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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति रचित
गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) भाग-१
सम्पादन-अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
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Jain
गोम्मटसार
जैन-धर्म के जीवतत्त्व और कर्मसिद्धान्त की विस्तार से व्याख्या करनेवाला महान् ग्रन्थ है 'गोम्मटसार' । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (दसवीं शताब्दी) ने इस वृहत्काय ग्रन्थ की रचना 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' और 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' के रूप में की थी। डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये और सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के सम्पादकत्व में यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९७८ - १६८१ में प्राकृत मूल गाथा, श्रीमत् केशववर्षी विरचित कर्णाट वृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका, संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत प्रस्तावना के साथ पहली बार चार वृहत् जिल्दों (गोम्मटसार जीवकाण्ड, भाग १,२ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड, भाग १, २) में प्रकाशित हुआ था। और अब जैन धर्म-दर्शन के अध्येताओं एवं स्वाध्याय-प्रेमियों को समर्पित है ग्रन्थ का यह नया संस्करण, नयी साजसज्जा के साथ ।
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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : प्राकृत ग्रन्थांक-१६
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति रचित गोम्मटसार
(कर्मकाण्ड)
भाग-१
[ श्रीमत्केशववर्णिविरचित कर्णाटवृत्ति, संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका,
हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना सहित ]
सम्पादन एवं अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
ORA
भारतीय ज्ञानपीठ
तृतीय संस्करण : १६६६ - मूल्य १६५.०० रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४)
स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी
इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण) सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११० ००३
मुद्रक : नागरी प्रिंटर्स, दिल्ली-११० ०३२
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA : Prakrit Grantha No. 16
GOMMATASĀRA (KARMAKĀŅDA)
of
ACHARYA NEMICHANDRA SIDDHANTACHAKRAVARTI
VOL. I
[With Karņāța-vịtti, Sanskrit Ţik, Jivatattvapradipikā,
Hindi Translation & Introduction ]
by
Dr. A. N. Upadhye Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri
SO4 CO
BHARATIYA JNANPITH
Third Edition : 1999 o Price Rs. 195.00
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BHARATIYA JNANPITH Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470. Vikrama Sam. 2000
18th Feb. 1944
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
Founded by Late Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his late Mother Smt. Moortidevi
and promoted by his benevolent wife
late Smt. Rama Jain
In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical,
puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi,
Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages.
Also
being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars,
and also popular Jain literature.
General Editors (First Edition) Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri
Dr. Jyoti Prasad Jain
Published by
Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at : Nagri Printers, Delhi-110032
All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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प्रस्तावना
कर्मसिद्धान्त
गोम्मटसारका प्रथम भाग जीवकाण्ड जीवसे सम्बद्ध है और उसका यह दूसरा भाग कर्मकाण्ड कर्मसे सम्बद्ध है । साधारण रूपमें जो कुछ किया जाता है उसे कर्म या क्रिया कहते हैं । जैसे खाना, पीना, चलना, बोलना, सोचना आदि । किन्तु यहाँ कर्म शब्दसे केवल क्रियारूप कर्म विवक्षित नहीं है । महापुराण में कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्याय शब्द इस प्रकार कहे हैं-
विधिः स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् ।
ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः || ४ ३७ ॥
अर्थात् विधि, स्रष्टा, विधाता, देव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये कर्मरूपी ब्रह्मा के वाचक शब्द हैं ।
कर्मका आशय -
यहाँ कर्म शब्दसे इसी विधाताका ग्रहण अभीष्ट है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि जो जीवित हैं एक दिन वे मरणको प्राप्त होते हैं और उनका स्थान नये प्राणो लेते | जीवन और मरणकी यह प्रक्रिया अनादिसे चली आती है । साथ ही हम यह भी देखते हैं कि संसार में विषमताका साम्राज्य है कोई अमीर है कोई गरीब । आज जो अमीर है कल वह गरीब हो जाता है और गरीब अमीर बन जाता है । कोई सुन्दर है कोई कुरूप । कोई बलवान् है कोई कमजोर । कोई रोगी है कोई नीरोग । कोई बुद्धिमान् है कोई मूर्ख । यदि यह विषमता विभिन्न कुलोंके या देशों के मनुष्यों में ही पायी जाती तब भी एक बात थी । किन्तु एक कुलकी तो बात ही क्या, एक ही माताकी कोख से जन्म लेनेवाली सन्तानों में भी यह पायी जाती है । एक भाई सुन्दर है तो दूसरा असुन्दर । एक भाई बुद्धिमान् है तो दूसरा मन्दबुद्धि । एक भाई शरीरसे स्वस्थ है तो दूसरा जन्मसे रोगी । जिन देशों में समाजवाद है वहाँ भी इस प्रकारकी विषमता वर्तमान है । मनुष्यों की तो बात क्या, पशु योनिमें भी यह विषमता देखी जाती है। एक वे कुत्ते हैं जो पेट भरनेके लिए मारे-मारे फिरते हैं, जिन्हें खाज और घाव हो रहे हैं । दूसरे वे कुत्ते हैं जो पेट भर दूध रोटी खाते हैं और मोटरों में घूमते हैं । इसका क्या कारण है । इसपर विचारके फलस्वरूप ही दर्शनोंमें आत्मवाद, परलोकवाद और कर्मवाद के सिद्धान्त अवतरित हुए हैं। इस कर्मवाद के सिद्धान्त को आत्मवादी जैन सांख्ययोग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि दर्शन तो मानते ही हैं अनात्मवादी बौद्धदर्शन भी मानता है । इसके लिए राजा मिलिन्द और स्थविर नागसेनका निम्न संवाद द्रष्टव्य है
राजा बोला - भन्ते ! क्या कारण है कि सभी आदमी एक ही तरहके नहीं होते ? कोई कम आयुवाले, कोई दीर्घ आयुवाले, कोई बहुत रोगी, कोई नीरोग, कोई भद्दे, कोई सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई बड़े प्रभाववाले, कोई गरीब, कोई धनी, कोई नीच कुलवाले, कोई ऊँबे कुलवाले, कोई बेवकूफ, कोई होशियार क्यों होते हैं ?
स्थविर बोले --- महाराज ! क्या कारण है कि सभी वनस्पतियों एक जैसी नहीं होतीं ? कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तीती, कोई कड़वी, कोई कसैली और कोई मीठी होती है ?
भन्ते ! मैं समझता हूँ कि बीजों के भिन्न-भिन्न होने से ही वनस्पतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं ।
प्रस्ता०-१
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गो० कर्मकाण्ड
महाराज ! इसी तरह सभी मनुष्योंके अपने-अपने कर्म भिन्न-भिन्न होनेसे वे सभी एक तरहके नहीं है । कोई कम आयुवाले, कोई दीर्घ आयुवाले होते हैं ।
भगवान् (बुद्ध) ने भी कहा है-हे मानव ! सभी जीव अपने कर्मोंसे ही फलका भोग करते हैं । सभी जीव कर्मों के आप मालिक हैं। अपने कर्मो के अनुसार ही नाना योनियोंमें उत्पन्न होते हैं। अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म ही से ऊंचे और नीचे होते हैं ।
-मिलिन्द प्रश्न, पृ. ८०-८१ । इसी तरह ईश्वरवादी भी मानते हैं। न्यायमंजरीकार (पृ. ४२ ) ने कहा है-"संसारमें कोई सुखी है, कोई दुःखी है, किसीको खेती आदि करनेपर विशेष लाभ होता है, किसीको उलटी हानि होती है। किसीको अचानक सम्पत्ति मिल जाती है, किसोपर बैठे-बैठाये बिजली गिर जाती है। ये सब बातें किसी दृष्ट कारणको वजह से नहीं होती, अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए।" अन्य दर्शनों में कर्मका स्वरूप
___ उक्त कर्मसिद्धान्तके विषयमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फलदानके सम्बन्धमें मतभेद है-परलोकवादी सभी दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य कर्तापर अपना संस्कार छोड़ जाता है। उस संस्कारको नैयायिक और वैशेषिक धर्म या अधर्मके नामसे कहते हैं । योगे उसे कर्माशय कहते हैं और बौद्ध उसे अनुशय आदि कहते हैं ।
बौद्धग्रन्थ मिलिन्द प्रश्न (पृ. ३९ ) में लिखा है"( मरने के बाद ) कौन जन्म ग्रहण करता है और कौन नहीं ?
जिनमें क्लेश (चित्तका मैल) लगा है वे जन्म ग्रहण करते हैं। और जो क्लेशसे रहित हो गये हैं वे जन्म ग्रहण नहीं करते ।
भन्ते ! आप जन्मग्रहण करेंगे या नहीं ?
"महारोज ! यदि संसार की ओर आसक्ति लगी रहेगी तो जन्मग्रहण करूंगा । और यदि आसक्ति छूट जायेगी तो नहीं करूंगा।"
__ योगदर्शनमें कहा है-पांच प्रकारको वृत्तियाँ होती हैं जो क्लिष्ट भी होती हैं और अक्लिष्ट भी होती हैं । जिन वृत्तियोंका कारण क्लेश होता है और जो कर्माशयके संचयके लिए आधारभूत होती हैं उन्हें क्लिष्ट
र्थात् ज्ञाता अर्थको जानकर उससे राग या द्वेष करता है और ऐसा करनेसे कर्माशयका संचय होता है। इस प्रकार धर्म-अधर्मको उत्पन्न करनेवाली वृत्तियां क्लिष्ट होती है। क्लिष्ट जातीय अथवा अक्लिष्ट जातीय संस्कार वृत्तियोंसे होते हैं और वृत्तियाँ संस्कारसे होती हैं। इस प्रकार वृत्ति और संस्कारका चक्र सर्वदा चलता रहता है। १-५ व्यास भाष्य ।
सांख्यकारिका ( ६७ ) में कहा है
'धर्म-अधर्मको संस्कार कहते हैं। उसीके निमित्तसे शरीर बनता है । सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होने पर धर्मादि पुनर्जन्म करने में समर्थ नहीं रहते । फिर भी संस्कारवश पुरुष ठहरा रहता है। जैसे कुलालके दगडका सम्बन्ध दूर हो जाने पर भी संस्कारवश चाक घूमता है।'
प्रशस्तपाद भाष्य (पृ. २८०-२८१ ) में कहा है
'राग और द्वेषसे युक्त अज्ञानी जीव कुछ अधर्म सहित किन्तु प्रकृष्ट धर्ममूलक कामोंके करनेसे ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक, पितृलोक और मनुष्यलोकमें अपने आशयके अनुरूप इष्टशरीर, इन्द्रिय१. 'स कर्मजन्यसंस्कारो धर्माधर्म गरोच्यते-न्यायम, ( उत्तर भाग) पृ. ४४ । २. क्लेशमूलः कर्मा शयः ॥ २-१२ ॥ योग द.। ३. 'मूलं भवस्यानुशयः' -अभिधर्म.१-१।
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प्रस्तावना
विषय और दुःखादिको प्राप्त करता है । तथा कुछ धर्मसहित किन्तु प्रकृष्ट अधर्ममूलक कामोंके करने से प्रेतयोनि, तिर्यग्योनि वगैरह स्थानों में अनिष्ट शरीर, इन्द्रियविषय और दुःखादिको प्राप्त करता है । इस प्रकार अधर्मसहित प्रवृत्तिमूलक धर्म से देव, मनुष्य, तिथंच और नरकों में ( जन्म लेकर ) पुनः पुनः संसारबन्ध करता है ।'
न्यायमंजरीकारने भी उक्त मतको ही व्यक्त करते हुए कहा है- 'देव, मनुष्य और तिर्यग्योनि में जो शरीरको उत्पत्ति देखो जाती है, प्रत्येक वस्तुको जानने के लिए जो ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, और आत्माका मनके साथ जो सम्बन्ध होता है वह सब प्रवृत्तिका ही परिणाम है। सभी प्रवृत्तियां क्रियारूप होनेसे यद्यपि क्षणिक हैं किन्तु उनसे होनेवाला आत्मसंस्कार, जिसे धर्म या अधर्म कहा जाता है, कर्मफलभोग पर्यन्त स्थिर रहता है ।'
इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों के उक्त मन्तव्योंसे यह स्पष्ट है कि कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्तिका है । यद्यपि वह क्षणिक है किन्तु उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादि है । इसीका नाम संस्कार है । किन्तु जैनदर्शन में कर्ममात्र संस्काररूप नहीं है । उसका स्वरूप आगे कहते हैं
जैनदर्शन में कर्मका स्वरूप
जैन दर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं - एक द्रव्यकर्म और दूसरा भावकर्म । यद्यपि अन्य दर्शनों में भी इस प्रकारका विभाग पाया जाता है और भावकर्मकी तुलना अन्य दर्शनोंके संस्कारके साथ तथा द्रव्यकर्म की तुलना योगदर्शनको वृत्ति और न्यायदर्शनकी प्रवृत्तिके साथ की जा सकती है तथापि दोनों में मौलिक अन्तर है, जैन दर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी, द्वेषी जीवकी क्रियाका निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध पानीकी तरह उसके साथ घुल-मिल जाता है । यह पदार्थ है तो भौतिक किन्तु उसका कर्मनाम इसलिए रूढ़ हो गया; क्योंकि वह जीवके कर्म अर्थात् मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ आकृष्ट होकर जीवके साथ बंध जाता है ।
आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेषसे आविष्ट जीवकी क्रियाको कर्म कहते हैं और इस कर्म क्षणिक होने पर भी तज्जन्य संस्कारको स्थायी मानते हैं वहीं जैनदर्शनका मत है कि रागद्वेषसे आविष्ट जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ एक प्रकारका द्रव्य आत्माकी ओर आकृष्ट होता है और उसके राग-द्वेष रूप परिणामोंका निमित्त पाकर आत्मा के साथ बन्धको प्राप्त होता है तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्माको अच्छा या बुरा फल मिलने में निमित्त होता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है— आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय में कहा है ----
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकाहिं सव्वदो लोगो । सुमेहि बादरेहिं य णंताणंतेहि विविहेहि ॥ ६४ ॥
अत्ता कुणदि सहावं तत्य गदा पोग्गला सभावेहि । गच्छंति कम्मभावं अण्णोष्णागाहमवगाढा ॥ ६५ ॥
अर्थ —यह लोक सर्वत्र सब ओरसे अनन्तानन्त विविध प्रकारके सूक्ष्म और बादर कर्मरूप होने योग्य पुद्गलोंसे ठसाठस भरा है। जहाँ आत्मा है वहाँ भी ये पुद्गल काय वर्तमान रहते हैं । संसार अवस्था में प्रत्येक आत्मा अपने स्वाभाविक चैतन्य स्वभावको न छोड़ते हुए अनादि कालसे कर्मबन्धनसे बद्ध होने के कारण अनादि मोह, राग-द्वेष आदि रूप अविशुद्ध ही परिणाम करता रहता है । वह जब जहाँ मोक्षरूप, रागरूप, द्वेषरूप अपने भाव करता है तब वहीं उसके उन भावोंको निमित्त करके जीवके प्रदेशोंमें परस्पर
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गा० कमकाण्ड
अवगाह रूपसे प्रविष्ट हा पुद्गल स्वभावही कर्मरूपताको प्राप्त होते है। जैसे लोक में अपने योग्य चन्द्र
और सूर्य को प्रभाको पाकर पुद्गल स्कन्ध सन्ध्या, मेघ, इन्द्रधनुप रूपसे बिना किसी अन्य ...के स्वयं परिणमन करते हैं वैसे ही अपने योग्य जीवके परिणामोंको निमित्त करके पुदगल कर्म भी बिना किसी अन्य कर्ता के अनेक कर्मरूप परिणमन करते हैं।
उन पुद्गलों को भी कर्म शब्दसे ही कहते हैं क्योंकि जीवकी मन, वचन, कायकी क्रियाका निमित्त पाकर वे उस रूप स्वयं परिणमन करते हैं। जीवकी कियाके साथ इस प्रकारके पौदगलिक कर्मबन्धनको अन्य किसी दर्शनने स्वीकार नहीं किया है। यह केवल जैन सिद्धान्तका ही मत है । जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है
जैनदर्शन सृष्टिका कर्ता-धर्ता-हर्ता कोई ईश्वर नहीं मानता। यह विश्व अनादि और अनन्त है। इसे किसीने न तो बनाया और न कोई सर्वथा नष्ट करता है। परिणमन वस्तुका स्वभाव है, अतः परिणमन सदा हआ करता है। छह द्रव्यों में से जीव और पदगल इन दो द्रव्यों का संयोग-वियोग सदा चलता रहता है। इसीका नाम संसार है। जैसे खानसे सोना मैल मिट्रीको लिये हुए ही निकलता है उसी तरह संसारमें अनादि कालसे जीव अशद्ध दशाके कारण भ्रमण करते हैं। यदि ऐसा न माना जाये तो अनेक आपत्तियां उपस्थित होती हैं। यदि जोवको प्रारम्भसे ही शद्ध मान लिया जाये तो उसकी अशुद्धता सम्भव नहीं है। आन्तरिक अशुद्धताके बिना नवीन कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है। यदि शुद्ध जीव भी बन्धनमें पड़ने लगे तो बन्धनको काटने का उपदेश और उसका आचरण ही व्यर्थ हो जायेगा। इसलिए जीवका प्रारम्भिक रूप जो अनादि है अशुद्ध ही है ।
तत्त्वार्थसूत्र में बन्धका लक्षण इस प्रकार कहा है
'सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः' इसकी टीका सर्वार्थसिद्धिका आशय यहाँ दिया जाता है
कषायके साथ रहनेसे सकषाय कहलाता है। सकषायके भावको सकषायत्व कहते हैं । उससे अर्थात् सकषाय भावसे । यह हेतु निर्देश है। यह बतलाता है कि जैसे उदरकी पाचक शक्तिके अनुरूप आहारका ग्रहण होता है, उसी प्रकार तीव्र मन्द या मध्यम जैसा कषायभाव होता है उसके अनुरूप कर्मों में स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। यह ज्ञान कराने के लिए हेतु निर्देश किया गया है।
शंका-आत्मा तो अमूर्तिक है, उसके हाथ नहीं है, तब वह कर्मों को कैसे ग्रहण करता है।
इसी शंकाको दूर करने लिए 'जीव' शब्द रखा है। जो जीता है अर्थात् प्राणधारण करता है, जिसके पीछे आयुकर्म लगा है वह जीव है। 'कर्मयोग्यान' पाठसे भी काम चल सकता था। उसके स्थानमें जो 'कर्मणो योग्यान' पाठ रखा है वह विशेष अर्थका ज्ञान कराने के लिए है। वह विशेष अर्थ है-'कर्मणो जीवः सकषायो भवति ।' कर्मके निमित्तसे जीव सकषाय होता है। जो कर्मसे रहित है उसके कषाय नहीं होती। इससे यह बतलाया है कि जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है। इससे यह आशंका दूर हो जाती है
व मर्त कर्मसे कैसे बन्धता है। यदि ऐसा न माना जाये अर्थात बन्धको अनादि न मानकर सादि माना जाये तो आत्यन्तिक शुद्धताके धारी सिद्ध जीवकी तरह शुद्ध जीवके कर्मबन्ध ही नहीं हो सकता।
दूसरा अर्थ होता है-कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। इस तरह 'कर्मणः का पहला अर्थ 'कर्मके कारण' बदलकर 'कर्मके योग्य' हो जाता है। 'पुद्गल' शब्द बतलाता है कि कर्म पौद्गलिक है । इससे जो दर्शन अदृष्टको आत्माका गुण मानते हैं उनका निराकरण हो जाता है क्योंकि यदि अदृष्ट ( कर्म ) आत्माका गुण हो तो वह उसके संसारपरिभ्रमण में कारण नहीं हो सकता।
अतः मिथ्यादर्शन आदि अभिनिवेशमें भीगे हुए आत्माके सब समयोंमें योगविशेषसे कर्मरूप होने के
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प्रस्तावना
योग्य पुद्गलोंके, जो सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और अनन्तानन्त प्रदेशी होते हैं-विभागरहित उपश्लेषको बन्ध कहते है। जैसे एक विशेष पात्र में डाले गये विभिन्न रसवाले बीज पुष्प फलोंका परिणमन मदिराके रूपमें हो जाता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोंका योग और कषायके वशसे कर्मरूपसे परिणमन होता है इसोको बन्ध कहते हैं।
इस तरह जैसे जीव और पुद्गल दोनों अनादि है । उसी प्रकार दोनोंका सम्बन्ध भी अनादि है। जीवके अशुद्ध रागादि भावोंका कर्म कारण है और जीवके अशुद्ध रागादि भाव उस कर्मके कारण हैं। आशय यह है कि पूर्व में बद्ध कर्मके उदयसे जीवके रागादि भाव होते हैं, और रागादि भावोंको निमित्त करके जीवके नवीन कर्मका बन्ध होता है। वे नवीन बन्धे कर्म जब उदयमें आते हैं तो उनका निमित्त पाकर जीवके पुनः रागादि भाव होते हैं और उन भावोंका निमित्त पाकर पुनः नवीन कर्मबन्ध होता है। इस प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है।
पंचास्तिकायमें जीव और कर्मके इस अनादि सम्बन्धको जीवपुद्गल कर्मचक्रके नामसे अभिहित करते हुए लिखा है
'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥१२८॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं द् विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥१२९॥ जीयदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्रवालम्मि ।
इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिघणो वा ॥' अर्थ-जो जीव संसारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके चक्रमें पड़ा है उसके राग और द्वेषरूप परिणाम होते हैं । परिणामोंसे नये कर्म बन्धते हैं। कर्मोसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेनेसे शरीर होता है । शरीरमें इन्द्रियां होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है। विषयोंके ग्रहणसे राग व द्वेषरूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्म और कर्मसे भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीवोंको अपेक्षा अनादि अनन्त है और भव्य जीवकी अपेक्षा सादिमात्र है।
जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध--
खानिया तत्त्वच में प्रथम शंका यह उपस्थित की गई थी-'द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ?
इसके समाधान में कहा गया है कि द्रव्यकर्मों के उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतर्गति भ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। और अपने इस कथनके सम्बन्ध समयसारकी गाथा ८०-८२ उद्धृत की गयी हैं।
अमृतचन्द्रजीने अपनी टीकामें कहा है-'यतः जीवके परिणामोंको निमित्त करके पदगल कर्मरूपसे परिणमन करते हैं और पुद्गल कर्मोको निमित्त करके जीव भी परिणमन करता है। इस प्रकार जीवके परिणाम और पुद्गलके परिणाम में पारस्परिक हेतुत्वकी स्थापना करनेपर भी परस्परमें व्याप्य-व्यापक भावका अभाव होनेसे जीव और पुद्गलके परिणामों में कर्ता कर्मभाव सिद्ध न होनेपर भी निमित्त-नैमित्तिक भावका निषेध न होनेसे एक दूसरेके निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंका परिणाम होता है।
अध्यात्ममें कर्ता-कर्म भाव दो द्रव्योंमें नहीं माना जाता है। क्योंकि उनमें व्याप्य-व्यापक भावका अभाव होता है। जहांतक हम जानते हैं जीव और कर्ममें कर्ताकर्म भाव जो उपादान मूलक होता है कोई नहीं मानता। फिर भी निमित्तको हेतकर्ता मानने वालोंका ऐसा भाव है कि जीव और कर्म दोनों परस्परमें
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गो० कर्मकाण्ड
प्रेरक निमित्त हैं । अर्थात् जीवके परिणामोंसे प्रेरित होकर पुद्गल कर्मरूप परिणमन करता है । और पुद्गलकर्म से प्रेरित होकर जीव रागादिरूप परिणमन करता है । और इस प्रकारके कथन कर्मको बलवत्ता दिखाने के लिए किये भी गये हैं । प्रवचनसार गाथा ११७ में कहा है- 'नाम संज्ञावाला कर्म अपने स्वभावसे आत्मा के स्वभावको अभिभूत करके उसे मनुष्य तियंच नारकी अथवा देव करता है ।'
कर्मसिद्धान्त से सम्बद्ध जितना भी कार्मिक साहित्य मिलता है प्रायः उस सबमें कर्मका वर्णन निमित्तकर्ताके रूपमें मिलता है । जैसे, जो ज्ञानको आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है, जो दर्शनको आवरण करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । इसी तरह षट्खण्डागमकी जीवस्थान चूलिकामें धवला टीका के अन्तर्गत व्युत्पत्ति करते हुए मोहनीयको व्युत्पत्ति की गयी है जो मोहित किया जाता वह मोहनीय है । इसपरसे जो शंका और समाधान किया गया है वह द्रष्टव्य है
मोहणीयं ॥ ८॥
'मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्वं पसजदि त्ति णासंकणिज्जं जीवादो अभिणम्हि पोलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तोदो' (पृ. ११) ।
शंका- ऐसो व्युत्पत्ति करनेपर तो जीवको मोहनीयत्व प्राप्त होता है ।
समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जीवसे अभिन्न और कर्म नामवाले पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्तृत्वका आरोप करके उस प्रकारकी व्युत्पत्ति की गयी है ।
वीरसेन स्वामीका उक्त कथन सर्वत्र लगा लेना चाहिये । कर्म संज्ञावाले पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्तृत्वका आरोप करके कर्मसिद्धान्त में निमित्तकर्ता के रूपमें कथन किया गया है ऐसा मानने में कोई विसंगति नहीं है ।
कर्मसिद्धान्तका समस्त वर्णन द्रव्यकर्म प्रधान है । द्रव्यकर्मको लेकर ही उसमें वर्णन किया गया है ।
षट्खण्डागमके वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में (पु. १३ पृ. २०५ ) प्रकृति में निक्षेपोंका वर्णन करते हुए नोआगमद्रव्य प्रकृति के दो भेद किये हैं- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति । और कर्मप्रकृति के ज्ञानावरणादि भेद किये हैं । अतः कर्मसिद्धान्तमें पुद्गलद्रव्य कर्मको लेकर ही वर्णन मिलता है । किन्तु कुन्दकुन्द स्वामीने अपने ग्रन्थों में जीव और वर्मके विवेचनमें व्यवहार के साथ निश्चय या परमार्थ स्थितिको भी स्पष्ट किया है ।
यहाँ हम पञ्चास्तिकाय गा. ५७-६० से उसकी टोकाका विवरण उपस्थित करते हैं
गाथा ५७ की टीका में कहा है- 'व्यवहारनयसे जीव द्रव्यकर्मका अनुभवन करता है । और वह अनुभूयमान द्रव्यकर्म जीवके भावोंका निमित्तमात्र कहा जाता है । उसके निमित्तमात्र होने पर कर्ता जीवके द्वारा कर्मभूत भाव किया जाता है। इस तरह जो जिस प्रकारसे जीवके द्वारा भाव किया जाता है वह जीव उस भावका उस प्रकारसे कर्ता होता है ।'
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उक्त कथनमें उदयागत द्रव्य कर्मोंको जीवके भावोंका निमित्तमात्र कहा है । तथा जीवको ही अपने भावका कर्ता कहा है । जीव द्रव्यका परिणमन जीत्रमें होता है और पुद्गल द्रव्य का परिणमन पुद्गलमें होता है । जिस समय जीव स्वतन्त्र रूपसे अपने भाव करता उसी समय में कर्मका उदय भी होता है । इस तरह दोनोंमें निमित्त नैमित्तिकपना घटित होता है ।
कर्मकी उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाएं होती हैं । और उसीको निमित्त करके जीवके औदयिक औपशमिक आदि भाव होते हैं । इसलिये गाथा ५२ में भावको कर्मकृत कहा है । क्योंकि कर्मके बिना उदयादि नहीं होते ।
इसपर से गाथा ५९ में यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है, यदि जीवका बौदयिकादिरूप भाव कर्मकृत है तो जीव उसका कर्ता नहीं हुआ और जीवको कर्ता माना गया है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है
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प्रस्तावना
कि जीव द्रव्यकर्मका कर्ता है । किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है; क्योंकि निश्चयनयसे आत्मा अपने भावको छोड़ अन्य कुछ भी नहीं करता ?'
इसके समाधान में कहा है- व्यवहारसे निमित्तमात्र होने के कारण जीवभावका कर्म कर्ता है। और जीवभाव कर्मका कर्ता है। किन्तु निश्चय से न तो जीवभावोंका कर्ता कर्म है और न कर्मका कर्ता जीव-भाव है। किन्तु वे कर्ता के बिना भी नहीं होते। अतः निश्चयसे जीवभावोंका कर्ता जीव है और कर्मपरिणामोंका कर्ता कर्म है ।।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि द्रव्यकर्मके निमित्तमात्र होनेपर भी जीव अपने भावके करने में स्वतन्त्र कैसे कहा जा सकता है इस प्रसंगमें हम अकलंक देवके तत्वार्थराजवार्तिकसे एक उद्धरण देना उचित समझते हैं । पांचवें अध्याय के प्रथम सूत्रके व्याख्यानमें कहा है कि 'धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' यहाँ पर बहुवचन स्वतन्त्रताका बोध कराने के लिए कहा है। वह स्वातन्त्र्य क्या है ? धर्मादिद्रव्य जो गति आदि उपकार करने के लिए प्रवृत्त होते हैं ऐसा वे स्वयं हो परिणमन करते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति पराधीन नहीं है । यही स्वातन्त्र्य यहाँ विवक्षित है । इसपर शंका की गयी-परिणामियों में परिणाम बाह्य द्रव्यादिनिमित्तवश पाया जाता है । स्वतन्त्र मानने पर उसका विरोध होता है। समाधान में कहा गया है-नहीं, बाह्य तो निमित्तमात्र है। गति आदि रूपसे परिणमन करनेवाले जीव पुद्गल गति आदि उपग्रह में धर्मादि के प्रेरक नहीं हैं।
जीव और कर्ममें भी जो निमित्त-नैमित्ति सम्बन्ध है वह प्रेरणामूलक नहीं है । अर्थात् न तो जीवकर्म पुद्गलोंको कर्म रूप परिणमन करने में प्रेरक होता है और न उदयागत कर्म जीवको अपने भाव करने में प्रेरक होते हैं। यदि कर्मको प्रेरक निमित्त माना जायेगा तो जोवकी मुक्ति में बाधा उपस्थित होगो । यद्यपि ऐसा भी कथन मिलता है । सोमदेव उपासकाध्ययन में कहा है
'प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्येत कर्मणा ।
एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ।।१०६ ॥ किन्तु उक्त कथनमें जीव और कर्मकी स्थितिमें किसी अन्य प्रेरक ईश्वर आदिका निषेध किया है। जीवके अशुद्ध रागादिभावोंका कारण कर्म है और कर्मके कारण रागादिभाव है। किन्तु न तो पुद्गलकर्म जीवको रागादिभाव करने के लिए प्रेरित करता है और न रागादिभाव पुद्गलकों को कर्म रूप होने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रवचनसारमें कहा है-'कर्मरूप होने के योग्य पुद्गलस्कन्ध अर्थात् जिनमें कर्मरूप परिणमन करनेकी शक्ति है वे पुद्गलस्कन्ध जीवके साथ एक क्षेत्रमें रहते हैं और जीवके परिणाममात्र बाह्य साधनका आश्रय लेकर स्वयमेव कर्मरूपसे परिणमन करते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं है' अतः यह निश्चित होता है कि पुद्गलस्कन्धोंका कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ।।१६९॥ __ आगे पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और उभयबन्धका स्वरूप बतलाते हुए कहा है
कर्मों का स्निग्धता और रूक्षता रूप स्पर्श विशेषोंके द्वारा जो परस्परमें एकत्व रूप परिणमन होता है वह केवल पुद्गलबन्ध है और जीवका औपाधिक मोह राग द्वेष पर्यायों के साथ एकत्वरूप परिणाम होता है वह केवल जीवबन्ध है। तथा जीव और कर्म पुद्गलोंके परस्सर में एक दूसरेके परिणाममें निमित्त होने से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है वह उभयबन्ध अर्थात् पुद्गल जीवात्मकबन्ध है ॥१७७॥
___ यह आत्मा लोकाकाशके समान असंख्यातप्रदेशी होनेसे सप्रदेशी है। उसके प्रदेशोंमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका अवलम्बन पाकर जैसा परिस्पन्द होता है उसी प्रकारसे कर्मपुद्गल स्वयं परिस्पन्द वाले होते हुए उसमें प्रवेश करते है और ठहर जाते हैं। और यदि जीवके मोह राग द्वेष रूप भाव होते हैं तो बन्धको प्राप्त होते हैं। इस तरह द्रव्यबन्धका कारण भावबन्ध है ॥१७८॥ रागरूप परिणत
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गो० कर्मकाण्ड
आत्मा ही नवीन द्रव्यकर्मसे बन्धता है और रागरहित आत्मा कर्मोंसे छूटता है । अतः निश्चयसे रागपरिणाम
ही बन्ध है वही द्रव्यबन्धका साधकतम है ॥ १७९ ॥
इस प्रकार से आगम में बन्धकी व्याख्या है |
८
स्वयंका अर्थ अपने रूप नहीं
प्रवचनसार, समयसार आदिमें इस प्रकरणमें अनेक स्थानोंमें 'स्वयं' शब्द आता है । 'स्वयं' शब्दका अर्थ स्पष्ट है- 'अपने-आप' अर्थात् किसीसे प्रेरित होकर नहीं । जैसे हरिवंशपुराणके श्लोक में कहा है"स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्राम्यति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥'
'आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है । स्वयं संसार में भ्रमण करता है और स्वयं उससे छूटता है। इसी प्रकार प्रवचनसारगाथा १६९ की टीकामें भी जो 'स्वयं' शब्द आया है उसका अर्थ भी वही है - अपने आप !
समयसार में भी गाथा ११६, ११८, १२१, १२२, १२३, १२४ में 'स्वयं' पद आया है। उनका अर्थ प्रथम हिन्दी टीकाकार पं. जयचन्द जीने सर्वत्र 'अपनेआप' किया है । यहीं हम टीकानुसार अर्थ देते हैं---- यदि पुद्गलद्रव्य जीव में आप स्वयं नहीं बँधा है, और कर्मभावसे आप नहीं परिणमता है तो वह पुद्गलद्रव्य अपरिणामी ठहरता है । अथवा कर्मवर्गणा आप कर्मभावसे नहीं परिणमती है तो संसारका अभाव ठहरता है । अथवा सांख्यमतका प्रसंग आता है । यदि जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है तो आप नहीं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको चेतनजीव कैसे परिणमाता है । अथवा यदि पुद्गलद्रव्य आप ही कर्मभाव से परिणमता है तो जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है यह कथन मिथ्या ठहरता है ।
तथा जीव कर्मसे स्वयं नहीं बँधा हुआ क्रोधादिभावसे आप नहीं परिणमता तो वह जोव अपरिणामी हुआ। ऐसा होनेपर संसारका अभाव आता है । यदि कोई ऐसा तर्क करे जो क्रोधादि रूप पुद्गल कर्म है वह जीवको क्रोधादि रूप परिणमाता है अतः संसारका अभाव नहीं होगा । तो यहाँ दो पक्ष हैं - जो पुद्गलकर्म क्रोधादि हैं वे अपनेआप अपरिणमतेको परिणमाते हैं कि परिणमतेको परिणमाते हैं । प्रथम तो जो आप नहीं परिणमता हो उसको परिणमानेको पर समर्थ नहीं होता; क्योंकि आपमें जो शक्ति नहीं उसे पर उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि स्वयं परिणमता है तो उसे परिणमानेवाले परकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वस्तुकी शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करतो 'अतः यह ठहरा कि जीव परिणाम स्वभाववाला स्वयं है ।'
ऊपर सर्वत्र टीकाकार पं. जयचन्दजीने 'स्वयं' का अर्थ अपनेआप ही किया है, अतः अपनेखा अर्थ करना ठीक नहीं ।
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आचार्य वादिराजजी ने अपने एकीभाव स्तोत्रमें लिखा है'एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो'
जो कर्मबन्ध स्वयं ( अपने आप ) मेरे साथ एकीभावकी तरह प्राप्त हुआ है ।
अतः यथार्थ में न तो जीव कर्मको प्रेरित करता है और न कर्म जीवको प्रेरित करता है । दोनों दोस्वतन्त्र विभिन्न द्रव्य हैं। दोनों ही परिणामी हैं। दोनोंमें निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धमात्र है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में कहा है
'इस संसार में जीवकृत रागादिरूप परिणामोंका निमित्तमात्र पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं । और अपने चिदात्मक रागादिभाव रूपसे स्वयं ही परिणमन करनेवाले उस चेतन आत्मा के भी पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्र होते हैं। इस प्रकार यह आत्मा कर्मकृत भावोंसे असमाहित होते हुए भी अज्ञानी जनों को सयुक्त के समान प्रतिभासित होता है और इस प्रकारका प्रतिभास ही संसारका बीज है । इस विपरीत
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प्रस्तावना
अभिनिवेशको दूर करके और अपने आत्मस्वरूपको सम्यकरूपसे निश्चित करके उससे विचलित न होना ही पुरुषार्थ मोक्षकी सिद्धिका उपाय है । ( १२-१५ श्लो.)
अनः यह सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गलकर्ममें निमित्त-नैमित्तिकभाव है। किन्तु यह कथन भी बाहादष्टिन। अमनदीप को जो गावों में और कर्ममें निमित्त-नैमित्तिकभाव है, जीव और कर्म में नहीं। क्योंकि यदि स्वयं जीवको कर्मका नामत्त मान लिया जायेगा तो वह सदा हो कर्ता बना रहेगा और इस तरह मुक्ति नहीं हो सकेगी।
कर्म और जीवमें परस्परमें निमित्त नैमित्तिक भावको लेकर प्रवचनसार गाथा १२१ की टीकामें जो कयन किया है वह भी द्रष्टव्य है
उसकी उत्यानिकामें कहा है-परिणामात्मक संसारमें किस कारणसे पुद्गलका सम्बन्ध होता है जिससे वह मनुष्यादि पर्यायरूप होता है ? इसके समाधान में कहा है-'यह जो आत्माका संसार नामक परिणाम है वही द्रव्यकर्म के श्लेषका कारण है ।
प्रश्न-उस प्रकारके परिणामका कारण कौन है ?
उत्तर-उसका कारण द्रव्यकर्म है। क्योंकि द्रव्यकर्मसे संयुक्त होनेसे हो उस प्रकारका परिणाम पाया जाता है।
प्रश्न-ऐसा होनेसे इतेरतराश्रय दोष आता है, क्योंकि उस प्रकारके परिणाम होने पर द्रव्यकर्मका श्लेष होता है और उसके होनेपर उस प्रकारके परिणाम होते हैं ?
उत्तर-नहीं आता, क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकमके साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्धकर्म है उसको कारण रूपसे स्वीकार किया है। इस प्रकार नवोन द्रव्यकर्म उसका कार्य होनेसे और पुराना द्रव्यकर्म उसका कारण होनेसे आत्माका उस प्रकारका परिणाम द्रव्यकर्म ही है। अतः आत्मा आत्मपरिणामका कर्ता होनेसे उपचारसे द्रव्यकर्मका भो कर्ता है। परमार्थ से आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है।
कर्मका कर्ता-भोक्ता कौन--पहले बतला आये हैं कि जैन धर्ममें केवल जीवके द्वारा किये गये अच्छे-बरे कर्मों का नाम कर्म नहीं है, किन्तु जीवके कामों के निमितसे आकृष्ट होकर जो पुद्गल परमाण उस जीवसे बन्धको प्राप्त होते हैं वे भी कर्म कहे जाते हैं। तथा उन पुद्गल परमाणुओंके फलोन्मुख होनेपर उनके निमित्तसे जीवमें जो काम-क्रोधादि भाव होते हैं, वे भी कर्म कहे जाते हैं। पहले प्रकारके कर्मोंको द्रव्यकर्म और दूसरे प्रकारके कर्मोको भावकर्म कहते हैं। जीवके साथ उनका अनादि सम्बन्ध है। इन कर्मों के कर्तृत्व और भोक्तृत्वके बारेमें जब हम निश्चयदृष्टि से विचार करते हैं तो जीव न तो द्रव्यकर्मों का कर्ता हो प्रमाणित होता है और न उनके फलका भोक्ता ही प्रमाणित होता है; क्योंकि द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं, पुद्गल द्रव्यके विकार है, उनका कर्ता चेतन जीव कैसे हो सकता है। चेतनका कर्म चैतन्यरूप होता है और अचेतनका कर्म अचेतनरूप। यदि चेतनका कर्म भी अचेतनरूप होने लगे तो चेतन-अचेतनका भेद नष्ट होनेसे महान् संकर दोष उपस्थित होगा। अतः प्रत्येक द्रव्य स्वभावका कर्ता है, परभावका कर्ता नहीं है। जैसे जल स्वभावसे शोतल होता है। किन्तु आगके सम्बन्धसे उष्ण हो जाता है। यहां उष्णताका कर्ता जल नहीं है। उष्णता तो आगका धर्म है। जलमें उष्णता आगके सम्बन्धसे आती है। अतः आगन्तुक है । आगका सम्बन्ध छूटते ही चली जाती है। इसी प्रकार
अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर जो पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं उनका कर्ता स्वयं पुद्गल ही है. जीव उनका कर्ता नहीं है। जीव तो अपने भावोंका कर्ता है। जैसे सांख्यके मतमें पुरुषके संयोगसे प्रकृतिका कर्तृत्व गुण व्यक्त हो जाता है। और वह सृष्टि प्रक्रियाको उत्पन्न करना शुरू कर देता है तथापि पुरुष अकर्ता ही कहा जाता है, उसी तरह जीवके राग-द्वेषादि रूप अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर पुदगल द्रव्य उसको ओर स्वतः आकृष्ट होता है, उसमें जीवका कर्तत्व नहीं है। जैसे यदि कोई सुन्दर युवा पुरुष
प्रस्ता०-२
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गो० कर्मकाण्ड
कार्यवश बाजारसे जाता है और कोई सुन्दरी उसपर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाती है तो इसमें पुरुषका क्या कर्तृत्व है । कर्वी तो वह स्त्री है, पुरुष तो उसमें निमित्त मात्र है। उसे तो इसका पता भी नहीं रहता। समयसारमें कहा है
जीवपरिणामहेदुकम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ ८६ ॥ ण वि कुम्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ॥ ८७ ॥ एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ ८८॥ अर्थ-जीव तो अपने रागद्वेषादिरूप भाव करता है। उन भावोंको निमित्त करके कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाते हैं। तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल जब फलोन्मुख होते हैं, तो उनका निमित्त पाकर जीव भी रागद्वेषादिरूप परिणमन करता है। यद्यपि जीव और पुद्गल दोनों एक दूसरेको निमित्त करके परिणमन करते हैं तथापि न तो जीव पुद्गल कर्मोके गुणोंका कर्ता है और न पुद्गलकर्म जीवके गुणोंका कर्ता है। किन्तु दोनों परस्परमें एक दूसरेको निमित्त करके परिणमन करते हैं। अतः आत्मा अपने भावोंका ही कर्ता है, पुद्गल कर्मकृत समस्त भावोंका कर्ता नहीं है।
सांख्यके दृष्टान्तसे किन्हीं पाठकों को यह भ्रम होनेकी सम्भावना है कि जैन धर्म भी सांख्यकी तरह जीवको सर्वथा अकर्ता और प्रकृतिकी तरह पुद्गलको ही कर्ता मानता है। किन्तु ऐसी बात नहीं है । सांख्यका पुरुष तो सर्वथा अकर्ता है किन्तु जैनोंको आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है । वह आत्माके स्वाभाविक भाव ज्ञान दर्शन सुख आदिका और वैभाविक भाव राग-द्वेष आदिका कर्ता है, किन्तु उनको निमित्त करके पुद्गलोंमें जो कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। सारांश यह है कि वास्तव में तो उपादान कारणको ही किसी वस्तुका कर्ता कहा जाता है। निमित्त कारणमें जो कर्ताका व्यवहार किया जाता है वह तो व्यावहारिक है, वास्तविक नहीं है। वास्तविक कर्ता तो वही है, जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है। जैसे घटका कर्ता मिट्टी ही है कुम्हार नहीं। कुम्हारको जो लोकमें घटका कर्ता कहा जाता है उसका केवल इतना ही. तात्पर्य है कि घट पर्यायमें कुम्हार निमित्त मात्र है। वास्तवमें तो घट मिट्टीका ही एक भाव है अतः वही उसका कर्ता है। जो बात कर्तृत्व के सम्बन्धमें कही गयी है वही भोक्तृत्वके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिए। जो जिसका कर्ता नहीं वह उसका भोक्ता कैसे हो सकता है। अतः आत्मा जब पुद्गल काँका कर्ता ही नहीं तो उनका भोक्ता कैसे हो सकता है। वह अपने जिन राग-द्वेषादि रूप भावोंका संसारदशामें कर्ता है उन्हींका भोक्ता भी है। जैसे व्यवहारमें कुम्हारको घटका भोक्ता कहा जाता है क्योंकि घटको बेचकर जो कुछ कमाता है उससे अपना और परिवारका पोषण करता है। किन्तु वास्तवमें तो कुम्हार अपने भावोंको ही भोगता है। उसी तरह जीव भी व्यवहारसे स्वकृ कोंके फलस्वरूप सुख-दुःखादिका भोक्ता कहा जाता है। वास्तव में तो अपने चैतन्य भावोंका ही भोक्ता है। इस प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्वके विषयमें निश्वय दृष्टि और व्यवहारदृष्टिके भेदसे द्विविध व्यवस्था है । निश्चय और व्यवहार
आगममें कथनकी दो शैलियां प्रचलित हैं उनमें से एकको निश्चय और दूसरीको व्यवहार कहते हैं । ये दोनों दो नय हैं। नय वस्तुस्वरूपको देखनेकी दृष्टिका नाम है। जैसे हमारे देखने के लिए दो आंखें हैं वैसे ही वस्तुस्वरूपको देखने के लिए भी दो नयरूप दो दृष्टियां हैं। एक नयदृष्टि स्वाश्रित है अर्थात् वस्तुके
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प्रस्तावना
११
स्वाश्रित स्वरूपको देखती है और दूस री नयदृष्टि पराश्रित है-परके निमित्तसे होनेवाले भावोंको भी उस वस्तुका मान कर देखती है। स्वाश्रित दृष्टि निश्चयनय है और पराश्रित दृष्टि व्यवहारनय है। आगममें इन दोनों नयों जाव और कर्मका कथन किया गया है। निश्चय और व्यवहारकथनके कुछ उदाहरण इस प्रकार है
१. व्यवहारनय कहता है जीव और शरीर एक है। निश्चयनय कहता है जीव और शरीर कभी भी एक नहीं हैं । इन दोनों कथनों में से किसका कथन यथार्थ है और किसका कथन असत्य है यह मोटी बुद्धिवाला भी जान सकता है। क्योंकि मृत्यु होनेपर शरीर पड़ा रहता है और जीव निकल जाता है । अतः जोव और शरीर एक नहीं हैं। इसो तरह आत्मामें कर्मका निमित्त पाकर होनेवाले जो भावादि हैं वे भी व्यवहारसे जोव या जीवके कहे जाते हैं किन्तु ययार्थ में तो वे जीव नहीं हैं । उदाहरण के लिए व्यवहारसे कर्मबन्ध के कारण जीवको मूर्तिक कहा जाता है। जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये चार गुण होते हैं उसे मतिक कहते हैं। किन्तु जोवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि नहीं होते। यदि होते तो जीव और पु कोई अन्तर नहीं रहता। इसी तरह कर्मसिद्धान्त वणित वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अनुभागस्थान, योगस्थान, स्थितिबन्धस्यान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, यहाँ तक कि गुणस्थान और जीव समास भी जीवके नहीं है । क्योंकि ये सभी पुद्गल द्रव्यके संयोगसे निष्पन्न होते हैं।
इसीसे समसार (गा. ५६) में कहा है कि रूपसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहारनयसे जोवके कहे हैं। क्योंकि व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनदि सिद्ध बन्धपर्यायको लेकर परके भावोंको परका कहता है। किन्तु निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे केवल जीवके स्वाभाविक भावको ही जीवका कहता है और प्रभावका निषेध करता है इसलिए निश्चयसे ये जीवके नहीं हैं।
ये सब संसारी जीवों में ही पाये जाते हैं। मुक्तजीवोंमें नहीं पाये जाते। इससे सिद्ध है वे सब कर्मके सम्बन्धसे होनेसे आगन्तुक हैं उनके साथ जोवका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हैं, संयोग सम्बन्ध मात्र हैं। संयोग सम्बन्ध दो भिन्न द्रव्यों में ही होता है।
यदि उक्त सबको जीवका कहा जायेगा तो जीव और अजीवमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। इसी तरह एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब नामकर्मकी प्रकृतियाँ है । इन्हींके मेलसे चौदह जीव समास बनते हैं। तब उन्हें जीव कसे कहा जा सकता है ? जैसे किसी व्यक्तिने जन्मसे हो घोका घड़ा देखा था, वह घोसे भिन्न घड़ेको जानता नहीं था उसको समझानेके लिए कहा जाता है कि जो यह घीका घड़ा कहा जाता है वह मिट्टी से बना है घीसे नहीं बना। किन्तु उसमें घी रखा जाता है इससे उसे घोका घड़ा कहा जाता है। इसी प्रकार अज्ञानी लोग अनादिसे अशुद्ध जीवको ही जीव जानते हैं, शुद्ध जीवको नहीं जानते। उनको समझाने के लिए कहा गया है कि यह जो वर्णादि वाला जीव है वह ज्ञानमय है वर्णादिमय नहीं है । अतः प्रसिद्धिवश जीवको वर्णादिमान व्यवहारसे कहा है।
इसी प्रकार जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ये पौद्गलिक मोहकर्मके उदयसे कहे गये हैं । अतः जैसे जोसे पैदा हुए जो ही होते हैं उसी तरह ये भी पुद्गल ही हैं जोव नहीं है। इसी तरह राग, द्वेष, मोह, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यवस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान आदि भी पुद्गल कर्म पूर्वक होनेसे पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं। व्यवहारसे ही इन्हें आगममें जीव कहा है क्योंकि ये परके निमित्तसे जीवमें होते हैं। ऐसी स्थितिमें व्यवहारको सर्वथा सत्य कसे कहा जा सकता है। वह तो केवल व्यवहार रूपसे ही सत्य है। परमार्थ सत्य तो निश्नयनयका ही विषय है क्योंकि वह जीवके वास्तविक स्वरूपको कहता है जो नित्य अविनाशी है, परके निमित्त से नहीं होता है।
हमने पूर्व में कहा है कि व्यवहार पराश्रित होता है पर निमित्तसे होनेवाले भावोंको भी जीवका
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१२
गो० कर्मकाण्ड
कहता है और निश्चयनय स्वाश्रित होता है। इसीसे पहला असत्य और दुसरा सत्य कहलाता है। जैसे जीवकी संसारदशा व्यवहारसे है निश्चयसे नहीं है । तब क्या जीवको संसारदशा झूठी है ? क्या वह संसारी नहीं है ? ऐसा प्रश्न होता है। इसका उत्तर है कि जीवको संसारदशा झूठी नहीं है सच्ची है किन्तु उस दशाको जीवका स्वरूप मानना असत्य है। व्यवहारनय उसे जीवका मानता है। यदि हम व्यवहारनयको सर्वथा सत्य मान बैठे तब तो मुक्ति की चर्चा ही व्यर्थ हो जायेगी। अतः जो केवल व्यवहारको हो यथार्थ मानकर उसी में रमे रहते है उन्हें तो सम्यक्त्वको प्राप्ति तीन कालमें नहीं हो सकती क्योंकि उसके लिए आत्माका ज्ञान आवश्यक है और आत्माके ज्ञानके लिए अनात्माका ज्ञान आवश्यक है । आत्मा और अनात्माका भेदज्ञान होनेपर ही सम्यक्त्व हो सकता है और यह ज्ञान निश्चय दृष्टिके बिना सम्भव नहीं है क्योंकि वही दृष्टि आत्माके शुद्ध स्वरूपका बोध कराती है।
प्रवचनसार गा. १८३ में कहा है
जो जीव और पुद्गलके स्वभावको निश्चित करके यह नहीं देखता कि जीव स्व है और पुद्गल पर है। वही मोहवश परद्रव्यको अपना मानता है और उसमें आसक्ति करता है। इस प्रकार भेदविज्ञान न होनेसे जीव परद्रव्यासक्त होता है और भेदज्ञान होनेसे परसे आसक्ति त्याग 'स्व' में प्रवृत्त होता है।
आगे प्रवचनसार गा. १८९ की टीकामें निश्चय और व्यवहारका अविरोध दर्शाते हए अमृतचन्द्रजीने जो कहा है वह व्यवहार और निश्चय विषयक सब शंकाओं का निराकरण करता है । उन्होंने कहा है
'रागपरिणाम ही आत्माका कर्म है, वही पुण्य-पापरूप है। रागपरिणामका ही आत्मा कर्ता है, उसीका ग्रहण करनेवाला और उसोका त्याग करनेवाला है, यह शुद्ध द्रव्यका निरूपण करनेवाला निश्चयनय है, और पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म है वही पुण्य-पापरूप है, आत्मा पुद्गल परिणामका ही कर्ता है, उसीको ग्रहण करता और छोड़ता है, यह अशुद्ध द्रव्यका कथन करनेवाला व्यवहारनय है। ये दोनों भी नय हैं क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों प्रकारसे द्रव्यको प्रतीति होती है किन्तु यहां (अध्यात्मशास्त्रमें) निश्चयनय साधकतम होनेसे ग्रहण किया गया है। क्योंकि साध्य के शुद्ध होनेसे द्रव्यको शुद्धताका प्रकाशक होनेसे निश्चयलय साधकतम है किन्तु जीवके अशुद्ध स्वरूपका प्रकाशक व्यवहारनय साधकनय नहीं है।
उक्त कथनमें व्यवहार और निश्चयका कपन तथा दोनोंकी उपयोगिता और अनुपयोगिता अथवा साधकतमता और असाधकतमताको स्पष्ट कर दिया है।
चूंकि सापेक्षनय सत्य और निरपेक्षनय मिथ्या होते हैं। अतः जैसे निश्चय निरपेक्ष व्यवहार मिथ्या है उसी प्रकार व्यवहार निरपेक्ष निश्चय भी मिथ्या है। किन्तु हेय और उपादेयकी दृष्टि से व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित जीव का अशुद्ध स्वरूप हेय है और निश्चय प्रतिपादित शुद्ध स्वरूप उपादेय है। उसोको प्राप्तिके लिए सब प्रयत्न है।
किन्तु व्यवहार हेय होते हुए भी प्रारम्भसे ही सर्वथा हेय नहीं है । व्यवहार नयके बिना परमार्थका उपदेश भी अशक्य है। जैसे 'आत्मा' कहनेपर जिन्हें आत्माका परिज्ञान नहीं है, व कुछ भी नहीं समझते । किन्तु जब व्यवहार नयका अवलम्बन लेकर कहा जाता है कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप है वह आत्मा है तो वह समझ जाते हैं। किन्तु ऐसा कहने पर भी अखण्ड-अभेदरूप आत्माकी प्रतीति न होकर खण्डभेदरूप आत्माकी प्रतीति होती है जो यथार्थ नहीं है क्योंकि आत्मा तो अखण्ड-अभेदरूप है। यदि कोई व्यवहारके द्वारा प्रतिपादित खण्ड-भेदरूप स्वरूपको ही यथार्थ मान बैठे तो वह मिथ्याज्ञानी ही कहा जायेगा। इस प्रकार जहाँ परमार्थका प्रतिपादक होनेसे व्यवहार उपयोगी है वहाँ यथार्थ स्वरूपका बोध न करा सकनेसे त्याज्य भी है। इसीलिए अमृतचन्द्र जीने कहा है
‘एवं....व्यवहारनयोऽपि परमार्थप्रतिपादकत्वात् उपन्यसनीय....व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः ।' (गा. रको टोका)
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प्रस्तावना
इसलिए व्यवहारनयको परमार्थका प्रतिपादक होनेसे स्थापित करना तो योग्य है किन्तु उसको सर्वथा उपादेय मानकर उसका अनुसरण करना योग्य नहीं है । इसीसे समयसार गा. ७ में कहा है
'ज्ञानीके चारित्र, दर्शन, ज्ञान व्यवहारसे कहे हैं। निश्चयसे न ज्ञान है, न चारित्र है, न दर्शन है वह तो ज्ञायक मात्र है।'
तथा गाथा १६ में कहा है
'साधुको दर्शन, ज्ञान, चारित्रका निरन्तर सेवन करना योग्य है। किन्तु निश्चयसे उन तीनोंको आत्मा ही जानो।'
अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्माके ही पर्याय हैं, कोई भिन्न वस्तु नहीं हैं, अतः साधुको एक आत्माकी ही आराधना करनी चाहिए।
स तरह व्यवहार भी किन्हीं जीवों के लिए किन्हीं अवस्थाओं में उपयोगी होता है। इसीसे आगममें जो कथन किया गया है वह व्यवहार प्रधान है क्योंकि उसके बिना परमार्थका बोध नहीं होता। अतः परमार्थका ज्ञान कराने के लिए आगममें भी व्यवहारप्रधान कथनका निषेध मिलता है। उदाहरणके लिए गोम्मटसारके जीवकाण्डमें बीस प्ररूपणाओंके द्वारा जीवका कथन किया है । अन्तमें कहा है
गुणजीवठाणरहिया सण्णा पज्जत्तिपाणपरिहीणा।
सेस णवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ।। सिद्ध सदा शुद्ध होते हैं उनमें गुणस्थान, जीवसमास, संज्ञा, पर्याप्त, प्राण तथा चौदह मार्गणाओं मेंसे नौ मार्गणा नहीं होतीं। अर्थात् बीसमें से केवल छह प्ररूपणाएँ शुद्ध जीवमें होती हैं। अतः चौदहका कथन व्यवहारमूलक है। उससे हो संसारी जीव जीवका यथार्थ स्वरूप समझने में समर्थ होते है।
समयसारोक्त बन्धका कथन
समयसारमें भी बन्धतत्त्वका कथन है । उसका भी सार यहाँ दिया जाता है
जैसे कोई पुरुष शरीरमें तेल लगाकर धूलसे भरी भूमिमें खड़ा होकर व्यायाम कर्म करते हुए अनेक प्रकारके उपकरणोंसे सचित्त-अचित्त वस्तुका घात करते हुए धूलसे लिप्त हो जाता है। उसके धूलसे लिप्त होनेका कारण क्या है ? भूमिका स्वभावसे ही धूलिभरा होना तो कारण नहीं है। यदि ऐसा हो तो जिनके शरीरमें तेल नहीं लगा है उनके भी धूलिसे लिप्त होने का प्रसंग आता है। यही बात शस्त्रोंसे व्यायाम करनेके सम्बन्धमें भी जानना तथा अनेक उपकरणोंसे सचित्त-अचित्त वस्तुका घात करने के सम्बन्धमें भी जानना । अतः न्यायबलसे यही सिद्ध होता है कि उस पुरुषका तेलसे लिप्त होना ही धूलिसे लिप्त होने का कारण है।
इसी प्रकार मिथ्यादष्टि आत्मामें रागादि करता हआ स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे लोकमें मन-वचन-कायको क्रिया करते हुए अनेक प्रकारके उपकरणों के द्वारा सचित्त-अचित्त वस्तुओंका घात करते हुए कर्मरूपी धूलि बांधता है। इसमें उसके बन्धका कारण क्या है ? लोकका स्वभावसे ही कर्मपुद्गलोंसे भरा होना यदि कारण हो तो लोकके अग्रभागमें विराजमान सिद्धोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। मन-वचन-कायकी क्रिया भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो यथाख्यात संयमके धारियोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। अनेक इन्द्रियोंका होना भी बन्धमें कारण नहीं है, यदि हो तो केवलज्ञानियोंके भो बन्धका प्रसंग आता है। सचित्त-अचित्त वस्तुका घात भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो समितियों के पालक मुनिराजोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। अतः न्यायबलसे यह निष्कर्ष निकलता है कि उपयोगमें रागादिका करना ही बन्धका कारण है ॥२३७-२४।।
मागे रागको अज्ञानमय अध्यवसाय बतलाकर उसे ही बन्धका कारण कहा है । यथा
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मैं अन्य जीवों को मारता हूं या अन्य जीव मुझे मारते हैं जिसके ऐसा अध्यवसाय है वह अज्ञानो होने से मिथ्यादृष्टि है । और जिसके नहीं है वह ज्ञानी होनेसे सम्यग्दृष्टी है ॥२४७॥
क्योंकि जीवोंका मरण अपने आयुकर्मके क्षय होनेसे ही होता है और आयुकर्मको कोई दूसरा हर नहीं सकता । वह तो अपने उपभोगसे ही क्षय होता है। अतः कोई कभी भी किसी अन्यका मरण नहीं कर सकता। अतः मैं अन्य जीवको मारता हूँ और अन्य जीव मुझे मारते हैं इस प्रकारका अध्यवसाय निश्चय ही अज्ञान है। इसी तरह मैं अन्य जीवोंको जिलाता है और अन्य जीव मुझे जिलाते है ऐसा अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है। क्योंकि जीवन तो जीवोंके अपने आयुकर्मके उदयसे ही होता है। उसके अभावमें नहीं होता । और आयुकर्म कोई किसी को दे नहीं सकता । वह तो अपने परिणामोंसे ही बंधता है।
मैं अन्य जीवों को दुखी या सुखी करता हूँ और अन्य जोद मुझे दुखी या सुखी करते हैं ऐसा अध्यवसाय निश्चय ही अज्ञान है। क्योंकि सब जीव अपने-अपने कर्मके उदयसे दुखी और सुखो होते हैं । उसके अभादमें उनका सुखी-दुखी होना सम्भव नहीं है। और अपना कर्म कोई किसी को दे नहीं सकता, उसका उपार्जन तो अपने परिणामोंसे ही होता है। अतः कोई कभी भी किसोको दुखी-सुखो नहीं कर सकता।
अतः अन्य जीवोंको मैं मारता हूँ, या नहीं मारता हूँ, उन्हें सुखी या दुखी करता हूँ इस प्रकारका जो अज्ञानमय अध्यवसाय है वही स्वयं रागादिरूप होनेसे उसके शुभ या अशुभ बन्धका कारण होता है।
जोगों के प्राणोंका घात अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश कभी होता है और कभी नहीं होता। किन्तु जो मारनेका अध्यवसाय किया जाता है वह निश्चयसे बन्धका हेतु होता है। इसी प्रकार अहिंसाका अध्यवसाय करना पुण्यबन्धका हेतु है। सारांश यह है कि बन्धका कारण अध्यवसाय है, बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है वह तो केवल अध्यवसान का कारण है। अध्यवसानके निषेधके लिए हो बाह्य वस्तुका निषेध है। बाह्य वस्तुके आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता। इसलिये बाह्यवस्तु परम्परासे बन्धका कारण होती है साक्षात् नहीं, साक्षात् बन्धका कारण तो अध्यवसान ही है। अतः अन्य जीवोंको मैं सुखी करता हूँ या दु:खी करता हूँ इत्यादि अध्यवसान मिथ्या है क्योंकि परका भाव परमें व्यापार नहीं करनेसे स्वार्थ क्रियाकारी नहीं होता।
स्व और परका भेदज्ञान न होने पर जो जीव संकल्प-विकल्प करता है उसे अध्यवसान कहते हैं । यही बन्धका कारण है। यह कषायके उदयरूप होता है। कषाय के उदयसे हो कर्मों में स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। कषायके उदयके अभावमें केवल योगसे तो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही होते है। अतः बन्धका प्रमुख कारण कषायोदयरूप अध्यवसान ही होता है। किन्तु आगममें बन्धके कारण चार या पाँच कहे हैं।
मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग ये पांच हैं और प्रमादके बिना चार है। तत्त्वार्थसूत्र अ. ८.१ में पांच कारण कहे है । समयसार, गोम्मटसार आदिमें प्रमादको नहीं लिया है इसपरसे यह आशंका होना स्वाभाविक है कि जब बन्धके चार प्रकार हैं और उनके दो ही कारण कहे हैं तब मिथ्यात्व और अविरतिको बन्धका कारण क्यों कहा ?
यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि बन्धके ये कारण क्रमसे ही दूर होते हैं, प्रथम गुणस्यान मिथ्यादृष्टि में बन्धके पांचों कारण रहते हैं। दूसरेसे चतुर्थतक मिथ्यात्व नहीं रहता। शेष चार रहते हैं। पांचवेंमें एक देश अविरतिके साथ बन्धके तीन कारण रहते हैं। छठेमें प्रमाद कषाय योग रहते हैं। सातवेंसे दसवें तक कषाय योग दो ही कारण रहते हैं। आगे तेरहवें तक केवल एक योग रहता है। अतः दसवें गुणस्थान तक चारों बन्ध होते हैं, आगे केवल प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध हो होते हैं । इस तरह इन चारों बन्धोंके
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प्रस्तावना
कारण कषाय योग प्रारम्भसे ही रहते हैं फिर भी मिथ्यात्व अविरति और प्रमादको भी बन्धके कारणोंमें कहा है।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मोनोय कर्मके दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीयका भेद मिथ्यात्व है और चारित्र मोहनीयका भेद कषाय है । उस कषायको चार जातियाँ हैं, उनमेंसे प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय है। इसका और मिथ्यात्वका ऐसा गठबन्धन है कि एकके बिना दूसरा नहीं जाता। जब दोनोंका ही उपशम आदि होता है तभी जीवको सम्यक्त्व होता है। किन्तु पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों की बन्धको व्युच्छित्ति होती है। ये सोलह प्रकृतियाँ केवल पहले गुणस्थान में ही बंधती हैं आगे मिथ्यात्वका उदय न होने से नहीं बंधती है । अतः उनके बन्धका मुख्य कारण मिथ्यात्व ही है । अतः मिथ्यात्वको बन्धका कारण कहा है।
मिथ्यात्वके उदयके साथ अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंका उदय तो रहता ही है। फिर भी दूसरे गणस्थान में मिथ्यात्वका उदय न होनेसे अनन्तानुबन्धोका उदय होते हुए भी उक्त सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। अतः उनके बन्धका प्रमुख कारण मिथ्यात्व हो है । अतः कषाय और योगके साथ मिथ्यात्वको भी बन्धका कारण माना गया है। अविरति या असंयमके तीन प्रकार है-अनन्तानुबन्धी कषायके उदयरूप, अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयरूप और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयरूप । इस तरह उसे भी बन्धके कारणों में गिनाया है।
जीव और कर्मके बन्धका स्वरूप
जीव एक पृथक् स्वतन्त्र द्रव्य है और पोद्गलिक कर्म एक पृथक् स्वतन्त्र द्रव्य है । इसीसे शुद्ध जीवके साथ पोद्गलिक कर्मका बन्ध नहीं होता किन्तु कर्मसे बद्ध अशुद्ध जीवके साथ हो पौद्गलिक कर्मका बन्ध होता है । यह बन्ध संयोगपूर्वक हो होता है। संयोगके बिना तो हो नहीं सकता। किन्तु जीव और कर्मका बन्ध संयोगपूर्वक होनेपर भी केवल संयोगमात्र नहीं है। जैसे दो परमाणुओं का संयोग होनेपर भी यदि उनमें बन्ध न हो तो द्वघणुक आदि स्कन्ध नहीं बन सकते । इसो तरह जीवका कर्म के साथ बन्ध भी केवल संयोगमात्र नहीं है।
सर्वार्थसिद्धि में ( ५।३३ ) सूत्रको उत्थानिकामें यह शंका उठायो है कि द्वयणुक आदि लक्षण संवात संयोगसे ही हो जाता है या कुछ विशेषता होती है। समाधानमें कहा है कि संयोग के होनेपर एकत्व परिणमन रूप बन्धसे संघातको उत्पत्ति होती है।
इसी सर्वार्थसिद्धि (२७) सूत्रकी टोकामें शंका की गयी है-यदि कर्मबन्ध रूप पर्यायकी अपेक्षा जोव मूर्त है तो कर्मबन्धके आवेशसे आत्माका ऐक्य हो जानेपर दोनों में भेद नहीं रहेगा। उत्तरमें कहा है, बन्धकी अपेक्षा एकत्व है, लक्षणभेदसे नानात्व है।
इससे स्पष्ट है कि जोव और कर्मका बन्ध भी दो परमाणुओं के बन्धकी तरह ही होता है। पंचास्तिकाय गाथा ६७ को टोकामें अमृतचन्द्रजीने लिखा है
__'जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात् पुद्गलस्कन्धाश्च स्वभावस्निग्धत्वात् बन्धावस्थायां परमाणुद्वन्द्वानीवान्योन्यावगाहग्रहण प्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठन्ते ।'
'जीव तो मोह, राग, द्वेषसे स्निग्ध है, और पुद्गलस्कन्ध स्वभावसे स्निग्ध है। अतः बन्धदशामें दो परमाणु प्रों की तरह परस्परमें अवगाहके ग्रहण द्वारा प्रतिबद्ध रूपसे रहते हैं।'
सर्वार्थसिद्धि ( ५।३७ ) में कहा है-"ऐसा बन्ध होने से पूर्व अवस्थाओंको त्यागकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है । अतः उनमें एकरूपता आ जाती है। अन्यया सफेद और काले तन्तुके समान संयोग होनेपर भी पा िणामिक न होनेसे सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा। परन्तु उक्त विधिसे बन्ध
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होने पर ज्ञानावरणादि कर्मोंकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति बनती है।"
इन उक्त प्रमाणोंसे सिद्ध है कि जीव और कर्मका बन्ध भी उसी प्रकार होता है जैसा दो परमाणुओंका बन्ध होता है। वह केवल एक क्षेत्रावगाहरूप ही नहीं है । जयसेनाचार्यने 'अन्योन्यावगाहेन संश्लिष्टरूपेण प्रतिबद्धाः' लिखा है। और आचार्य पूज्यपादने 'अविभागेन उपश्लेषः' लिखा है। आचार्य अमतचन्द्र जोने 'विशिष्टतरः परस्परमवगाहः' लिखा है।
पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध में यह शंका की गयी है कि बद्धता और अशुद्धतामें क्या अन्तर है। उसके उत्तरमें कहा है
बन्धः परगुणाकारा क्रिया स्यात्पारिणामिकी ।
तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥ १३० ॥ "परगुणाकार जो पारिणामिकी क्रिया होती है उसीका नाम बन्ध है और उसके होने पर उन दोनोंका अपने-अपने गुण से च्युत हो जाना अशुद्धता है।" इस तरह अशुद्धता बन्धका कारण भी है और कार्य भी है। क्योंकि बन्ध के बिना अशुद्धता नहीं होती।
इस प्रकार शुद्धनयसे जीव शुद्ध है किन्तु व्यवहारनयसे अशुद्ध भो है। शुद्ध नय एक और निर्विकल्पक होता है अतः शुद्ध नयसे जीद एक चैतन्यस्वरूप है। और व्यवहारनय अनेक और सविकल्पक है। उसके विषय जीवादि नौ पदार्थ है। यद्यपि शुद्धनय ही मोक्षमार्गमें उपयोगी माना गया है व्यवहारनय नहीं माना गया । तथापि शुद्धनयकी तरह व्यवहारनय भी न्यायप्राप्त है। क्योंकि जब एक ही जीव अनादि सन्तानबन्ध पर्यायमात्रसे विवक्षित होता है तब जीव-अजीव आदि नौ पदार्थरूप होता है। यद्यपि ये नौ पदार्थ पर्यायधर्मा होते हैं किन्तु ये केवल जीवको ही पर्याय नहीं हैं। उसके साथ उपरक्तिरूप उपाधि लगी हुई है । यह उपाधि अनादिकालसे है। इस उपरक्तिको उपाधि मानकर यदि उपेक्षित कर दिया जाये तो नौ पदार्थ नहीं बन सकते। क्योंकि ये नौ पदार्थ जीव और पुद्गलसे भिन्न स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं और न ये केवल जीव या केवल पुद्गलके होते हैं, किन्तु निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धसे परस्परमें सम्बद्ध जीव और पुद्गलके होते है । सारांश यह है कि एक ही जीव नौ पदार्थरूप हो रहा है। किन्तु उस दशा में भी वह शुद्ध अनुभवमें आता है क्योंकि जो उपरक्ति है वह उपाधि होनेसे अभूतार्थ है।
यह सब कथन पंचाध्यायीके उत्तरार्द्ध में विस्तारसे किया है।
अतः जीव और कर्मका सम्बन्ध केवल परस्सर एकक्षेत्रावगाह मात्र ही नहीं है किन्तु विशिष्ट उपश्रेष रूप होता है। तभी तो उसके प्रकृतिबन्ध आदि चार भेद होते हैं और वह जीवके संसार परिभ्रमणका कारण होता है और उसके विनाशके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। कर्म फल कैसे देते हैं
अन्य दर्शनों में भी जीवको कर्म करने में स्वतन्त्र माना है किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र माना है। उनकी दृष्टि से जड़ कर्म स्वयं अपना फल नहीं दे साता। अतः ईश्वर उसे उसके कर्मों के अनुसार फल देता है। किन्तु जैनधर्ममें तो ऐसा कोई ईश्वर नहीं है । अतः जोव स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति दूध पीकर पुष्ट होता है और दूसरा व्यक्ति शराब पीकर मतवाला होता है। क्या इसके लिए किसी दूसरेको आवश्यकता है ? दूधभ लदायक शक्ति है अतः उसको पीनेवाला स्वयं बलशाली होता है और शराबमें मादकशक्ति है अतः उसे पीनेवाला स्वयं मतवाला होता है । इसी प्रकार जो अच्छे कार्योंके द्वारा शुभ कर्मका बन्ध करता है उसकी परिणति स्वयं अच्छी होती है और जो बुरे कार्यों के द्वारा अशुभ कर्मका बन्ध करता है उसकी परिणति स्वयं बरी तो है। पूर्व जन्म के अच्छेबुरे संस्कारवश ही ऐसा होता है।
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प्रस्तावना
१७
आशय यह है कि जीवकी प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाको निमित्त करके जो पुदगल कर्म परमाणु जीवकी ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेषका निमित्त पाकर उससे बँध जाते हैं उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूधकी तरह अच्छा या बुरा करनेकी शक्ति होती है जो चैतन्य के सम्बन्धसे व्यक्त होकर उसपर अपना प्रभाव डालती है तथा उससे प्रभावित हुआ जीव ऐसे कार्य करता है जो उसे सुखदायक या दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव अच्छे होते हैं तो बँधनेवाले कर्म परमाणुओं पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है और कालान्तरमें अच्छा फल मिलने में निमित्त होते हैं। यदि भाव बुरे होते हैं तो उसका प्रभाव भी बुरा पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा मिलता है । अतः जीवको फल भोगने में परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं है । यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है तब घातकको दोषका भागो नहीं होना चाहिए; क्योंकि उस मनुष्यके द्वारा ईश्वरने मरनेवालेको मृत्युका दण्ड दिया है। जैसे राजा जिन व्यक्तियोंके द्वारा अपराधियोंको दण्ड देता है वे व्यक्ति अपराधी नहीं माने जाते; क्योंकि वे राजाकी आज्ञाका पालन करते हैं । उसी तरह किसीका घात करनेवाला भी जिसका घात करता है उसके पूर्वकृत कर्मो का फल भुगताता है क्योंकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियत की, तभी तो उसका वध हुआ । यदि कहा जाये कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र इच्छाका परिणाम है, तो कहना होगा कि संसारदशा में कोई भी प्राणी वास्तव में स्वतन्त्र नहीं है सभी अपने-अपने कर्मोसे बंधे हैं । महाभारतमें भी लिखा है- 'कर्मणा बध्यते जन्तुः ।' प्राणी कर्मसे बंधता है । और कर्मको परम्परा अनादि है । ऐसी परिस्थिति में 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् प्राणियों की बुद्धि कर्मके अनुसार होती है, इस न्यायके अनुसार किसी भी कामको करने या न करने में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । इसपर से यह आशंका होती है कि ऐसी दशा में तो कोई भी जोव मुक्तिलाभ नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्मसे बँधा है और कर्मके अनुसार atait बुद्धि होती है । किन्तु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्योंकि कर्म अच्छे भी होते हैं और बुरे भी । अतः अच्छे कर्मका अनुसरण करनेवाली बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मका अनुसरण करनेवाली बुद्धि मनुष्यको कुमार्गकी ओर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से क्रमशः मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलने से कुगति लाभ होता है । अस्तु,
जब उक्त प्रकारसे जीव कर्म करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र नही है तब घातकका घातनरूप कर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा, और बुद्धिकी दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल होना चाहिए । किन्तु जब हम कर्मका फल ईश्वराधीन मानते हैं तो उसका प्रेरक ईश्वरको ही कहा जायेगा ।
किन्तु यदि हम ईश्वरको फलदाता न मानकर जीवके कर्मोंमें ही स्वतः फलदानकी शक्ति मान लेते हैं तो उक्त समस्या हल हो जाती है। क्योंकि मनुष्यके पूर्वकृत बुरे कर्म उसकी आत्मापर इस प्रकारके संस्कार डाल देते हैं जिससे वह क्रुद्ध होकर हत्या तक कर बैठता है ।
किन्तु ईश्वरको फलदाता माननेपर हमारी विचार-शक्ति कहती है कि किसी विचारशील फलदाताको किसी व्यक्तिके बुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिए जो उसकी सजाके रूपमें हो, न कि दूसरोंको उसके द्वारा सजा दिलवानेके रूपमें । उक्त घटनामें ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है; क्योंकि उसे उसके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है । किन्तु घातककी जिस दुर्बुद्धिके कारण वह परका घात करता है उस बुद्धिको दुष्ट करनेवाले कर्मोंका उसे क्या फल मिला । अतः ईश्वरको कर्मफलदाता माननेमें इसी तरह अन्य भी अनेक अनुपपत्तियां खड़ी होती हैं । जिनमें से एक इस प्रकार है
किसी कर्मका फल हमें तत्काल मिल जाता है, किसीका कुछ माह बाद मिलता है, किसौका कुछ वर्ष बाद मिलता है, और किसीका इस जन्ममें नहीं मिलता । इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोग में यह समयकी विषमता क्यों देखी जाती है । ईश्वरेच्छा के सिवाय इसका कोई सन्तोषजनक समाधान
प्रस्ता०-३
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गो० जीवकाण्ड ईश्वरवादियों की ओरसे नहीं मिलता। किन्तु कर्ममें ही फलदानकी शक्ति माननेवाला जैनकर्म-सिद्धान्त उक्त प्रश्नोंका बुद्धिगम्य समाधान करता है जैसा आगे बतलाया जायेगा।
९. कर्मके भेद
कर्मके दो भेद है-द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्मके मूल भेद आठ हैं और उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस तथा उत्तरोत्तर भेद असंख्यात हैं। ये सब पुदगलके परिणामरूप हैं क्योंकि जीवकी परतन्त्रतामें निमित्त होते हैं। और भावकर्म चैतन्यके परिणामरूप क्रोधादि भाव हैं उनका तो प्रत्येक जीवको अनुभव होता है: क्योंकि जीवके साथ उनका कथंचित् अभेद है । इसीसे वे पारतन्य स्वरूप हैं. परतन्त्रतामें निमित्त नहीं है। द्रव्यकर्म परतन्त्रतामै निमित्त होता है और भावकर्म चैतन्यका परिणाम होनेसे पारतन्ध्यस्वरूप होता है। यही दोनों में भेद है। जहां कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्थोंमें द्रव्यकर्मकी प्रधानतासे कथन मिलता है वहां अध्यात्ममें भावकर्मको प्रधानतासे वर्णन मिलता है। सब कर्मों में प्रधान मोहनीय कर्म है। वही संसारपरिभ्रमणका मुख्य कारण है। प्रवचनसार गा. ८३-८४ में कहा है कि द्रव्य-गुण पर्यायके विषयमें जीवका जो मढ़ भाव है, जिसका लक्षण तत्त्वको न जानना है, वह मोह है। उससे आच्छादित आत्मा परद्रव्यको आत्मद्रव्य रूपसे, परगुणको आत्मगुण रूपसे और परपर्यायको आत्मपर्याय रूपसे जानता है । अतः · रात-दिन पर-द्रव्य के ग्रहणमें लगा रहता है। तथा इन्द्रियोंके वश होकर जो पदार्थ रुचता है उससे राग करता है. जो नहीं रुचता उससे द्वेष करता है। इस प्रकार मोह-राग द्वेषके भेदसे मोहके तीन प्रकार अध्यात्ममें कहे हैं । ये सब भावमोह है। यह भावमोह कार्य भी है और कारण भी । पूर्वमें बद्धकर्मके उदयसे होता है इसलिए तो कार्य है और नवीन बन्धका कारण होनेसे कारण है। भावमोहको दूर किये बिना द्रव्यमोहसे छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि भावमोहका निमित्त मिलने पर ही पौद्गलिक कर्म मोहादि द्रव्यकर्म रूप परिणत होते हैं। उनके उदयमें ज्ञानी विवेकी जीव मोहरूप परिणत नहीं होता अतः द्रव्यमोहका नवोन बन्ध नहीं होता। अतः यथार्थमें भावकमकी प्रधानता है, द्रश्यकर्मको नहीं। किन्तु कर्म-सिद्धान्त द्रव्यकर्म प्रधान है। इसीसे कर्मकाण्डके प्रारम्भमें कर्मके दो भेद करके लिखा है
'पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ अर्थात पुदगलके पिण्डको द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं। उक्त गाथाकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टोकामें लिखा है
"पिण्डगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात् शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति ।' 'उस पुद्गलपिण्डमें रहनेवाली फल देने की शक्ति भाव कर्म है । अथवा कार्यमें कारणके उपचारसे उस शक्तिसे उत्पन्न अज्ञानादि भी भाव कर्म है।' इस प्रकार कर्म-सिद्धान्तमें पौदगलिक कर्मोकी मुख्यतासे वर्णन मिलता है। यद्यपि भावकर्म द्रव्यकर्ममें निमित्त होता है और द्रव्यकर्म भावकर्ममें निमित्त होता है। दोनों ही अनादि होनेसे आगे-पीछेका प्रश्न नहीं है। फिर भी गौणता और मुख्यताको दृष्टिका भेद है। द्रव्यकर्मकी मुख्यतामें कहा जाता है कि द्रव्यकर्मका निमित्त न मिले तो भाव कम नहीं हो सकते। और भावकर्मकी मुख्यतामें कहा जाता है कि भावकर्मका निमित्त न मिले तो पुद्गल पिण्ड द्रव्यकर्म रूप नहीं हो सकता। दोनों ही कथन दृष्टिभेदसे यथार्थ हैं। किन्तु सुमुक्षुके लिए प्रथम कथनसे द्वितीय कथन अधिक उपयोगी है । प्रथम कथनसे तो यही ध्वनित होता है कि पुद्गल कर्मोंने ही चेतनको बाँध रखा है । और उनपर हमारा कोई जोर नहीं है। अतः परसे बांधा जानकर जीव निराश हो जाता है। किन्तु जब वह जानता है कि मेरे भावकर्म ही मेरे बन्धनके मूल हैं उनका निमित्त पाकर पौद्गलिक पिण्ड द्रव्यकर्म रूप होते है, तब वह अपने भावोंको सम्हालनेकी चेष्टा करता है। द्रव्य मोहके उदयमें भी भेदज्ञानके द्वारा मोहित नहीं होता। और इस तरह सम्यक्त्व को प्राप्त करके कर्मों के बन्धनसे सदाके लिए छूट जाता है।
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प्रस्तावना
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अतः पुदगलपिण्डकी शक्तिरूप भावकर्म तज्जनित अज्ञानादि रूप भावकर्मके अभावमें निष्फल होकर झड़ जाते हैं। पुद्गल पिण्डको शक्ति प्रदान करनेवाले जीवके भावकर्म ही हैं, जो जीवकी ही करतूत है।
उक्त दो भेद अन्य दर्शनों में नहीं मिलते । प्रायः शास्त्रकारोंने कर्मके भेद दो दृष्टियोंसे किये है-एक विपाकी दृष्टि से और दूसरा विपाककालकी दृष्टिसे । कर्मका फल किस-किस रूप होता है और कब होता है प्रायः इन्हीं दो बातोंको लेकर भेद किये गये हैं। कर्मके भेदोंका उल्लेख तो प्रायः सभी दर्शनकारों ने किया है किन्तु जैनेतर दर्शनोंमेंसे योगदर्शन और बौद्ध दर्शन में ही कर्माशय और उसके विपाकका कुछ विस्तृत वर्णन मिलता है और विपाक तथा विपाककालकी दृष्टिसे कुछ भेद भी गिनाये है परन्तु जैनदर्शनमें उसके भेद. प्रभेदों और विविध दशाओंका बहुत ही विस्तृत और सांगोपांग वर्णन है। तथा जैनदर्शनमें कोंके भेद तो विपाकको दृष्टिसे ही गिनाये हैं किन्तु विपाकके होने, न होने, अमुक समयमें होने वगैरहकी दृष्टिसे जो भेद हो सकते हैं उन्हें कर्मों की विविध दशाके रूपमें चित्रित किया है। अर्थात कर्मके अमुक-अमुक भेद है और उनको अमुक-अमुक अवस्थाएं होती है। अन्य दर्शनोंमें इस तरहका श्रेणिविभाग नहीं पाया जाता। जैसा मागे स्पष्ट किया जाता है।
कर्मके दो भेद अच्छा और बुरा तो सभी मानते हैं। इन्हें ही विभिन्न शास्त्रकारोंने शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुक्ल, कृष्ण आदि नामोंसे कहा है । इसके अतिरिक्त भी विभिन्न दर्शनकारोंने विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न भेद किये हैं । गोतामें (१।१८) सात्त्विक, राजस, तामस भेद पाये जाते हैं । संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण भेद भी किये गये हैं। किसी मनुष्यके द्वारा किया गया जो कर्म है, चाहे वह इस जन्ममें किया गया हो या पूर्व जन्ममें, वह सब संचित कहाता है। इसीका दूसरा नाम अदृष्ट और मीमांसकोंके मतमें अपूर्व है। इन नामोंका कारण यह है कि जिस समय कर्म या क्रिया की जाती है उसी समय के लिए वह दृश्य रहती है । उस समयके बीत जानेपर वह स्वरूपतः शेष नहीं रहती, किन्तु उसके सूक्ष्म अतएव अदृश्य अर्थात् अपूर्व और विलक्षण परिणाम ही शेष रह जाते हैं। उन सब संचित कर्मोको एक साथ भोगना सम्भव नहीं है। क्योंकि उनमेंसे कुछ परस्पर विरोधी अर्थात अच्छे और बुरे दोनों प्रकारके फल देनेवाले हो सकते हैं। उदाहरणके लिए कोई संचित कर्म स्वर्गप्रद और कोई नरक ले जानेवाला होता है। अतएव संचितसे जितने कोके फलोंको भोगना पहले प्रारम्भ होता है उतनेको प्रारब्ध कहते हैं।
लोकमान्य तिलकने अपने गीतारहस्यमें (पृ. २७२) क्रियमाण भेदको ठीक नहीं माना है। उन्होंने लिखा है
'क्रियमाण....का अर्थ है जो कर्म अभी हो रहा है अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है। परन्तु वर्तमान समयमें हम जो कुछ करते हैं वह प्रारब्ध कर्मका ही परिणाम है । अतएव क्रियमाणको कर्मका तीसरा भेद माननेके लिए हमें कोई कारण नहीं दीख पड़ता।'
वेदान्त सूत्रमें (४।१।१५) कर्मके प्रारब्ध कार्य और अनारब्ध कार्य दो भेद किये हैं । लोकमान्य इन्हें ही उचित मानते हैं।
योगदर्शन में कर्माशयके दो भेद किये हैं-एक दृष्ट जन्मवेदनीय और दूसरा अदृष्ट जन्मवेदनीय । जिस जन्ममें कर्मका संचय किया है उसी जन्ममें यदि वह फल देता है तो उसे दृष्ट जन्मवेदनीय कहते हैं और यदि दूसरे जन्ममें फल देता है तो उसे अदृष्ट जन्मवेदनीय कहते हैं। दोनोंमेंसे प्रत्येकके दो भेद हैं-एक नियत विपाक, दूसरा अनियत विपाक।
बौद्धदर्शनमें कर्मके भेद कई प्रकारसे गिनाये हैं । यथा-सुखवेदनीय, दुःखवेदनीय, न दुःखसुखवेदनीय तथा कुशल, अकुशल और अव्याकृत । दोनोंका आशय एक ही है-जो सुखका अनुभव कराये, जो दुःखका अनुभव कराये और जो न दुःखका और न सुखका अनुभव कराये। प्रथम तीन भेदोंके भी दो भेद हैंएक नियत, दूसरा अनियत । नियतके तीन भेद है-दृष्टधर्मवेदनीय, उपपद्यवेदनीय और अपरपर्याय
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२०
गो० जीवकाण्ड
वेदनीय। अनियत के दो भेद है-विपाककाल अनियत और अनियत विपाक । दृष्टधर्मवेदनीयके दो भेद हैसहसा वेदनीय और असहसा वेदनीय । शेष भेदोंके भी चार भेद है-विपाककाल अनियत । विपाकानियत, विपाकनियत विपाककाल अनियत, नियतविपाक नियतवेदनीय और अनियत विपाक अनियतवेदनीय।
किन्तु जैनदर्शनमें वणित कर्मके भेदोंकी तुलनाके योग्य कोई भेद अन्य दर्शनोंमें वणित पूर्वोक्त भेदों में नहीं पाया जाता। योगदर्शन में कर्मका विपाक तीन रूपसे बतलाया है-जन्मके रूप में, आयके रूपमें और योगके रूपमें । किन्तु अमुक कर्माशय आयुके रूपमें अपना फल देता है, अमुक कर्माशय जन्मके रूपमें अपना फल देता है और अमुक कर्माशय भोगके रूप में अपना फल देता है यह बात वहां नहीं बतलायो है। यदि यह भी वहाँ बतलाया गया होता तो योगदर्शनके आयुविपाकवाले कर्माशयकी जैनदर्शनके आयुकर्मसे और जन्मविपाकवाले कर्माशयकी नामकर्मसे तुलना की जा सकती थी। किन्तु वहां तो सभी कर्माशय मिलकर तीनरूप फल देते हैं। जो कर्माशय दृष्टजन्मवेदनीय होता है वह केवल दो ही रूप फल देता है, जन्मान्तरमें न जानेसे उसका विपाक जन्मरूपसे नहीं होता। अन्य दर्शनों में वर्णित कर्मके जो भेद पहले गिनाये हैं वे जैनदर्शनमें वणित कर्मों की विविध दशाएँ हैं जिनका कथन आगे करेंगे।
कमंशास्त्र अध्यात्मशास्त्र है
जिसमें एक आत्माको लेकर कथन किया जाता है उसे अध्यात्मशास्त्र कहते हैं । इस प्रकार अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य आत्माके स्वरूपका विचार है। द्रव्यसंग्रह (गा. ५७ ) और समयसारकी टीकाके अन्त में 'अपनी शुद्ध आत्मामें अधिष्ठानको अध्यात्म' कहा है। यही अध्यात्मका प्रयोजन है। द्रव्य संग्रहकी गा. १३ में कहा है
मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया ।
विष्णेया संसारी सम्वे सुद्धा ह सुद्धणया ॥ अर्थ-संसारी जीव अशुद्धनयकी दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानोंको अपेक्षा चौदह प्रकारके होते हैं और शुद्धनयसे सब जीव शुद्ध हैं।
इसकी टीकाके अन्तमें टीकाकारने कहा है कि उक्त गाथाके तीन पदोंसे 'गुणजीवा पज्जत्ति' इत्यादि गाथामें जो बोस प्ररूपणा कही है, वे धवल, जयधवल, महाधवल नामक तीन सिद्धान्त प्रन्योंके बीजपद रूप हैं, उनको सूचित किया है और गाथाके चतुर्थ पाद 'सब्वे सुद्धा सुद्धणया' से पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार नामक तीन प्राभृतोंके बीजपदको सूचित किया है ।
इस तरह उक्त गाथामें सिद्धान्त या आगम और अध्यात्म दोनोंकी ही कथनीको संग्रहीत बतलाया है। साथ ही दोनोंके भेदको भी स्पष्ट किया है। और दोनोंके पारस्परिक सम्बन्धको भी सूचित किया है। उक्त टीकाके अनुसार अध्यात्ममें आत्माके पारमार्थिक शुद्ध स्वरूपका वर्णन होता है और आगम या सिद्धान्तमें उसके व्यावहारिक स्वरूपका कथन होता है। मोक्षके अभिलाषीको इन दोनों ही स्वरूपोंको जानना आवश्यक है, क्योंकि एक उसके शद्ध स्वरूपको बतलाता है तो दूसरा उसके वर्तमान अशुद्ध स्वरूपको। और अशुद्धता उसके ही कर्मोंका परिणाम है। अतः जबतक वह अपनी वर्तमान परिणतिके कारण कलापोंसे परिचित न होगा तबतक उससे छूटने का प्रयत्न नहीं करेगा। इस दृष्टिसे कर्मशास्त्र भी अध्यात्म शास्त्रका ही अंग है। इसीसे समयसार नामक अध्यात्मशास्त्रमें संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वके साथ आस्रव और बन्धतत्त्वका भी विवेचन है। उनके विना शेष तत्त्वोंका कथन ही निरर्थक हो जाता है।
हमारे सामने आत्मा दृश्य नहीं है । दृश्य है मनुष्यों के विविध रूप और पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि । जो हमें चलते-फिरते दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें कुछ समझदार है तो कुछ नासमन्त। इन्हीं के द्वारा हम जह
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प्रस्तावना
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और चेतनके भेदको जाननेका प्रयत्न करते हैं। और तब उनको विविध दशाओंका कारण उनके कर्मको बखानते हैं। कर्मसिद्धान्त प्रकट करता है कि जीवकी इन विविध दशाओंका कारण उनका कर्म है। कर्मका अमुक कारणोंसे आस्रव और बन्ध होता है । तथा उनका अमुक परिणाम होता है।
केवल अध्यात्मशास्त्र अर्थात आत्माके शुद्ध स्वरूपका निरूपण करनेवाले शास्त्र अध्ययनसे आत्माका एकांगी ज्ञान होता है और केवल उस ज्ञानके बलसे शुद्धात्माको प्राप्त करना शक्य नहीं है। इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारको रचना की। इन तीनोंके अध्ययनसे द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, छह द्रव्योंका स्वरूप आदि अनेक आवश्यक बातोंका ज्ञान होता है। फिर भी कर्मसिद्धान्तका ज्ञान नहीं होता। और कर्मसिद्धान्तका ज्ञान न होनेसे शरीरको रचना, उसमें इन्द्रियों की रचना, इन्द्रियों के द्वारा होने वाला विषयोंका ग्रहण, उससे होनेवाला रागरूप भावकर्म, उससे नवीन कर्मका बन्ध, बन्धसे पुनर्जन्म आदिका ज्ञान नहीं होता है। उस ज्ञानसे हो शरीर और इन्द्रियों में आत्मबुद्धि की भावना दूर होती है और आत्मामें हो आत्मबुद्धि का विकास होता है; क्योंकि जबतक प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाली वर्तमान अवस्थाओं के साथ आत्माके सम्बन्धका सच्चा स्पष्टीकरण न हो तब तक दृष्टि उधरसे हटकर अपनी ओर नहीं लग सकती। जब यह ज्ञान होता है कि ये सब रूप वैभाविक है, कर्मजन्यविकार है तब आत्मस्वरूपकी यथार्थ जिज्ञासा होती है। उसी अवस्था में आत्माके शुद्ध स्वरूपका उपदेश कार्यकारी होता है ।
समयसारमें शुद्ध जीवके स्वरूपके वर्णनमें लिखा है-गुणस्थान, मार्गणास्थान, योगस्थान, उदयस्थान, अनुभागस्थान, बन्धस्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान आदि जीवके नहीं हैं। इन सबका कथन कर्मशास्त्र विषयक ग्रन्योंमें है। जिसने उन्हें पढ़ा नहीं वह कैसे इनसे भेदबुद्धि कर सकेगा। अतः कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्रका अभिन्न अंग है और जो उसकी उपेक्षा करके केवल समयसारमें रमते हैं वे समयसारके मात्र ज्ञाता हो सकते हैं अनुभविता और प्राप्ता नहीं हो सकते।
पं. टोडरमल जी ने अपने मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थके आठवें अध्यायमें चारों अनयोगोंकी उपयोगिता और प्रयोजन बतलाते हुए करणानुयोगके सम्बन्ध में लिखा है
"कितने ही जीव कहते हैं कि करणानुयोगमें गुणस्थान मार्गणादिका व कर्मप्रकृतियोंका कथन किया....सो उन्हें जान लिया कि 'यह इस प्रकार है, इसमें अपना कार्य क्या सिद्ध हुआ। या तो भक्ति करे, या व्रतदानादि करे या आत्मानुभव करे, इससे अपना भला है।"
उससे कहते हैं-परमेश्वर तो वीतराग है, भक्ति करनेसे प्रसन्न होकर कुछ करते नहीं है। भक्ति करनेसे कषाय मन्द होतो है, उसका स्वयमेव उत्तम फल होता है । सो करणानुयोगके अभ्याससे उससे भी अधिक मन्द कषाय होती है इसलिए इसका फल अति उत्तम होता है। तथा व्रत-दानादि तो कषाय घटाने के बाह्य निमित्तके साधन है और करणानुयोगका अभ्यास करनेपर वहाँ उपयोग लग जाये तब रागादिक दूर होते हैं सो यह अन्तरंग निमित्तका साधन है इसलिए यह विशेष कार्यकारी है। तथा आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है परन्तु सामान्य अनुभवमें उपयोग टिकता नहीं। और नहीं टिकता तब अन्य विकल्प होते हैं। वहाँ करणानुयोगका अभ्यास हो तो उस विचारमें उपयोग लगाता है। यह विचार वर्तमान भी रागादि घटाता है और आगामी रागादि घटानेका कारण है इसलिए यहाँ उपयोग लगाना । जीव कर्मादिके नाना भेद जाने, उनमें रागादिक करने का प्रयोजन नहीं है। इसलिए रागादि बढ़ते नहीं है। वीतराग होनेका प्रयोजन जहाँवहां प्रकट होता है इसलिए रागादि मिटानेका कारण है। कितने ही कहते हैं-करणानुयोगमें कठिनता बढ़त है इसलिए उसके अभ्यास में खेद होता है।
उनसे कहते हैं-यदि वस्तु शीघ्र जानने में आये तो वहां उपयोग उलझता नहीं है तथा जानी हुई वस्तुको बारम्बार जाननेका उत्साह नहीं होता, तब पाप कायों में उपयोग लगाता है। इसलिये अपनी बुद्धि के अनुसार कठिनतासे भी जिसका अभ्यास होता जाने उसका अभ्यास करना। तथा तू कहता है-खेद
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गो० जीवकाण्ड
होता है । परन्तु प्रमादी रहने में तो धर्म है नहीं। प्रमादसे सुखी रहे वहाँ तो पाप ही होता है इसलिए धर्मके अर्थ उद्यम करना ही योग्य है ऐसा विचारकर करणानुयोगका अभ्यास करना ।' (पृ. २९० - २९१ ) कर्मशास्त्र करणानुयोग से सम्बद्ध है । अतः उसकी उपयोगिता निर्विवाद है । वह अनेक प्रकारके आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारोंकी खान होनेसे उसका महत्त्व अध्यात्मशास्त्र से कम नहीं है । यह ठीक है कि अनेक लोगोंको कर्मप्रकृतियोंको संख्या गणनामें उलझन प्रतीत होती है और इसीसे उन्हें कर्मशास्त्र रुचिकर नहीं लगता । किन्तु इसमें कोई दोष नहीं है, प्रत्युत सांसारिक विषयों में भटकते हुए मनको रोकनेके लिए यह एक अच्छा साधन है । विपाकविचयको इसीसे धर्मध्यानके भेदोंमें गिनाया है । उसके चिन्तनमें एकाग्रता आती है उसका अभ्यासी अपने आत्माके परिणामोंके उतार-चढ़ाव को सरलता से आँककर अपना कल्याण करने में समर्थ होता है । अतः अध्यात्मरसिक मुमुक्षुको अध्यात्मके साथ कर्मशास्त्रका भी अभ्यास करना चाहिये ।
विषय परिचय तथा तुलना
कर्मकाण्डकी गाथा संख्या ९७२ है । उसमें नो अधिकार हैं -- ( १ ) प्रकृति समुत्कीर्तन (२) बन्धोदय सत्त्व (३) सत्त्वस्थानभंग ( ४ ) त्रिचूलिका (५) स्थान समुत्कीर्तन ( ६ ) प्रत्यय (७) भाव चूलिका (८) त्रिकरण चूलिका ( ९ ) कर्म स्थिति रचना |
प्रथम खण्ड जीवकाण्डकी प्रस्तावना में हम यह लिख आये हैं कि यह एक संग्रहग्रन्थ है, षट् खण्डागम तथा उसकी घवलाटीकाके आधारपर इसका संकलन हुआ है । कर्मकाण्ड में ग्रन्थकारने अपने सम्बन्ध में लिखा
जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं होदि ॥
अर्थात् जैसे चक्रवर्ती चक्र के द्वारा निर्विघ्नता पूर्वक छह खण्डों को साधता है वैसे ही मैंने अपनो बुद्धि रूपी चक्र द्वारा छह खण्डोंको साधा 1
यह छह खण्ड षट्खण्डागम हैं । अतः ग्रन्थकारने मुख्य रूपसे उसीका अनुगम इस ग्रन्थ की रचनायें किया है । किन्तु पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ गोम्मटसार तथा घवलाटीकासे पूर्व में रचा गया था और उसमें भी वही विषय है जो गोम्मटसर में है । अतः उसका भी प्रभाव इस ग्रन्थपर हो सकता है जैसा आगे के विवरणसे प्रकट होगा ।
१. प्रकृति समुत्कीर्तन -
प्रथम अधिकारका नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है । ग्रन्थकारने प्रथम गाथामें प्रकृति समुत्कीर्तनको कहनेकी प्रतिज्ञा की है ।
षट् खण्डागमके प्रथमखण्ड जीव स्थानकी चूलिकामें तीसरा सूत्र है
'इदाणि पर्याड समुक्कीत्तणं कस्सामो ।'
इसका टीकामें अर्थ किया है— प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण । तथा लिखा है कि प्रकृति समुत्कीर्तन को जाने विना स्थान समुत्कीर्तन आदिको नहीं जाना जा सकता। उसके दो भेद हैं- मूल प्रकृति समुत्कीर्तन और उत्तर प्रकृति संमुत्कीर्तन |
आगे चूलिका में सूत्रकारने क्रमसे सूत्रोंद्वारा आठों कर्मोंका नाम और फिर प्रत्येकके उत्तर भेदोंका कथन किया है और टीकाकार वीरसेनने अपनी धवला में प्रत्येकका व्याख्यान किया है । और इस तरह प्रकृति समुत्कीर्तन नामक चूलिका के मूल सूत्र छियालीस हैं ।
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प्रस्तावना
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किन्त आचार्य नेमिचन्द्रजीने अपने कर्मकाण्डमें गाथा ८से २१ तक मूल प्रकृतियों के नाम, उनका कार्य, क्रम आदि बतलाकर गाथा २२ में उनकी उत्तर प्रकृतियों के भेदोंकी संख्यामात्र बतलायी है तथा आगे दर्शनावरणके भेद पांच निद्राओं का स्वरूप तीन गाथाओंसे कहा है। गाथा २६ में दर्शन मोहके भेद मिथ्यात्वका तीन रूप होनेका कथन किया है। गाथा २७ में नामकर्मके भेद शरीर नामकर्मके संयोगी भेदोंका कथन है । गाथा २८ में शरीर के आठ अंग बतलाये हैं। गाथा २९-३२ में किस संहननसे मरकर किस गतिमें जीव जाता है इसका कथन है। ३३ वी गाथामें आतप और उष्ण नामकर्ममें अन्तर बतलाया है। इस तरह कुछ प्रकृतियोंका विशेष कार्यमात्र बतलाया है। इसको लेकर कई दशक पूर्व अनेकान्त पत्र में बड़ा विवाद चला था और इसको त्रुटि बतलाते हुए उसकी पूर्तिका भी प्रयत्न किया गया था। यह सब विवाद वीरसेवा मन्दिरसे प्रकाशित पुरातन जैन वाक्य सूचीको प्रस्तावना (पृ. ७५ आदि ) में दिया है।
उस समय स्व. पं. लोकनाथजीने मुडबिद्रीके सिद्धान्त मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें जीवकाण्ड कर्मकाण्डकी मूल प्रतियोंको खोजकर ३० दिसम्बर सन् ४० को स्व. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारको सूचित किया था कि विवादस्थ कई गाथाएँ इस प्रतिमें सूत्ररूपमें हैं और वे सूत्र कर्मकाण्डके प्रकृति समत्कीर्तन अधिकार की जिस-जिस गाथाके बाद मूल रूपमें पाये जाते हैं उनको सूचनाके साथ उनकी एक नकल भी भेजी थी। स्व. मुख्तार सा. ने पुरातन जैन वाक्य सूचीको अपनी प्रस्तावनामे वे सूत्र दिये हैं ।।
मुख्तार सा. ने लिखा था-ऐसा मालूम होता है कि गद्यसूत्र टोका-टिप्पणका अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियों में छूट गये हैं और इसलिए उनका प्रचार नहीं हो पाया। परन्तु टीकाकारोंकी आंखोंसे वे सर्वथा ओझल नहीं रहे हैं। उन्होंने अपनी टीकाओंमें इन्हें ज्योंके त्यों न रखकर अनुवादित रूपमें रखा है और यही उनकी सबसे बड़ी भूल हुई है जिससे मूल सूत्रोंका प्रचार रुक गया है और उनके प्रभावमें ग्रन्थका यह अधिकार श्रुटिपूर्ण जंचने लगा। चुनांचे कलकत्तासे जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा दो टोकाओं के साथ प्रकाशित इस ग्रन्थको संस्कृत टोकामें (और तदनुसार भाषा टोकामें भी) ये सब सूत्र प्रायः ज्योंके त्यों अनुवादके रूपमें पाये जाते है जिसका एक नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जानेवाले सूत्रोंका इस प्रकार है
मूल-"वेदनीयं दुविहं सादावेदणोयमसादावेदणीयं चेइ ।
मोहणीयं दुविहं दसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेई ॥ दसणमोहणीयं बंधादो एयविहं मिच्छत्तं ।
उदयं पडुच्च तिविहं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तं चेह॥" सं. टीका-"वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीयं चेति ।
मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बन्धविवक्षया मिथ्यात्वमेकविध ।
उदयं सत्त्वं प्रतीत्य मिथ्यात्वं सम्याग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्व प्रकृतिश्चेति विविधम ।" आदरणीय स्व. मुख्तार सा. को सम्भावनाको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सम्भव है ऐसा ही हो । कर्मकाण्डपर उपलब्ध प्रथम टोका कर्नाटक भाषामें जीवतत्त्वप्रदीपिका है। उसीका रूपान्तर संस्कृत टीका है। दोनों टीकाओं में मूल गाथाओंको संख्या ९७२ है किन्तु मूडबिद्रीवाली मूल प्रतिमें गाथा संख्या ८७२ है ऐसा स्व. पं. लोकनाथजीने सूचित किया था। सम्भव है क्रमसंख्यामें सौ की भूल हो गयी हो। लेखकोंके प्रमादसे ऐसा हो जाता है। किन्तु कर्नाटक टीकाके रचयिताको जो करणानुयोगक प्रकाण्ड पण्डित थे और जिन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती अभयसूरिका शिष्यत्व प्राप्त था, ऐसा भ्रम कैसे हुआ कि उन्होंने मूलको टीका-टिप्पण समझकर मूलमें सम्मिलित नहीं किया और उसका अनुवाद अपनी टीकामें दिया, यह चिन्त्य है।
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गो० जीवकाण्ड दि. प्राकृत पञ्चसंग्रहके दूसरे अधिकारका नाम भी प्रकृतिसमुत्कीर्तन है । उसको भी मंगलगाथामें , प्रकृतिसमुत्कीर्तनको कहनेको प्रतिज्ञा की गयी है । उसमें बारह गाथाएँ हैं और कुछ प्राकृत सूत्र हैं।
प्रथम चार गाथाओंमें-से मंगल गाथाको छोड़कर शेष तीन गाथाएँ कर्मकाण्ड में २०, २१, २२ संख्याको लिये हए पायी जाती हैं। २२वीं गाथा में थोड़ा-सा परिवर्तन किया गया है।
पंचसंग्रह में आठों कर्मों की प्रकृतियों की संख्या बतलाकर प्रकृतियों के नामादिका कयन गद्य सत्रों द्वारा ही किया गया है। उसीका अनुसरण नेमिचन्द्राचार्यने भी किया था ऐसा मडबिद्रीके भण्डारको कर्मकाण्डकी प्रतिसे ज्ञात होता है। पंचसंग्रहमें गद्य सूत्रों के द्वारा क्रमसे सब प्रकृतियोंका निर्देश किया है । कर्मकाण्डमें सोच-बीच गाथासूत्र देकर प्रकृतियोंके सम्बन्धमें आवश्यक उपयोगी कथन भी किया है। अतः मूड़विद्रीकी कर्मकाण्डकी प्रतिमें वर्तमान गद्य गाथासूत्र कर्मकाण्डके अंग हो सकते हैं। कर्मकाण्डको कन्नड और संस्कृत टोकामें उन सूत्रोंका भाषान्तर अक्षरशः पाया आना भी उसका समर्थन करता है।
इस प्रकृतिसमुत्कीर्तनमें चार घातिकर्मों की सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियाँ तथा सब कर्मों की पुण्य और पाप या प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियाँ नामोल्लेखपूर्वक गिनायी हैं। तथा विपाककी अपेक्षा उनके चार भेदों में भी पृथक्से गिनायी हैं। वे भेद है-पुद्गलविपाको, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाको । आगे कर्ममें चार निक्षेपोंको घटित किया है। इसी प्रसंगमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकर्मके तीन भेदोंमें-से भत शरोरके च्युत-च्यावित और त्यक्त भेदोंका स्वरूप कहा है। मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें चारों निक्षेपोंको सुगम बतलाकर नोकर्म द्रव्यकर्मका ही विवेचन किया है। जिस-जिस प्रकृतिका जो-जो उदयफलरूप कार्य होता है उस-उस कार्य में जो बाह्य वस्तु निमित्त होती है उस वस्तुको उस प्रकृतिका नोकर्म कहते हैं । इस कथनके साथ यह प्रथम अधिकार समाप्त होता है।
यहाँ हम चूलिका आगत आठ कर्म सम्बन्धी आठ सूत्रोंको धवलाटोकाका संक्षिप्त अनुवाद उपस्थित करते हैं उससे पाठक आठों कर्मों का स्वरूप समझ सकेंगे।
णाणावरणीयं ॥५॥ जो ज्ञानको आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है । शंका-ज्ञानावरणके स्थानपर ज्ञानविनाशक क्यों नहीं कहा?
समाधान नहीं, क्योंकि जीवके लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शनका विनाश नहीं होता। यदि ज्ञान और दर्शनका विनाश माना जाये तो जीवका भो विनाश हो जायेगा; क्योंकि लक्षणसे रहित लक्ष्य नहीं पाया जाता।
शंका-ज्ञानका विनाश नहीं माननेपर सभी जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है ?
समाधान-उसमें कोई विरोध नहीं है; क्योंकि अक्षरका अनन्तवा भाग नित्य उद्घाटित रहता है ऐसा सूत्र में कहा है । अतः सब जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है।
शंका-यदि ऐसा है तो सब अवयवोंके साथ ज्ञानकी उपलब्धि होना चाहिए ।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि आवरण किये गये ज्ञानके भागोंकी उपलब्धि मानने में विरोष आता है।
शंका-आवरण सहित जीवमें आवरण किये गये ज्ञानके भाग क्या हैं अथवा नहीं हैं ? यदि हैं तो उन्हें आवरित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सर्वात्मना सत हैं उनको आवरित मानने में विरोध आता है। यदि नहीं हैं तो उनका आवरण नहीं माना जा सकता: क्योंकि आवियमाणके अभावमें आवरणके अस्तित्वका विरोष है।
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प्रस्तावना
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समाधान-द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करनेपर आवरण किये गये ज्ञानके भाग सावरण जीवमें भी होते हैं ; क्योंकि जीवद्रव्यसे भिन्न ज्ञानका अभाव है । अथवा ज्ञानके विद्यमान अंशोंसे आवृत ज्ञानके अंश अभिन्न है।
शंका-ज्ञानके आवृत और अनावृत अंश एक कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि राहु और मेधोंके द्वारा सूर्य और चन्द्रके आवृत और अनावृत भागों में एकता पायी जाती है।
शंका-ज्ञानको आवियमाण कैसे कहा ?
समाधान-अपने विरोधी द्रश्यका सामीप्य होनेपर भी जो मूलसे नष्ट नहीं होता उसे आश्रियमाण कहते है और दूसरेको आवारक कहते हैं । विरोधी कर्मद्रव्यका सामीप्य होनेपर भी ज्ञानका निर्मूल विनाश नहीं होता। वैसा होनेपर जीवके विनाशका प्रसंग आता है। इसलिए ज्ञान आद्रियमाण है और कर्मद्रव्य आवारक है।
शंका--जीव से भिन्न पुदगल के द्वारा जीवके लक्षण ज्ञानका विनाश कैसे किया जाता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जीवद्रव्यसे भिन्न घट-पट, स्तम्भ, बन्धकार आदि पदार्थ जीवके लक्षण ज्ञानके विनाशक पाये जाते हैं । अतः ज्ञानका आवारक पुद्गल स्कन्ध जो प्रवाहरूपसे अनादि बन्धनबद्ध है वह ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है ।
दर्शनावरणीयं ॥६॥
दर्शन गुणको जो आवारण करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है। जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व असंयम कषाय और योगके द्वारा कर्मरूपसे परिणत होकर जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त है और दर्शनगुणका प्रतिबन्धक है वह दर्शनावरणीय है।
वेदनीयं ॥७॥ जो वेदन या अनुभवन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। शंका-इस व्युत्पत्तिसे तो सभी कर्मोके वेदनीय होनेका प्रसंग आता है ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि रूढ़िवश कुशल शब्दकी तरह विवक्षित पुद्गलपुंजमें ही वेदनीय शब्दकी प्रवृत्ति है। अथवा जो वेदन करता है वह वेदनीय कर्म है। जीवके सुख-दुःखके अनुभवनमें कारण जो पुदगल स्कन्ध मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश कर्मरूप परिणत होकर जीवके साथ सम्बद्ध होता है वह वेदनीय कहाता है।
शंका-उसका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ?
समाधान-उसके अभावमें सुख और दुःखरूप कार्य नहीं हो सकते । कार्य कारणके अभाव में नहीं होता; क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता।
मोहणीयं ॥८॥ जो मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है। शंका-ऐसो व्युत्पत्तिसे जीवके मोहनीय होनेका प्रसंग आता है ।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि जीवसे अभिन्न और कर्म संज्ञावाले पदगल द्रव्यमें उपचारसे कर्मत्वका आरोप करके उस प्रकारको व्युत्पत्ति की है।
प्रस्ता०-४
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अथवा जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। आउयं ॥९॥
जो भवधारणके प्रति जाता है वह आयुकर्म है। जो पुद्गल मिथ्यात्व आदि कारणोंके द्वारा नरक आदि भवधारण करने की शक्तिसे परिणत होकर जीवमें बद्ध होते हैं वे आयु नामक होते हैं ।
शंका-उस आयुकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-यदि आयुकर्म न हो तो देह की स्थिति नहीं हो सकती। णामं ॥१०॥
जो नाना प्रकारकी रचना करता है वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्योंके करनेवाले जो पुदगल जीवसे बद्ध हैं वे नाम संज्ञावाले हैं।
गोदं ॥१२॥
जो उच्च-नीचकूलका बोध कराता है वह गोत्रकर्म है। उच्च और नीच कूलोंमें उत्पादक जो पुद्गल स्कन्ध मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जीवसे सम्बद्ध होता है उसे गोत्र कहते हैं।
अंतरायं चेदि
जो दोके मध्यमें आता है वह अन्तराय है। दान, लाभ, भोग, उपभोग आदिमें विघ्न करने में समर्थ पुद्गल स्कन्ध अपने कारणोंसे जीवसे सम्बद्ध होता है उसे अन्तराय कहते हैं।
इस प्रकार मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं, क्योंकि आठ, काँसे उत्पन्न होनेवाले कार्योंसे अतिरिक्त कार्य नहीं पाया जाता । अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न इन आठ कर्मों के द्वारा एक-एक जीवके प्रदेशोंमें सम्बद्ध अनन्त परमाणुओंसे अनादिसे सम्बद्ध अमूर्त भी जीव मूर्तताको प्राप्त होकर घूमते हुए कुम्हारके चाककी तरह संसारमें भ्रमण करता है (षट्वं., पु. ६, पृ. ६-१४)।
२. बन्धोदयसत्त्वाधिकार
दूसरे अधिकारके प्रारम्भमें नेमिनाथ भगवानको नमस्कार करके बन्ध, उदय, सत्त्वसे युक्त स्तवको गुणस्थान और मार्गणाओंमें कहने की प्रतिज्ञा की है और उससे आगेकी गाथामें स्तव, स्तुति और धर्मकथाका स्वरूप कहा है।
षट्खण्डागमके अन्तर्गत वेदनाखण्ड पुस्तक ९ में आगमोंमें उपयोगके भेद सूत्र द्वारा इस प्रकार
'जा तत्त्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियणा वा अणुपेक्खणा वा थयथुइधम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादियां ॥५५॥
इस सूत्रकी धवलाटीकामें कहा है-सब अंगोंके विषयोंकी प्रधानतासे बारह अंगोंके उपसंहारको स्तव कहते हैं। बारह अंगोंमें एक अंगके उपसंहारका नाम स्तुति है । एक अंगके एक अधिकारका नाम धर्मकथा है।
कर्मकाण्ड गाथा ८८ में भी तीनों का यही स्वरूप प्रकारान्तरसे कहा है-समस्त अंगसहित अर्थका विस्तार या संक्षेपसे जिसमें वर्णन होता है उस शास्त्रको स्तव कहते हैं, सो कर्मकाण्डमें बन्ध, उदय, सत्त्वरूप अर्थका कथन समस्त अंगसहित यथायोग्य विस्तार या संक्षेपसे कहा गया है अतः उसे स्तव नाम दिया है ।
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प्रस्तावना
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आगे बन्धके चार भेदोंके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य भेद किये हैं और उन उत्कृष्ट आदिके भी सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भेद किये हैं। आगे उनका स्वरूप कहा है ।
अनादि अनन्त - जिस बन्ध या उदय की परम्पराका प्रवाह अनादिकाल से बिना किसी रुकावटके चला आता है, मध्य में न कभी व्युच्छिन्न हुआ, न होगा उस बन्ध या उदयको अनादि अनन्त कहते हैं । ऐसा बन्ध या उदय अभंग जीवके ही होता है ।
अनादिसान्त - जिस बन्ध या उदयकी परम्पराका प्रवाह अनादिकालसे बिना रुके चले आनेपर भी आगे व्युच्छिन्न होनेवाला है उसे अनादिसान्त कहते हैं। यह भव्य के ही होता है ।
सादिसान्त --- जो बन्ध या उदय बीचमें रुककर पुनः प्रारम्भ होता है और कालान्तर में व्युच्छिन्न हो जाता है उसे सादिसान्त कहते हैं । सादि अनन्त भंग घटित नहीं होता; क्योंकि जो बन्ध या उदय सादि होता है वह अनन्त नहीं होता ।
इस प्रकरण में कर्मो के बन्ध, उदय और सत्त्वका विवेचन गुणस्थानों और मार्गणाओं में किया गया है । यह विवेचन आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंको लेकर किया है। भेद विवक्षा में आठों कर्मों को प्रकृति संख्या एक सौ अड़तालीस होती है । किन्तु अभेद विवक्षामें बन्ध प्रकृतियोंकी संख्या एक सौ बीस और उदय प्रकृतियों की संख्या एक सो बाईस है। इसका कारण यह है कि स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण नामकर्मके बीस भेदों मेंसे अभेदविवक्षामें चार ही लिये जाते हैं तथा पाँच बन्धन और पाँच संघात नामकर्मोंको शरीर नामकर्म में सम्मिलित कर लेते हैं । अतः सोलह और दस छम्बोस प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं । तथा बन्ध केवल एक मिथ्यात्वका ही होनेसे बन्ध प्रकृतियोंकी संख्या में से सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति कम हो जाती हैं । अतः उदय प्रकृतियाँ एक सो बाईस और बन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस होती हैं ।
प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृतियोंको तीन दशाएँ होती हैं—बन्ध, अबन्ध, बन्धव्युच्छित्ति । उदय, अनुदय, उदयव्युच्छित्ति । सत्व, असत्व, सत्त्रव्युच्छित्ति ।
जिस गुणस्थान में जितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय और सत्ता होती है उसमें उतनी बन्ध, उदय, समें रहती है । जितनेका बन्ध, उदय, सत्त्व नहीं होता उतनी अबन्ध, अनुदय, असत्वमें रहती हैं । और जिन प्रकृतियों का बन्ध, उदय या सत्ता जिस गुणस्थानसे आगे नहीं होती, उनकी बन्ध, उदय, सरवव्युच्छित्ति उस गुणस्थान में होती है। जैसे प्रथम गुणस्थानमें एक सौ बीस बन्ध प्रकृतियों में से एक सौ सत्रह का बन्ध होता है, तीनका बन्ध नहीं होता । तथा एक सौ सतरह में से सोलह प्रकृतियाँ आगेके गुणस्थानोंमें नहीं बँधती हैं । अतः एक सौ सतरहका बन्ध, तीनका अबन्ध, सोलहको बन्धव्युच्छित्ति कही जाती है ।
षट्खण्डागमके तीसरे खण्डका नाम बन्ध स्वामित्व विचय है । जिसका अर्थ होता है— बन्धके स्वामीपनेका विचार । इसका अर्थ सूत्र है -
"एदेसि चोदसण्हं जीवसमासाणं पयडिबन्धवोच्छेदो कादव्वो होदि ।”
अर्थ - "इन चौदह गुणस्थानों में प्रकृतिबन्धके व्युच्छेदका कथन कर्तव्य ।" इसकी टीका धवलामें यह प्रश्न उठाया है कि यदि यहाँ प्रकृतिबन्धव्युच्छेदका कथन है तो इसका नाम बन्धस्वामित्वविचय कैसे घटित हुआ ? उत्तर में कहा है- "इस गुणस्थानमें इतनी प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद होता है ।" ऐसा कहनेपर उससे नीचे के गुणस्थान उन प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी हैं यह सिद्ध होता है ।
जैसे सूत्र पांच में कहा है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय, इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ?
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गो. जीवकाण्ड
छठे सूत्रमें कहा है-मिध्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक उक्त प्रकृतियों के बन्धक है । सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें उक्त प्रकृतियोंके बन्धका विच्छेद होता है अतः ये बन्धक है, शेष अबन्धक है।
इसी प्रकार सूत्रोंमें प्रत्येक प्रकृतिके बन्ध और प्रबन्धके सम्बन्धमें प्रश्न और उत्तर किया गया है। इसीके आधारपर गोम्मटसारमें गुणस्थानों और मार्गणाओं में बन्ध, अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिका विचार किया गया है।
पांचवें सूत्रको धवलाटोकामें वीरसेन स्वामीने सूत्रको देशामर्षक मानकर तेईस प्रश्न उठाये हैं और उनका समाधान किया है । वे प्रश्न इस प्रकार है
१. किन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति उदयव्युच्छित्तिसे पूर्व होती है ? २. किन प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति बन्धव्युच्छित्तिसे पूर्व होती है ? ३. किनकी दोनों व्युच्छित्ति एक साथ होती हैं ? ४. अपने उदयमें बन्ध किनका होता है ? ५. परप्रकृतियोंके उदय बन्ध किनका होता है? ६. अपने और परके उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन है ? ७. सान्तरबन्धी कौन है? ८. निरन्तरबन्धी कौन है ? ९. सान्तर-निरन्तरबन्धी कौन है ? १०. सनिमित्तक बन्ध किनका होता है? ११. अनिमित्तक बन्ध किनका है ? १२. "मतिके साथ बंधनेवाली कौन प्रकृतियां हैं ? १३. गति के बिना बंधनेवाली प्रकृतियों कोन हैं ? १४. कितनी गतिवाले जीव किन प्रकृतियोंके स्वामी हैं ! १५. कितनी गतिवाले स्वामी नहीं हैं ? १६. बन्धकी सीमा किस गुणस्थान तक है ? १७. क्या अन्तिम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति होती है ? १८. क्या प्रथम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति होती है ? १९. या बीचके समयमें बन्धकी व्युच्छित होती है ? २०. किनका बन्ध सादि है ? २१. किनका बन्ध अनादि है ? २२. किनका बन्ध ध्रुव है ? २३. किनका बन्ध अध्रव है ?
इन प्रश्नोंमें-से वीरसेन स्वामीने विषम प्रश्नोंका उत्तर दिया है । चूंकि बन्धव्युच्छेदका कथन सूत्रोंमें ही है अतः उसे छोड़कर उदयव्युच्छेदका कथन किया है । और उसके अन्तमें एक उपसंहार गाथा दी है
दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य ।
छच्छक्क एग दुग दुग चोद्दस उगुतीस तेरसुदय विदी। यह गाथा कर्मकाण्डके, उदय प्रकरणमें है और इसका क्रमांक २६३ है । इस उदयव्याच्छत्तिको
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प्रस्तावना
२९ वर्चाके प्रारम्भमें वीरसेन स्वामीने कहा है - मिथ्यात्व आदि दस प्रकृतियोंकी उदयको व्युच्छित्ति मिध्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है यह महाकर्म प्रकृति प्राभृतका उपदेश है ।
चूर्णिसूत्रकर्ता यतिवृषभाचार्यके उपदेशसे मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय में पाँच प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद होता है क्योंकि उनके मतसे चार जाति और स्थावर प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद सासादन गुणस्थान में होता है |
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी इस मतभेदका कथन है । कर्मकाण्डमें त्रिचूलिकानामक अधिकार के अन्तर्गत नौ प्रश्नचूलिकामें उक्त तेईस प्रश्नों में से नौ प्रश्नोंका कथन है । शेषमें से कुछका कथन बन्धाधिकार और उदयाधिकारमें है ।
इस अधिकारके प्रारम्भमें प्रकृतिबन्धके कथन के पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है । यह कथन जीवस्थानकी चूलिकाके अन्तर्गत छठी और सातवीं चूलिकाका ऋणी है । छठी चूलिकामें मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा तथा निषेक रचनाका कथन है । और सातवीं चूलिका में उनकी जघन्यस्थिति आदिका कथन है । यथा
पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस सागरोपम कोडाफोडी है ॥ ४ ॥
उनका तीस हजार वर्ष आबाधाकाल है ॥ ५ ॥
आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है ॥ ६ ॥
( - षट्खं पु. ६, पू. १४६ - १५० )
इसी प्रकार जघन्य स्थिति आदिका भी कथन है ।
किन्तु कर्मकाण्ड में संज्ञीपञ्चेन्द्रियसे लेकर बसंज्ञीपञ्चेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय, एकेन्द्रिय और उनके अवान्तर भेदों में जो स्थिति बन्धका निरूपण है वह यहीं नहीं है । और न स्थिति बन्धके स्वामियोंका कंथन यहाँ है ।
कर्मकाण्ड में स्थितिबन्धके बाद अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्धका कथन है वह भी यहीं नहीं है । धवला प्रश्न किया गया है कि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा अनुभागबन्ध क्यों नहीं कहा ? उत्तरमें कहा है-- अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के अविनाभावि प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्धका कथन किये जाने पर उनका कथन स्वतः सिद्ध है । तथा प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते हैं । ( ये योगस्थान जगत श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं । ) क्योंकि योगके बिना प्रदेशबन्ध नहीं हो सकता ।
इस प्रकार प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्धके द्वारा यहाँ चारों हो बन्धका कथन हो जाता है ।
पञ्चसंग्रहके शतक नामक चतुर्थ अधिकारमें भी चारों बन्धोंका कथन है । उसमें बन्धके नौ भेद किये हैं - सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, प्रकृतिस्थानबन्ध, भुजाकारबन्ध, अल्पतरबन्ध, अवस्थित - बन्ध और स्वामित्वकी अपेक्षा बन्ध । और क्रमसे उनका कथन किया है। कर्मकाण्डमें आदिके चार भेदोंका कथन तो इसी अधिकारमें किया है । शेषका कथन पाँचवें बन्धोदय सत्वयुक्त स्थान समुत्कीर्तन अधिकार में किया है । सादिबन्ध आदिका निरूपण दोनोंमें समान है। इतना ही नहीं किन्हीं गाथाओं में भी समानता है ।
यथा
साइ अाइ य धुव अद्धवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तए साइसेसा अणाइ घुवसेसओ आऊ ।। ३२५ ॥
- पञ्चसंग्रह |
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गो० जीवकाण्ड
सादि अणादी धुव अद्धवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तदियो सादि य सेसो अणादि धुव सेसगो आऊ ॥ १२२ ॥
-कर्मकाण्ड । पञ्चसंग्रहमें बन्धके नवम भेद स्वामित्वको अपेक्षा बन्धके कथनमें गुणस्थान और मार्गणाओंमें बन्ध, बन्धव्युच्छित्ति आदिका कथन है। तदनन्तर स्थितिबन्धका कथन है, जैसा कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकारमें है। किन्तु पञ्चसंग्रहसे कर्मकाण्डके कथन में विशेषता है। कर्मकाण्डमें एकेन्द्रिय आदि जीवोंके होनेवाले स्थितिबन्ध का भी कथन है. जो पञ्चसंग्रह में नहीं है। अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्धका कथन पञ्चसंग्रहमें भी है और कर्मकाण्ड उसका ऋणी हो सकता है किन्तु कर्मकाण्डके कथनमें उससे विशेषता भी है। प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पञ्चसंग्रहमें तो समय प्रबद्धका विभाग केवल मूल कर्मों में ही कहा है किन्तु कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोंमें भी कहा है। तथा प्रदेशबन्धके कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भी कथन किया है यह कथन पञ्चसंग्रहमें नहीं है । इस प्रकरण में पञ्चसंग्रहकी कई गाथाएं संगृहीत हैं।
उदयप्रकरणमें कर्मों के उदय उदीरणा आदिका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है। प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोंके उदय, अनुदय उदयव्युच्छित्तिका कथन है। सत्त्व प्रकरणमें भी गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियों के सत्त्व, असत्त्व और सत्त्वव्युच्छित्तिका कथन है। मार्गणाओं में बन्ध, उदय,सच्वादिका कथन अन्यत्र नहीं मिलता। आचार्य नेमिचन्द्र ने उसे स्वयं फलित करके लिखा प्रतीत होता है। उदय और सत्य प्रकरणको अन्तिम गाथामें इसकी झलक मिलती है । यथा
कम्मेवाणाहारे पयडीणं उदयमेवमादेसे । कहियमिणं बलमाहवचंदजियणेमिचंदेण ॥ ३३२ ॥ कम्मेवाणाहारे पयडीणं सत्तमेवमादेसे कहियमिणं बलमाहवचंदच्चियणेमिचंदेण ।। ३५६ ॥
-कर्मकाण्ड । अर्थात यह कथन आचार्यनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने किया है।
३. सत्त्वस्थान भंगाधिकार
तीसरे अधिकारका नाम सत्त्वस्थान भंगाधिकार है। इसको प्रथम गाथामें जिसका क्रमांक ३५८ है, भगवान् महावीरको नमस्कार करके सत्त्वस्यानको भंगों के साथ कहने की प्रतिज्ञा की है। और आगेकी गाथामें कहा है-पिछले अधिकारके अन्त में जो सत्त्वस्थानका कथन किया है वह आयके बन्ध और अब भेद न करके किया है । इस अधिकारमें भंगके साथ कथन है।
एक समय में एक जीवके संख्याभेदको लिये हए जो प्रकृति समहका सत्व पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं। और समान संख्यावाली प्रकृतियोंमें जो प्रकृतियोंका परिवर्तन होता है उसे भंग कहते हैं। जैसे किन्हीं जीवोंके मनुष्यायु देवायुके साथ एक सौ पैंतालीसका र
, मनुष्याय देवायके साथ एक सौ पैंतालीसका सत्त्व पाया जाता है और किन्हीं जीवोंके तियंचायु नरकायुके साथ एक सौ पैंतालीसका सत्त्व पाया जाता है। यहां भंगभेद होता है । एक जीवके दी आयुकी सत्ता रह सकती है। एक आयु भुज्यमान-जो वह भोग रहा है, एक आयु बध्यमान-जो उसने आगामी भवको बाँधी है। जिसने अभी परभवकी आयुका बन्ध नहीं किया उसके एक भुज्यमान आयुकी सत्ता रहती है।
देवगतिमें और नरकगतिमें मनुष्य और तियंच दो हो आयुका बन्ध होता है। मनुष्य और तियंचोंमें चारों आयुका बन्ध हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियंच देवायुका ही बन्ध करते हैं। तथा
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प्रस्तावना
सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मनुष्यायुका ही बन्ध करते हैं । जिस स्थानमें चारों आयुकी सत्ता रहती है उसमें चारों युके बन्धको लेकर बारह भंग बद्धायुके होते है-यथा
१. भुज्यमान नरकामु बध्यमान मनुष्यायु । २. भुज्यमान नरकायु बध्यमान तियंचायु । ३. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकायु । ४. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु । ५. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान मनुष्यायु । ६. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान देवायु । ७. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु । ८. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान तियंचायु । ९. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु । १०. भुज्यमान मनुष्यायु वध्यमान देवायु । ११. भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु । १२. भुज्यमान देवायु बध्यमान तियंचायु ।
इनमेसे जिन भंगोंमें दोनों आयु समान है केवल भुज्यमान और बध्यमानका ही भेद वे भंग पुनरुक्त होनेसे अपुनरुक्त पांच ही भंग बद्धायुके होते हैं। और अबद्धायुके चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते है। इस प्रकार प्रत्येक गुणस्थानमें स्थानों और भंगोंका कथन इस अधिकारमें है।
इस अधिकारको अन्तिम गाथामें ग्रन्थकारने कहा है-इन्द्रनन्दि गुरुके पासमें सकल सिद्धान्तको सुनकर कनकनन्दो गुरुने सत्त्वस्थानका कथन किया।
स्व. पं. जुगल किशोरजी मुख्तारने पुरातन वाक्यसूची (पृ. ७२-७४ ) की प्रस्तावनामें लिखा है कि उक्त सत्त्वस्थान ग्रन्थ विस्तरसत्त्व त्रिभंगीके नामसे आराके जैन सिद्धान्तभवनमें मौजूद है। उसमें साफ तौरपर इन्द्रनन्दिको ही गुरुरूपसे उल्लेखित किया है । इस सत्त्वस्थानको नेमिचन्द्र ने अपने गोम्मटसारमें प्रायः ज्योंका त्यों अपनाया है। आराकी उक्त प्रतिके अनुसार प्रायः८ गाथाएं छोड़कर मंगलाचरण और अन्तिम गाथा सहित सब गाथाओंको अपने ग्रन्थका अंग बनाया है। कहीं-कहीं भेद भी है। उक्त प्रस्तावनामें उसका विवरण देखा जा सकता है। इस तरह यह अधिकार कनकनन्दिके उक्त सत्त्वत्रिभंगीका ऋणी है।
४. त्रिचूलिकाधिकार
___इस अधिकारमें तीन चूलिकाए हैं-नवप्रश्नचूलिका, पंचभागहारचूलिका, और दशकरणचूलिका । पहली नौ प्रश्नचूलिकामें नौ प्रश्नोंका समाधान किया है। ये नो प्रश्न इस प्रकार है-१. उदय व्युच्छित्तिकै पहले बन्धको व्युच्छित्ति किन प्रकृतियों की होती है। २. उदयव्यच्छित्तिके पीछे बन्धकी व्यच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? ३. उदयव्युच्छित्तिके साथ बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है। ४. अपने उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन है, ५. अन्यके उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ६. अपने तथा परके उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ७. निरन्तर बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ८. जिनका सान्तरबन्ध होता है वे प्रकृतियां कौन है ? ९. जिनका निरन्तर बन्ध भी होता है और सान्तरबन्ध भी, वे प्रकृतियाँ कोन है । इन नो प्रश्नोंका उत्तर इस चूलिकामें दिया है।
प्रा. पंचसंग्रहके तीसरे अधिकार के अन्तमें नौ प्रश्नचूलिका आती है। तथा षट् खण्डागमके अन्तर्गत तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्व विचयको धवला टोकामें ( पु. ८, पृ. ७-१७ ) उक्त नो प्रश्न उठा कर उनका
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गो० जीवकाण्ड
समाधान किया है । तथा उनके समर्थनमें कुछ आर्ष गाथाएँ भी दी है। उन्हींके आधारसे यह नौ प्रश्न चूलिका ली गयी प्रतीत होती है।
पंच भागहार चूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम इन पांच भागहारोंका कथन है। इन भागहारोंके द्वारा शुभाशुभकर्म जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर अन्य प्रकृतिरूप परिणमन करते हैं। जैसे शुभ परिणामोंके निमित्तसे पूर्वबद्ध असातावेदनीय कर्म सातावेदनीय रूप परिणत हो जाता है। किस-किस प्रकृति में कौन-कौन भागहार सम्भव है और किस-किस भागहारको कौन-कौन प्रकृतियाँ है यह सब कथन भी है। कि पांचो भागहार एक भाजक राशिके समान हैं अतः उनका परस्पर में अल्पबहत्व भी बतलाया है। पंचसंग्रहमें यह कथन नहीं है।
तीसरी दशकरण चलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निवृत्ति, निकाचना इस दस करणोंका कथन किया है और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होना है। कर्मपरमाणु ओंका आत्माके साथ सम्बद्ध होना बन्ध है। यह सबसे पहली क्रिया है। करण नाम क्रियाका है। इसके बिना आगेका कोई करण नहीं होता । कमकी दूसरी क्रिया या अवस्था उत्कर्षण है। स्थिति और अनुभागके बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं। तीसरा करण अपकर्षण उससे विपरीत है, अर्थात स्थिति और अनुभागके घटतेको अपकर्षण कहते हैं। बन्धके बाद ही ये दोनों करण होते है। किसी अशुभकर्मका बन्ध होने के पश्चात् यदि जीव शुभपरिणाम करता है तो पूर्व बद्ध कर्ममें स्थिति अनुभाग घट जाता है। इसी तरह अशुभकर्मकी जघन्य स्थिति बांधकर यदि कोई और भी अधिक पापकार्यमें रत रहता है तो उसकी स्थिति अनुभाग बढ़ जाता है। बंधने के बाद कर्मके सतामें रहनेको सत्त्वकरण कहते हैं । कर्मका अपना फल देना उदय है। नियत समयसे पूर्व में फलदानको उदीरणा कहते हैं। उदीरणासे पहले अपकर्षण द्वारा कर्मकी स्थितिको घटा दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति परी आय भोगे बिना असमयमें हो मर जाता है तो उसे आयुकर्मकी उदीरणा कहते है। एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप होनेको संक्रमण करण कहते हैं। संक्रमण मल कर्म-प्रकृतियों में नहीं होता अर्थात् न ज्ञानावरण दर्शनावरणरूप या किसी अन्यकर्मरूप होता है और न दर्शनावरण या मोहनीय आदि ज्ञानावरणरूप होते हैं। किन्तु एक कर्मके अवान्तर भेदोंमेंसे एक भेद अन्य सजातीय प्रकृतिरूप हो सकता है। जैसे सातावेदनीय असातावेदनीयरूप और असातावेदनीय सातावेदनीय रूप हो जाता है। किन्तु आयुकर्म के भेदों में संक्रमण नहीं होता। नरककी आयु बाँध लेनेपर मरकर नरकमें ही जन्म लेना होगा।
कर्मका उदयमें आनेके अयोग्य होना उपशम है। उसमें संक्रमण और उदयका न हो सकना निधत्ति है। और उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण उदयका न हो सकना निकाचना है। कर्मों में-ये दसकरण होते है। ये सब जीवके भावोंपर ही अवलम्बित हैं। अन्य किसीका इनमें कर्तत्व नहीं है।
५. बन्धोदयसत्त्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तन
एक जीवके एक समयमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय, सत्त्व सम्भव है उनके समूहका नाम स्थान है। इस अधिकारमें पहले आठों मूलकों को लेकर और फिर प्रत्येक कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंको लेकर बन्ध स्थानों, उदय स्थानों और सत्त्व स्थानोंका कथन है। जैसे मूल कर्मों का कथन करते हुए कहा है कि तीसरे गुणस्थानके सिवाय अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानोंमें एक जीवके आयुकर्म के बिना सातका अथवा आयुकर्म सहित आठका बन्ध होता है। तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थानमें आयुके बिना सात कर्मों का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थानमें आयु और मोहनीयके बिना छह ही कर्मोका बन्ध होता है । ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है। और चौदहवें गुणस्थानमें एक भी कर्मका बन्ध नहीं होता । अतः आठ कर्मों के चार बन्ध स्थान है-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक, एक प्रकृतिक ।
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३३
इसी तरह दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मोंका उदय होता है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहन के बिना सात कर्मोंका उदय होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें चार कर्मोंका उदय होता है । अतः आठ कर्मोंके तीन उदयस्थान होते हैं- -प्राठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक ।
प्रस्तावना
ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ कर्मों की सत्ता रहती है । बारहवें गुणस्थान में मोहनीयके बिना सात कर्मों की सत्ता रहती है । तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानमें चार कर्मों की सत्ता रहती है । अतः आठों कर्मों के तीन सत्त्व स्थान है-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । इसी तरहका कथन प्रत्येक कर्मके विषय में किया गया है । आठों कर्मों में से वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मकी उत्तरप्रकृतियों में से एक जीवके एक समय में एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है और एकका ही उदय होता है । तथा ज्ञानावरण और अन्तरायको पाँचों प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध, उदय और सत्व होता । अतः इनको छोड़कर शेष दर्शनावरणीय, मोहनीय और नामकर्ममें बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्त्वस्थानोंका कथन बहुत विस्तारसे किया
1
प्रत्येक के कथन के पश्चात् त्रिसंयोगी भंगका कथन है सत्त्व, और सत्त्वमें बन्ध और उदयका कथन किया है । आधेय बनाकर कथन किया है। पंचसंग्रहके अन्तर्गत शतक कर्मकाण्डका उक्त कथन उसका ऋणी हो सकता है। कुछ गाथाएं भी दोनों में समान हैं ।
अर्थात् बन्धमें उदय सत्व, उदयमें बन्ध और फिर बन्धादिमेंसे दो को आधार और एकको और सप्ततिका अधिकार में भी उक्त कथन है ।
इस प्रकरण में प्रसंगवश आगत कर्मविषयक अन्य भी ज्ञातव्य विषय हैं । यह अधिकार बहुत विस्तृत है । इसमें ३३४ गाथाएँ हैं ।
६. प्रत्ययाधिकार -
इस अधिकार में कर्मबन्धके कारणों का कथन है । मूल कारण चार हैं- मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग और इनके भेद क्रमसे पाँच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह सब मिलकर सत्तावन होते हैं । इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययोंका कथन गुणस्थानोंमें किया गया है कि किस गुणस्थानमें बन्धके कितने प्रत्यय होते हैं | और उनके भंगों का भी कथन है । प्रा. पंचसंग्रह के शतकाधिकार के प्रारम्भमें यह कथन बहुत विस्तारसे है । कर्मकाण्ड में केवल पच्चीस गाथाओं में है तो पंच संग्रह में सवा सौ गाथाओं में । प्रारम्भको दो मूल गाथाएँ दोनों ग्रन्थोंमें समान हैं । उनमें कहा है 'प्रथम गुणस्थानमें उक्त चारों प्रत्ययोंसे कर्मबन्ध होता है । बादके तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्वको छोड़ शेष तीन प्रत्ययोंसे कर्मबन्ध होता है । पाँचवें गुणस्थानमें एक देश असंयम कषाय और योगसे कर्मबन्ध होता है । उससे ऊपरके पांच गुणस्थानों में कषाय और योगसे कर्मबन्ध होता है । ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, गुणस्थान में केवल योगसे कर्मबन्ध होता है
।
आगे गुणस्थानों में उत्तर प्रत्ययोंका कथन है । अन्तमें दोनों ही ग्रन्थोंमें कर्मबन्धके विशेष कारण कहे हैं जो तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्यायके अन्तमें कहे हैं । दोनों ग्रन्थोंमें ये गाथाएँ प्रायः समान हैं। पंचसंग्रह में इन्हें मूल गाथा कहा है । अतः ये गाथाएँ पंचसंग्रहसे ही ली गयी जान पड़ती हैं । इस प्रकार यह कथन कर्मकाण्ड में पंचसंग्रह से संग्रहीत होना चाहिए ।
७. भावचूलिका -
इस अधिकारमें औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक भावोंका तथा उनके भेदोंका कथन करके गुणस्थानों में उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगोंका कथन किया है ।
प्रस्ता०-५
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गो० कर्मकाण्ड
उसके पश्चात् 'असिदि सदं किरियाणं' आदि प्राचीन गाथा आती है जिसमें कहा है कि क्रियावादियोंके एक सो अस्सी, अक्रियावादियोंके एक सौ चौरासी, अज्ञानवादियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस, इस तरह तीन सौ तरेसठ मत हैं। आगे इन तीन सौ तरेसठ मतको उपपत्ति दी गयी है । श्वे. सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्धके बारहवें अध्ययनमें भी उक्त मतोंकी चर्चा है । और टीकाकार शीलांकने अपनी टीकामें उनकी उपपत्ति भी दी है । किन्तु दोनों में अन्तर है । अमितगतिके पंचसंग्रह ( पू. ४१ आदि ) में भी यह सब कथन है जो कर्मकाण्डका ऋणी प्रतीत होता है, क्योंकि प्रा. पंचसंग्रहमें यह कथन नहीं है ।
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अन्तमें एक गाथा के द्वारा जो सन्मति तर्कमें ( का. ३, गा. ४७ ) भी है, कहा गया है जितने वचन के मार्ग हैं उतने ही नयवाद है । और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं । परसमयोंका कथन मिथ्या है क्योंकि वे सर्वथा वैसा मानते हैं और जैनोंका कथन यथार्थ हैं क्योंकि वे स्याद्वादी हैं ।
८. त्रिकरण चूलिका -
इस अधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणका स्वरूप वर्णित है । जीवकाण्डके प्रारम्भ में भी इन तीनों का स्वरूप गुणस्थानोंके प्रसंगसे कहा है । इन तीनोंका स्वरूप बतलानेवाली गाथाएँ भी वे ही हैं। जो जीवकाण्डमें हैं । किन्तु यहाँ मूलग्रन्थकारने स्वयं अंकसंदृष्टि के द्वारा इन करणों को समझाया है ।
९. कर्मस्थिति रचनाधिकार
प्रति समय बँघनेवाले कर्मपरमाणु आठों कर्मोंमें या सात कर्मों में विभाजित हो जाते हैं और प्रत्येक कर्म प्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषेकोंकी रचना उसकी स्थिति अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है, अर्थात् बन्धको प्राप्त वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर क्रमशः प्रति समय एक- एक निषेकके रूपमें खिरने प्रारम्भ होते हैं । उनकी रचनाको ही कर्मस्थिति रचना कहते हैं । उसीका कथन इस अधिकार मे विस्तारसे है । संक्षेपमें यह कथन दूसरे अधिकारके अन्तर्गत स्थिति बन्धाधिकारमें भी किया है, फलतः इस अधिकार में जो ९१४ से ९२१ तककी गाथाएँ हैं वे सब उस अधिकारमें आती है । वहाँ उनका क्रमांक १५४ - १६२ है ।
बंधने के पश्चात् कर्म तत्काल फल नहीं देता, कुछ समय बाद फल देता है और उस समयको आबाधाकाल कहते हैं । यह आबाधाकाल कर्मकी स्थिति अनुसार होता है। एक कोटी-कोटी सागर की स्थिति में एक सौ वर्ष आबाधाकाल होता है । अर्थात् यदि किसी कर्मकी स्थिति एक कोटी-कोटी सागर बँधी हो तो वह कर्म सो वर्षके बाद अपना फल देना प्रारम्भ करता है । और सौ वर्ष कम एक कोटी-कोटी सागर काल तक अपना फल देता रहता है । अतः उस कर्मकी निषेक रचना सौ वर्ष कम एक कोटि-कोटि सागर के समय प्रमाण होती है। प्रति समय एक-एक निषेक उदयमें आता रहता है। आयुकर्मकी आबाघामें अपवाद है । उसकी निषेक रचना जितनी आयु बाँधी है उतने समयप्रमाण होती है क्योंकि आयुकर्मके स्थितिबन्धमें उसका आबाषाकाल सम्मिलित नहीं है । इसी आबाधाकालके कारण कोई कर्म देर में फल देता है और कोई तत्काल फल देता है ।
इस अधिकार के अन्त में ग्रन्थकारकी प्रशस्ति गाथा ९६५ से ९७२ तक है । उसमें ग्रन्थकारने इस ग्रन्थकी रचना में निमित्त चामुण्डरायके ही क्रिया-कलापोंका वर्णन किया है। अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा ।
इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-परिचय जानना । यह ग्रन्थ कर्मसिद्धान्तका सिरमौर जैसा है । इसमें पूर्वरचित कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थोंका सार आ जाता है ।
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प्रस्तावना
३५
कुछ दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद
श्वेताम्बर परम्परामें भी कर्मविषयक साहित्य विपुल है। यहां उसके आधारपर कुछ विशेषताओं तथा मतभेदोंका दिग्दर्शन कराया जाता है।
१. कर्मकाण्ड में केवल ध्र वबन्धिनी और ध्र वोदयी तथा उसकी विपक्षी प्रकृतियोंको ही बतलाया है । किन्तु पंचम कर्मग्रन्थमें ध्र व सत्ताका और अध्र व सत्ताका प्रकृतियोंको भी गिनाया है । १३० प्रकृतियां ध्रव सत्ताका हैं और २८ अधव सत्ताका है। दोनोंका जोड़ १५८ है जो उदयप्रकृतियों की संख्यासे ३६ अधिक है। इसका कारण यह है कि बन्ध और उदयमें नामकर्मकी वर्णादि चारको ही गिना है। इसी तरह पांच बन्धन और पांच संघातको पृथक् न गिनाकर शरीरनामकर्ममें ही सम्मिलित कर लिया है । और बन्धननामकर्मके १५ भेदोंको भी शरीरनामकर्ममें अन्तर्भूत कर लिया है अतः १६ +५+ १५ = ३६ बढ़ जाती है।
इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि ध्रुवबन्धिनी और ध्रुव उदयवाली प्रकृतियोंकी संख्या अध्र व बन्धिनी और अध्र व उदयवाली प्रकृतियोंकी संख्यासे बहुत कम है। किन्तु सत्तामें विपरीत दशा है । इसका कारण यह है कि जो प्रकृति बन्धदशामें है और जिसका उदय हो रहा है उन दोनों की हो सत्ताका होना आवश्यक है। अतः बन्ध और उदय प्रकृतियाँ सत्तामें रहती ही हैं। तथा मिथ्यात्व दशामें जिनकी सत्ता नियमसे नहीं होती, ऐसी प्रकृतियां कम ही हैं। इन कारणोंसे ध्र व सत्ताका प्रकृतियोंकी संख्या अधिक है
और अध्रव सत्ताकी कम । प्रसादि बीस, वर्णादि बीस और तेजसकार्माण सप्तककी सत्ता सभी संसारो जीवोंके रहती है अतः ये ध्रुव सत्ताका है। सैंतालीस ध्रुवबन्धिनी ध्र वसत्ताका है। तीनों वेदोंकी सत्ता ध्रव है। क्योंकि उनका बन्ध क्रमशः होता रहता है। संस्थान, संहनन, जाति, वेदनीय द्विक भी ध्र व सत्ताका हैं । हास्य. रति और अरति शोककी सत्ता नौवें गुणस्थान तक सभी जीवों के रहती है । इसी प्रकार उच्छवाप्त आदि चार, विहायोयुगल, तिर्यग्द्विक और नोच गोत्रको भी सत्ता सर्वदा रहती है। सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने से पहले सभी जीवोंके ये प्रकृतियां सदा रहती हैं इसीसे इन्हें ध्र व सत्ताका कहा है। शेष २८ अध्र व सत्ताका है। क्योंकि सम्यक्त्व और मिश्रकी सत्ता अभव्योंके तो होती ही नहीं, बहतसे भव्य के भी नहीं होती। तेजकाय-वायुकायिक जीव मनुष्यद्विककी उद्वेलना कर देते हैं अतः उनके मनुष्य द्विककी सत्ता नहीं होती। वैक्रियक आदि ग्यारह प्रकृतियों की सत्ता अनादि निगोदिया जीवके नहीं होती। तथा जो जीव उनका बन्ध करके एकेन्द्रियमें जाकर उद्वेलना कर देते हैं उनके भी महो होतो। सम्यक्त्वके होते हुए भो तोर्थकरनाम किसीके होता है किसीके नहीं होता। स्थावरोंके देवायु-नरकायुका, अहमिन्द्रों के तियंगायुका, तेजकाय, वायुकाय और सप्तम नरकके नारकियों के मनुष्यायुका बन्ध न होने के कारण उनकी सत्ता नहीं है। तथा संयम होनेपर भी आहारक सप्तक किसीके होते हैं किसीके नहीं होते। तथा उच्चगोत्र भी अनादि निगोदिया जीवोंके नहीं होता। उद्वेलना हो जानेपर तेजकाय, वायुकायके भो नहीं होता । अतः ये अट्ठाईस प्रकृतियां अध्र व सत्ताका हैं ।
गुणस्थानोंमें कुछ प्रकृतियों की ध्रुव सत्ता और अध्रुव सत्ताका कथन करते हुए कहा है--
आदिके तीन गुणस्थानोंमें मिथ्यात्वको सत्ता अवश्य होती है। आगे असंयत सम्यग्दृष्टि आदि आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्वको सत्ता होती भी है, नहीं भी होती। सासादनमें सम्यक्त्व मोहनोयको सत्ता नियमसे होती है। किन्तु शेष मिथ्यादृष्टि आदि दस गुणस्थानोंमें सम्यक्त्व मोहनीयको सत्ता होती भी है, नहीं भो होती। सासादन और मिश्र गुणस्थानोंमें मिश्र प्रकृतिको सत्ता नियमसे रहती है शेष मिथ्यादष्टि आदि नो गुणस्थानोंमें उसकी सत्ता भजनोय है। इसी प्रकार आदिके दो गुणस्थानोंमें अनन्तानुबन्धोकी सत्ता नियम रहती है शेष तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में उसको सत्ता भजनीय है। मिथ्यात्व आदि सभी गणस्थानों में आहारक सप्तकको सत्ता भजनोय है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष सभी गणस्थानों में तीर्थंकर
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गो० कर्मकाण्ड
की सत्ता विकल्पसे होती है। तीर्थकर और आहारककी सत्तावाला मिथ्यादष्टि गुणस्थानमें नहीं आता। तीर्थकरकी सत्तावाला यदि मिथ्यात्वमें आता है तो अन्तर्मुहर्त के लिए आता है।
२. कर्मकाण्ड गाथा २६ में कहा है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूपी भावयन्त्रके द्वारा मिथ्यात्व प्रकृतिका द्रव्य मिथ्यात्व, सभ्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परामें कार्मिकोंको तो यही मत मान्य है किन्तु सैद्धान्तिकोंका मत भिन्न है। विशेषावश्यक भाष्यकी गाथा ५३. की टोकामें हेमचन्द्रसरिने लिखा है
सैद्धान्तिकोंका मत है कि कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उस प्रकारको सामग्रीके मिलने पर अपूर्वकरणके द्वारा मिथ्यात्वके तीन पुंज करता है और शुद्ध पुंज अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुभव न करता हुआ, औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त किये बिना ही, सबसे पहले क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। तथा कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यथाप्रवृत्त आदि तीन करणोंको क्रमसे करके अन्तरकरण करनेपर औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। किन्तु वह मिथ्यात्वके तीन पंज नहीं करता। इसीसे औपशमिक सम्यक्त्वके छूट जानेपर वह जीव नियमसे मिथ्यात्वमें आता है।...........किन्तु कर्मशास्त्रियोंका मत है कि सभी मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय यथाप्रवृत्त आदि तीन करणोंको करते हुए अन्तरकरण करते हैं और ऐसा करनेपर उन्हें औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। ये जीव मिथ्यात्वके तीन पुंज अवश्य करते हैं। इसीलिए उनके मतसे औपशमिक सम्यक्त्वके छूट जानेपर जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है।
तथा श्वे. कर्म प्रकृति उसकी चूणि और श्वे. पंचसंग्रहके रचयिताओंका मत है कि उपशम सम्यक्त्वके प्रकट होनेसे पहले अर्थात् मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें द्वितीय स्थितिमें वर्तमान मिथ्यात्वके तीन पुंज करता है। और लब्धिसारके मतसे जिस समय सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसी समय तीन पुंज करता है।
३. कर्मकाण्ड गा. ३३३ में सासादन गुणस्थानमें आहारकका सत्त्व स्वीकार नहीं किया है। किन्तु श्वे. कर्मग्रन्थमें स्वीकार किया है। कर्मकाण्ड गा. ३७३ से यह स्पष्ट है कि सासादनमें आहारककी सत्ताको लेकर कर्मशास्त्रियोंमें मतभेद है । एक पक्ष उसकी सत्ता मानता है, दूसरा पक्ष नहीं मानता ।
४. कर्मकाण्ड गा. ३९१ में 'णत्थि अणं उवसमगे' पदके द्वारा यह बतलाया है कि उपशमणिमें अनन्तानुबन्धीके सत्त्वको लेकर कार्मिकोंमें मतभेद है । श्वे. परम्पराकी कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थमें भी अनन्तानुबन्धीकी सत्ताको लेकर मतभेद है। कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें सातवें गुणस्थान तक ही अनन्तानुबन्धीको सत्ता स्वीकार की गयी है किन्तु कर्मग्रन्थमें ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्ता स्वीकार की गयी है । कर्मप्रकृतिका मत है जो चारित्रमोहनीयके उपशमका प्रयास करना है वह अवश्य ही अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करता है। कर्मकाण्डमें दोनों मतोंको स्थान दिया गया है।
५. तीर्थकरनामकर्मकी जघन्य स्थिति भी अन्तःकोटी-कोटी सागर बतलायी है । उसको लेकर श्वेताम्बर कर्मसाहित्यमें शंका-समाधान इस प्रकार है
शंका-यदि तीर्थकरनामकर्मकी जघन्यस्थिति भी अन्तःकोटोकोटी सागर है तो तीर्थकरकी सत्तावाला जीव तियंचगतिमें जाये बिना नहीं रह सकता। क्योंकि उसके बिना इतनी दीर्घ स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती। किन्तु तियंचगतिमें तीर्थकरनामकी सत्ताका निषेध किया है। तथा तीर्थकरके भवसे पूर्वके तीसरे भवमें तीथंकर प्रकृतिका बन्ध होना बतलाया है। अन्तःकोटी-कोटी सागरकी स्थिति में यह भी कैसे बन सकता है ?
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प्रस्तावना
३७
समाधान-तीर्थकर नामकर्म की स्थिति कोटि-कोटि सागर प्रमाण है और तीर्थकरके भवसे पहलेके तीसरे भवमें उसका बन्ध होता है। इसका आशय यह है कि तीसरे भवमें उद्वर्तन-अपवर्तनके द्वारा उस स्थितिको तीन भवोंके योग्य कर लिया जाता है । शास्त्रकारोंने तीसरे भवमें जो तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका विधान किया है वह निकाचित तीर्थकर प्रकृतिके लिए है। निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य देती है किन्तु अनिकाचित तीथंकर प्रकृतिके लिए कोई नियम नहीं है वह तीसरे भवसे पहले भी बंध सकती हैविशेषणवती गा. ७९-८० ।
६. आयुबन्ध तथा उसकी आवाधाके सम्बन्धमें मतभेदको दर्शाते हुए श्वे. पंचसंग्रहमें रोचक चर्चा इस प्रकार है
देवायु और नरकायुकी उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है । तियंचायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । तथा चारों आयुओंको आबाधा एक पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण है।
शंका-आयुके दो भाग बीत जानेपर जो आयुका बन्ध कहा है वह असम्भव होनेसे चारों गतियों में नहीं घटता । क्योंकि भोगभूमिया, मनुष्य और तियंच कुछ अधिक पल्यका असंख्यातवा भाग शेष रहनेपर परभवकी आयु नहीं बांधते, किन्तु पल्यका असंख्यातवा भाग शेष रहनेपर ही परभवकी आयु बांधते हैं । तथा देव और नारक भी अपनी आयुके छह माससे अधिक शेष रहनेपर परभवकी आयु नही बांधते, किन्तु छह मास आयु शेष रहनेपर ही परभवकी मायु बषिते हैं। परन्तु उनकी आयुका त्रिभाग बहुत होता है। तियंच और मनुष्योंकी आयुका त्रिभाग एक पल्य तथा देव और नारकोंकी आयुका त्रिभाग ग्यारह सागर होता है।
उत्तर-जिन तियंच और मनुष्योंकी आयु एक पूर्वकोटि होती है उनकी अपेक्षासे ही एक पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण आबाधा बतलायी है । तथा यह बाधा अनुभूयमान भव सम्बन्धी आयुमें हो जाननो चाहिए, परभव सम्बन्धी आयुमें नहीं। क्योंकि परभव सम्बन्धी आयुको दलरचना प्रथम समयसे ही हो जाती है उसमें बाबाधाकाल सम्मिलित नहीं है । अतः एक पूर्वकोटिकी आयुवाले तिर्यच और मनुष्योंकी परभव सम्बन्धी बायुको उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण होती है। शेष देव, नारक और भोगभूमियोंके परभवको आयुकी आबाषा छह मास होती है। और एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवोंके अपनी-अपनी आयुके विभाग प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा होती है। अन्य आचार्य भोगभमियाँके परभवकी आयुकी आबाधा पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहते हैं । -गाथा २४४-२४८ ।
चन्द्रसूरिरचित संग्रहणीसूत्रमें इसी बात को और भी स्पष्ट करके लिखा है-कहा है-देव, नारक और असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तियंच छह मासको आयु शेष रहनेपर परभवको आयु बांधते हैं। शेष निवपक्रम मायुवाले जीव अपनी आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर परभवकी आय बांधते हैं । और सोपक्रम आयुवाले जीव अपनी बायुके त्रिभागमें अथवा नौवें भागमें, अथवा सत्ताईसवें भागमें परभवकी आयु बांधते हैं । यदि इन त्रिभागोंमें भी आयका बन्ध नही कर पाते तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें परभवकी आयु बांधते हैं। गो. कर्मकाण्डमें आयुबन्धके सम्बन्धमें साधारण रूपसे तो यही कथन किया है। किन्तु देव, नारक और भोगभूमियोंकी छह मास प्रमाण आबापाको लेकर उसमें मौलिक भेद है। कर्मकाण्डके मतानुसार छह मास शेष रहनेपर आयुबन्ध नहीं होता, किन्तु उसके त्रिभागमें आयुबन्ध होता है। यदि उस त्रिभागमें भो आयुबन्ध न हो तो छह मासके नौवें भागमें आयुबन्ध होता है। सारांश यह है कि जैसे कर्मभूमिज मनुष्य और तियंचोंमें अपनी-अपनी पूरी आयुके त्रिभागमे परभवकी आयुका बन्ध होता है उसी प्रकार देव, नारक और भोगभूमिजोंमें अन्तिम छह मासके त्रिभागमें आयुबन्ध होता है। दिगम्बर परम्परामें यही मत मान्य है। केवल भोगभूमिजोंको लेकर मतभेद है। किन्हींका मत है कि उनमें नौ मास आयु शेष रहनेपर उसके
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३८
गो० कर्मकाण्ड त्रिभागमें परभवको आयुका बन्ध होता है । ( देखो कर्मकाण्ड गा. १५८ की टीका तथा गा. ६४०)। इसके सिवाय एक मतभेद और भी है । यदि आठों विभागोंमें आयुबन्ध न हो तो अनुभयमान आयुका एक अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर परभवको आयु नियमसे बंध जाती है। यह सर्वमान्य मत है। किन्तु किन्हींके मतसे अनुभूयमान आयुका काल आवलोके असंख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहनेपर परभवको आयुका बन्ध नियमसे हो जाता है (देखो कर्मकाण्ड गा. १५८ और उसकी टीका )।
सम्पादनादिके सम्बन्धमें
यतः कर्मकाण्ड गोम्मटसारका ही दूसरा भाग है अतः इसकी भी कन्नड़ टीकाको प्रतिलिपि आदिके
पूर्व कथन ही जानना चाहिए। संस्कृत टीकाका आधार कलकत्ता संस्करण हो रहा है। दिल्लीके जैनमन्दिरसे लाला पन्नालालजी अग्रवाल द्वारा एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई थी। किन्तु तीसरे प्रकरणसे उसमें जो टीको मिली उसमें भेद होनेसे उसे छोड़ देना पड़ा और प्रयत्न करनेपर भी संस्कृत टीकाकी कोई हस्तलिखित प्रति प्राप्त नहीं हुई। ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मकाण्डपर संस्कृतकी अन्य भी टोकाएं थीं। कलकत्ता संस्करण एक-दो स्थानमें टिप्पणमें सूचित किया है कि अभयचन्द्र सूरिके नामांकित टीकामें विशेष, पाठ मिलता है । हमने उस पाठको कन्नड टोकासे मिलाया तो बिलकुल मिल गया । इसीसे हमने वह विशेष पाठ और उसका हिन्दी अर्थ भी, जो पं. टोडरमलजीको टोकामें नहीं है अलगसे इसी में दे दिया है। हमें ऐसा लगता है कि कन्नड़ टीका अभय चन्द्रसूरिकी संस्कृत टीकाका रूपान्तर तो नहीं है । कन्नड़ टीकाकार केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे। और उन्होंने ई. १३५९ में अपनी कन्नड़ टीका रची थी।
कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकाओंकी प्रतियां प्राप्त होने पर उनके तुलनात्मक अध्ययनसे ही प्रकृत विषयपर प्रकाश पड़ सकता है ।
श्रीस्याद्वादमहाविद्यालय भदैनी, वाराणसी
१-१-८०
-कैलाशचन्द्र शास्त्री
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१. प्रकृति समुत्कीर्तन
मंगलाचरण
प्रकृति शब्दका अर्थ
जीव और शरीरका अनादि सम्बन्ध
जीवके द्वारा प्रतिसमय कर्म-नोकर्मका ग्रहण
घाती और अघाती कर्म
जीवके गुण, जिन्हें कर्म घातते हैं। आयुकर्मका कार्य
नामकर्मका कार्य
गोत्रकर्मका कार्य
समयप्रधद्धका प्रमाण
प्रतिसमय उदय और सत्ताका परिमाण
कर्मके भेद और उनका स्वरूप
कर्मके आठ भेद और उनमें घाति-अघाती भेद
आठ कर्मो नाम
आठ कर्मोंका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा कर्मोंके उत्तर भेदोंकी संख्या
वेदनीय कर्मका कार्य
कर्मो के नामोंके क्रम में हेतु
अन्तरायका कार्य तथा उसे अन्त में रखने में हेतु आय नाम गोत्रके क्रम में हेतु
वेदनीयको मोहनीयसे प्रथम रखने में हेतु
स्त्यानगृद्धि और निद्रानिद्राका स्वरूप
प्रचलाप्रचला और निद्राका स्वरूप
प्रचलाका स्वरूप
मिथ्यात्व के तीन भेद कैसे
मोहनीय तथा नाम कर्मकी प्रकृतियाँ
औदारिक आदि पाँच शरीरोंके भंग आठ अंग और उपांग
विषय-सूची
संहननके धारक जीवोंकी स्वर्ग तथा नरक में उत्पत्ति
१- ६० कर्मभूमिकी स्त्रियों के संहनन
१
२
२
३
३
४
९
९
१०
११
१२
१२
१३
१३
१४
१६
१७
१९
आतप और उष्ण नामकर्मका उदय किन के
गोत्र कर्म और अन्तराय कर्मके भेद
४
५
५
६
६
७ उदय प्रकृतियोंकी संख्या
C
सत्व प्रकृतियोंकी संख्या
७
सर्वघाती प्रकृतियाँ
८
देशघाती प्रकृतियाँ
८
प्रशस्त प्रकृतियाँ
अप्रशस्त प्रकृतियाँ
कषायों का कार्य
कषायोंका वासनाकाल
१९
ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्रकृतियाँ
वेदनीयके भेद
मोहनीयकी प्रकृतियोंका स्वरूप आर्मी प्रकृतियों का स्वरूप नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वरूप
गोत्र और अन्तरायकी प्रकृतियों का स्वरूप नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमें अभेद विवक्षा से
गर्भित प्रकृतियाँ
बन्ध प्रकृतियोंकी संख्या
पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ
भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ
जीवविपाकी प्रकृतियाँ
श्रोताके तीन भेद और उनका स्वरूप
चार निक्षेपोंका लक्षण
नामकर्म और स्थापनाकर्मका स्वरूप
द्रव्यकर्मके भेद और उनका स्वरूप
नोआगम द्रव्यकर्मके भेद
भूत शरीर के तीन भेद कदलीघात मरणका स्वरूप
च्यावित और त्यक्तका स्वरूप
२१
२२
२२
२३
२४
२४-२५
२६
२७-३२
३३
३३
३४
३५
३६
३६
३६
३७
३८
३९
४०
४०
४१
४२
४३
४४-४५
४५
४६
४६
४७
४७
४७
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गो० कर्मकाण्ड
४८
१
त्यक्त शरीरके तीन भेद
४८ गुणस्थानोंमें प्रकृतियोंके बन्धकी व्युच्छित्तिका भक्तप्रतिज्ञाके कालका प्रमाण
कथन इंगिनी और प्रायोपगमन मरणका स्वरूप
बन्ध व्युच्छित्तिमें दो नयसे कथन भाविज्ञायक शरीरका स्वरूप
४९ मिथ्यात्व गुणस्थानमें व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्मके भेद
सासादन में व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ आगम भावकर्मका स्वरूप
असंयत और देश संयतमें व्यच्छिन्न प्रकृतियाँ ७० नोमागम भावकर्मका स्वरूप
प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरणमें व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ ७१ उत्तर प्रकृतियों में नामादि निक्षेप
अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें
काऔर मरमसापरायमें . ७२ मूल प्रकृतियोंके नोकर्म द्रव्यकर्म
५२ उपशान्त आदि तीन गुणस्थानोंमें केवल मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरणके नोकर्म
साताका बन्ध अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणके नोकर्म
गुणस्थानोंमें बन्ध और अबन्धका कथन द्रव्यकर्म
५४ "नरकगतिमें बन्धादि कथन पांचों निद्राओंके नोकर्म
.५४ तिथंच गतिमें बन्धादि कथन चार दर्शनावरणोंके नोकर्म
५४ मनुष्यगतिमें बन्धादि कथन साता-असाता वेदनीयके नोकर्म
देवगति में बन्धादि कथन सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यक
इन्द्रियमाणामें कथन मिथ्यात्वके नोकर्म
सासादन गुणस्थान किन तियंचोंके नहीं होता-१०० अनन्तानुबन्धी आदिका नोकर्म
प्रसकाय, मनोयोग और वचनयोगमें कथन १०१ स्त्रीवेद आदि नोकषायोंका नोकर्म
औदारिक मिश्रकाय योगमें कथन
१०२ नरकायु आदिका नोकर्म
५७ वैक्रयिक और आहारक काययोगमें बन्धादि कथन१०४ गति, जाति, शरीर नामकर्मके नोकर्म
वैक्रयिक मिश्रकाय योगमें पांच शरीर नामकर्मो के नोकर्म
५८ कार्मणकाययोगमें बन्धन आदि नामकर्मोके नोकर्म
५८ स्त्रीवेदमें आनुपूर्वीका नोकर्म ५८ नपुंसकवेदमें
१०८ स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ स्वर आदिका नोकर्म ५९ पुरुषवेदमें
१०९ उच्च और नीच गोत्र तथा दानान्तराय आदिका
कषायमार्गणामें
११० नोकर्म
ज्ञानमार्गणामें
११० वीर्यान्तरायका नोकर्म
संयममार्गणामें
११२ नोआगम भावकर्मका स्वरूप
दर्शनमार्गणामें
११४ लेश्यामार्गणामें
११४ २. बन्धोदय सत्त्वाधिकार
भव्यमार्गणामें नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा ६१ सम्यक्त्वमार्गणामें
११६ स्तव, स्तुति, धर्मकथाका स्वरूप
संज्ञीमार्गणामें
११९ बन्धके भेद और उनके उत्कृष्ट आदि भेद ६२ आहारमार्गणामें
१२० उत्कृष्ट आदिके सादि-आदि भेद ६२ मूल प्रकृतियों में सादि-आदि भेद
१२१ उदाहरण द्वारा उनका स्पष्टीकरण ६३ सादि आदि भेदोंका लक्षण
१२२ गणस्थानोंमें प्रकृतिबन्धके नियम ६४ उत्तर प्रकृतियोंमें सादि आदि भेद
१२३ तीर्थकर प्रकृतिबन्धके विशेष नियम ६५ ४७ ध्र व प्रकृतियोंमें चारों भेद
१२३
१०५
१०६
१०७
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शेष प्रकृतियों में सादि और अध्रुव बन्ध हो
क्यों ?
मूल प्रकृतियों में स्थितिबन्ध
उत्तर प्रकृतियों में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध
उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कारण
उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसके ?
संक्लेश परिणामोंको रचना अंक संदृष्टि द्वारा मूल प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध
तीर्थंकर और आहारकका जघन्य स्थितिबन्ध कब, किसके ?
आयुकर्मके भेदोंका जघन्य स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय - विकलेन्द्रियके मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना
स्थितिबन्ध अट्ठाईस विकल्प
उनमें से आदिके चौबीस भेदोंकी स्थितिका आयाम लाने के लिए अन्तराल भेदोंका त्रैराशिकों द्वारा विभाजन
उनमें आबाधाकालका प्रमाण
एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध और बबाधा के भेदका तथा कालका प्रमाण
दो-इन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध और आबाघा
कालके भेदोंका तथा कालका प्रमाण
विषय-सूची
कर्मकी आबा
प्रस्ता०-६
१२४
१२६
१२६
१३०
१३०
१३४
१३६
१३९
त्रैराशिक द्वारा अन्य प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और जनन्य स्थितिबन्धको लाने का विधान संज्ञी, असंज्ञी चतुष्टय और एकेन्द्रियकी आबाघा १४३ जघन्य स्थितिबन्धका साधक करणसूत्र अंक संदृष्टि द्वारा स्पष्टीकरण
१४५
१५१
चौदह जीवसमासों में उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका विभाग
१३७
१३७
१३८
१५९
१६१
१६१
१६५
१६६
त्रीन्द्रिय आदि जीवों में कथन
१६८
१७०
उक्त सब कथन मनमें रखकर शलाका निक्षेपण संज्ञिपंचेन्द्रिय भेदोंके कथनमें विशेषता
१७५
जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाले जीव
१७९
स्थितिके अजघन्य आदि भेदों में सादि-आदि भेद १८०
आबाधाका लक्षण
१८२
मूल प्रकृतियोंमें आबाधा
१८२
अन्तः कोटी-कोटी सागरकी स्थितिकी माबाधा १८३
१८४
१६५
उदीरणाकी अपेक्षा आबाधा
निषेकका स्वरूप
निषेक रचनाका क्रम
अनुभागबन्धका कारण
उत्तर प्रकृतियोंके तीव्र अनुभागबन्ध किसके जघन्य अनुभागबन्ध किनके
मूल प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागके सादि-आदि भेद
उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागबन्धमें सादि-आदि भेद
घातिकर्मों में अनुभागका स्वरूप
उत्तर प्रकृतियों में से मिथ्यात्व में अनुभागका
स्वरूप
मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंमें अनुभागका दर्शक यन्त्र
देशघाति १७ प्रकृतियोंमें लता, दारु आदि रूप
अनुभागका यन्त्र
प्रदेशबन्धका कथन
एकक्षेत्र - अनेक क्षेत्रका लक्षण
योग्य और अयोग्य पुद्गल द्रव्य
उनमें सादि-अनादिका प्रमाण उसको लाने की विधि
rr
१८६
१८७
१८८
१९१
१९१
१.४
सर्वघाती देशघाती द्रव्यके विभागका क्रम उत्तर प्रकृतियों में विभाग
२००
अनुभाग
२०५
समस्त प्रकृतियों में शैल आदि तीन रूप अनुभाग २०६ नोकषायों में अनुभाग
२०६
अघातिकर्मों में गुड़, खांड रूप अनुभाग
२०७
२०१
२०२
२०३
२०८
२०९
२०९
२१०
२१०
२१२
समयप्रबद्धका प्रमाण
२१७
२१७
समयप्रबद्ध में आठों कर्मोंका भाग वेदनीयको अधिक भाग क्यों ?
