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पाठ ५४ : जिन्नन्त १
शब्दसंग्रह ( जिन्नन्त रूप )
भावयति, भावयते (भू) हुवाता है । यावयति (युंक्) जुडवाता है । श्रावयति (श्रु) सुनवाता है । घटयति ( घट्) चेष्टा करवाता है । स्मारयति ( स्मृ ) याद करवाता है । वेष्टयति (वेष्ट्) वेष्टित करवाता है । जनयि ( जनी ) उत्पन्न करवाता है । स्थापयति (ष्ठा ) ठहरवाता है । जापयति (जि) जीताता है । रोपर्यात, रोहयति ( रुह ) उगवाता है । पालयति (पांक्) रक्षा करवाता है । लम्भयति ( लभि ) ठगवाता है । तारयति (तु) पार करवाता है । लङ्घयति ( लघि) लंघन करवाता है । लुञ्चयति (लुञ्च् ) लुंचन करवाता है | अर्जयति (अर्ज) अर्जन करवाता है । त्याजयति ( त्यज्) छुडवाता है। लुण्टयति (लुटि) लुटवाता है । पाठयति ( पठ् ) पढाता है । भणयति ( भण्) कहलाता है । खादयति ( खाद् ) खिलाता है । लेखयति ( लिख) लिखवाता है । कारयति ( कृ ) करवाता है । चोरयति (चुर्) चुरवाता है । गमयति ( गम् ) भेजता है ।
धातु — भू धातु के जिन्नन्त के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट ३ ) । जिन्नन्त
जहां एक कर्ता को दूसरा कर्ता कार्य करने को प्रेरित करता हो वहां संस्कृत में धातुओं से त्रिन् प्रत्यय होता है । ञिन्प्रत्ययान्त प्रत्येक धातु उभयपदी होती है । जिन्नन्त में प्रत्येक धातु के दो कर्ता होते हैं - एक मुख्य और दूसरा गौण । प्रेरित करने वाला मुख्य होता है और जिसे प्रेरित किया जाता है वह गौण | मुख्य कर्ता में प्रथमा विभक्ति और गौण कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है ।
जैसे – शिष्यः कार्यं करोति ( मूलवाक्य)
जिन्नन्त - गुरुः शिष्येण कार्यं कारयति । इसी प्रकार मुनिः श्रावकेण तपः कारयति । नृपः भृत्येन कार्यं कारयति । कुछ धातुओं के योग में गौण कर्ता की कर्मसंज्ञा होती है । नीचे के नियम देखें
नियम
नियम ४८५ - ( गतिबोधाहारशब्दार्थाकर्मणाम्
२।४।२१ ) गति, बोध, आहार और शब्द अर्थवाली धातुओं तथा अकर्मकधातुओं के योग में गौणकर्ता की कर्मसंज्ञा हो जाती है । जैसे -- भरतः सुशीलं ग्रामं गमयति ।