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पाठ ३१ : समास (२) तत्पुरुष
शब्दसंग्रह चमसम् (चमचा) । स्थाली (थाली) । महानसम् (रसोई)। अङ्गारधानी (सिघडी)। चुल्लि: (चूल्हा)। पिष्टपचनम् (तवा)। चूर्णमर्दनी (कठोति) । समाजनी (बुहारी) । खल्वम् (खरल)। अर्गलम् (आगल)। विष्कम्भिका (चटकनी) । शुक्तम् (सिरका) । शिलापुत्रम् (लोढी) । चालनी (चालनी) । पेषणी (चक्की)। कटाहः (कडाही)। कर्करी (झारी) । दीपशलाका (दियासलाई) । खर्वट: (पहाडीगांव, मंडी)। कंकमुखः (चिमटी)।
धातु - वृतुङ्--वर्तने (वर्तते) वर्तन करना । वृधुङ्-वृद्धी (वर्धते) (बढना) । द्युतङ् - दीप्तौ (द्योतते) दीप्त होना । भ्रसुङ्, स्रसुङ्-अवस्र सने (भ्र सते, स्रसते) नष्ट होना । ध्वंसुङ्-गतो च (ध्वंसते) नष्ट करना और जाना। रुचङ्-अभिप्रीती (रोचते) अच्छा लगना। रमङ्-क्रीडायाम् (रमते) क्रीडा करना । षहंङ्-मर्षणे (सहते) सहन करना।
वृतुङ्, द्युतङ् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७१,७२) वृधुङ् के रूप वृतुङ् की तरह चलते हैं । भ्रंसुङ् से लेकर रुचङ् तक के रूप द्युतङ् की तरह चलते हैं।
रमङ् और षहङ् के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं। सिर्फ षहङ् के तादि में सोढा रूप बनता है।
तत्पुरुष समास जिसमें उत्तर पद के अर्थ की प्रधानता हो उसे तत्पुरुष कहते है । इसमें सातों विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है । उत्तरपद में जो लिंग होता है समास के बाद भी वही लिंग रहता है । जैसे
द्वितीया - संसारं अतीतः -- संसारातीतः तृतीया - अहिना दष्ट: == अहिदष्ट: चतुर्थी-कुण्डलाय हिरण्यं -कुण्डलहिरण्यं पंचमी-ग्रामात निर्गतः-=ग्रामनिर्गतः षष्ठी-गवां क्षीरम् = गोक्षीरम् सप्तमी--शिरसि शेखरः =शिरः शेखरः
तत्पुरुष समास का दूसरा रूप भी मिलता है, पहले पद में अव्यय और दूसरे पद में प्रथमा आदि छह विभक्तियां । इसका प्रयोग दो पदों से अन्य अर्थ