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पाठ २९ : शत, शान (२)
शब्दसंग्रह वासरः (दिन)। रविवारः (रविवार)। सोमवारः (सोमवार)। मङ्गलवारः (मंगलवार)। बुधवारः (बुधवार)। बृहस्पतिवारः (बृहस्पतिवार) । शुक्रवारः (शुक्रवार)। शनिवारः (शनिवार)। (मासः (महीना) । चैत्रः (चत्र) । वैशाखः (वैशाख)। ज्येष्ठः (जेठ)। आषाढः (आषाढ)। श्रावणः (श्रावण)। भाद्रपद: (भाद्रपद) । आश्विनः (आश्विन)। कार्तिकः (कार्तिक) । मार्गशीर्षः (मार्गशीर्ष) । पोषः (पोष) । माघः (माघ) । फाल्गुनः (फाल्गुन)।
धातु-षेवृङ–सेवने (सेवते) सेवा करना। भ्राशृङ्-टुम्लाशृङ्दीप्तो (भ्राशते, भ्राश्यते) दीप्त होना। भासूङ-दीप्तो (भासते) दीप्त होना । भाषङ्–व्यक्तायां वाचि (भाषते) बोलना । आङ्-शसिङ्-इच्छायाम् (आशंसते) इच्छा करना।
पञ्चन्, षष्, सप्तन् और अष्टन् शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ७१,७२,७३,१६) षेवृङ् से लेकर आङ्-शसिङ् तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं ।
शत-शान हिन्दी में रहा है, रहा था, रहा हुआ, रहा होगा आदि स्थानों में शत, शान का प्रयोग होता है। वर्तमानकाल में शतृ प्रत्यय के रूप के आगे अस् धातु के तिबादि के रूप आते हैं । भूतकाल के लिए भू या अस् धातु के द्यादि के रूप और भविष्यकाल के लिए भविष्यत् की क्रिया के रूप आते हैं। जैसे-अहं कार्य कुर्वन्नस्मि ।
अहं कार्यं कुर्वन्नभूवम् । ___ अहं कार्यं कुर्वन् भविष्यामि ।
अन्य क्रियाओं के प्रयोग भी तीनों कालों में इसी प्रणाली से करना चाहिए । शत-शान प्रत्यय विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होता है वहां वह कर्ता का विशेषण बनता है। जिस प्रकार कर्ता का विशेषण बनता है वैसे ही कर्म का भी विशेषण बनता है। वहां कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे
१. अयं विषयः मया अनुभूयमानोऽस्ति । २. अमी जनाः कृतान्तेन कदर्थ्यमानाः सन्ति ।