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प्रस्तुति
संस्कृतवाक्यरचना एक बड़ा ग्रन्थ बन गया । बहुत पुरानी बात है । आज से बयालीस वर्ष पूर्व जो सन्त पढते थे उनकी उपयोगिता के लिए इस ग्रन्थ का निर्माण किया। उस समय इसका आकार छोटा था। कभी उसका उपयोग होता रहा और कभी वह अनुपयोग की अवस्था में भी रहा। दो वर्ष पूर्व इसकी उपयोगिता के विषय में चर्चा चली। मुनि श्रीचंदजी 'कमल' और मुनि विमलकुमार जी ने इसके संपादन का कार्य हाथ में लिया। दो वर्ष के कठोर श्रम और सतत अध्यवसाय के बाद यह कार्य सम्पन्न हुआ। आकार भी बढा है और प्रकार भी बढा है, उपयोगिता भी बढी है। मुनिद्वय का श्रम इसमें स्पष्ट मुखर हुआ है। संस्कृत विद्यार्थी के लिए यह एक स्वात्मनिर्भर ग्रन्थ बन गया है । इसके परिशिष्टों की तालिका भी लम्बी है।
प्रथम परिशिष्ट में शब्दरूपावली। ' दूसरे परिशिष्ट में धातुरूपावली । तीसरे परिशिष्ट में जिन्नन्त आदि की धातुओं के रूप । चौथे परिशिष्ट में प्रत्ययरूपावली। पांचवें परिशिष्ट में उपसर्ग से धात्वर्थपरिवर्तन । छठे परिशिष्ट में एकार्थ धातुएं।
बयासी पाठों में विभक्त यह ग्रन्थ संस्कृतबोध की संहिता के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। हमारे धर्म संघ में संस्कृत आज भी जीवित भाषा है। सैकडों साधु-साध्वियां, समणियां और मुमुक्षु इसका अध्ययन करते हैं । आचार्यश्री तुलसी ने इसके पल्लवन में अपनी सक्रिय प्रेरणा से रुचि ली है हमारी अपनी उपयोगिता के लिए लिखा हुआ ग्रन्थ दूसरों के लिए उपयोगी बन सकता है। यह योगक्षेम वर्ष का एक उपहार है संस्कृत में रुचि रखने वालों के लिए।
युवाचार्य महाप्रज्ञ
२१ जनवरी १६६० जैन विश्व भारती
लाडनूं