२१८
अन्य कर्मोंको उनकी स्थिति के अनुसार विभाग २१९ विभागका अनुक्रम
२१९
मूल कर्मको मिले द्रव्यका उसकी उत्तर
प्रकृतियों में विभाग
२२१
घातिकमोंमें सर्वघाती देशघाती द्रव्यका विभाग २२२ सर्वघाती द्रव्य लाने के लिए प्रतिभागहारका प्रमाण
२०५
२२५
२२९
२३०
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४२
गो० कर्मकाण्ड
३५१ ३५९
२५६
४२८
ज्ञानावरणका विभाग
२३२ चौरासी पदोंके द्वारा अल्पबहत्वका विधान ३४२ दर्शनावरणका विभाग
२३३ उपपाद आदि योगस्थानोंके निरन्तर प्रवर्तनेका अन्तरायका विभाग
२३५ काल मोहनोय कर्मका विभाग
२३६ जीवोंकी संख्याकी यवाकार रचना नोकषायरूप पिण्ड प्रकृतिके द्रव्यका विभाग २४१ अंक संदृष्टि द्वारा कथन नोकषायोंके निरन्तर बन्धका काल २४३ यथार्थ कथन
३७० अन्तराय कर्म और नामकर्मके द्रव्यका विभाग- २४६ योगस्थानोंमें समयप्रबद्धको वृद्धिका प्रमाण ३८८ मूल प्रकृतियों में उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध के सादि- निरन्तर योगस्थानोंका प्रमाण
३९१ आदि भेद २५० सान्तर योगस्थानोंका प्रमाण
३९२ उत्तर प्रकृतियोंमें उक्त भेद २५१ योगस्थानोंमें आदि और अन्तस्थान
३९३ उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्री २५२ चारों बन्धोंके कारण
३९४ मूल प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामित्व योगस्थान आदिका अल्पबहत्व
३९४ ... गुणस्थानोंमें . २५३ गणहानि यन्त्र
४१२ उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामित्व २५४ त्रिकोण रचनाका अभिप्राय
४१४ मूल प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धक स्वामी
उदयका निरूपण
४२७ उत्तर प्रकृतियोंमें उक्त कथन
गुणस्थानों में कुछ प्रकृतियोंके उदयका नियम ४२७ गुणस्थानों में एक जीवके एक काल में बंधनेवाली
आनुपूर्वीके उदयका विशेष नियम प्रकृतियोंका निदर्शक यन्त्र २५९ गुणस्थानों में उदय व्युच्छिति
४२९ उसका भाव
२५९ गुणस्थानोंमें मतान्तरसे उदय व्युच्छित्ति ४३३ योगस्थानोंके भेद
२६१ प्रत्येक गुणस्थानमें उदय व्युच्छित्तिकी प्रकृतियोंउपपाद योगस्थानका स्वरूप २६२ का कथन
४३४ उपपादके भेदोंका दर्शक यन्त्र २६३ केवलीके साता-असाताजन्य सुख-दुःख नहीं
४३८ परिणाम योगस्थानका स्वरूप २६४ केवलीके परीषह क्यों नहीं
४४० एकान्तानुवृद्धि योगस्थान
गुणस्थानोंमें उदय और अनुदयका कथन योगस्थानके अवयव
२६६ उदीरणाका कथन उन अवयवोंका स्वरूप
२६७ उदीरणा व्यच्छित्तिका कथन एक योगस्थानमें सब स्पर्षक आदिका प्रमाण २३८ गुणस्थानों में उदीरणा और अनुदीरणा प्रकृतियोंअंक संदृष्टि द्वारा कथन
२६९ का कथन अर्थ संदृष्टि द्वारा कपन
२७४ गति आदि मार्गणायोंमें प्रकृतियोंके उदय स्थान, गुणहानि, स्पर्धक, वर्गणा, वर्ग, अविभाग
सम्बन्धी नियम
४४८ प्रतिच्छेदका स्वरूप
३१. नरकगतिमें उदययोग्य प्रकृतियाँ जघन्य वृद्धिका प्रमाण ३१० प्रथम नरकमें उदय व्युच्छित्ति
४५२ जघन्य योगस्यानका कथन
३१२ द्वितीयादि नरकोंमें उदय व्यच्छित्ति प्रदेशोंको प्रधानतासे कयन ३३१ तियंच गतिमें उदयत्रिक
४५५ जघन्य स्थानसे उत्कृष्ट पर्यन्त जघन्य स्पर्द्धकोंकी पंचेन्द्रिय और पर्याप्ततियंचमें
४५७ वृद्धि होनेपर उत्तरोत्तर एक स्थान उत्पन्न योनिमती और अपर्याप्त तियंच में
४५९ होता है
३३३ मनुष्यगतिमें उदययोग्य प्रकृतियाँ अपूर्व स्पर्धक होनेका विधान ३३४ मनुष्यगतिमें उदय व्यच्छित्ति
४६२
४७
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विषय-सूची
५३८
पर्याप्त मनुष्यमें उदयादि त्रिक मानुषीमें उदयादि तीन भोगभूमिज, मनुष्य और तियंचों में देवगतिमें उदयादि तीन अनुदिश आदिमें उदयादि इन्द्रियमागंणामें कथन विकलत्रयमें कथन पंचेन्द्रियोंमें कथन कायमार्गणामें कथन त्रसकाय मार्गणामें कथन योगमार्गणामें कथन अनुभय वचन योगमें कथन औदारिक काययोगमें कथन औदारिक-मिश्रकाययोगमें कथन वैक्रियिक काययोगमें कथन वैक्रियिक-मिश्रकाययोगमें कथन आहारक काययोगमें कथन कार्मणकाययोगमें कथन वेदमार्गणामें कथन पुरुष वेदमें उदयादि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदमें क्रोध-कषायमागंणामें अनन्तानुबन्धी रहित क्रोषमें कुमति-कुश्रुत ज्ञानमें विभंगज्ञान में उदयादि पांच सम्यग्ज्ञानों में उदयादि मनःपर्ययज्ञानमें उदयादि केवलज्ञानमें उदयादि संयम मार्गणामें उदयादि परिहारविशुद्धि में उदयादि यथाख्यातमें उदयादि देशसंयम और असंयममें दर्शन मार्गणामें चक्षुदर्शनमें उदयादि अचक्षुदर्शनमें उदयादि अवधिदर्शन-केवलदर्शनमें लेश्या मार्गणामें कृष्ण और नील लेश्यामें
४६५ कपोत लेश्यामें उदयादि
५३० ४६७, तीन शुभ लेश्यामें उदयादि
५३२ ४७० भव्य मार्गणामें उदयादि ४७३ उपशम सम्यक्त्व मार्गणामें ४७५ वेदक सम्यक्व मार्गणामें
५४१ ४७७ क्षायिक सम्यक्त्व मार्गणामें
५४२ ४७८ संशो मार्गणामें उदयादि
५४५ ४७९ असंज्ञीमार्गणामें उदयादि
५४७ ४८१ आहार मार्गणामें उदया दि
५४९ ४८५ अनाहार मार्गणामें उदयादि
५५० ४८६ गुणस्थानों में प्रकृतियों की सत्ता
.१५५३ ४८९ क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पत्तिका क्रम
५५४ ४९१ अनिवृत्तिकरणमें क्षययोग्य प्रकृतियाँ
५५७ ४९३ अयोगी गुणस्थानमें सत्त्वव्यच्छित्ति ४९६ गुणस्थानोंमें सत्त्वादि तीन
५६१ ४९८ चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंके उपशमका ४९९ विधान
५६३ ५०० मार्गणाओं में सत्त्वादि तीन
५६५ ५०३ नरकगतिमें सत्ता ५०५ तियंचों में सत्तादि तीन ५०६ मनुष्यों में सत्तादि तीन
५७० ५१० देवगतिमें सत्तादि तीन
५७५ ५१२ इन्द्रिय और कायमार्गणामें सत्तादि तीन ५७७ ५१३ उद्वेलन प्रकृतियाँ
५७९ ५१४ कौन जीव किस प्रकृतिकी उद्वेलना करता है ५७९ ५१५ योगमार्गणामें सत्तादि
५८१ ५१७ औदारिक मिश्रयोगमें सत्तादि
५८३ ५१८ कार्मणकाययोगमें सत्तादि
५८४ ५१९ वेदमार्गणा आदिमें सत्तादि
५८५ ५१९ कषायमार्गणामें सत्तादि
५८६ ५२१ ज्ञानमार्गणामें सत्तादि ५२१ संयममार्गणामें सत्तादि
५८७ ५२२ दर्शनमार्गणामें सत्तादि
५८८ ५२४ लेश्यामार्गणामें सत्तादि
५८८ ५२५ अभव्यमें सत्ता ५२८ सम्यक्त्व मार्गणामें सत्ता
५९२ ५२८ संज्ञो भार्गणामें सत्ता ५२८ बाहार मार्गणामें सत्ता
५९३
५८६
५९३
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गो० कर्मकाण्ड
भंग
६३४
६३५
६२
अनाहारकमें सत्ता
५९४ उपशमश्रेणिके अपूर्वकरण आदिमें स्थान और ३. सत्त्वस्थानभंगाधिकार ५९६-६४६ नमस्कारपूर्वक भंग सहित सरवस्थानका
उसमें घटायी गयो प्रकृतियों के नाम कथन करने की प्रतिज्ञा
५९६ क्षपक अपूर्वकरणमें स्थान-भंग गुणस्थानों में स्थान और भंगके भेदोंके प्रकार ५९७ क्षपक अनिवृत्तिकरणमें भंग गुणस्थानों में प्रकृतियोंका सत्त्व ५९७ क्षपक अनिवृत्तिकरणमें भंग
६३८ गुणस्थानों में स्थानों की संख्या
५९९ सूक्ष्म साम्पराय और क्षीणकषायोंमें स्थान तथा गुणस्थानों में भंगों की संख्या
६०० भंग मिथ्याष्टिमें अठारह स्थानोंकी प्रकृति संख्या ६०१ संयोग और अयोग केवलीमें भंग घटायो गयो प्रकृतियों के नाम
६०२ उपशमश्रेणिके अनन्तानुबन्धी सहित आठ अठारह स्थानोंके पचास भंग ६०३ स्थानोंमें मतभेद
६४२ सासादन और मिश्र में स्थान
६१६ क्षपक श्रेणिके अनिवृत्ति गुणस्थानमें कषायोंके सासादन में घटायी प्रकृतियाँ
६१७ क्षपणमें मतभेद मिश्रमें घटायी गयी प्रकृतियाँ
६१८ क्षपक अनिवृत्तिकरणके स्थानों और भंगोंमें सासादन मिश्रमें भंगोंकी संख्या ६१८ मतभेद
६४३ असंयतमें चालीस स्थानोंकी उपपत्ति ६२२ मतान्तरसे गुणस्थानोंमें स्थानोंकी संख्या , ६४३ असंयतमें घटायी गयी प्रकृतियाँ
६२४ मतान्तरसे गुणस्थानोंमें भंगोंकी संस्था / ६४ असंयतमें भंगोंकी संख्या । ६२५ सत्त्वस्थानके अभ्यासका फल
६४५ देशसंयत आदि तीन गुणस्थानोंमें स्थान और भंग ६३१ सिद्धान्त चक्रवर्तीकी उपाधिकी सार्थकता । ६४६
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आचार्य प्रवर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवत्तिरचित गोम्मटसार
( कर्मकांड )
श्री केशवण्णविरचित टीका सहित
पणमिय सिरसा मिं गुणरयणविभूसणं महावीरं । सम्मतरयणणिलयं पयडिसमुक्कित्तणं वोच्छं ॥ १ ॥
प्रणम्य शिरसा नेमि गुणरत्नविभूषणं महावीरं । सम्यक्त्वरत्न निलयं प्रकृतिसमुत्कीर्तनं वक्ष्यामि ॥
वक्ष्यामि । कं । प्रकृतिसमुत्कीर्त्तनं प्रकृतीनां ज्ञानावरणादिमूलोत्तरभेदभिन्नानां समुत्की- ५ नमस्मिन्निति प्रकृतिसमुत्कीर्त्तनो ग्रंथस्तं । आदौ किं कृत्वा । प्रणम्य । नमस्कृत्य । कं । नमि । नेमितीत्थंकरपरमदेवं । केन । शिरसा । उत्तमांगेन । कथंभूतं । गुणरत्नविभूषणं । गुणा एव रत्नानि । तान्येव विभूषणानि यस्यासौ गुणरत्नविभूषणस्तं । पुनरपि कथंभूतं । महावीरं वि विशिष्टामी लक्ष्मी राति ददातीति वीरः । महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तं । भूयः किभूतं । सम्यक्त्वरत्ननिलयं | आत्मस्वरूपोपलब्धिलक्षणः सम्यरभावः सम्यक्त्वं । क्षायिकसम्यक्त्वं वा । १० तदेव रत्नं तस्य निलय आश्रयस्तमिति ।
सम्यक्त्वरत्न निलयनुं गुणरत्नविभूषणनुं महावीरनुमप्प नेमितीत्थंकरपरमदेवनं नमस्कारमं माडि ज्ञानावरणादिमूलोत्तर प्रकृतिगळ स्वरूपनिरूपणमं माळप ग्रंथमं पेदपेने बुदाचार्य्यन प्रतिज्ञे ॥ प्रकृति देने दोडे ळदपं
वक्ष्यामि । कं ? प्रकृतिसमुत्कीर्तनं - प्रकृतीनां ज्ञानावरणादिमूलोत्तरभेदभिन्नानां समुत्कोर्तनमस्मिन्निति १५ प्रकृतिसमुत्कीर्तनो ग्रन्थः तं । आदौ किं कृत्वा ? प्रणम्य - नमस्कृत्य । कं ? नेमि-नेमितीर्थंकरपरमदेवं । केन ? शिरसा - उत्तमाङ्गेन । कथंभूतं ? गुणरत्नविभूषणं - गुणा एव रत्नानि तान्येव भूषणानि यस्यासौ गुणरत्नविभूषणस्तं । पुनरपि कथंभूतं ? महावीरं विशिष्टां ई-लक्ष्मी राति ददातीति वीरः महांश्चासौ वीरश्च महावीरः तं । भूयः किंभूतं । सम्यक्त्वरत्ननिलयं आत्मस्वरूपोपलब्धिलक्षण: सम्यक्त्वं क्षायिकसम्यत्रत्वं वा तदेव रत्नं तस्य निलय आश्रयः तं । एवं विशिष्टेष्टदेवतानमस्कारपूर्विका प्रकृतिसमुत्कीर्तन कथनप्रतिज्ञा २० आचार्यस्य ज्ञातव्या ॥ १ ॥ प्रकृतिः का ? इति चेदाह -
गुणरूपी रत्न ही जिनके भूषण हैं, जो विशिष्ट 'ई' - लक्ष्मीको देता है वह वीर है। किन्तु जो महान वीर होने से महावीर है, तथा आत्मस्वरूपकी उपलब्धिरूप सम्यक्त्व, अथवा क्षायिकसम्यक्त्वरूपी रत्नके जो आश्रय हैं उन नेमिनाथ तीर्थंकर परमदेवको मस्तकसे नमस्कार करके, जिसमें ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे भिन्न २५ प्रकृतियोंका कथन है, उस प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक ग्रन्थको कहूँगा । इस प्रकार विशिष्ट देवताको नमस्कार करके प्रकृतिसमुत्कीर्तनका कथन करनेकी प्रतिज्ञा आचार्यने की है ॥ १ ॥
क - १
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गो० कर्मकाण्डे
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो । कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ||२||
प्रकृतिः शीलं स्वभावः जीवांगयोः अनादिः संबंधः । कनकोपले मलमिव तयोरस्तित्वं स्वतः सिद्धं ॥
प्रकृतिये बोडं शीलम दोडं स्वभाव में बुदत्थं । कारणांतरनिरपेक्षमप्पुवं स्वभाव में बुदु । अग्निगूर्ध्वज्वलनमुं वायुवि तिर्यक्पवनमुं नोरिंग निम्नगमनम् मे तु स्वभावो, हि स्वभाववन्तमपेक्षत इति । कयोः स्वभावः एंदिते दोडे जीवांगयोः जीवकम्मंणोः जीवस्वभावभुं कर्मस्वभावमुबदर्थमल्लि रागादिपरिणमनमात्मन स्वभावमक्कुं । रागाद्युत्पादकत्वं कम्मंस्वभावमक्कुमंतादोडे इतरेतराश्रयदोषमागि बकुमेदोडे तद्दोषपरिहारार्त्यमागि अनादिः संबंधः एंड पेल्पटु । १० जीवकमंगळ संबंधक्कनादित्वमं टप्पूदरमा दोषं पोईददक्के दृष्टांतमं तोरिदपरु । कनकोपले मलमिव कनकोपलदो सुवर्णमलंगळगे संबंधर्म तंते अनादिः संबंध: एंदिदरवमे अमूर्तो जीवः मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यत इति चोद्यमपाकृतं भवति ।
जीवक मंगळ स्तित्वमे तु सिद्धमें दोर्ड पेदपरु । तयोरस्तित्वं जीवकम्मंगळस्तित्वं स्वत:सिद्धबुदु पेळपट्टुददे तें दोडे अहं प्रत्ययवेद्यत्वादिदमात्मास्तित्वमुं ओब्यं दरिद्रनोन्वं श्रीमन्तनितु १५ विचित्र परिणमनदत्तणदं कम्र्मास्तित्वमं सिद्धमेंदु ज्ञातव्यमक्कुं ।
संसारिजीवं कर्मनोकम्मंगळु तनगमाळप प्रकारमं पेव्वपरु
५
प्रकृतिः शीलं स्वभाव इत्यर्थः । सोऽपि कारणान्तरनिरपेक्षता अग्निवायुजलानामूर्ध्वतिर्यग्निम्नगमनवत् । सहि स्वभाववन्तमपेक्षते इति । कयोः सः ? जीवाङ्गयोः - जीवकर्मणोः । तत्र रागादिपरिणमनमात्मनः स्वभावः रागाद्युत्पादकत्वं तु कर्मणः तदेतरेतराश्रयदोषः तत्परिहारार्थं तयोः जीवकर्मणोः संबन्ध अनादिरित्युक्तम् । क इव ? कनकोपले मलमिव स्वर्णपाषाणे स्वर्णपाषाणयोः संबन्धस्य अनादिरिव । अनेन अमूर्तो जीवः मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते ? इत्यप्यपास्तं । तयोरस्तित्वं कुतः सिद्धं ? स्वतः सिद्धं । अहंप्रत्ययवेद्यत्वेन आत्मनः दरिद्रश्रीमदादिविचित्र परिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धेः || २ || संसारिणां कर्मनो कर्मग्रहणप्रकारमाह
२०
प्रकृति किसे कहते हैं ? यह कहते हैं
२५
I
जैसे अग्निका ऊर्ध्वगमन, वायुका तिर्यग्गमन और जलका नीचेको गमन स्वभाव है उसी प्रकार अन्य कारण निरपेक्ष जो होता है उसे प्रकृति या शील या स्वभाव कहते हैं । ये तीनों शब्द एकार्थक हैं । यहाँ जीव और कर्मके स्वभावसे प्रयोजन है। रागादि रूप परिणमन आत्माका स्वभाव है तथा रागादि उत्पन्न करना कर्मका स्वभाव है । किन्तु ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आता है इसलिए उस दोषको दूर करनेके लिए जीव और कर्मके सम्बन्ध को अनादि कहा है । जैसे स्वर्णपाषाणमें स्वर्ण और पाषाणका सम्बन्ध अनादि है उसी तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । इससे यह तर्क निरस्त कर दिया कि अमूर्त जीव मूर्त कर्म से कैसे बँधता है । अब प्रश्न होता है कि जीव और कर्मका अस्तित्व कैसे सिद्ध होता है। तो उत्तर है कि स्वतःसिद्ध है । क्योंकि आत्मा तो 'मैं' इस प्रत्ययसे जाना जाता है और कोई दरिद्र और कोई श्रीमान् देखा जाता है इससे कर्मका अस्तित्व सिद्ध होता है ॥२॥ संसारी व कर्म-कर्म को कैसे ग्रहण करता है, यह कहते हैं
३०
३५
१. म तंते ।
—
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
देोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्मणोकम्मं । पडसमयं सव्वंगं तत्तायसपिंडओव्व जलं ॥३॥
1
देहोदयेन सहितो जीवः आहरति कर्म्म नोकर्म्म । प्रतिसमयं सर्वागैस्तप्तायस पिडमिव जलं ॥ देहोदयेन कार्म्मणशरीरनामकर्मोदयजनितयोगदोडने । सहितो जीवः सहितनप्प जीवनु । आहरति हरिसुगुं । कर्म ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्म्ममं । मत्तं देहोदयेन औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीरनामकम्र्मोदयंगळोडने । सहितो जीवः सहितनप्प जीवं । आहरति आहरिसुगुं । नोक औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीर नोकम्मं आव कालदोळाहरिसुगुमे दोडे प्रतिसमयं तदुदयद समयं प्रति समयं प्रति । सव्वगैः सर्व्वात्मप्रदेशः जगच्छ्रेणीघनप्रमितजी व प्रदेशंगळद माहरिसुगुHath दृष्टांत तोरिरु । तप्तायसपिंडं अयसि भवमायसं तच्च तत्पिडं च आयसपिडं । तप्तं च तदायसपिंडं च तप्तायसपिंडं । काध्द कब्बुनव गुंडु जलमिव जलमं तन्न सर्व्वप्रदेशंगळदमेतु १० पीमंते जोवनुं तन्न सव्व प्रदेशं गदं शरीर नामकर्मोदयहेतुविदं कम्मंसुमं नोकम्मं मं प्रतिसमयमुमाहरिसुगुबुदत्थं । जीवं प्रतिसमयनुं कम्र्मनो कर्म्मपरमाणुगळने नितनाहरिसुगु में वोडे पेदपरु | सिद्धाणंतिमभागं अभव्वसिद्धादणंतगुणमेव ।
समयपत्रद्धं बंधदि जोगवसादो दु विसरित्थं ॥४॥
सिद्धानामनंतैक भागमभव्य सिद्धादणंतगुणमेव । समयप्रबद्धं बध्नाति योगवशतस्तु विसदृशं ॥ १५ सिद्धराशिप्रमाणमं नोडलनंतैकभागमनभव्यसिद्ध राशियं नोडलुमनन्तगुणमप्पुवं । समयप्रबद्धमने । तु मते योगवशविंदं विसदृशमप्पुदं कट्टुगुं । समये समये प्रबध्यत इति समय प्रबद्धः
देहाः - मदारिकं वैक्रियिकाहारक - तेजस - कार्मणनामकर्माणि । तत्र कार्मणनामोदयजनितयोगेन सहितो जीवः ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म आहरति । शेषोदयेन सहितः तत्तत्संज्ञं नोकर्म आहरति । कदा ? इति चेत् प्रतिसमयं तदुदयकाले समयं समयं प्रति । कथं ? सर्वाङ्गसर्वात्मप्रदेश: किंवत् ? तप्तायसपिंडं २० जलमिव यथा तप्तं अयोभवं पिंडं सर्वप्रदेशैर्जलमाहरति तथा शरीरनामोदयसहितजीवः प्रतिसमयं कर्म नोकर्म महरतीत्यर्थः ॥ ३॥ कति तत्परमाणू नाहरति ? इति चेत् —
सिद्धराश्यनन्तैकभागं | अभव्यसिद्धेभ्यो ऽनंतगुणं तु पुनः योगवशाद् विसदृशं समयप्रबद्धं बध्नाति ।
५
देइसे मतलब है औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मणनामकर्म- इनमें से नामकर्मके उदयसे उत्पन्न योगसे सहित जीव ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारके कर्मको २५ करता है। शेष शरीरनामकर्मके उदयसे सहित जीव उस नामवाले नोकर्मको ग्रहण करता है । कब ग्रहण करता है ? इसका उत्तर है कि उसका उदय रहते हुए प्रति समय ग्रहण करता है । तथा जैसे तपा हुआ लोहपिण्ड सब प्रदेशोंसे जलको प्रहण करता है उसी तरह शरीरनामकर्मके उदयसे सहित जीव सब आत्मप्रदेशोंसे कर्म - नोकर्मको ग्रहण करता है ॥ ३ ॥
प्रति समय कितने परमाणुओंको प्रहण करता है, यह कहते हैं
---
सिद्धराशि अनन्त भाग और अभव्यराशिसे अनन्तगुणे परमाणुरूप समयप्रबद्धको बाँधता है। योग वशसे कमती-बढ़ती परमाणुओंके समूहरूप समयप्रचद्धका बाँधता है ।
१. ब त्यर्थः । सोऽपि कः कारणान्तरनिरपेक्षता । कति० ।
३०
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गो० कर्मकाण्डे एंतिन्वय॑नाममनुळ्ळ कर्मनोकर्मसमयप्रबद्धमुक्तप्रमाणमं प्रतिसमयं कटुगमेंदु पेन्दु मत्तं प्रतिसमयमुदयमुं सत्वमुमेनितें बुदं पेळल्वेडि मुंदण सूत्रमं पेळ्दपं ।
जीरदि समयपबद्धं पओगदोऽणेगसमयबद्धं वा ।
गुणहाणीण दिवढं समयपबद्ध हवे सत्तं ॥६॥ जीप्यते समयप्रबद्धः प्रयोगतोनेकसमयबद्धो वा। गुणहानीनां द्वयर्द्धः समयप्रबद्धो भवेत्सत्वं ॥
प्रतिसमयमो दु कार्मणसमयप्रबद्धमुदयिसुगु। सातिशयक्रिययोळात्मन सम्यक्त्वादिप्रवृत्तियं प्रयोगमेंबुददु कारणदि मेणेकादश निर्जराविवक्षेयिंदमनेकसमयप्रबद्ध प्रतिक्षणमुदयिसुगुं। द्वयर्द्धगुणहानि प्रमितसमयप्रबद्धं प्रतिसमयं सत्वमक्कुमल्लि शिष्यनेदपं । प्रतिक्षणमोंदु समयप्रबद्धं बंधमप्पुदोदु समयप्रबद्धं फलदानपरिणतियिनुदयिसिगळिसुगुमप्पृदरिनन्तु मतं सत्वं द्वयर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्ध दोडुत्तरमं मुन्नं जीवकांडदोळु पेन्द त्रिकोणरचनाभिप्रायदिदं पेन्दु । कर्मक्क सामान्यादिभेदप्रभेदमं गाथाद्वयदिदं पेळ्दपरु ।
कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु ।।
पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ कर्मत्वेनैक द्रव्यं भाव इति भवति द्विविधं तु पुद्गलपिंडो द्रव्यं तच्छक्तिर्भावकर्म तु॥ समये समये प्रबध्यते इति समयप्रबद्धः ॥४॥ अथ प्रतिसमयभवं बंधं प्रमाणयित्वा उदयसत्त्वे प्रमाणयति
प्रतिसमयमेकः कार्मणसमय प्रबद्धः जीर्यते उदेति, वा अथवा सातिशयक्रियोपेतस्य आत्मनः सम्यक्त्वादिप्रवृत्तिलक्षणप्रयोगेन हेतुना एकादशनिर्जराविवक्षया अनेकसमयप्रबद्धो जीर्यते । द्वयर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धः प्रतिसमयं सत्त्वं भवति । ननु प्रतिक्षणमेकः समयप्रबद्धो बध्नाति एको गलति तदा सत्त्वेऽप्येक एव स्यात् कथं द्वघर्धगुणहानिमात्रः ? तन्न प्रागुत्तरत्रापि त्रिकोणरचनायां व्यक्तप्रतिपादनात् ॥५॥ कर्मणः सामान्यादिभेदप्रभेदान् गाथाद्वयेनाहअर्थात् योगके अनुसार ही कर्मपरमाणुओंका बन्ध होता है। समय-समयमें जो बँधता है उसे समयप्रबद्ध कहते हैं ॥४॥
प्रति समय होनेवाले बन्धका प्रमाण कहकर उदय और सत्त्वका प्रमाण कहते हैं
प्रतिसमय एक कार्मण समयप्रबद्धकी निर्जरा अर्थात् उदय होता है। अथवा सातिशय क्रिया सहित आत्माके सम्यक्त्व आदिकी प्रवृत्तिरूप प्रयोगके कारण जो निर्ज स्थान कहे हैं उनकी विवक्षासे एक समयमें अनेक समयप्रबद्धकी निर्जरा करता है। तथा प्रति समय डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्धका सत्त्व होता है।
शंका-जब प्रति समय एक समयप्रबद्ध बाँधता है और एक ही निर्जीर्ण होता है तो ३० सत्त्वमें भी एक ही होना चाहिए, डेढ गुण-हानि प्रमाणकी सत्ता कैसे सम्भव है ?
___ समाधान-ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि पहले (जीवकाण्डमें) योगमार्गणामें त्रिकोण रचनाके द्वारा इसे स्पष्ट किया है और आगे भी करेंगे ।।५।।
कर्मके सामान्य आदि भेद-प्रभेदोंको दो गाथाओंसे कहते हैं१. म मनुक्तं ।
2
राके ग्यारह
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मुन्नमुद्देशिसल्पट्ट सामान्यकर्म कर्मत्वेदिदमोंदु। तु मते द्रव्यकर्म भावकर्मभेददिदं द्विविधमक्कुमल्लि पुद्गलपिडं द्रव्यकरम, बुदक्कुमा पुद्गलपिंडद अज्ञानादिजननशक्ति भावकममेंदु पेळळ्पटुदु । अथवा बुद्गलपिंडाज्ञानादिजनकशक्तिसंजातजीवाज्ञानादियुं भावकममेंदु पेळल्पटुददे ते दोडे कार्ये कारणोपचारः एंबी न्यादिजीवाज्ञानादियं तच्छक्तियेदितु पेळल्पटुदप्पुरिदमुभयो; भावकर्मत्व सिद्धमादुदु ॥
तं पुण अट्ठविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा ।
ताणं पुण' घादित्ति अघादित्ति य होंति सण्णाओ ॥७॥ तत्पुनरविधं वा अष्टाचत्वारिंशच्छतमसंख्यलोको वा। तेषां पृथक् घातीत्यघातीति च भवतः संज्ञ॥
तत्पुनः मुंपेळ्द सामान्यदोछ विवक्षितद्रव्यकर्ममष्टविधमक्कुमथवा अष्टाचत्वारिंशच्छत- १० विधमुमथवा असंख्यातलोकविधमुमप्पुदु । तेषां पृथक् तदष्टविधमुमष्टाचत्वारिंशच्छतविधमुमसंख्यातलोकविधमुं पृथक्-पृथक् घातियुमेंदुमघातियुमदु संज्ञे द्वे भवतः संज्ञेगळेरडप्पुषु । यथोद्देशस्तथा निर्देशः एंदी न्यायदिदं प्रथमोद्दिष्टाष्टविधमं तद्घात्यघातिभेदंगळं फेळल्वेडि गाथाद्वयमं पेन्दपरु :
णाणस्स देसणस्स य आवरणं. वेयणीयमोहणियं ।
आउगणामं गोदंतरायमिदि अट्ठपयडीओ ॥८॥ ज्ञानस्य दर्शनस्य चावरणं वेदनीयं मोहनीयमायुष्यं नामगोत्रमन्तराय इत्यष्टौ प्रकृतयः॥
प्रागुक्तं सामान्यकर्म कर्मत्वेन एकं । तु-पुनः द्रव्यभावभेदाद्विविधं । तत्र द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्डो भवति । पिण्डगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति ॥६॥
तत्पुनः सामान्यं कर्म अष्टविधं वा अष्ट चत्वारिंशच्छतविधं वा असंख्यातलोकविधं भवति तेषां च . अष्टविधादीनां पृथक्-पृथक् घात्यघातीति संज्ञे स्तः ॥७॥ यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात प्रथमोद्दिष्टाष्टविधं तद्घात्यघातिभेदी च गाथाद्वयेनाह
पहले कहा सामान्य कर्म कर्मत्वरूपसे एक है । तथा द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकार है। उनमेंसे द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्ड है । और उस पिण्डमें रहनेवाली फल देनेकी शक्ति भावकम है । अथवा कायमें कारणके उपचारसे उस शक्तिसे उत्पन्न हुए अज्ञानादि भी भाव- २५ कर्म हैं ।।६।।
वह सामान्य कर्म आठ प्रकार है अथवा एक सौ अड़तालीस प्रकार है अथवा असंख्यात लोक प्रकार है। उन आठ प्रकार आदि रूप कोंकी पृथक-पृथक् घाती और अघाती संज्ञा है ॥७॥
उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इस न्यायसे प्रथम कहे आठ भेद और उनके घाति- ३० अघाति भेदोंको दो गाथाओंसे कहते हैं
१. म पुष ।
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५
गो० कर्मकाण्डे
ज्ञानावरण; दर्शनावरणमुं वेदनीयमं मोहनीयमुमायुष्यमुं नाममं गोत्रमुमन्तरायमुम दितु मूलप्रकृतिगळे टप्पूवु ॥
आवरणमोहविग्घं घादी जीवगुणघादणत्तादो ।
आउगणामं गोदं वेयणियं तह अघादिति ॥९॥
२५
६
३०
आवरणमोहविघ्नं घाति जीवगुणघातनात् । आयुर्ननामगोत्रं वेदनीयं तथा अघातीति ॥ ज्ञानावरणमुं दर्शनावरणमुं मोहनीयमुमंतरायमुमें बी नाल्कुं प्रकृतिगळ घातिगळप्पुवेके 'दोडे जीवगुणघातकर्त्वादिदं । आयुष्यमुं नाममुं गोत्रमुं वेदनीयमुम बी नाल्कुं प्रकृतिगळु तथा न, ज्ञानावरणादिगते जीवगुणघातकंगळल्तव कारणमागियघातिगळे दु पेळल्पट्टुवु ॥
केवलणाणं दंसणमणंतविरियं च खयियसम्मं च ।
खयिगुणे मदि यादी वयोवसमये य घादी दु ॥ १०॥
केवलज्ञानं दर्शनमनंतवीय्यं च क्षायिकसम्यक्त्वं च । क्षायिकगुणान् मत्यादीन् क्षायोपशमिकांश्च धनंति तु ॥
केवलज्ञानमुमं केवलदर्शनमुममनन्तवीर्य्यमुमं क्षायिकसम्यक्त्वमुमं च शब्ददिदं क्षायिक१५. चारित्रमुमं द्वितीय च शब्ददिदं क्षायिकदानादिगळ निन्ती क्षायिकगुणंगळनू । तु मत्तं मतिश्रुताधमनः पय्यमुबी क्षायोपशमिक गुणंगळनू । घ्नंति केडिसुववेदितु घातिगळप्पुवु ॥ अनंतरज्ञानावरणादिपाठक्रमक्कुपपत्तियं पेळल्वेडियायुरादिकम्मंगळ काय्यंमं पेदपरु :
जीवगुणमं पेदपरु :
ज्ञानावरणं दर्शनावरणं वेदनीयं मोहनीयमायुर्नामगोत्रमन्तरायश्चेति मूलप्रकृतयोऽष्टी ||८|| ज्ञानावरणं दर्शनावरणं मोहनीयं अन्तरायश्चेति चत्वारि घातिसंज्ञानि स्युः कुतः ? जीवगुणघातकत्वात् । २० आयुष्यं नाम गोत्रं वेदनोयं चेति चत्वारि तथा जीवगुणघातकप्रकारेण न इत्यघातिसंज्ञानि स्युः ||९|| तान्
जीवगुणानाह
केवलज्ञानं केवलदर्शनं अनन्तवीर्यं क्षायिकसम्यक्त्वं चशब्दात्क्षायिकचारित्रं द्वितीयचशब्दात् क्षायिकदानादींश्च क्षायिकान् । तु पुनः मतिश्रुतावधिमनः पर्ययाख्यान् क्षायोपशमिकांश्च गुणान् घ्नंतीति घातीनि ॥१०॥ आयुः कर्मकार्यमाह -
आठ मूल
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय ये चार कर्म घाती कहे जाते हैं, क्योंकि जीवके गुणोंके घातक हैं। आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय ये चार उस प्रकार से जीवके गुणोंके घातक नहीं हैं अतः अघाती कहे जाते हैं ॥९॥
उन जीवके गुणोंको कहते हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय प्रकृतियाँ हैं ||८||
केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और ''च' शब्द से क्षायिक चारित्र तथा दूसरे 'च' शब्दसे क्षायिक दान आदि क्षायिक गुणोंको, व मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञान नामक क्षायोपशमिक गुणोंको ये कर्म घातते हैं इससे ये घाती हैं ॥१०॥ आयुकर्मका कार्य कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
कम्मक मोहवड्ढिय संसारम्मि य अणादिजुत्तम्मि । जीवस्स अट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ कम्कृतमोहवद्धितसंसारे चानावियुक्ते । जीवस्यावस्थानं करोत्यायुर्हलीव नरं ॥ ज्ञानावरणाद्यष्टविधप्रकृतिगळोळायुः कम्र्मोदयं हलिवन्नरं चोरनप्प नरनं स्थूलकाष्ठ शृंखला विशेष तु कालं सिल्किसि पिडिदिदंते कर्मकृताज्ञानासंयम मिथ्यात्व में 'ब मोहत्रयदिदं ५ वद्धित संसारदोलनादियुक्तदोळ जीवक्कवस्थानमं चतुर्गतिगोळुमाळकुं ॥
नामक कार्यमं पेदपरु :
गदियादिजीवभेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च ।
गदियंतर परिणमणं करेदि णामं अणेयविहं ॥१२॥
गत्यादिजीवभेदं देहादिपुद्गलानां भेदं च । गत्यंतर परिणमनं करोति नाम अनेकविधं ॥ १० त्याद्यनेकविध नामकम् । जीवभेदं नारकादि जीवपर्ययमुमनौदारिकादिशरीरंगळ पुद्गलभेदमुमं । गतियिवं गत्यंतर परिणमनमुमं । करोति माळकुमप्पुदरिदं । जीवदिपा कियुं पुद्गलविपाकिथं क्षेत्रविपाकियुमेदितु नामकम्मं त्रिविधमक्कुं । च शब्दविदं भवविपाकिमकुं ॥ गोत्रकर्मकार्यमं पेदपरु :
संता कमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ १३॥
संतानक्रमेणागतजीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा । उच्चं नीचं चरणं उच्चं नोचं भवेद्गोत्रं ॥ संतानक्रर्मादिदमागतजीवाचरणक्के गोत्र में ब संज्ञेयक्कुमल्लियुच्चाचरणमुच्चे ग्र्गोत्रमक्कुं । fterचरणं नीचैग्गत्रमवकुं ॥
७
आयुः कर्मोदयः कर्मकृते अज्ञानासंयम मिथ्यात्व वर्धिते अनादी संसारे चतुर्गतिषु हलिरिव स्वछिद्रनियं- २० त्रिततत्पादकाष्ठविशेष इव जीवस्यावस्थानं करोति ॥ ११ ॥ नामकर्मकार्यमाह -
गत्याद्यनेकविधं नामकर्म नारकादिजीवपर्यायभेदं औदारिकादिशरीरपुद्गलभेदं गत्यन्तरपरिणमनं च करोति तेन तत् जीवपुद्गल क्षेत्र विपाकि भवति । चशब्दाद्भवविपाकि च ॥ १२ ॥ गोत्रकर्मकार्यमाह - संतानक्रमेण आगतजीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा भवति । तत्र उच्चाचरणम् उच्चैर्गोत्रम् । नीचा
आयुकर्मका उदय कर्मके द्वारा किये गये और अज्ञान, असंयम तथा मिध्यात्व के द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुए अनादि संसारकी चार गतियों में जीवको उसी प्रकार रोके रहता है जैसे एक विशेष प्रकारका काष्ठ अपने छिद्र में पैर डालनेवाले व्यक्तिको रोके रहता है ॥११॥
नामकर्मका कार्य कहते हैं
गोत्रकर्मका कार्य कहते हैं
सन्तानक्रम से आये हुए जीवके आचरणकी गोत्र संज्ञा है । उच्च आचरणको उच्च गोत्र और नीच आचरणको नीच गोत्र कहते हैं ||१३||
१५
३०
गति आदिके भेदसे अनेक प्रकारका नामकर्म जीवके नारक आदि पर्यायभेदको औदारिक आदि शरीररूप पुद्गलके भेदको तथा एक गतिसे दूसरी गति में परिणमनको करता है । इसीसे वह जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और 'च' शब्द से भवविपाकी है ॥ १२ ॥
२५
३५
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गो० कर्मकाण्डे वेदनीयकार्यमं पेळ्दपरु॥
अक्खाणं अणुभवणं वैयणियं सुहसरूवयं सादं ।
दुक्खसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥१४॥ अक्षाणामनुभवनं वेदनीयं सुखस्वरूपकं सातं । दुःखस्वरूपमसातं तद्वेदयतीति वेदनीयं ॥
इंद्रियविषयानुभवनं इंद्रियविषयावबोधनं वेदनीयं वेदनीयम बुदा वेदनीयं सुखस्वरूपं सातम बुदक्कुं दुःखस्वरूपमसातम बुदक्कुं। तद्वेदयतीति सत्सुखदुःखंगळं वेदिसुगुमरियिसुगुम दितु वेदनीयमें ब संज्ञेयादुदु ॥
अत्थं देक्खिय जाणदि पच्छा सद्दहदि सत्तभंगीहिं ।
इदि दंसणं च णाणं सम्मत्तं होंति जीवगुणा ॥१५॥ अत्थं दृष्ट्वा जानाति पश्चाच्छ्रद्दधाति सप्तभंगोभिः । इति दर्शनं च ज्ञानं सम्यक्त्वं भवन्ति जीवगुणाः॥
संसारिजीवं अत्थं बाह्यार्थमं । दृष्ट्वा कंडु । जानाति अरिगुं मरितुदं सप्तभंगोभिः सप्तभंगिळिदं निश्चयिसि । पश्चाच्छद्दधाति बळिकं नंबुगुं। इति ई प्रकारविदं । वर्शनमुं ज्ञानमुं सम्यक्त्वमुं जीवगुणंगळप्पुवु ॥ इवरावरणंगळे पाठक्रममनुपपत्तिपूर्वकं पेळदपरु :
अब्भरहिदादु पुव्वं गाणं तत्तो हि दंसणं होदि ।
सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे ॥१६॥ ___ अभ्यहितात्पूर्व ज्ञानं ततो हि दर्शनं भवति । सम्यक्त्वमतो वीयं जीवाजीवगतमिति चरमे ॥
२५
२० चरणं नीचर्गोत्रम् ॥१३॥ वेदनीयकर्मकार्यमाह
इन्द्रियाणां अनुभवनं विषयावबोधनं वेदनीयं । तच्च सुखस्वरूपं सातं दुःखस्वरूपमसातं ते सुखदुःखे वेदयति-ज्ञापयति इति वेदनीयम् ॥१४॥
संसारी जीव: अथं दृष्ट्वा जानाति । तमेव पुनः सप्तभंगोभिनिश्चित्य पश्चात् श्रद्दधाति इत्यनेन प्रकारेण दर्शनं ज्ञानं सम्यक्त्वं च जीवगुणा भवन्ति ॥१५॥ तदावरणानां पाठक्रममुपपत्तिपूर्वकमाह
वेदनीय कर्मका कार्य कहते हैं
इन्द्रियोंके विषयको जाननेरूप अनुभवनको वेदनीय कहते हैं। वह सुखरूप साता है और दुःखरूप असाता है उसे जो अनुभव कराता है वह वेदनीय है ॥१४।।।
संसारी जीव अर्थको देखकर जानता है। पुनः उसे ही सात भंगोंके द्वारा निश्चित करने के पश्चात् श्रद्धान करता है। इस प्रकारसे दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्व जीवके ३० गुण हैं ॥१५॥
उन गुणोंके आवरणोंके पाठका क्रम उपपत्तिपूर्वक कहते हैं
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अर्ध्याहतात्पूज्यात् पूज्यमप्पुर्दारदं ज्ञानं पूर्व्वमक्कुं । हि तथा हि अहंगे लघुघ्यजाद्यदल्पाजमे कर्म दितु पूज्यपदक्के पूव्वं निपतनमुंटप्पुर्दारदं । ततः बळिकं । दर्शनं भवति दर्शनमक्कुं । अतः बुलिकं सम्यक्त्वं सम्यक्त्वमक्कुं । जीवाजीवगतमिति जीवदोळमजीवदोळमिक्कुमेदितु वीय्यं चरमदोपठिसल्पट्टुवु ॥
घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो ।
णामतियनिमित्तादो विग्धं पढिदं अघादि चरिमम्मि ||१७||
घात्यप्यघातिवन्निःशेषं घातनेऽशक्यात् । नामत्रयनिमित्ताद्विघ्नं पठितमघातिचरमे ॥ घातिकमा दोडमं (रायकमघातिकर्मदते निःशेषमागि जीवगुणघातनदोळु शक्तिराहिस्पद नामगोत्र वेदनीयंगळं निमित्तमागुळळदरिदमुमघातिगळ चरमदोळु विघ्नं पठि -
सल्पदु ॥
आउवलेण अवद्विदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु । भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णाम पुव्वं तु ॥ १८॥
आयु ले नाव स्थितिर्भवस्येति नाम आयुः पूर्वत्रं तु । भवमाश्रित्य नीचोच्चमिति गोत्रं नामपूत्रं ॥
आयुलाधानदिदमवस्थितियक्कुमाउदवकें दोडे नामक काय्र्य्यगतिलक्षणमप्प भवस्य ears दिg कारणमागि । तु मर्त नाममायुष्य कम्मं मं पूर्व मागुदादुदु । तु मत्ते भवमनासि नीचत्वमुच्चत्वमुदि कारणमागि गोत्रकर्म्म नामक मं पूमागुदादुदु |
अभ्यहितात् पूज्यात् ज्ञानं पूर्वं पठितं हि तथाहि - 'लघुध्यजाद्यदत्पाजच्यं' इति सूत्रसद्भावात् । ततो दर्शनं भवति । अतः सम्यक्त्वम् । वीर्यं तु जीवाजीवगतमिति चरमे पठितम् ॥१६॥
I
अंत रायकर्म धात्यपि अघातिवत् निश्शेषजीवगुणघातेऽशक्यात् नामगोत्र वेदनीयनिमित्ताच्च अघातिनां चरमे पठितम् ॥१७॥
तु - पुनः - आयुर्बलाधानेन अवस्थितिः नामाकार्यगतिलक्षणभवस्येति हेतोः नामकर्म आयुष्कर्मपूर्वक भवति । तु पुनः भवमाश्रित्यैव नीचत्वमुच्चत्वं चेति हेतोः गोत्रकर्म नामकर्मपूर्वकं ॥ १८ ॥
अन्तराय कर्म घाती होनेपर भी अघातीके समान है क्योंकि वह जीवके समस्त गुणको घात में असमर्थ है। तथा नाम, गोत्र और वेदनीयके निमित्तसे अपना कार्य करता है इसलिए उसका पाठ अघाति कर्मों के अन्त में किया है ||१७||
५
१०
पूज्य होनेसे ज्ञानको पहले कहा क्योंकि व्याकरणके सूत्रमें कहा है कि अल्प अशरवालेसे जो पूज्य होता है उसका पूर्व निपात होता है। उसके पश्चात् दर्शन कहा है, उसके पश्चात् सम्यक्त्व कहा । और वीर्य तो जीव-अजीव दोनोंमें पाया जाता है इसलिए अन्तमें २५ पढ़ा है। इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायका पाठक्रम जानना ॥ १६ ॥
१५
२०
३०
नामकर्मका कार्य जो भव है उस भवकी अवस्थिति आयुकर्मके बलाघानसे होती है, आयुकर्म के बिना भवका ठहरना सम्भव नहीं है । अतः नामकर्मसे पहले आयुकर्म कहा । तथा भवको लेकर नीचपना उच्चपना होता है इसलिए गोत्रकर्मसे पहले नामकर्म कहा है ||१८||
क - २
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१०
गो० कर्मकाण्डे घादिव वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं ।
इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्मि पढिदं तु ॥१९॥ घातिवद्वेदनीयं मोहस्य बलेन घातयति जीवं । इति घातीनां मध्ये मोहस्यादौ पठितं तु॥
घातिकम्म, तंते वेदनीयकर्म मोहनीयकर्मवेनिसिद रत्यरतिप्रकृत्युदयबलदिंदमे जीवं ५ जीवनं । घातियति सुखदुःखरूपसातासातनिमित्त द्रियविषयानुभवनदिदं कडवंतु माळकुम दितु घातिगळ मध्यदोळु मोहनीयकर्मदादियोळु पठियिसल्पटुदु ॥
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणियं ।
आउगणामं गोदंतरायमिदि पढिदमिदि सिद्धं ।।२०॥
ज्ञानस्य दर्शनस्य चावरणं वेदनीयं मोहनीयमायुर्नामगोत्रमन्तरायमिति पठितमिति १० सिद्धं ॥
ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं वेदनीयं मोहनीयमायुन्न मगोत्रमन्तरायम वितु मुंपेन्द पाठक्रममी प्रकारविवं सिद्धमादुदी मूलप्रकृतिगळ्गे निरुक्तिगळपळल्पडुगुमते दोडे ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं । तस्य का प्रकृतिः ज्ञानप्रच्छादनता । किंवत् देवतामुखवस्त्रवत् । दर्शनामावणोतीति
वर्शनावरणीयं । तस्य का प्रकृतिः दर्शनप्रच्छादनता। किंवत् राजद्वारे प्रतिनियुक्तप्रतिहारवत् । १५ वेदयतीति वेदनीयं । तस्य का प्रकृतिः सुखदुःखोत्पादनता । किंवत् मधुलिप्तासिधारावत् । मोहयतीति मोहनीयं । तस्य का प्रकृतिः मोहोत्पादनता। किंवत् मद्यधुत्तूरमदनकोद्रववत् । भवधारणा...
घातिकर्मवत् वेदनीयं कर्म मोहनीयविशेषरत्यरत्युदयबलेनैव जीवं घातयति सुखदुःखरूपसातासातनिमितेंद्रियविषयानुभवनेन हन्तीति घातिनां मध्ये मोहनीयस्य आदी पठितम् ॥१९।।
ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं वेदनीयं मोहनीयम् आयुर्नाम गोत्रम् च अन्तरायः इति प्रागुक्तपाठक्रम एवं सिद्धः । तेषां निरुक्तिरुच्यते-ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? ज्ञानप्रच्छादनता । किंवत् ? देवतामुखवस्त्रवत् । दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? दर्शनप्रच्छादनता । किंवत् ? राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारवत् । वेदयतीति वेदनीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? सुखदुःखोत्पादनता । किंवत् ? मधुलिप्तासिधारावत् । मोहयतीति मोहनीयम् । तस्य का प्रकृतिः ? मोहोत्पादनता। किंवत् मद्यधत्तूरमदन
घातिकर्मकी तरह वेदनीयकर्म मोहनीयके भेद रति और अरतिके उदयका बल पाकर २५ ही जीवका घात करता है अर्थात् सुख-दुःखरूप साता-असातामें निमित्त इन्द्रियोंके विषयोंका
अनुभवन कराकर घात करता है इसलिए घातिकर्मोके मध्य में और मोहनीयके पहले वेदनीय कहा है ॥१९॥
इस प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय पहले कहा पाठक्रम सिद्ध होता है। उनकी निरुक्ति कहते हैं। जो ज्ञानको आवृत ३० करता है, आच्छादित करता है वह ज्ञानावरणीय है। जैसे देवताके मुखपर वस्त्र
डालनेसे वह वस्त्र देवताका विशेष ज्ञान नहीं होने देता, वैसे ही ज्ञानावरण ज्ञानको आच्छादित करता है। जो दर्शनको आवृत करता है वह दर्शनावरणीय है। जैसे राजद्वार. पर बैठा द्वारपाल राजाको नहीं देखने देता, उसी प्रकार दर्शनावरण दर्शनगुणको आच्छादित करता है। जो सुख-दुःखका वेदन अर्थात् अनुभवन कराता है वह वेदनीय है। जैसे
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गच्छतीत्यायुः। तस्य का प्रकृतिः भवधारणता। किंवत् शृंखलाकोळमें बुदत्थं । हलिवत् । नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृतिः नरनारकादिनानाविधकरणता। किंवत् चित्रकावरत् । उच्चनीचं मयतीति गोत्रं । तस्य का प्रकृतिः उच्चनीचत्वप्रापकता। किंवत् कुंभकारवत् । दातृपात्रयोरंतरमेतीत्यंतरायः। तस्य का प्रकृतिः विघ्नकरणता । किंवत् भांडागारिकवत् ॥ ज्ञानावरणाविप्रकृतिगळ्गे यो पेन्द दृष्टांतमं पेळ्दपर
पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं ।
जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा ॥२१॥ पटप्रतीहारासिमद्यहलिचित्रकुलालभांडागारिकाणां। यथैतेषां भावास्तथापि च कर्माणि मन्तव्यानि।
देवतामुखवस्त्रमुं राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारनुं मधुलिप्तासिधारयुं मद्यमुं हळियुं चित्रकनुं १० कुलालनु भांडागारिकनुमेब यथैतेषां भावाः एंतिवर भावंगळ तथापि च आ प्रकारंगाळदमे कर्माणि मंतव्यानि कमगळु बगेयल्पडुवउ ।
उत्तरप्रकृतिगळुत्पत्तिक्रममं पेदपरु :
कोद्रववत् । भवधारणाय एति गच्छतीति आयुः । तस्य का प्रकृतिः? भवधारणता । किंवत् ? हलिवत् । नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृतिः? नरनारकादि नानाविधकरणता । किंवत् ? चित्र कवत् । उच्चनीचं १५ गमयतीति गोत्रं । तस्य का प्रकृतिः उच्चनीचत्वप्रापकता। किंवत् ? कुंभकारवत् । दातपात्रयोरन्तरमेतीति अंतरायः। तस्य का प्रकृतिः ? विघ्नकरणता । किंवत! भांडागारिकवत् ॥२०॥ उक्तदृष्टान्तानाह
देवतामुखवस्त्र-राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहार-मधुलिप्तासिधारा-मद्य-हलि-चित्रक-कुलाल-भाण्डागारि - काणां एतेषां भावा यथा तथैव कर्माणि मन्तव्यानि ॥२१॥ उत्तरप्रकृत्युत्पत्ति क्रममाह
शहद लपेटी तलवारकी धारको चाटनेसे पहले सुख और फिर दुःख होता है। वैसे ही २० वेदनीय कर्म सुख-दुःखमें निमित्त होता है। जो जीवको मोहित करता है वह मोहनीय है । जेसे मदिरा, धतूरा या मादक कोदोंका सेवन करनेसे नशा होता है और सेवन करनेवाला असावधान हो जाता है वैसे ही मोहनीय आत्माको मोहित करने में निमित्त होता है। जो नवीन भव धारण करने में निमित्त है वह आयु है। जैसे सांकल या काठ आदिका फन्दा मनुष्यको नियत स्थानमें रोके रखता है वैसे ही आयुकर्म भी जीवको अमुक भवमें रोके २५ रखनेमें निमित्त होता है । जो नाना प्रकारके कार्य करता है वह नामकर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है वैसे ही नामकर्म जीवको नर नारक आदि रूप करता है । जो उच्च-नीच कहानेमें निमित्त है वह गोत्रकर्म है। जैसे कुम्हार मिट्टीके छोटे-बड़े बरतन बनाने में निमित्त है वैसे ही गोत्र जीवको उच्च-नीच बनानेमें निमित्त है। जो दाता और पात्रके मध्यमें आकर विघ्न डालता है वह अन्तराय है। जैसे भण्डारी दान देनेमें विघ्न ३० करता है उसी प्रकार अन्तरायकर्म दान आदिमें विघ्न करता है ॥२०॥
इस प्रकार देवताके मुखपर पड़ा वस्त्र, राजद्वारपर खड़ा द्वारपाल, शहद लपेटी तलवार, मदिरा, हलि, चित्रकार, कुम्हार और भण्डारीका जैसा स्वभाव होता है वैसा ही स्वभाव इन कर्मोंका भी जानना ।।२१॥ १. व शृङ्खलाहलिवत् ।
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गो० कर्मकाण्डे पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी ।
तेउत्तरं सयं वा दुगपणगं उत्तरा होति ।।२२॥ पंच नव द्वयष्टाविंशति चतुस्त्रिनवति व्युत्तरशतं वा द्विपंचोत्तरा भवंति ॥
ज्ञानावरणादिगळगे यथासंख्यमागुत्तरप्रकृतिगळु पंच नव द्वयष्टाविंशति चतुस्त्रिनवति ५ व्युत्तरशतं वा द्विपंचभेदंगळु भवन्ति अप्पुवु । अवे ते दोड-ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं वेदनीयं
मोहनीयमायुन्नामगोत्रमंतरायमें दिवु मूलप्रकृतिगळक्कुमल्लि ज्ञानावरणीयं पंचविधमक्कुमाभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणीयमुं केवलज्ञानावरणीयमुमें दितु । दर्शनावरणीयं नवविधमक्कुं स्त्यानगृद्धि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला निद्रा प्रचला चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयं केवलदर्शनावरणीयमुम दिन्तु।
थीणुदयेणुट्ठविदे सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य ।
णिदाणिद्दुदयेण य ण दिट्ठिमुग्धाडिदुं सक्को ।।२३।। स्त्यानगृद्धयुदयेनोत्थापिते स्वपिति कर्म करोति जल्पति च । निद्रानिद्रोदयेन च न दृष्टिमुद्घाटितुं शक्तः ॥
स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मोदयदिदमैति येब्बिसिदोडं स्वपिति निद्रगेटगुं। कर्म करोति १५ निद्रयोळकेलसमं माळकुं। जल्पति च मातुमनाडुगुं। निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकम्र्मोवयदिदमनित
नेच्चरिसिदोडं दृष्टिगळं तंगेयलु शक्तनल्लं।
____ज्ञानावरणादीनां ययासंख्यमुत्तरभेदा पंच नव द्वौ अष्टाविंशतिः चत्वारः त्रिनवतिः श्युत्तरशतं वा द्वौ पञ्च भवन्ति । तद्यथा ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं वेदनीयं मोहनीयमायुर्नामगोत्रमन्तरायश्चेति मूल
प्रकृतयः । तत्र ज्ञानावरणीयं पंचविधं-आभिनिबोधिकश्रतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणीयं केवलज्ञानावरणीयं २० चेति । दर्शनावरणीयं नवविधं स्त्यानगद्धि-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचला-निद्रा-प्रचला चक्षरचक्षरवधिदर्शनावरणीयं केवलदर्शनावरणीयं चेति ॥२२॥
स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणोयोदयेनोपस्थापितेऽपि स्वपिति । निद्रायां कर्म करोति । जल्पति च । निद्रा. निद्रोदयेन बहुधा सावधानी क्रियमाणोऽपि दृष्टिमुद्घाटयितुं न शक्नोति ॥२३॥
ज्ञानावरण आदिके उत्तर भेद क्रमानुसार पाँच, नौ, दो, अठाईस, चार, तिरानबे २५ अथवा एक सौ तीन, दो और पाँच होते हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयके
पाँच भेद हैं-मतिज्ञानाज्ञरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय। दर्शनावरणीयके नौ भेद हैं-स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ॥२२॥
स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयके उदयसे उठानेपर भी सोता है। सोते हुए कर्म करता है, बोलता है। निद्रानिद्राके उदयसे सावधान करनेपर भी दृष्टि उघाड़ने में समर्थ नहीं होता ॥२३॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१३ पयलापयछदयेण य वहेदि लाला चलंति अंगाई ।
णिद्दुदये गच्छंतो ठाइ पुणो बइसइ पडेइ ॥२४॥ प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मोदयेन च वहति लाला चलन्त्यंगानि । निद्रोदये गच्छन् तिष्ठति पुनरुपविशति पतति ॥
प्रचलाचलादर्शनावरणीयकम्र्मोदयदिदमुं। वहति लाला लोळि बायिद सुरिगं। चलन्त्यं. ५ गानि अवयवंगळेलुगुं । निद्रादर्शनावरणीयकम्र्मोदयदोळु । गच्छन् नडयुत्तं । तिष्ठति निदिक्कुं। पुनरुपविशति मत्ते कुकिळक्कुं। पतति ओरगुगुं।
पयलुदयेण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेइ सुत्तोवि ।
ईसं ईसं जाणदि मुहुँ मुहु सोवदे मंदं ॥२५॥ प्रचलोदयेन च जीवः ईषदुन्मील्य स्वपिति सुनोपि ईषदीषज्जानाति मुहुर्मुहुः स्वपिति १० मंदं ॥
.. प्रचलादर्शनावरणीयकम्र्मोददिदं जीवः जीवं ईषदुन्मील्य ओप्पच्चिकण्दरदु स्वपिति निद्रेगेगुं। सुप्तोपि निद्रे गेय्यल्पट्टनागियं ईषदोषज्जानाति इनितिनितनेत्ररुगुं । मुहुर्मुहुः मरळे मरळे । मंदं गाढमागि। स्वपिति निद्रगरगुं।
वेदनीयं द्विविधमक्कं । सातवेदनीयमुमसातवेदनीयमुदितु । मल्लि रतिमोहनीयकम्र्मोदय- १५ बलदिदं जीवक्क सुखकारणेंद्रियविषयानुभवनमं माडिसुगुं सातवेदनीयं । जीवक्के दुःखकारणेंद्रियविषयानुभवनमं माडिसुगुमरतिमोहनीयकम्र्मोदयबलदिदमसातवेदनीयं ॥
__ मोहनीयं द्विविधमक्कं । दर्शनमोहनीयमुमदु चारित्रमोहनीयम दितल्लि दर्शनमोहनीयं बंधविवर्तयिदं मिथ्यात्वमेकविधयक्कुमुदयमुमं सत्वमुमं कुरुत्तु मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतियुमें दिन्तु त्रिविधमक्कुमवक्कुपपत्तियं पेळदपरु।
२० प्रचलाप्रचलोदयेन मुखात लाला वहन्ति । अङ्गानि चलन्ति । निद्रोदयेन गच्छन् तिष्ठति । स्थितः पुनरुपविशति । पतति च ॥२४॥
प्रचलोदयेन जीवः ईषदुल्मील्य स्वपिति । सुप्तोऽपि ईषदोषज्जानाति । मुहुर्मुहुर्मन्दं स्वपिति । वेदनीयं द्विविधं-सातवेदनीयमसातवेदनीयं चेति । तत्र रतिमोहनीयोदयबलेन जीवस्य सुखकारणेंद्रियविषयानुभवनं कारयति तत्सांतवेदनीयं । दुःखकारणेंद्रियविषयानुभवनं कारयति अरति मोहनीयोदयबलेन तदसातवेदनीयं । २५ मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बंधविवक्षया मिथ्यात्वमेकविधं भवति उदयं सत्त्वं प्रतीत्य मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति त्रिविधं ॥२५॥ तस्योपपत्तिमाह
प्रचलाप्रचलाके उदयसे मुखसे लार बहती है, अंग चलते हैं। निद्राके उदयसे चलता हुआ ठहरता है, पुनः बैठता है और पड़कर सो जाता है ॥२४॥
प्रचलाके उदयसे जीव कुछ-कुछ आँख खोले सोता है। सोता हुआ भी कुछ-कुछ ३० जानता है । बार-बार मन्द सोता है । वेदनीयके दो भेद हैं-सातवेदनीय और असातवेदनीय । रतिमोहनीयके उदयके बलसे जीवके सुखके कारण इन्द्रियविषयका अनुभवन जो कराता है वह सातवेदनीय है। और अरतिमोहनीयके उदयके बलसे जो दुःखके कारण इन्द्रियविषयका अनुभवन कराता है वह असातवेदनीय है। मोहनीयके दो भेद हैंदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । उनमें से दर्शनमोहनीयका बन्धकी विवक्षामें एक भेद ३५
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१४
गो० कर्मकाण्डे जंतेण कोदवं वा पढमुवसमसम्मभावजंतेण ।
मिच्छं दव्वं तु तिहा असंखगुणहीणदव्वकमा ।।२६।। यंत्रेण कोद्रववत् प्रथमोपशमसम्यक्त्वभावरांत्रेण । मिथ्यात्वद्रव्यं तु त्रिधा असंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमात् ॥
यंत्रेण कोद्रववत् हारक्किन कल्लिदं हारपब धान्य तु बोसिदोडे हारक्कुमक्कियं नुच्चुगलम दि तु त्रिप्रकारमप्पुदंते। तु मत्ते। प्रथमोपशमसम्यक्त्वभावयंत्रदिदं मिथ्यात्वद्रव्यं मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृतिस्वरूपदिदमसंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमर्दिव । त्रिधा स्यात् त्रिःप्रकारभप्युददे ते दोडे-दर्शनमोहनीयं बंधविवर्तयिदं मिथ्यात्वमेकप्रकारमेयक्कुमप्पुरिदमायु
बज्जितज्ञानावरणादिसप्तप्रकृतिद्रव्यं किंचिदूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धं सत्वमक्कुं। स ० १२-1 १० इदनेछं कमंगळ्गे पसुगयं माडिदोडे मोहनीयक्के त्रैराशिकसिद्धमिनितु द्रव्यमक्कु स . १२
मिदरो देशघातिसर्वघातिविभागनिमित्तमनन्त भागहारदिदं भागिसिदोडे बहुभागं देशघाति गळ्गक्कुमकभागं सर्वघातिसंबंधिद्रव्यमिनितक्कु स . १२- मी द्रव्यमं मिथ्यात्वमुं षोडशकषायंगळं सर्वघातिगळप्पुरिदं पदिनेळक्कं पसलोडमोदु मिथ्यात्वकर्मसंबंधिद्रव्यमिनितक्कु स० १२- मिदं प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालमंतमहत्तमदर प्रथमसमयं मोदल्गोंडु चरमसमय७। ख १७
७।
ख
१५
यन्त्रेण घरट्रेन कोद्रवो दलितो यथा तुषतंडुलकणिकारूपेण त्रिधा भवति तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वभावयंत्रण मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिस्वरूपेण असंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमेण त्रिधा भवति । तद्यथा
___आयुर्वजितसप्तकर्मद्रव्यं किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रसमय प्रबद्धं स . १२-तत्सप्तभिर्मक्तं मोहनीयस्य स्यात् स ० १२-। तत्रानन्तबहुभागो देशघातिनः इत्येकभागः सर्ववातिनः स . १२-तच्च मिथ्यात्व
षोडशकषायेभ्यो दातुं सप्तदशभिर्भक्तं मिथ्यात्वस्यैतावत् स ० १२- 1 इदं प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालांतर्मुहूर्तस्य
७ख १७
२० मिथ्यात्व है। किन्तु उदय और सत्त्वकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्य ग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तीन भेद हैं ।।२५।।
ये तीन भेद कैसे होते हैं इसकी उपपत्ति कहते हैं
जैसे चाकीसे दलनेपर कोदोंके भूसी, चावल और कनरूपसे तीन भेद होते हैं उसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूप भावयन्त्रसे एक मिथ्यात्वप्रकृतिका द्रव्य (परमाणु समूह ) २५ क्रमसे असंख्यातगुण हीन द्रव्यरूपसे मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप
तीनमें विभाजित हो जाता है । उसका विवरण इस प्रकार है-आयुको छोड़ सातकर्मोका द्रव्य कुछ कम डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है। उसमें सातसे भाग देनेपर मोहनीयका द्रव्य होता है। उसमें अनन्तसे भाग देनेपर बहुभाग देशघाती द्रव्य है और एक
भाग सर्वघाती द्रव्य है। उस सर्व घातीद्रव्यको मिथ्यात्व और सोलह कषायोंमें देने के लिए ३० सतरहसे भाग देनेपर मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके काल अन्तर्मुहूर्तके
.
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५
पर्यंतं प्रतिसमयनुं गुणसंक्रमभागहा दिवम पर्कार्षसिकोंडु असंख्यातगुणहोनक्रर्मादिदं मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृतिरूपमागि मूरु पुंजंगळं माळकुमंतु माडुत्तिरलुमा प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालचरमसमयदोळु मिथ्यात्वद्रव्यम् मिश्रप्रकृतिद्रव्यमुं सम्यक्त्वप्रकृतिद्रव्य मुमितिष्ंवु :
^मि
^सं
०
स ० १२- गु
O
० ७१७
२१
^ मि
३ शक्ति । र्ध्य ना
०
०
o
०
०
२१
०
मिथ्यात्वमे तु मिथ्यात् मागि माडल्पटुवे दोडे - अतिच्छापनावलिमात्रस्थिति हासमागि माडल्पटट्टुवें बबत्थं । ई विधानमं मनदोळि रिसियसंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रर्मादिदं मिथ्यात्वद्रव्यं त्रिप्रकारमक्कुम बाचाय्र्यनिव पेळल्पट्टुवु । चारित्रमोहनीयं द्विविधमक्कुं । कषायवेदनीयं नोकषायवेदप्रथमसमयात्प्रभृति चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयं गुणसंक्रमभागहारेण अपकृष्यापकृष्य असंख्यातगुणहीनक्रमेण मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्व प्रकृतिरूपेण त्रिपुंजीकरोति तथा सति तच्चरसमयेऽप्येवं तिष्ठति—
मि
A
१.०
१२- गु
३
व ९ ना शक्ति
१
७ ख १७० गु
१
स १२-०
७ । ख १७ । गु
३
९ ना
S
ख
शक्ति
मि
A
१२
० ख १७ गु
३
व ९ ना
ख
१
स १२-१
७ । ख १७ । गु
३
S ९ ना
ख ख
स १२ । १
१
७ ख १७ गु
व ९ ना
ख ख
शक्ति
सं
A
मिथ्यात्वस्य मिध्यात्वकरणं तु अतिस्थापनाबलिमात्रं पूर्वस्थितावूनितमित्यर्थः । एतद्विधानं मनसि कृत्वा असंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमेण मिथ्यात्वद्रव्यं त्रिधा स्यात् इति आचार्येणोक्तम् ।
५
प्रथम से लेकर अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय गुणसंक्रम भागहार के द्वारा उस मिध्यात्व के द्रव्यको अपकर्षण कर-करके मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे तीन पुंज करता है । उसमें मिथ्यात्वका जितना द्रव्य होता है उससे असंख्यातगुणा हीन सम्यकूमिथ्यात्वका और उससे भी असंख्यातगुणा हीन सम्यक्त्व प्रकृतिका द्रव्य होता है। ऐसा होनेपर अन्तिम समय में भी ऐसा ही रहते हैं । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जो द्रव्य- १५ मिथ्यात्वरूप ही था उसका मिथ्यात्व करना कैसा ? इसका समाधान यह है कि मिथ्यात्व की
१०
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कर्मकाण्डे नोयममदितवरोळ कषायवेदनीयं षोडशविधमक्कुं। क्षपणेयं कुरुत्तु अनंतानुबंधि क्रोधमानमायालोभमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभं । क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलनं मायासंज्वलनं लोभसंज्वलनमें दि]प्रक्रमद्रव्यमं कुरुत्तु प्रक्रमद्रव्यमें बुदु विभंजनद्रव्यम बुदत्यमदं कुरुत्तु अनंतानु
बंधिलोभमायाक्रोधमानं। संज्वलनलोभमायाक्रोधमानं । प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानं । अप्रत्या५ स्थानलोभमायाक्रोधमानमें दितु ॥ नोकषायवेदनीयं नवविधमक्कुं:-पुरुषस्त्रीनपुंसकवेदं रत्यरतिहास्यशोकभयजुगुप्सय दिन्तु ॥
____ आयुष्यं चतुम्विधमक्कं । नरकायुष्यं तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यमै दिन्तु । नामकर्म द्वाचत्वारिशद्विधमक्कं । पिंडापिडभेददिदं । गति जाति शरीर बंधन संघातसंस्थान अंगोपांग संहनन वन
गंध रस स्पर्श आनुपूर्व्यगुरुलघुक उपघात परघात उच्छ्वास आतप उद्योत विहायोगति त्रस १० स्थावर बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त प्रत्येक साधारणशरीर स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ सुभग दुर्भग सुस्वर दुस्वर आदेय अनादेय यशस्कोत्ति अयशस्कोत्ति निर्माण तोत्थंकरनाम दितल्लि
चारित्रमोहनीयं द्विविध-कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं चेति । तत्र कषायवेदनीयं षोडशविधं क्षपणां प्रतीत्य अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभ, अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभ, प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभं, क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलनं मायासंज्वलनं लोभसंज्वलनं चेति । प्रक्रमद्रव्यं विभजनद्व्यं प्रतीत्य अनन्तानुबन्धिलोभमायाक्रोधमानं संज्वलनलोभमायाक्रोधमानं प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानं अप्रत्याख्यानलोभमायाको मानं चेति । नोकषायवेदनीयं नवविधं पुरुषस्त्रीनपुंसकवेदं रत्यरतिहास्यशोकभयजुगुप्साश्चेति । आयुष्यं चतुर्विधं नरकायुष्यं तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्कं चेति । नामकर्म द्वाचत्वारिंशद्विधं पिण्डापिण्डप्रकृतिभेदेन गतिजातिशरीरबन्धनसंघातसंस्थानाङ्गोपाङ्गसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शानुपूागुरुलघुकोपघातपरपातोच्छ्वासातपो
द्योतविहायोगतित्रसस्थावरबादरसूक्ष्म पर्याप्तापर्याप्त-प्रत्येकसाधारणशरीर स्थिरास्थिर-शुभाशुभसुभगदुर्भगसुस्वर१. दुःस्वरादेयानादेयशोऽयशस्कीतिनिर्माणतीर्थकरनामेति ।
२०३
२५
जो पूर्व स्थिति थी उसमें-से अति स्थापनावली प्रमाण कम कर दिया। यह विधान मनमें रखकर आचायने असंख्यातगुणाहीन क्रमसे मिथ्यात्व द्रव्य तीन रूप किया ऐसा कहा है।
चारित्रमोहनीयके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। उनमें से कषायवेदनीयके सोलह भेद हैं। जिस क्रमसे उनका क्षय होता है उस क्रम के अनुसार वे भेद इस प्रकार हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान माया लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन । प्रदेशबन्धके अन्तर्गत होनेवाले विभाजनके क्रमानुसार लें तो अनन्तानुबन्धी लोभ माया क्रोध मान, संज्वलन लोभ माया क्रोध मान, प्रत्याख्यान लोभ माया क्रोध मान, अप्रत्याख्यान लोभ माया क्रोध मान, यह क्रम है। इसी क्रमसे इनमें विभाग दिया जाता है। नोकषाय वेदनीयके नौ भेद हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, रति, अरति, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा। आयुकर्मके चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु । नामकर्म पिण्ड प्रकृति और अपिण्ड प्रकृतिके भेदसे बयालीस भेदवाला है-गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आनुपूर्व्य, अगुरुलघुक, उपघात, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, - सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गतिनामकर्म चतुविधमक्कं । नारकतिर्यग्गतिनामकर्ममें दुं मनुष्यदेवगतिनामकर्ममेदितं । जातिनामकर्म पंचविधमक्कुमेकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रोंद्रिय चतुरिद्रियजातिनामकर्ममें दुं पंचेंद्रियजातिनामकर्ममें दिन्तु ।
शरीरनामकर्म पंचविधमक्कं । औदारिक वैक्रियिक आहार तैजस कार्मण शरीरनाम कर्ममेंदिन्तु।
औदारिकादिपंचशरीरंगळिवक्के द्विसंयोगदिभंगंगळ्पदिनय्दप्पुर्वे बुदं पेळ्दपरु :
तेजाकम्मेहि तिए तेजा कम्मेण कम्मणा कम्मं ।
कयसंजोगे चदु चदु चदु दुग एक्कं च पयडीओ ॥२७॥ तैजसकार्मणाभ्यां त्रये तैजसं कार्मणेन कार्मणेन कार्मणं । कृतसंयोगे चतुः चतुश्चतुदुर्चेका वा प्रकृतयः॥
तैजसकामणंगळेरडरोडने। त्रये औदारिक वैक्रियिक आहारकमेब त्रयदोळ् । कृतसंयोगे संयोगं माडल्पडुत्तिरलु । चतुश्चतुश्चतुः प्रकृतयो भवंति नाल्कं नाल्कं नाल्कु प्रकृतिगळप्पुवु। तैजसं कार्मणदोडने संयोग माडल्पडुत्तिरलु द्विप्रकृतिगळप्पुवु । कार्मणदोडने कार्मणं संयोगं माडल्पडुत्तिरलेकप्रकृतियक्कुमित पंचदशप्रकृतिगळगे संदृष्टि रचने यिदु:
तत्र गतिनाम चतुर्विधं-नारकतिर्यग्गतिनाम मनुष्यदेवगतिनाम चेति । जातिनाम पञ्चविधं-एकेन्द्रिय- १५ द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियजातिनाम पञ्चेंद्रियजातिनाम चेति । शरीरनाम पञ्चविधं-औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणशरीरनामेति ।।२६॥ एषां पञ्चशरीराणां भङ्गानाह
औदारिकर्व क्रियिकाहारकत्रये तैजसकार्मणाभ्यां संयोगे कृते चतरश्वतस्रः प्रकृतयः । तद्यथाऔदारिकौदारिक-औदारिकतैजस-औदारिककार्मण-औदारिकतैजसकार्मणाः । एवं वैक्रियिके आहारकेऽपि ज्ञातव्याः । पुनः तैजसकार्मणेन संयोगे कृते तदा तेजसतैजसतैजसकार्मणेति द्वे प्रकृती। पुनः कार्मणं कार्मणेन २० तदा कार्मणकार्मणेत्येका । एवं पञ्चदश भवन्ति । नाम । गतिनामके चार भेद हैं-नारकगतिनाम, तियंचगतिनाम, मनुष्यगतिनाम, देवगतिनाम । जातिनामके पाँच भेद हैं-एकेन्द्रिय जातिनाम, द्वीन्द्रिय जातिनाम, त्रीन्द्रिय जातिनाम, चतुरिन्द्रिय जातिनाम और पंचेन्द्रिय जाति नाम । शरीरनामके पाँच भेद हैं
औदारिक शरीरनाम, वैक्रियिक शरीरनाम, आहारक शरीरनाम, तैजस शरीरनाम और २५ कार्मण शरीरनाम ।।२६।।
इन पाँच शरीरोंके भंग कहते हैं
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीनोंमें तैजस और कार्मणका संयोग करनेपर चार, चार, चार प्रकृतियाँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं-औदारिकऔदारिक, औदारिकतैजस, औदारिककामण, औदारिकतैजसकामेण । इसी प्रकार वैक्रियिक और आहारकमें भी इ. जानना चाहिए। पुनः तैजसका कार्मणसे संयोग करनेपर तैजसतैजस, तैजसकार्मण दो प्रकृति होती हैं। पुनः कार्मणका कार्मणसे संयोग होनेपर एक प्रकृति होती है। इस प्रकार
क-३
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गो० कर्मकाण्डे
औ औ औ । औ ते । औ का ३ । औ ते का
वै वै । वै तै । वै का। | वैते का ४ आ आ आ आ तै | आ। का | आते का ४
। तै का २ का का का इन्ती द्विसंयोगादिजनितपंचदशभंगंगळोळ पुनरुक्तंगळप्प औदारिकौदारिक वैक्रियिकवैक्रियिक आहारकाहारक तैजसतैजस कार्माणकार्मणमें ब द्विसंयोगभंगपंचकर्म बिटु शेषदशभंगंगळं त्रिनवतिनामकम्मंगळोळु कूडुत्तं विरलु व्युत्तरशतं वा यदु पेळ्द नामकर्मयुत्तरप्रकृतिगळप्पुवु।
शरीरवंधननामकम्मं पंचविधमक्कुमौदारिक वैक्रियिक आहारक तैजसकार्मण शरीर बंधननामकर्ममें दिन्तु।
शरीरसंघातनामकर्म पंचविधमक्कुं मौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणशरीरसंघात नामकम्मन दितु।
शरीरसंस्थाननामकम्मं षड्विधमक्कुं। समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मम बुदु न्यग्रोधपरि१° मण्डल स्वाति कुन्ज वामन हुंडशरीर संस्थाननामकर्ममें दितु ।
औ. |
औ
औ
औ ते
औ का
| औ ते
का
| आ आ आ आ ते ' आ का आ ते का । ४
ते ते तं ते का का । का
का एतासु औदारिकौदारिकादयः कार्मणकार्मणान्ताः सदृशद्विसंयोगाः पञ्च पुनरुक्ता इति त्यक्त्वा शेषदशसु विनवत्यां निक्षिप्तासु व्युत्तरं शतं नामकर्मोतरप्रकृतयो भवन्ति ।।
शरीरबन्धननाम पञ्चविध-औदारिकवैक्रियिकाहारकर्तजसकार्मणशरीरबन्धननामेति । शरीरसंघातनाम पञ्चविध-औदारिकवक्रियिकाहारकतैजसकार्मणशरीरसंघातनामेति । शरीरसंस्थानं नाम षड्विधं-समचतुरस्र१५ संस्थान नाम न्यग्रोधपरिमण्डलस्वातिकुब्जवामन हण्डशरीरसंस्थाननाम चेति । शरीराङ्गोपाङ्गनाम त्रिविधं
औदारिकवैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गनामेति ॥२७॥
पन्द्रह भेद होते हैं। इनमें औदारिक औदारिक आदि कार्मणकार्मणपर्यन्त समान दो संयोगी पाँच भेद पुनरुक्त हैं इनको छोड़कर शेष दस भेद तिरानबेमें जोड़नेपर नामकर्म की उत्तर
प्रकृतियाँ १०३ ( एक सौ तीन ) होती हैं। शरीरबन्धननामके पाँच भेद हैं-औदारिक शरीर२० बन्धननाम, वैक्रियिक शरीरबन्धननाम, आहारक शरीरबन्धननाम, तेजस शरीर बन्धन
नाम, कार्मेण शरीरबन्धननाम । शरीर संघात नामके पाँच भेद हैं-औदारिक शरीर संघात नाम, वैक्रियिक शरीर संघात नाम, आहारक शरीरसंघातनाम, तेजस शरीर संघात नाम, कार्मेण शरीर संघात नाम । शरीर संस्थान नामके छह भेद हैं-समचतुरस्रसंस्थाननाम, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम, स्वातिसंस्थान नाम, कुब्जसंस्थान नाम, वामन
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका शरीरांगोपांगनामकर्मत्रिविधमकुंमौदारिकवैक्रियिकाहारशरीरांगोपांगनामकर्ममें दिन्तु ॥
णलया बाहू य तहा णियंबपुट्ठी उरो य सीसो य ।
अद्वैव दु अंगाई देहे सेसा उवंगाई ।।२८॥ नलको बाहू च तथा नितंबपृष्ठे उरश्च शीर्ष च । अष्टव त्वंगानि देहे शेषाण्युपांगानि ।
एरडु काल्गळुमरडु कैगळुमो दु नितंबमुमो दपरभागमुमो दुरस्सु मोंदु शीर्षमुमें विटंगंग- ५ ळप्पुवु। उळिदवेल्लं देहदोळुपांगंगळप्पुवु । संहनननामकर्म षड्विधमकुं। वज्रवृषभनाराचशरीरसंहनननामकर्मम, वज्रनाराच नाराचार्द्धनाराच कोलितासंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनननामकर्ममुमें दितु॥
सेवट्टेण य गम्मइ आदीदो चदुसु कप्पजुगलोत्ति ।
तत्तो दु जुगलजुगले खीलियणारायणद्धोत्ति ॥२९॥ सृपाटिकया च गम्यते आदितश्चतुर्षु कल्पयुगळपथ्यंतं । ततो द्वि युगळयुगळे कोलितनाराचनार्द्ध पय्यंतं ॥
सृपाटिकासंहननदिदं सौधर्मकल्पयुगलं मोदल्गोंडु लांतवयुगल एतं नाल्कु युगलंगलोळ्पुट्टल्पडुगुं। ततो द्वियुगळयुगळे मेले शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारमेंबी द्वियुगळदोळं आनतप्राणत आरण अच्युतमे बी द्वियुगळदोळं क्रदिदं कोलितार्द्धनाराचसंहननंगळिदं पुट्टल्पडुगुं ॥ १५
णवगेवेज्जाणुद्दि सणुत्तरवासीसु जांति ते णियमा ।
तिदुगेगे संघडणे णारायणमादिगे कमसो ॥३०॥ नवग्रैवेयकानुदिशानुत्तरवासिषु यांति ते नियमात् । त्रिद्विकैके संहनने नाराचनादिके क्रमशः॥
नलको पादौ तथा बाहू हस्ती नितम्बः परभागः उरः शीर्ष चेत्यष्टवाङ्गानि । शेषाणि देहे २० उपाङ्गानि भवन्ति । संहनननाम षड्विधं वज्रर्षभनाराचशरीरसंहनननाम वज्रनाराचनाराचार्घनाराचकीलितासंप्राप्तासृपाटिकाशरीरसंहनननाम चेति ॥२८॥
सृपाटिकासंहननेन सौधर्मद्वयाल्लान्तवद्वयपयंतं चतुर्षु यु. लषु उत्पद्यते । तत उपरि युग्मद्वये युग्मद्वये क्रमेण कीलितार्धनाराचसंहननाभ्यामुत्पद्यते ।।२९॥
संस्थान नाम, हुण्ड शरीर संस्थान नाम । शरीरांगपांग नामके तीन भेद हैं-औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिक शरीरांगोपांग नाम, आहारकशरीरांगोपांग नाम ॥२७॥
शरीरमें दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पीठ, उर, सिर ये आठ अंग हैं। शेष उपांग होते हैं। संहनन नामके छह भेद हैं-वर्षभनाराचशरीर संहनन नाम, वज्रनाराचशरीरसंहनननाम, नाराचशरीरसंहनननाम, अर्धनाराचशरीरसंहनननाम, कीलितशरीरसंहनन नाम, असंप्राप्तामृपाटिकाशरीरसंहनन नाम ॥२८॥
सृपाटिकासंहननसे जीव मरकर सौधर्मयुगलसे लान्तवयुगल पर्यन्त चार युगलोंमें उत्पन्न होता है। उससे ऊपर दो युगलों शतारयुगलपर्यन्त कीलितसंहननसे मरकर उत्पन्न होता है, उसके ऊपर दो युगलोंमें आरणअच्युतपर्यन्त अर्धनाराचसंहननसे मरकर उत्पन्न होता है ॥२९॥
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गो० कर्मकाण्डे
नवग्रैवेयकमुं नवानुदिशk पंचानुत्तरमुस बी विमानवासिगोत्रु क्रमदिदं यांति पुटुवरु । ते अवर्गळु । अवर्गळ दवरार दोडे नाराचनादिके त्रिद्विकैकसंहनने नाराचवज्रनाराचवज्रवृषभनाराच ब त्रिसंहननदवर्गळं । बज्रनाराचवज्रभूषभनाराच संहननद्वितयदवर्गळु वज्रवृषभनाराचसंहननमोदनुळळवर्गळु क्रमदिदं पुटुवरु॥
सण्णी उस्संघडणो वज्जदि मेधं तदो परं चावि ।
सेबड़ादीरहिदो पणपणचदुरेगसंघडणो ॥३१॥ संज्ञी षट्संहननो व्रजति मेघां ततः परं चापि । सृपाटिकादिरहितः पंचपंचचतुरेकसंहननः ।
संज्ञिजीवं षट्संहननयुतनु मेघां व्रजति मेधेयं तृतोपपृथ्वियं पुगुगुं । तृतीयपत्रीपय्यंत पुटुगुम बुदत्यं । ततः परं चापि अल्लिद सुंदयुमा संज्ञिजीब सृपाटिकासंहननादिरहितं कोलित१० संहननपर्यंतमादै, संहननंळिंदमरिष्ट पय॑तमादग्दुं पृथ्विगळोळपुटुगुं। अर्द्धनाराचपयतमाद
नाल्कुं संहननंगळनुळळ संज्ञिजीवं मघविपथ्यंतमादारुं पृथ्विाळोन्युट्टुगुं। वज्रवृषभनाराचसंहननयुतं संज्ञिजीवं माघविपर्यंतमादेठं पृथ्विगळोळपुट्ठगुं। ५ १ घ। ६
२ वं। ६
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१।० १।० ०।१ ०।१
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नाराचादिना संहननत्रयेण वज्रनाराचादिना द्वयेन वज्रर्षभनाराचैकेन चोपलक्षिताः ते जीवाः क्रमशः नवग्रैवेयकनवानुदिशपञ्चानुतरविमानवासिषु उत्पद्यन्ते ।।३०।।
संज्ञो जीवः षट्संहननः मेघां व्रजति-तृतीयपृथ्वोपर्यन्त मुत्पद्यते इत्यर्थः । ततः परं चापि सृपाटिकादिरहितः कीलितान्तपञ्चसंहननः अरिष्टान्ताचपृथिवीषु उत्पद्यते । अर्धनाराचान्तचतुःसंहननः मघव्यन्तषट्पृथ्वीषु उत्पद्यते । वज्रर्षभनाराचसंहननः माघव्यन्तसप्तपृथ्वीषु उत्पद्यते ।।३१।।
नाराच आदि तीन संहननोंसे मरे जीव नौद्मवेयकपर्यन्त उत्पन्न होते हैं। वननाराच आदि दो संहननोंसे मरे जीव नौ अनुदिशोपर्यन्त उत्पन्न होते हैं। तथा वर्षभ२० नाराचसे मरे जीव पाँच अनुत्तर विमानवासी देवपर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।॥३०॥
छह संहननसे युक्त संज्ञी जीव यदि मरकर नरकमें उत्पन्न हो तो मेधा नामक तीसरी पृथ्वी पर्यन्त उत्पन्न होता है। मृपाटिका रहित कीलित पर्यन्त संहननवाला जीव मरकर अरिष्टा नामक पाँचवीं पृथ्वीपर्यन्त उत्पन्न होता है। अर्धनाराचपर्यन्त चार संहननवाला
जीत्र मघवी नामक छठी पृथ्वी पर्यन्त उत्पन्न होता है। एक वर्षभनाराच संहननका २५ धारी जीव माघवी नामकी सातवीं पृथ्वी पर्यन्त उत्पन्न होता है ॥३१॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अंतिमति संघडण सुदओ पुण कम्मभूमि महिलाणं । आदिम सिंघडणं णत्थित्ति जिणेहि णिद्दिहं ॥ ३२ ॥ अन्त्यत्रयसंहननस्योदयः पुनः कर्मभूमिमहिलानां । आद्यत्रय संहननस्योदयो नास्तीति
जिनैर्निद्दिष्टं ॥
कर्मभूमिसंजातमहिला जनंगळगे अर्द्धनाराचकोलिता संप्राप्तसृपाटिका संहनन में ब संहननत्रित - ५ योदय मल्लदुळिदाद्य संहनन त्रितयोदय मिल्ले दु जिनस्वामिगळदं पेळल्पदुदु ॥
वर्णनामक पंचविधमक्कुं कृष्ण नीलरुधिरपीत शुक्लवर्णनामकम्मं मं दितु । गंधनामकम् द्विविधमक्कुं सुगंधदुर्गधनामकर्म में दितु ।
रसना पंचविधमक्कु तिक्तकटुकषायां मधुरनामकम्मं में दितु ॥ स्पर्शनामकर्म्ममष्टविधमक्कुं कर्कश गुरु मृदु लघु रूक्षस्निग्धशीतोष्णस्पर्श नामकर्म में दितु । आनुपूर्वीनामकम्मं १० चतुविधक्कं नरकतिर्य्यग्गतिप्रायोग्यानुपूव्वनाम कर्म में दितु मनुष्यदेवगतिप्रायोग्यानुपून्विनामकमुदितु ॥
२१
अगुरुकलघुक उपघातपरघात उच्छ्वास आतप उद्योतनामकम् मे हुँ । विहायोग तिनामकम्मं द्विविधमक्कु प्रशस्त विहा योगतिनामकर्म में दुं अप्रशस्त विहायोगतिनामकम्मं में दितु । त्रस बादरपर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर शुभसुभग सुस्वरआदेययास्कीति निर्माण तीर्थंकर नामकर्म्म- १५ मेदुं । स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारणशरीर अस्थिर अशुभ दुब्र्भगदुःस्वर अनादेय अयशस्कीति
कर्मभूमिस्त्रीणां अर्धनाराचाद्यन्त्यत्रिसंहननोदय एव नाद्यसंहननत्रयोऽस्तीति जिनैर्निर्दिष्टम् ।
वर्णनाम पञ्चविधं - कृष्णनीलरुधिर पीतशुक्लवर्णनामेति । गन्धनाम द्विविधं सुगन्धदुर्गन्धनामेति । रसनाम पञ्चविधं - तिक्तकटुकषायाम्लमधुरनामेति । स्पर्शनामाष्टविधें कर्कशमृदुकगुरु लघु रूक्षस्निग्धशीतोष्णस्पर्शनामेति । आनुपूर्वीनाम चतुर्विधं नरकतिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम मनुष्यदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनामेति च । २० अगुरुकलघुकोपघातपरघातोच्छ्वासातपोद्योतनामेति । विहायोगतिनाम द्विविधं प्रशस्तविहायोगतिनाम अप्रशस्तविहायोगतिनाम चेति । त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येक शरीर स्थिर शुभ सुभगसुस्वरा देययशः कीर्ति निर्माणतीर्थकरनामेति । स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरास्थि राशुभदुर्भगदुःस्व रानादेयायशः कीर्तिनामेति नामकर्मोत्तर प्रकृतयस्त्रिनवति
कर्मभूमिat स्त्रियोंके अर्धनाराच आदि अन्तिम तीन संहननोंका उदय होता है, आदिके तीन संहनन नहीं होते, ऐसा जिनदेवने कहा है । वर्णनाम पाँच प्रकार है-कृष्ण, २५ नील, लाल, पीत और शुक्ल वर्णनाम । गन्धनाम दो प्रकार है - सुगन्ध और दुर्गन्धनाम | रसनाम पाँच प्रकार है --तीता, कटुक, कषाय, खट्टा और मधुरनाम । स्पर्शनाम आठ प्रकार है - कर्कश, कोमल, गुरु, लघु, रूक्ष, स्निग्ध, शीत, उष्णनाम । आनुपूर्वीनाम चार प्रकार है - नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम । अगुरुलघुकनाम, उपघातनाम, परघातनाम, ३० उच्छ्वासनाम, आतपनाम, उद्योतनाम । विहायोगतिनाम दो प्रकार है- प्रशस्तविहायोगतिनाम, अप्रशस्त विहायोगतिनाम । त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, शुभनाम, सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशस्कीर्तिनाम, निर्माणनाम, तीर्थकर - नाम | स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीर नाम, अस्थिरनाम, अशुभनाम, दुर्भगनाम, दुःखरनाम, अनादेयनाम, अयशः कीर्तिनाम । इस प्रकार नामकर्मकी उत्तर ३५
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२२
गो० कर्मकाण्डे नामकर्ममेदितु नामकर्मदुत्तरप्रकृतिगळु तो भत्तपूरुं नूर मूरु मेणबु ॥
मुलुण्हपहा अग्गी आदावो होदि उग्रहसहियपहा ।
आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोओ ।।३३॥ मूलोष्णप्रभोऽम्मिः आतपो भवत्युष्णसहितप्रभः । आदित्ये तिरश्चि उगोलप्रभः खलूद्योतः॥
सूलदोलुष्णप्रभेयनुळ्ळ्दग्नियक्कुं। उष्णसहितप्रभेयनुळ्ळु दातपमक्कुनलुनाश्मिदिनदोळ्पुट्टिद बादरपर्याप्तपृथ्वोकायतिय्यंचरोळेयक्कुं। उष्णरहितप्रभयनुयुदुद्योतमय स्फुटमागि॥
गोत्रकम द्विविधमक्कं उच्चनीचगोत्रकम्मम दितु । अंतरायकम्मं पंचविधमकं । दान लाभ भोगोपभोगवीतिरायकम्र्म में दितु आत्मप्रदेशस्थितकर्मभावयोग्यंगळप्प कार्मणवर्गणगळे अदिभादिदमुपश्लेषं बंध'दुपेळल्पटुतु। भाजनविशेषदोन्प्रक्षिप्त विविधरसबीजपुष्पफलंगळग मदिराभावदिदं परिणाम, तक्कुमंते कार्मणपुद्गलंगळगेयुं योगकषायनिमितदिदं कर्मभावदिद परिणाममरियल्पडुगुं। ओंदे आत्मपरिणामदिदं कैकोळुत्तिई पुद्गलंगछु ज्ञानावरणाद्यनेकभेदंगळरियल्पडुवुवेतोगळु सकृदुपयुक्तान्नमा दक्केये रसरुधिरादिपरिणाममेंतंते ।
यिन्नुत्तरप्रकृतिगळगे निरुक्ति पेळल्पडुगुमदें तेंदोडे :
१५ स्व्युत्तरशतं वा भवन्ति ।।३२।।
मूले उष्णप्रभः अग्निः, उष्णसहितप्रभः आतपः स च आदित्यबिम्बोत्पन्नबादरपर्याप्तपृथ्वीकायतिरश्चि भवति । उष्णरहितप्रभः उद्योतः स्फुटम् । गोत्रकर्म द्विविधं उच्चनीचगोत्रभेदात् । अन्तरायकर्म पञ्चविधदानलाभ भोगोपभोगवीर्यान्तरायभेदात् । आत्मप्रदेशस्थितानां कर्म भावयोग्यानां कामणवर्गणानां अविभागेन उपश्लेषः बन्धः। यथा भाजनविशेषप्रक्षिप्तविविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावः स्यात् तथा कार्मणपद्गलानां योगकषायनिमित्तेन कर्मभावो ज्ञातव्यः । एकेनैव आत्मपरिणामेन स्वीक्रियमाणपुद्गलाः ज्ञानावरणाद्य नेकभेदाः स्युः सकृदुपयुक्तस्यान्नस्य एकस्यैव रसरुधिरादिपरिणामवत् । इदानीमुत्तरप्रकृतीनां निरुक्तिरुच्यते
२०
प्रकृतियाँ तिरानबे अथवा एक सौ तीन होती हैं ।।३२।।
जो मूलमें उष्ण हो वह अग्नि है और जिसकी प्रभा उष्ण हो वह आतप है। आतप २५ नाम कर्मका उदय सूर्यके बिम्बमें उत्पन्न बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक तियचजीवमें होता है।
जिसकी प्रभा भी उष्ण न हो वह उद्योत है। गोत्रकर्म दो प्रकार है-उच्चगोत्र, नीचगोत्र । अन्तरायकर्म पांच प्रकार है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । आत्माके प्रदेशों में स्थित कर्मरूप होनेके योग्य कामणवर्गणाओंका भेदरहि
सम्बन्ध बन्ध है। जैसे विशेष पात्र में डाले गये विविध रस, बीज, पुष्प, फलोंका मदिरारूप ३० परिणाम होता है उसी तरह योग और कषायके निमित्तसे कार्मणपुद्गलोंका कर्मरूप परिणाम
जानना। एक ही आत्मपरिणामसे ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेदरूप हो जाते हैं जैसे एक बार में खाये गये एक ही अन्नका रस रुधिर आदि रूपसे परिणाम होता है । अब उतरप्रकृतियोंकी निरुक्ति कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२३
५
मतिज्ञानमावृणोत्याव्रीयतेऽनेनेति मतिज्ञानावरणं । श्रुतज्ञानमावृणोत्याव्रीयतेऽनेनेति श्रुतज्ञानावरणं । अवधिज्ञानमावृणोत्याव्रीयतेऽनेनेति अवधिज्ञानावरणं । मनःपर्य्ययज्ञानमावृणोत्यानीयतेऽनेनेति मनः पथ्यंयज्ञानावरणं । केवलज्ञानमावृणोत्याव्रीयतेऽनेनेति केवलज्ञानावरणमिति यिल्लि चोदिसल्पदु ॥ अभव्यंगे मन:पर्ययज्ञानशक्तियं केवलज्ञानशक्तियुमुंटो मेणिल्लभो एसलानुमुंटपोडे तज्जीवक्क भव्यत्वाभावमक्कुमेत्तलानु मिल्लमक्कुमप्पोडे यिल्लि आवरणद्वयकल्पने व्यर्थमेदितु । इदक्कुत्तरं पेळल्प डुगुम देतें दोडादेशवचनमप्पुदरिनिल्लि दोषेमिल्लेकेंदोडे द्रव्यात्थदेशान्मनः पय्र्ययकेवलज्ञानशक्ति संभवमप्युदरिदं । पर्य्यायार्थादेशदत्तणिदं तच्छक्त्यभावमक्कुमेरालानुमितु भव्याभव्यविकल्पसंभविसदिद्दोंडे उभयदोळं तच्छक्तिसद्भावमागि बकुमदुकारणमागि शक्ति भावाभावापेक्षेयिदं भव्या भव्य विकल्पं पेळल्पडदु । मत्तेंतु पेळल्पडुगुमेंदोडे बहिर्व्यक्तिसद्भावासद्भावापेक्षेयिदं सम्यग्दर्शनादिव्यक्ति यावंगे संभविसुगुमा जीवं भव्यनक्कुमावंगे मत्ते तत्सम्यक्त्वाभिव्य- १० क्तियागदा जीवनभव्यतेंद्र पेळल्पडुगुं । सुवर्णांधपाषाणगळंते आवृणोत्याव्रोयतेनेऽनेत्यावरणं । चक्षुर्द्दर्शनावरणमचक्षुर्द्दर्शनावरण मवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति ।
स्वप्ने या वीर्य्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्यायतेरनेकार्थत्वात् स्वप्नार्थ इह गृह्यते । गृद्धेरपि दीप्तिर्गृह्यते स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदुदयादातं रौद्रं च बहु च कर्मकरणं
मतिज्ञानमावृणोति आव्रियतेऽनेनेति मतिज्ञानावरणं । श्रुतज्ञानमावृणोति आव्रियतेऽनेनेति श्रुतज्ञाना- १५ वरणं । अवधिज्ञानमावृणोति आव्रियतेऽनेनेति अवधिज्ञानावरणं । मन:पर्ययज्ञानमावृणोति आव्रियतेऽनेनेति मन:पर्ययज्ञानावरणं । केवलज्ञानमावृणोति आव्रियतेऽनेनेति केवलज्ञानावरणं । ननु अभव्यस्य मनःपर्यय केवलज्ञानशक्तिरस्ति न वा यद्यस्ति तदा तस्याभव्यत्वं न स्यात् । यदि नास्ति तदा तत्रावरणद्वयकल्पना वैयर्थ्यमिति ? तन्न | द्रव्यार्थादेशेन तच्छक्तिसद्भावात् पर्यायार्यादेशेन व्यक्तयसंभवात्तदुक्तदोपानवकाशात् । अन्धा स्वर्णवत् ।
आवृणोति आव्रियतेऽनेनेति आवरणं चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणं चेति । स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्यायतेरनेकार्थत्वात् स्वप्नोऽर्थं इह गृह्यते ।
मतिज्ञानका आवरण करता है या जिससे मतिज्ञान आवृत किया जाता है वह मतिज्ञानावरण है । जो श्रुतज्ञानका आवरण करता है या जिसके द्वारा श्रुतज्ञान आवृत होता है वह श्रुतज्ञानावरण है । जो अवधिज्ञानका आवरण करता है या जिसके द्वारा २५ अवधिज्ञान आवृत होता है वह अवधिज्ञानावरण है । जो मन:पर्ययज्ञानका आवरण करता है। या जिसके द्वारा मन:पर्ययज्ञान आवृत होता है वह मन:पर्ययज्ञानावरण है । जो केवलज्ञानका आवरण करता है या जिसके द्वारा केवलज्ञान आवृत किया जाता है वह केवलज्ञानावरण है । शंका-अभव्य के मन:पर्यय और केवलज्ञान शक्ति है या नहीं ? यदि है तो वह अभव्य नहीं हो सकता । यदि नहीं है तो उसके दो आवरण मानना व्यर्थ है ?
समाधान- द्रव्यार्थिक-नयसे अभव्यमें दोनों ज्ञानशक्तियाँ विद्यमान हैं । किन्तु पर्यायार्थिक नयसे उन शक्तियों की व्यक्ति असम्भव होनेसे उक्त दोषोंको स्थान नहीं है । जैसे अन्धपाषाण में द्रव्यदृष्टिसे स्वर्णशक्ति है, किन्तु वह व्यक्त नहीं हो सकती । जो आवरण करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण है अतः चक्षुदर्शनावरण, , अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण रूपसे चार दर्शनोंके चार दर्शनावरण ३५ १. म मिल्लमदेंतेंदोडे ।
२०
३०
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२४
गो० कर्मकाण्डे
सा स्त्यानगृद्धि । इह स्यानगृद्धयादिभिर्देशनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यतयितिस्त्यानगृद्धिईर्शनावरणमिति । यदुदयान्निद्रायाः उपर्युपरि वृत्तिस्तन्निद्रानिद्रादर्शनावरणं । यदुदयाद्या क्रिया आत्मानं पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचलाप्रचलादर्शनावरणं। शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका सैव पुनःपुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचलेत्यर्थः। यदुदयान्मदखेदक्लमव्यपनोदात्थं स्वापस्तन्निद्रादर्शनावरणं। यदुदयाद्या क्रिया आत्मानं प्रचलयति तत्प्रचलादर्शनावरणमिति ॥
यदुदधाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्वातं। तद्वेदयति वेद्यत इति सातवेदनीयं यदुदयफलं दुःखमनेकविधं तदतात। तद्वेदयति वेद्यत इत्यसातवेदनीयमिति ॥ दर्शनमोहनीयं
चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयमिति मोहनीयं चतुम्विधं । तत्र दर्शनमोहनीयं १० सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वमिति त्रिविधं । तबंधं प्रत्येकविधं सत् उदयसत्कर्मापेक्षया
त्रिविधमवतिष्ठते । यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुखो हिताहितविचागृद्धरपि दीप्तिर्गृह्यते । स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदुदयादात रौद्रं च बहु च कर्मकरणं सा स्त्यानगृद्धिः । इह स्त्यानगृद्धयादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते इति स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणमिति । यदुदयान्नि
द्राया उपर्युगरि वृत्तिः तन्निद्रानिद्रादर्शनावरणं । यदुदयात् या क्रिया आत्मानं पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचला . १५ प्रचलादर्शनावरणं । शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगावविक्रियासूचिका [ सैव पुनः पुनरावर्तमाना
प्रचलाप्रचलेत्यर्थः ] । यदुदयात मदखेदवलमव्यपनोदाथं स्वापः तन्निद्रादर्शनावरणं । यदुदयात. या क्रिया आत्मानं प्रचलयति तत्प्रचलादर्शनावरणमिति ।
__यदुदयादेवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिः तत्तातं; तद्वेदयति वेद्यते इति सातवेदनीयं । यदुदयफलं दुःखमनेकविधं तदसातं तद्वेदयति वेद्यते इत्यसातवेदनीयमिति । २०
दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधं । तत्र दर्शनमोहनीयं सम्यक्त्वं-मिथ्यात्वं-सम्यग्मिथ्यात्वमिति त्रिविधम् । तद्बन्धं प्रति एकविध सत् तदेव मिथ्यात्वं सत्कर्मा
हैं। सोते में जिसके द्वारा शक्ति विशेष प्रकट हो वह स्त्यानगृद्धि है। 'स्त्यायति'के अनेक अर्थ होनेसे यहाँ शयन अर्थ लिया है । और गृद्धिका अर्थ दीप्ति लिया है। अतः 'स्त्यान' यानी
शयनमें जिसके उदयसे आत्मा दीप्त होती है, आरौिद्ररूप बहु कर्म करती है वह स्त्यानगृद्धि २५ है यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके साथ दर्शनावरणका समान अधिकरण रूपसे सम्बन्ध किया
जाता है कि स्त्यानगृद्धि ही दर्शनावरण है। जिसके उदयसे निद्रापर निद्रा आती है वह निद्रानिद्रादर्शनावरण है। जिसके उदयसे जो क्रिया आत्माको पुनः-पुनः प्रचलित करती है वह प्रचलाप्रचलादर्शनावरण है । यह शोक, मेहनत, नशा आदिसे होती है, वैठे हुए भी मनुष्यके
नेत्र और गात्रमें विकारकी सूचक है । इसकी पुनः पुनः आवृति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके ३० उदयसे मद, खेद, थकान दूर करनेके लिए सोया जाता है वह निद्रादर्शनावरण है। जिसके
उदयसे जो क्रिया आत्माको प्रचलित करती है वह प्रचलादर्शनावरण है। जिसके उदयसे देवादि गतियोंमें शारीरिक और मानसिक सुख की प्राप्ति हो वह साता है उसका जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा उसका वेदन हो वह सातवेदनीय है । जिसके उदयका फल अनेक
प्रकारका दुख है वह असाता है उसका जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा उसका वेदन हो ३५ वह असात वेदनीय है। मोहनीयके चार भेद हैं-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषाय
वेदनीय, नोकषायवेदनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्
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कर्णाटवृति जीवतत्त्वप्रदीपिका रासमर्थो मिथ्याष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वं । तदेव मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासिन्येनाऽवस्थितमात्मानं श्रद्धधानं न निरुणद्धि तद्वदयमानः सन् पुरुषः सम्यग्दृष्टिरभिधीयते । तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिषच्छुद्धस्वरसं स्वशक्तियुतं तदुभयमित्याख्यायते सम्यग्मिथ्यात्वमिति यावत् । यस्योदयादात्मनोऽशुद्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमित्रपरिणामय भयात्मको भवति परिणाम इति ॥
चारित्रमोहनीयं द्विविधं चरति चर्यते अनेन चरणमात्र वा चारित्रं। तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं । तद्विविधं कषायवेदनीय-नोकषायवेदनीयभेदात् । कषंति हिसंतीति कषायाः। ईषत्कषायाः नोकषायाः इति । तत्र कषायवेदनीयं षोडशविधं । कुतोऽनंतानुबंध्यादिविकल्पात् । तद्यया कषायाः क्रोधमानमायालोभाः । तेषां चतस्रोऽवस्थाः अनंतानुबंधिनः अप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलनं मायासंज्वलनं लोभसंज्वलनं चेति ॥ १०
तत्रानन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यात्वमनन्तं। तवनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमाया
पेक्षया विविधमवतिष्ठते । यस्योदयात सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङमखः तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्या दृष्टिपति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धरसं यदा औदासीन्येनावस्थितमात्मानं श्रद्धानं न निरुणद्धि तद्वदयमानः सन पुरुषः सम्यग्दष्टिरभिधीयते । तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्समोषच्छुद्ध रसं स्वशक्तियुतं तदुभयमित्याख्यायते-सम्यग्मिथ्यात्वमिति १५ यावत् । यस्योदयात आत्मनः अशद्धशुद्धमदकोद्र वौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति ।
चारित्रमोहनीयं द्विविधं चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्र वा चारित्रं तन्मोह्यति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयम् । तद्विविधं कषायवेदनीयनोकषायवेदनीयभेदात । कषन्ति हिंसन्ति कषायाः। ईषत्कषाया नोकषाया इति । तत्र कषायवेदनीयं षोडशविषम । कुतः ? अनन्तानुबन्ध्यादिविकल्पात् । तद्यथाकषायाः क्रोधमानमायालोभा., तेषां चतस्रोऽवस्थाः अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः अप्रत्याख्याना- २० वरणाः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलनं मायासंज्वलनं लोभसंज्वलनं चेति । तत्र अनन्तसंसार
मिथ्यात्व। यह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकार होनेपर भी उदय और सत्ताकी अपेक्षा तीन प्रकार है। जिसके उदयसे सर्वज्ञकथित मागसे विमुख, तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रति उत्सुकतारहित, तथा हित-अहितके विचारमें असमर्थ मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व है। वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामके द्वारा उसका रस रोक दिया जाता है और उदासीनतासे २५ अवस्थित हो आत्माके श्रद्धानको नहीं रोकता तो वह सम्यक्त्व कहलाता है। उसका वेदन करनेवाला मनुष्य वेदकसम्यग्दृष्टि कहलाता है। जैसे धोनेसे कोदोंकी मदशक्ति कुछ क्षीण और कुछ अक्षीण होती है उसी तरह मिथ्यात्वको कुछ शक्ति शुद्ध हो और कुछ बनी रहे तब उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। उसके उदयसे आत्माके कुछ शुद्ध कुछ अशुद्ध कोदोंके भातके खानेपर होनेवाले मिश्रपरिणामकी तरह उभयरूप परिणाम होते हैं। जो आचरण करता है ३० या जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण मात्र चारित्र है। उसे जो मोहित करता है या जिसके द्वारा वह मोहित किया जाता है वह चारित्रमोहनीय है। उसके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । जो कषति अर्थात् हिंसा करती है वह कषाय है। ईषत् कषाय नोकषाय है। उनमें से कषायवेदनीयके सोलह भेद हैं। वह इस प्रकार हैंकषाय क्रोध मान माया लोभ हैं। उनकी चार अवस्थाएँ हैं-अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्याना- ३५ वरण, प्रत्याख्यानावरण, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन ।
क-४
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गोकर्मकाण्डे
लोभाः। यदुदयादेशविरति संयमासंयमाख्यामल्पालपि क न शक्नोति तदप्रत्याख्यानावरणम् । तभेदाः क्रोधमानमायालोमाः। प्रत्याख्यानं सकलसंधमत्तमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमाः। संशब्दः एकीमावे वर्तते संघभेन सहावत्यानात् एकीभूत्मा वन्ति संयमो वा
ज्वलत्येषु सत्स्वपीलि संज्वलमाः मोधतानमायालोभाः। त एते समुदिताः षोडश कराया भवन्ति । ५ ईषत्कषायाः नोकषायास्तान् वेश्यन्ति वेद्यन्ते एभिरिति नोकषायवेदनीयानि नवविधानि ।तन यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् । यहुदयाद्देशादिषु औत्सुक्यं सा रलिः। अरतिस्तद्विपरीबर्थः । यद्विपाकात् शोवर्मल शोकः । यदुवायुगातयन् ॥ यदयादात्मदोषालयकोषम्य धारण सा जुगुप्सा ॥ यदुदयात्रैवान्तावाल प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः ॥ वस्योदयातनाल भावानास्कंदति
स पुंवेदः ॥ यदुदयान्नासकान् भाषानुपा जति स नपुंसकावेदः । नरकादि अवधारणाय एतीत्यायुः। १. तन्नारकादिभेवाच्चतुविधम् । तत्र नरकादिषु भवसंबन्धेनाअषो व्यपदेशः मियते। बाजरके भवं
नारकमायुः। तिर्यग्योनिषु भवं त्र्यम्योनम् । मनुष्येषु भवं भानुष्यं देवेषु भवं दैनपिति ।।
कारणत्वात् मिथ्यात्वमनन्तं तदनुबन्धिनः-अनन्तानुबन्धितः क्रोधमानमायालोभाः । यदुदयात् देशविरति संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्नोति तदप्रत्याख्यानांवरणं तद्भेदाः क्रोधमानमायालोभाः। प्रत्याख्यानं
सकलसंयमः तमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभा:! सम् शब्दः, एकीभावे वर्तते संयमेन १५ सहावस्थानात् एको भूत्वा ज्वलन्ति संयमो वा ज्वलति एषु सत्स्वपोति संज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाः त एते समुदिताः षोडश कषाया भवन्ति ।
ईषत्कषाया नोकषायाः तान् वेश्यन्ति वेद्यन्ते एभिरिति नोकपायवेदनीयानि नवविधानि । तत्र यस्योदयात् हास्याविर्भाव; तद्धास्यम् । यदुदयाद्देशादिषु औत्सुक्यं सा रतिः । अरतिस्तद्विपरीता । यद्विगाकात शोचनं स शोकः । यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम् । यदुदयात् आत्मदोषसंवरणं अन्यदोषस्य धारणं सा जुगुप्सा । यदुदयात् स्त्रैणान् भावान् प्रतिपद्यते स स्त्रावेदः । यस्योदयात् पौंस्नान् भावान् आस्कन्दति स पंवेदः । यदुदयात् नापुंसकान् भावान् उपव्रजति स नपुंसकवेदः ।
___नारकादिभवधारणाय एतीत्यायुः तन्नारकादिभेदाच्चतुर्विधम् । तत्र नरकादिषु भवसंबन्धेन आयुषो
अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यात्वको अनन्त कहते हैं उसके बाँधनेवाले अनन्ता
नुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ हैं। जिसके उदयले संयमासंयम नामक देशविरतिको थोड़ा २५ सा भी करने में असमर्थ होता है वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ है। प्रत्या
ख्यान कहते हैं सकलसंयमको। उसे जो आवरण करती हैं वे प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मानमाया-लोभ हैं। 'सम्' शब्द का अर्थ एकीभाव है। संयम के साथ एकमेक रूपसे रहकर जो ज्वलित हों अथवा जिनके रहते हुए भी संयम ज्वलित हो वे संज्वलन क्रोध मान माया लोभ
हैं। ये सब मिलकर सोलह कषाय हैं । ईपत् कपायको नोकषाय कहते हैं। उनका जो वेदन ३० कराते हैं या जिनके द्वारा उनका वेदन हो वे नोकषायवेदनीय नो भेदरूप हैं। उनमें से जिसके
उदयसे हास्य प्रकट हो वह हास्यवेदनीय है। जिसके उदयसे देशादिमें उत्सुकता हो वह रति है। उससे विपरीत अरति है। जिसके उदयसे शोक हो वह शोक है। जिसके उदयसे उद्वेग हो वह भय है। जिसके उदयसे अपने दोषों को ढाँके और दूसरों के दोष प्रकट करे
वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रियों जैसे भाव हों वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे ३५ पुरुषों जैसे भाव हों वह पुरुषवेद है। जिसके उदयसे नपुंसक भाव हों वह नपुंसकवेद है।
नारक आदि भव धारणके लिए गमन करना आयु है। उसके चार भेद हैं। नरक आदिमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
नरकेषु तीव्रशीतोष्ण वेदनेषु दीग्धंजीवनं नारकमायुरित्येवं शेषेष्वपि ॥
पिण्डा पिण्डभेदाद्विचत्वारिंशद्विधं नाम । तत्र यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः । सा चतुव्विधा । नरकगतिः तिर्व्यग्गतिर्मनुष्यतिर्देवगतिरिति । तत्र यन्निमित्तमात्मनो नारकपर्यायस्तन्नारकगति नाम । यन्निमित्तमात्मनस्तिर्यग्भावस्तत्तिर्य्यग्गतिनाम । यन्निमित्तमात्मनो मनुष्यपर्य्यायस्तन्मनुष्यगतिनाम । यन्निमित्तमात्मनो देवपर्य्यायस्तद्देवगतिनाम । तासु नरकादिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतार्थात्मा जातिस्तन्निमित्तं जातिनाम । तत्पञ्चविधं एकेंद्रियजातिनाम द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम पंचेंद्रियजातिनाम चेति । यडुदयादात्मा एकेंद्रिय इति शब्दयते तदेकेंद्रियजातिनाम । यदुदयादात्मा द्वींद्रिय इति चोच्यते तद्द्वीद्रियजातिनाम । यदुदयफलं श्रींद्रियत्वं तत्त्रींद्रियजातिनाम । यस्योदयाज्जीवश्वतुरिद्रिय इति वर्ण्यते तच्चतुरिद्रियजातिनाम । यदुदयादात्मा पंचेंद्रिय इति चोच्यते तत्पंचेंद्रियजातिनाम || यदुदयादात्मनः
व्यपदेशः क्रियते, वा नरकेषु भवं नारकमायुः । तिर्यग्योनिषु भवं तैर्यग्योनम् । मनुष्ययोनिषु भवं मानुष्यम् । देवेषु भवं दैवमिति । नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु दीर्घजीवनं नारकमायुरित्येवं शेषेष्वपि ।
२७
पिण्डा पिण्डभेदाद्विचत्वारिंशद्विधं नाम । तत्र यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः । सा चतुविधा - नरकगतिः तिर्यग्गतिः मनुष्यगतिः देवगतिरिति । तत्र यन्निमित्तमात्मनो नारकपर्यायः तन्नारकगतिनाम । यन्निमित्तं आत्मनः तिर्यग्भवः तत्तिर्यग्गतिनाम । यन्निमित्तमात्मनो मनुष्यपर्यायस्त- १५ न्मनुष्यगतिनाम । यन्निमित्तमात्मनो देवपर्यायः तद्देवगतिनाम |
भव के सम्बन्धसे आयुका व्यवहार किया जाता है । नरकमें होनेवाली नारकाय है, तिर्यंचयोनि में होनेवाली तिर्यंचाय है । मनुष्ययोनि में होनेवाली मनुष्यायु है । देवोंमें होनेवाली देवा है। तीव्र शीत-उष्णकी वेदनावाले नरकों में दीर्घकाल तक जीना नरकायु है । इसी तरह शेष में भी जानना ।
५
तासु नरकादिगतिषु अव्यभिचारिणा सादृश्येन एकीकृतार्थात्मा जातिः तन्निमित्तं जातिनाम | तत्पञ्चविधं एकेन्द्रिय जातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनाम चेति । यदुदयात् आत्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । यदुदयात् आत्मा द्वीन्द्रिय इत्युच्यते तद्वन्द्रिय जातिनाम । यदुदयफलं त्रीन्द्रियत्वं तत्त्रीन्द्रियजातिनाम । यस्योदयाज्जीवश्चतुरिन्द्रिय इति २० वर्ण्यते तच्चतुरिन्द्रियजातिनाम । यदुदयात् आत्मा पञ्चेन्द्रिय इत्युच्यते तत् पञ्चेन्द्रियजातिनाम ।
१०
पिण्ड और अपिण्डके भेदसे नामकर्मके बयालीस भेद हैं। जिसके उदयसे आत्मा भवान्तरमें जाता है वह गति है । उसके चार भेद हैं- नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति । जिसके निमित्तसे आत्माकी नारकपर्याय हो वह नरकगति नाम है। जिसके निमित्तसे आत्मा की तिर्यंचपर्याय हो वह तिर्यग्गतिनाम है। जिसके निमित्तसे आत्माकी मनुष्य पर्याय हो वह मनुष्यगतिनाम है । जिसके निमित्तसे आत्माकी देवपर्याय हो ३० वह देवगतिनाम है । उन नरकादि गतियोंमें अव्यभिचारी समानतासे एकरूप किये गये जीव जाति हैं । उसमें निमित्त जातिनाम है। उसके पाँच भेद हैं- एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रिय जातिनाम, चतुरिन्द्रिय जातिनाम, पंचेन्द्रियजाति: नाम । जिसके उदयसे आत्मा. एकेन्द्रिय कहा जाये वह एकेन्द्रिय जातिनाम है। जिसके उदयसे आत्मा द्वीन्द्रिय कहा जाये वह द्वीन्द्रिय जातिनाम है। जिसके उदयका फल त्रीन्द्रिय- ३५ है वह त्रीन्द्रियजातिनाम है। जिसके उदयसे जीव चतुरिन्द्रिय कहा जाता है, वह
२५
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गो० कर्मकाण्डे
शरीरनिर्वृत्तिस्तच्छरीरनाम । तत्पंचविधं औदारिकशरीरनाम, वैक्रियिकशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तेजसशरीरनाम, कार्म्मणशरीर नाम चेति ॥ यदुदयादात्मनः औदारिकशरीरनिर्वृत्तिस्तवौवारिकशरीरनाम । यदुदयाद्वै क्रियिकशरीरनिर्वृत्तिस्तद्वै क्रियिकशरीरनाम । यवुदयादाहारकशरीरनिर्वृतिस्तदाहारकशरीरनाम । यस्योदयात्तैजसशरीरनिर्वृत्तिस्तत्तैजसशरीरनाम । यदुदयादात्मनः ५ कार्मणशरीरनिर्वृत्तिस्तत्कार्मणशरीरनाम ॥
२८
शरीरनामकम्र्मोदयवशादुपात्तानामाहारवर्गणायातपुद्गलस्कंधानामन्योन्यप्रदेश सश्लेषणं यतो भवति तद्बन्धननाम । यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवर विरहितानामन्योन्य प्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम । यदुदयादौदा रिकादिशरीर कृति निर्वृत्तिर्भवति तत्संस्थाननाम | तत् षोढा विभज्यते । समचतुरस्रसंस्थाननाम न्यग्रोधपरिमंडल संस्थाननाम स्वातिसंस्थाननाम १० कुब्जसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम हुंड संस्थाननाम चेति ॥
यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृत्तिः तच्छरीरनाम । तत्पञ्चविधं औदारिकशरोरनाम - वैक्रियिकशरीरनामआहारकशरीरनाम - तेजसशरीरनाम - कार्मणशरीरनाम चेति । यदुदयादात्मनः औदारिकशरीर निवृत्तिः तदीदा रिकशरीरनाम । यदुदयाद्वै क्रियिकशरोरनिवृत्तिः तद्वैक्रियिकशरीरनाम । यदुदयादाहारकशरीरनिर्वृत्तिस्तदाहारकशरीरनाम | यस्योदयात्तं जसशरीर निवृत्तिः तत्तैजसशरीरनाम । यदुदयादात्मनः कार्मणशरीर१५ निर्वृत्तिः तत्कार्मणशरीरनाम ।
शरीरनामकर्मोदयवशात् उपात्तानामाहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां अन्योन्यप्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद्बन्धनं नाम ।
यदुदयात् औदारिकादिशरीराणां विवरविरहितानामन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम |
२०
यदुदयात् औदारिकादिशरीराकृतिनिवृत्तिर्भवति तत्संस्थाननाम । तत् षोढा विभज्यते - समचतुरस्रसंस्थाननाम न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम स्वातिसंस्थाननाम कुब्जसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम हुण्डकसंस्थाननाम चेति ।
चतुरिन्द्रियजातिनाम है। जिसके उदयसे आत्मा पंचेन्द्रिय कहा जाता है वह पंचेन्द्रियजातिनाम है । जिसके उदयये आत्माके शरीरकी रचना होती है वह शरीरनाम है । उसके २५ पाँच भेद हैं- औदारिक शरीरनाम, वैक्रियिक शरीरनाम, आहारक शरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम । जिसके उदयसे आत्मा के औदारिक शरीर बनता है वह औदारिक शरीरनाम है। जिसके उदयसे वैक्रियिक शरीरकी रचना होती है वह वैक्रियिक शरीरनाम है । जिसके उदयसे आहारक शरीरकी रचना होती है वह आहारक शरीरनाम है। जिसके उदयसे तैजस शरीर की रचना होती है वह तेजस शरीरनाम है। जिसके उदयसे आत्माके ३० कार्मणशरीरकी रचना होती है वह कार्मणशरीरनाम है । शरीर नामकर्मके उदयके वश ग्रहण किये गये आहारवर्गणाके रूपमें आये पुद्गलस्कन्धोंका परस्परमें प्रदेशोंका सम्बन्ध जिससे होता है वह बन्धननाम है। जिसके उदयसे ओदारिक आदि शरीरोंका छिद्ररहित परस्परमें प्रदेशोंके प्रवेश से एकरूपता होती है वह संघातनाम है। जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंका आकार बनता है वह संस्थान नाम है । उसके छह भेद हैं- समचतुरस्र संस्थान ३५ नाम, न्यप्रोधपरिमण्डल संस्थान नाम, स्वातिसंस्थान नाम, कुब्जसंस्थान नाम, वामन
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२९ यदुदयादंगोपांगविवेकस्तदंगोपांगनाम।तत्रिविधमौदारिकशरीरांगोपांगनाम वैक्रियिकशरीरांगोपांग नाम आहारकशरीरांगोपांगनाम चेति ॥ यस्योदयादस्थिबंधनविशेषो भवति तत्संहनननाम । षड्विधं तत् । वज्रवृषभनाराचसंहनननाम वज्रनाराचसंहनननाम नाराचसंहनननाम अर्द्धनाराचसंहनननाम कोलितसंहनननाम असंप्राप्तसृपाटिकासंहनननाम चेति । संहननमस्थिसंचयः। ऋषभो वेष्टनं । वज्रववभेद्यत्वावज्रऋषभः वनवन्नाराचो वज्रनाराचस्तौ द्वावपि यस्मिन्वज्रशरीरे संहनने तवज्रऋषभनाराचशरीरसंहनननाम । एष एव वज्रास्थिबंधो वज्रऋषभज्जितः सामान्यऋषभवेष्टितो यस्योदयेन भवति तवज्रनाराचशरीर संहनननाम । यस्य कर्मण उदयेन वज्रविशेषेण रहितनाराचकीलिताः अस्थिसंधयो भवन्ति तन्नाराचशरीरसंहनननाम । यस्य कर्मण उदयेनास्थिसंधयो नाराचेनार्द्धकोलिता भवन्ति तवर्द्धनाराचशरीरसंहनननाम । यस्योदयादवज्रास्थीनि कोलिता. नोव भवन्ति तत्कीलितशरीरसंहनननाम। यस्योदयेनान्योन्यासंप्राप्तानि शरीरसृपसंहननवत् शिरा- १० बंधान्यस्थीनि भवन्ति तवसंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनननाम ॥
यदुदयादङ्गोपाङ्गविवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम । तत् त्रिविधं औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम आहारकशरीराङ्गोपाङ्गनाम चेति ।
___ यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । तत् षड्विध-वज्रर्षभनाराचसंहनननाम । वचनाराचसंहनननाम । नाराचसंहनननाम । अर्धनाराचसंहनननाम । कीलितसंहनननाम । असंप्राप्तसृपा- १५ टिकासंहनननाम । संहननम् अस्थिसंचयः । ऋषभो वेष्टनं वज्रवदभेद्यत्वात् वज्रर्षभः । वज्रवन्नाराचो वज्रनाराचः तो द्वावपि यस्मिन् वजशरीरे संहनने तत् वज्रर्षभनाराचसंहनननाम । एष एव वज्रास्थिबन्धः ववर्षभवजितः सामान्यर्षभवेष्टितः यस्योदयेन भवति तद्वज्रनाराचशरीरसंहनननाम । यस्य कर्मण उदयेन वनविशेषणेन रहितनाराचकोलिता अस्थिसंघयो भवन्ति तन्नाराचशरीरसंहनननाम । यस्य कर्मण उदयेन अस्थिसंधयो नाराचेनार्धकीलिता भवन्ति तदर्धनाराचशरीरसंहनननाम । यस्योदयादवज्रास्थीनि कीलितानि २० भवन्ति तत्कीलितशरीरसंहनननाम । यस्योदयेन अन्योन्यासंप्राप्तानि शरीरसृपसंहननवत्सिराबन्धानि अस्थीनि भवन्ति तदसंप्राप्तसपाटिकाशरीरसंहनननाम ।
संस्थान नाम और हुण्डकसंस्थान नाम। जिसके उदयसे अस्थियोंका बन्धनविशेष होता है वह संहनननाम है। उसके छह भेद हैं-वर्षभनाराचसंहनन नाम, वनाराचसंहनन नाम, नाराचसंहनन नाम, अर्धनाराच संहनननाम, कीलितसंहनन नाम, असंप्राप्तसृपाटिका- २५ संहनन नाम । संहनन अस्थियोंके संचयको कहते हैं। ऋषभका अर्थ वेष्टन है। नाराच कीलको कहते हैं। वनके समान अभेद्य ऋषभ होनेसे वर्षभ कहलाता है। और वनके समान नाराचको वजनाराच कहते हैं। जिस वनसंहनन शरीरमें ऋषभ नाराच दोनों वनवत् हो उसे वर्षभनाराच संहनन नाम कहते हैं। यही वनरूप अस्थिबन्ध ववत् वेष्टनके बिना सामान्य वेष्टनसे बेष्टित जिस कमेके उदयसे होता है वह वञनाराच शरीर- ३० संहनन नाम है । जिस कर्मके उदयसे वनविशेषणसे रहित और नाराचसे कीलित अस्थियोंकी सन्धियाँ होती हैं वह नाराच शरीरसंहनन नाम है। जिस कर्मके उदयके अस्थियोंके जोड़ नाराचसे अर्धकोलित होते हैं वह अर्धनाराचशरीर संहनन नाम है। जिसके उदयसे अस्थियाँ परस्परमें कोलित होतो हैं वह कोलितशरीर संहनन नाम है। जिसके उदयसे अस्थियाँ परस्पर में प्राप्त न होकर सरीसृपकी शरीरकी तरह सिराओंसे बँधी होती हैं वह ३५ असंप्राप्तसृपाटिका शरीरसंहनन नाम हैं ।
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गो० कर्मकाण्डे
यको वर्णविकारस्तद्वर्णनाम । तत्पंचविधं कृष्णवर्णनाम नीलवर्णनाम रक्तवर्णनाम हारिद्रवर्णना शुक्लवर्णनाम चेति || यहुदयात्प्रभवो गंधस्तद्गंधना । तद् द्विविधं सुरभिगंधनाम असुरभिगन्धनाम वेति ॥ यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रसनाम । तत्पंचविधं तिक्तनाम कटुकनाम कानाम अम्लनाम मधुरनाम चेति । यस्योदयात् स्पर्शप्रादुर्भावस्तत्स्पर्शनाम । तदष्टविधं ५ कर्कशनाम नाम गुरुनाम लघुनाम शीतनाम उष्णनाम स्निग्धनाम रूक्षनाम चेति ॥ पूर्वशरीराकाराविनाशो यस्योदयाद्भवति तदानुपूर्व्यनाम तच्चतुव्विधं नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्च्छनाम तिर्य्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम चेति ।
३०
योदयादयस्पिण्डवद्गुरुत्वान्न च पतति न चाकर्कतूलवल्लघुत्वादृध्वं गच्छति तदगुरुलघुनाम । उपेत्य घात इत्युपघातः आत्मघात इत्यर्थः । यस्योदयादात्मघातावयवा महाशृंगलंबस्तनतुंदो१० दरादयो भवन्ति तदुपघातनाम । परेषां घातः परघातः । यदुदयात्तीक्ष्णश्रृंगनख सपंदाढादयो भवन्त्यव्यवास्तत्परघातनाम । यद्धेतुरुच्छ्वासस्तदुच्छ्वासनाम । यदुदधान्निर्वृत्तमातपनं तदातप
तुको वर्णविकारः तद्वर्णनाम । ततञ्चविधं - कृष्णवर्णनाम नीलवर्णनाम रक्तवर्णनाम हरिद्रवर्णनाम शुक्लवर्णनाम चेति । यदुदयात्प्रभवो गन्धः तद्गन्वनाम । तद्द्विविधं सुरभिगन्धनाम असुरभिगन्धनाम चेति । यन्निमित्तो रसविकल्पः तद्रसनाम । तलञ्चविधं तिक्तनाम - कटुकनाम - कषायनाम आम्लनाम मधुरनाम १५ चेति । यस्योदयात्स्पर्शप्रादुर्भावः तत्स्पर्शनाम । तदष्टविधं — कर्कशनाम मृदुनाम गुरुनाम लघुनाम शीतनाम उष्णनाम स्निग्धनाम रूक्षनाम चेति ।
पूर्वशरीराकाराविनाशो यस्योदयाद्भवति तदानुपूर्व्यनाम । तच्चतुर्विधं नरकगतिप्रयोग्यानुपूर्व्यनाम तिर्यग्गतिप्रायोग्यःनु नाम मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यं नाम चेति ।
यस्योदयादयःपिण्डवत् गुरुत्वान्न च पतति न चार्कतूलवत् लघुत्वाद्दूर्ध्वम् गच्छति तदगुरुलघुनाम । २० उपेत्य घात इत्युपघात आत्मघात इत्यर्थः । यस्योदयादात्मघातावयवाः महाशृङ्गलम्बस्तन तुम्दोदरादयो भवन्ति तदुपत्रातनाम । परेषां घातः परघातः यदुदयात्तीक्ष्णेश्टङ्गनखसर्पदाढादयो भवन्ति अवयवा तत्पर
घातनाम |
जिसके निमित्त से शरीर में वर्णविकार होता है वह वर्णनाम है । वह पाँच प्रकार हैकृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, रक्तवर्णनाम, हरितवर्णनाम और शुक्लवर्णनाम । जिसके २५ उदयसे गन्ध हो वह गन्धनाम है । उसके दो भेद हैं-सुगन्ध और दुर्गन्ध । जिसके निमित्तसे रस हो वह रसनाम है । उसके पाँच भेद हैं- तिक्त नाम, कटुक नाम, कपाय नाम, आम्लनाम, मधुरनाम । जिसके उदयसे स्पर्श हो वह स्पर्शनाम है । उसके आठ भेद हैंकर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, शीतनाम, उष्णनाम, स्निग्धनाम, रूक्षनाम । पूर्वशरीर के आकारका अविनाश जिसके उदयसे होता है वह आनुपूर्व्य नाम है। उसके चार ३० भेद हैं- नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, मनुष्यगति प्रायोग्या नुपूर्व्यनाम, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नाम ।
जिसके उदयसे शरीर न तो लोहेकी पिण्डीकी तरह भारी होनेसे नीचे गिरे और न आककी रुई की तरह हल्का होनेसे ऊपर उड़े वह अगुरुलघुनाम है । उपतकर घातको उपघात अर्थात् आत्मघात कहते हैं। जिसके उदयसे आत्मघात करनेवाले अवयव यथा बड़े-बड़े सींग, लम्बे स्तन, पेट आदि होते हैं वह उपघात नाम है । परके घातकौ परघात कहते हैं । बड़ा जिसके उदयसे तीक्ष्ण सींग, नख, दाढ़ आदि अवयव होते हैं वह परघात नाम है। जिसके
३५
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कर्णाटदृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३१ नाम । तदप्यादिबिबोत्पन्नबाबरपर्याप्तपृथ्विकायिकजीवेष्वेव वर्तते । यस्योदयादद्योतनं तद्योतनाम । तच्चन्ने खद्योता दिषु च वर्तते। विहाय आकाशं तत्र गतिनिवर्तकं तद्विहायोगतिनाल । तद्विविध प्रशस्ता प्रशस्तवात् । यदुदधावीद्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम । यदुदयादन्यबाधाऽकर. शरीरं सतिदनुसादरनाम । यददयादाहारादिपर्याप्तिनिधत्तिस्तत्पर्याप्रिनाम। तर हारपप्तिनाम शरीरपर्याप्तिलाम इंद्रियपातिनाम प्राणापालपर्याप्तिनाम भाषापयोप्तिनाम मनः- ५ पातिनाम चेति ॥ शरीरनामोश्यामिर्वयमा शरीरभेकालोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रटोकशरोर नान । यस्योदयाद्रसादिधातूपयातूनां स्वस्वस्थाने हिवर धानिर्जतनं भवति तत् स्थिर नाम।
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रवर्तते । दसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जात् शुक्र ततः प्रजा ॥ वातं पित्तं तथा श्लेष्मा शिरा स्नायुश्च चर्म च । जठराग्निरिति प्राज्ञैः प्रोक्ताः सप्तोपधातवः॥
यद्धेतपच्छवासः तदुच्छवासनाम । यदयान्निवत्तमातपनं तदातपनामा तदपि आदित्यबिम्बोत्पन्नबादरपर्याप्तपृथिवीकायिकजीवेषु एव वर्तते । यस्योदयादुद्योतनं तदुद्योतनाम तच्चन्द्रखद्योतादिषु च वर्तते । विहायः आकाशं तत्र गतिनिर्वर्तकं तद्विहायोगति नाम । तविविध प्रशस्ता प्रशस्तभंदात् । यदुदयात् १५ द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत सनाम । यदुदयादन्यबाधाकरशरीरं भवति तद्वादरनाम ।
यद्दयादाहारादिपर्याप्तिनिवृत्तिस्तत्पर्याप्तिनाम । तत षड़विध-आहारपर्याप्तिनाम शरीरपर्याप्तिनाम इन्द्रियपर्याप्तिनाम प्राणापानपर्याप्तिनाम भाषापर्याप्तिनाग मनःपर्याप्तिनाम चेति । शरीरनामकर्मोदयान्निवर्तामानशरीरम् एकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्ये शरीरनाम । यस्योदयात रसादिधातूपधातूनां स्वस्वस्थाने स्थिरभावनिर्वर्तनं भवति तत्स्थिरनाम
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रवर्तते । मेदतोऽस्थि ततो मज्जं मज्जाच्छुकं ततः प्रजाः ॥१॥ वातः पित्तं तथा श्लेष्मा सिरा स्नायुश्च चर्म च । जठराग्निरिति प्राज्ञैः प्रोक्ताः सप्तोपधातवः ॥२॥ [
निमित्तसे वासोच्छ्वास होता है वह उच्छ्वास नाम है। जिसके उदयसे आतपन हो वह २५ आतपनाम है । उसका उदय सूर्य के बिम्बमें उत्पन्न बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक जीवोंमें ही होता है। जिसके उदयसे उद्योतन हो वह उद्योत नाम है। उसका उदय चन्द्रबिम्ब, जुगुनू आदिलें होता है । विहाय आकाशको कहते हैं। उसमें गमन जिसके उदयसे हो वह विहायोगति नाम है। उसके दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । जिसके उदयसे दो-इन्द्रिय आदि में जन्म हो वह त्रसनाम है । जिसके उदयसे दूसरेको बाधा करनेवाला स्थूल शरीर ३० होता है वह बादरनाम है। जिसके उदयसे आहार आदि पयाप्ति की रचना होती है वह पर्याप्तिनाम है। उसके छह भेद हैं-आहारपर्याप्तिनाम, शरीरपर्याप्तिनाम, इन्द्रियपर्याप्तिनाम, प्राणापानपर्याप्तिनाम, भाषापर्याप्तिनाम, मनःपर्याप्तिनाम । शरीरनामकर्मके उदयसे रचा गया शरीर जिसके उदयसे एक आत्माके उपभोगका कारण होता है वह प्रत्येक शरीर नाम है। जिसके उदयसे रस आदि धातु-उपधातु अपने-अपने स्थानमें स्थिरताको प्राप्त हों वह स्थिर नाम है। कहा है-'रससे रक्त, रक्तसे मांस, मांससे मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिसे
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३२
गो० कर्मकाण्डे
धातु । ७ । फ । दिन । ५० (३०) । इच्छि । वा १ । लब्धदि ४ २ ।
७
यदुदयाद्रमणीया मस्तकादिप्रशस्तावयवा भवन्ति तच्छुभनाम । यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सु भगनाम । यस्मान्निमित्तान्मनोज्ञस्वर निर्व्वर्त्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । प्रभोपेतशरीरकारणमादेयनाम | पुण्यगुणख्यापनकारणं यशस्कीत्तिनाम । यन्निमित्तात्परिनिःपत्तिस्तन्निर्माणं तद्विविधं ५ स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माणं चेति । तत्र जातिनामकम्र्म्मोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निवर्त्तयति । निम्मयतेऽनेनेति वा निर्माणमिति ।
आर्हन्त्यकारणं तीर्थंकरत्वनाम । यन्निमित्तादेकेंद्रियेषु प्रादुर्भावः तत्स्थावरनाम । सूक्ष्मशरीरनिर्व्वत्तंकं सूक्ष्मनाम । षड्विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तनाम । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं भवति शरीरं यतस्तत्साधारणशरीरनाम । धातूपधातूनां स्थिरभावेनानिर्वर्तनं १० यतस्तदस्थिरनाम | यदुदयेनाऽरमणीयमस्तकाद्यवयवनिव्यंर्त्तनं भवति तदशुभनाम । यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतेऽप्यप्रीति विदधाति जनस्तद्दुर्भगनाम । यदुदयादमनोज्ञस्वरनिर्व्वर्तनं भवति तद्दुःस्वर
२५
धातु प्र ७ । फ दि ३० । इच्छा धातुः १ लब्धदि ४ । २ ।
७
यदुदयात् रमणीया मस्तकादिप्रशस्तावयवा भवन्ति तच्छुमनाम । यदुदयादन्यप्रोतिप्रभवः तत्सुभगनाम । यस्मान्निमित्तात् मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । प्रभोपेतशरीर कारणं आदेयनाम | पुण्यगुण१५ ख्यापनकारणं यशस्कीर्तिनाम |
यस्मान्निमित्तात् परिनिष्यत्तिः तन्निर्माणनाम । तद्विविधम्-स्थान निर्माणं प्रमाणनिर्माणं चेति । तत्र जातिनामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निर्वर्तयति निर्मीयते अनेनेति वा निर्माणम् । आर्हन्त्यकारणं तीर्थंकरत्वनाम |
यन्निमित्ताकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावः तत्स्थावरनाम । सूक्ष्मशरीरनिर्वर्तकं सूक्ष्मनाम । षड्विध२० पर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तनाम । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं भवति शरीरं यतः तत्साधारणशरीरनाम । धातुपधातूनां स्थिरभावेनानिर्वर्तनं यतः तदस्थिरनाम । यदुदयेन अरमणीयमस्तकाद्यवयवनिर्वर्तनं भवति तदशुभनाम । यदुदयात् रूपादिगुणोपेतेऽपि अप्रीति विदधाति जनः तद्दुर्भगनाम । यदुदयात् मज्जा, मज्जा वीर्य और वीर्य से सन्तान होती है। वात, पित्त, कफ, सिरा, स्नायु, चर्म और उदराग्नि इन सातको विद्वानोंने उपधातु कहा है।'
जिसके उदयसे रमणीय मस्तक आदि प्रशस्त अवयव होते हैं वह शुभनाम है । जिसके उदयसे दूसरे प्रीति करते हैं वह सुभगनाम है। जिसके निमित्तसे मनोज्ञ स्वर होता है वह सुस्वरनाम है । प्रभायुक्त शरीरका कारण आदेयनाम है । पुण्य गुणों की कीर्ति में कारण यशस्कीर्तिनाम है । जिसके निमित्तसे रचना हो वह निर्माणनाम है । उसके दो भेद हैंस्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण । वह जातिनामकर्मके उदयके अनुसार चक्षु आदिके ३० स्थान और प्रमाणका निर्माण करता है । अर्हन्तपदका कारण तीर्थंकर नाम है । जिसके
निमित्तसे एकेन्द्रियोंमें जन्म हो वह स्थावरनाम है। सूक्ष्मशरीरका उत्पादक सूक्ष्मनाम है। छह प्रकारकी पर्याप्तिके अभाव में जो निमित्त है वह अपर्याप्तनाम है । जिसके उदयसे बहुत-से जीवोंके उपभोगमें हेतु साधारण शरीर होता है वह साधारणशरीरनाम है । जिसके उदयसे धातु- उपधातु स्थिर न हों वह अस्थिर नाम है । जिसके उदयसे अरमणीय ३५ मस्तक आदि अवयवोंकी रचना हो वह अशुभ नाम है। जिसके
उदयसे रूप आदि गुणोंसे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम । निष्प्रभशरीरकारणमनादेयनाम। पुण्ययशसः प्रत्यनीकफलमयशस्कोत्तिनाम। यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म भवति तदुच्चैर्गोत्रनाम । तद्विपरीतेषु गहितेषु कुलेषु जन्म भवति तन्नोचैरर्गोत्रं नाम । यदुदयाद्दातुकामोपि न प्रयच्छति लब्धुकामोपि न लभते भोक्तुमिच्छन्नपि न भक्ते उपभोक्तमिच्छन्नपि नोपभुक्ते तत्सहितुकामोपि न तत्सहते त एते पंचान्तरायस्य भेदाः। अन्तरायापेक्षया भेवनिदर्वेशः क्रियते । दानस्यांतरायो लाभस्यान्तरायो भोगस्यान्तराय उपभोगस्थान्तरायो वीर्यस्यांतराय इति । दानादिपरिणामस्य व्याघातहेतुत्वात् । नामकर्मदुत्तरप्रकृतिगळोळ भेदविवयिंदमन्तर्भावमं तोरिवपरु :
देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया ।
वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये ॥३४॥ देहे अविनाभाविनी बंधनसंघातावित्यबंधोदयौ । वर्णचतुष्के अभिन्ने गृहीते चत्वारि १० बंधोदययोः॥
देहे शरीरनामकर्मवाळु । अविनाभाविनौ अविनाभाविगळंत विगळु । बंधनसंघातौ बंधननाममुं संघातनाममुमें देरडु इति यिदुकारणदिदमबंधोदयौ बंधप्रकृतिगळुमुदयप्रकृतिगळु. अमनोज्ञस्वरनिवर्तनं भवति तदुःस्वरनाम । निष्प्रभशरीरकारणम् अनादेयनाम । पुण्ययशसः प्रत्यभीकफलं अयशरकोतिनाम ।
__ यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म भवति तदुच्चोत्रम् । यदुदये तद्विपरीतेषु गहितेषु कुलेषु जन्म भवति तन्नीचैर्गोत्रम् ।
___ यदुदयाहातुकामोऽपि न प्रयच्छति लब्धुकामोऽपि न लभते भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते उपभोक्तुमिच्छन्नपि नोपभुङक्ते तत्सहितुकामोऽपि न तत्सहते ते एते पञ्चान्तरायभेदाः । अन्तरायापेक्षया भेदनिर्देशः क्रियते । दानस्य अन्तरायः, लाभस्य अन्तरायः, भोगस्यान्तरायः, उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यस्य अन्तराय इति २० दानादिपरिणामस्य व्याघातहेतुत्वात् ॥३३॥ अथ नामोत्तरप्रकृतिषु अभेदविवक्षया अन्तर्भावं दर्शयति
देहे पञ्चविधशरीरनामकर्मणि स्वस्वबन्धसंघातौ अविनाभाविनी इति कारणात् अबन्धोदयौ-बन्धोदययुक्त होनेपर भी लोग प्रीति नहीं करते वह दुर्भगनाम है। जिसके उदयसे स्वर सुन्दर नहीं होता वह दुःस्वरनाम है। प्रभाहीन शरीरका कारण अनादेय नाम है। पुण्य कार्य करनेपर भी यशका न फैलना या अपयश फैलना जिसके उदयसे हो वह अयशकीर्तिनाम है। २५
जिसके उदयसे लोकपूजित कुलमें जन्म हो वह उच्चगोत्र है। जिसके उदयमें उससे विपरीत नीच कुलमें जन्म हो वह नीचगोत्र है।
जिसके उदयसे देनेकी इच्छा होनेपर भी दान नहीं कर पाता, लाभकी इच्छा होनेपर लाभ नहीं होता, भोगनेकी इच्छा होनेपर भी भोग नहीं सकता, उपभोगकी इच्छा होनेपर उपभोग नहीं करता, उत्साह करने की इच्छा होनेपर भी उत्साह नहीं होता, वे ये अन्तरायके ३० भेद हैं। अन्तरायकी अपेक्षा भेदपूर्वक निर्देश किया गया है-दानका अन्तराय, लाभका अन्तराय, भोगका अन्तराय, उपभोगका अन्तराय और वीर्यका अन्तराय; क्योंकि ये दान आदिके परिणामोंके व्याघातमें निमित्त होते हैं ।।३३।।
आगे नामकर्मको उत्तर प्रकृतियों में अभेद-विवक्षामें गर्भित प्रकृतियोंको दिखाते हैंपाँच शरीरनामकर्मके अपने-अपने बन्धन और संघात अविनाभावी हैं। इस कारणसे ३५
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गो० कर्मकाण्डे मल्लवु। औदारिकादिपंचशरीरंगळ बंधदोळुमुदयदोळं तंतम्म बंधनसंघातंगळ्गंतर्भाव माडल्पटुदरिदं पृथक् बंधदोळमुदयदोळं पेळल्पडवे बुदत्थं । वर्णचतुष्केऽभिन्ने गृहीते वर्णसामान्यमुं गन्धसामान्यमुं रससामान्य, स्पर्शसामान्यमुमभेदविवर्तयिदं कैकोळल्पडुतिरलु सत्वकथनमल्ल
दुळिद बंधदोळमुदयदोळं। चत्वारि नाल्कु नामकर्म प्रकृतिगळप्पुवु। शेषपदिनारुं प्रकृतिगळ्ग५ पृथक्कथनमिल्ले बुवत्थमंतागुत्तिरलु बंधप्रकृतिगळुमुदयप्रकृतिगळं सत्वप्रकृतिगळुमेनितेनितप्पुमें दोडे नाल्कु गाथासूत्रंगळिंदं पेळ्दपरु :
पंच णव दोण्णि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी ।
दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ बंधपयडीओ ॥३५॥
पंच नव द्वे षड्विशतिरपि च चतस्रः क्रमेण सप्तषष्टिढे च पंच च भणिताः एता १० बंधप्रकृतयः॥
पंचज्ञानावरणंगळं नवदर्शनावरणंगळं द्विवेदनीयंगळं षड्विशतिमोहनीयंगळुमे दोर्ड बंधकालदोळु दर्शनमोहनीयमों दे मिथ्यात्वमें बुदरिदं सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिगळे रडु उदयसत्वंगळोळे पेळल्पडुगुमप्पुरिदमी बंधप्रकृतिगळोळु मोहनीयद षड्विशत्युत्तरप्रकृतिगळ्पेळल्प
टुवु। चतुरायुष्यंगळं सप्तषष्टिनामप्रकृतिगळुमेकेदोर्ड बंधनसंघातंगळ्पत्तुं वर्णादिषोडशप्रकृतिगळुमिन्तु षड्विशतिप्रकृतिगळं बिटु शेषसप्तषष्टिनामप्रकृतिगळु पेळल्पटुवु । द्विगोत्रकम्मंगळं पंचान्तरायकम्मंगळुमिन्तु ज्ञानावरणादिपाठक्रमदिदमिविनितुं कूडि विंशत्युत्तरशतप्रकृतिगळ्बंधयोग्यंगळप्पुर्वेदु वीतरागसर्वज्ञरिदं पेळल्पटुवु। ५। ९।२। २६ । ४ । ६७। २। ५। कूडि १२० ॥
प्रकृती न भवतः । तत्र पृथग्नोक्तावित्यर्थः । वर्णचतुष्के वर्णगन्धरसस्पर्शसामान्यचतुष्के अभिन्ने अभेदविवक्षया २० एकै कस्मिन्नेव गृहीते सत्त्वादन्यत्र बन्धोदययोश्चतस्र एव प्रकृतयो भवन्ति । शेषषोडशानां पृथक् कथनं नास्तीत्यर्थः ॥३४॥ तथा सति ता बन्धोदयसत्त्वप्रकृतयः कति ? इति चेत् चतुभिर्गाथाभिराह
पञ्च ज्ञानावरणानि नव दर्शनावरणानि द्वे वदनीये षड्विंशतिर्मोहनीयानि । कुतः ? मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्योरुदयसत्त्वयोरेव कथनात् । चत्वारि आयूंषि । सप्तषष्टिर्नामानि कुतः ? दशबन्धनसंघातषोडशवर्णादीनामन्तर्भावात् । द्वे गोत्रे । पञ्चान्तराया इत्येता विंशत्युत्तरशतबन्धयोग्या भणिताः सर्वज्ञैः ॥३५॥
२५ पाँच बन्धन और पाँच संघात बन्ध और उदय प्रकृतियोंमें पृथक नहीं लिये गये हैं। अर्थात्
बन्ध और उदयमें वे दस पृथक नहीं कहे हैं, शरीरनामकममें ही गर्भित कर लिये हैं। तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श इन चारोंको सामान्य रूपसे अभेदविवक्षामें एक-एक ही ग्रहण करनेपर सत्त्वके अतिरिक्त बन्ध और उदयमें चार ही प्रकृतियाँ होती हैं, शेष सोलहको पृथक नहीं कहा है॥३४॥
ऐसा होनेपर बन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतियाँ कितनी हैं यह चार गाथाओंसे कहते हैं-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, क्योंकि मिश्र और सम्यक्त्वप्रकृति उदय और सत्त्वमें ही कही गयी हैं, चार आयु, सड़सठ नाम; क्योंकि दस बन्धन दस संघात और सोलहवर्णादिका अन्तर्भाव कर लेते हैं, दो गोत्र, पाँच अन्तराय इस प्रकार ये एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्धयोग्य सर्वज्ञदेवने कही हैं ॥३५॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
उदयप्रकृतिगळं पेदपरु । :
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरो कमेण सत्तड्डी |
दोणि य पंच य भणिदा एदाओ उदयपयडीओ ||३६||
पंच नव द्वे अष्टाविंशतिश्चतस्रः । क्रमेण सप्तषष्टिर्दे च पंच च भणिता एता उदय
प्रकृतयः ॥
३५
पंचज्ञानावरणंगळं नवदर्शनावरणंगलुं द्विवेदनीयंगळु मष्टाविंशतिमोहनीयंगळु मेकें दोडुदयदोल सत्वदोळं मिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिगळगे सद्भावसुंटप्पुर्दारदं । चतुरायुष्यंगळं सप्तषष्टि नामप्रकृतिगळुमेके दोडे बंधदोपेते षड्वशतिप्रकृतिगळ्गविनाभावमंटप्दरिदं । द्विगोत्रकर्म्मप्रकृतिगळं पंचांतरायकर्म्मप्रकृतिगळुमिन्तु क्रमदिदमिविनितुं कूडि द्वाविंशत्युत्तरशतमुदयप्रकृतिगळे दु श्रीवीतरागसर्व्वज्ञरिदं पेळपट्टुवु । ५ । ९ । २ । २८ । ४ । ६७ । २ । ५ । कूडि १२२ ॥ ई बंधोदयप्रकृतिगळगे भेदाभेदविवक्षयदं संख्येयं पेदपरु | :मेरे छादालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं ।
१०
भेदे सव्वे उदये बावीस सयं अभेदम्मि ||३७||
भेदे षट्चत्वारिंशच्छतमितरस्मिन्बंधे भवन्ति विशतिशतं । भेदे सर्व्वा उदये द्वाविंशतिशतमभेदे ॥
बंधे बंधदो भेदे भेदविवक्षयागुत्तिरलु । षट्चत्वारिंशच्छतं षट्चत्वारिशदुतरशत प्रकृतिगळु भवन्ति अप्पु । इतरस्मिन्नभेदविवक्षयागुत्तिरलु विंशतिशतं विंशत्युत्तरशत प्रकृतिगळवु । उदये उदयदोळु । भेदे भेदविवक्षयागुत्तं विरलु। सर्व्वाः अष्टाचत्वारिंशदुत्तरशत प्रकृतिगळप्पुवु । अभेदे अभेदविवक्षेयागुत्तं विरलु। द्वाविंशतिशतं द्विविंशत्युत्तरशतप्रकृतिगळष्वु । भे बं । १४६ ॥ अभे । बं १२० । भे । उ । १४८ । अभे । उ । १२२ ।।
1
सत्यप्रकृतिगळं पेदपरु ।
१५
उदयप्रकृतीराह
उदयप्रकृतयो ज्ञानावरणादीनां क्रमेण पञ्च नव द्वे अष्टाविंशति चतस्रः सप्तषष्टिः द्वे पञ्च च मिलित्वा द्वाविंशत्युत्तरशतं भणिताः || ३६ || ता एवं बन्धोदयप्रकृतीर्शेदाभेदविवक्षया संख्याति
बन्धे भेदविवक्षायां षट्चत्वारिंशच्छतं प्रकृतो भवन्ति । अभेदविवक्षायां विंशत्युत्तरशतम् । उदये २५ भेदविवक्षायां सर्वा अष्टचत्वारिंशच्छतं मभेदविवक्षायां द्वाविंशत्युत्तरशतम् ||३७|| सत्त्वप्रकृती राह
२०
उदय प्रकृतियाँ कहते हैं
उदयप्रकृतियाँ ज्ञानावरण आदिकी क्रमसे पांच, नौ, दो, अठाईस, चार, सड़सठ, दो, पाँच मिलकर एक सौ बाईस कही हैं ||३६||
३०
बन्ध में भेदविवक्षा में एक सौ छियालीस प्रकृतियां होती हैं। अभेदविवक्षा में एक सौ बीस हैं । उदयमें भेद विवक्षा में सब एक सौ अड़तालीस हैं और अभेद विवक्षा में एक सौ बाईस हैं ||३७|
सत्त्व प्रकृतियाँ कहते हैं -
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३६
१०
पंच नव द्वे अष्टाविंशतिश्चतस्रः क्रमेण त्रिनवतिद्वे च पंच च भणिता एताः सत्वप्रकृतयः ॥ पंचज्ञानावरणंगळं नवदर्शनावरणंगळं द्विवेदनीयंगळं अष्टाविंशति मोहनीयंगळ चतुरायुष्यं - ५गळं त्र्युत्तरवलिनामकर्म्मप्रकृतिगळु द्विगोत्रकर्म्मप्रकृतिगळं पंचान्तरायकर्मप्रकृतिगळु मे दिविनितुं सत्यप्रकृतिपळे दुत्तरप्रकृतिगळु श्रीवीतरागसव्वंज्ञरिदं निरूपिसल्पट्टुवु ॥
घातिकग सघातिदेशघातिभेवदिदं द्विविधंगळे दवरोळ सम्बंधातिगळं पेदपरु । केवलणाणावरणं दंसणछक्कं कसायबारसयं ।
मिच्छं च सव्वधादी सम्मामिच्छं अबंधम्मि ||३९||
केवलज्ञानावरणं दर्शनषट्कं कषायद्वादशकं । मिथ्यात्वं च सर्व्वघातीनि सम्यग्मिथ्यात्वमबंधे ॥
गो० कर्मकाण्डे
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी । दोणि य पंच य भणिदा एदाओ सत्तपयडीओ ॥ ३८ ॥
केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरणसुं स्त्यानगृद्धयादिदर्शनावरणपंचकमुमनंतानुबंध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभंगळे ब द्वादशकषायंगळं मिथ्यात्वकम्मु बिविनितुं कूडि विंशतिप्रकृतिग २० । सर्व्वघातिगळप्पुवु । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुं बंधप्रकृतियल्लप्पुर्दारवमुदय१५ सत्वंगळोळु जात्यंतर सव्व घातियेंदु पेळल्पट्टुवु ॥
देशघातिगळं पेदपरु :
णाणावरणच उक्कं तिदंसणं सम्भगं च संजलणं । वोकसाय विग्धं छव्वीसा देसघादीओ ॥४०॥
ज्ञानावरणचतुष्कं त्रिदर्शनं सम्यक्त्वं च संज्वलनं । नवनोकषायविग्घ्नं षड्वशतिद्देश
२० घातीनि ॥
पञ्च नव द्वे अष्टाविंशतिः चतस्रः त्रिणवतिः द्वे पञ्च एताः क्रमेण ज्ञानावरणादीनां सत्त्वप्रकृतयोऽष्टचत्वारिंशच्छतं सर्वज्ञैर्भणिताः ||३८|| घातिकर्माणि सर्वघातीनि देशघातीनि च । तत्र सर्वघातीन्याह
केवलज्ञानावरणं केवलदर्शनावरणं स्त्यानगृद्धयादिपञ्चकं अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधमानमाया लोभाः, मिथ्यात्वकर्मेति विशतिः सर्वघातीनि भवन्ति । सम्यग्मिथ्यात्वं तु बन्धप्रकृतिर्नेत्युदय स स्वयोरेव २५ जात्यन्तरसर्वघाति भवति ||३९|| देशघातीन्याह
पाँच, नौ, दो, अठाईस, चार, तिरानबे, दो, पाँच ये क्रमसे ज्ञानावरण आदिको सत्त्वप्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस सर्वज्ञदेवने कही हैं ||३८||
घाति कर्म, सर्वघाती और देशघाती होते हैं । उनमें से सर्वघाती कहते हैं - केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, स्त्यानगृद्धि आदि पाँच, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, क्रोध - मान-माया-लोभ, मिध्यात्वकर्म ये बीस सर्वघाती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व बन्धप्रकृति नहीं है । अतः उदय और सत्र में ही जात्यन्तर सर्वघाती है ||३९||
३०
देशघाती कहते हैं—
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मतिश्रुतावधिमनःपय्यज्ञानावरणचतुष्कj चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणत्रितय मुं सम्यक्त्वप्रकृतियं संज्दलनकोधमानमाघालोभकषायचतुष्कमु हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकमेंब नवनोकषायंगळं हानलाभभोगोपभोगं वोतिरायमेंब पंचान्तरायकम्नंगळुमिन्तु कूडि ड्विशतिप्रकृतिम देशवातिगळंदनादिसिद्धनप्प परमागमदोळ पेळल्पद्रुवु ॥ सर्वघातिगळु के १।द६। क १२ । मि । मिश्र १। कूडि २१ ॥ देशवातिगछु ज्ञा ४ । ३ । सं १। सं ४ । नो ९ । विघ्न ५ ५ कुडि २६ ॥
घातिकम्मंगळगेसर्वघातिदेशवातिभेदमं पेन्दु अघातिकम्मंगळगे प्रशस्ताप्रशस्तप्रकृतिभेदमं पेदल्लि प्रशस्तप्रकृतिगळं गाथाद्वदिवं पेपरु ।
सादं तिण्णेवाऊ उच्च णरसुरदुगं च पंचिंदी । देहा बंधणसंघादंगोवंगाई वण्ण चऊ ॥४१॥ समचउरवज्जरिसहं उवघाणगुरुछक्कसग्गमणं ।
तसबारसट्ठसठ्ठी बादालममेददो सत्था ॥४२॥ ___ सातं त्रीण्येवायुरुच्चं नरसुरद्विकं पंचेंद्रियं देहाः बंधनसंघातांगोपांगानि च वर्णचतस्रः॥ समचतुरस्र वज्रऋषभः उपघातोनागुरुलघुषट्क सद्गमनं त्रसद्वादशाष्टषष्टिाचत्वारिंशदभेदतः शस्ताः ॥
सातवेदनीयमुं तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यम बायुस्त्रितयमुं उच्चै गर्गोत्रमुं मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूय॑द्विक, देवगतिदेवगतिप्रायोग्यानुपूय॑हिकमुं पंचेंद्रियजातिनाममुं औदारिकादिशरीरपंचक, औदारिकाविशरीरबंधनपंचकमुं औदारिकाविशरीरसंघातपंचक, औदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरांगोपांगत्रितयमुं शुभवर्णगंधरसस्पर्शचतुष्टयमुं समचतुरस्रशरीरसंस्थानमुं वज्रवृषभनाराचशरीरसंहननमुंअगुरुलघुपरघातोच्छ्वासातपोद्योतमें बुपघातोनागुरुलघुषटकमु प्रशस्तविहायो- २०
__ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणानि । चक्षुरचक्षुरवघिदर्शनावरणानि । सम्यक्त्वप्रकृतिः। संज्वलनक्रोधमानमायालोभाः । हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्री पुनपुंसकानि । दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाश्चेति षड्विंशतिर्देशघातीनि ॥४०॥ घातिनां सर्वदेशघातिभेदो प्ररूप्य अघातिनां प्रशस्ताप्रशस्तभेदप्ररूपणे प्रशस्तप्रकृतीर्गाथाद्वयेन आह
सातवेदनीयं तिर्यग्यमनुष्यदेवायूंषि उच्चैर्गोत्रं मनुष्यगतितदानुपूर्फे देवगतितदानुपूर्ये पञ्चेन्द्रियं पञ्च- २५ शरीराणि पञ्चबन्धनानि पञ्चसंघाताः त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि शुभवर्णगन्धरसस्पर्शाः समचतुरस्रसंस्थानं वज्रर्षभनाराच
मति श्रुत अवधि मनःपर्यय ज्ञानावरण, चक्षु अचक्षु अवधि दर्शनावरण, सम्यक्त्व प्रकृति, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रंति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, दान, लाभ, भोग, उपभोग वीर्यान्तराय ये छब्बीस देशघातो हैं ॥४०॥
घातिकमोके सर्वघाती देशघाती भेद कहकर अधातीकमौके प्रशस्त और अप्रशस्त १. भेदका प्ररूपण करते हुए प्रशस्त प्रकृतियोंको दो गाथाओंसे कहते हैं
सातवेदनीय, तिथंच मनुष्य देवआयु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अंगोपांग,
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३८
गो० कर्मकाण्डे
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गतियुं । त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर शुभ सुभग सुस्वरादेय यशस्कोत्तिनिर्माण तीर्थकर नाममब त्रस द्वादशकमुमिन्तष्टषष्टि प्रकृतिगर्छ भेदविवयिदं प्रशस्तप्रकृतिगळक्कुमभेदविवयिदं द्विचत्वारिंशत्प्रशस्तप्रकृतिगळक्कुं॥ सा १ । आ ३ । उ १ । म २ । सु २। पं १ । दे ५ । बं ५।
सं५ । अंगो ३ । व ४ । स १ । व १ । अगु ५ । सद्गमन १ । त्रस १२ । कूडि भेदप्रकृतिगछु ६८ । ५ अभेददिदं ४२ । सद्वेद्यशुभायुन्नामगोत्राणि पुण्यमेदु पेळल्पट्ट प्रशस्तप्रकृतिगळे बुदत्थं ॥
घातिगळनितुमप्रशस्तंगळप्पुरिंदमवुबेरसु अघातिगळो अप्रशस्तप्रकृतिगळं गाथाद्वर्याददं पेन्दपरु।:
घादी णीचमसादं णिरयाऊ णिरयतिरियड्ग जादी । संठाणसंहदीणं चदुपणपणगं च वण्णचऊ ॥४३॥ उवधादमसग्गमणं थावरदसयं च अप्पसत्था हु।
बंधुदयं पडि भेदे अडणडदिसयं दुचदुरसीदिदरे ॥४४॥ घातीनि नोचमसातं नरकायुन्नरकतिर्यरिद्वकंजाति । संस्थानसंहननानां चतुः पंच पंचकं च वर्णचतुष्कं ॥
उपघातमसद्गमनं स्थावरदशकं चाप्रशस्ताः खलु । बंधोदयं प्रति भेदेऽष्टनवतिः शतं । १५ द्विचतुरुत्तराशीतिरितरस्मिन् ॥
सप्तचत्वारिंशद्घातिकमंगळं नीचैग्र्गोत्रमुं असातवेदनीयमुं नरकायुष्यमुं नरकगति नरकगतिप्रायोग्यानुपूव्यद्विक, तिर्यग्गति तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूयद्विकमुं एकेंद्रियादिचतुरिंद्रियपथ्यंतमाद जातिचतुष्टयमुं न्यग्रोधपरिमंडलादि पंचसंस्थानंगळं वज्रनाराचादिपंचसंहननंगळु
संहननं अगुरु लघुपरघातोच्छ्वासातपोद्योताः प्रशस्तविहायोगतिः त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभग२० सुस्वरादेययशःकीति निर्माणतीर्थकराणि । एवमष्टषष्टिर्भेदविवक्षया प्रशस्ताः अभेदविवक्षया द्विचत्वारिंशत् । सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमित्युक्ता एवेत्यर्थः ॥४१-४२॥ अप्रशस्तप्रकृतीर्गाथाद्वयेनाह
घातीनि सर्वाण्यप्रशस्तान्येवेति तानि सप्तचत्वारिंशत् नीचैर्गोत्रं असातवेदनीयं नरकायुष्यं नरकगतितदानुपू] तिर्यग्गतितदानुपूर्ये एकेन्द्रियादिचतुर्जातयः न्यग्रोधपरिमण्डलादिपञ्चसंस्थानानि वज्रनाराचादि
शुभ वर्ण गन्ध रस स्पर्श, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, अगुरुलघु, परघात, २५ उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ,
सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण तीर्थंकर, इस प्रकार भेदविवक्षासे अड़सठ और अभेदविवक्षासे बयालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है-सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम, शुभगोत्र पुण्य प्रकृतियाँ हैं ॥४१-४२।।
अप्रशस्त प्रकृतियाँ दो गाथाओंसे कहते हैं
घातिकर्मोंकी सभी प्रकृतियाँ अप्रशस्त ही हैं अत: वे सैंतालीस, नीचगोत्र, असातवेदनीय, नरकायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, न्यग्रोध परिमण्डल आदि पाँच संस्थान, वज्रनाराच आदि पाँच संहनन,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अशुभवणगंधरसस्पर्शमेंब वर्णचतुष्टयमुं उपघातमुमप्रशस्तविहायोगतियुं स्थावरसूक्ष्म अपर्याप्तसाधारणशरीरास्थिराशुभदुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कोत्तियब स्थावरदशकमु बिउ बंधोदयंगळं कूर्तु भेदविवक्षयोळु क्रमदिदमष्टनवतियं शतमुमप्पुवु । अभेदविवक्षयोळु द्वयुत्तराशीतियु चतुरुत्तराशोतियुमप्पुवु । घा ४७ । नी १। अ१।न १। नि २ । ति २। जा ४। सं५। सं ५।अ = व ४ । उ १ । असद्गमन १। स्था १० । बंधे। भेदे ९८ । उदये । भेदे १०० । बंधे अभेदे ५ ८२ । उदये अभेदे ८४ ॥ कषायंगळ कार्यमं पेळ्दपरु
पढमादिया कसाया सम्मत्तं देससयलचारित्तं ।
जहखादं घादंति य गुणणामा होति सेसा वि ॥४५॥ प्रथमादिकाः कषायाः सम्यक्त्वं देशसकलचारित्रं । यथाख्यातं घ्नंति च गुणनामानो भवन्ति १० शेषा अपि ॥
अनंतानुबंधिकषायं सम्यक्त्वमं कडिसुगुमेके दोडदप्रतिबंधकत्वमुंटप्पुरिदं । अप्रत्याख्यानकषायं देशचारित्रमं किडिसुगु। प्रत्याख्यानकषायं सकलचारित्रमं किडिसुगुं। संज्वलनकेषायं यथाख्यातचारित्रमं किडिसुगुं । अदुकारणमागि कषायंगळ्गुणनाममनुळ्ळवप्पुवदेतेंदोडे :
अनंतसंसारकारणत्वान्मिथ्यात्वमनन्तं तदनुवनंतीत्यनंतानुबंधिनः। अप्रत्याख्यानमोषत्सं- १५ यमो देशसंयमस्तं कषंतीत्यप्रत्याख्यानकषायाः। प्रत्याख्यानं सकलसंयमस्तं कषंतीति प्रत्याख्यान
पञ्चसंहननानि अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शाः उपघातः अप्रशस्तविहायोगतिः स्थावरसूक्ष्मपर्याप्तसाधारणास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कीर्तयः इत्येता अप्रशस्ताः बन्धोदयौ प्रति क्रमेण भेदविवक्षायामष्टनवतिः शतं च भवन्ति । अभेदविवक्षायां द्वयशीतिश्चतुरशीतिश्च भवन्ति ॥४३-४४॥ कषायकार्यमाह
अनन्तानुबन्धिनः सम्यक्त्वं नन्ति । अप्रत्याख्यानकषायाः देशचारित्रं, प्रत्याख्यानकषाया चारित्रं, संज्वलना यथाख्यातचारित्रं तेन गुणनामानो भवन्ति । तथाहि-अनन्तसंसारकारणत्वात् मिथ्यात्वमनन्तं तदनुबध्नन्तीत्यनन्तानुबन्धिनः । अप्रत्याख्यान-ईषत्संयम देशसंयमः तं कषंतीति अप्रत्याख्यानकषायाः।
अशुभ वणे गन्ध रस स्पर्श, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति ये अप्रशस्त प्रकृतियाँ भेदविवक्षामें बन्धमें अठानबे तथा उदयमें सौ, अभेदविवक्षामें बन्धमें बयासी और उदयमें चौरासी २५ होती हैं ।।४३-४४॥
कषायका कार्य कहते हैं
अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्वको घातती हैं। अप्रत्याख्यानकषाय देशचारित्रको घातती हैं। प्रत्याख्यान कषाय सकल चारित्रको घातती हैं। संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्रको घातती हैं। अतः ये सार्थक नामवाली हैं। यही कहते हैं-अनन्त संसारका है. कारण होनेसे मिथ्यात्व अनन्त कहलाता है उसको जो बाँधती हैं या उसके साथ जो बँधती हैं वे अनन्तानुबन्धी हैं। अप्रत्याख्यान कहते हैं ईषत् संयम या देशसंयमको। उसे जो घातती हैं वे अप्रत्याख्यानकषाय हैं । प्रत्याख्यान कहते हैं सकलसंयमको, उसे जो घातती हैं
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१५
गो० कर्मकाण्डे
कषायाः । समेकीभूय ज्वलन्ति संयमेन सहावस्थानात् । संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनास्तयेव यथाख्यातं कषंति संज्वलना: । कषायाः एवं गुणनामानो भवन्तीत्यर्थः । शेषा अपि नोकषायज्ञानावरणादीन्यप्यन्वत्थं संज्ञानि भवन्तीति ज्ञातव्याति ॥
२०
४०
संज्वलनादिचतुः कषायंगळवासनाकालमं पेळदपरु :
उदयाभावेपि तत्संस्कार कालो वासनाकाल: एवितप्प वासनाकालं संज्वलनकषायंग १० अन्तर्मुहूतं वासना कालमक्कुं । प्रत्याख्यानकषायंगळगे एकपक्षं वासनाकालमक्कुं । अप्रत्याख्यानकषायंगळगे षण्मासं वासनाकालमक्कु मनंतानुबंधिकषायंगळगे वासनाकालं संख्यात भवंगळुम संख्यातभवंगळमनंतभवंगळ मवु नियर्मादिदं ॥ सं २१ प्र । दि १५ । अप्र मास ६ । अनंता १ । ख । वासनाकालंग ॥
अंतोमुहुत्त पक्खं छम्मासं संखासंखणतभवं संजणमादियाणं वासणकालो दु नियमेण ॥४६ ||
अन्तर्मुहूर्त्तः पक्षः षण्मासाः संख्या संख्या नंतभवाः । संज्वलनादीनां वासनकालस्तु नियमेन ॥
अनंतरं पुद्गलविपाकप्रकृतिगळं पेदपरु :
देहादी संता पण्णासा णिमिणतावजुगलं च । थिरमुहपत्तेयदुगं अगुरुतियं पोग्गलविवाई || ४७॥
देहादिस्पर्शीतानि पंचाशत् निर्माणमातपयुगळं च स्थिरशुभप्रत्येक युगळम गुरुलघुत्रितयं पुद्गलविपाकीनि ॥
प्रत्याख्यानं सकलसंयमः तं कषंतीति प्रत्याख्यानकषायाः । सम् एकीभूत्वा ज्वलन्ति संयमेन सहावस्थानात् संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः त एव यथाख्यातं कर्षतीति संज्वलनकषायाः । एवं शेषनोकषायज्ञानावरणादीन्यप्यन्वर्थसंज्ञानि भवन्ति ॥ ४५ ॥ संज्वलनादिचतुः कषायाणां वासनाकालमाह
उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः । स च संज्वलनानामन्तर्मुहूर्तः । प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्षः । अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासाः । अनन्तानुबन्धिनां संख्यातभवा:, असंख्यात भवाः, अनन्तभवा वा भवन्ति नियमेन ॥ ४६ ॥ अथ पुद्गलविपाकीन्याह
२५
वे प्रत्याख्यान कषाय हैं। जो संयम के साथ 'सम्' अर्थात् एकरूप होकर ज्वलित होती हैं अथवा जिनके होते हुए भी संयम ज्वलित होता है वे संज्वलन कषाय हैं । वे ही यथाख्यात संयमको घातती हैं। इसी तरह शेष नोकषाय और ज्ञानावरण आदि भी सार्थक नामवाले हैं ||४५||
isot आदि चार कषायोंका वासनाकाल कहते हैं
३०
उदय के अभाव में भी उनका संस्कार जितने काल रहता है उसे वासना काल कहते हैं। संज्वलन कषायोंका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त है प्रत्याख्यानावरण कषायोंका एक पक्ष है । अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका छह मास है । अनन्तानुबन्धीकषायोंका संख्यातभव, असंख्यातभव अथवा अनन्तभव नियमसे होता है ||४६ ||
पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंको कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४१ औदारिकादिशरीरपंचकमुं तबंधनपंचकमुं संघातपंचक, संस्थानषट्क, अंगोपांगत्रित यमुं संहननषट्कमुं वर्णपंचकमुं गंधद्वितयमुं रसपंचक, स्पर्शाष्टकमुदिती पंचाशत्प्रकृतिगळं निर्माणनाममुं आतपोद्योतयुगळम स्थिरास्थिरशुभाशुभप्रत्येकसाधारणशरीरंगळ द्विकंगळु अगुरुलाउपघातपरघातमब अगुरुलघुत्रितयमुमेंबी द्वाषष्टिप्रकृतिगळु पुद्गलविपाकिगळक्कुं। पुद्गले विपाकः पुद्गलविपाकः । सोऽस्त्येष्विति पुद्गलविपाकीनि यदु गुणनाममक्कुं॥ इन्नुलिदभवविपाकिगळंग क्षेत्रविपाकिगळंगे जीवविपाकिगळंगे पेळदपरु :
आऊणि भवविवाई खेत्तविवाई य आणुपुव्वीओ।
अत्तरि अवसेसा जीवविवाई मुणेयव्या ।।४८।। आयूंषि भवविपाकोनि क्षेत्रविपाकिन्यानुपूर्व्याणि । अठसप्तत्यवशेषा जीवविपाकिन्यो मंतव्याः ॥
___ नाल्कुमायुष्यंगळु भवविपाकिगळकुं। नाल्कुमानुपूव्यंगळु क्षेत्रविपाकिगळप्पुवु । अवशेषाष्टसप्ततिप्रकृतिगळु जीवविपाकिगळेदु बगेयल्पडुववु । औदारिकादिशरोरनिर्वर्तनदोळु विपाकमुझळदरिदं पुद्गलविपाकिगळं नारकादि भवंगळोळे विपाकमुन्दरिदं भवविपाकिगळं पूर्वशरीरमं विटुत्तरशरीरनिमित्तं विग्रहातियोळे विपाकमुदरिदं क्षेत्रविपाकिगळं नारकादिजीवपर्यायनिवर्तनदो विपाकमुळ्ळुरदं जीवविपाकिगळे दिन्तु कर्मप्रकृतिगळ्ये कार्याविशेषंगळ्पे- १५ ळल्पदृवु । दे ५। बं ५ । सं ५। सं ६ । अं३। सं ६ । व ५। ग२। र ५ । स्प ८ । नि१। आ १ । उ१ । स्थि१ । अ१। शु१ । अ१। प्र१। सा १ । अ १ । उ १ । ११ । युति ६२ । भवविपाकिगळु ४ । क्षेत्रविपाकिगळु ४ । जीवविपाकिगळु ७८ युति १४८॥
अष्टासप्ततिजीवविपाकिगळवाउवेंदोडे पेळल्पपरु :
पञ्चशरीरपञ्च बन्धनपञ्चसंघातषट्संहननपञ्चवर्णद्विगन्धपञ्चरसस्पर्शाष्टकमिति पञ्चाशत् । निर्माणं २० आतपोद्योती स्थिरास्थिरशुभाशुभप्रत्येकसाधारणानि अगुरुलघुपघातपरधाताश्चेति द्वाषष्टिः पुद्गलविपाकीनि भवन्ति । पुद्गले एव एषां विपाकत्वात् ।।४७॥ भवक्षेत्रजीवविपाकोन्याह
चत्वारि आयंषि भवविपाकीनि । चत्वारि आनूपूर्वाणि क्षेत्रविपाकीनि अवशिष्टाष्टसप्ततिः जीवविपाकीनि नरकादिजीवपर्यायनिर्वर्तनहेतुत्वात् । एवं प्रकृतिकार्यविशेषाः ज्ञातव्याः ॥४८॥ तानि जीवविपाकीनि कानि? इति चेदाह
२५
पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श ये पचास, निर्माण, आतप, उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, प्रत्येक, साधारण, अगुरुलघु, उपघात, परघात ये सब बासठ पुद्गलविपाकी हैं क्योंकि पुद्गलमें ही इनका विपाक होता है ॥४७॥
भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियों को कहते हैं
चार आयु भवविपाकी हैं। चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी हैं। शेष अठहत्तर प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं क्योंकि नारक आदि जीवपर्यायोंकी रचनामें निमित्त हैं। इस प्रकार प्रकृतियोंका कार्यविशेष जानना चाहिए ॥४८।।
वे जीव विपाकी प्रकृतियाँ कौन हैं, यह कहते हैंक-६
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१०
४२
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गो० कर्मकाण्डे
वेदणि गोदघा दीक्कावण्णं तु णामपयडीणं । सत्तावीसं चेदे अट्ठतरि जीवविवाईओ || ४९|| वेदनीयगोत्रघातिनामेकपंचाशत् तु नामप्रकृतीनां । सप्तविंशतिश्चैतान्यष्टसप्ततिजववि
पाकोनि ॥
dattaari गोत्रद्विकमुं घातिसप्तचत्वारिंशत्प्रकृतिगळुमिन्तु कूडि एकोत्तर पंचाशत्प्रकृतिगळं नामकर्म्मद सप्तविंशतिप्रकृतिगळुमिन्तु जीवविपाकिगळु मुंपेदष्टासप्ततिप्रकृतिगळवु ॥ नामकर्म्मद सप्तविंशतिगळाउवें दोडे गाथाद्वयदिदं पेदपरु :
तित्थयरं उस्सा बादरपज्जत्तसुस्सरादेज्जं ।
जसतसविहायसुभगदु चउगइ पणजाइ सगवीसं ॥ ५० ॥
तोत्थंकरमुच्छ्वासं बादरपर्याप्तसुस्वरादेययशस्कीत्तित्र सविहायोगति सुभगद्वयं चतुर्गतिः पंचजातयः सप्तविंशतिः ॥
तीत्थंकर नाममुच्छ्वासमुं बादर सूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त सुस्वरदुस्वर आदेयानादेययशस्कीर्त्ययशस्कीतित्र सस्थावर प्रशस्त विहायोगत्यप्रशस्तविहायोगति सुभगादुर्भगगळं चतुर्गतिनामकम् मंगळं पंचजातिनामकम् मंगळ मेदितु नामकर्म्मदोळ जीवविपाकिगळु सप्तविंशतिगळप्पुवु । ती १ । उ १ । १५२।२ । सु २ । आ २ । य २ । २ । वि २ । सु २ । ग ४ । जा ५ । कूडि २७ । गदि जादी उस्सासं विहायगदि तसतियाण जुगलं च । सुभगादी चउजुगलं तित्थयरं चेदि सगवीसं ॥ ५१ ॥
गतिजातयः उच्छ्वासो विहायोगति त्रसत्रयाणां युगळं च । सुभगादि चतुर्युगळं तीर्थंकरं चेति सप्तविंशतिः ॥
वेदनीयद्वयं गोत्रद्वयं
भवन्ति ॥ ४९|| तत्सप्तविंशति गाथाद्वयेनाह -
तीर्थङ्करं, उच्छ्वासः बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तसुस्वरदुः स्वरादेयानादय यशस्कीर्त्य यशस्कीर्तित्र सस्थावरप्रशस्ता प्रशस्त विहायोगति सुभगादुर्भगचतुर्गतयः पञ्चजातयश्चेति नामकर्म सप्तविंशतिः ॥ ५० ॥
घातिसप्तचत्वारिंशत्
नामसप्तविंशतिश्चेति
चतुर्गतयः पञ्चजातयः उच्छ्वासः विहायोगतित्रसबादरपर्याप्तयुगलानि सुभगसुस्वरादेययशस्कीर्ति२५ युगलानि तीर्थकरं चेत्यथवा नाम सप्तविंशतिः ।
अष्टसप्ततिर्जीवविपाकीनि
दो वेदनीय, दो गोत्र, घातिकर्मोंकी सैंतालीस और नामकर्म की सत्ताईस ये अठहत्तर प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं ॥ ४९ ॥
नामकर्म की वे सत्ताईस प्रकृतियाँ दो गाथाओंसे कहते हैं
तीर्थंकर, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, ३० यशःकीर्ति, अयशः कीर्ति, त्रस, स्थावर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, सुभग, दुभंग, चार गति, पाँच जाति ये नामकर्मकी सत्ताईस प्रकृतियाँ हैं ॥५०॥
चार गति, पाँच जाति, उच्छ्वास, विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्तका युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्तिका युगल और तीर्थकर ये नामकर्मकी सत्ताईस प्रकृतियाँ हैं ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका नाल्कुगतिगलमय्दु जातिगळुमुच्छ्वासमं विहायोगति त्रसबादरपर्याप्तयुगळंगळं सुभगसुस्वरादेयशस्कोत्तिबगळगळं तीर्थकरनाममुमिन्तु भेणु नामकर्मदोळु जीवविपाकिगळु सप्तविंशतिगळप्पुवु । २७ ॥ ग ४ । जा ५ । उ १ । वि २।। २। बा २। ५२। सु २। सु२। आ २ । य २। ती १ । युति २७॥
___ अनंतरं सामान्यकर्ममूलोत्तर कर्मप्रकृतिगळोळ प्रथमोदिष्टसामान्यकम्मं नामकर्म ५ स्थापनाकर्म द्रव्यकर्म भावकर्मभेदविदं चतुविधमदु पेन्दपरेके दोडे :
__ अवगणिवारणद्रं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च।
संसयविणासणटुं तच्चट्ठवधारणटुं च ॥ अप्रकृतनिवारणार्थ प्रकृतस्य प्ररूपणानिमित्तं च । संशयविनाशनात्थं तत्वावधारणात्थं च॥
अप्रकृतायनिवारणार्थमागियं प्रकृतार्थप्ररूपणानिमित्तमागियु संशयविनाशनार्थमागियु १० तत्वावधारणार्थमागियु चतुविधनामादिनिक्षेपं पेळल्पडुगुमेके दोडे-श्रोतुगळ त्रिविधमप्परव्युत्पन्ननुमवगताशेषविवक्षितपदार्थनुमेकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थमं दितिवरोळु प्रथमोद्दिष्टाव्युत्पन्ननव्युत्पन्ननप्पुरिदं विवक्षितपदार्थनुं नाध्यवस्यति निश्चयिसल्नरयं । अवगताशेषविवक्षितपदार्थनप्प द्वितीय संशेते संदेहिसुगुमे ते दोडे-कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति । प्रकृतार्थादन्यमय॑मादाय विपर्यस्यति वा इन्तु विपरीतनुमक्कू। मेणु एकदेशतोवगतविवक्षितपदार्थनप्प १५ तृतीय द्वितीयनंत संशेते संदेहिसुगुं। प्रकृतादादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा । प्रकृतार्थदत्तणिव मन्यार्थमं कैको डु विपरीतनक्कु मेणु एकेंदोडे सामान्यप्रत्यक्षदणिदमुं विशेषाऽप्रत्यक्ष
ननु श्रोतारस्त्रिविधा:-अव्युत्पन्नः अवगताशेषविवक्षितपदार्थः एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थश्चेति । तत्र प्रथमः-अव्युत्पन्नत्वात् विवक्षितपदार्थ नाध्यवस्यति इदमित्यमेवेति. याथात्म्यप्रतिपत्त्यनुत्पत्तेः । गच्छतस्तृणस्पर्शवत् । द्वितीयः-कोर्थोऽस्य ? इति संशेते । सामान्यप्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात उभयविशेषस्मृतेश्च २० संशयस्य दुनिवारत्वात् । स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । अथवा प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्येति । सामान्य प्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात् विपरीतस्मृतेश्च विपर्यासस्यावश्यंभावात् शुक्तिकाशकले रजतमिति । तथा तृतीयोऽपि द्वितीयवत् संशेते विपर्येति च । तत् एवाप्रकृतार्थनिवारणार्थ प्रकृतार्थप्ररूपणार्थ संशयविनाशार्थ तत्त्वाव
श्रोता तीन प्रकारके होते हैं-अव्युत्पन्न, समस्त विवक्षित पदार्थको जाननेवाला और एकदेशसे विवक्षित पदार्थको जाननेवाला। इनमें से प्रथम अव्यत्पन्न होनेसे विवक्षित ५ पदार्थको नहीं जानता, यह ऐसा ही है इस प्रकारका यथार्थज्ञान उसे नहीं होता। जैसे मार्गमें चलते हुएको तृणका स्पर्श होनेपर यथार्थ ज्ञान नहीं होता कि क्या है। दूसरा 'इसका क्या अर्थ है' इस प्रकार संशय करता है। क्योंकि सामान्यका प्रत्यक्ष, विशेषका अप्रत्यक्ष और दोनों के विशेष धौंका स्मरण होनेसे संशय अवश्य होता है जैसे यह स्थाणु है या पुरुष है। अथवा वह प्रकृत अर्थसे अन्य अर्थ लेकर विपरीत जानता है जैसे सीपमें ३० चाँदीका ज्ञान करना। यहाँ दोनोंमें पाये जानेवाले समान धर्मका प्रत्यक्ष और दोनोंके विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होनेसे व सीपसे विपरीत चाँदीका स्मरण आनेसे सीपको चाँदी समझ लेता है। तीसरा श्रोता भी दूसरेकी तरह संशय करता है या विपरीत जान लेता है। इसीलिए अप्रकृत अर्थका निवारण, प्रकृत अर्थका प्ररूपण, संशयका विनाश और तत्त्वका अवधारण करनेके लिए जबतक सामान्य आदि भेद-प्रभेदवाले कर्मका कथन ३५
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गो० कर्मकाण्डे
दत्तणदमु उभयविशेषविपरीतस्मृतियत्नदमुं संशयज्ञानमुं विपर्य्यासज्ञानमु पुदुगुं । स्थाणुर्वा पुरुषो वा एंदिन्तु शुक्तिकाशकले रजतमें दितु । आवुदोंदु कारणदिदमिदमित्यमेव वस्तुवदितु वस्तु याथात्म्या प्रतिपत्तियदु अनध्यवसाय में बुदवकुं । गच्छतस्तृणस्पर्शवत् । एंदितदु कारणदिदं संशयादिगळ व्यवस्थितनप्प शिष्यनना संशयादिगळदं तोलगिसिनिर्णये निश्चये क्षिपतीति ५ निक्षेपः । अप्रस्तुतार्थोपाकरणददमुं प्रस्तुतार्थव्याकरर्णादिदमुमी नामादिचतुविधनिक्षेपं फलवंतमक्कुमा नामादिगळ लक्षण में त दोर्ड :- अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञा कर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥ त एव गुणास्तद्गुणाः । न तद्गुणा एषां ते अतद्गुणास्तेषु भावेषु पदार्थेषु व्यवहारप्रसिद्धये व्यवहारप्रसिद्धयत्थं यत्संज्ञाकर्म्म यत्संज्ञाकरणं तन्नाम तन्नामेति प्रतिपद्यते । अतद्गुणंगळप्प पदात्थंगळोळु व्यवहारप्रसिद्धिनिमित्तमागि यावुदोंदु नामकरणमदु १० नाम मेंदु पेळपट्टु । येकें दोडा नामक्के पुरुषेच्छावशवर्तनमुंटपुढे कारणमागि । तथा चोक्तं :अंते पेळपट्टदु
४४
अयमर्थो नायमर्थं इति शब्दा वदन्ति न । कल्य्योऽयमत्थंः पुरुषैस्ते च रागादिविप्लुताः ॥
इदत्थं मप्पु दिदर्त्यमल्ल दुदेदितु शब्दंगळ पेटुवल्लवु । मत्तेत दोडे पुरुषैरयमर्थः कल्प्यः १५ पुरुषरुर्गादमी शब्दक्कथं मिदप्पु दिल्ते दितु कल्पिसल्पडुगुमा पुरुषरुगळं रागादिदोषदूषितरिदं विप्लुतंगळ विप्लवमनुळुदरिदं ।
" साकारे वा निराकारे काष्ठादौ यन्निवेशनं । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ "
वस्तुसादृश्यदो मेणसादृश्यदोळं मेणु काष्ठादिद्रव्यदोळु यन्निवेशनं आउदोंदु निक्षेपण२० मदाव तेरदिने दोडे - सोऽयमिति अदिदे दिंतु अवधानेन प्रयत्नविशेषदिदं सा स्थापना निगद्यते अदु स्थापनेयेंदु पेळपट्टुवु ।
२५
धारणार्थं च यावत्सामान्यादिभेदप्रभेदं कर्म, नामादिचतुर्विधनिक्षेपाश्रयेण नोच्यते तावत् तेषां श्रोतॄणां मनः संशयादिभ्यो न निवर्तते इति तल्लक्षणमुच्यते
अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥ १ ॥ साकारे वा निराकारे काष्ठादी यन्निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥२॥ नाम आदि चार प्रकारके निक्षेपोंके आश्रयसे नहीं किया जाता तबतक उनके विषय में श्रोताओंके मनसे संशयादि दूर नहीं होते। इसलिए नामादि निक्षेपोंका लक्षण कहते हैंजिन पदार्थों में जो गुण नहीं है उनमें व्यवहार चलाने के लिए मनुष्यकी इच्छानुसार जो संज्ञा रखी जाती है वह नामनिक्षेप है । साकार अथवा निराकार काष्ठ आदि में 'यह वह है ' ३० इस प्रकारका ध्यान करके जो निवेश किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं । आगामी गुणके योग्य अर्थ द्रव्यनिक्षेपका विषय है और तत्कालकी पर्यायसे युक्त वस्तु भावनिक्षेपका विषय है | उदाहरण के रूपमें - जैसे किसी व्यक्तिने अपनी इच्छानुसार व्यवहार चलाने के लिए अपने पुत्रका नाम राजा रखा । सो उसको राजा कहना नामनिक्षेप है । काष्ठ आदिको प्रतिमा या चित्रमें 'यह राजा है' ऐसी स्थापना करके उसे राजा मानना स्थापनानिक्षेप
३५ १. म विप्लुतरुगलु । साकारे ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका “आगामिगुणयोग्योो द्रव्यं न्यासस्य गोचरः ।
तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तु भावोऽभिधीयते ॥" आगामिगुणयोग्यार्थः आगामिगुणंगळिगे योग्यमप्पत्थं कथंभूतः न्यासस्य गोचरः निक्षेपक्कगोचरमप्पुदु द्रव्यं द्रव्यमें दिल्लि पेळल्पटुदु । तत्कालपर्ययाक्रांतं वस्तु तत्कालपर्यदिदं परिणतमप्पु वस्तु भावः भाव में दितु अभिधीयते पेसग्गों कल्पटुदु।
__ मुंपेन्द चतुविधनामादिगळोळु सामान्यकर्म मूलोत्तरप्रकृतिगळ्गे न्यासमं चतुस्त्रिशद्गाथासूत्रर्गाळदं पेळ्दपरु :
णामं ठवणा दवियं भावोत्ति चउविहं हवे कम्म -पयडी पावं कम्मं मलं ति मण्णा हु णाममलं ॥५२॥
नाम स्थापना द्रव्यं भाव इति चतुविधं भवेत्कर्म। प्रकृतिः पापं कर्म मलमिति संजं १० खलु नाममलं।
नामकर्म स्थापनाकर्म द्रव्यकर्म भावकर्मम दितु कर्मसामान्यं चतुविधमक्कुमवरोळ प्रथमोद्दिष्टनानमलं नामकर्म प्रकृतिः प्रकृतिय दुं पापं पापमें दुं कर्म कर्ममें दुं मलमिति मलमुमें दितु संजं भवेत् संज्ञेयनकळदकुं।
सरिसासरिसे दव्वे मदिणा जीवट्ठियं खुजं कम ।
तं एदत्ति पदिट्ठा ठवणा तं ठावणा कम्मं ॥५३॥ सादृश्यासादृश्यद्रव्ये मत्या जीवस्थितं खलु यत्कर्म। तदेतदिति प्रतिष्ठा स्थापना तत्स्थापनाकर्म ॥
___ सद्भाववस्तुविनोळमसद्धाववस्तुविनोळं । मत्या बुद्धियिदं जीवाशेषप्रदेशप्रचययंगळोळिरुतिई यत्कर्म आउदोंदु सामान्यकर्म । तदेतदिति अदिदितु प्रतिष्ठा स्थापना स्थापने तत् २० स्थापनाकर्म अदु स्थापनाकर्ममेंदु पेळल्पटुदु ।
आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यं न्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावोऽभिधीयते ॥३॥ ॥५१॥ अथ नामादिषु सामान्यकर्म मूलोत्तरप्रकृतोंश्च चतुस्त्रिशद्गाथासूत्रय॑स्यति
कर्मसामान्यं नामस्थापनाद्र व्यभावभेदाच्चतुर्विधम् । तत्र नाममलं नामकर्म । प्रकृतिरिति-पापमितिकर्मेति-मलमिति च संज्ञं स्यात् ॥५२॥
सदृशे असदृशे वा वस्तुनि मत्या जीवाशेषप्रदेशप्रचयस्थितं यत्सामान्यकर्म तदिदमिति प्रतिष्ठा स्थापनाकर्मेत्युच्यते ॥५३॥ है। आगे जो राजा होगा उसको राजा कहना द्रव्यनिक्षेप है और वर्तमानमें जो पृथ्वीका स्वामी राज्यासनपर विराजता है उसे राजा कहना भावनिक्षेप है ॥५१॥
सामान्य कर्म और मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंमें नामादि निक्षेपका कथन चौंतीस ३० गाथाओं द्वारा करते है-कर्म सामान्य नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे चार प्रकार है। उसमें प्रकृति, पाप कर्म अथवा मल ऐसी संज्ञा नाममल है ॥५२।।
कर्मके समान अथवा असमान द्रव्यमें बुद्धिके द्वारा 'जीवके समस्त प्रदेशों में स्थित जो सामान्य कर्म है वह यह है' ऐसी स्थापना स्थापनाकर्म है ॥५३॥ १. अ जीवाविशेष ।
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ܕ
५
२०
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गो० कर्मकाण्डे
दव्वे कम्मं दुविहं आगमणो आगमं ति तप्पढमं । कम्मागमपरिजाणगजीवो उवजोगपरिहीणो ॥ ५४ ॥
द्रव्ये कम्मं द्विविधमागम नोआगम इति तत्प्रथमं । कर्म्मागमपरिज्ञायकजीवः उपयोग
ज्ञायकशरीरं भव्यं तद्वयतिरिक्तं तु भवति यद्द्द्वितीयं । तत्र शरीरं त्रिविधं त्रिकालगत - मिति द्वे सुगमे ॥
द्वितीयं आदों नोआगमद्रव्यकम्मं तत्त्रिविधं अदु त्रिविधमक्कुं ज्ञायकशरीरं भावि तद्वयतिरिक्तमिति । ज्ञातृशरीरमें दुं ज्ञायि भाविशरीरमें कुं आयेरडरिदं व्यतिरिक्तमेदितु । तु मत्ते १५ तत्र अवरोळु शरीरं प्रथमोद्दिष्टज्ञायकशरीरं त्रिविधं त्रिप्रकारमकुं । त्रिकालगतमिति त्रिकालंगळोळु भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालंगळोळिद्दे दिन्तु द्वे सुगमे तत् ज्ञातृविन त्रिकालगतशरीरंगळोळ भूतशरीरमं बिट्टुळिद वर्तमान भाविशरीरंगळे रडुं सुगमंगळेकेदोडे वर्तमानदोलिरुत्तिद भाविकालदोळा गल्वे डिदुर्दु वुमप्पुर्दारवं । भूतशरीरक्के पेदपरु :
३०
परिहीनः ॥
द्रव्यदो कम्मं द्विविधमक्कुमागमद्रव्यकम्र्ममे ढुं नोआगमद्रव्य कर्म्मसुमेदितु । तत्प्रथमं तयोर्मध्ये प्रथममागमद्रव्यकम्मं कर्म्मागमपरिज्ञायकजीवः कर्म्मागमवाच्यवाचकज्ञातृज्ञेय संबंध परिज्ञायिकजीवनप्पं । उपयोगपरिहोनः अनुपयुक्तनप्पं । तच्छास्त्रार्थावधारणानुचितनव्यापाररहित बुदत्थं ।
जाणुगसरीर भवियं तव्वदिरित्तं तु होदि जं विदियं । तत्थ सरीरं तिविहं तियकालगयंति दो सुगमा ॥५५ ॥
द्रव्ये कर्म द्विविधं आगमनोआगमभेदात् । तत्र कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमस्य वाच्यवाचकज्ञातृज्ञेयसंबन्धपरिज्ञायकजीवो यः तदर्थावधारणचिन्तनव्यापार रूपोपयोगरहितः स आगमद्रव्यकर्म भवति ॥ ५४ ॥
तु पुनः यद्वितीयं नो - आगमद्रव्यकर्म तत्त्रिविधं भवति - ज्ञायकशरीरं भावि तद्व्यतिरिक्तमिति । तत्र ज्ञायकशरीरं त्रिविधं त्रिकालगतमिति । तत्र वर्तमान भाविशरीरे द्वे सुगमे तत्तत्कालवर्तित्वात् ॥५५॥ भूतशरीरस्याह
द्रव्यनिक्षेप रूप कर्मके दो भेद हैं- -आगम द्रव्यकर्म और नोआगमद्रव्यकर्म । उनमें से कर्मके स्वरूपका कथन करनेवाले आगमका वाच्य वाचक सम्बन्ध और ज्ञाता ज्ञेय सम्बन्ध से जाननेवाला जो जीव वर्तमानमें उसके अर्थके अवधारण और चिन्तन व्यापाररूप उपयोगसे रहित है अर्थात् उसका उपयोग अन्य ओर है वह आगमद्रव्यकर्म है ||५४ ||
जो दूसरा नोआगमद्रव्यकर्म है वह तीन प्रकारका है-ज्ञायकशरीर, भावि, तद्वयतिरिक्त । उनमें से ज्ञायक शरीर तीन प्रकार है-भूत, भावि और वर्तमानकालीन । जिस शरीर सहित जीव कर्मके स्वरूपको जानता है उसका वह शरीर वर्तमान है। उससे पूर्वका छोड़ा हुआ शरीर भूत है और आगामी में जो शरीर धारण करेगा वह भावि है । उनमें से वर्तमान और भाविशरीर दो सुगम हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कालवर्ती होते हैं ||१५|| भूत शरीरको कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भृदं तु चुदं चयिदं चत्तंति तिधा चुदं सपाकेण ।
पडिदं कदलीघादपरिच्चागेणूणयं होदि ॥५६।। भूतं तु च्युतं च्यावितं त्यक्तमिति त्रिधा च्युतं स्वपाकेन । पतितं कदलीघातपरित्यागाभ्यामूनकं भवति ॥
ज्ञायकन भूतशरीरं। तु मत्ते। च्युतशरीरमेंदु च्यावितशरीरमेंदु त्यक्तशरीरमदितु। ५ त्रिधा त्रिप्रकारमक्कुमल्लि। च्युतं च्युतशरीरमें बुदु (स्वपाकेन पतितं स्वस्थितिक्षयवदिदं बि? पोदुदागियुं । कदलीघातपरित्यागाभ्यामूनकं भवति कदलीघातमुं सन्न्यासमुमें बेरडरिदं होनमादुदक्कुं। कदलीघातक्के लक्षणमं पेळ्दपरु :
विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थगाहणसंकिलेसेहिं ।
उस्सासाहाराणं गिरोहदो छिज्जदे आऊ ।।५७।। विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशैः । उच्छ्वासाहाराणां निरोधतः च्छिद्यते आयुः॥
विषमुवेदनेयुं रक्तक्षयमु भयमु शस्त्रघातमु संक्लेशमुमुच्छ्वासनिरोधमुमाहारनिरोधमुमेंबी हेतुर्गाळदमायुष्यं खंडिसल्पडुगुमदु कदलीघातमबुदक्कुं।
कदलीघादसमेदं चागविहीणं तु चइदमिदि होदि ।
घादेण अघादेण व पडिदं चागेण चत्तमिदि ॥५८॥ कदलीघातसमेतं त्यागविहीनं त च्यावितं भवति । घातेनाघातेन वा पतितं त्यागेन त्यक्तमिति ॥
तु मत्ते ज्ञायकनाउदोदु भूतशरीरं । कदलीघातसमेतं कदलीघातसमेतमागि पतितं बीळलपटुदु । चागविहीणं त्यागदिदं होनमादुदादोड। च्यावितं भवति च्यावितम बुदक्कु। मत्तमा २०
ज्ञायकस्य भूतशरीरं तु पुनः च्युतं च्यावितं त्यक्तं चेति त्रिधा। तत्र च्युतं स्वपाकेन पतितमपि कदलीघातसंन्यासाभ्यामनं भवति ॥५६॥ कदलीघातस्य लक्षणमाह
विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रघातसंक्लेशोच्छ्वासनिरोधाहारनिरोधैर्हेतुभिरायुः छिद्यते स कदलीघातः ॥५॥
तु-पुनः ज्ञायकस्य यद्भूतशरीरं कदलीघातसमेतं सत् पतितम् । त्यागेन संन्यासेनोनं तदा तच्च्यावित- २५
ज्ञायकका भूत शरीर च्युत, च्यावित, त्यक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें-से च्युतशरीर स्वयं पककर अपने समयसे छूटता है। वह कदलीघात और संन्यास इन दोनोंसे रहित होता है ॥५६॥
कदलीघातका लक्षण कहते हैं
विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश, उच्छ्वासका रुकना या आहारका ३० न मिलना आदि कारणोंसे आयुका छेद होनेको कदलीघात कहते हैं ।।५७||
ज्ञायकका जो भूत शरीर कदलीघातपूर्वक छूटता है किन्तु संन्याससे रहित होता है १. मतसहितमा । २. आ त्रिविधा । ३. आ°घातं लक्षयति ।
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गो० कर्मकाण्डे ज्ञातविनाउदोंदु भूतशरीरं घातेनाघातेन वा कदलीघातदिदं मेकदलीघातरहितदिदं मेणु । त्यागेन पतितं सन्याससहितमागि पतितमादुदु । त्यक्तमिति त्यक्तशरीरमें दितु पेळल्पटुटु । आ त्यक्तशरीरं मरणविधानभेददिदं त्रिविध दु पेदपरु :
भत्तपडण्णाइंगिणिपाओग्गविहीहि चत्तमिदि तिविहं ।
भत्तपइण्णा तिविहा जहण्णमज्झिमवरा ५ तहा ।।५।। भक्तप्रतिज्ञाइंगिनीप्रायोपगमनविधिभिस्त्यक्तमिति त्रिविधं । भक्तप्रतिज्ञा त्रिविधा जघन्यमध्यमवरा च तथा ।।
ज्ञायकभूतत्यक्तशरीरं भक्तप्रतिज्ञायिगिनोप्रायोपगमनविधिभिः। भक्तप्रतिज्ञयुं इंगिनियं प्रायोपगमनमुमेंब मरणविधानभेदंगलितं । त्यक्तं बिडल्पटुंदे दितु । त्रिविधं त्रिप्रकारमा कुमल्लि १० प्रथमोद्दिष्टभक्तप्रतिज्ञा तथा ज्ञायकभूतत्यक्तशरीरदत। त्रिविधा त्रिप्रकारमक्कु। जघन्य भक्तप्रतिज्ञाविधान मृतियेंदु मध्यमभक्तप्रतिज्ञाविधानमरणमें दुमुत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यान मरणमुम दितु । अनंतरं त्रिविधभक्तप्रतिज्ञाविधानमरणंगळगे कालप्रमाणमं पेदपरु :
भत्तपइण्णायविही जहण्णमंतोमुहत्तयं होदि ।
बारसवरिसा जेट्ठा तम्मज्झे होदि मज्झिमया ॥६०॥ भक्तप्रतिज्ञाविधिजघन्योन्तमहतॊ भवति। द्वादशवर्षाण्युत्कृष्टस्तन्मध्ये भवति मध्यमकाः॥
भक्तप्रतिज्ञामरणविधानकालं जघन्यमन्तर्मुहूर्तमक्कुमुत्कृष्टं द्वादशवर्षगळापुवु । मध्यभक्तप्रतिज्ञामरणविधानकालंगळु । तन्मध्ये तयोर्जघन्योत्कृष्टयोर्मध्यं तस्मिन् । आ एरडर मध्यदोळु समयाधिकजघन्यान्तर्मुहूर्तमादियागि समयाधिकक्रमदिदं उत्कृष्ट विधान द्वादशवरुषंगळोलेकसमयोनसंख्यातावलिपरियंतमाद सर्वमध्यमविकल्पंगळ संख्यातावलिप्रमितंगळप्पुरिदं युक्तासंख्यात
२० मिति भवति । कदलीघातेन तदविना वा त्यागेन पतितं त्यक्तमिति ॥५८॥ तस्यैव मरणविधानेन त्रैविध्यमाह
तत् त्यक्तशरीरं भक्तप्रतिज्ञा-इंगिनी-प्रायोपगमनमरणविधिभिस्त्यक्तमिति त्रिविधम । तत्र भक्तप्रतिज्ञापि तथा ज्ञायकभूतत्यक्तशरीरवत् विधा जघन्या मध्यमोत्कृष्टेति ॥५९॥ तज्जघन्यादेः कालप्रमाणमाह
भक्तप्रतिज्ञामरणविधानकालः जघन्योऽन्तर्मुहूर्तो भवति । २१ । उत्कृष्टो द्वादशवर्षमात्रो भवति । वह च्यावित होता है। कदलीघातसे या उसके बिना किन्तु संन्यासपूर्वक छूटा शरीर त्यक्त २५ होता है ॥५८॥
उसी त्यक्तशरीरके त्यागके मरणविधान की अपेक्षा तीन भेद कहते हैं
वह त्यक्तशरीर भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन नामक मरणविधिके भेदसे तीन प्रकार है। जैसे ज्ञायकका भूत त्यक्तशरीर तीन प्रकारका है वैसे ही भक्तप्रतिज्ञा भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे तीन प्रकार है ।।५९।।
उन जघन्य आदि भेदोंके कालका प्रमाण कहते हैं
भक्तप्रतिज्ञा अर्थात् भोजनकी प्रतिज्ञापूर्वक मरणविधानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त १. आ. भवति २१।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मध्यपतिता संख्यात राशिप्रमाणमप्पुवववर्क संदृष्टि :- आदि २० अन्तेव १२ सुद्धे २१ । १ । वड्डिहिदे २१ १ रूवसंजुवे २१ २१ ठाणा । ये दितिनितु मध्यम कालविकल्पंगळ संख्यात तंगळपुर्वबुदत्थं ॥ यिगिनीप्रायोपगमनमरणंगळगे लक्षणमं पेळदपरु :
अप्पो यारवेक्खं परोवयारूणमिंगिणीमरणं । सपरोवयारहीणं मरणं पाओवगमणमिदि ॥ ६१ ॥
आत्मोपचारापेक्षं परोपचारोनमगिनोमरणं । स्वपरोपचारहीनं मरणं प्रायोपगमनमिति ॥ तन्निदं तनगे माळ्युपचारापेक्षमं परोपचारनिरपेक्षमुमिंगिनी मरण में बुदक्कुं । स्वपरोपचाररहितं मरणं प्रायोपगमनमें बुदवकुं ॥
ज्ञायकशरीरभेदमं पेदनंतरं भावि ज्ञातुकशरीरमं पेदपरु :
भवियंति भवियकाले कम्मागमजाणगो स जो जीवो । जाणुसरीरभवियं एवं होदित्ति निद्दिट्ठ ॥६२॥
भविष्यति भाविकाले कर्मागमज्ञायकः स यो जीवः । ज्ञायकशरीरभयः एवं भवतीति
निर्दिष्टं ॥
यः आवनोव्वं मुंपेळपट्ट् । कर्म्मागमज्ञायकः कर्मागमज्ञायी । भाविकाले भाविकालदो १५ भविष्यति आदहनु । स जीवः आ जीवं । ज्ञायकशरीर भव्यः ज्ञायक भाविशरीर मक्कुमिन्तु भाविये दु पेळपट्टुज्ञायकशरीरं एवं भवति निद्दिष्टं इंतप्पूदे दु पेळपट्टु ॥
२ १ १ १ । तन्मध्यवर्ती समयोत्तरविकल्पः स सर्वोऽपि मध्यमो भवति ॥ ६० ॥ इंगिनीप्रायोपगमनमरणे लक्षयति
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स्वकृतोपचारापेक्षं परोपचारनिरपेक्षं तदिङ्गिनीमरणम् । स्वपरोपचाररहितं ' तन्मरणं प्रायोपगमनमिति ॥ ६१ ॥ ज्ञायकशरीरभेदमुक्त्वा भाविज्ञातृशरीरमाह
यः कर्मागमज्ञायको भाविकाले भविष्यति स जीवो ज्ञायकभाविशरीरं स्यात् । एवं भावीत्युक्तज्ञायकशरीरं भवति इति निर्दिष्टम् ॥ ६२ ॥
-
है । उत्कृष्ट बारह वर्ष प्रमाण है । उनके मध्यवर्ती एक-एक समय अधिक जितने भेद हैं वह सब मध्यम कालका प्रमाण है ||६०||
इंगिनी और प्रायोपगमन मरणका लक्षण कहते हैं
१. आ. रहितं तेजो प्रां ।
क- ७
जिस संन्यासमरणमें संन्यास धारण करनेवाला अपने शरीरका उपचार स्वयं तो करता है किन्तु दूसरे से नहीं कराता वह इंगिनी मरण है । और जिसमें अपना उपचार न स्वयं करता है, न दूसरेसे कराता है वह प्रायोपगमन मरण है ||६१ ॥
ज्ञायक शरीर के भेद कहकर भाविज्ञायक शरीरको कहते हैं
जो भविष्यकाल में कर्मविषयक आगमका ज्ञाता होगा वह जीव ज्ञायकभावि है इस प्रकार भाविज्ञायक शरीर कहा है ||६२॥
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५०
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गो० कर्मकाण्डे
अनंतरं तद्व्यतिरिक्तमं पेदपर --
तद्व्यतिरिक्तं द्विविधं कर्म नोकर्म्म इति तस्मिन् कर्म्म । कम्र्मस्वरूपेणागतक मंद्रव्यं ५ भवेन्नियमात् ॥
२५
ताभ्यां व्यतिरिक्तं ज्ञायकशरीरभाविशरीराभ्यां व्यतिरिक्तं । अरिवन शरीरमरियलु वेडिनशरीरमुमें बेरडुमल्लद्दु तद्व्यतिरिक्तमें बुदक्कुमटु द्विविधं द्विप्रकारमक्कुं । कर्म्म नोक इति कर्म्मरूप तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यमे हुँ नोकर्म्मरूपतद्वयतिरिक्तनो आगमद्रव्यमु वितु । तस्मिन् आ द्विविधदो कर्म्म कर्म्मस्वरूप तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यं कर्मस्वरूपेणागत द्रव्यं १० ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतिस्वरूपदिदं परिणतकद्रव्यमक्कुं नियमात् नियर्मादिदं ॥ अनंतरं नोकरूप तद्वयतिरक्त नोआगमद्रव्यमं पेळदपरु :
तव्वदिरित्तं दुविहं कम्मं णोकम्ममिदि तर्हि कम्मं । कम्म सरूवेणागय कम्मं दव्वं हवे णियमा ॥ ६३ ॥
१५ भवेत् ॥
कर्म्मस्वरूपद्रव्यदर्त्ताणदं । अन्यत् द्रव्यं मत्तों दु द्रव्यं । नोकम्मंद्रव्यमिति भवेत् नोकद्रव्यकर्म दितु पेळपट्टुदक्कुं । भावे कर्म्म द्विविधं भावदो कम्मं द्विप्रकार मक्कुं । आगम नो आगम इति आगमभावकम्मंमेंदु नोआगम भावकर्ममे दितु ॥ आ भावकर्म्मद द्विप्रकारमं पेदपरु :—
कम्मागमपरिजाणगजीवो कम्मागमम्मि उवजुत्तो । भावागमकम्मत्तिय तस्स य सण्णा हवे णियमा ॥ ६५ ॥ कर्मागमपरिज्ञायकजीवः कर्मागमे उपयुक्तः । भावागमकम्मं इति तस्य च संज्ञा भवेन्नियमात् ॥
कम्मद्दव्वादण्णं दव्वं णोकम्मदव्यमिदि होदि ।
भावे कम्मं दुविहं आगमणो आगमंति हवे || ६४॥
कद्रव्यादन्यद्रव्यं नोकर्म्मद्रव्यमिति भवति । भावे कर्मं द्विविधं आगम नोआगम इति
अथ तद्व्यतिरिक्तमाह
तद्व्यतिरिक्तं द्विविधं कर्मनो कर्मेति । तत्र मूलोत्त रप्रकृतिस्वरूपेण परिणतं कर्म द्रव्यकर्म भवति नियमात् ॥ ६३ ॥ नोकर्मरूपतद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यमाह -
कर्मस्वरूपादन्यद्रव्यं नोकर्मेत्युच्यते । भावे कर्म द्विविधं आगमभावकर्म नोआगमभावकर्मेति ॥ ६४ ॥
आगे नो आगम द्रव्यकर्मके तीसरे भेद तद्वयतिरिक्तको कहते हैं
तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्यकर्म के दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म । उनमें से मूलप्रकृति ३० और उत्तरप्रकृति के रूप में परिणमा पुद्गलद्रव्य कर्मतद्वयतिरिक्त है || ६३||
नोकर्मरूप तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यको कहते हैं
कर्मरूपसे अन्य द्रव्यको नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म कहते हैं। भावनिक्षेपरूप कर्मके भी दो भेद हैं-आगमभावकर्म, नोआगमभावकर्म ॥६४॥
१. वा. कर्म भवति ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कांगम परिज्ञायकजीवः कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमशास्त्रपरिज्ञाइयप्प जीवं । कांगमे उपयुक्तः तच्छास्त्रोपयोगमुळ्ळं । भावागम कर्म इति भावागमकर्ममें दितु । तस्य च संज्ञा भवेनियमात् आ जीवंगे संज्ञे नियमदिदमकुं॥ अनंतरं नोआगमभावमं पेळ्दपरु :--
णोआगमभाओ पुण कम्मफलं भुंजमाणगो जीवो।
इदि सामण्णं कम्मं चउन्विहं होदि णियमेण ॥६६॥ नो आगमभावः पुनः कर्मफलं भुंजानो जीवः। इति सामान्यं कर्म चतुम्विधं भवति नियमेन ॥
नोआगम भावकर्ममुं पुनः मत्त । कर्मफलमननुभविसुत्तिर्प जीवनक्कुं। इंतु सामान्यकर्म चतुम्विधमक्कुं नियमदिदं ॥ अनंतरं मूलोत्तरप्रकृतिगळ्गे नामाविचतुम्विधर्म पेन्दपर:
मूलत्तरपयडीणं णामादी एवमेव णवरिं तु ।
सगणामेण य णामं ठवणा दवियं हवे भावी ॥६७॥ __ मूलोत्तरप्रकृतीनां नामादय एवमेव विशेषस्तु। स्वस्वनाम्ना च नाम स्थापना द्रव्यं भवेद्धावः॥
मूलोत्तरप्रकृतीनां मूलोत्तरप्रकृतिगळ्गंमुत्तरप्रकृतिगळ्गं। नामादयः नामस्थापनाद्रव्यभावंगळु । एवमेव यो सामान्यकर्मक्के पेन्दंतये । भवेत् अक्कुं। तु मत्त। विशेषः विशेषमुंटदाउ देंदोड स्वस्वनाम्ना च तंतम्म नामविंदमे नाम स्थापना द्रव्यं भावो भवेत् तंतम्म नामस्थापनाद्रव्यं भावमुमक्कुं॥
अनंतरमल्लि विशेषमं पेळ्दपरु :
तत्र कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमपरिज्ञायकः कर्मागमे उपयुक्तः तस्य भावागमकर्मसंज्ञा नियमेन भवति॥६५॥.
