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-साधन
डालनी होगी। वह है-'साधकतमं साधनम्' अर्थात् कार्य-सिद्धि में जितने सहायक होते हैं वे सब साधन नहीं कह ला सकते । साधन तो वही है जो साधकतम हो यानी क्रियासिद्धि में सबसे अधिक निकट सम्पर्क रखता हो । जैसे-परशुना लता छिनत्ति । साधन दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर।
करणं द्विविधं ज्ञेयं, बाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः ।
धान्यं लुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा ॥ विवक्षा से अन्य कारकों से भी साधन बनाया जा सकता है। जैसेसाधवे भिक्षां दत्ते-इसको 'भिक्षया साधु सत्करोति' इस तरह परिवर्तित करके कर्म के स्थान में 'भिक्षया' साधन किया जा सकता है । विवक्षा से साधन को कर्तृकारक बनाया जा सकता है। जैसे—असिना छिनत्ति। यहां असि साधन है । असिः छिनत्ति-यहां असि कर्ता है।
कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे —गुरुः शिष्येण पूज्यते । मैत्रेण स्थीयते ।
नियम
नियम १०८-- (अपवर्गे तृतीया २।४।५७) कालवाची और मार्गवाची शब्दों से निरन्तर संयोग से फल प्राप्ति होने पर तृतीया विभक्ति होती है । जैसे --मासेनावश्यकमधीतम् । क्रोशेन शाकुन्तलमधीतम् ।
नियम १०६-(कर्तृसाधनहेत्विथं भूतलक्षणेषु २।४।५८)- कर्ता, साधन, हेतु और इत्यंभूतलक्षण (किसी विशेष वस्तु से उसकी पहचान होती है) में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-चैत्रेण कृतम् । दात्रेण लुनाति । दानेन कीर्तिः । कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् ।।
नियम ११०.- (सहार्थे २।४।५६) साकम्, सार्धम्, समम्, अमा, युगपत् आदि सह अर्थवाले शब्दों के योग से तृतीया विभक्ति होती है । जैसे -शिष्येण साकं गतो गुरुः । पुत्रेण युगपद् स दर्शनार्थं गतः ।।
नियम १११-(येनाङ्गिविकारः २।४।६०)---जिस विकृत अंग से जीव का विकार जाना जाता है उससे तृतीया विभक्ति होती है। जैसेअक्षणा काण: । पादे खञ्जः ।
नियम ११२-(निषेधार्थकृताद्यैः २।४।६१)-निषेधार्थक कृतं, भवतु, अलं, किं, पूर्णम्, पर्याप्तम् आदि शब्दों के योग से तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- कृतं तेन । अलं अतिप्रसंगेन । कि गतेन । भवतु तेन । तेन पूर्णम् । पर्याप्तं धनेन ।
नियम ११३-(प्रकृत्यादय आख्यायाम् २।४।६)-प्रकृति आदि शब्दों की साधन नंज्ञा होती है यदि उनका अर्थ प्रसिद्धि का वाचक हो तो। जैसे-प्रकृत्या चारः। प्रायेण धार्मिकाः । नाम्ना चैत्रः । जात्या क्षत्रियः ।