जाने के लिए)। अत्तुम् (खाने के लिए) । अध्येतुम् (अध्ययन के लिए) । रोदितुम् (रोने के लिए)। भवितुम् (होने के लिए)। दातुम् (देने के लिए)। शयितुम्, स्वपितुम् (सोने के लिए) । घ्रातुम् (संघने के लिए) । स्मर्तुम् (याद करने के लिए) । मारयितुं, हन्तुं (मारने के लिए) । आसितुम् (बैठने के लिए) । स्तोतुम् (स्तुति करने के लिए)। धातु-णमं-नमने (नमति) झुकना। किं शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४१) । णम धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६५) । नोट-अन्य धातुओं के तुम् प्रत्यय के रूप परिशिष्ट ४ में देखें। तुम् प्रत्यय __ जो क्रिया का कारण प्रकट करता है उसे निमित्तार्थक क्रिया कहते हैं । जैसे—स प्रवचनं श्रोतुं गच्छति । यहां गच्छति क्रियापद है। इसका अर्थ है-जाना । परन्तु किसलिए जाता है इसका उत्तर श्रोतुं के द्वारा मिलता है। निमित्तार्थक क्रिया को सूचित करने वाला तुम् प्रत्यय है। यह धातु मात्र से होता है। इसके योग में सकर्मक धातु से कर्म आता है, अकर्मक से नहीं। तुम् प्रत्यय अव्यय है इसलिए यह सब जगह समान रहता है । तुम प्रत्यय के रूप बनाने के नियम नियम १४८-(काममनसोस्तुमश्च ३।२।१४६) तुम् प्रत्ययान्त शब्द के आगे काम और मनस् शब्द लगाने से तुम् के म् का लोप हो जाता है और वह स्वयं विशेषण के रूप में परिणत हो जाता है। जैसे—विद्यामध्येतुकामाः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तार्थ क्रिया ८६ छात्राः उपाध्यायं परिचरन्ति । वैशालीमधिकर्तुमनाः कोणिक: चेटकमाचऋाम। ___-सेट् धातु से इट् (इ) आता है और अनिट् धातुओं से इट नहीं आता । इट् तुम् प्रत्यय से पहले आता है। जैसे ---पठ -- पठितुम् (पढ़ने के लिए) । ख-(आत्नध्यक्ष राणाम् ४।२।१०१) सन्ध्यक्षर अंत वाली धातुओं के अंत में सन्ध्यक्षर के स्थान पर 'आ' हो जाता है। जैसे—गै गातुम् (गाने के लिए)। ग-(नामि गुणोऽक्ङिति) उपधायाः लघोः ४।२।१,४) नामि स्वर अंतबाली धातुओं को तथा हसान्त धातुओं की उपधा को गुण हो जाता है । जैसे--- जि (जेतुम् जीतने के लिए । णी (नेतुम् ) ले जाने के लिए। श्रु (श्रोतम् ) सुनने के लए। कृ (कर्तुम् ) करने के लिए। रुद् (रोदितुम्) रोने के लिए। ष्टु स्तोतम्) स्तुति करने के लिए। लिख (लेखितुम्) लिखने के लिए। घ--- (वजो कगौ २।१।११६) अनिट् धातुओं के अंत में स्थित च को क और ज को स होकर क हो जाता है। जैसे--पच् (पक्तम् ) पकाने के लिए । भुज (भोक्तम् ) खाने के लिए। -- (खसे चपा झथानाम् ११३।४०), (झसा जबा: २।१।१०८) धातु के अं नाम द् को त्, ग् को द् और भ् को ब हो जाता है। जैसे छिद् (छेत्तुम् ) काटने के लिए । रुध (रोद्धम् ) रोकने के लिए । लभ् (लब्धुम् ) पाने के लिए। च-- (शराज भ्राज्यज सृजमृध्रस्वश्चपरिव्राजां षः २।१।११७) श अन्तवाली धातुएं था राज्, भ्राज्, यज्, सृज, मृज् . भ्रस्ज, ब्रश्च् इन धातुओं के अंतिम वर्ण को प् हो जाता है और तुम् के तु को टु हो जाता है । जैसे—प्रविश् (प्रवेष्टम् ) प्रवेश करने के लिए। राज् ( राजि तुम्) भ्राज् (भ्राजितुम्) चमकने के लिए । यज् (यष्टुम् ) यज्ञ करने के लिए। मृञ् (स्रष्टुम् ) सर्जन करने के लिए। मृज् (म्रष्टुम् ) साफ करने के लिए। भ्रस्ज् (भ्रष्टुम् भाम् ) भुनने के लिए। छ-(म्नां जपे नमः सवर्णोऽप्रदान्ते ११३।३४) मकार को नकार हो जाता है । जैसे--म् (गन्तुम् ) जाने के लिए। रम् (रन्तुम् ) रमण करने के लिए। प्रयोगवाक्य चेत् त्वं चिन ! बुद्धिकलापं लब्धं, आपदमपाकर्तु, पथि विहर्तु, कीर्ति प्राप्तुं, साधुतां विधुवितुं, धर्म समासेवितुं, पापविपाकं रोर्बु, स्वर्गापवर्गश्रियमाकलयितुं समीहसे तदा गुणवतां संगं अङ्गीकुरु । किमहं मध्याह्न अवर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8० वाक्यरचना बोध कमागन्तुमर्हामि ? किं त्वमाचार्यवराणां सुदृशमाराधयितुं समर्थोऽसि ? अहं जाने भवन्तः शासनाथं प्राणानर्पयितुं तत्पराः सन्ति । नर्तक: स्वपुत्रीं नर्तितुं प्रेरयति । तात: पयः पातुं कुत्र व्रजति ? शिक्षक: उद्यानं गतुं सज्जति । आचार्यः शिष्यमध्ये तुं वक्ति । विनीतः नमति, उद्दण्डः न नमति । भूपः अरीणां सम्मुखे न नंस्यति । चेत् त्वं अनंस्यः तदा न युद्धोऽभविष्यत् । _____ संस्कृत में अनुवाद करो वह संध्या समय प्रतिक्रमण करने के लिए सामायिक करता है। शासन को व्यवस्थित करने के लिए जयाचार्य ने क्या नहीं किया ? हमारे पूर्वजों ने शासन वृद्धि के लिए तन मन अर्पण कर डाले। विद्या अध्ययन के लिए स्थिरता की आवश्यकता है। कुएं से जल खींचने के लिए नौकर को क्या चाहिए ? मोहन स्नान के लिए तालाब पर गया है। रमा निबंध लिखने के लिए पुस्तक पढ़ती है। देवेन्द्र को पढ़ने के लिए पुस्तक दो। सत्य को जानने के लिए गहरे में उतरो। तुम्हें स्पष्ट बोलने के लिए चेष्टा करनी चाहिए। भरत ने बाहुबलि को जीतने के लिए क्या किया ? प्रातःकाल टहलने के लिए जाना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। रमेश को हराने के लिए सोहन ने क्या किया ? धोबी को धोने के लिए कपड़े दो। राजा श्रेणिक भगवान महावीर को वंदन करने के लिए गुणशील उद्यान में गये । मुनि गाना गाने के लिए जाता है । प्रवचन सुनने के लिए सावधान हो जाओ। रसोइया सब्जी पकाने के लिए अग्नि जलाता है। बच्चा मिठाई खाने के लिए रोता है। विनय ज्ञान पाने के लिए प्रयत्न करता है। अभिमानी व्यक्ति कभी नहीं झुकते । वह कभी नहीं झुकेगा। यदि श्याम झुक जाता तो उसका कार्य हो जाता। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो___ अत्तुम्, रोदितुम्, स्वपितुम्, घ्रातुम्, स्मर्तुम्, भवितुम्, दातुम् । २. अदस् और इदम् शब्दों के रूप लिखो। ३. एधङ् धातु के रूप लिखो।। ४. निमित्तार्थक क्रिया किसे कहते हैं ? उसके बारे में तुम क्या जानते हो ? Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २७ : पूर्वकालिक क्रिया ( क्त्वा प्रत्यय) शब्दसंग्रह ( क्त्वा प्रत्यय के रूप ) लिखित्वा ( लिखकर ) । हित्वा त्यक्त्वा ( छोडकर ) । स्मृत्वा ( यादकर ) । पठित्वा ( पढकर ) । ( कहकर ) | मारयित्वा ( मारकर ) । वन्दित्वा ( वन्दन कर) । गत्वा, यात्वा शयित्वा सुप्त्वा ( सोकर ) । नर्तित्वा मत्वा ( मानकर ) । श्रुत्वा ( सुनकर ) । ( ग्रहण कर ) । नीत्वा ( लेकर, पाकर ) । ( ठहरकर ) । ( स्नानकर ) । लब्ध्वा ( प्राप्तकर ) । श्वसित्वा ( श्वास लेकर ) । त्रात्वा ( सूंघकर ) । दत्वा ( देकर ) । भीत्वा ( डरकर ) । विदित्वा (जानकर ) । जग्ध्वा ( खाकर ) । स्तुत्वा ( स्तुति कर ) । दुग्ध्वा (दुहकर ) । उषित्वा ( रहकर ) । लूत्वा ( काटकर ) । चोरयित्वा ( चुराकर ) । चित्वा (चुनकर ) । नशित्वा नष्ट्वा ( नष्टकर ) । कृत्वा ( करके ) । हत्वा ( मारकर ) । स्नात्वा ज्ञात्वा ( जानकर ) , । जित्वा ( जीतकर ) । रोदित्वा ( रोकर ) । पीत्वा ( पीकर ) ( जाकर ) । ( नाचकर ) । ( जानकर ) । पृष्ट्वा ( पूछकर ) । गृहीत्वा ( बुध्वा ( नत्वा ( नमनकर) । स्थित्वा । कथयित्वा उक्त्वा धातु — दहं - भस्मीकरणे ( दहति ) जलाना । युष्मद् शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४२ ) । दह धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६६ ) । नोटट - अन्य धातुओं के क्त्वा, यप् प्रत्यय के रूप परिशिष्ट ४ में देखें । क्त्वा प्रत्यय जहाँ पूर्वकाल की क्रिया के बाद उत्तर काल की क्रिया का निर्देश किया जाता है वहाँ संस्कृत में क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे - अहं पुस्तकं पठित्वा उत्तरं दास्ये । इस वाक्य में दो क्रियाएँ हैं - पढ़ना और उत्तर देना । उत्तर देने की क्रिया पढने के बाद में होगी इसलिए वह उससे पूर्वकालीन है । क्त्वा प्रत्यय सब धातुओं से होता है । कुछ धातुओं से विकल्प में दूसरा प्रत्यय भी होता है । कई धातुओं को क्त्वा से पहले इट् होता है उसे सेट् क्त्वा कहते हैं । कई धातुओं को गुण होता है । सकर्मक धातुओं को क्त्वा प्रत्यय होने से उसके योग में कर्म आता है । क्त्वा प्रत्यय के रूप बनाने का सरल उपाय यह है कि क्त प्रत्यय के रूप में अंतिम त को निकाल कर त्वा लगा दें । धातु के पहले उपसर्ग होने से क्त्वा के स्थान पर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ वाक्यरचना बोध यप् प्रत्यय हो जाता है । अर्थ वही रहता है । नियम नियम १४६- (अलंखलु प्रतिषेधे क्त्वा वा ६।१।३६) अलं और खलु यदि ये प्रतिषेधवाची हों तो क्त्वा प्रत्यय विकल्प से होता है। अलंकृत्वा, खलुकृत्वा-न कर्तव्यमित्यर्थः। नियम १५०- (परावरयोः ६।१।४०) पर (आगे), अवर (पहले) का अर्थ गम्यमान हो तो धातु से क्त्वा प्रत्यय विकल से होता है । अतिक्रम्य नदी पर्वतः (नदी से आगे पर्वत है)। अप्राप्य नदी पर्वतः (नदी से पहले पर्वत है)। बाल्यमतिक्रम्य यौवनं (बाल्यकाल के बाद यौवन)। अप्राप्य यौवनं बाल्यं (यौवन से पहले बाल्यकाल)। नियम १५१-(पूर्वकाले ६।१।४३) एक कर्ता एक समय में एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया करता हो तो पूर्व क्रिया में क्त्वा प्रत्यय विकल्प से होता है । भुक्त्वा व्रजति । भुक्त्वा पुनर्भुङ्क्ते । स्नात्वा, भुक्त्वा, पीत्वा व्रजति । एक पक्ष में-आस्यते भोक्तुमित्यपि भवति । नियम १५२-(उदित: क्त्वो वा ४।३।७६) उकार इत् जाने वाली धातुओं से क्त्वा प्रत्यय को इट् विकल्प से होता है। जैसे-दमित्वा, दान्त्वा, (दमन कर, शान्त कर)। शमित्वा, शान्त्वा (शांत कर)। तमित्वा, तान्त्वा (इच्छा कर) । देवित्वा, द्यूत्वा (खोलकर) । सेवित्वा, स्यूत्वा (सीकर)। नियम १५३-(क्षुधिवसेः क्तयोश्च ४।३।८१, लुभो विमोहने तेषां ४।३।८२, अञ्चेः पूजायाम् ४।३।८३, पूक्लिशिभ्यो वा ४।३।८४) क्षुध, वस, लुभ (विमोहन =आकुलीकरण अर्थ में), अञ्च् (पूजा अर्थ में), पूङ । क्लिश धातुओं से इट् होता है। क्षुधित्वा (भूखा रहकर)। उषित्वा (रहकर) । लुभित्वा, लोभित्वा (विमोहित कर)। अञ्चित्वा (पूजाकर, जाकर) । पूत्वा (साफ कर) । क्लिशित्वा (पीडित कर)। नियम १५४-(वा तृषिमृषिकृशिवञ्चिलुञ्चयतेः ३।४।१०५) तृष्, मृष्, कृश्, वञ्च, लुञ्च् धातुओं को सेट् क्त्वा परे होने पर गुण विकल्प से होता है। तृषित्वा, तषित्वा (प्यासा रहकर)। मृषित्वा, मषित्वा (सहन कर)। कृशित्वा, कशित्वा (कृशकर)। वचित्वा, वञ्चित्वा (ठग कर) । लुचित्वा, लुञ्चित्वा (लुंचन कर) । नियम १५५- (नोपधात्थफात् ३।४।१०६) न उपधा वाली धातुओं में यदि थकार और फकार अंत में हो और आगे सेट् क्त्वा हो तो गुण विकल्प से होता है। जैसे- श्रथित्वा, श्रन्थित्वा (छोड़ कर, खुश कर)। गुफित्वा, गुम्फित्वा (गूंथ कर)। नियम १५६-(यपि ४।३।४२) यप् प्रत्यय आगे होने पर हन्, मन्, वनति और तनादि गण की धातुओं के अंत का लोप हो जाता है। प्रहत्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकालिकक्रिया ( क्त्वाप्रत्यय ) ६३ ( मार कर ) । प्रमत्य ( विचार कर ) । प्रवत्य ( याचना कर ), प्रतत्य ( फैला कर), प्रसत्य ( देकर ) । नियम १५७ - ( मो वा ४ | ३ | ४३ ) यम् रम् नम्, गम् धातुओं के अंत का लोप विकल्प से होता है यप् प्रत्यय परे होने पर । नियत्य, नियम्य ( नियमन कर ) । विरत्य, विरम्य ( विराम कर ) । प्रणत्य, प्रणम्य नमन कर) । आगत्य, आगम्य ( आकर ) । प्रयोगवाक्य अवनिपतिः प्रत्यर्थिनो जित्वा स्वदेशं प्रत्यागमत् । तत्त्वं बुद्ध्वापि यो मुह्यति स एव सर्वतो महीयान् मूढः । कोपं हित्वा य: शान्तिमाधत्ते स एव दुःखमुज्झित्वा सुखमश्नुते । अहं आचार्यवरं वन्दित्वा आगतोऽस्मि । पयः पीत्वा तत्कालं जलं न पेयम् । त्वं अर्हत्पदपूजनं कृत्वा, यतिजनं नत्वा, आगमं विदित्वा अधर्मकर्मठधियां संगं हित्वा, पात्रेषु धनं दत्वा, उत्तमक्रमजुषां पद्धति गत्वा, अन्तरारिव्रजं जित्वा पञ्चनमस्त्रियां स्मृत्वा इष्टं सुखं करक्रोडस्थं कुरु । अग्निः सर्वं दहति । वस्त्राणि कोऽदहत् । सीमा काष्ठानि न धक्ष्यति । संस्कृत में अनुवाद करो मोहन फूलों को चुनकर घर गया । राम ने वहाँ जाकर देखा तो उसे वह चीज नहीं मिली । तुम आशा लेकर वहाँ गये थे किंतु निराश क्यों लौटे ? सोहन पढकर चिकित्सक बनेगा | आचार्य श्री का प्रवचन सुनकर सभी प्रसन्न हो गये । दिनेश पत्र लिखकर सो गया । सतीश को छोड़कर सभी यहाँ आये थे । सास के कठोर स्वभाव को जानकर गुलाब डर गई । अच्छी बातें कहकर सुमति ने सबका मन मोह लिया । राजेन्द्र बगीचे में टहल कर कब आयेगा ? चोर को मार कर राजा खुश हुआ । दूध पीकर बसंत कहाँ गया कलिंग को जीतकर भी अशोक का मन प्रसन्न नहीं हुआ । आचार्य श्री को वंदन कर साध्वियां बैठ गई । फूल सूंघकर बालक कहाँ गया ? सत्य को जानकर स्वीकार करो । पिता से डरकर रमेश पढने बैठ गया । तीर्थंकरों की स्तुति कर राजा प्रसन्न हुआ । गायों को दुहकर ग्वाला घर गया । सेठ का धन चुराकर चोर भाग गया। दूसरों का कार्य करके जिनेश खुश हुआ । उसके कपड़े कैसे जले ? उसका शरीर कैसे जला ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो यात्वा, शयित्वा बुद्ध्वा मत्वा श्रुत्वा पृष्ट्वा, कृत्वा, नष्ट्वा, हत्वा । २. क्त्वा और यप् प्रत्यय कहाँ-कहाँ होता है ? ३. क्त्वा प्रत्यय परे होने पर किन-किन धातुओं को गुण होता है ? ४. किम् शब्द के रूप लिखो । ५. णम धातु के रूप लिखो । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २८ : शतृ और शान प्रत्यय ( १ ) शब्दसंग्रह ( शतृ और शान प्रत्यय के रूप ) 1 पश्यत् (दृश्) देखता हुआ । विक्रीणत्, विक्रीणान: (वि + क्री) बेचता हुआ । क्रीडत् (क्रीड् ) खेलता हुआ । स्मरत् ( स्मृ ) स्मरण करता हुआ । तुष्यत् (तुष्) तुष्ट होता हुआ । तरत् (तु) तैरता हुआ । मत् ( मैं ) शब्द करता हुआ । मुञ्चत् (मुञ्च् ) छोड़ता हुआ । जिघ्रत् (घा) सूंघता हुआ । गच्छत् (गम् ) जाता हुआ । ग्रथ्नत् (ग्रंथ) गूंथा हुआ । युञ्जत् (युज्) जोड़ता हुआ । नश्यत् (नश् ) नष्ट करता हुआ । पिबत् ( प ) हुआ । जयत् (जि) जीतता हुआ । पतत् (पत् ) गिरता हुआ । विदधत्, विदधानः (वि + धा) धारण करता हुआ । बिभ्रत् ( भुंनक् ) धारण करता हुआ । ध्यायत् (ये) चितन करता हुआ । कम्पमान: ( कपि), एजमानः (एज़), वेपमान: (वेप) कांपता हुआ । प्रसरत् ( प्र + सृ) फैलता हुआ । ददत्, ददान: (दा) देता हुआ । हसत् ( हस्) हंसता हुआ । पठत् ( पठ् ) पढता हुआ ।रुदत् (रुद्) रोता हुआ । ( धातु ) - वसं - निवासे ( वसति) रहना । देखें | अस्मद् शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४३ ) वस धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६७ ) नोट - अन्य धातुओं के शतृ, शान प्रत्ययों के रूप परिशिष्ट ४ में शतृ-शान शतृ और शान ये दो कृदन्त प्रत्यय वर्तमानकालिक और भविष्य - कालिक हैं। जहां यह विशेषण बनता है वहां इनका अर्थ होता है करता हुआ, जाता हुआ, बोलता हुआ । विशेष्य के अनुसार वचन और लिंग इसमें होते हैं । शतृ प्रत्यय परस्मैपद धातु से, शान प्रत्यय आत्मनेपद धातु से और उभयपद धातु से शत और शान दोनों प्रत्यय होते हैं । भावकर्म में आत्मनेपद ही होता है, इसलिए वहां शान प्रत्यय ही होगा । शतृ प्रत्यय के रूप बनाने का सीधा तरीका यह है कि तिबादि के बहुवचन (अन्ति) का जो रूप बनता है उसमें इ और न् को हटा दो। यह पुल्लिंग का रूप है । जैसे - तिबादि के बहुवचन भवन्ति का रूप भवत् बनता है । भवन्, भवन्तो भवन्तः भवन्तं भवन्तो के के बाद शेष रूप भवत् की तरह चलेंगे। शतृ प्रत्यय के रूप नपुंसकलिंग में Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘शतृ और शान प्रत्यय जगत् शब्द की तरह चलेंगे । स्त्रीलिंग में ईप् प्रत्यय आएगा । उसके रूप नदी के समान चलेंगे। स्त्रीलिंग में रूप बनाने के लिए (अब्यनः १।४।६२) सूत्र को ध्यान में रखें। उससे भ्वादिगण और दिबादिगण की धातुओं से नुम् (न्) नित्य होता है। पचन्ती, दीव्यन्ती। नियम १५८-- (अवर्णादनः शतुर्वेपोः १।४।६१) ना प्रत्यय को छोडकर अन्य गणों की अकारान्त धातुओं से नुम् (न्) विकल्प से होता है । तुदंती तुदती । यान्ती, याती । शेष गणों की धातुओं में इ लगेगा। रुदती, दधती, कुर्वती, शृण्वती। नियम १५६-(इधारिभ्यामकृच्छ्रे शतः ॥३॥६) अकृच्छ् (सुखसाध्य) अर्थ में इङ्, धारि धातु से वर्तमान अर्थ में शत प्रत्यय होता है। अधीयन् द्रुमपुष्पीयम् । धारयन् आचाराङ्गम् । नियम १६०-(सुद्विषाहः सत्रिशत्रुस्तुत्ये ५।३।१०) सुन् धातु से सत्रि (यज्ञ कर्ता या यज्ञ का निरीक्षण करने वाला) अर्थ में, द्विष् से शत्रु अर्थ में, अर्ह, से स्तुति अर्थ में वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय होता है। सर्वे सुन्वन्तः (यज्ञस्वामिनः इत्यर्थः) । चौरस्य चौरं वा द्विषन् (शत्रुरित्यर्थः) । पूजामहन् (प्रशस्य इत्यर्थः) । शान-शान प्रत्यय के रूप बनाने का सरल तरीका यह है-तिबादि विभक्ति के 'ते' प्रत्यय का जो रूप बनता है वहां से ते को हटाकर 'मान' बिठा दें। जहां मुक् न हो वहां आन जोड़ दें। नियम १६१--.(मुगानेत: ५।३।११) धातु के रूप अकारान्त होने पर आन प्रत्यय को मुक् का आगम होता है। पवमानः, उद्वहमानः, विद्यमानः, करिष्यमाणः । नियम १६२-(पूयजोरानश् ५।३७) पूङ, यज् धातुओं से वर्तमान अर्थ में आनश् प्रत्यय होता है । पवमानः यजमानः । नियम १६३- (आसीनः ५।३।१२) आस् धातु से परे आन के आ को ई आदेश होता है । आसीनः, उदासीनः, उपासीनः, अध्यासीनः । नियम १६४-- (शक्तिवयस्ताच्छील्ये ५।३।८) शक्ति (सामर्थ्य), वयः (बाल आदि अवस्था), ताच्छील्य (तत्स्वभावता) ये अर्थ गम्यमान हो तो धातु से वर्तमान अर्थ में आनश् प्रत्यय होता है । कति इह हस्तिनं निघ्नानाः । कति इह स्त्रियःगच्छमानाः । कति इह आत्मानं वर्ण्यमानाः, परान्निदमानाः । प्रयोगवाक्य छात्र: पाठं घोषयन् न खलु इतस्ततो विलोकते । को विदधानो भूधन‘मरसं प्रभवति रोद्धम् जरसम् ? अनेकान् अवनिरुहान् बिभ्रद् एव उद्यानं रमणीयं भवति । परमात्मानं ध्यायन्तं मुनि मस्तकन्यस्तपाणि जनो वन्दते । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६६ वाक्यरचना बोध पवनेन कम्पमानास्तरव:, एजगाना: शाखा:, वेपमानानि दलानि, विकास .गच्छन्ति कुसुमानि, उद्भवन्ति फलानि, प्रसरश्च परिमलः, किं नारामस्य महिसानं वितनुयात् । अद्य नगरे बहवः जनाः वसन्ति । अस्मिन् ग्रामे त्वं कुत्र अवात्सी: ? श्यामः अत्र क्व वत्स्यति ? चेत् सोहनः इह अक्स्स्यत् तदा स: उन्नति अकरिष्यत्। संस्कृत में अनुवाद करो साधु भूमि पर ईर्यासमिति देखते जा रहे थे। दुकानों में वस्तु को बेचते हुए लोगों ने खडे होकर साधु का अभिवादन किया। खेलते हुए लडकों ने पैर छूकर नमस्कार किया। वन्दन पाठ को स्मरण करती हुई स्त्रियों ने भी साधु का सत्कार किया। महेश तुष्ट होता हुआ घर आया । वीरेन्द्र ने तैरते हुए नदी को पार किया। लोहार धमनी से शब्द करता हुआ काम कर रहा था। सतीश बहिन को ससूराल छोडता हुआ घर जायेगा। लक्ष्मण फल सूघता अच्छे व्यक्ति बुरे लोगों के साथ नहीं रहते । सुरेन्द्र यहां नहीं रहेगा। यदि तुम मेरे साथ रहते तो अच्छे बन जाते । अभ्यास १. निम्नोक्त वाक्यों को शुद्ध करो -- जयती सेनां पश्य । दानं ददन्ती राज्ञी मुमुदे। हसन्तो बालकान् इह आनय । रुदन्तीं कन्यां प्रपृच्छ। धर्ममधीयमानो लोकः सुखी भवति । पठती बालां कः उपालम्भेत् । २. युष्मद् शब्द के रूप लिखो। ३. दह धातु के रूप लिखो। - अभ्यास १. निम्नोक्त वाक्यों को शुद्ध करो-- जयती सेनां पश्य । दानं ददन्ती राज्ञी मुमुदे। हसन्तो बालकान् इह आनय । रुदन्ती कन्यां प्रपृच्छ। धर्ममधीयमानो लोकः सुखी भवति । . पठती बालां कः उपालम्भेत् । २. युष्मद् शब्द के रूप लिखो। ३. दह धातु के रूप लिखो। ४. शत. शान प्रत्यय के बारे में तम क्या जानते हो? प्रत प्रत्यय के रूप Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २९ : शत, शान (२) शब्दसंग्रह वासरः (दिन)। रविवारः (रविवार)। सोमवारः (सोमवार)। मङ्गलवारः (मंगलवार)। बुधवारः (बुधवार)। बृहस्पतिवारः (बृहस्पतिवार) । शुक्रवारः (शुक्रवार)। शनिवारः (शनिवार)। (मासः (महीना) । चैत्रः (चत्र) । वैशाखः (वैशाख)। ज्येष्ठः (जेठ)। आषाढः (आषाढ)। श्रावणः (श्रावण)। भाद्रपद: (भाद्रपद) । आश्विनः (आश्विन)। कार्तिकः (कार्तिक) । मार्गशीर्षः (मार्गशीर्ष) । पोषः (पोष) । माघः (माघ) । फाल्गुनः (फाल्गुन)। धातु-षेवृङ–सेवने (सेवते) सेवा करना। भ्राशृङ्-टुम्लाशृङ्दीप्तो (भ्राशते, भ्राश्यते) दीप्त होना। भासूङ-दीप्तो (भासते) दीप्त होना । भाषङ्–व्यक्तायां वाचि (भाषते) बोलना । आङ्-शसिङ्-इच्छायाम् (आशंसते) इच्छा करना। पञ्चन्, षष्, सप्तन् और अष्टन् शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ७१,७२,७३,१६) षेवृङ् से लेकर आङ्-शसिङ् तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं । शत-शान हिन्दी में रहा है, रहा था, रहा हुआ, रहा होगा आदि स्थानों में शत, शान का प्रयोग होता है। वर्तमानकाल में शतृ प्रत्यय के रूप के आगे अस् धातु के तिबादि के रूप आते हैं । भूतकाल के लिए भू या अस् धातु के द्यादि के रूप और भविष्यकाल के लिए भविष्यत् की क्रिया के रूप आते हैं। जैसे-अहं कार्य कुर्वन्नस्मि । अहं कार्यं कुर्वन्नभूवम् । ___ अहं कार्यं कुर्वन् भविष्यामि । अन्य क्रियाओं के प्रयोग भी तीनों कालों में इसी प्रणाली से करना चाहिए । शत-शान प्रत्यय विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होता है वहां वह कर्ता का विशेषण बनता है। जिस प्रकार कर्ता का विशेषण बनता है वैसे ही कर्म का भी विशेषण बनता है। वहां कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे १. अयं विषयः मया अनुभूयमानोऽस्ति । २. अमी जनाः कृतान्तेन कदर्थ्यमानाः सन्ति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध ३. त्वया कथ्यमाना इयं कथा प्रलम्बाऽस्ति । हम कर्ता से कर्म और कर्म से कर्ता का परिवर्तन अनेक प्रकार से कर सकते हैं तथा दूसरी-दूसरी क्रियाओं के साथ उनका संबंध जोड सकते हैं। मया पठ्यमाना पुस्तिका ज्ञानं वर्धयति । इस वाक्य के भाव को इस रूप में भी कह सकते है-अहं ज्ञानं वर्धयन्तीं पुस्तिकां पठन् प्रमोदे । प्रयोगवाक्य त्वं किं पठन्नसि ? नरेन्द्रः कुत्र गच्छन्नासीत् ? रविवारे तव भगिनी किं कुर्वती आसीत् ? शुक्रवारे ललितस्य मातुलानी गीतं गायती आसीत् । विमलया पठ्यमानं पुस्तकं मह्यौं देहि । आचार्येण उच्यमाना वार्ता सर्वेभ्यः ज्ञापय । साध्वीभिः गीयमानं गीतं कियत्मधुरं समस्ति । गुरु सेवेथाः। दिवसे सूर्यः गगने भ्राशते, भ्लाशते, भासते वा। शीला त्वां किमभाषत ? पदं मा आशंसेथाः। संस्कृत में अनुवाद करो महीने में कितने दिन होते हैं ? एक वर्ष में कितने महीने होते हैं ? रामनवमी चैत्र मास में आती है। अक्षयतृतीया बैशाखमास में आती है। जेठ महीने में गर्मी अधिक पडती है। आषाढपूर्णिमा के दिन आचार्यभिक्षु ने तेरापंथ की स्थापना की थी। भैया दूज श्रावण मास में आती है। संवत्सरी भाद्रमास में आती है। दशहरा का उत्सव आश्विनमास में होता है। दीपावली के दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। मिगसर कृष्णा प्रतिपदा के दिन साधु विहार कर कहां जायेंगे ? भगवान् पार्श्वनाथ की जन्म जयंती पौषमास में आती है । तुमने साधुओं की सेवा कब की थी? मुनियों में आचार्य शोभित होते हैं । व्यर्थ मत बोलो । शान्ता क्या चाहती है ? शत, शान के प्रयोग करो रविवार को आचार्यश्री कहां प्रवचन कर रहे थे ? सोमवार को हम उत्तराध्ययन पढ़ रहे थे । अभी तुम क्यों हंस रहे हो ? मंगलवार को तुम्हारे दादाजी कहां जा रहे थे ? बुधवार को रमा मध्याह्न में ध्यान कर रही होगी। वृहस्पतिवार को मैं गुरुदेव की सेवा कर रहा था। शुक्रवार को अध्यापक द्वारा क्या विषय पढ़ाया जायेगा। शनिवार को संतों द्वारा गीत सुनाया जायेगा । मैं हर समय आचार्यवर की उपासना कर रहा हूं। आप सूत्र पढ़ रही हैं अतएव मैं आपको विदुषी कह रहा हूं। मैं जो कुछ कर रहा था वह आपको निवेदन करूंगा । वह आपके आदेशानुसार अध्ययन करती रहेगी। आप जो कुछ कह रहे थे वही मैं सुन रहा था। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत, शान (२) 88 । अभ्यास १. अस्मद् शब्द के रूप लिखो। २. वस् धातु के रूप लिखो। ३. निम्नोक्त वाक्यों को शुद्ध करो सीमा किं पश्यन्नस्ति । सोहनः जिनं स्मरती आसीत् । बाला पुष्पं जिघ्रन्नासीत् । वृक्षात् पतन्तं पुष्पं कः अग्रहीत् ? वृद्धः नीरं पिबती अभवत् । बालिका हसन्नस्मि । ४. शत, शान प्रत्यय कर्ता और कर्म के विशेषण के रूप में किस प्रकार प्रयुक्त होते हैं, सोदाहरण बताओ?| Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३० : समास (१) अव्ययीभाव शब्दसंग्रह - मिष्टान्नम् (मीठा) । यवागूः, कृशरः (खिचडी) । सेविका, सूत्रिका (सेवई)। गुडधाना (गुडधानी, भूने हुए गेहूं में पाग कर बनाया हुआ लड्डू)। अपूपः (पूआ) । पायसम् (खीर) । सूपः (दाल)। शर्करा (शक्कर)। सिता (चीनी) । पोलिका, पूरिका, शष्कुली (पूरी)। लवणम् (नमक)। तक्रम् (मट्ठा) । धान्यम् (धान) । सक्तुः (सत्तू) । लशुनम् (लहसुन) । दधिवटक: (दहीबडा)। अभ्यूषः (डबल रोटी) । भृष्टापूपः (टोस्ट)। पिष्टकः (बिस्कुट)। गुल्यः (टॉफी, मीठी गोली)। कफनी (कॉफी)। जलपानम् (जलपान) । सग्धिः (सहभोज)। पक्वालुः (कचालू, आलू की टिकिया)। कूलपी (कुलफी) । व्यञ्जनम् (मसाला, मसालेदार पदार्थ)। पुलाकः (पुलाव) । धातु-ईक्षङ्-दर्शने (ईक्षते) देखना। ईहङ्--चेष्टायाम् (ईहते) चेष्टा करना । शिक्षङ्-विद्योपादाने (शिक्षते) विद्या प्राप्त करना। दीक्षङ्मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु (दीक्षते) मुंडित करना, यज्ञ करना, जनेऊ देना, व्रत करना, संस्कार करना। कति, अन्य, त्यद् और उभ शब्दों के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट १ संख्या ७४,६८,३३,७५) । ईक्षङ् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७०)। ईहङ् के रूप ईक्षङ् की तरह चलते हैं । शिक्षङ् और दीक्षङ् के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं। समास समास और विग्रह ये दो शब्द हैं । परस्पर में अपेक्षा रखने वाले दो या दो से अधिक शब्दों के संयोग को समास कहते हैं। समासित पदों को अलग करने को विग्रह कहते हैं । जैसे—सुखस्य मार्गः । ये दो पद हैं। इनको एक पद करने को समास कहते हैं । समास करने पर सभी पदों की विभक्तियों का लोप हो जाता है । सुखमार्गः यह समास किया हुआ पद है । इसका विग्रह होगा-सुखस्य मार्गः । जिन जिन पदों का समास किया जाता है उनकी विभक्तियों का लोप हो जाता है और समास होने पर वह एक पद बन जाता है । समास में सभी पदों की नित्य संधि होती है। समास करने पर अंतिम शब्द से विभक्ति आती है । समास कम से कम दो पदों का होता है। पहले पद Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास (१) अव्ययीभाव को पूर्वपद और अगले पद को उत्तरपद भी कहते हैं । पदों की प्रधानता और अप्रधानता के आधार पर समास के चार भेद होते हैं- . (१) अव्ययीभाव (२) तत्पुरुष (३) बहुव्रीहि (४) द्वन्द्व । अव्ययीभाव जिस समास में पूर्वपद अव्यय हो उसको अव्ययीभाव समास कहते हैं । अव्ययीभाव में नपुंसकलिंग होता है। अव्ययीभाव में उत्तरपद यदि दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है। नियम १६५- (अनतो लुक् ३२।५) अव्ययीभाव समास में उत्तर पद में अकारान्त शब्दों को छोडकर सभी स्वरान्त शब्दों से सभी विभक्तियों का लोप हो जाता है । यानि सभी विभक्तियों का एक समान रूप बनेगा। जैसे-अधि-+ स्त्री का समास करने पर अधिस्त्री । स्त्री शब्द ह्रस्व करने पर अधिस्त्रि बना । सभी विभक्तियों में अधिस्त्रि रूप ही रहेगा। जैसे 'अधिस्त्रि मा पश्य' स्त्रियों में मत देखो। उपवधु, उपकर्तृ आदि। अकारान्त शब्दों के लिए नीचे लिखे दो नियम ध्यान में रखें-- नियम १६६-(अव्ययीभावस्यातोऽमपञ्चम्या : ३।२।२) अव्ययीभाव समास में उत्तरपद अकारान्त हो तो पंचमी विभक्ति को छोडकर सभी विभक्तियों को अम् आदेश हो जाता है । जैसे—उपकुम्भं तिष्ठति । उपकुम्भं पश्य । उपकुम्भं देहि । उपकुम्भं स्वामी । __ नियम १६७-(वा तृतीयासप्तम्यो : ३।२।३) अव्ययीभाव समास में उत्तरपद अकारान्त हो तो तृतीयां और सप्तमी विभक्ति को अम् आदेश विकल्प से होता है । उपकुम्भं कृतं, उपकुम्भेन कृतम् । उपकुम्भं स्थितम्, उपकुम्भे स्थितम् । नियम १६८-(अव्ययं कारक समीप समृद्ध........३।१।२३) अव्ययी'भाव समास में शब्दों के अव्यय इस प्रकार हैंअर्थ अव्यय विग्रह समास सप्तमी विभक्ति अधि नदीषु अधिनदि समीप उप कार्यालयस्य समीपं उपकार्यालयं जनानां समृद्धिः सुजैनं (ऋद्धि की अधिकता) (असंप्रति (वर्तमानकाले कम्बलस्य उपभोगं अतिकम्बलं 1 उपभोगादेः प्रतिषेधः) प्रति नायं कालः अर्थाभाव (वस्तुनोऽभावः) निर् जनानां अभावः अत्यय (अतीतत्वं) अति, निर् हिमस्यअत्ययः अतिहिम, निहिम असंपत्ति (ऋद्धेरभावः) दुर् यवनानामसंपत्तिः । दुर्यवनं समृद्धि निर्जन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्य रचना बोक अन प्रति यथा सचक्र ख्याति (प्रसिद्धता), इति, अहो (भद्रबाहो: ख्यातिः इतिभद्रबाहु, अहोभद्रबाहु पश्चाद् महावीरस्य पश्चाद् अनुमहावीरं योग्यतायां रूपस्ययोग्यांचेष्टां कुरुते अनुरूपं चेष्टते . वीप्सा दिनं दिन प्रति प्रतिदिनं अनतिक्रम यथा शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति असादृश्य ये ये वृद्धाः यथावृद्धं सादृश्य सह (स) श्रुतस्यसादृश्यं सश्रुतमनयोः योगपद्य (एककालता) सह (स) युगपत् चक्राणि । आनुपूर्वी (अनुक्रम) अनु ज्येष्ठस्य अनुक्रमेण अनुज्येष्ठ ( संपत्ति (सिद्धि) सह (स) क्षत्राणां संपत्तिः सक्षत्रं (आत्मभावनिष्पत्तिः). साकल्यं (अशेषता) सह (स) तृणेन सह . सतणं अभि आभिमुख्य अग्निआभिमुख्य अभ्यग्नि प्रति ... आभिमुख्य अग्निं आभिमुख्य प्रत्यग्नि नियम १६६-(पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा ३।१।३०) पारे मध्ये, अग्रे, अन्तः इनके साथ समासं करने पर इनकी विभक्ति का लोप नहीं होता, इसलिए ये अव्ययीभाव समास में निपात हैं। जैसे-पारं गंगाया: पारेगडं। गंगायाः मध्ये मध्येगंगं । वनस्य अग्रे अग्रेवनं । गिरेः अन्तर् अन्तगिरि । ___ अव्ययीभाव समास में निम्नलिखित शब्दों से ट (अ) प्रत्यय हो जाता है और ट होने से शब्द अकारान्त बन जाता है नियम १७०- (शरदादेरव्ययीभावात् ८।३।२७) शरद्, त्यद् तद्, यद्, नियम १६९-(पारमध्यऽग्रऽन्तः षष्ठ्या वा ३।१।३०) पार मध्ये, अग्रे, अन्तः इनके साथ समास करने पर इनकी विभक्ति का लोप नहीं होता, इसलिए ये अव्ययीभाव समास में निपात हैं। जैसे-पारं गंगाया: पारेगङ्गं । गंगायाः मध्ये मध्ये गंगं । वनस्य अग्रे अग्रेवनं । गिरेः अन्तर् अन्तगिरि । अव्ययीभाव समास में निम्नलिखित शब्दों से ट (अ) प्रत्यय हो जाता है और ट होने से शब्द अकारान्त बन जाता है नियम १७०- (शरदादेरव्ययीभावात् ८।३।२७) शरद्, त्यद् तद्, यद्, कियत, हिरुक, हिमवत्, उपसद्, सदस्, अदस्, अनस्, मनस्, विपाश, दिश, नियम १७१-(सख्यायानदागादावराभ्याम् दाशर८) पूव शब्द संख्यावाची हो, अन्त में नदी या गोदावरी शब्द हो तो ट प्रत्यय हो जाता है। जैसे—पञ्चनदम्, सप्तनदम्, द्विगोदावरम्, त्रिगोदावरम् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास (१) अव्ययीभाव १०३ नियम १७२-(जरायाः जरस् च ८।३।२६) जरा शब्द अन्त में हो तो समास के अन्त में ट प्रत्यय हो जाता है और जरा को जरस् आदेश हो जाता है । जैसे-उपजरसम्, प्रतिजरसम् । नियम १७३–(प्रतिपर: समनुभ्योऽक्षण: ८।३।३०) प्रति, परस्; सम्, अनु इनसे आगे अक्षि शब्द हो तो समास के अन्त में ट प्रत्यय हो जाता हैं । जैसे-अक्षिणी प्रति =प्रत्यक्षम् । अक्ष्णो परः-- परोक्षम् । संगतमक्ष्णा= समक्षम् । अक्ष्णः समीपम् = अन्वक्षम् । नियम १७४- (अनः) नपुंसकाद् वा ८।३।३१,३२) 'अन्' अन्त वाले शब्दों से ट प्रत्यय होता है। जैसे-उपराजं, अध्यात्म, प्रत्यात्यमम् । यदि 'अन्' अन्त वाले शब्द नपुंसकवाची हो तो उनसे विकल्प से ट प्रत्यय हो जाता है। जैसे-उपचर्म उपचर्म । प्रतिकर्म, प्रतिकर्म । अनुलोम, प्रतिलोम । नियम १७५- (झपात् ८।३।३३) 'झप' प्रत्याहार शब्द अंत में हो तो ट प्रत्यय विकल्प से होता है। जैसे—अधिस्रजं, अधिस्रक् । प्रतिमरुतं, प्रतिमरुत् । उपदृषदं, उपदृषद् । नियम १७६-(गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः ८।३।३४) गिरि, नदी, पौर्णमासी, आग्रहायणी अंतवाले शब्दों से ट प्रत्यय विकल्प से होता है। जैसे-उपगिरं, उपगिरि । उपनदं, उपनदि । उपपौर्णमासं, उपपौर्णमासि । उपाग्रहायणं, उपाग्रहायणी (मिगसर की पूर्णिमा के पास)। प्रयोगवाक्य ___ अधिस्त्रि निधेहि । उपाग्नि मा तिष्ठ । अतिकम्बलं अयं कालः । निर्मक्षिकं इदं स्थानम् । इतिभद्रबाहु सर्वत्र प्रसृता अस्ति । अनुजयाचार्य मघवागणिनः बभूवुः । यथाशक्ति पठ । अनुबलं तपः तप । प्रतिग्राम विहर । प्रतिबालं मोदकं देहि । बुभुक्षितेन बालेन सशुष्कपूपिकं भक्षितम् । बहिनाम एक: विद्यालयोऽस्ति । परिहिमालयं ग्रीष्मः वर्तते । पारेसमुद्रं जैनधर्मः गतः । दुहरिजनं प्रश्नचिह्नोऽस्ति मुख्यमंत्रिणां कृते । यथादक्षं व्याकरणं पृच्छ। पठनकाले इतस्तत: मा ईक्षस्व । ज्ञानं प्राप्तुं सर्वदा ईहस्व । अहं मुनीनां पार्वे संस्कृतं शिशिक्षे । आचार्यकालु: मां दिदीक्षे ।। संस्कृत में अनुवाद करो (अव्ययों का प्रयोग करो) बालकों में कौन प्रिय है ? गुरुदेव के पास कौन है ? चक्रवर्ती की समृद्धि प्रसिद्ध है । वह जन रहित स्थान में ध्यान करता है । अंधकार में पढ़ना ठीक नहीं है। शिमला में हिम का विनाश कब हुआ? महावीर की ख्याति विश्व भर में है । जंबूस्वामी के बाद कौन आचार्य हुए ? प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य करो। जो जो बुद्धिमान हैं वे परीक्षा दें। बडों के क्रम से सोवो ? भूखी गाय तृण सहित सब कुछ खा गई। मैंने चूलिका सहित दशवकालिक पढ ली। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वाक्यरचना बोध हरियाणा को छोडकर वर्षा हुई। उसकी कीति हिमालय तक फैल गई। गांव के बाहर बगीचा है। वह परोक्ष में गुरु की निंदा करता है । आत्मा में मेरा विश्वास है। राजा के पास चापलूस अधिक है । प्रत्येक बालक को यह पाठ याद करना चाहिए । अधिक मीठा नहीं खाना चाहिए। - अनुवाद करो वैद्य बीमार को खिचडी खाने के लिए कहता है । तुम्हारी मामी ने आज पूए क्यों बनाए हैं ? भूपेन्द्र को सेवई और गुडधानी (गुडराब) अच्छी नहीं लगती। ईर्ष्यावश उसने दाल में अधिक नमक डाल दिया । शक्कर और चीनी में क्या अन्तर है ? विजय ने आज कितनी पूरियां खाई थी ? मोहन भोजन के बाद थोड़ा मट्ठा पीता है। क्या तुमने कभी सत्तू खाये हैं ? मोहन की दादी लहसुन नहीं खाती है। प्रशान्त पढने के लिए चेष्टा करता है। छात्र अध्यापक से ज्ञान सीखता है। आचार्यश्री तुलसी ने लगभग ५०० व्यक्तियों को दीक्षा प्रदान की है। अभ्यास .: १. नीचे लिखे शब्दों के अव्ययीभाव समास के रूप बनाएं। (क) स्त्रीषु (ङ) कालो: पश्चात् (झ) अक्षिणी प्रति (ख) गुरोः समीपं (च) गुर्जराणां समृद्धिः . (ब) दृषदः समीपं (ग) जनानां अभावः (च) मुनेः सदृशः (ट) जैनानां संपत्तिः (घ) भिक्षोः ख्याति: (ज) तुषेन सहितम् । - २. किस अर्थ में कौनसा अव्यय होता है ? प्रत्येक अव्यय के दो-दो उदाहरण दो। ३. अव्ययीभाव में कौनसा लिंग होता है ? ४. अव्ययीभाव में अकारांत, इकारांत, उकारांत और हसांत शब्दों के लिए कौन-कौन से नियम ध्यान में रखने होंगे। वे नियम क्या विधान करते हैं ? ५. पञ्चन और षष् शब्दों के रूप लिखो। ६. आशसिङ् धातु के रूप लिखो। ७. नीचे लिखे शब्दों के संस्कृत रूप बतायेंखिचडी, खीर, चीनी, नमक, सत्तू, सेवई, लहसुन, दाल । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३१ : समास (२) तत्पुरुष शब्दसंग्रह चमसम् (चमचा) । स्थाली (थाली) । महानसम् (रसोई)। अङ्गारधानी (सिघडी)। चुल्लि: (चूल्हा)। पिष्टपचनम् (तवा)। चूर्णमर्दनी (कठोति) । समाजनी (बुहारी) । खल्वम् (खरल)। अर्गलम् (आगल)। विष्कम्भिका (चटकनी) । शुक्तम् (सिरका) । शिलापुत्रम् (लोढी) । चालनी (चालनी) । पेषणी (चक्की)। कटाहः (कडाही)। कर्करी (झारी) । दीपशलाका (दियासलाई) । खर्वट: (पहाडीगांव, मंडी)। कंकमुखः (चिमटी)। धातु - वृतुङ्--वर्तने (वर्तते) वर्तन करना । वृधुङ्-वृद्धी (वर्धते) (बढना) । द्युतङ् - दीप्तौ (द्योतते) दीप्त होना । भ्रसुङ्, स्रसुङ्-अवस्र सने (भ्र सते, स्रसते) नष्ट होना । ध्वंसुङ्-गतो च (ध्वंसते) नष्ट करना और जाना। रुचङ्-अभिप्रीती (रोचते) अच्छा लगना। रमङ्-क्रीडायाम् (रमते) क्रीडा करना । षहंङ्-मर्षणे (सहते) सहन करना। वृतुङ्, द्युतङ् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७१,७२) वृधुङ् के रूप वृतुङ् की तरह चलते हैं । भ्रंसुङ् से लेकर रुचङ् तक के रूप द्युतङ् की तरह चलते हैं। रमङ् और षहङ् के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं। सिर्फ षहङ् के तादि में सोढा रूप बनता है। तत्पुरुष समास जिसमें उत्तर पद के अर्थ की प्रधानता हो उसे तत्पुरुष कहते है । इसमें सातों विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है । उत्तरपद में जो लिंग होता है समास के बाद भी वही लिंग रहता है । जैसे द्वितीया - संसारं अतीतः -- संसारातीतः तृतीया - अहिना दष्ट: == अहिदष्ट: चतुर्थी-कुण्डलाय हिरण्यं -कुण्डलहिरण्यं पंचमी-ग्रामात निर्गतः-=ग्रामनिर्गतः षष्ठी-गवां क्षीरम् = गोक्षीरम् सप्तमी--शिरसि शेखरः =शिरः शेखरः तत्पुरुष समास का दूसरा रूप भी मिलता है, पहले पद में अव्यय और दूसरे पद में प्रथमा आदि छह विभक्तियां । इसका प्रयोग दो पदों से अन्य अर्थ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वाक्य रचना बोध में होता है। इसलिए इसे बहुव्रीहिरूपक तत्पुरुष समास कहते हैं। बहुव्रीहि समास और बहुव्रीहिरूपक तत्पुरुष की पहचान विग्रह से होती है। दोनों के विग्रह में बहुत अन्तर है। समास के विग्रह में अव्यय का अर्थ साथ में रहता है । समास के बाद उत्तरपद का लिंग नहीं रहता। वह विशेषण बन जाता है। जैसे प्रथमा-प्रगतः आचार्यः --प्राचार्यः द्वितीया-अतिक्रान्तः गङ्गां अतिगङ्गः तृतीया-अनुगतमर्थन =अन्वर्थम् चतुर्थी - अलं कुमायें - अलंकुमारि: पंचमी-उत्क्रान्तं कुलं-उत्कुलम् षष्ठी-पूर्वः कायस्य = पूर्वकायः तत्पुरुष के दो अवान्तर भेद और होते हैं -कर्मधारय और द्विगु । कुछ वैयाकरण इन दोनों को स्वतंत्र समास मानते हैं । उनकी मान्यता के अनुसार समास के छह भेद होते हैं। कर्मधारय-विशेष्य और विशेषण के या उपमा और उपमेय के रूप में जहां दो शब्दों का मेल होता है वह कर्मधारय समास होता है। अथवा जिस समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ एक ही विभक्ति आती है उसे कर्मधारय समास कहते हैं । कर्म का अर्थ है क्रिया। इस समास के सब पद एक ही क्रिया में अन्वित होते हैं । इसके छह भेद होते हैं (१) विशेषणपूर्वपद—जिसमें पूर्वपद विशेषण हो। जैसे-कृष्णश्चासौ सर्पश्च=कृष्णसर्पः । यहां 'कृष्ण' सर्प का विशेषण है । (२) विशेषणोत्तरपद-जिसमें उत्तरपद विशेषण हो। जैसेआचार्यश्चासौ प्रवरश्च=आचार्यप्रवरः । यहां 'प्रवर' आचार्य का विशेषण है। (३) विशेषणोभयपद-जिसमें दोनों पद विशेषण हो। जैसे—शीतं च उष्णं च=शीतोष्णम् । (४) उपमानपूर्वपद-जिसमें पहिला शब्द उपमावाची हो। जैसेघन इव श्यामः=घनश्यामः । (५) उपमेयउत्तरपद—जिसमें उत्तरपद उपमेयवाची हो। जैसेपुरुषः सिंह इव-पुरुष सिंहः । (६) अवधारणबोधक (निश्चयबोधक)-जिसका पहिला पद किसी भी अर्थ में हो और वह दूसरे पद से जोडा जाये उसे 'अवधारण बोधक' कहते है । जैसे--विद्या एव धनम् =विद्याधनम् । . विगुसमास-जिसमें पूर्वपद संख्यावाची हो उसे द्विगु समास कहते हैं । यथा-त्रयाणां पथां समाहार: त्रिपथम् । द्वादशानां अङ्गानां समाहार:== Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ( २ ) तत्पुरुष १०७ द्वादशाङ्गी । यह एक प्रकार से कर्मधारय का ही उपभेद है । क्योंकि संख्या - वाची शब्द विशेषण ही होते हैं । द्विगुसमास प्राय: समुदायबोधक होता है । नियम १७७ - ( नञत् ) अन् स्वरे ३।२।१७, १०१) नव् तत्पुरुष में उत्तरपद हस आदि वाला हो तो पूर्वपद में 'न' का 'अ' हो जाता है । उत्तरपद स्वर आदि वाला हो तो 'न' को 'अन्' आदेश हो जाता है । जैसे- -न हिंसा == अहिंसा । न सत्यं असत्यम् । न अश्वः अनश्वः । न अद्यतन: तत्पुरुषसमास में निम्नलिखित शब्दों से ट ( अ ) प्रत्यय और ट होने से वे शब्द अकारान्त बन जाते हैं अनद्यतनः । हो जाता है क - ( सखेष्ट: ८।३।६ ) - सखि शब्द अन्त वालों से । जैसे- राज -- सखः, महासखः । ख - ( राज्ञोऽस्त्रियाम् ८।३।७ ) - स्त्रीलिंग में छोडकर राजन् शब्द अंत में हो तो । जैसे - देवराजः महाराजः । 1 ग- - ( अह्नः ८३८ ) - अहन् शब्द अन्त में हो तो । जैसे - परमाहः, उत्तमाहः । घ - (संख्यातादऽह्नश्च वा ८३ ) - पूर्वपद में संख्यात शब्द हो तो अहन् को अह्न आदेश विकल्प से हो जाता है । जैसे— संख्यातमहः = संख्याताह्नः, संख्याताहः । ङ - -(सर्वाशसंख्यात पुण्यवर्षा दीर्घाच्च रात्रे : ८।३।५५ ) सर्व शब्द, अंशवाची (एकदेशवाची) शब्द, संख्यावाची और अव्यय से परे अहन् शब्द से प्रत्यय हो जाता है और अहन् को अह्न आदेश हो जाता है । जैसे— सर्वमहः = सर्वाः । ( अंशवाची ) अपराह्नः मध्याह्नः, सायाह्नः । ( संख्यावाची - ) द्वयोरह्वोर्भवः -- द्वयह्नः । (अव्यय - ) अत्यह्नी कथा, निरही वेला । च - (ग्रामकौटात् तक्ष्णः ८ । ३ । १३ ) - - ग्राम और कोट शब्द से परे तक्षन् शब्द अन्त में हो तो । जैसे - ग्रामतक्ष: (गांव का बढई ), कोटतक्ष: ( कटी शाला, तस्यां भवः कौटः । वह बढई जो अपनी दूकान में स्वतंत्र काम करता हो, किसी से प्रतिबद्ध न हो छ ( गोष्ठाः शुनः ८।३।१४ ) – गोष्ठ और अति से परे श्वन् शब्द सेट प्रत्यय हो जाता है । गोष्ठे श्वा = गोष्ठश्व: ( गोष्ठी में अधिक बोलने वाला), अतिक्रांत: श्वानं - अतिश्वो वराहः (तेज दौड़ने वाला सूअर ) । - ( प्राणिन उपमानात् ८।३।१५ ) - प्राणिवाची उपमान से परे श्वन् शब्द अंत में हो तो ट प्रत्यय हो जाता है । व्याघ्रः स चासो श्वा चव्याघ्रश्व: ( बाघ की तरह कुत्ता ) । ज - झ - - ( मृगपूर्वोत्तराच्च सक्थनः ८ | ३ | १७ ) – मृग, पूर्व, उत्तर और उपमानवाची शब्दों से परे सक्थि शब्द से । मृगस्य सविथ - मृगसक्थम् ( ( मृग की हड्डी) । पूर्वं सक्थि = पूर्वसक्थम्, सक्थनः पूर्वं पूर्वंसक्थम् । उत्तरं सक्थम् — Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वाक्यरचना बोध उत्तरसक्थम् । (उपमान -) फलकं च सक्थि च फलकसक्थि ( गाडी का लट्ठा) । - ( जनपदेभ्यो ब्रह्मणः ८|३|१८ ) - जनपदवाची शब्दों से परे ब्रह्मन् शब्द से । अवन्तो ब्रह्मा - अवन्तिब्रह्म:, सुराष्ट्रब्रह्म, काशिब्रह्मः । - ( कुमहद्भ्यां वा ८।३।१६ ) - कु और महत् शब्द से परे ब्रह्मन् शब्द से विकल्प से । पापो ब्रह्मा - कुब्रह्मा, कुब्रह्मः । महान् ब्रह्मा महाब्रह्मा, महब्रह्मः । न -2 - ठ- - ( उरसोग्रे ८|३|११ ) – उरस् शब्द का अर्थं अग्र ( मुख और प्रधान) हो तो । अश्वाश्च ते उरश्च अश्वोरसं, सेनाया अश्वा मुखमित्यर्थः । अश्वानां उर: अश्वोरसं, अश्वानां प्रधानमित्यर्थः । ड - ( अनोश्माय: सरसो जातिसंज्ञयोः ८|३|१२ ) – जाति और संज्ञा क्रे अर्थ में अनस्, अश्मन्, अयस्, सरस् शब्द हो तो। उपानसं अन्नविशेष - स्य जातिः । महानसं पाकस्थानस्य संज्ञा । स्थूलाश्मः कनकाश्मः - अश्मजातिविशेषाः । कालायसं लोहितायसं -- अयोजातिविशेषाः । जातसरसं, मण्डूक सरसं – सरसीजाति । प्रयोगवाक्य संसदि विपक्षः बलवान् नास्ति । प्रतिपक्षेण विना अन्त्याक्षरी भवितुं नालम् । अतिगङ्गः सुधीरः सभायां भाषते । अनद्यतन: रविवारोऽस्ति । भरत: महाराजः आसीत् । रूसदेशः भारतदेशस्य महासखोऽस्ति । संख्याताह्नः व्यतीतः अस्य पञ्चमारस्य । सायाह्न े मोहनः सामायिकं करोतिः । अतिश्वो वराहः मोहनस्य पार्श्वे विद्यते । काशिब्रह्मः विद्वान् भवति । समुद्रे नीरं कदा वर्धते । साम्प्रतं मोहनः कुत्र वर्तते । इदं नगरं कदा बभ्र से दध्वंसे वा ? मह्यं पुस्तकं रोचते । नृपः राज्ञीभिः सह उद्याने रमते । यः दुर्जनवाक्यानि सहते सोऽस्ति महान् । संस्कृत में अनुवाद करो (तत्पुरुष समास में) धर्मचन्द्र घोडे के अभाव में पैदल चलता है । असत्यभाषी का कौन - विश्वास करता है ? मंत्री राजा का मित्र होता है। देवताओं का राजा इंद्र है । उत्तम दिन की क्या पहचान है ? रमेश संपूर्ण दिन पढता है। दोपहर में सोना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं है । दोनों दिनों के प्रश्नों को हल करो । गांव का बढई गाँव के लिए उपयोगी है । गोष्ठी में अधिक बोलनेवाला सम्मान नहीं पाता । मृग की हड्डियों का क्या उपयोग होता है ? यहां काशी का ब्राह्मण आया है। प्रिंसिपल ( प्राचार्य) बनना सरल नहीं है । गंगा को उल्लंघना सरल नहीं है । कुल की मर्यादा को उल्लंघ कर उसने यह कार्य अच्छा नहीं किया है । अनुवाद करो अतिश्रम करने वाला थकान का अनुभव करता है । क्या तुम बाजार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास (२) तत्पुरुष १०६ से पांच चमचे, दो थाली, एक सिघडी, एक तवा, एक कडाही और एक चिमटा लाये हो ? रसोई में चूल्हा कहां रखोगे ? बुहारी से कमरा कौन साफ करेगा ? खरल में क्या पीसोगे ? किवाड के आगल किसने लगाई है ? इस किवाड के चटकनी है या नहीं? लोढी से क्या करोगे ? तुम्हारी चालनी मुझे दो। चक्की में क्या डाला है ? झारी में थोड़ा पानी है। क्या तुम्हारे पास दियासलाई है ? वृक्ष क्यों बढता हैं ? पुस्तक कहां है ? मदिरा से बुद्धि नष्ट होती है । बालक घर में क्रीडा करते हैं । पृथ्वी सब कुछ सहन करती है । रमेश को लड्डू अच्छे लगते हैं। अभ्यास १. तत्पुरुष समास के विभक्तियों के आधार पर कितने भेद हैं ? एक-एक उदाहरण दो। २. बहुव्रीहिरूपक तत्पुरुष समास किसे कहते हैं ? उदाहरण देते हुए लिखें। ३. तत्पुरुषसमास में विग्रह करो अदेवः, परमाहः, संख्याताहः, सुराष्ट्रब्रह्मः, मृगचपला, हंसशुभ्रा, वृषभसिंहः, रक्तशाटी, महानसं, कौटतक्षः, गोष्ठश्वः । ४. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो ग्रामतक्षः हस्त्युरसं, अत्यह्नीकथा अतिश्वः, कुब्रह्मा । ५. नीचे लिखे शब्दों के संस्कृत रूप लिखो बुहारी, चक्की, खरल, सिघडी, दियासलाई, चिमटा, चुल्हा, झारी, लोढी। ६. कति और उभ शब्द के रूप लिखो। ७. ईक्षङ् धातु के रूप लिखो। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३२ : समास ३ (बहुव्रीहि समास) शब्दसंग्रह मरिचं, पवितं, कोलकं (काली मिरच) । रुचिष्यः (पोदिना)। भृगं, चोचं, चोलं (दालचीनी)। चविका, चायं (चाय)। राजपलाण्डुः, यवनेष्टः (प्याज) । क्वथिका (कढी) । झर्झरिका (उडद की रोटी) । पिष्टिकः (चावल की पीठी) । पोलिका (एक प्रकार की पूरी, पूआ)। संधानं, संधितं (अचार) । कट्वरं (चटनी, अचार)। भक्तं (भात)। परोठाः (पराँठा) । पूपः (मीठा पूआ) । राज्यक्तं, दाधेयं (रायता) । रोटिका (रोटी)। फुलका (फुलका, पतली रोटी) । किलाट: (पनीर फटे हुए दूध का घनीभूत भाग)। अवदंशः (चाट)। समोषः (समोसा) । पक्ववटिका (पकोड़ी)। (धातु)--श्रिन्-सेवायाम् (श्रयति, श्रयते) सेवा करना । णीन्प्रापणे (नयति, नयते) प्राप्त करना । टुडुयाचून् –याञ्चायाम् (याचति; याचते) याचना करना । डुपचंषन् -- पाके (पचति, पचते) पकाना । राजन्दीप्तो (राजति, राजते) दीप्त होना। भजन - सेवायाम् (भजति, भजते) सेवा करना। श्रिन् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७४) । णीन के रूप श्रिन् की तरह चलते हैं। याच् से भजन तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं। बहुव्रीहि समास जिन समास करने वाले पदों में पूर्वपद और उत्तरपद की प्रधानता न हो, अन्य पद प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। बहुव्रीहि समास विशेषण बनता है। विशेष्य के अनुसार इसमें लिंग और वचन होते हैं । समास से पूर्व की स्थिति को विग्रह कहते हैं। विग्रह में यत् शब्द का प्रयोग किया जाता है । यत् शब्द विशेष्य से सम्बन्ध रखता है। यत् शब्द में द्वितीया से लेकर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। बहुव्रीहि समास में जिन शब्दों में समास होता है, वे शब्द 'तत्' शब्द के द्वारा सूचित अर्थ के विशेषण बन जाते हैं। जैसे द्वितीया-आरूढो नृपो यं-स आरूढनृपो हस्ती। तृतीया-दृष्टो मार्गो येन-स दृष्टमार्गो मुनिः । चतुर्थी-उपहृतः नालिकेरो यस्मै-स: उपहृतनालिकेरः अध्यापकः । पंचमी-निर्गतं भयं यस्मात्–स निर्भयः । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ३ (बहुव्रीहिसमास) षष्ठी-श्वेतमम्बरं यस्य-स श्वेताम्बरः मुनिः। सप्तमी-सूक्ष्माणि अक्षराणि यस्मिन्-तत् सूक्ष्माक्षरं पत्रम् । नियम बहुव्रीहि समास में प्राग निपात के लिए निम्नलिखित नियम ध्यान से पढ़ें नियम १७६-(क) (सर्वादिश्च बहुव्रीही ३।१११९०) सर्वादि शब्द और संख्यावाची शब्दों का प्राग् निपात हो जाता है। जैसे—सर्व शुक्लं अस्य स सर्वशुक्लः, विश्वदेवः, उभयचेतनः । द्वौ कृष्णौ गुणो यस्य सः द्विकृष्णः गुणः । चतुह्रस्वः । ख. (विशेषणम् ३३१११६१) विशेषण का प्राग् निपात होता हैशबलाः गावो यस्य स शबलगुः । ग. (प्रियो वा ३।१।१९२) प्रिय शब्द का प्राग् निपात विकल्प से होता है-प्रिय: गुडः अस्ति यस्य सः प्रियगुडः, गुडप्रियः । घ. (सप्तम्यन्तम् ३।१।१९३) सप्तम्यन्त नाम का प्राग् निपात होता है-कण्ठे काल: अस्ति यस्य सः कण्ठेकालः । ङ. (नेन्द्वादिभ्यः ३।१।१६५) बहुव्रीहि समास में इन्दु, चन्द्र, शशि पदम, ऊर्ण, शंख, दर्भ आदि शब्दों से आगे सप्तम्यन्त नाम होने पर उनका प्राग् निपात नहीं होता-इन्दुः मौलो अस्ति यस्य सः इन्दुमौलिः, शशिशेखरः, पद्मनाभः, ऊर्णनाभः, पद्महस्तः, शंखपाणिः, दर्भपवित्रपाणिः, पद्मपाणिः। च. (गड्वादिभ्यो वा ३।१।१९४) सप्तम्यन्त नाम के आगे गडु, अरु, गुरु ये शब्द हों तो विकल्प से प्राग निपात होता है-कण्ठेगडुः, गडुकण्ठः, मध्येगुरुः, गुरुमध्यः, शिरस्यरुः, अरुःशिराः । छ. (प्रहरणेभ्यः ३।१।१९६) प्रहरणवाचि (शस्त्रवाची) शब्दों से आगे सप्तम्यन्त नाम होने पर भी उनका प्राग् निपात नहीं होता-दण्डपाणिः, असिपाणिः, चक्रपाणिः, शूलपाणिः, सारङ्गपाणिः, धनुष्यपाणिः, धनुर्हस्तः।। ज. (क्तान्तं वा ३।१।१९७) शस्त्रवाची शब्दों से आगे क्त प्रत्ययान्त नाम हो तो उसका प्राग् निपात विकल्प से होता है-उद्यतः असि अनेन उद्यतासिः, अस्युद्यतः । उद्यतचक्र:, चक्रोद्यतः । झ. (शेषे ३।१।१९८) बहुव्रीहि समास में क्त प्रत्ययान्त नाम का नित्य प्राग् निपात हो जाता है-कृतः कटो अनेन कृतकटः। पीतं दुग्धं येन पीतदुग्धः । ञ. (जातिकालसुखादेः ३।१०२००) जातिवाची शब्द, कालवाची शब्द और सुख आदि (सुख, दुःख, तृप्र, कृच्छ्र, अस्र, अलीक, करुण, कृपण, सोढ, प्रतीप) शब्दों से आगे क्त प्रत्ययान्त नाम हो तो उसका प्राग निपात Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वाक्यरचना बोध विकल्प से होता है-पलाण्डुभक्षिती, भक्षितपलाण्डुः । पाणिगृहीती, गृहीतपाणिः। (काल) मासगतः, गतमासः। (सुख) सुखयाता, यातसुखा, हीनदुःखा, दुःखहीना। नियम १८०-(स्वाङ्गादीपो जातेश्चामानिनि ३।२।६०) स्वांगवाची शब्द और जातिवाची शब्द से आगे स्त्रीलिंग में ईप् प्रत्यय हो तो बहुव्रीहि समास में वह पुंवत् नहीं होता है, मानिन् शब्द उत्तरपद में न हो तोदीर्घकेशीभार्यः, चन्द्रमुखीभार्यः, ब्राह्मणीभार्यः । नियम १८१- (द्विपदाद्धर्मादन् ८।३।७४) एक पद पूर्व में हो और अन्त में धर्म शब्द हो तो उससे बहुव्रीहि समास में अन् प्रत्यय हो जाता हैसुष्ठधर्मः अस्ति यस्य सः सुधर्मन् (सुधर्मा), कल्याणधर्मा । . नियम १८२-- (खरखुरान्नासिकाया नस्-८।३।८४) खर, खुर से आगे नासिका शब्द को नस् आदेश हो जाता है यदि किसी की संज्ञा बनती हो तो । गौरिव नासिका यस्य स: गोनसः । दुरिव नासिका यस्य द्रुनसः, खरनसः । नियम १८३-(उपसर्गात् ८।३।८६) उपसर्ग से परे नासिका शब्द हो तो बहुव्रीहि समास में उसे नस् आदेश हो जाता है यदि किसी की संज्ञा नहीं बनती हो तो-उद्गता नासिका अस्य स उन्नसः । नियम १८४-(नसस्य २।२।७५) पूर्वपद में उपसर्ग हो और उसमें र, ष, ऋ हो तो नस् के न् को ण हो जाता है-प्रगता नासिका अस्य प्रणसंमुखम्, निर्णसं मुखम् । नियम १८५-(जायाया जानि: ८।३।८८) जाया शब्द अन्त में हो तो उसे जानि आदेश हो जाता है । युवतिः जाया अस्ति यस्य सः युवजानिः । ., नियम १८६-(सुहृदुई दो मित्रामित्रयोः ८।३।१०४) मित्र अर्थ में सुहृद् और अमित्र अर्थ में दुहृत् शब्द निपात हो जाता है। अन्य स्थानों पर अन्त में हृदय शब्द ही रह जाता है—सुष्ठु हृदयं यस्य सः सुहृत् मित्रः । दुहृत् अमित्रः । सुहृदयो मुनिः । नियम १८७- (ऋन्नित्यदितः ८३१०९) ऋकारान्त शब्दों (जिनको नित्य दै, दास्, दाम् आदेश होते हैं) से बहुव्रीहि समास में कप् प्रत्यय हो जाता है-बहवः कर्तारः सन्ति यस्मिन् सः बहुकर्तृकः । नियम १८८-(क) (नसुदुर्व्यः प्रजाया अस् ८।३।७२) नन्, सु, दुर् (दुः) से आगे प्रजा शब्द से बहुव्रीहि समास में 'अस्' प्रत्यय हो जाता हैजैसे--अविद्यमानाः प्रजा अस्य अप्रजाः (अप्रजस्) । सुप्रजाः । दुःप्रजाः ।। (ख) (मन्दाऽल्पाच्च मेधायाः ८।३।७३) मन्द, अल्प और नञ्, सु, दुर् से आगे मेधा शब्द से बहुव्रीहि समास में 'अस्' प्रत्यय हो जाता है। जैसेमन्दा मेधा अस्य मन्दमेधाः (मन्दमेधस्) । अल्पमेधाः । अमेधाः । सुमेधाः । दुर्मेधाः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ३ (बहुव्रीहिसमास) ११३ नियम १८६- (संख्याया बहुव्रीहेः ८।३।७०) संख्यावाची शब्दों से बहुव्रीहि समास में 'ड' प्रत्यय हो जाता है। जैसे-द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः । पञ्चषाः । द्विदशा: । त्रिदशा:। नियम १९०- (सूत्-पूति सुरभिभ्यो गन्धादिद् गुणे ८।३।८६) सु, उत्, पूति, सुरभि शब्दों से परे गंध शब्द हो तो बहुव्रीहि समास में 'इत्' प्रत्यय हो जाता है यदि गंध शब्द गुण अर्थ में हो तो। जैसे-शोभनो गन्धो गुणोऽस्य सुगन्धि चन्दनम् । उद्गन्धि कमलम् । पूतिगन्धि करञ्जम् । सुरभिगन्धि केसरम् । नियम १६१-(क) (पादस्य लोपोऽहस्त्यादेः ८।३।६३) हस्तिन् आदि शब्दों को (हस्तिन, अश्व, कटोल, कटोलक, कण्डोल, कण्डोलक, गण्डोल, गण्डोलक, गडोल, गडोलक, गण्ड, महेला, दासी, गणिका, कुसूल, कपोत, जाल, अज) छोडकर उपमानवाची शब्दों से आगे बहुव्रीहि समास में पाद शब्द के 'द' के अ का लोप हो जाता है। जैसे-व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपात् । सिंहपात् । ऋक्षपात् । . नियम १९२-- (सुसंख्याया: ८।३।६५) सु और संख्यावाची शब्द पूर्व में हो तो पाद के 'द' के 'अ' का लोप हो जाता है। जैसे--शोभनौ पादावस्य सुपाद्, द्विपाद्, त्रिपाद्, चतुष्पाद् । .. स्त्रीलिंग में ईप विकल्प से होने से और पाद को पद् आदेश होने परसुपदी, सुपाद् रूप बनता है । द्विपदी, द्विपाद् । शतपदी, शतपाद् । नियम १९३-- (संप्राज्जानोर्जज्ञौ) ऊर्ध्वाद्वा ८।३।७६,८०) सम्, प्र से आगे जानु शब्द को बहुव्रीहि समास में जु, ज्ञ विकल्प से आदेश होते हैं। जैसे-संगते जानुनी अस्य संजुः, संज्ञः । प्रकृष्टे जानुनी अस्य प्रजुः; प्रज्ञः। ऊर्वे जानुनी अस्य ऊर्वशुः, ऊर्वज्ञः, ऊर्बुजानुः । नियम १९४-(धनुषो धन्वन् ८।३।८२) धनुष् शब्द को बहुव्रीहि समास में धन्वन् आदेश हो जाता है। जैसे-शाङ्गं धनुरस्य शार्ङ्गधन्वा । (धन्वन्) । पिनाकधन्वा । गाण्डीवधन्वा । प्रयोगवाक्य पद्मपाणिः मुनिः कुत्रास्ति ? गडकण्ठः कोऽस्ति ? दण्डपाणि जनक दृष्ट्वा पुत्रोऽधावत् । सुखयाता रजनी। हीनदुःखा बाला केयम् ? चन्द्रमुखीभायं रामचन्द्रं को भापयति ? युवाजानिना सुभाषेन किं उक्तम् ? सुहृदां सर्वत्र सत्कारो भवति । सुप्रजाः नृपः सुखमनुभवति । अमेधा न किमपि कर्तुं शक्नोति । ऋक्षपात् पुरुषोऽयम् । सुपदी इयं बाला । अहं गुरुं श्रयामि श्रये वा। त्वं एतद् पुस्तकं कुत्र अनैषीः ? मुनिः भिक्षां याचति याचते वा। जननी भोजनंपच ति पचते वा । रात्री गगने तारकाः राजन्ति राजन्ते वा। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ वाक्यरचना बोध :: संस्कृत में अनुवाद करो (पाठ में आये शब्दों का प्रयोग करें) 1. गाय का सारा शरीर सफेद है। चार ह्रस्व वर्ण वाला शब्द कौनसा है ? शबली गाय वाला रमेश क्या कहना चाहता है ? गुडप्रियवाला देश कोनसा है ? जिसके शिर पर शिखा है उस व्यक्ति को बुलाओ । जिसके मुकुट पर चंद्रमा है वह व्यक्ति कौन है ? हाथ में तलवार लिए महेन्द्र को देखकर बच्चे डरते हैं। दूध पीकर जाने वाली बिल्ली को देखो। प्याज खाने वाले लोग किस प्रदेश में रहते हैं ? लंबे केश वाली स्त्री अपने केशों को ठीक करे। जिसका धर्म अच्छा है वह अपने धर्म की व्याख्या करे । उन्नत नाक वाले लोग जापान में कितने हैं ? नासिका रहित मुख सुन्दर नहीं लगता। यह प्रासाद अनेक कर्ताओं द्वारा बना है। प्रजा रहित राजा का क्या महत्त्व है ? अल्पबुद्धि वालों को श्रम करना चाहिए। जिसके पैर बाघ की तरह है वह व्यक्ति कहां है ? अच्छे पैर वाला बालक सुगमता से दौड़ सकता है। संस्कृत में अनुवाद करो बाजार से काली मीरच लाओ। पोदिना गर्मी को शान्त करता है। दालचीनी कौनसे डिब्बे में है ? क्या तुम चाय पीते हो? रमेश प्याज नहीं खाता है। कढी पाचक होती है । मोहन को उडद की रोटी अच्छी लगती है। रमा चावल की पीठी से क्या बनाती है? तुम कितने फुलके खा सकते हो? अचार अनेक प्रकार का होता है । गजेन्द्र को सलूना साग अच्छा नहीं लगता। सुमन के लिए भात और पराँठे लाओ। पनीर गरिष्ठ नहीं होता है। गणेश चाट, समोसा और पकोडी नहीं खाता है। आज माँ ने पूडा और रायता बनाया है। शिष्य गुरु की सेवा करता है। तुमने धन कहां पाया ? बहिन भाई से क्या मांगती है ? रसोइया रात्रि में भोजन नहीं पकाता है। अभ्यास १. नीचे लिखे शब्दों का बहुव्रीहि समास में विग्रह करोविश्वदेवः । पद्मपाणिः । गुरुमध्यः । शूलपाणिः । चक्रोद्यतः । ब्राह्मणीभार्यः । खरनसः । कल्याणधर्मा । २. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ बताओ___यवनेष्ट:, कट्वरं, झझेरिका, किलाटः, भृगं, चविका, चोचं, पोलिका । ३. बहुव्रीहि समास किसे कहते हैं ? उसकी विधि क्या है ? ' .. ४. वृतुङ् और धुतङ् धातु के रूप लिखो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३३ : समास ४ (द्वन्द्वसमास) शब्दसंग्रह अवलेहः, लालसिकं (चटनी) । तृषरः (मीठे चावल) । प्रलेहः (एक प्रकार का व्यंजन) । मिष्टपाकः (मुरब्बा) । रागपाडवः (आम का मुरब्बा)। लप्सिका (लपसी) । वेढमिका (मिस्सीरोटी)। रोटिका, रोटका (रोटी)। वटी, वटिका (बडी) । अंगारपरिपाचितः (वाटी)। घातिकः (मालपुआ)। संयाव: (हलुवा, गोझिया)। पूरिका, सुपिष्टिका (कचोरी)। यवनालः (ज्वार)। प्रियंगुः (बाजरा)। चणकचूर्णम् (बेसन) । मिश्रचूर्णम् (मिस्सा आटा) । आढकी (अरहर) । द्विदलम् (दाल)। चूर्णम् (आटा)। भाजी (भाजी-साग)। धातु-रञ्जन्–रागे (रजति, रजते) राग करना । गुहून्-संवरणे (गृहति, गूहते) छिपाना । बुध न्-बोधने (बोधति, बोधते) जानना। खनुन्अवदारणे (खनति, खनते) खोदना। धावुन-गतिशुद्धयोः (धावति, धावते) दौड़ना, साफ करना । लषन्-कान्तो (लषति, लषते) चमकना। भक्षन्। भलक्षन्-भक्षणे (भक्षति, भक्षते । लक्षति, भ्लक्षते)। रजन और गुहन् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ३६,७५) । बुध से लेकर भ्लक्ष तक के रूप आत्मनेपद में वदिङ् की तरह और परस्मैपद में प्रायः भू की तरह चलते हैं । कुछ रूपों में भिन्नता है । द्वन्द्वसमास जिसमें सब पद प्रधान हों और जिसके विग्रह में 'च' शब्द का प्रयोग होता हो उसे द्वन्द्वसमास कहते हैं। इसके दो भेद हैं१. इतरेतर २. समाहार इतरेतर—जिसमें पृथक्-पृथक् प्रत्येक शब्द का समान महत्त्व होता है उसे इतरेतरद्वन्द्व कहते हैं। जितने पद होते हैं उन्हीं के अनुसार द्विवचन और बहुवचन होता है। जैसे-मरुदेवा च ऋषभश्च -मरुदेवऋषभौ । ऋषभश्च मरुदेवा च = ऋषभमरुदेवे । समास होने के बाद जो अन्तिम शब्द का लिंग होता है वही रहता है। समाहार - जिसमें पृथक्-पृथक् शब्दों का महत्त्व न होकर सिर्फ समूह का महत्व होता है उसे समाहारद्वन्द्व या एकत्वद्वन्द्व कहते हैं। इसमें सिर्फ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध एकवचन और नपुंसकलिंग होता है । जैसे पाणी च पादौ च–पाणिपादम् । अश्वश्च महिषश्च-अश्वमहिषम् ।। नियम द्वन्द्व समास में प्राग् निपात के लिए निम्नलिखित नियमों को ध्यान से पढे - नियम १९५–(क)-(द्वन्द्वे लक्ष्वक्षरमेकम् ३।१।१६८)-जो शब्द लघु अक्षर वाला हो उसका प्राग् निपात होता है । यदि लघु अक्षर के अनेक पद हों तो उनका क्रमशः प्राग् निपात होता है। जैसे-तिलमाषौ, घटशंखपटाः, प्रटशंखघटाः। ख-(अल्पस्वरम् ३।१।१७६)-अल्प स्वर वाले पद का प्राग् निपात होता है । जैसे-धवखदिरो, वागर्थो । ग-(इदुदन्तमसखि ३।१।१७०)—सखि शब्द को छोडकर इकारांत, उकारात शब्द का प्री निपीत होताही पर्षिाकालि पलपि में हो तो उनका इच्छानुसार प्राग् निपात कर सकते हैं। जैसे—पतिसुतो, वायुतोयं, पतिवसू, वसुपती। घ-(न जायापत्यादिषु ३।१।१७१)-जाया, भार्या, पुत्र, स्वसृ इनके आगे पति शब्द हो तो इकारांत होने पर भी उसका प्राग् निपात नहीं होता। जैसे-जायापती, भार्यापती, पुत्रपती, स्वसपती। ___ - (गुणवृद्धयादिषुवा ३।१।१७२) इन शब्दों का प्राग निपात विकल्प से होता है। जैसे—गुणवृद्धी, वृद्धिगुणो, सर्पिमधुनी, मधुसर्पिषी, दीर्घलघू, लघुदीघौ, चंद्रराहू, राहुचन्द्रो। - च-(स्वराद्य दन्तम् ३।१।१७३)-स्वर आदि और अकार अन्त वाले शब्दों का प्राग निपात होता है, जैसे-अश्वखरम्, अश्वखरौ। समाहारद्वन्द्वसमास में 'खर' में नपुंसकलिंग और एकवचन हुआ है और इतरेतर द्वन्द्व करने से 'खर' शब्द में द्विवचन हुआ है। छ- (न शूद्रार्यादिषु ३।१।१७४)-शूद्रायौं, अवन्तीअश्मको, विश्वसेनार्जुनी, विषयेन्द्रियाणि, राजाश्वौ इनमें स्वर आदि और अकार अंत में होने पर भी प्राग निपात नहीं होता है। ज-(धर्मार्थादिषु ३।१।१७५) धर्मायौं, अर्थधर्मी, कामथौं, अर्थकामी, mer अर्थशब्दो. आद्यन्ती. अन्तादी, अग्नीन्द्रो, इन्द्राग्नी, चंद्राको, अर्कचंद्री; अश्वत्थकपित्थो, कपित्थाश्वो इनम स्वर आद आर अकारान्त हान पर भी प्राग् निपात विकल्प से होता है। (झ) (समीरणाग्न्यादिषु वा ३।१।१७८)--- समीरणाग्नी, अग्निसमीरगौ, आदित्य चंद्रौ, चंद्रादित्यौ, पाणिनीयरीढीयाः, रौढियपाणिनीयाः इनमें अल्प स्वर होने पर प्राग् निपात विकल्प से होता है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ४ ( द्वन्द्वसमास ) ११७ - ( अर्चितम् ३|१|१७६ ) - द्वन्द्वसमास में जो पूज्य होता है उसका प्राग् निपात होता है । जैसे - निर्ग्रन्थगृहस्थी, देवदेव्यो, मातापितरौ वधूवरी । नियम १९६ ( क ) - ( मासर्तु भ्रातृनक्षत्राण्यानुपूर्व्येण ३|१|१८२ ) - द्वंद्व समास में मासवाची, ऋतुवाची, भ्रातृवाची और नक्षत्रवाची शब्दों को आनुपूर्व्य ( क्रम से ) प्राग् निपात होता है । जैसे - फाल्गुन चैत्री, वैशाखज्येष्ठी, हेमन्त शिशिरी, हेमन्त शिशिरवसंताः, युधिष्ठिरार्जुनो, कृत्तिकारोहिण्यो, अश्विनी - भरणीकृत्तिकाः । वसन्त और ग्रीष्म शब्द को विकल्प से प्राग् निपात होता है । वसन्तग्रीष्मी, ग्रीष्मवसन्तौ । ञ - ख - (न पाण्डुधृतराष्ट्रादिषु ३|१|१८४) पाण्डुधृतराष्ट्रो, विष्णुवासवो भ्रातृवाची शब्द होने पर भी इनका आनुपूर्वी से प्राग् निपात नहीं होता । ग -- ( भीमसेनार्जुनादिषु वा ३|१|१८५ ) - भीमसेनश्च अर्जुनश्च - • भीमसेनार्जुनो, अर्जुन भीमसेनौ । इसमें प्राग् निपात विकल्प से होता है । घ - ( न पुष्यपुनर्वस्वादिषु ३ । १ । १८६ ) – पुष्यपुनर्वसू, तिष्यपुनर्वसू मघाश्लेषे, आर्द्रामृगशिरसी नक्षत्रवाची इन शब्दों का आनुपूर्वी से प्राग् निपात नहीं होता है । नियम १६७- (नित्यवैरिणाम् ३ । १ । १५२) जिनका जातिनिबद्ध वैर हो उनका द्वंद्वसमास में समाहार ( एकत्व) समास होता है । जैसे - अहिन - कुलम्, मार्जारमूषकम्, अश्वमहिषम् । नियम १९८ - ( विरोधिनामद्रव्याणाम् ३ |१| १६० ) – परस्पर विरोधि शब्द यदि द्रव्य के विशेषण न हो तो उनका द्वंद्व समास में समाहार विकल्प से होता है । जैसे - सुखदु:खम्, सुखदु:खे, लाभालाभम्, लाभालाभे, संयोगविभागम् संयोगविभागो । नियम १६६ - ( फलानां जाती ३।१।१५७ ) यदि फलवाची शब्द बहु वचन के द्योतक हों तो उनका द्वंद्वसमास में ( एकत्व) समास होता है । जैसे बदराणि च आमलानि बदरामलकम् । नियम २००- ( वा वृक्षतृणधान्यमृगशकुनीनाम् ३|१|१५८) वृक्ष, तृण, धान्य, मृग, शकुनि इनका द्वंद्वसमास में एकत्व विकल्प से होता है । (वृक्ष) | — प्लक्षाश्च न्यग्रोधाश्च = प्लक्षन्यग्रोधं, प्लक्षन्यग्रोधाः । ( तृण ) - कुशकाशं, कुशकाशा: ( धान्य ) - व्रीहियवं व्रीहियवा: । ( मृग ) – रुरुपृषतं रुरुपृषता: । ( शकुनि ) - शुकबक, शुकबका: । नियम २०१ - ( पशुव्यञ्जवानाम् ३ | १|१५९ ) - पशुवाची और व्यञ्जनवाची शब्दों से द्वंद्वसमास में एकत्व विकल्प से होता है । जैसे - गौश्च महिषश्च = गोमहिषं, गोमहिषी । व्यञ्जन — दधिघृतं दधिघृते । शाकसूपं - शाकसूपौ । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ वाक्यरचना बोध नियम २०२-(अप्राणिजातीनाम् ३।१।१५०)-प्राणि को छोडकर जातिवाची शब्दों का द्वंद्वसमास में एकत्व हो जाता है। जैसे-घाना च शष्कुली च धानाशष्कुली। तरुशलम् । प्रयोगवाक्य हेमन्तशिशिरयोः शीतं अधिक बाधते । कृत्तिकारोहिण्योः कानि कार्याणि कर्तव्यानि सन्ति । पाण्डुधृतराष्ट्री भ्रातरौ आस्ताम्। मार्जारमूषकं विरोधस्य रूपकं भवति । अस्यां नगयाँ शूद्रायौं वसतः । चंद्राको कदा उदितः । माता पुत्रे रजति रजते वा । दुष्ट: पापानि गृहति गूहते वा । कियन्तः माः कूपं खनन्ति । दासः धावति धावते वा । वस्त्राणि कोऽधावीत् अधाविष्ट वा। रमा निशायां किमपि न भक्षति प्लक्षते वा। संस्कृत में अनुवाद करो (द्वन्द्वसमास में) -- १ कप में किन्ने ? के पति थोर पत्र कहां है ? माणक मेरी बहन का पति है। घी और मधु साथ में मत खाओ। राजा और मंत्री कहां है ? माता और पिता को नमस्कार करो। बैशाख और जेठ में गर्मी पड़ती है । युधिष्ठिर और अर्जुन भाई थे। पुष्य और पुनर्वसू ये दो नक्षत्र हैं । सांप और नेवले में सदा वैर रहता है। सुख और दुःख में सम रहने वाला ही मुनि होता है । मोहन के घर में गाय और भैस हैं। प्रत्याहार में आदि और अंत का ग्रहण होता है । देव और दैत्यों का युद्ध किसने देखा था ? दीर्घ और लघु की क्या परिभाषा है ? ___ संस्कृत में अनुवाद करो सोहन को चटनी अच्छी लगती है। आज मेरे घर में मीठे चावल बने हैं। माष के कोफले कौन खाता है ? रोटी के साथ भाजी चाहिए । सुरेन्द्र लपसी नहीं खाता है। मुरब्बा अनेक प्रकार का होता है । राजस्थानी लोग मोठ की रोटी खाते हैं। सीमा ने आज बडी बनाई है। मेवाडी लोगों को वाटी प्रिय है। हलवा कितने प्रकार का होता है ? तुम कौन सी दाल खाते हो? ज्वार और बाजरा कहां उत्पन्न होता है ? घर में आटा नहीं है । शीला भाई से राग करती है। पापों को मत छिपाओ। बालक मिट्टी खोदता है । मोहन क्यों दौड़ा? श्याम कपड़े धोता है । जैन साधु रात में नहीं खाते । HTRA १. निम्नलिखित शब्दों का द्वंद्वसमास में विग्रह करें (१) बदरामलकम् (२) जायाफ्ती (३) अश्वखरम् (४) इन्द्राग्नी (५) धवखदिरो (६) तरुशलम् । २. निम्नलिखित शब्दों में कौन से शुद्ध, कौन से अशुद्ध हैं और किस नियम से बतलाएं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ४ (द्वन्द्वसमास) लाभालाभम्; लाभालाभौ, सुखदुःखम्, सुखदुःखे, संयोगविभागम्, संयोगविभागो, अर्कचंद्रो, चंद्राको, आद्यन्ती, अन्तादी। ३. प्रागनिपात करने में कौन-सा नियम किसका बाधक है ? ' ४. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो चटनी, मीठे चावल, कचोरी, लपसी, मुरब्वा, मालपुआ, वाटी, हलवा; बेसन, अरहर, मिस्सा आटा।. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३४ : समास ५ ( अलुक्समास ) शब्दसंग्रह गोराणी ( गंवार फली) । निकोचनम् ( पिस्ता ) । मकाय: (मक्का) । अश्वमाष:, कङ्कटुकः (कोरडु) । आम्र:, रसाल: (आम) । दाडिम : (अनार) । पनस: ( कटहल ) । जम्बीर: (नींबू) । अश्वत्थ : ( पीपल ) । निम्ब: ( नीम ) । बिल्व : (बेल) । वाताद : (बादाम ) । द्राक्षा (अंगूर) । बदरी ( बेर ) । कदली, कदलीफलम् (केला) । नारिकेलफलम् ( नारियल ) । सेवफलम् (सेव) । नारंगफलम् (नारंगी) । आम्रलम् ( अमरूद ) । जम्बु: ( जामुन ) । जम्बीरकं ( कागजी नींबू) । बीजपूर : ( बिजौरा नींबू) । अमृतफलं ( नाशपाती ) । क्षुमानी ( खुमानी ) । आलुकं (आलूबुखारा ) । तूतं ( शहतूत ) । लीचिका (लीची) । अंजीरं (अंजीर ) । धातु-यजन् — देवपूजासंगतिकरणदानेषु (यजति, यजते ) देवपूजा करना, संगति करना, देना। वेंन् - तन्तुसन्ताने ( वयति, वयते) सीना। हवेंन् स्पर्धाशब्दयोः (आह्वयति, आह्वयते) स्पर्धा और शब्द करना ( बुलाना ) । टुवन्- बीजसन्ताने (वपति, वपते) बीज बोना । यजंन्, वेंन्ह, वेंन् और वप् धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७६ से ७९) । अलुक्समास समास में विभक्तियों का लोप होता है । कुछ शब्द ऐसे हैं जिनमें समास करने पर भी उनकी विभक्तियों का लोप नहीं होता उन्हें अलुक्समास कहते हैं । उसके कुछ नियम ये हैं नियम २०३ - ( आत्मनः पूरणे ३।२।१४ ) - आत्मन् शब्द तृतीयान्त हो और उसके आगे संख्यावाची शब्द पूरण प्रत्ययान्त हो तो तृतीया विभक्ति का लोप नहीं होता । जैसे - आत्मनाचतुर्थः । आत्मनाषष्ठः । नियम २०४ - ( परात्मभ्यां चतुर्थ्याः ३ ।२।१७ )- — पर और आत्मन् शब्द चतुर्थी विभक्ति अंत वाले हों और उससे आगे पद शब्द हो तो विभक्ति का लोप नहीं होता । जैसे – परस्मैपदम्, आत्मनेपदम् । नियम २०५ - ( तत्पुरुषे कृति ३।२।२२ ) - अकारान्त और हसान्त शब्दों से आगे सप्तमी विभक्ति हो तो उसका लोप नहीं होता यदि कृदन्त प्रत्यय का रूप आगे हो तो । जैसे = स्तम्बेरमः । कर्णेजपः । प्रवाहमूत्रितं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ५ (अलुक्समास) १२१ भस्मनिहुतम् । नियम २०६-(अमूर्धमस्तकात्स्वाङ्गादकामे ३।२।२१)-मूर्ध और मस्तक इन दो शब्दों को छोडकर अकारान्त और हसान्त शब्द स्वाङ्गवाची हों तो उनकी सप्तमी विभक्ति का लोप नहीं होता काम शब्द को छोडकर उत्तरपद में कोई भी शब्द आगे हो तो। जैसे—कण्ठेकालः । उदरेमणिः । शिरसि शिखः। _ नियम २०७- (संज्ञायां ३।२।१६) मनसा से आगे उत्तर पद हो, वह संज्ञा बनता हो तो विभक्ति का लुक नहीं होता। मनसादेवी, मनसागुप्ता, मनसादत्ता, मनसासंगता-ये स्त्रीलिंग में नाम हैं। । प्रयोगवाक्य ___ आत्मनापञ्चमः रमेशो विद्यते । अयं धातुः परस्मैपदी विद्यते । आत्मनेपदे कियन्तः धातवः सन्ति ? तव कथनं प्रवाहेमूत्रितं चकास्ति । कण्ठेकालस्य अर्चा कः करोति ? शीला यजति यजते वा । तन्तुवायः वस्त्राणि वयति, वयते वा । विनोदः त्वां आह्वत् आह्वत वा। कृषक: क्षेत्रे किं वप्स्यति, वप्स्यते वा? अस्मिन्नुद्याने दाडिमानां, पनसानां, द्राक्षाणां, वातादानाञ्च एकोऽपि वृक्षो नास्ति । किं तुभ्यं बदरी रोचते ? कर्णेजपानां कदापि संग मा कुरु । शिरसिशिखस्य अनेकानि रूपाणि सन्ति । मनसागुप्ता कस्मिन् देशे विदेशे च गमिष्यति । सदा आत्मनेपदं भाव्यम् । संस्कृत में अनुवाद करो क्या तुम्हारे खेत में गंवारफली उत्पन्न हुई है ? पिस्ता पोष्टिक होता है । मेवाडी लोग मक्की की रोटी खाते हैं। कोरडु कौन खाता है ? राजा श्रेणिक के बगीचे में बारह ही महीने आम लगे रहते थे। रोगी ने वैद्य को अनार दिये । बंदर को कटहल अच्छी लगती है। नींबू खट्टा होता है। सास ने बहू से कहा-तुम पीपल ले आओ। रोगी लोग नीम के वृक्ष के नीचे बैठे हैं । बेल पेट के लिए लाभप्रद है। हमने वादाम के वृक्ष देखे हैं। हैदराबाद में अंगूर बहुत होते हैं। राजस्थानी लोग बेर को बहुत पसंद करते हैं । मुझे केला अच्छा नहीं लगता । नारियल के वृक्ष बहुत लंबे होते हैं। नागपुर में नारंगी बहुत उत्पन्न होती है। क्या तुमने सेव का साग खाया है ? इलाहाबाद में अमरूद होते हैं । चंद्रकान्त यहां अपने सहित छट्ठा व्यक्ति है। योगी के शिर पर जटा है । नरेश की दादी क्या सीती है ? श्याम को किसने बुलाया है ? किसान खेत मे बीज कब बोयेगा? अभ्यास १. अलुक् समास का क्या अर्थ है ? किस समास में अलुक होता है ? २. इन शब्दों के संस्कृत रूप लिखोगंवारफली, पीपल, अमरूद, नीम, बेर, नारंगी, नींबू, पिस्ता, खुमानी, शहतूत । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३५ : समास ६ ( एकशेष) शब्दसंग्रह उत्तरीयम् ( मरदाना दुपट्टा ) । करपूः मुखप्रोंछनम् ( रूमाल )। चंडातकम् ( लहंगा ) । वासकटिः ( बासकट) । फर्फरीका (सलीपर, हवाई चप्पल) । शाटी, शाटिका (साडी ) । उपानह, ( जूता ) । उष्णीषम् ( पगडी) । अङ्गप्रोक्षणम् ( अंगोछा ) । उपधानम् ( तकिया) । कम्बलः (कम्बल) । नीशार : ( रजाई ) । कञ्चुकः ( कुर्ता ) । रशना ( कमरबंद, नाडा) । उपसंख्यानम्, अधोवस्त्रम् (धोती) । पादयाम: ( पायजामा ) । प्रावारः, चोडः, चालक: (कांट) । धातु - इं— अध्ययने (अधीते) अध्ययन करना । अदं, प्सांकू - भक्षणे ( अत्ति, साति) खाना । यांक् — गतो (याति) जाना । भांक् दीप्ती (भाति ) शोभित होना । ष्णांक - शौचे ( स्नाति ) स्नान करना पांक- रक्षणे ( पाति) रक्षा करना । ख्यांक् — प्रकथने ( ख्याति ) कहना । अदं, प्सां और यां धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या २१,८०,२२) । भांक् से लेकर ख्यांक तक के रूप प्राय: प्सांक् की तरह चलते हैं । एकशेष से द्वन्द्वसमास का एक भेद और है जिसे एकशेष कहते हैं । दो शब्दों में एक शब्द शेष रहकर दोनों का बोध कराये उसे 'एकशेष' कहते हैं । जैसे-माता च पिता च पितरी । भ्राता च स्वसा च = भ्रातरी । = एकशेष के कुछ नियम ये हैं नियम २०८ - - (समानामऽर्थेनं कशेषः ३|१ | १३४ ) समान अर्थ वाले शब्दों का एक कथन हो तो उनमें से कोई एक शेष रह जाता है । शब्दों के अनुसार उनमें द्विवचन या बहुवचन होता है। जैसे- - वक्रश्च कुटिलश्च = वक्री कुटिलो वा । F DAS / ज्यादावसंख्येय' 31919३५ ) संख्यावाची शब्दों को छोडकर कोई शब्द दो या दो से अधिक बार प्रयुक्त होता हो तो उनमें एक शेष रह जाता है । जैसे - वृक्षश्च वृक्षश्च = वृक्षो । वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च - वृक्षाः । नियम २१० - - ( त्यदादिः ३|१|१३६) त्यद् आदि शब्द ( त्यद्, तद्, यद्, अदस्, इदम्, एतद्, एक, द्वि, युष्मद् अस्मद्, भवतु, किम्) दूसरे नाम के Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास ६ (एकशेष) १२३ साथ में एक साथ कहे जाते हों तो उनमें त्यदादि शब्द शेष रहता है । जैसेस च चैत्रश्च - तो। यदि दोनों शब्द त्यदादि हों तो उनमें अन्तिम शब्द शेष रहता है । स च यश्च - यौ । भवांश्च अहं च -- आवाम् । कहीं-कहीं पर पूर्व शब्द भी शेष रह जाता है । सश्च यश्च =तो । अयं च एष च :- इमो। नियम २११ (क)--स्त्रीपुंनपुंसकानां तु सहोक्तो परलिङ्गता'स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुंसकलिंग तीनों लिंगों के शब्दों की सहोक्ति हो तो अन्तिम लिंग शेष रहता है। ___खस्त्रीलिङ्गयोः परं पुल्लिगमेव भवति- स्त्रीलिंग और पुल्लिग शब्द हों तो उनमें पुल्लिग शब्द शेष रहता है। जैसे-स च देवदत्ता च= तौ। ग-स्त्रीनपुंसकयोः परं नपुंसकमेव भवति-स्त्रीलिंग और नपुंसक शब्द हों तो उनमें नपुंसकलिंग शेष रहता है । स च रत्नं च = ते! ___घ- पुनपुंसकयोः परं नपुंसकमेव भवति-पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्द हों तो उनमें नपुंसकलिंग शेष रहता है। जैसे - तत् च चैत्रश्च =ते । नियम २१२-(नपुंसकमऽनपुंसकेनैकत्वं च वा ३।१।१४४) अनपुंसक नाम के साथ नपुंसक नाम हो तो उनमें नपुंसक नाम शेष रहता है और उनका एकत्व विकल्प से होता है। जैसे- शुक्लं च वस्त्रं, शुक्लश्च कम्बल:=ते शुक्ले । पक्षे-- शुक्लम् (एकत्वे) । शुक्लं च वस्त्रं, शुक्लश्च कम्बलः, शुक्ला च शाटी तानि शुक्लानि । पक्षे-शुक्लम् । नियम २१३- (भ्रातृपुत्राः स्वसदुहितृभिः ३।१।१३७) भ्राता शब्द के अर्थ वाले शब्दों के साथ में स्वसृवाची शब्द हों तो भ्रातृवाची शब्द शेष रहता है । जैसे-भ्राता च स्वसा च-भ्रातरौ । सोदर्यश्च स्वसा च =सोदयौं । पुत्रवाची शब्दों के साथ में दुहितवाची शब्द हों तो पुत्रवाची शब्द रहता है । जैसे-पुत्रश्च दुहिता च = पुत्री । पुत्रश्च सुता च-पुत्रौ । नियम २१४-(पिता मात्रा वा ३३१११३८) माता शब्द के साथ पितृ शब्द हो तो पिता शब्द विकल्प से शेष रहता है । जैसे—पिता च माता च - पितरौ । पक्षे–मातापितरौ। अर्घ्य होने के कारण माता शब्द का प्राग निपात हुआ है। नियम २१५= (श्वसुरः श्वश्रूभ्याम् ३।१।१३९) श्वश्रू शब्द के साथ श्वसुर शब्द विकल्प से शेष रहता है। जैसे-श्वश्रूश्च श्वसुरश्च =श्वसुरी। पक्षे- श्वश्रूश्वसुरी। नियम २१६ - (पुमान् स्त्रिया ३।१।१४२) स्त्रीवाची शब्द के साथ में पुरुषवाची शब्द हो तो पुरुषवाची शब्द शेष रहता है। उनमें द्विवचन और बहुवचन संख्या के अनुसार होते हैं । जैसे—ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणो। १. श्रीभिक्षुलिंगानुशासन परवल्लिगाधिकार श्लोक ४ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वाक्यरचना बोध प्रयोगवाक्य सुरेन्द्रः कदा भोजनं अत्स्यति प्सास्यति वा ? कनकमाला मिष्टान्नं कदा जबास पप्सो वा? चेत् बालः मिष्टान्नं न आत्स्यत् तदा न रुग्णोऽभविष्यत् । गगने एतद् किं भाति ? दरिद्रः कूत्र यास्यति ? त्वं कुत्र अयासीः ? किं अरण्यवासिनः कदापि न स्नान्ति ? दुर्बलं कः पाति ? पापेभ्यः आत्मानं सर्वदा पाहि । आचार्यः सुधर्मा जम्बू किं आचख्यौ ? सुरेन्द्रः गृहं कदा यास्यति ? शैलेशः नगरं अयासीत् । संस्कृत में अनुवाद करो ___ गणेश का दुपट्टा कहां है ? सुरेन्द्र की रूमाल कौन सी है ? शीला का सलीपर किस पेटी में है ? इस साडी की क्या कीमत है ? जैन साधु जूते नहीं पहनते । सतीश के दादाजी की पगडी और कुर्ता कहां है ? राजेश का अंगोछा साफ है। यह तकिया रूई का है। सर्दी में कंबल और रजाई का बहुत उपयोग लेपहनने स्वहित नापमानसी नो रंग कैसा है ? कोट पर क्या लिखा है ? मैं आज भोजन नहीं करूंगा ? वृक्ष पर क्या शोभित होता है ? संजय प्रतिदिन स्नान नहीं करता । अपनी आत्मा की रक्षा करो। सुनील को अध्यापक ने क्या कहा ? यदि तुम मेरी रक्षा करते तो मैं तुम्हारी रक्षा करता। यहां किसने स्नान किया था ? एकशेष के प्रयोग करो आप और मैं क्या करें ? भाई और बहन पढते हैं। पुत्र और पुत्री खेलती हैं । आपके पिता और माता कब आयेंगे ? सास और श्वसुर बहू को प्यार करते हैं । ब्राह्मण और ब्राह्मणी जाते हैं। अभ्यास . . १..निम्नलिखितों के एकशेष समास के रूप बनायें (१) जिनश्च जिनश्च जिनश्च (२) वीरश्च वीरश्च (३) स च अयं च (४) त्वं च अहं च (५) सा च चैत्रश्च (६) सा च कुण्डे च (७) सा च कुण्डं च (८) भ्राता च भगिनी च (8) सुतश्च दुहिता ... च (१०) पिता च माता च (११) श्वश्रूश्च श्वसुरश्च (१२) कुक्कु टश्च कुक्कुटी च । . २. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ बताओ - लहंगा, कुर्ता, कोट, पायजामा, अंगोछा, रूमाल, सलीपर । . ........ .......... ..............: . .. ४. नीचे लिखे संयुक्त लिंगों में कौन सा लिंग शेष रहता है . स्त्रीलिंग और पुल्लिग में, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में, पुल्लिग और नपुंसकलिंग में, भ्रातृवाची शब्द और स्वसवाची शब्दों में, पुत्रवाची शब्द और दुहितृवाची शब्दों में............... ५. मातृ शब्द के साथ पितृ शम्द हो तो क्या शेष रहता है ? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३६ : समासान्त प्रत्यय शब्दसंग्रह पादुका (खडाउ) । कथा ( गुदडी ) | चंडातकः ( चादरा ) । चलनी, घर्घरी (घाघरा) । वैक्षकं, कंचुकं ( चोगा ) । घुटानाहः ( घुटन्ना — घुटने तक पाजामा) । गुरुडं, शिरस्त्राणं (टोप) । शिरस्कं (टोपी) । दुकूलं, द्विपटी ( दुपट्टा ) | पतलून: ( पतलून ) । विटीका ( बटन ) । पादावरणम् (बूंट) । कञ्चुलिका (ब्लाउज) । प्रावारकम् (शेरवानी) । बृहतिका ( ओवरकोट ) । आप्रदीनम् ( पैंट ) | अन्तरीयम् ( पेटीकोट ) । अर्धोरुकम् ( अण्डरवीयर जांघिया ) । नक्तकम् (नाइटड्र ेस) । प्रच्छदपद: ( ओढनी, चुन्नी) । स्यूतवर: (सलवार) । रल्लक: ( लोई) | तुलसंस्तर : ( गद्दा ) । आस्तरणम् (दरी) । प्रच्छदः ( चादर ) । ऊर्णावरकम् ( स्वेटर ) । कार्पासम् (सूती वस्त्र ) । कौशेयम् ( रेशमी वस्त्र ) । राङ्कवम् ( ऊनी वस्त्र ) | नवलीनकम् ( नाइलोन का वस्त्र ) । धातु - इणकू - गतौ (एति ) जाना । बुंकू - प्रसवैश्वर्ययो: ( सौति ) उत्पन्न होना, ऐश्वर्य होना । युक् - मिश्रणे (योति ) मिलाना । णुक् – स्तुतो (नौति ) स्तुति करना । बुंक धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ८१ ) । इणक् के रूप इंक की तरह चलते हैं । युक् और णुक् के रूप प्रायः बुंकु की तरह चलते हैं । समासान्त प्रत्यय अव्ययीभाव तत्पुरुष और बहुव्रीहिसमास करने के बाद जो प्रत्यय लगते हैं उन्हें समासान्त प्रत्यय कहते हैं । जिन शब्दों से समासान्त प्रत्यय होते हैं उनमें से कुछेक सूत्र नीचे दिए जा रहे हैं । नियम २१७ (क) – (ऋक् - पुरs - पथिभ्यः समासे ८।३।५६ ) – ऋच् पुर्, अप्, पथिन् ये शब्द अंत में हों तो 'अ' प्रत्यय हो जाता है । जैसे—- ऋचोऽधं - अर्धर्चः । ऋचः समीपं = उपर्चम् । श्रियाः पूः = श्रीपुरम् । श्रीश्चासौ पूश्चेति = श्रीपुरम् । द्विता आपोऽस्मिन् द्वीपम् । जलस्य पन्था = जलपथः स्थलपथः, उपपथं प्रतिपथं, विशालपथम् । = ख - - ( धुरोऽनक्षस्य ८ | ३ | ५७ ) 'घुर्' अंतवाले शब्दों से अ प्रत्यय हो जाता है यदि समास में अक्ष शब्द का प्रयोग न हो तो । स्त्रीलिंग में अकारांत होने से आप् और ईप् हो जाता है । जैसे— राज्यधुरा, रणधुरा, द्विधुरी, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वाक्यरचना बोध विधुरी। __ग-(प्रत्यन्ववात् सामलोम्नः ८।३।५८) प्रति, अनु, अव इनसे परे सामन् और लोमन् शब्द परे हो तो अ प्रत्यय हो जाता है। जैसे—प्रतिगतं साम प्रतिसामम् । प्रतिगतं सामास्य प्रतिसामं । अनुसामं, अनुसाम । अवसामं,. अवसाम । अनुलोमं अनुलोम । घ-(नपुंसकाद् वा ८।३।३२) अव्ययीभाव में 'ट' प्रत्यय विकल्प से होता है । जैसे—प्रतिकर्म, प्रतिकर्म । __ङ-(अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे ८।३।५६) अक्षि शब्द से अ प्रत्यय हो जाता है । वह अक्षि शब्द प्राणि का अंगबोधक नहीं होना चाहिए। जैसे-लवणस्य अक्षि == लवणाक्षि । लवणं अक्षि इव :-- लवणाक्षम् । पुष्कराक्षं, गवाक्षम् ।। च-(कटात् ८।३।६०) कट शब्द के आगे अक्षि शब्द प्राणि का अंगबोधक हो तो समास के अंत में अ प्रत्यय हो जाता है । जैसे-कटस्य अक्षि == कटाक्षः। छ-(ब्रह्म-हस्ति-राज-पल्याद् वर्चसः ८।३।६१) ब्रह्मन्, हस्तिन्, राजन् और पल्य शब्द से आगे वर्चस् शब्द अन्त में हो तो अप्रत्यय हो जाता है। जैसे—ब्रह्मणो वर्चः–ब्रह्मवर्चसं (ब्राह्मण का तेज, बल) राजवर्चसं, पल्यवर्चसं। नियम २१८-(अन्धसमवात् तमसः ८।३।६२) अंध, सम्, अव इनसे परे तमस् शब्द हो तो अप्रत्यय हो जाता है। जैसे-अंधं च तत् तमश्च= अन्धतमसम् । अंधं तमोऽस्मिन्निति अंधतमसं (अन्धा करने वाला अन्धकार), अन्धश्च तमश्चेति = अन्धतम, अन्धतमसे । संततं तमः, संततं तमसा, संततं तमोऽस्मिन्निति वा संतमसम् । अवहीनं तमो, अवहीनं तमसा, अवहीनं तमोऽस्मिन्निति वा अवतमसम् । नियम २१६-(अन्ववतप्ताद् रहसः ८।३।६३) अनु, अव, तप्त इनसे पर रहस् शब्द से 'अ' प्रत्यय हो जाता है। जैसे—अनुगतं रहः-- अनुरहसम्, अनुगता रहसा—अनुरहसम्, अनुगतं रहः अस्येति अनुरहसः । अवरहस, अवररहसः । तप्तं तप्ताय इवानधिगम्यं रहः तप्तरहसं, तप्तं रहोऽस्येति तप्तरहसः । नियम २२०-(प्रतेरुरसः सप्तम्या: ८।३।६४) सप्तमी अर्थ में प्रति अव्यय आता है। प्रति से परे 'उरस्' शब्द हो तो समास में 'अ' प्रत्यय हो जाता है । जैसे- उरसि वर्तते - प्रत्युरसम् (अव्ययी) उरसि प्रतिष्ठितम् -: प्रत्युरसम् (तत्पुरुष) । यहां 'निरादयो गताद्यर्थे पञ्चम्या' सूत्र से समास हुआ नियम २२१- (उपसर्गादध्वनः ८।३।६५) उपसर्ग (प्र आदि) से आगे यदि अध्वन् शब्द हो तो उससे समास में 'क' प्रत्यय हो जाता है। जैसेप्रगतः अध्वानं -प्राध्वम् (तत्पुरुष) । उपक्रान्तं अध्वानं-उपाध्वम् । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्त प्रत्यय १२७ निरध्वम् । अत्यध्वम् । नियम २२२– (संख्या-पाण्डूदक्-कृष्णाद् भूमेः ८।३।६६) संख्यावाची शब्द और पाण्डु, उदच्, कृष्ण इन शब्दों से परे भूमि शब्द से 'अ' प्रत्यय हो जाता है । जैसे-द्वयोर्भूम्योः समाहारो=द्विभूमम् (द्वंद्व), द्वे भूमी अस्य-द्वे भूमः (बहुव्रीहि), पाण्डुर्भूमिः (तत्पु०) पाण्डुभूमम् (द्वंद्व), पाण्डुभूमः (बहु) । नियम २२३-- (इच् युद्धे ८।३।६७) युद्ध के अर्थ में जिन शब्दों का समास किया जाता है उनसे 'इच्' प्रत्यय हो जाता है । जैसे—केशेषु च केशेषु च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं केशाकेशि । मुष्टिभिश्च मुष्टिभिश्च प्रहृत्य कृतं युद्धं-मुष्टामुष्टि, मुष्टीमुष्टि । यहां पूर्वपद में इकारान्त मुष्टि शब्द को (इच्यऽस्वरे दीर्घ आच्च ३।२।७३) सूत्र से दीर्घ और आकार आदेश हुआ है। दण्डादण्डि । मुसलामुसलि । यष्टायष्टि, यष्टीयष्टि । प्रयोगवाक्य चन्द्रेशः कुत्र एति ? राज्ञी पुत्रं सौति । महेशः दुग्धे शर्करां यौति । धर्मेशः गुरुं नौति । भरतः स्वपुरी एष्यति । त्वं कुत्र अगाः ? यः दुग्धे नीरं योति स दंडनीयोऽस्ति । नरेशः देवालयं गत्वा अर्हन्तं नौति । नवीनस्य अ?रुकम्, ऊर्णावरकं च कुत्रास्ति ? बालाय प्रच्छदं देहि । संस्कृत में अनुवाद करो जैन मुनि खडाउ नहीं पहनते । यह भिखारी की गुदडी है। उसके पास एक चादरा है । बालिका का घाघरा कहां है ? सैनिक टोप रखते हैं। आज कल लोग शिर पर टोपी नहीं रखते । शीला का दुपट्टा साफ है। कुछ लोग पतलून, पेंट और शेरवानी पहनते हैं । भरत की बटन टूटी हुई है। रमेश अपना बूंट स्वयं साफ करता है । स्त्रियां साडी, ब्लाउज और पेटीकोट पहनती हैं । सलवार और ओढनी का अधिक प्रचलन कहां है ? कई लोग सूती, कई लोग रेमशी और कई लोग नाइलोन के कपड़े पसन्द करते हैं । अशोक किसके पास पढेगा ? सोहन संस्कृत पढता था । तुम्हें प्राकृत पढनी चाहिए। सुशील अभी कहां गया था ? आज तुम कहां जाओगे ? धरती क्या उत्पन्न करती है। ग्वाले ने दूध में कितना पानी मिलाया है ? गुरु की स्तुति करो। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ लोई, गद्दा, रजाई, दरी, चादर, तकिया, स्वेटर। . २. समासान्त प्रत्यय किसे कहते हैं ? वे कौन-कौन से हैं और किस समास में कहां होते हैं ? ३. नीचे लिखे शब्दों का विग्रह करो प्रत्युरसं, द्वीपम्, त्रिधुरी, अनुसामं, कटाक्षः, अन्धतमसं, अवरहसः, अत्यध्वं । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३७ : उपसर्ग .शब्दसंग्रह अन्त्यज: (शूद्र) । चर्मकारः (चमार) । संमार्जकः (भंगी)। शाकुनिकः (बहेलिया)। अजाजीवः (गडरिया)। मायाकारः (जादूगर) । शौण्डिकः (सुराविक्रेता)। कर्मकरः (नौकर) । भारवाहः (कुली)। मालाकारः (माली)। कुलालः (कुम्हार)। लेपकः (पुताईवाला)। प्रेष्यः (चपरासी) वैतनिकः (वेतन पर नियुक्त नौकर)। तस्करः (चोर) । पाटच्चरः (डाकू) । ग्रन्थिभेदकः (गिरहकट)। मृगयुः (शिकारी)। मृगया (शिकार) । वागुरा (जाल)। - उपसर्ग •. प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर् दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, प्रति, परि, उप, अति, अपि, अभि, सु, उद्-ये शब्द (चादयो निपातः १।१।४०) सूत्र से निपात हैं। (प्रादिरुपसर्गः क्रियायोगे १।१।४१) सूत्र से ये जब क्रिया के साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनकी उपसर्ग संज्ञा होती है । (ऊर्याद्यनुकरणोपसर्गविडाचो गति र्धातोः प्राक् च ३३१११) इस सूत्र से उपसर्ग की गति संज्ञा भी होती है और धातु से पहले इनका प्रयोग होता है। (निपातस्वरादयोऽव्ययम् १।११४८) इस सूत्र से उपसर्गों की अव्यय संज्ञा होती है। अव्यय होने से इनके रूप में किसी भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता। दो उपसर्गों की या धातु के रूप के साथ उपसर्ग की संधि हो सकती है। प्र आदि उपसर्ग २२ हैं । धा और कृ धातु के योग में श्रत् शब्द की उपसर्ग संज्ञा होती है । अन्तर् शब्द की भी ङ और कि प्रत्यय के योग में तथा न को ण करने लिए उपसर्ग संज्ञा होती है । (श्रद्धा कृनोः १।१।४२, अन्तर्णत्वङकिषु १।१।४३)। धातु से पहले उपसर्ग लगाने से कहीं पर धातु का अर्थ बदल जाता है, कहीं पर विपरीत अर्थ हो जाता है और कहीं पर धातु के अर्थ की ही विशेषता होती है । प्र आदि उपसर्ग सभी धातुओं के साथ नहीं लगते। एक धातु के साथ भी सभी उपसर्ग नहीं लगते। किसी धातु के साथ एक दो उपसर्ग लगते हैं तो किसी के साथ दो से भी अधिक दस-पन्द्रह उपसर्ग लगते हैं । एक धातु के एक साथ एक, दो, तीन, चार उपसर्ग भी देखे जाते हैं । हन्हरणे का अर्थ है हरना। प्रहरति = प्रहार करना । व्यवहरति - व्यवहार करना अपहरति - अपहरण करना निहरति =निहार करना f Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग १२६ सहरति = संहार करना अध्याहरति -ऊपर से लेना अनुहरति -- सदृश होना . परिहरति छोडना विहरति --विहार करना - उपहरति -- भेंट करना आहरति -- आहार करना अवहरति -निकालना अभ्यवहरति -खाना नयति ले जाना समभ्यवहरति = खाग आनयति लाना व्याहरति -- बोलना प्रकरोति -- करना। उपसर्ग से परस्मैपदी धातु आत्मनेपदी बन जाती है और आत्मनेपदी परस्मैपदी । देखें पाठ ६० और ६१ । उपसर्ग के संयोग से धातुओं के अर्थ के लिए देखें परिशिष्ट नं० ५। प्रयोगवाक्य अन्त्यजेन सह मनुष्यवत् आचरणीयम् । चर्मकारः निर्माति दृतिम् । संमार्जकः शौचालयं संमार्जति । अजाजीव: अजान चारयितुं क्षेत्रे नयति । मायाकार: दर्शयति स्वहस्तलाघवम्। अस्मिन् नगरे कियन्तः संति शौण्डिका: ? कर्मकरः कार्यं तु करोति परन्तु स्वाभिमानेन । भारवाहः वहति केवलं भारम् । मालाकारः मालां ग्रथ्नाति विचित्रपुष्पैः । कुलालो भूत्वा कथं न निर्माति घटम् ? लेपक: भीति लिप्यति । प्रेष्यः आगन्तुकं किं कथयति ? मासावसाने वैतनिकः याचते स्ववेतनम् । तस्कर: नगरे कदा प्रविष्ट: ? पाटच्चरः दिवसे एव लुटयति इभ्यान् । मृगयुः वागुरां विस्तारयति मृगयार्थम् । ग्रंथिभेदकस्य किं कार्यमस्ति ? सीता फलमभ्यवहरति । पश्यतु कस्मात् कारणात् अध्यापक: प्रहरति रामचन्द्रम् । विहरन्ति साधवः अनुचतुर्मासं ग्रामानुग्रामम् । अपहरणकर्तारः वायुयानमपि अपहरन्ति शस्त्रशक्त्या। रात्री मुनयः नाहरन्ति । सुशीला मधुरं व्याहरति । परैः सह सम्यक् व्यवहरति स एवा सदगहस्थः । वाक्ये कर्तारं वा कर्म अध्याहरति । परद्रव्यं परिहरति आचार. वान् । मुनिधर्मचन्द्रः मुनिश्रीचन्द्रमनुहरति । आपणात विद्यार्थी पुस्तकानि आनयति । संस्कृत में अनुवाद करो शूद्र, चमार और भंगी भी धर्म कर सकते हैं। बहेलिया तोतों को पकड़ने के लिए जंगल में गया था। गडरिया गायों को खेतों में चराता है। जादूगर क्या दिखाता है ? शराब बेचने वालों के पास इतने व्यक्ति क्यों बैठे हैं ? रमेश के घर में कितने नौकर हैं ? कुली कितना भार उठायेगा ? माली बगीचे में फूल चुनता है । कुम्हार मिट्टी का घड़ा बनाता है। पुताईवाला कहां गया है ? इस स्कूल का चपरासी कौन है ? सुरेश की दूकान पर कितने नौकर वेतन पर नियुक्त है ? चोर और डाक भी सत्संगति से साधु बन जाते Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध हैं। गिरहकट ने कितने रुपये लिये ? शिकारी मृग को पकड़ने के लिए जंगल जाता है । मछुए की जाल में कितनी मछलियां आई ? अभ्यास १.प्र आदि शब्दों की कितनी संज्ञा होती है ? २. उपसर्ग संज्ञा किनकी होती है और कहां होती है ? ३. एक धातु के साथ कितने उपसर्ग लग सकते हैं। उससे लाभ क्या है ? ४. नीचे लिखे शब्दों के संस्कृत रूप लिखो ? चपरासी, डाकू, कुली, गडरिया, भंगी, पुताईवाला; जादूगर, जाल । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३८ : तद्धित १ (अपत्य) शब्दसंग्रह रक्तिका, गुंजा (रती) । माषः (माशा) । टंकः (चारमाशा) । षटंका (दो तोला) । कोलः, तोलः (तोला) । पाद:, कुडपः (पाव या २० तोला)। अर्धसेटकम् (आधासेर) । मेटकम् (सेर)। मनः (मन या चालीस सेर) । द्वयंगुलम् (एक इंच से कुछ अधिक) । गजः (गज) । चतुरांगुलः (गिरह सवा दो इंच) । धनु: (चार हाथ) । पादः (फुट) । मीलम् (मील) । घातु-रुदक्-अश्रुविमोचने (रोदिति) रोना। निष्वपंक्–शये (स्वपिति) सोना । चकासृक्-दीप्तौ (चकास्ति) दीप्त होना। रुद्, ष्वपंक और चकासृक् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या २३,८२,८३) । तद्धित तस्मै लौकिकवैदिकशब्दसंदर्भाय हितः तद्धितः । लौकिक और वैदिक शब्दों के संदर्भ के लिए हितकर हो उसे तद्धित कहते हैं। अथवा ताभ्यः प्रकृतिविकृतिभ्यो हितः तद्धितः । शब्दों की प्रकृति और विकृति के हित के लिए हो उसे तद्धित कहते हैं। तद्धित के प्रत्यय नाम के आगे ही लगते हैं। तद्धित में अनेक अर्थ हैं और प्रत्यय भी अनेक हैं । एक अर्थ में भी अनेक प्रत्यय लगते __ अपत्य का अर्थ है-संतान । पुत्र और पुत्री दोनों अपत्य हैं । पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि सब अपत्य होते हैं। प्रपौत्र से गोत्र प्रारंभ होता है, पुत्र और पौत्र से नहीं । गोत्र का नामकरण व्यक्ति के आधार पर हुआ है। जैसे गर्ग के प्रपौत्र आदि गार्ग्य कहलाते हैं, कश्यप के प्रपौत्र आदि काश्यप और भृगु के प्रपौत्र आदि भार्गव । (तस्यापत्ये) अकारान्त गोत्रवाची नाम को छोडकर षष्ठीअंत वाले नाम से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। (अतइञ्) गोत्र के आदि व्यक्ति का नाम अकारान्त हो तो उससे अपत्य अर्थ में इञ् प्रत्यय होता है । दशरथस्य अपत्यं =दाशरथिः का अर्थ हुआ दशरथ के पुत्र । जितने पुत्र हैं सब दाशरथि हैं। यह विशेषण है। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न में से किसी भी विशेप्य का विशेषण बन सकता है । दाशरथिः रामः । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ . वाक्यरचना बोध नियम नियम २२४ क-(शिवादेरण ६।२।४२) शिव आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । शैवः, प्रौष्ठः, भौमः ।। ख-(गोत्रे बिदादेः पौत्रादौ ६।२।५६) बिद आदि शब्द गोत्रवाची हों तो पौत्र आदि अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है। बिदस्य पौत्राद्यपत्यंबैदः । काश्यपः । भारद्वाजः । अपत्य अर्थ में (अतइन्) से इञ् प्रत्यय ही होगा। बिदस्य अपत्यं =बैदिः । : नियम २२५ क-(गर्गादेर्यञ् ६।२।५७) गोत्र अर्थ में होने वाले गर्ग आदि षष्ठी अंतवाले शब्दों से पौत्र आदि अपत्य अर्थ में यञ् प्रत्यय होता है। गर्गस्य अपत्यं पौत्रादि--गार्ग्यः । वात्स्यः । ख-(नडादिभ्य आयनण् ६।२।६८) नड आदि षष्ठ्यन्त शब्दों से पौत्र आदि अपत्य अर्थ में आयनण् प्रत्यय होता है। नडस्य पौत्राद्यपत्यंनाडायनः । चारायणः । आमुष्यायणः । नियम २२६-(द्विस्वरादनद्याः ६।२।८६) दो स्वर वाले स्त्रीप्रत्ययान्त अनदीवाची शब्दों से अपत्य अर्थ में एयण् प्रत्यय होता है। दात्तेयः, गौप्तेयः । सैतः, सान्ध्यः, माहः—यहां एयण् प्रत्यय नहीं हुआ है क्योंकि ये नदी के नाम हैं। नियम २२७-~(क्षुद्राभ्यो वा ६।२।१०४) जो स्त्री अंग से हीन हो या जिसका पति निश्चित न हो वह स्त्री क्षुद्रा कहलाती है। क्षुद्रावाची शब्दों से अपत्य अर्थ में एरण् प्रत्यय विकल्प से होता है, पक्ष में एयण् प्रत्यय भी। काणायाः अपत्यं =काणेरः, काणेयः । दासेरः, दासेयः । नाटेरः, नाटेयः । ... नियम २२८ क-(स्वसुरीयः ६।२।१०६) स्वसृ शब्द से अपत्य अर्थ में ईय प्रत्यय होता है । स्वस्रीयः । ख-(भ्रातुर्व्यश्च ६।२।१०७) भ्रात॒ शब्द से अपत्य अर्थ में व्य और ईय प्रत्यय होता है । भ्रातुः अपत्यं =भ्रातृव्यः, भ्रात्रीयः । ग-(श्वशुराद्यः ६।२।११४) श्वशुर शब्द से अपत्य अर्थ में य प्रत्यय होता है । श्वशुरस्य अपत्यं = श्वशुर्यः । नियम २२६-(मनोर्याणौ षुक् च ६।२।११७) मनु शब्द से य और अण् प्रत्यय होता है। जाति के अर्थ में षुक का आगम होता है। मनोरपत्यानि=मनुष्याः, मानुषाः। जहां जाति का अर्थ नहीं वहां मानवः, मानवाः। नियम २३०-(इतोऽनित्र : ६।२।६०) इञ् प्रत्यय अंत वाले शब्दों को छोडकर दो स्वरवाले इकारान्त शब्दों से अपत्य अर्थ में एयण् प्रत्यय होता है। नाभेरपत्यं =नाभेयः । आत्रेयः, आहेयः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १ (अपत्य) नियम २३१- (कुलादीनः ६।२।११६) कुल शब्द अंत वाले शब्द और कुल शब्द से अपत्य अर्थ में ईन प्रत्यय होता है। कुलीनः, बहुकुलीनः; क्षत्रियकुलीनः । आढ्यकुलीनः, राजकुलीनः । नियम २३२-(दुष्कुलादेयण ६।२।१२२) । दुष्कुल शब्द से अपत्य अर्थ में एयण और ईन प्रत्यय होता है । दौष्कुलेयः, दुष्कुलीनः । प्रयोगवाक्य काश्यपाः शिक्षिताः भवन्ति । सैतेयःलवः पित्रा स दृशः धनुर्विद्यायां प्रवीणः आसीत् । विद्यार्थिषु काणेरस्य किं अभिधानम् ? दासेयस्य सभायां महत्त्वं नासीत् । तव भ्रातृव्याः कियन्तः सन्ति ? मम स्वस्रीयेषु कः प्रथमः जातः ? कुलीनस्य चरित्रं सर्वे अनुकुर्वन्ति । गाग्र्ये प्रसिद्धः को जातः ? विदानां देवी का विद्यते ? रजन्याः श्वशुर्यः महेशः बुद्धिमान् निर्बलश्च अस्ति । भ्रात्रीयाः परस्परं कथं कलहायन्ते ? दाशरथिषु कस्य पूजा जायते साम्प्रतमपि ? गौप्तेया ललिता परीक्षायां उत्तीर्णा जाता वा न ? नाभेयः कोऽस्ति, किं त्वं जानासि ? बाल: रोदिति । भ्रातुः मृत्योः संवादं श्रुत्वासा अरोदत् । मा रुदिहि। बालिका रोदिष्यति। चेत सः परीक्षायामुत्तीर्णोऽभविष्यत् तदा न अरोदिष्यत् । भगिनी रात्रौ कुत्र अस्वपत् ? त्वं कदा स्वप्स्यसि ? पुरा अस्यां नगर्यां एकः बलवान् भूपः अचकात् । संस्कृत में अनुवाद करो सीमा को उसकी मां ने एक रती सोना और एक माशा चांदी दी है। रमेश को चार माशा घी चाहिए। बच्चे के लिए दो तोला दूध पर्याप्त नहीं है। रमा बाजार से एक तोला तैल, आधा सेर दही, और एक सेर मिठाई लायेगी। हमारे घर में महीने में एक मन गेहूं खाने के काम में आता है। सवा दो इंच जमीन के लिए इतना झगडा क्यों करते हो ? यह वस्त्र एक गज का है । रमा की साडी चार हाथ की है। सुजानगढ लाडनूं से कितनी मील दूर है ? तद्धति के प्रत्ययों का प्रयोग करो नगराज के पुत्र अशोक का स्वभाव कैसा है ? शिव के पुत्र गणेश बुद्धिमान् थे। शीला का पुत्र रमेश पढने में तेज है । दासी का पुत्र भी सुंदर है । प्रकाश राजेन्द्र की बहन का पुत्र है। विजय के पांच भतीजे हैं । मनु का पुत्र कौन है ? नाभि के पुत्र ऋषभ इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर थे। सांप के बच्चों को छोटा मत मानो। धातु का प्रयोग करो सीमा क्यों रोती है ? रात में बालक क्यों रोया ? दुःखद समाचार Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध सुनकर भी वह नहीं रोई। यदि तुम कार्य में सफल हो जाते तो नहीं रोते । आचार्य श्री कब सोते है ? मैं यहाँ नहीं सोऊंगा। मोहन कल कहां सोया था ? आकाश में सूर्य चमकता है। अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो अहो ! अयं काणेरोऽपि काणोऽस्ति । तस्य कुत्सिताचरणं दृष्ट्वा सोऽवदत् अयं दौष्कुलेयोऽस्ति । कोलीनः कदापि एतादृक् कार्यं न करोति । मोहनः विपणिमार्गे श्वशुर्यमपश्यत् । रामेयः कुत्र अवजत् ? छोगेय: कालुः तेरापथस्य अष्टमः आचार्यः आसीत् ।। २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस शब्द से कौन सा प्रत्यय किस अर्थ में हुआ है ? आहेयः, शैलेयः, रामेशिः, कानीनः, मानुषः, दुष्कुलीनः, गौप्तेयः, भ्रातृव्यः । ३. तद्धित किसे कहते हैं ? ४. गोत्र का प्रारंभ कहां से होता है ? ५. पुत्र (अपत्य) के अर्थ में अकारान्त शब्दों से कौन सा प्रत्यय होता है ? गौत्र अर्थ में किन शब्दों से कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ पाव, सेर, मन, ईंच, फुट, मील, रती। ७. रुद्, ष्वप् और चकासृक् धातु के द्यादि के रूप लिखो। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३९ : तद्धित २ (समूह) शब्दसंग्रह घटीयंत्रम् (घडी)। लेखनयंत्रम् (टाइपराइटर) । वार्तायंत्रम् (टेलीफोन) तापमापकम् (थर्मामीटर) । दूरवीक्षणम् (दूरबीन) । मुद्रणालयः (प्रेस) । शंपाव्यजनम् (बिजली का पंखा) । ध्वनिधानी (रिकार्ड) । ध्वनिक्षेपकयंत्रम् (रेडियो)। श्रुतियंत्रम् (लाउडस्पीकर) । ध्वनिमंजूषा (साउन्डवॉक्स) । समितिः (कमेटी)। प्रवापणं, प्रादेशनम् (चन्दा) । निर्वाचनं (चुनाव)। मंगलयात्रा (जुलूस)। सदस्यः, सभ्यः (सदस्य) । निवृत्तिः (रिपोर्ट)। प्रस्तावः (प्रस्ताव) । मतम् (वोट) । मोक्षयात्रा (शवयात्रा) । उपनेत्रम् (एनक)। धातु-जागृक्-निद्राक्षये (जागति) जागना। शासुक्-अनुशिष्टौ (शास्ति) अनुशासन करना । वचंक्-भाषणे (वक्ति) बोलना। जागृक्, शासुक् और वचंक् धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या २४, ८४, ८५)। (तस्यसमूहे) समूहे के अर्थ में प्रत्यय षष्ठी अन्त वाले नाम से ही होते हैं । समूह के अर्थ में बहुवचन का प्रयोग होता है परन्तु प्रत्यय लगने पर वह एक वचन भी समूह का वाचक बन जाता है। समूह प्रत्ययान्त शब्दों से क्रिया एक वचन और बहुवचन दोनों आती है। समूह अर्थ में अनेक प्रत्यय होते हैं । उनमें अण्, अकञ्, इकण, ण्य, य, ईय, एयञ्, ड्वण और अञ् प्रत्यय वाले शब्द नपुंसकलिंग में ही प्रयुक्त होते हैं । अल प्रत्ययान्त पुल्लिग और त्रल, कट्यल्, ल्य, लिन्, तल ये पांच प्रत्यय लित् होने के कारण स्त्रीलिंग में व्यवहृत होते हैं। नियय २३३- (गोत्रोक्षोष्ट्रोरभ्र राजराजन्यराजपुत्रवत्साजमनुष्यवृद्धादकञ् ६।३।१३) गोत्र प्रत्ययान्त शब्द, उक्षन्, उष्ट्र, उरभ्र, राज, राजन्य, राजपुत्र, वत्स, अज, मनुष्य, वृद्ध-इन शब्दों से समूह अर्थ में अका प्रत्यय होता है । गार्गकं, औक्षकं, औरभ्रक, राजकं, राजन्यकं, राजपुत्रकं, वात्सकं, भाजकं, मानुष्यक, वार्धकम् । नियम २३४- (कवचिहस्त्यचित्ताच्चेकण् ६।३।१५) कवचिन्, हस्तिन्न्, केदार और अचित्तवाची शब्दों से समूह अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । कावचिकं । हास्तिकं । कैदारिकं । आपूपिकम् । नियम २३५- (ग्रामजनबन्धुगजसहायेभ्यस्तल् ६।३।२६) ग्राम, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वाक्यरचना बोध जन, बन्धु, गज, सहाय शब्दों से समूह अर्थ में तल् प्रत्यय होता है । प्रत्यय 'ल् इत् जाने से स्त्रीलिंग होता है । जनानां समूहः जनता । ग्रामता, बन्धुता, गजता, सहायता । नियम २३६ - ( केशाण्ण्यो वा ६।३।१७ ) केश शब्द से समूह अर्थ में or और इण् प्रत्यय होता है। कैश्यं, कैशिकम् । नियम २३७- - ( गणिकायाः ६ । ३ । १८ ) गणिका शब्द से समूह अर्थ में प्रत्यय होता है । गाणिक्यम् । : नियम २३८ - ( धेनोरनञः ६ |३|१६ ) नव् समास रहित धेनु शब्द से समूह अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । धैनुकम् । नियम २३६ - ( अश्वादीयो वा ६।३।२० ) अश्व शब्द से समूह अर्थ में ईय और अण् प्रत्यय होता है । अश्वीयं, आश्वम् । नियम २४०० - ( पर्वा ड्वण् ६।३।२१ ) पर्शु शब्द से समूह अर्थ में प्रत्यय होता है । पार्श्वम् । - नियम २४१ – (गोरथवातात् त्रल्कटयलूलम् ६।३।२४) गो शब्द से त्रल्, रथ शब्द से कट्यल, और वात शब्द से ऊल प्रत्यय होता है । गोत्रा, रथकट्या, वातूलः । नियम २४२ - ( भिक्षादे : ६ |३|११ ) भिक्षा, सहस्र, क्षेत्र, करीष, अंगार, दक्षिणा आदि शब्दों से समूह अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होता है । भैक्षं यौवतं, साहस्र, क्षेत्रं, कारीषं, आंगारं, दाक्षिणं, योगं, खाण्डिकम् । नियम २४३ - ( श्वादिभ्योऽव् ६।३।२६ ) श्वा आदि शब्दों से समूह अन् प्रत्यय होता है । शौवं, दाण्डं, चाक्रम् । नियम २४४ -- ( खलादिभ्यो लिन् ६।३।२७) खलादि शब्दों से समूह अर्थ में प्रत्यय होता है । ल् इत् जाने से स्त्रीलिंग होता है । 'खलिनी, डाकिनी, कुण्डलिनी, कुटुम्बिनी । प्रयोगवाक्य भक्षुके कः तेजस्वी चकास्ति ? काकं कथमत्र आयान्ति ? हास्तिकं अरण्ये एव मिलन्ति । वृक्षे शौकं क्रीडन्ति । हास्तिके गजतायां को भेदः ? सदा सहायता कार्या । गाणिक्यं देशाय लज्जास्पदं भवति । कैशिके तैलं न प्रयुञ्जीत । अश्वीये चेटक: क्वास्ति ? गोत्रायां कापि कृष्णा अस्ति ? रथकट्यायां सौवणिकः रथः शोभते । निशायां त्वं कदा अजागः । द्राक् जाहिं । वृद्धः कदा जागरिष्यति । चेत् गृहस्वामी अजागरिष्यत् तदा चौर: वनं न अचोरयिष्यत् । भूपतिः प्रजाः शास्ति । त्वं स्वं शाधि । श्वः कः कथा वक्ष्यति ? ह्यः कः कथां अवक् । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित (२) समूह १३७ संस्कृत में अनुवाद करो विजय की घडी कहां खो गई ? टाईपराईटर तुम्हें क्या कहता था ? विमला का टेलीफोन आज क्यों नहीं आया ? थर्मामीटर से बुखार देखो। दूरबीन से दूर की वस्तु साफ दिखाई देती है। जैन विश्व भारती में एक प्रेस भी है। मेरे घर में एक बिजली के पंखे की जरूरत है। किसने गीतिकाओं का रिकार्ड किया है ? रेडियो और लाउडस्पीकर की क्या उपयोगिता है ? कमेटी ने कितना चंदा इकट्ठा किया है ? तेरापंथ में आचार्य का चुनाव कौन करता है ? दीक्षार्थी के जुलूस में बहुत लोग थे । सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट किसको दी ? इस प्रस्ताव पर कितने वोट आये ? दादाजी ने ऐनक कब लगाया ? तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो—कौवों में यह कौन सा पक्षी बैठा है ? ऊंटों का समूह कहां जा रहा है ? बैलों का समूह पानी पी रहा है। राजाओं का समूह युद्ध के लिए तैयार हो रहा है। इस गांव में वृद्धों का समूह निष्क्रिय है। मनुष्यों का समूह आज भगवान के दर्शन के लिए जा रहा है । वेश्याओं का समूह देश के लिए लज्जास्पद है। ____ धातु का प्रयोग करो--सुशील कब जगा ? दादाजी कब जगेंगे ? बच्चे यदि जग जाते तो पिता बाहर नहीं जाता। अपनी आत्मा पर शासन करो । मृदु बोलो । साध्वियां क्या बोलती थी ? कल कौन भाषण बोलेगा ? अभ्यास १. हिन्दी में अनुवाद करो आजकं कूपे व्रजति । कुर्कुरः आपूपिकममभक्षत् । कदारिके गौः प्राविशत् । आश्वस्य कोऽस्ति रक्षकः । वातूलः व्रजति । २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस शब्द से कौन सा तद्धित प्रत्यय हुआ है ? राजन्यकम्, कावचिकम्, कैश्यम्, वात्सकम्, आजकम्, रथकट्या, वाडवम्, मौदकम् । ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ__ थर्मामीटर, रेडियो, लाउडस्पीकर, जुलूस, चुनाव, घडी। ४. जागृक्, शासुक् और वचंक् धातु के द्यादि और तुबादि के रूप लिखो। ५. समूह अर्थ में कौन-कौन से प्रत्यय किस-किस लिंग में व्यवहृत होते हैं ? एक-एक उदाहरण लिखो। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ : ४० तद्धित (३) शब्दसंग्रह अधिकारी (अफसर)। पंजिकाध्यक्षः (रजिस्ट्रार)। परिचालक: (सुपरिटेन्डेट) । संचालकः (मेनेजर) । भीरकः (खजाने का बड़ा अफसर) । नष्किकः (टकसाल का बडा अफसर) । शौल्किकः (महसूल (राजस्व) का बडा अफसर) । अधिकर्मिकः (व्यापार का बडा अफसर)। अधिकर्णिकः (न्याय का बडा अफसर) । व्यवस्थापकः (डाइरेक्टर का बडा अफसर) । बोधनम् (नोटिस, सूचना) । रक्षकपुरुषः (पुलिसमेन) । रक्षकः, परिदर्शकः (पुलिस __नियम २४५– (निष्फले तिलात् पिजपेजौ ६।३।६५) फलरहित अर्थ में तिल शब्द से पिंज और पेज प्रत्यय होते हैं। तिलपिंजः, तिलपेजः (तिल का वह पौधा जो न फले और फूले) । नियम २४६-(अवेःसंघातविस्तारयोः कटपटौ ७।४।२५) अवि शब्द से संघात अर्थ में कट और विस्तार अर्थ में पट प्रत्यय होता है। अविकट: (अविसमहः), अविपट: (ऊनी वस्त्र) । नियम नियम २४५– (निष्फले तिलात् पिजपेजौ ६।३।६५) फलरहित अर्थ में तिल शब्द से पिंज और पेज प्रत्यय होते हैं। तिलपिंजः, तिलपेजः (तिल का वह पौधा जो न फले और फूले)। नियम २४६-(अवेःसंघातविस्तारयोः कटपटौ ७।४।२५) अवि शब्द से संघात अर्थ में कट और विस्तार अर्थ में पट प्रत्यय होता है। अविकटः (अविसमूहः), अविपट: (ऊनी वस्त्र) । नियम २४७-(भूतपूर्वे चरट ८।१।६५) भूतपूर्व के अर्थ में चरट् प्रत्यय होता है। अध्यापकचरः । शिष्यचर: । आढ्यचरः ।। नियम २४८-(पित्रो महट् ६।३।३१) पितृ और मातृ शब्द से पिता और माता अर्थ में डामहट् प्रत्यय होता है। पितुः पिता-पितामहः । - - गिनी। गानः पिता-मातामहः । मातः माता नियम २४६-(पितृमातृभ्या व्यडुला भ्रातार ५।२।२०) 11 . मातृ शब्द से भ्राता के अर्थ में क्रमशः व्य और डुल प्रत्यय होता है। पितुः भ्राता-पितृव्यः । मातुः भ्राता-मातुलः । नियम २५०-(गोः पुरीषे ६॥३॥५२) गो शब्द से पुरीष अर्थ में Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ( ३ ) मयट् प्रत्यय होता है । गोः पुरीषं गोमयं (गोबर) । नियम २५१ – (सास्य देवता ६।३।६६) देवता के नाम में प्रत्यय होने से वह शब्द उनके अनुयायियों का वाचक होता है । देवता का नाम प्रथमान्त हो तो षष्ठी के अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । अर्हत् देवता अस्य आर्हतः - जैनः । आग्नेयः — ब्राह्मणः । शैवः, बौद्धः, वैष्णवः । S १३६ नियम २५२ - ( ऋतुवायुपित्रुषसो यः ६।३।७३ ) ऋतु, वायु, पितृ उषस् शब्दों से देवता अर्थ में य प्रत्यय होता है । ऋतव्यं वायव्यं पित्र्यं, उषष्यम् । प्रयोगवाक्य हतभाग्यानां क्षेत्रे तिलपेजानां बाहुल्यं जायते । अविकटे कः वृद्धत्वं भजते । अविपटं शीतकाले प्रियं लगति । अस्य साधुचरस्य किं नामधेयं विद्यते ? मम पितामहस्य अभिधानं किं त्वं जानासि ? पितामही धार्मिकी आसीत् । मातुलः जुहारमलः व्यापारे पटुः आसीत् । मातुली ततोऽधिका गृहकुशला जाता । गोमयमपि रोगे उपयोगि भवति । कापिलानां किं चिन्हं अस्ति ? आर्हतां किं वैशिष्ट्यं विश्रुतमस्ति ? आत्मानं मृड्ढि । रजकः वस्त्राणि माष्टि । भ्रातृजाया इमानि वस्त्राणि अमार्क्षीत् । आत्मानं विद्धि । प्राणिनः माहि । रामः रावणं जघान । कविः कुत्र अस्ति । पुरा अनेके विद्वांसः बभूवुः । संस्कृत में अनुवाद करो आज यहां कौन सा अफसर आयेगा ? रजिस्ट्रार कहां है ? सुपरिटेन्डेन्ट क्या कह रहे थे ? मेनेजर को बुलाओ । खजाने का बडा अफसर कठोर है | टकसाल के बड़े अफसर का स्वभाव मृदु है । महसूल का बडा अफसर भद्र है । व्यापर का बडा अफसर रिश्वत खाने वाला नहीं है । न्याय के बड़े अफसर का न्याय सबके लिए समान है । डायरेक्टर के बड़े अफसर के बिना यहां कौन व्यवस्था करेगा ? तुमने कब नोटिस दी थी ? पुलिसमेन हर व्यक्ति को सावधान करते हैं । पुलिस इन्स्पेक्टर को सशक्त होना चाहिए । वारिस्टर विदेश कब जायेंगे ? मजिस्ट्रेट अपराधी को दंड देता है । तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो. 1 गांव के लोग गोबर से घर का आंगन लीपते हैं । इस खेत में पौधे तिलरहित हैं । ये मेरे भूतपूर्व अध्यापक हैं । पारसियों के देवता अग्नि हैं उन्हें एक शब्द में क्या कह सकते हैं ? गोबर बहुत उपयोगी और पवित्र माना जाता है । मामे का घर दूर है । मेरे दादा दयालु थे । दादी में धार्मिक संस्कार बचपन से थे । वायव्य और पित्र्य में क्या अन्तर है ? जिनके देवता जिन हैं उनका दृष्टिकोण अनाग्रही होना चाहिए । वायु जिनके देव हैं वे कौन हैं ? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध धातु का प्रयोग करो - शीला वस्त्रों को कब साफ करेगी ? उसने पापों की आलोचना करके अपनी आत्मा को साफ कर लिया। जिसने आत्मा को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया । बालक को किसने मारा ? तेरापंथ में आठ आचार्य हो गये हैं । आचार्य तुलसी नवमें आचार्य हैं । अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करोपार्षदः मृदुव्यवहारेण जनान् आकर्षन्ति । वैकथिकाः स्वसमयं न सार्थकीकुर्वन्ति । पांचालप्रदेशे बहूनि गोधूमशाकिनानि सन्ति । विनयचञ्चुः खेतसीस्वामी तेरापंथस्य गौरवः आसीत् । अयं मम शिष्यचरोऽस्ति । २. निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग करो और बताओ किस अर्थ में कौन सा प्रत्यय हुआ है ? स्वीयः, तिलपेजः, विद्याचणः, सभ्यः, अविपट: आढ्यचरः । ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ___ अफसर, संचालक, सूचना, न्याय का बडा अफसर, वारिस्टर, मजिस्ट्रेट । ४. मृज्, विद् धातु के तुबादि के रूप और हन् और अस् धातु के द्यादि के - रूप लिखो। ५. नीचे लिखे अर्थों में कौनसा प्रत्यय होता है ? भूतपूर्व, पुरीष, भ्राता, देवता। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ : ४१ तद्धित (४) शब्दसंग्रह चत्वरम् (आंगन) । रक्षा (राख) । दीपकः, स्नेहप्रियः (दीया) । कुञ्चिका (कुंजी) । द्वारयन्त्रम् (ताला)। आलकम् (आला)। शिक्थम् (छींका) । काचदीपका (लालटेन) । मञ्चः (मांचा) । तण्डुलः (चावल) । गोधूमः (गेहूं) । चणकः (चना) । यवः (जौ)। माषः (उडद)। मसूरः (मसूर) । सर्षपः (सरसों) । क्वथनम् (उबालना)। कुट्टनम् (कूटना) । मर्दनम् (गूंधना) । चालनम् (छालना) परिवेषणम् (परोसना) । अवघातः (छडना, छांटना)। धातु-इं —अध्ययने (अधीते) अध्ययन करना। शीक्-स्वप्ने (शेते) सोना । षूक्-प्राणिगर्भविमोचने (सूते) उत्पन्न होना। इंक्, शीङ्क् और षूक् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या २८,८७,८८)। नियम नियम २५३-(तेन रक्ते रागात् ६।३।१) तृतीयान्त शब्द रागवाची (जिससे रंगा जाए) हो तो रक्त (रंगने) के अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होते हैं । कुसुम्भेन रक्तं कौसुम्भं, हारिद्रं, काषायं, माञ्जिष्ठम् ।। नियम २५४-- (लाक्षारोचनाभ्यामिकण ६।३।२) लाक्षा, रोचना से रंगने के अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । लाक्षिकं, रौचनिकम् । नियम २५५ - (नीलपीताभ्यामको ६।३।४) रंगने के अर्थ में नील शब्द से अ और पीत शब्द से क प्रत्यय होता है । नीलं, पीतकम् । नियम २५६- (तद्वेत्त्यधीते ६।३।८५) वेत्ति (ज्ञाता) और अधीते (पढता है) अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। सूत्रं वेत्ति अधीते वा सौत्रः । व्याकरणं वेत्ति अधीते वा वैयाकरणः । नियम २५७- (संधिय्वोरैडौट च ८।४।२३) संधि से इ को य और उ को व् बना हो उससे आगे जो आदि स्वर हो उसको वृद्धि नहीं होती अपितु य को ऐट और व् को औट का आगम हो जाता है। व्याकरण में वि+आ मिलकर व्या बना है इसलिए य से आगे स्वर को वृद्धि न होकर ऐट का आगम हुआ है । वैयाकरण रूप बना है। नियम २५६ – (न्यायादेरिकण ६।३।८६) न्याय, मुहूर्त, निमित्त, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वाक्यरचना बोध चर्चा, आयुर्वेद, इतिहास, वर्षा आदि शब्दों से वेत्ति या अधीते अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। नैयायिकः, मौहूर्तिकः, नैमित्तिकः, चाचिक: आयुर्वेदिकः, ऐतिहासिकः ज्योतिषिकः, गाणितिकः, वार्षिकः । नियम २५६ (तत्र साधौ ७।३।१५) सप्तम्यन्त नाम से साधु (प्रवीण, योग्य, उपकारक) अर्थ में य प्रत्यय होता है । सभायां साधुः सभ्यः । कर्मणि साधुः कर्मण्यः । शरणे साधुः शरण्यः । नियम २६०-(पर्षदो ण्यणौ ७।३।१८) पर्षद् शब्द से साधु अर्थ में ण्य और ण प्रत्यय होता है। पर्षदि साधुः पार्षद्यः, पार्षदः । नियम २६१- (कथादेरिकण् ७।३।२१) कथा, विकथा, वितण्डा, वृत्ति, संग्रह, गुण, आयुर्वेद, गुड, इक्षु, वेणु, ओदन, संग्राम आदि शब्दों से साधु अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। काथिकः, वैकथिकः, वार्तिकः, आयुर्वेदिकः, सांग्रहिकः, सांग्रामिकः, बैतण्डिकः, गौणिकः । नियम २६२-(तस्मै हिते ७।३।३५) चतुर्थ्यन्त नाम से हित (उपकारक) अर्थ में ईय आदि प्रत्यय होते हैं । वत्सेभ्यो हितः-वत्सीयः, करभीयः, पित्रीयः, मात्रीयः । शुन्यः, शून्यः । आमिक्ष्यः, आमिक्षीयः । आमिक्षा (छेना)। नियम २६३-(शरीरावयवाद्यः ७।३।३७) शरीर के अवयववाची शब्दों से हित अर्थ में य प्रत्यय होता है । दन्तेभ्यो हितं दन्त्यं, कर्ण्य, कण्ठ्यं, ओष्ठ्य म् । नियम २६४---(अजाविभ्यां थ्यः ७।३।३६) अज, अवि शब्द से हित अर्थ में थ्य प्रत्यय होता है । अजेभ्यो हितं अजयं, अविथ्यम् । नियम २६५-(खल-यव-माष-तिल-वृष-ब्रह्मरथात् ७।३।३८) खलादि शब्दों से हित अर्थ में य प्रत्यय होते है। खल्यं, यव्यं, माष्यं, तिल्यं, वृष्यं ब्रह्मण्यं, रथ्यम् । नियम २६६– (क्षेत्रे शाकटशाकिनी ७।३।७६) क्षेत्र अर्थ में शाकट, शाकिन प्रत्यय होते हैं । इक्षूणां क्षेत्रं इक्षुशाकटं, इक्षुशाकिनम् । मूलकशाकटं, मूलकशाकिनम् । सर्षपशाकटं, सर्षपशाकिनम् । नियम २६७-(तेन वित्ते चञ्चुचणौ ७।४।१६) तृतीयान्त शब्द से वित्त (ज्ञात, प्रकाश) अर्थ में चञ्चु और चण प्रत्यय होते हैं । विद्यया वित्तः विद्याचञ्चुः, विद्याचणः । केशचञ्चुः, केशचणः । प्रयोगवाक्य हारिद्रं वस्त्रं कीदृशं पीतं भवति ? इदं माञ्जिष्ठं वर्तते न तु लाक्षिकम् । पीतकं परिदधाति तथापि नो पीताम्बरो कथमेतत् ? आयुर्वेदिकोपि गाणितिको . भवितुं इच्छति । नैयायिकस्य शंकरस्य मंदबुद्धिः कथं जाता ? अस्मिन् नगरे Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धित (४) कियन्तः पार्षदाः सन्ति ? आयुर्वेदिकोपि न आयुर्वेदिकः । मात्रीयो रामः कथं क्षुधां सहते ? कर्ण्य यंत्रं क्व उपलभते ? चत्वरे अजथ्यस्य उपलब्धिः भविष्यति । केशचञ्चुः लोकेशः अद्य भाषणं दास्यति । रक्ताङ्गशाकटं कि क्या कदापि दृष्टम् ? नैमित्तिकः भवन्तं किमवोचत् ? यः चाचिकः स चर्चा कर्तुं व्रजेत् । गुरोः पार्वे महेन्द्रः किं अध्येष्यते ? प्रातः सुरेन्द्रः किं अध्येत ? श्यामा सूतं असूत । बाल: रजन्यां कुत्र अशेत ? संस्कृत में अनुवाद करो रमेश आंगन में क्यों बैठा है ? साधु राख से केश लुंचन करते हैं। दीया कब तक जलेगा ? ताले की कुंजी कहां है ? इस मकान में बहुत आले हैं। छींके से लड्डू किसने लिये हैं ? लालटेन में तैल नहीं है । तुम्हारे घर में कितने मांचे और खाट हैं ? राजस्थानी लोग चावल, गेहूं और चना खाते हैं। पंजाब के लोग सरसों का साग खाते हैं । मेवाड के लोग उडद की दाल खाते हैं । घोडे को जौ प्रिय है । क्या तुम्हें मसूर की दाल पसन्द है ? पानी को उबालने से दूषित कीटाणु नष्ट हो जाते हैं । गेहूं को कूटना और आटे को गूंधना भी एक कला है । उडद की दाल में से सरसों को छांटना सहज नहीं है । पानी को छालना (छानना) सद्गृहस्थ का कर्तव्य है। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो इसमें कौन सा वस्त्र लाक्षा से रंगा हुआ है ? कषाय से क्या रंगा जाता है ? हरिद्रा से रंगा हुआ वस्त्र बहुत जल्दी साफ हो जाता है। वह ज्योतिष में विश्रुत है । मुनि राजकर्ण चर्चा में विश्रुत है । यह भोजन साधु के लिए हितकर है। विद्यासागर गणित विद्या में प्रसिद्ध है। कण्ठ के लिए हितकर हो वह पेय पीओ। शरण में आए हुए का वह उपकारक है। सभा में वह प्रवीण है । व्यवहार में वह प्रवीण है । गुण के योग्य व्यक्ति को क्या कहते हैं ? निमित्त का ज्ञाता आज कौन है ? धातु का प्रयोग करो तुमने संस्कृत किसके पास पढी ? आलसी क्या पढेगा ? रमेश कहां सोयेगा ? सीमा के पुत्र उत्पन्न हुआ है। दर्शनार्थी सुधर्मा सभा में सोते हैं। सुशीला के एक भी पुत्र पैदा नहीं हुआ है । अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्य में प्रयोग करो और बताओ किस नियम से इनमें प्रत्यय हुआ है ? वैष्णवः, उषष्यं, शैवः, आग्नेयः, आयुर्वेदिकः, गाणितिकः, वैयाकरणः, मौहूर्तिकः, कौसुम्भं, पीतकं, वार्षिकः, कर्मण्यः, पार्षद्यः, वार्तिकः, करभीयः, शून्यः, ओप्ठ्यम् । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ २. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ परोसना, राख, दीया, ताला, छींका, चावल, जौ, कूटना आंगन । ३. इंङ्क, शीङ्क और षूक धातु के तिबादि द्यादि तथा णबादि के रूप लिखो । वाक्यरचना बोध - ४. हिंदी में अनुवाद करो वैयाकरणस्य पार्श्वे व्याकरणं पठ । विनयचणं खेतसीस्वामिनं किं त्वं जानासि ? हारिद्रं वसनं मह्यं न रोचते । तव नीशारः कुत्रास्ति ? अहं इदं पुस्तकं न अधीयाय । ते I कुत्र शेरते ? ५. नीचे लिखे अर्थों में कौन सा प्रत्यय होता है ? रंगने के अर्थ में, तवेत्त्यधीते, साधु अर्थ में, हित, वित्त । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४२ : तद्धित (५) शेषाधिकार शब्दसंग्रह आयः (आमदनी)। उद्धारः, ऋणम् (उधार)। धारकः (किरायेदार) । संवित् (ठेका) । कृतसंवित् (ठेकेदार) । अस्तोकः (थोक) । ग्राहकजीवी (दलाल) । प्रतिनिध्यम् (दलाली)। टंकम् (नकद) । प्रतिरूपम् (नमूना) । ख्यापना, ज्ञापना (नोटिस) । गोणी (बोरा, बोरी) वृद्धिः (ब्याज) । अर्घः (मूल्य) । विनिमयदलम् (हुंडी)। धातु-ईडक्-स्तुतौ (ईट्टे) स्तुति करना। आसङ्क्-उपवेशने (आस्ते) बैठना । चक्ष–व्यक्तायां वाचि (आचष्टे) बोलना। ईड्, आस् और चक्ष् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ८६,२६,६०)। शेष अर्थ (जात, भव, क्रीत, कुशल आदि) __ शेष अर्थ में अनेक अर्थ हैं। उनमें जात, भव, क्रीत कुशल आदि प्रमुख हैं। इनमें एक-एक अर्थ में भी प्रत्यय होते हैं। शेष अर्थ में जो प्रत्यय होते हैं वे इन सारे अर्थों में होते हैं। जहां जो अर्थ उपयुक्त बैठता हो वहां वह लगा लेना चाहिए। नियम २६८-(राष्ट्रादियः ६।