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जिन्नन्त २
१६३ यति । वेंन्-वाययति । पां-पाने, पै-शोषणे वा–पाययति ।
नियम ४६२-(य्वोः पुगयहसे ४।४।४६) धातु के य और व् का लोप हो जाता है पुक और यकार को छोडकर हस आदि प्रत्यय आगे हो तो। पुक्ग्रहणमप्रत्ययार्थम् । क्नोपर्यात, मापयति ।
नियम ४६३-- (लो लुक् ४।२।११७) ला धातु को लुक् (ल) का आगम विकल्प से होता है, स्नेह (चिकनाइ) तपाने के अर्थ में। विलालयति विलापयति वा घृतम् ।
नियम ४६४– (पाते: ४।२।११८) पा धातु को लुक् (ल) का आगम होता है । पालयति ।
नियम ४६५– (रुहः पो वा ४।२।१२२) रुह, धातु के अंत को पकार का आदेश विकल्प से होता है। रोपयति, रोहयति ।
नियम ४६६- (स्फायो व: ४।२।१२०) स्फाय को अंत में व आदेश होता है । स्फावयति ।
नियम ४६७-(दुषे औं ४।३।१२१) दुष् की उपधा को ऊकार होता है । दूषयति कुलम् ।
नियम ४९८- (वो विधूनने जुक् ४।२।११६) वा धातु को विधूनन अर्थ में जुक् (ज्) का आगम होता है। उपवाजयति पुष्पाणि ।
नियम ४६६-(वेष्टिचेष्ट्यो ; ४।१।११४) वेष्ट धातु को जिन् के अङ्ग प्रत्यय से द्वित्व होने पर पूर्व को 'अ' आदेश विकल्प से होता है । अववेष्टत्, अविवेष्टत् । अचचेष्टत् अचिचेष्टत् ।
नियम ५००-(स्वपेरङि ४।४।१२) जिन्नन्तस्वप् को संप्रसारण होता है, अङ् प्रत्यय परे होने पर । असूषुपत् ।
नियम ५०१- (तिष्ठतेरित् ४।१।११८) स्था (तिष्ठति) धातु की उपधा को इकार हो जाता है, जिन्नन्त में अङ् परे हो तो । अतिष्ठिपत् ।
नियम ५०२-(जिघ्रतेर्वा ४।१।११६) घ्रा (जिघ्रति) धातु की उपधा को इकार विकल्प से होता है, जिन् का अङ् परे हो तो। अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् ।
नियम ५०३-- (नौ मृगरमणे ४।२।४४) रज् धातु की उपधा के नकार का लोप हो जाता है मृगरमण अर्थ में। रजयति मृगान् व्याधः ।
नियम ४०४-- (ज्वल ह्वलह्मलग्ला-स्ना-वनु-बम-नमोऽनुपसर्गस्य वा ४।२।१३१) उपसर्गरहित इन धातुओं को ह्रस्व विकल्प से होता है । ज्वलयति, ज्वालयति । ह्वलयति, ह्वालयति । ह्मलयति, ह्यालयति । ग्लपयति, ग्लापयति । स्नपयति, स्नापयति । वनर्यात, वानयति । वमयति, वामयति । नमयति, नामयति ।
नियम ५०५-- (लभेः ४।३।२६) लभ् धातु को नुम् का आगम होता