________________
धातुप्रकरण
का मुख्य लक्षण यही है कि जिसके उच्चारण करने पर कर्म की आवश्यकता न जान पडे अर्थात् 'क्या' ऐसा प्रश्न न उठे वह क्रिया अकर्मक होती है। जैसेआचार्याः तिष्ठन्ति-आचार्य विराजते हैं। धन वर्धते—धन बढ़ता है। इसमें कहां, किसलिए आदि प्रश्न हो सकते हैं किन्तु क्या ऐसा प्रश्न नहीं होता है।
सकर्मक-जहां क्रिया का व्यापार और फल दो वस्तुओं के आश्रित होते हैं वह सकर्मक क्रिया होती है। सकर्मक धातु को पहचानने का मुख्य लक्षण यही है जिसका उच्चारण करते ही 'क्या' का प्रश्न उठे। जैसे-शैक्षः पठति । स: पश्यति । नवदीक्षित पढता है, वह देखता है, जब हम ऐसा उच्चारण करते हैं तो उसी समय यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि क्या पढता है, क्या देखता है । इस प्रश्न को समाहित करने के लिए हमें कहना होगा कि 'दशवैकालिक' पढता है, सूर्य को देखता है । यहां कर्म की अपेक्षा है अतः धातु सकर्मक है।
सकर्मक धातुओं के तीन भेद हैं—एककर्मक, द्विकर्मक और अविवक्षित कर्म ।
एककर्मक-जिस वाक्य में धातु से एक ही कर्म आता हो वह एककर्मक धातु है । जैसे-त्वं पानीयं पिब । यहां पानीयं (पानी) कर्म है। त्वं नमस्कारं कुरु । त्वं विद्यां पठ । सः कटं करोति ।
__ द्विकर्मक—जिस वाक्य में धातु से दो कर्म आते हैं वह द्विकर्मक धातु कहलाती है। द्विकर्मक धातुओं का विस्तृत वर्णन आगे के पाठों में किया जायेगा ।
अविवक्षितकर्म—जिस वाक्य में धातु सकर्मक हो और कर्म आ सकता हो पर उसकी विवक्षा न करें उसे अविवक्षितकर्म कहते हैं। जैसेअहं गच्छामि । त्वं कुरु । भवान् गच्छतु । गौः चरति । इन वाक्यों में कर्म की विवक्षा न होने के कारण ये सब अविवक्षित कर्म हैं अर्थात् इनमें कर्म की विवक्षा नहीं की गई है। अविवक्षितकर्म का प्रयोग एक अच्छा और सम्बन्धात्मक प्रयोग माना जाता है । जैसे—दो मनुष्यों के बीच यह बातचीत हुई कि मैं कल अमुक गांव जाऊंगा और वह ठीक उसी निर्दिष्ट गांव को जा रहा है, तब उसे इतना ही कहना पर्याप्त है कि मैं जाता हूं। अमुक गांव आदि कहने की जरूरत नहीं । चालू प्रकरण में कर्म का प्रयोग न करने पर भी कहने वाले का भाव समझ में आ जाता है।
संधिविचार नियम ३७– (स्तोः श्चुभिः श्चुः १।३।५)--शकार और चवर्ग का योग होने पर सकार और तवर्ग के स्थान पर शकार और चवर्ग हो जाता है। सकार को शकार और तवर्ग को चवर्ग हो जाता है। जैसे—कस् + शेते ---