४।२) राष्ट्र शब्द से शेष अर्थ में इय प्रत्यय होता है । राष्ट्र जातः, भवः, क्रीतः कुशलो वा राष्ट्रियः । नियम २६९-(पारावारेभ्य ईनः ६१४१३) पार, अवार, पारावार, अवारपार इनसे शेष अर्थ में ईन प्रत्यय होता है। पारीणः, अवारीणः, पारावारीणः, अवारपारीणः । नियम २७०-(धुप्रागपागुदक्प्रतीचो यः ६।४।४) दिव, प्राच, अपाच्, उदच, प्रत्यच् इन शब्दों से शेष अर्थ में य प्रत्यय होता है । दिवि भवे दिव्यं, प्राचि प्राग वा भवं प्राच्यं, अपाच्यं, उदीच्यं, प्रतीच्यम् । नियम २७१-- (ग्रामादीनञ् च ६।४।५) ग्राम शब्द से ईनञ् और य प्रत्यय होता है। ग्रामीणः, ग्राम्यः । नियम २७२- (नद्यादेरेयण ६।४।६) नदी आदि शब्दों से एयण प्रत्यय होता है । नद्यां जातो भवो वा नादेयः । माहेयः । वाराणसेयः, श्रावस्तेयः, कौशाम्बेयः, वानवासेयः आदि । . नियम २७३-(दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण् . ६।४।१०) दक्षिणा; Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ वाक्यरचना बोध पश्चात् , पुरस् शब्द से त्यण् प्रत्यय होता है दाक्षिणात्यः, पाश्चात्यः, पौरस्त्यः । नियम २७४- (क्वामेहत्रतसस्त्यप् ६।४।१५) क्व, अमा, इह, और त्र और तस् प्रत्ययान्त शब्द से त्यप् प्रत्यय होता है । क्वत्यः, अमात्यः, इहत्यः, कुत्रत्यः, यत्रत्यः, तत्रत्यः, कुतस्त्यः, ततस्त्यः । नियम २७५- (ऐषमोह्यःश्वसो वा ६।४।१८) ऐषमस्, ह्यस्, श्वस् शब्दों से शेष अर्थ में त्यप् और तन प्रत्यय होता है। ऐषमस्त्यं, ऐषमस्तनं । ह्यस्त्यं, ह्यस्तनं । श्वस्त्यं, श्वस्तनम् । निगम २७६-(णो रण्यात् ६।४।२१) अरण्य शब्द से शेष अर्थ में ण प्रत्यय होता है। आरण्याः पशवः । नियम २७७-(भवतोरिकणीयसौ ६।४।३०) भवत् शब्द से इकण, ईयस् प्रत्यय होता है । भावत्कं, भावत्की । भवदीयः, भवदीया ।। नियम २७८- (परजन राज्ञोऽकीयः ६।४।३१) पर, जन, राजन् शब्द से अकीय प्रत्यय होता है। परकीयः, जनकीयः, राजकीयः । नियम २७६-(वृद्धादीय: ६।४।३२) वृद्ध संज्ञा से शेष अर्थ में ईय प्रत्यय होता है। त्यदादिगण और जो संज्ञा व्यवहार में प्रयोग में आती है उसकी वृद्ध संज्ञा होती है । चैत्रीयः, मोहनीयः, मैत्रीयः, तदीयः, मदीयः । नियम २८०-(वा युष्मदस्मदोजीनीयुष्माकास्माकौ च ६।४।६६) युष्मद् और अस्मद् शब्द से शेष अर्थ में अञ्, ईनञ् प्रत्यय विकल्प से होता है । उसके योग में युष्मद् को युष्माक, अस्मद् को अस्माक आदेश होता है । युवयोर्युष्माकं वा इदं यौष्माकं, यौष्माकीणं, युष्मदीयम् । आस्माकं, आस्माकीनं, अस्मदीयम् । नियम २८१- (तवकममकावेकत्वे ६।४।७०) शेष अर्थ में एकत्ववाची युष्मद् और अस्मद् से अञ् और इनन् प्रत्यय होता है, तथा युष्मद् को तवक और अस्मद् को ममक आदेश होता है। तव अयं तावकः, तव इदं तावकं, तव इयं तावकी। इसी प्रकार मामकः मामकः, मामकी । इसी प्रकार ईनन् प्रत्यय होता है। तव अयं तावकः, तावकीनं, त्वदीयम् । मामकः, मामकीनं, मदीयम् । नियम २८२-(अन्तादिमध्यान्मः ६।४।७६) अंत, आदि और मध्य शब्द से शेष अर्थ में म प्रत्यय होता है । अन्तमः, आदिमः, मध्यमः ।। नियम २८३-(पश्चादग्रान्तादिम: ६।४।७८) पश्चाद्, अग्र और अन्त शब्द से शेष अर्थ में इमः प्रत्यय होता है। पश्चिमः, अग्रिमः, अन्तिमः । (अनाराच्छश्वत् पृथगोऽव्ययस्य ८।४।६६) से अव्यय की टि का लोप करने पर पश्चिमः । 'नियम २८४- (वर्षाकालेभ्यः इकण् ६।४।८१) वर्षा और कालवाची Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित (५) शेषाधिकार १४७ शब्दों से इकण् प्रत्यय होता है । वर्षासु भव:-वार्षिकः । मासिकः, पाक्षिकः, दैवसिकः, अर्द्धमासिकः, आह्निकः, रात्रिकः । प्रयोगवाक्य राष्ट्रियाः सर्वदा स्वराष्ट्रस्य सम्मानं वाञ्छन्ति । साधवः दिव्यं सौख्यं न कांक्षन्ति । प्राच्या रक्तिमा सर्वेभ्यः रोचते। केचित् ग्रामीणाः कृषि कुर्वन्ति । नादेयं नीरं मधुरं भवति । वारणसेयोऽयं पुरुषः विद्वान्नस्ति । पाश्चात्या संस्कृतिः शनैः शनैः भारतवर्षेऽपि समागता। यत्रत्योऽयं मर्त्यः तत्रत्यं इदं वस्त्रमस्ति । परकीयं वस्तु विना आज्ञया यः गृह्णाति सोऽस्ति स्तेनः । भावत्केन ज्ञानेन सर्वेऽपि प्रभाविताः जाताः। इदं यौष्माकीणं इदं आस्माकीनं च इति विभेदरेखा ज्ञानिनः हृदये न भवति । अहं सर्वदा जिनं ईडे । त्वं जिनं ईडिष्व । सुव्रतः कुत्र आसिष्ट । आचार्य भिक्षुः साधून किं आचख्यौ ? त्वं किं आख्यासि ? संस्कृत में अनुवाद करो दिलीप की मासिक आमदनी कितनी है ? संपत से तुमने कितने रुपये उधार लिये ? किरायेदार कब मकान खाली करेगा? इस मकान का ठेका किसने लिया है ? ठेकेदार कब आयेगा ? जयपुर में थोक व्यापारी कितने हैं ? इस वस्तु का दलाल कौन है ? मोहन को तुमने कितने नकद रुपये दिये थे ? व्यापारी को चावल का नमूना कौन दिखायेगा ? यह नोटिस कहां से आया है ? बोरी में क्या है ? सोहन मोहन के रुपयों का ब्याज कब देगा ? गेहूं का क्या भाव है ? यह हुंडी नकली है । तद्धति के प्रत्ययों का प्रयोग करो ग्राम में रहने वाले व्यक्ति भद्र होते हैं। नदी में होने वाली धूल का भी उपयोग होता है। हमें गर्व है हमारे राष्ट्र में उत्पन्न व्यक्तियों का यश सारे विश्व में व्याप्त है। यह वस्तु यहां पैदा हुई है। आचार्य भिक्षु कहां के निवासी थे ? मेंढक वर्षा में उत्पन्न होता है। आपकी पुस्तक कहां है ? मेरी दवात कहां है ? आदिमंगल, मध्यमंगल और अंत मंगल कौन सा है ? धातु का प्रयोग करो हमें सदा वीतराग देव की स्तुति करनी चाहिए। क्या तुम यहां बैठोगे ? यहां नवरत्न बैठा था। पिताजी ने तुमको क्या कहा ? सभा में रमेश क्या बोलेगा ? अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो शस्तनः बालः कोऽस्ति ? श्वस्त्योऽयंशिशुः । चैत्रीयं गृहम् । भावत्कं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ वाक्यरचना बोध कौशलं दृष्ट्वा, द्विधा मोदो जायते । डा० राधाकृष्णः दाक्षिणात्यः आसीत् । यौष्माकेन माधुर्येण नैपुण्येन च सर्वः विवादः विनष्टः । त्वदीया भगिनी मदीया भातृजाया अस्ति । साधवः प्रतिदिनं देवसिकं रात्रिकं च प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति । २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस अर्थ में कौन-सा प्रत्यय हुआ है पाश्चात्यः, पौरस्त्यः, ग्रामीणः, माहेयः, पारावारीणः, जनकीयः, ततस्त्यः, पाक्षिकः। ३. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओप्रतिरूपम, संवित, ख्यापना, गोणी, वृद्धिः, विनिमयदलम् । ४. ईड्, आस् और चक्ष धातु के तुबादि, द्यादि और स्यत्यादि के रूप लिखो। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४३ : तद्धित ६ (शेषाधिकार २) शब्दसंग्रह खुरली (शस्त्राभ्यास का स्थान)। प्रगंडरः (किले की दीवार) । डमरः (गदर)। सज्जम् (शस्त्र आदि से युक्त)। आवेष्टकः (घेरा)। यानम् (चढाई)। पताका (झंडा)। खूरिका (परेड करने का मैदान) । उपरक्षणम् (पहरा) । द्वैधम् (फूट डलवाना)। डिबः (बिना हथियारों का युद्ध) । विद्रवः (भागना) । विद्रावणम् (भगाना) । प्रचक्रम् (मार्च करना, प्रस्थित सैन्य) । व्यूहः (मोर्चा) । आसारः (शत्रु को घेर लेना, आक्रमण) । संधिः (सुलह) । धातु—ष्टुन्क्-स्तुतौ (स्तौति, स्तुते) स्तुति करना। बॅन्क्व्यक्तायां वाचि (ब्रवीति, ब्रूते) बोलना। द्विषंन्क्-अप्रीती (द्वेष्टि, द्विष्टे)। __ष्टु, ब्रू और द्विष् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ३०,३१,६१)। नियम २८५-(क्रतुनक्षत्रसंध्यादेरण ६।४।८६) ऋतुवाची, नक्षत्रवाची, संध्यादि शब्दों से शेष अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । ग्रीष्मे भवः ग्रैष्मः । वासन्तः, शैशिरः । पुष्ये भवः पौषः । आश्विनः, रौहिणः । सान्ध्यः, सान्धिवेलः, आमावास्यः, शाश्वतः । नियम २८६- (तिष्यपुष्ययोर्नक्षत्रेणि ८।४।७६) तिष्य, पुष्य के य का लोप हो जाता है अण् प्रत्यय परे होने पर । तिष्ये भवः तैषः । पौषः । नियम २८७-(तत्र जाते ७।१।१) सप्तम्यन्त नाम से जात (स्वयं पैदा होना) अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। कुछ शब्दों से अनेक अर्थों में एक ही प्रत्यय होता है। यथाविहित का अर्थ है उन शब्दों से वे ही प्रत्यय होंगे और वही रूप बनेगा। पाठ ४६ देखें । मथुरायां जातः माथुरः । आग्नेयः, कालेयः, स्त्रैणः, पौंस्नः, राष्ट्रियः, ग्रामीणः, ग्राम्यः । नियम २८८-(कृतलब्धक्रीतसंभूतेषु ७।१।१७) सप्तम्यन्त नाम से कृत, लब्ध, क्रीत, संभूत इन अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है। मथुरायां कृतः, लब्धः, क्रीतः, संभूतः वा माथुरः । नियम २८६- (कुशले ७।१।१८) सप्तम्यन्त नाम से कुशल अर्थ में अण, इय आदि प्रत्यय होते हैं । मथुरायां कुशलः माथुरः। नियम २६०--(भवे ७।१।३१) सप्तम्यन्त नाम से भव (रहना) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वाक्यरचना बोध अर्थ में अण, इय आदि प्रत्यय होते हैं । मथुरायां भवः माथु रः । भारतीयः । नियम २६१- (दिगादेर्यः ७।१।३२) दिश्, वर्ग, गण, पक्ष, मित्र, मेधा, न्याय, देश, काल, आकाश, अप्, मेघ, वंश आदि शब्दों से भव अर्थ में य प्रत्यय होता है । दिश्यः, वर्दी, गण्यः, देश्यः ।। नियम २९२-(शरीरावयवात् ७।१।३३) शरीर के अवयव से भव अर्थ में य प्रत्यय होता है । दन्त्यः, कर्ण्यः, ओष्ठ्यः, मुख्यः, मूर्धन्यः । नियम २६३-(दृतिकुक्षिकल शिवस्त्यहेरेयण ७।१।३५) दृति, कुक्षि, कलशि, वस्ति, अहि शब्दों से भव अर्थ में एयण प्रत्यय होता है । दार्तेयं जलं । कौक्षेयः व्याधिः । कालशेयं तकं । वास्तेयं मूत्रं । आहेयं विषम् । नियम २६४-(मध्यादिनणणेया मुम चास्य ७।११४८) मध्यशब्द से भव अर्थ में दिनण्, ण, ईय प्रत्यय और मुम् का आगम होता है। मध्ये भवः माध्यन्दिनः, माध्यमः माध्यमीयः । नियम २६५– (ईयो मत्वर्थजिह्वामूलाङ्गुलिभ्यश्च ७१।४६) मत्वर्थ, जिह्वामूल, अंगुलि, मध्य शब्दों से भव अर्थ में ईय प्रत्यय होता है। मत्वर्थीयः, जिह्वामूलीयः, अङ गुलीयः, मध्यीयः । नियम २९६- (वर्गान्तात् ७।१।५०) वर्गअंत वाले शब्दों से भव अर्थ में ईय प्रत्यय होता है । कवर्गीयः, तवर्गीयः, पवर्गीयः । नियम २६७-(प्रभवति ७।१।६६) पंचमी विभक्ति अन्त वाले शब्दों से प्रभवति (प्रथमं प्रकाशमानेऽर्थे) अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। हिमवतः प्रभवति हैमवती गंगा । दारदी सिन्धुः । काश्मीरी वितस्ता । नियम २६८-(अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ७।११७४) द्वितीयान्त शब्द से अधिकृत्य कृते ग्रन्थे (जिस विषय को लेकर ग्रन्थ बनाया जाए) अर्थ में अण आदि प्रत्यय होते हैं। सुभद्रां अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौभद्रः । भाद्रः, चान्दनः, बालः, सैतः । . नियम २६६-(तेन प्रोक्ते ७।१।६१) तृतीयान्त शब्द से प्रोक्त (व्याख्यात) अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होते हैं। गणधरेण प्रोक्तं गाणधरं द्वादशाङ्गम् । भद्रबाहुना प्रोक्तं-भाद्रबाहवानि उत्तराध्ययनानि ।। नियम ३००-(कृते ७।१।१०६) तृतीयान्त शब्द से कृत (उत्पादित, बनाया हुआ) अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होता है। शिवेन कृतो ग्रन्थः शैवः । सिद्धसेनीयः स्तवः । नियम ३०१- (तस्येदम् ७।१।११२) षष्ठयन्त नाम से इदं अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है। भिक्षोः इदं भैक्षवं । माथुरं, बार्हस्पत्यं, पाटलिपुत्रकः, प्राकारः, कालेयः, आग्नेयं, राष्ट्रिय, पारावारीणम् । नियम ३०२-(निशाप्रदोषात् ६।४।८४) कालवाची निशा, प्रदोष शब्द से शेष अर्थ में इकण और अण् प्रत्यय होता है। नैशिकः, नैशः । प्रादो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ६ (शेषाधिकार २) १५१ षिकः, प्रादोषः । नियम ३०३-(सायं-चिरं-प्राह णे-प्रगेऽव्ययेभ्यस्तनट ६।४।६०) कालवाची इन अव्ययों से, कालवाची और अव्ययों से भी शेष अर्थ में तनद प्रत्यय होता हैं। सायंतनं, चिरंतनं, प्राह णेतन, प्रगेतनं, दिवातनं, दोषातनं प्रातस्तनं, प्राक्तनम् । प्रयोगवाक्य ___ष्मं औष्ण्यं सर्वान् पीडयति । माथुरोऽयं पुरुषः भद्रोऽस्ति। वयं सर्वे भारतीयाः स्मः । दन्त्यां कयां ओष्ठ्यां मूर्धन्याञ्च पीडामपनेतुं जनाः चिकित्सकस्य पावें गच्छन्ति । ग्रीष्मतौं दिवसस्य माध्यमतापः तीव्रतरो भवति । चान्दनबाले ग्रन्थे अनेकाः घटनाः शिक्षाप्रदा सन्ति । सिद्धसेनीयः स्तवः पठनीयोस्ति । भैक्षवं गणं नन्दनवनतुल्यं चकास्ति । रवीन्द्रः प्रतिदिनं जिनं स्तौति स्तुते वा। द्रौपदी जिनं अस्तावीत् अस्तोष्ट वा। अहं जिनं स्तोष्यामि स्तोष्ये वा । मोहनः त्वां किमवोचत् अब्रूत वा। कटु मा ब्रूहि ब्रूष्व वा । अजितः किं वक्ष्यते वक्ष्यति वा । सा मां द्वेष्टि द्विष्टे व।। स: तं अद्विक्षत् अद्विक्षत वा । मा द्विड्ढि । संस्कृत में अनुवाद करो शत्रुसेना किले की दीवार तोडने का प्रयास कर रही है। सेना नगर के चारों ओर घेरा डाली हुई है। अशोक ने कलिंग पर क्यों चढाई की ? दुर्जनता पर सज्जनता का विजय-झंडा सदा लहरायेगा। सेना के लिए परेड करने का मैदान सुरक्षित रहता है। रात में पहरेदार पहरा दे रहा था। दुर्जन लोग फूट डलवाने का कार्य करते हैं। त्रिपृष्ठ वासुदेव ने सिंह के साथ बिना हथियारों का युद्ध किया। लडकों को भगाना डाकुओं के लिए सहज कार्य है। लडके और लडकी का घर से भागना अच्छा कार्य नहीं है। सेना मोर्चे पर डटी हुई है । राणाप्रताप ने प्राणान्त तक अकबर से सुलह नहीं की। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो रात में अन्धकार होता है। प्रदोष वेला में होने वाला कार्य बताओ। प्रातः होने वाला भ्रमण स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। पोष में होने वाली शीतल हवा किसे सुहाती है ? यह फल मथुरा में उत्पन्न हुआ है। आंख, कान और नाक में होने वाली पीडा असह्य होती है। पूर्वदिशा में होने वाली लालिमा सबको अच्छी लगती है। मतु अर्थ में होने वाले कौन से प्रत्यय हैं ? गंगा हिमालय से उत्पन्न होती है। यह ग्रन्थ भरत को लेकर बनाया गया है। महात्मा गांधी भारत में उत्पन्न हुए थे। यह ग्रन्थ आचार्य तुलसी द्वारा कृत है । यह संघ आचार्य भिक्षु का है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वाक्यरचना बोध धातु का प्रयोग करो तीर्थकरों की स्तुति करो। जो अहंतों की स्तुति करेगा वह संसार से तर जायेगा। झूठ मत बोलो। बच्चे क्या बोलते थे ? किसी से द्वेष मत करो। अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो.' नैशे सघनतमसि चौराः चौयं कुर्वन्ति । आचार्यस्य दिवातनानि कार्याणि .. कानि कानि सन्ति ? वासन्तः पवनः कस्मै न रोचते ? माध्यमानां तीर्थ कराणां साधवः चतुर्यामधर्म पालयन्ति । कालवोऽयं कालुयशोविलासः तेरापंथसंघस्य अमूल्यनिधिरस्ति । भैक्षवा इमा वाणी अस्माकं पथदर्शिनी चकास्ति । २. निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग करो और बताओ किस अर्थ में कौन-सा ३. निम्नलिखित शब्दो के अर्थ बताआ. आवेष्टकः, खूरिका, द्वैधम्, विद्रवः, खुरली, आसारः । ४. ष्टु, ब्रू और द्विष् धातु के तिबादि, द्यादि और स्यत्यादि के रूप लिखो। शार५७.५01. 01 . .. ... ... . . . . वैज्ञानः, जायाचार्यः, भारमलः, भैक्षवः, भैक्षवम् ।। ३. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ. आवेष्टकः, खूरिका, द्वैधम्, विद्रवः, खुरली, आसारः । ४. ष्टु, ब्रू और द्विष् धातु के तिबादि, द्यादि और स्यत्यादि के रूप लिखो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४४ : तद्धित ७ (इकण अधिकार) शब्दसंग्रह अंगुलीयकम् (अंगूठी) । काचवलयम् (चूडी)। कटिसूत्रम्, मेखला (करधन)। किंकिणी (धुंघरु)। केयूरम् (बाजूबन्द) । पादाभरणम् (लच्छा) । ग्रैवेयकम् (हंसुली) । कुंडलम् (कान की बाली) । ललाटाभरणम् (टिकुली) । एकावली (एकलड का हार) । मुद्रिका (नामांकित अंगूठी) । ओष्ठरञ्जनम् (लिपस्टिक)। कपोलरञ्जनम् (रूज़)। नखरंजनम् (नेल पालिश) । फेनिलः (साबुन) । रोममार्जनी (ब्रुश) । दंतचूर्णम् (टूथपाउडर) । दंतधावनम् (दांत का ब्रुश, दातून) । दंतपिष्टकम् (टूथपेस्ट)। धातु-लिहंन्क्-आस्वादने (लेढि, लीढे)—आस्वादन करना । ओहांक-त्यागे (जहाति) छोडना । जिंभीक्-भये (बिभेति) डरना। लिह , ओहांक् और भी धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ६२, ६३,३३) । नियम __ इस प्रकरण में नीचे लिखे गए सभी अर्थों में इकण प्रत्यय होता है। __ नियम ३०४-(तेन दीव्यतिखनतिजयतिजितेषु ७।२।२) तृतीयान्त शब्द से, दीव्यति (जआ खेलना) खनति (खोदना) जयति (जीतना) जित (जीता हुआ)---इन अर्थों से इकण प्रत्यय होता है । अझै र्दीव्यति आक्षिकः । कुद्दालेन खनति कौद्दालिकः । अझै जयति आक्षिकः । अजितं आक्षिकम् । नियम ३०५ -- (संसृष्टे ७।२।३) संसृष्ट (दूसरे द्रव्य का मिश्रणभूत) अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । दघ्ना संसृष्टं दाधिकम् । पैप्पलिकम् । नियम ३०६-- (संस्कृते ७।२।८) संस्कृत (सतउत्कर्षाधानं संस्कारः) अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। दध्ना संस्कृतं दाधिकम् । मारिचिकम् । उपाध्यायेन संस्कृतः औपाध्यायिकः । विद्यया संस्कृतः वैद्यिकः । नियम ३०७-(तरति ७।२।१०) तरति (तैरना) के अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । उडुपेन तरति औडुपिकः । गौपुच्छिकः । नियम ३०८-(नौ द्विस्वरादिकः ७।२।११) नौ और द्विस्वरवाले शब्दों से तरति अर्थ में इक प्रत्यय होता है। नावा तरति नाविकः । बाहुकः, घटिकः, दृतिकः । नियम ३०६-(चरति ७।२।१२) चरति (जाना और खाना) अर्थ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ " वाक्यरचना बोध में इकण् प्रत्यय होता है। हस्तिना चरति हास्तिकः । शाकटिकः । दध्ना चरति दाधिकः । नियम ३१०-(पादेरिकट ७।२।१३) पर्प, अश्व, अश्वत्थ, रथ, अर्घ्य, व्याल, व्यास शब्दों से चरति अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। पर्पण चरति पपिकः, पपिकी, अश्विकः, रथिकः । नियम ३११- (पक्षिमत्स्यमृगाख्येभ्यो हन्ति ७।२।३८) पक्षि, मत्स्य और मृग इनके स्वरूप, पर्यायवाची और जातिविशेष द्वितीयान्त शब्दों से इकण् प्रत्यय होता है। पक्षिणो हन्ति पाक्षिकः । शाकुनिकः, मायूरिकः, मात्स्यिकः, मैनिकः, मार्गिकः, साराङ्गकः, हारिणिकः । नियम ३१२-(धर्माधर्माभ्यां चरति ७।२।४३) द्वितीयान्त धर्म, अधर्म शब्द से चरति (अनुष्ठान) अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। धर्मं चरतिधार्मिकः । आधर्मिकः । .........नियम ३१३- (निकटादिषु वसति ७।२।८२) सप्तम्यन्त शब्द से पसात अथ म इकण प्रत्यय होतो ह ।1८' ५ नपाको गोली मूलिकः, श्माशानिकः । नियम ३१४-- (मूल्यैः क्रीते ७।२।१०५) तृतीयान्त मूल्यवाची शब्द से क्रीत अर्थ में इकण प्रत्यय होता है। प्रस्थेन क्रीतं प्रास्थिकम् । साप्ततिकम् । नियम ३१५– (अर्हति ७।२।१३२) द्वितीयान्त शब्दों से अर्हति अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है। छत्रमर्हति छात्रिकः । चामरिकः । वास्त्रिकः ।। नियम ३१६-(शोभते ७।२।१७३) तृतीयान्त शब्दों से शोभते अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । आचार्येण शोभते आचायिकः गणः । शीलेन शोभते शैलिकी सी वास्त्रयुगिकं शरीरम् । औपनहिको पादौ । प्रयोगवाक्य ___ कौद्दालिकः कुत्र वसति ? दाधिकं भक्तं कस्मै रोचते ? बाहुकं कृष्णं दृष्ट्वा सर्वेऽपि पांडवा: विस्मयं जग्मुः। अस्यां नगर्यां अनेके पाक्षिकाः, शाकुनिकाः, मायूरिकाः, मात्स्यिकाः, हारिणिकाः, मार्गिकाः च सन्ति । धार्मिकाणां व्यवहारो मृदु भवति । आधर्मिकाः निरये यान्ति। वार्भमूलिक: मूषकः कि अत्ति ? शैलिकी सीतां सर्वेऽपि स्मरन्ति । सुशीला गुरोः वाणी लेढि लीढे वा । मनि: भोजनं अहासीत । रामः सीतां कथं जहौ ? य: पापात् बिभेति सोऽस्ति महान् । स: कस्मात् अभषात् ! संस्कृत में अनुवाद करो ___मंजू को उसकी मां ने अंगूठी, करधन, धुंघरु, बाजूबन्द, हंसुली, कान की बाली, टिकुली और एकलड का हार दिया था। अपनी नामांकित अंगूठी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ७ (इकण अधिकार) १५५ को देखकर दुष्यन्त को शकुन्तला की याद आ गई। आजकल स्त्रियां लिपस्टिक, रूज़ और नेल पालिश का बहुत उपयोग करती हैं । लोग साबुन से शरीर और कपडे को साफ करते हैं । तुम ब्रुश से क्या करोगे ? सोहन को टूथपाउडर और दांत का ब्रश चाहिए। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो रमेश को दही से संस्कृत साग अच्छा लगता है। इस नगर में विद्या से संस्कृत व्यक्ति कितने हैं ? नौका से पार करने वाले व्यक्ति दूरदर्शी होने चाहिए। इस गांव में मयूर को मारने वाला व्यक्ति कौन है ? श्मसान में रहने वाला व्यक्ति निर्भीक होता है । धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति स्वर्ग जाता है । गण आचार्य से शोभित होता है। धातु का प्रयोग करो सुधर्मा स्वामी ने भगवान महावीर की वाणी का आस्वादन किया था । तुम आचार्यश्री के वचनों का आस्वादन करो। सुशील ने घर क्यों छोडा ? पाप से डरो । रमेश चूहे से डरता है। अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो अस्यां नगर्यां कियन्तः अश्विकाः, रथिका:, हास्तिकाश्च वसन्ति । दाधिक व्यञ्जनं बहुभ्य: रोचते । शाकुनिकः कदा आगमिष्यति ? आचार्यस्य नैकटिको भिक्षुः कुत्र अव्रजत् ? तस्याः वास्त्रयुगिकं शरीरं विलोक्य स: मुग्धोऽभवत् । २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ कौन सा प्रत्यय किस अर्थ में हुआ हैपैप्पलिकम्, औपाध्यायिकः, दृतिकः, शाकटिकः, प्रास्थिकम्, चामरिकः, आधर्मिकः । ३. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ बताओअंगुलीयकम्, ललाटाभरणम्, ओष्ठरञ्जनम्, फेनिलः, रोममार्जनी, दंतपेष्टकम् पादाभरणम् । ४. लिह, ओहांक और भी धातु के तिबादि, णबादि और स्यदादि के रूप लिखो। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४५ : तद्धित ८ (भाव) शब्दसंग्रह अहिफेनम् (अफीम)। गंजा (गांजा)। ताम्रकूट: (तम्बाकू) । घरसम् (चरस) । मद्यम्, मदिरा (शराब) । मांसम् (मांस) । त्रिकम् (कटिदेश) । विधुरः (रंडुवा) । अवल: (बडा शाला)। कुली (बडी शाली)। जन्या (मां की सहेली, वधू की सहेली)। उत्तराधिकारी (वारिस) । श्याल: (साला) । श्याली (साली)। श्यालीधवः (साडू)। श्वसुरगृहम् (ससुराल)। धातु-डुदांन्क्-दाने (ददाति, दत्ते) देना। डुधांन्क-धारणे च (दधाति, धत्ते) धारण करना । डु नक्-पोषणे च (बिभर्ति, बिभृते) पोषण करना। दा, धा और , धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ३४,६४,६५)। यस्य गुणस्य हि भावात् द्रव्ये शब्दनिवेशः। जिस गुण के होने से द्रव्य में शब्द का सन्निवेश (संबंध) होता है, उस गुण को भाव कहते हैं। (भावे त्वतलौ ७।३।५६) भाव में मुख्यतया सभी शब्दों से त्व और तल् प्रत्यय होता है। त्व प्रत्यय नित्य नपुंसकलिंग होता है और तल् प्रत्यय नित्य स्त्रीलिंग होता है । तल में ल का लोप होकर 'आ' आ जाता है (ता) रूप बन जाता है। जैसे—साधुत्वं, साधुता। सज्जनत्वं, सज्जनता । किसी व्यक्ति के साथ साधु या सज्जन शब्द का संबंध जुडता है वह इसलिए कि उसमें साधुता या सज्जनता का भाव है। सज्जनता नाम का गुण है। सज्जनता के कारण ही व्यक्ति सज्जन कहलाता है । सज्जन विशेषण है और सज्जनता उसका भाव (गुण) है। कर्ता का विशेषण जब भाव रूप में बदलता है तब कर्ता में षष्ठी विभक्ति हो जाती है । जैसे—कोमलं पुष्पं, पुष्पस्य कोमलता। ___ भाव में त्व और तल के अतिरिक्त इमन्, ट्यण, य, अण् और ईय प्रत्यय होते हैं। नियम नियम ४०७-(पृथ्वादेरिमन् वा ७।३।५६) पृथु, मृदु, पटु, तनु, बहु, साधु, मंद, स्वादु, ऋजु, प्रिय, ह्रस्व, दीर्घ आदि अनेक शब्दों से इमन् प्रत्यय होता है। इमन् प्रत्यय लाने से शब्दों की टि (अंतिम स्वर ध्यंजन सहित) का लोप हो जाता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिमा वृपा तद्धित ८ (भाव) नियम ४०८-(पृथु मृदु भृश० ८।४।४६) पृथु, मृदु, भृश, कृश, दृढ, परिवृढ इन शब्दों के ऋकार को र् हो जाता है इमन् , जि , इष्ठ, ईयस् प्रत्यय परे होने पर । पृथो र्भावः =प्रथिमा । मृदोर्भावः म्रदिमा । भ्रशिमा, कशिमा, ढिमा, परिवढिमा। _ नियम ४०६-(प्रियस्थिर० ८।४।३८) इमन् आदि प्रत्यय परे होने पर इन शब्दों को ये आदेश होते हैं। प्रिय-प्र --प्रेमा बहुल-बंह --- बंहिमा स्थिर-स्थ --स्थेमा तृप्त--त्रप-त्रपिमा स्फिर-स्फ = स्फेमा दीर्घ-द्राघ - द्राघिमा उरु-वर-वरिमा ह्रस्व-ह्रस = हसिमा वृद्ध-वर्ष = वर्षिमा गुरु-गर- गरिमा वृन्दारक-वृन्द = वृन्दिमा नियम ४१०-(वर्णदृढादिभ्यष्ट्यण च ७।३।६०) वर्णवाची और दृढ, आदि (दृढ, शीत, उष्ण,तृष्णा, मूक, मूर्ख, पंडित, मधुर, विशारद...... आदि) शब्दों से ट्यण और इमन् प्रत्यय होता है । ट्यण से शब्द के आदि स्वर को वृद्धि, अंत के इकार और अकार का लोप होकर य मिल जाता है। शुक्लस्य भावः --- शौक्ल्यं, शुक्लिमा, शुक्लत्वं, शुक्लता । पीतस्य भावः=पैत्यं, पीतिमा, पीतत्वं, पीतता । दाढ्य, द्रढिमा, दृढत्वं, दृढता। नियम ४११-(पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च ७।३।६१) पति और राज शब्द अंत में हो उनसे तथा गुणाङ्ग और राज आदि शब्दों से ट्यण् प्रत्यय होता है। अधिपतेर्भाव:- आधिपत्यं, अधिपतित्वं, अधिपतिता। अधिराजस्य भावः= आधिराज्यं, अधिराजत्वं, अधिराजता । मौढ्यं, मूढत्वं, मूढता। मौखर्य, वैदुष्यं । राज्यं, राजत्वं, राजता । काव्यं, कवित्वं, कविता। नियम ४१२-(सखिदूतवणिग्भ्यो य: ७।३।६४) सखि, दूत, वणिज् शब्दों से भाव में य प्रत्यय होता है । सख्यं, दूत्यं, वणिज्यम् । नियम ४१३-- (युवादेरण ७।३।६८) युव आदि शब्दों से भाव में अण् प्रत्यय होता है । यौवनं, युवत्वं, युवता । स्थाविरं, स्थविरत्वं, स्थविरता। __ नियम ४१४- (लघुपूर्वाद् य्वृवर्णात् ७।३।७२) इवर्ण, उवर्ण और ऋवर्ण अंत वाले शब्दों से पहले ह्रस्व अक्षर हो तो भाव में अण् प्रत्यय होता है । मुने र्भाव: मौनं, मुनित्वं मुनिता । इसी प्रकार पाटवं, पैत्रं, पार्थवम् । नियम ४१५-- (तस्या क्रियायां वत् ७।३।५२) षष्ठ्यन्त नाम से अर्ह अर्थ में वत् प्रत्यय होता है, योग्यता क्रिया की होनी चाहिए। साधोरह वृत्तमस्य साधुवत् । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ वाक्यरचना बोध ___ नियम ४१६-(तत्र ७।३।५४) सप्तमी विभक्ति से इव के अर्थ में वत् प्रत्यय होता है, यदि वह सदृशता क्रिया विषय की हो तो । जैसेमथुरायामिव-मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादः ।। नियम ४१७- (तस्य ७।३।५५) षष्ठी अंत वाले शब्दों से इव अर्थ में वत् प्रत्यय होता है । चैत्रस्य इव-चैत्रवत् मैत्रस्य गावः । _ख-(स्यादेरिवे ७।३।५३) स्यादि अंतवाले शब्दों से इव अर्थ में वत् प्रत्यय होता है। क्षत्रिया इव क्षत्रियवत् । देवमिव देववत् । साधुना इव साधुवत् । ब्राह्मणाय इव ब्राह्मणवत् । पर्वतात् इव पर्वतवत् । प्रयोग वाक्य जम्बोः वैराग्यस्य द्रढिमानं दृष्ट्वा चौरा अपि विस्मिता बभूवुः । भ्रातुः हृदयस्य द्राघिम्ना स गद्गदोऽभूत् । नेत्रयोः पैत्यं विलोक्य वैद्योऽवदत्त्वं रुग्णोऽसि । सर्वेभ्यः वैदुष्यं रोचते । मौढ्येन मानवः सर्वक्षेत्रेषु विफलो भवति । यौवने यादृशी शक्ति भवति पुंसि तादृशी वर्षिम्नि न । मार्दवेन मर्त्यः जनप्रियो भवति । गुरु: शिष्येभ्य: ज्ञानं ददाति दत्ते वा । तातः पुत्रेभ्यः प्रचुरं धनं अदात् अदत्त वा। विजयः वस्त्राणि दधाति धत्ते वा। शीला भूषणानि धास्यति धास्यते वा । शंकरः स्वपरिकरं बिभर्ति बिभृते वा। बालं क: भरिष्यति, भरिष्यते वा ? संस्कृत में अनुवाद करो मांस और अफीम मत खाओ। शराब और गंजा मत पीओ। तम्बाक और चरस स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। श्याम के कटिदेश में दर्द है । इस गांव में विधुर व्यक्ति कितने है ? सोहन की बडी शाली कब आयेगी ? मां की सहेली मंदिर कब जायेगी ? राजा ने अपने बाद किसको वारिस बनाया है ? सुरेन्द्र मोहन का साडू है। रमेश के कितने साला, साली हैं ? ससुराल में ज्यादा नहीं रहना चाहिए। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो राम की मृदुता प्रशंसनीय है। रमेश की कृशता सबको असुहावनी लगती है। संकल्प की दृढता से मनुष्य क्या नहीं कर सकता ? अग्नि की उष्णता, जल की शीतलता एक शाश्वत धर्म है। मोहन की मूर्खता से यह काम बिगड़ गया । कवि की कविता रसपूर्ण थी । लक्ष्य की स्थिरता सफलता का प्रथम सोपान है। गुरु की गरिमा को कायम रखना हमारा कर्तव्य है। श्रावक रूपचंदजी का जीवन साधु की तरह था। मनुष्य और मनुष्यता दो मातुएं है। मनुष्य का आकार होने मात्र से मनुष्यता नहीं आती। सुंदरता जहां एक गुण है, वहां दोष भी । दुर्जनता मानव के लिए अभिशाप है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ८ (भाव) १५६ धातु के प्रयोग करो दादाजी ने रमेश को अपना मकान दिया था। बहिन को तुम क्या दोगे ? शिव ने क्या धारण किया है ? शंकर अपने परिवार का पोषण करता है । मुझे पुस्तक दो। अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो (क) वस्तुनः प्रेमा तस्य गुणे अवगुणे च आश्रितोस्ति । विना स्थेमानं न किमपि कार्य सिद्धयति । त्रपिमा स्त्रीणां एकः गुणोऽस्ति । (ख) तस्य वैदुष्यं दृष्ट्वा सर्वेऽपि प्रभाविताः जाताः। तीर्थकराणां शरीरे न बर्षिमा दृग्गोचरी भवति । अस्मिन् गृहे कस्य आधिपत्यमस्ति ? भरतस्य राज्यं विशालतरमासीत् । यौवनं को न वाञ्छेत् ? २. निम्नलिखित शब्दों का भाव के अर्थ में प्रयोग करो निर्धन, पशु, लघु, गुरु, कोमल, सखि, वृद्ध, अधिराज। ३ निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो पित्यं शुक्ल्यं च कस्य स्वभावो वर्तते । ध्याने स्थिरमा भवेत् । गृहस्य द्रधिमानं दृष्ट्वा भूपः विस्मितो जातः । मूखयं न कोऽपि श्लाधते । ४. प्रिय आदि शब्दों को नियम ४०६ में क्या आदेश किया गया है ? ५. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ अफीम, तम्बाकू, साडू, शाला, वारिस, ससुराल । ६. दा, धा और भृ धातु के द्यादि तथा स्यदादि के रूप लिखो। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४६ : तद्धित (ई) शब्द संग्रह । अलंकारः (आभू शय्या (विस्तर, खाट ) । अवगुण्ठनम् ( घूंघट ) षण) । हारः ( मोती की माला ) । कर्णपूर : ( कनफूल ) । नूपुरम् ( पायजेब ) । प्रसाधनी ( कंघी ) । वेणिका ( वेणी – बालों की चोटी ) । सिन्दूरम् ( सिन्दूर ) । अञ्जनम् (काजल) । गन्धतैलम् ( इत्र ) । तिलकम् (तिलक) । ललाटिका ( टीका) । चूर्णकम् ( पाउडर) । हैमम् ( स्नो ) । शर: ( क्रीम) । दर्पण: (शीशा) । कङ्कणम् (कंकण) । कण्ठाभरणम् (कंठा) । नासाभरणम् ( नथ, बुलाक) । धातु — दिवुच् - क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिषु ( दीव्यति ) रमण करना, जीतना, व्यवहार करना, जुआ खेलना, स्तुति करना, प्रसन्न होना, मद करना, स्वप्न लेना, दीप्त होना । षिवुच् - तन्तुसन्ताने (सीव्यति ) सीना । ष्ठिवु, क्षिवुच् – निरसने (ष्ठीयत, क्षीव्यति ) थूकना । नृतीच्—नर्तने ( नृत्यति) नाचना । व्रीडच् लज्जायाम् (व्रीड्यति) लज्जा करना । क्रुधच् –— कोपे ( क्रुध्यति ) क्रोध करना । कुपच्— क्रोधे (कुप्यति) क्रोध करना लुभच् – गायें ( लुभ्यति ) गृद्ध होना । शुषंच - शोषणे (शुष्यति ) शोषण करना । दुषंच् – वैकृत्ये (दुष्यति) विकृत होना, मलिन होना । षहच् - तृप्तौ ( सुह्यति) तृप्त होना । तुषं, हृषच् - तुष्टो ( तुष्यति, हृष्यति ) प्रसन्न होना । दिव्, नृत्, क्रुध्, हृषच् धातु के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट २ संख्या ६६,३५,६७,९८ ) । षिवुच् से लेकर क्षिवुच् तक दिव् की तरह चलते हैं। तक के रूप कुप की तरह चलते हैं । हृष् के रूप कुछ भिन्न चलते हैं । नियम एक शब्द से अर्थ की भिन्नता में भिन्न प्रत्यय होते हैं । किन्तु कुछ शब्द ऐसे हैं जिनसे अनेक अर्थों में एक ही प्रत्यय होता है । एक ही रूप अनेक अर्थों में प्रयोग में आता है । नियम ४१६ - ( प्राग्वतोऽग्निकलिरेयण ६।२।२७) अग्नि और कलि शब्द से एयण् प्रत्यय होता है । अग्नेरपत्यं = आग्नेयः । अग्नये हितं आग्नेयम् । इसी प्रकार कालेयः, कालेयम् । नियम ४१७ - ( स्त्रीपुंसाभ्यां नवस्नञौ ६ ।२।२८) स्त्री शब्द से नत्र Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ६ और पुंस शब्द से स्नञ् प्रत्यय विकल्प से होता है । स्त्रियाः अपत्यं-स्त्रैणः । स्त्रीभ्यो हितं-स्त्रैणं । स्त्रीणां समूहः- स्त्रैणं । स्त्रीषु भवं स्त्रैणं । स्त्रीणां इयं-स्त्रैणी। स्त्रीणां निमित्तं संयोग उत्पातो वा स्त्रैणं । पुंस शब्द से (तस्याहे क्रियायां वत्) सूत्र से पहले सभी अर्थों में पौंस्नः रूप बनेगा। लिंग के अनुसार पुल्लिग, नपुंसक आदि परिवर्तन हो सकता है। नियम ४१८-(पुरुषात् कृतहितवधविकारसमूहेष्वेयञ् ६।६।३४) पुरुष शब्द से कृत, हित, वध, विकार, समूह अर्थ में एयञ् प्रत्यय होता है। पुरुषेण कृतः = पौरुषेयः ग्रन्थः । पुरुषाय हितं --पौरुषेयं पथ्यं । पुरुषाणां वधः विकारः, समूहो वा पौरुषेयः । नियम ४१६- (गोः स्वरे यः ६।२।३०) गो शब्द से य प्रत्यय होता है । तद्धित प्रत्ययों के प्रसंग में य स्वर के समान होता है। गोरपत्यं गव्यं । गवि भवं गव्यं । गौ र्देवता अस्य गव्यः । गवा चरति गव्यः । प्रयोगवाक्य आग्नेयः कालेयश्च कोस्ति ? अद्य जनाः स्त्रैणं चिन्तयन्ति । स्त्रैणेषु अयं नरः कथं समायातः ? मह्य पौरुषेयः आगमः रोचते । गौ: गृहे पुनरागता परं गव्यः कुत्र गतः । बालकाय गव्यं क्षीरं देहि । बाल: दीव्यति । तन्तुवायः वस्त्राणि सीव्यति । बालिका अत्र ष्ठीव्यति क्षीव्यति वा । पिता पुत्राय कथं अक्रुध्यत् अकुप्यत् वा । विषयेषु मा लुभ्य । य: भूपः प्रजाः शुष्यति स: न प्रियो भवति । शिशुः वस्त्राणि दुष्यति । सीमायाः सुखदं संवादं श्रुत्वा तातः अतुष्यत् । संस्कृत में अनुवाद करो विस्तर पर कौन सोया है ? स्त्रियां घंघट क्यों रखती हैं ? क्षमा मुनियों का आभूषण है । रानी के हार को किसने चुराया ? सरोज को उसकी मां ने एक कनफूल, दो पायजेब, एक कंकण, एक कंठा और एक बुलाक दिया है। विवाहित स्त्रियां मांग में सिंदूर डालती हैं। दीपक कंघी से केश संवारता है । पुरुष चोटी नहीं करते । किरण पुत्र की आँखों में काजल डालती है। उसने कपडों में इत्र लगाया है। बहन भाई के तिलक करती है। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो अग्नि के लिए पानी शत्रु है। कलि का पुत्र कौन है ? इस रास्ते से स्त्रियों का समूह जा रहा था। स्त्रियों में कोमलता है। पुरुषों के लिए क्या कठिन है ? पुरुषों के दाढी और मूंछ होती है। यह स्त्रियों का कथन है ।। यह ग्रन्थ पुरुषों द्वारा बनाया गया है । धातु के प्रयोग करो यहां मत खेलो। मामी फटे वस्त्र सीती है। भीत पर नहीं थूकना Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वाक्यरचना बोध चाहिए। मां लडकी पर क्यों क्रुद्ध हुई ? सब कुछ प्राप्त होने पर भी रमेश विषयों में गृद्ध नहीं बना । किसी का शोषण मत करो। यह वस्त्र किसने गंदा किया ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करोस्त्रणम् (स्त्रीषुभवः), पौंस्नः (पुंसा समूहः), पौरुषेयः (पौरुषाणां समूहः) । २. हिन्दी में अनुवाद करो आग्नेयं घृतम् । पौंस्नः कुत्र व्रजति ? पौरुषेयः परशुरामः । स्त्रियः नृत्यन्ति । सा न व्रीड्यति । मुनिः दुर्जनाय न कुप्यति । साध्व्यः वस्त्रं सीव्यन्ति । ४. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप लिखो___ चूंघट, कनफूल, कंघी, काजल, इत्र, कंठा, कंकण, सीसा । ५. दिव, नृत्, क्रुध् और हृष धातु के तिबादि और स्यत्यादि के रूप लिखो। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४७ : तद्धित १० (प्रमाण) शब्दसंग्रह पारितोषिकम् (इनाम)। आयकरः (इन्कमटैक्स)। भाटकम् (किराया) । सरकारकरः (चूंगी) । अर्थदंड: (जुर्माना) । द्रोणमुखम् (बडा कस्बा) । स्थानीयम् (बडा शहर) । पत्तनम् (व्यापारी नगर)। उपपुरम् (शहर के पास की बस्ती)। कान्तारः (दुर्गम पथ)। वीथिका, वीथि, प्रतोली (गली) । पद्या, पद्धतिः (पगडंडी)। गह्वरः (वृक्षों की छाया वाला रास्ता) । राजमार्गः (सडक)। धातु-णशूच्—अदर्शने (नश्यति) नष्ट होना । जनीच्-प्रादुर्भावे (जायते) उत्पन्न होना । खिदंच्—दैन्ये (खिद्यते) खिन्न होना। युधंच् संप्रहारे (युध्यते) युद्ध करना। बुधं, मनच्-ज्ञाने (बुध्यते, मन्यते) जानना । क्लिशच्-उपतापे (क्लिश्यति) दुःखी होना। णश् और जन् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ३६, ६६) खिद् से लेकर क्लिश् तक के रूप दिबादि तक जन् की तरह चलते हैं । शेष रूप परिशिष्ट में देखें (संख्या १००,१०१,१०२ ,३७,३८) । प्रमाण प्रमाण का अर्थ है लम्बाई । प्रमाण दो प्रकार का होता है-ऊर्ध्व और तिर्यच् । ऊर्ध्वप्रमाण को उन्मान भी कहते हैं। (प्रमाणान्मात्रट ७।४।३३) प्रमाणवाची शब्द से षष्ठी के अर्थ में मात्रट प्रत्यय होता है । जानुनी प्रमाणं अस्य = जानुमात्रं जलं । जानुमात्री परिखा। नियम ४२०--(ऊर्ध्वं दघ्नड्वयसटौ ७।४।३५) ऊर्ध्व प्रमाणवाची शब्दों से दघ्नट, द्वयसट और मात्रट ये तीन प्रत्यय होते हैं। ऊरु: प्रमाणं अस्य = ऊरुदध्नं, ऊरुद्वयसं, ऊरुमात्रं जलम् । नियम ४२१- (इदं किमोतुरिकिय चास्य ७।४।४१) इदं और किं शब्द मानवृत्ति वाची हो तो षष्ठी अर्थ में अतु प्रत्यय होता है और इदं को इय् और किं को किय् आदेश हो जाता है। इदं मानं अस्य = इयान् पटः । कि मानं अस्य – कियान पट: ।। नियम ४२२-(यत्तदेतदोडावट च ७।४।४२) यत्, तत्, एतत् ये तीन शब्द मानवाची हो तो पष्ठी के अर्थ में अतु प्रत्यय होता है। प्रत्यय से पहले डावट का आगम होता है। यत् प्रमाणं अस्य -- यावान् पट: । इसी प्रकार Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ वाक्यरचना बोध तावान्, एतावान् पटः । नियम ४२३– (यत्तकिम: संख्याया डतिर्वा ७।४।४३) प्रथमान्त यत्, तत्, एतावत् शब्द संख्यावाची के अर्थ में हो तो डति और अतु दोनों प्रत्यय हो जाते हैं, वे शब्द संख्येय मेय के वाचक हों तो। संख्या मानं एषां यति, यावन्तः । इसी प्रकार तति, तावन्तः । कति, कियन्तः । नियम ४२४- (अवयवात् तयट ७।४।४४) प्रथमान्त संख्यावाची शब्द अवयववाची हो तो षष्ठी के अर्थ में तयट प्रत्यय होता है, यदि अवयवी का बोध हो तो। चत्वरोऽवयवाः अस्य= चतुष्टयः । एवं पंचतयो यमः, दशतयो धर्मः । नियम ४२५– (द्वित्रिभ्यामयड् वा ७।४।४५) प्रथमान्त द्वि और त्रि शब्द अवयव अर्थ में हो तो षष्ठी अर्थ में अयट् प्रत्यय विकल्प से होता है, यदि अवयवी का बोध हो तो । पक्ष में तयट भी होता है। द्वौ अवयवौ अस्य द्वयम् तपः, द्वितयं तपः । त्रयं जगत् । प्रयोगवाक्य यदा नद्यां ऊरुदध्नं ऊरुद्वयसं वा जलं आसीत् तदा सः तस्यां स्नातुं अव्रजीत् । तुभ्यं कियत् घृतं रोचते ? मह यं इयत् वस्त्रं रोचते । नेतुः भाषणे कति पुरुषाः आसन् ? यावन्तः माः प्रातः प्रवचने आसन् तावन्तः रात्रौ प्रवचने नासन् । चतुष्टयोऽयं मोक्षमार्गः । महावीरेण द्वितयं तपः प्रोक्तम् । तस्य धनं कथं अनशत् ? वृक्षेषु बहूनि फलानि जायन्ते । ललितः कथं खिद्यते ? आचार्यः मां बुध्यते । भूपः शत्रुभिः सह युध्यते । सा मुधा क्लिश्यते । संस्कृत में अनुवाद करो काव्य प्रतियोगिता में किसने इनाम जीता ? आजकल प्रायः लोग इन्कमटैक्स देना नहीं चाहते । तुम्हारे मकान का किराया कितना है ? प्रान्त की हर सीमा पर चूंगी घर है । यदि तुम जुर्माना दोगे तो बच जाओगे । भारत में कितने बडे कस्बे, बडे गांव और बडे शहर हैं ? अहमदाबाद एक व्यापारी नगर है। जीवन शहर के पास की बस्ती में रहता है । कठिन रास्ते को शीघ्र पार करो। इस गली में अन्धेरा है । यह पगडंडी कहां जाती है ? वृक्षों की छाया वाले रास्ते से सभी जाना चाहते हैं। तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो जब इस नदी में घुटने जितना पानी हो तब तुम मुझे बतलाना। जब बालक नदी में गिरा तब उसमें छाती जितना पानी था। तुम बाजार से कितना वस्त्र लाओगे ? इतनी मिठाई मत खाओ। जितने व्यक्ति यहां हैं वे सब प्रवचन सुनें । ब्रह्मचर्य चौथा महाव्रत है । धर्म के दश प्रकार हैं । महाव्रत के पांच अवयव हैं । नदी में कटि जितना पानी है । कितनी गायें बाहर जाती Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १० ( प्रमाण ) १६५ हैं ? तुम कितना पानी पीते हो ? जगत् तीन प्रकार का है । यह खेत दश रज्जु है । मकान की बाहरी दीवार कंधे जितनी है । धातु का प्रयोग करो अनाचार से व्यक्ति का यश नष्ट होता है । खेत में क्या उत्पन्न हुआ है ? तुम खिन्न मत होओ। अशोक ने किसके साथ युद्ध किया ? सर्वज्ञ सब कुछ जानते हैं । कर्म शत्रुओं के साथ युद्ध करो। तुम क्यों दुःखी होते हो ? अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो— कियत् मात्रं जलं विप्र !, जानुदध्नं नराधिप । त्वं मा खिद्यस्व । तस्करान् क: अबोधि ? वधूः कथं अक्लेशिष्ट ? २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ कौनसा | चेटक: कोणिकेन सह आत्मानं बुध्यस्व । प्रत्यय किस अर्थ में हुआ है यावान्, एतावान्, यति, तति, कति चतुष्टयः, द्वयः । ३. प्रमाण कितने प्रकार का होता है ? उनमें प्रत्यय एक समान ही होते हैं या अन्तर भी है । ४. अवयव का अर्थ क्या है ? ५. अवयव और अवयवी, संख्या और संख्येय का भेद बतलाओ । ६. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ अर्थदंड:, पत्तनम्, उपपुरम्, पद्या, पत्तनम्, भाटकम् । ७. णश् और जन् धातु के तिबादि, द्यादि तथा स्यत्यादि के रूप लिखो । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ: ४८ तद्धित ११ (संख्या) शब्दसंग्रह पत्रालयाधीशः (जनरल पोस्ट मास्टर ) । पत्रालयः (पोस्ट आफिस ) । पत्रालयाध्यक्ष : ( पोस्ट मास्टर ) । प्रधानपत्रालयः ( बडा डाकखाना) । पत्रविभागः ( डाक का महकमा ) । पत्राधि: ( लेटरबक्स ) । पत्रम् ( खत, पत्र ) | आवेष्टनम् ( लिफाफा ) | धनादेश : ( मनीआर्डर ) । पार्शल: ( पार्सल) । पंजिका, निवेशनम् (रजिस्ट्री ) । रक्षापण: (बीमा ) । पत्रवाहक : ( चिट्ठी ले जाने वाला, डाकिया) । त्वरितसूचनालय: ( तारघर ) । त्वरितसूत्रम् (तार) । वृनत् से लेकर आप्लूंत् धातु के दिबादि तक के रूप चिन्त् की तरह चलते हैं । शेष धातु रूप परिशिष्ट ( संख्या १०४ से १०६) में देखें । धूनत्, तृपत् के रूप प्रायः चि की तरह चलते हैं । संख्या संख्यावाची शब्दों से एकवचन, द्विवचन और बहुवचन का बोध होता है । तीन से लेकर आगे सब बहुवचन हैं । संख्यावाची शब्दों से पूरण अर्थ का प्रत्यय लगने से वह शब्द निश्चित एक संख्या का बोधक हो जाता है । जैसे११ पुस्तक इससे ११ पुस्तकों का ज्ञान होता है । पूरण प्रत्यय लगने से वह ११ वीं पुस्तक ( यानि एक १९ वीं पुस्तक) का बोध होगा शेष १० का ४ संख्या संख्यावाची शब्दों से एकवचन, द्विवचन और बहुवचन का बोध होता है । तीन से लेकर आगे सब बहुवचन हैं । संख्यावाची शब्दों से पूरण अर्थ का प्रत्यय लगने से वह शब्द निश्चित एक संख्या का बोधक हो जाता है । जैसे - ११ पुस्तक इससे ११ पुस्तकों का ज्ञान होता है । पूरण प्रत्यय लगने से वह ११ वीं पुस्तक ( यानि एक १९ वीं पुस्तक) का बोध होगा शेष १० का नहीं । १५ वां व्यक्ति यहां आओ । यह सुनकर १ ही व्यक्ति आएगा । संख्या - नियम नियम ४२६ - ( संख्या पूरणे डट् ७।४।४८ ) संख्यावाची शब्द से संख्यापूर्ति के अर्थ में डट् प्रत्यय होता है । डट् में अ शेष रहता है और शब्द Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ११ (संख्या) १६७ की टि का लोप हो जाता है । एकादशानां पूरणः एकादशः । द्वादशः । नियम ४२७-(नोमट ७।४।५२) पञ्चन्, सप्तन्, अष्टन्, नवन् और दशन् शब्दों मे संख्यापूरण के अर्थ में मट् प्रत्यय होता है। पञ्चमः, सप्तमः, अष्टमः, नवमः, दशमः । नियम ४२८-(विंशत्यादेर्वा तमट ७।४।४६) बीस से ऊपर की संख्या से संख्यापूरण अर्थ में तमट और डट् प्रत्यय होते हैं। विंशतितमः, विशः । त्रिंशत्तमः, त्रिंशः । नियम ४२६- (षट्कतिकतिपयाच्च थट ७।४।५८) षट्, कति, कतिपय, चतुर् शब्दों से थट् प्रत्यय होता है। षष्ठः, कतिथः, कतिपयथः, चतुर्थः । नियम ४३० क- (वस्तीय: ७।४।५५) द्वि शब्द से तीय प्रत्यय होता है । द्वितीयः । ख- (त्रेस्तृ च ७।४।५६) त्रि शब्द से तीय प्रत्यय होता है और त्रि को तृ आदेश । तृतीयः । ग- (चतुरो येयौ च लोपश्च ७।४।५७) चतुर् शब्द से य और इय प्रत्यय होता है और चतुर् के च का लोप विकल्प से होता है। तुर्यः, तुरीयः । नियम ४३१- (संख्याया धा ८।१।१२२) संख्यावाची शब्दों से प्रकार अर्थ में धा प्रत्यय होता है । एकधा, द्विधा, त्रिधा, पञ्चधा। षोढा, षड्ढा निपात है। नियम ४३२- (वारे कृत्वस् ८।१।१२७) संख्यावाची शब्दों से बार अर्थ में कृत्वस् प्रत्यय होता है। पञ्चवारं भुङ्क्ते, पञ्चकृत्वस् भुङ्क्ते । (पांच बार खाता है) । एवं सप्तकृत्वस्, नवकृत्वस् । नियम ४३३ क—(द्वित्रिचतुर्यः सुच् ८।१।१२८) द्वि, त्रि, चतुर् शब्द से वार अर्थ में सुच् (स्) प्रत्यय होता है। द्विः पठति, त्रि: पठति, चतु: पठति । ख-- (एकात् सकृच्चास्य ८।१।१२६) एक शब्द से सुच् (स्) प्रत्यय और एक को सकृत् आदेश होता है । सकृद् भुङ्क्ते । प्रयोगवाक्य कक्षायां एकादशः, द्वादशः, पञ्चमः, सप्तमः, नवमः, दशमः, विंशतितमः छात्रः कोऽस्ति ? सर्वेषु महाव्रतेषु चतुर्थो महाव्रतः दुष्करोऽस्ति । जैनधर्मस्य षष्ठः तुर्यश्च आचार्यः कः बभूव ? बंधनं द्विधा विद्यते । अहं एतद् पुस्तकं पञ्चकृत्वः, सप्तकृत्वः, नवकृत्वश्च अपठिषम् । डालचंदमुनि कः चिचाय चिच्ये वा आचार्यपदाय ? किं तातः तव कथनं श्रोष्यति ? रामः सीतां ववार Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ वाक्यरचना बोध वव्रे वा । पत्न्याः क्रोध दृष्ट्वां पतिः अधावीत् अधोष्ट वा । मिष्टान्नं भुक्त्वा ललित: अतीत् । संस्कृत में अनुवाद करो __इस गांव से पोस्ट आफिस और बडा डाकखाना कितनी दूर है ? जनरलपोस्टमास्टर और पोस्टमास्टर को मेरे आने की सूचना किसने दी ? लेटरबक्स में बहुत से खत हैं। यह लिफाफा किसका है ? रमेश ने मनीआर्डर से अपने पिताजी को हजार रुपये भेजे हैं । तुम्हारा पार्सल कौन ले गया? महेश ने अपने मकान की रजिस्ट्री कब कराई ? मंजू ने अपना बीमा कहां कराया ? तारघर में किसका तार आया है ? डाकिया ने यह खंत तुम्हें कब दिया था ? तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो श्रेयांसनाथ ग्यारहवें और वासुपूज्य बारहवें तीर्थंकर थे। आचार्य मघराजजी पांचवें, आचार्य डालचंदजी सातवें और आचार्य कालुरामजी तेरापंथ के आठवें आचार्य थे। आचार्यश्री तुलसी तेरापंथ के नवमें आचार्य हैं। बीसवें तीर्थकर कौन थे ? यहां कितने लोगों ने भोजन किया ? तुम सब प्रकार से झूठ बोलते हो। महाव्रतों के पांच प्रकार हैं। दिगम्बरमुनि दिन में एक बार भोजन करते हैं। मैं यहां तीन बार आ गया। सेठ का चौथा लडका कहां है ? धातु का प्रयोग करो तेरापंथ में आचार्य का चयन कौन करता है ? मोहन को कम सुनाई देता है। भगवान महावीर में मुक्ति-स्त्री को कब वरण किया था ? मैं यह कार्य कर सकता हूं। तुम्हें धन कहां मिला ? पत्ते हवा से कांपते हैं। भोजन करके सोहन तृप्त हो गया । अभ्यास १. निम्नलिखित पद्यों का अर्थ लिखो और बताओ किस शब्द से कौन-सा तद्धित प्रत्यय हुआ हैं ? (क) द्वि: त्रिः चतुर्वदितोऽपि, नायं हृष्ट: प्रजायते । (ख) जयाचार्यः चतुर्थोऽभूत्, पञ्चमो मघवाधिपः । षष्ठो हि माणकलालः, सप्तमो डालचन्द्रजित् ॥१॥ (ग) एकादशे गुणस्थाने, द्वादशेऽपि महामुनिः । वीतरागः केवली स्यात्, विशुद्धात्मा त्रयोदशे ॥२॥ २. संख्यावाची शब्दों से प्रकार और वार अर्थ में कौन सा प्रत्यय होता है ? दोनों में क्या अन्तर है ? उदाहरण से स्पष्ट करें। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित ११ (संख्या) १६६ ३. नीचे लिखे अर्थ में क्या शब्द है ? एक बार, चार प्रकार, दसवां, दस, तीन बार, छह प्रकार, चौथा, बीसवां। ४. संख्या और संख्यापूरण में क्या अन्तर है ? ५. चि और श्रु धातु के तिबादि तथा णबादि के रूप लिखो। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४९ : तद्धित १२ (मत्वर्थ प्रत्यय) शब्दसंग्रह अन्धासिकः (आडती) । ताम्बूलिकः, शाल्मलः (तम्बोली)। उपदर्शकः (दर्बान) । रोमकः (नमक बनाने वाला) । भारुडः (पहरेदार) । चित्रकारः (फोटोग्राफर)। पांशुलः (बोरी बनाने वाला)। उत्कलः, वीवधिकः (भार उठाने वाला) । इन्द्रजलिकः, शौभिकः (मदारी) । नागरकः (मूर्ति बनाने वाला) । धिग्वणः (मोची)। कोटकः (घर बनाने वाला) । अहितुण्डिकः (संपेरा) । क्षणदः (ज्योतिषी) । धातु-मुच्लँन्ज्—मोक्षणे (मुञ्चति, मुञ्चते) छोडना। लिखअक्षरविन्यासे (लिखति) लिखना । प्रच्छंज्–ज्ञीप्सायाम् (पृच्छति) पूछना । स्पृशंज्-स्पर्श (स्पृशति) स्पर्श करना । विशंज्—प्रवेशने (विशति) प्रवेश करना । इषज्—इच्छायाम् (इच्छति) चाहना । मुं—प्राणत्यागे (म्रियते) मरना। मुच, मुंज और इषज् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या १०७,४३,१०८)। लिख्, प्रच्छ, स्पृश्, विश् इन धातुओं के तिबादि तक के रूप मुच् की तरह चलते हैं। शेष धातु रूप परिशिष्ट २ में देखें (संख्या १०६ से ११२) । मत्वर्थ वह इसका या इसमें है-इस अर्थ में जो प्रत्यय होते हैं उनको मत्वर्थ प्रत्यय कहते हैं। मतु प्रत्यय कुछ अपवादों को छोडकर सभी शब्दों से होता है । जैसे—गावोऽस्य सन्तीति=गोमान् । तरवो यस्मिन् सन्तीति तरुमान् । नियम नियम ४३४-- (मावर्णान्तोपधाद् वतुः ८।१।२) म् और अवर्ण अंतवाले तथा म् और अवर्ण उपधा वाले शब्दों से मतु के स्थान पर वतु प्रत्यय होता है। मतु और वतु में उ का लोप हो जाता है। इसके रूप तीनों लिंगों में चलते हैं। पुल्लिग में भवत् और नपुंसकलिंग में जगत् की तरह चलते हैं।' स्त्रीलिंग में ईप् जुडकर नदी की तरह रूप चलते हैं। किंवान्, लक्ष्मीवान्, ज्ञानवान्, विद्यावान्, यशस्वान् भास्वान् । लक्ष्मीवती, ज्ञानवती, गुणवती, विद्यावती। नियम ४३५- (अस्तपोमायामेधास्रजो विन् वा ८।१।६) अस् अंत Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १२ (मत्वर्थ प्रत्यय ) १७१ वाले शब्द तथा माया, मेधा, स्रज् शब्दों से मत्वर्थ में विन् और वतु प्रत्यय होता है | यशस्वी, तपस्वी, मायावी, मेधावी, स्रग्वी, यशस्वान्, तपस्वान्, मायावान्, मेधावान् स्रग्वान् । नियम ४३६ - ( शिखादिभ्य इन् ८|१|११ ) शिखा, माला, शाला, वीणा, मान, मनीषा, कर्मन्, चर्मन् आदि शब्दों से मत्वर्थ में इन् और वतु प्रत्यय होता है । शिखी, शिखावान्, माली, मालावान् इत्यादि । नियम ४३७ - ( झपात् ८।१।३) झप अंतवाले शब्दों से अस्ति अर्थ में तु प्रत्यय होता है | तडित्वान्, मरुत्वान्, विद्युत्वान्, समिद्वान् । नियम ४३८-| ( अतोऽनेकस्वरात् ८|१|१३) अकारान्त अनेक स्वर वाले शब्दों से मत्वर्थ में इक इन् और वतु प्रत्यय होते हैं । छत्रिकः, छत्री, छत्रवान् । दण्डिकः दण्डी, दण्डवान् । नियम ४३६ - ( वातातीसारपिशाचानां कुक् च ८।१।२८ ) वात, अतिसार और पिशाच शब्दों से मत्वर्थ में इन् प्रत्यय होता है और कुक् का आगम होता है । कुक् में उक् इत् जाता है । वातकी, अतिसारकी, पिशाचकी । नियम ४४० - ( सर्वादेरिन् ८।१।२६ ) अकारान्त सर्वादि शब्द कर्मधारय समास में हो तो मत्वर्थ में इन् प्रत्यय होता है । सर्वं धनं तस्यास्तीति सर्वधनी । सर्वकेशी नटः । नियम ४४१ - - ( सुखादेः ८|१|३०) सुख आदि शब्दों से मत्वर्थ में इन् प्रत्यय ही होता है । सुखी, दुखी, अलीकी, कृपणी, प्रणयी, प्रतीपी, तृप्री कृच्छ्री. अस्री, सोढी. हली, आस्त्री, कक्षी । नियम ४४२ - ( वाच आलाटौ ८|१|४६ ) वाच् शब्द से क्षेप ( निंदा) के अर्थ में आल और आट प्रत्यय होता है । वाचालः, वाचाटः । से नियम ४४३ - ( कृपाहृदयाद् वालुः ८|१|७४) कृपा और हृदय शब्द आलु और वतु प्रत्यय होता है । कृपालुः, कृपावान् । हृदयालुः, हृदयवान् । नियम ४४४– (दन्तादुन्नतात् ८।११५६ ) दन्त शब्द से डुर प्रत्यय होता है यदि दंत उन्नत ( ऊंचे) हों तो । दन्तुरः । उन्नत न हों वहां दंतवान् । नियम ४४५ - (नावादेरिकः ८|१|१० ) नौ, कुमारी, यवखदा, सभा, करण शब्दों से मत्वर्थ में इक प्रत्यय विकल्प से होता है । पक्ष में मतु होता है । नाविकः, नौमान् । कुमारिकः, कुमारीवान् । नियम ४४६ - ( व्रीह्यर्थ तुन्दादेरिलश्च ८ ।११५) व्रीहिवाची शब्द, तुंद आदि शब्दों में इल, इक, इन् और वतु ये चार प्रत्यय होते हैं । कलमिलः, कलमिकः, कलमी, कलमवान् । शालिल:, शालिकः, शाली, शालिवान् । तुन्दिलः, तुन्दिकः, तुन्दी, तुन्दवान् । उदरिलः, उदरिकः, उदरी, उदरवान् । व्रीहिशब्द से इल प्रत्यय नहीं होता शेष तीन प्रत्यय ही होते है । व्रीहिकः, व्रीही, व्रीहिमान Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ वाक्यरचना बोध (ग्रीह्यादिभ्यस्तौ ८।१।१२ से)। नियम ४४७-(तदस्य संजातं तारकादिभ्यः इतः ७।४।३१) तारक आदि शब्दों से षष्ठी के अर्थ में इत प्रत्यय होता है, वह शब्द उसमें पैदा हुमा होना चाहिए। तारकाः संजाताः अस्य-तारकितं नभः । पिपासितः, बुभुक्षितः, पुष्पितः, फलितः, हर्षितः, गर्वितः, उत्कर्षितः । प्रयोगवाक्य तपस्विनः शांताः भवेयुः । मायावी किं किं पापं न करोति ? ज्ञानवती गुणवती विद्यावती च भार्या लब्ध्वा प्रकाश: मुमुदे । मरुत्वान् विद्युत्वान् च अयं प्रासादः । दण्डिनं दृष्ट्वा चौरोऽधावीत् । प्रणयिनां स्नेहं को ज्ञातुं शक्नोति ? आचार्यः कृपालुरस्ति । दन्तुरोऽयं पुरुषः कुत्र गच्छति । पिपासितं बुभुक्षितं च बालं दृष्ट्वा जननी अवोचत् । पुष्पितं फलितं च वृक्षं द्रष्टुं छात्राः वर्नेऽगमन् । आचार्यस्य प्रवचनं श्रुत्वा हिंस्राः आजीवनं हिंसां अमुचन् । भगिनी भ्रातरं पत्रे कि अलिखत् ? सुधा साध्वी प्रश्नं पृच्छति । साधवः नारी: नं वापवरूप बनाकर जनता को खुश कर रहा था तुम्हार नगर न पात बनाने वाला कौन है ? भार उठाने वाला इस भार का कितना रुपया लेंगा ? मदारी क्या कर रहा है ? महावीर की प्रतिमा बनाने वाला कुशल कलाकार कहां है ? मोची से जूते कब लाओगे ? संपेरे ने कितने सांप पकडे हैं ? हस्तरेखा देखने वाले ने मुझे कहा कि तुम जीवन में प्रगति करोगे । तड़ित के प्रत्ययों का प्रयोग करो विद्वान् व्यक्ति का सर्वत्र आदर होता है। मंत्री तपस्वियों का आदर करता है । राजा बुद्धिमानों को पुरस्कार देता है । मायावी बहुत पापों का का अर्जन करता है। छत्र वाले और डंडे वाले व्यक्ति को किसने बुलाया है ? इस दुनियां में कौन सुखी है और कौन दुखी ? कंजूस का कोई सम्मान कलाकार कहा ह : मापात जूत फष लाजाग : सपर राग ता 110 हैं ? हस्तरेखा देखने वाले ने मुझे कहा कि तुम जीवन में प्रगति करोगे । तड़ित के प्रत्ययों का प्रयोग करो विद्वान् व्यक्ति का सर्वत्र आदर होता है । मंत्री तपस्वियों का आदर करता है । राजा बुद्धिमानों को पुरस्कार देता है । मायावी बहुत पापों का का अर्जन करता है। छत्र वाले और डंडे वाले व्यक्ति को किसने बुलाया है ? इस दुनियां में कौन सुखी है और कौन दुखी ? कंजूस का कोई सम्मान नहीं करता । वाचाल का कोई विश्वास नहीं करता। - साधुओं का प्रवचन सुनकर नारायण ने मांस खाना छोड़ दिया। कमला ने मां की क्या लिखा था ? धर्मरुचि ने तुमसे क्या पूछा ? जैन मुनि हरियाली को नहीं छूते। सिंह ने गुफा में कब प्रवेश किया ? सीमा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १२ (मत्वर्थ प्रत्यय) १७३ पुस्तक चाहती है । जो उत्पन्न होता है वह अवश्य मरता है। अभ्यास १. हिन्दी में अनुवाद करोयस्तेजस्वी स एव बलवान् । बलमेव संबध्नाति तेज: न तु वयः। विना बलं क्व तस्य कथा ? या मनस्विनी भवति सा प्राणान्तेऽपि न शीलं जहाति । वर्चस्विनां न प्राणाः किञ्चिदपि मूल्यमादधते । स. उपादेयवचनो नूनं यः स्याद् ओजस्वी वक्ता । पुष्पितं फलितं च उद्यानं मनोहरं भवति । बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ? २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस अर्थ में कौन सा प्रत्यय किस शब्द से हुआ है ? पातकी, दयालुः, वाचाटः, कुमारीकः, तुन्दिलः, हली, पुष्पितः, दन्तुरः, उदरी, सर्वकेशी, प्रणयी, दन्तुरः, कलमिलः, कुमारिकः । ३. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो सा विद्यावान् अस्ति । अयं मानवः मतिवान् अस्ति । अत्र स्त्रियोऽपि धनिनः सन्ति । रमा विद्वान् अस्ति । ४. मत्वर्थ किसे कहते हैं ? मतु और वतु प्रत्यय के लिए स्थूल रूप में किस नियम को याद रखना चाहिए ? ५. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ___ शाल्मल:, वीवधिकः, धिग्वणः, अहितुण्डिकः, भारुडः।। ६. मुच्, मुंज और इष् धातु के तिबादि, द्यादि और स्यदादि के रूप लिखो। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५० : तद्धित १३ (स्वार्थिक प्रत्यय) शब्दसंग्रह शोधनम् (अदा करना) । दंडासनं, धर्मासनम् (अदालत) । पुनरावेदनम् (अपील) । न्यासः, निक्षेप: (जमानत)। प्रार्थनापत्रम् (अर्जी)। निर्वाहनपत्रं, प्रतिज्ञापत्रम् (इकरारनामा)। भोगः (कब्जा)। जनपद: (कमिश्नरी) । बलात्ग्रहणम् (कुर्क करना) । बलग्राहः (कुर्की) । बंधनं, प्रग्रहः (कैद)। कारादेशः (कैद का हुक्म) । बन्दी (कैदी)। निरसनं, उपशमनम् (खारिज करना) । आसेधः (गिरफ्तारी)। धातु-रुधन्-आवरणे (रुणद्धि, रुन्धे) रोकना। विचन्पृथग्भावे (विनक्ति, विन्ते) अलग करना । युजन-योगे (युनक्ति,युङ्क्त) जोडना । भिदन्-विदारणे (भिनत्ति, भिन्ते) तोडना। छिदनद्वधीकरणे (छिनत्ति, द्दिन्ते) काटना । भुजंर्-पालनाभ्यवहारयोः (भुनक्ति, भुङ्क्त) पालन करना, खाना । पिष्लुंर्-संचूर्णने (पिनष्टि) पीसना । तनुन्व् -विस्तारे (तनोति, तनुते) विस्तार करना। ___ रुध्, भिद्, पिष् और तन् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ४४ से ४७)। विच से लेकर भुज तक के रूप प्रायः रुध् की तरह चलते हैं (देखें परिशिष्ट २ संख्या ११६, ११४, ११५, ११३) स्वार्थिक प्रत्यय शब्द का जो अर्थ होता है, उसी अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को स्वार्थिक प्रत्यय कहते हैं। शब्द के साथ स्वार्थिक प्रत्यय का योग होने पर स्वार्थिकप्रत्ययान्त शब्द का वही अर्थ होता है जो शब्द का था। नियम नियम ४४७-(विनयादिभ्य इकण ७।४।८४) विनय आदि शब्दों से स्वार्थ में इकण् प्रत्यय होता है। विनयः एव वैन यिकम् । समयः एव सामयिकम् । उपचार: एव औपचारिकम् । व्यवहारः एव व्यावहारिकः । संप्रदायः एव साम्प्रदायिकः । नियम ४४६-(प्रज्ञादिभ्य: ७।४।८८) प्रज्ञ आदि शब्दों से अण् प्रत्यय होता है । प्रज्ञः एव प्राज्ञः । मनः एव मानस: । वणिग् एव वाणिजः । आदि। नियम ४५०–(भेषजादिभ्यो यण् ७।४।६४) भेषज आदि शब्दों Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ तद्धित १३ (स्वार्थिक प्रत्यय) से यण् प्रत्यय होता है। भेषजं एव भैषज्यम् । अनन्तं एव आनन्त्यम् । आवसथः एव आवसथ्यम् । इतिह एव ऐतिह्यम् । नियम ४५१- (चतुर्वर्णादिभ्यष्ट्यण् ७।४।६५) चतुर्वर्ण आदि शब्दों से ट्यण् प्रत्यय होता है । चतुर्वर्ण : एव चातुर्वर्ण्यम् । त्रैलोक्यम्, सार्वलोक्यम्, सान्निध्यम्, सामीप्यम् । नियम ४५२-- (देवात्तल ७।४।६६) देव शब्द से तल् प्रत्यय होता है। देव एव देवता। नियम ४५३- (मृदस्तिक: ७।४।६७) मृत शब्द से तिक प्रत्यय होता है । मृदेव मृत्तिका। नियम ४५४-- (वर्णाव्ययात् स्वरूपे कार: ७।४।६६) अकार आदि वर्ण और अव्यय से कार प्रत्यय होता है। अकारः, ककारः, नमस्कारः, ओङ्कारः। नियम ४५५- (रादेफो वा ७।४।१००) र शब्द से स्वार्थ में एफ प्रत्यय विकल्प से होता है। रेफः, रकारः । नियम ३५६-(नामरूपभागेभ्यो धेयः ७।४।१०१) नाम, रूप, भाग इन शब्दों से स्वार्थ में धेय प्रत्यय होता है । नामधेयम्, रूपधेयम्, भागधेयम् । नियम ४५७- (मादिभ्यो यः ७।४।१०२) मर्त आदि शब्दों से य प्रत्यय होता है । मर्त एव मर्त्यः, सूर्य., भाग एव भाग्यम् । क्षेम्यः, अपराध्यम्, लव्यम् । नियम ४५८-(नवादीनतनत्नञ्च न चास्य ७।४।१०३) नव शब्द से ईन, तन, त्न और य प्रत्यय होते हैं और नव को नू आदेश होता है। नवीनम्, नूतनम्, नूत्नम्, नव्यम् । प्रयोगवाक्य गुरूणां विनयं कुरु । साम्प्रदायिक विवादं जहीहि । मानसं जपं कुरुष्व । अस्मिन् विष्टपे आनन्त्यानि वस्तूनि सन्ति । जिनकल्पिनः साधवः भैषज्यं न नयन्ति । अयं घट: मृत्तिकायाः चकास्ति । दस्यूनां नामधेयं श्रुत्वा बालकाः दधुवुः । पुरुषस्य 'भाग्यं को वुध्यते ? नव्यं वस्तु सर्वेभ्य: रोचते । पापानि रुन्द्धि । हंस: दुग्धं नीरं च विनक्ति । साधुः छिन्नं पात्रं युनक्ति । दुर्जनः मित्राणि भिनत्ति । तक्षकः वृक्षाणि छिनत्ति । बाल: ओदनं भुनक्ति । भूप: पृथ्वी भुङ्क्ते । स मुधा विवादं तनोति । सा गोधूमं पिनष्टि । __ संस्कृत में अनुवाद करो अदालत में आज न्यायाधीश ने क्या फैसला सुनाया ? अपील को खारिज करना या स्वीकार करना किसका काम है ? उसकी जमानत कौन देगा ? छात्र ने अर्जी कब दी थी ? इस इकरारनामे पर किसका नाम है ? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ वाक्यरचना बोध अब कमिश्नरी (जनपद) पर किसका कब्जा है ? पक्षियों को भी कैद अच्छा नहीं लगता। न्यायाधीश ने किसको कैद का हुक्म सुनाया है ? कितने कैदी भाग मये ? गिरफ्तारी का आदेश सुनकर वह रो पडा। सद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो विनय हमारा धर्म है। प्राज्ञ व्यक्तियों का सम्मान करना चाहिए। वणिक् दुकान में बैठा है। रोग को दूर करने के लिए तुमने कौनसी दवा ली ? इस संसार का कोई अन्त नहीं है। देवों का निवास कहां है ? ये बर्तन मिट्टी के हैं। पिताजी ने मुझे क्यों रोका ? चीनी और धूल को अलग किसने किया ? उसने टूटे हुए हृदय को जोड दिया । वृक्ष को नहीं काटना 'चाहिए । शीला ने लड्डू नहीं खाये । मुनि प्रेम का विस्तार करते हैं । धातु का प्रयोग करो सुशील को किसने रोका ? आचार्य भिक्षु ने धर्म और अधर्म को अलग किया था। सज्जन व्यक्ति टूटे हुए दिलों को जोडता है । यह पत्थर किसने तोडा ? वृक्ष को मत काटो। गेहूं किसने पीसे ? मोहन क्या खायेगा ? भगवान महावीर का यश सर्वत्र फैला हुआ है। अस्यास • १. हिन्दी में अनुवाद करो तस्य सामयिकी मंत्रणां श्रुत्वा सोऽमोदत । केवलज्ञानी जनानां मानसिक भावं बोर्बु शक्नोति । तस्य नामधेयं कानि कान्यक्षराणि अलंकरोति ? रूपधेयेन किं ? चेन सन्ति गुणाः । मत्र्येषु अनेकाः जातय: सन्ति । नवीनं किमस्ति संसारे ? गुरूणां सान्निध्ये अतिलाभो भवति । बैनमिके किमन्तः गुणाः सन्ति ? आनन्त्यं जन्म किं लया न कृतम् ? २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस अर्थ में कौन सा प्रत्यय हुआ हैभैषज्यम्, देवता, नमस्कारः, सूर्यः, भागधेयम्, औपचारिक;, नव्यम्, त्रैलोक्यम्, चकारः, पुरस्कारः । ३. स्वार्थिक प्रत्यय किसे कहते हैं ? उससे शब्द के अर्थ में क्या अन्तर आता है ? ४. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ दंडासनम्, प्रार्थनापत्रम्, न्यासः, प्रग्रहः, आसेधः, निरसनम् । ५. रुध, भुज और तन् धातु के तिबादि, धादि, तथा स्यदादि के रूप लिखो। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५१ : तद्धित १४ ( तर, तम, इष्ठ, ईयस् ) शब्दसंग्रह केककिता ( कंघी ) । छत्रम् (छत्ता ) । चित्रम् ( तस्वीर) । वति: ( दीये बत्ती) । वीजनम् ( पंखा ) । प्रतिच्छाया ( फोटो ) । लोमाकर्षकः ( ब्रुश ) पेटकः (संदूक) । शवाच्छादनम् ( कफन ) । पट्टि ( तख्ती ) । श्राद्धम् (मरे के निमित्त देना ) । अरघट : ( अरहट ) । पोटकी ( कोल्हू ) । पेषिणी (चक्की) । जामिक: (चरखा) । धातु — डूक्रींश् — द्रव्यविनिमये ( क्रीणाति, क्रीणीते) खरीदना । ग्रहश् – उपादाने (गृह्णाति, गृह्णीते ) ग्रहण करना । ज्ञांश् – अवबोधने ( जानाति ) जानना । पून् – पवने ( पुनाति, पुनीते ) साफ करना । लून्श्छेदने (लुनाति, लुनीते) काटना । धन्श् – कम्पने ( धुनाति, धुनीते ) कांपना । स्तन्श् - आच्छादने ( स्तृणाति, स्तृणीते) आच्छादन करना । मन्थश्— बिलोडने ( मथ्नाति ) मथना । बन्धंश् — बन्धने ( बध्नाति) बांधना । मुषश्स्तेये (मुष्णाति ) चुराना । अशश् - भोजने ( अश्नाति ) खाना । पुषश् – पुष्टौ ( पुष्णाति ) पुष्ट करना । की, ग्रह और ज्ञा धातु के रूप याद करो । ( देखें परिशिष्ट २ संख्या १७,४६,४८) । पून्श् से लेकर पुषश् धातु के रूप दिबादि तक और अशशु के तुबादि तक ग्रह की तरह चलते हैं । शेष रूप परिशिष्ट २ में देखें ( संख्या ११८ से १२४) । तर, तम, इष्ठ, इयस् दो की तुलना में एक को उससे अच्छा बताने के लिए तर और सबसे अच्छा बताने के लिए तम प्रत्यय आता है । अयं अनयोः प्रकृष्टः पटुः - पटुतरः । इन दोनों में यह पटु है । इसी प्रकार आढ्यतरः, कुशलतरः । अयं एषां प्रकृष्टः शुक्ल:- शुक्लतमः ( यह सबसे अधिक सफेद है ) । पटुतमः - यह सब में पटु है । नियम ४५६ - ( गुणाङ्गादिष्ठेयसू तदर्थे वा ८।२।५ ) तर के अर्थ में ईयस् और तम के अर्थ में इष्ठ प्रत्यय होता है । पटुतर: पटीयान् । पटुतम: पटिष्ठः । लघिष्ठः, लघुतमः । गुरुतमः, गरिष्ठः । 1 नियम ४६० - ( स्थूलदूरयुव० ८|४|४२ ) स्थूल, दूर, युव, क्षिप्र, क्षुद्र इन शब्दों में य,र,ल,व, का लोप हो जाता है और गुण हो जाता है ञि, इष्ठ, और ईयस् प्रत्यय परे होने पर । स्थूल - स्थविष्ठः, स्थवीयान् । दूर – दविष्ठः, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ वाक्यरचना बोध दवीयान् । युवन् – यविष्ठः, यवीयान् । क्षिप्रक्षेपिष्ठः, क्षेपीयान् । क्षुद्रक्षोदिष्ठः, क्षोदीयान् । नियम ४६१ - ( युवाल्पयोः कन् वा ८ | ४ | ३ ३ ) युवन् और अल्प -शब्द को कन् आदेश विकल्प से होता है ञि, इष्ठ, ईयस् प्रत्यय परे होने पर । अतिशयेन युवा - कनिष्ठः, यविष्ठः । अतिशयेन अल्पः कनिष्ठः, अल्पिष्ठः । अयं अनयोः युवा – कनीयान् यवीयान् । अयं अनयोः अल्पः = कनीयान्, अल्पिष्ठः । नियम ४६२- - ( प्रशस्यस्य श्रः ८ | ४ | ३४) प्रशस्य को श्र आदेश होता है, त्रि, इष्ठ, ईयस् प्रत्यय परे होने पर । श्रेष्ठः, श्रेयान् । नियम ४६३ - ( वृद्धस्य च ज्य: ८|४ | ३५ ) वृद्ध और प्रशस्य को ज़्या आदेश होता है, त्रि, इष्ठ, ईयस् प्रत्यय परे होने पर । ज्येष्ठः ( यह सब में वृद्ध या सब में प्रशस्य है ) । ज्यायान् निपात है | ज्यायान् ( उससे यह वृद्ध या प्रशस्य है ) । स्त्रीलिंग में ईयस् प्रत्ययान्त शब्दों से ईप् होता है । पटीयसी, ज्यायसी इत्यादि । विभक्तियों के अर्थ में प्रत्यय नियम ४६४ - ( अहीरुहोऽपादाने ८।१।१०५ ) अपादान के अर्थ में पंचमी विभक्ति होती है, उस पंचम्यन्त पद से तसु ( तस्) प्रत्यय होता है, हीयते और रुह धातु को छोडकर । ग्रामतः आगच्छति । चोरतो बिभेति । नियम ४६५ - (किमद्वयादिसर्वाद्यऽवैपुल्यबहोस्तस् ८|१|१०६) कि शब्द, सर्व आदि शब्द (द्वि आदि शब्द छोडकर) और बहुशब्द ( विपुलता - का अर्थ छोडकर ) से पंचमी विभक्ति के स्थान पर तस् प्रत्यय होता है । सर्वस्मात् - सर्वतः । विश्वतः, ततः, यतः बहुतः । नियम ४६६ - ( इतोतः कुतः ८।१।०७) अस्मात् - इतः । एतस्मात् - अतः । कस्मात् — कुतः, ये निपात हैं । नियम ४६७ - (सप्तम्याः ८|१|११० ) सप्तम्यन्त पद से त्र प्रत्यय होता है । सर्वस्मिन् — सर्वत्र । तस्मिन् — तत्र । यस्मिन् — यत्र । नियम ४६८ - ( कुत्रात्र - क्व - कुहेह ८।१।१११ ) कस्मिन् — कुत्र, क्व, कुह । एतस्मिन् — अत्र । अस्मिन् — इह । ये निपात हैं । नियम ४६६ - (किमन्यैक सर्वयत्तदः काले दा ८।१।११२) किम्, अन्य, एक, सर्व, यत्, तत् इन शब्दों से सप्तमी विभक्ति काल अर्थ की वाचक हो तो दा प्रत्यय होता है । कस्मिन् काले - कदा | अन्यदा, एकदा, सर्वदा, यदा तदा । नियम ४७० - (सदाधुनेदानीं तदानीमेतहि ८।१।११३ ) सर्वस्मिन् काले- सदा । अस्मिन् काले - अधुना इदानीम् एतर्हि । तस्मिन् काले - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १४ (तर, तम, इष्ठ, ईयस्) १७६ तदानीम् ये शब्द काल अर्थ में निपात हैं । नियम ४७१- (प्रकारे था ८।१।११६) प्रकार अर्थ में था प्रत्यय होता है । सर्वेण प्रकारेण- सर्वथा । यथा, तथा, अन्यथा । नियम ४७२- (कथमित्थम् ८।१।१२०) ये निपात हैं । केन प्रकारेण -कथम् । अनेन प्रकारेण-इत्थम् । प्रयोगवाक्य पांडवेषु को गुरुतमः आसीत् ? अयं गौः सर्वेषु स्थविष्ठोऽस्ति । महेन्द्रस्य गृहं सुरेन्द्रगृहात दविष्ठमस्ति । वीरेन्द्रः नरेन्द्रात् श्रेष्ठोऽस्ति । अस्मिन् गृहे यः सर्वेषु ज्येष्ठोऽस्ति तं एतद् पृच्छ । वृक्षतः पत्राणि पतन्ति । इतः एको मुनिरगमत् । निर्मला कुत्र गमिष्यति? सर्वदा जिनं ध्याय । अहं त्वया सह वार्तामकार्षम् तदा कः समायात् ? इत्थं मा वद । जननी इमानि वस्त्राणि अषीत् अक्रेष्ट वा । साधवः कदा भिक्षां ग्रहीष्यन्ति ? कृषक: धान्यानि पुनाति । वृक्षाणि मा छिन्द्धि । एतां वार्ती निशम्य तस्य हृदयं अधुनात् । सत्यं मा स्तृणीहि । माता रज्ज्वा पुत्रं बध्नाति । कस्यापि वस्तु मा मुष्णीहि । भगिन्यः भोजनं अश्नन्ति । दुग्धं शरीरं पुष्णाति । ___ संस्कृत में अनुवाद करो नानाजी की कंघी और छत्ता कहां है ? यह भगवान महावीर की तस्वीर है। क्या दीये की बत्ती जल रही है ? शहरों में प्रायः घरों में पंखे होते हैं । यह किसकी फोटो है ? ब्रुश से दांत साफ करो। संदूक में श्यामा के कपडे नहीं है । यह मृत का कफन है । बच्चे तख्ती पर लिखते हैं । आज किसका श्राद्ध है ? अरहट पर पानी कौन भर रहा है ? कोल्हू में क्या है ? चक्की में क्या पीसोगे ? गांधीजी चरखा से क्या करते थे ? तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो राम और लक्ष्मण में कौन चतुर था ? मोहन और सोहन में कौन धनवान् है ? विनोद सब में पटु है । साध्वियों में कौन सबसे छोटी साध्वी है ? साधुओं में कौन सबसे बडा साधु है ? रमा और सुशीला में कौन युवती है ? क्या यहां से एक बकरा गया था ? यह मधुर आवाज कहां से आई ? एक बार शीघ्र मेरे साथ आओ । बडों का सदा सम्मान करना चाहिए । आचार्य श्री कब आयेंगे ? धातु के प्रयोग करो सीमा क्या खरीदेगी ? अच्छी बातें ग्रहण करो। लडकियां धान कब साफ करेगी ? सुशील वृक्ष नही काटेगा । रमा क्यों कांपती है ? पिता ने पुत्र को क्यों बांधा ? सेठ का धन किसने चुराया ? बालक क्या खायेगा ? उसका शरीर कैसे पुष्ट हुआ ? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० वाक्यरचना बोध अम्यास १. हिंदी में अनुवाद करोमदनः स्थविष्ठोऽस्ति । अनयोः वस्त्रयोः किं शुक्लतरमस्ति ? एषु को ज्येष्ठोऽस्ति ? बालिकासु का पटुतमास्ति ? विमलानंदयोः का पटीयसी चकास्ति ? चन्दनबाला संघे साध्वीतमा बभूव । २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस शब्द से कौन सा तद्धित प्रत्यय हुआ है ? . दवीयान्, यविष्ठः, स्थवीयान्, यवीयान्, क्षोदीयान्, कुत्र, यदा, इतः, अतः, श्वेष्ठः। . ३. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ में दूसरे शब्द क्या हो सकते हैं ? .... साधुतरः, स्थविष्ठः, दवीयान्, क्षोदिष्ठः, मधुरतमः, गुरुतरः, ज्यायसी, अन्यथा, अतः, इतः, इत्थं, कुह, इह, अत्र, कदा, तदानीम् । ४. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ केककिता, वीजनम्, पेटकः, पोटकी, पेषिणी, जामिकः । ५. क्री और ग्रह, धातु के दिबादि, णबादि तथा स्यत्यादि के रूप लिखो। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५२ : तद्धित १५ (ईषदसमाप्त, अभूततद्भाव आदि) शब्दसंग्रह गंजः (अनाज की मंडी)। यंत्रगृहम् (कोल्हुघर)। कूटागारम् (क्लब)। संधानी (धातु पिघलाने का कारखाना)। निषद्या (मंडी)। वपनी, खरकुटी (नाई की दुकान) । हट्टतालम् (हडताल) । कच्छपः (शराब का कारखाना) । भूमिपालः (जागीरदार) । पटराज्ञी, महिषी (पटरानी) । राजद्रोहः, विप्लव: (बगावत)। महाराज्ञी (बडी रानी)। राजाधिराजः (शहंशाह) । सामंतः (बडा जमींदार)। धातु-चुरण-स्तेये (चोरयति) चुराना। पूजण्—पूजायाम् (पूजयति) पूजा करना । पलण्-रक्षणे (पालयति) रक्षा करना। स्निहण्स्नेहने (स्नेहयति) स्नेह करना । मन्त्रल-गुप्तभाषणे (मन्त्रयते) मन्त्रणा करना। स्पृहण्-ईप्सायाम् (स्पृहयति) चाहना। मार्गण-अन्वेषणे (मार्गयति) खोजना। हिसिण्–हिंसायाम् (हिंसयति) हिंसा करना । रचण्–प्रतियत्ने (रचयति) बनाना। चुर् और पूजण् धातु के रूप याद करो। (देखें परिशिष्ट २ संख्या ५०,१२५) । पलण से लेकर रचण् धातु के रूप दिबादि तक चुर् की तरह चलते हैं। शेष रूप परिशिष्ट में देखें (संख्या १२६ से १३२ तक)। ईषद् असमाप्त, अभूततद्भाव नियम ४७२-(त्यादेश्च प्रशंसायां रूपः ८।२।६) तिप आदि अंत वाले धातु के रूप और नाम से प्रशंसा के अर्थ में रूप प्रत्यय आता है । जैसेकलाकाररूप:-यह कुशल कलाकार है। पठतिरूपं-बहुत अच्छा पढता है । जिस शब्द के आगे रूप प्रत्यय लगाएंगे वह पुल्लिग है तो रूपः, स्त्रीलिंग है तो रूपा, नपुंसकलिंग है तो रूपं बनेगा। पठति आदि क्रिया के आगे नपुंसकलिंग का एक वचन 'रूपं' ही रहेगा। नियम ४७३-(पाशः क्षेपे ८।२।११) निंदा के अर्थ में पाश प्रत्यय होता है । जैसे—कलाकारपाशः । वैयाकरणपाशः । याज्ञिकपाशः । कुत्सिता कुमारी-कुमारपाशा । स्त्रीप्रत्यय पुंवत् हो जाता है। नियम ४७४- (प्रकृते मयट ८।२।१५) जिस वस्तु के निष्पन्न में Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ वाक्यरचना बोध जिसकी प्रचुरता या प्रधानता हो उसे प्रकृत कहते हैं । प्रकृत अर्थ में होने वाले नाम से मयट प्रत्यय होता है। जिस मिठाई में घृत की प्रधानता है उसे घृतमयं कहेंगे । वैसे ही दधिमयं शाकम् । नियम ४७५-- (अस्मिन् ८।२।१६) प्रकृत अर्थ में होने वाले नाम से सप्तमी के अर्थ में मयट् प्रत्यय होता है। अन्नं प्रकृतं अस्मिन् –अन्नमयं भोजनम् । अपूपमयं पर्व । नियम ४७३- (कुत्सिताल्पाज्ञातेषु ८।२।४७) कुत्सित, अल्प और अज्ञात इन तीन अर्थों में कच् प्रत्यय होता है। तीनों में जितने अर्थ नाम के साथ लग सकते हों लगाना चाहिए। जैसे-घृतकं, तैलकं । यहां तीनों अर्थ लग सकते हैं। अश्वकः, वृक्षकः, पटकः इत्यादि । नियम ४७७-(ह्रस्वे ८।२।६०) ह्रस्व अर्थ में शब्द और क्रिया के रूप से कच् आदि प्रत्यय होते हैं । ह्रस्व: पट:-पटकः । वृक्षकः, वंशकः, वेणुकः, नरकः, वरकः, शाटकः । ह्रस्वे पचति-पचतकि । ___ नियम ४७८- (त्यादिसर्वादेरक् प्राक् टे: ८।२।४३) त्याद्यन्त और सर्वादि शब्दों से कुत्सित, अल्प, अज्ञात अर्थ में अक् प्रत्यय होता है टि से पहले । ह्रस्वं पचति- पचतकि । पचतकः । पचन्तकि । सर्वे ह्रस्वः-सर्वके, विश्वके । नियम ४७६-(अभूततद्भावे ....८।२।१८) जो नहीं था उसका उस रूप में होने को अभूततद्भाव कहते हैं । कृ, भू और अस् इन तीन धातुओं के योग में अभूततद्भाव के अर्थ में च्चि प्रत्यय होता है। नियम ४८०-(ईश्च्वाववर्णस्याऽनव्ययस्य ४।१।६०) अव्यय को छोडकर अवर्णान्त शब्द के अन्तिम अ के स्थान पर ई हो जाता है और च्वि प्रत्यय का लोप हो जाता है। अशुक्लं शुक्लं करोति-शुक्लीकरोति वस्त्रम् । अशुक्लः शुक्लो भवति-शुक्लीभवति, शुक्लीस्यात् वस्त्रम् । नियम ४८१- (च्चियग्यफ्यादादियक्येषु ४।१।५१) चि आदि प्रत्यय परे होने पर पूर्वस्वर दीर्घ हो जाता है। अशुचिं शुचि करोति-शुचीकरोति । शुचीभवति । शुचीस्यात् । नियम ४८२-(कात्स्न्ये साद् वा ८।२।२२) सम्पूर्ण रूप से परिवर्तन होने पर सात् प्रत्यय विकल्प से होता है । सर्वं काष्ठं अनग्नि अग्नि करोतिअग्निसात् करोति, अग्निसात् भवति, अग्निसात् स्यात् । पक्ष में अग्नीकरोति, अग्नीभवति, अग्नीस्यात् ।। नियम ४८३- (अतमादेरीषदसमाप्ते कल्पदेश्यदेशीयाः ८।२७) तम आदि रहित त्याद्यन्त और नाम से ईषद् असमाप्त (पूर्णता में थोडी कमी) के अर्थ में कल्प, देश्य, देशीय प्रत्यय होते हैं । ईषद् असमाप्तं पचतिपचतिकल्पं, पचतिदेश्य, पचतिदेशीयम् । ईषद् असमाप्तं गुड:-गुडकल्पा. द्राक्षा, गुडदेश्या द्राक्षा, गुडदेशीया द्राक्षा। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १५ ( ईषदसमाप्त, अभूततद्भाव आदि ) १८. नियम ४८४ - ( नाम्नः प्राग् बहुर्वा ८२८ ) ईषद् असमाप्त अर्थ में नाम से बहु प्रत्यय होता है और वह नाम से पहले लगता है । ईषद् असमाप्तः पटुः– बहुपटुः । बहुभुक्तं, बहुमृदु:, बहुपीतम् । प्रयोगवाक्य : महेन्द्रः वदतिरूपम् । मधुकरः गायकरूपोऽस्ति । अयं कविपाशः कुत्र याति ? अलंकारमयी भाषा केभ्यः न रोचते । सा घृतकं शाकं खादति । शिशुः धूल्या अमलिनं वस्त्रं मलिनीकरोति । मंगलायाः पुस्तकं कः अचूचुरत् ? पितामही जिनं अपूपुजत् । जननी शिशुं पालयति । भ्राता भगिनीं स्नेहयति । भूपः अमात्येन साकं मन्त्रयते । दीनः धनं स्पृहयति । गां क: अहिंसयत् ? कविः काव्यं रचयति । सम्यक् मार्ग अन्वेषय | संस्कृत में अनुवाद करो अनाज की मंडी नगर से कितनी दूर है ? कोल्हुघर में कौन जा रहा । नाई की दुकान पर किस शहर में शराब है ? शहरों में अनेक क्लब हैं। मंडी में अनेक दुकानें हैं आज कोई नहीं है । आज अध्यापकों की हडताल है । का कारखाना है । जागीरदार भूमि की सुरक्षा करता है। रानी दोनों क्या कर रही थी ? बगावत करने वालों को किसने पकडा ? राजकुमार का राजतिलक कब होगा ? शहंशाह यहां कब आयेंगे ? पटरानी और बडी तद्धित के प्रत्ययों का प्रयोग करो सुशील कुशल गायक है । जयप्रज्ञा अच्छा गाती है । कलाकारों में कौन निम्न है ? यह सब्जी लवणमय है । यह स्थान वृक्ष रहित है । आचार्य अपटु को भी पटु बना देते हैं । इस बात को किसने आत्मसात् किया है ? यह तैल खराब है । धातु का प्रयोग करो आजकल लोग साहित्य की चोरी करते हैं । जिनेश्वर देव की भाव पूजा करो। अपनी रक्षा करो। माता पुत्र पर स्नेह करती है । आचार्य श्री किससे मन्त्रणा करते हैं ? तुम क्या चाहते हो ? आत्मा को खोजो । तुमने कौन-सा काव्य बनाया है ? मृग को किसने मारा है ? अभ्यास १. हिन्दी में अनुवाद करो— ये मनो वशीकुर्वन्ति ते सफलीकुर्वन्ति पौरुषं जन्म । अहिंसा न केवलं कृतान्तकार्या अपितु स्वीकार्या । यो देवीभवति सोऽपि मानवीभवितुमभिलषति । गृहस्वामी गां अन्वेषयति । एतद् वस्तु कः अचूचुरत् ? मुनिसुव्रतः गायकरूपोऽस्ति । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ वाक्यरचना बोध २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो और बताओ किस शब्द से न स तद्धित प्रत्यय हुआ है वैयाकरणपाशः, दुग्धमयम्, शुचीकरोति, अग्निसात् करोति, अश्वकः, पटू भवति, बहुपयो यवागुः, बहुवितम् पचन्तिकल्पम्, बहुचन्द्रो मुखम्, पक्ष्यतिदेशीयम्, पण्डितरूपः, मणितज्ञपाश:, घृतमयम्, शाटक:, दुग्धकम् । ३. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताओ कूटागारम्, वपनी, भूमिपालः, विप्लवः, कच्छप:, यंत्रगृहम् । ४. चुर् और पूजण धातु के तिबादि, द्यादि तथा स्यत्यादि के रूप लिखो । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५३ : क्रियाविशेषण शब्दसंग्रह केसरी (केसरिन्) शेर । द्वीपी ( द्वीपिन्) व्याघ्र, बघेरा । तरक्षुः ( तेंदुआ ) । भल्लूक: ( भालू ) । शाखामृग: (बन्दर) । गोमायुः ( गीदड ) | वराहः (सूअर ) । वृकः ( भेडिया ) । कुरङ्गः (हिरण) । उक्षा ( उक्षन् ) बैल | लोमशा ( लोमडी) । महिष : ( भैंसा ) । अज: ( बकरा ) । मेषः ( भेड ) | कौलेयक : (कुत्ता) । सरमा ( कुतिया ) । खर: ( गदहा) | मार्जारी (बिल्ली ) । वृश्चिक : ( बिच्छू ) । गोधा ( गोह ) । गृहगोधिका ( छिपकली ) । लूता ( मकडी ) । कर्णजलौका ( कानखजूरा, गोजर) । मीन: (मछली) । कुलीर: ( केकडा) । कच्छप: ( कछुआ ) । नत्र : ( मगर ) । भेक: (मेंढक ) । क्रियाविशेषण । विशेषण विशेष्य की अवस्था को प्रगट करता है । विशेष्य में जो लिंग, विभक्ति, और वचन होते हैं वे ही विशेषण में किए जाते हैं । क्रियाविशेषण क्रिया की अवस्था बताता है भाव को क्रिया कहते हैं । भाव में प्रत्यय होने पर जो लिंग, वचन होते हैं वे ही क्रियाविशेषण में होते हैं । ( भावस्यैकत्वात् एकवचनमेव ) भाव (क्रिया) में एकवचन ही होता है । लिंगानुशासन के अनुसार भाव में नपुंसकलिंग होता है । (f (क्रियाविशेषणात् २|४| ४८ ) सूत्र से क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति होती है । क्रिया परिवर्तनशील होती है । कहीं वह कर्ता के अनुसार चलती है और कहीं वह कर्म के अनुसार । कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य वाक्य होने पर भी क्रियाविशेषण में एकवचन और नपुंसकलिंग रहता है । जैसे— १. घनाघनाः पटु ध्वनन्ति । २. वेगं पतति पानीयम् दो नम्बर के वाक्य में पतति क्रिया एक वचन की है और वेगं क्रियाविशेषण भी एक वचन और नपुंसकलिंग में है । एक नम्बर के वाक्य में ध्वनन्ति क्रिया कर्तृवाच्य में कर्ता के कारण बहुवचन में है परन्तु क्रियाविशेषण पटु एकवचन और नपुंसकलिंग में है । कुशलं नृत्यन्ति, मन्दं गच्छति, मधुरं गायति इन सभी स्थानों पर क्रिया बहुवचन में है परन्तु क्रियाविशेषण एक वचन और नपुंसकलिंग ही है । क्रिया वाच्य के अनुसार अपना रूप बदल लेती है, पर क्रियाविशेषण भाव में प्रत्यय के अनुसार ही चलता है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ वाक्यरचना बोध प्रयोगवाक्य सोहनः शनैः शनैः भुङ्क्ते । मृगः तीव्रं धावति । दुर्जन: मधुरं वक्ति । कटु मा वद । नद्याः नीरं तीव्रं प्रवहति । अध्यापकः छात्रान् सुष्ठु पाठयति । भूपः दुष्टान् क्रूरं मारयति । पक्षिणः मधुरं गायन्ति । सुशील: वस्त्राणि - सम्यक् परिधत्ते । अस्मिन् वने अनेके केसरिणः द्वीपिनश्च निवसन्ति । शाखामृगः इतस्ततः धावति । रजकस्य गृहे एकः खरोऽस्ति । मार्जारी मूषकं हन्ति । सरमा गेहे गेहे भ्रमति । संस्कृत में अनुवाद करो जंगल में अनेक हिंसक पशु रहते हैं । लोग शेर, बाघ, तेंदुआ और भालू से डरते हैं। बन्दर चंचल होता है । क्या तुमने गीदड, सूअर, और भेडिया देखा है ? हिरण तेज दौडता है । मम्मन सेठ के बैल को देखने के लिए राजा श्रेणिक भी उसके घर गया था । लोग बकरे और भैंसे की बलि क्यों देते हैं ? कुत्ते ने किसको काटा ? कुतिया के कितने बच्चे हैं ? यह हा किसका है ? रात्रि में बिल्ली क्यों घूमती है ? बिच्छू के काटने से वह मर गया । पानी के बिना मछली मर जाती है । केकड़ा आदि पानी में रहते हैं । कछुआ, मगर, मेंढक, क्रियाविशेषण के प्रयोग करो साध्वियां सुंदर गाती हैं । बालक तेज दौडता है । बालिका मधुर बोलती है । बूढा धीरे-धीरे चलता है । पिताजी सत्य बोलते हैं । रमेश सुंदर लिखता है। आंखों से बुरा मत देखो । कानों से बुरा मत सुनो। मुंह से बुरा मत बोलो। बालिका जोर से बोलती है । लोकप्रकाश अच्छा बोलता है । अभ्यास १. क्रियाविशेषण में एक वचन और नपुंसकलिंग क्यों होता है ? २. क्रियाविशेषण में कौन-सी विभक्ति होती है ? ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ और उन्हें वाक्यों में प्रयुक्त करो भेडिया, बैल, बिच्छू, केकडा, मगर, लोमडी, भालू । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५४ : जिन्नन्त १ शब्दसंग्रह ( जिन्नन्त रूप ) भावयति, भावयते (भू) हुवाता है । यावयति (युंक्) जुडवाता है । श्रावयति (श्रु) सुनवाता है । घटयति ( घट्) चेष्टा करवाता है । स्मारयति ( स्मृ ) याद करवाता है । वेष्टयति (वेष्ट्) वेष्टित करवाता है । जनयि ( जनी ) उत्पन्न करवाता है । स्थापयति (ष्ठा ) ठहरवाता है । जापयति (जि) जीताता है । रोपर्यात, रोहयति ( रुह ) उगवाता है । पालयति (पांक्) रक्षा करवाता है । लम्भयति ( लभि ) ठगवाता है । तारयति (तु) पार करवाता है । लङ्घयति ( लघि) लंघन करवाता है । लुञ्चयति (लुञ्च् ) लुंचन करवाता है | अर्जयति (अर्ज) अर्जन करवाता है । त्याजयति ( त्यज्) छुडवाता है। लुण्टयति (लुटि) लुटवाता है । पाठयति ( पठ् ) पढाता है । भणयति ( भण्) कहलाता है । खादयति ( खाद् ) खिलाता है । लेखयति ( लिख) लिखवाता है । कारयति ( कृ ) करवाता है । चोरयति (चुर्) चुरवाता है । गमयति ( गम् ) भेजता है । धातु — भू धातु के जिन्नन्त के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट ३ ) । जिन्नन्त जहां एक कर्ता को दूसरा कर्ता कार्य करने को प्रेरित करता हो वहां संस्कृत में धातुओं से त्रिन् प्रत्यय होता है । ञिन्प्रत्ययान्त प्रत्येक धातु उभयपदी होती है । जिन्नन्त में प्रत्येक धातु के दो कर्ता होते हैं - एक मुख्य और दूसरा गौण । प्रेरित करने वाला मुख्य होता है और जिसे प्रेरित किया जाता है वह गौण | मुख्य कर्ता में प्रथमा विभक्ति और गौण कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे – शिष्यः कार्यं करोति ( मूलवाक्य) जिन्नन्त - गुरुः शिष्येण कार्यं कारयति । इसी प्रकार मुनिः श्रावकेण तपः कारयति । नृपः भृत्येन कार्यं कारयति । कुछ धातुओं के योग में गौण कर्ता की कर्मसंज्ञा होती है । नीचे के नियम देखें नियम नियम ४८५ - ( गतिबोधाहारशब्दार्थाकर्मणाम् २।४।२१ ) गति, बोध, आहार और शब्द अर्थवाली धातुओं तथा अकर्मकधातुओं के योग में गौणकर्ता की कर्मसंज्ञा हो जाती है । जैसे -- भरतः सुशीलं ग्रामं गमयति । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ वाक्यरचना बोध आचार्यः शिष्यं धर्म बोधयति । माता शिशुं ओदनं भोजयति । श्याम: मैत्रं मन्त्रं जल्पयति । आसयति विजयं माता। नियम ४८६-(न नीखाद्यदिहाशब्दायक्रन्दाम् २।४।२६) नी, खाद् अद्, ह्वा, शब्दाय, क्रन्दय-इन धातुओं के योग में गोणकर्ता की कर्मसंज्ञा नहीं होती। मूलवाक्य-भृत्यः भारं नयति । निन्नन्त श्रेष्ठी भृत्येन भार नाययति। इसी प्रकार खादयति अन्नं मैत्रेण श्यामः । आदयति अपूपं पुत्रेण माता। रामः मैत्रेण चैत्रं हाययति, शब्दायति, ऋन्दयति वा। नियम ४८७-(अविवक्षितकर्मणामनिनकर्ता नौ वा २।४।२०) वाक्यों में जहां कर्म की विवक्षा न की जाए वहां गौण कर्ता की कर्म संज्ञा विकल्प से होती है। मूलवाक्य--श्यामः लिखति । निन्नन्त-विमल: श्याम लेखयति, विमल: श्यामेन लेखयति । सुशीला कमलां पाचयति, सुशीला कमलया पाचयति । जिन्नन्त में दो कर्ता होते हैं वैसे ही द्विकर्मक धातुओं के योग में कर्म भी दो होते हैं। वहां किस कर्म में प्रत्यय करना चाहिए इसके लिए नीचे लिखे दो श्लोक मननीय हैं गौणे कर्मणि दुह्यादेः, प्रधाने नीहृकृष्वहाम् । आहारबोधशब्दार्थ-निन्नन्तानां निजेच्छया ॥१॥ गत्यर्थाऽकर्मकाणां तु, प्रधाने हृकृनोस्तथा। कर्मजाः प्रत्ययाः प्रोक्ता श्चात्मनेऽभिवदे दंशेः ॥२॥ नी, ह, कृष्, वह --इन धातुओं के योग में प्रधान कर्म में प्रत्यय होता है मूलवाक्य-गोपालः अजां ग्रामं नयति । प्रधान कर्म में प्रत्यय-गोपाल: अजा ग्राम नीयते । इसी प्रकार रामेण ग्रामं शाखा कृष्यते । मैत्रेण ग्राम भारो उह्यते । आहार, बोध और शब्द अर्थवाली सभी धातुओं से जिन्नन्त में इच्छानुसार प्रत्यय किया जा सकता है। मूलवाक्य-(आहार अर्थ धातु) जिनेश: अतिथि मोदकं भोजयति । प्रधान कर्म-जिनेशेन अतिथिं मोदक: भोज्यते । गौण कर्म-जिनेशेन अतिथिः मोदकं भोज्यते । मूलवाक्य (बोध अर्थ धातु)-आचार्यः शिष्यं धर्म बोधयति । प्रधानकर्म-आचार्येण शिष्यं धर्मः बोध्यते । गौणकर्म-आचार्येण शिष्यो धर्म बोध्यते । इसी प्रकार—पाठ्यते शिष्यो ग्रंथं अध्यापकेन । पाठ्यते शिष्यं ग्रंथ : Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्नन्त १ १८६. अध्यापकेन । बिन्नन्त गतिअर्थवाली धातु, अकर्मकधातु जिन्नन्त हृ और कृन् धातु, अभिपूर्वक वद् धातु और दृश् धातु ये दोनों भिन्नन्त में आत्मनेपद हो तो प्रधान कर्म में प्रत्यय होता है । मूलवाक्य - चैत्रः मैत्रं ग्रामं गमयति । प्रधान कर्म में – चैत्रेण मैत्री ग्रामं गम्यते । मूलवाक्य - चैत्रः मैत्रं मासं आसयति । ( प्रधान कर्म ) चैत्रेण मैत्रः मासं आस्यते । मूलवाक्य — हारयति भारं भृत्यं भृत्येन वा श्यामः । प्रधानकर्म -हार्यते भारो भृत्यं भृत्येन वा श्यामेन । मूलवाक्य — कारयति कटं चैत्रं चैत्रेण वा सुयशः । प्रधानकर्म — कार्यते कट: चैत्रं चैत्रेण वा सुयशसा । मूलवाक्य — अभिवाद्यते गुरुं शिष्यं शिष्येण वा श्रावकः । प्रधानकर्म – अभिवाद्यते गुरुः शिष्यं शिष्येण वा श्रावकेण । मूलवाक्य --- दर्शयते राजानं भृत्यान् भृत्यै र्वा कपिलः । प्रधानकर्म – दर्श्यते राजा भृत्यान् भृत्यैर्वा कपिलेन । जिन्नन्त से भाव कर्म गण की धातुओं की तरह भिन्नन्त की धातुओं से भी भावकर्म बनाएं जाते हैं । उसका सरल साधन यह है — त्रिन्नन्त की धातु के अंतिम 'इ' को हटाकर उसके स्थान पर 'यते' लगा देना चाहिए। जैसे – जिन्नन्त धातु - कारि है । भावकर्म में रूप बनेगा – कार्यते । हारि-हार्यते । पाठि - पाठ्यते । तापि – ताप्यते । गण की धातुओं से क्त प्रत्यय होता है और भावकर्म के प्रत्यय लगाकर धातु के रूप चलाए जाते हैं वैसे ही भिन्नन्त की धातुओं से भी क्त प्रत्यय होता है और उसके भी भावकर्म के रूप बनाए जाते हैं । जैसे— क - विशालाऽपि सुरैः समेतैः संकीर्णतां नन्दनभूरलम्भि ( प्रापिता) । ख - अणहिलेन वनराजभाजो नगरनिवेशं स्वनाम्ना कारितः इति अणहिलनगरम् । आए हुए देवताओं ने उस विशाल नन्दनभूमि को संकीर्ण बना दिया । इसमें 'अलम्भि' यह जिन्नन्त से भावकर्म का प्रयोग है । संकीर्णता और नन्दन - भूः ये दो कर्म हैं । मुख्यकर्म में प्रथमा एवं गौणकर्म में द्वितीया है । अणहिल ने वनराजा से अपने नाम का नगर बनवाया । कारितः यह कर्म में क्त प्रत्यय है । जिन्नन्तानां निजेच्छ्या के अनुसार जिन्नन्त से कर्म में प्रत्यय मुख्य कर्म से भी किया जा सकता है एवं गौण कर्म से भी । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१६० वाक्यरचना बोध प्रयोगवाक्य विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं, सुगतिकुगतिमागौं पुण्यपापे व्यनक्ति । अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयो, भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥ भगिनी भ्रातरं स्वगृहे स्थापयति । दासः स्वामिना वार्ता स्मारयति । तात: पुत्रेण भृत्यकर्म त्याजयति । तात: पुत्रेण पत्रं लेखयति । गुरुः शिष्यं पाठं पाठयति । स्वामी कर्मकरेण आम्रवृक्षं आरोहयेत् । नाविकः यात्रिभिः नदी उत्तारयतु । माता पुत्रेण चन्द्रं दर्शयिष्यति । गृहपत्नी मेखला मंजूषायां अस्थापयत् । मोहनः भृत्येन भारं नाययति । माता पुत्रेण क्षीरं आदयति । तातः पुत्रं फलं भोजयति । सुरेशः रमेशं टमकोरं गमयति । रमा सीतया सुशीलां ह्वाययति । आचार्यः शिष्यं मन्त्रं जल्पयति । आचार्य हेमचन्द्रः शिष्यं धर्म बोधयति । स्वयंसेवकः बालकं आसयति । तातेन पुत्रेण भृत्यकर्म त्याज्यते । आचार्येण शिष्येण वार्ता स्मार्यते । संस्कृत में अनुवाद करो (मिन्नन्त का प्रयोग करो) नरेश सुमति से पात्र जुडवाता है। आचार्यश्री जनता को संतों से भजन सुनवाते हैं । अध्यापक बिद्यार्थी से भाषण बोलने की चेष्टा करवाता है। मंथरा ने कैकयी से दशरथ को दिये गये वचन की याद करवाई। किसान मजदूर से खेतों में गेहूं उगवाता है। सेना राजा को शत्रुओं से जीताती है। राजा सेना से नगर की रक्षा करवाता है। नरेन्द्र दुर्जन से सेठ को ठगवाता है । नाविक नौका से यात्रियों को पार करवाता है। वैद्य माता से बच्चे को लंघन करवाता है । धर्मेश उदित से केश-लुंचन करवाता है। सास बहू से पत्र लिखवाती है। मोहन सोहन से काम करवाता है। दुर्जन नौकर से धन चुरवाता है। गुरु शिष्यों से आगम पढवाता है। पिता पुत्र से नये घर में प्रवेश करवाता है । बहन दासी से भाई को सुलवाती है । सुरेन्द्र मित्र को अपने घर में बुलवाता है। अभ्यास १. संस्कृत में अनुवाद करो' शीर्षक में जितने वाक्य हैं उनके तिबादि के __ स्थान पर यादादि की क्रिया लगा कर वाक्य बनाओ। २. ऊपर के वाक्यों को भाव कर्म में परिवर्तित करो। ३ जिन्नन्त से भावकर्म के रूप बनाने का सरल तरीका क्या है ? ४. द्विकर्मक धातुओं में किन धातुओं के योग में प्रधानकर्म में प्रत्यय होता ५. कौन सी जिन्नन्त धातुओं के योग में प्रधानकर्म में प्रत्यय होता है ? Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्नन्त १ १६१ ६. गौणकर्ता में कौन सी विभक्ति होती है ? ७. निम्नलिखित धातुओं के बिन प्रत्यय के रूप लिखो___ स्मृ, ष्ठा, पा; त, त्यज्, भण्, खाद्, अर्ज , रुह , लुञ्च । ८. हिंदी में अनुवाद करो अध्यापकः छात्रेण लेख लेखयति । खलः भृत्येन धनं चोरयति । गुरुः शिष्यं नगरं गमयति । सज्जनः नृपेण दानं दापयति । भूपः दूतेन संदेशं भणयति । अध्यापिका छात्राभिः पाठं पाठयति । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५५ : जिन्नन्त २ शब्दसंग्रह (मिन्नतरूप) तापयति (तप्) तपवाता है । लापयति (लप्), जल्पयति (जल्प) कहलवाता है। जापयति (जप्) जप करवाता है । जेमयति (जिमु) जिमवाता है । भोजन करवाता है । दर्शयति (दश) दिखवाता है । दाहयति (दह) जलवाता है । क्रापयति (क्री) खरीदवाता है। अध्यापयति (अधि+ इ) पढवाता है। चापयति, चाययति (चि) चुनवाता है। अर्पयति (ऋ) प्राप्त करवाता है । ह्र पयति (ह्रींक्) लजवाता है, लज्जा करवाता है । वाययति (वें) सिलवाता है। दूषयति (दूष्) दूषित करवाता है। सेवयति (सेव् ) सेवा करवाता है। आदयति (अद्), जक्षयति (जश्) खिलवाता है। भोजयति (भुञ्ज) खिलवाता है। ग्राहयति (ग्रह.) ग्रहण करवाता है। त्रोटयति (त्रुट) तुडवाता है। विलीनयति, विलाययति (वि+ली) पिघलवाता है। गण की धातुओं से जिन्नन्त के रूप बनाने का नियम जिन्नन्त में ज् इत् जाता है। (वृद्धिस्वराणामाणिति तद्धिते ८।४।१) इस सूत्र से आदि स्वर को वृद्धि हो जाती है। वृद्धि होने पर संध्यक्षर स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) को कहीं पर आ हो जाता है, कहीं पर अय्, आय, अव और आव् हो जाता है। जि का इ मिलाने से इकारान्त धातु बन जाती है। नियम ४८८-(जिक्रीडां नौ ४।२।१०६) जि, क्री, इङ्-इनके संध्यक्षर को आ हो जाता है । जापयति, कापयति, अध्यापयति । नियम ४८६-(चिस्फुरो वा ४।२।१११) चिनत् धातु के संध्यक्षर को आ विकल्प से होता है । चापयति, चाययति । स्फारयति, स्फोरयति । नियम ४६०-(अतिहीलीरीक्नूयिक्ष्माय्यातां पुक् ४।२।११३) ऋक्-गतो, ऋप्रापणे वा (अति), ह्री, व्ली, री (रीयति, रिणाति), नूयि, क्ष्मा और आदन्त धातुओं को पुक् (प) का आगम होता है। ऋ-अर्पयति, अरारयति, ह्र पयति, क्लेपयति, रेपयति, क्नोपयति, क्ष्मापयति, दापयति, जापयति । नियम ४६१- (शाछासाह्वाव्यावेपां युक् ४।२।११४) शा आदि धातुओं को युक् (य) का आगम होता है । शोंच्–शाययति । छोंच-छाय Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्नन्त २ १६३ यति । वेंन्-वाययति । पां-पाने, पै-शोषणे वा–पाययति । नियम ४६२-(य्वोः पुगयहसे ४।४।४६) धातु के य और व् का लोप हो जाता है पुक और यकार को छोडकर हस आदि प्रत्यय आगे हो तो। पुक्ग्रहणमप्रत्ययार्थम् । क्नोपर्यात, मापयति । नियम ४६३-- (लो लुक् ४।२।११७) ला धातु को लुक् (ल) का आगम विकल्प से होता है, स्नेह (चिकनाइ) तपाने के अर्थ में। विलालयति विलापयति वा घृतम् । नियम ४६४– (पाते: ४।२।११८) पा धातु को लुक् (ल) का आगम होता है । पालयति । नियम ४६५– (रुहः पो वा ४।२।१२२) रुह, धातु के अंत को पकार का आदेश विकल्प से होता है। रोपयति, रोहयति । नियम ४६६- (स्फायो व: ४।२।१२०) स्फाय को अंत में व आदेश होता है । स्फावयति । नियम ४६७-(दुषे औं ४।३।१२१) दुष् की उपधा को ऊकार होता है । दूषयति कुलम् । नियम ४९८- (वो विधूनने जुक् ४।२।११६) वा धातु को विधूनन अर्थ में जुक् (ज्) का आगम होता है। उपवाजयति पुष्पाणि । नियम ४६६-(वेष्टिचेष्ट्यो ; ४।१।११४) वेष्ट धातु को जिन् के अङ्ग प्रत्यय से द्वित्व होने पर पूर्व को 'अ' आदेश विकल्प से होता है । अववेष्टत्, अविवेष्टत् । अचचेष्टत् अचिचेष्टत् । नियम ५००-(स्वपेरङि ४।४।१२) जिन्नन्तस्वप् को संप्रसारण होता है, अङ् प्रत्यय परे होने पर । असूषुपत् । नियम ५०१- (तिष्ठतेरित् ४।१।११८) स्था (तिष्ठति) धातु की उपधा को इकार हो जाता है, जिन्नन्त में अङ् परे हो तो । अतिष्ठिपत् । नियम ५०२-(जिघ्रतेर्वा ४।१।११६) घ्रा (जिघ्रति) धातु की उपधा को इकार विकल्प से होता है, जिन् का अङ् परे हो तो। अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् । नियम ५०३-- (नौ मृगरमणे ४।२।४४) रज् धातु की उपधा के नकार का लोप हो जाता है मृगरमण अर्थ में। रजयति मृगान् व्याधः । नियम ४०४-- (ज्वल ह्वलह्मलग्ला-स्ना-वनु-बम-नमोऽनुपसर्गस्य वा ४।२।१३१) उपसर्गरहित इन धातुओं को ह्रस्व विकल्प से होता है । ज्वलयति, ज्वालयति । ह्वलयति, ह्वालयति । ह्मलयति, ह्यालयति । ग्लपयति, ग्लापयति । स्नपयति, स्नापयति । वनर्यात, वानयति । वमयति, वामयति । नमयति, नामयति । नियम ५०५-- (लभेः ४।३।२६) लभ् धातु को नुम् का आगम होता Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ वाक्यरचना बोक्ष है, अप् वर्जित और णबादि वर्जित, स्वर आदि वाला प्रत्यय परे होने पर । लभ्भयति । प्रयोगवाक्य माता दुहित्र्या किमर्थं तैलं तापयति ? आचार्यः शिष्यं भक्तामरस्तोत्रं लापयति जल्पयति वा । मोहनः पुत्रं अतिथिं जेमयति । माता पुत्रेण शशिनं दर्शयति । अध्यापकः शिष्यं आचारबोधं अध्यापयति । स्वामी मालाकरेण प्रातः पीतानि पुष्पाणि चाययति चापयति वा । कन्या सौचिकेन नव्यवेषं वाययति । आचार्यः युवतीभिः शिष्याभिः वृद्धसाध्वी: सेवयति । सीता महेशेन फलं आदयति खादयति वा । सुशीला पुत्रं मिष्टान्न जक्षयति । राज्याधिकारी कर्मचारिभि: आपणं त्रोटयति । माता पुत्र्या नवनीतं विलीनयति विलाययति वा । संस्कृत में अनुवाद करो (जिन्नन्त के प्रयोग करो) माता पुत्री से घी तपवाती है । पिता पुत्र से शब्द कहलवाता है । मुनि नरेश से जप करवाता है । सीमा भाई को रसोइए से जिमवाती है । सुबाहु पारस से चित्र दिखवाता है । शीला रमा से अग्नि जलवाती है। गुरु शिष्य से रुग्ण की सेवा करवाता है । सास बहू से साडी खरीदवाती है । रमेश लडके से पुस्तक पढवाता है। माली नौकर से फूल चुनवाता है। सुरेश अध्यापक से इनाम प्राप्त करवाता है। रमा ससुर से बहू को लज्जा करवाती है । सुनीला सुशीला से रोटी ढकवाती है । मंजू जुलाहे से वस्त्र सिलवाती है । रानी धाई से पुत्र का पालन करवाती है । श्याम गंदे पानी से वस्त्र को दूषित करवाता है। विमला सरस्वती से पाठ पढ़वाती है। पिता पुत्र से धन अर्जन करवाता है । माँ पुत्र को पत्र लिखवाती है। सास बहू से कार्य करवाती है। अभ्यास १. किन धातुओं को युक्, पुक्, जुक् और लुक् का आगमन होता है ? उदाहरण दो। २. किन-किन धातुओं को विकल्प से ह्रस्व होता है ? ३. संध्यभर धातुओं को 'आ' करने वाला कौन सा नियम है ? ४. निम्नलिखित धातुओं के निन् प्रत्यय के रूप लिखो___ शोंच, हन, क्री, चि, दा, धा, जि। ५. हिंदी में अनुवाद करो- • पुत्रः भृत्येन मातरं सेवयति । मालाकारः पुत्र्या पुष्पाणि त्रोटयति । पुष्पा तन्तुवायेन वस्त्राणि वाययति । जननी सखीभिः सुतां दर्शयति । श्रेष्ठि-- . भार्या दास्या घृतं विलीनयति ।::... ...! Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५६ : सन्नन्त १ भू शब्दसंग्रह ( सन्नन्त के रूप ) (भवितुमिच्छति ) । तिष्ठासति ( स्थातुमिच्छति ) । जिगमिषति ( गन्तुमिच्छति ) । जिज्वलिषति ( ज्वलितुमिच्छति ) । जिहसिषति ( हसितुमिच्छति ) । रुरुदिषति ( रोदितुमिच्छति ) । निनीषति (नेतुमिच्छति ) । पिपक्षति ( पक्तुमिच्छति ) । पिपठिषति (पठितुमिच्छति ) । चिक्षिप्सति ( क्षेतुमिच्छति ) । बिभणिषति ( भणितुमिच्छति ) । प्रविविक्षति ( प्रवेष्टुमिच्छति ) । मुमुक्षति ( मोक्तुमिच्छति ) । पिपृच्छिषति ( प्रष्टुमिच्छति ) । पिपासति ( पातुमिच्छति ) । ज्ञीप्सति ( ज्ञातुमिच्छति ) । ईप्सति (आप्तुमिच्छति ) । धित्सति ( धातुमिच्छति ) । भित्सति ( भेत्तुमिच्छति ) । दित्सति ( दातुमिच्छति ) । लिप्सते ( लब्धुमिच्छति ) । दिधक्षति ( दग्धुमिच्छति ) । शुश्रूषते ( श्रोतुमिच्छति ) । चिचलिपति ( चलितुमिच्छति ) । विभ्रमिषति (भ्रमितुमिच्छति ) । चिकीर्षति ( कर्तुमिच्छति ) । दिदृक्षते ( द्रष्टुमिच्छति ) । जिघत्सति (अत्तुमिच्छति ) । पित्सति, पिपतिषति ( पतितुमिच्छति ) । तितीर्षति (तरीतुमिच्छति ) । जिघांसति ( हन्तुमिच्छति ) । सन्नन्त के दसों लकारों के रूप याद करो । ( देखें नोट- भू धातु परिशिष्ट ३ ) । सन्नन्त के अन्त में सन्नन्त शब्द सन् + अन्त से बना है । जिस धातु सन् प्रत्यय आता है उसे सन्नन्त कहते हैं । तुम् प्रत्यय के आगे इच्छति का प्रयोग करने से जो अर्थ होता है उसी अर्थ में सन् प्रत्यय आता है | ( इच्छाया मेककर्तृककर्मणोऽतत्सनो वा ४।१।१६ ) कर्मभूत, कर्मसदृश या कर्मरूप में धातु से इच्छा के अर्थ में सन् प्रत्यय होता है । कर्मभूत धातु और इच्छति धातु का कर्ता एक ही होना चाहिए । इच्छति का प्रयोग कर्मभूत ( कर्मकारक) के साथ होने से ही सन् प्रत्यय आता है अन्य कारकों के साथ होने से नहीं आता । धातु से एक बार सन् प्रत्यय आने के बाद उस सन्नन्त रूप से दूसरी बार सन् प्रत्यय नहीं आता । जैसे— कर्तुं इच्छति = चिकीर्षति । चिकीर्षितुं इच्छति, यहां सन् प्रत्यय नहीं होता । गमनेन इच्छामि । यहां इच्छामि क्रिया साधन कारक के साथ है इसलिए सन् प्रत्यय नहीं होता । सन् प्रत्यय आने के पहले गणों में जो धातु परस्मैपद या आत्मनेपद थी वह सन् प्रत्यय के बाद भी पूर्ववत् Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ वाक्यरचना वोध परस्मैपद और आत्मनेपद रहती है। सकर्मक और अकर्मक का नियम भी उसी के अनुसार है। सन् प्रत्यय का स शेष रहता है। पूर्वनिमित्त मिलने से स का ष भी हो जाता है । सनन्त के रूप बनाने का नियम नियम ५०६-(सन्यङश्च ४।१।७४) सन् और यङ् प्रत्यय परे होने पर धातु का पहला एक स्वर (व्यंजनसहित) द्वित्व हो जाता है। नियम ५०७-(ऋस्मिपूङञ्जशूक-ग-दृ-धृ-प्रच्छिभ्यः ४।३।६७) इन धातुओं को सन् प्रत्यय परे होने पर इट् होता है। ऋअरिरिषति । स्मि–सिस्मयिषते । पूङ्-पिपविषते । अअञ्जिजिषति । अशू-अशिशिषते । क-चिकरिषति, चिकरीषति । गजिगरिषति, जिगरीषति । नियम ५०८-(इवन्तर्धभ्रस्जदम्भश्रिस्वयूर्णभरज्ञपिसनितनिपतिदरिद्रावद्भ्य: सनः ४।३।६६) इवन्त, ऋदन्त और ऋध् आदि धातुओं से इट् प्रत्यय विकल्प से होता है। दिव्-दुद्यूषति, दिदेविषति। सिव्—सुष्यूषति, सिसेविषति । स्व-सिस्वरिषति, सुस्वर्षति । ऋध्-ईहँति, अदिधिषति । श्रि–शिश्रीषति, शिश्रयिषति । भ्रस्ज्-विभ्रक्षति, विभक्षति । यु–युयूषति, यियविषति । ऊर्गु-ऊर्जुनूषति, ऊर्जुनविषति, ऊर्जुनविषति । भर—बुभूर्षति, बिभरिषति । ज्ञपण्-जिज्ञापयिषति, जिज्ञपयिषति। सन्–सिषासति, सिसनिषति। तन-तितंसति, तितांसति, तितनिषति। पत्-पित्सति, पिपतिषति । दरिद्राक्-दिदरिद्रासति, दिदरिद्रिषति । वृ-वुवर्षति, विवरिषति, विवरीषति । (सन्यनिटि दीर्घः ३।४।८१) स्वरान्त धातु दीर्घ हो जाती है, अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर। चि-चिकीषति, चिचीषति । जि-जिगीषति । तुष-तुतूषति । ष्टु-तुष्टूपति । कृ—चिकीर्षति । नियम ५०६-(ज्ञप्याप्योर्जीपीपौ ४।१।१४०) ज्ञप् को जीप और आप् धातु को ईप आदेश होता है, सन् प्रत्यय परे होने पर । जीप्सति, ईप्सति । नियम ५१०- (ऋधईर्त ४।१।१३६) ऋध् को ईर्त आदेश होता है, सन् प्रत्यय परे होने पर । ईसति । नियम ५११- (दम्भेधिब्धीपौ ४।१।१४१) दंभ धातु को धिप् और धीप आदेश होता है सन् प्रत्यय परे होने पर । धिप्सति, धीप्सति । नियम ५१२-(सनि ४।३।४७) झस आदि वाला सन् प्रत्यय परे हो तो जन्, सन् और खन् धातुओं के अंत को आ आदेश हो जाता है। सिसाषति । झस सन् न होने पर सिसनिषति । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नन्त १ १६७ नियम ५१३– (रभलभशकशक्लृपतपदामिः ४।१।१३७) धातुओं के स्वर ( अ ) को इकार हो जाता है, द्वित्व नहीं होता । रभ्– आरिप्सते । लभ् – लिप्सते । शक्, शक्लृ — शिक्षति । पत्पित्सति । पद् - पित्सते । इन प्रयोगवाक्य अहं विद्वान् बुभूषामि । अस्मिन् देशे को भ्राता तिष्ठासति ? विद्यार्थी विद्यां अरिरिषति । बालकस्य स्पष्टोक्तिं श्रुत्वा मोहन: सिस्मयिषते । कृषकः क्षेत्र पिपविषते । पूर्व कल्मषं दूरीकृत्य सोहनः अञ्जिजिषति । मुनिः उत्तरीयपटं सुयूषति सिसेविषति वा । तारागणः निशायां दुद्यूषन्ति दिदेविषन्ति वा । अर्थ लोभी दुग्धे जलं यूपति यियविषति वा । साधुः इन्द्रियाणि जिगीषति । मालाकारः श्वेतपुष्पाणि चिचीषति । अहं पार्श्वनाथं तुष्टृषामि । पिपासुः शीतलं जलं पीत्वा तुतूषति । किंस घोरपापैः दिदरिद्रासति ? (पाश्चात्यदेशे जैनधर्मं कः तितनिपिस्यति ? त्वं किं लिप्से ? १. हिन्दी में अनुवाद करो— सर्वं ज्ञीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्यघं भित्सति, क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति । कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सति, मुक्तिस्त्री परिरिप्सते यदि जनस्तद् भावयेद् भावनाम् ||१|| संस्कृत में अनुवाद करो ( सन्नन्त के प्रयोग करो) तुम क्या बनना चाहते हो ? मैं यहां बैठना चाहता हूं । ये लोग कहां जाना चाहते हैं ? क्या तुम जलना चाहते हो जो कि आग के पास बैठे हो ? सभी हंसना चाहते हैं, रोना कोई नहीं चाहता । वे तुम्हें कहां ले जाना चाहते हैं ? रसोइया आज क्या पकाना चाहता है ? कितनी बहिनें संस्कृत और प्राकृत पढना चाहती हैं ? बालिका नदी में पत्थर फेंकना चाहती है । तुम आचार्य श्री को क्या कहना चाहते हो ? हरिजन मंदिर में प्रवेश करना चाहते बालक पानी पीना चाहता है । हैं । पति पत्नी को क्यों छोड़ना चाहता है ? विमला कमला से क्या पूछना चाहती है ? मैं संघविरुद्ध बातें नहीं सुनना चाहता हूं । बच्चा रात्रि को कहां चलना चाहता है ? तुम प्रातः कहां घूमना चाहते हो ? भूखा व्यक्ति भोजन खाना चाहता है । प्यासा व्यक्ति पानी पीना चाहता है । वह पहाड़ से गिरना चाहता है । डाकू उसको मारना चाहते हैं । स्त्रियां पानी भरना चाहती हैं । ग्वाला दूध में पानी मिलाना चाहता है । वृक्ष की शाखाएं फैलना चाहती हैं। मुनि मुक्ति स्त्री का वरण करना चाहते हैं । जनता किसको चुनना चाहती है । राजा शत्रुओं को जीतना चाहता है । अभ्यास Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६ क २. निम्नलिखित सन्नन्त रूपों का वाक्यों में प्रयोग करोचिकीर्षति, पित्सति, जिगीषति, अरिरिषति, दिदेविषति, बुभूषति, ... तितांसति, तुष्टृषति, तुतूषति । ३. निम्नलिखित धातुओं के सन्नन्त के रूप बताओ स्वृ, श्रि, भ्रस्ज्, वृ, दंभ, ज्ञप्, ऋध् । ४. सन् प्रत्यय कहां आता है ? उसके विषय में जो जानते हो वह बताओ वाक्यरचना बो Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५७ : सन्नन्त २ (उ, अ प्रत्यय) शब्दसंग्रह जिगमिषुः (जाने का इच्छुक) । पिपठिषुः (पढने का इच्छुक) । दित्सुः (देने का इच्छुक) । लिप्सुः (प्राप्त करने का इच्छुक) । पिपृच्छिषुः (पूछने का इच्छुक) । दिधरिषुः (धारण करने का इच्छुक) । दिदृक्षुः (देखने का इच्छुक) । जिगीषुः (जीतने का इच्छुक) । बुभुक्षुः (खाने का इच्छुक)। शुश्रूषुः (सुनने का इच्छुक)। बुभुत्सुः (जानने का इच्छुक)। चिकीर्षुः (करने का इच्छुक) । जिज्ञासुः (जानने का इच्छुक)। विवक्षुः (बोलने का इच्छुक) । तितीर्घः (तैरने का इच्छुक)। जिघांसुः (मारने का इच्छुक) । तितीर्षा ( (तैरने की इच्छा) । चिकीर्षा (करने की इच्छा)। बुभूषा (होने की इच्छा) । विवक्षा (बोलने की इच्छा) । शुश्रूषा (सुनने की इच्छा) । पिपासा (पीने की इच्छा) । लिप्सा (पाने की इच्छा) । जिघत्सा (खाने की इच्छा) । जिज्ञासा (जानने की इच्छा) । धित्सा (धारण करने की इच्छा) । उ और अप्रत्यय जैसे गण की धातु से प्रत्यय होते हैं वैसे सन्नन्त धातु से भी कई प्रत्यय होते हैं। (सन्नाशंसिभिक्षिभ्यः उ: ५।३।४१) सूत्र से शीलादि अर्थ में सन्नन्त धातु से 'उ' प्रत्यय होता है। यह प्रत्यय कर्ता में होता है इसलिए इसके कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। 'उ' प्रत्ययान्त शब्द त्रिलिंगी होते चिकीर्षति इत्येवं शील: चिकीर्षुः। इसका अर्थ होता है करने की इच्छा करने वाला । अहं साम्प्रतं स्वाध्यायं चिकीर्षुरस्मि—मैं अभी स्वाध्याय करने का इच्छुक हूं। इयं धर्म बुभुत्सुः शास्त्रं पठति—यह धर्म को जानने की इच्छुक (स्त्री) शास्त्र पढती है। यहां धर्म 'उ' प्रत्ययान्त बुभुत्सु का कर्म है, शास्त्रं पठति क्रिया का कर्म है । तुम् प्रत्यय के आगे इच्छा शब्द लगाने से जो अर्थ होता है उसी अर्थ में (शंसि प्रत्ययात् ५।४।१०१) इस सूत्र से 'अ' प्रत्यय होता है । यह स्त्रीलिंग वृत्ति में ही प्रयोग में आता है। कर्तुमिच्छा --चिकीर्षा। ज्ञातुं इच्छा = जिज्ञासा । गन्तुं इच्छा -जिगमिषा । 'अ' प्रत्यय के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। अस्य तत्वजिज्ञासा अस्ति । साम्प्रतं मम स्वाध्यायचिकीर्षा वर्तते । उ और अ प्रत्यय के वाक्यों को ध्यान से पढ़ें Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० वाक्यरचना बोध (उ) अहं साम्प्रतं स्वाध्यायं चिकीर्षुरस्मि । (अ) साम्प्रतं मम स्वाध्यायचिकीर्षा वर्तते । प्रथम वाक्य में अहं कर्ता और अस्मि क्रिया है। द्वितीय वाक्य में अहं में षष्ठी विभक्ति होने से अहं कर्ता नहीं रहा, चिकीर्षा कर्ता है। दोनों वाक्यों का भाव एक है, कहने का प्रकार भिन्न है। प्रशंसा, गोपाया, मीमांसा, कंड्या, लोलूया, पुत्रकाम्या, नवा, गल्भा, पटपटाया ये अ प्रत्यय के रूप हैं। प्रयोगवाक्य छात्राः गृहं जिगमिषवः सन्ति । शिष्याः व्याकरणं पिपठिषवः सन्ति । श्रेष्ठी धनं लिप्सुरस्ति । ललितः प्रश्नं पिपृच्छिषुरस्ति । भूपः शत्रून् जिगीषुरस्ति । शिशवः नाट्यं दिदृक्षवः सन्ति । सुशीलः फलानि बुभुक्षुरस्ति । अहं गुरोः वचनं शुश्रूषुरस्मि । मम ध्यानस्य चिकीर्षा वर्तते। तातस्य पुत्रस्य निनीषा विद्यते । श्रमिकस्य धनस्य लिप्सा अस्ति । रोगिनः भोजनस्य जिघत्सा वर्तते। संस्कृत में अनुवाद करो ललित अपने गांव जाने का इच्छुक है। मोहन संस्कृत पढने का इच्छुक है । सोहन किसी को कुछ भी देने का इच्छुक नहीं है। योगक्षेमवर्ष में साधु और साध्वियां अप्राप्त को प्राप्त करने के इच्छुक हैं । विद्यार्थी शिक्षक से प्रश्न पूछने का इच्छुक है । विमला नये वस्त्र धारण करने की इच्छुक है । चंदन सिनेमा देखने का इच्छुक नहीं है। मुनि कर्मशत्रुओं को जीतने के इच्छुक हैं । बालक लड्डू खाने का इच्छुक है। मोहन ज्ञान ग्रहण करने का इच्छुक है । उसकी क्या करने की इच्छा है ? सुमंगला की संसार समुद्र को तैरने की इच्छा है। सुनील की साधु बनने की इच्छा है । चोर की सेठ का धन हरने की इच्छा है । श्रावकों की प्रवचन सुनने की इच्छा है। युवक तत्व जानने के इच्छुक हैं। साधु संसार समुद्र को तैरने के इच्छुक हैं । राजा दुष्ट को मारने का इच्छुक है। वैज्ञानिकों की गूढ रहस्यों को जानने की इच्छा है। जिनेश की वस्त्र धारण करने की इच्छा है। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो चिकीर्षा, तितीर्षा, विवक्षा, जिघृक्षुः, जिगीषुः, विवत्सुः ।। २. अ प्रत्यय करने वाला कौनसा सूत्र है ? ३. उ प्रत्यय के योग में कौनसी विभक्ति होती है ? ४ नीचे लिखे शब्द किन प्रत्ययों के हैं ? प्रशंसा, जिहीर्षुः, मीमांसा, भिक्षुः, पुत्रकाम्या, आशंसुः, कण्डूया, चिकीर्षुः, जिघत्सा। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नन्त २ (उ, अ प्रत्यय) २०१ ५. नीचे लिखे वाक्यों को अ प्रत्यय में बदलो अहं ग्रामं जिगमिषुरस्मि । सः पुस्तकं पिपठिषुरस्ति । किं ते धनं जिहीर्षवः सन्ति ? वयं चित्रं दिदृक्षवः स्मः । ६. हिंदी में अनुवाद करो साम्प्रतं अहं न बुभुक्षुरस्मि । विनोदः किं जिघृक्षुरस्ति ? गजेन्द्रः नगरे विवत्सुरस्ति । साधवः तत्वं बुभुत्सवः सन्ति । किं युष्माकं वस्तुनः निनीषा चकास्ति ? Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५८ : यप्रत्यय शब्दसंग्रह (यङ्प्रत्यय के रूप) बोभूयते (भू) बार-बार होता है । जंगम्यते (गम्) बार-बार जाता है । जाज्वल्यते (ज्वल) बार-बार जलता है। पापच्यते (पच्) बार-बार पकाता है । अटाट्यते (अट) बार-बार घूमता है । अरार्यते (ऋ) बार-बार पाता है । जाजायते (जनी) बार-बार उत्पन्न होता है। लोलुप्यते (लुप्) बार-बार लुप्त होता है । सासद्यते (सद्) बार-बार जाता है। नरीनृत्यते (नृत्) बार-बार नाचता है । पेपीयते (पां) बार-बार पीता है। जेघ्नीयते (हन्) बार-बार मारता है । चेचीयते (चिं) बार-बार चयन करता है। वावश्यते (वश्) बार-बार शोभित होता है । वावाञ्छ्यते (वाछि) बार-बार चाहता है । तात्यज्यते (त्यज्) बार-बार छोडता है। चाखाद्यते (खाद्) बार-बार खाता है। जागद्यते (गद्) बार-बार बोलता है। दरीदृश्यते (दृश्) बार-बार देखता है। शाशस्यते (शास्) बार-बार शासन करता है । रारक्ष्यते (रक्ष्) बार-बार रक्षा करता है । तेष्ठीयते (ष्ठां) बार-बार बैठता है । ननम्यते (नम्) बार-बार झुकता है । जेहीयते (ओहांक) बार-बार छोडता है । जाहास्यते (हस्) बार-बार हंसता है । धातु-भू धातु के यङ्प्रत्यय के रूप याद करो (देखो परिशिष्ट ३) यप्रत्यय यङन्त में यङ् प्रत्यय आता है । आत्मने पद होता है और प्रत्यय से पहले इट् आ जाता है । यङ्प्रत्यय सन् की तरह द्वित्व होता है, पर सब धातुओं से नहीं । प्रत्यय पृथक्-पृथक् धातुओं से भिन्न-भिन्न अर्थों में आता है। नियम ५१४-(हसादेरेकस्वराद् ४।११५) हसादि और एक स्वर वाली धातुओं से अधिक या बार-बार के अर्थ में यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है। (आच्चानीगादेर्यङ: ४।१।१०२) से पूर्व को आकार और गुण होता है। पच-पापच्यते । भू–बोभूयते। __नियम ५१५-- (अटयर्त्यशूर्गुसूत्रिमूत्रिसूचिभ्य: ४।१।६) अटि आदि धातुओं से अधिक या बार-बार के अर्थ में यङ् प्रत्यय होता है। अटिअटाट्यते । इति ऋच्छति वा--अरार्यते। अश्नुते अश्नाति वा–अशाश्यते । ऊर्गु-प्रोर्णोनूयते। सूत्रण्–सोसूत्र्यते। मूत्रण्-मोमूत्र्यते सूचण् Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यङ्प्रत्यय २०३ सोसूच्यते । नियम ५१६-(गत्यर्थाद् भावस्य कौटिल्ये ४।१।७) भाव (क्रिया) की कुटिलता के अर्थ में गति अर्थ वाली धातुओं से यङ् प्रत्यय होता है। (मुगतो अमस्य ४।१।१०५) सूत्र से बम अंतवाली धातु के पूर्व के अकार को मुक् का आगम हो जाता है और म् का अनुस्वार हो जाता है। कुटिलं गच्छति -- जंगम्यते, चंक्रम्यते । नियम ५१७- (लुपसदचरजपजभदहदशगभ्यो गर्हायाम् ४११) लुप आदि धातुओं से क्रिया की गर्दा के अर्थ में यङ् प्रत्यय होता है। गर्हितं लुम्पति-लोलुप्यते । सद्-सासद्यते । चर्-चंचूर्यते । जप्-जंजप्यते । ग–जेगिल्यते। नियम ५१८-(जपजभदहदशभंजपशाम् ४।१।१०६) जप आदि धातुओं के पूर्व अकार को मुक् का आगम होता है। जभ-जंजभ्यते । दह - दंदह्यते । दश्–दंदश्यते । भज्—बंभज्यते । पश्-पंपश्यते । यङन्त के रूप बनाने के नियम (वञ्चस्र सध्वंसभ्रंशकसपतपदस्कन्दो नीक-४।१।१०४) वञ्च्, स्रस्, ध्वंस्, भ्रंश्, कस्, पत्, पद्, आदि धातुओं से पूर्व में 'नीक्' का आगम होता है। वञ्च-वनीवच्यते । स्रस–सनीस्रस्यते । ध्वंस -दनीध्वस्यते । भ्रंशबनीभ्रश्यते। कस् = चनीकस्यते (बार-बार जाता है)। पत्-पनीपत्यते। पद्- पनीपद्यते । स्कन्द-चनीस्कद्यते । नियम ५१६-(ईह से ऽयपि ङित्यशिति ४।११५७) अपित् दा, धा, स्था, मा, गा, पिब, हा इन धातुओं को 'ई' हो जाता है, यप् को छोडकर हस आदि वाला कित , ङित अशिति प्रत्यय आगे होने पर । दा-देदीयते । धादेधीयते । सा-सेषीयते । ष्ठा-तेष्ठीयते । मा-मेमीयते । गा (गैं)जेगीयते । पा-पेपीयते । ओहांक-जेहीयते । ___ नियम ५२०-(ऋत्वतां रीक ४।१।१०६) ऋकारवान् धातुओं को पूर्व में 'रीक्' का आगम होता है । (नृते र्यङि २।२।१०५) से नृत् के न को ण नहीं होता। नृत् -नरीनृत्यते । दृश्–दरीदृश्यते । प्रच्छ्-परीपृच्छ्यते । व्रश्च-वरीवृश्च्यते । ग्रह,-जरीगृह्यते । संप्रसारण होने से ये धातुएं ऋकारवान् हो गई। . नियम ५२१- (ऋतोरी: ४।१।५२) ऋकार अंतवाली धातुओं को 'री' आदेश होता है । कृ-चेक्रीयते । हृ-जेह्रीयते ।। नियम ५२२-(चायः की र्यङि ४।४।२६) चायन् धातु को 'की' आदेश होता है । चेकीयते (बार-बार हिताहित का विचार करता है, बारबार पूजा करता है)। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ वाक्यरचना बोध नियम ५२३-(शययि क्ङिति ४।१।६६) शीङ् धातु को शय आदेश होता है कित् और ङित् संज्ञा वाला यकार आदि प्रत्यय परे होने पर। शाश्यते । नियम ५२४-(घ्राध्मोर्यङि ४।११५८) घ्रा, ध्मा के आ को ई हो जाता है । जेघ्रीयते । देध्मीयते । नियम ५२५- (स्यमिव्येनोश्च यङि ४।४।१३) यङ् प्रत्यय परे होने पर स्यमु, व्यन् और ष्वप् को संप्रसारण होता है । स्यमु–सेसिम्यते । व्येन्वेवीयते । ष्वप्–सोषुप्यते । प्रयोगवाक्य रुग्णाः फलानि अशाश्यन्ते । मुनिः पात्राणि प्रोर्णोनूयते । मालाकार: पुष्पाणि सोसूत्र्यते । शिशुः कथं मोमूत्र्यते । दुर्जनः सोसूच्यते। साधवः अहं जंजप्यन्ते । प्रमादेन तस्याः वस्त्राणि दंदह्यन्ते । आपणिकः ग्राहकान वनीवच्यते । इदं नगरं सनीस्रस्यते, दनीध्वस्यते, बनीभ्रश्यते वा। वर्षौ नीरं पनीपत्यते । छात्रः गृहं पनीपद्यते । जननी पुत्र्यै वस्त्राणि देदीयते । नट: विविधरूपं देधीयते । बाल: दिवसे रात्रौ च सोषुप्यते। लोहकार: धमनी देध्मीयते। संस्कृत में अनुवाद करो (यप्रत्यय के रूपों का प्रयोग करो) ____ वर्षा ऋतु में वर्षा बार-बार होती है । सुशीला साध्वियों के स्थान पर बार-बार जाती है । जंगल में अग्नि बार-बार क्यों जलती है ? रसोइया भोजन बार-बार पकाता है । चोर रात में बार-बार घूमता है । सीता कक्षा में इनाम बार-बार पाती है । खेतों में घास बार-बार उत्पन्न होता है। सोहन की कॉपी बार-बार लुप्त होती है। मोर बार-बार नाचता है। शीला पानी बारबार पीती है। सेना शत्रुओं को बार-बार मारती है। जनता नेता का बारबार चयन करती है । रात्रि में चन्द्रमा बार-बार शोभित होता है। बालक दूध बार-बार पीता है। राजा शत्रु को पकडकर उसे बार-बार छोडता है । है। विवाह के समय स्त्रियां गीत बार-बार- गाती हैं। छात्र अध्यापक से प्रश्न बार-बार पूछता है । सोहन वृक्षों को बार-बार काटता है । शिष्य गुरु से ज्ञान बार-बार ग्रहण करता है । चोर मनुष्यों का धन बार-बार हरता है। अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो अये ! कथमद्य उदासीन इवात्र तेष्ठीयसे । धूर्ताः ननम्यन्ते । अरे ! कथं अपार्थकं जाहास्यसे । भाग्यशालिनः सर्वत्र सत्कारं लालभ्यन्ते । मेघागमं विलोक्य मयूराः नरीनृत्यन्ते । रात्रौ वृद्धः मोमूत्र्यते। साध्व्यः प्रज्ञागीतं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यङ्प्रत्यय २०५ जेगीयन्ते । बालः पुष्पं जेघ्रीयते । रुग्णः शाश्यते । तातः पुत्र दरी दृश्यते। २. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो। चाखाद्यते, देदीयते, जेहीयते, पेपीयते, सोषुप्यते, जंजप्यते, जंगम्यते लोलुप्यते, चंचूर्यते, सोसूच्यते।। ३. यङ्प्रत्यय किन-किन धातुओं से किन-किन अर्थों में होता है, बताओ? ४. रीक्, नीक, री और मुक् का आगम किन-किन धातुओं से होता है ? Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५९ : यङ्लुगन्त शब्दसंग्रह बोभवीति (भू) बार-बार होता है । पापेति, पापाति (पा) बार-बार पीता है । जानेति, जाघ्राति (घ्रा) बार-बार सूंघता है । तास्थाति (ष्ठां) बार-बार बैठता है । जेजयीति, जेजेति (जि) बार-बार जीतता है। स्मरीति, स्मति (स्मृ) बार-बार याद करता है । तातति, तातरीति (त) बार-बार तैरता है । दाध्येति, दाध्याति (ध्य) बार-बार चिंतन करता है। जागेति, जागाति (ग) बार-बार गाता है । शोशोक्ति (शुच्) बार-बार शोक करता है। लोलुञ्चीति (लुञ्च) बार-बार लोच करता है । वावाञ्छीति (वाछि) बार-बार चाहता है। वाव्रजीति, वाव्रजति (व्रज्) बार-बार जाता है। तात्यजीति, तात्यक्ति (त्यज्) बार-बार छोडता है। पापठीति, पापट्टि (पठ्) बार-बार पढता है । चेक्रीडीति, चेत्रीट्टि (क्रीड्) बार-बार खेलता है। बम्भणीति, बम्भण्टि (भण्) बार-बार कहता है । चाखादीति, चाखात्ति (खाद्) बार-बार खाता है । जागदीति, जागत्ति (गद्) बार-बार कहता है। लालपीति, लालप्ति (लप्) बार-बार कहता है। दादधीति, दादद्धि (धा) बारबार धारण करता है । चर्कर्ति, चरिकर्ति, चरीकति (कृ) बार-बार करता है। धातु-भू धातु के यङ्लुगन्त के रूप याद करो। (देखो परिशिष्ट ३) यङ्लुगन्त यङ्लुगन्त में यङ्प्रत्यय ही आता है पर उसका लोप हो जाता है। उसके साथ तिबादि, याद्रादि, तुबादि, दिवादि प्रत्ययों में हस आदि पित् प्रत्ययों से इट् बहुल (कहीं विकल्प से) हो जाता है। यङ्लुगन्त में रूप परस्मैपद में चलते है। नियम ५२६-(सन् यङश्च ४।११७४) इस सूत्र मे धातु द्वित्व हो जाती है । भू–बोभोति, बोभवीति । बोभूयात् । बोभोतु, बोभवीतु । अबोभोत्, अबोभवीत् । अबोभोत्, अबोभोताम्, अबोभूवु. । बोभवाञ्चकार, बोभूयात्, बोभविता, बोभविष्यति, अबोभविष्यत् । नाथू-नानाथीति, नानात्ति । धा-दादधीति, दादद्धि । नियम ५२७- (रुरिकौ च लुकि ४।१।