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यङ्प्रत्यय
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सोसूच्यते ।
नियम ५१६-(गत्यर्थाद् भावस्य कौटिल्ये ४।१।७) भाव (क्रिया) की कुटिलता के अर्थ में गति अर्थ वाली धातुओं से यङ् प्रत्यय होता है। (मुगतो अमस्य ४।१।१०५) सूत्र से बम अंतवाली धातु के पूर्व के अकार को मुक् का आगम हो जाता है और म् का अनुस्वार हो जाता है। कुटिलं गच्छति -- जंगम्यते, चंक्रम्यते ।
नियम ५१७- (लुपसदचरजपजभदहदशगभ्यो गर्हायाम् ४११) लुप आदि धातुओं से क्रिया की गर्दा के अर्थ में यङ् प्रत्यय होता है। गर्हितं लुम्पति-लोलुप्यते । सद्-सासद्यते । चर्-चंचूर्यते । जप्-जंजप्यते । ग–जेगिल्यते।
नियम ५१८-(जपजभदहदशभंजपशाम् ४।१।१०६) जप आदि धातुओं के पूर्व अकार को मुक् का आगम होता है। जभ-जंजभ्यते । दह - दंदह्यते । दश्–दंदश्यते । भज्—बंभज्यते । पश्-पंपश्यते ।
यङन्त के रूप बनाने के नियम (वञ्चस्र सध्वंसभ्रंशकसपतपदस्कन्दो नीक-४।१।१०४) वञ्च्, स्रस्, ध्वंस्, भ्रंश्, कस्, पत्, पद्, आदि धातुओं से पूर्व में 'नीक्' का आगम होता है। वञ्च-वनीवच्यते । स्रस–सनीस्रस्यते । ध्वंस -दनीध्वस्यते । भ्रंशबनीभ्रश्यते। कस् = चनीकस्यते (बार-बार जाता है)। पत्-पनीपत्यते। पद्- पनीपद्यते । स्कन्द-चनीस्कद्यते ।
नियम ५१६-(ईह से ऽयपि ङित्यशिति ४।११५७) अपित् दा, धा, स्था, मा, गा, पिब, हा इन धातुओं को 'ई' हो जाता है, यप् को छोडकर हस आदि वाला कित , ङित अशिति प्रत्यय आगे होने पर । दा-देदीयते । धादेधीयते । सा-सेषीयते । ष्ठा-तेष्ठीयते । मा-मेमीयते । गा (गैं)जेगीयते । पा-पेपीयते । ओहांक-जेहीयते ।
___ नियम ५२०-(ऋत्वतां रीक ४।१।१०६) ऋकारवान् धातुओं को पूर्व में 'रीक्' का आगम होता है । (नृते र्यङि २।२।१०५) से नृत् के न को ण नहीं होता। नृत् -नरीनृत्यते । दृश्–दरीदृश्यते । प्रच्छ्-परीपृच्छ्यते । व्रश्च-वरीवृश्च्यते । ग्रह,-जरीगृह्यते । संप्रसारण होने से ये धातुएं ऋकारवान् हो गई।
. नियम ५२१- (ऋतोरी: ४।१।५२) ऋकार अंतवाली धातुओं को 'री' आदेश होता है । कृ-चेक्रीयते । हृ-जेह्रीयते ।।
नियम ५२२-(चायः की र्यङि ४।४।२६) चायन् धातु को 'की' आदेश होता है । चेकीयते (बार-बार हिताहित का विचार करता है, बारबार पूजा करता है)।