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वाच्य
छात्रौ पाठं पठतः । छात्राः पाठं पठन्ति । त्वं पाठं पठसि । अहं पाठं पठामि । कर्मवाच्य-जहां धातु से प्रत्यय कर्म में होता है उसे कर्मवाच्य कहते हैं। कर्मवाच्य में कर्म में प्रत्यय होने के कारण कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। क्रिया कर्म के अनुसार चलती है । जैसे-छात्रेण पाठः पठ्यते । छात्रेण पाठौ पठ्येते । छात्रेण पाठा: पठ्यन्ते । तेन विद्या पठिता। तेन रत्नं गृहीतम् ।
भाववाच्य-भाव का अर्थ है क्रिया। जहां धातु से प्रत्यय क्रिया में ही होता है उसे भाववाच्य कहते हैं। क्रिया में प्रत्यय होने से क्रिया का संबंध कर्ता आदि कारकों से नहीं रहता। कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है । कर्ता में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन होने पर क्रिया में कर्ता का कोई प्रभाव नहीं रहता। कर्ता के सब पुरुषों में और सब वचनों में क्रिया का रूप एक समान रहता है। भाववाच्य में कर्म नहीं हो सकता। जहां कर्म रहेगा वहां भाववाच्य नहीं होगा, वह कर्मवाच्य बन जाएगा । जैसे-तेन गम्यते । ताभ्यां गम्यते । तैः गम्यते । त्वया गम्यते । युवाभ्यां गम्यते । युष्मामिः गम्यते मया गम्यते । आवाभ्यां गम्यते । अस्माभिः गम्यते ।
भाववाच्य में क्त आदि प्रत्यय होने से क्रिया में नपुंसकलिंग और एकवचन होता है । जैसे-मया गतम् । तेन गतम् ।
(संधिविचार) नियम ४३ (उदः स्थास्तम्भोः सः १।३।६४) उद् उपसर्ग से परे स्था और स्तम्भ धातु के स् का लोप हो जाता है। उत्थानम्, उत्तम्भनम्
नियम ४४ (खसे चपा झथानाम् १।३।४०) खस परे होने पर झथ प्रत्याहार के स्थान पर चप हो जाता है। जैसे-तत्+-शान्तिः=तच् शान्तिः ।
नियम ५५ (चपाच्छश्छोऽमे वा ११३॥३) पद के अंत में चप हो और सामने शकार हो तथा उससे आगे अम प्रत्याहार हो तो शकार को छकार विकल्प से होता है। जैसे तत्-- शान्तिः तच्छान्तिः, तच्शान्तिः । वाक्+ शूरः--वाक्शूरः, वाक्छूरः ।।
नियम ४६ (झ्नो ह्रस्वाद् द्विः स्वरे ११३।२२) ह्रस्व स्वर से परे पदः के अंत मे ङ, ण, न हो और सामने स्वर हो तो ङ, ण, न, द्वित्व हो जाते हैं। जैसे, प्रत्यङ्-- इदं-प्रत्यङ्ङिदम् । सुगण् । इह =सुगण्णिह । कुर्वन्+आस्ते कुर्वन्नास्ते।
नियम ४७ (स्वरात् ११३।२५) स्वर से परे छकार द्वित्व हो जाता है । तवच्छत्रम्, वृक्षच्छाया, आच्छादयति, माच्छिदत्, ह्रीच्छति, गच्छति, म्लेच्छति ।
निपम ४८ (अनाङ्माङो दीर्घाद् वा छ: १।३।२३) आङ्, माङ् को