११०) ऋकारवान् धातुओं के यङ् का लुक् और द्वित्व होने पर पूर्व को रुक्, रिक्, रीक का आगम होता है। कृ-चर्कति, चरिकति । चर्करीति चरिकरीति, चरीकरीति । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यङ्लुगन्त २०७ नियम ५२८ - ( जनसनखनामा: ४ | १३ | ४६ ) जन्, सन्, खन् इनके अंत को आ आदेश हो जाता है, ह और झस आदिवाला क्ङित् प्रत्यय आगे हो तो । जन् -- जंजाहि । सन् - षणुनव् दाने, वन् पन् संभक्ती वा संसाहि । खन्—चंखाहि । प्रयोगवाक्य मानवः सुखं वावञ्छति, दुःखं न । वीरेन्द्रः पद्यानि स्मरीति । माता बहिर्गतं पुत्रं स्मर्त । कनकमाला विदेशं वाव्रजीति । सीमा पाठ पापठीति । साध्व्यः प्रेक्षागीतं जागन्ति । बालकाः चेक्रीडन्ति । गुरुः शिष्यं पठितुं जागदीति लालपीति वा । शिष्यः दुग्धं पापेति । वणिक् धनमर्जितुं विदेशं जागमीति । मनोहर: नवीनानि वस्त्राणि दादधीति दादद्धि वा । मनोरमः एतद् कार्यं चर्कति, चरिकर्ति, चरीकर्ति वा । संस्कृत में अनुवाद करो ( यङ्लुगन्त के प्रयोग करो) वर्षा बार-बार होती है । बालक बार-बार पानी पीता है । सुरेन्द्र बार-बार फूल सूंघता है । कमला बार-बार यहां बैठती है । राजा बार-बार शत्रुओं को जीतता है । बहिन भाई को बार-बार याद करती है । नाविक नौका से नदी को बार-बार पार करता है। मुनि प्रभु का बार-बार चिंतन करते हैं । स्त्रियां यह गीत बार-बार गाती हैं। माता पुत्र का बार-बार शोक करती है । मुनि लोच बार-बार करते हैं । बालक मिष्टान्न बार-बार चाहता है । मोहन बहिन के घर बार-बार जाता है। छात्र यह पुस्तक बार-बार पढता है । लडकी बार-बार खेलती है । आचार्यश्री संतों को यह बात बारबार कहते हैं । पिताजी बार-बार नहीं खाते। राजा ने कहा -- मुझे यह बात बार-बार कहो । अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो - स्मति, जेजेति, जागाति, तातति, जाघ्राति, तात्यक्ति । २. हिंदी में अनुवाद करो तस्य उदरे पीडा कथं बोभवीति ? पिपासितः नीरं पापेति । शिष्यः गुरुं स्मरीति । शिशुः मातुः पार्श्वे वाव्रजीति । तातः हिताय पुत्रं जागदीति । निषिद्धेपि सः एतद् कार्यं चर्केति । बालकः धूल्यां चेक्रीडीति । - ३. निम्नलिखित धातुओं के यङ्लुगन्त के रूप बताओ । ध्यै त्यज्, धा, बाछि, गें । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६० : नामधातु शब्दसंग्रह अगुरु (अगर)। आकरकरहा (पुं) अकरकरा। अर्कः (आक) । अभ्रक, अमलम् (अभ्रक)। यवनिका, दीप्यः (अजवायन) । अमरवल्ली, दुस्पर्शा (अमरबेल)। आरावध: (अमलतास) । अश्वगन्धा (असगंध) । ईषद्गोलम् (इसबगोल)। कंपिल्लः, कर्कशः (कमीला वृक्ष)। गंधक: (गंधक) । खसबीजम्, सुबीजः (खसखस)। गुडूची, कुंडलिनी (गिलोय) । गुग्गुलः (गुग्गुल) । गोरक्षकः (गोखरू)। नामधातु (नियम) धातु से कृदन्त के प्रत्यय लगाकर शब्द या नाम बनाया जाता है। वैसे ही नाम से प्रत्यय लगाकर धातु बनाई जाती है, उसे नामधातु कहते हैं। नाम से धातु बनाने के लिए अनेक प्रत्यय लगते हैं। नियम ५२६-(द्वितीयायाः काम्य: ४।१।१७) द्वितीयान्त नाम कर्मरूप में हो तो उससे इच्छा के अर्थ में काम्य प्रत्यय होता है। पुत्रं इच्छति -- पुत्रकाम्यति । स्व:काम्यति । नियम ५३०-(अमाव्ययात् क्यच्च ४।१।१८) अमकारान्त अव्ययरहित नाम कर्म रूप में हो तो इच्छा के अर्थ में क्यच और काम्य प्रत्यय होता है। (क्यचि ४।१।६१) इस सूत्र से क्यच् प्रत्यय परे होने पर अवर्ण को ईकार हो जाता है । पुत्र इच्छति =पुत्रीयति । एवं नाव्यति। .. नियम ५३१- (असुक् च लौल्ये ४।१।६३) लौल्ये (लोलुपता के अर्थ में) नाम से क्यच् प्रत्यय होने पर असुक् और सुक् का आगम होता है। दधि भक्षितुं इच्छति = दध्यस्यति, दधिस्यति । मध्वस्यति, मधुस्यति । नियम ५३२-(आधाराच्चोपमानादाचारे ४।१।१६) अमकारान्त और अव्यय रहित शब्द उपमानवाची द्वितीयान्त और सप्तम्यन्त हो तो आचरण करने के अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है। पुत्रमिव आचरति-पुत्रीयति छात्रम् । (छात्र को पुत्र की तरह मानता है)। वस्त्रीयति कम्बलम् । प्रासादे इव आचरति = प्रासादीयति कुट्याम् । पर्यकीयति मञ्चके। नियम ५३३-(कर्तुः क्विब् गल्भक्लीबहोडात्तु ङित् ४।१।२०) कर्तावाची शब्द की उपमा दी जाए उन शब्दों से आचार अर्थ में क्विप् प्रत्यय होता है । गल्भ, क्लीब और होड शब्दों से डित्क्विप् (आत्मनेपद) होता है ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामधातु २०६ अश्व इव आचरति -अश्वति । गर्दभति, राजनति, तोयति, स्रजति । गल्भते क्लीबते, होडते। नियम ५३४– (क्यङ् ४।१।२१) उपमानवाची कर्ता से आचरण अर्थ में क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है। अश्वायते, हंसायते, गर्दभायते, गल्भायते, क्लीबायते, होडायते । ___ नियम ५३.५– (वा सो लोपश्च ४।१।२२) उपमानवाची कर्ता सकारान्त हो तो आचार अर्थ में क्या प्रत्यय विकल्प से होता है और अन्तिम स् का लोप विकल्प से होता है । पयायते, पयस्यते । सरायते, सरस्यते । नियम ५३६-(ओजोप्सरस: ४।१।२३) ओजस् और अप्सरस् के स् का लोप नित्य होता है। ओजायते, अप्सरायते । _ नियम ५३७--(च्व्यर्थे भृशादेहसस्य ४।१।२४) भृश आदि शब्द च्चि अर्थ में हो तो क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है और अन्त्य हस का लोप हो जाता है । अभृशो भृशो भवति - भृशायते । चपलायते, पण्डितायते, उन्मनायते, शीघ्रायते, उत्सुकायते। नियम ५३८-(वाष्पोष्मधूमफेनादुद्वमने ४।१।२८) वाष्प, ऊष्म, धूम, फेन-ये शब्द कर्मरूप में हो तो उद्वमति (निकालना) के अर्थ में क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है। वाष्पं उ वमति = वाष्पायते । ऊष्मायते, धूमायते, फेनायते । नियम ५३६-(सुखादेरनुभवे ४।१।२६) सुख, दुःख, अलीक, कृपण आदि शब्दों से अनुभव अर्थ में क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है । सुखं अनुभवति - सुखायते । दुःखायते, अलीकायते, कृपणायते । नियम ५४०-(तपसः क्यच् ४।१।३१) तप शब्द कर्म रूप में हो तो करण अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है । तपः करोति = तपस्यति । नियम ५४१- (जिज् बहुलं करणादिषु ४।१।३७) करण आदि अर्थों में नाम से जिच् प्रत्यय होता है, प्रयोग के अनुसार । मुण्डं करोति -- मुण्डयति छात्रम् । लवणयति सूपम् । पटुमाचष्टे = पटयति । प्रियमाचष्टे -प्रापयति । स्थिरमाचष्टे - स्थापयति । वृक्षं रोपयति = वृक्षयति । कृतं गृह्णाति = कृतयति । रूपं दर्शयति -- रूपयति । शीलेन आचरति == शीलयति । प्रयोगवाक्य तोयत्यग्निरपि सजत्यहिरपि व्याघ्रोपि सारङ्गति । व्यालोप्यश्वति पर्वतोप्युपलति क्ष्वेडोपि पीयूषति ।। विघ्नोप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि क्रीडातडागत्यपांनाथोपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रभावाद् ध्रुवम् ॥१॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० वाक्यरचना बोध हिमति महिमाम्भोजे चण्डानिलत्युदयाम्बुदे । द्विरदति दयारामे क्षेमक्षमाभृति वज्रति । समिधति कुमत्यग्नौ कन्दत्यनीतिलतासु यः। . किमभिलषता श्रेयः श्रेयः स निर्गुणसंगमः ॥२॥ इयं महिला अप्सरायते। छात्रः पण्डितायते । अग्निः धूमायते । साधुः सदा सुखायते । नारकः दुःखायते । गुरुः मुण्डयति शिष्यम् । माली वृक्षयति । श्यामः मध्वस्यति । __ संस्कृत में अनुवाद करो - महेन्द्र बाजार से अगर, अकरकरा, आक, अभ्रक और गंधक किसके लिए लाया है ? अजवायन खाने से पेट की वायु नष्ट होती है। यह अमरबेल है । अमलतास का क्या उपयोग है ? असगन्ध शक्तिप्रद होता है। इषबगोल कब्जियत को दूर करता है । खसखस ठंडा होता है। बुखार को दूर करने के लिए वैद्य गिलोय भी देते हैं । गुग्गुल वायु को दर्द को नष्ट करता है। नामधातु का प्रयोग करो। मदन धन चाहता है। माणक पुत्र चाहता है। सुव्रत दही खाना चाहता है । प्रताप नौकर को भी स्वजन की तरह मानता है। भिखारी अपनी झोपडी को भी महल की तरह मानता है। शील के प्रभाव से अग्नि भी पानी की तरह हो जाती है। यह व्यक्ति गदहे की तरह आचरण करता है। यह पक्षी हंस की तरह आचरण करता है ।यह दूध पानी की तरह है । साध्वी तप करती है। मृदुभाषी जनों के शत्रु भी मित्र जैसे बन जाते हैं। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो राजनति, सरायते, ओजायते, उत्सुकायते, तृणायते, सुखायते, दु:खायते। २. हिंदी में अनुवाद करो___ महेन्द्र: मातुलाय यवनिकां ददाति । केचित् ईषद्गोलं दुग्धेन सह, केचित् नीरेण साकं, केचिच्च दध्ना समं खादन्ति । बाल: मध्वस्यति । उष्ट्र: गर्दभति । इदं गोरसं पयस्यते । इयं रमणी अप्सरायते । काकोऽपि हंसायते । ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ आक, अभ्रक, अजवायन, खसखस, गुग्गुल, गोखरू । ४. अनुभव अर्थ में किन-किन शब्दों से नामधातु बनती है ? ५. नामधातु बनाने के लिए करण आदि अर्थ कौन-कौन से हैं ? ६. कर्तावाची अकारान्त और सकारान्त शब्दों की उपमा दी जाए उन शब्दों से आचार अर्थ में नामधातु कैसे बनती है ? ७. अकारान्त शब्दों से इच्छा के अर्थ में और द्वितीयान्त शब्दों से आचरण के अर्थ में नाम धातु का क्या रूप बनता है, उदाहरण सहित लिखो। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६१ : पदव्यवस्थाप्रक्रिया (१) शब्दसंग्रह गोरोचना, रोचना (गोरोचन) । किरातकः, निद्रारी (चिरायता) । लज्जालुः, लज्जा (छुईमई) । जयपालः, सारकः (जमालगोटा)। यवक्षारः (जवाखार) । जातिफलं, कोपकम् (जायफल)। जातिपत्री, जातिकोषा (जावित्री) । ताम्रकूटः, तमाकूः, (तमाखु) । कोकिलाक्षः, क्षरः (तालमखाना) । नस्यम् (नसवार)। तीक्ष्णसारः (तेजाब)। धुस्तूरः, मदनः (धतूरा) । नागरमुस्ता, चूडाला (नागरमोथा) । तुत्थम् (नीलाथोथा) । सादरः, नरसादरः (नोसादर)। __ आत्मनेपद परस्मैपद उपसर्ग के संयोग से और कहीं अर्थों के कारण धातुओं के पदों का परिवर्तन हो जाता है। परस्मैपद आत्मनेपद हो जाता है और आत्मनेपद परस्मैपद हो जाता है । इसके कुछ नियम ध्यातव्य हैं नियम५४२- (निविशः ३।३।२१) नि उपसर्गपूर्वक विश् धातु आत्मने पद हो जाती है । निविशते । नियम ५४३-(व्यवपरिभ्यः क्रियः ३।३।२२) वि. अव, परि, उपसर्गपूर्वक क्री धातु आत्मनेपद हो जाती है । विक्रीणीते, अवक्रीणीते, परिक्रीणीते । नियम ५४४-(विपराभ्यां जे: ३।३।२३) वि और परा उपसर्गपूर्वक जि धातु आत्मनेपद हो जाती है। विजयते, पराजयते। नियम ५४५-(अनुपरिभ्यां च क्रीड: ३।३।२७) अनु, परि, आ उपसर्गपूर्वक क्रीड् धातु आत्मनेपद हो जाती है । अनुक्रीडते, परिक्रीडते, आक्रीडते। नियम ५४६- (शप उपालंभे ३।३।३२) शप् धातु उपालंभ के अर्थ में आत्मनेपद हो जाती है । मैत्राय शपते । अन्यत्र मैत्रं शपति (आक्रोशति)। नियम ५४७-(विप्रसमवेभ्य: ३।३।३४) वि, प्र, सं, अव उपसर्गपूर्वक स्था धातु आत्मनेपद हो जाती है । वितिष्ठते, प्रतिष्ठते, संतिष्ठते, अवतिष्ठते । नियम ५४८-- (उपात्स्थः ३।३।७४) उप उपसर्गपूर्वक स्था धातु Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ वाक्यरचना बोध अकर्मक हो तो आत्मनेपद हो जाती है। भोजनकाले उपतिष्ठते । अन्यत्र राजानं उपतिष्ठति । नियम ५४६-(आङ् स्पर्धायाम् ३।३।४०) आ उपसर्गपूर्वक ह्वयति धातु स्पर्धा के अर्थ में आत्मनेपद हो जाती है । मल्लो मल्लं आह्वयते । अन्यत्र गोपालः गां आह्वयति । नियम ५५०- (वे: स्वार्थे ३।३।४६) वि उपसर्गपूर्वक क्रम् धातु स्वार्थ में आत्मनेपद हो जाती है । गजो विक्र मते। नियम ५५१-(प्रोपादारंभे ३।३।५०) प्र उपसर्गपूर्वक क्रम् धातु आरंभ अर्थ में आत्मनेपद हो जाती है। भोक्तुं प्रक्रमते, भोक्तुं उपक्रमते (प्रारंभ करता है) । अन्यत्र प्रक्रामति (जाता है)। नियम ५५२- (अनुपसर्गाद् वा ३।३।५१) उपसर्ग रहित क्रम् धातु विकल्प से आत्मनेपद होती है। क्रमते, कामति । नियम ५५३- (अमुपसर्गाद् ज्ञः ३।३।८६) उपसर्गरहित ज्ञा धातु फलवति अर्थ में हो तो आत्मनेपद हो जाती है । गां जानीते । अन्यत्र परस्य गां जानाति । नियम ५५४--(अवाद् गिरः ३।३।५४) अव उपसर्गपूर्वक गिर् धातु आत्मनेपद हो जाती है। अवगिरते । नियम ५५५-(उपाद्यमः स्वीकारे ३।३।५८) उप उपसर्गपूर्वक यम् धातु स्वीकार अर्थ में आत्मनेपद हो जाती है । कन्यां उपयच्छते वरः । नियम ५५६- (समः क्ष्णुवः ३।३।६८) सं उपसर्गपूर्वक क्ष्णु धातु आत्मनेपद हो जाती है । संक्ष्णुते शस्त्रम् ।। नियम ५५७-(समो गमृच्छिप्रच्छिस्वरतिश्रुविदतिदृशः ३।३१७६) सं उपसर्गपूर्वक अकर्मक गम् आदि धातुएं आत्मनेपद हो जाती हैं। संगच्छते, संमृच्छते, संपृच्छते, संस्वरते, संशृणुते, संवित्ते, समृच्छते, समियते, संपश्यते । नियम ५५८-(अनोरकर्मकात् ३।३।७३) अनु उपसर्गपूर्वक वद् धातु अकर्मक हो तो आत्मनेपद हो जाती है। अनुवदते आचार्यस्य शिष्यः । अन्यत्र उक्तं अनुवदति । नियम ५५६ (व्युदस्तप: ३।३।७८) वि, उत् उपसर्गपूर्वक तप् धातु आत्मनेपद हो जाती है। वितपते, उत्तपते वा रविः। . नियम ५६०- (व्यक्तवाचां सहोक्तौ ३।३।७१) मनुष्य आदि एक साथ स्पष्ट बोले तो वद् धातु आत्मनेपद हो जाती है। संप्रवदन्ते ग्राम्याः । संप्रवदन्ति कुक्कुटाः (व्यक्त वाणी नहीं) । चैत्रः वदति (सहोक्ति नहीं है)। प्रयोगवाक्य माता पुत्रं शपते । शिष्यः गुरुमुपतिष्ठति । गोपालः गां जानीते । भूपः Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदव्यवस्थाप्रक्रिया (१) २१३ शत्रून् पराजयते । साधवः भोक्तुं प्रक्रमन्ते । श्यामः सीतामुपयच्छते। सा किं संपृच्छते । शिष्याः संप्रवदन्ते । गर्दभाः संप्रवदन्ति । मोहनः भोजनमव गिरते । रुग्णाप किरातकः न रोचते । ताम्रकूटं मा अद्धि। नस्यं मा जिघ्र । बालकाः जननी कोकिलाक्षान् याचन्ति । संस्कृत में अनुवाद करो चिरायता कडवा होता है । सुरेन्द्र की मां ने बाजार से जमालगोटा, जवाखार, जायफल, जावित्री, नागरमोथा, नीलाथोथा और नोसादर मंगवाया है । तमाखु नुकसानप्रद होता है। बच्चे तालमखाना खाते हैं । नसवार नहीं संघना चाहिए। तेजाब से वस्तु जल जाती है । धतूरे के फल नहीं होता। सुशीला यहां बैठती है। माली बाजार में क्या बेचता है ? शत्रु सेना को जीतता है । बालक आंगन में खेलता है । श्याम इस नगर में ठहरता है । वादी प्रतिवादी से विवाद करता है । तापस दुष्टों को श्राप देता है। साधक भोजन करना शुरू करता है। राजा कन्या को स्वीकार करता है । रमेश साधु के साथ जाता है। सूर्य तपता है । भेडें बोलती हैं। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो.. उपतिष्ठते, उपयच्छते, संतिष्ठते, जानाति, अनुवदते, अवगिरते । २. नीचे लिखे रूपों का कारण बताते हुए शुद्धाशुद्धि करो। शपति, शपते । उपतिष्ठति, उपतिष्ठते । विक्रामति, विक्रमते । जानीते, जानाति । विजयते, विजयति । निविशते, निविशति । संप्रवदन्ते, संप्रवदन्ति । ३. हिंदी में अनुवाद करो अस्मिन् ग्रामे कियन्तः जनाः ताम्रकटं खादन्ति जिघ्रन्ति च । जननी बालकाय जातिफलं ददाति । सुरेन्द्र: निद्रारी नेतुं कुत्र अगमत् ? किं यूयं नस्यं जिघ्रथ ? यः कष्ट: न पराजयते स एव अग्रे वधितुं शक्तोऽस्ति । प्रवचनसमये स कुत्र उपतिष्ठते ? ४. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ जमालगोटा, जायफल, छुईमुई, तालमखाना, धतूरा, नागरमोथा । ५. परस्मैपदी धातु किन-किन उपसर्गों के योग से किस अर्थ में आत्मनेपदी होती है ? ६. बिना उपसर्ग के कौनसी धातु कहां आत्मनेपदी होती है ? Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६२ : पदव्यवस्थाप्रक्रिया (२) शब्दसंग्रह सूर्यक्षार: (शोरा)। स्वर्जिका, स्वर्जि: (साजी)। शुक्लाजाजी (सफेद जीरा) । सुधामूली, जीवनी (सालममिसरी)। सर्वक्षार: (साबुन) । हिंगुलम्, चित्रांगम् (सिंगरफ) । शौक्तिकम् (सिरका) । अंजनम् (सुरमा) । मधुरा, मधुरिका (सौंफ)। हिंगु, उग्रगंध: (हींग) । जीरक: (जीरा)। धान्यकम् (धनिया) । शुण्ठी (सोंठ) । हरिद्रा (हल्दी) । लवणम् (नमक) । सैन्धवम् (सैंधा नमक)। लवङ्गम् (लौंग)। दारुत्वचम् (दालचीनी) । त्रिपुटा (छोटी इलायची)। खादिरः (कत्था)। चूर्णः (चूना) । आर्द्र कम् (अदरक)। मरिचम् (मिर्च) । परस्मैपद नियम ५६१-- (अनुपराभ्यां कृनः ३।३।६२) अनु, परा उपसर्ग पूर्वक कृ धातु परस्मैपद होती है । अनुकरोति, पराकरोति । नियम ५६२– (अभिप्रत्यतिभ्यः क्षिप: ३।३।६३) अभि, प्रति, अति उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातु परस्मैपद होती है। अभिक्षिपति, प्रतिक्षिपति, अतिक्षिपति। नियम ५६३-(व्याङ्परिभ्यो रमः ३।३।६६) वि, आङ्, परि उपसर्गपूर्वक रम् धातु परस्मैपद होती है । विरमति, आरमति, परिरमति । नियम ५६४- (वोपात् ३।३।६७) उप उपसर्गपूर्वक रम् धातु विकल्प से परस्मैपद होती है । उपरमति उपरमते वा भार्याम् । नियम ५६५– (विवादे वा ३।३।७२) विवादरूप में एक साथ अनेक स्पष्ट बोलते हों तो वद् धातु विकल्प से परस्मैपद होती है। विप्रवदन्ते वैद्याः, विप्रवदन्ति वैद्याः। नियम ५६६–(प्रलम्भने गृधिवञ्चे: ३।३।८०) गृध्, वञ्च् धातु मिन्नन्त में हो और प्रलंभन (ठगना) के अर्थ में हो तो आत्मने पद होती है । बटुं गर्धयते वञ्चयते वा । अन्यत्र गर्धयति श्वानम् । नियम ५६७- (मिथ्यया कृनोऽभ्यासे ३।३।८४) बार बार मिथ्या करने के अर्थ में कृ धातु का जिन्नन्त रूप (कारयति) आत्मने पद हो जाता है। पदं मिथ्या कारयते । पदं साधु कारयति (यहां मिथ्या नहीं है) । सकृत् . पदं मिथ्या कारयति (यहां बार-बार नहीं है)। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद व्यवस्थाप्रक्रिया (२) नियम ५६८- - ( स्मृदृशः सन: ३।३।६१ ) स्मृ और दृश् धातु सन्नन्त हो तो आत्मने पद होती है । सुष्मूर्षते पूर्ववृत्तम् । दिदृक्षते मुनिम् । नियम ५६६- - (अभिन्नकर्मकप्राणिकर्तृकाञ्ञिनः ३|३|१०२ ) अभिन् अवस्था में धातु अकर्मक हो, प्राणी कर्ता हो तो वह धातु विन्नन्त में परस्मैपद हो जाती है । आस्ते चैत्रः = आसयति चैत्रम् । कारयति धर्मं (कृ धातु सकर्मक है) । शोषयते व्रीहिन् आतपः । यहां कर्ता प्राणी नहीं है । नियम ५७० - (चल्याहारार्थ बुधयुधनशजनेङ्गुद्रुश्रुभ्यः २१५ ३।३।१० ३) चलि (कम्पन) और आहार - इन अर्थवाली धातुएं, बुध्, युध्, नश्, जन्, इङ्, प्रु, द्रु, स्र – ये सभी धातुएं भिन्नन्त में हो तो परस्मैपद हो जाती हैं । चलयति, कम्पयति, चोपयति वा शाखाम् । निगारयति, भोजयति, आशयति वा चैत्रं अन्नम् । रविः पद्मं बोधयति । योधयति काष्ठानि । नाशयति पापम् । जनयति पुण्यम् । सूत्रं अध्यापयति शिष्यम् । प्रावयति राज्यम् ( प्रापयति ) । द्रावयति लोहम् । स्रावयति तैलम् । नियम ५७१ - ( प्राद् वह: ३ | ३ | ६४ ) प्र उपसर्गपूर्वक वह धातु परस्मैपद होती है । प्रवहति । प्रयोगवाक्य एक: मेष: अन्य मेषं अनुकरोति । दुष्टः सज्जनं अभिक्षिपति । शीला सखिभिः सार्द्धं उद्याने आरमति । विद्वान्सः कथं विप्रवदन्ते ? दस्युः सभ्यं वञ्चयते । सा मम वार्तां मिथ्याकारयते । मातुलानी मुनि दिदृक्षते । धनञ्जयाय धान्यकं रोचते । शुण्ठी उण्णा भवति । केचित् लवणमयं शाकं न जिघत्सन्ति । सा दुग्धे हरिद्रां नयति । शीला लवङ्ग न अश्नाति । संस्कृत में अनुवाद करो साजी में खार होता है । भाभी ने सुरेश से सफेद जीरा, लाल मिसरी, सिंगरफ, सिरका मंगाया था । साबुन किससे बनती है ? सुरमा आंख के लिए लाभदायक है । क्या तुम सोंफ खाते हो ? इस सब्जी में हींग नहीं है । शिष्य गुरु का अनुकरण करता है । नौकर मालिक पर आक्षेप करता है । वही सच्चा मुनि है जो आत्मा में रमण करता है । बच्चे क्यों विवाद करते हैं ? रमेश भाभी को ठगता है । अविनीत शिष्य बार-बार आचार्य के कथन को झूठा करता है । मैं प्रतिदिन साधुओं को देखना चाहता हूं । मंत्रीमुनि ने आचार्य श्री को बलात् पट्ट पर बैठाया । ऊंट शाखा को कंपाता है । माता पुत्र को मिठाई खिलाती है । अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो पराकरोति, प्रतिक्षिपति, सुष्मूर्षते, विप्रवदन्ति, भोजयति, बोधयति । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध २१६. २. हिंदी में अनुवाद करो मूढाः मुधा विप्रवदन्ते । जननी पुत्रं दिदृक्षते । छात्रः पाठं सुष्मूर्षते । सा अंजनं याचते । महेशः मधुरिकां, लवङ्ग, त्रिपुटां च भक्षति । मूलचंदाय समरिचं शाकं न रोचते । श्यामसुंदरः खादिरं चूर्णं च नेतुं बहिर्याति । ३. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ साजी, साबुन, हींग, दालचीनी, जीरा, कत्था । ४. नीचे लिखी धातुए ं किन-किन उपसर्ग के साथ परस्मैपद होती हैं ? कृ, रम्, क्षिप्, वह,, वद् । ५. सन्नन्त रूप वाली और बिन्नन्त रूप वाली कौनसी धातु परस्मैपद होती है ? Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६३ : विभक्त्यर्थप्रक्रिया (१) शब्दसंग्रह पर्पट: (पितपापडा)। कोलफलम् (पिपलामूल)। खसफलम् (पोस्त) । स्फटिकरि, स्फटिका (फिटकडी)। वंशलोचना (वंशलोचन)। भंगा, विजया, मातुली (भांग) । मंजिष्ठा, तुवरा (मजीठा)। पथिका, मधुरिका (मुनक्का) । तिमिरः, कोकदंता (मेंहदी) । सिक्थकम्, मयनम् (मोम) । रसाञ्जनम् (रसौत) । रालः (राल) । अरिष्ठकः (रीठा) । लाक्षा, जतुका (लाख)। विभक्त्यर्थप्रक्रिया वर्तमान, भूत और भविष्यत् काल की क्रियाओं के लिए तिबादि, यादादि आदि १० विभक्तियां हैं (देखो पाठ ६) । कुछ शब्दों के योग में विभक्तियों का काल बदल जाता है। वाक्य रचना की सुविधा के लिए अथवा ज्ञान की विशिष्टता के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। नियम ५७२ (स्मे च तिबादि: ४।४।६६) अनद्यनतनभूत (दिबादि) परोक्ष (णबादि) अपरोक्ष (द्यादि) के अर्थ में स्म और पुरा शब्द के योग में तिवादि विभक्ति होती है। स्म, पुरा धातु के आगे, पीछे कहीं लगाया जा सकता है । भवति स्म महावीरः (महावीर हुए थे ) । वसति इह पुरा मुनिः (यहां मुनि रहते थे)। नियम ५७३-(भूतेऽनद्यतनेऽयदिस्मृत्यर्थे स्यत्यादि: ४।४।५६) स्मृति अर्थ की धातु का पूर्वपद में प्रयोग हो, यत् शब्द का प्रयोग न हो तो अनद्यतनभूत अर्थ में स्यत्यादि विभक्ति होती है । साधो ! स्मरसि स्वर्गे स्थास्यामः (हे साधु ! याद है हम स्वर्ग में रहते थे)। इसी प्रकार स्मरसि के स्थान पर अभिजानासि, बुध्यसे, चेतयसे का प्रयोग हो सकता है। क्रिया में स्थास्याम: के स्थान पर वत्स्यामः, गमिष्यामः का प्रयोग किया जा सकता है। नियम ५७४---- (कृताऽस्मृत्यतिनिह्नवयोर्णबादिः ४।४।६१) कृतकार्य की चित्त विक्षेप के कारण स्मृति न रहे या अतिनिह्नव का अर्थ गम्यमान हो तो अनद्यतनभूत के अर्थ में णबादि विभक्ति होती है। सुप्तोऽहं किल विललाप। कि कलिंगेषु ब्राह्मणो हतः ? नाहं कलिंगं जगाम । नियम ५७५-- (परोक्षे हशश्वतो दिबादिश्च ४।४।६२) ह और शश्वत् का प्रयोग करने से अनद्यतनपरोक्ष के अर्थ में दिबादि और णबादि विभक्ति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ वाक्यरचना बोध होती है। इति ह अकरोत्, इति ह चकार। शश्वत् अकरोत्, शश्वत् चकार । नियम ५७६-(अविवक्षिते ४।४१६४) अनद्यतन परोक्ष की विवक्षा न करने से दिबादि विभक्ति होती है । अभवत् सगरः राजा। नियम ५७७-(पुरादौ धादिर्वा ४।४।६५) अनद्यतनभूत परोक्ष (णबादि) अनद्यतनभूत अपरोक्ष (दिबादि) के अर्थ में पुरा आदि उपपद में हो तो द्यादि विभक्ति विकल्प से होती है। पक्ष में अपनी-अपनी विभक्ति होती है । यानि दिबादि में दिबादि, णबादि अर्थ में णबादि । अवात्सुः इह पुरा साधवः । अवसन् इह पुरा साधवः । ऊषुरिह पुरा छात्राः । तदा अभाषिष्ट राघवः, तदा अभाषत राघवः, बभाषे राघवस्तदा । प्रयोगवाक्य भवति स्म आचार्यः कालुः । निवसामो पुरा वयमत्र । लक्ष्मण ! किमभिजानासि इमौ नुपूरौ सीतायाः स्तः । नाहं नाट्यगृहं जगाम । अगमत् रामः लंकायाम् । स शश्वद् अवदत् । आगमन् इह पुरा साधवः । अवदत्, अवादीत्, उवाद वा स पुरा भाषणम् । स्फटिका मलिनं जलं विमलीकरोति । विजयां पीत्वा जनाः अनर्गलं लपन्ति । स्त्रीभ्यः कोकदंता रोचते । ते प्रतिदिनं पथिका: भुजते। संस्कृत में अनुवाद करो रमा पितपापडा खाती है । सुरेन्द्र की मां प्रतिवर्ष पिपलामूल लेती है । सतीश को पोस्त अच्छा लगता है। यदि पानी को साफ करना है तो फिटकडी लाओ। होली में लोग भांग क्यों खाते हैं ? पिप्पल भूख को बढाती है। बच्चे को मुनक्का किसने दी ? कमला हाथ और पैरों में मेंहदी लगाती है। मोम गर्मी में पिघल जाता है। लाख का व्यापार जैन श्रावक के लिए वर्जनीय है। विभक्त्यर्थ का प्रयोग करो महासती सीता और राम कब हुए थे ? इस कमरे में आचार्य श्री विराजे थे । यह हमारा छट्ठा जन्म है । जानते हो, हम दोनों कुलीन हैं । क्या मैं नींद में बोला था ? उसने क्या किया था ? राजा दिलीप हुए थे। सुनीला पहले इस मकान में रहती थी। अभ्यास १. नीचे लिखे शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो पुरा, स्म, शश्वत्, ह । २. तिबादि विभक्ति किसके योग में होती है ? Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त्यर्थ प्रक्रिया (१) २१६ ३. अनद्यतनभूत के अर्थ में किस अर्थ में कौन-कौन सी विभक्ति होती ४. अनद्यतनभूत के अर्थ में णबादि विभक्ति किस नियम से होती है ? ' ५. हिन्दी में अनुवाद करो पितामही कोलफलं कदा अभक्षत् ? छात्रः खसफलं खादति । ते मातुलीं न पिबन्ति । मयनेन भवान् किं करिष्यति ? ताः पिप्पलं वाञ्छन्ति । भवति स्म बुद्धः । अभवत् गणधरः गौतमः। अभक्षत् बालः मोदकम् । अपात् स दुग्धम् । ६. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओफिटकडी, पोस्त, भांग, रसौत, राल, लाख, मोम । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ: ६४ : विभक्त्यर्थ प्रक्रिया (२) शब्दसंग्रह आलू : (आलु) । रक्ताङ्गः (टमाटर) । गोजिह्वा (गोभी) । कलायः (मटर) । भिण्डक : ( भिंडी ) । टिण्डिश: (टिंडा ) । अलाबु : (लौकी) । कूष्माण्ड : (कद्दू ) । गृञ्जनम् (गाजर) । मूलकम् ( मुली ) । श्वेतकन्दः ( शलगम ) । पालकी (पालक) । जालिनी ( तोरई ) । पटोल: (परवल) । कारवेल्लः (करेला ) । कर्कटी ( ककडी ) । पनसम् (कटहल ) । शदः ( सलाद ) | करमर्दकः ( करौंदा ) । तिन्तिडीकम् ( इमली ) । नियम नियम ५७८ - ( ननौ पृष्टोक्तौ वर्तमानवत् ४|४|१६७ ) प्रश्न के उत्तर में ननु शब्द उपपद में हो तो भूतकाल के अर्थ में तिबादि विभक्ति होती है । fक अकार्षीः तपः साधो ! ननु करोमि भोः । किं लेख अलिख: ? ननु लिखामि । नियम ५७६ - ( यावत्पुरयोर्भविष्यति ४/४/६६ ) निपातशब्द यावत् और पुरा के योग में भविष्यति के अर्थ में तिबादि विभक्ति होती है । यावद् भुङ्क्ते । पुरा भुङ्क्ते । नियम ५८०- - ( कदाकह्यर्वा ४|४|७० ) कदा, कर्हि शब्द पूर्वपद में हो तो भविष्यति के अर्थ में तिबादि विभक्ति विकल्प से होती है । पक्ष में तादि, स्यत्यादि भी । कदा भुङ्क्ते । कदा भोक्ता, कदा भोक्ष्यते । कहि पठति, कहि पठिता, कर्हि पठिष्यति । नियम ५८१ - ( वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद् वा ४|४|७६ ) समीप का भूत और समीप का भविष्य के अर्थ में तिबादि विभक्ति विकल्प से होती है । कदा आगतोऽसि ? अयं आगच्छामि । कदा गमिष्यसि ? एष गच्छामि । नियम ५८२- - ( इच्छार्थेभ्यो वा वर्तमाने ४|४|१०१ ) इच्छति के अर्थवाली धातुओं से वर्तमान (तिबादि ) अर्थ में यादादि विकल्प से होती है। पक्ष में तिबादि भी । इच्छेत् इच्छति । उश्यात् वष्टि । कामयेत्, कामयति । वाञ्छेत्, वाञ्छति । यदि संयतः सन्नकल्प्यं सेवितुमिच्छेत् इच्छति महे । नियम ५८३- - ( हेतुफले ४/४/६६ ) हेतु (कारण), फल ( कार्य ) । हेतु और फल अर्थ में यादादि विकल्प से होती है । यदि गुरुन् उपासीत Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त्यर्थ प्रक्रिया (२) शास्त्रान्तं गच्छेत् । यदि गुरुन् उपासिष्यते शास्त्रान्तं गमिष्यति । नियम ५८४ - ( शक्तार्हयोः कृत्यश्च ४|४|१०६ ) शक्तः ( समर्थ : ), अर्हः (योग्यः) । शक्त और अर्ह यदि कर्ता हो तो धातु से कृत्य ( तव्यादि ) प्रत्यय और बादि विभक्ति होती है । भवता खलु भारो वोढव्यः, वहनीयः, ह्या ह्येत । ( भवान् भारं वहेत्) । २२१ नियम ५८५ - ( द्यादि मङि ४|४|११० ) माङ् उपपद में हो तो द्यादि विभक्ति होती है । माङ्योगे तु न – इससे द्यादि में अट् नहीं होता । मा भूत् । मा कार्षीद् धर्मम् । नियम ५८६ - ( सस्मे दिवादिश्च ४|४|१११) मा के साथ स्म शब्द उपपद में हो तो द्यादि और दिवादि विभक्त होती है । मा चैत्र स्म हार्षी: परद्रव्यम् । मा चैत्र स्म हरः परद्रव्यम् । मा स्म करोत् मा स्म कार्षीत् । प्रयोगवाक्य किं त्वं गुरुणा सह वार्तामकार्षीः ? ननुकरोमि । किं भवान् पुरा वति ? रमा कहि गच्छति, गन्ता, गमिष्यति वा । मनोहरः कदा पठिष्यति, एष पठति । यदि सः पठेत् उत्तीर्णतां गच्छेत् । विनीतेन ज्ञानं प्राप्यं प्राप्तव्यं, प्रापणीयं वा । कस्मैचित् कूष्माण्डः, गृञ्जनं श्वेतकन्दश्च रोचते, कस्मैचिन्च कारवेल्लः, पटोल:, पनसं च । महेन्द्रः रक्ताङ्ग पालकीं च न अत्ति । संस्कृत में अनुवाद करो राजेन्द्र के पिताजी आलू और मूली नहीं खाते । रमेश को टमाटर और सलाद अच्छा लगता है । आज बाजार में टिंडा, लौकी, कद्दू, शलगम, पालक, तोरई, परवल, करौंदा आदि सब्जियां आई हैं । कई लोग गोभी, भिंडी और मटर नहीं खाते । करेला कडवा होता है । कटहल पौष्टिक होता है । इमली का खट्टापन प्रसिद्ध है । ककडी खारी क्यों बनती है ? विभक्त्यर्थ का प्रयोग करो क्या तुमने आचार्यश्री की सेवा की थी ? हां की थी। क्या तुम नगर में पहले जाओगे ? हां जाऊंगा । तुम कब पढोगे, अभी पढता हूं । मोहन कब जायेगा ? श्याम कहां जाएगा ? यदि मदन पिता के पास रहता तो धन पा लेता । साध्वियों को पढना चाहिए। तुम वहां मत जाओ। तुम ऐसा मत बोलो । अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो— कारवेल्लः स्वास्थ्यप्रदो भवति । मम ग्रामं समया गुञ्जनशा कटं, जालिनीशाकिनं, कर्कटीशाकटं च विद्यन्ते । शिशवे तिन्तिडीकं न रोचते । कदा अत्स्यति भवान् एप अत्ति । किं सा पुरा गायति ? Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध २२२ २ निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ टमाटर, लौकी, गाजर, परवल, तोरई, कटहल, भिंडी, शलगम, करेला, सलाद, करौंदा, इमली । ३. ननु शब्द के योग में कौनसी विभक्ति होती है और किस प्रसंग में ? ४. मा तथा मास्म के योग में कौनसी विभक्ति होती है ? ५. तिबादि विभक्ति नित्य और विकल्प से कहां-कहां होती है और किसके योग में ? Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६५ : तव्य, अनीय प्रत्यय शब्दसंग्रह (तव्य, अनीय के रूप ) भवितव्यम्, भवनीयम् (भू) होना चाहिए । अत्तव्यम्, अदनीयम् (अद्) खाना चाहिए । वेदितव्यम्, वेदनीयम् (विद् ) जानना चाहिए । हन्तव्यम्, हननीयम् ( हन्) मारना चाहिए । स्तवितव्यम्, स्तवनीयम् (ष्टु) स्तुति करनी चाहिए । भेतव्यम्, भयनीयम् ( भी ) डरना चाहिए । नष्टव्यम्, नशनीयम् (नश् ) नष्ट होना चाहिए । श्रोतव्यम्, श्रवणीयम् (श्रु) सुनना चाहिए । मर्तव्यम् मरणीयम् (मुंज्) मरना चाहिए । पेष्टव्यम्, पेषणीयम् ( पिष्) पीसना चाहिए । बोद्धव्यम् बोधनीयम् (बुध् ) जानना चाहिए । मन्तव्यम्, मननीयम् ( मन्) मानना चाहिए । हर्तव्यम्, हरणीयम् (ह) हरण करना चाहिए । कर्तव्यम्, करणीयम् (कृ) करना चाहिए । भर्तव्यम्, भरणीयम् (भृ ) भरना चाहिए । धर्तव्यम् धरणीयम् (धृ ) धारण करना चाहिए । स्मर्तव्यम्, स्मरणीयम् (स्मृ ) याद करना चाहिए । पठितव्यम्, पठनीयम् ( पठ् ) पढना चाहिए । जागरितव्यम्, जागरणीयम् (जागृ) जागना चाहिए । शयितव्यम्, शयनीयम् (शी) सोना चाहिए। द्रष्टव्यम्, दर्शनीयम् (दृश् ) देखना चाहिए । प्रष्टव्यम्, प्रच्छनीयम् (प्रच्छ् ) पूछना चाहिए । नर्तितव्यम्, नर्तनीयम् (नृत्) नाचना चाहिए । हसितव्यम् हसनीयम् (हस् ) हंसना चाहिए । गन्तव्यम्, गमनीयम् ( गम् ) जाना चाहिए । तव्य, अनीय जहां अन्त में चाहिए का प्रयोग आए तथा यह करने योग्य है, खाने योग्य है या करना है, खाना है, जाना है— इत्यादि स्थानों में कृत्य प्रत्ययों IIT प्रयोग होता है | कृत्य प्रत्यय पांच हैं - तव्य, अनीय, य, क्यप्, घ्यण् । कृत्य प्रत्यय सकर्मक धातुओं से कर्म में और अकर्मक धातुओं से भाव में होता है । भाव में नपुंसकलिंग होता है और कर्म में होने से त्रिलिङ्गी होता है । कर्ता में तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है तथा कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। लिंग और वचन कर्म के अनुसार होते हैं । भाव में नित्य एकवचन और नपुंसकलिंग होता है । तव्य और अनीय ये प्रत्यय सब धातुओं से होते हैं । तव्य और अनीय के रूप बनाने के लिए कुछ नियम ध्यान में रखें । सरल तरीका यह है कि तुम् प्रत्यय के जो रूप बनते हैं, उनमें तुम् को हटाकर व्य लगा देना चाहिए। जैसे— कर्तुं – कर्तव्यम् । हसितुं हसितव्यम् । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ वाक्यरचना बोध गन्तुं गन्तव्यम् । पातुं-पातव्यम् । जेतुं-जेतव्यम् आदि । अनीय प्रत्यय के लिए नामि धातु को गुण होता है, इ और ई को ए, उ और ऊ को ओ, ऋ और ऋ को अर् होता है। उसके बाद ए को अय, ओ को अव हो जाता है। (देखें संधिविचार नियम ६, २०, २१) जि-जयनीयम् । चि-चयनीयम् कृ-करणीयम् । हु हवनीयम् । भू-भवनीयम् । उपधा में नामि हो उसे भी गुण होता है। जैसे—लिख्लेखनीयम् । शुच्–शोचनीयम् । दृश्–दर्शनीयम् । प्रयोगवाक्य त्वया साध्व्या भवितव्यम् । जनैः रात्रौ न अत्तव्यं, अदनीयं वा । छात्राभिः पाठः पठनीयः पठितव्यो वा। वीरन्द्र ण कार्य कर्तव्यं करणीयं वा । सुरेशेन तत्वं बोद्धव्यं बोधनीयं वा। भवतः भवता वा अत्रैव शयितव्यं शयनीयं वा । युष्माभिः रात्री जागर्तव्यं, जागरणीयं वा । मुनिभिः नाट्यं न दर्शनीयं द्रष्टव्यं वा। जिज्ञासुभिः प्रश्न: प्रष्टव्यः प्रच्छनीयः वा । आचार्यः मम वार्ता श्रोतव्या श्रवणीया वा । त्वया न हसनीयम् । संस्कृत में अनुवाद करो तुम्हें विद्वान् होना चाहिए। बालक को मीठा नहीं खाना चाहिए। रमेश को तत्व जानना चाहिए । हमें किसी प्राणी को नहीं मारना चाहिए। तुम सबको तीर्थंकरों की स्तुति करनी चाहिए । हम सबको सदा पाप से डरना चाहिए। सेवा में आये हुए सभी व्यक्तियों को आचार्य श्री का प्रवचन सुनना चाहिए। विद्यार्थियों को संस्कृत जाननी चाहिए। मनुष्यों को किसी का धन नहीं हरना चाहिए। श्रावकों को प्रतिक्रमण करना चाहिए। पिताजी को पानी नहीं भरना चाहिए। वृद्ध को नये वस्त्र धारण करने चाहिए । साधुओं को उत्तराध्ययन याद करना चाहिए। विद्यार्थी को अधिक नहीं सोना चाहिए । तुम्हें मेरी बात माननी चाहिए। छात्रों को प्रश्न पूछना चाहिए। स्त्रियों को नहीं नाचना चाहिए। सभी को बिना प्रयोजन नहीं हंसना चाहिए । अकेले व्यक्ति को रात में बाहर नहीं जाना चाहिए । मनुष्य को हर वक्त विद्यार्थी रहना चाहिए। हमें हमारे कार्य में तत्पर रहना चाहिए। आप महान् हैं इसलिए आपको किसी के साथ भी असद् व्यवहार नहीं करना चाहिए। आचार्यवर का व्याख्यान प्रतिदिन सुनना चाहिए। चंदन को पुस्तक पढनी चाहिए। मुनियों को स्वाध्याय करना चाहिए। अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करोसाधवः पापात् भेतव्यम् । अस्माभिः शास्त्रं बोद्धव्यः । केनापि अतिभोजनं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव्य, अनीय प्रत्यय २२५ न अत्तव्यः । शीला एतद् कार्य कर्तव्यम् । अशोकेन पाठः स्मर्तव्यम् । शिशुः शयनीयम् । साधकाः जागरणीयः । २. निम्नलिखित धातुओं के तव्य, अनीय प्रत्ययों के रूप बताओ मृज, हृ, कृ, अद्, ष्टु, शी, पिष, दृश्, भी, विद् । ३. निम्नलिखित तव्य, अनीय प्रत्ययों के रूपों को वाक्यों में प्रयुक्त करो हन्तव्यम्, अदनीयम, स्मर्तव्यम, धरणीयम, गन्तव्यम् । ४. तव्य और अनीय प्रत्यय किन धातुओं से होता है और किसमें होता है ? ५. तव्य और अनीय प्रत्यय के रूप बनाने का सरल तरीका क्या है ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६६ : य, क्यप् प्रत्यय शब्दसंग्रह स्थेयम् (ष्ठां) ठहरना चाहिए। हेयम् (ओहांक्) छोडना चाहिए । देयम् (दा) देना चाहिए । ध्येयम् (ध्य) चिंतन करना चाहिए। पेयम् (पा) पीना चाहिए । गेयम् (गें) गाना चाहिए । चेयम् (चि) चुनना चाहिए। जेयम् (जि) जीतना चाहिए । नेयम् (णी) ले जाना चाहिए । भव्यम् (भू) होना चाहिए । श्रव्यम् (श्रु) सुनना चाहिए । लव्यम् (लू) काटना चाहिए । तप्यम् (तप्) तपना चाहिए । लभ्यम् (लभ) प्राप्त करना चाहिए । गम्यम् (गम्) जाना चाहिए। तक्यम् (तक्) हंसना चाहिए । चत्यम् (चत्) मांगना चाहिए । यत्यम् (यतीङ्) प्रयत्ल करना चाहिए । शस्यम् (शस्) हिंसा करनी चाहिए । सह्यम् (सह.) सहना करना चाहिए। गद्यम् (गद्) बोलना चाहिए । मद्यम् (मदीच्) हर्षित होना चाहिए। यम्यम् (यमु) रोकना चाहिए । उद्यम् (वद्) बोलना चाहिए। क्यप् प्रत्यय के रूप प्रावृत्यः (प्रा+वृ) ढकना चाहिए । अधीत्यः (अधि+इ) पढना चाहिए। आदृत्यः (आ+ दृ) आदर करना चाहिए । जुष्यः (जुष्) सेवा करनी चाहिए। शिष्यः (शास्) शासन करना चाहिए । स्तुत्यः (ष्टु) स्तुति करना चाहिए। वृत्यम् (वृ) होना चाहिए । वृध्यम् (वृध्) बढना चाहिए । गृध्यम् (गृध्) गृद्ध होना चाहिए । भृत्यः (9) भरना चाहिए । कृत्यम् (कृ) करना चाहिए। मृज्यम् (मृज्) साफ करना चाहिए । दुह्यम् (दुह्) दुहना चाहिए । जप्यम् (जप्) जप करना चाहिए। गुह्यम् (गुह.) छिपाना चाहिए। य और क्यप् प्रत्यय य और क्यप् प्रत्यय कृत्य संज्ञा के अन्तर्गत हैं । तव्य और अनीय की तरह ये भी अकर्मक धातुओं से भाव में और सकर्मक धातुओं से कर्म में होते हैं। तव्य और अनीय सब धातुओं से होता है। ये दोनों प्रत्यय कुछेक धातुओं से होते हैं। क्यप् प्रत्यय में क और प इत् जाते हैं, य प्रत्यय शेष रहता है। दोनों य प्रत्यय होने पर भी रूपों में अन्तर पडता है । क्यप् प्रत्यय में प् इत् जाने से (ह्रस्वस्य पित् कृति तुक्) सूत्र से ह्रस्व धातुओं को तुक (त) का आगम हो जाता है और रूपों में भिन्नता आ जाती है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य, क्यप् प्रत्यय य प्रत्यय के रूप बनाने के लिए इन सूत्रों को ध्यान में रखोनियम ५८७ - ( स्वराद्य एच्चात: ५।१।२६ ) स्वरान्त धातुओं से य प्रत्यय होता है और आकारान्त धातुओं को एकार आदेश हो जाता है । चेयं, जेयं, नेयं, शेयं, देयं, गेयं धेयम् । नव्यं, हव्यं लव्यं । (येऽयकि १।२।५ ) सूत्र से ओकार और औकार को अव् और आव् आदेश हुआ है । नियम ५८८ - - ( पुश कितकिचतियतिशसिस हे : ५।१।२७) पवर्ग अंतवाली धातुएं तथा शक्, तक्, चत्, यत्, शस् और सह धातुओं से य प्रत्यय होता है । तप्यं, लभ्यं, गम्यं शक्यं, तक्यं चत्यं यत्यं, शस्यं, सह्यम् । नियम ५८६- - (गदिमदियमोऽनुपसर्गात् ५।१।२६ ) उपसर्ग रहित गद्, मद् और यम् धातु से य प्रत्यय होता है । उपसर्ग सहित होने से ध्यण् प्रत्यय होता है । गद्यं, मद्यं यम्यं । प्रगाद्यं, प्रमाद्यं प्रयाम्यम् । नियम ५६० - ( नाम्नि वदः क्यप् च ५।१।३६ ) नाम उपपद में हो तो वद् धातु से य और क्यप् प्रत्यय होता है | सत्योद्यं, सत्यवद्यम् । क्यप् प्रत्यय के रूपों के लिए नियम २२७ नियम ५६१- - ( वृनेतिदृजुषिशा सुस्तुभ्यः ५|१|४० ) वृन्, इ, दृ, जुष्, शास्, स्तु - इन धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है । वृत्यः प्रावृत्य:, इत्यः, अधीत्यः । दृत्यः, आदृत्यः । जुष्य, शिष्यः, स्तुत्यः । नियम ५६२ - ( ऋदुपधादऽकृपितृदृचः ५।१।३६) कृप्, नृत्, ऋच् धातुओं को छोड़कर उपधा में ऋकार वाली धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है । वृत्यं, वृध्यं, गृध्यम् । नियम ५६३- ( भृनोऽसंज्ञायाम् ५।१।४१) भृन् धातु से क्यप् प्रत्यय • होता है असंज्ञा के अर्थ में । संज्ञा अर्थ में घ्यण् प्रत्यय होता है । भृत्यः ( पोष्य: इत्यर्थः) । संज्ञा-भार्यः नाम कश्चित् क्षत्रियः । नियम ५६४- (कृवृषिमृजिशंसि दुहि गुहिजपेर्वा ५|१|४४) कृ, वृष्, मृज्, शंस्, दुह, गुह,, जप् धातुओं से क्यप् और ध्यण् प्रत्यय होता है । कृत्यं, कार्यं । वृष्यं वयं । मृज्यं, मार्ग्यं । शस्यं शंस्यं । दुह्यं, दोह्यं । गुह्यं, गोह्यं । जप्यं, जाप्यम् । , प्रयोगवाक्य न गद्यम् । सुरेन्द्रेण श्यामाय पुस्तकानि वर्षया भव्यम् । युष्माभिः सत्यं वचनं इदं स्थानं सर्वैः यम् । जनैः विषयेषु न गृध्यम् । श्रावकैः सचित्तं नीरं न पेयम् । सुव्रतेन अणुव्रतगीतं गेयम् । विवेकिभिः विना प्रयोजनं न तक्यम् । छात्रैः ज्ञानं प्राप्तुं प्रयत्यम् । तया कर्कशं वचनं देयानि । सीमया पारितोषिक: नेयः । श्रव्यम् । गृहे अस्माभिः न स्थेयम् । साधकैः जिनः जप्यः । - युष्माभिः पापानि न गुह्यानि । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ वाक्यरचना बोध संस्कृत में अनुवाद करो (य प्रत्यय का प्रयोग करों) तुम्हें मुनियों को दान देना चाहिए। हम सब को प्रभु का चिंतन करना है । किसी को भी अति ठंढा और अति गर्म पानी नहीं पीना चाहिए । साध्वियों को प्रेक्षागीत गाना है । जनता को योग्य व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए । हमें कर्म शत्रुओं को जीतना चाहिए । सब को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । मुनियों को बावीस परीषह सहन करने चाहिए । सब को मधुर बोलना चाहिए । किसान को फसल जल्दी नहीं काटनी चाहिए । क्यप् प्रत्यय का प्रयोग करो सुशील को गुरु से विद्या पढनी है । सभी को गुरुओं का आदर करना चाहिए । साध्वियों को रुग्ण और वृद्ध साध्वी की सेवा करनी चाहिए। तुम सब को प्रभु की स्तुति करनी चाहिए । राजा को दुष्टों पर शासन करना चाहिए । नरेश को सम्यक् वर्तन करना चाहिए । स्त्रियों को विकास पथ पर बढना चाहिए । विवेकशील व्यक्तियों को सदा अच्छा कार्य करना चाहिए । हमें अपनी आत्मा को ध्यान और स्वाध्याय से साफ करनी चाहिए | तुम्हें किसी की हिंसा नही करना चाहिए । अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करोसर्वे समये कार्यं कृत्यम् । शिष्याः वृध्यम् । विनीताः गुरुणां पार्श्वे विद्या अधीत्या । नराः लाभे न मद्यम् । साधवः दुर्जनानां कर्कशा वाणी सह्या । शीला अधुना गृहं न गम्यम् । वयं अग्रजा: आदृत्याः | मोहनः भाषणं उद्यम् । २. निम्नलिखित धातुओं के य प्रत्यय के रूप बताओ गैं, चि, लू, लभ्, गम्, तप्, सह,, वद् । ३. निम्नलिखित धातुओं के क्यप् प्रत्यय के रूप बताओ शास्, ष्टु, वृध्, शस्, जुष्, दुह, गुह । ४. य और क्यप् प्रत्यय किन- किन धातुओं से होता है, बताओ ? ५. नीचे लिखे रूप किस धातु और किस प्रत्यय के हैं ? मृज्यं, तक्यं, लभ्यं, सत्योद्यं, शिष्यः, अधीत्य: वृध्यं, मार्ग्यम् । ६. य और क्यप् प्रत्यय के विषय में तुम क्या जानते हो ? ७. दोनों प्रत्ययों के रूपों की समानता है या भिन्नता है । उनकी पहचान क्या है ? Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६७ : ध्यण् प्रत्यय शब्दसंग्रह (ध्यण प्रत्यय के रूप) कार्यम् (कृ) करना चाहिए। वर्ण्यम् (वृष्) बरसना चाहिए । मार्यम् (मृज्) माफ करना चाहिए । याज्यम् (यज्) यज्ञ करना चाहिए। रोच्यम् (रुच्) अच्छा लगना चाहिए। शोच्यम् (शुच्) शोक करना चाहिए । याच्यम् (याच्) मांगना चाहिए । अय॑म् (अर्च ) पूजा करनी चाहिए । वाच्यम् (वच्) बोलना चाहिए । भोज्यम् (भुज्) खाना चाहिए। त्याज्यम् (त्यज्) छोडना चाहिए । लाव्यम् (लू) काटना चाहिए । पाव्यम् (पू) साफ करना चाहिए । याव्यम् (यु) मिश्रण करना चाहिए । वाप्यम् (वप्) बोना चाहिए । राप्यम् (र' ) अव्यक्त शब्द करना चाहिए। लाप्यम् (लप्) बोलना चाहिए । त्राणम् (त्र) लज्जा करनी चाहिए । डेप्यम् (डिप्) इकट्ठा करना चाहिए। दाभ्यम् (दभ्) दंभ करना चाहिए । आचाम्यम् (चम्) आचमन करना (पीना) चाहिए । आनाम्यम् (नम्) झुकना चाहिए। हार्यम् (ह) हरण करना चाहिए । पाक्यम् (पच्) पकाना चाहिए। वाह्यम् (वह) प्राप्त करना चाहिए । सेक्यम् (सिच) सिंचन करना चाहिए । योग्यम् (युज्) जोडना चाहिए । दोह्यम् (दुह) दुहना चाहिए। गोह्यम् (गुह.) छिपाना चाहिए । जाप्यम् (जप्) जप करना चाहिए। नियम ५६५--- (ऋवर्णहसाद् घ्यण ५।१।४८) ऋवर्ण और हस् अन्त वाली धातुओं से ध्यण प्रत्यय होता है । कार्य, हार्य, पाक्यं, वाक्यं, वाह्यम् । __ नियम ५६६ क-(आसुयुवपिरपिलपित्रपिडिपिदभिचम्यानमे: ५।११४६) आङ् पूर्वक सुनोति और न मि धातु, य, व, र, लप, त्र, डिप्, दभ्, चम् इन धातुओं मे घ्यण् प्रत्यय होता है । आसव्यं, याव्यं, वाप्यं, राप्यं, लाप्यं, डेप्यं, दाभ्यं, आचाम्यं, आनाम्यम् । __ ख(पाणिसमवायोः सृजे: ५।११५०) पाणि, समव (सम् +अव) उपपद में हो तो सृज् धातु से घ्यण प्रत्यय होता है। पाणिभ्यां सृज्यते= पाणिसा रज्जुः । समवसृज्यते इति समवसर्ग्यः । ग- (चजो: कगौ घिति ६।१।२१) धातु के च को क तथा ज को ग हो जाता है, घ् इत् जाने वाला प्रत्यय परे हो तो। सेक्यं, पाक्यं, योग्यम् । घ-- (त्यजियजिरुचिशुचियाचिप्रवर्चचः ६।१।२७) इन धातुओं के ज को ग और च को क नहीं होता। त्याज्यं, याज्य, रोच्यं, शोच्यं, याच्यं, प्रवाच्यं, अय॑म् । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध दु - ( उवर्णादावश्यके ५।१।५१ ) उवर्ण अन्तवाली धातुओं से आवश्यक अर्थ में घ्यण् प्रत्यय होता है। लाव्यं, पाव्यम् । जहां आवश्यक अर्थ नहीं वहां लव्यं पव्यम् । च - (घ्यण्यावश्यके ६।१।२६ ) आवश्यक अर्थ में होने वाले ध्यण् प्रत्यय परे होने पर च को क, ज को ग नहीं होता । अवश्यपाच्यं, अवश्यरञ्ज्यम् । अन्यत्र पाक्यं, रङ्ग्यम् । २३० छ - ( भुजो भक्ष्ये ६।१।३१) भुज् धातु से भक्ष्य अर्थ में घ्यण् प्रत्यय होने पर ज को ग नहीं होता । भोज्यं अन्नं, भोज्या यवागूः । भक्ष्य अर्थ न हो वहां भोग्यः कंबलः । ज - ( वचोऽशब्दसंज्ञायाम् ६।१।२८) वच् के च को क नहीं होता अशब्द संज्ञा में । वाच्यम् । शब्द संज्ञा में वाक्यम् । प्रयोगवाक्य त्वया एतद् स्थानं मार्ग्यम् । युष्माभिः मा यज्यम् । मात्रा सुतः न शोच्यः । दरिद्रैः कटु न वाच्यम् । युष्माभिः वीतरागदेवः अर्च्यः । श्रेष्ठिनः पुत्रैः कुसंग: त्याज्यः । त्वया गुरुभिः त्राप्यम् । शिशुभिः न दाभ्यम् । त्वया कस्यापि वस्तूनि न हार्याणि । सूदेन अन्नं पाक्यम् । त्वया शर्करायां धूलिः न याव्या रोगिभिः मिष्टान्नं न भोज्यम् । बलवता नृपेण इयं पृथ्वी भोग्या । संस्कृत में अनुवाद करो साधुओं को श्रम करना चाहिए । हमें अपने स्थान को साफ करना चाहिए । रमा को दही अच्छा लगना चाहिए। बीती हुई बात का शोक नहीं करना चाहिए । मुनियों को गृहस्थों से भिक्षा मांगनी चाहिए। हमें वीतराग देव की भाव पूजा करनी चाहिए । स्त्रियों को मधुर बोलना चाहिए । मनुष्यों को अधिक मीठा नहीं खाना चाहिए। तुम्हें दुर्जनों का साथ छोड देना चाहिए । ग्वाले को दूध में पानी नहीं मिलाना चाहिए। किसानों को उर्वर भूमि में बीज बोना चाहिए । बहूओं को सास-ससुर से लज्जा करनी चाहिए । सुशील को दंभ नहीं करना चाहिए। श्याम को गुरुचरणों में झुक जाना चाहिए । हमें किसी की वस्तु का हरण नहीं करना चाहिए। सुशीला को अन्न पकाना चाहिए | सभी को योग्यता प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें टूटे हुए हृदय को जोडना चाहिए। सभी को अहं का जप करना चाहिए। स्त्रियों को गेहूं साफ करने चाहिए । अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो त्वया सुतं न शोच्यम् । मुनयः निरवद्यं वचनं वाच्यम् । रुग्णाः घृतं न भोज्यम् । नृपेण पृथिवी भोग्यः । आपणिकाः मधुरं वचनं लप्यम् । तथा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्यण् प्रत्यय २३१ गृहं त्याज्यः । कृषकैः क्षेत्रे बीजं वाप्यः । २. निम्नलिखित घ्यण् प्रत्यय किन - किन धातुओं के हैं, बताओ ? और उनका वाक्यों में प्रयोग करो । रोच्यम्, त्याज्यम्, लाव्यम्, पाव्यम्, वाप्यम्, दोह्यम्, सेक्यम्, हार्यम्; आनाम्यम्, याव्यम् । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६८ : अच् आदि प्रत्यय शब्दसंग्रह करकः (लोटा) । स्थालिका (थाली)। कंसः (गिलास) । काचकंस: (काच का गिलास) । कटोरम् (कटोरा)। घट: (घडा) । उदञ्चनम् (बाल्टी) । वारिधि : (तांबे का कलश) । द्रोणिः (टब)। स्थाली (पतीली, थाली) । स्वेदनी (कडाही) । ऋजीषम् (तवा)। पिष्टपचनः (कडाही, तवा)। हसंती (अंगीठी) । उद्ध्मानम् (स्टोप) । धिषणा (प्याली, कटोरी) । दर्वी (चमचा, कलछुल) । चषकः (प्याला, कप)। शरावः (प्लेट, तस्तरी) । उखा (तपेली, बटलोई).। हस्तधावनी (चिलमची) । संदंशः (चीमटा) । ___अच्, अन, णिन् क. ड. श. ण प्रत्यय अचादि प्रत्यय कर्ता में होते हैं । ये पुल्लिग होते हैं। इनका अर्थ होता है करने वाला, बोलने वाला आदि । हिन्दी भाषा में वाला अर्थ में ये प्रत्यय होते हैं। नियम ५९७- (अच् ५।१।६०) सब धातुओं से अच् प्रत्यय होता है । करः, हरः, पचः, पठः लेहः, देवः, देहः, कोपः, गोपः, नर्तः, दर्शः। नियम ५६८-(अझैच ५।२।२०) पूर्वपद में कर्म हो तो अर्ह धातु से अच् प्रत्यय होता है । पूजार्हः साधुः । वन्दनाऱ्या साध्वी। मालार्हा इन्दिरा । नियम ५९६- (वयोऽनुद्यमे हृनः ५।२।२१) कर्म पूर्वपद में हो तो हृन् धातु से अच् प्रत्यय होता है वयः और अनुद्यम (श्रम का अभाव) अर्थ हो तो। कवचहरः क्षत्रियकुमारः। अंशहरो दायादः । अस्थिहरः श्वशिशुः । अनुद्यम-मनोहरः प्रासादः, मनोहरा बाला। नियम ६००-(आङः शीले ५।२।२२) कर्म उपपद में हो, आङ् पूर्वक हृन् धातु से शील अर्थ गम्यमान हो तो अच् प्रत्यय होता है । शील का अर्थ है स्वाभाविकी प्रवृत्ति । पुष्पाणि आहरति इत्येवं शीलः पुष्पाहरः । फलाहरः । पुष्प आदि आहरण करने में फलनिरपेक्षा स्वाभाविकी वृत्ति है। ____ नियम ६०१ –धनुर्दण्डत्सरुलाङ्गलाकुष्टिशक्तियष्टितोमरघटेषु अहेर्वा ५।२।२४) धनुष आदि शब्द कर्मरूप में उपपद में हो तो ग्रह, धातु से अच् प्रत्यय विकल्प से होता है । पक्ष में अण् प्रत्यय भी। धनुर्ग्रहः, धनुाहः । दण्डग्रहः, दण्डग्राहः । त्सरुग्रहः, त्सरुग्राहः । लांगलग्रहः, लांगलग्राहः । अंकुशग्रहः, अंकुशग्राहः। ऋष्टिग्रहः, ऋष्टिग्राहः । शक्तिग्रहः, शक्तिग्राहः। यष्टिग्रहः, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच् आदि प्रत्यय २३३ यष्टिग्राहः । तोमरग्रहः, तोमरग्राहः । घटग्रहः, घटग्राहः। नियम ६०२– (नन्द्यादिभ्योऽन: ५।१।६३) नदि आदि धातुओं से अन प्रत्यय होता है। नन्दनः, मदनः, साधनः, वर्धनः, शोभनः, रोचनः, सहनः रमणः दमनः, तपनः । नियम ६०३- (ग्रहादिभ्यो णिन् ५।१।६४) ग्रह आदि धातुओं से णिन् प्रत्यय होता है । ग्राही, स्थायी, मन्त्री, अपराधी, निवासी । इनके रूप दण्डिन् की तरह चलेंगे। नियम ६०४-- (नाम्युपधज्ञाप्रीक गिरः कः ५।११६५) नामि उपधा वाली धातुएं, ज्ञा, प्री, क, गिर्, इन धातुओं से क प्रत्यय होता है। क् इत् जाने से गुण नहीं होता । क्षिपः, लिख:, बुधः, कृशः, प्रियः, किरः, गिलः । नियम ६०५- (उपसर्गादातो डोऽश्य: ५।११६६) श्यैङ् धातु को छोडकर उपसर्ग सहित आकारान्त धातुओं से ड प्रत्यय होता है । ड् इत् जाने से धातु की टि का लोप होता है । आह्वः, प्रह्वः, प्रज्यः, प्रस्थः, सुत्रः, सुरः ।। नियम ६०६-- (पाघ्राध्माधेड़दशः शः ५।११६८) पा, घ्रा, ध्मा, धेट और दुश् धातु मे श प्रत्यय होता है। श् इत् जाने से शित् कार्य हो जाता है। पिबः, निपिबः, उपिबः । जिघ्रः, विजिघ्रः, उज्जिघ्रः । धमः, विधमः, उद्धमः । धयः, विधयः, उद्धयः, । पश्यः, विपश्यः, उत्पश्यः । नियम ६०७- (गवादौ विन्दे: ५।१७१) गो आदि शब्द उपपद में हो तो विन्द धातु से श प्रत्यय होता है । गाः विन्दतीति गोविन्दः । कुविन्दः, अरविन्दः, कुरुविन्दः । नियम ६०८-- (दुनीभव: ५।१।७४) दु, नी और भू धातु उपसर्ग रहित हो तो ण प्रत्यय होता है। दाव:, दवः। नायः, नयः। भावः, भवः । उपसर्ग सहित होने से-प्रदवः, प्रणयः, प्रभवः । प्रयोगवाक्य वन्दनार्हाः साध्वीः को न वन्दते ? अंशहरो गोपाल: अंशं गृहीत्वा कथं न तृप्यति ? निशाकरः रात्रौ न कथं दृष्ट: ? तपनः तपति तृतीयप्रहरे । सहनः सहते आभ्यन्तरोपसर्गान् । मन्त्री अपराधिनं दण्डयति । चंचला किं क्वापि स्थायिनी भवति ? ग्रामनिवासिनः नगरे जिगमिषन्ति । कृशः प्रियमित्रोपि चेष्टते सहायताय । कुविन्दः तन्तुं वयति । किं तुभ्यं कुरविन्दं (मोथ) रोचते । अस्मिन् ग्रामे को गोविन्दोऽस्ति ? मालार्हः गिरीशो मालां स्पृशत्यपि न । मालां दधः कोयमस्ति ? मनोहरायाः बालायाः किमभिधानमस्ति ? संस्कृत में अनुवाद करो लोटे में पानी नहीं है। थाली में कौन भोजन करेगा ? रमेश को एक गिलास दूध चाहिए। इस काच की गिलास में किसने दूध पीया Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ वाक्यरचना बोध" है ? कटोरे में आटा है । घडे में चूहा है । रमेश बाल्टी में पानी लाता है | श्याम टब में स्नान करता है । भाभी कडाही का क्या करेगी ? सतीश ने शान्ता को एक तवा, एक तई, एक अंगीठी, एक स्टोप, एक तसला, एक चिमटा और एक चिलमची दी है । शीला का प्याला सुंदर है । इस तस्तरी में TM फल है । सीमा को एक चम्मच घी चाहिए । नेता माला के योग्य होता है । मदन कामदेव ही होता है या और भी । पश्यतो हरः यहां कौन हैं ? इंद्रियां स्वविषय को ग्रहण करने वाली होती है । ज्ञानी ( बुध) सब कुछ जानता है । कुविन्द और अरविन्द क्या अन्तर है ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ गिलास, बाल्टी, अंगीठी, स्टोप, तसला, प्याला, प्लेट । २. अचादि प्रत्ययों में कौन कौन से प्रत्यय इस पाठ में आए हैं ? ३. अन, णिन् और क प्रत्यय कहां होता है ? ४ हृन् धातु से कर्म उपपद में हो तो किस अर्थ में अच् प्रत्यय होता है ? Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६९: णक, तृच्, तृन् प्रत्यय शब्दसंग्रह (णक, तृच्, तृन् प्रत्यय के रूप ) भावक:, भविता (भू) होने वाला । पायकः, पाता (पा) पीने वाला गामक:, गन्ता ( गम् ) जाने वाला | वन्दकः, वन्दिता (वदिङ) वंदना स्तुति करने वाला । कारक:, कर्ता (कृ) करने वाला । आदक:, अत्ता (अद्) खाने वाला । यायकः, याता (यांक्) जाने वाला । अध्यायकः, अध्येता ( इं ) पढने वाला। रोदकः, रोदिता ( रुद्) रोने वाला । जागरकः, जागरिता (जागृ) जागने वाला । वेदक:, वेत्ता (विद्) जानने वाला । घातकः, हन्ता (हन्) मारने वाला । भावक:, भविता ( अस्) होने वाला । शायक:, शयिता (शी) सोने वाला । आसक:, आसिता ( आस्) बैठने वाला । स्तावकः, स्तोता (ष्टु) स्तवना करने वाला । वाचक:, वक्ता (ब्रू) बोलने वाला । दोहक:, दोग्धा (दुह ) दुहने वाला । भायक:, भेता ( भी डरने वाला # दायक:, दाता (दा) देने वाला । नर्तकः, नर्तिता (नृत्) नाचने वाला । नाशकः, नष्टा (ण‍) नष्ट करने वाला | बोधकः, बोद्धा ( बुध) जानने वाला ! मानक:, मन्ता ( मन्) मानने वाला । रज्जक:, रङ्क्ता (रज्) राग करने वाला । श्रावकः, श्रोता ( श्रु) सुनने वाला । प्रच्छकः प्रष्टा (प्रच्छ्) पूछने वाला । मारकः, मर्ता (मुंज) मारने वाला । रोधकः, रोद्धा (रुध् ) रोकने वाला । भेदकः, भेत्ता (भिद्) भेदन करने वाला । पेषकः, पेष्टा (पिष्) पीसने वाला । तानक:, तनिता ( तन्) फैलाने वाला । ज्ञायक:, ज्ञाता (ज्ञा) जानने वाला | ग्राहकः, ग्रहिता ( ग्रह ) चोरिता (चुर्) चुराने वाला । हारकः, हर्ता (ह) णक, तृच्, तृन् प्रत्यय ) ग्रहण करने वाला । चोरकः, हरण करने वाला । णक प्रत्यय कर्ता में होता है और सब धातुओं से होता है । हिन्दी में 'वाला' के अर्थ में होता है । कारक, पाठकः । इसका अर्थ होता है करने वाला, पढने वाला । इसके रूप पुल्लिंग में जिन की तरह चलते हैं । क प्रत्यय भाव में होता है वहां वह स्त्रीलिंग में होता है । उसके योग में षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे - भवतां आसिका । भवतां शायिका । तृच् और तृन् प्रत्यय भी कर्ता में होते हैं । तृच् और तृन प्रत्ययों के रूप समान बनते हैं । उनकी पहचान विभक्ति से होती है । तृच् के योग में षष्ठी विभक्ति और तृन् के योग में द्वितीया विभक्ति होती है । इनके रूप Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध बनाने का सरल उपाय है-तुम् प्रत्यय के जो रूप बनते हैं उनमें तुम् के स्थान पर तृ लगा दें तथा धातुओं को गुण और सेट् धातुओं से इट् कर दें। तृच् और तृन् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिग में कर्तृ और स्त्रीलिंग में ईप लगाकर नदी की तरह चलते हैं। की, ही, पठित्री आदि। नियम नियम ६०६-(भावे ५।४।१२०) भाव (धातु के अर्थ) में णक प्रत्यय होता है स्त्रीलिंग में। आसिका, शायिका, जीविका, कारिका। नियम ६१०-(संज्ञायां णक: ५।४।११७) भावाकों अर्थ में धातु से णक प्रत्यय होता है स्त्रीलिंग में, यदि वह शब्द कोई संज्ञा वनता हो तो। प्रच्छद्यतेऽनयेति प्रच्छदिका। प्रवाहिका, विचिका, प्रस्कन्दिका, विपदिका (ये रोग के नाम हैं)। अभ्योषखादिका, अवोषखादिका, सालभजिका (ये क्रीडा के नाम हैं)। - नियम ६११-(पुंस्यपि क्वचित् ५।४।११८) भावाको अर्थ में कहीं कहीं धातु से णक प्रत्यय होता है पुल्लिग में। अरोचनं न रोचतेऽस्मिन् इति वा अरोचकः । अनाशकः, उत्कन्दकः, उत्कर्णकः ।। , नियम ६१२-(पर्यायाहर्णोत्पत्तिषु ५।४।११६) पर्याय, अर्ह, ऋण और उत्पत्ति इन अर्थो में स्त्रीलिंग में धातु से भावाको के अर्थ में णक प्रत्यय होता है । भवत: आसिका, भवतः शायिका, भवतः अग्रगामिका। (आसितुं शयितुं अग्रेगन्तुं च भवतः क्रमः) । अर्हणमर्हः योग्यता । अर्हति भवान् इक्षुभक्षिकाम्, ओदनभोजिकां, पय: पायिकाम् । ऋणं यत् परस्मै धार्यते । इक्षुभक्षिकां मे धारयसि । उत्पत्तिः जन्म । इक्षुभक्षिका मे उदपादि । प्रयोगवाक्य __ अमी गुणानां ग्राहकाः सन्ति अत एव सर्वत्र गुणान् दृग्गोचरी कुर्वन्ति । इयं न केवलमध्यापिका एव अपितु तर्कशास्त्रस्य अन्वेषिकापि वर्तते । शासनस्य नेतारो विचक्षणाः अभूवन् । अद्यतन्याः परिषद: काऽधिनेत्री भविष्यति । किमेते सर्वेऽपि पाठं विस्मर्तारः। अहो ! किशोरी चापि ीवाणवाणीमधिकर्ती । अस्मिन् ग्रामे संस्कृतस्य वेदकाः वेत्तारः वा कियन्त: जना: सन्ति । यथार्थस्य श्रावका: श्रोतारः वा विरला एव भवन्ति । प्रश्न प्रच्छकाः प्रष्टारः वा कुत्र जग्मुः । पुत्रस्यःमारकाः मरिः वा क्व पलायाञ्चक्रुः । कुमार्गस्य रोधकाः रोद्धारः वा विरलाः भवन्ति । आचार्य नीरं पाता मुनि: कुत्रत्योऽस्ति । ज्ञानं दाता अध्यायक: दाक्षिणात्योऽस्ति । श्लोकान् वक्त्री साध्वी इहत्यास्ति। संस्कृत में अनुवाद करो (तच, या तन् प्रत्यय के प्रयोग करो) संसार का करने वाला, हरने वाला, और धारण करने वाला कौन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक, तृच्, तृन् प्रत्यय २३७ है ? इस पुस्तक का पढने वाला कौन है ? ग्रन्थ का रचने वाला ग्रन्थ बनाता है। जीतने वाला राजा शत्रुओं को जीतता है। धन हरण करने वाला किसका धन चुराता है ? दूध पीने वाला बालक कहां है ? तुम्हारे गांव कौन जाने वाला है ? अर्हत् की सदा स्तुति करने वाला कर्मों को तोडता है । भोजन करने वाले कब आयेंगे ? पढने वाले छात्र व्यर्थ बातें नहीं करते । रोने वाले बालक को कौन चुप करेगा ? आगम जानने वाले मुनि से आगम पढो। रात भर जागने वाला व्यक्ति कौन है ? सेठ के पुत्र को मारने वाला कौन है ? सोने वाले बालक को कौन जगायेगा ? स्थिर बैठने वाला ध्यान करें। स्पष्ट बोलने वाला भाषण दें। णकप्रत्यय का प्रयोग करो गाय को दुहने वाला कहां है ? बच्चों को डराने वाला कहां छिप गया ? ज्ञान देने वाले का सम्मान करो। धन को नष्ट करने वाला दरिद्र हो गया । तत्व को जानने वाले कितने व्यक्ति हैं? गुरु के वचन को मानने वाला विकास करता है। अभ्यास १. तृच और तन में अर्थ भेद के सिवाय और क्या अन्तर है ? २. णक, तृच्, तृन् प्रत्ययों के स्त्रीलिंग में यथेष्ट प्रयोग करो और बताओ कि इनको पुल्लिग से स्त्रीलिंग बनाने की क्या विधि है ? ३. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो___ पापं हन्तार: मुनिः मुक्तिं लभते । अस्मिन् विद्यालये प्राकृतं अध्येता कियन्तः छात्राः सन्ति ? आत्मानं बोद्धा सर्वं विदन्ति । आगमरहस्यं ज्ञायकाः कुत्र निवसन्ति ? अन्नं पेषकाः अधुना किं कुर्वन्ति ? धनं चोरकान् नृपः दंडयति । अतिमिष्टान्नं अत्तार: रुग्णो भवन्ति । विहारं कीन् साध्वी: वन्दस्व । मम पुस्तकं हर्ता किं त्वं जानासि ? गां दोग्ध्रीं स्त्री कदा आगमिष्यति ? ४. निम्नलिखित धातुओं के णक और तृच् प्रत्ययों के रूप बताओ रुद्, कृ, हन्, विद्, आस, ब्र दुह , नश्, प्रच्छ्, भिद् । ५. निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग करोयायकः, अध्यायकः, रोदिता, वेत्ता, दायकः, ज्ञाता, हारकः । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७०: ख, खि प्रत्यय शब्दसंग्रह आहव: ( युद्ध ) । प्रहरणम् ( शस्त्र ) । आयुधम् ( शस्त्रास्त्र ) । आयुधागारम् (शस्त्रागार ) । वर्मन् (कवच ) । कार्मुकम् (धनुष ) । निस्त्रिश : ( खड्ग ) । कौक्षेयकः (तलवार) । विशिख: (बाण) । तूणीर: ( तूणीर) । शल्यम् (बछ) । प्रासः ( भाला ) । तोमर : ( गंडासा ) । गदा ( गदा ) । छुरिका ( चाकू ) । धन्विन् (धनुर्धर ) । शरव्यम् (लक्ष्य) । सांयुगीन : ( रणकुशल) । कबन्ध : ( धड ) । हस्तिपक : ( महावत ) | सादिन् ( घुडसवार) । वैजयन्ती ( पताका ) । अभ्रंकष : ( बादल या आकाश को छूने वाला) | सर्वंकष : ( सबको पीडित करने वाला) । करीषंकष : ( उपलों के छोटे टुकडों को उड़ाने वाला) । मद्रंकरः, भद्रंकरः ( कल्याण करने वाला) । पुरंदरः (इन्द्र) । कुक्षिभरिः, उदरंभरिः ( पेट भरने वाला, पेटू ) । ख, खि प्रत्यय ख प्रत्यय कर्ता में होता है, पूर्वपद में कर्म रूप में कोई शब्द होना चाहिए । ख में ख् इत् जाने से कर्म में मुम् (म्) का आगम होता है । ख प्रत्ययान्त शब्द कर्ता के रूप में व्यवहृत होता है । नियम ६१३( प्रियवशयोर्वदे : ख: ५ | २|३४ ) प्रिय और वश शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो वद् धातु से ख प्रत्यय होता है । प्रियं वदति इति प्रियंवदः । वशंवदः । नियम ६१४ – (सर्वे सहः ५|२| ३७ ) सर्व शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो सह धातु से ख प्रत्यय होता है । सर्वं सहते इति सर्वंसहः । नियम ६१५ - ( कूलाभ्रकरीषेषु च कष: ५।२।३८ ) कूल, अभ्र, करीष और सर्व शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो कष् धातु से ख प्रत्यय होता है । कूलंकषा नदी । अभ्रंकषो गिरिः । करीषंकषा वात्या । सर्वकषः खलः । नियम ६१६ - ( मे घर्तिभयाभयेषु कृन: ५। २।३६ ) मेघ, ऋति, भय, और अभय शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो कृन् धातु से ख प्रत्यय होता है । मेघंकरः । ऋतिर्गतिः सत्यता वा ऋतिकरः । भयंकरः, अभयंकरः । नियम ६१७- ( क्षेमप्रियमद्रभद्रेष्वण् च ५।२।४० ) क्षेम, प्रिय, मद्र और भद्र शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो करोति (कृ) धातु से अण् और ख Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख, खि प्रत्यय २३६ प्रत्यय होता है । क्षेमं करोति-क्षेमकारः, क्षेमंकरः । प्रियकार:, प्रियंकरः । मद्रकारः, मद्रंकरः । भद्रकार:, भद्रंकरः । नियम ६१८- (तीर्थे तौ वा ५।२।४१) तीर्थ शब्द पूर्वपद में कर्मरूप में हो तो करोति (कृ) धातु से अण, ख और ट प्रत्यय होते हैं। तीर्थं करोति= तीर्थकारः, तीर्थंकरः, तीर्थकरः । नियम ६१६-- (तृभृवृजितपिदमिसहिभ्यः खः संज्ञायाम् ५।२।४२) कर्म उपपद में हो तो इन धातुओं से ख प्रत्यय होता है, संज्ञा के विषय में । रथंतरति रथंतरं साम । विश्वंभरा वसुन्धरा । पतिवरा कन्या । धनंजयोऽर्जुनः । शत्रुतपो राजः । बलिं दाम्यति दमयति वा=बलिंदमः कृष्णः । अरिदमः, शत्रुसहः-ये दो राजा हैं । नियम ६२०-(धारेर्धर् च ५।२।४३) कर्म उपपद में हो तो धारय् धातु से संज्ञा के विषय में ख प्रत्यय होता है । धारय् धातु को धर् आदेश हो जाता है । वसुं धारयति इति वसुंधरा पृथ्वी। नियम ६२१ - (पुरंदरभगंदरौ ५।२।४४) पुरंदर, भगंदर-ये दो शब्द ख प्रत्ययान्त निपात हैं । पुरो दारयति-:पुरंदरः शक्रः । भगं दारयति= भगंदरः व्याधिः । नियम ६२२-- (कुझ्यात्मोदरेषु भृनः खि: ५।२।४५) कुक्षि, आत्म और उदर शब्द कर्मरूप में उपपद में हो तो भृन् धातु से खि प्रत्यय होता है । कुक्षिभरिः, आत्मभरिः, उदरंभरिः । प्रयोगवाक्य प्रियंवदानां न भवति कोऽपि रिपुः । साधवः सर्वेषां मद्रंकराः भद्रंकरा वा भवन्ति । तीर्थकाराणां कियन्तः अतिशयाः भवन्ति ? स मम वशंवदोऽस्ति । मुनिः सर्वसहो भवति । वसुंधरेयं भारतभूमिः । सांयुगीनोऽयं पुरुषः यत्र कुत्रापि गच्छति तत्रव साफल्यमेति । सादिनः कुत्र व्रजन्ति ? धन्विनः वने कदा ययुः ? उदरंभरिरजः कुत्र गतः ? संस्कृत में अनुवाद करो युद्ध के समय अनेक शस्त्रों की जरूरत होती है। राजा के शस्त्रागार में बहुत शस्त्र हैं । सैनिक सुरक्षा के लिए कवच पहनता है। शिकारी के पास धनुष और बाण हैं। मूर्ख बन्दर ने तलवार से राजा का सिर काट दिया। सैनिक के पास बी, भाला और गंडासा हैं। सैनिक गदा से युद्ध करता है। भाभी चाकू से आम काटती है। धनुर्धर लक्ष्य साधता है। रणकुशल योद्धा ही विजयी होता है । यह धड किसका है ? महावत हाथी पर बैठ कर घूमता है । घुडसवार घोडे पर बैठा है । दयालु राजा की विजय-पताका सर्वत्र फैल गई। प्रिय बोलने वाले के अपरिचित भी परिचित हो जाते हैं। यह सांप Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० वाक्यरचना बोध भयंकर है। मुनि सभी का प्रिय करने वाले होते हैं। आचार्य सभी का कल्याण करने वाले होते हैं । भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। शत्रुओं का दमन करने वाला राजा कहां है ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ धनुष, कवच, बाण, तलवार, बी, भाला, पताका । २. निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयुक्त करो• सर्वकषः, विश्वंभरः, रथंतरं, शत्रुतपः, कुक्षिभरिः । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७१ : खश् और णिन् प्रत्यय शब्दसंग्रह क्षुरम् (उस्तरा ) । क्षुरकम् (ब्लेड) | उपक्षुरम् (सेफ्टी रेजर ) । कर्तनी (बाल काटने की मशीन ) । शस्त्रमार्ज : (धार करने वाला) । तैलकारः (तेली) । रसयन्त्रम् ( कोल्हू ) । अयस् (लोहा, आयरन ) । वृश्चनः ( छेनी) । यान्त्रिक : ( मिस्त्री, मैकेनिक) | पादुरञ्जकः ( पालिश ) । भ्राष्ट्रम् ( भाड ) । भृष्टकार : ( भडभूजा ) । नीली ( नील) । शिल्पशाला ( फैक्टरी) । मिल: ( मिल) । आविध: (बर्मा) । सूत्रम् (धागा) । सूचिका ( सूई) । चर्मप्रभेदिका ( जूता सीने की सूई ) । उपानह ( जूता, बूट) । पादुका ( चप्पल) । अनुपदीना ( गम बूट ) | नीलीकरोति (नील लगाना) । अयस्करोति (लोहा करना, आयरन करना) । खश् और णिन् प्रत्यय धातुओं से होते हैं । में शब्द कर्मरूप में होता है । णिन् प्रत्यय के योग में है । खश् प्रत्यय कर्त्ता के रूप में व्यवहृत होता है । इसके उपपद ( पूर्वपद ) पष्ठी विभक्ति होती 1 जिन की तरह और स्त्रीलिंग में ईप् लगाकर नदी की तरह चलते हैं । नियम इसके रूप पुल्लिंग में नियम ६२३. (खित्यनव्ययस्वरान्तारुषां मुम् हस्वश्च ३।२।१३९). अव्यय वर्जित स्वरान्त शब्द और अरुष शब्द को मुम् (म्) का आगम होता है और प्राप्ति होने पर ह्रस्व भी हो जाता है ख् इत् जाने वाला प्रत्यय परे हो तो । इस सूत्र से खश् प्रत्यय में सर्वत्र मुम् का आगम और ह्रस्व हो जाता है । नियम ६२४ - ( मन्याण्णिन् ५।२।४६ ) कर्म उपपद में हो तो मन् (मन्यते ) धातु से णिन् प्रत्यय होता है । पण्डितं मन्यते बन्धुं - पण्डितमानी बन्धोः । दर्शनीयां मन्यते भार्याम् दर्शनीयमानी भार्यायाः । नियम ६२५ - (आत्ममाने ख‍ ५०२०४७ ) कर्म उपपद में होने पर मन् (मन्यते ) धातु से आत्म (स्वयं) के मानने के अर्थ में खश् प्रत्यय होता है । पण्डितं आत्मानं मन्यते = पण्डितंमन्यः । पवीं आत्मानं मन्यते = पट्विमन्या । विद्वन्मन्यः, विदुषिमन्या । णिन् प्रत्यय भी — पण्डितं आत्मानं मन्यते पण्डितमानी । पटुमानिनी, विद्वन्मानी, विद्वन्मानिनी । -- नियम ६२६ - ( एजे: ५।२।४८ ) कर्म उपपद में हो तो एजयति Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ वाक्यरचना बोध धातु से खश् प्रत्यय होता है । अङ्गानि एजयति=अङ्गमेजयः । जनमेजयः । बरिमेजयः। नियम ६२७- (नीस्तनमुञ्जकूलास्यपुष्पेषु धेट: ५।२।४६) कर्मरूप में ये शब्द उपपद में हों तो धयति धातु से खश् प्रत्यय होता है। शुनी धयति=शुनिधयः । स्तनंधयः । मुझंधयः । कूलंधय: । आस्यंधयः । पुष्पंधयः । स्तनंधयी कन्या। नियम ६२८-(नाडीघटीखरीमुष्टिपाणिकरवातनासिकासु ध्मश्च ।२।५०) कर्म रूप में ये शब्द उपपद में हों तो धमति और धयति धातु से खश् प्रत्यय होता है। नाडी धमति धयति वा=नाडिंधमः, नाडिंधयः । घटिंधमः, घटिंधयः । मुष्टिधमः, मुष्टिधयः । पाणिधमः, पाणिधयः । करंधमः, करंधयः । वातंधमः, वातंधयः । नासिकंधमः, नासिकंधयः ।। नियम ६२६-(बहुविध्वरुस्तिलेषुतुदः ५।२।५१) कर्मरूप में ये शब्द उपपद में हों तो तुदति धातु से खश् प्रत्यय होता है। बहुं तुदति = बहुंतुदं युगम् । विधुतुदो राहुः । अरुंतुदो पीडाकरः । तिलंतुदः काकः । नियम ६३०-(असूर्योग्रयोर्दशः ५।२।५२) असूर्य और उग्र शब्द कर्म रूप में उपपद में हों तो दृश् धातु से खश् प्रत्यय होता है । सूर्यमपि न पश्यति=असूयं पश्याः राजदाराः । उग्रंपश्यः । - नियम ६२१- (ललाटे तप: ५।२।५३) ललाट शब्द कर्मरूप में हो तो तपति धातु से खश् प्रत्यय होता है । ललाटंतपः सूर्यः । नियम ६३२-(उद्रुजोद्वहिभ्यां कूले ५।२।५५) कूल शब्द कर्मरूप में हो तो उद्रुजति और उद्वहति धातु से खश् प्रत्यय होता है । कूलमुद्रुजो मजः । कूलमुद्वहा नदी। नियम ६३३-(वहाभ्रयो लिहः ५।२।५६) वह और अभ्र शब्द कर्मरूप में उपपद में हों तो लिह, धातु से खश् प्रत्यय होता है । वहं लेढि = वहंलिहो गौः। अभ्रंलिहः प्रासादः ।। नियम ६३४- (वातशर्धयोरऽजहाग्भ्याम् ५।२।५७) वात शब्द कर्मरूप में पूर्वपद में हो तो अज् धातु से और शर्ध शब्द हो तो हा धातु से खश् प्रत्यय होता है। वातमजन्ति =वातमजाः मृगाः । शधं जहाति -- शर्धजहा: माषाः । । प्रयोगवाक्य पण्डितंमन्येन राधाश्यामेन सह स्थातुं कोऽपि नेच्छति । पद्मिन्यया सुशीलया अतिथीनां सत्कारः कथं न कृतः ? विद्वन्मानिनी पुष्पा शब्दस्यार्थ कथं न वेत्ति ? अद्य अङ्गमेजयः शीतो वायुः प्रचलति । अरिमेजयः नृपः विजयी जातः । जनमेजयं राज्यकरं श्रुत्वा कः सन्तुष्टोऽभवत् ? स्तनंधयः मातु: दुग्धं पिबति । पुष्पंधयः मधुकरः गुञ्जति। बालः क्षुरकेण उपक्षुरेण च किं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खश् और णिन् प्रत्यय २४३ करिष्यति ? नापितस्य पार्वे एक क्षुरं एका च कर्तनी स्तः । वृद्ध ! तव सूचिका क्वापतत् ? संस्कृत में अनुवाद करो नाई बाल काटने की मशीन से बाल काटता है। महेन्द्र उस्तरे का क्या करेगा ? सुरेन्द्र सेफ्टीरेजर से स्वयं दाढी बना लेता है। भाभी कपड़ों को धोकर नील लगाती है । सोहन वस्त्रों पर आयरन करता है। तेली कोल्हू के द्वारा तिलों से तैल निकालता है। फैक्ट्री में कितने मिस्त्री हैं ? अहमदाबाद में कपड़े की कितनी मिलें हैं ? बढई छेनी से लोहा काटता है और बर्मा से लकडी में छेद करता है। रमा सुई से कपडा सीती है । मोहन जूते पर पालिश करता है। मोची के पास जूते सीने की सुई है । रमेश के पास चप्पल नहीं है। णिन और खश प्रत्यय के प्रयोग करो राहु चन्द्रमा को ग्रसता है। सूर्य को न देखने वाली राजकन्या कैसे स्वस्थ हो ? बालक (स्तनंधयः) माता का दूध पीकर बडा होता है । रमा स्वयं को विदुषी मानती है । स्वयं को पण्डित मानने वाला मोहन भी पराजित हो गया। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ सेफ्टीरेजर, कोल्हू, छेनी, पालिश, भडभूजा, ब्लेड, उस्तरा, चप्पल । २. कर्म उपपद में होने पर मन्यते धातु से कहां खश् प्रत्यय और कहां णिन् _प्रत्यय होता है ? दोनों के विग्रह में क्या अंतर है ? ३. किन-किन धातुओं के योग में कहां-कहां खश् प्रत्यय होता है ? Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७२ : क्त, क्तवतु प्रत्यय शब्दसंग्रह (क्त, क्तवतु के रूप) भूतं, भूतवान् (भू) हुआ। पीतं, पीतवान् (पां) पीया। गतं, गतवान् (गम्) गया। वन्दितं, वन्दितवान् (वदि) वन्दना की, स्तुति की। कृतं, कृतवान् (कृ) किया। जग्धं, जग्धवान् (अद्) खाया । यातं, यातवान् (याँ) गया । अधीतं, अधीतवान् (अधि+इ) पढा। रुदितं, रुदितवान् (रुद्) रोया। जागृतं, जागृतवान् (जागृ) जागा। विदितं, विदितवान् (विद्) जाना । हतं, हतवान् (हन्) मारा। शयितं, शयितवान् (शी) सोया । आसितं, आसितवान् (आस्) बैठा । स्तुतः, स्तुतवान् (ष्टु) स्तुति की। उक्तं, उक्तवान् (ब्रू) बोला । भीतं, भीतवान् (भी) डरा। दुग्धं, दुग्धवान् (दुह.) दुहा। दत्तं, दत्तवान् (दा) दिया। धृतं, धृतवान् (धृ) धारण किया। उप्त, उप्तवान् (वप्) बोया। तीर्ण, तीर्णवान् (त.) तैरा । गृहीतं, गृहीतवान (ग्रह.) ग्रहण किया। हितं, हितवान् (धा) धारण किया । पठितं, पठितवान् (पठ्) पढा। लिखितं, लिखितवान् (लिख्) लिखा। श्रुतं, श्रुतवान् (श्रु) सुना। क्तप्रत्यय क्त प्रत्यय का प्रयोग दो तरह से होता है। एक विशेषण के रूप में, एक अर्धक्रिया के रूप में। विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने वाला क्त प्रत्यय विशेष्य की किसी अवस्था को बताता है इसलिए उसमें विशेष्य के अनुसार लिंग और वचन होते हैं। प्रीतमानसानां शरीरं पुष्टं भवति । यहां प्रीत और पुष्ट क्त प्रत्ययान्त विशेषण है। - अर्धक्रिया के रूप में आने वाला क्त प्रत्यय कार्य की समाप्ति बताता है। क्त प्रत्यय जहां अर्ध क्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है वहां उसका अर्थ होगा-किया, गया, पीया, बोला आदि । जहां क्त प्रत्यय विशेषण बनता है वहां अर्थ होता है—किया हुआ, गया हुआ, कहा हुआ आदि । क्त प्रत्यय भूतकाल में सब धातुओं से होता है। सकर्मक धातुओं से कर्म में और अकर्मक धातुओं से भाव में तथा कर्ता में होता है। क्त प्रत्यय कर्म में होता है वहां कर्म में प्रथमा और कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है, क्त प्रत्ययान्त का रूप कर्म के अनुसार चलता है। भाव में क्त प्रत्यय होने से कर्ता में तृतीया और षष्ठी दोनों विभक्ति होती है। क्रिया में नपुंसकलिंग Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्त, क्तवतु प्रत्यय २४५ और एक वचन ही रहता है। गत्यर्थक आदि धातुओं से क्त प्रत्यय कर्ता में होता है । क्रिया का रूप कर्ता के अनुसार चलता है, कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे—स ग्रामं गतः । ___ क्त प्रत्ययान्त शब्द जब विशेषण बनता है वहां उसके रूप पुल्लिग में जिन की तरह, स्त्रीलिंग में सीता की तरह और नपुंसकलिंग में रत्न की तरह चलते हैं। नियम ६३५- (नपुंसके भावे क्त: ६।१।१) नपुंसकलिङ्ग में भाव अर्थ में धातु से क्त प्रत्यय होता है । हसितं छात्रस्य । व्याहृतं रजन्याः ।। नियम ६३६- (गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः ५।१११) भूत आदि अर्थ में होने वाला क्त प्रत्यय गति अर्थ वाली धातुओं, अकर्मक धातुओं तथा पिब, भुज् धातुओं से कर्ता में विकल्प से होता है। दर्शनः ग्रामं गतः, दर्शनेन ग्राम: गतः, गतं दर्शनेन । आसितो भवान् । आसितं भवता । पयः पीता: गावः । पयः गोभिःपीतम् । अन्नं भुक्तास्ते । इदं ते (क्तम् । __ नियम ६३७– (श्लिषशीङ्स्थासवसजनरुहभजज भ्यः ५।१।१०) श्लिष्, शीङ्, स्था, आस्, वस्, जन्, रुह, भज्, ज, इन धातुओं से क्त प्रत्यय कर्ता में विकल्प से होता है । आश्लिष्ट: पिता पुत्रम् । आश्लिष्टा पुत्री पित्रा। अतिशयितो गुरुं शिष्यः । अतिशयितो गुरुः शिष्येण । उपस्थितो गुरुं शिष्यः । उपस्थितो गुरु: शिष्येण । उपासितो गुरुं शिष्यः । उपासितो गुरुः शिष्येण । उपासितं शिष्येण । अनूषितो गुरुं भवान् । अनूषितो गुरु र्भवता। अनूषितं भवता । अनुजातो माणवको माणविकाम् । अनुजाता माणविका माणवकेन । अनुजातं माणवकेन। आरूढो वृक्षं भवान् । आरूढो वृक्षो भवता । आरूढं भवता। विभक्ता भ्रातरो रिक्थम् । विभक्तं भ्रातृभिः रिक्थम् । विभक्तं भ्रातृभिः । अनुजीर्णो वृषली चैत्रः । (अनुप्राप्य जीर्णं इत्यर्थः) । अनुजीर्णा वृषली चैत्रेण । क्तवतु प्रत्यय क्तवतु प्रत्यय भूतकाल में होता है । यह सब धातुओं से होता है इसका तवत् रूप शेष रहता है। यह कर्ता में होता है। इसके योग में कर्ता में प्रथमा विभक्ति और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । पुल्लिग में इसके रूप भवत् शब्द की तरह, स्त्रीलिंग में ईप लगने के बाद नदी की तरह और नपुंसकलिंग में जगत् की तरह रूप चलते हैं । क्तवतु के रूप बनाने का सरल उपाय है कि क्त प्रत्यय के रूप के आगे वत् शब्द जोड दें। नीचे लिखे नियमों को ध्यान मे पढ़ें नियम ६३८-- (उवर्णात् ४।३।८७) उवर्ण अंतवाली, एक स्वरवाली धातु से क् इत् जाने वाले प्रत्यय परे हो तो इट नहीं होता है । यु–युतः, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૬ वाक्यरचना बोध युतवान् । भू-भूतः, भूतवान् । नियम ६३६-(वेटोपतः ४।३।६१) पत् धातु को छोडकर वेट् धातु (जिस धातु को इट् विकल्प से होता हो) एक स्वरवाली हो तो इट् नहीं होता। रधू-रद्धः, रद्धवान् । गुहू-गूढः, गूढवान् । शमु-शान्तः, शान्तवान् । नियम ६४०-(आदितः ४।३।१००) आकार अनुबंध जाने वाली धातुओं से इट नहीं होता । विमिदा-मिन्नः, मिन्नवान् । अिष्विदा-स्विन्नः, स्विन्नवान् । नियम ६४१-(पूक्लिशिभ्यो वा ४।३।८४) पूङ् और क्लिश् धातु से विकल्प से इट् होता है। पवितः, पवितवान् । पूतः, पूतवान् । क्लिशितः, क्लिशितवान् । क्लिष्टः, क्लिष्टवान् । नियम ६४२-(रदाभ्यां क्तयोस्तस्य मो दस्य च ५।३।७३) र और द अंतवाली धातुओं से आगे क्त और क्तवतु के त को न हो जाता है । धातु के अंत में होने वाले द को भी न हो जाता है । पूर्-पूर्णः, पूर्णवान् । गूरिण -उद्यमे—गूर्णः, गूर्णवान् । भिद्-भिन्नः, भिन्नवान् । छिन्नः, छिन्नवान् । नियम ६४३-- (संयोगादेरातो यलवतः ५।३।७४) संयोग आदि और आकार अंतवाली धातुएं यल प्रत्याहारवान् (धातु में य र, ल, व) हो तो क्त के त को न हो जाता है। स्त्य-स्त्यानः, स्त्यानवान् । ग्लैं-ग्लानः, ग्लानवान् । नियम ६४४ – (द्वाद्योदितः ५।३।७५) दिबादिगण की दू आदि नव (दू, ष, दी, ची, मी, री, ली, डी, वी,) धातुओं और आकार इत् जाने वाली धातुओं के आगे क्त प्रत्यय के त को न हो जाता है। दूनः, दूनवान् । सूनः, सूनवान् । दीनः, दीनवान् । धीनः, धीनवान् । मीनः, मीनवान् । रीणः, रीणवान् । लीनः, लीनवान् । डीनः, डीनवान् । वीणः, वीणवान् । ओहांकहीनः, हीनवान् । ओप्यायी-पीनः, पीनवान् । नियम ६४५-- (क्षशुषिपचिभ्यो मकवाः ५।३।८४) क्त प्रत्यय के त को क्ष से परे म, शुष् से परे क और पच् से परे व आदेश हो जाता है। क्षामः, शुष्कः, पक्वः । नियम ६४६- (ऋल्ल्वादेः क्तेश्च ५।३।८२) ऋकार अंतवाली धातु तथा लू आदि धातुओं से आगे क्त, क्तवतु और क्ति प्रत्ययों के त को न हो जाता है। ज़-जीर्णः, जीर्णवान् । त-तीर्णः, तीर्णवान् । लू-लूनः, लूनवान् । धू-धूनः, धूनवान् । नियम ६४७-(न ध्याख्यापमुच्छिमदिभ्यः ५।३।८३) ध्या, ख्या, प, मुर्छ, मद् धातुओं से परे क्त के त को न होने वाला नहीं होता है । ध्यात ध्यातवान् । ख्यातः, ख्यातवान् । पूर्तः, पूर्तवान् । मूर्तः, मूर्तवान् । मत्तः, मत्तवान् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्त, क्तवतु प्रत्यय २४७ नियम ५४८ - (प्रादान आरम्भे क्ते तश् ४।४।३७) प्र उपसर्ग सहित दा धातु को तश् (त्) प्रत्यय विकल्प से होता है, आरंभ करने के अर्थ में। प्रत्तः, प्रत्तवान् । दातुं प्रारब्धवान् इत्यर्थः । नियम ५४६-(दत् ४।४।४०) पिद्वजित दा धातु को दत् आदेश होता है त आदि वाला कित् प्रत्यय परे हो तो। दत्तः, दत्तवान्, दत्तिः, दत्त्वा । नियम ५५०- (धानः ४।४।४५) धा धातु को हि आदेश होता है, क्त, क्तवतु प्रत्यय परे होने पर । विहितः, विहितवान् । नियम ५५१ - (विनिस्वन्ववेभ्यः ४।४।३८) वि, नि, सु, अनु और अव उपसर्ग सहित उभयपदी दा धातु को तश् (त्) आदेश विकल्प से होता है क्त प्रत्यय परे हो तो । वीत्तं, विदत्तम् । सूत्तं, सुदत्तम् । अनूत्तं, अनुदत्तम् । अवत्तं, अवदत्तम् । प्रयोगवाक्य श्रेष्ठिना भृत्यः हीनः । मोहनः मद्यपानं हीनवान् । भगवता महावीरेण संसारसमुद्रः तीर्णः । नाविकः नदी तीर्णवान् । वृक्षभिदा वृक्षः लूनः । दुष्टः तस्य हस्तं लूनवान् । साधुना कथा ख्याता । साध्वी कथां ख्यातवती । मात्रा कष्टेन सुतः पूर्तः । सा कुटुम्बं पूर्तवती । मुनिना कषायः शान्तः । सा विवादं शान्तवती। कः बालक: घटं भिन्नवान् ? भगिन्या भ्रात्रे पत्र दत्तम् । का तस्यै पुस्तकं दत्तवती ? भ्रातृजायया अन्नं पक्वम् । सूर्यातापेन सर्वं नीरं शुष्कम् । संस्कृत में अनुवाद करो (क्त प्रत्यय के प्रयोग करो) आचार्य श्री ने पानी कब पीया था ? साधु गांव कब गये थे ? क्या तुमने साधुओं को वंदना की ? गोपाल ने यह कार्य क्यों नहीं किया ? बिल्ली ने लड्डु कब खाये ? अध्यापक ने यह पुस्तक कब पढी ? बालक क्यों रोया ? तुम कब जागे ? राजा ने अपने मित्र की सहायता के लिए प्रचुर सेना युद्ध में भेज दी। वक्त पड़ने पर भी जो काम न आये वह मित्र किस काम का । मयूरों ने आकाश में बादल देखे और नाचना शुरू किया। मुर्गी अपने बच्चों को देखने के लिए दौडी । राजा ने मित्रता का अच्छा निर्वाह किया। क्रियाविशेषण के रूप में क्त प्रत्यय का प्रयोग करो __मेंरे द्वारा पढी हुई पुस्तक कहां है ? रमेश द्वारा दिया गया धन कहां है ? ग्वाले द्वारा दुही गई गाय कौन सी है ? किसान द्वारा बोया हआ बीज कहां है ? विनय द्वारा स्तुति किये गये देव कौन से हैं ? (क्तवतु के प्रयोग करो) चोर ने एक व्यक्ति को मार दिया । तुम Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ वाक्यरचना बोध कहां सोये थे ? वर्षा कब हुई ? रमा उससे क्यों डरी ? महेन्द्र ने दूध नहीं पिया । कान्ता ने रोटी नहीं खाई । बच्चा क्यों रोता था ? अभ्यास १. हिंदी में अनुवाद करो— मया एष पाठः उत्तराध्ययन सूत्रादुद्धृतः । मया उद्धृतः पाठः समीचीनो ऽस्ति । संघसंघटन प्रणाली श्रीमद् भिक्षुस्वामिना कामं परिष्कृता । श्रीतुलसीगणिना परिष्कृता पठनप्रणालिः समस्ति महत्युपयोगिनी । मघवागणिना उप्तं संस्कृतबीजं कालुहृदये शतधा अंकुरितम् । रामः किं पुस्तकं पठितवान् ? विमला एतद् कार्यं कदा कृतवती ? उपस्थितो गुरुं शिष्य : । उपस्थितो गुरुः शिष्येण । उपस्थितं शिष्येण । २. विशेषण के रूप में क्त प्रत्यय का प्रयोग करो आहता, अश्रितम्, अभिहितः, रुदितम्, जागृतम् । ३. अर्धक्रिया के रूप में क्त प्रत्यय का प्रयोग करो प्रणतम्, गताः, उक्तः, पृष्टम् I ४. निम्नलिखित धातुओं के क्त, क्तवतु, प्रत्ययों के रूप बताओनिष्वदा, क्लिश्, छिद्, पच्, प्याय, तृ, मुर्च्छा पृ, वि + दा, प्रदा, धा । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७३ : क्वस, कान प्रत्यय शब्दसंग्रह (क्वसु और कान प्रत्यय के रूप) बभूवान् (भू) हुआ था। पपिवान् (पां) पीया था। जग्मिवान् (गम्) गया था। ववन्दानः (वदिङ्) स्तुति की थी। चक्रिवान्, चक्राणः (कृ) किया था। शिश्यानः (शी) सोया था । जक्षिवान्, आदिवान् (अद्) खाया था। ययिवान (यांक) गया था। अधीयिवान् (अधि+इ) पढा था। रुरुदवान् (रुद्) रोया था। विविदवान् (विद्) जाना था। तुष्टुवान्, तुष्टुवान: (ष्टु) स्तवना की थी। बिभीवान् (भी) डरा था। नेशिवान् (णश्) नष्ट हुआ था। प्रप्रच्छवान् (प्रच्छ) पूछा था। पिपिषवान् (पिष्) पीसा था । तेनिवान्, तेनानः (तन्) विस्तार किया था। जजागृवान् (जागृ) जागा था। दुदुहानः (दुह) दुहा था। ननृतवान् (नृत्) नाचा था। शुश्रुवान् (श्रु) सुना था। ममृज्वान् (मुंज) साफ किया था। जज्ञिवान् (ज्ञा) जाना था। जघ्निवान्, जघ्नवान् (हन्) मारा था । बुबुधानः (बुध्) जाना था। मेनानः (मन्) जाना था। ददिवान्, ददानः (दा) दिया था। ररजवान्, ररजानः (रज्) प्रीति की थी। रुरुध्वान्, रुरुधानः (रुध्) रोका था। जगृहवान्, जगृहाणः (ग्रह) ग्रहण किया था । ऊचिवान्, ऊचानः (ब) बोला था। क्त, क्तवतु, क्वसु और कान-ये चार भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय हैं । इनमें पहले दो सामान्य भूत में व्यवहृत होते हैं। शेष दो परोक्ष भूत में प्रयुक्त किए जाते हैं । क्त के सिवाय शेष तीन प्रत्यय कर्ता में ही होते हैं । क्त, क्तवतु सब धातुओं से होता है। क्वसु परस्मैपद धातुओं से और कान आत्मने पद धातुओं से होता है। क्वसु और कान भी दो प्रकार से प्रयोग में आते हैं—अर्द्ध क्रिया के रूप में (२) विशेषण के रूप में। १. भारीमलस्वामी दिनद्वयानन्तरमेव पुनः भगवतोः भिक्षोः शरणं समासे दिवान् (समादितवान्) २. मोदमीयिवान्सं भारमलस्वामिनं परिलोक्य पित्रा विस्मितम् (य: मोदं इतवान् तं परिलोक्य) ३. श्री भिक्षो: सेवां अध्यषुषा (सेवामध्युषितेन) भारमलस्वामिना स्वजीवनं उदाहरणस्वरूपमकारि। पहले वाक्य में अर्ध क्रिया के रूप में है और शेष दो वाक्यों में विशेषण के रूप में है। गहरे अक्षरों से चिह्नित शब्द क्वसु प्रत्यय के रूप में Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० वाक्यरचना बोध है । कोष्ठक में क्तवतु या क्त प्रत्यय के द्वारा अर्थ स्पष्ट किया गया है । आधु-निक वैयाकरण या प्रयोक्ता क्वसु और कान को साधारण भूत में भी प्रयो करते हैं । क्वसु और कान प्रत्यय के योग में कर्ता में प्रथमा, कर्म में द्वितीया और क्रिया कर्ता के अनुसार होती है । प्रयोगवाक्य सीता कदा बभूववती ? शीतलः तातं प्रश्नं पपृच्छवान् । सागां दुदुहाना । रामः रावणं जघ्निवान् । तस्मै कः पुस्तकं ददिवान् ? बालिका मिष्टान्नं जक्षिवती । मातुली चौरात् बिभीवती । दुग्धं पपिवान्सं बालकं पश्य । विद्यालयं जग्मिवान्सं छात्रं कथय । दुष्करं कार्यं चत्रिवान्सं हनुमन्तं सर्वेऽपि प्रणमति । वित्तं नेशिवान् श्रेष्ठी अत्र समाययौ । रावणं जघ्निवान् रामः दाशरथिरासीत् । महावीरं प्रप्रच्छ्वान् गौतमः कुत्रत्यः आसीत् ? दुष्करं कार्यं चक्राणः एव महान् भवति । (क्वसु, कान के प्रयोग करो) क्या शंकर ने जहर पीया था ? मोहन नौकर जमीन पर सोया था । संस्कृत में अनुवाद करो त्रिपृष्ठ वासुदेव कब हुए थे ? विद्यालय गया था । छात्र ने श्रम किया था । आनन्द ने फल नहीं खाया था । सतीश ने यह पुस्तक पढी थी । राम के वन जाने पर कौशल्या रोई थी । केवलज्ञानियों ने आत्मा को जाना था । द्रौपदी वीतराग देव की स्तवना की थी । मोहन गाय से डरा था । अरविन्द ने किसको प्रश्न पूछा था कृष्ण ने कंस को मारा था । स्त्रियों ने रात में गेहूं पीसा था । सोहन कब जगा था ? दिन में वर्षा हुई थी। शादी के समय युवक नाचे थे । भगवान महावीर से सुधर्मास्वामी ने यह सुना था । सुदत्त ने मुनियों को दान दिया था । पिता ने पुत्र को कुमार्ग से रोका था । भगवान ऋषभ ने बाहुबलि को क्या कहा था ? सुधर्मा को जिसने प्रश्न पूछा वे जम्बू कहां के थे ? महावीर को जिसने प्रश्न पूछा वे गौतम प्रथम गणधर । कंस को जिसने मारा वे कृष्ण मथुरा के थे । अभ्यास १. निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करो - सा मम कथनं न शुश्रुवान् । मदनेन तत्वं जज्ञिवान् । रात्रौ नटाः ननृतवान् । सीमा मम पुस्तकं जगृहवान् । पितामही कदा जजागृवान् ? सा कथं रुरुदवान् ? ते ग्रामं ययिवान् । २. निम्नलिखित धातुओं के क्वसु प्रत्यय के रूप बताओ अद्, भी, भू, कृ, विद्, श्रु, हन् । ३. निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग करो ददान:, बुबुधानः, रुरुधानः, जगृहाण:, तेनानः, ववन्दानः । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७४ : शीलादि प्रत्यय (१) शब्दसंग्रह निराकरिष्णुः (निराकरण करने वाला)। भविष्णुः (होने वाला) । सहिष्णुः (सहन करने वाला)। रोचिष्णुः (रुचिवाला, कांतिवाला)। वर्धिष्णुः (बढने वाला) । चरिष्णुः (चलने वाला, खाने वाला)। प्रजनिष्णुः (उत्पन्न होने वाला) । अपत्रपिष्णुः (लज्जा करने वाला) । ग्लास्नुः, म्लास्नुः (खिन्न रहने वाला) । स्थास्नुः (स्थिर रहने वाला, स्थायी)। पक्ष्णुः (पकाने वाला)। परिमाणुः (साफ करने वाला)। गृध्नुः (आसक्त होने वाला) । क्षिप्णुः (फेंकने वाला) । जिष्णुः (जीतने वाला) । श्रमी (श्रम करने वाला) । प्रमादी (प्रमाद करने वाला) । दमी (दमन करने वाला) । भोगी भोगने वाला) । त्यागी (छोडने वाला) । द्रोही (द्रोह करने वाला) । दोही (दुहने वाला) । संरोधी (रोकने वाला) । विस्र सी (हिंसा करने वाला)। विदाही (जलाने वाला) । अनुवादी (अनुवाद करने वाला) तृन्, इष्णु, स्नु, क्नु, ष्णक, घिनुण्, णक प्रत्यय शीलादि में तीन अर्थ हैं-१. शील (स्वभाव) २. धर्म (कुल आदि आचार) । ३. साधु (अच्छा) । तृन्, इष्णु आदि उपरोक्त सारे प्रत्यय शील आदि अर्थों में कर्ता में होते हैं। इन प्रत्ययों के रूप कर्ता या कर्ता के विशेषण के रूप में प्रयोग में आते हैं। विवक्षा से कर्म आदि अन्य कारकों में भी प्रयुक्त हो सकते हैं। नियम ६५२-(शीलधर्मसाधुषु तृन् ५।३।१३) शील, धर्म और साधु अर्थों में तृन् प्रत्यय होता है । कर्ता कटं (शील) । वधूमूढां मुण्डयितारः श्राविष्ठानां (धर्म) । मुण्डनादि तेषां कुलधर्मः । गन्ता ग्रामम् (साधु) । साधु गच्छति इत्यर्थः नियम ६५३-(भ्राज्यलंकृन्निराकृन् भूसहिरुचिवृतिवृधिचरिप्रजनापत्रप इष्णुः ५।३।१४) भ्राज्, अलंकृन्, निराकृन्, भू, सह, रुच्, वृत्, वृध्, चर्, प्रजन्, अपत्रप् धातुओं से इष्णु प्रत्यय होता है। भ्राजिष्णुना लोहितचंदनेन । अलंकरिष्णुः । निराकरिष्णुः, भविष्णुः, सहिष्णुः, रोचिष्णुः, वर्तिष्णुः, वधिष्णुः, चरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, अपत्रपिष्णुः । नियम ६५४-(उदः पचिपतिपदिमदिभ्य: ५।३।१५) उत् पूर्वक पच्, पत्, पद् और मद् धातु से इष्णु प्रत्यय होता है। उत्पचिष्णुः। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ वाक्यरचना बोध उत्पतिष्णुः, उत्पदिष्णुः, उन्मदिष्णुः । नियम ६५५- (ग्लाम्लास्थाक्षिपचिपरिमृजिभ्यः स्नुः ५।३।१६) इन धातुओं से स्नु प्रत्यय होता है। ग्लास्नुः, म्लास्नुः, स्थास्नुः, क्षेष्णुः, पक्ष्णुः, परिमाणुः। नियम ६५६- (सिगृधिधृषिक्षिपिभ्यः क्नुः ५।३।१७) इन धातुओं से क्नु (नु) प्रत्यय होता है। त्रस्नुः, गृध्नुः, धृष्णुः, क्षिप्णुः ।। नियम ६५७- (जिभूभ्यां ष्णुक् ५।३।१८) जि और भू धातु से शील आदि अर्थ में ष्णुक् प्रत्यय होता है । जिष्णुः, भूष्णुः । नियम ६५८-(शमष्टकाद् घिनुण ५।३।१६) शम आदि आठ धातुओं से घिनुण (इन्) प्रत्यय होता है। शमी, दमी, तमी, श्रमी, भ्रमी, क्षमी (मान्तत्वात् न वृद्धिः) । प्रमादी, क्लमी।। नियम ६५६- (युजभुजभजत्यजरद्विषदुषद्रुहदुहभ्याहनिभ्य: ५।३।२०) इन धातुओं से घिनुण् प्रत्यय होता है। युज्यते युनक्ति वा इत्येवंशीलो योगी । भोगी, भागी, त्यागी, रागी, द्वेषी, दोषी, द्रोही, दोही, अभ्याघाती। नियम ६६०-(समनुव्यवेभ्यो रुधः ५।३।२१) सं, अनु, वि, अव पूर्वक रुध् धातु से घिनुण् प्रत्यय होता है। संरोधी, अनुरोधी, विरोधी, अवरोधी। नियम ६६१- (वे: सृजविचकत्थस्रम्भुद्रुकषकसलषसृदहहनिभ्यः ५।३।२५) वि पूर्वक सृज् आदि धातुओं से घिनुण प्रत्यय होता है। विसृजति इत्येवं शीलो विसर्गी । विवेकी, विकत्थी, विस्र भी, विद्रावी, विकाषी, विकासी, विलासी, विसारी, विदाही, विघाती। नियम ६६२-(संपरिव्यनुप्रेभ्यो वदः ५।३।२६) सं, परि, वि, अनु, प्र पूर्वक वद् धातु से घिनुण प्रत्यय होता है। संवादी, परिवादी, विवादी, अनुवादी, प्रवादी। नियम ६६३-(परे: क्षिपरटवादिभ्यो णकश्च ५।३।३१) परिपूर्वक क्षिप्, रट, वद् धातु से घिनुण और णक प्रत्यय होता है। परिक्षेपी, परिक्षेपकः । परिराटी, परिराटकः । परिवादी, परिवादकः । प्रयोगवाक्य विवादं निराकरिष्णुः कुत्र गतः ? मुनि: भविष्णुः कुत्रत्योऽयम् ? शरीरं रोचिष्णुः धनपाल: कतिवारं स्नाति । त्वं वर्धिष्णुः भूयाः । घासं चरिष्णुः गौः वनं अगमत् । श्वः प्रजनिष्णुः शिशुः कोऽस्ति ? इयं बाला अपत्रपिष्णुः अस्ति । त्वं केन कारणेन ग्लास्नुः म्लास्नुः वा अभूः ? अन्नं पक्ष्णुः कुत्रत्योऽस्ति ? अस्मिन् विष्टपे कोऽस्ति स्थास्नु: ? अपवरकं परिमाणुः क्व गतः ? विषये गृध्नुः मा भव । कष्टे समागतेऽपि त्रस्नु: मा भव । अयं उपलं क्षिप्णुः बालकः कस्य पुत्रोऽस्ति ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलादि प्रत्यय (१) २५३ संस्कृत में अनुवाद करो दुसरों के कटु वचनों को सहन करने वाला ही पूज्य होता है। विषयों में आसक्त होने वाला कर्मों का बन्धन करता है। तुम कर्म शत्रुओं को जीतने वाले बनो । इंद्रियों का दमन करने वाला सुख का अनुभव करता है । भारतीय संस्कृति में गृहत्याग करने वाले का आदर होता है । विषयों का भोग करने वाला दुःखी बनता है। गुरु का द्रोह करने वाला सद्गति में नहीं जाता। सदा श्रम करने वाले बनो। अनुरोध करने वाला नम्र बनता है । क्या इस सडक पर अवरोधी चिह्न है ? विरोधियों को ठीक से समझो। इसका संबादी प्रमाण कौनसा है ? विवादी प्रतिदिन विवादः करता रहता है। परिवाद करने वाला यह कौन है ? विवेकी व्यवहार जगत् में शान्ति से जीता है। विलासी जीवन का त्याग करो। अभ्यास १. नीचे लिखे शब्दों का अर्थ बताओ और वाक्यों में प्रयोग करो प्रजनिष्णुः, अपत्रपिष्णुः, ग्लास्नुः, गृध्नुः, संरोधी, विदाही । २. नीचे लिखे शब्द किस सूत्र से बने हैं ? सहिष्णुः, प्रमादी, त्यागी, विकासी, अनुवादी, अनुरोधी। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७५ : शीलादि प्रत्यय (२) शब्दसंग्रह निन्दकः (निंदा करने वाला) । असूयकः (दूसरों के गुणों में दोष का आरोपण करने वाला) । चकासकः (चमकने वाला) । दरिद्रायकः (दरिद्र)। खादक: (खाने वाला)। गणकः (गिनने वाला) । शारुक: (हिंसा करने वाला) । स्थायुकः (स्थिर रहने वाला) । उत्पातुकः (ऊपर उडने वाला) । उपपादुकः (स्वयं उत्पन्न होने वाला)। चलनः, कंपनः (कांपने वाला) । वराकः (याचना करने वाला) । भिक्षाक: (भिक्षा करने वाला) । जल्पाक: (बोलने वाला) । कुट्टाकः (तोडने वाला)। लुण्टाकः (लूटने वाला) । स्थावरः (ठहरने वाला) । भास्वरः (चमकने वाला) । पेस्वरः (ध्वंस करने वाला, पीसने वाला)। प्रमदवरः (प्रमाद करने वाला)। सत्वरः (गमनशील) । जित्वरः (जीतने वाला) । कम्प्रः (कांपने वाला)। स्वप्नक् (सोने वाला) । तृष्णक् (प्यासा) । धृष्णक् (धृष्ट, लज्जारहित) । शरारुः (हिंसा करने वाला) । वन्दारुः (वन्दना करने वाला, स्तुति करने वाला) । भीरुः, भीरुकः, भीलुक: (डरने वाला) । ददृत् (फाडने वाला) । दिद्युत् (चमकने वाला)। णक, उकण, अन्, षाक, वर, क्वरप्, र, नजिङ्, आरु, क्रु, क्रुक, क्लुक, क्विप्, प्रत्यय नियम ६६४-(निंदहिंसक्लिशखादविनाशिव्याभाषासूयाऽनेकस्वरेभ्यः ५॥३॥३२) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में णक प्रत्यय होता है। निंदकः, हिंसकः, क्लेशकः, खादकः, विनाशकः, व्याभाषकः, असूयकः । अनेक स्वरदरिद्रायकः, चकासकः, गणकः । नियम ६६५–(उपसर्गाद् देवृदेविक्रुशिभ्यः ५॥३॥३३) उपसर्गपूर्वक देव, देवि और क्रुश् धातु से णक प्रत्यय होता है। आदेवते इत्येवंशील: आदेवकः । परिदेवकः, आक्रोशकः, परिक्रोशकः । नियम ६६६-(शृकमगमहनवृषभूस्थाभ्य उकण ५।३।३४) इन धातुओं से उकण् प्रत्यय होता है । शृणाति इत्येवं शील: शारुकः । कामुकः, गामुकः, घातुकः, वर्षुकः, भावुकः । स्थायुकः प्रमत्तः । उपस्थायुक: गुरुम् । गुणान् अधिष्ठायुकः । नियम ६६७- (लषपतपदिभ्यः ५।३।३५) इन धातुओं से उकण् Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ शीलादि प्रत्यय (२) प्रत्यय होता है । अभिलाषुकः । उत्पातुकं ज्योतिः । उपपादुका देवी। नियम ६६८ - (चलशब्दार्थादकर्मकात् ५।३।३७) चल अर्थवाली, शब्द अर्थवाली अकर्मक धातुओं से शीलादि अर्थ में अन प्रत्यय होता है। चलनः, कम्पनः, चोपनः, चेष्टनः । शब्दनः, रवणः, आक्रोशनः । नियम ६६६ - (वृद्भिक्षिलुण्टिजल्पिकुट्टिभ्यः षाकः ५।३।४०) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में षाक प्रत्यय होता है । वराकः, वराकी । भिक्षाकः, लुण्टाकः, जल्पाकः, कुट्टाकः ।। नियम ६७०-(स्थेशभासकसपिसप्रमदो वरः ५।३।५४) स्था आदि धातुओं से शीलादि अर्थ में वर प्रत्यय होता है । तिष्ठति इत्येवंशीलः स्थावरः । ईश्वरः, भास्वरः, विकस्वरः, पेस्वरः, प्रमदवरः । नियम ६७१-(यायावर: ५।३।५५) यङन्तयाति धातु से शील अर्थ में वर प्रत्यय करने पर यायावर शब्द निपात है। कुटिलं याति इत्येवं शीलो यायावरः । नियम ६७२-(सृजीणनशेः क्वरप् ५।३।५६) सृ, जि, इ और नश् धातु से शीलादि अर्थ में क्वरप् प्रत्यय होता है। सृत्वरः, जित्वरः, इत्वरः; नश्वरः । गत्वरः शब्द निपात है। नियम ६७३-(दीपिकम्पिस्म्यजसिहिंसिकमिनमो र: ५।३।५८) दीप, कम्प, स्मि, अजस्, हिंस्, कम्, नम्, धातुओं से शील आदि अर्थ में र प्रत्यय होता है । दीप्र: दीपः । कम्प्रा शाखा । स्मेरं मुखं । अजस्र श्रवणं । हिंस्रो व्याधः । कम्रा युवतिः । नम्रः ।। नियम ६७४– (तृषिधृषिस्वपो नजिङ् ५।३।५६) तृष, धृष्, और स्वप् धातुओं से शीलादि अर्थ में नजिङ् (नज्) प्रत्यय होता है । तृष्णक्, तृष्णजौ, तृष्णजः । धृष्णक, स्वप्नक् । - नियम ६७५ (शृवन्देरारु: ५।३।६०) शृ और वन्द धातु से शील आदि अर्थ में आरु प्रत्यय होता है । शृणाति इत्येवं शील: शरारु: । विशीर्यते विशरारु: । वन्दते वन्दारुः ।। नियम ६७६-(भियः क्रुक्रुकक्लुकाः ५।३।६१) भी धातु से शीलादि अर्थ में क्रु, क्रुक और क्लुक प्रत्यय होता है । भीरुः, भीरुकः, भीलुकः। नियम ६७७- (दिद्युद्ददृत् .....५३।६२) शील आदि अर्थ में क्विप् प्रत्ययान्त ये शब्द निपात हैं—दिद्युत्, ददृत्, जगत्, जुहोति इति जुहः । वक्तीति वाक् । पृच्छति इति प्राट् । शब्दप्राट्, तत्वप्राट् । दधाति ध्यायति वा धीः । श्रयतीति श्रीः । शतं द्रवतीति शतद्रूः । स्रवतीति स्त्र : । जवतीति जः । आयतं स्तौतीति आयतस्तूः । कटं प्रवते कटप्रूः । परिव्राजतीति परिव्राट् । विभ्राट् । भाषते इति भाः । भासौ, भासः । पिपर्तीति पूः । पुरौ, पुरः इत्यादि । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध प्रयोगवाक्य गुरूणां निन्दकः, जीवानां हिंसकः, नराणां क्लेशकः, सदाचरणानां विनाशकः, परेषां असूयकश्च मृत्वा कुत्र याति ? मुनीनां कोऽस्ति चकासकः ? नृषु कोऽस्ति दरिद्रायकः ? एतेषां वस्त्राणां कोऽस्ति गणकः ? कालसौकरिकंः महिषीनां शरारुः, शारुकः वा आसीत् । जीवानां घातुक: निर्दयी भवति । अरे ! लुण्टाका: नगरं लुण्टन्ति । पृथ्वीकायस्य जीव: स्थावरोऽस्ति । आचार्यस्य भास्वरं ललाटं दृष्ट्वा हेमन्तः आकृष्टोऽभूत् । विकस्वराणि पुष्पाणि द्रष्टुं मालाकारः उद्याने समायात् । नश्वरं इदं शरीरम् । अस्मिन् संसारे समागता सर्वेऽपि गत्वराः सन्ति। रमेशः गजात भीरुः, भीरुकः, भीलुको वा, न मूषकात् ।। संस्कृत में अनुवाद करो ___ गुरुओं की निंदा करने वाला सद्गति में नहीं जाता है । जीवों की हिंसा करने वाला दुर्गति में जाता है । अधिक खाने वाला बीमार होता है । अधिक बोलने का कोई विश्वास नहीं करता है। वह पुत्र की कामना करती है । भिक्षा करने वाले कहां गये ? भाषण बोलने वाला कहां का है ? विकसित होने वाला देश कौन सा है ? षटखंड को जीतने वाला राजा कौन है ? यह जीवन नष्ट होने वाला है । आचार्य को वंदना करने वाले मुनि कहां गये ? स्वयं उत्पन्न होने वाले देव और नरक हैं । ऊपर उडने वाला पक्षी कौनसा है ? अन्न पीसने वाला कहां है ? किसी कार्य में लापरवाह मत बनो। यह लज्जा रहित है । रात्रि में चमकने वाला तारा कौनसा है ? इस संसार में कौन स्थिर रहने वाला है ? गमनशील व्यक्ति अपने लक्ष्य को पा लेता है । शिला को तोडने वाला व्यक्ति कहां गया ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्द किस धातु के और किस प्रत्यय के हैं, बताओ ? खादकः, आवेदकः, गामुकः, चलनः, भास्वरः, स्थायुकः, सृत्वरः, तृष्णक, भीरुकः, शरारुः। २. निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयुक्त करो उत्पातुकः, शारुकः, जित्वरः, जल्पाकः, वन्दारुः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७६ : शीलादि प्रत्यय (३) शब्दसंग्रह चिकीर्षुः (करने का इच्छुक) । भिक्षुः (भिक्षा करने वाला) । आशंसुः (इच्छा करने वाला) । प्रसवी (उत्पन्न होने वाला) । अत्ययी (नष्ट होने वाला) । विश्रयी (सहारा लेने वाला) । अभ्यमी (सामने जाने वाला)। वमी (वमन करने वाला)। अव्यथी (पीडा नहीं देने वाला)। श्रद्धालुः (श्रद्धा करने वाला) । शयालुः (सोने वाला)। पतयालुः (गिरने वाला) । मृगयालुः (खोजने वाला) । दारु: (दानशील)। सेरु: (बांधने वाला) । सृमरः (गमनशील) । अद्मरः, घस्मरः (खाने वाला)। भंगुरः (नष्ट होने वाला) । भासुरः (दीप्त होने वाला)। मेदुरः (अतिशय स्निग्ध, अतिशय स्नेह वाला) । विदुर: (जानने वाला)। छिदुरः, भिदुरः (काटने वाला) । यायाजूकः (बार-बार यज्ञ करने वाला) । जंजपूकः, वावदूकः (बार-बार बोलने वाला, वातूनी व्यक्ति) । दंदशूकः (जिसका डंसने का स्वभाव हो) चक्रिः (करने वाला) । जज्ञिः (जानने वाला) । सासहिः (बार-बार या अधिक सहन करने वाला) । चाचलिः (बार-बार या अधिक चलने वाला) । वावहिः (बार-बार वहन करने वाला)। उ, इन्, आलु, रु, मरक, घुर, अक, कि प्रत्यय नियम ६७८- (सन्नाशंसिभिक्षिभ्य: उ: ५२४१) सन् प्रत्ययान्त धातु, आशंस और भिक्ष धातु से शीलादि अर्थ में उ प्रत्यय होता है । चिकीर्षति इत्येवंशीलः चिकीर्षुः । आशंसुः । भिक्षुः । नियम ६७६-(प्राज्जुसूभ्यामिन् ५।३।४३) प्र, परा पूर्वक जु और सू धातु से शीलादि अर्थ में इन प्रत्यय होता है । प्रजवति इत्येवंशीलः प्रजवी । प्रसुवति इत्येवंशीलः प्रसवी। नियम ६८०- (जीणदृक्षिविश्रिपरिभूवमाभ्यमाव्यथिभ्यः ५।३।४४) जि, इण आदि धातुओं से शीलादि अर्थ में इन प्रत्यय होता है। जयी, विजयी । अत्ययी, आदरी, क्षयी, विश्रयी, परिभवी, वमी, अभ्यमी, अव्यथी। ___ नियम ६८१ -- (श्रद्धानिद्रातन्द्राशीङ्दयिपतिगृहिस्पृहिभ्यः आलु: ५।३।४५) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में आलु प्रत्यय होता है। श्रद्धालु:, निद्रालु:, तन्द्रालुः, शयालु:, दयालु:, पतयालुः, गृहयालुः, मृगयालुः, लज्जालुः, ईर्ष्यालुः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ वाक्यरचना बोध नियम ६८२-(शदिसदिधेड्दासिभ्यो रु: ५।३।४६) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में रु प्रत्यय होता है। शीयते शद्रुः। सीदति सद्रुः । धयति धारुः । ददाति, दयते, यच्छति, द्यति, दायति, दाति वा इत्येवंशीलो दारुः । सिनोति सेरुः । ___ नियम ६८३- (स्रदिघसो मरक् ५।३।४७) सृ, अद्, घस् धातु से शीलादि अर्थ में मरक् प्रत्यय होता है । सृमरः, अमरः, घस्मरः । नियम ६८४-(भञ्जिभासिमिदो घुरः ५।३।४८) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में घुर प्रत्यय होता है। भज्यते स्वयमेव इत्येवंशीलं भङ्गुरं काष्ठं । भासुरं वपुः । मेदुरः ।। नियम ६८५- (वेत्तिछिदिभिदिभ्यः कित् ५।३।४६) इन धातुओं से शीलादि अर्थ में किद् संज्ञा वाला घुर प्रत्यय होता है। वेत्तीति विदुरः । छिदुरः, भिदुरः । नियम ६८६- (जागरूकः ५।३।५०) जागृ धातु से शीलादि अर्थ में ऊक प्रत्यय होता है । जागरूकः । नियम ६८७-(यजिजपिदंशिवदो यङ् ५।३।५१) । यज् आदि धातु यङन्त हो तो शीलादि अर्थ में ऊक प्रत्यय होता है। भृशं पुनःपुनर्वा यजति इत्येवंशीलो यायजूकः । जंजपूकः, दंदशूकः, वावदूकः । नियम ६८८-(सासहिचाचलिवावहिपापतयः कौ ५।३।५२) सह., चल, वह और पत् धातु यङन्त में शीलादि अर्थ में कि प्रत्ययान्त निपात है। सासहिः, चाचलिः, वावहिः, पापतिः ।। नियम ६८६-(सस्रिचक्रिदधिजज्ञिनेमयः ५।३।५३) शीलादि अर्थ में कि प्रत्ययान्त ये शब्द निपात हैं। सरति इत्येवंशीलः सनिः । करोति चक्रिः । दधाति दधिः । जायते जानाति वा जज्ञिः । नमति नेमिः । प्रयोगवाक्य धनं अत्ययि चकास्ति । आनंदः जिनप्रवचने श्रद्धालुरासीत् । पतयालु वृक्षं पश्य । राक्षसः कं अमरोऽस्ति ? भंगुरं जीवनं ज्ञानिनः न विश्वसन्ति । श्यामः संस्कृतं विदुरोऽस्ति । काष्ठं छिदुरः, भिदुरः वा कुत्र निवसति ? जंजपूकानां न कोऽपि प्रत्ययं कुरुते ? अयं वावदूकोऽस्ति । दुष्करं कार्य चक्रिः कोऽस्ति ? तत्वं जज्ञिः भव । सा लज्जालुरस्ति । मृगं मृगयालुः वने गतः ? संस्कृत में अनुवाद करो रमेश यह कार्य करने का इच्छुक है। तुम आगम में श्रद्धा करने वाले बनो। अधिक नींद लेने वाले मत बनो। पत्ता वृक्ष से पडने वाला है। स्त्री लज्जा वाली है। सोहन ईर्ष्या वाला है। बालक सोने वाला है। वह ज्ञान Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलादि प्रत्यय (३) २५६ देने वाला है । मोहन लड्डु खाने वाला है। यह जीवन नष्ट होने वाला है। श्राविका तत्व जानने वाली है। रमेश लकडी को काटने वाला है । ब्राह्मण बार-बार यज्ञ करने वाला है। सोहन बार-बार बोलने वाला है । मच्छर बार-बार डंसने वाला है। साधु आत्मा के प्रति जागने वाला है। तत्व को खोजने वाले बनो । गाय को बांधने वाला कहां गया ? धर्म का सहारा लेने वाला सुखी होता है । यह पदार्थ अतिस्निग्ध है। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करो दयालुः, अगरः, दारुः, वावदूकः, मेदुरः । २. नीचे लिखे प्रत्यय किन-किन धातुओं से होते हैं ? उ, ऊक, इन्, घुर। ३. नीचे लिखे शब्दों का विग्रह करोनेमिः, प्रसवी, दारुः, भगुरं, धारुः, भिक्षुः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७७ : भाव शब्दसंग्रह कान्दविक: (हलवाई) । कुण्डली ( जलेबी) । अमृती ( इमरती ) | है ( बर्फी ) । पिण्ड : ( पेडा ) | कौष्माण्डम् ( पेठे की मिठाई ) । दुग्धपूपिका ( गुलाबजामुन ) । रसगोल : ( रसगुल्ला ) । शर्करापाल : ( शक्करपारा ) 1 मधुमण्ठः ( बालूशाही ) । सन्तानिका (मलाई ) । कूचिका ( रबडी ) कलाकन्दः ( कलाकन्द ) । पर्पटी ( पपडी ) । घृतपूर : ( घेवर ) । मधुशीर्ष : (खाजा) । मिष्टपाक: ( मुरब्बा ) । वाताशः ( बताशा ) । मोहनभोगः ( मोहनभोग ) । गजकः ( गजक ) । 12 भाव भाव का अर्थ है - क्रिया । भाव में प्रत्यय होने का अर्थ है क्रिया में प्रत्यय होना । भावस्यैकत्वाद् - भाव एक होता है, इसलिए क्रिया में एक वचन ही होता है । किसी भी कारक में प्रत्यय न होने से क्रिया किसी भी कारक के पीछे नहीं चलती । कर्ता किसी भी पुरुष, वचन व लिंग का हो उससे क्रिया के रूप में कोई अन्तर नहीं होता है । कर्ता में तृतीया विभक्ति ही रहती है । जैसे— रहा है। मया गम्यते आवाभ्यां गम्यते अस्माभिः गम्यते तया गम्यते भाव में प्रत्यय होने से आत्मनेपद, एकवचन और नपुंसक लिंग होता है । जैसे --- मया गतं, अस्माभिगतं । तेन गतं तैः गतं तया गतं, ताभिः गतम् । कुछ प्रत्यय भाव में स्त्रीलिंग में भी होते हैं, उनको नीचे दिया जा त्वया गम्यते युवाभ्यां गम्यते युष्माभिः गम्यते ताभिः गम्यते तेन गम्यते ताभ्यां गम्यते तैः गम्यते --- नियम ६६०- - ( गापापचो भावे ५|४|११ ) गा पा ( पिब ) और पच् धातु से भाव में क्ति प्रत्यय स्त्रीलिंग में होता है । प्रगतिः, संगीतिः । प्रपीतिः संपीतिः । पक्तिः, प्रपक्तिः । नियम ६१ - - ( स्थो वा ५।४।१२ ) स्था धातु से भाव में प्रत्यय विकल्प से होता है, पक्ष में ङ प्रत्यय भी । प्रस्थितिः, उपस्थितिः । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव २६१ आस्था, व्यवस्था, संस्था । नियम ६६२--- (आस्यटिवजियजः क्यप् ५।४।६३) आस्, अट, व्रज्, यज्, धातुओं से भाव में क्यप् प्रत्यय स्त्रीलिंग में होता है। आस्या, अट्या, व्रज्या, इज्या। (भावे ५।४।१२०) भाव में णक प्रत्यय स्त्रीलिंग में होता है। आसिका, शायिका, जीविका, कारिका । देखें (नियम ६०६) नपुंसक लिंग में (नपुंसके भावे क्तः ६।१११) सब धातुओं से भाव में क्त प्रत्यय नपुंसक लिंग में होता है । हसितं छात्रस्य । नृत्तं मयूरस्य । व्याहृतं आचार्य स्य । नियम ६६३.-- (अनट् ६।१।२) भाव में अनट् प्रत्यय नपुंसक लिंग में होता है । गमनं, भोजनं, पठनं, कथनम् । नियम ६६४.--- (क्त्वातुममो भावे ५।१।२१) क्त्वा, तुम् और अम् ये प्रत्यय भाव में सब धातुओं से होते हैं। कृत्वा व्रजति । कर्तुं व्रजति । चौरंकारं आक्रोति । नियम ६६५-- (अकर्मकात कृत्यक्तखलाः ॥१२२) अकर्मक धातुओं से कृत्य (तव्य, अनीय, य, क्यप्, घ्यण्), क्त और खल अर्थ के प्रत्यय भाव में होते हैं । जैसे-कर्तव्यं, करणीयं, देयं, कृत्यं, कार्य वा भवता । शयितं भवता । सुशयं भवता । सुकरं भवता। ईषद् आढ्यं भवं भवता । सुग्लानं कृपणेन । प्रयोगवाक्य रसगोल: कलकत्तायाः, मधुमण्ठः जोधपुरस्य, कलाकंद: हैमी च जयपुरस्य, मोहनभोगः बीकानेरस्य, गजकः व्यावरस्य, कौष्माण्डं आगरानगरस्य प्रसिद्धं मिष्टान्नं चकास्ति। कुण्डलीअमृत्ययोः को भेदोऽस्ति ? कि तुभ्यं दुग्धपूपिका रोचते ? घृतपूरः सन्तानिका च गरिष्ठा भवति । संगीतिः कदा क्व च जाता ? अस्मिन् कार्ये तव उपस्थितिः अनिवार्या चकास्ति । संस्थायां व्यवस्था आस्थायाः कारणं भवति । प्रातः काले तव अट्या व्रज्या च स्वास्थ्यप्रदा न तु आस्या । श्रावणे नृत्तं मयूरस्य नयनाभिरामं लगति । नृपः चौरंकारं आक्रोशति । संस्कृत में अनुवाद करो मिठाइयां अनेक प्रकार की होती हैं । हलवाई की दुकान पर आज बहुत लोग हैं । कुछ लोग हलवाई से लड्डू और जलेबी लेते हैं। सुरेन्द्र को इमरती, बर्फी और पेठे की मिठाई अच्छी लगती है । गुलाब जामुन और Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ वाक्यरचना बोध रसगुल्ले में क्या अंतर है ? रमेश शक्करपारा और बालूशाही नहीं खाता है । मलाई कौन खा गया ? भाभी देवर को रबडी, कलाकंद, और पपडी खिलाती है । सुरेश को घेवर और खाजे अच्छे नहीं लगते । मुरब्बा अनेक प्रकार का होता है ? श्याम बाजार से कितने मोहनभोग लाया है ? लोग सर्दी में गजक खाते हैं। भाव में वाक्य बनाओ राम वन में गया। उसने क्या पूछा था ? सुशीला क्या कहेगी ? धर्मेश ने अच्छी तरह सुना। मैंने कहा पर उसने नहीं सुना । वह घोडे से गिरा पर भाग गया । वह चोर से डर गया। गांव से दूर स्कूल उपयोगी होती है । धन से अधिक चरित्र मूल्यवान् होता है । डाकुओं ने ग्राम में प्रवेश किया। सोमवार से वह यहां नहीं है । प्यासी धरती वर्षा से शांत हो गई। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ इमरती, बालूशाही, मलाई, घेवर, जलेबी, मुरब्बा । २. भाव में वाक्य बनाने के लिए क्या ध्यान में रखना चाहिए ? ३. भाव में कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? प्रत्येक का एक-एक उदाहरण लिखो? Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७८ : भावकर्त्री (१) शब्दसंग्रह कारु: ( शिल्पी) । नापित: ( नाई) । रजकः ( धोबी) । निर्णेजक: ( ड्राईक्लीनर ) । कुलिकः (शिल्पि संघ का अध्यक्ष ) । तन्तुवाय: ( जुलाहा ) । सौचिकः (दर्जी) । चित्रकार: (चित्रकार, पेन्टर ) । स्वर्णकार : (सुनार) । शौल्विकः (तांबे के बर्तन बनाने वाला) । त्वष्टा (बढई ) । स्थपतिः (मिस्त्री) । अश्मचूर्णम् (सीमेंट) । इष्टका ( ईंट ) । स्यूति: ( सिलाई ) । यन्त्रम् (मशीन ) । उपहासचित्रम् (कार्टून) । बतिका ( ब्रुश ) । तक्षणी ( वसूला ) । अयोघनः ( हथौडी ) । करपत्रम् (आरी ) । घञ, न, कि, अल् प्रत्यय भाव का अर्थ है क्रिया, अकर्तृ का अर्थ है कर्ता कारक को छोड कर । भावाऽकर्त्री का तात्पर्य है—कर्ता कारक को छोडकर शेष कारक और भाव में प्रत्यय होना । भावाकत्रों में होने वाले प्रत्यय कुछ पुल्लिंग में होते हैं और कुछ स्त्रीलिंग में ही होते हैं । स्त्रीलिंग में होने वाले प्रत्यय अगले पाठ में देखें । नियम ६९६ - (भावाऽकर्त्री: ५।४।६) भाव में और कर्ता छोडकर अन्य कारकों में सब धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है । भाव में – पचनं पाकः, एवं रागः, त्यागः, । कर्म - प्रकुर्वन्ति तं इति प्राकारः । संप्रदान — दाशन्ते यस्मै स दाशः । अपादान - आहरन्ति यस्मात् इति आहारः । नियम ६६७- - ( हसाद् घञ् ६।१।११) हसान्त धातु से साधन और आधार में घञ् प्रत्यय होता है पुल्लिंग के संज्ञा विषय में । विदन्ति अनेन वेदः । चेष्टते अनेन चेष्टो बलम् । एत्य पचन्ति अस्मिन् इति आपाकः । आरामः, लेख:, बन्धः, वेगः, रागः, प्रासादः, अपामार्गः । . नियम ६८ - ( यजिरक्षियतिप्रच्छिस्वपो नः ५। २८२ ) इन धातुओं से भावाकत्रों में न प्रत्यय होता है । यज्ञः, रक्ष्णः, यत्नः, प्रश्नः, स्वप्नः । नियम ६६६- - ( उपसर्गोऽपिद्दाधः कि: ५।४।८४) उपसर्ग उपपद में हो, प इत जाने वाली दा धातु को छोडकर शेष दा धातु और धा धातु से कि प्रत्यय होता है । आदिः, प्रदिः, आधि:, प्रधिः, निधिः, संधि:, समाधिः । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वाक्यरचना बोध नियम ७०० - (ऋद्युवर्ण वृदृवशिरणिगमिग्र हेरल् ५।४।५१) ऋकार अंतवाली, इवर्ण अंतवाली, उवर्ण अंतवाली धातुएं तथा वृ आदि धातुओं से भावाकर्त्री अर्थ में अल् प्रत्यय होता है । ऋ – करः, गरः, तरः, दरः । इवर्ण—चयः जयः क्षयः, क्रयः । उवर्ण – यवः, रवः, स्तवः, लवः । वृ आदि - वर:, दर:, आदर:, वशः, गमः, ग्रहः । नियम ७०१ -- ( यमः समुपनिविषु ५।४।५६ ) सं, उप, नि, वि उपपद में हो तो यम् धातु से अल् प्रत्यय विकल्प से होता है । संयमः संयामः । उपयमः, उपयामः । नियमः, नियामः । वियमः, वियाम: 1 नियम ७०२- - ( भयादयो नपुंसके ५|४|५३ ) अल् प्रत्ययान्त ये शब्द - निपात हैं- भयं वर्षं, धनं, वनं, पदं युगम् । घञ् प्रत्यय भावाकर्त्री के अतिरिक्त कर्ता में होता है नियम ७०३- - ( पदरुज विशस्पृशो घञ् ५।४।७) पद्, रुज्, विश् और स्पृश् धातु से घन् प्रत्यय कर्ता में होता है । पादः, रोग:, वेशः, स्पर्शः । नियम ७०४ - ( सर्तेः स्थिरव्याधिबलमत्येषु ५|४८) स्थिर, व्याधि, बल और मत्स्य अर्थ में सृ ( सरति ) धातु से कर्ता में घञ् प्रत्यय होता है । स्थिरे - सरति कालान्तरं इति सारः स्थिरः पदार्थः । सालसारः, खदिरसारः, कार्यसारः । व्याधि— अतिसारो व्याधिः । बल - सारो बलम् । विसारो मत्स्यः । नियम ७०५ - ( उद्यमोपरमौ ४।२।२८) वृद्धि के अभाव में घञ् प्रत्ययान्त ये दो शब्द निपात हैं- उद्यमः, उपरमः । अन्यत्र यामः, सुयामः । रामः, विरामः । प्रयोगवाक्य ब्राह्मणः यज्ञं करोति । शिष्यः गुरुं प्रश्नं पृच्छति । रमेशः पठितुं यत्नं कुरुते । रात्रौ त्वया कः स्वप्नः दृष्टः ? तस्य निधिः कुत्रास्ति ? तस्याः आधि को जानाति ? भूपः शत्रुणा सह संधि करोति । सर्वे समाधि वाञ्छन्ति । पापस्य क्षयं कुरु । अजितात्मनां जयोऽपि पराजयोऽस्ति । इंद्रियाणां संयमः संपदां मार्गोऽस्ति । आचार्यस्य पादौ स्पृश । तस्य वपुषः स्पर्शः न सुखावहोऽस्ति । सनत्कुमारचक्रवर्तिनः शरीरे अनेके रोगाः जज्ञिरे । सः व्याधि दूरीकर्तुं प्रयतते । संस्कृत में अनुवाद करो तुम्हारे गांव में रहने वाले नाई का क्या नाम है ? नरेन्द्र ने धोबी को as a दिये थे ? ड्राईक्लीनर वस्त्रों को मशीन से धोता है । शिल्पीसंघ का अध्यक्ष शिल्पियों के साथ बात करता है । कबीर जी जुलाहे थे । रमेश दर्जी से कपडे सिलाता है । सुनार मुनि को भिक्षा देने के लिए घर में गया । इस गांव में बर्तन बनाने वाला कौन है ? बढई वसूले से लकडी छोलता है Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भायाकर्त्री (१) २६५ 1 और आरे से उसे चीरता है । चित्र बनाने के लिए चित्रकार के पास ब्रुश नहीं है । मिस्त्री मशीन ठीक करता है । सीमेंट की क्या कीमत है ? यहां पर सौ ईंटे हैं । शीला सीमा से सिलाई सीखती है । नौकर हथोडे से क्या करेगा ? अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ सुनार, बढई, दर्जी, जुलाहा, सीमेंट, वसूला, आरी, शिल्पी, ब्रुश । २. निम्नलिखित शब्द किस धातु के और किस प्रत्यय के हैं, बताओ - स्वप्नः, आदि:, दर:, संयमः पादः, सारः, यत्नः समाधिः, प्रश्नः, स्पर्शः, उद्यम:, अरामः, रागः । ३. प्रत्यय भाव में होते हैं या कर्ता आदि कारकों में ? एक-एक उदाहण देकर स्पष्ट करो । ४. घञ् प्रत्यय किस कारक में होता है ? Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७८ : भावकर्त्री (२) शब्द संग्रह परभृतः ( कोयल ) । वर्तक : ( बतख ) । चिल्ल: ( चील) । पारावतः (कबूतर ) । चटका ( चिडिया) । मरालः ( हंस) । बकः ( बगुला ) । सारसः (सारस ) । कीर : ( तोता ) । सारिका (मैना ) । ध्वाङ्क्षः (कौआ) । गृध्रः ( गिद्ध ) । श्येन: (बाज ) । कौशिकः ( उल्लू ) । चातकः ( चातक) । चक्रवाकः (चकवा) । बहिन् (मोर) । षट्पदः ( भौंरा ) । शलभः (पतंगा, टिड्डी । सरधा (मधुमक्खी ) । वरटा (हंसी) । चाष: ( नीलकंठ ) । दार्वाघाट: (कठफोडा) । खञ्जन: ( खंजन ) । कुलाय : ( घोंसला ) । क्ति प्रत्यय के रूप कृति: (कृ) करना । हृति: ( हृ ) हरना । चितिः ( चि) चुनना । भूति: (भू) होना । श्रुति: ( श्रु) सुनना । स्तुतिः (ष्टु) स्तवना करना । निति: ( णी ) प्राप्त करना । संपत्ति: ( सं + पद्) प्राप्त करना । भणितिः (भण्) बोलना । लिखिति: ( लिख) लिखना । लब्धि: ( लभ् ) प्राप्त करना । निग्रहीति: ( नि + ग्रह ) निग्रह करना । 1 स्त्रीलिंग प्रत्यय (क्ति, क्यप्, अन्, य, अ, ङ, क्विप्, अनि ) ये प्रत्यय भावाकर्त्री धातु से स्त्रीलिंग में ही होते हैं । इसलिए इन प्रत्ययान्त रूपों के अंत में स्त्रीलिंग प्रत्यय आप् या ईप् और जुड जाता है । इन प्रत्ययों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है । नियम ७०६- ( स्त्रियां क्ति: ५।४।८७) धातुओं से क्ति प्रत्यय होता है । कृतिः, हृतिः, चितिः, भूतिः । नियम ४०७ - ( श्रवादिभ्यः ५४८८) श्रु आदि धातुओं से क्तिप्रत्यय होता है। श्रुतिः, संपत्ति:, स्तुतिः, लब्धि:, प्रशस्तिः, इष्टिः, भूतिः । नियम ७०८- - ( कृन: शिदन् च वा ५।४।६६ ) कृ धातु से शित्संज्ञक अन् और क्यप् प्रत्यय विकल्प से होता है । पक्ष में क्ति प्रत्यय भी । क्रिया, कृत्या, कृतिः । नियम ७०६- ( परौ सृचरेर्य: ५।४।६८) परि उपसर्ग उपपद में हो तो सृ और चर् धातु से य प्रत्यय होता है । परिसर्या, परिचर्या । - नियम ७१०- ( शंसि प्रत्ययात् ५।४ । १०१ ) शंसि धातु और प्रत्ययअन्तवाली धातुओं से अ प्रत्यय होता । प्रशंसा, मीमांसा, चिकीर्षा, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकों (२) २६७ पुत्रकाम्या, गल्भा, पटपटाया। नियम ७११-(क्तेटो गुरो हंसात् ५।४।१०२) क्त प्रत्यय को इट् होने वाली धातु, गुरुमान् (धातु में अक्षर गुरु संज्ञक हो) और हस अन्त वाली धातु से अ प्रत्यय होता है । ईहा, ऊहा, ईक्षा, उक्षा, कुण्डा, हुण्डा, शिक्षा, भिक्षा। नियम ७१२-(षितो ङ: ५।४।१०३) ष् इत् जाने वाली धातुओं से ङ प्रत्यय होता है । पचा, क्षमा, घटा, त्वरा, व्यथा, जरा। नियम ७१३– (कुहिगुहिवशिवपितुलिक्षपिक्षिभ्य: संज्ञायाम् ५।४।१०५) इन धातुओं से संज्ञा विषय में ङ प्रत्यय होता है । कुहा नाम नदी । गुहा पर्वतकंदरा । वशा स्नेहनद्रव्यं धातुविशेषश्च । वपा मेदोविशेषः । तुला उन्मानं । क्षपा रात्रिः । क्षिया आचारभ्रंशः । नियम ७१४- (भीषिभूषिचिन्तिपूजिकथिकुम्बिचिस्पृहितोलिदोल्यूनिचूडिपीडिभ्य: ५।४।१०८) जिन्नन्त इन धातुओं से ङ प्रत्यय होता है । भीषा, भूषा, चिंता, पूजा, कथा, कुम्बा, चर्चा, स्पृहा, तोला, दोला, ऊना, चूडा, पीडा। नियम ७१५-- (आत उपसर्गे ५।४।१०६) उपसर्ग उपपद में हो तो आकारान्त धातुओं से ङ प्रत्यय होता है। प्रदा, उपदा, प्रधा, उपधा, आधा, विधा, संधा। नियम ७१६– (संपत्क्रुधादिभ्यः क्विप् ५।४।११४) सं आदि उपसर्ग पूर्वक पद् आदि धातुओं से तथा क्रुध् आदि शब्दों से क्विप् प्रत्यय होता है। संपद्, विपद्, आपद्, व्यापद्, प्रतिपद्, संसद्, परिषद्, उपनिषत्, उपानत् आदि । क्रुत्, युत्, क्षुत्, मृत्, गी: आदि। नियम ७१७-(ल्वादिम्यो वा ५।४।११५) लू आदि धातुओं से क्विप् प्रत्यय विकल्प से होता है । लू:, लूतिः । भी:, भीतिः । भूः, भूतिः । कृत्, कृति: । दृक्, दृष्टि: । नियम ७१८- (नञ्यऽनिराक्रोशे ५।४।१२२) नञ् उपपद में हो, आक्रोश अर्थ का बोध हो तो स्त्रीलिंग में अनि प्रत्यय होता है। अजननिस्ते वृषल ! भूयात् । एवमजीवनिः, अकरणिः, अगमनिः । नियम ७१६– (हाज्याग्लाम्लाभ्यः ५।४।१२३) इन धातुओं से अनि प्रत्यय होता है । हानिः, ज्यानिः, ग्लानि:, म्लानिः । प्रयोगवाक्य रोगिनः परिचर्यां कृत्वा सा मुमुदे । पुत्रस्य प्रशंसां निशम्य जननी जहर्ष । तत्वस्य सूक्ष्मां मीमांसां श्रुत्वा स: विस्मितोऽभवत् । गुरोः शिक्षा तं कुमार्गात् अरक्षत् । परेषां चिन्तां त्यक्त्वा स्वस्य चिंतां कुरु । तत्वस्य Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध चर्चायां सः मोदं अलभत । भ्रातुः पीडां विलोक्य सा रुरोद । तस्य कुत्, रुक च भयंकरोऽस्ति । आचार्यस्य दृक् दूरदशिनी भवति । धनस्य हानिः तं विक्षिप्त मकृत । साधोः कथां श्रोतुं बहवः जनाः समाययुः । सत्यस्य श्रुतिः दुष्कराऽस्ति । ज्ञानस्य लब्धि कुरु। आचार्यस्य कृतिः सर्वेभ्यः रोचते । दुष्टानां निग्रहीतिः नृपस्य प्रथमं कर्तव्यमस्ति। ___ संस्कृत में अनुवाद करो ___ संसार में अनेक पक्षी हैं। क्या कबूतर रात्रि में कुछ खाता है ? घोसले में चिडियां हैं। कोयल मधुर बोलती है। हंस में दूध और पानी को अलग करने की शक्ति होती है। इस वृक्ष पर तोता और मैना बैठी है । कौवे की वाणी किसी को अच्छी नहीं लगती। आकाश में अनेक चील और गिद्ध उड रहे हैं। उल्लू को रात में दिखाई नहीं देता । चातक तालाब और नदी का पानी नहीं पीता । मोर सांप का शत्रु है। भौंरा फूल का रस पीता है। टिड्डियों का समूह कहां जा रहा है ? मधुमक्खियों के काटने से उसके शरीर में सूजन हो गई । क्या तुमने हंसी, नीलकंठ, कठफोडा, और खंजन को देखा है ? क्ति प्रत्यय का प्रयोग करो चौरों के द्वारा धन का हरण करना दु:खद बात है। आचार्य का चुनाव निपुणता से होता है। तीर्थंकरों की स्तवना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। वर्षा का होना सुकाल का सूचक है। