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वाक्यरचना बोध
जैसे― चर्मणि द्वीपिनं
नियम १४४ - ( निमित्तात्कर्मसंयुक्तात् २।४।१०८) निमित्त यदि कर्म संयुक्त हो तो निमित्त में सप्तमी विभक्ति होती है । इन्ति - चर्म ( चमड़े) के लिए हाथी को मारता है । चर्मणि द्वीपिनं हन्ति, दन्तयो र्हन्तिकुञ्जरम् । केशेषु चमरीं हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हतः ॥ सीमा - अण्डकोशः । पुष्कलक: गन्धमृगः ।
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नियम १४५ - ( साध्वसाधुभ्याम् २।४।१०५) साधु और असाधु शब्द से सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - साधुमैत्रो मातरि-मंत्र माता के प्रति साधु है । असाधुत्र मातुले - मंत्र मामा के प्रति असाधु है । विनीतः गुरो साधुः ।
नियम १४६ - ( साधुनिपुणाभ्यामर्चायामऽप्रश्यादौ २४ । १०४) प्रति, परि, अनु, अभि इन अव्ययों का प्रयोग न हो तो साधु और निपुण शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - मातरि साधुः, पितरि निपुणः ।
प्रति, परि, अनु और अभि का प्रयोग होने पर द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे - साधुत्र मातरं प्रति, मातरं परि, मातरमनु, मातरमभि ।
नियम १४७ - ( स्वस्वामिनोरऽधिना २/४ । १०७ ) अधि शब्द स्व और स्वामी के अर्थ में प्रयुक्त होता हो वहाँ गौण नाम में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - ( स्व अर्थ में ) - अधि मगधेषु श्रेणिकः — मगध का श्रेणिक । ( स्वामी अर्थ में ) - अधि श्रेणिके मगधाः - श्रेणिक का मगध ।
प्रयोगवाक्य
मुनिः भूमौ तिष्ठति । उपाश्रये अनेके आपणाः सन्ति । मृत्तिकायां तैलमस्ति । नरके नैरयिकाः वसन्ति । भूपः तीर्थयात्रायां व्रजति । तस्मिन् वृक्षे ..अनेके पक्षिणः सन्ति । गृहस्वामिनि बहिर्गते चौराः समाययुः । विलपति सुते सागता । गृहानां गृहेषु वा कोऽस्ति स्वामी ? रमेशः दुग्धे गां दोग्धि । दुर्जनः सज्ज असाधुरस्ति । सहसा कान्ता भ्रातरं अलोचत । मुनिसंघे आचार्यः 'भ्राजते । अहं अवश्यं चेष्टिष्ये प्रयतिष्ये वा ।
अनुवाद करो
संस्कृत में अध्यापक कुर्सी पर बैठा है ।
स्कूल में लडके खेल रहे हैं । फूल में गंध है। गायें वन में है । शरीर में आत्मा है । मुनि विहार के लिए तैयार होते हैं | आचार्य श्री का प्रवचन हुआ, देहली से साधुओं ने दर्शन किये । पुत्र के रोने पर भी पिता चला गया । घोड़ों का स्वामी कौन है ? शिकारी केश के लिए चमरी गाय को मारता है । राजेन्द्र मेरे लिए अच्छा है । गोपाल मनीष के लिए अच्छा नहीं है । भाभी के ओष्ठप्रान्त में दर्द है । सरोज चोटी कर रही है । उसकी जांघ पर तिल है । हमारे शरीर में अनेक नाडियाँ