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पाठ ७ : काल २ (भूतकाल )
शब्दसंग्रह
साधु: (साधु) । भानुः (सूर्य) । गुरु: (गुरु) । सूनुः (पुत्र) । तरुः (बाण) । इन्दु: ( चन्द्रमा) । शिशुः (पशु) । सिन्धुः ( समुद्र ) | आख:
इषुः
( वृक्ष ) । वायु: (हवा) । (बालक) । रिपु: ( शत्रु) ।
( चूहा ) ।
पशुः
धातु — स्मृ – चिन्तायाम् ( स्मरति ) याद करना । स्वं – शब्दोपतापयोः (स्वरति ) शब्द करना, दुःख करना । सूं - गतौ ( सरति ) जाना । ऋ - प्रापणे ( ऋच्छति ) प्राप्त करना । तृ – प्लवनतरणयोः (तरति ) प्लवन करना, तैरना |
अव्यय - ह यस् ( बीता हुआ कल ), शम् (सुख), भृशम् (बहुत), सर्पादि ( शीघ्र ), आशु (शीघ्र ) ।
साधु और स्वयंभू शब्द के रूप याद करो (देखें परिशिष्ट १ संख्या ४,५०) उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप साधु की तरह चलते हैं ।
स्मृ धातु के रूप याद करो । ऋकारान्त धातुओं के रूप प्राय: 'स्मृ' की तरह चलेंगे । (परिशिष्ट २ संख्या ६) 'ऋ' धातु के रूप कुछ भिन्न चलते हैं । (देखें परिशिष्ट २ संख्या ८ ) । तु धातु के रूप याद करो । ऋकारान्त धातुओं के रूप तृ की तरह चलेंगे (देखें परिशिष्ट २ संख्या ७) ।
भूतकाल
जो काल बीत गया उसे भूतकाल कहते हैं ।
भूतकाल में तीन विभक्तियों का प्रयोग होता है(१) दिबादि (२) द्यादि (३) णबादि
दिबादि - इसका प्रयोग अनद्यतनभूत में होता है । अद्यतन का अर्थ है— आज होने वाला । आज से पहिले हो चुका वह अनद्यतनभूत है । इसकी व्याकरणाचार्यों द्वारा की गई मर्यादा यह है कि बीती हुई रात के बारह बजे से आज की रात के बारह बजे का काल अद्यतन है और उससे पहला काल अनद्यतनभूत है । दिवादि विभक्तियां इसी 'अनद्यतन' भूत के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं । जैसे— सः दिनद्वयात् प्रागेव अतः अगमत् - - वह दो दिन पहले ही यहां से चला गया ।