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ बगुला, मैना, बाज, उल्लू, भौंरा, हंसी, मोर, नीलकंठ । २. निम्नलिखित शब्द किस धातु से और किस प्रत्यय से बने हैं, बताओ? श्रुतिः, परिसर्या, प्रशंसा, वशा, तुला, पूजा, लू:, हानिः । ३. भावाकों में कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? " Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८० : अनट, खल प्रत्यय शब्दसंग्रह भवनम् (भू, अस्) होना । पानम् (पां) पीना । गमनम् (गम्) जाना । करणम् (कृ) करना । अदनम् (अद्) खाना । यानम् (यांक) जाना। अध्ययनम् (अधि+इ) अध्ययन करना। रोदनम् (रुद्) रोना । जागरणम् (जागृ) जागना । वेदनम् (विद्) जानना । हननम् (हन्) मारना । शयनम् (शी) सोना। आसनम् (आस्) बैठना । स्तवनम् (ष्टु) स्तुति करना । दोहनम् (दुह.) दुहना । भयनम् (भी) डरना । दानम् (दा) देना । नर्तनम् (नृत्) नाचना । नशनम् (णश्) नष्ट होना। बोधनम् (बुध) जानना । मननम् (मन्) मनन करना । रञ्जनम् (रञ्) राग करना । श्रवणम् (श्रु) सुनना । प्रच्छनम् (प्रच्छ्) पूछना । मरणम् (मुंज) मरना । रोधनम् (रुध्) रोकना । पेषणम् (पिष्) पीसना । तननम् (तन्) फैलना । ज्ञानम् (ज्ञा) जानना । ग्रहणम् (ग्रह) ग्रहण करना । चोरणम् (चुर्) चुराना। हरणम् (ह) हरण करना । जननम् (जन्) उत्पन्न होना। अनट् प्रत्यय अनट् प्रत्यय भाव में होता है। नपुंसकलिंग और एक वचन होता है। उसके योग में तृतीया तथा षष्ठी विभक्ति होती है । जैसे—गमन, भोजनं, हसनं । छात्रस्य हसनं । मम गमनं । रामस्य भोजनम्। भाव के अतिरिक्त अनट् प्रत्यय कर्ता, कर्म, साधन, अपादान और आधार में भी होता है। नियम ७२०-कर्ता में (रम्यादिभ्यः कर्तरि ६।१।४) रमि आदि धातुओं से अनट् प्रत्यय कर्ता में होता है और स्त्रीलिंग में होता है । रमणी, कमनी, नन्दनी। नियम ७२१-कर्म में (भुजादिभ्यः कर्मणि ६।१।६) भुज् आदि धातुओं से कर्म में अनट् प्रत्यय होता है। भुज्यते यत् तत् भोजनं । आच्छादनं, अवस्रावणं, अवसेचनं, असनं, वसनं, आभरणम् । नियम ७२२ - साधन में (साधनाधारयोः ६।१।८) अनट् प्रत्यय साधन में होता है । इष्यते अनया एषणी । लिख्यते अनया लेखनी। विचयनी। इध्मव्रश्चनः (कुल्हाडी), अविलवनः, श्मश्रकर्तनः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० वाक्यरचना बोध नियम ७२३ क-अपादान में (स्कन्दादिभ्योऽपादाने ६।१७) स्कन्द् आदि धातुओं से अनट् प्रत्यय अपादान में होता है। प्रस्कन्दति यस्मात् स प्रस्कन्दनः । प्रपतनः, प्रश्च्योतनः, प्रस्रवणः, निर्झरणः, अपादानं, शंखोद्धरणः । ख-आधार में (साधनाधारयोः ६।११८) आधार में अनट् प्रत्यय होता है। गौ र्दुह यतेऽस्यां गोदोहनी। शक्तुधानी। तिलपीडनी। शयनं, आसनं, अधिकरणं, आस्थानम् । खल प्रत्यय नियम ७२४- (दुःस्वीषत्सु कृच्छाकृच्छ्रार्थेषु खल् ६।१।१७) दुस्, सु, ईषत्-ये पूर्व पद में हों तो कष्टसाध्य और सुखसाध्य के अर्थ में खल् प्रत्यय होता है । यह प्रत्यय कर्म में होता है । इसके योग में कर्म में प्रथमा और कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे—अयं पाठस्त्वया सुबोधः । ईषत्करः कटो भवता । दुष्करं ब्रह्मचर्यं मनुजः।। शिष्यते दुःशासनः, दुःशासः । सुशासनः, सुशासः । ईषच्छासनः, ईषच्छासः । दुर्योधनः, दुर्योधः । दुर्दर्शनः, दुर्दर्शः । दुर्धर्षणः, दुधर्षः । दुर्मर्षणः, दुर्मर्षः । दुस, सु, इषत् शब्द पू१५५ rut it..... है। दुष्पानं पयो भवता । सुपानं पयो भवता । ईषत्पानं पयो भवता। नियम ७२६-(शासियुधिदृशिधृषिमृषिभ्यो वा ६।१।२०) दुस्, सु और ईषत् शब्द पूर्वपद में हो, तो कष्ट साध्य एवं सुखसाध्य अर्थ में शास् युध्, धृष् और मृष्- इन धातुओं से आन प्रत्यय विकल्प से होता है । दुःखेन शिष्यते दुःशासनः, दुःशासः । सुशासनः, सुशासः । ईषच्छासनः, ईषच्छासः । दुर्योधनः, दुर्योधः । दुर्दर्शनः, दुर्दर्शः । दुर्धर्षणः, दुधर्षः । दुर्मर्षणः, दुर्मर्षः । प्रयोग वाक्य रोदनं बलानां बलमस्ति । रात्रौ वृद्धस्य रोदनं श्रुत्वा बीरबल: तस्य पार्वे जगाम । सुतस्य जननं कस्य कृते प्रमोदविषयं नास्ति । पापिनां शयनमेव वरम् । भुजंगानां पयःपानं केवलं विषवर्धनस्य निमित्तं भवति । रोगिणः पाद्यं तस्य गमनं लाभप्रदमभूत् । पुस्तकस्याध्ययनेन ज्ञानं वर्धते । धनस्य नशनं श्रेष्ठिनः मृत्योः बीजमासीत् । इदं कार्यं भवतां कृते दुष्करं मास्ति। संस्कृत में अनुवाद करो - --- --- ---- कारक है । बालक का रोना उसको नहीं सुहाता । तत्व को जानना हर श्रावक के लिए जरूरी है । बालिका का अध्ययन करना जरूरी है। वर्षा ऋतु में वर्षा का होना स्वाभाविक है। गाय को दुहना भी एक कला है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनट, खल प्रत्यय २७१ साधना के क्षेत्र में पाप से डरना जरूरी है । विवाह के समय लडकियों का नाचना अच्छा नहीं है। मदन का लिखना साफ है। संदीप के दादाजी का भोजन खाने का समय निश्चित है । तुम ईश्वर का स्मरण क्यों करते हो ? तुम्हारा बैठना उचित नहीं है। कार्यकर्ताओं का कार्य करने का ढंग अच्छा होना चाहिए । ज्ञान का दान देना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है । चौर को पकडना सहज नहीं है। सुशील का पढना स्पष्ट नहीं है । गोष्ठी में तुम्हारा बोलना जरूरी था । सीता का हरण करना रावण के लिए शुभ नहीं था। ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत कठिन कार्य है। अभ्यास १. निम्नलिखित धातुओं के अनट् प्रत्यय के रूप बताओ और उन्हें वाक्यों में प्रयुक्त करो__ गम्, रुद्, शी, आस्, ष्टु, भी, बुध, तन्, पिष् । २. खल् और अनट् प्रत्यय के बारे में तुम क्या जानते हो ? Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८१: एककर्तृक पूर्वकालिक क्रिया १ ( क्त्वा, रगम्) शब्दसंग्रह । मृद्वीका (अंगूर) जम्बू : ( जामुन ) । कदलीफलम् (केला) । बीज - पूर : ( बिजौरा नींबू) । उदुम्बरम् ( गूलर ) | कर्कन्धु: ( बेर) । श्रीपर्णिका (कायफल ) । अमृतफलम् ( नाशपाती) । आलुकम् (आलू बुखारा ) । तूतम् (शहतूत ) । नारिकेलम् ( नारियल ) । लीचिका ( लीची ) । स्वर्णक्षीरी (मकोय) । म् प्रत्यय के रूप भावं भावं (भू) बार-बार हो करके । पायं पायं (पां) बार-बार पी करके । गामं गामं (गम्) बार-बार जा करके । वन्दं वन्दं ( वदि) बारबार वंदना करके, स्तुति करके । कारं कारं (कृ) बार-बार करके । आद आदं (अद्) बार-बार खा करके । यायं यायं (याक्) बार-बार जा करके । अध्यायं अध्यायं (अधि + इ ) बार-बार पढ करके । भायं भायं ( भी ) बारबार डर करके । दायं दायं (दा) बार-बार दे करके । भोजं भोजं (भुज् ) बार-बार खा करके । पूर्वकाल क्रिया ( क्त्वा, णम् ) एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया की जाती है वहां दोनों क्रियाओं का कर्ता एक ही हो उसे एककर्तृक कहते हैं । पूर्वकाल की क्रिया के साथ परकाल की क्रिया का प्रयोग आवश्यक है । ऐसी स्थिति में पूर्वकाल की धातु For और णम् प्रत्यय होता है । दोनों का अर्थ एक है, रूप भिन्न है । स भुक्त्वा व्रजति ( वह खाकर जाता है) । खाना पूर्व क्रिया है, 'जाना' पर क्रिया है । यहां दोनों का कर्ता एक ही है । भुक्तवति गुरौ शिष्यः व्रजति ( गुरु के खाना खाने के बाद शिष्य जाता है) यहां दो क्रिया दो कर्ता से संबंधित है इसलिए इसमें पूर्व काल में होने वाले प्रत्यय नहीं होंगे । । नियम नियम ७२७ – ( णम् चाभीक्ष्ण्ये ६।११४४) एककर्तृक, अभीक्ष्ण्य अर्थ में पूर्वकाल में होने वाली धातु से णम् प्रत्यय विकल्प से होता है । सः भोजं भोजं व्रजति भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । पायं पायं गच्छति, पीत्वा पीत्वा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एककर्तृक पूर्वकालिक क्रिया १ (क्त्वा, णम्) गच्छति । नियम ७२८-(पूर्वाग्रेप्रथमेभ्यः ६।१।४५) पूर्व अग्रे, प्रथम-इन शब्दों से परे पूर्वकाल में होने वाली धातु हो तो उससे णम् प्रत्यय विकल्प से होता है, एककर्तृक हो तो। विकल्प में क्त्वा प्रत्यय होता है। यहां अनाभीक्ष्ण्य अर्थ में प्रत्यय होता है । पूर्व भोजं व्रजति, पूर्व भुक्त्वा व्रजति । अग्रे भोजं व्रजति, अग्रे भुक्त्वा व्रजति । प्रथमं भोजं व्रजति, प्रथमं भुक्त्वा व्रजति । नियम ७२६-(यथातथयोरीष्र्योत्तरे ६।११४७) यथा और तथा शब्द पूर्व पद में हो, एककर्तृक हो, पूर्वकाल में कृ धातु का प्रयोग हो, ईप्यो से पूछा गया हो उसका उत्तर दिया जाता हो तो णम् प्रत्यय विकल्प से होता है। कथं भवान् भोक्ष्यते इति पृष्टोऽसूयया, तं प्रति आह-यथाकारं अहं भोक्ष्ये, तथाकारं अहं भोक्ष्ये कि तव अनेन ? किं ते मया यथाहं भोक्ष्ये तथाहं भोक्ष्ये इत्यर्थः।। नियम ७३०-(आक्रोशे कर्मणि रुणम् ६।१।४८) कर्म उपपद में हो, एककर्तृक हो, तो पूर्व काल में होने वाली कृ धातु से रुणम् प्रत्यय विकल्प से होता है, आक्रोश गम्यमान हो। ख् इत् जाने से नुम् और ण् इत् जाने से वृद्धि हुई है। चौरंकारं आक्रोशति । चौरं कृत्वा (चौरशब्दमुच्चार्य) आक्रोशति । चौरोऽसि इत्याक्रोशति इत्यर्थः । एवं दस्युंकारं आक्रोशति, व्याधंकारं आक्रोशति । __नियम ७३१ – (गात्रपुरुषयोः स्नः ६।११५५) गात्र और पुरुष शब्द पूर्वपद में हो, एककर्तृक हो तो स्नाति धातु से णम् प्रत्यय विकल्प से होता है वर्षा का मान गम्य हो । गात्रस्नायं वृष्टो मेघः । पुरुषस्नायं वृष्टो मेघः । यावत् गात्रं पुरुषश्च स्नाप्यते तावद् वृष्टः इत्यर्थः। नियम ७३२-(चेलार्थे क्नोपे: ६।११५४) चेल (वस्त्र) अर्थ वाले शब्द कर्मरूप में उपपद में हो, एककर्तृक हो, क्नोपयते धातु से वर्षा का मान जाना जाए तो णम् प्रत्यय विकल्प से होता है । चेलक्नोपं वृष्टो मेघः । वस्त्रक्नोपं वृष्टो मेघः । क्नूयते (आर्दीभवति) इत्यर्थः । प्रयोगवाक्य मिष्टान्नं आदं आदं स रुग्णोऽभवत् । क्षेत्रं यायं यायं बालकः अखिद्यत । पुस्तकानि अध्यायं अध्यायं सीमा विदुषी अभवत् । मूषकात भायं भायं सा दुर्बला अभवत् । विनीताय शिष्याय ज्ञानं दायं दायं गुरुः कृतकृत्योऽभूत् । कमलायै जम्बूः अमृतफलं च रोचते । रवीन्द्रः आलुकं अत्ति । बालकः कर्कन्धुं कदलीफलं च न भुनक्ति । पूर्वं गायं व्रजति, पूर्वं गात्वा व्रजति । पूर्व पायं व्रजति, पूर्वं पीत्वा व्रजति । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ वाक्यरचना बोध संस्कृत में अनुवाद करो ... भारत के अनेक नगरों में अंगूर के बगीचे हैं। रांची शहर के समीप जामुन के बहुत वृक्ष हैं। वैद्य ने रोगी को केला खाने के लिए कहा है । क्या तुमने कभी बिजौरा नींबू खाया है ? गूलर के वृक्ष हर स्थान पर नहीं मिलते हैं ? राजस्थान में बेर बहुत होते हैं । कायफल कैसा होता है ? बालक आलू बुखारा और नाशपाती खाता है ।नारियल के वृक्ष लंबे होते हैं। इस बगीचे में लीची और शहतूत के वृक्ष नहीं हैं । गुणवती मकोय खाती है । णम् प्रत्यय के प्रयोग करो वह बीमार बार-बार हो करके पढ़ नहीं सका । दूध बार-बार पी करके सुरेन्द्र मोटा हो गया। गांव बार-बार जा करके सतीश थक गया। मुनियों को बार-बार वंदना करके बालक प्रसन्न होता है। चोरी बार-बार करके चोर निर्लज्ज हो गया। आज कपडे गीले हो इतनी वर्षा हुई है । आज आदमी स्नान कर सके इतनी वर्षा नहीं हुई। __अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ जामुन, केला, नाशपाती, आलूबुखारा, नारियल, लीची। २. निम्नलिखित णम् प्रत्ययों के रूपों का वाक्यों में प्रयोग करोकारं कारं, आदं आदं, यायं यायं, दायं दायं, चेलक्नोपं, चौरंकारं, गात्रस्नायं । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८२ : पूर्वकालिक क्रिया २ ( क्त्वा, णम्) शब्दसंग्रह आर्द्रालु: ( आडू ) । सीताफलम् ( शरीफा) । पुंनागम् ( फासला ) । आम्रातकम् (आमडा, जंगली आम ) । खर्बुजम् ( खरबूजा ) | कालिन्दम् (तरबूज)। खर्जूरम् (खजूर ) । शृङ्गाटकम् ( सिघाडा ) । शुष्कफलम् (मेवा) । अक्षोटम् (अखरोट ) । अङ्कोलम् ( पिस्ता ) | काजवम् (काजू) । शुष्कद्राक्षा ( किशमिश ) । मधुरिका ( मुनक्का ) । मखान्नम् ( मखाना ) | प्रियालम् ( चिरौंजी ) । पौष्टिकम् (पोस्ता ) । अञ्जीरम् (अंजीर ) । क्षुमानी ( खुमानी) । णम् प्रत्यय के रूप 1 रोदं रोदं (रुद्) बार-बार रो करके । जागरं जागरं (जागृ) बारबार जाग करके । वेदं वेदं (विद्) बार-बार जान करके । घातं घातं ( हन्) बार-बार हिंसा करके । भावं भावं (अस्) बार-बार हो करके । शायं शायं (शी ) बार-बार सो करके । आसं आसं (आस्) बार-बार बैठ करके । स्तावं स्तावं (ष्टु) बार-बार स्तुति करके । वाचं वाचं (ब्रू) बार-बार बोल करके । दोहं दोहं (दुह ) बार-बार दुह करके । णम् उपपद ( पूर्वपद) में कर्तृवाची, कर्मवाची या साधनवाची शब्द हों तो धातु से णम् प्रत्यय होता है, साथ में उसी धातु का प्रयोग होना चाहिए । भर्थ की दृष्टि से णम् प्रत्ययान्त शब्द का इस प्रसंग में कोई अर्थ नहीं होता है । वाक्य की सुंदरता बढती है । जैसे - शुष्कपेषं पिनष्टि (शुष्कं पिनष्टि इत्यर्थः) । चूर्णपेषं पिनष्टि । रूक्षपेषं पिनष्टि । नियम ७३३ - ( समूले हनश्च ६।१।५७ ) समूल शब्द कर्मरूप में उपपद में हो तो हन् और कष् धातु से णम् प्रत्यय होता है । समूलघातं हन्ति ( समूलं हन्ति इत्यर्थः) । समूलकाषं कषति । नियम ७३४ - ( जीवाकृतयोर्ग्रहिकृन्भ्याम् ६।१।५६ ) जीव शब्द कर्मरूप में हो तो ग्रह धातु से और अकृत शब्द कर्म रूप में हो तो कृ धातु से प्रत्यय होता है । जीवग्राहं गृह्णाति । अकृतकारं करोति । नियम ७३५- - ( साधनेपु हनः ६/१६० ) साधन कारक उपपद में हो तो हन् धातु से णम् प्रत्यय होता है । पादघातं शिलां हन्ति ( पाणिना पादेन Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ वाक्यरचना बोध वा हन्ति इत्यर्थः)। नियम ७३६-(हस्तार्थे ग्रहवर्तिवृत: ३।११६१) हस्त अर्थ वाले शब्द साधन रूप में उपपद में हों तो ग्रह और वृत् धातु से णम् प्रत्यय होता है। हस्तग्राहं गृह्णाति । एवं करग्राहं गृह णाति, पाणिग्राहं गृह्णाति-हस्तेन गृह्णाति इत्यर्थः । हस्तवतं वर्तयति, करवतं वर्तयति, पाणिवतं वर्तयतिहस्तेन वर्तयति इत्यर्थः । नियम ७३७ - (कोंर्जीवपुरुषयोर्नशिवहिभ्याम् ६।१।६५) उपपद में कर्तृवाची जीव शब्द हो तो नश् धातु से और पुरुष शब्द कर्तृवाची हो तो वह धातु से णम् प्रत्यय होता है। जीवनाशं नश्यति (जीवन् नश्यति इत्यर्थः) । पुरुषवाहं वहति (पुरुष: प्रेष्यो भूत्वा वहतीत्यर्थः) 14u.fim la34-(ऊर्वे शुषि पूरेः ६।१।६६) ऊर्ध्व शब्द कर्तृरूप में हो तो शुष और पूर् धातु से णम् प्रत्यय हाताहर जाति (ऊर्ध्वः शुष्यतीत्यर्थः) । ऊर्ध्वपूरं पूरयते । (ऊर्ध्वः पूरयते इत्यर्थः) । प्रयोगवाक्य आर्द्रालुः कुतः आगतः ? सीताफलं स्वादु भवति । राजस्थाने पुनागं न भवति । आम्रातकं क्व फलति ? आयुर्वेदे फलपरिणतौ खर्बुजकालिन्दयोः विभेदो विद्यते । शृङ्गाटक समयपरिपाके कठोरं भवति । शुष्कफलं शीतकाले रुचिकरं भवति । अक्षोटं, अंकोलं काजवं, शुष्कद्राक्षा, मधुरिका, पौष्टिकं अंजीरं च राजस्थाने कुत्र फलति ? मखान्नं प्रियालं क्षुमानी च एतेषां शुष्कफलानां गुणदोषौ ज्ञातव्यौ । रोदं रोद सा बालिका विद्यालयं गता। रजन्यां जागरं जागरं स खिन्नोऽभूत् । वाचं वाचं सः पाठं स्मरति । शायं शायं सा न श्रान्ता अभूत् । स चूर्णपेषं पिनष्टि । श्यामः कथं पादघातं सीमां हन्ति ? अध्यापकः यष्टिघातं विद्याथिनं हन्ति । पुत्रः पितुः 'हस्तग्राहं गृह्णाति । स जीवनाशं नश्यति । संस्कृत में अनुवाद करो भारत में अनेक फल उत्पन्न होते हैं। रमेश को आडू अच्छा नहीं जगता । बन्दर शरीफा नहीं खाता। खरबूजा खा करके दूध नहीं पीना चाहिए । तरबूज मा० . . . . . . . .। किशमिश और और मुनक्का में क्या अन्तर है ? पोस्ता पुष्टिकारक होता है । क्या इस दुकान में चिरौंजी, अंजीर और खुमानी हैं ? लोग बादाम, काजू और पिस्ता की मिठाई बनाते हैं। णम् प्रत्यय के प्रयोग करो राम के वन जाने पर दशरथ बार-बार रो करके बेहोश हो गये । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकालिक क्रिया २ (क्त्वा, णम्) २७७ रात्रि में बार-बार जाग करके भी राजा चौर को नहीं पकड सका । तत्त्व को बार-बार जान करके भी नीता दूसरों को बता नहीं सकी । भैसे की बारबार हिंसा करके कालसौकरिक ने दुष्कर्मों का अर्जन किया था । बार-बार सो करके रोगी थक गया। जिनेश्वर देव की बार-बार स्तुति करके उसने पापों को नष्ट कर दिया। हम दोनों के बीच में बार-बार बोल करके उसने काम बिगाड दिया । गायों को बार-बार दुह करके ग्वाला थक गया। अभ्यास १. निम्नलिखित शब्दों के संस्कृत रूप बताओ तरबूज, अखरोट, काजू, मखाना, मुनक्का, पोस्ता, खुमानी, चिरौंजी, फालसा। २. निम्नलिखित णम् प्रत्ययान्त शब्दों का अर्थ बताओ और उन्हें वाक्यों में प्रयुक्त करो रोदं रोदं, शायं शायं, जागरं जागरं, स्तावं स्तावं, वाचं वाचं । ३. ७३४ से ७३६ तक के नियमों के अन्तर्गत आई हुई धातुओं के णम् प्रत्ययान्त शब्दों का अपने वाक्यों में प्रयोग करो। Page #295 --------------------------------------------------------------------------  Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. शब्दरूपावली २. धातुरूपावली ३. जिन्नन्त, सन्नन्त, यङन्त, यङ्लुगन्त और भावकर्म रूपावली ४. प्रत्ययरूपावली ५. उपसर्गपूर्वक धातु के अर्थपरिवर्तन ६. एकार्थ धातुएं Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दरूपावली की अनुक्र ाणिका १. जिन २. सर्व (पुल्लिग) ३. मुनि ४. साधु ५. पितृ ६. कर्त (पु) ५१. पथिन् ५२. आत्मन् ५३. युवन् ५८. महत ५. हसत ७ ८. चतुर् (पुं) ६. दण्डिन् १०. राजन् ११. मरुत् १२. पंचन् १३. भवत् १४. विद्वस् १५ चंद्रमस् १६. अप्टन् १७. सीता १८. बुद्धि १६. नदी २०. धेनु २१. धीर २२. गिर् २३. वाच् २४. दिश् २५. रत्न २६. दधि २७ वारि २८. मधु २६. कर्मन् ३०. नामन् ३१. जगत् ३२. पयस् ३३. त्यद् (त्रिलिंगी) ३४. तद् (त्रिलिंगी) ३५. यद ३६. अदम् ३७. इदम् ३८. एतत् ३६. एक ४०. द्वि ४१. किं (त्रि०) ४२. युष्मत् ४३. अस्मत् ४४. पुर्व (त्रि.) ४५. सोमपा ४६. दंत ४७. पति ४८. सखि ४६. सुधी ५०. स्वयंभू ७. अनडुह ५८. रत्री ६. श्री 2. लक्ष्मी - १. वधू २. स्वस ३. मातृ २४. सरित् ६५. उपानह १६. कर्तु (नपुं) ६७. सर्व (स्त्री, नपुं) ६८. अन्य ६ त्रि 30. चतुर् ३१. पच्चन ३३. सप्तन् ७४. कति ७५. उभ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : शब्दरूपावलिः श्लोकाः एकवचन जिन: जिनः सर्वो मुनिः साधुः, पिता कर्ता च गौस्तथा । सप्त एते स्वरान्ताः स्युः, पुल्लिंगे परिकीर्तिताः ॥ १ ॥ जिनम् जिनेन चत्वारो दण्डिराजानौ, मरुत् पञ्च भवान् तथा । विद्वान् चन्द्रमा चाष्टो, हसान्ताः परिकीर्तिताः ॥२॥ सीता बुद्धि नंदी धेनुः, धीः गीर्वाक् दिग् तथैव च । अष्टैते प्रमुखाः शब्दाः, स्त्रीलिङ्ग विदुषा मताः || ३|| रत्नं दधि तथा वारि, मधु कर्म च नाम च । जगत् पय इमे शब्दाः, नपुंसके उदाहृताः ॥ ४ ॥ त्यद् तद् यद् अदस् प्रोक्तं इद एतत् तथैव च । एक द्विकं युष्मदस्मत्, त्रिलिङ्गाः स्युस्त्यदादयः || ५ || (१) अकारान्त जिन शब्द द्विवचन बहुवचन जिनौ जिना: प्र० जिनौ जिनान् द्वि० जिनाभ्याम् जिनैः जिनाय जिनाभ्याम् जिनेभ्यः च० तृ० जिनात्,जिनाद् जिनाभ्याम् जिनेभ्यः पं० जिनस्य जिनयोः जिनानाम् जिने जिनयोः जिनेषु हे जिन हे जिन हे जिना: पुल्लिंगशब्दाः (२) अकारान्त सर्व शब्द एकवचन द्विवचन सर्व: सवौं ष० स० सं० सर्वम् सर्वेण बहुवचन सर्वे सर्वां सर्वान् सर्वाभ्याम् सर्वैः सर्वस्मै सर्वाभ्याम् सर्वेभ्यः सर्वस्मात् सर्वाभ्याम् सर्वेभ्यः सर्वस्य सर्वयोः सर्वेषाम् सर्वेषु सर्वस्मिन् सर्वयोः हे सर्व सर्वे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ वाक्यरचना बोध DT (३) इकारान्त मुनि शब्द (४) उकारांत साधु शब्द मुनिः मुनी मुनयः प्र० साधुः . साधू साधवः मुनिम्। मुनी मुनीन् द्वि० साधुम् साधू साधून मुनिना मुनिभ्याम् मुनिभिः वृ० साधुना साधुभ्याम् साधुभिः मुनये मुनिभ्याम् मुनिभ्यः च० . साधवे साधुभ्याम् साधुभ्यः मुनेः मुनिभ्याम् मुनिभ्यः पं० साधोः साधुभ्याम् साधुभ्यः मुनेः मुन्योः मुनीनाम् ष० साधोः. साध्वोः साधूनाम् मुनौ . मुन्योः मुनिषु स० साधौ साध्वोः साधुषु हे मुने हे मुनी हे मुनयः सं० हे साधो हे साधू हे साधवः भूपति शब्द के रूप मुनि की तरह चलेंगे। (५) ऋकारान्त पितृ शब्द । (६) ऋकारान्त कर्तृ शब्द पिता पितरौ . पितरः प्र. कर्ता कर्तारौ कर्तारः पितरम् पितरौ पितृन् द्वि० कर्तारम् कर्तारौ कर्तृन् पित्रा पितृभ्याम् पितृभिः तृ० क; . कर्तृभ्याम् कर्तृभिः पित्रे पितृभ्याम् __पितृभ्यः ____च० कर्ने कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः पितुः पितृभ्याम् पितृभ्यः पं० कर्तुः कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः पितु: पित्रोः पितृणाम् प० कर्तुः कोंः कर्तृणाम् पितरि पित्रोः पितृषु स० . कर्तरि कोंः कर्तृषु हे पितः हे पितरौ हे पितरः सं० हे कर्तः हे कर्तारौ हे कर्तारः गावी गावः (८) रकारान्त चतुर् शब्द चत्वारः चतुरः चतुभिः भिः (७) ओकारान्त गो शब्द प्र० गाम् गावी गाः द्वि० गवा गोभ्याम् गोभिः गोभ्याम् गोभ्यः गोभ्याम् पं० गवोः गवाम् प० गवोः गोषु स० हे गौः हे गावी हे गावः सं० तृ० च० गते गोभ्यः चतुर्यः चतुर्यः चतुर्णाम् चतुर्यु | गाव Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ परिशिष्ट १ Ke) इन् अंत दण्डिन् शब्द (१०) नकारान्त राजन् शब्द दण्डी दण्डिनौ दण्डिनः प्र० राजा राजानी राजानः दण्डिनम् दण्डिनौ दण्डिनः द्वि० राजानम् राजानी राज्ञः दण्डिना दण्डिभ्याम् दण्डिभिः तृ० राज्ञा राजभ्याम् राजभिः दण्डिने दण्डिभ्याम् दण्डिभ्यः च० राज्ञे राजभ्याम् राजभ्यः दण्डिनः दण्डिभ्याम् दण्डिभ्यः पं० राज्ञः राजभ्याम् राजभ्यः दण्डिनः दण्डिनोः दण्डिनाम् ष० राज्ञः राज्ञोः राज्ञाम् दण्डिनि दण्डिनो: . दण्डिषु स० राज्ञि,राजनि राज्ञोः राजसु हे दण्डिन् हे दण्डिनौ हे दण्डिन: सं० हे राजन् हे राजानौ हे राजानः १११) तकारान्त मरुत् शब्द (१२) नकारान्त पञ्चन् शब्द प्र० पञ्च मरुतौ मरुतो द्वि० मरुत् मरुतम् मरुता मरुते मरुतः मरुतः मरुति हे मरुत् मरुतः मरुतः मरुद्भिः मरुद्भ्यः मरुद्भ्यः मरुताम् मरुत्सु हे मरुतः मरुद्भ्याम् मरुद्भ्याम् मरुद्भ्याम् मरुतोः मरुतोः हे मरुतौ च० पं० पञ्च पञ्चभिः पञ्चभ्यः पञ्चभ्यः पञ्चानाम् पञ्चसु स० सं० १३ तकारान्त भवत् शब्द (१४) सकारान्त विद्वस् शब्द भवान् भवन्तो ___भवन्तः प्र० विद्वान् विद्वांसौ विद्वांसः "भवन्तम् भवन्तौ भवतः । द्वि० विद्वांसम् विद्वांसौ विदुषः भवता भवद्भ्याम् भवद्भिः तृ० विदुषा विद्वद्भ्याम् विद्वद्भिः भवते . भवद्भ्याम् भवद्भ्यः च० विदुषे विद्वद्भ्याम् विद्वद्भ्यः भवतः भवद्भ्याम् भवद्भ्यः ___पं० विदुषः विद्वद्भ्याम् विद्वद्भ्यः भवतः भवपोः भवताम् ___ष० विदुषः विदुषोः विदुषाम् भवति भवतो. भवत्सु स० विदुषि विदुषोः विद्वत्सु हे भवन् हे भवन्तं हे भवन्तः सं० हे विद्वन् हे विद्वांसौ हे विद्वांसः Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ (१५) सकारान्त चन्द्रमस् शब्द चन्द्रमाः चन्द्रमसौ चन्द्रमसौ चन्द्रमसम् चन्द्रमसा चन्द्रमोभ्याम् चन्द्रमसे चन्द्रमोभ्याम् चन्द्रमसः चन्द्रमोभ्याम् चन्द्रमसः चन्द्रमसोः चन्द्रमसि चन्द्रमसोः हे चन्द्रमः हे चन्द्रमसौ (१६) ईकारान्त नदी शब्द नदी नद्यौ नदीम् नद्यौ नद्या नाँ चन्द्रमसः चन्द्रमसः चन्द्रमोभिः चन्द्रमोभ्यः चन्द्रमोभ्यः नद्याः नद्या: नद्याम् हे नदि हे नद्यौ चन्द्रमसाम् चन्द्रमसुः हे चन्द्रमसः नद्यः नदी: नदीभ्याम् नदीभिः तृ० नदीभ्याम् नदीभ्यः च० नदीभ्याम् नदीभ्यः पं० नद्योः नदीनाम् नद्योः नदीषु हे नद्यः वाक्यरचना बोध (१६) नकारान्त अष्टन् शब्द प्र० अष्ट, अष्टौ द्वि० अष्ट, अष्टौ स्त्रीलिंगशब्दाः (१७) आकारान्त सोता शब्द सीता सीते सीता: प्र० बुद्धिः सीताम् सीते सीता: द्वि० बुद्धिम् सीतया सीताभ्याम् सीताभिः तृ० बुद्ध्या सीतायै सीताभ्याम् सीताभ्यः च० सीतायाः सीताभ्याम् सीताभ्यः पं० सीतायाः सीतयोः सीतानाम् ष० सीतायाम् सीतयोः सीतासु हे सीता: बुद्ध्यं बुद्धये सी तृ० च० पं० Яо द्वि० ष० स० सं० ष ० स० सं० स० सं० हे बुद्धे (१८) इकारान्त बुद्धि शब्द बुद्धी बुद्धी अष्टभिः, अष्टाभिः अष्टभ्यः, अष्टाभ्यः अष्टभ्यः, अष्टाभ्यः अष्टानाम् अष्टसु, अष्टागु बुद्ध्या:, बुद्धेः बुद्ध्याः, बुद्धेः बुद्ध्योः बुद्ध्याम्, बुद्धो बुद्ध्योः हे बुद्धी धेनुः धेनुम् धेन्वा बुद्धयः बुद्धी: बुद्धिभ्याम् बुद्धिभिः (२०) उकारान्त धेनु शब्द धेनू धेनवः धेनू धेनूः धेनुभ्याम् धेनुभिः . धेनुभ्याम् धेनुभ्यः बुद्धिभ्याम् बुद्धिभ्यः बुद्धिभ्याम् बुद्धिभ्यः बुद्धीनाम् बुद्धिषु हे बुद्धयः धेन्व, धेनवे धेन्वाः, धेनोः धेन्वाः, धेनोः धेन्वाम्, धेनौ धेनुभ्याम् धेनुभ्यः धेन्वोः धेनूनाम् धेनुषु हे धेनवः धेन्वोः Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८५ (२१) ईकारान्त धो शब्द (२२) रकारान्त गिर शब्द धीः धियौ धियः प्र० गी: गिरौ गिरः धियम् धियो धियः द्वि० गिरम् गिरौ गिरः धिया धीभ्याम् धीभिः तृ० गिरा गीाम् गीभिः धिय, धिये धीभ्याम् धीभ्यः ___ च० गिरे गीाम् गीर्यः धिया:, धियः धीभ्याम् धीभ्यः पं० गिरः गीाम् गीर्यः धियाः, धियः धियोः धीनाम्, धियाम् ष० गिरः गिरोः धियाम्, धियि धियोः धीषु स० गिरि गिरोः गीर्षु हे धी: हे धियो हे धियः सं० हे गी: हे गिरौ हे गिरः गिराम् वाचे (२३) चकारान्त वाच शब्द (२४) शकारान्त दिश् शब्द वाक्,वाग वाचौ वाचः प्र० दिक् दिशौ दिशः वाचम् वाचौ वाचः द्वि० दिशम् दिशौ दिशः वाचा वाग्भ्याम् वाग्भिः तृ० दिशा दिग्भ्याम् दिग्भिः वाग्भ्याम् वाग्भ्यः च० दिशे दिग्भ्याम् दिग्भ्यः वाचः वाग्भ्याम् वाग्भ्यः पं० दिशः दिग्भ्याम् दिग्भ्यः वाचः वाचोः वाचाम् ष० दिशः दिशोः दिशाम् वाचि वाचोः वाक्षु स० दिशि दिशोः दिक्षु हेवाक् ,हेवाग् हे वाचौ हे वाचः सं० हे दिक् हे दिशौ हे दिशः नपुंसकलिङ्गशब्दाः (२५) अकारान्त रत्न शब्द (२६) इकारान्त दषि शब्द रत्नम् रत्ने रत्नानि प्र० दधि दधिनी दधीनि रत्नम् रत्ने रत्नानि द्वि० दधि दधिनी दधीनि रत्नेन रत्नाभ्याम् रत्नैः तृ० दना दधिभ्याम् दधिभिः रत्नाय रत्नाभ्याम् रत्नेभ्यः ० दध्ने दधिभ्याम् दधिभ्यः रत्नात् रत्नाभ्याम् रत्नेभ्यः दधिभ्याम् दधिभ्यः रत्नस्य रत्नयोः रत्नानाम् ष० दनोः दध्नाम् रत्ने रत्नयोः रत्नेषु स० दध्नि, दधनि दनोः दधिषु हे रत्न हे रत्ने हे रत्नानि सं० हे दधे, हेदधि हे दधिनी हे दधीनि दध्नः Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ वाक्यरचना बोध (२७) इकारान्त वारि शब्द (२८) उकारान्त मधु शब्द वारि वारिणी वारीणि प्र० मधु मधुनी मधुनि वारि वारिणी वारीणि द्वि० मधु मधुनी मधूनि . वारिणा वारिभ्याम् वारिभिः तृ० मधुना मधुभ्याम् मधुभिः वारिणे वारिभ्याम् वारिभ्यः च० मधुने मधुभ्याम् मधुभ्यः वारिणः वारिभ्याम् वारिभ्यः पं० मधुनः मधुभ्याम् मधुभ्यः वारिणः वारिणोः वारीणाम् प० मधुनः मधुनोः मधूनाम् वारिणि वारिणोः वारिषु स० मधुनि मधुनोः मधुषु हेवारे,हेवारि हे वारिणी हे वारीणि सं० हेमधो,हेमधु हे मधुनी हे मधूनि (२६) नकारान्त कर्मन् शब्द ३०) नकारतम्स नाग नामना कर्म कर्मणी कर्माणि प्र० नाम नाम्नी, नामनी नामानि कर्म कर्मणी कर्माणि द्वि० नाम नाम्नी, नामनी नामानि कर्मणा कर्मभ्याम् कर्मभिः तृ० नाम्ना नामभ्याम् नामभिः कर्मणे कर्मभ्याम् कर्मभ्यः च० नाम्ने नामभ्याम् नामभ्यः कर्मणः कर्मभ्याम् कर्मभ्यः पं० नाम्नः नामभ्याम् नामभ्यः कर्मणः कर्मणोः कर्मणाम् प० नाम्नः नाम्नोः नामनाम् कर्मणि कर्मणोः कर्मसु स० नाम्नि नाम्नोः नामसु हेकर्मन्,हेकर्म हे कर्मणी हे कर्माणि सं० हेनामन ,हेनाम हेनाम्नी, हेनामनी हेनामानि अहन् शब्द के रूप नामन्वत् (३१) तकारान्त जगत् शब्द 4(३२) सकारान्त पयस् शब्द जगत् जगती जगन्ति प्र० पयः पयसी पयांसि जगत् जगती जगन्ति द्वि० पयः पयसी पयांसि --- मारिया न० पयसा पयोभ्याम् पयोभिः जगते जगद्भ्याम् जगद्भ्यः च० पयस पयाभ्याम् .... जगतः जगद्भ्याम् जगद्भ्यः प० पयसः पयोभ्याम् पयोभ्यः जगतः जगतोः जगताम् ष० पयसः पयसोः पयसाम् जगति जगतोः जगत्सु स० पयसि पयसोः पयःसु,पयस्सु हे जगत् हे जगती हे जगन्ति सं० हे पयः हे पयसी हे पयांसि ० ० ० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८७ त्रिलिङ्गा शब्दा... (३३) त्यद् शब्द () (३३) त्यद् शब्द (स्त्रीलिंग) स्यः त्यो त्ये प्र० स्या त्ये त्याः त्यम् त्यौ त्यान् द्वि० त्याम् त्ये त्याः त्येन त्याभ्याम् त्यः तृ० त्यया त्याभ्याम् त्याभिः त्यस्मै त्याभ्याम् त्येभ्यः च० त्यस्य त्याभ्याम् त्याभ्यः त्यस्मात् त्याभ्याम् त्येभ्यः पं० त्यस्याः त्याभ्याम् त्याभ्यः त्यस्य त्ययोः त्येषाम् प० त्यस्याः त्ययोः त्यासाम् त्यस्मिन् त्ययोः त्येषु स० त्यस्याम् त्ययोः त्यासु (३३) त्यद् शब्द (नपुं) (३४) तद् शब्द (पुल्लिग) त्यद् त्ये त्यानि प्र० सः तौ ते । त्यद् त्ये त्यानि द्वि० तम् तौ तान् शेष रूप पुल्लिगवत् तृ० तेन ताभ्याम् तैः च० तस्मै ताभ्याम् तेभ्यः पं० तस्मात् ताभ्याम् तेभ्यः ष० तस्य तयोः तेषाम् तस्मिन् तयोः तेषु TEEEEEEEEEEEEEEEEE: स० लग (३४) तद् शब्द स्त्रीलिंग (३५) यद् शब्द (पुल्लिग) सा ते ताः प्र० यः यौ ये ताम् ते ताः द्वि० यम् यौ यान तया ताभ्याम् ताभिः तृ० येन याभ्याम् यः तस्यै ताभ्याम् ताभ्यः च० यस्मै याभ्याम् येभ्यः तस्याः ताभ्याम् ताभ्यः पं० यस्मात् याभ्याम् येभ्यः तस्याः तयोः तासाम् ष० यस्य ययोः येषाम् तस्याम् तयोः तासु स० यस्मिन् ययोः येष Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० २८८ (३४) तद् शब्द (नपुंसक) तत् ते तानि तत् ते तानि शेष रूप पुल्लिगवत् (३५) यद् शब्द (नपुं) यत् ये यानि यत् ये यानि शेष रूप पुल्लिगवत् वाक्यरचना बोध .: (३५) यद शब्द स्त्रीलिंग प्र० या ये याः याम् ये याः । यया याभ्याम् याभिः याभ्याम् याभ्यः यस्याः याभ्याम् याभ्यः यस्याः ययोः यासाम् स० यस्याम् ययोः यासु यस्य (३६) अदस् शब्द (j) (३७) इदम् शब्द (पुं) असौ अमू अमी प्र० अयं इमो इमे अमुम् अमू अमून् द्वि० इमम्, एनम् इमो, एनौ इमान्, एनान् अमुना अमूभ्याम् अमीभिः तृ० अनेन, एनेन आभ्याम् एभिः अमुष्मै अमूभ्याम् अमीभ्यः च० अस्मै आभ्याम् एभ्यः अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः पं० अस्मात् आभ्याम् एभ्य: अमुष्य अमुयोः अमीषाम् प० अस्य अनयोः, एनयोः एषाम् अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु स० अस्मिन् अनयोः, एनयोः एषु प्र० द्वि० (३६) अदस् शब्द (स्त्रीलिंग) असो अमू अमूः अमूम् अमू अमूः अमुया अमूभ्याम् अमूभिः अमुष्य अमूभ्याम् अमूभ्यः अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः अमुष्याः अमुयोः अमूषाम् अमुष्याम् अमुयोः अमूषु तृ० (३७) इदम् शब्द (स्त्रीलिंग) इयं इमे इमाः इमाम् इमे इमाः अनया आभ्याम् आभिः आभ्याम् आभ्यः अस्याः आभ्याम् आभ्यः अस्याः अनयोः आसाम् अस्याम् अनयोः आसु च० अस्य पं० प० । स० (३६) अदस् शब्द (नपुंसक) अदः अमू अमू अनि अमूनि अदः अमू अमूनि शेष रूप पुल्लिगवत् प्र० द्वि० (३७) इदम् शब्द (नपुंसक) इदं इमे इमानि इदं इमे इमानि ___ शेष रूप पुल्लिगवत् Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . .. २८९ एषा the परिशिष्ट १ (३८) एतत् शब्द (पुं) (३६) एक शब्द पुल्लिग (स्त्रीलिंग) (नपुंसक) एषः एतौ एते प्र० एक: एका एकम् एतम्, एनम् एतौ, एनौ एतान् ,एनान् द्वि० एकम् एकाम् एकम् एतेन, एनेन एताभ्याम् एतैः तृ० एकेन एकया एकेन एतस्मै एताभ्याम् एतेभ्यः च० एकस्मै एकस्य एकस्मै एतस्मात् एताभ्याम् एतेभ्यः पं० एकस्मात् एकस्याः एकस्मात् एतस्य एतयोः, एनयोः एतेषाम् - ष० एकस्य एकस्याः एकस्य एतस्मिन् एतयोः, एनयोः एतेषु स० एकस्मिन एकस्याम् एकस्मिन् (३८) एतत् शब्द (स्त्रीलिंग) (४०) द्विशब्द पु० (स्त्री नपुं०) एते एताः प्र० द्वौ द्वे एताम् एता: दि० दौ एतया एताभ्याम् एताभिः द्वाभ्याम् द्वाभ्याम एतस्य एताभ्याम् एताभ्यः च० द्वाभ्याम् द्वाभ्याम् एतस्याः एताभ्याम एताभ्यः पं० द्वाभ्याम् द्वाभ्याम् एतस्याः एतयोः एतासाम् द्वयोः द्वयोः एतस्याम् एतयोः एतासु स० द्वयोः । द्वयोः (३८) एतत् शब्द (नपुंसक) एतत् एते एतानि एतत् एते एतानि शेषरूप पुल्लिगवत् (४१) किं शब्द (पं०) 7 (४१) किं शब्द (स्त्रीलिंग) कः को के प्र० का के काः कम् को कान् द्वि० काम के काः केन काभ्याम् कः तृ० कया काभ्याम् काभिः कस्मै काभ्याम् केभ्यः च० कस्यै काभ्याम् काभ्यः कस्मात् काभ्याम् केभ्यः कस्याः काभ्याम् काभ्यः कस्य कयोः केषाम् कस्याः कयोः कस्मिन् कयोः केषु स० कस्याम् कयोः कासु कासाम् Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० (४१) कि शब्द (नपुं) किम् किम् के शेषरूप पुल्लिंगवत् (४२) युष्मत् शब्द युवाम् त्वं त्वाम् त्वा युवाम्, वाम् त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः तृ० तुभ्यम्, ते युवाभ्याम्, वाम् युष्मभ्यम्, वः च० युष्मद् पं० मद् मम मे युष्मासु स० मयि त्वद् तव, त्वयि पूर्वः पूर्वम् पूर्वेण पूर्वस्मै कानि कानि पूर्वाम् पूर्वया पूर्वस्यै युवाभ्याम् युवयोः, वाम् युष्माकम्, वः ष० युवयोः पूर्वी पूर्वी यूयम् प्र० युष्मान् वः द्वि० (४४) पूर्व शब्द (स्त्रीलिंग) पूर्वा पूर्वे पूर्वे अतिरिक्त शब्दरूपावली पुल्लिंगाः शब्दाः (४४) अकारान्त पूर्व शब्द (४५) आकारान्त सोमपा शब्द पूर्वे, पूर्वाः प्र० सोमपाः सोमपौ सोमपाः पूर्वान् द्वि० सोमपाम् सोमप सोमपः पूर्वाभ्याम् पूर्वैः तृ० सोमपा सोमपाभ्याम् सोमपाभिः पूर्वाभ्याम् पूर्वेभ्यः च० सोमपे सोमपाभ्याम् सोमपाभ्यः पूर्वस्मात्, पूर्वात् पूर्वाभ्याम् पूर्वेभ्यः पं० सोमपः पूर्वस्य पूर्वयोः पूर्वेषाम् ष० सोमपः पूर्वस्मिन् पूर्वे पूर्वयोः पूर्वेषु स० सोमपाभ्याम् सोमपाभ्यः सोमपोः सोमपाम् सोमपि सोमपोः सोमपा सं० हे सोमपाः हे सोमपौ हे सोमपाः पूर्वा: पूर्वा: पूर्वाभ्याम् पूर्वाभिः पूर्वाभ्याम् पूर्वाभ्य: पूर्वाभ्याम् {पूर्वाभ्यः पूर्वस्या: पूर्वस्या: पूर्वयोः पूर्वासाम् पूर्वस्याम् पूर्वयोः पूर्वासु Яо द्वि० (४३) अस्मत् शब्द अहं आवाम् माम्, मा आवाम्, नौ वाक्यरचना वो मया आवाभ्याम् अस्माभिः मह्यम्, मे आवाभ्याम्, नौ अस्मभ्यम्, नः तृ० च० द पं० वयम् अस्मान् नः आवाभ्याम् अस्मद् आवयोः, नौ अस्माकम्, नः आवयोः अस्मासु . (४६) अकारान्त दंत शब्द दन्तः दन्तौ दन्ताः दन्तम् दन्तौ दतः दता दद्भिः दद्भ्यः दद्भ्यः दताम् दद्भ्याम् दद्भ्याम् दद्भ्याम् दतो: दतो: दतः ष० दतः स० दति सं० हे दन्त हे दन्तौ दन्ताः एक पक्ष में दंत शब्द के रूप जिन शब्द की तरह भी चलते हैं । दत्सु Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २६१ पत्योः पत्यौ (४४) पूर्व शब्द (नपुं) पूर्वम् पूर्वे पूर्वाणि पूर्वम् पूर्वे पूर्वाणि ___शेष रूप पुल्लिगवत् (४७) इकारान्त पति शब्द (४८) इकारान्त सखि शब्द पतिः पती पतयः प्र० सखा सखायौ सखायः पतिम् पती पतीन् द्वि० सखायम् सखायौ सखीन् पत्या पतिभ्याम् पतिभिः तृ० सख्या सखिभ्याम् सखिभिः पत्ये पतिभ्याम् पतिभ्यः च० सख्ये सखिभ्याम् सखिभ्यः पत्युः पतिभ्याम् पतिभ्यः पं० सख्युः सखिभ्याम् सखिभ्यः पत्युः पतीनाम् प० सख्युः सख्योः सखीनाम् पत्योः पतिषु स० सख्यौ सख्योः सखिषु हे पते हे पती हे पतयः सं० हे सखे हे सखायौ हे सखायः . (४६) ईकारान्त सुधी शब्द (५०) ऊकारान्त स्वयंभू शब्द सुधी: सुधियौ सुधियः प्र० स्वयंभूः स्वयंभुवौ स्वयंभुवः सुधियम् सुधियो सुधियः द्वि० स्वयंभुवम् स्वयंभुवौ स्वयंभुवः सुधिया सुधीभ्याम् सुधीभिः तृ० स्वयंभुवा स्वयंभूभ्याम् स्वयंभूभिः सुधिये सुधीभ्याम् सुधीभ्यः च० स्वयंभुवे स्वयंभूभ्याम् स्वयंभूभ्यः सुधियः सुधीभ्याम् सुधीभ्यः पं० स्वयंभुवः स्वयंभूभ्याम् स्वयंभूभ्यः सुधियः सुधियोः सुधियाम् ष० स्वयंभुवः स्वयंभुवोः स्वयंभुवाम् सुधियि सुधियोः सुधीषु स० स्वयंभुवि स्वयंभुवोः स्वयंभूषु हे सुधी: हे सुधियौ हे सुधियः सं० हे स्वयंभूः हे स्वयंभुवौ हे स्वयंभुवः (५१) इन्नन्त पथिन् शब्द (५२) नकारान्त आत्मन् शब्द पन्थाः पन्थानौ पन्थानः प्र० आत्मा आत्मानौ आत्मानः पन्थानम् पन्थानौ पथः द्वि० आत्मानम् आत्मानौ आत्मनः पथिभ्याम् पथिभिः तृ० आत्मना आत्मभ्याम् आत्मभिः पथे पथिभ्याम् पथिभ्यः च० आत्मने आत्मभ्याम् आत्मभ्यः पथः पथिभ्याम् पथिभ्यः पं० आत्मनः आत्मभ्याम् आत्मभ्यः पथोः पथाम् प० आत्मनः आत्मनोः आत्मनाम् पथोः पथिषु स० आत्मनि आत्मनोः आत्मसु हे पन्थाः हे पन्थानौ हे पन्थानः सं० हे आत्मन् हे आत्मानौ हे आत्मानः EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ! पथा पथः पथि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ - (५३) नकारान्त युवन् शब्द युवानौ युवानः यून: युवभि. युवभ्यः युवभ्यः पं० महतः यूनाम् ष० महतः युवसु स० महति हे युवानः सं० हे महन् युवा युवानम् युवानौ यूना यूने न्यूनः यूनः यूनि हे युवन् युवभ्याम् युवभ्याम् युवभ्याम् यूनोः यूनो: हे युवानी हसद्भ्याम् हसद्भ्याम् हसद्भ्याम् हसतोः हसतो: हसन् हे हसन्तौ हस हसतः हसतः हसति हसतः हसद्भिः अनडुहो: अनडुहोः _ (५५) तकरान्त शतृप्रत्ययान्त हसत् शब्द (५६) सकारान्त पुंस् शब्द हसन् हसन्तौ पुमांसौ पुमांसः हसन्तम् हसन्तौ पुमांसौ हसता पुंभ्याम् हस द्भ्यः हसद्भ्यः हसताम् हसत्सु हसन्तः प्र० पुमान् द्वि० पुमांसम् तृ० पुंसा च० पुंसे पं० पुंसः ष० पुंसः, स० पुंसि सं० हे पुमन् हसन्तः (५४) तकारान्त महत् शब्द प्र० महान् महान्तः द्वि० महान्तम् महान्तौ महान्तौ महतः महद्भ्याम् महद्भिः महद्भ्याम् महद्भ्यः महद्भ्यः महताम् 1 (५७) हकारान्त अनडुह, शब्द अनड्वान् अनड्वाहौ अनड्वाहम् अनड्वाहौ अनडुहा अडु अनडुहः अनडुहः अडुहि तृ० महता ० अनड्वाहः प्र० अनडुहः द्वि० अनडुद्भिः तृ० • अनडुद्भ्याम् अनडुद्भ्याम् अनडुद्भ्यः च० अनडुद्भ्याम् अनडुद्भ्यः पं० वाक्यरचना बोध अनडुत्सु स० स्त्रियाम् हे स्त्रि महद्भ्याम् महतोः महतोः हे अनड्वन् हे अनड्वाही हे अनड्वाहः सं० महान् महत्सु हे महान्तः पुंभ्याम् पुंभ्याम् पुंसोः पुंसो: स्त्रीलिंगशब्दाः (५८) ईकारान्त स्त्री शब्द स्त्री स्त्रियम्, स्त्रीम् स्त्रियौ स्त्रिया स्त्रियै स्त्रिया: अनडुहाम् ष० स्त्रिया: पुंसः पुंभिः पुंभ्यः पुंभ्यः पुंसाम् पुंसु हे पुमांस हे पुंमांस: स्त्रियौ स्त्रियः स्त्री:, स्त्रियः स्त्रीभ्याम् स्त्रीभिः स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्यः स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्यः स्त्रियोः स्त्रीणाम् स्त्रियोः स्त्रीषु स्त्रियौ हे स्त्रियः Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (५६) ईकारान्त श्री शब्द श्रीः श्रियः श्रियम् श्रियः श्रिया श्रियौ श्रियौ श्रिये, श्रियै श्रीभ्याम् श्रियाः श्रियः श्रीभ्याम् श्रियाः, श्रियः श्रियोः श्रियाम्, श्रियि श्रियोः हे श्रीः श्रीभ्याम् श्रीभिः वधूः धूम् वध्वा ध्व ( ६१ ) ऊकारान्त वधू शब्द वध्वौ वध्वौ श्रीषु हे श्रिय हे श्रियः त्रध्वाम् वध्वोः हे वधु हे वध्व श्रीभ्यः श्रीभ्यः पं० लक्ष्म्याः श्रीणाम्, श्रियाम् ष० लक्ष्म्याः लक्ष्म्यां वध्वः वधूः वधूभ्याम् वधूभिः तृ० वधूभ्याम् वधूभ्यः च० स्वस्र त्रध्वाः वधूभ्याम् वधूभ्यः पं० स्वसुः वध्वाः वध्वोः मातुः मातुः मातरि मात्रोः हे मातः हे मातरौ वधूषु हे वध्वः (६३) ऋकारान्त मातृ शब्द माता मातरौ मातरः मातरम् मातरौ तृ० (६०) ईकारान्त लक्ष्मी शब्द प्र० लक्ष्मी: लक्ष्म्यौ लक्ष्म्यः द्वि० लक्ष्मीम् लक्ष्म्यौ लक्ष्मीः लक्ष्म्या च० लक्ष्म्यै स० सं० हे लक्ष्मि मातृषु हे मातरः वधूनाम् ष० स्वसुः स० [स्वसरि सं० (६२) ऋकारान्त स्वसृ शब्द स्वसारः स्वसृः स्वसृभिः प्र० स्वसा स्वसारौ द्वि० स्वसारम् स्वसारौ - लक्ष्मीभ्याम् लक्ष्मीभिः लक्ष्मीभ्याम् लक्ष्मीभ्यः लक्ष्मीभ्याम् लक्ष्मीभ्यः लक्ष्म्योः लक्ष्मीणाम् लक्ष्म्योः लक्ष्मीषु हे लक्ष्म्यौ हे लक्ष्म्यः स्वस्रा स्वसृभ्याम् हे स्वसः २६३ स्वसृभ्याम् स्वसृभ्याम् स्वस्रो: स्वस्रोः हे स्वसा (६४) तकारान्त सरित् शब्द सरित् प्र० मातृः द्वि० सरितम् मातृभ्याम् मातृभिः तृ० सरिता मात्रे मातृभ्याम् मातृभ्यः च० सरिते मात्रा मातृभ्याम् मातृभ्यः पं० सरितः मात्रोः मातृणाम् ष० सरितः स० [सरिति सं० हे सरित् सरितौ सरितौ स्वसृभ्यः स्वसृभ्यः स्वसाम् स्वसृषु हे स्वसारः सरितः सरितः सरिद्भ्याम् सरिद्भिः सरिद्भ्याम् सरिद्भ्यः सरिद्भ्याम् सरिद्भ्यः सरितो: सरिताम् सरितो: सरित्सु हे सरितौ हे सरितः Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वाक्यरचना बोध (६५) हकारान्त उपानह, शब्द (६६) ऋकारान्त कर्तृ शब्द (नपुंसक) उपानत् उपानही उपानहः प्र कर्तृ कर्तृणी कणि उपानहम् उपानही उपानहः द्वि० कर्तृ कर्तृणी कत णि उपानहा उपानद्भ्याम् उपानद्भिः तृ० कर्तृणा कर्तृभ्याम् कर्तृभिः उपानहे उपानद्भ्याम् उपानद्भ्यः च० कर्तृणे कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः उपानहः उपानद्भ्याम् उपानद्भ्यः पं० कर्तृणः कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः उपानहः उपानहोः उपानहाम् प० कर्तृणः कर्तृणोः कर्तृणाम् उपानहि उपानहोः उपानत्सु स० कर्तृणि कर्तृणोः कर्तृषु हे उपानत् हे उपानही हे उपानहः सं० हे कर्तृ, हे कर्तः हे कर्तृणी हे कर्तृणि . (६७) सर्व शब्द (स्त्रीलिंग) सर्वा सर्वे सर्वाः सर्वाम् सर्वे सर्वाः सर्वया सर्वाभ्याम् सर्वाभिः सर्वाभ्यास सर्वस्यै सर्वाभ्याम् सर्वाभ्यः सर्वस्याः सर्वाभ्याम् सर्वाभ्यः सर्वस्याः सर्वयोः सर्वासाम् सर्वस्याम् सर्वयोः सर्वासु (६८) अकारान्त अन्य शब्द (पं) प्र० अन्यः अन्यौ अन्ये द्वि० अन्यम् अन्यौ अन्यान् तृ० अन्येन अन्याभ्याम् अन्यैः च० अन्यस्मै अन्याभ्याम् अन्येभ्यः पं० अन्यस्मात् अन्याभ्याम् । अन्येभ्यः ष० अन्यस्य अनयो: अन्येषाम् स० अन्यस्मिन् अनयोः अन्येषु (६७) सर्व शब्द (नपुंसक) । सर्वम् सर्वे सर्वाणि सर्वम् सर्वे सर्वाणि शेष रूप पुल्लिगवत् प्र० द्वि० (६८) अन्य शब्द (नपुंसक) अन्यत् अन्ये अन्यानि अन्यत् अन्ये अन्यानि शेष रूप पुल्लिगवत् अन्ये अन्ये (६८) अन्य शब्द (स्त्रीलिंग) (६६) त्रि शब्द पुं० स्त्री अन्या अन्याः प्र० त्रयः तिस्रः अन्याम् अन्याः द्वि० त्रीन् तिस्रः अन्यया अन्याभ्याम् अन्याभिः तृ० त्रिभिः तिसृभिः अन्यस्य अन्याभ्याम् अन्याभ्यः च० । त्रिभ्यः तिसृभ्यः अन्यस्या: अन्याभ्याम् अन्याभ्यः पं० । त्रिभ्यः तिसृभ्यः अनस्याः अन्ययोः अन्यासाम् ष० त्रयाणाम् तिसृणाम् अन्यस्याम् अन्ययोः अन्यासु स० त्रिषु तिसृषु नपुं० त्रीणि त्रीणि त्रिभिः त्रिभ्यः त्रिभ्यः त्रयाणाम् विषु Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २६५ (७०) चतुर् शब्द स्त्री प्र० चत्वारः चतस्रः द्वि० चतुरः चतस्रः तृ० चतुभिः चतसृभिः च० चतुर्यः चतसृभ्यः पं० चतुर्थ्यः चतसृभ्यः ष० चतुर्णाम् चतसृणाम् स० चतुर्यु चतसृषु ७१) पञ्चन शब्द पञ्च पञ्च पञ्चभिः पञ्चभ्यः पञ्चभ्यः पञ्चानाम् पञ्चसु (७३) सप्तन् शब्द सप्त सप्त सप्तभिः सप्तभ्यः सप्तभ्यः सप्तानाम् सप्तसु (७५) उभ शब्द नपुंसक चत्वारि चत्वारि चतुभिः चतुर्व्यः चतुर्थ्यः चतुर्णाम् चतुर्यु (७२) षष् शब्द षट्,षड् षट्, षड् षभिः षड्भ्यः षड्भ्यः षण्णाम् पट्सु (७४) कति शब्द कति कति कतिभिः कतिभ्यः कतिभ्यः कतीनाम् कतिषु स्त्री उभे उभौ उभौ उभाभ्याम् उभाभ्याम् उभाभ्याम् उभयोः उभयोः उभे उभाभ्याम् च. उभाभ्याम् पं० उभाभ्याम् ष० उभयोः स० उभयोः सं० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुओं की अकारादि अनुक्रमणिका . परिशिष्ट २ परिशिष्ट ३ परिशिष्ट ४ की धातुओं की अकारादि अनुक्रमणिका है। पहली पंक्ति में धातु हैं, दूसरी पंक्ति में धातुओं के संस्कृत अर्थ है, तीसरी पंक्ति में हिन्दी का अर्थ है, चौथी पंक्ति में गण की धातुओं के दो संकेत हैं सं और वि। स संक्षिप्तरूपों का और वि विस्तृतरूपों का द्योतक है । जो धातु गणों में नहीं आई है वहां x का चिह्न है। पांचवीं पंक्ति में पृष्ठों के प्रमाण हैं। पृ० ३२० से ४६७ तक गण की धातु के रूप देख सकते हैं। पृ० ४६८ से ५४५ तक जिन्नन्त, सन्नन्त, यङन्त और भाव कर्म की धातुओं के रूप दिए गए हैं। यङलुगन्त धातुओं के रूप ५४६ पृष्ठ से ५५७ पृष्ठ तक देख सकते हैं । क्त, णक, तृच् आदि प्रत्ययों के रूप पृष्ठ ५५८ से ५६३ पृष्ठ तक हैं । धातु अकिङ् लक्षणे अघण अज अञ्चु अञ्जूर् अट गतौ शब्दे अण अत अदं अर्थ चिन्हकरना सं ४६२ पापकरणे पापकरना सं ४६२ क्षेपणे च फेंकना वि ३६८ गतौ च जाना, पूजा करना वि ३७४,५०८,५५८ व्यक्तिम्रक्षण- प्रकट करना, चोपडना, सं ४६२,५४२,५५८ कांतिगतिषु जाना घूमना सं ४६२,५५८ शब्द करना सं ४६२ सातत्यगमने सतत घूमना सं ४६२,५१० खाना वि ३३६,५२४,५५८ प्राणने जीवित रहना सं ४६२,५२६,५५८ दृष्ट्युपसंहारे अंधा करना सं ४६२ रोगी होना गतौ जाना सं ४६२,५१८ स्तवने स्तुति करना सं ४६२ पूजायाम् पूजा करना सं ४६२,५०८,५५८ अर्जने संग्रह करना सं ४६२,५०८,५५८ भक्षणे अन रोगे x अन्धण अमण् अयङ अर्कण् 4. अर्च अर्ज Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ अर्ह अव अशश् अशुत् असक् असु असुच् आप्लुत् आसङ्क् इं इंक् इंक् इदि इन्धीर् इरस् इषज् ईङ्च् ईक्षङ् ईडक् रक् ईर्ष्या पूजायाम् रक्षणे भोजने व्याप्ती भुवि उपतापे क्षेपणे व्याप्ती उपवेशने गतो स्मरणे अध्ययने परमैश्वर्ये दीप्ती ईर्ष्यायाम् इच्छायाम् गतो दर्शने स्तुतौ गतिकम्पनयोः ईर्ष्यायाम् ऐश्वर्ये चेष्टायाम् सेचने उत्सर्गे दा ईशक् ईहङ् उक्ष उज्झज् उषु ऊर्जण् ऊर्णुन्क् ऊहङ् वितर्क ॠ प्रापणे ऋ क गती ऋजङ् योग्य होना रक्षा करना बलप्राणनयोः आच्छादने खाना व्याप्त होना होना उपताप करना फेंकना पाना बैठना जाना स्मरण करना पढना ऐश्वर्य भोगना प्रकाशित करना ईर्ष्या करना इच्छा करना जाना देखना स्तुति करना जाना, धूजना ईर्ष्या करना समर्थ होना चेष्टा करना सिंचन करना छोडना वि ३७२, ५१४,५५८ सं वि सं वि ३४१, ५२६,५६० सं ४६२ ४६२,५५८ ४५१,५५८ सं ४६२,५३२,५६० वि ४२६,५३६, ५६० वि ३४३,५२६, ५६० वि सं ४६२,५३६,५५५,५५८ वि वि सं ४६२,५१० सं ४६२,५४२ सं ४६२ वि सं ४६२,५३४ वि ३८४,५६० वि ४०६,५२६,५६० सं ४६२ सं ४६२ ३५६, ५६० ३३० ४०४, ५६० जलना बलवान होना, जीना सं ढकना सं तर्क करना पाना जाना × गतिस्थानार्जनो - जाना, ठहरना, पैदाकरना x श्वासोश्वास लेना पार्जनेषु सं वि ४३२,५४०, ५६० ४६२ ४६२, ५२०,५६० सं X ५१४ सं ४६२ वि ३७० ४६२ ४६२, ५२८, ५५२ ४६४,५२०, ५६० ३२५,५६० २६७ ५२८, ५५३, ५६० ५१६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ वाक्यरचना बोध ऋधूच एधङ् एष ङ् ओण कटे मदे 4. कडि कण्डून् कण कत्थ कथण कनी वर्ण 4.x कपिङ् कबृङ् कमुङ् कलण् कलङ् वृद्धो बढना x ५३० कम्पने कांपना वि ३७५,५०८ वृद्धौ बढना वि ३८३,५१८,५६० गतो जाना x ५२० अपनयने दूरकरना x ५१० वर्षावरणयोः वरसना, ढांकना सं ४६४,५१०,५४६ मद करना सं ४६४ गाजविघर्षणे खाजकरना ४६४ शब्दे शब्द करना सं ४६४,५१०,५४७ श्लाघायाम् प्रशंसा करना सं ४६४ वाक्यप्रबन्धे कहना सं ४६४,५४४,५६० दीप्तिगतिकांतिषु दीप्त होना, जाना, सं ४६४ शोभित होना चलने कांपना सं ४६४,५१८,५४६,५६० वर्णन करना ५१८,५४६ कान्तौ दीप्त होना ४६४,५६० संख्यानगत्योः गिनना, जाना सं ४६४ शब्दसंख्यानयोः शब्द करना, गिनना सं ४६४,५२०,५५० गतो जाना x ५२४,५५१,५६० काङ्क्षायाम् चाहना सं: ४६४,५१६,५४८,५६० दीप्तौ चमकना x ५३४,५५५ दीप्तौ चमकना सं ४६४,५२०,५५०,५६० शब्दकुत्सायाम् खांसना सं ४६४,५२०,५५० निवासरोगाप- निवास करना, रोग सं ४६४ नयनसंशयेषु को दूर करना, संशय करना शब्दे शब्द करना x ५२६,५५२ शब्दे शब्द करना ५१६,५४८ कौटिल्याल्पी- वक्रता करना, भावयोः कम करना x ५२२ उच्चःशब्दे जोर से बोलना x ५२२,५५१ संकोचने संकोच करना वि ४३३,४६४,५४०,५५६, ५६० कस । काक्षि काशच काशृङ् कासृङ् कित 'x xxx कुचज् Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ २६६ कुपच् कृष कज न. कुटज् कौटिल्ये कुटिलता करना सं ४६४,५४०,५५६ कुथच पूतिभावे दुर्गंधवाला होना x ५२८,५५३ क्रोधे क्रोध करना सं ४६४,५३०,५५३,५६० क्रीडायाम् कदना x ५१८,५४६ कृती छेदने छेदन करना सं ४६४,५३८,५५६,५६० कंन करणे करना वि ३२६,५२०,५५०,५६० सामर्थ्य समर्थ होना सं ४६४,५६० कृशच तनूकरणे पतला होना सं ४६४,५३२,५५४ आकर्षणे खींचना सं ४६४,५१४,५४८ कृषन्ज् विलेखने जोतना सं ४६४,५३८,५५५,५६० कन्श् हिंसायाम् हिंसा करना सं ४६४ विक्षेपे फेंकना सं ४६६,५३८,५५६,५६२ कतण् संशब्दने प्रशंसा पाना सं ४६६,५६२ क्नूयीङ् शब्दोन्दनयोः भींजना, शब्द करना सं ४६६ ऋदि रोदनाह्वनयोः रोना, बुलाना ४६६,५१०,५२४,५४७, ५५१,५६२ क्रपङ कृपायाम् दया करना सं ४६६ क्रम पादविक्षेपे चलना सं ४६६,५१२,५४७,५६२ विहारे क्रीडा करना सं ४६६,५१०,५४६,५६२ क्रीनश् द्रव्यविनिमये खरीदना वि ४४२,५६२ क्रुधंच् कोपे क्रोध करना वि ४२०,५३०,५५३,५६२ क्रुशं आह्वानरोदन योः बुलाना, रुलाना सं ४६६,५२४,५५१,५६२ क्लदि रोदना ह्वानयोः बुलाना, रुलाना सं ४६६ क्लमुच् ग्लानौ ग्लानि होना सं ४६६,५३२,५५४,५६२ क्लिदूच आर्दीभावे सं ४६६,५३०,५५३ क्लिशङ्च् उपतापे खिन्न होना वि ४२४,५३४,५५५ विबाधने क्लेश करना x ५६२ क्वण शब्दे वीणा का शब्द ५१०,५४७,५६२ क्षणुन् हिंसायाम् हिंसा करना सं ४६६ क्षमूच क्षमा करना सं ४६६,५३२,५५४,५६२ क्षमूषङ् सहने क्षमा करना सं ४६६,५१८,५५० क्षर संचलने झरना, छोडना सं ४६६,५२४,५५१ क्षलण शौचे धोना सं ४६६,५६२ क्रीड क्लिशूश् 4. x 4. सहने Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० क्षि क्षिपंच् क्षिपन्ज् क्षि क्षिवच् क्षु क्षुद न्रर् क्षुधंच् क्षुभच् क्ष्णुक् क्ष्विदाच् खजि खडण् खनुन् खादृ खिट् खिदंङ्च् खिदंङ् खेला ख्यांक् गणण गद गद्गद् गम्लृ गर्ज गर्द गर्व गर्ह गल गवेषण् गाङ् गाहूङ् गुजि क्षये प्रेरणे प्रेरणे निरसने निरसने शब्दे संपेषे बुभुक्षायाम् संचलने तेजने मोचने, स्नेहने गतवैकल्ये भेदे अवदारणे भक्षणे उत्त्रा से दैन्ये ये विलासे प्रकथने संख्याने व्यक्तायां वाचि वाक्स्खलने गतौ शब्दे शब्दे दर्पे कुत्सने अदने मार्गणे गतौ विलोडने अव्यक्ते शब्दे नष्ट होना फेंकना फेंकना थूकना थूकना शब्द करना पीसना तोडना खोदना खाना भय पाना खिन्न होना खेद करना क्रीडा करना प्रसिद्ध होना गिनना सं जाना गर्जना शब्द करना अभिमान करना निंदा करना निगलना खोजना सं जाना डुबकी लगाना गुंजन करना सं भूख लगना क्षोभ पाना तीक्ष्ण करना X छोडना, चिकना करना सं लंगडाना सं सं सं सं X ५२६,५५२ X ५६२ सं सं सं X कहना सं अस्पष्ट शब्द बोलना सं सं सं वि पं सं सं सं सं × वि × ५४२५५७ ५१२,५४७ ४६८, ५२४,५५२,५६२ ४६८, ५६२ ४६८,५१०,५४७, ५६२ सं स ४६६,५६२ ४६६, ५३०, ५५३ ४६६,५३६,५५५, ५६२. ४६६ सं सं वाक्यरचना बोध ४६६ ४६६,५६२ ४६६,५३२, ५५४,५६२ ५२४,५५२ ४६६ ४६६ ४६६,५१६,५४६ ४६८, ५६२ ४६८, ५१०,५४७,५६२ ५१०,५४६ ४२२, ५३४,५५४ ४६८ ३३४,५६२ ४६८, ५०८, ५४६, ५६४ ४६८ ४६८, ५१४,५४८ ४६८, ५२०,५५०,५६४ ४६८,५१४,५४८,५६४ ४६८,५६४ ४६८ ४६८, ५२०,५५०,५६४ ४६८, ५६४ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ गुधच गुपङ् गुपच गुपू गुफज् गुम्फ गुहून् 4. गृधूच गृहूङ गज गश 4. 4. 4. ग्रन्थण ग्रन्थ ग्रसुङ EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE: उपादाने ग्रहनश् ग्लैं घटङ् घटषक घस्लं परिवेष्टने वेष्टित करना x ५३०,५५३ गोपनकुत्सनयोः निंदा करना सं ४६८,५१८,५४६,५६४ व्याकुलत्वे आकुलव्याकुल होना x ५३२ रक्षणे रक्षा करना वि ३८२,५१२,५४७,५६४ ग्रन्थने गूंथना x ५४०,५५६ ग्रन्थने गूंथना सं ४६८,५४०,५५६,५६४ सवरणे छिपाना वि ३६०,५६४ अभिकांक्षायाम् लोलुपता रखना सं ४६८,५३०,५५३ कुत्सने निंदा करना सं ४६८ निगरणे निगलना सं ४६८,५३८,५५६,५६४ शब्दे कहना सं ४६० शब्दे गाना ४६८,५०८,५४६,५६४ संदर्भ बांधना सं ४६८ संदर्भ बांधना सं ४६८,५६४ अदने खाना सं ४६८,५६४ ग्रहण करना वि ३६५,५४४,५५७,५६४ हर्षक्षये खिन्न होना सं ४६८,५६४ संघाते मिलाना सं ४६८ चेष्टायां चेष्टा करना x ५६४ अदने खाना सं ४६८ भ्रमणे चक्कर खाना ५१६,५४६ भ्रमणे चक्कर खाना x ५४०,५५६ शब्दे घोषणा करना x ५१४,५४८ भ्रमणे चक्कर खाना x ५६४ संघर्षे घर्षण करना सं ४७०,५१४,५४८,५६४ गन्धोपादाने सूंघना वि ३२१,५०८,५६४ तृप्तिप्रतिघातयोः तृप्त होना, घात करना x ५१६ दीप्तौ दीप्त होना वि ४००,५६४ व्यक्तायां वाचि कहना वि ४०७,५२६,५५२,५६६ कोपे कुपित होना सं ४७० याचने मांगना सं ४७० अदने खाना सं ४७०,५६६ भक्षणे गतौ खाना, जाना सं ४७०,५१२,५४७,५६६ घुणज् घूर्णज् घ्रां चक चकासृक् चक्षङ्क् चडिङ् चतेन् घमु चर Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ चर्व चल चल चषन् चिन्त् चितिण् चिती चित्रण् चुटिण् चुदण् चुप fa चुरण् चूष चेष्टङ् छदण् छिदुर् छुपज् छ्रुदण् छेदण् जक्षक् जनीच् जप जल्प जसुच् जसुण् जागृक् ਯਿ जिमु जीव जूष नृभिङ् जश् अदने कम्पने कम्पने भक्षणे चयने स्मृत्याम् संज्ञाने छेदने समझना चित्रक्रियायाम् चित्र बनाना छेदना प्रेरणा देना धीरे २ जाना संचोदने मंदगतौ वक्त्रसंयोगे स्तेये पाने चेष्टायाम् संवरणे द्वैधीकरणे स्पर्श संदीपने द्वैधीकरणे भक्षहसनयोः प्रादुर्भावे मानसे च व्यक्तायां वाचि मोक्षणे as निद्राक्षये जये अदने चबाना धूनना हिलना खाना प्राणधारणे हिंसायाम् गात्रविनामे योहान चुनना चिंतन करना चूमना चुराना चूसना चेष्टा करना ढांकन काटना स्पर्श करना उद्दीप्त करना काटना खाना, हंसना उत्पन्न होना जाप करना, वाक्यरचना बोध सं ४७०, ५१४,५४८, ५६६ सं ४७०,५५१ सं ४७०, ५२४,५६६ ताडना जागना जीतना जीमना जीना हिंसा करना जंभाई लेना वृद्ध होना X ५२२,५५० वि ४२५, ५६६ सं ४७०,५६६ ४७०, ५१०,५४७, ५६६ ४७० सं सं सं ४७० ५६६ ४७०, ५१२, ५४७ सं ४७०, ५१२,५४७, ५६६ वि ३६७,५४४, ५५७, ५६६ सं सं X सं सं वि ४३६, ५४२, ५५७,५६६ X सं सं सं वि सं बोलना बात करना, बोलना सं छोडना सं ४७० ४७०,५६६ ४७०,५६६ ५४०,५५६ ४७० ४७० ४७०, ५२६, ५५२ ४२१,५६६ ४७०, ५०६,५१२,५४७, ५६६ ४७०, ५१२, ५४७,५६६ ४७० सं ४७० वि ३३८,५२६,५६६ वि ३२२,५६६ सं ४७०,५१२,५४७ वि ३७६,५१४,५४८,५६६ सं ४७० सं ४७०, ५१८,५४६, ५६६ X ५६६ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ जष् ज्ञांश् ज्ञाण ज्यांश ज्वर ज्वल टकिण टीकृङ् गतो डीङ डीच ढौकृङ् णट णद णम नमने णशूच णहंन्च णिजक बंधने वयोहानी वृद्ध होना सं ४७० अवबोधने जानना वि ३६५,५६६ मारणतोषण- मारना, खुश करना सं ४७२,५६६ निशानयोगेषु तीक्ष्ण करना वयोहानी वृद्ध होना सं ४७२,५६८ रोगे ज्वर होना सं ४७२,५६८ दीप्तौ जलना सं ४७२,५६८ बन्धने चिह्न लगाना सं ४७२,५६८ जाना x ४७२,५१६,५४६ विहायसा गतौ पक्षी का उडना x ४७२,५१६,५४८,५६८ गतो जाना ४ ४७२,५३४,५५४ गतौ पहुचना सं ४७२,५१६,५४८,५६५ नृत्तौ नाचना सं ४७२,५१०,५४६,५६८ अव्यक्ते शब्दे नाद करना सं ४७२,५६८ झुकना वि ३७६,५६८ अदर्शने उपलब्ध न होना वि ३५२,५३२,५५४,५६८ बांधना सं ४७२,५३६,५५५,५६५ शौचे च निर्मल करना, x ५२८,५५३,५६८ पोषण करना कुत्सायाम् निंदा करना सं ४७२,५१०,५४७,५६८ प्रापणे पाना सं ४७२,५६८ स्तुतौ स्तुति करना सं ४७२,५२६,५५२,५६८ प्रेरणे प्रेरणा देना सं ४७२,५४०,५५६,५६८ स्तवने स्तवना करना x ५४०,५५६,५६८ अलङ्कारे सजाना x ५६८ हसने हंसना सं ४७२ कृच्छ्रजीवने दुःखी अवस्था में जीना सं ४७२ तनूकरणे छीलना सं ४७२,५१४,५४८,५६८ आघाते पीटना सं ४७२,५४४ विस्तारे वि ३६३,५४२,५५७,५६८ संतापे तपना सं ४७२,५१२,५४७,५६५ ऐश्वर्य ऐश्वर्य भोगना x ५३४,५५५ कांक्षायाम् अभिलाषा करना सं ४७२,५३२,५५४,५६५ णिदि णीन् णुक् णुदंज् x तसि तक तकि फैलना तक्ष तडण तनुन्व तपं तपच तमुच Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ वाक्यरचना बोध तर्कण् तर्ज सर्जप ताय तिजङ् तिमच् तीमच तुंक XXX तुदंन्ज् तुलण तोलना तुष तुष्टी 44. तृपत् तर्कणे तर्क करना x ५६८ भर्सने डांटना . वि ३७३,५०८,५४६ संतर्जने तिरस्कार करना सं ४७२,५६८ संतानपालनयोः रचना करना, रक्षण सं ४७२,५१८,५५० करना क्षमानिशानयोः क्षमा करना, '७२,५१६.५४६,५६८ तीक्ष्ण करना आर्दीभावे भींगना x ५३०,५५३ आर्दीभावे भींगना ५३०,५५३ गतिवृद्धिहिंसासु जाना, बढना x ५२४,५५२ . हिंसा करना कलहकर्मणि क्लेश करना सं ४७२ व्यथने पीडना सं ४७२,५३६,५५५,५६८ उन्माने सं ४७२ प्रसन्न होना सं ४७२,५३२,५५४,५७० प्रीणने खुश करना ५३६,५५५ तृप्तौ तृप्तहोना सं ४७२,५३०,५५३,५७० पिपासायां प्यास लगना सं ४७२,५३२,५५४ हिंसायाम् हिंसा करना x ५४२,५५७ प्लवनतरणयोः तैरना वि ३२४,५०८,५४६,५७० हानी छोडना वि ३७७,५०८,५४६,५७० लज्जायाम् शर्माना सं ४७४,५१८,५७० डरना सं ४७४,५३०,५५३,५७० छेदने तोडना ५४०,५५६,५७० छेदने तोडना सं ४७४ पालने बचाना सं ४७४,५७० गतौ जाना ५४८ संभ्रमे उतावल करना ४७४,५७० दशने डसना सं ४७४,५७० दशने डंक मारना सं ४७४ दण्डनिपातने दण्डित करना सं ४७४,५७० दाने देना सं ४७४,५१८,५४६ धारणे धारण करना सं ४७४,५१८,५४६ तृषच तृहर् त त्यजं अपूषङ् त्रसीच त्रुटज् त्रुटह्ण उद्वेगे 4.X 4.x कृङ त्वरषङ् दंश दंशङ् दण्डण दद दध Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३०५ दमुच् 4. दम्भुत म्भ दयङ दरिद्राक दल दलण् द दांन्क दांपक दांम् दांन्न् उपशमे शांत होना सं ४७४,५७० दम्भे धोखा देना सं ४७४,५३६,५५५,५७० दानगतिहिंसा- देना, जाना, हिंसा सं ४७४,५१८,५५०,५७० दहनेषु च करना, जलाना, रक्षा करना दुर्गतौ दरिद्र होना सं ४७४,५२६ विश रणे सडना सं ४७४,५१२,५४७,५७० विदारणे फाडना सं ४७४ भस्मीकरणे जलाना वि ३८०,५१४,५४८,५७० दाने देना वि ३५०,५०५,५७० काटना सं ४७४,५५२ देना सं ४७४,५०८,५४६ अवखण्डने तोडना x ५२२,५५० क्रीडाविजिगीषा रमण करना, जीतना वि ४१६,५२८,५५३,५७० व्यवहारद्युति व्यवहार करना, जुआ स्तुतिमोद मद खेलना, स्तुति करना, स्वप्न कान्ति प्रसन्न होना, मद करना गतिषु स्वप्न लेना, दीप्त होना, जाना दाने दान देना वि ४१६,४७४,५३८,५५५, लवने दाने दिवच् FFEEEEEEEEEEEEEE दिशन्ज् ५७० दिहंन्क् दीक्षङ् सं सं ४७६,५२८,५५२,५७० ४७६,५२०,५५०,५७० क्षये दीच् दीपीच् दुत् दुःखण् दुषंच् . दुहंन्क उपचये लेप करना मौण्डयेज्योपनयन दीक्षित होना नियमव्रतादेशेषु क्षय होना दीप्तौ चमकना गतौ जाना उपतापे दुःखित होना तक्रियायां दुःखित होना वैकृत्ये बिगडना क्षरणे दुहना परितापे दुःखित होना आदरे आदर करना प्रेक्षणे देखना x ५३४,५५४ सं ४७६,५३४,५५५,५७० वि ३२३ सं ४७६,५७० सं ४७६ सं ४७६,५७० वि ३४७,५२८,५५२,५७२ सं ४७६,५३४,५५४,५७२ x ५७२ वि ३३४,५७२ दूच् दृ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ दृपूच् देंङ प् दोंच् द्युतङ् द्रांक् द्राहङ् ढुं दुहूच् धुक्ष् द्विषंन्क् धान्क् धावुन् धिवित् धूज् धून त् धूनण् धूप धंन् धुंङ्ज् धेंट् ध्मां ध्य धुंज् ध्वन ध्वंसुङ् नदि नाशृङ् हर्ष मोहनयोः पालने शोधने अवखण्डने दीप्तो कुत्सायां गतौ निक्षेपे गतौ जिघांसायाम् संदीपनक्लेश जीवनेषु अप्रीतौ धारणे गतिशुद्ध्योः गतौ विधूनने कम्पने कम्पने संतापे धारणे स्थाने पाने खुश करना, अभिमान करना रक्षा करना . साफ करना काटना चमकना च भाग जाना स्थापना करना पिघलना द्रोह करना उत्तेजित करना क्लेश करना, जीवित रखना द्वेष करना धारण करना दौडना, धोना शब्दाग्निसंयोगयोः फूंकना X चिन्तायाम् गति स्थैर्ययोः शब्दे शब्द करना तौ च (अवत्र सने) नष्ट होना प्रसन्न होना समृद्धी उपतापैश्वर्याशीषु दुःख लाना, ऐश्वर्य भोगना, आशीर्वाद देना, मांगना सं सं सं सं X X वि वि सं जाना कंपित हो कंपित होना कंपित होना सुखाना धारण करना सं रहना, आधार बनना सं पीना, चूसना वि सं वाक्यरचना बोध X सं सं सं ५३०, ५५३ सं ४७६ सं ४७६, ५३२,५५४,५७२ X ५२०,५५० ४७६,५१६,५४८. ४७६ ४७६,५२८, ५५३, ५७२ ४७६,५२२,५५१,५७२ _५२४,५५२ ५२०,५५० ४१३,५२८, ५५२,५७२ ४१६,५२८, ५५३,५७२ ४७६,५२२,५५०, ५७२ ४७६, ५३६,५५५ ५४०,५५६,५७२ ४७६,५३६,५५५,५७२ ४७६ ४७६, ५१२,५४७, ५७२ सं वि चिंतन करना जाना, स्थिर रहना सं ४७६ सं ४७६,५१२,५४७,५७२ सं ४७६,५२२,५५१,५७२ सं ४७६,५१०,५४७,५७२ सं ४७६,५१६,५४६ ४७६, ५२०, ५५० ४७६, ५७२ ३२६,५०८, ५४६,५७२ ४७६,५०८,५४६,५७२ ३३०, ५०८,५४६,५७२ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३०७. नृतीच पचंषन् पचिण् 4. पट पठ पण पत्ल पथे पदंङ्च् पर्दङ् पलण् पां पांक पिडिङ् पिष्लुर् पीच् पीडण नर्तने नाचना वि ३५१,५२८,५५३,५७२ पाके पकाना, रांधना सं ४७८,५२२,५५०,५७२ विस्तारे विस्तार करना सं ४७८ गतौ जाना सं ४७८ व्यक्तायां वाचि पढना वि ३३१,५१०,५४६,५७२ व्यवहारस्तुत्योः खरीदना सं ४७८,५१६,५४६,५७२ पतने गिरना सं ४७८,५२२,५५१,५७२ गतो जाना सं ४७८ गतो जाना सं ४७८,५३४,५५४,५७४ कुत्सित शब्दे अधोवायु निकलना सं ४७८,५१८,५४६ रक्षणे रक्षा करना वि ४५३,५७४ पाने पीना वि ३२१,५०८,५४६,५७४ रक्षणे रक्षा करना सं ४७८,५७४ संघाते इकट्ठा करना सं ४७८,५१६,५४६ संचूर्णने पीसना वि ३६२,५४२,५५७,५७४ पाने पीना सं ४७८,५३४,५५४,५७४ पीडने पीडा देना सं ४७८,५७४ पुष्टी पुष्ट करना x ५१४,५४८ पुष्टौ पुष्ट करना सं ४७८,५३०,५५३,५७४ पुष्ट करना वि ४५१,५७४ विकसने विकसित होना x ४७८,५७४ पवने साफ करना वि ४४३,५४४,५५७,५७४ पवने पवित्र करना सं ४७८,५७४ पूजायाम् पूजना वि ४५२,५४४,५७४ आप्यायने पूरणं करना सं ४७८,५७४ आप्यायने ४७८,५३४,५५५,५७४ वृद्धौ बढना सं ४७८ पालनपूरणयोः पालन करना ४७८,५७४ व्यायामे व्यायाम करना ५४०,५५६ प्रीती प्रसन्न होना सं ४७८,५३६,५५५ संपर्चने मिश्रण करना x ५२६,५५२ संपर्के मिश्रण करना ५४२,५५७,५७४ पूरा करना सं ४७८ पुष पुषच् पुषश् पुष्पच पून्श् पुष्टी पूजण 4. 4. पूरण पूरीच् पूष पुंक पृञ् . 4. पृत् पृचीकू पृचीर् 4.xx पृण पूरणे Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ पक् पश् प्यायी प्रच्छंज् प्रथण् प्रथषङ् श्रींन्श् प्रीच् प्लुंङ् प्लुषु प्लुषुच् सांक् फल फुल्ल बधङ् बन्धंश् बल बाधृङ् बुक्क बुध बुधंच् बुधन् ब्रुडज् ब्रून्क् भक्षण् भक्षन् भजन् भञ्जर् पालनपूरणयोः पालन करना, पूरा करना पालनपूरणयोः पालन करना, वृद्धौ ज्ञीप्सायाम् प्रख्याने प्रख्याने तृप्तिकान्त्योः प्रीतौ गतौ दा भक्षणे निष्पत्तौ विकसने बन्धने बन्धने प्राणनधान्याव रोधयोः विलोडने भषणे अवगमने ज्ञाने बोधने निमज्जने व्यक्तायां वाचि अदने भक्षणे सेवायाम् आमर्दने पूरा करना बढना पूछना प्रसिद्ध होना प्रसिद्ध होना X जलाना खाना कार्य सिद्ध होना X सं वि सं X ५२४,५५१,५७४ खुशकरना, अभिलाषा सं ४७८, ५४४, ५५७,५७४ करना प्रेम करना कूदना जलाना फूलना बांधना X बांधना वि जीना, अनाज के संग्रह सं के लिए कोठा बनाना पीडा देना कुत्ते का भूंकना जानना जानना जानना डूबना बोलना खाना खाना सेवा करना मर्दनकरना सं सं वाक्यरचना बोध ५२८, ५५३ ५७० सं ४७८,५३४,५५४,५७४ X ५७४ सं ४७८, ५१४,५३२, ५४८, ५७४ x ५५४ वि ३६८, ५२४,५५१ X ५१२,५४७ सं ४८०, ५१२, ५४७, ५७४ ५४६ ४५०, ५७४ ४८० ४७८, ५१८,५५०, ५७४ ३५७,५७४ ४७८ X सं सं ४८०, ५२४,५५१ वि ३५३, ५७४ .५२२,५५० ४८० ४८०, ५१८,५४६, ५७४ ४५० X सं वि ३४५,५२८,५५२,५७४ X सं ५७६ ४८० ५२२,५५०,५७६ ४८०, ५४२, ५५७, ५७६. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३०६ भडिङ् भण शब्दे x ५१६,५४६ सं ४८०,५१०,५४७,५७६ सं . ४८० ४ ५१४,५४८ भल भष भांक भाषङ् परिभाषणे बातचीत करना शब्द करना संतर्जने तिरस्कार करना भर्त्सने, कुत्सित- भर्त्सना करना, शब्दकरणे कुत्ते का भौंकना दीप्तौ शोभित होना व्याक्तायां वाचि कहना दीप्तौ चमकना याञ्चायाम् मांगना विदारणे तोडना चिकित्सायाम् चिकित्सा करना डरना पालनाभ्यवहारयोः पालना, खाना सत्तायाम् भासृङ् भिक्षङ भिदन् भिषज् भीक भये भुजंर x सजाना पोषण करना पोषण करना भ्रष्ट होना भ्रष्ट होना भ्रष्ट होना नष्ट होना चलना सं ४८०,५२४,५५१,५७६ सं ४८०,५२०,५५०,५७६ सं ४८०,५७६ ४८०,५२०,५५०,५७६ वि ३६०,५४२,५५७,५७६ सं ४८० वि ३४८,५२८,५७६ वि ५७६ वि ३२०,४६८,५०१,५०३, ५०४,५०८,५४६,५७६ वि ३७८,५१४,५४८,५७६ सं ४८०,५२०,५५०,५७६ वि ४१८,५७६ x ५५४ x ४८०,५३२,५५४ x ५३४,५५४ वि ३८७,५२२,५५१ सं ४८०,५२४,५५१,५७६ सं ४८०,५३२,५५४,५७६ ५३८,५५५,५७६ सं ४८० सं ४८० ४८०,५२२,५५० सं ४८० सं ४८० सं ४८० सं ५२४,५५१ सं ४८२,५३२,५५४,५७६ भृशुच भ्रंशुच x भ्रंसुङ भ्रम अलंकारे भरणे पोषणे च अध: पतने अध: पतने अध: पतने अवस्र सने चलने अनवस्थाने पाके दीप्तौ दीप्तौ भक्षणे दीप्तो भूषायाम् विलोडने हर्षग्लेपनयोः घूमना x भूनना चमकना चमकना 4. भ्रमुच भ्रस्जंन्ज् भ्राज़ भ्राशृङ् भ्लक्षन् भलाशृङ् मडि मथे मदी मदीच् खाना चमकना सजाना मथना प्रसन्न होना प्रसन्न होना Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० मनंच् मनुव् मन्तु मन्त्रंण् मन्थश् मस्जोंज् मह महण् मांक् मांङ्क् मानण् मार्ग मिनत् मिलज् मानशब्दयोः पूजायाम् अन्वेषणे प्रक्षेपणे श्लेषणे मिश्रण् संपर्चने मिषज् मिहं मीन्श् मील मुलंत्ज् मुदङ् मुर्च्छा मुषश् मुहूच् मूत्रण् मूल ज्ञाने बोधने अपराध रोषयोः मूष मृज् मृगण् मृजूक् मृशंज् मृषण् गुप्त भाषणे विलोडने शुद्धौ पूजायाम् पूजायाम् माने स्पर्धायाम् सेचने हिंसायाम् निमेषणे मोक्षणे हर्षे स्तेये वैचित्र्ये प्रस्रवणे प्रतिष्ठायाम् स्तेये प्राणत्यागे अन्वेषणे मानना मानना छोडना प्रसन्न होना मोहसमुच्छ्राययोः मूर्छित होना शुद्धो आमर्षणं क्षान्तो अपराध करना, रोष करना मन्त्रणा करना मन्थन करना स्नान करना, डूबना पूजा करना पूजा करना समाना मापना, शब्दकरना पूजा करना खोजना फेंकना मिलाना मिलाना स्पर्धा करना गीला करना हिंसा करना आंख मीचना चुराना मोह में पडना मूत्र करना आधाररूप होना चुराना मरना खोजना साफ करना स्पर्श करना सहन करना वाक्यरचना बोध वि ३५३, ५३४,५५५, ५७६ सं ४८२,५७६ ४८२ वि वि सं सं X सं X ५७८ सं ४८२,५७८ वि ४५८,५७८ X सं वि सं सं सं ४५६, ५७६ ४४६, ५७६ ४८२,५४०,५५६,५७६ सं ४८२,५७६ ५४४ X सं ४८२,५७८ सं ४८२,५७८ X ५४०,५५६ सं ४८२,५७८ सं सं सं ४८२,५२४,५५२,५७८ ५३६,५५५,५७८ ५४४,५५७,५७८ ४८२, ५१२, ५४७, ५७८ ४३०,५३८, ५५५, ५७८ ४८२,५१८,५४६,५७८ ४८२,५७८ ४८२,५७८ ४८२,५७८ ४८२ ४८२,५१२,५४७ ४८२ वि ३५८,५३८,५५६,५७८ सं वि X X ४८२,५७८ ४०३, ५२६,५५२, ५७८ ५४०,५५६ ५१४,५४८ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३११ मृषन्च वड मेधा तितिक्षायां हिंसायाम् प्रतिदाने आशुग्रहणे मोचने अभ्यासे मर्दने गतौ मोक्षण म्नां 4. म्रदषङ Zचु म्लुचु गतो म्लेच्छण यजंन् FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE: अव्यक्ते शब्दे हर्षक्षये देवपूजासंगति- करणदानेषु प्रयत्ने संकोचने यती यत्रिण यभं मैथुने सहन करना ५३४,५५५,५७८ हिंसा करना सं ४८२ वापिस देना सं ४८२,५१६,५४८ शीघ्र ग्रहण करना सं ४८२ फेंकना सं ४८२,५७८ अभ्यास करना सं ४८२,५०८,५४६,५७८ मर्दन करना सं ४८२ जाना सं ४८२ जाना सं ४८२ अस्पष्ट शब्द करना सं ४८२ थकना, मुरझाना सं ४८२ देवपूजा करना, वि ३६२,५२४,५५१,५७८ संगति करना, देना प्रयत्न करना सं ४८४,५१६,५४६,५७८ संकुचित होना सं ४८४ संभोग करना सं ४८४ निवृत्त होना सं ४८४,५१२,५४७,५८० प्रयत्न करना सं ४८४,५३२,५५४,५८० जाना वि ३३७,५२४,५५१,५८० याचना करना सं ४८४,५२०,५५०,५८० बांधना सं ४८४,५८० मिलाना सं ४८४ समाधि में होना सं ४८४,५३४,५५४,५८० मिश्रण करना सं ४८४ जोडना वि ४३७,५४२,५५७,५८० लडना, युद्ध करना वि ४२३,५३४,५५५,५८० रक्षा करना सं ४८४,५१४,५४८,५८० जाना सं ४७४ बनाना वि ४६०,५८० राग करना वि ३५४,४८४,५८० शब्द करना सं ४८४ जाना x ५१०,५४६ कुरेदना सं ४८४ प्रारंभ करना सं ४८४,५०२,५८० यांक याचन उपरमे प्रयत्ने गतौ याञ्चायाम् बन्धने मिश्रणे समाधी संपर्चने योगे संप्रहारे पालने गतौ प्रतियत्ने रागे शब्दे गती विलेखने राभस्ये युजंच् युजण् युजन युधंच् रक्ष रघिङ् रचण् रजंन्च . रण Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ वाक्यरचना बोध 4.X4. रसण रांक 4. 4. शब्दे रुजण् 4. THE FEZEE & BEERFEREvEEDE******* रमङ् क्रीडायाम् क्रीडा करना सं ४८४,५८० रस शब्दे शब्द करना x ५१४,५४८,५८० आस्वादनस्नेहनयोः स्वादलेना, सं ४८४,५८० स्नेह करना दाने देना x ५२४,५५२ राजृन् दीप्तौ चमकना सं ४८४,५८० राधंत् संसिद्धौ पूरा करना सं ४८४,५३६,५५५,५८० गतो जाना मं ४८४ रिचन्र् विरचने रेचन करना ४८४,५४२,५५७,५८० रिष हिंसायाम् हिंसा करना सं ४८४ रीश् गतिहिंसन योः जाना, हिंसा करना सं ४८४ शब्द करना ४८६,५८० रुच अभिप्रीती अच्छा लगना सं ४८६,५२२,५५१,५८० हिंसायाम् हिंसाकरना । ४८६,५८० रुजों तोडना सं ४८६,५८० रुटण रोषे क्रोध करना सं ४८६ रुदक अश्रुविमोचने रोना वि ३३७,५२६,५५२,५८० रुधन् आवरणे रोकना वि ३५६,५४२,५५७,५८० रुषंच रोषे रोष करना सं ४८६,५३२,५५४ रुषण रोषे . क्रोध करना सं ४८६ जन्मनि . उगना सं ४८६,५८० रूपक्रियायाम् रूप बनाना सं ४८६ शंकायाम् संदेह करना ५१६,५४८ शब्दे शब्द करना सं ४८६ लक्षश् ___ आलोचने .. देखना सं ४८६,५८० लक्षण दर्शनाङ्कनयोः देखना, चिह्न करना सं ४८६ संगे लगना x ५२४,५५१ लघि गतौ जाना ५०८,५४६ भोजन निवृत्तौ च लंघन करना . सं ४८६,५०८,५४६,५८२ लजीङ् वीडायाम् . लज्जा करना सं ४८६ लड विलासे प्यार करना x ५१०,५४६ व्यक्तायां वाचि बोलना . सं ४८६,५१२,५४७,५८२ लबिङ् .... अवस्र सने च लटकना, शब्द करना सं ४८६,५१८,५४६,५८२ रुह रूपण रेकृङ् X लगे . 4.4.xx4 लघिक लप Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३१३ लभंषङ् 4.4.x लुञ्च लट प्राप्तौ पाना सं ४८६,५८२ लभिङ् शब्दे शब्द करना ५४९ ललप ईप्सायाम् इच्छा करना सं ४८६ लषन् कान्तौ चाहना सं ४८६,५२२,५५०,५८२ लस श्लेषणक्रीडनयोः आलिंगन करना, x ५१४,५४८,५८२ क्रीडा करना लस्जीज् वीडायाम् लज्जाकरना सं ४८६,५४०,५५६,५८२ लांक आदाने लेना सं ४८६ लिखज् . अक्षरविन्यासे लिखना वि ४३२,५३८,५५६,५८२ लिपंन्ज् उपदेहे लीपना सं ४८६,५३८,५५६ लिहंन्क आस्वादने चाटना वि ४१४,५२८,५५२,५८२ लीच् श्लेषणे आलिंगन करना सं ४८६,५८२ लीण द्रवीकरणे लीन होना, स्नेह से सं ४८६ पिघलना अपनयने दूर करना वि ३७२,५०८,५४६ विलोटने लोटना सं ४८६,५१०,५४६ लुटच विलोटने लोटना x ५३०,५५३ लुटि स्तेये लूटना सं ४८६ लुठ ___ संश्लेषणे आलिंगन करना ५४०,५५६,५८२ लुण्टण स्तेये च चोरी करना, सं ४८६ . अनादर करना. लुपच् .. विमोहने .. विचलित होना, सं ४८८,५३४,५५४,५८२ आकुल करना लुप्लँनज् छेदने छेदना x ५३८,५५६,५८२ लुभच् गाणं लोभ करना सं. ४८८,५३२,५५३,५८२ लुभज् विमोहने विचलित होना .सं ४८८,५८२ आकुल करना लूनश् छेदने काटना वि ४४५,५४४,५५७,५८२ स्तेये चोरी करना सं ४८८ लषण हिंसायाम् मारना सं ४८८ लोकृङ् दर्शने देखना सं ४८८,५१६,५४८,५८२ दर्शने देखना सं ४८८,५८२ वकिङ् कौटिल्ये कुटिलता करना सं ४८८ विलाटन 4. x लष लो सन Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ वचंक् वचण् वज वञ्चण् वञ्चु वटिण् वद वदण् दिड् वनुव् वर्षम् ཡཾ मु वर्णण् वलङ् वशक् वसं वसिक् वर्हन् वांक वाछि वाशंच् विच ं न्रर् विजीर् विजंक् विद्लृन्ज् विधज् भाषणे भाषणे गतौ विशंज् विष बोलना वांचना जाना ठगना जाना भाग करना बोलना बोलना अभिवादन स्तुत्योः प्रणाम करना प्रलंभने गतौ विभाजने व्यक्तायां वाचि भाषणे याचने बीज संताने उद्गिरणे संवरणे कान्ती निवासे आच्छादने प्रापणे पृथग्भावे विदंच् सत्तायाम् विदंङ्र् विचारणे विदंक् X वि उगलना सं वर्णक्रियाविस्तार वर्णन करना रंगना, सं गुणवचनेषु विस्तार करना, प्रशंसा करना, बोलना ढका गन्धने च इच्छायाम् शब्दे पृथग्भावे भयचलनयोः ज्ञाने लाभे विधाने मांगना बोना प्रवेशने व्याप्ती इच्छा करना रहना ढकना वहन करना गंध लेना चाहना शब्दकरना अलग करना डरना, कांपना अलग करना होना विचार करना जानना पाना विधान करना, बींधना वाक्यरचना बोध वि ४०२,५२६,५५२,५८२ सं ४८८,५८२ वि ३६६ सं X घुसना व्याप्त होना सं वि सं वि ४८८,५८२ ५०८, ५४६ ४८८ ३७६, ५२४,५५१,५८२ ४८८ ३३५,५१६,५४६,५८२ ५४४,५५७ ३६६, ५२४,५५१,५८२ ४८८, ५२४,५५१ ४८८ सं सं वि ३८१,५२४,५५१,५८४ × ५२६,५५२,५८४ सं ४८८,५१४,५५१,५८४ ४८८, ५२०,५५० ४८८, ५२६,५५२,५८२ सं४८८,५८४ वि ३३२,५०८, ५४६,५८४ _५३४,५५५ x वि ४४०, ५४२, ५५७,५८४ X X सं ५४२,५५७ ५२८, ५५३, ५८४ ४८८, ५३४,५५४,५८४ X ५४२,५५७ वि ३३६,५२६,५५२ सं ४८८, ५३८, ५५६,५८४ X ५४०, ५५६ वि ४३५, ५४०, ५५६,५८४ ५२८,५४८ X Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३१५ विष वृश् वर्तने वृजीण वतुङ् वृतुङ्च वृधुङ् वरणे वृनत् वृष वश् वेंन् वेपृङ् वेल व्यथषङ व्यधंच व्येन् व्रज व्रश्चूज वीश् व्रीडच् सेचने सिंचन करना x ५१४,५५३ संभक्तो अच्छी तरह से सं ४८८ सेवा करना वर्जने छोडना सं ४८८ होना वि ३८५,५८४ वरणे स्वीकार करना सं ४८८ वर्धने बढना वि ३८६,५२२,५५१,५८४ वरण करना वि ४२६,५३६,५५५,५८४ सेचने बरसना x ५८४ वरणे स्वीकार करना ४६०,५८४ तंतुसन्ताने सीना वि ३६३,५८४ चलने धूजना सं ४६०,५१८,५४६,५८४ गतौ जाना x ५१२,५४७ भयचलनयोः डरना, हिलना सं ४६०,५८४ ताडने च बींधना, उगना x ४६०,५३०,५५३,५८४ संवरणे ढांकना x ४६०,५८४ गतौ जाना वि ३७०,५०८,५४६,५८४ छेदने छेदना सं ४६०,५३८,५५६,५८४ वरणे स्वीकार करना सं ४६० लज्जायाम् लज्जा करना सं ४६०,५२८,५५३ स्तुतौ च स्तुति और हिंसा सं ४६०,५१४,५४८ करना मर्षणे क्षमा करना सं ४६०,५८४ शंकायाम् शंका करना सं ४६०,५१६,५४८,५८४ शक्ती समर्थ होना, सकना वि ४२६,५३६,५५५,५८४ रुजाविशरणगत्यव रोगी होना, सडना, X ५१०,५४६ सादनेषु जाना, पतला होना कैतवे कपट करना सं ४६० शातने पतला करना सं ४६० आक्रोशे श्राप देना सं ४६०,५२२,५५०,५८६ आक्रोशे श्राप देना x ५३४,५५५,५८६ उपशमे शांत होना सं ४६०,५८६ जाना X ५२४,५५१ शंसु शकंन्च शकिङ् शक्लृत् शट शठ शलं. शपन् शपंन्च शम् शल गतो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध शसिङ् शसु शासुक शासुङ् शिक्ष शिष्ळुर् शीङ् शीलण शुच इच्छायाम् हिंसायाम् अनुशिष्टौ इच्छायाम् विद्योपादाने विशेषणे स्वप्ने समाधौ शोके शौचे शोभार्थ शोभार्थे शोभार्थे शोषणे हिंसायाम् तनूकरणे क्षरणे खेदतपसोः शुधंच् शुभ शुभज् शुम्भज् शुषंच् शश् शोंच 4. 4. श्च्युत इच्छा करना सं ४६० हिंसा करना सं ४६० अनुशासन करना वि ४०१,५८६ इच्छा करना सं ४६० सीखना सं ४६०,५२०,५५०,५८६. विशेषित करना सं ४६०,५४२,५५७,५८६. सोना वि ३४२,५२६,५५२,५८६ प्रसन्न चित्त रहना x ५४४ शोक करना वि ३३३,५०८,५४६,५८६ स्वच्छ होना सं ४६०,५३०,५५३,५८६. शोभित होना x ५५१ शोभित होना सं ५२२,५४०,५५६,५८६ शोभित होना सं ४६०,५४०,५५६ शोषण करना सं ४६०,५८६ हिंसा करना ४६०,५८६ छीलना सं ४६०,५८६ झरना सं ५१०,५४७ खेद पाना, तपस्या सं ४६२,५३२,५५४,५८६ करना सेवा करना वि ३८८,५२०,५५०,५८६ सुनना वि ३५६ प्रशंसा करना सं ४६२,५१६,५४६,५८६ आलिंगन करना सं ४६२,५३२,५५४,५८६ मिलाना, जोडना __ सं ४६२ श्वास लेना सं ४६२,५२६,५५२,५८६ मिलना ४६२,५०८,५४६,५८६ देना x ५४२,५५७,५८६ नष्ट होना, जाना, सं ४६२,५२२ ५५१,५८६ विषाद करना सहना सं ४६२,५८६ तृप्त होना x ५३० बांधना सिंचन करना सं ४६२,५३८,५५५,५८८ जाना x ५१२,५४७ श्रमुच् श्रिन् सेवायाम् श्रृंत् श्लाघृङ् श्लिषंच श्लिषण श्रवणे कत्थने आलिंगने श्लेषणे प्राणने 4. संगे श्वसक षजं षणुनव षद्लू षहङ् षहच् दाने विशरणगत्यवसादनेषु मर्षणे तृप्तौ बन्धने क्षरणे गत्याम् पिन्त x षिचंन्ज् विधु Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ षिधुंच् षिवुच् बुंक बुंन्त् षुहच् षूङ्क् षूच् षेवृङ् षोंच् ष्ट्यें ष्णिहूच् ष्णें ष्मिङ् ष्वपंक् विदांच् संराद्धौ तन्तुसन्ताने प्रसवैश्वर्ययो: सपर समर सर्ज सान्त्वण् अभिषवे तृप्तौ ष्टिधित् आस्कंदने ष्टिमच् आर्द्राभावे टीमच् आर्द्राभावे ष्टुंन्क् ष्टुभिङ् ष्ठगे ष्ठां ष्ठिवुच् ष्णांक् प्राणिप्रसवे सेवने तृप्त होना प्राणिगर्भविमोचने जन्म देना अन्तकर्मणि संघाते च स्तुतौ स्तम्भे संवरणे गतिनिवृत निरसने शौचे प्रीतौ वेष्टने ईषद् शये गात्रप्रक्षरणे पूजायाम् युद्धे अर्ज सामप्रयोगे तैयार होना सीना, बुनना उत्पन्न होना, ऐश्वर्य होना साधं त् संसिद्धौ गीला करना, मथना x सं प्रसव करना सेवा करना विनाश करना इकट्ठा करना, शब्द करना: आक्रमण करना भीगना भीगना स्तुति करना क्रिया का रुकना ढांकना सं ठहरना थूकना स्नान करना प्रेम करना वीटना थोडा हंसना सोना पसीने से लथपथ होना पूजा करना युद्ध करना अर्जन करना शांत करना, प्रिय वचन कहना फलप्राप्ति होना सं वि सं सं वि ४०५,५२६,५५२,५८८ सं ४ε२,५३४,५५४ ४६२,५२०,५५०,५८८ सं X X सं सं ५३६,५५५ ५३०, ५५३ X ५३०,५५३ वि ३४४,५२८, ५५२,५८८ X ५१८,५४८ X _५२४,५५१ वि ३२८,५८८ सं सं X X ४६२,५८८ ४६२,५३०,५५३, ५८८ ३६८, ५२४,५५२,५८८ ५३६,५५५,५८८ ४६२ सं X ४६२,५८८ ४६२ सं वि ३६६ X ३१७ ४६२, ५३०, ५५३ ४६२ ४६२, ५३२,५५४,५८८ ४६२ ४६२,५१६,५४८, ५८८ ५३०, ५५३ ४६२ ४६२ ४६२ ५८८ सं ४६२, ५३६,५५५,५८८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ वाक्यरचना बोध विसर्गे गर्जे 4. x चौर्य सुं प्रसवैश्वर्ययोः प्रसव करना, सं ४६४,५०८,५४६ ऐश्वर्य भोगना सुखण् तक्रियायाम् सुख भोगना सं ४६४ सूचण् पैशुन्ये सूचने चुगली करना सं ४६४ छिद्रकरणे सूचना करना, छेद करना सूत्रण ग्रन्थने संक्षिप्त करना सं ४६४ गतौ सरकना सं ४६४,५०८,५४६,५८८ सृजंच् विसर्ग बनाना, रचना.करना x ५३४,५५४ सृजंज बनाना, रचना करना सं ४६४,५३८,५५६,५८८ सृप्रों गतौ जाना सं ४६४,५१२,५४७,५८८ स्कन्द गतिशोषणयोः जाना, सुखाना सं ४६४,५१०,५४७,५८८ स्खल चलने स्खलित होना x ५१४,५४८,५८८ स्तनण गर्जना सं ४६४ स्तूंन्त् आच्छादने ढांकना ४६४,५३६,५५५ स्तन्श् आच्छादने आच्छादन करना वि ४४७,५४४,५५७ स्तेनण् चोरी करना सं ४६४ स्त्य संघाते च इकट्ठा करना, सं ४६४ शब्द करना स्निहण स्नेह करना वि ४५४ स्नुक प्रस्रवणे चूना, झरना x ५२६,५५२ स्पदिङ् किञ्चिच्चलनै फडकना सं ४६४,५८८ स्पर्धङ् स्पर्धा करना सं ४६४,५१८,५४६,५८८ स्पृशंज् छना वि ४३४,५४०,५५६,५८८ स्पृहण ईप्सायाम् चाहना वि ४५७,५४४,५६० स्फुल स्फुरणे फडकना, स्फुरित होना x ५४०,५५६ स्फुटङ् विकसने विक ४६४,५१०,५४६ स्फुटज् विकसने विकसित होना x ५४०,५५६,५६० स्फुरज् स्फुरणे फडकना सं ४६४,५६० चिन्तायाम् स्मरण करना वि ३२३ चिन्तायाम् याद करना सं ४६४,५६० स्यन्दुङ् प्रस्रवणे झरना, टपकना सं ४६४,५२२,५५१,५६० संसुङ् अवलंसने सरकना सं ४६४,५२२,५५१,५६० सम्भुङ् विश्वासे विश्वास करना x ५२२,५५१ स्नेहने संघर्षे स्पर्श . स्म स्मूं x Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३१६ 44.4. स्वद स्वन स्वपंक् स्वादङ् शये 4.x हनंक हांक हित् x हिक्किन् हिडिङ् हिसि हिसिण हुंक हुर्छा हृन् हृषच आस्वादने आस्वादन करना सं ४६४,५१८,५४६ शब्दे शब्द करना ___सं ४६४,५१२,५४७ सोना x ५६० आस्वादने आस्वादन करना सं ४६६ शब्दोपतापयोः शब्दकरना सं ४६६ दुःख लाना बलात्कारे हठ करना सं ४६६,५१०,५४६ पुरीषोत्सर्गे मलोत्सर्ग करना सं ४६६,४१८ हिंसागत्योः मारना, जाना वि ३४०,५२६,५५२,५६० हसने हंसना वि ३७६,५१४,५४८,५६० त्यागे छोडना वि ४१५,५२८,५५३,५६० गतिवृद्धयोः जाना, बढना ५३६,५५५,५६० अव्यक्ते शब्दे हिचकी आना सं ४६६ गतो जाना सं ४६६,५१६,५४६ हिंसायाम् हिंसा करना सं ४६६,५४२,५५७,५६० हिंसायाम् हिंसा करना वि ४५६,५६० दानादनयोः होम में वस्तु डालना सं ४६६,५२८,५५२,५६० कौटिल्ये कुटिलता करना सं ४६६ हरणे हरण करना वि ३२७,५२०,५५०,५६० प्रसन्न होना वि ४२१,५३२,५५४,५६० अनादरे अनादर करना x ५१६,५४६ जाना x ५२०,५५० अपनयने छिपाना x ५२६,५५२,५६० लज्जायाम् लज्जा करना x ५६० लज्जायाम् लज्जा करना सं ४६६ स्पर्धाशब्दयोः स्पर्धा और शब्दकरना वि ३६५,५६० सुखे च प्रसन्न होना - x ५१८,५४६ शब्द करना तुष्टौ हेषुङ गतौ ह नुक् ह्रींक ह्री लॅन् ह्लादीङ् Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ दस गणों की धातु रूपावली में ५८० धातुओं के रूप दिये गए हैं। १३२ धातुओं के दस लकारों के सभी रूप दिये गए हैं। धातुओं की अकारादि अनुक्रमणिका में उस धातु के आगे कोष्ठक में (वि) लिखा हुआ है । वि का अर्थ है विस्तार से। ४४८ धातुओं के दस लकारों के प्रथम पुरुष के एक वचन का एक-एक रूप दिया गया है। अनुक्रमणिका में उसका संकेत है (सं) याने संक्षिप्त रूप । धातुओं की अकारादि अनुक्रमणिका में धातुओं की पृष्ठ संख्या दी गई है। द्विवचन बहुवचन १. भू-सत्तायाम् (होना) तिबादि (लट्) धादि (लुङ्) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन भवति भवतः भवन्ति प्र० पु० अभूत् अभूताम् अभूवन् भवसि भवथः भवथ म० पु० अभूः अभूतम् अभूत भवामि भवावः भवामः उ० पु० अभूवम् अभूव अभूम पादादि (विषिलिङ) णबादि (लिट्) भवेत् भवेताम् भवेयुः प्र० पु० बभूव बभूवतुः बभूवुः भवेः भवेतम् भवेत म० पु० बभूविथ बभूवथुः बभूव भवेव भवेम उ० पु० बभूव बभूविव बभूविम तुबादि (लोट्) क्यादादि (आशीलिङ) भवतु, भवतात् भवताम् भवन्तु प्र० पु० भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः भव, भवतात् भवतम् भवत म० पु. भूयाः भूयास्तम् भूयास्त भवानि . भवाव भवाम उ० पु० भूयासम् भूयास्व भूयास्म दिबादि (लङ्) __अनद्यतन भविष्यति (तादि) (लुट्) अभवत अभवताम् अभवन् प्र० पु. भविता भवितारौ भवितारः अभवः अभवतम् अभवत म० पु० भवितासि भवितास्थः भवितास्थ अभवम् अभवाव अभवाम उ० पु० भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः भवेय Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२१ स्यत्यादि (लट्) स्यदादि (लङ्ग) भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति प्र० पु० अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन् भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ म० पु० अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत भविष्यामि भविष्याव: भविष्याम: उ० पु० अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम २. पां-पाने (पीना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन पिवति पिबत: पिबन्ति प्र० पु० पिबेत् पिबेताम् पिबेयुः पिबसि पिबथः पिबथः म० पु० पिबेः पिबेतम् पिबेत पिबामि पिबावः पिबामः उ० पु० पिबेयम् पिबेव पिबेम तुबादि दिबादि पिबतु, पिबतात् पिबताम् पिबन्तु प्र० पु० अपिबत् अपिबताम् अपिबन् पिब, पिबतात् पिबतम् पिबत म० पु० अपिबः अपिबतम् अपिबत पिबानि पिबाव पिबाम उ० पु० अपिबम् अपिबाव अपिबाम द्यादि णबादि अपात अपाताम् अपुः प्र० पु० पपौ पपतुः पपुः अपाः अपातम् अपात म० पु० पपिथ, पपाथ पपथुः पप अपाम् अपाव अपाम उ० पु० पपौ पपिव पपिम क्यादादि तादि पेयात् पेयास्ताम् पेयासुः प्र० पु० पाता पातारौ पातारः पेयाः पेयास्तम् पेयास्त म० पु० पातासि पातास्थः । पातास्थ पेयासम् पेयास्व पेयास्म उ० पु० पातास्मि पातास्वः । पातास्मः स्यत्यादि स्यदादि पास्यति पास्यत: पास्यन्ति प्र० पु० अपास्यत् अपास्यताम् अपास्यन् पास्यसि पास्यथ: पास्यथ म० पु० अपास्यः अपास्यतम् अपास्यत पास्यामि पास्याव: पास्यामः उ० पु० अपास्यम् अपास्याव अपास्याम ३. ग्रां - गन्धोपादाने (सूंघना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन जिघ्रति जिघ्रतः जिघ्रन्ति प्र० पु० जिघ्रत् जिघ्रताम् जिनेयुः जिघ्रसि जिघ्रथः जिघ्रथ म० पु० जिघ्रः जिघ्रतम् जिनेत जिघ्रामि जिघ्रावः जिघ्रामः उ० पु० जिनेयम् जिनेव जिप्रेम Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ तुबादि दिबादि जिघ्रतु, जिघ्रतात् जिघ्रताम् जिघ्रन्तु प्र० पु० अजिघ्रत् अजिघ्रताम् अजिघ्रन् जिघ्र, जिघ्रतात् जिघ्रतम् जिघ्रत म० पु० अजिघ्रः अजिघ्रतम् अजिघ्रत जिघ्राणि जिघ्राव जिघ्राम उ० पु० अजिघ्रम् अजिघ्राव अजिघ्राम चादि (१) द्यादि (२) अघ्रात् अघ्राताम् अघ्रः अघ्राः अघातम् अघात अघ्राम् अघ्राव अघ्राम णबादि जघ्रौ जघ्रतुः जनिथ, जघ्राथ जघ्रथुः जौ जधिव क्यादादि (२) घ्रायात् घायाः घ्रायास्ताम् घ्रायास्तम् तिबादि एकवचन द्विवचन जयति जयत: जयसि जयथ: जयामि जयावः तुबादि जयतु जयतात् जयताम् जघुः जघ जघ्रिम जय, जयतात् जयतम् जयानि जयाव प्र० पु० अघ्रासीत् अघ्रासिष्टाम् अघ्रासिषुः म० पु० अघ्रासीः अघ्रासिष्टम् अघ्रासिष्ट अघ्रासिषम् अघ्रासिष्व अप्रासिष्म क्यादादि (१) उ० पु० प्र० पु० घेयात् घेयास्ताम् प्रेयासुः घेयास्त म० पु० घेयाः घेयास्तम् घेयासम् घेयास्व उ० पु० घेयास्म तादि घ्रायासुः प्र० पु० प्रायास्त म० पु० घायास्म उ० पु० घ्रायासम् घायास्व स्यत्यादि स्यदादि प्रास्यति घ्रास्यतः प्रास्यन्ति प्र० पु० अत्रास्यत् अत्रास्यताम् अघ्रा स्यन् प्रास्यसि घास्यथः प्रास्यथ म० पु० अप्रास्यः अत्रास्यतम् अप्रास्यत प्रास्यामि घ्रास्यावः प्रास्यामः उ० पु० अघ्रास्यम् अत्रास्याव अघ्रास्याम ४. जि - जये ( जीतना ) बहुवचन जयन्ति जयथ जयामः यादि अजैषीत् अजैष्टाम् अजैषुः अजैषीः अजैष्टम् अजैष्ट अजैषम् अजैष्व अजैष्म यादादि घ्राता घ्रातारौ घ्रातारः घ्रातास्थः घ्रातास्थ घ्रातासि घ्रातास्मि घ्रातास्वः घ्रातास्मः प्र० पु० म० पु० उ० पु० एकवचन प्र० पु० म० पु० उ० पु० जयेत् जये: जयेयम् वाक्यरचना बोध दिबादि जयन्तु प्र० पु० जयत म० पु० जयाम उ० पु० अजयत् अजयः अजयम् णबादि द्विवचन जयेताम् जयेतम् जयेव बहुवचन जयेयुः जयेत जयेम अजयताम् अजयन् अजयतम् अजयत अजयाव अजयाम जिगाय जिग्यतु: जिग्युः जिगयिथ, जिगेथ जिग्यथु: जिग्य जिगाय, जिगय जिग्यिव जिग्यिम Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२३ तुबादि क्यादादि तादि जीयात् जीयास्ताम् जीयासुः प्र० पु० जेता जेतारौ जेतारः जीयाः जीयास्तम् जीयास्त म० पु० जेतासि जेतास्थः जेतास्थ जीयासम् जीयास्व जीयास्म उ० पु० जेतास्मि जेतास्वः जेतास्मः स्यत्यादि स्यदादि जेष्यति जेष्यतः जेष्यन्ति प्र० पु० अजेष्यत् अजेष्यताम् अजेष्यन् जेष्यसि जेष्यथः जेष्यथ म० पु. अजेष्यः अजेष्यतम् अजेष्यत जेष्यामि जेष्यावः जेष्यामः उ० पु० अजेष्यम् अजेष्याव अजेष्याम ५.९—गतो (जाना) तिबादि यादादि दवति दवतः दवन्ति प्र० पु० दवेत् दवेताम् दवेयुः दवसि दवथः दवथ म० पु० दवेः दवेतम् दवेत दवामि दवावः दवामः उ० पु० दवेयम् दवेव दवेम दिबादि दवतु, दवतात् दवताम् दवन्तु प्र० पु० अदवत् अदवताम् अदवन् दव, दवतात् दवतम् दवत म० पु० अदवः अदवतम् अदवत दवानि दवाव दवाम उ० पु० अदवम् अदवाव अदवाम धादि णबादि अदौषीत् अदौष्टाम् अदौषुः प्र० पु० दुदाव दुदुवतुः दुदुवुः अदौषीः अदौष्टम् अदौष्ट म० पु० दुदविथ, दुदोथ दुदुवथुः दुदुव अदौषम् अदौष्व अदौष्म उ० पु० दुदाव, दुदव दुदुविव दुदुविम क्यादादि तादि दूयात् दूयास्ताम् दूयासुः प्र० पु० दोता दोतारौ दोतारः दूयाः दूयास्तम् दूयास्त म० पु० दोतासि दोतास्थः दोतास्थ दूयासम् दूयास्व दूयास्म उ० पु० दोतास्मि दोतास्वः दोतास्मः स्यत्यादि स्यदादि दोष्यति दोष्यतः दोष्यन्ति प्र० पु० अदोष्यत् अदोष्यताम् अदोष्यन दोष्यसि दोष्यथः दोष्यथ म० पु० अदोष्यः अदोष्यतम् अदोप्यत दोप्यामि दोष्यावः दोष्यामः उ० पु० अदोष्यम् अदोष्याव अदोष्याम ६. स्मृ-चिन्तायाम् (स्मरण करना) तिबादि यादादि स्मरति स्मरतः स्मरन्ति प्र० पु० स्मरेत् स्मरेताम् स्मरेयुः स्मरसि स्मरथः स्मरथ म० पु० स्मरेः स्मरेतम् स्मरेत स्मरामि स्मरावः स्मरामः स्मरेव स्मरेम Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ वाक्यरचना बोध तुबादि दिबादि स्मरतु, स्मरतात् स्मरताम् स्मरन्तु प्र० पु० अस्मरत् अस्मरताम् अस्मरन् स्मर, स्मरतात् स्मरतम् स्मरत म० पु० अस्मरः अस्मरतम् अस्मरत स्मराणि स्मराव स्मराम उ० पु० अस्मरम् अस्मराव अस्मराम द्यादि णबादि अस्मार्षीत् अस्मार्टाम् अस्मार्ष: प्र. पु. सस्मार सस्मरतुः सस्मरुः अस्मार्षीः अस्माष्टम् अस्माष्टं म० पु० सस्मर्थ सस्मरथुः सस्मर अस्मार्षम् अस्मार्च अस्मार्म उ० पु० सस्मार, सस्मर सस्मरिव सस्मरिम क्यादादि तादि स्मर्यात् स्मर्यास्ताम् स्मर्यासुः प्र० पु० स्मर्ता स्मर्तारौ स्मर्तारः स्मर्याः स्मर्यास्तम् स्मर्यास्त म० पु० स्मर्तासि स्मर्तास्थः स्मर्तास्थ स्मर्यासम् स्मर्यास्व स्मर्यास्म उ० पु० स्मास्मि स्मर्तास्वः स्मर्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि स्मरिष्यति स्मरिष्यतः स्मरिष्यन्ति प्र० पु० अस्मरिष्यत् अस्मरिष्यताम् अस्मरिष्यन् स्मरिष्यसि स्मरिष्यथः स्मरिष्यथ म० पु० अस्मरिष्यः अस्मरिष्यतम् अस्मरिष्यत स्मरिष्यामि स्मरिष्यावः स्मरिष्यामः उ० पु० अस्मरिष्यम् अस्मरिष्याव अस्मरिष्याम ७.त-प्लवनतरणयोः (तैरना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तरति तरतः तरन्ति प्र० पु० तरेत् तरेताम् तरेयुः तरसि तरथः तरथ म० पु० तरेः तरतम् तरेत तरामि तरावः तराम: उ० पु० तरेयम् तरेव तरेम दिबादि तरतु, तरतात् तरताम् तरन्तु प्र० पु० अतरत् अतरताम् अतरन् तर, तरतात् तरतम् तरत म० पु० अतरः अतरतम् अतरत तराणि तराव तराम उ० पु० अतरम् अतराव अतराम द्यादि णबादि अतारीत् अतारिष्टाम् अतारिषुः प्र० पु० ततार तेरतुः तेरुः अतारी: अतारिष्टम् अतारिष्ट म० पु० तेरिथ तेरथुः तेर अतारिषम् अतारिष्व अतारिष्म उ० पु० ततार, ततर तेरिव तेरिम क्यादादि तादि (१) तीर्यात् तीर्यास्ताम् तीर्यासुः प्र० पु० तरीता तरीतारो तरीतारः तीर्याः तीर्यास्तम् तीर्यास्त म० पु० तरीतासि तरीतास्थः तरीतास्थ तीर्यासम् तीर्यास्व तीर्यास्म उ० पु० तरीतास्मि तरीतास्वः तरीतास्मः तुबादि Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । परिशिष्ट २ तादि (२) स्यत्यादि (१) तरिता तरितारौ तरितारः प्र० पु० तरीष्यति तरीष्यतः तरीष्यन्ति तरितासि तरितास्थः तरितास्थ म० पु० तरीष्यसि तरीष्यथः तरीष्यथः तरितास्मि तरितास्वः तरितास्मः उ० पु० तरीष्यामि तरीष्यावः तरीष्याम: स्यत्यादि (२) स्यदादि (१) तरिष्यति तरिष्यतः तरिष्यन्ति प्र० पु० अतरीष्यत् अतरीष्यताम् अतरीष्यन् तरिष्यसि तरिष्यथः तरिष्यथ म० पु० अतरीष्यः अतरीष्यतम् अतरीष्यत तरिष्यामि तरिष्याव: तरिष्याम: उ० पु० अतरीष्यम् अतरीष्याव अतरीष्याम ___ स्यदादि (२) अतरिष्यत् अतरिष्यताम् अतरिष्यन् प्र० पु० अतरिष्यः अतरिष्यतम् अतरिष्यत म० पु० अतरिष्यम् अतरिष्याव अतरिष्याम उ० पु० ८. ऋ-प्रापणे तिबादि यादादि ऋच्छति ऋच्छतः ऋच्छन्ति प्र० पु० ऋच्छेत् ऋच्छेताम् ऋच्छेयुः ऋच्छसि ऋच्छथः ऋच्छथ म० पु० ऋच्छेः ऋच्छेतम् ऋच्छेत ऋच्छामि ऋच्छावः ऋच्छामः उ० पु० ऋच्छेयम् ऋच्छेव ऋच्छेम दिबादि ऋच्छतु, ऋच्छतात् ऋच्छताम् ऋच्छन्तु प्र० पु० आर्च्छत् आर्च्छताम् आर्छन् ऋच्छ, ऋच्छतात् ऋच्छतम् ऋच्छत म० पु० आर्छः आर्च्छतम् आर्छत ऋच्छानि ऋच्छाव ऋच्छाम उ० पु० आर्छम् आर्छाव आज़म द्यादि (१) द्यादि (२) आरत् आरताम् आरन् प्र० पु० आर्षीत् आष्र्टाम् आर्युः आरः आरतम् आरत म० पु० आर्षीः आष्टम् आष्ट आरम् आराव आराम उ० पु० आर्षम् आर्व आर्म णबादि क्यादादि आर आरतुः आरुः प्र० पु० अर्यात् अर्यास्ताम् अर्यासुः आरिथ आरथुः आर म० पु० अर्याः अर्यास्तम् अर्यास्त आर आरिव आरिम उ० पु० अर्यासम् - अर्यास्व अर्यास्म तादि स्यत्यादि अर्ता अर्तारौ अर्तारः प्र० पु० अरिष्यति अरिष्यतः अरिष्यन्ति अर्तासि अर्तास्थः अस्थि म० पु० अरिष्यसि अरिष्यथः अरिष्यथ अर्तास्मि अस्विः अस्मिः उ० पु० अरिष्यामि अरिष्याव: अरिष्याम: तुबादि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध तुबादि चक्रतुः स्यदादि आरिष्यत आरिष्यताम् आरिष्यन् प्र० पु० आरिष्यः आरिष्यतम् आरिष्यत म० पु० आरिष्यम् आरिष्याव आरिष्याम उ० पु० _____E. डुकुन-करणे (उभयपदी) करना परस्मैपद तिबादि यादादि करोति कुरुतः कुर्वन्ति प्र० पु० कुर्यात् कुर्याताम् कुर्युः करोषि कुरुथः कुरुथ म० पु० कुर्याः कुर्यातम् । कुर्यात करोमि कुर्वः कुर्मः उ० पु० कुर्याम् कुर्याव कुर्याम दिबादि करोतु, कुरुतात् कुरुताम् कुर्वन्तु प्र० पु० अकरोत् अकुरुताम् अकुर्वन् कुरु, कुरुतात् कुरुतम् कुरुत म० पु० अकरोः अकुरुतम् अकुरुत करवाणि करवाव करवाम उ० पु० अकरवम् अकुर्व अकुर्म द्यादि णबादि अकार्षीत् अकार्टाम् अकार्षुः प्र० पु० चकार चक्रुः अकार्षीः अकाष्टम् अकार्ट म० पु० चकर्थ चक्रथुः चक्र अकार्षम् अकाल अकाम उ० पु० चकार, चकर चकृव चकृम क्यादादि तादि क्रियात् क्रियास्ताम् क्रियासुः प्र० पु० कर्ता कर्तारौ कर्तारः क्रियाः क्रियास्तम् क्रियास्त म० पु० कर्तासि कर्तास्थः कर्तास्थ क्रियासम् क्रियाष्व क्रियाष्म उ० पु० कर्तास्मि कर्तास्वः कर्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि करिष्यति करिष्यतः करिष्यन्ति प्र० पु० अकरिष्यत् अकरिष्यताम् अकरिष्यन् करिष्यसि करिष्यथः करिष्यथ म० पु० अकरिष्यः अकरिष्यतम् अकरिष्यत करिष्यामि करिष्याव: करिष्यामः उ० पु० अकरिष्यम् अकरिष्याव अकरिष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि कुरुते कुर्वाते कुर्वते प्र० पु० कुर्वीत कुर्वीयाताम् कुर्वीरन् कुरुषे कुर्वाथे कुरुध्वे म० पु० कुर्वीथाः कुर्वीयाथाम् कुर्वीध्वम् कुर्वे कुर्वहे कुर्महे उ० पु० कुर्वीय कुर्वीवहि कुर्वीमहि दिबादि कुरुताम् कुर्वाताम् कुर्वताम् प्र० पु० अकुरुत अकुर्वाताम् अकुर्वत कुरप्व म० पु० अकुरुथा: अकुर्वाथाम् अकुरुध्वम् करवै करवावहै करवामहै उ० पु० अकुवि अकुर्वहि अकुर्महि तुबादि Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ खादि अकृत अकृषाताम् अकृषत अकृथाः अकृषाथाम् अकृवम् अकृषि अकृष्वहि अकृमहि क्यादादि कृषीष्ट कृषीष्ठाः कृषीय कृषीयास्ताम् कृषीरन् कृषीयास्थाम् कृषीढ्वम् कृषीह तिबादि एकवचन हरति हरतः हरसि हरथः हरामि हरावः बादि द्विवचन हरतु, हरतात् हरताम् हर, हरतात् हरतम् हराणि हराव द्यादि बहुवचन हरन्ति हरथ हरामः हियात् ह्रियास्ताम् ह्रियास्तम् हिया हियासम् ह्रियास्व प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० कर्ता म० पु० कर्ता उ० पु० कर्ताहे स्यत्यादि trafa करिष्यते करिष्येते करिष्यन्ते प्र० पु० अकरिष्यत अकरिष्येताम् अकरिष्यन्त करिष्यसे करिष्येथे करिष्यध्वे म० पु० अकरिष्यथाः अकरिष्येथाम् अकरिष्यध्वम् करिष्ये करिष्या व करिष्यामहे उ० पु० अकरिष्ये अकरिष्यावहि अकरिष्यामहि १०. हृन् - हरणे (उभयपदी) हरना परस्मैपद हरन्तु हरत हराम अहार्षीत् अहाम् अहार्षुः अहार्षीः अहार्ष्टम् अहा अहार्षम् अहार्श्व अहा क्यादादि णबादि चक्रे चकृषे चक्रे तादि यादादि एकवचन प्र० पु० हरेत् म० पु० हरेः उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० हरेयम् fearfa प्र० पु० अहरत् म० पु० अहरः उ० पु० अहरम् णबादि चक्राते चक्रा चक्रिरे चकृढ्वे चव चकृमहे ह्रियासुः प्र० पु० हर्ता ह्रियास्त हियास्म द्विवचन हरेताम् हरेतम् हरेव जहार जहर्थ जहार, जहर तादि ३२७ कर्तारौ कर्तारः कर्तासाथे कर्ताध्वे कर्तास्वहे कर्तास्महे अहरताम् अहरतम् अहराव म० पु० हर्तासि बहुवचन हरेयुः हरे हम अहरन् अहरत अहराम हर्तारौ हर्तारः हर्तास्थः हर्तास्थ उ० पु० हर्तास्मि हर्तास्वः हर्तास्मः जह्रतुः जह्र ुः जह जह्रथुः जह्निव जहिम Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ : स्यत्यादि स्यदादि हरिष्यसि हरिष्यथः हरिष्यन्ति हरिष्यामि हरिष्यावः हरिष्यामः हरिष्यति हरिष्यतः हरिष्यन्ति प्र० पु० अहरिष्यत् अहरिष्यताम् अहरिष्यन् म० पु० अहरिष्यः अहरिष्यतम् अहरिष्यत उ० पु० अहरिष्यम् अहरिष्याव अहरिष्याम आत्मनेपद तिबादि हर हरे हरसे हरे तुबादि हरताम् हरेताम् हरेथाम् हराव है हरस्व हर urfa हरेथे हराव हे हरामहे अहृत अहृषाताम् अहृथाः अहृषाथाम् हरन्ते वे हरन्ताम् हरध्वम् हराम है तिबादि एकवचन द्विवचन तिष्ठति तिष्ठसि तिष्ठामि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० हरिष्यते हरिष्येते हरिष्यन्ते प्र० पु० हरिष्यसे हरिष्येथे हरिष्यध्वे म० पु० हरिष्ये हरिष्यावहे हरिष्यामहे उ० पु० प्र० पु० अहृषत अहृढ्वम् म० पु० यादादि हरेत हरेथाः हरेय अहृषि अहृष्वहि अहृष्महि उ० पु० जह क्यादादि बहुवचन तिष्ठन्ति तिष्ठतः तिष्ठथः तिष्ठथ तिष्ठावः तिष्ठामः दिबादि अहरत अहरथाः अहरे बादि तादि हृषीष्ट हृषीयास्ताम् हृषीरन् प्र० पु० हर्ता हृषीयास्थाम् हृषीढ्वम् हर्तासे हृषीवहि हृषीवहि उ० पु० हर्ताह स्यदादि हृषीष्ठाः म० पु० हृषीय स्यत्यादि जह जह्निषे हरेयाताम् हरेयाथाम् हरेवहि ११. ष्ठां - गतिनिवृत्तौ ( ठहरना ) यादादि एकवचन अहरेताम् अहरन्त अहरेथाम् अहरध्वम् अहरावहि अहरामहि तिष्ठेत् तिष्ठे: वाक्यरचना बोध प्र० पु० म० पु० उ० पु० तिष्ठेयम् हरेरन् हरेध्वम् हरेमहि जाते जहिरे जह्नाथे अहरिष्यत अहरिष्येताम् अहरिष्यन्त अहरिष्यथाः अहरिष्येथाम् अहरिष्यध्वम् अहरिष्ये अहरिष्यावहि अहरिष्यामहि जह्रिध्वे, जह्रिवे विहे जमिहे हर्तारौ हर्तारः हर्तासाथे हर्तावे हर्ताव हर्यास्महे द्विवचन बहुवचन तिष्ठेताम् तिष्ठेयुः तिष्ठेतम् तिष्ठेत तिष्ठेव तिष्ठेम : Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२६ तुबादि दिबादि तिष्ठतु, तिष्ठतात् तिष्ठताम् तिष्ठन्तु प्र० पु० अतिष्ठत् अतिष्ठताम् अतिष्ठन् तिष्ठ, तिष्ठतात् तिष्ठतम् तिष्ठत म० पु० अतिष्ठः अतिष्ठतम् अतिष्ठत तिष्ठानि तिष्ठाव तिष्ठाम उ० पु. अतिष्ठम् अतिष्ठाव अतिष्ठाम धादि णबादि अस्थात् अस्थाताम् अस्थुः प्र० पु० तस्थौ तस्थतुः तस्थुः अस्थाः अस्थातम् अस्थात म० पु० तस्थिथ, तस्थाथ तस्थथुः तस्थ अस्थाम् अस्थाव अस्थाम उ० पु० तस्थौ तस्थिव तस्थिम क्यादादि तादि स्थेयात् स्थेयास्ताम् स्थेयासुः प्र० पु० स्थाता स्थातारौ स्थातारः स्थेयाः स्थेयास्तम् स्थेयास्त म० पु० स्थातासि स्थातास्थः स्थातास्थ स्थेयासम् स्थेयास्व स्थेयास्म उ० पु० स्थातास्मि स्थातास्व: स्थातास्मः स्यत्यादि स्यदादि स्थास्यति स्थास्यतः स्थास्यन्ति प्र० पु० अस्थास्यत् अस्थास्याताम् अस्थास्यन् स्थास्यसि स्थास्यथः स्थास्यथ म० पु० अस्थास्यः अस्थास्यतम् अस्थास्यत स्थास्यामि स्थास्यामः स्थास्यावः उ० पु० अस्थास्यम् अस्थास्याव अस्थास्याम १२. धेट-पाने (पीना) तिबादि यादादि धयति ___धयतः धयन्ति प्र० पु. धयेत् धयेताम् धयेयुः धयसि धयथः धयथ म० पु० धयेः धयेतम् धयेत धयावः धयामः उ० पु० धयेयम् धयेव धयेम तुबादि दिबादि धयतु, धयतात् धयताम् धयन्तु प्र० पु० अधयत् अधयताम् अधयन् धय, धयतात् धयतम् धयत म० पु० अधयः अधयतम् अधयत धयानि धयाव धयाम उ० पु० अधयम् अधयाव अधयाम धादि (१) द्यादि (२) अदधत् अदधताम अदधन् प्र० पु० अधात् अधाताम् अधुः अदधः अदधतम् अदधत म० पु० अधाः अधातम् अधात अदधम् अदधाव अदधाम उ० पु० अधाम् अधाव बादि अधासीत् अधासिष्टाम् अधासिषुः प्र० पु० दधौ दधतुः दधुः अधासीः अधासिष्टम् अधासिष्ट म० पु० दधिथ, दधाथ दधथुः दध अधासिषम् अधासिष्व अधासिष्म उ० पु० दधौ दधिव दधिम धयामि अधाम Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० क्यादादि धेयात् धेयाः धेयास्ताम् धेयास्तम् धेयासुः प्र० पु० धेयास्त म० पु० धेयात्म उ० पु० धेयासम् धेयास्व स्यत्यादि धास्यति धास्यतः धास्यन्ति धास्यसि धास्यथः धास्यथ धास्यामि धास्यावः धास्यामः प्र० पु० अधास्यत् म० पु० अधास्यः उ० पु० अधास्यम् १३. इंक् - स्मरणे ( अधिपूर्वक ) यादादि तादि धाता धातारी धातासि धातास्थः धातास्मि धातास्वः स्यदादि तिबादि ध्यायति ध्यायतः ध्यायसि ध्यायथः ध्यायथ ध्यायामि ध्यायावः ध्यायामः ध्यायन्ति तिबादि अध्येति अधीतः अधियन्ति, अधीयन्ति प्र० पु० अधीयात् अधीयाताम् अधीयुः अध्येषि अधीथः अधीथ अध्येमि अधीवः अधीम म० पु० अधीयाः अधीयातम् अधीयात उ० पु० अधीयाम् अधीयाव अधीयाम दिबादि तुबादि अध्येतु, अधीतात् अधीताम् अधियन्तु, अधीयन्तु प्र० पु० अध्येत् अध्येताम् अध्यायन् अहि, अधीतात् अधीतम् अधीत अध्ययानि अधीयाव अधीयाम चादि म० पु० अध्यैः अध्यतम् अध्येत उ० पु० अध्यायम् अध्यैव अध्यैम णबादि अध्यगात् अध्यगाताम् अध्यगुः प्र० पु० अध्यगाः अध्यगातम् अध्यगात म० पु० अध्यगाम् अध्यगाव अध्यगाम उ० पु० अधीयाय अधीयतुः अधीयुः अधीर्यायथ, अधीयेथ अधीयथुः अधीय अधीयाय, अधीयय अधीयिव अधीयिम तादि क्यादादि अधीयात् अधीयास्ताम् अधीयासुः प्र० पु० अध्येता अध्येतारौ अध्येतारः अधीया: अधीयस्तम् अधीयास्त म० पु० अध्येतासि अध्येतास्थः अध्येतास्थ अधीयासम् अधीयास्व अधीयास्म उ० पु० अध्येतास्मि अध्येतास्व अध्येतास्म स्यत्यादि स्यदादि अध्येष्यति अध्येष्यतः अध्येष्यन्ति प्र० पु० अध्यैष्यत् अध्येष्यताम् अध्यष्यन् अध्येष्यसि अध्येष्यथः अध्येष्यथ म० पु० अध्यैष्य: अध्यैष्यतम् अध्यैष्यत अध्येष्यामि अध्येष्यावः अध्येष्यामः उ० पु० अध्येष्यम् अध्येष्याव अध्येष्याम १४. ध्यें - चितायाम् यादादि प्र० पु० ध्यायेत् म० पु० उ० पु० वाक्यरचना बोध धातारः धातास्थ धातास्मः अधास्यताम् अधास्यन् अधास्यत अधास्यतम् अधास्याव अधास्याम ध्यायेः ध्यायेयम् ध्यायेव ध्यायेताम् ध्यायेयुः ध्यायेम् ध्यायेत ध्यायेम Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ काट तुबादि दिबादि ध्यायतु, ध्यायतात् ध्यायताम् ध्यायन्तु प्र० पु० अध्यायत् अध्यायताम् अध्यायन् ध्याय, ध्यायतात् ध्यायतम् ध्यायत म० पु० अध्याय: अध्यायतम् अध्यायत ध्यायानि ध्यायाव ध्यायाम उ० पु० अध्यायम् अध्यायाव अध्यायाम धादि बादि अध्यासीत् अध्यासिष्टाम् अध्यासिषुः प्र० पु० दध्यौ दध्यतुः दध्युः अध्यासीः अध्यासिष्टम् अध्यासिष्ट म० पु० दध्याथ, दध्यिथ दध्यथुः दध्य अध्यासिषम् अध्यासिष्व अध्यासिष्म उ० पु० दध्यौ दध्यिव दध्विम क्यादादि (१) ध्येयात् ध्येयास्ताम् ध्येयासुः प्र० पु० ध्यायात् ध्यायास्ताम् ध्यायासुः ध्येयाः ध्येयास्तम् ध्येयास्त म० पु० ध्यायाः ध्यायास्तम् ध्यायास्त ध्येयासम् ध्येयास्व ध्येयास्म उ० पु० ध्यायासम् ध्यायास्व ध्यायास्म तादि स्यत्यादि ध्याता ध्यातारौ ध्यातारः प्र० पु० ध्यास्यति ध्यास्यतः ध्यास्यन्ति ध्यातासि ध्यातास्थः ध्यातास्थ म० पु० ध्यास्यसि ध्यास्यथः ध्यास्यथ ध्यातास्मि ध्यातास्वः ध्यातास्मः उ० पु० ध्यास्यामि ध्यास्यावः ध्यास्यामः स्यदादि अध्यास्यत् अध्यास्यताम् अध्यास्यन् प्र० पु० अध्यास्यः अध्यास्यतम् अध्यास्यत अध्यास्याव अध्यास्याम उ० पु० १५. पठ-व्यक्तायां वाचि (पढना) तिबादि पठति पठतः पठन्ति प्र० पु० पठेत् पठेताम् पठसि पठयः पठथ म० पु० पठेः पठेतम् पठेत पठामि पठावः पठामः उ० पु० पठेयम् पठेव पठेम दिबादि पठतु, पठतात् पठताम् पठन्तु प्र० पु० अपठत् अपठताम् अपठन् पठ, पठतात् पठतम् पठत म० पु० अपठः अपठतम् अपठत पठानि ... पठाव पठाम उ० पु० अपठम् अपठाव अपठाम चादि (१) ___घादि (२) अपाठीत् अपाठिष्टाम् अपाठिषुः प्र० पु० अपठीत् अपठिष्टाम् अपठिषुः अपाठी: अपाठिष्टम् अपाठिष्ट म० पु० अपठीः. अपठिष्टम् . अपठिष्ट अपाठिषम् अपाठिष्व अपाठिष्म उ० पु० अपठिषम् अपठिष्व अपठिष्म अध्यास्यम यादादि तुबादि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ वाक्यरचना बोक पेठिथ णबादि क्यादादि पपाठ पेठतुः पेठुः प्र० पु० पठ्यात् पठ्यास्ताम् पठ्यासुः पेठथुः पेठ म० पु० पठ्याः पठ्यास्तम् पठ्यास्त पपाठ, पपठ पेठिव पेठिम उ० पु० पठ्यासम् पठ्यास्व पठ्यास्म तादि स्यत्यादि पठिता पठितारौ पठितारः प्र० पु० पठिष्यति पठिष्यतः पठिष्यन्ति पठितासि पठितास्थः पठितास्थ म० पु० पठिष्यसि पठिष्यथः पठिष्यथ पठितास्मि पठितास्वः पठितास्मः उ० पु० पठिष्यामि पठिष्यावः पठिष्यामः स्यदादि अपठिष्यत् अपठिष्यताम् अपठिष्यन् प्र० पु० अपठिष्यः अपठिष्यतम् अपठिष्यत म० पु० अपठिष्यम् अपठिष्याव अपठिष्याम उ० पु० १६. वाछि-इच्छायाम् (इच्छा करना) तिबादि यादादि वाञ्छति वाञ्छतः वाञ्छन्ति प्र० पु० वाञ्छेत् वाञ्छेताम् वाञ्छेयुः वाञ्छसि वाञ्छथः वाञ्छ्थ म० पु० वाञ्छेः वाञ्छेतम् वाञ्छेत वाञ्छामि वाञ्छावः वाञ्छामः उ० पु. वाञ्छेयम् वाञ्छेव वाञ्छेम तुबादि दिबादि वाञ्छतु, वाञ्छतात् वाञ्छताम् वाञ्छन्तु प्र० पु० अवाञ्छत् अवाञ्छताम् अवाञ्छन् वाञ्छ, वाञ्छतात् वाञ्छतम् वाञ्छत म० पु० अवाञ्छः अवाञ्छतम् अवाञ्छत. वाञ्छानि वाञ्छाव वाञ्छाम उ० पु० अवाञ्छम् अवाञ्छाव अवाञ्छाम धादि णबादि अवाञ्छीत् अवाञ्छिष्टाम् अवाञ्छिषुः प्र० पु० ववाञ्छ ववाञ्छतुः ववाञ्छुः अवाञ्छीः अवाञ्छिष्टम् अवाञ्छिष्ट म० पु० ववाञ्छ्थि ववाञ्छ्थुः ववाञ्छ अवाञ्छिषम् अवाञ्छिष्व अवाञ्छिष्म उ० पु० ववाञ्छ ववाञ्छ्वि ववाञ्छिम क्यादादि तादि वाञ्छ्यात् वाञ्छ्यास्ताम् वाञ्छ्यासुः प्र० पु० वाञ्छिता वाञ्छितारौ वाञ्छितारः वाञ्छ्याः वाञ्छ्यास्तम् वाञ्छ्यास्त म० पु० वाञ्छितासि वाञ्छितास्थः वाञ्छितास्थ वाञ्छ्यासम् वाञ्छ्यास्व वाञ्छ्यास्म उ० पु० वाञ्छितास्मि वाञ्छितास्वः वाञ्छितास्मः Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टः २ ३३३ : स्यत्यादि वाञ्छिष्यति वाञ्छिष्यतः वाञ्छिष्यन्ति प्र० पु० वाञ्छिष्यसि वाञ्छिष्यथः वाञ्छिष्यथ म० पु० वाञ्छिष्यामि वाञ्छिष्यावः वाञ्छिष्यामः उ० पु० स्यदादि अवाञ्छिष्यत् अवाञ्छिष्यताम् अवाञ्छिष्यन् प्र० पु. अवाञ्छिष्यः अवाञ्छिष्यतम् अवाञ्छिष्यत म० पु० अवाञ्छिष्यम् अवाञ्छिष्याव अवाञ्छिष्याम उ० पु० १७. शुच् (शोके) शोक करना तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन शोचति शोचतः शोचन्ति प्र० पु० शोचेत् शोचेताम् शोचेयुः शोचसि शोचथः शोचथ म० पु० शोचेः शोचेतम् शोचेत शोचामि शोचावः शोचाम: उ० पु० शोचेयम् शोचेव शोचेम तुबादि दिबादि शोचतु, शोचतात् शोचताम् शोचन्तु प्र० पु० अशोचत् अशोचताम् अशोचन् शोच, शोचतात् शोचतम् शोचत म० पु० अशोचः अशोचतम् अशोचत शोचानि शोचाव शोचाम उ० पु. अशोचम् अशोचाव अशोचाम द्यादि णबादि अशोचीत् अशोचिष्टाम् अशोचिषु: प्र० पु० शुशोच शुशुचतुः शुशुचुः अशोची: अशोचिष्टम् अशोचिष्ट म० पु० शुशोचिथ शुशुचथुः शुशुच अशोचिषम् अशोचिष्व अशोचिष्म उ० पु० शुशोच शुशुचिव शुशुचिम क्यादादि तादि शुच्यात् शुच्यास्ताम् शुच्यासुः प्र० पु० शोचिता शोचितारौ शोचितारः शुच्याः शुच्यास्तम् शुच्यास्त म० पु० शोचितासि शोचितास्थः शोचितास्थ . शुच्यासम् शुच्यास्व शुच्यास्म उ० पु. शोचितास्मि शोचितास्व: शोचितास्मः स्यत्यादि शोचिष्यति शोचिष्यतः शोचिष्यन्ति प्र० पु० शोचिष्यसि शोचिष्यथः शोचिष्यथ म० पु० शोचिष्यामि शोचिष्यावः शोचिष्यामः उ० पु० स्यदादि अशोचिष्यत् अशोचिष्यताम् अशोचिष्यन् प्र० पु० अशोचिष्यः अशोचिष्यतम् अशोचिष्यत म० पु० अशोचिष्यम् अशोचिष्याव अशोचिष्याम उ० पु० T Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना कोष तुबादि जग्म innfullminili iliit १८. गम्ल-गतौ (जाना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन गच्छति गच्छतः गच्छन्ति प्र० पु० गच्छेत् गच्छेताम् गच्छेयुः गच्छसि गच्छथः गच्छथ म० पु० गच्छः गच्छेतम् गच्छेत गच्छामि गच्छावः गच्छामः उ० पु० गच्छेयम् गच्छेव गच्छेम दिबादि गच्छतु, गच्छतात् गच्छताम् गच्छन्तु प्र० पु. अगच्छत् अगच्छताम् अगच्छन् गच्छ, गच्छतात् गच्छतम् गच्छत म० पु० अगच्छः अगच्छतम् अगच्छत गच्छानि गच्छाव गच्छाम उ० पु० अगच्छम् अगच्छाव अगच्छाम धादि बादि अगमत् अगमताम् अगमन् प्र० पु. जगाम जग्मुः अगमः अगमतम् अगमत म० पु० जगमिथ, जगन्थ जग्मथुः जग्म अगमम् अगमाव अगममाम उ० पु० जगाम, जगम जग्मिव जग्मिम यादादि तादि गम्यात् गम्यास्ताम् गम्यासुः प्र० पु० गन्ता गन्तारो गन्तारः गम्या: गम्यास्तम् गम्यास्त म० पु० गन्तासि गन्तास्थः गन्तास्थ गम्यासम् गम्यास्व गम्यास्म उ० पु० गन्तास्मि गन्तास्वः गन्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि गमिष्यति गमिष्यतः गमिष्यन्ति प्र० पु० अगमिष्यत् अगमिष्यताम् अगमिष्यन् गमिष्यसि गमिष्यथः गमिष्यथ म० पु० अगमिष्यः अगमिष्यतम् अगमिष्यत गमिष्यामि गमिष्याव: गमिष्यामः उ० पु० अगमिष्यम् अगमिष्याव अगमिष्याम १६. दृशृं-प्रेक्षणे (देखना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन पश्यति पश्यतः पश्यन्ति प्र० पु० पश्येत् पश्येताम् पश्येयुः पश्यसि पश्यथः पश्यथ म० पु० पश्ये: पश्येतम् पश्येत पश्यामि पश्यावः पश्यामः उ० पु० पश्येयम् पश्येव पश्येम तुबादि दिबादि पश्यतु, पश्यतात् पश्यताम् पश्यन्तु प्र० पु० अपश्यत् अपश्यताम् अपश्यन् पश्य, पश्यतात् पश्यतम् पश्यत म० पु० अपश्यः अपश्यतम् अपश्यत पश्यानि पश्याव पश्याम उ० पु० अपश्यम् अपश्याव अपश्याम Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टा परिशिष्ट २ ३३५ यादि (१) बादि (२) अदर्शत् अदर्शताम् अदर्शन प्र० पु० अद्राक्षीत् अद्राष्टाम् अद्राक्षुः अदर्शः अदर्शतम् अदर्शत म० पु० अद्राक्षीः अद्राष्टम् अद्राष्ट अदर्शम् अदर्शाव अदर्शाम उ० पु० अद्राक्षम् अद्राक्ष्व अद्राक्ष्म णबादि क्यादादि ददर्श ददृशतुः ददृशुः प्र० पु० दृश्यात् दृश्यास्ताम् दृश्यासुः ददशिथ, दद्रष्ठ ददृशथुः ददृश म० पु० दृश्याः दृश्यास्तम् दृश्यास्त ददर्श ददृशिव ददृशिम उ० पु० दृश्यासम् दृश्यास्व दृश्यास्म तादि स्यत्यादि द्रष्टारौ द्रष्टारः प्र० पु० द्रक्ष्यति द्रक्ष्यतः द्रक्ष्यन्ति द्रष्टासि द्रष्टास्थः द्रष्टास्थ म० पु० द्रक्ष्यसि द्रक्ष्यथः द्रक्ष्यथ द्रष्टास्मि द्रष्टास्वः द्रष्टास्मः उ० पु० द्रक्ष्यामि द्रक्ष्याव: द्रक्ष्यामः स्यदादि अद्रक्ष्यत् अद्रक्ष्यताम् अद्रक्ष्यन् अद्रक्ष्यः अद्रक्ष्यतम् अद्रक्ष्यत म० पु० अद्रक्ष्यम् अद्रक्ष्याव अद्रक्ष्याम उ० पु० २०. वदिङ्-अभिवादनस्तुत्यो : (अभिवादन करना, स्तुति करना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन वन्दते वन्देते वन्दन्ते प्र० पु० वन्देत वन्देयाताम् वन्देरन वन्दसे वन्देथे वन्दध्वे म० पु० वन्देथाः वन्देयाथाम् वन्देध्वम् वन्दे वन्दावहे वन्दामहे उ० पु० वन्देय वन्देवहि वन्देमहि तुबादि दिबादि वन्दताम् वन्देताम् वन्दन्ताम् प्र० पु० अवन्दत अवन्देताम् अवन्दन्त वन्दस्व वन्देथाम् वन्दध्वम् म० पु० अवन्दथा: अवन्देथाम् अवन्दध्वम वन्दै वन्दावहै वन्दामहै उ० पु० अवन्दे अवन्दावहि अवन्दामहि द्यादि णबादि अवन्दिप्ट अवन्दिषाताम् अवन्दिषत प्र० पु० ववन्दे ववन्दाते ववन्दिरे अवन्दिष्ठाः अवन्दिषाथाम् अवन्दिढ्वम्, म० पु० ववन्दिषे ववन्दाथे ववन्दिध्वे अवन्दिध्वम् अवन्दिषि अवन्दिष्वहि अवन्दिष्महि उ० पु० ववन्दे ववन्दिवहे ववन्दिमहे Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ क्यादादि तादि वन्दिषीष्ट वन्दिषीयास्ताम् वन्दिषीरन् प्र० पु० वन्दिता वन्दितारी वन्दितारः वन्दषीष्ठाः वन्दिषीयास्थाम् वन्दिषीध्वम् म० पु० वन्दितासे वन्दितासाथे वन्दिताध्वे वन्दिषीय वन्दिषीवहि वन्दिषीमहि उ. पु० वन्दिताहे वन्दितास्वहे वन्दितास्महे स्यत्यादि स्यदादि वन्दिष्यते वन्दिष्येते वन्दिष्यन्ते प्र० पु० अवन्दिष्यत अवन्दिष्येताम् अवन्दिष्यन्त वन्दिष्यसे वन्दिष्येथे वन्दिष्यध्वे म० पु० अवन्दिष्यथाः अवन्दिष्येथाम् अवदिष्यध्वम् वन्दिष्ये वन्दिष्यावहे वन्दिष्यामहे उ० पु० अवन्दिष्ये अवन्दिष्यावहि अवन्दिष्यामहि २१. अदं - भक्षणे (खाना) यादादि तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन अत्ति अत्तः अदन्ति असि अत्थः अद्मि अवः सुबादि अत्थ अद्मः अत्तु, अत्तात् अत्ताम् अदन्तु अद्धि, अत्तात् अत्तम् अत्त अदाम अदानि अदाव द्यादि अघसत् अघसः अघसम् अघसाव जबादि (२) आद आदतुः आदुः आदिथ आदथुः आद आद आदिव आदिम तादि एकवचन प्र० पु० अद्यात् म० पु० अद्याः उ० पु० अद्याम् अत्ता अत्तारौ अत्तारः अत्तासि अत्तास्थः अत्तास्थ अत्तास्मि अत्तास्वः अत्तास्मः traifa आत्स्यत् आत्स्यताम् आत्स्यः आत्स्यतम् आत्स्यम् आत्स्याव प्र० पु० आदत् म० पु० आदः उ० पु० आदम् अघसताम् अघसन् प्र० पु० जघास' अघसतम् अघसत म० पु० जघसिथ दिबादि द्विवचन अद्याताम् अद्यातम् अद्याव आत्ताम् आत्तम् आद्व बादि (१) आत्स्यन् आत्स्यत आत्स्याम वाक्यरचना बोध जक्षतुः जक्षुः जक्षथुः जक्ष अघसाम उ० पु० जघास, जघस जक्षिव जक्षिम क्यादादि बहुवचन अद्युः अद्यात अद्याम प्र० पु० म० पु० उ० पु० आदन् आत्त आम अद्यासुः प्र० पु० अद्यात् अद्यास्ताम् अद्यास्तम् अद्यास्त अद्यास्म म० पु० अद्याः उ० पु० अद्यासम् अद्यास्व स्यत्यादि प्र० पु० अत्स्यति अत्स्यत: अत्स्यन्ति म० पु० अत्स्यसि उ० पु० अत्स्यामि अत्स्यथः अत्स्यथ अत्स्यावः अत्स्यामः Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन याति यातः यान्ति यासि याथः यामि यावः तुबादि यातु, यातात् याताम् याहि, यातात् यातम् व्यानि याव धादि अयासीत् अयासी: २२. यां - गतौ ( जाना) यादादि याथ यामः अयासिषम् अयासिष् क्यादादि यायात् याया: यान्तु यात याम एकवचन प्र० पु० यायात् म० पु० यायाः उ० पु० यायाम् द्विवचन यायाताम् यायातम् यायाव fearfa प्र० पु० अयात् म० पु० अया: उ० पु० अयाम् णबादि अयासिष्टाम् अयासिषुः प्र० पु० ययौ अयासिष्टम् तिबादि बहुवचन एकवचन द्विवचन रोदिति रुदितः रुदन्ति रोदिषि रुदिथः रुदिथ रोदिमि. रुदिव: रुदिमः ३३७ बहुवचन यायुः यायात यायाम अयाताम् अयु: अयातम् अयात अयाव अयाम ययतुः ययुः अयासिष्ट म० पु० ययिथ, ययाथ ययथुः यय अयासिष्व उ० पु० ययौ ययिव ययिम तादि यायास्ताम् यायासुः प्र० पु० याता यातारौ यातारः यायास्तम् यायास्त यायास्म यायासम् यायास्व स्यत्यादि म० पु० यातासि यातास्थः यातास्थ उ० पु० यातास्मि यातास्वः यातास्मः स्यदादि यास्यति यास्यतः यास्यन्ति प्र० पु० अयास्यत् अयास्यताम् अयास्यन् यास्यसि यास्यथः यास्यथ म० पु० अयास्यः अयास्यतम् अयास्यत यास्यामि यास्यावः यास्यामः उ० पु० अयास्यम् अयास्याव अयास्याम २३. रुदृक् - अश्रुविमोचने ( रोना) यादादि एकवचन द्विवचन प्र० पु० रुद्यात् रुद्याताम् म० पु० रुद्याः रुद्यातम् उ० पु० रुद्याम् रुद्याव दिबादि बहुवचन रुद्युः रुद्यात रुद्याम तुबादि रुदिहि, रुदितात् रुदितम् दाव रोदितु, रुदितात् रुदिताम् रुदन्तु प्र० पु० अरोदीत्, अरोदत् अरुदिताम् अरुदन् रुदित म० पु० अरोदी:, अरोद: अरुदितम् अरुदित रोदाम उ० पु० अरोदम् अरुदिव अरुदिम दानि Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ वाक्यरबना दोष खादि (१) नादि (२) अरोदीत् अरोदिष्टाम् अरोदिषुः प्र० पु० · अरुदत् अरुदताम् अरुदन् अरोदी: अरोदिष्टम् अरोदिष्ट म० पु० अरुदः अरुदतम् अरुदत अरोदिषम् अरोदिष्व अरोदिष्म उ० पु० अरुदम् अरुदाव अरुदाम णबादि क्यादादि रुरोद रुरुदतु: रुरुदुः प्र० पु० रुद्यात् रुद्यास्ताम् रुद्यासुः रुरोदिथ रुरुदथुः रुरुद म० पु० रुद्याः रुद्यास्तम् रुद्यास्त रुरोद रुरुदिव रुरुदिम उ० पु० रुद्यासम् रुद्यास्व रुद्यास्म तादि स्यत्यादि रोदिता रोदितारौ रोदितारः प्र० पु० रोदिष्यति रोदिष्यतः रोदिष्यन्ति रोदितासि रोदितास्थः रोदितास्थ म० पु० रोदिष्यसि रोदिष्यथ: रोदिष्यथ रोदितास्मि रोदितास्वः रोदितास्मः उ० पु० रोदिष्यामि रोदिष्यावः रोदिष्यामः स्यदादि यादादि अरोदिष्यत् अरोदिष्यताम् अरोदिष्यन् प्र० पु० अरोदिष्य: अरोदिष्यतम् अरोदिष्यत म० पु० अरोदिष्यम् अरोदिष्याव अरोदिष्याम उ० पु० २४. जागृक् –निद्राक्षये ( जागना) तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन जागति जागृतः __ जाग्रति प्र० पु० जागृयात् जागृयाताम् जागृयु: जागर्षि जागृथः जागृथ म० पु० जागृयाः जागृयातम् जागृयात जागर्मि जागृवः जागृम: उ० पु० जागृयाम् जागृयाव जागृयाम दिबादि जागर्तु, जागृतात् जागृताम् जाग्रतु प्र० पु० अजाग: अजागृताम् अजागरुः जागृहि, जागतात् जागृतम् जागृत म० पु० अजाग: अजागृतम् अजागृत जागराणि जागराव जागराम उ० पु० अजागरम् अजागृव अजागृम द्यादि णबादि (१) अजागरीत् अजागरिष्टाम् अजागरिषुः प्र० पु० जजागार जजागरतुः जजागरु: अजागरी: अजागरिष्टम् अजागरिष्ट म० पु० जजागरिथ जजागरथुः जजागर अजागरिषम् अजागरिष्व अजागरिष्म उ० पु० जजागार, जजागर जजागरिव जजागरिम तुबादि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३३६ उ० पू० जबादि (२) जागराञ्चकार जागराञ्चक्रतुः जागराञ्चक्रुः प्र० पु० जागराञ्चक्रिथ जागराञ्चक्रथुः जागराञ्चक्र म० पु० जागराञ्चकार, जागराञ्चकर जागराञ्चक्रिव जागराञ्चक्रिम उ० पु० पवादि (३) जागरांबभूव जागरांबभूबतुः जागरांबभूवुः प्र० पु० जागरांबभूविथ जागरांबभूबथुः जागरांबभूव म० पु० जागरांबभूव जागरांबभूविव जागरांबभूविम उ० पु० णबादि (४) क्यादादि जागरामास जागरामासतुः जागरामासुः प्र० पु० जागृयात् जागृयास्ताम् जागृयासुः जागरामासिथ जागरामासथुः जागरामास म० पु० जागृयाः जागृयास्तम् जागृयास्त जागरामास जागरामासिव जागरामासिम उ. पु. जागृयासम् जागृयास्व जागृयास्म तादि .. जागरिता जागरितारौ जागरितार: जागरितारः प्र० पू० जागरितासि जागरितास्थः जागरितास्थ म० पु० जागरितास्मि जागरितास्वः जागरितास्मः । स्यत्यादि जागरिष्यति जागरिष्यत: जागरिष्यन्ति प्र० पु० जागरिप्यसि जागरिष्यथः जागरिष्यथ म० पु० जागरिष्यामि जागरिप्यावः जागरिष्यामः उ० पु० स्यदादि अजागरिष्यत् अजागरिष्यताम् अजागरिष्यन् प्र० पु० अजागरिष्यः अजागरिष्यतम् अजागरिष्यत :म० पु० अजागरिष्यम् अजागरिष्याव अजागरिष्याम उ० पु. २५. विदंक-ज्ञाने (जानना) तिबादि (१) तिबादि (२) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन वेत्ति वित्तः विदन्ति प्र० पु० वेद विदतुः विदुः वेत्सि वित्थः वित्थ म० पु० वेत्थ विदथुः विद वेद्मि विद्वः विमः उ० पु० वेद विद्व विद्म यादादि तुबादि (१) विद्यात् विद्याताम् विद्युः प्र० पु० वेत्तु, वित्तात् वित्ताम् विदन्तु विद्याः विद्यातम् विद्यात म० पु० विद्धि, वित्तात् वित्तम् वित्त विद्याम् विद्याव विद्याम उ० पु. वेदानि । वेदाव वेदाम Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० तुबादि (२) प्र० पु० त्रिदांकरोतु, विदांकुरुतात् विदांकुरुताम् विदांकुर्वन्तु विदांकुरुतम् विदांकुरुत म० पु० विदांकुरु, विदांकुरुतात् विदांकरवाणि विदांकरवाव विदांकरवाम उ० पु० द्यादि दिनादि अवेत्, अवेद् अवित्ताम् अवेत्, अवे: अवित्तम् अवेदम् अविद्व बादि (१) अविदुः प्र० पु० अवेदीत् अवेदिष्टाम् अवेदिषुः अवेदिष्ट अवित्त म० पु० अवेदी: अवेदिष्टम् अविद्म उ० पु० अवेदिषम् अवेदिष्व अवेदिष्म विदांचकार विदांचक्रतुः विदांचक्रिथ विदांचक्रथुः विदांचकार, विदांचकर विदांचक्रिव बादि (२) क्यादादि विदांबभूव विदांबभूवतुः विदांबभूवुः प्र० पु० विदामास विदामासतुः विदामासुः विदांबभूविथ विदांबभूवथुः विदांबभूव म० पु० विदामासिथ विदामासथुः विदामास विदांबभूव विदांबभूविव विदांबभूविम उ० पु० विदामास विदामासिव विदामा सिम बादि ( ४ ) विवेद विविदतुः विविदुः प्र० पु० विद्यात् विवेदिथ विविदथुः विविद म० पु० विद्याः विवेद विविदिव विविदिम उ० पु० विद्यासम् विद्यास्व विद्यास्म तादि वेदिता वेदिता वेदितार: वेदितासि वेदितास्थः वेदितास्थ वेदितास्मि वेदितास्वः वेदितास्मः स्यदादि विदांचक्रुः विदांचक्र विदांचक्रिम तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन घ्नन्ति हन्ति हतः हन्सि हथः हथ हन्मि हन्वः हन्मः वाक्यरचना बोध प्र० पु० म० पु० उ० पु० बादि (३) अवेदिष्यन् प्र० पु० अवेदिष्यत् अवेदिष्यताम् अवेदिष्य: अवेदिष्यतम् अवेदिष्यत म० पु० अवेदिष्यम् अवेदिष्याव अवेदिष्याम उ० पु० २६. हनं - हिंसागत्योः ( मारना, जाना ) विद्यास्ताम् विद्यासुः विद्यास्तम् विद्यास्त स्यत्यादि प्र० पु० वेदिष्यति वेदिष्यतः वेदिष्यन्ति म० पु० वेदिष्यसि वेदिष्यथः वेदिष्यथ उ० पु० वेदिष्यामि वेदिष्यावः वेदिष्यामः प्र० पु० हन्यात् म० पु० हन्याः उ० पु० हन्याम् यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन हन्याताम् हन्युः हन्यातम् हन्यात हन्याव हन्याम Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तुवादि हन्तु, हतात् हताम् जहि, हतात् हतम् हनानि हनाव द्यादि अवधीत् अवधिष्टाम् अवधीः अवधिष्टम् अवधिषम् अवधिष्व वर्यादादि वध्यात् वध्या: घ्नन्तु हत हनाम वध्यास्ताम् वध्यासुः वध्यास्तम् वध्यास्त वध्यास्म तुबादि अस्तु, स्तात् स्ताम् एधि, स्तात् स्तम् असानि असाव द्यादि तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन अस्ति स्तः सन्ति असि स्थः स्थ अस्मि स्वः स्मः जघ्नतुः अवधिषुः प्र० पु० जघान अवधिष्ट म० पु० जघनिथ, जघन्थ जघ्नथुः अवधिष्म उ० पु० जघान, जघन जघ्निव तादि सन्तु स्त असाम प्र० पु० अहन् म० पु० अहन् उ० पु० अहनम् अभूवन् अभूत् अभूताम् अभूः अभूतम् अभूत अभूवम् अभूव अभूम दिवादि णबादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० वध्यासम् वध्यास्व स्यत्यादि हनिष्यति हनिष्यतः हनिष्यन्ति प्र० पु० अहनिष्यत् अहनिष्यताम् अहनिष्यन् हनिष्य सि हनिष्यथः हनिष्यथ म० पु० अहनिष्यः अहनिष्यतम् अहनिष्यत हनिष्यामि हनिष्यावः हनिष्यामः उ० पु० अहनिष्यम् अहनिष्याव अहनिष्याम २७. असक् - भुवि ( होना) अहताम् अहतम् अन्व प्र० पु० आसीत् म० पु० आसीः उ० पु० आसम् हन्तारः प्र० पु० हन्ता हन्तारी म० पु० हन्तासि हन्तास्थः हन्तास्थ उ० पु० हन्तास्मि हन्तास्वः हन्तास्मः स्यदादि यादादि एकवचन द्विवचन स्यात् स्याताम् स्याः स्यातम् स्याम् स्याव दिबादि प्र० पु० बभूव म० पु० बभूविथ उ० पु० बभूव आस्ताम् आस्तम् आस्व णवादि ३४१ अघ्नन् अहत अहन्म बभूवतुः बभूवथुः बभूविव जघ्नुः जघ्न जघ्निम बहुवचन स्युः स्यात