नोआगमभावकर्म पुनः कर्मफलमनुभवन् जीवो भवति । एवं सामान्यक चतुर्विधं भवति नियमेन ॥६६॥ अय मूलोत्तरप्रकृतीनां नामादिभेदानाह
मलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां च नामस्थापनाद्रव्यभावाः सामान्यकर्मोक्तरीत्यैव भवन्ति । तु-पनः विशेषः । स कः ? स्वस्वनाम्नैव नाम स्थापना द्रव्यं भावो भवति ॥६७॥ पुनः तत्र विशेषमाह
२५ जो जीव कर्मके स्वरूपके प्रतिपादक आगमका ज्ञाता है और उसीमें अपना उपयोग लगा रहा है उसको नियमसे आगमभावकम कहते है ॥६५।।
जो जीव कर्मका फल भोग रहा है वह नोआगमभाव कम है। इस प्रकार नियमसे सामान्य कर्म चार प्रकार है ॥६६॥ ।
अब मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके नामादि भेद कहते हैं
मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंके नाम, स्थापना, द्रव्य भाव सामान्य कर्मके कहे भेदोंके अनुसार ही होते हैं। इतना विशेष है कि प्रत्येक प्रकृति के नाम, स्थापना, द्रव्य भाव अपने-अपने नामानुसार ही होते हैं ॥६॥
पुनः अन्य विशेष कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे मूलुत्तरपयडीणं णामादि चउव्विहं हवे सुगमं ।
वज्जित्ता णोकम्मं णोआगमभावकम्मं च ॥६८॥ मूलोत्तरप्रकृतीनां नामावि चतुम्विधं भवेत्सुगमं । वज्जित्वा नोकर्म नोआगमभाव कर्म च ॥
ज्ञानावरणाद्यष्टविधमूलप्रकृतिगळगं मतिज्ञानावरणाद्युत्तरप्रकृतिगळगं नामाविचतुःप्रकारं सुगममक्कुमल्लि नोकर्ममुं नोआगमभावकर्ममुमेंबरडं वज्जिसि शेषमनितुं सामान्यकथनमें तंतेयप्पुरिदं सुगममक्कुमा नोकर्म नोआगमभावकमंगळं मूलप्रकृतिगळेगमुत्तरप्रकृतिगळेग योजिसिदपरदेंते दोड:
पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचंगं ।
भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु ॥६९॥ पटप्रतिहारासिमद्याहारदेहोच्चनीचांग । भांडागारी मूलानां नोकर्म द्रव्यकर्म तु॥
ज्ञानावरणक्के श्लक्ष्णकांडपटं नोकर्मद्रव्यमक्कुमदुर्बु ज्ञानावरणवंते वस्तुविशेषप्रतिपत्तिप्रतिबंधकमप्पुरिदं ॥
दर्शनावरणक्के द्वारनियुक्तप्रतिहारं नोकर्मद्रव्यकर्ममुमक्कुमातंर्ग दर्शनावरणदत वस्तु१५ सामान्यग्रहणप्रतिबंधकत्वगुंटप्पुरिदं ॥ वेदनीयकर्मक्क मधुलिप्तासिधारे नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु
मदुर्बु विषयानुभवनदोळ सुखदुःखंगळं वेदनीयमें तु माळकुमंते सुखदुःखकारणमप्पुरिदं। मोहनीयकर्मक्के मद्यं नोकमद्रव्यकर्ममक्कुमदुर्बु मोहनीयवंते सम्यग्दर्शनाविजीवस्वभावमं पत्तुविडिसि
मूलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां च नामादिचतुर्विधं सुगमं भवति । तत्र नोकर्म नो आगमभावकर्मेति द्वयं वजित्वा शेषस्य सामान्यवत् कथनात् ॥६८॥ तन्नोकर्मनोआगमभावकर्मणी मूलोत्तरप्रकृतीषु योजयति२० तत्र ज्ञानावरणस्य नोकर्मद्रव्यकर्म श्लक्ष्णकाण्डपटो भवति विशेषग्रहणप्रतिबन्धकत्वात् । दर्शनावरणस्य द्वारनियुक्तप्रतीहारः सामान्यग्रहणविराधकत्वात् । वेदनीयस्य मधुलिप्तासिधारा सुखदुःखकारणत्वात् । मोह
मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियों के नामादि चारों भेद सुगम हैं। किन्तु नोकर्म और नोआगम भावकर्मको छोड़कर शेषका कथन सामान्य कमके समान जानना। आशय यह है
कि पहले द्रव्यनिक्षेपके दो भेद किये थे-आगम और नोआगम । नोआगम द्रव्यके तीन २५ भेद कहे थे-ज्ञायक शरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त। उनमें से तद्वयतिरिक्तके दो भेद कहे
थे-कर्म और नोकर्म । सो यहाँ नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्मका वर्णन सब प्रकृतियोंमें करते हैं। जिस-जिस प्रकृतिका जो-जो उदय फलरूप कार्य है उस-उस कार्यमें जो बाह्यवस्तु निमित्त होती है उस वस्तुको उस प्रकृतिका नोकर्म द्रव्यकर्म कहते हैं ।।६८॥
मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें नोकर्म और नोआगम भावकर्मकी योजना करते हैं
ज्ञानावरणका नोकर्मद्रव्यकर्म घने वस्त्रका परदा है क्योंकि वह विशेष रूपसे वस्तुको ग्रहण करने में बाधक होता है। दर्शनावरणका नोकर्म द्रव्यकर्म द्वारपर नियुक्त द्वारपाल है क्योंकि वह सामान्य रूपसे भी देखने में बाधक होता है। वेदनीयका नोकर्म द्रव्यकर्म मधुसे लिप्त तलवारकी धार है क्योंकि उसको चाटनेसे सुख और पुनः दुःख होता है । मोहनीयका
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मरुळमाडुगुमंते मद्यसुं निजस्वभावमं पत्तुविडिसि सोक्किसुगुमप्पुरिदं । आयुष्यकमक्क चतुम्विपाहारं नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमा चतुविधाहारक्के आयुष्यकर्मवंत आयुःकर्मधृतशरीरक्क बलाधानकारणत्वविदं शरीरस्थितिहेतुत्वमुंटप्पुरदं। नामकर्मक्के औदारिकादिदेहं नोकर्म व्यकर्ममक्कुमा देहक्केयुं नामकर्मदंते औदारिकादिदेहनिवर्तकत्वमुंटदेते दोडे औदारिकादिदेहवर्गणेगळ्गे योगोत्पादकत्वमुंटप्पुरदं तन्निमित्तकमप्पौदारिकादिदेहनिर्वर्तकत्वं सिद्ध- ५ मप्पुरिदं ॥ __गोत्रकम्मक्के युच्चनीचांगं नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कुमदक्के गोत्रकर्मदंत उच्चनीचकुलाविर्भावकत्वमुंटप्पुरिदं । अन्तरायकर्मक्क भाण्डागारिकं नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमवंगमंतरायकर्मवंत भोगोपभोगादिवस्तुगळ्गमन्तरायकरणत्वमुंटप्पुरदं । तु मते ॥ अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळ्गे नोकर्मद्रव्यकर्ममं पेदपरु :
पडविसयपहुँडिदव्वं मदिसुदवाघादकरणसंजुत्तं ।
मदिसुदबोहाणं पुण णोकम्म दवियकम्मं तु ॥७०॥ पटविषयप्रभूति द्रव्यं मतिश्रुतव्याघातकरणसंयुक्तं । मतिश्रुतबोधयोः पुनर्नोकर्म द्रव्यकर्म तु॥
पटप्रभृतिद्रव्यं विषयप्रभूतिद्रव्यमुं क्रमदिदं मतिज्ञानव्याघातकरणसंयुक्तमु श्रुतज्ञानव्याघात- १५ करणसंयुक्तमप्पुन कारणमागि मतिज्ञानावरणक्के पटप्रभृतिद्रव्यं नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कुं। श्रुतज्ञानावरणक्के विषयप्रभूतिद्रव्यं नोकम्मंद्रव्यकर्ममक्कुं। तु इति ॥ नीयस्य मद्यं सम्यग्दर्शनादिजीवगुणघातकत्वात् । आयुषः चतुर्विधाहारः धृतशरीरस्य बलाधानकारणत्वेन स्थितिहेतुत्वात् । नामकर्मण औदारिकादिदेहः योग्योत्पादकत्वेन औदारिकादिदेहनिवर्तकत्वात् । गोत्रस्य उच्चनीचाङ्गं उच्चनीचकुलाविर्भावकत्वात् । अन्तरायस्य भाण्डागारिकः भोगोपभोगादिवस्तूनामन्तराय- २० करणात् ॥६९॥ तु-पुनः अनन्तरमुत्तरप्रकृतीनामाह
पटप्रभृतिद्रव्यं मतिज्ञानस्य विषयप्रभृतिद्रव्यं श्रुतज्ञानस्य च व्याघातकरणसंयुक्तं तत्तदावरणयो।कर्मद्रव्यकर्म भवति तु-पुनः इति ॥७॥ नोकर्म मद्य है क्योंकि वह जीवके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंका घातक है। आयुका नोकर्म चार प्रकारका आहार है क्योंकि वह धारण किये शरीर के बलाधानमें कारण होनेसे उसकी २५ स्थिति में निमित्त होता है । नामकर्मका नोकर्म औदारिक आदि शरीर है क्योंकि वह योगका । उत्पादक होनेसे औदारिक आदि शरीरको उत्पन्न करता है। गोत्रकर्मका नोकर्म उच्च-नोच शरीर है क्योंकि वह उच्च और नीच कुलको प्रकट करता है। अन्तरायका नोकर्म भण्डारी है क्योंकि वह भोग-उपभोग आदिकी वस्तुओंमें विघ्न डालता है ॥६९॥
आगे उत्तर प्रकृतियोंमें नोकर्म कहते हैं
मतिज्ञानमें बाधा डालनेवाले वस्त्र आदि द्रव्य मतिज्ञानावरणके नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। और श्रुतज्ञानमें बाधा डालनेवाले इन्द्रियोंके विषय आदि श्रुतज्ञानावरणके नोकर्म हैं ।।७०॥
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५
१०
५४
गो० कर्मकाण्डे
ओहिमण पज्जवाणं पडिघादणिमित्त संकिलेसयरं । जं बज्झट्टं तं खलु णोकम्मं केवले णत्थि ॥ ७१ ॥ अवधिमन:पर्यययोः प्रतिघातनिमित्त संक्लेशकरो यो बाह्यार्थस्तत्खलु नोक केवले
नास्ति ॥
अवधिमनः पयज्ञानं गळणे प्रतिघातनिमित्तमप्प संक्लेशमं पुट्टिसुव यदबाह्यं वस्तु आदों बाह्यवस्तु । तत् अदु । नोक नोकद्रव्यकम्मं मक्कुं । केवलज्ञानावरणक्क नोक द्रव्यक मिल्लेक बोर्ड केवलज्ञानं क्षायिकमेयप्पुदरिदं तत्प्रतिबंधकमप्य संक्लेशकारि बाह्यवस्तु विलप्रदं । अवधिमनः पय्यंयज्ञानंगळु क्षायोपशमिकंगळप्पुदरिदं तत्प्रतिघातनिमित्तसंक्लेशकारिबाह्यवस्तुगलवधिमनः पर्ययज्ञानावरणंगळंते व्याघातकारिगळोलवे बुदु तात्पथ्यं ॥
३०
पंचन्हं णिद्दाणं माहिसदहिपहुडि होदि णोकम्मं । वाघादकरपडादी चक्खुअचक्खूणणोकम्मं ॥७२॥
पंचानां निद्राणां माहिषदधिप्रभृति भवति नोकम्मं । व्याघातकरपटाविश्चक्षुरचक्षुषोनक ॥
पंचनिद्रादर्शनावरणंगळगे माहिषदधिप्रभृतिलशुनखलादिद्रव्यंगळ नोकर्म्मद्रव्यकर्मवकुं । १५ व्याघातहेतुगलप्प पटादिवस्तुगल चक्षुरचक्षुर्द्दर्शनावरणंगळगे नोकद्रव्यकर्मक्कुं ॥ ओही केवल दंसणणोकम्मं ताण णाणभंगोव्व । सादेदरणोकम्मं इट्ठाणिट्ठणपाणादि ॥७३॥
अवधिकेवलदर्शननोक तयोर्ज्ञानभंगवत् । सातेत रनोक इष्टानिष्टान्नपानादि ॥
अवधिमनःपर्यययोः प्रतिघातनिमित्तसंक्लेशकरं यद्ब्राह्यं वस्तु तत् तदावरणयोर्नो कर्मद्रव्यकर्म स्यात् । २० केवलज्ञानावरणस्य नोकर्मद्रव्यकर्म नास्ति क्षायिकत्वेन तत्प्रतिबन्धकसंक्लेशका रिवस्तुनोऽसंभवात् । अवधिमनःपर्यययोः क्षायोपशमिकत्वात् तत् संभवतीत्यर्थः ॥ ७१ ॥
पञ्चनिद्रादर्शनावरणानां माहिषदधिलशुनखलादिद्रव्याणि नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । व्याघात हेतु पटादिवस्तूनि चक्षुरचक्षुदर्शनावरणयोनकर्मद्रव्यकर्म भवति ॥७२॥
२५
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके प्रतिघात में निमित्त संक्लेशपरिणामोंको करनेवाली जो बाह्यवस्तु है वह अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरणका नोकर्म द्रव्यकर्म हैं । केवलज्ञानावरणका नोकर्म द्रव्यकर्म नहीं है क्योंकि वह क्षायिक है अतः उसके प्रतिबन्धक संक्लेशपरिणामों को करनेवाली वस्तु सम्भव नहीं है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान क्षायोपशमिक हैं इसलिए उनमें होना सम्भव है ॥ ७१ ॥
पाँच निद्रादर्शनावरणोंका भैंसका दही, लहसुन, खल अदि निद्रा लानेवाले द्रव्य नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणका नोकम चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनमें व्याघात डालनेवाले परदा आदि होते हैं ॥७२॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५५ अवधिदर्शनावरण अवधिज्ञानावरण पेळवंत नोकम्मदव्यकर्ममक्कमदेत दोर्ड अवधिदर्शनप्रतिघातनिमित्तसंक्लेशकारियप्पुदाउदानुमोदु बाहयार्थमदनधिदर्शनावरणक्के नोकर्मद्रव्य. कर्ममक्कुमा बाह्यार्थभुमवधिदर्शनावरणदंते अवधिदर्शनप्रतिघातहेतुमपुरदं केवलदर्शनावरणक्के केवलज्ञानावरणक्के पेन्दते नोकर्ममुमिल्ल। कारणमुं मुंपेन्दुदेयकुं। सातेतरनोकर्म सातवेदनीयक्के इष्टान्नपानादिगळु नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कुमसातवेदनीयक्के अनिष्मप्पन्नपानादि- ५ गलु नोकर्मद्रव्यकम्र्ममक्कुं॥
आयदणाणायदणं सम्मे मिच्छे य हवदि णोकम्मं ।
उभयं सम्मामिच्छे णोकम्मं होदि णियमेण ||७४॥ आयतनानायतनं सम्यक्त्वे मिथ्यात्वे च भवति नोकर्म । उभयं सम्यग्मिथ्यात्वे नोकर्प भवति नियमेन ॥
सम्यक्त्वक्के सम्यक्त्वप्रकृतिगे आयतनं आप्नुमातालयमुं। आगममुमागमधरनुं । तपमुं तपोधरनुम ब षडायतनं नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु। सम्यक्त्वप्रकृतियंते सम्यग्दर्शनविघातकारिगळल्लप्पुरिदं । सम्यक्त्वभावक्के चलमलिनावगाढ हेतुगळप्पुदरिंदमुं । अनाप्तनुमनातालयमुं कुश्रुतमुं कुश्रुतधरनुं मिथ्यातपमुं मिथ्यातपस्वियुमें ब षडनायतनंगळु मिथ्यात्वप्रकृतिगे नोकर्मद्रव्यकर्ममकुं। मिथ्यात्वकर्मदंतिवक्कं सम्यक्त्वप्रकृतिघातकत्वमुंटप्पुरिदं । सम्यग्दृष्टिगे अनायतनंगळु १५ सम्यक्त्वप्रकृतिघातकंगळल्तु। सम्यक्त्वातिचारकारणंगळप्पुवु एक दोडे मिथ्यात्वकर्मोदयमिल्ल. प्पुरिदं। मिथ्यात्वकर्मक्क नोकमंगळनायतनंगळप्पुरिदं । मिथ्यादृष्टिगळ्गे अनायतनंगळु गाढमिथ्यापरिणामक्के कारणंगळे बुदत्थं । नियमशब्दमवधारणार्थमक्कुं ।
२०
अवधिदर्शनावरणस्य केवलदर्शनावरणस्य च नोकर्मद्रव्यकर्म तज्ज्ञानोक्तभडवत भवति । सातवेदनीयस्य इष्टान्नपानादयः असातवेदनीयस्यानिष्टान्नपानादयः ॥७३।।
सम्यक्त्वप्रकृती आयतनानि आप्ततदालयागमतद्धरतपस्तद्धराख्यानि नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । सम्यक्त्वस्य चलमलिनावगाढहेतुत्वात । मिथ्यात्वप्रकृतेः मिथ्यात्वतदालयश्रुततद्धरतपस्तपस्विनो नोकर्मद्रव्यकर्म भवति सम्यक्त्वस्य घातकत्वात् । सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतावुभयं आयतनानायतनद्वयं संयुक्तमेव नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । अत्र नियमशब्दोऽवधारणार्थः ॥७४॥
अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणका नोकर्म द्रव्यकर्म अवधिज्ञान और केवल- २५ ज्ञानकी तरह जानना। सातवेदनीयका नोकर्म रुचिकर भोजनादि और असातवेदनीयका नोकर्म अरुचिकर खानपान जानना ।।७।।
सम्यक्त्व प्रकृतिमें जिन, जिनमन्दिर, जिनागम, जिनागमके धारी, तप तथा तपके धारी ये छह आयतन नोकर्म द्रव्यकर्म होते हैं क्योंकि ये सम्यक्त्वके चल, मलिन और अवगाढ़ होने में निमित्त होते हैं। मिथ्यात्व प्रकृतिके मिथ्यादेव, उनका मन्दिर, मिथ्याशास्त्र, ३० मिथ्याशास्त्रोंके धारी, मिथ्यातप, मिथ्यातपस्वी ये नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। क्योंकि ये सम्यगदर्शनके घातक हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति में आयतन और अनायतन दोनों मिलकर ही नोकर्म द्रव्यकर्म हैं । यहाँ नियम का अर्थ अवधारण है। अर्थात् ये नियमसे इनके नोकर्म होते हैं ।।७४॥
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५
१०
गो० कर्मकाण्डे
अणोकम्मं मिच्छत्तायदणादी दु होदि सेसाणं । सगसगजोग्गं सत्थं सहायपहुडी हवे णियमा ॥ ७५ ॥ अनंतानुबंधिनोक मिथ्यात्वायतनादि तु भवति नोक सहायप्रभृति भवेन्नियमात् ॥
अनंतानुबंधिकषायंगळगे मिथ्यायतनादिषडनायतनंगळुमादियादुउ नोकर्म्म द्रव्यकम् मुमदक्कु । तु मते । शेषाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनकषायंगळगे देशव्रत सकलसंयम यथाख्यातचारित्रगळ निवारकत्वदोलु स्वस्वयोग्यंगळप्प काव्यनाटककोकादि ग्रंथंगळं विटजनादिगळ सहायमुं नोकद्रव्यकर्म गळितयर्मादिदप्पुर ।
थी पुंसंढसरीरं ताणं णोकम्म दव्त्रकम्मं तु ।
वेलंको सुपुत्तो हस्सरदीणं च णोकम्मं ॥ ७६ ॥
स्त्रीपुंनपुंसकशरीरं तेषां नोकम्मं द्रव्यकर्म तु । विडंबकः सुपुत्रो हास्यरत्योश्च नोक ॥ स्त्री वेदोकषायक्क स्त्रीशरीरमु पुरुषशरीरमुं नोकर्म्मद्रव्यकमक्कु । पुंवेदनोकषायवके पुरुषशरीरमुं स्त्रीशरीरमुं नोकम्मं द्रव्यकम्र्ममक्कु । नपुंसक वेदनोकषायक्के स्त्रीशरीरमुं पुरुषशरीरमुं नपुंसकशरीरमुं नोकद्रव्यकम् मक्कु । हास्यनो कषाथक्के विडंबकनप्प बहुरूपिप्रहसन१५ पागळं नोकद्रव्यकम्मंमक्कु । रतिनोकषायक्के सुपुत्रं नोकर्म्मद्रव्यकर्म्ममक्कु । इट्टाणिवियोगं जोगं अरदिस्स मुदसुपुत्तादी |
२५
५६
३०
सोगस्स य सिंहादी णिंदिददव्वं च भयजुगले ॥७७॥
वियोगो योगोऽरते मृतसुपुत्रादिः । शोकस्य च सिंहादिन्निदितद्रव्यं च भययुगळे ॥ अरतेः अरतिनोकषायवके इष्ट वियोगमुमनिष्टसंयोगमु नोकम्मं द्रव्यकमक्कु । शोक२० नोकषायक्क मृतसुपुत्रादिगळ नोकम्मंद्रव्यकमक्कु । भयनोकषायक्क सिहादिगळ नोकद्रव्यकमक्कु । जुगुप्सानोकषायक्के निदितद्रव्यादिगळु नोकम्म' द्रव्यकर्म मक्कु ।
शेषाणां । स्वस्वयोग्यं शास्त्रं
अनन्तानुबन्धिनां मिथ्यात्वायतनादिनो कर्मद्रव्य कर्म भवति । तु पुनः शेषद्वादशकषायाणां देशसकलयथाख्यातचारित्रघातककाव्यनाटक कोकादिग्रन्थाः विटजनादिसहायश्च नियमेन ॥ ७५ ॥
स्त्रीपुंवेदयोः स्त्रीपुंशरीरे नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । नपुंसक वेदस्य तद्वयं नपुंसकशरीरं च । हास्यस्य विडम्बकभूत बहुरूपिप्रहसनपात्राणि । रतेः सुपुत्रः ॥७६॥
अरतेः इष्टवियोगोऽनिष्टसंयोगश्च । शोकस्य मृतमुपुत्रादयः । भयस्य सिंहादयः । जुगुप्साया निन्दित
द्रव्यादयः ॥७७॥
अनन्तानुबन्धी कषायोंका मिथ्या आयतन आदि नोकर्म द्रव्यकर्म है । शेष बारह कषायोंका देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्रके घातक काव्य, नाटक, कोकशास्त्र आदि ग्रन्थ और सहायक विट्पुरुष आदि नियमसे नोकर्म द्रव्यकर्म होते हैं ॥ ७५ ॥
स्त्रीवेद और पुरुषवेद में स्त्री और पुरुषका शरीर नोकर्म द्रव्यकर्म होता है । नपुंसक वेदका नोकर्म स्त्री-पुरुष और नपुंसकका शरीर होता है । हास्यका नोकर्म विचित्र वेषधारी बहुरुपिया तथा हँसाने वाले पात्र होते हैं । रतिका नोकर्म सुपुत्र है || ७६ ॥
अरतिका नोकर्म इष्टवियोग अनिष्टसंयोग है । शोकका नोकर्म सुपुत्र आदिका मरण है । भयका नोकर्म सिंह आदि है । जुगुप्साका नोकर्म घृणा योग्य वस्तु है ॥७७॥
३५
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द
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णिरयाउस्सअणिट्ठाहारो सेसाणमिट्ठमण्णादी।
गदिणोकम्मं दव्वं चउग्गदीणं हवे खेत्तं ॥७८॥ नरकायुषोऽनिष्टाहारः शेषाणामिष्टान्नादिः । गतिनोकम्मं द्रव्यं चतुर्गतीनां भवेत्क्षेत्रं ॥
नरकायुष्यक्के अनिष्टाहारं नरकगतिय विषमृत्तिकेये नोकर्म द्रव्यकम्ममक्कु । शेष तिय्यंग्मनुष्यदेवायुष्यंगळगे इष्टान्नादिगळु नोकर्मद्रव्यकमंगळप्पुवु।
नारकादिशरीरस्थितिकारणंगळप्पुरिदं । सामान्यगतिनामकर्मक्क चतुर्गतिगळ क्षेत्रमानं नोकर्मद्रव्यकममक्कु।
णिरयादीण गदीणं णिरयादी खेत्तयं हवे णियमा ।
जाईए णोकम्मं दविदियपोग्गलं होदि ॥७९॥ नरकावीनां गतीनां नरकाविक्षेत्रं भवेन्नियमात । जाते!कर्म द्रव्येद्रियपुद्गलो भवति ॥ १०
नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिगळ्गे तंतम्म नरकगति तिर्यग्मनुष्यदेवगतिक्षेत्र नोकर्म द्रव्य कर्म नियमदिवमक्कु । नरकगत्याविचतुर्गतिनामकम्मंगळुवयंगळनारकाविपर्यावंगळगे निमित्तमक्कुमावोडा तत्तत्पयिंगळन्यक्षेत्रंगळोळिल्लप्पुरिवं तंतम्म गतिक्षेत्रंगळेयागल्वेलकुमप्पुरिदं । नियमशब्दमवधारणार्थमक्कुं। जातिनामकर्मक्के द्रव्येद्रियपुद्गलं नोकम्मंद्रव्यकर्ममक्कु।
एइंदियमादीणं सगसगदन्विदियाणि णोकम्मं ।
देहस्स य णोकम्मं देहुदयजदेहखंदाणि ॥८॥ एकेंद्रियादीनां स्वस्वद्रव्येद्रियाणि नोकर्म । देहस्य च नोकर्म वेहोदयजदेहस्कंधाः॥
नरकायुषोऽनिष्टाहारः तद्विषमृत्तिका नोकर्मद्रव्यकर्म । शेषायुषामिष्टान्नादयः नारकादिशरीरस्थितिकारणत्वात् । सामान्यगतेः चतुर्गतिक्षेत्रमात्रम् ।।७८।।
नारकादिगतीनां स्वस्वनरकादिगतिक्षेत्र नोकर्मद्रव्यकर्म नियमेन भवति । गत्युदयानां नारकादिपर्यायनिमित्तत्वेऽपि तत्पर्यायाणामन्यत्राभावात् । तत्क्षेत्रेणव भाव्यमित्यवधारणार्थो नियमशब्दः । जातिनाम्नः द्रव्येन्द्रियपुद्गलः ॥७९॥
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२०
अनिष्ट आहार वहाँकी विषतुल्य मिट्टी नरकायुका नोकर्म द्रव्यकर्म है। शेष आयुओंका इष्ट अन्नादि नोकर्म है क्योंकि वह नारक आदिके शरीरकी स्थितिमें निमित्त होता है। २५ सामान्य गतिनाम कर्मका नोकर्म चारों गतियोंका क्षेत्र है ॥७॥
___ नारक आदि गतियोंका अपना-अपना नरकादिका क्षेत्र नोकर्म द्रव्यकर्म होता है। यद्यपि गतियोंका उदय नारक आदि पर्यायोंमें निमित्त है तथापि वे पर्याय अन्यत्र नहीं होती, इसलिए उनका नोकर्म उन-उनका क्षेत्र ही होना चाहिए इसके लिए नियम शब्द गाथामें दिया है। जातिनामका नोकर्म द्रव्येन्द्रियरूप पुद्गल हैं ॥७९॥
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गो० कर्मकाण्डे एकेंद्रियद्वीवियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियजातिनामकमंगळगे तंतम्म द्रव्येद्रियंगळु नोकर्म द्रव्यकम्मंगळप्पुवु। शरीरनामकर्मक्के शरीरनामकर्मोदयजनितदेहस्कंधमे नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कु।
ओरालियवेगुम्विय आहारयतेजकम्मणोकम्म ।
ताणुदयजचउदेहा कम्मे विस्संचयं णियमा ॥८१॥
औदारिकवैक्रियिकाहारक तैजसकर्मणां नोकम तेषामुदयजन्तुहाः कार्मणे विनसोपचयो नियमात् ॥
__ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीरनामकम्मंगळगे तेषां तंतम्म उदयजनितचतुर्दैहाः उदयसंजनितचतुर्दैहंगळु यथासंख्यमागि तंतम्मौदारिकादिशरीरवग्गणेगळु तंतम्म नोकर्मद्रव्य१० कम्मंगळप्पुवु। कार्मणशरीरनामकर्मक्के विस्रसोपचयं नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कुं।
बंधणपहुडिसमण्णियसेसाणं देहमेव णोकम्म ।
णवरि विसेसं जाणे सगखेतं आणुपुव्वीणं ।।८२।। पंधनप्रभृतिसमन्वितशेषाणां देह एव नोकर्म। नवीनं विशेषं जानीहि स्वक्षेत्रमानुपूाणां॥
बंधनप्रभृतिपुद्गल विपाकिगळसमन्वितशेषजीवविपाकिगळ्गे देहमे नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु१५ मेक दोडे तत्तक्रियमाणपुद्गलरूपक्कयुं जीवभावक्कयु सुखादिगळप्प कायंक्कं शरीरवर्गणेगळु
पादाननिमित्तत्व प्रसिद्धत्ववणि । क्षेत्रविपाकिगळप्पानुपूवव्यंगळगे तंतम्मक्षेत्रमे नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमें बी पोसतप्प विशेषमं नोनरि शिष्य येंदु संबोधिसल्पदुदु ।
एकेन्द्रियादिपञ्चजातीनां स्वस्वद्रव्येन्द्रियाणि नोकर्मद्रव्यकर्म । शरीरनाम्नः स्वोदयजदेहस्कन्धः नोकर्मद्रव्यकर्म ॥८॥
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीरनामकर्मणां उदयजतत्तच्छरीरवर्गणाः तत्तन्नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । कार्मणस्य विस्रसोपचय एव ॥८॥
बन्धनप्रभृतिपुद्गलविपाकिसमन्वितशेषजीवविपाकिनां देह एव नोकर्मद्रव्यकर्म । तत्तत्क्रियमाणस्य पुद्गलरूपस्य जीवभावस्य सुखादिरूपस्य कार्यस्य शरीरवर्गणानामेवोपादाननिमित्तत्वप्रसिद्धेः । क्षेत्रविपाक्यानु
पूर्व्याणां स्वस्वक्षेत्रमेव नोकर्मद्रव्यकर्मेति नवीनं विशेषं जानीहि ।।८२॥ २५ एकेन्द्रिय आदि पाँच जातियोंका नोकर्म द्रव्यकर्म अपनी-अपनी द्रव्येन्द्रियाँ हैं । शरीरनामके नोकर्म द्रव्यकर्म अपने-अपने उदयसे बने शरीररूप स्कन्ध हैं ।।८०॥
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजस शरीर नामकोका अपने-अपने उदयसे प्राप्त हुई उस-उस शरीर सम्बन्धी वर्गणा अपना-अपना नोकर्म द्रव्यकर्म होता है। कार्मणका
नोकर्म विस्रसोपचय ही है ।।८१॥ ३० बन्धनसे लेकर पुद्गलविपाकी प्रकृतियों सहित शेष रही जीवविपाकी प्रकृतियोंका
नोकम द्रव्यकर्म शरीर ही है। क्योंकि उनके द्वारा किया गया पुद्गलरूप भाव और जीवभाव तथा सुखादि रूप कार्यका उपादान कारण शरीर सम्बन्धी वर्गणा ही है किन्तु क्षेत्रविपाकी आनुपूर्वीनामकोका अपना-अपना क्षेत्र ही नोकर्म द्रव्यकर्म है इतना विशेष जानना ।।२।। १. आ. पुद्गलजीव।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका थिरजुम्मस्स थिराथिररसरुहिरादीणि सुहजुगस्स सुहं ।
असुहं देहावयवं सरपरिणदपोग्गलाणि सरे ॥८३॥ स्थिरयुग्मस्य स्थिरास्थिररसरुधिरादीनि शुभयुगस्य शुभं। अशुभं देहावयवं स्वरपरिणतपुद्गलाः स्वरे॥
स्थिरनामकर्मक्क स्थिररसरुधिरादिगळु नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कं । अस्थिरनामकर्मक्क ५ अस्थिररसरुधिराविगळ नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु। शुभनामकर्मक्के शुभमप्प शरीरावयवंगळु नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमशुभनामकर्मक्के अशुभमप्प शरीरावयवंगळु नोकर्म द्रव्यकम्ममक्कु । स्वरनामकर्मक्के सुस्वरदुःस्वरपरिणतपुद्गलंगळु नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कु ।
उच्चस्सुच्चं देहं णीचं णीचस्स होदि णोकम्मं ।
दाणादिचउक्काणं विरघगणगपुरिसपहुदी हु ।।८४॥ उच्चस्योच्चो वेहो नीचो नीचस्य भवति नोकर्म। दानादिचतुर्णां विघ्नकनगपुरुषप्रभृतयः खलु ॥
उच्चैर्गोत्रकर्मक्के उच्चदेहमे लोकपूजितकुलोत्पन्नदेहमे नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कं । नीचैगर्गोत्रकर्मक्के नीचकुलोत्पन्नवेहमे नोकर्म द्रव्यकम्ममक्कं । दानलाभभोगोपभोगांतरायकर्म चतुष्टयक्के विघ्नकरपर्वतनवीपुरुषप्रभूतिगळु नोकर्मद्रव्यकर्ममप्पुवु । खलु स्फुटमागि। १५
विरियस्स य णोकम्मं रुक्खाहारादिबलहरं दव्वं ।
इदि उत्तरपयडीणं णोकम्मं दव्वकम्मं तु ॥८५॥ वीरियस्य च नोकर्म रूक्षाहारादिबलहरं द्रव्यं । इत्युत्तरप्रकृतीनां नोकर्म द्रव्यकर्म तु॥
तु मत्ते वीयांतरायकर्मक्के रुक्षाहारपानद्रव्यंगळ नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमिन्तुत्तरप्रकृतिगळ्गे नोकर्मद्रव्यकमंगळ पेळल्पटुवु ॥
२.
स्थिरस्य स्थिररसरुधिरादयो नोकर्मद्रव्यकर्म । अस्थिरस्य अस्थिररसरुधिरादयः । शुभस्य शुभशरीरावयवाः । अशभस्य अशभशरीरावयवाः । स्वरस्य सुस्वरदःस्वरपरिणतपदगलाः ।।८३॥
उच्चर्गोत्रस्य उच्चो-लोकपूजितकुलोत्पन्नो देहः नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । नीचर्गोत्रस्य नीचकुलोत्पन्नो देहः । दानादिचतुरन्तरायाणां विघ्नकरपर्वतनदीपुरुषप्रभृतयः । खलु स्फुटम् ॥८४॥
तु-पुनः वीर्यान्तरायस्य रूक्षाहारपानद्रव्याणि नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । एवमुत्तरप्रकृतीनां नोकर्म- २५ द्रव्यकर्मोक्तम् ॥८५॥
स्थिरका स्थिर रस रुधिरादि नोकर्म द्रव्यकर्म है। अस्थिरका अस्थिर रसरुधिरादि नोकर्म द्रव्यकर्म है। शुभका शरीरके शुभ अवयव और अशुभका शरीरके अशुभ अवयव तथा स्वरका सुस्वर रूप परिणत पुद्गल द्रव्यकर्म नोकर्म है ।।८।।
उच्चगोत्रका उच्च लोकपूजित कुलमें उत्पन्न शरीर और नीचगोत्रका नीचकुलमें उत्पन्न ३० हुआ शरीर नोकर्म द्रव्यकर्म है । दानान्तराय आदि चार अन्तरायोंका विघ्न करनेवाले पर्वत, नदी, पुरुष वगैरह द्रव्यकर्म है ॥४४॥
वीर्यान्तरायका नोकर्म रूखा खानपान आदि बलहारी द्रव्य नोकर्म द्रव्यकर्म है। इस प्रकार उत्तर प्रकृतियोंका नोकर्म द्रव्यकर्म कहा ॥८५।।
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नोआगमभावसुं मत्तं तंतम्म कर्मफलसंयुतनप्प जीवनेयक्कुं । पुद्गलविपाकिगळगे नोआगमभावमिल्लेकॅबोडे पुद्गलविपार्किंगळदयदोळ साक्षात्सुखाविगळनुत्पत्तियेयक्कुमल्लिमों दु विशेष मुंटदाउदोडे जीवविपाकिगल सहायत्वदवं सुखाद्युत्पादकत्व मुंटेंबिदु । पुद्गल विपाकिनामकर्मोदयदोळु देहवर्गणेगळुपादानमक्कुं । सुखदुःखंगळगे तद्वणानिमित्त जीवविपाकियवकुं ॥ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्व वंदनानंदित पुण्यपुंजायमानश्रीमद्राय राजगुरु१० मंडलाचार्य्यं महावादवादीश्वररायवा दिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्तश्रीपाद पंकजरजोरंजितललाटपट्ट् श्रीमत्केशवण्ण विरचितगोम्मटसारकर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिकेयो कर्मकांडप्रकृतिसमुत्कीर्त्तनं प्रथमाधिकारं व्याख्यातमावुवु ॥
भावः ॥
२५
गो० कर्मकाण्डे
आगमभावो पुण सगसगकम्मफलसंजुदो जीवो । पोग्गलविवाइयाणं णत्थि खु णोआगमो भावो ॥ ८६ ॥
नोमागमभावः पुनः स्वस्वकर्मफलसंयुतो जीवः । पुद्गलविपाकिनां नास्ति खलु नोआगमो
नोआगमभावः पुनः स्वस्वकर्मफलसंयुक्तजीवो भवति । पुद्गलविपाकिनां खलु नोआगम भावकर्म नास्ति तदुदयजीवविपाकि सहायं विना साक्षात्सुखाद्यनुत्पत्तेः ॥८६॥
इत्याचार्यनेमिचन्द्र रचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ तत्त्वदीपिकाख्यायां कर्मकाण्डे प्रकृतिसमुत्कीर्तननाम प्रथमोऽधिकारः ॥ १ ॥
अपने-अपने फलको भोगता हुआ जीव उन उन प्रकृतियोंका नोआगमभाव कर्म है । पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंका नोआगमभाव कर्म नहीं होता क्योंकि उनका उदय होते हुए जीवविपाकी प्रकृतियोंकी सहायता बिना साक्षात् सुखादि नहीं होते ॥ ८६ ॥
२० इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलों की वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित लकाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत प्रकृति समुत्कीर्तन नामक पहला अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥ १ ॥
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बन्धोदयसत्वाधिकार ॥२॥
णमिऊण णेमिचंदं असहायपरक्कम महावीरं ।
बंधुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं बोच्छं ॥८७॥ नत्वा नेमिचंद्रं असहायपराक्रमं महावीरं । बंधोदयसत्त्वयुक्तं ओघादेशे स्तवं वक्ष्यामि ॥
वक्ष्यामि वदिष्ये करिष्ये वा। कं स्तवं सकलांगार्थविषयं शास्त्रं । कथंभूतं बंधोदयसत्त्वयुक्तं बंधोदयसत्त्वप्रतिपादकं तस्मिन् । ओघादेशे गुणस्थानमार्गणास्थाने । किं कृत्वा नत्वा नमस्कृत्य । के नेमिचंद्र नेमितीर्थकरपरमदेवं । कथंभूतं महावीरं वंदारुवस्याभिलषितात्थंप्रदायकं । भूयः किंभूतं असहायपराक्रमं न विद्यते सहायो यस्यासावसहायः। असहायः पराक्रमो यस्यासावसहायपराक्रमस्तमिति ॥
कर्मवैरिबलमं गैलुवेडयोल सहायनिरपेक्षमप्प अभेवरत्नत्रयात्मकात्मस्वरूपभावनास्वसामर्थ्यरूपपराक्रममनुळ्ळ बंदारुदसमभिलषितात्थंप्रदायकत्वदिदं महावीरनप्प नेमितीत्थंकरपरमदेवनं नमस्करिसि बंधोदयसत्वप्रतिपादकमप्प स्तवमं सकलांगाविषयशास्त्रमं पे नेबुदाचार्य्यन प्रतिज्ञयक्कुमल्लि । स्तवमेंबुर्वे ते दोडे पेळ्दपरु :
सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं ।
वण्णणसत्थं थयथुइ धम्मकहा होइ णियमेण ||८८॥ सकलांगकांगैकांगाधिकार सविस्तरं ससंक्षेपं वर्णनशास्त्रं स्तवः स्तुतिखम्मकथा भवति १५ नियमेन ॥
१.
वक्ष्यामि वदिष्ये करिष्ये वा। कं? स्तवं सकलानार्थविषयशास्त्रम् । कथंभूतम् ? बन्ध्योदयसत्त्वयुक्तं-बन्धोदयसत्त्वप्रतिपादकम् । कस्मिन् ? ओघादेशे-गुणस्थानमार्गणास्थाने । किं कृत्वा ? नत्वा-नमस्कृत्य । के ? नेमिचन्द्रं-नेमितीर्थकरपरमदेवं । कथंभूतम् ? महावीरं-वन्दारुवृन्दस्य अभिलषितार्थप्रदायकम् । भूयः किभूतम् ? असहायपराक्रमं न विद्यते सहायो यस्यासावसहायः । असहायः पराक्रमो यस्या- २० सावसहायपराक्रमस्तमिति कर्मवैरिबलजये सहायनिरपेक्षाभेदरत्नत्रयात्मकस्वरूपभावनास्वसामर्थ्यरूपपराक्रमम् । बन्दावन्दसमभिलाषितार्थप्रदायकत्वेन महावीरं नेमितीर्थङ्करपरमदेवं नत्वा बन्ध्योदयसत्त्वप्रतिपादकस्तवं वक्ष्यामीत्याचार्यप्रतिज्ञा ॥८७॥ स्तवः कः इति चेदाह
जो अन्य सहायताकी अपेक्षा न करके अभेदरत्नत्रयात्मक आत्मस्वरूपकी भावनारूप सामर्थ्यके द्वारा अपने पराक्रमसे कर्मशत्रुकी सेनापर विजय प्राप्त करते हैं और वन्दना २५ करनेवालोंके समहको इच्छित अर्थ प्रदान करने के कारण महावीर हैं, उन नेमिनाथ तीर्थकर परमदेवको नमस्कार करके गुणस्थान और मार्गणास्थानों में बन्ध उदय और सत्त्वका कथन करनेवाले स्तवको कहूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा आचार्य करते हैं ।।८।।
स्तवका स्वरूप कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे
सकलांगा सविस्तर संक्षेपविषयशास्त्रं स्तवं । एकांगार्थं सविस्तर ससंक्षेपविषयशास्त्रं एकांगाधिकारार्थसविस्तरस संक्षेपविषयशास्त्रं वस्त्वनुयोगादि धम्मंकथेयुमक्कुं
पर्याडडिदिअणुभागप्पदे सबंधोत्तिचविहो बंधो।
उपकरमणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णग त्ति पुधं ॥ ८९ ॥
प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशबंध इति चतुविधो बंधः । उत्कृष्टानुत्कृष्टो' जघन्योऽजघन्य इति पृथक् ॥
प्रकृतिबंध में स्थितिबंध मेंदुमनुभागबंधमेदं प्रदेशबंधमुमेंदु बंध चतुर्विधभक्कुमल्लि पृथक् १० प्रत्येककुत्कृष्टभुमें जघन्यमुमजघन्यमुमेंदु मितु चतुविधमक्कु ॥ अनंतरं उत्कृष्टशदिगळु प्रत्येकं चतुव्विधंगळेंदु पेदपरु :--
सादिअणादी धुबअद्भुवो य बंधो दु जेट्ठमादीसु । जागं जीवं पडि ओघादे से जहाजोग्गं ॥ ९० ॥
३०
स्तुतिः | नियर्मादिदं ॥
अनंतरं बंधं लुकु पेदपरु :
सादिरनादिवोश्च बंबस्तुकुटादिषु । तानैकं जीवं प्रति ओघादेशे यथायोग्यं ॥ सादिबंध मेंदुमनादिबंध में दुं ध्रुवबंध में सबंधसुमेदितु । तु मत्ते उत्कृष्टादिबंधंगळोळु नानाजीवमुमेकजीवभुमं कुरु तु गुणस्थानयोळं मार्गणास्थानदोळं यथायोग्य मागि साद्यनादि
सकलाङ्गार्थसविस्तरससंक्षेपविपयशास्त्रं स्तवः । एकाङ्गार्थतविस्तर ससंक्षेपविपयशास्त्र स्तुतिः । एकाङ्गाधिकारार्थसविस्तरस संक्षेपविषयशास्त्रं वस्त्वनुयोगादिधर्मकथा च भवति नियमेन ॥८८॥ बन्धभेदानाह
अथ
प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः अनुभागबन्धः प्रदेशबन्धश्चेति बन्धश्चतुर्विधः । स चतुर्विधोऽपि पृथक् प्रत्येक उत्कृष्टोऽनुत्कृष्टो जघन्योऽजघन्यश्चेति चतुविधः ॥ ८९ ॥ तानुत्कृष्टादीनपि भिनति
तेषु उत्कृष्टादिवन्धेषु तु पुनः सादिवन्धोऽनादिवन्धो ध्रुवबन्धोऽध्र ुवबन्धश्च नानाजीवमेकजीवं च
समस्त अंगसहित अर्थका विस्तार या संक्षेपसे जिसमें वर्णन होता है उस शास्त्रको स्तव कहते हैं। एक अंगसहित अर्थका जिसमें विस्तार या संक्षेपसे कथन होता है उस २५ शास्त्रको स्तुति कहते हैं। एक अंगके अधिकार सहित अर्थका संक्षेप या विस्तार से वर्णन करनेवाला शास्त्र जिसमें प्रथमानुयोगसम्बन्धी वस्तु रहती है वह नियमसे धर्मकथा है । सो इसमें बन्ध उदय सत्त्वरूप अर्थका कथन समस्त अंग सहित यथायोग्य विस्तार और संक्षेपसे कहा जायेगा अतः यह शास्त्र स्तव नामसे कहा गया है ||८८||
बन्धके भेद कहते हैं
बन्धके चार भेद हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । उन चारोंके भी जुदे-जुदे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य चार भेद हैं ॥ ८९ ॥
उन उत्कृष्ट आदिके भी भेद कहते हैं
उन उत्कृष्ट आदि बन्धों में पुनः सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, नाना
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका प्रीस्थि । अप्र। उ४। उ४। उ४। उ४ अ४। अ४। ४। ४ अ४। ४। ४। ४
ज४ ज ४। ज४। ज ४ ठिदिअणुभागपदेसा गुणपडिवण्णेसुजेसिमुक्कस्सा ।
तेसिमणुक्कस्सो चउबिहोऽजहण्णे वि एमेव ॥९॥ स्थित्यनुभागप्रदेशा गुणप्रतिपन्नेषु एषामुत्कृष्टाः। तेषामनुत्कृष्टश्चतुविधोऽजघन्योप्येवमेव॥
स्थित्यनुभागप्रदेशंगळु गुगप्रतिपन्न मिथ्यादृष्टि सासादनाद्युपरितनोपरितनगुणस्थानति- ५ गळोळु । एषां कर्मणां आउ केलवु कम्मंगळ्गे उत्कृष्टंगछु । तेषामेव कर्मणां आकम्मंगळ्गये अनुत्कृष्टस्थित्यनुभागप्रदेशमक्कुमदु चतुविधः साधनादिध्रुवाघ्रवचतुविधबंधमक्कुमा जघन्यमुमिन्ते चतुर्विधः चतुविधबंधमक्कुमी साद्यनादिध्रुवाध्रुवबंधलक्षणमुम मुंदे पेळ्दपरादोडमिल्लियुदाहरणमात्रं किरिदु तोरल्पट्टप्पुददे ते दोडे उपशमश्रेण्यारोहकसूक्ष्मसांपरायनुच्चैर्गोत्रानुभागमनुत्कृष्ट कट्टियुपशांतकषायनागि मत्तमवरोहणदोळु सूक्ष्मसांपरायनागि तदनुभागमननुत्कृष्टम १. कटुगुमागळदक्के सादित्वमा सूक्ष्मसापरायन चरमदणिदं केळगे अदक्कनादित्वं अभव्यनोळू ध्रुवत्वमागळोम्मे यनुत्कृष्टमं माण्दु उत्कृष्टमं कटुगुमागळदक्कध्रुवत्वमितु। अजघन्योप्येवमेव चतुम्विधः अजघन्यमुमिन्ते चतुविधमक्कुमदेते दोर्ड सप्तमपृथ्वियोल प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखं प्रतीत्य गुणस्थाने मार्गणास्थाने च यथायोग्यं भवति ॥९०॥
स्थित्यनुभागप्रदेशाः गुणप्रतिपन्नेषु मिथ्यादृष्टिसासादनाद्युपरितनोपरितनगुणस्थानवतिषु येषां कर्मणा- १५ मुत्कृष्टस्तेषामेव कर्मणामनुत्कृष्टः स्थित्यनुभागप्रदेशः साद्यादिभेदाच्चतुर्विधो भवति । अजघन्योऽप्येवं चतुर्विधः। तेषां लक्षणमग्रे, वक्ष्यति । तथाप्यत्रोदाहरणमात्रं किञ्चित् प्रदर्श्यते । तद्यथा-उपशमश्रेण्यारोहकः सूक्ष्मसाम्परायः उच्चैर्गोत्रानुभागमुत्कृष्टं बद्ध्वा उपशान्तकषायो जातः। पुनरवरोहणे सूक्ष्मसाम्परायो भूत्वा तदनुभागमनुत्कृष्टं बध्नाति । तदाऽस्य सादित्वं तत्सूक्ष्मसाम्परायचरमादधोऽनादित्वम् । अभव्ये घ्र वत्वम् । यदाऽनुत्कृष्टं त्यक्त्वा उत्कृष्टं बघ्नाति तदा अध्र वत्वमिति । अजघन्योऽप्येवमेव चतुर्विधः । तद्यथा-सप्तमपृथिव्यां २० जीव और एक जीवकी अपेक्षा गुणस्थान और मार्गणास्थानमें यथायोग्य होते हैं ॥१०॥
गुणप्रतिपन्न अर्थात् मिथ्यादृष्टि सासादन आदि ऊपर-ऊपरके गुणस्थानवर्ती जीवोंमें जिन कर्मोंका स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट होता है उन्ही कर्मोंका अनुत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशबन्ध सादि-आदिके भेदसे चार प्रकार का होता है, अजघन्यमें भी इसी प्रकार चार भेद होते हैं। उनका लक्षण आगे कहेंगे तथापि यहाँ उदाहरणरूपसे कुछ २५ कहते हैं-उपशमश्रेणि पर आरोहण करनेवाला सूक्ष्मसाम्पराय उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उपशान्तकषायगुणस्थानमें गया। पुनः उतरनेपर सूक्ष्मसाम्परायगणस्थानवाला होकर वह उसका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है तब वह बन्ध सादि होता है। क्योंकि अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र अनुभागबन्धका अभाव होकर सद्भाव हआ है। उस सक्षमसाम्पराय गणस्थानसे नीचेके गुणस्थानवर्ती जीवोंके वह बन्ध अनादि है। अभव्यके ध्रुव बन्ध हैं। किन्तु ३० भव्य जीव जब अनुत्कृष्टको छोड़कर उत्कृष्ट बन्ध करता है तब अध्रुव है। अजघन्यमें भी इसी प्रकार चार भेद होते हैं, जो इस प्रकार हैं
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गो० कर्मकाण्डे मिथ्यादृष्टिचरमसमयदोलु नीचैर्गोत्रानुमागमं जघन्यमं कट्टि सम्यग्दृष्टियागि मिथ्यात्वोदयविवं मिथ्यादृष्टियागि तदनुभागमनजघन्यमं कटुगुमागळवक्के सावित्वं विचरमाविसमयंगळोळदक्कनादित्वमी प्रकारविदं चतुम्विधत्वं यथासंभवं तोरल्पडुवुदु । प्रकृतिबंधक्कुत्कृष्टानुत्कृष्टमजघन्य
जघन्यंगळिल्ल५ स्थिति । उ१ | अनुअज । ज १/अनुभाग । उ१। अनु अज । ज १ प्रदे । उ १ अनुज । ज १ ०००००००००
० ०००००००|| स ३२०००० ०००० स । अनंतरं प्रकृतिबंधक्के गुणस्थानंगळोळ नियममं पेदपरु :
सम्मेव तित्थबंधो आहारदुगं पमादरहिदेसु ।
मिस्सूणे आउस्स य मिच्छादिसु सेसबंधो दु ॥१२॥
सम्यग्दृष्टावेव तोत्थंबंधः आहारद्वयं प्रमावरहितेषु । मिश्रोने आयुषश्च मिथ्याविषु १० शेषबंधस्तु ॥
सम्यग्दृष्टिगळोले तीर्थबंधमक्कुं। आहारकाहारकांगोपांगद्वयं प्रमावरहितरोळेयर्छ। प्रमत्तावसानमाद गुणस्थानषट्कवोळाहारद्वयबंधमिल्लेंषुवत्थं । मिश्रगुणस्थानमं मिश्रकाययोगमुमं प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिश्चरमसमये नीचर्गोत्रानुभागं जघन्यं बघ्वा सम्यग्दृष्टिभूत्वा मिथ्या
त्वोदयेन मिथ्यादृष्टिभूत्वा तदनुभागमजघन्यं बध्नाति । तदास्य सादित्वं द्वितीयादिसमये चानादित्वमिति १५ चतुर्विधत्वं यथासंभवं द्रष्टव्यम् । प्रकृतिबन्धस्योत्कृष्टादिर्नास्ति । शेषाणां संदृष्टिः । स्थिति ३१ अनु । अज १ ज १ । अनुभाग उ. अनु.
०
० अज. ज. | प्रदे. उ. अनु. अज. ज. । स ३२ । ० ० ० ० ० ० ० स १
॥९॥ अथ प्रकृतिबन्धस्य गुणस्थानेषु नियममाह
तीर्थबन्धोऽसंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागान्तसम्यग्दृष्टिष्वेव । आहारकतदङ्गोपाङ्गबन्धोऽप्रमत्ताद्यपूर्वकरणषष्ठभागान्तेष्वेव प्रमादरहितेषु न प्रमत्तावसानेषु । आयुर्बन्धो मिश्रगुणस्थानमिश्रकाययोगवजितेष्वप्रमत्ता
सातवीं पृथिवीमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि अन्तिम समयमें नीचगोत्रका जघन्य अनुभागवन्ध करके सम्यग्दृष्टी होकर पुनः मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादृष्टि होकर नीचगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध करता है तब उसके सादिबन्ध कहलाता है। उससे पहले वह अनादि कहलाता है। इस प्रकार यथासंभव चार भेद जानना। प्रकृतिबन्ध में उत्कृष्ट आदि भेद नहीं हैं ॥११॥
गुणस्थानोंमें प्रकृतिबन्ध का नियम कहते हैं
तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध असंयत से लेकर अपूर्वकरणगुणस्थानके छठे भाग पर्यन्त सम्यग्दृष्टियों में ही होता है। आहारक आहारक अंगोपांगका बन्ध अप्रमत्तसे लेकर अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त प्रमादरहित गुणस्थानों में ही होता है, प्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त नहीं
होता। आयुका बन्ध मिश्रगुणस्थान और मिश्रकाययोगोंको छोड़कर अप्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त ही ३० १. म द्वितीयादि ।
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० ० ० ० ०० ०31
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जसि शेष मिथ्याद्यप्रमत्तगुणस्थानावसानमाद गुणस्थानवत्तंगळोळु यथायोग्यमायुब्बंधमकुं । मत्ते अपूर्व्यकरणादिगळोळळिल्ल ॥
तु
तीबंधक्के विशेषनियममं पेदपरु :
पढमुवसमये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुर्गते ||९३ ||
प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेषत्रये अविरतादिचत्वारस्तोत्थं करबंधप्रारंभकाः नराः केवलि -
द्वयोपांते ॥
प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं शेषद्वितीयोपशमसम्यक्त्वक्षायोपशमिकसम्यक्त्वक्षायिक सभ्यत्वमें सम्यक्त्वत्रयदोळं असंयताद्यप्रत्तावसानमाद नाल्कुं गुणस्थानवत्तगळु मनुष्यरुगळे तीर्थकरनामकर्म्मबंधप्रारंभकरप्परंतप्पोडं प्रत्यक्ष केवलिश्रुतके वलिद्वय श्रीपादोपांत्यदोळेयप्पर । यिल्लि १० प्रथमोपसम्यक्त्ववोळ मेदितु भिन्नविभक्तिकरणमयतरज्ञापकमक्कुमं ते बोडे प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालं स्तोकांतर्मुहूर्त्तमपुर्वारवमल्लि षोडशभावनासमृद्धि समनिसदेवु केलंबराचार्य रे बरवर पक्षबोळा सम्यक्त्वदोळु तीत्थंबंधप्रारंभमिल्ल । नरा एंबी विशेषणमेके दोडे मनुष्यगतिजरल्लदुळिद गतिज तोथंबंधप्रारंभकत्वयोग्यते यिल्लदे ते बोर्ड नारकरुगळगे पेरगे पेव विशुद्धिनिबंधन के वलिद्वयश्री पावसन्निधि संभविसदप्पुदरिदं नारकरुं तियंचरुगळगे विशिष्टप्रणिधानक्षयो- १५ पशमाभावदेव तत्त्वार्थाधिगमविशेषाभावदत्र्त्तार्णवं तोथंबंधप्रारंभक्कनुपपत्तिर्यदमा तिय्यं चरुं योग्यरल्लमेके बोर्ड तीर्थंकरबंधकारणदरुशन विशुद्धयादि भावनापरमप्रकर्षमिल्लत्तणदं । देवगतिजग्गेयुं मनुष्यरंते विशिष्टप्रणिधानाभावविवं क्रीडाशी लवददमभीक्ष्णज्ञानोपयोगादिभावना
तेष्वेव । नापूर्वकरणादिषु । शेषप्रकृतिबन्धः तु पुनः मिथ्यादृष्ट्यादिषु स्वस्वबन्धव्युच्छित्तिपर्यन्तेष्वेव ||१२|| तीर्थबन्धस्य विशेषनियममाह
प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेष- द्वितीयोपशम क्षायोपशमिक क्षायिकसम्यक्त्वेषु चासंयताद्यप्रमत्तान्तमनुष्या एव तीर्थंकरबन्धं प्रारभन्ते । तेऽपि प्रत्यक्ष केवलिश्रुतकेवलिश्रीपादोपान्ते एव । अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्व' इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तर्मुहूर्तकालत्त्रात् षोडशभावनासमृद्ध्यभावात्तद्बन्धप्रारम्भो नेति केषाञ्चित्पक्षं ज्ञापयति । नरा इति विशेषणं शेषगतिजानपाकरोति । विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् ।
होता है, अपूर्वकरण आदिमें आयुका बन्ध नहीं होता । शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अपनी अपनी बन्धव्युच्छित्तिपर्यन्त ही होता है || ९२ ॥
तीर्थंकर प्रकृति बन्धके विषय में विशेष नियम कहते हैं
२०
३०
प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तथा शेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वमें असंयत से लेकर अप्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त मनुष्य ही तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ करते हैं । वे भी प्रत्यक्ष साक्षात् केवली श्रुतकेवलोके चरणोंके निकट में ही करते हैं । यहाँ जो 'पढमुसमिए' इस प्रकार जुदी विभक्ति की है सो प्रथमोपशमसम्यक्त्वका काल थोड़ा अन्तर्मुहूर्तमात्र होनेसे षोडश कारण भावना भाना संभव नही है इसलिये उसमें तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता ऐसा किन्हीं का पक्ष है' उसका ज्ञापन करनेके लिये की है ।
क - ९
२५
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OP
गो० कर्मकाण्डे नुपपत्तिइंदं तीर्थकरत्वबंधप्रारंभयोग्यविशुद्धिविशेषासंभवमप्पुरिदम सिद्धमादुदु । मनुष्यरुगळे तीर्थबंधप्रारंभकरप्परें बुदत्थं ॥ तिर्यग्गतिवज्जितमागि शेषगतित्रयोळ तीर्थकरबंध संभविसुगुभेकेदोडे तीर्थबंधकालमुत्कृष्टदिदमन्तर्मुहूर्तधिकाष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालप्रमाणमप्पुरिदं । केवलिद्वयश्रीपादोपान्तदोळेब नियममेकेदोर्ड तत्समीपदोळे दर्शनवि५ शुद्धचादिनिबंधनविशुद्धिकारणतत्त्वाधिगमविशेषं संभविसुगुमप्पुरिदं ॥
अनंतरं गुणस्थानंगळोळु प्रकृतिगळोळु प्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियं पेळ्दपरु :
सोलस पणवीस णभं दस चउ छक्केक्क बंधवोच्छिण्णा।
दुग तीस चदुरपुव्वे पण सोलस जोगिणो एक्को ॥९४।।
षोडश पंचविशतिन्नभः दश चतुः षट्कैक्कबंधव्युच्छित्तयः। द्विकस्त्रिशच्चतस्रोऽपूर्वे पंच १० षोडश योगिन्येकः ॥
मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपयंतमाद गुणस्थानंगळोळु यथासंख्यमागि षोडशपंचविंशति शून्यं दश चतुः षट्क एक प्रकृतिगळु तंतम्म गुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु । मेले अपूर्वकरणगुणस्थानत्रिभागंगळोळं द्वित्रिशच्चतुः प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु। अनिवृत्तिसूक्ष्म
सांपरायरोळु क्रदिदं पंचषोडशप्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु । उपशांतक्षीणकषायरोळ व्युच्छित्ति १५ न च तिर्यग्गतिवजितगतित्रयतीर्थबन्ध...तद्वन्धकालस्योत्कृष्टेनान्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षानपूर्वकोटिद्वया
धिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात् । केवलिद्वयान्त एवेति नियमः तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् ॥९३॥ अथ गुणस्थानेषु व्युच्छित्तिमाह
मिथ्यादृष्टी षोडशप्रकृतयो बन्धव्युच्छिन्नास्तासामुपरि बन्धो नास्तीत्यर्थः । सासादने पञ्चविंशतिः। मिश्रे शून्यं व्युच्छित्यभाव इत्यर्थः । असंयते दश । देशसंयते चतस्रः । प्रमत्ते षट् । अप्रमत्ते एका । अपूर्वकरणस्य २० सप्तभागेषु प्रथमे द्वे षष्ठे त्रिंशत् । सप्तमे चतस्रः । अनिवृत्तिकरणे पञ्च । सूक्ष्मसाम्पराये षोडश । उपशान्त- .
'णरा' ऐसा विशेषण शेषगतियोंका निराकरण करता है क्योंकि अन्य गतियों में विशिष्ट चिन्तन क्षयोपशम आदि विशेष सामनी का अभाव होता है किन्तु तिर्यञ्चगतिको छोड़ शेष तीन गतियों में तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका अभाव नहीं है क्योंकि तीर्थकरके बन्धका काल
उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूत अधिक आठवर्षकम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीससागर प्रमाण कहा है। २५ अर्थात् यद्यपि तीर्थकरके बन्ध का प्रारम्भ मनुष्य पनि में ही होता है तथापि उसके नरक देव
आदि गतिमें जानेपर वहाँ भी बन्ध होता रहता है केवल तिर्यश्च गतिमें ही बन्ध नहीं होता। केवली श्रुतकेवलीके निकट में ही बन्धका नियम कहनेका कारण यह है कि अन्यत्र उस प्रकार की विशेष विशुद्धि संभव नहीं है ॥९३।।।
गुणस्थानोंमें प्रकृतियोंके बन्धकी व्युच्छित्ति कहते हैं३० मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। इसका आशय
यह है कि उन प्रकृतियों का बन्ध दूसरे आदि गुणस्थानों में नहीं होता। सासादनमें पञ्चीस पकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। मिश्रमें शून्य है अर्थात् यहाँ व्युच्छिति नहीं होती। असंयतमें दस, देशसंयतमें चार, प्रमत्तमें छह, अप्रमत्तमें एक, अपूर्वकरणके सात भागोंमें-से पहलेमें दो, छठे भागमें तीस, सातवे भागमें चार की व्युच्छिति होती है। अनिवृत्तिकरणमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६७ प्रकृतिगळिल्लल्लि शून्यंगळेयप्पुवु । सयोगकेवलियोळ वाद प्रतिव्युच्छित्तियक्र्छ। व्युच्छितिये बुदेन दोर्ड उपरितनगुणस्थानेष्वभावो च्छित्तिः। एल्लि व्यच्छितियेदु पेठल्पटुदल्लिया प्रकृतिगळग मेलण गुणस्थानदोलु बंधाभाव बुदत्यं । तंतम्न गुणस्थानचरमसमयदोळु बंधन्युच्छित्ति बंधविनाशम बी विनाशविषयदो द्वौ नयाविच्छन्ति येरडु नयंगठनोडंबडुवरु । उप्पादाणुच्छेद, अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । उत्पादानुच्छेदमुमनुत्पादानुच्छेदमुदितु । तत्थ अल्लि ५ उप्पादाणुच्छेदो णाम उत्पादानुच्छेदमें बुदु । दवडियो द्रव्यात्थिकः द्रव्याथिक। तेण सत्तावढाए चेव विणासमिच्छदि । अरि सत्वावस्थयोळे विनाशमनिच्छथिसुगुं। असत्ते असत्वे असत्वदोछु। बुद्धिविसयमइक्कंतभावेण बुद्धिविषयमतिक्रांतभावदिदं वयणगोयराइक्कते वचनगोचरातिक्रांतमागुत्तिरलु। अभावववहाराणुववत्तीदो अभाव व्यवहारानुपपत्तितः। अभावव्यवहारानुपत्तियत्तणिदं । ण च अभावो णाम अस्थि न च अभावो नामास्ति अभाव में बुदिल्ल । तप्परिच्छिक्दो १० पमाणाभावादो तत्परिच्छिदतः प्रमाणस्याभावात् । सत्तविसयाणं पमाणाणमसत्ते वावारविरोहादो-सत्त्वविषयाणां प्रमाणानां असत्त्वे व्यापारविरहात सत्त्वविषयंगळप्प प्रमाणं गळगसत्त्वदोळु व्यापारमप्पुरिदं । अविरोहे वा अविरोधे वा । अविरोधमादोडे मेणु । गड्डहाँसंगपि पमाणविसयं होज्ज गईभमुंगोपि प्रमाणविषयो भवेत् गईभशृंगमुं प्रमाणविषयमागलि। ण च एवमणुवलंभादो न चैवमनुपलंभात् इन्तल्तनुपलंभमप्पुरिदं । तन्हा भावो चेव तस्माद्भावश्च एव अरिदं भावमे। १५ अभावोत्ति सिद्धं अभावमें दितु सिद्धं ॥ क्षीणकपाययोः शून्यम् । सयोगकेवलिन्येका। अयोगकेवलिनि बन्धो व्युच्छित्तिरपि न ।। तत्र बन्धव्युच्छित्तौ द्वो नयाविच्छन्ति-उत्पादानुच्छेदोऽनुत्पादानुच्छेदश्चेति । तत्र उत्पादानुच्छेदो नाम द्रव्याथिकः । तेन सन्वावस्थायामेव विनाशमिच्छति । असत्त्वे बुद्धिविषयातिक्रान्तभावेन वचनगोचरातिक्रान्ते सति अभावव्यवहारानपपत्तेः । न चाभावो नामास्ति तत्परिच्छेदकप्रमाणाभावात् । सत्त्वविषयाणां प्रमाणानामसत्त्वे व्यापारविरोधात् । अविरोधे वा गर्दभशृङ्गमपि प्रमाणविषयं भवेत् । न चैवमनुपलम्भात् । तस्माद्भाव एव अभाव २० इति सिद्धम् । अनुत्पादानुच्छेदो नाम पर्यायाथिकः । तेन सत्त्वावस्थायामभावव्यपदेशमिच्छति । भावे उपपाँच, सूक्ष्मसाम्परायमें सोलह, उपशान्तकषाय क्षीणकपायमें शून्य, सयोगकेवलीमें एक की बन्धव्युच्छित्ति होती है। अयोगकेवलीमें बन्ध भी नहीं होता व्युच्छित्ति भी नहीं होती । बन्धव्यच्छित्तिमें दो नयसे कथन है
एक उत्पादानुच्छेद और दूसरा अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेद नाम द्रव्याधिक का २५ है। इस नयके अभिप्रायसे सत्त्व अवस्था में ही विनाश होता है। जहाँ सत्त्व ही नहीं है वहाँ बुद्धि का व्यापार ही सम्भव नही है । और ऐसी अवस्थामें वचनके अगोचर होनेसे उसमें अभाव का व्यवहार सम्भव नहीं है। दूसरे, अभाव नामका कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि सको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है। जो प्रमाण सत्पदार्थको जानते हैं वे तो असपदार्थको जानने में व्यापार नहीं कर सकते। यदि कर सकते हैं तो गधेके सींग भी प्रमाणके विषय होने चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता। अतः सिद्ध होता है कि भाव ही अभावरूप होता है। अनुत्पादानुच्छेद नाम पर्यायाथिक नयका है। उसके अनुसार असत्व अवस्थामें अभावका व्यवहार होता है क्योंकि भावके होते हुए अभावका
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गो० कर्मकाण्डे
मनुप्पादाणुच्छेदो णाम अनुत्पादानुच्छेदो नाम अनुत्पादानुच्छेदमें बुदु। पज्जडियो णयो पर्यायास्थिको नयः। पर्यायास्थिकनयं । तेण असत्तावत्थाए तेनासत्त्वावस्थायां अदरिनसत्वावस्थेयो । अभावववएसमिच्छदि अभावव्यपदेशमिच्छति । भावे ज्वलं भलाणे अभावत्तविरोहादो भावे उपलभ्यमाने अभावत्वविरोधात् । ण च पडिसेहावितओ भाओ अभावत्तमल्लियइ न च प्रतिषेधाविषयो भाओऽभावत्वमाश्रयति । प्रतिषेधाविषयमप्प भावमभावत्वमनायिसदु। पडिसेहस्स फळाभावपसंगादो प्रतिषेधस्य फलाभावप्रसंगात् । प्रतिषेधक्क फलाभावप्रसंगदिदं । ण च विणासो णत्थि न च विनाशो नास्ति । न चैवं इन्तल्तु। विनाशो नास्ति विनाशभिल्ल घादि अधादोणं घात्ययातीनां । घात्यपातिगळ्ग । सम्वत्थमवट्ठाणाणुबळं भादो सर्वत्रावस्थानानुपलंभात् सर्वत्रा
वस्थानानुपलंभदणिदं । ण च भाओ अभायो होदि न च भावो अभावो भवति भावमभावमुमा१० गदु। भावाभावाणमण्णोण्णविरुद्धाणमेयत्त विरोहावोत्ति। भावाभावानामन्योन्यविरुद्धानामेकत्व
विरोधादिति । भावाभावंगळगन्योन्यविरुद्धंगळ्यकत्वविरोधमुंटप्पुर । एत्थ पुण सुत्ते-अत्र पुनःसूत्रे द्रव्याथिकनयः । उप्पादाणुच्छेदोकळंबिदो उत्पादानुच्छेदोवलंबितः । उत्पादस्य विद्यमानस्य अनुच्छेदोऽविनाशो यस्मिन्नसावुत्पादानुच्छेदो नयः। एंदितु द्रव्याथिकनयापेक्षेयिवं तंतम्म गुण
स्थानद चरमसमयदोळ बंधव्युच्छित्तिबंधविनाशमप्पुरिदं । पर्यायाथिकनयदिदमनन्तरसमयदोळु १५ बंधविनाशमक्कुमिन्तु ॥
लम्यमाने अभावत्वविरोधात । न च प्रतिषेधाविषयो भावोऽभावत्वमाश्रयति प्रतिषेधस्य फलाभावप्रसङ्गात् । न च विनाशो नास्ति धात्यघातिनां सर्वत्रावस्थानानुपलम्भात । न च भावोऽभावो भवति भावाभावयोरन्योन्यविरुद्धयोरेकत्वविरोधात् इति । अत्र पुनः सूत्रे द्रव्यापिकनयः उत्पादानुच्छेदोऽवलम्बितः ।
उत्पादस्य विद्यमानस्यानुच्छेदोऽविनाशो यस्मिन्नसावुत्पादानुच्छेदो नयः, इति द्रव्याथिकनयापेक्षया स्वस्व२० गुणस्थानचरमसमये बन्धव्युच्छित्ति:-बन्धविनाशः । पर्यायापिकनयेन तु अनन्तरसमये बन्धनाशः ॥९४||
व्यवहार होने में विरोध है। क्योंकि भावका निषेध किये विना अभाव नहीं होता। अतः वह अभावपने का आधार नहीं हो सकता। यदि हो तो फिर निषेधका कोई फल नहीं रहेगा। कोका विनाश नहीं होता ऐसा भी नहीं है क्योंकि घाति और अघाति कर्म सर्वत्र नहीं पाये
जाते । न भाव-अभावरूप होता है क्योंकि भाव और अभाव परस्पर में विरोधी होनेसे एक २५ नहीं हो सकते । यहाँ व्यच्छित्तिके कथनमें उत्पादानुच्छेदरूप द्रव्याथिकनयका अवलम्बन
लिया है। उत्पाद अर्थात् विद्यमानका अनुच्छेद अर्थात् अविनाश जिसमें है वह उत्पादानुच्छेदनय है। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा अपने-अपने गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति अर्थात् विनाश होता है। किन्तु पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा तो अनन्तर समयमें बन्धका नाश होता है।
___भावार्थ-इसका आशय यह है कि जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियों की व्युच्छित्ति कही है उन प्रकृतियोंका बन्ध उस गुणस्थान के अन्त समयपर्यन्त होता है, उसमें उनके बन्धका अभाव नहीं होता। उससे ऊपरके गुणस्थानोंमें उनके बन्धका अभाव होता है। अतः जिस गुणस्थान में जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उसमें उतनी प्रकृतियोंका बन्ध होता
है। सो पूर्व-पूर्वके गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उनमें-से उसी गुणस्थानमें ३५ जितनी प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति कही हो उन्हें घटानेपर आगे-आगेके गुणस्थानमें बन्ध
का प्रमाण आता है। तथा जितनी प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कही हों उनमें से जितनी प्रकृतियोंका
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कर्णाटवृत्ति बीवतत्त्वप्रदीपिका अनन्तरं मिथ्यावृष्टियषोडशबंधव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं पेळ्दपर :
मिच्छत्तहुडसंढासंपत्तेयक्खथावरादावं ।
सुहुमतियं वियलिंदी गिरयदुणिरयाउगं मिच्छे ॥९५।। मिथ्यात्वहुंडषंढाऽसंप्राप्तकामस्थावरातपाः। सूक्ष्मत्रिकं विकलेंद्रियनरकद्विकनरकायुष्कं मिथ्यादृष्टौ ॥
मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ हुंडसंस्थानमुं १ षंढवेदमुं १ असंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुं १ एकेंद्रियजातिनाममुं १ स्थावरनाममुं १ आतपनाममुं १ सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरमेंब सूक्ष्मत्रितयमुं ३ द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रियमुमेंब विकलेंद्रियत्रितयमुं ३ नरकगति तत्प्रायोग्यानुपूठळ्यम ब नरकद्विकमुं २ नरकायुष्यमुमें दिती षोडशप्रकृतिगळु केवलं मिथ्यात्वोदयहेतुकंगळप्पुरिवं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु ॥ अनंतरं सासादनन व्युच्छित्तिगळं पेन्दपरु :
विदियगुणे अणथीणतिद्भगतिसंठाणसंहदिचउक्कं ।
दुग्गमणित्थीणीचं तिरियदुगुज्जोवतिरिआऊ ॥९६॥ द्वितीयगुणे अनंतानुबंधिनः स्त्यानगृद्धित्रितयं दुर्भगत्रितयं संस्थानसंहननचतुष्कं दुर्गमनं स्त्रीनीचं तिय॑गिद्वकमुद्योततिर्यगागूंषि ॥
द्वितीयगुणे सासावनगुणस्थानदोळ अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयम ४ स्त्यानगृद्धि निवानिद्रा प्रचलाप्रचलात्रितयमुं ३ दुर्भगदुःस्वर अनादेयमेंब दुर्भगत्रितयमुं३ न्यग्रोधपरिमंडलस्वातिकुब्जवामनसंस्थानचतुष्टयमुं ४ बज्रनाराच नाराच अर्द्धनाराच कोलितसंहननमें ब संहननचतुष्टयमुं ४, अथ ताः षोडशादि प्रकृतिर्गाथाष्टकेनाह
मिथ्यात्वं हुंडसंस्थानं षण्ठवेदः असंप्राप्तसृपाटिकासंहननं एकेंद्रियं स्थावरातपः सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानि २० द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणि नरकगतितदानुपूर्ये नरकायुश्चेति षोडश केवलमिथ्यात्वोदयहेतुबन्धत्वात् मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमये एष व्युच्छिद्यन्ते ॥९५॥
सासादनगुणस्थानचरमसमये अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं स्त्यानगद्धिनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाः दुर्भगदुःस्वरानादेयानि न्यग्रोधपरिमण्डलस्वातिकुब्जवामनसंस्थानानि वज्रनाराचनाराचार्धनाराचकीलितसंहननानि अप्रशस्त
बन्ध कहा हो उन्हें घटानेपर शेष जितनी प्रकृतियाँ रहें उन्हें अबन्धरूप जानना । इस तरह २५ बन्ध, व्युच्छित्ति और अबन्ध ये तीन अवस्थाएँ होती हैं । उन्हींका कथन आगे करेंगे ॥९४।।
उन सोलह आदि व्युच्छित्ति प्रकृतियों को आठ गाथाओं से कहते हैं
मिथ्यात्व, हुंडसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु ये सोलह प्रकृतियाँ केवल मिथ्यात्वके उदयके कारण ही बँधती हैं। अत: ३० मिध्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम समयमें ही ये व्युच्छिन्न होती हैं ॥१५॥
सासादन गुणस्थानके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी चार, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान, वानाराचसंहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलितसंहनन, अप्रशस्त
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गो० कर्मकाण्डे अप्रशस्तविहायोगतियु१ स्त्रीवेदमुं १ नीचरर्गोत्रमुं १ तिर्यग्गति तत्प्रायोग्यानुपूटळमें ब तिर्यग्द्विकमुं २ उद्योतनाममुं १ तिर्यगायुष्यमु १ मेंब पंचविंशतिप्रकृतिगळनंतानुबंधिकषायोदय हेतुकमळप्पुरिदं सासादनगुणस्थानचरमसमयदोळ बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु।।
ई पंचविंशतिप्रकृतिगळु मिथ्यात्वानंतानुबंध्युभयोदयहेतुकंगळप्पुवेक दोडे अनंतानुबंधि५ कषायोदयरहितमिथ्यादृष्टियोळिवक्के बंधमुंटप्पुरिदमुं मिथ्यात्वोदयरहित सासादननोळं बंधमुंटपुरिदं उभयोदयरहितरोळु बंधरहितत्वदिदमुं।
अनंतरमसंयतगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिगळं पेळ्दपरु :
मिश्रगुणस्थानदोळु बंधन्युच्छित्तिशून्यमेके दोडे अप्रत्याख्यानकषायोदयहेतुकंगळ्गसंयत पथ्यंतं बंधमुंटप्पुरिंदमल्लि बंधव्युच्छित्तिशून्यमेंदु पेळल्पटुवु ।
अयदे बिदियकसाया वज्ज ओरालमणुदुमणुवाऊ ।
देसे तदियकसाया णियमेणिह बंधबोच्छिण्णा ।।९७॥ असंयते द्वितीयकषाया वज्रमौदारिकमनुष्यद्विकं मनुष्यायुद्देशवते तृतीयकषायाः नियमेनेह बंधव्युच्छित्तयः॥
असंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्टयमुं४ वज्रऋषभनाराचसंहननमुं१ औदारिकशरीर१५ तदंगोपांगद्विकमुं २ मनुष्यगतितत्प्रायोग्यानुपूद्वितयमुं २ मनुष्यायुष्य में ब दशप्रकृतिगळु
अप्रत्याख्यानकषायोदयहेतुकंगळप्पुरिदमसंयतगुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु । देशवते देशवतगुणस्थानचरमसमयदोळु प्रत्याख्यानावरणोदयहेतुकंगळप्प प्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं ४ बंधव्युच्छित्तियक्कुं नियमदिद नो गुणस्थानदोळे ये दोडनंतगुणस्थानत्तिगळु संयमिगळप्पुरिद प्रत्याख्यानावरणोदयाभावमप्पुरिदं तद्धेतुक तबंधमुमिल्ल । विहायोगतिः स्त्रीवेदः नीचर्गोत्रं तिर्यग्गतितदानुपूर्व्य उद्योतः तिर्यगायुश्चेति पञ्चविंशतिः व्युच्छिद्यन्ते । अमूः पञ्चविंशतिः अनन्तानुबन्ध्युदयरहितमिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वोदयरहितसासादने च बन्धादुभयोदयहेतुका भवन्ति । मिश्रगुणस्थाने बन्धन्युच्छित्तिः शून्यम् ।।९६॥
____ असंयतगुणस्थानचरमसमये द्वितीयकषायचतुष्कं वज्रवृषभनाराचसंहननं औदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गे मनुष्यगतितदानुपूज्यै मनुष्यायुश्चेति दश अप्रत्याख्यानकषायोदयहेतुबन्धत्वाद्व्युच्छिद्यन्ते । देशव्रतगुणस्थान२५ चरमसमये स्वोदयहेतुबन्धत्वात् प्रत्याख्यानावरणा व्युच्छिद्यन्ते नियमेन ॥९७॥ विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, तिर्यगायु इन पच्चीसकी व्युच्छित्ति होती है। ये पच्चीस अनन्तानुबन्धीके उदयके बिना मिथ्यादृष्टि में और मिथ्यात्वके उदयके विना सासादनमें भी बंधती हैं अतः इनका बन्ध मिथ्यात्वके उदयसे
भी होता है और अनन्तानुबन्धीके भी उदयसे होता है। मिश्रगुणस्थानमें व्युच्छिति ३० नहीं है ॥९६।।
असंयतगुणस्थानके अन्तिम समयमें अप्रत्याख्यान कषायकी चौकड़ी, वर्षभनाराच संहनन, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्याय ये दस अप्रत्याख्यानकषायके उदयसे बँधनेके कारण व्यच्छिन्न होती हैं। देशविरत गुणस्थानके अन्तिम
समयमें प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे व्युच्छित्ति होती है। क्योंकि ये अपने उदयके ३५ निमित्तसे ही वधती हैं ।।९७॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१ अनंतरं प्रमत्तसंयतन बंधन्युच्छित्तिगळं पेळदपरु :
छट्टे अथिरं असुहं असादमनमं च अरदिसोगं च ।
अपमत्ते देवाऊ मिट्ठवणं चेव अस्थित्ति ॥९८।। षष्ठे अस्थिरमशुभमसातमयशश्चारतिः शोकश्च । अप्रमत्ते देवायुन्निष्ठापनं चैवास्तीति ॥
प्रमत्ते प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळु अस्थिरमुमशुभमुमसातवेदनीयमुमयशस्कोत्तिनाममुमरतियं ५ शोकमुमें ब षट्प्रकृतिगळु प्रमादहेतुकंगळप्पुरिदं षष्ठगुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु। प्रमादरहितरोळ तबंधाभावमप्पुरिदं । अप्रमत्ते अप्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळे देवायुब्र्बन्धव्युच्छित्तियक्कुं। स्वस्थानाप्रमत्तचरमसमयदोळु तद्गुणस्थानचरमसमयदोळे देवायुन्निरंतर बंधान्तर्मुहूर्त्तकालसमयसंख्याप्रमाणासंख्यातसमयप्रबद्धंगळं समाप्तंगळप्पुवेक दोड-सातिशयाप्रमत्तादिविशिष्टविशुद्धपरिणामरप्प उपशमश्रेण्यारोहकापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोप- १० शांतकषायग्गें तदायुबंधननिबंधनमध्यमविशुद्धि संज्वलनकषायपरिणामस्थानंगळु संभविसवप्पुदरिदं।
अनंतरमपूर्वकरणगुणस्थानसप्तभागेगळं त्रिविधंमाडिदल्लि तद्भागंगळोळ बंधव्युच्छित्तिगळं पेन्दपरु । गाथाद्वदिदं :
मरणूणम्मि णियट्टीपढमे णिद्दा तहेव पयला य । छठे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमणपंचिंदी ॥१९॥ तेजदुहारदुसमचउसुरवण्णगुरुगचउक्कतसणवयं ।
चरिमे हस्सं च रदी भयं जुगुच्छा य वोच्छिपणा ॥१०॥ मरणोने निवृत्तिप्रथमे निद्रा तथैव प्रचला च । षष्ठे भागे तीत्थं निर्माणं सद्गमनपंचेंद्रिये॥
तैजसद्विकमाहारकद्विकं समचतुरस्र संस्थानं सुरवर्णागुरुलघुचतुष्कं त्रसनवकं । चरमे हास्यं २० च रतिः भयं जुगुप्सा च व्युच्छित्तयः॥
प्रमत्तसंयतगुणस्थानचरमसमये अस्थिरं अशुभं असातवेदनीयं अयशस्कीतिः शोकश्चेति षट् व्युच्छिद्यन्ते प्रमादहेतुकबन्धत्वात् । स्वस्थानाप्रमत्तगुणस्थानचरमसमये देयायुर्बन्धव्युच्छित्तिः । सातिशयाप्रमत्तादिषु विशिष्टविशुद्धिकेषु तद्वन्धनिबन्धनमध्यमविशुद्धिसंज्वलनपरिणामासंभवात् ॥९८॥ अथापूर्वकरणस्य सप्तभागान् त्रिधा कृत्वा तत्र बन्धव्युच्छित्ति गाथाद्वयेनाह
प्रमत्तसंयतगुणस्थानके अन्तिम समयमें अस्थिर, अशुभ, असातवेदनीय, अयशकीति, शोक ये छह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती हैं क्योंकि इनका बन्ध प्रमादके कारण होता है। स्वस्थानाप्रमत्तगणस्थानके अन्तिम समयमें देवायकी बन्ध व्यच्छित्ति होती है। यहाँ अप्रमत्तके साथ स्वस्थान विशेषण इसलिए लगाया है कि सातिशय अप्रमत्त आदिमें विशिष्ट विशुद्धि होनेसे मध्यम विशुद्धिरूप संज्वलनके परिणाम सम्भव नहीं हैं और ये ही मध्यम विशुद्धि-.. रूप परिणम यहाँ देवायुके बन्धमें कारण होते हैं ॥२८॥ ___अपूर्वकरणके सात भागोंमें-से तीन भागोंमें बन्धव्युच्छित्ति दो गाथाओंसे कहते हैं१. मु य बंधवो । २. त्तिः स्वस्थानविशेषणं तु साति मु.।
२५
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गो० कर्मकाण्डे
उपशमण्यारोहणदोळ अपूर्व्वकरणंगे प्रथमभागदोळु मरण मिल्लवु कारणमागि मरणोने मरणरहितमप्प निवृत्तिप्रथमे निवृत्तिः परिणामविकल्पः तस्य प्रथमो भागस्तस्मिन् । परिणामभेदंगळ मरणरहितमप्प प्रथमभागदोल परिणामभेदंगळसंख्यात लोकमात्रंगळ पूर्वगळ करणंगे दु जीवकांदोळ सुनिन्नतमप्पुदरिदमपूर्वकरणगुणस्थानद मरणविरहितमप्पं प्रथमभागदोळे बुद ५ मल्लि निद्रादर्शनावरण प्रचलादर्शनावरणमुमें बेरडं बंधव्युच्छित्तिगळकुं । तथैव तेन प्रकारेणैव आ प्रकारदिदमे षष्ठे भागे षष्ठभागदोळ तीर्थंकरनाममुं १ निर्माणनाममुं १ सद्गमनमुं १ पंचें द्रियजातिनाममुं १ तैजसकाम्र्म्मणशरीरद्वितयमुं २ आहारकाहार कांगोपांगनाम द्वितयमुं २ समचतुरस्त्रसंस्थानमुं १ देवगतितत्प्रा योग्यानुपूर्व्य वैक्रियिकशरीर तदंगोपांगमुळे व सुरचतुष्कमुं ४ वर्णगंधरसप्र्श व वर्णचतुष्कमुं ४ अगुरुलघु उपघात परघातोच्छ्वास में ब अगुरुलघु चतुष्कमं ४ सबादर१० पर्याप्त प्रत्येक शरीर स्थिर शुभ सुभग सुस्वरादेय में ब स नवकमुं ९ इन्तु त्रिशत्प्रकृतिगळु षष्ठभाग चरमसमयदोळ बंधव्युच्छित्तिगळक्कु । चरमे चरमसप्तमभागदोछु हास्यमुं रतिनोकषायमं भयनकषायमुं जुगुप्सानोकषाय मुमिन्तु नात्कु प्रकृतिगळु तत्सप्तमभागचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळक्कु ।
अनंतरमनिवृत्तिकरण गुणस्थानद बंधव्युच्छित्तिगळं पेदपरु :पुरिसं चंदु संजलणं कमेण अणियट्टि पंचभागेसु । पढमं विग्धं दंसणच जस उच्चं च सुहुमंते ॥ १०१ ॥
१५
७२
पुरुषश्चतुः संज्वलनाः क्रमेणानिवृत्तिपंचभागेषु । प्रथमं विघ्नं दर्शनचत्वारि यशस्कीतिरुच्चं च सूक्ष्मांते ॥
पुंवेदनोकषायमुं १ क्रोधसंज्वलनकषायमुं २ मानसंज्वलनकषायमुं १ माया संज्वलनकषायमुं २० १ लोभसंज्वलनकषायमु १ मेदितु पंचप्रकृतिगळु अनिवृत्तिकरणगुणस्थानपंचभागंगळोळु यथाक्रमदिवं मेले मेले बंधव्युच्छित्तिगलप्पुवु । सांपरायगुणस्थानवोळ मत्याव रणादिज्ञानावरणपंचकमु ५
निवृत्तिः अर्थादपूर्वकरणपरिणामः । तस्य प्रथमभागे मरणोने आरोहणावसरे मरणरहिते निद्राप्रचले व्युच्छिन्ने । तथैव - तेनैव प्रकारेण षष्ठभागचरमसमये तीर्थं निर्माणं सद्गमनं पञ्चेन्द्रिय तैजसकार्मणे आहारकतदङ्गोपाङ्गे समचतुरस्रं देवगतितदानुपूर्व्यं वैक्रियिकतदङ्गोपाङ्गानि वर्णगन्धरसस्पर्शाः अगुरुलघूपघात२५ परघातोच्छ्वासः सबादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिरशुभ सुभगसुस्वरादेयानि चेति त्रिशबन्धव्युच्छिन्ना ।
सप्तमभागे
हास्यं रतिर्मयं जुगुप्सा चेति चतुष्कं बन्धव्युच्छिन्नम् ॥९९-१००॥
पुंवेदः क्रोधादयश्चतुः संज्वलनाश्चानिवृत्तिकरण गुणस्थानपञ्चमभागेषु क्रमेणोपर्युपरि व्युच्छिद्यन्ते ।
३५
निवृत्ति अर्थात् अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथम भाग में श्रेणी चढ़ते समय मरण नहीं होता । उस भाग में निद्रा और प्रचलाकी व्युच्छित्ति होती है । उसी प्रकारसे छठे भागके ३० अन्तिम समय में तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पञ्चेन्द्रिय, तैजस, कार्मण, आहारक, आहारक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, वैक्रियिकअंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादुर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय ये तीस प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न होती हैं । सप्तमभाग में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा ये चार व्युच्छिन्न होती हैं ॥ ९९-१००॥
पुरुषवेद, संज्वलनक्रोध, सज्वलनमान, संज्वलनमाया, संज्वलन लोभ ये पाँच अनिवृत्ति गुणस्थानके पाँच भागोंमें क्रमसे व्युच्छिन्न होती हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दानांतरायादिविघ्नपंचकमुं ५ चक्षुद्देर्शनावरणादि दर्शनावरणचतुष्कमु ४ यशस्कोत्तिनाममु १ उच्चैर्गोत्रमुमेंब षोडशप्रकृतिगळ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तियप्पुवु । अंते बो शब्दमन्त्यदीपकमप्पुवारदमल्ला गुणस्थानंगळोळ तंतम्म गुणस्थानचरमसमयदोळी पेळल्पट्ट बंधव्युच्छित्तिगळप्पुर्वेदितु निश्चयिसुवुदु। मेले कषायोदयमिल्लप्पुरिदं। कषायहेतुकंगळगी गुणस्थानदोळे बंधव्युच्छित्तियादुदिन्नु योगहेतुकमप्प सातवेदनीयबंध मूरु गुणस्थानंग ५ ळोळेदु पेळपदपरु।
उवसंतखीणमोहे जोगिम्मि य समइयद्विदी सादं ।
णायव्यो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य ॥१०२॥ उपशांतक्षीणमोहयोर्योगिनि च समयिकस्थिति सातं । ज्ञातव्यः प्रकृतीनां बंधस्यान्तोऽ नंतश्च॥
उपशांतकषायनोळं क्षीणमोहनोळं सयोगकेवलिभट्टारकरोळं समयस्थितिकसातवेदनीयं योगहेतुकं बंधमक्कुमयोगिभट्टारकरो योगमुमिल्लप्पुरिदमदक्के बंधाभावमक्कुमिन्तु प्रकृतिगळगे बंधस्यांतः बंधव्युच्छित्तियं अनंतश्च बंधमुं च शब्ददिनबंधमिन्तु त्रिभेदं ज्ञातव्यः । अरियल्पडुवुदिल्लि बंधव्युच्छित्तिगळे पेळल्पटुवनुक्तंगळप्पबंधमुमबंधमुतरियल्पडुववेंदोडे मपेन्दबंधनियमसूत्रमं लेसागि भाविसि तीर्थबंधमसंयतादिचतुर्गुणस्थानदोळेयककुमाहारकद्वयमप्रमत्तादिअपूर्वकरणषष्ठ- १५ भागपय्यंतमेयक्कुमायुष्यं मिश्रगुणस्थानमुमं मिश्रकाययोगिगळं वज्जिसिळिदेल्ला अप्रमत्तावसानमाव सप्तगुणस्थानंगळोळ यथायोग्यमागियायुष्यं बंधमक्कुमुळिदेल्ला प्रकृतिगळु मिथ्यादृष्ट्यादि सयोगकेवलिगुणस्थानावसानमागित्रयोदशगुणस्थानंगळोळी पेळल्पट्ट व्युच्छित्ति प्रकृतिगम्पिडिदु मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळु व्युच्छित्तिबंधअबंधमुमेंब त्रिविधत्वमं रचिसुवद तडोडे बंधप्रकृतिगळ बंधप्रकृतिगळ अभेदविवयिदं विशत्युत्तरशतंगळक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु २० तोत्यमुमाहारकद्वयमुमें बत्रिप्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळन्तेंदवं कळेदुळिद-११७. प्रकृतिगळु बंधसूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानचरमसमये मत्यादीनि पञ्च, दानान्तरादयः पञ्च, चक्षुर्दर्शनावरणादीनि चत्वारि, यशःकोतिरुच्चर्गोत्रं चेति षोडश व्युच्छिद्यन्ते । अन्ते इत्यन्तदीपकत्वात् सवंत्रोक्तव्युच्छित्तयः तत्तच्चरमसमये एव ज्ञातव्याः ॥१०१॥
उपशान्तकषाये क्षीणमोहे सयोगकेवलिनि चैकसमयस्थितिकं सातवेदनीयमेव बध्नाति । तच्च योग- २५ हेतुकबन्धं कषायोदयस्य तेष्वभावात अयोगे योगोऽपि बन्धोऽपि च नास्ति । एवं प्रकृतीनां बन्धस्यान्तो बन्ध
अन्तिम समयमें मत्यावरण आदि पाँच, दानान्तराय आदि पाँच, चक्षुदर्शनावरण आदि चार, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र ये सोलह व्युच्छिन्न होती हैं। अन्त शब्द अन्तदीपक है अतः सर्वत्र उक्त व्युच्छित्तियाँ प्रत्येक गुणस्थानके अन्तिम समयमें ही होती हैं यह ज्ञापित करता है ।।१०१॥
उपशान्तकषाय, क्षीणमोह और सयोगकेवलीमें एक समयकी स्थिति लेकर सातवेदनीयका ही बन्ध होता है । यह बन्ध योगके कारण होता है। इन गुणस्थानों में कषायका अभाव है। अयोगकेवलीमें योग भी नहीं है अतः बन्ध भी नहीं है। इस प्रकार प्रकृतियों के क-१०
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७४
गो० कर्मकाण्डे योग्यंगळु । कळेवत्रिप्रकृतिगळु अबंधगळप्पुवंतागुत्तिरला मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळु व्युच्छित्तिगलु १६। बंधंगळ ११७ । अबंधंगळ ३। सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळ मिथ्यादृष्टिय षोडश बंधव्युच्छित्तिगळनातन बंधप्रकृतिगळोळ कळेदोडे शेष १०१ प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पवा पदिना
रुमबंधव मूरुं कूडि एकानविंशति प्रकृतिगळु १९ सासावनंगबंधंगळप्पुवंतागुत्तिरलु सासावनसम्य५ ग्दृष्टिगुणस्थानदोळु व्युच्छित्तिगळु २५ बंधगळु १०१ अबंधगळु १९ । मिश्रगुणस्थानदोळ
आयुबंधमिळेब नियममंटप्पुरिंदमा सासादनसम्यग्दृष्टिगे पेळ्द बंधप्रकृतिगळोळगे नरकायुष्यं मिथ्यादृष्टियोळुळियितप्पुरिदं । तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगलिरुतिपवातन पंचविंशतिव्युच्छित्ति. प्रकृतिगळोळु तिर्यगायुष्यमिद्दपुद्दप्पुदरिना पंचविंशतिप्रकृतिगळनू मनुष्यदेवायुष्यद्वयमुमं कूडि २७
प्रकृतिगळं कळेदोडे ७४ प्रकृतिगळु बंधंगळप्पुवु । अबंधंगळा कळेव २७ प्रकृतिगळं सासावनन १० अबंधंगळु १९ मं कूडिदोडे ४६ प्रकृतिगळ बंधंगळप्पुवंतागुत्तिरलु मिश्रगुणस्थानवोळ व्युच्छित्ति
शून्यं बंधंगळु ७४ अबंधंगळु ४६ असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळ मिश्रगुणस्थानदोळु व्युच्छित्तिशून्यमप्पुरिदमा मिश्रनबंधप्रकृति गळु ७४ रोळगेयातन बंधप्रकृतिगळोळु मनुष्यायुष्यम देवायुष्यम तीर्थनाममुमेंब त्रिप्रकृतिगळिरुत्तिर्पववं तेगदु कूडिदोडसंयतंगे बंधप्रकृतिगळ ७७
अप्पुवा तेगदुळिद अबंधप्रकृतिगळु ४३ असंयतंगे अबंधप्रकृतिगळप्पुवंतागुत्तिरलु असंयतगुण१५ स्थानदोळ व्युच्छित्तिगळु १० बंधंगळ ७७ अबंधगळु ४३ । देशसंयतगुणस्थानदोळु असंयतन
बंधप्रकृतिगळोळगेयातन व्युच्छित्तिगळं कळेदुळिद ६७ प्रकृतिगळु बंधप्रकृतिगळप्पुवा पत्तुं आतन अबंधद ४३ प्रकृतिगळुमं कूडिदोडे देशसंयतंगे अबंधगळु ५३ प्रकृतिगळप्पुवु । अन्तागुत्तिरला देशवतंग व्युच्छित्तिगळु ४ बंधंगळु ६७ अबंधंगळु ५३। प्रमत्तसंयतगुणस्थानवोळवेशसंयतन
नाल्कुं व्युच्छित्तिगळनातन बंधप्रकृतिगळोळकळेदोडे शेष ६३ प्रकृतिगळु बंधंगळप्पुवा नाल्कुमातन २० अबंधंगळु ५३ नू कूखियो प्रमत्तंगे अबंधप्रकृतिगळु १७ अप्पुषु। अन्तागुत्तिरलु प्रमत्तसंयतंग
व्युच्छित्तिगळु ६ बंधंगळु ६३ । अबंधंगळ ५७ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळ, प्रमतसंयतन व्युच्छित्तिगळारुम ६ नातन बंधप्रकृतिगळोळ ६३ कळ दुलिव ५७ प्रकृतिगळं प्रमत्तर अबंधं प्रकृतिगळोळिरुत्तिद्दाहारकद्वयमं बंधयोग्यतयुदरिदं तेगदुकोंडु कूडिदोडे बंधप्रकृतिगळ ५९
अप्पुवाशेषाबंधप्रकृतिगळ ५५ मनातनबंधव्युच्छित्तिगळ, ६ मं कूडिदोडे अप्रमत्तरिगे अबंध२५ प्रकृतिगळ, ६१ अप्पुवंतागुत्तिरलप्रमत्तसंयतंगे बंधव्युच्छित्ति १ बंधंगळ ५९ अबंधंगळ, ६१ ।
अपूर्वकरणगुणस्थानदोलु अप्रमत्तसंयतन बंधप्रकृतिगळोळु ५९ आतन बंधव्युच्छित्तियों दं कळेदोडे बंधप्रकृतिगलु ५८ आ कळेदों दुमनातन अबंधप्रकृतिगळ ६१ में कूडिदोड ६२ प्रकृतिगळप्पुवंतागुत्तिरलु मरणरहितापूर्वकरणन प्रथमभागदोळु बंधव्युच्छित्तिगळु २ बंधंगळ ५८
व्युच्छित्तिक्तो ज्ञातव्यः । बन्धस्यानन्तो बन्ध इत्यर्थः । च शब्दादबन्धश्चेति ॥१०॥ ३. बन्धका अन्त अर्थात् बन्धव्युन्छित्ति और बन्धका अनन्त अर्थात् बन्ध तथा 'च' शब्दसे
अबन्ध जानना ॥१०२।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अबंधंगळु ६२ तद्गुणस्थानषष्ठ भागदोळु तन्न प्रथम भागद बंधव्युच्छित्तिगन्निद्राप्रचलेगळेरडुमना प्रथमभागबंधप्रकृतिगळु ५८ रोळु कळदुळिद ५६ प्रकृतिगळु बंधंगळप्पुवा निद्राप्रचलेगळुमाप्रथमभागेय अबंधप्रकृतिगळु ६२ मं कूडिदोडे तत्षष्ठभागेयोळऽबंधंगळु ६४ अप्पुवंतागुत्तिरला षष्ठभागेयोळु बंधव्युच्छित्तिगळु ३० बंधंगळय्वत्तारु ५६ अबंधंगळु ६४ । अपूर्वकरणसप्तमभागदोळु तन्न षष्ठभाग बंधप्रकृतिगळोळ ५६ तत् षष्ठभागव्युच्छित्तिगळ ३० कळदुळिव २६ प्रकृतिगळु बंध- ५ प्रकृतिगळप्पुवु वा मूवत्तु ३० प्रकृतिगळं तत्षष्ठभागद अबंधंगळ ६४ मं कूडिदोडे अबंधप्रकृतिगळु ९४ अप्पुवंतागुत्तं विरलु अपूर्वकरणन सप्तमभागचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळ ४ बंधप्रकृतिगळु २६ अबंधप्रकृतिगळु ९४ । अनिवृत्तिकरणन पंचभागंगळोळगे प्रथमभागदोळ अनिवृत्तिकरणन चरमसप्तमभागद नाल्कुं बंधव्युच्छित्तिगळनातनबंधप्रकृतिगळु २६ रोळ कळेयलुळिद २२ प्रकृतिगळु बंधंगळप्पुवु । तत्सप्तमभागव्युच्छित्तिगळु नाल्कुमं तत्भागाबंधप्रकृतिगळ ९४ कूडिदोडे १० अनिवृत्तिकरणन प्रथमभागद भबंधप्रकृतिगळप्पु ९८ वंतागुत्तं विरला अनिवृत्तिकरणम प्रथमभाग. दोळु बंधव्युच्छित्ति १ बंधप्रकृतिगळु २२ अबंधप्रकृतिगळु ९८ । अनिवृत्तिकरणन द्वितीयभागदोळु तन्न प्रथमभागद बंधव्युच्छित्ति पुंवेदमनों दं १ तन्न प्रथमभागव बंधप्रकृतिगळु २२ रोळगे कळदोडे बंधप्रकृतिगळ २१ अप्पुवा पुंवेदमुं तत्प्रथमभागद अबंधप्रकृतिगळु ९८ में कूडिदोडे तद्वितीयभागद अबंधप्रकृतिगळु ९९ अप्पुवंतागुत्तं विरला द्वितीयभागवत्तिययानिवृत्तिकरणंगे बंधव्युच्छित्ति १५ १ बंधप्रकृतिगळु २१ अबंधप्रकृतिगळु ९९ अनिवृत्तिकरणन तृतीयाविभागंगळोळमी प्रकारविवं बंधव्युच्छित्तिगळं बंधंगळुमबंधंगळुमी प्रकारदिदमिप्यु। तृतीयभागदोळ बंधव्युच्छित्ति १ बंधप्रकृतिगळु २० । अबंधप्रकृतिगळु १०० । चतुर्थभागदोळ मानसंज्वलनं पोदडे बंधव्युच्छित्ति १। बंधप्रकृतिगळु १९ । अबंधप्रकृतिगळ १०१ । अनिवृत्तिपंचमभागदोळं बंधव्युच्छित्ति १। बंधप्रकृतिगळु १८ । अबंधप्रकृतिगळु १०२। सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळ बावरलोभसंज्वलनं पोदडे २० बंधव्युच्छित्तिगळ १६ बंधप्रकृतिगळु १७ अबंधप्रकृतिगळ १०३। उपशांतकषायगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिशून्यं । ० । बंधप्रकृति १ । अबंधप्रकृतिगळु ११९ । क्षीणकषायगुणस्थानदोळू बंधव्यच्छित्तिशून्यं ० । बंधप्रकृति १ अबंधप्रकृतिगळ ११९ । सयोगकेवलिगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्ति १ बंधप्रकृति १ अबंधप्रकृतिगळु ११९ । अयोगिगुणस्थानदोळ बंधव्युच्छित्तिशून्यं ० । बंधप्रकृति गळु शून्यं ० । अबंधप्रकृतिगळु १२० । . इंतिवेल्लमं मनवोलिरिसि बंधप्रकृतिगळमनबंधप्रकृतिगळुमं गुणस्थानंगळोळ गाथाद्वदिवं पेन्दपं:
सत्तरसेक्कग्गसयं चउसत्तत्तरि सगढि तेवट्ठी ।
बंधा णवठ्ठवण्णा दुवीस सत्तारसेक्कोघे ॥१०३॥ सप्तदशैकाधिकशतं चतुःसप्तोत्तरसप्ततिः सप्तषष्टिस्त्रिषष्टिब्बंधा नवाष्टाधिकपंचाशद्विविंशतिः ३० सप्तदशैक ओघे ॥
तवयं गुणस्थानेष्वग्रतनसूत्रद्वयेनाहआगे बन्ध और अबन्ध गुणस्थानोंमें दो गाथाओंसे कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळ यथासंख्यमागि। बंधाः प्रकृतिबंधंगळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ ११७ । सासादनदोळ १०१ मिश्रनोळ, ७४ । असंयतनोळ ७७। देशवतियोळ ६७ । प्रमत्तसंयतनोळ, ६३, अप्रमत्तसंयतनोळ ५९, अपूर्वकरणनोळ ५८। अनिवृत्तिकरणनोळ २२, सूक्ष्मसांपरायनोळ १७ । उपशांतकषायनोळु १ । क्षीणकषायनोळु १। सयोगकेवलियोळोदु १ । अयोगकेवलियो शून्यं । अनंतरमबंधप्रकृतिगळं पेळदपरु :
तिय उणवीसं छत्तियतालं तेवण्ण सत्तवण्णं च ।
इगिदुरासट्ठी बिरहिय तियसय उणवीससय त्ति वीससयं ॥१०४।।
तिस्त्रश्चैकानविंशतिः षट्च्यधिकचत्वारिंशत्त्रिपंचाशत्सप्तपंचाशत् एकद्विकषष्टिविरहित१० व्यधिकशतमेकानविंशत्युत्तरशतत्रिविंशत्युत्तरशतं ॥
___अभेदविवक्षया बन्धो विंशत्यग्रशतम् । तत्र मिथ्यादृष्टौ सप्तदशोत्तरशतमेव । 'सम्मेव तित्यबंधो आहारदुर्ग पमादरहिदेसु' इति तत्त्रयस्य बन्धाभावात् । सासादने एकोत्तरशतं मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्तेरुपर्य्यबन्धात् । मित्रे चतुःसप्ततिः सासादनव्युच्छित्तेर्नु मुरायुषोश्चाबन्धे प्रक्षेपात् । असंयते सप्तसप्ततिः नृदेवायुस्तीर्थानाम
बन्धाद्बन्धे निक्षेपात् । देशसंयते सप्तषष्टि;, असंयतछेदस्याभावात् । प्रमत्ते त्रिषष्टिः देशसंयतव्युच्छित्तेर१५ भावात् । अप्रमत्ते एकान्नषष्टिः प्रमत्तव्युच्छित्तेरभावादाहारकद्वयस्य च बन्धे पतनात् । अपूर्वकरणेऽष्टपञ्चाशत्
देवायुषोऽप्रमत्ते छेदात् । अनिवृत्तिकरणे द्वाविंशतिः षट्त्रिंशतो बन्धाभावात् । सूक्ष्मसाम्पराये सप्तदश पञ्चानामनिवृत्तिकरणे व्युच्छेदात् । उपशान्त-क्षीणकषाययोः सयोगे च एकैका अयोगे शून्यम् ॥१०३।।
अभेद विवक्षासे बन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक सौ सतरह ही बंधती हैं क्योंकि कहा है कि 'तीर्थकरका बन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है २० और आहारकद्विकका बन्ध प्रमादरहितके होता है।' इस प्रकार वहाँ तीन प्रकृतियोंके
बन्धका अभाव है। सासादनमें एक सौ एक बँधती हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छिन्न सोलह प्रकृतियाँ ऊपरके गुणस्थानोंमें अबन्धरूप होती हैं। मिश्रमें चौहत्तर बँधती हैं क्योंकि सासादनमें व्युच्छिन्न पच्चीस प्रकृतियाँ तथा मनुष्यायु और देवायुका बन्ध
यहाँ नहीं होता। असंयतगुणस्थानमें सतहत्तर बँधती है क्योंकि मनुष्यायु देवायु और २५ तीर्थकर अबन्धसे बन्धमें आ जाती हैं अर्थात् यहाँ बंधने लगती हैं। देशसंयतमें सड़सठका
बन्ध होता है क्योंकि असंयतमें दसकी बन्धव्यच्छित्ति होनेसे यहाँ उनका बन्ध नहीं होता। प्रमत्तमें त्रेसठका बन्ध होता है क्योंकि देशसंयतमें चारकी व्युच्छित्ति होनेसे यहाँ उनका बन्ध नहीं होता। अप्रमत्तमें उनसठका बन्ध होता है क्योंकि प्रमत्तमें व्यच्छिन्न
छहका अभाव हो जाता है तथा आहारकादिक बन्धमें आ जाते हैं। अपर्वकरणमें अठावन३० का बन्ध होता है क्योंकि एक देवायुकी अप्रमत्तमें व्युच्छित्ति हो जाती है। अनिवृत्तिकरणमें
बाईसका बन्ध होता है क्योंकि छत्तीसका बन्ध नहीं होता। सूक्ष्मसाम्परायमें सतरह बँधती हैं क्योंकि पाँचकी अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्ति हो जाती है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगीमें एक-एक बंधती है । अयोगीमें शून्य है ॥१०३।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७७
अबंधप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टियो ३ सासादननो १९ मिश्रनोल ४६ असंयतनोळ ४३ देशव्रतियोळु ५३ प्रमत्तसंयतनोळु ५७ । अप्रमत्तसंयतनोळ ६१ । अपूर्व्यकरणनोळु ६२ । अनिवृत्तिकरणनोळु ९८। सूक्ष्मसांपरायनोळु १०३ । उपज्ञांतकषायनोळ ११९ । क्षीणकषायनोळु ११९ । सयोगकेवलि भट्टारकनोळु ११९ । अयोगकेवलिभट्टारकनोल अबंधप्रकृतिगळ १२० ॥
अनंतरं मार्गणास्थानंगळोळ, बंधव्युच्छित्ति बंधाबंध त्रिविधत्वमं पेवल्लि मोदलोळ. नरकगतिमार्गणेयो गाथात्रितर्याददं पेदपरु :
अन्धो मिथ्यादृष्टौ तीर्थकुदाहारकद्वयं चेति त्रयम् । सासादने तदेव षोडशयुतमित्येकान्नविंशतिः । मिश्र सापि पञ्चविंशत्या नृदेवायुभ्य च युते षट्चत्वारिंशत् असंयते नृदेवायुस्तीर्थं कृद्बन्धात् त्रिचत्वारिंशत् । देशसंयते सा दशयुतेति त्रिपञ्चाशत् । प्रमत्ते चतुर्युतेति सप्तपञ्चाशत् । अप्रमत्ते प्रमत्तषड्युतापि आहारकद्वयबन्धात् एकषष्टिः । अपूर्वकरणप्रथमभागे देवायुर्युतेति द्वाष्ष्टिः । द्वितीयभागे निद्राप्रचलाभ्यां चतुःषष्टिः । सप्तमभागे १० षष्ठभागत्रिशता चतुर्नवतिः । अनिवृत्तिकरणे सप्तमभागचतुभिरष्टानवतिः । सूक्ष्मसाम्परायेऽनिवृत्तिकरणपञ्चभागानामेकैकव्युच्छित्यायुत्तरशतम् । उपशान्तक्षीणकषायसयोगेषु षोडशयुतमित्येकान्नविंशत्यग्रशतम् । अयोगे सातस्याप्यबन्धाद्विशत्यग्रशतम् ॥ १०४ ॥ अथ मार्गणासु तत्त्रयप्ररूपयंस्तावन्नरकगतौ गाथात्रयेणाह—
अब अबन्ध कहते हैं । मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकर और आहारकद्विक तीनका अबन्ध है । सासादन में उनमें सोलह मिलानेसे उन्नीसका अबन्ध है । मिश्रमें उन्नीसमें पच्चीस १५ व्युच्छित्ति तथा मनुष्यायु देवायु मिलानेसे छियालीसका अबन्ध है । छियालीस में से मनुष्यायु देवा तीर्थंकर घटानेसे असंयतमें तैंतालीसका अबन्ध है अर्थात् असंयत में ये तीन अबन्धसे बन्धमें आ जाती हैं। उनमें दस जोड़नेसे देशसंयत में तिरपनका अबन्ध है । उनमें चार जोड़ने से प्रमत्तमें सत्तावनका अबन्ध है । इसमें प्रमत्तमें व्युच्छिन्न छह प्रकृतियों को जोड़ने पर भी आहारकद्विकके बन्धमें आ जानेके इकसठका अबन्ध है । इसमें देवायु बढ़ानेसे अपूर्व - २० करके प्रथम भाग में बासठका अबन्ध है । दूसरे भाग में निद्रा प्रचलाके बढ़ने से चौसठका अबन्ध है । सप्तम भागमें छठे भागमें व्युच्छिन्न तीस प्रकृतियोंके मिलने से चौरानबेका अबन्ध है | अनिवृत्तिकरणमें अपूर्वकरणके सप्तमभागमें व्युच्छिन्न चारके मिलनेसे अठानबेका अबन्ध है । अनिवृत्तिकरणके पाँच भागोंमें व्युच्छिन्न पाँच प्रकृतियोंके मिलने से सूक्ष्मसाम्पराय में एक सौ तीनका अबन्ध है । इसमें सोलह मिलनेसे उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगी में एक सौ उन्नीसका अबन्ध है । अयोगीमें साताका भी अबन्ध होने से एक सौ बीसका अबन्ध है ||१०४ ||
इनकी संदृष्टि इस प्रकार हैं
अपू. अनि. सू.
मि. सा. मि. अ. दे. प्र. अ. १६ २५ ० १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ ११७१०१ ७४७७६७ ६३५९ ५८ २२ १७ ३ १९४६ ४३ ५३ ५७६१ ६२ ९८ १०३
बन्ध व्यु. बन्ध
अबन्ध
उ. श्री. स.
०
० १ १ १ १ ११९ ११९ ११९ १२०
०
अ.
५
०
आगे मार्गणाओं में बन्धादि तीनका कथन करते हुए नरकगतिमें तीन गाथाओंसे
कहते हैं
२५
३०
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७८
गो० कर्मकाण्डे ओघे वा आदेसे णारयमिच्छम्मि चारि बोच्छिण्णा।
उवरिम बारस सुरचउ सुराउ आहारयमबंधा ॥१०५॥ ओघे इवादेशे नारकमिथ्यादृष्टी चतस्रो व्युच्छित्तयः। उपरिम द्वादश सुरचतुःसुरायुराहारकमबंधाः ॥
____ ओघे इव इन्तु गुणस्थानदोळ पळवंत आवेशे मार्गयोळमरियल्पडुगुमप्पुरिवं गुणस्थानदोळ मिथ्यादृष्टिगे पेळ्द बंधव्युच्छित्तिगळ १६ ररोळगे नारकमिथ्यावृष्टियल्लि मोवल नाल्कुं मिथ्यात्व हुंडसंस्थान पंढवेदासंप्राप्तसंहननमेंब प्रकृतिगळ बंषव्युच्छित्तिगळप्पुवी नाल्कर मुंदण एकेंद्रियजाति स्थावरनाम आतप सूक्ष्म अपर्याप्तसाधारणशरीरनाम द्वौद्रियजाति त्रौंद्रिय
जाति चतुरिद्रियजाति नरकगति नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नरकायुष्यमब द्वादशप्रकृतिगळ१२। १. देवगति देवगतिप्रायोग्यानुपूठळ्यमुं वैक्रियिकशरीरमुं तदंगोपांगमेंब सुरचतुष्कमु ४ देवायुष्यमुं
आहारकद्वयमुमें ब १९ प्रकृतिगळ नरकगतिसामान्यनारकरगळ्गे बंधयोग्यंगळल्लवेकेदाई नारकर नरकगतियिबंदु एफेंद्रियजीवंगळं विकलत्रयजीवंगळं नारकरुं वेवक्कळमागि पुदरतु कारणदिदमा पत्तों भत्तुं प्रकृतिगळं नूरिप्पत्तु बंधप्रकृतिगळोळ कळवोडे नरकगतिय नारकरुगळ्गे, बंधयोग्यमप्प
प्रकृतिगळु नूरोंदु प्रकृतिगळप्पुवु १०१। घर्मयोळं वंशेयोळं मेघयोळमी नरोदु प्रकृतिगळु १५ बंधयोग्यंगळप्पुवु। अंजनेयोळमरिष्योळं मघवियोळ तीत्थंबंधमिल्लप्पुरिदमा मूरं नरकंगळ
नारकरुगळ्गे नूरु नूरे प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । माघवियोळ. मनुष्यायुष्यं तद्गतिनारकरुगळ्गे बंअयोग्यमल्लप्पुरिदमा मनुष्यायुष्यमं कळेदोडे मोदु गवि नूर प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पुवी प्रकृतिगळ तत्तत्पृथ्विय पर्याप्तकरुगळ्गे योग्यंगळ । अपर्याप्तकरुगळ्गे बेर योग्य प्रकृतिगळ पेळल्पट्टपवप्पुरिवं
१०१
१०१
१००
१००
१००
wwwww
मार्गणाणां गुणस्थानवज्ज्ञातव्यं किन्तु नरकगतो मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वादीनां चतुर्णामेव व्युच्छित्तिः । तदुपरितनैकेन्द्रियादिद्वादशानां देवगतितदानुपूर्व्यवैक्रियिकतदङ्गोपाङ्गानां देवायुराहारकद्वययोश्च बन्धो नास्ति । तेन बन्धयोग्यमेकोत्तरशतम् १०१ । अञ्जनादित्रये तीर्थङ्करत्वं विना शतम् । माघव्यां मनुष्यायुविना एकोन
मार्गणामें गुणस्थानवत् जानना । किन्तु नरकगतिमें मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें चारकी ही व्युच्छित्ति होती है। उससे ऊपरकी एकेन्द्रिय आदि बारह, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, वैक्रियिक अंगोपांग, देवायु, आहारकद्विकका बन्ध नहीं होता। अतः धर्मा आदि तीन नरकोंमें बन्ध योग्य एक सौ एक हैं। अंजना आदि तीन नरकोंमें तीर्थकरका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य सौ हैं। माघवीमें मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य निन्यानबे हैं।
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वेव तिर्यगायः॥
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अपर्याप्रकरुगळ्गे मिश्रकाययोगिळप्परिदं आवायुबंधमिल्लप्पुरवं तिय्यंग्मनुष्यायुद्धयम कळेदोर्ड ९९ प्रकृतिगळ, बंधयोग्यंगळप्पुवु। क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळं कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिग घर्मेयोळपटुवरप्पुरिंदमपर्याप्तकालदोळ तीर्थबंधसुंटु । बंशेयोळ मेघेयोळमुळिव नरकंगळोळ सम्यग्दृष्टिगळ्पट्टरु मिथ्यादृष्टिगळे पोगि पटुवरदु कारणमागि तीर्थनामकर्ममना तो भत्तोभत्तळ कळेदोडे ९८ प्रकृतिगळ वंशादिमघविषय्यंतं बंधयोग्यप्रकृतिगळप्पुवु । माघवियोळ ५ नारकर अपर्याप्तकालदोळ मनुष्यगतिनामकर्ममुमन्तत्प्रायोग्यानुपूर्व्यमुमनुच्चैार्गोत्रमुमनिन्तु मूरुं प्रकृतिगळ कटुव योग्यतेयिल्लप्पुरिदमवं तोभत्ते टुं प्रकृतिगळोळकळे दोडे ९५ प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । इन्ती विधानम ननितं लेसागव धारितिवंग धर्मादिक्षिगळोळ बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधत्रिविकल्पमं मिथ्यादृष्टयाविचतुर्गुणस्थानंगळोळ योजिसुव प्रकारमं पेळ्दपरु :
घम्मे तित्थं बंधदि वंसामेघाण पुण्णगो चेव ।
छट्टोत्ति य मणुवाउ चरिमे मिच्छेब तिरियाऊ ॥१०६।। घायां तीत्थं बध्नाति नंशामेघयोः पूर्णश्चैव षष्टिपथ्यंतं मनुष्यायुश्चरमे मिथ्यादृष्टचा
घभैयो नारकं तीर्थनामकम्ममं कटुगुं । वंशय मेघय नारकर पर्याप्तकालदोळे कटुवरु । अदेके दोडे घर्मेयल्लदुळिव वंशाधधस्तन पृथ्विगळोळ, सम्यग्दृष्टिगळपट्टरदु कारण- १५ दिदमा वंशेयोळ मेघयोळ्पुट्टिव तोत्थसत्कर्मर पुट्टिदंतर्मुहूर्तक्के षट्पर्याप्तिगन्नेरदु सम्यक्त्वस्वीकारमं माडि तीर्थबंधमं माळ्परप्पुरिदं । मघविपर्यन्तमाद नरकंगळ नारकरु मनुष्यायुष्यम कटुवरु । माघविय नारकर मिथ्याष्टिगळे तिर्यगायुष्यमं कटुवरु एंबी सूत्राभिप्रायदिवं घम्में वंशे मेघेय पर्याप्तकरचनेयं मुन्नं रचियिसि बळिक्कदर विचारमं माडिदपेमदक्के संदृष्टि :शतम् । अपर्याप्तकाले तु मिश्रकाययोगित्वात् नरतिर्यगायुषी विना धर्मायामेकोनशतम् ९९ । वंशादिषु सम्यादृष्टयनुत्पत्तेः तीर्थकरत्वं विना अष्टानवतिः ९८ । माघव्यां मनुष्यगतितदानुपूर्वोच्चैर्गोविना पंच- २० नवतिः ९५। इदं जानन्तं प्रति गुणस्थानेषु व्युच्छित्यादित्रयं योजयति ॥१०५।।
घर्मायां तीर्थकरत्वं च बध्नाति । वंशामेघयोः पर्याप्त एव बध्नाति नापर्याप्तः । मघवीं यावन्मनुष्यायबध्नाति नाधः । माघव्यां मिथ्यादृष्टावेवैकं तिर्यगायुर्बध्नाति एतत्सूत्राभिप्रायेण धर्मादित्रयपर्याप्तस्य अपर्याप्त अवस्थामें मिश्रकाय योग होनेसे मनुष्यायु तियंचायुका बन्ध नहीं होता। अतः धर्मामें बन्धयोग्य निन्यानबे हैं । सम्यग्दृष्टि जीव मरकर वंशा आदिमें उत्पन्न नहीं होता। २५ अतः वहाँ तीर्थकरका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य अठानवे हैं। माघवीमें मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके बिना बन्धयोग्य पिचानबे हैं, यह अपर्याप्त अवस्थामें जानना ॥१०५॥
यह जान लेनेपर गुणस्थानों में व्युच्छित्ति आदि तीनका कथन करते हैं
धर्मानरकमें तीर्थंकरका बन्ध करता है। वंशा और मेघामें पर्याप्त अवस्थामें ही ३० तीर्थकरका बन्ध करता है, अपर्याप्त अवस्थामें नहीं करता। मघवी नामक छठे नरक तक ही मनुष्यायुका बन्ध करता है उससे नीचे नहीं करता। 'माधवीमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही
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गो० कर्मकाण्डे
पथ्र्या
घमें वंशे मेघे
म
अपअ ९ । ७१२८ प्ति मि २८ | ९८ १
_व्युच्छि बंध अबंध इल्लि मिथ्यात्वमं हुंडप्संस्थानमं पंढवेदमुमसंप्राप्त सृपाटिकासंहननमेंब नाल्कुं प्रकृतिगळ मिथ्यादृष्टियोळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु । बंधप्रकृतिगळु १०० अबंधप्रकृति तीर्थमो देयकुं। सासादनंग बंधव्युच्छित्तिगळं मुन्नं गुणस्थानदोळु पेन्द पंचविंशतिप्रकृतिगळेयप्पुवु । बंधप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टिय व्युच्छित्तिगळु नाल्कनातन बंधप्रकृतिगळो कळेदुळिद ९६ प्रकृतिगळु सासादनंगे बंधप्रकृतिगळप्पुवु। अबंधप्रकृतिगळं मियादृष्टिय बंधव्युच्छित्तिगळ नाल्कुमबंधप्रकृति तीमितैकुं प्रकृतिगळु सासादनंगे अबंधप्रकृतिगळप्पुवु। मिश्रंगे व्युच्छित्तिशून्य मक्कुं। बंधप्रकृतिगळ । सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळु २५ मनातन बंधप्रकृतिगळोळ कळे दुळिद ७१ प्रकृतिगळोळगे मिश्रगायुबंधमिल्लप्पुरिदमल्लिई मनुष्यायुष्यम तेगदोडे बंधप्रकृतिगळ, ७० तप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळ मा कळेद मनुष्यायुष्यमुं १ । सासादनन बंधव्युच्छित्ति २५ मबंधप्रकृतिगळु ५ मिन्तु ३१ प्रकृतिगळ मिश्रंगे अबंधप्रकृतिगळप्पुवु । असंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळ १० बंधप्रकृतिगळु मिश्रन बंधप्रकृतिगळोळगे तीर्थमुमं मनुष्यायुष्यमुमं कूडिदोडे ७२ प्रकृतिगलु असंयतंगे बंधप्रकृतिगळप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळं मिश्रन अबंधंगळ ३१ रोळगे तीर्थमुमं मनुष्यायुष्यमुमं तेगेदु बंधप्रकृतिगळोळ कूडिदवप्पुरिदमु आ येरडं प्रकृतिगळं कळे दोडे असंयतंगे अबंधप्रकृतिगळ २९ अप्पुवु । घर्मेय अपर्याप्तनारकरुगळ्गे। मिथ्यादृष्टिगे सासादनतिर्यगायुज्जितबंधव्युच्छित्तिगळ २४ मं तन्न नाल्कुं बंधव्यच्छितिगळं कूडिदोडे बंधव्युच्छित्तिगळ २८ प्युवेदोडे नरकगतियोळेल्लियुमप्पपर्याप्तकालदोळ सासादनरिल्लप्पुरिदं । असंयतसम्यग्दृष्टिगे मनुष्यायुजितंएकोत्तरशते मिथ्यादृष्टी अबन्धः तीर्थकरत्वं, बन्धः शतं, व्युच्छित्तिः तदेवाद्यचतुष्कम् । सासादने अबन्धः पञ्च, बन्धः षण्णवतिः, व्युच्छित्तिः प्रागुक्तव पञ्चविंशतिः । मिश्रे बन्धः मनुष्यायुर्नेति सप्ततिः, अबन्धः एकत्रिंशत्, व्युच्छित्तिः शून्यम् । असंयते बन्धः मनुष्यायुस्तीर्थकरत्वाभ्यां द्वासप्ततिः, अबन्धः एकान्नविंशत्, व्युच्छित्तिर्दश । नारकापर्याप्तानां सासादनत्वं नेति धर्मायां मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः तिर्यगायूरहितसासादनएक तिर्यगायुका बन्ध करता है' इस सूत्रके अभिप्रायसे घर्मा आदि तीनमें पर्याप्तके एकसौ एक बन्धयोग्य हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थकरका अबन्ध है, बन्ध सौका, व्युच्छित्ति आदिकी चार प्रकृतियों की । सासादनमें अबन्ध पाँच, बन्ध छियानबे, व्युच्छित्ति पूर्वोक्त पच्चीस । मिश्रमें मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे बन्ध सत्तर, अबन्ध इकतीस, व्युच्छित्ति शून्य । असंयतमें
तीर्थकर और मनुष्यायुका बन्ध होनेसे बन्ध बहत्तर, अबन्ध उनतीस, व्युच्छित्ति दस । २५ नरकमें अपर्याप्तावस्थामें सासादन गुणस्थान नहीं होता। अतः धर्मामें मिथ्यादृष्टिमें
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
गळप तन्न व्युच्छित्तिगळ ९ तनरो बंधव्युच्छित्तिगळप्पबु ९ । मिथ्यादृष्टिगे बंधप्रकृतिगळ तिर्य्यग्मनुष्यायुर्द्धरहित ९८ प्रकृतिगळ बंधप्रकृतिगळप्पुवु । असंयतंगे तन्न पर्याप्तकालद ७२ रोळगे मनुष्यायुष्यरहितमागि तीर्थसहितमागि बंधप्रकृतिगळ ७१ अध्वु । मिथ्याहृष्टियोळ तीर्थमो दे अबंधप्रकृतियक्कुं १ | असंयतंगे आ मिथ्यादृष्टिय बंधव्युच्छित्ति अबंधंगळ कूडि २९ रोगे तीथंबंधप्रकृतिगळोळं कूडित्तप्पु कारणमागि असंयतनोळबंधप्रकृतिगळु २८ अप्नुवु । यिन्तु ५ अंजने अरिष्टे मघविगळ पर्याप्तनारक :
अ १० ७१
मि
२९
o ७०
३०
२५
९६
४
४
१०० O
सा
मि
तोरथंरहित मागि धर्मे वंशे मेघेगळ दंतेयवकुं । वंशेयं मेघेषुमंजनेयुमरिष्टयं मघवियु में ब पंचभूमिगळनारकापर्य्याप्त रु मिथ्यादृष्टिगळेयप्पुर्दारदमा मिथ्यादृष्टिगळगल्लरिगं बंधप्रकृतिगळु ९८ अमी २८ । ९८ ।० । माघविय नारकपर्याप्तकरुगळगे :
अ
९ ७० २९
मि
o ७० २९ सा २४ ९१ ८
मि ५ ९६ ३ माघविय अपर्याप्त
मि | ९५ ९५ ०
८१
इल्लि मिथ्यादृष्टियो बंधव्युच्छित्तिगळु ४ सासादननलिय तिष्यंगायुष्यं गूडि ५ प्रकृति - १० ga | बंधप्रकृतिगळु ९६ । अबंधप्रकृतिगळ ३ ॥
मिस्साविरदे उच्च मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो ।
मिच्छा सासणसम्मा मणुवदुगुच्चं ण बंधंति ॥ १०७॥
मिश्राविरतयोरुच्चं मनुष्यद्विकं सप्तभ्यां भवेदुधः । मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यद्विकमुच्चं न बध्नीतः ॥
व्युच्छित्या युता इत्यष्टाविंशतिः, बन्धोऽष्टानवतिः, अबन्धः तीर्थकरत्वम् । असंयते व्युच्छित्तिः मनुष्यायुविना नव, बन्धस्तीर्थ करत्वेन एकसप्ततिः । अबन्धोऽष्टाविंशतिः । अञ्जनादित्रयपर्याप्तानां तीर्थंकरत्वं बिना घर्मादित्रयवत् ज्ञातव्यम् । वंशादिपञ्चापर्याप्ता मिथ्यादृष्टय एवेति बन्ध एव ॥ १०६ ॥
व्युच्छित्ति तिर्यगाय के बिना सासादन में व्युच्छिन्न चौबोस प्रकृतियोंके मिलने से अठाईसकी होती है । बन्ध अठानबे, अबन्ध तीर्थकर का । असंयत में व्युच्छित्ति मनुष्यायुके बिना नौ, बन्ध तीर्थंकर के साथ इकहत्तर, अबन्ध अठाईस । अंजना आदि तीनमें पर्याप्तकोंके वीर्थंकर के बिना घर्मा आदि तीनकी तरह जानना | वंशा आदि पाँच पृथिवियों में अपर्याप्त अवस्था में एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है || १०६ ||
२०
क- ११
१५
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गो० कर्मकाण्डे
मिश्रनोमसंयतनोळं उच्चग्गत्रमं मनुष्यद्विकम् सप्तमपृथुवियो बंधमक्कुं । मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिगळीवंरु मनुष्यद्विक मुमनुच्चैग्गोत्रमुमं कट्टरें दितु मिथ्यादृष्टियोळबंधप्रकृतिगळु ३ अ । सासादनसम्यग्दृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळु २४ अप्पुवेकें दोडे तिर्य्यगायुष्यमं तेगदु मिथ्यादृष्टिय व्युच्छित्तिगळोळकूडिदप्पुदरिवं बंधप्रकृतिगळु ९१ अप्पुवेकें दोर्ड मिथ्यादृष्टिबंधव्युच्छि - ५ गिल कळेदुदप्पुदरिदं । अबंधप्रकृतिगळु ८ प्पुवेके दोडे मिथ्यादृष्टिय व्युच्छित्तिगळ मातन अबंधप्रकृतिगळमूरुं ३ कूडिदोडे टे प्रकृतिगलप्पुदरिदं मिश्रनो व्युच्छित्तिशून्यमक्कुं । बंधप्रकृतिगळु सासादनन व्युच्छित्तिगळनातनबंध प्रकृतिगळोळकलेदोडे ६७ प्रकृतिगळप्पुववरोळ मनुष्यद्विकमनुच्चैत्रमं कूडिदोडे मिश्रंगे बंधप्रकृतिगळु ७० अप्पूवु । अबंधप्रकृतिगळा कूडिद मूरुं प्रकृतिगळं सासादनन व्युच्छित्यबंधंगळो ३२ कळेदोडे मिश्रंगबंधप्रकृतिगळ २९ अप्पु । १० असंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळु मनुष्यायुर्व्वज्जित नवप्रकृतिगळप्पुवु ९ । बंधप्रकृतिग मिश्रंगे पेदंते ७० प्रकृतिगळप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळं मिश्रतोळेंतंते २९ प्रकृतिगळप्पुवु । माघविय अपर्थ्याप्त मिथ्यादृष्टिगे तिर्य्यगायुर्व्वज्जित ९८ प्रकृतिगलोळगे मनुष्यद्विकोच्च प्रकृतित्रयमं कलेदोडे ९५ प्रकृतिगळबंधंगळप्पुवु । इन्तु नरकगतियो बंधैव्युच्छित्तिबंधाबधप्रकृतिगळु पेळल्पटुवनंत रं तिर्यग्गतियोळु पेदपरु :
१५
८२
२०
सप्तमपृथिव्यां मिश्रा संयतयोरुच्चैर्गोत्रं मनुष्यद्वयं च बध्नाति । मिथ्यादृष्टिसासादनौ न बघ्नतः इति तत्त्रयं तत्पर्याप्ते मिथ्यादृष्टावबन्धः । बन्धः षण्णवतिः । व्युच्छित्तिस्तिर्यगायुषोऽत्रैव बंधात् पञ्च । सासादने अबन्धोऽष्टौ, बन्धः एकनवतिः व्युच्छित्तिः चतुविशतिः । मिश्रेऽवन्धः तत्त्रयबन्धादेकान्नविंशत्, बन्धः सप्ततिः, व्युच्छित्तिः शून्यम् । असंयते अबन्धबन्धौ मिश्रवत् । व्युच्छित्तिर्मनुष्यायुर्वर्जनान्नव ॥ १०७॥ एवं नरकगतो बन्धव्युच्छित्तिबन्धाबन्धप्रकृतीः प्ररूप्य अनन्तरं तिर्यग्गतौ प्ररूपयति-
सातवीं पृथिवी में मिश्र और असंयत गुणस्थान में ही उच्चगोत्र और मनुष्यद्विकका बन्ध होता है । मिध्यादृष्टि और सासादनमें उनका बन्ध नहीं होता । अतः सातवीं पृथिवी में पर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टिमें इन तीनोंका अबन्ध होता है । बन्ध छियानबे, तिर्यगायुका बन्ध यहीं होने से व्युच्छित्ति पाँच । सासादन में अबन्ध आठ, बन्ध इक्यानबे, व्युच्छित्ति चौबीस | मिश्र में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध होनेसे अबन्ध उनतीस, बन्ध सत्तर, २५ व्युच्छित्ति शून्य । असंयत में अबन्ध और बन्ध मिश्र की तरह, व्युच्छित्ति मनुध्यायुको छोड़ नौ ॥ १०७ ॥
धर्मादि तीन पर्याप्त १०१ बन्धयोग्य
मि. सा. मिश्र | असं. अबन्ध १ ५ ३१ २९
बन्ध |१०० ९६| ७०
७२
४ २५ ० १०
बं. व्यु.
धर्मा अपर्याप्त अंजनादि तीन पर्याप्त ९९ बन्धयोग्य १०० बन्धयोग्य
मि. असं. मि. सा. मिश्र | असं.
१
२८
० ४ ३० २९
&
९८ ७१
२८
९
| १०० ९६ ७०
४ २५ ०
७१
१०
सप्तम नरक पर्याप्त ९९ बन्धयोग्य
मि. सा. मिश्र | असं. ३ ८ २९ | २९
९६ ९१ ७० ७०
५ २४ ०
९
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८३
१०
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका तिरिए ओपो तित्थाहारूणो अविरदे छिदी चउरो ।
उवरिमछण्णं च छिदी सासणसम्मे हवे णियमा ॥१०८॥ तिरश्चि ओघस्तीहारोनोऽविरते व्युच्छित्तयश्चतस्रः। उपरितनषण्णां व्युच्छित्तिः सासावनसम्यग्दृष्टौ भवेन्नियमात् ॥
तिथ्यंग्गतियोळु ओघः गुणस्थाननिरूपणमेयकुं। अदेतप्पुर्दे दोडे तीर्थाहारोनः तीर्थनाममुमाहारकद्वयविहीनमप्पुदक्कुं। तीर्थाहारकत्रिप्रकृतिविहीनमाद सर्वबंधप्रकृतिगळु ११७ ळं मुन्नं गुणस्थानदोम्पेन्दते बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधभेदंगळ ज्ञातव्यमप्पुवल्लि अविरते असंयतसम्यग्दृष्टियो व्युच्छित्तिगळं १० रोळगे तिय्यंचासंयतंगे चतस्रो व्युच्छित्तयः नाल्के बंधव्युच्छित्तिगळप्पुव ४ ल्लि उपरितनषट्प्रकृतिगळगे ६ सासादनसम्यग्दृष्टियोळ बंधव्युच्छित्तिगळु नियमदिदमप्पुवन्तागुत्तं विरलु :
सामण्ण तिरियपंचिंदियपुण्णगजोणिणीसु एमेव ।
सुरणिरयाउ अपुण्णे वेगुन्वियछक्कमवि णत्थि ॥१०९॥ सामान्यतिर्यक्पंचेंद्रियपूर्णकयोनिमतिष्वेवमेव । सुरनारकायुरपूर्णे वैक्रियिकषट्कमपि नास्ति ॥
सामान्यतिव्यचरुं पंचेंद्रियतिय्यंचरं पर्याप्तकतिय्यंचरुं योनिमतितिय्यंचरुमै बो चतुविध- १५ तिथ्यचरुगळोळु एमेव यो प्रकारमेयक्कुमपूर्णे लब्ध्यपर्याप्त तिव्यचरोळ सुरनारकायुः देवायुष्यमुं नरकायुष्यमुं वैक्रियिकषट्कमपि वैक्रियिकद्वितयमुं देवगतिद्वयमुं नरकगतिद्वयमुमेंब वैक्रियिकषट्कममा तिय्यंचलब्ध्यपर्याप्तकरोळु बंधमिल्लेके दोडे उत्तरभवदोळु उदययोग्यमल्लद प्रकृतिगळं कटुवरल्लरेंबुदर्थ । संदृष्टिरचने :
तिर्यग्गतौ ओघः गुणस्थाननिरूपणमिव भवति किन्तु तीर्थाहारोना तीर्थकरत्वाहारकद्वयाम्यां रहितो २० भवति तेन बन्धयोग्यप्रकृतयः सप्तदशोत्तरशतम् । व्युच्छित्तिबन्धाबन्धभेदास्तत्प्रकृतित्रयं बिना गुणस्थानवज्ज्ञातव्याः । तत्रापि अविरते असंयतसम्यग्दृष्टो व्युच्छित्तिः अप्रत्याख्यानकषाया एव चत्वारः तदुपरितनानां वजवृषभनाराचादीनां षण्णां व्युच्छित्तिः तिर्यग्मनुष्यगत्योः सासादनसम्यग्दृष्टावेव भवति नियमात् ॥१०८॥ तथासति
सामान्यतिर्यञ्चः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः पर्याप्ततिर्यश्चः योनिमत्तिर्यञ्चश्चेति चतुर्विधतिर्यक्षु एवमेव भवति । २५ अपूर्णे लब्ध्यपर्याप्तकतिरश्चि सुरनारकायुषी वैक्रियिकषट्कमपि बन्धो नास्ति उत्तरभवे उदयायोग्यानां
तिर्यश्चगतिमें 'ओघ' अर्थात् गुणस्थानवत् जानना। किन्तु तीर्थकर और आहारकद्विकका बन्ध नहीं होता । अतः बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ सतरह। व्युच्छित्ति, बन्ध-अबन्ध गुणस्थानवत् जानना । इतना विशेष है कि असंयत गुणस्थानमें व्युच्छित्ति चार अप्रत्याख्यानावरण कषायकी ही होती है। उससे ऊपरकी वनवृषभनाराच आदि छहकी व्युच्छित्ति ३० सासादन सम्यग्दृष्टि में ही नियमसे होती है ॥१०८॥
सामान्यतियञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, पर्याप्ततिर्यश्च, योनिमत्तिर्यश्च इन चार प्रकारके तिर्यश्चोंमें इसी प्रकार होता है। लब्ध्यपर्याप्तक तियश्च में देवायु, नरकायु और वैक्रियिक षटक१. ब भवेदिति ।
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गो० कर्मकाण्डे
४
可在5行和何
७० | ४७
६९ । ४८ ३११
मि | १६ | ११७/० इल्लि मिथ्यादृष्टिय बंधप्रकृतिगळु ११७ रोळु मिथ्यात्वादि षोडश व्युच्छित्ति प्रकृतिगळं कळेदुळिद १०१ प्रकृतिगळु सासादनंगे बंधप्रकृतिगळक्कुमा कळेद १६ प्रकृतिगळु आतंगबंधप्रकृतिगळप्पुउ । बंधव्युच्छित्ति प्रकृतिगळु ३१ अप्पुवेक दोडे चतुविधतिय्यंचासंयतसम्यग्दृष्टिगळु वज्रऋषभनाराचसंहननमुमं औदारिकद्वयमुमं मनुष्यद्वितयमुमं मनुष्यायुष्यमुमं कट्टरप्पुरिंदमवं तगदु सासादननोळ व्युच्छित्तिगळमाडल्पटुरिदं। मिश्रंगे बंधप्रकृतिगळ ६९ अप्पुर्वे ते दोड सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळु ३१ नातन बंधप्रकृतिगळोळ्कळदल्लिईदेवायुष्यमुमं कळेदोडक्कुमप्पुदरिदं अबंधप्रकृतिगळल्लि ४८ प्रकृतिगळप्पुर्वतदोडे सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळुमबंधप्रकृतिगळं कूडि देवायुष्यं सहितमागियप्पुवप्पुरिदं। तिर्यक्चतुष्टयासंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधप्रकृतिगळु ७०
अप्पुर्व ते दोडे मिश्रनोळकळेद देवायुष्यमनातं कटुगुमप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळु ४७ अप्पुवा फूडिद १. देवायुष्यं कळदुदप्पुरिदं । चतुविधतियंचदेशवतिगळगे बंधप्रकृतिगळ ६६ अप्पुर्वे तेंदोडे असंय
तन बंधव्युच्छित्तिगळ्नाल्कुमनातन बंधप्रकृतिगळोळ कळेदोडक्कु बुदत्यं । अबंधप्रकृतिगळु ५१ अप्पुर्वतेंदोडसंयतन अबंधप्रकृतिगळोळु ४७ आतनव्युच्छित्तिगळ्नाल्कु कूडिदोडक्कु में बुवत्थं । बंधव्युच्छित्तिगळुमल्लि ४ अप्पुवी चतुविधतियंचनित्यपर्याप्तकरुगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १११
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बन्धाभावात् । तत्सामान्यादिचतुर्विधतिरश्चां मिथ्यादृष्टी बन्धप्रकृतयः सप्तदशोत्तरशतम् । बत्र मिथ्यात्वादि १५ षोडशव्युच्छित्तिमपनीय शेषाः १०१ ।
सासादनस्य बन्धः। अपनीतास्ताः १६ अबन्धः, व्युच्छित्तिरेकत्रिंशत् । कुतः ? असंयतव्युच्छित्तेरु परितनषण्णामत्रैव छेदात् । मिश्रे बन्धः एकान्नसप्ततिः सासादनबन्धे तव्युच्छित्तर्देवायुषश्च अपनयनात् । अबन्धोऽष्टचत्वारिंशत् सासादनव्युच्छित्त्यबन्धयोर्देवायुर्मेलनात् । व्युच्छित्तिः शून्यम् । असंयतस्य बन्धः सप्ततिः देवायुषोऽत्र बन्धसंभवात् । अबन्धः सप्तचत्वारिंशत् देवायुषोऽपनीतत्वात् । व्युच्छित्तिः अप्रत्याख्यानकषाया का बन्ध नहीं है क्योंकि जो प्रकृतियाँ आगामी भवमें उदयके योग्य नहीं हैं उनका बन्ध नहीं होता। अतः सामान्य आदि चार प्रकारके तिर्यञ्चोंके मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ सतरह हैं। इनमें से सोलहकी व्युच्छित्ति घटानेपर शेष एक सौ एकका बन्ध सासादनमें, अबन्ध सोलह, व्युच्छित्ति इकतीस; क्योंकि असंयतमें व्युच्छिन्न होनेवाली
ऊपरकी छह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही होती है। मिश्रमें बन्ध उनहत्तर क्योंकि २५ सासादनमें बंधनेवाली एक सौ एक प्रकृतियोंमें-से व्युच्छिन्न इकतीस तथा देवायु कम हो
जाती हैं । अबन्ध अड़तालीस, क्योंकि सासादनमें व्युच्छिन्न इकतीस और अबन्धमें सोलह तथा देवायुके मिलनेसे अड़तालीस होती है । व्युच्छित्ति शून्य । असंयतके बन्ध सत्तरका, क्योंकि यहाँ देवायुका बन्ध सम्भव है। अबन्ध सैतालीस क्योंकि देवायु कम हो गयी।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका अप्पुबदते दोडे मिश्रकाययोगिगळोळायुबंधमिल्लप्पुरिदं । नाल्कायुष्यंगळं ४ नरकद्विकमुमिन्तु ६ प्रकृतिगळु कळेदुवप्पुरिदं। ई निवृत्यपर्याप्तकरुगळिगे गुणस्थानत्रयमक्कुमल्लिमिथ्यादृष्टिगुण स्थानदोळु बंधप्रकृतिगळु १०७ अप्पुवेक दोर्ड निर्वृत्यपर्याप्तकालदोळु मिथ्यादृष्टिगं सासादनंगं सुरचतुष्टयमं कटुव योग्यते यिल्लप्पुरिनवं कळे दातनोळ अबंधप्रकृतिगळ्माडिद वप्पुरिदं । आ चतुविधसासादननिवृत्त्यपर्याप्ततिथ्यचरुगळ्गे बंधप्रकृतिगळ ९४ अप्पुर्वते दोडे मिथ्यादृष्टिय ५ बंधव्युच्छित्तिगळु १३ कळेदोडप्पुवप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळुमल्लि १७ अप्पुर्वते दोडे मिथ्यादृष्टिय बंधव्युच्छित्तिगळुमनातन अबंधप्रकृतिगळुमं कूडिदोडक्कुमप्पुरिदं । असंयतत्रिविधतिय्यंचनिर्वृत्य पर्याप्तरुगळ्गे बंधप्रकृतिगळ, ६९ अप्पुवे ते दोडे सासादनबंधव्युच्छित्तिगळु २९ इवनातन बंधप्रकृतिगळोळकळेदोडे ६५ अप्पुववरोळ सुरचतुष्कर्म कूडिदोड अप्पुवप्पुरिदं। अबंधप्रकृतिगळोळातनोळु ४२ अप्पुर्व ते दोडे सासादनबंधव्युच्छित्तिगळुमं २९ । अबंधप्रकृतिगळुमं १७ कूडिदोडे १० ४६ रिवरोळु सुरचतुष्कं तेगदु असंयतनोळकूडिमुदप्पुरिदं :
|सा। पं । अप। ० अ ४ ६९ | ४२ सा २९ ९४ | १७ मि | १३ | १७ | ४ |
एव चत्वारः वज्रवृषभनाराचादीनां षण्णां प्राक सासादन एव बन्धच्छेदात् । देशसंयतस्य बन्धः षट्षष्टिः असंयतव्युच्छित्तिचतुष्कस्य तद्वन्धेऽपनीतत्व व्युच्छित्तिः स्वस्य चतुष्कम् । चतुर्विधतिर्यग्निवृत्त्यपर्याप्तानां बन्धयोग्यप्रकृतयः एकादशोत्तरशतमेव । मिश्रकाययोगित्वादायुश्चतुष्कनरकद्विकयोर्बन्धाभावात् तेषां च गुणस्थानत्रयमेव । तत्र मिथ्यादृष्टो बन्धः सप्तोत्तरशतं १५ निर्वृत्त्यपर्याप्तकाले मिथ्यादृष्टिसासादनयोः सुरचतुष्कस्याबन्धात् । व्युच्छित्तिः त्रयोदश नरकायुर्नरकद्विकयोरभावात् । अबन्धः सप्तदश मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्यबन्धयोर्मलत्वात् । असंयतस्य बन्धः एकान्नसप्ततिः सासादनबन्धे तद्व्युच्छित्येकान्नत्रिंशतमपनीय सुरचतुष्कस्य मेलनात् । अबन्धः द्वाचत्वारिंशत् सासादनव्युच्छित्यबन्धी
व्युच्छित्ति चार अप्रत्याख्यानकषायोंकी, क्योंकि वज्रर्षभनाराच आदि छहकी पहले सासादनमें ही बन्धव्युच्छित्ति हो गयी है। देशसंयतमें बन्ध छियासठका, क्योंकि असंयतमें २० बँधनेवाली सत्तर प्रकृतियोंमें-से उसमें व्युच्छिन्न चार घट जाती हैं। अबन्ध इक्यावनका, असंयतमें व्युच्छिन्न उसमें मिल जाती हैं। व्युच्छित्ति चार। उक्त चारों प्रकार के निर्वृत्यपर्याप्ततिर्यञ्चोंके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ ग्यारह हैं। क्योंकि मिश्रकाययोग होनेसे चारों आयु और नरकद्विकका बन्ध नहीं होता तथा उनमें तीन ही गुणस्थान होते हैं। उनके मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्ध एक सौ सात; क्योंकि निवृत्याप्तिकालमें मिथ्यादृष्टि और सासादनमें सुरचतुष्कका बन्ध नहीं होता। व्युच्छित्ति तेरह; क्योंकि नरकद्विक और नरकायु- : का अभाव है । सासादनमें बन्ध चौरानबे; क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न तेरह घट जाती हैं। व्युच्छित्ति उनतीस, क्योंकि तिर्यञ्चायु मनुष्यायुका अभाव है। अबन्ध संतरह, क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न तेरह और अबन्धमें चार मिलकर सतरह होती हैं। असंयतमें बन्ध उनहत्तर; क्योंकि सासादनमें बन्ध चौरानबेमें-से उसमें व्युच्छिन्न उनतीस घटाकर सुरचतुष्क
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गो० कर्मकाण्डे इन्नु लब्ध्यपर्याप्तकमिथ्याष्टिगळ्गे सुरनारकायुरपूर्णे वैक्रियिकषट्कमपि नास्ति एंदी सूत्राभिप्रायदिदं लब्ध्यपर्याप्तकतिय्यंचमिथ्याष्टिगळु तिर्यग्मनुष्यायुद्धयमं कटुवरप्पुरिदं शेषसुरनारकायुद्धयमुमं वैक्रियिकषट्कममं कटुव योग्यतेयिल्लप्पुरिंदमा ८ प्रकृतिगळं तिर्यग्गतिय बंधयोग्यप्रकृतिगळु ११७ रोळगे कळेदोडे १०९ प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु॥ अनंतरं मनुष्यगतियोळु बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिगळं गुणस्थानंगलोळु पेळ्दपरु :
तिरियेव णरे णवरि हु तित्थाहारं च अस्थि एमेव ।
सामण्णपुण्णमणुसिणिणरे अपुण्णे अपुण्णेव ॥११०।। तिरश्चीव नरे नवं खलु तोहारं चास्त्येवमेव । सामान्यपूर्णमानुषीषु नरे अपूर्णे अपूर्णे इव ॥ १० तिर्यग्गतियोळेतु पेन्दत मनुष्यगतियोळुमकुम ते दोडे अविरते व्युच्छित्तयश्चतस्रः
एंबिदुवु। मा असंयतन नाल्करिंद मुंदण ६ व्युच्छित्तिप्रकृतिगळु सासादननोळु व्युच्छित्तिगळप्पु. बेबिदुर्बु । मत्तं नवीनमुंटदावुदंदोडे तीर्थाहारं चास्ति तीर्थमुमाहारकद्वयमुं बंधमुंटु खलु स्फुटएकीकृत्य तस्मात् सुरचतुष्कस्य बन्धे निक्षेपात् । व्युच्छित्तिः अप्रत्याख्यानकषाया एव चत्वारः । तिर्यग्लब्ध्य
पर्याप्तकमिथ्यादृष्टी तिर्यग्मनुष्यायुर्बन्धसद्भावात् शेषभुरनारकायुषी वैक्रियिकषट्कमपि बन्धो नास्तीति १५ तदष्टके तिर्यग्गतिबन्धेनीते शेषं नवोत्तरशतमेव बन्धयोग्यं भवति ॥१०९॥ अथ मनुष्यगती बन्धव्युच्छित्ति बन्धाबन्धप्रकृतीर्गुणस्थानेषु प्ररूपयति
तिर्यग्गतिवन्मनुष्यगतो भवति । अविरते व्युच्छित्तिश्चत्वारः । तदुपरितनानां षण्णां व्युच्छित्तिः सासादनसम्यग्दृष्टावेव इति विशेषस्य उभयत्र समानत्वात् । पुनः नवीनमस्ति । तत् किम् ? तीर्थकरत्वमा
मिलानेसे उनहत्तर होती हैं। अबन्धमें बयालीस; क्योंकि सासादनमें हुई व्युच्छित्ति और २० अबन्धको मिलाकर उसमें से सुरचतुष्कको बन्धमें ले जानेपर बयालीस रहती हैं। व्युच्छित्ति
चार अप्रत्याख्यान कषायकी । तियश्चलब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टिमें तिर्यश्चायु मनुष्यायुका बन्ध सम्भव है। शेष देवायु, नरकायु और वैक्रियिक षट्कका बन्ध नहीं होता। अतः तियश्चगतिमें बन्धयोग्य एक सौ सतरहम-से ये आठ कम करनेपर शेष एक सौ नौ बन्धयोग्य
होती हैं ।।१०९॥ २५ सामान्यादि चार पर्याप्त तियश्चोंमें निर्वृत्यपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें बन्धयोग्य ११७
बन्धयोग्य १११ मि. सा. मिश्र असं. देश.
मि. सा. असं. अबन्ध ० १६ ४८ ४७ ५१
४ १७ ४२ बन्ध ११७ १०१ ६९ ७० ६६
१०७ ९४ ६९ ब. व्यु. १६ ३१ ० ४ ४
१३ २९ ४ मनुष्यगतिमें गुणस्थानोंमें बन्ध, व्युच्छित्ति-बन्ध और अबन्ध कहते हैं
तियश्चगतिके समान मनुष्यगतिमें होता है। अर्थात् असंयतगुणस्थानमें चारकी व्युच्छित्ति होती है । उससे ऊपरकी छह की व्युच्छित्ति सासादन सम्यग्दृष्टीमें ही होती है यह विशेषता दोनों में समान है । नवीनता यह है कि मनुष्यगतिमें तीर्थंकर और आहारकद्विकका
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मागि। सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्यमानुषीमनुष्यरुगळे बो त्रिविधमनुष्यरोळं एमेव ई प्रकारमेयक्कुमदु कारणमागिबंधयोग्यप्रकृतिगळु १२० अप्पुवु । सासादननोळु बंधव्युच्छित्तिप्रकृतिगळु ३१ अप्पुवु । असंयतनोळु बंधव्युच्छित्तिगळु ४ मिविनितु तिय्यंगतियोळ्षेळल्पटुविल्लियु त्रिविधमनुष्यरोळमरियल्पडुगुम बुदत्थं । नरे अपूर्णे अपूर्णे इव मनुष्यापूर्णनप्प लब्ध्यपर्याप्तकनोळ तिर्यग्गतिलब्ध्यपर्याप्तकंगे पेन्दतैयक्कुं संदृष्टि :
१२०
...
