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पाठ ६२ : पदव्यवस्थाप्रक्रिया (२)
शब्दसंग्रह सूर्यक्षार: (शोरा)। स्वर्जिका, स्वर्जि: (साजी)। शुक्लाजाजी (सफेद जीरा) । सुधामूली, जीवनी (सालममिसरी)। सर्वक्षार: (साबुन) । हिंगुलम्, चित्रांगम् (सिंगरफ) । शौक्तिकम् (सिरका) । अंजनम् (सुरमा) । मधुरा, मधुरिका (सौंफ)। हिंगु, उग्रगंध: (हींग) । जीरक: (जीरा)। धान्यकम् (धनिया) । शुण्ठी (सोंठ) । हरिद्रा (हल्दी) । लवणम् (नमक) । सैन्धवम् (सैंधा नमक)। लवङ्गम् (लौंग)। दारुत्वचम् (दालचीनी) । त्रिपुटा (छोटी इलायची)। खादिरः (कत्था)। चूर्णः (चूना) । आर्द्र कम् (अदरक)। मरिचम् (मिर्च) ।
परस्मैपद नियम ५६१-- (अनुपराभ्यां कृनः ३।३।६२) अनु, परा उपसर्ग पूर्वक कृ धातु परस्मैपद होती है । अनुकरोति, पराकरोति ।
नियम ५६२– (अभिप्रत्यतिभ्यः क्षिप: ३।३।६३) अभि, प्रति, अति उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातु परस्मैपद होती है। अभिक्षिपति, प्रतिक्षिपति, अतिक्षिपति।
नियम ५६३-(व्याङ्परिभ्यो रमः ३।३।६६) वि, आङ्, परि उपसर्गपूर्वक रम् धातु परस्मैपद होती है । विरमति, आरमति, परिरमति ।
नियम ५६४- (वोपात् ३।३।६७) उप उपसर्गपूर्वक रम् धातु विकल्प से परस्मैपद होती है । उपरमति उपरमते वा भार्याम् ।
नियम ५६५– (विवादे वा ३।३।७२) विवादरूप में एक साथ अनेक स्पष्ट बोलते हों तो वद् धातु विकल्प से परस्मैपद होती है। विप्रवदन्ते वैद्याः, विप्रवदन्ति वैद्याः।
नियम ५६६–(प्रलम्भने गृधिवञ्चे: ३।३।८०) गृध्, वञ्च् धातु मिन्नन्त में हो और प्रलंभन (ठगना) के अर्थ में हो तो आत्मने पद होती है । बटुं गर्धयते वञ्चयते वा । अन्यत्र गर्धयति श्वानम् ।
नियम ५६७- (मिथ्यया कृनोऽभ्यासे ३।३।८४) बार बार मिथ्या करने के अर्थ में कृ धातु का जिन्नन्त रूप (कारयति) आत्मने पद हो जाता है। पदं मिथ्या कारयते । पदं साधु कारयति (यहां मिथ्या नहीं है) । सकृत् . पदं मिथ्या कारयति (यहां बार-बार नहीं है)।