स्याम आसन् आस्त आस्म बभूवुः बभूव बभूविम Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ वाक्यरचना बोध क्यादावि तादि भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः प्र० पु० भविता भवितारौ भवितारः भूयाः भूयास्तम् भूयास्त म० पु० भवितासि भवितास्थः भवितास्थ भूयासम् भूयास्व भूयास्म उ० पु० भवतास्मि भवितास्वः भवितास्मः स्यत्यादि स्यदादि भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति प्र० पु० अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन् भविष्यसि भविष्यथ: भविष्यथ म० पु० अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः उ० पु० अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम २८. शोक-स्वप्ने (सोना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन शेते शयाते शेरते प्र० पु० शयीत शयीयाताम् शयीरन् शेषे शयाथे शेध्वे म० पु० शयीथाः शयीयाथाम् शयीध्वम् शये शेवहे शेमहे उ० पु० शयीय शयीवहि शयीमहि तुबादि दिबादि शेताम् शयाताम् शेरताम् प्र० पु० अशेत अशयाताम् अशेरत शेष्व शयाथाम् शेध्वम् म० पु० अशेथाः अशयाथाम् अशेध्वम् शयावहै शयामहै उ० पु० अशयि अशेवहि अशेमहि धादि अशयिष्ट अशयिषाताम् अशयिषत प्र० पु० अशयिष्ठाः अशयिषाथाम् अशयिध्वम्, अशयित्वम् म० पु० अशयिषि अशयिष्वहि अशयिष्महि उ० पु० णबादि ___ क्यादादि शिश्ये शिश्याते शिश्यिरे प्र. पु. शयिषीष्ट शयिषीयास्ताम् शयिषीरन् शिश्यिषे शिश्याथे शिश्यिध्वे, शिश्यित्वे म. पु. शयिषीष्ठाः शयिषीयास्थाम् शयिषीध्वम् शिश्ये शिश्यिवहे शिश्यिमहे उ. पु. शयिषीय शयिषीवहि शयिषीमहि तादि स्यत्यादि शयिता शयितारौ शयितारः प्र० पु० शयिष्यते शयिष्येते शयिष्यन्ते शयितासे शयितासाथे शयिताध्वे म० पु० शयिष्यसे शयियेथे शयिप्यध्वे शयिताहे शयितास्वहे शयितास्महे उ० पु० शयिप्ये शयियावहे शयिप्यामहे स्यदादि अशयिष्यत अशयिष्येताम् अशयिष्यन्त प्र० पु० अशयिष्यथाः अशयिष्येथाम् अशयिष्यध्वम् म० पु० अशयिष्ये अशयिष्यावहि अशयिप्यामहि उ० पु० शय Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३४३ २६. आसङ्क्-उपवेशने (बैठना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि .. आस्ते आसाते आसते प्र० पु० आसीत आसीयाताम् आसीरन् आस्से आसाथे आसध्वे म० पु० आसीथाः आसीयाथाम् आसीध्वम् आसे आस्वहे आस्महे उ० पु० आसीय आसीवहि आसीमहि तुबादि दिबादि आस्ताम् आसाताम् आसताम् प्र. पु० आस्त आसाताम् आसत आस्स्व आसाथाम् आस्ध्वम् म० पु० आस्थाः आसाथाम् आस्ध्वम् आस आसावहै आसामहै उ० पु० आसि आस्वहि आस्महि धादि णबादि (१) आसिष्ट आसिषाताम् आसिषत प्र० पु० आसाञ्चक्रे आसाञ्चक्राते आसाञ्चक्रिरे आसिष्ठाः आसिषाथाम् आसिध्वम् म० पु० आसाञ्चकृषे आसाञ्चक्राथे आसञ्चकृढ्वे आसिषि आसिष्वहि आसिष्महि उ० पु० आसाञ्चक्रे आसाञ्चकृवहे आसाञ्चकृमहे णबादि (२) आसाम्बभूवे आसाम्बभूवाते आसाम्बभूविरे प्र० पु० आसाम्बभूविषे आसाम्बभूवाथे आसाम्बभूविढ्वे, आसाम्बभूविध्वे म० पु० आसाम्बभूवे आसाम्बभूविवहे आसाम्बभूविमहे उ० पु० णबादि (३) आसामासे आसामासाते आसामासिरे प्र० पु० आसामासिषे आसामासाथे आसामासिध्वे म० पु० आसामासे आसामासिवहे आसामासिमहे उ० पु० क्यादादि आसिषीष्ट आसिषीयास्ताम् आसिषीरन् प्र० पु० आसिषीष्ठाः आसिषीयास्थाम् आसिषीध्वम् . म० पु० आसिषीय आसिषीवहि आसिषीमहि उ० पु० तादि . स्यत्यादि आसिता आसितारौ आसितारः प्र० पु० आसिष्यते आसिष्येते आसिष्यन्ते आसितासे आसितासाथे आसिताध्वे म० पु० आसिष्यसे आसिष्येथे आसिष्यध्वे आसिताहे आसितास्वहे आसितास्महे उ० पु० आसिष्ये आसिष्यावहे आसिष्यामहे आति Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ वाक्यरचना बोध स्यदादि आसिष्यत आसिष्येताम् आसिष्यन्त प्र० पू० आसिष्यथाः आसिष्येथाम् आसिष्यध्वम् म० पु० आसिष्ये आसिष्यावहि आसिष्यामहि उ० पु० ३०. ष्टुन्क् स्तुतौ (उभयपदी) स्तुति करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि स्तौति, स्तवीति स्तुतः स्तुवन्ति प्र० पु० स्तुयात् स्तुयाताम् स्तुयु: स्तौषि, स्तवीषि स्तुथः स्तुथ म० पु० स्तुयाः स्तुयातम् स्तुयात स्तौमि, स्तवीमि स्तुवः स्तुम: उ० पु० स्तुयाम् स्तुयाव स्तुयाम दिबादि स्तोतु, स्तवीतु, स्तुतात् स्तुताम् स्तुवन्तु प्र० पु० अस्तीत्, अस्तवीत् अस्तुताम् अस्तुवन् स्तुहि, स्तुतात् स्तुतम् स्तुत म० पु० अस्तौः, अस्तवी: अस्तुतम् अस्तुत स्तवानि स्तवाव स्तवाम उ० पु० अस्तवम् अस्तुव अस्तुम तिबादि तुबादि धादि णबादि अस्तावीत् अस्ताविष्टाम् अस्ताविषुः प्र० पु० तुष्टाव तुष्टुवतुः तुष्टुवुः अस्तावीः अस्ताविष्टम् अस्ताविष्ट म० पु० तुष्टोथ तुष्टुवथुः तुष्टुव अस्ताविषम् अस्ताविष्व अस्ताविष्म उ० पु० तुष्टाव तुष्टुव तुष्टुम क्यादादि तादि स्तूयात् स्तूयास्ताम् स्तूयासुः प्र० पु० स्तोता स्तोतारौ स्तोतारः स्तूयाः स्तूयास्तम् स्तूयास्त म० पु० स्तोतासि स्तोतास्थः स्तोतास्थ स्तूयासम् स्तूयास्व स्तूयास्म उ० पु० स्तोतास्मि स्तोतास्व: स्तोतास्मः स्यत्यादि स्यदादि स्तोष्यति स्तोष्यतः स्तोष्यन्ति प्र० पु० अस्तोष्यत् अस्तोप्यताम् अस्तोष्यन् स्तोष्यसि स्तोष्यथः स्तोष्यथ म० पु० अस्तोष्यः अस्तोष्यतम् अस्तोष्यत स्तोष्यामि स्तोष्यावः स्तोष्यामः उ० पु० अस्तोष्यम् अस्तोष्याव अस्तोष्याम: आत्मनेपद तिबादि यादादि स्तुते स्तुवाते स्तुवते प्र० पु० स्तुवीत स्तुवीयाताम् स्तुवीरन् स्तुषे स्तुवाथे स्तुध्वे म० पु० स्तुवीथाः स्तुवीयाथाम् स्तुवीध्वम् स्तुवे स्तुवहे स्तुमहे उ० पु० स्तुवीय स्तुवीवहि स्तुवीमहि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तुबादि स्तुताम् स्तुवाताम् स्तुवताम् स्तुष्व स्तुवाथाम् स्तुध्वम् स्तव स्तवावहै स्तवामहै धादि अस्तोष्ट अस्तोषाताम् अस्तोष्ठाः अस्तोषाथाम् अस्तोषि अस्तोष्वहि णबादि तुष्टुवे तुष्टुवाते तुष्टुविरे तुष्टविषे तुष्टुवाथे तुष्टुढ्वे, तुष्टुध्वे तुष्टुवे तुष्टुवहे तुष्टुमहे तादि अस्तोष्यत अस्तोष्येताम् अस्तोष्यथाः अस्तोष्येथाम् अस्तोष्ये एकवचन तिबादि स्तोता स्तोतारौ स्तोतार: प्र० पु० स्तोष्यते स्तोष्येते स्तोता स्तोतासाथ स्तोताध्वे म० पु० स्तोष्यसे स्तोता हे स्तोतास्वहे स्तोतास्महे उ० पु० स्तोष्ये यदादि द्विवचन ब्रवीति, आह ब्रूतः, आहतुः ब्रवीषि, आत्थ ब्रूथः, आहथुः ब्रवीमि ब्रूवः अस्तोषत प्र० पु० अस्तोध्वम्, अस्तोढ्वम् म० पु० अस्तो महि उ० पु० क्यादादि अस्तोष्यन्त प्र० पु० अस्तोष्यध्वम् म० पु० अस्तोष्यावहे अस्तोष्यामहे उ० पु० ३१. ब्रूक - व्यक्तायां वाचि (उभयपदी) बोलना परस्मैपद बादि ब्रवीतु, ब्रूतात् ब्रूताम् ब्रूहि, ब्रूतात् ब्रवाणि ब्रूतम् दिबादि प्र० पु० अस्तुत अस्तुवाताम् अस्तुवत म० पु० अस्तुथाः अस्तुवाथाम् अस्तुध्वम् उ० पु० अस्तुवि अस्तुमहि अस्तुवहि ब्रवाव प्र० पु० स्तोषीष्ट स्तोषीयास्ताम् स्तोषीरन् म० पु० स्तोषीष्ठाः स्तोषीयास्थाम् स्तोषीढ्वम् उ० पु० स्तोषीय स्तोषी वहि तोषीमहि स्यत्यादि बहुवचन ब्रुवन्ति बूथ ब्रूमः स्तोष्यन्ते स्तोष्येथे स्तोष्यध्वे स्तोष्यावहे स्तोष्यामहे ३४५ एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० ब्रूयात् म० पु० ब्रूयाः उ० पु० ब्रूयाम् ब्रुवन्तु प्र० पु० अब्रवीत् ब्रू म० पु० अब्रवीः ब्रवाम उ० पु० अब्रुवम् ब्रूयाताम् ब्रूयुः ब्रूयातम् ब्रूयात ब्रूयाव ब्रूयाम दिबादि अब्रूताम् अब्रुवन् अब्रूतम् अब्रू अब्रूव अब्रूम Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३४६ खादि अवोचत् अवोचताम् अवोचः अवोचम् क्यादादि उच्यात् उच्याः उच्यासम् उच्यास्व स्यत्यादि अवोचतम् अवोचाव अवोचाम उ० पु० उवाच, उवच अवोचन् अवोचत् तादि उच्यास्ताम् उच्यासुः प्र० पु० वक्ता उच्यास्तम् उच्यास्त म० पु० वक्तासि वक्ष्यति वक्ष्यतः वक्ष्यसि वक्ष्यथः वक्ष्यामि वक्ष्यावः तिबादि ब्रूते ब्रूषे ब्रुवे तुब दि ब्रुवा ब्रुव ब्रुवा ब्रू ब्रू हे ब्रू ब्रूताम् ब्रूस्व ब्रवै द्यादि अवोचत अवचेताम् अवोचयाः अवोचेथाम् Prata अवोच वह ब्रुवाथाम् ब्रवावहै वक्ष्यते वक्ष्येते वक्ष्यसे वक्ष्येथे वक्ष्ये णबादि प्र० पु० उवाच म० पु० उवचिथ, उवक्थ वक्तारो वक्तास्थः उच्यास्म उ० पु० वक्तास्मि वक्तास्वः trafa ब्रुवाताम् ब्रुवताम् प्र० पु० अब्रूत ब्रुध्वम् म० पु० अब्रूथाः ब्रवाम है उ० पु० अब्रुवि वक्ष्याव हे वक्ष्यन्ति प्र० पु० अवक्ष्यत् वक्ष्यथ म० पु० अवक्ष्यः वक्ष्यामः उ० पु० अवक्ष्यम् अवक्ष्याव आत्मनेपद क्यादादि वक्षीष्ट वक्षीयास्ताम् वक्षीरन् वक्षीष्ठाः वक्षीयास्थाम् वक्षीध्वम् वक्षीय स्यत्यादि प्र० पु० ब्रुवीत म० पु० ब्रुवीथाः उ० पु० ब्रुवीय यादादि वक्ष्यन्ते वक्ष्यध्वे वक्ष्यामहे ब्रुवीयाताम् ब्रुवीयाथाम् ब्रुaीवहि दिबादि अवोचन्त प्र० पु० ऊचे अवोचध्वम् म० पु० ऊचिषे अवोचामहि उ० पु० ऊचे अब्रुवाताम् अब्रुवाथाम् अब्रू वहि णबादि प्र० पु० वक्ता म० पु० वक्तासे वक्षीमहि उ० पु० वक्ताहे स्यदादि अवक्ष्यताम् अवक्ष्यन् अवक्ष्यतम् अवक्ष्यत अवक्ष्याम वाक्यरचना बोध ऊचाते ऊचा वि ऊचतुः ऊचुः ऊचथुः ऊच ऊचिव ऊचिम तादि वक्तारौ वक्तासाथे वक्तास्वहे वक्तारः वक्तास्थ वक्तास्मः ब्रुवीरन् ब्रुवीध्वम् महि अब्रुवत अब्रूध्वम् अब्रूमहि ऊचिरे ऊचिध्वे ऊचिमहे वक्तारः वक्ताध्वे वक्तास्महे प्र० पु० अवक्ष्यत अवक्ष्येताम् अवक्ष्यन्त म० पु० अवक्ष्यथाः अवक्ष्येथाम् अवक्ष्यध्वम् उ० पु० अवक्ष्ये अवक्ष्यावहि अवक्ष्यामहि Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ l ३४७ liuretrit तुबादि परिशिष्ट २ ३२. दुहंन्क्-क्षरणे (उभयपदी) दुहना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि दोग्धि दुग्धः दुहन्ति प्र० पु० दुहयात् दुयाताम् दुह युः धोक्षि दुग्धः दुग्ध म० पु० दुहयाः । दुयातम् दुयात दोमि दुह्वः दुह्मः उ० पु० दुहयाम् दुहयाव दुहयाम दिबादि दोग्धु, दुग्धात् दुग्धाम् दुहन्तु प्र० पु० अधोक्, अधोग अदुग्धाम् अदुहन् दुग्धि, दुग्धात् दुग्धम् दुग्ध म० पु० अधोक्, अधोग् अदुग्धम् अदुग्ध दोहानि दोहाव दोहाम उ० पु० अदोहम् अदुह्न अदुह्म द्यादि णबादि अधुक्षत् अधुक्षताम् __अधुक्षन् प्र० पु० दुदोह दुदुहतुः दुदुहुः अधुक्षः अधुक्षतम् __ अधुक्षत म० पु० दुदोहिथ दुदुहथुः दुदुह अधुक्षम् अधुक्षाव अधुक्षाम उ० पु० दुदोह दुदुहिव दुदुहिम क्यादादि तादि दुहयात् दुहयास्ताम् दुहयासुः प्र० पु० दोग्धा दोग्धारौ दोग्धारः दुहयाः दुहयास्तम् दुहयास्त म० पु० दोग्धासि दोग्धास्थः दोग्धास्थ दुहयासम् दुयास्व दुहयास्म उ० पु० दोग्धास्मि दोग्धास्वः दोग्धास्मः स्यत्यादि स्यदादि धोक्ष्यति धोक्ष्यतः धोक्ष्यन्ति प्र० पु० अधोक्ष्यत् अधोक्ष्यताम् अधोक्ष्यन् धोक्ष्यसि धोक्ष्यथः धोक्ष्यथ म० पू० अधोक्ष्यः अधोक्ष्यतम् अधोक्ष्यत धोक्ष्यामि धोक्ष्याव: धोक्ष्याम: उ० पु० अधोक्ष्यम् अधोक्ष्याव अधोक्ष्याम आत्मनेपद तिबादि ___ यादादि दुग्धे दुहाते दुहते प्र० पु० दुहीत दुहीयाताम् दुहीरन् धुक्षे दुहाथे धुग्ध्वे म० पु० दुहीथाः दुहीयाथाम् दुहीध्वम् दुहे . दुह्वहे दुह्महे उ० पु० दुहीय दुहीयवहि दुहीयमहि दिबादि दुग्धाम् दुहाताम् दुहताम् प्र० पु० अदुग्ध अदुहाताम् अदुहत धुक्ष्व दुहाथाम् धुग्ध्वम् म० पु० अदुग्धाः अदुहाथाम् अधुग्ध्वम् दोहै दोहावहै दोहामहै उ० पु० अदुहि अदुह्वहि अदुह्महि तुबादि Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ वाक्यरचना बोध प्र० पु० धादि अदुग्ध, अधुक्षत अधुक्षाताम् अधुक्षन्त अदुग्धाः, अधुक्षथाः अधुक्षाथाम् अधुग्ध्वम्, अधुक्षध्वम् म० पु० . अधुक्षि अदुह्वहि, अधुक्षावहि अदुह्महि, अधुक्षामहि उ० पु० णबादि दुदुहे दुदुहाते दुदुहिरे प्र० पु० दुदुहिषे, दुधुक्षे दुदुहाथे दुदुहिध्वे, दुदुहिढ्वे म० पु० दुदुहे दुदुहिवहे दुदुहिमहे उ० पु० क्यादादि तादि धुक्षीष्ट धुक्षीयास्ताम् धुक्षीरन् प्र० पु० दोग्धा दोग्धारौ दोग्धारः धुक्षीष्ठाः धुक्षीयास्थाम् धुक्षीध्वम् म० पु० दोग्धासे दोग्धासाथे दोग्धाध्वे धुक्षीय धुक्षीवहि धुक्षीमहि उ० पु० दोग्धाहे दोग्धास्वहे दोग्धास्महे स्यत्यादि स्यदादि धोक्ष्यते धोक्ष्येते धोक्ष्यन्ते प्र० पु० अधोक्ष्यत अधोक्ष्येताम् अधोक्ष्यन्त धोक्ष्यसे धोयेथे धोक्ष्यध्वे म० पु. अधोक्ष्यथाः अधोक्ष्येथाम् अधोक्ष्यध्वम् धोक्ष्ये धोक्ष्यावहे धोक्ष्यामहे उ० पु० अधोक्ष्ये अधोक्ष्यावहि अधोक्ष्यामहि ३३. जिभीक-भये (डरना) एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि बिभेति बिभितः, बिभीतः बिभ्यति प्र० पु० बिभेषि बिभिथः, बिभीथः बिभिथ, बिभीथ म० पु० बिभेमि बिभिवः, बिभीवः बिभिमः, बिभीमः उ० पु० यादादि बिभियात्, बिभीयात् बिभियाताम्, बिभीयाताम् बिभियुः, बिभीयुः प्र० पु० बिभियाः, बिभीयाः बिभियातम्, बिभीयातम् बिभियात, बिभीयात म० पु० बिभियाम्, बिभीयाम् बिभियाव, बिभीयाव बिभियाम, बिभीयाम उ० पु० तुबादि बिभेतु, बिभितात्, बिभीतात् बिभिताम्, बिभीताम् बिभ्यतु प्र० पु० बिभिहि, बिभीहि, बिभितात्, बिभीतात् बिभितम्, बिभीतम् बिभित, बिभीत म० पु० बिभयानि बिभयाव बिभयाम बिभयाम उ० पु० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३४६ दिबादि अबिभेत् अबिभिताम्, अबिभीताम् अबिभयुः प्र० पु. अबिभेः अबिभितम्, अबिभीतम् अबिभित, अबिभीत म० पु० अबिभयम् अबिभिव, अबिभीव अबिभिम, अबिभीम उ० पु० धादि अभैषीत् अभेष्टाम् अभैषुः प्र० पु० अभैषीः अभैष्टम् अभेष्ट म० पु० अभैषम् अभैष्व अभैष्म उ० पु० णबादि (१) बिभयाञ्चकार बिभयाञ्चक्रतुः बिभयाञ्चक्रुः प्र० पु० बिभयाञ्चकर्थ बिभयाञ्चक्रथुः बिभयाञ्चक्र म० पु० बिभयाञ्चकार, बिभयाञ्चकर बिभयाञ्चकृव बिभयाञ्चकृम उ० पु० णबादि २ बिभयांबभूव बिभयांबभूवतुः बिभयांबभूवुः प्र० पु० बिभयांबभूविथ बिभयांबभूवथुः बिभयांबभूव म० पु० बिभयांबभूव बिभयांबभूविव बिभयांबभूविम उ० पु. णबादि (४) बिभयामास बिभयामासतुः बिभयामासुः प्र. पु. बिभाय बिभ्यतुः बिभ्युः बिभयामासिथ बिभयामासथुः बिभयामास म. पु. बिभयिथ, बिभेथ बिभ्यथः बिभ्य बिभयामास बिभयामासिव बिभयामासिम उ. पु. बिभाय, विभय बिभ्यिव बिभ्यिम जबादि (३) क्यादादि तादि भीयात् भीयास्ताम् भीयाः भीयास्तम् भीयासम् भीयास्व भीयासुः प्र० पु० भेता भेतारौ भेतारः भीयास्त म० पु० भेतासि भेतास्थः भेतास्थ भीयास्म उ० पु० भेतास्मि भेतास्वः भेतास्मः __ स्यदादि स्यत्यादि भेष्यति भेष्यतः भेष्यन्ति भेष्यसि भेष्यथः भेष्यथ भेष्यामि भेष्यावः भेष्यामः प्र० पु० अभेष्यत् अभेष्यताम् अभेष्यन् म० पु० अभेष्यः अभेष्यतम् अभेष्यत उ० पु० अभेष्यम् अभेष्याव अभेष्याम Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध तुबादि ददानि ३४. डुदानक्-दाने (उभयपदी) देना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि ददाति दत्तः ददति प्र० पु० दद्यात् दद्याताम् दद्युः ददासि दत्थः दत्थ म० पु० दद्याः दद्यातम् दद्यात ददामि दद्वः दद्म: उ० पु० दद्याम् दद्याव दद्याम दिबादि ददातु, दत्तात् दत्ताम् ददतु ' प्र० पु० अददात् अदत्ताम् अददुः देहि, दत्तात् दत्तम् दत्त म० पु० अददाः अदत्तम् अदत्त ददाव ददाम उ० पु० अददाम् अदद्व अदद्म चादि णबादि अदात् अदाताम् अदुः प्र० पु० ददौ ददतुः ददुः अदाः अदातम् अदात म० पु० ददिथ, ददाथ ददथुः दद अदाम् अदाव अदाम उ० पु० ददौ ददिव ददिम ज्यादादि तादि देयात् देयास्ताम् देयासुः प्र० पु० दाता दातारी दातारः देयाः देयास्तम् देयास्त म० पु० दातासि दातास्थः दातास्थ देयासम् देयास्व देयास्म उ० पु० दातास्मि दातास्वः दातास्मः स्यदादि दास्यति दास्यत: दास्यन्ति प्र० पु० अदास्यत् अदास्यताम् अदास्यन् दास्यसि दास्यथः दास्यथ म० पु० अदास्यः अदास्यतम् अदास्यत दास्यामि दास्यावः दास्यामः उ० पु० अदास्यम् अदास्याव अदास्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि दत्ते ददाते ददते . प्र० पु० ददीत ददीयाताम् ददीरन् दत्से ददाथे दध्वे म० पु० ददीथाः ददीयाथाम् ददीध्वम् ददे दद्वहे दद्महे उ० पु० ददीय ददीवहि ददीमहि दिबादि दत्ताम् ददाताम् ददताम् प्र० पु० अदत्त अददाताम् अददत दत्स्व ददाथाम् दद्ध्वम् म० पु० अदत्थाः अददाथाम् । अदद्ध्वम् ददै ददावहै ददामहै उ० पु० अददि अदद्वहि अदमहि स्वत्यादि तुबादि Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३५१ धादि णबादि अदित अदिषाताम् अदिषत प्र० पु० ददे ददाते ददिरे अदिथाः अदिषाथाम् अदिध्वम्, अदिढ्वम् म० पु० ददिषे ददाथे ददिध्वे अदिषि अदिष्वहि अदिष्महि उ० पु० ददे ददिवहे ददिमहे क्यादादि दासीष्ट दासीयास्ताम् दासीरन् प्र० पु० दाता दातारौ दातारः दासीष्ठाः दासीयास्थाम् दासीध्वम् म० पु० दातासे दातासाथे दाताध्वे दासीय दासीवहि दासीमहि उ० पु० दाताहे दातास्वहे दातास्महे स्यत्यादि स्यदादि दास्यते दास्येते दास्यन्ते प्र० पु० अदास्यत अदास्येताम् अदास्यन्त दास्यसे दास्येथे दास्यध्वे म० पु० अदास्यथाः अदास्येथाम् अदास्यध्वम् दास्ये दास्यावहे दास्यामहे उ० पु० अदास्ये अदास्यावहि अदास्यामहि ३५. नृतीच-नर्तने (नाचना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विव वन बहुवचन तिबादि यादादि नृत्यति नृत्यतः नृत्यन्ति प्र० पु० नृत्येत् नृत्येताम् नृत्येयुः नृत्यसि नृत्यथः नृत्यथ म० पु० नृत्येः नृत्येतम् नृत्येत नृत्यामि नृत्याव: नृत्यामः उ० पु० नृत्येयम् नृत्येव नृत्येम दिबादि नृत्यतु, नृत्यतात् नृत्यताम् नृत्यन्तु प्र० पु० अनृत्यत् अनृत्यताम् अनृत्यन् नृत्य, नृत्यतात् नृत्यतम् नृत्यत म० पु० अनृत्यः अनृत्यतम् अनृत्यत नृत्यानि नृत्याव नृत्याम उ० पु० अनृत्यम् अनृत्याव अनृत्याम द्यादि णबादि अनर्तीत् अनतिष्टाम् अनतिषुः प्र० पु० ननर्त ननृततुः ननृतु: अनर्ती: अनतिष्टम् अनतिष्ट म० पु० ननतिथ ननृतथुः ननृत अनतिषम् अनतिप्व अनतिष्म उ० पु० ननर्त ननृतिव ननृतिम क्यादादि तादि नृत्यात् नृत्यास्ताम् नृत्यासुः प्र० पु० नर्तिता नतितारौ नतितारः नृत्याः नृत्यास्तम् नृत्यास्त म० पु० नर्तितासि नर्तितास्थः नतितास्थ नृत्यासम् नृत्यास्व नृत्यास्म उ० पु० नर्तितास्मि नतितास्व: नतितास्मः स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) नतिष्यति नतिप्यतः नतिष्यन्ति प्र० पु० नय॑ति नर्व्यत: नय॑न्ति नतिष्यसि नतिष्यथः नतिष्यथ म० पु० नय॑सि नय॑थः नय॑थ नतिष्यामि नतिप्याव: नतिष्यामः उ० पु० नामि नावः नाम: तुबादि Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ वाक्यरचना बोध स्यदादि (१) स्यदादि (२) अनतिष्यत् अनतिष्यताम् अनतिष्यन् प्र० पु० अनत्य॑त् अनय॑ताम् अनय॑न् अनतिष्यः अनतिष्यतम् अनतिष्यत म० पु० अनस्य॑ः अनत्य॑तम् अनयंत अनतिष्यम् अनतिष्याव अनतिष्याम उ० पु० अनय॑म् अनाव अनाम ३६. णशूच–अदर्शने (उपलब्ध न होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि नश्यति नश्यतः नश्यन्ति प्र. पु० नश्येत् नश्येताम् नश्येयुः नश्यसि नश्यथः नश्यथ म० पु० नश्ये: नश्यतम् नश्येत नश्यामि नश्यावः नश्याम: उ० पु० नश्येयम् नश्येव नश्येम तुबादि दिबादि नश्यतु, नश्यतात् नश्यताम् नश्यन्तु प्र० पु० अनश्यत् अनश्यताम् अनश्यन् नश्य, नश्यतात् नश्यतम् नश्यत म० पु० अनश्यः अनश्यतम् अनश्यत नश्यानि नश्याव नश्याम उ० पु० अनश्यम् अनश्याव अनश्याम धादि (१) धादि (२) अनेशत् अनेशताम् अनेशन् प्र० पु० अनशत् अनशताम् अनशन् अनेशः अनेशतम् अनेशत म० पु० अनशः अनशतम् अनशत अनेशम् अनेशाव अनेशाम उ० पु० अनशम् अनशाव अनशाम णबादि क्यादादि ननाश नेशतुः नेशुः प्र० पु० नश्यात् नश्यास्ताम् नश्यासुः नेशिथ नेशथुः नेश म० पु० नश्याः नश्यास्तम् नश्यास्त ननाश, ननश नेशिव नेशिम उ० पु० नश्यासम् नश्यास्व नश्यास्म तादि (१) तादि (२) नंष्टा नंष्टारौ नंष्टारः . प्र० पु० नशिता नशितारौ नशितारः नंष्टासि नंष्टास्थ: नंष्टास्थ म० पु० नशितासि नशितास्थः नशितास्थ नंष्टास्मि नंष्टास्वः नंष्टास्म: उ० पु. नशितास्मि नशितास्वः नशितास्मः स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) नक्ष्यति नक्ष्यतः नक्ष्यन्ति प्र० पु० नशिष्यति नशिष्यतः नशिष्यन्ति नक्ष्यसि नङ्ख्यथः नङ्ख्यथ म० पु० नशिष्यसि नशिष्यथः नशिष्यथ नक्ष्यामि नक्ष्याव: नङ्ख्यामः उ० पु० नशिष्यामि नशिष्याव: नशिष्यामः Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्यदादि (१) स्वदादि (२) अनङ्क्ष्यत् अनङ्क्ष्यताम् अनङ्क्ष्यन् प्र. पु. अनशिष्यत् अनशिष्यताम् अनशिष्यन् अनङ्क्ष्यः अनङ्क्ष्यतम् अनङ्क्ष्यत म. पु. अनशिष्यः अनशिष्यतम् अनशिष्यत अनङ्क्ष्यम् अनङ्क्ष्याव अनक्ष्याम उ. पु. अनशिष्यम् अनशिष्याव अनशिष्याम ३७. बुधंङ् -- ज्ञाने (जानना) बहुवचन एकवचन एकवचन द्विवचन तिबादि बुध्यते बुध्ये बुध्यसे बुध्येथे बुध्ये बुध्यावहे तुबादि बुध्यताम् बुध्येताम् बुध्यन्ताम् प्र० पु० अबुध्यत बुध्यस्व बुध्येथाम् बुध्यध्वम् बुध्यै बुध्याव है बुध्यामहै द्यादि बुध्यन्ते प्र० पु० बुध्येत बुध्यध्वे म० पु० बुध्यामहे उ० पु० बुध्येय वुध्येथाः अबोधि, अबुद्ध अभुत्साताम् अबुद्धाः अभुत्साथाम् अभुत्सि अस्व क्यादादि भुत्सीष्ट भुत्सीयास्ताम् भुत्सीष्ठाः भुत्सीयास्थाम् भुत्सीय भुसीह स्यत्यादि एकवचन- द्विवचन तिबादि मन्यते मन्येते मन्येथे मन्यसे मन्ये मन्यावहे द्विवचन बहुवचन यादादि बुध्येयाताम् बुध्येयाथाम् बुध्येह दिबादि मन्यन्ते प्र० पु० मन्यध्वे म० पु० मन्यामहे उ० पु० अबुध्येताम् अबुध्यन्त म० पु० अबुध्यथाः अबुध्येथाम् अबुध्यध्वम् उ० पु० अबुध्ये अबुध्यावहि अबुध्यामहि बादि अभुत्सत प्र० पु० बुबुधे बुबुधाते बुबुधिरे अभुद्ध्वम् म० पु० बुबुधिषे बुबुधाथे बुबुधिध्वे अभुत्स्महि उ० पु० बुबुधे बुबुधिवहे बुबुधिमहे तादि भोत्स्यते भोत्स्येते भोत्स्यन्ते प्र० पु० अभोत्स्यत अभोत्स्येताम् अभोत्स्यन्त भोत्स्यसे भोत्स्येथे भोत्स्यध्वे म० पु० अभोत्स्यथाः अभोत्स्येथाम् अभोत्स्यध्वम् भोत्स्ये भोत्स्यावहे भोत्स्यामहे उ० पु० अभोत्स्ये अभोत्स्यावहि अभोत्स्यामहि ३८. मनंच - ज्ञाने (जानना) बहुवचन ३५३ बुध्येरन् बुध्येध्वम् बुध्येह भुत्सीरन् प्र० पु० बोद्धा बोद्धारौ बोद्धारः भुत्सीध्वम् म० पु० बोद्धासे बोद्धासाथे बोद्धाध्वे भुत्सीमहि उ० पु० बोद्धाहे बोद्धास्वहे बोद्धास्महे स्पदादि मन्येत मन्येथाः मन्येय एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि मन्येयाताम् मन्येरन् मन्येयाथाम् मन्येध्वम् मन्ये महि मन्येवहि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ वाक्यरचना बोध तुबादि दिबादि मन्यताम् मन्येताम् मन्यन्ताम् प्र० पु० अमन्यत अमन्येताम् अमन्यन्त मन्यस्व मन्येथाम् मन्यध्वम् म० पु० अमन्यथाः अमन्येथाम् अमन्यध्वम् मन्यै मन्यावहै मन्यामहै उ० पु० अमन्ये अमन्यावहि अमन्यामहि द्यादि / णबादि अमंस्त अमंसाताम् अमंसत प्र० पु० मेने मेनाते मेनिरे अमंस्थाः अमसाथाम् अमन्दध्वम् , अमन्ध्वम् म० पु० मेनिषे मेनाथे मेनिध्वे अमंसि अमंस्वहि अमंस्महि उ० पु० मेने मेनिवहे मेनिमहे क्यादादि तादि मंसीष्ट मंसीयास्ताम् मंसीरन् प्र० पु. मन्ता मन्तारौ मन्तारः मंसीष्ठाः मंसीयास्थाम् मंसीध्वम् म० पु० मन्तासे मन्तासाथे मन्ताध्वे मंसीय मंसीवहि मंसीमहि उ० पु० मन्ताहे मन्तास्वहे मन्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि मंस्यते मस्येते मंस्यन्ते प्र० पु० अमंस्यत अमस्येताम् अमस्यन्त मंस्यसे मंस्येथे मस्यध्वे म० पु० अमस्यथाः अमंस्येथाम् अमंस्यध्वम् मंस्यावहे मस्यामहे उ० पु० अमस्ये अमस्यावहि अमस्यामहि IT मंस्ये ३६. रजंन्च्-रागे (उभयपदो) रंजित होना तुबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि रज्यति __ रज्यतः रज्यन्ति प्र० पु० रज्येत् रज्येताम् रज्येयुः रज्यसि रज्यथः रज्यथ म० पु० रज्ये: रज्येतम् रज्येत रज्यामि रज्यावः रज्यामः उ० पु० रज्येयम् रज्येव रज्येम दिबादि रज्यतु, रज्यतात् रज्यताम् रज्यन्तु प्र० पु० अरज्यत् अरज्यताम् अरज्यन् रज्य, रज्यतात् रज्यतम् रज्यत म० पु० अरज्यः अरज्यतम् अरज्यत रज्यानि रज्याव रज्याम उ० पु० अरज्यम् अरज्याव अरज्याम द्यादि णबादि अराङ्क्षीत् अराङ्क्ताम् अराक्षुः प्र० पु० ररज __ ररजतुः ररजुः अराङ्क्षी: अराङ्क्तम् अराङ्क्त म० पु० ररञ्जिथ, ररथ ररज्जथुः ररञ्ज अराङ्क्षम् अराव अराक्ष्म उ० पु० ररञ्ज ररञ्जिव ररञ्जिम H Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ क्यादादि रज्यात् रज्याः रज्यासम् रज्यास्व स्यत्यादि तिबादि रज्यते तादि रज्यास्ताम् रज्यासुः प्र० पु० रङ्क्ता रज्यास्तम् राज्यसे ज्ये रक्ष्यति रक्ष्यतः रक्ष्यन्ति प्र० पु० अरक्ष्यत् अरङ्क्ष्यताम् अरङ्क्ष्यन् रक्ष्यसि रङ्क्ष्यथः रङ्क्ष्यथ म० पु० अरङ्क्ष्यः अरङ्क्ष्यत रक्ष्यामि रक्ष्यावः रक्ष्यामः उ० पु० अरङ्क्ष्यम् अरक्ष्यामः आत्मनेपद ज्ये येथे ज्यावहे अरक्ष्यत अरक्ष्यथाः अरङ्क्ष्ये रङ्क्तारौ रङ्क्तारः रज्यास्त म० पु० रङ्क्तासि रङ्क्तास्थः रङ्क्तास्थ रज्यास्म उ० पु० रङ्क्तास्मि रङ्क्तास्वः रङ्क्तास्मः स्यदादि प्र० पु० रज्येत रज्यन्ते राज्यध्वे म० पु० रज्यामहे उ० पु० रज्येथाः रज्येय अरङ्क्षाताम् अरङ्क्षत अरङ्क्षाथाम् तुबादि fearfa रज्यताम् रज्येताम् रज्यन्ताम् प्र० पु० अरज्यत अरज्येताम् अरज्यन्त राज्यस्व रज्येथाम् रज्यध्वम् म० पु० अरज्यथाः अरज्येथाम् अरज्यध्वम् रज्यावहै रज्यामहै पु० उ० अरज्ये अरज्यावहि अरज्यामहि राज्य द्यादि प्र० पु० अरङ्ग्ढ्वम्, अरङ्ग्ध्वम् म० पु० अरक्ष्महि उ० पु० क्यादादि अरङ्क्ष्यतम् अरङ्क्ष्याव रङ्क्ता रङ्क्तारौ रङ्क्तारः रङ्क्तासे रङ्क्तासाथे रङ्क्त रङ्क्ताहे रङ्क्तास्वहे रक्तास्महे उ० पु० रक्ष्ये यदाद ३५५ अरङ्क्त अरङ्क्थाः अरङ्क्षि अरङ्क्ष्वह णबादि ररञ्जे ररञ्जाते ररञ्जिरे प्र० पु० रङ्ङ्क्षीष्ट रङ्ङ्क्षीयास्ताम् रक्षीरन् ररञ्जिषे ररञ्जाथे ररञ्जिध्वे म० पु० रङ्क्षीष्ठाः रङ्क्षीयास्थाम् रङ्क्षीध्वम् ररजे ररञ्जिवहे ररञ्जिमहे उ० पु० रङ्क्षीय रङ्क्षीवहि रङ्क्षीमहि तादि स्यत्यादि यादादि रज्येरन् रज्येताम् रज्येथाम् रज्येध्वम् ज्ये रज्येमहि प्र० पु० रक्ष्यते रङ्क्ष्येते रक्ष्यन्ते म० पु० रङ्क्ष्यसे रक्ष्येते रक्ष्यध्वे रक्ष्यावहे रक्ष्यामहे अरङ्क्ष्यन्त अरङ्क्ष्येताम् अरङ्क्ष्येथाम् अरक्ष्यध्वम् अक्ष्या प्र० पु० म० पु० अरक्ष्यामहि उ० पु० • Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ एकवचन द्विवचन तिबादि शृणु, शृणुतात् शृणवानि दिबादि ४०. अंत् - श्रवणे ( सुनना ) बहुवचन शृणोति शृणुतः शृण्वन्ति प्र० पु० शृणुयात् शृणुयाताम् शृणुयुः शृणोषि शृणुथः शृणुथ म० पु० शृणुयाः शृणुयातम् शृणुयात शृणोमि शृण्वः शृणुवः शृण्मः शृणुम: उ० पु० शृणुयाम् शृणुयाव शृणुयाम तुबादि शृणोतु, शृणुतात् अशृणवम् धादि शृणुताम् शृणुतम् शृणवाव अशृणोत् अशृणुताम् अशृणोः अशृणुतम् अशृणुव, अशृण्व शृण्वन्तु शृणुत शृणवाम एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि अयति अयतः अयन्ति अयसि अयथः अयथ अयामि अयावः अयामः अश्रौषीत् अश्रौष्टाम् अश्रौषुः अश्रौषीः अश्रौष्टम् अश्रौष्ट अश्रौषम् अव अश्रौष्म क्यादादि श्रूयात् श्रूयास्ताम् श्रूयासुः प्र० पु० श्रोता श्रूयास्तम् श्रूयास्त म० पु० श्रोतासि श्रूयाः श्रूयासम् श्रूयास्व स्यत्यादि श्रूयास्म उ० पु० श्रोतास्मि श्रोष्यति श्रोष्यतः श्रोष्यसि श्रोष्यथः श्रोष्यामि श्रोष्यावः अशृण्वन् अशृणुत अशृणुम, अशृण्म बादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० शुश्राव म० पु० शु उ० पु० शुश्राव शुश्रव तादि प्र० पु० अयेत् म० पु० अये: उ० पु० अयेयम् प्र० पु० म० पु० वाक्यरचना बोध उ० पु० शुश्रुवतुः शुश्रुवुः शुश्रुवथुः शुश्रुव शुश्रुव शुश्रुम श्रोतारौ श्रोतास्थः श्रोतास्वः स्यदादि श्रोष्यन्ति प्र० पु० अश्रोष्यत् अश्रोष्यताम् अश्रोष्यन् श्रोष्यथ म० पु० अश्रोष्यः अश्रोष्यतम् अश्रोष्यत श्रोष्यामः उ० पु० अश्रोष्यम् अश्रोष्याव अश्रोष्याम ४१. इं- गतौ (जाना) एकवचन द्विवचन यादादि अयेताम् अयेतम् अयेव श्रोतारः श्रोतास्थ श्रोतालः बहुवचन अयेयुः अयेत अम Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३५७ इयतुः २५. इयिम तुबादि दिबादि अयतु, अयतात् अयताम् अयन्तु प्र० पु. आयत् आयताम् आयन् अय, अयतात् अयतम् अयत म० पु० आयः आयतम् आयत अयानि अयाव अयाम उ० पु० आयम् आयाव आयाम द्यादि णबादि ऐपीत् ऐष्टाम् ऐषुः प्र० पु० इयाय ऐषी: ऐष्टम् ऐष्ट म० पु० इययिथ, इयेथ इयथुः इय ऐषम् ऐष्व ऐष्म उ० पु० इयाय, इयय इयिव क्यादादि ईयासुः प्र० पु० एता एतारौ एतारः ईयाः ईयास्तम् ईयास्त म० पु० एतासि एतास्थः एयास्थ ईयासम् ईयास्व ईयास्म उ० पु० एतास्मि एतास्वः । स्यत्यादि स्यदादि एष्यति एष्यतः एष्यन्ति प्र० पु० ऐष्यत् ऐष्यताम् ऐष्यन् एष्यसि एष्यथः एष्यथ म० पु० ऐष्यः ऐष्यतम् ऐष्यत एष्यामि एष्यावः एष्यामः उ० पु० ऐष्यम् ऐष्याव ऐष्याम तादि स ४२. प्रच्छंज् --ज्ञोप्सायाम् (पूछना) पृच्छति तुबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि पृच्छतः पृच्छन्ति प्र० पु० पृच्छेत् पृच्छताम् पृच्छेयुः पृच्छसि पृच्छथः पृच्छथ म० पु० पृच्छेः पृच्छेतम् पृच्छेत पृच्छामि पृच्छावः पृच्छामः उ० पु० पृच्छेयम् पृच्छेव पृच्छेम दिबादि पृच्छतु, पृच्छतात् पृच्छताम् पृच्छन्तु प्र० पु० अपृच्छत् अपृच्छताम् अपृच्छन् पृच्छ, पृच्छतात् पृच्छतम् पृच्छत म० पु० अपृच्छः अपृच्छतम् अपृच्छत पृच्छानि पृच्छाव पृच्छाव उ० पु० अपृच्छम् अपृच्छाव अपृच्छाम धादि . अप्राक्षीत् अप्राष्टाम् अप्राक्षुः प्र० पु० पप्रच्छ पप्रच्छतुः पप्रच्छुः अप्राक्षीः अप्राष्टम् अप्राष्ट म० पु० पप्रच्छिथ, पप्रष्ठ पप्रच्छथुः पप्रच्छ अप्राक्षम् अप्राव अप्राक्षम उ० पु० पप्रच्छ पप्रच्छिव पप्रच्छिम ___णबादि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ क्यादादि तादि पृच्छ्यात् पृच्छ्यास्ताम् पृच्छ्यासुः प्र० पुं० प्रष्टा प्रष्टारौ पृच्छ्याः पृच्छ्यास्तम् पृच्छ्यास्त म० पु० प्रष्टासि प्रष्टास्थ: पृच्छ्यासम् पृच्छ्यास्व पृच्छ्यास्म उ० पु० प्रष्टास्मि प्रष्टास्वः स्यत्यादि स्यदादि प्रक्ष्यति प्रक्ष्यतः प्रक्ष्यसि प्रक्ष्यथः प्रक्ष्यामि प्रक्ष्यावः प्रक्ष्यन्ति प्रक्ष्यथ प्रक्ष्यामः प्र० पु० अप्रक्ष्यत् म० पु० अप्रक्ष्यः उ० पु० अप्रक्ष्यम् ४३. मृज् - प्राणत्यागे ( मरना ) एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि म्रियते म्रियेते म्रियन्ते प्र० पु० म्रियेत म्रियध्वे म० पु० म्रियेथाः म्रियावहे म्रियामहे उ० पु० म्रियेय म्रियसे म्रियेथे म्रिये अप्रक्ष्यताम् अप्रक्ष्यतम् अप्रक्ष्याव मृषीष्ट मृषीयास्ताम् मृषीरत् मृषीष्ठाः मृषीयास्थाम् मृषीवम् मृषीय मृषीवहि मृषीमहि एकवचन द्विवचन यादादि येयाताम् म्रियेयाथाम् म्रियेवहि वाक्यरचना बोध बादि प्र० पु० ममार म० पु० ममर्थ उ० पु० ममार, ममर प्रष्टारः प्रष्टास्थः प्रष्टास्मः अप्रक्ष्यन् अप्रक्ष्यत अप्रक्ष्याम बहुवचन तुबादि दिबादि म्रियताम् म्रियेताम् म्रियन्ताम् प्र० पु० अम्रियत अम्रियेताम् अम्रियन्त म्रियेथाम् म्रियध्वम् म० पु० अम्रियथाः अम्रियेथाम् अम्रियध्वम् म्रियस्व म्रियै म्रिया है म्रियामहै उ० पु० अम्रिये अम्रियावहि अम्रियामहि द्यादि अमृत अमृषाताम् अमृषत अमृथाः अमृषाथाम् अमृढ्वम्, अमृध्वम् अमृषि अमृष्वहि अमृष्महि क्यादादि म्रियेरन् म्रियेध्वम् म्रियेमहि मम्रतुः मनुः मम्रथुः मस्र मस्रिव मत्रिम तादि प्र० पु० मर्ता मर्तारौ मर्तारः म० पु० मर्तासि मर्तास्थः मर्तास्थ उ० पु० मर्तास्मि मर्तास्वः मर्तास्मः स्यदादि स्यत्यादि मरिष्यति मरिष्यतः मरिष्यन्ति प्र० पु० अमरिष्यत् अमरिष्यताम् अमरिष्यन् मरिष्यसि मरिष्यथः मरिष्यथ म० पु० अमरिष्यः अमरिष्यतम् अमरिष्यत मरिष्यामि मरिष्यावः मरिष्यामः उ० पु० अमरिष्यम् अमरिष्याव अमरिष्याम Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३५६ ४४. रुधृन्- आवरणे (उभयपदी) रोकना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि रुणिद्ध रुन्धः रुन्धन्ति प्र० पु० रुन्ध्यात् रुन्ध्याताम् रुन्ध्युः रुणत्सि रुन्धः रुन्ध म० पु० रुन्ध्याः रुन्ध्यातम् रुन्ध्यात रुणध्मि रुन्ध्वः रुन्ध्म: उ० पु० रुन्ध्याम् रुन्ध्यावरुन्ध्याम तुबादि रुणद्ध, रुन्द्वात् रुन्ताम् रुन्धन्तु प्र० पु० रुन्द्धि, रुन्द्धात् रुन्द्धम् रुन्द्ध म० पु० रुणधानि रुणधाव रुणधाम दिबादि अरुणत्, अरुणद् अरुन्धाम् अरुन्धन् प्र० पु० अरुणः, अरुणत्, अरुणद् अरुन्धम् अरुन्द्ध म० पु० अरुणधम् अरुन्ध्व अरुन्ध्म उ० पु० धादि (१) द्यादि (२) अरुधत अरुधताम् अरुधन प्र० पु० अरौत्सीत् अरौद्धाम् अरोत्सुः अरुधः अरुधतम् अरुधत म० पु० अरौत्सीः अरौद्धम् अरौद्ध अरुधम् अरुधाव अरुधाम उ० पु० अरौत्सम् अरोत्स्व अरोत्स्म णबादि क्यादादि रुरोध रुरुधतुः रुरुधुः प्र० पु० रुध्यात् रुध्यास्ताम् रुध्यासुः रुरोधिथ रुरुधथु : रुरुध म० पु० रुध्याः रुध्यास्तम् रुध्यास्त रुरोध रुरुधिव रुरुधिम उ० पु० रुध्यासम् रुध्यास्व रुध्यास्म तादि स्यत्यादि रोद्धा रोद्धारौ रोद्धारः प्र० पु० रोत्स्यति रोत्स्यतः रोत्स्यन्ति रोद्धासि रोद्धास्थः रोद्धास्थ म० पु० रोत्स्यसि रोत्स्यथः रोत्स्यथ रोद्धास्मि रोद्धास्वः रोद्धास्मः उ० पु० रोत्स्यामि रोत्स्यावः रोत्स्यामः स्यदादि अरोत्स्यत् अरोत्स्यताम् अरोत्स्यन् प्र० पु० अरोत्स्यः अरोत्स्यतम् अरोत्स्यत म० पु. अरोत्स्यम् अरोत्स्याव अरोत्स्याम उ० पु. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० तिबादि रुन्धे धा रुन्त्से रुन्धा रुन्धे रुन्ध्वहे तुबादि रुन्द्धाम् रुन्धाताम् रुन्त्स्व रुन्धाथाम् रुणध धावहै धादि अरुद्ध अरुद्धा: अरुत्सि क्यादादि आत्मनेपद यादादि रुन्धीयाताम् रुन्धीरन् रुन्धीयाथाम् रुन्धीध्वम् धीहि धीमहि दिबादि रुन्धताम् प्र० पु० अरुन्द्ध अरुन्धाताम् अरुन्धत रुन्द्ध्वम् म० पु० अरुन्धाः अरुन्धाथाम् अरुन्द्ध्वम् रुणधाम है उ० पु० अरुन्धि अरुन्ध्वहि अरुन्धमहि बादि रुन्धते प्र० पु० रुन्धीत रुन्द्ध्वे म० पु० रुन्धीथा: रुन्ध्महे उ० पु० रुन्धीय अरुत्साताम् अरुत्सत प्र० पु० रुरुधे अरुत्साथाम् अरुद्ध्वम् म० पु० रुरुधिषे अरुत्स्वहि अरुत्स्महि उ० पु० रुरुधे तादि रुत्सीष्ट रुत्सीयास्ताम् रुत्सीरन् प्र० पु० रोद्धा रोद्धारौ रुत्सीष्ठाः रुत्सीयास्थाम् रुत्सीध्वम् म० पु० रोद्धासे रोङ्खासाथे रुत्सीय रुत्सी हि रुत्सीमहि उ० पु० रोद्धाहे रोद्धास्वहे स्यत्यादि स्यदादि रोत्स्यते रोत्स्येते रोत्स्यन्ते प्र० पु० अरोत्स्यत रोत्स्यसे रोत्स्येथे रोत्स्यध्वे म० पु० अरोत्स्यथाः रोत्स्ये रोत्स्याव हे रोत्स्यामहे उ० पु० अरोत्स्ये एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि सुबादि भिनत्तु, भिन्तात् भिन्द्धि, भिन्तात् निदानि भिनत्ति भिन्तः भिन्दति भिनत्सि भिन्त्यः भिन्त्य भिनद्मि भिन्द्वः भिन्द्म: रुरुधाते रुरुधाथे रुरुध ४५. भिदुर् - विदारणे (उभयपदी) भेदन करना भिन्ताम् भिन्दन्तु भितम् भिन्त भिनदाव भिनदाम वाक्यरचना बोध अरोत्स्येताम् अरोत्स्यन्त अरोत्स्येथाम् अरोत्स्यध्वम् अत्स्यावहि अरोत्स्यामहि प्र० पु० म० पु० रुरुधिरे रुरुधिध्वे रुरुधमहे रोद्धारः रोद्धाध्वे रोद्धास्महे एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० भिन्द्यात् भिन्द्याताम् भिन्द्युः म० पु० भिन्द्याः भिन्द्यातम् भिन्द्यात उ० पु० भिन्द्याम् भिन्द्याव भिन्द्याम उ० पु० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २. ३६१ तादि दिबादि अभिनत्, अभिनद् अभिन्ताम् अभिन्दन् प्र० पु० अभिनः, अभिनत्, अभिनद् अभिन्तम् अभिन्त म० पु० अभिनदम् अभिन्द्व अभिन्न उ० पु० धादि (१) धादि (२) अभिदत् अभिदताम् अभिदन् प्र० पु० अभैत्सीत् अभैत्ताम् अभैत्सुः अभिदः अभिदतम् अभिदत म० पु० अभैत्सीः अभैत्तम् अभैत्त अभिदम् अभिदाव अभिदाम उ० पु० अभैत्सम् अभैत्सव अभैत्स्म णबादि क्यादादि बिभेद बिभिदतुः बिभिदुः प्र० पु० भिद्यात् भिद्यास्ताम् भिद्यासुः बिभेदिथ बिभिदथुः बिभिद म० पु० भिद्याः भिद्यास्तम् भिद्यास्त बिभेद बिभिदिव बिभिदिम उ० पु० भिद्यासम् भिद्यास्व भिद्यास्म स्यत्यादि भेत्ता भेत्तारौ भेत्तारः प्र० पु० भेत्स्यति भेत्स्यतः भेत्स्यन्ति भेत्तासि भेत्तास्थः भेत्तास्थ म० पु० भेत्स्यसि भेत्स्यथः भेत्स्यथ भेत्तास्मि भेत्तास्वः भत्तास्म: उ० पु० भेत्स्यामि भेत्स्यावः भेत्स्यामः स्यदावि अभेत्स्यत् अभेत्स्यताम् अभेत्स्यन् प्र० पु० अभेत्स्य: अभेत्स्यतम् अभेत्स्यत म० पु० अभेत्स्यम् अभेत्स्याव अभेत्स्याम उ० पु० आत्मनेपद तिबादि यादादि भिन्ते भिन्दाते भिन्दते प्र० पु० भिन्दीत भिन्दीयाताम् भिन्दीरन् भिन्त्से भिन्दा थे भिन्द्ध्वे म० पु० भिन्दीथाः भिन्दीयाथाम् भिन्दीध्वम् भिन्दे भिन्द्वहे भिन्महे उ० पु० भिन्दीय भिन्दीवहि भिन्दीमहि तुबादि दिबादि भिन्ताम् भिन्दाताम् भिन्दताम् प्र० पु० अभिन्त अभिन्दाताम् अभिन्दत भिन्त्स्व भिन्दाथाम् भिन्द्ध्वम् म० पु० अभिन्त्था: अभिन्दाथाम् अभिन्द्ध्वम् भिनदै . भिनदावहै भिनदामहै उ० पु. अभिन्दि अभिन्द्वहि अभिन्महि द्यादि णबादि अभित्त अभिसाताम् अभित्सत प्र० पु० बिभिदे बिभिदाते बिभिदिरे अभित्थाः अभिसाथाम् अभिवम् म० पु० बिभिदिषे बिभिदाथे बिभिदिध्वे अभित्सि अभित्स्वहि अभिस्महि उ० पु० बिभिदे बिभिदिवहे बिभिदिमहे Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ बाक्यरचना बोध तादि क्यादादि भित्सीष्ट भित्सीयास्ताम् भित्सीरन् प्र० पु. भत्ता भेत्तारौ भेत्तारः भित्सीष्ठाः भित्सीयास्थाम भित्सीध्वम् म० पु० भेत्तासे भेत्तासाथे भेत्ताध्वे भित्सीय भित्सीवहि भित्सीमहि उ० पु० भेत्ताहे भेत्तास्वहे भेत्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि भेत्स्यते भेत्स्येते भेत्स्यन्ते प्र० पु० अभेत्स्यत अभेत्स्येताम् अभेत्स्यन्त भेत्स्यसे भेत्स्येथे भेत्स्यध्वे म० पु० अभेत्स्यथाः अभेत्स्येथाम् अभेत्स्यध्वम् भेत्स्ये भेत्स्यावहे भेत्स्यामहे उ० पु० अभेत्स्ये अभेत्स्यावहि अभेत्स्यामहि ४६. पिलर-संचूर्णने (पीसना) यादादि पिष्युः एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि पिनष्टि पिष्टः पिषन्ति प्र० पु० पिष्यात् पिष्याताम् पिनक्षि पिष्ठः पिष्ठ म० पु० पिंष्याः पिंष्यातम् पिंष्यात पिनष्मि पिवः पिष्मः उ० पु० पिष्याम् पिंष्याव पिंष्याम तुबादि पिनष्टु, पिष्टात् पिंष्टाम् पिषन्तु प्र० पु० पिण्ढि, पिष्टात् पिष्टम् पिष्ट म० पु० पिनषाणि पिनषाव पिनषाम दिवादि अपिनट, अपिनड् अपिष्टाम् अपिषन् प्र० पु० अपिनट, अपिनड् अपिष्टम् अपिष्ट म० पु० अपिनषम् अपिष्व अपिष्म उ० पु० धादि णबादि अपिषत् अपिषताम् अपिषन् प्र० पु० पिपेष पिपिषतुः पिपिषुः अपिषः अपिषतम् अपिषत म० पु० पिपेषिथ पिपिषथुः पिपिष अपिषम् अपिषाव अपिषाम उ० पु० पिपेष पिपिषिव पिपिषिम क्यादादि तादि पिष्यात पिष्यास्ताम् पिण्यासुः प्र० पु० पेष्टा पेष्टारौ पेष्टारः पिष्याः पिष्यास्तम् पिष्यास्त म० पु० पेष्टासि पेष्टास्थः पेष्टास्थ पिष्यासम् पिष्यास्व पिष्यास्म उ० पु० पेष्टास्मि पेष्टास्वः पेष्टास्मः Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ - स्यत्यादि पेक्ष्यति पेक्ष्यसि पेक्ष्यामि एकवचन द्विवचन तिबादि तनु, तनुतात् तनवानि दिबादि पेक्ष्यतः पेक्ष्यथः पेक्ष्याव: तनोति तनोषि तनोमि बादि तनोतु, तनुतात् ४७. तनुन्व - विस्तारे (उभयपदी) विस्तार करना परस्मैपद अतनवम् द्यादि (१) ततान तेनिथ बहुवचन तनुतः तन्वन्ति तनुथः तनुथ तनुवः, तन्वः तनुमः, तन्म: अतनोत् अतनुताम् अतनोः अतनुतम् स्यदादि पेक्ष्यन्ति प्र० पु० अपेक्ष्यत् अपेक्ष्यताम् अपेक्ष्यन् म० पु० अपेक्ष्यः अपेक्ष्यतम् अपेक्ष्यत पेक्ष्यामः उ० पु० अपेक्ष्यम् अपेक्ष्याव अपेक्ष्याम पेक्ष्यथ तनुताम् तनुतम् तनवाव तेनतुः तेनथुः ततन तेनिव तन्वन्तु तनुत तनवाम प्र० पु० तनुयात् तनुयाताम् तनुयुः म० पु० तनुयाः तनुयातम् तनुयात उ० पु० तनुयाम् तनुयाव तनुयाम अतन्वन् अतनुत अतन्व, अतनुव अतन्म, अतनुम एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० द्यादि (२) अतानीत् अतानिष्टाम् अतानिषुः प्र० पु० अतनीत् अतनिष्टाम् अतनिषुः अतानी: अतानिष्टम् अतानिष्ट म० पु० अतनीः अतनिष्टम् अनिष्ट अतानिषम् अतानिष्व अतानिष्म उ० पु० अतनिषम् अनिव अत निष्म बादि क्यादादि तेनुः प्र० पु० तन्यात् तन्यास्ताम् तेन म० पु० तेनिम उ० पु० तन्यासम् तन्यास्व तन्याः तन्यास्तम् स्यत्यादि प्र० पु० म० पु० ३६३ उ० पु० तन्यासुः तन्यास्त तन्यास्म ततान,. तादि तनिता तनितारौ तनितारः प्र० पु० तनिष्यति तनिष्यतः तनिष्यन्ति तनितासि तनितास्थः तनितास्थ म० पु० तनिष्यसि तनिष्यथः तनिष्यथ नितास्मि तनितास्वः तनितास्मः उ० पु० तनिष्यामि तनिष्यावः तनिष्यामः Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ स्यदादि अनिष्यत् अतनिष्यः अत निष्यम् तिबादि तनुते तन्वा तनुषे तन्वाथे afrat अनिष्यतम् अतनिष्याव अतन्वाताम् अतन्वाथाम् अहि, अनुह अत निष्यन् अत निष्यत अत निष्याम आत्मनेपद तन्वते तनुध्वे तन्वे तन्वहे, तनुवहे तन्महे, तनुमहे उ० पु० तन्वीय तन्वीवहि तुबादि तनुताम् तन्वाताम् तन्वताम् तनुष्व तन्वाथाम् तनुध्वम् तनवै तनवावहै तनवामहै दिबादि अतनुत अतनुथाः अतन्वि यादि अतत, अनिष्ट अतनिषाताम् अतथा:, अतनिष्ठाः अतनिषाथाम् अनिष Caffe बादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० अनिष्येताम् अनिष्येथाम् अनिष्यावहि यादादि प्र० पु० तन्वीत तन्वीयाताम् तन्वीरन् म० पु० तन्वीथाः तन्वीयाथाम् तन्वीध्वम् महि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० अतन्वत म० पु० अतनुध्वम् अतन्महि, अनुमहि उ० पु० वाक्यरचना बोक अतनिषत प्र० पु० अतनिध्वम्, अतनिढ्वम् म० पु० महि ते तेनाते तेनिरे तेनिषे तेनाथे ते निध्वे तेने तादि तनिता तनितारौ तनितारः वनितासे तनितासाथे तनिताध्वे तनिताहे तनितास्वहे तनितास्महे उ० पु० तनिष्ये प्र० पु० तनिष्यते म० पु० तनिष्यसे स्यादि अनिष्यत अत निष्यथाः अनिष्ये क्यादादि प्र० पु० तनिषीष्ट तनिषीयास्ताम् तनिषीरत् म० पु० तनिषीष्ठाः तनिषीयास्थाम् तनिषीध्वम् निवहे निमहे उ० पु० तनिषीय तनिषीवहि तनिषीमहि स्यत्यादि अत निष्यन्त अनिष्यध्वम् अत निष्यामहि उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० तनिष्येते तनिष्यन्ते तनिष्येथे तनिष्यध्वे निष्यावहे तनिष्यामहे Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४८. ज्ञांश-अवबोधने (जानना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि जानाति जानीतः जानन्ति प्र० पु० जानीयात् जानीयाताम् जानीयु: जानासि जानीथः जानीथ म० पु० जानीयाः ‘जानीयातम् जानीयात जानामि जानीवः जानीमः उ० पु० जानीयाम् जानीयाव जानीयाम तुबादि दिबादि जानातु, जानीतात् जानीताम् जानन्तु प्र० पु० अजानात् अजानीताम् अजानन् जानीहि, जानीतात् जानीतम् जानीत म० पु० अजाना: अजानीतम् अजानीत जानानि जानाव जानाम उ० पु० अजानाम् अजानीव अजानीम द्यादि __णबादि अज्ञासीत् अज्ञासिष्टाम् अज्ञाषिषुः प्र० पु० जज्ञौ जज्ञतुः जजुः अज्ञासी: अज्ञासिष्टम् अज्ञासिष्ट म० पु० जज्ञिथ, जज्ञाथ जज्ञथुः जज्ञ अज्ञासिषम् अज्ञासिष्व अज्ञासिष्म उ० पु० जज्ञौ जज्ञिव जज्ञिम क्यादादि (१) क्यादादि (२) ज्ञायात् ज्ञायास्ताम् ज्ञायासुः प्र० पु० ज्ञेयात् ज्ञेयास्ताम् ज्ञेयासुः ज्ञायाः ज्ञायास्तम् ज्ञायास्त म० पु० ज्ञेयाः ज्ञेयास्तम् ज्ञेयास्त ज्ञायासम् ज्ञायास्व ज्ञायास्म उ० पु० ज्ञेयासम् ज्ञेयास्व ज्ञेयास्म तादि स्यत्यादि ज्ञाता ज्ञातारौ ज्ञातारः प्र० पु० ज्ञास्यति ज्ञास्यतः ज्ञास्यन्ति ज्ञातासि ज्ञातास्थः ज्ञातास्थ म० पु० ज्ञास्यसि ज्ञास्यथः ज्ञास्यथ ज्ञातास्मि ज्ञातास्वः ज्ञातास्म: उ० पु० ज्ञास्यामि ज्ञास्यावः ज्ञास्यामः स्यदादि अज्ञास्यत् अज्ञास्यताम् अज्ञास्यन् प्र० पु० अज्ञास्यः अज्ञास्यतम् अज्ञास्यत म० पु० अज्ञास्यम् अज्ञास्याव अज्ञास्याम उ० पु० ४६. ग्रहनश् -- उपादाने (उभयपदी) ग्रहण करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि गृह्णाति गृह्णीतः गृह्णन्ति प्र० पु० गृह्णीयात् गृह्णीयाताम् गृह्णीयुः गृह्णासि गृह्णीथः गृह्णीथ म० पु० गृह्णीयाः गृह्णीयातम् गृह्णीयात गृह्णामि गृह्णीवः गृह्णीमः उ० पु० गृह्णीयाम् गृह्णीयाव गृह्णीयाम यादादि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ वाक्यरचना बोध Lithili तुबादि दिवादि गृह्णातु, गृह्णीतात् गृह्णीताम् गृह्णन्तु प्र० पु० अगृह्णात् अगृह्णीताम् अगृह्णन् गृहाण, गृह्णीतात् गृह्णीतम् गृह्णीत म० पु० अगृह्णाः अगृह्णीतम् अगृहीत गृह्णानि गृह्णाव गृह्णाम उ० पु० अगृह्णाम् अगृह्णीव अगृह्णीम धादि णबादि अग्रहीत् अग्रहिष्टाम् अग्रहिषुः प्र० पु० जग्राह जगृहतुः जगृहुः अग्रहीः अग्रहिष्टम् अग्रहिष्ट म० पु० जग्रहिथ जगृहथुः जगृह अग्रहिषम अग्रहिष्व अग्रहिष्म उ० पु० जग्राह, जगह जगृहिव जगृहिम क्यादादि तादि गृह्यात् गृह्यास्ताम् गृह्यासुः प्र० पु० ग्रहीता ग्रहीतारौ ग्रहीतार: गृह्याः गृह्यास्तम् गृह्यास्त म० पु० ग्रहीतासि ग्रहीतास्थः ग्रहीतास्थ गृह्यासम् गृह्यास्व गृह्यास्म उ० पु० ग्रहीतास्मि ग्रहीतास्वः ग्रहीतास्मः स्यत्यादि स्यदादि ग्रहीष्यति ग्रहीष्यतः ग्रहीष्यन्ति प्र० पु० अग्रहीष्यत् अग्रहीष्यताम् अग्रहीष्यन् ग्रहीष्यसि ग्रहीष्यथ: ग्रहीष्यथ म० पु० अग्रहीष्यः अग्रहीष्यतम् अग्रहीष्यत ग्रहीष्यामि ग्रहीष्यावः ग्रहीष्यामः उ० पु० अग्रहीष्यम् अग्रहीष्याव अग्रहीष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि गृह्णाते गृह्णते प्र० पु० गृह्णीत गृह्णीयाताम् गृह्णीरन् गृह्णीषे गृह्माथे गृह्णीध्वे म० पु० गृह्णीथाः गृह्णीयाथाम् गृह्णीध्वम् गृहणे गृह्णीवहे गृह्णीमहे उ० पु० गृह्णीय गृह्णीवहि गृह्णीमहि दिबादि गृह्णीताम् गृह्णाताम् गृह्णताम् प्र० पु० अगृह्णीत अगृह्णाताम् अगृह्णत गृह्णीष्व गृह्णाथाम् गृह्णीध्वम् म० पु० अगृह्णीथाः अगृह्णाथाम् अगृह्णीध्वम् गृहण गृह्णावहै गृह्णामहै उ० पु० अगृहि अगृह्णीवहि अगृह्णीमहि धादि णबादि । अग्रहीष्ट अग्रहीषाताम् अग्रहीषत प्र० पु० जगृहे जगृहाते जगृहिरे अग्रहीष्ठाः अग्रहीषाथाम् अग्रहीध्वम्, अग्रहीदवम् म. पु० जगृहिषे जगृहाथे जगृहिध्वे अग्रहीषि अग्रहीष्वहि अग्रहीष्महि उ० पु० जगृहे जगृहिवहे जगृहिमहे ज्यादादि तादि ग्रहीषीष्ट ग्रहीषीयास्ताम् ग्रहीषीरन् प्र० पु० ग्रहीता ग्रहीतारौ ग्रहीतारः ग्रहीषीष्ठाः ग्रहीषीयास्थाम् ग्रहीषीध्वम् म० पु० ग्रहीतासे ग्रहीतासाथे ग्रहीताध्वे ग्रहीषि ग्रहीष्वहि ग्रहीष्महि उ० पु० ग्रहीताहे ग्रहीतास्वहे ग्रहीतास्महे गृह्णीते तुबादि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्यत्यादि स्यदादि प्र० पु० अग्रहीष्यत ग्रहीष्यते ग्रहीष्येते ग्रहीष्यन्ते अग्रहीष्येताम् अग्रहीष्यन्त ग्रहीष्यसे ग्रहीष्येथे ग्रहीष्यध्वे म० पु० अग्रहीष्यथाः अग्रहीष्येथाम् अग्रहीष्यध्वम् ग्रहीष्ये ग्रहीष्याव हे ग्रहीष्यामहे उ० पु० अग्रहीष्ये अग्रहीष्यावहि अग्रहीष्या महि ५०. चुरण - स्तेये ( चुराना) बहुवचन चोरयति चोरयतः चोरयन्ति चोरयसि चोरयथः चोरयथ चोरयामि चोरयावः चोरयामः एकवचन द्विवचन तिबादि तुबादि चोरयतु, चोरयतात् चोरय, चोरयतात् चोरयाणि चोरयताम् चोरयतम् चोरयाव चोरयाञ्चकार चोरयाञ्चकर्थ चोरयाञ्चक्रतुः चोरयाञ्चक्रथुः चोरयाञ्चकार, चोरयाञ्चकर चोरयाञ्चकृव बादि (२) चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूवतुः चोरयाम्बभूविथ चोरयाम्बभूबथुः चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूविव एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० चोरयेत् चोरयेताम् चोरयेयुः म० पु० चोरयेः चोरयेतम् चोरयेत उ० पु० चोरयेयम् चोरयेव चोरयेम चोरयन्तु चोरयत चोरयाम दिबादि द्यादि अचोरयत् अचोरयताम् अचोरयन् प्र० पु० अचूचुरत् अचूचुरताम् अचूचुरन् अचोरयः अचोरयतम् अचोरयत म० पु० अचूचुर: अचूचुरतम् अचूचुरत अचोरयम् अचोरयाव अचोरयाम उ० पु० अच्चुरम् अचूचुराव अच्चुराम बादि (१) बादि (३) चोरयामास चोरयामासतुः चोरयामाथि चोरयामासथुः चोरयामास चोरयामासिव प्र० पु० म० पु० उ० पु० चोरयाञ्चक्रुः चोरयाञ्चक्र चोरयाञ्चकृम चोरयाम्बभूवुः चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूविम चोरयामासुः चोरयामास चोरयामासिम ३६७ प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध क्यादादि तादि चोर्यात् चोर्यास्ताम् चोर्यासुः प्र० पु० चोरयिता चोरयितारौ चोरयितारः चोर्याः चोर्यास्तम् चोर्यास्त म० पु० चोरयितासि चोरयितास्थः चोरयितास्थ चोर्यासम् चोर्यास्व चोर्यास्म उ. पु० दोरयितास्मि चोरयितास्वः चोरयितास्म: स्यत्यादि चोरयिष्यति चोरयिष्यतः चोरयिष्यन्ति प्र० पु० चोरयिप्यसि चोरयिष्यथः चोरयिष्यथ म० पु० चोरयिष्यामि चोरयिष्याव: चोरयिष्यामः उ० पु० स्यदादि अचोरयिष्यत् अचोरयिष्यताम् अचोरयिष्यन् प्र० पु० अचोरयिष्यः अचोरयिष्यतम् अचोरयिष्यत म० पु० अचोरयिष्यम् अचोरयिष्याव अचोरयिष्याम उ० पु० ५१. अज - क्षेपणे च (चकाराद् गतौ) फेंकना और जाना एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि अजति अजतः अजन्ति प्र० पु० अजेत् अजेताम् अजेयुः अजसि अजथः अजथ म० पु० अजे: अजेतम् अजेत अजामि अजावः अजामः उ० पु० अजेयम् अजेव अजेम तुबादि दिबादि अजतु, अजतात् अजताम् अजन्तु प्र० पु० आजत् आजताम् आजन् अज, अजतात् अजतम् अजत म० पु० आजः आजतम् आजत अजानि अजाव अजाम उ० पु० आजम् आजाव आजाम द्यादि अवैषीत् अवैष्टाम् अवैषुः प्र० पु० अवैषीः अवैष्टम् अवैष्ट म० पु० अवैषम् अवैष्व . अवैष्म णबादि विवाय वि व्यतुः विव्युः प्र० पु० विवयिथ, विवेथ, आजिथ विव्यथुः विव्य म० पु० विवाय, विवय विव्यिव, आजिव विव्यिम, आजिम उ०पु० उ० पु० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३६६ क्यादादि तादि (१) वीयात् । वीयास्ताम् वीयासुः प्र० पु० अजिता अजितारी अजितारः वीयाः वीयास्तम् वीयास्त म० पु० अजितासि अजितास्थः अजितास्थ वीयासम् वीयास्व बीयास्म उ० पु० अजितास्मि अजितास्वः अजितास्मः तादि (२) स्यत्यादि (१) वेता वेतारौ वेतारः प्र० पु० अजिष्यति अजिष्यतः अजिष्यन्ति वेतासि वेतास्थः वेतास्थ म० पु० अजिष्यसि अजिष्यथः अजिष्यथ वेतास्मि वेतास्वः वेतास्मः उ० पु० अजिष्यामि अजिष्यावः अजिष्यामः स्यत्यादि (२) स्यदादि वेष्यति वेष्यतः वेष्यन्ति प्र० पु० आजिष्यत् आजिष्यताम् आजिष्यन् वेष्यसि वेष्यथः वेष्यथ म० पु० आजिष्यः आजिष्यतम् आजिष्यत वेष्यामि वेष्यावः वेष्याम: उ० पु० आजिष्यम् आजिष्याव आजिष्याम ५२. वज-गतौ (जाना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वजति वजतः वजन्ति प्र० पु० वजेत् वजेताम् वजेयुः वजथः वजथ म० पु० वजे: वजेतम् वजेत वजामि वजावः वजाम: उ० पु० वजेयम् वजेव वजेम तुबादि दिबादि वजतु, वजतात् वजताम् वजन्तु प्र० पु० अवजत् अवजताम् अवजन वज, वजतात् वजतम् वजत म० पू० अवजः अवजतम् अवजत वजानि वजाव वजाम उ० पु० अवजम् अवजाव अवजाम द्यादि (१) द्यादि (२) अवाजीत् अवाजिष्टाम् अवाजिषुः प्र० पु० अवजीत् अवजिष्टाम् अवजिषुः अवाजी: अवाजिष्टम् अवाजिष्ट म० पु० अवजीः अवजिष्टम् अवजिष्ट अवाजिषम् अवाजिष्व अवाजिष्म उ० पु० अवजिषम् अवजिष्व अवजिष्म णबादि क्यादादि ववाज ववजतुः ववजुः प्र० पु० वज्यात् वज्यास्ताम् वज्यासुः ववजिथ ववजथुः ववज म० पु० वज्या: वज्यास्तम् वज्यास्त ववाज, ववज ववजिव वजिम उ० पु० वज्यासम् वज्यास्व वज्यास्म तादि स्यत्यादि वजिता वजितारौ वजितारः प्र० पु० वजिष्यति वजिष्यतः वजिष्यन्ति वजितासि वजितास्थः वजितास्थ म० पु० वजिष्यसि वजिष्यथः वजिष्यथ वजितास्मि वजितास्वः वजितास्म: उ० पु० वजिष्यामि वजिष्याव: वजिष्यामः वजसि Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध ३७० व्रजेम तुबादि अवजाम स्यदादि अवजिष्यत् अवजिष्यताम् अवजिष्यन् प्र० पु० अवजिष्यः अवजिष्यतम् अवजिष्यत म० पु० अवजिष्यम् अवजिष्याव अवजिष्याम उ० पु० ५३. व्रज-गतौ (जाना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि व्रजति व्रजतः व्रजन्ति प्र० पु. व्रजेत् व्रजेताम् व्रजेयुः व्रजसि वजथः वजथ म० पु० व्रजेः व्रजेतम् व्रजेत व्रजामि व्रजावः व्रजामः उ० पु. व्रजेयम् वजेव दिबादि व्रजतु, व्रजतात् व्रजताम् वजन्तु प्र० पु० अवजत् अवजताम् अवजन व्रज, वजतात् व्रजतम् व्रजत म० पु० अवजः अव्रजतम् अव्रजत व्रजानि वजाव व्रजाम उ० पु० अवजम् अवजाव धादि बादि अवाजीत् अवाजिष्टाम् अवाजिबुः प्र० पु० वव्राज वव्रजतुः । वव्रजः अवाजीः अबाजिष्टम् अवाजिष्ट म० पु० ववजिथ वव्रजथु: वव्रज अवाजिषम् अवाजिष्व अवाजिष्म उ० पु० वव्राज ववजिव वजिम क्यादादि तादि व्रज्यात् व्रज्यास्ताम् व्रज्यासुः प्र० पु० वजिता वजितारौ वजितारः व्रज्याः व्रज्यास्तम् व्रज्यास्त म० पु. वजितासि वजितास्थः व्रजितास्थ व्रज्यासम् व्रज्यास्व व्रज्यास्म उ० पु० वजितास्मि व्रजितास्वः वजितास्म: स्यत्यादि स्यदादि व्रजिष्यति व्रजिष्यतः व्रजिष्यन्ति प्र० पु० अवजिष्यत् अवजिष्यताम् अवजिष्यन् व्रजिष्यसि वजिष्यथः वजिष्यथ म० पु० अवजिष्यः अवजिष्यतम् अवजिष्यत व्रजिष्यामि वजिष्यावः वजिष्यामः उ० पु० अवजिष्यम् अवजिष्याव अवजिष्याम ५४. उषु-दाहे (जलना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि ओषति ओषतः ओषन्ति प्र० पु० ओषेत् ओषेताम् ओषेयुः ओषसि ओषथः ओषथ म० पु० ओषेः ओषेतम् ओषेत ओषामि ओषावः ओषामः उ० पु० ओषयम् ओषेव ओषेम Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तुबादि दिबादि ओषतु, ओषतात् ओषताम् ओषन्तु प्र० पु० औषत् औषताम् औषन् ओष, ओषतात् ओषतम् ओषत म० पु० औषः औषतम् औषत ओषाणि ओषाव ओषाम उ० पु० औषम् .. औषाव औषाम धादि औषीत् औषिष्टाम् औषिषुः प्र० पु० औषीः औषिष्टम् औषिष्ट म० पु० औषिषम् औषिष्व औषिष्म उ० पु. णबादि (१) ओषाञ्चकार ओषाञ्चक्रतुः ओषाञ्चक्रुः प्र० पु० ओपाञ्चकर्थ ओषाञ्चक्रथुः ओषाञ्चक्र ओषाञ्चकार, ओषाञ्चकर ओषाञ्चकृव ओषाञ्चकृम उ० पु० णबादि (२) ओषाम्बभूव ओषाम्बभूवतुः ओषाम्बभूवुः प्र० पु० ओषाम्बभूविथ ओषाम्बभूवथुः । ओषाम्बभूव म० पु० ओषाम्बभूव ओषाम्बभूविव ओषाम्बभूविम उ० पु० णवादि (३) ओषामास ओपामासतुः ओषामासुः प्र० पु० ओषामासिथ ओषामासथुः ओषामास म० पु० ओषामास ओषामासिव ओषामासिथ उ० पु० णबादि (४) क्यादादि उवोष ऊषतुः ऊषुः प्र० पु० उष्यात् उष्यास्ताम् उष्यासुः उवोषिथ ऊषथुः ऊष म० पु० उष्याः उष्तास्तम् उष्यास्त उवोष ऊषिव ऊषिम उ० पु० उष्यासम् उष्यास्व उष्यास्म तादि स्यत्यादि ओषिता ओषितारौ ओषितारः प्र० पु० ओषिष्यति ओषिष्यतः ओषिष्यन्ति ओषितासि ओषितास्थ: ओषितास्थ म० पु० ओषिष्यसि ओषिष्यथ: ओषिष्यथ ओषितास्मि ओषितास्वः ओषितास्मः उ० पु० ओषिष्यामि ओषिष्यावः ओषिष्यामा स्यदादि औषिष्यत् औषिष्यताम् औषिष्यन् प्र० पु० औषिष्यः औषिष्यतम् औषिष्यत म० पु० औषिष्यम् औषियाव औषिष्याम उ० पु० Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ वाक्यरचना बोध ५५. लुञ्च-अपनयने (दूर करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि लुञ्चति लुञ्चतः लुञ्चन्ति प्र० पु० लुञ्चेत् लुञ्चेताम् लुञ्चेयुः लुञ्चसि लुञ्चथः लुञ्चथ म० पु० लुञ्चेः लुञ्चेतम् लुञ्चेत लुञ्चामि लुञ्चावः लुञ्चामः उ० पु० लुञ्चेयम् लुञ्चेव लुञ्चेम तुबादि दिबादि लुञ्चतु, लुञ्चतात् लुञ्चताम् लुञ्चन्तु प्र० पु० अलुञ्चत् अलुञ्चताम् अलुञ्चन् लुञ्च, लुञ्चतात् लुञ्चतम् लुञ्चत म० पु० अलुञ्चः अलुञ्चतम् अलुञ्चत लुञ्चानि लुञ्चाव लुञ्चाम उ० पु० अलुञ्चम् अलुञ्चाव अलुञ्चाम धादि णबादि अलुञ्चीत् अलुञ्चिष्टाम् अलुञ्चिषु: प्र० पु. लुलुञ्च लुलुञ्चतु: लुलुञ्चुः अलुञ्चीः अलुञ्चिष्टम् अलुञ्चिष्ट म० पु० लुलुञ्चिथ लुलुञ्चथुः लुलुञ्च अलुञ्चिषम् अलुञ्चिष्व अलुञ्चिष्म उ० पु. लुलुञ्च लुलुञ्चिव लुलुञ्चिम क्यादादि तादि लुच्यात् लुच्यास्ताम् लुच्यासुः प्र० पु. लुञ्चिता लुञ्चितारौ लुञ्चितारः लुच्याः लुच्यास्तम् लुच्यास्त म० पु. लुञ्चितासि लुञ्चितास्थः लुञ्चितास्थ लुच्यासम् लुच्यास्व लुच्यास्म उ० पु. लुञ्चितास्मि लुञ्चितास्वः लुञ्चितास्मः स्यत्यादि लुञ्चिष्यति लुञ्चिष्यतः लुञ्चिष्यन्ति प्र० पु० लुञ्चिष्यसि लुञ्चिष्यथः लुञ्चिष्यथ म० पु० लुञ्चिष्यामि लुञ्चिष्यावः लुञ्चिष्यामः उ० पु० स्यदादि अलुञ्चिष्यत् अलुञ्चिष्यताम् अलुञ्चिष्यन् प्र० पु० अलुञ्चिष्यः अलुञ्चिष्यतम् अलुञ्चिप्यत म० पु० अलुञ्चिष्यम् अलुञ्चिष्याव अलुञ्चिष्याम उ० पु० ५६. अर्ह-पूजायाम् (पूजा करना) तिबादि यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन अर्हति अर्हतः अर्हन्ति प्र० पु० अर्हेत् अर्हेताम् अर्हेयुः अर्हसि अर्हथः अर्हथ म० पु० अर्हेः अर्हेतम् अर्हत अर्हामि अर्हावः अर्हामः उ० पु० अर्हेयम् अहेव अर्हेम Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ बादि अर्हतु, अर्हतात् अर्हताम् अर्ह, अर्हतात् अर्हतम् अर्हाणि धादि आत् आर्ही: आर्हिषम् क्यादादि अर्हन्तु अर्हत अर्हा अहम आहिष्टाम् आहिषुः आहिष्ट आर्हिष्म आहिष्टम् आर्हिष्व अर्ह यासुः अर्ह, यास्त अर्ह यास्म एकवचन द्विवचन तिबादि तर्जति तर्जतः तर्जन्ति तर्जसि तर्जथः तर्जथ तर्जामि तर्जाव: तर्जाम: तुबादि तर्जतु, तर्जतात् तर्जताम् तर्ज, तर्जतात् तर्जतम् तर्जानि तर्जाव दिबादि प्र० पु० आर्हत् म० पु० आर्हः उ० पु० आर्हम् बादि प्र० पु० आनई म० पु० आनर्हिथ तर्जन्तु तर्जत तर्जाम उ० पु० आन तादि अर्ह यात् अर्ह यास्ताम् अर्ह याः अर्ह, यास्तम् अर्ह,यासम् अर्ह,यास्व स्यत्यादि अर्हिष्यति अहिष्यतः अर्हिष्यन्ति प्र० पु० आर्हिष्यत् आर्हिष्यताम् आर्हिष्यन् अर्हिष्यसि अर्हिष्यथः अर्हिष्यथ म० पु० आर्हिष्यः आहिष्यतम् आर्हिष्यत अर्हिष्यामि अहिष्यावः अर्हिष्यामः उ० पु० आहिष्यम् आहिष्याव आहिष्याम ५७ तर्ज ( भर्त्सने) भर्त्सना करना बहुवचन एकवचन द्विवचन यादादि प्र० पु० तर्जेत् म० पु० तर्जेः प्र० पु० अर्हिता अहिंतारौ अहितार: म० पु० अहितासि अहितास्थः अहितास्थ उ० पु० अर्हितास्मि अहितास्वः अहितास्मः स्यदादि आर्हताम् आर्हन् आर्हतम् आर्हत आहव आम णबादि आर्हतुः आहुः आनर्हथुः आनर्ह आनहि आनहिम उ० पु० तर्जेयम् तर्जेव दिबादि द्यादि अतर्जीत् अतजिष्टाम् अतर्जिषुः प्र० पु० ततर्ज अतर्जी: अतजिष्टम् अतजिष्ट म० पु० ततजिथ अतजिष्म अतजिष्व अतजिष्म उ० पु० ततर्ज क्यादादि प्र० पु० अतर्जत् अतर्जताम् म० पु० अतर्ज: अतर्जतम् उ० पु० अतर्जम् अतर्जाव _३७३ तर्जेताम् तर्जेत म् तर्ज्यात् तर्ज्यास्ताम् तर्ज्यासुः प्र० पु० तर्जिता तर्ज्या: तयस्तम् तयस्त तर्ज्यासम् तयस्वि तयस्म तादि तजितारौ म० पु० तर्जितासि तर्जितास्थः उ० पु० तर्जितास्मि तर्जितास्वः बहुवचन तर्जेयुः तर्जे तर्जेम अतर्जन् अर्जत अर्जाम ततर्जतुः ततर्जथुः तर्ताजव ततजिम तर्जुः ततर्ज तजितार: तजितास्थ तजितास्मः Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ स्यत्यादि स्यदादि तजिष्यति तर्जिष्यतः तर्जिष्यन्ति प्र० पु० अतर्जिष्यत् अतजिष्यताम् अतर्जिष्यन् तजिष्यसि तर्जिष्यथः तर्जिष्यथ म० पु० अतजिष्यः अतजिष्यतम् अतजिष्यत तजिष्यामि तर्जिष्यावः तर्जिष्यामः उ० पु० अतजिष्यम् अतजिष्याव अतर्जिष्याम ५८. अञ्चु - गतौ च (चकाराद् पूजायाम्) जाना और पूजा करना एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि अञ्चन्ति प्र० पु० अञ्चेत् तिबादि अञ्चति अञ्चतः अञ्चसि अञ्चथः अञ्चथ अञ्चामि अञ्चाव: अञ्चामः तुबादि म० पु० अञ्चे: उ० पु० अञ्चेयम् दिबादि अञ्चतु, अञ्चतात् अञ्चताम् अञ्चन्तु प्र० पु० आञ्चत् आञ्चताम् आञ्चन् अञ्च, अञ्चतात् अञ्चतम् अञ्चत म० पु० आञ्चः आञ्चतम् आञ्चत अञ्चानि अञ्चाव अञ्चाम उ० पु० आञ्चम् आञ्चाव आञ्चाम णबादि धादि आञ्चीत् आञ्चिष्टाम् आञ्चिषुः प्र० पु० आनञ्च आनञ्चतुः आनञ्चुः आञ्ची: आञ्चिष्टम् आञ्चिष्ट म० पु० आनञ्चिथ आनञ्चथुः आनञ्च आञ्चिषम् आञ्चिष्व आञ्चिष्म उ० पु० आनञ्च आनञ्चिव आनञ्चिम क्यादादि अञ्चिता अञ्चितारी अञ्चितारः अञ्चितासि अञ्चितास्थः अञ्चितास्थ अञ्चितास्मि अञ्चितास्वः अञ्चितास्मः पूजायाम् अच्यात् अच्यास्ताम् अच्यासुः प्र० पु० अञ्च्यात् अञ्च्यास्ताम् अञ्च्यासुः अच्या: अच्यास्तम् अच्यास्त म० पु० अञ्च्याः अञ्च्यास्तम् अञ्च्यास्त अच्यासम् अच्यास्व अच्यास्म उ० पु० अञ्च्यासम् अञ्च्यास्व तादि अञ्च्यास्म स्यत्यादि अञ्चिष्यति अञ्चिष्यतः अञ्चिष्यन्ति अञ्चिष्यसि अञ्चिष्यथः अञ्चिष्यथ अञ्चिष्यामि अञ्चिष्यावः अञ्चिष्यामः अञ्चेताम् अञ्चेयुः अञ्चेतम् अञ्चेत अञ्चेव अञ्चेम स्यदादि आञ्चिष्यत् आञ्चिष्यताम् आञ्चिष्यन् आञ्चिष्य: आञ्चिष्यतम् आञ्चिष्यत आञ्चिष्म् आञ्चिष्याव आञ्चिष्याम वाक्यरचना बोध प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३७५ एजेम तुबादि एजानि ५६. एज–कम्पने (कम्पित होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि एजति एजतः एजन्ति प्र० पु० एजेत् एजेताम् एजेयुः एजसि एजथः एजथ म० पु० एजेः एजेतम् एजेत एजामि एजाव: एजामः उ० पु० एजेयम् एजेव दिबादि एजतु, एजतात् एजताम् एजन्तु प्र० पु० ऐजत् ऐजताम् ऐजन् एज, एजतात् एजतम् एजत म० पु० ऐजः ऐजतम् ऐजत एजाव एजाम उ० पु० ऐजम् ऐजाव ऐजाम बादि ऐजीत् ऐजिष्टाम् ऐजिषुः प्र० पु० ऐजीः ऐजिष्टम् ऐजिष्ट म० पु० ऐजिषम् ऐजिष्व ऐजिष्म उ० पु० गबादि (१) एजाञ्चकार एजाञ्चक्रतुः एजाञ्चक्रुः प्र० पु० एजाञ्चकर्थ एजाञ्चक्रथुः एजाञ्चक्र म० पु० एजाञ्चकार, एजाञ्चकर एजाञ्चकृव एजाञ्चकृम णबादि (२) ___णबादि (३) एजाम्बभूव एजाम्बभूवतुः एजाम्बभूवुः प्र. पु. एजामास एजामासतुः एजामासुः एजाम्बभूविथ एजाम्बभूवथुः एजाम्बभूव म. पु. एजामासिथ एजामासथुः एजामास एजाम्बभूव एजाम्बभूविव एजाम्बभूविम उ. पु. एजामास एजामासिव एजामासिम क्यादादि स्यत्यादि एज्यात् एज्यास्ताम् एज्यासुः प्र० पु० एजिष्यति एजिष्यतः एजिष्यन्ति एज्याः एज्यास्तम् एज्यास्त म० पु० एजिष्यसि एजिष्यथः एजिष्यथ एज्यासम् एज्यास्व एज्यास्म उ० पु० एजिष्यामि एजिष्याव: एजिष्यामः स्यदादि ऐजिष्यत् ऐजिष्यताम् ऐजिष्यन् प्र० पु० ऐजिष्यः ऐजिष्यतम् ऐजिष्यत म० पु० ऐजिष्यम् ऐजिष्याव ऐजिष्याम उ० पु० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ वाक्य रचना बोध हसतम तुबादि ६०. हसे-हसने (हंसना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि हसति हसतः हसन्ति प्र० पु० हसेत् हसेताम् हसेयुः हससि हसथः हसथ म० पु० हसेः हसामि हसावः हसामः उ० पु० हसेयम् हसेव दिबादि हसतु, हसतात् हसताम् हसन्तु प्र० पु० अहसत् अहसताम् अहसन् हस, हसतात् हसतम् हसत म० पु० अहसः अहसतम् अहसत हसानि हसाव हसाम उ० पु० अहसम् अहसाव अहसाम धादि (१) द्यादि (२) अहसीत् अहसिष्टाम् अहसिषुः प्र. पु. अहासीत् अहासिप्टाम् अहासिषुः अहसी: अहसिष्टम् अहसिष्ट म. पु. अहासीः अहासिष्टम् अहासिष्ट अहसिषम् अहसिष्व अहसिष्म उ. पु. अहासिषम् अहासिष्व अहासिष्म णबादि क्यादादि जहास जहसतुः जहसुः प्र० पु० हस्यात् हस्यास्ताम् हस्यासुः जहसिथ जहसथुः जहस म० पु० हस्याः हस्यास्तम् हस्यास्त जहास, जहस जहसिव जहसिम उ० पु० हस्यासम् हस्यास्व हस्यास्म तादि हसिता हसितारौ हसितारः प्र० पु० हसिष्यति हसिष्यतः हसिष्यन्ति हसितासि हसितास्थः हसितास्थ म० पु० हसिष्यसि हसिष्यथः हसिष्यथ हसितास्मि हसितास्वः हसितास्मः उ० पु० हसिष्यामि हसिष्यावः हसिष्यामः स्यदादि अहसिष्यत् अहसिष्यताम् अहसिष्यन् प्र० पु० अहसिष्यः अहसिष्यतम् अहसिष्यत म० पु० अहसिष्यम् अहसिष्याव अहसिष्याम उ० पु० ६१. जीव-प्राणधारणे (जीना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि जीवति जीवतः जीवन्ति प्र० पु० जीवेत् जीवेताम् जीवेयुः जीवसि जीवथः जीवथ म० पु० जीवेः जीवेतम् जीवेत जीवामि जीवावः जीवामः उ० पु० जीवेयम् जीवेव जीवेम मायादि Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३७७ तुबादि दिबादि जीवतु, जीवतात् जीवताम् जीवन्तु प्र० पु० अजीवत् अजीवताम् अजीवम् जीव, जीवतात् जीवतम् जीवत म० पु० अजीवः अजीवतम् अजीवत जीवानि जीवाव जीवाम उ० पु० अजीवम् अजीवाव अजीवाम) धादि णबादि अजीवीत अजीविष्टाम् अजीविषुः प्र० पु० जिजीव जिजीवतुः जिजीवुः अजीवीः अजीविष्टम् अजीविष्ट म० पु० जिजीविथ जिजीवथुः जिजीव अजीविषम् अजीविष्व अजीविष्म उ० पु० जिजीव जिजीविव जिजीविम क्यादादि तादि जीव्यात् जीव्यास्ताम् जीव्यासुः प्र० पु० जीविता जीवितारौ जीवितारः जीव्याः जीव्यास्तम् जीव्यास्त म० पु० जीवितासि जीवितास्थः जीवितास्थ जीव्यासम् जीव्यास्व जीव्यास्म उ० पु० जीवितास्मि जीवितास्व: जीवितास्म: स्यत्यादि जीविष्यति जीविष्यतः जीविष्यन्ति प्र० पु० जीविष्यसि जीविष्यथः जीविष्यथ म० पु० जीविष्यामि जीविष्याव: जीविष्यामः स्यदादि अजीविष्यत् अजीविष्यताम् अजीविष्यन् प्र० पु. अजीविष्यः अजीविष्यतम् अजीविष्यत म० पु० अजीविष्यम् अजीविष्याव अजीविष्याम उ० पु० ६२. त्यजं-हानौ (छोडना) एकवचन द्विवचन बहुचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि त्यजति त्यजतः त्यजन्ति प्र० पु० त्यजेत् त्यजेताम् त्यजेयुः त्यजसि त्यजथः त्यजथ म० पु० त्यजेः त्यजेतम् । त्यजेत त्यजामि त्यजावः त्यजामः उ० पु० त्यजेयम् त्यजेव त्यजेम तुबादि दिबादि त्यजतु, त्यजतात् त्यजताम् त्यजन्तु प्र० पु० अत्यजत् अत्यजताम् अत्यजन् त्यज, त्यजतात् त्यजतम् त्यजत म० पु० अत्यजः अ यजतम् अत्यजत त्यजानि त्यजाव त्यजाम ज० पु० अत्यजम् अत्यजाव अत्यजाम Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 वाक्यरचना बोध धादि णबादि अत्याक्षीत् अत्याक्ताम् अत्याक्षुः प्र० पु० तत्याज तत्यजतुः तत्यजुः अत्याक्षीः अत्याक्तम् अत्याक्त म० पु. तत्यक्थ तत्यजथुः तत्यज अत्याक्षम् अत्याक्ष्व अत्याक्ष्म उ० पु० तत्याज, तत्यज तत्यजिव तत्यजिम क्यादादि तादि त्यज्यात् त्यज्यास्ताम् त्यज्यासुः प्र० पु० त्यक्ता त्यक्तारौ त्यक्तारः त्यज्याः त्यज्यास्तम् त्यज्यास्त म० पु० त्यक्तासि त्यक्तास्थः त्यक्तास्थ त्यज्यासम् त्यज्यास्व त्यज्यास्म उ० पु० त्यक्तास्मि त्यक्तास्वः त्यक्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि त्यक्ष्यति त्यक्ष्यतः त्यक्ष्यन्ति प्र० पु. अत्यक्ष्यत् अत्यक्ष्यताम् अत्यक्ष्यन् त्यक्ष्यसि त्यक्ष्यथः त्यक्ष्यथ म० पु० अत्यक्ष्यः अत्यक्ष्यतम् अत्यक्ष्यत त्यक्ष्यामि त्यक्ष्यावः त्यक्ष्यामः उ० पु० अत्यक्ष्यम् अत्यक्ष्याव अत्यक्ष्याम ६३. भूष–अलंकारे (अलंकार करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विववन बहुवचन तिबादि यादादि भूषति भूषतः भूषन्ति प्र० पु० भूषेत् भूषेताम् भूषेयुः भूषसि भूषथः भूषथ म० पु० भूषेः भूषेतम् भूषेत भूषामि भूषाव: भूषामः उ० पु. भूषेयम् भूषेव भूषेम दिबादि भूषतु, भूषतात् भूषताम् भूषन्तु प्र० पु० अभूषत् अभूषताम् अभूषन् भूष, भूषतात् भूषतम् भूषत म० पु० अभूषः अभूषतम् अभूषत भूषाणि भूषाव भूषाम उ० पु० अभूषम् अभूषाव अभूषाम धादि णबादि अभूषीत् अभूषिष्टाम् अभूषिषुः प्र० पु० बुभूष बुभूषतुः । बुभूषुः अभूषीः अभूषिष्टम् अभूषिष्ट म० पु० बुभूषिथ बुभूषथुः । बुभूष अभूषिषम् अभूषिष्व अभूषिष्म उ० पु० बुभूष बुभूषिव बुभूषिम क्यादादि भूष्यात् भूप्यास्ताम् भूष्यासुः प्र० पु० भूषिता भूषितारौ भूषितारः भूष्या: भूष्यास्तम् भूष्यास्त म० पु० भूषितासि भूषितास्थ: भूषितास्थ भूष्यासम् भूष्याण्व भूष्याम उ० पु० भूषितास्मि भूषितास्वः भूषितास्मः स्यत्यादि स्यदादि भूषिष्यति भूषिष्यतः भूषिष्यन्ति प्र० पु० अभूषिष्यत् अभूषिष्यताम् अभूषिष्यन् भूषिष्यसि भूषिष्यथः भूषिष्यथ म० पु० अभूषिष्यः अभूषिष्यतम् अभूषिष्यत भूषिष्यामि भूषिष्यावः भूषिष्याम: उ० पु० अभूषिष्यम् अभूषिष्याव अभूषिष्याम तुबादि तादि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३७६ तुबादि द्यादि ६४. वद-व्यक्तायां वाचि (बोलना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वदति __वदतः वदन्ति प्र० पु० वदेत् वदेताम् वदेयुः वदसि वदथः वदथ म० पु० वदेः वदेतम् वदेत वदामि वदावः वदामः उ० पु० वदेयम् वदेव वदेम. दिबादि वदतु, वदतात् वदताम् वदन्तु प्र० पु० अवदत् अवदताम् अवदन् वद, वदतात् वदतम् वदत म० पु० अवदः . अवदतम् अवदत वदानि वदाव वदाम उ० पु० अवदम् अवदाव अवदाम णबादि अवादीत् अवादिष्टाम् अवादिषुः प्र० पु० उवाद ऊदतुः ऊदुः अवादीः अवादिष्टम् अवादिष्ट 'म० पु० उवदिथ ऊदथुः ऊद अवादिषम् अवादिष्व अवादिष्म उ० पु० उवाद, उवद ऊदिव ऊदिम ज्यादावि तादि उद्यात् उद्यास्ताम् उद्यासुः प्र० पु० वदिता वदितारी वदितारः उद्याः उद्यास्तम् उद्यास्त म० पु० वदितासि वदितास्थ: वदितास्थ उद्यासम् उद्यास्व उद्यास्म उ० पु० वदितास्मि वदितास्वः वदितास्मः स्यत्यादि स्यदादि वदिष्यति वदिष्यतः वदिष्यन्ति प्र० पु० अवदिष्यत् अवदिष्यताम् अवदिष्यन् वदिष्यसि वदिष्यथ: वदिष्यथ म० पु० अवदिष्यः अवदिष्यतम् अवदिष्यत वदिष्यामि वदिष्याव: वदिष्याम: उ० पु० अवदिष्यम् अवदिष्याव अवदिष्याम ६५. णमं–नमने (झुकना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि नमति नमतः नमन्ति प्र० पु० नमेत् नमेताम् नमेयुः नमसि नमथः नमथ म० पु० नमः नमेतम् नमेत नमामि नमावः नमामः उ० पु० नमेयम् नमेव नमेम दिबादि नमतु, नमतात् नमताम् नमन्तु प्र० पु० अनमत् अनमताम् अनमन् नम, नमतात् नमतम् नमत म० पु० अनमः अनमतम् अनमत नमानि नमाव नमाम उ० पु० अनमम् अनमाव अनमाम तुबादि Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० धादि अनंसीत् अनंसी: अनंसिष्टम् अनंसिषम् अनंसिष्व क्यादादि अनंसिष्टाम् नम्यात् नम्यास्ताम् नम्याः नम्यास्तम् नम्यासम् नम्यास्व स्यत्यादि दहति सि णवादि अनंसिषुः प्र० पु० ननाम अनंसिष्ट म० पु० उ० पु० अनं सिष्म नंस्यति नंस्यत: नंस्यन्ति नंस्यसि नंस्यथः नंस्यथ नंस्यामि नंस्याव: नंस्यामः नम्यासुः नम्यास्त नम्यास्म एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि दह, दहतात् दहानि द्यादि दहतः दहन्ति दहथः दहथ दहाव: दहाम : दहामि तुबादि दहतु, दहतात् दहताम् दहन्तु दहतम् दहत दहाव दहाम अधाक्षीत् अदाग्धाम् अधाक्षुः अधाक्षी: अदाग्धम् अदाग्ध अधाक्षम् अधाक्ष्व अधाक्ष्म क्यादादि प्र० पु० अनंस्यत् अनंस्यताम् अनंस्यन् म० पु० अनंस्यः अनंस्यतम् अनंस्यत उ० पु० अनंस्यम् अनंस्याव अनंस्याम ६६. दहं - भस्मीकरणे ( जलाना ) एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि दताम् दम् दहे दह्यात् दह्याताम् दह्यासुः दह्याः दह्यास्तम् दह्यास्त दह्यासम् दह्यास्व दह्यास्म स्यत्यादि नेमिथ, ननन्थ नेमथुः ननाम, ननम नेमिव तादि नन्तारौ प्र० पु० नन्ता म० पु० नन्तासि नन्तास्थः उ० पु० नन्तास्मि नन्तास्वः स्यदादि प्र० पु० दहेत् म० पु० दहेः उ० पु० दहेयम् fearfa प्र० पु० अदहत् म० पु० अदहः उ० पु० अदहम् वाक्यरचना बोध नेमतुः नेमुः नेम नेमिम बादि प्र० पु० ददाह म० पु० देहिथ, ददग्ध उ० पु० ददाह, ददह तादि प्र० पु० अधक्ष्यत् धयति धक्ष्यतः धक्ष्यन्ति धक्ष्यसि धक्ष्यथः धक्ष्यथ म० पु० अधक्ष्यः धक्ष्यामि धक्ष्यावः धक्ष्यामः उ० पु० अधक्ष्यम् नन्तारः नन्तास्थ नन्तास्मः देहतुः देहथुः देहिव दग्धास्थ: प्र० पु० दग्धा दग्धारौ म० पु० दग्धासि उ० पु० दग्धास्मि दग्धास्वः स्यदादि दहेयुः द अदहताम् अदहन् अदहतम् अदहत अदहाव अहम द देहुः देह हिम दग्धारः दग्धास्थ दग्धास्मः अधक्ष्यताम् अधक्ष्यन् अधक्ष्यतम् अधक्ष्यत अधक्ष्याव अधक्ष्याम Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३५१ ऊषुः ऊष lintitillinni tilllilil ६७. वसं-निवासे (रहना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वसति वसतः वसन्ति प्र० पु० वसेत् वसेताम् __वसेयुः वससि वसथः . वसथ म० पु० वसेः . वसेतम् वसेत वसामि वसावः वसाम: उ० पु० वसेयम् वसेव वसेम तुबादि दिबादि वसतु, वसतात् वसताम् वसन्तु प्र० पु० अवसत् अवसताम् अवसन् वस, वसतात् वसतम् वसत म० पु० अवसः अवसतम् अवसत वसानि वसाव वसाम उ० पु० अवसम् अवसाव अवसाम धादि बादि अवात्सीत् अवात्ताम् अवात्सुः प्र० पु० उवास ऊषतु: अवात्सीः अवात्तम् अवात्त म० पु० उवस्थ, उवसिथ ऊषथुः अवात्सम् अवात्स्व अवात्स्म उ० पु० उवास, उवस ऊषिव ऊषिम क्यादादि तादि उष्यात् उष्यास्ताम् उष्यासुः प्र० पु० वस्ता वस्तारौ वस्तारः उष्या: उष्यास्तम् उष्यास्त म० पु० वस्तासि वस्तास्थः वस्तास्थ उष्यासम् उष्यास्व उष्यास्म उ० पु० वस्तास्मि वस्तास्वः वस्तास्म: स्यत्यादि स्यदादि वत्स्यति वत्स्यतः वत्स्यन्ति प्र० पु० अवत्स्यत् अवत्स्यताम् अवत्स्यन् वत्स्यसि वत्स्यथः वत्स्यथ म० पु० अवत्स्यः अवत्स्यतम् अवत्स्यत वत्स्यामि वत्स्यावः वत्स्यामः उ० पु० अवत्स्यम् अवत्स्याव अवत्स्याम ६८. गुपू-रक्षणे (रक्षा करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि गोपायति गोपायतः गोपायन्ति प्र० पु० गोपायेत् गोपायेताम् गोपायेयुः गोपायसि गोपायथः गोपायथ म० पु० गोपायः गोपायेतम् गोपायेत गोपायामि गोपायावः गोपायामः उ० पु० गोपायेयम् गोपायेव गोपायेम तुबादि गोपायतु, गोपायतात् गोपायताम गोपाय, गोपायतात् गोपायतम् गोपायत म० पु० गोपायानि गोपायाव गोपायाम उ० पु. प्र० ५ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ वाक्यरचना बोध दिबादि अगोपायत् अगोपायताम् अगोपायन् प्र० पु० अगोपायः अगोपायतम् अगोपायत म० पु० अगोपायम् अगोपायाव अगोपायाम उ० पु० खादि (१) अगोपायीत् अगोपायिष्टाम् अगोपायिषुः प्र० पु. अगोपायीः अगोपायिष्टम् अगोपायिष्ट म० पु० अगोपायिषम् अगोपायिष्व अगोपायिष्म उ० पु० धादि (२) द्यादि (३) अगोपीत् अगोपिष्टाम् अगोपिषुः प्र० पु० अगौप्सीत् अगौप्ताम् अगौप्सुः अगोपी: अगोपिष्टम् अगोपिष्ट म० पु० अगोप्सीः अगौप्तम् अगौप्त अगोपिषम् अगोपिष्व अगोपिष्म उ० पु० अगोप्सम् अगौप्स्व अगौप्स्म णबादि (१) गोपायाञ्चकार गोपायाञ्चक्रतुः गोपायञ्चक्रुः प्र० पु० गोपायाञ्चकर्थ गोपायाञ्चक्रथुः गोपायाञ्चक्र म० पु० गोपायाञ्चकार, गोपायाञ्चकर गोपायाञ्चकृव गोपायाञ्चकृम उ० पु० णबादि (२) गोपायाम्बभूव गोपायाम्बभूवतुः । गोपायाम्बभूवुः प्र० पु० गोपायाम्बभूविथ गोपायाम्बभूवथुः । गोपायाम्बभूव म० पु० गोपायाम्बभूव गोपायाम्बभूविव गोपायाम्बभूविम उ० पु० णबादि (३) गोपायामास गोपायामासतुः गोपायामासुः प्र० पु० गोपायामासिथ गोपायामासथुः गोपायामास म० पु० गोपायामास गोपायामासिव गोपायामासिम उ० पु० णबादि (४) क्यादादि (१) जुगोप जुगुपतुः जुगुपुः प्र० पु० गुप्यात् गुप्यास्ताम् । गुप्यासुः जुगोपिथ जुगुपथुः जुगुप म० पु० गुप्याः गुप्यास्तम् जुगोप जुगुपिव जुगुपिम उ० पु० गुप्यासम् गुप्यास्व क्यादादि (२) गोपाय्यात् गोपाय्यास्ताम् गोपाय्यासुः प्र० पु० गोपाय्याः गोपाय्यास्त म० पु० गोपाय्यासम् गोपाय्यास्व गोपाय्यास्म उ० पु० गुप्यास्त गुप्यास्म गोपाय्यास्तम् Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तादि (१) तादि (२) गोपायिता गोपायितारौ गोपायितारः प्र. पु. गोप्ता गोप्तारौ गोप्तारः गोपायितासि गोपायितास्थ: गोपायितास्थ म. पु. गोप्तासि गोप्तास्थः गोप्तास्थ गोपायितास्मि गोपायितास्व: गोपायितास्मः उ. पु. गोप्तास्मि गोप्तास्व: गोप्तास्मःस्यत्यादि (१) गोपिष्यति गोपिष्यतः गोपिष्यन्ति प्र० पु० गोपिष्यसि गोपिष्यथः गोपिष्यथ म० पु० गोपिष्यामि गोपिष्याव: गोपिष्यामः उ० पु० स्यत्यादि (२) स्यत्यादि (३) गोपायिष्यति गोपायिष्यतः गोपायिष्यन्ति प्र० पु० गोप्स्यति गोप्स्यतः गोप्स्यन्ति गोपायिष्यसि गोपायिष्यथः गोपायिष्यथ म० पु. गोप्स्यसि गोप्स्यथः गोप्स्यथ गोपायिष्यामि गोपायिष्याव: गोपायिष्याम: उ० पु. गोप्स्यामि गोप्स्यावः गोप्स्यामः स्यदादि (१) अगोपिष्यत् अगोपिष्यताम् अगोपिष्यन् प्र० पु. अगोपिष्यः अगोपिष्यतम् अगोपिष्यत म० पु० अगोपिष्यम् अगोपिष्याव अगोपिण्याम उ० पु० स्यदादि (२) अगोपायिष्यत् अगोपायिष्यताम् अगोपायिष्यन् प्र० अगोपायिष्यः अगोपायिष्यतम् अगोपायिष्यत म० पु० अगोपायिष्यम् अगोपायिष्याव अगोपायिष्याम उ० पु० स्यदादि (३) अगोप्स्यत् अगोप्स्यताम् अगोप्स्यन् प्र० पु० अगोप्स्यः अगोप्स्यतम् अगोप्स्यत म० पु० अगोप्स्यम् अगोप्स्याव अगोप्स्याम उ० पु० ६६. एधङ्-वृद्धौ (बढना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि एधते एधेते एधन्ते प्र० पु० एधेत एधेयाताम् एधेरन् एधसे एधेथे एधध्वे म० पु० एधेथाः एधेयाथाम् एधेध्वम् एधे. एधावहे एधामहे उ० पु० एधेय एधेवहि एधेमहि दिबादि एधताम् एधेताम् एधन्ताम् प्र० पु० ऐधत ऐधेताम् ऐधन्त एधस्व एधेथाम् एधध्वम् म० पु० ऐधथाः ऐधेथाम् ऐधध्वम् एधै एधावहै एधामहै उ० पु० ऐधे ऐधावहि ऐधामहि तुबादि Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ वाक्यरचना बोध प्र० पु० ܟܼ ܘ ܩܝܩܝ i pelillilihine 1111. tli: धादि ऐधिष्ट ऐधिषाताम् ऐधिषत ऐधिष्ठाः ऐधिषाथाम् ऐधिढ्वम्, ऐधिध्वम् म० पु. ऐधिषि ऐधिष्वहि ऐधिष्महि णबादि (१) एधाञ्चक्रे एधाञ्चक्राते एधाञ्चक्रिरे प्र० पु० एधाञ्चकृषे एधाञ्चकाथे एधाञ्चकृढ्वे म० पु० एधाञ्चक्रे एधाञ्चकृवहे एधाञ्चकृमहे उ० पु० णबादि (२) ___णबादि (३) एधाम्बभूव एधाम्बभूवतुः एधाम्बभूवुः प्र० पु० एधामास एधामासतु: एधामासुः एधाम्बभूविथ एधाम्बभूवथुः एधाम्बभूव म० पु० एधामासिथ एधामासथुः एधामास एधाम्बभूव एधाम्बभूविव एधाम्बभूविम उ. पु. एधामास एधामासिव एधामासिम क्यादादि तादि एधिषीष्ट एधिषीयास्ताम् एधिषीरन् प्र० पु० एधिता एधितारौ एधितारः एधिषीष्ठाः एधिषीयास्थाम् एधिषीध्वम् म० पु० एधितासे एधितासाथे एधिताध्वे एधिषीय एधिषीवहि एधिषीमहि उ० पु० एधिताहे एधितास्वहे एधितास्महे स्यत्यादि स्यदादि एधिष्यते एधिष्येते एधिष्यन्ते प्र० पु० ऐधिष्यत ऐधिष्येताम् ऐधिष्यन्त एधिष्यसे एधिष्येथे एधिष्यध्वे म० पु० ऐधिष्यथाः ऐधिष्येथाम् ऐधिष्यध्वम् एधिष्ये एधिष्यावहे एधिष्यामहे उ० पु० ऐधिष्ये ऐधिष्यावहि ऐधिष्यामहि ७०. ईक्षङ्-दर्शने (देखना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुचवन तिबादि यादादि ईक्षते ईक्षेते ईक्षन्ते प्र० पु० ईक्षेत ईक्षेयाताम् ईक्षेरन् ईक्षसे ईक्षेथे ईक्षध्वे म० पु० ईक्षेथाः ईक्षेयाथाम् ईक्षध्वम् ईक्षे ईक्षावहे ईक्षामहे उ० पु० ईक्षेय ईक्षेवहि ईक्षेमहि दिबादि ईक्षताम् ईक्षेताम् ईक्षन्ताम् प्र० पु० ऐक्षिष्ट ऐक्षिपाताम् ऐक्षिषत ईक्षस्व ईक्षेथाम् ईक्षध्वम् म० पु० ऐक्षिष्ठाः ऐक्षिपाथाम् ऐक्षिढ्वम्, ऐक्षिध्वम् ईक्ष ईक्षावहै ईक्षामहै उ० पु० ऐक्षिपि ऐक्षिप्वहि ऐक्षिष्महि तुबादि Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३८५ द्यादि णबादि ऐक्षत ऐक्षेताम् ऐक्षन्त प्र० पु० ईक्षाञ्चके ईक्षाञ्चक्राते ईक्षाञ्चक्रिरे ऐक्षथाः ऐक्षेथाम् ऐक्षध्वम् म० पु० ईक्षाञ्चकृषे ईक्षाञ्चकाथे ईक्षाञ्चकृढ़वे ऐक्षे ऐक्षावहि ऐक्षामहि उ० पु० ईक्षाञ्चक्रे ईक्षाञ्चकृवहे ईक्षाञ्चकृमहे क्यादादि तादि ईक्षिषीष्ट ईक्षिषीयास्ताम् ईक्षिषीरन् प्र० पु० ईक्षिता ईक्षितारौ ईक्षितारः ईक्षिषीष्ठाः ईक्षिषीयास्थाम् ईक्षिषीध्वम् म० पु० ईक्षितासे ईक्षितासाथे ईक्षिताध्वे ईक्षिषीय ईक्षिषीवहि ईक्षिषीमहि उ० पु० ईक्षिताहे ईक्षितास्वहे ईक्षितास्महे स्यत्यादि स्यदादि . ईक्षिष्यते ईक्षिष्येते ईक्षिष्यन्ते प्र० पु० ऐक्षिष्यत ऐक्षिष्येताम् ऐक्षिष्यन्त ईक्षिष्यसे ईक्षिष्येथे ईक्षिष्यध्वे म० पु० ऐक्षिष्यथाः ऐक्षिष्येथाम् ऐक्षिष्यध्वम् ईक्षिष्ये ईक्षिष्यावहे ईक्षिष्यामहे उ० पु० ऐक्षिष्ये ऐक्षिष्यावहि ऐक्षिष्यामहि ७१. वृतुङ्-वर्तने (वर्तन करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वर्तते वर्तेते वर्तन्ते प्र० पु० वर्तेत वर्तेयाताम् वर्तेरन् वर्तसे वर्तेथे वर्तध्वे म० पु० वर्तेथाः वर्तेयाथाम् वर्तध्वम् वर्ते वर्तावहे वर्तामहे उ० पू० वर्तेय वर्तेवहि वर्तमहि दिबादि वर्तताम् वर्तेताम् वर्तन्ताम् प्र० पु० अवर्तत अवर्तेताम् अवर्तन्त वर्तस्व वर्तेथाम् वर्तध्वम् म० पु० अवर्तथाः अवर्तेथाम् अवर्तध्वम् वर्ते वर्तावहै वर्तामहै उ० पु० अवर्ते अवर्ताव हि अवर्तामहि द्यादि (१) अवतिष्ट अवतिषाताम् अवतिषत प्र० पु० अवतिष्ठाः अवतिषाथाम् अवतित्वम्, अवतिध्वम् म० पु० अवतिषि अवतिष्वहि अवर्तिष्महि उ० पु० द्यादि (२) __णबादि अवृतत् अवृतताम् अवृतन् प्र० पु० ववृते ववृताते ववृतिरे अवतः अवृततम् अवृतत म० पु० ववृतिषे ववृताथे ववृतिध्वे अवृतम् अवृताव अवृताम उ० पु० ववृते ववृतिवहे ववृतिमहे क्यादादि वतिषीष्ट वतिषीयास्ताम् वतिषीरन् प्र० पु० वतिषीष्ठाः बतिपीयास्थाम् वतिषीध्वम् म० पु० वतिषीय वतिषीवहि वतिषीमहि उ० पु० तुबादि Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ वाक्यरचना बोधा तादि स्यत्यादि (१) वर्तिता वर्तितारौ वर्तितारः प्र० पु० वर्तिष्यते वतिष्येते वतिष्यन्ते वर्तितासे वर्तितासाथे वर्तिताध्वे म० पु० वतिष्यसे वतिष्येथे वतिष्यध्वे वर्तिताहे वर्तितास्वहे वर्तितास्महे उ० पु० वतिष्ये वतिष्यावहे वतिष्यामहे स्यत्यादि (२) स्यदादि (१) वय॑ति वय॑तः वय॑न्ति प्र० पु० अवतिष्यत अवतिष्येताम् अवतिष्यन्त वय॑सि वय॑थः वय॑थ म० पु० अवतिष्यथा: अवतिष्येथाम् अवतिष्यध्वम् वामि वावः वामः उ० पु० अवतिष्ये अवतिष्यावहि अवर्तिष्यामहि स्यदादि (२) अवय॑त् अवय॑ताम् अवय॑न् प्र० पु० अवय॑ः अवय॑तम् अवय॑त म० पु० अवय॑म् अवाव अवाम उ० पु० ७२. वृधुङ्-वृद्धौ (बढना) एकवचम द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वर्धते वर्धते वर्धन्ते प्र० पु० वर्धेत वर्धेयाताम् वधैरन् वर्धसे वर्धेथे वर्धध्वे म० पु० वर्धथाः वर्धयाथाम् वर्धेध्वम् वर्धे वर्धावहे वर्धामहे उ० पु० वर्धेय वर्धेवहि वर्धमहि तुबादि वर्धताम् वर्धेताम् वर्धन्ताम् प्र० पु० अवर्धत अवर्धेताम् अवर्धन्त वर्धस्व वर्धेथाम् वर्धध्वम् म० पु० अवर्धथाः अवर्धेथाम् अवर्धध्वम् वर्धं वर्धावहै वर्धामहै उ० पु० अवर्धे अवर्धावहि अवर्धामहि धादि (१) अवर्धिष्ट अवधिषाताम् अवधिषत अवधिष्ठाः अवधिषाथाम् अवधिढ्वम्, अवधिध्वम् म० पु० अवधिषि अवधिष्वहि अवधिष्महि उ० पु. द्यादि (२) णबादि अवृधत् अवृधताम् अवृधन् प्र० पु० ववृधे ववृधाते ववृधिरे अवृधः अवृधतम् अवृधत म० पु० ववृधिषे ववृधाथे ववृधिध्वे अवृधम् अवृधाव अवृधाम उ० पु० ववृधे ववृधिवहे ववृधिमहे स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) वधिष्येते वधिष्येते वर्धिष्यन्ते प्र० पु० वय॑ति वय॑तः वत्यर्यन्ति वधिष्यसे वधिष्येथे वधिष्यध्वे म० पु० वय॑सि वय॑थ वय॑थ वधिष्ये वर्धिष्यावहे वर्धिष्यामहे उ० पु० वर्ष्यामि वावः वामः दिबादि प्र० पु० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ अवधिष्यन्त अवधिष्यध्वम् अवधिष्यामहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० स्यदादि (१) अवधिष्यत अवधिष्येताम् अवधिष्यथाः अवधिष्येथाम् अवधिष्ये अवधिष्यावहि स्यदादि (२) अवय॑त् अवय॑ताम् अवयंः अवय॑तम् अवय॑म् अवाव अवय॑न् अवयंत अवाम प्र० पु० म० पु० उ० पु० ७३. भ्रंसुङ्-अवलंसने (नष्ट होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि भ्रंशते भ्रंशेते भ्रंशन्ते प्र० पु० भ्रंशेत भ्रंशेयाताम् भ्रंशेरन् भ्रंशसे भ्रंशेथे भ्रंशध्वे म० पु० भ्रंशेथाः भ्रंशेयाथाम् भ्रंशेध्वम् भ्रंशे भ्रंशावहे भ्रंशामहे उ० पु० भ्रंशेय भ्रंशेवहि भ्रंशेमहि तुबादि दिवादि भ्रंशताम् भ्रंशेताम् भ्रंशन्ताम् प्र० पु० अभ्रंशत अभ्रंशेताम् अभ्रंशन्त भ्रंशस्व भ्रंशेथाम् भ्रंशध्वम् म० पु० अभ्रंशथा: अभ्रंशेथाम् अभ्रंशध्वम् भ्रंशै भ्रंशावहै भ्रंशामहै उ० पु० अभ्रंशे अभ्रंशावहि अभ्रंशामहि द्यादि (१) अभ्रंशिष्ट अभ्रंशिषाताम् अभ्रंशिषत प्र० पु० अभ्रंशिष्ठाः अभ्रंशिषाथाम् अभ्रंशिवम्, अभ्रंशिध्वम् म० पु. अभ्रंशिषि अभ्रंशिष्वहि अभ्रंशिष्महि उ० पु० द्यादि (२) अभ्रशत् अभ्रशताम् अभ्रशन् प्र० पु० बभ्रंशे बभ्रंशाते बभ्रंशिरे अभ्रशः अभ्रशतम् अभ्रशत म० पु० बभ्रंशिषे बभ्रंशाथे बभ्रंशिध्वे अभ्रशम् . अभ्रशाव अभ्रशाम उ० पु० बभ्रंशे बभ्रंशिवहे बभ्रंशिमहे क्यादादि भ्रंशिषीष्ट भ्रंशिषीयास्ताम् भ्रंशिषीरन् प्र० पु० भ्रंशिषीष्ठाः भ्रंशिषीयास्थाम् भ्रंशिषीध्वम् म० पु० भ्रंशिषीय भ्रंशिषीवहि भ्रंशिषीमहि उ० पु० णबादि Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ वाक्यरचना बोध तादि स्यत्यादि भ्रंशिता भ्रंशितारौ भ्रंशितारः प्र० पु० भ्रंशिष्यते भ्रंशिष्येते भ्रंशिष्यन्ते भ्रंशितासे भ्रंशितासाथे भ्रंशिताध्वे म० पु० भ्रंशिष्यसे भ्रंशिष्येथे भ्रंशिष्यध्वे भ्रंशिताहे भ्रंशितास्वहे भ्रंशितास्महे उ० पु० भ्रंशिष्ये भ्रंशिष्यावहे भ्रंशिष्यामहे स्यदादि अभ्रंशिष्यत अभ्रंशिष्येताम् अभ्रंशिष्यन्त प्र० पु० अभ्रंशिष्यथाः अभ्रंशिष्येथाम् अभ्रंशिष्यध्वम् म० पु० अभ्रंशिष्ये अभ्रंशिष्यावहि अभ्रंशिष्यामहि उ० पु० ७४. धिन्-सेवायाम् (उभयपदी) सेवा करना परस्मैपद धादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि श्रयति श्रयत: श्रयन्ति प्र० पु० श्रयेत् श्रयेताम् श्रयेयुः श्रयसि श्रयथः श्रयथ म० पु० श्रयः श्रयेतम् श्रयेत श्रयामि श्रयावः श्रयामः उ० पु० श्रयेयम् श्रयेव श्रयेम तुबादि दिबादि श्रयतु, श्रयतात् श्रयताम् श्रयन्तु प्र० पु० अश्रयत् अश्रयताम् अश्रयन् श्रय, श्रयतात् श्रयतम् श्रयत म० पु० अश्रयः अश्रयतम् अश्रयत श्रयाणि श्रयाव श्रयाम उ० पु० अश्रयम् अश्रयाव अश्रयाम णबादि अशिश्रियत् अशिश्रियताम् अशिश्रियन् प्र० पु० शिश्राय शिश्रियतुः शिश्रियु अशिश्रियः अशिश्रियतम् अशिश्रियत म० पु० शिश्रयिथ शिश्रियथुः शिश्रिय अशिश्रियम् अशिश्रियाव अशिश्रियाम उ० पु० शिश्राय, शिश्रय शिश्रियिव शिश्रियिम क्यादादि तादि श्रीयात् श्रीयास्ताम् श्रीयासुः प्र० पु० श्रयिता श्रयितारौ श्रयितारः श्रीयाः श्रीयास्तम् श्रीयास्त म० पु० श्रयितासि श्रयितास्थः श्रयितास्थ श्रीयासम् श्रीयास्व श्रीयास्म उ० पु० श्रयितास्मि श्रयितास्व: श्रयितास्मः स्यत्यादि __ स्यदादि श्रयिष्यति श्रयिष्यतः श्रयिष्यन्ति प्र० पु. अश्रयिष्यत् अश्रयिष्यताम् अश्रयिष्यता श्रयिष्यसि श्रयिष्यथ: श्रयिष्यथ म० पु० अश्रयिष्यः अश्रयिष्यतम् अश्रयिष्यत श्रयिष्यामि श्रयिष्यावः श्रयिष्याम: उ० पु० अश्रयिष्यम् अश्रयिष्याव अश्रयिष्या। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तिबादि श्रयते श्रयेते श्रयसे श्रयेथे श्रये श्रयावहे तुबादि श्रयताम् श्रयेताम् श्रयस्व श्रयेथाम् श्रयै श्रयाव है धादि अशिश्रियत अशिश्रियथा: अशिश्रिये श्रयन्ते श्रयध्वे श्रयामहे आत्मनेपद यादादि प्र० पु० श्रयेत म० पु० उ० पु० श्रयेथाः श्रय श्रयन्ताम् प्र० पु० अश्रयत श्रयध्वम् म० पु० अश्रयथाः श्रयामहै उ० पु० अश्रये अशिश्रियेताम् अशिश्रियन्त अशिश्रियेथाम् अशिश्रियध्वम् अशिश्रियावहि अशिश्रियामहि दिबादि श्रयेयाताम् श्रयेयाथाम् श्रवहि शिश्रियिरे शिश्रदिवे, शिश्रियिध्वे अश्रयिष्यत अश्रयिष्येताम् अश्रयिष्यन्त अश्रयिष्यथाः अश्रयिष्येथाम् अश्रयिष्यध्वम् अश्रयिष्ये अश्रयिष्यावहि अश्रयिष्यामहि प्र० पु० म० पु० णवादि शिश्रिये शिश्रियाते शिश्रिषे शिश्रियाथे शिश्रिये शिश्रियव शिश्रमि क्मादादि प्र० पु० श्रयिषीष्ट श्रयिषीयास्ताम् श्रयिषीरन् श्रयिषीष्ठाः श्रयिषीयास्थाम् श्रयिषीढ्वम्, श्रयिषीध्वम् म० पु० श्रयिषीय श्रयिषीवहि श्रीमहि उ० पु० तादि श्रयिता श्रयितारौ श्रयितारः प्र० पु० श्रयिष्यते श्रयिता श्रयितासाथे श्रयिताध्वे म० पु० श्रयिष्यसे श्रयिता श्रयितास्वहे श्रयितास्महे उ० पु० श्रयिष्ये स्यदादि अश्रयेताम् अश्रयन्त अश्रयेथाम् अश्रयध्वम् अश्रयावहि अश्रयामहि उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० स्यत्यादि ३८६ श्रयेरन् श्रयेध्वम् महि प्र० पु० म० पु० उ० पु० श्रयिष्येते श्रयिष्यन्ते श्रयिष्येते श्रयिष्यध्वे श्रयिष्यावहे श्रयिष्यामहे Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० एकवचन तिबादि गूहति गूहसि गुहामि ७५. ५. गुहून् - संवरणे (उभयपदी ) छिपाना परस्मैपद द्विवचन बहुवचन गृहन्ति गृहथ गुहामः गूहतः गृहथः गृहाव: तुबादि गूहतु, गूहतात् गूहताम् गृह, गूहतात् गूहतम् गूहानि गूहाव द्यादि (१) गूहन्तु गूहत गूहाम अगूहत् अगूही : अगूहिषम् अगूहिष्व णबादि अगूहिष्टाम् अगूहिषुः अगूहिष्टम् अगूहिष्ट अगूहिष्म एकवचन यादादि प्र० पु० गुहेत् म० पु० गुहेः उ० पु० गूहेयम् fearfa प्र० पु० अगूहत् म० पु० अगूहः उ० पु० अगूहम् वाक्यरचना बोध द्विवचन बहुवचन गुहेत म् हेयुः गूहेतम् गृहेव प्र० पु० गुह्यात् म० पु० गुह्याः उ० पु० गुह्यासम् प्र० पु० अघुक्षत् म० पु० अघुक्षः उ० पु० अघुक्षम् अघुक्षाव क्यादादि गुहेत गुहेम अगूहताम् अगूहन् अगूहतम् अगूहत अगूहाव अहम द्यादि (२) अधुक्षताम् अघुक्षन् अघुक्षतम् अक्ष अघुक्षा जुगूह जुगुहतुः जुगुहुः जुगूहिथ जुगुहथुः जुगुह तादि (२) गोढारी गोढार: गोढास्थः गोढास्थ जुगूह जुगुहिव जुगुहिम तादि (१) गूहिता गूहितारौ गूहितार: प्र० पु० गोढा गूहितासि गूहितास्थः गूहितास्थ म० पु० गोढासि गूहितास्मि गूहितास्वः गूहितास्मः उ० पु० गोढास्मि गोढास्व: गोढास्मः स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) गूहिष्यति गूहिष्यतः गूहिष्यन्ति प्र० पु० घोक्ष्यति गूहिष्यसि गूहिष्यथः गूहिष्यथ म० पु० घोक्ष्यसि गूहिष्यामि गूहिष्याव: गूहिष्यामः उ० पु० घोक्ष्यामि स्वादि (१) गुह्यास्ताम् गुह्यासुः गुह्यास्तम् गुह्यास्त गुह्यास्व गुह्यास्म घोक्ष्यतः घोक्ष्यन्ति घोक्ष्यथः घोक्ष्यथ घोक्ष्यावः घोक्ष्यामः यदादि (२) अघोक्ष्यत् अघोक्ष्यताम् अघोक्ष्यन् अगूहिष्यत् अगूहिष्यताम् अगूहिष्यन् प्र० पु० अगूहिष्य: अगूहिप्यतम् अगूहिष्यत म० पु० अघोक्ष्य: अगूहिष्यम् अगूहिष्याव अगृहिष्याम उ० पु० अघोक्ष्यम् अक्ष्याव अघोक्ष्याम घोक्ष्यतम् अघोक्ष्यत Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३६१ प्र० पु० आत्मनेपद तिबादि यादादि गृहते गूहेते गृहन्ते प्र० पु० गूहेत गृहेयाताम् गृहेरन् गृहसे गूहेथे गृहध्वे म० पु० गूहेथाः गृहेयाथाम् गृहेध्वम् गृहे गृहावहे गृहामहे उ० पु० गूहेय गृहेव हि गृहेमहि तुबादि दिबादि गृहताम् गृहेताम् गृहन्ताम् प्र० पु० अगूहत अगूहेताम् अगूहन्त गृहस्व गृहेथाम् गृहध्वम् म० पु० अगूहथाः अगूहेथाम् अगृहध्वम् गृहै गृहावहै गूहामहै उ० पु० अगृहे अगृहावहि अगृहामहि धादि (१) अगूहिष्ट अगूहिषाताम् अगूहिषत प्र० पु० अगूहिष्ठाः अगूहिषाथाम् अगूहिढ्वम्, अगूहिध्वम् म० पु० अगूहिषि अगूहिप्वहि अगूहिष्महि उ० पु० धादि (२) अगूढ, अघुक्षत अघुक्षाताम् अघुक्षन्त अगूढाः, अघुक्षथाः अघुक्षाथाम् अघुक्षध्वम्, अघूढ्वम् म० पु० अघुक्षि अगुह्वहि, अघुक्षावहि अघुक्षामहि उ० पु० बादि क्यादादि (१) जुगुहे जुगुहाते जुगुहिरे प्र० पु० गूहिषीष्ट गूहिषीयास्ताम् गूहिषीरन् जुगुहिषे जुगुहाथे जुगुहिध्वे, जुगुहिढ्वे म. पु० गूहिषीष्ठाः गूहिषीयास्थाम् गूहिषीध्वम् जुगुहे जुगुहिवहे जुगुहिमहे उ० पु० गूहिषीय गूहिषीवहि गूहिषीमहि क्यादादि (२) तादि (१) घुक्षीष्ट घुक्षीयास्ताम् घक्षीरन् प्र० पु० गूहिता गृहितारौ गृहितारः घुक्षीष्ठाः घुक्षीयास्थाम् घुक्षीध्वम् म० पु० गूहितासे गृहितासाथे गृहिताध्वे घुक्षीय घुक्षीवहि घुक्षीमहि उ० पु० गूहिताहे गृहितास्वहे गृहितास्महे तादि (२) स्यत्यादि (१) गोढारौ गोढारः प्र० पु० गूहिष्यते गूहिष्येते गूहिष्यन्ते गोढासे गोढासाथे गोढाध्वे म० पु० गूहिष्यसे गूहिष्येथे गूहिष्यध्वे गोढाहे . गोढास्वहे गोढास्महे उ० पु० गूहिष्ये गूहिष्यावहे गूहिष्यामहे स्यत्यादि (२) स्यदादि (१) घोक्ष्यते घोक्ष्येते घोक्ष्यन्ते प्र० पु० अगूहिष्यत अगूहिष्येताम् अगूहिष्यन्त घोक्ष्यसे घोक्ष्येथे घोक्ष्यध्वे म० पु० अगूहिष्यथाः अगूहिष्येथाम् अगूहिष्यध्वम् घोक्ष्ये घोक्ष्यावहे घोक्ष्यामहे उ० पु० अगूहिष्ये अगूहिष्यावहि अगूहिष्यामहि गोदा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ बाक्यरचना बोध स्यदादि (२) अघोक्ष्यत अघोक्ष्येताम् अघोक्ष्यन्त प्र० पु० अघोक्ष्यथा: अघोक्ष्येथाम् अघोक्ष्यध्वम् म० पु० अघोक्ष्ये अघोक्ष्यावहि अघोक्ष्यामहि उ० पु० ७६. यजंन - देवपूजासंगतिकरणदानेषु (उभयपदी) देवपूजा करना, ___ संगति करना और देना। परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि यजति यजतः यजन्ति प्र० पु० यजेत् यजेताम् यजेयुः यजसि यजथः यजथ म० पु० यजेः यजेतम् यजेत यजामि यजावः यजाम: उ० पु० यजेयम् यजेव यजेम तुबादि दिबादि यजतु, यजतात् यजताम् यजन्तु प्र० पु० अयजत् अयजताम् अयजन् यज, यजतात् यजतम् यजत म० पु० अयजः अयजतम् अयजत यजानि यजाव यजाम उ० पु० अयजम् अयजाव अयजाम धादि __णबादि अयाक्षीत् अयाष्टाम् अयाक्षुः प्र० पु० इयाज ईजतुः ईजुः अयाक्षीः अयाष्टम् अयाष्ट म० पु० इयजिथ, इयष्ठ ईजथुः ईज अयाक्षम् अयाक्ष्व अयाक्ष्म उ० पु० इयाज, इयज ईजिव ईजिम क्यादादि तादि इज्यात् इज्यास्ताम् इज्यासुः प्र० पु० यष्टा यष्टारौ यष्टारः इज्याः इज्यास्तम् इज्यास्त म० पु० यस्टासि यष्टास्थः यष्टास्थ इज्यासम् इज्यास्व इज्यास्म उ० पु० यष्टास्मि यष्टास्वः यष्टास्मः स्यत्यादि स्यदादि यक्ष्यति यक्ष्यतः यक्ष्यन्ति प्र० पु० अयक्ष्यत् अयक्ष्यताम् अयक्ष्यन् यक्ष्यसि यक्ष्यथः यक्ष्यथ म० पु० अयक्ष्यः अयक्ष्यतम् अयक्ष्यत यक्ष्यामि यक्ष्यावः यक्ष्याम: उ० पु० अयक्ष्यम् अयक्ष्याव अयक्ष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि यजते यजेते यजन्ते प्र० पु० यजेत यजेयाताम् यजेरन् यजसे यजेथे यजध्वे म० पु० यजेथाः यजेयाथाम् यजेध्वम् यजावहे यजामहे उ० पु० यजेय यजेवहि यजेमहि यजे Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३.६३ तुबादि दिबादि यजताम् यजेताम् यजन्ताम् प्र० पु० अयजत अयजेताम् अयजन्त यजस्व यजेथाम् यजध्वम् म० पु० अयजथाः अयजेथाम् अयजध्वम् यजै यजावहै यजामहै उ० पु० अयजे अयजावहि अयजामहि द्यादि णबादि अयष्ट अयक्षाताम् अयक्षत प्र० पु० ईजे ईजाते ईजिरे अयष्ठाः अयक्षाथाम् अयड्ढवम् , अयग्ढवम् म० पु० ईजिषे ईजाथे ईजिध्वे अयक्षि अयक्ष्वहि अयक्ष्महि उ० पु० ईजे ईजिवहे ईजिमहे क्यादादि तादि यक्षीष्ट यक्षीयास्ताम् यक्षीरन् प्र० पु० यष्टा यष्टारौ यष्टारः यक्षीष्ठाः यक्षीयास्थाम् यक्षीध्वम् म० पु० यष्टासे यष्टासाथे यष्टाध्वे यक्षीय यक्षीवहि यक्षीमहि उ० पु० यष्टाहे यष्टास्वहे यष्टास्महे स्यत्यादि स्यदादि यक्ष्यते यक्ष्येते यक्ष्यन्ते प्र० पु० अयक्ष्यत अयक्ष्येताम् अयक्ष्यन्त यक्ष्यसे यक्ष्येथे यक्ष्यध्वे म० पु० अयक्ष्यथाः अयक्ष्येथाम् अयक्ष्यध्वम् यक्ष्ये यक्ष्यावहे यक्ष्यामहे उ० पु० अयक्ष्ये अयक्ष्यावहि अयक्ष्यामहि ___७७. वेंन्–तन्तुसन्ताने (उभयपदी) सोना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वयति वयतः वयन्ति प्र० पु० वयेत् वयेताम् वयेयुः वयसि वयथः वयथ म० पु० वयेः वयेतम् वयेत वयामि वयावः वयामः उ० पु० वयेयम् वयेव वयेम दिबादि वयतु, वयतात् वयताम् वयन्तु प्र० पु० अवयत् अवयताम् अवयन् वय, वयतात् वयतम् वयत म० पु० अवयः अवयतम् अवयत वयानि वयाव वयाम उ० पु० अवयम् अवयाव अवयाम धादि णबादि (१) अवासीत् अवासिष्टाम् अवासिषुः प्र० पु० उवाय ऊयतु: ऊयुः अवासीः अवासिष्टम् अवासिष्ट म० पु० उवयिथ ऊयथुः ऊय अवासिषम् अवासिष्व अवासिष्म उ० पु० उवाय, उवय ऊयिव ऊयिम तुबादि Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ वाक्यरचना बोध ववी तादि बादि (२) णबादि (३) ववौ ववतुः ववुः प्र० पु० ववौ। ऊवतुः ऊवु: वविथ, ववाथ ववथुः वव म० पु० वविथ, ववाथ ऊवथुः ऊव वविव वविम उ० पु० ववौ अविव ऊविम क्यादादि ऊयात् ऊयास्ताम् ऊयासुः प्र० पु० वाता वातारौ वातारः ऊयाः ऊयास्तम् ऊयास्त म० पु० वातासि वातास्थः वातास्थ ऊयासम् ऊयास्व ऊयास्म उ० पु० वातास्मि वातास्वः वातास्मः स्यत्यादि स्यदादि वास्यति वास्यतः वास्यन्ति प्र० पु० अवास्यत् अवास्यताम् अवास्यन् चास्यसि वास्यथः वास्यथ म० पु० अवास्यः अवास्यतम् अवास्यत वास्यामि वास्यावः वास्याम: उ० पु० अवास्यम् अवास्याव अवास्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि वयते वयेते क्यन्ते प्र० पु० वयेत वयेयाताम् वयेरन् वयसे वयेथे वयध्वे म० पु० वयेथाः वयेयाथाम् वयेध्वम् वये वयावहे वयामहे उ० पु० वय वयावहै वयामहै दिबादि वयताम् वयेताम् वयन्ताम् प्र० पु० अवयत अवयेताम् अवयन्त वयस्व वयेथाम् वयध्वम् म० पु० अवयथाः अवयेथाम् अवयध्वम् वय वयावहै वयामहै उ० पु० अवये अवयावहि अवयामहि धादि णबादि (१) अवास्त अवासाताम् अवासत प्र० पु. ऊये ऊयाते ऊयिरे अवास्थाः अवासाथाम्, अवाद्ध्वम् अवाध्वम् म० पु० यिषे ऊयाथे ऊयिध्वे ऊयित्वे अवासि अवास्वहि अवास्महि उ० पु. ऊये ऊयिवहे ऊयिमहे णबादि (२) __णबादि (३) ववे क्वाते वविरे प्र० पु० ऊवे ऊवाते ऊविरे वविषे ववाथे वविध्वे, वविढ्ने म० पु० ऊविषे ऊवाथे ऊविध्वे, ऊविढ्वे ववे वविवहे वविमहे उ० पु० ऊवे ऊविवहे ऊविमहे क्यादादि तादि वासीष्ट वासीयास्ताम् वासीरन् प्र० पु० वाता वातारौ वातारः वासीष्ठाः वासीयास्थाम् वासीध्वम् म. पु० वातासे वातासाथे वाताध्वे वासीय वासीवहि वासीमहि उ० पु० वाताहे वातास्वहे वातास्महे 'तुबादि Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्थत्यादि स्यदादि वास्यते वास्येते वास्यन्ते प्र० पु० अवास्यत अवास्येताम् अवास्यन्त वास्यसे वास्येथे वास्यध्वे म० पु० अवास्यथाः अवास्येथाम् अवास्यध्वम् वास्ये वास्यावहे वास्यामहे उ० पु० अवास्ये अवास्यावहि अवास्यामहि ७८. हन्-स्पर्धाशब्दयोः (उभयपदी) स्पर्धा और शब्द करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि ह्वयति ह्वयतः ह्वयन्ति प्र० पु० ह्वयेत् ह्वयेताम् ह्वयेयुः ह्वयसि ह्वयथः वयथ म० पु० ह्वयेः ह्वयेतम् ह्वयेत ह्वयामि यावः हयाम: उ० पु० ह्वयेयम् ह्वयेव ह्वयेम तुबादि दिबादि ह्वयतु, ह्वयतात् ह्वयताम् ह्वयन्तु प्र० पु० अह्वयत् अह्वयताम् अह्वयन् ह्वय, ह्वयतात् ह्वयतम् ह्वयत म० पु० अह्वयः अह्वयतम् अह्वयत ह्वयानि ह्वयाव ह्वयाम उ० पु० अह्वयम् अह्वयाव अह्वयाम धादि बादि आह्वत् आह्वताम् आह्वन् प्र० पु० जुहाव जुहुवतुः जुहुवुः आह्वः आह्वतम् आह्वत म० पु० जुहोथ, जुहविथ जुहुवथुः जुहुव आह्वम् आह्वाव आह्वाम उ० पु० जुहाव, जुहव जुहुविव जुहुविम क्यादादि तादि हूयात् हूयास्ताम् हूयासुः प्र० पु० ह्वाता ह्वातारौ ह्वातारः हूयाः हूयास्तम् हूयास्त म० पु० ह्वातासि ह्वातास्थः । ह्वातास्थ हूयासम् हूयास्व हूयास्म उ० पु० ह्वातास्मि ह्वातास्वः ह्वातास्मः स्यत्यादि स्यदादि हास्यति ह्वास्यतः हास्यन्ति प्र० पु० अह्वास्यत् अह्वास्यताम् अह्वास्यन् ह्वास्यसि हास्यथः हास्यथ म० पु० अह्वास्यः अह्वास्यतम् अह्वास्यत हास्यामि हास्याव: हास्यामः उ० पु० अह्वास्यम् अह्वास्याव अह्वास्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि ह्वयते ह्वयेते ह्वयन्ते प्र० पु० ह्वयेत हयाताम् ह्वयेरन ह्वयसे येथे यध्वे म० पु० ह्वयेथाः ह्वयेयाथाम् ह्वयेध्वम् ह्वयावहे ह्वयामहे उ० पु० ह्वय ह्वयेवहि Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध णबादि तुबादि दिबादि ह्वयताम् ह्वयेताम् ह्वयन्ताम् प्र० पु० अह्वयत अह्वयेताम् अह्वयन्त ह्वयस्व ह्वयेथाम् ह्वयध्वम् म० पु० अह्वयथाः अह्वयेथाम् अह्वयध्वम् ह्वय ह्वयावहै यामहै उ० पु० अह्वये अह्वयावहि अह्वयामहि धादि (१) द्यादि (२) अह्वास्त अह्वासाताम् अह्वासत प्र० पु० अह्वत अह्वताम् अह्वन्त अह्वास्थाः अह्वासाथाम् अह्वाद्ध्वम् , अह्वाध्वम् म. पु. अह्वथा: अह्वथाम् अह्वध्वम् अह्वासि अह्वास्वहि अह्वास्महि उ० पु० अह अह्वावहि अह्वामहि क्यादादि जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे प्र० पु० ह्वासीष्ट ह्वासीयास्ताम् ह्वासीरन् जुहुविषे जुहुवाथे जुहुविध्वे, जुहुविढ्वे म० पु० ह्वासीष्ठाः ह्वासीयास्थाम् ह्वासीध्वम् जुहुवे जुहुविवहे जुहुविमहे उ० पु० ह्वासीय बासीवहि ह्वासीमहि तादि स्यत्यादि ह्वाता ह्वातारौ ह्वातारः प्र० पु० ह्वास्यते ह्वास्येते हास्यन्ते ह्वातासे ह्वातासाथे ह्वाताध्वे म० पु० हास्यसे हास्येथे हास्यध्वे ह्वाताहे ह्वातास्वहे ह्वातास्महे उ० पु० ह्वास्ये हास्यावहे ह्वास्यामहे स्यदादि अह्वास्यत अह्वास्येताम् अह्वास्यन्त प्र० पु० अह्वास्यथाः अह्वास्येथाम् अह्वास्यध्वम् म० पु० अह्वास्ये अह्वास्यावहि अह्वास्यामहि उ० पु० ७६. टुवपंन्-बीजसन्ताने (उभयपदी) बीज बोना परस्मैपद बहुवचन एकवचन द्विवचन तिबादि वपति वपतः वपथः वपामि वपावः वपसि वपन्ति वपथ वपामः एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र. पु० वपेत् वपेताम् वपेयुः म० पु० वपे: वपेतम् वपेत उ० पु० वपेयम् वपेव वपेम दिबादि प्र० पु० अवपत् अवपताम् अवपन् म० पु० अवपः अवपतम् अवपत उ० पु० अवपम् अवपाव अवपाम तुबादि वपतु, वपतात् वपताम् वपन्तु वप, वपतात् वपतम् वपत वपानि वपाव वपाम Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ द्यादि णबादि अवाप्सीत् अवाप्ताम् अवाप्सुः प्र० पु० उवाप ऊपतुः ऊपुः अवाप्सी: अवाप्तम् अवाप्त म० पु० उवपिथ, उवप्थ ऊपथुः ऊप अवाप्सम् अवाप्स्व अवाप्स्म उ० पु० उवाप, उवप ऊपिव ऊपिम क्यादादि तादि उप्यात् उप्यास्ताम् उप्यासुः प्र० पु० वप्ता वप्तारौ वप्तारः उप्याः उप्यास्तम् उप्यास्त म० पु० वप्तासि वप्तास्थः वप्तास्थ उप्यासम् उप्यास्व उप्यास्म उ० पु० वप्तास्मि वप्तास्वः वप्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि वप्स्यति वप्स्यत: वप्स्यन्ति प्र० पु० अवप्स्यत् अवस्यताम् अवप्स्यन् वप्स्यसि वप्स्यथः वप्स्यथ म० पु० अवप्स्यः अवप्स्यतम् अवप्स्यत वप्स्यामि वप्स्याव: वास्यामः उ० पु० अवस्यम् अवप्स्याव अवप्स्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि वपते वपेते वपन्ते प्र० पु० वपेत वपेयाताम् वपेरन् वपसे वपेथे वपध्वे म० पु० वपेथाः वपेयाथाम् वध्वम् वपे वपावहे वपामहे उ० पु० वपेय वपेवहि वपेमहि दिबादि वपताम् वपेताम् वपन्ताम् प्र० पु० अवपत अवपेताम् अवपन्त वपस्व वपेथाम् वपध्वम् म० पु० अवपथाः अवपेथाम् अवपध्वम् वर्ष वपावहै वपामहै उ० पु० अवपे अवपावहि अवपामहि द्यादि णबादि अवप्त अवप्साताम् अवप्सत प्र० पु. ऊपे ऊपाते ऊपिरे अवप्थाः अवप्साथाम् अवब्ध्वम् अवद्ध्वम् म० पु. ऊपिषे ऊपाथे ऊपिध्वे अवप्सि अवप्स्वहि अवस्महि उ० पु० ऊपे ऊपिवहे ऊपिमहे यादादि ... तादि वप्सीष्ट वप्सीयास्ताम् वप्सीरन् प्र० पु० वप्ता वप्तारौ वप्तारः वप्सीष्ठाः वप्सीयास्थाम् वप्सीध्वम् म० पु० वप्तासे वप्तासाथे वप्ताध्वे वप्सीयं वप्सीवहि वप्सीमहि उ० पु० वप्ताहे वप्तास्वहे वप्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि वप्स्यते वस्येते वप्स्यन्ते प्र० पु० अवप्स्यत अवप्स्येताम् अवप्स्यन्त वप्स्यसे वप्स्येथे वस्यध्वे म. पु० अवप्स्यथाः अवस्येथाम् अवप्स्यध्वम् वप्स्ये वप्स्यावहे वप्स्यामहे उ० पु० अवस्ये अवप्स्यावहि अवस्यामहि तुबादि Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ वाक्यरचना बोध तुबादि ८०. प्सांक-भक्षणे (खाना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि प्साति प्सातः प्सान्ति प्र० पु० प्सायात् प्सायाताम् प्सायुः प्सासि प्साथः साथ म० पु० प्सायाः प्सायातम् प्सायात प्सामि प्साव: प्साम: उ० पु० प्सायाम् प्सायाव प्सायाम दिवादि प्सातु, प्सातात् प्साताम् प्सान्तु प्र० पु० अप्सात् अप्साताम् अप्सुः, अप्सान् प्साहि, प्सातात् प्सातम् सात म० पु० अप्साः अप्सातम् अप्सात प्सानि प्साव साम उ० पु० अप्साम् अप्साव अप्साम धादि णबादि अप्सासीत् अप्सासिष्टाम् अप्सासिषुः प्र० पु० पप्सौ पप्सतुः पप्सुः अप्सासीः अप्सासिष्टम् अप्सासिष्ट म० पु० पप्सिथ, पप्साथ पप्सथुः पप्स अप्सासिषम् अप्सासिष्व अप्सासिष्म उ० पु० पप्सौ पप्सिव पप्सिम क्यादादि (१) क्यादादि (२) प्सेयात् प्सेयास्ताम् प्सेयासुः प्र० पु० प्सायात् प्सायास्ताम् प्सायासुः प्सेयाः प्सेयास्तम् प्सेयास्त म० पु० प्सायाः प्सायास्तम् प्सायास्त प्सेयासम् प्सेयास्व प्सेयास्म उ० पु० प्सायासम् प्सायास्व प्सायास्म तादि स्यत्यादि प्साता प्सातारौ प्सातारः प्र० पु० प्सास्यति प्सास्यत: प्सास्यन्ति प्सातासि प्सातास्थः प्सातास्थ म० पु० प्सास्यसि प्सास्यथः प्सास्यथ प्सातास्मि प्सातास्वः सातास्मः उ० पु० प्सास्यामि सास्यावः प्सास्यामः स्यदावि अप्सास्यत अप्सास्यताम अप्सास्यन् अप्सास्यः ‘अप्सास्यतम् अप्सास्यत म० पु० अप्सास्यम् अप्सास्याव अप्सास्याम उ० पु० ८१.धुंक्-प्रसवैश्वर्ययोः (उत्पन्न होना, ऐश्वर्य होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि सौति । सुतः सुवन्ति प्र० पु० सुयात् सुयाताम् सुयुः सौषि सुथः सुथ म० पु० सुयाः सुयातम् सौमि. सुमः उ० पु० सुयाम् सुयाव सुयाम en el Helly ill प्र० सुयात सुवः Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३६६ तुबादि दिबादि सौतु, सुतात् सुताम् सुवन्तु प्र० पु० असौत् असुताम् असुवन् सुहि, सुतात् सुतम् सुत म० पु० असौः असुतम् असुत सवानि सवाव सवाम उ० पु० असवम् असुव असुम धादि ___णबादि असावीत् असाविष्टाम् असाविषुः प्र० पु० सुषाव सुषुवतुः सुषुवुः असावीः असाविष्टम् असाविष्ट म० पु० सुषविथ, सुषोथ सुषुवथुः सुषुव असाविषम् असाविष्व असाविष्म उ० पु० सुषाव, सुषव सुषुविव सुषुविम क्यादादि तादि सूयात् सूयास्ताम् सूयासुः प्र० पु० सोता सोतारौ सोतारः सूयाः सूयास्तम् सूयास्त म० पु० सोतासि सोतास्थः सोतास्थ सूयासम् सूयास्व सूयास्म उ० पु० सोतास्मि सोतास्वः सोतास्मः स्यत्यादि स्यदादि सोष्यति सोष्यतः सोष्यन्ति प्र० पु० असोष्यत् असोष्यताम् असोष्यन् सोष्यसि सोष्यथः सोष्यथ म० पु० असोष्यः असोष्यतम् असोष्यत सोष्यामि सोष्यावः सोष्यामः उ० पु० असोष्यम् असोष्याव असोष्याम ८२. ज्वपंक-शये (सोना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि स्वपिति स्वपितः स्वपन्ति प्र० पु० स्वप्यात स्वप्याताम् स्वप्युः स्वपिषि स्वपिथः स्वपिथ. म० पु० स्वप्याः स्वप्यातम् स्वप्यात स्वपिमि स्वपिवः स्वपिम: उ० पु० स्वप्याम् स्वप्याव स्वप्याम तुबादि स्वपितु, स्वपितात् स्वपिताम् स्वपिन्तु प्र० पु० स्वपिहि, स्वपितात् स्वपितम् स्वपित म० पु० स्वपानि स्वपाव स्वपाम दिबादि अस्वपत्, अस्वपीत् अस्वपिताम् अस्वपन् प्र० पु० अस्वपः, अस्वपी: अस्वपितम् अस्वपित म० पु० अस्वपम् अस्वपिव अस्वपिम उ० पु० धादि बादि अस्वाप्सीत् अस्वाप्ताम् अस्वाप्सुः प्र० पु० सुष्वाप सुषुपतुः सुषुपुः अस्वाप्सी: अस्वाप्तम् अस्वाप्त म० पु० सुप्वपिथ, सुष्वप्थ सुषुपथुः सुष्वप अस्वाप्सम् अस्वाप्स्व अस्वाप्स्म उ० पु० सुष्वाप, सुष्वप सुषुपिव सुषुपिम Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० वाक्यरचना बोध क्यादादि तादि सुप्यात् सुप्यास्ताम् सुप्यासुः प्र० पु० स्वप्ता स्वप्तारौ स्वप्तारः सुप्याः सुप्यास्तम् सुप्यास्त म० पु० स्वप्तासि स्वप्तास्थ: स्वप्तास्थ सुप्यासम् सुप्यास्व सुप्यास्म उ० पु० स्वप्तास्मि स्वप्तास्वः स्वप्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि स्वप्स्यति स्वप्स्यत: स्वप्स्यन्ति प्र० पु० अस्वप्स्यत् अस्वप्स्यताम् अस्वप्स्यन् स्वप्स्यसि स्वप्स्यथः स्वप्स्यथ म० पु० अस्वप्स्यः अस्वप्स्यतम् अस्वप्स्यत स्वप्स्यामि स्वप्स्यावः स्वप्स्याम: उ० पु० अस्वप्स्यम् अस्वप्स्याव अस्वप्स्याम ८३. चकासृक्-दीप्तौ (दीप्त होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि चकास्ति चकास्तः चकासति प्र० पु० चकास्यात् चकास्याताम् चकास्युः चकास्सि चकास्थः चकास्थ म० पु० चकास्याः चकास्यातम् चकास्यात चकास्मि चकास्वः चकास्मः उ० पु० चकास्याम् चकास्याव चकास्याम तुबादि चकास्तु, चकास्तात् चकास्ताम् __ चकासतु प्र० पु० चकाद्धि, चकाधि चकास्तम् चकास्त म० पु० चकासानि चकासाव चकासाम उ० पु० दिबादि अचकात अचकास्ताम् अचकासुः प्र० पु० अचकाः, अचकात् अचकास्तम् अचकास्त म० पु० अचकासम् अचकास्व अचकास्म धादि अचकासीत् अचकासिष्टाम् अचकासिषुः __प्र० पु० अचकासी: अचकासिष्टम् अचकासिष्ट म० पु० अचकासिषम् अचकासिष्व अचकासिष्म णबादि (१) चकासाञ्चकार चकासाञ्चक्रतुः चकासाञ्चक्रुः प्र० पु० चकासाञ्चकर्थ चकासाञ्चक्रथुः चकासाञ्चक्र चकासाञ्चकार, चकासाञ्चकर चकासाञ्चकृव चकासाञ्चकृम उ० पु० Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ...जबादि (२) चकासाम्बभूव चकासाम्बभूविथ चकासाम्बभूव बादि (३) चकासामास चकासामासिथ चकासामास प्र० पु० चकासाम्बभूवतुः चकासाम्बभूवुः म० पु० चकासाम्बभूवथुः चकासाम्बभूव चका साम्बभूविव चकासाम्बभूविम उ० पु० चकासामासतुः चकासामासुः चकासामासथुः चका सामासिव क्यादादि चकास्यात् चकास्यास्ताम् चकास्याः चकास्यास्तम् चकास्यासम् चकास्यास्व तादि चकासिता चकासितासि चकासितास्मि चकासितास्वः चकासामास चकासामा सिम चकासितारो चकासितार: चकासितास्थः चकासितास्थ चकासितास्मः एकवचन द्विवचन तिबादि चकास्यासुः चकास्यास्त चकास्यास्म स्यत्यादि चकासिष्यन्ति चकासिष्यति चकासिष्यतः चकासिष्यसि चकासिष्यथः चकास्ष्यिथः चकासिष्यामि चकासिष्यावः चकासिष्यामः स्यदादि अचकासिष्यत् अचकासिष्यताम् अचकासिष्यन् अचकासिष्यतम् अचकासिष्यत अचकासिष्यः अकासियम् अचकासिष्याव अचकासिष्याम शास्ति शिष्ट: शासति शास्सि शिष्ठ: शिष्ठ शास्मि शिष्व: शिष्म : प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० ८४. शासुक् - अनुशिष्टौ ( अनुशासन करना) बहुवचन उ० पु० ४०१ एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० शिष्यात् शिष्याताम् शिष्युः म० पु० शिष्याः शिष्यातम् शिष्यात उ० पु० शिष्याम् शिष्याव शिष्याम Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ तुबादि शास्तु शिष्टात् शिष्टाम् शासतु शाधि, शिष्टात् शिष्टम् शिष्ट शासानि शासाव शासाम धादि अशिषत् अशिषताम् अशिषन् अशिष: अशिषतम् अशिषम् अशिषाव प्र० पु० शशास अशिषत म० पु० शशासिथ अशिषाम उ० पु० शशास दिबादि स्यत्यादि शासिष्यति शासिष्यतः शासिष्यन्ति शासिष्यसि शासिष्यथः शासिष्यथ शासिष्यामि शासिष्याव: शासिष्यामः स्यदादि अशासष्यत् अशासिष्यताम् अशासिष्यः अशासिष्यतम् अशासिष्यम् अशासिष्याव प्र० पु० अशात् म० पु० अशाः, अशात् अशिष्टम् उ० पु० अशासम् अशिष्व अशिष्म णबादि एकवचन द्विवचन तिबादि वक्ति वक्तः वचन्ति वक्षि वक्थः वक्थ वच्मि वच्चः वच्मः तुबादि वक्तु, वक्तात् वक्ताम् वचन्तु वग्धि, वक्तात् वक्तम् वक्त वचानि वचाव वचाम क्यादादि शासितारौ शासितारः शिष्यात् शिष्यास्ताम् शिष्यासुः प्र० पु० शासिता शिष्याः शिष्यास्तम् शिष्यास्त म० पु० शासितासि शासितास्थ: शासितास्थ शिष्यासम् शिष्यास्व शिष्यास्म उ० पु० शासितास्मि शासितास्व: शासितास्मः प्र० पु० म० पु० उ० पु० अशासिष्यन् अशा सिष्यत अशासिष्याम ८५. वचक - भाषणे ( बोलना ) बहुवचन तादि एकवचन यादादि प्र० पु० वच्यात् म० पु० वच्याः उ० पु० वच्याम् अशिष्टाम् अशासुः अशिष्ट दिबादि प्र० पु० अवक्, अवग् म० पु० अवक्, अवग् उ० पु० अवचम् वाक्यरचना बो शशासतुः शशासुः शशास शशासिम शशासथुः शशासिव प्र० पु० म० पु० उ० पु० द्विवचन बहुवचन वच्यातरम् वच्युः वच्यातम् वच्यात वच्याव वच्याम अवक्ताम् अवक्तम् अवच्च अवचन् अवक्त अवच्म Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४०३ खादि णबादि अवोचत् अवोचताम् अवोचन् प्र० पु० उवाच ऊचतु: ऊचुः अवोचः अवोचतम् अवोचत म० पु० उवचिथ, उवक्थ ऊचथुः ऊच अवोचम् अवोचाव अवोचाम उ० पु० उवाच, उवच ऊचिव ऊचिम क्यादादि तादि उच्यात् उच्यास्ताम् उच्यासुः प्र० पु० वक्ता वक्तारौ वक्तारः उच्याः उच्यास्तम् उच्यास्त म० पु० वक्तासि वक्तास्थः वक्तास्थ उच्यासम् उच्यास्व उच्यास्म उ० पु. वक्तास्मि वक्तास्वः वक्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि वक्ष्यति वक्ष्यतः वक्ष्यन्ति प्र० पु. अवक्ष्यत् अवक्ष्यताम् अवक्ष्यन् वक्ष्यसि वक्ष्यथः वक्ष्यथ म० पु० अवक्ष्यः अवक्ष्यतम् अवक्ष्यत वक्ष्यामि वक्ष्याव: वक्ष्यामः उ० पु० अवक्ष्यम् अवक्ष्याव अवक्ष्याम ८६. मृजूक्-शुद्धौ (साफ करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि माष्टि मृष्ट : मृजन्ति, मार्जन्ति प्र० पु० मृज्यात् मृज्याताम् मृज्युः माक्षि मृष्ठः मृष्ठ म० पु० मृज्याः मृज्यातम् मृज्यात माज्मि मृज्वः मृज्मः उ० पु० मृज्याम् मृज्याव मृज्याम तुबादि माटु, मृष्टात् मृष्टाम् मार्जन्तु, मृजन्तु प्र० पु० मृड्ढि, मृष्टात् मृष्टम् मृष्ट __ म० पु० मार्जानि मार्जाव मार्जाव उ० पु० दिबादि अमा, अर्माड् अमृष्टाम् अमार्जन्, अमृजन् प्र० पु० अमा, अर्मा अमृष्टम् अमृष्ट म० पु० अमार्जम् अमृज्व अमृज्म उ० पु० धादि (१) धादि (२) अमाीत् अमाष्र्टाम् अमाझुः प्र० पु० अमार्जीत् अमाजिष्टाम् अमाजिषुः अमाी: अमाष्टम् अमाष्टं म० पु० अमार्जीः अमाजिष्टम् अमाजिष्ट अमाक्षम् अमावं . अमार्म उ० पु० अमाजिषम् अमाजिष्व अमाजिष्म Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ वाक्यरचना बोध जबादि ममार्ज ममार्जतुः, ममृजतुः ममार्जुः, ममृजुः प्र० पु० ममाजिथ ममार्जथुः, ममृजथुः ममार्ज, ममृज म० पु. ममार्ज ममार्जिव, ममृजिव ममाजिम, ममृजिम उ० पु० क्यादादि तादि (१) मृज्यात् मृज्यास्ताम् मृज्यासुः प्र० पु० मार्टा माष्र्टारौ मार्टारः मृज्याः मृज्यास्तम् मृज्यास्त म० पु० माष्र्टासि मा स्थः मास्थि मृज्यासम् मृज्यास्व' मृज्यास्म उ० पु० मा स्मि माष्र्टास्वः माष्टर्टास्मः तादि (२) स्यत्यादि (१) माजिता मार्जितारौ मार्जितारः प्र० पु० माक्ष्यति मार्क्ष्यतः मायन्ति मार्जितासि मार्जितास्थः मार्जितास्थ म० पु० मायसि मायथः माग्रंथ मार्जितास्मि मार्जितास्वः मार्जितास्मः उ० पु० माामि माावः माामः स्थत्यादि (२) स्यदादि (१) माजिप्यति मार्जिष्यतः माजिष्यन्ति प्र० पु० अमायत् अमार्क्ष्यताम् अमायन् माजिष्यसि माजिष्यथ: माजिष्यथ म० पु० अमायः अमाय॑तम् अमायत माजिष्यामि मार्जिष्याव: माजिष्यामः उ० पु० अमाय॑म् अमााव अमााम स्यदादि (२) अमाजिष्यत् अमाजिष्यताम् अमाजिष्यन् प्र० पु० अमाजिष्यः अमाजिष्यतम् अमाजिष्यत म० पु० अमाजिष्यम् । अमाजिष्याव अमाजिष्याम उ० पु० ८७.इंक-अध्ययने (अध्ययन करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि अधीते अधीयाते अधीयते प्र. पु. अधीयीत अधीयीयाताम् अधीयोरन् अधीषे अधीयाथे अधीध्वे म. पु. अधीयीथाः अधीयीयाथाम् अधीयीध्वम् अधीये अधीवहे अधीमहे उ. पु. अधीयीय अधीयीवहि अधीयीमहि तुबादि दिबादि अधीताम् अधीयाताम् अधीयताम् प्र० पु० अध्यत अध्ययाताम् अध्ययत अधीष्व अधीयाथाम् अधीध्वम् म० पु. अध्यथा:: अध्ययाथाम् अध्यध्वम् अध्ययै अध्ययावहै अध्ययामहै उ० पु० अध्यै यि अध्यैवहि अध्यमहि द्यादि (१) द्यादि (२) अध्यगीष्ट अध्यगीषाताम् अध्यगीषत प्र० पु० अध्यैष्ट अध्यषाताम् अध्यषत अध्यगीष्ठाः अध्यगीषाथाम् अध्यगीढ्वम् म० पु० अध्यैष्ठाः अध्यषाथाम् अध्यढ्वम् अध्यगीषि अध्यगीष्वहि अध्यगीष्महि उ० पु० अध्यषि अध्यष्वहि अध्यष्महि Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४०५ गबादि अधिजगे अधिजगाते अधिजगिरे, प्र० पु० अधिजगिषे अधिजगाथे अधिजगिध्वे म० पु० अधिजगे अधिजगिवहे अधिजगिमहे उ० पु० क्यादादि तादि अध्येषीष्ट अध्येषीयास्ताम् अध्येषीरन् प्र० पु० अध्येता अध्येतारौ अध्येतारः अध्येषीष्ठाः अध्येषीयास्थाम् अध्येषीढ्वम् म० पु० अध्येतासे अध्येतासाथे अध्येताध्वे अध्येषीय अध्येषीवहि अध्येषीमहि उ० पु० अध्येताहे अध्येतास्वहे अध्येतास्महे स्यत्यादि अध्येष्यते अध्येष्येते . अध्येष्यन्ते प्र० पु० अध्येष्यसे अध्येष्येथे अध्येष्यध्वे म० पु० अध्येष्ये अध्येष्यावहे अध्येष्यामहे उ० पु० स्यदादि (१) अध्यगीष्यत अध्यगीष्येताम् अध्यगीष्यन्त प्र० पु० अध्यगीष्यथाः अध्यगीष्येथाम् अध्यगीष्यध्वम् म० पु० अध्यगीष्ये अध्यगीष्यावहि अध्यगीष्यामहि उ० पु० स्यदादि (२) अध्यष्यत अध्यष्येताम् अध्यष्यन्त प्र० पु० अध्यैष्यथाः अध्यष्येथाम् अध्यष्यध्वम् म० पु० अध्यष्ये अध्यष्यावहि अध्यष्यामहि उ० पु० ८८. षङ्क-प्राणिगर्भविमोचने (उत्पन्न होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि सूते सुवाते सुवते प्र० पु० सुवीत सुवीयाताम् सुवीरन् सूषे सुवाथे सूध्वे म० पु० सुवीथाः सुवीयाथाम् सुवीध्वम् सुवे सूवहें सूमहे उ० पु० सुवीय सुवीवहि सुवीमहि दिबादि - सूताम् सुवाताम् सुवताम् प्र० पु० असूत असुवाताम् असुवत सूष्व सुवाथाम् सूध्वम् म० पु० असूथाः असुवाथाम् असूध्वम् सुवै सुवावहै सुवामहै उ० पु० असुवि असूवहि असूमहि धादि (१) असविष्ट असविषाताम् असविषत प्र० पु० असविष्ठाः असविषाथाम् असविढ्वम्, असविध्वम् म० पु० असविषि असविष्वहि असविष्महि उ० पु० तुबादि Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ बादि (२) असोष्ट असोष्ठाः असोषि णबादि सुषुवे सुषुवा सुषुविषे सुषुवा असोषाताम् असोषाथाम् असो सोपीष्ठाः सोषीय तादि (१) सुषुविव सुषुवम क्यादादि (१) सविषीष्ट विषयास्ताम् सविषीयास्थाम् सविषीवहि सविषीष्ठाः सविषीय क्यादादि (२) सोषीष्ट सोषीयास्ताम् सुषुविरे प्र० पु० सुषुविध्वे, सुषुविवे म० पु० उ० पु० सोषीयास्थाम् सोहि सविता सवितारौ सवितारः सविता से सवितासाथे सविताध्वे सविता सवितास्वहे सवितास्महे त्यादि (१) सविष्यते सविषयेते सविष्यन्ते सविष्यसे सविष्येथे सविष्यध्वे सविषये ईट्टे ईडिषे ईडा असोत प्र० पु० असोढ्वम्, असोध्वम् म० पु० उ० पु० असो एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि ईव प्र० पु० म० पु० सविष्यावहे सविष्यामहे उ० पु० ईड ईडिध्वे ईम प्र० पु० सविषीरन् सविषीढ्वम्, सविषीध्वम् म० पु० उ० पु० विषमहि सोषीरन् सोषीढ्वम्, सोषीध्वम् सोषीमहि प्र० पु० सोता म० पु० उ० पु० तादि (२) सोता सोताहे वाक्यरचना बो सोष्यते सोष्यसे सोध्ये स्यादि (२) दादि (१) असविष्यत असविष्येताम् असविष्यन्त प्र. पु. असोष्यत असोष्येताम् असोष्यन्त असविष्यथाः असविष्येथाम् असविष्यध्वम् म. पु. असोष्यथाः असोष्येथाम् असोष्यध्व असविषये असविष्यावहि असविष्यामहि उ. पु. असोष्ये असोष्यावहि असोष्याम ८६. ईड–स्तुतौ (स्तुति करना) प्र० पु० ईडीत म० पु० ईडीथा: उ० पु० ईडीय प्र० पु० म० पु० उ० पु० सोतारी सोतार: सोतासाथ सोताध्वे सोतास्वहे सोतास्महे स्यत्यादि (२) सो सोष्यन्ते सोयेथे सोष्यध्वे सोष्यावहे सोष्यामहे एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि ईडीयाताम् ईडीन् ईडीयाथाम् safe ध्वम् महि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ Yo७ प्र० पु० सुबादि दिबादि ईट्टाम् ईडाताम् ईडताम् प्र० पु० ऐट्र ऐडाताम् ऐडत ईडिष्व ईडाथाम् ईडिध्वम् म० पु० ऐट्ठाः ऐडाथाम् ऐड्ढ्वम् ईडे ईडावहै ईडामहै उ० पु० ऐडिषि ऐड्वहि ऐड्महि चादि ऐडिष्ट ऐडिषाताम् ऐडिषत प्र० पु० ऐडिष्ठाः ऐडिपाथाम् ऐड्डिढ्वम् , ऐड्डिध्वम् । ऐडिषि ऐडिष्वहि ऐडिष्महि उ० पु० गबादि (१) ईडाञ्चके ईडाञ्चक्राते ईडाञ्चक्रिरे ईडाञ्चकृषे ईडाञ्चकाथे ईडाञ्चकृढ्वे म० पु० ईडाञ्चक्रे ईडाञ्चकृवहे ईडाञ्चकृमहे उ० पु० बबादि (२) जबादि (३) ईडाम्बभूव ईडाम्बभूवतुः ईडाम्बभूवुः प्र० पु० ईडामास ईडामासतुः ईडामासुः ईडाम्बभूविथ ईडाम्बभूवथुः ईडाम्बभूव म० पु० ईडामासिथ ईडामासथुः ईडामास ईडाम्बभूव ईडाम्बभूविव ईडाम्बभूविम उ० पु० ईडामास ईडामासिव ईडामासिम पादादि ईडिषीष्ट ईडिषीयास्ताम् ईडिषीरन् प्र० पु० ईडिष्यते ईडिष्येते ईडिष्यन्ते ईडिषीष्ठाः ईडिषीयास्थाम् ईडिषीध्वम् म० पु० ईडिष्यसे ईडिष्येथे ईडिष्यध्वे ईडिषीय ईडिषीवहि ईडिषीमहि उ० पु० ईडिष्ये ईडिष्यावहे ईडिष्यामहे स्वदादि ऐडिष्यत ऐडिष्येताम् ऐडिष्यन्त प्र० पु० रेडिष्यथाः ऐडिष्येथाम् ऐडिष्यध्वम् म० पु० ऐडिष्ये ऐडिष्यावहि ऐडिष्यामहि उ० पु० ६०. बक्षङ्क–व्यक्तायां वाचि (बोलना) स्यत्यादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि आचप्टे आचक्षाते आचक्षते प्र० पु० आचक्षीत आचक्षीयाताम् आचक्षीरन् पाचक्षे आचक्षाथे आचडढवे म० पु० आचक्षीथाः आचक्षीयाथाम् आचक्षीध्वम् माचक्षे आचक्ष्वहे आचक्ष्महे उ० पु० आचक्षीय आचक्षीवहि आचक्षीमहि Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.