११९
११९ १०३
maon
७१
६९
१२०
इल्लिद मुंदधस्तनाधस्तनगुणस्थानंगळ बंधन्युच्छित्तिगळं बंधदोळकळेदोडं बंधव्युच्छित्तिगळनू अबंधप्रकृतिगळy कूडिदडमुपरितनोपरितनगुणस्थानंगळोळु यथासंख्यमागि बंधप्रकृतिगळुमबंधप्रकृतिगळुमप्पु विन्तु बंधदोळमुदयदोळमुदीरणेयोळं सत्वदोळं ज्ञातव्यमक्कुमेकेदोडवं कळेकुं कूडियुं बंधप्रकृतिगळनू अबंधप्रकृतिगळनू पेवुदिल्ल विशेषमुंटादेडेयोछु कंठोक्तं माडिदपरेंदु निश्चयिसूदु । गुणस्थानंगळोळु बंधप्रकृतिगळिनितेंदु पेन्दोडे केळगणगुणस्थानद बंधव्युच्छिगळना १० गुणस्थानद बंधप्रकृतिगळोळु कळेदु पळदरेंदु अबंधप्रकृतिगळुमिनित'दु पेळ्दोयुं केळगण गुणस्थानद बंधव्युच्छित्तिगळनू अबंधप्रकृतिगळनू कूडि पेळ्दर दे निश्चयिसुवुर्दे बुवयं ।।
मनुष्यगतियोळु सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्ययोनिमतिमनुष्यने वितु त्रिविधमनुष्यरुगळगे गुणस्थानंगळु चतुर्दशप्रमितंगळप्पुववरोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिगळु १६ बंधप्रकृतिगळु ११७ अबंधप्रकृतिगळु तीर्थमुमाहारकद्वयमुं कूडि त्रिप्रकृतिगळप्पुवु ३। सासादननोळु १५ हारकद्वयं च बन्धोऽस्ति खलु-स्फुटम् । सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्यमानुषीमनुष्येषु त्रिविधेष्वपि एवमेव तेन बन्धयोग्यं विंशत्युत्तरशतम् । सासादनम्युच्छित्तिरेकत्रिंशत् । असंयतव्युच्छित्तिश्चत्वारश्चेति ज्ञातव्यम् । गुणस्थानानि चतुर्दश । तेष्वधस्तनव्युच्छित्तो बन्धादपनीतायां विशेषकथनपूर्वकमबन्धे च युतायामुपरितनबन्धाबन्धी स्याताम् । तत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः १६ । बन्धः ११७ । अबन्धः तीर्थमाहारकद्वयं चेति त्रयं । सासादने बन्ध होता है। सामान्य सनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मानुषी मनुष्य तीनोंमें भी इसी प्रकार २० है। अतः बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं । सासादनमें व्युच्छित्ति इकतीस और असंयतमें चार जानना । गुणस्थान चौदह हैं। उनमें नीचेकी व्युच्छित्ति बन्धमें-से घटानेपर विशेष कथनके
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गो० कर्मकाण्डे बंधव्युच्छित्तिगळ ३१ अप्पुर्व ते दडे असंयतंगे पेन्द बंधव्युच्छित्तिगळु १० रोल तिरियेव णरे एंदु पेळ्दरप्पुरिंदमप्रत्याख्यानचतुष्टयमं कळदुळिद षट्प्रकृतिगळु सासादननोळु व्युच्छित्तिगळादुवप्पुदरिदं बंधप्रकृतिगळ १०१ । अबंधप्रकृतिगळु १९। मिश्रगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिशून्यमक्कुं। बंधप्रकृतिगळु ६९ । अप्पुवेक दोडे देवायुष्यमं कळेदु अबंधप्रकृतिगळोळकूडिदवप्पुरिदं। अबंध. प्रकृतिगळु ५१ । असंयतगुणस्थानदोळ, बंधप्रकृतिगळु ४ अप्पुवेके दोडे वज्रऋषभनाराचसंहननादि षट्प्रकृतिगळ, सासादननोळु बंधव्युच्छितिगळादुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु ७१ अप्पुर्व ते दोर्ड मिश्रनोळबंधरूपदिनिई देवायुष्यमुमं तीर्थमुमनातं कटुवनप्पुरिंदमा एरडं प्रकृतिगळं कूडिदुवेबुदत्थं । अबंधप्रकृतिगळु ४९ । अप्पुवा कूडिदेरडं प्रकृतिगळु कळदुवप्पुरिदं। देशव्रतियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु तन्न प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्टयमेयककुं ४ । बंधप्रकृतिगळु ६७ अबंधप्रकृतिगळु ५३। प्रमत्तसंयतनोळु बंधव्युच्छित्तिगळु अस्थिरादिगळु ६ अप्पुवु। बंधप्रकृतिगळं ६३ अबंधप्रकृतिगळु ५७ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळु देवायुष्यमोदे बंधव्युच्छित्तियक्कुं १। बंधप्रकृतिगळ ५९ एके दोडाहारकद्विक, प्रमादरहितरु कटुवरप्पुरिदमा एरडं प्रकृतिगळु कूडिदोडक्कुम - बुदत्यं । अबंधप्रकृतिगळु ६१ । अप्पुवा कूडिदरडं प्रकृतिगळ कळेदुवप्पुरिदं मेलपूर्वकरणादिगुणस्थानंगळल्लडयोळं मुन्नं गुणस्थानसामान्यकथनदोळेतु पेन्दत बंधव्युच्छित्ति बंधाऽबंधप्रकृति
बन्धव्युच्छित्तिः ३१ । तिरिएव गरे इत्यसंयतस्योक्तबन्धव्युच्छित्तौ उपरितनषण्णामत्रैव छेदाद् बन्धः १०१। अबन्धः १९ । मिश्रे बन्धव्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ६९ । देवायुष्यमपनीय अबन्धप्रकृतिषु क्षेपात् । बन्धः १०१ । अबन्धः ५१ । असंयते बन्धव्युच्छित्तिः ४ । वज्रवृषभनाराचादिषट्प्रकृतीनां सासादने व्युच्छिन्नत्वात् । बन्धः ७१ । देवायुस्तीर्थकरयोरत्र बन्धे मिलितत्वात् । अबन्धः ४९ । तत्प्रक्षिप्तप्रकृतिद्वयस्यापनयनात् ।
देशव्रते बन्धपुच्छित्तिः स्वस्य प्रत्याख्यानकषायचतुष्कमेव ४। बन्धः ६७ । अबन्धः ५३ । प्रमत्तसंयते २० बन्धव्युच्छित्तिः अस्थिरादयः ६ । बन्धः ६३ अबन्धः ५७ । अप्रमत्तगुणस्थाने देवायुयुच्छित्तिः १ । बन्धः
५९ । आहारद्वयस्य प्रमादरहितेषु बन्धप्रतिपादनात् । अबन्धः ६१ । तवयस्यापनयनात् । उपर्यपूर्वकरणादिषु
अनुसार अबन्धमें जोड़नेपर ऊपरके बन्ध और अबन्ध होते हैं। मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति १६, बन्ध ११७, अबन्ध तीर्थकर और आहारद्विक इस प्रकार तीन । सासादनमें बन्ध व्युच्छित्ति ३१, क्योंकि तियश्चके समान मनुष्यमें होनेसे असंयतमें कही बन्धव्युच्छित्ति दसमें-से ऊपरकी छहकी व्युच्छित्ति यहाँ ही होती है। बन्ध १०१, अबन्ध १९ । मिश्रमें बन्धव्युच्छित्ति शून्य, बन्ध ६९, क्योंकि देवायुको अबन्ध प्रकृतियोंमें मिला दिया है, बन्ध एक सौ एक, अबन्ध इक्यावन । असंयतमें बन्धव्युच्छित्ति चार, क्योंकि वज्रर्षभनाराच आदि छह प्रकृतियोंकी सासादनमें व्युच्छित्ति हो गयी है। बन्ध इकहत्तर, क्योंकि देवायु और तीर्थकर यहाँ बन्धमें आ गयी हैं । अबन्ध उनचास; क्योंकि बन्ध में गयी दो प्रकृतियाँ कम हो गयी हैं। देशसंयतमें बन्धव्युच्छित्ति अपनी प्रत्याख्यान कषाय चार हैं। बन्ध सड़सठ, अबन्ध तरेपन । प्रमत्तसंयतमें बन्धव्युच्छित्ति अस्थिर आदि छह, बन्ध तरेसठ, अबन्ध सत्तावन । अप्रमत्त गुणस्थानमें एक देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति, बन्ध उनसठ, क्योंकि आहारकद्विकका बन्ध प्रमादरहित में कहा है । अबन्ध इकसठ क्योंकि दो कम गयीं। ऊपर अपूर्वकरण आदिमें सर्वत्र गुणस्थान सामान्यकी तरह व्युच्छित्ति बन्ध और अबन्ध प्रकृतियाँ होती हैं उसी प्रकार लगाना
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळप्परिवं नडसल्पडुवुदु। ई सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्य योनिमतिमनुष्यरेंदी त्रिविधमनुष्यरुगळगे नित्यपर्याप्तकालदोळ बंधयोग्यप्रकृति ११२ अप्पुवेंते दोडे मिश्रकाययोगिगळप्पुरिदमायु
चतुष्क, ४ नरकद्विकमुं २ आहारकद्विकमु २ मिन्तु ८ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळप्पुरिंदमवं बंधप्रकृतिगळु १२० रोळु कळेवोडे ११२ प्रकृतिगळप्पुवप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टिसासादना संयतप्रमत्तसयोगकेवलिगुणस्थानपंचकमक्कुमागुणस्थानंगळगे संदृष्टि :
स १ १ प्र ६१ ।
१११
सा २९ / ९४
मि| १३ १०७ ५ । ई निवृत्यपर्याप्तमनुष्यमिथ्यादृष्टियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु १३ अप्पुढे ते दोर्ड मिश्रकाययोगिगळ्गे बंधयोग्यमल्लद नरकायुष्यमुं नरकद्विक, कळेदोडप्पुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु १०७ अप्पुवेक दोडे सुरचतुष्कर्मु तीत्थंमुमातनोळ्बंधयोग्यतेयिल्लप्पुरिदमनितेयप्पुवा पंच प्रकृतिगळुमबंधप्रकृतिगळप्पुवु५। ___सासादनंगे बंधव्युच्छित्तिगळु २९ अप्पुवेक दो. मनुष्यायुष्यमुं तियंगायुष्य, एरडुमल्लि १० कळेदुवप्पुरिवं। बंधप्रकृतिगळ ९४ अप्पुवु। अबंधप्रकृतिगळ १८ अप्पुवु । मिश्रगुणस्थानं शून्यमेयककुमेकेदोडे मिश्रगायुबंधमुं मरणमुमिल्लप्पुरिदं ।
___ असंयतगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिगळ ८ अप्पुवे तेंदोडे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टक, तन्नोळे व्युच्छित्तियप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु ७० । अप्पुर्वतेंदोडे सुरचतुष्कर्मु ४ तीर्थमुमं निवृत्यपर्याप्तासंयतं कटुगुमप्पुरिदमवं कूडिदोडक्कुमप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळु ४२ अप्पुवेकेदोडे- १५ सर्वत्र गुणस्थानसामान्यवत् व्युच्छित्तिबन्धाबन्धप्रकृतयो भवन्तीति नेतन्यम् । तत्त्रिविधमनुष्यनिवृत्त्य पर्याप्तकानां बन्धयोग्यं द्वादशोत्तरशतमेव मिश्रकाययोगित्वादायुश्चतुष्क नरकद्विक बाहारद्विकं चेत्यष्टानां बन्धाभावात् । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतप्रमत्तसयोगाख्यानि पञ्च । तत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः १३ । नरकायुनंरकद्विकापनयनात् । बन्धः १०७ सुरचतुष्कतीर्थयोरबन्धात् । अबन्धः ५ । सासादने व्युच्छित्तिः २९ । नरतिर्यगायुषोरपनयनात् । बन्धः ९४ । अबन्धः १८ । मिश्रगुणस्थानं न संभवति । असंयते २० व्युच्छित्तिः ८ अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टकस्य अत्रैव छेदात् । बन्धः ७० । सुरचतुष्कतीर्थयोरस्य चाहिए। तीनों प्रकारके मनुष्य निर्वृत्यपर्याप्तकोंमें बन्ध योग्य एक सौ बारह हैं क्योंकि मिश्रकाययोग होनेसे चारों आयु, नरकद्विक और आहारकद्विक इन आठोंका बन्ध नहीं होता। गुणस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, प्रमत्त और सयोगकेवली पाँच होते हैं। उनमें-से मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति तेरह, क्योंकि नरकायु और नरकद्विकका अभाव है। बन्ध २५ एक सौ सात, क्योंकि सुरचतुष्क और तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। अतः अबन्ध पाँच । सासादनमें व्युच्छित्ति उनतीस क्योंकि मनुष्यायु तिर्यश्चायु कम हो गयी है । बन्ध चौरानबे, अबन्ध अठारह । यहाँ मिश्रगुणस्थान नहीं होता। असंयतमें व्युच्छित्ति आठ; क्योंकि अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान आठ कषायोंकी व्युच्छित्ति यहीं हो जाती है। बन्ध सत्तर;
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गो० कर्मकाण्डे कूडिदग्दु प्रकृतिगळ. कळेदुवापुरिदं । प्रमत्तसंयतनोळु बंधव्युच्छित्तिगळ ६१ अप्पुर्वते बोडे तन्न वारं ६ अप्रमत्तनदोदु देवायुष्यं राशियोळकळेनुवेददं बिटु अपूर्वकरणन आहारकद्वयरहित ३४ प्रकृतिगळे अनिवृत्तिय ५ प्रकृतिगहुं सूक्ष्मसांपरायन १६ रुं कूडिदोडप्पुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळ
६२ अबंधप्रकृतिगळ ५० सयोगिगुणस्थानदो बंधव्युच्छित्ति सातमो देप्रकृतियक्कु १। बंधप्रकृति५ युमदों देयक्कु १ मबंधप्रकृतिगळ १११ अप्पुवु । मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकमिथ्यावृष्टिगे परे अपुण्णे अण्णेव येदितु तियंग्गतिलब्ध्यपर्याप्तकंगे पेळदंते बंधप्रकृतिगळ १२० रोळगे तीत्थं, १ माहारकद्वयमुं २ देवनारकायुष्यद्वयमुं २ वैक्रियिकषट्कमुमिन्तु ११ प्रकृतिगळं कळे दोडे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०९ अप्पुवु। देवगतियोळु बंधयोग्य प्रकृतिगळं गाथाद्वदिदं पेळ्दपर :
णिरयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त वाम छिदी ।
सोलस चेव अवंधो भवणतिये पत्थि तित्थयरं ॥१११॥ नरक इव भवति देवे आईशान पथ्यंत सप्त वाम व्युच्छित्तयः । षोडश चैवाबंधः भवनत्रये नास्ति तीर्थकरं॥
बन्धात । अबन्धः ४२ । प्रमत्तसंयते व्यच्छित्तिः ६१ । कुतः स्वस्य षटकं अप्रमत्तस्य देवायुराशावपनीतमिति तत्यक्त्वा । अपूर्वकरणस्य आहारद्वयं बिना चतुस्त्रिशत, अनिवृत्तेः पञ्च, सूक्ष्मसापरायस्य षोडश चेत्येषां मिलितत्वात् । बन्धः ६२ । अबन्धः ५० । सयोगे व्युच्छित्तिः सातवेदनीयम् । बन्धोऽपि तदेव । अबन्धः १११ । ‘णरे अपुण्णे अपुण्णेव' मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकमिथ्यादृष्टी तिर्यग्गतिलब्ध्यपर्याप्तकवत् तीर्थमाहारद्वयं देवनरकायुषी वैक्रियिकषट्कं चेत्येकादशानामबन्धात् । बन्धयोग्यं नवोत्तरशतमिति १०९ ॥ ११० ॥ देवगतो बन्धयोग्यप्रकृतीर्गाथाद्वयेनाह
२० क्योंकि सुरचतुष्क और तीर्थकरका यहाँ बन्ध होता है अबन्ध बयालीस । प्रमत्तसंयतमें
व्युच्छित्ति इकसठ, क्योंकि अपनी छह, अप्रमत्तकी देवायु मूलमें ही नहीं है अतः उसे छोड़ देना, अपूर्वकरणकी आहारकद्विकके बिना चौतीस, अनिवृत्तिकी पाँच, सूक्ष्म साम्परायकी सोलह ये सब मिलकर इकसठ होती हैं, बन्ध बासठ, अबन्ध पचास । सयोगीमें व्युच्छित्ति एक बार वेदनीय, बन्ध भो उसीका, अबन्ध एक सौ ग्यारह ।
___ मनुष्यनिर्वृत्यपर्याप्तक बन्धयोग्य ११२
मि. सा. असं. प्र. स. अबन्ध ५ १८४२ ५० १११ बन्ध १०७ ९४ ७० ६२ १
ब. व्यु. १३ २९ ८ ६१ १ मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में तिर्यञ्चलब्ध्यपर्याप्तककी तरह तीर्थकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु, वैक्रियिकषट्क इन ग्यारहका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ नौ हैं ॥११०॥
देवगतिमें बन्धयोग्य प्रकृतियां दो गाथाओंसे कहते हैं
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका नरकगतियोळेतु पेन्दते देवगतियोळु आईशानपय्यंतं अभिविधियोळाओप्पुरिदं भवनत्रय. दोळं कल्पवासिस्त्रीयरोळं सौधम्मैशानकल्पद्वयदोळ मिथ्यादृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळु ७ अप्पुवु । अंतागुत्तं विरलु षोडश चैवाबंधः आ मिथ्यादृष्टिय शेषसूक्ष्मत्रयमुमं ३ विकलत्रय, नरकद्विकमुं २ नरकायुष्यमु १ इंतु ९ प्रकृतिगळु सुरचतुष्क, ४ सुरायुष्यमुं १ आहारकद्वयमु २ मिन्तु १६ प्रकृतिगळ देवगतियोळु बंधयोग्यंगळल्लप्पुरिदमी षोडश प्रकृतिगळं बंधप्रकृतिगळु १२० रोळु ५ कळदोड शेष १०४ प्रकृतिगळु देवगतियोळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । भवनंत्रयदोळं कल्प स्त्रीयरोळं तोथंबंधमिल्लप्पुरिंदमल्लि बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०३ अप्पुवल्लि संदृष्टिः -
भ ३ । कल्पस्त्रीयरु
अ
१० । ७१ ।
३२
।१०३०
यिल्लि भवनत्रय कल्पवासि स्त्री मिथ्यादृष्टिगणे बंधप्रकृतिगळु १०३ रोळ मिथ्यात्वहुंड षंढा संप्राप्तकेंद्रियस्थावरातपमेंब ७ प्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टिगळे कटुवरप्परिंदमा प्रकृतिसप्तकमं कळेदोडे भवनत्रयसासादनसम्यग्दृष्टिगळं कल्पस्त्रीसासादनलं कटुव योग्यप्रकृतिगळु ९६ अप्पुवु। १० अबंधप्रकृतिगळ ७ अप्पवु। मिश्रगुणस्थानदोळनंतानुबंध्यादि २५ प्रकृतिगळं सासादनने कटुमगुप्पु. दरिंदमवं मनुष्यायुष्यमुमं सासादनन बंधप्रकृतिगळोळ ९६ रोळ कळे दोडे मिश्रंगे बंधप्रकृतिगळ ७० अप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळु ३३ ॥
असंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधप्रकृतिगळ ७१ अप्पुर्व ते दोडे मिश्रनोळकळे द मनुष्यायुष्यमं
नरकगतिवत् देवगतो स्यात् । किन्तु आ ईशानपर्यन्तं सप्तप्रकृतयः मिथ्यात्वहुण्डसंस्थानादयः मिथ्यादृष्टौ १५ व्युच्छित्तिर्भवति । तदुपरितनसूक्ष्मत्रयादयो नव सुरचतुष्कं सुरायुष्यं आहारकद्वयं चेति षोडश प्रकृतयो देवगतो अबन्धाः-बन्धयोग्या न भवन्ति तेन चतुरुत्तरशतमेव बन्धयोग्याः । तत्रापि भवनत्रये कल्पस्त्रीषु च तीर्थबन्धाभावात् बन्धयोग्यास्त्र्युत्तरशतमेव । तत्र भवनत्रयकल्पस्त्रोमिथ्यादृष्टेबन्धः त्र्युत्तरशतम् । व्युच्छित्तिः मिथ्यात्वाद्यसप्तकं । अबन्धः शून्यम् । तत्सासादनस्य बन्धः षण्णवतिः तत्सप्तकस्य मिथ्यादृष्टेरेव बन्धात् । व्युच्छित्तिः सैव पञ्चविंशतिः । अबन्धः तदेव सप्तकं । मिश्रगुणस्थानस्य बन्धः सप्ततिः, मनुष्यायुरबन्धात् । २० अबन्धा त्रयस्त्रिशत्, सासादनम्युच्छित्त्यबन्धयोर्मनुष्यायुर्मेलनात् । असंयतस्य बन्धः एकसप्ततिः, मनुष्यायुषोऽत्र
देवगतिमें नरकगतिके समान जानना । किन्तु ईशानपर्यन्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्व हुण्डसंस्थान आदि सात प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती है । उससे ऊपरकी सूक्ष्मत्रिक
आदि नौ, सुरचतुष्क, सुरायु, आहारकद्विक इन सोलह प्रकृतियोंका देवगतिमें बन्ध नहीं होनेसे बन्धयोग्य एक सौ चार ही है । उनमेंसे भी भवनत्रिक और कल्पस्त्रियोंमें तीर्थकरका २५ बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ तीन हैं । भवनत्रिक और कल्पस्त्रियोंमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध एक सौ तीन, व्युच्छित्ति मिथ्यात्व आदि सात, अबन्ध शून्य । सासादनमें बन्ध छियानबे, क्योंकि सातका बन्ध मिथ्यादृष्टि में ही होता है, व्युच्छित्ति पच्चीस, अबन्ध वही सात । मिश्रगुणस्थानमें बन्ध सत्तर, क्योंकि मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता, अबन्ध तेतीस क्योंकि
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૨૦
९२
गो० कर्मकाण्डे
O
असंयतं कट्टुगुमप्पुदरिदं अबंधप्रकृतिगळ ३२ । अप्पुवु । मनुष्यायुष्यं तेगेदु बंधप्रकृतिगळोळ्कूडिदुदप्पुर्दारदं । सौधर्मेशानकरुपद्वयदोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०४ अप्पुवा कल्पद्वयमिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि मिश्रा संयतसम्यग्दृष्टिगळगे त्रिविधप्रकृतिगळ संदृष्टिः-
१५
इल्लि मिथ्यादृष्टिबंधप्रकृतिगळु १०३ । अबंधप्रकृति तीत्थंमो देयक्कुं १ । सासादननोळु ५ बंधप्रकृतिगळु ९६ अप्पुवे ते 'दोडे मिथ्यात्व हुंडसंस्थान षंडवेद असंप्राप्त सृपाटिकासंहनन एकेंद्रियजातिनामस्थावरनाम आतपनाम में बी ७ प्रकृतिगळं मिथ्यादृष्टिये कट्टुगुं । सासादनसम्यग्दृष्टि कट्टनपुरमा प्रकृतिगळनातन बंधप्रकृतिगळोळ कळ दोडनितेयप्पुवप्पुदरिदं अबंधप्रकृतिगळ ८ अoga | मिश्र गुणस्थानददोळ बंधप्रकृतिगळ ७० अप्पुवेके दोडे अनन्तानुबंध्यादि २५ प्रकृतिगळु मनुष्यायुष्यमुमं कूडि २६ प्रकृतिगळु सासादननोळ बंधमप्पुवपुदरिदमवनातन बंधप्रकृतिगळोकळे दोनितेयप्पुप्पुर्दारदं । अबंधप्रकृतिगळ मनुष्यायुष्यंकूडि ३४ प्रकृतिगळवु । असंयतसम्यग्दृष्टियो, बंधप्रकृतिगळ, ७२ अप्पूवदे' ते 'दोडे मिश्रनोळबंधप्रकृतिगळोळि मनुष्यायुष्यमुमं तीर्थमुमनी सौधर्मकल्पद्वयासंयतं कट्टुगुमप्पुदरदमत्रं कूडिदोडप्पुवेंदु बगेयल्प डुबुदु । अबंधप्रकृतिगळ, ३२ अप्पुवे ते 'दोडे आकूडिदेरडुं प्रकृतिगळिल्लि कळ दुवप्पुदरिवं ॥
सौधम्मं २
१० ७२ ३२ ७० ३४ २५ ९६ ፡ मि ७ १०३ १
सा
अ
०
कपित्थी ण तित्थं सदरसहस्सारगोति तिरियदुगं ।
तिरियाऊ उज्जोवो अत्थि तदो णत्थि सदरचऊ ॥ ११२ ॥
कल्पस्त्रीषु न तोत्थं शतारसहस्रार पय्र्यंतं तिर्य्यद्विकं । तिर्य्यगाथुरुद्योतः अस्ति ततो नास्ति शतारचतुष्कं ॥
बन्धात् । अबन्धः द्वात्रिंशत् । व्युच्छित्तिः स्वस्य दश । सौधर्मेशानद्वये बन्धयोग्याश्चतुरुत्तरशतम् । तत्र मिध्यादृष्टी अबन्धः तीर्थकरत्वम् । बन्धः त्र्युत्तरशतम् । व्युच्छित्तिः ते एव सप्त । सासादने अबन्धः ८ । बन्धः ९६ । व्युच्छित्तिः २५ । मिश्रेऽबन्धः ३४ मनुष्यायुःक्षेपात् । बन्धः ७० । व्युच्छित्तिः शून्य असंयते अबन्धः ३२ तीर्थंकरत्वमनुष्यायुषोर्बन्धात् । बन्धः ७२ । व्युच्छित्तिः १० ॥ १११ ॥
२०
ol
सासादनकी व्युच्छिति और अबन्धके जोड़में मनुष्यायु भी मिल गयी । असंयत में बन्ध इकहत्तर क्योंकि यहाँ मनुष्यायुका बन्ध होता है । अबन्ध बत्तीस, व्युच्छित्ति अपनी दस । सौधर्म ऐशानयुग में बन्धयोग्य एकसौ चार । मिध्यादृष्टिमें अबन्ध तीर्थकरका, बन्ध एक सौ तीन, व्युच्छित्ति वही सात । सासादनमें अबन्ध आठ, बन्ध छियानबे, व्युच्छित्ति पच्चीस । मिश्रमें अबन्ध चौंतीस क्योंकि मनुष्यायुका भी बन्ध नहीं होता । बन्ध सत्तर, व्युच्छित्ति शून्य । असंयतमें अबन्ध बत्तीस, क्योंकि यहाँ तीर्थकर और मनुष्यायु बँधने लगती हैं, बन्ध बहत्तर, व्युच्छित्ति दस ॥ १११ ॥
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कल्पस्त्रीयरोळ तीर्थबंधमिल्लदुकारणमागि तबंधरहित भवनत्रयदेवक्कळ रचनेयोळे कल्पस्त्रीयरुं पेळल्पदृरेकेंदोडे मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळ बंधव्युच्छित्तिबंधाबंधप्रकृतिगळ सदृशंगळप्पुदे कारणमागि पृथक् पेळल्पटुदिल्ल। ___सानत्कुमार माहेंद्रब्रह्मब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ट शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारमुमेंब १० कल्पंगळोळु देवळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळ १०१ अप्पुवेदोडे तत्कल्पजरुगळेकेंद्रियजातिनाममुं ५ स्थावरनाममुं आतपमुमं सूक्ष्मंत्रयविकलत्रय नरकद्विक नारकायुष्यमुमेंबी मिथ्यादृष्टिय उपरितन द्वादशप्रकृतिगळं १२ सुरचतुष्कर्मु ४ सुरायुष्यममाहारकद्वय मुमितु १९ प्रकृतिगळं कटुवरल्तेकें. दोडे "आईसाणोत्ति सतवामछिदी" एंदितु सौधर्मेशानकल्पद्वयावसानमाद भवनत्रयदेवक्कळमेकेंद्रियस्थावरातपंगळं कटुवरप्पुरिदमवरोळ्या प्रकृतित्रयक्के बंधमुळिव सानत्कुमारादि दशकल्पजरुगळ्गे "णिरयेव होदि देवे" एंबी सूत्राभिप्रायदिदं । णारयमिच्छम्मि चारि बोच्छिण्णा। १० उवरिम बारस सुरचउ सुराउ आहारयमबंधा ॥ एंबु बंधप्रकृतिगळ १२० रोळ १९ प्रकृतिगळ कळेदोडे सानत्कुमारादि वशकल्पजरुगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळनितेयप्पुवप्पुरिवं । अल्लि मिथ्यादृष्टयाविचतुर्गुणस्थानंगळोळु बंधव्युच्छित्तिबंधाबंधप्रकृतिगळ्गे संदृष्टि :
सानत्कुमारावि १० कल्पन | अ । १० । ७२ | २९
मि
।
०। ७०
सा २५९६
| मि | ४ १०० । इल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्व हुंड षंढ असंप्राप्त मेंब नाल्कुं प्रकृतिगळ ४ बंधव्युच्छित्तिगळप्पवु । बंधप्रकृतिगळु १०० अप्पुव बंधप्रकृति तीर्थमो देयकुं।
सासादनसम्यग्दृष्टियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु २५ बंधप्रकृतिगळु ९६ अबंधप्रकृतिगळ ५।
कल्पस्त्रीषु तीर्थकरत्वं न बध्नातीति ततः कारणात् तद्रचना भवनत्रयरचनायामेवोक्ता उभयत्र गुणस्थानेषु बन्धाबन्धव्युच्छित्तिभिर्विशेषाभावात् । सानत्कुमारादिदशकल्पेषु नरकगतिवदिति बन्धयोग्यमेकोत्तरशतम् । मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिश्चत्वारि सप्तानां तु ईशानपर्यन्तमेवोक्तत्वात् । बन्धः १०० । अबन्धः तीर्थकरत्वं । सासादने व्युच्छित्तिः २५ । बन्धः ९६ । अबन्धः ५ । मिश्रे व्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ७० । मनुष्यायुषोऽ- २०
__ कल्पस्त्रियोंमें तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। अतः उनकी रचना भवनत्रिककी रचनामें ही कही गयी। दोनोंके गुणस्थानोंमें बन्ध, अबन्ध, बन्ध व्युच्छित्तिमें अन्तर नहीं है। सानत्कुमार आदि दस कल्पोंमें नरकगतिके समान बन्धयोग्य एक सौ एक हैं । मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति,चार, क्योंकि सातकी व्युच्छित्ति तो ईशान्तपर्यन्त ही कही है। बन्ध सौ, अबन्ध तीर्थकर एक । सासादनमें व्युच्छित्ति पञ्चीस, बन्ध छियानबे, अबन्ध पांच । मिश्रमें २५ व्युच्छित्ति शून्य, बन्ध सत्तर, क्योंकि मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता। अबन्ध इकतीस ।
१. सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारणेति सूक्ष्मत्रयः ।
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गो० कर्मकाण्डे
9
मिश्रगुणस्थानदोळ, बंधव्युच्छित्ति शून्यं । बंधप्रकृतिगळ ७० । अबंधप्रकृतिगळ ३१ । एकदो मनुष्यायुष्यं बधदोकळे दऽबंधप्रकृतिगळोळकूडिदुदप्पुदरिदं । असंयतगुणस्थानदोळ, बंधयुच्छित्तिगळ १० । बंधप्रकृतिगळ ७२ । एकेंदोडे मनुष्यायुमं तीर्थमुमं कट्टुवनप्पुदरिना येरडु प्रकृतिगळु मिश्रन अबंधप्रकृतिगळोळि दुर्दुवं तेगेदिल्लि कूडिवुवप्पुर्दारदं । अबंधप्रकृतिगळु २९ अप्पुवा र ५ प्रकृतिगळु कळेदुवपुर्दारवं । शतारसहस्रारकल्पद्वयपर्यंतं तिर्य्यद्विकमुं तिर्य्यगायुष्यमुं उद्योतमुं बंघवपुर्वाल्लदं मेले बंधमिल्लॅब नियमसुंटयुदरिवं आनतादिचतुष्कल्पंगळोळं नवग्रैवेयकंगळोळं नात्कुं गुणस्थानवत्तगळं कट्टवरल्लप्पुर्दारदमा नाल्कुं प्रकृतिगळ ४ नूरों दु प्रकृतिगळोळ, १०१ कळ 'दोडानतादि १३ स्थानंगळोळ, बंधयोग्यप्रकृतिगळ ९७ अप्पूवल्लि मिथ्यादृष्ट्यादि चतुर्गुणस्थानवत्तगळणे बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधत्रिभेदंगळ संदृष्टि :
१०
२०
९४
इल्लि मिथ्यादृष्टिगळगे मिथ्यात्वादि चतुष्प्रकृतिगळ ४ बंधव्युच्छित्तिगळप्पु । बंधप्रकृतिगळ ९६ अ । अबंधप्रकृति तीर्थमो देयक्कुं १ । सासादन सम्यग्दृष्टियोळ, बंधव्युच्छित्ति २१ । प्रकृत्तिगळप्पुवु । एकेंदोडे शतारचतुष्कं बंधमिल्लप्पुर्दारदमवं कळेदोडनितेयप्पुवपुर्दारदबंघप्रकृतिगळु ९२ । अबंधप्रकृतिगळ ५ । मिश्रगुणस्थानवोळ बंधप्रकृतिगळ ७० । मनुष्यायुष्यमबंधमधुदरिदं अबंध प्रकृतिगळ २७ । मनुष्यायुष्यमिल्लि कूडिवुदप्पुदरिदं । असंयतगुण१५ स्थानवोळ बंधव्युच्छित्तिगळ १० । बंधप्रकृतिगळ, ७२ । अप्पुवेकेंवोडातनोळ तीर्थमु मनुष्यायुष्यमुळे बंधमुंटप्पुर्दारवमवं मिश्रन बंधप्रकृतिगळोळ, तेगदिल्लि कूडिवोsनितादुवें बुदत्थं । अबंधप्रकृतिगळ २५ अप्पुवा कूडिद प्रकृतिगळिल्लि तेगदुवप्पुदरिदं ।
२५
-:
७२ २५
आन ४१९ ग्रैवेयक १० o ७० २७ सा २१ ९२
४ ९६ १
प्यपनीतत्वात् । अबन्धः ३१ । असंयते व्युच्छित्तिः १० । बन्धः ७२ तीर्थमनुष्यायुषोर्बन्धात् । अबन्धः २९ शतारसहस्रारपर्यन्तमेव तिर्यद्विकं तिर्यगायुरुद्योतश्चेति सदरच उक्कं बन्धयोग्यमस्ति तत उपरि नास्तीति नियमादानतादिषु कल्पेषु नवग्रैवेयकेषु च बन्धयोग्याः ९७ । तत्र मिथ्यादृष्टी बन्धः ९६ तीर्थकरत्वस्याबन्धात् । व्युच्छित्ति: ४ । सासादने व्युच्छित्तिः २१ सदरचउक्कस्य राश्यभावात् । बन्धः ९२ । अबन्धः ५ । मिश्र व्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ७० मनुष्यायुरबन्धात् । अबन्धः २७ । असंयते व्युच्छित्तिः दश । बन्धः ७२ । असंयत में व्युच्छित्ति दस, बन्ध बहत्तर क्योंकि तीर्थंकर और मनुष्यायुका बन्ध होता है, अबन्ध उनतीस ||
शतार सहस्रार पर्यन्त ही तियंचगति, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, तिर्यवायु उद्योत इस शतार चतुष्कका बन्ध होता है। उससे ऊपर नहीं होता, इस नियमके अनुसार आनत आदि चार कल्पों में और नवत्रैवेयक में बन्धयोग्य सत्तानबे । उनमें मिध्यादृष्टिमें तीर्थंकरका बन्ध न होनेसे बन्ध छियानबे, व्युच्छित्ति चार । सासादनमें शतार चतुष्कके न होनेसे व्युच्छित्ति इक्कीस, बन्ध बानबे, अबन्ध पाँच । मिश्रमें व्युच्छित्ति शून्य, मनुष्यायुका बन्ध न होने से
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनुविशानुत्तरविमानंगळ, १४ रोळ सम्यग्दृष्टिगळेयप्पुरिदमल्लिय असंयतरुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ७२ अप्पविन्ती देवगतियोळ पेळ्व भवनत्रयजरुं कल्पजस्त्रीयरुगळप्प निवत्य पर्याप्तकरगळगे बंधयोग्यप्रकृतिमळ १०१। अप्पुर्वतेवोडे तत्पर्याप्त रुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ १०३ रोळ्गे मिश्रकापयोमिगळप्परिदं । तिय्पंग्मनुष्यायुयम कट्टरप्पुरिदमवं कळे बोडे तावन्मात्रप्रकृतिगठप्पुवप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानद्वितयमेयक्कुमेके वोडे ५ तिर्यग्मनुष्यगतिय सम्यग्दृष्टिगळल्लि पुटुवरल्लप्परिदं आ गुणस्थानद्वयवोळ बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिगळगे संवृष्टिः
भ३ । कल्पजस्त्रीयर नित्यपर्याप्तर
|सा
२४
मि ७ १०१ ० ई रचने सुगममेकेंदोडे तोयंमुमायुष्यमुमिल्लि बंधमिल्लप्पुरिवं । सौधर्मेशानकल्पजनिर्वृत्यपर्याप्तकरुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०२ अप्पुतेंदोडिल्लियमेरडायुष्यंगळे कळेदुवु तीर्थमंटप्परिवं । गुणस्थानत्रितयमुमप्पुववक्के संदृष्टिः- सौधर्म २ द्वयनिवृत्यप.। १०
| | ९ | ७१ | ३१ । मि ७ १०१ १
ई रचने सुगममेकेदोडे असंयतनोळ तीर्थबंध में बिनिते विशेषमप्परिदं । सानत्कुमारादि वशकल्पजनित्यपर्याप्तकरगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ९९ अप्पविल्लियुमायुद्धयरहितमप्पुरिदं संवृष्टिः --
सा कल्प निर्वत्थ
अबन्धः २५ । अनुदिशानुत्तराः असंयतसम्यग्दृष्टय एव तेषां बन्धयोग्यप्रकृतयः ७२ । निर्वृत्त्यपर्याप्तानां तु भवनत्रयकल्पस्त्रीषु बन्धयोग्यं मिश्रयोगित्वात्तिर्यग्मनुध्यायुषी न इत्येकोत्तरशतम् १०१ । गुणस्थाने द्वे एव १५ असंयतानां तत्रोत्पत्यभावात् । तत्र मिथ्यादृष्टो व्युच्छित्यादित्रयं ७ । १०१ । ० । सासादने २४ । ९४ । ७ । सौधर्मशानयोर्बन्धयोग्यं तीर्थकृता सह द्वयुत्तरशतम् १०२ । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्त्यादित्रयं ७ । १०१।१।
बन्ध सत्तर, अबन्ध सत्ताईस । असंयतमें व्युच्छित्ति दस, वन्ध बहत्तर, अबन्ध पच्चीस । अनुदिश अनुत्तरवासी देव असंयत सम्यग्दृष्टी ही होते हैं। उनके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ बहत्तर हैं । निर्वृत्यपर्याप्तकोंके भवनत्रय और कल्पस्त्रियोंमें बन्धयोग्य एक सौ एक हैं क्योंकि मिश्र- २० काययोग होनेसे तिर्यवायु मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता । गुणस्थान दो ही हैं क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर उनमें उत्पन्न नहीं होता मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति आदि तीन, सात, एकसौ एक और शून्य है। सासादनमें चौबीस, चौरानबे, सात है। सौधर्म ऐशानमें तीर्थंकरके बँधनेसे अन्धयोग्ग एक सौ दो हैं। उनमें मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छिनि आदि तीन, सात, एक सौ एक है। सासादनमें चौबीस, चौरानबे, आठ। असंयतमें नौ, इकहत्तर, इकतीस । २५
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२०
गो० कर्मकाण्डे
ई रचनेयुं सुमनें वोड संयतनोळ तीर बंधमुंटे बिनिते विशेषमप्युर्दारवं । आनतादिचतुष्कल्पन व ग्रैवेयक संजातनिर्वृत्यपर्याप्तकरुकळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु ९६ अपुर्व ते बोडे मनुष्यायुष्यमनल्लियों दने कट्टुवरदुवुमी निर्वृत्यपर्य्याप्तकालदोळु बंधमिल्लप्पुर्वारवमदं कळेवोडनिते योग्यंगळप्पुवपुर्दारदं संदृष्टि
२५
९६
३०
साम्रादने २४ । ९४ । ८ । असंयते ९ । ७१ । ३१ । सानत्कुमारादिदशकल्पेषु बन्धयोग्या नवनवतिः ९९ । १० व्युच्छित्यादित्रयं मिथ्यादृष्टौ ४ । ९८ । १ । सासादने २४ । ९४ । ५ । असंयते ९ । ७१ । २८ । आनतादिचतुः कल्पनवग्रैवेयकेषु बन्धयोग्याः षण्णवतिः ९६ । तत्र व्युच्छित्त्यादित्रयं मिथ्यादृष्टौ ४ । ९५ । १ । सासादने २१ । ९१ । ५। असंयते ९ । ७१ । २५ । अनुदिशानुत्तराणामसंयत सम्यग्दृष्टित्वात् तेषां बन्ध एव ७१ ॥ ११२ ॥
सानत्कुमार आदि दस कल्पोंमें बन्धयोग्य निन्यानबे । व्युच्छिति आदि तीन मिथ्यादृष्टिमें चार, अठानबे, एक सासादनमें चौबीस चौरानबे, पाँच । असंयतमें नौ, इकहत्तर, अठाईस | १५ आनतादि चार कल्पों और नवप्रैवेयको में बन्धयोग्य छियानवे । उनमें व्युच्छित्ति आदि तीन मिध्यादृष्टि में चार, पिचानबे, एक । सासादनमें इक्कीस, इकानबे, पाँच । असंयत में नौ, इकहत्तर, पच्चीस । अनुदिश अनुत्तरवासियोंके असंयत सम्यग्यदृष्टी ही होनेसे उनके इकहत्तरका बन्ध होता है ॥ ११२ ॥
पर्याप्त भवनत्रिक कल्पस्त्री १०३ बन्धयोग्य
मि.
असं.
०
१०
७१
३२
ईरचनेयं सुगमतेंदोडे असंयतनोळ तीर्थंबंध मंटु सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळु २१ अप्पुवेकेंदोडे अल्लि शतारचतुष्टयं कळेदुदप्पुर्दारवं । अनुविशानुत्तर विमान १४ गळोळु सम्यग्दृष्टिगळेयपुर्दारवं तोर्थसहितमागि ७१ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । मनुष्यायुष्यमों वेयक्कुमवुवुमा कालदोळु बंधमिल्लपुरिमं कळेदोडनिते बंधयोग्यंगळप्पुदरिदं ॥
मि. सा.
२५
९६
७
बन्ध व्यु. ७
बन्ध १०३
अबन्ध
०
-:
मि. बन्ध व्यु ४ २५ ० बन्ध १०० ९६ अबन्ध १ ५ ३.१
७०
पर्याप्त सानत्कुमारादि दस कल्प १०१
७०
३३
बन्ध व्य ७ २४ ९ बन्ध १०१ ९४ अबन्ध
७१
१ ८
३१
७१
२५
अ ९ सा २१ ९१ ५ मि ४ ९५ १ आ ४ । ९ ग्रैवे = निर्व
सा. मिश्र असं.
१०
७२
२९
नि. अ. सौधर्मयुगल १०२ मि. सा. असं.
पर्याप्त सौधर्मयुगल १०४ बन्धयोग्य
मि. सा. मिश्र
असं.
२५
०
१०
९६
७०
७२
८
३४
३२
७
१०३
१
पर्या. आनतादि ४ नवप्रैवेयक ९७
मि. सा. मिश्र असं.
४ २१ ० १० ९६ ९२ ७० ७२ १ ५ २७ २५
९४ ७१
५
२८
नि. अ. भव.
कल्प स्त्री १०१
मि.
७ १०१
०
नि. अ. सनत्कुद कल्प ९९ नि. आनतादि नव. ९६ मि. सा. असं. मि. सा. असं.
४
२४ ९
४ २१
९
९८
९५ ९१
१
५
सा.
२४
९४
७
७१
२५
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कटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
इंद्रियमार्गणेयं पेळवल्लि मोवलोळे केंद्रियविकलत्रयंगळगे पेलवपद :
पुदिरं विगिविगले तत्थुष्यण्णो हु सासणो देहे । पज्जति ण वि पावदि इदि णरतिरियाउगं णत्थि ॥ ११३ ॥
पूर्णेतर व वेकेंद्रियवि कलत्रये तत्रोत्पन्नः खलु सासादनो देहे । पर्याप्त न प्राप्नोति इति नरतिर्य्यगायुषी नस्तः ॥
तिथ्यंच लब्ध्यपर्याप्तकनोळ पेलवंते एकेंद्रियंगळोळं विकलेंब्रियंगळोळं पेळल्पडुगुमेकँदोडे तीर्थमुमाहारद्वयमुं सुरनारकायुद्वयमुं वैक्रियिकषट्कमुमेंब ११ प्रकृतिगळं कळेदु शेष १०९ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळपुर्वारमा एकेंद्रिय विकलत्रयंगळगे गुणस्थानद्वितयमेयक्कु- एकेंद्रिय विकलत्रक्के
९७
भावात्
मिल्लि मिथ्यादृष्टिगळगे बंधव्युच्छित्तिगळु १५ प्रकृतिगळपुषेंतेंदोडे तन्न मिथ्यात्वादि बंघव्युच्छित्तिगळु १६ रोळगे नरकद्विकमुं नरकायुष्यमं कळेदु १३ प्रकृतिगलप्पुवदरोळगे १० तिग्मनुष्यायुर्द्वयमं कूडि बोडे तत्प्रमाणप्रकृति संख्येयक्कुमप्पुदरिवं बंधप्रकृतिगळ १०९ । अबंधशुन्यमक्कु । सासावननोळ, तत्रोत्पन्नः खलु सासावनो देहे पर्याप्त न प्राप्नोतीति नरकतिध्यंगायुषी नस्तः । एंवितु एकेंद्रियविकलत्रयदोळ्पुट्टिव सासादनं निवृत्यपर्थ्याप्तकालमन्त हूपर्यंत शरीरापर्य्याप्ति कालवोळु मिश्रकाययोगियप्पुर्वारवं आयुब्बंधयोग्यतेयिल्लवुकारणमागि तत्कालपतं तद्गुणस्थानकालमल्पमप्पुर्वीरवं ती पोकुमदु कारणमागि मनुष्यायुष्यमं तिर्य्यगायुष्यमुं १५
इन्द्रियमाणायां एक विकलेन्द्रियेषु लब्ध्यपर्यातकव तीर्थ करत्वाहारकद्वय सुरनारकायुर्वे क्रियिकषट्कबन्धाबन्धयोग्यं नवोत्तरशतम् । गुणस्थाने द्वे । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः पञ्चदश । १५ । तत्षोडश के नरकद्विकनरकायुषोरभावे नरतिर्यगायुषोः क्षेपात् तत्क्षेपोऽत्रैव कृतः । तत्र तेषु एकविकलेन्द्रियेषु उत्पन्नः खलु सासादनः स्वकीयकालस्य निर्वृत्त्यपर्याप्तकालात् स्तोकत्वात् सासादनत्वे शरीरपर्याप्त न प्राप्नोतीति कारणात्
सा २९ ९४ १५ मि १५१०९ ०
१. मःतयो ।
क - १३
५
२०
इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियमें लब्ध्यपर्याप्तकके समान तीर्थंकर, आहारक द्विक, देवायु, नरकायु और वैकिविकपटकका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ नौ हैं । उनमें मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति पन्द्रह क्योंकि उसमें व्युच्छिन्न होनेवाली सोलह प्रकृतियों में से नरकद्विक और नरकायुका बन्ध न होने तथा मनुष्यायु तिर्यञ्च युके मिलाने से होता है । इसका कारण यह है कि उन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में उत्पन्न सासादन गुणस्थानवर्ती जीव सासादनका काल निर्वृत्यपर्यातक कालसे थोड़ा होनेके कारण सासादन अवस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं करता, इससे यहाँ सासादन में मनुष्यायु तिर्यवायुका बन्ध
२५
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गो० कर्मकाण्डे तेगदु मिथ्यादृष्टियोळ, बंधव्यच्छित्तियादेवप्पुरिदमिल्लि बंधव्युच्छित्तिगळ २९ प्रकृतिगळप्पुवु । बंधप्रकृतिगळ ९४ अबंधप्रकृतिगळ, १५ अप्पुवु। अनंतरं पंचेंद्रियंगळ्गं पृथ्वीकायादि पंचकक्कं पेळ्दपरु:
पंचिदिएसु ओघं एयक्खे वा वणप्फदीयते।
मणुवदुगं मणुवाऊ उच्चं ण हि तेउवाउम्मि ॥११४॥ पंचेंद्रियेषु ओघः एकाक्षवद्वनस्पत्यंतानां । मनुष्यद्विकं मनुष्यायुरुच्चं न हि तेजोवाय्वोः॥
पंचेंद्रियंगळोळ ओघः मुन्नं चतुर्दशगुणस्थानंगलोलु पेन्दतेयप्पुवेके दोडे विशेषाभावमप्पुदरिदं बंधयोग्यंगळ १२० । बंधव्युच्छित्तिगळ मि १६ । सा २५ । मि ० । अ १० । दे ४ ।प्र।
अ १ । अ ३६ । अ ५ । सू १६ । उ । क्षी । स १ । अ०॥ बंधप्रकृतिगळ मिथ्यादृष्टयोळ, १. ११७ । सा १०१ । मि ७४ । अ ७७ । दे ६७ । प्र ६३ । अ ५९ । अ५८ । अ २२। सू १७ । उ १।
क्षी १ । स १ । अ०॥ अबंधप्रकृतिगळ :मि ३। सा १९ । मि ४६ । अ४३ । दे ५३ । प्र ५७ । अ६१ । अ६२ । अ९८॥ सू १०३। उ ११९ । क्षो ११९ । स ११९ । अ १२० ॥
बन्धः १०९ । अबन्धः शून्यम् ० । सासादने व्युच्छित्तिरेकान्नत्रिंशत् २९ । बन्धः चतुर्नवतिः ९४ । अबन्धः १५ पञ्चदश १५ ॥ ११३ ॥ अथ पञ्चेंद्रिये पृथ्व्यादिपञ्चकायेषु चाह
पञ्चेन्द्रियेषु ओघः चतुर्दशगुणस्थानवद्भवति विशेषाभावात् । बन्धयोग्याः १२० । व्युच्छित्तयःमि १६ । सा २५ । मि० । अ१०।दे ४ । प्र६ । अ१ । अ ३६ । अ५ । स १६ । उ । क्षी । स १ । अ० । बन्धा:-मि ११७ । सा१०१ । मि ७४ । अ ७७ । दे६७ । प्र६३ । अ५९ । अ५८ ।
अ २२ । सू १७ । उ१। क्षी१। स १। अ०। अबन्धाः-मि ३ । सा १९ । मि ४६ । अ ४३ । २० दे ५३ । प्र ५७ । अ६१ । अ ६२ । अ ९८ । सू १०३ । उ ११९ । क्षी ११९ । स ११९ । अ १२० ।
न होनेसे उनकी व्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टि में ही कही है। अतः बन्ध एक सौ नौ, अबन्ध शून्य । सासादनमें व्युच्छित्ति उनतीस, बन्ध चौरानवे, अबन्ध पन्द्रह ॥११३।।
आगे पञ्चेन्द्रिय और पृथिवी आदि पाँच कायोंमें कहते हैं
पञ्चेन्द्रियोंमें 'ओध' अर्थात् चौदह गुणस्थानवत् होता है उससे भेद नहीं है। २५ अतः बन्धयोग्य एक सौ बीस । व्युच्छित्ति मि. १६। सा. २५। मि.० । असं.१० । दे. ४। - प्र. ६ । अप्र. १ । अपूर्व. ३६ । अनि. ५ । सू. १६ । उप. । क्षी. । स. १। अयो.। बन्ध-मि.
११७ । सा. १०१ । मि.७४ । असं. ७७। दे. ६७ । प्र. ६३ । अप्र. ५९ । अप्र. ५८। अनि. २२ । सू. १७ । उ. १ । क्षी. १ । स. १ अयो.। अबन्ध-मि.३ । सा. १९ । मि. ४६ । असं. ४३ ।
दे. ५३ । प्र. ५७। अप्र. ६१ । अपू. ६२ । अनि. ९८ । सू. १०३ । उ. ११९ । झी. ११९ । सं. ३० ११९। अयो. १२० । पञ्चेन्द्रियनिवृत्यपर्याप्तकमें बन्ध योग्य एक सौ बारह । गुण
स्थान पाँच।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पंचेंद्रियनित्यपर्याप्तकंगे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ११२। गुणस्थानंगळ ५। एतेंवोडे चतुर्गतिसाधारणमप्पुरिदं कळे व प्रकृतिगळ आहारकद्वय, २ नरकद्विक, २ आयुष्यचतुष्कमु ४ मिन्तु ८ प्रकृतिगळु । पंचेंद्रियनिवृत्य १.
P
१३
सा.
२४ 98 19
ई रचने सुगममेंतेंदोडे–असंयतनोळु तोत्थंभु सुरचतुष्टयमुं बंधमुंटप्पुरिदमल्लि बंधप्रकृतिगलु ७५ अबंधप्रकृतिगळु ३७ अप्पुर्वेबिनि ते विशेषमप्पुरिदं । पंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकंगे ५ बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०९ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमुमोंदेयक्कुं। कळेद प्रकृतिगलु तीर्थमुमाहारद्वयमुं सुरनारकायुयमुं वैक्रियिकषट्कमुमिन्तु ११ प्रकृतिगलु बंधयोग्यंगळल्लप्पुरिदं ॥
तन्निर्वृत्त्यपर्याप्तके तु बन्धयोग्यम् ११२ । गुणस्थानानि । ५। चतुर्गतिसाधारणत्वात् अपनीतप्रकृतयः आहारकद्वयं नरकद्विकमायुष्यचतुष्कं चेति रचनेयं सुगमा
पञ्चेन्द्रियनिर्वृत्यपर्याप्त रचना। ब्युच्छित्ति बन्ध अबन्ध
प्र | ६१ । ६२ । ५
। १३ । ७५
सा| २४ | ९४ | १८
मि | १३ १०७ /
५
असंयते तीर्थसुरचतुष्कबन्धः । इत्येतावत एव विशेषाभावात् । तल्लब्ध्यपर्याप्तके बन्धयोग्यप्रकृतयः १०९। मिथ्यादृष्टि-गुणस्थानम् । अपनीतप्रकृतयः । तीर्थमाहारद्वयं सुरनारकायुषी वैक्रियिकषटकं चेति ११ ।
यहाँ आहारकद्विक, नरकद्विक, चार आयुका बन्ध नहीं होता। इसकी रचना सुगम १५ है। तथा असंयतमें तीर्थंकर और सुरचतुष्कका बन्ध होता है। पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें बन्धयोग्य एक सौ नौ। तीर्थकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु और वैक्रियिकषटकका बन्ध नहीं होता। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है।
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गो० कर्मकाण्डे कायमाग्गंणेयोलु वनस्पत्यंतमाद पंचकायिकंगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगलु १०९ अप्पर्वतेंदोडे एकेंद्रियवद्वनस्पत्यंतानामेंविन्तु तीर्थमुमाहारकद्विकमुं सुरायुष्यमुं नारकायुष्यमुं वैक्रियिकषट्कमुमिन्तु ११ प्रकृतिगलु बंधप्रकृतिगळोलु कलेदुवप्पुरिवं पृथ्वीकायिकाप्कायिकवनस्पतिकायिकगळ्गे १०९ प्रकृतिगलु बंधयोग्यंगळप्पुवु । तेजस्कायिकवायुकायिकंगळगे मनुष्यद्वयं मानवायुष्यमुमुच्चैर्गोत्रमुं बंधमिल्लेंब अपवादविर्धाियदमा नाल्कु प्रकृतिगळ कळे दोडे बंधयोग्यप्रकृतिगल नूरैदु नरैदुमप्पुवु- | पृथ्वी ३ कायिक।
| सा
२९ ।
।
इल्लिसासावनं वेहोळ पर्याप्तियनेय्यवप्पुरिदं तिय्यंग्मनुष्यायुद्वयं मिथ्यादृष्टियोळे बंधव्युच्छित्तिगळागि कुडिदवप्पुरिवं मिथ्यावृष्टियोळु बंधव्युच्छिगळु १५ बंधप्रकृतिगळु १०९ अबंधप्रकृतिशून्यमक्कुं । सासावनंगे बंधव्युच्छित्तिगळ २९ बंधप्रकृतिगळु ९४ अबंधप्रकृतिगळु १५ । तेजस्कायिकंगळगं वायुकायिकंगळगं सासावनगुणस्थानमिल्ल । मिथ्यावृष्टिगुणस्थानमा देयककुमेके दोर्ड:
ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे ।
ओघं तस मणवयणे ओराले मणुवगइभंगो ॥११५।। न हि सासावनोऽपूण्र्ने साधारणसूक्ष्मके छ तेजोतिके ओघस्त्रस मनोवचने औदारिके मानवगतिभंगः ॥
___कायमार्गणायां वनस्पत्यन्तपञ्चानां एकेन्द्रियवत् तीर्थमाहारकद्वयं सुरनारकायुषी क्रियिकषट्कं च न इति बन्धयोग्यं नवोत्तरशतम् । १०९ । तत्र पृथ्व्यन्वनस्पतिकायेषु उत्पन्नस्य सासादनत्वे शरीरपर्याप्त्यसंभवात् तिर्यग्मनुष्यायुर्बन्धो मिथ्यादृष्टावेवेति तत्र व्युच्छित्तिः १५ । बन्धः १०९। अबन्धः शून्यम् । सासादने
व्युच्छित्तिः २९ । बन्धः ९४ । अबन्धः १५ । तेजोवातकायिकयोः पुनः मनुष्यद्वयं मनुष्यायः उच्चत्रमपि न २० बध्नाति बन्धयोग्यं पञ्चोत्तरशतमेव । १५ । तौ तु मिण्यादृष्टी एव न सासादनी ॥११४॥ कुतः ?
कायमार्गणामें वनस्पतिकायिक पर्यन्त पाँच स्थावरकायोंमें एकेन्द्रियके समान तीर्थकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु और वैक्रियिकषट्कका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ नौ। वहां पृथिवी, जल तथा वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न सासादनके सासादन अवस्थामें शरीर
पर्याप्ति पूर्ण न होनेसे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका बन्ध मिथ्यादृष्टिमें ही होता है इसलिए २५ वहाँ व्युच्छित्ति पन्द्रह, बन्ध एक सौ नौ, अवन्ध शून्य । सासादनमें व्युच्छित्ति उनतीस,
बन्ध चौरानबे, अबन्ध पन्द्रह । तैजस्कायिक वायुकायिकोंमें मनुष्याय, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भी बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ पाँच ही हैं । तथा उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है, सासादन नहीं होता ।।११४॥
मि. सा. असं. प्र. सयो. मि. सा. मि. सा. ३० व्यु. १३ २४ १३ ६१ १ बन्ध १०७ ९४ ७५ ६२ १
१०९ ९४ १०९ ९४ अबन्ध ५ १८ ३७ ५० १५१
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०१
सासादनसम्यग्दृष्टि यावे डेयोळपुट्टने बडे लब्ध्यपर्याप्तकभेवंगळे नितोळवनितळ साधारणशरीरंगळोळं सूक्ष्मजीवभेवंगळगनितोळ वनितरोळं तेजस्कायिकजीवंगळोळं वायुकायिकजीवंगोळ पुट्टनें बी नियममरियल्पडुगुं । नरकगतियोळं पुढं । कायिकजीवंगळगं योगमार्गणियो मनोवाग्योगिगळगं ओघः सामान्यगुणस्थानकथनमेयक्कुमौदारिककाययोगिगळगे मनुष्यगतिभेवंगलक्कु वरिय पडुगुमल्लि जसकायिकंगळगं मनोवाग्योगिगळगं बंधयोग्यंगळ १२० प्रकृतिगलप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टिर्ग व्युच्छित्तिगळ १६ सा २५ । मि० । अ १० | वे ४ । प्र ६ । अ १ । अ ३६ । अ ५ । सू १६ । उ० । क्षी ० । स १ । अ० बंधप्रकृतिगळ मि ११७ । सा १०१ । मि ७८ । अ ७७ ॥ वे ६७ । ६३ । अ ५९ । अ ५८ । अ २२ । सू १७ । उ १ । क्षी १ । स १ । अ ० ॥
५
अबंधप्रकृतिगळु मि ३ । सा १९ । मि ४६ ।
अ ४३ । दे ५३ । प्र ५७ | अ ६१ । अ ६२ । अ ९८ । सू १०३ । उ ११९ । क्षी ११९ । स ११९ । अ १२० । ई निवृत्यर्थ्यातकरोळ पंचेंद्रियंगकोळु पेळवंत भाविस पडुवुवु । औवारिककाययोगिगळगे मानवगतिभंगमप्पुदरिवं नंधयोग्यप्रकृति- १० गळु १२० । अप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळ १६ । सासादनंगे ३१ | मि ० । अ ४ ।
दे ४ । ६ । अ १ । अ ३६ । अ ५ । सू १६ । उ ० । क्षी० । स १ । अ ० ॥
।
बंधप्रकृतिगळु मि ११७ । सासा १०१ । मि ६९ । ७१ । वे ६७ । प्र ६३ । अ५९ । ५८ अ २२ । १७ । उ १ क्षी १ । स १ । अ ० ॥ अबंधप्रकृतिगळु मि ३ । सा १९ । मि ५१ अ ४९ । वे ५३ । ५७ । अ ६१ । अ ६२ । अ ६८ । सू १०३ । उ११९ । क्षी ११९ । स ११९ । अ १२० ॥
१५
हि यस्मात्सर्व लब्ध्यपर्याप्तेषु साधारणशरीरेषु सर्वसूक्ष्मेषु तेजोवायुकायिकेषु च सासादनो न विद्यते । नरकगतौ च नोत्पद्यते ।
२०
कायिकेषु योगमार्गणायां मनोवाग्योनिषु व ओघः सामान्यगुणस्थानवत् तेन तेषु बन्धयोग्यम् १२० । व्यु च्छित्तयः - मि १६ । सा २५ । मि० । अ १० । दे ४ । प्र ६ । १ । ३६ । अ५ । सू १६ । उ० । क्षी ० । स १ । अ । बन्धाः - मि ११७ । सा १०१ । मि ७४ । अ ७७ । दे ६७ । प्र ६३ । अ ५९ । अ ५८ । अ २२ । सू १७ । उ १ । क्षी १ । स १ । । अबन्धाः - मि ३ । सा १९ । मि ४६ | अ ४३ । दे ५३ । ५७ । अ ६१ । ६२ । अ १८ । सू १०३ । उ ११९ । क्षी ११९ । स ११९ । अ १२० । सनिर्वृत्यपर्याप्तके पञ्चेन्द्रियनिर्वृत्यपर्याप्तकवत् । औदारिककाययोगिषु मानवगतिभङ्गः तेन
२५
क्योंकि सर्व पर्याप्त कोंमें, साधारण शरीरोंमें, सब सूक्ष्मकायोंमें और तेजकायवायुकायिकों में सासादन नहीं होता तथा साम्रादन मरकर नरक गति में भी उत्पन्न नहीं होता । कायिकों में, योगमार्गणा में, मनोयोगी-वचनयोगियों में सामान्य गुणस्थानके समान बन्धयोग्य एक सौ बीस होती हैं ।
कायिक, मनोयोगी, वचनयोगी बन्धयोग्य १२० की रचना मि. सा. मि. अ. दे. प्र. अप्र. अपू. अनि. सू. व्युच्छित्ति १६ २५ ० १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ बन्ध ११७ १०१ ७४ ७७ ६७ अबन्ध ३ १९ ४६ ४३
६३
५९
५८ २२ १७
५३
५७
६१
६२
९८ १०३
उ. क्षी. स. अयो.
०
० १ ० १ १ ०
११९११९ ११९ १२०
३०
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१०२
गो० कर्मकाण्डे औदारिकमिश्रकाययोगिगळ्गे पेन्दपर :
ओराले वा मिस्से ण हि सुरणिरयाउहारणिरयदुर्ग । मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि ॥११६॥
औदारिकवन्मिश्रे न हि सुरनारकायुराहारनरकद्वयं मिथ्याग्द्वये देवचतुस्तीत्यं न हवि५ रतेऽस्ति ।
___औदारिकमिश्रकाययोगिगळ्गे औदारिककाययोगिगळगे पळदंते बंधयोग्यप्रकृतिगळं बंधव्युच्छित्यादिगळु मरियल्पडुवुवेते दोडे औदारिकमिश्रकाययोगिगळु लब्ध्यपर्याप्तकरं नित्यपर्याप्तकरुमप्पुरिदं बंधयोग्यप्रकृतिगळु ११४ अप्पुर्वे ते दोडे देवायुष्य, १ नरकायुष्यमुं १ आहारक
द्वयमुं २। नरकद्वयमु २ मल्लि बंधयोग्यंगळल्लवप्पुरिंदमा षट्प्रकृतिगळं कळदोड योग्यप्रकृति१० गल्तावन्मात्रंगळेयप्पुवप्पुरिदं मिथ्यादृष्टिसासादनरोळु सुरचतुष्कम तीर्थमुं बंधमिल्ला प्रकृति
गळु अविरतनोळु बंधमप्पुवु । संदृष्टि औदारिकमिश्रकाययोगिगळ्गे | स । १
मि । १५ १०९। ५ ।
VAAVAVVVVVVVVVVVNAA
बन्धयोग्यम् १२० । व्युच्ठित्तयः-मि १६ । सा ३१ । मि । अ४ । दे४। प्र६। अ१। अ ३६ । अ५ । सू १६ । उ०। क्षी । स १ । अ ०। बन्धा :-मि ११७ । सा १०१। मि ६९। अ ७१ ।
द ६७ । अ६३ । अ५९ । अ५८ । अ २२ । स १७ । उ१। क्षी१। स १। अ० । अबन्धाः -मि १५ ३ । सा १९ । मि ५१ । अ ४९ । दे ५३ । । ५७ । अ६१ । अ६२ । अ ९८ । सू १०३ । उ ११९ । क्षी ११९ । स ११९ । म १२० ॥ ११५ ॥
औदोरिक-मिश्रकाययोगिष्वाह
औदारिकमिश्रकाययोगिषु औदारिककाययोगिवद्बन्धप्रकृतयो व्युच्छित्त्यादयश्च ज्ञातव्याः । औदारिकमिश्रकाययोगिनो हि लब्ध्यपर्याप्ताः नित्यपर्याप्ताश्च तेन देवनारकायुषी आहारकद्वयं नरकद्वयं च तत्र बन्ध२० योग्यं नेति चतुर्दशोतरशतम् । तत्रापि सुरचतुष्कं तीर्थं च मिथ्यादृष्टिसासादनयोर्न बध्नाति । अविरते च बध्नाति ॥११६॥
सनिर्वृत्यपर्याप्तकमें पञ्चेन्द्रियनिवृत्यपर्याप्तकके समान जानना। औदारिक काययोगीमें मनुष्यगतिके समान जानना। अतः बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं।
औदारिक काययोगमें बन्धयोग्य १२० रचना _ मि. सा. मि. असं. दे. प्र. अप्र. अपू. अनि. सू. उ. क्षी. स. ' व्युच्छित्ति १६ ३१ ० ४ ४ ६ १ ३६ ५ १६ ० ० १
बन्ध ११७ १०१ ६९ ७१ ६७ ६३ ५९ ५८ २२ १७ १ १ १ अबन्ध ३ १९ ५१ ४९ ५३ ५७ ६१ ६२ ९८ १०३ ११९ ११९ ११९
औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें कहते हैं
औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें औदारिक काययोगियोंकी तरह बन्ध प्रकृतियाँ और व्युच्छित्ति आदि जानना । औदारिक मिश्रकाययोगी लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त होते हैं अतः उनके देवायु, नरकायु, आहारकद्विक, और नरकद्विक बन्धयोग्य नहीं है। इससे एक सौ चौदह बन्धयोग्य हैं। उनमें-से भी सुरचतुष्क और तीर्थकर मिथ्यादृष्टि और सासादनमें नहीं बँधती, असंयत सम्यग्दृष्टीमें बंधती हैं ॥११६।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
इल्लि बंधयुच्छित्ति संख्येगळं पैदपरु :
पणारसमुणतीसं मिच्छदुगे अविरदे छिदी चउरो । उवरिमपण सट्टीविय एक्कं सादं सजोगिम्मि ॥ ११७ ॥ पंचदशैकान्नत्रिशन्मिथ्यद्विके अविरते व्युच्छितयश्चतस्रः । उवरिम पंचषष्टिरपि च एकं
१०३
सातं सयोगे ॥
मिथ्याद्विके मिथ्यादृष्टि सासादन गुणस्थानद्विकदोळु बंधव्युच्छित्तिगेल क्रमादिदं पंचदशैकाशित्प्रकृतिग । मिथ्यादृष्टियो १६ प्रकृतिगोळु नरकायुष्यमुं नरकद्विकमुं कळे शेष १३ प्रकृतिगळ मनुष्यायुष्यमुमं तिर्ध्वगायुष्यमुमं कूडिदोडे १५ प्रकृतिगळवु । सासादननोल ३१ प्रकृतिगोळ तिथ्यं मनुष्यायुर्द्वयमुं कळे २९ प्रकृतिगळु बंधव्युच्छित्ति गलप्पुवेक दोडा तिग्मनुष्यायुष्यंगळं कट्टुवडे मिश्रकालदो लब्ध्यपर्याप्तकनाग लेवेकुं । सासादननादोडे १० लब्ध्यपर्याप्तकरो पुट्टुवुदिल्ल । निर्वृत्यपर्याप्तकनुं मिश्रकाययोगिय ुर्दारदमायुधमं माळदिल्लg कारणमागि मिथ्यादृष्टिलब्ध्यपर्य्याप्तकने कट्टुगुं । तद्विवक्षेदिमा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळे बंधव्युच्छित्तिगळा दुवे दरिवुदु | अविरते असंयतनोळु व्युच्छित्तयश्चतत्रः अप्रत्याख्यान कषायचतुष्टयमे बंधव्युच्छित्तियप्पूवेकें दोडे वज्रऋषभनाराचादि षट्प्रकृतिगळु सासादननोळु बंधव्युच्छित्तिमा वरदमल्लिक्षं सेले देशसंयतन ४ प्रमत्तन ६ । अप्रमत्तन देवायुष्यं राशियोळकले १५ दुवै दर्द बिट्टु अकरण नोल आहारद्वयरहित शेष ३४ प्रकृतिगळुमनिवृत्तिकरणन ५ सूक्ष्मसांपरायन १६ कूडियितु उपरितन पंचषष्ठि प्रकृतिगळु सहितमागि असंयतनो बंधव्युच्छित्तिग ६९ अप्पु । सयोगकेवलि भट्टारकरोछु सातमोंदे बंधव्युच्छित्तियक्कु १ । मी गुणस्थानंगळोल बंधप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टियोल १०९ । अबंधंगळु ५ । सासादननोळ बंधप्रकृतिगळु ९४ अबंधप्रकृति
तस्य गुणस्थानेषु व्युच्छित्ति संख्याति -
मिथ्यादृष्टिद्वये व्युच्छित्तिः क्रमेण मिथ्यादृष्टौ पञ्चदश १५ । नरकायुर्नरकद्वयं चापनीय तिर्यग्मनुष्यायु:क्षेपात् पञ्चदश १५ । सासादने एकान्नत्रिंशत् । २९ । मिश्रकाययोगकाले लब्ध्यपर्याप्त कादन्यस्य आयुर्बन्धासंभवात् मरतिर्यगायुबोरपनयनात् । अविरते व्युच्छित्तिः वज्रर्षभनाराचादीनां षण्णां सासादने छेदात् अप्रत्याख्यानकषाय चतुष्कं देशसंयत चतुष्कं प्रमत्तषट्कं अप्रमत्तस्य देवायूराशौ न अपूर्वकरणस्य आहारकद्वयं विना शेष चतुस्त्रिशत् ३४ अनिवृत्तिकरणपञ्चकं सूक्ष्मसांपरायषोडशकमित्येकान्नसप्ततिः ६९ । सयोगे एकं २५
उनके गुणस्थानों में व्युच्छित्तियों की संख्या कहते हैं
मिथ्यादृष्टि में नरकायु और नरकद्विक घटाकर तिर्यवायु और मनुष्यायुके मिलाने से व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें उनतीसकी व्युच्छित्ति होती है क्योंकि मिश्रकाय योगके कालमें लब्ध्यपर्याप्तक के सिवाय अन्यके आयुबन्ध नहीं होनेसे मनुष्यायु तिर्यवायु कम हो जाती है । असंयत में वज्रर्षभनाराच आदि छहकी व्युच्छित्ति सासादन में होनेसे अप्रत्याख्यानावरण चार, देशसंयतकी चार, प्रमत्तकी छह, अप्रमत्तकी व्युच्छित्ति देवायु मूलमें नहीं है, अपूर्वकरणकी आहारकके बिना चौंतीस, अनिवृत्तिकरणको पाँच, सूक्ष्म साम्परायकी सोलह इस तरह सब मिलकर व्युच्छित्ति उनहत्तर है । सयोगी में एक सातावेदनीयकी
५
२०
३०
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१०४
to कर्मकाण्डे
गनु २० । असंयतनो बंधप्रकृतिगळ ७० अबंधप्रकृतिगळु ४४ । एक दोर्ड तीर्थमुमं सुरचतुष्टयमुमनविरतं कट्टुगुमपुवरिवमबिल्लि कळवुबंधदोलकूडिवुर्व खुदत्थं । सयोगिकेवलि भट्टारकरोळ बंधों वे सातमे १ मबंध प्रकृतिगळे ११३ अध्वु ॥ वैक्रियाहारकाययोगिगळगं पेलवपरु :
देवे वा वेगुव्वे मिस्से णरतिरियआउगं णत्थि । छट्टगुणं वाहारे तम्मिस्से णत्थि देवाऊ ॥ १.१८ ॥
वेवे व वैक्रिषिके मित्रे नरतिर्य्यगायुर्नास्ति । षष्ठगुणवदाहारे तन्मिश्रे नास्ति देवायुः ॥ वैक्रियिककाययोगिगळ्गे बंधयोग्य प्रकृतिगळु देवगतियो पेलवंते १०४ प्रकृतिगळावे बोडे सूक्ष्मत्रयमुं ३ विकलत्रयमुं ३ नरकद्विकमुं २ नरकायुष्यमुं १ सुरचतुष्क मुं ४ । सुरायुष्यमु १० १ माहारद्वयमु २ मिन्तु १६ प्रकृतिगळ कळंबु पोवपुर्दारव संवृष्टिः- वै० क्रि० काययोगिगळगे
१० ७२ ३२
० ७० ३४
सा
२५
९६ ८ मि ७ १०३ १
इल्लि मिथ्यादृष्टियो सूक्ष्मत्रयाविगळ ९ प्रकृतिगळकळेबुवापुर बंधव्युच्छित्तिगळु ७ बंधप्रकृतिगळु १०३ अबंघप्रकृति तीत्थंमो देवकुं १ ॥
५
सासादननोल बंधव्युच्छित्तिगळु २५ बंधप्रकृतिगळ ९६ अबंधप्रकृतिगळ ८ ॥ मिश्रनोळ बंधव्युच्छित्तिशून्यं । बंधप्रकृतिगळ मनुष्यायुष्यमं कळेदु ७० प्रकृतिगळवु । मनुष्यायुष्यं सहित - १५ सातम् १ | वन्धाबन्धो च मिथ्यादृष्टो १०९ । ५ । सासादने ९४ । २० । असंयते ७० । ४४ तीर्थसुरचतुष्कयोन्धात् । सयोगे १ । ११३ ॥ ११७ ॥ वैक्रियिकाहारकयोस्तन्मिश्रयोश्चाह
वैक्रियिककाय योगिनां बन्धप्रकृतयः देवगतिवत् । १०४ । सूक्ष्मत्रयविकलत्रयनरकद्वि कनरकायुः सुरचतुष्कसुरायुहारकद्वयानामबन्धात् । अत्र मिथ्यादृष्टी सूक्ष्मत्रयादिनवानामभावाद्व्युच्छित्तिः ७ । बन्धः १०३ । अबन्धः - तीर्थम् । सासादने व्युच्छित्तिः २५ । बन्धः ९६ । अबन्धः ८ । मिश्र व्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ७०
२०
३०
व्युच्छित्ति होती है । बन्ध और अबन्ध मिध्यादृष्टिमें एक सौ नौ तथा पाँच, सासादन में चौरानवे तथा बीस । असंयत में सत्तर तथा चवालीस क्योंकि यहाँ तीर्थकर और सुरचतुष्कका बन्ध होता है । सयोगी में एक तथा एक सौ तेरह ||११७|
औदारिक मिश्रका. ११४
मि. सा. असं.
२९
६९
९४
२०
बन्ध व्यु. १५ बन्ध १०९
अबन्ध
५
७०
४४
अ
मि
सयो.
१
१
११३
वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और आहारक आहारक मिश्र में कहते हैं
वैकथिक काययोगियोंके बन्ध प्रकृतियाँ देवगतिके समान एक सौ चार हैं। सूक्ष्मादि तीन विकलत्रय, नरकद्विक, नरकाय, सुरचतुष्क, देवायु, आहारकद्वयका बन्ध नहीं होता । यहाँ मिध्यादृष्टि में सूक्ष्मत्रिक आदि नौका अभाव होनेसे व्युच्छित्ति सात, बन्ध एक सौ तीन, अबन्ध एक तीर्थकर । सासादनमें व्युच्छित्ति पच्चीस, बन्ध छियानबे, अबन्ध आठ । मिश्रमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१०५ मागि अबंधप्रकृतिगळु ३४ । असंयतनोळु बंधव्युच्छितिगळु १० । बंधप्रकृतिगळ तीर्थ, मनुष्यायुष्यमुं सहितमागि ७२ अप्पुवु।
वैकियिकमिश्रकाययोगिगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०२ अप्पुर्व ते बोडे 'मिस्से णरतिरिय आउगं गत्यि' एंवितु नरतिय्यंगायुयम कळेदोंउप्पुवप्पुरिवं संवृष्टिरचने
वै० मिश्र काय अ | ९ | ७१ । ३१ सा २४ । ९४
मि | ७ |१०१ १ ___इल्लि मिथ्यादृष्टियोल बंधव्युच्छित्तिगळु ७ बंधप्रकृतिगळु १०१। अबंधप्रकृति तीर्थः ५ मोदे १॥
सासादननोळ बंधव्युच्छित्तिगळ तिय्यंगायुष्यरहित २४ प्रकृतिगळप्पुषु । बंधप्रकृतिगळु ९४ अबंधप्रकृतिगळ ८ असंयतनोळु मनुष्यायुष्यरहित बंधव्युच्छित्तिगळु ९ । बंधप्रकृतिगळ तोत्र्यसहितमागि ७१ प्रकृतिगळप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळ तीर्थरहितमामि ३१ बप्पुवत् ॥ बाहारककाययोगिगळगे छटुगुणंवाहारे एंदितु प्रमतसंयतंगे गुणस्थानदोळ पेळवंत बंधव्युच्छित्तिगळ हे बंध- १० प्रकृतिगळ ६३ । अबंधप्रकृतिगळु ५७ अप्पुवु ॥ आहारकमिश्रकाययोगिगे बंधव्युच्छित्तिगळु ६ । बंधप्रकृतिगळ ६२ अप्पुवे बोर्ड तम्मिस्से णत्यि देवाऊ एंवितु देवायुष्यं कळेदु अबंधवोळु कूडिदु. बप्पुरिचम बंधप्रकृतिगळु ५७ । काम्म॑णकाययोगिगळ्गे पेळ्वपर। मनुष्यायुरभावात् । अबन्धः ३४ । असंयते व्युच्छित्तिः १० । बन्धः तीर्थमनुष्यायुःसहिततया ७२ । अबन्धः तद्विना ३२।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगिनां बन्धप्रकृतयः द्वय त्तरशतमेव १०२। कुतः ? तत्र नरतिर्यगायुषो यो नास्तीति तवयापनयनात् । अत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः ७ । बन्धः १०१। अबन्धः तीर्थम् । सासादने व्युच्छित्तिस्तियंगायुविना २४ । बन्धः ९४ । अबन्धः ८। असंयते मनुष्यायुविना व्युच्छित्तिः ९ । बन्धः तीर्थसहिततया ७१। अबन्धः तीर्थ विना ३१ । आहारककाययोगिनां प्रमत्तगुणस्थानवत् व्युच्छित्तिः ६ । बन्धः ६३ । अबन्धः ५७ । तन्मिश्रकाययोगिनां व्युच्छित्तिः ६ । बन्धः ६२ 'तम्मिस्सेणत्थि देवाऊ' इति २० वचनात् । अबन्धः ५८ ॥ ११८ ॥ कार्मणकाययोगिनामाहव्युच्छित्ति शून्य, बन्ध सत्तर क्योंकि मनुष्यायुका अभाव है अबन्ध चौंतीस । असंयतमें व्युच्छित्ति दस, बन्ध तीर्थकर और मनुष्यायु सहित बहत्तर, अबन्ध उनके बिना बत्तीस । वैक्रियिक मिश्रकाय योगियों में बन्ध प्रकृतियाँ एक सौ दो, क्योंकि मनुष्यायु तिर्यश्चायुका बन्ध नहीं होता इसलिए उन दोनोंको कम कर दिया है। यहाँ मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति सात, २५ बन्ध एक सौ एक, अबन्धमें तीर्थकर एक । सासादनमें व्युच्छित्ति तिर्यन्चायुके बिना चौबीस, बन्ध चौरानबे, अबन्ध आठ । असंयतमें मनुष्यायुके बिना व्युच्छित्ति नौ, बन्ध तीर्थकर सहित इकहत्तर, अबन्ध तीर्थकरके बिना इकतीस। आहार काययोगियोंके प्रमत्त गुणस्थानकी तरह व्युच्छित्ति छह, बन्ध तरेसठ, अबन्ध सत्तावन । आहारक मिश्रकाययोगियोंके व्युच्छित्ति छह, बन्ध बासठ क्योंकि आहारकमिश्रमें देवायुका बन्ध नहीं होता ३० .
ऐसा कहा है। अबन्ध अठावन ॥११८॥ _Jain Education inte क-१४
१५
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गो० कर्मकाण्डे कम्मे उरालमिस्सं वा गाउदुगंपि णव छिदी अयदे । · वेदादाहारोत्ति य सगुणहाणाणमोघं तु ।।११९॥ कार्मणे औदारिकमिश्रवन्नायुर्वयमपि नवव्युच्छित्तयोऽसंयते । वेदादाहारपर्यंतं स्वगुणस्थानानामोघस्तु॥
काम॑णकाययोगिगळ्रो औदारिकमिश्रकाययोगिगळ्गे पेन्दतैयक्कुमदुर्बु 'ओराळेवामिस्से ण हि सुरणिरयाउहार णिरयदुगमे दितु बंधयोग्यप्रकृतिगळु ११४ अप्पुविल्लि विग्रहगतियोळायुब्बधमिल्लप्पुरिदमवरोलिई तिर्यग्मनुष्यायुयमं कळेदोडे ११२ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळप्पुवल्लि गुणस्थानचतुष्टयमक्कुं ॥ काम॑णकाययोगिगळ्गे
| ११११ ।
९४ । १८
मि ७३ १०७ ५ इल्लि मिथ्यादृष्टियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु १३ अप्पुर्व ते दोडे नरकद्विकमुं नरकायुष्यमु कळदुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु १०७ अप्पुर्वे ते दोडे 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं णहि अविरदे अत्थि' एंदितु ५ प्रकृतिगळु बंधदोळकळ दु अबंधप्रकृतिगळादुवप्पुरिदं । सासादननोळु बंधव्युच्छित्तिगळु तिय॑गायुष्यम कळेदुळिद २४ प्रकृतिगळप्पुवु । बंधप्रकृतिगळु ९४ अबंधप्रकृतिगळु १८ ॥
असंयतनोळ बंधव्युच्छित्तिगळु ७४ अप्पुर्व ते दोडे तन्न ओभत्तु ९ । देशसंयतन ४ प्रमत्त१५ संयतन ६ अप्रमत्तन देवायुष्यमं बिटु अपूर्वकरणनाहारकद्वयरहित ३४ प्रकृतिगळं अनिवृत्ति
कार्मणकाययोगिनां औदारिकमिश्रकाययोगिवद्भवति । तत्रापि विग्रहगतावायुर्बन्धो नेति तिर्यग्मनुष्यायुषी विना बन्धयोग्यं द्वादशोत्तरशतमेव । गुणस्थानचतुष्कम् । तत्र मिथ्यादृष्टौ ब्युच्छित्तिः १३ नरकद्विकनरकायुरभावात् । बन्धः १०७ । मिच्छदुगेदेवचऊ तित्थं णहि अविरदे अत्थीति पञ्चानामबन्धात् ।
सासादने व्युच्छित्तिः तिर्यगायुविना २४ । बन्धः ९४ । अबन्धः १८ । असंयते व्युच्छित्तिः मनुष्यायुविना स्वस्य २० ९। देशसंयतस्य ४ । प्रमत्तस्य ६ । अप्रमत्तस्य देवायूराशौ न । अपूर्वकरणस्य आहारकद्वयं विना ३४ । . वैक्रियिक काययोगी-१०४
वै. मिश्र. १०२ बन्धयोग्य मि. सा. मि. असं मि. सा. असं. व्यच्छित्ति ७ २५० १० ७ २४ ९
बन्ध १०३ ९६७० ७२ १०१ ९४ ७१ २५ अबन्ध १ ८ ३४ ३२१
३१ कार्मणकाय योगियोंके औदारिक मिश्रकाययोगिकी तरह होता है। उसमें भी विग्रहगतिमें आयुबन्ध नहीं होता । अतः तिर्यञ्चायु मनुष्यायुके बिना बन्धयोग्य एक सौ बारह हैं। गुणस्थान चार होते हैं। मिथ्यादृष्टीमें नरकद्विक नरकायुका अभाव होनेसे
व्युच्छिन्ति तेरह, बन्ध एक सौ सात क्योंकि 'मिथ्यात्व और सासादनमें देवचतुष्क और ३. तीर्थकरका वन्ध नहीं होता असंयतमें होता है। इस नियमके अनुसार पाँच अबन्धमें हैं।
सासादन में व्युच्छित्ति तियगायुके बिना चौबीस, बन्ध चौरानबे, अबन्ध अठारह । असंयतमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१०७
करणन ५ सूक्ष्मसांपरायन १६ अन्तु ७४ प्रकृतिगळप्पुवप्पुवरदं बंघप्रकृतिगळु ७५ बप्पूवैते दोड सुरचतुष्कमं तीर्थं मुमनसंयतं कट्टुगुमप्पुदरिनवं कूडिदोड वप्पुदरिवं । अबंधप्रकृतिगळोळा ५ प्रकृतिगळं कळं दु ३७ प्रकृतिगळप्पु ॥ सयोगभट्टारकनोळ बंधव्युच्छित्ति १ बंधप्रकृति १ अबंधप्रकृतिगळु १०१ । मुंदे वेदमार्गणे मोवल्गोंडु आहारमार्गणे पय्यंतमाद १० मारगंणास्थानंगळोळ तु मत्ते स्वस्वगुणस्थानंगळोळ पेळद साधारणकथनमक्कु । मल्लि स्त्रीवेदिगळगे बंघयोग्यप्रकृतिगळु १२० गुणस्थानंगळु ९ बंधव्युच्छित्ति मि१६ । सा २५ । मि० । अ१० । ३४ । प्र ६ । अ१ । अ३६ । क्षपकानिवृत्तिकरणप्रथमसवेद भागेय द्विचरमबोळ पुंवेद १ चरमसमयबोळ, शून्यं बंधप्रकृतिगळ मि ११७ । सा १०१ । मि ७४ । अ ७७ । वे ६७ । प्रमत्तनोळु ६३ व ५९ । अनिवृत्तिकरणसवेद भागेय द्विचरमसमयदोळ २२ । चरमसमयबोळ २१ । अबंधप्रकृतिगळु मि ३ । सा १९ । मि ४६ । अ ४३ । वे ५३ । प्र ५७ | अ ६१ । अ ६२ अनिवृत्तिकरणसवेदभागेय द्विचरमबोळ ९८ । चरम- १० समयबोळ ९९ । स्त्रीवेदिनिर्वृत्य पर्याप्तकरुगळगे योग्यप्रकृतिगळ १०७ एंते बोर्ड आयुश्चतुष्टयं
अनिवृत्तिकरणस्य ५ । सूक्ष्मसांपरायस्य १६ । एवं ७४ । बन्धः ७५ । सुरचतुष्कतीर्थबन्धात् । अबन्धः ३७ । सयोगे व्युच्छित्तिः १ । बन्धः १ । अबन्धः १११ । तु पुनः अग्रे वेदाद्याहारपर्यन्तदशमार्गणासु स्वस्वगुणस्थानोक्तसाधारणकथनमेव । तत्र स्त्रीवेदिनां बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि ९ । व्युच्छित्तयः – म १६ सा २५ | मि ० । अ १० । ४ । ६ । अ १ । अ ३६ क्षपकानिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागद्विचरमसमये १५ पुंवेदः १ । चरमसमये शून्यम् ० । बन्धाः - मि ११७ । सा १०१ । मि ७४ । अ ७७ | दे ६७ । प्र ३६ ॥
५९ । ५८ | तत्सवेदभागद्विचरमसमये २२ । चरमसमये २१ । अबन्धाः - मि ३ । सा १९ । मि ४६ । अ ४३ | दे ५३ | प्र ५७ ॥ अ ६१ | अ६२ | सवेदभागद्विचरमसमये ९८ । चरमसमये ९९ । तन्निर्वृत्य
व्युच्छित्ति मनुष्यायुके बिना अपनी नौ, देशसंयतकी चार, प्रमत्तकी छह, अप्रमत्तकी देवायु यहाँ नहीं है, अपूर्वकरणकी आहारकयुगलके बिना चौंतीस, अनिवृत्तिकरणकी पाँच, सूक्ष्म २० साम्परायकी सोलह, इस प्रकार सब चौहत्तर । बन्ध पिचहत्तर क्योंकि देवचतुष्क और तीर्थकर बँधती है । अबन्ध सैंतीस । सयोगिमें व्युच्छित्ति एक बन्ध एक, अबन्ध एक सौ ग्यारह । आगे वेदमार्गणासे लेकर आहार मार्गणापर्यन्त दस मार्गणाओंमें अपने-अपने गुणस्थानमें कहा साधारण कथन ही जानना ।
स्त्रीवेदियों के बन्धयोग्य एक सौ बीस, गुणस्थान नौ । स्त्रीवेदीनिर्वृत्यपर्याप्तकोंके बन्ध - २५ योग्य एक सौ सात; क्योंकि चारों आयु, तीर्थकर, आहारद्विक और वैक्रियिकषट्कका बन्ध नहीं होता। इसमें असंयत गुणस्थान नहीं होता ।
कार्मणका योग ११२ मि. सा. अ. सयो.
स्त्रीवेद १२० बन्धयोग्य स्त्री. निर्वृत्य १०७ मि. सा. मि. अ. दे. प्र. अ. अपू. अनि. १६ २५ ०१० ४ ६ १ ३६ १ ११७ १०१ ७४ ७७६७३६५९ ५८ २२ १९ ४६ ४३ ५३ ५७६१ ६२ ९८
मि. सा. १३ २४ ३०
व्यच्छित्ति १३२४ ७४ १ बन्ध १०७९४७५ १ अबन्ध ५ १८३७ १११ ३
१.७ ९४
०
१३
स्त्रीवेद नौवें गुणस्थानके सवेदभागपर्यन्त होता है । अतः क्षपक अनिवृत्तिकरणके प्रथम संवेद भागके द्विचरम समय में एक पुरुषवेदकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है। तथा बन्ध
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१०
१५
१०८
गो० कर्मकाण्डे
तत् १ | आहारद्वयं २ वैक्रियिकषट्क ६ मन्तु १३ प्रकृतिगळकळे दुखप्पदरिवं :स्त्री = = निर्वृत्यपर्याप्त सा २४ ९४ १३ १३ | १०७ ७
ई रचने सुगममें वोडे स्त्रीवेदिनिवृत्य पर्य्याप्तका संयतं घटिसने बिनिते विशेषमप्पुवरिवं ॥ बंढवेदिगगेयुं बंधयोग्यप्रकृतिगळ १२० गुणस्थानगळं स्त्रीवेदिगळोळपेवंते ९ अप्पबु । गमनिर्कयुमा प्रकारमेयक्कु मी षंढवेदिगळोळ, निवृत्यपर्याप्तकोरोल विशेषमंटवाउवे बोर्ड योग्य५ प्रकृतिगळु नरेंदु १०८ । गुणस्थानंगळ अध्वु ।
पं. निर्वृत्य०
९ ७१ ३७
२४ ९४ १४ १३ १०७ १ तोर्थ
ईरच सुगम तें दोडे नरकगतिय असंयतनोळ् तोत्थंबंधमुंटे बिनिते विशेषमप्पुर्वारंवं । षंढवेदिलब्ध्यपर्याप्तकमिथ्यादृष्टिगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०९ तीर्थमं कळेवु तिर्य्यग्मनुष्यायुर्द्वयमं पर्याप्तानां बन्धयोग्यं १०७ । कुतः ? मायुश्चतुष्कतीर्थाहारद्वय वै क्रियिकषट्कानामबन्धात् । संदृष्टि :
:
स्त्री पर्याप्त १०७
९४ १३
मि १३ १०७ ०
सा २४
अत्र संयतो न संभवति ।
षंढवेदिनां बन्धयोग्यम् १२० । गुणस्थानानि गमनिका च स्त्रीवेदिवत् । तन्निर्वृत्यपर्याप्ते तु बन्धयोग्य मष्टोत्तरशतम् । १०८ । तल्लब्ध्यपर्याप्त कबन्धात्तिर्यग्मनुष्यायुषी अपनीय नारकासंयतापेक्षया तीर्थबन्धस्यात्र क्षेपात् गुणस्थानानि ३ । संदृष्टि:
अ
सा
९
२४
पर्याप्त 01
७१
अ
सा
३७
४९ /
१४
मि १३
१०७ १ तीर्थ
बाई और अबन्ध अठानबे का होता है । तथा चरम समय में व्युच्छिति शून्य, बन्ध इक्कीस और अबन्ध निन्यानबे का होता है ।
नपुंसक वेदियोंके बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं । गुणस्थान तथा रचना स्त्रीवेदीकी तरह जानना । नपुंसकवेदी निर्वृत्यपर्याप्त में बन्धयोग्य एक सौ आठ हैं। क्योंकि लब्ध्यपर्याप्त के बन्धयोग्य एक सौ नौ प्रकृतियों में से तिर्यञ्चायु मनुष्यायु घटाकर तीर्थंकरको मिलानेसे एक सौ आठ होती हैं क्योंकि नरक में चतुर्थगुणस्थान में तीर्थंकरका बन्ध होता है । गुणस्थान तीन
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१०९
कर्णाटवृत्ति जावतत्त्वप्रदीपिका कटुगुमप्परिदमा प्रकृतिद्वयं कूडिदुवैबुदत्थं । पुवेदिगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ १२० बंधव्युच्छित्ति. गळ मि १६ सा २५ मि ० । अ १०। वे ४ प्र६ अ १ अ ३६ । क्षपकानिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागचरमसमयदोळ पुंवेदं १ व्युच्छित्तियककुं। बंधप्रकृतिगळ मि ११७ । सा १०१। मि ७४ । अ ७७ । वे ६७ । प्र ६३ अ ५९ अ ५८ । क्षपकानिवृत्ति प्रथमसवेदभागचरमसमयपर्यंतं बंधप्रकृतिगळु २२ । अअबंधप्रकृतिगळ मि३। सा १९ । मि ४६ । अ ४३। वे ५३। प्र५७ । अ ६१ । । अ ६२ । क्षपकानिवृत्तिप्रथमसवेदभागचरमसमयपय्यंत १८
पंवेविनिर्वत्यपर्याप्तकरगळ्गे गतित्रयजरुगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ११२। गुणस्थानत्रितयमुमक्कुं।
पुं० नित्यपर्याप्तक
९
७५ । ३७
२४
१३ १०७५
ई रचनेयु सुगममते दोडे असंयतनोळु तीत्थंमु सुरचतुक बंधमंटप्पुरिदमा प्रकृतिपंचकमसंयतन बंधप्रकृतिगळोळकूडिदुर्वेबिनिते विशेषमप्पुरि, स्त्रीवेदवोळं षंढवेदवोळं तीर्थ- १० बंधमुमाहारकद्वयबंधमुं विरोधिसल्पडदु । तोर्योदयमेतु परमोत्कृष्टविशुखरोळुदयिसुगुमंते
पुवेदिनां बन्धयोग्यम् १२० । व्युच्छित्तयः-मि १६ । सा २५ । मि ० । 4 १० । दे ४ । प्र ६ । अ१।ब ३६ । क्षपकानिवृत्ति करणप्रथमभागचरमसमये पंवेदः १। बन्धाः -मि ११७ । सा १०१। मि ७४ । अ ७७ । ३६७ ।। ६३ । अ५९ । अ ५८। तत्प्रथमभागचरमसमयपर्यन्तम् २२ । अबन्धाः -मि ३ । सा १९ । मि ४६ । स ४३ । दे ५३ । ५७ । भ६१। अ६२ । तत्प्रथमभागचरमसमयपर्यन्तम् ९८ । १५ सन्नित्यपर्याप्तानां नारकं विना त्रिगतिजानामेव बन्धयोग्यम ११२ । गुणस्थानत्रयम् । संदष्टिः
निर्वृत्त्यपर्याप्त।
३७
सा
२४
९४
१८
मि
१३ १०७ ।
हैं। पुरुषवेदियोंके बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं। उनके नित्यपर्याप्त अवस्थामें नारकको छोड़ शेष तीन गतिवाले जीवोंके ही वन्धयोग्य एक सौ बारह हैं । गुणस्थान तीन हैपुरुषवेद बन्धयोग्य १२०
पु. निवृ. ११२ नपुं. निवृ.१०८ मि. सा. मि. अ. दे. प्र. अप्र. अपू. अनि. मि. सा. अ. मि. सा. अ. २० व्य. १६ २५ ०१० ४ ६ १३६ १ १३ २४ ९ १३ २४ ९ । बन्ध ११७ १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५९ ५८ २२ १०७ ९४ ७५ १०७ ९४ ७१ अबन्ध ३ १९ ४६ ४३ ५३ ५७ ६१ ६२ ९८ ५ १८ ३७ १ १४ ३७
पुरुषवेदनिर्वृत्यपर्याप्तकोंके असंयतमें तीर्थकर और मुरचतुष्क बन्ध होता है इतना विशेष जानना । स्त्रीवेद नपुंसकवेदमें भी दीर्थकर और अहारकद्विकके बन्धमें कोई विरोध २५ नहीं है, किन्तु इनका उदय नियमसे पुरुषवेदन ही होता है।
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११०
गो० कर्मकाण्डे आहारकऋद्धियं स्त्रीषंढवेविगळोदयमिल्ल ॥ कषायमागणेयोळु बंधयोग्यप्रकृतिगळ. १२० । गुणस्थानंगळु क्षपकानिवृत्तिकरणद्वितीयतृतीय चतुर्थ पंचमभागंगळु पयंत क्रोधमानमायाबावरलोभंगळगे ९ गुणस्थानंगळप्पुवु। सामान्यगुणस्थानदोळपेन्दंते गमनियरियल्पडुगुं ॥ सूक्ष्म
लोभिगे सूक्ष्मसापरायगुणस्थानमयक्कुं। ज्ञानमार्गणयोक कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानिगळ्गे बंधयोग्य५ प्रकृतिगळ, ११७ गुणस्थानद्वितयमेयक्कुं।
कु कु विभंग सा । २५ १०१ । १६ । मि| १६ ११७ / ०
मतिश्रुतावधिज्ञानिगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु तोत्थं आहारकद्वितयं सहितमागि ७९ प्रकृतिगळप्पुवु । एते दोडे मिथ्यादृष्टिसासादनरोळ ४१ प्रकृतिगळुळिवप्पुरिदं । गुणस्थानंगळुमसंयतादि ९ अप्पुवल्लि बंधव्युच्छित्तिगळ अ १० । दे ४ । प्र.६ । अ १ । अ ३६ । अ५। स १६ । उ ।
अत्रासंयते तीर्थसुरचतुष्कयोर्बन्धोऽस्तीति ज्ञातव्यम् । स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबन्धो न विरुध्यते १. उदयस्यैव पुवेदिषु नियमात् ।
कषायमार्गणायां बन्धयोग्यम् १२० । गुणस्थानानि क्षपकानिवृत्तिकरणद्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमभागपयंतानि क्रोधमानमायावादरलोभानां गमनिका च सामान्यगुणस्थानोक्तैव । सूक्ष्मलोभस्य सूक्ष्मसापरायगुणस्थानमेव । ज्ञानमार्गणायां कुमतिकुश्रुतविभंगानां बन्धयोग्यम् ११७ । गुणस्थानद्वयं । संदृष्टि :
कु-कु-विभंगाः।
। २५
१६
११७
मतिश्रुतावधिज्ञानिनां बन्धयोग्याः ७१ । मिथ्यादृष्टिसासादनव्युच्छित्ति ४१-प्रकृत्यभावात् । गुण१५ स्थानानि असंयतादीनि ९ तत्र व्युच्छित्तयः-अ १० । दे ४ । प्र६ । अ१। अ ३६ । अ५ । सू १६ ।
. कपायमार्गणामें बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं। क्रोध, मान, माया और लोभके गुणस्थान क्रमसे क्षपक अनिवृत्तिकरणके द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम भाग पर्यन्त जानना।
बन्धादि तीन सामान्य गुणस्थानवत् जानना । सूक्ष्मलोभमें सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान ही २. होता है। ज्ञानमार्गणामें कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञानके बन्धयोग्य एक सौ सतरह हैं। गुणस्थान दो हैं।
कु. कु. निभ. ११७
मि. सा. बन्ध व्य. १६ २५ बन्ध ७ ११७ १०१
अबन्ध ० १६ __ मति श्रुत अवधिज्ञानियों के बन्धयोग्य उन्यासी हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि और सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली इकतालीस प्रकृतियोंका अभाव है। गुणस्थान असंयतसे लेकर नौ होते
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१११ क्षी । बंधप्रकृतिगळ अ० ७७ । अबंध २। दे बंध ६७ । अबंध१२। प्रमत्त बंध६३ । अबंध १६ । अप्रमत्त बंध ५९ । अबंध २० । अपूर्वकरण बंध ५८। अबंध २१ । अनिवृत्ति बंध २२ । अबंध ५७ । सू० बंध १७ । अबंध ६२। उपशांतकषाय बंध १ अबंध ७८। क्षीण बंध १ अबंध ७८॥ मनःपर्ययज्ञानिगळु बंधयोग्यप्रकृतिगळो ६५ ॥ प्रमत्तसंयतादिसप्तगुणस्थानंगळुमप्पुवु
मनःपय्यंय
:
सू । १६
1960
ई ग्चनेयु सुगममेकदोडे मनःपर्ययज्ञानिगळ, आहारकऋद्धिप्राप्तरिल्लदै तदबंधमप्रमत्तापूर्वकरणरोळंटे बिनिते विशेषमप्पुरिदं ॥
केवलज्ञानमारगंणेयोळु सातमोदे बंधमक्कुं। सयोगायोगिगुणस्थानद्वितयमुं सिद्धपरमेष्ठिगळमप्परु ॥ संयममागणयोळ असंयमबंधयोग्यप्रक्रतिगळ ११८ गुणस्थानंगळं मिथ्यादृष्टपादि
उ • 1 क्षी ० । बन्धाबन्धी च-अ ७७ । २। दे ६७ । १२ । प्र ६३ । १६ । अ ५९ । २० । अ५८ । २१ । १० अ २२ । ५७ । स १७ । ६२ । उ१ । ७८ । क्षी १ । ७८। मनःपर्ययज्ञानिनां बन्धयोग्याः ६५ । प्रमत्तादिसप्तगुणस्थानानि । सं
मनःपर्यय
अत्राहारकद्वयोदय एव विरुध्यते नाप्रमत्तापूर्वकंकरणयोस्तद्वन्धः । केवलज्ञानिषु सातस्यैव बन्धः । सयोगायोगगुणस्थानद्वयं सिद्धाश्च संति । संयममार्गणायां असंयमस्य बन्धयोग्यं ११८ गुणस्थानानि आद्यान्येव १५ हैं। मनःपर्ययज्ञानियोंके बन्धयोग्य पैंसठ हैं। प्रमत्त आदि सात गुणस्थान होते हैं। मन:पर्ययका आहारकद्वयके उदय के साथ हो विरोध है, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमैं होनेवाले उनके बन्धके साथ विरोध नहीं है। केवलज्ञानियों के एक साताका ही बन्ध होता है । सयोग और अयोग ये दो गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञान सिद्धोंके भी होता है।
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११२
चतुर्गणस्थानंगळपुतु :
१५
चत्वारि । संदृष्टि
--
रचने सुगमक्कुते दोडे असंयतगे तोथंमुळे मनुष्यायुष्यमुळे मिश्रन अबंधदोळकळे असंयतनोळकूडिदुवे बिनिते विशेषमवरि ॥
वेशसंयमक्के वेशसंयत गुणस्थानदोळे तंतेयवकुं । बंध व्यु ४ नं ६७ अ १२ ॥ सामायिक५ च्छेदोपस्थानद्वयक्के बंधयोग्यप्रकृतिगळ, ६५ अप्पूर्वेतेंबोडे ई संयमद्वयवोळ, तीत्यमुमाहारकद्वितयमुं बंधटप्पुवरिवं गुणस्थानचतुष्टयमुमक्कुं ।
सा०
छे०
२२ ४३
७
अ मि
गो० कर्मकाण्डे
सा
मि
अ
मि
सा
मि
अ
अ
अ
प्रमत्त
airnes
१०
४१
० ७४ ૪૪
२५१०११७
१६ ११७ १
असंयमस्य रचना
१०
७७
०
७४
THE
२५
१०१
१६ ११७
५
३६
१
६
अ ५
अ
अ
छे
x
अत्र तीर्थदेवमनुष्यायूंषि मिश्रस्य अवन्यादसंयते निक्षिप्तानीति ज्ञातव्यम् । देशसंयमस्य देशसंयत१० गुणस्थानवत् व्युच्छित्तिः ४ । बन्धः ६७ । अवन्धः ५३ । सामायिकछेदोपस्यापनयोबन्धयोग्याः ६५ | अत्र तीर्थाहारद्विबन्धो गुणस्थानचतुष्कं । सं-
सा
6.6
३६ ५८
१ ५९
६
६३
२२
५८
५९
६३
४१
४४
१७
१
६५
मति श्रुत. अवधि ७९ बन्धयोग्य
मन:पर्यय ६५ बन्धयोग्य
असं. दे. प्र. अ. अपू. अनि. सू. उ. क्षी. ३६ ५ १६ O ० बन्ध व्यु. १० ४ ६ १ बन्ध ७७ ६७ ६३५९ ५८ २२ १७ १ १ अबन्ध २ १२ १६ २० २१५७ ६२ ७८ ७८
प्र. अ. अपू. अनि. सू. उ. क्षी. ६ १ ३६ ५ १६ ० ० ६३५९ ५८ २२ १७ १ १ २ ६ ७ ४३ ४८ ६४ ६४
संयममार्गणा में असंयम में बन्धयोग्य एक सौ अठारह, आदिके चार गुणस्थान होते हैं, यहाँ तीर्थकर, देवायु और मनुष्यायुका मिश्रगुणस्थान में बन्ध नहीं होनेसे असंयत गुणस्थान में उनका निक्षेप किया है। देशसंयम में देश संगत गुणस्थानकी तरह व्युच्छित्ति चार, २० बन्ध सड़सठ और अबन्ध तिरपनका है । सामायिक और छेदोपस्थापना में बन्धयोग्य पैंसठ हैं। यहाँ तीर्थंकर और आहारकद्विकका बन्ध होता है । गुणस्थान चार होते हैं ।
४३
६
२
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११३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका परिहारविशुद्धिसंयमवोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळ ६५ अअप्पुवे ते दोर्ड तीर्थमाहारकद्वितयमुमोसंयमदोळं बंधमंटु आहारकऋद्धि संभविसदें बुदत्यं । गुणस्थानद्वितयमेयक्कुं:
परिहार शु.
सूक्ष्मसापराय संयमदोळ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळेततैयक्कुं। बंधव्युच्छित्ति १६ । बं १७ । अ ६२ ॥ यथाख्यात संयमदो बंधयोग्यप्रकृति सातमो वेयकहुँ गुणस्थानचतुष्टयमुमक्कु
यथाख्यात
परिहारविशुद्धिसंयमे बन्धयोग्याः ६५ । अत्र तीर्थाहारकद्विकबन्धोऽस्ति नाहारकधिः । गुणस्थानद्वयं
परिहारविशुद्धि ६५
अप्र
५९
प्रमत्त
६३
सूक्ष्मसांपरायसंयमे सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानवत् व्यु-१६ । बं १७ । अ १०३ । यथाख्यातसंयमे बन्धयोग्यं सातमेव गुणस्थानचतुष्कं । सं
यथाख्यात
परिहार विशुद्धि संयममें बन्धयोग्य पैंसठ हैं। यहाँ तीर्थकर और आहारकद्विकका बन्ध होता है। किन्तु आहारंक ऋद्धि नहीं है। असंयम बन्धयोग्य ११८ सामा. छे. ६५
परि. वि. ६५ मि. सा. मि. असं. प्र. अ. अपू. अनि. प्र. अप्र. व्य. १६ २५ ० १०
६ १ बन्ध ११७ १०१ ७४ ७७ ६३ ५९ ५८ २२ अबन्ध १ १७ १४ ४१ २ ६ ७ ४३
सूक्ष्मसाम्पराय संयममें सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके समान व्युच्छित्ति सोलह, बन्ध १५ सतरह, अबन्ध एक सौ तीन जानना। यथाख्यात संयममें बन्धयोग्य एक साता है। गुणस्थान चार अन्तिम हैं।
क-१५
.
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११४
गो० कर्मकाण्डे दर्शनमागणेयोळ चक्षुरचक्षुद्देर्शनद्वयक बंधयोग्यप्रकृतिगळ १२० अप्प। गुणस्थानगळ मिथ्यादृष्टयादि १२ अप्पुवु । इल्लि गुणस्थानसामान्यदोळतंत बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिगळरियल्पडुगुं। अवधिदर्शनक्के बंधयोग्यप्रकृतिगळु अवधिज्ञानदोळ्पेळ्दंते योग्यप्रकृतिगळ ७९ गुणस्थानंगळं असंयतादि ९ अप्पुवु । केवलदर्शनक्के केवलज्ञानक्के पेळ्दंतैयक्कुं। . ___लेश्यामार्गणेयोळ कृष्णनीलकपोतंगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळ, ११८ अप्पुषे ते दोर्ड असंयतनोळु तीथंबंधमंटु। आहारकद्विकमे कळे दुबुदत्थं । गुणस्थानंगळ, मिथ्यादृष्टयादिचतुर्गुणस्थानंगळप्पुवु । बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधगमनिकयु गुणस्थानदोळपेन्द सामान्यकथनमेय क्कुं। तेजःपद्मशुक्ललेश्येगळ्गे गाथाद्वयदिदं बंधयोग्यप्रकृतिगळं पेळ्दपर।
णवरि य सव्वुवसम्मे परसुरआऊणि पत्थि णियमेण । मिच्छस्संतिमणवयं वारं ण हि तेउपम्मेसु ।।१२०॥ सुक्के सदरचउक्कं वामंतिमबारसं च ण च अस्थि ।
कम्मेव अणाहारे बंधस्संतो अणंतो य ॥१२१॥ नवीनं च सर्वोपशमसम्यक्त्वे नरसुरायुषी न स्तः नियमेन । मिथ्यादृष्टेरंत्यनावकं द्वादश च न हि तेजःपद्मयोः॥
शुक्ले शतारचतुष्क वामांत्यद्वादश च न च संति । कार्मणे इव अनाहारे बंधस्यांतोऽ. नंतश्च ॥
तेजोलेश्येयोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळु १११ अप्पुर्वतेंदोडे मिथ्यादृष्टिय कडेय सूक्ष्मत्रयादि नवप्रकृतिगळ कळे दु तावन्मानं गळप्परिवं । अल्लि गुणस्थानंगळ मिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तावसान
दर्शनमार्गणायां चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोर्बन्धयोग्यम् १२० । मिथ्यादृष्ट्यादिद्वादशगुणस्थानोक्तबन्धाबन्धव्यच्छित्तयो ज्ञातव्याः । अवधिदर्शने अवधिज्ञानवद्बन्धयोग्याः ७९ । गुणस्थानानि असंयतादीनि ९ । केवलदर्शने केवलज्ञानवत । लेश्यामार्गणायां कृष्णनीलकपोतानां बन्धयोग्यं ११८ आहारकद्विकाभावात् । गुणस्थानानि मिथ्यादष्टयादीनि चत्वारि बन्धाबन्धव्युच्छित्तयस्तद्वत् ॥११९॥ शुभलेश्यानां गाथाद्वयेनाह
तेजोलेश्यायां बन्धयोग्यं १११ मिथ्यादृष्टश्चरमसूक्ष्मत्रयादिनवानामभावात् । गुणस्थानानि आद्यान्येव
दर्शनमार्गणामें चक्षु अचक्षुदर्शनमें बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर २५ बारह गुणस्थानों में कहे अनुसार बन्ध, अबन्ध और व्युच्छित्ति जानना। अवधिदर्शनमें
अवधिज्ञानकी तरह बन्धयोग्य उनासी हैं। गुणस्थान असंयत आदि नौ हैं। केवल दर्शनमें केवलज्ञानकी तरह जानना।
लेश्यामार्गणामें कृष्ण नील कपोतमें बन्धयोग्य एक सौ अठारह हैं, आहारकद्विक नहीं है। गुणस्थान मिध्यादृष्टि आदि चार हैं। गुणस्थानोंकी तरह ही बन्ध अबन्ध और व्युच्छित्ति होती है ॥११९॥
शुभलेश्याओं में दो गाथाओंसे कहते हैं
तेजोलेश्यामें बन्धयोग्य एक सौ ग्यारह हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होनेवाली सोलह प्रकृतियों में से अन्तकी सूक्ष्मत्रिक आदि नौका अभाव है। गुणस्थान आदिके सात
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
११५ माद ७ गुणस्थानंगळप्पुवु । मि। व्यु ७। बं १०८ अ३। सासा. व्यु. २५ । बं १०१। अ१०। मि व्यु ० । बं ७४ । अब ३७ । असं व्यु १० । बं ७७ । 'अ बं ३४॥ देश सं व्यु ४। बंध ६७ । अ ब ४४ । प्रम व्यु ६ बंध ६३ । अ ब ४८॥ अप्र व्यु १ बंध ५९ । अब ५२ ॥ पद्मलेश्ययोळु बंधयोग्यप्रकृतिगळ १०८ अप्पुर्व ते दोडे वामन अन्त्यद्वादश प्रकृतिगळ कळ दुवप्पुरिदं । गुणस्थानंगळु ७ अप्पुवु । मि व्यु ४ बंध १०५ । अबं ३ ॥ सासा व्यु २५ । बंध १०१ । अब ७॥ ५ मिश्र व्यु । ० । बंध ७४ । अत्रं ३४ ॥ असं व्यु १० । बंध ७७ । अब ३१ ॥ देश व्यु ४ । बंध ६७ । अब ४१ ॥ प्रम व्यु ६ बंध ६३ । अयं ४५ ॥ अप्र व्यु १। बंध ५९ । अब ४९ ॥ शुक्ललेश्ययोळु बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०४ अप्पुवेत दोडे सासादननोळु शतारचतुष्टयमुं मिथ्यादृष्टियोळु एकेद्रियादि अन्त्यद्वादशप्रकृतिगळं कळेदोडे तावत्प्रमितंगळप्पुवापुरिदं । गुणस्थानंगळं १३ रप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोळ व्यु ४ । बंध १०१ । अब ३॥ सासा व्य २१ । बंध ९७ । अब ७॥ मिश्र व्यु ०। १० बंध ७४ । अब ३०॥ असं व्यु १०। बंध ७७ । अब २७॥ देश व्यु ४ बंध ६७। अब ३७॥ प्रम व्य ६ बंध ६३। अब ४१। अप्रव्य १। बंध ५९ । अब ४५ ॥ अप्र व्य १। बंध ५९ । अब ४५ ॥ अपूर्व व्यु ३६ । बंध ५८ । अब ४६ ॥ अनि व्य ५ । बंध २२ । अब ८२॥ सूक्ष्म व्यु १६ । बंध १७ । अब ८७॥ उप व्यु ०। बंध.१ । अब १०३ ॥ क्षीण व्यु ० । बंध १ । अब १०३ ॥
सप्त। मि व्य-७ । बं १०८ । अ३। सा-व्य २५ । बं १०१ अ १० । मि व्यु-०। बं ७४ । अ ३७ । १५ अ व्यु-१० । वं ७७ । अ ३४ । दे व्यु-४। बं ६७ । अ ४४ । प्र व्यु-६ । बं ६३ । अ ४८ । अ व्यु-१ । बं ५९ । अ५२ । पद्मलेश्यायां बन्धयोग्यं १०८, वामस्यान्तद्वादशानामभावात् । गुणस्थानानि ७ । मि व्यु-४ । बं १०५ । अ ३ । सा-व्यु २५ । बं १०१ । अ ७ । मि व्यु-० । बं ७४ । अ ३४ । अ व्यु १० । बं ७७ । अ ३१ । दे व्यु-४ । बं ६७ । अ ४१ । प्रव्यु-६ । बं ६३ । अ ४५ । अ व्यु-१ । बं ५९ । अ ४९ । शुक्ललेश्यायां बन्धयोग्यम् १०४ । सदरच उक्कं मिथ्यादृष्टये केन्द्रियाद्यन्त्यद्वादश च नहि । गुण- २० स्थानानि १३ । तत्र मि व्यु-४ । बं १०१ । अ३। सा व्यु-२१ । बं ९७ । अ ७ । मि व्यु-० । बं ७४ । अ ३० ! अ व्यु १० । बं ७७ । अ २७ । दे व्यु-४ बं ६७ । अ ३७ । प्र व्यु-६ । बं ६३ । अ ४१ । अ व्यु-१ । बं ५९ । अ ४५ । अ व्यु-३६ । बं ५८ । अ ४६ । अ व्यु-५ । बं २२ । अ ८२ । सू व्यु १६ । होते हैं। पद्मलेश्यामें बन्धयोग्य एक सौ आठ हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंमें-से अन्तिम बारहका अभाव है । गुणस्थान सात होते हैं ।
तेजोलेश्या बन्धयोग्य १११ पद्मलेश्या बन्धयोग्य १०८ ।
मि. सा. मि. असं. दे. प्र. अप्र. मि० | सा. | मि.असं. दे. । प्र. बं. व्यु. ७ २५ ० १० ४ ६ १ - ४ | २५ /
बन्ध १०८१०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५९ १०५ १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५९ अबन्ध ३ | १० ३७ ३४ ४४ ४८ ५२ ३ | ७ ३४ ३१ ४१ | ४५ ४९
शुक्ललेश्यामें बन्धयोग्य एक सौ चार। क्योंकि शतारचतुष्क और मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंमें-से अन्तको एकेन्द्रिय आदि बारह नहीं होतीं। गुणस्थान तेरह है। रचना इस प्रकार है
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११६
गो० कमकाण्डे सयो व्य १ । बंध १। अब १०३ ॥
भव्याऽभव्यमार्गणाद्वयदोळ मोदल भव्यमार्गयोळु बंधयोग्यप्रकृतिगळु १२० गुणस्थानंगळ १४ अप्पुवल्लि । मि बंधव्युच्छि १६ बं ११७ । अब ३॥ सा व्यु २५ । बं १०१ । अ १९ ॥
मि व्यु । बं ७४ । अ ४६॥ असं व्यु १० । बं ७७ । अ ४३ ॥ देश व्यु ४ । बं ६७ । अ ५३ ॥ ५ प्रम व्यु ६ । बं ६३ । अ ५७ ।। अप्र व्यु १ । बंध ५९ । अ ६१ ॥ अपू व्यु ३६ । बं ५८ । अ ६२॥
अनिवृत्ति व्यु ५ । बं २२। अ ९८ ।। सूक्ष्म व्यु १६ । बं १७। अ १०३ ॥ उप व्यु ०। बं१। अ ११९ ॥ क्षीण व्यु शून्य ० । बं १। अ ११९ ॥ सयोग व्यु १ । 'बं १। अ ११९ ॥ अयोगि व्यु ० । बं । अ १२०॥ अभव्यमार्गणयो बंधयोग्यप्रकृतिगळ ११७ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं नियमदिद मों देयक्कुं॥
____सम्यक्त्वमार्गयोळ प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळु ७७ अप्पुतेंदोडे मिथ्यादृष्टिसासादनरुगळ व्युच्छित्तिप्रकृतिगळ ४० । णवरि य सव्वुवसम्मे परसुर आऊणि णत्थि णियमेण एंदितु सम्यग्दृष्टिगळगे तिर्यग्मनुष्यगति गळोळु परभवबंधयोग्यमापदेवायुष्य, नरकदेवगतिगळोळु परभवबंधयोग्यमप्प मनुष्यायुष्यमुमुभयोपशमसम्यक्त्वदोळ बंधयोग्यंगळल्लप्पुरिदमा
यरडुमायुष्यंगळं कूडि ४३। प्रकृतिगळु कळे दुवप्पुरिदं तावन्मानं गळेयप्पुवु। गुणस्थानंगळु १५ बं १७ । अ ८७ । उ व्यु ० । बं १ । अ १०३ । क्षी व्यु ० । बं १ । अ १०३ । स व्यु १। बं १ । अ १०३ ।
भव्यमार्गणायां बन्धयोग्यम् १२० । गणस्थानानि १४ । तद्रचनासामान्यगुणस्थानोक्तवज्ज्ञातव्या। अभव्यमार्गणायां बन्धयोग्यप्रकृतयः ११७, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । सम्यक्त्वमार्गणायां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे बन्धयोग्याः ७७ । मिथ्यादृष्टिसासादनव्युच्छित्तेः ४१ । तथा णवरिय सव्वुवसम्मे परसुरआऊणि णत्थि णियमेणेति
उपशमसम्यग्दृष्टीनां तिर्यग्मनुष्यगत्योर्दैवायुषोनरकदेवगत्योर्मनुष्यायुषश्चाबन्धादुभयोपशमसम्यक्त्वे तवयस्याप्य२० भावात् गुणस्थानानि असंयतादीनि चत्वारि ।
शुक्ललेश्या बन्धयोग्य १०४ मि. सा. मि. असं. दे. प्र. अप्र. अपू. अनि. सू. उ. क्षी. स. व्युच्छित्ति ४ २१ ० १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ ० ० १ बन्ध १०१ ९७ ७४ ७७ ६७ ६३ ५९ ५८ २२ १७ १ १ १ अवन्ध ३ ७ ३० २७ ३७ ४१ ४५ ४६ ८२ ८७ १०३ १०३ १०३
भव्यमार्गणा में बन्धयोग्य एक सौ बीस । गुणस्थान चौदह । उसकी रचना सामान्य गुणस्था नवत् जानना । अभव्यमार्गणामें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ सतरह और केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है।
सम्बक्त्यमार्गणामें प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें बन्धयोग्य सतहत्तर हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि २५ और सासादनकी व्युच्छित्ति इकतालीस, तथा यद्यपि सम्यग्दृष्टिके तिर्यञ्चगति और मनुष्य
गतिमें देवायुका तथा नरकगति और देवगतिमें मनुष्यायुका बन्ध होता है तथापि उपशम सम्यग्दृष्टि के दोनों ही उपशमसम्यक्त्वोंमें इन दोनों आयुका बन्ध नहीं होता । गुणस्थान असंयत आदि चार । असंयत आदि तीन गुणस्थानों में तीर्थकरका बन्ध होता है । अप्रमत्तमें
तीर्थकर और आहारकद्विकका बन्ध होता है द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें भी बन्धयोग्य सत्तर ३० हैं। गुणस्थान आठ । रचना इस प्रकार है
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तादिचतुर्गुणस्थानं गळप्पुवु
अ
व्युच्छित्ति ९
बन्ध
७५
अबन्ध
प्र
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
प्रथ० अ ०
ईरचनेयं सुगममेंतेंदोडे प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं तीर्त्यमुमाहारकद्वयमुं बंधमुंटे बी पक्षदो असंयतादिगुणस्थानत्रयदोळु तीत्थंबंधमुमप्रमत्तगुणस्थानदोळ तीर्थमुमाहारकद्वितयमुं बंधमक्कु बिनिते विशेषमप्प दरिदं ॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळ बंधयोग्य प्रकृतिगळु ७७ अप्पू । गुणस्थानंगळ ८ वल्लि श्रेण्यवरोहणाऽसंयतंगे बंधव्युच्छित्तिगळ ९ । बं ७५ । अबंधप्रकृतिगळाहार २ श्रेण्यवरोहण देशसंयतंगे बंधव्युच्छित्ति ४ । बं ६६ । अ ११ श्रेण्यवरोहण प्रमत्त संयतंगे ५ बंधयुच्छसि ६ । बं ६२ । अ १५ ।।
।
दे
अ
असं. दे. प्र. अप्र.
४ ६ ०
६६ ६२५८
२ ११ १५ १९
अ
प्रथमोपश. ७७
०
प्रथम० सम्यक्त्वं
६
सम्यक्त्व
५८
१९
६२
१५
६६ ११
२
४
४
९ ७५
९
५८
६२
६६
७५
१९
१५
अत्र तीर्थाहारकद्विकबन्धपक्षे असंयतादित्रये तीर्थस्य बन्धः, अप्रमत्ते तीर्थाहारकद्विकयोश्च बन्धोऽस्ति । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वेऽपि बन्धयोग्याः ७७ । गुणस्थानानि ८ । तत्र श्रेण्यवरोहकासंयते व्यु ९ । बं ७५ । अबन्धः आहारकद्वयम् । देशसंयते व्यु ४ । बं ६६ । ११ । प्रमत्ते व्यु ६ । बं ६२ । अ १५ । आरोहका - रोहकाप्रमत्ते, व्यु ० । बं ५८ । अ १९ । व्यपूर्वकरणे व्यु ३६ । बं५८ । अ १९ । अनिवृत्तिकरणे व्यु ५ । २२ । ५५ । सूक्ष्मसांपराये व्यु १६ । बं १७ । अ ६० । उपशांतकषाये व्यु ० । बं १ । अ ७६ । अत्र |
१०
११
२
असं. दे. प्र.
९ ४ ६
११७
७५ ६६ ६२
२ ११ १५
द्वितीयोपश. ७७
अप्र. अपू. अनि. सू. उ.
०
३६ ५ १६ १
५८ २२ १७ १ १९ ५५ ६० ७६
५८ १९
असंयत और देशसंयत में जो प्रमत्तमें श्रेणिसे उतरकर नीचे आता है उसीकी अपेक्षा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। तथा प्रमत्तादि में श्रेणी चढ़ने व उतरनेकी अपेक्षा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पाया जाता है इससे इसमें गुणस्थान आठ होते हैं ।
शंका- जब प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें आयुबन्ध नहीं होता तो १५
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गो० कर्मकाण्डे
श्रेण्यारोहकावरोहकाप्रमत्तसंयतंगे बंध व्यु । बंध ५८ । अ १९ ॥ श्रण्यारोहकावरोहका पूर्वकरणंगे बंधव्युच्छित्ति ३६ । बं ५८ । अ १९ ॥ श्रप्यारोहकावरोहका निवृत्तिकरणंगे बंधव्युच्छित्ति ५ । बं २२ । अ ५५ ॥ आरोहकावरोहकसूक्ष्मसांपरायंगे बंधव्युच्छित्ति १६ । बं १७ । अ ६० ॥ उपशांतकषायंगे बंधव्युच्छित्ति । ० । बं १ | अ ७६ ॥ ई प्रथमद्वितीयोपशम५ सम्यक्त्वद्वयदोमायुबंध मिल्लप्पु दरिदंमारोहका पूर्व करण मरणरहितप्रथमभागमेंब विशेषणमनत्थंकमक्कु में देनल्वेडि येकेंदोडे प्राग्बद्धदेवायुष्यनप्प सातिशयाप्रमत्तसंयतंगे श्रण्यारोहणं संभविसुगु मप्पुर्दारदं ॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळ प्राग्बद्धायुष्यनादोडं तत्सम्यक्त्वकालमंतर्मुहूर्तपर्यंतं मरणं संभविसदु ॥ क्षायोपशमिकसम्यक्त्वदोळ बंधयोग्य प्रकृतिगळु ७९ अप्पुवैतेदोडे मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानद्वयबो ४१ प्रकृतिगळ, लिदुवपुर्दारिदं तावन्मात्रंगळेय । गुणस्थानंगळु म संयतादि१० चतुग्र्गुणस्थानंगळेयरपुवेकेंदोडे उपशमश्र णियोऴुपशममुं क्षायिकमुं मेणु क्षपकश्रेणियोळ, क्षायिक. सम्यक्त्वमेक्कु नियममप्पुरिदं । - वेदकसम्यक्त्व
११८
अ
अ
भ
अ
१
६
१०
१०
प्रथमद्वितीयोपशमसम्यक्त्वयोरायुरबन्धात् आरोहकापूर्वकरणप्रथमभागे मरणोन इति विशेषोऽनर्थकः ? इति न वाच्यं प्राग्बद्धदेवायुष्कस्यापि सातिशयाप्रमत्तस्य श्रेण्यारोहणसंभवात् । प्रथमोपशमसम्यक्त्वे तु प्राग्बाकस्यापि तत्कालान्तर्मुहूर्ते मरणासंभवात् । क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं मिथ्यादृष्टिसासादनव्युच्छित्त्य१५ संभवात् बन्धयोग्या ७९ । गुणस्थानानि असंयतादीनि चत्वारि एव । कुतः ? उपशमश्रेण्यां औपशमिक क्षायिक च, क्षपकश्रेण्यां क्षायिकमेव सम्यक्त्वमिति नियमात् ।
वेदकसम्यक्त्वं ७९
५९
६३
६७
६७
५९
६३
६७
७७ |
२०
१६
१२
२०
१६
१२
२ आ
२ आ
श्रेणि चढ़ते हुए अपूर्वकरणके प्रथम भागके साथ 'मरणूण' मरणसे रहित विशेषण क्यों लगाया ? यह विशेषण व्यर्थ क्यों नहीं है ?
समाधान - ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि जिसने पहले देवायुका बन्ध किया है. २० ऐसा सातिशय अप्रमत्त भी श्रेणि पर आरोहण कर सकता है । किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें और श्रेणी चढ़ते हुए अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथमभागमें जिसने पहले देवायुका बन्ध किया है उसका भी मरण नहीं होता अन्यत्र उपशमश्रेणिमें मरण हो सकता है ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिध्यादृष्टि और सासादन में होनेवाली व्युच्छित्ति प्रकृतियोंका अभाव होनेसे बन्धयोग्य उनासी हैं । गुणस्थान असंयत आदि चार ही होते हैं क्योंकि २५ उपशम श्रेणिमें औपशमिक क्षायिक और क्षपकश्रेणिमें क्षायिक ही सम्यक्त्व होनेका नियम
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
११९
ई रचनेयु सुगममेंतेंबोडे अप्रमत्तनोळु तीर्थमुमाहारकद्वयमुं बंधमक्कुमेंबिनिते विशेष
मदं ॥
५
क्षायिक सम्यक्त्वक्के बंधयोग्यप्रकृतिगळ, ७९ । अप्पुवल्लियु ४१ प्रकृतिगळकळे दुवप्पुदरिदं तावन्मात्रंगळेयवपुरिदं । गुणस्थानंगळमसंयताद्ययोगिकेवलिगुणस्थानावसानमाद गुणस्थानंगळु ११ अप्पु ॥ गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळोळ क्षायिक सम्यक्त्वमक्कु । असं व्यु १० । बं ७७ । अ २ आहारकं ॥ देशसंयतनल्लि व्यु ४ बं ६७ । अ १२ ॥ प्रम व्यु ६ । बं ६३ । अ १६ ॥ अप्रमत्त व्यु १ बं ५९ अ २० ॥ एकदोडाहारकद्वयं बंधदोळ्कूडिव दरिदं ॥ अपूर्व्वकरणंगे बंधव्युच्छित्ति ३६ बं ५८ । अ २१ ॥ अनि व्यु ५ । बं २२ । अ ५७ । सूक्ष्म व्यु १६ । बं १७ । अं ६२ ॥ उप । ० | १ | अब ७८ ॥ क्षीणकषाय । व्यु । ० । बं १ । अ ७८ ॥ सयोग व्यु १ । बं १ । अब ७८ ॥ अयोगिकेवलि भट्टारकंगे व्यु ० । बं ० । अब ७९ ॥ मिथ्यारुचिगळगे व्यु १६ । ब १० ११७ | अ ३ ॥ सासादनरुचिगळगे व्यु २५ । बं १०१ । अ १९ ॥ मिश्ररुचिगळगे व्यु ० । बं ७४। अ ४६॥ संज्ञ्यसंज्ञिमागंणाद्वयवोळ संज्ञिमागणेयोळ, बंघयोग्यप्रकृतिगळ १२० । गुणस्थानंगळ १२ । इल्लि बंधव्युच्छित्ति बंघाबंधभेदंगळ सामान्यगुणस्थानदोळ, पेदते वक्तव्यaga || असंज्ञिमाणेोळ, बंधयोग्यप्रकृतिगळु ११७ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमुं सासादनगुण
१५
अत्राप्रमते तीर्थाहारकद्विकयोर्बन्धोऽस्ति । क्षायिकसम्यक्त्वेऽपि सैव ७९ । बन्धयोग्यगुणस्थानानि असंयताद्ययोगान्तानि ११ । सिद्धा अपि । अ व्यु १० । बं ७७ । अ २ आहारकद्वयं । देव्यु ४ । बं ६७ । अ १२ । प्रव्यु ६ । बं ६३ । अ - १६ । अव्यु १ । ५९ । अ २० । आहारकद्वयस्य बन्धे मिलितत्वात् अपूर्वकरणस्य व्यु ३६ । बं ५८ | अ २१ । अव्यु ५ । बं २२ । अ ५७ । सू व्यु १६ । बं १७ । अ ६२ । उव्यु ० । बं १ | अ ७८ । क्षी व्यु ० । वं १ । अ ७८ । स व्यु १ । बं १ । अ ७८ । अ व्यु ० । बं ० । अ ७९ । मिथ्यारुचीनां व्यु १६ । बं ११७ । अ ३ । सासादनरुचीनां व्यु २५ । बं १०१ । अ १९ । मिश्ररुचीनां व्यु ० । बं ७४ | अ ४६ । संज्ञिमार्गणायां बन्धयोग्यं १२० गुणस्थानानि १२ बन्धाबन्धव्युच्छित्तयः
है । वेदक सम्यक्त्व में अप्रमत्त अवस्थामें तीर्थंकर आहारकद्विकका बन्ध होता है और क्षायिक सम्यक्त्वमें भी होता है । अतः क्षायिक सम्यक्त्वमें भी बन्धयोग्य उनासी हैं और गुणस्थान असंयतादि ग्यारह हैं ।
वेदक सम्यक्त्व ७९ असं. दे. प्र. अप्र. व्युच्छित्ति १० ४ ६ १ बन्ध ७७६७६३ ५९ अबन्ध २ १२ १६ २०
क्षायिक सम्यक्त्व ७९
अ. दे. प्र. अप्र. अपू. अनि. सू. उ. क्षी. स. अयो. १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ ० ० १ ० ७७ ६७ ६३ ५९ ५८ २२ १७ १ १ १ २ १२ १६ २० २१ ५७
O
६२७८ ७८ ७८ ७९
मिथ्यादृष्टि के व्युच्छित्ति सोलह, बन्ध एक सौ सतरह और अबन्ध तीनका है । सम्यमिध्यादृष्टि के व्युच्छित्ति शून्य, बन्ध चौहत्तर और अबन्ध छियालीसका है । सासादन सम्यग्दृष्टी के व्युच्छित्ति पच्चीस, बन्ध एक सौ एक और अबन्ध उन्नीस है ।
"संज्ञिमार्गणा में बन्धयोग्य एक सौ बीस हैं । गुणस्थान बारह हैं । बन्ध, अबन्ध और
२०
२५
३०
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१२०
गो० कर्मकाण्डे स्थानमुमप्पुवल्लि सासादननोळायुबंधमिल्लेके बोर्ड मिश्रकाययोगियप्पुरिवं। तत्कालवोळे तद्गुणस्थानकालं तोदई मिथ्यादृष्टियक्कुमप्पुरिदमायुश्चतुष्टयबंध मिथ्यादृष्टियोळे व्युच्छित्तियक्कुं
असंज्ञिगे सा २९ । ९८] १९ । | मि १९ । ११७/ ० ।
जाहारानाहारमार्गणा द्वयदोळ आहारमागर्गयोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळ, १२० । गुणस्था५ नंगळ, १३ । यिल्लि बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधभेदंगळ साधारणगुणस्थानदोळ पेळ्व क्रममेयप्पुवु ॥
अनाहारमारांणयोळ बंधयोग्यप्रकृतिगळ, ११२ अप्पुवे तेवोडे कम्मेव अणाहारे येदितु कार्मणकाययोगदोळ पेन्दतयक्कुमा कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्रकाययोगक्के पेळ्वतयक्कुं। तिर्यग्मनुष्यायुद्वंयम रहितमप्पुरिदं ॥ ओराळेवा मिस्से ण-हि सुराणिरयाउहारणिरयद्गमें दो
षट्प्रकृतिगळ ६ मिन्तु ८ प्रकृतिगळकळे बोडे तावन्मानंगळे यप्पुवापुरिवं गुणस्थानंगळ ५। १० सामान्यवत् । असंज्ञिमार्गणायां बन्धयोग्यम् ११७ । गुणस्थानद्वयम् । तत्र सासादने मिश्रकाययोगित्वात् मिथ्यादृष्टावेव आयुश्चतुष्कस्य व्युच्छित्तिः ।
असंज्ञिनः ११७ २९ / ९८ | १९ ।
१९ । ११७
|
आहारमार्गणायां बन्धयोग्याः १२० । गुणस्थानानि १३ । बन्धाबन्धव्युच्छित्तयः साधारणवत् । अनाहारमार्गणायां बन्धयोग्या ११२ । कुतः ? 'कम्मेव अणाहारे' कार्मणे च औदारिकमिश्रर्वदिति तिर्यग्
मनुष्यायुषी न । 'ओराले वा मिस्से णहि सुरणिरयाउहारणिरयदुर्ग' इत्यष्टानामभावात् । गुणस्थानानि ५ । १५ व्युच्छित्ति सामान्य गुणस्थानकी तरह जानना । असंज्ञिमार्गणामें बन्धयोग्य एक सौ सतरह।
गणस्थान दो। सासादनमें मिश्रकाययोग होनेसे मिथ्यादृष्टिमें ही चारों आयुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । आहारमार्गणामें बन्धयोग्य एक सौ बीस । गुणस्थान तेरह । बन्ध, अबन्ध और व्युच्छित्ति सामान्यगुणस्थानवत् जानना। अनाहार मार्गणामें बन्धयोग्य एक सौ
बारह हैं क्योंकि कार्मग काययोगकी तरह कहा है और कार्मणमें औदारिक मिश्रकी तरह २० तिर्यञ्चायु मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता तथा औदारिक मिश्रमें देवायु नरकायु नरकद्विक आहारकद्विकका अभाव है। इस तरह आठका बन्ध नहीं होता । गुणस्थान पाँच होते हैं। असंज्ञी ११७
अनाहार ११२ मि. सा.
मि. सा. असं. स. अयो. व्युच्छित्ति ० २९
१३ २४ ७४ १ ० बन्ध ११७ ९८
१०७ ९४ ७५ १ . अबन्ध १९
५ १८ ३७ १११ ११२
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१२१
स
अनाहारमार्ग० सं०
। ० ११२
११११ अ ९ ६५ ७५ ३७
। २४ ९४ १८
मिा १३ १०७ ५। ई रचनेयुं सुगममेंतेंदोडे मिथ्यादृष्टियोळु अबंधंगळागिद्द तीर्थमुं सुरचतुष्कमुमसंयतसम्यरदृष्टियोळु बंधमुंटप्पुरिंदमा प्रकृतिपंचकर्म कूडिदोडे बंधप्रकृतिगळ ७५ । अबंधप्रकृतिगळु ३७ अप्पुर्व बिनिते विशेषमप्पुरिदं बंधव्युच्छित्तिगळु णवछिदी अयदे एंदु ९ प्रकृतिगळप्पुवु। उवरिम पणसट्ठी वि य येदितु देशसंयतादि क्षीणकषायावसानमाद गुणस्थानव्युच्छित्तिगळु ६५ अन्तु ७४ प्रकृतिगळ व्युच्छित्तिगळागुत्तिरलु एक्कं सादं सजोगम्मि एंदितु सयोगकेवळिगोळ सातमो दे ५ बंधमुं व्युच्छित्तियुमक्कुमबंधप्रकृतिगळु १११ । अयोगिकेवळिगळोळु व्युच्छित्तिबंधंगळु शून्यंगळ । बंधप्रकृतिगळु ११२। इन्तु वेदमागणे मोवल्गोंडनाहारमार्गणे पय्यंतं बंधस्यांतोऽनंतश्च । बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिविशेषंगळुक्तप्रकारविदं भाविसल्पडुवुवु ॥ अनंतरं मूलप्रकृतिगळ्गे साद्यनादिध्रुवाध्रुवबंधसंभवासंभवमं पेळ्दपरु ।
सादिअणादी धुव अर्धवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स ।
तदियो सादि य सेसो अणादि धुव सेसगो आऊ ॥१२२॥ सादिरनादि वोऽध्रुवश्च बंधस्तु कर्मषट्कस्य । तृतीयं सादि शेषमनादि ध्रुवशेषकमायुः॥
___ अनाहारमा०-११२
-
अ
अ
९-६५
२४ १३
| ७५ ९४ । १०७
११२ १११ ३७ १८ ५
मि
।
इयं रचना सुगमा । कुतः ? मिथ्यादृष्टो अबन्धस्थिततीर्थसुरचतुष्कयोरसंयते बन्धः, इत्येतावत् एव विशेषात । व्यच्छित्तिः ‘णवच्छिदी अयदे' इति नव । तथा 'उरिमपणसट्रीविय' एवं ७४ । 'एक्कं सादं सजोगिम्हि' बध्यते व्युच्छिद्यते च । अबन्धः-१११ । अयोगे व्युच्छित्तिः बन्धश्च शून्यम् । अबन्धः ११२ । १५ एवं वेदमार्गणाद्याहारमार्गणापर्यन्तं बन्धस्यान्तो व्यच्छित्ति:। अनन्तः-बन्धः। चशब्दादबन्धश्चोक्तः ॥१२०-१२१॥ अथ मूलप्रकृतीनां साद्यादिबन्धभेदान् विशेषयति--
अनाहारकमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थकर और सुरचतुष्कका बन्ध न होकर असंयतमें होता है इतना ही विशेष है। असंयतमें अपनी व्यच्छित्ति नौ तथा ऊपर के गुणस्थानोंकी पैंसठ मिलकर चौहत्तर होती है। सयोगीमें एक साता ही बँधती है. उसीकी २० व्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार वेदमार्गणासे आहारमार्गणा पर्यन्त बन्धका अन्त अर्थात् व्यच्छित्ति और बन्धका अनन्त अर्थात् बन्ध तथा 'च' शब्दसे अबन्ध कहा ॥१२०-१२।।
आगे मूल प्रकृतियोंके सादि आदि बन्धके भेदोंको कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे सादिबंधम वुमनाविबंध दुं ध्रुवबंधर्म दुमध्रुवबंध दितु प्रकृतिबंध चतुविधमक्कुमवरोळु ज्ञानावरणीयं वर्शनावरणीयं मोहनीयं नाम गोत्रमंतरायम ब मूलप्रकृतिषट्कक्के 'प्रत्येकं साद्यनादि ध्रुवाध्रुवबंधचतुष्टयमुमक्कुं। तृतीयं वेदनीयं । साविशेषं सादिबंधदत्तणिदं शेषानाविध्रव अध्रुवबंधभेदंगळनु वक्कुं। एतेंदोडे सातवेदनीयापेक्षेयिदं वेदनीयक्के सादित्वमिल्लेके दोडे गुणप्रतिपन्नरोळमुपशमश्रेण्यारोहणावरोहणवोळं सातवेदनीयबंधमविच्छिन्नरूपदिदं सयोगगुणस्थानपर्यंत बंधमुंटप्पुरिवं । अनादिवशेषमायुः आयुष्यमनादिप्रवबंधद्वयदत्तणिवं शेषसाद्यध्रुवबंधंगळनुदक्कुमेके दोउ उत्तरभववायुष्यमनोम्म मोदलगोंडु कटुगुमप्पुरवं। सादिबंधमनुळ्ळुदुमक्कुं अंतर्मुहूर्त्तकालावसानबंधमनुळ्ळ दुमप्पुरिदं अध्रुवबंधमुमनुमदुमक्कुं
णा। दं। वे । मो। आ। ना । गो। अं। ४। ४।३। ४।०।४।४।४
अनंतरं सादिबंधाविगळ्गे लक्षणमं पेळ्दपरु ।
सादी अबंधबंधे सेढि अणारूढगे अणादी हु।
अब्भवसिद्धम्मि धुवो भव सिद्धे अधुवो बंधो ॥१२३॥ सादिरबंधबंधे श्रेण्यनारूढे अनाविस्तु । अभव्यसिद्धे ध्रुवो भव्यसिद्धेऽध्रुवो बंधः॥
सादिः सादिबंध बुदु । अबंधबंधे कट्टदिद? कट्टिदल्लियपकुमते दोडे इवक्कुदाहरणं तोरल्पडुगुं । ज्ञानावरणीयपंचकमं सूक्ष्मसांपरायं तम गुणस्थानचरमसमयदोळकट्टि उपशांतकषायनागि
सादिः अनादिः ध्र वः अध्र वश्चेति प्रकृतिबन्धश्चतुर्धा । तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयनामगोत्रांतरायाणां प्रत्येकं चतुर्धा बन्धो भवति । वेदनीयं सादितः शेषत्रिविधो बन्धो भवति । सातापेक्षया तस्य गुणप्रतिपन्नेषु उपशमश्रेण्यारोहणावरोहणे च निरन्तरबन्धेन सादित्वासंभवात् । आयुः अनादिध्र वाम्यां शेषद्विविधबन्धो भवति एकवारादिना बन्धेन सादित्वात् अन्तर्मुहूर्तावसाने च अध्र वत्वात् ॥१२२॥ अथ तान् बन्धान् लक्षयति
सादिबन्धः अबन्धपतितस्य कर्मणः पुनर्बन्धे सति स्यात्, यथा ज्ञानावरणपञ्चकस्य उपशान्तकषायाद
प्रकृतिबन्धके चार भेद है-सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय इनमें से प्रत्येकका बन्ध चार प्रकार है। वेदनीयकर्मका सादिबन्ध नहीं है, शेष तीन बन्ध होते हैं। क्योंकि ऊपरके गुणस्थानोंमें वर्तमान जीवोंके
उपशम श्रेणि आदिपर चढ़ने और उतरनेपर साताकी अपेक्षा वेदनीयका निरन्तर बन्ध २५ होता रहता है अतः वेदनीयका सादिबन्ध सम्भव नहीं है। आयुका अनादि और ध्रुवके बिना शेष दो बन्ध होते हैं क्योंकि आयु एक पर्याय में एक बारसे आठ बार तक बँधती है अतः सादि है और आयुका बन्ध एक बार में अन्तमुहूतकाल पर्यन्त ही होता है । अतः अध्रुव है ॥१२२॥
_ उन बन्धोंके लक्षण कहते हैं३० जिस कर्मका अबन्ध होकर बन्ध होता है उसके बन्धको सादि कहते हैं। जैसे
ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका बन्ध सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त होता है अतः उपशान्त कषायमें
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तद्गुणस्थानदोळंतरिसिद तत्प्रकृतिबंधमनवरोहणदोळ सूक्ष्मसांपरायनागि कट्टिदो डल्लि साविबंधमर्दारवं । श्रेण्यनारूढे यत्कर्म यस्मिन्गुणस्थाने व्युच्छिद्यते तदनंतरो परितनगुणस्थानं श्रेणिः एंविन्तु तत्सूक्ष्मसांपरायचरमसमयवत्तणिदं केळगे द्वितीयादि समयंगळोळ नादिधबं में बुदक्कुं । तु मत्ते । अभव्यसिद्धे ध्रुवः अभव्यजीवतोळ ध्रुवबंध मक्कु में तेंदोडा दिमध्यावसानरहितमागि ज्ञानावरणादि निष्प्रतिपक्षकम्मंगळगे निरंतरबंध मुंटप्पुदरिवं । भव्यसिद्धे भव्यजीवं गळोळ अध व वबंधमक्कुमेंतेंदोडे ज्ञानावरणाविक मंगळगे क्षपक श्रेण्यारोहणदोळमुपशमश्रेण्यारोहणदोळं सूक्ष्मसांपरायनोळु बंधव्युच्छित्तिगळागि मेलणुपशांतकषायादिगुणस्थानंगळोळ बंधरहितत्वमागुत्तं विरलु तदज्ञानावरणादिबं घक्कध वत्वमक्कुमपुरिदं ॥
अनंतरमुत्तरप्रकृतिगोळु धवप्रकृतिगळगे साद्यादिचतुव्विधबंध मुमनध, वप्रकृतिग साद्यवद्विविधबंधमे+कुम' बुदं पेलवपद :
घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचऊ । सत्तेत्तालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥ १२४॥
घातित्रयमिथ्यात्व कषायाः भवतेजोऽगुरुद्वि कनिर्माणवणं चत्वारि । सप्तचत्वारिंशदध्रुवाणां चतुर्धा शेषाणां तु द्विधा ॥
घातित्रय ज्ञानावरण पञ्चकमुं ५ दर्शनावरणनवकमुं ९ अंतरायपंचकमुं ५ । मिथ्यात्वप्रकृतियुं १५ १ | षोडशकषायंगळं १६ । भयजुगुप्साद्वयमु २ तेजसकाम्मणशरीरद्वयमुं २ अगुरुलघूपघातद्वयमुं २
वतरतः सूक्ष्मसांपराये । यत्कर्म यस्मिन् गुणस्थाने व्युच्छिद्यते तदनन्तरोपेरितनगुणस्थानं श्रेणिः तत्रानारूढे अनादिबन्धः स्यात् यथा सूक्ष्मसांपरायचरमसमयादधस्तत्पञ्चकस्य । तु पुनः अभव्यसिद्धे ध्रुवबन्धो भवति निष्प्रतिपक्षाणां बन्वस्य तत्रानाद्यनन्तत्वात् । भव्यसिद्धे अध्रुवबन्धो भवति । सूक्ष्मसांपराये बन्धस्य व्युच्छित्त्या तत्पञ्चकादीनामिव ॥ १२३॥ अथोत्तरप्रकृतिष्वाह
१०
ज्ञानदर्शनावरणाांतरायावेकान्नविंशतिः मिथ्यात्वं षोडशकषायाः, भयजुगुप्से तेजसकार्मणे अगुरुजानेपर उनके बन्धका अभाव हो जाता है और उपशान्त कषायसे उतरकर जो सूक्ष्मसाम्पराय में आता है उसके पुनः उनका बन्ध होता है वह बन्ध सादि है । जिस कर्म की जिस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है उसके अनन्तरवर्ती ऊपरका गुणस्थान श्रेणि कहाता है उसपर जो नहीं चढ़ा है उसका बन्ध अनादि है । जैसे सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयसे नीचे ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका बन्ध अनादि है । अभव्य जीवके ध्रुवबन्ध होता है क्योंकि जो प्रकृतियाँ प्रतिपक्षी प्रकृतियोंसे रहित हैं उनका बन्ध अभव्यके अनादि अनन्त होता है । भव्यजीवके अध्रुव बन्ध होता है जैसे सूक्ष्म साम्पराय में ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है ॥ १२३ ॥
२५
उत्तर प्रकृतियों में कहते हैं
३०
ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी उन्नीस, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय,
१. |
२०
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गो कर्मकाण्डे निम्माणनाममुं १ वर्णचतुष्कर्मु ४ में दिन्तु ४७ नुः ध्रुव प्रकृतिगळ्गे साद्यनादि ध्रुवाध्रुवबंधचतुष्टयमुमक्कुं। शेषाणां शेषवेदनीयद्वयमुं २ मोहनीयसप्तकमु ७। आयुश्चतुष्टयमुं ४ नामदोळ गतिचतुष्टयमुं ४ जातिपंचक, ५ औदारिकद्वयम् २ वैक्रियिकद्वयमुं २ आहारकद्वयमुं २ संस्थानषट्क, ६ संहनन· षट्कमुं। आनुपूळचतुष्टयमुं ४ । परघातमुं १ आतपमुं १ उद्योतमुं १ उच्छ्वासमुं १ विहायोगति५ द्वयमुं २ सद्वर्यमुं २ बादरद्वयमुं २ पर्याप्तद्वयमुं २ प्रत्येकसाधारणशरीरद्वयमुं २ स्थिरद्वयमुं २
शुभद्वयमुं २ सुभगद्वयमुं २ सुस्वरद्वयमुं २ आदेयद्वयमुं २ यशस्कोत्तिद्वयमु२ तीर्थमुम दिन्तु ५८ गोत्रद्वितयमु २ मिन्तु ७३ अध्र वप्रकृतिगळ्गे सांद्यध्रुवबंधद्वयमक्कुमो प्रकृतिगळोळु अप्रतिपक्षगळेदु सप्रतिपक्षंगळेदु द्विप्रकारमप्पुवेंदु पेळ्दपर :
सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सव्व आऊणि ।
अप्पडिवक्खा सेसा सप्पडिवक्खा हु बासट्ठी ॥१२५॥ शेषे तीर्थमाहारद्वयं परघातचतुष्क सर्वायूंष्यप्रतिपक्षाणि शेषाणि सप्रतिपक्षाणि खलु द्वाषष्टिः॥
ध्रवप्रकृतिगळु ४७ । कळद शेषप्रकृतिगळु ७३ । रवरोळु तीर्थमुमाहारद्वयम परघातचतुष्कमायुष्यचतुष्कमुमिन्तु ११ प्रकृतिगळ अप्रतिपक्षंगळप्पुवुळिद सातद्वयमु२ स्त्रीपुंनपुंसक१५ वेदत्रयमु३ हास्यविकमु २ मरतिद्विकमुं २ गतिचतुष्टयमु ४ जातिपंचक, ५ औदारिकद्विकमुं २
लघूपघाती निर्माणं वर्णचतुष्कं चेति सप्तचत्वारिंशद्ध वाणां चतुर्धा बन्धो भवति । शेषाणां वेदनीयद्वयमोहनीयसप्तकायुश्चतुष्कगतिचतुष्कजातिपञ्चकोदारिकद्वयव क्रियिकद्वयाहारकद्वयसंस्थानषट्कसंहननषटकानुपूर्व्यचतुष्क - परघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतिद्वयत्रसद्वयबादरद्वयपर्याप्तद्वयप्रत्येकद्वयस्थिरद्रय - शुभद्वयसुभगद्वयसुस्वरद्वया -
देयद्वययशस्कीर्तिद्वयतीर्थकरगोत्रद्वयानां त्रिसप्तत्यध्र वाणां साद्यध्र वबन्धी भवतः ॥१२४॥ एतासु अप्रतिपक्षाः २० सप्रतिपक्षाश्चेति भिनत्ति
घ्र वेभ्यः शेषत्रिसप्तत्या तीर्थमाहारद्वयं परघातचतुष्कं आयुश्चतुकं चेत्येकादश अप्रतिपक्षा भवन्ति जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णचतुष्क इन सैंतालीस ध्रुव प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष वेदनीय दो, मोहनीयकी सात, चार आयु,
चार गति, पाँच जाति, औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा इनके अंगोपांग इस २५ तरह दो-दो, छह संस्थान, छह संहनन, चार अनुपूर्वी, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, दो
विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुभंग, सुस्वर-दुस्वर, आदेय-अनादेय, यश-कीति-अयशःकीर्ति, तीर्थकर दो गोत्र इन तिहत्तर अध्रुव प्रकृतियोंका सादि और अध्रुव बन्ध होता है ।।१२४॥
__विशेषार्थ-जबतक व्युच्छित्ति नहीं होती तबतक ४७ प्रकृतियाँ प्रतिसमय बँधती हैं । ३० इसीसे इन्हें ध्रुव कहा है। शेष ७३ का बन्ध कभी होता है कभी नहीं होता। अतः इन्हें अध्रुव, कहा है।
आगे इनमें अप्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष भेद करते हैंध्रुव प्रकृतियोंसे शेष तिहत्तर प्रकृतियोंमें तीर्थकर, आहारकद्विक, चार आयु, परघात
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१२५ वैक्रियिकद्वयमुं २ । संस्थानषट्क, ६ संहननषट्कमुं६ । विहायोगतिद्वयमुं २ त्रसद्वयमु २ बादरद्वयमु२ पर्याप्तद्वयमु२ प्रत्येकशरीरद्वयमु२ स्थिरद्वयमु२ शुभद्वयमुर सुभगद्वयम् २ सुस्वरद्वयमु२। आदेयद्वयमु२ यशस्कोत्तिद्वयमु२ गोत्रद्वयमु२ आनुपूर्व्यचतुष्टयमुं ४ मिन्तु द्विषष्टि प्रकृतिगळु ६२ सप्रतिपक्षगळप्पुवनंतरमी शेषा, वप्रकृतिगळु ७३ क्कं साद्य, वबंधक्कुपपत्तियं तोरिदपरु :
अवरो भिण्णमुहुत्तो तित्थाहाराण सव्वआऊणं ।
समओ छावट्ठीणं बंधो तम्हा दुधा सेसा ॥१२६॥ अवरो भिन्नमुहूर्तस्तीर्थाहाराणां सर्वायुषां समयः षट्पष्टीनां बंधस्तस्मादद्विधा शेषा ॥
तीर्थंकरनामकर्मक्कमाहारद्वयक्कं सर्वायुष्यंगळ्गमिन्तु ७ प्रकृतिगळ्गे जघयदिदं निरंतरबंधाद्धे अंतर्मुहूर्तकालमक्कुं २७ । शेषषट्षष्टिप्रकृतिगळ्गे ६६ जघन्यदिदं बंधकालमेक- १० समयमेयक्कुमदु कारणमागि ई शेष ७३ प्रकतिगळ्ग ध्र वंगळ्गे साद्यध्र वबंधद्वितयं सिद्धमादुदु । यितु प्रकृतिबंधं समाप्तमादुदु । शेषाः द्वाषष्टिः सप्रतिपक्षा भवन्ति । प्रकृतिप्रदेशबन्धनिबन्धनयोगस्थानानां चतसृभिः स्थित्यनुभागबन्धनिबन्धनतदध्यवसायानां षड्भिश्च वृद्धिहानिभिः परिवर्तनेन सातद्वयस्येव वेदत्रयादीनामपि परस्परं तथात्वसंभवात ॥१२५॥ अध्र वाणां साद्यध्र वबन्धयोरुपपत्तिमाह
१५ तीर्थस्य आहारकद्वयस्य सर्वायुषां च. जघन्येन निरन्तरबन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तः २१ । शेषषट्पष्टेश्च एकआदि चार ये ग्यारह प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षा हैं इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ नहीं हैं। शेष बासठ सप्रतिपक्षा हैं ॥१२५॥
विशेषार्थ-जो प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षा होती हैं उन प्रकृतियोंका जिस समय बन्ध होता है उस समय उनका अपना ही बन्ध होता है और जब बन्ध नहीं होता तब नहीं होता। २० जैसे तीर्थकर प्रकृति अप्रतिपक्षा है जिस समय इसका बन्ध होता है उस समय इसका बन्ध होता है, नहीं होता तो नहीं होता। इसके बदलेमें बँधनेवाला प्रकृति नहीं है। किन्तु जो प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षा हैं उनमें से एक समयमें किसी एकका बन्ध होता है, जैसे साता-असातावेदनीय सप्रतिपक्षा हैं उनमें से एक समयमें एकका बन्ध अवश्य होता है। मोहनीयमें रति-अरति प्रतिपक्षी हैं। हास्य-शोक प्रतिपक्षी हैं, तीनों वेद परस्पर प्रतिपक्षी हैं। २५ इनमें से एक-एकका ही बन्ध होता है। नामकर्ममें चार गति परस्पर प्रतिपक्षी हैं। पाँच जाति परस्पर प्रतिपक्षी हैं इनमें से एक-एकका ही बन्ध होता है। दो गोत्रों में से एकका ही बन्ध एक समयमें होता है।
प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योगस्थान है उनमें चतुःस्थानपतित वृद्धिहानिके द्वारा तथा स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धके कारण अध्यवसाय स्थान हैं उनमें ३० षट्स्थानपतित वृद्धिहानिके द्वारा परिवर्तन होता रहता है इसलिए साता-असाताकी तरह तीन वेद आदिमें भी परस्परमें प्रतिपक्षीपना होता है अतः उनमें-से भी कभी किसीका और कभी किसीका बन्ध' होता है ॥१२५॥
अध्रुव प्रकृतियोंमें सादि और अध्रुवबन्ध ही क्यों होता है, यह बतलाते हैंतीर्थकर, अहारक 'युगल और चारों आयुका निरन्तर बन्धकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त ३५
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गो० कर्मकाण्डे सातादि सप्रतिपक्षंगळु तंतम्मोळु परस्परं प्रतिपक्षंगळे दरिदेके दोडे प्रकृतिप्रदेशबंधनिबंधनयोग्यस्थानंगळ्गे चतुर्वृद्धिहानिळिंदमुं स्थित्यनुभागबंधनिबंधनस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगमनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळ्गं षड्ढानिषवृद्धिळिवं परावृत्तिवर्तनमंटप्पुरदं । अनंतरं स्थितिबंधमं पेळलुपक्रमिसिमोदळोळ मूलप्रकृतिगत्कृष्टस्थितिबंधमं पेन्दपर।
तीसं कोडाकोडी तिघादितदिएसु वीस णामदुगे ।
सत्तरि मोहे सुद्धं उवही आउस्स तेतीसं ॥१२७॥ त्रिंशत्कोटीकोट्यस्त्रिधातित्रितयेषु विंशति मद्विके । सप्ततिम्र्मोहे शुद्धा उदधय आयुषस्त्रयस्त्रिशत॥
त्रिघातितृतीयेषु ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयमन्तरायं वेदनीयमुमें बी नाल्कुं मूलप्रकृति१० गळुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येकं त्रिंशत्कोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुं। विशतिमिद्विके नामगोत्र.
द्वयक्कुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येक विशतिकोटीकोटिसागरोपममात्रमक्कुं। मोहनीयदोळु सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमुत्कृष्टस्थितिबंधमक्कुं। आयुष्यक्कुत्कृष्टस्थितिबंध शुद्धस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणमक्कुमिल्लि शुद्धविशेषणं कोटोकोटिव्यवच्छेदकमक्कुमप्पुरिंद मूवत्तमूरे सागरोपमंगळे
बुवत्थं । ज्ञा। सा ३० । को २। द । सा ३० । को २ । वे। सा ३० । को २। मो। सा ७० को १५ २। आयु । सा ३३ । नाम । सा २० । को २। गोत्र सा २० । को २। अन्तस । सा ३० को २।
अनन्तरमुत्तरप्रकृतिगळ्गे उत्कृष्टस्थितिबंधम गाथाषट्कदिवं पेन्दपरु :
दुक्खतिघादीणोघं सादित्थीमणुदुगे तदद्धं तु ।
सत्तरि दंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥१२८॥
दुःखत्रिघातीनामोघः सातः स्नोमानवद्विके तदद्धं तु। सप्ततिदर्शनमोहे चरित्रमोहे च २० चत्वारिंशत् ॥
समयः, ततः कारणात् तासामध्र वाणां साद्यध्रुवबन्धी सिद्धो ॥१२६॥ इति प्रकृतिबन्धः समाप्तः। अथ स्थितिबन्धमुपक्रमन्नादौ मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिमाह
उत्कृष्टः स्थितिबन्धः कोटीकोटिसागरोपमाणि ज्ञानदर्शनावरणांतरायवेदनीयेषु त्रिंशत् । नामगोत्रयोः विशतिः । मोहनीये सप्ततिः । आयुषि शुद्धानि कोटीकोटिविशेषणरहितानि सागरोपमाण्येव त्रयस्त्रिंशत् । २५ अत्र शुद्धविशेषणं कोटीकोटिव्यवच्छेदार्थम् ।।१२७॥ अथोत्तरप्रकृतीनां गाथाषट्केनाह
है। और शेष छियासठका निरन्तर बन्धकाल जघन्यसे एक समय है इस कारणसे उन तिहत्तर अध्रुव प्रकृतियोंका सादि और अध्रुव बन्ध ही होता है यह सिद्ध हुआ ॥१२६।।
इस प्रकार प्रकृतिबन्ध समाप्त हुआ।
आगे स्थितिबन्धको प्रारम्भ करते हुए प्रथम मूल प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं३०
उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और वेदनीयका तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है। मोहनीयका सत्तर कोडाकोडि सागर प्रमाण है। आयुका शुद्ध अर्थात् कोडाकोडी विशेषणसे रहित तैतीस सागर प्रमाण है। यहां शुद्ध विशेषण कोडाकोड़ीके व्यवच्छेदके लिए दिया है ।।१२७।।
आगे छह गाथाओंसे उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संठाणसंहदीणं चरिमस्सोघं दुहीणमादित्ति ।
अट्ठरसकोडकोडी वियलाणं सुहुमतिण्डं च ॥१२९॥ संस्थानसंहननानां चरमस्यौघः द्विहीनः आविपर्यन्तमष्टादशकोटीकोटयो विकलानां सूक्ष्मत्रयाणां च ॥
अरदीसोगे संढे तिरिक्खभयणिरयतेजुरालदुगे ।
वेगुव्वादावदुगे णीचे तसवण्णअगुरुति चउक्के ।।१३०॥ अरतौ शोके षंढे तिर्यग्भयनरकतैजसौदारिकद्विके । वैक्रियिकातपद्विके नीचे सवर्णागुरुत्रिचतुष्के ॥
इगिपंचिंदियथावरणिमिणासग्गमण अथिरछक्काणं ।
वीसं कोडाकोडीसागरणामाणमुक्कस्सं ॥१३१॥ एकपंचेंद्रियस्थावरनिर्माणसद्गमनास्थिरषटकानां । विंशतिः कोटीकोटयः सागरनाम्ना. मुत्कृष्टः॥
हस्सरदि उच्चपुरिसे थिरछक्के सत्थगमणदेवदुगे ।
तस्सद्धमंतकोडाकोडी आहारतित्थयरे ॥१३२।। हास्यरत्युच्चपुरुष स्थिरषट्के शस्तगमनदेवद्विके। तस्यार्द्धमन्तःकोटीकोटयः आहार- १५ तीर्थकरे॥
सुरणिरयाऊणोघं णरतिरियाऊण तिण्णि पल्लाणि ।
उक्कस्सद्विदिबंधो सण्णीपज्जत्तगे जोग्गे ॥१३३॥ सुरनारकायुषोरोघो नरतिय्यंगायुषोस्त्रीणि पल्याणि। उत्कृष्टस्थितिबंधः संज्ञीपर्याप्तके योग्ये । गाथाषटकं ॥
२० दुःखत्रिघातीनामोघः असातवेदनीयं ज्ञानावरणीयपंचकं वर्शनावरणीयनवकमन्तरायपंचकमितु विशति प्रकृतिगळ्गे ओघः मूलप्रकृतिगळोळपेळ्द त्रिंशत्कोटीकोटिसागरोपममुत्कृष्टस्थितिबंधमक्कुं। प्रत्येकं दु १ घा १९ सातस्त्रोमानवद्विके सातवेदनीयस्त्रीवेदमनुष्यद्विक मेंबी नाल्कुं
सा ३० को २ प्रकृतिगगुत्कृष्टस्थितिबंधं तबद्धं पंचदशकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणमक्कुं सा १ स्त्री १ म २
सा १५ को २ सप्ततिदर्शनमोहे दर्शनमोहनीयमिथ्यात्वप्रकृतिबंधदोळेकविधमप्पुरिदमदक्कुत्कृष्टस्थितिबंधं सप्तति
उत्कृष्टस्थितिबन्धः असातवेदनीयज्ञानदर्शनावरणान्तरायविंशतः ओघः मूलप्रकृतिवत् त्रिंशत्कोटिकोटि- २५ सागरोपमाणि । सातवेदनीयस्त्रीवेदमनुष्यद्विकेषु तदधं पञ्चदशकोटी कोटिसागरोपमाणि । दर्शनमोहे मिथ्यात्वं
उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असातावेदनीय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण अन्तरायकी उन्नीस इन बीस प्रकृतियोंका 'ओघ' अर्थात् मूल प्रकृतियों के समान तीस कोडाकोडि सागर प्रमाण है। सातवेदनीय स्त्रीवेद और मनुष्यगति मनुष्यानुपूर्वीका उससे आधा अर्थात् पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । दर्शनमोह में बन्ध एक मिथ्यात्वका ही होता है अतः उसका ३०
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गो० कर्मकाण्डे
सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणमक्कु २० मिथ्या १ चरित्रमोहे च चत्वारिंशत् चारित्रमोहनीयक्कु
सा ७० को २ त्कृष्ट स्थितितिबंधं चत्वारिंशत्सागरोपमकोटीकोटिप्रमितमक्कुं चारि० कषा १६ संस्थानसंह
सा ४० को २॥ नननानां संस्थानसंहननंगळोळगे चरमस्यौघः कडेय हुंडसंस्थानासंप्राप्तसृपाटिकासंहननमेंब प्रकृतिद्वयदकुत्कृष्टस्थितिबंधमूलप्रकृतिगळोळपेन्द ओघं विशति कोटीकोटिसागरोपमप्रमाणमकुंहुँ १ असं १ शेषसंस्थानसंहननंगळगे आदिपथ्यंतं समचतुरस्रसंस्थानबज्रऋषभनाराचसंहननसा २० को २ पर्यन्तं द्विकद्विकंगलोळक्रमदिदमुत्कृष्टस्थितिबंधं विहीनः द्विकोटीकोटिसागरोपमविहीनमप्पोघमक्कुं- वाम १ की १ कु१ अर्द्ध १ स्वाति १ नाराच १ न्य १ वज्र १ सम १ वज्र व १
सा १८ को २ सा १६ को १ सा १४ को २ सा १२ को २ सा १० को २ विकलानां सूक्ष्मत्रयाणां च विकलत्रयंगळगं सूक्ष्मत्रयंगळ्गमुत्कृष्टस्थितिबंधमष्टादशकोटीकोटि साग१० रोपम प्रमाणमक्कुं वि ३ सू ३ अरति शोक षंढवेद तिर्यग्द्विकभयद्विक नरकद्विक लैजसद्विक
सा १८ को २ औदारिकद्विक वैक्रियिकद्विक आतपद्विक नीचैग्र्गोत्र सचतुष्क-(वर्णचतुष्क अगुरुलघुचतुष्क ) एकेद्रियजाति पंचेंद्रियजाति स्थावरनाम निर्माणनाम असद्गमननाम अस्थिर षटकमुमेंबी ४१ प्रकृतिगळुत्कृष्टस्थितिबंधं विशतिः कोटीकोटयः विशतिकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणं प्रत्येकमक्कुंअरत्यादि ४१ हास्य रति उच्चैगर्गोत्र पुरुषवेद स्थिरषट्क शस्तगमन देवद्विकमुमेंबी १३ प्रकृतिसा २ को २०
१५ बन्धे एकविधत्वात तत्र सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाणि ७० । चारित्रमोहनीयषोडशकषायेषु चत्वारिंशत्कोटी
कोटिसागरोपमाणि । संस्थानसंहनानां चरमसंस्थानसंहननस्य मूलप्रकृतिवद् विशतिकोटीकोटिसागरोपमाणि । शेषसंस्थानसंहननानां समचतुरस्रसंस्थानवजवृषभनाराचसंहननपर्यन्तं द्विद्विकोटीकोटिसागरोपमविहीन ओघः । विकलत्रयाणां चाष्टादशकोटीकोटिसागरोपमाणि । अरतिशोरुषंढवेदतिर्यग्द्विकभयद्विकनरकद्विकर्तजसद्विकोदा
रिकद्विकवक्रियिकद्विकातपद्विकनीचैर्गोत्रत्रसचतुष्कवर्णचतुष्कागुरुलघुचतुष्कैकेंद्रियपञ्चेन्द्रियस्थावर निर्माणासद्गम - २० नास्थिरषटकानां विंशतिकोटीकोटिसागरोपमाणि हास्यरत्युच्चैर्गोत्रपुंवेदस्थिरषट्कप्रशस्तगमनदेवद्विकानां
सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। चारित्र मोहनीयकी सोलह कषायोंका चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। संस्थान और संहननोंमें-से अन्तिम संस्थान और अन्तिम संहननका मूलप्रकृति नामकर्मकी तरह बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। शेष संस्थान और संहननोंका समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन पर्यन्त दो-दो कोडाकोड़ी सागर घटता हुआ है अर्थात् वामन संस्थान और कीलित संहननका अठारह, कुब्ज संस्थान और अर्धनाराच संहननका सोलह, स्वातिसंस्थान और नाराच संहननका चौदह, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और वज्रनाराच संहननका बारह, तथा समचतुरस्त्र संस्थान और वज्रवृषभ नाराच संहननका दस कोडाकोड़ी सागर है। विकलत्रयका अठारह कोड़ाकोड़ी
सागर प्रमाण है। अरति, शोक, नपुंसकवेद, तियश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, भय, जुगुप्सा, ३० नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तैजस, कार्मण, औदारिक, औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर
व अंगोपांग, आतप, उद्योत, नीचगोत्र, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात परघात उच्छ्वास, एकेन्द्रिय, पश्चेन्द्रिय, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्त विहायोगति,
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१२९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळगुत्कृष्ट ) स्थितिबंधं तस्याद्धं दशकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणमक्कु हास्यादि १३ आहारकद्वय
*सा १० को २ तीर्थमबी प्रकृतित्रयक्कुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येकं अन्तःकोटीकोटयः अन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुं आ २ ती १ . सुरनारकायुष्यंगळगे स्थितिबंधोत्कृष्टं ओघः त्रयत्रिंशत्सागरोपम
सा अन्तः को २ प्रमाणमक्कुं- सुरायु १ ना १ तिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळगुत्कृष्टस्थितिबंधं त्रीणि पल्यानि त्रिपल्यो
सागरोपम ३३ पमप्रमाणमकुं- ति १ म १ इंतुत्तरप्रकृतिगळु १२० ककं पेन्दीयुत्कृष्टस्थितिबंधंगळु संजिपंचें. ५
- पल्योपम३ द्रियपर्याप्तकोळप्पुवु । एकेंद्रियाद्यसंज्ञिपय॑न्तमादुवक्के मुंदे पेळ्दपरु । तत्तत्प्रकृतिबंधयोग्यनोळेबिदरिंदमुत्कृष्टस्थितिबंधं संसारकारणमप्पुरिंदमशुभमप्पुरिदं । शुभाशुभकम्मंगळगं चतुर्गतिय संक्लिष्टजीवर्गाळदं कट्टल्पडुगुमेंबुदत्य- असा १ घा १९ सा १ स्त्री १ म २ मि १
सा ३० को २ सा १५ को २ सा ७० को २ चारि १६ ह१ अ१ वा१कि १ कु१ अर्द्ध १ स्वा१ना १ न्य१ वज्र १ सा ४० को २ सा २० को २ सा १८ को २ सा १६ को २ सा १४ को २ सा १२ को २ सम १ वज्र १ वि ३ सू३ अरत्यादि ४१ हास्यादि १३ आ २ ती १ सा १० को २ सा १८ को २ सा २० को २ सा १० को २ सा. अन्तः को २ सु १ ना १ तिर्य १ मनु १ अन्तु प्रकृति १२० ॥ सा ३३ पल्या ३
__ अनंतरमी पेन्द शुभाशुभप्रकृतिगळगुत्कृष्ठस्थितिबंधक्के संक्लेशपरिणाममे कारणं । तिर्यग्मनुष्यदेवायुस्त्रयमं कळेदेंदु पेळ्दपरु :तस्या-दशकोटीकोटिसागरोपमाणि । आहारकद्वयतीर्थकृतोरन्तःकोटीकोटिसागरोपमाणि । सुरनरकायुषोः ओघः त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । तिर्यग्मनुष्यायुषोः त्रीणि पल्यानि । अयमत्कृष्टस्थितिबन्धः संज्ञिपर्याप्तस्यैव असंश्यतानामग्ने प्ररूपणात । योग्ये इत्यनेन अयं संसारकारणत्वात् अशुभत्वात् शुभाशुभकर्मणां चातुर्गतिकसंक्लिष्टैरेव बध्यते इत्यर्थः ॥१२८-१३३॥ आयुस्त्रयवजितशुभाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिकारणं संक्लेश एवेत्याह
अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीति इनका बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। हास्य, रति, उच्चगोत्र, पुरुषवेद, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, प्रशस्तविहायोगति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वीका उससे आधा अर्थात् दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। आहारकद्विक और तीर्थकरका अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। देवायु नरकायुका
ओघ अर्थात् तेतीस सागर प्रमाण है। तियञ्चायु और मनुष्यायुका तीन पल्य है। यह उत्कृष्ट २० स्थितिबन्ध संज्ञी पर्याप्तकके ही होता है। एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यन्तका आगे कहा है । 'योग्य' शब्दसे बतलाया है कि यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संसारका कारण और अशुभ है। अतः शुभ और अशुभ कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गतियोंके संक्लेशपरिणामी जीवोंके द्वारा ही बाँधा जाता है ।।१२८-१३३।।
___आगे कहते हैं कि तीन आयुको छोड़कर अन्य शुभ अशुभ सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट है। स्थितिबन्धका कारण संक्लेश ही है
क-१७
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प११
१३०
गो कर्मकाण्डे सव्व हिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण ।
विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥१३४॥ सर्वस्थितीनामुत्कृष्टस्तूत्कृष्टसंक्लेशेन विपरोतेन जघन्यः आयुस्त्रयज्जितानां तु ॥
तु मत्ते यो पेळद आयुस्त्रयज्जितानां तिर्यग्मनुष्यदेवायुज्जितंगळप्प सर्वप्रकृतिगळ ५ स्थित्युत्कृष्टंगळु उत्कृष्टसंक्लेशदिदं बंधंगळप्पुवु। तु मते विपरीतेन उत्कृष्टविशुद्धिपरिणामंगळिदं
जघन्यस्थितिबंधंगळप्पुवु। तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळगे उत्कृष्टविशुद्धिपरिणामदिदं उत्कृष्टस्थितिबंधंगळप्पुवु । तद्विपरीतपरिणामदिद जघन्यस्थितिबंधंगळप्पुवुपं११ A
4 =०००००००
। aaj aaa प ११ ! !
aaj aaja
! अनंतर मुत्कृष्टस्थितिबंधक्के स्वामिगळं पेन्दपरु :. सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो ।
आहारं तित्थयरं देवाउं चावि मोत्तण ॥१३॥ सर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणितः। आहारं तीर्थंकरं देवायुश्वापि मुक्त्वा ।
_ आहारद्विकम तीर्थकरनाममुं देवायुष्यममं कळेदुळिद ११६ रुं प्रकृतिगळ सर्वोत्कृष्ट स्थितिगळ्गे तु मत मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणितः मिथ्यादृष्टिजीवने बंधकने दु अनादिनिधनार्षदोल १५ पेळल्पट्टनु । देवायुराहारद्विकतीर्थमबी ४ प्रकृतिगळ्ग सम्यग्दृष्टिबंधकनेदु पेळल्पट्ट ।
अनंतरं देवायुरादि ४ प्रकृतिगळ्गे बंधकरं पेळ्दपरु :
तु-पुनः तिर्यग्मनुष्यदेवायुर्वजितसर्वप्रकृतिस्थितीनां उत्कृष्ट उत्कृष्ट संक्लेशेन भवति । तु-पुनः तासां जघन्यं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन भवति । तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति ॥१३४॥ उत्कृष्टस्थितिबन्धकमाह
आहारकद्विकं तीर्थ देवायुश्चेति चत्वारि मुक्त्वा शेष ११६ प्रकृतिसर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिरेव बन्धको भणितः तच्चतुर्णा तु सम्यग्दृष्टिरेव ॥१३५॥ तत्रापि विशेषमाह
तिर्यश्चायु मनुष्यायु देवायुको छोड़कर सब प्रकृतियोंकी स्थितिका उत्कृष्टबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है । तथा उनका जघन्यबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामसे होता है। तीनों आयु
का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामसे और जघन्यबन्ध उससे विपरीत परिणामोंसे २५ होता है ।।१३४।।
उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसके होता है, यह कहते हैं
आहारकद्विक, तीर्थकर और देवायु इन चारको छोड़कर शेष एक सौ सोलह प्रकृतियोंकी सर्वोत्कृष्ट स्थितियोंका बन्धक मिथ्यादृष्टिको ही कहा है। किन्तु इन चारका बन्धक सम्यग्दृष्टि ही है ॥१३५।।
उसमें भी विशेष कहते हैं१. बन्धमाह।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
देवाउगं पमत्तो अहारयमप्पमत्तविरदो दु ।
तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्म समज्जेइ || १३६॥
देवायुः प्रमत्तः आहारकमप्रमत्तविरतस्तु । तीर्थंकरं च मनुष्योऽविरत सम्यग्दृष्टिः
समज्जयति ॥
देवायुष्योत्कृष्टस्थितिबंधमं प्रमत्तसंयतं माळपनेके दोडे देवायुष्यमप्रमत्तसंयतनो व्युच्छि त्तियक्कुमप्पोडमल्लियुत्कृष्ट स्थितिबंध मागदे के 'दोडे – तीव्र विशुद्ध नप्प सातिशयाप्रमत्तंगायुबंधयोग्य परिणामं संभविसदु । निरतिशयाप्रमत्तनोळुमुत्कृष्टायुस्थितिबंधं संभविसददु कारणदि प्रमत्तसंयतने देवायुष्योत्कृष्ट स्थितिबंधमनप्रमत्तगुणस्थानाभिमुखं विशुद्धं माळपनप्पुदरिदं । आहारकद्वयोत्कृष्टस्थितिबंधमं तु मते प्रमत्तगुणस्थानाभिमुखनप्प संक्लिष्टाप्रमत्तं माळकुमेकें दोडा स्त्रितयवज्जित सर्व्वक मंगळ गुत्कृष्टस्थितिबंधमुत्कृष्ट संक्लेशपरिणार्मादिदमेयक्कुमप्युदरिदं । तीत्थंकरनामकर्मक्कुत्कुष्टस्थितिबंधमं नरकगतिगमनाभिमुखनप्प मनुष्यासंयतसम्यग्दृष्टिये माकुं ॥
अनंतरमा ११६ प्रकृतिगळ गुत्कृष्टस्थितितिबंधमं माळप मिथ्यादृष्टिगळं गाथाद्वयविवं पेलवपद :
तिरिया सेसाउं वेगुव्वियछक्कवियल सुडुमतियं । सुरणिरया ओरालियतिरियदु गुज्जीवसंपत्तं ॥ १३७॥ देवा पुण एइंदिय आदावं थावरं च सेसाणं ।
१३१
उक्कस्ससंकिलिष्ठा चदुगदिया ईसिमज्झिमया || १३८ || गाथाद्वयं नरतिय्यं शेषायुर्वे क्रियिकषट्कविकल सूक्ष्मत्रयं । सुरनारकाः औदारिकतियं द्विकोधोताऽसंप्राप्तं ॥
१०
२०
देवायुः उत्कृष्टस्थितिकं प्रमत्त एवाप्रमत्तगुणस्थानाभिमुखो बध्नाति । अप्रमत्ते तद्व्युच्छित्तावपि तत्र सातिशये तीव्रविशुद्धत्वेन तदबन्धात् निरतिशये च तदुत्कृष्टासंभवात् । तु पुनः आहारकद्वयं उत्कृष्टस्थितिकं अप्रमत्तः प्रमत्त गुणस्थानाभिमुखः संक्लिष्ट एव बध्नाति आयुस्त्रयवर्जितानां उत्कृष्टस्थितेः उत्कृष्टसंक्लेशेन इत्युक्तत्वात् । तीर्थंकरं उत्कृष्टस्थितिकं नरकगतिगमनाभिमुखमनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टिरेव बघ्नाति ॥१३६॥ शेषाणां ११६ उत्कृष्टस्थितिबन्धक मिथ्यादृष्टीन् गाथाद्वयेनाह
१५
२५
देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्तगुणस्थानके अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि ही बाँधता है । यद्यपि देवा के बन्धकी व्युच्छित्ति अप्रमत्तमें ही होती है तथापि सातिशय अप्रमत्तके तो विशुद्ध परिणाम होनेसे देवायुका बन्ध ही नहीं है और निरतिशय अप्रमत्तके बन्ध तो होता है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । आहारकद्वयकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख संक्लेश- परिणामी, अप्रमत्त ही बाँधता है; क्योंकि तीन आयुको छोड़ शेष कर्मोंकी उत्कृष्टस्थिति उत्कृष्ट संक्लेशसे बँधती है ऐसा कहा है। तीर्थंकरकी उत्कृष्ट स्थिति ३० नरकगति में जाने अभिमुख असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही बाँधता है क्योंकि तीर्थंकरका बन्ध करनेवाले जीवोंमें उसीके तीव्र संक्लेश होता है || १३६ ||
शेष एक सौ सोलह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक मिध्यादृष्टियोंको दो गाथाओंसे कहते हैं
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१०
गो० कर्मकाण्डे
देवाः पुनरेकेंद्रियमातपं स्थावरं च शेषाणामुत्कृष्टसंक्लिष्टाश्चातुर्गतिकाः ईषन्म
ध्यमकाः ॥
नरतिय्यग्गतिद्वय मिथ्यादृष्टिगळ शेषनरतिय्यंग्मनुष्यायुस्त्रितयक्कं वैक्रियिकषट्कक्कं विकलत्रयक्कं सूक्ष्मत्रयक्कमुत्कृष्टस्थितिबंधमं माळपरु । सुरनारकाः देवनारक मिथ्यादृष्टिगळु ५ औदारिकद्वयक्कं तिर्य्यग्यक्कं उद्योतनामक्कमसंप्राप्त सृपाटिकासंहननक्कमुत्कृष्टस्थितिबंधमं माळरु | पुनर्द्देवाः मत्ते देवगतिय मिथ्यादृष्टिगळे एकेंद्रियजातिनाममनातपनाममं स्थावरनाम - मनुत्कृष्टस्थिति कंगळप्पुवन्तु बंधमं माळपरु । शेषाणां ई कंठोक्तमागि पेळल्पट्ट २४ प्रकृतिगळं कळेबु शेष ९२ प्रकृतिगळुत्कृष्टसंक्लिष्टरु गळु मीषन्मध्यमकरुगळप्प चातुर्गतिकमिथ्यादृष्टिगळुत्कृष्टस्थितिबंधमं माळपरु ।
१३२
१५
२८.
