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पाठ ६१ : पदव्यवस्थाप्रक्रिया (१)
शब्दसंग्रह गोरोचना, रोचना (गोरोचन) । किरातकः, निद्रारी (चिरायता) । लज्जालुः, लज्जा (छुईमई) । जयपालः, सारकः (जमालगोटा)। यवक्षारः (जवाखार) । जातिफलं, कोपकम् (जायफल)। जातिपत्री, जातिकोषा (जावित्री) । ताम्रकूटः, तमाकूः, (तमाखु) । कोकिलाक्षः, क्षरः (तालमखाना) । नस्यम् (नसवार)। तीक्ष्णसारः (तेजाब)। धुस्तूरः, मदनः (धतूरा) । नागरमुस्ता, चूडाला (नागरमोथा) । तुत्थम् (नीलाथोथा) । सादरः, नरसादरः (नोसादर)।
__ आत्मनेपद परस्मैपद उपसर्ग के संयोग से और कहीं अर्थों के कारण धातुओं के पदों का परिवर्तन हो जाता है। परस्मैपद आत्मनेपद हो जाता है और आत्मनेपद परस्मैपद हो जाता है ।
इसके कुछ नियम ध्यातव्य हैं
नियम५४२- (निविशः ३।३।२१) नि उपसर्गपूर्वक विश् धातु आत्मने पद हो जाती है । निविशते ।
नियम ५४३-(व्यवपरिभ्यः क्रियः ३।३।२२) वि. अव, परि, उपसर्गपूर्वक क्री धातु आत्मनेपद हो जाती है । विक्रीणीते, अवक्रीणीते, परिक्रीणीते ।
नियम ५४४-(विपराभ्यां जे: ३।३।२३) वि और परा उपसर्गपूर्वक जि धातु आत्मनेपद हो जाती है। विजयते, पराजयते।
नियम ५४५-(अनुपरिभ्यां च क्रीड: ३।३।२७) अनु, परि, आ उपसर्गपूर्वक क्रीड् धातु आत्मनेपद हो जाती है । अनुक्रीडते, परिक्रीडते, आक्रीडते।
नियम ५४६- (शप उपालंभे ३।३।३२) शप् धातु उपालंभ के अर्थ में आत्मनेपद हो जाती है । मैत्राय शपते । अन्यत्र मैत्रं शपति (आक्रोशति)।
नियम ५४७-(विप्रसमवेभ्य: ३।३।३४) वि, प्र, सं, अव उपसर्गपूर्वक स्था धातु आत्मनेपद हो जाती है । वितिष्ठते, प्रतिष्ठते, संतिष्ठते, अवतिष्ठते ।
नियम ५४८-- (उपात्स्थः ३।३।७४) उप उपसर्गपूर्वक स्था धातु