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पाठ २४ : आधार
शब्दसंग्रह मज्जा (मज्जा-नली की हड्डी के भीतर भरा मुलायम पदार्थ) । सृक्कणी (ओष्ठ का प्रान्त भाग) । वेणि: (बालों की चोटी) । जंघा (जांघ)। शिश्नम् (लिंग)। कललः (झिल्ली)। प्लीहा (तिल्ली)। स्नायुः, सिरा (नाडी, नस)। पार्श्वः (शरीर के काख और कमर के बीच का पसलियों वाला भाग)। कण्डरा (भोजन की बडी नाडी)। पिप्लुः (मसा, तिल) । गुम्फः (मूंछ)। रोमकूपः (त्वचा के छोटे-छोटे छेद जिनसे रोएं निकलते हैं)। फालः, सीमन्तः (मांग)। गलः, कंठः (कंठ)। अंसः (कंधा) । भुजः, बाहुः (बाँह, भुजा)। भुजकोटर: (काँख)। रसना (जीभ) । तालु (तालु) । ग्रीवा (गर्दन)। भ्रू : (भौंह) । स्तन: (स्तन) । पृष्ठम् (पीठ) । नाभिः (नाभि) । कटि: (कमर)। ईश्वरः, अधिपतिः (मालिक) । दायादः (हिस्सेदार)।
धातु-लोचुङ-दर्शने (लोचते) देखना । भ्राजुङ् ---दीप्तौ (भ्राजते) दीप्त होना । स्फुटङ्-विकसो (स्फुटते) विकसित होना। चेष्टङ्-चेष्टायाम् (चेष्टते) चेष्टा करना। यतीङ्-प्रयत्ने (यतते) प्रयत्न करना।
अव्यय-सहसा (एकदम) । भृशम् (बहुत)। अवश्यम् (जरूर) । साक्षात् (आँखों के सामने) । मिथः (परस्पर)। किंचित् (कुछ)। अहो (आश्चर्य) । तर्हि (तो) । समीपम् (पास)।
तत् शब्द के तीनों लिंगों के रूप याद करो (परिशिष्ट १ संख्या ३४) । यत्, एतत् शब्द के रूप थोडे अन्तर के साथ तत् की तरह ही चलते हैं। (देखें संख्या ३५, ३८) । लोचङ् से यतीङ् तक के रूप वदिङ् की तरह चलते हैं।
आधार जिसमें क्रिया हो रही है उसे आधार कहते हैं। वह छव प्रकार का होता है--
(१) औपश्लेषिक (२) सामीप्यक (३) अभिव्यापक (४) वैषयिक (५) नैमित्तिक (६) औपचारिक । (१) औपश्लेषिक-जिस आधार से संलग्न पदार्थ का बोध हो उस आधार
को औपश्लेषिक कहते हैं। जैसे-कटे शेते-चटाई पर सोता है । तरौ वसति-वृक्ष पर रहता है। इनमें चटाई और वृक्ष आधार है।