देवाः | उक्तशेष |
एव
ए १
आ १
स्था
सूरनार
काः
औ २
ति २
उ १ आ १
नरतिय्य
चरु
आ ३
व ६ वि ३ सू ३
प १२
प ११
५३ Ea
५२ aa
aa
५१ a ५० ४९ | a ४८
१८६ ४५
58
१८२ ૪૪
४७ स
१७८
४३
४६
४२
४३ ४४ ४५
४१
४२ ४३
४०
.४१ ४२
४१
३९ ४० a जई सि | मज्झिमम
इल्लि उत्कृष्टेषन्मध्यम संक्लेशपरिणा मंगळगुपपत्तियं पेव्वपद :
6 B
44१२०
००००००००००
શ્
२२२
२१८
२१४
२१०
२०६
२०२
प १
स्थिति
५४ ५५ ५६ ५७
५३
५२
५१
५०
१७४
१७०
१६६
१६२
४९
१९८ ૪૮
१९४ ४७ १९०
४६
a
५४ ५५ ५६ Ea ५३ ५४ ५५ ५२ ५३ ५४ 58
Ba
५१ ५२
५० ५१
४९ ५०
४८ ४९
४७ ४८
४६ ४७
४५ ४६ ૪૪ ४५
aa
e
૪૪ ४३
४२ Ea
उ
नरकतिर्यग्मनुष्यायूंषि वैक्रियिकषट्कं विकलत्रयं सूक्ष्मत्रयं चोत्कृष्ट स्थितिकानि नराः तिर्यचश्च न्ति दारिकद्वयं तिर्यग्योद्योतासंप्राप्तसूपाटिकसंहननानि सुरनारका एव । एकेन्द्रियातपस्थावराणि पुनः देवाः । शेषद्वानवति उत्कृष्टसंक्लिष्टा ईषन्मध्ममसं क्लिष्टाश्च चातुर्गतिकाः । अत्रोत्कृष्टेषन्मध्यमसंक्लेशपरिणामोपपत्तिमाह
नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, वैक्रियिकषट्क, विकलत्रय, सूक्ष्म आदि तीनको उत्कृष्ट स्थिति मनुष्य और तिर्श्वच बाँधते हैं । औदारिकद्विक, तिर्यञ्चद्विक, उद्योत, असंप्राप्तसृपाटिका संह की उत्कृष्ट स्थिति देव और नारकी ही बाँधते हैं । एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर की उत्कृष्ट स्थिति देव बाँधते हैं। शेष बानबे प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेशवाले. या ईषत् मध्यम संक्लेश वाले चारों गतिके जीव बाँधते हैं । यहाँ उत्कृष्ट ईषत् मध्यम संक्लेश २० परिणामोंकी उपपत्ति कहते हैं ।
ॐ
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उक्कस्ससंकिकिटुस्स उत्कृष्टसंक्लिष्टनप्प मिथ्यादृष्टिगं ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा ईषन्मध्यमपरिणाममिथ्यादष्टिगं मेण उक्कस्सटिदिबंधो होदि उत्कृष्टस्थितिबंधमक्कं। उक्कस्स द्विदिबंधपाओग्ग असंखेज्जळोगपरिणामाणं उत्कृष्टस्थितिबंधप्रायोग्यासंख्येयलोकपरिणामंगळगे पळिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तखंडाणि कादूण पलितोपमासंख्येय भागमात्रखंडंगळं माडि तत्थ आ खंडंगळोळु चरिमखंडस्स चरमखंडक्के उक्कस्ससंकिळेसो णाम उत्कृष्टसंक्लेशव्यपदेशमक्कुं। ५ प्रथमखंडस्स प्रथमखंडक्क ईसिसंकिळेसो णाम ईषत्संक्लेशव्यपदेशमक्कुं। दोण्हं विच्चाळखंडाणं तवयान्तरालखंडगळगे मज्झिमसंकिळेसो णामेत्ति उच्चदि मध्यमसंक्लेश ब व्यपदेशमक्कुम दिन्तु पेळल्पटुदु। एवं सेससवहिदिवियप्पेसु वत्तव्वं ई प्रकारदिदमे शेषसर्वस्थितिविकल्पंगळोळु वक्तव्यमकुं। एत्थ सव्वपयडीसु इल्लि सर्वप्रकृतिगळोळ सगसगठिदिवियप्पो स्वस्वस्थितिविकल्पं उड्ढगच्छो होदि ऊर्द्धगच्छमकुं। तिर्यग्गच्छो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि १० तिर्यग्गच्छमुं पळितोपमाऽसं(ख्येयभागमक्कुं) गुणहाणि आयामो गुणहान्यायाममुं पळिदोवमस्सासंखेज्जदिभागो होदि पलितोपमासंख्येयभागमक्कं । णाणागुणहाणिसळागाओ नानागुणहानिशलाकगळं पल्लछेदासंखेज्जदिभागे होदि पल्यच्छेवासंख्येयभागमक। अण्णोण्णभरासि अन्योन्याभ्यस्त राशियुं पळिदोवमस्सासंखेज्जदिभागो होदि पलितोपमासंख्येयभागमक्कं। एत्थ अत्र अणुकड्ढिरयणाविहाणं अधापवत्तकरणंव वत्तव्यं इल्लि अनुकृष्टिरचनाविधानमधःप्रवृत्तिकरणवद्वक्तव्य- १५ मक्कं । अदेंत दोडे-धनं ३०७२। पद-१६ । कदि १६ । १६। संखेण ३ भाजिदे ३०७२।
२५६ । ३
उक्कस्ससंकिलिस्स-उत्कृष्टसंक्लिष्टमिथ्यादष्टेः, ईसिमज्जिमपरिणामस्स-वा ईषन्मध्यमपरिणाममिथ्यादृष्टा, उक्कस्सटिदिबन्धो होदि-उत्कृष्टस्थितिबन्धो भवति उक्कस्सठिदिबंधपाउग्गअसंखेज्जलोगपरिमाणं-उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रायोग्यासंख्येयलोकपरिणामानां, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखण्डाणि कादूण पलितोपमासंख्येयभागमात्रखण्डानि कृत्वा, तस्य-तेषु खण्डेषु, चरमखण्डस्स-चरमखण्डस्य, उक्कस्ससंकिलेसो २० णाम-उत्कृष्टसंक्लेशव्यपदेशो भवति । पढमखण्डस्स-प्रथमखण्डस्य, ईसिसंकिलेसो णाम-ईषत्संक्लेशव्यपदेशो भवति । दोण्हं, विच्चालखण्डाणं-द्वयोरंतरालखण्डानां मज्झिमसंकिलेसो णामेत्ति उच्चदि-मध्यमसंक्लेशव्यपदेश इत्युच्यते । एवं सेसरावठिदिवियप्पेसु वत्तव्वं-एवं शेषसर्वस्थितिविकलेषु वक्तव्यं । एत्थ सव्वपयडीसु-अत्र सर्वप्रकृतिषु, सगसगठिदिवियप्पो-स्वस्वस्थितिविकल्पः, उड्ढगच्छो होदि ऊर्ध्वगच्छो भवति । तिरियगच्छो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि-तिर्यग्गच्छः पलितोपमासंख्येयभागो भवति । २५ गुणहाणि आयामो गुणहान्यायामः पलितोपमस्सासंखेज्जदिभागो होदि-पलितोपमासंख्येयभागो भवति । एत्थ अणुकरियणाविहाणं अधापवत्तकरणं व वत्तव्वं-अत्रानुकृष्टिरचनाविधानं अधःप्रवृत्तकरणवद्वक्तव्यं । तद्यथा
उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके अथवा ईषत् मध्यम परिणाम वाले मिध्यादृष्टिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। उत्कृष्टस्थितिबन्धके प्रायोग्य असंख्यात लोक परिणामों के पल्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र खण्ड करके उन खण्डोंमें चरमखण्डका नाम ३० उत्कृष्ट संक्लेश है और प्रथमखण्डको ईषत्संक्लेश नामसे कहते हैं । दोनोंके बीचके खण्डोंको मध्यमसंक्लेश कहते हैं। इसी प्रकार शेष सब स्थितिके विकल्पोंमें जानना। यहाँ सब प्रकृतियों में अपनी-अपनी स्थितिके विकल्प ऊर्ध्वगच्छ है और तिर्यगच्छ पल्योपमके असख्यात भाग है। गुणहानि आयाम पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। यहाँ अनुकृष्टि रचनाका विधान अधःप्रवृत्तकरणकी तरह कहना चाहिए जो इस प्रकार है
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गो० कर्मकाण्डे
पचयं ४ । व्येकपद १६ । अर्द्ध १५ घनचय १५ ४ । गुणो गच्छ १५ ४।१६ । उत्तरधनं
२२ ४८० । चय धनहीनं द्रव्यं २५९२ । पदभजिदे । प्र १६ फ २५९२। इ१। लब्ध मादि धनं भवति
अङ्कसंदृष्टी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि द्वासप्तत्यधिकत्रिसहस्री ३०७२ स्थितिविकल्पाः षोडश १६ पदकृत्त्या २५६ संख्यातेन च ३ सर्वधने भक्त ३०७२ चयो भवति ४। व्येकपदार्थ १५ घनचयः १५ । ४
२५६ । ३ गुणो गच्छः १५ । ४ । १६ । ४८० चयधनं भवति । अनेन सर्वधनं ३०७२ ऊनयित्वा २५९२ पदेन १६
भक्तं सत जघन्यस्थितिकारणपरिणामसंख्या भवति १६२ । अत्रकचये ४ वद्ध सति एकैकसमयाधिकद्वितीयादिस्थितिकारणपरिणामप्रमाणानि भवन्ति । पुनः अनुकृष्टिपदेन ४ ऊर्ध्वचये ४ भक्त तिर्यकुचयो भवति १ । व्येकपदार्थ ३ घ्नचयः ३ । १ गणो गच्छः ३ । १। ४ चयधनं ६ भवति । अनेन जघन्यस्थितिकारणपरिणाम
प्रमाणं १६२ हीनं कृत्वा अनुकृष्टिगच्छेन भक्तं सत प्रथमखण्डप्रमाणं स्यात् ३९ । अत्रैकैकतिर्यकच १० द्वितीयादिखण्डानि स्मुः ४० । ४१ । ४२ । एवं शेषद्वितीयादिचरमपर्यन्तस्थितिपरिणामा अपि तिर्यग्रच
जैसे जीवकाण्ड में गुणस्थानोंका कथन करते हुए सातिशय अप्रमत्तके अधःप्रवृत्तकरणका स्वरूप कहा है वैसे ही यहाँ अंकसंदृष्टि के कथन द्वारा जानना । जैसे वहाँ अंकसंदृष्टि में सर्वधनका प्रमाण तीन हजार बहत्तर ३०७२ है वैसे ही यहाँ सर्व स्थितिबन्धाध्य
वसाय स्थानोंका प्रमाण ३०७२ जानना । जैसे वहाँ ऊर्ध्वगच्छका प्रमाण सोलह कहा, वैसे १५ ही यहाँ विवक्षित कर्मकी जघन्य स्थितिसे लेकर एक-एक समय अधिक उत्कृष्ट स्थिति
पर्यन्त जितने स्थितिके भेद हों उतना ऊर्ध्वगच्छ जानना । जैसे गच्छ १६ का वर्ग दो सौ छप्पन और संख्यात तीनका भाग सर्वधन ३०७२ में देनेपर चार पाये सोचयका प्रमाण चार है, वैसे ही यहाँ जो ऊर्ध्वगच्छका प्रमाण कहा, उसका वर्ग करके संख्यातसे गुणा करें और
उसका भाग सर्वधनमें देनेपर जो प्रमाण आवे उतना चय जानना। ऊव रचनामें इतनी२० इतनी वृद्धि जानना । जैसे एक कम गच्छ पन्द्रहका आधा करके उसे चयके प्रमाण चारसे
गुणा करनेपर तीस होता है। उसे गच्छ सोलहसे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी होता है। वही चय धनका प्रमाण है । उसे सर्वधन तीन हजार बहत्तर में-से घटानेपर दो हजार पाँच सौ बानबे २५९२ शेष रहे। उसे गच्छ सोलहसे भाग देनेपर एक सौ बासठ पाये, सो प्रथम
स्थान जानना । उसी प्रकार यहाँ जो गच्छका प्रमाण कहा उसमें एक कम करके तथा उसका २५ आधा करके उसे चयसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उसे गच्छसे गुणा करनेपर जो प्रमाण
हो उतना चयधन जानना। इस चयधनको सर्वधनमें-से घटाकर जो प्रमाण रहे उसमें गच्छके प्रमाणसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने अध्यवसाय स्थान जघन्य स्थितिबन्धके कारण हैं। तथा जैसे आदि स्थान एक सौ बासठमें एक चय चार मिलानेपर दूसरा स्थान
एक सौ छियासठ होता है, वैसे ही यहाँ जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंका ३. जो प्रमाण कहा उसमें पूर्वोक्त चयका प्रमाण मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने अध्यवसाय
स्थान जघन्य स्थितिसे एक समय अधिक दूसरी स्थिति के बन्धके कारण होते हैं। उसमें एक चय मिलानेपर जघन्यसे दो समय अधिक तीसरी स्थितिके बन्धके कारण अध्यवसाय स्थान
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १६२ । आदिम्मि च य उड्डे पडिसमयधणं तु भावाणं । १६६ । १७० । १७४ । इत्यादि विधानमं जीवकांडदोळेतनुकृष्टिविधानमंते अर्थसंदृष्टियोळुमरियल्पडुगुं ॥ यितव्याः । एवमर्थसंदृष्टावपि रचनां कृत्वा अधःप्रवृत्त करणवदुपरितनस्थितिपरिणामखण्डानां अधस्तनस्थितिपरिणामखण्डैः सह संख्यया संक्लेशविशुद्धिभ्यां च सादृश्यादिकं वक्तव्यमित्यर्थः ॥ १३७-१३८ ।।
जानने। इस प्रकार उत्कृष्टस्थिति पर्यन्त एक-एक चय बढ़ाना चाहिए। जैसे अंक संदृष्टिमें १६२, १६६, १७०, १७४, १७८, १८२, १८६, १९०, १९४, १९८, २०२, २०६, २१०,२१४, २१८, २२२ है वैसे ही जानना। तथा जैसे अंकसंदृष्टिमें तिर्यक् गच्छका प्रमाण चार है वैसे ही यहाँ तिर्यक्गच्छका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण जानना। इस तिर्यगच्छको अनुकृष्टिगच्छ भी कहते हैं। सो जैसे अनुकृष्टिगच्छ चारका भाग ऊर्ध्वरचनामें चयके प्रमाण चार में देनेपर एक आता है। वह एक अनुकृष्टि में चय जानना। वैसे ही यहाँ अनुकृष्टि गच्छका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग कहा। उसका भाग पूर्वोक्त चयके प्रमाणमें देनेपर जो प्रमाण आवे उतना अनुकृष्टिका चय जानना । तथा जैसे अनुकृष्टिके गच्छ चारमें-से एक कम करके उसका आधा करके उसे चयसे तथा गच्छसे गुणा करनेपर छह होते हैं वही अनुकृष्टिका चयधन होता है। उसको अनुकृष्टिके सर्वधन १६२ में-से घटानेपर एक सौ छप्पन १५६ रहे। उसमें अनुकृष्टि के गच्छ चारसे भाग देनेपर उनतालीस ३९ आते । हैं वही प्रथम स्थानका प्रथम खण्ड है। वैसे ही यहाँ अनुकृष्टि गच्छ में से एक घटाकर उसका अधिा करके उसे अनुकृष्टि गच्छके चयसे तथा गच्छसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वही अनुकृष्टिका चयधन जानना। उसे जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंके प्रमाणमें-से घटानेपर जो शेष रहे उसमें अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वह जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंका प्रथम खण्ड जानना। इनकी १०
२२२
प १५
प ११
२१८ २१४ २१० २०६ २०२ १९८ १९४
१९०
०००
levlor
१८६ १८२ १७८ १७४
१७० १६६
६२
प १ सिति
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१३६
गो कर्मकाण्डे अनंतरं मूलप्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंधमं पेळ्दपरु :
बारस य वेयणीये णामागोदे य अट्ठ य मुहुत्ता ।
भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥१३९।। द्वादश वेदनीये नामगोत्रे चाष्टौ मुहूर्ताः । भिन्नमुहूर्ता तु स्थितिजघन्या शेषपंचानां ॥
वेदनीयवाळु जघन्यस्थितिबंध द्वादशमुहूत्तंगळप्पुवु । नामगोत्रं गळोळु प्रत्येकमष्टमुहूतंगळु जघन्यस्थितिबंधमक्कं । शेषपंचमूलप्रकृतिगळगे तु मते जघन्यस्थितिबंधमन्तर्मुहूर्तमानं प्रत्येकमक्कं । ज्ञा २३ । द २१ । वे। मु १२ । मो २१ आ २२ नाम मु ८ । गोत्र मु ८ । अं२१॥ अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळगे गाथाचतुष्टयदिदं जघन्यस्थितिबंधमं पेदपरु :
लोहस्स सुहुमसत्तरसाणं ओघं दुगेक्कदलमासं ।
कोहतिये पुरिसस्स य अट्ठ य वस्सा जहण्णठिदी ॥१४०॥ लोभस्य सूक्ष्मसप्तदशानामोघः द्वचेक दळमासः । क्रोधत्रये पुरुषस्य चाष्ट वर्षाणि जघन्यस्थितिः॥ अथ मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धानाह
जघन्यस्थितिबन्यो वेदनीये द्वादश मुहूर्ताः, नामगोत्रयोरष्टो, शेषपञ्चानां तु पुनः एकैकोऽन्त१५ महतः ॥१३९।। अथोत्तरप्रकृतीनां गाथाचतुष्टयेनाह
संज्ञा ईषत् है। तथा जैसे उनतालीसमें अनुकृष्टिका एक चय मिलानेपर चालीस होता है। यह दूसरा खण्ड है, उसमें एक चय मिलानेपर तीसरा खण्ड होता है इकतालीस, वैसे ही प्रथम खण्डमें अनुकृष्टिका चय मिलानेपर दूसरा खण्ड होता है । उसमें एक चय मिलानेपर तीसरा खण्ड होता है। इस प्रकार एक कम अन्तिम खण्ड पर्यन्त जितने खण्ड हों उनकी मध्यम संज्ञा है । तथा जैसे अन्तिम खण्ड बयालीस है वैसे ही यहाँ एक-एक चय मिलानेपर अन्तिम खण्डका जो प्रमाण हो उसकी उत्कृष्ट संज्ञा है। इस प्रकार जघन्य स्थिति सम्बन्धी परिणामोंके खण्ड कहे । तथा जैसे दूसरा स्थान एक सौ छियासठ है उसके चार खण्डोंमें ४०, ४१, ४२, ४३ प्रमाण कहा है। वैसे ही यहाँ भी जघन्यसे एक समय अधिक दूसरी
स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानों के खण्डोंका प्रमाण पूर्वोक्त विधानके अनुसार जानना । २५ जैसे अन्तके स्थानमें दो सौ बाईस प्रमाण होता है और उसके खण्डोंका चौवन, पचपन,
छप्पन, सत्तावन, ५४, ५५, ५६, ५७ प्रमाण होता है। उसी प्रकार यहाँ एक एक ऊर्ध्वचय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंका जो प्रमाण होता है, उसके पूर्वोक्त विधानसे खण्ड करनेपर प्रथम खण्डकी ईषत् संक्लेश संज्ञा है। मध्यके खण्डोंकी मध्य संक्लेश संज्ञा है और अन्तके खण्डकी उत्कृष्ट संक्लेश संज्ञा है। अधःकरणकी तरह यहाँ भी नीचेकी स्थितिके कारण अध्यवसाय और उनके ऊपर की स्थितिके कारण अध्यवसायोंमें संख्या, संक्लेश और विशुद्धिसे समानपना जानना । इसीका नाम अनुकृष्टि है ।।१३७-१३८॥
मूल प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं
जघन्य स्थितिबन्ध वेदनीयमें बारह मुहूर्त है, नाम और गोत्रमें आठ मुहूर्त है। शेष ११ पाँच कर्मों में एक-एक अन्तर्मुहूर्त है ।।१३९।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१३७ लोभकषायक्केयु सूक्ष्मसांपरायन बंधप्रकृतिगळु १७ क्कं मूलप्रकृतिगळ्गे पेळ्दोघं जघन्यस्थितिबंधमक्कुं। क्रोधमानमायात्रयक्के यथाक्रमदिवं द्विमासमुमेकमासमुमद्धमासमुमक्कुं। पुरुषवेवक्के जघन्यस्थितिबंधमष्टवषंगळप्पुवु ॥
तित्थाहाराणंतोकोडाकोडीजहण्णठिदिबंधो ।
खवगे सगसगबंधणछेदणकाले हवे णियमा ॥१४॥ तोहाराणामतःकोटोकोटिर्जघन्यस्थितिबंधः । क्षपके स्वस्वबंधच्छेदनकाले भवेन्नियमात् ॥
- तीर्थनामप्रकृतिगमाहारद्वयक्कं जघन्यस्थितिबंधमन्तःकोटीकोटिसागरोपममक्कुमी प्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंधंगळ क्षपकरोळु तंतम्म बंधव्युच्छित्तिकालदोळे तंतम्म गुणस्थानचरमदोळे नियमदिवमप्पुवु॥
भिण्णमुहत्तो णरतिरिआऊणं वासदससहस्साणि ।
सुरणिरय आउगाणं जहण्णओ होदि ठिदिबंधो ॥१४२॥ भिन्नमुहूर्तो नरतियंगायुषोः वर्षदशसहस्राणि। सुरनारकायुषोः जघन्यो भवति स्थितिबंधः॥
मनुष्यायुष्यकं तिय्यंगायुष्यक्कं जघन्यस्थितिबंधमन्तर्मुहूर्तमक्कुं। सुरायुष्यक्कं नरकायु- १५ व्यक्कं जघन्यस्थितिबंध दशसहस्त्रवर्षगळप्पुवु ॥
सेसाणं पज्जत्तो बादरएइंदियो विसुद्धो य ।
बंधदि सव्वजहण्णं सगसग उक्कस्सपडिभागे ॥१४३॥ शेषाणां पर्याप्तो बादर एकेन्द्रियो विशुद्धश्च बध्नाति सर्वजघन्यां स्वस्वोत्कृष्टप्रतिभागे।
लोभस्य सूक्ष्मसांपरायबन्धसप्तदशानां च जघन्यस्थितिबन्धः मूलप्रकृतिवद्भवति, क्रोधस्य द्वौ मासौ, २० मानस्यैकमासः, मायाया अर्धमासः, वेदस्याष्टवर्षाणि ॥१४०॥
तीर्थकराहारकद्विकयोरन्तःकोटीकोटिसागरोपमाणि । अयं जघन्य स्थितिबन्धः सर्वोऽपि क्षपकेषु स्वस्वबन्धव्युच्छित्तिकाले एव नियमाद् भवति ॥१४१॥
नरतिर्यगायुषोर्जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तो भवति, सुरनारकायुषोः दशसहस्रवर्षाणि ॥१४२॥ mmm
आगे उत्तर प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध चार गाथाओंसे कहते हैं
लोभ और सूक्ष्म 'साम्परायमें बँधनेवाली सतरह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध मूल प्रकृतिकी तरह होता है । अर्थात् यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका आठ मुहूर्त, सातावेदनीयका बारह मुहूर्त, शेषका एक-एक अन्तर्मुहूत जानना । क्रोधका दो मास, मानका एक मास, मायाका अर्धमास और पुरुषवेदका आठ वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है ।।१४०॥
तीर्थकर और आहारकद्विकका अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यह सब जघन्य- ३० स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणीवालोंके अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके काल में नियमसे होता है ।।१४१॥
मनुष्यायु और तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा देवायु, नरकायुका दस हजार वर्ष होता है ।।१४२॥
क-१८
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१३८
गो० कर्मकाण्डे बंधप्रकृतिगळ १२० रोळगे जघन्यस्थितिबंध कंठोक्तमागि २९ प्रकृतिगळ्गे पेळल्पटुविन्नु लिब ९१ प्रकृतिगळोळु वैकियिकषट्कर्म कळेदुळ्दि ८५ रोळं मिथ्यात्वप्रकृतियुमं कळेदु शेष ८४ प्रकृतिगळगे जघन्यस्थितियं बादरैकेंद्रियपर्याप्तजीवं सर्वजघन्यमं कटुगुमेके दोडा एकेंद्रियजीवंगा
प्रकृतिगळ बंधयोग्यं गळप्पुरिंदमन्तु कटुतलुमा प्रकृतिगळ्गे स्वस्वोत्कृष्टप्रतिभागेयोळु कटुगुं ५ राशिकविधानदिदं कटुगुमें बुनत्यमेकेदोडधिकागमननिमित्तं भागहारः। प्रतिभागहारः एंविन्तु प्रतिभागहारविधानमुटप्पुरिवं- ज लो १ ज्ञा ५ वि ५ व ४ ज स १ उच्च १ वे १ को १
२१ २१
म ८
म १२ मा २ मा १ माया १ पुं १ ति १ २ म१ति १ सु.१ ना १ उक्त २९ शेष मा १ ' मा २ वर्ष ८ सा अन्तः को २ २१ वर्ष १००००
अनन्तरमी शेषप्रकृतिगळ्गे स्वस्वोत्कृष्ट प्रतिभागदिदं जघन्यस्थितिबंधमं साधिसुषुपायमं १० पळवपरु :
एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो ।
इगिविगलाणं अवरं पन्लासंखूणसंखूणं ॥१४४॥ ___ एकः पंचकृतिः पंचाशत् शतं सहस्र च मिथ्यात्वोत्कृष्टबंधः । एकविकलानामवरः पल्यासंख्योनः संख्योनः॥
एकेंद्रियजीवंगलु मिथ्यात्वप्रकृतिगुत्कृष्टस्थितिबंधमनेकसागरोपममं मान्पुवु। द्वीन्द्रियजोवंगळमा मिथ्यात्वप्रकृतिगुत्कृष्टस्थितिबंधमं पंचविंशतिसागरोपममं माळपुवु । त्रींद्रियजीवंगळुमा
उक्ताम्यः २९ शेषप्रकृतीनां ९१ मध्ये वैक्रियिकषट्कमिथ्यात्वरहितानां ८४ जघन्य स्थिति बादरैकेन्द्रियपर्याप्तः तद्योग्यविशद्ध एव बध्नाति स्वस्वोत्कृष्ट प्रतिभागेन राशिकविधानेनेत्यर्थः ॥१४३॥ तद्यया
ऐकेन्द्रिया मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिमेकसागरोपमं बघ्नन्ति, द्वौद्रियाः पञ्चविंशतिसागरोपमाणि, त्रीन्द्रियाः
उक्त २९ प्रकृतियोंसे शेष रही ९१ प्रकृतियोंमें-से वैक्रियिकषट्क और मिथ्यात्वके बिना ८४ की जघन्य स्थितिको बादर एकेन्द्री पर्याप्त उसके योग्य विशुद्धताका धारक होकर बाँधता है । सो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिके प्रतिभाग द्वारा त्रैराशिक विधानके अनुसार बाँधता है ।।१४३।।
वही कहते हैं२५ एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण बाँधते हैं। दो-इन्द्रिय
१. बप्त एक। २. । एकें । द्वी
असं सा २५ । सा ५० | सा १०० सा १००० सा ७० को १) | ज | सा १ सा २५ सा ५ सा १०० सा १०००। । सा अतः को २/
२०
|त्री
संज्ञि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१३९
मिथ्यात्वप्रकृति गुत्कृष्टस्थितिबंधमं पंचाशत्सागरोपममं मावु । चतुरद्रियजीवंगळुमा मिथ्यात्वप्रकृतिगुत्कृष्टस्थितिबंधमं शतसागरोपमंगळं माळवु । असंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळमा मिथ्यात्वप्रकृतिगे उत्कृष्टस्थितिबंधमं सहस्रसागरोपमंगळं माळवु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्तजीबंगळु सप्ततिकोटोकोटिसागरोपमंगळनुत्कृष्टस्थितिबंधमं मिथ्यात्वप्रकृतिगे माळवरती एक विकलेंद्रियजीवंगot मिथ्यात्वप्रकृतिगे जघन्यस्थितिबंधमं क्रमदिनेकेंद्रियजीवंगळ पल्या संख्येय भागोनमुं हींद्रियादि ५ जीवंगळ मिथ्यात्व प्रकृतिगे जघन्यस्थितिबंधमं पल्यासंख्येयभागोनक्रर्मादिदं माळपद :
एक
उ सा १
ज सा १२
द्वींद्रि
सा २५
त्रीं सा ५० सा २५२ | सा ५०२
-
प १
७४
प
७ । ३
असं
चतु सा १०० सा १००० सा १००२ सा १०००२
ܘ
प - 1 ७।२
प - 1
७
तदनंतरं मुंपेदुत्कृष्ट स्थितिबंधमं संज्ञिपर्य्याप्त कमिथ्यादृष्टि माळपने कु पेळरपुवरिनोगळेकेंद्रियादिजीवंगळगुत्कृष्टस्थितिबंधमुमं जघन्यस्थितिबंधमुमं पेव्वल्लि त्रैराशिक विधानविवं oad बोर्ड
संज्ञि
सा ७० को २ सा अन्तः को २ |
जदि सत्तरिस्स एत्तियमेतं किं होदि तीसियादीणं । हृदि संपादे सेसाणं इगिविगलेसु उभयठिदी || १४५॥
यदि सप्ततेरेतावन्मात्रं किं भवति शत्कादीनां । इति संपाते शेषाणामेक विकलेषु भयस्थितिः ॥
पञ्चाशत्सागरोपमाणि चतुरिन्द्रियाः शतसागरोपमाणि, असंज्ञिनः सहस्रसागरोपमाणि, संज्ञिनः पर्याप्ता एव सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमाणि । तज्जघन्यस्तु एकेन्द्रियद्वोन्द्रियादीनां स्वस्वोत्कृष्टात्पत्यासंख्येयभागोनक्रमो १५ भवति ॥ १४४ ॥ तत्संयुत्कृष्टेन एकेन्द्रियादीनामुत्कृष्टजघन्यावाह
1
पच्चीस सागर प्रमाण बाँधते हैं । त्रीन्द्रिय पचास सागर प्रमाण बाँधते हैं। चौइन्द्रिय सौ सागर प्रमाण बाँधते हैं । असंज्ञी पवेन्द्रिय एक हजार सागर प्रमाण बाँधते हैं। संज्ञीपर्याप्त ही सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण बाँधते हैं। तथा मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे पल्यके असंख्यातवें भाग कम बाँधता है । और शेष द्वीन्द्रिय आदि अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के संख्यातवें भाग हीन बांधते हैं ॥ १४४ ॥
आगे संज्ञी पचेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रियादिके उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण कहते हैं
१०
१. ई रचनेयोलु जघन्यस्थितियोलिदे रूपन्यूनते मंदे "जे बाहोवट्टिय" एंब गाथाव्याख्यानदोलु व्यक्तमादपुदुउक्कस्सट्ठिदीबंधो सणि पज्जत्तगे जोग्गे इति गाथांतेन । सब्बुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी बंघको भणिदो । २५ इति गाथांशेन प्रागुक्तत्वात् ।
२०
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१४०
गो० कर्मकाण्डे यदि एत्तलानु सप्ततेः सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमक्के एतावन्मानं यितु प्रमाणं स्थितिबंधमक्कुमप्पोडागळु तीसियादीणं तीसियादिगळ्गे किं भवति एनितु स्थितिबंधमकुं इति इहिंगेंदु संपाते अनुपातत्रैराशिकं माडल्पडुत्तिरलु तीसियासीदिगळामवल्लद शेषाणां शेषोत्तरप्रकृति. गळ्गेयु । १८ । १६ । १५ । १४ । १२ । १० कोटोकोटिसागरोपम स्थितिबंधमनु वक्कं यथायोग्यंगळ्ग एकविकलेषु एकेंद्रियविकलेंद्रियजीवंगळोळु उभयस्थितिः उत्कृष्टस्थितिबंधमु जघन्यस्थितिबंधमुमरियल्पडुवुवदेते दोडे सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमस्थितिबंधमनुळ्ळ मिथ्यात्वप्रकृतिगे एकेंद्रियजीवनोंदु सागरोपमस्थितियं कटुत्तं विरलागळा एकेंद्रियजीवं षोडशकषायचाळीसीय. गळ्गेनितुं स्थितियं कटुगुमें दिन्तनुपातत्रैराशिकं माडि प्र सा ७० को २१ प सा १ । इ । सा ४० । को २ । गे बंद लब्धमेकेंद्रियजीवं चाळीसियंगळगे कटुउ उत्कृष्टस्थितिबंधप्रमाणमेकसागरोपमचतुःसप्तमभागमकुं सा ४ मत्तमेप्पत्तु कोटीकोटिसागरोपमस्थितिबंधमनुकळ मिथ्यात्वप्रकृतिगे एकेंद्रियजीवनेकसागरोपमस्थितियं कटुत्तं विरलागळा जीवं । असात १ घाति १९ अन्तु विशतितीसिय प्रकृतिगळ्गेनितु स्थितियं कटुगुमें दिन्तु अनुपातत्रैराशिकमं माडि । प्र सा ७० को २। फ सा १। इसा ३० को २। लब्धमेकेंद्रियजीवं तीसियंगळगे कटुववुत्कृष्टस्थितिबंधप्रमाणमेकसागरोपमत्रिसप्तमभागमक्कु सा ३ मतमप्पत्त कोटीकोटिसागरोपम मुत्कृष्टस्थितिबंधमनुळ्ळ
७
१५ सप्ततितीकोटिसागरोपमोत्कृष्टस्थितिकमिथ्यात्वस्य यद्येकसागरोपममात्रं बध्नाति तदा तीसियादीनां
किं भवति ? इति लब्धः एकेन्द्रियस्य उत्कृष्टस्थितिबन्धः चालीसियानां षोडशकषायाणां एकसागरोपमचतुःसप्तभागः सा ४ । अनेन त्रैराशिकक्रमेण तीसियानामसातवेदनीयकान्नविंशतिघातिनां एकसागरोपमत्रिसप्तभागः सा
३ । वीसियानां हुण्डासंप्राप्तसृपाटिकाऽरतिरतिशोकषंढवेदतिर्यद्विकभयद्विकतैजसद्विकोदारिकद्विकातपद्विकनीचे
सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले मिथ्यात्वका यदि एकेन्द्रिय जीव २० एक सागर प्रमाण बन्ध करता है तो जिन कर्मोंकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर आदि प्रमाण
स्थिति है उनका वह कितना बन्ध करता है ऐसा त्रैराशिक करना चाहिए । सो प्रमाणराशि सत्तर कोडाकोडी सागर, फलराशि एक सागर, इच्छाराशि जिस कर्मकी ज्ञात करना हो उसकी स्थिति तीस, चालीस, बीस आदि कोड़ाकोड़ी सागर । यहाँ फलराशिको इच्छाराशि
से गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतनी-उतनी उत्कृष्ट स्थिति उस २५ कर्मकी एकेन्द्रिय जीव बाँधता है। सो सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोड़ी
सागर है। इसको पूर्वोक्त प्रकार इच्छारांशि एक सागरसे गुणा करके उसमें प्रमाणराशि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरसे भाग देनेपर लब्ध एक सागरके सात भागोंमें-से चार भाग प्रमाण स्थिति एकेन्द्रियके बँधती है। इसी प्रकार तीस कोड़ाकोड़ी
सागर उत्कृष्ट स्थितिवाले असातवेदनीय तथा धातिया कर्मोंकी उन्नीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट ३० स्थितिबन्ध एकेन्द्रियके एक सागरके सात भागोंमें-से तीन भाग होता है। बीस कोडाकोड़ी
सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, अरति, रति, शोक,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मिथ्यात्वप्रकृतिगेकेंद्रियजीवनेकसागरोपमस्थितियं कटुत्तं विरलागळा जीव हुंडसंस्थानमुमसंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुमरतिशोकषंढवेदतिर्यदिवगक भयद्विक तेजसद्विक औदारिकद्विक आतपद्विक नोचैर्गोत्र त्रसचतुष्क वर्णचतुष्क अगुरुलघुउपघातपरघातउच्छ्वास एकेंद्रियपंचेंद्रियस्थावरनिर्माण असद्गमन अस्थिरषट्कर्म ब ३९ प्रकृतिगळु विसियंगळ्गेनितुं स्थितियं कटुगुम दितनुपतित्रैराशिकमं माडि प्र सा ७० को २। फ सा १ । इसा २० को २। गळगे लब्धमेकेंद्रियजीवं ५ विसियंगल्गे कटुवुत्कृष्टस्थितिबंधप्रमाणमेकसागरोपमद्विसप्तमभागमक्कु- सा २ मी प्रकारदिवं शेष सात स्त्रीवेद मनुष्ययुगळंगळ । सा १५ को २। स्थितिगं। वामन कोलित विकलत्रय सूक्ष्मत्रयंगळ सा १८ को २ स्थितिगं। कुब्जार्द्धनाराचंगळ सा १६ को २ स्थितिगं। स्वातिनाराचंगळ सा १४ को २ स्थितिगं। न्यग्रोधवज्रनाराचंगळ सा १२ को २ स्थितिगं। समचतुरस्रवज्रऋषभनाराचहास्यरतिउच्चैगर्गोत्रपुरुषवेदस्थिरषट्क सद्गमनमेंब १३ प्रकतिगळ सा १० को २ १० स्थितिगमिन्तु तिर्यग्गतिसंबंधिबंधयोग्यप्रकृतिगळु ११७ । रोळगे वैक्रियिकषट्कमुं सुरनारकायुर्गोत्रत्रसचतुष्कवर्णचतुष्कागुरुलधूपघातपरघातोच्छ्वासकेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियस्थावरनिर्माणासद्गमना-स्थिरषट्कानां ३९ एकसागरोपमद्विसप्तभागो भवति सा २। पुनः अनेन संपातौराशिकक्रमेण शेषाणां सागरपञ्चदशकोटी
कोटिस्थितिसातस्त्रीवेदमनुष्ययुग्मानां सागराष्टादशकोटीकोटिस्थितिवामनकीलितविकलत्रयसूक्ष्म त्रयाणां सागरषोडशकोटीकोटिस्थितिकजार्धनाराचयोः सागरचतर्दशकोटीकोरिस्थितिस्वातिनाराचयो: सागरद्वादशकोटीकोटि- १५ स्थितिन्यग्रोधवचनाराचयोः सागरदशकोटीस्थितिसमचतरसववर्षभनाराचहास्यरत्यच्चैर्गोत्रपंवेदस्थिरषटका सद्गमनानां च उत्कृष्टस्थितिबन्धं एकेन्द्रियस्य साधयेत् । एकं पञ्चविंशतिं पश्चाशतं शतं सहस्रं सागरोपमाणि चतुरः फलराशीन् कृत्वा चालीसियादीनि पृथक् पृथक् इच्छाराशीन् कृत्वा प्रमाणराशि प्राक्तनमेव कृत्वा
नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, आतप, उद्योत, नीचगोत्र, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, वणोदिचार, २० अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, एकेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिरादि छह इन ३० प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्दियके एक सार सात भागोंमें-से दो भाग प्रमाण होता है। इसी त्रैराशिकके क्रमसे शेष पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले सातवेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यद्विक आदिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रियके एक सागरके सत्तर भागोंमें-से पन्द्रह भाग प्रमाण होता है। अठारह कोड़ाकोड़ी २५ सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले वामन संस्थान, कीलितसंहनन, विकलत्रय, सूक्ष्मत्रिकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रियके एक सागरके.सत्तर भागोंमें-से अठारह भाग प्रमाण होता है। सोलह कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले कुब्जक संस्थान, अर्धनाराचसंहननका एक सागरके सत्तर भागोंमें-से सोलह प्रमाण, चौदह कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्टस्थितिवाले स्वातिसंस्थान, नाराच संहननका एक सागरके सत्तर भागोंमें चौदह भाग ३० प्रमाण, बारह कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले न्यग्रोधसंस्थान और बननाराच संहननका एक सागरके सत्तर भागोंमें-से बारह भाग प्रमाण, दस कोडाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले समचतुरस्र संस्थान वर्षभ नाराच संहनन, हास्य, रति, उच्चगोत्र,
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गो० कर्मकाण्डे
द्विकमुमेंब अयोग्यप्रकृत्यष्टकम कळेदुळिद १०९ प्रकृतिगळगी प्रतिभागक्रमदिदं उत्कृष्टस्थितिबंध. मने द्रियजीवंगळ्गे साधिसिदन्ते द्वींद्रियादिगळगं साधिसल्पडुवुदु । संदृष्टिरचने
ए । द्वीं । त्रीं । चतु असं उचाळीसि सा४ सा २५ । ४ | सा ५०४ सा १००४ उ तोसि ७ विसि सा३ सा २५ । ३ सा ५० ३, सा १००३ सा १००० ३
सा २ सा २५ । २ सा ५०२ सा १००२ सा १००० २
सा १०००४
ه م
ه ه س م م م
लब्धानि द्वीन्द्रियादीनां चालीसियादिगतोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणानि भवन्ति । एवं जघन्यस्थितिबन्धमप्येकेन्द्रियादीनां साधयेत् ॥१४५।।
५ पुरुषवेद, स्थिरादि छह और प्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध एक सागरके सात भागोंमें-से एक भाग प्रमाण एकेन्द्रिय जीवके साधना चाहिए । इसी प्रकार पच्चीस. पचास, सौ और हजार सागर इन चारको फल राशि करके चालीस आदि कोड़ाकोड़ी सागरको पृथक्-पृथक् इच्छाराशि करके और प्रमाणराशि पूर्वोक्त सत्तर कोड़ाकोड़ीको करके द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पवेन्द्रियके क्रमसे पच्चीस, पचास, सौ और हजारसे १. गुणित उक्त एकेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है।
इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना
दो-इन्द्रिय जीवके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाला मिथ्यात्व कर्म पच्चीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति लेकर बँधता है तो तीस आदि कोड़कोड़ी सागरकी
स्थितिवाले कर्म दो-इन्द्रिय जीवके कितनी स्थिति लेकर बँधते हैं ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर १५ प्रमाणराशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि पच्चीस सागर और इच्छाराशि विवक्षित __ कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण, सो फलराशिसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर
जो प्रमाण आवे उतनी-उतनी उत्कृष्ट स्थिति दो-इन्द्रिय जीवके बंधती है। सो जिनकी स्थिति चालीस कोडाकोड़ी सागर है उनकी सौ सागरका सातवाँ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति
बँधती है। जिनकी स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनकी पिचहत्तर सागरका २० सातवाँ भाग प्रमाण बँधती है। इसी प्रकार सब कर्मोकी एकेन्द्रियसे पञ्चीस गुनी उत्कृष्ट
स्थिति दो इन्द्रियके बंधती है । तेइन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागर प्रमाण बँधती है। अतः फलराशि पचास सागर करनेपर जो जो प्रमाण आवे उतनी स्थिति अन्य कोंकी बंधती है। दो इन्द्रियकी फल राशि पच्चीस सागरसे तेइन्द्रियकी फलराशि दूनी
| | चाली | सकें । द्वौं २५४ | ५० ४ | सत.. ४ अस१... ४ |
एकें
। द्वीं
| चाली
सा ५०४
सा १००४ - सा १०००४
तीसि ।
सा ५० ३
सा १००३ सा १००० ३
» 9 mar,
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२ सा २५२
सा ५०२
१०० २ सा १००० २
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१४३ मतमी एकेंद्रियाविजीवंगळगे तंतम्म योग्योत्कृष्टस्थितिबंधप्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंध. मुमी प्रकारविवं त्रैराशिकविदं साधिसल्पडुगुमादोउमा जघन्यस्थितिबंधमुं साधिसुवल्लि विशेषमुंटदाउदोडे पेळ्वपरु १०॥
सण्णि असण्णिचउक्के एगे अंतोमुत्तमावाहा ।
जेडे संखेज्जगुणा आवलिसंखं असंखभागहियं ॥१४६॥ संजिन्यसंज्ञिचतुष्के एकेंद्रिये अंतर्मुहर्तमाबाधा । ज्येष्ठायां संख्येयगुणा आवलिसंख्यमसंख्यं भागाधिका॥
संशिजीवनोळ जघन्यस्थित्याबाधे अन्तर्मुहर्तमात्रेयक्कु २११ मेके दोडे संजिजीवंगे जघन्यस्थितिबंधमन्तःकोटीकोटिसागरोपममप्पुरिंदमंतोकोडाकोडिदिदिस्स अंतोमुहत्तमाबाहा एंबागमप्रमाणमुंटप्पुर्दार असंशिचतुष्कदोळ जघन्यस्थित्याबाघे संख्यातगुणहीनमागुत्तलं तंतम्मुत्कृष्ट १० गुणकारगुणितमक्कुमप्पुरिदमसंशिजघन्यस्थित्याबाधे सहस्रगुणितान्तर्मुहर्तमक्कुं। २१ । १०००। चतुरिंद्रियजघन्यस्थित्याबाधे शतगुणितान्तम्मुंहतमात्रयक्कुं। २१ । १००। त्रींद्रियजघन्यस्थित्याबाधे पंचाशद्गुणितान्तर्मुहूत्तमात्रेयककुं। २१ । ५०। दींद्रियजघन्यस्थित्याबाधे पंचविंशतिगुणि. तान्तम्मुहूर्तमायक्कुं। २१ । २५ । एकेद्रियजघन्यस्थित्याबाधे अंतम्मुंहतमयक्कुं। २१ । ई
तत्र संभवद्विशेषमाह
संशिजीवे जघन्याबाधाऽन्तर्मुहूर्ता २.११ तज्जघन्यस्थितेरन्तःकोटीकोटिसागरोपममात्रत्वेन तदाबाधाया अग्रे तत्प्रमाणप्ररूपणात् । असंशिजीवे चतुरिन्द्रिये त्रीन्द्रिये द्वीन्द्रिये एकेन्द्रियेऽपि जघन्यावाधान्त
-
-
है। अतः दो इन्द्रियके स्थितिबन्धसे तेइन्द्रियके सब कर्मोंका स्थितिबन्ध दूना-दना जानना। चौइन्द्रियके प्रमाण राशि और इच्छाराशि पूर्वोक्त ही हैं किन्तु फल राशि सौ सागर है क्योंकि उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागर प्रमाण बँधती है। सो यहाँ भी २० फलराशि पूर्वोक्त फल राशिसे दूनी है। अतः तेइन्द्रियके स्थितिबन्धसे चौइन्द्रियका स्थितिबन्ध सब कोका दूना-दूना है। असंझी पश्चेन्द्रियके भी प्रमाण राशि और इच्छाराशि तो पूर्वोक्त ही है किन्तु फलराशि एक हजार सागर है क्योंकि उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति हजार सागर प्रमाण बंधती है । सो यह फलराशि चौइन्द्रियकी फलराशिसे दसगुनी है। अतः चौइन्द्रियके स्थितिबन्धसे असंज्ञी पश्चेन्द्रियका स्थितिबन्ध सब कर्मोका दसदस गुणा २५ जानना। इसी प्रकार जघन्य स्थितिबन्ध भी त्रैराशिक विधान द्वारा जानना ॥१४५॥
जघन्य स्थितिनन्धके सम्बन्धमें विशेष बात कहते हैं
संज्ञी जीवके जघन्य आबाधा अन्तमुहूर्त प्रमाण है क्योंकि उसके जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता और इतनी स्थितिकी आबाधा आगे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही कही है । असंही पञ्चेन्द्रिय जीवमें तथा चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, दो इन्द्रिय और एकेन्द्रियमें ३० भी जघन्य आबाधा अन्तर्मुहूर्त है किन्तु संज्ञीकी जघन्य आबाधासे इनकी आबाधा क्रमसे संख्यातगुणा हीन है। क्योंकि एकेन्द्रियकी जघन्य आबाधासे द्वीन्द्रियादिककी जघन्य आबाधा क्रमसे पच्चीस, पचास, सौ और हजार गुनी है अतः विपरीत क्रमसे संख्यातगुणा
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गो० कर्मकाण्डे
जीवंगळ उत्कृष्टस्थितिबंधाबाधे यथाक्रमविदं संज्ञियो संख्येव गुणा तन्न जघन्य स्थित्याबाधेयं नोड संख्यातगुणमक्कं । २११ । ४ । असंज्ञिचतुष्कदो क्रर्माददं द्वोंद्रियपध्यंतं आवलिसंख्येयभागं संख्यातगुणहीनक्रमदिदं साधिक मक्कुम देतें दोडे असंज्ञियुत्कृष्टस्थित्याबाधे तन्न जघन्यमं नोडलावळि संख्येय भागाधिकमक्कुं । २१ । १००० । चतुरिद्रियोत्कृष्ट स्थित्याबाधे तत्संख्यात गुण होना व लि५ संख्येयभागाधिकं तन्न जघन्यस्थित्याबाधाप्रमिते यक्कं - त्रींद्रियोत्कृष्ट स्थित्याबाधे
तत्संख्यात गुणहीनावलि संख्येय भागाधिकस्वजघन्य स्थित्याबाधाप्रमितयक्कु २ द्वींद्रियोत्कृष्ट
११ २१५०
स्थित्याबाधे तत्संख्येय गुणहीनावलि संख्येय भागाधिकस्वजघन्यस्थित्याबाधाप्रमितयक्कु २
2221 २१२५
एकेंद्रिये एकेंद्रियोत्कृष्ट स्थित्याबाधे असंख्य भागाधिका तन्न जघन्यस्थित्याबाधेयं नोडलुत्कृष्टस्थित्याबाधे आवल्यसंख्येयभागाधिकमक्कुं २१ ॥ संज्ञियुत्कृष्टाबाधे उ २११ । ४ असंज्ञिगे उत्कृष्टा बाधे
ज २ १३ । १
२
१० उ २१ । १०००
ज २१ । १०००
२
११
चतु = उ२१ । १०० ज २१ । १००
१.
२
9
२३ । १००
मुहूर्ता । एयं पणकदिपण्णं सयं सहस्तमिति स्वस्वोत्कृष्टगुणकारगुणितत्वे संज्ञिजघन्याबाघातः संख्यातगुणहीनक्रमत्वे च तदालापस्यात्यजनात् । उत्कृष्टाबाधा तु स्त्रस्वजघन्यतः संज्ञिजीवे संख्यातगुणा । असंज्ञिचतुष्के संख्यातगुणहीनक्रमा आवलिसंख्येयभागाधिका । एकेन्द्रिये आवस्यसंख्येयभागाधिका च भवति ।
२ २११३ ति उ २११ ज २१ । ५०
१५
हीन कही है । उत्कृष्ट आबाधा अपनी-अपनी जघन्य आबाधासे संज्ञी जीव में संख्यात गुणी, असंज्ञि पचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय, दो इन्द्रियके आवलीके संख्यातवें भाग अधिक और एकेन्द्रियके आवलीके असंख्यातवें भाग अधिक है । यह उत्कृष्ड आबाधा भी क्रम संख्यातगुणा हीन है। एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट आबाधा में से जघन्य आबाधाको घटानेपर जो प्रमाण शेष रहे उसमें एक मिलानेपर एकेन्द्रिय जीवकी आबाधाके भेद होते हैं। इसी प्रकार दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञीमें अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधा में से अपनी-अपनी जघन्य आबाधाको घटाकर उसमें एक मिलानेसे आबाधाके भेदका प्रमाण होता है। कहा है आदिको अन्तमें से घटाकर वृद्धिका भाग दे और एक
२०
संज्ञि
२११।४
अ
२ ११११
द्वों उ २३२५
ज २१२५
चतु २
15.83180018013..
२११००० २१ । १०० २ १ ५० २ २५
२
२
a
ए = उ२१ । १
ज २१ । १
ए
२ १२१२ २
a
२११
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
ई जघन्योत्कृष्टाबाधगळ जघन्यमनुत्कृष्टदोळकळेदु आदियं २३ । अन्त २१ दोल कर्लदोडे २ वृद्धि
एकरूपदिदं भागिसिदोड तावन्मात्रमेयक्कु । रूपं कूडिदोर्ड २ स्थानविकल्पंगळित द्वींद्रियादिगळ्गमरियल्पडुगुं द्वि ३ त्रिः च अस ३ सं इवाबाधाविकल्पंगळु । इवं
___१।४ १।३ १।२ २ ११ २११ । ४ मनदोळवधरिसिदंगे बळिक्कं जघन्यस्थितिबंधमं साधिसुव करणसूत्रमं पेळ्दपरु :
जेहाबाहोवट्टियजेटं आवाहकंडयं तेण ।
आबाहवियप्पहदेणेगूणेणूण जेट्टमवरठिदी ॥१४७।। ज्येष्ठाबाधापतिता ज्येष्टा आबाधाकांडकं तेनाबाधाविकल्पहतेनैकोनेनोनज्येष्ठा अवरस्थितिः॥
इल्लि एकेंद्रियादि तंतम्मुत्कृष्टस्थित्याबायिदं तंतम्मुत्कृष्टस्थितियं भागिसि बोडेकभागप्रमाणमदु आबाधाकांडकप्रमाणमक्कुमदनाबाधाविकल्पंगळ प्रमाणदिदं गुणिसि लब्धराशियोळेकरूपं. १० कळेदुदनुत्कृष्टस्थितियोळकळेदोर्ड शेषं जघन्यस्थितियक्कुमदेते दोडेकेंद्रियोत्कृष्टमिथ्यात्वप्रकृति
आबाधाविकल्पास्तु एकेन्द्रिये आदी २१ अन्ते २ सुधे २ वढि १ हिदे रूवसंजुदे २ ठाणा । एवं
२१ त्रींद्रिय । चतुरिद्रिय | असं
। संशि
२ २
१२ १
।
४
।
।
।
।
।।
द्वीन्द्रियादावप्यानेतव्याः ॥१४६॥ अथैतत्सर्व मनसि धृत्वा जघन्यस्थितिबन्धसाधनकरणसूत्रमाह
एकेन्द्रियादीनां स्वस्वोत्कृष्टाबाधया भक्तस्वस्वोत्कृष्टस्थितिः आबाधाकाण्डकप्रमाणं भवति तेन काण्डकेन
मिलानेपर स्थानोंका प्रमाण होता है। सो यहाँ जघन्य आबाधा आदि है और उत्कृष्ट १५ आबाधा अन्त है । अन्तमें-से आदिको घटाकर उसमें एक-एक समयकी वृद्धि होनेसे एकका भाग देकर एक मिलानेपर विकल्प होते हैं। इसी तरह दो इन्द्रिय आदिमें भी आबाधाके विकल्प लाने चाहिए ॥१४६।।
ये सब मनमें रखकर जघन्य स्थितिबन्धका साधक करण सूत्र कहते हैं
एकेन्द्रियादिक जीवोंकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधासे अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति- २० में भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह आबाधा काण्डकका प्रमाण होता है। उस आबाधाकाण्डकको आबाधाके विकल्पोंसे गुणा करके जो प्रमाण आवे उसमेंसे एक कम करके अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें घटाने पर जो शेष रहे उतना अपना-अपना जघन्यस्थितिक-१९
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गो० कर्मकाण्डे
स्थित्याबार्धयिदु । इल्लिगावलिगावळियं तोरि रूपासंख्येयभागमं गुणकारभूतान्तर्मुहूर्तद
२१ संख्यातदोळ साधिकं माडिदोडिदु २१ । इदरिंदमेकेंद्रियजीवन तन्न मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितियेक सागरोपममदं संख्यातपल्यप्रमाणराशियं भागिसि प ११ वंद लब्धप्रमणामाबाधाकांडक.
प्रमाणमक्कुमवनाबाधाविकल्पप्रमाणराशिर्शायदं २८ गुणिसिदोडिदु प १। २ ई आबाधाविकल्पंगळु ५ रूपाधिकावल्यसंख्यातकभागमे तादुर्देदोर्ड आदी २१ अन्ते २ सुद्धे २ वढिहिदे २ . स्व
२४18.
१
संजुदे ठाणा। २ एंदिन्तु रूपाधिकावल्यसंख्यातकभागं सिद्धमप्पुरिदं। मत्तमा स्थित्याबाधा विकल्पंगळिदं गुणिसल्पट्ट स्थित्याबाधाकांडकराशियोळेकरूपं कळेदोडिदु प ११२ अपत्तित
२१०
आबाधाविकल्पैर्गुणितेन एकरूपोनेन ऊना उत्कृष्टस्थितिः जघन्यस्थितिर्भवति । तथाहि
एकेन्द्रियस्य मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधेयं २ आवलेरावलि प्रदय रूपासंख्येयभागेन संख्यातगणकारं साधिक
१० २१ कृत्वा अनेन तस्यैकसागरमिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिः संख्यातपल्यमात्री भक्ता सती प११ आबाधाकाण्डक
१भवति । तच्च तस्याबाधाविकल्पैः २ गणयित्वा ६१।२ अपवयं रूपेण ऊनयित्वा उत्कृष्ट
स्थितावपनीतं तदा तस्य मिथ्यात्वजघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा, इमां स्थिति उत्कृष्टस्थितावपनीय शेषे -- 0 .- . प एकेन भक्त्वा प रूपाधिकीकृते
१
बन्ध जानना। इसका विवरण इस प्रकार है-एकेन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट
आबाधा आवलीके असंख्यातवे भाग अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कही है। उसका भाग १५ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरमें देने पर जो प्रमाण आवे उतना आबाधाकाण्डकका
प्रमाण है । इस आबाधाकाण्डकको एकेन्द्रियकी आबाधाके विकल्पोंसे गुणा करके जो प्रमाण आवे उसमेंसे एक कम करके जो प्रमाण रहे उसे उत्कृष्ट स्थितिमें घटानेपर एकेन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है। इस जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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मनिदं प रूपोनपल्यासंख्यातमनुत्कृष्ट स्थितियोळकळदोर्ड मुंपेन्देकेंद्रियमिथ्यादृष्टिजीवनु मिथ्यात्वप्रकृतिगे कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कु सा १२ ई जघन्यस्थितियनावियं माडि
उत्कृष्ट स्थितियनन्तमं माडि आदी अन्ते सुद्धे एंदु आदियनन्तदोळकळेदोडे शेषमिदु। प इदं
वृद्धियिदं । भागिसिदोडे तावन्मात्रमेयक्कु ६ मल्लि एकरूपं कूडिदोर्ड केंद्रियजीवं मित्यात्वप्रकृतिगे माळप सर्वस्थितिविकल्पप्रमाणमक्कु ५। द्वींद्रियजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृत्युत्कृष्टाबाधै ५
साधिकपंचविंशत्यंतमहत्तंगळप्पुवु। ११११ अपत्तितमप्पिदरि २१२५ दमुत्कृष्टस्थितियं
२१२५ भागिसिदोडाबाधाकांडकप्रमाणमक्कुं सा २५ अपत्तिसिदोडिदु सा ई आबाधाकांडकम
२१। २५
२१
तस्य मिथ्यात्वसर्वस्थितिविकल्पा भवन्ति ५ । द्वीन्द्रियस्य मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधा साधिकपञ्चविंशत्यंतर्मुहर्ता
a
२
अपवर्त्य २ १.२५ तया भक्ता उत्कृष्टस्थितिः आबाधाकाण्डकं भवति सा २५ । तेन अप
२१२५
२१ २५
रूपोनेन १०
वर्तितेन सा आबाधाविकल्प २ गणितेन सा २
११११ २११४
अपवर्तितेन-प
११११
--.
उत्कृष्टस्थिति: मिथ्यात्वजघन्यस्थितिः सा २५ भवति । तां च उत्कृष्टस्थितावपनोय शेषेप
११११
घटानेषर जो शेष रहे उसमेंसे एकसे भाग देनेपर उतना ही रहा। उसमें एक जोड़नेपर एकेन्द्रिय जीवकी मिथ्यात्वकी स्थितिके सब भेदोंका प्रमाण होता है। अर्थात् जघन्यसे लेकर एक-एक समय बढ़ता उत्कृष्ट पर्यन्त एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके इतने भेद होते हैं। इसी प्रकार दो इन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधाका प्रमाण चार बार १५ संख्यातसे भाजित आवली मात्र अधिक पच्चीस अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। यह आबाधा भी अन्तमुहूत प्रमाण ही है, तथापि एकेन्द्रिय जीव की आबाधाके अन्तर्मुहूर्तसे पच्चीस गुणा है, क्योंकि दो इन्द्रियके एकेन्द्रियसे पच्चीस गुना स्थितिबन्ध होता है। सो यहाँ एकेन्द्रियकी
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गो० कर्मकाण्डे
नाबाधाविकल्पंगळिवरिदं २ गुणिसिदोडिदु सा २ इदनपत्तिसिदोडिदु ५१ इद
११११ २१ ११११
११११ रोळेकरूपं कळेदोडिदु ५ इदनुत्कृष्टस्थितिबंधप्रमाणदोळु कळंदोडिदु सा २५ । द्वींद्रियजीवं '११११
१११२ मिथ्यात्वप्रकृतिगे माळ्प जघन्यस्थितिबंधप्रमा २१ । २५ णमक्कु-। मी जघन्यस्थितियनुत्कृष्ट स्थितियोळकळेदोडे शेषमिदु प वृद्धियिदं भागिसि येकरूपं कूडिदोर्ड द्वींद्रियजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिसर्वस्थितिविकल्पंगळप्पुवु ५१ त्रींद्रिय जीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिस्थित्युत्कृष्टाबाधे
११११
११११
२
२५.५०
यिदु ११ संख्यातत्रितयभक्तावल्यभ्यधिकपंचाशदन्तर्मुहूर्तप्रमादिदं भागिसल्पटुत्कृष्टस्थितियाबाधाकांडकमक्कुमिदं सा ५० अपत्तितमिदु सा १ इदनाबाधाविकल्पंगळिदं गुणि
२१। ५० रूपाधिकीकृते तस्य मिथ्यात्वसर्वस्थितिविकल्पा भवन्ति प त्रीन्द्रियस्य मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधा २
२१
२१५० संख्यातत्रितयभक्तावल्यधिकपञ्चाशदन्तर्मुहर्ता । तया भक्ता उत्कृष्टस्थितिः आबाधाकाण्डकं भवति सा ५० तेन
२१५०
१० अपवर्तितेन सा आबाधाविकल्पगणितेन सा २
अपवर्तितेन प
रूपोनेन प
२११११
अपेक्षा पच्चीस अन्तर्मुहूर्त कहे हैं, आगे भी ऐसा ही जानना।
इस तरह द्वीन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा साधिक पच्चीस अन्तर्मुहूर्त है। उससे द्वीन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरमें भाग देनेपर आवाधाकाण्डक
होता है । उससे द्वीन्द्रियकी आबाधाके विकल्पोंसे गुणा करनेसे जो प्रमाण आवे उसमेंसे एक १५ घटानेपर जो शेष रहे उसे उसकी मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरमें-से घटानेपर
जो शेष रहे उतनी दो इन्द्रियके मिथ्यात्वकी जघन्यस्थिति होती है। उस जघन्य स्थितिको उत्कृष्टस्थितिमें घटाकर शेषमें एक अधिक करनेपर दो इन्द्रियके मिथ्यात्वकी सब स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है। त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा तीन बार संख्यातसे भाजित
आवली अधिक पचास अन्तर्मुहूर्त है। उससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागर में २० भाग देनेपर आबाधाकाण्डकका प्रमाण होता है। उसे आबाधाके विकल्पोंसे गुणा करनेपर
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सिदोडिनु २ सा १ अपत्तितमिदु प इदरोळेकरूपं कळेदु प. उत्कृष्टस्थितियोळकळेदोडे त्रीद्रियजीव मिथ्यात्वप्रकृतिर्ग कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कु सा ५० ई जघन्यस्थिति
११२१ १
यनुत्कृष्टस्थितियोळकळदेकरूपं कूडिदोडिदु प त्रोंद्रियजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृति सर्वस्थितिबंध
१११
।१००
विकल्पंगळप्पुवु । चतुरिंद्रिय जीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिस्थित्युत्कृष्टाबाधेयिदु ११ ई संख्यातद्वितयभक्तावल्यभ्यधिकशतांतम्र्मुहूर्तप्रमाणविंदमुत्कृष्टस्थितियं भागिसिदोर्ड स्थित्याबाधाकांडक- ५ प्रमाणमक्कु सा १०० अपत्तितमिदु सा १ इदनाबाधाविकल्पंगलिंदं गुणिसिदोडिदु सा १ ' २१ । १०० २१
२१ । ११ अपत्तितमिदु प इदरोळेकरूपं कळदुत्कृष्टस्थितियोळकळेदोर्ड सा १००\ इदु चतुरिंद्रियजीवं
ऊना उत्कृष्टस्थितिः तस्य त्रीन्द्रियस्य मिथ्यात्वजघन्यस्थितिर्भवति सा ५० तां च उत्कृष्टस्थिती अपनीय
रूपे निक्षिप्ते मिथ्यात्वसर्वस्थितिबन्धविकल्पा भवन्ति
। चतुरिन्द्रियस्य मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधया २
संख्यातद्वयभक्तावल्यधिकशतांतर्मुहूर्तया भक्ता उत्कृष्टस्थितिः आबाधाकाण्डकं भवति सा १०० तेन अप- १०
२११००
वतितेन सा आबाधाविकल्पगुणितेन २
अपवर्त्य प
रूपोनेनोत्कृष्टस्थितिस्तस्य मिथ्यात्वस्य
२१११
जो प्रमाण हो उसमें एक घटाकर उसे उत्कृष्ट स्थिति पचास सागरमें-से घटानेपर त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है। इस जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थिति में घटाकर शेषमें एक जोड़नेपर तेइन्द्रियके मिथ्यात्वको स्थितिके सब भेदोंका प्रमाण होता है। चतुरिन्द्रिय जीवके दो बार संख्यातसे भाजित आवली अधिक सौ अन्तर्मुहूते प्रमाण मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट १५ १. तिमिथ्यात्व ज।
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________________
१५०
गो० कर्मकाण्डे
मिथ्यात्वप्रकृतिगे कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कु सा १००
इदनुत्कृष्टस्थितियोळकळेदे
करूपं कूडिदोडे चतुरिद्रियजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिसबस्थितिबंधविकल्पंगळ प्रमाणमक्कु प असंज्ञिजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिस्थित्युत्कृष्टाबाधेयिदु २ ई आवलिसंख्येयभागाधिकसहस्रां
२११००० तर्मुहूत्र्तळिदं तन्नुत्कृष्टमिथ्यात्वस्थितियं भागिसिदोडेकभागं स्थित्याबाधाकांडकप्रमाणमक्कंसा १००० अपत्तितमिदु सा ई स्थितिकांडकप्रमाणमं स्थित्याबाधाविकल्पंगळिदं गुणिसिदो२१।१००० डिदु सा १ अपत्तितमिदु प इदरोळकरूपं कळंदुत्कृष्टस्थितियोळकळेदोडे असंशिजीवं
२३ । १ मिथ्यात्वप्रकृतिगे कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कु सा १००० ई जघन्यमनन्तदोत्कृष्ट
जघन्यस्थितिर्भवति सा १०० इमामुत्कृष्टस्थितावपनीय रूपे निक्षिप्ते मिथ्यात्वसर्वस्थितिविकल्पा भवन्ति
प । असंज्ञिनो मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधया २
आवलिसंख्येयभागाधिकसहस्रान्तर्मुहूर्तेर्भक्ता उत्कृष्ट
२११०००
१० स्थितिः आबाधाकाण्डकं स्यात्-सा १००० तेन अपवतितेन सा आबाधाविकल्पगुणितेन
सा २
२११०००
२
।
१
आबाधा है । इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना आबाधाकाण्डकका प्रमाण है । उससे चतुरिन्द्रियके आबाधाके भेदोंको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक घटाकर जो शेष रहे उसे उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरमें-से घटानेपर. चतुरिन्द्रियकी जघन्य स्थितिका प्रमाण होता है। इस जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक जोड़नेपर चतुरिन्द्रियकी मिथ्यात्वकी सब स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है । असंज्ञी पश्चेन्द्रिय के मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा आवलीका संख्यातवाँ भाग अधिक एक हजार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक हजार सागरमें भाग देनेपर आबाधाकाण्डकका प्रमाण होता है। इससे असंज्ञीके आबाधाके भेदोंको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे उसमें एक घटानेपर जो प्रमाण रहे उसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति हजार
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५१ स्थितियो सा १००० कवडेकरूपं कूडिदोडे असंशिजीवंगे मिथ्यात्वप्रकृतिसर्वस्थितिविकल्पप्रमाणमक्कु प ईयर्थसंदृष्टि सुव्यक्तमप्पुदादोडं मंदबुध्यनुरोधदिदमी जघन्यस्थितिबंधानयनदोळं संदृष्टियं तोरिदपरु । अदर विन्यासमिद्स्थिति ६४ ६३ ६२ ६१ ६० ५९ ५८ ५७ ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४९ ४८ ४७ ४६ ४५ आबाधारहित स्थिति ४८ ४७ ४६ ४५ ४५ ४४ ४३ ४२ ४२ ४१४० ३९ ३९ ३८ ३७ ३६ ३६ ३५ ३४ ३३
५
आबाधा
१६ १६ १६ १६ १५१५१५१५१४१४१४१४१३ १३१३ १३ १२१२१२१२
इल्लि स्थित्युत्कृष्टाबाधे यबुदु १६ इदरिंदमुत्कृष्टस्थितियनिदं ६४ भागिसिदोर्ड ६४ । स्थितिकांडकं नाल्कक्कुमाबाधाकांडकमेंनेंदोडे विसदृशस्थितिगळ्गे ६४ । ६३ । ६२।६१ । एकादृशमप्पाबायककुं १६ । १६ । १६ । १६ । १६ । निवनाबाधाकांडकमेंबुदीयाबाधाकांडकमं । ४ । अपवर्तितेन प रूपोनेनोनोत्कृष्टस्थितिः तस्य मिथ्यास्वस्य जघन्यस्थितिर्भवति सा १००० तां च उत्कृष्ट- १०
स्थिती सा १००० न्यूनयित्वा रूपे निक्षिप्ते मिथ्यात्वसर्वस्थितिविकल्पा भवन्ति ५ । इयमर्थसंदृष्टिः सुव्यक्तापि पुनरंकसंदृष्ट्या प्रदर्श्यते
ज्येष्ठा स्थितिः चतुःषष्टिसमया रूपोनक्रमेण मध्यमविकल्पानतीत्य जघन्या स्थितिः पञ्चचत्वारिंशत्समया। ज्येष्ठाबाधा षोडशसमया तया भक्तज्येष्ठस्थितिः ६४ आबाधाकाण्डकं भवति । ४ । एतावत्सु स्थितिविकल्पेषु
सागरमें-से घटानेपर असंज्ञीके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका प्रमाण होता है। इस जघन्य १५ स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक मिलानेपर असंज्ञीके मिथ्यात्वकी सब स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है।
यद्यपि यह अर्थ संदृष्टि स्पष्ट है फिर भी इसे अंक संदृष्टि द्वारा बतलाते हैं
उत्कृष्ट स्थिति चौंसठ समय प्रमाण है। इसमें एक-एक समय घटाते हुए मध्यके सब भेदों तिरसठसे छियालीस पर्यन्त बितानेपर जघन्य स्थितिका प्रमाण पैंतालीस समय २० है। उत्कृष्ट आबाधा सोलह समय है। उससे उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर 4 आबाधा काण्डक ४ होता है। अर्थात् इतने स्थितिके भेदोंमें एक-सी आबाधा होती है। तदनुसार चौंसठसे इकसठ तक स्थिति भेदोंमें सोलह-सोलह समय प्रमाण ही आबाधा होती है। १. ६४ ६३ ६२ ६१ ६० ५९ ५८ ९७ ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४९ ४८.४७ ४६ ४५
४८ ४७ ४६ ४५ ४५ ४४ ४३ ४२ ४२ ४१ ४० ३९ ३९ ३८ ३७ ३६ ३६ ३५ ३४ ३३ २५
१६ १६ १६ १६ १५ १५/१५ | १५' १४ १४|१४|१४ १२ १३ १३, १३, १२ १२ १२ १२
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________________
१५२
गो० कर्मकाण्डे
आदी । १२ । अंते । १६ । सुद्धे । ४ वढिहिदे । ४ । इगिजुदे ४ ठाणा येबी याबाधाविकल्पं. गळि ४ दं गुणिसिदोडे सर्वस्थिति विकल्पप्रमितहानिवृद्धिप्रमाणमक्कु २० मल्लि प्रथमस्य हानिर्वा नास्ति वृद्धिर्वा नास्ति येदेकरूपं होनं माडि १९ युत्कृष्ट स्थितिज्ञातमप्पुदादोडदरोळकले.
दोडे जघन्यस्थितिप्रमाणमक्कु । ४५ । मी जघन्यस्थितिज्ञातमादुदादोउिल्लि वृद्धिरूपदिदं कूडिदोडु५ त्कृष्ट स्थितिप्रमाणमक्कु । ६४ । मी प्रकारदिदमेकेंद्रियादिजीवंगळ सर्वप्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितियं साधिसुवुदिन्नु एकेद्रियादिगळु चाळीसिय तोसिय बोसिय प्रकृतिगळ जघन्यस्थितिबंधमनेनितेनितं माळ्परेकेंवोडे अनुपातत्रैराशिकविधानदिदं साधिसल्पडुगुमदें तेंदोडे सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमस्थितियतुळ्ळ मिथ्यात्वप्रकृतिगे एकेंद्रियजीवं जघन्य स्थितिबंधमं रूपोनपल्यासंख्यातकभागोन
सागरोपममं स्थितिबंधमं माडुगुमागळु नाल्वत्तकोटीकोटिसागरोपमस्थितिबंधंगळनळ्ळ चाळीसियं१० गळ्गेनितु जघन्यस्थितिबंधमं माळ्पनेंदितु अनुपातत्रैराशिकमं माडि प्र । सा ७० । को २ । फ।
एतादृशी आबाधेत्यर्थः । तेन आबाधाचतुःषष्टितः एकषष्ठयन्तं षोडश षोडश समयैव । षष्टितः सप्तपश्चाशदन्तं पञ्चदश पञ्चदशसमयैव । षट्पञ्चाशतः त्रिपञ्चाशदंतं चतुर्दश चतुर्दशसमयव । द्वापञ्चाशतः एकान्नपञ्चाशदंत त्रयोदश त्रयोदशसमयैव । अष्टचत्वारिंशतः पञ्चचत्वारिंशदंतं द्वादश द्वादशसमयैव । तच्च काण्डकं ४ । आदी १२ अन्ते १६ सुदधे ४ वढिहिदे ४ रूवसंजदे १ इत्यानीताबाधाविकल्पैर्गणितं सर्वस्थितिविकल्प
१५ प्रमाणं भवति २० । तत्र प्रथमे हानिर्वा वृद्धिर्वान इत्येकं त्यक्त्वा शेषे १९ उत्कृष्टस्थितावपनीते जघन्य स्थितिः
४५ वा जघन्यस्थिती युते उत्कृष्टस्थितिः ६४ भवति । एवमें केन्द्रियादीनां सर्वप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धं साधयेत् । इदानीं त्रैराशिकः कृत्वा साध्यते तद्यथा
सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमस्थितिकमिथ्यात्वस्य यद्य केन्द्रियः जघन्यस्थितिबन्धं रूपोनपल्यासंख्यातकभागोनसागरोपममात्र बध्नाति तदा चत्वारिंशत्कोटीकोटिसागरोपमस्थितिकानां किमिति ? प्र-स ७० को २।
२० साठसे सत्तावन पर्यन्त स्थितिके भेदोंमें पन्द्रह-पन्द्रह समय ही आबाधा होती है। छप्पनसे
तिरपन पर्यन्त स्थितिके भेदोंमें चौदह-चौदह समय ही आबाधाका प्रमाण होता है । बावनसे उनचास पर्यन्त स्थिति भेदोंमें तेरह-तेरह समय ही आबाधाका प्रमाण होता है । अड़तालीससे पैंतालीस पर्यन्त स्थितिभेदोंमें बारह-बारह समय हो आबाधा होती है। इस प्रकार ये
काण्डक चार हैं। आदि जघन्य आबाधा १२ को अन्त उत्कृष्ट आबाधा १६ में घटानेपर २५ चार रहते हैं। प्रतिसमय एककी वृद्धि होनेसे एकसे भाग देनेपर तथा एक जोड़नेपर
आबाधाके भेद पाँच होते हैं। इन विकल्पोंसे आबाधा काण्डकको गुणा करनेपर स्थितिके सब भेदोंका प्रमाण ४४५-२० होता है। इनमें से प्रथम भेदमें हानि-वृद्धि नहीं होती इसलिए एकको छोड़ शेष १९ को उत्कृष्ट स्थितिमें घटानेपर जघन्य स्थिति ४५ समय होती है । अथवा जघन्य स्थिति ४५ में उन्नीस जोड़नेपर उत्कृष्ट स्थिति ६४ होती है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय आदिके सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धको लाना चाहिए । अब त्रैराशिकोंके द्वारा उसे लाते हैं
सत्तर कोडाकोड़ी सागर स्थितिवाले मिथ्यात्व कर्मका यदि एकेन्द्रिय जीव एक कम पल्यके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागर प्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध करता है तो चालीस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५३ सा \ ३ सा ४० को २ बंद लब्धमिवु सा १ ४ एकद्रियजीवं चाळीसियंगल्गेकटुव
ज
जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कं । मत्तमंते प्रसा ७० को २। फज सा १।२। इसा ३० को २ बंद
लब्धमेकेंद्रियजीवं तीसियंगळ्गे कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कु सा१।। ३ मत्तमन्ते प्र।
सा ७० को २ फ। ज सा १। इसा २० । को २। बंधलब्धमेक द्रियजीवं वोसियंगळगे कटुव
जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कुं सा१।।२ द्वौद्रियादिगळ्गेयुमी प्रकारविदं चाळीसिय ५
प. ७
ac
तोसिय वीसियंगळ जघन्यस्थितियननुपातत्रैराशिकदि साधिसिदपरदेंतेंदोडे सप्ततिकोटीकोटिसागफ-ज । सा | इ-सा ४० को २ । लब्धं सा १ ।। ४ सस्य चालीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं
_०७
प
a भवति । तथा प्र७० को २ फज सा १
इ सा ३० को २ लब्धं तस्य तोसियानां जघन्यस्थिति
बन्धप्रमाणं भवति सा १ ।। ३ पुनस्तथा प्र-सा ७० को २ । फज सा १\ इसा २० को २ लब्धं
कोडाकोडी सागरकी स्थितिवाले कर्मकी जघन्य स्थिति कितनी बाँधेगा। सो प्रमाणराशि सत्तर कोडाकोड़ी सागर, फलराशि एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका प्रमाण, इच्छाराशि चालीस कोड़ाकोड़ी सागर । फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर लब्ध प्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण होता है। इसी तरह जिस कर्मकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर और बोस कोडाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है उसका जघन्य स्थिति बन्ध एकेन्द्रिय जीव कितना करता है। यहाँ भी प्रमाण राशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, १ फलराशि एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति, इच्छाराशि तीस कोड़ाकोड़ी सागर या बीस कोड़ाकोड़ी सागर । सो फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग
क-२०
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________________
१५४
गो० कर्मकाण्डे रोपमस्थितियनुळ्ळ मिथ्यात्वप्रकृतिगे द्वौद्रियजीवं जघन्यस्थितियं संख्यातचतुष्टयभक्तरूपोनपल्यहीनपंचविंशतिसागरोपमजघन्यस्थितियनवक्केत्तलानु कटुगुमाळु चत्वारिंशत्सागरोपमकोटोकोटिस्थितियनुझळ चाळीसियंगळ्गेनितं जघन्यस्थितियं कटुगुमें दिन्तु त्रैराशिकमं माडि प्र। सा ७० । को २१ फ। ज सा. २५ । । इसा ४० । को २। बंद लब्धं द्वींद्रियजीवं चालीसियं
५ गळ्गे माळप जघन्य स्थितिबंधप्रमाणमक्कुं सा २५ । । ४ मत्तमंत प्र। सा ७० । को २ फ
१
।
४
।
सा २५।। इ। सा ३० । को २। बंद लब्धं द्वींद्रियजीवं तीसियंगळगे कटुव जघन्यस्थिति
बंधप्रमाणमक्कुं
सा २५ । । ३॥ मत्तमंत प्र। सा ७० । को २। फ
सा २५।। इ। सा
२० । कोटि २। बंद लब्धं द्वौद्रियजीवं विसियंगळगे कट्टव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणं सा २५ । ।
१।४
तस्य वीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा १ । २ पुनस्तथा प्र-सा ७० को २। फ सा २५
१० इ-सा ४० को २ लब्धं द्वीन्द्रियस्य चालोसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति । सा २५
तबन्धप्रमाण भवति । सा २५४
पनस्तथा
। ४ प्र-सा ७० को २ । फ-ज सा २५ इ-सा ३० को २ लब्धं तस्य तीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं
प
देनेपर एकेन्द्रियके उस कर्मकी जघन्यस्थितिबन्धका प्रमाण आता है। तथा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिवाला मिथ्यात्वकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध दो इन्द्रियके पल्यके संख्यात
भाग हीन पच्चीस सागर प्रमाण होता है तो जिन कर्मोकी उत्कृष्टस्थिति चालीस, तीस १५ या बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनका जघन्य स्थितिबन्ध दो इन्द्रियके कितना
होता है तो प्रमाणराशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि पल्यके संख्यातवें भागहीन
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________________
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका मत्तमुमंते प्र।सा ७० । को २। फ सा ५० । इ। सा ४० । को २ । बंद लब्धं त्रीद्रियजीवं
चाळीसियंगळगे कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कुं सा ५० ।। ४ मत्तमन्ते प्र। सा ७० ।
प
को २।फ सा ५०।। इ।सा ३०। को २। बंद लब्ध त्रोंद्रियजीवं तीसियंगळ्गे कटुव
प
जघन्यस्थिति प्रमाणमक्कुं। सा ५०।। ३॥ मत्तमंत प्र। सा । ७० । को २ फ सा ५० ।
१।३
इ । सा २० । को २। बंद लब्धं त्रींद्रियजीवं विसियंगळरो कटुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कुं- ५
भवति सा २५। ३ पुनस्तथा प्र-सा ७० को २ फ ज सा २५ । इसा २० को २ लब्धं तस्य वीसियानां
प
जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा २५ ।। २ पुनस्तया प्र-सा ७० को २ । फ ज-सा ५०इसा ४०
प
को २ लब्धं त्रींद्रियस्य चालीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा ५० ४ पुनस्तथा प्र-सा ७० को
प
२। फ
ज सा ५०
इसा ३० को २ लब्धं श्रीन्द्रियस्य तीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं
भवति
सा ५० ।
३ पुनस्तथा प्रसा. ७० को २
फ-ज - सा ५०
।
इ
सा १०
पच्चीस सागर, इच्छाराशि चालीस, तीस, बीस आदि । फलसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिका भाग देनेपर द्वीन्द्रिय जीवके उस-उस कर्मकी जघन्य स्थिति बन्धका प्रमाण होता हैं । तथा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिवाला मिथ्यात्व कर्म यदि त्रीन्द्रियके पल्यके संख्यातवें भागहीन पचास सागर प्रमाण बँधता है तो जिन कर्मोकी उत्कृष्ट
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________________
१५६
सा ५० ।
#401) 33
७
प
२ मत्तमंत
मत्तमं प्रसा ७० । कोटि २।फ सा १०० ।
५ ७० । को २ | फ
१।३।
१।२
बंद लब्धं चतुरिद्रियजीवं चाळीसियंगळगे कट्टुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कुं सा १०० ।
2001 )
गो० कर्मकाण्डे
प्र ७० । को २ । सा । फ सा १०० ।
प
१।२
जीवं तीसियंगळगे कट्टुव जघन्यस्थितिबंधप्रमाणमक्कुं सा १०० ।
बन्धप्रमाणं भवति सा १००
Q
प
2.
प
१।२
प
१।२
')
सा
#1 2001)
प
१२
२० को २ लब्धं तस्य वीसियानां जघन्य स्थितिबन्धंप्रमाणं भवति सा ५०)
इ। सा ४० । को २ ।
9101
इ ३० । को २ । सा । बंद लब्धं चतुरिद्रिय
तस्य तीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति । सा १००
~~)
प
१।२
"')"'"'"
७० को २ । फ ज सा १०० इसा ४० को २ लब्धं चतुरिन्द्रियस्य चालीसियानां जघन्यस्थिति
३। मत्तमन्ते प्र । सा ।
प
१।२।
इ । सा २० । को २ | बंद लब्ध चतुरद्रियजीवं विसियंगळगे
४ पुनस्तथा प्रं सा ७० को २ फ ज सा १००
७
प
प
१।३
४
७
प
१ २
२ पुनस्तथा प्रसा
७
इ-सा ३० को २ लब्धं
३ पुनस्तथा प्र - सा ७० को २ । फज़
૧
१० स्थिति चालीस, तीस या बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनका जघन्य स्थितिबन्ध त्रीन्द्रिय जीव के कितना होता है ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि पल्यके संख्यातवें भागहीन पचास सागर, इच्छाराशि चालीस, तीस या बीस कोड़ाकोड़ी सागर । फलसे इच्छाको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देनेपर त्रीन्द्रिय जीवके उस-उस कर्मकी जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है । तथा सत्तर कोड़ाकोड़ी
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________________
कणाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५७
कटुव जघन्यस्थितिप्रमाणं सा १०० ।। २ मत्तमन्ते प्र सा ७० । को २। फ सा १००० ।।
व
प
।२।
इ सा ४० । को २। बंद लब्धमसंज्ञिजीवं चाळोसियंगळगे कटुव जघन्यस्थितिप्रमाणमक्कुसा १००० ।। ४ मत्तमन्ते प्रसा ७० । को २। फ सा १००० । इसा ३० । को २ । बंद
लब्धमसंज्ञिजीवं तिसियंगळगे कटुव जघन्यस्थितिप्रमाणमक्कुं। सा १००० ।। ३ मत्तमंत प्र
सा १००
इ सा २० को २ लब्धं तस्य वीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा १००। २ ५
प
प १२
। २ पुनस्तथा प्र सा ७० को २ । फ ज सा १०००। इसा ४० को २ लब्धं असंज्ञिनः चालीसियानां जघन्य
स्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा १०००
४ पुनस्तथा प्र-सा ७० को २। फ-ज सा १०००
इ सा
....
३० को २ लब्धं असंज्ञिनः तोसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं भवति सा १०००। ३ पुनस्तथा प्र-सा
सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाला मिथ्यात्वकर्मका जघन्यस्थितिबन्ध यदि चतुरिन्द्रियके पल्यके संख्यातवे भागहीन सौ सागर प्रमाण होता है तो जिन कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति १० चालीस, तीस या बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनका जघन्य स्थितिबन्ध चतुरिन्द्रियके कितना होता है इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर प्रमाण राशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि पल्यके संख्यातवें भागहीन सौ सागर, इच्छाराशि चालीस, तीस या बीस कोडाकोड़ी सागर । फलसे इच्छा राशिको गुणा करके प्रमाण राशिसे भाग देनेपर चतुरिन्द्रिय जीवके उस-उस कमेकी जघन्य स्थितिका प्रमाण आता है। तथा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति- १५ वाला मिथ्यात्वकर्म यदि असंज्ञि पञ्चेन्द्रियके पल्यके संख्यातवें भागहीन एक हजार सागर प्रमाण जघन्य स्थितिको लेकर बंधता है तो जिन काँकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस, तीस या बीस सागर प्रमाण है उनका जघन्य स्थितिबन्ध असंजीके कितना होता है ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि सत्तर कोडाकोड़ी सागर, फलराशि पल्यके संख्यातवें भागहीन हजार .
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१५८
सा ७० । को २ । फ
2
कट्टुव जघन्यस्थितिप्रमाणमक्कुं
ए० चाळी । ज सा २५ ।
प
a
ति सि ज । सा १ । ' ३
a
विसिज । सा १ ।
प
O
प
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सा १००० ।
भवति सा १००० '
प
-2
प ตุ
>
सा १००० ।
प
गो० कर्मकाण्डे
इसा २० । को २ | बंद लब्धमसंज्ञिजीवं विसियंगळगे
प
द्वी० चाळी । ज सा २५ ।
ति सि जसा २५
प
१।४
विसि । ज । सा २५
ति सि ज । सा १००
प
१।४
चतु० चा० । जसा १००
प
१।२
प
):
प २२
विसि । ज । सा १००
प
१।४
')
")
२ उक्तात्थं संदृष्टियिदु ।
२
24 ) 3
७
३
6)
३
७
२
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૪
त्री० चा० । ज सा ५० ।
तो सि । ज सा ५०
प
१३
विसि । ज । सा ५०
प १।२
४ असंज्ञि चा० । जसा १०००
७
प
१।३
३
10)
प
·
ती सि । ज । सा १०००
प
2
विसि । ज सा १०००
१
७० को २ । फ ज सा १००० इसा २० लब्धं असंज्ञिन: वीसियानां जघन्यस्थितिबन्धप्रमाणं
३
७
२
२
४
४ ७
२ एवं शेषाष्टादशषोडशपञ्च दश चतुर्दशद्वादश दशकोटी सागरोपमस्थितिकानां अपि
५ सागर, इच्छाराशि चालीस, बीस या तीस कोड़ाकोड़ी सागर सो फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाण राशिसे भाग देनेपर असंज्ञी जीवके उस उस कर्मकी जघन्य स्थितिका
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५२ शेषाष्टादश षोडश पंचदश चतुर्दश द्वादश वशकोटीकोटिसागरोपम स्थितिय प्रकृतिगळमी प्रकारदिदमेकेंद्रियादिजीवंगळगे त्रैराशिकविधानदिदं जघन्यस्थितिबंधं साधिसल्पडुवुदु । अनंतरमी एकेंद्रियादिगळ मिथ्यात्वादि प्रकृतिगळगे पेकर जघन्योत्कृष्टस्थितिबंधगळनरिदु तरल्पट्ट स्थितिविकल्पंगळं प्रत्येकं स्थापिसि ।
एके द्वी | त्रीं । चतु| असं संज्ञि प प प प प
a १।४/१ । ३२२१॥ ११११| एकेंद्रियंगल बादरसूक्ष्मपर्याप्ताऽपर्याप्तंगळ उत्कृष्टजघन्यमं द्वौद्रियपर्याप्तापर्याप्तोत्कृष्ट- ५ जघन्यंग मं त्रींद्रियपर्याप्तापर्याप्तोत्कृष्टजघन्यंगळमं चतुरिंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तोत्कृष्टजघन्यंगळुमसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तोत्कृष्टज धन्यंगळमं संजिपंचेद्रियपर्याप्तापर्याप्तोत्कृष्टजघन्यंगळुमं मिथ्यास्वादिप्रकृतिस्थितिबंधविकल्पंगळोळ विभागिसि तोरिदपर :
बासूप बासूअ वरद्विदीओ सूवाअ सूबापजहण्णकालो।
बीबीवरो बीविजहण्णकालो सेसाणमेवं वयणीयमेदं ॥१४८॥ बा । बादरश्च । सू। सूक्ष्मश्च बादरसूक्ष्मौ तयोः प। पर्याप्तको बादरसूक्ष्मपर्याप्तको । बा। बादरश्च । सू । सूक्ष्मश्च बावरसूक्ष्मो तयोरपर्याप्तको बावरसूक्ष्मापर्याप्तको। बादरसूक्ष्मपतिको च बादरसूक्ष्मापर्याप्त कौ च बावरसूक्ष्मपर्याप्रकबादरसूक्ष्मापाप्रकाः। तेषां वरस्थितयः तास्तथोक्ताः॥
सू। सूक्ष्मश्च बा बावरश्च सूक्ष्मबादरौ । तयोरपर्याप्तको सूक्ष्मबादरापर्याप्तको। १५ सू। सूक्ष्मश्च बा बादरश्च सूक्ष्मबादरौ। तयोःप पर्याप्तको सूक्ष्मबादरपर्याप्तको । सूक्ष्मबादराs
साधयेत् ॥१४७॥ उक्तैकेन्द्रियादिस्थितिविकल्पान संस्थाप्य
एकें
।
द्वीं
चतु
असं
संज्ञि १
प
तेषु बादरसूक्ष्मैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिनां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्दशानां उत्कृष्टजघन्यस्थितिबन्धी विभज्य दर्शयति
बा-बादरश्च सू-सूक्ष्मश्च बादरसूक्ष्मी, तयोः प-पर्याप्तको बादरसूक्ष्मपर्याप्त को । बा-बादरश्च सू-सूक्ष्मश्च २० प्रमाण आता है। इसी प्रकार जिन कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति अठारह, सोलह, पन्द्रह, चौदह, बारह और दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनके भी जघन्यस्थितिबन्धका प्रमाण लाना चाहिए ॥१४७॥
उक्त एकेन्द्रिय आदिके स्थितिभेदोंको स्थापित करके उनमें बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी इनके पर्याप्त और २५ अपर्याप्तके भेदसे चौदह जीव समासोंमें उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका विभाग करके
दर्शाते हैं
__'बा' अर्थात् बादर, 'सू' अर्थात् सूक्ष्म, ये दोनों 'प' अर्थात् पर्याप्तक-बादर पर्याप्तक, सूक्ष्मपर्याप्तक । 'बा' अर्थात् बादर, 'सू' अर्थात् सूक्ष्म, ये दोनों अपर्याप्तक-बादर अपर्याप्तक,
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गो० कर्मकाण्डे
पर्याप्तकौ च सूक्ष्मबादरपर्य्याप्तकौ च सूक्ष्मबादरापर्य्याप्त क सूक्ष्मबादरपर्याप्तकास्तेषां जघन्यकालः सूक्ष्मबादरापर्य्यातक सूक्ष्मबादरपर्य्याप्त कजघन्यकालो जघन्यस्थितिरित्यर्थः ॥
बी द्वद्रियपर्याप्तश्च बी द्वींद्रियापर्य्याप्तश्च द्वींद्रियपर्य्याप्तद्वींद्रियापर्य्याप्तौ । तयोरा बी द्वींद्रियापर्य्याप्तश्च । बी द्वींद्रियपर्य्याप्तश्च द्वींद्रियापर्य्याप्तद्वींद्रियपर्य्याप्तौ । तयोर्ज्जघन्यकालः ५ द्वींद्रियापय्र्याप्तद्वद्रियपर्याप्तजघन्यकालः । शेषाणामेवं वचनीयमेतत् ।
बादरैकेंद्रिय पर्य्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं सूक्ष्मैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं । बावरेकेंद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं सूक्ष्मैकेंद्रियाऽपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं । सूक्ष्मैकेंद्रियापर्य्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुं । बादरैकेंद्रियापर्य्यामजघन्यस्थितिबंधमुं । सूक्ष्मैकेंद्रियपर्थ्यामजघन्य स्थितिबंधमुं । बादरैकेंद्रिय पर्य्याप्त जघन्यस्थितिबंधमुदिते दु स्थितिविकल्पंगळे केंद्रियक्केमिथ्यात्व प्रकृतिस१० स्थितिविकल्पंगळोळप्पुवु । द्वींद्रियपर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबंधमुं । द्वींद्रियापर्य्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं । द्वींद्रियार्थ्याप्रजघन्यस्थितिबंधमुं । द्वींद्रियपर्य्याप्त जघन्यस्थितिबंध मुमेदितु नाकुं स्थितिबंधविकल्पंगळ द्वोंद्रियक्के मिथ्यात्वप्रकृतिसर्व्वस्थितिबंधविकल्पंगळोळप्पुवु । शेषत्रींद्रियादिगा
बादर सूक्ष्म तयोः, अ-पर्याप्तको बादरसूक्ष्मापर्याप्तिको । बादरसूक्ष्मपर्याप्तको च बादरसूक्ष्मापर्याप्तको च बादर सूक्ष्मपर्याप्तक-बादर सूक्ष्मा पर्याप्तकाः तेषां वरस्थितयः तास्तथोक्ताः । सू-सूक्ष्मश्च बा-बादरश्च सूक्ष्म१५ बादरी तयोः अ-अपर्याप्तको सूक्ष्मबादरापर्याप्तको । सू-सूक्ष्मश्च बा-बादरश्च बा-बादरश्च सूक्ष्मबादरी तयोः प-पर्याप्तको सूक्ष्मबादरपर्याप्तको । सूक्ष्मबादरापर्याप्तको च सूक्ष्मबादरापर्यातको च सूक्ष्मबादरापर्याप्त क-सूक्ष्मबादरपर्याप्तकाः तेषां जघन्यकालः सूक्ष्मबादरापर्याप्त कसूक्ष्मबादरपर्याप्त कजघन्यकालो जघन्य स्थितिरित्यर्थः । अनेन बादरपर्याप्तोत्कृष्टः सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टः बादरपर्याप्तकोत्कृष्टः सूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्टः, सूक्ष्मापर्याप्त कजघन्यः बादरापर्याप्तकजघन्यः सूक्ष्मपर्याप्तकजघन्यः बादरपर्याप्तजघन्यश्चेत्येकेन्द्रियस्य अष्टौ स्थितिबन्धविकल्पा उक्ता २० भवन्ति । बी-द्वीन्द्रियपर्याप्तकश्च बी- द्वीन्द्रियापर्यातकरच द्वीन्द्रियपर्याप्तकद्वन्द्रियापर्यातको तयोर्बरः, बीद्वीन्द्रियापर्याप्तकश्च बिन्द्वीन्द्रियपर्याप्तकश्च द्वीन्द्रियापर्याप्तकद्वीन्द्रियपर्यातको तयोः जघन्यकालः द्वीन्द्रियापर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्त कजघन्यकालः । अनेन द्वीन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टः द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टः द्वीन्द्रियापर्याप्तकजघन्यः द्वीन्द्रियपर्याप्तकजघन्यश्चेति द्वीन्द्रियस्य चत्वारः स्थितिबन्धविकल्पा उक्ता भवन्ति । 'सेसाणमेवं वयणीयमेदं' एवं द्वीन्द्रियोक्तरीत्या एतत्पर्याप्तकापर्याप्तकाभ्यां उत्कृष्टजघन्यभेदेन निजनिजविकल्पचतुष्टयं शेषाणां
२५ सूक्ष्म अपर्याप्त | इनकी उत्कृष्ट स्थितियाँ तथा 'सू' अर्थात् सूक्ष्म, 'बा' अर्थात् बादर ये दोनों 'अ' अर्थात् अपर्याप्तक । 'सू' अर्थात् सूक्ष्म, 'बा' अर्थात् बादर ये दोनों 'प' अर्थात् पर्याप्त । इन सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर अपर्याप्तक और सूक्ष्म पर्याप्तक बादर पर्यातककी जघन्य स्थिति | इस प्रकार १ बादर पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, २ सूक्ष्म पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, ३ बादर अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, ४ सूक्ष्म अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, ५ सूक्ष्म अपर्याप्तककी ३० जघन्यस्थिति, ६ बादर अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति, ७ सूक्ष्म पर्याप्तककी जघन्य स्थिति,
८ बादर पर्याप्तककी जघन्य स्थिति ये आठ एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके विकल्प कहे हैं । 'बी' अर्थात् द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, 'बी' अर्थात् द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक इन दोनोंकी उत्कृष्ट स्थिति । 'बी' अर्थात् द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, 'बि' अर्थात् द्वीन्द्रिय पर्याप्तक इन दोनोंका जघन्य काल । इससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकat are for और द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य स्थिति इस प्रकार द्वीन्द्रियके चार स्थिति
३५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१६१ मिन्ते नाल्कुं नाल्कुं स्थितिबंधविकल्पंगळु तंतम्म मिथ्यात्वप्रकृतिसर्वस्थितिबंधविकल्पंगळोळप्युवें दिन्ती मिथ्यात्वप्रकृतिस्थितिबंधं पेळल्पदुदु। अदेंतेदोडे त्रोंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं। त्रौंद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं । त्रों द्रियापर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुं । त्रींद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमु दितिवु नाल्कुं४, चतुरिद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं। चतुरिद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं । चतुरिंद्रियापर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुं । चतुरिद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुमें दितिवु ५ नाल्कु ४, असंज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं असंश्यप-प्रोत्कृष्टस्थितिबंधमुं असंध्यपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुमसंजिपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुमदितिवु नाल्कु ४, संज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं संश्यपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधमुं संज्यपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुं संजिपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधमुमें
त्रीन्द्रियादिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानामपि वचनीयं-कथनीयम् । तद्यथा
त्रीन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टः त्रीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टः श्रीन्द्रि यापर्याप्तकजघन्यः त्रीन्द्रियपर्याप्तकजघन्यश्चेति १० त्रीन्द्रियस्य चत्वारः । चतुरिन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टः चतुरिन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टः चतुरिन्द्रियापर्याप्तकजघन्यः चतुरिन्द्रियपर्याप्तकजघन्यश्चेति चतुरिन्द्रि यस्य चत्वारः । असंज्ञिपर्याप्तकोत्कृष्टः असंश्यपर्याप्तकोत्कृष्टः असंश्यपर्याप्तकजघन्यः असंज्ञिपर्याप्तकजघन्यश्चेति असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य चत्वारः। संज्ञिपर्याप्तकोत्कृष्टः, संश्यपर्याप्तकोत्कृष्टः, संध्यपर्याप्तकजघन्यः, संज्ञिपर्याप्तकजघन्यश्चेति संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य चत्वार। अमीष अष्टाविंशतिस्थितिबन्धविकल्पेष अन्त्यानां चतुर्णां पृथक्कथनमस्ति इति आदौ आद्यानामायाममानेतं अन्तराल- १५ विकल्पान् राशिकैविभजति
तत्रैकेन्द्रियस्य यथा मिश्यात्वस्थितिरुत्कृष्टा एकसागरोपममात्री सा १ । जघन्या च रूपोनपल्यासंख्येय
बन्धके विकल्प कहे हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियकी कही उक्त रीतिसे पर्याप्तक, अपर्याप्तक और उनके उत्कृष्ट जघन्यके भेदसे चार विकल्प शेष त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय तथा संज्ञिपञ्चेन्द्रियके कहना चाहिए। जो इस प्रकार हैं-त्रीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, २० त्रीन्द्रिय अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति, त्रीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य स्थिति इस प्रकार त्रीन्द्रियके चार विकल्प हैं । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक की उत्कृष्ट स्थिति, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य स्थिति, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य स्थिति इस प्रकार चतुरिन्द्रियके चार विकल्प कर्मोंकी स्थितिके हैं। असंज्ञि पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, असंज्ञि अपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थिति, असंज्ञी अपर्याप्तककी ६५ जघन्य स्थिति, असंज्ञी पर्याप्तककी जघन्य स्थिति ये चार विकल्प असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी कमस्थितिके हैं। संज्ञीपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति, संज्ञो अपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थिति, संज्ञ अपर्याप्तककी जघन्य स्थिति, संज्ञीपर्याप्तककी जघन्य स्थिति ये चार विकल्प संज्ञी पञ्चेन्द्रियके हैं। स्थितिबन्धके इन अठाईस विकल्पोंमें अन्तिम चारका पृथक कथन है। इसलिए आदिमें शेष चौबीस भेदोंकी स्थितिका आयाम लानेके लिए अन्तराल भेदोंका त्रैराशिकोंके द्वारा ३० विभाजन करते हैं
उनमें से एकेन्द्रियके मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण है और जघन्यस्थिति एक कम पल्यके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागर प्रमाण है । सो करणसूत्रके अनुसार आदि जघन्य स्थितिको अन्त उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जो प्रमाण शेष रहे उसको क-२१
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गो० कर्मकाण्डे
दितिवु नाल्कु ४ ई पेळल्पट्ट त्रोंद्रियादिगळ नाल्कुं नाल्कुं स्थितिबंधविकल्पंगळु तंतम्म मिथ्यात्वप्रकृतिसव्वंस्थितिबंधविकल्पंगळोळप्पुवल्लि बादरैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोंडु समयोनक्रमदिवमनितु स्थितिविकल्पंगळु नउदु येकेंद्रियसूक्ष्मपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमुमन्ते सूक्ष्मपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोवल्गोंडु समयोनक्रमदिदर्मनितु स्थितिबंधविकल्पंगळु नडदु
५ भागोनतदुत्कृष्टमात्री सा १
आदी अन्ते सुद्ध वढिहिदे रूवसंजदे' इत्यानीतसमयोत्तरतत्स्थितिविकल्पा
एतावन्तः । तत्र एकद्विचतुश्चतुर्दशाष्टाविंशत्यष्टानवतिषण्णवत्यग्रशतशलाकानां मिलितत्वात् त्रिचत्वारिंशदन
त्रिशतसंख्यानां प्रश ३४३ यद्येतावन्तः फ बि प तदा षण्णवत्यग्रशतशलाकानां इश १९६ कति ? इति
बादरपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धमादिं कृत्वा सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तं विकल्पा लब्धा भवन्ति प १९६
_a३४३ एतेषु चरमस्य सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य आयामः रूपोनरेतावन्मात्रसमयन्यूनबादरपर्याप्तकोत्कृष्ट
१० एकका भाग देना, क्योंकि एक-एक स्थितिके भेदमें एक-एक समयकी वृद्धि होती है, अत;
वृद्धिका प्रमाण एक है। एकका भाग देनेपर उतने ही रहे। उसमें एक जोड़नेपर एकेन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी स्थितिके भेद पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं। इससे आगेकी ही गाथामें उसका अर्थ करते हुए एकेन्द्रिय जीवकी स्थितिके अन्तरालोंमें अंकसदृष्टिकी अपेक्षा
एक, दो, चार, चौदह, अठाईस, अठानबे, एक सौ छियानबे शलाका कहेंगे। उन सबका १५ जोड़ तीन सौ तेतालीस होता है। एकेन्द्रिय जीवके जो पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण
स्थितिके भेद कहे हैं, उनमें तीन सौ ततालीसका भाग देनेपर जो प्रमाण आता है उतना एक शलाकामें स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है । इस प्रमाणको अपने-अपने शलाका प्रमाणसे गुणा करनेपर अपने-अपने स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है। उसे त्रैराशिक द्वारा बतलाते हैं
यदि तीन सौ तेतालीस शलाकाओंमें एकेन्द्रिय जीवकी मिथ्यात्वकी स्थिति के सब भेद पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं तो एक सौ छियानबे शलाकाओं में कितने होंगे। ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि तीन सौ तेतालीस शलाका, फलराशि एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके भेदोंका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग। इच्छाराशि एक सौ
छियानबे। फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिका भाग देनेपर लब्धराशिका २५ जो प्रमाण आया उतने बादर पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर सूक्ष्मपर्याप्त कके उत्कृष्ट
स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं । अर्थात् बादर पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और सूक्ष्म पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरालमें जितने स्थितिके भेद होते हैं उनका यह प्रमाण है। तथा इस अन्तरालकी शलाका एक सौ छियानबे हैं। जितना यहाँ अन्तरालके
स्थितिके भेदोंका प्रमाण कहा, उसमें एक कम करके उतने समय बादर पर्याप्तककी उत्कृष्ट ३० स्थिति एक साग़र में-से घटानेपर सूक्ष्मपर्याप्तकको उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण होता है। पुनः
प्रमाणराशि तीन सौ तेतालीस शलाका, फलराशि एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके भेदोंका
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
बादरैकेंद्रिय।पर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्प बाद केंद्रियार्थ्यातोत्कृष्ट स्थितिबंधविकल्पं मोदगोंडु समयोनक्रमदिदमेनितु स्थितिबंधविकल्पंगळं नडदु । सूक्ष्मैकंद्रियार्थ्याप्तोत्कष्टस्थितिबंधविकल्पमुमन्ते सूक्ष्मपर्याप्तोत्कृष्ट स्थितिबंधविकल्पं मोदल्गो डेनितुस्थितिविकल्पंगळं नदु
स्थित्यायाममात्रो भवति सा
भवति सा
613
0
प १९६,
a ३४३
नंतरस्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरापर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्त विकल्पा लब्धा भवन्ति प २८ एतेषु चरमस्य
a ३४३
बादरापर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य आयाम: एतावद्भिरेव समयैः न्यूनसूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो पुनः प्र-श ३४३ | फ बिप इश ४ इति बादरापर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादि
a
पुनः प्र-श ३४३फ बिप इ-श २८ । इति सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टा
a
प २२४,
a ३४३
.
कृत्वा सूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवन्ति प ४ एतेषु चरमस्य सूक्ष्मापर्याप्त कोत्कृष्टस्थितिबन्धस्य आयाम एतावद्भिरेव समयैर्च्यूनबादरापर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो भवति । सा
० ३४३
१६३
ज्
a ३४३
पुनः प्र - ३४३ । फ बिप इश १ इति सूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा सूक्ष्मा - १०
a
पर्याप्त कजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवति प १ एतेषु चरमस्य सूक्ष्मापर्याप्त कजघन्य स्थिति० ३४३ बन्धस्यायामः एतावद्भिरेव समयैर्न्यनसूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो भवति सा
पुनः प्र-श
2
२२९
a ३४३
प २२८
प्रमाण, इच्छाराशि अठाईस शलाका। फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया उतने सूक्ष्म पर्याप्तकके उत्कृष्ट के अनन्तरवर्ती स्थितिबन्धसे लेकर बादर अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं । इन स्थिति भेदोंके प्रमाणको सूक्ष्म पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति में से घटानेपर बादर अपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थितिका प्रमाण होता है । पुनः प्रमाणराशि तीन सौ तेंतालीस, फलराशि एकेन्द्रियकी मिथ्यात्व की स्थिति के सब भेदोंका प्रमाण, इच्छाराशि चार शलाका । सो फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाण शिसे भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया वह बादर अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर सूक्ष्म अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं । इन भेदोंका जितना प्रमाण है उतने समय बादर अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति में से घटानेपर सूक्ष्म अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रमाण होता है । पुनः प्रमाणराशि तीन सौ तेंतालीस, फलराशि एकेन्द्रियके मिध्यात्वकी स्थितिके सब भेद, इच्छा
५
१५
२०
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गो० कर्मकाण्डे
सूक्ष्मैकेंद्रियापर्याप्तजघन्यस्थितिविकल्पमुमन्ते सूक्ष्मैके द्वियापर्य्याप्तजघन्यस्थितिविकल्पं मोदल्गो
१६४
३४३ | फबिप इश २ इति सूक्ष्मापर्याप्त कजघन्यानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरापर्याप्तकजघन्य
მ
एतेषु चरमस्य बादरापर्याप्त कजघन्य स्थितिबन्धस्यायामः
स्थितिपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवन्ति प २
० ३४३ एतावद्भिरेव समय: न्यून सूक्ष्मापर्याप्तकजघन्य स्थित्यायाममात्रो भवति ।
सा
612
प २३१
० ३४३
५३४३ | फबिपइश १४ इति बादरापर्याप्तजघन्यानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा सूक्ष्मपर्याप्त कजघन्य स्थिति
a
एतेषु चरमस्य सूक्ष्मपर्याप्त कजघन्यस्थितिबन्धस्यायामः एत
बन्धपर्यन्त विकल्पा लब्धा भवन्ति - १४ a ३४३
वद्भिरेव समयेन्यूनबादरापर्याप्तकजघन्य स्थित्यायाममात्रो भवति सा
613
:)
२४५
पुनः प्र-श
a ३४३
इश ९८ इति सूक्ष्मपर्याप्त कजघन्यानन्तर स्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरपर्याप्त कजघन्य स्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवन्ति प ९८ एतेषु चरमस्य बादरपर्याप्त कजघन्यस्थितिबन्धस्यायामः एतावद्भिरेव
० ३४३
पुनः प्रश ३४३ फ बिप
a
१० राशि एक शलाका । फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया उतने सूक्ष्म अपर्याप्त कके उत्कृष्ट से अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर सूक्ष्म अपर्याप्त कके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं। इन भेद प्रमाण समयको सूक्ष्म अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में से घटानेपर सूक्ष्म अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण होता है । पुनः प्रमाणराशि तीन सौ तेतालीस, फलराशि एकेन्द्रियके मिध्यात्वकी १५ उत्कृष्ट स्थिति सब भेद, इच्छाराशि दो शलाका । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाण
राशि से भाग देने पर जो प्रमाण आवे उतने सूक्ष्म अपर्याप्तकके जघन्यस्थितिबन्धसे अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर बादर अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं । इन भेदप्रमाण] समयोंको सूक्ष्म अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति में घटानेपर बादर अपर्याप्तककी जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है । पुनः प्रमाणराशि तीन सौ तैंतालीस, फलराशि एकेन्द्रिय के २० मिथ्यात्व की स्थिति के सब भेद, इच्छाराशि शलाका चौदह । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर जो लब्ध आया उतने बादर अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धके अनन्तर स्थिति भेद से लेकर सूक्ष्म पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद हैं । इन भेद प्रमाण समयोंको बादर अपर्याप्तके जघन्यस्थितिबन्ध में घटानेपर सूक्ष्म पर्याप्तक के जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण होता है । प्रमाणराशि तीन सौ तैंतालीस शलाका, फलराशि एकेन्द्रिय के २५ मिथ्यात्वकी सब स्थितिके भेद, इच्छाराशि शलाका अठानबे । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशि से भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने सूक्ष्म अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध के अनन्तर स्थितिबन्ध से लेकर बादर पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका डेनितु स्थितिविकल्पंगळं नडदु बादरापर्याप्त जघन्यस्थितिबंधविकल्पमुमन्ते । बादरैकेंद्रियपर्याप्तसमयन्यूनसूक्ष्मपर्याप्तकजघन्यस्थित्यायाममात्रः-सा अपवर्तितः स चेदृश एव भवति सा ।
प
- प ३४३
३४३ तथा एकेन्द्रियस्य मिथ्यात्वाबाधा आवल्यसंख्येयभागाधिकसंख्यातावलिमात्री २ जघन्या च तदाधिक्योनत
न्मात्री २३ तथानीतसमयोत्तराबावाविकल्पा एतावन्तः २ एतानेव उक्तसप्तत्रैराशिकानां स्थितिबन्धविकल्पान्
a
अपहाय फलराशीन् कृत्वा तत्तल्लब्धं स्वस्वस्यितिविकल्पानामधः संस्थाप्य तदष्टविकल्पाबाधायामानां प्रथमे रूपोनतल्लब्धमात्रान् परेषु संपूर्णतत्तल्लब्धमात्रानेव समयानपनीयापनीय परम्परमाबाधायामं साधयेत् । तत्संदृष्टि :
इन भेदप्रमाण समयोंको सूक्ष्म पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धमें-से घटानेपर बादर पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार एकेन्द्रियके सूक्ष्म बादरके पर्याप्त-अपर्याप्त जीव समासोंके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके भेदसे आठ स्थानों में स्थितिबन्धका प्रमाण १० कहा। इन आठोंमें सात अन्तराल होनेसे अन्तरालोंमें स्थितिके भेदोंका प्रमाण जाननेके लिए सात त्रैराशिक किये हैं।
आगे आबाधाकालका प्रमाण दिखाते हैं
एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा आवलीके असंख्यातव भागसे अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है। और जघन्य आबाधा आधिक्यके बिना केवल १५ अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उत्कृष्टमेंसे जघन्यको घटाकर एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक जोड़नेपर एकेन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी आबाधाके सब भेदोंका प्रमाण आता है। जैसे स्थितिबन्धके कथनमें आठ स्थानोंके सात अन्तरालोंमें भेदोंका प्रमाण लानेके लिए सात त्रैराशिक किये वैसे ही आबाधाका प्रमाण लानेके लिए भी करना चाहिए । यहाँ प्रमाणराशि तो सर्वत्र तीन सौ तेतालीस शलाका प्रमाण है। फलराशिमें वहाँ स्थितिके भेदोंका प्रमाण २० कहा था यहाँ एकेन्द्रिय जीवकी मिथ्यात्वको आबाधाके जघन्यसे लेकर उत्कृष्टपर्यन्त भेदोंका जितना प्रमाण उतना लेना । तथा इच्छाराशि क्रमसे वही एक सौ छियानबे, अठाईस, चार, एक, दो, चौदह और अठानबे शलाका प्रमाण लेना। सर्वत्र फलसे इच्छाको गणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे सो अपने-अपने अन्तरालोंमें आबाधाके भेदोंका प्रमाण है । सो प्रथम त्रैराशिकमें जितने भेदोंका प्रमाण आया उनमें से एक घटानेपर २५ जितना रहे उतना समय बादर पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी उत्कृष्ट आबाधामें से घटानेपर सूक्ष्म पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण होता है। उसमें-से दूसरे त्रैराशिकमें जितने भेदोंका प्रमाण आवे उतने समय घटानेपर बादर अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण होता है। इसी प्रकार तीसरे आदि त्रैराशिकमें भी जितने भेदोंका प्रमाण आवे उतने समय घटानेपर उस-उस स्थानमें जो स्थितिबन्धका ३०
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५
१६६
गो० कर्मकाण्डे
जघन्य स्थितिबंधविकल्प मोवल्गो डेनितु स्थितिबंधविकल्पंगळं नडेवु सूक्ष्मैकेंद्रियपय्र्याप्तजघन्य
१५
वाप उ
२
३०
a
२१
सूप उ
२
a २१
२ १९६
० ३४३
बा अ उ
२
a २१
२ २२४
० ३४३
सू अ उ
२
प
a २१
२ २२८
० ३४३
सू अज
२
2
२१
२ २२९
a ३४३
० २१
a
२ २४५
२ २१
a ३४३ ० ३४३
३४३
अथ द्वीन्द्रियस्य यथा तन्मिथ्यात्वस्थितिरुत्कृष्टा पञ्चविंशतिसागरोपममात्री सा २५ जघन्या च चतु:संख्यातभक्तरूपोनपत्योनतदुत्कृष्टमात्री सा २५ तथानीत समयोत्तरविकल्पा एतावन्तः प तत्र ๆ ๆ ๆ ๆ
>
११११
एक द्विचतुःशलाकानां मिलित्वा सप्तसंख्यानां प्र-श ७ यद्येतावन्त :
फ-विप
ง ว ง ง १० द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबन्धपर्यन्तं विकल्पा लब्धा भवति प
वा अ ज
२
२१
२ २३१
० ३४३
सूप ज
२
वा पज
२
तदा चतसृणां शलाकानां इ श ४ कति ? इति द्वन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धमादिं कृत्वा
दो-इन्द्रिय जीवके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर है । जघन्य स्थिति चार बार संख्यातसे भाजित एक हीन पल्यके प्रमाणको उत्कृष्ट स्थिति में से घटानेपर जो शेष रहे उतनी है । उत्कृष्ट में से जघन्यको घटाकर जो शेष रहे उसमें एकसे भाग देकर तथा एक जोड़ने पर जो प्रमाण रहे उतने द्वीन्द्रिय जीवके मिध्यात्वकी सब स्थितिके भेद होते हैं । दो-इन्द्रियके चार स्थानोंके तीन अन्तरालों में एक, दो और चार शलाका प्रमाण हैं । इनका २० जोड़ सात होता है । यदि सात शलाकाओं में दो-इन्द्रिय जीवके जघन्यसे लेकर उत्कृष्टस्थितिपर्यन्त मिथ्यात्वकी स्थिति के सब भेद चार बार संख्यातसे भाजित पल्य प्रमाण होते हैं तो चार शलाकाओं में कितने भेद होंगे। ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि शलाका सात, फलराशि दोइन्द्रियके मिध्यात्वकी स्थितिके भेदोंका प्रमाण, इच्छाराशि चार शलाका । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध आया उतने द्वीन्द्रिय पर्याप्त कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थिति के भेद होते हैं । इन भेदोंमें से एक घटानेपर जो शेष रहे उतने समय द्वीद्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर में से घटानेपर दो-इन्द्रिय अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका
२५
११११७
४ एतेषु चरमस्य द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धस्यायामो रूपोनैरेतावद्भिः समयैर्न्यनद्वीन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो भवति प्रमाण कहा उस-उस सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण जानना । इस तरह एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध और आबाधा के भेदोंका तथा कालका प्रमाण जानना । अब दो-इन्द्रिय जीवके कहते हैं
१. एतस्याः संदृष्टेराकारः श्रीपण्डितटोडरमल्लजीकैः, अपरथैव प्रतिपादितः तत्र रचनायां वैलक्षण्येऽपि नार्थे वैलक्षण्यं । स चाकारोऽत्र १४९ तम संख्यांकितगाथायाष्टिपण्या: आबाधारचनेत्यंशे, कर्मकाण्डसंदृष्टौ च लिखित: ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१६७ स्थितिबंधविकल्पमुमन्ते । सूक्ष्मैकेंद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोंडेनितु स्थितिबंध
सा २५
४ पुन: प्र-श ७ फ बिपइश १ इति द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादि
कृत्वा द्वोन्द्रियापर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवन्ति प १ एतेषु चरमस्य द्वीन्द्रिया
११११७ पर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धस्यायामः एतावद्भिरेव समयन्यूनद्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो भवति सा २५ ५ पुनः प्र-श ७ फ-बिप इश २ इति द्वीन्द्रियापर्याप्तजघन्यानन्तरस्थिति- ५
प
बन्धमादि कृत्वा द्वीन्द्रियपर्याप्तकजधन्यस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पा लब्धा भवन्ति प २ एतेषु चरमस्य
११११७ द्वीन्द्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धस्यायाम एतावद्भिरेव समयन्यूनद्वीन्द्रियापर्याप्तकजघन्यस्थित्यायाममात्र: सा २५ । ७ स च ईदृश एव भवति सा २५ । तथा द्वीन्द्रियस्य मिथ्यात्वाबाधा उत्कृष्टा
प
प्रमाण होता है। पुनः प्रमाणराशि सात शलाका, फलराशि दो-इन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके सब भेद, इच्छाराशि एक शलाका। फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देने- १. . पर जो लब्धराशिका प्रमाण आवे उतने दो-इन्द्रिय अपयोप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर भेदसे लगाकर दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं। इन भेद प्रमाण समयोंको दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें-से घटानेपर दोइन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य स्थितिका प्रमाण होता है। पुनः प्रमाणराशि सात शलाका, फलराशि दो-इन्द्रियके मिथ्यात्वके सब स्थितिके भेदोंका प्रमाण, इच्छाराशि दो शलाका। १५ फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया उतने दोइन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धके अनन्तर स्थितिबन्धसे लगाकर दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद होते हैं। इन भेदप्रमाण समयोंको दो-इन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य स्थितिबन्धमें घटानेपर दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण होता है। आगे आबाधाका प्रमाण कहते हैं।
दो-इन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी उत्कृष्ट आबाधा चार बार संख्यातसे भाजित आवली अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तर्मुहूर्त पच्चीस प्रमाण है। जघन्य आबाधा उस अधिक बिना केवल पच्चीस अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्टमें-से जघन्यको घटाकर उसमें एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसमें एक जोड़नेपर आवाधाके भेदोंका प्रमाण होता है। यहाँ भी पूर्वकी तरह तीन त्रैराशिक करना चाहिए। सो प्रमाणराशि और २५ इच्छाराशि तो स्थितिबन्धके कथनके समान ही जानना। फलराशि दो-इन्द्रियके मिथ्यात्वकी १. ब रूपोनातीतविकल्पमात्रसमय ।
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१६८
गो० कर्मकाण्डे विकल्पंगळं नडेदु बादरैकेंद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पं पुट्ठिदुर्देदितु पय॑नुयोगमागुत्तं चतुःसंख्यातभक्तावल्यधिकपञ्चविंशतिगुणितसंख्यातावलिमात्री २ जघन्या च तदाधिक्योनतन्मात्री
२. १२५
२१ २५ तथानीतसमयोत्तराबाधाविकल्पा एतावन्तः २ एतानेव उक्तत्रराशिकानां स्थितिबन्धविकल्पा
नपहाय फलराशीन् कृत्वा तत्तल्लब्धं स्वस्वस्थितिविकल्पानामधः संस्थाप्य तच्चतुर्विकल्पाबाधायामानां प्रथमे रूपोनलब्धमात्रान् परेषु संपूर्णतत्तल्लब्धमात्रानेव समयानपनीयापनीय तं तमाबाधायाम साधयेत्, एवमेव त्रीन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्थितिः उत्कृष्टा पञ्चाशत्सागरोपममात्री सा ५० जघन्या च विसंख्यातभक्तरूपोनपल्योनतदुत्कृष्टमात्री सा ५० तथानीतसमयोत्तरतत्स्थितिविकल्पानिमान् प तन्मिथ्यात्वाबाधा उत्कृष्टा
प
त्रिसंख्यातभक्तावल्यधिकपञ्चाशद्गणितसंख्यातावलिमात्री २
जघन्या च तदाधिक्योनतन्मात्री २ १५०
२१५० पुनः चतुरिन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्थितिरुत्कृष्टा शतसागरोपम
तथानीतसमयोत्तराबाधाविकल्पानिमान
आबाधाके जितने भेद हैं उतनी जानना । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर १० जो-जो प्रमाण आवे उतने आबाधाके भेदोंका प्रमाण जानना। सो प्रथम त्रैराशिकमें तो
जितना भेदोंका प्रमाण हो उसमें एक घटानेपर जो रहे उतने समय दो-इन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी उत्कृष्ट आबाधामें-से घटानेपर जो प्रमाग रहे उतना दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आबाधाकाल होता है। इसमें-से दूसरे त्रैराशिको जितने
भेद आयें उतने समय घटानेपर दो-इन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य स्थिति सम्बन्धी आवाधाका १५ काल होता है। इसमें-से तीसरे राशिकमें जितने भेद आयें उतने समय घटानेपर दो-इन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी आवाधाकालका प्रमाण होता है ।
दो-इन्द्रियके समान ही त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियका कथन जानना। इतना विशेष है कि यहाँ स्थिति और आबाधाका प्रमाण भिन्न-भिन्न है अतः फलराशि भिन्न है। आगे उसका कथन करते हैं
त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागर है । जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति मेंसे तीन बार संख्यातसे भाजित एक कम पल्यको घटानेपर जो शेष रहे उतनी है। उत्कृष्टस्थितिमें-से जघन्यको घटाकर उसमें एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण रहे उसमें एक जोड़नेपर त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके सब भेदोंका प्रमाण तीन बार संख्यातसे भाजित पल्यप्रमाण
होता है । यही त्रीन्द्रियके स्थितिबन्धका कथन करनेमें तीनों त्रैराशिकोंमें फलराशि है । तथा २५ त्रीन्द्रियके उत्कृष्ट मिथ्यात्व स्थितिकी आबाधा तीन बार संख्यातसे भाजित आवली अधिक
संख्यात आवली प्रमाण अन्तमुहूर्त पचास है । और जघन्य आबाधा केवल पचास अन्तर्मुहूर्त
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विरलु तन्मध्यस्थितिब विकल्पंगळुमनवराबाधाविकल्पंगळुमं पेळल्वेडियुमिन्ते द्वींद्रियादिगळ । मात्री सा १०० जघन्या च द्विसंख्यातभक्तरूपोनाल्योनतदुत्कृष्टमात्री सा १०० । तथानीतसमयोत्तर
तद्विकल्पानिमान् प
तन्मिथ्यात्वाबाधा उत्कृष्टा द्विसंख्यातभक्तावल्यधिकशतगुणितसंख्यातावलिमात्री
जधन्या च तदाधिक्योनोत्कृष्टमात्री २११०० तथानीतसमयोत्तरतद्विकल्पानिमान २ ।२
१।२ २१ । १०० पुनः असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्थितिः उत्कृष्टा सहस्रसागरोपममात्री सा १००० जघन्या च रूपोनपल्य- ५ संख्येयभागोनतदुत्कृष्टमात्री सा १००० । तथानीतसमयोत्तरतत्स्थितिविकल्पानिमान् प तन्मिथ्यात्वा
-
बाधा उत्कृष्टा आवलिसंख्येयभागाधिकसहस्रगुणितसंख्यातावलिमात्री २
जघन्या च तदाधिक्योनतदु
२१ । १०००
स्कृष्टमात्री २११००० तथानीतसमयोत्तराबाधाविकल्पान इमांश्च २ द्वीन्द्रियोक्तरीत्या श्रराशिकत्रयस्य
पृयक्-पृथक् फलराशीन् कृत्वा तत्रस्थितिविकल्पलब्धानि तत् तत्त्रिषु अन्तरालेषु संस्थाप्य आबाधाविकल्पहै । सो उत्कृष्ट में-से जघन्यको घटाकर एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण रहे उसमें एक जोड़ने- १० पर त्रीन्द्रियकी आबाधाके सब भेदोंका प्रमाण होता है। त्रीन्द्रियके आबाधाके कथन सम्बन्धी तीनों राशिकोंमें यही फलराशि है। चतुरिन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागर है। जघन्यस्थिति इस उत्कृष्ट स्थितिमें-से दो बार संख्यातसे भाजित पल्यको घटानेपर जो प्रमाण शेष रहे उतनी है । उत्कृष्ट स्थितिमें-से जघन्यको घटाकर उसमें एकसे भाग देकर जो प्रमाण रहे उसमें एक जोड़नेपर चतुरिन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके सब भेदोंका १५ प्रमाण दो बार संख्यातसे भाजित पल्य प्रमाण होता है। यही चतुरिन्द्रियके स्थितिबन्धके । कथन सम्बन्धी तीनों त्रैराशिकों में फलराशि जानना। तथा चतुरिन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिकी आबाधा दो बार संख्यातसे भाजित आवली अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तर्मुहूर्त सौ है । और जसन्य आबाधा केवल सौ अन्तर्मुहूर्त है। सो उत्कृष्ट में-से जघन्यको घटाकर एकका भाग देकर जो प्रमाण हो उसमें एक जोड़नेपर चतुरिन्द्रियके आवाधाके सब भेदोंका प्रमाण होता है। यही चतुरिन्द्रियके आबाधाके कथनमें तीनों त्रैराशिकोंमें फलराशिका प्रमाण है । असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थिति एक हजार सागर है। इसमें एकहीन पल्यके संख्यातवें भागको घटानेपर जघन्य स्थिति होती है। उत्कृष्ट में-से जघन्यको घटाकर एकसे भाजित करनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक जोड़नेपर असंज्ञीके मिथ्यात्वकी स्थिति के सब भेदोंका प्रमाण एक बार संख्यातसे भाजित पल्य प्रमाण है। यही १ क-२२
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५
१०
१७०
गो० कर्मकाण्डे
पर्याप्ता पर्याप्तोत्कृष्टजघन्य स्थितिबंधविकल्पंगेळु नडवु नडदु तदुत्कृष्टस्थितिबंध विकल्पंगळमवराबाधाविकल्पंगलं पुट्टगुमेंदोडे पेळल्वेडि मंदण सूत्रमं पेदपरु :--
मझे थोवसलागा हेडा उवरिं च संखगुणिदकमा । सव्वजुदी संखगुणा हेडुवरिं संखगुणमसणित्ति ॥ १४९ ॥
मध्ये स्तोकशलाकाः अधः उपरि च संख्यगुणितक्रमाः । सर्व्वयुतिः संख्यगुणा अध उपरि संख्यगुणमसंज्ञिपर्यंतं ॥
बादरैकेंद्रियपर्य्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोड्डु तज्जघन्यस्थितिबंधविकल्पपर्यंतमिर्द्देकेंद्रियंगळ मिथ्यात्वकर्म्मप्रकृति सर्व्वस्थितिविकल्पंगळोळु मध्यवत्तगळप्प सूक्ष्मैकेंद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोदगोंड सूक्ष्मैकेंद्रियापर्य्याप्तजघन्य स्थितिबंध विकल्प पर्य्यन्तमिद्दं स्थितिबंधविकल्पंगळं मध्य मेंबुदा मध्यस्थितिबंधविकल्पंगळे नितोळवनितमोदु शलाकेयं माडिदुदिदु: सर्व्वतः स्तोकशलाका संख्येयक्कुं । अधः आ मध्यशलाका संख्येयिद केलगण सूक्ष्मापय्र्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पानंतरस्थितिबंधविकल्पं मोवल्गोंडु बादरापर्याप्तजघन्यस्थितिबंध विकल्प पर्यंत
लब्धानि तेषामधः संस्थाप्य प्रागुक्ततत्तच्चतुश्चतुर्विकल्पानां प्रथमप्रथमस्य स्थित्यायामाबाधायामयोः रूपोनतल्लब्धमात्रान् द्वितीयतृतीयस्य तयोः सम्पूर्णतत्तल्लब्धमात्रानेव समयानपनीयापनीय परम्परं स्थित्यायाम्माबाबायामं च साधयेत् ॥१४८॥ एतत्सर्वं मनसि धृत्वाग्रतनसूत्रमाह
१५
३०
मज्झे थोवसलागा—बादरपर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तेषु एकेन्द्रियस्य मिथ्यात्व सर्वस्थितिविकल्पेषु मध्ये ये सूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबन्धमादि कृत्वा सूक्ष्मापर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तं मध्यविकल्पाः स्तोकाः ते एका शलाका ज्ञातव्या ^१ हेट्ठा सूक्ष्मापर्याप्तक
असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी स्थितिके कथन सम्बन्धी तीनों त्रैराशिकों में फलराशि होता है । तथा २० असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा आवलीके संख्यातवें भागसे अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तर्मुहूर्त हजार है । और जघन्य आबाधा केवल हजार अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट में से जघन्यको घटाकर एकसे भाग देकर जो प्रमाण हो उसमें एक जोड़नेपर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके मिथ्यात्वकी आबाधा के सब भेदोंका प्रमाण होता है। वही असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी आबाधाके कथनमें तीनों त्रैराशिकों में फलराशि जानना । इतना विशेष कथन है. शेष सब कथन दो-इन्द्रियके कथनकी तरह जानना || १४८ ॥
२५
यह सब कथन मनमें रखकर आगेका गाथासूत्र कहते हैं
मध्य में स्तोक शलाका है अर्थात् बादर पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर बादर पर्याप्तककी जघन्यस्थितिबन्ध पर्यन्त जो एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी सब स्थितिके विकल्प हैं उनमें से सूक्ष्म 'अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर सूक्ष्म अपर्याप्तककी जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त विकल्प सबसे थोड़े हैं। उनकी एक शलाका जानना । 'हेट्ठा' अर्थात् इसके नीचे सूक्ष्म अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे अनन्तर स्थितिबन्ध से लेकर बादर अपर्याप्तक के
१. मग मेनितेनित स्थितिविकल्पंगलं नडदु नडदु पुट्टगुमे दोडे तन्मध्यस्थितिबन्ध विकल्पंगलुमनवार बाधा विक्षल्पंगलमं ल 1
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मि स्थितिबंधविकल्पंगळं । उपरि च आ सूक्ष्मै केंद्रियार्थ्याप्तोत्कृष्ट स्थितिबंधविकल्पानंतरोपरितस्थितिबंधविकल्पं मोवगोंडु बादरापर्य्याप्तोत्कृष्ट स्थितिबंध विकल्पपटर्य्यन्तमिद्दं स्थितिबंधविकल्पंग क्रर्मादिदं । संख्यगुणितक्रमाः आकेळगण शलाकेगळं मेलण शलाकेगळं संख्यातगुणितंगळप्पुवु वा. अ. उ. वा. अ. ज. सर्वयुतिः ई मध्याधस्तनोपरितन सर्व्वA४
२ Λ
शलाकातियुं ७
सू. प. उ.
सु. अ. उ सू. अ. ज. A. P
वर मुन्निनंते केळगेयुं मेगेयुं संखगुणा संख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु वा. अ. उ. सू. अ. उ. सू. अ. ज. वा. अ. ज. स. प. ज. २८ A ४ ^१ Λ २ Λ १४ ^
मत्तमन्ते सूक्ष्मपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पानन्तरस्थितिबंधविकल्पं मोदगोंडु बादरपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पपथ्यंत मिर्द्द स्थितिबंधविकल्पंगलं मेले सूक्ष्मपर्याप्तोत्कृष्ट स्थितिबंधविकल्पं मोदगोंडु बादरेकेंद्रिय पर्य्याप्तोत्कृष्ट स्थितिबंधविकल्प पय्यं तमिद्द स्थितिबंधविकल्पंगळं क्रमविद सयुतिय ४९ संख्यातगुणितंगळवु -
बाप उ स प उ वा अ उ सू.अ उ सू अज बा अज सूप ज बाप ज ^ १९६ २८ ४ ^१ २ A १४ ^९८ ^
१७१
जघन्य स्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरापर्याप्तक । जघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पसम्बन्धिन्योऽधस्तनशलाकाः 'उवरि च सूक्ष्मापर्याप्तकोत्कृष्टानन्त रोपरितनस्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरापर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पसम्बन्धिन्य उपरितनशलाकारच ं 'संखगुणिदकमा' संख्यातेन अङ्कसंदृष्ट्या द्वयङ्केन गुणितक्रमा भवन्ति ४१२ 'सव्वजुदी' सर्वयुतः तदुक्तक- द्विचतुःशलाकायुतैः सप्तभ्यः सकाशात् 'हेट्ठा' बादरापर्याप्तकजघन्यानन्तर स्थितिबन्धमादि कृत्वा सूक्ष्मपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्त विकल्पसम्बन्धिन्योऽवस्तनशलाका: उवरि बादरापर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्ट स्थितिबन्धपर्यन्त विकल्पसम्बन्धिन्य उपरितनशलाकाश्च प्राग्वत् संख्यातगुणितक्रमा भवन्ति २८४APARA जघन्यस्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी अधस्तन शलाका उन शलाकाओं से संख्यात गुणी हैं। और ऊपर सूक्ष्म अपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थितिके अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर २० बादर अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी ऊपरकी शलाका उनसे संख्यात गुणी है । इस प्रकार संख्यातगुणा अनुक्रम कहा । सो संख्यातका प्रमाण तो यथायोग्य है । परन्तु यहाँ समझने के लिए संख्यातका चिह्न दोका अंक जानना । सो एकसे दूना दो होता है, सो नीचे दो शलाका और उससे दुगुना चार, सो ऊपर चार शलाका जानना ४०१८२ इन सबको जोड़नेपर जो प्रमाण हो उससे नीचे बादर २५ अपर्याप्त के जघन्य स्थितिबन्धके अनन्तर भेदसे लेकर सूक्ष्म पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी अधस्तन शलाका संख्यातगुणी जानना और ऊपर अर्थात् बादर अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अनन्तर से लेकर सूक्ष्म पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थिति के भेद सम्बन्धी उपरितन शलाका उससे संख्यातगुणी जाना । सो पहलेकी शलाका चार, एक दोका जोड़ सात हुआ । उसको संख्यात के चिह्न दोसे गुणा ३०करनेपर नीचे तो चौदह शलाका हुई। उन्हें संख्यात के चिह्न दोसे गुणा करनेपर अट्ठाईस
१०
१५
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१७२
गो० कर्मकाण्डे इल्लि तात्पर्य्यार्थम त दोर्ड अंकसंदृष्टियिंदमुमर्थसंदृष्टियिदमुं पेळ्दप मल्लि अंकसंदृष्टि. यिदमे ते दोडे बादरैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोंडु एकैकसमयहीनक्रमदिदं तन्मध्यस्थितिबंधविकल्पंगळु नडदु नूरतो भत्तारनेयदु सूक्ष्मपर्याप्तोकृष्टस्थितिबंधविकल्पं पुटुगु
मनंतरस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोंडु समयोनक्रमदिस्थितिबंधविकल्पंगळु नडदु २८ इप्पत्तंटनेयदु ५ बादरापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमक्कु। मनंतर स्थितिविकल्पं मोदल्गोंडु समयोनक्रमदिद
स्थितिबंधविकल्पंगळु नडदु नाल्कनेयदु सूक्ष्मापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमक्कुमनंतरसमयोन. स्थितिबंधविकल्पमो दयदु सूक्ष्मापर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमक्कु । मनंतरसमयोनस्थितिबंध. विकल्पंगळ नडदु यरउनेयदु बादरापर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमक्कु-। मनंतर समयोनस्थिति__ बंधविकल्पं मोदल्गोंडु समयोनक्रमदिदं स्थितिबंधविकल्पंगळु नडदु पदिनाल्कुनैयदु सूक्ष्मपर्याप्त
जघन्यस्थितिबंधविकल्पमक्कु-। मनंतरसमयोनस्थितिविकल्पं मोदल्गोंडु समयोनक्रमविंद स्थितिबंधविकल्पंगळु नडेदु तो भत्तेंटनेयदु बादरपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमक्कुमर्थसंदृष्टियोळु तात्पर्यात्थं पेळल्पडुगुमे ते दोडे बादरैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमेकसागरोपमप्रमाणं । सा १। जघन्यस्थितिबंधविकल्पं रूपोनपल्यासंख्यातेकभागोनैकसागरोपमप्रमितमक्कु सा १ ।
१४. 'च' शब्दात् पुनरपि सव्वजुदी तदुक्तैकद्विचतुश्चतुर्दशाष्टाविंशतिशलाकायुतः एकान्न पञ्चाशतः ४९ १५ सकाशात् 'हेट्ठा' सूक्ष्मपर्याप्तकजधन्यान्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा बादरपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्त
विकल्पसम्बन्धिन्योऽधस्तनशलाका उरि सूक्ष्मपर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादिं कृत्वा बादरपर्याप्तकोस्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पसम्बन्धिन्य उपरितनशलाकाश्च संखगुणं संख्यातगणितक्रमा भवन्ति
वा प उ A १९६ ॥ २८ ॥ ४ १ २ १४ ॥ ९८ वा पज
पुनरपि मज्झे थोवसलागा हेट्ठा उरि ‘च संखगुणिदकमा' एतावत्सूत्रं द्वीन्द्रियं प्रत्यपि योज्यम् । २० तथाहि- मज्झे थोवसलागा द्वीन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धमादि कृत्वा द्वीन्द्रियपर्याप्तकजघन्यस्थिति
२०
शलाका हुई। यथा २८.११.२०१४। इन्हें पुनः जोड़नेपर जो प्रमाण हो उससे नीचे अर्थात् सूक्ष्म पर्याप्तकके जघन्यस्थितिके अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर बादर पर्याप्तक जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी अधस्तन शलाका संख्यातगुणी है और ऊपर सूक्ष्म पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके. अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर बादर पर्याप्तक उकृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी उपरितन शलाका संख्यात गुणी है। सो अठाईस, चार, एक, दो और चौदह को जोड़नेपर उनचास हुए । इनको संख्यातके चिह्न दोसे गुणा करनेपर अठानबे नीचेकी शलाका जानना और उसे दोसे गुणा करनेपर एक सौ छियानबे ऊपरकी शलाका जानना। यथा १९६०२८४२११४ ९८ इस प्रकार एकेन्द्रियका कथन किया। आगे इसी गाथाका अर्थ दो इन्द्रियमें लगाते हैं
मध्य अर्थात् दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त भेदोंमें दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर एक-एक
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१७३
.
१
मितागुत्तं विरलु आदी अंते सुद्धे 4 वड्ढिहिदे-प रूवसंजुदे ठाणा येदितु बादरैकेंद्रियपर्याप्तजीवं मिथ्यात्वप्रकृतिगे माळप सर्वस्थितिबंधविकल्पंगळु पल्यासंख्यातेकभागमात्रमकुं। प। इल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुमें तेंदोडे यिनितु प्रक्षेपयोगशलाकेगळ्गे पल्यासंख्यातेक भागमात्र.
स्थितिविकल्पमागुत्तं विरलु तंतम्म मध्यादिशलाके प्र ३४३ । फ प । इ १।२।४। १४ । २८ । ९८ । १९६ गळ्गेनितेनितु स्थितिबंधविकल्पंगळप्पुर्वेदितनुपातत्रैराशिकमं माडिदोडे बंद लब्धंगळु तंतम्म स्थितिबंधविकल्पंगळप्पुवु । असण्णित्ति। ई क्रौददं द्वींद्रियं मोदल्गोंडसंज्ञिपय्यंतमाद जोवंगळ पर्याप्तापर्याप्तोत्कृष्टजघन्यस्थितिबंधविकल्पंगळुमनाबाधाविकल्पंगळुमं भाविसि स्थापिसुवुदु॥
बन्धपर्यन्तेष मध्ये ये द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धमादिं कृत्वा द्वीन्द्रियापर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्ता विकल्पाः स्तोकास्ते एका शलाका ज्ञातव्या। हेठा' द्वीन्द्रियापर्याप्तकजघन्यानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा १० द्वीन्द्रियपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पसम्बन्धिन्योऽधस्तनशलाकाः उरिं च द्वीन्द्रियापर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरं स्थितिबन्धमादि कृत्वा द्वीन्द्रियपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तविकल्पसम्बन्धिन्य उपरितनशलाकाश्च 'संखगुणिदकमा' संख्यातगुणितक्रमा भवन्ति । एवमेव 'असण्णि त्ति' असंज्ञिपर्यन्तं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां ॥४१॥२॥स्वस्वस्यितिबन्धविकल्पेषु अपि व्याख्यातव्यम् ॥१४९।। अथ संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य तत्प्रागुक्तपर्याप्तकोत्कृष्टापर्याप्तकोत्कृष्टापर्याप्तकजघन्य पर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धविकल्पेषु विशेषमाह- १५
Ammmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmoran समय घटता दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद हैं वे थोड़े हैं। अतः उनकी एक शलाका जानना । तथा हेढा अर्थात् नीचे दो इन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धके अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर एक-एक समय घटता दो-इन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थिति के भेद सम्बन्धी अधस्तन शलाका संख्यातगुणी है और ऊपर दो-इन्द्रिय अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थितिके अनन्तर स्थितिबन्धसे लेकर दो-इन्द्रिय २० पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेद सम्बन्धी उपरि शलाका उससे संख्यातगुणी है । सो एकको संख्यातके चिह्न दोसे गुणा करनेपर अधस्तन शलाका दो होती है। उसे भी दोसे गुणा करनेपर ऊपरकी शलाका चार होती है । यथा ४ १ २ । इस प्रकार दोइन्द्रियकी शलाका कही। इसी प्रकार तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी शलाका जानना । इनकी स्थितिके भेदोंका प्रमाण, स्थितिका प्रमाण तथा आबाधाके भेदोंका प्रमाण · २५ और आबाधाकालका प्रमाण भी यथासम्भव जानना ॥१४९॥
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गो० कर्मकाण्डे
बाउ सूपउ बा अउ स अउ स अ ज बा अज सूपज बापज सा। सा१ प१९६ प २८ प४ प१ प२ प १४ प ९८ -
३४३ ०३४३ ०३४३ ०३४३ ०३४३ ३४३ ०३४३ प/
२१
२ आ - - बा२।१९६ २२८ २४
२१
२।२ २०१४ २०१८ २१ धा ३३४३ | ०३४३ | ०३४३ ३४३ ३४३ ३४३ . ३३४३ अपतित
= सा १ सा १ । सा १ सा१सा १ सा १ सा १सा १ सा १ - | स्थिति । प १९६ प २२४/ प२२८/प२२९/ २३१/ प२४५/प२४३, | आयाम| ३४३] ३४३ ३४३ | ०३४३ । ३४३ ३४३ ।।३४३ ।
-
-
'विपउ बि अउ बिअज बि पज
ति प उ ति अउति अज ति पज | सा २५ प ४ ५१ प२ सा २५सा ५० प४ प १ प२ सा५० उ. स्थि. १११११ ११११११११११,
११११११११११११,पज
वा
. १५
२२
११११२ आ.बा.वि.२ आ.बा.वि २ २५२५
२०२५
१॥
२१५०
१991 999
२० ।
चपउ च अउ च अ ज च पज
अपडे अअ उ अ अ ज अपज | सा १०० प४ प १ प२ सा १००सा १०००प४ प१ प२ सा१००० १११ १०१ १०१.
२१ १ १.
२ -- ११ २ ४ २१ २२ २११००/ | २११०० ११ ।११ | ११ | २०१०००
।१२।२२१
।
ई रचनेय एल्ला कोष्ठदल्लि सागरदोळकळेदरेंबुदत्थं । यो रचनेय संपूर्णाभिप्राय मुंदे संजिगे. २५ पेळदनंतरं व्यक्तमादपुदु।
१. द्वीन्द्रिये सप्तशलाकानां एतावत्सु स्थिति प विकल्पेषु सत्सु चतसणां शलाकानां कियन्तः स्थितिविकल्पाः
स्यः इत्येवं सर्वत्र स्थितिविकल्पास्सेद्धव्याः।
२. द्वीन्द्रिये सप्तशलाकानां एतावत्सु आवाधा विकल्पेषु सत्सु चतसृणां शलाकानां कियन्त भावाषाविकल्माः
स्युरित्येवं सर्वत्र आबाधाविकल्पास्सेद्धव्याः।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
इन्तु संज्ञिपर्याप्तापतोत्कृष्टजघन्यस्थितिबंधगळगे विशेषमं पेदपरु :footageदो ठिदिठाणं संखगुणिदमुवरुवरिं ।
ठिदिआयामो वि तहा सगठिदिठाणं व आबाहा ॥ १५० ॥
संज्ञिनस्तु अधस्तात् स्थितिस्थानं संख्यगुणितमुपय्र्युपरि स्थित्यायामोऽपि तथा स्वस्थितिस्थानमिव आबाधा ॥
संज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमप्रमाणं सा ७० को २ । तज्जघन्य स्थितिबंधविकल्पमन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणं । सा अन्तः कोटी २ । मल्लि आदी ठ्ठ
प१३ | एंदिति मिथ्यात्व -
१
अंते सुद्धे प ११ वड्ढिहिदे । प ११ । रूव संजुदे ठाणा । १
१७५
σ
प्रकृतिस्थितिबंधस विकल्पंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु। तु मत्ते संज्ञिनः संज्ञिजीवंगे। अधस्तात् गे संज्ञिपर्याप्त जघन्यस्थितिबंधं मोदगोंड उपर्युपरि संज्ञ्यपर्याप्तजघन्यस्थिति संश्यपोत्कृष्ट १० संज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पंगळंतराळंगळोळ संभविसुव स्थितिस्थानं स्थितिबंधविकल्पंगळु संख्यगुणितं संख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु । स्थित्यायामोऽपि तथा । संज्ञिपर्याप्तजघन्यस्थित्यायाममं नोडलुम पर्याप्त संज्ञिजीवजघन्यस्थितिबंधायाममुमदं नोडलुमपर्याप्त संज्ञिजीवोत्कृष्ट स्थितिबंधायाममुमदं नोडल पर्याप्तसंज्ञिजीवोत्कृष्ट स्थितिबंधायाममुमा स्थितिबंधविकल्पंगळतं ते उपर्युपरि
संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य तत्प्रागुक्तचतुः स्थितिविकल्पेषु तु पूर्वोक्त केन्द्रियाद्यसंज्ञयंताना उक्ततदष्टचतुभ्य १५
विशेषः । स कथ्यते -
अधस्तात्संज्ञिपर्याप्त कजघन्य स्थितिबन्धविकल्पमादि कृत्वा उपर्युपरि तच्चतुर्विकल्पांतरालेषु स्थितिस्थानं स्थितिविकल्प प्रमाणं संख्यगुणितं संख्यातगुणितक्रमं भवति । स्थित्यायामोऽपि तथा तच्चतुः स्थितिविकल्पानां आयामोऽपि तथा उपर्युपरि संख्यातगुणितक्रमो भवति । तद्यथा
संज्ञिनो मिथ्यात्वस्थितिः उत्कृष्टा सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाणि इति द्विसंख्यातगुणितपत्यमात्री प
५
आगे संज्ञी पचेन्द्रिय में पूर्व में कहे पर्याप्तकका उत्कृष्ट, अपर्याप्तकका उत्कृष्ट, अपर्याप्तक का जघन्य और पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धके भेदोंमें जो विशेष बात है उसे कहते हैं । संज्ञी पञ्चेन्द्रियके ऊपर कहे चार भेदों में पूर्वोक्त एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पर्यन्त कहे आठ, चार, चार आदिसे अन्तर है । वही कहते हैं
'ट्ठादो' अर्थात् संज्ञी पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे लगाकर ऊपर-ऊपर उन चार २५ भेदों के अन्तरालों में स्थितिके भेदोंका प्रमाण क्रमसे संख्यातगुणा- संख्यातगुणा होता है । तथा स्थितिका आयाम अर्थात् समयोंका प्रमाण भी ऊपर-ऊपर क्रमसे संख्यातगुणित होता है । उसे ही आगे कहते हैं
संज्ञी जीवके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । सो दो बार संख्यातसे पल्यको गुणा करनेपर उतनी होती है । तथा जघन्यस्थिति मिध्यादृष्टिकी अपेक्षा ३०
१. व तत्तच्चतु विकल्पेभ्यो ।
२०
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गो० कर्मकाण्डे मेगे मेगे संख्यगुणितं संख्यात गुणितक्रमंगळप्पुवु । स्वस्थितिस्थानमिवाबाधा तंतम्म स्थितिबंधस्थानविकल्पंगळेतंते। आबाधा आबाधाविकल्पंगळु मप्पुदरिनिल्लियं मेगे मेगे संख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु । आ नाल्कुं स्थानंगळगे संदृष्टि
सप उसं स अज । संपज सा ७० को २ उ. स्थिति प२१४ प११४ प१११
ज. स्थिति
स्थि.वि. स्थि. वि. | अबा. वि.
आबाधा
व ७००० स २ १११
२१११ ४२१११४ २१ १११
आबाधा जघन्य
२११
यिल्लि स्थितिबंधविषयदोळु बादरैकेंद्रियपर्याप्तजीवं मिथ्यात्वप्रकृतिगे एकसागरोपमस्थि५ तिबंधमं माळकुमा मिथ्यात्वप्रकृतिरो आ जीवं जघन्यस्थितिबंधमं समयोनक्रमदिदं रूपोनपल्यासंख्यातैकभागोनैकसागरोपमस्थितिबंधमं माळकुमदुकारणदिदमा सर्वस्थितिबंधविकल्पंगळु पल्यासंख्यातैकभागप्रमितंगळप्पुवु ई सर्वस्थितिबंधविकल्पंगळ्गाबाधाविकल्पंगळं रूपाधिकावल्यसंख्यातेकभागप्रमितंगळप्पुवु १ तन्मध्यपतितसूक्ष्मैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमुं । बादरैकेन्द्रि
जघन्या च अन्तःकोटाकोटिसागरोपमाणीति संख्यातपल्यमात्री प १ प्राग्वदानीतसमयोत्तरतत्स्थितिविकल्पा
--- एतावन्तः प १ १ एतेषु संख्यातभक्तबहुभागः संज्ञिपर्याप्तकोत्कृष्टस्थितिबन्धमादि कत्वा संश्यपर्याप्तको
त्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्तलब्धविकल्पप्रमाणं भवति ५१ १ ४ एतेषु चरमस्य 'संज्ञिपर्याप्तकोत्कृष्टस्थिति
बन्धस्यायामो रूपोनातीतविकल्पमात्रसमयन्यूँनसंज्ञिपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्रो भवति सा७० को २
प ११४
wwwwwww
कोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ीसे नीचे इस तरह अन्तः कोटाकोटि सागर है। सो एक बार
संख्यातसे पल्यको गुणा करनेपर होती है। सो उत्कृष्ट में-से जघन्यको घटाकर तथा एकसे १५ भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक मिलानेपर संज्ञीके मिथ्यात्वकी सब स्थितिके भेदोंका
प्रमाण होता है। उसमें संख्यातसे भाग देवे। एक भागके बिना शेष बहुभाग मात्र संज्ञीपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लगाकर संज्ञी अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेदोंका प्रमाण है । उसमें एक घटानेपर जो प्रमाण रहे उतने समय संज्ञी पर्याप्त कके उत्कृष्ट १. ब संश्यपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्याममात्रो ।
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१७७ यापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमुं। सूक्ष्मैकेंद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पमुं सूक्ष्मैकेंद्रिया. पर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमुं। बादरैकेंद्रियापाप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमुं । सूक्ष्मैकेंद्रिय. पर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमुं बादरैकेंद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पमुमेंब स्थितिबंधविकल्पंगळगे प्रत्येकं स्थित्यायामप्रमाणमुमनवराबाधाविशेषमुमं तरल्पडुगुमदे ते दोडे जेट्ठाबाहोवट्टिय जेट्टमित्यादि । उत्कृष्टस्थितियनुत्कृष्टाबायिदं भागिसिदोडाबाधाकांडकमक्कुमदं तंतम्माबाधा- ५ विकल्पंगळदं गुणिसि लब्धदोळेकरूपं कळेदुत्कृष्टस्थितिबंधवोळ कळदोडे तंतम्म स्थितिबंधस्थानायामप्रमाणमक्कुमल्लि बादरैकेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टस्थित्यायाममेकसागरोपमप्रमाणमं तन्नुत्कृष्टाबाधेयिदं २ भागिसिदोडाबाधाकांडकमक्कु प ११ मिदनुत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोवल्गोंडु सूक्ष्म
४२३
२१
पर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधपयंतमिदं स्थितिविकल्पंगळाबाधाविकल्पंगळिनिरिदं २ १९६ गुणि
०३४३
सिदुदनिदं ५ ११ । २।१९६ आवळिगावळियं भाज्यभागहारंगळं कळेद शेषमपत्तित- १०
२२।३ ३ ४ ३ पुनस्तदेकभागस्य संख्यातभक्तबहुभागः संश्यपर्याप्तकोत्कृष्टानन्तरस्थितिबन्धमादिं कृत्वा संध्यपर्याप्तजघन्य.
स्थितिबन्धपर्यन्तलब्धविकल्पप्रमाणं भवति प ११ ४ एतेषु चरमस्य संश्यपर्याप्तजघन्यस्थितिबन्धस्यायामः एतावद्भिरेव समययूनसंज्यपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायामो भवति सा ७० को २ शेषतदेकभागः संश्यपर्याप्तक
प१४।
जघन्यानन्तरस्थितिबन्धमादि कृत्वा संज्ञिपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धपर्यन्तलब्धविकल्पप्रमाणं भवति १११
स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरमें-से घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना संज्ञी अपर्याप्तकके १५ उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रमाण है। तथा जो एक भाग रहा था उसमें संख्यातका भाग दीजिए। उसमें भी एक भाग बिना शेष बहुभाग मात्र संज्ञी अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिबन्धसे लगाकर संज्ञी अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेदोंका प्रमाण होता है । सो इतने समय संज्ञी अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे घटानेपर संज्ञी अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिनन्धका प्रमाण होता है। तथा जो एक भाग २०
१. व संश्यपर्याप्तकोत्कृष्टस्थित्यायाममात्री।
क-२३
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१७८
गो० कर्मकाण्डे ५ १९६ इदरोळेकरूपं कळवुस्कृष्टस्थितिबंधविकल्पदोळु कळेदोर्ड सूक्ष्मैकेंद्रिय
मिदु
३४३
पर्याप्तोत्कृष्टस्थित्यायामप्रमाणमक्कु सा मा स्थित्यायामकाबाधेयं रूपोनमप्पी याबाधावि
५९६ कल्पंगळनुत्कृष्टाबाधाविकल्पोळु कळेद शेषमाबाधायाममक्कुं।
__ मुंदयुमी प्रकारदिदं तंतम्माबाधायाममरियल्पडुगुं मत्तमुत्कृष्टस्थितिबंधायाममनुत्कृष्टाबाधा५ यामदिदं भागिसिद लब्धमात्राबाधाकांडकमनिवं ५ ११ उत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं मोदल्गोंडु बादरापर्याप्नोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पपर्थ्यन्तमिई स्थितिविकल्पंगळाबाधाविकल्पंगळिवरिदं ।
२। २२४ गुणिसिदुवनिदं प ११ २॥ २२४ भाज्यभागहाररूपदिनिवळिद्वयमं सरिगळेवपत्तितशेषमिदु ५२२४ इदरोळेकरूपं कळेदुत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पदोळु कळवोडे
a ३४३
२१।०३४३
३४३
एतेषु चरमस्य संज्ञिपर्याप्तकजघन्यस्थितिबन्धस्यायामः एतावद्भिरेव समययूनसंज्यपर्याप्तकजघन्यस्थित्या१० याममात्रो भवति सा ७० को २ स तु अन्तःकोटाकोटिसागरोपमात्र एव सा अन्तः को २ ।
तथा 'सगठिदिठाणं व आबाहा' संज्ञिनो मिथ्यात्वाबाधाविकल्पा अपि 'सगठिदिठाणं व' निजस्थितिविकल्पवद्भवन्ति । तद्यथा-तन्मिथ्यात्वाबाधा उत्कृष्टा सप्तसहस्रवर्षाणि इति त्रिसंख्यातगुणितावलिमात्री २१११ जघन्या च समयोनमुहूर्तः इति द्विसंख्यातगुणितावलिमात्री २११ तथानीतसमयोत्तरतद्विकल्पा
रहा था उतना प्रमाण मात्र संज्ञी अपर्याप्तकके जघन्यसे एक समय कम अनन्तर स्थिति१५ बन्धसे लेकर संज्ञी पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त स्थितिके भेदोंका प्रमाण है। इस
प्रमाणको संज्ञी अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धमें-से घटानेपर संज्ञी पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । सो यह प्रमाण अन्तःकोटाकोटी सागर जानना। यह स्थितिका कथन हुआ।
अब आबाधाका कथन करते हैं। आबाधाका कथन भी स्थितिस्थानवत् जानना। २० सो संज्ञीके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा सात हजार वर्ष प्रमाण है । सो तीन बार संख्यातसे
गुणित आवली प्रमाण है। और जघन्य आबाधा एक समय कम एक मुहूर्त प्रमाण है। सो दो बार संख्यातसे गुणित आवली प्रमाण है । सो उत्कृष्ट में-से जघन्यको घटाकर उसे एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक मिलानेपर आबाधाके सब भेदोंका प्रमाण होता है।
जैसे स्थितिके भेदोंमें संख्यातका भाग दे-देकर बहुभाग, बहुभाग और एक भाग प्रमाण२५ स्थितिके भेद तीनों अन्तरालोंमें कहे, उसी प्रकार आबाधाके सब भेदोंमें संख्यातसे भाग दे
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१७९ बादरैकेंद्रियापर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधायामप्रमाणमक्कुं सा मी प्रकारदिदं शेषसूक्ष्मापर्याप्तो
५२२४
३४३ स्कृष्टजघन्यस्थितिबंधद्वयबादरापर्याप्तजघन्यसूक्ष्मपर्याप्त जघन्य बादरपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पंगळु यथाक्रमदिवमिनितप्पुवु । सा १ सा १ । सा १।१ सा ११ सा १ । अपवर्तितमन्त्यमिदु
-५२३१ । १ प२।४५।१ प ३४३ । १ प२२८ प २२९ ३४३ ३ ४३
३४३ । |०३४३ | ३४३ । सा १) ई प्रकारदिदं शेषद्वींद्रियादिगळ पर्याप्तोत्कृष्टजघन्यस्थित्यामंगळुमवराबाधाया- ५
मेंगलं तरल्पडुवुवु ॥ अनंतरं जघन्यस्थितिबंधस्वामिगळं पेन्दपरु
सत्तरसपंचतित्थाहाराणं सुहुमबादरोऽपुग्यो ।
छन्वेगुन्वमसण्णी जहण्णमाऊण सण्णी वा ॥१५१॥ सप्तदश पंच तीर्थाहाराणां सूक्ष्मबादरापूर्वाः । षड्वैगूर्वमसंज्ञो जघन्यमायुषां संज्ञी वा ॥ १०
ज्ञानावरणपंचक, वर्शनावरणचतुष्कमुमंतरायपंचकमुं यशस्कोत्तिनाममुच्चैग्गोत्रमुं सातावेदनीयमुमबी १७ सप्तदश प्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंधमं सूक्ष्मसांपरायं माळ्कुं। पुरुषवेदमुं
एतावन्तः-२ ११। एतान स्थितिविकल्पवत् संख्यातेन भक्त्वा भक्त्वा बहभागं बहभागं एकभागं स्वस्वस्थितिविकल्पानामधः संस्थाप्य तत्तल्लब्धस्य चरमं चरममाबाधायामं निजस्थितिविकल्पायामवत साधयेत् ॥१५०॥ अथ जघन्यस्थितिबन्धस्वामिभेदानाह
पञ्चज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरणपञ्चान्तराययशस्कीयुच्चैर्गोत्रसातवेदनीयानां जघन्यस्थिति सूक्ष्मसाम्पराय
देकर बहुभाग, बहुभाग और एक भाग प्रमाण आवाधाके भेद तीनों अन्तरालोंमें जानना। तथा जैसे स्थितिके भेदोंको घटा-घटाकर स्थितिका प्रमाण कहा वैसे ही यहाँ आबाधाके भेदोंको घटा-घटाकर उस-उस स्थिति सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण जानना। इस प्रकार संज्ञी पञ्चेन्द्रियके सम्बन्ध में विशेष कथन जानना ॥१५०।।
२० आगे जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाले जीवोंको कहते हैं
पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय इन सतरह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवी जीव ही
१. ब तत्तच्चरममाबाधायामं साधयेत् ।
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१८०
__ गो० कर्मकाण्डे चतुःसंज्वलनमुमें बी प्रकृतिपंचकक्के जघन्यस्थितिबंधमननिवृत्तिकरणं माकुं। तीत्यमुमाहारकद्वयमुबी प्रकृतित्रयक्के जघन्यस्थितिबंधमनपूर्वकरणं माळकुं। वैक्रियिकषट्कक्के जघन्यस्थितिबंधमनसंज्ञिजीवं माळकुमायुष्यंगळ्गे जघन्यस्थितिबंधमं संज्ञियुं वा मेणसंज्ञियं माकुं। अनन्तरमजघन्यस्थितिबंधादिगळ्गे संभविसुव साधादिभेदंगळं पेळ्दपर
अजहण्णट्ठिदिबंधो चदुबिहो सत्तमूलपयडीणं ।
सेसतिये दुवियप्पो आउचउक्केवि दुवियप्पो ॥१५२॥ अजन्यस्थितिबंधश्चतुम्विधः सप्तमूलप्रकृतीनां। शेषत्रये द्विविकल्पः आयुश्चतुष्केऽपि द्विविकल्पः॥
आयुर्वज्जितजानावरणाद्यष्टविष प्रकृतिगो अजन्यस्थितिबंध साधनादि ध्रुवाध्रुवभेदवि १० चतुम्विधमक्कुं। शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रितयदोळ साधध्रुवभेवदिवं द्विविकल्पमक्कुमायुश्चतुष्टय. दोळमा द्विविकल्पमेयक्कुमपवादविनिम्मुक्तमिवक्के विषयमक्कुं। इल्लि विशेषमं पेब्दपर।
संजलणसुहुमचोदसघादीणं चदुविधो दु अजहण्णो ।
सेसतिया पुण दुविहा सेसाणं चदुविधा वि दुधा ॥१५३॥
संज्वलनसूक्ष्मचतुर्दशघातीनां चतुविधस्तु अजघन्यः। शेषत्रितयाः पुद्विविधाः शेषाणां १५ चतुविधा अपि द्विधा ॥
एव बध्नाति पुंवेदचतुःसंज्वलनानां अनिवृत्तिकरण एव । तीर्थकृत्वाहारकद्वययोरपूर्वकरण एव । वैक्रियिकषट्कस्य असंख्येव आयुषः संज्ञी वा असंज्ञी वा ॥१५१॥ अथाजघन्यादीनां संभवत्साद्यादिभेदानाह
आयुर्वजितसप्तविधमूलप्रकृतीनां अजघन्यस्थितिबन्धः साधनादिघ्र वाघ्र वभेदेन चतुर्विषो भवति शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रितये साद्यऽधू वो द्वावेव । आयुष्कर्मणः अजघन्यादिबन्धचतुष्केऽपि तावेव द्वौ । अपवाद २० विनिर्मुक्तोऽस्य विषयो भवति ॥१५२॥ अत्र विशेषमाह
करता है तथा पुरुषवेद, चार संज्वलन कषाय, इन पाँचका जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्तिकरण गणस्थानवी जीव करता है। तीर्थकर और आहारकदिकका जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव करता है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरक
गत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग इस वैक्रियिकषट्कका जघन्य स्थितिबन्ध २५ असंझी पश्चेन्द्रिय करता है। आयुकर्मकी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संज्ञी या असंही जीव करता है ॥१५॥
__ आगे अजघन्य आदि स्थितिके भेदोंमें होनेवाले सादि आदि भेदोंको कहते हैं___ आयुको छोड़ सात मूल प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार है। और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध सादि और ३० अध्रुवके भेदसे दो ही प्रकारके हैं । किन्तु आयुकर्मका चारों ही प्रकारका स्थितिबन्ध सादि
और अध्रुवके भेदसे दो ही प्रकार है। यह कथन सन्देह रहित है अतः इसके विषयमें विशेष नहीं कहा है ॥१५२॥
उत्तर प्रकृतियोंमें कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१८१
संज्वलनक्रोधमानमायालोभंगळां सूक्ष्मसांपरायनबंधचतुर्द्दशघातिगळ्गमजघन्य स्थितिबंधं तु मत्ते साद्यनादिध्रुवानुवभेददिदं चतुव्विधमवकुं । शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रयंगळं पुनः मत्ते द्विविधा साद्यध्रुव भेदददं द्विविधंगळप्पुकु । शेषाणां शेषप्रकृतिगळेल्लम जघन्य- जघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टभेददिंद चतुव्विधंगळनितुं साद्यध्रुव भेर्दाददं द्विप्रकारस्थितिबंधमनु वक्कुं
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ज्ञा द उ २ | उ २ अ २ अ २
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ज २ ज २ | ज २ ज २ अ ४ | अ ४ | अ ४ | अं ४
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अ २ । अ ४
१. कृष्टाः पुनः ।
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उ २
अ २
ज २
अ ४
सव्वा दुठिदीओ सुहासुहाणं पि होंति असुहाओ ।
माणुसतिरिक्खदेवाउगंच मोत्तूण सेसाणं ॥ १५४॥
उ २
अ २
ज २
अ ४
सर्वास्तु स्थितयः शुभाशुभानामप्यशुभाः । मानुषतिर्य्यग्देवायूंषि च मुक्त्वा शेषाणां ॥ मानुषतिर्यग्देवायुष्यत्रितयमल्ल दुलिल्ला शुभाशुभप्रकृतिगळ सर्व्वस्थितिगळं संसारहेतुमशुभंगळे पूर्वे दरियल्पडुवुवु ॥
अनंतरमाबाधे यौं बुदेने दोर्ड पेपरु :---
आ.
उ. २
अ. २
ज. २
अ. ४
उ २
अ २
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अ ४
चतुः संज्वलनानां सूक्ष्मसांपरायबन्धचतुर्दशघातिनां च अजघन्यस्थितिबन्धः तु पुनः चतुर्विधो भवति । शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रयमपि साद्य वभेदात् द्वेधैव । शेषप्रकृतीनां अजघन्यजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टाश्चत्वारोऽपि तथा द्विधा ॥ १५३ ॥
मानुष्यतिर्यग्देवायूंषि मुक्त्वा शेषसर्वशुभाशुभप्रकृतीनां सर्वाः स्थितयः संसारहेतुत्वादशुभा एवेति ज्ञातव्यम् ॥ १५४ ॥ अथाबाधां लक्षयति
ना.
उ. २
अ. २
ज. २
१०२
उ २
अ २
ज २
अ २
चार संज्वलन कषायोंका तथा सूक्ष्म साम्पराय में बँधनेवाली चौदह घाति प्रकृतियोंका (पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, चार दर्शनावरण ) अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुवके भेदसे चार-चार प्रकार है। शेष जघन्यबन्ध, अनुत्कृष्ट बन्ध और उत्कृष्ट बन्ध सादि और अधुत्र के भेदसे दो ही प्रकार के हैं । इनके सिवाय शेष प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, अनुत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट चारों प्रकारका बन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे २० दो ही प्रकार हैं || १५३ ॥
ज्ञा.
द.
वे.
मो.
गो.
अं.
उ. २
उ. २
उ. २
उ. २
उ. २
उ. २
अ. २
अ. २
अ. २
अ. २
अ. २
अ. २
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ज. २ ज २ ज. २ अ. ४ अ. ४ अ. ४ अ. ४
ज. २ ज. २ अ. ४ अ. ४
अ. ४
अ. ४
अ. २
मनुष्यायु, तिर्यवायु और देवायुको छोड़कर शेष सभी शुभ और अशुभ प्रकृतियों की सब स्थितियाँ संसारका कारण होनेसे अशुभ ही होती हैं। ऐसा जानना चाहिए || १५४ ||
आगे आबाधाका लक्षण कहते हैं
१८
उ. २
अ. २
ज. २
१०
१०२
उ. २
अ. २
ज. २
१५
२५
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गो० कर्मकाण्डे
कम्म सरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रूवेणुदीरणस्स व आचाहा जाव तात्र हवे || १५५ ॥
कर्मस्वरूपेणागतद्रव्यं न चैत्युदयरूपेण । रूपेणोदीरणाया वा आबाधा यावत्तावद्भवेत् ॥ कार्मणशरीर नामकर्मोदयापादितजीवप्रदेशपरिस्पंद लक्षणयोगहेतुविद कार्मण वर्गणायात५ पुद्गलस्कंधंगळु ज्ञानावरणादिमूलोत्तरोत्तर प्रकृतिभेदंगळदं परिणमिसि जीवप्रदेशंगळोळन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षण बंधरूपदिनिद्देवक्के फलदानपरिणतिलक्षणोदयरूपदिनुदेयावळियनेय्ददेयुमपक्व - पाचनलक्षणोदीरणारूपदिनुदयक केयुं बादरदेन्नेवरमिप्पुवुदन्नेवरमाबाधाकाल में दुपरमागमदोळु पेळपट्टुडु ॥
अनंतर माबाधेयं मूलप्रकृतिगळोळु पेदपरु :
१०
१८२
उदयं प्रति सप्तानामाबाधा कोटीकोटयुदधीनां । वर्षशतं तत्प्रतिभागेन शेषस्थितीनां च ॥ आयुर्व्वज्जितज्ञानावरणादिसप्तप्रकृतिगळंगाबाधे येनितेनितेंदोडे उदयं प्रति उदयमनाथfafe कोटी कोटिसागरोपमंगळगे शतवर्षप्रमितमक्कुमन्तागुत्तं विरलु तत्प्रतिभागदिदं शेष स्थिति१५ गगेमरियल्प डुगुमदेंतें दो डिल्लि त्रैराशिक विधानं पेळल्पडुगुमदेंतेंदोडेक कोटीकोटिसागरोपम - स्थितिगे नूवर्षमाबाधेयागलु सप्ततिकोटिकोटिसागरोपमस्थितिगे निताबाधेयक्कुमेदितनुपातकार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कन्धाः
उदयं पडि सत्तण्डं आवाहा कोडकोडि उवहीणं । वासस्यं तप डिभागेण य सेसट्ठिदीणं च ॥ १५६ ॥
कार्मणशरीरनामकर्मोदयापादितजी व प्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोग हेतुना
मूलोत्तरोत्तरोत्तर प्रकृतिरूपेण आत्मप्रदेशेषु अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणबन्धरूपेणावस्थिताः फलदानपरिणतिलक्षणोदयरूपेण अपक्वपाचनलक्षणोदीरणारूपेण वा यावन्नायान्ति तावान् काल आबाधेत्युच्यते ॥ १५५ ॥ २० अथ तां मूलप्रकृतिष्वाह
३०
आयुर्वजितसतकर्मणामुदयं प्रति आबाधा कोटीकोटिसागरोपमाणां शतवर्षमात्री भवति तथा सति शेषस्थितीनां तत्प्रतिभागेनैव ज्ञातव्या । तद्यथा-
कार्मण शरीर नामक नामकर्मके उदयसे और जीवके प्रदेशोंकी चंचलतारूप योगके निमित्तसे कार्मण वर्गणारूपसे आये पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतिरूप होकर २५ आत्माके प्रदेशों में परस्पर में प्रवेश करते हैं उसीको बन्ध कहते हैं । बन्धरूपसे अवस्थित वे पौद्गलिक कर्म जबतक उदयरूप या उदीरणारूप नहीं होते उस कालको आबाधा कहते हैं । अर्थात् कर्मप्रकृतिका बन्ध होनेपर जबतक उसका उदय या उदीरणा नहीं होती, तबतकका समय उस प्रकृतिका आबाधा काल कहा जाता है। फल देने रूप परिणमनको तो उदय कहते हैं | और असमय में ही अपक्व कर्मका पकना उदीरणा है || १५५।।
आगे मूल प्रकृतियों में आबाधा कहते हैं
आयुको छोड़ सात कर्मोंकी उदयकी अपेक्षा आबाधा एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ferfast एक सौ वर्ष होती है । ऐसा होनेपर शेष स्थितिओंकी आबाधा इसी प्रतिभागसे जानना । वही कहते हैं - एक कोड़ाकोड़ी सागर की सौ वर्ष आबाधा होती है तो सत्तर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१८३
त्रैराशिक माडि प्र । सा १ । को २ । फ । व १०० । इ । सा ७० । को २ | बंद लब्धं मिथ्यात्वप्रकृति उत्कृष्ट स्थितिगाबाधे सप्तसहस्रप्रमितमक्कु ७००० मी प्रकादिदं शेष चाळीसिय सीसिय वीसियादिगळगे स्थितिप्रतिभागदिदमाबाधेयवकुं । सण्णि असण्णि चउक्के एगे अंतोमुहुत्तमाबाहा
इत्यादि ॥
इत्यादि प्रसा २५ ।
=
२ फ १११ इ । सा २५४ लब्धमाबाधे २१ । २५
७
अनंतर मन्तः कोटोकोटिसागरोपम स्थितिगाबाधेयं पेदपरु :अंतोकोडा कोडिदिस्स अंतोमुहुत्तमाबाहा ।
संखेज्जगुणविहीणं सव्वजहण्णट्ठिदिस्स हवे || १५७॥
२
2229
२१ । २५ । ४
७
अन्तःकोटी कोटिस्थितेरन्तर्मुहूर्तमाबाधा । संख्यातगुणविहोना सर्व्वजघन्यस्थितेर्भवेत् ॥ अन्तःकोटोकोटिसागरोपमस्थितिगे आबाधेयन्तर्मुहूर्त्त मक्कुं । २१ । सर्व्वं जघन्य स्थितिगाबा
=
दं नोड संख्यातगुणहीनमक्कुं २१ प्र । मु १०८०००० । फ सा १ । को २ । इ । मु १ । १०
૪
कोटी कोटिसागरोपमस्य शतवर्षं तदा सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमस्य किमिति ? त्रैराशिके कृते प्र-सा १ को २ । फ व १०० । इसा ७० को २ लब्धं मिथ्यात्वोत्कृष्टाबाधा सप्तसहस्री भवति ७००० । एवं शेषचालीसियती सियवीसियादीनामप्यानेतव्या । 'सण्णि असणचउक्के एगे अंतोमुहुत्तमाबाहा' इत्यादि प्र-सा २५ । फ २ २५४ लब्धा २ इत्यादि । अथान्तः कोटी कोटिसागरोपमस्याहง ง ง ง २१ । २५ । ७
७
४
ๆ ๆ ๆ ๆ २ १ २५
अन्तःकोटी कोटिसागरोपमस्थितेराबाधा अन्तर्मुहूर्तो भवति २१ सर्वजघन्यस्थितेस्तु ततः संख्यात- १९ गुणहीना भवति २ १ प्र - १०,८०००० | फसा १ को २ । इमु १ लब्धस्थिति: ९, २५, ९२, ५९२ ।
४
५
कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिकी आबाधा कितनी होगी ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाण राशि एक कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि सौ वर्ष, इच्छाराशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर । सो फलराशि से इच्छाराशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर लब्धराशिका प्रमाण सात हजार वर्ष आता है । वही मिध्यात्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट आबाधा है। इसी प्रकार अपनी- २० अपनी स्थिति प्रमाण इच्छाराशि करनेपर अपने-अपने आबाधा कालका प्रमाण आता है । जिनकी स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है उनका आबाधा काल चार हजार वर्ष प्रमाण. है । जिनकी स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है उनकी आबाधा तीन हजार वर्ष है । इसी तरह अन्य भी प्रकृतियोंकी आबाधा जानना । 'सणि असण्णि चउक्के एगे अंतोमुहुत्तमाबाहा ।' सो इस गाथा के द्वारा दो-इन्द्रिय आदिके आबाबा कहो है उसे भी जान लेना ॥ १५६ ॥ आगे अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थितिकी आबाधा कहते हैं
२५
अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थितिका आंबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । और सब कर्मोंकी जघन्यस्थितिकी आबाधा उससे संख्यातगुणा हीन है । सौ वर्षके दस लाख अस्सी हजार मुहूर्त होते हैं । सो इतनी आबाधा एक कोड़ाकोड़ी सागर की होती है, तो एक
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गो० कर्मकाण्डे लब्धस्थिति ९२५९२५९२ ६४ प्रमाण । सा १। को २। फ आवाषा। १०८००००। इ
१०८ ९२५९२५९२। ६४ लब्धं मुहूर्त १।प्र। सा ७० । को २ । फ आबाधा व ७००० । इ सा १ ।
१०८ लग्धमाबांधे। उच्छ्वा १ आयुष्यकाबाधेयं पेळदपरु :
पुव्वाणं कोडितिभागादासखेप अद्धवो त्ति हवे ।
आउस्स य आवाहा ॥ द्विदिपडिभागमाउस्स ॥१५८॥ पूर्वाणां कोटित्रिभागादासंक्षेपाता पर्यन्तं भवेदायुष्यस्य चाबाधा न स्थितिप्रतिभाग
मायुषः॥
आयुष्कर्मक्के पूर्वकोटिवषंगळ त्रिभागमुत्कृष्टाबाधेयक्कुं । जघन्यमन्तम्मुहूर्तमकुं। अथवा पक्षांतरविंदमसंक्षेपा यक्कुमऽसंक्षेपार्द्ध एंबुदाउदोडे-न विद्यते अस्मादन्यः संक्षेपः असंक्षेपः स घासावखा च असंक्षेपाडा येंदावल्यसंख्यातेकभागमेंदु पेवरा पक्षांतरमनंगीकरिसि पेळल्पटुहु । आयुष्यकर्मक्की प्रकारदिंदमाबायल्लदे स्थितिप्रतिभागदिदमाबाधेयिल्ल। देवनारक६४ प्र-सा १ को २। फ-मु १०८०००० । इ ९२५९२५९२ । ६४ लब्धो मुहूर्तः १ । प्र-सा ७० को २ ।
१०८ फ अबाधा ७००० । इ सा १ लब्धं आबाधा उच्छ्वासः १ ॥१५७॥ आयुष आह
१०८
बायुःकर्मण उत्कृष्टाबाधा पूर्वकोटिवर्षत्रिभागो भवति जघन्योऽन्तर्मुहूर्तो वा पक्षान्तरेण असंक्षेपाता १५ वा भवति । न विद्यते अस्मादन्यः संक्षेपः असंक्षेपः, स चासो अद्धा च असंक्षेपाचा आवल्यसंख्येयभागमात्रत्वात् ।
मुहूर्त आबाधा कितनी स्थितिको होती है। ऐसा राशिक करनेपर प्रमाणराशि दस लाख अस्सी हजार महत, फलराशि एक कोडाकोडी सागर, इच्छाराशि एक महत। सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर नौ कोटि पच्चीस लाख बानबे हजार पाँच
सौ बानवे सागर और एक सागरके एक सौ आठ भागोंमें-से चौंसठ भाग स्थितिकी एक २० मुहूर्त आवाधा हुई। तथा प्रमाणराशि एक कोडाकोड़ी सागर, फलराशि दस लाख अस्सी
हजार मुहूर्त, इच्छाराशि नौ कोटि पच्चीस लाख बानबे हजार पाँच सौ बानबे और एक सौ आठ भागों में से चौंसठ भाग प्रमाण सागर । ऐसा करनेपर आबाधा एक मुहूर्त होती है। तथा प्रमाणराशि सत्तर कोडाकोड़ी सागर, फलराशि सात हजार वर्ष, इच्छाराशि एक
सागर। ऐसा करनेपर फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध साधिक २५ संख्यात उच्छ्वास आया वही एक सागरकी स्थितिमें आबाधा काल जानना ॥१५७॥
आयुकर्मकी आवाधा कहते हैं
आयुकर्मकी उत्कृष्ट आबाधा एक कोटि पूर्व वर्षका तीसरा भाग होती है। जघन्य आवाधा अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अन्य किसी आचार्यके मतसे 'आसंक्षेपाद्धा' प्रमाण है। जिससे थोड़ा काल दूसरा नहीं है उसे आसंक्षेपाद्धा कहते हैं सो यह काल आवलीका असंख्याता भाग प्रमाण है। आयुकर्मकी आबाधा इसी प्रकार है अन्य कर्मोकी तरह स्थितिके प्रतिभागके अनुसार नहीं है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१८५ भोगभूमिजग्गसंख्यातवर्षायुष्यंगळप्पुरिदमेतु पूर्वकोटिवर्षत्रिभागमुत्कृष्टाबाधयक्कु दोडे देवनारकर्ग स्वस्थितिषण्मासावसानशेषमावळिक्कं तत्रिभागमुत्कृष्टाबाधयक्कुं । भोगभूमिजगें स्वस्थितिनवमासावशेषमादबळिक्कं तत्रिभागमुत्कृष्टाबाधयक्कुमदु कारणदिव कर्मभूमितिय॑ग्मनुष्यरुगळ्गे पूवंकोटिवर्षत्रिभागमुत्कृष्टाबाधेयक्कुमदु मोदल्गोंडु असंक्षेपाद्धावसानमावाबाधाविकल्पंगळोळ देवनारकभोगभूमिजरुगळ्गाबाधेयरियल्पडुगुमसंक्षेपाढे यावेडयोळे बोडे अष्टापकर्ष- ५ गळोळेल्लियुमायुबंधमागदे भुज्यमानायुष्यमन्तर्मुहूर्तावशेषमागुत्तं विरलु उत्तरभवायुष्यं मुन्नमेयंतम्र्मुहर्तमात्रसमयप्रबद्धंगळ बंधं (बद्धं ) निष्ठापिसल्पडुगुं। केळंबराचार्यरुगळावल्यसंख्यातेकभागमसंक्षेपावेयवशेषमागुत्तिरलुत्तर भवायुष्यं निष्ठापिसल्पडुगुमेंबर । ई येरडुं प्रवाह्योपवेशंगळ. पुरिनंगीकृतंगळु। असंक्षेपा युमदरिनन्तम्मुहूर्तमा पक्षदोळु जघन्यमक्कुमुत्कृष्टांतर्मुहूर्त समयोनमुहूर्तमेयेवरिउदु
को ३उ
आयुराबाषा
पू को ३
वायुःकर्मण एवमेव भवति न च स्थितिप्रतिभागेन । तहि असंख्यातवर्षायुष्काणां त्रिभागे उत्कृष्टा कथं नोक्ता ? इति तन्न, देवनारकाणां स्वस्थिती षण्मासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुबन्धसंभवात् । यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्यसंख्येयभागमात्रायाः समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाडायाः प्रागेवोत्तरभवायुरन्तर्मुहूर्तमात्र समयप्रबद्वान् बद्ध्वा निष्ठापयति । एतौ द्वावपि पक्षी प्रवाह्योपदेशत्वात् अङ्गी
शंका-असंख्यात वर्षकी जिनकी आयु है उनका त्रिभाग प्रमाण आबाधा क्यों नहीं १५
कही?
