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पाठ ३३ : समास ४ (द्वन्द्वसमास)
शब्दसंग्रह अवलेहः, लालसिकं (चटनी) । तृषरः (मीठे चावल) । प्रलेहः (एक प्रकार का व्यंजन) । मिष्टपाकः (मुरब्बा) । रागपाडवः (आम का मुरब्बा)। लप्सिका (लपसी) । वेढमिका (मिस्सीरोटी)। रोटिका, रोटका (रोटी)। वटी, वटिका (बडी) । अंगारपरिपाचितः (वाटी)। घातिकः (मालपुआ)। संयाव: (हलुवा, गोझिया)। पूरिका, सुपिष्टिका (कचोरी)। यवनालः (ज्वार)। प्रियंगुः (बाजरा)। चणकचूर्णम् (बेसन) । मिश्रचूर्णम् (मिस्सा आटा) । आढकी (अरहर) । द्विदलम् (दाल)। चूर्णम् (आटा)। भाजी (भाजी-साग)।
धातु-रञ्जन्–रागे (रजति, रजते) राग करना । गुहून्-संवरणे (गृहति, गूहते) छिपाना । बुध न्-बोधने (बोधति, बोधते) जानना। खनुन्अवदारणे (खनति, खनते) खोदना। धावुन-गतिशुद्धयोः (धावति, धावते) दौड़ना, साफ करना । लषन्-कान्तो (लषति, लषते) चमकना। भक्षन्। भलक्षन्-भक्षणे (भक्षति, भक्षते । लक्षति, भ्लक्षते)।
रजन और गुहन् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ३६,७५) । बुध से लेकर भ्लक्ष तक के रूप आत्मनेपद में वदिङ् की तरह और परस्मैपद में प्रायः भू की तरह चलते हैं । कुछ रूपों में भिन्नता है ।
द्वन्द्वसमास जिसमें सब पद प्रधान हों और जिसके विग्रह में 'च' शब्द का प्रयोग होता हो उसे द्वन्द्वसमास कहते हैं। इसके दो भेद हैं१. इतरेतर
२. समाहार इतरेतर—जिसमें पृथक्-पृथक् प्रत्येक शब्द का समान महत्त्व होता है उसे इतरेतरद्वन्द्व कहते हैं। जितने पद होते हैं उन्हीं के अनुसार द्विवचन और बहुवचन होता है। जैसे-मरुदेवा च ऋषभश्च -मरुदेवऋषभौ । ऋषभश्च मरुदेवा च = ऋषभमरुदेवे । समास होने के बाद जो अन्तिम शब्द का लिंग होता है वही रहता है।
समाहार - जिसमें पृथक्-पृथक् शब्दों का महत्त्व न होकर सिर्फ समूह का महत्व होता है उसे समाहारद्वन्द्व या एकत्वद्वन्द्व कहते हैं। इसमें सिर्फ