________________
६२
वाक्यरचना बोध
यप् प्रत्यय हो जाता है । अर्थ वही रहता है ।
नियम नियम १४६- (अलंखलु प्रतिषेधे क्त्वा वा ६।१।३६) अलं और खलु यदि ये प्रतिषेधवाची हों तो क्त्वा प्रत्यय विकल्प से होता है। अलंकृत्वा, खलुकृत्वा-न कर्तव्यमित्यर्थः।
नियम १५०- (परावरयोः ६।१।४०) पर (आगे), अवर (पहले) का अर्थ गम्यमान हो तो धातु से क्त्वा प्रत्यय विकल से होता है । अतिक्रम्य नदी पर्वतः (नदी से आगे पर्वत है)। अप्राप्य नदी पर्वतः (नदी से पहले पर्वत है)। बाल्यमतिक्रम्य यौवनं (बाल्यकाल के बाद यौवन)। अप्राप्य यौवनं बाल्यं (यौवन से पहले बाल्यकाल)।
नियम १५१-(पूर्वकाले ६।१।४३) एक कर्ता एक समय में एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया करता हो तो पूर्व क्रिया में क्त्वा प्रत्यय विकल्प से होता है । भुक्त्वा व्रजति । भुक्त्वा पुनर्भुङ्क्ते । स्नात्वा, भुक्त्वा, पीत्वा व्रजति । एक पक्ष में-आस्यते भोक्तुमित्यपि भवति ।
नियम १५२-(उदित: क्त्वो वा ४।३।७६) उकार इत् जाने वाली धातुओं से क्त्वा प्रत्यय को इट् विकल्प से होता है। जैसे-दमित्वा, दान्त्वा, (दमन कर, शान्त कर)। शमित्वा, शान्त्वा (शांत कर)। तमित्वा, तान्त्वा (इच्छा कर) । देवित्वा, द्यूत्वा (खोलकर) । सेवित्वा, स्यूत्वा (सीकर)।
नियम १५३-(क्षुधिवसेः क्तयोश्च ४।३।८१, लुभो विमोहने तेषां ४।३।८२, अञ्चेः पूजायाम् ४।३।८३, पूक्लिशिभ्यो वा ४।३।८४) क्षुध, वस, लुभ (विमोहन =आकुलीकरण अर्थ में), अञ्च् (पूजा अर्थ में), पूङ । क्लिश धातुओं से इट् होता है। क्षुधित्वा (भूखा रहकर)। उषित्वा (रहकर) । लुभित्वा, लोभित्वा (विमोहित कर)। अञ्चित्वा (पूजाकर, जाकर) । पूत्वा (साफ कर) । क्लिशित्वा (पीडित कर)।
नियम १५४-(वा तृषिमृषिकृशिवञ्चिलुञ्चयतेः ३।४।१०५) तृष्, मृष्, कृश्, वञ्च, लुञ्च् धातुओं को सेट् क्त्वा परे होने पर गुण विकल्प से होता है। तृषित्वा, तषित्वा (प्यासा रहकर)। मृषित्वा, मषित्वा (सहन कर)। कृशित्वा, कशित्वा (कृशकर)। वचित्वा, वञ्चित्वा (ठग कर) । लुचित्वा, लुञ्चित्वा (लुंचन कर) ।
नियम १५५- (नोपधात्थफात् ३।४।१०६) न उपधा वाली धातुओं में यदि थकार और फकार अंत में हो और आगे सेट् क्त्वा हो तो गुण विकल्प से होता है। जैसे- श्रथित्वा, श्रन्थित्वा (छोड़ कर, खुश कर)। गुफित्वा, गुम्फित्वा (गूंथ कर)।
नियम १५६-(यपि ४।३।४२) यप् प्रत्यय आगे होने पर हन्, मन्, वनति और तनादि गण की धातुओं के अंत का लोप हो जाता है। प्रहत्य