समाधान-क्योंकि देव और नारकियोंके तो अपनी स्थितिमें छह मास और भोगभूमियोंमें नौ मास शेष रहनेपर उसके त्रिभागमें आयुका बन्ध होता है। और कर्मभूमिया मनुष्य और तियंचोंमें अपनी पूर्ण आयुके त्रिभागमै आयुबन्ध होता है। कर्मभूमियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण है। इससे उसीका त्रिभाग उत्कृष्ट आबाधाकाल कहा है। सो त्रिभागसे आठ अपकर्षोंमें आयुबन्ध होता है। यदि कदाचित् किसी भी अपकर्षमें आयुका बन्ध न हो तो किसी आचार्यके मतसे तो आवलीका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण और किसी आचार्यके मतसे एक समय कम मुहूर्त प्रमाण आयुके शेष रहनेसे पहले ही उत्तर भवकी आयुकर्मके अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण समय प्रबद्धोंका बन्ध करके निष्ठापन करता है। ये दोनों मत आचार्य परम्पराका उपदेश होनेसे स्वीकार किये हैं ॥१५८॥
क-२४
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१८६
गो० कर्मकाण्डे
aerodara मूलप्रकृतिगळगाबाधाविशेषमं पेदपरु :आवलियं आबाहोदीरणमासेज्ज सत्तकम्माणं ।
परभवियआउगस्स य उदीरणा णत्थि नियमेण ॥ १५९ ॥
आवलिकाबाधोदीरणामाश्रित्य सप्तकर्मणां । परभवायुषश्चोदीरणा नास्ति नियमेन ॥
उदीरणेनाश्रयिसि आयुर्व्वं ज्जितसममूलप्रकृतिगळ्गाबाधेयावलिकामा त्रमेयक्कुमदनचळवळियेंबुददं कळि प्रथमादिनिषेकं गळोळपकृष्टद्रव्यमनुदयावळियाळमुपरितनस्थितियोळतिच्छापनावळियं कळे वुलिद सव्र्व्वस्थिति निषेकंगळोळ "मद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिमधणमागच्छदि तं रूअण अद्धाण अद्वेण ऊणेण जिसेय भागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचयं तं दोगुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयं । तत्तो विसेसहीणकम" - मेदितु प्रथमादिगुणहाणिद्रव्यंगळं तंतम्म १० प्रथमादिनिषेकंगळं बिट्टु द्वितीयादिनिषेकं गलोल तंतम्म गुणहानिसंबंधिविशेषहोनक्रमदर्द
२५
कृतौ ।। १५८।। उदीरणां प्रत्याह
उदीरणामाश्रित्य आयुर्वजितसप्तमूलप्रकृतीनां आबाधा आवलिकैव भवति सा चावलिः अचलावलि - रित्युच्यते, तां त्यक्त्वा अपकृष्टद्रव्यं उदयावत्यां उपरितनस्थितौ तु चरमे अतिस्थापनावलीं क्यक्त्वा नानागुणहानिषु च सर्वनिषेकेषु, "अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिमघणमागच्छदि तं रूऊगद्वाणद्वेण ऊणेण १५ णिसेय भागहारेण मज्झिमघणमवहरिदे पचयं तं दोगुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयं तत्तो विसेसहीण कर्म" इति
आगे उदीरणाकी अपेक्षा आबाधा कहते हैं
1
उदीरणाको लेकर आयुके बिना सात मूल प्रकृतियोंकी आबाधा एक आवली प्रमाण ही होती है । अर्थात् जो कर्म उदीरणारूप होता है तो बँधनेके पश्चात् एक आवली प्रमाणकाल बीतने पर ही उदीरणारूप होता है। इससे उदीरणाकी अपेक्षा आबाधा एक आवली २० प्रमाण कही है । कर्म बँधनेपर एक आवली तक तो जैसा बँधा वैसा ही रहता है, उदयरूप या उदीरणारूप नहीं होता । इसीसे इस आवलीको अचलावली कहते हैं । इस अचलावलीको छोड़ पीछे कर्म परमाणुओं में से कितने ही कर्म परमाणुओंका अपकर्षण करके जिन्हें उदयावली में देता है, वे तो आवलीकालमें उदय देकर खिर जाते हैं। और जिन्हें ऊपर की स्थिति में देता है वे उदयावलीके ऊपरकी स्थिति के अनुसार खिरते हैं । अन्तिम आवली प्रमाण अतिस्थापनावलीको छोड़ जो परमाणु प्राप्त होते हैं वे नानागुण हानिके द्वारा सर्वनिषेकों खिरते हैं । सो उदयावलीमें दिया उदीरणा द्रव्य कैसे खिरता है यह कहते हैं
३०
विवक्षित कालके समयोंका प्रमाण यहाँ गच्छ है। उससे सर्वधन अर्थात् विवक्षित सर्व परमाणुओं के प्रमाण में भाग देनेपर मध्यम धन अर्थात् मध्यके समयों में जितने खिरते हैं। उनका प्रमाण आता है । उस मध्यम धनमें, एक कम गच्छके आधा प्रमाण सो निषेक भागहार जो दो गुणहानि उसमें घटानेपर जो प्रमाण रहे उसका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे सो चयका प्रमाण जानना । उस चयको दो गुणहानिसे गुणा करनेपर प्रथम समय में जितने परमाणु खिरते हैं उनका प्रमाण आता है । द्वितीय आदि समय सम्बन्धी निषेकोंमें एकएक चयहीन परमाणु खिरते हैं। इन सबका विशेष स्वरूप पहले कह आये हैं और आगे भी कहेंगे । इस प्रकार असमय में ही उदीरणाके द्वारा उदयावलीमें प्राप्त कर्म के खिरनेका
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१८७
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका निक्षेपिसुवुदु वोरणाविधानदोळमेंदरिउवु ॥ नानानिषेक स्थिति।
अवशिष्ट आवळि। उपरितन स्थिति। उदयावळि ४
अचलावळि ४
आबाधावज्जितस्थितियं निषेकमेंदु पेळ्वपरु :
आबाहूणियकम्महिदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं ।
आउस्स णिसेगो पुण सगट्ठिदी होदि णियमेण ॥१६०॥ आबाधोनितकर्मस्थितिनिषेकस्तु सप्तकर्मणां । आयुषो निषेकः पुनः स्वस्थितिभवति ५ नियमेन ॥
आयुज्जितज्ञानावरणावि सप्तमूलप्रकृतिगळ्गे आबाधोनित कर्मस्थिति । तु मत्ते निषेकमक्कुमायुष्यकर्मक्के पुनः मते स्वस्थितियेनितेनितुं निषेकमक्कुं नियमविवं ।' निक्षिपेत् उदीरणाविधाने इति ज्ञातव्यम् ।
A४ अतिस्थापनावलिः
उपरितनस्थितिः M४ उदयावलिः
M४ अचलावलिः ॥१५९॥ निषेकस्वरूपमाह
आयुर्वजितसप्तमूलप्रकृतीनां आबाधोनितकर्मस्थितिः तु-पुनः निषेकः स्यात् । आयुषः पुनः स्वस्थितिः सर्वव निषेको भवति नियमेन ॥१६॥
~
~
कथन जानना। आयुकर्ममें उदीरणा जिस आयुको भोग रहे हैं उसी आयुमें होती है। जो आगामी उत्तरभवकी आयु बाँधी है उसकी उदीरणा नियमसे नहीं होती ॥१५९।।
आगे निषेकका स्वरूप कहते हैं
आयुको छोड़ सात मूल प्रकृतियोंके निषेक उनकी आबाधाकालसे हीन जितनी स्थितिका प्रमाण है उतने हैं । आशय यह है कि प्रति समय जितने कर्मपरमाणु खिरते हैं उनके समूहका नाम निषेक है । सो सात कर्मों में से किसी भी कर्मकी जितनी स्थिति बंधी हो उसमेंसे आवाधाकालमें तो कोई परमाणु खिरता नहीं। आबाधाकाल बीतनेपर प्रति समय कर्मपरमाणु क्रमसे खिरते हैं। अतः कर्मकी स्थितिमें-से आबाधाकाल घटानेपर जो २० काल शेष रहे उसके समयोंका जितना प्रमाण हो उतना ही निषेकोंका प्रमाण होता है। सो सात कर्मोंके निषेक तो उनकी आबाधाहीन स्थिति प्रमाण जानना। किन्तु आयुकर्मकी १. क°दिदं । आयुष्य कर्म सर्व निषेकस्थिति
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१०
आबाधामपनीय प्रथमनिषेके ददाति बहुकं तु । ततो विशेषहीनं द्वितीयस्याद्यनिषेकपय्यंतं ॥ कर्म्मस्थितियोळाबाधेयं कळेवु प्रथमगुणहानि प्रथमनिषेकदोळु बहुद्रव्यमं कुडुगुं । तुम ५ ततो विशेषहीनं अल्लद मेलण द्वितीयनिषेकं मोदगोंड द्वितीयगुणहान्याद्य निषेकपर्यंतं विशेषहोनक्रर्मादिदं कुडुगुं ॥
१८८
२०
२५
गो० कर्मकाण्डे
आबा बोलाविय पढमणिसेगम्मि देइ बहुगं तु । तत्तो विसेसहीणं विदियस्सादिमणि से गोति ॥ १६१॥
विदिये विदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणिअद्धं तु ।
एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्धयं होदि ॥ १६२॥
द्वितीये द्वितीयनिषेके हानिः पूर्व्वहानेरद्धं तु । एवं गुणहानि प्रति हानिरर्द्धाद्धं भवति ॥ तुमत्ते द्वितीये द्वितीयगुणहानियोळ द्वितीयनिषेके द्वितीयनिषेकदोळ हानिः हानि पूर्वहानेर प्रथमगुणहानिय हानियं नोडलर्द्धयवकुमिन्तु गुणहानि प्रति गुणहानि। गुणहानिदप्पदे हानिः हानी अर्द्धाद्धं भवति अद्धर्द्धक्रममक्कुं । १ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । द्रव्य ६३०० । गुणहानि ८ । नानागुणहानि ६ । स्थिति ४८ । अन्योन्याभ्यस्त राशि
कर्मस्थितावाबाधां त्यक्त्वा प्रथमगुणहानिप्रथमनिषेके बहुद्रव्यं ददाति । तु-पुनः तत उपरि द्वितीयादि१५ निषेकेषु द्वितीयगुणहानिप्रथमनिषेकपर्यन्तेषु विशेषहीन क्रमेण ददाति ॥ १६१ ॥
तु पुनः द्वितीयगुणहानी द्वितीयनिषेके हानिः पूर्वहानेर भवति । एवं गुणहानि गुणहानि प्रति
च १००
२००
४००
८००
१६००
| प्र ३२००
स्थिति में से आबाधाकाल नहीं घटाना क्योंकि आयुकर्मकी आबाधा तो जिस भवमें उसका बन्ध - किया उसी भव में पूर्ण हो गयी। पीछे जो जन्म धारण किया उसमें प्रथम समय से लगाकर अन्त समय पर्यन्त प्रतिसमय आयुकर्मके निषेक खिरते हैं। अतः आयुकर्मकी जितनी स्थिति होती है उसके समयोंका जितना प्रमाण होता है उतने ही आयुकर्मके निषेक होते हैं ॥ १६० ॥
सो आबाधाकालको छोड़कर, क्योंकि आबाधाकालमें तो कोई परमाणु खिरता नहीं, अतः उसके अनन्तर समयमें अर्थात् प्रथम गुणहानि के प्रथम निषेकमें अन्य निषेकोंसे बहुत द्रव्य देना चाहिए। उसमें बहुत परमाणु खिरते हैं । तथा प्रथम गुणहानिके द्वितीय आदि निषेकों में द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेक पर्यन्त एक-एक चयहीन द्रव्य देना चाहिए || १६१ ॥
तथा दूसरी गुणहानिके दूसरे निषेकमें प्रथम निषेकसे पहले प्रत्येक निषेकमें जितना घटाया था उससे आधा घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना द्रव्य देना चाहिए । इसी प्रकार तीसरे आदि निषेकोंमें तीसरी गुणहानिके प्रथम निषेक पर्यन्त इतना - इतना ही घटाना
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नानागुण हा निनिषेक रचने णाणावरणादि ७ निषेकस्थिति
०
०
१६
०
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
आयुष्य कर्म सर्वनिषेकस्थिति आयुष्यक्के स्वस्थितियेनिजनितुं निषेकमक्कं
०
१२८
१४४
०
०
२५६ २८८
O
विशे. १
वि २
विशे. ४
इन्तु स्थितिबंधप्रकरणं समाप्तमावुवु ॥
विशे. ८
०
५१२
|| आबाषा ॥
वि. १६ वि. ३२
१८५
हानिः अर्घार्षिक्रमा भवति । १ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ द्रव्यं ६३०० । गुणहानिः ८ । नानागुणहानिः ५ ६ । स्थिति: ४८ । अन्योन्याभ्यस्त राशिः ६४ ।
चाहिए । आगे प्रत्येक गुणहानिमें आधा-आधा होता जाता है। इस कथनको अंकसंदृष्टि द्वारा कहते हैं
विवक्षित कर्मके परमाणु ६३०० तिरसठ सौ | आबाधा बिना स्थितिका प्रमाण अड़तालीस ४८ । एक गुणहानि आठ समय प्रमाण । नाना गुणहानि छह । दो गुणहानि १० सोलह | अन्योन्याभ्यस्त राशि चौंसठ ६४ । प्रथम गुणहानिमें परमाणु बत्तीस सौ ३२०० खिरते हैं । द्वितीयादि गुणहानिमें आधे-आधे खिरते हैं - ३२०० १६००/८०० ४००/२००/१०० | एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग सर्वद्रव्य में देने पर अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका परिमाण आता है। उससे दूना दूना द्रव्य प्रथम गुणहानि पर्यन्त जानना । सो प्रथम गुणहानिका सर्वद्रव्य बत्तीस सौ । उसमें प्रथम गुणहानिके गच्छके प्रमाण आठसे भाग देनेपर मध्यधन १५ चार सौ आता है । एक कम गच्छका आधा प्रमाण साढ़े तीनको निषेक भागहार सोलह मेंसे घटाने पर साढ़े बारह रहे । उस साढ़े बारहका भाग मध्यधनमें देनेपर बत्तीस आये । वही चय जानना । उसको दो गुणहानि सोलहसे गुणा करनेपर पाँच सौ बारह हुए । यही प्रथम निषेक सम्बन्धी द्रव्यका प्रमाण है । उसमें एक-एक चय घटानेपर द्वितीयादि निषेक
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१९०
गो० कर्मकाण्डै अनंतरमनुभागबंधमं त्रयोविंशतिगाथासूत्रंगलिंदं पेळ्दपरु :
नानागुणहानिनिषेकरचना
आयुःकर्मसर्वनिषेकस्थितिः ॥१६२॥
चरम-१००
२००
४०० ८००
१६०० प्रथम-३२००
आयुषो यावती स्थितिस्तावान निषेको भवति ।
१२८
१४४
२५६ २८८
५१२
आबाधा इति स्थितिबन्धकारणं समाप्तं । अथानुभागबन्धं त्रयोविंशतिगाथाभिराहसम्बन्धी द्रव्य होता है-५१२।४८०।४४८४१६।३८४१३५२१३२०।२८८। इस दो सौ अठासीमें एक चय घटनेपर दो सौ छप्पन होते हैं । यह प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेक पाँच सौ बारहका आधा है। सो यही द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक है। यहाँ हानिरूप चयका प्रमाण पूर्वसे आधा अर्थात् सोलह है। सो तीसरी गुणहानिके प्रथम निषेक पर्यन्त सोलह-सोलह घटानेपर २५६।२४०।२२४।२०८।१९२।१७६।१६०११४४ होते हैं। उसमें एक चय घटानेपर एक सौ अठाईस हुए। यह दूसरी गुणहानिके प्रथम निषेक दो सौ छप्पनसे आधा है। सो यह
तीसरी गुणहानिका प्रथम निषेक है। यहाँ चयका प्रमाण पूर्वसे भी आधा आठ है। इस १० तरह अन्तकी छठी गुणहानि पर्यन्त सर्वधनका, निषेकोंके द्रव्यका और चयका प्रमाण आधाआधा जानना । इस क्रमसे तरेसठ सौ परमाणु खिरते हैं ॥१६२।।
स्थितिबन्धका प्रकरण समाप्त हुआ। आगे तेईस गाथाओंसे अनुभाग बन्धका कथन करते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥ १६३॥
शुभप्रकृतीनां विशुध्या तीव्रः अशुभानां संक्लेशेन । विपरीतेन जघन्योऽनुभागः सर्व्वप्रकृतीनाम् ॥
शुभप्रकृतीनां सातादि प्रशस्त प्रकृतिगळगे । विशुद्धया विशुद्धिपरिणामविदं । तीब्रः तीब्रानुभागमक्कुमशुभानाम् असाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळगे । संक्लेशेन संक्लेशपरिणामविंद तीब्रः तीम्रानुभागमक्कुं । विपरीतेन संक्लेशपरिणामविद प्रशस्त प्रकृतिगळगे जघन्यानुभागमुं विशुद्धिपरिणामविवमप्रशस्तप्रकृतिगळगे जघन्यानुभागमुमक्कु । सर्व्वप्रकृतीनां मूलोत्तरोत्तर प्रकृतिगळगेनितोळ वतिक्कं ॥
१९१
बादलं तु पसत्था विसोहिगुणमुक्कडस्स तिब्बाओ । बासीदि अप्पसत्था मिच्छुक्कड संकि लिट्ठस्स ॥ १६४॥
द्वाचत्वारिंशत् तु प्रशस्ताः विशुद्धिगुणोत्कटस्य तीव्राः । द्वयशीत्यप्रशस्ताः मिथ्यादृष्टचुत्कटसंकिलिष्टस्य ॥
प्रशस्ताः साताविप्रशस्त प्रकृतिगळु द्विचत्वारिंशत्संख्याप्रमितंगळ विशुद्धिगुणोत्कटस्य विशुद्धिगुणदेवमुत्कटनप्प जीवंगे तीव्राः तीब्रानुभागंगळप्पुवु । द्वयशीत्यप्रशस्ताः असातादिवर्णचतुष्टयोपेतद्वचशीत्यप्रशस्तप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टघुत्कटसंक्लिष्टस्य मिथ्यादृष्टयुत्कटसं क्लिष्टजीवंगे। तु मत्त तीब्राः तीव्रानुभागंगळवु ॥
शुभप्रकृतीनां सातादीनां प्रशस्तानां विशुद्धिपरिणामेन, असाताद्यप्रणश्वानां संक्लेशपरिणामेन च तीव्रानुभागो भवति । विपरीतेन संक्लेशपरिणामेन प्रशस्तानां विशुद्धपरिणामेन अप्रशस्तानां च जघन्यानुभागो भवति ॥ १६३॥
सावादिप्रशस्ताःद्वाचत्वारिंशद्विशुद्धिगुणेनोत्कटस्य, असातादिचतुर्वर्णोपेताप्रशस्ताः द्वयशीतिः मिथ्यादृष्टयुत्कटस्य संक्लिष्टस्य च तीव्रानुभागा भवन्ति ॥ १६४ ॥
शुभ प्रकृति अर्थात् साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका विशुद्धि परिणामोंसे तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका संक्लेश परिणामों से तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध होता है । और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका संक्लेश परिणामोसे तीव्र अनुभागबन्ध होता है। तथा विपरीतसे अर्थात् संक्लेश परिणामसे प्रशस्त प्रकृतियोंका और विशुद्धि परिणामसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध होता है । इस प्रकार सब प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध होता है । मन्दकषाय रूप परिणामोंको विशुद्ध और तीव्रकषाय रूप परिणामों को संक्लेश कहते हैं ॥ १६३ ॥
सातावेदनीय आदि बयालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ, जिसके विशुद्धि गुणकी तीव्रता होती है, उसके तीव्र अनुभाग बन्धको लिए हुए बँधती हैं। और असाता आदि बयासी अप्रशस्त प्रकृतियाँ उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिध्यादृष्टिके तीव्र अनुभाग सहित बँधती हैं ॥ १६४ ॥ विशेषार्थ - यहाँ शुभ वर्ण गन्ध रस स्पर्शको प्रशस्त प्रकृतियों में गिना है और अशुभ वर्ण गन्ध रस स्पर्शको अप्रशस्त प्रकृतियों में गिना है। इस तरह इन चारकी गणना दोनों में
५
१०
१५
२०
२५
३०
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१९२
गो० कर्मकाण्डे आदाओ उज्जोओ मणुवतिरिक्खाउगं पसत्थासु ।
मिच्छस्स होति तिब्बा सम्माइट्ठिस्स सेसाओ ॥१६॥ आतप उद्योतो मनुष्यतियंगायुष्यं प्रशस्तासु । मिथ्यादृष्टिन्भवति तोनाः सम्यग्दृष्टः शेषाः ॥ ५ आतपनामकर्ममुमुद्योतनामकर्ममुं मानवायुष्यभु तिर्यगायुष्यमुबो नाल्कं ४ प्रकृतिगळु प्रशस्तप्रकृतिगळोळ विशुद्धमिथ्यादृष्टिगे तीव्रानुभागंगळप्पुवु । शेषाः शेषसातादि अष्टात्रिंशत्प्रशस्तप्रकृतिगळु विशुद्धसम्यग्दृष्टिगळिगे तोबानुभागंगळप्पुवु ॥
मणुओरालदुवज्जं विशुद्धसुरणिरयअविरदे तिब्बा।
देवाउ अप्पमत्ते खवगे अवसेसबत्तीसा ॥१६६॥ १० मनुष्यौदारिकद्वयं वज्रं विशुखसुरनारकाविरते तोवाः। वायुरप्रमत्ते आपके अवशेष द्वात्रिंशत् ॥
सम्यग्दृष्टिगळ तोब्रानुभागप्रकृतिगळ मूवत्तेट ३८ रोळ मनुष्यतिकमुमोदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहननमुमेंब प्रकृतिपंचकं अनंतानुबंधियं विसंयोजिसुवनिवृत्तिकरणपरिणामचरम.
समयद विशुद्धसुरनारकरुगळ्गसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे तीव्रानुभागंगळप्पुवु । अप्रमत्तनोळ देवायुष्यं १५ तीब्रानुभागमक्कुं। अवशेषद्वात्रिंशत्प्रशस्त प्रकृतिगळु क्षपकनोळ तीव्रानुभागमप्पुवु ॥
प्रशस्तप्रकृतिषु आतपः उद्योतः मानवतिर्यगायुषी चेति चतस्रः विशुद्धमिध्यादृष्टेः शेषाः साताद्याष्टत्रिशद्वि शुद्धसम्यग्दृष्टश्च तीब्रानुभागा भवन्ति ॥१६५॥
सम्यग्दृष्टिषु उक्ताष्टात्रिशन्मध्ये मनुष्यद्विक औदारिकद्विकं च वनवृषभनाराचसंहननं चेति पञ्चक अनन्तानुबन्धिविसंयोजनकानिवृत्तिकरणचरमसमयविशुद्धसुरनारकासयतसम्यग्दृष्टो तीब्रानुभागं भवति । देवायुः २० अप्रमत्ते भवति । अवशिष्टा द्वात्रिंशत् क्षपके एव ॥१६६।।
होनेसे बन्ध प्रकृतियों की संख्या १२० में चार बढ़ गयी; क्योंकि किसीको कोई रूप आदि अच्छा लगता है और किसीको वही बुरा लगता है ॥१६॥
उन बयालीस प्रशस्त प्रकृतियोंमें-से आतप, उद्योत, मनुष्यायु इन चारका तो विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के तीब्र अनुभाग बन्ध होता है। और शेष साता आदि अड़तीस प्रकृतियोंका २५ विशुद्ध सम्यग्दृष्टीके तीव्र अनुभागबन्ध होता है ।।१६५।।
किन्तु सम्यग्दृष्टीके तीन अनुभाग सहित बँधनेवाली अड़तीस प्रकृतियोंमें-से मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वर्षमनाराच संहनन इन पाँचका तीर अनुभागबन्ध जो देव या नारकी असंयत सम्यग्दृष्टी अनन्तानुबन्धीके
विसंयोजनके लिए तीन करण करते हुए अनिवृत्ति करणके अन्तके समयमें वर्तमान होता ३० है उसके होता है। देवायुका तीव्र अनुभागबन्ध अप्रमत्त गुणस्थानमें होता है। शेष बत्तीस
प्रकृतियोंका तीव्र अनुभागबन्ध क्षपक श्रेणिवाले जीवके ही होता है ।।१६६।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उबघादहीणतीसे अपुत्रकरणस्स उच्चजससादे ।
सम्मेलिदे हवंति हु खवगस्सवसेसबत्तीसा ॥१६७॥ उपघातहीनत्रिंशत् अपूर्वकरणस्योच्चयशः शातान् । सम्मिलिते भवंति खलु क्षपकस्याव. शेषद्वात्रिंशत् ॥
अपूर्वकरणस्य अपूर्वकरणक्षपान उपघातनामकर्मज्जितषष्ठभागव्युच्छिन्नत्रिंशत्प्र- ५ कृतिगळु 'छठे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमणपंचिदी। तेजदु हारदु' इत्यादिगळनू सूक्ष्मसापरायन उच्चैगर्गोत्रमं यशस्कोतियुमं सातवेदनीयमुमं कूडुत्तिरलु अवशेषद्वात्रिंशत्प्रकृतिगळु क्षपकनोळु तीब्रानुभागंगळप्पुवेंदु पेन्द प्रकृति गळप्पुवु॥
मिच्छस्संतिमणवयं णरतिरियाऊणि वामणरतिरिए ।
एइंदिय आदावं थावरणामं च सुरमिच्छे ॥१६८॥ मिथ्यादृष्टयंतिमनवकं नरतिय्यंगायुमिनरतिरश्चि । एकेंद्रियमातपस्थावरनाम च सुरमिथ्यादृष्टौ॥ ____ अप्रशस्तप्रकृतिगळु अशुभवर्णचतुष्कयुक्तंगळ ८२ प्रशस्त प्रकृतिगळ ४ कूडि ८६ प्रकृतिगळ्गे मिथ्यादृष्टिजीवने तीव्रानुभागमं माळकुमाव प्रकृतिगळ्गाव मिथ्यादृष्टि माकुमें वोडे मिथ्यादृष्टयन्तिमनवकं सूक्ष्मत्रयविकलेन्द्रिययनरकद्विकनरकायुष्यमेंबी मिथ्यादृष्टयंतिम नवक, १५ संक्लिष्टरोळु मनुष्यतिय॑गायुयं विशुद्धमिथ्यादृष्टि मनुष्यतियंचरोळु कूडि ११ प्रकृतिगळ तोवानुभागंगळप्पुवु । एकेंद्रियजातिनाम, स्थावरनाममुं संक्लिष्टरोळु आतपं विशुद्धरोकिन्तु प्रकृतित्रयं स्वस्थिति षण्मासावशेषमागुत्तं विरलु सुरमिथ्यादृष्टियोळु तोबानुभागंगळप्पुवु ॥
अपूर्वकरणक्षपकस्य उपघातवजितषष्ठभागव्युच्छित्तित्रिंशति सूक्ष्मसांपरायस्य उच्चर्गोत्रयशस्कीतिसातवेदनीयेषु मिलितेषु ताः अवशेषद्वात्रिंशत्प्रकृतयो भवन्ति ॥१६७।।
अप्रशस्तद्वयशीतिः आतपादयश्चतस्रश्च मिथ्यादृष्टावेव तीवानुभागा उक्ताः। तत्र सूक्ष्मत्रयादिमिथ्यादृष्टयंतिमनवकं नरतिरिश्चोः संक्लिष्टयोः नरतिर्यगायुषी च विशुद्धयोर्भवन्ति । एकेन्द्रियं स्थावरं च संक्लिष्टे आतपस्तु विशुद्ध स्वस्थितिषण्मासावशेषे सुरमिथ्यादृष्टौ भवन्ति ।।१६८॥
क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानके छठे भागमें जिन तीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही है उनमें-से उपघातको छोड़कर उनतीस तथा सूक्ष्म साम्परायमें बँधनेवाली उच्चगोत्र, यशः- २५ कीति और सातावेदनीय मिलकर उक्त बत्तीस प्रकृतियाँ होती हैं ॥१६७।।
बयासी अप्रशस्त प्रकृति और आतप, उद्योत, मनुष्यायु, तिर्यंचायु इन छियासीका तीव्र अनुभाग सहित बन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है। उनमेंसे जिन सोलह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति मिध्यादृष्टिके कही है उनमें से सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण आदि अन्तकी नौ प्रकृतियोंका तीव्र अनुभागबन्ध संक्लेश परिणामयुक्त मनुष्य और तिथंच करते हैं। और मनुष्यायु ३० तियंचायुका तीव्र अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामवाले देव मनुष्य या तिथंच करते हैं तथा एकेन्द्रिय, स्थावरका संक्लेश परिणामवाला और आतपका विशुद्ध परिणामवाला मिथ्यादृष्टि देव अपनी आयुके छह मास शेष रहनेपर तीव्र अनुभाग बन्ध करता है ।।१६८॥
क-२५
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१९४
गो० कर्मकाण्डे
उज्जोओ तमतमगे सुरणारयमिच्छगे असंपत्तं ।
तिरियदुर्ग सेसा पुण चदुगदिमिच्छे किलिडे य ॥१६९॥ उद्योतस्तमस्तमके सुरनारकमिथ्यादृष्टावसंप्राप्तं । तिर्यग्द्विकं शेषाः पुनश्चतुर्गतिमिथ्यादृष्टौ क्लिष्टे च ॥
तमस्तमके सप्तमनरकभूमियोपशमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टिविशुद्धियुतनारकनोळुद्योत. नामकम्म तीवानुभागमक्कुमेक दोडे अतिविशुद्धंगुद्योतनामकर्मबंध मिल्लप्पुरिदं । मत्तं सुरनारकमिथ्यादृष्टिजीवंगळोल असंप्राप्नसृपाटिकासंहननमुं तिय॑ग्द्विकमेंब त्रिप्रकृतिगळु तीवानुभागगळप्पुवु। शेषाष्टोत्तरषष्टिप्रकृतिगळु ६८। पुनः मते संक्लिष्टचतुर्गतिमिथ्यादृष्टिजीवनोळु तीवानुभागंगळप्पु॥ यितुत्कृष्टानुभागमं पेन्दनंतरं जघन्यानुभागबंधस्वामिगळं पेळ्दपरु :
वण्णचउक्कमसत्थं उवघादो खवगपादि पणवीसं ।
तीसाणमवरबंधो सगसगवोच्छेदठाणम्मि ॥१७०॥ वर्णचतुष्कमशस्तं उपघातः सपकघाति पंचविंशतिः त्रिंशतामवरबंधः स्वस्वव्युच्छित्तिस्थाने ॥ १५ अप्रशस्तवर्णचतुष्कमुं उपघातनाममुं ज्ञानावरणपंचकमुमन्तरायपंचकमुं दर्शनावरणचतुष्क,
निद्रयं प्रचलयं हास्यमुं रतियं भयमुं जुगुप्सयं पुंवेदमुं संज्वलन चतुष्कर्म ब क्षपकरुगळ पंचविंशतिपातिगळं कूडि ३० मूवत्तुं प्रकृतिगळ जघन्यानुभागबंधं स्वस्वबंधन्युच्छित्तिस्थानदोळेयककुं। अशु० व ४ उ १ णा ५ वि ५८ ४ नि१ प्र१ हा १ र १। भ १ जु ११ सं४ कूडि ३०॥
तमस्तमके सप्तमनरके उपशमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टिविशुद्धनारके उद्योतः तीव्रानुभागो भवति २० अतिविशुद्धस्य तदबन्धात् । पुनः सुरनारकमिथ्यादृष्टी असंप्राप्तसृपाटिकासंहननं तिर्यद्विकं च । शेषाः अष्टषष्टिः ६८ पुनः संक्लिष्टचातुर्गतिकमिथ्यादृष्टौ ॥१६९।। अथ जघन्यानुभागबन्धकानाह
अप्रशस्तवर्णचतुष्कं उपघातः पञ्चज्ञानावरणपश्चान्तरायचक्षुर्दर्शनावरणनिद्राप्रचलाहास्यरतिभयजुगुप्सापुंवेदचतुःसंज्वलनाश्चेति त्रिंशतः जघन्यानुभागः स्वस्वबन्धम्युच्छित्तिस्थाने भवति ।।१७०॥
सातवें नरकमें उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि विशुद्ध नारकी उद्योतका २५ तीव्र अनुभागबन्ध करता है, क्योंकि अतिविशुद्धके उद्योत प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। तथा
मिथ्यादृष्टि देव और नारकीके असंप्राप्तामृपाटिका संहनन तियंचगति और तियंचगत्यानुपूर्वीका तीव्र अनुभागबन्ध होता है। शेष अड़सठ प्रकृतियोंका तीव्र अनुभागबन्ध चारो गतिके संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादष्टि जीव करते हैं ॥१६९।।
आगे जघन्य अनुभागबन्ध करनेवालोंको कहते हैं
अप्रशस्त वर्णादि चार, उपघात, पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, चार दर्शनावरण, निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, चार संज्वलन कषाय इन तीस प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके स्थानमें होता है अर्थात् जहाँ इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वहीं जघन्य अनुभागबन्ध होता है ।।१७०।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१९५ अणथीणतिय मिच्छं मिच्छे अयदे हु बिदियकोहादी ।
देसे तदियकसाया संजमगुणपत्थिदे सोलं ॥१७१॥ अनन्तानुबंधिस्त्यानगृद्धित्रयं मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टौ असंयते खलु द्वितीयक्रोधादयः। देशवते तृतीयकषायः संयमगुणप्रस्थिते षोडश ॥
अनंतानुबंधिचतुष्कमुं स्त्यानगृद्धित्रयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुमेंब ८ अष्टप्रकृतिगळु संयमगुण- ५ प्रास्थितनप्प संयमगुणाभिमुखनप्प विशुद्धमिथ्यादृष्टियोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवु। अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभंगळु ४ नाल्कु संयमाभिमुखनप्प विशुद्धासंयतनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । प्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभंगळु ४ नाल्कुं संयमाभिमुखनप्प देशसंयतनोळु विशुद्धनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु। अदरिनी षोडशप्रकृतिगळं संयमगुणप्रात्थितरोळे जघन्यानुभागंगळप्पुवेंदु पेठल्पदवु । अ ४ स्त्या ३ मि १ अ ४ प्र४॥
आहारमप्पमत्ते पमत्तसुद्धव अरदिसोगाणं । __णरतिरिये सुहुमतियं वियलं वेगुव्वछक्काऊ ॥१७२।।
आहारमप्रमते प्रमत्तसुद्धे एवारतिशोकयोः। नरतिरश्चोः सूक्ष्मत्रयं विकलं धैगुवंषट्कमायुः॥
आहारकद्वयं प्रशस्तप्रकृतियप्पुरिदं प्रमत्तगुणाभिमुखसंक्लिष्टाप्रमत्तसंयतनोळु जघन्यानु- १५ भागमक्कुं। अरतिशोकद्वयमप्रशस्तप्रकृतियप्पुरिंदमप्रमत्तगुणाभिमुखविशुद्धप्रमत्तसंयतनोळ जघन्यानुभागमक्कुं। सूक्ष्मत्रय मुं विकलत्रयमुं वैक्रियिकषटकमुमायुश्चतुष्कमुमेंब १६ प्रकृतिगळ नरतिय्यंचरोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । आ २।अ १। शो १ । सू३ । वि३। वे६ मा ४॥
अनन्तानुबन्धिनः स्त्यानगुद्धि त्रयं मिथ्यात्वं च मिथ्यादृष्टी, अप्रत्याख्यानकषायाः असंयते, प्रत्याख्यानकषायाः देशसंयते इतीमाः षोडशप्रकृतयः तत्र तत्र संयमगुणाभिमुखे एव विशुद्धजीवे जघन्यानुभागा २० भवन्ति ॥१७१॥
__ आहारकद्वयं प्रशस्तत्वात् प्रमत्तगुणाभिमुखसंक्लिष्टाप्रमत्ते जघन्यानुभागं भवति । अरतिशोको अप्रशस्तत्वात् अप्रमत्तगुणाभिमुखविशुद्धप्रमत्ते एव । सूक्ष्मत्रयं विकलत्रयं वैक्रियिकषटकं आयुश्चतुष्कं च नरतिरश्चोरेव ॥१७२॥
अनन्तानुबन्धी चार कषाय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, और मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमें, २५ चार अप्रत्याख्यान कषायोंका असंयतमें, चार प्रत्याख्यान कषायोंका देशसंयतमें, इस प्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ अपने-अपने गुणस्थानों में संयमगुण धारण करनेके अभिमुख विशुद्ध जीवके जघन्य अनुभाग सहित बंधती हैं ॥१७१।।।
आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। अतः इनका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तगुणस्थानके अभिमुख हुए संक्लेश परिणामवाले अप्रमत्त गुणस्थानवी ३० जीवके होता है । अरति और शोक अप्रशस्त प्रकृतियाँ है । अतः इनका जघन्य अनुभागबन्ध अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुए विशुद्ध प्रमत्तगुणस्थानवी जीवके होता है। सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति,
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गो० कर्मकाण्डे सुरणिरये उज्जोवोरालदुर्ग तमतमम्मि तिरियदुगं ।
णीचं च तिगदिमज्झिमपरिणामे थावरेयक्खं ॥१७३।। सुरनारकेषूद्योतः औदारिकद्विकं तमस्तमे तियंग्द्विकं । नीचं च त्रिगतिमध्यमपरिणामे स्थावरैकाक्षं॥
सुरनारकरोळुयोतमुमौदारिकद्विक, जघन्यानुभागंगळप्पुवल्लि देवक्कळतिविशुद्धरादोडुद्योतनाममं मोवल्गे कटुवरल्लदु कारणदिदमुद्योतनाम प्रशस्तप्रकृतियप्पुरिदं सुरनारकरुगलु संक्लिष्टरुगळे जघन्यानुभागमनदक्के माळ्पर। तिय॑द्विकं नोचैर्गोत्रमुहैब प्रकृतित्रयं सप्तमपृथ्विय नारकनोळ विशुद्धनोळ जघन्यानुभागमक्कं। स्थावरनाममुमेकेंद्रियजातिनाममुमें बेरडुं
प्रकृतिगळ नरकगतिरहित शेषत्रिगतिजीवंगळ तीव्रविशुद्धि संक्लेशपरिणाममल्लद मध्यमपरिणाम१० बोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । उ १ । औ २ । ति २। नो १ । था १। ए १॥
सोहम्मोत्ति य तावं तित्थयरं अविरदे मणुस्सम्मि।
चद्गदिवामकिलिट्ठे पण्णरस दुवे विसोहीये ॥१७४॥ सौषम्मपर्यन्तमातपः तीर्थकरमविरते मनुष्ये। चतुर्गतिवामक्लिष्टे पंचदश द्वे विशुधे॥
भवनत्रयमादियागि सौधर्मवयपर्यन्तमाद देवक्कंळातपनाममं संक्लिष्टरु जघन्यानुभागमं माळ्पर । मरकगतिगमनाभिमुखनप्प असंयतनोळ मनुष्यनोळ तीर्थकरनाममं जघन्यानुभाग
उद्योतः ओदारिकद्विकं च सुरनारके जघन्यानुभागं लभते । तत्र उद्योतः अतिविशुद्धदेवे बन्धाभावात् प्रशस्तत्वात् संक्लिष्टे एव लभते.। तिर्यग्द्विकं नीचैर्गोत्रं च सप्तमपृथ्वीनारके विशुद्धे, स्थावरमेकेन्द्रियं च नारकाद्विना शेषत्रिगतिजे तोवविशुद्धिसंक्लेशरहिते मध्यमपरिणामे एव ॥१७३॥
बातपनामकर्म भवनत्रये सौधर्मद्वये च संक्लिष्टे जघन्यानुभागं भवति तीर्थकृत्वं नरकगमनाभिमुखा.
नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग और चार आयु इन सोलह प्रकृतियोंको मनुष्य और नियंच जघन्य अनुभाग सहित बाँधते हैं ॥१७२।।
विशेषार्थ-गाथामें चार आयु नहीं गिनायी हैं । टीकामें ही गिनायी हैं।
उद्योत और औदारिक द्विक देव और नारकीके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं। २५ उनमें से उद्योत प्रकृतिका बन्ध अति विशुद्ध परिणामवाले देवके नहीं होता । अतः संक्लेश
परिणामीके ही जघन्य अनुभाग सहित बंधती है। तियंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्र सातवें नरकमें विशुद्ध परिणामी नारकीके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं। स्थावर, एकेन्द्रिय ये दो प्रकृतियाँ नारकी बिना शेष तीन गतिवाले जीवके, जिसके परिणाम न तो
तीव्र विशुद्ध होते हैं और न तोत्र संक्लेशयुक्त होते हैं, किन्तु मध्यम परिणाम होते हैं उसीके ३० जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं ॥१७॥
आतप प्रकृति भवनत्रिक और सौधर्म ईशान स्वर्गके संक्लेश परिणामवाले देवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती है। तीर्थकर प्रकृति नरक जानेके अभिमुख असंयत सम्यक
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१९७ मक्कुं। चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टिसंक्लिष्टनोळु मुंदण सूत्रदोळु पेळ्व पंचदश प्रकृतिगळु जघन्यानु. भागंगळप्पुवु । मत्तमरडु प्रकृतिगळु विशुद्धनोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवउवाउवेंदोडे पेन्दपर.:
परघाददुगं तेजदु तसवण्णचउक्क णिमिणपंचिंदी।
अगुरुलहुँच किलिट्ठ इत्थिणउंसं विसोहीये ॥१७॥
परघातद्विकं तेजसद्विकं सवर्णचतुष्कनिम्मणिपंचेंद्रियाण्यगुरलघुश्च विलष्टे स्त्रीनपुंसके ५ विशुद्धे ॥
परघातमुमुच्छ्वासमुं तेजसशरीरनाममुं कार्मणशरीरनाममुं त्रसबावरपर्याप्तप्रत्येकारीरचतुष्कमुं शुभवर्णचतुष्कमुं निर्माण पंचेंद्रियजातिनाममुमगुरुलघुनाममुमेंदिवु १५ पंचदशप्रकृतिगळे बुवक्कुमिवु चतुर्गतिमिथ्यादृष्टि संक्लिष्टजोवनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु एके दोर्ड इवु प्रशस्तप्रकृतिाळप्पुरिदं, स्त्रीनपुंसकंगळेरामप्रशस्तप्रकृतिगळप्पुरिदं चतुग्गतिमिथ्यादृष्टिविशुद्ध- १० नोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवु । अ१। ति १।११। उ १ ते २।। १। बा १।११। प्र१। व १ १ र १स्प १ । नि १।११। अगु १ । स्त्रों १ । न १॥
सम्मो वा मिच्छो वा अट्ठ अपरियट्टमझिमो य जदि ।
परिवमाणमज्झिममिच्छाइट्ठी दु तेवीसं ॥१७६॥ सम्यग्दृष्टिर्वा मिथ्यादृष्टिा अष्ट अपरिवत्र्तमानमध्यमश्च यदि । परिवर्तमानमध्यम- १५ मिथ्यादृष्टिस्तु त्रयोविंशति ॥ संयतमनुष्ये एव । उत्तरसूत्रोक्तपञ्चदशप्रकृतयः चतुर्गतिकमिथ्यादृष्टौ संक्लिष्टो. एव, द्वे प्रकृती विशुद्धे एव ॥१७४।। अमुमुत्तरार्धमेव स्पष्टयति---
परघातोच्छ्वासौ तैजसकामणे त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकानि शुभवर्णचतुष्क निर्माणं पञ्चेन्द्रियं अगुरुलघु चेति पञ्चदशप्रकृतयः चतुर्गतिमिथ्यादृष्टो संक्लिष्टे जघन्यानुभागा भवन्ति प्रशस्तत्वात् । स्त्रीषंढवेदी तस्मिन् २० विशुद्ध एव अप्रशस्तत्वात् ॥११५।। दृष्टी मनुष्यके जघन्य अनुभाग सहित बँधती है। आगे कही गयी। पन्द्रह प्रकृतियाँ चारों गतिके संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टी जीवके और दो प्रकृतियाँ चारों गतिके विशुद्ध परिणामी जीवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं ॥१७४॥
आगे उन्हीं प्रकृतियोंको कहते हैं ।
परघात, उच्छ्वास, तैजस, कार्मण, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ वर्णादि चार, निर्माण, पंचेन्द्रिय, अगुरुलघु ये पन्द्रह प्रकृतियाँ चारों गतिके संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टी जीवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं, क्योंकि ये प्रशस्त प्रकृतियां हैं। तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये दोनों अप्रशस्त हैं अतः इनका चारों गतिके विशुद्ध जीवके जघन्य अनुभागबन्ध होता है ॥१७॥ १. बरार्थिमेव ।
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गो० क्रमकाण्डे
सम्यग्दृष्टिमेण्मिथ्यादृष्टियागलु वक्ष्यमाण सूत्रदोळपेव ३१ एकाधिकत्रिशत् प्रकृतिगळोळ प्रथमोक्ताष्टप्रकृतिगणे मध्यमश्च यदि अपरिवत्र्तमानमध्यमपरिणामपरिणत नादोडे जघन्यानुभागमं माळकुं । परिवर्त्तमानमध्यमपरिणामियप्प मिथ्यादृष्टि तु मते शेषत्रयोविंशतिगळगे जघन्यानुभागमं माळकुमवा उवे बोर्ड पेपर :
२०
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थिरंसुहजससाददुगं उभये मिच्छेव उच्चसंठाणं । संहदिगमणं णरसुरसुभगादेज्जाण जुम्मं च ॥ १७७॥
स्थिरशुभयशः सातद्विकमुभयस्मिन् मिथ्यादृष्टा वेवोच्च संस्थानं संहननं गमनं नरसुभगादेयानां युग्मं च ॥
स्थिरास्थिरशुभाशुभयशस्कीर्त्ययशस्कीत्ति सात वेदनीयमसात वेदनीयमेंबी प्रकृत्यष्टकमुभय१० स्मिन् । सम्यग्दृष्टियोळं मेग्मिथ्यादृष्टियोळागलु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । येत्तलानुमवर्गळु मपरिवर्त्तमानमध्यमपरिणामिगळावोडे मिथ्यादृष्टियोळे परिवत्र्तमानमध्यम परिणामपरिणतनोळु उच्चैग्गोमुं संस्थानषट्कमुं संहननषट्कभुं प्रशस्ताप्रशस्तगमनयुग्ममुं । मनुष्ययुग्ममुं सुरयुग्ममुं सुभगयुग्ममुं आययुग्ममुबी त्रयोविंशति प्रकृतिगळगे जघन्यानुभागंगळवु । थिर २ । शुं २ । ज २ । सा २ । उभये । उ १ । सं ६ । सं ६ । विहा २ । म २ । सु २ । सु २ । आ २ । जघन्यानुभागदोळु पेळदी १५ अपरिवर्तमानपरिवर्त्तमानमध्यमपरिणामंगळगे लक्षणमे तें दोडे | अणुसमयं अनुसमयं । केवळं
सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिर्वा वक्ष्यमाणसूत्रोक्तं कत्रिशत्प्रकृतिषु प्रथमोक्ताष्टानां यद्यपरिवर्तमानमध्यमपरिणामस्तदा जघन्यानुभागं करोति शेषत्रयोविंशतेस्तु पुनः परिवर्तमानमध्यमपरिणाम मिध्यादृष्टिरेव करोति ॥ १७६ ॥ ताः का ? इत्याह
स्थिरा स्थिर शुभाशुभशोऽयशः सातासातान्यष्टौ उभयस्मिन् सम्यग्दृष्टौ मिथ्यादृष्टौ वा जघन्यानुभागानि यद्यपरिवर्तमानमध्यमपरिणामाः संति, मिथ्यादृष्टावेवं परिवर्तमानमध्यमपरिणामे उच्चैर्गोत्रं संस्थान षट्कं संहननषट्कं प्रशस्ताप्रशस्तगमने नरसुरसुभगादेययुग्मानीति त्रयोविंशतेर्जघन्यानुभागो भवति ॥ १७७॥ तो अपरिवर्तमानपरिवर्तमानमध्यपरिणामी लक्षयति
आगेकी गाथा में कही इकतीस प्रकृतियों में से प्रथम कही आठ प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अपरिवर्तमान मध्यम परिणामी सम्यग्दृष्टि करता है । शेष तेईसका जघन्य २५ अनुभागबन्ध परिवर्तन मध्यम परिणामी मिथ्यादृष्टी ही करता है || १७६ ॥
इकतीस प्रकृतियोंको कहते हैं
स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, साता, असाता ये आठ अपरिवर्तमान मध्यम परिणामी सम्यग्दृष्टी अथवा मिध्यादृष्टि के जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं। तथा उच्चगोत्र, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, ३० मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, सुभग, दुभंग, आदेय, अनादेय ये तेईस प्रकृतियाँ परिवर्तमान मध्यम परिणामी मिथ्यादृष्टी जीवके ही जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं । यहाँ प्रसंगवश अपरिवर्तमान और परिवर्तमान मध्यम परिणामका लक्षण कहते हैं—
Jain Education' International
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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वड्ढमाणा हायमाणा च केवलं वर्द्धमाना होयमानाश्च । जे संकिळेस्सविसोहि परिणामा ये संक्लेशविशुद्धिपरिणामाः ते अपरियत्तमाणा णाम तेऽपरिवर्तमाना नाम । जेत्थ पुण यत्र पुनः । ठाइकूण स्थित्वा परिणामान्तरं गंतूण परिणामांतरं गत्वा । एगदो एकतः । आदिसमये आदिसमये । हि स्फुटं । आगमणं संभवदि आगमनं संभवति । ते परिणामा ते परिणामाः परियतमाणा णाम परिवर्तमाना नाम । तत्थ तत्र उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णात्ति उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या इति तिविहा परिणामा त्रिविधाः परिणामाः । ण न । तत्थ तत्र । सव्वविसुद्धिपरिणामेहि सर्व्वविशुद्धिपरिणामः जहग्णो अणुभागो होदि जघन्योऽनुभागो भवति । अप्पसत्यपयडि अणुभागादो अप्रशस्त प्रकृत्यनुभागात् । अनंतगुणपसत्यपयडि अणुभागस्स अनंतगुणवड्ढिप्प संगादो अनन्तगुणप्रशस्तप्रकृत्यनुभागस्यानन्तगुण वृद्धिप्रसंगात् । ण न । सव्वसंकिलिट्ठपरिणामेहिय सव्वंसंक्लिष्ट - परिणामैश्च तिव्वसंकिळिस्सेण तीव्र संक्लेशेन । असुहाणं पयडीणं अशुभानां प्रकृतीनां अणुभाग- १० वसिंगादो अनुभागवृद्धिप्रसंगात् । तम्हा तस्मात् । जहण्णुक्कस्सपरिणामणिराकरणट्ठ जघन्योत्कृष्ट परिणाम निराकरणात्थं परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेहित्ति उत्तं परिवर्त्तमानमध्यम. परिणामेरित्युक्तम् ।
प्रतिसमयं केवलवर्धमानहीयमानंगळु मावुवु केलवु संक्लेशविशुद्धिपरिणामंगळ वनपरि वर्त्तमानं गळे' बुबु | आवुवु केलवु मत्ते परिणामंगळोळिरुतिद्दु परिणामान्तरमनेदि वो दरणिदमे १५
५
अणुसमयं - अनुसमयं केवलं वड्ढमाणा हीयमाणा च केवलं वर्धमाना हीयमानाश्च जे संकिलेसविसोहिपरिणामा-ये संक्लेशविशुद्धिपरिणामाः ते अपरियत्तमाणा णाम- ते अपरिवर्तमाना नाम । जेत्थ पुणयत्र पुनः ठाइदूण- स्थित्वा परिणामांतरं गंतूणं- परिणामांतरं गत्वा, एगदो- एकतः आदिसमए हि- आदिसमये हि, स्फुटं आगमणं संभवदि - आगमनं संभवति ते परिणाम ते परिणामाः परिवर्तमाणा णाम-परिवर्तमाना नाम । तत्थ - तत्र उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति- उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या इति तिविहा परिणामा - त्रिविधाः २० परिणामाः ण-न । तत्थ - तत्र सव्वविसुद्ध परिणामेहि- सर्वविशुद्धपरिणामः, जहण्णो अणुभागो होदि - जघन्योऽनुभागो भवति । अप्पसत्यपयडीअणुभागादो - अप्रशस्त प्रकृत्यनुभागात्, अनंतगुणपसत्यपयडी अणुभागस्स अनंत
जो संक्लेशरूप या विशुद्धरूप परिणाम प्रतिसमय बढ़ते ही जायें या घटते ही जायें उन्हें अपरिवर्तमान परिणाम कहते हैं क्योंकि वे परिणाम पलटकर पीछेकी ओर नहीं आते । और जिस परिणाम में स्थित हो परिणामान्तरको प्राप्त होकर पुन: उसी परिणाम में आना २५ सम्भव हो उन्हें परिवर्तमान कहते हैं क्योंकि यहाँ पलटकर पुनः उसी परिणाम में आना सम्भव है । परिणाम तीन प्रकारके हैं—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । उनमें से सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध नहीं होता है। क्योंकि अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग से प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा होता है । अतः उसमें अनन्तगुणी वृद्धिका प्रसंग आता है । तथा सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे भी जघन्य अनुभागबन्ध नहीं होता; ३० क्योंकि तीव्र संक्लेश से अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी वृद्धिका प्रसंग आता है । अतः जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंके निराकरणके लिए परिवर्तमान मध्यम परिणामोंमें पूर्वोक तेईस प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध कहा है । आशय यह है कि तेईस प्रकृतियों में प्रशस्त और
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गो० कर्मकाण्डे मोदल समयदल्लिगे हि स्फुटमागि आगमनं संभविसुगुमा परिणमंगळु परिवर्तमानंगल बुवक्कुमल्लि उत्कृष्टंगळं मध्यमंगळं जघन्यंगळमें वितु त्रिविधपरिणामंगळप्पुवल्लि सर्वविशुद्धिपरिणामंगळवं प्रशस्त प्रकृतिगळ्गे जघन्यानुभागमुमागदु । अप्रशस्तप्रकृतिगळनुभागमं नोडल प्रशस्तप्रकृतिगळ
अनन्तगुणानुभागक्के अनन्तगुणवृद्धिप्रसंगमुमक्कुमप्पुरिदं सर्वसंक्लेशपरिणामंगळिदमुं अप्रशस्त५ प्रकृतिगळ्गे जघन्यानुभागमागदु । तीब्रसंक्लेशदिदमप्रशस्तप्रकृतिगळ्गनुभागवृद्धिप्रसंगमप्पुरिंद
मन्तुमल्लदु कारणदिदं जघन्योत्कृष्टपरिणामनिराकरणनिमित्तमागि परिवर्तमानमध्यमपरिणामंगळिदमें दितु पेळल्पटुदु॥
___ अनन्तरं मूलप्रकृतिगळुत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यजघन्यानुभागंगळगे साधनादि धुवाध्रुवानुभागबंधसंभवासंभवमं पेळ्दपर :
__ घादीणं अजहण्णोणुक्कस्सो वेयणीयणामाणं ।
अजहण्णमणुक्कस्सो गोदे चदुधा दुधा सेसा ॥१७८॥ घातिनामजघन्योऽनुत्कृष्टो वेदनीयनाम्नोरजघन्योऽनुत्कृष्टो गोत्रे चतुर्द्धा द्विधा शेषाः॥
ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीयान्तरायघातिकमंगळ अजघन्यमुं। वेदनीयनामकर्मद्वितयद अनुत्कृष्टमुंगोत्रकर्मदोळु अजघन्यमुमनुत्कृष्टमुं इंतेंटु स्थानंगळोळ साधनादि ध्रुवाघ्रवानु१५ भागबंधभेददिदं चतुम्विधंगळप्पुवु। शेषाः शेषजघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टस्थानंगळनितुं मूलप्रकृति
गुणवढिप्पसंगादो-अनन्तगुणप्रशस्तप्रकृत्यनुभागस्य अनन्तगुणवृद्धिप्रसंगात्, ण-न, सब्बसंकिलिट्ठपरिणामेहि य सर्वसंक्लिष्टपरिणामश्च, तिब्वसंकिलिस्सेण-तीनसंक्लेशेन, असुहाणं पयडीणं-अशुभानां प्रकृतीनां अणुभागवड्ढिप्पसंगादो-अनुभागवृद्धिप्रसंगात् । तम्हा-तस्मात्, जहण्णुक्रम्सपरिणामणिराकरलैं-जघन्योत्कृष्टपरिणा
मनिराकरणार्थम, परियत्तमाणमझिमपरिणामेहित्ति उत्तं-परिवर्तमांनमध्यमपरिणामैरित्युक्तं ॥१७७॥ अथ २० मूलप्रकृतीनां उत्कृष्टाद्यनुभागानां साद्यादिसंभवासंभवावाह
घातिनां चतुर्णामजघन्यः, वेदनीयनामकर्मणोरनुत्कृष्टः गोत्रस्याजघन्यानुत्कृष्टौ च साद्यनादिध्र वाध्र वभेदाच्चतुर्धाः भवन्ति । शेषाः जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टाः साद्यध्र वभेदाद् द्वेधैव ॥१७८॥ अप्रशस्त दोनों ही प्रकार की प्रकृतियाँ हैं। यदि सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहते हैं तो अप्रशस्त में जितना अनुभागबन्ध होगा उससे अनन्तगुणा अनुभाग बन्ध प्रशस्त प्रकृतियों में होगा। तब जघन्य अनुभागबन्ध कहाँ रहा। इसी तरह यदि तीव्र संक्लेश परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहते हैं तो अप्रशस्त प्रकृतियोंमें अनुभाग बढ़ जायेगा। अतः दोनों को छोड़कर परिवतमान मध्यम परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहा है ॥१७॥
_ अब मूल प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागके सादि आदि भेद होते हैं या नहीं ३० होते, यह कहते हैं
चारों घातिकमौका अजघन्य अनुभागबन्ध, वेदनीय और नामकर्मका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तथा गोत्रकर्मका अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार के होते हैं। शेष अर्थात् चारों घातिकर्मो के अजघन्यके बिना
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
२०१ गळ्णे द्विप्रकारानुभागबंधंगळे साद्यध्रुव भेदंगळेरडेयप्पुवु
णावं । वे । आ| ना | गो । अं उ. २२
उ२|उ२ उ२ अ२ २४ अ२४ अ४ अ४ अ४ अ२ अ२ अ२४ अ४
ज२ ज २ ज २ ज २ ज २ ज २ ज २|ज अनंतरं ध्रुवप्रकृतिगळोळु प्रशस्ताप्रशस्तप्रकृतिगळ्गमध्रुवप्रकृतिगळ्गं जघन्याजघन्यानुस्कृष्टोत्कृष्टानुभागंगळगे साद्याविभेदसंभवासंभवमं पेळ्वपरु
सत्थाणं धुवियाणमणुक्कस्समसत्थगाण दुवियाणं ।
अजहण्णं च य चदुधा सेसा सेसाणयं च दुधा ॥१७९।। शस्तानां वाणामनुत्कष्टोऽशस्तानां ध्रुवाणामजघन्यश्च च चतुर्द्धा शेषाः शेषाणां च द्विधाः॥
तैजसकाम्मणशरीरनामकर्मद्वितयमुमगुरुलघुकमुं निर्माणनाममुं प्रशस्तवर्णगंधरसस्पर्शगळेब ८ अष्ट प्रशस्त ध्रुवप्रकृतिगळ अनुत्कृष्टमुं ज्ञानावरणपंचकमुं वर्शनावरणीयनवकमुमन्तरायपंचक, मिथ्यात्वप्रकृतियु षोडशकषायंगळु भयद्विकमुं वर्णचतुष्कम उपघातनाममुमेंब ४३ १० त्रिचत्वारिंशत् ध्रुवाप्रशस्तप्रकृतिगळ अजघन्यमुं साधनाविघ्रवाध्रुवानुभागबंधभेवदिवं चतुःप्रकारंगळप्पुवु। शेषाः प्रशस्ताप्रशस्तध्रुवप्रकृतिगळ जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टंगळं शेषाणां च
अथ ध्र वासु प्रशस्ताप्रशस्तानां अध्र वाणां च जघन्याजघन्यानुस्कृष्टोत्कृष्टानां संभवत्साद्यादिभेदानाह
तैजसकार्मणागुरुलघुनिर्माणवर्णगन्धरसस्पर्शध्र वप्रशस्तानां अनुत्कृष्ट एकान्नविंशतिज्ञानदर्शनावरणान्तरायमिथ्यात्वषोडशकषायभयद्विवर्णचतुष्कोपघातध्र वाप्रशस्तानां अजघन्यश्च साद्यादिभेदाच्चतुर्षा भवति, शेषाः । तीन, वेदनीय और नामकर्मके अनुत्कृष्टके बिना तीन गोत्रके अजघन्य और अनुत्कृष्टके बिना दो और आयु कर्मके चारों अनुभागबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो ही प्रकारके हैं ॥१८॥
ज्ञा. द. वे. मो. आ. ना. गो. अं. उ.२ उ.२ उ.२ उ.२ उ.२ उ.२ उ.२ उ.२ अ.२ अ.२ अ.४ अ.२ अ.२ अ.४ अ.४ अ.२ अ.४ अ.४ अ.२ अ.४ अ.२ अ.२ अ.४ अ.४ ज.२ ज.२ ज.२ ज.२ ज.२ ज.२ ज.२ ज.२
आगे ध्रुव प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियों में तथा अध्रुव प्रकृतियोंके जघन्य, अजघन्य, अनुत्कृष्ट, उत्कृष्ट, अनुभागबन्धमें सम्भव सादि आदि भेद कहते हैं
२० तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, प्रशस्त वर्ण गन्ध रस स्पर्श इन ध्रुवबन्धी प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी उन्नीस, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णादि चार, उपघात इन ध्रुवबन्धी अप्रशस्त प्रकृतियोंका अजघन्य अनुभागबन्ध सादि अनादि ध्रुव और अध्रुवके भेदसे चार
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२०२
अध्रुवप्रकृतिगळ ७३ त्रिसप्ततिप्रकृतिगळ जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टानुभागबंधंगळं द्विषा साद्यध्रुव
भेर्दाददं द्विविधंगळवु -
ध्रु
-Я
८
उ २
अ ४
अ २
ज २
गो० कर्मकाण्डे
ध्रु = अप्र
४३
उ २
अ २
अ ४
ज २
अनंत रमनुभाग में बुदेने दोडे तत्स्वरूपनिरूपणमं घातिकम्मंगळोळ माडिदपरु :
सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवमाहु घादीणं ।
दारुणंतिम भागोत्ति देमघादी तदो सव्वं ॥ १८० ॥
शक्तयो लतादावं स्थिशैलोपमाः खलु घातीनां । दायंनंतैकभागपय्र्यंतं देशघाति ततः सर्व्वम् ॥
घातीनां ज्ञानावरणदर्शनावरण मोहनीयान्तरायघातिकम्मंगळ शक्तयः स्पर्द्धकंगळु लतादार्थः स्थिरौलोपमाः लतादार्व्वस्थिशैलोपमानंगळ चतुव्विभागमागिवु । खलु स्फुट मागि वुमल्लि १० दार्व्यनन्तैकभागपय्र्यन्तं लताभागमादियागि दारुभागे योळनंतैकभागपध्यंतं वेशघाति देशघाति
ध्रुव ८ प्र.
उ. २
अ. ४
अ. २
ज. २
तासां जघन्यादयः अत्र वत्रिसप्ततेर्जघन्यादयश्च साद्यघ्रवभेदाद् द्विधैव ।। १७९ ।। अनुभागः किमिति प्रश्ने तत्स्वरूपं प्रथमतः घातिष्वाह
घातिनां ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां शक्तयः स्पर्धकानि लतादार्वस्थिशैलोपम चतुर्विभागेन तिष्ठन्ति खलु स्फुटम् । तत्र लताभागमादि कृत्वा दार्वनन्तकभागपर्यन्तं देशघातिभ्यो भवन्ति । तत उपरि १५ प्रकार है । इन ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके शेष तीन अनुभागबन्ध और अध्रुवबन्धी ७३ तेहत्तर प्रकृतियोंके चारों अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव के भेदसे दो ही प्रकार हैं ।। १७९ ||
अघु प्र. ७३
उ २
अ २
अ २
ज २
ध्रु. ४३ अ.
उ. ५
अ. २
अ. ४
ज. २
आगे अनुभागका स्वरूप प्रथम घातिकमों में कहते हैं
घाति ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंकी शक्तियाँ अर्थात् स्पर्धक लता, दारु, अस्थि और शैलकी उपमाको लिये हुए चार भागरूप होते हैं | लता बेलको २० कहते हैं । दारुका अर्थ काष्ठ है । अस्थि हड्डीको कहते हैं और शैल पर्वतको कहते हैं । जैसे ये उत्तरोत्तर अधिक कठोर होते हैं वैसे ही कर्मोंके स्पर्धक अर्थात् वर्गणाओंका समूह भी होता है । उनमें फल देनेकी शक्ति रूप अनुभाग उत्तरोत्तर अधिक अधिक होता है। सो लता भागसे लेकर दारुके अनन्तवें भाग पर्यन्त स्पर्धक तो देशघाती होते हैं। उनके उदय
अध्रुव ७३
उ. २
अ. २
अ. २
ज. २
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२०३
गळवु । ततः सव्वं मेले दानन्तबहुभागमादियागि अस्थिशैलभागेगळं सव्वंघातियंक्कुमल्लि । घातिगळोळुत्तरप्रकृतिगळोळु मिथ्यात्वप्रकृतिरो विशेषमं पेदपरः
देसोत्ति हवे सम्मं तनो दारू अनंतिमे मिस्सं । सेसा अनंतभागा अत्थिसिलाफड्ढया मिच्छे || १८१ ॥
देशघातिपय्र्यन्तं भवेत्सम्यक्त्वं ततो दानन्तक भागे मिश्र । शेषाः अनन्तभागाः अस्थिशिलास्पर्द्धकानि मिथ्यात्वे ॥
प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामदिदं गुणसंक्रमभागहारविंदं बंधविनेकविधमेयप्प सत्वरूपमिथ्यात्वप्रकृतिदेशघाति जात्यंतर सर्व्वघाति सर्व्वघातिभेदविदं "कोटथं" सम्यक्त्वमिश्र मिथ्यात्व. प्रकृतिभेदददं द्विविधमागि माडल्पटुवप्पुदरिवं लताभागमावियागि बादविननंतैकभागपर्य्यन्तमाद
O
वेशघातिस्पर्द्धकंगळनितुं भवेत्सम्यक्त्वं सम्यक्त्वप्रकृतियक्कुं । शेषवारविननंतबहुभागम वा ख १०
ल
ननंतखंडगळं माडिवलि एकखंडं वा ख । १ जात्यंत रसबंघातिमिश्रप्रकृतियक्कु । शेषा अनन्तभागाः शेषवारविननन्त बहु भागबहु भागंगळम स्थिशिलास्पर्द्धकंगळं सबंघाति मिध्यात्वप्रकृतियक्कु
ख ख
अशि ।
दा ख
ख ख
दावनन्तबहुभागमादि कृत्वा अस्थिशैलभागेषु सर्वत्र सर्वघातिन्यो भवन्ति ॥ १८० ॥ तासामुत्तर प्रकृतिषु मिथ्यात्वस्य विशेषमाह -
लता भागमादि कृत्वा दार्वनन्तेक भाग पर्यन्तानि देशघातिस्पर्धकानि सर्वाणि सम्यक्त्वंप्रकृतिर्भवति, १५ शेषदार्वनन्तबहुभागेषु दा ख अनन्तखण्डीकृतेषु एकखण्डं दा ख १ जात्यंतर सर्व पातिमिश्रप्रकृतिर्भवति ।
ख ख
शेषदावनन्तबहुभागभागाः अस्थिशिलास्पर्षकानि च सर्वषातिमिथ्यात्व प्रकृतिर्भवति दा
अशै ॥१८१ ॥
होते हुए भी आत्माका गुण प्रकट रहता है। तथा दारुका अनन्त बहुभागसे लेकर अस्थि और शैलरूप सत्र स्पर्धक सर्वघाती हैं। उनके उदयमें आत्माके गुणका एक अंश भी प्रकट नहीं होता ||१०||
उन कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियों में से मिथ्यात्व प्रकृतिके विषय में कहते हैं
लता भागसे लेकर दारुके अनन्तर्वे भाग पर्यन्त सब देशघाति स्पर्धक सम्यक्त्व प्रकृतिरूप हैं । दारुके अनन्तर्वे भाग बिना शेष बहुभागके अनन्त खण्ड करें। उनमें से एक खण्ड प्रमाण स्पर्धक जात्यन्तर अर्थात् पृथकू ही जातिकी सर्वघाती मिश्र प्रकृतिरूप हैं ।
५
२०
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५
२०४
मिथ्यात्व
मिश्र
सम्यक्त्व
मिथ्यात्व
मिश्र
सम्यक्त्व
शै
म
दा ख
ख
०
दा ख
ख
ख
दा ख
ल
शे
अ
दा ख
दा ख
ख ख
दा ख
ल
०
ख
ख
गो० कर्मकाण्डे
९ ना ख
ख
९ ना ख
ख ख
०
९ ना ख
ख ख ख
९ ना १ ख ख ख
९ ना ख
ख
९ ना ख
ख ख 2
९ ना ख
ख ख ख
तथा शेष दारुके बहुभाग और अस्थि तथा शैलरूप स्पर्धक सर्वघाति मिथ्यात्व प्रकृति
रूप जानना ॥ १८२॥
९ ना १ ख ख ख
विशेषार्थ - पूर्व में कहा था कि बन्ध केवल मिथ्यात्व प्रकृतिका ही होता है । जब किसीको सम्यक्त्वकी प्राप्ति सर्वप्रथम होती है तो मिध्यात्व प्रकृति तीन रूप हो जाती है । उनमें से देशघाती अंश देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिको और सर्वघातीमें से दारुका कुछ भाग जात्यन्तर सर्वघाती मिश्र प्रकृतिको और शेष सब मिध्यात्व रूप होता है । यही कथन ऊपर किया है ।। १८१ ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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बम
S
ख
वा
ख
मिश्र
ल
स
दा ख
ख ख आवरणदेसघादंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं ।
चदुविधभावपरिणदा तिविहा भावा हु सेसाणं ॥१८२॥ आवरणदेशघात्यंतरायसंज्वलनपुरुषसतवश । चतुम्विधभावपरिणताः त्रिविधा भावाः खलु शेषाणां ॥
केवलज्ञानावरणरहितज्ञानावरणचतुष्कमु ४, केवलदर्शनावरणरहितदर्शनावरणत्रितयमुं ३ यो ये प्रकृतिगळावरणमध्यदेशघातिगळे बुवक्कु । मन्तराय अन्तरायपंचकमुं ५, संज्वलन
म
५
A
दा
ख
ख
दाख
अभ
외여
मिष
... दा ख ख ख
आवरणेषु देशघातीनि मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणानि पञ्चान्तरायाः
ज्ञानावरण और दर्शनावरणमें-से देशघाती मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, ज्ञानावरण और चक्षु, अचक्षु अवधि दर्शनावरण ये सात, पाँच अन्तराय, चार संज्वलन, और पुरुषवेद ये सतरह प्रकृतियाँ शैल, अस्थि, दाम और लता भागरूप परिणत होती हैं। जहाँ शैल भाग नहीं होता वहाँ अस्थि, दारु और लतारूप परिणत होती हैं और जिनमें दारुभाग भी नहीं १० होता उनमें केवल लतारूप ही परिणमन होता है। इस तरह सतरह प्रकृतियाँ चार रूप परिणत होती हैं। शेष प्रकृतियों में से मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिके बिना समस्त घाति प्रकृतियाँ तीन भागरूप ही परिणत होती हैं। सो केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, पाँच
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२०६
गो० कर्मकाण्डे संज्वलनचतुष्कमुं४, पुरुष पुंवेदमुं इन्तु १७ सप्तदशप्रकृतिगळु चतुविधभावपरिणताः चतुविधशक्तिपरिणतंगळु । लतादारु अस्थिशैलमुं लतादा+स्थियु लतादारु लताशक्तियुम दिन्तु :
१७
दा
दा
शेषाणां शेषमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिद्वयं पोरगागि घात्यघातिगनितकं प्रत्येकं त्रिविधभावाः खलु त्रिविधशक्तिगळप्पुवुवरोळु घातिगळ्गे नोकषायंगळ्गे :
नो क ८
IN
नो
नो क ८
अनंतरं शेषाघातिगळ्गे पादपरु :
चतुःसंज्वलनाः पुंवेदश्चेति सप्तदश लतादार्वस्थिशैल-लतादार्वस्थि-लतादारु-लतेतिचतुविधभावपरिणता भवन्ति ।
१७
अभ
शेषाणां मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती विना घात्यघातिनां सर्वेषां प्रत्येक त्रिविधा भावाः खलु । तत्र धातिनां
१९
1000
शै
!
१९
।
A
दा ख
नोकषायाणां
नो
८
최 의외
॥१८२॥ शेषाघातिनामाह
.
ल
निद्रा, अनन्तानबन्धी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण ये बारह कषाय इन उन्नीस १. प्रकृतियोंके स्पर्धक सर्वघाती ही होते हैं अतः शैल, अस्थि और दारुका अनन्त बहुभाग रूप
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अवसेसा पयडीओ अघादिया धादियाण पडिमागा।
ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेयव्वा ॥१८३॥ अवशेषा प्रकृतयोऽघातिन्यो धातिनीनां प्रतिभागाः। ता एव पुण्यपापानि शेषा पापानि मंतव्याः ॥
शेषघात्यघातिगळ्गेदु पेळल्पट्ट त्यघातिगळोळु केवलज्ञानावरणादिसर्वघातिगळ्गं ५ नोकषायाष्टकवेशघातिगळगं त्रिविषभावंगळु त्रिविधशक्तिगळ पेळल्पटुवु । शेषाऽघातिप्रकृतिगळु घातिकम्मंगळ्गे पळवंत प्रतिभावंगळप्पुवु प्रतिविकल्पंगळप्पुवु । त्रिविशक्तिगळप्पुबेबुवत्थं । ता एव अवु मत्तमघातिप्रकृतिगळे पुण्यप्रकृतिगळु पापप्रकृतिगळमें वितु द्विविधंगळप्पुवु । शेषाः शेषघातिप्रकृतिगळेनितोळवनितुपापानि पापंगळेयप्पुवु यदितु मंतव्यंगळप्पुवु ।
अनंतरं घातिगळेल्ल लतावास्थिशैलभेदस्पर्धकंगळे यदु पेळ्द अघातिगळ चतुम्वि- १० भागस्पर्धकंगळ्गे नामांतरमं प्रशस्ताप्रशस्तप्रकृतिविभागदिदं पेळ्परु :
गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था हु जिंबकंजीरा ।
विसहालाहलसरिसाऽसत्था हु अघादिपडिभागा॥१८४॥ गुडखंडशक्करामृतसदृशाः शस्ताः खलु निवकांजीर विषहालाहलसदृशाः अशस्ताः खलु अघातिप्रतिभागाः॥
अघातिप्रतिभागाः अधातिप्रतिविकल्पंगळ अघातिशक्तिविकल्पंगळे बुदथमवु पेळल्पट्टपुवेदोडे शस्ताः प्रशस्तप्रकृतिगळ गुडखंडशवर्करामृतसदृशाः गुडमुखंडमुं शक्करेयुममृतमुमें
शेषाः अघातिप्रकृतयः घातिकर्मोक्तप्रतिभागा भवन्ति त्रिविषशक्तयो भवन्तीत्यर्थः। ता अघातिप्रकृतय एवं पुण्यप्रकृतयः पापप्रकृतयश्च भवन्ति, शेषपातिप्रकृतयः सर्वा अपि पापान्येवेति मन्तव्यम् ॥१८३॥ घातिनां सर्वेषां स्पर्धकानि लतादार्वस्थिशैलनामानोत्युक्तानि । इदानीं अघातिनां तानि प्रशस्ताप्रशस्तानां २० नामान्तरेणाह
अघातिनां प्रतिभागाः शक्तिविकल्पाः प्रशस्तानां गुडखण्डशर्करामतसदृशाः खलु स्फुट, अप्रशस्तानां स्पर्धक ही इनमें पाये जाते हैं या शैलके बिना दो प्रकार पाये जाते हैं अथवा अस्थिके बिना एक ही प्रकार पाया जाता है । इस तरह तीनों प्रकार होते हैं। पुरुषवेदके बिना आठ नोकषायोंमें शेल, अस्थि, दारु, लता चारों प्रकारका अनुभाग पाया जाता है। सो उनमें चार- २५ रूप, शेलके बिना तीन रूप और अस्थिके बिना दो रूप पाये जाते है, केवल लतारूप एक ही भाग नहीं पाया जाता ॥१८२॥
शेष अघातिया कर्मोकी प्रकृतियां घातिकमों की तरह प्रतिभागयुक्त होती हैं। अर्थात् उनके स्पर्धक भी तीन भागरूप ही होते हैं। पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृतिका भेद अघातिकर्मों की प्रकृतियोंमें ही है। घतिकमोंकी तो सब प्रकृतियाँ पापरूप ही होती हैं ।।१८३॥ ३०
सब घाति प्रकृतियोंके स्पर्धक लता, दारु, अस्थि और शैल नामसे कहे हैं, अब अघाति कर्मोकी प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंके स्पर्धकोंके अन्य नाम कहते हैं
अघातिकर्मों के प्रतिभाग अर्थात् शक्तिके भाग प्रशस्त प्रकृतियोंमें तो गुड़, खाँड, शर्करा
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२०८
गो० कर्मकाण्डे विवरोळ सदृशाः वोरन्नंगळप्पुवु सामानानुभागस्पद्ध'कंगळप्पुवुवेंधुदत्थं । खलु स्फुटमागि प्रशस्ताः अप्रशस्तप्रकृतिगळु नियकांजीरविषहालाहलसदृशाः बेवं कांजीरमु विषमुहालाहलमुमें विवरोळोरन्नंगळप्पुवु खलु स्फुटमागि। सर्वप्रकृतिगळु १२२ । इवरोळ घातिगळु ४७ अघातिगळ ७५ । यीयघातिगळोळु प्रशस्तंगळु :
। ।४२ । अप्रशस्तंगळु ३३ । अप्रशस्तवर्ण
440
५ चतुष्कमुटप्पुरिंदमदु गूडि ३७ | अप्र ३७
अप्र
अप्र
msut
इन्तु भगवदहत्परमेश्वर • कर्मकांडप्रकृतिसमुत्कोत्तनं अनुभागबंध परिसमाप्तमादुदु ॥ अनंतरं प्रदेशबंधमं त्रयस्त्रिंशत् ३३ गाथासूत्रंगळिवं पेन्दपरु :
निंबकाजीरविषहलाहलसदृशाः खलु स्फुटम् । सर्वप्रकृतयः १२२, तासु घातिन्यः ४७, अघातिन्यः ७५ । एतासु प्रशस्ता: ४२ अप्रशस्ताः ३३, अप्रशस्तवर्णचतुष्कमस्तीति तन्मिलिते ३७ ।
अ ३७
अ ३७
प्र ४२
2A.भम
प्र ४२
प्र ४२
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नि
।
नि १० ॥१८४॥ इत्यनुभागबन्धः समाप्तः । अथ प्रदेशबन्धं त्रयस्त्रिशद्गाथासूत्र राह
और अमृत समान होते हैं। जैसे ये अधिक-अधिक मिष्ठ होनेसे सुखदायक हैं वैसे प्रशस्त प्रकृतिके स्पर्धक भी होते हैं और अप्रशस्त प्रकृतियोंके शक्तिके भाग नीम, कांजीर, विष और हालाहलके समान होते हैं, जैसे नीम आदि अधिक-अधिक कटुक होनेसे दुःखदायक होते हैं वैसे ही अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग भी होता है। सब प्रकृतियाँ एक सौ बाईस १२२ हैं। उनमें सैंतालीस ४७ घातियाँ हैं और ७५ अघातिया है। पचहत्तरमें-से बयालीस ४२ प्रशस्त हैं। तैंतीस अप्रशस्त हैं। उनमें वर्णादि चार अशुभ भी जोड़नेसे सैंतीस होती हैं। सो प्रशस्त प्रकृति तो गुड़, खाण्ड, शर्करा, अमृतरूप या गुड़, खाण्ड, शर्करारूप या गुड़, खाण्डरूप इस तरह तीन रूप परिणत होती हैं। और अप्रशस्त प्रकृति नीम, कांजीर, विष, हालाहल. रूप या नीम, कांजीर विषरूप या नीम कांजीर इस प्रकार तीन रूप परिणत होती हैं ।।१८४॥
अनुभागबन्ध समाप्त हुआ। आगे तेंतीस गाथाओंसे प्रदेशबन्धको कहते हैं
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं ।
दि सदूहिं य अणादियं सादियं उभयं ॥ १८५ ॥
एक क्षेत्रावगाढं सव्वं प्रदेशैः कम्र्म्मणो योग्यं । बध्नाति स्वहेतुभिरनादिसाद्युभयं ॥ सूक्ष्मनिगोदशरघनांगुला संख्यातेकभागजघन्यावगाहक्षेत्रमेक क्षेत्र में बुदक्कुमा क्षेत्रावगाहितमं कर्मस्वरूप परिणमनयोग्यमध्युदननादियं सादियनुभयमं पुद्गलद्रव्यमं जीवं सर्व्वात्मप्रवेशंगलिटं मिथ्यादर्शनादिस्व हेतुर्गाळदं बध्नाति कट्टुगुं ॥
एयसरीरोगाहियमेयखेत्तं अणेयखेत्तं तु । अवसेसलोयखेत्तं खेत्तणुसारिट्ठियं रूवि ॥ १८६॥
एकशरीरावगाहितमेक क्षेत्रमनेकक्षेत्रं तु अवशेषलोकक्षेत्रं क्षेत्रानुसारिस्थितं रूपि ॥ एकशरीरावगाहितं एकशरीरविंदमवष्टंभिसल्पट्टाकाशमेकक्षेत्र बुदु ।
a
२०९
=
गुल संख्या भागमुपलक्षणमवादी ६ अंते = सुद्धे = ६ वढिहिवे रूवसंजुदे ठाणा ।
प
प
a
a
एंक क्षेत्र विकल्पंग मिति ६ विवदमनेक क्षेत्र मुमेक क्षेत्र मक्कुमं बुदत्थं । तु म
प a
अकारणमागि १०
अवशेषलोक्क्षेत्रं एकक्षेत्रशरीरावगाहितमं घनांगुला संख्यातैकभागमं कळेडुळिद लोकाकाशमनितुम
सूक्ष्मनिगोदशरीरं घनाङ्गुलासंख्येयभागं जघन्यावगाहक्षेत्र एकक्षेत्र, तेनावगाहितं कर्मस्वरूपपरिणमनयोग्यं अनादिकं सादिकं उभयं च पुद्गलद्रव्यं जीवः सर्वात्मप्रदेश: मिथ्यादर्शनादिहेतुभिर्बघ्नाति ॥। १८५ ।। एकशरीरेणावष्टब्धाकाशप्रदेशं एकक्षेत्रं तेन घनाङ्गुला संख्यातैकभाग उपलक्षणं ६ तद्विकल्पाः आदी
प
a
६ अंते = सुद्धे = ६ वड्ढि हिदे रूवसंजुदे ठाणा इत्येतावन्तः ६ विवक्षया अनेकक्षेत्रमध्येकक्षेत्र
प
प
प a
a
1
सूक्ष्म निगोदियाका शरीर घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अवगाहनारूप क्षेत्रवाला होता है । उसे एकक्षेत्र कहते हैं । उस एकक्षेत्रमें स्थित जो कर्मरूप परिणमनके योग्य अनादि, सादि और उभयरूप पुद्गल द्रव्य है उसे जीव मिथ्यादर्शन आदिके निमित्तसे अपने सर्व आत्मप्रदेशोंसे बाँधता है || १८५ ।।
एक शरीर की अवगाहनासे रोका गया जो आकाशप्रदेश है वह एक क्षेत्र है । इससे एक क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है। यद्यपि शरीरकी अवगाहमा जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त होती है । उसका आदि भेद तो घनांगुलको पल्यके असंख्यातर्वे भागका
क - २७
१५
२०
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________________
५
२१०
गो० कर्मकाण्डे
कक्षेत्रं अनेक क्षेत्रम बुक्कुमिन्तेक क्षेत्राने कक्षेत्रंगळोळ एकक्षेत्रं ६ अनेकक्षेत्रं =६ क्षेत्रनुसारि
प
प
a
მ
स्थितं तंतम्म क्षेत्रानुसारियागिहूं रूपि सर्व्वपुद् गलद्रव्यं विभागिसल्पट्टोडेकानेक क्षेत्रंगल त्रैराशिक सिद्धं गळिनितिनितप्पु । प्र ।फ १६ ख । इ ६ लब्धमेक क्षेत्रस्थितरूपि
प
.
१६ ख ६ प्र=फ १६ ख । इ६ लब्धमनेक क्षेत्रस्थिररूपि १६ ख६
प
a
२०
旧
१० भवतीत्यर्थः । तु पुनः तेनैकक्षेत्रेण ऊनं अवशेषलोकक्षेत्रं अनेकक्षेत्रं
प
a
रूवि अनंतिमं हवे जोग्गं ।
अवसेसं तु अजोगं सादि अणादी हवे तत्थ || १८७ ||
एकानेक क्षेत्रस्थितरूप्यनंतेक भागो भवेद्योग्यं । अवशेषं त्वयोग्यं साद्यनादि भवेत्तत्र ॥
क
प
მ
a
पुद्गलद्रव्यमेवं सिद्ध्यति तत्र प्र फ १६ ख इ ६ लब्धं एकक्षेत्रस्य द्रव्यं १६ ख ६ प्र ।
KH
प
प a
१६ ख ६ ६ लब्धं अनेकक्षे त्रस्य द्रव्यं १६ ख ६ ।। १८६ ।।
E
प
प a
a
६ तत्तत्क्षेत्रानुसारितया स्थितं रूपि
प
भाग दें, उतना है । अन्तिम भेद समुद्घातकी अपेक्षा लोकप्रमाण है । सो अन्त में से आदिको घटाकर एक मिलानेसे अवगाहनाके समस्त भेद होते हैं । तथापि बहुत जीव घनांगुलके १५ असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाके धारक होने से मुख्यतासे एक क्षेत्रका प्रमाण घनांगुलअसंख्य भाग मात्र कहा है । सो इतने क्षेत्रके बहुत प्रदेश हैं। इससे प्रदेशों की अपेक्षा यही अनेक क्षेत्र है । तथापि विवक्षावश यहाँ इस क्षेत्रको एकक्षेत्र कहा है । और इस क्षेत्रके परिमाणसे हीन शेष लोकाकाशके क्षेत्रको अनेक क्षेत्र कहा है । सो उस-उस क्षेत्र के अनुसार स्थित रूपी पुद्गल द्रव्यका परिमाण इस प्रकार जानना
a
जो समस्त लोक में सर्व पुद्गल द्रव्य पाया जाता है तो एक क्षेत्रमें कितना पुद्गल द्रव्य पाया जाता है। ऐसा त्रैराशिक करना । उसमें प्रमाणराशि समस्त लोक, फलराशि पुद्गलद्रव्यका परिमाण, इच्छाराशि एक क्षेत्रका परिमाण । फलसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाण शिसे भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया उतना एक क्षेत्र सम्बन्धी पुद्गल - द्रव्य जानना । तथा इच्छाराशि अनेक क्षेत्र रखनेपर पूर्वोक्त सब विधान करनेसे जो लब्ध२५ राशिका प्रमाण आवे उतना अनेक क्षेत्र सम्बन्धी पुद्गलद्रव्य जानना || १८६ |
फ
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२११ एकानेकक्षेत्रस्थितरूप्यनंतकभागः भवेद्योग्यं एकक्षेत्रस्थितरूपिद्रव्यानन्तकभागमेकक्षेत्रस्थितयोग्यरूपिद्रव्यमकुं। अनेकक्षेत्रस्थितरूपिद्रव्यानन्तकभागमनेकक्षेत्रस्थितयोग्यरूपिद्रव्यमक्कुं--
एक = यो अनेक = योग्य | १६ ख । ६।१ १६ ख ६।१ = प ख
पख
ई येरडु राशिळिदं होनंगळप्प तंतम्म राशिगळेकानेकक्षेत्रस्थितायोग्यरूपिद्रव्यंगळप्पुवल्लि
एकक्षेत्रस्थितायोग्यरूपि १६ ख ६ ख अनेकक्षेत्रस्थितायोरयरूपि १६ ख ३६ ख तत्र अव= प ख
पख
रोळु एकानेकक्षेत्रस्थितयोग्यायोग्यरूपिद्रव्यंगळोळु प्रत्येकं साविरूपिद्रव्यमें दुमनाविरूपिद्रव्यमेदु ५ द्विविधमप्पुवल्लि साद्यनादियोग्यायोग्यद्रव्यप्रमाणंगळगे उपपत्तियं पेळ्दपरु :
तयोरेकानेकक्षेत्रस्थितरूपिद्रव्ययोरनन्तकभागः स्वस्वयोग्यरूपिद्रव्यं भवति-एक = योग्यं
अनेक = योग्यं
तेन विहीनं स्वस्वावशेषमयोग्यरूपिद्रव्यं भवति । तत्रकक्षेत्रस्य १६ ख ६ व अनेक
=
प
१ ख
0
--
क्षेत्रस्य १६ ख = । ६। ख तेष्वेकानेकक्षेत्रस्थितयोग्यायोग्यरूपिद्रव्येषु प्रत्येक सादिरूपिद्रव्यं अनादि
रूपिद्रव्यं च भवति ॥१८७॥ तत्र साद्यनादियोग्यायोग्यद्रव्यप्रमाणानामुपपत्तिमाह
एक क्षेत्र और अनेकक्षेत्र में स्थित पुद्गलद्रव्यका जितना परिमाण है उसके अनन्तवें भाग तो अपना-अपना योग्य पुद्गलद्रव्य है और शेष अयोग्य पुद्गलद्रव्य हैं। उनमें से एक क्षेत्र सम्बन्धी पुद्गल द्रव्यके परिमाणमें अनन्तसे भाग दें। एक भाग प्रमाण कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गलोंका प्रमाण है । शेष भाग प्रमाण कर्मरूप होनेके अयोग्य पुद्गलोंका प्रमाण है । इस प्रकार चार भेद हुए-एक क्षेत्रमें स्थित योग्य द्रव्य, एक क्षेत्रमें स्थित अयोग्य द्रव्य, १५ अनेक क्षेत्रस्थित योग्यद्रव्य, अनेक क्षेत्र स्थित अयोग्य द्रव्य । एक-एक भेदमें भी सादि द्रव्य और अनादि द्रव्य जानना । जो अतीतकालमें जीवके द्वारा ग्रहण किया गया वह सादिद्रव्य है। और जो अनादिकालसे जीवके द्वारा ग्रहण नहीं किया गया वह पुद्गलद्रव्य अनादिद्रव्य जानना ॥१८७।।
आगे इनका प्रमाण जानने के लिए कथन करते हैं
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२१२
गो० कर्मकाण्डे जेठे समयपबद्धे अदीदकालाहदेण सव्वेण ।
जीवेण हदे सव्वं सादी होदित्ति णिदिळें ॥१८८।। जेठे समयप्रबद्ध अतीतकालाहतेन सर्वेण । जीवेन हते सर्व सादी भवतीति निद्दिष्टं ॥
उत्कृष्टयोगाज्जितोत्कृष्टसमयप्रबद्धमनतोतकालदिदं गुणिसल्पटु सर्वजीवराशियिद ५ गुणिसुत्तं विरलु सर्वजीवसंबंधि सादिद्रव्यमक्कु दु श्रीवीतरागसद्धि पेळल्पट्ट परमागमदोळु पेळल्पटुदल्लि त्रैराशिकंगळमाडल्पडुवुवदे ते दोडे एकसमयदोळुत्कृष्टसमयप्रबद्धद्रव्यं स्वीकृतमागुतं विरलु संख्यातावलिगुणितसिद्धराशिप्रमितमप्प अतीतकालसमयंगळ्गेनितु द्रव्यमक्कुम दितु त्रैराशिकम माडिदोडे प्र । स १ । फ स ३२ इ। अ। बंद लब्धमकजीवसंबंधि सादिद्रव्यमक्कु ।
स ३२ । अ । मदं सर्वजीवराशियिदं गुणिसिदोर्ड त्रैराशिकसिद्ध । प्र १ । जी १ । फ स ३२ । अ । १० । इ। जी १६ । लब्धप्रमितं सर्वजीवसंबंधि सादिद्रव्यमक्कुं । स ३२ । अ १६ ॥
अनन्तरमेकानेकक्षेत्रस्थितकम्मयोग्यायोग्यद्रव्यंगळोळिरुत्तिई योग्यायोग्यसादिद्रव्यप्रमाणमं पेदपरु :
सगसगखेत्तगयस्स य अणंतिम जोग्गदव्यगयसादी।
सेसं अजोग्गसंगयसादी होदित्ति णिद्दिढें ॥१८९॥ स्वस्वक्षेत्रगतस्य चानंतैकभागो योग्यद्रव्यगतसादि । शेषमयोग्यसंगतसादि भवतीति निद्दिष्टं ॥
___ उत्कृष्टयोगाजितोत्कृष्टसमयप्रबद्धे अतीतकालगुणितसर्वजीवराशिना गुणिते सति सर्वजीवसंबन्धि सादिद्रव्यं भवति । तत्रैकसमये यद्युत्कृष्टसमयप्रबद्धद्रव्यं गृह्णाति तदा संख्यातावलिहतसिद्धराशिमात्रातीतकाले कियदिति प्र-स १ फ-स ३२ इ अ, लब्धमेकजीवसंबन्धि सादिद्रव्यं भवति । स ३२ अ । इदं पुनः सर्वजीवराशिना गुणितं सर्वजीवसंबन्धि भवतीति जिननिर्दिष्टं स ३२ अ १६ ॥१८८॥ अथकानेकक्षेत्रस्थितकर्मयोग्यायोग्यद्रव्येष स्थितयोग्यायोग्यसादिद्रव्यप्रमाणमाह
२०
- उत्कृष्ट योगके द्वारा उपाजित उत्कृष्ट समयप्रबद्धको अतीतकालसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसको सर्व जीवराशिके प्रमाणसे गुणा करनेपर सर्वजीव सम्बन्धी सादिद्रव्यका
प्रमाण होता है। संख्यात आवलीसे सिद्धराशिको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना २५ अतीतकाल के समयोंका प्रमाण है । यदि एक समयमें उत्कृष्ट समयप्रबद्ध प्रमाण पुद्गलद्रव्य
का ग्रहण होता है तो अतीतकालके समयोंमें कितने पुद्गलद्रव्यका ग्रहण हुआ ऐसा त्रैराशिक करो। सो प्रमाणराशि एक समय, फलराशि उत्कृष्ट समयप्रबद्धं, इच्छाराशि अतीतकालके समय । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो उतना सर्वजीव
सम्बन्धी सादि पुद्गलद्रव्य जानना। इस प्रमाणको समस्त पुद्गलराशिके प्रमाणमें-से १० घटानेपर जो प्रमाण शेष रहे उतना अनादि पुद्गलद्रव्य जानना ।।१८८।।
आगे पूर्वोक्त भेदोंमें सादि द्रव्यका प्रमाण कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२१३ स्वस्वक्षेत्रगतस्य एकानेकक्षेत्रस्थितद्रव्यद तंतम्म कर्मयोग्यद्रव्यद अनंतकभागः जीवन दृष्टानंतभागहारदिदं खंडितैकखंडं तंतम्म योग्यद्रव्यस्थितसादिद्रव्यमक्षं। शेषं तंतम्म अयोग्यसंगतसादि द्रव्यमक्कु| एकक्षेत्रसम्वद्रव्यं एकक्षेत्रसादि
अनेकक्षेत्रद्रव्यं। १६ ख ६
स३२ । अ१६।६।१ १६ ख । ६
2
प
। यो द्र १६ ख६ ख
यो% द्रव्य १६ ख ६।१ योग्यसादिक पख
अयो द्र १६ ख प
= a
ख ख
द्रव्य स ३२ अ६ ख १
। स ३२अ१६प ख
ख अयोग्यानादि
यो स ३२ अ १६=पख
a योग्यानादि
योग्यानाविद्रव्यं
१६ख।६।ख
१६ ख ६। ख
१६ ख=६
ख
- १/स३२ अ स ३२ अ१६।५।ख ।
१६।
ख
प
a६ -- स३२ अ१६प ख
a
-
| अनेकक्षेत्र सादि
६
सर्वक्षेत्र
स ३२ अ १६प
सर्वद्रव्य १६ ख
अयो १६ ख=६ ख
एकक्षेत्र
अनेकक्षेत्र
प
अयो।सास ३२ अ १६=
= पख
अयोग्यानादि
६.१६ ख= प ख
समस्त सादिद्रव्यं स ३२ अ१६ समस्त अनादिद्रव्यं
स ३२ अ १६ )
स३२ अ१६=-पख
एकानेकक्षेत्रस्थितसादिंद्रव्यस्य जिनदृष्टानन्तभक्तकभागः स्वस्वयोग्यतव्यस्थितसादिद्रव्यं भवति शेष एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्रमें स्थित सादिद्रव्यमें जिनदेवके द्वारा देखे गये अनन्तसे ५
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२१४
गो० कर्मकाण्डे में दितु परमागमदोळ प्रणोतमादुददे ते दोडे इल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुं । घनलोकसर्वप्रदेशंगळोळु सर्वजीवसंबंधि सादिद्रव्यमिनितिरुत्तं विरलागळेकजीवावगाहित धनांगुलासंख्यातेकभागमात्रक्षेत्रदोळं घनांगुलासंख्यातेकभागोनलोकमात्रानेकक्षेत्रदोळमेनितु साविद्रव्यमिक्कुम दितु त्रैराशिकंगळं माडिदोडे । प्रफ स ३२ । अ १६ । इ ६ प्र=फ स ३२ । अ १६ ।
५ इ।= ६ लब्धंगळेकानेकक्षेत्रस्थित सादिद्रव्यंगळप्रमाणंगळप्पुवु । एक क्षेसाद -
स ३२। अ१६।६
urbo
अनेकक्षेत्रसादि = ई एकानेकक्षेत्रगत साविद्रव्यं गळ अनंतकभागंगळु योग्यसाविद्रव्यंगळप्पुवुस ३२। अ१६६
स्वस्वायोग्यसंगत सादिद्रव्यं भवतीति प्रणीतम् । यदि धनलोकसर्वप्रदेशेषु सर्वजीवसंबन्धिसादिद्रव्यं एतावत् तदा एकजीवावगाहितघनाङ्गुलासंख्यातकभागमात्रकक्षेत्रे घनाङ्गलासंख्यातकभागोनलोकमात्रानेकक्षेत्रे च कियत् स्यात् ? इति त्रैराशिके कृते प्र-=, फ स ३२ अ १६, इ ६ । प्र=, फस ३२ अ १६, इ. ६
तयोर्द्रव्ययोरनन्तक
१. लब्धं एकानेकक्षेत्रस्थितसादिद्रव्यं भवति एकक्षेत्रसादि
स ३२ अ १६ ६
अनेकक्षेत्रसादि- स ३२ अ १६=६
प
भागौ योग्यसादिद्रव्ये भवतः
एकक्षेत्रयोग्यसादि -
अनेकक्षेत्रयोग्यसादि - स ३२ अ १६ । ६ स ३२ अ १६ । = ६
प १ a ख
a ख शेषो अनन्तबहुभागौ एकानेकक्षेत्रगतायोग्यसादिद्रव्ये भवतः ॥१८९॥ भाग देनेपर एक भाग प्रमाण तो अपना-अपना योग्य मादिद्रव्य है, शेष अयोग्य सादिद्रव्य है ऐसा कहा है। वही कहते हैं
जो सर्वलोकके प्रदेशोंमें सर्वजीव सम्बन्धी सादिद्रव्य पूर्वोक्त प्रमाण पाया जाता है तो एक जीवकी अवगाहनारूप घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण एक क्षेत्र में और एक क्षेत्रके परिमाणसे हीन लोक प्रमाण अनेक क्षेत्रमें कितना पाया जायेगा। इस प्रकार दो त्रैराशिकमें-से एकमें प्रमाणराशि सर्वलोक, फलराशि सादिद्रव्यका प्रमाण, इच्छाराशि एक क्षेत्र ।
सो फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया उतना २० एक क्षेत्र सम्बन्धी सादिद्रव्य जानना । दूसरेमें, प्रमाण सर्वलोक, फल सादिद्रव्यका प्रमाण,
इच्छा अनेक क्षेत्र । फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्धराशिका प्रमाण आया, उतना अनेक क्षेत्र सम्बन्धी सादि द्रव्य जानना । एक क्षेत्र सम्बन्धी सादिद्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण एक क्षेत्र सम्बन्धी कर्मरूप होनेके योग्य सादिद्रव्य
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एक क्षेत्र योग्यसादि
स ३२ अ १६ । ६ १
星
प ख
a
कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मेकानेक क्षेत्रगताऽयोग्यसादिद्रव्यंगळवु
अनेक क्षेत्र योग्यसादि
स ३२ अ १६ ६ ख
E
स ३२ अ १६ ६
a
एक क्षेत्र योग्यसादि
स ३२ अ १६ । ६ ख
क
प ख
a
शेषानंतबहुभाग
अनेकक्षेत्रायोग्यसादि
अनंतर मेकानेक क्षेत्रस्थितयोग्यायोग्यअनादिद्रव्यप्रमाणंगळं पेळदपरु :सगसगसादिविहीणे जोग्गाजोग्गे य होदि नियमेण । जोग्गाजोग्गाणं पुण अणादिदव्वाण परिमाणं ॥ १९० ॥
स्वस्वसादिविहोने योग्यायोग्ये च भवति नियमेन । योग्यायोग्यानां पुनरनादिद्रव्याणां
परिमाणं ॥
एकानेकक्षेत्रगतयोग्यायोग्य द्रव्यं गळोळु यथाक्रमविदं कळेयुत्तिरलु एकानेकक्षेत्रस्थित योग्यायोग्यद्रव्यंगळ अनादिद्रव्यपरिमाणंगळप्पुवु :
--
एक क्षेत्रायोग्यसादि
목
स ३२ । अ १६३६ ख
解
पख
a
२१५
स्वस्वयोग्यायोग्य सा विद्रव्यंगळं
अनेक क्षेत्रायोग्यसादि
P
ख
प ख
Ә
अथेकानेक क्षेत्रस्थितयोग्यायोग्यानादि द्रव्यप्रमाणान्याह -
एका क्षेत्रगत योग्यायोग्यद्रव्येषु यथाक्रमं स्वस्वयोग्यायोग्यसादिद्रव्येष्वपनीतेषु एकानेकक्षेत्रस्थित
113
स ३२ अ १६६ ख
प ख
a
जानना । शेष बहुभाग प्रमाण एक क्षेत्र सम्बन्धी अयोग्य सादि द्रव्य जानना । इसी प्रकार अनेक क्षेत्र सम्बन्धी सादि द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण अनेक क्षेत्रमें स्थित योग्य सादिद्रव्य जानना, शेष बहुभाग प्रमाण अनेक क्षेत्रमें स्थित अयोग्य सादि द्रव्य जानना ॥ १८९ ॥
आगे अनादिद्रव्यका प्रमाण कहते हैं
एकक्षेत्र में स्थित योग्यद्रव्य और अयोग्यद्रव्य तथा अनेकक्षेत्रमें स्थित योग्यं द्रव्य और अयोग्यद्रव्यका जो परिमाण कहा है उनमें से अपने-अपने सादिद्रव्यका परिमाण घटानेपर जो शेष प्रमाण रहे उतना उतना क्रमसे एकक्षेत्रस्थित योग्य अनादि द्रव्यका और एक क्षेत्रस्थित अयोग्य अनादि द्रव्यका तथा अनेक क्षेत्रस्थित योग्य अनादि द्रव्यका और अनेक क्षेत्र स्थित अयोग्य अनादि द्रव्यका प्रमाण होता है । इनमें से योग्य सादिद्रव्यसे अथवा योग्य अनादिद्रव्यसे अथवा योग्य उभय द्रव्यसे एक समयप्रबद्ध प्रमाण मूलप्रकृति और उत्तरोत्तर प्रकृतिरूपसे प्रतिसमय प्रदेशबन्ध करता है । इसका भावार्थ यह है कि जीव मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे प्रतिसमय कर्मरूप होनेके योग्य समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणुओंको ग्रहण करके उन्हें
५
१०
१५
२०
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२१६
गो० कर्मकाण्डे
उक्त समुदायरचना एक क्षे० यो० अनादि अनेक क्षेत्र यो० अनादि
१६ ख ३६।
स ३२ अ१६।६
स ३२ अ १६६
प
ख
एक क्षे० अयो० अनादि० | अनेक क्षे० अयो० अ०
| १६ ख । ६ ख
१६ ख ।
=
६-ख
स ३२ । अ १६ ६ ख
प ख
स ३२ । अ १६ ६ ख
अनंतरमी पेळल्पट्ट योग्यसाविद्रव्यमं मेणु योग्यानादिद्रव्यमं मेणुभयद्रव्यमुमं मेणु कर्मपरिणमनयोग्यकार्मणवर्गणास्कंधगळनेकसमयप्रबद्धप्रमितमं मूलोत्तरोत्तरोत्तरप्रकृतिरूपदिवं प्रतिसमयं प्रदेशबंधमं माळकमा समयप्रबद्धप्रमाणमिनितद पेवपरु:
योग्यायोग्यद्रव्याणां अनादिद्रव्यप्रमाणानि भवन्ति, तस्माद्योग्यसादिद्रव्याद् वा योग्यानादिद्रव्याद् वा. योग्योभय५ द्रव्याद् वा एकसमयप्रबद्धप्रमितं मूलोत्तरोत्तरप्रकृतिरूपेण प्रतिसमयं प्रदेशबन्धं करोति । एकक्षेत्र यो = अनादि
अनेकक्षेत्रयोग्य अनादि
= खप
स ३२ अ १६ । = ६१
स ३२ अ १६ । ६१
पख
पख
एकक्षेत्र अयो = अनादि
अनेकक्षेत्र अयो-अनादि
१६ ख ६ । ख
प
ख
स ३२ अ १६ । ६ ख
स ३२ अ १६ । : ६ ख प्रखं
a ॥१९॥ कमरूप परिणमाता है । सो किसी समय तो जीवके द्वारा पूर्व में ग्रहणमें आये सादिद्रव्यरूप परमाणुओंको ही ग्रहण करता है, किसी समय किसी भी जीवके द्वारा पूर्वमें ग्रहण न किये
.
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२१७
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका सयलरसरूवगंधेहिं परिणदं चरिम चदुहिं फासेहिं ।
सिद्धादो अभव्वादो अणंतिमभागं गुणं दव्वं ॥१९१॥ सकलरसरूपगंधैः परिणतं चरमचतुभिः स्पर्शः। सिद्धादभव्यादनंतैकभागो गुणं द्रव्यं ।।
सर्वरससर्वरूपसर्वगंधंगळिंदमुं चरमशीतोष्णस्निग्धरूक्षचतुःस्पशंगळिवमुं परिणतमप्पुर्द सिद्धराशियं नोडलुमनंतैकभागमुमप्पुदु । मभव्यराशियं नोडलुमनन्तगुणमुमप्पुदु । मितप्प समय- ५ प्रबद्धद्रव्यं मूलप्रकृतिगळोळेतु पंसल्पडुगुम दोडे पेळ्दपरु :--
आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो।
घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिए ॥१९२।। आयुर्भागः स्तोकः नामगोत्रयोः समस्ततोऽधिकः । घातित्रयेऽपि च ततो मोहे ततस्तृतीये ॥
आयुर्भागः आयुष्यकर्मद भागं स्तोकः एल्लवर भागमं नोडलु किरिदक्कु । ततः आ १० आयुर्भागमं नोडलं नामगोत्रयोः नामगोत्रंगळोळ अधिकः अधिकमक्कुमदुवु समः तम्मोळु समनागि पसल्पडुगुं। ततः आ नामगोत्रद्वयद भागमं नोडलु घातित्रये अन्तराय दर्शनावरणज्ञानावरणत्रयदोळु अधिकः अधिकमक्कु । मदु समः तम्मोळु समनागि पसल्पडुगुं। ततः आ घातित्रयद भागमं नोडलं मोहे मोहनीयकमंदोळ अधिकः अधिकमक्कुं। ततः आ मोहनीयव भागमं नोडलु
तत्प्रमाणमाह
१५ सर्वरसरूपगन्धेश्चरमशीतोष्णस्निग्धरूक्षचतुःस्पर्शश्च परिणतं सिद्धराश्यनन्तकभागं अभव्यराश्यनन्तगुणं समयप्रबद्धद्रव्यं भवति ॥१९१॥ तन्मूलप्रकृतिषु कथं विभज्यते ? इति चेदाह
आयुःकर्मणो भागः स्तोकः । नामगोत्रयोः परस्परं समानोऽपि ततोऽधिकः । अंतरायदर्शनज्ञानावरणेषु गये अनादि द्रव्यरूप परमाणुओंको ग्रहण करता है । और किसी समय कुछ सादि द्रव्यरूप और कुछ अनादिद्रव्यरूप परमाणुओंको ग्रहण करता है ।।१९०।।
आगे उस समयप्रबद्धका प्रमाण कहते हैं
वह समयप्रबद्धरूप परमाणुओंका समूह सब रस, सब रूप, सब गन्ध किन्तु शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष चार प्रकारके स्पर्शसे युक्त होता है। उसमें गुरु, लघु, मृदु और कठिन ये चार स्पर्श नहीं होते। तथा उस समयप्रबद्ध में सिद्धराशिके अनन्तवें भाग और अभव्यराशिसे अनन्तगुणे परमाणु होते हैं । इतने परमाणुओंको प्रतिसमय ग्रहण करके कर्मरूप परिण- २५ माता है अर्थात् जीवके भावोंका निमित्त पाकर इतने परमाणु प्रतिसमय स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं ॥१९॥
उस समयप्रबद्धका विभाजन मूल प्रकृतियोंमें किस प्रकारसे होता है यह कहते हैं
सब मूल प्रकृतियोंमें आयुकमका भाग थोड़ा है । नाम और गोत्रकर्मका भाग परस्परमें समान होते हुए भी आयुकर्मके भागसे अधिक है। अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शना-.. वरणका भाग परस्परमें समान है तथापि नाम और गोत्रके भागसे अधिक है। उससे ।
१. हच्चल्पडुगु ।
क-२८
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२१८
गो० कर्मकाण्डे ततीये वेदनीयदोलु अधिकः अधिकमक्कु । मिन्तु पसल्पडुत्तिरलु मिथ्यादृष्टियोळु नरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुर्भेददिदं चतुविधमकुं। ___सासादननोळ तिर्यग्मनुष्यदेवायुब्र्भेददिदं त्रिविधमकुं। असंयतनोळ मनुष्यदेवायुन्थ्रददिदं द्विविधमक्कं । देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्सरोज देवायुष्यभेददिनेकविधयक्कु । मायुबंधरहितपेयिंदम५ निवृत्तिकरणपथ्यंत ९ गुणस्थानंगळोळु सप्तविधमूलप्रकृतिप्रदेशबंधमक्कु । सूक्ष्मसांपरायनोळु ६ षड्विधमूल प्रकृतिगळगे प्रदेशबंधमकुमुपशांतादिसयोगकेवलिपर्यतमेकमूलप्रकृतिगे सर्वसमयप्रबद्रव्यमुदयात्मकप्रदेशबंधमक्कु। | वेद स ८मो स८णा स १८ द स ८ अन्तराय स ०८ गो स ८ ना स ८ । आस ८
८।९ ८१९८९ ८९| ८९ । ८९ ८९८९ स ८ स ८ स ८ स ८ स ८ - स ८ स ८ स १ ९९ २९५ ९९९९।३ ९९९९।३ ९९९९।३ , ९९९९९।२ ९९९९९।२ ९९९९९ अनंतरं वेदनोधक्क सर्शतोधिकमम्पुदक्के कारणमं पेन्दपर :--
सुहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स ।
सव्वेहितो बहुगं दव्वं होदित्ति णिदिळं ॥१९३।। सुखदुःखनिमित्तात् बहुनिजरेति वेदनीयस्य । सर्वतो बहुकं द्रव्यं भवतीति निद्दिष्टं ॥
वेदनीयस्य वेदनीयक्के सुखदुःखनिमित्तात् सुखदुःखकारणदिदं बहुनिजरेति बहुनि रेयुटेदिन्तु सर्वतः सर्वप्रकृतिगळ भागेय द्रव्यमं नोडलं बहुकं द्रव्यं पिरिदुं द्रव्यं भवतीति निद्दिष्टं
तथा समानोऽपि ततोऽधिकः । ततो मोहनीयेऽधिकः ततो वेदनीयेऽवकः । एवं भक्त्वा दत्ते सति मिथ्यादृष्टी १५
आयुश्चतुर्विधम् । सासादने नारकं नेति त्रिविधम् । असंयते तैरश्चमपि नेति द्विविधम् । देशसंयतादित्रये एक देवायुरेव । उपर्यनिवृत्तिकरणांतेषु सप्तविधमूलप्रकृतीनां प्रदेशबन्धः सूक्ष्मसापराये षण्णां उपशांतादित्रये एकाया उदयात्मिकायाः ॥१९२॥ अथ वेदनीयस्य सर्वत आधिक्य कारणमाह
वेदनीयस्य सुखदुःखनिमित्तत्वात् बहुकं निर्जरयति इति हेतोः सर्वप्रकृतिभागद्रव्यात् बहुकं द्रव्यं भवमोहनीयका भाग अधिक है। मोहनीयसे वेदनीयका भाग अधिक है। सो मिथ्यादृष्टि गुण२० स्थानमें चारों आयुका बन्ध सम्भव है । सासादनमें नरकायुके बिना तीन आयुका बन्ध होता
है । असंयतमें नरक और तियचके बिना दो आयुका बन्ध होता है। देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें एक देवायुका ही बन्ध होता है। ऊपर अनिवृत्तिकरण पर्यन्त आयुके बिना सात ही कर्मों का प्रदेशबन्ध होता है। सूक्ष्म साम्परायमें आयु और मोहनीयके बिना छह कर्मों का बन्ध होता है । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीमें एक वेदनीयका बन्ध होता है जो उदयरूप ही है। जहाँ जितने कोका बन्ध होता है वहाँ समयप्रबद्ध में उतने ही कर्मोंका बँटवारा होता है ।।१९२।।
आगे वेदनीय कर्मका सबसे अधिक भाग होनेका कारण कहते हैं
वेदनीय कर्म सुख और दुःख में निमित्त होता है। इससे उसकी निर्जरा बहुत होती १. ब षु मूलप्रकृतयः सप्त, सूक्ष्मसांपराये षट् । उपशान्तादित्रये एका उदयात्मिका ।
.
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२१९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अक्कुम दितु परमागमदोळु पेळल्पटुदु ॥ अनन्तर शेषप्रकृतिगळ्गे स्थित्यनुसारिद्रव्यविभंजनमक्कुमदु पेळ्दपरु :
सेसाणं पयडीणं ठिदिअणुभागेण होदि दव्वं तु ।
आवलिअसंखभागो पडिभागो होदि णियमेण ॥१९४।। शेषाणां प्रकृतीनां स्थितिप्रतिभागेन भवति द्रव्यं तु । आवल्यसंख्य भागः प्रतिभागो भवति ५ नियमेन ॥
शेषमूलप्रकृतिगळगेल्लं स्थितिप्रतिभागदिदं द्रव्यमक्कुं। तु मते। अधिकागमननिमित्तमागि। प्रतिभागं प्रतिभागहारं। आवल्यसंख्यभागः आवल्यसंख्यातकभागमेयककुं। नियमेन नियमदिदं । भागहारान्तरनिर्वृत्यर्यमागि नियमवचनमा भागहारक्क नवांक संदृष्टियक्कुं९॥ ई आवल्यसंख्यातदिदं भागिसि पसुगेयं माळ्प क्रममं पेळ्दपरु :
बहुभागे समभागो अट्ठण्हं होदि एक्कभागम्हि ।
उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देयो दु ॥१९५॥ बहुभागे समभागोऽष्टानां भवत्येकभागे। उक्तक्रमस्तत्रापि बहुभागो बहुकस्य देयस्तु॥
तीति परमागमे निर्दिष्टम् ॥१९३॥ अथ शेषाणां स्थित्यनुसारिद्रव्यविभजनमित्याह
शेषसर्वमूलप्रकृतीनां स्थितिप्रतिभागेन द्रव्यं भवति । तु-पुनः तत्राधिकागमननिमित्तं प्रतिभागहारः १५ आवल्यसंख्येयभागो नियमेन । भागहारान्तरनिवृत्त्यर्थं नियमवचनम् । तत्संदृष्टिनवाङ्कः ९ ॥१९४॥ अनेन विभागक्रमं दर्शयति
है । अतः अन्य सब मूल प्रकृतियोंके भागरूप द्रव्यसे वेदनीयका द्रव्य बहुत है, ऐसा परमागममें कहा है ॥१९॥
शेष कोके द्रव्यका विभाग उनकी स्थितिके अनुसार होता है, यह कहते हैं- २०
वेदनीयके बिना शेष सब मूल प्रकृतियोंका द्रव्य स्थिति के प्रतिभागके अनुसार होता है अर्थात् जिस कर्मकी स्थिति बहुत है उसका द्रव्य अधिक है। जिनकी स्थिति परस्परमें समान है उनका द्रव्य परस्पर में समान जानना। जिसकी स्थिति कम है उसका द्रव्य थोड़ा है। अधिक भाग लानेके लिए प्रतिभागहार आवलीका असंख्यातवाँ भाग नियमसे होता है। 'नियम' पद इसलिए दिया है कि अन्य भागहार नहीं होता। उसकी संदृष्टि 'नौ'का अंक है। २५ इसका भाग देनेपर जो लब्ध आवे सो एक भाग जानना । और एक भागके बिना शेष सब भागको बहुभाग जानना ॥१९४॥
आगे विभागका क्रम कहते हैं
१. ब सारदें।
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________________
५
१०
गो० कर्मकाण्डे
ज्ञानावरणाद्यष्टविधमूलप्रकृतिगळगेल्लं बहुभागवोळ समभागमक्कुं । एक्कभागम्मि शेषैकभागवोळ उक्तक्रमः पूर्वोक्तक्रम मक्कुमल्लि तु मत्ते । बहुभागः बहुभागं । बहुकस्य देयः पिरिदप्पुath drमक्कुम ते बोडे सिद्धराशियं नोडलुमनंतैकभागमुमभव्यराशियं नोडलुमनंतगुणमुमप्प काम्मंणसमयप्रबद्धद्रव्यमनिद । स । पूर्वोक्तावल्यसंख्या तक भागमात्रप्रतिभागहादिदं भागिसि बहुभागमं स ० ८ आयुब्बंधकालदोळु मूलप्रकृतिगळे टक्कै मेल्लमिनितु द्रव्यमागलों दु प्रकृतिनितु
९
२२०
९
द्रव्यमक्कु त्रैराशिकमं माडि बंदलब्धमन टेडेयोळं प्रत्येकमिरिति शेषैकभागमनिदं स ० १ मत्तमावल्यसंख्यातैकभार्गादिदं भागिसि बहु भागमनिदं स ८ बहुकस्य देयमेंदु वेदनीयके कोट्टु शेषैकभागमं स ० १ मत्तमावल्यसंख्यातदिदं भागिसि बहुभागमनिदं स ८ मोहनीयक्के कोट्टु
९९
९९
९९९
९९९
९९९९
शेषेक भागमं स ०१ मत्तमावल्यसंख्यातैकभागदिदं भागिसि बहुभागमं स ०८ ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय घातित्रयक्कं' कोट्टदं मूररिदं भागिति समनादुदं स ०८ प्रत्येकं मूरडेयोळ कोट्टु शेषैकभागमं स ० १ पूर्वोक्तावल्य संख्यातदिदं भागिति बहुभागमनिदं स ८ नामगोत्र
९९९९/३
९९९९
९९९९९
मूलप्रकृतीनामष्टानां बहुभागे समभागो देयः । तत्रैकभागे उक्तक्रमो भवति । तत्र तु पुनः बहुभागः बहुकस्यं देयः । तद्यथा - कार्मणसमयप्रबद्धद्रव्यमिदं स तत् आवल्यसंख्यातेन भक्त्वा बहुभागः स ८ अष्टभिर्भक्त्वा स ८ अष्टसु स्थानेषु प्रत्येकं स्थाप्यः, शेषैकभागे स ० १ आवल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः
९
९.८
९
१५
स ८ बहुकस्य वेदनीयस्य देयः । शेषैकभागे स १ पुनरावल्यसंख्यात भक्तबहुभागः मोहनीयस्य देयः
९९
९९
८ शेषैकभागे स १ पुनरावल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः स ८ त्रिभिर्भक्त्वा स ८ ९९९
९९९
९९९९
९९९९३
आठ मूल प्रकृतियोंको बहुभाग तो बराबर-बराबर समान देना चाहिए। जो एक भाग रहा उसको उक्त क्रमसे देना । किन्तु उसमें भी जिसका बहुत द्रव्य हो उसको बहुभाग देना चाहिए। वही कहते हैं
२०
एक समय में जो कार्माण सम्बन्धी समयप्रबद्ध ग्रहण किया, उसके परमाणुओंका जी प्रमाण है उसे कार्मण समयप्रबद्ध द्रव्य कहते हैं। उसमें आवलीके असंख्यातवें भाग 'एक मांगको पृथक रखकर बहुभागके आठ समान भाग करें। भाग देवें । और एक-एक समान भाग आठ स्थानोंमें अलग-अलग रखें। और जो एक भाग अलग रखा है उसमें भी आवली के असंख्यातवें भागसे भाग देवें । तथा एक भागको अलग रखकर शेष बहुभाग २५ जिसका बहुत द्रव्य कहा है उस वेदनीय कर्मको देवें । सो पूर्वोक्त आठ समान भागों में से १. मक्कं मू ।
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९९९९९/२
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२२१ द्वयक्क कोट्टुदनरडरिदं भागिसि समानादुदं स ० ८ प्रत्येकमेरडेडयोळं कोट्टु शेषेकभागमनिदं स०१ आयुष्यक्के कोडुबुरिन्तु कुडुत्तं विरलु वेदनीयं पोरगागि शेषप्रकृतिगळणे तंतम्म स्थित्यनु९९९९९ सारियागि ब्रव्यंगळायुष्यकमक्के सर्वतः स्तोकमक्कुं। नामगोत्रंगळोळधिकमागियुं तंतम्मोलु सरियक। मन्तरायदर्शनावरणज्ञानावरणत्रयधिकमागियुं तम्मोळु सरियक्कं । मोहनीयदोळु अधिकमक्कुं। वेदनीयदोळमधिकमक्कुमदु मुंपेन्द मूलप्रकृतिगळ पसुगेय द्रव्यंगळु सिद्धमादुवु ॥ ५
अनंतरं ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिगळ्गे पेळ्द पिंडद्रव्यमं तंतम्मुत्तरप्रकृतिगळोळु विभागिसि कुडुवे प्रकारमं पेळ्दपर :
ज्ञानदर्शनावरणांतरायेषु प्रत्येक देयः। शेषकभागे स . १ पुनरावल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः द्वाभ्यां
भक्त्वा स
८
प्रत्येकं नामगोत्रयोर्देयः । शेषकभागं स ० १
आयुषि दद्यात् । एवं दत्ते
आउगभागो थोवो इति गायोक्तक्रमः सिद्धः ॥१९५।। अथ मलप्रकृतीनां उक्तपिण्डद्रव्यं स्वस्योत्तरप्रकृतिषु १० भक्त्वा दानक्रममाह
एक समान भागमें उस बहुभागको मिलानेसे जितना प्रमाण हो उतने परमाणु उस समयप्रबद्ध में-से वेदनीय कर्मरूप परिणमते हैं । अब जो एक भाग रहा उसमें भी आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दें! और एक भागको अलग रख शेष बहुभाग मोहनीय कर्मको देवें। इस बहुभागको भी आठ समान भागोंमें से एक भागमें मिलानेपर जो १५ प्रमाण हो उतने परमाणु मोहनीय कर्मरूप परिणमते हैं। अलग रखे एक भागमें भी आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दें और एक भागको अलग रख शेष बहुभागके तीन समान भाग करें। और एक-एक भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको देखें। इस एक-एक भागको आठ समान भागों में एक-एक भागमें मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने उतने परमाणु क्रमसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मरूप परिणमते हैं। इन २० तीनोंका द्रव्य परस्परमें समान होता है। अलग रखे एक भागमें भी आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दे। एक भागको अलग रख बहुभागके दो समान भाग करके एक-एक भाग नाम और गोत्रको दें । और उन आठ भागोंमें-से एक-एक समान भागमें इस एक-एक भागको मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने-उतने परमाणु क्रमसे नाम और गोत्ररूप परिणमते हैं। इन दोनोंका द्रव्य परस्पर समान होता है । एक भाग जो रहा वह आयु कमको देवे और २५ उन आठ समान भागों में से शेष रहे एक भागमें मिला दें। जो प्रमाण हो उतने परमाणु आयुकर्मरूप परिणमते हैं। इस प्रकार जो 'आउगभागो थोवो' आदि गाथामें कहा था वह निष्पन्न हुआ ।।१९५।।
___ आगे मूल प्रकृतियोंमें जो ऊपर पिण्डद्रव्य कहा है उसे अपनी-अपनी उत्तर प्रकृतियोंमें विभाजित करके देनेका क्रम कहते हैं
१. क°व क्रममं ।
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२२२
गो० कर्मकाण्डे उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा ।
अहियकमा पुण णामा विग्धा य ण भंजणं सेसे ॥१९६॥ उत्तरप्रकृतिषु पुनर्मोहावरणानि भवन्ति होनक्रमाः। अधिकक्रमाः पुनर्नामानि विघ्नाश्च न भंजनं शेषे॥
उत्तरप्रकृतिगळोल पुनः मत्त मोहावरणानि मोहनीयंगळं ज्ञानावरणंगळु दर्शनावरणंगळं हीनक्रमा भवंति हीनक्रमंगळप्पुवु । पुनः मत्ते नामकर्मप्रकृतिगळु मन्तरायकर्मप्रकृतिगळं अधिकक्रमा भवंति अधिकक्रमंगळप्पुवु। शेषवेदनीयगोत्रायुष्यंगळोळु द्रव्यविभंजनमिल्लेके दोडे तत्प्रकृतिगळं बंधकालदोळे कैकंगळे बंधमप्पुवितरंगळगे बंधमिल्लप्पुरिदं मूलप्रकृतिगोळु पेन्द
द्रव्यमनितुं विवक्षितबंधप्रकृतिगेयकुं। युगपद्विवक्षितबंधंगळ्गमितरंगळगं बंधमिल्लप्पुरिदं । १० सातमुमुच्चैर्गोत्रभु देवायुष्य, बंधमप्पागळु इतरासातं नोचैर्गोत्र नरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळ्गे
बंधमिल्लदु कारणदिदं मूलप्रकृतिगोळु पेद द्रव्यमिवक्कयक्कुमा असातनीचैग्र्गोत्रादिगळ बंधमप्पागळु सातादिगळ्गे बंधमिल्लप्पुरिदं । मूलप्रकृतिद्रव्यमनितुविवक्कक्कुमें बुदत्थं ॥
___ अनंतरं घातिकमंगळोळु सर्वघातिप्रकृतिगळ्गं देशघातिप्रकृतिगळ्गं द्रव्यविभंजनक्रमम पेळदपरु :
सव्वावरणं दव्वं अणंतभागो दु मूलपयडीणं ।
सेसा अणंतभागा देसावरणे हवे दव्वं ।।१९७॥ सर्वावरणद्रव्यमनन्त भागस्तु मूलप्रकृतीनां । शेषानंता भागाः देशावरणे भवेत् द्रव्यं ॥
उत्तरप्रकृतिषु पुनः मोहनीयज्ञानदर्शनावरणानि हीनक्रमाणि भवन्ति । नामान्तरायो पुनः अधिकक्रमो भवतः । शेषवेदनीयगोत्रायुस्सू द्रव्यविभजनं नास्ति, तेषां एकैकस्या एव तदुत्तरप्रकृतेर्बन्धात । तेन तन्मल२० प्रकृत्युक्तद्रव्यं सर्वमेव स्यात् इत्यर्थः ॥१९६॥ अथ घातिकर्मसु सर्वघातिदेशघातिद्रव्यविभञ्जनक्रममाह
__उत्तर प्रकृतियोंमें मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तो हीनक्रम होते हैं अर्थात क्रमसे घटता-घटता द्रव्य इनकी उत्तर प्रकृतियोंमें दिया जाता है। जैसे ज्ञानावरणमें मतिज्ञानावरणसे श्रुतज्ञानावरणका द्रव्य थोड़ा है। उससे अवधि ज्ञानावरणका द्रव्य थोड़ा है।
उसे मनःपर्ययज्ञानावरण का द्रव्य थोड़ा है। तथा नामकर्म और अन्तराय कर्मको उत्तर २५ प्रकृतियोंमें क्रमसे अधिक-अधिक द्रव्य दिया जाता है। जैसे अन्तराय कर्म में दानान्तरायके
द्रव्यसे लाभान्तरायका द्रव्य अधिक है। उससे भोगान्तरायका द्रव्य अधिक है। शेष वेदनीय, गोत्र आयुकर्ममें बँटवारा नहीं है क्योंकि इनकी एक-एक ही प्रकृति बँधती है। जैसे वेदनीय कर्मके भेदोंमें-से या तो साताका ही बन्ध होता है या असाताका ही बन्ध होता है। दोनोंका बन्ध एक समय में नहीं होता। इसी तरह गोत्रकर्म में-से या तो नीचगोत्रका बन्ध होता है या उच्चगोचका बन्ध होता है। आयु भी एक समय में एक ही बँधती है। अतः इन तीनों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियों में बँटवारा नहीं है। जिस समयमें इनकी जिस उत्तर प्रकृतिका बन्ध होता है उस समयमें मूल प्रकृतिको जो द्रव्य मिलता है वह सब उसकी उत्तर प्रकृतिका ही होता है ॥१९६।। ____ आगे घातिकर्मों में सर्वघाती और देशघाती द्रव्यका बँटवारा कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२२३ मूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयमेब मूलप्रकृतिगळ तंतम्म द्रव्यंगळोळु सर्वावरणद्रव्यं सर्वघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्यं अनंत भागस्तु जिनदृष्टानन्तभागहारभक्तानंतकभागमक्कुं। तु मते शेषानंता भागाः शेषानन्तबहुभारांगळु देशावरणे भवेत् द्रव्यं स्वस्वदेशघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्यंगळप्पुवु। तद्यया -ज्ञानावरणमूलप्रकृतिद्रव्धमिदु स । । ८ यिल्लि विशेषरूपदिनिर्द
९।८ स ।८
९९९२ । ३ केळगणावल्यसंख्यातकभागमं तंदु साधिकं माडि स । ८ गुणकारदोळेकरूपहोनत्वमनवगणि- ५
८।९
सियपत्तिसि स a जिनदृष्टानंतभागहारदिदं भागिसि बंद लब्धमेकभाग ज्ञानावरणसर्वघाति
प्रकृतिसंबंधिद्रव्यमक्कु स । १ शेषबहुभागद्रव्यं मतिज्ञानावरणादिदेशघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्य
८।
ख
८।
ख
मक्कुं स । ख वर्शनावरणमूलप्रकृतिसर्व द्रव्यमनिद स ० ननन्तदिद भागिसिदेकभागमिदु स . १ तत्सर्वघातिषट्कसंबंधिद्रव्यमक्कुं। शेषबहुभागद्रव्यं चक्षुर्दर्शनादिदेशघातित्रयसंबंधि द्रव्यमक्कुं स ख मोहनीयमूलप्रकृतिद्रव्यं अन्तरायदर्शनावरणज्ञानावरणघातित्रयद्रव्यमं नोडलु १० साधिकमक्कुमिदं स : अनन्त भागहारदिदं भागिसिदेकभागद्रव्यमिदु स ।। १ मिथ्यात्वद्वादशकषायसर्वघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्यमक्कुं। शेषबहुभागद्रव्यं संज्वलननोकषाय त्रयोदश देशघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्यमक्कु स ख मपत्तितमनिदं स संज्वलनाकषायद्रव्यविभागनिमित्त
८।
ख
८।
ख
८
।
ख
८
ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयमूलप्रकृतीनां स्वस्वद्रव्येषु सर्वावरणद्रव्यं अनन्तैकभागो भवति । तु-पुनः शेषा अनन्ता भागाः देशघातिद्रव्यं भवति । यथा ज्ञानावरणस्य इदं स.८ अधस्तनावल्यसंख्यातकभागे' साधिकी- १५
९८
ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय इन मूल प्रकृतियोंके अपने-अपने द्रव्यमें अनन्तका माग देनेपर एक भाग प्रमाण तो सर्वघाती द्रव्य है और शेष अनन्त बहुभाग प्रमाण देशघाती द्रव्य है । जैसे ज्ञानावरणके द्रव्यका जो प्रमाण पहले कहा था, उसमें जिन भगवानके द्वारा देखे गये अनन्तका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण तो सर्वघाती द्रव्य है शेष सर्वभाग प्रमाण देशघाती द्रव्य है । ऐसे ही दर्शनावरण और मोहनीयमें भी जानना ।।१९।। १. ब भागेन साधिकं कृत्वा ।
२०
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२२४
गो० कर्मकाण्डे
८।९।२
मावल्यसंख्यातदिदं भागिसिदेकभागमुं स ।। १ शेषबहुभागद्रव्यमं । स ० ८ समनागि येरडु भागं माडिदल्लि येकभागमुं। स ।।८।१ संज्वलनदेशघातिचतुष्प्रकृतिसंबंधिद्रव्यमक्कुं
८।९।२ स ।।८।१ शेषबहुभागार्द्धद्रव्यमकषायदेशघातिप्रकृतिनवकसंबंधिद्रव्यमक्कुं स ।। ८ ८ ।९।२
अन्तरायपंचकमुं देशघातियेयप्पुरिदं मूलप्रकृतिस-द्रव्यमुमक्कुं स यो नाल्कुं घातिकम्मंगळ ५ देशघातिप्रकृतिसंबंधिद्रव्यंगळ्गे पेम्वन्योन्याभ्यस्तराशिये सर्वावरणधनाथं प्रतिभागप्रमाणमेंदु
पेळ्दपरदेके दोड रूपोनान्यान्योभ्यस्तरार्शाियदं ज्ञानावरणादिधातिकम्मंगळ सर्वघातिसंबंधिद्रव्यदोळं देशघातिप्रकृतिगळ्गे भागमुंटप्पुदरिनदु सहितमाद देशघातिसंबंधिसर्वतव्यम भागिसिदोर्ड देशघातिजानावरणचतुष्क, त्रिदर्शनावरणमुमन्तरायपंचकमुं संज्वलनचतुष्कनवनो
कृते स ० ८ गुणकारस्य एकरूपहीनत्वमवगणय्य अपवर्त्य स । जिनदृष्टानन्तभागहारेण भक्त्वा एकभागः
१. स . १ तत्सर्वत्रातिप्रकृतिसंबन्धी भवति शेषबहुभागः तद्देशघातिसंबन्धी भवति स a ख तथा दर्शना
ऊपर जो सर्वघाती द्रव्यका परिमाण कहा है आगे उसका बँटवारा सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियोंमें करेंगे । सो देशघाती मतिज्ञानावरणादिके द्रव्यका जो परिमाण है उसमें सर्वघाति परमाणुओंका प्रमाण लानेके लिए प्रतिभागहारका प्रमाण कहते हैं
चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, चार संज्वलन और नौ नोकषायके १५ द्रव्यकी नाना गुणहानि शलाका अनन्त है । और जितनी नाना गुणहानि शलाका हैं उतने
दोके अंक रखकर उन्हें परस्परमें गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है वह भी अनन्त संख्यावाली है।।
जैसे अंक संदृष्टिमें द्रव्य इकतीस सौ ३१००, स्थिति स्थान चालीस ४०, एक-एक गुणहानिका प्रमाण आठ ८, दो गुणहानिका प्रमाण सोलह १६, नाना गुणहानि पाँच ५। २. नाना गुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्तराशि
२४२४२४२४२=३२ बत्तीस । सो इसकी रचना पूर्व में कही है वैसे ही जानना। अस्तु।
* सो यहाँ जो अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण है वही सर्वघाती द्रव्यका परिमाण लानेके लिए प्रतिभाग होता है। वही कहते हैं२५
मतिज्ञानावरण आदि चार प्रकृतियोंका द्रव्य केवलज्ञानावरणके भागसे हीन अपने सर्वघाती द्रव्य सहित देशघातिद्रव्यका जितना प्रमाण है उतना है। अर्थात् इन देशवाति प्रकृतियोंका देशघाती द्रव्य तो अपना है ही सर्वघाती द्रव्य भी है । वह सर्वघाती द्रव्य केवल
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२२५
कषायप्रकृतिगळ शैलभागेय चरमगुणहानिद्रव्यमक्कुमंतादोडे शैलभागे मोवलागि केळ दारुबहु भागपर्यंतं सर्व्वघातित्व टप्पुवरिनी घातिगळ देशघातिद्रव्यं वाठयंनंतैकभागपय्यंतं निक्षेपिसल्पडुगुमपुरिने तु शैल भागच रमगुणहानिद्रव्यमक्कुमं तु चोविसिदंगुत्तरं पेळल्पडुम दोडे - देशघातिप्रकृतिगळगे स्वस्वसर्व्वधातिप्रकृतिगळतणवं बंद भागेय व्यं ingभागं मोदगडु शैलभागचरमपय्र्यंतं निक्षेपिसल्पडुगुं । वेशघातिप्रकृतिभागद्रव्यं स्वस्वदात भागपत मे निक्षेपिसल्वडुगु मिन्दुभय द्रव्यमं कूडि लताशक्तिमोक्लागि शैलशक्तिपय्र्यंतं निक्षेप्य मक्कुमन्तु निक्षेपमागुत्तिरलेक गोपुच्छरूपविनिवकुम विन्तु केवलं वेशघातिगळप्पन्तरायपंचकवोल ई रूपोनान्योन्याभ्यस्त राशिगे तद्द्रव्यदोळ प्रतिभागत्वं विरोधिसल्पडुगुमेनल्वेडेके बोर्ड "आवरणदेसघ दंत रायसंजळणपुरिससत्तरसं । चतुविधभावपरिणदा तिविहा भाषा हु सेसाण" मेंबी सूत्रप्रमाणविद मंतराय देशावरणंगळगमुभयसम्वदेशघातिशक्तसंभवमक्कुमप्पुवरिवं । देसावरण्णोष्ण भत्थं तु अनंतसंखमेत्तं खु । सव्वावरणघणङ्कं पडिभागो होदि घादीणं ॥ १९८ ॥
१०
सर्वघाति
देशघाति
म सु अ
म
tr
म
सु अ म
के
शै
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दा ख ख
ब
दा १
ख
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८
ख ख
२
स २।२
ख ख
८ ख ख
स ख ख
८ ख ख २२२
सख ख
८ ख ख २२
शैल चरम गुणहानि द्रव्य तद्वि चरमगुणहानि द्रव्य
तत्त्रि चरम गुणहानि
बार बहुभागप्रथम गुणहानि द्रव्य
दावन्तेक भाग चरमगुणहानि द्रव्य
स ख ख
८ ख ख २
वरणमोहनीययोरपि ज्ञातव्यं ॥ १९७ ॥ उक्तसर्वघातिद्रव्येषु तद्देशघातिप्रकृतिभागस्य वक्ष्यमाणत्वात् तत्सहितघातिद्रव्येषु सर्वावरणधनार्थं प्रतिभागहारप्रमाणमाह
ज्ञानावरणका जितना भाग है उससे हीन है सब नहीं है। इस तरह देशभाती और सर्वघाती १. ब तत्सहित देशघाति ।
क - २९
लता प्रथम गुणहानि द्रव्य
१५
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५
१०
२२६
गो० कर्मकाण्डे
वेशावरणान्योन्याभ्यस्तस्त्वनन्त संख्यामात्रः खलु । सर्व्वावरणघनात्थं प्रतिभागो भवति
२०
घातीनां ॥
देशघाति प्रकृतिसंबंधिद्रव्यनानागुणहा निशला के गळनंतप्रमितंगळपुर्वारंवं तावन्मात्रद्विकवग्गित संवर्ग संजनितमपुर्वारदमन्योन्याभ्यस्त राशिनानागुणहा निशलाकाराशियं नोडलुमनंतानंतगुणमप्पुदरिदं । तु मत्तमनंत संख्यावच्छिन्न मक्कु मदु सर्व्वधातिशक्तियुक्तघातिकमंगळ तत्सघातिसंबंधिद्रव्यगुणसंकळितधनप्रमाणावधारणात्थंमागि प्रतिभागमक्कुमवेंतेंदोडे घातिकम्मंगळोळ चतुर्ज्ञानावरणत्रिदर्शनावरणपञ्चांतरायचतुःसंज्वलननवनोकषायद्रव्याणां नानागुणहानिशलाका: अनन्ता इति तन्मात्रद्विकसंवर्गजनितोऽन्योन्याभ्यस्त राशिरपि अनन्तसंख्यो भवति । स खलु तेषां सर्वघातिद्रव्यस्य गुणसंकलितधनप्रमाणावधारणार्थं प्रतिभागो भवति । तद्यथा
द्रव्य मिलकर मतिज्ञानावरणादिका द्रव्य होता है ।
शंका- देशघाति प्रकृतियों में सर्वघाती परमाणु कैसे कहे हैं ?
समाधान - पूर्व में कहा है कि मतिज्ञानावरणादिका अनुभाग शैल, अस्थि, दारु और लतारूपसे चार प्रकार है । उनमें से दारुका अनन्तवाँ भाग और लताभाग तो देशघाती है । ऐसे अनुभागवाले परमाणु देशघाती होते हैं । तथा शैल, अस्थि और दारुका बहुभाग १५ सर्वघाती है। ऐसे अनुभागवाले परमाणु सर्वघाती हैं । सर्वघातीके उदय में किंचित् भी आत्मगुण प्रकट नहीं होता । जैसे एकेन्द्रियादिके चक्षुदर्शनके सर्वघाती परमाणुका उदय होनेसे चक्षुदर्शन नहीं होता । किन्तु देशघातीके उदयमें आत्मगुण प्रकट होता है जैसे चौइन्द्रिय आदि जीवोंके चक्षुदर्शनके देशघाती परमाणुओंका उदय है फिर भी चक्षुदर्शन होता है । इस प्रकार देशघाति प्रकृतियों में सर्वघाती और देशघाती द्रव्य होता है । अस्तु,
मतिज्ञानावरणादि चारका वह द्रव्य केवलज्ञान के बिना अपने सर्वघाति द्रव्यसहित देशघातिद्रव्य प्रमाण है सो कुछ अधिक समय प्रबद्ध के आठवें भाग है। उसमें एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाग देनेपर शैल भागकी अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका परिमाण होता है । पश्चात् नीचेकी ओर एक-एक गुणहानिमें दूना-दूना द्रव्य होते-होते दारु भागके अनन्त भागों में से एक भाग बिना शेष बहुभाग सम्बन्धी द्रव्य उनकी प्रथम गुणहानिमें २५ शैलभागकी अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको यथायोग्य आधे अनन्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना जानना । क्योंकि यहाँ तक जितनी गुणहानि हुई वही गच्छ है । सो एक कम गच्छमात्र दोके अंकोको गुणा करनेपर सर्वघाती सम्बन्धी अन्योन्याभ्यस्त राशि अनन्त प्रमाण होती है । उसका जो आधा है वही यहाँ गुणकार है । इन सब गुणहानियोंके द्रव्यको जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतने परमाणु सर्वघाती सम्बन्धी जानते । इसीसे सर्वघाती द्रव्य ३० लाने के लिए अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रतिभाग कहा है। आगे देशघातीका द्रव्य कहते हैंदारुभागके बहुभागकी प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे नीचे दारु भागके अनन्त भागों में से एक भाग की अन्तिम गुणहानिका द्रव्य दूना है। तथा नीचे प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य दूना-दूना होता हुआ लताभागकी प्रथम गुणहानिमें एक कम सर्व नाना गुणहानिका जितना प्रमाण है। उतने दो अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वही अन्योन्याभ्यस्त राशिका ३५ है । उसके आधे प्रमाणसे शैल भागकी अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको गुणा करनेपर जो प्रमाण
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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सर्वघातिकेवलज्ञानावरणादि प्रकृतिगळ संबंधिद्रव्यमिदरोळु स ०।१ केवलज्ञानावरण भागम
८ख निदं स. ८ कळेदुळिद सर्वघातिद्रव्यमनितुं स । ५ मतिज्ञानावरणावि देशघातिचतुष्कदाखा९।५
८खा५ संबंधि सर्वघातिशक्तियुक्तद्रव्यमक्कुमीयनंतैकभाग द्रव्यम स._ तंतम्म भागम होनक्रमदोळिवं तंतम्म होनक्रमदिदमिई शेषघातिसंबंधिद्रव्यदोळ्कूडिदोडे मतिज्ञानावरणाविवेशघातिद्रव्यं प्रत्येकं समयप्रबद्धानंतकभागाधिकसमयप्रबद्धाष्टमभागद्र । मिदं मुंपेळ्वनंतप्रमाणा- ५
८.ख।९
वच्छिन्नान्योन्याभ्यस्तराशियोळेकरूप होनं माडि भागिसिदोडेक भागमिद् स १ मतिज्ञाना
वरणादिदेशघातिगळ सर्वघातिशक्तियुक्तसर्वोत्कृष्टशैलभागचरमगुणहानिद्रव्यमक्कुमिनु मोवल्गोंडु कलगे केळगे गुणहानि प्रति गुणहानि प्रति द्विगुण द्विगुणक्रमविदं बंदु दारु बहुभाग प्रथमगुण- । हानियोछु तद्योग्यानन्तार्द्धगुणितचरमगुणहानिप्रमितद्रव्यमक्कुं स । ख मेकेदोडे रूपोनगच्छ
ख ख।२ मात्रानन्तद्विक संवर्गसंजनितराशियप्पुरिदमल्लि सर्वघातिसंबंधि द्रव्यं तोढुंबलु कारणदिवमी १०
मतिज्ञानावरणादीनां चतुर्णा देशघातिद्रव्यं केवलज्ञानावरणभाग स८१ न्यूनस्वकीयसपातिद्रव्य
८ख ९५
रूपोनान्योन्याभ्यस्तराशिना भक्तं स .
स ०८ ५ युतं तत्साथिकसमयप्रबद्धाष्टभागमात्रं ८ख ९५
शैलभागचरमगुणहानिद्रव्यं भवति । ततोऽघः गुणहानि गुणहानि प्रति द्विगुणं द्विगुणं भूत्वा दारुबहुभागप्रथमगुणहानी तत्तद्योग्यानन्तार्द्धगुणिते भवति स ख रूपोनगच्छमात्रानन्तद्विकानां तद्गुगकारत्वात् । अत्र
८ख ख २
हो उतना द्रव्य जानना । इन गुणहानियोंको जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतने परमाणु देशघाती १५ सम्बन्धी जानने।
जैसे अंकसंदृष्टिसे सर्वद्रब्य इकतीस सौ ३१०० । इसको एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि इकतीससे भाग देनेपर सौ आये । यही शैलभागकी अन्तिम गुणहानिका द्रव्य जानना। पश्चात् प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य दूना-दूना होता है। यथा २००, ४००, ८००। एक कम
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२२८
सर्व्वावरण गुणसंकळितधनप्रमाणावधारणात्थंमन्योन्याभ्यस्तरा शिघातिगळगे प्रतिभागमक्कु
मेंतेंदोडे :
"रूऊणण्णोष्णवभत्यवहिवदव्वं तु चरिमगुणदव्वं । होदि तवो गुणकर्म आदिमगुणहाणि दग्वोत्ति ॥ "
दी गुणसंकलितधनं तरल्पडुगुमप्पुदरिवं आ दार बहुभागप्रथमगुणहानिसठ घातिजघन्यशक्तियुक्त गुणहानिप्रथम वग्गणानन्त राधस्तनदा नंतैकभागदेशघाति सर्वोत्कृष्टचरम गुणहानिद्रव्यमा
जघन्यशक्तियुक्तसर्व्वावरणगुणहानिद्रव्यमं नोडलु द्विगुणितमक्कु
८ । ख ख । २
केळगे केळगे द्विगुणद्विगुणंगळागुत्तं पोगि लताभागसब्वं जघन्यशक्तियुक्तप्रथम गुणहानियोल रूपोनसताना गुणहा निशलाकाराशिमात्रद्विकंगळ वग्गित संवग्गंगळावोडे अन्योन्याभ्यस्तराश्यर्द्ध मक्कु१० मदरगुणितचरमगुणहानिद्रव्यमात्रं देशघाति सर्व्वजघन्यशक्तियुक्तप्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुं
गो० कर्मकाण्डे
1
स खखख इल्लि द्रव्यस्थिति गुणहानि दोगुणहानि नानागुणहानियन्योन्याभ्यस्त राशिगळगंक
०
८ ख ख ।२
संदृष्टियुमर्थं संदृष्टियुमिवु -
स्थि
४०
१६
1900:
ख ख ख ख ख ख ख ख ख
द्र | १३००
।
स a
८
5
'
सख । २ मो क्रमवि
ना
५
८ ख ख २
सर्वघातिद्रव्यं समाप्तं तत एवान्योन्याभ्यस्तराशिः सर्वावरणषनार्थं प्रतिभाग इत्युक्तं तत् दारुबहुभागप्रथमगुणहानिद्रव्यादधस्तनदावनन्तेक भागच रमगुणहानिद्रव्यं द्विगुणं भवति स ० ख २ तदधः द्विगुणद्विगुणक्रमेण
८ ख ख २
१५ गत्वा लताभागप्रथमगुणहानी द्रव्यं रूपोनसर्वनानागुणहानिमात्र द्विक संवर्ग संजातान्योन्याभ्यस्त राश्यर्धगुणितĮ चरमगुणहानिद्रव्यमात्रं भवति स ख । एवं त्रिदर्शनावरणादिद्रव्याणामपि ज्ञातव्यं । अत्र द्रव्य-स्थिति
अन्योन्या ३२
ख ख
नाना गुणहानि चार है। सो उतने दोके अंक रखकर २x२x२x२ परस्परमें गुणा करनेपर सोलह हुए | वही अन्योन्याभ्यस्त राशि बत्तीसका आधा प्रमाण है। उससे शैल भाग अन्तिम गुणहानिके द्रव्य सौको गुणा करनेपर सोलह सौ हुए । यही लताभागकी
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२२९ अनंतरं मुंपेळ्द सर्वघातिदेशघातिद्रव्यंगळ्गे विशेषविभंजनक्रममं पेन्दपरु :
सव्वावरणं दव्वं विभज्जणिज्जं तु उभयपयडीसु ।
देसावरणं दव्वं देसावरणेसु णेविदरे ॥१९९।। सर्वावरणद्रव्यं विभंजनीयमुभयप्रकृतिषु । देशावरणद्रव्यं देशावरणेषु नैवेतरस्मिन् ॥ गुणहानि-दोगुणहानि-नानागुणहानि-अन्योन्याभ्यस्तराशीनामंकसंदृष्टयथं संदृष्टि :
ख |
ख ख
ख ख २
ख
।
ख
ख
॥१९८॥ अथ प्रागुक्तसर्वघातिदेशघातिद्रव्ययोविशेषविभजनक्रममाहप्रथम गुणहानिका द्रव्य जानना। इसी प्रकार दर्शनावरण आदिके द्रव्योंमें भी सर्वघाती और देशघाती द्रव्यका प्रमाण जानना ॥१९८।।
आगे सर्वघाती और देशघाती द्रव्यके विशेष विभागका क्रम कहते हैं
स 8 .0
८ख ख सव २०
-00-0
स२१२
सख
0 ८ख ख २
दा
ख
सख २
|८ख ख स ३ ख २२
..
के
ख ख २
सख ख
८ख ख २
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गो० कर्मकाण्डे
मूलप्रकृतिघातिकम्मंगळ स्वस्वसमस्तद्रव्यंगळोळनन्तेक भागमनतैकभागंगळु सवघाति.
प्रकृति संबंधिद्रव्यंगळवु --
१०
२३०
1
णास । १ ८। ख
बद्धद्रवमंगळप्पु
दंस । १ ८। ख
मोह ! अन्तरा
।
स।१ स a १ ८। ख
८
01
।
णास । ख दंस । ख मो स० ख ८। ख ८। ख
८
ख
वेदितु मुन्नं पेळपट्टुवल्लि सर्व्वावरणद्रव्यं सर्व्वघातिगळोळं देशघातिगळोळं होनक्रमविद ५ बिभागिसि कुडल्पडुगुं । देशावरणद्रव्यं देशावरणंगळोळे विभागिसि कुडल्पडुवुदितर सर्व्वघातिगोळ विभागसि कुडल्पडदु ॥
बहुभागंगळु देशघातिप्रकृतिप्रति
अन्त स
८
अनन्तरमुत्तरप्रकृतिगो द्रव्यविभंजनक्रममं पेळदपरु :
बहुभागे समभागो बंधाणं होदि एक्कभागम्हि ।
उत्तम तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु ॥ २००॥
बहुभागे समभागो "बंधानां भवति एक मागे । उक्त क्रमस्तत्रापि बहुभागो बहुकस्य तु ॥
"बंधानां बंधकालदो युगपदबंधंगळागुत्तं विदुर्दुत्तरप्रकृतिगळगे बहुभागे आवल्य संख्यातैकभागमात्र प्रतिभागदिदं भागिसल्पट्टस्वस्वद्रव्यबहुभाग दोळु समभागः समनागि भागं कुडल्पडुगुं ।
घातिकर्मणां स्वस्वसमस्तद्रव्यस्यानन्तकभागः सर्वघ । तिद्रव्याणि बहुभागो देशघातिद्रव्याणि इति १५ प्रागुक्तानि । तत्र सर्वावरणद्रव्यं सर्वघातिषु देशघातिषु च होनक्रमेण भक्त्वा देयं देशावरणद्रव्यं तु देशावरणेष्वेव न सर्वघातिषु ॥ १९९ ।। अथोत्तरप्रकृतिषु आह
सहसंभवद्बन्धोत्तर प्रकृतीनां आवल्यसंख्यातैकभागभक्तस्वस्वद्रव्यस्य बहुभागे समभागी देयः । एकभागे
घातिकर्मो के अपने-अपने द्रव्य में अनन्तका भाग देवें । एक भाग प्रमाण तो सर्वघाति द्रव्य है और बहुभाग प्रमाण देशघाती द्रव्य है । यह पहले कहा है । उसमें से सर्वघाति द्रव्य २० तो सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियोंमें हीनक्रमसे विभाग करके देना चाहिए | किन्तु देशघाती द्रव्य देशघाति प्रकृतियों में ही देना चाहिए, सर्वघाति प्रकृतियोंमें नहीं देना चाहिए || १९९||
आगे उत्तर प्रकृतियों में विभाग कहते हैं
अपने-अपने पिण्डरूप द्रव्यमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग एक २५ साथ बँधनेवाली उत्तर प्रकृतियोंको बराबर-बराबर समभाग करके देना चाहिए। शेष एक
१. म बद्धानां २. बद्धानां ३, मंद्वद्धंग ।°
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२३१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका एकभागे शेकभागदोळ उक्तक्रमः मुन्नं पेळल्पट्ट मोहावरणंगळोळ होनक्रममुं नामान्तरायंगळोळधिकक्रममक्कुं। तत्रापि अल्लियुं बहुभागः प्रतिभागभक्तबहुभागं तु मते बहुकस्य देयः पिरिदक्के देयमक्कुमदेंतेंदोडे पेळ्दपरु:
घादितियाणं सगसगसव्वावरणीयसव्वदव्वं तु ।।
उत्त कमेण य देयं विवरीयं णामविग्घाणं ॥२०१॥ घातित्रयाणां स्वस्वसविरणीय सर्वद्रव्यं तु । उक्तक्रमेण देयं विपरीतं नामविघ्नानां ॥
घातित्रयाणां ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीयमेंब घातित्रयंगळ स्वस्वसर्वावरणीयसलद्रव्यं तंतम्म सवंघातिप्रकृतिगळ सर्वद्रव्य उक्तक्रमेण देयं । मुंपळद क्रमदिदं सर्वघातिगळगं देशघाति. गळ्गं होनक्रमदिदं देयमक्कुं। नामविघ्नानां नामकातरायकम्मंगळ सवंद्रव्यं विपरीतं होनक्रमक्कधिकक्रममप्प विपरीतविभंजनमक्कुमदेंतेंदोडे ज्ञानावरणीयसवद्रव्यमपतितमनिवं स० १० जिनदृष्टानन्तप्रतिभागदिदं विभक्तानंतकभागं सर्वघातिप्रकृतिप्रतिबद्धसर्वघातिशक्तियुक्तद्रव्यमक्कु स ।।१ मिवनुक्तक्रमदिदं सर्वघातिगळोळू देशघातिगळोळं विभागिसि कुडुवल्लि प्रति
८.ख भागमावल्यसंख्यातेकभागमात्रमक्कु । ९ । मरिदं भागिसि बहुभागमं स ० ८ बहुभागे समभागः येवु ज्ञानावरणप्रकृतिपंचकक्कं सममं माडल्वेडियदरिदं भागिसि प्रत्येकमिनितिनितं स ० ८
८ख।९। ५
८
ख।९
मोहावरणानि हीनक्रमाणि नामान्तरायो अधिकक्रमौ इत्युक्तक्रमः कार्यः । तत्र बहुभागः तु-पुनः बहुकस्य १, देयः ॥२०॥ तद्यथा
ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयानां स्वस्वसर्वघातिद्रव्यमुक्तक्रमेण देयं, नामविघ्नप्रकृतीनां च विपरीतम् । तद्यथा
ज्ञानावरणीयसर्वतव्यमिदं स जिनदष्टांनतेन भक्त्वैकभागः सर्वघातिद्रव्यं स । इदमावल्यसंख्या८
८ख
--
भागमें-से मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरणकी प्रकृतियों में क्रमसे घटता-घटता देना और २० नामकर्म तथा अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंमें क्रमसे अधिक-अधिक देना । जिसका बहुत द्रव्य कहा हो उसे बहुभाग देना चाहिए ॥२०॥
वही कहते हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीयका अपना-अपना सर्वघाती द्रव्य उक्त क्रमसे देना चाहिए और नाम तथा अन्तरायका द्रव्य उनकी उत्तर प्रकृतियोंमें विपरीत क्रमसे देना । चाहिए । वही कहते हैं
झानावरणीय कर्मका सर्वद्रव्य जो पूर्वमें कहा है उसे जिनदेवके द्वारा देखे गये यथायोग्य अनन्तका भाग दें। एक भाग प्रमाण सर्वघाती द्रव्य है। इस सर्वघाती द्रव्यका
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२३२
1
स ०८ ८ । ख । ९९९
कोट्टु शेषैकभागदो प्रतिभाग भक्त बहुभागं
स
८
पूर्वोक्तकर्मादिदं वेयमपुर्वारवमिल्लि
८ । ख । ९९
सत्यायावरणदोळु बहुकमप्युदरिदं बहुभागमं कोट्टु शेषैकभागवोलु मत्तं प्रतिभागभक्तबहुभागमं
1
श्रुतावरण के कोट्टु शेषैकभागवोळ प्रतिभागभक्तबहुभागमं स ८
।
अवधिज्ञानावरणक्के कोट्टु शेषैकभागदोलु प्रतिभाग भक्तबहुभागमं स ०८ मनष्पय्र्यया.
८ । ख । ९९९९९
५ वरणक्के कोट्टु शेषैकभागमं केवलज्ञानावरणक्के कोडुउदु स ० १
तेन भक्त्वा बहुभागः स८ ८ ख ९
प्रतिभागभक्तवहुभागः स
1
बद्धानन्तबहुभागमं स ० ख पूर्वोक्तक्रर्मादिदं प्रतिभागभक्तबहुभागमं स
८। ख
गो० कर्मकाण्डे
स १ ८ ख ९९९९९
I
१० भागे प्रतिभाग भक्तबहुभागः स
८ ख ९ ।९
दद्यात् ।
श्रुतावरणस्य देयः । शेषैकभागे प्रतिभागभक्तबहुभागः स ८
८ ख ९९९९
८ । ख । ९९९९९
ज्ञानावरणपञ्चकस्य पञ्चभिर्भक्त्या प्रत्येकं स
८ ८ ख ९९९९९
८ । ख । ९९९९
८ मत्यावरणस्य देयः । शेष भागे पुनः प्रतिभागभक्तबहुभागः स ८ ८९९९
अवधिज्ञानावरणस्य देयः । शेषक
मत्तं देशघातिप्रति
। ख ८ ८। ख ।९
८
८ ख ९।५
देयः । शेषंकभागे
मन:पर्ययज्ञानावरणस्य देयः । शेर्पाकभागं केवलज्ञानावरणस्य
विभाग करते हैं - इस सर्वघाती द्रव्य में आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दें। एक भाग बिना बहुभाग पाँच समान भाग करके पाँचों प्रकृतियों में दें। जो एक भाग रहा उसमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दें, और एक भागको अलग रख बहुभाग मतिज्ञानावरणको दें । उस एक भागमें पुनः आवलीके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे भाग दें । १५ और बहुभाग श्रुतज्ञानावरणको दें। शेष एक भाग में भी प्रतिभागका भाग दें और बहुभाग ज्ञानावरणको दें। शेष एक भागमें भी प्रतिभागका भाग दें और बहुभाग मनःपर्ययज्ञानावरणको दें । शेष एक भाग केवल ज्ञानावरणको दें। इस प्रकार जो पूर्वमें समान भाग कहे थे उनमें अपने-अपने पीछेके एक-एक भागको जोड़ने से प्रतिज्ञानावरण आदिका सर्वघाती द्रव्य होता है । तथा ज्ञानावरणके द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भागके बिना शेष २० बहुभाग देशघाती द्रव्य है । उसको उसी आवलीके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागले भाग
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२३३
मत्यावरणालिचतुष्टयक्कं बहुभागे समभागः एंदु चतुर्भागमं स ख ८ प्रत्येकं नाल्डयोळं
८।ख।९।४ कोटु शेषैकभागदोळु प्रतिभागभक्तबहुभागमं स ख । ८ बहुकक्क देयमेदु मत्यावरणक्क
.८ । ख।९।९
.. कोटु शेषकभागदोळं प्रतिभागभक्तबहुभागमं स ख ।८ श्रुतावरणक्के कोटु
शेषैकभागदोळं प्रतिभागभक्तबहुभागमं स
ख।८ अवधिज्ञानावरणक्के कोट्टु शेषेक
८।ख। ९९९९
..
भागमं स।। ख।१ मनःपर्यावरणक्के कुडुबुदो प्रकारदिदं दर्शनावरणद्रव्यमं सम्बंघाति- ५ देशघातिविभागनिमित्तमागियनन्तदिदं भागिसि देकभागमं स ।१ प्रतिभागभक्तबहुभागमं
८ख । ९९९९
ख
८
पुनर्देशघातिप्रतिबद्धानन्तबहुभागे स ३ ख पूर्वोक्तक्रमेण प्रतिभागभक्तबहुभागः स
८ ख
चतुभिर्भक्त्वा स
८
ख ८ ख ९। ४
मत्यावरणादिचतुष्कस्य प्रत्येकं देयः । शेषेकभागे प्रतिभागभक्तबहुभागः
स . ख ८ मत्यावरणस्य देयः। शेषकभागे प्रतिभागभक्तबहुभागः स ३ ख ८ श्रुता८ ख ९।९
८ ख ९९९
| .. वरणस्य देयः । शेषकभागे प्रतिभागभक्तबहभागः स ख ८ अवधिज्ञानावरणस्य देयः। शेषकभागं १०
८ ख ९९९९
स । ख १ मनःपर्ययज्ञानावरणस्य दद्यात् । एवं दर्शनावरणद्रव्यमपि सर्वघातिदेशघातिविभाग
८ ख ९९९९ देवें। और एक भागको अलग रख बहुभागके चार समान भाग करके एक-एक भाग मतिज्ञानावरण आदि चार प्रकृतियोंको देना चाहिए। शेष एक भागमें भी प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग श्रुतज्ञानावरणको देवें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग अवधिज्ञानावरणको दें। शेष एक भाग मनःपर्ययज्ञानावरणको दें। इन एक-एक भागोंको १५ पहले मिले अपने-अपने समान भागों में मिलानेसे मतिज्ञानावरण आदिके देशघाती द्रव्यका परिमाण होता है। अपना-अपना देशघाती तथा सर्वघाती द्रव्य मिलानेपर ज्ञानावरणकी उत्तर प्रकृतियोंके सर्वद्रव्यका प्रमाण होता है।
इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्मके सर्वद्रव्यके परिमाणमें अनन्तका भाग दें। एक भाग प्रमाण सर्वघाती द्रव्य है। उस सर्वघाती द्रव्यमें प्रतिभागसे भाग दें। एक भागको अलग २० Jain Education Interrego
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२३४
गो० कर्मकाण्डे
स्त्यानगृद्धि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला निद्रा प्रचला चक्षुर्द्दर्शनावधिदर्शन केवलदर्शनावरणनव कंगळोळु
1
सममागि माडल्वेड नवमभागम
स।८ नोभतेयोळिरिसि शेषैकभागमं ज्ञानावरणपंचक्के ८ । ख १९१९ पेळवंत प्रतिभागभक्त एकैकभागंगळ बहुभागंगळं होनक्रमविदं कोट्टु चरमवोळ द्विचरमशेशैकभागवोलु प्रतिभागभक्तबहुभागमं अवधिदर्शनावरणक्के कोट्टु शेषैकभागमं केवलदर्शनावरणक्के कुडुवुदु । ५ तद्देशघाति प्रतिबद्धानन्तबहुभागद्रव्यमं स व ख प्रतिभागभक्तबहुभागमं स ख । ८ समनागि
1
1.0
८। ख
८। ख ।९
८ । ख ।९।३
चक्षुर्द्दशंनाचक्षुर्द्दर्शनावधिदर्शनत्रयक्के सरिमाडि त्रिभागमं स ख ८ प्रत्येक मित्तु शेषैकभागबोळ प्रतिभागभक्तबहुभागंगळं चक्षुरचक्षुर्द्दर्शनंगळिगत्तु शेषैकभागमनवधिदर्शनावरणक्क कुडुवुवु । अन्तरायपंच्चकसुं देशघातियप्पुर्दारवं तत्सर्व्वद्रव्यमं स प्रतिभाग भक्तबहुभागमं सममं माडि पंचमभागमं प्रत्येकं कुडुवुदु । शेषेक भागदोळ प्रतिभाग भक्त बहु भागंगळनधिकक्रमविवं कोट्टु
1
८
1
१० निमित्तं अनन्तेन भक्त्वा एकभागस्य स प्रतिभागभक्तबहुभागो नवभिर्भक्त्वा स्त्यानगृद्धिनिद्रानिद्रा
८ ख
1
प्रचलाप्रचला निद्राप्रचलाचक्षुरचक्षुरवधि केवलदर्शनावरणानां प्रत्येकं देयः स a
८ शेर्ष कभागः ज्ञानावरण८ ख ९।९
पकवत्प्रतिभागभक्तबहुभागबहुभागान् हीनक्रमेण दत्वा चरमे शेषकभागं दद्यात् । तद्देशघातिप्रतिबद्धानन्त
|०
.-9
बहुभागस्य स a स्व प्रतिभागभक्त बहुभागः स ० ख ८ त्रिभिर्भक्त्वा स ख ८ चक्षुर
८ ख
८ ख ९
८ ख ९ । ३
चक्षुरवधिदर्शनावरणानां प्रत्येकं देयः । शेषकभागे प्रतिभागभक्तबहुभागं बहुभागं चक्षुरचक्षुर्दर्शनावरणयोः
0
१५ रख शेष बहुभागके नौ समान करके नौ प्रकृतियों में दें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग स्त्यानगृद्धिको देवें । शेष एक भाग में प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग निद्रानिद्राको देवें । इसी तरह एक भाग में प्रतिभागका भाग दे-देकर बहुभाग क्रमसे प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, और अवधिदर्शनावरणको क्रमसे हीन-हीन देना । शेष रहा एक भाग केवलदर्शनावरणको देना । पहले कहे समान २० भागमें पीछे कहा अपना-अपना एक भाग मिलानेपर स्त्यानगृद्धि आदिका सर्वघाती द्रव्यका प्रमाण होता है। तथा दर्शनावरण द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण देशघाती द्रव्य है । उसमें प्रतिभागका भाग दें। एक भागको अलग रख बहुभागके तीन समान भाग करें। और चक्षु, अचक्षु तथा अवधिदर्शनावरणको एक-एक समान भाग दें। शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग चक्षुदर्शनावरणका देवें । २५ क्षेत्र एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग अचक्षु दर्शनावरणको दें। शेष एक भाग
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२३५ चरमशेषकभागमं दानांतरायदोळु कुडुवुवन्तु कुडुत्तिरलधिकक्रमंगळप्पुविवक्के क्रमदिदं संदृष्टिरचनेयिदु :मदिणाण | सुदणाण ओहिण
ळिणाण दे। मदिणाण दे । सुदणाण]
स1८स ८ स०८ स०८ स. ८ स ख ८ स ख ८ टाखा९५८ाखा९।५ | दाखा९।५। ८ख ९५ ८ख ९५ ८ख ९।४|८ख ९/४/
स३८ । स ८ । स०८ स०८ स०१ स० खे८स ख८ ८ ख ९९ ८ाखा९९९ चाखा९९९९ ८ख ९९९९९ ८ख ९९९९९ ८ ख ९९ ८ख । ९९९
दे। ओहिणाण | दे।मणपज्जवणाण थोणगित्थि णिहाणिद्दा। पयळापयळा । णिद्दा
स ३ ख ८ स ० ख ८ ८ख ।९।४ ८ख ९।४
सa ८ ८९ ख ९
स ८ स ८ ८५ख ९ । ८९ ख ९
स ०८ । ८९ ख ९
→ १०
सः ख।८ ८ख ९९९९
स ख १ ८ख ९९९९
स । ८. । स०८ ] स ०८ स०८ ८ख ९९ । ८ख ९९९/८ख ९९९९८ख९९९९९)
पयळा
चक्खु
। अचक्खु । | ओहिदं । केवळदं
चक्खुदंदे | अचक्खुदं दे ।
स३८ स ८ स ८ स ८ स०८ स ख ८ स ख ८ ८१ख ९ । ८९ ख ९ । ८९ख ९ | ८९ख ९० ८९ ख ९८ख ९।३ । ८ख ९। ३
स३८ । स ०८ | स३८ | स०८ स १ स ख ८ स ख ८ टख९९९९९९/ ८ख ९।७८ख ९।८८ख ९१९/८ख ९।९८ख।९१९/८ख ९९९
| अवधिदं दे | विरिदे । उपदे । भोग दे । लाभ दे । दान दे
स० ख ८ स ०८ स ८ स ०८ | स ८ स ८ ८ख ९।३।८।५।९८।५।९/८५।९।८।५।१८।५।९
। २०
स ख१ स०८ ८ ख ९९९ ८९९
स ८ ८९९९
स ८ स ८ ८.९९९९ ८।९९९९९ ८.९९९९९।
दत्वा शेषकभागं अवधिदर्शनावरणस्य दद्यात् । अन्तरायपञ्चकस्य स ० प्रतिभागभक्तबहुभागद्रव्यं पञ्चभि
अवधिदर्शनावरणको दें। पहले समान भागमें अपना-अपना एक भाग मिलानेपर चक्षुदर्शनावरण आदिका अपना-अपना देशघाती द्रव्य होता है। चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शना- २५ वरणके अपने-अपने सर्वघाती और देशघाती द्रव्योंको मिलानेपर उनके सर्वद्रव्यका प्रमाण होता है। शेष छह प्रकृतियों में सर्वघाती ही द्रव्य होता है।
___ अन्तराय कर्मके सर्वद्रव्यमें प्रतिभागका भाग दें। एक भागको अलग रख बहुभागके पाँच समान भाग करके एक-एक प्रकृतिको देवें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर १. म. वुदुइंतु ।
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२३६
गो० कर्मकाण्डे अनंतरं मोहनीयदोळु द्रव्यविभंजनक्के विशेषमुंटे'दु पेळ्दपरु :
मोहे मिच्छत्तादी सत्तरसण्हं तु दिज्जदे हीणं ।
संजलणाणं भागेव होदि पणणोकसायाणं ।।२०२॥ मोहे मिथ्यात्वादीनां सप्तदशानां तु दीयते हीनं। संज्वलनानां भागे इव भवति पंच नोकषायाणां ॥
मिथ्यात्वादीनां सप्तदशानां मिथ्यात्व अनंतानुबंधिलोममायाक्रोधमानं संज्वलनलोभमायाक्रोधमानं, प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानमप्रत्याख्यानलोभमाया क्रोधमानमें बी सप्तदशप्रकृतिगळोळ होनं दीयते होनक्रमदिदं कुडल्पडुगुं। संज्वलनानां भागे इव भवति पंच नोकषायाणां
संज्वलनंगळ भागेयोळेतु वक्ष्यमाणदेयक्रममते वेदत्रयरत्यरति । हास्यशोक । भय जुगुप्सयुमेंब १. पंचप्रकृतिस्थानकंगळोळं देयक्रममक्कुमते दोडे पेळदपरु :
संजलणभागबहुभागद्धं अकसायसंगयं दव्वं ।
इगिभागसहियबहुभागद्धं संजलणपडिबद्धं ॥२०३।। संज्वलनभागबहुभागार्द्धमकषायसंगतं द्रव्यं । एकभागसहितबहुभागाद्धं संज्वलनप्रतिबद्धं ॥ भक्त्वा प्रत्येक देयम् । शेषकभागे प्रतिभागभक्तबहभागं बहभागं अधिकक्रमेण दत्वा शेषकभागं दानान्तराये १५ दद्यात् । एवं दत्ते सति अधिकक्रमा भवन्ति ॥२०१॥
अथ मोहनीयस्य विशेषमाह
मिथ्यात्वानन्तानुबंधिसंज्वलनप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानानां सप्तदशानां हीनक्रमेण दीयते । संज्वलनानां भागे इव वेदत्रयरत्यरतिहास्यशोकभयजुगुप्सानां देयक्रमो भवति ॥२०२॥ तद्यथा
बहुभाग वीर्यान्तरायको दें। शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग उपभोगान्तरायको दे। इसी प्रकार एक भागमें प्रतिभाग दे-देकर बहुभाग भोगान्तरायको फिर लाभान्तरायको दें। शेष एक भाग दानान्तरायको देना । पहले पाँच समान भागोंमें पीछेसे दिये एक-एक भागको मिलानेपर अपने-अपने द्रव्यका प्रमाण होता है। अन्तरायकर्म देशघाती है इससे इसमें सर्वघातीका बँटवारा नहीं है। तथा सर्वत्र प्रतिभागका प्रमाण आवलीका
असंख्यातवाँ भाग है ।।२०१।।। २५ मोहनीय कर्म में कुछ विशेष है उसे कहते हैं
मोहनीय कर्ममें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी लोभ, माया, क्रोध, मान, संज्वलन, लोभ, माया, क्रोध मान, प्रत्याख्यानावरण लोभ, माया, क्रोधमान, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, माया, क्रोधमान, इन सतरह प्रकृतियों में क्रमसे हीन द्रव्य देना । पाँच नोकषायोंका भाग संज्वलनके
भागके बराबर होता है। नोकषाय नौ हैं किन्तु एक समयमें उनमें-से पाँच ही बँधती हैं। ३० तीन वेदोंमें-से एक समयमें एक ही वेद बँधता है। रति-अरतिमें-से भी एक समयमें एक ही
बँधती है। हास्य और शोकमें-से एक समय में एकका ही बन्ध होता है। भय और जुगुप्सा दोनों बंधती हैं। इस तरह एक साथ पाँच ही बंधती हैं ॥२०२॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
इल्लि मोहनीयसर्व्वद्रव्यमिदु स इदं सर्व्वघातिदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यनिमित्तमागि बीत
८
रागसव्र्व्वज्ञदृष्टानन्तप्रतिभागवदं भागिसि बंद लब्धमेकभागमिदु ।
स
८। ख
T
द्रव्यमक्कुं । शेषबहुभागद्रव्यं वेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यमक्कु स ख मिल्लि गुणकारभूतानन्तदोळेक
८। ख
J
रूपहीनतेय नवगणिसि भाज्य भागहार भूतानन्तंगळन पर्वात्तसि कळेदु हिदुदनिदं स समयप्रब
८
1
१ सर्व्वघातिप्रतिबद्ध
1
८।९
द्वाष्टमभागप्रमितमनावल्यसंख्यातैकभागमात्र प्रतिभागदिदं भागिति बहुभागमनिदं स ८ संज्वलनकषायं गळ्गमकषायंगळगं पसल्वेडि द्विरूपद भागिसिदर्द्धमनोंदु भागद्रव्यमनकषायंग. गित स ०८ शेषबहुभागाद्वं द्रव्यमुमेकभागमुं सहितमागि संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यमक्कुं
1
८।९।२
शेषबहुभागो देशघातिप्रतिबद्धं भवति स
1
अत्र मोहनीय सर्वद्रव्यमिदं स अनन्तेन भक्त्वा एकभागः स १ सर्वघातिप्रतिबद्धं भवति ।
८
८ ख
२३७
0
योरपवर्तने स समय प्रबद्धाष्टमभागः । तमावल्यसंख्यातेन भक्त्वा बहुभागः स ०८
८
८९
ख । अत्र गुणकारे एकोनतामवगणय्य भाज्यभागहारभूतानन्त
८ ख
द्वाभ्यां
स ८ अकषायाणां देयः । शेषबहुभागार्द्धमेकभागं संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धं भवति स ८ उक्त त्रि
८।९।२
८९ । २
भक्त्वा
पूर्व में जो मोहनीय कमका सर्वद्रव्य कहा था, उसमें अनन्तसे भाग दें । उसमें से एक भाग प्रमाण सर्वघाती द्रव्य है और शेष बहुभाग प्रमाण देशघाती द्रव्य है । उस देशघाती द्रव्य में आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग दें । जो बहुभाग आवे उसका आधा तो नोकषायको दें । तथा बहुभागका आधा और एक भाग संज्वलन सम्बन्धी देशघाती द्रव्य होता है । इस प्रकार ये तीन द्रव्य हुए। उसमें से प्रथम सर्वघाती द्रव्यका विभाग करते हैं
सर्वघाती द्रव्यमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रतिभागसे भाग दें। एक भागको अलग रख शेष बहुभागके सतरह भाग करें। और एक-एक समान भाग एक-एक
१०
१५
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________________
२३८
२०
ई मोहनी त्रिविधद्रव्यंगळोळु सर्व्वघातिप्रतिबद्धद्रव्यमं स ० १
८१ ख
1
स
१
८ १९ २
।
स ०१
८ ।९
सर्व्वघातिगळगे होनक्रमदिदं पसल्वेडि आवल्यसंख्यातप्रमितप्रतिभागविदं भागिसि बंद लब्धम
1
1
नेकभागमं बेरिरिति स ० १ बहुभागद्रव्यमनिदं स०८ बहुभागे समभागो बंधानामे दिन्दु
८ । ख ।९
८०१९
बहुभागमं सरियागि सप्तदशप्रकृतिगळगं पसल्वेडि त्रैराशिकं माडल्पडुगुमदे ते बोर्ड समदशप्रकृति - ५ गळगे मल्लमिनितु द्रव्यमागलागळेक प्रकृतिरोनितु द्रव्यमक्कुमे विन्तु त्रैराशिक माडि प्र १७ । फ
मदं प्रत्येकं सप्तदशप्रकृति
गो० कर्मकाण्डे
I इ १ बंदलब्ध मेक प्रकृतिप्रतिबद्ध द्रव्यमक्कुस ०८
८। ख ।९
I विषद्रव्येषु सर्वघातीदं स १
८ ख
।
1
गोल क्रमदिवमित्तु शेषैकभागवो छु स ०१ मत्तं प्रतिभाग भक्तबहुभागमं
८ ख ९
८ । ख ।९१९
स ०८ बहुभागो बहुकस्य देयः ये वितु होनक्रर्मादिदं देयमप्पुर्दारदं मिथ्यात्वप्रकृतिगित्तु शेषैकभागदोळु मत्तं प्रतिभागभक्तबहुभागमं स ८ अनंतानुबंधिला भदोळितु शेषैकभागदोळमी प्रकारदिदं प्रति१० भागभक्तबहुभागंगळननन्तानुबंधिमायाकषायादिगळोल क्रमविनीयुत्तं पोगि अप्रत्याख्यानक्रोधबोळ बहुभागमुमिनित्तु । तत्रत्यचरमशेषैकभागमं स ० १
८ ख ९९९
अप्रत्याख्यानमानकषा
८ । ख । ९९ । ०० । १७
स८ सप्तदशभिर्भक्त्वा स ८ ८ ख ९ ८ ख ९ । १७
८ । ख ।९१७
मिथ्यात्वादि समवश
आवल्यसंख्यातेन भक्त्वा एकभागं स १ पृथक् संस्थाप्य बहुभागः ८ ख ९
भक्तबहुभागं बहुभागं मिथ्यात्वादिषु षोडशसुं क्रमेण दत्वा एकभागं स ० १
८ ख ९।१७
प्रत्येकं सप्तदशसु स्थानेषु देयः । शेषैकभागे स व १ प्रतिभाग८ व ९
अप्रत्यास्थानमाने दद्यात् ।
१५
प्रकृतिको देवें । जो एक भाग रहा उसमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग मिध्यात्वको दें । पुनः शेष एक भाग में प्रतिभागसे भागं देकर बहुभाग अनन्तानुबन्धी लोभ को दें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग अनन्तानुबन्धी मायाको दें । इसी प्रकार शेष रहे एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग क्रमसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, संज्वलन लोभ, संज्वलन माया, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, प्रत्याख्यान लोभ, प्रत्याख्यान माया, प्रत्याख्यान क्रोध प्रत्याख्यान मान, अप्रत्याख्यान लोभ, अप्रत्याख्यान माया, अप्रत्याख्यान क्रोध को देना । और अन्तमें शेष रहा एक भाग अप्रत्याख्यान मानको देना ।
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कर्णाटवृत्ति बोबतत्त्वप्रदोपिका यक्के कुडुवुदु । द्वितीयसंज्वलनप्रतिबद्धदेशघातिद्रव्यमं स्थापिसि स १८ एकभागद्रव्यमनेर
८.९।२
स१ ८॥९
डरिद समच्छेदनिमित्तमागि गुणिसि सः २
यदरोळेकरूपं तंगदुको डु स. १.
