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पाठ ६७ : ध्यण् प्रत्यय
शब्दसंग्रह (ध्यण प्रत्यय के रूप) कार्यम् (कृ) करना चाहिए। वर्ण्यम् (वृष्) बरसना चाहिए । मार्यम् (मृज्) माफ करना चाहिए । याज्यम् (यज्) यज्ञ करना चाहिए। रोच्यम् (रुच्) अच्छा लगना चाहिए। शोच्यम् (शुच्) शोक करना चाहिए । याच्यम् (याच्) मांगना चाहिए । अय॑म् (अर्च ) पूजा करनी चाहिए । वाच्यम् (वच्) बोलना चाहिए । भोज्यम् (भुज्) खाना चाहिए। त्याज्यम् (त्यज्) छोडना चाहिए । लाव्यम् (लू) काटना चाहिए । पाव्यम् (पू) साफ करना चाहिए । याव्यम् (यु) मिश्रण करना चाहिए । वाप्यम् (वप्) बोना चाहिए । राप्यम् (र' ) अव्यक्त शब्द करना चाहिए। लाप्यम् (लप्) बोलना चाहिए । त्राणम् (त्र) लज्जा करनी चाहिए । डेप्यम् (डिप्) इकट्ठा करना चाहिए। दाभ्यम् (दभ्) दंभ करना चाहिए । आचाम्यम् (चम्) आचमन करना (पीना) चाहिए । आनाम्यम् (नम्) झुकना चाहिए। हार्यम् (ह) हरण करना चाहिए । पाक्यम् (पच्) पकाना चाहिए। वाह्यम् (वह) प्राप्त करना चाहिए । सेक्यम् (सिच) सिंचन करना चाहिए । योग्यम् (युज्) जोडना चाहिए । दोह्यम् (दुह) दुहना चाहिए। गोह्यम् (गुह.) छिपाना चाहिए । जाप्यम् (जप्) जप करना चाहिए।
नियम ५६५--- (ऋवर्णहसाद् घ्यण ५।१।४८) ऋवर्ण और हस् अन्त वाली धातुओं से ध्यण प्रत्यय होता है । कार्य, हार्य, पाक्यं, वाक्यं, वाह्यम् ।
__ नियम ५६६ क-(आसुयुवपिरपिलपित्रपिडिपिदभिचम्यानमे: ५।११४६) आङ् पूर्वक सुनोति और न मि धातु, य, व, र, लप, त्र, डिप्, दभ्, चम् इन धातुओं मे घ्यण् प्रत्यय होता है । आसव्यं, याव्यं, वाप्यं, राप्यं, लाप्यं, डेप्यं, दाभ्यं, आचाम्यं, आनाम्यम् ।
__ ख(पाणिसमवायोः सृजे: ५।११५०) पाणि, समव (सम् +अव) उपपद में हो तो सृज् धातु से घ्यण प्रत्यय होता है। पाणिभ्यां सृज्यते= पाणिसा रज्जुः । समवसृज्यते इति समवसर्ग्यः ।
ग- (चजो: कगौ घिति ६।१।२१) धातु के च को क तथा ज को ग हो जाता है, घ् इत् जाने वाला प्रत्यय परे हो तो। सेक्यं, पाक्यं, योग्यम् ।
घ-- (त्यजियजिरुचिशुचियाचिप्रवर्चचः ६।१।२७) इन धातुओं के ज को ग और च को क नहीं होता। त्याज्यं, याज्य, रोच्यं, शोच्यं, याच्यं, प्रवाच्यं, अय॑म् ।