८ वाक्यरचना,बोध तुबादि दिबादि आचष्टाम् आचक्षाताम् आचक्षताम् प्र० पु० आचष्ट आचक्षाताम् आचक्षत आचक्ष्व आचक्षाथाम् आचड्ढ्वम् म० पु० आचष्ठाः आचक्षाथाम् आचड्ढ्वम् आच: आचक्षावहै आचक्षामहै उ० पु० आचक्षि आचक्ष्वहि आचक्ष्महि चादि (१) आक्शासीत् आक्शासिष्टाम् आक्शासिषुः प्र० पु० आक्शासी: आक्शासिष्टम् आक्शासिष्ट आक्शासिषम् आक्शासिष्व आक्शासिष्म उ० पु० द्यादि (२) आख्शासीत् आख्शासिष्टाम् आख्शासिषुः प्र० पु० आख्शासी: आरुशासिष्टम् आरुशासिष्ट ___म० पु० आख्शासिषम् आख्शासिष्व आरुशासिष्म उ० पु० द्यादि (३) आक्शास्त आक्शासाताम् आक्शासत प्र० पु० आक्शास्थाः आक्शासाथाम् __आक्शाद्ध्वम्, आक्शाध्वम् म० पु० आक्शासि आक्शास्वहि आक्शास्महि उ० पु० धादि (४) आख्शास्त आख्शासाताम आख्शासत प्र० पु० आख्शास्थाः आख्शासाथाम् । आख्शाद्ध्वम्, आख्शाध्वम् म० पु० आख्शासि आख्शास्वहि आख्शास्महि उ० पु० धादि (५) द्यादि (६) आख्यत् आख्यताम् आख्यन् प्र० पु० आख्यत आख्येताम् आख्यन्त आख्यः आख्यतम् आख्यत म० पू० आख्यथाः आख्येथाम् आख्यध्वम् आख्यम् आख्याव आख्याम उ० पु० आख्ये आख्यावहि आख्यामहि णबादि (१) आचक्शौ आचक्शतुः आचक्शुः प्र० पु. आचक्शिथ, आचक्शाथ आचक्शथुः आचक्श ___ म० पु० आचक्शौ आचक्शिव आचक्शिम णबादि (२) आचख्शौ आचख्शतु: आचख्शुः प्र० आचख्शिथ, आचख्शाथ आचख्शथुः आचख्श म० पु० आचख्शौ आचख्शिव आचख्शिम उ० पु० Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४०४ ܟܼ ܟܼܲܝ ܩܸܪ जबादि (३) णबादि (४) आचशे आचक्शाते आवक्शिरे प्र० पु० आचख्शे आचख्शाते आचरिशरे आचक्शिषे आचक्शाथे आवक्शिध्वे म० पु० आचस्थिषे आचख्शाथे आचरिशध्वे आचक्शे आचक्शिवहे आचक्शिमहे उ० पु० आचख्शे आचख्शिवहे आचरिशमहे णबादि (५) आचख्यौ आचख्यतुः आचख्युः प्र० पु० आचख्यिथ, आचख्याथ आचख्यथुः आचख्य म० पु० आचख्यौ आचख्यिव आचख्यिम उ० पु० गबादि (६) आचख्ये आचख्याते आचंख्यिरे प्र० पु० आचख्यिषे आचख्याथे आचख्यिध्वे, पाचख्यिढ्वे म० पु० आचख्ये आचख्यिवहे आचख्यिमहे उ० पु. णबादि (७) आचचक्षे आचचक्षाते - आचचक्षिरे आचचक्षिषे आचचक्षाथे आचचक्षिध्वे, आचचक्षिढ्वे म० पु० आचचक्षे आचचक्षिवहे आचचक्षिमहे क्यादादि (१) आक्शायात् आक्शायास्ताम् । आक्शायासुः आक्शायाः आक्शायास्तम् आक्शायास्त म० पु० आक्शायासम् आक्शायास्व आक्शायास्म क्यादादि (२) आख्शायात् आख्शायास्ताम् आख्शायासुः प्र० पु० आख्शायाः आख्शायास्तम् आख्शायास्त आख्शायासम् आख्शायास्व आख्शायास्म क्यादादि (३) आक्शेयात् आक्शेयास्ताम् आक्शेयासुः - प्र. पु० आक्शेयाः आक्शेयास्तम् आक्शेयास्त आक्शेयासम् आक्शेयास्व आक्शेयास्म क्यादादि (४) आख्शेयात् आख्शेयास्ताम् आख्शेयासुः आख्शेयाः आख्शेयास्तम् आख्शेयास्त आख्शेयासम् आख्शेयास्व आख्शेयास्म ܟ̣ ܟ̣ ܟ̣ उ० पु० ܩܸܟ ܟܲܝ ܩܸܪ ܟ̣ ܟ̣ ܟ̣ ܂ उ० पु० Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० वाक्यरचना बोध ज्यादादि (५) आख्येयात् आख्येयास्ताम् आख्येयासुः आख्येयाः आख्येयास्तम् आख्येयास्त आख्येयासम् .. आख्येयास्व . आख्येयास्म क्यादादि (६) आख्यायात् आख्यायास्ताम् आख्यायासुः । प्र० पु० आख्यायाः आख्यायास्तम् आख्यायास्त म० पु० आख्यायासम् आख्यायास्व आख्यायास्म उ० पु० क्यादादि (७) माक्शासीष्ट आक्शासीयास्ताम् आक्शासीरन् प्र० पु० आक्शासीष्ठाः आक्शासीयास्थाम् आक्शासीध्वम् म० पु० आक्शासीय आक्शासीवहि आक्शासीमहि उ० पु० क्यादादि () आख्शासीष्ट आख्शासीयास्ताम् आख्शासीरन् प्र० पु० आख्शासीष्ठाः आख्शासीयास्थाम् आख्शासीध्वम् म० पु० आख्शासीय आख्शासीवहि आख्शासीमहि उ० पु. क्यादादि (8) आख्यासीष्ट आख्यासीयास्ताम् आख्यासीरन् प्र० पु० आख्यासीष्ठाः आख्यासीयास्थाम् आख्यासीध्वम् म. आख्यासीय आख्यासीवहि आख्यासीमहि सादि (१) माक्शाता आक्शातारी आक्शातारः आक्शातासि आक्शातास्थः आक्शातास्थ माक्शातास्मि आक्शातास्वः आक्शातास्मः उ० पु० तादि (२) आख्शाता आख्शातारी आख्शातारः आख्शातासि आख्शातास्थः आख्शातास्थ आख्शातास्मि आख्शातास्वः आख्शातास्मः उ० पु. तादि (३) आख्याता आख्यातारी आख्यातारः आख्यातासि आख्यातास्थः आख्यातास्थ आख्यातास्मि आख्यातास्वः आख्यातास्मः Хо Чо म० पु. म० पु० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ सादि (४) आक्शाता आक्शाता से आशाता तादि (५) आख्शाता आशाता आशाता आक्शाता आक्शा तासाथे आक्शाता स्वहे आख्शातारी. आख्शातारः आख्शातासाथे आखशाताध्वे आख्शाता स्वहे आख्शातास्महे तादि (६) आख्याता आख्यातार: आख्यातारौ आख्यातासे आख्यातासाथे आख्याताध्वे आख्याताहे आख्यातास्वहे बाख्यातास्महे स्यत्यादि (१) आक्शास्यति आक्शास्यतः आक्शास्यन्ति आक्शास्यसि आक्शास्यथः आक्शास्यथ आक्शास्यामि आक्शास्यावः आक्शास्यामः स्यत्यादि (२) आरुशास्यति आख्शास्यतः आरुशास्यसि आख्शास्यथः शास्यामि आख्शास्यावः आक्शातारः आक्शाताध्वे आक्शातास्महे स्यत्यादि (३) आख्यास्यति आख्यास्यतः आख्यास्यसि आख्यास्यथः आख्यास्यामि आख्यास्यावः स्मत्यादि (४) आक्शास्यते आक्शास्येते आवशास्यसे आक्शास्येथे आक्शास्ये आशास्याव स्वत्यादि (५) आशास्यते आखशास्येते आशास्यसे आख्शास्येथे आख्शास्ये आशाव आख्शास्यन्ति आख्शास्यथ आख्शास्यामः आख्यास्यन्ति आख्यास्यथ आख्यास्यामः आक्शास्यन्ते आशास्यध्वे आशास्याम प्र० पु० म० पु० उ० पु० आख्शास्यन्ते आशास्यध्वे आशास्यामहे प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० ४११ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१२ वाक्यरचना बोध स्थत्यादि (६) आख्यास्यते आख्यास्येते आख्यास्यन्ते प्र० पू० आख्यास्यसे आख्यास्येथे आख्यास्यध्वे म० पु० आख्यास्ये आख्यास्यावहे आख्यास्यामहे उ० पु० स्यदादि (१) आक्शास्यत् आक्शास्यताम् आक्शास्यन् प्र. पु० आक्शास्यः आक्शास्यतम् आक्शास्यत आक्शास्यम् आक्शास्याव आक्शास्याम उ० पु० स्यदादि (२) आख्शास्यत् आख्शास्यताम् आख्शास्यन् प्र० पु० आख्शास्यः आख्शास्यतम् आख्शास्यत आख्शास्यम् आख्शास्याव आख्शास्याम उ० पु० स्यदादि (३) आख्यास्यत् आख्यास्यताम् आख्यास्यन् प्र० पु० आख्यास्यः आख्यास्यतम् आख्यास्यत आख्यास्यम् आख्यास्याव आख्यास्याम स्यदादि (४) आक्शास्यत आक्शास्येताम् आवशास्यन्त प्र० पु० आक्शास्यथाः आक्शास्येथाम् आक्शास्यध्वम् म० पु० आक्शास्ये आक्शास्यावहि आक्शास्यामहि उ० पु० स्यदादि (५) आस्शास्यत आख्शास्येताम् आख्शास्यन्त प्र० पु० आख्शास्यथाः आख्शास्येथाम् आरुशास्यध्वम् आख्शास्ये आख्शास्यावहि ___ आख्शास्यामहि उ० स्यदादि (६) आख्यास्यत आख्यास्येताम् आख्यास्यन्त आख्यास्यथाः आख्यास्येथाम् आख्यास्यध्वम् म० पु० आख्यास्ये आख्यास्यावहि आख्यास्यामहि उ० पु० Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुबादि गबादि परिशिष्ट २ ६१. द्विषन्क्-अप्रीतौ (उभयपदी) द्वेष करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि द्वेष्टि द्विष्टः द्विषन्ति प्र० पु० द्विष्यात् द्विष्याताम् द्विष्युः द्वेक्षि द्विष्ठः द्विष्ठ म० पु० द्विष्याः द्विष्यातम् द्विष्यात द्वेष्मि द्विष्वः द्विष्मः उ० पु० द्विष्याम् द्विष्याव द्विष्याम दिबादि द्वेष्टु, द्विष्टात् द्विष्टाम् द्विषन्तु प्र० पु० अद्वेट, अद्वेड् अद्विष्टाम् अद्विषुः, अद्विषन् द्विड्ढि, द्विष्टात् द्विष्टम् द्विष्ट म० पु० अद्वेट्, अद्वेड् अद्विष्टम् अद्विष्ट द्वेषाणि द्वेषाव द्वेषाम उ० पु० अद्वेषम् अद्विष्व अद्विष्म धादि अद्विक्षत् अद्विक्षताम् अद्विक्षन् प्र० पु० दिद्वेष दिद्विषतुः दिद्विषुः अद्विक्षः अद्विक्षतम् अद्विक्षत म० पु० दिद्वेषिथ - दिद्विषथुः दिद्विष अद्विक्षम् अद्विक्षाव अद्विक्षाम उ० पु० दिद्वेष दिद्विषिव दिद्विषिम क्यादादि द्विष्यात् द्विष्यास्ताम् द्विष्यासुः प्र० पु० द्वेष्टा द्वेष्टारौ द्वेष्टारः : द्विष्याः द्विष्यास्तम् द्विष्यास्त म० पु० द्वेष्टासि द्वेष्टास्थः . द्वेष्टास्थ द्विष्यासम् द्विष्यास्व द्विष्यास्म उ० पु० द्वेष्टास्मि द्वेष्टास्वः .. द्वेष्टास्मः स्यत्यादि . स्यदादिद्वेक्ष्यति द्वेक्ष्यतः द्वेक्ष्यन्ति प्र० पु० अद्वेक्ष्यत् अद्वेक्ष्यताम् अद्वेक्ष्यन् द्वेक्ष्यसि द्वेक्ष्यथः द्वेक्ष्यथ म० पु० अद्वेक्ष्यः अद्वेक्ष्यतम् अद्वेक्ष्यत द्वेक्ष्यामि द्वेक्ष्याव: द्वेक्ष्याम: उ० पु० अद्वेक्ष्यम् अद्वेक्ष्याव अद्वेक्ष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि द्विष्टे द्विषाते द्विषते प्र० पु० द्विषीत द्विषीयास्ताम् द्विषीरन् द्विक्षे द्विषाथे द्विड्ढ्वे म० पु० द्विषीथाः द्विषीयास्थाम् .द्विषीध्वम् द्विषे द्विष्वहे द्विष्महे उ० पु० द्विषीय . द्विषीवहि . द्विषीमहि तुबादि दिबादि द्विष्टाम् द्विषाताम् द्विषताम् प्र० पु० अद्विष्ट अद्विषाताम् अद्विषत द्विक्ष्व द्विषाथाम् द्विध्वम् म० पु० अद्विष्ठाः अद्विषाथाम् अद्विड्ढ्वम् द्वेष द्वेषावहै द्वेषामहै उ० पु० अद्विषि अद्विष्वहि अद्विष्महि तादि Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध चादि । णबादि अद्विक्षत अद्विक्षाताम् अद्विक्षन्त प्र० पु० दिद्विषे दिद्विषाते दिद्विषिरे अद्विक्षथा: अद्विक्षाथाम् अद्विक्षध्वम् म० पु० दिद्विषिषे दिद्विषाथे दिद्विषिध्वे अद्विक्षि अद्विक्षावहि अद्विक्षामहि उ० पु० दिद्विषे दिद्विषिवहे दिद्विषिमहे नवादावि तादि द्विक्षीष्ट द्विक्षीयास्ताम् द्विक्षीरन् प्र० पु० द्वेष्टा द्वेष्टारौ द्वेष्टारः द्विक्षीष्ठाः द्विक्षीयास्थाम् द्विक्षीध्वम् म० पु० द्वेष्टासे द्वेष्टासाथे द्वेष्टाध्वे द्विक्षीय द्विक्षीवहि द्विक्षीमहि उ० पु० द्वेष्टाहे द्वेष्टास्वहे द्वष्टास्महे स्यत्यादि स्यदादि द्वक्ष्यते द्वेक्ष्येते द्वेक्ष्यन्ते प्र० पु० अद्वेक्ष्यत अद्वेक्ष्येताम् अद्वेक्ष्यन्त द्वंक्ष्यसे द्वेक्ष्येथे द्वेक्ष्यध्वे म० पु० अद्वेक्ष्यथाः अद्वेक्ष्येथाम् अद्वेक्ष्यध्वम् द्वेक्ष्ये द्वेक्ष्यावहे द्वेक्ष्यामहे उ० पु० अद्वेक्ष्ये अद्वेश्यावहि अद्वेक्ष्यामहि ६२. लिहंन्क-आस्वादने (उभयपदी) आस्वादन करना एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि लेढि लीढः लिहन्ति लेक्षि लीढः लीढ सेरि लिह्वः लिमः परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० लिह्यात् लिह्याताम् लिह युः म० पु० लिह्याः लिह्यातम् लिह्यात उ० पु० लिह्याम् लिह्याव लिह्याम सुबादि दिवादि लेढु, लीढात् लीढाम् लिहन्तु प्र० पु० अलेड्, अलेट् अलीढाम् अलिहन् लीढि, लोढात् लीढम् लीह म० पु० अलेड्, अलेट् अलीढम् अलीढ लेहानि लेहाव लेहाम उ० पु० अलेहम् अलिह्व अलिह्म बादि बादि अलिक्षत् अलिक्षताम् अलिक्षन् प्र० पु० लिलेह लिलिहतुः लिलिहुः अलिक्षः अलिक्षतम् अलिक्षत म० पु० लिलेहिथ लिलिहथुः लिलिह अलिक्षम् अलिक्षाव अलिक्षाम उ० पु० लिलेह लिलिहिव लिलिहिम ज्यादादि तादि लिह्यात् लिह्यास्ताम् लिह्यासुः प्र० पु० लेढा लेढारौ लेढारः लिह्याः लिह्यास्तम लिह्यास्त म० पु० लेढासि लेढास्थः लेढास्थ लिह्यासम् लिह्यास्व लिह्यास्म उ० पु० लेढामि लेढास्वः लेढास्मः Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४१५ स्यत्यादि स्यदादि लेक्ष्यति लेक्ष्यतः लेक्ष्यन्ति प्र० पु० अलेक्ष्यत् अलेक्ष्यताम् अलेक्ष्यन् लेक्ष्यसि लेक्ष्यथ: लेक्ष्यथ म० पु० अलेक्ष्यः अलेक्ष्यतम् अलेक्ष्यत लेक्ष्यामि लेक्ष्याव: लेक्ष्याम: उ० पु. अलेक्ष्यम् अलेक्ष्याव अलेक्ष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि लीढे लिहाते लिहते प्र० पु० लिहीत लिहीयाताम् लिहीरन् लिले लिहाथे लीढ्वे म. पु० लिहीथाः लिहीयाथाम् लिहीध्वम् लिहे लिह्वहे लिह्महे उ० पु० लिहीय लिहीवहि लिहीमहि दिबादि लीढाम् लिहाताम् लिहताम् प्र० पु० अलीढ अलिहाताम् अलिहत लिक्ष्व लिहाथाम् लीढ्वम् म० पु० अलीढाः अलिहाथाम् अलीढ्वम् लेहै लेहावहै लेहामहै उ० पु० अलिहि अलिह्वहि अलिह्महि तुबादि तादि अलीढ, अलिक्षत अलिक्षाताम् अलिक्षन्त प्र० पु. अलीढाः, अलिक्षथाः अलिक्षाथाम् अलीढ्वम्, अलिक्षध्वम् म० पु. अलिक्षि अलिक्षावहि, अलिह्वहि अलिक्षामहि णबादि लिलिहे लिलिहाते लिलिहिरे प्र० पु० लिलिहिषे लिलिहाथे लिलिहिढवे, लिलिहिध्वे म० पु० लिलिहे लिलिहिवहे लिलिहिमहे उ० पु० क्यादादि लिक्षीष्ट लिक्षीयास्ताम् लिक्षीरन् प्र० पु० लेढा लेढारौ लेढारः लिक्षीष्ठाः लिक्षीयास्थाम लिक्षीध्वम् म० पु. लेढासे लेढासाथे लेढाध्वे लिक्षीय लिक्षीवहि लिक्षीमहि उ० पु० लेढाहे लेढास्वहे लेढास्महे स्यत्यादि स्यदादि लेक्ष्यते लेक्ष्येते लेक्ष्यन्ते प्र० पु. अलेक्ष्यत अलेक्ष्येताम् अलेक्ष्यन्त लेक्ष्यसे लेक्ष्येथे लेक्ष्यध्वे म० पु० अलेक्ष्यथाः अलेक्ष्येथाम् अलेक्ष्यध्वम् लेक्ष्ये लेक्ष्यावहे लेक्ष्यामहे उ० पु० अलेक्ष्ये अलेक्ष्यावहि अलेक्ष्यामहि ६३. ओहांक-त्यागे (छोडना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि जहाति जहितः, जहीतः जहति प्र० पु० जह्यात् जह्याताम् जह युः जहासि जहिथः, जहीथः जहिथ, जहीथ म० पु० जह्याः जह्यातम् जह्यात जहामि जहिवः, जहीवः जहिमः, जहीम: उ० पु० जह्याम् जह्याव जह्याम 11111 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सुबादि जहातु, जहितात्, जहीतात् जहिताम्, जहीताम् जहतु जहाहि, जहिहिं, जहीहि जहितम्, जहीतम् हानि जहांव दिबादि अजहात् अजहिताम्, अजहीताम् अजहुः अजहाः अहितम्, अजीतम् अजहाम् अजंहिव, अजहीव चादि अहासीत् अहासिष्टाम् अहासिषुः अहासी: अहासिष्टम् अहासिष्ट अहासषम् अहासिष्व अहासिष्म मयादादि यात् हेयास्ताम् हेयासुः हेयाः हेयास्तम् हेयास्त यासम् हेयास्व यास्म स्यत्यादि हास्यति हास्यतः हास्यन्ति हास्यसि हास्यथः हास्यथ हास्यामि हास्याव: हास्यामः एकवचन द्विवचन तिबादि दधाति धत्तः afe धत्थ: दधामि दध्वः सुबादि दधातु धत्तात् धत्ताम् धेहि, धत्तात् धत्तम् दधानि दधाव बहुवचन जहित, जहीत जहाम दधति धत्थ दध्मः अजहित अजहीत अजहिम, अजहीम प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० हाता म० पु० हातासि उ० पु० हातास्मि बादि प्र० पु० जही जहतुः जहुः म० पु० जहिथ, जहाथ जहथुः जह उ० पु० जहाँ जहिव जहिम प्र० पु० अहास्यत् अहास्यताम् अहास्यन् म० पु० अहास्यः अहास्यतम् उ० पु० अहास्यम् अहास्याव अहास्यत ! अहास्याम ε४. डुधांनक्-धारणे च ( चकाराद् दाने) धारण करना ( उभयपदी) परस्मैपद attract बोध तादि हातारी हातारः हातास्थः हातास्थ हातास्वः हातास्मः स्यदादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० दधतु प्र० पु० अदधात् धत्त म० पु० अदधाः दधाम उ० पु० अदधाम् एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र. पु. दध्यात् दध्याताम् दध्युः म. पु. दध्याः दध्यातम् दध्यात उ. पु. दध्याम् दध्याव दध्याम दिबादि अधत्ताम् अदधुः अधत्तम् अधत्त अदध्व अदध्म Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४१७. वादि अधात अधाताम अधुः प्र० पु० दधौ दधतुः दधुः अधा: अधातम अधात म० पु० दधिथ, दधाथ दधथुः दध अधाम् अधाव अधाम उ० पु० दधौ दधिव दधिम यादादि तादि घेयात् धेयास्ताम् । धेयासुः प्र० पु० धाता धातारौ धातारः धेयाः धेयास्तम् । धेयास्त म० पु० धातासि धातास्थः धातास्थ धेयासम् धेयास्व धेयास्म उ० पु० धातास्मि धातास्वः धातास्मः स्यत्यादि स्यदादि धास्यति धास्यत: धास्यन्ति प्र० पु० अधास्यत् अधास्यताम् अधास्यन् धास्यसि धास्यथः धास्यथ म० पु. अधास्यः अधास्यंतम् अधास्यत धास्यामि धास्यावः धास्यामः उ० पु० अधास्यम् अधास्याव अधास्याम दधे धत्स्व दधै धादि दधिरें: तिबादि यादादि धत्तं दधाते दधते प्र० पु. दधीत दधीयाताम् दधीरन् धत्से दधाथे धध्वे म० पु० दधीथाः दधीयाथाम् दधीध्वम् दध्वहे दध्महे उ० पु० दधीय दधीवहि दधीमहि -तुबादि दिबादि धत्ताम् दधाताम् दधताम् प्र० पु० अधत्त अदधाताम् अदधत दधाथाम् धद्ध्वम् म० पु० अधत्थाः अदधाथाम् अधद्ध्वम् दधावहै दधामहै उ० पु० अदधि अदध्वहि अदध्महि - णबादि अधित अधिषाताम् अधिषत प्र० पु० दधे -- दाते अधिथाः अधिषाथाम् अधिवम् म० पु० दधिषे दधाथे दधिध्वे अधिषि अधिष्वहि अधिष्महि उ० पु० दधे दधिवहे दधिमहे क्यादादि तादि धासीष्ट धासीयास्ताम् धासीरन् प्र० पु० धाता धातारौ धातारः धासीष्ठाः धासीयास्थाम् धासीध्वम् म० पु० धातासे . धातासाथे धाताध्वे धासीय . धासीवहि धासीमहि उ० पु० धाताहे धातास्वहे धातास्महे स्थत्यादि स्यदादि धास्यते धास्येते धास्यन्ते प्र० पु० अधास्यत अधास्येताम् अधास्यन्त "धास्यसे धास्येथे धास्यध्वे म० पु० अधास्यथाः अधास्येथाम् अधास्यध्वम् धास्ये धास्यावहे धास्यामहे उ० पु० अधास्ये अधास्यावहि अधास्यामहि Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ वाक्यरचना बोध ६५. दुभं नक्-पोषणे च (चकाराद् धारणे) पोषण करना (उभयपदी) परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि बिभर्ति बिभृतः बिभ्रति प्र० पु० बिभृयात् बिभृयाताम् बिभृयुः बिर्षि बिभृथः बिभृथ म० पु० बिभृयाः बिभृयातम् बिभृयात बिमि बिभृवः बिभृमः उ० पु० बिभृयाम् बिभृयाव बिभृयाम तुबादि दिबादि बिभर्तु, बिभृतात् बिभृताम् बिभ्रतु प्र० पु० अबिभः अबिभृताम् अबिभरुः बिभृहि, बिभृतात् बिभृतम् बिभृत म० पु० अबिभः अबिभृतम् अबिभृत बिभराणि बिभराव बिभराम उ० पु० अबिभरम् अबिभृव अबिभृम पादि णबादि (१) अभार्षीत् अभाष्र्टाम् अभाएः प्र० पु० बभार बभ्रतुः बभ्रुः अभार्षीः अभाटम् अभाट म० पु० बभर्थ बभ्रथुः बभ्र अभार्षम् अभाव अभार्म उ० पु० बभार, बभर बभूव बभृम णबादि (२) बिभराञ्चकार बिभराञ्चक्रतुः बिभराञ्चक्रुः प्र० पु० बिभराञ्चकर्थ बिभराञ्चक्रथुः बिभराञ्चक्र म० पु० बिभराञ्चकार, बिभराञ्चकर बिभराञ्चकृव बिभराञ्चकृम उ० पु० गबादि (३) बिभराम्बभूव बिभराम्बभूवतुः बिभराम्बभूवुः बिभराम्बभूविथ बिभराम्बभूवथुः बिभराम्बभूव म० पु० बिभराम्बभूव बिभराम्बभूविव बिभराम्बभूविम उ० पु. णबादि (४) बिभरामास बिभरामासतुः बिभरामासुः प्र० पु० बिभरामासिथ बिभरामासथुः बिभरामास म० पु० बिभरामास बिभरामासिव बिभरामासिम उ० पु. क्यादादि तादि भ्रियात् भ्रियास्ताम् भ्रियासुः प्र० पु० भर्ता भर्तारौ भर्तारः भ्रियाः भ्रियास्तम् भ्रियास्त म० पु० भर्तासि भर्तास्थः भर्तास्थ भ्रियासम् भ्रियास्व भ्रियास्म उ० पु० भर्तास्मि भर्तास्वः भर्तास्मः प्र० पु० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्यत्यादि भरिष्यति भरिष्यतः भरिष्यन्ति भरिष्यसि भरिष्यथः भरिष्यथ भरिष्यामि भरिष्यावः भरिष्यामः तिबादि बिभृते बिभूषे बिभ्रे बिभ्राते बिभ्रते बिभ्राथे बिभृध्वे बिभृवहे बिभृमहे अभृत अभृथाः अष अह क्यादादि अभृषाताम् अभृषाथाम् तुबादि दिबादि बिभृताम् बिभ्राताम् बिभ्रताम् प्र० पु० अबिभृत अविभ्राताम् अबिभ्रत बिभृष्व बिभ्राथाम् बिभृध्वम् म० पु० अबिभृथाः अबिभ्राथाम् अबिभृध्वम् बिभरै बिभराव है बिभराम है उ० पु० अबिभ्रि अबिभृवहि अबिभृमहि धादि णबादि एकवचन तिबादि [स्यदादि प्र० पु० अभरिष्यत् अभरिष्यताम् अभरिष्यन् म० पु० अभरिष्यः अभरिष्यतम् अभरिष्यत उ० पु० अभरिष्यम् अभरिष्याव अभरिष्याम : आत्मनेपद यादादि प्र० पु० बिभ्रीत बिभीयाताम् बिभ्रीरन् म० पु० बिश्रीथा: बिश्रीयाथाम् बिभ्रीध्वम् उ० पु० बिभ्रीय बिश्रीवहि श्रीमहि अभूषत प्र० पु० बभ्रे अभृढ्वम् म० पु० बभूषे अभृष्महि उ० पु० बभ्रे तादि भृषीष्ट भृषीयास्ताम् भृषीरन् भृषीष्ठाः भृषीयास्तम् भृषीढ्वम् भृषीय भृषी वहि भृषीमहि स्यत्यादि दीव्यति दीव्यतः दीव्यन्ति दीव्यसि दीव्यथः दीव्यथ दीव्याम दीव्याव: दीव्यामः प्र० पु० भर्ता म० पु० भर्तासे उ० पु० भर्ता स्यदादि ४१६ बनाते बभ्राथे बभृवहे भर्तारौ भर्ता प्र० पु० दीव्येत् म० पु० दीव्येः उ० पु० दीव्येयम् भरिष्यते भरिष्येते भरिष्यन्ते प्र० पु० अभरिष्यत अभरिष्येताम् अभरिष्यन्त भरिष्यसे भरिष्येथे भरिष्यध्ये म० पु० अभरिष्यथाः अभरिष्येथाम् अभरिष्यध्वम् भरिष्ये भरिष्यावहे भरिष्यामहे उ० पु० अभरिष्ये अभरिष्यावहि अभरिष्यामहि ६६. दिवच् - क्रोडाविजिगोषाव्यवहा रद्युतिस्तुतिमोद मदस्वप्न कान्तिगतिषु ( रमण करना, जीतना, व्यवहार करना, जुआ खेलना, स्तुति करना, प्रसन्न होना, मद करना, स्वप्न लेना, दीप्त होना) द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन यादादि बभ्रिरे बभृढ्वे भृमहे भर्तारः भर्ताध्वे भर्तास्वहे भर्तास्महे - बहुवचन दीव्येताम् दीव्येयुः दीव्यतम् दीव्येत दीव्येव दीव्येम Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० वाक्यरचना बोध. तुबादि दिबादि दीव्यतु, दीव्यतात् दीव्यताम् दीव्यन्तु प्र० पु० अदीव्यत् अदीव्यताम् अदीव्यन् दीव्य, दीव्यतात् दीव्यतम् दीव्यत म० पु० अदीव्यः अदीव्यतम् अदीव्यत दीव्यानि दीव्याव दीव्याम उ० पु० अदीव्यम् अदीव्याव अदीव्याम धादि णबादि अदेवीत् अदेविष्टाम् अदेविषुः प्र० पु० दिदेव दिदिवतुः दिदिवुः अदेवीः अदेविष्टम् अदेविष्ट म० पु० दिदेविथ दिदिवथुः दिदिव अदेविषम् अदेविष्व अदेविष्म उ० पु० दिदेव दिदिविव दिदिविम क्यादादि तादि दीव्यात् दीव्यास्ताम् दीव्यासुः प्र० पु० देविता देवितारौ देवितारः दीव्याः दीव्यास्तम् दीव्यास्त म० पु० देवितासि देवितास्थ: देवितास्थ दीव्यासम् दीव्यास्व दीव्यास्म उ० पु० देवितास्मि देवितास्वः देवितास्मः स्यत्यादि स्यदादि देविष्यति देविष्यतः देविष्यन्ति प्र० पु० अदेविष्यत् अदेविष्यताम् अदेविष्यन् देविष्यसि देविष्यथः देविष्यथ म० पु० अदेविष्यः अदेविष्यतम् अदेविष्यत देविप्यामि देविष्यावः देविष्यामः उ० पु० अदेविष्यम् अदेविष्याव अदेविष्याम ६७. क्रुधंच-कोपे (क्रोध करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि ___ क्रुध्यतः क्रुध्यन्ति प्र० पु० क्रुध्येत् क्रुध्येताम् क्रुध्येयुः क्रुध्यसि क्रुध्यथः क्रुध्यथ म० पु० क्रुध्येः क्रुध्येतम् क्रुध्येत क्रुध्यामि क्रुध्यावः क्रुध्यामः उ० पु० क्रुध्येयम् क्रुध्येव क्रुध्येम तुबादि क्रुध्यतु, क्रुध्यतात् क्रुध्यताम् क्रुध्यन्तु प्र० पु० अक्रुध्यत् अक्रुध्यताम् अक्रुध्यन् क्रुध्य, क्रुध्यतात् क्रुध्यतम् क्रुध्यत म० पु० अक्रुध्यः अक्रुध्यतम् अक्रुध्यत क्रुध्यानि क्रुध्याव क्रुध्याम उ० पु० अक्रुध्यम् अक्रुध्याव अक्रुध्याम धादि अक्रुधत् अक्रुधताम् अक्रुधन् प्र० पु० चुक्रोध चुक्रुधतुः चुक्रुधुः अक्रुधः अक्रुधतम् अक्रुधत म० पु० चुक्रोधिथ चुक्रुधथुः चुक्रुध अक्रुधम् अक्रुधाव अक्रुधाम उ० पु० चुक्रोध चुक्रुधिव चुक्रुधिम.. क्यादादि तावि क्रुध्यात् क्रुध्यास्ताम् क्रुध्यासुः प्र० पु० क्रोद्धा क्रोद्धारौ क्रोद्धारः क्रुध्या: क्रुध्यास्तम् क्रुध्यास्त म० पु. क्रोधासि क्रोद्धास्थः क्रोद्धास्थ क्रुध्यासम् क्रुध्यास्व क्रुध्यास्म उ० पु० क्रोद्धास्मि क्रोद्धास्वः क्रोद्धास्मः दिबादि णबादि Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४२१ स्यत्यादि स्यदादि क्रोत्स्यति क्रोत्स्यतः क्रोत्स्यन्ति प्र० पु० अक्रोत्स्यत् अक्रोत्स्यताम् अक्रोत्स्यन् क्रोत्स्यसि क्रोत्स्यथः क्रोत्स्यथ म० पु० अक्रोत्स्यः अक्रोत्स्यतम् अक्रोत्स्यत क्रोत्स्यामि क्रोत्स्यावः क्रोत्स्यामः: उ० पु० अक्रोत्स्यम् अक्रोत्स्याव अक्रोत्स्याम ___E८. हृषच्-तुष्टौ (प्रसन्न होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि हृष्यति हृष्यतः हृष्यन्ति प्र० पु० हृष्येत् हृष्येताम् हृष्येयुः हृष्यसि हृष्यथः हृष्यथ म० पु० हृष्येः हृष्येतम् हृष्येत हृष्यामि हृष्यावः हृष्याम: उ० पु० हृष्येयम् हृष्येव हृष्येम तुबादि दिबादि हृष्यतु, हृष्यतात् हृष्यताम् हृष्यन्तु प्र० पु० अहृष्यत् अहृष्यताम् अहृष्यन् हृष्य, हृष्यतात् हृष्यतम् हृष्यत म० पु० अहृष्यः अहृष्यतम् अहृष्यत हृष्याणि हृष्याव हृष्याम उ० पु० अहृष्यम् अहृष्याव अहृष्याम द्यादि __णबादि अहृषत् अहृषताम् अहृषन् प्र० पु० जहर्ष जहृषतुः । जहषुः अहृषः अहृषतम् अहृषत म० पु० जहर्षिथ जहषथुः जहष अहृषम् अहृषाव अहृषाम उ० पु० जहर्ष जहृषिव जहृषिम क्यादादि तादि हृष्यात् हृष्यास्ताम् हृष्यासुः प्र० पु० हर्षिता हर्षितारौ हर्षितारः हृष्याः हृष्यास्तम् हृष्यास्त म० पु० हर्षितासि हर्षितास्थः हर्षितास्थ हृष्यासम् हृष्यास्व हृष्यास्म उ० पु० हर्षितास्मि हर्षितास्वः हर्षितास्मः स्यत्यादि स्यदादि हषिष्यति हर्षिष्यतः हर्षिष्यन्ति प्र० पु० अहर्षिष्यत् अहर्षिष्यताम् अहर्षिष्यन् हर्षिष्यसि हर्षिष्यथः हर्षिष्यथ म० पु० अहर्षिष्यः अहषिष्यतम् अहर्षिष्यत हर्षिष्यामि हर्षिष्यावः हर्षिष्यामः उ० पु० अहषिष्यम् अहर्षिष्याव अहर्षिष्याम __EE. जनीच्-प्रादुर्भावे (उत्पन्न होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि जायते जायेते जायन्ते प्र० पु० जायेत जायेयाताम् जायेरन् जायसे जायेथे जायध्वे म० पु० जायेथाः जायेयाथाम् जायेध्वम् जाये जायावहे जायामहे उ० पु० जायेय जायेवहि Anima जायेमहि Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ वाक्यरचना बोध तुबादि दिबादि जायताम् जायेताम् जायेरन् प्र० पु० अजायत अजायेताम् अजायन्त जायस्व जायेथाम् जायेध्वम् म० पु० अजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम् जाये जायावहै जायामहै उ० पु० अजाये अजायावहि अजायामहि धादि अजनिष्ट अजनिषाताम् अजनिषत प्र० पु० अजनिष्ठाः अजनिषाथाम् अजनिढ्वम्, अजनिध्वम् म० पु० अजनिषि अजनिष्वहि अजनिष्महि उ० पु० णबादि क्यादादि जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे प्र० पु० जनिषीष्ट जनिषीयास्ताम् जनिषीरन् जज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे म० पु० जनिषीष्ठाः जनिषीयास्थाम् जनिषीध्वम् जज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे उ० पु० जनिषीय जनिषीवहि जनिषीमहि तादि स्यत्यादि जनिता जनितारौ जनितारः प्र० पु० जनिष्यते जनिष्येते जनिष्यन्ते जनितासे जनितासाथे जनिताध्वे म० पु० जनिष्यसे जनिष्येथे जनिष्यध्वे जनिताहे जनितास्वहे जनितास्महे उ० पु० जनिष्ये जनिष्यावहे जनिष्यामहे स्यदादि अजनिष्यत अजनिष्ये अजनिष्यन्त अजनिष्यथाः अजनिष्येथाम् अजनिष्यध्वम् म० पु० अजनिष्ये अजनिष्यावहि अजनिष्यामहि उ० पु० १००. खिदंच्–दैन्ये (खिन्न होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि खिद्यते खिद्यते खिद्यन्ते प्र० पु० खिद्येत खिद्ययाताम् खिोरन् खिद्यसे खियेथे खिद्यध्वे म० पु० खिद्येथाः खिद्येयाथाम् खिद्यध्वम् खिये खिद्यावहे खिद्यामहे उ० पु० खिद्येय खिद्येवहि खिद्यमहि दिबादि खिद्यताम् खिद्येताम् खिद्यन्ताम् प्र० पु० अखिद्यत अखिद्यताम् अखिद्यन्त खिद्यस्व खिद्येथाम् खिद्यध्वम् म० पु० अखिद्यथा: अखियेथाम् अखिद्यध्वम् खिद्य खिद्यावहै खिद्यामहै उ० पु० अखिये अखिद्यावहि अखिद्यामहि तुबादि Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४२३ धादि णबादि अखित्त अखित्साताम् अखित्सत प्र० पु० चिखिदे चिखिदाते चिखिदिरे अखित्थाः अखित्साथाम् अखिद्ध्वम् म० पु० चिखिदिषे चिखिदाथे चिखिदिध्वे अखित्सि अखित्स्वहि अखित्स्महि उ० पु० चिखिदे चिखिदिवहे चिखिदिमहे क्यादादि तादि खित्सीष्ट खित्सीयास्ताम् खित्सीरन् प्र० पु० खेत्ता खेत्तारौ खेत्तारः खित्सीष्ठाः खित्सीयास्थाम् खित्सीध्वम् म० पु० खेत्तासे खेत्तासाथे खेत्ताध्वे खित्सीय खित्सीवहि खित्सीमहि उ० पु० खेत्ताहे खेत्तास्वहे खेत्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि खेत्स्यते खेत्स्येते खेत्स्यन्ते प्र० पु० अखेत्स्यत अखेत्स्येताम् अखेत्स्यन्त खेत्स्यसे खेत्स्येथे खेत्स्यध्वे म० पु० अखेत्स्यथाः अखेत्स्येथाम् अखेत्स्यध्वम् खेत्स्ये खेत्स्यावहे खेत्स्यामहे उ० पु० अखेत्स्ये अखेत्स्यावहि अखेत्स्यामहि १०१. युधंच्-सम्प्रहारे (युद्ध करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि युध्यते युध्येते युध्यन्ते प्र० पु० युध्येत युध्येयाताम् युध्येरन् युध्यसे युध्येथे युध्यध्वे म० पु० युध्येथाः युध्येयाथाम् युध्येध्वम् युध्ये युध्यावहे युध्यामहे उ० पु० युध्येय युध्येवहि युध्येमहि । दिबादि युध्यताम् युध्येताम् युध्यन्ताम् प्र० पु० अयुध्यत अयुध्येताम् अयुध्यन्त युध्यस्व युध्येथाम् युध्यध्वम् म० पु० अयुध्यथाः अयुध्येथाम् अयुध्यध्वम् युध्य युध्यावहै युध्यामहै उ० पु० अयुध्ये अयुध्यावहि अयुध्यामहि धादि णबादि अयुद्ध अयुत्साताम् अयुत्सत प्र० पु० युयुधे युयुधाते युयुधिरे अयुद्धाः अयुत्साथाम् अयुद्ध्वम् म० पु० युयुधिषे युयुधाथे युयुधिध्वे अयुत्सि अयुत्स्वहि अयुत्स्महि उ० पु० युयुधे युयुधिवहे युयुधिमहे क्यादादि तादि युत्सीष्ट युत्सीयास्ताम् युत्सीरन् प्र० पु० योद्धा योद्धारौ योद्धारः युत्सीष्ठाः युत्सीयाथाम् युत्सीध्वम् म० पु० योद्धासे योद्धासाथे योद्धाध्वे युत्सीय युत्सीवहि युत्सीमहि उ० पु० योद्धाहे योद्धास्वहे योद्धास्महे स्यत्यादि स्यदादि योत्स्यते योत्स्येते योत्स्यन्ते प्र० पु० अयोत्स्यत अयोत्स्येताम् अयोत्स्यन्त योत्स्यसे योत्स्येथे योत्स्यध्वे म० पु० अयोत्स्यथा: अयोत्स्येथाम् अयोत्स्यध्वम् योत्स्ये योत्स्यावहे योत्स्यामहे उ० पु० अयोत्स्ये अयोत्स्यावहि अयोत्स्यामहि तुबादि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ वाक्यरचना बोध १०२. क्लिशच्–उपतापे (पीडा देना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि क्लिश्यते क्लिश्येते क्लिश्यन्ते प्र० पु० क्लिश्येत क्लिश्येयाताम क्लिश्येरन् क्लिश्यसे क्लिश्येथे क्लिश्यध्वे म० पु० क्लिश्येथाः क्लिश्येयाथाम् क्लिश्येध्वम् क्लिश्ये क्लिश्यावहे क्लिश्यामहे उ० पु० क्लिश्येय क्लिश्येवहि क्लिश्येमहि तुबादि उ० पु० क्लिश्यताम् क्लिश्येताम् क्लिश्यन्ताम् । प्र० पु० क्लिश्यस्व क्लिश्येथाम् क्लिश्यध्वम् म० पु० क्लिश्यै क्लिश्य क्लिश्यामहै दिबादि अक्लिश्यत अक्लिश्यताम् अक्लिश्यन्त प्र० पु० अक्लिश्यथाः अक्लिश्येथाम् अक्लिश्यध्वम् म० पु० अक्लिश्ये अक्लिश्यावहि अक्लिश्यामहि उ० पु० धादि अक्लेशिष्ट अक्लेशिषाताम् अक्लेशिषत प्र० पु० अक्लेशिष्ठाः अक्लेशिषाथाम् अक्लेशिवम्, अक्लेशिध्वम् म० पु० अक्लेशिषि अक्लेशिष्वहि अक्लेशिष्महि उ० पु० णबादि चिक्लिशे चिक्लिशाते चिक्लिशिरे प्र० पु० चिक्लिशिषे चिक्लिशाथे चिक्लिशिध्वे म० पू० चिक्लिशे चिक्लिशिवहे चिक्लिशिमहे उ० पु० क्यादादि क्लेशिषीष्ट क्लेशिषीयास्ताम् क्लेशिषीरन् प्र० पु० क्ले शिषीष्ठाः क्लेशिषीयास्थाम् क्लेशिषीध्वम् म० पु० क्लेशिषीय क्लेशिषीवहि क्लेशिषीमहि उ० पु० तादि स्यत्यादि क्लेशिता क्लेशितारौ क्लेशितारः प्र० पु० क्लेशिष्यते क्ले शिष्येते क्ले शिष्यन्ते क्लेशितासे क्लेशितासाथे क्लेशिताध्वे म० पु. क्लेशिष्यसे क्ले शिष्येथे क्लेशिष्यध्वे क्लेशिताहे क्लेशितास्वहे क्लेशितास्महे उ० पु० क्लेशिष्ये क्लेशिष्यावहे क्लेशिष्यामहे स्यदादि अक्लेशिष्यत अक्ले शिष्येताम् अक्लेशिष्यन्त प्र० पु० अक्लेशिष्यथाः अक्लेशिष्येथाम् अक्लेशिष्यध्वम् म० पु० अक्लेशिष्ये अक्लेशिष्यावहि अक्लेशिष्यामहि उ० पु० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४२५ १०३. चिन्त-चयने (उभयपदी) चयन करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि चिनोति चिनुतः . चिन्वन्ति प्र० पु० चिनुयात् चिनुयाताम् चिनुयुः चिनोषि चिनुथः चिनुथ म० पु० चिनुयाः चिनुयातम् चिनुयात चिनोमि चिनुवः चिन्वः, चिनुमः, चिन्म: उ० पु० चिनुयाम् चिनुयाव चिनुयाम तुबादि चिनोतु, चिनुतात् चिनुताम् चिन्वन्तु प्र० पु० चिनु, चिनुतात् चिनुतम् चिनुत म० पु. चिनवानि चिनवाव चिनवाम उ० पु० दिबादि द्यादि अचिनोत् अचिनुताम् अचिन्वन् प्र० पु० अचैषीत् अचेष्टाम् अचषुः अचिनोः अचिनुतम् अचिनुत म० पु० अचैषी: अचैष्टम् अचेष्ट अचिनवम् अचिनुव, अचिन्व अचिनुम, अचिन्म उ० पु० अचैषम् अचैष्व अचष्म णबादि (१) णबादि (२) चिचाय चिच्यतुः चिच्युः प्र० पु० चिकाय चिक्यतुः चिक्युः चिचयिथ, चिचेथ चिच्यथुः चिच्य म० पु० चिकयिथ, चिकेथ चिक्यथुः चिक्य चिचाय, चिचय चिच्यिव चिच्यिम उ० पु० चिकाय, चिकय चिक्यिव चिक्यिम क्यादादि चीयात् चीयास्ताम् चीयासुः प्र० पु० चेता चेतारौ चेतारः चीयाः चीयास्तम् चीयास्त म० पु० चेतासि चेतास्थः चेतास्थ चीयासम् चीयास्व चीयास्म उ० पु० चेतास्मि चेतास्वः चेतास्मः स्यत्यादि स्यदादि चेष्यति चेष्यतः चेष्यन्ति प्र० पु० अचेष्यत् अचेष्यताम् अचेष्यन् चेष्यसि चेष्यथः चेष्यथ म० पु० अचेष्यः अचेष्यतम् अचेष्यत चेष्यामि चेष्याव: चेष्यामः उ० पु० अचेष्यम् अचेष्याव अचेष्याम आत्मनेपद तिबादि चिनुते चिन्वाते .. चिन्वते प्र० पु० चिनुषे चिन्वाथे चिनुध्वे ... म० पु० चिन्वे चिमुवहे, चिन्वहे चिनुमहे, चिन्महे उ० पु० तादि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ वाक्यरचना बोध तुबादि यादादि चिन्वीत चिन्वीयाताम् चिन्वीरन् प्र० पु० चिनुताम् चिन्वाताम् चिन्वताम् चिन्वीथाः चिन्वीयाथाम् चिन्वीध्वम् म० पु० चिनुष्व चिन्वाथाम् चिनुध्वम् चिन्वीय चिन्वीवहि चिन्मीमहि उ० पु० चिनवै चिनवावहै चिनवामहै दिवादि अचिनुत अचिन्वाताम् अचिन्वत प्र० पु० अचिनुथाः अचिन्वाथाम् अचिनुध्वम् म० पु० अचिन्वि अचिनुवहि, अचिन्वहि अचिनुमहि, अचिन्महि उ० पु० द्यादि णबादि (१) अचेष्ट अचेषाताम् अचेषत प्र० पु० चिच्ये चिच्याते चिच्यिरे अचेष्ठाः अचेषाथाम् अचेढ्वम् म० पु० चिच्यिषे चिच्याथे चिच्यिध्वे, चिच्यिढ्वे अचेषि अचेष्वहि अचेष्म हि उ० पु० चिच्ये चिच्यिवहे चिच्यिमहे णबादि (२) क्यादादि चिक्ये चिक्याते चिपियरे प्र० पु० चेषीष्ट चेषीयास्ताम् चेषीरन् चिक्यिषे चिक्यिाथे चिक्यिध्वे, चिक्यिढ्वे म० पु० चेषीष्ठाः चेषीयास्थाम् चेषीढ्वम् चिक्ये चिक्यिवहे चिक्यिमहे उ० पु० चेषीय चेषीवहि चेषीमहि तादि स्यत्यादि चेता चेतारौ चेतारः प्र० पु० चेष्यते चेष्येते चेष्यन्ते चेतासे चेतासाथे चेताध्वे म० पु० चेष्यसे चेष्येथे चेष्यध्वे चेताहे चेतास्वहे चेतास्महे उ० पु० चेष्ये चेष्यावहे चेष्यामहे स्यदादि अचेष्यत अचेष्येताम् अचेष्यन्त प्र० पु० अचेष्यथाः अचेष्येथाम् अचेष्यध्वम् म० पु० अचेष्ये अचेष्यावहि अचेष्यामहि उ० पु० १०४. वृन्त्-वरणे (उभयपदी) वरण करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि वृणोति वृणुतः वृण्वन्ति प्र० पु० वृणुयात् वृणुयाताम् वृणुयुः वृणोषि वृणुथः वृणुथ म० पु० वृणुयाः वृणुयातम् वृणुयात वृणोमि वृणुवः, वृण्वः वृणुमः, वृण्मः उ० पु० वृणुयाम् वृणुयाव वृणुयाम Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तुबादि वृणोतु, वृणुतात् वृणु, वृणुतात् वृणवानि दिबादि अवृणोत् अवृणोः वृणुताम् वृणुतम् वृणवाव अवृणुताम् अवृणुतम् अवृणवम् अवृणुव, अवृण्व चादि अवारीत् अवारिष्टाम् अवारिषुः अवारीः अवारिषम् अवारिष्व क्यादादि अवारिष्टम् अवारिष्ट अवारिष्म त्रियात् त्रियास्ताम् त्रियासुः त्रिया: व्रियास्तम् त्रियास्त व्रियासम् त्रियास्व त्रियास्म तादि (२) अवरीष्यत् अवरीष्यः अवष्यम् तिबादि वृणुते वृण्वते वृणुषे वृण्वा वृण्वन्तु वृणुत वृणवाम अवष्यताम् अवरीष्यतम् ratष्याव अवृण्वन् अवृणुत प्र० पु० ववार वव्रतुः म० पु० ववरिथ वव्रथुः उ० पु० ववार, ववर ववृव बवृम तादि (१) प्र० पु० वरिता वरितारी वरितारः वरितास्थः वरितास्थ म० पु० वरितासि उ० पु० वरितास्मि वरितास्वः वरितास्मः स्यत्यादि (१) वरीता वतारौ वरीतारः प्र० पु० वरिष्यति वरिष्यतः वरिष्यन्ति वरीतासि वरीतास्थः वरीतास्थ म० पु० वरिष्यसि वरिष्यथः वरिष्यथ वतास्मि वरीतास्वः वरीतास्मः उ० पु० वरिष्यामि वरिष्यावः वरिष्यामः स्यत्यादि (२) वरीष्यति वरीष्यतः वरीष्यन्ति प्र० पु० अवरिष्यत् वरीष्यसि वरीष्यथः वरीष्यथ म० पुं० अवरिष्यः वरीष्यामि वरीष्यावः वरीष्यामः उ० पु० अवरिष्यम् स्यदादि (२) वृण्वते वृणुध्वे प्र० पु० म० पु० उ० पु० अवृणुम, अवृण्म णबादि अवरीष्यन् अवरीष्यत अवष्याम आत्मनेपद प्र० पु० म० पु० उ० पु० दादि (१) ४२७ वव्रुः वव्र प्र० पु० म० पु० उ० पु० अवरिष्यताम् अवरिष्यन् अवरिष्यतम् अवरिष्यत अवरिष्याव अवरिष्याम यादादि प्र० पु० वृण्वीत वृण्वीयाताम् वृण्वीरन् म० पु० वृण्वीथाः वृण्वीयाथाम् वृण्वीध्वम् वृण्वे वृणुवहे, वृण्वहे वृणुमहे, वृण्महे उ० पु० वृण्वीय वृण्वीवहि वृण्वी महि Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ तुबादि वृणुताम् वृणुष्व वृणवै दिबादि अवृणुत अवृणुथाः अवृण्व द्यादि (१) वृण्वाताम् वृण्वाथाम् वृ वृण्वताम् वृणुध्वम् वृणवाम है अवृण्वाताम् अवृण्वाथाम् अवृणुवहि, अवृण्वहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० अवृण्वत म० पु० अवृणुध्वम् अवृणुमहि, अवृण्महि उ० पु० द्यादि (२) अवृत अवृषाताम् अवृषत प्र. पु. अवरिष्ट अवरिषाताम् अवरिषत अवृथाः अवृषाथाम् अवृवम् म. पु. अवरिष्ठाः अवरिषाथाम् अवरिवम्, अवरिध्व अवृषि अवृष्वहि अवृष्महि उ. पु. अवरिषि अवरिष्वहि अवरिष्महि चादि (३) अवरीष्ट अवरीषाताम् अवरीषत अवरीष्ठाः अवरीषाथाम् अवरीढ्वम्, अवरीध्वम् अवरीषि अवरीष्वहि पादादि (१) अवरीष्महि वरिषीष्ट वरिषीयास्ताम् वरिषीष्ठाः वरिषीयास्थाम् वरिषीय वरिषीवहि वाक्यरचना बोध णबादि प्र० पु० वव्रे वव्राते वत्रिरे म० पु० ववृषे वव्राथे ववृढ्वे उ० पु० वव्रे ववृवहे ववृमहे वरिषीरन् प्र० पु० वरिषीढ्वम्, वरिषीध्वम् म० पु० वरिषीमहि उ० पु० पादादि (२) तादि (१) वृषीष्ट वृषीयास्ताम् वृषीरन् प्र० पु० वरिता वरितारौ वृषीष्ठाः वृषीयास्थाम् वृषीध्वम् वृषीय वृषीवहि वृषीमहि म० पु० वरिता वासा उ० पु० वरिताहे वरितास्वहे तादि (२) वरीता वरीतारौ वरीतारः प्र० पु० वरिष्यते वरीतासे वरीतासाथे वरीताध्वे म० पु० वरिष्यसे वरीता वरीतास्वहे वरीतास्महे उ० पु० वरिष्ये त्यादि (१) वरितारः वरिताध्वे वरितास्महे वरिष्येते वरिष्यन्ते वरिष्येथे वरिष्यध्वे वरिष्यावहे वरिष्यामहे स्यदादि (१) अवरिष्येताम् अवरिष्यन्त स्यत्यादि (२) वरीष्यते वरीष्येते वरीष्यन्ते प्र० पु० अवरिष्यत वरीष्यसे वरीष्येथे वरीष्यध्वे म० पु० अवरिष्यथाः अवरिष्येथाम् अवरिष्यध्वम् वरीष्ये वरीष्यावहे वरीष्यामहे उ० पु० अवरिष्ये अवरिष्यावहि अवरिष्यामहि Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४२६ स्यदादि (२) अवरीष्यत अवरीष्येताम् अवरीष्यन्त प्र० पु० अवरीष्यथाः अवरीष्येथाम् अवरीष्यध्वम् म० पु० अवरीष्ये अवरीष्यावहि अवरीष्यामहि उ० पु० १०५. शक्लुत्-शक्तौ (समर्थ होना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि शक्नोति शक्नुतः शक्नुवन्ति प्र० पु० शक्नुयात् शक्नुयाताम् शक्नुयुः शक्नोषि शक्नुथः शक्नुथ म० पु० शक्नुयाः शक्नुयातम् शक्नुयात शक्नोमि शक्नुवः शक्नुमः उ० पु० शक्नुयाम् शक्नुयाव शक्नुयाम तुबादि दिबादि शक्नोतु, शक्नुतात् शक्नुताम् शक्नुवन्तु प्र० पु० अशक्नोत् अशक्नुताम् अशक्नुवन् शक्नुहि, शक्नुतात् शक्नुतम् शक्नुत म० पु० अशक्नोः अशक्नुतम् अशक्नुत शक्नवानि शक्नवाव शक्नवाम उ० पु० अशक्नवम् अशक्नुव अशक्नुम धादि णबादि अशकत् अशकताम् अशकन् प्र० पु. शशाक शेकतुः शेकुः अशकः अशकतम् अशकत म० पु० शेकिथ, शशक्थ शेकथुः शेक अशकम् अशकाव अशकाम उ० पु० शशाक, शशक शेकिव शेकिम क्यादादि तादि शक्यात् शक्यास्ताम् शक्यासुः प्र० पु० शक्ता शक्तारौ शक्तारः शक्याः शक्यास्तम् शक्यास्त म० पु० शक्तासि शक्तास्थः शक्तास्थ शक्यासम् शक्यास्व शक्यास्म उ० पु० शक्तास्मि शक्तास्वः शक्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि शक्ष्यति शक्ष्यतः शक्ष्यन्ति प्र० पु० अशक्ष्यत् अशक्ष्यताम् अशक्ष्यन् शक्ष्यसि शक्ष्यथः शक्ष्यथ म० पु० अशक्ष्यः अशक्ष्यतम् अशक्ष्यत शक्ष्यामि शक्ष्यावः शक्ष्यामः उ० पु० अशक्ष्यम् अशक्ष्याव अशक्ष्याम १०६. आप्लुत्-व्याप्तौ (पाना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि आप्नोति आप्नुतः आप्नुवन्ति प्र० पु० आप्नुयात् आप्नुयाताम् आप्नुयुः आप्नोषि आप्नुथः आप्नुथ म० पु० आप्नुयाः आप्नुयातम् आप्नुयात आप्नोमि आप्नुवः आप्नुमः उ० पु० आप्नुयाम् आप्नुयाव आप्नुयाम Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सुबादि आप्नोतु, आप्नुतात् आप्नुताम् आप्नुवन्तु आप्नुहि आप्नुतात् आप्नुतम् आप्नुत आप्नवानि आप्नवाव आप्नवाम खादि आपत् आपताम् आपन् आपः आपतम् आपत आपाव आपाम आपम् क्यादादि एकवचन द्विवचन तिबादि दिबादि प्र० पु० आप्नोत् म० पु० आप्नो उ० पु० आप्नवम् बादि मुञ्चतु, मुञ्चतात् मुञ्चताम् मुञ्च मुञ्चतात् मुञ्चतम् मुञ्चानि मुञ्चाव धादि प्र० पु० आप म० पु० आपिथ उ० पु० आप अमुचत् अमुचताम् अमुचन् अमुचः अमुचतम् अमुचत अमुचम् अमुचाव अमुचाम तादि प्र० पु० आप्ता आप्तारौ आप्तारः आप्यात् आप्यास्ताम् आप्यासुः आप्या: आप्यास्तम् आप्यास्त म० पु० आतास आप्तास्थः आप्तास्थ आप्यासम् आप्यास्व आप्यास्म उ० पु० आप्तास्मि आप्तास्वः आप्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि आप्स्यताम् आप्स्यन् आप्स्यति आप्स्यतः आप्स्यन्ति प्र० पु० आप्स्यत् आप्स्यसि आप्स्यथः आप्स्यथ म० पु० आप्स्यः आप्स्यामि आप्स्यावः आप्स्यामः उ० पु० आप्स्यम् आप्स्याव आप्स्याम आप्स्यतम् आप्स्यत वाक्यरचना बोध १०७. मुच्लू ज् - मोक्षणे (उभयपदी) छोडना परस्मैपद आप्नुताम् आप्नुवन् आप्नुतम् आप्नुत आप्नुव आ आपतुः आपुः आपथुः आप आपिव आपिम बहुवचन मुञ्चति मुञ्चतः मुञ्चन्ति प्र० पु० मुञ्चेत् मुञ्चेताम् मुञ्चेयुः मुञ्चसि मुञ्चथः मुञ्चथ म० पु० मुञ्चेः मुञ्चामि मुञ्चाव: मुञ्चाम: उ० पु० मुञ्चेयम् सुबादि मुञ्चतम् मुञ्चेत मुञ्चेव मुञ्चेम दिनादि एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० मुमोच म० पु० मुमोचिथ उ० पु० मुमोच मुञ्चन्तु प्र० पु० अमुञ्चत् अमुञ्चताम् अमुञ्चन् मुञ्चत म० पु० अमुञ्चः अमुञ्चतम् अमुञ्चत मुञ्चाम उ० पु० अमुञ्चम् अमुञ्चाव अमुञ्चाम णबादि मुमुचतुः मुमुचुः मुमुचथुः मुमुच मुमुचिव मुमुचिम Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४३१ यादादि तादि मुच्यात् मुच्यास्ताम् मुच्यासुः प्र० पु० मोक्ता मोक्तारौ मोक्तारः मुच्याः मुच्यास्तम् मुच्यास्त म० पु० मोक्तासि मोक्तास्थः मोक्तास्थ मुच्यासम् मुच्यास्व मुच्यास्म उ० पु० मोक्तास्मि मोक्तास्वः मोक्तास्मः स्यत्यादि स्यदादि मोक्ष्यति मोक्ष्यतः मोक्ष्यन्ति प्र० पु० अमोक्ष्यत् अमोक्ष्यताम् अमोक्ष्यन् मोक्ष्यसि मोक्ष्यथः मोक्ष्यथ म० पु० अमोक्ष्यः अमोक्ष्यतम् अमोक्ष्यत मोक्ष्यामि मोक्ष्यावः मोक्ष्यामः उ० पु० अमोक्ष्यम् अमोक्ष्याव अमोक्ष्याम आत्मनेपद मुञ्चे III III णबादि तिबादि यादादि मुञ्चते मुञ्चेते मुञ्चन्ते प्र० पु० मुञ्चेत मुञ्चेयाताम् मुञ्चेरन् मुञ्चसे मुञ्चेथे मुञ्चध्वे म० पु० मुञ्चेथाः मुञ्चेयाथाम् मुञ्चेध्वम् मुञ्चावहे मुञ्चामहे उ० पु० मुञ्चेय मुञ्चेवहि मुञ्चेमहि तुबादि दिबादि मुञ्चताम् मुञ्चेताम् मुञ्चन्ताम् प्र० पु० अमुञ्चत अमुञ्चेताम् अमुञ्चन्त मुञ्चस्व मुञ्चेथाम् मुञ्चध्वम् म० पु० अमुञ्चथाः अमुञ्चेथाम् अमुञ्चध्वम् मुञ्चै मुञ्चावहै मुञ्चामहै उ० पु० अमुञ्चे अमुञ्चावहि अमुञ्चामहि द्यादि अमुक्त अमुक्षाताम् अमुक्षत प्र० पु० मुमुचे मुमुचाते मुमुचिरे अमुक्थाः अमुक्षाथाम् अमुग्वम्, अमुग्ध्वम् म० पु० मुमुचिषे मुमुचाथे मुमुचिध्वे अमुक्षि अमुक्ष्वहि अमुक्ष्महि उ० पु० मुमुचे मुमुचिवहे मुमुचिमहे क्यादादि तादि मुक्षीष्ट मुक्षीयास्ताम् मुक्षीरन् प्र० पु० मोक्ता मोक्तारौ मोक्तारः मुक्षीष्ठाः मुक्षीयास्थाम् मुक्षीध्वम् म० पु० मोक्तासे मोक्तासाथे मोक्ताध्वे मुक्षीय मुक्षीवहि मुक्षीवहि उ० पु० मोक्ताहे मोक्तास्वहे मोक्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि मोक्ष्यते मोक्ष्यते मोक्ष्यन्ते प्र० पु० अमोक्ष्यत अमोक्ष्येताम् अमोक्ष्यन्त मोक्ष्यसे मोक्ष्येथे मोक्ष्यध्वे म० पु० अमोक्ष्यथाः अमोक्ष्येथाम् अमोक्ष्यध्वम् मोक्ष्ये मोक्ष्यावहे मोक्ष्यामहे उ० पु० अमोक्ष्ये अमोक्ष्यावहि अमोक्ष्यामहि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ एकवचन द्विवचन तिबादि इच्छति इच्छतः इच्छसि इच्छथः इच्छामि इच्छावः बादि इच्छतु, इच्छ्तात् इच्छताम् इच्छ, इच्छतात् इच्छतम् इच्छानि इच्छाव धादि ऐषीत् ऐषी: १०८. इषज् - इच्छायाम् (इच्छा करना) बहुवचन द्विवचन ऐषिष्टाम् ऐषिष्टम् ऐषिषम् ऐषिष्व क्यादादि एकवचन द्विवचन तिबादि यादादि इच्छन्ति प्र० पु० इच्छेत् इच्छथ म० पु० इच्छेः इच्छामः ऐषिषुः ऐषिष्ट एकवचन ऐषिष्म उ० पु० इच्छेयम् दिबादि लिखति लिखतः लिखन्ति लिखसि लिखथः लिखथ लिखामि लिखाव: लिखामः: तुबादि लिखतु, लिखतात् लिखताम् लिख, लिखतात् लिखतम् लिखानि लिखाव इच्छन्तु प्र० पु० ऐच्छत् ऐच्छताम् ऐच्छन् म० पु० ऐच्छः ऐच्छतम् ऐच्छत इच्छाम उ० पु० ऐच्छम् ऐच्छाव ऐच्छाम इच्छत बादि प्र० पु० इयेष म० पु० इयेषिथ उ० पु० इयेष तादि बहुवचन इच्छेताम् इच्छेयुः इच्छेतम् इच्छेत इच्छेव इच्छेम वाक्यरचना बोध ईषतुः ईषथुः ईषिव प्र० पु० एष्टा एष्टारौ म० पु० एष्टासि उ० पु० एष्टास्मि एष्टास्वः स्यदादि १०६ . लिखन् – अक्षरविन्यासे ( लिखना ) बहुवचन एकवचन द्विवचन यादादि प्र० पु० लिखेत् लिखेताम् म० पु० लिखे लिखेतम् उ० पु० लिखेयम् लिखेव दिबादि इष्यात् इष्यास्ताम् इष्यासुः इष्याः इष्यास्तम् इष्यास्त इष्यासम् इष्यास्व इष्यास्म स्यत्यादि एषिष्यति एषिष्यतः एषिष्यन्ति प्र० पु० ऐषिष्यत् ऐषिष्यताम् ऐषिष्यन् एषिष्यसि एषिष्यथ: एषिष्यथ म० पु० ऐषिष्य : ऐषिष्यतम् ऐषिष्यत एषिष्यामि एषिष्यावः एषिष्यामः उ० पु० ऐषिष्यम् ऐषिष्याव ऐषिष्याम षुः ईष ईषिम एष्टारः एष्टास्थः एष्टास्थ एष्टास्मः बहुवचन लिखेयुः लिखेत लिखेम लिखन्तु प्र० पु० अलिखत् अलिखताम् अलिखन् लिखत म० पु० अलिख: अलिखतम् अलिखत लिखाम उ० पु० अलिखम् अलिखाव अलिखाम Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४३३ तादि धादि णबादि अलेखीत् अलेखिष्टाम् अलेखिषुः प्र० पु० लिलेख लिलिखतुः लिलिखुः अलेखी: अलेखिष्टम् अलेखिष्ट म० पु० लिलेखिथ लिलिखथुः लिलिख अलेखिषम् अलेखिष्व अलेखिष्म उ० पु० लिलेख लिलिखिव लिलिखिम क्यादादि लिख्यात् लिख्यास्ताम् लिख्यासुः प्र० पु० लेखिता लेखितारौ लेखितारः लिख्याः लिख्यास्तम् लिख्यास्त म० पु० लेखितासि लेखितास्थ: लेखितास्थ लिख्यासम् लिख्यास्व लिख्यास्म उ० पु० लेखितास्मि लेखितास्वः लेखितास्मः स्यत्यादि लेखिष्यति लेखिष्यतः लेखिष्यन्ति प्र० पु० लेखिष्यसि लेखिष्यथः लेखिष्यथ लेखिष्यामि लेखिष्यावः लेखिष्यामः उ० पु० स्यदादि अलेखिष्यत् अलेखिष्यताम् अलेखिष्यन् प्र० पु० अलेखिष्यः अलेखिष्यतम् अलेखिष्यत अलेखिष्यम् अलेखिष्याव अलेखिष्याम उ० पु० ११०. कुचज्-संकोचने (संकोच करना) तुबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि कुचति कुचतः कुचन्ति प्र० पु० कुचेत् कुचेताम् कुचेयुः कुचसि कुचथः कुचथ म० पु० कुचेः कुचेतम् कुचेत कुचामि कुचावः कुचाम: उ० पु० कुचेयम् कुचेव कुचेम दिबादि कुचतु, कुचतात् कुचताम् कुचन्तु प्र० पु० अकुचत् अकुचताम् अकुचन् कुच, कुचतात् कुचतम् कुचत म० पु० अकुचः अकुचतम् अकुचत कुचानि कुचाव कुचाम उ० पु० अकुचम् अकुचाव अकुचाम धादि णबादि अकुचीत् अकुचिष्टाम् अकुचिषुः प्र० पु० चुकोच चुकुचतु चुकुचुः अकुचीः अकुचिष्टम् अकुचिष्ट म० पु० चुकोचिथ चुकुचथुः चुकुच अकुचिषम् अकुचिष्व अकुचिष्म उ० पु० चुकोच, चुकुच चुकुचिव चुकुचिम Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ क्यादादि तादि प्र० पु० कुचिता कुच्यात् कुच्यास्ताम् कुच्यासुः कुचितारौ कुचितारः कुच्याः कुच्यास्तम् कुच्यास्त म० पु० कुचितासि कुचितास्थः कुचितास्थ कुच्यासम् कुच्यास्व कुच्यास्म उ० पु० कुचितास्मि कुचितास्वः कुचितास्मः स्यत्यादि स्यादि कुचिष्यति कुचिष्यतः कुचिष्यन्ति प्र. पु. अकुचिष्यत् अकुचिष्यताम् अकुचिष्यन् कुचिष्यसि कुचिष्यथः कुचिष्यथ म. पु. अकुचिष्यः अकुचिष्यतम् अकुचिष्यत कुचिष्यामि कुचिष्यावः कुचिष्यामः उ. पु. अकुचिष्यम् अकुचिष्याव अकुचिष्याम १११. स्पृशं - स्पर्शे ( छूना ) एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि स्पृशति स्पृशतः स्पृशसि स्पृशथः स्पृशामि स्पृशावः तुबादि स्पृशतु, स्पृशतात् स्पृशताम् स्पृशन्तु प्र० पु० अस्पृशत् अस्पृशताम् अस्पृशन् स्पृश, स्पृशतात् स्पृशतम् स्पृशत म० पु० अस्पृश: अस्पृशतम् अस्पृशत स्पृशानि स्पृशाव स्पृशाम उ० पु० अस्पृशम् अस्पृशाव अस्पृशा धादि (१) द्यादि (२) अस्प्राक्षीत् अस्प्राष्टाम् अस्प्राक्षुः प्र० पु० अस्पृक्षत् अस्पृक्षताम् अस्पृक्षन् अस्प्राक्षीः अस्प्राष्टम् अस्प्राष्ट म० पु० अस्पृक्षः अस्पृक्षतम् अस्पृक्षत अस्प्राक्षम् अस्प्राक्ष्व अस्प्राक्ष्म उ० पु० अस्पृक्षम् अस्पृक्षाव अस्पृक्षाम बादि क्यादादि पस्पर्श पस्पृशतुः पस्पृशुः पपशिथ पस्पृशथुः पस्पृश पस्पर्श पस्पृशिव पस्पृशिम तादि (१) स्पृशन्ति प्र० पु० स्पृशेत् स्पृशथ म० पु० स्पृशे: स्पृशाम: उ० पु० स्पृशेयम् दिबादि वाक्यरचना बोध स्प्रष्टा स्प्रष्टारौ स्प्रष्टारः स्प्रष्टासि स्प्रष्टास्थः स्प्रष्टास्थ स्प्रष्टास्मि स्प्रष्टास्वः स्प्रष्टास्मः स्यत्यादि (१) स्प्रक्ष्यति स्प्रक्ष्यतः प्रक्ष्यन्ति स्प्रक्ष्यसि स्प्रक्ष्यथः स्प्रक्ष्यथ स्प्रक्ष्यामि स्प्रक्ष्यावः स्प्रक्ष्यामः स्पृशेताम् स्पृशेयुः स्पृशेतम् स्पृशेत स्पृशेव स्पृशे प्र० पु० स्पृश्यात् म० पु० स्पृश्याः स्पृश्यास्ताम् स्पृश्यासुः स्पृश्यास्तम् स्पृश्यास्त उ० पु० स्पृश्यासम् स्पृश्यास्व स्पृश्यास्म तादि (२) प्र० पु० स्पष्ट म० पु० स्पष्टासि स्पष्ट स्पष्टरः स्पष्टस्थि: स्पष्टस्थि उ० पु० स्पस्मि स्पष्टस्वः स्पष्टस्मः स्यत्यादि (२) प्र० पु० स्पर्ध्यति स्पर्श्यतः म० पु० स्पसि पर्क्ष्यथः उ० पु० पक्ष्यामि स्पक्ष्यवः स्पर्यन्ति स्पर्ध्यय स्पर्ष्यामः Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्यदादि (१) स्यदादि (२) अस्प्रक्ष्यत् अस्प्रक्ष्यताम् अस्प्रक्ष्यन् प्र० पु० अस्पयत् अस्पर्ध्यताम् अस्पयन अस्प्रक्ष्यः अस्प्रक्ष्यतम् अस्प्रक्ष्यत म० पु० अस्पयः अस्पय॑तम् अस्पऱ्यात अस्प्रक्ष्यम् अस्प्रक्ष्याव अस्प्रक्ष्याम उ० पु० अस्पय॑म् अस्पाव अस्प्राम ११२. विशंज–प्रवेशने (घुसना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि विशति विशत: विशन्ति प्र० पु० विशेत् विशेताम् विशेयुः विशसि विशथः विशथ म० पु० विशेः विशेतम् विशेत विशामि विशावः विशामः उ० पु० विशेयम् विशेव विशेम तुबादि दिबादि विशतु, विशतात् विशताम् विशन्तु प्र० पु० अविशत् अविशताम् अविशन् विश, विशतात् विशतम् विशत म० पु० अविशः अविशतम् अविशत विशानि विशाव विशाम उ० पु० अविशम् अविशाव अविशाम धादि णबादि अविक्षताम् अविक्षन् प्र० पु० विवेश विविशतु: विविशुः अविक्षः अविक्षतम् अविक्षत म० पु० विवेशिथ विविशथु: विविश अविक्षाव अविक्षाम उ० पु० विवेश विविशिव विविशिम क्यादादि तादि विश्यात् विश्यास्ताम् विश्यासुः प्र० पु० वेष्टा वेष्टारौ वेष्टारः विश्याः विश्यास्तम् विश्यास्त म० पु० वेष्टासि वेष्टास्थः वेष्टास्थ विश्यासम् विश्यास्व विश्यास्म उ० पु० वेष्टास्मि वेष्टास्वः वेष्टास्मः स्यत्यादि वेक्ष्यति वेक्ष्यतः वेक्ष्यन्ति प्र० पु० अवेक्ष्यत् अवेक्ष्यताम् अवेक्ष्यन् वेक्ष्यसि वेक्ष्यथः वेक्ष्यथ म० पु० अवेक्ष्यः अवेक्ष्यतम् अवेक्ष्यत वेक्ष्यामि वेक्ष्याव: वेक्ष्यामः उ० पु० अवेक्ष्यम् अवेक्ष्याव अवेक्ष्याम , ११३. भुजंर्-पालनाभ्यवहारयोः (उभयपदी) पालन करना, खाना अविक्षत् अविक्षम् यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि भुनक्ति भुङ्क्तः भुञ्जन्ति प्र० पु. भुङ्ग्यात् भुज्याताम् भुज्युः भुनक्षि भुथः भुथ म० पु० भुञ्ज्याः भुज्यातम् भुज्यात भुनज्मि भुज्वः भुज्म: उ० पु० भुज्याम् भुज्याव . भुञ्ज्याम .. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ वाक्यरचना बोध तुबादि भुनक्तु, भुङ्क्तात् भुङ्क्ताम् भुञ्जन्तु प्र० पु० भुधि, भुङ्क्तात् भुङ्क्तम् भुङ्क्त म० पु० भुनजानि भुनजाव भुनजाम उ० पु० दिबादि द्यादि अभुनक्, अभुनग् अभुङ्क्ताम् अभुञ्जन् प्र० पु० अभौक्षीत् अभौक्ताम् अभौक्षुः अभुनक्, अभुनग् अभुङ्क्तम् अभुङ्क्त म० पु० अभौक्षीः अभौक्तम् अभौक्त अभुनजम् अभुज्व अभुज्म उ० पु० अभौक्षम् अभौक्ष्व अभौक्ष्म णबादि क्यादादि बुभोज बुभुंजतुः बुभुजुः प्र० पु० भुज्यात् भुज्यास्ताम् भुज्यासुः बुभोजिथ बुभुजथुः बुभुज म० पु० भुज्याः भुज्यास्तम् भुज्यास्त बुभोज बुभुजिव बुभुजिम उ० पु० भुज्यासम् भुज्यास्व भुज्यास्व तादि स्यत्यादि भोक्ता भोक्तारौ भोक्तारः प्र० पु० भोक्ष्यति भोक्ष्यतः भोक्ष्यन्ति भोक्तासि भोक्तास्थः भोक्तास्थ म० पु० भोक्ष्यसि भोक्ष्यथः भोक्ष्यथ भोक्तास्मि भोक्तास्वः भोक्तास्मः उ० पु० भोक्ष्यामि भोक्ष्याव: भोक्ष्यामः स्यदादि अभोक्ष्यत् अभोक्ष्यताम् अभोक्ष्यन् प्र० पु० अभोक्ष्यः अभोक्ष्यतम् अभोक्ष्यत म० पु. अभोक्ष्यम् अभोक्ष्याव ___ अभोक्ष्याम उ० पु० आत्मनेपद तिबादि यादादि भङ्क्ते भुजाते भुञ्जते । ___ प्र० पु० भुञ्जीत भुञ्जीयाताम् भुञ्जीरन् भुझे भुञ्जाथे भुग्ध्वे ___ म० पु. भुञ्जीथाः भुञ्जीयाथाम् भुञ्जीध्वम् भुजे भुज्वहे भुज्महे ___उ० पु० भुञ्जीय भुञ्जीवहि भुञ्जीमहि दिबादि भुङ्क्ताम् भुञ्जाताम् भुजताम् प्र० पु० अभुङ्क्त अभुजाताम् अभुञ्जत भुक्ष्व भुञ्जाथाम् भुङ्ग्ध्वम् म० पु० अभुक्ङ्थाः अभुञ्जाथाम् अभुग्ध्वम् भुनजे भुनजावहै भुनजामहै उ० पु० अभुजि अभुज्वहि अभुमहि धादि अभुक्त अभुक्षाताम् अभुक्षत प्र० पु० बुभुजे बुभुजाते बुभुजिरे अभुक्थाः अभुक्षाथाम् अभुग्ध्वम् , अभुग्वम् म० पु० बुभुजिषे बुभुजाथे बुभुजिध्वे अभुक्षि अभुक्ष्वहि अभुक्ष्महि उ० पु० बुभुजे बुभुजिवहे बुभुजिमहे तुबादि णबादि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ परिशिष्ट २ क्यादादि तादि भुक्षीष्ट भुक्षीयास्ताम् भुक्षीरन् प्र० पु० भोक्ता भोक्तारी भोक्तारः भुक्षीष्ठाः भुक्षीयास्थाम् भुक्षीध्वम् म० पु० भोक्तासे भोक्तासाथे भोक्ताध्वे भुक्षीय भुक्षीवहि भुक्षीमहि उ० पु० भोक्ताहे भोक्तास्वहे भोक्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि भोक्ष्यते भोक्ष्येते भोक्ष्यन्ते प्र० पु० अभोक्ष्यत अभोक्ष्येताम् अभोक्ष्यन्त भोक्ष्यसे भोक्ष्येथे भोक्ष्यध्वे म० पु० अभोक्ष्यथाः अभोक्ष्येथाम् अभोक्ष्यध्वम् भोक्ष्ये भोक्ष्यावहे भोक्ष्यामहे उ० पु० अभोक्ष्ये अभोक्ष्यावहि अभोक्ष्यामहि ११४. युज़न्-योगे (उभयपदी) जोडना TI ME LLEL प्र० पु० युक्त परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि युनक्ति युङ्क्तः युञ्जन्ति प्र० पु० युज्यात् युज्याताम् युज्युः युनक्षि युक्थः युक्थ म० पु० युञ्ज्याः युज्यातम् युज्यात युनज्मि युज्वः युज्मः उ० पु० युञ्ज्याम् युञ्ज्याव युज्याम तुबादि युनक्तु, युङ्क्तात् युङ्क्ताम् युञ्जन्तु युङ्ग्धि, युङ्क्तात् युक्तम् म० पु० युनजानि युनजाव युनजाम उ० पु० दिबादि धादि (१) अयुनक्, अयुनग् अयुङ्क्ताम् अयुञ्जन् प्र० पु० अयुजत् अयुजताम् अयुजन् अयुनक्,अयुनग् अयुङ्क्तम् अयुङ्क्त म० पु० अयुजः अयुजतम् अयुजत अयुनजम् अयुव अयुज्म उ० पु० अयुजम् अयुजाव अयुजाम द्यादि (२) णबादि अयोक्षीत् अयोक्ताम् अयोक्षुः प्र० पु० युयोज युयुजतुः युयुजुः अयोक्षीः अयोक्तम् अयोक्त म० पु० युयोजिथ युयुजथुः युयुज अयोक्षम् अयौक्ष्व अयौक्ष्म उ० पु० युयोज युयुजिव युयुजिम तादि युज्यात् युज्यास्ताम् युज्यासुः प्र० पु० योक्ता योक्तारौ योक्तारः युज्याः युज्यास्तम् युज्यास्त म० पु० योक्तासि योक्तास्थः योक्तास्थ .. युज्यासम् युज्यास्व युज्यास्म उ० पु० योक्तास्मि योक्तास्वः योक्तास्मः ** क्यादादि Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ वाक्यरचना बोध स्यत्यादि स्यदादि योक्ष्यति योक्ष्यतः योक्ष्यन्ति प्र० पु० अयोक्ष्यत् अयोक्ष्यताम् अयोक्ष्यन् योक्ष्यसि योक्ष्यथः योक्ष्यथ म० पु० अयोक्ष्यः अयोक्ष्यतम् अयोक्ष्यत योक्ष्यामि योक्ष्याव: योक्ष्यामः उ० पु० अयोक्ष्यम् अयोक्ष्याव अयोक्ष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि युङ्क्ते युजाते युञ्जते प्र० पु० युजीत युञ्जीयाताम् युजीरन् युझे युञ्जाथे युग्ध्वे म० पु० युञ्जीथाः युञ्जीयाथाम् युजीध्वम् युजे युज्वहे युज्महे उ० पु० युजीय युञ्जीवहि युञ्जीमहि तुबादि दिबादि युङ्क्ताम् युजाताम् युञ्जताम् प्र० पु० अयुक्त अयुजाताम् अयुञ्जत युझ्व युञ्जाथाम् युग्ध्वम् म० पु० अयुङ्क्थाः अयुञ्जाथाम् अयुग्ध्वम् युनज युनजावहै युनजामहै उ० पु० अयुञ्जि अयुज्वहि अयुज्महि धादि अयुक्त अयुक्षाताम् अयुक्षत प्र० पु० अयुक्थाः अयुक्षाथाम् अयुग्ध्वम्, अयुग्ढ्वम् म० पु० अयुक्षि अयुक्ष्वहि अयुक्ष्महि उ० पु० णबादि युयुजे युयुजाते युयुजिरे प्र० पु० युक्षीष्ट युक्षीयास्ताम् युक्षीरन् यूयुजिषे युयुजाथे युयुजिध्ने म० पु० युक्षीष्ठाः . युक्षीयास्थाम् युक्षीध्वम् युयुजे युयुजिवहे युयुजिमहे उ० पु० युक्षीय युक्षीवहि युक्षीमहि तादि स्यत्यादि योक्ता योक्तारौ योक्तारः प्र० पु० योक्ष्यते योक्ष्येते योक्ष्यन्ते योक्तासे योक्तासाथे योक्ताध्वे म० पु० योक्ष्यसे योक्ष्येथे योक्ष्यध्वे योक्ताहे योक्तास्वहे योक्तास्महे उ० पु० योक्ष्ये योक्ष्यावहे योक्ष्यामहे स्यदादि अयोक्ष्यत अयोक्ष्येताम् अयोक्ष्यन्त प्र० पु० अयोक्ष्यथाः अयोक्ष्येथाम् अयोक्ष्यध्वम् म० पु० अयोक्ष्ये अयोध्यावहि अयोक्ष्यामहि उ० पु० क्यादादि Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ११५. छिदु न्र् - द्वैधीकरणे (उभयपदी) काटना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि छिनत्ति छिन्तः छिनत्सि छिन्त्थः छिनद्मछिन्द्वः तुबादि छिनत्तु, छिन्तात् छिन्द्धि, छिन्तात् छिनदानि छिन्दन्ति छिन्त्थ छिन्द्म: छिन्ताम् छिन्तम् छिनदाव छिनदाम छिन्दन्तु छिन्त प्र० पु० छिन्द्यात् छिन्द्याताम् छिन्द्युः म० पु० छिन्द्या: छिन्द्यातम् छिन्द्यात उ० पु० छिन्द्याम् छिन्द्याव छिन्द्याम दिबादि अच्छिनत्, अच्छिनद् अच्छिन्ताम् अच्छिन:, अच्छिनत्, अच्छिनद् अच्छिन्तम् अच्छिनदम् अच्छिन्द्र तादि छेत्ता छेत्तारौ छेत्तारः छेत्तासि छेत्तास्थः छेत्तास्थ छेत्तास्मि छेत्तास्वः छेत्तास्मः स्यदादि एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० अच्छिन्दन् अच्छिन्त अच्छिन्द्म अच्छेत्स्यत् अच्छेत्स्यताम् अच्छेत्स्यन् अच्छेत्स्यः अच्छेत्स्यतम् अच्छेत्स्यत अच्छेत्स्यम् अच्छेत्स्याव अच्छेत्स्याम ४३६ चादि (२) धादि (१) अच्छिदत् अच्छिदताम् अच्छिदन् प्र० पु० अच्छेत्सीत् अच्छिदः अच्छिदतम् अच्छिदत मं० पु० अच्छेत्सीः अच्छिदम् अच्छिदाव अच्छिदाम उ० पु० अच्छेत्सम् णबादि क्यादादि चिच्छेद चिच्छिदतुः चिच्छिदुः प्र० पु० छिद्यात् छिद्यास्ताम् छिद्यासुः चिच्छेदिथ चिच्छिदथुः चिच्छिद म० पु० छिद्या: छिद्यास्तम् छिद्यास्त चिच्छेद चिच्छिदिव चिच्छिदिम उ० पु० छिद्यासम् छिद्यास्व छिद्यास्म प्र० पु० म० पु० उ० पु० अच्छंत्ताम् अच्छेत्सुः अच्छेत्तम् अच्छंत अच्छेत्स्व प्र० पु० म० पु० उ० पु० स्यत्यादि प्र० पु० छेत्स्यति छेत्स्यतः छेत्स्यन्ति म० पु० छेत्स्यसि छेत्स्यथः छेत्स्यथ उ० पु० छेत्स्यामि छेत्स्याव: छेत्स्यामः अच्छे स्म Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० वाक्यरचना बोध आत्मनेपद तिबादि यादादि छिन्ते छिन्दाते छिन्दते प्र० पु० छिन्दीत छिन्दीयाताम् छिन्दीरन् छिन्त्से छिन्दाथे छिन्द्ध्वे म० पु० छिन्दीथा: छिन्दीयाथाम् छिन्दीध्वम् छिन्दे छिन्दवहे छिन्महे उ० पु० छिन्दीय छिन्दीवहि छिन्दीमहि तुबादि दिबादि छिन्ताम् छिन्दाताम् छिन्दताम् प्र० पु. अच्छिन्त्त अच्छिन्दाताम् अच्छिन्दत छिन्त्स्व छिन्दाथाम् छिन्द्ध्वम् म० पु० अच्छिन्त्थाः अच्छिन्दाथाम् अच्छिन्द्ध्वम् छिनदै छिनदावहै छिनदामहै उ० पु० अच्छिन्दि अच्छिन्द्वहि अच्छिन्नहि धादि णबादि अच्छित्त अच्छित्साताम् अच्छित्सत प्र० पु० चिच्छिदे चिच्छिदाते चिच्छिदिरे अच्छित्था: अच्छित्साथाम् अच्छिद्ध्वम् म० पु० चिच्छिदिषे चिच्छिदाथे चिच्छिदिध्वे अच्छित्सि अच्छित्स्वहि अच्छित्स्महि उ० पु० चिच्छिदे चिच्छिदिवहे चिच्छिदिमहे क्यादादि तादि छित्सीष्ट छित्सीयास्ताम् छित्सीरन् प्र० पु० छेत्ता छेत्तारौ छेत्तारः छित्सीष्ठाः छित्सीयास्थाम् छित्सीध्वम् म० पु० छेत्तासे छेत्तासाथे छेत्ताध्वे छित्सीय छित्सीवहि छित्सीमहि उ० पु० छेत्ताहे छेत्तास्वहे छेत्तास्महे स्यत्यादि स्यदादि छेत्स्यते छेत्स्येते छेत्स्यन्ते प्र० पु० अच्छेत्स्यत अच्छेत्स्येताम् अच्छेत्स्यन्त छत्स्यसे छेत्स्येथे छेत्स्यध्वे म० पु० अच्छेत्स्यथाः अच्छेत्स्येथाम् अच्छेत्स्यध्वम् छत्स्ये छेत्स्यावहे छेत्स्यामहे उ० पु० अच्छेत्स्ये अच्छेत्स्यावहि अच्छेत्स्यामहि ११६. विन्-पृथग्भावे (उभयपदी) पृथक् करना __ परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि विनक्ति विङ्क्तः विञ्चन्ति प्र० पु० विञ्च्यात् विञ्च्याताम् विञ्च्युः विनक्षि विक्थः विक्थ म० पु० विञ्च्याः विञ्च्यातम् विञ्च्यात विनच्मि विञ्च्वः विच्मः उ० पु० विञ्च्याम् विञ्च्याव विञ्च्याम तुबादि विनक्तु, विङ्क्तात् विङ्क्ताम् विञ्चन्तु प्र० पु० विधि, विङ्क्तात् विङ्क्तम् विङ्क्त म० पु० विनचानि . विनचाव विनचाम उ० पु० Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४१ दिबादि द्यादि अविनक्, अविनम् अविङ्क्ताम् अविञ्चन् प्र० पु० अविचत् अविचताम् अविचन् अविनक्, अविनग् अविङ्क्तम् अविङ्क्त म० पु० अविचः अविचतम् अविचत अविनचम् अविञ्च्व अविञ्च्म उ० पु० अविचम् अविचाव अविचाम गबादि __ क्यादादि विवेच विविचतुः विविचुः प्र० पु० विच्यात् विच्यास्ताम् विच्यासुः विवेचिथ विविचथुः विविच म० पु० विच्याः विच्यास्तम् विच्यास्त विवेच विविचिव विविचिम उ० पु० विच्यासम् विच्यास्व विच्यास्म तादि स्यत्यादि वेक्ता वेक्तारौ वेक्तारः प्र० पु० वेक्ष्यति वेक्ष्यतः वेक्ष्यन्ति वेक्तासि वेक्तास्थः वेक्तास्थ म० पु० वेक्ष्यसि वेक्ष्यथः वेक्ष्यथ वेक्तास्मि वेक्तास्वः वेक्तास्मः उ० पु. वेक्ष्यामि वेक्ष्याव: वेक्ष्यामः स्यदादि अवेक्ष्यत् अवेक्ष्यताम् अवेक्ष्यन् प्र० पु० अवेक्ष्यः अवेक्ष्यतम् अवेक्ष्यत म० पु० अवेक्ष्यम अवेक्ष्याव अवेक्ष्याम उ० पु. आत्मनेपद तिबादि ___यादादि विङ्क्ते विञ्चाते विञ्चते प्र० पु० विञ्चीत विञ्चीयाताम् विञ्चीरन् विझे विञ्चाथे विङ्ग्ध्वे म० पु० विञ्चीथाः विञ्चीयाथाम् विङ्ग्ध्वम् विञ्चे विञ्च्वहे विञ्च्महे उ० पु० विञ्चीय विञ्चीवहि विञ्चीमहि तुबादि दिबादि विङ्क्ताम् विञ्चाताम् विञ्चताम् प्र० पु. अविङ्क्त अविञ्चाताम् अविञ्चत विश्व विञ्चाथाम् विद्ध्वम् म० पु० अविथाः अविञ्चाथाम् अविङ्ग्ध्वम् विनचै विनचावहै विनचामहै उ० पु० अविञ्चि अविञ्च्वहि अविञ्च्महि धादि अविक्त अविक्षाताम् अविक्षत प्र० पु० अविक्था: अविक्षाथाम् अविग्ध्वम्, अविग्ध्वम् म० पु० अविक्षि अविश्वहि अविक्ष्महि उ० पु० णबादि क्यादादि विविचे विविचाते विविचिरे प्र० पु० विक्षीष्ट विक्षीयास्ताम् विक्षीरन विविचिषे विविचाथे विविचिध्वे म० पु० विक्षीष्ठाः विक्षीयास्थाम् विक्षीध्वम् विविचे विविचिवहे विविचिमहे उ० पु० विक्षीय विक्षीवहि विक्षीमहि : Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ वाक्यरचना बोध तादि स्यत्यादि वेक्ता वेक्तारौ वेक्तारः प्र० पु० वेक्ष्यते वेक्ष्येते वेक्ष्यन्ते वेक्तासे वेक्तासाथे वेक्ताध्वे म०.पु. वेक्ष्यसे वेक्ष्येथे वेक्ष्यध्वे वेक्ताहे वेक्तास्वहे वेक्तास्महे उ० पु० वेक्ष्ये वेक्ष्यावहे वेक्ष्यामहे स्यदादि अवेक्ष्यत अवेक्ष्येताम् अवेक्ष्यन्त प्र० पु० अवेक्ष्यथाः अवेक्ष्येथाम् अवेक्ष्यध्वम् म० पु० अवेक्ष्ये अवेक्ष्यावहि अवेक्ष्यामहि उ० पु० ११७. डुक्रीनश्- द्रव्यविनिमये (उभयपदी) खरीदना यादादि परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि क्रीणाति . क्रीणीन: क्रीणन्ति प्र० पु० क्रीणीयात् क्रीणीयाताम् क्रीणीय: क्रीणासि क्रीणीयः क्रीणीय भ० पु. क्रोणीयाः क्रीणीयातम् क्रीणीयात श्रीणामि क्रीणीवः क्रीणीमः उ० पु० क्रीणीयाम् क्रीणीयाव क्रीणीयाम तुबादि दिबादि क्रीणातु, क्रीणीतात् क्रीणीताम् क्रीणन्तु प्र० पु० अक्रीणात् अक्रीणीताम् अक्रीणन् क्रीणीहि, क्रीणीतात् क्रीणीतम् क्रीणीत म० पु० अक्रीणाः अक्रीणीतम् अक्रीणीत क्रीणानि क्रीणाव क्रीणाम उ० पु० अक्रीणाम् अक्रीणीव अक्रीणीम धादि ___णबादि अषीत् अक्रष्टाम् अषुः प्र० पु० चिक्राय चिक्रियतुः चिक्रियुः अऋषीः अष्टम् अष्ट म० पु० चिक्रयिथ, चिक्रेथ चिक्रियथुः चिक्रिय अपम् अष्व अऋष्म उ० पु० चिक्राय, चिक्रय चिक्रियिव चिक्रियिम क्यादादि क्रीयात् क्रीयास्ताम् क्रीयासुः प्र० पु० क्रेता क्रेतारौ क्रेतारः क्रीयाः क्रीयास्तम् क्रीयास्त म० पु. क्रेतासि क्रेतास्थः क्रेतास्थ क्रीयासम् क्रीयास्व क्रीयाष्म उ० पु० क्रेतास्मि क्रेतास्वः क्रेतास्मः स्यत्यादि स्यदादि ऋष्यति ऋष्यतः ऋष्यन्ति प्र० पु० अक्रष्यत् अऋष्यताम् अक्रेष्यन् क्रेष्यसि ऋष्यथ: ऋष्यथ म० पु० अक्रेष्यः अऋष्यतम् अऋष्यत ऋष्यामि ऋष्यावः ऋष्यामः उ० पु० अऋष्यम् अऋष्याव अक्रेष्याम तादि Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४३ तुबादि आत्मनेपद तिबादि यादादि क्रीणीते क्रीणाते क्रीणते प्र० पु० क्रीणीत क्रीणीयाताम् क्रीणीरन् क्रीणीषे क्रीणाथे क्रीणीध्वे म० पु० क्रीणीथाः क्रीणीयाथाम् क्रीणीध्वम् क्रीणे क्रीणीवहे क्रीणीमहे उ० पु० क्रीणीय क्रीणीवहि क्रीणीमहि दिबादि क्रीणीताम् क्रीणाताम् क्रीणताम् प्र० पु० अक्रीणीत अक्रीणाताम् अक्रीणत क्रीणीष्व क्रीणाथाम् क्रीणीध्वम् म० पु० अक्रीणीथाः अक्रीणाथाम् अक्रीणीध्वम् क्रीण क्रीणावहै क्रीणामहै उ० पु० अक्रीणि अक्रीणीवहि अक्रीणीमहि द्यादि णबादि अक्रेष्ट अवेषाताम् अक्रेषत प्र० पु० चिक्रिये चिक्रियाते चिक्रियिरे अक्रेष्ठाः अऋषाथाम् अकेवम् म० पु० चिक्रियषे चिक्रियाथे चिक्रियिध्वे, चिक्रियित्वे अक्रेषि अक्रेष्वहि अक्रेष्महि उ० पु० चिक्रिये चिक्रियिवहे चिक्रियिमहे क्यादादि तादि ऋषीष्ट ऋषीयास्ताम ऋषीरन् प्र० पु० क्रेता क्रेतारौ । क्रेतारः ऋषीष्ठाः ऋषीयास्थाम् ऋषीढ्वम् म० पु० क्रेतासे केतासाथे क्रेताध्वे - ऋषीय ऋषीवहि ऋषीमहि उ० पु० क्रेताहे क्रेतास्वहे क्रेतास्महे स्यत्यादि स्यदादि केष्यते ऋष्यते ऋष्यन्ते प्र० पु० अक्रेष्यत अऋष्येताम् अऋष्यन्त ऋष्यसे वेष्येथे ऋष्यध्वे म० पु० अऋष्यथाः अक्रष्येथाम् अऋष्यध्वम् - केष्ये ऋष्यावहे ऋष्यामहे उ० पु० अक्रष्ये अक्रेष्यावहि अऋष्यामहि ११८. पून-पवने (उभयपदी) साफ करना करना परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि पुनाति पुनीतः पुनन्ति प्र० पु. पुनीयात् पुनीयाताम् पुनीयुः -- पुनासि पुनीथः पुनीथ म० पु० पुनीयाः पुनीयातम् पुनीयात । पुनामि पुनीवः पुनीम: उ० पु० पुनीयाम् पुनीयाव पुनीयाम तुबादि दिबादि पुनातु, पुनीतात् पुनीताम् पुनन्तु प्र० पु० अपुनात् अपुनीताम् अपुनन् पुनीहि, पुनीतात् पुनीतम् पुनीत म० पु० अपुनाः अपुनीतम् अपुनीत पुनाति पुनाव पुनाम उ० पु० अपुनाम् अपुनीव अपुनीम Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ वाक्यरचना बोध धादि णबादि अपावीत् अपाविष्टाम् अपाविषुः प्र० पु० पुपाव पुपुवतुः पुपुवुः अपावी: अपाविष्टम् अपाविष्ट म० पु० पुपविथ पुपुवथुः पुपुव अपाविषम् अपाविष्व अपाविष्म उ० पु० पुपाव, पुपव पुपुविव पुपुविम क्यादादि तादि पूयात् पूयास्ताम् पूयासुः प्र० पु० पविता पवितारौ पवितारः पूयाः पूयास्तम् पूयास्त म० पु० पवितासि पवितास्थः पवितास्थ पूयासम् पूयास्व पूयास्म उ० पु० पवितास्मि पवितास्वः पवितास्मः स्यत्यादि स्यदादि पविष्यति पविष्यतः पविष्यन्ति प्र० पु० अपविष्यत् अपविष्यताम् अपविष्यन् पविष्यसि पविष्यथः पविष्यथ म० पु० अपविष्यः अपविष्यतम् अपविष्यत पविष्यामि पविष्याव: पविष्यामः उ० पु० अपविष्यम् अपविष्याव अपविष्याम आत्मनेपद तिबादि यादादि पुनीते पुनाते पुनते प्र० पु. पुनीत पुनीयाताम् पुनीरन् पुनीषे पुनाथे पुनीध्वे म० पु० पुनीथाः पुनीयाथाम् पुनीध्वम् पुने पुनीवहे पुनीमहे उ० पु० पुनीय पुनीवहि पुनीमहि तुबादि दिबादि पुनीताम् पुनाताम् पुनताम् प्र० पु० अपुनीत अपुनाताम् अपुनत पुनीष्व पुनाथाम् पुनीध्वम् म० पु. अपुनीथाः अपुनाथाम् अपुनीध्वम् पुनै पुनावहै पुनामहै उ० पु० अपुनि अपुनीवहि अपुनीमहि वादि अपविष्ट, अपविषाताम् अपविषत प्र० पु० अपविष्ठाः अपविषाथाम् अपविढ्वम्, अपविध्वम् म० पु० अपविषि अपविष्वहि अपविष्महि उ० पु० णबादि पुपुवे पुपुवाते पुपुविरे प्र० पु० पुपुविषे पुपुवाथे पुविढ्वे, पुपुविध्वे म० पु० पुपुवे पुपुविवहे पुपुविमहे उ० पु० क्यादादि पविषीष्ट पविषीयास्ताम् पविषीरन् पविषीष्ठाः पविषीयास्थाम् पविषीढ्वम्, पविषीध्वम् म० पु० पविषीय पविषीवहि पविधीमहि उ० पु० प्र० पु० Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४५ तादि स्यत्यादि पविता पवितारी पवितारः प्र० पु० पविष्यते पविष्येते पविष्यन्ते पवितासे पवितासाथे पविताध्वे म० पु० पविष्यसे पविष्येथे पविष्यध्वे पविताहे पवितास्वहे पवितास्महे उ० पु० पविष्ये पविष्यावहे पविष्यामहे स्यदादि अपविष्यत अपविष्येताम् अपविष्यन्त प्र० पु० अपविष्यथाः अपविष्येथाम् अपविष्यध्वम् म० पु० अपविष्ये अपविष्यावहि अपविष्यामहि उ० पु० ११६. लूनश्-छेदने (उभयपदी) काटना तुबादि लुनानि परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि लुनाति लुनीतः लुनन्ति प्र० पु० लुनीयात् लुनीयाताम् लुनीयुः लुनासि लुनीथः लुनीथ म० पु. लुनीयाः लुनीयातम् लुनीयात लुनामि लुनीवः लुनीमः उ० पु. लुनीयाम् लुनीयाव लुनीयाम दिबादि लुनातु, लुनीतात् लुनीताम् लुनन्तु प्र० पु० अलुनात् अलुनीताम् अलुनन् लुनीहि, लुनीतात् लुनीतम् लुनीत म० पु० अलुनाः अलुनीतम् अलुनीत लुनाव लुनाम उ० पु० अलुनाम् अलुनीव अलुनीम धादि बादि अलावीत् अलाविष्टाम् अलाविषुः प्र० पु. लुलाव लुलुवतुः लुलुवुः अलावी: अलाविष्टम् अलाविष्ट म० पु. लुलविथ लुलुवथुः लुलुव अलाविषम् अलाविष्व अलाविष्म उ० पु. लुलाव, लुलव लुलुविव लुलुविम क्यादादि तादि लूयात् लूयास्ताम् लूयासुः प्र० पु० लविता लवितारौ लवितारः लूयाः लूयास्तम् लूयास्त म० पु० लवितासि लवितास्थः लवितास्थ लूयासम् लूयास्व लूयास्म उ० पु. लवितास्मि लवितास्व: लवितास्मः स्यत्यादि स्यदादि लविष्यति लविष्यतः लविष्यन्ति प्र० पु. अलविष्यत् अलविष्यताम् अलविष्यन् लविष्यसि लविष्यथः लविष्यथ म० पु० अलविष्यः अलविष्यतम् अलविष्यत लविष्यामि लविष्यावः लविष्यामः उ० पु० अलविष्यम् अलविष्याव अलविष्याम Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध आत्मनेपद तिबादि यादादि लुनीते लुनाते लुनते प्र० पु० लुनीत लुनीयाताम् लुनीरन् लुनीषे लुनाथे लुनीध्वे म० पु. लुनीथाः लुनीयाथाम् लुनीध्वम् लुने लुनीवहे लुनीमहे उ० पु० लुनीय लुनीवहि लुनीमहि तुबादि दिबादि लुनीताम् लुनाताम् लुनताम् प्र० पु० अलुनीत अलुनाताम् अलुनत लुनीष्व लुनाथाम् लुनीध्वम् म० पु० अलुनीथाः अलुनाथाम् अलुनीध्वम् लुनै लुनावहै लुनामहै उ० पु० अलुनि अलुनीवहि अलुनीमहि धादि अलविष्ट अलविषाताम् अलविषत अलविष्ठाः अलविषाथाम् अलविढ्वम्, अलविध्वम् म० पु० अलविषि अलविष्वहि अलविष्महि जबादि लुलुवाते लुलुविरे लुलुविषे लुलुवाथे लुलुविढ्वे, लुलुविध्वे म० पु० लुलुवे लुलुविवहे लुलुविमहे क्यादादि लविषीष्ट लविषीयास्ताम् लविषीरन् प्र० पु० लविषीष्ठाः लविषीयास्थाम् लविषीढ्वम्, लविषीध्वम् म० पु० लविषीय लविषीवहि लविषीमहि उ० पु० तादि लविता लवितारौ लवितारः प्र० पु० लवितासे लवितासाथे . लविताध्वे म० पु० । लविताहे लवितास्वहे लवितास्महे उ० पु० स्यत्यादि ___ स्यदादि लविष्यते लविष्येते लविष्यन्ते प्र० पु० अलविष्यत अलविष्येताम् अलविष्यन्त लविष्यसे लविष्येथे लविष्यध्वे म० पु० अलविष्यथाः अलविष्येथाम् अलविष्यध्वम् लविष्ये लविष्यावहे लविष्यामहे उ० पु० अलविष्ये अलविष्यावहि अलविष्यामहि लुलुवे Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ १२०. स्तनश्–आच्छादने (उभयपदी) आच्छादन करना ___णबादि परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि स्तृणाति स्तृणीतः स्तृणन्ति प्र० पु० स्तृणीयात् स्तृणीयाताम् स्तृणीयुः स्तृणासि स्तृणीथः स्तृणीथ म० पु० स्तृणीयाः स्तृणीयातम् स्तृणीयात स्तृणामि स्तृणीव: स्तृणीमः उ० पु० स्तृणीयाम् स्तृणीयाव स्तृणीयाम तुबादि दिबादि स्तृणात्, स्तृणीतात् स्तृणीताम् स्तृणन्तु प्र० पु० अस्तृणात् अस्तृणीताम् अस्तृणन् स्तृणीहि, स्तृणीतात् स्तृणीतम् स्तृणीत म० पु० अस्तृणाः अस्तृणीतम् अस्तृणीत स्तृणानि स्तृणाव स्तृणाम उ० पु० अस्तृणाम् अस्तृणीव अस्तृणीम द्यादि अस्तारीत् अस्तारिष्टाम् अस्तारिषु: प्र० पु० तस्तार तस्तरतुः तस्तरुः अस्तारीः अस्तारिष्टम् अस्तारिष्ट म० पु० तस्तरिथ तस्तरथुः तस्तर अस्तारिषम् अस्तारिष्व अस्तारिष्म उ० पु० तस्तार,तस्तर तस्तरिव तस्तरिम क्यादादि तादि स्तीर्यात् स्तीर्यास्ताम् स्तीर्यासुः प्र. पु० स्तरिता स्तरितारौ स्तरितारः स्तीर्याः स्तीर्यास्तम् स्तीर्यास्त म० पु० स्तरितासि स्तरितास्थः स्तरितास्थ स्तीर्यासम् स्तीर्यास्व स्तीर्यास्म उ० पु० स्तरितास्मि स्तरितास्वः स्तरितास्मः स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) स्तरिष्यति स्तरिष्यतः स्तरिष्यन्ति प्र० पु० स्तरीष्यति स्तरीष्यतः स्तरीष्यन्ति स्तरिष्यसि स्तरिष्यथः स्तरिष्यथ म० पु० स्तरीष्यसि स्तरीष्यथः स्तरीष्यथ स्तरिष्यामि स्तरिष्यावः स्तरिष्याम: उ० पु० स्तरीष्यामि स्तरीष्यावः स्तरीष्यामः स्यदादि (१) अस्तरिष्यत् अस्तरिष्यताम् अस्तरिष्यन् प्र० पु० अस्तरिष्यः अस्तरिष्यतम् अस्तरिष्यत __ म० पु० अस्तरिष्यम् अस्तरिष्याव अस्तरिष्याम उ० पु० स्यदादि (२) अस्तरीष्यत् अस्तरीष्यताम् अस्तरीष्यन् अस्तरीष्यः अस्तरीष्यतम् अस्तरीष्यत अस्तरीष्यम् अस्तरीष्याव अस्तरीष्याम उ० पु. म० पु० Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪૬ तिबादि तृणीते स्तृणीषे तृण अस्तरिष्ट अस्तरिषाताम् अस्तरिष्ठाः अस्तरिषाथाम् अस्तरिषि अस्तरिष्वहि चादि (२) अस्तरीष्ट अस्तरीषाताम् अस्तरीष्ठाः अस्तरीषाथाम् अस्तरीषि अहि चादि (३) अस्तीष्ट अस्तीष्ठाः अस्तीर्षि बादि सुबादि दिबादि स्तृणीताम् स्तृणाताम् स्तृणताम् प्र० पु० अस्तृणीत अस्तृणाताम् अस्तृणत स्तृणीष्व स्तृणाथाम् स्तृणीध्वम् म० पु० अस्तृणीथाः अस्तृणाथाम् अस्तृणीध्वम् स्तृण तृणाव है स्तृणाम है उ० पु० अस्तृणि अस्तृणीवहि अस्तृणीमहि चादि (१) तस्तरे तस्तरिषे तस्तरे क्यादि (१) स्तरिषीष्ट स्तरिषीष्ठाः स्तृणाते स्तृणते प्र० पु० स्तृणीत स्तृणीयाताम् स्तृणीरन् स्तृणाथे स्तृणीध्वे म० पु० स्तृणीथाः स्तृणीयाथाम् स्तृणीध्वम् तृणीव स्तृणीमहे उ० पु० स्तृणीय स्तृणीवहि तृणीमह अस्तीर्षाताम् अस्तीर्षाथाम् अ तस्तराते तस्तथे तस्तरिव आत्मनेपद स्तरिषीयास्ताम् स्तरिषीयास्थाम् रिषीवहि यादादि स्तरिषीय क्यादादि (२) स्तीर्षीष्ट स्तीर्षीयास्ताम् स्तर्षीष्ठाः स्तीर्षीयास्थाम् स्तीर्षीय ती प्र० पु० अस्तरिषत अस्तरिढ्वम्, अस्तरिध्वम् म० पु० उ० पु० अस्तरिष्महि अस्तरीषत अस्तरीढ्वम्, अस्तरीध्वम् अस्तरीष्महि वाक्यरचना बोध अस्तीर्षत अस्तीम्, अस्तीर्ध्वम् तस्तरिरे तस्तरिध्वे, तस्तरिढ्वे तस्तरि महे स्तीर्षीरन् स्तीर्षीढ्वम्, स्तीर्षीध्वम् स्तर्षीमहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० स्तरिषीरन् स्तरिषीढ्वम्, स्तरिषीध्वम् म० पु० रिषीमहि उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तादि (१) तादि (२) स्तरिता स्तरितारौ स्तरितारः प्र० पु० स्तरीता स्तरीतारौ स्तरीतारः स्तरितासे स्तरितासाथे स्तरिताध्वे म० पु० स्तरीतासे स्तरीतासाथे स्तरीताध्वे स्तरिताहे स्तरितास्वहे स्तरितास्महे उ० पु० स्तरीताहे स्तरीतास्वहे स्तरीतास्महे स्यत्यादि (१) स्यत्यादि (२) स्तरिष्यते स्तरिष्येते स्तरिष्यन्ते प्र० पु० स्तरीष्यते स्तरीष्येते स्तरीष्यन्ते स्तरिष्यसे स्तरिष्येथे स्तरिष्यध्वे म० पु० स्तरीष्यसे स्तरीष्येथे स्तरीष्यध्वे स्तरिष्ये स्तरिष्यावहे स्तरिष्यामहे उ० पु० स्तरीष्ये स्तरीष्यावहे स्तरीष्यामहे स्यदादि (१) अस्तरिष्यत अस्तरिष्येताम् अस्तरिष्यन्त प्र० पु० अस्तरिष्यथा: अस्तरिष्येथाम् अस्तरिष्यध्वम् म० पु० अस्तरिष्ये अस्तरिष्यावहि अस्तरिष्यामहि उ० पु० स्यदादि (२) अस्तरीष्यत अस्तरीष्येताम् अस्तरीष्यन्त प्र० पु० अस्तरीष्यथाः अस्तरीष्येथाम् अस्तरीष्यध्वम् म० पु० अस्तरीष्ये अस्तरीष्यावहि अस्तरीष्यामहि उ० पु० १२१. मन्थश-विलोडने (मथना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि मथ्नाति मथ्नीत: मनन्ति प्र० पु० मथ्नीयात् मथ्नीयाताम् मथ्नीयुः मथ्नासि मथ्नीथः मथ्नीथ म० पु० मथ्नीयाः मथ्नीयातम् मथ्नीयात मथ्नामि मथ्नीवः मथ्नीमः उ० पु० मथ्नीयाम् मथ्नीयाव मथ्नीयाम तुबादि दिबादि मथ्नातु, मथ्नीतात् मथ्नीताम् मथ्नन्तु प्र० पु० अमथ्नात् अमथ्नीताम् अमथ्नन् मथान, मथ्नीतात् मथ्नीतम् मथ्नीत म० पु० अमथ्ना: अमथ्नीतम् अमथ्नीत मथ्नानि मथ्नाव मथ्नाम उ० पु० अमथ्नाम् अमथ्नीव अमथ्नीम द्यादि ___णबादि अमन्थीत् अमन्थिष्टाम् अमन्थिषुः प्र० पु० ममन्थ ममन्थतुः ममन्युः अमन्थीः अमन्थिष्टम् अमन्थिष्ट म० पु० ममन्थिथ ममन्थथुः ममन्थ अमन्थिषम् अमन्थिष्व अमन्थिष्म उ० पु० ममन्थ ममन्थिव ममन्थिम क्यादादि - तादि मथ्यात् मथ्यास्ताम् मथ्यासुः प्र० पु० मन्थिता मन्थितारौ मथितारः मथ्याः मथ्यास्तम् मथ्यास्त म० पु० मन्थितासि मन्थितास्थः मन्थितास्थ मथ्यासम् मथ्यास्व मथ्यास्म उ० पु० मन्थितास्मि मन्थितास्वः मन्थितास्मः Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० वाक्यरचना बोध यत्स्यादि मन्थिष्यति मन्थिष्यसि मन्थिष्यामि मन्थिष्यतः मन्थिष्यथः मन्थिष्याव: मन्थिष्यन्ति मन्थिष्यथ मन्थिष्यामः ܩܟ ܩܝ ܟ स्यदादि अमन्थिष्यत् अमन्थिष्यः अमन्थिष्यम् अमन्थिष्यताम् अमन्थिष्यन् अमन्थिष्यतम् अमन्थिष्यत अमन्थिष्याव अमन्थिष्याम प्र० म० पु. उ० पु० ܩ ܩ १२२. बन्धश्-बन्धने (बांधना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि बध्नाति बध्नीतः बध्नन्ति प्र० पु० बध्नीयात् बध्नीयाताम् बध्नीयु: बध्नासि बध्नीथः बध्नीथ म० पु० बध्नीयाः बध्नीयातम् बध्नीयात बध्नामि बध्नीवः बध्नीमः उ० पु० बध्नीयाम् बध्नीयाव बध्नीयाम तुबादि दिबादि बध्नातु, बध्नीतात् बध्नीताम् बध्नन्तु प्र० पु० अबध्नात् अबध्नीताम् अबध्नन् बधान, बध्नीतात् बध्नीतम् बध्नीत म० पु० अबध्नाः अबध्नीतम् अबध्नीत बध्नानि बध्नाव बध्नाम उ० पु० अबध्नाम् अबध्नीव अबध्नीम धादि णबादि अभान्त्सीत् अबान्ताम् अभान्त्सुः प्र० पु० बबन्ध बबन्धतुः बबन्धुः अभान्त्सीः अबान्द्धम् अबान्द्ध म० पु० बबन्द्ध, बबन्धिथ बबन्धथुः बबन्ध अभान्त्सम् अभान्त्स्व अभान्त्स्म उ० पु० बबन्ध बबन्धिव बबन्धिम क्यादादि बध्यात् बध्यास्ताम् बध्यासुः प्र० पु० बन्दा वन्द्वारौ बन्द्वार: बध्या: बध्यास्तम् . बध्यास्त म० पु० बन्दासिवन्द्वास्थः बन्दास्थ बध्यासम् बध्यास्व बध्यास्म उ० पु० बन्दास्मि वन्द्वास्व: बन्दास्मः स्यत्यादि स्यदादि भन्त्स्यति भन्स्यतः भन्त्स्यन्ति प्र० पु० अभन्त्स्यत् अभन्त्स्यताम् अभन्स्यन् भन्त्स्यसि भन्त्स्यथः भन्त्स्यथ म० पु० अभन्त्स्यः अभन्त्स्यतम् अभन्त्स्यत भन्त्स्यामि भन्त्स्यावः भन्त्स्यामः उ० पु० अभन्त्स्यम् अभन्त्स्याव अभन्त्स्याम तादि Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ १२३. अशश् - भोजने (खाना) बहुवचन एकवचन तिबादि द्विवचन अश्नाति अश्नीतः अश्नन्ति अश्नासि अश्नीथः अश्नीथ अश्नामि अश्नीवः अश्नीमः तुबादि अश्नातु, अश्नीतात् अश्नीताम् अश्नन्तु अशान, अश्नीतात् अश्नीतम् अश्नीत अश्नानि अश्नाव अश्नाम धादि आशीत् आशिष्टाम् आशिषुः आशी: आशिष्टम् आशिष्ट आशिषम् आशिष्व आशिष्म क्यादादि एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि प्र० पु० अश्नीयात् अश्नीयाताम् अश्नीयुः म० पु० अश्नीयाः अश्नीयातम् अश्नीयात उ० पु० अश्नीयाम् अश्नीयाव अश्नीयाम दिबादि प्र० पु० आश्नात् म० पु० आश्नाः उ० पु० आश्नाम् णबादि ४५१ प्र० पु० आश म० पु० आशिथ उ० पु० आश तादि आश्नीताम् आश्नन् आश्नीतम् आश्नीत आश्नीव आश्नीम आशतुः आशुः आशथुः आश आशिव आशिम अशिता अशितारौ अशितार: अश्यास्म अश्यात् अश्यास्ताम् अश्यासुः प्र० पु० अश्या: अश्यास्तम् अश्यास्त म० पु० अशितासि अशितास्थः अशितास्थ अश्यासम् अश्यास्व उ० पु० अशितास्मि अशितास्वः अशितास्मः स्यत्यादि स्यदादि अशिष्यति अशिष्यतः अशिष्यन्ति प्र० पु० आशिष्यत् अशिष्यसि अशिष्यथः अशिष्यथ म० पु० आशिष्यः अशिष्यामि अशिष्यावः अशिष्यामः उ० पु० आशिष्यम् १२४. पुषश् - पुष्टौ (पुष्ट करना) आशिष्यताम् आशिप्यन् आशिष्यतम् आशिष्यत आशिष्याव आशिष्याम एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि पुष्णाति पुष्णीतः पुष्णन्ति पुष्णासि पुष्णीथः पुष्णीथ पुष्णामि पुष्णीव: पुष्णीमः तुबादि दिबादि पुष्णातु, पुष्णीतात् पुष्णीताम् पुष्णन्तु प्र० पु० अपुष्णात् अपुष्णीताम् अपुष्णन् पुषाण, पुष्णीतात् पुष्णीतम् पुष्णीत म० पु० अपुष्णाः अपुष्णीतम् अपुष्णीत पुष्णानि पुष्णाव पुष्णाम उ० पु० अपुष्णाम् अपुष्णीव अपुष्णीम प्र० पु० पुष्णीयात् पुष्णीयाताम् पुष्णीयुः म० पु० पुष्णीयाः पुष्णीयातम् पुष्णीयात उ० पु० पुष्णीयाम् पुष्णीयाव पुष्णीयाम Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ वाक्यरचना बोध द्यादि गबादि अपोषीत् अपोषिष्टाम् अपोषिषुः प्र० पु० पुपोष पुपुषतुः पुपुषुः अपोषी: अपोषिष्टम् अपोषिष्ट म० पु० पुपोषिथ पुपुषथः पुपुष अपोषिषम् अपोषिष्व अपोषिष्म उ० पु० पुपोष पुपुषिव पुपुषिम क्यादादि तादि पुष्यात् पुष्यास्ताम् पुष्यासुः प्र० पु. पोषिता पोपितारौ पोषितारः पुष्याः पुष्यास्तम् पुष्यास्त म० पु. पोषितासि पोषितास्थः पोषितास्थ पुष्यासम् पुष्यास्व पुष्यास्म उ० पु. पोषितास्मि पोषितास्वः पोषितास्मः स्यत्यादि स्यदादि पोषिष्यति पोषिष्यतः पोषिष्यन्ति प्र. पु. अपोषिष्यत् अपोषिष्यताम् अपोषिष्यन् पोषिष्यसि पोषिष्यथः पोषिष्यथ म. पु. अपोषिष्यः अपोषिष्यतम् अपोषिष्यत पोषिष्यामि पोषिष्याव: पोषिष्यामः उ. पु. अपोषिष्यम् अपोषिष्याव अपोषिष्याम १२५. पूजण्-पूजायाम् (पूजा करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि पूजयति पूजयतः पूजयन्ति प्र० पु० पूजयेत् पूजयेताम् पूजयेयुः पूजयसि पूजयथः पूजयथ म० पु० पूजयेः पूजयेतम् पूजयेत पूजयामि पूजयावः पूजयामः उ० पु० पूजयेयम् पूजयेव पूजयेम तुबादि दिबादि पूजयतु, पूजयतात् पूजयताम् पूजयन्तु प्र० पु० अपूजयत् अपूजयताम् अपूजयन् पूजय, पूजयतात् पूजयतम् पूजयत म० पु० अपूजयः अपूजयतम् अपूजयत पूजयानि पूजयाव पूजयाम उ० पु० अपूजयम् अपूजयाव अपूजयाम द्यादि अपूपुजत् अपूपुजताम् अपूपुजन् प्र० पु० अपूपुजः अपूपुजतम् अपूपुजत म० पु० अपूपुजम् अपूपुजाव अपूपुजाम उ० पू० णबादि (१) पूजयाञ्चकार पूजयाञ्चक्रतुः पूजयाञ्चक्रुः प्र० पु० पूजयाञ्चकर्थ पूजयाञ्चक्रथुः पूजयाञ्चक्र म० पु० पूजयाञ्चकार, पूजयाञ्चकर पूजयाञ्चकृव । पूजयाञ्चकृम उ० पु० Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ जबादि (२) पूजयाम्बभूव पूजयाम्बभूवतुः पूजयाम्बभूविथ पूजयाम्बभूवथुः पूजयाम्बभूविव पूजयाम्बभूव बादि (३) पूजयामास पूजयामासतुः पूजयामासिथ पूजयामासथुः पूजयामासिव पूजयामास क्यादादि तादि पूज्यात् पूज्यास्ताम् पूज्यासुः प्र० पु० पूजयिता पूजयितारौ पूजयितार: पूज्याः पूज्यास्तम् पूज्यास्त म० पु० पूजयितासि पूजयितास्थः पूजयितास्थ पूज्यासम् पूज्यास्व पूज्यास्म उ० पु० पूजयितास्मि पूजयितास्वः पूजयितास्मः स्यत्यादि एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि पूजयाम्बभूवुः प्र० पु० पूजयाम्बभूव म० पु० पूजयाम्बभूविम उ० पु० बादि पालयतु, पालयतात् पालय, पालयतात् पालयानि पूजयामासुः पूजयामास पूजयामासम पूजयिष्यति पूजयिष्यत: पूजयिष्यन्ति पूजयिष्यसि पूजयिष्यथ: पूजयिष्यथ पूजयिष्यामि पूजयिष्यावः पूजयिष्यामः स्यदादि अपूजयिष्यत् पूजयिष्यताम् अपूजयिष्यन् प्र० पु० म० पु० अपूजयिष्यः अपूजयिष्यतम् पूजयिष्यत अपूजयिष्यम् अपूजयिष्याव पूजयिष्याम उ० पु० १२६. पल - रक्षणे (रक्षा करना) पालयताम् पालयतम् पालयाव पालयति पालयतः पालयन्ति प्र० पु० पालयेत् पालयसि पालयथः पालयथ म० पु० पालयेः पालयामि पालयावः पालयामः उ० पु० पालयेयम् प्र० पु० म० पु० उ० पु० पालयन्तु पालयत पालयाम एकवचन द्विवचन यादादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० पालयेताम् पालयेतम् पालयेव ४५३ प्र० पु० म० पु० उ० पु० बहुवचन पालयेयुः पालयेत पालयेम Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ वाक्यरचना बोधः दिबादि द्यादि अपालयत् अपालयताम् अपालयन् प्र० पु० अपीपलत् अपीपलताम् अपीपलन् अपालयः अपालयतम् अपालयत म० पु० अपीपलः अपीपलतम् अपीपलत अपालयम् अपालयाव अपालयाम उ० पु० अपीपलम् अपीपलाव अपीपलाम णबादि (१) पालयाञ्चकार पालयाञ्चक्रतुः पालयाञ्चक्रुः पालयाञ्चकर्थ पालयाञ्चक्रथः पालयाञ्चक पालयाञ्चकार, पालयाञ्चकर पालयाञ्चकृव पालयाञ्चकृम उ० पु. णबादि (२) पालयाम्बभूव पालयाम्बभूवतुः पालयाम्बभूवुः प्र० पु० पालयाम्बभूविथ पालयाम्बभूवथुः पालयाम्बभूव म० पु० पालयाम्बभूव पालयाम्बभूविव पालयाम्बभूविम उ० पु० णबादि पालयामास पालयामासतु: पालयामासुः प्र० पु० पालयामासिथ पालयामासथुः । पालयामास म० पु० पालयामास पालयामासिव पालयामासिम उ० पु० ज्यादादि तादि पाल्यात् पाल्यास्ताम् पाल्यासुः प्र० पु. पालयिता पालयितारौ पालयितारः पाल्याः पाल्यास्तम् पाल्यास्त म० पु० पालयितासि पालयितास्थः पालयितास्थ पाल्यासम् पाल्यास्व पाल्यास्म उ० पु० पालयितास्मि पालयितास्वः पालयितास्मः स्यत्यादि पालयिष्यति पालयिष्यतः पालयिष्यन्ति पालयिष्यसि पालयिष्यथः पालयिष्यथ पालयिष्यामि पालयिष्यावः पालयिष्यामः स्यदादि अपालयिष्यत् अपालयिष्यताम् अपालयिष्यन् प्र० पु० अपालयिष्यः अपालयिष्यतम् अपालयिष्यत म० पु० अपालयिष्यम् अपालयिष्याव अपालयिष्याम उ० पु० १२७. स्निहण-स्नेहने (स्नेह करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि स्नेहयति स्नेहयतः स्नेहयन्ति प्र० पु० स्नेहयेत् स्नेहयेताम् स्नेहयेयुः स्नेहयसि स्नेहयथः स्नेहयथ म० पु० स्नेहये: स्नेहयेतम् स्नेहयेत स्नेहयामि स्नेहयावः स्नेहयामः उ० पु० स्नेहयेयम् स्नेहयेव स्नेहयेम go op Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ सुबादि दिबादि स्नेहयतु, स्नेहयतात् स्नेहयताम् स्नेहयन्तु प्र० पु० अस्नेहयत् अस्नेहयताम् अस्नेहयन् स्नेहय, स्नेहयतात् स्नेहयतम् स्नेहयत म० पु० अस्नेहयः अस्नेहयतम् अस्नेहयत स्नेहानि स्नेहयाव स्नेहयाम उ० पु० अस्नेहयम् अस्नेहयाव अस्नेहयाम धादि -असिष्णिहत् असिष्णताम् असिष्णिहः असिष्णिहतम् असिष्णिहम् असिष्णिहाव बादि (१) स्नेहयाञ्चकार स्नेहयाञ्चकर्थ स्नेहयाञ्चक्रतुः स्नेहाञ्चक्रथुः स्नेहयाञ्चकार, स्नेहयाञ्चकर स्नेहयाञ्चकृव -जबादि (२) स्नेहयाम्बभूव स्नेहयाम्बभूवतुः स्नेहयाम्बभूवुः स्नेहयाम्बभूविथ स्नेहयाम्बभूवथुः स्नेहयाम्बभूव स्नेहयाम्बभूव स्नेहयाम्बभूविव स्नेहयाम्बभूविम -जबादि (३) स्नेहयामास स्नेहयामासिथ स्नेहयामास क्यादादि असिष्णिहन् असिष्णिहत असिष्णिहाम स्नेहयामासतुः स्नेहयामासथुः स्नेहा मासि स्नेहयामासुः स्नेहयामास स्नेहयामासम स्नेहयिष्यति स्नेहयिष्यतः स्नेहयित स्नेहयिष्यसि स्नेहयिष्यथः स्नेहयिष्यथ स्नेहयिष्यामि स्नेहयिष्यावः स्नेहयिष्यामः स्यदादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० स्नेहयाञ्चक्रुः स्नेहयाञ्चक्र स्नेहयाञ्चक्रम अस्नेहयिष्यत् अस्नेहयिष्यताम् अस्नेहयिष्यन् अस्नेहयिष्यः अस्नेहयिष्यतम् अति अस्नेहयिष्यम् अस्नेहयिष्याव अस्नेहयिष्याम प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० तादि स्नेह्यात् स्नेह्यास्ताम् स्नेह्यासुः प्र० पु० स्नेहयिता स्नेहयितारी स्नेहयितार: स्नेह्याः स्नेह्यास्तम् स्नेह्यास्त म० पु० स्नेहयितासि स्नेहयितास्थः स्नेहयितास्थ स्नेह्यास्म उ० पु० स्नेहयितास्मि स्नेहयितास्वः स्नेहयितास्मः स्नेह्यासम् स्नेह्यास्व स्यत्यादि प्र० पु० म० पु० उ० पु० ४५५ प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ १२८. मन्त्र – गुप्त भाषणे (मन्त्रणा करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि मन्त्रयते मन्त्रयेते मन्त्रयसे मन्त्रयेथे मन्त्रये मन्त्रया हे मन्त्रयन्ते प्र० पु० मन्त्रयेत मन्त्रयेयाताम् मन्त्रयेरन् मन्त्राध्वे म० पु० मन्त्रयेथाः मन्त्रयेयाथाम् मन्त्रयेध्वम् त्रयामहे उ० पु० मन्त्रयेय मन्त्रयेवहि मन्त्रयेमहि दिबादि मन्त्रयाञ्चक्राते मन्त्रयाञ्चक्राथे मन्त्रयाञ्चकृवहे तुबादि मन्त्रयताम् मन्त्रयेताम् मन्त्रयन्ताम् प्र० पु० अमन्त्रयत अमन्त्रयेताम् अमन्त्रयन्त मन्त्रयस्व मन्त्रयेथाम् मन्त्रयध्वम् म० पु० अमन्त्रयथाः अमन्त्रयेथाम् अमन्त्रयध्वम् मन्त्रयै मन्त्रयाव है मन्त्रयाम है उ० पु० अमन्त्रये अमन्त्रयावहि अमन्त्रयामहि धादि अममन्त्रत अममन्त्रेताम् अममन्त्रथाः अममन्त्रेथाम् अममन्त्रे अममन्त्रावहि बादि (१) मन्त्रयाञ्चक्रे मन्त्रयाञ्चकृषे मन्त्रयाञ्चक्रे बादि (२) मन्त्रयाम्बभूव मन्त्रयाम्बभूवतुः मन्त्रयाम्बभूवुः मन्त्रयाम्बभूविथ मन्त्रयाम्बभूवथुः मन्त्रयाम्बभूव मन्त्रयाम्बभूव मन्त्रयाम्बभूवि मन्त्रयाम्बभूविम बादि (३) मन्त्रयामास मन्त्रयामाथि मन्त्रयामासतुः मन्त्रयामासथुः मन्त्रयामासिव अममन्त्रन्त अममन्त्रध्वम् अममन्त्रामहि मन्त्रयामास क्यादादि मन्त्रयिषीष्ट मन्त्रयिषीयास्ताम् मन्त्रयिषीष्ठाः मन्त्रयिषीय एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि तादि मन्त्रयिता मन्त्रयितारौ मन्त्रयिता मन्त्रयितासाथे मन्त्रयिता मन्त्रयितास्व प्र० पु० म० पु० उ० पु० मन्त्रयाञ्चक्रिरे मन्त्रयाञ्चकृढ्वे मन्त्रयाञ्चकृमहे वाक्यरचना बोध मन्त्रयामासुः मन्त्रयामास मन्त्रयामासम मन्त्रयितारः मन्त्रयिताध्वे मन्त्रयितास्महे प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० मन्त्रयिषीरन् प्र० पुल मन्त्रयिषीयास्थाम् मन्त्रयिषीढ्वम्, मन्त्रयिषीध्वम् म० पु० मन्त्रयिषीवहि मन्त्रयिषीमहि उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ स्यत्यादि मन्त्रयिष्यते मन्त्रयिष्येते मन्त्रयिष्यसे मन्त्रयिष्येथे मन्त्रयिष्ये मन्त्रयिष्यावहे स्यदादि अमन्त्रयिष्यत मन्त्रयिष्येताम् अमन्त्रयिष्यथाः अमन्त्रयिष्येथाम् अमन्त्रयिष्ये अपस्पृहत् अपस्पृहः अमन्त्रयिष्यन्त प्र० पु० अमन्त्रयिष्यध्वम् म० पु० अमन्त्रयिष्यावहि अमन्त्रयिष्यामहि उ० पु० एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि १२६. स्पृहण - ईप्सायाम् ( चाहना ) एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि स्पृहयति स्पृहयतः स्पृहयन्ति प्र० पु० स्पृहयेत् स्पृहयेताम् स्पृहयेयुः स्पृहयथः स्पृहयथ म० पु० स्पृहये: स्पृहयेतम् स्पृहयेत स्पृहयामि स्पृहयाव स्पृहयाम उ० पु० स्पृहयेयम् स्पृहयेव स्पृहये तुबादि दिबादि पृ स्पृहयतु, स्पृहयतात् स्पृहयताम् स्पृहय, स्पृहयतात् स्पृहयतम् स्पृहयाणि स्पृहयाव द्यादि अपस्पृहम् बादि (१) स्पृहयाञ्चकार स्पृहयाञ्चकर्थं अपस्पृहताम् अपस्पृहतम् अपस्पृहाव स्पृहयाम्बभूव बादि (३) मन्त्रयिष्यन्ते मन्त्रयिष्यध्वे मन्त्रयिष्यामहे स्पृहयाञ्चक्रतुः स्पृहयाञ्चक्रथुः स्पृहयाञ्चकार, स्पृहयाञ्चकर स्पृहयाञ्चकृव बादि (२) स्पृहयाम्बभूव स्पृहयाम्बभूवतुः स्पृहयाम्बभूविथ स्पृहयाम्बभूवथुः स्पृहयाम्बभूविव स्पृहयामास स्पृहयामासतुः स्पृहयामासथुः स्पृहयामाथि स्पृहयामास स्पृहयामास स्पृहयन्तु प्र० पु० अस्पृहयत् अस्पृहयताम् अस्पृहयन् स्पृहयत म० पु० अस्पृहयः अस्पृहयतम् अस्पृहयत स्पृहयाम उ० पु० अस्पृहयम् अस्पृहयाव अस्पृहयाम अपस्पृहन् अपस्पृहत अपस्पृहाम प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० स्पृहयाञ्चक्रुः स्पृहयाञ्चक स्पृहयाञ्चकृम स्पृहयाम्बभूवुः स्पृहयाम्बभूव स्पृहयाम्बभूविम स्पृहयामासुः स्पृहयामास स्पृहयामासम ४५.७ प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ वाक्यरचना बोध क्यादादि तादि स्पृह्यात् स्पृह्यास्ताम् स्पृह्यासुः प्र० पु० स्पृहयिता स्पृहयितारी स्पृहयितारः स्पृह्याः स्पृह्यास्तम् स्पृह्यास्त म० पु० स्पृहयितासि स्पृहयितास्थः स्पृहयितास्थ स्पृह्यासम् स्पृह्यास्व स्पृह्यास्म उ० पु० स्पृहयितास्मि स्पृहयितास्वः स्पृहयितास्मः स्यत्यादि स्पृहयिष्यति स्पृहयिष्यतः स्पृहयिष्यन्ति प्र० पु० स्पृहयिष्यसि स्पृहयिष्यथ: स्पृहयिष्यथ . स्पृहयिष्यामि स्पृहयिष्यावः स्पृहयिष्यामः स्यदादि अस्पृहयिष्यत् अस्पृहयिष्यताम् अस्पृहयिष्यन् प्र० पु. अस्पृहयिष्यः अस्पृहयिष्यतम् अस्पृहयिष्यत म० पु० अस्पृहयिष्यम् अस्पृहयिष्याव अस्पृहयिष्याम उ० पु० म० १३०. मार्गण-अन्वेषणे (खोजना) तुबादि एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि मार्गयति मार्गयतः मार्गयन्ति प्र० पु० मार्गयेत् मार्गयेताम् मार्गयेयु: मार्गयसि मार्गयथः मार्गयथ म० पु० मार्गयेः मार्गयेतम् मार्गयेत मार्गयामि मार्गयावः मार्गयामः उ० पु० मार्गयेयम् मार्गयेव मार्गयेम दिबादि मार्ग यतु, मार्गयतात् मार्गयताम् मार्गयन्तु प्र० पु० अमार्गयत् अमार्गयताम् अमार्गयन् मार्गय, मार्गयतात् मार्गयतम् मार्गयत म० पु० अमार्गयः अमार्गयतम् अमार्गयत मार्गयाणि मार्गयाव मार्गयाम उ० पु० अमार्गयम् अमार्गयाव अमार्गयाम द्यादि अममार्गत् अममार्गताम् अममार्गन् प्र० पु० अममार्गः अममार्गतम् अममार्गत म० पु० अममार्गम् अममार्गाव अममार्गाम उ० पु० णबादि (१) मार्गयाञ्चकार मार्गयाञ्चक्रतुः मार्गयाञ्चक्रुः प्र० पु० मार्गयाञ्चकर्थ मार्गयाञ्चक्रथुः मार्गयाञ्चक्र म० पु० मार्गयाञ्चकार, मार्गयाञ्चकर मार्गयाञ्चकृव मार्गयाञ्चकृम उ० पु० . Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४५६ णबादि (२) मार्गयाम्बभूव मार्गयाम्बभूवतुः मार्गयाम्बभूवुः प्र० पु० मार्गयाम्बभूविथ मार्गयाम्बभूवथुः मार्गयाम्बभूव म० पु० मार्गयाम्बभूव मार्गयाम्बभूविव मार्गयाम्बभूविम उ० पु० णबादि (३) मार्गयामास मार्गयामासतुः मार्गयामासुः प्र० पु० मार्गयामासिथ मार्गयामासथुः मार्गयामास म० पु० मार्गयामास मार्गयामासिव मार्गयामासिम उ० पु० क्यादादि तादि मार्यात् मार्यास्ताम् मार्यासुः प्र० पु० मार्गयिता मार्गयितारी मार्गयितारः मार्याः मार्यास्तम् मार्यास्त म० पु० मार्गयितासि मार्गयितास्थः मार्गयितास्थ मास्मि मार्यास्व मार्गास्म उ० पु० मार्गयितास्मि मार्गयितास्वः मार्गयितास्मः स्यत्यादि मार्गयिष्यति मार्गयिष्यतः मार्गयिष्यन्ति प्र० पू० मार्गयिष्यसि मार्गयिष्यथ: मार्गयिष्यथ मार्गयिष्यामि मार्गयिष्यावः मार्गयिष्यामः स्यदादि अमार्गयिष्यत् अमार्गयिष्यताम् अमार्गयिष्यन् प्र० पु० अमार्गयिष्यः अमार्गयिष्यतम् अमार्गयिष्यत म० पु. अमार्गयिष्यम् अमार्गयिष्याव अमार्गयिष्याम उ० पु० ܟܲܝ ܩܸܪ ܂ १३१. हिसिण्-हिंसायाम् (हिंसा करना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन "तिबादि यादादि हिंसयति हिंसयतः हिंसयन्ति प्र० पु० हिंसयेत् हिंसयेताम् हिंसयेयुः हिसयसि हिंसयथः हिंसयथ म० पु० हिंसयेः हिंसयेतम् हिंसयेत हिंसकामि हिंसयावः हिंसयामः उ० पु० हिंसयेयम् हिंसयेव हिंसयेम तुबादि दिबादि हिंसयतु, हिंसयतात् हिंसयताम् हिंसयन्तु प्र० पु० अहिंसयत् अहिंसयताम् अहिंसयन् हिंसय, हिंसयतात् सियतम् हिंसयत म० पु० अहिंसयः अहिंसयतम् अहिंसयत हिंसयानि हिंसयाव हिंसयाम उ० पु० अहिंसयम् अहिंसयाव अहिंसयाम Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० वाक्यरचना बोक ____ मास धादि अजिहिंसत् अजिहिंसताम् अजिहिंसन् प्र० पु० अजिहिंसः अजिहिसतम् अजिहिंसत ___ म० पु० अजिहिंसम् अजिहिंसाव अजिहिसाम उ० पु० णबादि (१) हिंसयाञ्चकार हिंसयाञ्चक्रतुः हिंसयाञ्चक्रुः प्र० पु० हिंसयाञ्चकर्थ ___ हिंसयाञ्चक्रथुः हिंसयाञ्चक्र म० पु० हिंसयाञ्चकार, हिंसयाञ्चकर हिंसयाञ्चकृव हिंसयाञ्चकृम उ० पु० बादि (२) हिंसयाम्बभूव हिंसयाम्बभूवतुः हिंसयाम्बभूवुः प्र० पु० हिंसयाम्बभूविथ हिंसयाम्बभूवथुः हिंसयाम्बभूव म० पु० हिंसयाम्बभूव हिसयाम्बभूविव हिंसयाम्बभूविम उ० पु० णबादि (३) हिंसयामासतुः हिंसयामासुः प्र० पु० हिंसयामासिथ हिंसयामासथुः हिंसयामास ___ म० पु० हिंसयामास हिंसयामासिव हिंसयामासिम उ० पु० क्यादादि तादि हिंस्यात् हिंस्यास्ताम् हिस्यासुः प्र. पु० हिंसयिता हिंसयितारौ हिंसयितारः हिंस्याः हिंस्यास्तम् हिंस्यास्त म० पु० हिंसयितासि हिंसयितास्थः हिंसयितास्थ हिंस्यासम् हिंस्यास्व हिंस्यास्म उ० पु० हिंसयितास्मि हिंसयितास्वः हिंसयितास्मः स्यत्यादि हिंसयिष्यति हिंसयिष्यत: हिंसयिष्यन्ति प्र० पू० हिंसयिष्यसि हिंसयिष्यथ: हिंसयिष्यथ म० पु० हिंसयिष्यामि हिंसयिष्याव: हिंसयिष्यामः उ० पु० स्यदादि अहिंसयिष्यत् अहिंयिष्यताम् अहिंसयिष्यन् प्र० पु० अहिंसयिष्यः अहिंसयिष्यतम् अहिंसयिष्यत म० पु. अहिंसयिष्यम् अहिंसयिष्याव अहिंसयिष्याम उ० पु० १३२. रचण-प्रतियत्ने (बनाना) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि रचयति रचयतः रचयन्ति प्र० पु० रचयेत् रचयेताम् रचयेयुः रचयसि रचयथ: रचयथ म० पु० रचयः रचयेतम् रचयेत रचयामि रचयाव: रचयाम: उ० पु० रचयेयम् रचयेव रचयेम. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४६१ तुबादि प्र० पृ Geogog दिवादि रचयतु, रचयतात् रचयताम् रचयन्तु प्र० पु० अरचयत् अरचयताम् अरचयन् रचयय, रचयतात् रचयतम् रचयत म० पु० अरचयः अरचयतम् अरचयत रचयानि रचयाव रचयाम उ० पु० अरचयम् अरचयाव अरचयाम धादि अररचत् अररचताम् अररचन अररचः अररचतम् अररचत म० पु० अररचम् अररचाव अररचाम: उ० पु० णबादि (१) रचयाञ्चकार रचयाञ्चक्रतुः __ रचयाञ्चक्रुः रचयाञ्चकर्थ रचयाञ्चक्रथुः रचयाञ्चक म० पु० रचयाञ्चकार, रचयाञ्चकर रचयाञ्चकृव रचयाञ्चकृम णबादि (२) रचयाम्बभूव रचयाम्बभूवतुः रचयाम्बभूवुः प्र० पु० रचयाम्बभूविथ रचयाम्बभूवथुः रचयाम्बभूव म० पु० रचयाम्बभूव रचयाम्बभूविव रचयाम्बभूविम उ० पु० णबादि (३) क्यादादि रचयामास रचयामासतुः रचयामासुः प्र० पु० रच्यात् रच्यास्ताम् रच्यासुः रचयामासिथ रचयामासथुः रचयामास म० पु० रच्याः रच्यास्तम् रच्यास्त रचयामास रचयामासिव रचयामासिम उ० पु० रच्यासम् रच्यास्व रच्यास्म तादि स्यत्यादि रचयिता रचयितारौ रचयितारः प्र० पु० रचयिष्यति रचयिष्यतः रचयिष्यन्ति रचयितासि रचयितास्थः रचयितास्थ म० पु० रचयिष्यसि रचयिष्यथः रचयिष्यथ रचयितास्मि रचयितास्वः रचयितास्म: उ० पु० रचयिष्यामि रचयिष्यावः रचयिष्यामः स्यदादि अरचयिष्यत् अरचयिष्यताम् अरचयिष्यन् प्र० पु० .... अरचयिष्यः अरचयिष्यतम् अरचयिष्यत म० पु० अरचयिष्यम अरचयिष्याव अरचयिष्याम उ० पु... Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुओं की संक्षिप्त रूपावली धातु bilim अटेत् आटत् अणतु अतेत् आतत् अन्यात् अर्कयेत् मर्च अर्चतु मोट–णबादि के रूपों में ३ का अर्थ है चकार, बभूव, मास । धातु के रूप के आगे इनके रूप जुड़ेंगे। आत्मनेपद में चकार के स्थान पर चक्रे होगा। तिबादि यादादि तुबादि दिबादि अकिङ् अङ्कते अङ्केत अङ्कताम् आङ्कत अघण अघयति अघयेत् अघयतु आघयत् अञ्जूर अनक्ति अङ्ग्यात् अनक्तु आनक अट अटति अटतु अण अणति अणेत् आणत् अत अतति अततु अन अनिति अनितु आनत् अन्धण अन्धयति अन्धयेत् अन्धयतु आन्धयत् अयङ् अयते अयेत अयताम् आयत अर्कण् अर्कयति अर्कयतु आर्कयत् अर्चति अर्चेत् आर्चत् अर्ज अर्जति अर्जेत् अवति अवेत् अवतु आवत् अशूत् अश्नुते अश्नुवीत अश्नुताम् आश्नुत असु असूयति असूयेत् असूयतु आसूयत् मसुच अस्यति अस्येत् अस्यतु आस्यत् इदि इन्दति इन्देत् इन्दतु ऐन्दत् इन्धीङ् इन्धीत इन्द्धाम् ऐन्द्ध इरस् इरस्यति इरस्येत् इरस्यतु ऐरस्यत् ईच् ईयते ईयेत ऐयत ईरयति ईरयेत् ईरयतु ऐरयत् ईर्ष्ण ईर्ण्यति ईर्प्यतु ऐपत् ईष्टे ईशीत ईष्टाम् ऐष्ट ईहते ईहेत ईहताम् ऐहत उज्झज् उज्झति उज्झेत् औज्झत् ऊर्जण ऊर्जयति ऊर्जयेत् ऊर्जयतु और्जयत ऊर्णनक ऊौति ऊर्गुयात् ऊणौतु और्णोत् अर्जतु आर्जत् अव इन्धे ईयताम् ईरण् ईयेत् ईशङ् ईहङ् उज्झतु Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ Hinn धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि आङ्किष्ट आनके अङ्ग्यात् अङ्किता अङ्किष्यते आङ्किष्यत आजिघत् अघयाञ्चकार ३ अध्यात् अघयिता अपयिष्यति आधयिष्यत् आजीत् आनञ्ज अज्यात् अञ्जिता अञ्जिष्यति आञ्जिष्यत् आटीत् आट अट्यात् अटिता अटिष्यति आटिष्यत् आणीत् आण अण्यात् अणिता अणिष्यति आणिष्यत् आतीत् आत अत्यात् अतिता अतिष्यति आतिष्यत् आनीत् आन अन्यात् अनिता अनिष्यति आनिष्यत् आन्दिधत् अन्धयाञ्चकार ३ अन्ध्यात् अन्धिता अन्धिष्यति आन्धिष्यत आयिष्ट अयाञ्चक्रे ३ अयिषीष्ट अयिता अयिष्यते आयिष्यत आचिकत् अर्कयाम्बभूव ३ अर्क यात् अर्कयिता अर्कयिष्यति आर्कयिष्यत् आर्चीत् आनर्च अात् अचिता अचिष्यति आर्चिष्यत् आर्जीत् आनर्ज अात् अर्जिता अजिष्यति आजिष्यत् आवीत् आव अव्यात् अविता अविष्यति आविष्यत् आशिष्ट आनशे अशिषीष्ट अशिता अशिष्यते आशिष्यत आसूयीत् असूयाञ्चकार ३ असूयिता असूय्यात् असूयिष्यति आसूयिष्यत् आस्थत् आस अस्यात् असिता असिष्यति आसिष्यत् ऐन्दीत् इदांचकार ३ इन्द्यात् इन्दिता इन्दिष्यति ऐन्दिष्यत् ऐन्धिष्ट इन्धाञ्चक्रे ३ इन्धिषीष्ट इन्धिता इन्धिष्यते ऐन्धिष्यत । ऐरसीत् इरसाञ्चकार ३ इरस्यात् इरसिता इरसिष्यति ऐरसिष्यत् ऐष्ट अयाञ्चक्रे ३ ऐषीष्ट एता एष्यते ऐष्यत ऐरिरत् ईरयाञ्चकार ३ ईर्यात् ईरयिता ईरयिष्यति ऐरयिष्यत् ऐशत् ईर्ष्याञ्चकार ३ ईर्ष्यात् ईष्यिता ईष्यिष्यति ऐष्यिष्यत् ऐशिष्ट ईशाञ्चक्रे ३ ईशिषीष्ट ईशिता ईशिष्यते ऐशिष्यत ऐहिष्ट ईहाञ्चके ३ ईहिषीष्ट ईहिता ईहिष्यते ऐहिष्यत औज्झीत् उज्झाञ्चकार ३ उज्झ्यात् उज्झिता उज्झिष्यति औज्झिष्यत् औजिजत् ऊर्जयाञ्चकार ३ ऊर्ध्यात् ऊर्जयिता ऊर्जयिष्यति और्जयिष्यत् और्णावीत् ऊर्जुनाव अणूयात् ऊर्गुविता ऊर्णविष्यति और्णविष्यत् Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध 'धात तिबादि तुबादि ऊहङ् कटे कडज् कण्डून् कण यादादि ऊहेत कटेत् कडेत् कण्डूयेत् ऊहते कटति कडति कण्डूयति कणति कत्थते कथयति कथयते कनति कम्पते कामयते कत्थक दिबादि औहत अकटत् अकडत् अकण्डूयत् अकणत् अकत्थत अकथयत् अकथयत् अकनत् अकम्पत ऊहताम् कटतु कडतु कण्डूयतु कण कत्थताम् कथयतु कथयताम् कनतु कम्पताम् कामयताम् कणेत् कत्थेत कथयेत् कथयेत कनेत् कम्पेत काम येत कथण कनी कपिङ् कमुङ् अकामयत अकलयत कलङ् कलण कलयति कलते काक्षि काङ्क्षति काशृङ् काशते कासृङ् कासते कित चिकित्सति कलयेत् कलेत काङ्क्षत् काशेत कासेत चिकित्सेत् कलयतु कलताम् काङ्क्षतु काशताम् कासताम् चिकित्सतु अकलत अकाक्षत् अकाशत अकासत अचिकित्सत् कुच कोचति कुटज् कुटति कुपच कुप्यति कृतीज् कृन्तति कृपूङ् कल्पते कोचेत् कुटेत् कुप्येत् कृन्तेत् कल्पेत कोचतु कुटतु कुप्यतु कृन्ततु कल्पताम् अकोचत् अकुटत् अकुप्यत् अकृन्तत् अकल्पत कृशच कृश्यति कर्षति कृश्येत् कत् कृश्यतु कर्षतु अकृश्यत् अकर्षत् कृषं कृषन्ज् कृषति कृषते कृषेत् कृषेत कृणीयात् कृणीत कृषतु कृषताम् कृणातु कृणीताम् कृणाति कृणीते अकृषत् अकृषत अकृणात अकृणीत कन्श् Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *परिशिष्ट २ ४६५ चादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि औहिष्ट ऊहाञ्चक्रे ३ ऊहिषीष्ट ऊहिता अहिष्यते औहिष्यत अकटीत् चकाट कट्यात् कटिता कटिष्यति अकटिष्यत् अकाडीत्, अकडीत् चकाड कड्यात् कडिता कडिष्यति अकडिष्यंत् अकण्डूयीत् कण्डूयाञ्चकार ३ कण्डूय्यात् कण्डूयिता कण्डूयिष्यति अकण्डूयिष्यत् अकणीत् चकाण कण्यात् कणिता कणिष्यति अकणिष्यत् अकत्थिष्ट चकत्थे कत्थिषीष्ट कत्थिता कत्थिष्यते अकत्थिष्यत अचकथत् कथयाञ्चकार ३ कथ्यात् कथयिता कथयिष्यति अकथयिष्यत् अचकथत कथयाञ्चक्रे ३ कथयिषीष्ट कथयिता कथयिष्यते अकथयिष्यत अकनीत् चकान कन्यात् कनिता कनिष्यति अकनिष्यत् अकम्पिष्ट चकम्पे कम्पिषीष्ट कम्पिता कम्पिष्यते अकम्पिष्यत अचीकमत् कामयाञ्चक्रे ३ कामयिषीष्ट कामयिता कामयिष्यते अकामयिष्यत चकमे कमिता अचकलत् कलयामास ३ कल्यात् कलयिता कलयिष्यति अकलयिष्यत् अकलिष्ट चकले कलिषीष्ट कलिता कलिष्यते अकलिष्यत अकाड्क्षीत् चकांक्ष कांक्ष्यात् कांक्षिता कांक्षिष्यति अकांक्षिष्यत अकाशिष्ट चकाशे काशिषीष्ट काशिता काशिष्यते अकाशिष्यत अकासिष्ट कासाञ्चक्रे ३ कासिषीष्ट कासिता कासिष्यते अकासिष्यत अचिकित्सीत् चिकित्साञ्चकार ३ चिकित्स्यात् चिकित्सिता चिकित्सिष्यति अचिकित्सिष्यत् अकोचीत् चुकोच कुच्यात् कोचिता कोचिष्यति अकोचिष्यत् अकुटीत् चु कोट कुट्यात् कुटिता कुटिष्यति अकुटिष्यत् अकुपत् कुप्यात् कोपिता कोपिष्यति अकोपिष्यत् अकर्तीत् चकर्त कृत्यात कर्तिता कतिष्यति अकतिष्यत् अक्लपत् (त) चक्लुपे कल्पिषीष्ट कल्पिता कल्पिष्यते अकल्पिष्यत अक्लपिष्ट क्लप्सीष्ट कल्प्ता कल्प्स्यते (ति) अकल्प्स्यत् (त) अकृशत चकर्श कृश्यात् कशिता कशिष्यति अशिष्यत् अक्राक्षीत् चकर्ष कृष्यात् ऋष्टा, कष्र्टा कयति अकय॑त् अकार्षीत् अकृक्षत अक्रक्ष्यत् अकार्षीत्, अकृक्षत् (त) चकर्ष कृष्यात् ऋष्टा कयति अकमंत् अक्राक्षीत्, अकृष्ट चकृषे कृक्षीष्ट कष्र्टा ऋक्ष्यते अक्रक्ष्यत अकारीत् चकार कीर्यात करिता करिष्यति अकरिष्यत् अकरिप्ट चकरे करिषीष्ट करिष्यते अकरिष्यत चुकोप Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ वाक्यरचना बोध धात तिबादि यादादि तुबादि दिबादि अकिरत् क किरति किरेत् किरतु कृतण् कीर्तयति कीर्तयेत् कीर्तयतु अकीर्तयत् क्रन्दतु ऋपते क्नूयीङ् क्नूयते क्नूयेत क्नयताम् अक्नूयत ऋदि क्रन्दति क्रन्देत् अक्रन्दत् क्रप क्रपेत क्रपताम् अक्रपत क्रामति, काम्यति कामेत्, काम्येत् । क्रामतु, क्राम्यतु अक्रामत्, अक्राम्यत् क्रीड़ क्रीडति क्रीडेत् अक्रीडत् क्रुशं क्रोशति क्रोशेत् अक्रोशत् क्लदि क्लन्दति क्लन्देत् क्लन्दतु अक्लन्दत् क्लमुच् क्लाम्यति, क्लामति क्लाम्येत् क्लाम्यतु अक्लाम्यत् क्लिदूच् क्लिद्यति क्लिद्येत् अक्लिद्यत् क्रीडतु क्रोशतु क्लिद्यतु क्षणुन् क्षणोति क्षणुते क्षाम्यति क्षणुयात् क्षण्वीत क्षाम्येत् क्षणोतु क्षणुताम् क्षाम्यतु अक्षणोत् अक्षणुत अक्षाम्यत् क्षमुच् क्षमेत क्षमताम् क्षरेत् अक्षमत अक्षरत् अक्षालयत् अक्षयत् क्षरतु क्षालयतु क्षयतु क्षिप्यतु क्षिपतु क्षालयेत् क्षयेत् क्षिप्येत् अक्षिप्यत् क्षिप्ताम् क्षमूषङ क्षमते क्षर क्षरति क्षलण् क्षालयति क्षि क्षयति क्षिपंच क्षिप्यति क्षिपन्ज् क्षिपति क्षिपते क्षिवु क्षेवति क्षिवुच् क्षीव्यति क्षुधंच क्षुध्यति क्षुभच् क्षुभ्यति क्ष्विदाच विद्यति खजि खञ्जति खडिण् खण्डयति क्षिपेत् क्षिपेत क्षेवेत् क्षीव्येत् क्षुध्येत् क्षुभ्येत् क्ष्विद्येत् खजेत् खण्डयेत क्षेवतु क्षीव्यतु क्षुध्यतु क्षुभ्यतु विद्यतु खञ्जतु खण्डयतु अक्षिपत् अक्षिपत अक्षेवत् अक्षीव्यत् अक्षुध्यत् अक्षुभ्यत् अश्विद्यत् अखञ्जत् अखण्डयत Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४६७. धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अकारीत् चकार कीर्यात् करिता करिष्यति अकरिष्यत् ___ करीता करीष्यति अकरीष्यत् अचीकृतत् कीर्तयांचकार ३ कीर्त्यात् कीर्तयिता कीर्तयिष्यति अकीर्तयिष्यत अचीकीर्तत् अक्नूथिष्ट चुक्नूये क्नूयिषीष्ट क्नूयिता क्नूयिष्यते अक्नूयिष्यत अक्रन्दीत् चक्रन्द क्रन्द्यात् क्रन्दिता क्रन्दिष्यति अक्रन्दिष्यत् अक्रपिष्ट चक्रपे क्रपिषीष्ट क्रपिता क्रपिष्यते अक्रपिष्यत अक्रमीत् चक्राम क्रम्यात् ऋमिता ऋमिष्यति अक्रमिष्यत् अक्रोडीत् चिक्रीड क्रीड्यात् क्रीडिता क्रीडिष्यति अक्रीडिष्यत् अक्रुक्षत् चुक्रोश क्रुश्यात् क्रोष्टा क्रोक्ष्यति अक्रोक्ष्यत् अक्लन्दीत् चक्लन्द क्लन्यात् क्लन्दिता क्लन्दिष्यति अक्लन्दिष्यत् अक्ल मत् चक्लाम क्लम्यात् क्लमिता क्लमिष्यति अक्ल मिप्यत् अक्लिदत् चिक्लेद क्लिद्यात् क्लेदिता क्लेदिष्यति अक्लेदिष्यत् क्लेत्ता क्लेत्स्यति अक्लेत्स्यत् अक्षणीत् चक्षाण क्षण्यात् क्षणिता क्षणिष्यति अक्षणिष्यत् अक्षत,अक्षणिष्ट चक्षणे क्षणिषीष्ट क्षणिता क्षणिष्यते अक्षणिष्यत अक्षमत् चक्षाम क्षम्यात् क्षमिता, क्षन्ता क्षमिष्यति अक्षमिप्यत् क्षस्यति अक्षस्यत् अक्षमिष्ट चक्षमे क्षमिषीष्ट क्षमिता क्षमिष्यते अक्षमिष्यत अक्षारीत् चक्षार क्षर्यात् क्षरिता क्षरिष्यति अक्षरिष्यत् अचिक्षलत् क्षालयांचकार ३क्षाल्यात् क्षालयिता क्षालयिष्यति अक्षालयिष्यत् अक्षैषीत् चिक्षाय क्षीयात् क्षेता क्षेष्यति _ अक्षेष्यत् अक्षप्सीत् चिक्षेप क्षिप्यात् क्षेप्ता क्षेप्स्यति अक्षेप्स्यत् अक्षप्सीत् चिक्षेप क्षिप्यात् क्षेप्स्यति अक्षेप्स्यत् अक्षिप्त चिक्षिपे क्षिप्सीष्ट क्षेप्ता क्षेप्स्यते अक्षेप्स्यत अक्षेवीत् चिक्षेव क्षेविता क्षेविष्यति अक्षेविष्यत् अक्षेवीत् चिक्षेव क्षीव्यात् क्षेविता क्षेविष्यति अक्षेविष्यत् अक्षुधत् । चुक्षोध क्षुध्यात् क्षुद्धा क्षोत्स्यते अक्षोत्स्यत् । अक्षुभत् चुक्षोभ क्षुभ्यात् क्षोभिता क्षोभिष्यति अक्षोभिष्यत् अक्ष्वेदीत् चिक्ष्वेद विद्यात् . क्ष्वेदिता . वेदिष्यति अक्ष्वेदिष्यत् अखजीत् चखञ्ज खळ्यात् खञ्जिता खञ्जिष्यति अखजिष्यत अचखण्डत् खण्डयांचकार ३ खण्ड्यात् खण्डयिता खण्डयिष्यति अखण्डयिष्यत क्षेप्ता क्षीव्यात् Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ खातु खनुन् खादृ ख्यांक् गणण् गद नगद्गद गर्ज गर्द गर्व गर्ह गल गवेषण् गांडु गाहूङ् गुजि गुपङ् गुम्फज् गृधुच् गहू गज् गश् गें ग्रन्थण् ग्रन्थश् त्रमुङ् ब्लें घटङ् धलूं तिबादि खनति खनते खादति ख्याति गणयति गदति गद्गदति गर्जति गर्दति गर्वति गर्ह गलति गवेषयति गा गा गुञ्जति गुम्फति गृध्यति गर्ह गिरति गृणाति गायति ग्रन्थयति ग्रथ्नाति ग्रसते ग्लायति घटते घसति यादादि खनेत् खत खादेत् ख्यायात् गणयेत् गदेत् गद्गदेत् गर्जेत् गर्देत् गर्वेत् गत गलेत गवेषयेत् त गाहेत गुञ्जेत् जुगुप्से गुफेत् गृध्येत् गत गिरेत् गुणात् गायेत् ग्रन्थयेत् ग्रथ्नीयात् ग्रसेत ग्लायेत् घटेत घसेत् तुबादि खनतु खनताम् खादतु ख्यातु गणयतु गदतु गद्गदतु गर्जतु गर्दतु गर्वतु गर्हताम् गलतु गवेषयतु गाताम् गाहताम् गुञ्जतु जुगुप्सताम् गुम्फ गृध्यतु गर्हताम् गिरतु गुणातु गायतु ग्रन्थयतु ग्रथ्नातु ग्रसताम् ग्लायतु घटताम् घसतु वाक्यरचना बोध दिबादि अखनत् अखनत अखादत् आख्यात् अगणयत् अगदत् अगद्गदत् अगर्जत् अगर्द अगर्वत् अगलत् अगवेषयत् अगात अगाहत अगुञ्जत् अजुगुप्सत अगुम्फत् अगृध्यत् अर्हत अगिरत् अगृणात् अगायत् अग्रन्थयत् अग्रथ्नात् अग्रसत अग्लायत् अघटत अघसत् Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर्दीत् परिशिष्ट २ ४६६ धादि णबादि फ्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अखनीत् चखान खन्यात् खनिता खनिष्यति अखनिष्यत अखनिष्ट चख्ने , खनिषीष्ट खनिता खनिष्यते अखनिष्यत अखादीत् चखाद खाद्यात् खादिता खादिष्यति अखादिष्यत् आख्यत् आचख्यौ ख्या (ये) यात् ख्याता ख्यास्यति अख्यास्यत् अजीगणत् गणयांचकार ३ गण्यात् गणयिता गणयिष्यति अगणयिष्यत् अगादीत् जगाद गद्यात् गदिता गदिष्यति अगदिष्यत् अगद्गदीत् गद्गदांचकार गद्गद्यात् गद्गदिता गद्गदिष्यति अगद्गदिष्यत् अगर्जीत् जगर्ज गात् गजिता गजिष्यति अजिष्यत् जगर्द गर्द यात् गर्दिता गर्दिष्यति अगदिष्यत् अगर्वीत् जगर्व गात् गर्विता गर्विष्यति अगर्विष्यत् अगहिष्ट जगहें गहिषीष्ट गहिता गहिष्यते अहिष्यत अगलीत् जगाल गल्यात् गलिता गलिष्यति अगलिष्यत् अगालीत् अजगवेषत् गवेषयांचकार ३ गवेष्यात् गवेषयिता गवेषयिष्यति अगवेषयिष्यत् अगास्त जगे गासीष्ट गाता गास्यते अगास्यत अगाहिष्ट, अगाढ जगाहे गाहिषीष्ट गाहिता गाहिष्यते अगाहिष्यत अगुञ्जीत् जुगुज गुञ्ज्यात् गुञ्जिता गुञ्जिष्यति अगुञ्जिष्यत् अजुगुप्सिष्ट जुगुप्सांचक्रे ३ जुगुप्सिषीष्ट जुगुप्सिता जुगुप्सिष्यते अजुगुप्सिष्यत अगुम्फीत् जुगुम्फ गुफ्यात् गुम्फिता गुम्फिष्यति अगुम्फिप्यत् अगृधत् जगध गृध्यात् गधिता गधिष्यति अगधिष्यत् अगर्हिष्ट, जगृहे घृक्षीष्ट गर्हिता गहिप्यते अगर्हिष्यत अघृक्षत गर्हिषीष्ट गर्दा घयते अघयत अगारीत् जगार गरिता गरिष्यति अगरिष्यत् अगारीत् जगार गरिता गरिष्यति अगरिष्यत् अगासीत् जगौ गेयात् गाता गास्यति अगास्यत् अजग्रन्थत् ग्रन्थयांचकार ३ ग्रन्थय्यात् ग्रन्थिता ग्रन्थिष्यति अग्रन्थिष्यत् अग्रन्थीत् जग्रन्थ ग्रथ्यात् ग्रन्थिता ग्रन्थिष्यति अग्रन्थिष्यत् अग्रसिष्ट जनसे ग्रसिपीष्ट ग्रसिता ग्रसिष्यते अग्रसिष्यत अग्लासीत् जग्लौ ग्लायात्, ग्लेयात् ग्लाता ग्लास्यति अग्लास्यत् अघटिष्ट जघटे घटिषीष्ट घटिता घटिष्यते अघटिष्यत अघसत् जघास घस्यात् घस्ता घत्स्यति अघत्स्यत् गीर्यात् Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० धातु धृषु घ्रां चमु चर चर्व चल चितिण् चिती चडिङ् चण्डते चतेन् चि चतते आचामति चरति चर्वति चलति चिन्तयति चेतति चित्रयति चित्रण् चुटि चुप बि चूष चेष्टङ् छदण् हृदण् छेदण् जक्षक् जप जल्प जसुच् जसुण् जिमु तिबादि जूष नृभिङ् जृष् घर्षति जिघ्रति चुटि चोपति चुम्बति चूषति चेष्टते छादयति छर्दयति छेदयति क्षिति जपति जल्पति जस्यति जासयति जेम जूषात जृम्भते जीर्यति यादादि घर्षेत् जिघेत् चण्डेत चतेत् चतेत आचामेत् चरेत् चर्वेत् चलेत् चिन्तयेत् चेतेत् चित्रयेत् चुष्टयेत् चोपेत् चुम्बेत् चूषेत् चेष्टेत छादयेत् छर्दयेत् छेदयेत् जक्ष्यात् जपेत् जल्पेत् जस्येत् जासयेत् जेमेत् जपेत् जृम्भेत जीयेंत् तुबादि घर्षतु जिघ्रतु चण्डताम् चततु चतताम् आचामतु चरतु चर्वतु चलतु चिन्तयतु चेततु चित्रयतु चष्टयतु चोपतु चम्बतु चूष चेष्टताम् छादयतु छर्दयतु छेदयतु जक्षितु जपतु जल्पतु जस्यतु जासयतु जेमतु जृम्भताम् जीर्यतु वाक्यरचना बोध दिबादि अघर्षत्_ अजिघ्रत् अचण्डत अचतत् अचतत आचामत् अचरत् अचर्वत् अचलत् अचिन्तयत् अचेतत् अचित्रयत् अचुण्टयत् अचोपत् अचुम्बत् अचूषत् अचेष्टत अच्छादयत् अच्छर्दयत् अच्छेदयत् अजक्षीत् अजपत् अजल्पत् अजस्यत् अजासयत् अजेमत् अजूषत् अजृम्भत अजीर्यत् Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४७१ घष्ात धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अघर्षीत् जघर्ष धषिता घर्षिष्यति अघर्षिष्यत् अघ्रात् जघ्रौ घ्रायात् घ्राता घ्रास्यति अघ्रास्यत् अघ्रासीत् घेयात् अचण्डिष्ट चचण्डे चण्डिषीष्ट चण्डिता चण्डिष्यते अचण्डिष्यत अचतीत् चचात चत्यात् चतिता चतिष्यति अचतिष्यत् अचतिष्ट चेते चतिषीष्ट चतिता चतिष्यते अचतिष्यत आचमीत् आचचाम आचम्यात् आचमिता आचमिष्यति आचमिष्यत् अचारीत् चचार चर्यात् चरिता चरिष्यति अचरिष्यत् अचर्वीत् चचर्व चात् चविता चविष्यति अचविष्यत् अचालीत् चचाल चल्यात् चलिता चलिष्यति अचलिष्यत् अचिचिन्तत् चिन्तयांचकार ३ चिन्त्यात् चिन्तयिता चिन्तयिष्यति अचिन्तयिष्यत् अचेतीत् चिचेत चित्यात् चेतिता चेतिष्यति अचेतिष्यत् अचिचित्रत् चित्रयांचकार ३ चित्र्यात् चित्रयिता चित्रयिष्यति अचित्रयिष्यत् अचुचुटत् चुटयांचकार ३ चुण्ट्यात् चुण्टयिता चुण्टयिष्यति अचुण्टयिष्यत् अचोपीत् चुचोप चुप्यात् चोपिता चोपिष्यति अचोपिष्यत् अचुम्बीत् चुचुम्ब चुम्ब्यात् चुम्बिता चुम्बिष्यति अचुम्बिष्यत् अचूषीत् चुचूष चूष्यात् चूषिता चूषिष्यति अचूषिष्यत् अचेष्टिष्ट चिचेष्टे चेष्टिषीष्ट चेष्टिता चेष्टिष्यते अचेष्टिष्यत अचिच्छदत् छादयांचकार ३ छाद्यात् छादयिता छादयिष्यति अछादयिष्यत् अचिच्छुदत्, छर्दयांचकार ३ छात् छर्दयिता छर्दयिष्यति अच्छदयिष्यत् अचच्छर्दत् अचिच्छेदत् छेदयांचकार ३ छेद्यात् छेदयिता छेदयिष्यति अच्छेदयिष्यत् अजक्षीत् जजक्ष जक्ष्यात् जक्षिता जक्षिष्यति अजक्षिष्यत् अजपीत् जजाप जप्यात् जपिता जपिष्यति अजपिष्यत् अजापीत् अजल्पीत् जजल्प जल्प्यात् जल्पिता जल्पिष्यति अजल्पिष्यत् अजसत् जस्यात् जसिता जसिष्यति अजसिष्यत् अजीजसत् जासयांचकार ३ जास्यात् जासयिता जासयिष्यति अजासयिष्यत् अजेमीत् जिजेम जिम्यात् जेमिता जेमिष्यति अजेमिष्यत् अजूषीत् जुजूष जूष्यात् जूषिता जूषिष्यति अजूषिष्यत् अजृम्भिष्ट जजृम्भे जृम्भिषीष्ट जृम्भिता जृम्भिष्यते अजृम्भिष्यत अजारीत् जजार जीर्यात् जरिता जरिष्यति अजरिष्यत् जरीता जरीष्यति अजरीष्यत् जजास अप अजरतु Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ वाक्यरचना बोध धातु तुबादि दिबादि ज्ञपयतु ___यादादि ज्ञपयेत् जिनीयात् ज्वरेत् ज्वलेत् ज्ञाण् ज्यांश ज्वर ज्वल टकिण टीकृङ् जिनातु तिबादि ज्ञपयति जिनाति ज्वरति ज्वलति टङ्कयति टीकते डयते डीयते ढोकते नटति टङ्कयेत् डीङ् अज्ञपयत् अजिनात् अज्वरत् अज्वलत अटङ्कयत् अटीकत अडयत अडीयत अढौकत अनटत् ज्वरतु ज्वलतु टङ्कयतु टीकताम् डयताम् डीयताम् ढोकताम् नटतु टीकेत डयेत डीयेत ढौकेत नटेत् डीच् ढोकृङ् णट णद नदति नदेत् नदतु अनदत् णहंन्च् नाति नह्यते णिदि निन्दति नयति नयते गुंक् नौति णुदंज् नुदति तक तकति नह्येत् नयेत निन्देत् नयेत् नयेत णीन् नह्यतु नह्यताम् निन्दतु नयतु नयताम् नौतु नुदतु तकतु अनात् अनात अनिन्दत् अनयत् अनयत अनौत् अनुदत् अतकत् नुयात् नुदेत् तकेत् अतङ्कत् अतक्षत् अतक्ष्णोत् तकि तङ्कति तक्ष तक्षति तक्ष्णोति तडण ताडयति तपति ताम्यति तर्जङ् तर्जयते ताय॒ङ् तायते तङ्केत् तक्षेत् तक्ष्णुयात् ताडयेत् तपेत् ताम्येत् तर्जयेत तायेत तङ्कतु तक्षतु तक्ष्णोतु ताडयतु तपतु ताम्यतु तर्जयताम् तायताम् तमुच अताडयत् अतपत् अताम्यत् अतर्जयत अतायत तिजङ् तितिक्षते तुटज् तुटति तितिक्षेत तुटेत् तितिक्षताम तुटतु अतितिक्षत अतुटत् Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डुढोके परिशिष्ट २ ४७३ चादि णबादि क्यावादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अजिज्ञपत् ज्ञपयांचकार ३ ज्ञप्यात् ज्ञपयिता ज्ञपयिष्यति अज्ञपयिष्यत् अज्यासीत जिज्यौ जीयात ज्याता ज्यास्यति अज्यास्यत अज्वारीत् जज्वार ज्वर्यात् ज्वरिता ज्वरिष्यति अज्वरिष्यत् अज्वालीत् जज्वाल ज्वल्यात् ज्वलिता ज्वलिष्यति अज्वलिष्यत् अटटङ्कत् टङ्कयाम्बभूव ३ टङक्यात् टङ्कयिता टङ्कयिष्यति अटङ्कयिप्यत् अटीकिष्ट टिटीके टीकिषीष्ट टीकिता टीकिष्यते अटीकिष्यत अडयिष्ट डिड्ये डयिषीष्ट डयिता डयिष्यते अडयिष्यत अडयिष्ट डिड्ये डयिषीष्ट डयिता डयिष्यते अडयिष्यत अढौकिष्ट ढौकिषीष्ट ढौकिता ढौकिष्यते अढोकिष्यत अनाटीत् ननाट नट्यात् नटिता नटिष्यति अनटिष्यत् अनटीत् अनादीत् ननाद नद्यात् नदिता नदिष्यति अनदिष्यत् अनदीत् अनात्सीत् ननाह नह यात् नद्धा नत्स्यति अनत्स्यत् अनद्ध नेहे नत्सीष्ट नद्धा नत्स्यते अनत्स्यत अनिन्दीत् निनिन्द निन्द्यात् निन्दिता निन्दिष्यति अनिन्दिष्यत् अनैषीत् निनाय नेता नेष्यति अनेष्यत् अनेष्ट निन्ये नेषीष्ट नेता नेष्यते अनेष्यत अनावीत् नुनाव नूयात् नविता नविष्यति अनविष्यत् अनौत्सीत् नुनोद नुद्यात् नोत्ता नोत्स्यति अनोत्स्यत् अताकीत् तताक तक्यात् तकिता तकिष्यति अतकिष्यत् अतकोत् अतङ्कीत् ततङ्क तळ्यात् तङ्किता तङ्किष्यति अतङ्किष्यत् अतक्षीत् ततक्ष तक्ष्यात् तक्षिता तक्षिष्यति अतक्षिप्यत् अताक्षीत् तष्टा तक्ष्यति अतक्ष्यत् अतीतडत् ताडयांचकार ३ ताड्यात् ताडयिता ताडयिष्यति अताडयिष्यत् अताप्सीत्त ताप तप्यात तप्ता अतमत् तताम तम्यात् तमिता तमिष्यति अतमिष्यत् अततर्जयत तर्जयांचक्रे ३ तर्जयिषीष्ट तर्जयिता तर्जयिष्यते अतर्जयिष्यत अतायि तताये तायिषीष्ट तायिता तायिष्यते अतायिष्यत अतायिष्ट अतितिक्षिष्ट तितिक्षांचक्रे ३ तितिक्षिषीष्ट तितिक्षिता तितिक्षिष्यते अतितिक्षिष्यत अतुटीत् तुतोट तुयात् तुटिता तुटिष्यति अतुटिष्यत् नीयात् तपस्यति अतप्स्य त । