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पाठ : ४१ तद्धित (४)
शब्दसंग्रह चत्वरम् (आंगन) । रक्षा (राख) । दीपकः, स्नेहप्रियः (दीया) । कुञ्चिका (कुंजी) । द्वारयन्त्रम् (ताला)। आलकम् (आला)। शिक्थम् (छींका) । काचदीपका (लालटेन) । मञ्चः (मांचा) । तण्डुलः (चावल) । गोधूमः (गेहूं) । चणकः (चना) । यवः (जौ)। माषः (उडद)। मसूरः (मसूर) । सर्षपः (सरसों) । क्वथनम् (उबालना)। कुट्टनम् (कूटना) । मर्दनम् (गूंधना) । चालनम् (छालना) परिवेषणम् (परोसना) । अवघातः (छडना, छांटना)।
धातु-इं —अध्ययने (अधीते) अध्ययन करना। शीक्-स्वप्ने (शेते) सोना । षूक्-प्राणिगर्भविमोचने (सूते) उत्पन्न होना।
इंक्, शीङ्क् और षूक् धातु के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट २ संख्या २८,८७,८८)।
नियम नियम २५३-(तेन रक्ते रागात् ६।३।१) तृतीयान्त शब्द रागवाची (जिससे रंगा जाए) हो तो रक्त (रंगने) के अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होते हैं । कुसुम्भेन रक्तं कौसुम्भं, हारिद्रं, काषायं, माञ्जिष्ठम् ।।
नियम २५४-- (लाक्षारोचनाभ्यामिकण ६।३।२) लाक्षा, रोचना से रंगने के अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । लाक्षिकं, रौचनिकम् ।
नियम २५५ - (नीलपीताभ्यामको ६।३।४) रंगने के अर्थ में नील शब्द से अ और पीत शब्द से क प्रत्यय होता है । नीलं, पीतकम् ।
नियम २५६- (तद्वेत्त्यधीते ६।३।८५) वेत्ति (ज्ञाता) और अधीते (पढता है) अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं। सूत्रं वेत्ति अधीते वा सौत्रः । व्याकरणं वेत्ति अधीते वा वैयाकरणः ।
नियम २५७- (संधिय्वोरैडौट च ८।४।२३) संधि से इ को य और उ को व् बना हो उससे आगे जो आदि स्वर हो उसको वृद्धि नहीं होती अपितु य को ऐट और व् को औट का आगम हो जाता है। व्याकरण में वि+आ मिलकर व्या बना है इसलिए य से आगे स्वर को वृद्धि न होकर ऐट का आगम हुआ है । वैयाकरण रूप बना है।
नियम २५६ – (न्यायादेरिकण ६।३।८६) न्याय, मुहूर्त, निमित्त,