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि तुदंन्ज् तुदति तुदते तुलण् तोलयति तुषंच् तुष्यति तृपूच् तृप्यति यादादि तुदेत् तुदेत तोलयेत् तुष्येत् तृप्येत् तुबादि तदतु तुदताम् दिबादि अतुदत् अतुदत अतोलयत् अतुष्यत् अतृप्यत् तोलयतु तुष्यतु तृप्यतु अितृपच् तृष्यति त्रपूषङ् त्रपते तृष्येत् त्रपेत तृष्यतु त्रपताम् अतृष्यत् अत्रपत त्रसीच वर येत् अमेत् केंड त्रोटयेत त्रायेत त्वरेत त्वरते दंश दशेत् त्रस्यति त्रसति त्रुटङ्ग त्रोटयते त्रायते त्वरषङ् दशति दंशप दंशयते दण्डण दण्डयति ददते दघङ् दधते दमुच दाम्यति दम्भुत् दभ्नोति दयङ् दयते दरिद्राक् दरिद्राति त्रस्यतु वस्तु त्रोटयताम् त्रायताम् त्वरताम् दशतु दंशयताम् दण्डयतु ददताम् दधताम् दाम्यतु दभ्नोतु दयताम् दरिद्रातु दंशयेत दण्डयेत् ददेत दधेत दाम्येत् दभ्नुयात् दयेत दरिद्रियात् अत्रस्यत् अत्रसत् अत्रोटयत अत्रायत अत्वरत अदशत् अदंशयत अदण्डयत् अददत अदधत अदाम्यत् अदभ्नोत अदपत अदरिद्रात् ददङ् दल दलेत् दालयेत् यच्छेत् दलण् दांम् दांपक दिशंन्ज् दलति दालयति यच्छति दाति दिशति दिशते दलतु दालयतु यच्छतु दातु अदलत् अदालयत् अयच्छत् अदात् अदिशत् अदिशत दायात् दिशेत् दिशतु दिशताम् दिशेत Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ ततर्ष परिशिष्ट २ बादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अतौत्सीत् तुतोद तुद्यात् तोत्ता तोत्स्यति अतोत्स्यत् अतुत्त तुतुदे तुत्सीष्ट तोत्ता तोत्स्यते अतोत्स्यत अतूतुलत् तोलयांचकार ३ तोल्यात् तोलयिता तोलयिष्यति अतोलयिष्यत् अतुषत् तुतोष तुष्यात् तोष्टा तोक्ष्यति अतोक्ष्यत् अत्राप्सीत् ततर्प तृप्यात् त्रप्ता तय॑ति अतय॑त् अतीत्, अतृपत् तपिता तपिष्यति अर्पिष्यत् अतापर्सीत् तप्र्ता त्रप्स्यति अत्रप्स्यत् अतृषत् तृष्यात् तषिता तर्षिष्यति अतर्षिष्यत् अत्रपिष्ट पे त्रपिषीष्ट त्रपिता त्रपिष्यते अत्रपिष्यत अत्रप्त त्रप्ता त्रप्स्यते अत्रप्स्यत अत्रसीत् तत्रास त्रस्यात् त्रसिता त्रसिष्यति अवसिष्यत् अत्रासीत् अतुत्रुटत त्रोटयांचक्रे ३ त्रोटयिषीष्ट त्रोटयिता त्रोटयिष्यते अत्रोटयिष्यत अत्रास्त तो त्रासीष्ट त्राता त्रास्यते अत्रास्यत अत्वरिष्ट तत्वरे त्वरिषीष्ट त्वरिता त्वरिष्यते अत्वरिष्यत अदाङ्क्षीत् ददंश दश्यात् दंष्टा दक्ष्यति अदक्ष्यत् अददंशत दंशयाञ्चक्रे ३ दंशयिषीष्ट दंशयिता दंशयिष्यते अदंशयिष्यत अददण्डत् दण्डयाञ्चकार ३ दण्ड्यात् दण्डयिता दण्डयिष्यति अदण्डयिष्यत् अददिष्ट ददिषीष्ट ददिता ददिष्यते अददिष्यत अदधिष्ट देधे दधिषीष्ट दधिता दधिष्यते अदधिष्यत अदमत् ददाम दम्यात् दमिता दमिष्यति अदमिष्यत् अदम्भीत् ददम्भ दभ्यात् दम्भिता दम्भिष्यति अदम्भिष्यत् . अदयिष्ट दयाञ्चके ३ दयिषीष्ट दयिता दयिष्यते अदयिष्यत अदरिद्रीत् दरिद्राञ्चकार ३ दरिद्रयात् दरिद्रिता दरिद्रिष्यति अदरिद्रिष्यत् अदरिद्रासीत् ददरिद्रौ अदालीत् ददाल दल्यात् दलिता दलिष्यति अदलिष्यत् अदीदलत् दलयाञ्चकार ३ दाल्यात् दालयिता दालयिष्यति अदालयिष्यत् अदात् ददौ देयात् दाता दास्यति अदास्यत् अदासीत् ददी दायात् दाता दास्यति अदास्यत् अदिक्षत् दिदेश दिश्यात् देष्टा देक्ष्यति अदेक्ष्यत् अदिक्षत दिदिशे दिक्षीष्ट देष्टा देक्ष्यते अदेक्ष्यत दददे Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि यादादि तुबादि दिह्यात् दिहीत दीक्षेत दीक्षङ् दिहनक देग्धि दिग्धे दीक्षते दीपीच् दीप्यते दुत् दुनोति दुःखण् दुःखयति दुषंच दूयते दयते दायति द्यति द्योतते द्रवति द्रुहूच् द्रुह्यति दुष्यति दीप्येत दुनुयात् दुःखयेत् दुष्येत् दूयेत दयेत दायेत् घेत देग्धु दिग्धाम् दीक्षताम् दीप्यताम् दुनोतु दुःखयतु दुष्यतु दूयताम् दयताम् दायतु द्यतु द्योतताम् द्रवतु द्रुह्यतु दिबादि अधेक् अदिग्ध अदीक्षत अदीप्यत अदुनोत् अदुःखयत् अदुष्यत् अदूयत अदयत अदायत् अद्यत् अद्योतत अद्रवत् अद्रुह्यत् दूच् द्योतेत द्रवेत् द्रुह्येत् धावुन् धावति धावते धिनोति धावेत् धावेत 1 [laterEE PIE IE premier धिवित् धून्त् धिनुयात् धावतु धावताम् धिनोतु धूनोतु अधावत् अधावत अधिनोत् अधूनोत् धूनोति धूनुयात् धूनण् धूनयति धूपायति धूनयेत् धूपायेत् धूनयतु धूपायतु अधूनयत् अधूपायत् धरतु धरताम् अधरत् अधरत अध्रियत ध्रियताम् धुंज् हमां धरति धरते ध्रियते धमति ध्रुवति ध्वनति ध्वंसते नन्दति नाथते धरेत् धरेत ध्रियेत धमेत् ध्रुनेत् ध्वनेत् ध्वंसेत अधमत् अध्रुवत् ध्वन ध्वंसुङ् धमतु ध्रुवतु ध्वनतु ध्वंसताम् नन्दतु नाथताम् अध्वनत् अध्वंसत नन्देत् अनन्दत् नदि नाथङ् नाथेत अनाथत Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४७७ धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अधिक्षत् दिदेह दिह्यात् देग्धा धेक्ष्यति अधेक्ष्यत् अदिग्ध, अधिक्षत दिदिहे धिक्षीष्ट देग्धाधेक्ष्यते अधेक्ष्यत अदीक्षिष्ट दिदीक्षे दीक्षिषीष्ट दीक्षिता दीक्षिष्यते अदीक्षिष्यत अदीपिष्ट दिदीपे दीपिषीष्ट दीपिता दीपिष्यते अदीपिष्यत अदौषीत् दुदाव दूयात् दोता दोष्यति अदोष्यत् अदुदुःखत् दुःखयाञ्चकार ३ दुःख्यात् दुःखयिता दुःखयिष्यति अदुःखयिष्यत् अदुषत् दुदोष दुष्यात् दोष्टा दोक्ष्यति अदोक्ष्यत् अदविष्ट दुदुवे दविषीष्ट दविता दविष्यते अदविष्यत अदित दिग्ये दासीष्ट दाता दास्यते अदास्यत अदासीत् ददौ दायात् दाता दास्यति अदास्यत् अदात् ददौ देयात् दाता दास्यति अदास्यत् अद्युतत्, अद्योतिष्ट दिद्युते द्योतिषीष्ट द्योतिता द्योतिष्यते अद्योतिष्यत अदुद्रुवत् दुद्राव द्रूयात् द्रोता द्रोष्यति अद्रोष्यत् अद्रुहत् दुद्रोह द्रुह्यात् द्रोहिता, द्रोढा द्रोहिष्यति अद्रोहिष्यत द्रोग्धा ध्रोक्ष्यति अध्रोक्ष्यत् अधावीत् दधाव धाव्यात् धाविता धाविष्यति अधाविष्यत् अधाविष्ट दधावे धाविधीष्ट धाविता धाविष्यते अधाविष्यत अधिन्वीत् दिधिन्व धिन्व्यात् धिन्विता धिन्विष्यति अधिन्विष्यत् अधावीत् दुधाव धूयात् धावता धोष्यति, अधोष्यत्, धोता धविष्यति अधविष्यत् अधुनत् धूनयाञ्चकार ३ धून्यात् धूनयिता धूनयिष्यति अधूनयिष्यत् अधूपायीत् धूपायाञ्चकार ३, धूपाय्यात् धूपायिता धूपायिष्यति अधूपायिष्यत् अधूपीत् दुधूप धूप्यात् धूपिता धूपिष्यति अधूपिष्यत् अधार्षीत् दधार ध्रियात् धर्ता धरिष्यति अधरिष्यत् अधृत दधे धरिष्यते अधरिष्यत अधृत दधे धृषीष्ट धर्ता धरिष्यते अधरिष्यत अध्मासीत् दध्मौ ध्मायात्, ध्मेयात् ध्माता ध्मास्यति अध्मास्यत् अध्रुषीत् दुध्राव धूयात् ध्रुता ध्रुष्यति अध्रुष्यत् अध्वानीत् दध्वान ध्वन्यात् ध्वनिता ध्वनिष्यति अध्वनिष्यत् अध्वंसिष्ट दध्वंसे ध्वंसिषीष्ट ध्वंसिता ध्वंसिष्यते अध्वंसिष्यत अनन्दीत् ननन्द नन्द्यात् नन्दिता नन्दिष्यति अनन्दिष्यत् अनाथिष्ट ननाथे नाथिषीष्ट नाथिता नाथिष्यते अनाथिष्यत धृषीष्ट Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध धातु यादादि दिबादि पचंषन् तिबादि पचति पचते पञ्चयति पटति तुबादि पचतु पचताम् पञ्चयतु पचिण् पट पचेत् पचेत पञ्चयेत् पटेत् पणेत पतेत् पटतु पणते पण पतलूं पतति पथति पथे पथेत् अपचत् अपचत अपञ्चयत् अपटत् अपणत अपतत् अपथत् अपद्यत अपर्दत अपात् अपिण्डयत अपीयत अपीडयत् पद्यते पदंङ्च् पर्दङ पांक पिडिण् पर्दते पाति पिण्डयति पीयते पीडयति पणताम् पततु पयतु पद्यताम् पर्दताम् पातु पिण्डयतु पीयताम् पीडयतु पद्येत पर्देत पायात पिण्डयेत् पीयेत पीडयेत् पीच् पीडण् पुषंच पुष्यति पुष्यतु पुष्पच् 111111111111 112 lt 11011 11111 पुष्प्यति पुष्प्यतु पुष्येत् पुष्प्येत् पवेत पूरयेत् पूर्येत पवते पूरयति पूर्यते पवताम् पूरयतु अपुष्यत् अपुष्प्यत् अपवत अपूरयत् अपूर्यत पूरण पूरीच् पूर्यताम् पूषति पिपत्ति पृणोति पारयति प्यायते पूषेत् पिपृयात् पृणुयात् पूषतु पिपर्तु पृणोतु पारयतु प्यायताम् अपूषत् अपिपः अपृणोत् अपारयत् अप्यायत पृण् पारयेत् प्यायीङ् प्यायेत प्रथण प्रीन्श् प्राथयति प्रीणाति प्रीणीते प्रीयते प्लोषति प्राथयेत् प्राथयतु प्रीणीयात् प्रीणातु प्रीणीत प्रीणीताम् प्रीयेत प्रीयताम् प्लोषेत् प्लोषतु अप्राथयत् अप्रीणात् अप्रीणीत अप्रोयत अप्लोषत् प्रीच् प्लुषु Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ धादि क्यादादि अपाक्षीत् पपाच पच्यात् अपक्त पक्षीष्ट पेचे अपपञ्चत् पंचयाञ्चकार ३ पञ्च्यात् अपाटीत्, अपटीत् पपाट पट्यात् अपणिष्ट पेणे पणिषीष्ट पपात पत्यात् पपाथ पथ्यात् पत्षीष्ट पत्ता अपदिष्ट पपर्दे पदिषीष्ट पर्दिता अपासीत् पपौ पायात् पाता अपिपिण्डत् पिण्डयाञ्चकार ३ पिण्डय्यात् पिण्डयिता अपेस्त पिप्ये पेषीष्ट पेता अपीपिडत् पीडयाञ्चकार ३ पीड्यात् अपिपीडत् णबादि अपप्तत् अपथीत् अपादि पेदे अपुषत् पुपोष अपुष्पीत् पुपुष्प अपविष्ट पुपुवे तादि स्यत्यादि पक्ष्यति पक्ष्यते पक्ता पक्ता पञ्चयिता पञ्चयिष्यति अपञ्चयिष्यत् पटिता पटिष्यति अपटिष्यत् पणिता पणिय अपणिष्यत पतिता पतिष्यति अपतिष्यत् पथिता अपथिष्यत् पेष्यते पीडयिता पीडयिष्यति पुष्यात् पोष्टा पोक्ष्यति पुष्प्यात् पुष्पिता पुष्पिष्यति पविषीष्ट पविता पविष्यते पूरयाञ्चकार ३ पूरय्यात् पूरयिता पूरयिष्यति पुपूरे पूरिषीष्ट पूरिता पूरिष्यते पथिष्यति पत्स्यते पर्दिष्यते पास्यति अपास्यत् पिण्डयिष्यति अपिण्डयिष्यत् अपेष्यत अपीडयिष्यत् अपूपुरत् अपूरि अरिष्ट अपूषीत् पुपूष पूष्यात् पूषिता अपात् पपार प्रियात् पर्ता प्रियात् पर्ता अपात् पपार अपीपरत् पारयाञ्चकार ३ पारय्यात् पारयिता पारयिष्यति अप्यायि पिप्ये प्याप्यते प्यायिता प्यायिष्यते अप्यायिष्ट प्रीयात् प्रेता प्रेषीष्ट । प्रेता प्रेषीष्ट प्रेता पूषिष्यति परिष्यति परिष्यति अपप्रथत् प्राथयाञ्चकार ३ प्राथ्यात् प्राथयिता प्राथयिष्यति अप्रैषीत् पिप्राय अप्रायि पिप्रिये अप्रेष्ट पिप्रिये अप्लोषीत् पुप्लोय स्यदादि ४७६ प्रेष्यति प्रेष्यते प्रेष्यते प्लुष्यात् प्लोषिता प्लोषिष्यति अपक्ष्यत् अपक्ष्यत अपत्स्यत अपदिष्यत अपोक्ष्यत् अपुष्पिष्यत् अपविष्यत अपूरयिष्यत् अपूरयत अपूष्यित् अपरिष्यत् अपरिष्यत् अपारयिष्यत् अध्यायिष्यत अप्राथयिष्यत् अप्रेष्यत् अप्रेष्यत अप्रेष्यत अप्लोषिष्यत् Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० वाक्यरचना बोध धातु दिबादि फुल्लति यादादि फुल्लेत् बलेत् बाधेत तुबादि फुल्लतु बलतु बाधताम् बुक्कतु अफुल्लत् अवलत् अबाधत बुक्केत् तिवादि फुल्ल बल बलति बाधृङ् बाधते बुक्कति बोधति ब्रुड ब्रुडति भक्षति भक्षते भजोंर् भनक्ति भण भणति बुक्क बुध बोधतु ब्रुडतु भक्षतु भक्षन् बोधेत् ब्रुडेत् भक्षेत् भक्षेत भञ्ज्यात् भणेत् अबुक्कत् अबोधत् अब्रुडत् अभक्षत अभक्षत अभनक अभणत् भक्षताम् भनक्तु भणतु अभर्त्सयत भायात् अभात् भासते अभापत अभासत अभिक्षत अभिषज्यत् अभरत भरताम् अभरत भत्संङ्ग भर्सयते भर्त्सयेत भर्त्सयताम् भांक भाति भातु भाषङ् भाषते भाषेत भाषताम् भासृङ् भासेत भासताम् भिक्षङ् भिक्षते भिक्षेत भिक्षताम् भिषज् भिषज्यति भिपज्येत् भिषज्यतु भंन् भरति भरेत् भरतु भरते भरेत भ्रश्यति भ्रश्येत् भ्रश्यतु भ्रम भ्रम्यति, भ्रमति भ्रम्येत्, भ्रमेत् भ्रम्यतु, भ्रमतु भ्रमुच् भ्राम्यति, भ्रमति भ्राम्येत्, भ्रमेत् भ्राम्यतु, भ्रमतु भ्राजुङ् भ्राजते भ्राजेत भ्राजताम् भ्राशृङ् भ्राशते भ्रात भ्राशताम् भ्राश्यते भ्राश्येत भ्राश्यताम् भ्लक्षन् लक्षति भ्लक्षेत् भ्लक्षतु भलक्षते भ्लक्षेत भलक्षताम् भलाशृङ् भ्लाशते भलाशेत भलाशताम् भलाश्यते भलाश्येत भलाश्यताम मडि मण्डति मण्डेत् मण्डतु मथति मथतु अभ्रश्यत् अभ्रम्यत्, अभ्रमत् अभ्राम्यत्, अभ्रमत् अभ्राजत अभ्राशत अभ्राश्यत अभ्लक्षत अभ्लक्षत अभ्लाशत अभ्लाश्यत अमण्डत् अमथत मधे मथेत् Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ष्यात परिशिष्ट २ ४८१ धादि णबादि क्यावादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अफुल्लीत् पुफुल्ल फुल्ल्यात् फुल्लिता फुल्लिष्यति अफुल्लिष्यत् अबालीत् बबाल बल्यात् बलिता बलिष्यति अबलिष्यत् अबाधिष्ट बबाधे बाधिषीष्ट बाधिता बाधिष्यते अबाधिष्यत अबुक्कीत् बुबुक्क बुक्यात् बुक्किता बुक्किष्यति अबुक्किष्यत् अबोधीत् बुबोध बुध्यात् बोधिता बोधिष्यति अबोधिष्यत् अब्रोडीत् बुब्रोड ब्रुड्यात् बुडिता ब्रुडिष्यति अब्रुडिष्यत् अभक्षीत् बभक्ष भक्षिता भक्षिष्यति अभक्षिष्यत् अभक्षिष्ट बभक्षे भक्षिषीष्ट भक्षिता भक्षिष्यते अभक्षिष्यत अभाङ्क्षीत् बभञ्ज भज्यात् भङ्क्ता भक्ष्यति अभक्ष्यत् अभाणीत् बभाण भण्यात् भणिता भणिष्यति अभणिष्यत् अभणीत् अबभर्त्सत भर्त्सयांचके ३ । भर्स यिषीष्ट भर्त्स यिता भर्त्तयिष्यते अभर्त्सयिष्यत अभासीत् बभौ भायात् भाता भास्यति अभास्यत् अभाषिष्ट बभाषे भाषिषीष्ट भाषिता भाषिष्यते अभाषिष्यत अभासिष्ट बभासे भासिषीष्ट भासिता भासिष्यते अभासिष्यत अभिक्षिष्ट बिभिक्षे भिक्षिषीष्ट भिक्षिता भिक्षिष्यते अभिक्षिष्यत अभिषजीत् भिषजाञ्चकार ३ भिषज्यात् भिषजिता भिषजिष्यति अभिषजिष्यत् अभार्षीत् बभार भ्रियात् भर्ता भरिष्यति अभरिष्यत् अभृत बभ्रे भृषीष्ट भर्ता भरिष्यते अभरिष्यत अभ्रशत् बभ्रंश भ्रश्यात् भ्रंशिता भ्रंशिष्यति अभ्रंशिष्यत् अभ्रमीत् वभ्राम भ्रम्यात् भ्रमिता भ्रमिष्यति अभ्रमिष्यत् अभ्रमत् बभ्राम भ्रम्यात् भ्रमिता भ्रमिष्यति अभ्रमिष्यत् अभ्राजिष्ट वभ्राजे भ्राजिषीष्ट भ्राजिता भ्राजिष्यते अभ्राजिष्यत अभ्राशिष्ट धेशे भ्राशिषीष्ट भ्राशिता भ्राशिष्यते अभ्राशिष्यत बभ्राशे अभ्लक्षीत् बभ्लक्ष भ्लक्ष्यात् भ्लक्षिता भ्लक्षिष्यति अभ्लक्षिष्यत् अभ्लक्षिष्ट बभ्लक्षे भ्लक्षिषीष्ट भ्लक्षिता भ्लक्षिष्यते अभ्लक्षिष्यत अभ्लासिष्ट भलेशे भ्लाशिषीष्ट भ्लाशिता भ्लाशिष्यते अभ्लाशिष्यत बलाशे अमण्डीत् ममण्ड मण्ड्यात् मण्डिता मण्डिष्यति अमण्डिष्यत् अमथीत् ममाथ मथ्यात् मथिता मथिष्यति अमथिष्यत् Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि मदीच महतु मनुव मन्तु मस्जों मह मांक मानण मिल मिश्रण माद्यति मनुते मन्तूयति मज्जति महति माति मानयति मिलति मिश्रयति मेहति मीलति मोदते मूर्छति मुष्णाति यादादि तुबादि दिबादि मायेत् माद्यतु अमाद्यत् मन्वीत मनुताम् अमनुत - मन्तूयेत् मन्तूयतु अमन्तूयत् मज्जेत् मज्जतु अमज्जत् महेत् अमहत् मायात् मातु अमात् मानयेत् मानयतु अमानयत् मिलेत् अमिलत् मिश्रयेत् मिश्रयतु अमिश्रयत् मेहेत् मेहतु मीलेत् मीलतु अमीलत् मोदेत मोदताम् अमोदत मूछेत् मूर्च्छतु अमूर्च्छत् मुष्णीयात् मुष्णातु __अमुष्णात् मुह्येत् मुह्यतु अमुह्यत् मिलतु मिहं अमेहत् मील मुदङ् मुर्छा मुषश् मुहूच मुह्यति मूत्रण मूत्रयति मूल मूष मूत्रयेत् मूलेत् मूषेत् मृगयेत मृणीयात् मयेत मृगढ् मश् मेङ् मूलति मूषति मृगयते मृणाति मयते मेधायति मोक्षयति मनति म्रदते म्रोचति मूत्रयतु अमूत्रयत् मूलतु अमूलत् मूषतु अमूषत् मृगयताम् अमृगयत मृणातु अमृणात् मयताम् अमयत मेधायतु ___ अमेधायत् मोक्षयतु अमोक्षयत् मनतु म्रदताम् अम्रदत अम्रोचत् मेधा मोक्षण मेधायेत् मोक्षयेत् मनेत् म्नां अमनत् म्रदषङ् म्रदेत म्रोचेत् अचु म्रोचतु म्युचु म्लोचति म्लोचेत् म्लोचतु अम्लोचत् म्लेच्छण म्लैं म्लेच्छयति म्लायति म्लेच्छयेत् म्लायेत् म्लेच्छयतु मम्लेच्छयत् __ म्लायतु अम्लायत् Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४८३ धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि। अमदत् ममाद . मद्यात् मदिता मदिष्यति अमदिष्यत् अमनिष्ट, अमत मेने मनिषीष्ट मनिता मनिष्यते अमनिष्यत अमन्तूयीत् मन्तूयाञ्चकार ३ मन्तूय्यात् मन्तूयिता मन्तूयिष्यति अमन्तूयिष्यत् अमाङ्क्षीत् ममज्ज मज्ज्यात् मङ्क्ता मङ्ख्यति अमङ्ख्यत् अमहीत् ममाह मह्यात् महिता महिष्यति अमहिष्यत् अमासीत् ममौ मेयात्माता मास्यति अमास्यत् . अमीमनत् मानयाञ्चकार ३ मान्यात् मानयिता मानयिष्यति अमानयिष्यत् अमेलीत् मिमेल मिल्यात् मेलिता मेलिष्यति अमेलिष्यति अमिमिश्रत् मिश्रयाञ्चकार ३ मिथ्यात् मिश्रयिता मिश्रयिष्यति अमिश्रयिष्यत् अमिक्षत् मिमेह मिह्यात् मेढा मेक्ष्यति अमेक्ष्यत् अमीलीत् मिमील मील्यात् मीलिता मीलिष्यति अमीलिष्यत् अमोदिष्ट मुमुदे मोदिषीष्ट मोदिता मोदिष्यते अमोदिष्यत अमूर्चीत् मुमूर्छ मूात् मूछिता मूच्छिष्यति अमूच्छिप्यत् अमोषीत् मुमोष - मुष्यात् मोषिता मोषिष्यति अमोषिष्यत् अमुहत् मुमोह मुह्यात् मोग्धा मोहिष्यति अमोहिष्यत् मोढा,मोहिता मोक्ष्यति अमोक्ष्यत् अमुमूत्रत् मूत्रयाञ्चकार ३ मूत्र्यात् मूत्रयिता मूत्रयिष्यति अमूत्रयिष्यत् अमूलीत् मुमूल मूल्यात् मूलिता मूलिष्यति अमूलिष्यत् अमूषीत् मुमूष मूष्यात् मूषिता मूषिष्यति अमूषिष्यत् अममृगत मृगयाञ्चक्रे ३ मृगयिषीष्ट मृगयिता मृगयिष्यते अमृगयिष्यत अमारीत् ममार मूर्यात् मरिता मरिष्यति अमरिष्यत् अमास्त ममे मासीष्ट माता मास्यते अमास्यत अमेधायीत् मेधायाञ्चकार ३ मेधाय्यात् मेधायिता मेधायिष्यति अमेधायिष्यत् अमुमोक्षत् मोक्षयाञ्चकार ३ मोक्ष्यात् मोक्षयिता मोक्षयिष्यति अमोक्षयिष्यत अम्नासीत् मम्नी म्नायात्, म्नेयात् म्नाता म्नास्यति अम्नास्यत अम्रदिष्ट मम्रदे , प्रदिषीष्ट म्रदिता प्रदिष्यते अम्रदिष्यत अनुचत् मुम्रोच मृच्यात् म्रोचिता म्रोचिष्यति अम्रोचिष्यत् अम्रोचीत् अम्लोचीत् मुम्लोच म्लुच्यात् म्लोचिता म्लोचिष्यति अम्लोचिष्यत अम्लुचत् अमिम्लेच्छत् म्लेच्छ्याञ्चकार ३ म्लेच्छ्यात् म्लेच्छयिता म्लेच्छयिष्यति अम्लेच्छयिष्यत अम्लासीत् मम्लौ म्लायात्, म्लेयात् म्लाता म्लास्यति अम्लास्यत् Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ धातु यती यत्रिण यभं यमुं यसुच् याचन् यु॑न॒श् युक् युजंच् युजण् रण रद रभंङ् रमंङ् रक्ष रक्षति रधिङ् रङ्घते रचयति रचण् रञ्जन्च् रज्यति ज्य रसण् राजन् राघंत् रि रिचृ न्र् रिष तिबादि यतते यन्त्रयति यभति यच्छति यस्यति याचति याचते श् नाति युनी यौति युज्यते योजयति ति रदति रभते रमते रसयति राजति राजते राध्नोति रियति रिणक्ति रिङ्क्ते रेषति रिणाति यादादि यतेत यन्त्रयेत् यभेत् यच्छेत् यस्येत् याचेत् याचे युनीयात् युनीत युयात् ज्ये योजयेत् रक्षेत् रङ्घेत रचयेत् रज्येत् रज्येत रणेत् रदेत् रभेत रमेत रसयेत् राजेत् राजे राध्नुयात् रियेत् रिञ्च्यात् रिञ्चीत रेषेत् रिणीयात् तुबादि यतताम् यन्त्रयतु यभतु यच्छतु यस्यतु याचतु याचताम् युनातु युनीताम् यौ युज्यताम् योजयतु रक्षतु रङ्घताम् रचयतु रज्यतु रज्यताम् रणतु रद रभताम् रमताम् रसयतु राजतु राजताम् रानो रियतु रिणक्तु रिक्ताम् रेष रिणातु वाक्यरचना बोध दिबादि अयतत अयन्त्रयत् अयभत् अयच्छत् अयस्यत् अयाचत् अयाचत अयुनात् अनीत अत् अयुज्यत अयोजयत् अरक्षत् अरङ्घत अरचयत् अरज्यत् अरज्यत अरणत् अरदत् अरभत अरमत अरसयत् अराजत् अराजत अराध्नोत् अरियत् अरिणक् अरिङ्क्त अरेषत् अरिणात् Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ धादि अयतिष्ट अययन्त्रत् अयासीत् ययाभ अयंसत् ययाम अयसत् ययास णबादि येते क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि यतिष्यते यतिषीष्ट यतिता अयतिष्यत यन्त्रयाञ्चकार ३ यन्त्र्यात् यन्त्रयिता यन्त्रयिष्यति अयन्त्रयिष्यत् यस्त अयप्स्यत् यब्धा यन्ता यस्यति यसिता अयंस्यत् अयसिष्यत् यसिष्यति याचिष्यति अयाचिष्यत् याचिष्यते अयाचिष्यत योष्यति यो अयाचीत् ययाच अयाचिष्ट ययाचे अत् युयाव अयोष्ट युयुवे अयावीत् युयाव अयुक्त अयूयुजत् अरक्षीत् ररक्ष अरङ्घिष्ट ररङ्घे अररचत् अराङ्क्षीत् ररञ्ज अरङ्क्त ररञ्जे अराणीत् रराण अरणीत् अरदीत् रराद अरादीत् अरब्ध अरस्त यूयात् युक्षीष्ट युयुजे योजयाञ्चकार ३ योज्यात् रेभे रेमे यभ्यात् यम्यात् यस्यात् अररसत् अराजीत् रराज अराजिष्ट रेजे याच्यात् याचिता याचिषीष्ट याचिता रचयाञ्चकार ३ रच्यात् रज्यात् रङ्क्षीष्ट रण्यात् अरात्सीत् रराध अरैषीत् रिराय अरिचत् रिरेच अरिक्त रिरिचे यूयात् योता योषीष्ट योता यविता योक्ता अरेषीत् रिरेष अषीत् रिराय रप्सीष्ट रंसीष्ट रसयाञ्चकार ३ रस्यात् रद्यात् योजयिता योजयिष्यति अयोजयिष्यत् रक्ष्यात् रक्षिता रक्षिष्यति अरक्षिष्यत् रङ्घिषीष्ट रङ्घिता रचयिता रङ्क्ता रणिता रदिता . रङ्क्ता रक्ष्यति यविष्यति योक्ष्यते राध्यात् राद्धा यात् रेता रिच्यात् रेक्ता रिक्षीष्ट रेक्ता रिष्यात् रेषिता रीयात् रेता रक्ष्यते रणिष्यति रब्धा रप्स्यते रन्ता रंस्यते रसयिता रसयिष्यति राज्यात् राजिता राजिष्यति राजिषीष्ट राजिता राजिष्यते रात्स्यति रेष्यति रेक्ष्यति रेक्ष्यते रङ्घिष्यते अरङ्घिष्यत रचयिष्यति अरचयिष्यत् अरङ्क्ष्यत् अरङ्क्ष्यत अरणिष्यत् अरदिष्यत् रदिष्यति ४८५ अयोष्यत् अयोष्यत रेषिष्यति रेष्यति अयविष्यत् अयोक्ष्यत अरप्स्यत अरंस्यत अरसयिष्यत् अराजिष्यत् अराजिष्यत अरात्स्यत् अष्यत् अरेक्ष्यत् अरेक्ष्य अरेषिष्यत् अरेष्यत् Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ वाक्यरचना बोध तुबादि धातु तिबादि यादादि रौति, रवीति रुयात् रुचङ् रोचेत रौतु, रवीतु रोचताम् दिबादि अरौत् अरोचत रोचते रोजयेत् रोजयतु रुजतु रुजेत रुजण् रुजोंज रुटण रुषंच रुषण रोटतु रोटेत् रुष्येत् रोषयेत् रुष्यतु रोजयति रुजति रोटति रुष्यति रोषयति रोहति रूपयति रायति लक्षयते लक्षयति रुह रूपण रोहेत् रूपयेत् रायेत् लक्षयेत लक्षयेत् लक्षयेत लङ्घत लजेत लपेत् लक्षङ्ग लक्षण अरोजयत् अरुजत् अरोटत् अरुष्यत् अरोषयत् अरोहत् अरूपयत् अरायत् अलक्षयत अलक्षयत् अलक्षयत अलङ्घत अलजa अलपत् रोषयतु रोहतु रूपयतु रायतु लक्षयताम् लक्षयतु लक्षयताम् लङ्घताम् लजताम् लपतु लक्षयते लघिङ् लजीङ् लप लङ्घते लजते लपति लबिङ् लभंषङ् लभते ललङ् लषन् लम्बते लम्बेत लभेत लालयते लालयेत लषति, लष्यति लषेत्, लष्येत् लषते, लष्यते लषेत, लष्येत लज्जते लज्जेत लायात लिम्पति लिम्पेत् लिम्पते लिम्पेत लीयते . लीयेत लम्बताम् अलम्बत लभताम् अलभत लालयताम् अलालयत लषतु, लष्यतु अलषत्,अलष्यत् लषताम्,लष्यताम् अलषत,अलष्यत लज्जताम् अलज्जत अलात् लिम्पतु अलिम्पत् लिम्पताम् अलिम्पत अलीयत लस्जी लांक् लाति लातु लिंपन्ज् लीच् लीयताम् लीण् लीनयतु लोटतु लुट लुटि लुण्टण् लीनयति लोटति लुण्टति लुण्टयति लीनयेत् लोटेत् लुण्टेत् लुण्टयेत् अलीनयत् अलोटत् अलुण्टत् अलुण्टयत् लुण्टतु लुण्टयतु Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४८७ धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अरावीत् रुराव रूयात् रविता रविष्यति अरविष्यत् अरोचिष्ट रुरुचे रोचिषीष्ट रोचिता रोचिष्यते अरोचिष्यत . अरुचत् अरूरुजत् रोजयाञ्चकार ३ रोज्यात् रोजयिता रोजयिष्यति अरोजयिष्यत् अपेक्षीत रुरोज रुज्यात् रोक्ता रोक्ष्यति अरोक्ष्यत् अरूरुटत् रुरोट रोट्यात् रोटिता. रोटिष्यति अरोटिष्यत् अरुषत् रुरोष रुष्यात् रोषिता,रोष्टा रोषिष्यति अरोषिष्यत् अरूरुषत् रोषयाञ्चकार ३ रोष्यात् रोषिता रोषिष्यति अरोषिष्यत् अरुक्षत रुरोह रुह्यात् रोढा रोक्ष्यति अरोक्ष्यत् अरुरूपत् रूपयाञ्चकार रूप्यात् रूपयिता रूपयिष्यति अरूपयिष्यत् अरासीत् ररौ रायात् राता रास्यति अरास्यत् अललक्षत लक्षयाञ्चक्रे ३ लक्षयिषीष्ट लक्षयिता लक्षयिष्यते अलक्षयिष्यत अललक्षत् लक्षयामास ३ लक्ष्यात् लक्षयिता लक्षयिष्यति अलक्षयिष्यत् अललक्षत लक्षयाञ्चक्रे ३ लक्षयिषीष्ट लक्षयिता लक्षयिष्यते अलक्षयिष्यत अलङ्घिष्ट ललो लङ्घिषीष्ट लङ्घिता लङ्घिष्यते अलङ्घिष्यत अलजिष्ट लेजे लजिषीष्ट लजिता लजिष्यते अलजिष्यत अलापीत्, ललाप लप्यात् लपिता लपिष्यति अलपिष्यत् अलपीत् अलम्बिष्ट ललम्बे लम्बिषीष्ट लम्बिता लम्बिष्यते अलम्बिष्यत अलब्ध लेभे लप्सीष्ट लब्धा लप्स्यते अलप्स्यत अलीललत लालयाञ्चक्रे ३ लालयिषीष्ट लालयिता लालयिष्यते अलालयिष्यत अलषीत् ललाष लष्यात् लषिता लषिष्यति अलषिष्यत् अलषिष्ट लेष लषिषीष्ट लषिता लविष्यते अलविष्यत अलज्जिष्ट ललज्जे लज्जिषीष्ट लज्जिता लज्जिष्यते अलज्जिष्यत अलासीत् ललो लायात् लाता लास्यति । अलास्यत् अलिपत् लिलेप लिप्यात् लेप्ता लेप्स्यति अलेप्स्यत् अलिपत लिलेपे लिप्सीष्ट लेप्ता लेप्स्यते अलेप्स्यत अलास्त लिल्ये लासीष्ट लाता लास्यते अलास्यत अष्ट लेषीष्ट लेता लेष्यते अलेष्यत अलीलिनत् लीनयामास ३ लीन्यात् लीनयिता लीनयिष्यति अलीनयिष्यत् अलोटीत् लुलोट लुट्यात् लोटिता लोटिष्यति अलोटिष्यत् अलुण्टीत् लुलुण्ट लुण्ट्यात् लुण्टिता लुण्टिष्यति अलुण्टिष्यत् अलुलुण्टत् लुण्टयाञ्चकार ३ लुण्ट्यात् लुण्टयिता लुण्टयिष्यति अलुण्टयिष्यत् Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ धातु लुपच् लुप्यति लुभच् लुभ्यति लुभति लूषति लूषयति लुभज् तिबादि षण् लोकृङ् लोक लोचङ् लोच बक व'चण् वाचयति वञ्चण् वञ्चयते वटण् वदण् वमु वर्णण् वङ्कते aण्यति वादयति वमति वर्णयति वलङ् वलते वल्लङ् वल्लते वशक् वष्टि वहंन् वहते वाति वांक् विदंङ्च् विद्यते विद्लन्ज् विन्दति विन्दते वृणीते हति वृश् वृजीण् वृतुङ् वर्तते वर्जयति यादादि लुप्येत् लुभ्येत् लुभेत् लूषेत् लूषयेत् लोकेत लोचेत वङ्केत वाचयेत् वञ्चयेत वण्टयेत् वादयेत् वमेत् वर्णयेत् वलेत वल्लेत उश्यात् वहेत् वहेत वायात् विद्येत विन्देत् विन्देत वृणीत वर्जयेत् वर्तेत तुबादि लुप्यतु लुभ्यतु लुभतु लूषतु लूषयतु लोकताम् लोचताम् वङ्कताम् वाचयतु वञ्चयताम् वण्टयतु वादयतु वमतु वर्णयतु वलताम् वल्लताम् वष्टु वहतु वहताम् वातु विद्यताम् विन्दतु विन्दताम् वृणीतम् वर्जय वर्तताम् वाक्यरचना बोध दिबादि अलुप्यत् अलुभ्यत् अलुभत् अलूषत् अलूषयत् अलोकत अलोचत अवङ्कत अवाचयत् अवञ्चयत अवण्टयत् अवादयत् अवमत् अवर्णयत् अवलत अवल्लत अवट् अवहत् अवहत अवात् अविद्यत अविन्दत् अविन्दत अवृणीत अवर्जयत् अवर्तत Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ चादि अलुपत् लुलोप अलुभत् लुलोभ अलोभीत् लुलोभ बादि अववण्टत् अवीवदत् अवमीत् लूष्यात् अलूषीत् लुलूष अलुषत् लूषयाञ्चकार ३ लूष्यात् अलोकिट लुलो अलोचिष्ट लुलोचे अङ्किष्ट ववङ्के अवीवचत् अववञ्चत लोब्धा लूषिता लूषिष्यति लूषयिता लूषयिष्यति लोकिषीष्ट लोकिता लोकिष्यते लोचिषीष्ट लोचिता लोचिष्यते वङ्किषीष्ट वङ्किता वङ्किष्यते वाचयाञ्चकार ३ वाच्यात् वाचयिता वाचयिष्यति वञ्चयाञ्चक्रे ३ वञ्चयिषीष्ट वञ्चयिता वञ्चयिष्यते वण्यता वण्टयिष्यति वादयिता वादयिष्यति वमिता वमिष्यति वर्णयिता वर्णयिष्यति वलिषीष्ट वलिता वलिष्यते वल्लिषीष्ट वल्लिता वल्लिष्यते उश्यात् वशिता व शिष्यति वण्टयाञ्चकार ३ वण्ट्यात् वादयाञ्चकार ३ वाद्यात् वम्यात् ववाम वर्ण याञ्चकार ३ वर्ण्यात् अववर्णत् अवलिष्ट ववले अवल्लिष्ट ववल्ले क्यादादि लुप्यात् लुभ्यात् लुभ्यात् अवाशीत् उवाश अवशीत् अवाक्षीत् उवाह अवोढ उ अवासीत् ववौ अवित्त तावि स्यत्यादि लोपिता लोपिष्यति लोभिता लोभिष्यति लोब्धा लोभिता लोभिष्यति विविदे विवेद विविदे वक्ष्यति उह्यात् वोढा वक्षीष्ट वोढा वक्ष्यते वायात् वाता वास्यति वित्सीष्ट वेत्ता वेत्स्यते अविदत् विद्यात् वेत्ता वेत्स्यति वित्सीष्ट वेत्ता वेत्स्यते अवित्त अवरिष्ट वत्रे वरिषीष्ट वृषीष्ट अवरीष्ट अवृत अवीवृजत् वर्जयाञ्चकार ३ वर्ज्यात् अवृतत्, ववृते अवर्तिष्ट वतिषीष्ट वरिता वरिष् वरीता वरीष्यते वर्जयिता वर्जयिष्यति वर्तिता वर्तष्यते ૪૬૨ स्यदादि अलोपिष्यत् अलोभित् अलोभिष्यत् । अलूषिष्यत् अलूषयिष्यत् अलोकिष्यत अलोचिष्यत अवङ्कष् अवाचयिष्यत् अवञ्चयिष्यत अवष्टयिष्यत् अवादयिष्यत् अवमिष्यत् अवर्णयिष्यत् अवलिष्यत अवल्लिष्यत अवशिष्यत् अवक्ष्यत् अवक्ष्यत अवास्यत् अवेत्स्यत अवेत्स्यत् अवेत्स्यत अवरिष्यत अवरीष्यत अवर्जयिष्यत् अवर्तिष्यत Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० वाक्यरचना बोध यादादि तुबादि धातु वश् तिबादि वृणाति दिबादि अवृणात् वृणीयात् . वृणातु वेपेत व्यथेत विध्येत् वेपृङ् वेपते व्यथषङ्ग व्यथते व्यधंच विध्यति व्येन् व्ययति व्ययते व्रश्चूज् वृश्चति वेपताम् व्यथताम् विध्यतु व्ययतु व्ययताम् वृश्चतु अवेपत अव्यथत अविध्यत् अव्ययत व्ययेत् व्ययेत अव्ययत वृश्चेत् अवृश्चत् बींश् वीणाति ब्रीडच् वीड्यति शंसु शंसति शकंन्च् शक्यते शक्यति शकिङ् शङ्कते शठ शठति व्रीणीयात् व्रीड्येत् शंसेत् शक्येत शक्येत् शङ्केत वीणातु व्रीड्यतु शंसतु शक्यताम् शक्यतु शङ्कताम् शठतु अवीणात् अव्रीड्यत् अशंसत् अशक्यत अशक्यत् अशङ्कत अशठत् शठेत् शीयेत शद्लु शपंन् शपेत शपेत शीयते शपति शपते शाम्यति शंसते शसति शमु शाम्येत् शसिङ शसु शासुक शास्ते शीयताम् शपतु शपताम् शाम्यतु शंसताम् शसतु शास्ताम् शिक्षताम् शिनष्टु शुध्यतु शुम्भतु शुष्यतु शृणातु... अशीयत अशपत् अशपत अशाम्यत अशंसत अशसत् अशास्त अशिक्षत अशिनट अशुध्यत् अशुम्भत् अशुष्यत् अशृणात् शिक्षङ् शंसेत शसेत् शासीत शिक्षेत शिष्यात् शुध्येत् शुम्भेत् शुष्येत् शणीयात् शिष्लुर् शुधच शुभि शुषंच शश शिक्षते शिनष्टि शुध्यति शुम्भति शुष्यति शृणाति शांच् श्यति श्येत् श्यतु अश्यत् Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ चादि बादि अवारीत् ववार अवेपिष्ट विवेपे अव्यथिष्ट विव्यथे अव्यात्सीत् विव्याध अव्यासीत् विव्याय अव्यास्त विव्ये अव्रश्चीत् वव्रश्च अनाक्षीत् अत्रैषीत् वित्राय अव्रीडीत् विव्रीड शशंस अशंसीत् अशक्त शेके शशाक अशाक्षीत् अशङ्किष्ट शशङ्के अशाठीत् शशाठ अशठीत् अशदत् शशाद अशाप्सीत् शशाप अशप्त शेपे अशमत् शशाम अशंसिष्ट शशंसे अशसीत् शशास अशासिष्ट शसासे अशिक्षिष्ट शिशिक्षे अशिषत् शिशेष अशुधत् शुशोध अशुम्भीत् शुशुम्भ अशुषत् शुशोष अशारीत् शशार अशात् शशी अशासीत् तादि वरिता वरीता वेपिषीष्ट वेपिता प व्यथिषीष्ट व्यथिता व्यथिष्यते विध्यात् व्यद्धा व्यत्स्यति वीयात् व्याता व्यास्यति क्यादादि वूर्यात् व्यासीष्ट व्याता व्यास्यते वृश्च्यात् वश्चिता व्रश्चिष्यति व्रीयात् व्रीड्यात् शस्यात् शक्षीष्ट स्यत्यादि वरिष्यति वरीष्यति व्रष्टा व्रक्ष्यति त्रेता व्रेष्यति व्रीडिता व्रीडिष्यति शंसिता शंसिष्यति शक्ता शक्ष्यते शक्यात् शक्ता शयति शङ्किषीष्ट शङ्किता शङ्किष्यते शठ्यात् शठिता शठिष्यति शद्यात् शत्ता शप्यात् शप्ता शप्सीष्ट शप्ता शस्यते शम्यात् शमिता शमिष्यति शंसिषीष्ट शंसिता शंसिष्यते शत्स्यति शप्स्यति शाता शस्यात् शसिता शसिष्यति शासिषीष्ट शासिता शासिष्यते शिक्षिषीष्ट शिक्षिता शिक्षिष्यते शुध्यात् शिष्यात् शेष्टा शेक्ष्यति शोद्धा शुभ्यात् शुम्भिता शुम्भिष्यति शोत्स्यति शुष्यात् शोष्टा शोक्ष्यति शीर्यात् शरिता शरिष्यति शरीता शरीष्यति शायात् शास्यति ४६१ स्यदादि अवरिष्यत् अवरीष्यत् अवेपिष्यत अव्यथिष्यत अव्यत्स्यत् अव्यास्यत् अव्यास्यत अव्रश्चिष्यत् अन्रक्ष्यत् अब्रेष्यत् अव्रीडिष्यत् अशंसिष्यत् अशक्ष्यत अशक्ष्यत् अशङ्किष्यत अशठष्यत् अशत्स्यत् अशप्स्यत् अशप्स्यत • अशमिष्यत् अशंसिष्यत अशसिष्यत् अशा सिष्य ... अशिक्षिष्यत अशेक्ष्यत् अशोत्स्यत् अशुम्भिष्यत् अशोक्ष्यत् अशरिष्यत् अशरीष्यत् अशास्यत् Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि दिवादि श्रमुच यादादि श्राम्येत् श्लाघेत श्लिष्येत् श्राम्यति श्लाघते श्लिष्यति तुबादि श्राम्यतु श्लाघताम् श्लाघृङ् श्लिषंच् अश्राम्यत् अश्लाघत अश्लिष्यत् श्लिष्यतु शिलषण श्लेषयति श्वसिति श्लेषयेत् श्वस्यात् श्लेषयतु श्वसितु अश्लेषयत् अश्वसत् श्वसक सजेत् षजं षद्लू षहङ् सीदेत् सजतु सीदतु सहताम् असजत् असीदत् असहत सहेत असिञ्चत् षिचंन्ज् षिधुंच् षिवुच् सजति सीदति सहते सिञ्चति सिध्यति सीव्यति सुह्यति सूयते सिञ्चेत् सिध्येत् सीव्येत् सिञ्चतु सिध्यतु सीव्यतु असिध्यत् असीव्यत् असुह्यत् असूयत षुहच yङ्च सुह्येत् सूयेत सुह्यतु सूयताम् सेवते सेवताम् सेवेत स्येत् असेवत अस्यत् स्यति स्यतु ष्ट्यायति ष्ट्यायेत् ष्ट्यायतु अष्ट्यायत् ष्ठुिवु ष्ठीवति स्नाति स्निह्यति ष्ठीवेत् स्नायात् ष्णांक ष्ठीवतु स्नातु स्निह्यतु अष्ठीवत् अस्नात् अस्निह्यत् ष्णिहूच स्निह्येत् ष्ण स्नायति मिङ् सपर स्नायेत् स्मयेत सपर्येत् समर्येत् सर्जेत् साध्नुयात् स्मयते सपर्यति समयति सर्जति साध्नोति स्नायतु स्मयताम् सपर्यतु समर्यतु सर्जतु साध्नोतु अस्नायत् अस्मयत असपर्यत् असमर्यत असर्जत् असाध्नोत् समर सर्ज साधंत् Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ परिशिष्ट २ चादि गबादि यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अश्रमत् शश्राम श्रम्यात् श्रमिता श्रमिष्यति अश्रमिष्यत् अश्लाघिष्ट शश्लाघे श्लाघिषीष्ट श्लाघिता श्लाघिष्यते अश्लाघिष्यत अश्लिक्षत् शिश्लेष श्लिष्यात् श्लेष्टा . श्लेक्ष्यति अश्लेक्ष्यत् अश्लिषत् अशिश्लिषत् श्लेषयाञ्चकार ३ श्लेष्यात् श्लेषयिता श्लेषयिष्यति अश्लेषयिष्यत् अश्वासीत् शश्वास श्वस्यात् श्वसिता श्वसिष्यति अश्वसिष्यत् अश्वसीत् असाङ्क्षीत् ससञ्ज सज्यात् सङ्क्ता सक्ष्यति असक्ष्यत् असदत् ससाद सद्यात् सत्ता सत्स्यति असत्स्यत् असहिष्ट सेहे सहिषीष्ट सहिता, सोढा सहिष्यते असहिष्यत असिचत् सिषेच सिच्यात् सेक्ता सेक्ष्यति असेक्ष्यत् असिधत् सिषेध सिध्यात् सेद्धा सेत्स्यति असेत्स्यत् असेवीत् सिषेव सीव्यात् सेविता सेविष्यति असेविष्यत् असोहीत् सुषोह सुह्यात् सोहिता सोहिष्यति असोहिष्यत् अस विष्ट, सुषुवे सविषीष्ट सविता सविष्यते असविष्यत असोष्ट सोषीष्ट सोता सोष्यते असोष्यत असेविष्ट सिषेवे सेविषीष्ट सेविता सेविष्यते । असेविष्यत असात् ससौ सेयात् साता सास्यति असास्यत् असासीत् अष्ट्यासीत् टष्ट्यौ ष्ट्येयात् ष्ट्याता ष्ट्यास्यति अष्ट्यास्यत् ष्ट्यायात् अष्ठेवीत् तिष्ठेव, टिष्ठेव ष्ठीव्यात् ठेविता ष्ठेविष्यति अष्ठेविष्यत् अस्नासीत् सस्नौ स्नेयात्,स्नायात् स्नाता स्नास्यति अस्नास्यत् अस्निहत् सिष्णेह स्निह यात् स्नेग्धा, स्नेढा स्नेहिष्यति अस्नेहिष्यत् स्नेहिता स्नेक्ष्यति अस्नेक्ष्यत् अस्नासीत् सस्नौ स्नेयात्,स्नायात् स्नाता स्नास्यति अस्नास्यत् अस्मेष्ट सिष्मिये स्मेषीष्ट स्मता स्मेष्यते अस्मेष्यत असपरीत् सपराञ्चकार ३ सपर्यात् सपरिता सपरिष्यति असपरिष्यत् असमरीत् समराञ्चकार ३ समर्यात् समरिता समरिष्यति असमरिष्यत् असर्जीत् ससर्ज सात् सजिता सजिष्यति असजिष्यत् असात्सीत् ससाध साध्यात् साधा सात्स्यति असात्स्यत् Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि " तुबादि सवतु सवति सुखयति यादादि सवेत् सुखयेत् सूचयेत् सूत्रयेत् सरेत् सुखण् सूचण् सूत्रण सुखयतु दिबादि असवत् असुखयत् असूचयत् असूत्रयत् असरत् सूचयति सूत्रयति सरति fritte B सूचयतु सूत्रयतु सरतु सृजंज् सृप्लू सृजति सर्पति सृजेत् सर्पत सृजतु सर्पतु असृजत् असर्पत स्कन्द स्कन्दति स्कन्देत् स्कन्दतु अस्कन्दत् स्तूंन्त् स्तृणोति स्तृणुते स्तृणुयात् स्तृण्वीत स्तृणोतु स्तृणुताम् अस्तृणोत् अस्तृणुत स्तनयतु स्तनण् स्तेनण स्त्यै स्तनयति स्तेनयति स्त्यायति स्तनयेत् स्तेनयेत् स्त्यायेत् स्तेनयतु अस्तनयत् अस्तेनयत् अस्त्यायत् स्त्यायतु स्पदिङ् स्पर्ध स्फुटङ् स्पन्दते स्पर्द्धते स्फोटते स्फुरति स्मरति स्यन्दते स्पन्देत स्पर्द्धत स्फोटेत स्फुरेत् स्मरेत् स्यन्देत स्पन्दताम् स्पर्द्धताम् स्फोटताम् स्फुरतु स्मरतु स्यन्दताम् अस्पन्दत अस्पर्द्धत अस्फोटत अस्फुरत् अस्मरत् अस्यन्दत स्फुरज् स्यन्दूङ् ससुङ् नसते स्रसेत संसताम् अनसत अस्वदत स्वदङ् स्वन स्वदते स्वनति स्व देत स्वनेत स्वदताम् स्वनतु अस्वनत् Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४६५ धादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि . असावीत् सुसाव ...... सूयात् सोता सोष्यति असोष्यत् असुसुखत् सुखयाञ्चकार ३ सुख्यात् सुखयिता सुखयिष्यति असुखयिष्यत् असुसूचत् सूचयाञ्चकार ३ सूच्यात् सूचयिता सूचयिष्यति असूचयिष्यत् असुसूत्रत् सूत्रयाञ्चकार ३ सूत्र्यात् । सूत्रयिता सूत्रयिष्यति असूत्रयिष्यत् असार्षीत् ससार स्रियात् सर्ता सरिष्यति असरिष्यत् असरत् पश्यति . स्तर्ता अस्राक्षीत् ससर्ज सृज्यात् स्रष्टा अस्रक्ष्यत् असृपत् ससर्प : सृप्यात् सप्ता,सप्र्ता स्रप्स्यति अस्रप्स्यत् सय॑ति असय॑त् अस्कदत् ___ चस्कन्द स्कद्यात् स्कन्ता स्कन्त्स्यति अस्कन्त्स्यत् अस्कान्त्सीत् अस्तार्षीत् तस्तार स्तरिष्यति अस्तरिष्यत् अस्तरिष्ट तस्तरे स्तरिषीष्ट स्तर्ता स्तरिष्यते अस्तरिष्यत अस्तीष्ट स्तृषीष्ट अस्तरीष्ट अतस्तनत् स्तनयाञ्चकार ३ स्तन्यात् स्तनयिता स्तनयिष्यति अस्तनयिष्यत् अतिस्तेनत् स्तेनयामास ३ स्तेन्यात् स्तेनयिता स्तेनयिष्यति अस्तेनयिष्यत् अस्त्यासीत् तस्त्यौ स्त्येयात् स्त्याता स्त्यास्यति अस्त्यास्यत् स्त्यायात् अस्पन्दिष्ट पस्पन्दे स्पन्दिषीष्ट स्पन्दिता स्यन्दिष्यते अस्पन्दिष्यत अस्पद्धिष्ट पस्पर्द्ध स्पद्धिषीष्ट स्पद्धिता स्पद्धिष्यते अस्पद्धिष्यत अस्फोटिष्ट पुस्फुटे स्फोटिषीष्ट स्फोटिता स्फोटिष्यते अस्फोटिष्यत अस्फुरीत् पुस्फोर स्फूर्यात् स्फुरिता स्फुरिष्यति अस्फुरिष्यत् अस्मार्षीत् सस्मार स्मर्यात् स्मर्ता स्मरिष्यति अस्मरिष्यत् अस्यदत् सस्यन्दे स्यन्दिषीष्ट स्यन्दिता स्यन्दिष्यते अस्यन्दिस्यत अस्यन्दि स्यन्त्स्यते अस्यन्त्स्यत अस्यन्त स्यन्त्स्यति अस्यन्त्स्यत् अस्रसत् सस्र से स्र सिशीष्ट स्रसिता स्रसिष्यते अस्र सिष्यत अस्र सिष्ट अस्वदिष्ट सस्वदे स्वदिषीष्ट स्वदिता स्वदिष्यते अस्वदिष्यत अस्वनीत् सस्वान स्वन्यात् स्वनिता स्वनिष्यति अस्वनिष्यत् अस्वानीत् स्यन्त स्यन्ता Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ वाक्यरचना बोध धातु तिबादि तुबादि दिबादि यादादि स्वादेत स्वाद स्वादते स्वादताम् स्वरति स्वरेत् अस्वादत अस्वरत् स्वरतु हठति हठेत् हठतु अहठत् हदंङ् हिक्कन् हदते हिक्कति हिक्कते हिनस्ति जुहोति हदेत हिक्केत् हिक्केत हिंस्यात् जुहुयात् हदताम् हिक्कतु हिक्कताम् हिनस्तु जुहोतु अहदत अहिक्कत् अहिक्कत अहिनत् (द्) अजुहोत् हिसि हुर्छा ह्रींछ् हूर्च्छति ह्रीच्छति हूछेत् ह्रीच्छेत् हूर्च्छतु ह्रीच्छतु अहूर्च्छत् अह्रीच्छत् Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ परिशिष्ट २ द्यादि णबादि क्यादादि तादि स्यत्यादि स्यदादि अस्वादिष्ट सस्वादे स्वादिषीष्ट स्वादिता स्वादिष्यते अस्वादिष्यत अस्वारीत् सस्वार स्वर्यात् स्वर्ता स्वरिष्यति अस्वरिष्यत् अस्वार्षीत् स्वरिता अहाठीत् जहाठ हठ्यात् हठिता हठिष्यति अहठिष्यत् अहठीत् अहत्त जहदे हत्सीष्ट हत्ता हत्स्यते अहत्स्यत अहिक्कीत् जिहिक्क हिक्क्यात् हिक्किता हिक्किष्यति अहिक्किष्यत् अहिक्किष्ट जिहिक्के हिक्किषीष्ट हिक्किता हिक्किष्यते अहिक्किष्यप्त अहिंसीत् जिहिंस हिंस्यात् हिंसिता हिसिष्यति अहिंसिष्यत् अहौषीत् जुहवाञ्चकार ३ हूयात् होता होष्यति अहोष्यत् जुहाव अहीत् जुहूर्च्छ हात् हुच्छिता हूच्छिष्यति अहच्छिष्यत् अह्रीच्छीत् जिह्रीच्छ ह्रीच्छ्यात् ह्रीच्छिता हीच्छिष्यति अह्रीच्छिष्यत् Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ जिन्नन्त, सन्नन्त, यङन्त, यङ्लुगन्त और भावकर्म की एक-एक धातु का पहले विस्तार से सारे रूप दिए गए हैं। उसके आगे चार्ट में ३६५ धातुओं के संक्षिप्त रूप तिबादि और द्यादि के प्रथम पुरुष के एकवचन के रूप दिए गए हैं। यङलुगन्त के रूप चार्ट में न आने से अलग दिए हैं। उभयपदी धातुओं के संक्षिप्त रूप में परस्मैपद के रूप के आगे आत्मनेपद के रूप के लिए अन्तिम एक शब्द दिया है जो परस्मैपद और आत्मनेपद का भेद दिखाता है। जैसे—भू धातु जिन्नन्त का तिबादि का एक वचन का रूप भावयति है, उसके आगे (ते) दिया गया है जिसका पूरा रूप बनता है भावयते । भावय शब्द दोनों में समान होने से नहीं दिया गया है। इसी प्रकार द्यादि के परस्मैपद और आत्मनेपद के रूप की (त) से भिन्नता दिखाई गई है। यङन्त के रूप आत्मनेपद और यङ्लुगन्त के रूप परस्मैपद में ही चलते हैं। जिसके रूप नहीं बनते हैं वहां X का चिह्न दिया गया है। परिशिष्ट ३ की धातुओं का अर्थ और क्रम परिशिष्ट २ से पहले धातुओं की अकारादि अनुक्रमणिका (पृष्ठ २९६ से ३१६ तक) में देखें। १. भू-सत्तायाम् (जिन्नन्त रूप) परस्मैपद एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि भावयति ____ भावयत: भावयन्ति प्र० पु० भावयेत् भावयेताम् भावयेयुः भावयसि ____ भावयथ: भावयथ म० पु० भावये: भावयेतम् भावयेत भावयामि भावयावः भावयाम: उ० पु० भावयेयम् भावयेव भावयेम तुबादि भावयतु, भावयतात् ___ भावयताम् भावयन्तु प्र० पु० भावय, भावयतात् भावयतम् भावयत म० पु० भावयानि भावयाव भावयाम उ० पु० दिबादि धादि अभावयत् अभावयताम् अभावयन् प्र० पु० अबीभवत् अबीभवताम् अबीभवन् अभावयः अभावयतम् अभावयत म० पु० अबीभवः अबीभवतम् अबीभवत अभावयम् अभावयाव अभावयाम उ० पु० अबीभवम् अबीभवाव अबीभवाम Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ४६8. ܟܲܝ ܩܸ उ० पु० णबादि (१) भावयाञ्चकार भावयाञ्चक्रतुः भावयाञ्चक्रुः प्र० पू० भावयाञ्चकर्थ भावयाञ्चक्रथुः भावयाञ्चक्र म० पु० भावयाञ्चकार, भावयाञ्चकर भावयाञ्चकृव भावयाञ्चकृम उ० पु० णबादि (२) भावयाम्बभूव भावयाम्बभूवतुः भावयाम्बभूवुः प्र० पु० भावयाम्बभूविथ भावयाम्बभूवथुः भावयाम्बभूव ___म० पु० भावयाम्बभूव भावयाम्बभूविव भावयाम्बभूविम णबादि (३) भावयामास भावयामासतुः भावयामासुः भावयामासिथ भावयामासथः भावयामास म० पु० भावयामास भावयामासिव भावयामासिम क्यादादि तादि भाव्यात् भाव्यास्ताम् भाव्यासुः प्र० पु० भावयिता भावयितारौ भावयितारः भाव्याः भाव्यास्तम् भाव्यास्त म० पु० भावयितासि भावयितास्थः भावयितास्थ भाव्यासम् भाव्यास्व भाव्यास्म उ० पु० भावयितास्मि भावयितास्वः भावयितास्मा स्यत्यादि भावयिष्यति भावयिष्यतः भावयिष्यन्ति भावयिष्यसि भावयिष्यथ: भावयिष्यथ भावयिष्यामि भावयिष्यावः भावयिष्यामः उ० पु० स्यदादि अभावयिष्यत् अभावयिष्यताम् अभावयिष्यन् प्र० पु० अभावयिष्यः अभावयिष्यतम् अभावयिष्यत __म० पु. अभावयिष्यम् अभावयिष्याव अभावयिष्याम उ० पु० आत्मनेपद तिबादि यादादि भावयते भावयेते भावयन्ते प्र० पु० भावयेत भावयेयाताम् भावयेरन् भावयसे भावयेथे भावयध्वे म० पु० भावयेथाः भावयेयाथाम् भावयेध्वम् भावये भावयावहे भावयामहे उ० पु० भावयेय भावयेवहि भावयेमहि तुबादि . दिबादि भावयताम् भावयेताम् भावयन्ताम् प्र० पु० अभावयत अभावयेताम् अभावयन्त' भावयस्व भावयेथाम् भावयध्वम् म० पु० अभावयथाः अभावयेथाम् अभावयध्वम् भावय भावयावहै भावयामहै उ० पु० अभावये अभावयावहि अभावयामहि Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० धादि अबीभवत अब भवथा: अब भवे बादि (१) भावयाञ्चक्रे भावयाञ्चकृषे भावयाञ्चक्रे बादि (२) भावयाम्बभूव भावयाम्बभूवतुः भावयाम्बभूविथ भावयाम्बभूवथुः भावयाम्बभूव भावयाम्बभूवि बादि (३) भावयामास भावयामासिथ भावयामास क्यादादि भावयिषीष्ट भावयिषीष्ठाः भावयिषीय तादि भावयिता भावयिता से भावयिताहे अबीभवेताम् अवीभवेथाम् अब भवावह स्यदादि अभावयिष्यत अभावयिष्यथाः अभावयिष्ये भावयाञ्चक्राते भावयाञ्चक्राथे भावयाञ्चकृवहे भावयामासतुः भावयामासथुः भावयामासिव भावयितारौ भावयितासाथे भावयितास्वहे स्यत्यादि भावयिष्यते भावयिष्येते भावयिष्यसे भावयिष्येथे भावयिष्ये भावयिष्याव अबीभवन्त प्र० पु० अबीभवध्वम् म० पु० अब भवामहि उ० पु० भावयाञ्चक्रिरे भावयाञ्चकृढ्वे भावयाञ्चकृमहे भावयाम्बभूवुः भावयाम्बभूव भावयाम्बभूविम भावयामासुः भावयामास भावयामासम भावयिषीयास्ताम् भावयिषीरन् भावयिषीयास्थाम् भावयिषीवहि भावयितारः भावयिताध्वे भावयितास्महे भावयिष्यन्ते भावयिष्यध्वे भावयिष्यामहे प्र० पु० भावयिषीढ्वम्, भावयिषीध्वम् म० पु० उ० पु० भावषीमहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० अभावयिष्येताम् अभावयिष्यन्त अभावयिष्येथाम् अभावयिष्यावहि वाक्यरचना बोध अभावयिष्यध्वम् अभावयिष्यामहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ २. भू-सत्तायाम् (सन्नन्त रूप) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि बुभूषति बुभूषतः बुभूषन्ति प्र० पु० बुभूषेत् बुभूषेताम् बुभूषेयुः बुभूषसि बुभूषथः बुभूषथ म० पु० बुभूषेः बुभूषेतम् बुभूषेत बुभूषामि बुभूषावः बुभूषाम: उ० पु० बुभूषेयम् बुभूषेव बुभूषेम तुबादि दिबादि बुभूषतु, बुभूषतात् बुभूषताम् बुभूषन्तु प्र० पु० अबुभूषत् अबुभूषताम् अबुभूषन् बुभूष, बुभूषतात् बुभूषतम् बुभूषत म० पु० अबुभूषः अबुभूषतम् अबुभूषत बुभूषाणि बुभूषाव बुभूषाम उ० पु० अबुभूषम् अबुभूषाव अबुभूषाव धादि अबुभूषीत् अबुभूषिष्टाम् अबुभूषिषुः प्र० पु० अबुभूषीः अबुभूषिष्टम् अबुभूषिष्ट म० पु० अबुभूषिषम् अबुभूषिष्व अबुभूषिष्म उ० पु० गबादि (१) बुभूषाञ्चकार बुभूषाञ्चक्रतुः बुभूषाञ्चक्रुः प्र० पु० बुभूषाञ्चकर्थ बुभूषाञ्चक्रथुः बुभूषाञ्चक्र म० पु० बुभूषाञ्चकार, बुभूषाञ्चकर बुभूषाञ्चकृव । बुभूषाञ्चकृम उ० पु० णबादि (२) बुभूषाम्बभूव बुभूषाम्बभूवतुः बुभूषाम्बभूवुः प्र० पु० बुभूषाम्बभूविथ बुभूषाम्बभूवथुः बुभूषाम्बभूव म० पु० बुभूषाम्बभूव बुभूषाम्बभूविव बुभूषाम्बभूविम उ० पु० णबादि (३) क्यादादि बुभूषामास बुभूषामासतु: बुभूषामासुः प्र० पु० बुभूष्यात् बुभूष्यास्ताम् बुभूष्यासुः बुभूषामासिथ बुभूषामासथुः बुभूषामास म० पु० बुभूष्या: बुभूष्यास्तम् बुभूष्यास्त बुभूषामास बुभूषामासिव बुभूषामासिम उ० पु० बुभूष्यासम् बुभूष्यास्व बुभूष्यास्म तादि स्यत्यादि बुभूषिता बुभूषितारौ बुभूषितारः प्र० पु० बुभूषिष्यति बुभूषिष्यतः बुभूषिष्यन्ति बुभूषितासि बुभूषितास्थः बुभूषितास्थ म० पु० बुभूषिष्यसि बुभूषिष्यथः बुभूषिष्यथ बुभूषितास्मि बुभूषितास्वः बुभूषितास्मः उ० पु० बुभूषिष्यामि बुभूषिष्याव: बुभूषिष्यामः . स्यदादि अबुभूषिष्यत् अबुभूषिष्यताम् . अबुभूषिष्यन् प्र० पु० अबुभूषिष्यः अबुभूषिष्यतम् अबुभूषिष्यत म० पु० अबुभूषिष्यम् अबुभूषिष्याव अबुभूषिष्याम उ० पु० Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि ३. रभङ्ग - राभस्ये ( सन्नन्त रूप ) आरिप्सिष्ट आरिप्सिष्ठाः आरिप्सिष बादि आरिप्सते आरिप्सेते आरिप्सन्ते प्र० पु० आरिप्सेत आरिप्सेयाताम् आरिसेरन् आरिप्ससे आरिप्सेथे आरिप्सध्वे म० पु० आरिसेथाः आरिसेयाथाम् आरिप्सेध्वम् आरिप्से आरिप्सावहे आरिप्सामहे उ० पु० आरिप्सेय आरिप्सेवहि आरिप्सेमहि तुबादि दिबादि आरिप्सताम् आरिप्सेताम् आरिप्सन्ताम् प्र० पु० आरिप्सत आरिप्सेताम् आरिप्सन्त आरिप्सस्व आरिप्सेथाम् आरिप्सध्वम् म० पु० आरिप्सथाः आरिप्सेथाम् आरिप्सध्वम् आरिसे आरिसाव है आरिप्सामहै उ० पु० आरिप्से आरिप्सावहि आरिप्सामहि धादि क्यादादि आरिप्सिषीष्ट आरिप्सिषीष्ठाः आरिप्सिषीय आरिप्सिषाताम् आरिप्सिषाथाम् आरिप्सिष्वहि आरिसाञ्चक्रे आरिसाञ्चक्राते आरिसाञ्चकृषे आरिसाञ्चक्राथे आरिप्साञ्चक्रे आरिप्साञ्चकृवहे एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि तादि आरिप्सिता आरिप्सिता से आरिप्सिताहे स्यत्यादि आरिप्सिष्यते आरिप्सिष्येते आरिप्सिष्यसे आरिप्सिष्येथे आरिप्सिष्ये स्यदादि आरिप्सिष्यत आरिप्सिष्यथाः आरिप्सिष्ये आरिप्सितारौ आरिप्सितासाथे आरिप्सितास्वहे आरिप्सिषीयास्ताम् आरिप्सिषीरन् आरिप्सिषीयास्थाम् आरिप्सिषीध्वम् आरिप्सिषीवहि आरिप्सिषीमहि प्र० पु० आरिप्सिषत आरिप्सिद्वम्, आरिप्सिध्वम् म० पु० आरिप्स महि उ० पु० आरिसाञ्चक्रिरे आरिसाञ्चकृढ्वे आरिसाञ्चकृमहे वाक्यरचना बोध आरिप्सितारः आरिप्सिताध्वे आरिप्सितास्महे आरिप्सिष्यन्ते आरिप्सिष्यध्वे आरिप्सिष्याव आरिप्सिष्यामहे आरिप्सिष्येताम् आरिप्सिष्यन्त आरिप्सिष्येथाम् आरिप्सिष्यावहि आरिप्सिष्यध्वम् आरिप्सिष्यामहि प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ एकवचन द्विवचन तिबादि बोभूयते बोभूयसे बोभूये बादि बादि (१) ४. भू - सत्तायाम् ( यङन्त रूप ) बहुवचन बोभूयाञ्चक्रे बोभूयाञ्चकृषे बोभूयाञ्चक्रे बोभूयताम् बोभूयेताम् बोभूयन्ताम् प्र० पु० अबोभूयत अबोभूयेताम् अबोभूयन्त बोभूयस्व बोभूयेथाम् बोभूयध्वम् म० पु० अबोभूयथाः अबोभूयेथाम् अबोभूयध्वम् बोभूये बोभूयावहे बोभूयामहे उ० पु० अबोभूये अबोभूयावहि अबोभूयामहि धादि बहुवचन बोभूयेते बोभूयन्ते प्र० पु० बोभूयेत बोभूयेयाताम् बोभूयेरन् बोभूयेथे बोभूयध्वे म० पु० बोभूयेथाः बोभूयेयाथाम् बोभूयावहे बोभूयामहे उ० पु० बोभूयेय बोभूयेवहि दिबादि बोभूयेध्वम् बोभूये महि अबोभूष्टि अबोभूयिषाताम् अबोभूषित अबोभूयिष्ठाः अबोभूयिषाथाम् अबोभूयिषि Prata भूयिषीष्ट बोभूयिषीष्ठाः भूयिषीय एकवचन द्विवचन यादादि बोभूयाञ्चक्राते बोभूयाञ्चक्राथे बोभूयाञ्चकृवहे जबादि (२) बोभूयाम्बभूव बोभूयाम्बभूवतुः बोभूयाम्बभूविथ बोभूयाम्बभूवथुः बोभूयाम्बभूव बोभूयाम्बभूविव बादि (३) बोभूयामास बोभूयामाथि बोभूयामास क्यादादि बोभूयामासतुः बोभूयामास : बोभूयामासि प्र० पु० अभूवम्, अबोभूयिध्वम् म० पु० उ० पु० ratभूमिहि बोभूयाञ्चक्रिरे बोभूयञ्चकृढ़ वे बोभूयामहे बोभूयाम्बभूवुः बोभूयाम्बभूव बोभूयाम्बभूविम बोभूयामासुः भूयामास वोभयामासिम ५०३ प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० भूपिन् प्र० पु० बोभूयिषीयास्ताम् बोभूयिषीयास्थाम् बोभूयिषीढ्वम्, बोभूयिषीध्वम् म० पु० भू बोभूयिषीमहि उ० पु० Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ तादि भूयिता बोभूयिता से भूता स्यत्यादि बोभूयते भूयसे भू स्यदादि भू अबोभूयिष्यथाः भूये भूता बोभूयितासाथे बोभूयितास्वहे भू भू तुबादि बोभवी, बोभ बोभूहि बोभवानि भू बोभूि बोभूयिष्यावहे बोभूयिष्यामहे अबोभूयिष्येताम् अबोभूयिष्येथाम् भूि बोभूयितारः भूि बोभूयितास्महे एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि बोभवीति, बोभोति बोभूतः बोभवीषि, बोभोषि बोभूथ: बोभवीमि, बोभोमि बोभूवः दिबादि अबोभवीत्, अबोभोत् अबोभवीः, अबोभोः अबोभवम् ४. भू - सत्तायाम् ( यङ्लुगन्त के रूप ) धादि अबोभोत् अबोभोताम् अबोभोतम् अबोभोः अबोभूवम् अबोभोव बोभूताम् बोभुव बोभूतम् बोभवाव अवोभूताम् अबोभूतम् अबोभूव अबोभूयिष्यन्त अबोभूयिष्यध्वम् अबोभूमि प्र० पु० म० पु० उ० पु० बोभूत बोभवाम प्र० पु० एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि बोभुवति प्र० पु० बोभूयात् बोभूयाताम् बोभूयुः बोभूथ म० पु० बोभूयाः बोभूयातम् बोभूयात बोभूम: उ० पु० बोभूयाम् बोभूयाव बोभूयाम अबोभूवन् अबोभोत अबोभोम म० पु० उ० पु० अबोभवुः अबोभूत अबोभूम प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० वाक्यरचना बोध उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ बादि (१) बोभवाञ्चकार बोभवाञ्चक्रतुः बोभवाञ्चक्रथुः बोभवाञ्चकर्थ बोभवाञ्चकार, बोभवाञ्चकर बोभवाञ्चकृव बादि (२) बोभवाम्बभूव बोभवाम्बभूवतुः बोभवाम्बभूविथ बोभवाम्बभूवथुः बोभवाम्बभूव बोभवाम्बभूविव बादि (३) बोभवामास बोभवामासतुः बोभवामासिथ बोभवामासथुः बोभवामास बोभवमासिव एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि बोभवाञ्चक्रुः बोभवाञ्चक्र बोभवाञ्चकृम बोभवाम्बभूवुः प्र० पु० म० पु० बोभवाम्बभूव बोभवाम्बभूविम उ० पु० बोभवामासुः बोभवामास बोभवामा सिम तादि दीयेते दीयन्ते येथे दीयध्वे दीयावहे दीयामहे बोभविष्यन्ति बोभविष्यथ बोभविष्यामः प्र० पु० म० पु० उ० पु० क्यादादि बोभवितारौ बोभवितारः बोभूयात् बोभूयास्ताम् बोभूयासुः प्र० पु० बोभविता बोभूयाः बोभूयास्तम् बोभूयास्त म० पु० बोभवितासि बोभवितास्थः बोभवितास्थ बोभूयासम् बोभूयास्व बोभूयास्म उ० पु० बोभवितास्मि बोभवितास्वः बोभवितास्मः स्यत्यादि बोभविष्यति बोभविष्यतः बोभविष्यथः भविष्यसि बोभविष्यामि बोभविष्यावः स्यदादि अबोभविष्यत् अबोभविष्य: अबोभविष्यम् अबोभविष्यताम् अबोभविष्यन् अबोभविष्यतम् अबोभविष्यत अब भविष्याव अबोभविष्याम ५. डुदांक – दाने (भावकर्म के रूप ) प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० दीयते दीयसे प्र० पु० दीयेत दीयेयाताम् म० पु० दीयेथाः दीयेयाथाम् उ० पु० दीयेय दिबादि दीयताम् दीयेताम् दीयन्ताम् प्र० पु० अदीयत दीये . दीयेवहि बादि दीयस्व दीय दीयेथाम् दीयध्वम् म० पु० अदीयथाः दीया है दीयामहै उ० पु० अदीये ५०५ एकवचन द्विवचन बहुवचन यादादि दीयेरन् दीयेध्वम् महि अदीयेताम् अदीयन्त अदीयेथाम् अदीयध्वम् अदीयावहि अदीया महि ५ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ वाक्यरचना बोध धादि (१) धादि (२) अदायि अदायिषाताम् अदायिषत प्र० पु० अदायि अदिषाताम् अदिषत अदायिष्ठाः अदायिषाथाम् अदायिढ्वम् म० पु० अदिथाः अदिषाथाम् अदिढ्वम् अदायिषि अदायिष्वहि अदायिष्महि उ० पु० अदिषि अदिष्वहि अदिष्महि णबादि क्यादादि (१) ददे ददाते ददिरे प्र० पु० दायिषीष्ट दायिषीयास्ताम् दायिषीरन् ददिषे ददाथे ददिध्वे म० पु० दायिषीष्ठाः दायिषीयास्थाम् दायिषीढ्वम्, दायिषीध्वम् ददे ददिवहे ददिमहे उ० पु० दायिषीय दायिषीवहि दायिषीमहि क्यादादि (२) तादि (१) दासीष्ट दासीयास्ताम् दासीरन् प्र० पु० दायिता दायितारौ दायितारः दासीष्ठा: दासीयास्थाम् दासीध्वम् म० पु० दायितासे दायितासाथे दायिताध्वे दासीय दासीवहि दासीमहि उ० पु० दायिताहे दायितास्वहे दायितास्महे तादि (२) स्यत्यादि (१) दाता दातारी दातारः प्र० पु० दायिष्यते दायिष्येते दायिष्यन्ते दातासे दातासाथे दाताध्वे म० पु० दायिष्यसे दायियेथे दायिष्यध्वे दाताहे दातास्वहे दातास्महे उ० पु० दायिष्ये दायिष्यावहे दायिष्यामहे स्यत्यादि (२) ___ स्यदादि (१) दास्यते दास्येते दास्यन्ते प्र० पु० अदायिष्यत अदायिप्येताम् अदायिष्यन्त दास्यसे दास्येथे दास्यध्वे म० पु० अदायिष्यथाअदायिष्येथाम् अदायिष्यध्वम् दास्ये दास्यावहे दास्यामहे उ० पु० अदायिष्ये अदायिष्यावहि अदायिष्यामहि स्यदादि (२) अदास्यत अदास्येताम् अदास्यन्त प्र० पु० अदास्यथाः अदास्येथाम् अदास्यध्वम् म० पु० अदास्ये अदास्यावहि अदास्यामहि उ० पु० ६. जप—मानसे च (भावकर्म के रूप) एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिबादि यादादि जप्यते जप्येते जप्यन्ते प्र० पु० जप्येत जप्येयाताम् जप्येरन् जप्यसे जप्येथे जप्यध्वे म० पु० जप्येथाः जप्येयाथाम् जप्येध्वम् जप्ये जप्यावहे जप्यामहे उ० पु० जप्येय जप्येवहि जप्येमहि दिबादि जप्यताम् जप्येताम् जप्यन्ताम् प्र० पु० अजप्यत अजप्येताम् अजप्यन्त जप्यस्व जप्येथाम् जप्यध्वम् म० पु० अजप्यथाः अजप्येथाम् अजायध्वम् जप्य जप्यावहै जप्यामहै उ० पु० अजप्ये अजप्यावहि अजप्यामहि तुबादि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ खादि (१) अजापि अजापिषाताम् अजापिष्ठाः अजापिषाथाम् अजापिषि विहि खादि (२) अजपि अजपिषाताम् अजापिषत अजापिढ्वम्, अजापिध्वम् अजामिहि .अजपिये अजपिषत अजपिढ्वम्, अजपिध्वम् अजपिष्महि अपिष्येताम् अज पिष्येथाम् अपिष्यावहि अजपिष्ठाः अजपिषाथाम् अजपिषि अजपिष्वहि णबादि जेपे जेपाते जेपिरे प्र० पु० जपिषीष्ट जपिषीयास्ताम् जेपिषे जेपाथे जेपिध्वे म० पु० जपिषीष्ठाः जपिषीयास्थाम् जेपिवहे जेपिमहे उ० पु० जपिषीय जेपे जपिषीवहि क्यादादि तादि जपिता जपितारौ जपितार: जपितासे जपितासाथे पिताध्वे जपितास्महे उ० पु० जपिष्ये जपिता जपितास्वहे : स्यदादि अजपिष्यत अजपिष्यथाः प्र० पु० म० पु० उ० पु० प्र० पु० म० पु० उ० पु० अजपिष्यन्त अजपिष्यध्वम् अजपिष्यामहि स्यत्यादि प्र० पु० जपिष्यते जपिष्येते जपिष्यन्ते म० पु० जपिष्यसे जपिष्येथे जपिष्यध्वे जपिष्यावहे जपिष्यामहे प्र० पु० म० पु० उ० पु० ५०७ जपिषीरन् जपिषीध्वम् जषिीमह Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ वाक्यरचना बोध म्नां दांम् . . . . . .A. 64 sa .. ५. 4. 24 संक्षिप्त धातु रूपावली जिन्नन्त सन्नन्त धातु तिबादि द्यादि तिबादि द्यादि भावयति-ते अबीभवत्-त बुभूषति अबुभूषीत् पाययति अपीप्यत् पिपासति अपिपासीत् घ्रापयति-ते अजिघ्रपत्-त जिघ्रासति अजिघ्रासीत् ध्मापयति-ते अदिध्मपत्-त दिध्मासति अदिध्मासीत म्नापयति-ते अमिम्नपत्-त मिम्नासति अमिम्नासीत् दापयति-ते अदीदपत-त दिसति अदित्सीत् सावयति-ते असूसवत्-त सुषूषति असुषषीत् सारयति-ते असीसरत्-त सिसीर्षति असिसीीत् तारयति-ते अतीतरत्-त तितरिषति अतितरिषीत् तितीर्षति धापयति-ते अदीधपत्-त धित्सति अधित्सीत् ध्यापयति-ते अदिध्यपत्-त दिध्यासति अदिध्यासीत् गापयति-ते अजीगपत्-त जिगासति अजिगासीत् लङ्घयति-ते अललङ्घत्-त लिलङ्घिषति अलिलङ्घिषीत् शोचयति-ते अशूशुचत्-त शुशुचिषति अशुशुचिषीत् शुशोचिषति अशुशोचिषीत् लुञ्च लुञ्चयति-ते अलुलुञ्चत्-त ___लुलुञ्चिषति अलुलुञ्चिषीत् अर्च अर्चयति-ते आचिचत्-त अचिचिषति आचिचिषीत् अञ्चु अञ्चयति-ते आञ्चिचत्-त अञ्चिचिषति आञ्चिचिषीत् वञ्चु वञ्चयति-ते अववञ्चत्-त विवञ्चिषति अविवञ्चिषीत् वाछि वाञ्छ्यति-ते अववाञ्छत्-त विवाञ्छिषति अविवाञ्छिषीत व्राजयति-ते अविव्रजत्-त विव्रजिषति अविव्रजिषीत् अर्ज अर्जयति-ते आजिजत्-त अजिजिपति आजिजिषीत् एजयति-ते ऐजिजत्-त एजिजिषति ऐजिजिषीत् तर्ज तर्जयति-ते अततर्जत्-त तिजिषति अतितजिषीत गर्जयति-ते अजगर्जत्-त जिजिषति अजिगजिषीत त्यजं त्याजयति-ते अतित्यजत्-त तित्यक्षति अतित्यक्षीत् षजं सञ्जयति-ते अससञ्जत्-त सिसङ्क्षति असिसङ्क्षीत् कर 44.64. लघि शुच व्रज 1. बी. .बी. गर्ज Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि भूयते पीयते प्रायते धमायते नायते दीयते सूयते स्त्रियते तीर्यते धीयते ध्यायते गीयते लङ्घ्यते शुच्यते लुच्यते अर्च्यते अच्यते वच्यते वाञ्छ्यते व्रज्यते अर्ण्यते ज्य तर्ज्यंते गते त्यज्यते सज्यते भावकर्म द्यादि अभावि अपाय ra अध्मायि अम्नाय अदायि असावि असारि अतारि अतरी, अतरि अधायि अध्याय अगायि अलङ्घि अशोचि अलुञ्चि आचि आञ्चि अवञ्चि अवाञ्छि अाज, अजि आजि ऐजि अजि अर्गाज अत्याजि असञ्जि तिबादि बोभूयते पेपीयते जेीयते देध्मीयते माम्नायते देदीयते सोसू सेत्रीय तीर्यते देधीयते दाध्यायते गीते लालङ्घ्य शोशुच्यते लोलुच्यते X X वनीवच्यते वावाञ्छ्यते वाव्रज्यते X X तात जागते तात्यज्यते सासज्यते यङन्त धादि अबोभूयिष्ट अपे पीयिष्ट अष्टि अध्मीयिष्ट अमाम्नायिष्ट अदेदीयष्ट असोसूयष्ट अस्रीष्टि अतीरिष्ट अधीयिष्ट अदाध्यायिष्ट अगष्ट अलालङ्घिष्ट अशोशुचिष्ट अलोलुचिष्ट X X अवनीवचिष्ट अवावाञ्छिष्ट अवाव्रजिष्ट X X अतातजिष्ट अजागजिष्ट अतात्यजिष्ट असासजिष्ट ५० है Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० धातु कटे शट खिट् खेटयति णट लुट स्फुट पठ हठ क्रीड लड रण भण कण क्वण ओण चिती अत श्च्युत खाद तिबादि काटयति शाटयति-ते गद इदि णिदि नदि ऋदि स्कन्दं नाटयति-ते लोटयति-ते जिन्नन्त स्फोटयति-ते पाठयति-ते हाठयति क्रीडयति - ते लाडयति - ते राणयति - ते भाणयति - ते काणयति - ते क्वाणयति - ते ओणयति-ते चेतयति - ते आयति श्योतयति - ते खादयति गादयति-ते इन्दयति निन्दयति - ते नन्दयति क्रन्दयति - ते स्कन्दयति - ते धादि तिबादि अचीक चिकटिषति अशीशत्-त शिशटिषति अचीखित्-त चिखिटिषति अनीनटत्-त निनटिषति लुटिषति अलू लुटत्-त अलुलोटत्-त अपुस्फुटत्-त पुस्फुटिषति अपीपठत्-त पिपठिषति अजीहठत्-त जिहठिषति अचिक्रीडत्-त चित्रीडिषति अलीलडत्-त लिल डिषति रिरणिषति अरराणत्-त अरीरणत्-त अबभाणत्-त अभणत् अचकाणत्-त अचीकणत्-त अचिक्वणत्-त सन्नन्त - अचीचितत्-त बिभणिषति चिकणिर्षात चिक्वणिषति ओणिणिषति चिचेतिषति चिचितिपति अतितिषति चुश्च्युतिषति चिखादिषति आत् अचुश्च्युतत्-त अचखादत् अजीगदत्त जिगदिषति ऐन्दिदत्-त इन्दिदिषति अनिनिन्दत्-त निन्दिषति अननन्दत्-त निनन्दिषति अचक्रन्दत्-त चित्रन्दिषति अचस्कन्दत्-त चिस्कन्त्सति वाक्यरचना बोध द्यादि अचिकटिपीत् अशिशटिपीत् अचिखिटिपीत् अनिनटिषीत् अलुलुटिषीत् अपुस्फुटिषीत् अपिपठिषीत् अहिषीत् अचिक्रीडिषीत् अलिलडिषीत् अरिरणिषीत् अबिभणिषीत् अचिकणिपीत् अक्विणित् औणिणिषीत् अचिचेतिषीत् अचिचितिषीत् अतितिषीत् अश्च्युतिषीत् अचिखादिषीत् अजिगदिषीत् ऐन्दिदिषीत् अनिनन्दिषीत् अनिनन्दिषीत् अचिक्रन्दिषीत् अचिस्कन्त्सीत् Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ परिशिष्ट ३ भावकर्म तिबादि द्यादि तिबादि कट्यते शट्यते खिट्यते नटयते लुट्यते अकाटि अशाटि अखेटि अनाटि, अनटि अलोटि चाकट्यते शाशट्यते चेखिट्यते नानट्यते लोलुट्यते यडन्त धादि । अचाकटिष्ट अशाशटिष्ट अचेखिटिष्ट अनानटिष्ट अलोलुटिष्ट स्फुटयते पठ्यते हठ्यते अस्फोटि अपाठि, अपठि अहाठि, अहठि अक्रीडि अलाडि, अलडि अराणि, अरणि पोस्फुट्यते पापठ्यते जाहठ्यते चेक्रीड्यते लालड्यते ररण्यते अपोस्फुटिष्ट अपापठिष्ट अजाहठिष्ट अचेक्रीडिष्ट अलालडिष्ट अरंरणिष्ट क्रीडयते लड्यते रण्यते भण्यते अभाणि, अभणि बंभण्यते अबंभणिष्ट कण्यते अकाणि, अकणि चंकण्यते अचंकणिष्ट क्वण्यते ओण्यते चित्यते अक्वाणि, अक्वणि चक्कण्यते औणि अचेति चेचित्यते अचंक्वणिष्ट x अचेचितिष्ट चोश्च्युत्यते चाखाद्यते जागद्यते अत्यते श्चुत्यते खाद्यते गद्यते इन्द्यते निन्द्यते नन्द्यते क्रन्द्यते स्कद्यते आति अश्च्योति अखादि अगादि, अगदि ऐन्दि अनिन्दि अनन्दि अक्रन्दि अस्कन्दि x अचोश्च्युतिष्ट अचाखादिष्ट अजागदिष्ट x अनेनिन्दिष्ट अनानन्दिष्ट अचाक्रन्दिष्ट अचनीस्कदिष्ट नेनिन्द्यते नानन्द्यते चाक्रन्द्यते चनीस्कद्यते Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ वाक्यरचना बोध धातु जिन्नन्त तिबादि धादि षेधयति-ते अषीषिधत्-त ध्वनयति-ते अदिध्वनत्-त स्वानयति-ते असिस्वनत्-त गोपयति-ते अज गुपत्-त ध्वन स्वन गूपू सन्नन्त तिबादि द्यादि सिसिधिषति असिसिधिषीत् दिध्वनिषति अदिध्वनिषीत् सिस्वनिषति असिस्वनिषीत् जुगोपायिषति अजूगोपायिपीत जुगुपिषति अजुगुपिसीत् जुगोपिषति अजुगोपिसीत् जुगुप्सति अजुगुप्सीत् तितप्सति अतितप्सीत् दुधूपिषति अदुधूपिपीत् गोपाययति-ते अजुगोपायत्-त तपं लप लिलपिषति अलिलपिषीत् जल्प जप जिजल्पिषति जिजपिषति सिसृप्सति अजिजल्पिषीत् अजिजपिषीत् असिसृप्सीत् सृप्लू चुप तापयति-ते अतीतपत्-त धूपयति-ते अदूधुपत्-त धूपाययति-ते अदुधूपायत्-त लापयति-ते अललापत्-त अलीलपत्-त जल्पयति-ते अजजल्पत्-त जापयति-ते अजीजपत्-त सर्पयति-ते अससर्पत्-त असीसृपत्-त चोपयति-ते अचूचुपत्-त चुम्बयति-ते अचुचुम्बत्-त । जेमयति अजीजिमत् क्रमयति-ते अचिक्रमत्-त यामयति-ते अयीयमत्-त यमयति-ते चारयति-ते अचीचरत्-त दालयति-ते अदीदलत्-त मीलयति-ते अमीमिलत्-त . अमिमीलत्-त मूलयति-ते अमूमुलत्-त फालयति-ते अपीफलत्-त फुल्लयति-ते अपुफुल्लत्-त वेलयति अविवेलत् खेलयति अचिखेलत चुचुपिषति चुचुम्बिषति जिजिमिषति चिक्रमिषति यियंसति अचुचुपिषीत् अचुचुम्बिषीत् अजिजिमिषीत् अचिक्रमिषीत् अयियंसीत् चिचरिषति दिदलिषति मिमीलिषति अचिचरिषीत् अदिदलिषीत् अमिमीलिपीत् मूल फुल्ल वेला मुमूलिषति पिफलिषति पुफुल्लिषति विवेलिषति चिखेलिषति अमुमूलिषीत् अपिफलिषीत् अपुफुल्लिषीत् अविवेलिषीत् अचिखेलिषीत् Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि सिध्यते ध्वन्यते स्वन्यते गुप्ते तप्यते धूपाय लप्यते जल्प्यते जयते सृप्यते प् चुम्ब्य जिम्यते क्रम्यते यम्यते चर्यते दल्यते मील्यते मूल्य फल्यते फुल्ल्यते वेल्यते - खेल्यते भावकर्म द्यादि अधि अध्वनि, अध्वनि अस्वानि, अस्वनि अगोपि अतापि धूप अलापि, अलप अजल्पि अजापि, अपि असपि अचोपि अचुम्बि अजेमि अक्रमि अयामि अचारि, अचरि अदाल, अदलि अमीलि अमूलि अफालि, अफलि अफुल्लि अवेलि अखेलि ! तिबादि सेषिध्यते ध्वन्यते संस्वन्यते जो गुप्ते तातप्यते दोधूयते लालप्यते जाजल्प्यते जंजप्यते सरीसृप्यते चोचुप्यते चोचुम्ब्य जेजियते चंक्रम्यते यंयम्यते चंचूर्यते दंदल्य मील्यते मोमूल्य पंफुल्य पोल्य वेवेल्यते चेखेल्यते यङन्त द्यादि असेषिधिष्ट अदध्वनिष्ट असं स्वनिष्ट अजोगुपिष्ट अतातपिष्ट अदोधू पिष्ट अलाल पिष्ट अजाजल्पिष्ट अजंजपिष्ट असरीसृपिष्ट अचोचुपिष्ट अचोचुम्बिष्ट अजेजिमिष्ट अचक्रमिष्ट अयं यमिष्ट अचंचूरिष्ट अददलिष्ट अमीलिष्ट अमोमूलिष्ट अपंफुलिष्ट अपोफुल्लिष्ट raaलिष्ट अखेलिष्ट ५१३ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ वाक्यरचना बोध धातु स्खल गल मन गर्व कृषं भष विष मृष् जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि धादि तिबादि द्यादि स्खालयति अचिस्खलत् । चिस्खलिषति अचिस्खलिषीत् गालयति अजीगलत् जिगलिषति अजिगलिषीत् चर्वयति अचिचर्वत् चिचविषति अचिचविषीत् गर्वयति अजिगर्वत् जिगविषति अजिगविषीत् जीवयति-ते अजिजीवत्-त जिजीविषति अजिजीविषीत् अजीजिवत्-त घोषयति-ते अजुघुषत्-त जुघुषिषति अजुधषिषीत् जुघोषिषति अजुघोषिषीत् कर्षयति-ते अचीकृषत्-त चिकृक्षति अचिकृक्षीत् अचकर्षत-त भाषयति-ते अबीभषत-त । बिभषिषति अबिभषिषीत् वेषयति-ते अवीविषत्-त विविषिषति अविविषिषीत् विवेषिषति अविवेषिषीत् मर्षयति-ते अमीमृषत्-त । मिम षिषति अमिमर्षिषीत् अममर्षत्-त प्लोषयति-ते अपुप्लुषत्-त । पुप्लुषिषति अपुप्लुषिषीत् पुप्लोषिषति अपुप्लोषिषीत घर्षयति-ते अजीघर्षत्-त । जिघर्षिषति अजिर्षिषीत् अजघर्षत्-त पोषयति-ते अपुपुषत्-त । पुपुषिषति अपुपुषिषीत् पुपोषिषति अपुपोषिषीत् भूषयति-ते अबुभुषत्-त बुभूषिषति अबुभूषिषीत् रासयति-ते अरीरसत्-त रिरसिषति अरिरसिषीत् लासयति-ते अलीलसत्-त लिलसिषति अलिलसिषीत् हासयति अजीहसत् जिहसिषति अजिहसिषीत् शंसयति-ते अशशंसत्-त शिशंसिषति अशिशंसिषीत् दाहयति-ते अदीदहत्-त दिधक्षति अदिधक्षीत् अर्हयति-ते आजिर्हत्-त अजिहिषति आजिहिषीत् उक्षयति-ते औचिक्षत्-त उचिक्षिषति औचिक्षिषीत् रक्षयति-ते अररक्षत्-त रिरक्षिषति अरिरक्षिषीत् तक्षयति-ते अततक्षत-त तितक्षिषति अतितक्षिषीत् प्लुषु अर्ह उक्ष रक्ष तक्ष Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५१५ द्यादि भावकर्म तिबादि द्यादि स्खल्यते अस्खालि, अस्खलि गल्यते अगालि, अगलि चळते अचवि गर्व्यते अवि जीव्यते अजीवि यङन्त तिबादि चंस्खल्यते जंगल्यते चाचय॑ते जागर्व्यते जेजीव्यते अचंस्खलिप्ट अजंगलिष्ट अचाचविष्ट अजागर्विष्ट अजेजीविष्ट घुष्यते अघोषि जोघुष्यते अजोघुषिष्ट कृष्यते अकर्षि चरीकृष्यते अचरीकृषिष्ट भष्यते विष्यते अभाषि, अभषि अवेषि बाभष्यते वेविष्यते अबाभषिष्ट अवेविषिष्ट मयते अमर्षि मरीमृष्यते अमरीमृषिष्ट प्लुष्यते अप्लोषि पोप्लुष्यते अपोप्लुषिष्ट घृष्यते अघर्षि जरीघृष्यते अजरीघृषिष्ट पुष्यते अपोषि पोपुष्यते अपोपुषिष्ट भूष्यते रस्यते लस्यते बोभूष्यते रारस्यते लालस्यते जाहस्यते शाशस्यते दादह्यते अभूषि अरासि, अरसि अलासि, अलसि अहासि, अहसि अशंसि अदाहि आहि औक्षि अरक्षि अतक्षि अबोभूषिष्ट अरारसिष्ट अलालसिष्ट अजाहसिष्ट अशाशसिष्ट अदादहिष्ट हस्यते शस्यते दह्यते अद्यते उक्ष्यते रक्ष्यते तक्ष्यते x x x रारक्ष्यते तातक्ष्यते अरारक्षिष्ट अतातक्षिष्ट Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ धातु काक्षि ष्मिङ् स्मायय स्माययति डीङ् डाययति - ते कुंङ् कावयति - ते मेङ् मापयति-ते देङ् दापयति लोकृङ् लोकयति-ते रेलृङ् शकि जिन्नन्त तिबादि धादि काङ्क्षयति-ते अचकाङ्क्षत्-त असिष्मयत पिडिङ् खडण् भडिङ् चकङ् ढोकृङ् त्रौकृङ् टीक लघि लङ्घयति - ते हेड हिडि घुण् पणङ् कति शङ्कयति - ते चकयति ढौकयति - ते त्रीकयति - ते टीकयति - ते अशशङ्कत्-त अचीचकत्-त अडुढौकत्-त अत्रौत् अटिटीकत्त अललङ्घत्-त श्लाघृङ् श्लाघयति-ते अशश्लाघत्-त अर्जयति ते आजिजत् अतितिक्षत् अतीतिजत्-त अपण्डित ऋज् तिज तितिक्षयति तेजयति - ते पिण्डयति - ते खण्डयति - ते भण्डयति - ते - यती नाशृङ् वदिङ् हिण्डयति घोणयति - ते पणाययति - ते पाणयति असिष्मयत् अडीडयत्-त यातयति नाथयति - ते वन्दयति अचूकवत्-त अमीमपत्-त अदीदपत्-त अलुलोकत्-त अरिरेत्-त अचखण्डत्-त अबभण्डत्-त अत् अजिहिण्डत्-त तिबादि चिकाङ्क्षिति सिस्मयिषते fssford चुकूषते मित्सते दित्सते लोक रिरेकिषते शिशङ्कष चिचकि डुढौकिषते किषते टिटी किषते लिङ्घिषते शिश्लाघिषते अजिजिषते तितिक्षिषते पिपिण्डिषते चिखण्डिते बिभण्डिते जडि जिहिण्डिषते घु पिपणिषते सन्नन्त अजुघुत्त अपपणायत्-त अपीपणत्-त अयीयतत्-त यितिष अननाथत्-त निनाथिषते अववन्दत्-त विवन्दिषते वाक्यरचना बोध द्यादि अचिकाङ्क्षिषीत् असिस्मयिषिष्ट अsिsfuषिष्ट अचुकूषिष्ट अमित्सिष्ट अदित्सिष्ट अलोकषिष्ट अरिरेकिषिष्ट अशिशङ्कषिष्ट अचिचकिषिष्ट अडुकिषिष्ट अत्रौकिषिष्ट अटिटीषिष्ट अलिङ्घिषष्ट अशिश्लाघिषिष्ट आजिजिषिष्ट अतितिक्षिषिष्ट अपिपिण्डिषिष्ट अचिखण्डिषिष्ट अभिण्डष्टि aust अहिण्डिष्टि अघुणिषिष्ट अपि णिषिष्ट अयियतिषिष्ट अनिनाथषष्ट अविवन्दिषिष्ट Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि कांक्ष्यते स्मीयते डीय कूयते मीयते दीयते लोक्यते भावकर्म क्य शंक्यते चक्यते ढक्य त्रौक्यते टीक्य लंघ्यते श्लाघ्यते ऋज्यते तितिक्ष्यते पिण्ड्यते खण्ड्यते भण्ड्य हेड्य हिण्ड्यते घु पणाय्यते त्य नाथ्यते वन्द्यते द्यादि अकाङ्क्षि अस्माि अडा, अडि अकावि अमायि अदायि अलोकि अरेकि अशकि अचाकि, अचकि अक अत्रौकि अटीकि अलङ्घि अश्लाघ आजि अतितिक्षि अपिण्डि अखण्डि अभण्ड अ अहिण्डि अघोणि अपणाय अयाति, अयति अनाथ अवन्दि तिबादि चाकाङ्क्ष्यते सेमीयते Asst चोकू यङन्त मीयते देदीयते लोलोक्यते रेरेक्य शाशङ्क्यते चाचक्यते तोत्रौक्यते टेटीक्यते लालङ्घ्यते शाश्लाघ्यते X तेतिज्यते पिण्ड्य चाखण्ड्यते बाभण्ड्यते जेहेड्यते जेण्ड जोघुण्य पम्पण्यते यायत्यते नानथ्यते वावन्द्यते यादि अचाकाङ्क्षि असेस्मीयिष्ट assafrष्ट अचोकूयिष्ट अमे मीयिष्ट अदेदीयिष्ट अलोलो किष्ट अरेरेकिष्ट अशाशङ्किष्ट अचाचकिष्ट asiafre अतोत्रौकिष्ट अटेटीकिष्ट ५१७ अलालङ्घिष्ट अशाश्लाघिष्ट X अते तिजिष्ट अपेपिण्डिष्ट अचाखण्डिष्ट अब भण्डिष्ट अजेहेडिट अहिण्डिष्ट घुष्ट अपम्पणिष्ट अयायतिष्ट अनानथिष्ट अवावन्दिष्ट Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ वाक्यरचना बोक जिन्नन्त धातु तिबादि द्यादि तिबादि मुदङ् मोदयति-ते अमूमुदत्-त मुमुदिषते मुमोदिषते ददङ् दादयति-ते अदीददत्-त दिददिषते हदंङ् हादयति-ते अजीहदत्-त जिहत्सते स्वादयति-ते असिष्वदत-त सिस्वदिषते कूर्दयति-ते अचुकूर्दत्-त चुकूदिषते ह्लाद ह्लादयति-ते अजिह्लदत्-त जिह्लादिषते पर्दङ् पर्दयति-ते अपपर्दत्-त पिपदिषते एधङ् एधयति-ते ऐदिधत्-त एदिधिषते स्पर्धयति-ते अपस्पर्धत-त पिस्पधिषते बाधृङ् बाधयति-ते अबबाधत्-त बिबाधिषते दधङ् दाधयति-ते अदीदधत्-त दिदधिषते वेपयति अविवेपत् विवेपिषते कपिड कम्पयति अचकम्पत् चकम्पिषते त्रपूषङ् त्रापयति-ते अतित्रपत्-त तित्रपिषते तित्रप्सते गुपङ् गोपयति-ते अजू गुपत्-त जुगुप्सिषते जुगोपिषते जुगुपिषते जुगोपयिषति लबिङ् लम्बयति-ते अललम्बत्-त लिलम्बिषते कबृङ् कावयति-ते अचकाबत्-त चिकबिषते लभिङ् लम्भयति-ते अललम्भत्-त लिलम्भिषते ष्टुभिङ् स्तम्भयति-ते अतस्तम्भत्-त तिस्तम्भिषते जुभिङ् जृम्भयति-ते अजिजृम्भत्-त जिजृम्भिषते क्षमूषङ् क्षमयति-ते अचिक्षमत्-त चिक्षमिषते . चिशंसते आययति-ते आयियत्-त अयियिपते दाययति-ते अदीदयत्-त दिदयिपते प्यायीङ् प्याययति-ते अपिप्ययत्-त पिप्यायिपते ताङ् ताययति-ते अततायत्-त तितायिषते सन्नन्त द्यादि अमुमुदिषिष्ट अमुमोदिषिष्ट अदिददिषिष्ट अजिहत्सिष्ट असिस्वदिषिष्ट अचुकूदिषिष्ट अजिह्लादिषिष्ट अपिपदिषिष्ट ऐदिधिषिष्ट अपिस्पधिषिष्ट अबिबाधिषिष्ट अदिदधिषिष्ट अविवेपिसिष्ट अचिकम्पपिष्ट अतित्रपिविष्ट अतित्रप्सिष्ट अजुगुप्सिषिष्ट अजुगोपिषिष्ट अजुगुपिपिष्ट अजुगोपयिषीत् अलिलम्बिषिष्ट अचिकबिषिष्ट अलिलम्भिषिष्ट अतिस्तम्भिषिष्ट अजिजृम्भिषिष्ट अचिक्षमिसिष्ट अचिक्षंसिष्ट आयियिषिष्ट अदिदयि षिष्ट अपिप्यायिषिष्ट अतितायिपिष्ट ཝཱ ཟླ ཤྩ བྷཱུ བྷྱཱ ཙྪཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཟླ अयङ् दयङ् Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ भावकर्म तिबादि मुद्यते अमोदि धादि यङन्त तिबादि मोमुद्यते धादि अमोमुदिष्ट दद्यते हद्यते स्वद्यते कूर्यते ह्लाद्यते पद्यते दादद्यते जाहद्यते सास्वद्यते चोकूद्यते जाह्लाद्यते अदाददिष्ट अजाहदिष्ट असास्वदिष्ट अचोकूदिष्ट अजाह्लादिष्ट अपापदिष्ट पापद्यते एध्यते अदादि, अददि अहादि अस्वादि, अस्वदि अकूदि अह्लादि अपदि ऐधि अपधि अबाधि अदाधि, अदधि अवेपि अकम्पि अत्रापि, अत्रपि x स्पर्ध्यते बाध्यते दध्यते वेप्यते कम्प्यते त्रप्यते पास्पर्ध्यते बाबाध्यते दादध्यते वेवेप्यते चाकम्प्यते तात्रप्यते अपास्पर्धिष्ट अबाबाधिष्ट अदादधिष्ट अवेवेपिष्ट अचाकम्पिष्ट अतात्रपिष्ट जुगुप्स्यते अजुगुप्सि जोगुप्यते अजोगुपिष्ट लम्ब्यते कन्यते लम्भ्यते स्तम्भ्यते जृम्भ्यते क्षम्यते अलम्बि अकाबि अलम्भि अस्तम्भि अजृम्भि अक्षमि लालम्ब्यते चाकब्यते लालम्भ्यते तोष्टुभ्यते जरीजम्भ्यते चंक्षम्यते अलालम्बिष्ट अचाकबिष्ट अलालम्भिष्ट अतोष्टुभिष्ट अजरीज़म्भिष्ट अचंक्षमिष्ट अय्यते दय्यते प्याय्यते ताय्यते आयि अदायि, अदयि अप्यायि अतायि दादय्यते पाप्याय्यते ताताय्यते अदादयिष्ट अपाप्यायिष्ट अतातायिष्ट Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० वाक्यरचना बोध धातु वलङ् कल षेवृङ् काशङ् भाषङ् तिबादि वालयति-ते कालयति-ते सेवयति-ते काशयति-ते भाषयति-ते एषङ् हेषङ् कासृङ् ईहङ् गर्हङ द्राहक ऊहङ् गाहूङ् एषयति-ते हेषयति-ते कासयति-ते ईहयति-ते गर्हयति-ते द्रायति-ते ऊहयति-ते गाहयति-ते जिन्नन्त सन्नन्त धादि तिबादि द्यादि अवीवलत्-त विवलिषते अविवलिषिष्ट अचीकलत्-त चिकलिषते अचिकलिषिष्ट असिषेवत्-त सिसेविषते असिसेविषिष्ट अचकाशत्-त चिकाशिषते अचिकाशिषिष्ट अबभाषत्-त बिभाषिषते अबिभाषिषिष्ट अबीभषत्-त ऐषिषत्-त एषिषिषते ऐषिषिषिष्ट अजिहेषत्-त जिहेषिषते अजिहेषिषिष्ट अचकासत्-त चिकासिषते अचिकासिषिष्ट ऐजिहत्-त ईजिहिषते ऐजिहिषिष्ट अजगर्हत्-त । जिगहिषते अजिगहिषिष्ट अदद्राहत-त दिद्राहिषते अदिद्राहिषिष्ट औजिहत्-त ऊजिहिषते औजिहिषिष्ट अजीगहत-त जिगाहिषते अजिगाहिषिष्ट जिघाक्षते अजिघाक्षिष्ट अदुधुक्षत्-त दुधुक्षिषते अदुधुक्षिषिष्ट अशिशिक्षत्-त शिशिक्षिषते अशिशिक्षिषिष्ट अबिभिक्षत्-त बिभिक्षिषते अबिभिक्षिषिष्ट अदिदीक्षत-त दिदीक्षिषते अदिदीक्षिषिष्ट अशिश्रयत्-त शिश्रयिषति-ते अशिश्रयिषीत् अशिश्रयिषिष्ट अजीहरत्-त जिहीर्षति-ते अजिहीर्षीत अजिहीषिष्ट अबीभरत्-त बिभरिषति-ते । अबिभरिषीत् अबिभरिषिष्ट अबुभूर्षीत् अदीधरत्-त दिधीर्षति-ते । अदिधीर्षीत् अदिधीषिष्ट अचीकरत्-त चिकीर्षति-ते अचिकीर्षीत् अचिकीर्षिष्ट अययाचत्-त थियाचिषति-ते अयियाचिषीत् अयियाचिषिष्ट धूक्ष शिक्षक भिक्षङ् धुक्षयति-ते शिक्षयति-ते भिक्षयति-ते दीक्षयति-ते श्राययति-ते दीक्षङ् श्रिन् हारयति-ते भारयति-ते बुभूर्षति धारयति-ते कृन् कारयति-ते याचन् याचयति-ते Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५२१ भावकर्म यङन्त धादि धादि तिबादि वल्यते कल्यते सेव्यते काश्यते भाष्यते अवालि, अवलि अकालि, अकलि असेवि अकाशि अभाषि तिबादि वावल्यते चाकल्यते सेसेव्यते चाकाश्यते बाभाष्यते अवावलिष्ट ... अचाकलिष्ट असेसेविष्ट अचाकाशिष्ट अबाभाषिष्ट ऐषि अहेषि अकासि जेहेष्यते चाकास्यते X अजेहेषिष्ट अचाकासिष्ट ऐहि एष्यते हेष्यते कास्यते ईहयते गर्हयते द्राह्यते ऊहयते गाहयते अगर्हि अद्राहि जागह यते दाद्राह्यते अजाहिष्ट अदाद्राहिष्ट औहि अगाहि जागाह्यते अजागाहिष्ट धुक्ष्यते शिक्ष्यते भिक्ष्यते दीक्ष्यते श्रीयते अधुक्षि अशिक्षि अभिक्षि अदीक्षि अश्रायि, अश्रयि दोधुक्ष्यते शेशिक्ष्यते बेभिक्ष्यते देदीक्ष्यते शेश्रीयते अदोधुक्षिष्ट अशेशिक्षिष्ट अबेभिक्षिष्ट अदेदीक्षिष्ट अशेश्रीयिष्ट ह्रियते अहारि जेह्रीयते अजेह्रीयिष्ट भ्रियते अभारि बेभ्रीयते अबेभ्रीयिष्ट धार्थते अधारि देध्रीयते अदेध्रीयिष्ट क्रियते अकारि चेक्रीयते अचेक्रीयिष्ट याच्यते अयाचि यायाच्यते अयायाचिष्ट Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ वाक्यरचना बोध पचंषन् भजंन् जिन्नन्त सन्नन्त धातु तिबादि धादि तिबादि धादि पाचयति-ते अपीपचत्-त पिपक्षति-ते अपिपक्षीत् अपिपक्षिषिष्ट भाजयति-ते अबीभजत्-त बिभक्षति-ते अबिभक्षीत्, अबिभक्षिष्ट बुधन् बोधयति-ते अबूबुधत्-त बुबुधिषति-ते अबुबुधिषीत् अबुबुधिषिष्ट दांनन् ___ दानयति-ते अदीदनत्-त दिदांसिषति-ते अदिदांसिषीत् अदिदांसि षिष्ट शपंन् शापयति-ते अशीशपत्-त शिशप्सति-ते । अशिशप्सीत् अशिशप्सिष्ट धावुन् धावयति-ते अदीधवत्-त दिधाविषति-ते अदिधाविषीत् अदिधाविषिष्ट लषन् लापयति-ते अलीलपत्-त लिलषिषति-ते । अलिलषिषीत् अलिलपिषिष्ट चपन चापयति-ते अचीच त्-त चिचषिपति-ते । अचिचषिषीत् अचिचपिषिष्ट भलक्षन भ्लक्षयति-ते अबभ्लक्षत्-त बिभ्लक्षिषति-ते अबिभ्लक्षिषीत अबिभ्लक्षिषिष्ट द्युतङ् द्योतयति-ते अदिद्युतत्-त दिद्युतिषते अदिद्युतिषिष्ट रोचयति-ते अरूरुचत्-त रुरुचिषते अरुरुचिषिष्ट शुभ शोभयति-ते अशूशुभत्-त शुशुभिषते अशुशुभिषिष्ट सम्भुङ् सम्भयति-ते असस्रम्भत्-त सिस्रम्भिषते असिस्रम्भिषिष्ट भ्रंशुङ् भ्रंशयति-ते अबभ्रंशत्-त बिभ्रंशिषते अबिभ्रंशिषिष्ट स्रसुङ् स्रसयति-ते असस्र सत्-त सिस्र सिषते असिस्र सिषिष्ट ध्वंसुङ् ध्वंसयति-ते अदध्वंसत्-त दिध्वंसिषते आदिध्वंसिसिष्ट स्यन्दूङ् स्यन्दयति-ते . असस्यन्दत्-त सिस्यन्दिषते .. असिस्यन्दिषिष्ट वृधुङ् वर्धयति-ते अवीवृधत्-त विवधिषते अविवधिषिष्ट अववर्धत्-त कुच कोचयति-ते अचूकृचत्-त चुकुचिषति अचुकुचिषीत् चुकोचिषति अचुकोचिषीत् पलूं पातयति-ते अपीपतत्-त पिपतिषति अपिपतिषीत् षद्लू सादयति-ते असीषदत्-त सिषत्सति असिपत्सीत् रुचङ् Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि पच्यते भज्यते बुध्यते दीदांस्यते शप्यते धाव्यते लष्यते चष्यते लक्ष्यते रुच्यते शुभ्यते स्रभ्यते भ्रश्यते स्रस्यते ध्वस्यते यद्यते वृध्य कुच्यते पत्यते सद्यते भावकर्म द्यादि अपाचि अभाजि अबोधि अदीदांसि अशापि अधावि अलाषि, अलषि अचाषि, अचषि अम्लक्षि अद्योति अरोचि अशोभि अस्रम्भि अभ्रंशि raft अध्वंसि अस्यन्दि अवधि, अवृधि अकोचि अपाति, अपति असादि यङन्त तिबादि पापच्यते बाभज्यते बोबुध्यते दादान्यते शाशप्यते दाधाव्यते लालप्यते चाचष्यते बा लक्ष्यते त्य रोरुच्यते शोशुभ्य सास्रम्भ्यते बनीभ्रश्यते सनीस्रस्यते दनीध्वस्यते सास्यद्यते वरीवृध्य चोकुच्यते पनीपत्यते सासद्य धादि अपापचिष्ट अबाभजिष्ट अबोबुधिष्ट अदादानिष्ट अशाशपिष्ट अदाधाविष्ट अलालषिष्ट अचाचषिष्ट अलक्षिष्ट अद्युतिष्ट अरोरुचिष्ट ५२३ अशोशुभिष्ट असास्रभिष्ट अवनीभ्रशिष्ट असनीस्रसिष्ट अदनीध्वसिष्ट असास्यदिष्ट अवरीवृधिष्ट अचोकुचिष्ट अपनीपतिष्ट असासदिष्ट Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ धातु बुध वमु भ्रमु क्षर चल शल क्रुशं कस यजन् वपन् वह॑न् वद वसं प्रथषङ् ऋदि लगे ष्ठगे मदी अदं सांकू भांक् यांक् द्रांक् रांक् दांपक् ख्यांक् मांक् बुंक तुंक तिबादि जिन्नन्त बोधयति वामयति - ते भ्रमयति क्षारयति - ते चलयति - ते चालयति - ते शालयति - ते कोशयति-ते कासयति - ते याजयति - ते वापयति वाहयति वादयति-ते वासयति - ते प्रथयति - ते कन्दयति लग स्थगयति - ते मदयति - ते आदयति - ते सापयति भापयति - ते यापयति द्रापयति - ते रापयति-ते दापयति - ते ख्यापयति - ते द्यादि अबूबुधत् अवीव मत्-त अबिभ्रमत् अचिक्षरत्-त अचीचलत्-त अशीशलत्-त अचुक्रुशत्-त अचीकसत्-त अयजत्-त अवीवपत्-त अवीवहत्-त अवदत्-त अवीवसत्-त अपप्रथत्-त तिबादि अयीयपत् अदिद्रपत्-त अरीरपत्-त अदीदपत्-त अचिख्यपत्-त अमीत् बुबुधिषति विवमिषति बिभ्रमिषति चिक्षरिषति चिचलिषति विवक्षति विवदिषति विवत्सति पिप्रथिषते अचक्रन्दत्-त चित्रन्दिषते अलीलगत्-त लिलगिषति अतिष्ठगत्-त तिस्थगिषति अमीमदत्त मिमदिषति अदादिगण - सावयति - ते असूषवत्-त तावयति - ते अतुतवत्-त शिशलिषति चुक्रुक्षति चिकसिषति क्षिति विवप्सति-ते आदिदत्-त जिघत्सति अपिप्सपत् अबीभपत्-त पिप्सासति बिभासति यियासति दिद्रासति रिरासति दिदासति चिख्यासति मित्सति सूत तुषति वाक्यरचना बोध सन्नन्त द्यादि अबुबुधिषीत् अविवमिषीत् अबिभ्रमिषीत् अचिक्षरिषीत् अचिचलिसीत् अशिश लिपीत् अचुक्रुक्षीत् अचिकसिषीत् अयियक्षीत्, अaियक्षिष्ट अविवप्सीत्, अविवप्सिष्ट अविवक्षीत्, अविवक्षिष्ट अविवदिषीत् अविवत्सीत् अपिप्रथिषिष्ट अचिन्दिषिष्ट अलिलगिषीत् अतिस्थगिषीत् अमिदिषीत् अजिघत्सीत् अपिसासीत् अबिभासीत् अयासीत् अदिद्रासीत् अरिरासीत् अदिदासीत् अचिख्यासीत् अमित्सीत् असुसूषीत् अतुतूषीत् Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५२५. तिबादि बुध्यते वम्यते भ्रम्यते क्षर्यते चल्यते भावकर्म - धादि अबोधि अवामि, अवमि अभ्रमि अक्षारि, अक्षरि अचालि, अचलि तिबादि बोबुध्यते वंवम्यते बम्भ्रम्यते चाक्षर्यते चाचल्यते धादि अबोबुधिष्ट अवमिष्ट अबम्भ्रमिष्ट अचाक्षरिष्ट अचाचलिष्ट 111111 1111111111111 11111111111 शल्यते क्रुश्यते कस्यते इज्यते उप्यते उह्यते उद्यते उष्यते प्रथ्यते क्रन्द्यते लग्यते स्थग्यते मद्यते अशालि, अशलि अक्रोशि अकासि, अकसि अयाजि अवापि अवाहि अवादि, अवदि अवासि अप्राथि, अप्रथि अक्रन्दि अलागि, अलगि अस्थागि, अस्थगि अमादि, अमदि शाशल्यते चोक्रुश्यते चनीकस्यते यायज्यते वावप्यते वावह्यते वावद्यते वावस्यते पाप्रथ्यते चाक्रन्द्यते लालग्यते तास्थग्यते मामद्यते अशाशलिष्ट अचोक्रुशिष्ट अचनीकसिष्ट अयायजिष्ट अवावपिष्ट अवावहिष्ट अवावदिष्ट अवावसिष्ट अपाप्रथिष्ट अचाक्रन्दिष्ट अलालगिष्ट अतास्थगिष्ट अमामदिष्ट x अद्यते प्सायते भायते यायते द्रायते रायते अघासि अप्सायि अभायि अयायि अद्रायि अरायि अदायि अख्यायि अमायि असावि अतावि पाप्सायते बाभायते यायायते दाद्रायते रारायते दादायते चाख्यायते मेमीयते सोषयते तोतूयते अपाप्सायिष्ट अबाभायिष्ट अयायायिष्ट अदादायिष्ट अरारायिष्ट अदादायिष्ट अचाख्यायिष्ट अमेमीयिष्ट असोषयिष्ट अतोतूयिष्ट दायतें ख्यायते मीयते सूयते तूयते Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ वाक्यरचना बोध धातु स्नुक चुक्षति कुंक जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि बादि तिबादि द्यादि णुक् नावयति-ते अनूनवत्-त नुनूषति अनुनूषीत्. क्ष्णुक क्ष्णावयति-ते अचुणवत्-त चुणूषति अचुक्ष्णूषीत् स्नावयति-ते असुस्नवत्-त सुस्नूषति असुस्नूषीत् क्षावयति-ते अचुक्षवत्-त अचुक्षूषीत् कावयति अचूकवत् चुकूषति अचुकूषीत् रुदृक् रोदयति-ते अरूरुदत्-त रुरुदिषति अरुरुदिषीत् अन आनयति-ते आनिनत्-त अनिनिषति आनिनिषीत् श्वसक श्वासयति-ते अशिश्वसत्-त शिश्वसिषति । अशिश्वसिषीत् जक्षक जक्षयति-ते अजजक्षत्-त जिजक्षिषति अजिजक्षिषीत् दरिद्राक् दरिद्रयति-ते अददरिद्रत्-त दिदरिद्रासति । अदिदरिद्रासीत् दिदरिद्रिषति अदिदरिद्रिषीत् जागृक् जागरयति-ते अजजागरत्-त जिजागरिषति । अजिजागरिषीत् वचंक वाचयति-ते अवीवचत्-त विवक्षति अविवक्षीत् मृजूक मार्जयति-ते अमीमृजत्-त मिमाजिषति अमिमाजिषीत् अममार्जत्-त मिमृक्षति अमिमृक्षीत् विदक वेदयति-ते अवीविदत-त विविदिषति अविविदिषीत् हनंक घातयति-ते अजीघतत्-त जिघांसति अजिघांसीत् वशक् वाशयति-ते अवीवशत्-त विवशिषति अविवशिषीत् असा भावयति-ते अबीभवत्-त बुभूषति अबुभूषीत् शीक् शाययति अशीशयत् शिशयिषते अशियिषिष्ट ह मुंङ् ह्वावयति-ते अजुह्ववत्-त जुह नूषते अजुह नूषिष्ट षक् सावयति-ते असूषवत्-त सुसूषते असुसूषिष्ट पृचीङ् पर्चयति-ते अपीपृचत्-त पिपचिषते अपिपचिषिष्ट अपपर्चत-त ईडक् ईडयति-ते ऐडिडत्-त ईडिडिषते ऐडिडिषिष्ट ईरक् ईरयति-ते ऐरिरत्-त ईरिरिषते ऐरिरिषिष्ट ईशङ्क् ईशयति-ते ऐशिशत्-त । ईशिशिषते ऐशिशिषिष्ट वसिक वासयति-ते अवीवसत्-त विवसिषते अविवसिषिष्ट आसक् आसयति-ते आसिसत्-त आसिसिषते आसिसिषिष्ट चक्षक् ख्यापयति अचिख्यपत् चिख्यासति अचिख्यासीत् ख्यापयते अचिख्यपत चिख्यासते अचिख्यासिष्ट क्शापयति अचिक्शपत् चिक्शासति अचिक्शासीत् क्शापयते अचिक्शपत चिक्शासते अचिक्शासिष्ट Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५२७ यहन्त तिबादि नूयते क्ष्णूयते स्नूयते सूयते कूयते रुद्यते अन्यते श्वस्यते जक्ष्यते दरिद्र यते भावकर्म द्यादि तिबादि अनावि, अनवि नोनूयते अक्षणावि, अक्षणवि चोक्ष्णूयते अस्नावि, अस्नवि सोस्नूयते अक्षावि, अक्षवि चोझ्यते अकावि चोकूयते अरोदि रोरुद्यते आनि अश्वासि, अश्वसि शाश्वस्यते अजक्षि जाजक्ष्यते अदरिद्रि, अदरिद्रायि ददरिद्रायते धादि अनोनूयिष्ट अचोक्ष्णूयिष्ट असोस्नूयिष्ट अचोक्षयिष्ट अचोकूयिष्ट अरोरुदिष्ट x अशाश्वसिष्ट अजाजक्षिष्ट अददरिद्रायिष्ट जागर्यते उच्यते मृज्यते अजागरि, अजागारि जजागर्यते अवाचि वावच्यते अमाजि मरीमृज्यते अजजागरिषिष्ट अवावचिष्ट अमरीमृजिष्ट विद्यते हन्यते वेविद्यते जेघ्नीयते वावश्यते अवेविदिष्ट अजेनीयिष्ट अवावशिष्ट उश्यते भूयते शय्यते ह नयते सूयते अवेदि अघानि, अवधि अवाशि, अवशि अभावि अशायि, अशयि अह्नावि असावि, असवि अचि शाशय्यते जोह नूयते सोषूयते परीपृच्यते अशाशयिष्ट अजोह न यिष्ट असोषयिष्ट अपरीचिष्ट पृच्यते ऐडि xxx xx ईड्यते ईर्यते ईश्यते वस्यते आस्यते ख्यायते ऐरि ऐशि अवासि, अवसि आसि अख्यायि वावस्यते अवावसिष्ट चाख्यायते अचाख्यायिष्ट क्शायते अक्शायि चाक्शायते अचाक्शा यिष्ट Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ वाक्यरचना बोध धातु धादि ऊर्गुन्क् ष्टुन्क् बॅन्क् द्विषंन्क् दुहंन्क् दिहंन्क् लिहंन्क हुंक् हांक जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि द्यादि तिबादि चिख्शासति अचिख्शासीत् चिख्शासते अचिख्शासिष्ट ऊर्णवयति-ते और्णनवत्-त ऊर्जुनूषति-ते और्णनूषीत्, और्णनूषिष्ट स्तावयति-ते अतुष्टुवत्-त तुष्टषति-ते अतुष्टुषीत्, अतुष्टूषिष्ट वाचयति-ते अवीवचत्-त विवक्षति अविवक्षीत् द्वेषयति-ते अदिद्विषत्-त दिद्विक्षति-ते अदिद्विक्षीत् अदिद्विक्षिष्ट दोहयति-ते अदूदुहत्-त दुधुक्षति-ते अदुधुक्षीत्, अदुधुक्षिष्ट देहयति-ते अदीदिहत्-त दिधिक्षति-ते अदिधिक्षीत् अदिधिक्षिष्ट लेहयति-ते अलीलिहत्-त लिलिक्षति-ते अलिलिक्षीत अलिलिक्षिष्ट हावयति-ते अजूहवत्-त जुहूषति अजुहूषीत् हापयति-ते अजीहपत्-त जिहासति अजिहासीत् भाययति-ते अबीभयत-त बिभीषति अबिभीषीत् पारयति-ते अपीपरत-त पपर्षति अपुपूर्षीत् अर्पयति-ते आर्पिपत् अरिरिषति आरिरिषीत् धापयति-ते अदीधपत्-त धित्सति-ते अधित्सीत् अधित्सिष्ट नेजयति-ते अनीनिजत्-त निनिक्षति-ते अनिनिक्षीत् अनिनिक्षिष्ट वेजयति-ते अवीविजत्-त विविक्षति अविविक्षीत् वेषयति-ते अवीविषत् विविक्षति-ते अविविक्षीत् अविविक्षिष्ट अथ दिवादि देवयति-ते अदीदिवत्-त दिदेविषति अदिदेविषीत् दापयति-ते अदीदपत्-त दित्सति अदित्सीत् वीडयति-ते अविविडत्-त विवीडिषति अविवीडिषीत नर्तयति-ते अनीनृतत्-त निनतिषति अनिनतिषीत् अननर्तत्-त निनृत्सति अनिनृत्सीत् कोथयति-ते अचू कुथत्-त चुकुथिषति अचुकुथिषीत् भीक् पक ऋक् धांन्क णिजक विक विष दिवुच् दोंच व्रीडच् नृतीच कुथच Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५२९ भावकर्म यङन्त तिबादि धादि तिबादि धादि ख्शायते ऊणूयते ऊर्णोनूयते और्णोनूयिष्ट अख्शायि और्णावि, और्णवि, और्णवि अस्तावि अवाचि अद्वेषि स्तूयते उच्यते तोष्ट्रयते वावच्यते देद्विष्यते अतोष्टूयिष्ट अवावचिष्ट अदेद्विषिष्ट द्विष्यते दुह्यते दिह्यते अदोहि अदेहि दोदुह्यते देदिह्यते अदोदुहिष्ट अदेदिहिष्ट लियते अलेहि लेलिह्यते अलेलिहिष्ट हूयते हीयते भीयते प्रियते अर्यते अहावि अहायि अभायि अपारि आरि जोहयते जेहीयते बेभीयते पेप्रीयते अरार्यते देधीयते अजोहूयिष्ट अजेहीयिष्ट अबेभीयिष्ट अपेप्रीयिष्ट आरारिष्ट अदेधीयिष्ट धीयते अधायि निज्यते अनेजि नेनिज्यते अनेनिजिष्ट विज्यते विष्यते अवेजि अवेषि वेविज्यते वेविष्यते अवेविजिष्ट अवेविषिष्ट दीव्यते दीयते. वीड्यते नृत्यते अदेवि अदायि अवीडि अनति देदीव्यते देदीयते वेव्रीड्यते नरीनृत्यते अदेदीविष्ट अदेदीयिष्ट अवेव्रीडिष्ट अनरीनृतिष्ट कुथ्यते अकोथि चोकुथ्यते अचोकुथिष्ट Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० धातु गुधच् व्यधंच् क्षिपंच् तिमच् तीमच् ष्टिमच् ष्टीमच् षिवुच् ष्ठिवुच् त्रसीच् षहच् पुषंच् लुट ष्विदांच् क्लिदूच् शुधंच् क्रुधंच् ऋधूच् गृधुच् तृपूच् दृपूच् कुपच् जिन्नन्त तिबादि द्यादि गोधयति अजूगुधत्-त व्याधयति - ते अविव्यधत्-त क्षेपयति - ते अचिक्षिपत्-त मयति अतीतिमत्-त त्रासयति - ते साहयति पोषयति-ते लोटयति तिबादि जुगुधिषति विव्यत्सति तीमयति - ते अतीतिमत्-त तितीमिषति स्तेमयति-ते अतिष्टिमत्त तिस्तिमिषति स्तीमयति - ते अतिष्टिमत्-त तिस्तीमिषति सेवयति- असीषिवत्-त सिसेविषति स्वेदयति - ते क्लेदयति-ते चिक्षिप्सति तितिमिषति तिते मिषति सुस्पति ष्ठेवयति - ते अतिष्ठिवत्-त तिष्ठेविषति अष्ठिवत् अतित्रसत्-त असीहत्-त अपूपुषत्-त अलू लुटत्-त अलुलोटत्-त असिष्विदत्-त तित्रसिषति सिस हिषति पुपुक्षति सन्नन्न लुटिि लुलोटिषति सिष्वित्सति चिक्लिदत्त चिक्लिदिषति चिक्लेदिषति चिक्लित्सति शोधयति - ते क्रोधयति-ते अचुक्रुधत्-त अर्धयति - ते आदिधत्-त गर्धयति अजगर्धत्-त अजीगृधत्-त तर्पयति अतीतृपत्-त तितर्पिषति अतत्-त तितृप्सति दर्पयति अदीदृपत्-त दिदपिपति अददर्पत्-त कोपयति - ते अचूकुपत्-त दिदृति चुकोपति वाक्यरचना बोध द्यादि अधि अविव्यत्सीत् अचिक्षिप्सीत् अतितिमिषीत् अतिमिषीत् अतितीमिषीत् अतिस्तिमिषीत् अतिस्तीमिषीत् असिसेविषीत् असुयूपीत् अतिष्ठेविषीत् अतित्र सिपीत् असहिषीत् अपुपुक्षीत् अलुलुटिषीत् अलुलोटिपीत् असिष्वित्सीत् अविक्लिदिपीत् अचिक्लेदिषीत् अचिक्लित्सीत् अशुशुत्सीत् अचुक्रुत्सीत् अशूशुधत्-त शुशुत्सति चुक्रुत्सति अदिधिषति, ईर्त्सति आदिधिषीत्, ऐसत् जिगधिषति अधिपत् अतितर्पिषीत् अतितृप्सीत अदिदर्पिषीत् अदिसीत् अकोपिषीत् Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ____ ५३१ ५३१ तिबादि गुध्यते विध्यते क्षिप्यते तिम्यते भाबकर्म द्यादि अगोधि अव्याधि अक्षेपि अतेमि तिबादि जोगुध्यते वेविध्यते चेक्षिप्यते तेतिम्यते धादि अजोगुधिष्ट अवेविधिष्ट अचेक्षिपिष्ट अतेतिमिष्ट तीम्यते स्तिम्यते स्तीम्यते सीव्यते अतीमि अस्तेमि अस्तीमि असेवि तेतीम्यते तेष्टिम्यते तेष्टीम्यते सेषीव्यते अतेतीमिष्ट अतेष्टिमिष्ट अतेष्टीमिष्ट असेषीविष्ट ष्ठीव्यते अष्ठेवि तेष्ठिव्यते अतेष्ठिविष्ट त्रस्यते सह्यते पुष्यते लुट्यते अत्रासि, अत्रसि असाहि, असहि अपोषि अलोटि तात्रस्यते सासह्यते पोपुष्यते लोलुट्यते अतात्रसिष्ट] असासहिष्ट अपोपुषिष्ट अलोलुटिष्ट स्विद्यते क्लिद्यते अस्वेदि अक्लेदि सेष्विद्यते चेक्लिद्यते असेष्विदिष्ट अचेक्लिदिष्ट अशोधि शुध्यते क्रुध्यते ऋध्यते शोशुध्यते चोक्रुध्यते अशोशुधिष्ट अचोक्रुधिष्ट अक्रोधि आधि अगधि गृध्यते जरीगृध्यते अजरीगृधिष्ट तृप्यते अर्पि तरीतृप्यते अतरीतृपिष्ट दृप्यते अपि दरीदृप्यते अदरीदृपिष्ट कुप्यते अकोपि घोकुष्यते अचोकुपिष्ट Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ धातु गुपच् लुभच् क्षुभच् णशूच् भृशुच् कृशच् श्लिषंच् प्लुषुच् तृषच् तुषंच् हृषच् रुषंच् असुच् यसुच् तमुच् क्षमूच् क्लमुच् मदीच् द्रुहूच् ष्णिहूच् श्रमुच् भ्रमुच् जिन्नन्त तिबादि द्यादि गोपयति- अजूगुपत्-त लोभयति-ते अलूलुभत्-त क्षोभयति-ते अचुक्षुभत्-त नाशयति अनीनशत् भर्शयति अब भृशत् अबभर्शत् कर्शयति - ते अचीकृशत्-त चिकशिषति अचकर्शत्-त अतूतुषत्-त तोषयति - ते हर्षयति - ते अजीहृषत्-त अजहर्षत्-त रोषयति-ते अरूरुषत्-त श्लेषयति - ते अशिश्लिषत्-त शिश्लिक्षति लोषयति - ते अपुप्लुषत्-त पुप्लुषिषति तर्षयति - ते तितर्षिषति यासयति - ते तमयति - ते तिबादि जुगो पिषति अत् अततर्षत्-त क्षमयति - ते क्लमयति - ते मदयति-ते मादयति-ते जुगुपित लुलोभिषति लुलुभिषति चुक्षोभिषति निनशिषति द्रोहयति ते स्नेहयति - ते श्रमयति - ते भ्रमयति निनङ्क्षति बिभशिषति रुषिषति रुरुषिषति आसयति-ते आसिसत् त असिसिषति अयीयसत्-त यियसिषति अतीतमत्-त तितमिषति अचिक्षमत्-त चिक्षमिषति अचिक्लमत् त चिक्लमिषति अमीमदत्-त मिमदिषति तुतुक्षति जिहर्षिषति अदुद्रुहत्-त दुद्रोहि असिष्णिहत्-त सिस्नेहिषति अशिश्रमत्-त शिश्रमिषति अबिभ्रमत् बिभ्रमिषति वाक्यरचना बोध सन्नन्त द्यादि अजुगपत् अजुगुपिषीत् अलुलोभिषीत् अलुलुभिषीत् अक्षोभिषीत् अनिनशिषीत् अनिनङ्क्षीत् अविर्भाशिषीत् अचिकशिषीत् अशिश्लिक्षीत् अपुप्लुषिषीत् अतितीत् अतुतुक्षीत् अहिर्षिषीत् अरुरोषिषीत् अरुरुषिषीत् आसिसिषीत् अयि सिषीत् अतितमिषीत् अचिक्षमिषीत् अचिक्लमिषीत् अमिमदिषीत् अदुद्रोहिषीत् असिस्ने हिषीत् अशिश्रमिषीत् अविभ्रमिषीत् Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि गुप्यते लुभ्य क्षुभ्य नश्यते भृश्य कृश्यते श्लिष्यते प्लुष्य तृष्य तु हृष्य रुष्यते अस्यते यस्यते तम्यते क्षम्यते क्लभ्यते मद्यते स्निह्यते श्रम्यते भ्रम्यते भावकर्म द्यादि अगोपि अलोभि अक्षोभि अनाशि अर्भाश अर्काशि अश्लेषि अप्लोषि अतर्षि अतोषि अहर्षि अरोषि आसि अयास, असि अतमि अक्षमि अक्लमि अमादि, अमदि अद्रोहि अस्नेहि अश्रमि अभ्रमि तिबादि लोलुभ्यते चक्षुभ्यते नानश्यते बरीभृश्यते चरीकृश्यते शेश्लिष्यते पोप्लुष्य ततृष्यते तोतुष्यते जरीहृष्यते रोरुष्यते X यायस्यते तन्तम्यते चंक्षम्यते चक्लय मामद्यते सेष्णिह्यते श्र भ्र यङन्त द्यादि अजोगुपिष्ट अलोलुभिष्ट अचक्षुभिष्ट अनानशिष्ट ५३३ अबरीभृशिष्ट अचरीकृशिष्ट अशेश्लिषष्ट अपोप्लुषिष्ट अतरीतृषिष्ट अतोतुषिष्ट अजहृषिष्ट अरोरुषिष्ट X अयायसिष्ट अतन्तमिष्ट अचंक्षमिष्ट अचक्लमिष्ट अमामदिष्ट अदोहिष्ट असेष्णिहिष्ट अशश्रमिष्ट अब भ्रमिष्ट Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ वाक्यरचना बोध धातु भ्रंशुच् लुपच् षूच् दूच् दीच् डीच् पीच ईच् प्रीच् युजंच् सृजच् जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि . धादि तिबादि द्यादि भ्रंशयति-ते अबभ्रंशत्-त बिभ्रंशिषति । अबिभ्रंशिषीत् लोपयति-ते अलूलुपत्-त लुलोपिषति अलुलोपिषीत् सावयति-ते असूषवत्-त सुसूषते असुसूषिष्ट दावयति-ते अदूदवत्-त दुदूषते अदुदूषिष्ट दापयति-ते अदीदपत्-त दिदीषते, दिदासते अदिदीषिष्ट अदिदासिष्ट डाययति-ते अडीडयत्-त डिडीषते अडिडीषिष्ट पाययति-ते अपीपयत्-त पिपीषते अपिपीषिष्ट आययति-ते आयियत्-त ईषिषते ऐषिषिष्ट प्राययति-ते अपिप्रयत्-त पिप्रीषते अपिप्रीषिष्ट योजयति अयूयुजत् युयुक्षते अयुयुक्षिष्ट सर्जयति-ते असीसृजत्-त सिसृक्षते असिसृक्षिष्ट असीसर्जत-त पादयति-ते अपीपदत्-त पित्सते अपित्सिष्ट वेदयति-ते अवीविदत्-त विवित्सते अविवित्सिप्ट खेदयति-ते अचीखिदत्-त चिखित्सते अचिखित्सिष्ट योधयति अयूयुधत् युयुत्सते अयुयुत्सिष्ट मानयति-ते अमीमनत्-त मिमंसते अमिमंसिष्ट दीपयति-ते अदीदिपत्-त दिदीपिषते अदिदीपिषिष्ट तापयति-ते अतीतपत्-त तितप्सते अतितप्सिष्ट पूरयति-ते अपूपुरत्-त पुपूरिषते अपुपूरिषिष्ट क्लेशयति-ते अचिक्लिशत्-त चिक्लेशिषते अचिक्लेशिषिष्ट चिक्लिशिषते अचिक्लिशिषिष्ट काशयति-ते अचकाशत्-त चिकाशिषते अचिकाशिषिष्ट वाशयति-ते अववाशत्-त विवाशिषते अविवाशिष्ट शापयति-ते अशीशपत्-त शिशप्सति-ते अशिशप्सीत् अशिशप्षिष्ट मर्षयति-ते अमीमृषत्-त मिमर्षिषति-ते अमिमषिषीत् अममर्षत-त अमिमषिषिष्ट पदंच् विदंच् खिदं च् युधंच् मनंच दीपीच् तपंच् पूरीच् क्लिशङ्च् काशच वाशंन्च शपंन्च मृषन्च Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि भ्रश्यते लुप्यते सूयते भावकम धादि अभ्रंशि अलोपि असावि, असवि अदावि अदायि यङन्त तिबादि बाभ्रश्यते लोलुप्यते सोसूयते दोदूयते देदीयते धादि अबाभ्रशिष्ट अलोलुपिष्ट असोसूयिष्ट अदोदूयिष्ट अदेदीयिष्ट दूयते दीयते डीयते डेडीयते अडेडीयिष्ट अपेपीयिष्ट पेपीयते पीयते ईयते प्रीयते x अडायि, अडयि अपायि आयि अप्रायि अयोजि असजि युज्यते पेप्रीयते योयुज्यते सरीसृज्यते अपेप्रीयिष्ट अयोयुजिष्ट असरीसृजिष्ट सृज्यते 11tikt 111111 11111111 1111 अपादि अवेदि अखेदि पद्यते विद्यते विद्यते मुध्यते मन्यते दीप्यते तप्यते पूर्यते क्लिश्यते पनीपद्यते वेविद्यते चेखिद्यते योयुध्यते मम्मन्यते देदीप्यते अयोधि अमानि अदीपि अतापि अपूरि अक्लेशि अपनीपदिष्ट अवविदिष्ट अचेखिदिष्ट अयोयुधिष्ट अमम्मनिष्ट अदेदीपिष्ट अतातपिष्ट अपोपूरिष्ट अचेक्लिशिष्ट तातप्यते पोपूर्यते चेक्लिश्यते काश्यते वाश्यते शप्यते अकाशि अवाशि चाकाश्यते वावश्यते शाशप्यते मरीमृष्यते अचाकाशिष्ट अवावाशिष्ट अशाशपिष्ट अमरीमृषिष्ट अशापि मृष्यते अषि Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ वाक्यरचना बोध पिन्त मिन्त् চিলন सन्नन्त धातु तिबादि द्यादि . तिबादि द्यादि णहंन्च् नाहयति-ते अनीनहत्-त निनत्सति-ते अनिनत्सीत् अनिनत्सिष्ट स्वादिगण धुंन्त् सावयति-ते असूषवत्-त सुषषति-ते असुसूषीत्, असुसूषिष्ट सासयति-ते असोषयत्-त सिसीषति-ते ___ असिसीषीत् असिसीषिष्ट मापयति-ते अमीमपत्-त मित्सति, मित्सते अमित्सीत् अमित्सिष्ट धून्त् धूनयति अधुनत् दुधूषति-ते अदुधूषीत् अदुधषिष्ट स्तूंन्त्स्तारयति-ते अतिस्तरत्-त तिस्तीर्षति-ते अतिस्तर्षीत अतिस्तीषिष्ट वृन्त् वारयति-ते अवीवरत्-त विवरिषति-ते अविवरिषोत् अविवरिषिष्ट हाययति-ते अजीहयत्-त जिघीषति अजिघीषीत् पारयति-ते अपीपरत्-त पुपूर्षति अपुपूर्षीत् शक्लंत् शाकयति-ते अशीशकत्-त शिक्षति, शिक्षते __ अशिक्षीत् अशिक्षिष्ट राधंत् राधयति-ते अरीरधत-त रित्स ति अरित्सीत् साधयति-ते असीसधत्-त सिसात्सति असिसात्सीत् आप्लुत् . आपयति-ते आपिपत्-त ईप्सति ऐप्सीत् तृपत् तर्पयति-ते अतीतृपत्-त लिपिषति अतिपिषीत् अततर्पत्-त दम्भुत् दम्भयति-ते अददम्भत्-त दिदम्भिषति अदिदम्भिषीत् . धीप्सति, धिप्सति अधीप्सीत् अधिप्सीत् धिवित् धिन्वयति-ते अदिधिन्वत्-त दिधिन्विषति अदिधिन्विषीत् ष्टिषित् स्तेघयति-ते अतिष्टिघत्-त तिस्तेधिषते अतिस्तेधिषिष्ट अशूत् आशयति-ते आशिशत्-त अशिशिषते आशिशिषिष्ट तुदादिगण तुदंन्ज् तोदयति-ते अतूतुदत्-त तुतुत्सति-ते अतुतुत्सीत् अतुतुत्सिष्ट हिंत् साधंत् Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि ह्य सूयते सीयते मीयते धूयते स्तर्यते व्रियते प्रियते शक्यते राध्यते साध्यते आप्यते तृप्यते दभ्यते धिन्व्यते स्तिष्यते अश्यते भावकर्म द्यादि अनाहि असावि असायि अमायि अधावि, अधवि अस्तारि, अस्तरि अवारि महाि अपारि अशाकि अराधि असाधि आपि अतर्पि अदम्भि afafa अस्तेघ आशि अतोदि तिबादि नाना सोय सेषीयते मीयते दोधूय तास्तर्यते वेत्रीय जेधीयते पेप्रीयते शाशक्यते राराध्यते सासाध्यते x तृप्यते दादभ्यते देधिन्व्यते तेष्टिघ्यते अशाश्यते तो यङन्त द्यादि अनानहिष्ट असोषूयिष्ट असेषीष्ट ५३७: अमीष्ट दोघूयिष्ट अतास्तरिष्ट अवेव्रीयिष्ट अजेघी यिष्ट अपेष्ट अशाशकिष्ट अराराधिष्ट असासाधिष्ट X अतृपिष्ट अदादभिष्ट अधिन्विष्ट अतेष्टिविष्ट आशाशिष्ट अतोदिष्ट Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ धातु भ्रस्जंन्ज् क्षिपन्ज् दिशंन्ज् कृषंन्ज् मुच्ंन्ज् मुंज् कृज् गज् लिखज् व्रश्चूज् जिन्नन्त सृजंज् तिबादि द्यादि अबभ्रज्जत्-त भ्रज्जयति - ते भर्जयति - ते अबभर्जत्-त क्षेपयति - ते अचिक्षिपत्-त षिचंन्ज् सेचयति - ते विद्न्ज् वेदयति-ते लुप्लुंन्ज् लोपयति लिपन्ज् लेपयति-ते कृतीज् कर्तयति - ते मोचयति ते देशयति - ते अदीदिशत्-त दिदिक्षति - ते कर्षयति - ते अचीकृषत्-त चिकृक्षति - ते अचकर्षत्-त मारयति - ते कारयति - ते गारयति - ते लेखयति - ते व्रश्चयति - ते सर्जयति ते तिवादि बिभ्रज्जिषति - ते पति चिक्षिप्सति ते सन्नन्स अमूमुचत्-त मुमुक्षति-ते मोक्षति-ते असी षिचत्-त सिसिक्षति-ते अवीविदत्-त विवित्सति-ते अलूलुपत्-त लुलुप्सतिअलुलोपत्-त अलीलिपत्-त लिलिप्सति-ते अचीकृतत्-त चिकर्तिषति अचकर्तत्-त चिकृत्सति अमीमरत्-त मुमूर्षति अचीकरत्-त चिकरीपति अजीगरत्-त जिगरीषति अलीलिखत्-त लिलेखिषति लिलिखिषति अवव्रश्चत्-त विव्रश्चिषति विव्रक्षति असीसृजत्-त सिसृक्षति अससर्जत्-त वाक्यरचना बोध द्यादि अबिभ्रजिष्टि अज्जिषीत् अचिक्षिप्सीत् अचिक्षिप्सिष्ट अदिदिक्षीत् अदिदक्षिष्ट अचिकृक्षीत् अचिकृक्षिष्ट अमुमुक्षीत् अमुमुक्षिष्ट अमोमोक्षीत् अमोमोक्षिष्ट असिसिक्षीत् असिसिक्षिष्ट अविवित्सीत् अविविषिष्ट अलुलुप्सीत् अलुलुसिष्ट अलिलिप्सीत् अलिलिप्सिष्ट अचितिषीत् अचिकृत्सीत् अमुमूर्षीत् अचिकरीषीत् अजिगरीषीत् अलिलेखिषीत् अलिलिखिषीत् अविव्रश्चिषीत् अविवक्षीत् असिसृक्षीत् Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि भृज्यते भृज्ज्यते क्षिप्यते दिश्यते कृष्यते मुच्यते सिच्यते विद्यते लुप्यते लिप्यते कृत्यते म्रियते कीर्यते गीर्यते लिख्यते वृश्च्यते सृज्यते मावकर्म द्यादि अर्भाज अभ्रज्जि अक्षेपि अदेशि अकर्षि अमोचि असेच अवेदि अलोपि अलेपि rafa अव्रश्चि तिबादि बरीभृज्ज्यते भृज्य चेक्षिप्यते असजि देदिश्यते चरीकृष्यते मोमुच्यते सेसिच्यते वेविद्यते चरीकृत्यते अमारि श्रीयते अकारि, अकरी, अकरि चेकीर्यते अगार, अगालि जेगिल्यते अलेखि लेलिख्यते वरीवृश्च्य सरीसृज्यते लोलुप्यते लिप्यते यङन्त धादि अबरीभृज्जिष्ट अबरीभृजिष्ट अचेक्षिपिष्ट अदेदिशिष्ट अचरीकृषिष्ट अमोमुचिष्ट असेसिचिष्ट ५३६ rafaदिष्ट अलोलुपष्ट अलेलिपिष्ट अचरीकृतिष्ट अमेन्रीष्टि अकीरिष्ट अजेगिलिष्ट अलेलिखिष्ट अवरीवृश्चिष्ट असरीसृजिष्ट Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० बाक्यरचना बोध धातु द्यादि विधज् शुभज् जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि द्यादि तिबादि मस्बोंज मज्जयति-ते अममज्जत्-त मिमङ्क्षति अमिमङ्क्षीत् घुणज् घोणयति-ते अजूघुणत्-त जुघोणिषति अजुघोणिषीत् जुघुणिषति अजुघुणिषीत् णुदंज् नोदयति-ते अनूनुदत्-त नुनुत्सति अनुनुत्सीत् वेधयति-ते अवीविधत्-त विवेधिषति अविवेधिषीत् विविधिषति अविविधिषीत् छुपंज् छोपयति-ते ___ अचुच्छुपत्-त चुच्छुप्सति अचुच्छुप्सीत् गुफज् गोफयति-ते अजूगुफत्-त जुगोफिपति अजुगोफिषीत् जुगुफिषति अजुगुफिषीत् गुम्फज् गुम्फयति-ते अजुगुम्फत्-त जुगुम्फिपति अजुगुम्फिषीत् शोभयति-ते अशूशुभत्-त शुशोभिषति अशुशोभिषीत् शुम्भ शुम्भयति-ते अशुशुम्भत्-त शुशुम्भिषति अशुशुम्भिषीत् स्फलज स्फालयति-ते अपिस्फलत्-त पिस्फलिषति अपिस्फलिषीत् स्पृशंज् स्पर्शयति-ते अपिस्पृशत्-त पिस्पृक्षति अपिस्पृक्षीत् अपस्पर्शत्-त वेशयति-ते अवीविशत्-त विविक्षति अविविक्षीत् मृशंज् मर्शयति-ते अमीमृशत्-त मिमृक्षति अमिमृक्षीत् अममर्शत्-त इषज एषयति-ते ऐषिषत्-त एषिषिषति ऐषिषिषीत् मेषयति-ते अमीमिषत्-त मिमिषिषति अमिमिषिषीत् मिमेषिषति अमिमेषिषीत् कुटज् कोटयति-ते अच कुटत्-त चुकुटिषति अचुकुटिषीत् नावयति-ते अनूनवत्-त नुनूषति अनुनूषीत् धूज धावयति-ते अदूधुवत्-त दुधूषति-ते अदुधूषीत्, अदुधूषिष्ट कुच कोचयति-ते । अचू कुचत्-त चुकुचिषति ___ अचुकुचिषीत् बुट त्रोटयति-ते अतुत्रुटत्-त । तुत्रुटिषति अतुत्रुटिषीत् स्फुट स्फोटयति-ते अपुस्फुटत्-त पुस्फुटिषति अपुस्फुटिषीत् लुठज् लोठयति-ते अलूलुठत्-त । लुलुठिषति अलुलुठिषीत् पृज् पारयति-ते अपीपरत्-त पिपरिषते अपिपरिषिष्ट लस्जीङ् लज्जयति-ते अललज्जत्-त लिलज्जिषते अलिलज्जिषिष्ट विशंज् मिषज् णूज Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ भावकर्म खादि तिबादि यजन्त धादि अमामज्जिष्ट अजोधुणिष्ट मज्ज्यते घुण्यते तिबादि मामज्ज्यते जोधुण्यते अमज्जि अघोणि नुद्यते विध्यते अनोदि अवधि नोनुद्यते वेविध्यते अनोनुदिष्ट अवेविधिष्ट छुप्यते अछोपि अगोफि चोच्छुप्यते जोगुफ्यते अचोच्छुपिष्ट अजोगुफिष्ट गुफ्यते गुफ्यते शुभ्यते शुभ्यते अगुम्फि अशोभि अशुम्भि अस्फालि, अस्फलि अस्पशि जोगुफ्यते शोशुभ्यते शोशुभ्यते पास्फल्यते परीस्पृश्यते अजोगुफिष्ट अशोशुभिष्ट अशोशुभिष्ट अपास्फलिष्ट अपरीस्पृशिष्ट स्फल्यते स्पृश्यते विश्यते अवेशि अमशि वेविश्यते मरीमृश्यते अवेविशिष्ट .. ...अमरीमृशिष्ट: . मृश्यते इष्यते मिष्यते ऐषि अमेषि मेमिष्यते अमेमिषिष्ट कुट्यते नूयते धूयते कुच्यते त्रुट्यते स्फुट्यते अकोटि अनावि, अनुवि अधावि, अधुवि अकोचि, अकुचि अत्रोटि, अत्रुटि अस्फोटि, अस्फुटि अलोठि, अलुठि अपारि अलज्जि चोकुट्यते नोनूयते दोध्यते चोकुच्यते तोत्रुट्यते पोस्फुट्यते लोलुठ्यते पेप्रीयते लालज्ज्यते अचोकुटिष्ट अनोनूयिष्ट अदोधूयिष्ट अचोकुचिष्ट अतोत्रुटिष्ट अपोस्फुटिष्ट अलोलुठिष्ट अपेप्रीयिष्ट अलालज्जिष्ट लुठ्यते पार्यते लज्ज्यते Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ वाक्यरचना बोध रुधादिगण जिन्नन्त सन्नन्त तिबादि धादि तिबादि धादि . विजीर् वेजयति-ते अवीविजत्-त विविजिषते अविविजिपिष्ट रुधृनर् रोधयति-ते अरूरुधत्-त रुरुत्सति-ते अरुरुत्सीत् अरुरुत्सिष्ट रिचन्र् रेचयति-ते अरीरिचत्-त रिरिक्षति-ते अरिरिक्षीत् अरिरिक्षिष्ट विच न् वेचयति-ते अवीविचत्-त विविक्षति-ते अविविक्षीत् अविविक्षिष्ट युज न्र् योजयति-ते अयूयुजत्-त युयुक्षति-ते अयुयुक्षीत्, अयुयुक्षिष्ट भिदन्र् भेदयति-ते अबीभिदत्-त बिभित्सति-ते अबिभित्सीत् अबिभित्सिष्ट छिन् छेदयति-ते अचिच्छिदत्-त चिच्छित्सति-ते अचिच्छित्सीत् अचिच्छित्सिष्ट पृचीर् पर्चयति-ते अपीपृचत्-त पिपर्चिषति अपिपचिषीत् अपपर्चत्-त भञ्जोंर् भञ्जयति-ते अबभञ्जत्-त बिभङ्क्षति अविभक्षीत् भोजयति-ते अबूभुजत्-त बुभुक्षति-ते अबुभुक्षीत्, अबुभुक्षिष्ट अजूर् अञ्जयति-ते आजिजत्-त अजिजिषति आजिजिषीत् शिष्लुर् शेषयति-ते अशीशिषत्-त शिशिक्षति अशिशिक्षीत् पेषयति-ते अपीपिषत-त पिपिक्षति अपिपिक्षीत् हिसि हिंसयति-ते अजिहिंसत्-त जिहिसिषति अजिहिंसिषीत् तृहर् तहयति-ते अतीतृहत्-त तितहिषति अतितर्हिषीत् अततर्हत्-त खिदंङ् खेदयति-ते अचीखिदत्त चिखित्सते अचिखित्सिष्ट विदं वेदयति-ते अवीविदत्-त विवित्सते अविविसिष्ट इन्धीङ् इन्धयति-ते ऐन्दिधत्-त इन्दिधिषते . ऐन्दिधिषिष्ट तनादिगण तनुनव् तानयति-ते अतीतनत्-त तितनिषति-ते अतितनिषीत् तितांसति-ते अतितनिषिष्ट तितंसति-ते षणुन सानयति-ते असीषणत्-त सिसनिषति-ते असिसनिषीत् असिसनिषिष्ट भुजंर् पिष्लंर् Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५४३ तिबादि विज्यते भावकर्म खादि अवेजि, अविजि तिबादि वेविज्यते यङन्त पादि अवेविजिष्ट रुध्यते अरोधि रोरुध्यते अरोरुधिष्ट रिच्यते अरेचि रेरिच्यते अरेरिचिष्ट विच्यते अवेचि वेविच्यते अवेविचिष्ट युज्यते भिद्यते अयोजि अभेदि योयुज्यते बेभिद्यते अयोयुजिष्ट अबेभिदिष्ट छिद्यते अच्छेदि चेच्छिद्यते अचेच्छिदिष्ट पृच्यते अपचि परीपृच्यते अपरीचिष्ट' अबम्भजिष्ट अबोभुजिष्ट अशेशिषिष्ट भज्यते भुज्यते शिष्यते अज्यते पिष्यते हिस्यते अभाजि, अभञ्जि अभोजि अशेषि आञ्जि अपेषि अहिसि अहि बम्भज्यते बोभुज्यते शेशिष्यते x पेपिष्यते जेहिंस्यते तरीतृह्यते अपेपिषिष्ट अजेहिंसिष्ट अतरीतृहिष्ट तृह्यते खिद्यते विद्यते इध्यते अखेदि अवेदि ऐन्धि चेखिद्यते वेविद्यते अचेखेदिष्ट अवेवेदिष्ट तन्यते अतनि, अतानि तंतन्यते अतंतनिष्ट सन्यते असनि, असानि सासयते असासायिष्ट Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ धातु वनुव् प्रींन्श् मींन्श् ग्रहन्श् पून्श् स्तन्श् लून्श् चुरण् पूजण् तडण् कथण् शीलण् महण् स्पृहण् जिन्नन्त तिबादि वानयति - ते प्रीणयति - ते मापयति-ते ग्राहयति - ते पावयति - ते स्तारयति - ते लावयति - ते चोरयति - ते पूजयति ताडयति कथयति-ते शीलयति - ते महयति - ते स्पृहयति धादि अवीवनत्-त क्रयादिगण अपित्-त अत्-त अजिग्रहत्-त अपीपवत्-त अतिस्तरत्-त अचूचुरत्-त अपूपुजत्-त अतीतत्-त सन्नन्त अममहत्-त तिबादि विवनिपते अलीलवत्-त लुलूषति - ते चुरादिगण चुचोरयिषति पुपूजयिषति - ते अपस्पृहत्-त पिप्रीषति - ते मित्सति - ते जिघृक्षति पूषति - तिस्तरिषति - ते तिस्तरीषति - ते तिस्तीर्षति - ते तिताडयिषति-ते चिकथयिषति - ते वाक्यरचना बोध द्यादि अविवनिषिष्ट अपीीत् अपीषिष्ट अमित्सीत्, अमित्सिष्ट अजिघृक्षीत् अक्षिष्ट अपुपूषीत्, अपुपुषिष्ट अतिस्तरिषीत् अतिस्तरिषिष्ट अस्तित् अतिस्तरीषिष्ट अतितीर्षीत् अतिस्तर्षिष्ट अलुलूषीत्, अलुलूषिष्ट अचकथत्-त अचिकथयिषीत् अचिकथयिषिष्ट अशिशीलत्-त शिशीलयिषति - ते अशिशीलयिषीत् अशिशील यिषिष्ट मिमहयिषति - ते पिस्पृहयति - ते अचचोरयिषीत् अचुचोरयिषिष्ट अपुपूजयिषीत् अपुपूजयिषिष्ट अतिताडयिषीत् अतिताडयिषिष्ट अहिषीत् अमिमहषिष्ट अपिस्पृहीत् अपस्पृहि Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ तिबादि वन्यते प्रीयते मीयते गृह्यते पूयते स्तीर्यते लूय चोर्यंते पूज्यते ताड्यते कथ्यते - शील्यते मह्यते स्पृह्यते भावकर्म द्यादि अवनि, अवानि अप्रायि अमायि ग्रह, अग्र अपावि, अपवि अस्तारि, अस्तरि अलावि, अलवि अचोरि अपू, अपूज अताडि, अताडयि अकथि, अकथय अशील, अशीलयि अहि, मह अहि, अस्पृहि तिबादि ववन्यते पेप्रीयते मेमीयते जरीगृह्यते पोपूयते तेस्तीर्यते लोलूय चोचुर्यं पोपूज्यते तातड्य चाकथ्यते शेशील्यते मामह्यते पस्पृह्यते यङन्त धादि अवनिष्ट अपेप्रीयिष्ट अमीष्ट अजगृहिष्ट अपोयिष्ट अतेस्तीरिष्ट अलोलूयिष्ट अचोचुरिष्ट अपोजिट अतातडिष्ट अचाकथिष्ट अशेशी लिष्ट ૫૪૧ अम महिष्ट अपस्पृष्टि Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ वाक्यरचना बोधः घ्रा घमां म्नां दांम 14.64. लघि शुच लुञ्च वञ्च यलुगन्त तिबादि बोभोति, बोभवीति पापेति, पापाति जानेति, जाघ्राति दाध्मेति, दाध्माति माम्नेति, माम्नाति दादेति, दादाति सोसवीति, सोसोति सरिसरीति, सरिसति तातति दाधेति, दाधाति दाध्येति, दाध्याति जागेति, जागाति लालङ्घीति, लालग्धि शोशुचीति, शोशोक्ति लोलुञ्चीति, लोलुङ्क्ति वनीवञ्चीति, वनीवङ्क्ति वावञ्छीति, वावांष्टि वाव्रजीति, वावक्ति तातर्जीति, ताक्ति जागर्जीति, जागक्ति तात्यजीति, तात्यक्ति सासजीति, सासङ्क्ति चाकटीति, चाकट्टि शाशटीति, शाशट्टि चेखेट्टि, चेखिटीति नानटीति, नानट्टि लोलुटीति, लोलोट्टि पोस्फुटीति, पोस्फोट्टि पापठीति, पापट्टि जाहठीति, जाहट्टि चेक्रीडीति, चेक्रीट्टि लालडीति, लालट्टि रंरणीति, रंरण्टि द्यादि अबोभोत् अपापात् अजाघ्रासीत् अदाध्मासीत् अमाम्नासीत् अदादात् असोसावीत् असरिसारीत् अतातारीत् अदाधात् अदाध्यासीत् अजागासीत् अलालवीत् अशोशोचीत् अलोलुञ्चीत् अवनीवञ्चीत् अवावाञ्छीत् अवाबाजीत् अतातर्जीत् अजागर्जीत् अतात्याजीत, अतात्यजीत असासजीत् अचाकटीत्, अचाकाटीत् अशाशटीत्, अशाशाटीत् अचेखेटीत् अनानाटीत्, अनानटीत् अलोलोटीत् अपोस्फोटीत् अपापाठीत्, अपापठीत् अजाहाठीत्, अजाहठीत् अचेक्रीडीत् अलालाडीत्, अलालडीत् अरंराणीत्, अरंरणीत् वाछि व्रज तर्ज गर्ज त्यजं षज कटे शट खिद णट लुट स्फुट पठ हठ लड रण Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ . ५४७ धातु भण कण क्वण् चिती श्च्यु त खादृ गद णिदि नदि ऋदि विधु ध्वन स्वन गुपू तपं. तिबादि बम्भणीति, बम्भण्टि चंकणीति, चङ्कण्टि चवणीति, चक्वण्टि चेचेत्ति, चेचितीति चोश्च्योत्ति, चोश्च्युतीति चाखादीति, चाखात्ति जागदीति, जागत्ति नेनिन्दीति, नेनिन्ति नानन्दीति, नानन्ति . चाक्रन्दीति, चाक्रन्ति चनीस्कन्दीति, चनीस्कन्ति सेषेद्धि, सेषिधीति . दन्ध्वनीति, दन्ध्वन्ति संस्वनीति, संस्वन्ति जोगोप्ति, जोगुपीति तातपीति, तातप्ति दोधूपीति, दोधूप्ति लालपीति, लालप्ति जाजल्पीति, जाजल्प्ति जञ्जपीति, जञप्ति सरिसृपीति, सरिसप्ति चोचुपीति, चोचोप्ति चोचुम्बीति, चोचुम्प्ति जेजिमीति, जेजेन्ति चंक्रमीति, चंक्रन्ति यंयमीति, ययन्ति चञ्चुरीति, चञ्चूति दादलीति, दादल्ति मेमीलीति, मेमील्ति मोमूलीति, मोमूल्ति पम्फुलीति, पम्फुल्ति पोफुल्लीति, पोफुल्लित वेवेलीति, वेवेल्ति चेखेलीति, चेखेल्ति वप द्यादि अबम्भाणीत्, अबम्भणीत् अचङ्काणीत्, अचङ्कणीत् अचङ्क्वाणीत्, अचङ्कवणीत् अचेचेतीत् अचोश्च्योतीत् अचाखादीत् अजागादीत्, अजागदीत् अनेनिन्दीत् अनानन्दीत् अचाक्रन्दीत् अचनीस्कन्दीत् असेषेधीत् अदन्ध्वानीत्, अदन्ध्वनीत् असंस्वानीत्, असंस्वनीत्। अजोगोपीत् अतातापीत्, अतातपीत् । अदोधूपीत् अलालापीत्, अलालपीत् अजाजल्पीत् अजजापीत्, अजञ्जपीत् असरिसीत् अचोचोपीत् अचोचुम्बीत् अजेजेमीत् अचंक्रमीत् अयंयसीत् अचञ्चुरीत् अदादालीत् अमेमीलीत् अमोमूलीत् अपम्फुलीत् अपोफुल्लीत् अवेवेलीत् अचेखेलीत् लप जल्प जप यमुं चर दल मील. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ བྦཱ སྠཽ ཤྲཱ ཤྲཱ ཤྲཱ ཝཱ ཝཱ སྠཽ ླ བཿ, ཨྰཿ, ལྤཎྜཱ ཟླ ✖ जीव कृषं मृषण् प्लुषु घृषु भूष रस लस हसे शंसु दहं रक्ष क्षू काक्षि मिंङ् डी कुङ् मे देङ् लोकृङ् रेलृङ् शकि चकङ् ढौकृङ् त्रौ कृङ् तिबादि चाखलीति, चास्खल्ति जागलीति, जागल्ति चाचर्वीति, चार्चति जागर्वीति, जागति जेजीवीति, जेज्योति जोघुषीति, जोघोष्टि चरीकृषीति, चरीत्रष्टि बाभीति, बाभष्टि विषीति, वेवेष्टि मरीमृषीति, मरीमष्ट पोप्लुषीति, पोप्लोष्टि जरिघृषीति, जरिघष्टि पोपुषीति, पोपोष्ट बोभूषीत, बोभूष्टि रारसीति, रारस्ति लालसीति, लालस्ति जाहसीति, जाहस्ति शाशंसीति, शाशंस्ति दन्दहीति, दन्दग्धि रारक्षीति, राष्टि ताक्षीति, ताष्टि चाकाङ्क्षीति, चाकाट सेष्मयीति, सेमेति safa, sa चोकवीति, चोकोति मामेति, मामाति दादेति, दादाति लोलोकीति, लोलोक्ति रेरेकीति, रेरेक्ति शाशकीति, शाशङ्क्ति चाचकीति, चाचक्ति sitaीति, डोढौक्ति तोकीति, तोत्रौक्ति धादि वाक्यरचना बोध अस्खली अजागालीत् अचाचर्वीत् अजागर्वीत् अजेजीवीत् अजोघोषीत् अचरीकर्षीत् अबाभाषीत्, अबाभषीत् अवेवेषीत् अमरीमर्षीत् अपोप्लोषीत् अजरिघर्षीत् अपोपोषीत् अबोभूषीत् अरारासीत्, अरारसीत् अलालासीत्, अलालसीत् अजाहासीत्, अजाहसीत् अशाशंसीत् अदन्दहीत् अरारक्षीत् अतातक्षीत् अचाकाङ्क्षीत् असेष्मायीत् अडेडायीत् अचोकावीत् अमामासीत् अदादात् अलोलोकीत् अरेरेकीत् अशाशङ्कीत् अचाचाकीत्, अचाचकोत् अडोढौकीत् अतोत्रौकीत् Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ धातु टीकृङ् लघ श्लाघृङ् तिजङ् पिडि खड भडि हेडुङ् हिडि घुण् पणङ् यती नाशृङ् वदिङ् मुदङ् ददङ् स्वदङ् कूर्द ह्लाद पर्दङ् स्पर्धङ् बाधृङ् दधङ् बधि वेङ् कपिङ् त्रपूषङ् गुपङ् लबिङ् कबृङ् लभि ष्टुभि नृभिङ् तिबादि टेटीकीति, टेटीक्ति लालङ्घीति, लालवि शाश्लाघीति, शाश्लाक्ति तेक्ति, तेतिजीति पेपिण्डीत, पेपिट्टि चाखण्डीति, चाखण्ट्टि बाभण्डीति, बाभण्टि जेहेडीति, जेहेट्टि जे हिण्डीति, जेहिण्टि जोणीति, जोघोटि पंपणीति, पंपण्टि यायतीति यायत्ति नानाथीति, नानत्ति वावन्दीति, वावन्ति मोमोत्ति, मोमुदीति दाददीत, दादत्ति सास्वदीति, सास्वत्ति चोकूर्दीति, चोकूति जाह्लादीति, जाह्लात्ति पापदति, पापत्ति पास्पर्धीति, पापद्ध बाबधीति, बाबद्धि दादधीति, दादद्धि बाबधीति, बावद्धि वेवेपीति, वेवेप्ति चाकम्पीति, चाकम्प्ति तात्रपीति, तात्रप्ति जोगोप्ति, जोगुपीति लालम्बीति, लालम्प्ति चाकबीति, चाकति लालम्भीति, लालब्धि तास्तम्भीति, तास्तम्ब्धि जरीजृम्भीति, जरीजृम्ब्धि द्यादि अटेटीकी त् अलालङ्घीत् अशाश्लाघीत् अते तेजीत् अपेपिण्डीत् अचाखण्डी अबाभण्डीत् अजेहेडीत् अजेहिण्डी Ye अजोघोणीत् अपाणीत्, अपंपणीत् अयायातीत्, अयायतीत् अनानाथीत् अवावन्दीत् अमोमोदीत् अदादादीत्, अदाददीत् असास्वादीत्, असास्वदीत् अचोकूर्दीत् अजाह्लादी अपापर्दीत् अपास्पर्धीत् अबाबाधीत् अदादाधीत्, अदादधीत् अबाबाधीत्, अबाबधीत् अवेवेपीत् अचाकम्पीत् अतात्रापीत्, अतात्रपीत् अजोगोपीत् अलालम्बीत् अचाकाबीत्, अचाकबीत् अलालम्भीत् अतास्तम्भीत् अजरीजृम्भीत् Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोक धातु तिबादि द्यादि क्षमूषङ् दयङ् प्यायी ताङ् वलङ् कलङ् षेवृङ् काशृङ भाषङ् हेषङ् कासृङ् गर्हङ् चंक्षमीति, चंक्षन्ति दादयीति, दादति पेपयीति, पेपेति तातायीति, ताताति वावलीति, वावल्ति चाकलीति, चाकल्ति सेषेवीति, सेषयोति चाकाशीति, चाकाष्टि बाभाषीति, बाभाष्टि जेहेषीति, जेहेष्टि चाकासीति, चाकास्ति जागर्दीति, जागढि दादाहीति, दाद्राढि जागाहीति, जागाढि दोधुक्षीति, दोधुष्टि शेशिक्षीति, शेशिष्टि बेभिक्षीति, बेभिष्टि देदीक्षीति, देदीष्टि शेश्रयीति, शेश्रेति जरीहरीति, जरीहति बरीभरीति, बरीभर्ति दरीधरीति, दरीति चरीकरीति, चरीति यायाचीति, यायाक्ति पापचीति, पापक्ति बाभजीति, बाभक्ति बोबुधीति, बोबोद्धि दादानीति, दादान्ति शाशपीति, शाशप्ति दाधावीति, दाधौति लालषीति, लालष्टि चाचषीति, चाचष्टि बाभ्लक्षीति, बाभ्लष्टि अचंक्षमीत् अदादयीत् अपेपायीत् अतातायीत् अवावालीत् अचाकालीत् असेषेवीत् अचान अबाभाषीत् अजेहेपीत् अचाकासीत् अजागहीत् अदादाहीत् अजागाहीत् अदोधुक्षीत् अशे शिक्षीत् अवेभिक्षीत् अदेदीक्षीत् अशेश्रायीत् अजरीहारीत् अबरीभारीत् अदरीधारीत् अचरीकारीत् द्राह गाहूङ् धुक्ष शिक्षक भिक्ष दीक्षङ् श्रिन् हन् याचुन् अयाय पचंषन् भजंन् बुधन् दांनन् शपंन् धावुन् लषन् चषन् भलक्षन अपापाचीत्, अपापचीत् अबाभाजीत्, अबाभजीत् अबोबोधीत् अदादानीत् अशाशापीत्, अशाशपीत् अदाधावीत् अलालापीत , अलालषीत् अचाचापीत्, अचाचषीत् अबाभ्लक्षीत् Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५५१ धातु तिबादि धादि द्युतङ् रुच शुभ सम्भङ् भ्रंशङ् स्रसुङ् ध्वंसुङ् स्यन्दूङ् वृधुङ् कुच पलूं षद्लू बुध वमु भ्रमु क्षर चल शल देद्युतीति, देद्योत्ति रोरुचीति, रोरोक्ति शोशुभीति, शोशोब्धि सास्रम्भीति, सासम्ब्धि बनीभ्रंशीति, बनीभ्रंष्टि सनीस्र सीति, सनीस्र स्ति दनीध्वंसीति, दनीध्वंस्ति सास्यन्दीति, सास्यन्ति वरीवृधीति, वरीवधि चोकुचीति, चोकोक्ति पनीपतीति, पनीपत्ति सासदीति, सासत्ति बोबुधीति, बोबोद्धि वंवमीति, वंवन्ति बम्भ्रमीति, बम्भ्रन्ति चाक्षरीति, चाक्षति चाचलीति, चाचल्ति शाशलीति, शाशल्ति चोक्रुशीति, चोक्रोष्टि चनीकसीति, चनीकस्ति यायजीति, यायष्टि वावपीति, वावप्ति वावहीति, वावोढि वावदीति, वावत्ति वावसीति, वावस्ति पाप्रथीति, पाप्रत्ति चाक्रन्दीति, चाक्रन्ति लालगीति, लालक्ति तास्थगीति, तास्थक्ति मामदीति, मामत्ति पाप्सेति, पाप्साति बाभेति, बाभाति यायेति, यायाति अदेद्योतीत् अरो अशोशोभीत असास्रम्भीत् अबनीभ्रंशीत असनीस्रसीत् अदनीध्वंसीत् असास्यन्दीत् अवरीवर्धीत् अचोकोचीत् अपनीपातीत्, अपनीपतीत् असासादीत्, असासदीत् अबोबोधीत् अवंवमीत् अबम्भ्रमीत् अचाक्षारीत् अचाचालीत् अशाशालीत् अचोक्रोशीत् अचनीकासीत्, अचनीकसीत् अयायाजीत, अयायजीत अवावापीत्. अवावपीत् अवावहीत् अवावादीत् अवावासीत्, अवावसीत् अपाप्राथीत्, अपाप्रथीत् अचाक्रन्दीत् अलालागीत्, अलालगीत् अतास्थागीत्, अतास्थगीत् अमामादीत्, अमामदीत् अपाप्सासीत् अबाभासीत् अयायासीत् कस यजंन् वपन् वहंन् वद वसं प्रथषङ् ऋदि लगे ष्ठगे मदी प्सांक भांक यांक Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ वाक्यरचना बोध धातु द्रांक रांक दांपक ख्यांक मांक कुंक् णुक क्ष्णुक स्नुक क्ष कुंक रुदृक् श्वसक् जक्षक वचंक् मृजूक तिबादि दाद्रेति, दाद्राति रारेति, राराति दादेति, दादाति चाख्येति, चाख्याति मामेति, मामाति सोषवीति, सोषोति तोतवीति, तोतोति नोनवीति, नोनोति चोक्ष्णवीति, चोक्ष्णोति सोस्नवीति, सोस्नोति चोक्षवीति, चोक्षोति चोकवीति, चोकोति रोरुदीति, रोरोत्ति शाश्वसीति, शाश्वस्ति जाजक्षीति, जाजष्टि वावची ति, वावक्ति मरीमजीति, मरीमार्जीति वेविदीति, वेवेत्ति जेघ्नयीति, जेघ्नेति वावशीति, वावष्टि शेशयीति, शेशेति जोह नवीति, जोह नोति सोषवीति, सोषोति परीपूचीति, परीक्ति वावसीति, वावस्ति चाख्येति, चाख्याति ऊ)नवीति, ऊर्णोनोति तोष्टवीति, तोष्टोति वावचीति, वावक्ति देद्विषीति, देद्वेष्टि दोदुहीति, दोदोग्धि देदिहीति, देदेग्धि लेलिहीति, लेलेढि जोहवीति, जोहोति द्यादि अदाद्रासीत् अरारासीत् अदादासीत् अचाख्यासीत् अमामासीत् असोषावीत् अतोतावीत् अनोनावीत् अचोक्षणावीत् असोस्नावीत् अचोक्षावीत् अचोकावीत् अरोरोदीत् अशाश्वासीत्, अशाश्वसीत् अजाजक्षीत् अवावाचीत्, अवावचीत् अमरीमार्जीत् अवेवेदीत् अजेघ्नायीत् अवावाशीत्, अवावशीत् अशेशायीत् अजोह नावीत् असोपावीत् अपरीपर्चीत अवावासीत्, अवावसीत् अचाख्यासीत् और्णोनावीत्, और्णोनुवीत् अतोप्टावीत् अवावाचीत्, अवावचीत् अदेद्वेषीत् अदोदोहीत् अदेदेहीत् विदक हनंक वशक शीक हनुङ्क षक पृचीङ्क् वसिक् चक्षक ऊर्गुन्क ष्टुन्क् बॅन्क् द्विषंन्क् दुहंन्क् दिहंन्क लिहंन्क अलेलेहीत् हुंक अजोहवीत् Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ धातु हांक पक ऋक धांन्क् णिजक् विज़क विष दिवुच् दोंच व्रीडच् नृतीच कुथच् गुधच व्यधंच क्षिपंच तिमच् तीमच तिबादि जहेति, जहाति परीपरीति, परीपति अरियरीति, अरियति दाधेति, दाधाति नेनिजीति, नेनेक्ति वेविजीति, वेवेक्ति वेविषीति, वेवेष्टि देदिवीति, देद्योति दादेति, दादाति वेव्रीडीति, वेत्रीट्टि नरीनृतीति, नरीनत्ति चोकोत्ति, चोकुथीति जोगोद्धि, जोगुधीति वेवेद्धि, वेविधीति चेक्षेप्ति, चेक्षिपीति तेतेन्ति, तेतिमीति तेतीमीति, तेतीन्ति तेष्टिमीति, तेष्टेन्ति तेष्टीमीति, तेष्टीन्ति सेषिवीति, सेष्योति तेष्ठिवीति, तेष्ठ्योति तात्रसीति, तात्रस्ति सासहीति, सासोढि पोपोष्टि, पोपुषीति लोलुटीति, लोलोट्टि सेष्वेत्ति, सेष्विदीति चेक्लेत्ति, चेक्लिदीति शोशोद्धि, शोशुधीति चोक्रोद्धि, चोक्रुधीति जरीद्धि, जरीगधीति तरीत्रप्ति, तरीप्ति दरीद्रप्ति, दरीदप्ति चोकोप्ति, चोकुपीति लोलोब्धि, लोलुभीति धादि अजहासीत् अपरीपारीत् आरियारीत् अदाधात् अनेनेजीत् अवेवेजीत् अवेवेषीत् अदेदेवीत् अदादात् अवेव्रीडीत् अनरीनर्तीत् अचोकोथीत् अजो अवेवेधीत् अचेक्षेपीत् अतेतेमीत् अतेतीमीत् अतेष्टेमीत् अतेष्टीमीत् असेषेवीत् अतेष्ठेवीत् अतानासीत्, अतात्रसीत असासहीत् अपोपोषीत् अलोलोटीत् असेष्वेदीत् अचेक्लेदीत् अशोशोधीत् अचोक्रुधीत् अजरीग/त् अतरीतीत् अदरीदीत् अचोकोपीत् अलोलोभीत् ष्टिमच् ष्टीमच षिवुच ष्ठिवुच् त्रसीच षहच पुषंच् लुटच् ष्विदांच क्लिदूच् शुधंच क्रुधंच् गृधूच तृपूच दृपूच कुपच लुभच् Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध धातु क्षभच णशूच भृशुच कृशच श्लिषंच प्लुषच तृषच् तुष हृषच रुषंच 1,ែរ यसुच तमुच् क्षमूच क्लमुच मदीच द्रुहूच् तिबादि चोक्षुभीति, चोक्षोब्धि नानशीति, नानंष्टि । बरीष्टि, बरीभृशीति चरीकष्टि, चरीकृशीति शेश्लेष्टि, शेश्लिषीति पोप्लोष्टि, पोप्लुषीति तरीष्टि, तरीतृषीति तोतोष्टि, तोतुषीति जरीहष्टि, जरीहृषीति रोरोष्टि, रोरुषीति यायसीति, यायस्ति तंतमीति, तंतन्ति चंक्षमीति, चंक्षन्ति चंकलमीति, चंक्लन्ति मामदीति, मामत्ति दोद्रुहीति, दोद्रोढि सेष्णेति, सेष्णेग्धि शंश्रमीति, शंश्रन्ति बम्भ्रमीति, बम्भ्रन्ति वरीष्टि, बरीभृशीति वाभ्रंशीति, बाभ्रंष्टि लोलोप्ति, लोलुपीति सोपवीति, सोषोति दोदवीति, दोदोति देदयीति, देदेति डेडयीति, डेडेति पेपयीति, पेपेति पेप्रयीति, पेप्रेति योयुजीति, योयोक्ति सरीस्रष्टि, सरीसृजीति पनीपदीति, पनीपत्ति वेविदीति, वेवेत्ति चेखेत्ति, चेखिदीति योयोद्धि, योयुधीति ष्णिहूच धादि अचोक्षोभीत् अनानाशीत्, अनानशीत् अबरीभीत् अचरीकीत् अशेश्लेषीत् अपोप्लोषीत् अतरीतर्षीत् अतोतोषीत् अजरीहर्षीत् अरोरोषीत् अयायासीत्, अयायसीत् अतंतमीत् अचंक्षमीत् अचंकलमीत् अमामादीत्, अमामदीत् अदोद्रोहीत् असेष्णेहीत् अशंश्रमीत् अबम्भ्रमीत् अवरीभीत् अबाभ्रंशीत् अलोलोपीत् असोषावीत् अदोदावीत् अदेदायीत् अडेडायीत् अपेपायीत् अपेप्रायीत् अयोयोजीत् असरीसर्जीत् अपनीपादीत्, अपनीपदीत् अवेवेदीत् अचेखेदीत् अयोयोधीत् श्रमुच भ्रमुच् भृशु भ्रंशुच् लुपच दीच् डीच् पीच् प्रीच् युजंङ्च् सृजच् पदंच् विदंच् खिदंङ्च् युधंच् Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ५५५ धातु मनच दीपीच् तपंच् पूरीङ्च् क्लिशच काशच वाशंच् शपंन्च मृषन्च ‘णहंन्च धुंन्त् घिन्त मिन्त् धून्त् स्तूंन्त् वृन्त् हित् तिबादि मंमनीति, ममन्ति देदीपीति, देदीप्ति तातपीति, तातप्ति पोपूरीति, पोपूर्ति चेक्लिशीति, चेक्लेष्टि चाकाशीति, चाकाष्टि वावाशीति, वावाष्टि शाशपीति, शाशप्ति मरीमष्टि, मरीमृषीति नानहीति, नानद्धि सोषवीति, सोषोति सेषयीति, सेषेति मेमयीति, मेमेति दोधवीति, दोधोति तरीस्तरीति, तरीस्तति वरीवरीति, वरीवति जेघयोति, जेधेति परीपरीति, परीपति शाशकीति, शाशक्ति राराधीति, राराद्धि सासाधीति, सासाद्धि तरीतृपीति, तरीप्ति दादम्भीति, दादम्ब्धि देधिन्वीति, देधिनोति तेष्टेग्धि, तेष्टिधीति आशीति, आष्टि तोतोत्ति, तोतुदीति बरीभृज्जीति, बरीभृष्टि चेक्षेप्ति, चेक्षिपीति देदेष्टि, देदिशीति चरीकृषीति, चरीक्रष्टि मोमोक्ति, मोमुचीति सेषिचीति, सेषेक्ति वेविदीति, वेवेत्ति धादि अमंमानीत्, अममनीत् अदेदीपीत् अतातापीत् , अतातपीत् अपोपूरीत् अचेक्लेशीत् अचाकाशीत् अवावाशीत् अशाशापीत्, अशाशपीत् अमरीमर्षीत् अनानहीत् असोषावीत् असेषायीत् अमेमायीत् अदोधावीत् अतरीस्तारीत् अवरीवारीत् अजेघायीत् अपरीपारीत् अशाशाकीत्, अशाशकीत् अराराधीत् असासाधीत् अतरीतीत् अदादम्भीत् अदेधिन्वीत् अतेष्टेधीत् आशीत् अतोतोदीत् अबरीभृज्जीत् अचेक्षेपीत् अदेदेशीत् अचरीकर्षीत् अमोमोचीत् असेषेचीत् अवेवेदीत् शक्लंत् राधंत् साधंत् तृपत् दम्भुत् धिवित् ष्टिधित् अशूङ्त् तुदंन्ज् भ्रस्जंन्ज् क्षिपन्ज् दिशंन्ज् कृषंन्ज् मुचलूंन्ज् षिचंन्ज् विदर्लुन्ज् Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ वाक्यरचना बोध धातु लुप्लुन्ज् लिपंन्ज कृती मुंज कज् लिखज् व्रश्चूज् सृजंज् मस्जों घुणज् णुदंज् विधज् छुपंज् गुफज गुम्फज् शुभज् शुम्भज् स्फलज् स्पृशंज् तिबादि लोलुपीति, लोलोप्ति लेलेप्ति, लेलिपीति चरीकर्ति, चरीकृतीति मरीमरीति, मरीमति चाकरीति, चाकति जागलीति, जागल्ति लेलेक्ति, लेलेखीति वरीवश्चीति, वरीवष्टि सरीस्रष्टि, सरीसृजीति मामज्जीति, मामङ्क्ति जोधुणीति, जोघोण्टि नोनोत्ति, नोनुदीति वेवेद्धि, वेविधीति चोच्छोप्ति, चोच्छुपीति जोगोप्ति, जोगुफीति जोगुम्फीति, जोगुम्प्ति शोशोब्धि, शोशुभीति शोशुम्भीति, शोशुम्ब्धि पास्फलीति, पास्फल्ति परीस्पृशीति, परीस्पष्टि वेवेष्टि, वेविशीति मरीमृशीति, मरीष्टि मेमेष्टि, मेमिषीति चोकोट्टि, चोकुटीति नोनवीति, नोनोति दोधवीति, दोधोति चोकुचीति, चोकोक्ति तोत्रोट्टि, तोत्रुटीति पोस्फुटीति, पोस्फोट्टि लोलोट्टि, लोलुठीति परीपरीति, परीपति लालज्जीति, लालक्ति वेविजीति, वेवेक्ति रोरुधीति, रोरोद्वि द्यादि अलोलोपीत् अलेलेपीत् अचरीकर्तीत् अमरीमारीत अचाकारीत् अजागालीत् अलेलेखीत् अवरीवृश्चीत् असरीसर्जीत् अमामज्जीत् अजोघोणीत् अनोनोदीत् अवेवेधीत् अचोच्छोपीत् अजोगोफीत अजोगुम्फीत् अशोशोभीत् अशोशुम्भीत् अपास्फालीत अपरीस्पृशीत् अवेवेशीत् अमरीमृशीत् अमेमेषीत् अचोकोटीत् अनोनावीत् अदोधावीत् अचोकोचीत् अतोत्रोटीत् अपोस्फोटीत् अलोलुठीत् अपरीपारीत् अलालज्जीत् अवेवेजीत् अरोरोधीत् विशंज् मृशंज् मिषज् कुटज् णूज् धूज् कुचज् त्रुटज् स्फुट लुठ पृङ् लस्जी विजीर् रुधृन्र् Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ धातु रिचन्र् विचन् युजन भिन् छिन् पृचीर् भञ्जोंर् भुजंर् शिष्लुंर् पिष्ळुर् हिसि तिबादि रेरेक्ति, रेरिचीति वेवेक्ति, वेविचीति योयुजीति, योयोक्ति बेभेत्ति, बेभिदीति चेच्छत्ति, चेच्छिदीति परीपृचीति, परीपक्ति बाभजीति, बाभक्ति बोभोक्ति, बोभुञ्जीति शेशेष्टि, शेशिषीति पेपेष्टि, पेपिषीति जेहिंसीति, जेहिंस्ति तरीतढि, तरीतृहीति चेखेत्ति, चेखिदीति वेविदीति, वेवेत्ति तंतनीति, तंतन्ति संसनीति, संसन्ति वंवनीति, वंवन्ति पेप्रयीति, पेप्रेति मेमयीति, मेमेति जरीगृहीति, जरीढि पोपवीति, पोपोति तास्तरीति, तास्तति लोलवीति, लोलोति चोचरीति, चोचोति धादि अरेरेचीत् अवेवेचीत् अयोयोजीत् अबेभेदीत् अचेच्छेदीत् अपरी अबाभजीत् अबोभोजीत् अशेशेषीत् अपेपेषीत् अजेहिंसीत् अतरीतीत् अचेखेदीत् अवेवेदीत् अतंतानीत्, अतंतनीत् असंसानीत्, असंसनीत् अवंवानीत्, अवंवनीत् अपेप्रायीत् अमेमायीत् अजरीगीत् अपोपावीत् अतास्तारीत् अलोलावीत् अचोचोरीत् खिदं विदं तनुन्व् षणुनव वनु प्रीन्श् मीनश् ग्रहन्श् पूनश् स्तृन्श् लून्श् चुरण Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ प्रत्ययरूपावली इस परिशिष्ट में ४०३ धातुओं के प्रत्ययों के रूप दिए गए हैं। दूसरे परिशिष्ट से पहले (पृ० २९६ से ३१६ तक) धातुओं की अकरादि अनुक्रमणिका है। उसमें इन धातुओं का क्रम तथा अर्थ दिया गया है। शतृ और क्वसु प्रत्यय परस्मैपदी धातुओं से होते हैं तथा शान और कान प्रत्यय आत्मनेपदी धातुओं से होते हैं। उपसर्ग के संयोग से परस्मैपदी धातु भी आत्मनेपदी बन जाती है इसलिए उसके शान और कान प्रत्यय के रूप भी चार्ट से आगे स्वतंत्र दिए गए हैं । उभयपदी धातुओं के शतृ और क्वसु प्रत्ययों के रूप चार्ट में तथा शान और कान प्रत्ययों के रूप चार्ट से आगे दिए गए हैं। क्वसु और कान प्रत्ययों के कृ, भू और अस् धातु के संयोग से तीन-तीन रूप बनते हैं। इन तीन रूपों में से कोई एक रूप देकर उसके आगे ३ लिखा है । तीन रूप इस प्रकार बनेंगे—चक्रिवान्, बभूवान्, आसिवान् । आत्मनेपद में चक्राणः, बभूवानः और आसान: रूप बनता धातु क्त णक तृच् शतृ/शान क्वसु/कान तव्य अञ्चु अञ्चितः आञ्चकः अञ्चिता अञ्चन् आचिवान् अञ्चितव्यम् #. ६. 4. ३ . अञ्जूर् अक्तः अञ्जकः अङ्क्ता अन् आजिवान् अङ्कतव्यम् अञ्जिता अजितव्यम् अट अटितः आटक: अटिता अटन् आटिवान् अटितव्यम् अदं जग्धः आदकः अत्ता अदन् आदिवान् अत्तव्यम् जक्षिवान् अनितः आनकः अनिता अनन् आनिवान् अनितव्यम् अर्च अर्चितः अर्चकः अर्चिता अर्चन् आनान् अचितव्यम् अजितः अर्जकः अजिता अर्जन् आनन् िअजितव्यम् अर्ह अर्हितः अहंकः अहिता अर्हन् आनई वान् अहितव्यम् अव अवितः आवकः अविता अवन् आविवान् अवितव्यम् अशश 'आशितः आशक: अशिता अश्नन् अनाश्वान् अशितव्यम् अशूत् अष्टः आशक: अशिता अश्नुवानः आनशानः अशितव्यम् अष्टा अर्ज Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ है। क्तवतु प्रत्यय के रूप स्थानाभाव के कारण चार्ट से निकाल दिए हैं। उसके रूप के लिए क्त प्रत्यय के रूपों के आगे 'वान्' शब्द लगा दें। जैसे—गतः क्त प्रत्यय का रूप है। क्तवतु प्रत्यय का रूप होगा गतवान् । अन्तिम कोष्ठक में स्त्रीलिंग में होने वाले क्ति, ङ और अ प्रत्ययों में से जिस धातु से जो रूप बनता है वह दिया गया है । पाणिनी व्याकरण में इन प्रत्ययों की संज्ञा भिन्न है। उन-उन प्रत्ययों की संज्ञाओं को नीचे कोष्ठक में दिया जा रहा है। णक (ण्वुल) शान (शानच्) कान (कानच्) तव्य (तव्यत्) अनीय (अनीयर्) अनट् (ल्युट) तुम् (तुमन्) यप् (ल्यप) क्ति (क्तिन्) । धातु रूपादर्श, क्रियारत्नसमुच्चय और हस्तलिखित प्रतियों में भी जो रूप नहीं मिले उसके लिए • चिन्ह दिया गया है। तुम अनीय अनट अञ्चनीयम् अञ्चनम् अञ्चितुम् अञ्जनीयम् अञ्जनम् क्त्वा यप क्ति/0/अ अक्त्वा अक्तिः । अञ्चित्वा अङ्क्त्वा, अक्त्वा ० अक्तिः अजित्वा अटित्वा पर्यट्य अटितिः जग्ध्वा प्रजग्ध्य जग्धिः अटनीयम् अतुम् अजितुम् अटितुम् अत्तुम् अटनम् अदनम् अननीयम् अर्चनीयम् अर्जनीयम् अर्हणीयम् अवनीयम् अशनीयम् अशनीयम् __ अननम् अर्चनम् अर्जनम् अहणम् अवनम् अशनम् अशनम् अनितुम् अचितुम् अजितुम् अहिंतुम् अवितुम् . अशितुम् अशितुम् अनित्वा अचित्वा अजित्वा अहित्वा अवित्वा अशित्वा आशित्वा अष्ट्वा प्राण्य अनितिः । समय॑ अर्चा समयं ० ... ० अर्हा उपाव्य ऊतिः प्राश्य आशितिः समश्य आष्टिः अपान Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० धातु असक् असुच् आप्तॄंत् आप्तः आसित: आसङ्क इं इंक् इषज् ईक्ष ईडङ्क् ईह ऊहङ् ॠ ऋक् एधङ् कथण् कपिङ् कमुङ् कृतीज् कृन् कृपूङ् क्त भूतः अस्त: 1 कृषंन्ज् इतः अधीतः इष्ट: ईहितः ऊहितः ऋत: ऋतः एधितः कथितः कान्तः कस कसितः काक्षि कांक्षितः काशृङ् काशित: कुचज् कुपच् कम्पितः कामित: ईक्षित: ईक्षक: ईडित: कुचित: कुपित: कृत्तः कृत: क्लृप्तः णक भावकः आसक: कृष्ट : आपकः आसकः आयकः एता अध्यायकः अध्येता ऐषक: एषिता तृच् भविता सन् असिता अस्यन् शतृ / शान एष्टा ईक्षिता ईक्षमाणः ईडक: ईडिता ईडान: ईहक: ईहिता ईहमान: कर्षकः कोचकः कुचिता कुचन् कोपकः कोपिता कुप्यन् क्वसु / कान बभूवान् आप्ता आप्नुवन् आपिवान् आप्तव्यम् आसिता आसीनः आसाञ्चक्राण: आसितव्यम् यन् ईयिवान् एतव्यम् अधीयानः अधीयिवान् अध्येतव्यम् इच्छन् ईषिवान् एषितव्यम् एष्टव्यम् ईक्षाञ्चक्राण: ईक्षितव्यम् ईडाञ्चक्राणः ईडितव्यम् ईहाञ्चक्राण: ईहितव्यम् ऊहकः ऊहिता ऊहमानः आरक: अर्ता ऋच्छन् ऊहितव्यम् आरिवान् अर्तव्यम् आरिवान् अर्तव्यम् आरक: अर्ता ऋच्छन् एधकः एधिता एधमानः एधितव्यम् काथकः कथयिता कथयन् कथयाञ्चकृवान् ३ कथयितव्यम् कथकः कम्पकः कम्पिता कम्पमानः कामक: कमिता चकमान: कामयिता कासकः कसिता कसन् काङ्क्षकः कांक्षिता कांक्षन् काशक: काशिता काशमानः कर्त्तकः कारकः कल्पकः कल्पिता कल्पमान: कल्प्ता क कर्षन् O ० ० ० ० o o o वाक्यरचना बोध o कुपिता कत्तिता कृन्तन् कर्ता कुर्वन् चकृवान् तव्य भवितव्यम् असितव्यम् चुकुच्वान् कुचितव्यम् O कोपितव्यम् कम्पितव्यम् मितव्यम् कामयितव्यम् कसितव्यम् कांक्षितव्यम् काशितव्यम् चकृत्वान् कर्त्तितव्यम् कर्तव्यम् कल्पितव्यम् कल्पतव्यम् चकृष्वान् कर्ष्टव्यम् Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . "परिशिष्ट ४ अनट एम अनीय 'भवनीयम् असनीयम् भवनम् भवितुम् असितुम् यप् अनुभूय प्रास्य तिङ/म भूतिः अस्तिः असनम् क्त्वा भूत्वा अस्त्वा असित्वा आप्त्वा आसित्वा इत्वा आपनीयम् आपनम् आसनीयम् आसनम् अयनीयम् अयनम् । अध्ययनीयम् अध्ययनम् एषणीयम् एषणम् आप्तुम् आसितुम् एतुम् अध्येतुम् एषितुम् एष्टम् ईक्षितुम् ईडितुम् प्राप्य आप्तिः उपास्य ० समेत्य इतिः अधीत्य अधीतिः समिष्य इष्टिः ईहितुम् ईक्षणीयम् __ ईक्षणम् ईडनीयम् ईडनम् ईहनीयम् ईहनम् ऊहनीयम् ऊहनम् अरणीयम् अरणम् अरणीयम् अरणम् एधनीयम् एधनम् कथनीयम् कथनम् इष्टवा एषित्वा ईक्षित्वा ईडित्वा ईहित्वा ऊहित्वा ऋत्वा ऋत्वा एधित्वा कथयित्वा ऊहितुम् अर्तुम् अर्तुम् एधितुम् समीक्ष्य ईक्षा समीड्य ईडा समीह्य ईहा समूह्य ऊहा समृत्य ऋतिः समृत्य ऋतिः समेध्य एधा संकथ्य कथा है . . . . . . . . . . . . . . . . . कम्पनीयम् कमनीयम् कम्पनम् कमनम् कसनीयम् कसनम् कांक्षणीयम् कांक्षणम् काशनीयम् काशनम् कुचनीयम् कुचनम् कोपनीयम् कोपनम् कम्पितुम् कम्पयित्वा प्रकम्प्य कम्पितिः कमितुम् कामयित्वा सङ्काम्य कान्तिः कामयितुम् कमित्वा, कान्त्वा कसितुम् कसित्वा विकस्य . कांक्षित्वा आकांक्ष्य कांक्षा काशितुम् काशित्वा प्रकाश्य कुचितुम् कुचित्वा सङ्कुच्य ० कोपितुम् ___कोपित्वा संकुप्य कुपित्वा कत्तितुम् कत्तित्वा प्रकृत्य कृत्तिः कर्तुम् . कृत्वा प्रकृत्य कल्पित्वा प्रकल्प्य कल्पतुम् क्लृप्त्वा कष्टुम्, ऋष्टुम् कृष्ट्वा प्रकृष्य कृष्टिः कर्तनीयम् करणीयम् कल्पनीयम् कर्त्तनम् करणम् कल्पनम् कृतिः कल्पितुम् कर्षणीयम् कर्षणम् Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ धातु क.ज् कृतण् ऋदि क्रमु क्रीडू क्रींन्श् क्रुधंच् क्रुशं क्लमुच् क्लिशश् क्वण् क्षमूच् क्षलण् क्षि क्षिपन्ज् क्षुद ंन्र् क्षुधंच् क्षुभच् खनुन् खादृ ख्यांक् गणण् गद गम्लं क्त कीर्ण: कीर्त्तितः कीर्त्तकः ऋन्दितः क्रन्दकः क्रान्तः क्रामक: क्रुद्धः क्रुष्टः क्लान्तः क्लिष्ट : क्रमक: क्रीडितः क्रीडक: क्रीतः क्वणित : क्षमित: णक o क्षुण्णः खादितः ख्यातः क्रामन् क्रीडिता क्रीडन् क्रायकः क्रेता क्रोधक: क्रोद्धा क्रोशकः क्रोष्ट : क्लान्तकः क्लमिता क्लन्तकः क्लेशक : क्लेशिता क्लेष्टा क्वाणकः क्वणिता क्षामक: तृच् करिता करीता कीर्त्तयिता कीर्त्तयन् क्रन्दिता क्रन्दन् O क्रमिता क्राम्यन् शतृ / शान किरन् गणित: गदितः गादक: गतः गामक: गणक: क्षान्त: क्षालितः क्षालक: क्षालयिता क्षालयन् क्षीण: क्षायकः क्षेता क्षयन् क्षिप्त: क्षेपक: क्षेप्ता क्षिपन् क्षोदकः क्षोत्ता क्षुन्दत् क्षुद्धः क्षोधकः क्षोद्धा क्षुध्यन् क्षुब्ध:, क्षुभितः क्षोभकः क्षोभिता क्षुभ्नत् खात: खनकः खनिता खनन् खानकः खादक: खादिता खादन् ख्यायकः ख्याता ख्यन् क्लामन् क्लिशन् तव्य क्वसु / कान चिकीर्वान् करितव्यम् क्वणन् क्षमिता क्षाम्यन् क्षंता o o क्रीणन् चिक्रीवान् क्रेतव्यम् कोद्धव्यम् कोष्टव्यम् चक्रन्वान् क्रमितव्यम् क्रुध्यन् क्रोशन् क्लाम्यन् चक्लन्वान् क्लमितव्यम् o o O ० चक्षन्वान् ० ० O वाक्यरचना बोधः ० O करीतव्यम् कीर्त्तयितव्यम् क्रन्दितव्यम् ० क्रीडितव्यम् O क्षतव्यम् क्षोद्धव्यम् क्षोभितव्यम् चखन्वान् खनितव्यम् क्लेशितव्यम् क्लेष्टव्यम् क्वणितव्यम् क्षमितव्यम् क्षंतव्यम् क्षालयितव्यम् क्षेतव्यम् क्षेप्तव्यम् खादितव्यम् आचक्शिवान् ख्यातव्यम् आचख्यवान् गणयिता गणयन् गणयांचकृवान् गणयितव्यम् गदिता गदन् गेदिवान् गदितव्यम् गन्ता गच्छन् जग्मिवान् गन्तव्यम् जगन्वान् Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ५६३. अनीय करणीयम् अनट् करणम् कीर्तनीयम् क्रन्दनीयम् क्रमणीयम् कीर्तनम्। क्रन्दनम् क्रमणम क्रीडनीयम् क्रयणीयम् क्रोधनीयम् क्रोशनीयम् क्लमनीयम् क्रीडनम् क्रयणम् क्रोधनम् क्रोशनम् क्लमनम् क्लेशनीयम् क्लेशनम् तुम् पत्वा यप् क्ति/ङ/म करितुम् करित्वा प्रकीर्य कीणिः करीत्वा कीर्तयितुम् कीर्तयित्वा . कीत्तिः कन्दितुम् क्रन्दित्वा आक्रन्द्य क्रन्दितिः क्रमितुम् क्रमित्वा संक्रम्य क्रान्तिः क्रान्त्वा क्रीडितुम् क्रीडित्वा संक्रीड्य क्रीडा केतुम् क्रीत्वा विक्रीय क्रीतिः क्रोद्धम् क्रुद्ध्वा संक्रुध्य क्रुद्धिः क्रोष्टुम् क्रुष्ट्वा आक्रुश्य क्रुष्टि: क्लमितुम् क्लान्त्वा परिक्लम्य क्लान्ति क्लमित्वा क्लेशितुम् क्लेशित्वा संक्लिश्य क्लिष्टि: क्लिष्ट्वा क्वणितुम् क्वणित्वा प्रक्वण्य . क्षमितुम् क्षमित्वा संक्षम्य क्षान्तिः क्षान्त्वा क्षालयितुम् क्षालयित्वा प्रक्षाल्य । क्षित्वा प्रक्षीय क्षेप्तुम् क्षिप्त्वा प्रक्षिप्य क्षिप्तिः क्षोत्तुम् क्षुत्त्वा संक्षुद्य क्षुद्दिः क्षोद्धम् क्षुधित्वा संक्षुध्य क्षुद्धिः क्षोभितुम् क्षुभित्वा संक्षुभ्य क्षुब्धिः खात्वा प्रखन्य खातिः खनित्वा खादितुम् खादित्वा संखाद्य ख्यातुम् ख्यात्वा संख्याय ख्यातिः क्लेष्टुम् क्वणनीयम् क्षमणीयम् क्वणनम् क्षमणम् क्षतुम् क्षेतुम् क्षालणीयम् क्षालणम् क्षयणीयम् क्षयणम् क्षेपणीयम् क्षेपणम् क्षोदनीयम् क्षोदनम् क्षोधनीयम् क्षोधनम् क्षोभणीयम् क्षोभनम् खननीयम् ___खननम् खनितुम् खादनीयम् ख्यानीयम् खादनम ख्यानम गणनीयम् । गणनम् गणयितुम् गणयित्वा विगणय्य गणना विगण्य गदित्वा अनुगद्य ० गत्वा आगत्य गतिः गदनीयम् गमनीयम् गदनम गमनम् गदितुम् गन्तुम् Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ धातु गर्ज गर्हङ् गल गवेषण गाहूङ् गुजि गुपङ् गुपू गुम्फज् गुहून् गज् गैं ग्रन्थश् ग्रसुङ् ग्रहन्श्· ग्लैं घटषङ् घूर्ण ज् घृषु घ्रां चकासृक् क्त गर्जित: गर्हितः गलित: गवेषितः गाढः गूढः गीर्णः गीत: ग्रथितः गर्जक: गर्हक: गर्हिता गमाणः ० गालक: गलिता o गलन् गवेषक: गवेषयिता गवेषयन् गवेषयाञ्च गवेषयितव्यम् कृवान् गाहक: गाहिता गाहमान: गाहितव्यम् गाढा गुञ्जितव्यम् जुगुप्सितव्यम् o गुञ्जितः गुञ्जकः गुञ्जिता गुञ्जन् जुगुप्सितः जुगुप्सक : जुगुप्सिता जुगुप्समानः गोपायितः गोपायकः गोपायिता गोपायन् गोपायञ्च - गोपायितव्यम् गोपकः गोपिता कृवान् गोपितव्यम् गोप्ता गुप्तः गोप्तव्यम् गुम्फितः गुम्फक: गुम्फिता गुम्फन् गुम्फितव्यम् ग्रस्त: गृहीतः ग्लान: घटितः णक घूर्णित: घृष्टः गूहकः गारकः तृच् गर्जिता गायक: ग्रन्थकः गरिता गरीता गूहिता गूहन् गोढा शतृ / शान क्वसु / कान गर्जन् ग्रासक: ग्राहकः ग्रहीता ग्लायकः ग्लाता घटक : घटिता घाटक: घूर्णकः घूर्णिता घर्षक: घर्षिता o o ० घूर्णन् घर्षन् गूहितव्यम् गोढव्यम् गिरन् जिगीर्वान् गरितव्यम् ० गाता गायन् जगिवान् गातव्यम् ग्रन्थिता ग्रन्थनन् ग्रेथिवान् ग्रन्थितव्यम् ग्रथिता जग्रथ्वान् ग्रसिता वाक्यरचना बोध ग्रसमानः ० ग्रसितव्यम् गृह्णन् जगृह्वान् ग्रहीतव्यम् ग्लायन् o ग्लातव्यम् घटमान: जघटानः घटितव्यम् ० तथ्य गर्जितव्यम् गर्हितव्यम् गलितव्यम् o घ्रातः, घ्राणः घ्रायकः घ्राता जिन् चकासितः चकासकः चकासिता चकासन् चकासां चकृवान् o घूर्णितव्यम् घर्षितव्यम् घ्रातव्यम् चकासितव्यम् Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ अनीय अनट गर्जनीयम् गर्जनम् गर्हणीयम् गर्हणम् गर्हितुम् गलितुम् गवेषयितुम् तुम् गर्जितुम् गुम्फनीयम् गूहनीयम् गूहनम् गरणीयम् गरणम् गानीयम् गानम् ग्रन्थनीयम् ग्रन्थनम् गुम्फनम् गूहितुम् गोढुम् गरि तुम् गरीतुम् गातुम् ग्रन्थि तुम् गलनीयम् गलनम् गवेषणीयम् गवेषणम् गाहनीयम् गाहनम् गाहितुम् गाहित्वा अवगाह्य गाढुम् गाढ्वा गुञ्जित्वा संगुञ्ज्य गुञ्जा गुञ्जनीयम् गुञ्जनम् गुञ्जितुम् जुगुप्सनीयम् जुगुप्सनम् जुगुप्सितुम् जुगुप्सित्वा संजुगुप्स्य जुगुप्सा गोपायनीयम् गोपायनम् गोपायितुम् गोपायित्वा संगोपाय्य गोपनीयम् गोपनम् गोपितुम् गोपाया गोपित्वा संय गुप्तिः गोप्तुम् गुम्फितुम् ग्रथनम् ग्रसनीयम् ग्रसनम् ग्रसितुम् ग्रहणीयम् ग्रहणम् ग्रहीतुम् ग्लानीयम् ग्लानम् ग्लातुम् घनीयम् घटनम् घटितुम् क्त्वा गर्जित्वा घूर्णनीयम् घूर्णनम् घूर्णितुम् घर्षणीयम् घर्षणम् घर्षितुम् यप् गर्हित्वा ० गलित्वा निगल्य गवेषयित्वा संगवेष्य संग गुत्वा गुम्फित्वा संगुफ्य गुफित्वा गोहित्वा संगुह्य उद्गीर्य घटित्वा गूढ़वा गरित्वा गरीत्वा गीत्वा ग्रन्थित्वा ग्रथित्वा ग्रसित्वा, ग्रस्त्वा संग्रस्य गृहीत्वा ग्लात्वा घूर्णित्वा घर्षित्वा प्रगाय संग्रथ्य क्ति / ङ / अ गर्जना गर्हणा संघ संघ ५६५ घृष्ट्वा धातुम् घ्रात्वा घ्राणीयम् घ्राणम् चकासनीयम् चकासनम् चकासितुम् चकासित्वा सञ्चकास्य ० गवेषणा गाढः गुफा गूढ: गीणिः गीतिः ग्रन्थना संगृह्य संग्लाय संघट्य घटा ग्रस्ति: गृहीतिः ग्लानिः घूर्णा घृष्टि: आघ्राय घ्रातिः o Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध धातु चक्षङ्क SH णक तृच शतृ/शान क्वसु/कान तव्य ख्यातः ख्यायकः ख्याता चक्षाणः . ख्यातव्यम् चान्तः चमक: चमिता चमन् चेमिवान् चमितव्यम् चामक: चामन चरितः चारक: चरिता चरन् चेरिवान् चरितव्यम् चवितः चर्वकः चविता चर्वन् ० चवितव्यम् चर चव चर्वति चल चलितः चालकः चलिता चलन् चेलिवान् चलितव्यम् चित: चायक: चेता चिन्वन् चिचिवान् चेतव्यम् चिन्त् चिकिवान चितिण् चिती चुदण् चुबि चिन्तितः चिन्तकः चिन्तयिता चिन्तयन् ० चिन्तयितव्यम् चित्तः चेतकः चेतिता चेतन् . चेतितव्यम् चोदितः चोदक: चोदयिता चोदयन् . चोदयितव्यम् चुम्बितः चुम्बकः चुम्बिता चुम्बयन् ० चुम्बितव्यम् चुम्बयितव्यम् चोरितः चोरकः चोरयिता चोरयन् चोरयां- चोरयितव्यम् चुरण ཟླ ཟླ ༔ ༔ སྔ ལ་ ཙྪཱ ཡྻ ཝཱ ཙྪཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཧྥཐཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཟླ་ ༣ ཐལ ཙྪཱ ཟླ चक चेष्ट छदण् छिदन् जनीच् जप जल्प जागृक चेष्टितः चेष्टकः चेष्टिता चेष्टमानः ० चेष्टितव्यम् छादितः छादक: छादयिता छदन् ० छादयितव्यम् छन्नः छदिता छदितव्यम् छिन्नः छेदक: छेत्ता छिन्दन् चिच्छिद्वान् छेत्तव्यम् जातः जनकः जनिता जायमान: जज्ञिवान् जनितव्यम् जपितः, जप्तः जापकः जपिता जपन् जेपिवान् जपितव्यम् जल्पितः जल्पकः जल्पिता जल्पन् ० जल्पितव्यम् जागरितः जागरकः जागरिता जाग्रन् जजागर्वान् जागरितव्यम् जितः . जेता जयन् जिगिवान् जेतव्यम् जीवितः जीवकः जीविता जीवन जिजीवान् जीवितव्यम् जृम्भितः जृम्भकः जृम्भिता जृम्भमाणः ० जृम्भितव्यम् जीर्णः जारकः जारयिता जारयन् जिजीर्वान् जरीतव्यम् जारितः जरीता जरितव्यम् जरिता जारयितव्यम् ज्ञात: ज्ञायक: ज्ञाता जानन् जज्ञिवान् ज्ञातव्यम् ज्ञप्त: ज्ञपकः ज्ञपयिता ज्ञापयन् ० ज्ञपयितव्यम् जीव जुभिङ् जश ज्ञांश ज्ञाण Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनीय स्यानीयम् चमनीयम् अनट ख्यानम् चमनम् ५६७ यप् क्ति// संख्याय ख्यातिः आचम्य चान्तिः ख्यातुम् चमितुम् क्त्वा ख्यात्वा चमित्वा चान्त्वा. चरित्वा चर्वयित्वा चरणीयम् चर्वणीयम् चरणम् चर्वणम् चरितुम् चर्वितुम् चर्वयितुम् आचर्य संचय॑ चूतिः चर्वा चलनम् चलनीयम् चयनीयम् चलित्वा चित्वा प्रचल्य संचित्य चितिः चयनम् चेतुम् चिन्तनीयम् चेतनीयम् चोदना चोदनीयम् चुम्बनीयम् चोरणीयम् चेष्टनीयम् छादनीयम् चेष्टनम् छेदनीयम् जननीयम् जपनीयम् जल्पनीयम् जागरणीयम् जयनीयम् जीवनीयम् जृम्भणीयम् जारणीयम् जरणीयम् चिन्तनम्। चिन्तयितुम् चिन्तयित्वा संचिन्त्य चिंता चेतनम् चेतितुम् चेतित्वा संचिन्त्य चित्तिः चोदनम् चोदयितुम् चोदयित्वा संचोद्य चुम्बनम् चुम्बितुम् चुम्बयित्वा संचुब्य चुम्बा चुम्बयितुम् चुम्बित्वा चोरणम् चोरयितुम् चोरयित्वा संचोर्य चेष्टितुम् चेष्टित्वा सञ्चेष्ट्य चेष्टा छदनम् छादयितुम् छादयित्वा संछाद्य फत्तिः छादनम् छदितुम् छदित्वा संछद्य छेदनम् छेत्तुम् छित्त्वा संछिद्य । छित्तिः जननम् जनितुम् जनित्वा संजाय जातिः जपनम् जपितुम् जपित्वा,जप्त्वा प्रजप्य जप्तिः जल्पनम् जल्पितम जल्पित्वा संजल्प्य जल्पा जागरणम् जागरितुम् जागरित्वा प्रजागर्य जागर्या जयनम् जेतुम् जित्वा विजित्य जितिः जीवनम् जीवितुम् जीवित्वा संजीव्य ० जृम्भनम् जृम्भितुम् जृम्भित्वा संजृम्भ्य जृम्भा जारणम् जारयितुन् जरीत्वा सञ्जार्य जारणा जरणम् जरीतुम् जारयित्वा सञ्जीर्य जीतिः जरितुम् जरित्वा ज्ञानम् ज्ञातुम् ज्ञात्वा विज्ञाय ज्ञातिः जपनम् ज्ञपयितुम् ज्ञपयित्वा संज्ञप्य ज्ञप्तिः ज्ञानीयम् ज्ञपनीयम् Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ वाक्यरचना बोध धातु ज्यांश ज्वर ज्वल टकिण डीङ ढोकृङ् णट णद णम णशूच क्त णक तृच शत्र/शान क्वसु/कान तव्य जीन: ज्यायक: ज्याता जिनन् जिजीवान् ज्यातव्यम् ज्वरितः ज्वारक: ज्वरिता ज्वरन् ० ज्वरितव्यम् ज्वलितः ज्वालक: ज्वलिता ज्वलन् जज्वल्वान् ज्वलितव्यम् टङ्कितः टङ्कक: टङ्किता टङ्कयन् ० टङ्कयितव्यम् डयितः, डीनः डायक: डयिता डयमानः ० डयितव्यम् ढौकितः ढौकक: ढौकिता ढौकमानः ० ढौकितव्यम् नटितः नाटकः नटिता नटन् नेटिवान् नटितव्यम् नदितः नादक: नदिता नदन् नेदिवान् नदितव्यम् नतः नामक: नन्ता नमन् नेमिवान् नन्तव्यम् नष्ट: नाशक: नशिता नश्यन् नेशिवान् नशितव्यम् नंष्टा नंष्टव्यम् नङ्ग्धा नग्धव्यम् नद्धः नाहकः नद्धा नह यन् नेहिवान् नद्धव्यम् निक्तः नेजकः नेक्ता नेनिजन् ० नेक्तव्यम् निन्दितः निन्दक: निन्दिता निन्दन् ० निन्दितव्यम् नीतः नायकः नेता नयन् । नेतव्यम् नुतः नावकः नविता नुवन् नुनुवान् नवितव्यम् नोता नोतव्यम् नुन्नः, नुत्तः नोदक: नोत्ता नुदन् नुनुद्वान् नोत्तव्यम् नूतः नौकः नुविता नुवन् नुनूवान् नुवितव्यम् तंसितः तंसकः तंसिता तंसन् . तंसितव्यम् तष्ट: तक्षकः तक्षिता तक्षन् ० तक्षितव्यम् णहंन्च णिजक णिदि णीन् णुक णुदंज् शूज् तसि 4 तनुन्व तपं तत: तानकः तनिता तन्वन् तेनिवान् तनितव्यम् तप्तः तापकः तप्ता तपन् तेपिवान् तप्तव्यम् तान्तः . तमकः तमिता ताम्यन् । तमितव्यम् तमुच् तर्कण् तर्जङ् तकितः तर्जितः तर्कक: तर्कयिता तर्कयन् ० तर्कयितव्यम् तर्जकः तर्जयिता तर्जयन् ० तर्जितव्यम् तजिता तर्जयितव्यम् तेजक: तेजयिता तेजयन् ० तेजयितव्यम् तोदकः तोत्ता तुदन् तुतुद्वान् तोत्तव्यम् तिजङ् तुदंन्ज् तेजितः तुन्नः Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ५६९ ज्वरा अनीय ज्यानीयम् ज्वरणीयम् ज्वलनीयम् टङ्कनीयम् डयनीयम् ढोकनीयम् नटनीयम् नदनीयम् नमनीयम् अनट ज्यानम् ज्वरणम् ज्वलनम् टङ्कनम् डयनम् । ढोकनर नटनम् नदनम् नमनम नशनम् तुम् क्त्वा यप् ति// ज्यातुम् जीत्वा संज्याय ज्यानिः ज्वरितुम् ज्वरित्वा संज्वर्य ज्वलितुम् ज्वलित्वा प्रज्वल्य टङ्कयितुम् टङ्कयित्वा उट्टङ्क्य टङ्का डयितुम् डयित्वा संडीय ढौकितुम् ढौकित्वा संढौक्य ढोका नटितुम् नटित्वा सन्नट्य नदितुम् नदित्वा सन्नद्य नन्तुम् नत्वा प्रणम्य नतिः नशितुम् नशित्वा विनश्य नग्धिः नंष्टम् न (नं)ष्ट्वा नष्टि : नग्ध्वा नद्धम् नद्ध्वा सन्नहय नद्धिः निक्त्वा नेक्त्तुम् विनिज्य निक्तिः निन्दितुम् निन्दित्वा सन्निद्य निन्दा नीत्वा आनीय नीतिः नवितुम् नवित्वा सन्नत्य नशनीयम् नङ्ग्धुम् नहनीयम् नहनम् । नेजनीयम् नेजनम निन्दनीयम् निन्दनम् नयनीयम् नयनम् नवनीयम् नवनम् MM I II III नेतुम् नुत्वा नोतुम् नोत्तुम् नोदनीयम् नुवनीयम् तंसनीयम् तक्षणीयम् नोदनम् नुवनम् तंसनम् तक्षणम् तननीयम् तपनीयम् तमनीयम् तननम तपनम् तमनम नुत्त्वा प्रणुद्य नुत्तिः नुवितुम् नुवित्वा प्रणूय नूतिः तंसितुम् तंसित्वा अवतंस्य तंसा तक्षितुम् तक्षित्वा संतक्ष्य तष्टिः तष्ट्वा तनितुम् तनित्वा, तत्वा वितत्य ततिः तप्तुम् तप्त्वा संतप्य तप्तिः तमितुम् तमित्वा संतम्य तान्तिः ) तान्त्वा तर्कयितुम् तर्कयित्वा संतय॑ । तर्कणा तर्जयितुम् तर्जयित्वा संतय॑ । तर्जना, ती तजितुम् तजित्वा । तेजयितुम् तेजयित्वा संतेज्य तेजना तोत्तुम् तुत्वा संतुद्य तुत्ति: तर्कणीयम् तर्जणीयम् तर्कणम् तर्जनम् तेजनीयम् तोदनीयम् तेजनम् तोदनम् Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० वाक्यरचना बोध धातु तुषंच तृपूच् तुष्टः तृप्तः णक तृच् शतृ/शान क्वसु/कान तव्य तोषक: तोष्टा तुष्यन् ० तोष्टव्यम् तर्पकः तर्पिता तृप्यन् ततृप्वान् तर्पितव्यम् तप्र्ता, त्रप्ता तप्तव्यम् त्रप्तव्यम् तारक: तरिता तरन् तितीर्वान् तरितव्यम् - तीर्णः त्यजं त्रपूषङ् त्यक्तः त्याजक: त्यक्ता त्यजन् तत्यज्वान् त्यक्तव्यम् त्रप्तः त्रापक: त्रपिता त्रपमाणः ० त्रपितव्यम् त्रप्ता त्रप्तव्यम् त्रस्तः त्रासकः त्रसिता त्रसन् त्रेसिवान् त्रसितव्यम् त्रसीच तत्रस्वान त्रुटज् त्रैङ् त्वरषङ् दंश दण्डण दमुच त्रुटितः त्रोटक: त्रुटिता त्रुटन् तुत्रुट्वान् त्रुटितव्यम् त्रातः, त्राण: त्रायक: त्राता त्रायमाणः तत्राण: त्रातव्यम् त्वरितः, तूर्णः त्वारक: त्वरिता त्वरमाणः तत्वराणः त्वरितव्यम् दष्ट: दशक: दंष्टा दशन् ० दंष्टव्यम् दण्डितः दण्डकः दण्डयिता दण्डयन् । दण्डयितव्यम् दान्तः दमक: दमिता दाम्यन् देमिवान् दमितव्यम् दम्भुत् दब्ध: दम्भकः दम्भिता दभ्न्वन् देभिवान् दम्भितव्यम् दहं दयङ् दयितः दायकः दयिता दयमानः ० दयितव्यम् दल दलितः दालकः दलिता दलन् दलितव्यम् दग्धः दाहकः दग्धा दहन् देहिवान् दग्धव्यम् दानं दत्तः दायकः दाता ददत् ददिवान् दातव्यम् दिवच् द्यूतः, द्यूनः देवकः देविता दीव्यन् दिदिवान् देवितव्यम् दिशंन्ज् दिष्टः देशकः देष्टा दिशन् दिदिश्वान् देष्टव्यम् दिग्धः देहकः देग्धा दिहन् दिदिह वान् देग्धव्यम् दीक्षङ् दीक्षितः दीक्षकः दीक्षिता दीक्षमाणः ० दीक्षितव्यम् 'दीपीच् दीप्तः दीपकः दीपिता दीप्यमानः दिदीपानः दीपितव्यम् दुत् दून: दावकः दविता दुन्वन् दुदुवान् दवितव्यम् दोता दोतव्यम् दुषंच् दुष्ट: दोषक: दोष्टा दुष्यन् दुदुष्वान् दोष्टव्यम् दिहंन्क् Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनीय अनट् तोषणीयम् तोषणम् तर्पणीयम् तर्पणम् तरणीयम् तरणम् त्यजनीयम् त्यजनम् पणीयम् त्रपणम् सनीयम् त्रसन म् त्रुटनम् त्रुटनीयम् त्राणीयम् त्राणम् तुम् तोष्टुम् तर्पितुम् त्रप्तुम्, तर्तुम् तर्पित्वा तरितुम् तरी तुम् त्यक्तुम् त्रपितुम् त्रप्तुम् त्रसितुम् त्रुटितुम् त्रातुम् त्वरितुम् क्त्वा यप् तुष्ट्वा संतुष्य त्रप्त्वा तृप्त्वा प्रतृप्य त्वरणीयम् त्वरणम् दशनीयम् दंशनम् दष्टुम् दण्डनीयम् दण्डनम् दण्डयितुम् दमनीयम् दमनम् दमितुम् दम्भनीयम् दम्भनम् दम्भितुम् दयितुम् दयनीयम् दयनम् दलनीयम् दहनीयम् दहनम् दलनम् दलितुम् दग्धुम् दानीयम् दानम् दातुम् देवनीयम् देवनम् देवितुम् देशनीयम् देशनम् देष्टुम् देहनीयम् देहम् देग्धुम् दीक्षणीयम् दीक्षणम् दीक्षितुम् दीपनीयम् दीपनम् दीपितुम् दवनीयम् दवनम् दवितुम् दोतुम् दोषणीयम् दोषणम् दोष्टुम् तीव त्यक्त्वा त्रपित्वा त्रप्त्वा सित्वा त्रुटित्वा त्रात्वा त्वरित्वा दष्ट्वा दण्डयित्वा संत्रस् उत्तीर्य परित्यज्य त्यक्तिः संत्रप्य त्रपा संत्रुट्य परित्राय संत्र्य संदश्य दुत्वा दुष्ट्वा दण्ड्य दान्त्वा दमित्वा दम्भित्वा संदभ्य संदम्य दब्ध्वा दयित्वा दलित्वा दग्ध्वा दत्त्वा देवित्वा द्यूत्वा दिव्य दिष्ट्वा उपदिश्य दिग्ध्वा संदय्य संदल्य संदह्य आदाय दीक्षित्वा संदीक्ष्य दीपित्वा दवित्वा ५७१ क्ति / ङ / अ तुष्टि: तृप्ति: सन्दुष्य ० त्रस्ति: त्रुटि: त्रातिः त्वरा दष्टि: दण्डना दान्ति: दब्धि: दया द्यूति: दिष्टिः उपदिय दिग्धिः दीक्षा संदीप्य दीप्ति: सन्दूय o दग्धिः दत्तिः o दुष्टि: Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % TEKEE TEE ५७२ धातु दुहंन्क् दूच् दृङ्ज् दृश ं द्युतङ् द्विषंन्क् धांन्क् धावुन् धूज् धून्त् धूप ཨྰཿ སྨཱ སྠཽ ཐ ཝཱ ཨྰཿ ཀྐཱ་ ध्वंसुङ् क्त नृतीच् दुग्धः दून: दृतः दृष्टः दित: द्योतित: द्विष्ट : हित: धावित: धूतः धूतः o द्योतकः दुग्ध:, दूढः द्रोहक : धूपायितः धूपितः धृतः धात: ध्मातः ध्यातः ध्वनितः ध्वस्तः णक तृच् दोहक: दोग्धा ० पत्लृ पतितः दारक: दर्शक: द्वेषक: धायक: धावक : धौक: धावक : शतृ / शान दुहन् - दविता दूयमानः दर्ता द्रियमाणः द्रष्टा पश्यन् धूपायक: धूपकः धारक: धायक: ध्मायकः ध्यायकः ध्वानकः ध्वंसकः दाता द्यन् द्योतिता द्योतमानः द्रोग्धा द्रुह्यन् द्रोढा द्रोहिता द्वेष्टा द्विषन् धाता दधत् धाविता धावन् धुविता धुवन् धविता धुन्वन् धोता क्वसु / कान तव्य दुदुह्वान् दोग्धव्यम् दुदुवानः दवितव्यम् दद्राण: दर्तव्यम् ददृशिवान् द्रष्टव्यम् ददृश्वान् ददिवान् दातव्यम् दिद्युतान: द्योतितव्यम् द्रोढव्यम् द्रोहितव्यम् द्रोग्धव्यम् द्वेष्टव्यम् ० दधिवान् ० दुधवान् ० O दधृवान् O धवितव्यम् धूपायिता धूपायन् दुधूप्वान् धूपायनीयम् धूपिता धूपयन् धूपनीयम् धर्ता धरन् धर्त्तव्यम् धाता धयन् धातव्यम् ध्माता धमन् ध्मातव्यम् ध्याता ध्यायन् दध्यिवान् ध्यातव्यम् ध्वनिता ध्वनन् ध्वनितव्यम् ध्वंसितव्यम् ध्वंसिता ध्वंसमानः दध्वसानः o o नन्दितः नृत्तः पचंषन् पक्व: पठ पठित: पणङ् पणायितः पणायकः पणायिता पणायन् पणित: पाणक: पणिता पातक: पतिता पतन् पेतिवान् वाक्यरचना बोक नन्दकः नर्त्तकः पाचक: पक्ता पचन् पेचिवान् पाठक: पठिता पठन् पेठिवान् o नन्दिता नन्दन् नन्दितव्यम् नर्त्तिता नृत्यन् ननृत्वान् नर्त्तितव्यम् ० धातव्यम् धावितव्यम् धुवितव्यम् धोतव्यम् पक्तव्यम् पठितव्यम् पणायितव्यम् पणितव्यम् पतितव्यम् Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनीय दोहनीयम् दूनीयम् अनट् दानीम् द्योतनीयम् द्रोणीयम् दोहम् दूनम् दरणीयम् दरणम् दर्शनीयम् दर्शनम् दानम् द्योतनम् द्रोणम् द्वेषणीयम् द्वेषणम् धानीयम् धानम् धावनीयम् धावनम् धुवनीयम् धवनीयम् धुवनम् धवनम् तुम् दोग्धुम् दवितुम् दर्तुम् द्रष्टुम् धूपायनम् दातुम् द्योतितुम् द्रोहितुम् द्रोग्धुम् नन्दनम् नन्दतुम् नन्दनीयम् नर्त्तनीयम् नर्त्तनम् नर्त्ततुम् पचनीयम् पचनम् पक्तुम् पठनीयम् पठनम् पणायनीयम् पणायनम् पणनीयम् पणयनम् पतनीयम् पतनम् क्त्वा द्वेष्टुम् द्विष्ट्वा प्रद्विष्य धातुम् हित्वा विधाय धावितुम् धावित्वा धुवितुम् धवितुम् धोतुम् धूपायितुम् धूपायनीयम् धूपनीयम् धूपनम् धूपितुम् धरणीयम् धरणम् धर्त्तुम् धृत्वा धानीयम् धानम् धातुम् धित्वा ध्मातुम् धमात्वा ध्मानीयम् ध्मानम् ध्यानीयम् ध्यानम् ध्यातुम् ध्यात्वा ध्वननीयम् ध्वननम् ध्वनितुम् ध्वनित्वा ध्वंसनीयम् ध्वंसनम् ध्वंसितुम् ध्वंसित्वा दुग्ध्वा दूत्वा दृत्वा दृष्ट्वा पणितुम् पतितुम् यप् दित्वा संदाय द्योतित्वा विद्युत्य दुग्ध्वा द्रढ्वा सन्द्र्ह्य द्रु (द्रो) हित्वा ० सन्दु संदू ध्वस्त्वा नन्दित्वा नतित्वा आदृत्य दृश्य पणित्वा पतित्वा प्रधाव्य विधूय धूत्वा धवित्वा सन्धूय धूत्वा ० आधृत्य सन्धाय आध्माय संध्याय सन्ध्वन्य प्रध्वस्य सन्नद्य प्रनृत्य संपच्य ५७३ क्ति / ङ / अ दुग्धिः दूति: सम्पण्य निपत्य आदृतिः दृष्टि: दिति: द्युतिः दुग्ध: द्रूढि द्विष्टि: हितिः धौति: ० धूति: धूपाया पक्त्वा पठितुम् पठित्वा संपठ्य पठितिः पणायितुम् पणायित्वा संपणाय्य पणाया धृतिः धिति: ध्माति: ध्यातिः ध्वनि : ध्वस्ति: नन्दा नृत्ति: पक्तिः ० ० Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ धातु पदंच् पलण् पां पांक् पिष्लूंर् पीच् पीड पुषश् पुषंच् पुष्पच् पून्श् पूङ् पूजण् पूरण् पूरीच् पंक् प्रथषङ् प्रीश् प्रीच् प्लुंङ् प्लुषु ગ फुल्ल बन्धंश् पन्नः पालितः पीत: पातः पिष्ट: पीत: पीडित: पुष्टः पुष्टः पुष्पितः पृचीर् प. श् प्यायीङ् प्यानः प्रच्छंज् पृष्ट: प्रथित: पूतः पूतः, पवितः पूजित: पूर्णः पूरित: पूर्णः, पूर्त्तः पूर्त्तः, पृतः पृक्तः पूर्त: प्रीतः प्रीतः प्लवित: प्लुष्टः फुल्लित: बद्धः बाधित: बाधृङ् बुधंच् बुद्धः ब्रून्क् उक्तः णक तृच् पत्ता पालयिता पालयन् पादक: पालक: पायक: पाता पायक: पाता पेषक : पेष्टा पेता पान् पिंषन् पीयमानः o पीडकः पीडयिता पीडयन् पोषकः पोषिता पुष्णन् पोषक: पोष्टा पुष्यन् पुष्पिता पुष्प्यन् पविता पुनन् पविता पावकः पावकः पूजकः पूरक: o पूरकः पारकः O ० प्यायकः प्रच्छक: प्राथक: O o शतृ / शान क्वसु / कान पद्यमान: पेदान: o पिबन् पपिवान् प्रेता प्लावक: प्लविता प्लोषक: प्लोषिता पातव्यम् पातव्यम् पिपिष्वान् पेष्टव्यम् पिप्यान : पेतव्यम् ० पूजयिता पूजयन् पूरयिता पूरयन् पूरिता पूर्यमाण: परि (री) ता पिपुरन् पर्त्ता पिप्रन् पचिता पृचन् परि (री) ता पृणन् प्यायिता व्यायमानः फुल्लक: फुल्लिता फुल्लन् बन्धकः बन्द्धा बध्नन् बाधक : बाधिता बाधमानः बोधक: बोद्धा बुध्यमानः वाचक: वक्ता ब्रुवन् पुपुष्वान् पीडयितव्यम् पोषितव्यम् पोष्टव्यम् पुष्पितव्यम् पवितव्यतम् पवितव्यम् पूजयितव्यम् पूरयितव्यम् पुपूराणः पूरितव्यम् पपृवान् परि (री) तव्यम् पर्त्तव्यम् प्लवमाणः प्लोषन् О o पुपुवान् पवमान : ० o ० ० o पपृवान् o वाक्यरचना बोध प्रष्टा पृच्छन् पपृच्छ्वान् प्रष्टव्यम् प्रथिता प्रथमानः पप्रथानः प्रथितव्यम् प्रेता प्रीणन् पिप्रीवान् प्रेतव्यम् प्रीयमाणः पिप्रियाणः प्रेतव्यम् ० तव्य पत्तव्यम् पालयितव्यम् ० o पचितव्यम् परि ( री) तव्यम् प्यायितव्यम् प्लवितव्यम् प्लोषितव्यम् फुल्लितव्यम् बेधिवान् बन्धव्यम् धितव्यम् बुबुधान: बोद्धव्यम् ऊचिवान् वक्तव्यम् Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ * पानम् MMITTEET T संपूय पूजा अनीय अनट तुम क्त्वा या क्ति/ङ/अ पदनीयम् पदनम् पत्तुम् पत्त्वा विपद्य पत्तिः पालनीयम् पालनम् पालयितुम् पालयित्वा सम्पाल्य पालना पानीयम् पातुम् पीत्वा आपाय पीतिः पानीयम् पानम् पातुम् पीत्वा . आपाय पातिः पेषणीयम् पेषणम् पेष्टुम् पिष्ट्वा संपिष्य पिष्टि: पयनीयम् पयनम् पेतुम् पीत्वा निपीय पीडनीयम् पीडनम् पीडयितुम् पीडयित्वा संपीड्य पीडा पोषणीयम् पोषणम् पोषितुम् पोषित्वा संपुष्य पुष्टिः पोषणीयम् पोषणम्पोष्टुम् पुष्ट्वा संपुष्य पुष्टि : पुष्पणीयम् पुष्पणम् पुष्पितुम् पुष्पित्वा संपुष्प्य पुष्पा पवनीयम् पवनम् पवितुम् पूत्वा पूतिः पवनीयम् पवनम् पवितुम् पवित्वा, पूत्वा सम्पूय पूतिः पूजनीयम् पूजनम् पूजयितुम् पूजयित्वा संपूज्य पूरणीयम् पूरणम् पूरयितुम् पूरयित्वा संपूर्य पूरणा पूरणीयम् पूरणम् पूरितुम् पूरित्वा संपूर्य परणीयम् परणम् परि (री)तुम् पीर्वा, पृत्वा आपूर्य पूत्तिः पर्तुम् आपृत्य पृत्तिः पर्चनीयम् पर्चनम् पचितुम् पचित्वा सम्पृच्य पृक्तिः परणीयम् परणम् परि (री) तुम् पूर्वा प्रपूर्य पूर्तिः प्यायनीयम् प्यायनम् प्यायितुम् प्यायित्वा संप्याय्य प्यातिः प्रच्छनीयम् प्रच्छनम् संपृच्छ्य पृष्टिः प्रथनीयम् प्रथनम प्रथित्वा सम्प्रथ्य प्रथा प्रयणीम् प्रयणम् प्रेतुम् प्रीत्वा सम्प्रीय प्रयणीयम् प्रयणम् प्रेतुम् प्रीत्वा सम्प्रीय प्रीतिः प्लवनीयम् प्लवनम् प्लवितुम् प्लवित्वा संप्लव्य प्लोषणीयम् प्लोषणम् प्लोषितुम् प्लोषित्वा संप्लुष्य प्लुष्टिः प्लुष्ट्वा फुल्लनीयम् फुल्लनम् फुल्लितुम् फुल्लित्वा सम्फुल्ल्य फुल्लिः बन्धनीयम् बन्धनम् बन्धुम् बद्ध्वा संबध्य बद्धिः बाधनीयम् वाधनम् बाधितुम् बाधित्वा अपबाध्य बाधा बोधनीयम् वोधनम् बोद्धम् बुद्ध्वा संबुध्य बुद्धिः वचनीयम् वचनम् वक्तुम् उक्त्वा प्रोच्य उक्तिः 編佛·御典們也無無無無物。則輪輪, पूतिः प्रष्टुम् पृष्ट्वा प्रीतिः MIT 而我 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ वाक्यरचना बोध धात क्त अक्षण भक्षितः भजन भक्तः भजोंर् भग्नः णक तृच शतृ/शान क्वसु कान तव्य भक्षक: भक्षयिता भक्षयन् भक्षक: भयिता भATI ० भक्षयितव्यम् भाजकः भक्ता भजन भेजिवान् भक्तव्यम् भञ्जक: भङ्क्ता भञ्जन् बभज्वान् भङ्क्तव्यम् भण भांक् भाष भासृङ् भिक्षङ् भिदन् भीक भीतः भुजंर् भू भृन् भणितः भाणक: भणिता भणन् बभण्वान् भणितव्यम् भातः भायकः भाता भान् भातव्यम् भाषितः भाषक: भाषिता भाषमाणः ० भाषितव्यम् भासितः भासकः भासिता भासमानः ० भासितव्यम् भिक्षितः भिक्षकः भिक्षिता भिक्षमाणः . भिक्षितव्यम भिन्नः भेदकः भेत्ता भिन्दन् बिभिद्वान् भेत्तव्यम् भायक: भेता बिभ्यन् बिभयांचकृवान् भेतव्यम् बिभीवान् भुक्तः भोजक: भोक्ता भुजन् । बुभुज्वान् भोक्तव्यम् भूतः भावकः भविता भवन बभूवान् भवितव्यम् भूषितः भूषक: भूषिता भूषन् __० भूषितव्यम् भृतः भारकः भर्ता भरन् भर्त्तव्यम् भृतः भारक: भर्ता बिभ्रत् बभृवान् भर्त्तव्यम् बिभराञ्चकृवान् भ्रान्तः भ्रमकः भ्रमिता भ्रमन् बभ्रन्वान् भ्रमितव्यम् भ्रेमिवान् भ्रामितः भ्रमक: भ्रमिता भ्राम्यन् बभ्रन्वान् भ्रमितव्यम् भ्रमिवान् भर्जितः भर्जक: भजिता भृज्जन् बभृज्जवान् भर्जितव्यम् भृष्टः भृज्जकः भ्रष्टा बभृज्वान् भ्रष्टव्यम् मत्तः मादकः मदिता माद्यन्० मदितव्यम् मतः मानक: मन्ता मन्यमानः मेनानः मन्तव्यम् मानकः मनिता मन्वान: मेनानः मनितव्यम् भंक भ्रमु भ्रम भ्रस्जंन्ज् मदीच मनंच् मनुव मतः मन्त्रङ्ग मन्त्रितः मन्त्रकः मन्त्रयिता मन्त्र्यमाणः ० मन्त्रयितव्यम् मन्थश् मथितः मन्थकः मन्थिता मथ्नन् मेथिवान् मन्थितव्यम् मस्जों मह मग्नः महितः मज्जकः मङ्क्ता मज्जन् ममज्ज्वान् मङ्क्तव्यम् माहक: महिता महन् महितव्यम् Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M परिशिष्ट ४ ५७७ तुम् यप रित// भक्षणा भक्तिः भक्तिः अनीय अनट क्त्वा भक्षणीयम् भक्षणम् भक्षयितुम् भक्षयित्वा संभक्ष्य भजनीयम भजनम् भक्तुम् भक्त्वा विभज्य भञ्जनीयम् भञ्जनम् भङ्क्तुम् भक्त्वा प्रभज्य भङ्क्त्वा भणनीयम् भणनम् भणितुम् भणित्वा . भानीयम भानम भातुम् भात्वा बिभाय भाषणीयम् भाषणम् भाषितुम् भाषित्वा संभाष्य भासनीयम् भासनम् भासितुम् भासित्वा संभास्य भेदनीयम् भेदनम् भित्त्वा संभिद्य भिक्षणीयम् भिक्षणम् भिक्षितुम् भिक्षित्वा संभिक्ष्य भयनीयम भयनम भीत्वा संभीय भणितिः भातिः भाषा भासा ITT भिक्षा भीतिः भोजनीयम् भवनीयम् भूषणीयम् भरणीयम् भरणीयम् भोजनम् भोक्तुम् भुक्त्वा भवनम् भवितुम् भूत्वा भूषणम् भूषितुम् भूषित्वा भरणम् भर्तुम् भृत्वा भरणम् भर्तुम् भृत्वा संभुज्य संभूय सम्भूष्य संभृत्य संभृत्य . भुक्तिः भूतिः भूषणा भृतिः भृतिः भ्रमणीयम् भ्रमणम् भ्रमितुम् भ्रमित्वा विभ्रम्य भ्रान्तिः भ्रमणीयम् भ्रमणम् भ्रमितुम् भ्रमित्वा संभ्रम्य भ्रान्तिः भृष्टिः मतिः मतिः भर्जनीयम् भर्जनम् भर्जितुम् भर्जित्वा आभयं भ्रज्जनीयम् भ्रज्जनम् भ्रष्टुम् भृष्ट्वा आभृज्य मदनीयम् मदनम् मदितुम् मदित्वा प्रमद्य मननीयम् मननम् मन्तुम् मत्वा संमत्य मननीयम् मननम् मनितुम् मत्वा अवमत्य मनित्वा मन्त्रणीयम् मन्त्रयितुम् मन्त्रयित्वा आमन्त्र्य मन्थनीयम् मन्थनम् मथितुम् मन्थित्वा संमथ्य मथित्वा मज्जनीयम् मज्जनम् मङ्क्तुम् मङ्क्त्वा सम्मज्य महनीयम् महनम् महितुम् महित्वा सम्म ह य मन्त्रणम् मन्त्रणा मन्था माढिः Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ वाक्यरचना बोध ०० मिन्त् मिल FREE FREE FREE धातु णक तृच् शतृ/शान क्वसु/कान तव्य मांक मितः मायकः माता मान् ममिवान् मातव्यम् माङ्क मितः मायक: माता मिमान : ममानः मातव्यम् मानण् मानितः मानक: मानयिता मानयन् मानयितव्यम् मानिता मानन् मानितव्यम् मार्ग मागितः मार्गक: मार्गयिता मार्गयन् मार्गयितव्यम् मागिता मार्गन् मागितव्यम् मितः मायकः माता मिन्वन् मिमिवान् मातव्यम् मिलितः मेलक: मेलिता मिलन् मेलितव्यम् मिश्रण मिश्रितः मिश्रकः मिश्रयिता मिश्रयन् । मिश्रयितव्यम् मिहं मीढः मेहक: मेढा मेहन् ० मेढव्यम् मीन्श् मीतः ० माता मीनन् मिमीवान् मातव्यम् मील मीलितः मीलक: मीलिता मीलन् । मीलितव्यम् मुलंन्ज मुक्तः मोचकः मोक्ता मुञ्चन् मुमुच्वान् मोक्तव्यम् मुदङ् मुदितः मोदक: मोदिता मोदमानः मुमुदानः मोदितव्यम् मुर्छा मूतः मूर्च्छकः मूच्छिता मूर्छन् । मूच्छितव्यम् मुषश् मुषितः मोषक: मोषिता मुष्णन् मुमुष्वान् मोषितव्यम् मुहूच् मुग्धः, मूढः मोहकः मोग्धा मुह्यन् मुमुह्वान् । मोहितव्यम् मोढा मोग्धव्यम् मोहिता मोढव्यम् मुंज् मृतः मारकः मर्त्ता म्रियमाणः ममृवान् मर्तव्यम् मृगङ्ग् मृगितः मृगकः मृगयिता मृगयमाणः मृगयांचक्राणः ३ मृगयितव्यम् मृतक मृष्टः मार्जक: माष्र्टा मार्जन् ० माष्टव्यम् मार्जिता मृजन् मार्जितव्यम् म्रष्टव्यम् मृषन्च् मर्षितः मर्षक: मर्षिता मृष्यन् ममृष्वान् मर्षितव्यम् मोक्षण म्नां मोक्षितः मोक्षक: मोक्षयिता मोक्षयन् । मोक्षयितव्यम् मोक्षिता मोक्षन् मोक्षितव्यम् म्नातः म्नायकः म्नाता मनन् म्नातव्यम् इष्ट: याजक: यष्टा यजन् ईजिवान् यष्टव्यम यातक: यतिता यतमान : ० यजंन् यतीङ् यत्तः यतितव्यम् Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ५७६ क्ति/0/ मेलनम् मेहनम अनीय अनट् . तुम् क्त्वा यप् मानीयम् मानम् .. मातुम् मित्वा प्रमाय मितिः मानीयम् मानम् मातुम् मित्वा उपमीय मितिः माननीयम् माननम् मानयितुम् मानयित्वा सम्मान्य मानना मानितुम् मानित्वा मार्गणीयम् मार्गणम् मार्गयितुम् मार्गयित्वा सम्माऱ्या मार्गणा मागितुम् मार्गित्वा मानीयम मानम मातुम् मित्वा सम्माय मितिः मेलनीयम् मेलितुम् मिलित्वा , संमिल्य मिश्रणीयम् मिश्रणम् मिश्रयितुम् मिश्रयित्वा सम्मिथ्य . मिश्रणा मेहनीयम् मेढुम् ० ० मीढिः मानीयम् मानम मातुम् मीत्वा प्रमाय . मीलनीयम् मीलनम् मीलयितुम् मीलित्वा सम्मील्य मीला मोचनीयम् मोचनम् मोक्तुम् । मुक्त्वा विमुच्य मुक्तिः मोदनीयम् मोदनम् मोदितुम् मुदित्वा प्रमुद्य मूर्च्छनीयम् मूर्छनम् मूच्छितुम् मूच्छित्वा सम्मू मूतिः मोषणीयम् मोषणम् मोषितुम् मुषित्वा प्रमुष्य मुष्टिः मोहनीयम् मोहनम् मोग्धुम् मुग्ध्वा संमुह्य मुग्धिः मोढुम् मूवा मोहितुम् मोहित्वा मरणीयम् मरणम् मर्तुम् मृत्वा प्रमृत्य मृतिः मृगणीयम् मृगणम् मृगयितुम् मृगयित्वा सम्मृग्य मृगणा मार्जनीयम् मार्जनम् माष्टुम् मृष्ट्वा प्रमायं मृजा भ्रष्टुम् मार्जित्वा माजितुम् मर्षणीयम् मर्षणम् मर्षितुम् मृषित्वा परिमृश्य मृष्टिः मषित्वा मोक्षणीयम् मोक्षणम् मोक्षयितुम् मोक्षयित्वा सम्मोक्ष्य मोक्षणा मोक्षितुम् मोक्षित्वा म्नानीयम् म्नातुम् म्नात्वा सम्नाय . म्नातिः यजनीयम् यजनम् यष्टुम् इष्ट्वा समिज्य इष्टि: यतनीयम् यतनम् यतितुम् यतित्वा आयत्य यत्तिः मूढिः Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० वाक्यरचना बोध धात यमुं. यतः णक तृच शतृशमन श्वसु कान तव्य 'यामक: यन्ता यच्छन् येमिवान् यन्तव्यम् यमक: यस्तः ___ . यसिता यस्यन्; यसन् . यसितव्यम् यसुच युंन्श् युतः यांक यातः यायकः याता यान् ययिवान् । यातव्यम याचुन् याचितः याचकः याचिता याचन् ० याचितव्यम् युतः ० यविता युवन् युयुवान् यवितव्यम् युक् ० यविता युवन् युयुवान् यवितव्यम् युजंच् युक्तः योजकः योक्ता युज्यमानः युयुजानः योक्तव्यम् युज न्र् युक्तः योजकः योक्ता युजन् युयुज्वान् योक्तव्यम् युधंच् युद्धः योधकः योद्धा युध्यमानः युयुधानः योद्धव्यम् रक्ष रक्षितः रक्षक: रक्षिता रक्षन् रक्षितव्यम् रचण् रचितः रचकः रचयिता रचयन् रचयांञ्चकृवान् ३ रचयितव्यम् रजेन्च रक्तः रञ्जकः रङ्क्ता रज्यन् रेजिवान् रङ्क्तव्यम् रभंङ् रम रस रसण राजन् रब्धः रतः रसितः रसितः राजितः राभक: रब्धा रभमाण: रेभाणः रामकः रन्ता रममाणः रेमाणः रासकः रसिता रसन् रसकरसयिता रसयन् . राजकः राजिता राजन् रराज्वान् रब्धव्यम् रन्तव्यम् रसितव्यम् रसयितव्यम् राजितव्यम् रुचङ् राधंत्. राद्धः राधकः राधा राध्नुवन् रराध्वान् राद्धव्यम् रिचूंन्र् रिक्तः रेचक: रेक्ता रिञ्चन्. रिरिच्वान् रेक्तव्यम् रुतः रावकः रविता रवन् रुरुवान् रवितव्यम् रोता रोतव्यम् रुचितः रोचकः रोचिता रोचमान: रुरुचानः । रोचितव्यम् रुजण् रुग्णः रोजकः रोक्ता रुजन् रोक्तव्यम् रुजों रुग्णः रोजक: रोक्ता रुजन् . . रोक्तव्यम् रुदितः रोदकः रोदिता रुदन् रुरुद्वान् रोदितव्यम् रुधृन् रुद्धः रोधकः रोद्धा रुन्धन् रुरुध्वान् रोद्धव्यम् रूढः रोहक: रोढा रोहन् रुरुह्वान् रोढव्यम् लक्षण लक्षितः लक्षक: लक्षयिता लक्षयन् ० : लक्ष यितव्यम् रुदृक Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनीय यमनीयम् यसनीयम् अनट् यमनम् "तुम् क्त्वा व्यत्वा यमित्वा यसनम् सितुम् यसित्वा यन्तुम् यस्त्वा यानीमम् यानम् यातुम् यात्वा याचितुम् याचित्वा रचनीयम् रचनम् रञ्जनीयम् रञ्जनम् याचनीयम् याचनम् यवनीयम् यवनम् यवितुम् यवनीयम् यवनम् यवितुम् योजनीयम् योजनम् योक्तुम् योजनीयम् योजनम् योक्तुम् योधनीयम् योधनम् योद्धुम् रक्षणीयम् रक्षणम् रम्भणीयम् रम्भणम् रब्धुम् रमणीयम् रमणम् रन्तुम् रसनीयम् रसनम् रसितुम् रसनीयम् रसनम् रसयितुम् रसयित्वा राजनीयम् राजनम् राजितम् राजित्वा T यप् संयम्य रोहणीयम् रोहणम् रोढुम् रूढ्वा लक्षणीयम् लक्षणम् लक्षयितुम् लक्षयित्वा प्रयस्य प्रयाय प्रयाच्य संयुत्य संयुत् नियुज्य प्रयुज्य प्रयुध्य संरक्ष्य युत्वा युत्वा युक्त्वा युक्त्वा युद्ध्वा रक्षितुम् रक्षित्वा रचयितुम् रचयित्वा रंङ्क्तुम् रक्त्वा रङ्क्त्वा रब्ध्वा आरभ्य रब्धिः रत्वा, रमित्वा विरम्य, विरत्य रतिः रसित्वा संरस्य रसना संरस्य रसना विराज्य राजा विरचय्य विरज्य राधनीयम् राधनम् राद्धम् राद्ध्वा रेचनीयम् रेचनम् रेक्तुम् रिक्त्वा रवणीयम् रवणम् रवितुम् रुत्वा तुम् रोचनीयम् रोचनम् रोचितुम् रो (रु) चित्वा संरुच्य संरुज्य रोजनीयम् रोजनम् रोजनीयम् रोजनम् रोदनीयम् रोदनम् रोदितुम् रु (रो) दित्वा प्ररुद्य रोक्तुम् रुक्त्वा रोक्तुम् रुक्त्वा संरुज्य रोधनीयम् रोधनम् रोद्धुम् रुध्वा विरुध्य आराध्य अतिरिच्य आरुत्य आरुह्य संलक्ष्य ति/ङ/अ यतिः यस्ति: ५८१ यातिः याञ्चा युति: युतिः युक्तिः युक्तिः युद्धिः रक्षा रचना रक्तिः राद्धिः रिक्ति: रुतिः रुक्तिः रुजा रुजा रुत्तिः रुद्धिः रूढिः लक्षणा Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ वाक्यरचना बोध धातु क्त णक तृच शतृ/शान क्वसु/कान तव्य लघिङ् लङ्घितः लङ्घकः लङ्घिता लङ्घमानः ० लवितव्यम् लप लपितः लापकः लपिता लपन् । लपितव्यम् लबिङ् लम्बितः लम्बकः लम्बिता लम्बमान : ० लम्बितव्यम् लभष लब्धः लाभक: लब्धा लभमानः लेभानः लब्धव्यम् लषन् लषितः लाषक: लषिता लषन् लषितव्यम् लस लसितः लासक: लसिता लसन् ० लसितव्यम् लस्जीङ् लग्नः . लज्जिता लज्जमानः लज्जितव्यम् लिख लिखितः लेखकः लेखिता लिखन् लिलिख्वान् लेखितव्यम् लिपंन्ज् लिहंन्क् लिप्तः लेपक: लिप्ता लिम्पन लिलिप्वान् लेप्तव्यम् लीढः लेहकः लेढा लिहन लिलिह्वान् लेढव्यम् लीन: ० लेता, लाता लीयमान: लिल्यानः लातव्यम् लेतव्यम् लुठितः लोठक: लुठिता लुठन् लुलुठ्वान् लुठितव्यम् लुप्तः लोपक: लोपिता लुप्यन् लुलुप्वानू लोपितव्यम् लुठ लुपच लुभच् AAAAATHA लुप्लँनज् लुप्तः लोपक: लोप्ता लुम्पन लुलुप्वान् लोप्तव्यम् लुब्धः लोभकः लोब्धा लुभ्यन् लुलुभ्वान् लोब्धव्यम् लोभिता लोभितव्यम् लुभज् लुब्धः लोभकः लोब्धा लुभ्यन् लुलुभ्वान् लोब्धव्यम् लोभिता लोभितव्यम् लून्श् लुनः लावक: लविता लुनन् लुलूवान् लवितव्यम् लोकृङ् लोकितः लोकक: लोकिता लोकमानः लुलोकानः लोकितव्यम् लोङ लोचितः लोचक: लोचिता लोचमानः लुलोचानः लोचितव्यम् वचंक उक्तः वाचकः वक्ता वचन् ऊचिवान् वक्तव्यम् वचण् वाचितः वाचक: वाचयिता वाचयन् . वाचयितव्यम् वञ्चङ्ग् वञ्चित: वञ्चक: वञ्चयिता वञ्चयमानः ० वञ्चयितव्यम् वद उदितः वादक: वदिता वदन् ऊदिवान् वदितव्यम् बदिङ वन्दितः वन्दक: वन्दिता वन्दमानः ववन्दानः वन्दितव्यम् उप्तः वापक: वप्ता वपन् ऊपिवान् वप्तव्यम् वर्णण् वर्णितः वर्णकः वर्णयिता वर्णयन् ० वर्णयितव्यम् वशक् उशितः वाशकः वशिता उशन् ऊशिवान् वशितव्यम् वपन् Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ क्त्वा अनीय अन ट् तुम् लङ्घनीयम् लङ्घनम् लङ्घितुम् लङ्घित्वा लपनीयम् लपनम् पितुम् लपित्वा लम्बनीयम् लम्बनम् लम्बितुम् लम्बित्वा लभनीयम् लभनम् लब्धुम् लब्ध्वा लषणीयम् लषणम् लषितुम् लसनीयम् लसनम् सितुम् लसित्वा लज्जनीयम् लज्जनम् लज्जितुम् लज्जित्वा लेखनीयम् लेखनम् लेखितुम् लिखित्वा आलिख्य लषित्वा लेखित्वा लेपनीयम् लेपनम् लेप्तुम् लेहनीयम् लेहनम् लेढुम् लयनीयम् लातुम् लिप्त्वा लीढ्वा लीत्वा लोपनीयम् लोपनम् लोप्तुम् लोभनीयम् लोभनम् यप् विलङ्घ्य विलप्य आलम्ब्य उपलभ्य अभिलष्य विलस्य O संलिप्य संलिय संलीय, संलाय लयन म् लानीयम् लानम् तुम् लुठनीयम् लुठनम् लुठितुम् लुठित्वा लोपनीयम् लोपनम् लोपितुम् लोपित्वा लुप्त्वा लुप्त्वा संलुप्य लोब्धुम् लुब्ध्वा प्रलुभ्य लोभितुम् लो (लु ) भित्वा लोभनीयम् लोभनम् लोब्धुम् लोभित्वा प्रलुभ्य लोभितुम् लुभित्वा लवनीयम् लवनम् लवितुम् लवित्वा लोकनीयम् लोकनम् लोकितुम् लोकित्वा लोचनीयम् लोचनम् लोचितुम् लोचित्वा वचनीयम् वचनम् वक्तुम् उक्त्वा वाचनीयम् वाचनम् वञ्चनीयम् वञ्चनम् प्रोच्य वाचयितुम् वाचयित्वा प्रवाच्य वञ्चयितुम् वञ्चयित्वा प्रवञ्चय विलुठ्य संलुप्य संय विलोक्य आलोच्य अनूद्य वन्दित्वा अभिवन्द्य वदनीयम् वदनम् वदितुम् उदित्वा वन्दनीयम् वन्दनम् वन्दितुम् वपनीयम् वपनम् वप्तुम् उप्त्वा वर्णनीयम् वर्णनम् वशनीयम् वशनम् वशितुम् उशित्वा न्युश्य निरुप्य वर्णयितुम् वर्णयित्वा संवर्ण्य ति / ङ / अ लङ्घिः लप्ति: लम्बा लब्धि: लष्टि: लस्ति: लज्जा लिप्ति: लीढि: लीति: o लुप्ति: लुप्ति: लुब्धि: लुब्धिः लूनि: लोका लोचा उक्तिः वाचना वञ्चा उत्तिः ५८३ वन्दना उप्तिः वर्णना उष्टिः Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ धातु वसं वसिक् वहंन् वांक् वाछि विच न्र् विजृंक् विदंच् विदक् विदलूंन्ज् विशंज् वृतुङ् वृधुङ् वृन्त् वृष व श् वेंन् क्त उषितः शकंन्च् शकि शक्लृत् विक्तः विग्नः वित्तः वृत्तः वृद्धः वृतः वृष्ट: वसितः वसानः ऊढः वहन् वातः वायक: वाता वान् वाञ्छितः वाञ्छ्कः वाञ्छिता वाञ्छन् वेचक: विक्ता विञ्चन् वेजक : विजिता वेविजत् वेदक: वेत्ता विद्यमान: विदित: वेदक: वेदिता विदन् वित्तः वेदक: वेत्ता विन्दन् विन्नः विष्ट: वेशक: वेष्टा विशन् वर्त्तकः वर्त्तिता वर्तमानः वर्धकः वर्धिता वर्धमानः वृधानः वर्णः ऊतः वेपृङ् वेपित: व्यथषङ् व्यथितः व्यधंच् विद्धः व्यंन् वीत: व्रज व्रजित: व्रश्चूज् वृक्णः णक वासक: शकित: शंकितः शक्तः तृच् वस्ता वसिता वसिता वासक: वाहक: वोढा शतृ / शान वसन् वारक: वरी (रि) ता वृणान: वायक: वाता वयन् वेपक: वेपिता वेपमान: व्याथकः व्यथिता व्याधकः व्यद्धा विध्यन् o क्वसु / कान तथ्य ऊषिवान् वस्तव्यम् ववसानः वसितव्यम् ऊहिवान् वोढव्यम् ० ० विविच्वान् वेक्तव्यम् o o o वारकः वरि (री) ता वृण्वन् ववृवान् वर्षक: वर्षिता वर्षन् ववृष्वान् वाक्यरचना बोध विविद्वान् वेत्तव्यम् वुवूर्वान् वविवान् ऊविवान् विविश्वान् वेष्टव्यम् विविशिवान् ववृतान: वत्तितव्यम् वर्धितव्यम् O o O वातव्यम् वाञ्छितव्यम् ० विजितव्यम् वेत्तव्यम् वेदितव्यम् ० वेपितव्यम् व्यथमानः विव्यथानः व्यथितव्यम् शक्ता शक्नुवन् शेकिवान् व्यायकः व्याता व्ययन् व्राजक: व्रजिता व्रजन् वव्रज्वान् व्रश्चक: व्रश्चिता वृश्चन् 'ववृश्च्वान् व्रश्चितव्यम् व्रष्टा व्रष्टव्यम् शकिता शक्यन् O शक्तिव्यम् शंकितव्यम् शंकक: शंकिता शंकमान: शक्तव्यम् वरि (री) तव्यम् वर्षितव्यम् वरि (री) तव्यम् वातव्यम् व्यद्धव्यम् व्यातव्यम् व्रजितव्यम् Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ १८४ अनीय वसनीयम् अनदान वसनम् क्ति// उष्टिः वसनीयम् वहनीयम् वानीयम् वाञ्छनीयम् वेचनीयम् वेजनीयम् वेदनीयम् वेदनीयम् वेदनीयम् वस्तिः ऊढिः वातिः वाञ्छा तुम् पत्वा वस्तुम् उषित्वा उपोष्य वसितुम् वसितुम् वसित्वा प्रवास्य वोढुम् ऊढ्वा प्रोह्य वातुम् वात्वा प्रवाय वाञ्छितुम् वाञ्छित्वा प्रवाञ्छ्य वेक्तुम् विक्त्वा विविच्य विजितुम् विजित्वा उद्विज्य वेत्तुम् वित्त्वा संविद्य वेदितुम् विदित्वा संविद्य वेत्तुम् वित्त्वा संविद्य वसनम् .. वहनम् वानम् वाञ्छनम् वेचनम् वेजनम् वेदनम् वेदनम् वेदनम् विक्तिः वित्तिः वित्तिः वित्तिः वेशनीयम् वेशनम् वेष्टुम् विष्ट्वा प्रविश्य विष्टिः वर्तनीयम् वर्धनीयम् वर्त्तनम् वर्धनम् वृत्तिः वरणम् वरणीयम् वर्षणीयम् वर्षणम् वतितुम् वत्तित्वा निवृत्य वधितुम् वर्धित्वा संवृध्य वृध्वा वरि (री)तुम् वृत्वा प्रवृत्य वर्षितुम् वर्षित्वा प्रवृष्य वृष्ट्वा वरि (री)तुम् वा प्रवृत्य वातुम् उत्वा संवाय वृष्टिः वरणीयम् वानीयम् वरणम् वानम् त्तिः ऊतिः वेपनीयम् व्यथनीयम् व्यधनीयम् व्यानीयम् व्रजनीयम् व्रश्चनीयम् वेपनम् वेपितुम् वेपित्वा संवेप्य वेपा व्यथनम् व्यथितुम् व्यथित्वा संव्यथ्य व्यथा व्यधनम् व्यद्धम् विद्ध्वा आविध्य विद्धिः व्यानम् - व्यातुम् वीत्वा संवीय, संव्याय वीतिः व्रजनम् वजितुम् वजित्वा प्रव्रज्य व्रज्या वश्चनम् वृश्चितुम् वश्चित्वा संवृश्च्य वृष्टिः व्रष्टुम् शकनम् शकितुम् शकित्वा प्रशक्य शक्तिः शंकनम् शंकितुम् शंकित्वा आशंक्य . शंका शकनम् शक्तुम् शक्त्वा संशक्य शक्तिः शकनीयम् शंकनीयम् शकनीयम् Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ धातु शर्पान् शर्पान्च् शमु शासुक् शिक्षङ् शिष्लं र् शीङ्क् शुच शुधंच् शुभज् शुषंच् श्रश् शोंच् श्रमुच् श्रिन् : श्रुंत् अ श्लाघृङ् श्लिषंच् श्वसक् षञ्ज शप्तः शप्तः शान्तः शुष्कः शीर्णः शिष्ट: शिक्षित: शिक्षक: शिक्षिता शिक्षमाणः शिष्ट: शेषक: शेष्टा शिषन् शायक : शयिता शयानः शयितः शुचितः शोचकः शोचिता शोचन् शुद्धः शोधक: शोद्धा शुध्यन् शोभितः शोभकः शोभिता शोभमानः शातः णक तृच् शतृ / शान क्वसु / कान तव्य शापकः शप्ता शपन् शप्तव्यम् शापक: शप्ता शप्यन् शप्तव्यम् शामक: शमिता शाम्यन् शेमिवान् शमितव्यम् शासक: शासिता शासन् शिशिष्वान् शासितव्यम् o शिक्षितव्यम् शिशिष्वान् शेष्टव्यम् शिश्यान: शयितव्यम् शोचितव्यम् शोद्धव्यम् शोभितव्यम् शुशुष्वान् शोष्टव्यम् शिशृवान् शरितव्यम् शिशीर्वान् शरीतव्यम् शशिवान् शातव्यम् श्रान्तः शोषकः शोष्टा शुष्यन् शरिता शृणन् शरीता शाता श्यन् O O श्रमिता श्राम्यन् शश्रन्वान् श्रमितव्यम् श्रितः श्रायकः श्रयिता श्रयन् शिश्रिवान् श्रयितव्यम् श्रुतः श्रावकः श्रोता शृण्वन् शुश्रुवान् श्रोतव्यम् श्लाघितः श्लाघकः श्लाघिता श्लाघमानः श्लिष्टः श्लेषकः श्लेष्टा श्लिष्यन् श्वसितः श्वासकः श्वसिता श्वसन् सक्तः षञ्जकः सङ्क्ता सजन् षणुन्व् सात: सनिता सन्वन् ० षद्तॄंज् सन्नः सादक: सत्ता षहङ् सोढः साहक: सोढा षिन्त् ० सहिता सितः सायक: सेता O ० o o वाक्यरचना बोध o श्लाघितव्यम् शिश्लिष्वान् श्लेष्टव्यम् शश्व स्वान् श्वसितव्यम् सेजवान् सङ्क्तव्यम् सेनिवान् सनितव्यम् सीदन् सेदिवान् सहमान: सेहानः सत्तव्यम् सोढव्यम् सहितव्यम् सिन्वन् सिषिवान् सेतव्यम् सिनन् Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनीय अनट् शनीयम् शपनम् शपनीयम् शपनम् शमनीयम् शमनम् शासनीयम् शासनम् शिक्षणीयम् शिक्षणम् शेषणीयम् शेषणम् शयनम् म् शोचनीयम् शोचनम् शोधनीयम् शोधनम् शोभनीयम् शोभनम् शोषणीयम् शोषणम् क्त्वा तुम् यप् अभिशप्य शप्तुम् शप्त्वा शप्तुम् शप्त्वा अभिशप्य शमितुम् शान्त्वा निशम्य शमित्वा शासितुम् शिष्ट्वा अनुशिष्य शासित्वा शिक्षितुम् शिक्षित्वा संशिक्ष्य शेष्टुम् शिष्ट्वा विशिष्य शयितुम् शयित्वा प्रशय्य शोचितुम् शो (शु) चित्वा विशुच्य शोद्धुम् शुद्ध्वा विशुध्य शोभितुम् शो (शु) भित्वा उपशुभ्य शोष्टुम् शुष्ट्वा परिशुष्य विशीर्य शरणीयम् शरणम् शरितुम् शीर्त्वा शरीतुम् शनीयम् शानम् श्रमणीयम् श्रमणम् श्रान्त्वा श्रयितुम् श्रयित्वा आश्रित्य उपश्रुत्य श्रयणीयम् श्रयणम् श्रवणीयम् श्रवणम् श्रोतुम् श्रुत्वा श्लाघनीयम् श्लाघनम् श्लाघितुम् श्लाघित्वा श्लेषणीयम् श्लेषणम् श्लेष्टुम् श्लिष्ट्वा आश्लिष्य श्वसनीयम् श्वसनम् श्वसितुम् श्वसित्वा विश्वस्य ० सञ्जनीयम् सञ्जनम् सङ्क्तुम् सक्त्वा प्रसज्य सननीयम् सननम् सनितुम् सनित्वा प्रसाय सात्वा सदनीयम् सदनम् सत्तुम् सत्त्वा सहनीयम् सहनम् सोढुम् सोढ़वा सहितम् सहित्वा सयनीयम् सयनम् सेतुम् सित्वा शातुम् शात्वा शित्वा श्रमितुम् श्रमित्वा संशाय परिश्रम्य निषद्य संस प्रसित्य ति /ङ / अ शप्ति: शप्तिः शान्तिः शास्ति: शिक्षा शिष्टि: शय्या शुक्तिः शुद्धिः शोभा ५८७ शुष्टि: शीणि: o श्रान्तिः श्रितिः श्रुतिः श्लाघा श्लिष्ट: श्वस्ति: सक्ति: सातिः सत्तिः सोढिः सितिः Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध धातुक्त णक तृच शतृ/शान वसु/कान तव्य षिचंन्ज् सिक्तः सेचकः सेक्ता । सिञ्चन् ० सेक्तव्यम् षिधुंच् सिद्धः सेधक: सेद्धा सिध्यन् सिषिद्ध्वान् सेद्धव्यम् . _ षिवुच् स्यूतः सेवकः सेविता सीव्यन् सिषिवान् सेवितव्यम् ཟླ ཟླ ཐ ཀྐཱ ཟླཝཱ ཀྐཱ བྷྱཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཟླ ཟླ་ मा सुतः सोता सुन्वन् सुषुवान् पुंन्त् सुतः सावक: सोता सुन्वन् षूक् सूतः सावकः सविता सुवानः सुषवाण: सोता षेवृङ् सेवितः सेवकः सेविता सेवमानः . सितः सायक: साता स्यन् ससिवान् ष्टुंन्क् स्तुतः स्तावकः स्तविता स्तुवन् तुष्टुवान् स्तोता ष्ठां स्थितः स्थायक: स्थाता तिष्ठन् तस्थिवान् ष्णांक स्नातः स्नायक: स्नाता स्नान् ष्णिहूच स्निग्धः ० स्निान स्नीढः स्नेग्धा स्नेढा सोतव्यम् सोतव्यम् सवितव्यम् सोतव्यम् सेवितव्यम् सातव्यम् स्तोतव्यम् स्तवितव्यम् स्थातव्यम् स्नातव्यम् स्नेहितव्यम् स्नेग्धव्यम् स्नेढव्यम् EEEEEEEEEEEEE ० ष्मिङ् स्मितः स्मायकः स्मेता स्मयमानः सिष्मियाणः स्मेतव्यम् सान्त्वण् सान्त्वितः ० सान्त्वयिता सान्त्वयन् ० सान्त्वयितव्यम साधंत् साद्धः साधकः साधा साध्नुवन् ससाध्वान् । साद्धव्यम् सुं सृतः सारकः सर्ता सरन् सर्त्तव्यम् सृजंज् सृष्ट: सर्जकः स्रष्टा सृजन् स्रष्टव्यम् सृप्लू सृप्तः ० सप्र्ता सर्पन् सप्तव्यम् सप्ता सप्तव्यम् स्कन्नः स्कन्दक: स्कन्ता स्कन्दन स्कन्तव्यम् स्खल स्खलित: स्खालकः स्खलिता स्खलन् ० स्खलितव्यम् स्पदिङ् स्पन्दितः स्पन्दक: स्पन्दिता स्पन्दमानः पस्पन्दानः स्पन्दितव्यम् स्पर्धङ् स्पद्धितः स्पर्द्धकः स्पद्धिता स्पर्द्धमानः पस्पर्धानः स्पद्धितव्यम् स्पृशंज् स्पृष्टः स्पर्शकः स्पृष्टा स्पृशन् पस्पृश्वान् स्प्रष्टव्यम् स्पर्टा स्पष्टव्यम् ० स्कन्द Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ५८४ अनीय मेचनीयम् सेधनीयम् अनट सेचनम् सेधनम् सिक्तिः पर सिद्धिः सेवनीयम् सेवनम् तुम् क्त्वा यप् । सेक्तुम् सिक्त्वा अभिषिच्य सेद्धम् सिद्ध्वा निषिध्य सेधित्वा सिद्धित्वा सेवितुम् सेवित्वा संसीव्य स्यूत्वा सोतुम् सुत्वा अभिषुत्य सोतुम् सुत्वा प्रस्तुत्य सवितुम् सूत्वा प्रसूय स्यूतिः सीवनम् सवनीयम् सवनीयम् सवनीयम् सवनम् सवनम् सवनम सुतिः सुतिः सूतिः सोतुम् सेवा सेवनीयम् सानीयम् स्तवनीयम् सित्वा स्तुतिः स्थानीयम् स्नानीयम् स्नेहनीयम् स्नेहनम् सेवनम् सेवितुम् सेवित्वा निषेव्य सानम् सातुम् अवसाय सितिः स्वतनम् स्तोतुम् स्तुत्वा प्रस्तुत्य स्तवितुम् स्थातुम् स्थानम् स्थित्वा प्रस्थाय . स्थिति: स्नानम् स्नातुम् स्नात्वा उपस्नाय . स्नातिः स्नेहितुम् स्निग्ध्वा संस्निह्य स्नेहा स्नेग्धुम् स्नीढ़वा स्नेढुम् स्नेहित्वा स्निहित्वा स्मयनम् स्मेतुम् स्मित्वा विस्मित्य स्मिति: सान्त्वनम् सान्त्वयितुम् सान्त्वयित्वा प्रसान्त्व्य । सान्त्वना : साधनम् साद्धम् साद्ध्वा प्रसाध्य साद्धिः सरणम् सर्तुम् सृत्वा उपसृत्य सृतिः सर्जनम् स्रष्टुम् सृष्ट्वा विसृज्य सृष्टिः सर्पणम् सर्तुम् सप्तुम् सृप्त्वा अपसृप्य सृप्तिः स्मयनीयम् सान्त्वनीयम् साधनीयम् सरणीयम् सर्जनीयम् सर्पणीयम् an स्खलनीयम् स्पन्दनीयम् स्पर्धनीयम् स्पर्शनीयम् स्कन्दनम् स्कन्त्वा आस्कन्द्य स्कन्तिः स्खलनम् स्खलितुम् स्खलित्वा प्रस्खल्य स्पन्दनम् स्पन्दितुम् स्पन्दित्वा निष्पद्य स्पन्दा स्पर्द्धनम् स्पद्धितुम् स्पद्धित्वा आस्पर्ध्य स्पर्धा स्पर्शनम् स्प्रष्टुम् स्पृष्ट्वा संस्पृश्य स्पृष्टिः Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REO क्त णक तृच् स्पृहयिता स्पृहयन् स्पृहितः स्पृहक: स्फुटितः स्फोटकः स्फुटिता स्फुटन् स्फुरितः स्फोरकः स्मृतः स्मारक: स्यन्दूङ् स्यन्नः स्यन्दकः स्पृहण स्फुटज् स्फुरज् स्मृ Fft cestlecE BE कासुङ् स्वपक् हक् हांक हिं हिसि हिसिण् हृषच् स्रस्तः सुप्तः ह्नन् हतः हसित: हासक: हायक: हायक: हिंसित: हिंसक : हिंसित: हिंसकः हीन: हित: हृष्ट: हर्षितः हनुङ्क ह्नुतः हावकः हुतः हृन् हृतः हारक: हर्ता ह्रीण: ह्रीत: शतृ / शान क्वसु / कान स्फुरिता स्फुरन् स्मर्ता स्मरन् स्यन्दिता स्यन्दमानः स्यन्ता स्र'सिता स्रसमानः हसिता हसन हाता जहन् ता हिन्वन् हिंसिता हिंसन् हिंसयिता हिंसयन् होता स्र सक: स्वापकः स्वप्ता स्वपन् सुषुप्वान् घातकः हन्ता घ्नन् जघ्निवान् जघन्वान् O हिन् हर्षक: हर्षिता हृष्यन् पुस्फूर्वान् सस्मृवान् 3 नाव: नोता ह, नुवानः हायक: ता ० O जुह्वन् जुहुवान् हरन् जवान् o जिहिंस्वान् जिहिंस्वान् जिह्रियन् जिह्रीवान् वाक्यरचना बोध हूतः ह्वायक: ह्वाता ह्वयन् जुहूवान् जिह्रीयांचकृवान् तव्य स्पृहयतव्यम् स्फुटितव्यम् स्फुरितव्यम् स्मर्तव्यम् स्यन्दितव्यम् स्यन्तव्यम् त्रसितव्यम् स्वप्तव्यम् हन्तव्यम् हसितव्यम् हातव्यम् हेतव्यम् हिंसितव्यम् हिंसयितव्यम् होतव्यम् हर्तव्यम् हर्षितव्यम् नोतव्यम् तव्यम् ह्वातव्यम् Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ अनट् अनीय स्पृहणीयम् स्पृहणम् स्फुटनीयम् स्फुटनम् स्फुरणीयम् स्फुरणम् स्मरणीयम् स्मरणम् स्यन्दनीयम् स्यन्दनम् सनीयम् स्वपनीयम् हननीयम् ह्नवनीयम् यणीयम् स्रंसनम् स्वपनम् हननम् ह्वानीयम् तुम् क्वा यप् स्पृहयितुम् स्पृहयित्वा उपस्पृह्य स्फुटितुम् स्फुटित्वा संस्फुट्य स्फुरितुम् स्फुरित्वा संस्फुर्य विस्मृत्य स्मर्तुम् स्मृत्वा स्यन्दितुम् स्यन्दित्वा निष्यन्द्य हसनम् हनीयम् हनीयम् हानम् हनीयम् हयनम् हिंसनीयम् हिंसनम् हिंसनीयम् हिंसनम् हवनीयम् हवनम् होम् हुत्वा हरणीयम् हरणम् हर्तुम् हृत्वा हर्षणीयम् हर्षणम् हर्षितुम् हर्षित्वा स्यन्तुम् स्यन्त्वा स्रंसितुम् सित्वा स्वप्तुम् हन्तुम् ह्नवनम् ह्रयणम् हसितुम् हातुम् हेतुम् सुप्त्वा हत्वा ह्नोतुम् तुम् ह्वानम् ह्वातुम् हसित्वा हित्वा हित्वा हिंसितुम् हिंसित्वा हिंसयितुम् हिंसयित्वा हृष्ट्वा हनुत्वा car हूत्वा विस्रस्य सं निहत्य विहस्य विहाय संहित्य विहिंस्य उपस्ि आहुत्य संहृत्य प्रहृष्य प्रह, नुत्य संय आहूय ५६१ क्ति / ङ / अ स्पृहा स्फुट्टिः स्फूर्ति: स्मृति: स्यन्तिः स्रस्ति: सुप्तिः हति: हसितिः हानि: हिति: हिंसा हिंसा हुति: हृति: हृष्टि: हनुतिः ह्रीति: हूतिः Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयपदी धातुओं के शान प्रत्यय के रूप धातु कन् रूप मृष्यमाणः यजमान: क्रीनश क्षिपन्ज् याचमानः खनुन् गुहून् ग्रहन्श् धातु मृषवच यजंन् याचुन् युज न् रजंन्च राजृन् रिच न रुधन् लक्षण चिन्त रूप कुर्वाणः क्रीणानः क्षिपमाणः खनमानः गृहमानः गृह णानः चिन्वान: छिन्दानः नहमानः नयमानः तन्वानः ददानः दिशमानः दिहानः दुहानः द्विषाण: छिन् णहंन्च णीन् तनुन्व दांन्क दिशंन्ज् दिहंन्क दुहंन्क द्विषनक् धांन्क लिपंन्ज् लिहंन्क लुप्लँन्ज् लूनश् वन वहंन् विच न् विद्लँन्ज् वृन्त वेंन् दधानः धावुन युञ्जानः रज्यमान: राजमान: रिञ्चानः रुन्धान: लक्षयमाणः लिम्पमानः लिहान : लुम्पमान: लनानः वपमानः वहमान: विञ्चान: विन्दमान: वृण्वान: वयमानः व्ययमानः शक्यमान: शपमानः शप्यमानः श्रयमाणः सन्वान: सिन्वानः, सिनान: सिञ्चमानः सुन्वान : स्तुवान: हरमाणः ह्वयमान: व्येन् धून्त् पचंषन् पून्श् प्रीन्श् बॅन्क् भजंन् भिद नर् शकंन्च शपंन् शपंन्च श्रिन् धावमानः धन्वानः पचमानः पुनानः प्रीणानः ब्रुवाणः भजमानः भिन्दान: भरमाणः बिभ्राणः भृज्जमान: मिन्वानः मीनानः मुञ्चमानः षणुन् भुंन् पिन्त षिचंन्ज् भुंनक भ्रस्जंन्ज् मिन्त् मींन्श् मुलंन्ज् पुंन्त् ष्टुंन्क् ह्रन् Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ५९३ उभयपदी धातुओं के कान प्रत्यय के रूप धातु रूप क्रीनश् खनुन् ग्रहन्श् चिन्त् छिन् तनुन्व् तुदंन्ज् दुदुहान: दांन्क दिशंन्ज् दुहंन्क धांन्क पचंषन् पून्श् रूप चिक्रियाणः युजन् चख्नानः रजंन्च जगृहाणः रिच न् चिच्यान:, चिक्यानः रुध नर् चिच्छिदानः लिपंन्ज् तेनान: लिहंन्क् तुतुदान : लुपलुन्ज् ददान: लूनश् दिदिशानः वपन् वहंन् दधानः विचन् पेचान: विद्लन्ज् पुपूवानः पिप्रियाणः ऊचान: श्रिन् भेजानः षणुन बिभिदानः षिन्त् बभ्राणः बिभराञ्चक्राणः बभृज्जानः, बभृजानः मिम्यानः हनंक मिमियानः हन् ईजानः युयुजानः रेजानः रिरिचानः रुरुधान: लिलिपानः लिलिहानः लुलुपान: लुलुवानः ऊपान: ऊहानः विविचानः विविदानः ववाणः ववानः, ऊवानः शिश्रियाणः सेनानः सिष्याणः सुषुवाणः तुष्टुवानः जनानः जहाणः जुहुवानः वृन्त् प्रीन्श् वेंन् बॅन्क भजंन् भिद नर् भंनक पुंन्त् ष्टुन्क भ्रस्जंन्ज मिन्त मीन्श् मुच्लंन्ज् यजंन् मुमुचानः Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ उपसर्गपूर्वक धातु के अर्थपरिवर्तन अर्थ उपसर्ग के संयोग से धातुओं के अर्थ बदलते हैं वे दिए गए हैं। धातुरूपादर्श में जिन धातुओं का संस्कृत अर्थ मिला उसको भा पाठक की सुविधा के लिए यहां दिया गया है। १. अञ्चु (अञ्चति) जाना, पूजा अप—व्यर्थ करना करना सम्-समर्थन करना उपसर्ग अनु—उसके जैसा होना परि (ऋजुगमने पार्श्वशयने वा, भ्रमणे) वि–व्यर्थ करना सीधा चलना, पसवाडे से सोना, घूमना अभि-याचना करना, स्वागत करना अप (दूरीकरण) दूर करना ५. अव (अवति) रक्षा करना मा (नमने) झुकना अनु (धैर्यदाने) धैर्य देना उप (निष्कासने) निकालना उत् (ध्यानदाने प्रतीक्षायां प्रवृत्तकरणे च) वि (व्याप्ती) व्याप्त होना ___ ध्यान देना, प्रतीक्षा करना, प्रवृत्त सम् (एकत्रीकरणे) इकट्ठा करना करना उद् (व्यक्तवचने) स्पष्ट बोलना उप (स्नेहकरणे) स्नेह करना २. अर्च (अर्चति) पूजा करना ___सम् (तृप्तिकरणे संरक्षणे च) तृप्त करना, सम् (पूजायां, स्थिरीकरणे संस्थापने च) संरक्षण करना पूजा करना, स्थिर करना, स्थापना ६. अशूङ्त् (अश्नुते) व्याप्त होना करना अनु (प्राप्तो समानभवने) प्राप्त करना, ३. अर्जण् (अर्जयति) अर्जन करना। समान होना अति (गमने दूरीकरणे च) जाना, दूर उद (ऊर्ध्वगमने प्राप्तौ शासके च) ऊर्ध्व करना गमन करना, प्राप्त करना, शासन अनु (प्रेषणे) भेजना करना अपि (योजने) जोडना उप (उपार्जने शासके) उपार्जन करना, अव (प्रेषणे) भेजना शासन करना ४. अर्थङ्ग (अर्थयते) मांगना परि (गमने समावेशे समाप्ती च) गमन प्र-प्रार्थना करना करना, समावेश करना, समाप्त करना Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ७. असुच (अस्यति) फेंकना ६. आसङ्क (आस्ते) बैठना वि (विस्तारे) विस्तार करना उप (उपासने) उपासना करना सम् (संक्षेपीकरणे) संक्षेप करना उत् (औदास्ये) उदास रहना अनु (न्यक् स्थितौ) नीचे बैठना अधि-ठहरना अप (त्यागे) छोडना, दूर करना १०. इणक् (एति) जाना नि (स्थापने) स्थापित करना प्र (परलोकगमने) परलोक में जाना निर् (निष्कासने) निकालना परा (परलोकगमने) परलोक में जाना परि+उप (परितः आवृत्य स्थितौ उपास- उत् (उद्यमने प्रकाशे वा) ऊंचा जाना, नायां च) पर्यपासना करना प्रकाशित होना प्र (गगनगतौ खण्डने अस्वीकारे च) आकाश अनु (अनुगमने संबन्धे च) पीछे जाना, में गति करना, तोडना, अस्वीकार संबंध करना करना अभि (अभिमुखगमने) सम्मुख जाना वि (विभागे) विभाग करना उप (समीपगमने) समीप जाना वि+आ (विस्तारे अनुक्रमन्यासे च) विस्तार अभि+उप (स्वीकारे) स्वीकार करना करना, अनुक्रम से रखना अभि+उद् (ऐश्वर्यादिकः प्रसिद्धः) ऐश्वर्य सं+नि (संन्यासे) संन्यास लेना आदि से प्रसिद्धि पाना सम् (एकत्रीकरणे) समास करना निर् (निर्गमने दुर्गती च) निकलना, दुर्गति उप (पूजाकरणे सेवायां च) पूजा करना, में जाना सेवा करना अप+वि (व्यर्थनाशे) अपव्यय करना उत्+आ (खंडने उपेक्षायां च) तोडना, आ (आगमने) आना उपेक्षा करना अधि (स्मरणे) स्मरण करना वि+अति (विलोमे) प्रतिकूल होना ८. आप्लुत् (आप्नोति) प्राप्त करना। वि-व्यय करना अभि +वि (परितो व्याप्तौ) चारों तरफ प्रति (विस्रम्भे प्रसिद्धौ ज्ञाने च) विश्वास ___ से व्याप्त होना करना, प्रसिद्ध होना, ज्ञान करना अव (प्राप्तौ) प्राप्त होना अति (अतिक्रमे, विनाशे) अतिक्रमण करना, उप (समीपागमने) समीप आना . विनाश होना सं+ (समाप्ती) समाप्त होना अभि+प्र (अभिप्राये अनुसंदधाति) अनुपरि+वि (परितो व्याप्ती) चारों तरफ से संधान करना व्याप्त होना उद्-उदय होना सं+वि (सम्यक् व्याप्तौ) अच्छी तरह से अभि+ उप-स्वीकार करना व्याप्त होना अप (विनाशे) विनाश होना Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ सं + उप (अभिमुखागमे) सम्मुख आना ११. इषज् ( इच्छति ) इच्छा करना अधि (सत्कारे) सत्कार करना प्रति ( ग्रहणे, प्रतिवचने, दाने च ) ग्रहण करना, उत्तर देना, देना अनु (अन्वेषणे) अन्वेषण करना १२ इषच् (इष्यति ) जाना प्र ( प्रेषयति ) भेजना १३. ईक्षङ् (ईक्षते) देखना (बुद्धिपूर्वक करणे) बुद्धिपूर्वक करना प्रति ( प्रतीक्षायाम्) प्रतीक्षा करना अप (आकांक्षायाम्, अवधिकरणे च ) आकांक्षा करना, अवधि करना सं (विवेचने) समीक्षा करना, आलोचना करना अव - जागरूक होना निर् - निरीक्षण करना उप ( उपेक्षायाम् ) उपेक्षा करना उत् + (उत्प्रेक्षायाम् ) उत्प्रेक्षा करना १४. ऊहङ् (ऊहते) तर्क करना प्र - तर्क करना वि ( व्यूहरचनायाम्) व्यूह रचना करना अप (दूरीकरणे ) दूर करना निर् ( वस्तिकर्मणि ) वस्ति का प्रयोग करना, एनिमा लेना सं ( एकत्रीकरणे ) इकट्ठा करना प्रति (विघ्ने) विघ्न करना प्र + वि (किञ्चित् प्रतीक्षायाम्) कुछ प्रतीक्षा करना १५. ऋ (ऋच्छति) पाना सं ( संगती) साथ में जाना वाक्यरचना बोध १६. कल ( कलयति ) गिनना, जाना सं (एकत्रीकरणे संघातकरणे च) संकलना करना वि ( वियोजने) खण्डित करना १७. काशृङ् (काशते ) चमकना अव (महदन्तरे) फासला रखना वि ( मनसः स्फुटीभावेषु) विकाश करना प्रति ( सदृशे ) सदृश होना नि (सदृशे ) सदृश होना सं ( सदृशे ) सदृश होना आ ( गगने) आकाश १८. कुषश् ( कुष्णाति ) बाहर निकालना अव (सिद्धे, स्थापिते च) सिद्ध होना, स्थापित करना निस् ( आकृष्य बहिर्निष्काशने ) खींचकर बाहर निकालना १६. कृन् (करोति, कुरुते ) करना प्र ( प्रस्तावे ) प्रस्ताव करना सं संस्कार करना परा (निराकरणे) निराकरण करना अप (अपकारे) अपकार करना अनु (अनुकरणे) अनुकरण करना निर् + आ (निराकरणे) निराकरण करना अधि (अधिकार) अधिकार करना प्रति (प्रतिकारे) प्रतिकार करना परि (परिष्कारे) परिष्कार करना पुरस् (पुरस्कारे) पुरस्कार करना आविस् ( आविष्कारे) आविष्कार करना प्रादुस् (प्रादुष्करोति) प्रकट करना वि + आ - विस्तार सहित बोलना नमस् ( नमस्कारे) नमस्कार करना साक्षात् – साक्षात् करना Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ५६७ उरी-स्वीकार करना उस्री-स्वीकार करना तिरस् (पराभवे) तिरस्कार करना २०. कृपूङ (कल्पते) समर्थ होना सं (संकल्पे) संकल्प करना २१. कज । किरति) फेंकना प्रति (हिंसायाम्) हिंसा करना उप (छेदने) छेदन करना अव (व्रतलोपे) ब्रह्मचर्य व्रत का भंग होना सं (मिश्रीकरणे) मिलाना वि (दाने) देना २२. क्रमु (क्राम्यति, कामति) चलना प्र (आरम्भे) आरम्भ करना परा (पराक्रमे) पराक्रम करना उप (आरंभे) आरंभ करना वि (विक्रमे) विपरीत जाना अति (अतिक्रमे) अतिक्रमण करना उत् (उत्क्रमणे) ऊपर जाना, चढना मा (आक्रमणे) आक्रमण करना सं (संक्रमे) संक्रमण करना, फैलाना २३. क्रीन्श् (क्रीणाति, क्रीणीते) हरीदना पति (विनिमये) विनिमय करना रि (नियमेन भृत्यादिना स्वीकरणे) वेतन निश्चय कर नौकर को काम पर रखना २४. क्रीड़ (क्रीडति) क्रीडा करना क्रिीडते-खेलना क्रिीडति-अव्यक्त शब्द करते हुए खेलना ५. क्रुशं (क्रोशति) बुलाना, रुलाना नु (दयायाम) दया करना (निन्दायाम्) निंदा करना उप (दोषदाने) दोष देना प्र (पूत्कारे) पुकारना २६. क्षिपन्ज (क्षिपति, क्षिपते)फेंकना प्र-प्रक्षेप करना सं-संक्षेप करना अव-नीचे फेंकना नि-स्थापित करना, रखना वि-व्याकुल होना आ—आक्षेप करना प्रति-खण्डन करना प्रति+आ–वापस आक्षेप करना परि–चारों तरफ से वीटना उत्—ऊपर फेंकना २७. ख्यांक (ख्याति) प्रसिद्ध होना प्र (प्रसिद्धौ) प्रख्यात करना सं (संख्याकरणे) गिनना, संख्या करना वि (प्रसिद्धौ) विख्यात करना आ (आख्यायाम्) कहना वि+आ (विवरणे) व्याख्यान करना उप+आ (उपाख्याने) उपाख्यान करना अभि+आ (मिथ्यारोपे, निह्नवे च) मिथ्या आरोप लगाना, चुगली करना प्रति+आ (अस्वीकारे) प्रत्याख्यान करना। २८. गणण् (गणयति) गिनना अव (अवज्ञायाम्) अवज्ञा करना अधि (व्याख्यानस्तुतिगणनेषु) व्याख्यान देना, स्तुति करना, गणना करना २६. गम्ल (गच्छति) जाना अप (निःसरणे) भाग जाना सं (संगतौ) संगत करना उप (ज्ञाने) जानना Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध करना उप (पार्श्वगमने) पास में जाना अभि-अभिग्रह करना आ-आना ३२. घटषक (घटते) चेष्टा करना उप+आ (निकटागमने) निकट आना, उत् (भाषणे प्रकाशे च) बोलना, प्रकट सामने आना ___ करना नि (ज्ञानप्राप्तौ) ज्ञान प्राप्त करना वि (वियोजने) अलग करना दुर् (दुःखे गमने) दुर्दशा में जाना सम् (योजने) जोडना निर् (बहिर्गमने) निकलना ३३. घट्टण (घट्टते) हिलना परि (दक्षिणायां परित: व्याप्ती) प्रदक्षिणा परि (प्रसारे) फैलाना वि (मज्जने शौचे विकारे च) मज्जन अधि (मिलने प्राप्ती वा) प्राप्त करना ___करना, शुद्ध करना, विकृत करना अव—जानना सम् (संस्पर्श) स्पर्श करना अभि+उप (स्वीकारे) स्वीकार करना ३४. चक्षक (चक्षते) बोलना सं+आ (मिलने एकत्रीभावे च) मिलना, वि+आ (विवरणे) व्याख्या करना इकट्ठा करना ३५. चर (चरति) खाना, जाना सु (सुष्ठुगमने) अच्छी तरह से जानना सम् (संक्रमणे) संक्रमण करना, संचार प्रति आ (प्रत्यागतौ) वापस लौटना करना वि - विनाश होना उत् (उदये) उदय होना ३०. गाहूङ (गाहते) डुबकी लगाना अति+आ (आज्ञाभंगे) अनुचित आचरण अव (स्नाने) स्नान करना, अवगाहन करना करना वि (कम्पने) बिलोडन करना अनु (अनुसरणे) पीछे चलना, अनुकरण ३१. ग्रहन्श (गृह णाति) ग्रहण करना करना सम् (संग्रहे) संग्रह करना अति (नियमोल्लंघने) नियम का उल्लंघन अव (वृष्टिप्रतिबंधे) वृष्टि की रुकावट करना करना परि+उप (सेवायाम् ) सेवा करना नि (निग्रहे, तिरस्कारे) निग्रह करना, उप (अर्चनविधौ च) सेवा करना, पूजा तिरस्कार करना करना वि (विग्रहे युद्धकरणे समस्तस्य पृथक्करणे अप (नाशे) नष्ट होना च) कलह करना, युद्ध करना, समस्त प्र (प्रसिद्ध व्याप्ती आचरणे च) प्रचार पद के खंडों को अलग करना करना प्रति (स्वीकारे) स्वीकार करना उत् (आज्ञाभंगे देशात् निःसरणे भाषणे आ (आग्रहे) आग्रह करना उदये च) आज्ञा भंग करना, उच्चारण अनु (अनुग्रहे) अनुग्रह करना करना, बाहर आना, ऊपर उठना परि-परिग्रहण करना वि (विचारे) विचार करना Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ५६६ आ (उत्तमकार्ये करणे च) उत्तम कार्य वि (स्पष्टज्ञाने) स्पष्ट जानना करना, आचरण करना ____ सम् (उत्कण्ठापूर्वकस्मरणे) उत्कण्ठापूर्वक सम्+आ (उपर्यारोहणे) ऊपर चढना स्मरण करना सम-आ (प्रसिद्धौ श्रेष्ठाचरणे समाचरे च) परि (त्यागे) छोडना प्रसिद्ध होना, श्रेष्ठ आचरण करना। ३६. टकिण (टङ्कयति) चिह्न लगाना ३६. चिन्त् (चिनोति) चुनना उत् (उल्लेखे) उल्लेख करना उप (वर्द्धने) बढना निस् (बन्धने) बांधनो अप (हीनकरणे) कम करना सम् ---उत् (समुच्चये) एक साथ इकट्ठा ४०. णमं (नमति) झुकना प्र (प्रणामे) प्रणाम करना होना परि (परिणामे) परिणमन होना अभि + उत् (अभ्युच्चये) उत्कर्ष होना, ४१. णहंन्च् (नाति) बांधना वृद्धि करना सम् (सञ्चये) संचय करना सम् (कवचधारणे) युद्ध के लिए तैयारी निस् (निश्चये) निश्चय करना करना परि (परिणाहे) विस्तार करना वि+ निर् (सम्यग् निश्चये) विशेष रूप से निश्चय करना। ४२. णींन (नयति, नयते) पाना प्र (अतिशये) उपचय करना प्र (प्रेमकरणे संदेशे शिक्षाकरणे च) प्रेम करना, संदेश देना, शिक्षा देना नि (समूहे) समूह, संचय करना अप (दूरीकरणे) दूर करना अव (कुसमादिग्रहणे) चुनना उप (समीपानयने) समीप लाना परि (अभ्यासे ज्ञाने सम्बन्धे च) अभ्यास उत (उन्नयने) ऊंचा ले जाना करना, ज्ञान करना, संबंध करना अभि (अभिनये) अभिनय करना ३७. जभिङ् (जम्भते) जंभाइ लेना अनु (अनुनये) प्रार्थना करना उत् (प्रकाशे) खिलना ३८. ज्ञांश (जानाति) जानना वि (विनये विगणने च) विनय करना, कर्ज चुकाना अनु (अनुमोदने) अनुमोदन करना अव (अवमाने) अपमान करना ४३. दांनक (ददाति) देना उप (प्रथमज्ञाने) प्रथम ज्ञान करना आ (ग्रहणे) लेना प्रति (प्रतिज्ञायां वचनदाने च) प्रतिज्ञा परि (दाने ऋणदाने पारितोषे च) देना, करना, वचन देना ऋण देना, पुरस्कार देना प्रति- सम् (प्रतिज्ञायां वचनदाने च) प्र (दाने) देना प्रतिज्ञा करना, वचन देना वि+आ (उद्घाटने) खोलना प्रति+अभि (सकलितज्ञाने उपलक्षिते च) सम् (सन्मतो) स्वीकृति देना पहचान करना अनु (दापने) दिलाना Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ४४. विशन्न (दिशति ) दान देना आ (आज्ञायाम्) आदेश देना उत् ( उद्देशे ) संकेत या लक्ष्य करना, बतलाना । अप (अपदेशे) बहाना करना अति ( अतिदेशे - तुल्यतया कथने) समान रूप से कहना । वि + अप ( व्यपदेशश्छलम् विपर्यये संज्ञाकरणे च) छल करना, नाम करना नि (नियोगे ) शासन करना निर् (निर्देशे ) निर्देश देना प्र ( नियुक्तौ ) नियुक्त करना प्रति + सम् ( प्रतिदाने) देना सम् + आ (मान्ये) मानना सम् + उप (दूरस्थितवस्तुन: अंगुल्यादिभिर्दर्शने) अंगुलि से संकेत करना ४५. दिन (देग्धि) लेप करना सम् — संदेह करना उप-उपलेप करना ४६. धांनक् (दधाति ) धारण करना सम् (सन्धाने ) संधि करना अनु + सम् ( अनुसंधाने) अनुसंधान करना वि (विधाने) करना अन्तर् (अन्तर्धाने) छिपना श्रुत् (श्रद्धायाम् ) श्रद्धा करना नि (निधाने ) स्थापित करना अभि ( अभिधाने ) कहना परि ( परिधाने) पहनना प्र + नि ( प्रणिधान) समाधि लेना सम् + नि ( सन्निधाने) पास रखना उप + आ (उपाधौ ) उपाधि लेना वि + आ ( व्याधौ ) व्याधि होना वि+अव ( व्यवधाने ) अवरोध होना, वाक्यरचना बोध छिपना अव ( अवधाने ) ध्यान और एकाग्रता उप ( उपधाने - शयनोपकरणे भेदकरणे) तकिया लगाना सम् + आ (समाधाने) समाधान देना सम् + अव (सावधाने ध्यानदाने च ) सावधान होना, ध्यान देना आ (स्वीकारे करणे स्थापने च ) स्वीकार करना, स्थापना करना, धारण करना उप ( उपकारे सहायदाने च ) उपकार करना, सहायता देना । अपि (आच्छादने ) ढकना प्रति+वि ( प्रतिकारे निवारणे प्रत्युत्तरे च प्रतिकार करना, निवारण करना प्रत्युत्तर देना सम् + (चर्चाकरणे साधनकरणे च ) चर्चा करना, साधन करना ४७. ध्यें ( ध्यायति) चितन करना अप - बुरा ध्यान करना नि― देखना वि-बुझाना प्रति + सम् (चर्चाकरणे साधनकरणे च ) चर्चाकरना, साधन करना सम् + नि (निकटे) निकट होना सम् ( मिलने) मिलना सम् + आ (मनः स्थैर्ये शंकापनयने सुखे शान्ती च ) मन को स्थिर करना, शंका दूर करना, शान्ति प्राप्त होना । ४८. नदि ( नन्दति ) प्रसन्न होना आ ( सुखीभवने) आनन्दित होना अभि (इच्छायां स्वीकारे सम्वर्द्धने स्तुतौ च ) इच्छा करना, स्वागत करना, सराहना करना, अभिनन्दन करना । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. "TET" परिशिष्ट ५ ६०१ प्रति (उपकारमानने सुनिर्वाहे च) उपकार सम् +नि (अग्रेवा बहिर्गमने संयोगे ) मानना, अच्छीतरह निर्वाह करना आगे जाना, बाहर जाना, संयोग होना दुर् (अनिष्टनीतिवर्तने) बुरी नीति का ५१. पदंडच (पद्यते) जाना ___ व्यवहार करना उत् (उद्भवे) उत्पन्न होना परि (विवाहे) विवाह करना सम् (सम्पत्ती) संपन्न होना सम् (एकत्रीकरणे) इकट्ठा करना वि (मरणे) नष्ट होना सम्+अनु (प्रार्थनायाम्) प्रार्थना करना आ (आपत्तो) आपत्ति में पड़ना सम्+आ (एकत्रीकरणे) इकट्ठा करना प्रति (ज्ञाने स्वीकारे वा) जानना, स्वीकार ४६. पटण् (पाटयति) नीचे गिरना करना उत् (उन्मूलने) उखाडना उप (उपपत्तो-युक्तियुक्तभवने) युक्तियुक्त होना ५०. पत्लु (पतति) गिरना अभि+उप (स्वीकारे) स्वीकार करना उत् (उर्वपतने) उडना वि+उत् (मूलतत्वान्वेषणे मनने च) मूल प्र+नि (नमस्कारे) नमस्कार करना रूप की खोज करना, मनन करना अनु (अनुगमने) अनुसरण करना समा (उपस्थितौ समाप्ती च) उपस्थित अति (जये श्रेष्ठभवने) आगे निकल जाना होना, समाप्त होना अभि+अव (उत्तरणे) उतरना प्र (उत्पत्तौ प्रारंभे शरणं प्राप्ते च) उत्पन्त आ (आगमने प्राप्तौ उपस्थितौ च) आना, होना, प्रारंभ करना, शरण पाना प्राप्त करना, उपस्थित होना ५२. बन्धंश् (बध्नाति) बांधना नि (घटितभवने मिलने सिद्धशब्दे च) घटित अनु (अनुबन्धने योजने) पीछे बंध जाना होना, मिलना, शब्द का अनियमित रूप सम् (सम्बन्धे) सम्बन्ध करना से निष्पन्न होना उत् (उद्बन्धने) स्वयं फांसी लगा लेना निर् (पलायने आच्छादने च) पलायन प्रति (प्रतिबन्धे) प्रतिबन्ध लगाना करना, ढकना नि (निबन्धे-ग्रन्थ रचनायां) निबन्ध लिखना परि (शीघ्रगमने मूल्यवद्भवने प्रवेशे च) निर् (निर्बन्धे) बन्धन रहित होना शीघ्र जाना, मूल्यवान् होना, प्रवेश प्र (प्रबन्धे) शोध प्रबन्ध लिखना, व्यवस्था करना करना वि+नि (प्रतिगमने) वापिस जानावि (मलरोधे) मल का अवरोध करना . सम् (सार्द्धगमने मिलने च) साथ में जाना, ५३. बाधृङ् (बाधते) पीडा देना मिलना सम् (अन्योन्योत्पीडने) परस्पर में उत्पीडन सम् + आ (शुद्धीकरणे) शुद्ध करना करना, दबाना सम् + उत् (पलायने उड्डयने च) पलायन ५४. बुधच् (बुध्यते) जानना करना, उडना उत् (उद्बोधे) उद्बोधित करना Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ सम् (सम्बोधने - क्रियासु नियोगार्थमाभिमुख्यसम्पादने ) सम्बोधन करना प्र ( जागरणे विकासे च ) प्रबुद्ध होना, बिकसित होना अव (ज्ञाने ) जानना ५५. भांक् (भाति) शोभित होना वि+अति (परस्परभाने) परस्पर भान होना प्रति ( प्रतिभायां ) आभास होना ५६. भू(भवति) होना सम् (निश्चितप्रायविषये ) संभव होना अधि (अनुशासनकरणे) अनुशासन करना वि+अभि ( परस्परमित्रभवने ) मित्र होना परस्पर प्रादुर् (प्रकटीकरणे ) प्रकट होना आविर् ( प्रकटीकरणे ) प्रकट होना तिरस् (प्रच्छन्ने) तिरोहित होना उत् ( उत्पत्तौ ) उत्पन्न होना प्रति (प्रतिरूपभवने) सदृश होना परा (अशक्यता निश्चये निवृत्तौ ) हार जाना परि ( तिरस्कारे) तिरस्कार करना अनु (अनुभवे) अनुभव करना प्र - पैदा होना, समर्थ होना अभि-हार जाना सं + उद् - उत्पन्न होना ५७. मदीच् (माद्यति ) हर्षित होना उत् (उन्मादे) उन्माद होना प्र ( प्रमादे ) प्रमाद होना ५८. मनङ्च् ( मन्यते ) जानना अभि ( अभिमाने) अभिमान करना सम् (सम्माने) सम्मान करना अप् (अपमाने) अपमान करना वाक्यरचना बोध अव ( अपमाने ) अपमान करना वि (विमती) विपरीत मानना ५६. मन्त्र ण् (मन्त्रयते) मन्त्रणा करना आ (आमन्त्रणे सम्बोधने च ) आमन्त्रण देना, सम्बोधन करना नि (निमंत्रणे ) निमन्त्रण देना अभि ( मन्त्रपाठेन संस्कारकरणे) मंत्र पाठ से संस्कारित करना । ६०. मस्जोंज् (मज्जति) स्नान करना, डूबना नि (निमज्जने - अत्यन्तासक्तौ ) आसक्त होना, डूब जाना । उत् ( उन्मज्जने) उन्मज्जन करना, उत्प्लवन करना । ६१. मांक (माति) समाना प्र ( प्रमाणे ) प्रमाण करना परि ( परिमाणे ) परिमाण करना उत् ( उन्माने ) उन्मान करना वि (विमाने ) तिरस्कार करना ६२. मिन्त ( मिनोति) फेंकना अनु (अनुमाने) अनुमान करना प्र ( प्रमाणे ) प्रमाण करना उप ( उपमाने ) उपमित वरना अत्यन्त ६३. मिषज् (मिषति) स्पर्धा करना उत् ( उन्मेषे, प्रकाशे) प्रकाशित होना, खुलना नि (निमेषे ) निमेष होना, बंद होना ६४. मील ( मीलति ) संकुचित करना प्र ( प्रमीलायाम् ) नींद लेना नि (निमीलने) बंद होना उत् (उन्मीलने) खुलना Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ६०३ ६५. मुचलुन्ज (मुञ्चति) छोडना वि (पृथक्करणे प्रेरणायां च) पृथक् होना; आ (परिधाने) पहनना प्रेरणा देना। वि (त्यागे) छोडना वि-+नि (व्यये नियमितकरणे प्रेषणे ग्रंथने ६६. मृशज् (मृशति) स्पर्श करना एकत्रीकरणे च) व्यय करना, नियमित परा (परामर्श) परामर्श करना करना, भेजना, ग्रथित करना, इकट्ठा वि (विमर्श) विमर्श करना, चिन्तन करना करना। अभि (अभिमाने मर्दने पराभवने च) वि+प्र (पृथक्करणे) पृथक् करना अभिमान करना, मर्दन करना, पराभव सम् (मेलने) संयुक्त होना करना। ७१. युजन् (युनक्ति) जोडना ६७. यतीङ् (यतते) प्रयत्न करना प्र-प्रयोग करना आ (वशीभवने) वशीभूत होना उप-उपयोग करना ६८. यमुं (यच्छति) निवृत्त होना सम्—संयोग करना उत् (उद्यमे) उद्यम करना अनु–प्रश्न करना उप (स्वीकारे, विवाहे) स्वीकार करना, नि–नियुक्त करना विवाह करना वि-वियोग करना ६९. यांक (याति) जाना प्रति-विरोध करना प्र-प्रयाण करना परि+अनु-प्रश्न करना अप-दूर जाना अभि-लांछन लगाना अनु-अनुसरण करना उद्-उद्योग करना निर्-निकलना ७२. रजनच-रागे (रज्यति) राग आ-आना करना अभि-सम्मुख जाना उप (ग्रहणे ग्रासे च) ग्रहण करना, ग्रसित ७०. युजंङ्च् (युज्यते) समाधि होना करना। अनु (प्रश्ने सावधाने दोषारोपणे व्याख्याने अनु (प्रीतौ) प्रीति करना च) प्रश्न करना, सावधान होना, वि (विरागे) विरक्त होना दोषारोपण करना, व्याख्या करना। ७३. राधंच (राध्यति) पूरा करना अभि (लपने पुत्कारे दोषदाने अद्भुतप्रश्ने अभियोगे च) बोलना, पुकार करना, ___ अप-अपराध करना वि-विराधना करना दोष देना, अद्भुत प्रश्न करना, आरोप लगाना। आ–आराधना करना उप (भोजने कार्यानयने बलाग्रहणे च) ७४. रमङ् (रमते) कोरा करना भोजन करना, कार्य लेना, बलपूर्वक उप (निवृत्तौ नाशे कर्मत्यागे च) निवृत्त ग्रहण करना। होना, नाश होना, पलायन करना। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ वाक्यरचना ब वि (विश्रामे) विश्राम करना ७६. लबिङ (लम्बते) लटकना उप+आ (निवृत्ती प्रत्यागती च) निवृत्त अव (अवलम्बने आश्रयकरणे च) लटकन होना, लौटना। आश्रित होना। ७५. रिच नर् (रिणक्ति) रेचन करना वि (विलम्बकरणे) विलम्ब करना अति (अतिशये-अतिक्रमें) अतिक्रान्त होना आ (आलम्बने) आश्रय लेना वि+ अति (विपरीतकरणे) विपरीत करना प्र–प्रलम्ब होना ७६. रुघन्र् (रुणद्धि) रोकना ८०. लभंषङ् (लभते) प्राप्त होना प्रति (प्रतिरोधे) प्रतिरोध करना आ (स्पर्शने घातने च) छूना, वध करना उप (उपरोधे) उपरोध करना, रोकना वि+प्र (विप्रलम्भे) ठगना अनु (अनुरोधे) अनुरोध करना उप+आ (उपालंभे) उपालंभ देना वि (विरोधे) विरोध करना ८१. लस (लसति) आलिंगन करन अव–अवरोध करना क्रीडा करना ७७. रुहं (रोहते) उगना उद् (उल्लासे) उल्लसित होना आ (आरोहे) आरोहण करना ८२. लिखज (लिखति) लिखना अव (अवरोहे) नीचे आना, उतरना उद् (उल्लेखे) उल्लेख करना वि (उन्मूलीभवने) जड से उखाडना ५३. लिपंन्ज् (लिम्पति, लिम्पते प्र-अंकुरित होना, उगना लीपना सम्-उत्पन्न होना अव (गर्वे) अभिमान करना अधि–आश्रित करना अनु (चन्दनादिमर्दने) लेप करना ७८. लप (लपति) बोलना ८४. वचंक (वक्ति) बोलना वि (विलापे) विलाप करना प्रति (प्रतिवाक्ये) प्रतिवाद करना प्र (प्रलापे-अनर्थकवाक्यप्रयोगे) प्रलाप ८५. वद (वदति) बोलना करना सम् (संलापे-मिथो भाषणे) परस्पर में बात करना। सम्-संवाद करना अनु (मुहुर्भाषणे) बार-बार बोलना अनु-अनुवाद करना अप (अपलापे) अपलाप करना वि-विवाद करना उत् (काकुवाचि अन्योक्तो च) व्यंग में प्रति-खंडन करना। बोलना, अन्योक्ति से कुछ कहना। ८६. वदिङ् (वन्दते) प्रणाम करना अभि-कहना अभि (प्रणामे) प्रणाम करना उद्-स्वर भंग कर बोलना ८७. वपंन् (वपति, वपते) बोना आ-आलाप करना निर् (दाने) देना अप-अपव बाद करना Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ८८. वसं ( वसति) रहना पुनर् + आ - वापिस लौटना उप (उपवासे) उपवास करना, निकट रहना वि + आ - पृथक् होना प्र ( विदेशगमने ) प्रवास करना उप-समीप होना अनु - रहना अधि - रहना आ - रहना ८६. वन ( वहति) वहन करना उद् (उद्वाहे) विवाह करना ६०. विशंज् (विशति) घुसना नि (निविशति ) बैठना आ (निविशते ) व्याप्त होना अभि + नि ( बुद्धिप्रवेशने) ज्ञान पूर्वक प्रवेश करना सम् (शयने) सोना निर् (भृतो भोगे च ) वेतन देना, भोग करना उप (स्थितौ ) बैठना परि ( परिवेशने) घेरना १. वृतुङ् ( वर्तते ) होना अति (जये नियोगे उल्लंघने च) जीतना, नियुक्त करना, अतिक्रमण करना अनु (अनुकरणे) अनुकरण करना अप ( प्रतिगमने) लौटना आ (भ्रमणे) घूमना नि (निवृत्तौ ) निवृत्त होना निर् ( करणे) करना परि (वेष्टने परिवर्तने वर्चस्वीभवने चक्रवद् भ्रमणे च) बेष्टित करना, परिवर्तन करना, वर्चस्वी होना, चक्राकार घूमता प्र ( कार्यलग्ने प्रारंभे च ) कार्य में प्रवृत्त होना, प्रारंभ करना वि ( गमने चक्रवद् भ्रमणे च) जाना, चक्राकार घूमना, अवस्था बदलना ε२. वृन्त् ( वृणोति ) वरना सम् (संकोचने) संकुचित करना ६०५ वि ( विस्तारकरणे) विस्तार करना अति (जये नियोगे उल्लंघने च) विजित होना, नियुक्त करना, प्रेरित करना आ— ढांकना ३. व्रज ( व्रजति) जाना परि ( सन्न्यसने ) संन्यास लेना अनु ( अनुगमने) अनुगमन करना अप ( अपगमने) दूर होना ε४. शमुच् (शाम्यति) शान्त होना उप (निवृत्तौ ) उपशांत होना, निवृत्त होना ६५. शासुक् (शास्ति) अनुशासन करना आ (आशंसने आशीर्वादप्रार्थने) आशीर्वाद की प्रार्थना करना ९६. शिब्लू र् ( शिनष्टि) विशेषित करना वि (विशेषकरणे ) विशिष्ट करना ε७. शिषण (शेषयति) अनुपयुक्त होना वि ( अतिशायने) विशिष्ट होना अव (अवशेषे) अवशिष्ट होना ६८. शीक् (शेते ) सोना अति (अतिशेते) अतिक्रमण करना अधि ( शय्यामधिशेते ) सोना सम् — संशय होना अनु – पश्चात्ताप करना ६६. शुच ( शोचति ) शोक करना अनु (किञ्चिदुद्देशेन पश्चात्तापे) शोक करना, पश्चात्ताप करना Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ वाक्यरचना बोध १००. धिन् (श्रयति) सेवा करना धान करना। आ (आलम्बने) आलम्बन लेना अभि (अभिषेके) अभिषेक करना प्र (प्रागल्भ्ये) दक्ष होना, वाचाल होना उद् (गर्वे) गर्व करना उद् (उच्चभवने) उच्च होना १०८. षिध (सेति) जाना १०१. श्रृंत् (शृणोति) सुनना नि (निषेधे) निषेध करना प्रति (स्वीकारे) स्वीकार करना प्रति (निषेधे) प्रतिषेध करना आ (स्वीकारे) स्वीकार करना आ (आसेधे-राजाज्ञयावरोधे) राजा की सम् (संश्रवे) स्वीकार करना आज्ञा से प्रतिवन्धित होना प्रति-प्रतिज्ञा करना उद् (उच्चतायां) ऊंचा होना १०२. श्लिषंच (श्लिष्यति) आलिंगन १०६. धुंन्त् (सुनोति) ऐश्वर्य होना करना अभि (अभिषवे-सोमं निष्पादयति स्नाति वा) प्र (प्रश्लेषे) आलिंगन करना ___ सोमरस निष्पन्न करना, स्नान करना १०३. श्वसक (श्वसिति) श्वास लेना ११०. षोंच (स्यति) विनाश करना आ (आश्वासे) आश्वासन देना वि+अव (उद्यमे बोधे च) उद्यम करना, वि (विश्वासे) विश्वास करना बोध देना प्र (प्रश्वासे) प्रश्वास लेना अनु+वि (अवबुद्धस्य पुनर्बोधे) जाने हुए नि (निश्वासे) निश्वास लेना ___ का पुनः बोध करना। १०४. षज (सजति) मिलना १११. ष्टुंन्क् (स्तौति, स्तवीति) स्तुति प्र (प्रसंगे) अनुरक्त होना करना अनु (अनुसंगे) आसक्त होना प्र (प्रस्तावे) प्रस्तुत करना अभि (अभिषंगे-पराभवे) पराजित होना सम्-परिचय करना १०५. षदलंज (सीदति) नष्ट होना, अभि-स्तुति करना जाना, विषाद करना ११२. ष्ठां (तिष्ठति) ठहरना प्र (प्रसादे) प्रसन्न होना प्र (प्रस्थाने) प्रस्थान करना वि (विषादे) खिन्न होना प्रति (प्रतिष्ठायां) प्रतिष्ठा करना अव (अवसादे) अवसाद करना, दुःख करना अधि (अधिष्ठाने) आधारभूत होना उद् (उन्मूलने) उखाडना उद् (उत्थाने) उठना आ (नकट्ये) निकट होना सम्-मरना, ठहरना १०६. षहङ् (सहते) सहन करना अनु-अनुष्ठान करना उद् (उत्साहे) उत्साहित होना अव-ठहरना, रहना १०७. षिचंन्ज् (सिञ्चति) सिंचन ११३. सू (सरति) जाना करना प्र (प्रसारे) फैलाना नि (निषेके-गर्भाधाने) निषेक करना, गर्भा- अप (अपसरणे) दूर होना Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ अनु ( अनुसरणे) अनुसरण करना वि ( विस्तारे) विस्तृत होना अभि (अभिसारे-कान्तार्थे तया संकेतस्थाने गमने) प्रिय से मिलने के लिए संकेतित स्थान पर जाना । उद् (उत्सरणे - दूरीभवने ) दूर होना सम् - चक्कर लगाना निस् - निकालना परि- आसपास घूमना उप— निकट जाना ११४. सुप्लृ ( सर्पति) जाना उद् (उल्लंघने - उत्थाने ) ऊपर चढना उत्थान करना अप ( अपयाने) दूर होना सम् (समन्तात् गतौ व्याप्तौ च ) चारों ओर से गति करना, व्याप्त होना । ११५. स्कन्द (स्कन्दति ) अव (अवरोधने) अवरोध करना ११६. स्तृन्त् (स्तृणोति ) ढांकना वि ( विस्तारे) विस्तार करना सम् (संस्तरे) बिछाना ११७. स्पर्धङ (स्पर्धते ) स्पर्धा करना आ (आस्फालने) फडफडाना ११८. स्पृशं ( स्पृशति ) छूना उप ( आचमने) आचमन करना ११६. स्मृ ( स्मरति ) स्मरण करना वि (विस्मरणे) भूलना १२०. हक् (हन्ति) मारना, जाना परा ( पराहतो) आघात करना सम् (संघाते ) एकत्रित होना वि (विघाते ) चोट करना १२१ हांक ( जिहीते ) जाना उत् ( उदये) उदित होना ६०७ १२२. हि ( हिनोति ) जाना, बढना प्र ( प्रेरणे) प्रेरित करना १२३. हृन् (हरति ) हरण करना प्र ( प्रहारे) प्रहार करना अप ( दूरीकरणे) अपहरण करना सम् (संहारे) संहार करना अनु (अनुकरणे) अनुकरण करना, सदृश होना सम् + अभि-हरण करना वि+आ (कथने) कहना अभि + अव ( भोजने ) भोजन करना अभि ( कोलाहले ) कोलाहल करना + ( च) तर्क करना, शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना, वाद करना । शुद्धाशुद्धविचारे वादे अभि + उत् ( दाने) देना अभि + वि + आ ( उच्चारणे) उच्चारण करना उप ( दाने समीपानयने) देना, समीपलाना उप + सम् (अदाने रक्षणे एकत्रीकरणे समाप्ती च) नहीं देना, रक्षा करना, इकट्ठा करना, समाप्त करना । नि (निस्तब्धीभावे शीते निष्कालने च ) निस्तब्ध होना, ठंढा होना, निकालना निर् ( अपमाने ) अपमान करना निरा ( उपवासे) उपवास करना परि ( गालिदाने निन्दायां त्यागे रोधे सार - तत्त्वनिष्कालने च) गालि देना, निन्दा करना, त्याग करना, रोकना, सारतत्व को निकालना | प्रत्या ( इन्द्रियदमनपूर्वकध्याने) प्रत्याहार करना - इन्द्रियों को विषयों से प्रति + सं ( त्यागे अप्रतिष्ठायां च ) हटाना । छोडना, Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ वाक्यरचना बोफ अप्रतिष्ठा पाना। करना वि+अव (उद्योगे वादे कलहे च) उद्यम वि-विहार करना करना, वाद करना, कलह करना आ-आहार करना सम् (मारणे नाशे एकत्रीकरणे च) मारना, नि-निहार करना नाश करना, एकत्रित करना अव-निकालना सम् + अभि+वि+आ-समभिव्या (एक- अधि+आ-ऊपर से लेना मतेन योजनायां युक्तिनिष्काशने च) १२४ हनुंङ्क (ह नुते) छिपाना एक मत से योजना करना, युक्ति अप (अपह नुते) अपलाप करना निकालना। नि (गोपने) छिपाना सम् + उद्+आ = समुदा (कथने) कहना १२५. ह. वेंन (ह्वयते) स्पर्धा करना, सम्+उप (एकत्रीकरणे) इकट्ठा करना शब्द करना वि+अति (मिथः करणे एकमतेन चौर्ये च) आ (आह्वाने) बुलाना । परस्पर मिलना, एक मत से चोरी Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ एकार्थ धातुएं अर्थ एकार्थधातवः अधिकार करना--अधिकरोति अनुकरण करना-अनुकरोति, अनुसरति, अनुयाति, अनुहरति, अनुविदधाति, ___अनुविदधते, विडम्बयति, तुलयति अनुग्रह करना-अनुगृह्णाति अनुज्ञा देना-अनुजानाति, अनुमनुते, अनुमन्यते अनुताप करना-अनुशेते, अनुतप्यते अनुभव करना-अनुभवति, आस्वादयति, उपजीवति, उपभुङ्क्ते, उपयुङ्क्ते, निविशति अनुवाद करना-अनुवदति अनुमान करना-अनुमाति, अनुमिमीते अनुमोदन करना—अनुमन्यते, अनुमनुते, अनुजानाति अनुसंधान करना-अभिप्रेति, अनुसन्दधाति, निरीक्षते अपमान करना-अवमन्यते, अवमानयति, अवजानाति, अवधीरयति, अवगणयति, अवहेलयति अपराध करना--अपराध्यति, विराध्यति, अपराध्नोति, विराध्नोति अपहरण करना-अपहरति अपेक्षा करना-अपेक्षते अभिग्रह करना-अभिगृह्णाति अभ्यास करना-अभ्यस्यति अलंकृत करना-मण्डति, मण्डयति, भूषति, भूषयति, प्रसाधयति, अलंकरोति, परिष्करोति अवज्ञा करना-अवजानाति अवस्था बदलना-विवर्तते अहंकार करना-अभिमन्यते, दृष्यति, गर्वति, अवलिप्यते, गर्वयति, गर्वायते, माद्यति आंकना-अङ्कयति, अङ्कयते आंजना-अनक्ति Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० वाक्यरचना बोध आक्रमण करना-आक्रामति आक्षेप करना-आक्षिपति आग्रह करना—आगृह्णाति आचमन करना-आचामति आचरण करना-आचरति आच्छादित करना-संवृणोति, आवृणोति, अपिदधाति, पिदधाति, पिधत्ते, स्तृणाति, स्तृणोति, आच्छादयति, निह नुते, अपह नुते, निगृहति, आवृणीते, संवृणीते, गोपयति, गोपायति, अन्तर्दधाति, तिरोदधाति, व्यवदधाति, निचुलयति, निस्तृणोति, छादयति, तिरस्यति आज्ञा देना—आज्ञापयति, आज्ञपयति, आदिशति, शास्ति, नियोजयति, ___ व्यापारयति, नियुङ्क्ते, निदिति, अनुजानाति, अनुमनुते, अनुमन्यते आदर करना-आद्रियते, सम्माति, संमन्यते आनंदित होना-आनन्दति आना-आगच्छति, आयाति, आपतति, उपतिष्ठति, उपनमति, उपसीदति आपत्ति में पडना-आपद्यते आरंभ करना-आरभते, प्रस्तौति, प्रक्रमते, उपक्रमते, परिष्वजते आराधना करना-आराध्यति, आराधयति, भजति, उपासते आलिंगन करना--आलिङ्गति, आश्लिष्यति, परिरभते, उपगूहते, स्वजते आविष्कार करना—आविष्करोति आशा करना-आशास्ते आश्चर्य करना—विस्मयते, चित्रीयते, चमत्करोति आश्चर्यान्वित करना-विस्मापयते, चित्रीयते, चमत्कारयति आश्रय लेना-अधितिष्ठति आसपास घूमना-परिसरति आह्वान करना—आह्वयति, आकारयति आहुति देना-जुहोति, स्वाहाकरोति, वषट्करोति इच्छा करना-इच्छति, वाञ्छति, कामयते, काङ्क्षति, वष्टि, लिप्सते, ईप्सति, आशास्ते, आशंसते, अभिलषति, स्पृहयति, समीहते, अभिलषति, लुभ्यति, गृध्यति ईर्ष्या करना-ईय॑ति, असूयति उखडना-विरोहति उखाडना-उत्खनति, उत्खनते, उन्मूलयति उगलना-उगिरति, उगिलति उघाडना-उद्घाटयति, उद्घाटयते उछलना-उच्छलति Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : उठना-उत्तिष्ठति.-: उडना-उड्डयते, उड्डीयते उतरना-अवतरति उतावला होना-उत्ताम्यति उत्तेजित करना---उत्तेजयति उत्पन्न करना---प्रसूते, प्रसौति, प्रसवति, उत्पादयति, जनयति, आदधाति उत्पन्न होना- उद्भवति, निष्पद्यते, जायते उदय होना-उदेति, उदञ्चति, उज्जिहीते, उन्मिषति; उदभवेति, प्रादुर्भवति, आविर्भवति, प्रादुरस्ति, आविरस्ति, आविरास्ते, प्रादुरास्ते, उदयति, प्रकाशते, रोहति उदास रहना-उदास्ते उदाहरण देना-उपनयति :उद्धारना-उद्धरति उद्यम करना-उद्युङ्क्ते, प्रयतते, उत्तिष्ठति, व्यवस्यति, उद्यच्छते, अभि युङ्क्ते उद्विग्न होना-उद्विजते उन्नत करना-उन्नयति उपकार करना—उपकरोति उपमित करना-उपमाति उपाधि देना-उपादधाति उपालंभ देना-उपालभते, परियुङ्क्ते, अनुयुङ्क्ते, प्रतिभिनत्ति उपेक्षा करना-उपेक्षते उबालना-क्वथति उल्लंघन करना-उल्लंघयति, विलङ्घते, अतिक्रामति, अतिशेते, अत्येति, विलङ्घयति उवासी लेना-जृम्भति ऊंचा फेंकना-उत्क्षिपति ऊपर खींचना-उदञ्चति ऐंठना-एठते कंतरना-कृन्तति कथन करना-कथयति, प्रकीर्तयति, आख्याति, आवेदयति, शंसति, आलपति, __ उदीरयति, उच्चरति, व्याहरति, वदति, निगदति, वक्ति, ब्रवीति; आचष्टे, भाषते, अभिदधाति, भणति । - - .... कंपना-विकम्पते, प्रेङ्खते, वेपते, वेल्लति, लोलति लनि .... .... . Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ वाक्यरचना बोध कम्पाना-धुनोति, धुवति, धुनाति, कम्पयति, प्रेतयति, धूनयति, लुलयति, दोलयति, तरलयति कटना-कटति कमाना- अर्जयति, अर्जयते करना-करोति, सृजति, प्रणयति, घटयति, अनुतिष्ठति, विदधाति, संपादयति, निष्पादयति कल्पना करना-कल्पयति कलह करना-कलहायते कसना-द्रढयति काटना-कृन्तति, छिनत्ति, तक्ष्णोति काढना-उद्धरति काबरापन करना-कर्बुरयति, शबलयति, किर्मीरयति काम में लाना-उपयुज्यते, व्यवहरति किञ्चित् हंसना-स्मयते कुशल पूछना-सभाजयति कूटना-कुट्टयति, कुट्टयते कूदना-कूदते क्षमा करना-सहते, मृष्यति, मर्षति, मृषयति, मर्षते, क्षमते, तितिक्षते, क्षाम्यति क्रीडा करना-क्रीडति, विहरति, रमते, खेलति, खेलायति क्रोध करना-क्रुध्यति, कुप्यति, रुष्यति, संरभते कोसना-क्रोशति खरच करना–व्ययति खरीदना-क्रीणाति खाज करना-कण्ड्यति, कण्डूयते । खोज करना-मार्गति, मार्गयति, मृगयति, गवेषयति खंडन करना-पराकरोति खांसी लेना-कासते खिलना - विकसति, परिस्फुटति, उन्मिषति, उन्मीलति खींचना–कर्षति, कृषति खुडाना-खजति खुरचना-आलिखति खेती करना-कर्षति खेदित होना-खिद्यति, क्लियति, तिम्यति, स्तिम्यति, उन्नदति खोज करना-अन्वेषयति, पर्यवेक्षते, अन्विष्यति, ढण्ढयति Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ खोदना — खनति खोलना — उद्घाटयति खोसना ( छीनना ) – आछिनत्ति, लुण्ठति, लण्ठयति, लण्ठयते, आछिनत्ति, हरति गरम करना - तपति गर्जना - गर्जति, ध्वनति, स्वनति गलहत्था देना – लहस्तयति गाडना — कीलति, निखनति गाना- - गायति गिनना – गणयति, संचष्टे, संख्याति संख्ययति, कलयति गिरना - पतति गुदगुदाना — गोदते गूंजना — गुञ्जति गूंथना - ग्रथ्नाति गुम्फति, गुम्फयति, ग्रन्थति, ग्रन्थयति, सूत्रयति, संदर्भयति गौर करना - अवदधाति, ध्यायति ग्रहण करना — गृह्णाति, आदत्ते, लाति घटना - अपचीयते घसना - घषति, विलिखति, उल्लिखति, कषति, घटयति घालना ( रखना) — न्यस्यति, आरोपयति, निवेशयति, निदधाति घिसना - घर्षति, कषति, घट्टयति घूमना- घूर्णते चोकना - रटति घोटना-घोटते घोषणा करना - उद्घोषयति चक्कर लगाना - संसरति चखना - चषति, चषते चढना-आरोहति चमकना - द्योतते, राजते चबाना - चवंति ६१३ चरना- - चरति चर्चा करना - चर्चति चलना - चलति, प्रेङ्खति, विकम्पते चाटना - लेढि चिकना करना - स्नेहयति चिकित्सा करना - चिकित्सति, भिषज्यते Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ चिन्ता करना - चिन्ह करना - अभिजानाति चिल्लाना — कन्दति चीरना — दृणाति चुगली करना - सूचयति, अभ्याख्याति चुनना - चिनोति, चिनुते चुभना तुदति - चिन्तयति वाक्यरचना बोध चुम्बन करना - चुम्बति चूकना - विस्मरति चूर्ण करना - चूर्णयति, चूर्णयते, म्रुदयति, क्षुणत्ति, पिनष्टि चूना — चूषति चेताना — चेतयति चेष्टा करना - चेष्टते चोना—च्योतति, श्चोतति, स्रवति, क्षरति चोरी करना - चोरयति, मुष्णाति, मुष्यति, स्तेनयति, अपहरति, लुण्ठति, लुण्ठयति छल करना - छलयति, प्रतारयति छिपाना - गोपयति, गोपायति, नि, नुते, अपह्नुते, रहयति छिलना — तक्षति छींकना —क्षौति छूना स्पृशति छेद करना -- छिद्रयति, छिद्रयते छेदन करना - छिनत्ति, भिनत्ति, क्ष्यति, शकलयति, खण्डयति, लुनाति, छोडना - मुञ्चति त्यजति, जहाति, उज्झति, उत्सृजति, परिहरति, निरस्यति, विरहयति, विघटयति, विश्लेषयति, संन्यस्यति, रेचयति, रहयति, अपास्यति, निरस्यति, वियुङ्क्ते, विप्रयुङ्क्ते, वियोति जपना-जपति जलना -- ज्वलति, ज्वालयति जलाना - दहति, प्लोषति, ओषति, प्लुष्यति जागना - जागति, प्रबुध्यते जानना - जानाति, वेत्ति, मनुते, अवधारयति, अवैति, अवयाति, अवगच्छति, अधिगच्छति, बुध्यते जाना - गच्छति, ऋच्छति, व्रजति, याति, एति, इयर्ति, चलति, सरति, अयते, जिहीते, संचरति, क्रामति, विचरति, विसर्पति, अति जीतना - जयति Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ जीना-जीवति जीमना-जेति जुडना-जुडति जुवा खेलना-दीव्यति जोडना-युनक्ति, योजयति, घटयति, जोडयति, जोडयते जोतना-हलति, कृषति झरना-क्षरति, झीर्यति, प्रपतति झाग आना-फेनायते झाडना-मार्जयति, मार्जयते झंपा लेना-संपतति टहलना--पर्यटति टांकना-टङ्कयति, टङ्कयते टूटना-त्रुट्यति ठगना–वञ्चति, वञ्चयति, विप्रलभते, प्रतारयति, विप्रतारयति, द्रुह्ययति, छलयति ठहरना—तिष्ठति, विरमति, विरमते, निलीयते, निवसति ठोकना--ताडयति, ताडयते डरना-बिभेति, त्रस्यति, आशङ्कते डराना-भापयते, भीषयति, त्रासयति, कम्पयति डसना-दंशति डालना-निक्षपति, निक्षिपते, न्यस्यति डिगना-विचलति डींग हाकना-कत्थते डूबना-निमज्जति, ब्रुडति ढकना-आवृणोति, पिदधाति, पिदधते ढोना—वहति, वहते, उह्यते तपना-तपति तपस्या करना-तपस्यति, तप्यति तरना-तरति तरसना-तृष्यति तर्क करना---तर्कयति, तर्कयते, ऊहते ताडना----ताडति, ताडयते, आहन्ति तिरस्कार करना—तिरस्करोति, न्यक् करोति, धिक् करोति तुलना करना-प्रतिमाति, तोलयति तेज करना—तेजयति, तेजयते Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ तैयार होना - सज्जति तोडना — भनक्ति, त्रोटयति तोलना -- तोलयति, तोलयते, माति वाक्यरचना बोध तृप्त करना – तर्पयति, पृणाति, प्रीणाति, प्रीणयति तृप्त होना - तृप्यति थकना - श्राम्यति थमना - -स्तम्भनोति थूकना —ष्ठीवति दण्ड देना - दण्डयति, दण्डयते दबाना — दाम्यति, शमयति दया करना - दयते, अनुकम्पते दुःख करना - अनुशेते, अनुतप्यते दुःख देना - पीडयति, पीडयते, दुःखयते, क्लिश्नाति दुःखित होना - दुःखायते, विषीदति, तप्यते, निर्विद्यते खिद्यते, व्यथते, क्लिश्यति, विमनी भवति, विमनायते, दूयते, दुर्मनायते, उद्विजते दुहना-दोग्धि देखना - पश्यति, विलोकते, विलोकयति, वीक्षते, निभालयति, विभावयति, निध्यायति, निशामयति, निरूपयति दुरुपयोग करना – अपयुनक्ति दूर करना – अपनयति, उत्सृजति, व्यपोहति व्यपाकरोति दूर होना - अपसरति, उत्सरत दूषित करना — दूषयति, दूषयते देना - ददाति, दत्ते, ददते दिशति, विश्राणयति, प्रयच्छति, उत्सृजति, वितरति, समर्पयति देर करना - विलम्बते दौडना - धावति धक्का देना —— धक्कयति धमना - - धमति धारण करना - धारयति, धरति दधते, दधाति, वहति, आलम्बते, बिर्भात, कलयति धूप देना -धूपायति धोना - प्रक्षालयति, प्रक्षालयते ध्यान करना — ध्यायति नमस्कार करना — प्रणमति, नमस्करोति, नमस्यति, वन्दते, प्रणिपतति, प्रणिदधाति Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ नमाना – नमयति, नामयति, आवर्जयति नष्ट करना - नाशयति, निर्दलयति, शृणाति, ध्वंसयति नष्ट होना - नश्यति, विशीयंते, ध्वंसते नाचना-नृत्यति नटति, रङ्गति, विलसति नाथना - नाथति नापना —माति निकलना - निष्क्रामति, निर्गच्छति, निरेति, निःसरति निगलना - निगिरति, निगिलति निचोना - गारयति, निष्पीडयति, निष्पीडयते, गालयते निन्दा करना - निन्दति, गर्हते, गर्हयति, द्वेष्टि, आक्रोशति, आक्षिपति, अपवदति, जुगुप्सते, शपति, अवहेलयति, विगायति निभाना - निर्वहति, निर्वहते निमंत्रण देना - आमंत्रयति, निमंत्रयति नियुक्त करना - नियुङ्क्ते, नियोजयति निरर्थक करना - — निरर्थयति निर्माण करना - — निर्माति निवृत्त होना - निवर्तते, विरमति निश्चय करना - निश्चिनोति, निर्धारयति, निर्णयति, संप्रधारयति, परिछिनत्ति प्रमाति, दृढयति, प्रमाणयति ६१७ निःश्वास लेना — निःश्वसिति निषेध करना - निरुणद्धि, प्रत्यादिशति, निवारयति, प्रतिहन्ति, अपाकरोति, निराकरोति, निषेधति, निषेधयति, नियंत्रयति निहार करना - निहरति नीचे उतरना - अवतरति, अवरोहति पढना – अभ्यस्यति, गृणाति, अधीते, शिक्षते, पठति, आमनति - पढाना - विनयति, अध्यापयति, व्युत्पादयति, शास्ति, पाठयति, शिक्षयति पतन होना— च्यवते, पतयति, पतति, भ्रश्यति, भ्रंशते, क्षरति, विस्रसते, विगलति, विशीर्यते पहनना —संव्ययते, परिदधाति पराभव करना – तर्जयति जयति, लङ्घयति, तर्जयते, हसति, भर्त्सयति, संवदते, विडम्बते, अधरयति, व्यर्थयति, गलहस्तयति, तृणीकरोति, नीचैः करोति, पश्चात्करोति, न्यक्करोति, निकरोति, धिक्करोति, अपकरोति, अधस्करोति, तिरस्करोति, अधरीकरोति, लघूकरोति, विफली करोति, विफलयति, ह्र ेपयति, त्रपयति, व्रीडयति, लज्जयति, निम्नयति, Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध न्यञ्जयति, नमयति, वितथीकरोति वितथयति, अभिभवति, पराभवति, परिभवति परिचय करना-परिचिनोति, संस्तौति परिश्रम करना-आयस्यति, ताम्यति, श्राम्यति, परिखिद्यते, प्रयस्यति, ग्ला यति, म्लायति, कामति परीक्षा करना-परीक्षते परोसना–परिवेषयति पीडा करना-पीडयति, तुदति, रुजति, व्यथयति, दुःखीकरोति, दु.खयति, अर्दयति, कदर्थयति, क्लिश्नाति, बाधते, अर्दते, अर्दति, ग्लपयति, खेदयति, तापयति, उन्मनयति, दुनोति, दुर्मनयति, विह्वलयति, विधुरयति पीना-पिबति, धयति, आचमति, पीयते, रसति । पीने की इच्छा करना-तृष्णाति, उदन्यति, पिपासति पुष्पों को लगाना-पुष्प्यति पूजा करना-श्लाघते, अर्चति, अर्चयति, पूजयति, अर्हति, महति, माहयति, __ अञ्चति पूर्ति करना—पूरयति, पूर्यते, व्याप्नोति, व्यश्नुते, पिपत्ति, भरते, विगाहते प्रकट करना-प्रकटयति, व्यञ्जयति, व्यनक्ति, व्यञ्जते, प्रकाशयति, उद् गिरति, विवृणोति, स्फुटयति, आविष्करोति, स्फुटीकरोति, प्रकटीकरोति, व्यक्तीकरोति, वृणीते प्रतिकार करना-प्रतिविदधाति, प्रतिकरोति प्रतिबिम्बित होना–प्रतिफलति, स्फुरति, संक्रामति पवित्र करना-पावयति, पवित्रयति, पवते, पुनाति प्रवेश करना - प्रविशति प्रतीति करना-मानयति, संभावयति, प्रत्येति, श्रद्दधाति प्रतीक्षा करना—अनुपालयति, प्रतिपालयति, प्रतीक्षते प्रश्न करना-अनुयुङ्क्ते, पृच्छति प्रसन्न करना-सान्त्वयति, प्रसादयति, अनुनयति, परितुष्यति, अनुगृह्णाति, प्रसीदते प्रमाद करना-प्रमाद्यति प्रस्ताव लाना-प्रस्तौति प्रहार करना-प्रहरति, विध्यति, शरव्यति प्राण धारना-प्राणिति, उच्छ्वसिति, जीवति प्राप्त करना-विन्दति, आसादयति, प्रपद्यते, अश्नुते, अधिगच्छति, प्रतिपद्यते, . प्राप्नोति, आसीदति, लभते, नयति प्राप्त कराना-प्रलम्भयति, प्रापयति, गमयति, नयति Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ प्रारम्भ करना - आरभते, प्रस्तौति, प्रक्रमते, उपक्रमते प्रेरणा करना — प्रयुङ्क्ते, नुदति, प्रेरयति, प्रवर्तयति फलित होना -- फलति फेंकना — विकरति, विक्षिपति बांधना - नाति, बध्नाति संयच्छति विलम्ब करना — चिरयति, विलम्बते बीज का बोना-वपति बुझना - निर्वाति, विध्यायति बैठना — निषीदति, उपविशति, निविशते, आस्ते बोलना - आलपति, रयति, उदीरयति, उच्चरति, व्याहरति, वदति, निगदति, उदाहरति, वक्ति, ब्रवीति, आचष्टे, भाषते, अभिदधाति, अभिगृणाति, भणति भडकना —संधुक्षयति भय उत्पन्न करना - त्रासयति, कम्पयति, क्षोभयति, भापयति भयभीत होना - त्रस्यति, आशङ्कते, प्रकम्पते, बिभेति, क्षुभ्यति, चकते भांफ निकालना - वाष्पायते ६१६ भागना -- विद्राति, विद्रवति, पलायते, नश्यति भेंट चढाना — उपनयति, ढोकयति, उपहरति भेदना - द्यति, शकलयति, भिनत्ति, कृन्तति, विदारयति, वृश्चति, लुनाति, खंडयति, छ्यति भेदन होना - विदीर्यते, दलयति, स्फुटति, भिद्यते भोजन करना —— कवलयति, भक्षयति, साति, खादति, आहरति, कवलीकरोति, अभ्यवहरति, अत्ति भुङ्क्ते, विष्वणाति, अश्नाति, गिलति, जक्षिति, प्रत्यवस्यति, ग्रसते, अवलेढि, वल्भते, जेमति भ्रमण करना - भ्रमति, भ्राम्यति, अटति मर्दन करना — संवाहयति माध्यस्थ्य भाव रखना — उदास्ते मारना - हन्ति, हिनस्ति, निशुम्भति, हिंसयति, ध्वंसते, निगृह्णाति, नाशयति, निबर्हते सूदते, सूदयति, संहरति, निर्दलयति, निर्वासयति, प्रवासयति, उद्वासयति, शंसति, विशसति, शमयति, दमयति, उन्मूलयति, शृणाति, लुम्पति, निर्मूलयति, उत्खनति, उद्धरति, व्यापादयति, विपादयति, उज्जासयति, मथ्नाति मारयति, उच्छिनत्ति, तृणेति, क्षिणोति मिलना - मिलति, श्लिष्यति, आसञ्जति, युज्यते, लगति मुख से ऊष्मा निकालना — ऊष्मायते मुग्ध होना - मुह्यति, मूर्च्छति Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० मृग को खेलाना - रजयति मर्दन करना-संवाहयति 1 याचना करना – अभ्यर्थयति नाथति, वृणोति, वृणीते, वरयति, अर्दति, मार्गयति, याचति, याचते, भिक्षते युद्ध करना — युध्यति युद्धार्थ सज्जित होना - संनह्यते, संवर्मयति रक्षा करना – पाति, गोपयति, भुनक्ति, रक्षति, त्रायते, शास्ति, पालयति, अवति रञ्जित करना - आवर्जयति रञ्जयति वाक्यरचना बोध रांधना -- रन्धयति, सेधयति लज्जित होना - जिह ति, लज्जते, त्रपते, ह्रीणीयते, व्रीड्यति लाड करना — लालयति लाना - आहरति, आनयति लिखना - लिखति लीपना —देग्धि, लिम्पति, उद्वर्तयति लेप करना – अभ्यनक्ति वृद्धि करना - वर्धते एधते, ऋध्नोति, ऋध्यति, स्फायते, उपचीयते, प्रहृष्यते, विसरति, प्रसरति, अतिरिच्यते, भृशायते, उत्सर्पति विसर्पति वस्त्र गांठना -- वयते वांचना - वाचयति वापिस करना — व्यावर्तते, वलते, विवर्तते, वलयति वापिस लेना — प्रतीच्छति विकसित करना - प्रबोधयति, विकसयति, उन्मीलयति, उन्निद्रयति, विनिद्रयति, भिनत्ति, दलयति विकसित होना - विकसति, प्रबुध्यते, उन्मीलयति, उन्मिषति, विजृम्भते, स्फुटति, उच्छ्वसिति भिद्यते, विदलयति विचार करना - विमृश्यति, आलोचते, आलोचयति, वितर्कयति, ऊहते, विचारयति, विकल्पयति, अनुमाति, मीमांसते, उन्नयति, विविनक्ति, विचिकित्सति विपरीत कहना व्यभिचरति, विघटते, संवदते, विपर्येति विरक्त होना - विरमति, उपरमति, आरमति, उपैति नश्यति, निवर्तते विलंब करना - चिरयति, विलम्बते विभाग करना --- विभजति विवाह करना - उपयच्छति, परिणयति, उद्वहति, विवहति विरोध करना — विरुणद्धि, निगृह्णाति Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ६२१ विस्तार करना — तनोति, प्रस्तारयति, प्रपंचयति, विस्तारयति, प्रथयति, विस्फारयति, विसारयति विश्राम करना — विश्राम्यति विश्वास करना - विस्रम्भते, विश्वसिति - वीणयति वीणा का गाना — वींटना – वलयति, वेष्टयति, परिवृणोति वैर करना – वैरायते व्याख्यान देना – व्याख्याति, व्याचष्टे, व्याकरोति, विवृणोति व्यापार करना — व्याप्रियति शब्द करना — शब्दायते, स्वनति, ध्वनति, रणति, रसति, ध्वनति, प्रगर्जयति, रति, झङ्करोति, गुञ्जति, कूजति, नदति, क्वणति, विरौति शमन करना - शमयति, हरति, अपोहति, विनयति, अपनयति, नुदति, नाशयति, विरमयति, उपरमयति, अपगमयति, अपसारयति, लुभ्यति, निवर्त - यति, मार्जयति, मष्टि, दूरयति, अपसर्पति, क्षपयति, अस्यति, प्रोञ्छति शयन करना - शेते, निद्रायति, स्वपिति, निद्राति, निद्रायते शीघ्रता करना — त्वरते शुद्ध करना - नेनेक्ति, शोधयति, प्रक्षालयति शोभित होना - द्योतते, शोभते, भाति, भ्राजते, विराजते दीप्यते, भासते, प्रकाशते, चकास्ति, लसति, उल्लसति, विलसति, रोचते श्लोकों से स्तुति करना - उपश्लोकयति संकुचित करना - मुकुलयति, मुद्रयति, संकोचयति, निमीलयति संघर्ष करना – प्रतिगर्जति, संहृष्यति, आह्वयति, स्पर्धते, मिति संभावना करना — युज्यते, घटते, संभवति, उपपद्यते संदेश कहना - संदिशति संदेह करना —संदिग्धे, संशेते, दोलयति, भ्रमति, भ्राम्यति, विमुह्यति समाप्त करना — अवसाययति, समापयति, निःशेषयति, अशेषयति सरकना - रिङ्खति सामर्थ्य रखना - प्रभवति, विभवति, उत्सहते, शक्नोति, समर्थयति, पारयति ईष्टे, अध्यवस्यति, क्षमते, तरति, प्रगल्भते सुगंधित करना -- सुरभीकरोति, सुरभयति, वासयति सींचना - स्नापयति, उक्षति, सिञ्चति सुनना - आकर्णयति, निभालयति, उपवर्णयति, शृणोति, निशामयति सूना सूंघना - जिघ्रति सेना सहित लडना --अभिषेणयति Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ वाक्यरचना बोध सेवा करना-अनुकूलयति, आराध्नोति, आराध्यति, आराधयति, भजति, श्रयति, उपास्ते, शीलति, उपतिष्ठति, शीलयति, उपचरति, परिचरति, निषेवते, प्रासादयति, वरिवस्यति, अन्वास्ते, जुषते सन्मुख जाना—अभिगच्छति, अभिसरति, अभिसारयति स्तुति करना-नौति, स्तौति, प्रशंसति, श्लाघते, वर्णयति, ईट्टे, कवयति, ____ कवते, विकत्थते, अभिनन्दति, स्तुते, अभिवदते स्नान करना-अभिषणोति, स्नाति, आप्लवते स्पर्श करना-आमृशति, परामृशति, स्पृशति । स्मरण करना-स्मरति, ध्यायति, अध्येति, चिन्तयति स्वाद लेना-स्वदते, रोचते स्वीकार करना-परिगृह्णाति, उरीकरोति, ऊरीकरोति, उररी करोति, अङ्गीकरोति, स्वीकरोति, आद्रियते स्नेह करना-स्निह्यति । हर्षित होना-हृष्यति, तुष्यति, रमते, प्रीयते, माद्यति, नन्दति, मोदते हवा का चलना-प्रवहति, वाति हवा का लेना-व्यजयति, वीजयति हसना-हसति हाथों का फैलाना-अतिहस्तयति हाथी का गर्जना-वृंहते हाथी का प्रहार करना-परिणमसि हेषारव करना-हेषते है-अस्ति, विद्यते होना-भवति, उत्पद्यते, जायते, सिध्यति, निष्पद्यते, उदेति Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध . संध्यक्षर नियम ४५ योमिभिः ... पट-नृत्तौ बतलाता है आधा मणः . डाप, आप कर्ता शृणोति .... वृंहितोऽस्ति.. आस् धातु : प्रातिभाक्याम् . लतां कुशलार्थाथै राशिषि . . .. : 6 ८ ३३ सध्यक्षर ... ३३ २३ नियम ५५ ३४ ७ योगिनः ३६ १० णट-नृती... ४४ २३ बतलाया है..." ४५ २५ आधा मन . ५२ १६ आप .. .: ५६ १६ क्र्ता .. ६० २१ शृणेति ::: २२ वृहितोऽस्ति.. ६३ २५. . अस् धातुं ... - ६३ २६ प्रतिभाव्यं , : : ६७ ४ लता ७२ १५ कुशलार्थार्थराशिषि ७५ १२ आराणावासात् ग्रीष्मप्रकोपः ८१ ७ रहना जाता .. ८३ १३ का उदारहण ८७ ६ खानी चाहिए ६२ १८ (खोलकर) : ६२ ३१ गुण विकल्प ६६ १५ रोती कहा . १०२ १७ परिराजस्थान १०३ ६ प्रत्यात्यमम् ... १०५ ५ संमाजनी ... १०५ १४ धुतङ् , १०५ १४ संख्या ७१,७२ ११३ ३१ युवाजानिना। ११७ ह प्रच्छदपदः । रहना जाना जाता को उदाहरण : खाना चाहिए (खेल कर.) .. किद् संज्ञा (न का लोप)विकल्प रोती हुई कहा. परिराजस्थानं . प्रत्यात्मम् ...... संमार्जनी ... द्युतङ्, भ्रंशु संख्या ७१,७२,७३ युवजानिना.. प्रच्छदपट:, : Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १२३ १२ स च १२३ २३ शब्द रहता १२५ ८ प्रच्छदपद: १२६ १० लवणाक्षि १२६ २५ १२६ १३३ २६ १३५ १५ समूहे के १३५ २३ नियय २३३ १३६ १४ त्रल् कटयलूलम् १३८ १४ संख्या ४३ १४५ ४ १४६ ह १४७ २१ १५० १५४ ४ १५४ ८ २३ १८२ १८५ पर रहस् सहरति तद्धति के १५६ १० १६१ १ १६१ ३ १६६ १५ वृनत् १६६ १६ धूनत् प्रतिनिध्यम् निगम २७६ तद्धति के चान्दनः बालः इकण् प्रत्यय शब्दों से बर्षिमा १६१ २ १९३ ३० १९४ २ पुंस शब्द पुंस शब्द १७० ५ १७० १६ १७१ ३५ १७४ १२ १७५ १८ सूर्य १७७ १८ १७, १७७ १८ पून श् ७ नियम ४७३ २५ गोपालः बिन नियम ४०४ लम्भयति इन्द्रजालिक: संख्या १०६ से ११२ व्रीहिमान शुरु सा च शब्द शेष रहता प्रच्छदपट: लवणाक्षम् परे रहस् संहरति तद्धित के समूह के नियम २३३ त्रल्कट्यलूलम् संख्या ६६ प्रातिनिध्यम् नियम २७६ तद्धित के चान्दनबाल: इकट् प्रत्यय शब्दों से हन्ति अर्थ में वर्षमा पुंस् शब्द पुंस् शब्द वृन्त् धून्त् इन्द्रजालिक: वाक्यरचना बोध संख्या १०६, ४२,१११,११२ व्रीहिमान् छिन्ते सूर्य : ११७ पून्श् नियम ४७६ गोपालेन त्रिन् नियम ५०४ लम्भयति Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र ६२५ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १६४ २५ आगमन आगम १६६ १६ विभ्रक्षति, विभक्षति विभ्रक्षति, बिभक्षति १६७ १३ तितनिषिस्यति तितनिषिष्यति २०२ १० वार २ शोभित होता बार २ इच्छा करता है २०३ १७ स्रस स्रस् २०६ १६ उद्वमति (निकालना) उद्वमति (उगलना) २०६ १७ उ,वमति उद्वमति २१५ २० उण्णा उष्णा २१८ ३ अनद्यतन अनद्यतन परोक्ष अर्थ में .. २४२ १८ नियम ६२१ नियम ६३१ २४४ १३ गृहीतवान गृहीतवान् २४७ नियम ५४८,५४६,५५०,५५१ नियम ६४८,६४६,६५०,६५१ २४६ ६ ययिवान ययिवान् २५३ २ दुसरों दूसरों २५६ २५ आवेदकः आदेवकः २६६ २२ नियम ४०७ नियम ७०७ २७० २३ बलानां । बालानां: २७६ १७ शृङ्गाटक शृङ्गाटकं २७६ २० रोदं रोद. रोदं रोदं २७७ १४ ७३४ से ७३९ ७३४ से ७३० २८१ ११ इद इदं २८४ ८ चन्द्रमसु २८४ २८ हे धेन । हे धेनू . २८७ १ त्रिलिङ्गा शन्दा विलिङ्गाः शब्दाः २६४ १६ अनयोः अन्ययोः २६४ १७ अनयोः अन्ययोः २६४ २६ अनस्याः अन्यस्याः २६७ ८ आप्लुत् आप्लुत् ३१६ १७ धेट-पाने धेट-पाने २६ ३० x द्यादि ३ ३० २४ अधीयस्तम् अधीयास्तम् ३० २५ अध्येतास्व अध्येतास्म अध्येतास्वः अध्येतास्मः ३० ३० x चिंता करना ३३१ ८ दध्विम दध्यिम . . . चन्द्रमासु لم ل س س سه لله س فس Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यरचना बोध * a w * * * पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३४३ ५ आसध्वे. ३४३ ६ आसध्वम् ३४३ ४ आसध्वम् ३४४ २६. अस्तोष्यामः ३४६ २० ब्रूस्व ३५४ ७ अमन्दध्वम् ३५५ ११ रज्येताम ३५५ १२ रज्येथाम् ३६१ ८ अभैत्सव :: ३७३ १५ आहिंष्यंतम् ३७७ २ अजीवम् : ३७७ २०. बहुचन ३७७ २६ अयजतम् । ३८६ १४ एकवचम ३८७ १० भ्रंसुङ् ३६० १३ अधुक्षताम् .. ३६५ ३० ह्वयेरन .. ३६६ २४ स्वपिन्तु ४०१ १६ चकास्प्यिथः ४१४ १० द्वक्ष्यते . ४१४ ११ वक्ष्यसे , ४२२ १ जायेरन् । ४२८ ११ अवरिध्वम : ४३६ १० बुभुजतुः ४४२ २७ क्रीयाष्म . ४४७ ६ स्तृणात्.. स्तृणै । ४५० १ यत्स्यादि ४५६ ५ मन्त्रध्वे : -:: ४५६ ६ मन्त्रयामहे ४५७ १४ स्पृहयाव स्पृहयाम ४५६ १२ : मायास्म ४६० २६ अहिंयिष्यताम् । ४६१ ३ रचयय आध्वे "आध्वम - आध्वम् अस्तोष्याम ब्रूष्व अमन्द्ध्व म् रज्येयाताम् रज्येयाथाम् अभैत्स्व ;आहिष्यतम् । अजी वन् बहुवचनः . । अत्यजतम् एकवचन भ्रंशुङ् : अघुक्षताम् ह्वयेरन् स्वपन्तु चकासिष्यथः द्वेक्ष्यते. देक्ष्यसे जायन्ताम् अवरिध्वम् बुभुजः क्रीयास्म । स्तृणातु .. स्तृणे स्यत्यादि। मन्त्रयध्वे . मन्त्रयामहे स्पृहयावः स्पृहयामः , माासम् अहिंसयिष्यताम् रचय . * - * . Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र पृष्ठ पंक्ति ४६३ २१ ४६५ २६ अकृक्षत ४६६ ३४ खण्डयेत ४६७ ४ अशुद्ध इदांचकार ३ अकीर्तयिष्यत ४७० ३३ जृष् ४७६ ४६० २८ शुधच ४६० २६ शुभि ४६२ २३ ष्ठिवु त्रसिशीष्ट ४६५ २६ ५०६ ३२ अजायध्वम् ५०८ २६ अविवाञ्छिषीत ५०८ ३१ अजिगजिषीत ५१२ ६ अजुगुपिसीत् अजुगोपिसीत् ५१२ ७ २७ प्यायते ५१४ २२ अपुपुषत् ५१४ २४ अबुभुषत् ५१८ १६ चकम्पिषते ५७० ५७६ अचिचलिसीत् ५२४ ७ ५४२ ४ रुक्षूंन्र् अविभङ्क्षीत् ५४२ १७ ५४६ २५ बधि ५५० २२ भृन् ५५० २३ धृन् ५५२ २८ ऊर्णौनवीति ५६२ २४ क्षुभ्नत् ५६२ ३३ गामकः ५६८ १७ णीन् ३१ दुत् १० भक्षितव्यम ५८० २४ रिचृनर् ५८२ १६ लुलुप्वानू शुद्ध इन्दांचकार ३ अकृक्षत् खण्डयेत् अकीर्तयिष्यत् जष् प्यायिषीष्ट शुधंच शुम्भज् ष्ठिवु सिषीष्ट अजप्यध्वम् अविवाञ्छित् अजिगजिषीत् अजुगुपिषीत् अजुगोपीत् अपूपुषत् अबुभूषत् चिकम्पिते अचिचलिषीत् रुध ं न्र् अबिभङ्क्षीत् बधङ् भृंन् धृन् ऊर्णो वीति क्षुभ्यन् गमकः णींन् दुंत् भिक्षितव्यम् रिचर् लुलुप्वान् ६२७ Page #645 --------------------------------------------------------------------------  Page #646 -------------------------------------------------------------------------- _