८।९।२
८।९।२
बहुभागार्द्धदोन्कडि स.८ आवल्यसंख्यातमनावल्यसंख्यातक्के सरिगळ्दुः स ।
८।९।२ मुन्नमेकरूपं तेगेदुळिदेकभागार्द्धमं स.१ असंख्यातेकभागमं साधिक माडि स प्रति८.९।२
८१२ भागभक्तबहुभागमं स०८ बहुभागे समभाग एंदु बहुभागं नाल्करोळं सममप्पुदरिंदं नाल्करि ५
८।२।९ भागिसि स३८... चतुशिंगळं प्रत्येकं नाल्केडेयोळं स्थापिसि शेयकभागबोछ
स . १ प्रतिभागभक्तबहुभागमं स३८ बहुभागो बहुकस्य देयः एंविन्तु संज्वलनलोभवो.
८२१९
८।२।९
.
द्वितीय संज्वलनदेशघातिद्रव्यं स ८ संस्थाप्य अषस्तनमेकभागद्रव्यं द्वाभ्यां समुच्छिध स०२ अर्भक८९२
८९२
स
१
स १ बहभागाबै निक्षिप्य स ८ आवल्यसंख्यातं आवल्यसंख्यातेन अपवर्त्य स ८९२ ८।९।२
८॥२
शेषकभागाधं स ०१ असंख्यातकभागं साधिकं कृत्वा स ।१ प्रतिभागभक्तबहभागः स८ चतु.. ८।२
८२
८२९
भिर्भक्त्वा स । ८ चतुर्षु स्थानेषु प्रत्येक देयः । शेषकभागे स . १ प्रतिभागभक्तबहुभागः स. ८ ८२९४
८२ ९९ सो जो पहले सतरह समान भाग कहे थे उनके एक-एक भागमें पीछे कहे अपने-अपने भागको मिलानेसे अपना-अपना सर्वघाती द्रव्यका प्रमाण होता है।
दूसरे संज्वलनके देशघाती द्रव्यके प्रमाणमें प्रतिभागसे भाग देकर एक भागको अलग रख शेष बहुभागके चार समान भाग करके चारोंको दें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग १५ देकर बहुभाग संज्वलन लोभको दें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग संज्वलन
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________________
गो० कर्मकाण्डे
नित्तु शेषेकभागदोळ स. १... प्रतिभागभक्तबहुभागमं स०५, संज्वलनमायाकषायक्कित्तु
८।२।९९९
शेषेकभागदोळु स . १ प्रतिभागभक्तबहुभागमं स०८ संज्वलनक्रोधकषायदो।२।९९९
८।२।९९९९ सज्वलनकाधकषायदोळित्तु शेषेकभागमं स १ . संज्वलनमानकषायक्के कुडुवुदु । अंतु कुडुत्तं विरलु
होनक्रमदेयमक्कुं। ५ मत्तं तृतीयनोकषायप्रतिबद्धद्रव्यमनिदं स ८ गुणकारदोळेकरूपहीनतेयनवगणिसि
८।२। ९९९९
८।९।२
८।२।९९१ भाज्यभागहारभूतावल्यसंख्यातंगळनपत्तिसि कळदु शेषद्रव्यमनिदं स० प्रति.
भागदिदं भागिसि बहुभागद्रव्यम स०८ बहुमागे समभागो बंधानामेंदु बहुभागोळु बंधप्रकृति
८।२।९
संज्वलनलोभे देयः । शेषकभागे स३१ प्रतिभागबहभागः स०८ संज्वलनमायायां देयः । शेष क
८२९९
८२९९९
भागे स ०१ प्रतिभागभक्तबहभागः स ८ संज्वलनक्रोधे देयः । शेषकभार्ग स१ ८२९९९ ८२ ९९९९
८२९९९९
१० संज्वलनमाने दद्यात् । एवं दत्ते सति हीनक्रमेण दत्तं भवति । पुनः तृतीयं नोकषायप्रतिबद्धद्रव्यमिदं स ०८
८ २९
गुणकारे एकरूपहीनतामवगणय्य भाज्यभागहारी आवल्यसंख्याती अपवयं स ० प्रतिभागेन भक्त्वा बहु
८२
भागस्य स । ८ पञ्चशः पञ्चसु स्थानेषु प्रत्येकं स २८ देयः । शेषकभागे स०१
८२९५
८२९
प्रतिभागभक्तबहु
मायाको दें। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग संज्वलन क्रोधको दें। शेष
एक भाग संज्वलन मानको दें। पहले कहे चार समान भागोंमें पीछे कहा अपना-अपना १५ एक भाग मिलानेसे अपने-अपने देशघाती द्रव्यका प्रमाण होता है सो संज्वलन कषायकी चार प्रकृतियोंके देशघाती और सर्वघाती द्रव्यको मिलानेसे सर्वद्रव्यका प्रमाण होता है ।
मिथ्यात्व और बारह कषायका द्रव्य सर्वघाती ही है और नोकषायोंका सब द्रव्य अघाती ही है। उनका बँटवारा कहते हैं-पूर्व में जो नोकषाय सम्बन्धी तीसरा द्रव्य कहा, उसमें प्रतिभागका भाग देकर एक भागको अलंग रख बहुभागके पाँच समान भाग करके
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।
२।
९
८.२९९
८।२।९९९
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२४१ गळ्गे समभागमक्कुमप्पुरिदं। वेदत्रितयादिपंचस्यानंगळोळं प्रत्येक पंचमांशमं स्थापिसि स८ शेषेक भागदोळु स १ प्रतिभागभक्तबहुभागद्रव्यम स८
८।२।९।५ बहुभागो बहुकस्य देय एंदितु वेदत्रितयक्के कोट्टु शेषकभागोळु स. १ प्रतिभागभक्तबहु
८।२।९९ भागमं स०८. रत्यरतिगळिगत्तु शेषेकभागदोळ स०१ प्रतिभागभक्तबहुभागमं
८।२।९९९ स०८ हास्यशोकंगळिगत्तु शेषेकभागवोळु स०१ प्रतिभागभक्तबहुभागमं ५ ८।२।९९९९
८।२।९९९९ स०८ भयनोकषायक्कित्तु शेषैकभागमं स. १ ८।२।९९९९९
. जुगुप्सानोकषायक्कित
८।२ । ९९९९९ कळेवुदंतीवुत्तमिरलु नोकषायपिंडप्रकृतिद्रव्यक्के विभागविशेषमुंटवावुदे दो पेन्दपरु :
तण्णोकषायभागो सबंधपणणोकसायपयडीसु।।
हीणकमो होदि तहा देसे देसावरणदव्वं ॥२०४॥ तन्नोकषायभागः सबंधपंचनोकषायप्रकृतिषु। होनक्रमो भवति तथा देशे देशावरणद्रव्यं ॥ १०
भागः स ३८ वेदत्रये देयः । शेषेकभागे स १ प्रतिभागभक्तबहुभागः स ०८ रत्यरत्योर्देयः । ८२ ९९ ८२९९
८२९९९
शेषकभागे स१ प्रतिभागभक्तबहभागः स८ हास्यशोकयोर्देयः । शेषकभागे स१ ८२९९९ ८२९९९९
८२ ९ ९९९
प्रतिभागभक्तबहुभागः स०८ भये देयः। शेषेकभागं स१ जुगुप्सायां दद्यात् ॥२०३।। ८२९९९९९
८२९९९९९ एवं दत्ते नोकषायपिण्डप्रकृतिद्रव्यस्य विशेषमाह
पाँचों प्रकृतियोंको देवें। शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर एक भागको अलग रख १५ बहुभाग तीनों वेदोंमें-से जिसका बन्ध हो उसे देवें। एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग रति और अरतिमें-से जिसका बन्ध हो उसे देवें। शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग हास्य और शोकमें-से जिसका बन्ध हो उसे देवें । शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग भयको देना । शेष एक भाग जुगुप्साको देना। पहले कहे समान पाँच भागोंमें से एक-एकमें पीछे कहा अपना-अपना एक भाग मिलानेपर अपने-अपने द्रव्यका २० प्रमाण होता है ॥२०॥
इस प्रकार देनेपर नोकषायरूप पिण्ड प्रकृतिके द्रव्यमें कुछ विशेष है वह कहते हैंक-३१
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२४२
गो० कर्मकाण्डे
८।
२।९
ई पेळल्पट्ट नोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं स ० ८. सबंधएंचनोकषायप्रकृतिषु सहबंधंगळप्प पुवेदरतिहास्यभयजुगुप्साप्रकृतिपंचकदोळं मिथ्यादृष्टि मोदल्गोंडु अपूर्वकरणपय्यंतमाद गुणस्थानत्तिगळ्गे होनक्रम देयमक्कुं मेणु पुंवेद। अरति । शोक । भय । जुगुप्सा प्रकृतिपंचकदोळु मिथ्यावृष्टिमोदलगोंडु प्रमत्तपय॑न्तमाद षड्गुणस्थानत्तिगळ्गे होनक्रमं देयमक्कुं। स्त्रीवेद५ रतिहास्यभयजुगुप्साप्रकृतिपंचकदोळं मेणु स्त्रीवेद-अरतिशोक-भयजुगुप्साप्रकृतिपंचकदोळं मिथ्यादृष्टिगं सासादनंग होनक्रम देयमक्कुं। नपुंसकवेद रतिहास्य भयजुगुप्सा प्रकृति पंचकदोळं मेणु नपुंसकवेद अरति शोक भय-जुगुप्सा प्रकृतिपंचकदोळं मिथ्यादृष्टियोळे होनक्रम देयमक्कुं। अनिवृत्तिकरणदोळु पुवेद नोकषायमोंदे बंधमप्पुरिंदमकषायप्रतिबद्धद्रव्यमनितु मनिवृत्तिसवेद
भागे पर्य्यन्तमदरोळेयक्कुम बी विशेषमरियल्पडुगुं । देशे देशघाति संज्वलनकषायदोळु देशावरण१. द्रव्यं संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यं स तथा संबंधप्रकृतिषु अहंगे सहबंधप्रकृतिगळोळु होन
क्रम देयमक्कुमदेते दोडे मिथ्यादृष्टिमोदल्गोंडु अनिवृत्तिकरणक्रोधबंधभागे पथ्यंत सहबंधसंज्वलन चतुष्टयदोळ होनक्रम देयमक्कुं। क्रोधबंधोपरतानिवृत्तितृतीयभागदोळु सहबंधसंज्वलन
८।
२
तन्नोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं स ८ संबन्धपञ्चकनोकषायप्रकृतिषु पुवेदरतिहास्यभयजुगुप्सासु अपूर्व
८२९ करणान्तानां वा पुंवेदारतिशोकभयजुगुप्सासु प्रमत्तांतानां स्त्रोवेदरतिहास्यभयजुगुप्सासु स्त्रीवेद-अरति-शोकभय" जगप्सासु मिथ्यादृष्टिसासादनयोः नपुंसकवेदरतिहास्यभयजुगुप्सासु वा नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सासु मिथ्या
दृष्टश्च होनक्रमेण देयम् । अनिवृत्तिकरणे एकः पुंवेद एव बध्यते, तेन अकषायप्रतिबद्धद्रव्यं सर्व सवेदभागपर्यंतं
तत्रैव देयं इति विशेषो ज्ञातव्यः। देशघातिसंज्वलनकषाये देशावरणद्रव्यं स सबन्धप्रकृतिषु हीनक्रमेण
८२ देयम् । तद्यथा
नोकषाय सम्बन्धी द्रव्य एक साथ बँधनेवाली पाँच नोकषायोंमें हीनक्रमसे देना चाहिए । सो मिथ्यादृष्टिसे लगाकर पुरुषवेद, रति, हास्य, भय और जुगुप्साका अपूर्वकरण पर्यन्त अथवा पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्साका प्रमत्त पर्यन्त एक साथ बन्ध होता है । तथा स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्साका मिथ्यादृष्टि और सासादनमें एक साथ बन्ध होता है। तथा नपुंसक वेद, रति, हास्य, भय, जुगुप्साका अथवा नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्साका मिथ्यादृष्टि में एक साथ बन्ध होता है। सो नोकषाय सम्बन्धी द्रव्यका बँटवारा जैसे पूर्व में कहा है उसी प्रकार जिन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध हो उनको क्रमसे हीन-हीन देना। अनिवृत्तिकरणमें एक पुरुषवेदका ही बन्ध होता है अतः वहाँ सवेद भाग पर्यन्त नोकषाय सम्बन्धी सब द्रव्य एक पुरुषवेदको ही देना चाहिए। तथा देशघाती संज्वलन कषायका देशघाती द्रव्य, एक साथ जितनी प्रकृतियाँ बँधे उनको हीनक्रमसे देना चाहिए। सो
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२४३ कषायत्रयदोळु होनक्रम देयमकुं। मानबंधोपरतानिवृत्तिकरणचतुर्त्यभागदोळु संज्वलनकषायद्वय. दो होनक्रमं देयमकुं। मायाबंधोपरतानिवृत्तिपंचमभागदोळ संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यमनितुं लोभसंज्वलनकषायदोळे यक्कुं॥ अनंतरं सबंधनोकषायंगळ्गे निरंतरबंधाद्धा प्रमाणमं पेन्दपरु :
पुंबंधद्धा अंतोमुहुत्त इथिम्मि हस्सजुगले य । __ अरदिजुगे संखगुणा णउंसगद्धा विसेसहिया ॥२०५॥
पुंबंधाद्धःऽन्तर्मुहर्त स्त्रियां हास्ययुगळे च अरतिद्विके संख्यगुणा नपुंसकाद्धा विशेषाधिका ॥
पुंवेदक्के निरंतरबंद्धाद्धे जिनदृष्टान्तर्मुहूत्तमिदु । २३ । २। संख्यातगुणितसंख्यातावलि. प्रमितमक्कुं। स्त्रियां स्त्रीवेदक्के निरंतरबंधाद्धेयदं नोडलु संख्यातगुणितमक्कु। २१ । ४ मिदं १० नोडलु हास्ययुगले च हास्यरतिगळ्गे निरंतरबंधाद्धे संख्यातगुणितमक्कु । २१ । १६ । मिवं नोडलु अरतितिके अरतिशोकंगळ निरंतरबंधाद्धे संखगुणा संख्यातगुणितमकुं । २१ । ३२ । नपुंसकाद्धा नपुंसकवेदनिरंतरबंधाद्धयरतिद्विकाद्धेयं नोडलु विषाधिका विशेषाधिकमक्कुं। २१ । ४२। इल्लि वेदत्रयालाकेगळं कूडिवोडे अन्तम्मुंहतंशलाकगळु नाल्वत्ते टप्पुवु। २१। ४८ । हास्यद्विकारतिद्विकान्तर्मुहूर्तशलाकेगळं कूडिदोडेयुं तावन्मात्रंगळप्पुवु । २१ । ४८॥ १५
मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिकरणक्रोधबन्धभागपर्यंत सहबन्धसंज्वलनचतुष्टये क्रोधबन्धोपरतानिवृत्तितृतीयभागे सहबन्धसंज्वलनत्रये मानबन्धोपरतानिवृत्तिकरणचतुर्थभागे संज्वलनद्वये च होनक्रमेण देयम् । मायाबन्धोपरतानिवृत्तिपञ्चमभागे संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यं सर्व लोभसंज्वलन एव देयम् ॥२०४॥ अथ सबन्धनोकषायाणां निरन्तरं बन्धाद्धां प्रमाणयति
पुंवेदस्य निरन्तरबन्धादा जिनदृष्टान्तर्मुहुर्तः २१ । २ स च 'संख्यातावलिमात्रः । स्त्रीवेदे ततः २० संख्यातगुणः २११४ अतो हास्यरत्योः संख्यातगुणः २१।१६ अतः अरतिशोकयोः संख्यातगुणः २१ । ३२ । ततः नपुंसकवेदे विशेषाधिकः २१। ४२ । अत्र वेदत्रयस्य मिलित्वा अंतर्मुहूर्तशलाकाः अष्टचत्वारिंशत् मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणके दूसरे भाग पर्यन्त चारोंमें बँटवारा करना चाहिए। तीसरे भागमें जहाँ क्रोधका बन्ध नहीं होता वहाँ तीनमें ही बँटवारा करना । चौथे भागमें जहाँ मानका भी बन्ध नहीं होता, दोमें ही बँटवारा करना। पाँचवें भागमें जहाँ मायाका २५ भी बन्ध नहीं होता वहाँ संज्वलनका सब देशघाती द्रव्य एक लोभको ही देना ।।२०४||
आगे बन्धको प्राप्त नोकषायोंके निरन्तर बन्ध होनेका काल कहते हैं- .
पुरुषवेदका निरन्तर बन्धकाल, जैसा जिनदेवने देखा तदनुसार अन्तर्मुहूते प्रमाण है । वह संख्यात आवली प्रमाण है। उसकी सहनानी (चिह्न) दो गुणा अन्तर्मुहूर्त है। स्त्रीवेदका निरन्तर बन्धकाल उससे संख्यात गुणा है। उसकी सहनानी चार गुणा अन्तमुहूर्त ३० है। हास्य और रतिका उससे भी संख्यातगुणा है। उसकी सहनानी सोलह गुणा अन्तर्मुहूर्त है। अरति और शोकका उससे भी संख्यातगुणा है। उसकी सहनानी बत्तीसगुणा अन्तर्मुहूर्त १. ब संख्यातगुणितसंख्यातावलि ।
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२४४
गो० कर्मकाण्डे यिन्नु त्रैराशिकंगळु माडल्पडुवुवदेत दोडे वेदत्रयदिनितंतम्मुंहतंगळगेस्लमिनितुं द्रव्यमागुत्तिरलागळिनितंतम्मुहूर्तशलाकेगळ्गेनितु द्रव्यमक्कूमें दिन्तनुपातत्रैराशिकमं माडि प्र.मु२१ । ४८ । फ- स ० इ। मु २३।२। बंद लब्धं पुवेदप्रतिबद्धद्रव्यं स्तोकमक्कुं स २ मतमित ८।१०
८।१०। ४८ प्र मु २१ । ४८ । फ स . इ। मु। २१ । ४। बंद लब्धं स्त्रीवेदप्रतिबद्धद्रव्यं संख्यातगुणित
८।१० ५ द्रव्यमक्कुं स । । ४ मत्तमंते प्रमु२१ ॥ ४८ । फ स इ। मु। २१ । ४२। बंद
८।१०। ४८ लब्ध नपुंसकवेद प्रतिबद्धद्रव्यं संख्यातगुणितमकुं स ०४२... मत्तमो प्रकारदिवं हास्य
८।१०।४८ प्रत्यरतिशोकंगळगं मुहूत्तंशलाकेगळु प्रमु । २३ ॥ ४८ । फ स इमु । २५ ॥ १६ ॥ बंद लब्धं
८।१०
८।१०
रतिनोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं स्तोकमक्कुं स = १६ मत्तमंते प्रमु २१ । ४८ । फ स= इमु
८।१०। ४८
८।१०
२१ । ४८ । हास्यद्विकारतिद्विकयोरपि तावत्यः २१ । ४८। यदि वेदत्रयस्य तावतीनां एतावद्रव्यं तदा १. एतावतीनां कियत् ? इति प्र मु २ १ । ४८ । फ। स इमु २१।२ लब्धं पुंवेदप्रतिबद्धद्रव्यं स्तोकं
८।१०
स।। २ ८।१०।४८
तथा प्रमु २१। ४८ फ स ० इमु २१४ लब्धं स्त्रीवेदस्य संख्यातगुणं स ०४ ८ १०
८१०४८
तथा प्र मु २१४८ । फ स . इमु २१। ४२ लब्धं नपुंसकवेदस्य संख्यातगुणं स ।। ४२ एवं प्र ८१०
८१.४८
है। नपुंसक वेदका उससे कुछ अधिक है। उसकी सहनानी बयालीस गुणा अन्तर्मुहूर्त है। तीनों वेदोंका काल मिलानेपर २+४+४२ =अड़तालीस अन्तर्मुहूर्त होता है। हास्य-शोक
और रति-अरतिका काल मिलानेपर भी १६+ ३२ अड़तालीस मुहूर्त होता है। मिले हुए कालको प्रमाण राशि, पिण्डरूप द्रव्यको फलराशि, और अपने-अपने कालको इच्छाराशि करनेपर त्रैराशिक द्वारा लब्धराशिमे अपने-अपने द्रव्यका प्रमाण आता है।
सो तीनों वेदोंके सत्तामें स्थित द्रव्यका जो प्रमाण है उसको तीनोंके मिले हुए कालकी सहनानी अड़तालीस मुहूर्तसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसको पुरुषवेदके कालको २० सहनानी दो अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना पुरुषवेद सम्बन्धी द्रव्य
जानना। यह सबसे थोड़ा है। तथा स्त्रीवेदके कालकी सहनानी चार अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना स्त्रीवेद सम्बन्धी द्रव्य है। यह पुरुषवेदके द्रव्यसे संख्यातगुणा
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•
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२४५
।
२३ । ३२ | बंद लब्धम रतिनोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं संख्यातगुणमक्कुं । स = ३२ मत्तमो प्रका८।१०।४८
दिदं प्रमु २१ । ४८ । फ स a = ८ । १०
इ मु २१ । १६ । बंद लब्धं हास्यनोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं
1
संख्यातगुणहीन मक्कुस १६ मत्तमन्ते प्रभु २१ । ४८ । फ
८ । १० । ४८
I
लब्धं शोकनोकषायप्रतिबद्धद्रव्यं संख्यातगुणितमकुं स = ३२
८।१०।४८
।
सa =
८।१०
सबंध पंचनोकषाय प्रकृति
गळु क्रमदिद विशेषहोनक्र मंगळादोडं पिडंगळगे तम्मोळु कालसंचयमनाश्रयिसि उक्तप्रकाविर्द ५ द्रव्यविभंजनं तंतम्म बंधकालदोळप्पु ॥
मु२३४८ | फस मे इ २११६ । लब्धं रतिनोकषायस्य स्तोकं स ० १६ तथा प्रमु २१४८ । ८१० ८ १०४८
इ । मु. २१३२ । बंद
|
I
फस- इमु २ १ ३२ लब्धं अरतिनो कप | यस्य संख्यातगुणं स ० - ३२ एवं प्रमु २१४८फ स
८१०
८१०४८
इमु २११६ लब्धं हास्यनोकषायस्य संख्यातगुणहीनं स
}
= १६ तथा प्रमु २१ । ४८ फस ८ । १०४८ ८१०
1 इमु २ १ । ३२ लब्धं शोकनोकषायस्य संख्यातगुणं - ३२ सबन्धपञ्च नोकषायाः विशेषहीनक्रमा १०
८१०४८
अपि पिण्डानां परस्परं कालसंचयमाश्रित्य उक्तप्रकारेण द्रव्यविभंजनस्वस्वबन्धकाले भवति ॥ २०५ ॥
है । तथा नपुंसक वेदके कालकी सहनांनी बयालीस अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे उतना नपुंसकवेद सम्बन्धी द्रव्य है । यह स्त्रीवेद के द्रव्य से संख्यातगुणा है । रति और अरति सम्बन्धी द्रव्यको अड़तालीस अन्तर्मुहूर्त से भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसको रतिके काल सोलह अन्तर्मुहूर्त से गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वह रति सम्बन्धी द्रव्य जानना । १५ वह थोड़ा है । तथा अरतिके काल बत्तीस अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वह अरति सम्बन्धी द्रव्य जानना । वह रतिके द्रव्यसे संख्यातगुणा है । तथा हास्य और शोक सम्बन्धी द्रव्यको अड़तालीस अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसे हास्यके काल सोलह अन्तर्मुहूर्त से गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना हास्य सम्बन्धी द्रव्य है । तथा शोकके काल बत्तीस अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वह शोक सम्बन्धी द्रव्य है । वह २० हास्य के द्रव्य से संख्यातगुणा है । इस प्रकार जिनका एक साथ बन्ध होता है उन पाँच नोकषायका द्रव्य पूर्वोक्त क्रमसे हीन हीन होता है । तथापि पिण्डरूप में नाना कालमें एकत्र होकी अपेक्षा इस प्रकार से द्रव्यका बँटवारा अपने-अपने बन्ध कालमें होता है । सो तीन वेदका एक पिण्ड होता है। रति-अरतिका एक पिण्ड होता है । हास्य-शोकका एक पिण्ड होता है ||२०५||
८१०
1
२५
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________________
२४६
गो० कर्मकाण्डे अनंतरं पंचविघ्नदोळं सहबंपिंडापिंडनामबंधस्थानंगळोळं विपरीतदेयक्रममेंदु पेन्दपरु :
पणविग्घे विवरीयं सबंधपिडिदरणामठाणे वि ।
पिंडं दव्वं च पुणो सबंधसगपिंडपयडीसु ॥२०६॥ पंचविघ्ने विपरीतः सबंपिंडेतरनामस्थानेऽपि । पिंडद्रव्यं च पुनः सबंधस्वपिंडप्रकृतिषु ॥ पंचानां दानादीनां विघ्नः पंचविघ्नस्तस्मिन् । दानादिविघ्नपंचकदोळं विपरीतः मुंपेन्ददिदमधिकक्रमं देयमक्कुं। सबंपिंडेतरनामस्थाने पिंडाश्चेतराश्च पिडेतराः सहबंधोदया सांताः सबंधाः पिंडेतरा यस्मिन् तच्च तन्नामस्थानं च तस्मिन् सबंपिडेतरनासस्थानेऽपि विपरीतः पिंडापिंडसबंधनामबंधस्थानदोळं प्रकृतिपाठक्रमदोळु घातिगळगेतु होनक्रममन्तल्लदधिकक्रमप्पु१० दरिद पंचविघ्नदोळे तंत अधिकक्रममक्कुमदेत दोडे नामकर्मसर्वद्रव्यामिदु स ८ यिदं केळगण
असंख्यातेकभागमं साधिकर्म माडि स । । ८ साधिकबहुभागदोळेकरूपहीनतयनवगणिसि भाज्य
८९
भागहारंगळनपत्तिसि शेषद्रव्यमनिद स. नेकविंशतिसहबंध पिडापिडप्रकृतिगळु तिर्यग्गति
अथ विघ्नपञ्चके नामबन्धस्थानेषु चाह
पञ्चदानाद्यन्तरायेषु प्रामुक्तक्रमाद्विपरीतोऽधिकक्रमो भवति पुनः सबन्धपिण्डेतरनामस्थानेऽपि विपरीतः।
८ अौकरूपहीनता
१५ तद्यथा-नामकर्मसर्वद्रव्यमिदं स २८ अधस्तनासंख्याकभागं साधिकं कृत्वा स
८९
९९९९९ । २
मवगणय्य भाज्यभागहारावपवाद स
त्रयोविंशतिकस्थानस्य सहबन्धपिण्डप्रकृतिषु तिर्यग्गत्येकेन्द्रियो
८
__आगे अन्तरायकी पाँच प्रकृति और नामकर्म के बन्धस्थानोंमें कहते हैं
पाँच दानान्तराय आदिमें पूर्वोक्त क्रमसे विपरीत उत्तरोत्तर अधिक-अधिक द्रव्य जानना। तथा नामकर्मके स्थानों में एक साथ बँधनेवाली नामकर्मकी गति आदिरूप पिण्ड २० प्रकृति और अगुरुलघु आदि अपिण्ड रूप प्रकृतियोंमें भी विपरीत अर्थात् उत्तरोत्तर अधिक द्रव्य जानना । वही कहते हैं
एक साथ जिनका बन्ध होता है ऐसा नामकर्मका स्थान तेईस प्रकृतिवाला है यथातियचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक, तेजस् कार्मण शरीर, हुण्डक संस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तियचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर,
.
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________________
२४७
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका एकेंद्रियजाति औदारिक तैजसकार्मणपिंडहुंडसंस्थानवर्णगंधरसस्पर्शतिय्यंगानुपूर्व्य अगुरुलघु उपघातस्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारणशरीर अस्थिरअशुभदुर्भग अनादेय अयशस्कोत्तिनिर्माणमें बी एकविंशतिसबंपिंडापिडप्रकृतिस्थानंगळोळ पसल्वेडि आवल्यसंख्यातेकभागप्रमितप्रतिभागदिदं भागिसि बहुभागमं स ।। ८ बहुभागे समभागो बंधाना स २ । ८ में देकविंशतिस्थानंगळोळ
८.९
९९९९।२
८।९।२१
८।९
८।९।९।१
मेकविंशति भक्तैकभागमं स ०।८ प्रत्येकमिरिसि शेषेकभागोलु स १ उक्तक्रमः ५ प्रतिभागभक्तबहुभागद्रव्यं स । ८ बहुकस्य देय एंदु प्रकृतिपाठक्रमदोलु तुदियिदं मोवल्वरं विपरोतमागि देयं होनक्रममप्पुरिदं निर्माणनामकर्मदोळु कुडल्पडुगुमन्ते शेषेकभागदोळु प्रतिभागभक्तबहुभागद्रव्यमयशस्कोत्तिनामदोळ कुडल्पडुगु स ।८ मन्ते शेषेकभागदोळु प्रतिभागभक्तबहुभागद्रव्यमनादेयनामदोळ कुडल्पडुगु स ।८ मिन्तु प्रतिभागभक्तशेषेकभागबहुभाग
८।९।९।२
दरिकतैजसकार्मणहुण्डसंस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शतिर्यगानुपूर्वागुरुलघूपघातस्यावरसूक्ष्मपर्याप्त साधारणास्थिराशुभ - १०
दुर्भगानादेयायशस्कीतिनिर्माणनाम्नीषु दातुं आवल्यसंख्यातेन भक्त्वा बहुभागः स ८ एकविंशत्या
भक्त्वा स ८
८९२१
प्रत्येक देयः । शेषेक भागे स
१ प्रतिभागभक्तबहभागः स । ८ निर्माणे
देयः । शेषेकभागे प्रतिभागभक्तबहुभागः अयशस्को? देयः स ८ शेषकभागे प्रतिभागभक्त
८९९।२
५
अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीर्ति और निर्माण । इन तेईस प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध । मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यच करता है। सो यह स्थान साधारण सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धपर्याप्तक भवको प्राप्त करनेके योग्य है अर्थात् इसका बन्ध करनेवाला मरकर साधारण सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक भवमें उत्पन्न होता है । इनका बँटवारा कहते हैं
पूर्वमें मूल प्रकृतियोंके बँटवारेमें जो नामकर्मका द्रव्य कहा है उसमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको अलग रख बहुभागके समान इक्कीस भाग करें। २०
और एक-एक भाग एक-एक प्रकृतिको देवें । यद्यपि बन्धमें तेईस प्रकृतियाँ हैं तथापि औदारिक, तैजस, कार्मण ये तीनों एक शरीर नामक पिण्डप्रकृतिमें आ जाती हैं और पिण्ड प्रकृतियों में एक-एक प्रकृतिका ही बन्ध है। इससे यहाँ इक्कीस भाग ही किये हैं। शेष रहे एक भागमें
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२४८
गो० कर्मकाण्डे
द्रव्यंगळ क्रमदिदं दुर्भगनामं मोदलागि एकेंद्रियजातिनामपय॑तं कुडल्पडुवुवु। तत्रत्य घरमशेषेकभागद्रव्यं स १ तिर्यग्गतिनामदोळु कुडल्पडुगुमिदुपलक्षणमिन्त शेषनामबंधस्थानं
८९।९।२० गळोळमरियल्पडुगुमी पेळल्पट्ट साधारणसूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवभवदोळुदयोचितत्रयोविंशति
प्रकृतिनामबंधस्थानस्वामिगळु तिग्मिनुष्यगतिद्वयमिथ्यादृष्टिजीवंगळप्परु । पिंडद्रव्यं च पुनः ५ शरीरनामपिंडप्रकृतिप्रतिबद्धद्रव्यं मत्ते स्वबंधस्वपिंडप्रकृतिषु सहबंधंगळप्प औदारिकतैजसकार्मण
शरीरनामस्वपिडप्रकृतिगळोळ औदारिकं मोदलागि तैजसकार्मणंगळोळु तम्मोळधिकक्रममक्कुमिन्तु त्रयोविंशतिनामसबंपिंडापिडप्रकृतिस्थानदोळेतु द्रव्यविभंजनमन्ते वक्ष्यमाण शेष । २५।२६।
बहुभागः स ० ८. अनादेये देयः । एवं प्रतिभागभक्तबहुभागं बहुभागं दुर्भगायेकेन्द्रियान्तेषु दत्वा
चरमशेषकभागं स १ तिर्यग्गतौ दद्यात् । इदमुपलक्षणं, तेन शेषनामबन्धस्थानेषु अपि ज्ञातव्यम् । इदं
८९९२० १० त्रयोविंशतिकं साधारणसूक्ष्मैकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकभवोदयोचितं नरतिर्यग्मिध्यादृष्टिरेव बध्नाति । पिण्डद्रव्यं च
पुनः शरीरनामपिण्डप्रकृतिप्रतिबद्धद्रव्यं पुनः सहबन्धौदारिकतैजसकार्मणेषु औदारिकतोऽधिकक्रमेण देयम् ।
-~~vvvvvvvvvvvvvv
आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रतिभागसे भाग दें। उसमें से बहुभाग अन्तमें कही निर्माण प्रकृतिको देवें। शेष रहे एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग अयशस्कीतिको
देना। शेष रहे एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग अनादेयको देवें। इसी प्रकार १५ शेष रहे एक भागमें प्रतिभागसे भाग दे-देकर बहुभाग क्रमसे दुर्भग, अशुभ, अस्थिर, साधा
रण, अपर्याप्त, सूक्ष्म, स्थावर, उपघात, अगुरुलघु, तिथंचानुपूर्वी, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, हुण्डक संस्थान, शरीररूप पिण्ड प्रकृति और एकेन्द्रिय जातिको देवें। शेष रहे एक भागको सबसे पहले कही तिथंचगतिको दें। सो पूर्वमें जो इक्कीस भाग कहे थे, उन एक-एक भागमें
अपना-अपना पीछे कहा भाग मिलानेसे अपनी-अपनी प्रकृतिका द्रव्य होता है। इसी प्रकार २० जहाँ एक साथ पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतियोंका एक
साथ बन्ध होता है उनका भी बँटवारा कर लेना। जहाँ ऊपर में एक यशस्कीर्तिका ही बन्ध होता है वहाँ नामकर्सका सब द्रव्य उस एक ही प्रकृतिको देना। इन स्थानों में पिण्ड प्रकृतिके द्रव्यका बंटवारा बन्धको प्राप्त पिण्ड प्रकृतिके भेदोंमें करना। जैसे तेईस प्राकृतिक स्थानमें
एक शरीर नामक पिण्ड प्रकृतिके तीन भेद हैं। सो बँटवारेमें शरीर प्रकृतिको जो द्रव्य मिला, २५ उसे प्रतिभागसे भाग देकर बहुभागके तीन समान भाग करके तीनोंको देना। शेष एक भागमें
प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग कार्माणको देना। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग तैजसको देना। शेष एक भाग औदारिकको देना। पूर्वोक्त समान भागमें इन भागोंको मिलानेपर अपना-अपना द्रव्य होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना। जहाँ पिण्डके भेदों में से एक ही का बन्ध हो वहाँ पिण्ड प्रकृतिका सब द्रव्य उस एक ही प्रकृतिको देना चाहिए।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२४९
२८।२९।३०। ३१ । १ । स्थानसबंधप्रकृतिगरंगेकचत्वारिंशज्जीवपवंगळोळ स्वामित्वमुं पेळल्पडुगुमप्पुवरिनिल्लि प्रवेशबंधप्रकरणवोळु द्रव्यविभंजनक्रममेकदेशदिवं सूचिसल्पट्टुवु: :
ति० गति एकेंद्रि
.
स ३८ ८९२१
।
1
स३।८ ८९ २१
स्पर्श
1
1
स ०१ स ८ स ३८ ८९९ २०८९१९/२० | ८||१९
अगुरु
स ०८
८९२१
स ०८ ८२२
I
स ०८
साधार
1
स ३८ ८९२१
1
स ०८
८२९१९१७
ति० अनु
1
औते का
I
अस्थिर
स८
८९२१
स ०८ ८९४२१
" स८ ८२९१९१६
अशुभ
1
स ०८ ८१९१२१
1
1
स ०८ स ०.८
स ०८
स ०८
स ०८ ८९९१४८९९।१३ ८४९१९|१२| ८९९।११८९९|१०| दा९९४९
स ०८ ८९२१
हुँ
स ०८ ८२९१९१५
उपघात
1
स ०८ ८९२१
वन
1
'
स ३८ ८९२१
1
स८
स ८ स ०८
स ३८ ८२९१९४१८ ८९ ९११७ | ८४९१९११६ | ८|२९|१५
दुभंग
स ३८ ८९२१
1
स ८ ८२९१९१४
स८ ८९२१
स्थावर
1
स ०८ ८९२१
अनावे 1
स ०८ ८१९१२१
गंध
1
स ०८ ८९२१
स ३८
८९९३
सूक्ष्म
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स ३८ ८९४२१
अयशस्की
1
स ०८ ८९२१
1
स ८ ८२९१९१२
रस
1
स ०८ ८१९१२१
अपय
1
स ३८ ८९२१
1
स ०८ टा९९८
एवं वक्ष्यमाण शेष २५ | २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । स्थानेष्वप्येकचत्वारिशज्जीवपदेषु वक्तव्यं इति अत्र प्रदेशबन्धप्रकरणे द्रव्यविभञ्जनक्रमः सूचितः ॥ २०६॥
निर्माण
1 स ०८ ८०९।२१ 1
स ८
८१९१९११
५
इकतालीस जीवपदोंमें नामकर्म के स्थानोंका बन्ध जिस प्रकारसे होता है उसका कथन आगे करेंगे। इस प्रकार प्रदेशबन्ध के कथनमें द्रव्यका बँटवारा कहा । उसका आशय यह है कि समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणुओं में जिस प्रकृतिका जितना द्रव्य कहा उतने परमाणु उस प्रकृतिरूप परिणमते हैं ।
१०
विशेषार्थ -- कोई बहुभाग आदिको न समझता हो तो उसके लिए दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं— जैसे सर्वद्रव्य चार हजार छियानबे ४०९६ है । उसका बँटवारा चार जगह करना है । प्रतिभागका प्रमाण आठ है । सो चार हजार छियानबेको आठसे भाग दें। एक भाग बिना बहुभाग ३५८४ आया; क्योंकि चार हजार छियानबेमें आठका भाग देने से लब्ध पाँच सौ बारह आया । उसे चार हजार छियानबेमें घटानेपर ३५८४ रहा । उसके चार समान भाग करनेपर एक-एक भागमें आठ सौ छियानबे आये । शेष एक भाग पाँच
. १५
बारह में प्रतिभाग आठका भाग देनेपर चौंसठ आये । सो अलग रख बहुभाग चार सौ अड़तालीस बहुत द्रव्यवालेको देना । शेष एक भाग चौंसठ में प्रतिभागका भाग देने पर आठ आये । उसे अलग रख बहुभाग छप्पन उससे हीन द्रव्यवालेको देना । शेष एक भाग आठमें
क- ३२
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________________
२५०
५
अनंतरमुत्कृष्टानुत्कृष्ट जघन्य
मूलप्रकृतिगळोळ पेव्वपर :
छपि अणुक्कस्सो पदेसंबंधी दुचदुविप्पो दु । सेसतिये दुवियप्पो मोहाऊणं च दुवियप्पो ॥ २०७ ॥
षण्णामप्यनुकृष्टः प्रवेशबंधस्तु चतुव्विकल्पस्तु । शेषत्रये द्विविकल्पो मोहायुवोश्च - तुविकल्पः ॥
षण्णां ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीयनामगोत्रान्तरायंगळे बारुं मूलप्रकृतिगळ अनुत्कृष्टः प्रदेशबंधः अनुत्कृष्टप्रदेशबंधं चतुव्विकल्पस्तु साद्यनादिध्रुवाध्रुवभेद दिवं चतुव्विकल्पमकुं । तु मलमा षड्मूलप्रकृतिगळ शेषत्रये अनुकुष्टवज्जतोत्कृष्टाजघन्यजघन्यशेषत्रयवोळु द्विविकल्पः १० साधव भवद्विविकल्पमेयक्कं । तु मत्तं मोहायुषोः मोहनीयायुष्यंगळेरडर चतुव्विकल्पः उत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यजघन्यमे व चतुव्विकल्पनुं साद्यध्रुवमे बेरडे विकल्पंगळनुक्रञ्जवप्पुवु :
गो० कर्मकाण्डे
जघन्य प्रवेशबंषंगळगे साद्यादिभेव संभवासंभव विशेषमं
णा
उ २ आ ४ आ ४
दं । वे मो
उ२ उ२ आ ४
अ २ अ २ ज २ ज २
अ २
ज २
उ२
आ ४
अ २
ज २
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उ २
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गो। अं
उ२
उ२ | उ२
आ ४ आ ४ आ ४
अ २
ज २
अ २ अ २ अ २
ज २ | ज २ ज २
अथ उत्कृष्टादीनां साद्यादिविशेषं मूलप्रकृतिष्वाह
षण्णां ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायाणामनुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः साद्यनादिघ्र बाधु वभेदाच्चतुविधो भवति । तु-पुनः शेषोत्कृष्टा जघन्यजघन्येषु साद्यध्र ुवभेदाद् द्विविध एव । तु-पुनः मोहायुषोः उत्कृष्टादि
१५ प्रतिभाग आठसे भाग देनेपर एक आया। - द्रव्यवालेको देना । शेष एक भाग एक समान भाग में इनको मिलानेपर क्रमसे नौ सौ तीन ९०३ और आठ सौ सत्तानवे ८९७ द्रव्यका प्रमाण आया । इस प्रकार चार हजार छियानबेका बँटवारा हुआ। इसी प्रकार उक्त प्रकृतियोंका भी जानना । ज्ञानावरण,
२० दर्शनावरण और मोहनीयकी प्रकृतियों में क्रमसे घटता द्रव्य होता है । अन्तराय और नामकर्मको प्रकृतियों में क्रमसे अधिक अधिक द्रव्य होता है । वेदनीय आयु और उच्च गोत्रकी उत्तर प्रकृति एक समय में एक ही बँधती हैं । अतः इनका द्रव्य मूल प्रकृतिवत् होता हैं ||२०६||
उसे अलग रख बहुभाग सात उससे भी हीन उससे भी हीन द्रव्यवालेको देना । अपने-अपने तेरह सौ चवालीस १३४४, नौ सौ बावन ९५२,
इस प्रकार प्रदेश बन्धके प्रकरण में द्रव्यके विभागका क्रम कहा । आगे मूल प्रकृतियों में २५ उत्कृष्ट आदि प्रदेशबन्ध के सादि आदि भेद कहते हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय इन छह कर्मोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुबके भेदसे चार प्रकार है । इन्हीं छड़ोंका उत्कृष्ट
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अनन्तरमुत्तरप्रकृतिगळुत्कृष्टाविगळगे साध्यादि संभवविकल्पंगळं पेव्वपरु :
तीस मणुक्कस्सो उत्तरपयडीसु चउविहो बंधो ।
सति दुवियप सेसचउक्केवि दुवियप्पो ॥ २०८॥ त्रिशतामनुत्कृष्ट उत्तरप्रकृतिषु चतुस्त्रिषो बंधः । शेषत्रये द्विविकल्पः शेषचतुष्केपि द्विविकल्पः ॥
उत्तरप्रकृतिषु उत्तरप्रकृतिगळोळ त्रिशतां मूवत्तु प्रकृतिगळ अनुत्कृष्टः अनुत्कृटमप्प प्रदेशबंधः प्रदेशबंधं चतुविधः चतुव्विधमक्कुमवर शेषत्रये उत्कृष्टाजघन्यजघन्य में व शेवत्रयवोळ द्विविकल्पः साध्यध्रुवविकल्पद्वयमवकुं । शेषचतुष्केपि शेषाणां नवति प्रकृतीनामुत्कृष्टाविचतुष्टयस्तस्मिन् । शेषप्रकृतिगळुत्कृटादिचतुग्विकल्पंगळोळ द्विविकल्पः साद्यध्रुव द्विविकल्पमेयक्कुं
अनंत रमा त्रिशत्प्रकृतिगळावुर्बदोडे पेव्वपद :
३०
उ २
नाणंतराय दसयं दंसणछक्कं च मोह चोदसयं ।
तीसह मणुक्कस्सो पदे सबंधी चदुवियप्पो || २०९ ॥
ज्ञानांतरायवशकं दर्शनषट्कं च मोहचतुर्द्दगकं । त्रिशतामनुत्कृष्टः प्रवेशबंधश्चतुव्यिकल्पः ॥
१
९०
उ २
अ ४
अ २
अ २
अ २
ज २ ज २
चतुर्विधोऽपि साद्य वभेदाद्विविधः ॥२०७॥ अथोत्तरप्रकृतीनामाह -
उत्तरप्रकृतिषु त्रिशतोऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धः, चतुविधः शेषोत्कृष्टादित्रयेऽपि साधु वभेदाद्विविकल्पः । -१५ शेषनवतिप्रकृतीनामुत्कृष्टा दिबन्धचतुष्केऽपि साद्यघ्र वभेदाद् द्विविकल्प एव || २०८ ।। तां त्रिशतमाह
अजघन्य और जघन्य प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो प्रकार ही है। मोहनीय और आयुके उत्कृष्ट आदि चारों ही प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो प्रकार हैं ||२०७||
दे व
णा उ २ उ २ अ ४ अ ४ अ २ अ २ ज २ ज २
आगे उत्तर प्रकृतियों में कहते हैं
उत्तर प्रकृतियोंमें तीस प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि, अनादि, ध्रुब और २० अध्रुव के भेद से चार प्रकार है। शेष उत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुव भेदसे दो प्रकार है। शेष नवेबें प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्व प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो प्रकार ही हैं ॥२०८॥
वे तीस प्रकृतियाँ कहते हैं
उ २
अ ४
अ २
जं २
मो
उ २
अ २
म २
ज २
२५१
भा ना उ २ उ २ अ २ म ४ अ २ ज २
अ २
ज २
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अ २
न २
ܐ
अ
उ २ अ
अ २
ज २
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२५२
गो० कर्मकाण्डे ज्ञानावरणपंचकममन्तरायपंचकमुं निद्राप्रचलाचक्षुद्देशनमचक्षुर्दशनमवधिदर्शनकेवलदर्शना. वरणम ब वर्शनषट्क, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनक्रोधमानमायालोभंगळु भयमुं जुगुप्सयुमेंब मोहचतुर्दशकममिन्तु त्रिंशत्प्रकृतिगळनुत्कृष्ट प्रदेशबंधं चतुविकल्पः साधनाविध्र वाध्र वभेवदिदं चतुविकल्पमक्कुं। अनंतरमुत्कृष्टबंधस्वामिसामग्रीविशेषमं पेळ्दपरु :
उक्कडजोगो सण्णी पज्जत्तो पयडिबंधमप्पदरो।
कुणदि पदेसुक्कस्सं जहण्णये जाण विवरीयं ॥२१॥ उत्कृष्टयोगः संजिपर्याप्तः प्रकृतिबंधाल्पतरः। करोति प्रदेशोत्कृष्टं जघन्येन जानीहि
विपरीतं ॥
१० प्रदेशोत्कृष्टं प्रदेशोत्कृष्टमं उत्कृष्टयोगः उत्कृष्टयोगमनुफळ संजिपंचेंद्रियसंजिजीवनुं पर्याप्तः परिपूर्णपर्याप्तिकनुं प्रकृतिबंधाल्पतरः प्रकृतीनां बंधोऽल्पतरो यस्यासौ प्रकृतिबंधाल्पतरः अल्पतरमाव प्रकृतिगळ बंधमनु मनुं करोति माळकुं। जघन्येन जघन्यदिदं प्रदेशबंधदोळ विपरीतं जानीहि उक्तसामनोविशेषविपरीतनं स्वामियें दरियेंदु शिष्य संबोधिसल्पढें ।
जघन्ययोगमनळ्ळनुमसंज्ञियुमपर्याप्तनुं प्रकृतिबंधबहुतरनुंजघन्यप्रदेशबंधमं माळपर्ने बुदत्थं । अनंतरं मूलप्रकृतिगळत्कृष्टप्रदेशबंधक्के गुणस्थानदोळ स्वामित्वमं पेळ्दपरु :
आउक्कस्सपदेसं छत्तुं मोहस्य णव दु ठाणाणि ।
सेसाणं तणुकसाओ बंधदि उक्कस्सजोगेण ॥२११॥ बायुरुत्कृष्टप्रवेशं षडतीत्य मोहस्य नव तु स्थानानि । शेषाणां तनुकषायो बध्नात्युत्कृष्टयोगेन ॥
पञ्चज्ञानावरणपश्चान्तरायाः निद्राप्रचलाचक्षुरचक्षुरवषिकेवलदर्शनावरणानि अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायालोभभयजुगुप्साश्चेति त्रिंशतोऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धश्चतुर्विकल्पो भवति ॥२०९॥ अथोत्कृष्टबन्धस्य सामग्रीविशेषमाह
प्रदेशोत्कृष्टं उत्कृष्टयोगः संजिपर्याप्त एव प्रकृतिबन्धाल्पतरः करोति । जघन्ये विपरीतं जानीहि । जघन्ययोगासंश्यपर्याप्तप्रकृतिबन्धबहुतर एव जघन्यप्रदेशे बन्धं करोतीत्यर्थः ॥२१०॥ अथ मूल प्रकृतीनां २५ उत्कृष्टप्रदेशबन्धस्य गुणस्थाने स्वामित्वमाह
पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा, प्रचला, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण. अप्रत्याख्यान. प्रत्याख्यान और संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोग य और जुगुप्सा इन तीसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चार प्रकार हैं ॥२०९।।
आगे उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्री कहते हैं
जो जीव उत्कृष्ट योगसे युक्त होनेके साथ संझी और पर्याप्त होता है तथा थोड़ी प्रकृतियोंका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। और जो उससे विपरीत होता है अर्थात् जघन्य योगसे युक्त होता है, असंज्ञी और अपर्याप्त होता है तथा बहुत प्रकृतियोंका बन्ध करता है वह जघन्य प्रदेशबन्ध करता है ।।२१०॥
आगे मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामिपना गुणस्थानोंमें कहते हैं
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कटिवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२५३ आयुरुत्कृष्टप्रदेशं आयुष्यकर्मक्कुत्कृष्ट प्रदेशमं षडतीत्य षड्गुणस्थानंगळनतिक्रमिसि वर्तमाननप्प अप्रमत्तं बध्नाति कटुगुं। मोहस्य मोहनीयक्क प्रदेशोत्कृष्टमं । तु मत्त । नव स्थानानि नवगुणस्थानंगळनदिद अनिवृत्तिकरणं बध्नाति कटुगुं। शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीय नामगोत्रांतरायमेंब शेषषण्मूलप्रकृतिगळ उत्कृष्टप्रदेशमं तनुकषायः सूक्ष्मसांपरायं बध्नाति कटुगुमी प्रकृतिगळुत्कृष्टप्रदेशबंधक्के कारणमुत्कृष्टयोगमुं प्रकृतिबंधाल्पतरत्वमुमक्कुं। आयुष्य. ५ कर्मक्कप्रमत्तं मोहनीयक्कनिवृत्तिकरणं शेषज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायंगळगे। सूक्ष्मसांपरायनुमेबो मूलं गुणस्थानत्तिगळुत्कृष्टयोगमुं प्रकृतिबंधाल्पतरत्वमुं कारणमागुत्तं विरलु तंतम्म बंधप्रकृतिगळगुत्कृष्टप्रदेशबंधर्म माळपरें बुदत्थं । अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळ्गुत्कृष्ट प्रवेशबंधस्वामिगळं गुणस्थानदोळु पेब्दपरु गाथात्रयदिदं :
सत्तर सुहुमसरागे पंचअणियट्टिम्मि देसगे तदियं ।
अयदे विदियकसायं होदि हु उक्कस्सदव्वं तु ॥२१२॥ सप्तका सूक्ष्मसापराये पंचानिवृत्तौ देशगे तृतीयः। असंयते द्वितीयकषायो भवति खलूस्कृष्टद्रव्यं तु ॥
छण्णोकसायणिहापयलातित्थं च सम्मगो य जदी।
सम्मो वामो तेरं णरसुरआऊ असादं तु ॥२१३।।। षण्णोकषायनिद्रा प्रचलास्तोत्थं च सम्यग्दृष्टियदि । सम्यग्दृष्टिमिस्त्रयोदश नरसुरायुषी असातुं तु॥
देवचउक्कं वज्जं समचउरं सत्थगमणसुभगतियं ।
आहारमप्पमत्तो सेसपदेसुक्कडो मिच्छो ॥२१४॥ देवचतुष्कं वज्रं समचतुरस्र शस्तगमनसुभगत्रयं । आहारमप्रमत्तः शेषप्रदेशोत्कटं मिथ्या- २० दृष्टिः ।
आयुष उत्कृष्टप्रदेशं षड्गुणस्थानान्यतीत्य अप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति, मोहस्य तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्य अनिवृत्तिकरणो बध्नाति । शेषज्ञानदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायाणां सूक्ष्मसांपराय एव । अत्रापि' स्थानत्रये उत्कृष्टयोगः प्रकृतिबन्धाल्पतरः इति विशेषणद्वयं ज्ञातव्यम् ।।२११॥ अथोत्तरप्रकृतीनां गाथात्रयेणाह
आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध छह गुणस्थानोंको उलंघकर अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती करता है। मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नौवें गुणस्थानको प्राप्त करके अनिवृत्तिकरण गुण- २५ स्थानवर्ती करता है। शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम-गोत्र और अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवी ही करता है । इन तीनों स्थानोंमें भी उत्कृष्ट योगका धारक और अल्प प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाला ये दो विशेषण जानना। अर्थात् उक्त गुणस्थानोंमें भी वही उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है जिसके उत्कृष्ट योग होता है और जो थोड़ी प्रकृतियाँ बाँधता है ।।२११॥
आगे उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको कहते हैं
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२५४
गो० कर्मकाण्डे
ज्ञानावरणपंचकं दर्शनावरणचतुष्क, मन्तरायपंचकमु यशस्कोत्तिनाममुच्चैर्गोत्रं सातवेदनीयब सप्तदशप्रकृतिगळ १७ सूक्ष्मसांपरायनोळु । तु मत्त पुंवेदमुं संज्वलनचतुष्कर्म ब पंचप्रकृतिगळु ५ अनिवृत्तिकरणनोळु । तृतीयः प्रत्याख्यानकषायचतुष्कं. ४ देशगे देशमेकदेशं व्रतं गच्छतीति देशगस्तस्मिन् । देशसंयतनोळु । द्वितीयकषायः अप्रत्याख्यानकषायचतुष्कं ४ असंयते असंयतसम्यग्दृष्टियोळु यिती नाल्कुं गुणस्थानंगळोळु कूडि ३० प्रकृतिगळुत्कृष्टद्रव्यमक्कुं । खलु स्फुटमागि। षण्णोकषायनिद्राप्रचलास्तोत्थं च हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साषण्णोकषायंगळं६ निद्रादर्शनावरणमु १ प्रचलादर्शनावरणमुं १ तीर्थ १ मुमेंब नवप्रकृतिगत्कृष्टप्रदेशबंधमं सम्यग्दृष्टिश्च सम्यग्दृष्टि मार्छ। त्रयोदश वक्ष्यमाणत्रयोदशप्रकृतिगत्कृष्ट प्रदेशबंधमं सम्यग्दृष्टिश्च
सम्यग्दृष्टियुं । यदि एत्तलानुं वामश्च मिथ्यादृष्टियु माळकुमदाउa दोडे पेन्दपरु :-नरसुरायुषी १० मनुष्यायुष्यमुं १ सुरायुष्यमुं १ असातं तु । तु मत्तमसातवेदनीयमुं १ देवचतुष्क, देवगति देव
गत्यानुपूयं वैक्रियिकशरीर तदंगोपांगमब देवचतुष्क, ४ । वज्र वज्रऋषभनाराचसंहननमु१। समचतुरस्रं समचतुरस्रशरीरसंस्थानमु१। शस्तगमनसुभगत्रयम् प्रशस्तविहायोगतियुं १ । सुभगसुस्वरादेयमें ब सुभगत्रयमु३ ये बिवु त्रयोदशप्रकृतिगळप्पुवु । आहारं आहरकद्वयक्क २
अप्रमत्तनुत्कृष्टप्रदेशबंधमं माळकुमिन्तु सू १७ । अ५। दे ४ । अ ४ । सम्यग्दृष्टि गळ ९ । सम्यग१५ दृष्टिमिथ्यादृष्टिगळ १३। अप्रमत्तन २ अन्तुक्त ५४ प्रकृतिगळं कळेदु शेषदर्शनावरणस्त्यानगृद्धि
त्रयमुं ३ मिथ्यात्वमनंतानुबंधिचतुष्कमुं स्त्रीवेवमुं नपुंसकवेदमुमेंब मोहनीयसप्तक, ७। नरकतिर्यगायुद्वंयमु २। नरकतिर्यग्मनुष्यगतित्रितय, ३ एर्केद्रियादि जाति पंचकमु ५। औदारिक तैजसकार्मणशरीरत्रयमु ३। न्यग्रोधपरिमंडल स्वातिकुब्जवामनहुडशरीरसंस्थानपंचकमु ५।
पञ्च चतुःपञ्चज्ञानदर्शनावरणान्तराययशस्कीत्युच्चैर्गोत्रसातवेदनीयानामुत्कृष्टद्रव्यं सूक्ष्मसांपराये भवति । तु-पुनः पुवेदसंज्वलनानां अनिवृत्तिकरणे भवति । प्रत्याख्यानकषायाणां देशसंयते, अप्रत्याख्यानकषायाणामसंयते खलु स्फुटम् । षण्णोकषायनिद्राप्रचलातीर्थानामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिः करोति । वक्ष्यमाणत्रयोदशानां सम्यग्दृष्टिः मिथ्यादृष्टिा यदि । तानि त्रयोदश तु-पुनः नरसुरायुषी असातं देवगतितदानपूर्व्यवक्रियिकशरीरतदङ्गोपाङ्गानि वज्रर्षभनाराचसंहननं समचतुरस्रसंस्थानं प्रशस्तविहायोगतिः सुभगसुस्वरादेयानि भवन्ति । आहारद्वयस्य अप्रमत्तः उत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । उक्तचतुःपञ्चाशतः शेषाणां स्त्यानगृद्धित्रयमिथ्वात्वानन्तानुबन्धिस्त्रीनपुंसकवेदनरकतिर्यगायनरकतिर्यग्मनुष्यगतिपञ्चजात्यौदारिकतैजसकामणन्यग्रोधपरिमण्डलस्वातिकूब्ज
पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय इन सतरहका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्म साम्परायमें होता है। पुरुषवेद और चार संज्वलन कषाय इन पाँचका अनिवृत्तिकरणमें होता है। तीसरी प्रत्याख्यान कषायोंका देशविरतमें होता है। दूसरी अप्रत्याख्यान कषायोंका असंयतमें होता है। छह नोकषाय, निद्रा,
प्रचला और तीर्थ करका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि करता है। आगे कही गयी तेरह ३० प्रकृतियोंका सम्यग्दष्टि अथवा
का सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टी करता है। वे तेरह इस प्रकार हैं-मनुष्यायु, देवायु, असातावेदनीय, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्षभनाराचसंहनन, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय । आहारक
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२५५ औदारिकांगोपांगमु१ वज्रनाराचनाराच अर्द्धनाराच कोलितासंप्राप्तसृपाटिकासंहननपंचकमु ५ वर्णचतुष्कमु ४ । नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूळ्यत्रितयमु३ अगुरुलघुकमु१ उपघातमु१ परघातमु १ उच्छ्वासमु१ आतपमु१। उद्योतमु १ अप्रशस्तविहायोगतियुं १ असस्थावरद्विकमु२ बादरसूक्ष्मद्विकमु२। पर्याप्तापर्याप्तद्विक, २। प्रत्येक साधारणशरीरद्विकमुं २। स्थिरास्थिरद्विकमुं २ । शुभाशुभद्विकमु२ । दुभंगमुं १ दुःस्वरमुं १ अनादेयमुं १ अयशस्कोतियुं १ । निर्माण- ५ नाममु १ नोचैर्गोत्रमुं में ब षट्षष्टिप्रकृतिगळ्गे प्रदेशोत्कटम मिथ्यादृष्टिये माळ्कु । यितुक्तानुक्त १२० प्रकृतिगळ्गे प्रदेशोत्कटबंधकारमुत्कृष्टयोगप्रकृतिबंधाल्पतरत्वमनुळळ संज्ञिपर्याप्तजीवंगळे प्रवेशोत्कटबंधमं माळपर । इल्लि मिथ्यात्वप्रकृतिगे मिथ्यादृष्टियो व्युच्छित्तियागलनन्तानुबंधिगे सासादननोळेकिंतु अग्रहणोडे मिथ्यात्वद्रव्यक्क देशघातिगळे स्वामिगळप्पुरिंदमदु कारणमागिये प्रकृत्यल्पतराभावमप्पुरिदं मुन्निनंत सबंधप्रकृतिगळप्पुदरिननन्तानुबंधिगातनोळग्रहण- १०
___ अनंतरं मुन्नं जहण्णए जाण विवरीयमे दरप्पुरिदमा जघन्यप्रदेशबंधस्वामिसामग्रीविशेषमं पेलवपरु :वामनहुण्डोदारिकाङ्गोपाङ्गवज्रनाराचार्धनाराच कीलितासंप्राप्तसृाटिकाचतुर्वर्णनरकतिर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यागुरुलघू - पघातपरपातोच्छ्वासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिर - १५ शुभाशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कीतिनिर्माणनीचैर्गोत्राणां षट्पष्टेः मिथ्यादृष्टिरेव करोति । एवमुक्तानुक्त १२० प्रकृतीनां उत्कृष्टप्रदेशबन्धकारणमुत्कृष्टयोगादिप्रागुक्तमेवावसेयम् । अत्र मिथ्यात्वस्य मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिद्रव्यमुत्कृष्टमुक्तं, तथानन्तानुबन्धिनः सासादने किमिति नोच्यते ? तन्न मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनामेव स्वामित्वात् ॥२१२-२१४॥ अथ पूर्व 'जहण्णये जाण विवरीयं' इत्युक्तं तत्सामग्रीविशेषमाहद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्त करता है। इन चौवन प्रकृतियोंसे शेष रहीं स्त्यानगृद्धि २०
आदि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकायु, तियचायु, नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, हुण्डक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वजनाराच, अर्धनाराच, कीलित, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, वर्णादि चार, नरकानुपूर्वी, तिर्यगनुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, २५ आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थितर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अना देय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र इन छियासठका मिथ्यादृष्टि ही करता है । इस प्रकार गाथामें कही गयी और न कही गयी एक सौ बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका कारण पूर्वमें कहे उत्कृष्ट योग आदि जानना।
शंका-यहाँ मिथ्यावृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्तिका द्रव्य उत्कृष्ट कहा है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीका सासादनमें क्यों नहीं कहा ?
समाधानआगे मूल प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धके स्वामी कहते हैं
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२५६
गो० कर्मकाण्डे सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्य पढमे जहण्णए जोगे ।
सत्तण्हं तु जहण्णं आउगबंधेवि आउस्स ॥२१॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य प्रथमे जघन्येन योगेन । सप्तानां तु जघन्यः आयुबधेयायुषः॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकन भवप्रथमसमयदोळ जघन्ययोगदिदं झानावरणाविसप्तमूल५ प्रकृतिगळ्गेजघन्यमप्प प्रदेशबंधमक्कु । मायुबंधदोळमवक्कं जघन्यप्रदेशबंधमक्कुं।
अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळ्गे जघन्यप्रदेशबधस्वामिविशेषमं पेळ्वपर :
घोडणजोगोऽसण्णी णिरयदुसुरणिरय आउगजहण्णं ।
अपमत्तो आहारं अयदो तित्थं च देवचऊ ॥२१६॥
घोटमानयोगोऽसंजिनरकद्वयसुरनारकायुजघन्यमप्रमत्त आहारकस्यासंयतस्तीर्थस्य च देव १० चतुष्कस्य ॥
घोटमानयोगः येषां योगस्थानानां वृद्धिहान्यवस्थानं च संभवति । तानि घोटमानयोगस्थाननामानि । परिणामयोगस्थानानोति भणितं भवति । हानिवृद्धयवस्थानळिवं परिवर्तमानयोगमं परिणममानयोगमं घोटमानयोग बुदंतप्प घोटमानयोगस्थानयुतनप्प असंज्ञिजीवनु नरकद्वयसुरायुरिकायुद्धयमेंब ४ नाल्कुं प्रकृतिगळ्गे जघन्यप्रदेशबंधमं माळकं । आहारद्वयक्कप्रमसं जघन्यप्रदेशबंधमं माळकुमेके दोडपूर्वकरणनं नोडलुमप्रमत्तसंयतंगष्टविधकम्मंबंधसंभवमप्पुरिवंबहुप्रकृतिबंधं संभविसुगुमप्पुरिदं असंयतसम्यग्दृष्टियुं भवग्रहणप्रथमसमयजघन्योपपादयोगयुतं तीर्थकरनामक्कं सुरचतुष्कक्कयु जघन्यप्रदेशबंधमं माळकुमिन्तेकावशप्रकृतिगळं कळेदु शेषनयोत्तरशतप्रकृतिगळ्गे जघन्यप्रदेशबंधमं माळ्प स्वामिविशेषमं पेन्दपरु :
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकः स्वभवप्रथमसमये जघन्ययोगेन सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं करोति । २० आयुर्बन्धे च आयुषोऽपि ॥२१५॥ अथोत्तरप्रकृतीनामाह
येषां योगस्थानानां वृद्धिः हानिः अवस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि-परिणामयोगस्थानानोति भणितं भवति । तद्योगोऽसंज्ञिनरकद्वयसुरनारकायुषां जघन्यप्रदेशबन्धं करोति । आहारकद्वयस्य अप्रमत्तः करोति, कुतः ? अपूर्वकरणात्तस्य बहुप्रकृतिबन्धसंभवात् । असंयतो भवग्रहणप्रथमसमयजघन्योपपादयोगः तीर्थकरत्वस्य सुरचतुष्कस्य च ॥२१६॥ उक्तैकादशभ्यः शेषाणां विशेषमाह
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध पर्याप्तक जीव अपनी पर्याप्तके प्रथम समयमें जघन्य योगके द्वारा सात मूल प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आयुबन्ध होनेएर आयुका जघन्य प्रदेशबन्ध भी वही करता है ।।२१५।।
आगे उत्तर प्रकृतियोंमें कहते हैं
जिन योगस्थानोंकी वृद्धि भी होती है, हानि भी होती है और जैसेके तैसे भी रहते हैं ३० उनको घोटमान योगस्थान अथवा परिणाम योगस्थान कहते हैं। ऐसे योगका धारी असंझी
जीव नरकगति, नरकानुपूर्वी, देवायु और नरकायु इन चारोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विकका अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती करता है; क्योंकि अपूर्वकरणसे वह अधिक प्रकृतियोंको बाँधता है। भव ग्रहण करनेके प्रथम समयमें जघन्य उपपाद योगस्थानका धारी असंयत
सम्यग्दृष्टी तीर्थकर, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक अंगोपांगका जघन्य ३५ प्रदेशबन्ध करता है ॥२१६।।
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
चरम अपुण्णभवत्थो तिविग्गहे पढमविग्गहम्मि ठियो । मणिगोदो बंधदि सेसाणं अवरबंधं तु || २१७॥
चरमापूर्ण भवस्थ स्त्रिविग्रहे प्रथमविग्रहे स्थितः । सूक्ष्मनिगोदो बध्नाति शेषाणामवरबंध तु ॥ तु मत्ते चरमापूर्णभवस्थः द्वादशोत्तरषट्सहस्त्रस्वकीयापर्य्याप्तभबंगळ चरमभवदोळ इरुति त्रिविग्रहे विग्रहगतिय त्रिवक्रंगळोळ प्रथमविग्रहे प्रथमवक्रदोळ स्थितः यिरल्पट्ट सूक्ष्मनिगोदः सूक्ष्मं निगोदजीवं । शेषाणां शेष १०९ नवोत्तरशत प्रकृतिगळगे अवरबंधं जघन्यप्रवेशबंधमं बध्नाति कट्टुगुं । इन्ती प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशबंधप्रकरणंगळोळ प्रथमोक्तप्रकृतिबंषवोळ मूलोत्तरप्रकृतिगळनु येकजीवनेकसमयदोळु कट्टुव सबंधज्ञानावरणाद्यष्टविधसन्यं प्रकृतिस्थानंगळ जघन्योत्कृष्टमध्य मंगळगे तदबंधकालदोळे तद्बंधस्थानगतप्रकृतिगळगे स्थित्यनुभागप्रदेशबंधभेदंगळ मप्पुदरिदं मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळु रचनाविशेषं वृत्तिकानिवं तोरिसल्पडुगुं - १०
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५ ६७१६९/७०१७२।७३।७४ | ५ | ४|१ गो २५ अंतु कंगलिवु
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तु - पुन: द्वादशोत्तरषट्सहस्रापर्याप्तभवानां चरमभवस्थो विग्रहगतित्रियकेषु प्रथमवक्रे स्थितः सूक्ष्मनिगोदः शेषनवोत्तरशतप्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं बध्नाति । अत्र चतुर्षु बन्धेषु प्रथमोक्तप्रकृतिबन्धे मूलोत्तर
०
५ । १७ अं ५ अं.क.
छह हजार बारह क्षुद्रभवोंमें से अन्तिम क्षुद्रभवमें स्थित तथा विग्रहगतिके तीन
३३-क
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२५८
गो० कर्मकाण्डे
प्रकृतीनामेकजीवस्य एकसमये सबन्धप्रकृतिजघन्यादिस्थानानां बन्धकाले तद्गतप्रकृतीनां स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धभेदा भवन्ति इति मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषु रचनाविशेषो वृत्तिकारेण दश्यते
५।४।३।२।१
२२।२।२०११९॥
१८
२८।२९॥३०॥ ३१११ २८॥२९॥३०॥
५५/५६१५७१५८ २६ ५६५७३५८५९
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५
२८।२९ २८०२९
६०।६१
२८।२९।३०
६४/६५/६६
२८.२९
६३२६४
२८.२९/३०
७१७२।७३
६७१६९७०) ७२।७३।७४
द ९।६।४
मो.२६।२२।२१॥ |वे.२ । १७११३।९।५ आ.४
। ४।३।२।१ ।
२३।२५।२६।
२८२९।३० ना २३।२५।२६।
२८।२९।३०। ३११।
गो.२ अ.५
-
मोड़ों में से प्रथम मोडेमें स्थित सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष एक सौ नौ प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है।
यहाँ चार प्रकारके बन्धोंमें प्रथम कहे प्रकृतिबन्धमें मूल और उत्तर प्रकृतियोंका एक जीवके एक समयमें एक साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्यादि भेदरूप स्थिति अनुभाग
और प्रदेशबन्धके भेद होते हैं । सो मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें टीकाकार रचनाविशेष दिखाते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२५९
mmmmm.www.www.wwwwwwwwwwwwwww. ....
मोहनीय आयु
मोहनीय
नाम
नाम
गोत्र
अन्त.
सब प्रकृतियोंका एक जीवके एक कालमें बन्धका प्रमाण
जीवके एक कालमें
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० ० ० |वेदनीय
° ° ° ° दर्शनाव,
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७४ २३।२५।२६।२८ गोत्र २९॥३०३१११ में एक
२६।२२।२१॥ १७।१३।९।५।
|३१
|
इसका आशय यह है कि एक जीवके एक कालमें ज्ञानावरणकी पाँच ही प्रकृतियोंका बन्ध होता है । दर्शनावरणकी नौका, छहका अथवा चारका बन्ध होता है। वेदनीयकी दोमें एकका ही बन्ध होता है। मोहनीयकी छब्बीसमें से बाइस या इक्कीस या सतरह या तेरह या नौ या पाँच चार दो और एकका बन्ध होता है। आयु चारमें से एक ही बंधती है। नामकर्मकी तेईस या पच्चीस या छब्बीस या अठाईस या उनतीस या तीस या इकतीस या एक प्रकृतिका बन्ध होता है। गोत्र दोमें-से एक बँधता है। अन्तराय पाँचका ही बन्ध होता है।
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५
१०
१५
२०
गो० कर्मकाण्डे
यिल्लि मिथ्यादृष्टचाविगुणस्थानंगळ स्थानविकल्पंगळगे प्रत्येकं प्रकृतिभेददि भंगंगळु पुट्ट ते बोर्ड मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळ ६७ स्थानमेकप्रकारमेयवकुमत ६९ मरुवत्तो भत्तर
९
२६०
१
स्थानदोळ नवभंगंगळवु । मत्तं ७० २ स्थानबोळ ८ भंग गळप्पुवु मत्तं ७२ स्थानदोळु नव
८
रर स्थानदोळो भत्तुसासिरवइन्नूर हदिनारु ९२१६ भंगंगळवु । मत्तं
भंगंगळवु । मत्तं ७३ ९२१६
-७४ र स्थानबोळ ४६०८ भंगंगळप्पुवु । सासादनन ७१ र स्थानदोळ ८ भंगंगळप्पुवु ।
४६०८
८
रर स्थानदोळ ३२०० भंगंगळ
मत्तं ७२ ६४००
egg | मिश्रन ७३ रर स्थानदोळु ८ भंगंगळप्पुवु । मत्तं ७४
८
८
असंयतन अरुवत्तनात्कर
र स्थानबोळु ६४०० भंगंगळप्पुवु । मत्तं ७३
३२००
र स्थानवोल ८ भंगंगळवु ।
६४ र स्थानदो एंडु ८ भंगंगळप्पुवु । मत्तं
८
६५ र स्थानदोळ
१६
१६ भंगंगळप्पुवु । मतं ६६ रर स्थानदोळ ८ भंगंगळवु । देश संयतन ६० । ६१ एंटेंड भंगं •
८
८।८
अत्र गुणस्थानेषु स्थानविकल्पानां प्रकृतिभेदेन भङ्गा उत्पद्यन्ते । तत्र मिथ्यादृष्टो ६७ स्थाने एको १ भङ्गः । पुनः ६९ स्थाने ९ नवभङ्गाः पुनः ७० स्थानेऽष्टौ ८ । पुनः ७२ स्थाने नव ९ । पुनः ७३ स्थाने नवसहस्रद्विशत षोडश ९२१६ । पुनः ७४ स्थाने ४६०८ । सासादनस्य ७१ स्थाने अष्टौ ८ । पुनः ७२ स्थाने ६४०० । पुनः ७३ स्थाने ३२०० । मिश्रस्य ६३ स्थानेऽष्टौ ८ । पनः ६४ स्थाने अष्टौ ८ । असंयतस्य ६४ स्थानेऽष्टौ ८ । पुनः ६५ स्थाने १६ । पुनः ६६ स्थानेऽष्टौ ८ । देशसंयतस्य ६० । ६१ अष्टावष्टी । अप्रमत्तस्य
मिध्यादृष्टि गुणस्थान में ज्ञानावरण पाँच, दर्शनावरण नौ, वेदनीय एक, मोहनीय बाईस, आयु एक, नामकर्म तेईस या पच्चीस या अठाईस या उनतीस या तीसका, गोत्र एक और अन्तराय पाँचका बन्ध होता है । सब प्रकृतियोंको जोड़नेपर सड़सठ या उनहत्तर या सत्तर, या बहत्तर या तेहत्तर या चौहत्तरका बन्ध होता है । इसी प्रकार सासादन आदि गुणस्थानों में भी ऊपर कहे अनुसार जानना ।
प्रकृतियोंके बदलने से भंग होते हैं। जैसे चौहत्तरके बन्ध में वेदनीय कर्मका बन्ध है । उसमें साता या असाताके बन्धकी अपेक्षा दो भंग होते हैं । इसी प्रकार प्रकृतियोंके घटनेबढ़नेसे स्थानभेद होते हैं । और एक ही स्थानमें प्रकृतियोंके बदलनेसे भंग होते हैं । वही कहते हैं
२५
!
मिध्यादृष्टि में सड़सठ के स्थानमें एक भंग है। उनहत्तरके स्थानमें नौ भंग हैं। सत्तरके स्थान में आठ भंग हैं । बहत्तर के स्थानमें नौ भंग हैं । तेहत्तरके स्थानमें बानबे सौ सोलह भंग हैं। चौहत्तरके स्थान में छियालीस सौ आठ भंग हैं। सासादनमें इकहत्तर के स्थान में आठ भंग हैं। बहत्तरके स्थान में चौंसठ सौ भंग हैं । तेहत्तरके स्थान में बत्तीस सौ भंग हैं । मिश्र में तिरसठ चौंसठ दोनों स्थानों में आठ-आठ भंग हैं। असंयतमें चौंसठ, पैंसठ, छियासठके स्थानों में आठ-आठ भंग हैं। देशसंयत में साठ और इकसठके स्थान में आठ-आठ भंग हैं ।
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८.
८
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२६१ गळप्पुवु । प्रमत्तन ५६ । ५७ एंटेटु भंगंगळप्पुवु । अप्रमत्तन ५६ । ५७ । ५८ । ५९ स्थानंगकोळ प्रत्येकमा दोदप्पुवु। अपूर्वकरणन ५५ । ५६ । ५७ । ५८ ॥ २६ एकैकभंगंगळप्पुवु । अनिवृत्तिकरणन २२।२१ । २० । १९ । १८ एकैकभंगंगळेयप्पु । सूक्ष्मसांपरायन १७ र स्थानदोळेकभागमेयक्कुमी भगंगळु मुंद नामस्थानकथनदोळु सुव्यक्तमावपुवु ॥
__ अनंतरं प्रकृतिप्रदेशबंधंगळगे कारणयोगस्थानंगळ स्वरूपसंख्यास्वामिगळं द्विचत्वारिंशद्गाथासूत्रंगळिवं पेळ्वपर:
जोगट्ठाणा तिविहा उववादेयंतवढिपरिणामा।
मेदा एक्केक्कंपि य चोइसभेदा पुणो तिविहा ॥२१८।। योगस्थानानि त्रिविधान्युपपावैकान्तवृद्धिपरिणामभेदादेकैकमपि च चतुर्दशभेदानि पुनस्त्रिविधानि ॥
योगस्थानानि योगस्थानंगळ उपपादैकान्तवृद्धिपरिणामभेदात् उपपादएकान्तामुवृद्धिपरिगामभेदविवं त्रिविधानि त्रिप्रकारंगळप्पुवु । च मत्त एकैकमपि उपपादेकांतवृद्धिपरिणामगळाकैकमुं प्रत्येकं चतुर्दश भेवानि चतुर्दशभेवंगळनुवु । पुनः मत्त त्रिविधानि सामान्यजघन्योत्कृष्ट
v
omwww
५६ । ५७ अष्टावष्टौ । अप्रमत्तस्य ५६ ५७ ५८ ५९ एकैकः । अपूर्वकरणस्य ५५ ५६ ५७ ५८ २६ एककः
अनिवृत्तिकरणस्य २२ । २१ । २० । १९ । १८ एकैकः। सूक्ष्मसांपरायस्य १७ स्थाने एकः । एते भङ्गा
अग्रे नामस्थानकथने सुव्यक्तं संति ॥२१७।। अथ प्रकृतिप्रदेशबन्धकारणयोगस्थानानां स्वरूपसंख्यास्वामिनो द्विचत्वारिंशदगाथाभिराह
योगस्थानानि उपपादकान्तवृद्धिपरिणामभेदात्विविधानि । च-पुनः तेषामेकैकमपि प्रत्येकं चतुर्दशभेदं
प्रमत्तमें छप्पन और सत्तावनके स्थानमें आठ-आठ भंग हैं। अप्रमत्तमें छप्पन, सत्तावन, अठावन और उनसठ के स्थानोंमें एक-एक भंग है। अपूर्वकरणमें पचपन, छप्पन, सत्तावन, २० अठावन और छब्बीसंके स्थानोंमें एक-एक भंग हैं। अनिवृत्तिकरणमें बाईस, इक्कीस, बीस, उन्नीस और अठारहके स्थानों में एक-एक भंग है। सूक्ष्म साम्परायमें सतरह के स्थानमें एक भंग है । ये भंग आगे नामकर्मके स्थानोंमें प्रकट करेंगे ॥२१॥
___ आगे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके कारण योगस्थानोंका स्वरूप, संख्या और स्वामी बयालीस गाथाओंसे कहते हैं
___ योगस्थान तीन प्रकारके हैं-उपपाद योगस्थान, एकान्तवृद्धि योगस्थान और परिणाम योगस्थान । उनमें से एक-एक भेदके चौदह जीव समासोंकी अपेक्षा चौदह-चौदह भेद होते हैं। ये चौदह-चौदह भेद भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारके हैं।
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५
१०
१५
२०
२६२
भेदिदं त्रिविधंगळवु :
गो० कर्मकाण्डे
उपपा | एकां | परिणा १४ / १४ सा
१४
२८
२८
४२
२८ सा
ज
४२ ४२ सा ज
अनंतरं सामान्य सामान्य जघन्य सामान्य जघन्योत्कृष्टभेदविदं १४ । २८ । ४२ । पदिनाकुमिपत्ते'टु नाव त्तेरडुमुपपादयोगस्थानं गल्गुपपत्तियं पेव्वपरु :
उववादजोगठाणा भवादिसमयट्ठियस्स अवरवरा । विग्गहउजु गइगमणे जीवसमासेसु णायव्वा ॥ २१९ ॥
उपपादयोगस्थानानि भवादिसमयस्थितस्थावरवराणि । विग्रहगतिगमने जीवसमासेषु ज्ञातव्यानि ॥
उपपादयोगस्थानानि उपपादयोगस्थानंगळु भवाविसमयस्थितस्य पृथ्वं भकारीर में बिट्टुत्तर भवदादिसमय दोलिरुत्तिगे । अवरवराणि जघन्योत्कृष्टयोगंगळ विग्रहर्जुगतिगमने विग्रहगतियैवमुत्तरभवक्के सलुवल्लियुं ऋजुगतिगमनदिदमुत्तरभवक्के सलुवल्लियुं । यथासंख्यमागिजघन्योपपावयोगस्थानंगळुमुत्कृष्टोपपादयोगस्थानंगळु जीवसमासेषु चतुर्द्दश जी वसमासे गळोळु क्तरचनाविशेषबोळ ज्ञातव्यानि अरियल्पडुवुवु । उपपद्यते प्राप्यते भवप्रथमसमयो जंतुनेत्युपपादः । एवंतु उपपाद
भवति । तेऽपि भेदाः पुनः सामान्यजघन्योत्कृष्टभेदात्त्रिविधा भवन्ति ॥२१८॥ अथ सामान्यजघन्यसामान्योत्कृष्टभेदेन १४ । २८ । ४२ चतुर्दशाष्टाविंशतिद्वाचत्वारिंशदुपपादयोगस्थानानामुत्पत्ति माह
उपपादयोगस्थानानि उत्तरभवस्य आदिसमये स्थितस्य, विग्रहगत्योत्तरभवगमने जघन्यानि, ऋजुगत्यात्रोत्कृष्टानि भवन्ति । तानि जीवसमासे चतुर्दशसूक्तरचनाविशेषे ज्ञातव्यानि । उपपाद्यते प्राप्यते भव
सामान्यके भेद से चौदह भेद हैं, सामान्य और जघन्यके भेदसे अठाईस भेद हैं । तथा सामान्य, जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे बयालीस भेद हैं ||२१८||
आगे उपपाद योगस्थानका स्वरूप कहते हैं
भव के प्रथम समय में स्थित जीवके उपपाद योगस्थान होता है । जो जीव विग्रह गति से जाकर नवीन भव धारण करता है उसके जघन्य उपपाद योगस्थान होता है । और जो बिना मोड़ेवाली ऋजुगतिसे जाकर नवीन भव धारण करता है उसके उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान होता है । वे चौदह जीव समासों में होते हैं। 'उपपद्यते' अर्थात् जो जीवके द्वारा १. ब सामान्यसामान्यजघन्यसामान्यजं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२६३ योगद सामान्य सामान्यजघन्य सामान्यजघन्योत्कृष्टयोगभेदंगळनितुं भवप्रथमसमयसंभविगळप्पुवेवुवर्थमनंतरं परिणामयोगक्के पेळ्दपरु :
.
प्रथमसमये जन्तुना इत्युपपादः । तस्य सामान्यादिभेदाः सर्वेऽपि भवप्रथमसमये एव संभवतीत्यर्थः । स्थिति । ए । सू । प
स्थिति । ए। बाप | परि । उ०००ज | स्थिति । ए सू अप । परि । उ००ज
| स्थिति । ए । बा । अप परि । उ०००ज उ
| परि । उ०००ज उ २१ ०
१।१। .
१८। ३ . ई २१परि। उ०००ज | १।१ ० श २२परि उ०००ज १८।३ परि । उ००ज
परि उ०००ज परि। उ०००ज
| श २१परि । उ००ज
phor
शरीर प २१ एकां । उ एकांतानु उ श २ १एकांतानुव उ
एकांता उ २ .
१।२। ०।१८३
१८।३ १ एकांतानुवृद्धि । ज | १ । एकांतानुवृद्धि ज | १ एकांतानुवृद्धि ज । १ एकांता ज विग्रह शजाउप%30 ऋउ १ । ज । उप30 ऋउ१ ज । उपपा-० ऋउ १ ज उप30 ऋ उ
पूर्व भवशरीर
पूर्वभवशरीर
पूर्वभवशरीर
पूर्वभवशरीर
भा
स्थिति । त्रीप
परि । उ०००ज
स्थिति । द्वौं । प । भा परि । उ०००ज स्थिति । द्वींद्रि । अप
परि। उ०००ज १११ ० १८।३ ०
इ
श २१ परि । उ०००ज
परि । उ०००ज
श २१ परि उ०००ज
एकांता उ । श २१ एकांत उ ११२
| श २१ एकांता उ
१८।३। १ एकांता
१ । एकांतानु ज | १ । एकांता ज १। ज । उपपा ० ऋउ १ । ज उपपा ० ऋउ । १ । ज । उपपा ० ऋउ
5००4
पूर्वभवशरीर
पूर्वभवशरीर
पूर्वभवशरीर
भवके प्रथम समयमें प्राप्त किये जाते हैं वे उपपाद योगस्थान हैं। उसके सब सामान्य आदि . भेद भवके प्रथम समयमें ही होते हैं ।।२१९।।
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गो० कर्मकाण्डे
परिणाम जोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोति । लद्धियपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोद्धव्वा ॥ २२० ॥
परिणामयोगस्थानानि शरीरपर्य्याप्तस्तु चरमपर्यंतं । लब्ध्यपर्याप्तकानां चरमत्रिभागे
बोद्धव्यानि ॥
परिणामयोगस्थानानि परिणामयोगस्थानंगळ तु मत्त शरीरपर्याप्तः शरीरपर्याप्तिप्रथमसमयं मोदगोंडु चरमसमयपय्र्यंतं स्वस्वस्थितिचरमसमयपध्यंतं बोद्धव्यानि अरियल्पडुवुवु ।
२६४
स्थिति । त्री | अप परि । उ०००ज
१ । १०
१८ । ३०
०
परि । ३०००ज
११२ एकांता १८३
उ
०
स्थिति । चप परि । उ०००ज
०
०
भा
उ
इं
०
श २ १ परि उ०००ज
०
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२१ एकांतानु उ
०
१ एकांतानु
०
१ | एकांतानुवृद्धि ज
१ एकांतानु
ज
१ ज उपपा ० ॠ । उ १ ज उपपा • ऋ । उ १ । ज । उपपा० ऋ । उ
१।१। ० १८/३ ०
स्थिति । असं | अप
परि । उ०००ज
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परि । उ०००ज
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०
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स्थिति । च । अप परिणा । उ००० ज १।१। ० १८३
०
परि । उ०००ज १२ एकांतानु उ १८।३
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स्थिति । सं । प म परि । उ० ००ज
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परि । उ०००ज
१८३
०
एकांता
०
उ
॥ २१९ ॥ अथ परिणामयोगस्याह
परिणाम योगस्यानानि तु पुनः पूर्णशरीरपर्याप्तिप्रथमसमयादारभ्य स्वस्थितिचरमसमयपर्यंतं ज्ञातपरिणाम योगस्थान शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके प्रथम समय से लेकर अपनी आयुके १. ब पुनः शरीरं ।
१०
0
१। एकांतानुवृद्धि ज
१ । ज । उपपा ० ॠ । उ
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२६५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका लब्ध्यपर्याप्तकानां लब्ध्वपर्याप्त करुगळगे चरमत्रिभागे स्वस्थितियुच्छ्वासाष्टादशकभागमक्कुमवर चरमविभागप्रथमसमयं मोदगोडु चरमसमयपथ्यंतं परिणामयोगस्थानंगळु बोद्धव्यानि अरिय. ल्पडुवुवु।
सगपज्जत्तीपुण्णे उवरि सम्वत्थ जोगमुक्कस्सं ।
सव्वस्थ होदि अवरं लद्धिअपुण्णस्स जेठं पि ॥२२१॥ स्वपर्याप्तौ पूर्णायामुपरि सर्वत्र योग उत्कृष्टः। सर्वत्र भवत्यवरो लब्ध्यपप्तिकस्योस्कृष्टोऽपि ॥
स्वपर्याप्तौ पूर्णायां सत्याम् स्वशरीरपाप्तिपरिपूर्णमागुत्तं विरलु तच्छरीरपाप्तिप्रथमसमयं मोवल्गोंडु उपरि मेले सर्वत्र सर्वस्थितिसमयंगळोळु उत्कृष्टयोगः उत्कृष्टयोगमुं सर्वत्र सर्वस्थितिसमयंगळोळु अवरो योगः जघन्ययोगमुं भवति परिणामयोगदोळक्कुं। लब्ध्य- ,. पर्याप्तकस्य लब्ध्यपर्याप्तकंगे स्वस्थितियुच्छ्वासाष्टादशैकभागचरमत्रिभागप्रथमसमयं मोदल्गोंडु चरमसमयपथ्यंतं मेले सर्वस्थितिसमयंगळोळ उत्कृष्टः उत्कृष्टपरिणामयोगमुं अपि सर्वत्र जघन्यपरिणामयोगमुं भवति अक्कुमेकेंदोडे पर्याप्तजीवंगळ परिणामयोगस्थानंगळनितुं घोटमानयोगंगळप्पुरिदं । हानिवृद्ध्यवस्थानरूपेण परिणम्यत इति परिणाम येदितु निरुक्तिसिद्धमक्कुं।
अनंतरमेकांतानुवृद्धियोगक्के सामान्यजघन्योत्कृष्टस्थानंगळं जीवसमासेगळं कटाक्षिसि पेळदपरु :
व्यानि । लब्ध्यपर्याप्तकानां च स्वस्थितेरुच्छवासाष्टादशकभागस्य चरमत्रिभोगप्रथमसमयादि कृत्वा चरमपर्यन्तं ज्ञातव्यानि ॥२२०॥ __ स्वस्वशरीरपर्याप्तौ पूर्णायां तत्प्रथमसमयात्प्रभृति उपरि सर्वस्थितिसमयेषु परिणामयोगस्य उत्कृष्टमपि ,
२० सर्वस्थितिसमयेषु जघन्यमपि भवति । लब्ध्यपर्याप्तकस्वस्वस्थितेरुच्छ्वासाष्टादर्शकभागस्य चरमत्रिभागप्रथमसमयमादि कृत्वा चरमसमयपर्यन्तं सर्वस्थितिविकल्पेषु उत्कृष्टपरिणामयोगोऽपि जघन्यपरिणामयोगोऽपि भवति । उभयजीवानां तानि योगस्थानानि सर्वाण्यपि घोटमानयोगा एव स्युः, हानिवृद्धयवस्थानरूपेण परिणमनात् ॥२२१॥ अथैकान्तानुवृद्धियोगस्याहअन्त समय पर्यन्त होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके उच्छ्वासके अठारहवें भाग प्रमाण अपनी स्थिति के अन्तिम त्रिभागके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त होते हैं ।।२२०॥
अपनी-अपनी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर उसके प्रथम समयसे लेकर ऊपर आयुके सब समयों में परिणाम योगस्थान होता है। तथा सब समयोंमें उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी होता है। तथा लब्ध्यपर्याप्तककी अपनी स्थिति श्वासके अठारहवें भाग प्रमाण है। उसके अन्तिम त्रिभागके पहले समयसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त सब स्थितिके समयोंमें उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान भी होता है और जघन्य परिणाम योगस्थान भी होता है । पर्याप्त ३०
और अपर्याप्त दोनों ही प्रकारके जीवोंके वे सब परिणाम योगस्थान घोटमान योग ही होते हैं क्योंकि ये घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं और जैसेके तैसे भी रहते हैं ॥२२१॥
आगे एकान्तानुवृद्धि योगस्थानको कहते हैंक-३४
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गो० कर्मकाण्डे
एयंत ढिकाणा उभयवाणाणमंतरे होंति ।
अवरवरडाणाओ सगकालादिम्मि अंतहि ।। २२२||
एकान्त वृद्धिस्थानान्युभयस्थानानामन्तरस्मिन्भवंति । अवरवरस्थानानि स्वकालादावंते ॥ एकान्तवृद्धिस्थानानि एकान्तानुवृद्धियोगस्थानंगल पर्याप्तजीवंगळ रूपोनशरीरपर्थ्याप्ति५ कालपर्यन्तांतर्मुहूर्त - चरमसमय- पर्यंत भुपपादयोग-परिणामयोगंगळें बुभय-नामयोगंगळं तराळदोळcg | अवरवरस्थानानि जघन्योत्कृष्टस्थानंगलु स्वकालादावंते तदेकांत वृद्धि योगकालदादियोऴु जघन्ययोगमक्कुमन्तदो चरमसमदोत्कृष्टयोगम+कुमदु कारणमागि एकान्तेन नियमे स्वकालप्रथमसमयाच्चरमसमयपय्र्यंतं प्रतिसमयम संख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविभागप्रतिच्छेदवृद्धिय्र्यस्मिन् स एकान्तवृद्धियोगः येदितु निरुक्तिसिद्धमप्प योगमेकान्त वृद्धियोग में बुदक्कु । १० मिन्दुक्तयोग विशेषंगळ नितुं मुन्नं स्थापिसिद चतुद्दे सजीवसमास रचना विशेष दोळतिव्यक्तमप्युरिंद दुभाविस पडुगुं ॥
१५
२६६
अनंतरं योगस्थानदवयवगळं पेदपरु :
२५
विभागपच्छेिदो वग्गो पुण वग्गणा य फड्डयगं ।
गुणहाणीविय जाणे ठाणं पडि होदि नियमेण ॥२२३॥
अविभागप्रतिच्छेदो वर्गः पुनर्व्वणा च स्वर्द्धककं । गुणहानिरपि च जानीहि स्थानं प्रति भवेन्नियमेन ॥
समस्त योगस्थानं गळु श्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रंगळप्पुववरोळ अविभागप्रतिच्छेदाः अविभागप्रतिच्छेदंगळे दुं वग्र्गः वर्गमेंदु पुनः मत्ते वर्गणा च वर्गणेये दुं स्पर्द्धकं स्पर्द्धकर्म दु
एकांतानुवृद्धियोगस्थानानि पर्याप्तजीवानां रूपोनशरीरपर्याप्तिकालस्य अंतर्मुहूर्त चरमसमयपर्यन्तं उप२० पादपरिणामयोगयोः अंतराले भवति । तस्य जघन्यस्थानानि स्वकालस्य आदौ उत्कृष्टानि च अंते भवन्ति । तत एवैकांतेन नियमेन स्वकालप्रथमसमयाच्चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमय संख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविभागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकांतानुवृद्धिरित्युच्यते । एवमुक्तयोगविशेषाः सर्वेऽपि पूर्वस्थापितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्तं संभवतीति संभावयितव्याः ॥ २२२ ॥ अथ योगस्थानस्यावयवानाह -
समस्त योगस्थानानि श्रेण्यसंख्या तकभागमात्राणि । तेषु अविभागप्रतिच्छेदः, वर्गः पुनः वर्गणा स्पर्धक
एकान्तानुवृद्धि योगस्थान पर्याप्त जीवोंके एक समय कम शरीर पर्याप्त काल अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय पर्यन्त उपपाद और परिणाम योगस्थानोंके मध्य में होता है । उसका जघन्य स्थान तो अपने कालके आदि में और उत्कृष्ट अन्त में होता है । इसीसे एकान्त अर्थात् नियमसे अपने कालके प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय असंख्यात गुणे-असंख्यातगुणे अपने योग्य अविभाग प्रतिच्छेदोंकी वृद्धि जिसमें हो उसे ३० एकान्तानुवृद्धि कहते हैं। इस प्रकार कहे सब योगविशेष चौदह जीव समासों में होते हैं ||२२२||
आगे योगस्थानके अवयव कहते हैं
समस्त योगस्थान जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । उनमें अविभाग
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कर्णाटवृत्ति जोव्रतत्त्वप्रदीपिका
२६७ गुणहानिरपि च गुणहानियुमेंदुं स्थानं प्रति प्रतिस्थानदोळं भवति नियमेन अक्कुं नियमदिदमेंदिवं जानीहि नोनरियेदु शिष्य संबोधिसल्पट्टनल्लि :
पल्लासंखेज्जदिमा गुणहाणिसला हवंति इगिठाणे ।
गुणहाणि फड्ढयाओ असंखभागं तु सेढीए ॥२२४॥ पल्यासंख्यातेकभागा गुणहानिशलाका भवंति एकस्थाने । गुणहानिस्पर्द्धकान्यसंख्यभागस्तु ५ श्रेण्याः ॥
एकस्याने एकयोगस्थानदोळु । पल्यासंख्याकभागाः पल्यासंख्यातैकभागप्रमितंगळु गुणहानिशलाका भवन्ति गुणहानिशलाकेगळप्पुवु प नानागुणहानिशलाकेगळे बुदत्यं । गुणहानिस्पर्धकानि एकगुणहानिस्पकंगळु तु मत्ते श्रेण्याः जगच्छ्रेणिय असंख्य भागाः असंख्यातकभागप्रमितंगळप्पुवु a
फड्ढयगे एक्केक्के वग्गणसंखा हु तत्तियालावा ।
एक्केक्कवग्गणाए असंखपदरा हु वग्गाओ ।।२२५।। स्पर्द्धके एकैकस्मिन् वर्गणासंख्या खलु तावन्मात्रालापा। एकैकवर्गणायामसंख्यप्रतराः खलु वर्गाः।।
एकैकस्मिन् स्पर्द्धके एकैकस्पर्द्धकदोळु वर्गणासंख्या वर्गणासंख्ये खलु स्फुटमागि १५ तावन्मात्रालापा श्रेण्यसंख्यातेकभागमात्रालापमुळ्लुवक्कं । एकैकवर्गणायाम् एकैकवर्गणेयोल वर्गाः वगंगळ असंख्यप्रतराः असंख्यातगुणितजगत्प्रतरप्रमितंगळप्पुवु । - 3 गुणहानिरपि च स्थान प्रति भवतीति नियमेन जानीहि ॥२२३॥ एकस्मिन् स्थाने गुणहानिशलाकाः पल्यासंख्यातकभागमायो भवन्ति नानागुणहानिशलाका
aa
१०
२०
भवति
इत्यर्थः । एकैकगुणहानिस्पर्धकानि तु पुनः श्रेण्यसंख्यातकभागप्रमितानि ३ ३ ॥२२४॥
. एककस्मिन् स्पर्धके वर्गणासंख्या खलु स्फुट तावन्मात्रालापाः श्रेण्यसंख्यातकभागमात्रालापा भवन्ति ३ एककस्या वर्गणायां पुनः वर्गाः असंख्यातजगत्प्रतरप्रमिता भवन्ति = a ॥२२५।। प्रतिच्छेद, वर्ग; वर्गणा, स्पर्धक और गुणहानि प्रत्येक योगस्थानमें होते हैं यह नियमसे जानना ॥२२३।।
एक योगस्थानमें गुणहानि शलाका पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। यह नाना गुणहानि २५ शलाका जानना । तथा एक-एक गुणहानिमें स्पर्धक जगतश्रेणिके असंख्यात भाग प्रमाण होते हैं ।।२२४||
एक-एक स्पर्धकमें वर्गणाओंकी संख्या भी उतनी ही अर्थात् जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है । और एक-एक वर्गणा में असंख्यात जगतप्रतर प्रमाण वर्ग होते हैं ।।२२५।।
१. व एकक
।
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गो० कर्मकाण्डे
rrhea पुण वग्गे असंखलोगा हवंति अविभागा । अविभागस्स पमाणं जहण्णउड्डी पदेसाणं || २२६||
एकैकस्मिन् पुनर्गे असंख्यलोका भवन्त्यविभागाः । अविभागस्य प्रमाणं जघन्यवृद्धिः प्रदेशानां ॥
पुनः मत्ते एकैकस्मिन्वर्गे एकैकवर्गदोळु असंख्यलोका भवन्त्यविभागाः असंख्यात लोकंगळ विभागंगळtya ॐ अविभागस्य प्रमाणं अविभागद प्रमाणमुं प्रदेशानां ज घनप्रमितजीवप्रदेशंगळ मध्यदोळु जघन्यवृद्धिः सर्व्वजघन्यवृद्धियेनितनितक्कुं । अधिगशक्त्यंश मक्कु में बुदत्थं । यितविभागप्रतिच्छेदादिगळ विलोमक्रर्मादिदं पेळपट्टुवटुकारगि अविभागप्रतिच्छेदसमूहो वर्गः, वर्गसमूहो वर्गणा, वर्गणासमूहः स्पर्द्धकं स्पर्द्धक समूहो गुणहानिः १० गुणहानिसमूहःस्थानमेंदु पेद तेरनक्कुमेकयोगस्थानदोळ गुणहानिशलाकेगळ प एकगुणहानि
aa
1
एकवर्गणावग्गंगळु
स्पर्द्धकंगळु aa एकस्पर्द्धकवर्गणाशलाकेगळ =a एकवर्गावि भागप्रतिच्छेदंगळु = अविभागप्रतिच्छेदप्रमाणं जीवप्रदेशंगंळोळ जघन्याविभागिशक्त्यंशमक्कुं ॥ अनंतर मेकयोगस्थानगतसर्व्वं स्पर्द्धकादिगळ प्रमाणमं पेळदपरु :ठाणफयाओ वग्गणसंखा पदेसगुणहाणी |
सेढि असंखेज्जदिमा असंखलोगा है अविभागा ॥ २२७ ॥ !
एकस्थानस्पर्द्धकानि वर्गणा संख्या प्रदेशगुणहानिः । श्रेण्यसंख्येयभागाः असंख्यलोकाः खल्वविभागाः ॥
१५
२०
२५
३०
२६८
1
एकस्थानस्पर्द्धकानि येकयोगस्थानगतसर्व्वस्पद्ध' कंगळं वर्गणासंख्या अहंगे एकयोगस्थानगतवरणासंख्येयुं प्रदेश गुणहानिः प्रदेशगुणहान्यायाममुं प्रत्येकं श्रेण्यसंख्येयभागाः सामान्यालापदिदं
पुनरेकैकस्मिन् वर्गे असंख्यात लोका अविभागा भवन्ति अविभागस्य प्रमाणं पुनः आत्मप्रदेशानां सर्वजघन्यवृद्धिः अविभागशक्तयंशः इत्यर्थः । एवं विलोमगत्योक्तम् । तेन अविभागप्रतिच्छेदसमूहो वर्गः । वर्गसमूहो वर्गणा । वर्गणासमूहः स्पर्धकम् । स्पर्धक समूहो गुणहानिः । गुणहानिसमूहः स्थानमिति ज्ञातव्यम् ।।२२६।। अथैकयोगस्थानगतसर्वस्पर्धकादीनि प्रमाणयति
एक योगस्थानस्य सर्वस्पर्धकानि सर्ववर्गणा संख्या प्रदेशगुणहान्यायामश्च प्रत्येकं श्रेण्यसंख्येयभागः
एक-एक वर्ग में असंख्यात लोक प्रमाण अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। अविभागका प्रमाण प्रदेशोंकी जघन्य वृद्धिरूप जानना । परमार्थसे जिसका दूसरा भाग न हो सके ऐसे शक्तिके अंशको अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । गाथाओं में उलटे रूपसे कहा है । अतः अविभाग प्रतिच्छेदों के समूहको वर्ग कहते हैं। वर्गोंका समूह वर्गणा है । वर्गणाओंका समूह स्पर्धक है | स्पर्धक समूह गुणहानि है और गुणहानियोंका समूह स्थान है, ऐसा जानना ||२२६|| आगे एक योगस्थान में सब स्पर्धक आदिका प्रमाण कहते हैं
एक योगस्थान में सब स्पर्धक, सब वर्गणाओंकी संख्या और असंख्यात प्रदेशों में गुणहानि आयामका प्रमाण ये सब सामान्यसे जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं। किन्तु
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
२६९ जगच्छेण्यसंख्येयभागंगळप्पुवु। वस्तुवृत्तियिदं हीनाधिक भावंगळप्पुवदेंतेंदोडे प्र गु १ प स्प ___aa इ गुप बंद लब्धमेकस्थानगतसर्वस्पद्धकंगळ प्रमाणमक्कु। =ad प मत्तं । प्र स्प
aa
aa
-.-
प
१ । फ व । इस्प ३ प बंद लब्धमेकस्थानगतसर्ववर्गणाप्रमाणमक्कु aaaaa मत्तं । प्र
aa
स्प १ । फ। व इ। स्प। 2 a बंद लब्धमेकगुणहानिगतवर्गणाप्रमितमक्कु । यिल्लि गुणकारंगलं नोडलु भागहारमधिकंगळो समंगळो मेण होनंगळो येदितु विकल्पत्रयमं माडि श्रेण्य ५ संख्येयभागकथनान्यथानुपपत्तियत्तणिदं भागहारमं नोडलु गुणकारंगळसंख्यातगुणहीनंगळेदिती गाथासूत्रदिदमे यरियल्पडुवुवु । असंख्यलोकाः खल्वविभागाः एकस्थानगतसमस्ताविभागप्रतिच्छेदंगळमसंख्यातलोकप्रमितंगळेयप्पुवनंतंगळल्तु। कर्मपरमाणुगताविभागप्रतिच्छेदंगळुमनंतसंख्यासर्वनिकृष्टज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळुवच्छिन्नंगळप्पुवी योगस्थानविषयदोळ कर्मादानजीवसर्वप्रदेशशक्तियसंख्यातलोकमात्रमेयक्कुमेंबुदाचार्य्यन हृद्गतार्थमक्कु॥ सामान्यालापेन भवति । वस्तुवृत्त्या तु हीनाधिक्यं भवति । तद्यथाप्र गु १ क प ० ० इ गुप लब्धमेकस्थानगतस्य स्पर्धकानि भवन्ति . प पुनः प्र
aapa
aa
स्प फ १ व ३ इस्प __ प लब्धं एकस्थानगतसर्ववर्गणाप्रमाण भवति ._ _ प पुनः प्र aaaa
aaaaa
स्प १ फ व ३ ३ प ३३ लब्धं एकगुणहानिगतवर्गणा भवन्ति । अत्र गुणकारो भागहाराद्धीनोऽधिकः समो वा असंख्यातगुणहीनो ज्ञातव्यः, कुतः ? श्रेण्यसंख्येयभागस्य अन्यथानुपपत्तः । एकस्थानगतसमस्ताविभागप्रतिच्छेदाः खलु असंख्यातलोकप्रमिता एव, न कर्मपरमाणुवत् सर्वनिकृष्टज्ञानवद्वा अनंता
वास्तव में परस्परमें हीन अधिक हैं। एक गुणहानिमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण है उसको एक स्थानमें जो गुणहानिका प्रमाण है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतने एक योगस्थानमें स्पर्धक होते हैं। तथा जो एक स्पर्धकमें वर्गणाओंका प्रमाण कहा है उसको, एक योगस्थानमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण कहा है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना एक योगस्थानमें २० वर्गणाओंका प्रमाण जानना। तथा एक स्पर्धक जो वर्गणाओंका प्रमाण जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र कहा है उसको. एक गणहानिमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण कहा है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना एक गुणहानिमें वर्गणाओंका प्रमाण जानना । यहाँ गुणकारका प्रमाण जगतश्रेणिके भागहार के प्रमाणसे असंख्यातगुणा हीन जानना। ऐसा न होनेसे श्रणिका असंख्यातवाँ भाग सिद्ध नहीं हो सकता। इसीका नाम गुणहानि आयाम २५ है । सामान्यसे ये सब जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं क्योंकि असंख्यातके भेद बहुत हैं।
१. ब वषुवृद्धत्वा ।
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२७०
गो० कर्मकाण्डे
सर्वजीवप्रदेशंगळु । नाना । प अन्योन्याभ्यस्त प एकगुणहानिस्पद्ध'कंगळु। ३ ।
aa
एकस्पद्धकवर्गणाशलाकंगळु । एकगुणहानिसव्र्ववर्गणगनु ३०० एकस्थानसम्र्ववर्गणेगल ०० ० प ई राशिगळु नानागुणहानिशलाकेगळादियागुत्तरोत्तरराशिगळुमसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु
। अवि वगं | वर्गणा | स्पद्ध
गुण | स्थान ।
S२५६
-
५ भवन्ति । एकजीवगतसर्वप्रदेशाः = नानागु प अन्योन्याभ्यस्त प एकगुणहानिस्पर्ष कानि ३० एक
aa
--
-
-
प
स्पर्धकवर्गणाशलाकाः । एकगुणहानिगतसर्ववर्गणा । । । एकस्थानगतसर्ववर्गणा । । aa एते नानागुणहानिशलाकाद्याः उत्तरोत्तरे असंख्यातगुणितक्रमा भवन्ति ॥२२७॥
एक योगस्थानमें समस्त अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात लोक प्रमाण ही हैं, कर्म१० परमाणुओं अथवा सबसे जघन्य ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी तरह अनन्त नहीं
हैं। जीवके प्रदेश लोक प्रमाण हैं। एक स्थानमें नाना गुणहानिका प्रमाण पल्यमें दो बार असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाग आवे उतना है। नाना गुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर उन्हें परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वह अन्योन्याभ्यस्त राशि है । सो पल्य
को एक बार असंख्यातसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतनी है। एक गुणहानिमें स्पर्धक १५ जगतश्रेणिमें दो बार असंख्यातसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने हैं। एक स्पर्धकमें
वर्गणा जगतश्रेणिको एक बार असंख्यातसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे. उतनी हैं। एक गुणहानिमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण है उसको, एक स्पर्धकमें जो वर्गणाओंका प्रमाण है उससे गुणा करनेपर एक गुणहानिमें सब वर्गणाओंका प्रमाण होता है। उसको एक योगस्थानमें
जो नाना गुणहानिका प्रमाण उससे गुणा करणेपर एक योगस्थानमें सब वर्गणाओंका २० प्रमाण होता है । ये सब नाना गुणहानिसे लेकर क्रमसे असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे
जानना ।।२२७॥
१. ब सर्वजीवप्रदेशाः । २. । अवि वर्ग
वर्गणा | स्पर्धक | गुण
स्थान
-
aai aa
= a la २५६ । ४
व
।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका सध्ये जीवपदेसे दिक्ड्ढगुणहाणिमाजिदे पढमा ।
उरि उत्तरहोणं गुणहाणि पडि तदद्धकम ।।२२८।। सर्वस्मिन जीवप्रदेशे दुरद्धगुणहानिभाजिते प्रथमा। उपर्युत्तरहीनं गुणहानि प्रति तदद्ध क्रमः॥ सर्वस्मिन् जीवप्रदेशे सर्वलोकप्रमितजीवप्रदेशराशियंस्थापिसि
द्रव्य स्थिति ! गुण नान दो गु अन्योन्य ।
- प
२
प
aa
aai
| ३१००। ४० ८ ५ १६ ३२= द्वयर्द्धगुणहानिभाजितेसाधिकद्वयर्द्धगुणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु प्रथमाप्रथमवर्गणेयक्कुं । मपत्तितमिदु = aa२ उपर्युत्तरहीनं यथा भवति तथा कृते मेले चयहीनमतक्कुमंते माडुत्तं विरलु गणहानि प्रति गुणहानि-गुणहानि दप्पदे तदर्द्धिक्रममक्कुमे ते दोडे मोदलोळंकसंदृष्टितोरल्पडुगं। सर्वद्रव्यं । ३१००। ई राशियं रूऊणण्णोण्णभत्थवहिददव्वं तु चरिमगुणदव्वं यदु रूपोनान्योन्याभ्यस्तराशियिदं भागिसिदोडेकभागं चरमगुणहानिद्रव्यमकुं ३१०० १० होदि तदो दुगुणकमं आदिमगुणहाणिदव्योति अल्लिदं केळगे प्रथमगुणहानिपयंतं द्विगुणद्विगुण क्रम द्रव्यंगळप्पुवु । १००।२००।४००।८००।१६००। इहिंगे गुणहानि प्रति अर्द्धार्द्धक्रमदिदं गुणहानि.
सर्वस्मिन् लोकमात्रैकजीवप्रदेशे द्वधर्धगुणहान्या भक्ते सति प्रथमवर्गणा भति: अपवर्तिते एवं =
२० २ उपर्युत्तरहीना यया भवति तथा गत्वा गुण हानि प्रति अधिक्रमा भवति । सा च अंकसंदृष्टौ यथा
३
सर्वद्रव्ये ३१०० रूपोनान्योन्याभ्यस्तराशिना भक्ते चरमगुणहानिद्रव्यं भवति ३१०० ततोऽयोधः १५
प्रथमगुणहानिपर्यन्तं द्विगुणद्विगुणक्रमं भवति १०० । २०० । ४०० । ८०० । १६०० । एवं प्रतिगुणहानि
एक जीवके प्रदेश लोक प्रमाण है। उनमें डेढ़ गुणहानिसे भाग देनेपर प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। उसमें एक-एक विशेष घटानेपर एक-एक वर्गणा होती है । गुणहानि गुणहानि प्रति क्रमसे आधा प्रमाण जानना। उसकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- सर्वद्रव्य ३१०० को एक घाट अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाग देनेपर 3300 अन्तिम गुणहानिका द्रव्य आता है। उससे नीचे-नीचे प्रथम गुणहानिपर्यन्त दूना-दूना होता
द्रव्य । स्थिति गुण । नाना । दोगु । अन्योन्या
%D
i
aa
a a
a
a
३१०० :
४०
४०
८
। ५
।
१६ ।
३२ |
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२७२
मो० कर्मकाण्डे द्रव्यंगळप्पुवु । सम्वे जोवपदेसे सर्वजीवप्रदेशंगळगे मूर साविरव नूरु संदृष्टियक्कु । ३१०० । मिदं द्वचद्धंगुणहानिभाजिते साधिकद्वयर्द्धगुणहानियिदं भागिसुतं विरलु प्रथमा प्रथमवर्गणयक्कु-। मिल्लियधिकप्रमाणमेनित दोडे प्र २५६ । फ। श १। इ ३१०० । एनितु शलाकेगळक्कुम दोर्ड लब्धं साधिकद्वयलुगुणहानिप्रमाणमक्कु १२०० मिदरिद ७७५ द्रध्यमं भागिसुत्तं विरलु५ ३१००।६४ प्रथमा प्रथमगुणहानि प्रथमस्पद्धक प्रथमवर्गणाप्रमाणमक्कुं । २५६ । उपर्युत्तरहीनं
७७५ मेले विशेषहीनमागुतं प्रथमगुणहानिचरमस्पद्ध'कचरमवर्गणेपथ्यंत पोगि चरम वर्गणयोळ रूपोनगच्छमात्रविशेषहीनंगळप्पुवु १४४ इल्लि विशेषप्रमाणमनिते दोडे प्रथमवर्गणेयं दो
१६० १७६ १९२
६४
६४
.
२०८
२२४ २४० २५६
द्रव्याणि अर्धाधक्रमेण सिद्धानि । पुनः सर्वजीवप्रदेशे शताधिकत्रिसहस्र ३१०० साधिकद्वयर्धगुणहान्या भाजिते प्रथमवर्गणा भवति । यद्येतावतः प्र २५६ एका शलाका फ श १ तदैतावतः इ ३१०० किमिति ? लब्धं साधिकद्वयर्धगणहानिप्रमाणं १२१७ अनेन ७७५ द्रव्ये भक्ते ३१०० । ६४ प्रथमगणहानिस्पधंकप्रथमवर्गणा६४ ६४
७७५ प्रमाणं भवति २५६ । उपर्युत्तरहीनं भूत्वा प्रथमगुणहानिचरमस्पर्धकचरमवर्गणायां रूपोनगच्छमात्रविशेषोयते-१४४
१९२
२०८
२२४
२४०
२५६ है-१००१२००।४००६८००।१६०० । इस प्रकार प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य क्रमसे आधा-आधा सिद्ध होता है । सब जीवके प्रदेश तीन हजार एक सौमें ३१०० साधिक डेढ़ गुणहानिसे भाग
देनेपर प्रथम वर्गणा होती है। यदि २५६ की एक गुणहानि होती है तो ३१०० को कितनी १५ होगी। ऐसा त्रैराशिक करनेपर साधिक गुणहानिका प्रमाण १२ १४ होता है । इसमें ११४५
द्रव्यमें भाग देनेपर ३१००४ ६४ प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रमाण २५६ होता है। ऊपर उत्तरोत्तर हीन होकर प्रथम गुणहानिके अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम बर्गणामें एक हीन गच्छमात्र चय घटते हैं। यथा २५६।२४०।२२४।२०८।१९२।१७६।१६०।१४४ ।
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२७३
गुणहानियिदं भागिसिदोडे २५६ क भागं विशेषप्रमाणमक्कु १६ मिन्तेल्ला गुणहा निगळ
१६
प्रथमवर्गणेयं दोगुणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु तंतम्म गुणहानियोळु विशेषप्रमाणमक्कु १ मवु
२
कदम दोगुणहानिगे निषेकहारमें ब पेसरक्कुं । गुणहाणि पडि तदद्धकमं गुणहानिगुणहानिपदे द्रव्यंगळं वर्गगलुं विशेषंगळु मर्द्धाद्ध क्रमंगळपुर्व दितु निश्चय- ३६ १८ ९
७२
८०
४० २० १० ८८ ૪૪ २२ ११ ९६ ४८ २४ १०४ | ५२ | २६ ११२ । ५६ । २८ १२० | ६० ३० १५ | १२८ | ६४ | ३२ १६
१४
सल्पडुवुवु यितु सामान्यदिदमंक संदृष्टियिदं गमनिकेयं तोरि विशेष निर्णयमनत्थं संदृष्टियिवं पेदपरु :
८
१६
अर्धार्धक्रमा भवन्ति ।
अत्र विशेषप्रमाणं तु प्रथमवर्गणायां दोगुणहानिभक्तायां २५६ भवति १६ । तया सर्वगुणहानीनामपि
१६
७२
८०
८८
९६
१०४
११२
१२०
१२८
ज्ञातव्यं १ तत एव दोगुणहानिनिषेकहार इत्युच्यते । एवं गुणहानि गुणहानि प्रति द्रव्याणि वर्गणा: विशेषाश्च
२
४
३६
१८
२०
४०
४४
४८
५२
५६
६०
३०
६४
३२
।।२२८।। एवं सामान्येन अंकसंदृष्ट्या गमनिकां प्रदश्यं विशेषनिर्णयं अर्थसंदृष्ट्या आह
२२
२४
४
९
१०.
११
१२
१३
१४
१५
१६
२६
२८
८
१६
१२
१३
प्रथम वर्गणा में दो गुणह । निसे भाग देनेपर २७ चयका प्रमाण १६ आता है । इसी तरह सब गुणहानियों का भी चय जानना १६०८|४|२| १ | इस प्रकार प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य, वर्गणा और चय आधा-आधा होता है || २२८||
इस प्रकार अंकसंदृष्टि के द्वारा दिखाकर अर्थसंदृष्टि के द्वारा कहते हैं
क- ३५
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२७४
५
गो० कर्मकाण्डे
फड्ढयसंखाहि गुणं जहण्णवग्गं तु तत्थ तत्थादी । बिदियादिवग्गणाणं वग्गा अविभागअहियकमा ॥ २२९ ॥
स्पर्धक संख्याभिर्गुणो जघन्यवर्गस्तु तत्र तत्रादौ । द्वितीयादिवर्गणानां वर्गा अविभागाविकक्रमाः ॥
स्पद्ध'कसंख्याभिर्गुणो जघन्यवर्गः तत्र तत्रादौ । प्रथमगुणहानि प्रथमस्पर्धक मोदगोंड चरम गुणहानिचरम स्पर्धक पय्र्यंतमाद सर्व्वगुणहानि सव्वं प्रथमस्पर्धकंगळ जघन्यवर्गः कोर्थः प्रथमवर्गणेय वग्र्गं तत्र तत्रादौ अल्ललिय आदियोळ स्पर्धक संख्याभिर्गुणः स्पर्धक संख्येदं गुणिल्पदुदवकुं । तुमत्ते द्वितीयादिवाणानां वग्र्गाः द्वितीयादिवर्णगळ वगळू अविभागागाधिकक्रमाः अविभागाधिकक्र मंगळप्पुवु । इल्लिसर्व जघन्ययोगस्थान सर्व्वं योगाविभागप्रतिच्छेद१० मेलापनविधानं पेळल्पडुगुमल्लि प्रथमदो अन्नेवरं प्रथम गुण हा निस्पदृद्धं कंगळ धनसंयोजनक्रमं पेळदोडे जघन्य स्पर्धकादिवर्गणा २५६ प्रदेशसमूहमं । वि १६ जघन्यवर्गविदं गुणिसि । व वि १६ । मत्ते एकस्पर्धक वर्गणाशलाकेगळिवं गुणिसुतं विरल स्थूलरूपदिदं जघन्यस्पर्धक कुँ । व वि १६ |४| मत्तमा जघन्यस्पर्धक मादियुमुत्तरमुमेक गुणहानिस्पर्धकशलाका गच्छ संकलनमं तरुतं विरलु ऋण सहितमप्प प्रथमगुणहानिद्रव्यमिनितक्कु । व वि १६ । ४ । ९ ।९ मिल्लि ऋण२ ।१ १५ प्रमाणं तरल्पडुगुं । जघन्यवर्गगुणैकविशेषाद्युत्तररूपोनेक स्पर्धक वर्गण शलाका गच्छ संकलने प्रथम
पडुगुम
प्रथमगुणहानिमादि कृत्वा चरमगुणहानिपर्यन्तं सर्वस्पर्धकेषु तत्र तत्र प्रथमवर्गणावर्गः स्पर्धकसंख्याभिगुणितो भवति । तु-पुनः द्वितीयादिवर्गणानां वर्गाः अविभागाधिकक्रमा भवन्ति । अत्र सर्वजघन्ययोगस्थानस्य सर्वयोगविभागप्रतिच्छेद मेलापन विधानमुच्यते-
तत्र तावत् प्रथमगुणहानिस्पर्धकानां धनसंयोजनक्रमोऽयं जघन्यस्पर्धकादिवर्गणा २५६ प्रदेशसमूहेऽस्मिन् २० वि १६ जघन्यवर्गेण गुणयित्वा व वि १६ एक स्पर्धकवर्गणाशलाकाभिर्गुणिते स्थूलरूपेण जघन्यस्पर्धकं भवति व वि १६ । ४ । इदमेवाद्युत्तरं कृत्वा एकगुणहानिस्पर्धकशलाकागच्छं कृत्वा संकलिते सति ऋणसहित प्रथम -
ण्
गुणहानिद्रव्यं भवति व वि १६४९९ अत्रत्यं ऋणमानीयते
२ १
प्रथम गुणहानिसे लेकर अन्तिम गुणहानि पर्यन्त सब स्पर्धकों में प्रथम वर्गणाके वर्ग स्पर्धकों की संख्या से गुणा करनेपर होते हैं । और द्वितीयादि वर्गणाओंके वर्ग अविभाग२५ प्रतिच्छेद अधिक-अधिक लिये होते हैं ।
"
[ इससे आगे टीका में सबसे जवन्य योगस्थानके सब योगोंके अविभागप्रतिच्छेद मिलानेका कथन बहुत विस्तारसे किया है। पं. टोडरमलजी साहबने भी उसे छोड़ दिया । अतः हम भी उसे छोड़कर उनके अनुसार ही उक्त गाथाओंका आशय स्पष्ट करते हैं । ] १. ब'योग्यवि ं ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२७५ स्पर्धकदोळु ऋणमक्कुं। तत्प्रमाणमिदु व वि ३ । ४ इल्लि नवीनमुंटवावुदोडे रूपोनैकस्पद्धकव
२१
गंणाशलाकागच्छसंकलनमात्र-३ १वि ३ | २
२१वि२ १वि २ १ वि११ वि १ | .
morn
अधिक वि३४ वि २।२।३।४
ऋण न्यासः २१ । ३२१ विशेषाधिकदिवमुं मेकविशेषाधुत्तरतिरूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छद्विगुणद्विकवारसंकलनमिदु वि २२०३४ ऋणस्य धनं धनराशेः ऋणं भवति यदिदमूनीतमप्पादिवर्गणामात्रप्रदेशा
३३२१ द्युत्तररूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाका गच्छ ३ वि १६ संकलनमात्रंगळ वि १६ । ३।४- ५
२वि १६ १वि १६
००० एकाद्यकोत्तरक्रमदिनिर्दविभागप्रतिच्छेदंगळु अधिकंगळुटवक्के जघन्यवर्गद असंख्यातेकभागमात्रत्वविदमविवक्षयक्कुमदु कारणदिदमे द्वितीयादिस्पर्धकंगळोळमवक्कविवक्षेयक्कुमीग द्वितीयस्पद्धकऋणं तरल्पडुगुं । जघन्यवर्गगुणविशेषाधुत्तररूपोनस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छ संकलनमं
२१
जघन्यवर्गगुणकविशेषाद्युत्तररूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनं प्रथमस्पर्धकऋणं भवति व वि ३ । ४ अत्र नवीनमस्ति रूपोन कस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनमात्र वि३ । ४ विशेषाधिकम् । २ १
२ १
३ वि ३ २ वि २ १ वि १
१ वि ३ १ वि २ | १ वि १
२ वि ३ १ वि २
.
अधिकधनस्य । वि ३ । ४ । वि २२३४ ऋणन्यासः । २ १ ३ २ १
एकविशेषादयुत्तरद्विरूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छद्विगुणद्विकवारसंकलनमिदं-वि २ । २।३।४
धनस्य ऋणं धनराशेः ऋणमिति तद्राश्यूनिता द्विवर्गणाप्रदेशमात्रा द्वयुत्तररूपोनकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छ ३ वि १६ संकलनधनमात्रा: वि १६ । ३ । ४ एकाद्यकोत्तरक्रमेण स्थिताविभागप्रतिच्छेदा अधिकाः संति । २ वि १६ १ वि १६
ते जघन्यवर्गस्यासंख्यातकभागत्वान्न विवक्षिताः । तथैव द्वितीयादिस्पर्धकेष्वपि ज्ञातव्यम् । इदानी द्वितीयस्पर्धकऋणमानीयते१. ब तादिव । २. बत्रायुत्त ।
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गो० कर्मकाण्डे
| 4000
व।२वि ३ व।२। वि४ २ २२ व वि४ ववि २
व।२। वि।४ व २। वि४ व २ वि १ व२वि४ द्वितीय स्पर्धक ऋण साधिक व २ वि. ४ ऋण न्यासः ऋण न्यासः पृथक्ताधिक
ऋण न्यास तंदु द्विगुणिसुत्तं विरलिनितक्कू व । वि।३।४।२ मते जघन्यवर्गमात्रविशेषमनेक
२।१ स्पर्द्धकवर्गणाशलाकावर्गदिदं गुणिसि रूपोनस्पर्धकसंख्या २ गच्छसंकलनेय ११२ द्विगुण
२१ दिदमुं ।१।२। गुणिसुत्तं विरलु इनितकुं। व । वि। ४।४।१।२। मी एरडु राशिगळु द्वितीयस्पद्धकऋणमक्कुं। मत्तं जघन्यवर्गमात्रविशेषंगळ
<
व३ । वि ४।२
३.वि।४।२ व।३।वि।३ २ व।३। वि।४।२. व।३। वि'
<
व । ३ । वि । ४।२
व।३। वि।४।२
<
।३।वि।१]
व।३। वि।४।२
१
व । ३ । वि।४।२ तृतीय स्पर्धक सर्व ऋण न्यासः
| व।३। वि। ४।२ ऋणस्याधिक पृथक्ताधिक न्यासः
| ऋण न्यास
जघन्यवर्गगुणितविशेषाद्युत्तररूपोनस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनं
व
२
वि ४
व २
वि
३
व
२
वि ४ ।
व २
वि ४
।
व २
वि २
व २
वि ४।
व २ वि ४ । व २ वि १ व २ वि ४ । व २ वि ४ ।
व २ वि४। आनीय द्विगुणितं व वि ३ । ४ । २ पुनः जघन्यवर्गमात्रविशेषः एकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण रूपोन
स्पर्धकसंख्या २ गच्छसंकलनेन १ । २ द्विगुणेन च १ । २ । गुणितः व वि ४ । ४ । १। २ एतद्राशिद्वयं
२।१ द्वितीयस्पर्धकऋणम् । पुनः जघन्यवर्गमात्रविशेषाणां
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२।१
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
२७७ रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छ संकलनमं त्रिगुणिसुत्तं विरलिनितक्कं । व । वि । ३।४।३ मत्तं जघन्यवर्गमात्रविशेषंगळमेकस्पद्धकवर्गणाशलाकावर्गदिदं गुणिसि रूपोनगच्छसंकलन ३।३ द्विगुणदिदं २।३ । २ गुणिसुत्तं विरलिनितक्कु । व । वि । ४ । ४ । ३ । २। मो
२।१ येरडं राशिगळ तृतीयस्पद्धकऋणमक्कुमिन्तु प्रथमव ३ वि १६-४।२
व९ वि १६व ३ वि १६-४।२ व ६ वि १६-४५ व९वि १६-४।८ १६-४२
व ९ वि १६-४८ -४१२ ६ वि १६
व ९ वि १६-४१८ १६-४ व ५ वि १६- व८ वि १६-४७ वि १६-४
वि १६–४४ व ८ वि १६-४७
اس وه و
१
morrhorhmirrorsmssor
何何 何何 何何 何何 何
何信 信句句句有何在?
404042040aana
वि १६-४ वि १६-४
व ५ वि १६- ४ व८ वि १६-४७ व ५ वि १६-४।४ | व८ वि १६-४७
३३ व४ वि१६-४३ | व७वि १६-४।६
व१ वि
व१वि व१वि १६
ब४२१६-४३ | व७वि १६-४॥६ १ व ४ वि १६-४३ व ७वि १६-४।६ व४ वि १६-४३ व ७वि १६-४॥६
व ३ वि ४
२
व ३ वि ३
व३ वि ४ । २ । २ व ३ वि ४ । २
व ३
वि ४
२
व ३
वि
२
व ३ वि ४ २ व ३ वि १ व ३ वि ४ । २ व ३ वि ४ २ ।
३ वि ४ । २ रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनं त्रिगुणितं व वि ३ । ४ । ३ पुनर्जधन्यवर्गमात्रविशेषः-
२।१
५
व वि४।४। ३२
एकस्पर्षकवर्गणाशलाकावर्गेण रूपोनगच्छसंकलनेन ३ ३ द्विगणेन च २।३
२।१
१. 4 गुणितः रूपोनकस्पर्धक एतौ ।
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________________
२७८
गो० कर्मकाण्डे ___ गुणहानियोळ स्पर्धकं प्रति रूपोनैकस्पर्धकवर्गणशलाकासंकलनगुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषंगळु गुणकारंगळु गच्छमात्रंगळु प्रथमऋगपंक्तियोळप्पुवु
|व । वि।३।४।
س س س س س
9
व वि।३।४।
२ व वि।३।४।
२ व वि।३।४। व वि।३।४।
|os so so
一句句句句 信 信
ववि । ३।४।
له سه له سه له سه له
»
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व वि।३।४।
२ व वि।३।४। व वि।३।४।
प्रथम पंक्ति ऋण ॥ स्पर्धकवर्गणशलाकावर्गगुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषंगळ रूपोनगच्छद्विगुणसंकलनमात्र. गुणकारंगळु द्वितीयऋणपंक्तियोळप्पुवु
|व।वि।४।४।२।३६
व।वि।४।४।२। २८ |ववि ।४।४।२। २१ [व। वि। ४।४।२। १५
व। वि।४।४।२।१० व। वि।४।४।२।६ व । वि।४।४।२।३ व। वि।४।४।२।११
.
द्वितीयपंक्तिऋण
रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाकेगळ द्विगुणद्विकवारसंकलनदिदं स्पर्धकवर्गणा शलाकावर्गगुणितजघन्यवर्गमात्र विशेषंगळं गुणिसुत्तं विरलु द्वितीयपंक्ति सर्वऋण समासमेतावन्मात्रमक्कुं। व वि।४।४।२।९।९।९। मत्तं गुणहानिस्पर्धकशलाकासंकलनदिदं रूपोनस्पर्धकवर्गणा
३।२।१ शलाकासंकलनगुणितजघन्यवर्गमात्र विशेषगळं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमपंक्तिऋणसमासमिनितक्कं ।
एतो द्वौ राशी तृतीयस्पर्धकऋणम् । एवं प्रथमगुणहानी प्रतिस्पर्धकं रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकासंकलनगुणित१० जघन्यवर्गमात्रविशेषाणां गुणकारा गच्छमात्राः प्रथमपंक्ती गच्छन्ति । द्वितीयपंक्तौ च स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्ग
गुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषाणां रूपोनगच्छद्विगुणकवारसंकलनमात्रा गच्छन्ति ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२७९
वा वि ३।४।९।९ ई राशियं मेलापिसल्वेडि द्वितीयपंक्तिसर्वऋणसमास चरमगुणकारवोळेकरूप चतुर्थभागमं प्रक्षेपिसुत्तं विरलुभयक्तिसर्वऋणसंयोगमेतावन्मात्रमक्कं । व वि ४ ४ । ९।९।९ ई राशियं मुन्नं तंव प्रथम गुणहानिद्रव्यदोळ व वि । १६ । ४।९।९ कळे वोडे प्रथमगुणहानि सर्वयोगाविभागप्रतिच्छेदंगळु यथास्वरूपदिदं बप्प्यु । तत्प्रमाणमितु व वि ४४ ॥९६९।४ यिल्लि इदुवे आविधनमक्कुमुत्तरधनमिल्ल । मत्तमोगळु द्वितीयगुणहानिद्रव्यं ५ पेळल्पडुगं। प्रथमगुणहानिप्रथमवर्गणा व २ १६ द्धमं एकस्पर्धकवर्गणाशलाकळिदमुं रूपाधिकगुणहानिस्पर्धकशलाकेगळिदं गणिसिदोडे द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पद्धकमेतावन्मात्रमक्कं ।
४९। व वि ४४२
व वि
४ ४ २
२८
४७ व वि ४४२ २१
व वि ४.४ २ १५
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4
اس به س له سه به س له سه له سه به سه به سه به سه به
५
व वि ४४२
व वि ४
व वि ४ ४ २ १ व वि ३ ४१।।
प्रथमपंक्ति २ ऋणं। द्वितीयपंक्तिऋणं । रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाकानां द्विगुणद्विकवारसंकलनेन स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गगुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषेषु गुणितेषु द्वितीयपंक्तिसर्व-ऋणसमासोऽयं व वि ४ । ४ २ ९ ९ ९ पुनः गुणहानिस्पर्धकशलाका. संकलेन रूपोनस्पर्षकवर्गणाशलाकासंकलनेन च गुणितजघन्यमात्रवर्गविशेषः प्रथमपंक्तिऋणसमासोऽयं व वि १० ३ ४९ ९ अस्य मेलनं कर्तु द्वितीयपंक्तिसर्वऋणसमासचरमगुणकारे एकरूपचतुर्थभागे प्रक्षिप्ते उभय२१२१
१-२. बऋणमिदं।
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________________
२८०
गो० कर्मकाण्डे
व वि । १६ । ४।९ मेतावन्मात्रमं सर्वत्र कळदु पृथक्स्थापिसि
पंक्तिसर्वऋणसंयोगो भवति व वि ४ ४ ९ ९ ९ । अस्मिन् प्रागानीतप्रथमगुणहानिद्रव्ये व वि १९४९९
अपनीते प्रथमगुणहानि
24 AMANA
व ३ वि व ३ वि
१६-४ २ १६-४ २
व ६ वि १६-४ ५ व ९ वि व ६ वि १६-४ ५ व ९
MK
व ३ व ३
वि वि
१६-४ १६-४
२ २
mero or loviror
व ६
६
वि १६-४ वि १६-४
९ वि. १६-४ ९ वि १६-४८
व २
वि
१६-४
५
वि
१६-४
८
वि १६-४
-
-NAMANANAWARA
वि
-
व २ व २
वि वि
१६-४ १६-४
व ५ व ५
वि १६-४ वि १६-४
वि १६-४ वि १६-४
06 ८
४
वि
१६-३
वि १६-४
३
व ७ वि १६
वि
१६-२
व १ वि १६-१ व १ वि १६
व ४ वि १६-४ ३ व ७ व ४ वि १६-४ ३ | व ७
प्रथमगुणहानिरचना।
वि १६-४ वि १६-४
min
सर्वयोगाविभागप्रतिच्छेदा यथास्वरूपेण आयांति । व वि ४ ४ ९ ९ ९ ६ इदमादिधनम् । उत्तरधनं ५ नास्ति । इदानी द्वितीयगुणहानिद्रव्यमुच्यते
प्रथमगुणहानिप्रथमवर्गणार्धे एकस्पर्धकवर्गणाशलाकाभिः रूपाधिकगुणहानिस्सद्धंकैश्च गुणिते द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पर्धकं स्यात् व वि १६ ४ ९ एतावन्मात्रं सर्वत्रापनीय पृथक् संस्थाप्य
Page #331
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२८१
।
४।
أم أم أم أم أم أمر
१६।४।
vaasanaana
२
१६
१६।४। '९ ववि १६ " ९ववि१६॥४॥
मूल धनं।
-
संकलन धनं ॥
यल्लि प्रथमराशियनु गुणहानिस्पर्धकशलाकेगळिदं गुणिसुतं विरलु सर्वसमासमेतावन्मात्रमकुं । व । वि । १६ । ४।९॥ ९॥ यिवक्के मूलधनमेव संज्ञेयस्कुं। मत्तं प्रथमगुणहानिजघन्यस्पद्ध'काद्ध दाजुत्तरक्रमविवं द्वितीयादिस्पद्ध'कंगळोलिई शेष रूपोनगुणहानिस्पकशालाकासंकलनदिदं गुणिसुत्तं विरलेतावन्मात्रमक्कुं। व वि । १६ । ४।९।९। यिवक्के संकलितपनमेंब
२
संज्ञेयक्कुमत्रतनऋणमं । व वि । १६ । ४।१।९। मूलधनवधिकरूपवोळ कळेनु शेषमुं। व १६।४।१।९। मूलधनदोळे प्रक्षेपिसल्पडुगुमी येरडु राशिगळु द्वितीयगुणहानियोळ स्थूलधनमक्कुमिल्लि ऋणं तरल्पगुं
क-३६
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________________
२८२
३
२
३
व । ९ । वि १६-४
२
२ २
२
व । ९ । वि १६-४
२
२
व । ९ । वि १६-४ २
२ १
व । ९ । वि १६-२ २
१
व । ९ । वि १६-१ २
१
व । ९ । वि १६२
गो० कर्मकाण्डे
२
४
व । ९ । वि १६-४ २
व । ९ । वि १६-४१३
२
३ १
३ ३
३
Aligas diligods
व । ९ । वि १६-३
। ९ । वि १६-४२
२
२
३ ૪
३
व । ९ । वि १६-४१३
२
२ ४
२
व । ९ । वि १६-४१३
२
४
१
व । ९ । वि १६-४१३ २
Signs
२ ३ २ व । ९ । वि १६-४२
२
३
व । ९ । वि १६-४१२ २
ར།ཏེ
३ व । ९ । वि १६-४१२ २
३६ ३ व । ९ । वि १६-४१५
२ ६२
२
२
व । ९ । वि १६-४५
२
६
aligns align
२
२
व । ९ । वि १६-४१५ २
१
१६-४१५
३ ५
२ ५ २ २ व । ९ । वि १६-४१४
२
३
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९ । वि १६-४१४
३ ७ ३ व । ९ । वि १६-४०६
२
२
५
१
व । ९ । वि १६-४४ २
३ ८
३
व । ९ । वि १६-४/७
२
५
व । ९ । वि १६-४४ २
२
२८ २ व । ९ । वि १६-४१७ /
२
१
८ २
व । ९ । वि १६-४१७
२
२ ७
२ व ९ । वि १६-४१६
२
७
१ व । ९ । वि १६-४१६ २ ७ २ व । ९ । वि १६-४१६ २
द्वितीयगुणा
WIRIN
३ ९ ३ व । ९ । वि १६-४१८
२
२ ९
२ व । ९ । वि १६-४१८
२
९
१
व । ९ । वि १६-४१८
२
९
व । ९ । वि १६-४१८
२
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ २
व ९ वि
२ २ २
व ९ वि
१ २ २ व ९ वि
३
१६–४
२
१६–४
१
१६-४
२ २
व ९ वि १६–४
२
३ १
व ९ वि १६ – ३ २ १ २
व ९ वि १६-२ १ १ २
व ९ वि १६–१ १ २
व ९ वि १६ – १ २
३ ९ व ९ वि
२
२ ९
व ९ वि
२
द्वितीयगुणहानिः
१ ९
व ९ वि
२
३ ४
व ९ वि १६ –४ ३
२
१६-४ ३
१
१६-४ ३
२ ४ २
व ९ वि
१ ४२
व ९ वि ४ २
व ९ वि १६-४ ३
२
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३ ३
३
व ९ वि १६ –४ २ २ ३ २
व ९ वि
१ ३२
व ९ वि ३ २
व ९ वि १६ –४ २ २.
३
१६-४८
२ १६—४ ८
१ १६१६-४८
९
व ९ वि १६ –४ ८
२
२ १६-४२
१ १६-४ २
मूलधनं
१६ -४
व वि २
व वि १६-Y
२
व वि १६ -४
२
व वि १६–४
२
व वि १६ -४ २
व वि १६-४
२ व वि १६-४ २
व वि १६-४
२ व वि १६–४ २
३ ६
व ९ वि
२६ २ व ९ वि १ ६ २
व ९ वि
१
९
१
६ २
८२
व ९ वि १६-४५ ९ वि १६-४७ २
२
९
१
१
१६-४५
२
३ ५
३
|३७ व ९ वि
व ९वि १६ – ४४ २५२ २ व ९वि १६ – ४४ १ ५२
१६-४ ६ २७ २ २ व ९ वि १६ – ४ ६ १ १ ७ २ १ १६-४४ व ९ वि १६-४ ७२ व ९ वि १६-४४ व ९ वि १६-४ ६
व ९ वि ५ २
२
२
१
९
९
३ ८
९वि १६-४७
२८२
२
१६४ ५
व ९ वि १६-४७ १ ८२ १ १६-४५ व ९ वि १६-४७
१
संकलितधनं
ववि १६–४
२
व वि १६-४
८
२ वि १६–४ २
व वि १६–४ २
व वि १६ -४ २
व वि
१६४
२
व वि १६-४ २
७
२
व वि १६४ ६
५
२८३
२
२
१
अत्र प्रथमराशौ गुणहानिस्पर्धकालाकाभिर्गुणिते सर्वसमासः स्यात् व वि १६ ४९९ अस्य मूलधन
२
मिति संज्ञा । पुनः प्रथमगुणहा निजघन्यस्पर्धकायुत्तरक्रमेण द्वितीयादिस्पर्धक स्थितशेषे रूपोनगुणहानिस्पर्षक
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
गो० कर्मकाण्डे
जघन्यवर्गगुणस्वविशेषाद्युत्तररूपोनस्पद्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनधनमं व ।
व। वि।२
व वि।१ रूपाधिकगुणहानिस्पद्ध कशलाकाराशियिदं गुणिसि। व वि ३ । ४।९। अधिकरूपमं कळंदु व वि।३।४
२२ पृथक् स्थापिसिदोडे प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणंगळिनितप्पुवु। व। वि। ३।४।९ व वि ३ । ४१ ई एरडु राशिगळ प्रथमस्पर्द्धकऋणमक्कुं । मत्तं पूर्वोक्तविशेषाद्युत्तरगच्छसंकलनेयं । व।९। वि३ व।वि। ३।४।९ द्विरूपाधिकगुणहानिस्पर्द्धकशलाकाराशियिदं गुणिसि
उ२ वि२ व ९ २ आ २ वि व।९। २१
www
शलाकासंकलनेन गुणिते एतावत् व वि १६ ४ १९ अस्य संकलितधनमिति संज्ञा । अत्रतनऋणं व वि
२ . २१
१६ ४ १ ९ मूलधनस्याधिकरूपे व वि १६ ४ १ ९, अपनीय शेषं व वि १६ ४ १ ९ मूलधने प्रक्षेप्यं व वि
२ १६ ४ ९ ९ एतौ द्वौ राशी द्वितीयगुणहानी स्थूलधनं स्तः । अत्रत्यं ऋणमानीयतेजघन्यवर्गगुणस्वविशेषाद्युत्तररूपोनस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनं व वि ३ व वि ३ ४ रूपा
२ २२१ व वि २
१० धिकगुणहानिस्पर्धकशलाकाराशिना संगुण्य व वि ३४९ अधिकरूपेऽपनीय पृथक्संस्थापिते प्रथमद्वितीय
२२१
पंक्तिऋणे स्तः व वि ३ ४९ व वि ३ ४ १ एते द्वे प्रथमस्पर्धकऋणम् । पुनः पूर्वोक्तविशेषाद्युत्तरगच्छ
२ २१ २ २१ संकलन
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________________
२८५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अधिकरूपद्विकमं तेगदु पृथक्स्थापिसुतं विरलु क्रमदिदं प्रथमद्वितीयपंक्तिरुणंगळु एतावन्मात्रंगळप्पु व।वि। ३।४।९ वा वि । ३।४।२ । मत्तमेकस्पर्द्धकवर्गणाशलाकावर्गगुणजघन्यवर्गमात्रस्वविशेषगळं द्विरूपाधिकगुणहानिस्पर्द्धकशलाकेगळिदं गुणिसि। । ९।वि।
वि। ४ । ४ अधिकरूपद्विकमं कळेदु पृथक्स्थापिसुतं विरलु क्रमदिदं २ २ व।९। वि।४
२ २
२
व।९। वि।४
।९। वि।४
तुतीयचतुर्थपंक्तिऋणंगळे
तावन्मात्रंगळप्पुवु ।
व वि४।४।९। व । वि। ४।
५ ।
४।२।१ । यो नाल्कुं राशिगळ द्वितीयस्पर्द्धकऋणमक्कुं। मत्तं पूर्वोक्तायुत्तरगच्छसंकलनयं
व
९ वि ३ २ २
वि २ २२ ९ वि १
व
वि
३
द्वितीयस्पर्धकाधिकऋणन्यासः
व
द्विरूपाधिकगुणहानिस्पर्धकशलाकाराशिना संगुण्य अधिकरूपद्विकेनीय पृथक्स्थापिते क्रमेण प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणे भवतः व वि ३ ४९ व वि ३ ४ २ पुनरेकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गगुणजघन्यवर्गमात्रस्वविशेषान्
२२ २२ द्विरूपाधिकगुणहानिस्पर्धकशलाकाभिः संगुण्य
व ९ वि ४४
rarar
अपिताधिकरणन्यासो द्वितीयस्पर्धकस्य
अधिकरूपद्विकेऽपनीय पृथक् स्थापिते क्रमेण तृतीयचतुर्थपंक्तिऋणे भवतः व वि ४ ४९ व वि ४ ४ २१ ।
२
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
गो० कर्मकाण्डे
प्रथमपंक्तिऋण व वि ३।४।९
२२ व वि ३।४।९
द्वितीयपंक्तिऋण । तृतीयपंक्तिऋण । चतुर्थपंक्तिऋण । व वि३।४।९
४।४।९।८ ।
| व वि ४।४।२।३६/
하
४।
४।९।
७
।
व
४।४।२।
하
४।२
व वि३।४।८
२२ व वि३।४।७
२२ वि ३।४।६
वि
४।४।९।६
|
वि
४।४।
२।
하
३।४।९
४।४।९।५
।
하
वि ३।४।९
४।४।९।४
।४।२।
वि ३।४।५
२२ वि३।४।४
له سه له سه له سه له سه له له له له له س له[
४।४।९।३
।२।६
वि३।४।९ ।
२ वि३।४।९
하
वि३।४।३
سه ر سه له سه ر سه م س له سه له
४।४।९।२
하
३।४
३।४।
२
४।४।९।१
व वि४।४।२।१
하
वि
३।४।१
व९वि३
२
व ९ वि ३।४ त्रिरूपाधिकगुणहानिस्पद्ध'कशलाकारार्शाियद गुणिसि रूपत्रयम
२२
२
कळेदु पृथक् स्थापिसुत्तं विरलु प्रथमद्वितीयपंक्तिरणंगळे तावन्मानंगळप्पुवु
प्पूव
व वि।३।४।९
व। वि। ३।४।२ मत्तं जधन्यवर्गमात्रस्वविशेषंगळं व रवि ४ । २ । व २। वि।४।४।२
سه م
x1२
له م
سه م
९ वि ४।२
तृती. स्प. अंतादिऋण न्यासः
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२८७
स्पद्ध कवर्गणाशलाकावर्गविदं गुणिसि द्विगुणितत्रिरूपाधिकगुणहा निस्पर्द्धकशलाकार। शियिदमुं गुणिसि अधिकरूपत्रयमं कळेतु पृथक् स्थापिसुतं विरलु तृतीयचतुर्थ पंक्तिॠणंगळे तावन्मात्रव वि ४ । ४ । २ । ३ ई नाल्कुं राशिगळु तृतीयस्पद्ध कॠणमिन्तु प्रथमपंक्तिॠणंगळवस्थितक्रर्मादिदं द्वितीयपंक्तिगुणकारंगळ पदमात्रक्रर्मादिदं तृतीयपंक्तिगुणकारंगळु रूपोनपदमात्रक्रर्मादिदं चतुत्थंपंक्ति गुणकारंगळ द्विगुणरूपोनपदसंकलनक्रर्मादिदं
गळवु व वि ४ । ४ । ९ । २ २
२
३
एते चत्वारो द्वितीयस्पर्धकॠणं पुनः पूर्वोक्ताद्युत्त रगच्छसंकलनं व ९
तृतीयस्पर्ध कार्पिताधिक
ऋणन्यासः
तृतीयस्पर्धकाधिक ऋणन्यासः
गुणहानिस्पर्ध कलाकाराशिना संगुण्य रूपयेानीय पृथक् स्थापिते प्रथमद्वितीयपंक्तिॠणे भवतः व वि ३४९ । व वि ३ ४ ३ पुनः जघन्यवर्गमात्रविशेषान्
१. व त्रिरूपाधिक ।
३
व ९ वि ४२ ३ २
व ९ वि ४ २ ३ २
व ९ वि ४२
३
वि ३ व ९ वि ३ ४ त्रिरूपाधिक२ २
३
२
व ९ वि २
३ २
व ९ वि ४ २
२
३ २ व ९ वि १
२
३
व ९ वि ४ ४ २
२
स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण द्विगुणत्रिगुणरूपाधिकगुणहानिस्पर्धकशलाकाभिश्च
संगुण्य अधिकरूपत्रयेऽानीय
पृथक्स्थापिते तृतीयचतुर्थ पंक्तिॠणे भवतः व वि ४४९२ व वि ४४ २ ३ एते चत्वारः तृतीयस्पर्धक १०
२
२
ऋणम् । एवं प्रथमपंक्तिऋणान्यवस्थितक्रमेण द्वितीयपंक्तिगुणकाराः पदमात्रक्रमेण तृतीयपंक्तिगुणकाराः रूपोन
पदमात्रक्रमेण चतुर्थ पंक्तिगुणकाराः रूपोनपदसंकलनक्रमेण च गच्छन्ति ।
५
Page #338
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________________
२२
२८८
गो० कर्मकाण्डे नडेवदितु प्रथमपंक्तिय प्रथमराशियं स्थापिसि गुणहानिस्पद्धकशलाकाराशियिद गुणिसुत्तं विरल प्रथमपंक्तिसव्वऋणसमासमेतावन्मात्रमकुं। व वि ३।४।९।९। मतं द्वितीयपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि गुणहानिस्पद्ध'कशलाकासंकलयवं गुणिसिदोडे द्वितीयपंक्तिसव्र्वऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कुं व वि । ३ । ४।९।९ मत्तं तृतीयपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि रूपोनगुण५ हानिस्पद्ध'कशलाकासंकलनयिवं गुणिसुतं विरलु
~~~rmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
चतुर्थपंक्तिः । वि।४।४।२।३६ ।
प्रथमपंक्तिः व । वि। ३।४।९
२ २ व। वि।३।४।९
२ २ व । वि । ३।४।९
२ २ व । वि।३।४।९
२ २ व । वि । ३।४।९
वि।४।४।२।२८
द्वितीयपंक्तिः
तृतीयपंक्तिः व । वि। ३।४।९ व । वि।४।४।९।८ २ २
२ व। वि।३।४।८ व । वि।४।४।९।७
२ २ । वि। ३।४।७ । वि।४।४।९।६ २ २
२ व । वि । ३।४।६। व । वि।४।४। ।५
वि । ३ । ४ । २ व । वि । ३।४। ८ व । वि । ४।४।९।
।४।४।२।२१
व । वि। ।। ४।र व । वि। ३।४।६ च । वि। ४।४।९५ च । वि।४।४।२।१५
व। वि
।
४।
४।
२।
व । वि।४।४।९।४
व
। वि । ४।४।२।१०
व । वि । ३।४।५
२ २ व । वि।३।४।४
व । वि।४।४।९।३
व । वि।४।४।२।६
व । वि । ३ । ४।९
२ २ व । वि । ३।४।९
व । वि । ४।४।९।२] व । वि।४।४।२।३
व । वि।४।४।९।११
व। वि।४।४।
व । वि । ३।४।३
२ २ व । वि । ३।४।२
२ २ व । वि । ३ ।४।१
२ २
२।
व । वि । ३।४।९
२ २ व । वि । ३।४।९
२ २
१
अत्र प्रथमपंक्तिप्रथमराशी गुणहानिस्पर्धकशलाकाराशिना गुणिते प्रथमपंक्तिसर्वऋणसमासो भवति व । वि । ३ । ४ । ९ । ९ पुनद्वितीयपंक्तिप्रथमराशौ गुणहानिस्पर्धकशलाकासंकलनेन गुणिते द्वितीयपंक्ति
२ । २ ऋणसमासो भवति व । वि । ३।४। ९९। पुनस्तृतीयपंक्तिप्रथमराशौ रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाका
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२८९
व वि १६ । ४।९।२ १ व वि १६ । ४ ।
व वि १६ ॥४॥
व वि १६। ४।९।२
१
वि १६ । ४।९।२
२१ व वि १६।४।
१
व वि १६ । ४।९।२ १
व वि १६ ॥ ४॥
व वि १६ । ४ । २ । २ १
१
वि १६।४।
४
९।२ १
6
वि १६।४।
१६।४
२
१
व वि १६।४।
व वि १६ । ४।९।२
१
संकलनधन एषोऽधिको भागः
मूलधन तृतीयपंक्तिसर्वऋणसमासमेतावन्मात्रमकुं। व। वि ४।९।९ मत्तं चतुर्थपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि रूपोनगुणहानिस्पद्धकालाकाद्विकवारसंकलयिदं गुणिसुत्तं विरलु चतुत्थपंक्तिसर्वऋणसमासमेतावन्मात्रमबकुं व वि । ४।४।२।९।९।९ इदनपत्तिसि.
दोडिदु व । वि ४।४।९९९ ई चतुर्थपंक्तिस+ऋणचरमगुणकारदोळु द्वितीयपंक्तिसव
२
संकलनेन गुणिते तृतीयपंक्तिऋणसमासो भवति व । वि । ४ । ४ । ९ । ९।९ पुनश्चतुर्थपंक्तिप्रथमराशौ ५
२ १ रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाकाद्विकवारसंकलनेन गणिते चतुर्थपंक्तिऋणसमासो भवति
व । वि । ४।४।२।९।९।९। अयमपतितः व । वि । ४।९९९ । अस्य चरमगणकारे द्वितीय
३ २ १
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________________
२९०
गो० कर्मकाण्डे
३
२
ऋणमं कूडल्वाड एकरूपचतुर्भागमं प्रक्षेपिसिनुवनिदं व वि ४।४।९।९।९ मुन्नं स्थूलरूपविदं तंद संकलितधनवोळ व वि १६ ।४।९।९। ई राशिय दोगुणहानियं बिच्चिरिसिदोडिदु । व वि ४।४।९।९।९। २ यिवरोळ शोधिसिवोडे द्वितीयगुणहानियो शुद्धमावि२
२ धनमेतावन्मात्रमक्कुं। व वि । ४।४।९।९।९।४ मत्तं प्रथमपंक्तिसर्वऋणसंयोगात्थं ५ तृतीयपंक्तिसव्वऋणचरमगुणकारबोल एकरूपं प्रक्षेपिसिदुदनिदं व वि । ४।४।९।९।९
मुन्न स्थूलरूपदि तंद मूलधनदोळ । व वि। १६ । ४ । ९ । ९। अपत्तितमियरोळु
६।२
व वि ४ । ४ । ९।९।९।२ कळेतु शेषमनि।
व वि ४।४।९।९।९।३
मूरिदं समच्छेवनिमित्तं मेगेयु केळगयु गुणिसिदोर्ड द्वितीयगुणहानियोळ शुद्धमुत्तर.
धनमेतावन्मात्रमक्कुं व वि ४ । ४ । ९ । ९ । ९ । ९ ई येरझुं राशिगळ द्वितीयगुणहानिसर्व१० धनमक्कुमिल्लिदं मुंदे तृतीयगुणहानिधनं पेळल्पट्टपुवदेतेंदोडे तृतीयगुणहानिरचनेयिदु ।
पंक्तिसर्वऋणं निक्षेप्तुं एकरूपचतुर्थभागं प्रक्षिप्येदं व । वि । ४ । ४ । ९ ९९ प्रास्थूलरूपानीतसंकलितपनं
२ व । कि । १६ । ४।९। ९ । गतदोगुणहानिःसंभेद्य संस्थाप्य व। वि। ४।४।९।९।९। २
२ शोध्यते तदा द्वितीयगुणहानी शुद्धमादिधनं भवति व । वि । ४।४।९।९।९। ४ पुनः प्रथमपंक्तिसर्वऋणसंयोगार्थ
तृतीयपंक्तिसर्वऋणचरमगुणकारे एकरूपं प्रक्षिप्येदं व । वि । ४ । ४ । ९ । ९ । ९ पूर्व स्थूलरूपानीत मूलधने १५ व । वि । १६ । ४ । ९ । ९ । अपवर्तितेऽस्मिन्
कवि । ४।४।९।९।९।२ अपनीय शेषे व । वि । ४।४।९।९।९।३
समच्छेदनिमित्तं
उपर्यघस्त्रिभिर्गुणिते द्वितोयगुणहानिशुद्धमुत्तरधनं भवति व । वि । ४ । ४ । ९ । ९ । ९ । ९ एतौ द्वौ राशी द्वितीयगुणहानिसर्वधनं । इतस्तृतीयगुणहानिधनमुच्यते तद्रचनेयं
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३ २
३।
३
३ ६
३ ३८
३
व ९२ । वि १६-४ व ९२ । वि १६-४३ व ९ २ । वि १६-४५ व ९।२ । वि १६-४७ २।२
२२
२२
२२
२
२
२६
२ २८
२
२२ व ९२ । वि १६-४ व ९।२ । वि १६-४३ व ९।२ । वि १६-४५ व ९।२ । वि १६-४ ७ २।२ २२
२२
२२
२
व ९।२ । वि १६-४ व ९।२ । वि १६-४३ २२
२२
२९.१
६
८
व ९२ । वि १६-४५ व ९२ । वि १६-४७ २२
२/२
१
६
८
व ९२ । वि १६-४ व ९।२ । वि १६-४३ व ९।२ । वि १६-४५ व ९।२ । वि १६-४७
२२
२२
२२
२२ व ९२ । वि १६-३ व ९।२ । वि १६-४२ व ९।२ । वि १६-४४ व ९२ । वि १६-४ ६
३ १
३
३५
३
३७
३
२२
२२
२ १
२
२५
२
२७
२
२२ २२ व ९।२ । वि १६-२ व ९।२ । वि १६-४२ व ९।२ । वि १६-४४ व ९।२ । वि १६-४ ६ २२
२२
२२
२२
१
व ९२ । वि १६-१ व ९२ । वि १६-४२ व ९।२ । वि १६-४४ व ९।२ । वि १६-४६ २२
२२
२२
२२
१
५
७
ब ९२ । वि १६ – व ९।२ । वि १६-४२ व ९।२ । वि १६-४४ व ९।२ । वि १६-४ ६ २२
२२
२२
२२
तृतीय गुणहानिरचने ॥
तृतीय गुणहानि
३ व ९।२ । वि १६-४ ८
२२
२ व ९।२ । वि १६-४ ८ २२
व ९।२ । वि १६-४ ८
२२ व ९२ । वि १६-४८ २२
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________________
२९२
गो० कर्मकाण्डे प्रथमगुणहानिजघन्यस्पद्धकचतुर्थभागमं रूपाधिकद्विगुण गुणहानिस्पद्धकशलाकाराशियिदं गुणिसुत्तं विरलु स्थूलरूपदिदं तृतीयगुणहानिप्रथमस्पद्ध'कमेतावन्मात्रमक्कु व वि १६ । ४।९।२ मो राशियं गुणहानिस्पद्धकशलाकेगळिदं गुणिसुत्तं विरलु सर्वमूलधनमेतावन्मात्रमक्कुं
-
-
r
२
व ९ । २ वि २२ २२ व ९ । २ १२ २२ व ९ । २ वि
१६-४ । ५
२१६-४। ५ ।
-
व ९।२ वि १६-४ । ३ २ ४ २२ २
व ९ । २ वि १६-४ । ३ | १४ २२१ व ९ । २ वि १६-४। ३
४ २२ व ९।२ वि १६-४।३
२२
mmmm
व ९ । २ वि २६ २२ व ९ । २ वि १६ २२ व ९ । २ वि
६ २२ व ९ । २ वि
२२
-४
و
-
و من
k
व ९।२
-
वि
-४
|
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व ९२
४
व ९ २१ व ९ ११ व ९
२ वि १६-३
२२ २ वि
२२ २ वि १६-१
२२ २ वि १६
२२
व ९ २ वि १६-४ २ | २३ २२ २ । | व ९ २ वि १६-४ २
१ ३ २२१ | व ९ २ वि १६-४ २
३ २२ | व ९ २ वि १६-४
२२
|mons aroo
व ९२ १ ५ २२
Kokok
व ९२ वि
व ९२
१६-४
३
-४।
७
१६-४ । ७
व ९।२ वि २८ व ९।२ वि १८ २२ व ९।२ वि
८ २२ व ९ । २ वि
२२
१६
१६
44 daan
,990
-४६
७ २२ व ९२ वि १
१६-४
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२९३
व वि १६।४।९।२।२ मत्तं . प्रथमगुणहानिजघन्यस्पद्ध'कचतुर्थभागाद्युत्तररूपोनगुणहानि
....
स्पद्धकशलाकागच्छधन तरल्पडुत्तं विरलु संकलितधनमेतावन्मात्रमक्कु व वि १६ । ४ । ९ ।९।
मी येरडु राशिगळ तृतीयगुणहानि ऋणसहितधनमक्कुमा ऋणं तरल्पडुगुं। जघन्पवर्गगुणरूपोन
संकलितधनं
व । वि। १६ । ४ । ८
व । वि।१६।४।७
तृतीयगुणहानिः
मूलधन
१व ९ । २ वि १६-४ । ८ व । वि । १६ । ४।९।२ । १ २९ २२ २व ९ । २ वि १६-४।८ व । वि। १६ । ४।९।२।१ १९ २२१-४१व ९ । २ वि १६-४। ८ | व । वि । १६ । ४।९।२।१ ९९२ व ९। २ वि १६-४।८ व । वि । १६ । ४।९।२।१ २२
व । वि । १६ । ४।९।२।१
AII
व । वि । १६ । ४ । ६
A
व । वि । १६ । ४ । ५
व । वि । १६ । ४ । ४
|व । वि । १६ । ४।९।२।१ .
व । वि । १६।४।३
व । वि । १६ । ४ । ९ । २ । १
व । वि । १६ । ४ । २
व । वि । १६ । ४।९। २ । १
|व । वि । १६ । ४।१
।
व । वि । १६ । ४।९।२।१
प्रथमगुणहानिजधन्यस्पर्धकचतुर्भागे व वि १६ । ४ रूपाधिकद्विगुणहानिस्पर्धकशलाकाभिर्गुणिते स्थूल
रूपेण तृतीयगुणहानिप्रथमस्पर्धकमिदं व वि १६ । ४ । ९ । २ गुणहानिस्पर्धकशलाकाभिर्गुणितं सर्वमूलधनं
स्यात् व वि १६ । ४।९।२।९ पुनः प्रथमगुणहानि जघन्यस्पर्धकचतुर्भागाद्युत्तररूपोनगुणहानिस्पर्धक
शलाकागच्छसंकलनमिदं व वि १६।४।९।२।९ एते द्वे तृतीयगुणहानिऋणसहितधनं भवतः ।
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________________
२९४
गो० कर्मकाण्डे
स्पद्धक वर्गणाशलाकासंकलनमात्रविशेष व ९।२। वि । ३ चतुर्भागमं रूपाधिकद्विगुण
व ९।२। वि।२
व ९।२। वि।१
गुणहानिस्पद्ध'कशलाकारार्शाियदं गुणिसि अधिकरूपत्तिको डु पृथक्स्थापिसुत्तं विरलु प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणंगळे तावन्मानंगळप्पुवु व वि।३।४।९।२। व वि । ३।४।१ मत्तं द्वितीय
स्पद्धक सर्चऋणमिदु
व। ९ । २। वि । ४ प्रथम द्वितीयोभयपंक्तिसंबंधिऋणमिदु । इदं
च॥२॥२॥ वि।। व ॥२॥ २। विनि व ।२।२। वि
तदणमानीयते-जघन्यवर्गगुणरूपोनस्पर्धकवर्गणाशलाकासंकलनमात्रविशेष-व
व ९ २ वि
२
व ९२ वि १
चतुर्भागे रूपाधिकद्विगुणगुणहानिस्पर्धकशलाकागुणिते व वि३ । ४९२. अधिकरूपे च पथक स्थापिते
प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणे भवतः व वि ३४ ९२ व वि३ ४१ पुद्वितीयस्पर्षकसऋणमिदं
४२
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________________
कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२
संकळिस व वि ३।४।९।२ अधिक द्विरूपमं तेंगदु पृथक्स्थापिसिवोडे प्रथमस्पद्ध कप्रथम
४
२
पंक्तिसमानं प्रथमपंक्तिॠणमक्कु व वि ३ | ४ | ९ । २ । प्रथमस्पद्ध कद्वितीयपंक्तिणमं नोडली
४
द्वितीयस्पद्धकद्वितीयपंक्तिॠणं रूपाधिक गुणकारगुणमक्कुं व वि | ३ | ४ । २ शेषतृतीय
४
२
चतुर्थ पंक्तिप्रतिबद्धऋणमिदु
२
व ९ २
२
व ९ २
२
व ९ २
२ व ९ २
३ वि ४
२
४
१
४
४
वि
४
वि
४
वि ४
૪
२
व ९।२ । वि । ४
४
चतुर्थ पंक्तिप्रतिबद्धऋणमिदं
२
व ९ । २ । वि । ४
४
२
व ९ । २ । वि । ४
४
२
व ९ । २ । वि । ४
४
अपनीताधिक ऋण न्यासः
प्रथमद्वितीयपंक्तिसंबन्धि ऋणमिदं
NAWA
२
व ९ २ वि ४
२
अधिकरूपद्वये पृथक्स्थापिते प्रथमस्पर्धकप्रथमपंक्तिसमानं प्रथम पंक्ति ऋणं भवति व वि ३ ४ ९ २ प्रथम
४२
स्पर्धकद्वितीयपंक्तिॠणादिदं द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्तिॠणं रूपाधिकगुणकारगुणं व वि ३
४२
व ९
२
व ९ २
व ९
२ वि ४
२
२
जघन्यवर्गमात्रस्पद्धक वर्गणाशलाका
२
वि ३
४
व ९ २ व ९ २ वि २ २
व ९ २
४
२९५
૪
वि १
४
२
संकलय्य व वि ३४९२ ४ २
४ २ शेषतृतीय
जघन्यवर्गमात्रस्पर्धक वर्गणाशलाका
५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
गो० कर्मकाण्डे
वर्गगुणस्वाविशेषगळं द्विरूपाधिकद्विगुणहानिस्पद्ध'कशलाकगळिदं गुणिसि व वि । ४।४।९।२ अधिकद्विरूपमं तेगदु पृथक् स्थापिसुत्तं विरलु द्वितीयस्पद्ध'कतृतीयचतुर्थपंक्तिऋणंगळेतावन्मात्रं. गळप्पु व वि । ४ । ४ । ९ । २) व वि ४ । ४ । २ वु। मत्तं तृतीयस्पद्धकसर्वऋणमिदु
الله م
२ । वि। ४।२। इल्लि प्रथम द्वितीयपंक्तिप्रतिबद्ध ऋणमिदु |
व ९।२ वि।३
४
व ९।२ वि।२
३२ ९।२ । वि४। २
م
व ९ । २ वि । १
س
व
م
९
व
९।२
.
स
3
इदं संकलिसि व वि ३।४।९। २ अधिकत्रिरूपमं तेगदु पृथक् स्थापिसुतं विरलु तृतीयस्पद्धक
४
२
वर्गगणस्वविशेष द्विरूपाधिकद्विगुणहानिस्पर्धकशलाकागणिते व वि ४ ४ ९ २ अधिकद्वये च पृथक्स्थापित
द्वितीयस्पर्धकतृतीयचतुर्थपंक्तिऋणे भवतः । व वि ४४ ९२
व वि ४ ४२।
पुनस्तृतीयस्पर्धकसर्वऋणमिदं
अत्र प्रथमद्वितीयपंक्तिप्रतिबद्धऋणमिदं
व ९२ वि
mom.mom.
व ९२ वि ४२
व ९२
९
२ वि
३
संकलय्य व वि ३ ४ ९ २ अधिकरूपत्रये
पृथस्थापिते
तृतीयस्पर्धक
سه م ل
व ९
२ वि
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२९७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणंगळेतावन्मात्रंगळप्पुवु व वि ३।४।९।२
वि
३।
४।
३
तृतीयचतुर्थपंक्तिसंबंधिऋणमिदु
वि।४।२ | यिदनेकस्पर्द्धकग्वर्गणाशलाके
سه م
९।२
वि।४।२
له م
२ वि । ४।२
سه
व ९।२
वि । ४।२
गळिवं गुणिसि अधिकत्रिरूपमं तंगदु पृथक् स्थापिसुत्तं विरलु तृतीयस्पद्धक तृतीयचतुर्थपंक्तिऋणंगळेतावन्मात्रंगळप्पुवु व वि । ४ । ४।९।२। व वि । ४।४।३ यितु स्पद्धकं प्रतिप्रथम
पंक्तिगळु अवस्थितक्रमदिवं द्वितीयपंक्तिगळु पदमात्ररूप गुणितक्रमविदं तृतीयपंक्तिगळु रूपोन- ५ पदमात्ररूपगुणितक्रमदिदं चतुर्थपंक्तियोळु द्विगुणरूपोनगच्छसंकलनगुणितक्रविदं नडेव किंतु
स्थापिसि
प्रथमद्वितीयपंक्तिऋणे भवतः व वि ३ ४ ९२। व वि ३ ४ ३ शेषतृतीयचतुर्थपंक्तिसंबन्धिऋणमिदं
व ९२ वि ४ २ ।
एकस्पर्धकवर्गणाशलाकाभिः संगण्य व वि ४ ४ २ ९२ अधिकरूपत्रये
momomom
वि ४ २
व ९ २ वि ४२
व ९२ वि ४ २
पृथकस्थापिते तृतीयस्पर्धकतृतीयचतुर्थपंक्तिऋणे भवतः व वि ४ ४ २ ९ २ व वि ४ ४ २ ३ एवं
प्रतिस्पर्धकं प्रथमपंक्तयोऽवस्थितक्रमेण द्वितीयपंक्तयः पदमात्ररूपगुणित क्रमेण तृतीयपंक्तयो रूपोनपदमात्ररूप- १० गुणितक्रमेण चतुर्थपंक्तयो रूपोनगच्छसंकलनगुणितक्रमेण च गच्छन्ति । ताः संस्थाप्य
क-३८
Page #348
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________________
२९८
गो० कर्मकाण्डे
ततीयपंक्तिऋण व वि ४।४।९।२८
चतुर्थपंक्तिऋण ।
।४।२। ३६
प्रथमपंक्तिऋण । द्वितीयपंक्तिऋण व वि३।४।९।२ व वि३।४।९ ४२
४२ वि ३।४।८
४२ वि३।४। वि३।४।७
९.२७
-
하 하하하
वि४।४।९।२६
। २। २१]
वि३।४।९।२ व वि३।४।६ ।
سه د س له سه له سه له له له سه له سه ل
वि४।४।९।२५
वि३।४।९।२
व
वि
३।४।५
।
वि४।४।९।२४ व वि४।४।२।
वि३।४।९।२
।
व वि४।४।९।२३।
वि ४।४।२।६
하
३।४।९।२
व वि ४।४।९।२२
४।४।२।३
व वि ३।४।४
४२ व वि३।४।३
४२ व वि३।४।२
४२ व वि३।४।१
।९१२
व वि ४।४।९।२१
।४।२।१
س له س
व वि ३।४।९।२
४२
यिल्लि प्रथमपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि व वि ३।४।९।२ गुणहानिस्पद्ध'कशलाके
४२ ळिदं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमपंक्तिसर्वऋणसंयोगमिनितक्कुं व वि । ३।४।९।२।९ मत्तं
४
२
प्रथमपंक्तिः
द्वितीयपंक्तिः
तृतीयपंक्तिः
चतुर्थपंक्तिः
व । वि । ४।४।९।२८ व । वि।४।४।२। ३६ ।
व । ति । ३।४।९।२व। वि । ३।४।९
४ २ व । वि । ३।४।९।२ व । वि । ३ । ४।८
४ २ व । वि । ३।४।९।२ व । वि। ३।४।७
व । वि । ४।४ । ९२ ७
व। वि।४।४।२। २८
व। वि । ४।४।
६
व । वि।४।४।२।२१
व । वि । ३।४।९।२) व । वि । ३।४।६। व । वि । ४।४।९।२५ व । वि । ४।४।२।१५
४ व । वि । ३ । ४।९।२ व । वि । ३ । ४ । ५ | व। वि । ४ । ४ । ९।२४ व । वि । ४।४।२।१०
४ २ व । वि । ३।४ । ९।२] व । वि । ३।४।४ व । वि । ४।४।९।२३, व । वि । ४ । ४ । २ । ६
व । वि।४।४।९।२२ व । वि।४।४ । २ । ३
व । वि।३।४।९।२] व । वि । ३ । ४।३
४ २ व । वि। ३ । ४ । ९।२) व । वि । ३।४।२
४ २ व । वि । ३ । ४।९।२ व । वि । ३।४।१
ब । वि । ४।४।९।२१|व । वि।४।४।२।१
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________________
४
२
४२
२
४
२
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२९९ द्वितीयपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि व वि । ३ । ४।१। गुणहानिस्पर्द्धकशलाकासंकलनेयिदं गुणिसुत्तं विरलु द्वितीयपंक्तिऋणसंयोगमिनितक्कु व वि ३।४।९।९ मत्तं तृतीयपंक्ति प्रथम राशियं स्थापिसि व वि । ४ । ४।९।२।१ रूपोनगुणहानिस्पद्ध'काशलकासंकलनदिदं गुणिसुत्तं विरलु तृतीयपंक्तिऋणसंयोगमिनितक्कुं व वि।४।४।९।२।२९ मत्तं चतुर्थपंक्तिप्रथमराशियं स्थापिसि व वि ४ । ४ । २ । १ रूपोनगुणहानिस्पर्द्धकशलाकाद्विकवारसंकलनेयिदं गुणिमुत्तं विरलु चतुर्त्यपंक्तिऋणसमासमिनितक्कुं व वि। ४ । ४ । २।९।९९९ ई चतुर्थपंक्तिचरमगुणकारदोळ द्वितीयपंक्तिसर्वऋणमेलापनार्थमेकरूपचतुर्थभागमं प्रक्षेपिसि मुन्न स्थूलरूपदिदं तंद संकलनधनदोळु शोधिसुत्तं विरलु तृतीयगुणहानिशुद्धमादिधनमेतावन्मात्रमक्कुं व वि ४।४।९।९।९। ४ मत्तं प्रथमपंक्तिसर्वऋणसंयोगात्थं तृतीयपंक्तिसर्वऋणचरमगुणकारदोळ एकरूपं प्रक्षेपिसिदुद् तंदु मुन्नं स्थूलरूपदि तंद मूलधनदोळ शोधिसि मेलयं केळगेयु त्रिगुणिसिदोडेतृतीयगुणहानियोल शुखमुत्तरधनमेतावन्मात्रमक्कुंव वि।४।४।९।९।९।९।२ ई येरडं राशिगळु तृतीय गुणहानिसबंधनमक्कुमी प्रकारविदं गुणहानि प्रत्याविधनमाद्धमागि उत्तरधनमर्द्धार्द्धमागियुं रूपोनगच्छगुणमुमागि नडेगुमन्तु नडेदु
अत्र प्रथमपंक्तिप्रथमराशी व वि ३ ४ ९२ गुणहानिस्पर्धकशलाकाभिर्गुणिते प्रथमपंक्तिसर्वऋण. संयोगो भवति व वि ३ ४ ९ २ ९ पुनद्वितीयपंक्तिप्रथमराशी व वि ३ ४ १ गुणहानिस्पर्भकशलाकासंकलनेन १५
४
२२
६।२।२
१-४२१
४२१ गणिते द्वितीयपंक्तिऋणसंयोगो भवति व वि ३४९९ पुनस्ततीयपंक्तिप्रथमराशी व वि ४४९२१ रूपोन
४२१२१॥
गुणहानिस्पर्धकशलाकासंकलनेन गुणिते तृतीयपंक्तिऋणसंयोगो भवति व वि ४४९२९९ पुनश्चतुर्थपंक्ति
प्रथमराशौ व वि ४ ४ २ १ रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाकाद्विकवारसंकलनेन गुणिते चतुर्थपंक्तिऋणं भवति व वि
४ ४ २ ९ ९ ९ अस्य गुणकारे द्वितीयपंक्तिसर्वऋणमेलापनार्थ एकरूपचतुर्थभागं प्रक्षिप्य प्राक्स्थूलरूपापनीत
३२१ संकलितधने शोधिते तृतीयगुणहानिशुद्धमादिधनमायाति- व वि ४४ ९९९४ पुनः प्रथमपंक्तिसर्वऋण
संयोगार्थ तृतीयपंक्तिसर्वर्णचरमगुणकारे एकरूपं प्रक्षिप्य इदं प्रास्थूलरूपानीतमूलधने संशोध्य उपर्यवश्च त्रिभिः
Page #350
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________________
३००
गो० कर्मकाण्डे
|व वि । ४४।९।९।९।४ प
६पaa
०२
व वि।४।४।९।९।९।९। ना
६। प२
व वि।४४९।९।९।४।२।२।२।२।२।२।२।२०
६ व वि।४।४।९।९।९।४।२।२।२२।२।२२॥
व वि४।४।९।९।९।९।८
६।।२।२।२।२।२।२।। | छवि ४९९।९।९१७
६।२।२।२।२।२।२।२।
व वि।४।४।९।९।९।४।२।२।२
व वि |४४९।९।९।९।३
६२।२।२। व वि।४।४।९।९।९।४।२।२
व वि।४।४।९।९।९।९।२
६२।२। व वि।४।४।९।९।९।४।२
व वि४४।९।९।९।९।।
६।२। व वि।४।४।९।९।९।६। आदिधन
० उत्तरधन संगुण्य तृतीयगुणहानी शुद्धमुत्तरधनं स्यात् .व वि ४४९ ९ ९ ९२ एते तृतीयगुण हानिसर्वधनं भवतः । एवं
६२२ प्रतिगुणहानि आदिधनं अर्धापक्रमं उत्तरधनं अर्धाधक्रममपि रूपोनगच्छगुणं, तेन चरमगुणहानी धनद्वये भागहारो रूपोननानागुणहानिमात्रद्विकः । उत्तरधनगुणकारो रूपोननानागुणहानिमात्रः । आदिधनं
उत्तरधनं
A
व वि ४ ४ ९९९४
६ प
व वि
४
४
१
९ ९
९ ना। ६५२
२
| व वि ४ ४ ९ ९ ९ १४ व वि ४ ४ ९ ९ ९ ९८
२२२२२२२२६ । २२ २ २ २ २२२६ व वि ४ ४ ९ ९ ९४ व वि ४ ४ ९ ९ ९ ९७
२ २ २ २ २२२६ २२ २ २ २ २ २६
.
.
.
व वि ४ ४१ । ९ ९४ व वि ४४ ९
६ २ २२ । व वि ४
९ ९४ व वि।
९ ९३ ६ २२ ९ ९ २ ६ २२
व वि '४
४
व वि
४
४
९
व वि ४ ४ ९ ९ ९४
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३०१ चरमगुणहानियोळु एरडं धनंगळ्गे रूपोननानागुणहानिमात्रद्विकंगळु भागहारंगळप्पुवुत्तरधनगुणकारमुं मत्ते रूपोननानागुणहानिमात्रमकुं। सर्वत्रमेरडुं धनंगळगे गुणहानिस्पर्द्धकशलाकाघनस्पर्द्धकवर्गणाशलाकाकृतिगुणजघन्यवर्गमात्रविशेषं गुण्यराशिसमानमक्कुं। गुणकारमुं मत्त आदिधनक्के चतुःषड्भागादिद्विगुणहोनमक्कुमुत्तरधनक्के नवषड्भागा दिद्विगुणहीनमक्कुं। रूपोनपदगुणितमुमक्कुमितु गुणहीनाधिकस्वरूपदिदं स्थितिसवंगुणहानिगळ संकलनसूत्रमिदुः- ..
पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं वैकं सहोत्तराद्यंशगुणं ।
विपदघ्नवयं विभजेद्वकपदान्योन्यगुणहताद्यच्छिदिना ॥ ई सूत्रदत्थं सुगममक्कु । विपदनचयमे दितु पदेन घ्नः पदघ्नः गच्छेन हत इत्यर्थः । स चासौ चयश्च पदघ्नचयः विगतः पदघ्नचयो यस्मात्तद्विपदघ्नचयं विभजेदव्येकपदान्योन्यगुणहताद्यच्छिदिनेति । विगतमेकेन वैकं वैकं च तत्पदं च वैकपदं । तन्मात्रगुणकाराणामन्योन्याभ्यासस्तेनहतेनाद्यच्छिदिना विभजेदिति संबंधः। येदितिल्लि नानागुणहानिमात्रद्विकंगळवरिंगतसंवर्गदिदं । पुट्टिद राशि अन्योन्याभ्यस्तराशियक्कु प मदरोळेकरूपं होनं माडि प आधुतरांशंगळं कूडि
१०
a
aa
गुणिसिद राशियुमं १३ ५ उत्तरधनपदघ्नचयं ऋणमप्पुदरिना ऋणराशियुमं ९प रूपोनपदमात्रद्विकंगळ रूपोननानागुणहानिमात्रद्विकंगळं वगितसंवग्गं माडि संजनितान्योन्याभ्यस्त राश्यर्द्धदिदं गुणिसल्पट्ट आद्यच्छेदरूपषट्कदिदं भागिसुतं विरलु आधुत्तरोभयधनमुं ऋणमुमक्कुं- १५
अत्र सर्वत्र धनद्वये गुणहानिस्पर्धकशलाकाघनस्पर्धकवर्गणाशलाकाकृतिगुणजघन्यवर्गमात्रविशेषो गुण्वं समानं गुणकारः आदिधने चतुःषड्भागादिद्विगुणहीनः । उत्तरधने नवषड्भागार्धादिद्विगुणहीनोऽपि रूपोनपदगुणितो भवति । एवं गुणहीनाधिकरूपस्थितसर्वगुणहानिधनसंकलनसूत्र
'पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं व्येकं सहोत्तराद्यशगुणं विपदघ्नचयं विभजेत् व्येकपदान्योन्यगुणहताधच्छिदिना।' अस्यार्थः--[विपदघ्नचयं पदेन घ्नः पदघ्नः गच्छेन हतः इत्यर्थः, स चासो चयश्च पदघ्नचयः, विगतः १. पदघ्नचयो यस्मात्तं विपदघ्नचयं । व्येकपदान्योन्यगुणहताद्यच्छिदिना विगतं एकेन व्येकं तच्च तत्तदं च व्यकपदं तन्मात्रगुणकाराणामन्योन्याभ्यासः तेन हतेन आद्यच्छिदिना विभजेदिति संबंधः । ] पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं नानागुणहानिमात्रद्विकानां परस्परगुणनं प व्षेक-एकरूपोनं सहोत्तराद्यंशगुणं उत्तरधनांशसहिताविधनां
0
शैर्हतं कृत्वा १३.५ विपदनचयं पदघ्नोत्तरधनचयः ऋणमस्तीति तं पृथग् न्यसेत् ९ प तो राशी व्यक
a a पदान्योन्यगुणहताद्यच्छिदिना रूपोननानागुणहानिमात्रद्विकसंवर्गसंजनितान्योन्याम्यस्तराश्यर्धगणिताद्यच्छेद
१. कोष्ठांतर्गतपाठो ब प्रतो नास्ति।
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३०२
व वि ४ । ४ । ९ । ९ । ९ । धनं प
१३
६|पा
१५
गो० कर्मकाण्डे
ऋण
उ २
धनस्थितऋणमनुभैयांशंगळं तेगदु व वि । ४४ ९ ९ ९ । १३
६ प
a a
राशियगुणकारदो रूपोननानागुणहानियोळु कूडुत्तं विरलु सर्व्वऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कुं
व वि । ४ । ४ । ९।९।९।२। प मत्तं ६ । पaa a २
ऋणऋणयोरैक्यमें दितु ऋण
१३
व वि । ४ । ४ ।९।९।९।९। प-१ बक्किं धनद गुणकार भागहा रंगळन पर्वतसि भागिसि
६पaa
२
५
मत्तं ऋणद गुणकारभागहारंगळनपर्वात्तसि रूपासंख्यातैकभागमं १ कळयुत्तं विरल किंचिदून
a
त्रिभागाधिकरूपचतुष्टय गुणकार मक्कुमादक्के संदृष्टि :
। व वि । ४ । ४ । ९ । ९ ।९। ४ मत्तमी करणसूत्राभिप्रायप्रकटनात्थं सर्व्वगुणहानिगळ
१ ३
मध्यदो प्रथमगुणहानिमोदल्गो डष्टगुणहानिगळ धनं तरल्पडुगुमदे' तें ते बोर्ड *
अंतधणं गुणगुणियं आदिविहीण में बिंतु गुणसंकलनसूत्रादिदं तरल्पदुदी धनसंदृष्टि
१० षट्केन विभजेत् इत्युभयघनऋणे स्यातां । व वि ४ ४ ९ ९ ९ १३ प
ऋणं पृथक् कृत्य व वि ४ ४ ९ ९
अष्टगुणहानीनां धनमानीयते
छ
व वि ४४९९९९ प तद्धनस्थ
მ
६ प a २
त्रिभागाधिकरूपचतुष्टयं गुणकारो भवति । तत्संदृष्टिः व वि ४४९ ९ ९४
१
३
०
व वि ४ ४ ९ ९ ९ ९ १३ प अपवर्तिते रूपासंख्यातैकभागः १ अपवर्तितधने १३ अपनीतस्तदा किचिदून
a
३
a a ६ प
a २
०
९ १३ ऋणऋणयोरैक्यमिति ऋणराशौ प्रक्षिप्य ६ प
a २
მ მ ६ प
अंतधनं गुणगुणियं आदिविहीणमिति गुणसंकलनसूत्रानीतादिधनं । संदृष्टिः-
२
पुनः सूत्राभिप्रायप्रकटनार्थं प्रथमा
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३०३
।
९१
९/१
९.१
.
.
व । वि। ४।४।९।९।९। ४ २५६ उत्तरधनसमासदोळु तत्रतत्रतनगुणकारंगळोळु पृथक्-पृथक
६२५६ स्थापिसुत्तं विरळ| ९| आविधन
९१
९१ ६२२२२२२२ | दार२२२२२२ दा२२२२२२२ ६।२२२२२२२ ६।२२२२२२२ ९११ ९६१ ९११
९.१ ६।२२२२२२ ६२२२२२२ ६।२२२२२२ ६२२२२२ ६२२२२२२
९६१ ९.१
९.१ ६।२२२२२ ६।२२२२२ ६१२२२२२ ९६१ ९६१
९६१ ९.१ ९६१ ६२२२२ ६॥२२२२
६१२२२२ ६ ।२ ६ ।२
९११
९१ ९.१ ६।२२२
६।२२२ ६२.ध.६२
९.१ ६।२२ ९.१
९६१ ६२२२२२ ६।२२२२२२२ ६२२२२२२२
ऋ।९।१ ६।२२२२२२ ६।२२२२२२२ ९११
९.१ ६।२२२२२ ६।२२२२२२
९४१
९/१
व वि ४ ४९९९४ २५६ उत्तरधनसमासे तु तत्र तत्रतनगुणकारेषु पृथक् पृथक् स्थापितेषु
६ २५६
२
९.१
१९१
९.१ १९६१
९/१ ९१
१९१ ६।२२२२२२२/६/२२२२२२२/६।२२२२२२२/६/२२२२२२२१६२२२२२२२।६।२२२२ २२२/६।२२२२२ ९।१ ९.१ १९६१ ९।१
१९१
९.१ ६॥२२२२२२ ।६।२२२२२२ ।६।२२२२२२ ।६।२२२२२२ ।६।२२२२२२६१२२२२२२ ६२२२२२२
९।१
९।१ |६२२२२२ |६।२२२२२ ।६२२२२२ ६२२२२२ ९.१ ९।१ ९१ ।
६।२२२२ ।६।२२२२ ।६।२२२२ ९०१ ९.१ ९।१
|९१ ६।२२२ ६।२२२
६।२२२
।६।२२२ ।९।१ |९४१
९१ ६.२२ ।६।२२ ६.२२
६।२२२२२ ९।१
९.१ ६२
६२
९.१
९।१
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________________
३०४
गो० कर्मकाण्डे सप्तपंक्तिगळप्पुवु । अवरमध्यदोळु मुन्नमूर्ध्वरूपदिदं चरममं बिटु शेषषट्पंक्तिगळं संकलिसि बळिकं चरमदोलु तत्प्रमाणऋणमनिक्कि' संकलिसि बळिकं तिर्यग्रूपसंकलननिमित्तमागियुमष्टमस्थानदोळं तावन्मात्रऋणमनिक्कि ९।१ तिर्यग्रूपदिदं संकलिसि चरम
६२२२२२२२ सप्तमस्थानदोलिक्किद ऋणमं कळेयुत्तं विरलु उत्तरधनसमासमेतावन्मात्रमक्कुंव वि।४।४।९।९।९।९।२५६ आदिविहीनमादिविहीनमेंदु सर्वत्र स्थाप्यमागिर्द
६।२५६
ऋणसमासेदोळमष्टमस्थानदोळं कूडि सर्वऋणमेतावन्मात्रमक्कुं व वि ।।४।९।९।९।९।८ इन्तु
६२५६
मूलं सिद्धराशिगळ विषयदोळु गुणहीनाधिक संकलनासूत्रं प्रवत्तिसुगुम दितु तत्सूत्राभिप्राय सम्यग्दर्शितमादुदुभयधनयोगमिदु व वि । ४ । ४।९।९।९।१३। २५६ अत्रतनहीनरूपं तेगवु
६। २५६
ऋणऋणंगळगेकत्वमें दितु कूडुत्तं विरलु अष्टषष्टिसमशतहृतपंचाशीतिगुणकारमक्कुमदक्कसंदृष्टि १० व वि । ४ । ४ । ९९९ । ८५ मत्तं धनव गुणकारभागहारंगळनपत्तिसि ४ ऋणमं कळयुत्तं
७६८
सप्त पंक्तयः स्युः । तासु, षडर्धरूपेण संकलय्य सप्तम्यां तत्प्रमाणऋणं प्रक्षिप्य पश्चात्तिर्यक्संकलनार्थ अष्टमस्थाने एतावदृणं ९ । १
६ । २२२२२२२
निक्षिप्य संकलय्य अष्टमस्थाननिक्षिप्तऋणे अपनीते उत्तरधनसमासोऽयं बवि ४४ ९ ९ ९ ९ २५६ आदि
६२५६
२
विहीनमिति सर्वत्र स्थाप्यतया अवस्थितऋणसमासः अष्टस्थानानामेतावान् व वि ४ ४ ९ ९ ९ ९ ८ एवं
६२५६
२
१. त्रयाणामपि सिद्धराशीनां विषये गुणहीनाधिकसंकलनसूत्र प्रवर्तत इति सूत्राभिप्रायः सम्यग्दर्शितः ।
६२५६
उभयधनयोगोऽयं-व वि ४४९ ९ ९ १३ २५६ अत्रतनहीन १३. १ रूपमपनीय ऋणार्णयोरैक्यमिति
६ २५६
२. युक्तोऽष्टषष्टिसप्तशतहतपंचाशीतिचाशीतिगुणकारः स्यात् तत्संदृष्टिः- व वि ४ ४ ९ ९९ ८५ पुनः धन
७६८
१. म कि बलिकं । २. म समष्टस्थ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विरलु किंचिदूनत्रिभागाधिकचतूरूपंगळु गुणकारमक्कुमदक्क संदृष्टि- व वि । ४।४।९।९।९४
१७१ शेष
२५६३ मत्तमी करणसूत्राभिप्रायदिदमष्टगुणहानिगळ धनं तंदु तोरलुपडुगुं । पदमात्रगुणगच्छमात्रगुणकारगळं स्थापिसि २२२२२२२२ अन्योन्याभ्यस्तः परस्परं गुणिसि । २५६ । वैकं एकरूपमं होनं माडि
२५६ बळिक्को राशियं सहोत्तराद्यंशगुणं आद्युत्तरधनांशंगळं कूडि १३ । गुणिसिदराशियोळ १३ । २५६ विपदघ्नचयं पदमात्रमुत्तरधनविशेषंगळं । ९ । ८। कळेवुदंतु कळेयुत्तं विरलु शेषमिदु । ३२४३ । ई राशियं व्येकपदान्योन्यगुणहताधच्छिदिना विभजेत् । रूपोनपदमात्रगुणकारंगळ २।२।२।२।२।२।२ अन्योन्यगुणपरस्परगुणदिदं पुट्टिद लब्धराशियिदं २५६ हताद्यच्छिदिना गुणिसल्पट्टाद्यच्छिददिदं ६२५६ विभजेत् भागिसुवुदन्तु भागिसुत्तं विरलु ३२४३ बंद लब्धमष्टगुणहानिंगळ शुद्धधनमक्कु ४ भागे १७१. मबुदिदु करणसूत्राभिप्रायमक्कुमिदु किंचिदूनविभागाधिकारूप
२५६३ चतुष्टयं गुणकारमक्कं व वि ४४।९।९।९।४ शेषगुणहानिगळ धनानयनदोळु नवमगुण- १०
७६८
हानियोळु आदिधनदाद्यच्छेदं बेसदच्छप्पण्णहतषट्कमक्क ४ उत्तरधनदोळमाद्यच्छेदं तावन्मात्र- ...
६। २५६ मयक्कु ९।८ उभयधनांशंगळं कूडि सर्वत्र षट्सप्ततिमात्रमक्कुं व वि ४४ । ९९९ ॥ ७६
६। २५६ गुणकारभागहारावपवयं ४ ऋणेऽपनीते किंचिदूनत्रिभागाधिकचतूरूपाणि गुणकारः स्यात् । तत्संदृष्टिः
६। २५६
व वि ४ ४ ९ ९ ९४ पुनरेतत्करणसूत्राभिप्रायेण अष्टगुणहानिधनमानीयते
१७१ २५६ ३
.
पदघ्नं च पदमात्रगुणा २ २ २ २ २ २ २ २ न्योन्याभ्यासं २५६ व्यकं २५६ सहोत्तराचंशगुणं १३ २५६ विपदनचर्य पदनचयेन ९ ८ रहितं ३२४३ व्यकपदान्योन्यगुणहताद्यच्छिदिना विभजेत् ३२४३ ६२५६
७६८
इत्यष्टगुणहानिशुद्धधनं ४ भाग १७१ किंचिदूनविभागार्धेकरूपचतुष्टयं गुणकारो भवति व वि ४ ४ ९९९४
२५६।३
शेषगुणहानिधनानयने नवमगुणहानी आदिधनं वेसदछप्पण्णहतषटकभक्तषट्कसप्ततिः
क-३९
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________________
३०६
गो० कर्मकाण्डे मेबोडे अष्टरूपोननानागणहानिमात्रसर्वपदंगळोल अष्टरूप गुणितोत्तरक्क ९।८। संयुतरूपचतुष्टयत्वविद । यिंतागुत्तं विरलु नवमगुणहानियोत्तरधनमिल्लेक दोडे तत्सर्वक्कं स्वकादियोळ संक्रांतत्वदिमंतागुत्तं विरलु दशमगुणहानियोलुभयधनच्छेदं द्विगुणबेसदछप्पण्णहतषटकमक्कु।
मेलेयुभयधनंगळ हारंगळु द्विगुणद्विगुणंगळागि नडेववन्तु नडेदु चरमदोळु उभयधनंगळोळं ५ द्विगुणबेसदछप्पण्णभाजितान्योन्याभ्यस्तराशिगुणितस्वकादिच्छेदं हारमक्कुमुत्तरधनगुणकारमुमेकादोकोत्तरक्रमदिवं नडेयल्पडुत्तिर्दुदु । चरमदोळु नवरूपोननानागुणहानिमात्रमक्कुमिल्लि पूर्वकरणसूत्रविंदमुं मेणु तवभिप्रायक्रमादिदमुं धनंतरल्पडुगुभल्लि करणसूत्रदिदं धनं तरल्पडुगुमड़ते दोडे
९५९ | पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं पदमात्रगुणकारंगळ अन्योन्याभ्यास
पaa६ २५६२ ०२५६२
प
७६
९ । १ ६२।२५६
६२।२५६
७६ | ६२५६
दिवं पुट्टिव रासि बेसवछप्पण्ण भक्तान्योन्याभ्यस्तराशियक्कु प मदं वैकं एकरूपदिदं होनं
० २५६
..०
...
— माडुवुदु। ५ अन्तु माडिद राशियं सहोत्तराद्यंशगुणं आद्य तर धनांशंगळं कूडि गुणिसूदु ८५ प
२५६
२५६
1. व वि ४४९९९ ७६ कुतः ? तत्रतना ४ ९८ द्युत्तरधनयोरादावेव संक्रांतत्वात् ६। २५६
६ । २५६/६ २५६ तत्रोत्तरधनं नास्ति । दशमगुणहानी उभयधनच्छेदः द्विगुणवेसदछप्पण्णहतषटकं उपरि द्विगुणद्विगुणो भूत्वा चरमे द्विगुणवेसदछप्पण्णभक्तान्योन्याभ्यस्तगुणितादिच्छेदः स्यात् । उत्तरधनगुणकारः एकाद्यकोत्तरक्रमेण गच्छंश्चरमे नवो नानागुणहानिमात्रो भवति । अत्रापि उक्तकरणसूत्रतदभिप्रायाभ्यां धनमानेतव्यम् । तत्र करणसूत्रेण यथा
.
२५६।२
२५६ । २
10/.
..
.
.
.
.
M
६। २५६ । २
६
। २५६ ।
७६
६ । २५६
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________________
३०७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अन्तु गुणिसिद राशियोळु विपदध्नचयं पदघ्नोत्तरधनचय। ९५८ मिदु कळेयल्वेमकुमेंदु वेरि
a a
रिसिया येरडु राशिगळं व्येकपदरूपोनगच्छमात्रगुणकारंगळ अन्योन्याभ्यासजनितरार्शाियद प गुणिसल्पट्ट आद्यच्छिदिना आद्यच्छेददिदं विभजेत् भागिसुवुदु धनं ।
a २५
-०
८५ प
| ऋणं । ९५-८ ।यितु स्थापिसल्पट्ट धनऋणंगळो धनदोलिई ०२५६। प६। २५६ | २५६ । ६ पaa २५६।२
२५६।२। ६.९ ऋणरूपनुभयांशप्रमितमनेत्तिकोंडु बेरिरिसि ८५।१ ऋणराशियोलिई ऋणं राशिगे धन- ५
६५ २५६
____० २५६।२ मक्कुमप्पुरिदं । द्विसप्ततिप्रमितांशमं तेगदुकोंडु समच्छेदंगळप्पुरिदं पंचाशीतियोळु द्विसप्ततियं । कळेदु शेषऋणम १३ निदं त्रयोदशरूपं ऋणदोळे निक्षेपिसि १३
२५६६प ०२५६ । २
२५६/aa६ प
०२५६ । २ सर्वगुणहानिगळ संकलनयोळु जनितरुणसमानमुमी ऋणमुमक्कुमदु निरीक्षिसि धनऋणंगळ
पदामात्रगुणान्योन्याभ्यासं व्येकं सहोतरायंशगुणं ८५ प विपदध्नचयं पदघ्नोत्तरधनचयः ०२५६ . ०२५६
०२५६ ९ प-८ अपनेतव्योऽस्तीति तं पृथक् संस्थाप्य तौ राशों व्येकपदान्योन्याभ्यस्त प २५६ । हताच्छिदिना १०
a a
विभजेत् इति धनं-८५ प ऋणं-९ प-८
धनस्थं ऋणं पृयक संस्थाप्य ६।२५६ प । २५६ ०२। २५६ ६ । २५६ पaa
२ । २५६
८५१ ६। २५६प
२५६ । २
ऋणस्य ऋणं राशेर्धनं भवतीति द्विसप्तति ७२
६ । २५६ प
a २५६ । २
भवता
। २५६ ५ २५६ । २
पंचाशीत्यामपनीय शेषत्रयोदशसु ऋणे निक्षिप्तेष इदं-९ प
निरीक्ष्य धनऋणे अपवर्तयितव्ये ।
६। २५६१
a२५६ । २ तत्र धने अन्योन्याभ्यस्तेन वेसदछप्पण्णं वेसदछप्पण्णेन द्विकं षरूपस्थद्विकेन चापवर्त्य शेष ८५
२५६ । ३
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________________
३०८
गो० कर्मकाण्डे
गुणकारभागहारंगळनपतिसुबल्लि धनदोरन्योन्याभ्यस्तराशियन्योन्याभ्यस्तराशियोडने बेसदछप्पण्णनं बेसदछप्पण्णनोडनपतिसि हिकम षड्रपस्थितद्विकदोडनपत्तिसिदोडे शेषधनमिदु ८५ ऋणमं निरीक्षिसियपत्ति सिदोडेकरूपासंख्यातेकभागमक्कु १। मिदं कळेयुत्तं विरलु २५६।३ किंचिदूनाष्टषष्टिसप्तशतभक्तपंचाशीतिप्रमितमाकुमदवस्थितगुण्यराशिगे गुणकारमक्कु ५ व वि ४४ । ९ ९ १ । ८५ मिदनष्टषष्टिसप्तशतभक्तैकसप्तत्युत्तरशतदोळु मुन्निनष्टगुणहानि
२५६ । ३ द्रव्यगुणकारदोछु ८५ प्रक्षेपिसुदंतु प्रक्षेपिसिदुदिडु २५६ किंचिदूनत्रिभागमक्कुमी त्रिभादिदमा
७६८
१७१
धिकमप्प रूपचतुष्टयमेनवस्थितगुण्यराशिगे गुणकारमं माउत्तिरलु सर्वगुणहानिद्रव्यसमासमेतावन्मात्रमक्कु व वि ४४ । ९९९ । ४ मथवा व्यतिरेकमुखदिदं शेषगुणहानिंगळ द्रव्यं तरल्पडुवल्लि
अष्टगुणहानिद्रव्यम व वि ४४ । ९९९ । ४ सर्वगुणहानिगळ द्रव्यदोळ व वि ४४ । ९९९।४
७६८
१० कळेयुत्तं विरलु एकरूपासंख्यातेकभागोनाष्टषष्टिसप्तशतभक्तपंचाशीतिगुणकारमक्कुं व वि ४४ । ९९९ । ८५ ई जघन्ययोगस्थानरचना सर्व्वद्रव्यमनिदं स्थापिसि व वि ४४ ॥ ९९९। ४
७६८
अपवर्तितऋणेन एकरूपासंख्यातकभागेन १ अनिते अष्टषष्टिसप्तशतभक्तकिंचिदूनपचाशीतिः अवस्थितगुण्यस्य
गुणकारः स्यात् । व वि ४ ४ ९ ९ ९ ८५ अस्मिन् अष्टषष्टिसप्तशतभक्तकसप्ततिशते अष्टगुणहानिद्रव्यगुणकारे
२५६ । ३ प्रक्षिप्ते २५६- किंचिदूनविभागः । अनेन अधिकरूपचतुष्टये अवस्थितगुण्यस्य गुणकारे कृते सर्वगुणहानिद्रव्य
१५ मेतावद्भवति- व वि ४४ ९ ९ ९ ४ अथवा व्यतिरेकमुखेन शेपगुणहानिद्रव्यमानीयते -
तत्राष्टगुणहानिद्रव्ये व वि ४ ४ ९ ९ ९४ सर्वगुणहानिद्रव्यात् व वि ४४ ९ ९ ९ ४ अपनीते
१७१
७६८ अष्टषष्टिसप्तशतभक्तकरूपासंख्यातै भागोनपंचाशीतिगुणकारः स्यात् व वि ४ ४ ९ ९ ९ ८५ तज्जधन्ययोग
७६८ १. म मवस्थि ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३०९
इल्लि संदृष्टिनिमित्तमागि चारिनवगा अट्ठ एंदितु गुणहानियनुत्पादिसि रूपत्रिभागमं बेरे तेगेदिरिसि व वि ८४९९१ गुणकारभतचतुष्कमं भेदेसि द्विकद्वयमं माडि । २ । २ । एकद्विकदिदमा
३
६
गुणहानियं गुणिसिदोर्ड वोगुणहानियक्कु १६ । मागळु सर्व्वराशिविन्यासमिदु व वि १६ । ४ । ९९२ ई प्रकारदिवं त्रिभागेयोळु संदृष्टिनिमित्तमागि द्विकदिदं मेगेयं केळगेयुं गुणिसिदोडे तदूविन्यासमिवु व वि १६ । ४ । ९ ।९११ - १२ इदनी रूपषड्भागमं व वि । १६ । ४ । ९९ । १- पूर्व्व - ५ ३।२ राशिय गुणकारद्विकदोळु साधिकमं माडि जघन्यस्पर्द्धकप्रमार्णादिदं प्रमाणिसुतं विरल किंचिदूनषड्भागाधिकद्विरूपविवं गुणितैकगुणहानिस्पर्द्धकशलाकावर्गमात्रंगळु जघन्यस्पर्द्धकंगळप्पुवदक्के संदृष्टि । ९ । ९ । ३ । एक गुणहानिस्पर्द्धकशलाकाप्रमाणश्रेण्य संख्यातेकभागवग्गं साधिकद्विगुणमक्कु मदर प्रमाण मिवेत्तलानुं प्रतरासंख्येयभागमेदितु संदेहमं जनियिकुमंतादोडं श्रेण्यसंख्येयभागमात्रमे शलाकाराशियक्कुमेदितु गृहीतव्यमक्कु । मेकँदोडे "इगि ठाण पड्ढयाओ वग्गण- १० संखा पवेसगुणहाणी । सेढियसंखेज्जदिमा" एंदितु सूत्रोक्तमप्युर्दारदं चोदकनॅदपनन्तु प्रतरासंख्येयभागमेंब संदेह दिवं सूत्रविरोधमेकावपुवा श्रेण्यसंख्येयभागत्वमल्लि पडेयल्पडुतं विरलेदोडतल्तु । प्रतरासंख्येयभागमसंख्यात श्रेणिप्र संगमप्पुदरिदमवु कारणदिदं जघन्यस्पर्द्धकशलाकावर्गप्रविष्टभागहारभूतासंख्यातंगळु गुणिसिको' हु असंख्यात श्रेणिप्रमितंगळप्पुदरिदं श्रेण्यसंख्यातैकभागमेयक्कुमेंबुदस्थं । भागहार - a लब्धं ।
I I
स्थानरचनासर्वद्रव्यमिदं संस्थाप्य व वि ४४९९९४ अत्र संदृष्टिनिमित्तं चारिणवगा अट्ठ इति गुण
१३
हानिमुत्पाद्य गुणकारभूत चतुष्कं संभेद्य द्विकद्वयं कृत्वा २ । २ । एकद्विकेन तां संगुण्य दोगुणहानी उत्पादितायां १६ तद्विन्यासोऽयं - व वि १६४९९२ शेष त्रिभागेन संदृष्टिनिमित्तमुपर्यधो द्विगुणितेन व वि १६ ४ ९९१३ । २ अनेनैकरूपषड्भागेन व वि १६४९९१- साधिकीकृत्य व वि १६४९९२ जघन्यस्पर्धकेन प्रमाणितः ६
किंचिदूनषड्भागाधिकद्विरूपगुणितेक गुणहानिस्पर्धकश लाकावर्गमात्र जघन्य स्पर्धक मात्रो भवति । तत्संदृष्टिः- २०
t
९९२ अयं श्रेण्यसंख्येयभागवर्गः । । २ प्रतरासंख्येय इव दृश्यते तथापि श्रेण्यसंख्येयभाग एव अन्यथा इगिठाणफट्टयाभोसेढिअसंखेज्जदिमा इति सूत्रं विरुध्यते तथात्वेऽपि तावत एव लब्धाददोषः ? तन्न, तत्रासंख्यातश्रेणीनामपि प्रसंगात् तेन तद्भागहारभूतासंख्यातद्वयं गुणितमसंख्यातश्रेणिप्रमितं • अपवर्तते
श्रेण्यसंख्यातैकभाग एवेत्यर्थः । अथ प्रागुक्तमेव
१५
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३१०
गो० कर्मकाण्डे गनंतरं मुन्नं पेळल्पट्ट "अविभागपडिछेदो वग्गो पुण वग्गणाय पड्ढयगो। गुणहाणी वियजाणे ठाणं पडि होदि णियभेण" एंबी सूत्राथमिल्लि विशदमक्कुमप्पुदरिदं पेल्पडुगुमे ते दोडेकिं स्थानं नाम । एकसमये एकस्य जीवस्य संभवद्गुणहानिसमूहः स्थानम् । का गुणहानिः स्पर्द्धक
समूहः। किं स्पर्द्धकं क्रमवृद्धिहानिवर्गणासमूहः। का वर्गणा वर्गसमूहः। को वर्गः अविभाग५ प्रतिच्छेदसमूहः । को विभागप्रतिच्छेदः जीवप्रदेशस्य कर्मादानशक्त्यां जघन्यवृद्धिः योगस्याधिकृ
तत्वात् एंदितिल्लि जघन्यवृद्धिप्रमाणमावुदे दोडे लोकमात्रजीवप्रदेशंगळं स्थापिसि = अल्लि सर्वजघन्यशक्तिविशिष्टमप्पेकप्रदेशमं कोंडु । १ । तत्प्रदेशगतशक्तियं बुद्धियिदं प्रसारिसि मत्तमा प्रदेशशक्तियं नोडल विभागप्रतिच्छेदोत्तरशक्तिविशिष्टप्रदेशमं कोडु।१। तत्प्रदेशगतशक्तियं मुन्नं
प्रसारितप्रदेशशक्तिय मेले प्रसारितं माडि अधिकप्रमादिदं प्रथमप्रसारितप्रदेशशक्तियं खंडिसुत्तिरलु १० असंख्यातलोकमात्राविभागप्रतिच्छेदंगळप्पुवु ||||||||| तत्समूहं वर्गम बुदक्कुं। मत्तं तज्जघन्य
शक्तियुक्तप्रदेशसदृशघनिकंगमसंख्यातप्रतरमात्रप्रदेशंगळपावq श्रेण्यसंख्यातैकभागप्रमितद्वयर्द्ध
___ "अविभागपडिच्छेदो वग्गो पुण वग्गणा य फट्टयगं । गुणहाणीविय जाणे ठाणं पडि होदि णियमेण ॥" इति सूत्रार्थं पुनर्विशदयति
किं स्थानं ? एकसमये एकस्य जीवस्य संभवद्गुणहानिसमूहः। का गुणहानिः ? स्पर्धकसमूहः । १५ कि स्पर्धक? क्रमवृद्धिहानिवर्गणासमहः । का वर्गणा ? वर्गसमहः । को वर्ग:? अविभागप्रति
च्छेदसमूहः । कोऽविभागप्रतिच्छेदः ? जीवप्रदेशस्य कर्मादानशक्ती जघन्यवृद्धिः योगस्याधिकृतत्वात् । कि तज्जघन्यवृद्धिप्रमाणं ? लोकमात्रजीवप्रदेशान् संस्थाप्य एषु सर्वजधन्यशक्तिकमेकं प्रदेश स्वीकृत्य १ तद्गतशक्ति बुद्धया प्रसार्य पुनः ततोऽविभागप्रतिच्छेदोत्तरप्रदेशं स्वीकृत्य १ तद्गतशक्ति
पूर्वप्रसारितशक्तरुपरि प्रसार्य अधिकप्रमाणेन प्रथमप्रसारितप्रदेशशक्तौ खंडितायां असंख्यातलोकमात्रा२० विभागप्रतिच्छेदा भवंति ।।।।।।।। || = a तत्समूहो वर्गः । स व इति संदृष्टया लिखितव्यः ।
तदने तत्सदशधनिकाः यावंतस्तातो लिखितव्याः । ते च असंख्यातलोकप्रतरमात्राः, श्रेण्यसंख्यातकभागमाच्या
अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, गुणहानि और स्थान ऊपर कहे हैं । एक जीवके एक समयमें होनेवाले गुणहानि समूहको स्थान कहते हैं। स्पर्धकोंके समूहको गुण
हानि कहते हैं। क्रमसे वृद्धिहानिरूप वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं। वर्गके समूहको २५ वर्गणा कहते हैं। और अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं। जीवके प्रदेशोंमें
कर्मको ग्रहण करनेकी शक्तिमें जो जघन्य वृद्धि होती है उसे अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । यहाँ योगका अधिकार होनेसे योगरूप शक्तिके अविभागी अंशका ग्रहण किया है। आगे जघन्य वृद्धिका प्रमाण कहते हैं
जीवके प्रदेश लोकप्रमाण हैं। उनको स्थापन करके इन सब प्रदेशों में से जिस प्रदेश में ३० योगों की जघन्य शक्ति पायी जाये, उस प्रदेशको अलग रखकर उस प्रदेशमें जितनी योगशक्ति
हो उसको अपनी बुद्धिसे फैलाइये। उस जघन्य शक्तिसे अधिक और अन्य शक्तिसे हीन शक्ति जिसमें पायी जाये ऐसे किसी अन्य प्रदेशको ग्रहण करके, उसमें जितनी योगशक्ति पायी जाये उसे पहले फैलायी गयी जघन्य शक्तिके ऊपर बुद्धिसे ही फैलाइए । सो उस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गुणहानियिद लोकमात्रजीवप्रदेशंगळनपत्तिसुत्तं विरला =
आदिवर्गणाजीवप्रदेशागमन
aai
मुंटप्पुरिदं = ३०२ आ वर्गणाविभागप्रतिच्छेदंगळु पृथक् पृथक् वर्गसंज्ञितंगळु मुन्निन वर्गपाववोळु रचियितव्यंगळप्पुवु
व । वावी व व यितु रचयिसल्पटु संख्यातप्रतरमात्रवगंगळसमूहक्के वर्गणेयेब संज्ञेयक्कुं। मतमी रचितवरगंगळ मेले अविभागप्रतिच्छेदोत्तरंगळप्प पूर्ववरगंगळं नोडलु दोगुणहानिभाजितादिवर्गणाप्रदेशमात्रविशेष ।-aaaa हीनप्रदेशंगळ रचने रचियिसल्पडुगु
ववव वावाव।
व
मन्तु रचियिसल्पट्टवर्गगळ्गे द्वितीयवर्गणेये ब व्यपदेशमक्कुमितविभागप्रतिच्छेदोत्तरमुं विशेषहीनक्रमदिदं श्रेण्यसंख्यातेकभागपय्यवस्थितंगळप्प वर्गणेगळ समूहमेकस्पर्द्धकमक्कुं। मत्तविभागप्रतिच्छेदोत्तरंगळप्प प्रदेशंगलिल्ल । मते तप्प शक्तियुक्तप्रदेशंगळोळवे दोडे आदिवर्गणेय वर्गमं नोडल द्विगुणा व । २ विभागप्रतिच्छेदसंयुक्तप्रवेशंगळोळववर सदृशधनिकंगळ्गे पूर्वदन्ते प्रथम- १० स्पर्द्धकचरमवर्गगळ मेळे रचनेयं माडि:वर्षगुणहान्या लोकमात्रजीवप्रदेशेषु भक्तेषु= ३ आदिवर्गणाजीवप्रदेशागमनात् = ० २ तद्वर्गणाविभागप्रतिच्छेदाः पृषक्पृथक्वर्गसंज्ञाः प्राक्तनपावें रचयितव्याः । एवं रचिताऽसंख्यातप्रतरमात्रः वर्गसमूहस्य
aai
वर्गणेति संज्ञा स्यात्
इयं प्रथमा वर्गणा । पुनरेषां वर्गणामुपर्यविभाग
ववववव वव्र
प्रतिच्छेदोत्तरा अपि पूर्ववर्गेभ्यः एकविशेषहीनसंख्याका वर्गा लिखितव्याः |
१-१-१-१"खतव्या व ववव
व व व व व व इयं द्वितीया वर्गणा। एवमविभागोत्तरविशेषहीनक्रमेण श्रेण्यसंख्येयभागमात्रवर्गणासमूहः एक स्पर्धकम् । पुनः द्विगुणादादिवर्गणावर्गात् स्तोकशक्तिकाः प्रदेशा न संति ततस्तेषां द्विगुणानामेव सदृशधनिकानां प्रथमस्पर्धकजघन्य शक्तिके ऊपर स्थापन की गयी शक्ति जितनी वृद्धिको लिये हुए हो उतनी वृद्धिका नाम योगोंका अविभाग प्रतिच्छेद है। इसका आशय यह है कि जघन्य शक्तिवाले प्रदेशसे ।
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३१२
व । २ । व । २
४
व व व
। व व व व
व
व व
धनिकंगळगे पूर्व्वदन्ते श्रेण्यसंख्यातेक भागमात्रवर्गणेगळं कोंडु रचियिसुत्तं विरलु द्वितीयस्पर्द्धक
कुमन्तु मेले मेले "पड्ढयसंखा हि गुणं जहण्णवग्गं तु तत्थ तत्थादी" यदिती सूत्रोक्तक्रर्माविंदमसंख्यात लोकमात्राविभागप्रतिच्छेदोत्तरंगळप्प श्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रस्पर्द्ध मंगळगे प्रथमगुणहानियो अव्यामोहदिदं रचने माडल्पडुगुर्माल्लिवं मेले प्रथमगुणहान्या विवर्ग्यणासदृशधनि कंगळं ५ नोडलु द्वितीयगुणहान्यादिवर्गणासदृशधनिकजीवप्रदेशसंख्ये द्विगुणहीनमक्कुर्माल्लिद मेले विशेषहोमक्रमंगळप्पुवु । नवीनमुंटदावुर्द दोडे मुन्निन विशेषमं नोडली द्वितीयगुणहानिविशेषम मात्रमे
कुन्ति गुणहानिगळु पळितोपमासंख्यातैकभागमात्रगळु सलुत्तं विरलोंदु योगस्थानमक्कुमिदु सव्वंजघन्ययोगस्थान मक्कुमिन्तु शक्तिप्रधानमागि पेळल्पदुदु । मत्तमिवर संकलननिमित्तं प्रदेशप्रधानरचनास्वरूपं निरूपिसल्पडुगुमदे' ते 'दोडे प्रथमगुणहानिप्रथमस्पर्द्धक प्रथमवर्गंणाप्रदेशकलापमं
१० चरमवर्गणाया उपरि रचना कर्तव्या तस्या
गो० कर्मकाण्डे
यवर मेले अविभागोत्तरमं विशेषहीनक्रममुमागी सदृश
व २ व २
०
४
१-१-१-१-१व व व व व व व व व व
व व
विभागोत्तर विशेष होनक्रमेण श्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रीषु वर्गणासु रचितासु द्वितीयं स्पर्धकं । एवमुपर्युपरि फट्टयसंखाहि गुणं जहण्णवग्गं तु तत्थतत्थादीत्युक्तक्रमेण श्रेण्यसंख्येयभागस्पर्धकानि प्रथमगुणहानौ रचितव्यानि । तत उपरि द्वितीयगुणहान्यादिवर्गणा प्रथमगुणहान्यादिवर्गणार्धमात्री उपरि विशेषहीनक्रमेण गच्छति । अयं विशेषोऽपि पूर्वविशेषार्धमात्रः । एवं पलितोपमासंख्यातैकभागमात्रगुणहानिषु गच्छंतीषु एकं योगस्थानं । इदं १५ सर्वजघन्यं शक्तिप्राधान्येनोक्तं । पुनः तदेव प्रदेशप्राधान्येन संकलयति
उपरि पुनः प्राग्वद
एक अविभागी अंश अधिक शक्तिके धारी दूसरे प्रदेशमें उस जघन्य शक्तिसे जितनी शक्ति बढ़ती हुई हो उस बढ़ती हुई शक्तिके प्रमाणको योगका अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । पहले फैलायी गयी प्रदेशकी जघन्य शक्तिके उस अविभाग प्रतिच्छेद प्रमाण, खण्ड करनेपर असंख्यात लोक प्रमाग खण्ड होते हैं । अतः असंख्यात लोक प्रमाण २० अविभाग प्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं । इसीसे एक वर्ग में असंख्यात लोक प्रमाण अविभाग प्रतिच्छेद कहे हैं। उसकी सहनानी ( पहचान ) 'व' अक्षर है । उसके आगे जिन प्रदेशों में जघन्य शक्ति पायी जाती है वे सब लिखें। इस प्रकार जघन्य शक्ति के धारक जीवके प्रदेश असंख्यात जगत्प्रतर प्रमाण होते हैं क्योंकि लोक प्रमाण जीवके प्रदेशों में डेढ़ गुणहानिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने जघन्यशक्ति प्रमाण शक्तिके धारक प्रदेश हैं । सो २५ एक गुणहानिमें जितना वर्गणाका प्रमाण कहा है उसका ड्योढ़ा करनेपर डेढ़ गुणहानिका
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
३१३
=a a २ दोगुणहानियिदं aa २ । भागिसुत्तं विरलु विशेषमक्कु । -a aad मिदु लघुसंदृष्टिनिमित्तं । वि । एंदितु माडल्पटुददं मत्ते दोगुणहानियिंदं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमगुणहानियोळ प्रथमस्पर्द्धकदादिवर्गणेयक्कुं। वि १६ । तंदवस्थंगळेयप्पुवु । हीनाधिकभावमिल्लेदितिवें वुदत्य । मत्तं जघन्यवर्गमात्रशक्तियं कुरुतु सदृशधनिकत्वदिदं त्रैराशिकविधानदिदं प्र१। फ।व। इ। वि १६ । बंद लब्धं प्रथमगुणहानियोळु प्रथमस्पर्द्धकदादिवर्गणेयकुं। व। वि १६ । मेले सर्वत्र ५ विशेषहोनप्रदेशंगळ्गे अविभागोत्तरादिजघन्यवर्ग त्रैराशिकदिदमुत्पन्नगुणकारं सुगममक्कुं। नवीनमुंटदावुदंदोडे गुणहानि गुणहानि प्रतियादियं नोडलादियछुद्धक्रममकुमेकेंदोडे सर्वत्र रूपोनगुणहानिमात्रविशेषहीनविवक्षितगुणहानिप्रथमवर्गणेये तच्चरमवर्गणेयप्पुदरिना चरमवर्गणाप्रदेशगळिदं तदुत्तरगुणहान्यादिवर्गणाप्रदेशंगळु पूर्वेकविशेषहीनत्वदिदमद्धिंगळप्पुवप्पुदरिदं । यिल्लिदं मेले द्वितीयादिगुणहानिगळोलु विशेषमुमद्धि क्रममक्कुमाउदोंदु कारणदिदं दोगुण- १० हानियिदं स्वस्वादि भागिसल्पडुत्तिरलागळा विशेष वामप्पुरिदमा सर्वगुणहानिगळोळन्नेवरं
प्रथमगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशकलापे = a a २ दोगुणहान्या । । भक्ते विशेषः स्यात्
२०३३ स एव पुनः लघुसंदृष्टिनिमित्तं वि इति कृत्वा दोगुणहान्या गुणितः प्रथम गुणहानी प्रथमस्पर्धकादिवर्गणा स्यात् वि १६ । इयं तदवस्थव न च हीनाधिकेत्यर्थः । पुनर्जघन्यवर्गमात्रशक्ति प्रति सदृशधनिकत्वात् त्रैराशिकविधानेन प्र १ फ व इ वि १६ लब्धं प्रथमगुणहानी प्रथमस्पर्धकादिवर्गणा भवरि व वि १६ । एवमुपर्युपरि १५ सर्वत्राविभागोत्तरादिजघन्यवर्गः त्रैराशिकोत्पन्नगुणकारः सुगमः, किंतु गुणहानि गुणहानि प्रति आदितः आदिः अर्धाधंक्रमः । कुतः ? पूर्वगुगहान्यादिवर्गणायाः गुणहानिमात्रस्वविशेषींनायाः उत्तरगुणहान्यादिवर्गणात्वात् । तथा विशेषोऽप्यर्धार्धक्रमः स्वस्वादेः दोगुणहानिभक्तस्य तत्प्रमाणत्वात् । तासु सर्वगुणहानिषु तावत् प्रथमप्रमाण होता है। वह जगतश्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र ही है। उसका भाग जीवके प्रदेशोंमें देनेफ्र असंख्यात जगतप्रतर प्रमाण प्रदेशोंका प्रमाण होता है। सो इतने प्रदेशोंके २० समूहको प्रथम वर्गणा कहते हैं। इसीसे एक वर्गणामें असंख्यात जगतप्रतर प्रमाण वर्ग
आगे उस जघन्य शक्तिरूप वर्गमें जितने अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण कहा उससे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद जिनमें पाये जायें ऐसी शक्तिके धारक जितने प्रदेश हों उतने प्रदेश उसके ऊपर लिख । ये प्रदेश प्रथम वर्गणामें जितने प्रदेश कहे थे उनसे एक २५ चय हीन होते हैं। प्रथम वर्गणामें जो प्रदेशोंका प्रमाण है उसे दो गुणहानिसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो वही चय या विशेषका प्रमाण जानना। सो विशेषकी सहनानी 'वि' अक्षर जानना । एक गुणहानिमें जो वर्गणाओं का प्रमाण है उसको दूना करनेपर दो गुणहानिका १. म मिल्लदेइर्दति'वुबु ।
क-४०
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३१४
गो० कर्मकाण्डे
३
२
प्रथमगुणहानिचरमवर्गणेयेंबुदिदु । व ९ वि १६-४ ॥ ८ द्वितीयगुणहानिप्रथमवर्गणेयबुदिदु ।
३
व ९ । वि १६-४ । ८ । द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पद्ध कप्रथमवर्गणेयोळि ऋणमनिदं । वि ४ । ९ । चारि नवगा अट्ठ एंदिन्तु गुणहानियनुत्पादिसि वि ८ । दोगुणहानियोळु विशेषमात्रगुणहानिगळगे विशेष मात्रगुणहानिगळं तोरि तोरलिल्लद द्विकदोळात्मप्रमाणमेकरूपं कळेयुत्तिरलु शेषमेकगुण५ हानिमात्र विशेषंगळेयप्पुवदं वि ८ । संदृष्टिनिमित्तं मेलेयुं केळगेपुं द्विगुणिसुत्तं विरल प्रथमगुणहानिप्रथमस्पर्द्धक प्रथमवर्गणाप्रदेशंगळ नोडलो द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पर्द्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशं द्विगुणहीनमागि स्फुटमागि काणल्पट्टुट्टु । व ९ । वि ८ । ११२॥ गुणिसल्पडुत्तिरलिदर न्यासमितिक्कु
-
२
व ९ । वि १६ । मिन्तु सर्वत्र नेतव्यमक्कुमिलिंद मेले सर्व्वाविभागप्रतिच्छेद मेलापविधानं
२
पेळल्पडुगुमल्लि मुन्नं प्रथमगुणहानिस्पद्ध कंगळसंयोजनक्रमं १० कादिवर्गणेयनेकस्पर्द्धकवर्गणाशलाकेगळिद गुणिसुतं विरल
पेळल्पडुगुमदेंतेंदोडे जघन्यस्पद्धस्थूलरूपदिदं जघन्यस्पद्ध कमेता
३
३
१
गुणहानिचरमवर्गणेयं व ९ वि १६-४८ द्वितीयगुणहानिप्रथमवर्गणेयं व ९ वि १६-४९ । अत्रस्थमृणमिदं वि ४९ चारिनवगा अट्ठ इति गुणहानिमुत्पाद्य वि ८ दोगुणहानी विशेषमात्रगुणहानीनां विशेषमात्रगुणहानीः प्रदर्श्य तत्रस्थद्विके आत्मप्रमाण करूपेऽपनीते शेषमेकगुणहानिमात्रविशेषमिति । तस्मिन् वि ८ १ संदृष्टिनिमित्तमुपर्यो द्वाभ्यां गुणिते प्रथमगुणहानिप्रथमस्पर्धकवगंणाप्रदेशेभ्यो द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणाप्रदेशा १५ द्विगुणहीनाः स्फुटं दृश्यंते व ९ वि ८ १२ गुणिते तन्न्यासोऽयं व ९ वि १६ एवं सर्वत्र नेतव्यं । इतः परं
१
१
२
२
-
सर्वाविभागप्रतिच्छेदान् संकलयति-
तत्र जघन्य स्पर्धकस्यादिवर्गणायां एक्स्पर्धकवर्गणाशलाकाभिः गुणितायां स्थूलरूपेण जघन्यस्पर्धकं
प्रमाण होता है । सो प्रथम वर्गणाके प्रदेशोंके प्रमाणमें से विशेषको घटानेपर जो प्रमाण रहे उतने प्रदेशोंके समूहको द्वितीय वर्गणा कहते हैं । यहाँ पूर्वोक्त जघन्य शक्तिसे एक अवि२. भाग प्रतिच्छेद अधिक शक्तिका धारक जो प्रदेश है उसे वर्ग कहते हैं। उनका समूह दूसरी वर्गणा है । द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद हैं उससे एक अविभाग प्रतिच्छेद् अधिक जिसमें हो ऐसी शक्तिके धारक जितने प्रदेश हों उतने उनके ऊपर लिखें। वे प्रदेश द्वितीय वर्गणा में जितने कहे थे उनमें से विशेषका प्रमाण घटानेपर जितना प्रमाण रहे उतने होते हैं । यहाँ द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक शक्तिके धारक प्रदेशको वर्ग कहते हैं। उनका समूह तीसरी वर्गेणा है । इसी क्रम से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक शक्तिको लिये और एक-एक विशेष हीन प्रमाणको लिये हुए जो वर्ग हैं उनका समूह एक-एक वर्गणा होता है। ऐसे
२५
1
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३१५
२।१
वन्मात्रमक्कुं व वि १६ । ४ । विदनेयाद्य त्तर मागेक गुणहानिस्पद्ध' कशलाकागच्छसंकलनेयं तरुत्तं विरलु ऋणसहित मागि प्रथमगुणहानिद्रव्यमिनितक्कु व वि १६ । ४ । ९ ।९। मिल्लि प्रथमस्पद्ध कोळ ऋणं तरल्पडुगुमल्लि यन्तेवरं द्वितीयादिवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गद मेले एकादयेकोत्तरक्रमदिनिर्द्द अविभागप्रतिच्छेदधनमं तेगडु पृथक् स्थापित्तं विरल अदक्के संदृष्टि : इल्लि ऋणमं तेगदु पृथक् स्थापिसुत्तं विरल अदक्के संदृष्टि
:
वि १६- ३ । ३ वि १६-२ । २ वि १६- १ । १
वि । ३ । ३ वि । २।२ वि । १ । १
यिल्लि संकलनानिमित्तं प्रथम पंक्तियगुण का रंगळोळेकैकरूपं सर्व्वत्र तेगदुपृथक् स्थापिसल्पडुगुं -
ऋणद्वयं
यिल्लि ऋणद्वयदोळ चरमराशिय
वि २ १३ वि १ । २
वि १।३ धन वि १।२ वि १ । १
वि १६ । १ वि १६ । २ वि १६ । ३
०
एकविशेषादि एक विशेषोत्तररूपोनै कस्पर्द्धकवर्गणाशला कागच्छसंकलनमात्रमं द्विरूपोनैकस्पद्ध कवर्गणाशलाका गच्छद्विगुण द्विकवार संकलनमात्रविशेषंगळोळ -
स्यात् । व वि १६ । ४ । एतदाद्युत्तरैकगुणहानिस्पर्धकशलाकागच्छसंकलनायां ऋणसहितं प्रथमगुणहानि - १०
-:
द्रव्यमिदं व वि १६४९९ । अत्र प्रथमस्पर्धके ऋणमानीयते -
२
तत्र तावद् द्वितीयादिवर्गणासु जघन्यवर्गस्योपरि एकाद्ये कोत्त विभागप्रतिच्छेदधनं पृथक् संस्थाप्यं, तत्सं दृष्टि:- | वि १६- ३ ३ | अत्रस्थं ऋणमपि पृथक् संस्थाप्यं तत्संदृष्टिः अत्र संकलनावि १६-२२ वि १६-११
निमित्तं प्रथम पंक्तेर्गुणकारेष्वेकैकरूपे सर्वत्र पृथक्स्थापिते ऋणद्वयं वि २३ वि १२
वि ३ | ४
२ १
त्रि ३ । ३ वि२ । २ वि १ । १
५
वि १३ धनं वि १६३ | वि १२ वि १६२ वि ११ वि १६१
०
अत्रं ऋणद्वये चरमराशेरेक विशेषाद्युत्तररूपो नै कस्पर्धक वर्गणाशला कागच्छसंकलनमात्रं वि ३ | ४ द्विरूपोनैक- १५ २ । १
जगत् श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणा होनेपर एक स्पर्धक होता है । इसीसे एक स्पर्धक में जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणा कही है। उसकी सहनानी चार ४ का अंक है । इस प्रथम स्पर्धकको जघन्य स्पर्धक कहते
इस प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके वर्ग में अविभाग प्रतिच्छेदों का जो प्रमाण है उसके ऊपर प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जघन्य वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद २० हैं उनसे दूने अविभाग प्रतिच्छेद जिनके हों ऐसी शक्तिके धारक पाये जाते हैं। उससे होन
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गो० कर्मकाण्डे
वि २।३।४।२ साधिकं माडि रूपोनैकस्पर्द्धकवर्गणाशलाकासंकलनमात्रादिवर्गणाप्रदेश.
३।२।१ दोळ किंचिदूनितं माडुत्तिरलु शेषधनमेतावन्मात्रमक्कुं वि १६ । ३।४- मत्तमपनीताधिकाविभागप्रतिच्छेदशेषजघन्यस्पर्द्धकरचयिदु व वि १६-३ इल्लि द्वितीयादिवर्गणेगळोळु स्थित
व वि १६-२ व वि १६-१
व वि१६। ऋणमं तेगदु पृथक् स्थापिसुतं विरलु अदक्क संदृष्टि व वि ३ यिदं संकलिसुत्तं विरलु रूपो
व वि २
व वि१ ५ नैकस्पर्द्धकतर्गणाशलाकागच्छसंकलनगुणितजघन्यवर्गमात्रं विशेषमक्कु व वि ३।४।
एतस्मात्कारणात् पिदु कारणमागि पूर्वमानिताधिकाविभागप्रतिच्छेदाधिक धनमिदु । वि. १६॥३॥४॥ जघन्यवर्गमात्रासंख्यातलोकगुणकाराभावदिदमविवक्षितमक्कुमदु कारणमागि द्वितीयादिस्पर्द्धकं. गळ द्वितीयादिवर्गणेगळोळेकाकोत्तरकदिदमिई अविभागप्रतिच्छेबधनंगळ्गविवक्षेयुमक्कु
स्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छद्विगुणद्विकवारसंकलनमात्रविशेषेषु वि २ ३ ४ २ साधिकं कृत्वा वि २ २ ३ ४ अनेन १० रूपोनैकस्पर्धकवर्गणोशलाकासकलनमात्रादिवर्गणाप्रदेशेषु किंचिदूनितेषु शेषधनमिदं वि १६ ३ ४ पुनरपनीता
धिकाविभागप्रतिच्छेदशेषजघन्यस्पर्धकरचनेयं
३२१
व वि १६-३ | अत्र द्वितीयादिवर्गणास्थं ऋणं पृथक् स्थाप्यं । तत्संदृष्टिः- | व वि ३ | अस्य संकलन रूपोव वि १६-२
व वि २ व वि १६-१
व वि १ व वि १६ नैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनगुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषः व वि ३ ४ तच्च प्रागानीताधिकाविभाग
२१ प्रतिच्छेदाधिकधनमिदं वि १६ ३ ४ जघन्यवर्गमात्रासंख्यातलो काराभावान्न विवक्षितं तत एव
१५ शक्तिका धारक प्रदेश नहीं पाया जाता। अतः जिनमें जघन्य वर्गसे दूने अविभाग प्रतिच्छेद
पाये जायें ऐसी शक्तिके धारक जितने प्रदेश हों उनकी रचना प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके ऊपर करें। वे प्रदेश प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके प्रदेशोंके प्रमाणमें से एक विशेष घटानेपर जो प्रमाण रहें उतने जानना । यहाँ जघन्य वर्गसे दूने अविभाग प्रतिच्छेद
रूप शक्तिके धारक प्रदेशको वर्ग जानना । उनका समूह दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणा है । २० इस प्रथम वर्गणाके.वर्गसे एक अविभाग प्रतिच्छेद जिसमें अधिक हो ऐसी शक्तिके धारक
१. व वर्गश । २. व लोकगुण ।
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३१७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मोगळु द्वितीयस्पद्धकऋणमेतरल्पडुत्तं विदे अविभागोत्तररहितद्वितीयस्पर्धकमिटुव २ वि १६-४ अत्रतन ऋणमं कळेदु पृथक्स्थापिमुत्तं विरलिदु व २ वि ४ यिल्लियधिकव २ वि १६-४
व २ वि४ व २ वि १६-४
व २वि ४ व २ वि १६-४
व२वि ४ रूपुगळ रचनेइदु व २ वि ३ इदर संकलन जघन्यवर्गमात्रविशेषमादियुमुत्तरमं रूपोनैक.
व२वि२
व२वि १ स्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छ संकलनमात्रं द्विगुणितप्रमाणमक्कु व वि ३ । ४ । २ मिदु प्रथम
स्पर्द्धकऋणद मेले स्थापि
४ त्रैराशिदिदं सिद्धमप्प राशिय ५ व २ वि ४ व२वि ४
व २ वि ४ प्रमाणजघन्यवर्गमात्रविशेषमनेकस्पर्द्धकवर्गणाशलाकावर्गदिदं गुणिसल्पटुदं रूपोतगच्छ द्वितीयादिस्पर्धकानां द्वितीयादिवर्गणासु अपि एकाधेकोत्तरक्रमस्थिताविभागप्रतिच्छेदधनानि न विवक्षितानि ।
संप्रति द्वितीयस्पर्धकऋणानयने अविभागोत्तररहितद्वितीयस्पर्धकमिदं | व २ वि १६-४ | अत्रस्थमृणं
व २ वि १६-४
१व २ वि १६-४
व २ वि १६-४ ३- अंधिकरूपरचनेयं-व २ वि३ । अस्याः संकलनाजघन्यवर्गमात्रविशेषापृथक्संस्थाप्य | व२वि ४
व २ वि २
व २ वि १ व २ वि४
rrrr
व २ वि ४
व २ वि ४ द्युत्तररूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनं द्विगुणितं स्यात् । व वि ३ ४ २ इदं प्रथमस्पर्धकऋणस्योपरि १०
वि
जो प्रदेश हैं वे ही वर्ग हैं। दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रदेशोंके प्रमाणसे एक विशेष हीन जो प्रदेशरूप वर्ग हैं उनका समूह दूसरे स्पर्धककी दूसरी वर्गणा है। इसी प्रकार क्रमसे एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक शक्तिको लिये हुए और एक-एक विशेष घटते हुए जो वर्ग हैं उनके समूह एक-एक वर्गणा होते होते जगतश्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणा होती है। उनका समूह दूसरा स्पधंक है । १.ब अस्याधिक० ।
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३१८
गो० कर्मकाण्डे संकलनाद्विगुणदिदं गणितमात्रं द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्ति ऋणमेतावन्मात्रमकुं। व वि ४।४।१॥२॥ स्वकीयपूर्वऋण पावदोळ स्थापिसल्पडुगु। मो येरडु राशिगळु द्वितीयस्पर्धकऋणमक्कुं। मत्तमविभागप्रतिच्छेदोत्तररहिततृतीयस्पर्धकमिदु व ३ वि १६-४।२ अत्रतनऋणमं तेगदु
व ३ वि १६-४।२
سه
३ वि १६-४।२ ३ वि १६-४।२
पृथक् स्थापितमिदु व ३ वि४।२ इल्लियधिकरूपंगळ स्थापनयिदु व ३ वि ३ यिदर संक
व३। वि२ व ३ वि ४।२
व३। वि१
२
व३वि४।२ व३ वि।४।२
५ स्थाप्यं । शेषमिदं व वि४ राशिकसिद्धप्रमाणं जघन्यवर्गमात्रविशेषः एकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गण
व २ वि ४ व २ वि ४
| व २ वि ४ द्विगुणरूपोनगच्छसंकलनेन च गुणितः द्वितीयपंक्तिऋणमिदं व वि ४ ४ १ २ स्वकीयपूर्वऋणपार्वे स्थापयेत् ।
३एते द्वे द्वितीयस्पर्धकऋणे स्यातां । पुनरविभागप्रतिच्छेदोत्तररहिततृतीयस्पर्धकमिदं व ३ वि १६-४२
३ वि १६-४२
व ३ वि १६-४२ व ३ वि १६-४२
अवस्थमृणं पृथक संस्थाप्य
अस्याधिकरूपस्थापनेयं
व ३ वि ४२
२व ३ वि
اسم ا
व ३ वि३ | अस्याः संकलनाव ३ वि २ व ३ वि १
व ३ वि ४२ | व३वि ४२
उस दूसरे स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके ऊपर प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जघन्य वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे तिगुने अविभाग प्रतिच्छेदवाले शक्तिके धारक प्रदेश पाये जाते हैं, उससे कम शक्तिवाले नहीं पाये जाते। अतः जघन्य वर्गसे तिगुने अविभाग प्रतिच्छेदरूप शक्तिकें धारक जो प्रदेश हैं वे ही वर्ग हैं। उस द्वितीय स्पर्धककी अन्तिम वगणाके प्रदेशोंसे एक विशेष हीन प्रदेशरूप वर्गोंका जो समूह है वह तीसरे स्पर्धककी
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३१९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका लने जघन्य वर्गमात्रविशेषाद्युत्तररूपोनस्पद्ध कवर्गणाशलाका गच्छ संकलनात्रिगुणितप्रमाणमक्कु । व वि ३ | ४ | ३ मिदुद्वितीयस्पर्धक प्रथमऋणद मेले स्थापिसल्पडुगुं विशेषमिदु । व ३ वि ४।२ व ३ वि ४२ व ३ वि ४२ व ३ वि ४।२ वग्गणाशलाकावर्गदिदं
त्रैराशिर्कादिदमुत्पन्न राशिप्रमाणं जघन्यवर्गमात्रविशेषमनेकस्पद्ध क गुणितमं रूपोनगच्छ संकलनेय द्विगुणददंगुणितमात्रमक्कु । व वि ४ । ४ । २ । ३ । मिदुद्वितीयस्पर्धकद्वितीयऋण पंक्तिय मेले स्थापिसल्पडुगमी एरडुं राशिगळं तृतीयस्पद्ध कऋणमक्कुमिन्तु प्रथमगुणहानियोल स्पद्ध कं प्रतिरूपोनैकस्पद्ध कवगंणाशलाका संकलनागुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषंगळ गुणकारंगळु गच्छमात्रंगळागि नडेववु प्रथमपंक्तिॠणंगळ मत्तं स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गगुणितजघन्यवर्णमात्र विशेषंगळ रूपोनस्पद्ध कसंख्या गच्छद्विगुण संकलनमात्रगुणका रंगळ द्वितीयऋण पंक्तियोळ -
व वि ३
। ४ ।९ २
व वि ३ । ४ । ८ २
O o
व वि ३ । ४ । २
२
। ४ । १
२
व वि ३
व वि ४ । ४ । ८ । ९ । २ २ व वि ४ । ४ । ७ । ८।२ २
०
व वि ४ । ४ । २ । ३।२ २
व वि ४ । ४ । १ । २।२ २.
जघन्यवर्ग मात्रविशेषाद्युत्तररूपोनस्पर्धक वर्गुणाशलाका गच्छसंकलनं त्रिगुणितं स्यात् — व वि ३ | ४ | ३ इदं द्वितीयस्पर्धक प्रथम ऋणस्योपरि स्थाप्यं । शेषमिदं
२
व ३ व ४ |२| त्रैराशिकोत्पन्नराशिप्रमाणं जघन्यवर्गव ३ व ४ । २
व ३ वि ४ । २
व ३ व ४ । २
मात्र विशेषः एक स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण द्विगुणरूपोन गच्छसंकलनेन च गुणितः व वि ४४३२ । इदं द्वितीयस्पर्धकद्वितीयऋणपंक्तेरुपरि स्थाप्यं । एते द्वे तृतीयस्पर्धकॠणे भवतः । एवं प्रथमगुणहानी प्रतिस्पर्धकं प्रथमपंक्तौ रूपोर्न स्पर्धक वर्गणाशलाका संकलनागुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषाणां गच्छमात्राः गुणकारा भूत्वा
१. ब० सार्धंक संकलनागुणितजघन्य वर्गमात्र विशेषाणां गच्छमात्राः । द्वितीयपंक्ती तु स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गगुणितजघन्यवर्गमात्र विशेषाणां रूपोनगच्छद्विगुणऋणे भवतः । एवं प्रथमगुणहानी प्रतिस्पर्द्धकं प्रथम पंक्ती रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकासंकलनमात्राश्च गुणकारा भवन्ति । एषां संकलना० ।
प्रथम वर्गणा है। इससे ऊपर पूर्ववत् एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक शक्तिको लिये हुए और एक-एक विशेष होन प्रमाणको लिये हुए वर्गोंके समूहरूप एक-एक वर्गणा १५
५
१०
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गो० कर्मकाण्डे
प्रथमगुणानिय प्रथमद्वितीय पंक्तिय ॠणंगळं संकलित्तं विरल रूपोनगुणहानिस्पद्ध कसंकलित्तं विरल रूपोन गुणहानिस्पद्ध कशलाकेगछु द्विगुणद्विकवार संकलनेयिदं स्पर्धकवणाशलाकावर्गगुणितजघन्य वर्गमात्रविशेषंगळ गुणिसल्पडुत्तं विरल द्वितीयपंक्तिसवऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कुं । ववि ४ । ४ । ९ ।९।९। मत्तं गुणहानिस्पद्ध' शलाका संकलनयिदं रूपोन५ रूपोनस्पर्धक वर्गणाशलाका संकलनयिदमुं गुणिसल्पट्ट जघन्य वर्गमात्रविशेषंगळु प्रथम पंक्तिसव्वंऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कु । व वि ३ । ४ । ९ ।९। मी राशियं मेलापिसल्वेडि द्वितीयपंक्ति
३
२
२
३२०
प्रथम पंक्तिणानि द्वितीयपंक्ती तु स्पर्धकवर्गणाशलाका वर्ग गुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषाणां रूपोनगच्छद्विगुणसंकलनमात्राश्च गुणकारा द्वितीयपंक्तिॠणानि भवंति -
प्रथम पंक्ति ऋणं
ववि ३ ४९ २
ववि ३४८
व वि ३ ४ ३
२
व वि
व वि
३ ४ २
२
३ ४ १ २
द्वितीयपंक्तिॠणं
व वि ४ ४ ८९२ २
व वि ४४७८२ ० २
.
O
व वि ४ ४ २ ३ २
२
व वि ४ ४ १ २२
२
एषां संकलनायां रूपोनगुणहानिस्पर्ध क्रशलाका गच्छद्विगुणद्विकवारसंकलनगुणितस्पर्धक वर्गणाशलाका०११० वर्ग गुणितजघन्यवर्गमात्रविशेषाः द्वितीयपंक्तिसर्वऋणं भवति व वि ४ । ४ । ९ । ९ । ९ पुनर्गुणहानिस्पर्धक३
शलाकागच्छसंकलनेन रूपोनस्पर्धक वर्गणाशलाकागच्छसंकलनेन च गुणिते जघन्यवर्गमात्रविशेषाः प्रथमपंक्ति
०
होते-होते जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओंके होनेपर उनका समूहरूप तीसरा स्पर्धक होता है । इसी अनुक्रमसे जघन्य वर्गको स्पर्धकोंकी संख्या से गुणा करनेपर प्रथम वर्गणा होती है। प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जघन्य वर्गके अविभाग २५ प्रतिच्छेदों के प्रमाणसे चौगुना करनेपर चौथे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण होता है । पाँच गुना करनेपर पंचम स्कन्धकी प्रथम वर्गणाके वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है । छह गुणा करनेपर छठे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार जिस संख्या के स्पर्धककी प्रथम वर्गणा विवक्षित हो जघन्य वर्गसे उतना गुणा करनेपर उस स्पर्धककी २० प्रथम वर्गणाके वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है ।
तथा प्रथम वर्गणा के
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________________
६
कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका
३२१ सर्वऋणसमासचरमगुणकारबोळेकरूपचतुर्थांशमं प्रक्षेपिसुत्तं विरलुभयपंक्तिऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कु। व वि ४।४।१।९९ मी प्रथमगुणहानिऋणमं संदृष्टिनिमित्तमागि द्विकविद मेलयु केळगेयुं गुणिसिदुनिदं वाव ४।४।९९।९।२ मुन्नं सामान्यदिदं तंद प्रथम गुणहानिद्रव्यदोळु- व वि १६ ॥ ४।९।९ अत्रतनगुणहानियं द्विदिदं भेदिसि द्विकमं मुंदै स्थापिसि गुणहानियं भेदिसि एकगुणहानिस्पर्धकशलाकागुणितस्पर्धकवर्गणाशलाकेगळं माडि । ४।९। चतुष्कर्म चतुष्कव नवकमं नकद पाश्वंदोळु स्थापिसल्पस॒दं मूरिदं समच्छेदम माडि । व वि ४ । ४।९९९६ वो धनराशियोळ कळेयुत्तं विरलु प्रथमगुणहानिशुद्धसर्वाविभागप्रतिच्छेबंगळे तावन्मानंगळ यथास्वरूपदिवं बप्पुवु। तत्प्रमाणमिदु व वि ४ । ४ । ९९९ । ४ यो प्रथमगुणहानियोळिदेयाविधनमक्कुमुत्तरधनमिल्ल ॥
अनंतरं द्वितीयगुणहानिद्रव्यं पेळल्पडुगुमल्लि प्रथमाविस्पर्धकंगळ प्रथमादिवर्गणेगलेक , गुणहानिस्पर्धा कशलाकेगल मेलिईधिकरूपंगळं तेगदु मुन्नं संकलिसुतं विरलु प्रथमगुणहानिद्रव्य.
सर्वऋणं स्यात् व वि ३ ४ ९९
२ २
इदं मेलापयितुं द्वितीयपंक्तिसर्वऋणसमासचरमगुणकारे एकरूपचतुर्थाशे
प्रक्षिप्ते उभयपंक्तिऋणं स्यात् व वि ४ ४ ९ ९९ इदं प्रथमगुणहानिऋणं संदृष्टिनिमित्तं द्विकेन उपर्यधो
गुणितं व वि ४ ४ ९९ ९ २ प्राक् सामान्यानीतप्रथमर्गुणहानिद्रव्य व वि १६ ४ ९ ९ स्थांदोगुणहानि
२
द्विकेन संभेद्य द्विकमने संस्थाप्य गुणहानि संभेद्य एकगुणहानिस्सर्घकशलाकागुणितस्पर्धकवर्गणाशलाकाः कृत्वा १५
४।९। चतुष्कं चतुष्कस्य नवकं नवकस्य च पार्वे संस्थाप्य त्रिभिः समच्छेदीकृते व वि ४ ४ ९ ९ ९ ९ ६
.
६
तस्मिन् धनराशावपनीतं तदा प्रथमगुणहानिविशुद्धसर्वाविभागप्रतिच्छेदप्रमाणं स्यात् व वि ४४ ९९९४ इदं प्रथमगुणहानावादिधनं, उत्तरधनं नास्ति । अथ द्वितीयगुणहानिद्रव्यमानीयते
तत्र प्रथमादिस्पर्धकप्रथमादिवर्गणानां एकगुणहानिस्पर्धकशलाकोपरि स्थिताधिकरूपाणि पृथक्कृत्य वर्गसे एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ानेपर द्वितीयादि वर्गणाओंके वर्गोंके अविभाग , प्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है। और आगे प्रत्येक वर्गणामें एक-एक विशेष हीन वर्गोंका र
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________________
३२२
गो० कर्मकाण्ड वर्धमेतावन्मात्रमेयक्कु। ववि ४।४।९।९।९।४ मिदक्काविधनसंज्ञेयक्कुमिदु मुन्निन . प्रथमगुणहानिद्रव्यद मेले स्थापिसल्पडुगं। प्रथमगुणहानिप्रथमवर्गणाद्ध मनेकस्पर्धकवला. शलाकेळिंदमेकगुणहानिस्पर्धकशलाकेळिवमुं गणिसुत्तं विरलु द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पदध, मेतावन्मात्रमक्कु । व वि १६ । ४।९। मी राशियं स्पर्धकं प्रतिगच्छमात्रमवस्थितस्वरूपदिद५ मिरुत्तिईपुदेंदु त्रैराशिकक्रमदिदं गुणहानिस्पर्धकशलाकेळिदं गुणिसुत्तं विरलु द्वितीयगुणहानियोळु ऋणसहितमुत्तरधनमेतावन्मात्रमक्कु । व वि १६ । ४ । ९९ । मीयुत्तरषनव ऋणं तरल्पडुगमते दोडे उत्तरधनद प्रथमस्पर्धकसंस्थानमिदु :व ९ वि १६-३ यिल्लि द्वितीयादि वर्गणेगळोलिई ऋणमं तेगवु पृथक् स्थापितमिदु:व ९ वि १६-२ व ९ वि १६-१ व ९ वि १६
२
तेषु पूर्व संकलितेषु प्रथमगुणहानिद्रव्यस्याएं स्यात् । व वि ४४ ९९९४ इदमादिधनसंजितं प्राक्तन
१. प्रथमगुणहानिद्रव्यस्योपरि स्थाप्यं । प्रथमगुणहानिप्रथमवर्गणाधं एकस्पर्षकवर्गणाशलाकाभिरेकगुणहानिस्पर्षक
शलाकाभिश्च संगुणितं द्वितीयगुणहानिप्रथमस्पर्धकं स्यात् । व वि १६ ४ ९ अयं राशिः प्रतिस्पर्धकं गच्छमात्रमवस्थितरूपेण तिष्ठतीति राशिकक्रमेण गणहानिस्पर्धक
शलाकागुणितो द्वितीयगुणहानौ ऋणसहितमुत्तरघनं भवति व वि १६ ४ ९ ९ अस्य ऋणमानीयते
२
उत्तरधनप्रथमस्पर्धकसंस्थानमिदं व ९ वि १६-३ अत्र द्वितीयादिवर्गणास्थितमणं पृथक् संस्थाप्य
व ९ वि १६-२
९ वि १६-१
व ९ वि १६
१५ प्रमाण होता है। तथा जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओंके समूहका एक
स्पर्धक होता है। इस प्रकार जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्षक होनेपर एक गुणहानि होती है। इसीसे एक गुणहानिमें जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग स्पर्धक कहे हैं। इसकी सहनानी नौका अंक ९ है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानिके प्रथम स्पर्धककी प्रथम
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३२३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका व ९ । वि। ३ यिदं संकलिसुत्तं विरलु रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनगुणितजघन्यव ९ । वि।२ व ९ । वि।१ वर्गमात्रस्वविशेषमेकगुणहानिस्पर्धकशलाकेळिदं गुणितमात्रमक्कुं। व वि ३।४।९।
२ २ मत्तमुत्तरधनद्वितीयस्पद्ध'कमिदु व ९ वि १६-४ यिल्लिई ऋणमं तंगदु पृथक्स्थापितमिदु
व ९ वि १६-४ व ९ वि १६-४ व ९ वि १६-४
१६-४
व ९ वि ४ अत्रतनाधिकऋणरूपस्थापनेयिदु
२२ व९वि
occa
व ९ वि ३ संकलितं रूपोनकस्पर्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनगणितजघन्यवर्गमात्रस्वविशेष एकगुणहानि
२ व ९ वि १
स्पर्धकशलाकागुणितं स्यात्-व वि ३ ४ ९ पुनरुत्तरधनस्य द्वितीयस्पर्धकमिदं-व ९ वि १६-४ अवस्थमृणं
२२
의 외의
१६
व ९ वि १६-४
वर्गणाके प्रदेशरूप वर्ग हैं। वे प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे आधे
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________________
. गो० कर्मकाण्डे वि १ यिदर संकलने रूपोनैकस्पद्धकवर्गणाशलाकागच्छसंकलनगुणितजारावर्गमात्र व ९ वि २ ------- व ९ वि३ विशेषमेकगुणहानिस्पर्धकशलार्कळिंदमु गुणितमक्कु। व वि ३।४।९। मिदु प्रथमस्पर्धक ऋणद मेळे स्थापिसल्पडुगुं। शेषमिदु । व ९ वि।४ राशिकदिदमुत्पन्नराशिप्रमाणं
२
२
-
-
व ९ वि । ४
-
जघन्यवर्गमात्रस्वविशेषमनेकस्पद्धकवर्गणाशलाकावर्गदिदमेकगुणहानिस्पद्ध'कशलार्गाळदमुं ५ गुणितमात्रं द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्तिऋणमेतावन्मानं व वि ४।४।२। स्वपूर्वऋणपार्श्वदोळ स्थापिसल्पडुगुमी एरडु राशिगळु द्वितीयस्पद्धकऋणमक्कुं। मत्तमुत्तरधनतृतीयस्पद्धकरचना
२
पृथक् संस्थाप्य व ९ वि ४ अत्रतनाधिकरूपस्थापनेयं व ९ वि ३ संकलिता रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशलाका.२२
व ९वि व ९ वि १
»
२
»
व ९ वि ४
२
गच्छसंकलनगुणितजघन्यवर्गमात्रस्वविशेषा एकगुणहानिस्पर्धकशलाकागुणिता व वि ३ ४ ९ प्रथमस्पर्धकऋण
२२१ -स्योपरि स्थाप्या शेषमिदं व ९ वि ४ त्रैराशिकोत्पन्न प्रमाणमेकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण एकगुणहानिस्पर्धक
व ९ वि ४
२ शलाकाभिश्च गुणितजघन्यवर्गमात्रस्वविशेषं द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्तिऋणं स्यात् व वि ४ ४ ९ ३ स्वपूर्व
-
१० होते हैं। इस वर्गणाके वर्गों में अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण एक अधिक एक गुणहानिके
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कर्णादिवृत्ति जोवतत्त्वप्रदापिका
३
विम्यासमिद्व ९ व १६-४। २ विन्यासमिदु व ९ वि १६-४ । २ अत्रतनऋणमं तेगदु पृथक्स्थापितभिदु व ९ वि ४ । ३
२
२ २
२
व ९ वि १६-४ । २
२
व ९ वि १६-४ । २
२ व९वि १६-४ २
व ९ वि १६-४ २
२
१
अत्रस्थिताधिकरूपऋणविन्यासमिदु व ९ वि ३ इदरसंकलने रूपोनैकस्पद्ध कवर्गलाशलाका
२
व ९वि । २
२
व ९ वि । १
२
व ९वि १६-४ २
२
व ९ वि. १६-४ २
२
व ९ वि २
२ १९ वि १ २
गच्छ संकलनागुणित जघन्य बर्गमात्रस्व विशेष मेक गुणहानिस्पर्धकशलाकेगळिंद
गुणितमक्कु ।
ववि ३ । ४ । ९ । मी राशिद्वितीयस्पर्द्ध कप्रथम पंक्तिॠणव मेले स्थापिसल्पडुगुं । शेषमिदु
२
२
ऋणपार्श्वे स्याप्यं । एतौ द्वौ राशी द्वितीयस्पर्धकऋणं भवतः । पुनरुत्त रघनतृतीय स्पर्धक रचनेऽयं -
३
३
९ व १६-४ । २ अत्रतनमृणं पृथक्संस्थाप्य व ९ वि ४ । २ अत्रस्थाधिकरूपऋणविन्यासोऽयं
२
२
२ २
व ९ वि ४ । २
२ १
व ९ वि ४ । २ २
व ९ वि ४ । २
२.
3
व ९ वि ४ । २
२
३२५
व ९वि ४ । २ २
व९वि ४ । २
२
व ९ वि ३ संकलितो रूपोनैकस्पर्धकवर्गणाशला कागच्छसंकलनेन एकगुणहानिस्पर्धकशलाकाभिश्च गुणित -
२
स्पर्धकोंके प्रमाणसे जघन्य वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेदों को गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना जानना । सो अविभाग प्रतिच्छेदोंका अनुक्रम तो पूर्ववत् ही जानना । और प्रदेशरूप वर्गोंका
५
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________________
३२६
गो० कर्मकाण्डे वि।४।२ त्रैराशिकदिसमुत्पन्नराशिप्रमाण जघन्यवर्गमात्रस्वविशेषमनेकस्पर्धकवर्गणा
व ९वि ।४।२
व ९वि ।४।२
व ९ वि ४।
२
शलाकावर्गदिद द्विगुणितैकगुणहानिस्पर्धकशलाकळिंदमुं गुणितमात्रमक्कु। व वि । ४।४।९।२। मो राशि द्वितीयस्पर्धकद्वितीयऋगद मेळे स्थापिसल्पडुगुमी येरडं राशिगळं तृतीयस्पद्ध'कऋण
मक्कुल्लिदं मुंद चतुर्थादिस्पद्ध'कंगळोत्तरधनदऋणानयनं सुगममेक दोडे प्रथमपंक्तिऋणम५ वस्थितरूपदिदं | व वि ३।४।९ व वि । ४।४।९।८
२ २२ व वि३।४।९ व वि।४।४।९।७
२ २ - २
व वि। ४।४।९।२ २२ ३।४।९ व वि।४।४।९।१
वि३।४।९ २२
जघन्यवर्गमात्रस्वविशेषः व वि ३४९ द्वितोयस्पर्धकप्रथमपंक्तिऋणस्योपरि स्थाप्यः शेष मिदं-व ९ वि ४ २
२२
व ९ वि ४२
व ९.वि ४२
व ९ वि ४२
२ राशिकेनोत्पन्नप्रमाणं जघन्यवर्गमात्रस्वविशेषं एकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण द्विगुणितैकगुणहानिस्पर्षकशलाकाभिश्च गुणितं व वि ४४ ९२ द्वितीयस्पर्धकद्वितीयऋणस्योपरि स्थाप्यं । उभी राशी तृतीयस्पर्धक
ऋणं भवतः । अग्रे चतुर्थादिस्पर्धकेषु उत्तरधनस्य ऋणानयनं तु प्रथमपंक्ताववस्थितत्वेन१० प्रमाण प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे दूसरी गुणहानिके प्रथम
स्पधककी प्रथम वगंणाका प्रमाण आधा जानना । उसमें एक विशेष घटानेपर दूसरी वगणा का प्रमाण होता है । सो इस दूसरी गुणहानिमें विशेषका प्रमाण प्रथम गुणहानिके विशेषके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३२७
२
द्वितीयपंक्तियोळु रूपोनगच्छगुणकारगुणिततत्वविदं गमनदर्शनदिद मदु कारणमागि रूपोनगुणहा निस्पद्ध' कशलाका संकल ने इंदमेकगुणहानिस्पर्द्ध कशला के गलिंद मुमे कस्पद्र्धक वर्गणाशलाकाव - वर्गदिदमुं जघन्यवग्र्गमात्रस्वविशेषंगळु गुणिसल्पडुत्तिरलु द्वितीयपंक्तिसर्व्वऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कु । व वि ४ । ४ । ९९९ । मत्तमेकगुणहा निस्पद्ध कशलाकेगळिदं रूपोनैकस्पद्ध कवणाशलाका संकलनविभुं गुणितजघन्यवर्गमात्र स्वविशेषंगल सर्व्वत्रावस्थितस्वरूपदिदमिरुत्तिद्द पवेंदितु त्रैराशिकक्रम दिवमेकगुणहा निस्पद्ध कशलाकेगळिदं गुणिसुत्तं विरल प्रथमपंक्तिॠणमेतावन्माश्रमक्कु । व वि ३ । ४।९।९। मी राशियं मेलापिसल्वेडि द्वितीयपंक्ति सर्व्वऋणसमासद ऋणसहितमा गिद्द गुणकारदोळेकरूपं प्रक्षिप्तमागुत्तं विरलु उभयपंक्तिसऋण संयोगमेतावन्मात्रमक्कु । व वि ४ । ४ । ९ । ९ । ९। मी रुणमुं मुन्नं स्थूलरूपदिदं तरल्पट्टत्तरधनदोल
२ २
२
२.
व वि ३४९
२ २
व वि ३४ ९ २ २
०
०
व वि ३४९ २ २
व वि ३४९ २ २
व वि ३४९
२ २ प्रथमपंक्तिॠणं
व वि ४ ४९८ २
ত
व वि ४४९७
२
०
O
व वि ४४ ९ २ २
व वि ४४९ १
२
०
द्वितीयपंक्तिॠणं
द्वितीयपंक्ती रूपोनगच्छ गुणितत्वेन च गमनदर्शनात् । सुगमं । ततो रूपोनगुणहानिस्पर्धकशलाका- १० संकलनया एक गुणहानिस्पर्धकशलाकाभिः एकस्पर्धक वर्गणाशलाकावर्गेण च गुणितजघन्यवर्ग मात्र स्वविशेषः
२
२
द्वितीयपंक्तिसर्वऋणं स्यात् । व वि ४४९९९ पुनरेकगुणहानिस्पर्धक शलाकाभिः रूपोनैकस्पर्धक वर्गणाशलाका संकलनेन च गुणितजघन्यवर्गमात्रस्वविशेषः सर्वत्रावस्थितरूपेण तिष्ठति इति त्रैराशिकक्रमेण एकगुणहानिस्पर्धकाला कागुणितः प्रथमपंक्तिॠणं स्यात् । व वि ३४९९ इदं मेलापयितुं द्वितीयपंक्तिसर्वऋणस्य
२ २
ऋणसहित स्थित गुणकारे एकरूपे प्रक्षिप्ते उभयपंक्तिसर्वऋणं स्यात् व वि ४४९९९ इदं पुनः पूर्वं स्थूल- १५
२
२
प्रमाणसे आधा होता है। इसी प्रकार एक एक विशेष घटानेपर तीसरी आदि वर्गणाओंका प्रमाण होता है । इसी प्रकार दूसरी गुणहानिसे तीसरी गुणहानिकी वर्गेणाओंमें वर्गोंका
५
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३२८
गो० कर्मकाण्डे
ववि १६ । ४ । ९ ।९। शोषिसि । व वि । ४ । ४ । ९ । ९ ।९।४-१ केलगेयुं मेगेयुं त्रिगु
२
२
निसुतं विरल द्वितीयगुणहानियोल शुद्धमुत्तरधनमेतावन्मात्रमक्कुं । व वि ४ । ४ । ९९ । ९ । ४ ६ । २
मत्तं तृतीयगुणहानि द्रव्यं पेल्पडुगुमल्लि प्रथमादिवग्गणेगळ मध्यबोळ द्विगुणगुणहानिस्पद्ध केशलाकेगळ मेले स्थिताधिकरूपुगळं तेगदु मुन्नं संकलित्तं विरलु द्वितीयगुण हानिय आविधना - ५ मेतावन्मात्रमक्कु । ववि ४ । ४ । ९ । ९ । ९ । ४ । मिदुद्वितीयगुण हान्याविधनव मेळे स्थापि६।२।२
सल्पडुगुं । मत्तमुत्तरधनं तरल्पडुगुं । प्रथमगुणहानिप्रथमवर्गणा चतुर्भागमनेकस्पद्ध कवणाशलाकेगळिदं द्विगुणगुणहानिस्पद्ध कशलाकेगलिदमुं गुणिसुत्तं विरलु तृतीयगुणहानिप्रथमस्पद्ध कतावन्मात्रमक्कु । ववि १६ । ४ । ९ । २ । मिनितु द्रव्यं स्पद्धकं प्रतिगच्छमात्रमवस्थितस्वरूपदिदमिरुत्तिक्कुमेदितु त्रैराशिककर्मादिद गुणहानिस्पर्धकशलाकारा शिथिवं गुणिसुत्तं विरलु १० ऋणसहितमुत्तरधनमेतावन्मात्रमक्कु । व वि १६ । ४ । ९९ । २ । मिल्लि ऋणं तरल्पडुगुं ।
४
४
जघन्यवर्गगुण स्वविशेषाद्युत्तररूपोनस्पर्धक वर्गणाशलाका गच्छ संकलने द्विगुणगुणहानिस्पवृर्धक. शलाकेगळिदं गुणिसल्पडुत्तं विरलु प्रथमस्पर्धकऋणमेतावन्मात्रमक्कु । व वि । ३ । ४ । ९ । २।
४
२
मिनिते ऋणमवस्थितं प्रतिस्पर्धक मिरुत्तिक्कुमेदितु त्रैराशिकक्रर्मादिदमेकगुणहानिस्पर्धकशलाकेरूपानीतोत्तरधने व वि १६४९९ संशोध्य व वि ४४९९९४ - १ उपर्यधस्त्रिभिर्गुणितं द्वितीय
२
२
२
१५ गुणहानी शुद्धमुत्तरधनं स्यात् ववि ४४९९९९ पुनस्तृतीयगुणहानि द्रव्यमुच्यते
६ । २
तत्र प्रथमादिवर्गणासु द्विगुणगुणहानिस्पर्धकशलाकानामुपरिस्थिताषिकरूपाणि स्वीकृत्य प्राक् संकलितानि द्वितीयगुणहान्यादिधनाधं स्यात् ववि ४४ ९ ९ ९४ इदं द्वितीयगुणहान्यादिधनस्योपरि स्थाप्यं । ६२२
पुनरुत्त रघनमानीयते
थमगुणहानिप्रथमवर्गणाचतुर्भागः एकस्पर्धकवर्गणाशलाकाभिः द्विगुणगुणहा निस्पर्धकशलाकाभिश्च २० गुणितः तृतीयगुणहानिप्रथमस्पर्धकं स्यात् ववि १६४९२ एतावत्प्रतिस्पर्धकमस्तीति गुणहानिस्पर्धक -
૪
शलाकागुणितं ऋणसहितोत्तरघनं स्यात् व वि १६४९९२ अत्रत्यमृणमानीयते
४
जघन्यवर्ग गुणस्व विशेषाद्युत्तररूपोन कस्पर्धक वर्गणाशलाकागच्छसंकलना द्विगुणगुणहानिस्पर्धकशलाकागुणिता प्रथमस्पर्धकऋणं स्यात्वत्रि ३४९२ एतावत्प्रतिस्पर्धकमस्तीति गुणहानिस्पर्ध कशलाका गुणिते
४२
प्रमाण तथा विशेषका प्रमाण आधा-आधा जानना । इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भाग २५ गुणहानियोंके होनेपर एक योगस्थान होता है । इसीसे एक स्थानमें पल्यके असंख्यातवें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३२९ गळिदं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमपंक्तिसर्वऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कु । व वि । ३।४।९।२।९। मत्तं जघन्यवर्गगुणस्वविशेषमुभनेकस्पद्धकवर्गणाशलाकावर्गदिवं द्विगुणगुणहानिस्पर्धकशलाकेगळिवमुं गुणिसुत्तं विरलु द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्तिऋणमेतावन्मात्रमक्कु। व वि ४।४।९।२। मिन्तु तृतीयादिस्पर्द्धकंगळोळं द्विगुणत्रिगुणादिक्रमदिदं रूपोनगच्छमात्रमित्तिक्कु वितु रूपोनकगुणहानिस्पर्द्धकशलाकासंकलनदिदं गुणिसुत्तं विरलु द्वितीयपंक्तिसर्वऋणसमासमेतावन्मात्रमक्कु । ५ व वि ४ । ४ । ९ । २९९ । मो द्वितीयपंक्तिऋणसमासदोळु प्रथमपंक्तिसर्वऋणमं कूडल्वंडि द्वितीयपंक्तिसर्वऋणदोळ ऋणसहितमावुदोदु गुणकारमा गुणकारदोळेकरूपु प्रक्षेपिसल्पडुत्तं विरलु उभयपंक्तिसर्वऋणसंयोगमेतावन्मात्रमक्कु । व वि । ४।४।९।९।९।२। मी ऋणमं मुन्नं स्थूलरूपदिदं तंदुत्तरधनदोछ । व वि १६ ॥ ४।९।९।२। निरीक्षिसि शोधिसिदोडिनु । व वि४।४।९।९।९।२।३। यिद मेलेयु केळगेयु त्रिगुणितं माडल्पडुत्तं विरलु तृतीय- १० गुणहानियोळु शुद्धमुत्तरधनमेतावन्मात्रमक्कु । व वि ४।४।९।९।९।२ मी प्रकारदिवं चतुर्थादिगुणहानिगळोळु चरमगुणहानिपर्यन्तमुभयधनंगळ द्ध'क्रमंगळप्पुवु । विशेषमुंटदावुर्दे दोडे उत्तरधनदो रूपोनपदमात्रगुणकारंगोळवु चरमगुणहानियोळ येरडं धनंगळगे रूपोननाना. गुणहानिमात्र 'प। २ द्विकंगळु भागहारंगळप्पुवु । उत्तरधनगुणकारमु मसे रूपोननानागुणहानि
६।२।२
aa
प्रथमपंक्तिसर्वऋणं स्यात् व वि ३ ४ ९२ ९ पुनर्जघन्यवर्गगुणस्वविशेषः एकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण द्विगुण- १५
गुणहानिस्पर्धकशलाकाभिश्च गुणितो द्वितीयस्पर्धकद्वितीयपंक्तिऋणं स्यात् व वि४ ४ ९ २ एवं तृतीयादिस्पर्धकेषु द्विगुणत्रिगुणादिक्रमेण रूपोनगच्छमात्रमस्तीति रूपोनैकगुणहानिस्पर्धकशलाकासंकलनेन गुणने द्वितीयपंक्तिसर्व णं स्यात् । व वि ४ ४ ९२ ९ ९ अस्मिन् प्रथमपंक्तिसर्वमृणं निक्षेप्तुं द्वितीयपंक्तिसर्वऋणे ऋणसहितस्थितैकगुणकारे एकरूपे प्रक्षिप्ते उभयपंक्तिसर्वऋणं स्यात् । व वि ४ ४ ९ ९ ९ २ इदं प्राक्म्यूलरूपानोतोत्तर
४
धने व वि १६ ४ ९ ९ २ संशोध्य व वि ४.४ ९ ९ ९२ । ३ उपर्यधस्त्रिभिर्गुणिते तृतीयगुणहानी शुद्ध- २०
भाग गुणहानियाँ कही हैं। यह सब कथन जघन्य योगस्थानका है। जो शक्तिकी प्रधानता
क-४२
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________________
१०
३३०
मात्रमक्कुं । सर्व्वत्रमेरडुं धनंगळगे गुणहानिस्पर्द्धकशलाकाघनस्पर्द्धकवर्गणाशलाका वर्ग गुणजघन्यवमात्रविशेषं गुष्यमानराशिसदृशमेयक्कुं । गुणकारमुं मत्ते आदिधनक्के चतुः षड्भागमुपर्युपरि द्विगुणहीनमक्कुमुत्तरधनक्के नववड्भागार्द्धमुपर्युपरि द्विगुणहीनमुं रूपोनपदगुणितमवकुमिन्तु गुणहीनाधिकस्वरूपदिदं नडेववर सर्व्वगुणहानिगळ
आविधन
उत्तरधन
व वि । ४ । ४ । ९।९।९।४ व वि । ४ । ४ ।९।९।९१ ९| ९| प
०
०
६ aa
प alR
६|शरार
व वि ४।४ । ९९९॥४
व वि|४|४|१९९१९१४
व वि ४|४|११९१९ ॥४
६।२ व वि ४|४|९|९|९|४
६
धनसंकलनासूत्रमिदु ॥ " पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं वैकं सहोत्तराद्यंशगुणं । विपदधनचयं विभजेयेक पदान्योन्यगुण हताद्यच्छिदिना ॥" एंदितु मुन्नं संकलितधनं तरहपट्ट क्रर्माददं समस्तगुणहानिगळ सर्व्वाविभागप्रतिच्छेदंगळ तर पडुगुं । पदमात्रगुणान्योन्याभ्यासं पदं नानागुणहानि मुत्तरघनं स्यात् — व वि ४४९९९९ २ एवं चतुर्थादिगुणहानिषु चरमगुणहानिपर्यंतासु उभयघनानि
*
६२२
अर्धक्रमाण्यपि उत्तरधनानि रूपोनपदगुणितानि स्युः । संदृष्टिः
आदिधनं
६।२१२
ववि ४४९९ ९४
०
गो० कर्मकाण्डे
०
व वि ४४ ९९९४
६ प २
६ प २
a
ववि ४४९९ ९४
६२२ व वि ४४९ ९९४
६ २ ववि ४४९ ९९४
६
--
६ २२२
व वि४|४|१९९९ १२/३
व वि ४|४|१/९/९/९/२
व वि ४|४|१||९१९३१
६२
O
उत्तरधनं
१ - व वि ४४९९९९ प
a
०
०
०
६ाराशर
६।२२
६पaa a २
व वि ४४९९९९३
व वि ४४९९९९२
व वि ४४९९९९१ ६ २
६२२२
लेकर किया है । प्रदेशोंकी प्रधानतासे कथन करते हैं । सब जीवके प्रदेश लोक प्रमाण है ।
६२२
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
३३१ पल्यासंख्यातेकभागमक्कुं ५ एतावन्मात्रद्विकंगळनन्योन्याभ्यासमं माडुत्तं विरलु पुष्टिद राशियं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमप्प अन्योन्याभ्यस्तराशियकुं प व्येकं एकरूपविवं होनमप्प राशियं
aa
..
प सहोत्तराद्यशगुणं आयुत्तरथनाशंगळं कूडि पुणिसि १३ प दी राशियं विपदघ्नवयं पर्दिवं
गुणिसल्पटुत्तरधनचर्याददं ९५ होनं माडिदी राशियं १३ १९५ व्येकपदान्योन्यगुणहताद्य
da
aaa
च्छिदिना विभजेत् । रूपहोनपदप्रमित प रूपोननानागुणहानिमात्रद्विक संवर्गदिदं पुट्टिद राशि- ५ यन्योन्याभ्यस्तराश्य मक्कु प मिदनादिच्छेददिदं षड्र, पं गळिदं गुगिसि ५६ व राशियिदं
aa
२
al२
भागिसुवुदंतु भागिसिद राशियं तन्नस्थितगुण्यराशिगे गुणकारमाडि व वि ४।४।१।९।९।१३ प-९५
०००
ro
ऋगमं तेग पृथस्थापिसिदोडे धनऋणराशिद्वयमितिककुं:
धन व वि ४।४।९।९।९।१३ प व.वि ४ ४२ । २९९ प मिल्लि ऋण यो
६पaa
२
संकलनसूत्रं पदमात्रं प गुणान्योन्याभ्यासं प व्येकं प सहोत्तराद्यंशगुणं १३ प विपदध्नचयं aa
००
१३१-९५ व्येकपदाप न्योन्यगुण प हताद्यच्छिदिना प ६ विभजेत् इति भक्तराशि स्वावस्थितaaa aa २
०२
गुण्यस्य गुणकारं कृत्वा च वि ४ ४ ९ ९ ९ १३ प-९५ ऋणे पृथक्स्थापिते धन ऋणे एतावती स्यातां
aaa प२
व वि ४४९९९१३ प व वि४४१९९९५ अत्र ऋणयोरक्यमिति धनस्थं उभयधनगुणकारांश
aa. a २
२
पीछे अंक संदृष्टि में ३१०० बताया है। नानागुणहानि पल्यके असंख्यातवें भाग । इसकी
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३३२
गो० कर्मकाण्डे दोलिईवुभयधनगुणकारांशमात्रऋमं पृथग्भूतं माडि व वि ४॥ ४ ॥ ९ ॥९।९।१३ । १ ऋण
६५२
a
दो कूडिरिसि:-
व वि ४।४।९।९।९।९।५ धनदणगुणकारभागहारंगळनपत्तिसि
६पaal
गुणिसि भागिसिदोड रूपचतुष्टयगुणकारमुं त्रिभागाधिक मुमक्कु ! व वि ४ । ४ । ९।९।९।४
मी त्रिभागदोळु ऋगमं निरीक्षिसियपत्तिसिदोडेकरूपासंख्यातकभागमकुं १ मेके दोडे नाना५ गुणहानिगुणकारमं नोडलु भागहारभूतान्योन्याभ्यस्तराशियर्द्धमसंख्यातगुणितमप्पुरिदमा रूपासंख्यातयिकभागमं कळदोडे किंचिदूनविभागाधिकरूपचतुष्टयं गुणकारमक्कु :व वि ४।४।९।।९।४ मी सर्वजघन्योपपादयोगस्थानद अविभागप्रतिच्छेदंगळं मुन्निनंत
चारिनवगा अट्ठ एंदु गुणहानियनुत्पाविसि चतुर्गुणकारदोळेकद्विकर्म कोडु गुणिसि दोगुणहानियं
माडि चतुष्कदिदं गुणिसि जघन्यस्पर्द्धकमनुत्पादिसि द्विगुणितैकगुणहानिस्पर्द्धकशलाकावर्गदिदं १० गुणिसि। व वि १६ । ४।९।९।२। चरमगुणकारद्विकदोलु मुन्निनंते किंचिदूनषड्भागमं
व वि १६ । ४।९।९।१-१२। साधिक माडि।प्र।व । वि । १६ । ४ । फ १ । इ व वि १६ ।
३२
४।९।९।२। लब्धमिनितु स्पद्धकंगळप्पुवु । ९।९।२। इ० गुणहानिस्पर्द्धकशलाकावर्गमं
मात्र ऋगं पृथक्कृत्य व वि ४ ४ ९ ९ ९ १३ १ ऋणे प्रक्षिप्य व वि ४४ ९ ९ ९ १३ प अपवर्तितं
. aa a २
६प
रूपासंख्यातकभागः स्यात् । धनस्य गुणकारभागहारावपवयं भक्त्वा तृतीयभागे तद्रूपासंख्यातकभागेऽपनीते १५ किंचिदूनविभागाधिकरूपचतुष्टयगुणकारः स्यात् । व वि ४ ४ ९ ९ ९४ । अमी सर्वजघन्योपपादयोगस्थान
स्याविभावप्रतिच्छेदाः प्राग्वत् चारिनवगा अट्ठ इति गुणहानिमुत्साद्य चतुर्गुणकारे एकद्विकं स्वीकृत्य दोगुणहानि कृत्वा चतुष्केन संगुण्य जघन्यस्पर्धकमुत्पाद्य द्विगुणितैकगुणहानिस्पर्धकशलाकावर्गेण संगुण्य व वि १६ ४ ९ ९२ चरमगुणकारद्विकं प्राग्वत् किंचिदूनषड्भागेन व वि १६ ४ ९ ९१-२ साधिकं कृत्वा प्र व वि १६ ४ ।
अंक संदृष्टि पाँच है। एक गुणहानिका आयाम जगतश्रेणिका असंख्यातवाँ भाग। इसकी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
३३३
द्विगुणिसिवनितकुमवर प्रमाणमिदु ० ० २ यिदत्तलानु प्रतरासंख्येयभागमक्कुमदु संकिसल्वेडे के बोडे "यिगिठाणपड्ढयाओवग्गणसंखापदेसगुणहाणी। सेडियसंखेज्जदिमा असंखळोगा हु अविभागा॥" एंबी सूत्राभिप्रायदिदं श्रेण्यसंख्यातेकभागमेयककु । मी जघन्ययोगस्थानव मेले सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पद्ध'कंगळु पच्चुत्तं पोगियों दोदपूर्वस्पद्ध'कंगळ पर्चुत्तं पोगियुत्कृष्टस्थान पुटुगुम बुदं मुंदणसूत्रद्वदिदं पेळदपरु :
अंगुलअसंखभागप्पमाणमेत्तावरफड्ढया उड्ढी ।
अंतरछक्कं मुच्चा अवरहाणादु उक्कस्सं ॥२३०॥ अंगुलासंख्यभागप्रमाणमात्रावरस्पद्धकवृद्धिरन्तरषट्कं मुक्त्वावरस्थानावुत्कृष्टं ॥
अवरस्थानात् सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यप याप्तभवंगळ चरमभवद त्रिविग्रहंगळोळु प्रथमविग्रहदुपपादयोगसर्वजघन्यस्थानवत्तणिननन्तरस्थानं मोदल्गोंडु प्रथमस्य हानिर्वा नास्ति वृद्धिा १० नास्ति ये दनंतरयोगस्थानवो वृद्धियुटप्पुरिदमा द्वितीयस्थानं मोदल्गोंडु सर्वोत्कृष्टयोगस्थानं पुटुवन्नेवरं सांतरनिरंतर सांतरनिरंतरगळेब त्रिविधयोगस्थानंगळोळु सर्वत्र निरंतरक्रमदिदं सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्र प्रमितंगळु जघन्यस्पर्द्धकंगळु । युगपत् स्थान स्थानं प्रति पूर्वपूर्वस्थानंगळ मेळे वृद्धियागियुत्तरोत्तरस्थानंगळागुत्तं पोपुवन्तु पच्चुत्तं पोगुत्तं विरलु । फ १ । इ व वि १६ ४ ९ ९२ लब्धमेतावंति स्पधंकानि ९९२ । साधिकद्विगुणगुणगुणहानिस्पर्धकशलाका- १५ वर्गमात्राणि ३.२ । इमानि प्रतरासंख्येयभाग इति नाशंकनीयं 'इगि ठाणप्फड्डयाओ' इति सूत्रेण श्रेण्य
संख्यातकभागप्रतिपादनात् । ॥२२९॥ तज्जघन्ययोगस्थानस्योपरि सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्धकानि वधित्वा वर्णित्वा एकैकमपूर्वस्पर्षक, एवं गत्वोत्कृष्टस्थानमुत्पद्यते इत्यग्रतनसूत्रद्वयेन आह
तस्मात् सूक्ष्मनिगोदलव्यपर्याप्तकस्य सर्वजघन्यचोपपादयोगस्थानादनंतरस्थानमादिं कृत्वा सर्वोत्कृष्टयोगस्थानोत्पत्तिपर्यतं सांतरेषु निरंतरेषु सांतरनिरंतरेषु च अमोषु योगस्थानेषु निरंतरं सूच्यंगुलासंख्यातेकभाग- २० मात्राणि जघन्यस्पधंकानि युगपत्प्रतिस्थानं वर्धते तदा एकैकमुत्तरोत्तरस्थानमुत्पद्यते ॥२३०॥ तथा सति
mr.mvwww
अंक संदृष्टि आठ है। इत्यादि सब पूर्ववत् जानना। ऊपर टीकामें अविभाग प्रतिच्छेदोंके मिलानेका विधान विस्तारसे किया है। यह जघन्य योगस्थानका कथन हुआ ॥२२९।।
सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य उपपाद योगस्थान होता है। उसके अनन्तरवर्ती स्थानसे लेकर सर्वोत्कृष्ट योगस्थानकी उत्पत्ति पर्यन्त सान्तर, निरन्तर और २५ सान्सरनिरन्तर सब ही योगस्थानों में से प्रत्येक योगस्थानमें निरन्तर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक युगपत् बढ़ते हैं। तब उत्तरोत्तर एक-एक स्थान उत्पन्न होता है ॥२३०॥
विशेषार्थ-जघन्य स्थानमें प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धकमें जितने अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं उनसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुने अविभाग प्रतिच्छेद उससे ३० ऊपरके दूसरे योगस्थानमें होते हैं। इसी प्रकार दूसरेसे तीसरे में सूच्यंगुलके असंख्यातवें
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३३४
गो० कर्मकाण्डे सरिसायामेणुवरि सेढिअसंखेज्जभागठाणाणि ।
चडिदेक्केक्कमपुव्वं फड्डयमिह जायदे चयदो ॥२३॥ सदृशायामेनोपरि श्रेण्यसंख्येयभागस्थानानि। चटित्वा एकैकमपूर्व स्पखंकमिह जायते चयतः॥
वृद्धिप्रमाणमायामः । इति प्राक्तनप्रतिपदं। सदृशायामेनोपरि सर्वजघन्ययोगस्थानायामव समानायामद मेले चयतः सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पद्धकंगळु सर्वजघन्यदनंतर द्वितीय स्थानं मोदल्गोंडु पेच्चुत्तं पेर्चुत्तं पोगियों देडयोळु जघन्यस्थानायामद मेळे पेच्चिद चयदिदमोंदु अपूर्वस्पद्धकं पुटुगुं। अनितु स्थानंगळं नडेदु पुटुगु दोडे अनुपातत्रैराशिकविवमा स्थानंगळ
साधिसल्पडुगु । प्र व वि । १६ । ४ । २।। स्था। १। इ। व । वि । १६ । ४ । ३ ना इनितिनि१० तविभागप्रतिच्छेदंगचियोंदु स्थानविकल्पं पुटुत्तं विरलागळिनितविभागंगळु पैच्चिदल्लिगेनितु
स्थानविकल्पंगळप्पुर्वेदितु त्रैराशिकम माडि बंद लब्धप्रमितं ९ना वि १६ । ४ अपवसित.
अ
व वि अ१६।४।२
___ तत्सर्वजघन्ययोगस्थानस्य समानायामस्योपरि उक्तप्रमाणचयेन एकमपूर्वस्पर्धकमुत्पद्यते । कति स्थानानि गत्वा गत्वा ? इति चेत् यद्येतावत्सु अविभागप्रतिच्छेदेषु प्र-व वि १६ ४२ वर्षितेषु एकस्थानं फ स्था १
तदैतावत्सु इ व वि १६ ४९ ना वधितेषु कति स्यानानि ? इति राशिकेन लब्धमात्राणि
अ
१५ भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक अधिक होते हैं। तीसरेसे चौथेमें, चौथेसे पाँचवेंमें, इसी प्रकार
सर्वोत्कृष्ट योगस्थान पर्यन्त एक-एक स्थानमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक बढ़ते-बढ़ते होते हैं। आगे छह अन्तर कहेंगे, उनको छोड़कर जघन्य स्थानसे उत्कृष्ट पर्यन्त जीवोंके योगस्थान होते हैं ।।२३०॥
___सबसे जघन्य योगस्थानके समान आयामके ऊपर पूर्वोक्त प्रमाण वृद्धिरूप चयके होनेपर एक-एक अपूर्व स्पर्धक उत्पन्न होता है। कितने-कितने स्थान जानेपर होता है ? इसके उत्तरमें त्रैराशिक करना चाहिए । सूच्यंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धकोंके जितने अविभाग प्रतिच्छेद हों उनके बढ़नेपर यदि एक स्थान होता है तो जघन्य स्थानके सब अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणमें एक गुणहानि सम्बन्धी स्पर्धकोंकी संख्याको
नाना गुणहानिसे गणित उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देनेपर जो प्रमाण हो उतने २५ जघन्य स्पर्धक बढ़नेपर कितने स्थान होंगे, ऐसा त्रैराशिक करनेपर लब्धराशिका प्रमाण
जगतश्रेणिका असंख्यातवाँ भाग आता है। इसी प्रकार इसके अनन्तर समान आयामको लिये द्वितीय स्थानसे लेकर, सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक एक स्थानमें १. अ इत्यपूर्वस्पर्धकं कथयति नायं भागहारः ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३३५
मिनितु ९ ना श्रेण्य संख्यातकभागमात्रस्थानंगळप्पुवु । । ।। मतमन्ते तदनंतरसदृशायामद
अ २
द्वितीयस्थानं मोदल्गोंडु श्रेण्यसंख्यातेकभागमात्रतद्योग्ययोगस्थानंगळु सवृद्धिकंगळु नडदु मत्त वोदु द्वितीयापूर्वस्पद्धकं पुटुगुमो क्रमविंदमेकगुणहानिस्पद्धकशलाकाराशिप्रमित ३० मपूर्वस्पद्ध: मपूर्वस्पर्धकंगल पेच्चिदल्लि जघन्ययोगस्थानं द्विगुणमक्कु मी क्रमदिदं तद्विगुणद्विगुणक्रमविवं नडदु संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसर्वोत्कृष्ट योगस्थानं पुटुगुमो यत्यंमं प्रद्योतिसल्समर्थमप्प रचना- ५ विशेषसंदृष्टियिदु
२१२
ववि १६।४०१
قدس به
प्र व वि १६४।२। फ स्था १।इ व वि १६४ लब्धांतरालस्थानविकल्पंगळु एतावन्मानंगळु ।
व वि १६ ४ ९ ना अपवर्तितानि | ९ ना श्रेण्यसंख्यातकभागमात्राणि भवंति ० तथा तदनंतरं सदृशायाम व वि १६४२ अ
अ२
द्वितीयस्थानमादि कृत्वा श्रेण्यसंख्यातकभागमात्रतद्योग्ययोगस्थानानि सवृद्धिकानि गत्वा पुनरेकं द्वितीयमपूर्वसर्धकमुत्सद्यते । एवमेकहानिगुणस्पर्धकशलाकामा aaवपूर्वस्पर्धकेषु जघन्ययोगस्थानं द्विगुणं स्यात् । एवं द्विगुणद्विगुणक्रमेण गत्वा संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवस्य सर्वोत्कृष्टयोगस्थानमुत्पद्यते । अस्य संदृष्टिः-
१०
बढ़ें इस प्रकार जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान होनेपर दूसरा अपूर्व स्पर्धक होता है। उसके ऊपर जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान होनेपर तीसरा अपूर्व स्पर्धक होता है । इसी प्रकार एक गुणहानिमें जितने स्पर्धकोंका प्रमाण कहा था उतने अपूर्व स्पर्धक होनेपर जघन्य योगस्थान हना होता है। यहाँ अपूर्व स्पर्धक होनेका विकान समझमें न आनेके कारण नहीं लिखा है।
१५
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३३६
गो० कर्मकाण्डे
२१
२।२
व वि १६।४।०२
प्रववि १६४१२
इव वि १६।४।०२
प्र व वि १६।४।२ इ वि १६।४।२।२ लब्ध · न
फ स्था १
लब्ध २२
फ स्था १
विकल्प ० २।२।२
२
१
२२
२।३
।
अपू
००००
प्र व वि १६।४।२ फ स्था १।इव वि १६३४२२ लब्धस्थानविकल्प
२।२।२।२।
a
२। २
२
।३
व वि १६ । ४ । १ज
क
अ
२
२।२
०००
व वि १६।४।
२। १२।
२२।३ ।
a ०००
२।
विशेषार्थ-एक गुणहानिमें स्पधकोंका प्रमाण जगतश्रेणिमें दो बार असंख्यातका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतना कहा था। सो उतने ही अपूर्व स्पर्धक होनेपर जो योगस्थान होता है उसके जितने अविभाग प्रतिच्छेद हैं वे जघन्य योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदसे दूने हैं। उससे ऊपर उतने ही अपूर्व स्पर्धक होनेपर जो योगस्थान होता है वह उस योगस्थानसे भी दूना होता है। इस प्रकार क्रमसे दूना-दूना होते संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३३७
व वि १६।४।३।२२।१
व वि १६।४।२।२।२
. ०००० । अपू
००००
०००
S
प्र व वि १६ । ४।२फ स्था १ इव वि।२।२।२।२। लब्धस्थानविकल्पं = २॥२॥२॥२॥२॥
व वि १६।४।०२।२।२२
ववि १६।४।०२।२।२।२।२। उ
रारा। २।२।२
०००००
a
० २१२१२
२२
अट्ठधणं ० २२२२२ गुण गुणिय ० २२२२२२ आदिविहीणं । २३१ ई ऊणुत्तरभजियं ३ २३१
..
-
।२।२
१ a
२।१
be
व वि १६।४।
२।१
अप
व वि १६।४।।।२।२।२ । व वि १६।४।२।२।२।२। व वि १६ । ४ । २।२।२।२२। उ
जीवका सर्वोत्कृष्ट परिणाम योगस्थान होता है। यहाँ स्थान भेद लानेके लिए त्रैराशिक करना चाहिए। उसमें सर्वत्र प्रमाणराशि सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग मात्र जघन्य स्पर्धक है, फलराशि एक स्थान, इच्छाराशि जगतश्रेणिके असंख्यातवाँ भाग मात्र जघन्य स्पर्धकोंको
क-४३
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३३८
१०
पोनगुणेन हतं गुणितं ० २३१ । १ प्रभवेण भाजितं २
a
गणभक्तं ३२ ॥ रूपं स्वातति भवेद्गच्छः । इवन्योन्यभ्यस्त गुणकारशलाकुई प्रति
२२२२२
coc
-
39
a
गो० कर्मकाण्डे
०००-२१२
FOTOT
a
=
-रारार
a
Da
a
11=1
a
-२१२
a
.२.
a - १
- १
प्रव १६४२ फस्या १ इ द वि १६ ४ लब्धस्थानविकल्पाः ३ २ पुनः प्रववि १६४२
a
२
მ
फस्पा १ वि १६४२ स्थानविकल्पाः २२ पुनः प्रववि १६.४२ फ- स्था १६ व
a
३१ सैकं ३२ यतिकृत्वो
२२
५ व १६४०२२ स्वानविकल्पाः २ पुनः प्रववि १६४२ । फस्दा १ इव वि १६४
a
a
-
a
-२१२/२/२
a
- शरार
a
- २१२
a -२
მ
.२२२
a २२२ स्थानविकल्पाः २ पुनः प्रवि १६४२ फ-स्था १६ वि १६४०.२२२२ ।
a
a
-
-१
२२२२
लब्धस्थानविकल्पाः ० २ अंतधणं २२२२२ गुणगुणियं २२२२२२ आदि २ विहोणं
a
a
a
a
३१
२३१ ऊतरभजियं इतीदं सर्वयोगस्थान विकल्प प्रमाणं भवति २१ इदं पुनः रूपोनगुणेन हृतं गुणितं
a
a
३१
० २३११ प्रभवेन भाजितं २२ सैकं ३२ यतिकृत्वो गुणभक्तं ३२ रूपं स्यात् तति भवेत् गच्छ
aaa
२२२२२
क्रमसे एक, दो, चार, आठ, सोलह और बत्तीस गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना जानना । यहाँ फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर जगतश्रेणिके असंख्यातबै भागको
१. व. स्वातं तावान् यावतो वारान् १ ति भ. ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका
पादने मुंदे व्याख्यानदोळ बरेयल्पट्टपुदिदरभिप्रायमेने 'दोडे जघन्ययोगस्थानद a मेले तावन्मात्रं
पच्चि
द्विगुणस्थानं पुट्टिद कारणं प्रथमत्रैराशिकदोळ
इनितु पेकिच मिच्छाराशिये दरि
२ मेले अनिते ३२
बुदु । इदर प्रथमांतराळद योगविकल्पंगळु बंदवु मर्त द्विगुणस्थानद पेच्चिचतुर्गुणस्थानं । २ । २ पुट्टिद कारणं द्वितीयत्रैराशिक दल्लि २ इदु इच्छाराशि। यिदर द्वितीयांतराल विकल्पंगळ बंदुवु मत्तं मुंदे इदे क्रममेंदु भाविसिको बुबु ||
ई जघन्ययोगस्थानं मोल्गो डु सर्वोत्कृष्टयोगस्थानपर्यन्तमिद्दं समस्तयोगस्थानविकल्पंगळु तर पडुगुम ते दोर्ड जघन्ययोगस्थानं मोदमोंडु सवृद्धिकस्थानंगळ नडेदावुदो देडेयोल जघन्ययोस्थानं द्विगुणमक्कुमल्लिगेनितु स्थानविकल्पंगळक्कुमेंदोडे त्रैराशिकं माल्वडुगुं । इनितविभागप्रतिच्छेदंगल पच्चिदोडों दु स्थानविकल्पमक्कु मागळे नित विभागप्रतिच्छेदंगल पच्चिदल्लिगेनितु स्थानविकल्पंगळपुर्व दितनुपात त्रैराशिकमं साडि प्र फसा १ इ । लब्धस्थानविकल्पंगळ १०
=
1
a
इत्यन्योन्यान्यस्तगुणकारशलाकाः स्युः । जघन्यात् आ उत्कृष्टं सर्वयोगस्थानविकल्पेषु यत्र यत्र जघन्यं द्विगुणं द्विगुणं स्वात् तत्र तत्र कति कति विकल्पाः स्युः ? इति चेत् उच्यंते - एतावदविभागप्रतिच्छेदवृद्धी एको विकल्पः तदा एतावद्वृद्धौ कति इति प्र व वि १६४२ फस्या १ इव वि १६४ -1 लब्धाः स्थान
a
a
३३९
सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसको अनुक्रमसे एक, दो, चार आठ और सोलह से गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने स्थानभेद होते हैं ।
-
यहाँ अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा सोलह पर्यन्त ही गुणकार कहा है । इनका जोड़ देते हैं'अंधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूउणुत्तरभजियं' इस गणित सूत्र के अनुसार अन्तका धन जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उससे सोलह गुना है । उसको गुणकार दोसे गुणा करें। उसमें आदिका प्रमाण, जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग में सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे भाग दें उतना है । उसको २० घटानेपर जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करके इकतीस से गुणा करें, उतना होता है । तथा एक हीन उत्तर एक, उससे भाग देनेपर भी इतना ही रहा । सो इतना सब योगस्थानोंके भेड़ोंका प्रमाण है । उसको एक होन गुणकार एकसे भाग देने पर भी इतना ही रहा । उसको आदिसे भाग देनेपर लब्ध इकतीस आया । उसमें एक मिलानेपर बत्तीस हुए। सो जितनी बार गुणकार दोका भाग देनेवर एक रहता २५ है उतना गच्छ जानना । सो पाँच बार दोका भाग बत्तीस में देनेपर एक रहता है अतः अन्योन्याभ्यस्त राशिकी गुणकार शलाका पाँच है । पाँच जगह दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण बत्तीस आता है ।
इसी प्रकार जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त सब योग स्थानोंके जघन्य भेदों में जघन्य योगस्थान जहाँ-जहाँ दूना होता है वहाँ-वहाँ योगस्थानोंके कितने भेद होते ३० हैं सो कहते हैं
१५
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३४०
गो० कर्मकाण्डे
नितप्पुवु -।१ मत्तं प्र व वि १६ । ४ । २ फ स्था १ इव वि १६ । ४ । लब्धस्थानविक
२
ल्पंगळु -२ मत्तं प्र व वि १६ । ४ । २। प स्या १ इव वि १६ । ४ ।-२२ लब्धस्थानविकल्पं.
गलु ०२ । २२ मत्तं प्र व वि १६ । ४।२। फ स्था १ । इ । व वि १६ । ४।-२२२ लब्धस्थान
विकल्पंगळ ० २ २२२ । यितु स्थानविकल्पंगळु द्विगुणद्विगुणवृद्धिस्थानंगळंतराळंगळोळु द्विगुणद्विगुणंगकागुत्तं पोगि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानदोळु र्पोच्चद पेढुंगेयनिच्छाराशियं माडिद त्रैराशिक दल्लि प्र व वि १६ । ४२। फ स्या १। इ। व वि १६ । ४ । । छे २ । लब्धस्थानविकल्पंगळ
। २ छे एतावन्मानंग 3 पुत्री घरमस्थाजविकल्पंगळनन्तधणं गुणगुणियं -छे२ } आदि२
२०२
विहीणं -छे
रूऊणुत्तरभजियम देकरूपदिदं भागिसिद राशि तावन्मात्रर्मयवकुमी सर्वयोग
apa
विकल्पाः एतावंतः । २१ पुनः प्र- व वि १६ ४ २ फ-स्था १ । इ व वि १६४-२ लब्धस्थानविकल्पा
a
१०
एतावंतः । २ पुनः प्र-व वि १६ ४ २ फ-स्था १ इ व वि १६ ४-२२ । लब्धाःस्थानविकल्पाः एतायंतः
० २ २ २ पुनःप्र-त्र वि १६ ४ २ । फ-स्था १। इ व वि १६ ४-२२२। लब्धाःस्थानविकल्पाः
एतावंतः३२२२२ एवं गत्वा सर्वोत्कृष्टयोगस्थाने इच्छाराशी कृते प्र-ब वि १६४२फ-स्था १ इव वि
१६ ४ -छे लब्धस्थानविकल्पाः एतावंतः-२ छे एते च अंतधणं गुणगुणियं । २ छे २ आदिविहीणं aas aaa
aa?
प्रमाण फल और इच्छाराशि क्रमसे पूर्वोक्त प्रमाण जानना। इतना ही विशेष है कि १५ यह कथन अंक संदृष्टिकी अपेक्षा न होकर यथार्थ अपेक्षा है। अतः पूर्व में जैसे अन्तधनमें
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
३४१ स्थान विकल्पंगळगे नानागुणहानिशलाकेगळरियल्पडवदु कारणमागि तत्तदन्तराळस्थानंगळ द्विगुणद्विगुणकर्मादिदमेनितु स्थानंगळं नडेववे बि नानागुणहा निशलाकेगळु गच्छमक्कुमठु तरहपत्तिदे रूपोन गुणेन हतं गुणिशतं प्रभवे भाजितं सैकं । यतिकृत्वो गुणभक्तं रूपं स्यात्तति भवेद्गच्छं ॥ एंदित करणसूत्राभिप्रायदिदं नानागुणहानिशलाकेगळे नितप्पुवेंदोडे केळवेळवर्पे :रूपोनगुणेन द्विगुणगुणसंकलनविधानमप्पुदरिदं गुणकारमेरडरोळोंदु रूपं कळेदोडों दे ५
रूपम कुमदरिदं हतंगुणितं गुणिसल्पट्ट धनरूपसर्व्वस्थानविकल्पंगळं
प्रभा में बुदा दियस्थानत्रिकल्पंगळवरंद भागिसल्पट्ट राशियं २छे अपवत्ततमि
a
9
२छे प्रभवेण भाजितं
a a
aaa २ მ
a
एकरूपं कूडिदुदं छे यतिकृत्वः वारे कृत्व... एंदु यावतो वारान् यतिकृत्वः एनितु वारंगळनु गुण
a
a
भक्त रूपं गुणकारभूतद्विकदिदमी यन्योन्याभ्यस्तराशियं छेदासंख्यातैकभागमात्रराशियं भागिसिद वारंगळ रूपं तति तावत्प्रमितं गच्छं स्यात् गच्छमक्कुमेदितु तिथ्यं ग्रूपददं नानागुणहानिशलाकेगळ १० असंख्यातरूपही नपल्यत्र शलाका प्रमितमप्पु । । वेकेंदोडे छेदराशिय अर्द्धच्छेदंगलप्प वर्गशलाhi द्विकमनि संवर्गमं माडुत्तिरलु पल्यच्छेदराशि पुट्टुगं । विरलनराशोदो पुण जेत्तियमेत्ताणि वाणि । तेस अण्णष्णहदी हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ एंदा वर्गशलाकेय होनरूपुगळऽसंख्या
3
सैकं
G-D
2
-२ छे रुऊगुत्तरभजियं इति सर्वयोगस्थानविकल्पाः स्युः । त एव पुन । रूपोनगुणेन एकेन हताः २ छे १
aaa
a a
प्रभवेन आदिस्थानविकल्पैर्भाजिताः ३२ छे १२ अवर्तिताः छे १ एकरूपसहिताः छे यावतो वारान् गुणेन
a
a
aa-a a
द्विकात्मकेन भक्ताः संतो रूपं जायंते ते वाराः तिर्यग्रूपेण नानागुणहानिशलाकाः स्युः । ताश्च असंख्यातरूपैर्हीन,
सोलका गुणकार कहा, वैसे ही यहाँ क्रमसे दूना-दूना पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागका आधा प्रमाण मात्र गुणकार जानना । सो 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्रके अनुसार जोड़ने पर सब योगस्थानोंके भेदोंका प्रमाण होता है । उसको एक हीन गुणकार से गुणा करके आदिस्थानसे भाग दें, एक मिलानेपर पल्यके अर्धच्छेदोंका असंख्यातवाँ भाग २० होता है । उसमें जितनी बार गुणकार दोसे भाग देनेपर एक रहे उतनी नाना गुणहानि शलाका है । सो असंख्यात हीन पल्की वर्गशलाका प्रमाण जानना । क्योंकि पल्यकी वर्गशलाका प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर पल्य के अर्द्धच्छेद मात्र प्रमाण होता है । और उसमें घटाये असंख्यात । उतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर असंख्यात का
१५
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३४२
गो० कर्मकाण्डे
तंगळं विक्रिति रूपंप्रति द्विकम कोट्टु वग्गितसंवर्गागं माडुत्तिरलावुदो दु लब्धराशियदुवुम संख्यातमैयक्कुमा राशि छेदराशिगे हारमक्कुमप्युर्दारदम संख्यातरूपहीन वर्गशलाकेगळे नानागुणहानिशलाकेगळिलिग बेडु निर्बाधबोधविषयमक्कुमी सर्वयोगस्थानंगळोळगे पदिनाकुं जीवसमासंगळ उपपादयोगएकातानुवृद्धियोग परिणामयोग में बी योगत्रयंगळ जघन्योत्कृष्टविषयंगळ ५ ८४ भत्तनालकुं पदंगळदमल्पबहुत्वमं गायानवकदिदं पेळदपरु :
एतेषां स्थानानां जीवसमासानामवरवरविषयं । चतुरशीतिपदैरल्पबहुत्वं प्ररूपयामः ॥ ई पेळल्पट्ट् सर्व्वयोगस्थानविकल्पंगळ जीवसमासेगळ जघन्योत्कृष्टविषयमं च शब्ददिदमु१० पपादयोगमेकान्तानुवृधियोग परिणामयोग में ब योगत्रयमनाश्रयिसि चतुरशीतिपदंगळदमलपबहुत्वमं वेळ मेंदु पेळपक्रमिसि सुंदण सूत्रमं पेदपरु :
१५
२०
देसि ठाणाणं जीवसमासाण अवरवरविषयं । चउरासीदिपदेहिं अप्पा बहुगं परूवेमो ।। २३२ ॥
३०
सुमगलद्धि जहणं तण्णिव्वत्ती जहण्णयं तत्तो । लद्धियपुण्णुक्कस्सं चादरलद्धिस्स अवरमदो || २३३॥
:
सूक्ष्मल त्रिजघन्यं तन्निर्वृतेज्जं चन्यकं ततः । लब्ध्यपूर्वोत्कृष्टं बादरलब्धेर वरमतः ॥ इल्लि एकेंद्रिय सूक्ष्मबादरद्वींद्रियत्रींद्रिय चतुरिद्रिय असंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेद्रिथंगळगे संदृष्टि पत्यवर्गशलाका माग्यो भवंति व कुतः पत्यवर्गशलाकाप्रमितद्विक संवर्गोत्पन्नपत्यच्छेद राशेर्हीन रूपासंख्यातमात्र द्विक संवर्गोत्पन्नासंख्यातस्य हारत्वसंभवात् || २३१|| अयानंतरं अभिधेयस्य प्रतिज्ञासूत्रमाह -
एतेषामुतयोगस्यानानां मध्ये चतुर्दशजीवसमासानां जघन्योत्कृष्टविषयमल्यबहुत्वं चशब्दात् उपपादादि - योगत्रयमाश्रित्य चतुरशीतिपदेः प्ररूपयामः ॥ २३२॥ तद्यया -
अत्र सूक्ष्मवाद केंद्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियाणां संदृष्टिः
भागदार होता है। आशय यह है कि असंख्यातहीन पल्की वर्गशलाकाका जो प्रमाण है उतनी बार जघन्य योगस्थान दूना होनेपर उत्कृष्ट योगस्थान होता है । इससे इसको नाना गुणहानि शलाका कहा है। इस नाना गुगहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर पल्यके अर्द्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागमात्र अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है । उससे २५ जघन्यको गुणा करनेपर उत्कृष्ट योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण होता है । इस तरह योगस्थानोंका प्रमाण होता है || २३१||
आगे कथन की प्रतिज्ञा करते हैं
ऊपर, कहे इन योगस्थानोंमें चौदह जोत्र समासों के जघन्य उत्कृष्टकी अपेक्षा और 'च' शब्द उपपाद आदि तीन योगोंकी अपेक्षा चौरासी पदोंके द्वारा अल्पबहुत्व कहते हैं ||२३२|| यहाँ सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियकी संदृष्टि इस प्रकार जानना
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02.11
०१
सू.
०१
कर्णावति जीवतत्व प्रदीपिका
बि ति
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वा.
०१
58
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०
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वा वि ति ०१ ०१ ०२ ०३
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०३ ०४
०
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०
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०
सूक्ष्मलब्धिजघन्यं सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्त केंद्रिय जीवनुपपाद जघन्ययोगस्थानं सव्वतः स्तोमक्कु १ मदं नोडल तन्निवृत्तेर्जघन्यकं आ सूक्ष्मनिगोदनिर्वृत्यपर्थ्याप्तजीव जघन्योपपादयोगस्थानं पत्या संख्यातैकभागगुणितमक्कुं |२| ततः तस्मात् अदं नोडलु लब्द्ध्यपूर्णात्कृष्टं सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तजीवोत्कृष्टोपपादयोगस्थानं पल्यासंख्यातैकभागगुणितमवकुं |३| अतः अदं नोडलु बावरलब्धेरवरं बादरलब्ध्यपर्याप्त जो वोपपादजघन्ययोगस्थानं पल्यासंख्यातैकभागगुणितमक्कु |४|
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सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्यातकस्य उपपादजघन्यं स्थानं सर्वतः स्तोकं १ । ततः तन्निर्वृत्त्यपर्याप्तजघन्यं पल्या संख्यातगुणं २ । ततः सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तस्य तदुत्कृष्टं पल्यासंख्यातगुणं ३ । ततः बादलब्ध्यपर्याप्तस्य तज्जघन्यं पल्यासंख्यातगुणं ॥४॥२३३॥
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०
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सूक्ष्म नगद लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान सबसे थोड़ा है |१| उससे सूक्ष्म निगोद निर्वृत्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान पल्यका असंख्यातवाँ भाग गुणा १० है। अर्थात् पल्य के असंख्यात भागों में से एक भागके द्वारा पूर्व योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदों को गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने अविभाग प्रतिच्छेद दूसरे स्थान में हैं । ऐसे ही आगे भी समझ लेना २ । उससे सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्के असंख्यात भागगुणा है ३ । उससे बादर लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान पल्य के असंख्यातवें भाग गुणा है ४ ॥२३३॥
१५
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३४४
गो० कर्मकाण्डे णिव्वत्तिसुहुमजेडं बादरणिव्यत्तियस्स अपरं तु ।
बादरलद्धिस्स बरं बीइंदियलद्धिगजहण्णं ॥२३४॥ निवृत्तिसूक्ष्मोत्कृष्टं बादरनिवृत्तेरवरं तु । बादरलब्धेवरं द्वौद्रियल ब्धिजघन्यं ॥
निर्वृत्तिसूक्ष्मोत्कृष्टं आ बादरलब्ध्यपर्याप्तजीवजघन्योपपादयोगस्थानमं नोडलु निवृत्य. ५ पर्याप्तसूक्ष्मजीवोत्कृष्टोपपादयोगस्थानं पल्यासंख्यातक भागगुणितमक्कू ५। तु पुनः मत्तमदं नोउलु
बादरनिर्वृत्तेरवरं बादरनिर्वृत्यपर्याप्तजीवजघन्योपपादयोगस्थानं पल्यासंख्यातेकभागगुणितमक्कु ।६। मदं नोडलु बादरलब्धेर्वरं बादरलब्ध्यपर्याप्त जीवोपपादयोगोत्कृष्टस्थानं पल्यासंख्यातयिकभागगुणितमक्कु ।७। मदं नोडलु द्वींद्रियलब्धेजघन्यम् (द्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवोपपावजयत्ययोगस्थानं पल्यासंख्यातेकभागगुणितमक्कुं ।८॥
बादरणिव्वत्तिवरं णिव्वत्तिबिइंदियस्स अवरमदो।
एवं वितिवितितिचतिच चउविमणो होदि चउविमणो ॥२३५।। बादरनिर्वृत्तिवरं निवृत्तिद्वींद्रियस्याऽवरं अवरः। एवं द्वित्रिद्वित्रित्रिचतुश्चतुस्त्रिचतुर्दिधमनो भवति चतुर्दिवमनः॥
__आ द्वींद्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवजघन्योपपादयोगस्थानमं नोडलु बावरैकेंद्रियनिवृत्तिवरं १५ बादरैकेंद्रियनिवृत्यपर्याप्तजीवोपपादयोगोत्कृष्टस्थानं पल्यासंख्याकभागगुणितमक्कु ।९॥ मतः
अवं नोडलु द्वींद्रियनिवत्तरवरं निर्वृत्यपर्याप्तद्वींद्रियजीवोपपादजघन्ययोगस्थानं पल्यासंख्यातगुणित मक्कुं।१०। एवं ई प्रकारदिदं द्वित्रिलब्ध्यपर्याप्त द्वींद्रियत्रींद्रियजीवंगळ यथासंख्यमागि उत्कृष्ट. जघन्योपपादयोगस्थानंगळु पल्यासंख्यातेकभागगुणितक्रमंगळप्पुवु। उ। ज। अवं नोडलु द्वित्रि
११ १२
ततः सूक्ष्मनिवृत्त्यपर्याप्तस्य तदुत्कृष्टं पल्यासंख्यातगुणं ! ५ । तु-पुनः ततो बादरनिर्वृत्त्यपर्याप्तस्य २० तज्जघन्यं पल्यासंख्यातगुणं ६ । ततः बादरलब्ध्यपर्याप्तस्य तदुकृष्टं पल्यासंख्यातगुणं ७ । ततः द्वौद्रियलब्ध्यपर्याप्तस्य तज्जघन्यं पल्यासंख्यातगणं ॥८।। २३४।।
ततो बादरैकेंद्रियनिर्वृत्त्यपर्याप्तस्य तदुत्कृष्ट पल्यासंख्यातगुणं ९। अतः द्वींद्रियनित्यपर्याप्तस्य तज्जघन्यं पल्यासंख्यातगुणं १० । एवं लब्ध्यपर्याप्तद्वितींद्रिययोर्यथासंख्यं तदुत्कृष्टजघन्योपपादयोगस्याने
marrrrrrrrrrrrrrrउससे सूक्ष्म नित्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग २५ गुणा है ५ । उससे बादर निर्वृत्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें
भाग गुणा है ६। उससे बादर लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गुणा है ७। उससे दो इन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गणा है ८॥२३४।।
उससे बादर एकेन्द्रिय निवृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें ३० भाग गुणा है ९। उससे दो इन्द्रिय निवृत्यपर्याप्त कका जघन्य उपपाद योगस्थान पल्यके
असंख्यातवें भाग गुणा है. १०। इसी प्रकार उससे दो इन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट और
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका नित्यपर्याप्तद्वीवियत्रोंद्रियजोवंगळ यथासंख्यमागि उत्कृष्ट जघन्योपपादयोगंग पल्या ख्यातकभागगुणितंगळप्पुवु उ । ज अवं नोडलु त्रिच तुः लध्यपतित्रोंद्रियव रिद्रियजोबंगळ यथासंध्य.
१३।१४ मागि उत्कृष्टजघन्योपपादयोगस्यानंगळु पल्यासंख्यातकभागगुपितंगठप्पुवु उ । ज त्रिचः मत्तं निर्वृत्यपर्याप्तत्रोंद्रियचतुरिद्रियजीवंगळ यथासंख्यमागि उत्कृष्ट जवन्योपपादयोगस्थानंग पल्यासंख्यातेकभागगुणितक्रमंगळप्पुवु उ । ज चतुर्दिवमनः मत्तमंते लब्ध्यपर्याप्तचतुरिंद्रिय असंज्ञि- ५
१७।१८ पंचेद्रियजीवंग : ययासंख्यमागि उत्कृष्टजयन्योपपादयोगस्थानंगळु पल्यासंख्यातकभागगुणितक्रमगळप्पुवु । १९ । २० । अवं नोडलु मत्तमंते चतुधिमनः निर्वृत्यपर्याप्तवतुरिंद्रिय असंक्षिपंचेद्रियजीवंगळ यथाक्रमदिंदमुपपादयोगोत्कृष्ट जघन्यस्थानंगळु पल्यासंख्यातकभानगुगितक्रमंगळप्पुवु । २१॥ २२॥
तह य असण्णी सण्णी असण्णिसण्णिस्स सण्णिउववाद।
सुहुमेइंदियलद्धिग अवरं एयंतवढिस्स ।।२३६॥ तथा चासंज्ञिसंज्यसंज्ञिसंजिन संध्युपपादः । सूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्यवरमेकांतवृद्धः॥
तथा च आ प्रकारदिदमसंज्ञिसंज्ञि असंजिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवंगळ यथा. क्रमदिदमुपपादयोगोत्कृष्टस्थानमुं जघन्यस्थानमुं पल्यासंख्यातेक भागगुणितक्रगंगळप्पुवु । २३३२४ ॥ मत्तमंते असंज्ञिसंजिनां निवृत्यपर्याप्तासंज्ञिसंज्ञिजीवंगळ यथाक्रमदिदमुपपादयोगोत्कृष्टस्थानमुं १५ पल्यासंख्यातगुणे भवतः । ११ । १२ । ततः निर्वृत्त्यपर्याप्तद्वितींद्रिययोर्यथासंख्यं तदुत्कृष्ट जघन्ये पल्यासंख्यातगुणे । १३ । १४ । ततः लमध्यपर्याप्तत्रिचतुरिंद्रिययोर्यथासंख्यं तदुत्कृष्टजघन्ये पल्यासंख्यातगुणे । १५ । १६ । पुनः निर्वृत्त्यपर्याप्तत्रिचतुरिंद्रिययोर्यथासंख्यं तदुत्कृष्टजघन्ये पल्यासंख्यातगुणे । १७ । १८ । तथा लब्ध्यार्याप्तचतुरसंज्ञिपंचेंद्रिययोर्यथासंख्यं तदुत्कृष्ट गधन्ये पल्यासंख्यातगुणे । १९ । २० । ततः निवृत्त्यपर्याप्तचतुरसंज्ञिपंचेंद्रिययोयथाक्रमं तदुत्कृष्ट जघन्ये पल्यासंख्यातगुणे । २१ । २२ ॥२३५ ॥२३६ ॥
तथा च असंज्ञिसंज्ञिलब्ध्यपर्याप्तयोर्यथाक्रमं तदुत्कृष्टजघन्ये पल्यासंख्यातगुणे २३ । २४ । पुनस्तथा तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग पल्य के असंख्यावें भाग गुणे हैं। ११।१२। उससे नित्यपर्याप्त दो-इन्द्रियका उत्कृष्ट और निवृत्यपर्याप्त तेइन्द्रियका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।१३।१४। उससे लब्ध्यपर्याप्त तेइन्द्रियका उत्कृष्ट और लब्ध्यपर्याप्त चौइन्द्रियका जघन्य उपपाद योग- २५ स्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।१५।१६। उससे निवृत्यपर्याप्त तेइन्द्रियका . उत्कृष्ट और नित्यपर्याप्त चौइन्द्रियका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।१७।१८। उससे लब्ध्यपर्याप्तक चौइन्द्रियका उत्कृष्ट और लब्ध्यपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।१९।२०। उससे निवृत्यपर्याप्त चौइन्द्रियका उत्कृष्ट और निवृत्यपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियका जघन्य उपपाद ३०
योगस्थान क्रमसे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।।२१।२२।।२३५।। उससे असंज्ञी लब्ध्यJain Education Interin४४
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स्थूलस्थूले च ॥
गो० कर्मकाण्डे जघन्यस्थानमुं पल्यासंख्यातकभागगुणितक्रमंगळप्पुवु । २५ । २६ ॥ आ पूर्वमं नोडलु संज्युपपादं लब्ध्यपर्याप्रसंज्ञिपंचेंद्रियजीवोत्कृष्टोपपादयोगस्थानं पल्यासंख्यातेकभागगुणितमक्कु । २७ । मदं नोडलु सूक्ष्मैकेद्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवजघन्यमेकान्तानुवृद्धियोगस्थानं पल्यासंख्यातैकभागगुणितमक्कु । २८ ॥ मदं नोडलु :
मण्णिासुववादवरं णिव्यत्तिगदस्स सुहुमजीवस्स ।
एयंतवाड्ढि अवरं लद्धिदरे थूलथूले य ॥२३७॥ संजिन उपपादवरं निर्वृत्तिगतस्य सूक्ष्मजीवस्य । एकान्तानुवृद्धिजघन्यं लब्धीतरस्मिन्
संज्ञिनः उपपादबरं निवृत्तिगतस्य संजिनिवृत्यपर्याप्तजीवोपपादयोगोत्कृष्ट स्थानं पल्यासंख्यातेकभामगुणितमा । २९ ॥ अदं नोडलु सुहुमजीवस्स सूक्ष्मनिर्वृत्यपर्याप्तजीवन एकान्तानुवृद्धिजघन्यं एकान्तानुवृद्धियोगजघन्यस्थानं पल्यासंख्यातेकभागगुणितमक्कु । ३०॥ मदं नोडलु लब्धीतरस्मिन् लब्ध्यपर्याप्त नित्यपर्याप्त जीवे स्थूलस्थूले च बादरदोळं बादरदोळं एने बुदर्थमेंदोडे बादरलब्ध्यपर्याप्तजीवजधन्यकांतानुवृद्धियोगमुं निवृत्यपर्याप्तबादरैकेद्रियजघन्यैकान्तानुवृद्धियोगस्थानमुं पल्यासंख्यातेकभागवृद्धिक्रमंगळे बुदत्यं । ३१ । ३२॥
तह सुहुम-सहुम-जेट्ठ तो बादरबादरे वरं होदि ।
अंतरमवरं लद्धिगसुहुमिदरवरपि परिणामे ॥२३८।। तथा सूक्ष्मसूक्ष्मज्येष्ठं ततो बादरबादरे वरं भवति । अंतरमवरं लब्धिगसूक्ष्मेतरमपि परिणामे ॥
असंज्ञिसंज्ञिनिवृत्त्वपर्याप्तयोर्यथाक्रमं तदुत्कृष्टजघन्ये पल्यासंख्यातगुणे । २५ । २६ । ततः लब्ध्यपर्याप्तसंज्ञिनस्त२० दुत्कृष्टं पल्यासंख्यातगुणं २७ । ततः सूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्याप्तिस्य एकांतानुवृद्धिजघन्यं पल्यासंख्यातगुणं ।२८
ततः--
___संज्ञिनिर्वृत्त्यपर्याप्तस्योपपादोत्कृष्टं पल्यासंख्यातगुणं २९ । ततः सूक्ष्मकेंद्रियनिवृत्यार्याप्तस्य एकांतानुवृद्धिजघन्यं पल्यासंख्यातगुणं ३० । ततः बादरै केन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्तयोरेकांतानुवृद्धि जघन्ये पल्या
संख्यातगुणितक्रमे । ३१ । ३२ ॥२३७॥ २५ पर्याप्तकका उत्कृष्ट और संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्यके
असंख्यातवें भाग गणे हैं :२३।२४। उससे असंज्ञी निवृत्यपर्याप्तका उत्कृष्ट और संज्ञी निवृत्यपर्याप्तका जघन्य उपपाद योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।।२५।२६। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग
गुणा है ।२७। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान पल्य३० के असंख्यातवें भाग गुणा है ।२८ ॥२३॥
उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निवृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गुणा है । २९ । उससे मूक्ष्म एकेन्द्रिय निवृत्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान पल्य के असंख्यातवें भाग राणा है । ३०। उससे बादर एकेन्द्रिय लमध्यपर्यापक और
बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका जयन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रमसे पल्यके ३५ असंख्यातवें भाग गणे हैं ।३१।३२।।२३७।।
___
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३४७
तथा नित्यपबाद रैकेंद्रियजघन्यैकान्तानुवृद्धियोगमं नोडल सूक्ष्मसूक्ष्मज्येष्ठम् सूक्ष्मलब्ध्यपर्थ्याप्त जीवोत्कृष्ट कान्तानुवृद्धियोगस्थानमुं निवृत्यपर्य्याप्तसूक्ष्मैकेंद्रिय जीवोत्कृष्टै कान्तानुवृद्धियोगस्थान त्यासंख्यातैकभागगुणितक्रमंगळवु । ३३ । ३४ ॥ ततः अदं नोडलुं बादरबादरे वरं भवति लब्ध्यपर्य्याप्त बाद रैकेंद्रिय जीवोत्कृष्टै कान्तानुवृद्धियोगस्थानमुं निर्वृत्यपर्य्याप्तबादरेकेंद्रियजीवोत्कृष्टैकान्तानुवृद्धियोगस्थानमुं पल्यासंख्यातैकभागगुणितक्र मंगळप्पुवु । ३५ । ३६ ॥ अनंतरं बळिक्कमंतर में 'बुदा कुमन्तर में बुदेने 'दोडे निर्वृत्यपर्याप्तबाद रैकेंद्रिय जीवोत्कृष्टै कान्तानुवृद्धियोगस्थानद सूक्ष्मलब्ध्यपर्य्याप्तजीवपरिणामयोगस्थानद अन्तराळदोळु श्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रयोगस्थानंगळु निःस्वामिकंगळांतरमेव व्यपदेशमक्कुमा प्रथमांतरमनतिक्रमिसि अवरं लब्धसूक्ष्मतरवरमपि परिणामे लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मबादरंगळ परिणामे परिणामयोगदोळु जघन्यस्थानंगळुमा सूक्ष्मेतरलब्ध्यपर्थ्यामजीचंगळ परिणामयोगोत्कृष्टस्थानंगछु मिन्तु नाल्कुं स्थानंगळं पल्या संख्या - १० तैकभागगुणितक्रमंगळवु । ३७ । ३८ । ३९ ॥ ४० ॥
अंतरवरी पुणो ण्णाणं च उवरि अंतरियं ।
एयंत वड्ढिठाणा तसपणलद्धिस्स अवरवरा || २३९||
अंतरमुपयपि पुनस्तत्पूर्णानां चोपय्र्यंतरितमेकान्तानुवृद्धिस्थानानि त्रसपंचलब्धेरवरवराणि ॥
तथा सूक्ष्मैकेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तनिवृत्यपर्याप्तयोः एकांतानुवृद्धयुत्कुष्टे पल्या संख्यातगुणक्रमे ३३ । ३४ ॥ ततः बाद केंद्रियलब्ध्यपर्याप्तनिर्वृत्य पर्याप्तयोरेकांतानुवृद्धयुत्कृष्टे पल्यासंख्यातगुणितक्रमे । ३५ । ३६ । ततः अंतरमिति बादरैकेंद्रियनिवृत्त्यपर्याप्त कांतानुवृद्ध युत्कृष्टसूक्ष्मै केंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तपरिणामयोगजघन्ययोरंतराले श्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रयोगस्थानानि निःस्वामिकानि तानि चातीत्य सूक्ष्मबादरलब्ध्यपर्याप्तयोः परिणामयोगस्य जघन्योत्कृष्ट नि पल्यासंख्यातगुणक्रमाणि ।। ३७ । ३८ । ३९ । ४० ॥२३८ ॥
५
१५
उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ३३ । ३४ । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ३५/३६ । उसके पश्चात् अन्तर है । अर्थात् बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्य- २५ पर्याप्त के जघन्य परिणाम योगस्थानके मध्य में जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग योगस्थान ऐसे हैं जिनका कोई स्वामी नहीं है। ये योगस्थान किसी जीवके नहीं पाये जाते। इससे यह अन्तर पड़ा है । इन स्थानोंको उलंघकर या छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान अनुक्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । यहाँ सूक्ष्मका जघन्य, बादरका जघन्य, सूक्ष्नका उत्कृष्ट, बादरका उत्कृष्ट ३० यह क्रम लेना । ३७|३८|३९|४०| ऐसे ही आगे भी जानना || २३८||
२.
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गो० कर्मकाण्डे
अंतरं तद्बाद रैकेंद्रियलब्ध्यपर्थ्यामजीवपरिणामयोगोत्कृष्टस्थानद सूक्ष्मपर्याप्तजीवपरि णामयोग जघन्य स्थानद द्वितीयांत रगतश्रेण्यसंख्यातैकभागमात्रयोगस्थानविकल्पंगळनतिक्रमिसि उपर्य्यपि पुनः मेलेयुं मत्ते तत्पूर्णानां च आ सूक्ष्मैकेंद्रियपय्र्याप्तजीवंगळ बादरैकेंद्रिय पर्य्याप्त जो दंगळ जघन्यपरिणाम योगस्थानंगमा सूक्ष्मबादरपर्याप्तजीवंगळ परिणामयोगोत्कृष्टस्थानंगलु भिन्तु ५ नालकुं स्थानंगळ पल्यासंख्यातैकभागगुणितक्रमंगळवु । ४१ । ४२ । ४३ । ४४ ।। उपध्यंतरितं मेले तृतीयांत रगतश्रेण्यसंख्या तक भागस्थानं गळनंत रिसल्पटुतपुर्व त्रसपंचलब्धेः द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरंद्रिय पंचेद्रियासंज्ञि पंचेद्रियसंज्ञि लब्ध्यपर्य्याप्तजीवंगळ एकान्तानुवृद्धियोग जघन्यस्थानंगलुमय्तु मवरुत्कृष्टस्थानगळु मय्दुमिन्तु १० पत्तुं स्थानंगळु पल्यासंख्यातैकभागगुणितक्रमंगळ । ४५ । ४६ । ४७ । ४८ । ४९ । ५० । ५१ । ५२ । ५३ ॥ ५४ ॥
लद्धीणिव्वत्तीणं परिणामेयंत वड्ढिठाणाओ ।
परिणामट्ठाणाओ अंतरियंतरिय उवरुवरिं || २४०॥
लब्धिनिर्वृत्तीनां परिणामेकान्तवृद्धिस्थानानि परिणामस्थानानि च अंतरियांतरित्वो - पर्युपरि ॥
मत्तमा संज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तजी वैकान्तानुवृधियोगोत्कृष्टस्थानद द्वींद्रियलब्ध्यपयति१५ जीवपरिणामयोगजघन्यस्थानव चतुर्थांतरगतश्रेण्यसंख्या तक भागस्थान विकल्पंगळनतिक्रमिति लब्ध्यपर्याप्त द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रिय असज्ञिपंचेंद्रिय संज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळ जघन्यपरिणामयोग
१०
३४८
तत उपरि श्रेण्यसंख्या तकभागमात्रयोगस्थानानि द्वितीयमंतरं । तदतीत्य पुनः तत्सूक्ष्मवादरे केंद्रियापर्यातयोः परिणामयोगस्य जघन्योत्कृष्टानि पत्या संख्यातगुणक्रमाणि ४१ । ४२ । ४३ । ४४ । उपरि तृतीयांतर श्रेण्यसंख्यातैकभागस्थानान्यतीत्य द्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तानामे कांतानुवृद्धेर्जघन्योत्कृष्टानि दशपल्या२० संख्यातगुणक्रमाणि ४५ । ४६ । ४७ । ४८ । ४९ । ५० । ५१ । ५२ । ५३ । ५४ ॥२३२॥
( पुनः तत्संज्ञिलब्ध्यपर्याप्त कांतानुवृद्धियोगोत्कृष्टद्वींद्रिय लब्ध्यपर्याप्तत्रिणामयोगजघन्ययोरंतरगतं )
२५
इसके बाद दूसर अन्तर है अर्थात् बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानके पश्चात जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान ऐसे हैं जिनका कोई स्वामी नहीं है । अतः इनको छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान ये चार अनुक्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ४१ | ४२|४३|४४ | उसके ऊपर तीसरा अन्तर है अर्थात् बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानके पश्चात् जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग योगस्थान ऐसे हैं जिनका कोई स्वामी नहीं हैं । उनको छोड़कर दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तके जघन्य और उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान ये दस अनुक्रमसे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं ४५ ४६ ४७ ४८ | ४९/५०/५१/५२/५३/५४ ।। २३९ ।।
इसके पश्चात् चौथा अन्तर है । अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थानके पश्चात् जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग योगस्थानोंका कोई स्वामी नहीं १. कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति ब प्रतौ ।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
स्थानं गळfg मरुत्कृष्ट परिणामयोगस्थानंगल मिन्तु पत्तुं स्थानंगळं पल्यासंख्यातैकभागगुणितक्रमंगळवु । ५५/५६/५७/५८/५९/६०/६१/६२/६३/६४ | मत्तमा लब्ध्यपर्याप्त संज्ञिपचेंद्रियजीव परिणाम योगोत्कृष्टस्थानद निर्वृत्यपर्याप्तद्वींद्रियजी वैकान्तानुवृद्धियोगस्थानद पंचमांतरगतश्रेण्पसंख्यातैक भागस्थानं गळनतिक्रमिसि निर्वृत्यपर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय असंज्ञिपंचेंद्रिय संज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळ एकान्तानुवृद्धियोगजघन्यस्थानं गळय्दुमवरुत्कृष्टैकान्तानुवृद्धियोगस्थानंगमयिदुमन्तु पत्तुं स्थानंग प्रत्येक पत्या संख्यातैकभाग गुणितक्र मंगळवु । ६५/६६/६७।६८/६९।७० ७१ । ७२ । ७३ । ७४ ॥ मत्तमा संज्ञिपंचेंद्रिय निर्वृत्य पर्व्याप्तजी वैकान्तानुवृद्धियोगोत्कृष्टस्थानद पर्याप्तद्वींद्रियजीव परिणामयोगजघन्यस्थानद षष्ठान्तरगत श्रेण्य संख्यातैक भागस्थानं गळनतिक्रमिसि पर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रिय चतुरिद्रिय असंज्ञिपंचेंद्रिय संज्ञिपंचेंद्रिय जीवंगळ परिणामयोग जघन्यस्थानंग
विदुमवर परिणामयोगोत्कृष्टस्थानंगळयिदु मिन्तु पत्तुं स्थानंगळं प्रत्येकं पल्या संख्यातैकभागगुणितमंगळ । ७५ । ७६ । ७७ । ७८ । ७२ । ८० । ८१ । ८२ । ८३ । ८४ ।। किंतु यदिनाकुं जीवसमासंगळ उपपादयोगमुने कान्तानुवृद्धियोगमुं परिणामयोगमुमें ब त्रिविधयोगंगळ जघन्योत्कृष्ट विषयंगळप चतुरशीतियोगस्थानंगलगल्पबहुत्वं सूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवोपपाद योगजघन्यस्थानद अनंतरोक्तमूक्ष्मै केंद्रिय निर्वृत्यपर्य्याप्तजीवोपपादजघन्यस्थानं मोदगोंडु संज्ञिपंचे
३४९
५
१५
२०
पुनः चतुर्यातरं श्रेण्यसंख्यातैकभागस्यानान्यतीत्य द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तानां परिणामयोगस्य जघन्योत्कृष्टानि पत्यासंख्यतिकभागगुणितक्रमाणि ५५ । ५६ । ५७ । ५८ । ५९ । ६० । ६१ ।६२। ६३।६४ । पुन: ( तेल्लब्ध्यपर्यात संज्ञिपरिणामोत्कृष्ट निर्वृत्त्य पर्याप्त हींद्रिये कांतानुवृद्धियोगजघन्ययोरंतरगत ) श्रेण्यसंख्यातैकभागस्थानानि पंचमांतरमतीत्य द्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियनिर्वृत्त्य पर्याप्तानां एकांतातृवृद्धेर्जघन्योत्कृष्टानि पत्यासंख्यातैकभागगुणक्रमाणि । ६२ । ६६ । ६७ । ६८ । ६९ । ७० । ७१ । ७२ । ७३ । ७४ । पुनः ( तत्संज्ञिनिर्वृत्त्य पर्याप्त कांतानुवृद्धियोगोत्कृष्टपर्याप्तद्वीद्रियपरिणामयोगजघन्य यो रंगतरंगत ) श्रेण्यसंख्यातैकभागस्थानानि षष्ठांत रमतीत्य द्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तानां परिणामयोगस्य जघन्योत्कृष्टानि पल्यासंख्यातगुणक्रमाणि । ७५ । है । उनको छोड़कर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान ये दस अनुक्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ५५/५६/५७/५८/५९/६०/६१/६२/६३/६४ | इसके पश्चात् पाँचवाँ अन्तर है । अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानके पश्चात् जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग योगस्थान ऐसे हैं जिनका कोई स्वामी नहीं है । उनको छोड़कर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त कके जघन्य और उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान ये दस अनुक्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ६५ । ६६।६७|६८|६९/७०/७१/७२/७३।७४ | इसके पश्चात् छठा अन्तर है । अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थानके पश्चात् जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग ३० प्रमाण योगस्थान ऐसे हैं जिनका कोई स्वामी नहीं है । सो इनको छोड़कर दोइन्द्रिय, इन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त कके जघन्य और उत्कृष्ट
२५
१. . संख्या ।
२. - ३. कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति ब प्रतौ ।
१०
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३५०
गो० कर्मकाण्डे द्रियपर्याप्त जीब परिगामयोगोत्कृष्टस्थानपर्यंतं पल्यासंख्यालेकभागगुणितक्रमंगळेदु पेदनोगलु ग्रंथकारं मुंदण गाथासूत्रदिदं पेदपं ।
सिं ठाणाऔ एल्लासंखेज्जभागगुणिदकमा । हेडमगुणवाणिला अण्णोग्णभत्यमेत्तं तु ।।२४१।। एतेषां स्थानानि पल्यामख्यातकभागमुगितक्रमाणि। अधस्तनगुणहानिशलाकाः अन्योन्या. भ्यस्तमात्रं तु॥
ई पेलल्पट्ट चतुरशोति अपनत्वयोगस्थानंगळु पल्या संख्यातकभागणितकावंतागुत्तं विरलु सम्स्कृ ष्टयोगस्थानं गवाययोगस्थानमं नोडलु पल्यच्छेदासंख्याकमागमुगितमपुडु ।
आ जघन्योत्कृष्ट योगस्यानं अघत्तनगुणहानिशलाकेगछु कियत्प्रभितंगळवेंदोडे अन्न पेपट्ट १० असंख्यातरूपोनपल्पवर्गशलाकाप्रमितंगळप्यु। व-a विवु । अन्योन्माभ्यस्तगुणकारशलाकेगळ बु.
वप्पुदरिंदमदत दोडे :- प्र व वि १६ । ४ । २ फ स्थान १ इ । व वि १६ । ४ । । १ लब्ध
स्थानविकल्पंगळ ०२ मत्तं :
प्र व वि १६ । ४ । २ फस्था १ इ । व वि । १६ । ४-छ लब्धस्थानविकल्पंगळु
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छे ०२२
अन्तधणं गुणगुणियं । २ छे २ आदिविहीणं
२ छे रूऊगुत्तर भजियमेदु तावन्मात्रम
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१. यक्कुमन्तागुत्तं विरलु रूपोन गुणेन हतं गुणितं
। २ छ १ प्रभवेन भाजितं । २ छ ।
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७६ । ७७ । ७८ । ७९ । ८० । ८१ । ८२ । ८३ । ८४ ॥२४०।। इममुक्तगुणकारं ग्रन्यकार: प्राह
___एतेषां चतुर्दशजीवसमासानामुपपादादियोगत्रयस्य जघन्योत्कृष्ट वतुरशीतिस्थानानि पल्यासंख्यातगुणितक्रमायपि सर्वोत्कृष्टं जघन्यात् पल्यच्छेदासंख्यातकभागगुणमेव । तयोर्जघन्योत्कृष्टयोरंतरालस्या अधस्तनगुण
परिणाम योगस्थान ये दस अनुक्रमसे पत्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं ७५॥७६/७७/७८।७९॥ . ८०/८११८२।८३।८४। इस तरह ये चौरासी स्थान जानना ॥२४०।।
आगे ग्रन्थकार स्वयं उक्त गुणकारको कहते हैं।
चौदह जीव समासोंके उपपाद आदि तीन योगोंके जघन्य और उत्कृष्ट भेदसे ये चौरासी स्थान यद्यपि क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । तथापि जघन्य योगस्थानसे १. गुणकारशलाकेगलेबुद) ।
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३५१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सैकं । छ । यतिकृत्वो गुणभक्तं रूपं यावतो वारान् । गुणेन भक्तं रूपं । व- । तति भवेद्गच्छः । एंदितिवु असंख्यातरूपोनपल्यवर्गशलाकामात्रमन्योन्याभ्यस्तगुणकारशलाकेगळ प्रमाणमक्कुमवर प्रमाणमधस्तनगुणहानिशलाकेगळप्पुबुदत्थं ॥
अनंतरमुपपादादियोगत्रयक्के जघन्योत्कृष्टदिदं निरंतर प्रवृत्तिकालप्रमाणमं मुंदण गाथासूत्रदिद पेळ्दपरु :
अवरुक्कस्सेण हवे उववादेयंतवढिठाणाणं ।
एक्कसमयं हवे पुण इदरेसिं जाव अट्ठोत्ति ॥२४२।। जघन्योत्कृष्टेन भवेदुपपादैकान्तवृद्धिस्थानानामेकसमयो भवेत्पुनरितरेषां यावदष्टौ समयास्तावत्पय्यंतं ॥
उपपादयोगमेकान्तानुवृद्धियोगमेंबी एरडुं योगस्थानंगळगे जघन्योत्कृष्टदिदं येकसमयमे १० प्रवृत्तिकालप्रमाणमक्कु । मितरेषां इतरंगळप्प परिणामयोगस्थानंगळगे द्विसमयादियोगदष्टसमयगळेनेवरमन्नेवरं निरंतरप्रवृत्तिकाल प्रमाणमक्कुं। उक्तार्थोपयोगियोगस्तंभरचनेयिदु:
अस्यां स्तंभरचनायां शून्यानि त्रिकोणानि च किमर्थमिति चेदुच्यते-एक शून्यं सूक्ष्मजीव इति संज्ञात्थं । द्वे शून्ये द्वोंद्रियजीव इति संज्ञानिमित्तं । त्रिचतः पंचषट् शून्यानि त्रिचतुः संज्ञाऽसंज्ञि जीव प्रतिपादकानि लघुसंदृष्टिनिमित्तं शून्यानि कृतानि । अत्र रचनायां त्रिकोणाकारं किमत्थं १५ इत्यारेकायां इदमुच्यते त्रिकोणाकारमत्र बादरजीवसंज्ञा निमित्तं । अत्र शून्यावस्थितगोटाकारं
शोभायमेव शून्यं सूक्ष्मजीव संज्ञा इति अव्यामोहेन इयं स्तंभरचना प्रतिपादनोया।
हानिशलाकाः कति ? पूर्वोक्ता असंख्यातरूपोनपल्यवर्गशलाकामान्यः व- ता एवं अन्योन्याभ्यस्तस्य गुणकारशलाका नाम ॥२४१॥ अथोपपादादीनां जपन्योत्कृष्टेन निरंतरप्रवृत्तिकालप्रमाणमाह
उपपादकांतानुवृद्धियोगद्वयस्थानानां प्रवृत्तिकालो जघन्येन उत्कृप्टेन च एकसमय एव स्यात् । इतरेषां २० परिणामयोगस्थानानां द्विसमयाद्यष्टसमयपयंतं स्यात् ॥२४२॥ उक्तार्थोपयोगिनी योगस्तंभरचनेयं
सर्वोत्कृष्ट योगस्थान पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणा हैं। इन जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानके मध्य में स्थित अधस्तन गुणहानिशलाका असंख्यात हीन पल्यकी वर्गशलाका प्रमाण हैं । वे ही अन्योन्याभ्यस्त राशिकी गुणकार शलाका हैं ॥२४१॥
आगे उपपाद आदिके जघन्य और उत्कृष्ट से निरन्तर प्रवर्तनका काल कहते हैं- २५
उपपाद योगस्थान और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंके प्रवर्तनेका काल जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय ही है। और परिणाम योगस्थानोंके प्रवर्तने का काल दो समयसे लेकर आठ समय पर्यन्त है ।।२४२।।
विशेषार्थ,-उपपाद योगस्थान जन्मके प्रथम समयमें ही होता है और एकान्तानुवृद्धि योगस्थान प्रतिसमय वृद्धिरूप होनेसे अन्य-अन्य होता रहता है। अतः इन दोनों के प्रवतेने- ३० का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। एक परिणाम योगस्थान ही ऐसा है जो दो समयसे लेकर आठ समय तक रहता है ।।२४२।।
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लब्ध्यपर्याप्तक
२० २४ १६ उपपादयोग २३ ज
ज १९ज उ० १२१५ उ००० ८११ ज उ० ज उ००० ००००० ००००२
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गो० कर्मकाण्डे
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निर्वृत्यपर्याप्तक
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Jain Education Internatifa
एकान्तानुवृद्धि
परिणाम योग
एकान्तानुवृद्धि ५४
५३ उ ४७ ज० ५२ उ. ४६ ज०० ५१उ०० ४५ ज००० ५००० ज०००० उ०००० ००००० ००००० ००००००००००
२८ ३० ३३ ३५ ज ज उ उ
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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३२ ३४ ३६
४१ ४२ ४३ ४४
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२९ एकान्तानुवृद्धि
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३५३
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परिणाम योग
५९
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५७ ज०
५६ ज००
५५ ज०००
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५ ज००० ६६ ज०० ६७ ज० ६८ ज
६९ एकान्तानुवृद्धि
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७७ ज०
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९ परिणाम योग
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उ००००
८० उ०००
८१ उ००
८२ उ०
८३ उ
८४
३५४
गो० कर्मकाण्डे
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३५५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अट्ठसमयस्स थोवा उभयदिसासु वि असंखमंगुणिदा ।
चउसमयोत्ति तहेव य उवरि तिदुसमयजोग्गाओ ॥२४३।। अष्टसमयस्य स्तोकाः उभयदिशास्वपि असंख्यसंगुणिताः। चतुःसमयपथ्यंतं तथैव चोपरि त्रिद्विसमययोग्याः॥
द्वींद्रियपर्याप्तजीवपरिणामयोगजघन्यस्थानमादियागि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवपरिणाम- ५
योगोत्कृष्टस्थानपय्यंतमाद सर्वनिरंतर योगस्थानंगळोळु -१ छे पल्यासंख्यातभाजितबहुभाग
११
स्थानंगळु २ छे द्विसमयनिरंतरपरिणामयोगप्रवृत्तिस्थानविकल्पंगळप्पुवु। शेषैकभागपल्या
ya a
प
संख्यातबहुभागस्थानविकल्पंगळु त्रिसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिपरिणामस्थानविकल्पंगळप्पुवु
-२ छे प शेषेकभागपल्यासंख्यातबहुभागार्द्ध स्थानविकल्पंगळु अधस्तन चतुःसमयनिरंतरयोगaaaaa
पप प्रतिपत्तिस्थानविकल्पंगळप्पुवु। शेषाद्ध स्थानविकल्पंगळु परितनचतुःसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिस्थान- १०
द्वींद्रियपर्याप्तपरिणामयोगस्थानादारभ्य संज्ञिपर्याप्तपरिणामयोगोत्कृष्टस्थानपर्यंत सर्वेषु निरन्तरयोग
aa
स्थानेषु- छे पल्यासंख्यातभाजितबहुभागः-ले प द्विसमयनिरंतरप्रवृत्तिस्थानविकल्पाः, शेषैकभागस्य ३२
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प
पल्यासंख्यातबहुभागस्त्रिसमय- निरंतरप्रवृत्तिस्थानविकल्पाः-
-छे प शेषैकभागस्य पल्या२aa a पप
aa
दो-इन्द्रिय पर्याप्त जीवके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लगाकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान पर्यन्त अन्तररूप योगस्थानोंको छोड़कर जो निरन्तर १५ योगस्थान हैं उनकी जौ नामक अन्नके आकार रचना कालकी अपेक्षा करते हैं। जो योगस्थान निरन्तर आठ समय तक होते हैं उन्हें मध्यमें लिखें। जो योगस्थान निरन्तर सात समय तक होते हैं उनमें से आधे तो आठ समयवालोंके ऊपर लिखें और आधे नीचे
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१०
३५६
विकल्पंगळ |
छे । २ शेषैकभागपल्या संख्यातबहुभागंगळर्द्धाद्वेग मुन्निनंते अस्त
प प प
aa aaa a
a
पंचसमयनिरंतर योगप्रवृत्तिस्थान विकल्पंगळ सुपरितनपंचसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिस्थान विकल्पंगळम
छे प |२ २प
प्पुवु :
-
छे प प प प प । २ a Raaga a a र्द्धाद्धंगळ मुनिनंत अधस्तनोपरितनषट्समय निरंतर योगप्रवृत्तिस्थानविकल्पंगळप्पुवु
छे a २
प । २
२ छे aaaपपपप a
aaa a
गो० कर्मकाण्डे
aaa पपपपप
22222
मुन्निनंते अधस्तनोपरितन सप्त समय निरंतरयोगप्रवृत्तिस्थानविकल्पंगळप्पुवु:
निरंतरप्रवृत्तिस्थानविकल्पाः - २ छे
- छेपपपपप २ शेषैकभागपल्या संख्यातबहुभागा
aaaaaaaa
aaa पपपपप 2
22222
संख्यातबहुभागार्धमघस्तनचतुःसमय निरंतरप्रवृत्तिस्थान विकल्पाः
ठ
aaaपपप aaa
शेषैकभागपल्या संख्यात बहु भागाद्धर्द्धिस्थानविकल्पंगळ
-२ छे aa a
प शेषार्धमुपरितनचतुःसमय
a
प्रवृत्तिस्थानविकल्पाः अर्धं चोपरितनपंचसमयनिरंतरप्रवृत्तिस्थानविकल्पाः -२ छे
पपप २
aaa
प २ शेषैकभागपल्या संख्यात बहुभागार्धमधस्तनपंचसमय निरंतर
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aaa पपपप
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प २
२ शेष भागपल्या संख्यातबहुभागार्घार्धमघस्तनोपरितनषट्समयनिरंतर प्रवृत्तिस्थानविकल्पाः
लिखें । जो योगस्थान निरन्तर छह समय तक होते हैं वे आधे तो उनके नीचे और आधे ऊपर लिखें । जो योगस्थान निरन्तर पाँच समय तक होते हैं वे आधे तो नीचे और आ उनके ही ऊपर लिखें। जो योगस्थान निरन्तर चार समय तक होते हैं, वे आधे उनके नीचे
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वतत्त्वप्रदीपिका
शेषैक भागमष्टसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिमध्यमयोग
-छे १ प -१छे प १२१ ०२१२१२ ୩୭୭ ୭ ୩୭ । a2
पपपपपप aaaaaa
स्थानविकल्पंगळप्पु -- छे १५ प प प प प वकारणमागि अष्टसमयस्य स्थानविकल्पाः स्तोकाः
१२
a aa aa a a एंदितु पेळल्पटुदु । उभयदिशास्वपि असंख्यातगुणिताः अधस्तनोपरितनोभयदिशेगळोळमसंख्यात. गुणित क्रमंगळप्पुविन्तु अधस्तनोपरितनोभयदिशगळोळं चतुःसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिस्थानविकल्पं
-२
छ
२ पपपपपa
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प२ शेपैकभागपल्यासंख्यातबहभागाधर्धिमधस्तनो- ५ aaa प प प प प a
a aa a a
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परितनसप्तसमयनिरंतरप्रवत्तिस्थानविकल्पा:-
دام
-२ छे
प२ -२ छ aaaपपपपपपaaaa पपपपपपa aaaaaa
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शेषकभागोष्टसमयनिरंतरप्रवृत्तिमध्यस्थानविकल्पाः -२ छ पपपपपप १
a aa a aa a a a -अत एव अष्टसमयस्य स्तोका इत्युक्तं । उभयदिशासु च असंख्यातगुणिताः । तत्र चतुःसमयनिरंतरप्रवृत्ति
और आधे ऊपर लिखें। जो योगस्थान निरन्तर तीन समय तक होते हैं वे सब चार समयवालोंके ऊपर ही लिखना। जो योगस्थान निरन्तर दो समय तक होते हैं वे सब तीन १० समयवालोंके ऊपर लिखें।
अब इन स्थानोंका प्रमाण कहते हैं
दो इन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगसे लेकर संज्ञी पर्याप्तके उत्कृष्ट परिणाम योग पर्यन्त योगस्थान-जगतश्रेणिसे असंख्यातवें भागको एक घाटि पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागसे गुणा करें और सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे भाग दें। जो प्रमाण हो १५ उसमें एक जोड़ें-इतने हैं। उनके इस प्रमाणमें पल्य के असंख्यातवें भागका भाग दें। एक भाग बिना बहुभाग तो निरन्तर दो समय तक होने वाले योगस्थानोंका प्रमाण है। उस एक भागमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग दें। एक भाग बिना बहुभाग तीन समय निरन्तर होनेवाले योगस्थानोंका प्रमाण है। उस एक भागमें भी पल्यके असंख्यातवें भाग भाग दें। एक भाग बिना बहुभागका आधा तो नीचे के चार समय निरन्तर होनेवाले २०
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३५८
गो० कर्मकाण्डे गळ पय॑तमसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवुपरितनत्रिसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिस्थानविकल्पंगळसंख्यातगुणितंगळप्पुववं नोडलुमुपरितनद्विसमयनिरंतरयोगप्रवृत्तिस्थानविकल्पंगळसंख्यातगुणितंगळप्पुवल्लि कालं विवक्षितमप्पुरिदं यवाकाररचनेयक्कुमदक्के संदृष्टियिदु :
स्थानविकल्पपर्यंतमुभयदिशासु असंख्यातगुणितक्रमाः त्रिसमयनिरंतरप्रवृत्तियोग्या द्विसमयनिरंतर प्रवृत्तियोग्याश्च उपर्यपर्यव असंख्यातगणितक्रमा भवति । अत्र कालो विवक्षितोऽस्तीति यवाकाररचना । तत्संदष्टिः
योगस्थानोंका. प्रमाण है । और आधा ऊपरके चार समय निरन्तर प्रवर्तनेवाले योगस्थानोंका प्रमाण है। उस एक भागमें भी पल्यके असंख्यातवें भागका भाग दें। एक भाग बिना बहुभागका आधा तो नीचे के पाँच समय निरन्तर होनेवाले योगस्थानोंका प्रमाण है और
आधा बहुभाग ऊपरके पाँच समय निरन्तर होनेवाले योगस्थानोंका प्रमाण है। उस एक १० भागमें भी पल्यके असंख्यातवें भागका भाग दें। एक भाग बिना बहुभागका आधा तो
नीचेके छह समय निरन्तर होनेवाले योगस्थानका प्रमाण है और आधा ऊपरके छह समय निरन्तर होनेवाले योगस्थानोंका प्रमाण है । उस एक भागमें भी पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें। एक भाग बिना बहुभागका आधा तो नीचे के निरन्तर सात समय तक होनेवाले
योगस्थानोंका प्रमाण है और आधा ऊपरके निरन्तर सात समय तक होनेवाले योगस्थानोंका १५ प्रमाण है। शेष जो एक भाग रहा उतने निरन्तर आठ समय तक होनेवाले योगस्थान होते
हैं । इसीसे गाथामें आठ समयवालोंका प्रमाण थोड़ा कहा है । और शेषका ऊपर और नीचे असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा कहा है। सो चार समयवालों पर्यन्त नीचे और ऊपर दोनों दिशामें स्थापित किये हैं। किन्तु तीन और दो समयवाले योगस्थान ऊपर की ओर ही
स्थापित किये हैं। इस प्रकार यह कालकी अपेक्षा यवाकार रचना है। जैसे यव ( २० मध्यमें मोटा और ऊपर-नीचेकी ओर पतला होता है। उसी प्रकार मध्य में आठ समयवाले लिखे और ऊपर नीचे एक-एक कम समयवाले लिखे । ऐसे यवाकास्स्च ना होती है ।।२४३।।
आगे पर्याप्त त्रस जीवोंके परिणाम योगस्थानों में जीवोंका प्रमाण कहते हैं और उसकी यवाकार रचना रचते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३५९
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स्तंभरचनेपल्लि नोडिकोंबुदु ।
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गो० कर्मकाण्डे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३६१ मज्झे जीवा बहुगा उभयत्थ विसेसहीणकमजुत्ता ।
हेट्ठिमगुणहाणिसलागादुवरि सलागा विसेसहिया ॥२४४॥ मध्ये जीवा बहुकाः उभयत्रविशेषहीनक्रमयुक्ताः। अधस्तनगुणहानिशलाकाया उपरि शलाका विशेषाधिकाः। जीवयवमध्यदोळु जीवंगळु बहुकंगळप्पुवु। अधस्तनोपरितनोभयत्र विशेष. होनक्रमयुक्तंगळ अधस्तनगुणहानिशलाकगळं नोडलुमुपरितनगुणहानिशलाकगळं विशेषाधिकंगळ- ५ प्पुवदेत दोडे :
दव्वतियं हे?वरिमदलवारा दुगुणमुभयमण्णोण्णं ।
जीवजवे चोइससयबावीसं होदि बत्तीसं ॥२४॥ द्रव्यत्रयमधस्तनोपरितनदलवारा द्विगुणमुभयमन्योन्यं । जीवयवे चतुर्दशशतद्वाविंशतिधर्भवति द्वात्रिंशत् ॥
चत्तारि तिण्णि कमसो पण अड अळं तदो य बत्तीसं ।
किंचूणतिगुणहाणिविभजिद दव्वे दु जवमझं ॥२४६।। चत्वारि श्रोणि क्रमशः पंचाष्टाष्टौ ततश्च द्वात्रिंशत् । किंचिदूनत्रिगुणहानिविभाजिते द्रव्ये तु यवमध्यम् ॥
द्वींद्रियपर्याप्त जीवपरिणामयोगजघन्यस्थानमिदु । प ७५ इदनपत्तिसिदोडिदु ।। १५ यिदर नंतरस्थानविकल्पमिदु २ इदु मोदलागि सवृद्धिस्थानंगळु संज्ञिपंचेद्रियपर्याप्तजीवपरिणाम
__ जीवयवमध्ये जीवा बहुकाः अध उपरि च विशेषहोनक्रमयुक्ताः अधस्तनगुणहानिशलाकाभ्यः उपरितनगुणहानिशलाका विशेषाधिकाः ॥२४४|| तद्यथा
जीवोंकी संख्याकी अपेक्षा यवाकार रचनामें मध्यमें जीव बहुत हैं। ऊपर और नीचे अनुक्रमसे विशेष हीन-हीन हैं । नीचेकी गुणहानि शलाकासे ऊपरकी गुणहानि शलाकाका .. प्रमाण कुछ अधिक है ॥२४४॥
विशेषार्थ-जैसे यव (जौका दाना) मध्य में मोटा होता है और ऊपर-नीचे क्रमसे घटता-घटता होता है। उसी प्रकार पर्याप्त त्रस सम्बन्धी परिणाम योगस्थानोंमें यवाकारमें जो मध्यका स्थान है उसमें जीव बहुत हैं अर्थात् उन योगस्थानोंके धारी जीव बहुत हैं। उस बीचके स्थानसे ऊपरके और नीचे के स्थानोंमें जीवोंका प्रमाण क्रमसे घटता हुआ है। अर्थात् . उन योगस्थानोंके धारक जीव क्रमसे घटते हुए हैं । इस तरह यह यवाकार रचना है ॥२४४॥ र
जीवोंकी संख्याकी यवाकार रचनामें प्रथम अंकसंदृष्टि से कथन करते हैं
२५
क-४६
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३६२
गो० कर्मकाण्डे
योग सर्वोत्कृष्स्थानपर्यंतं निरंतरवृद्धिस्थानंगळु नडदु सर्वोत्कृष्ट परिणामयोगस्थानमिदु । छे आदीयंते सुद्धे वेड्ढिहिदे रूवसंजुदे ठाणा येदु सर्वनिरंतरपरिणामयोगस्थानविकल्पंगाळतिप्पुवु व वि १६ : ४ । ३ छ । उ ई योगस्थानंगळो स्वामिगळु द्वौद्रियादित्रसपर्याप्तजीवर शिद्रव्य. सर्व । ३१
व वि १६ । ४ । । १ में बुदक्कुं। स्थितिये बुदु ई निरंतरपरिणामयोगस्थानविकल्पंगळक्कुं। गुणहानियें बुदु सामान्य. च्छेदासंख्यातकभागप्रमितनानागुणहानिभक्तस्थित्येकभागमक्कुं। यित द्रव्यत्रयमुं अधस्तनोपरितनदळवाराः अधस्तनोपरितननानागुणहानिशलाकेगळं दुगुणं दोगुणहानियं उभयमन्योन्यं अधस्तनो. परितनान्योन्याभ्यस्तराशिद्वयमुमी यवाकारजीवसंख्यारचनेयोळु मुन्नमंकसंदृष्टियिदं मनंबुगिसल्वेडि यथासंख्यमागि द्रव्यप्रमाणं चतुर्दशशतद्वाविंशतिर्भवति साविरद नानूरिप्पत्तरडु कल्पि. सल्पटुदु । स्थितिप्रमाणं द्वात्रिंशत् चत्वारि गुणहान्यायाम नाल्कुं रूपुगळक्कुमधस्तनोपरितननाना. गुणहानिशलाकेंगळु क्रमदिदं त्रीणि पंच मूरुरूपंगळुमय्दु रूपंगळप्पुवु। दोगुणहानिप्रमाणं अष्ट येटु रूपुगळक्कुं। अधस्तनोपरितनान्योन्याभ्यस्तराशिगळु क्रमदिदमेंटुं मूवत्तेरडुमप्पुवु। यितुक्त
यवाकारजीवसंख्यारचनायां तावदं कसंदृष्टया प्रतात्युत्पादनार्थ द्रव्यं चतुर्दशशतद्वाविंशतिः १४२२, स्थितिः द्वात्रिंशत् ३२, गुणहान्यायामश्वत्वारः ४ । अधस्तनोपरितननानागुणहानिशलाकाः क्रमेण तिस्रः पंच ।
सो द्रव्य पर्याप्त त्रसजीवोंका प्रमाण चौदह सौ बाईस १४२२ है । और स्थिति अर्थात् १५ पर्याप्त त्रस जीव सम्बन्धी परिणाम योगस्थानोंका प्रमाण बत्तीस ३२ है। गुणहानि आयाम
अर्थात् एक गुणहानि स्थानोंका प्रमाण चार ४ है। ऐसी सब गुणहानियाँ आठ ८ हैं। इनको नाना गुणहानि कहते हैं। उनमें से नीचेकी गुणहानिका प्रमाण तीन ३ और ऊपरकी गुणहानिका प्रमाण पाँच ५, इस प्रकार आठ नाना गुणहानियाँ हैं।
___नाना गणहानि प्रमाण दोके अंक रख उन्हें परस्पर में गुणा करने पर अन्योन्याभ्यस्त२० राशिका प्रमाण होता है। सो नीचे की अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण आठ और ऊपरकी
अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण बत्तीस ३२, इस प्रकार सब चालीस हैं। द्रव्य के प्रमाणमें कुछ कम तिगुनी गुणहानिका भाग देनेपर यवाकारके मध्यमें जीवोंकी संख्या होती है। सो गणहानि आयामका प्रमाण चार ४ है । उसको तिगुना करनेपर बारह हुए। कुछ कम कहनेसे इसमें से एकके चौंसठ भागोंमें-से सत्तावन भाग घटानेपर समच्छे। विधानके अनुसार
२५ १. म वड्ढि ७२ ६।४।२ हिदे ।
२. म रूपगलुमयिदुरूपुग ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३६३
द्रव्यादिराशिगळ विन्यासमिदु:- । द्रव्य | स्थिति | गुण | नाना
१४२२] ३२
दो गुण- अन्योन्या-1
२५६ ३२
यितु स्थापिसल्पट्ट राशिगोळु तु मत्ते किंचिदूनत्रिगुणहानिविभाजिते द्रव्ये गुणहानिय बुदु नाल्कु रूपुगळप्पुववं त्रिगुणितं माडिदोडे द्वादशरूपुगळप्पुबवरोळु किंचिदूनं माडल्पडुगुमा ऊनप्रमाणमेनितेदोडे सप्तपंचाशच्चतुःषष्टिभागमक्कुमदं त्रिगुणहानियोळु चतुःषष्टिरूपूर्गाळदं समच्छेदम माडि ७६८ अयिवतळं कळेदोडे शेषमिदु ७११ ई किंचिदूनत्रिगुणगुणहानियिदं द्रव्यं भागि- ५ सल्पडुत्तिरलु लब्धं जीवयवमध्यमक्कु । १२८ । मदु कारणमागि मज्झे जीवा बहुगा एंदितु पेळल्पदुदु । उभयत्य विसेसहीणकमजुता यदी यवमध्यप्रथमयोगस्थानस्वामिगळप्प जीवंगळ संख्येयं नोडलु उपरितनानंतरयोगस्थानस्वामिगळ संख्ये मोदल्गोंडु तद्गुणहानिचरमयोगस्थानस्वामिगळ संख्येय पर्यतं विशेषहीनक्रमंगळप्पुवु । तद्यवमध्यानंतराधस्तनगुणहानि प्रथमयोगस्थानस्वामिगळप्प जीवंगळसंख्ये मोदल्गोंडु अधोधस्तनगुणहानिचरमयोगस्थानस्वामिजीवसंख्ये पर्यंत १० तदुपरितनगुणहानिविशेषप्रमि १६ त विशेषदिदमे :
३ । ५ । दोगुणहानिः अष्टौ ८ । अधस्तनोपरितनान्योन्याभ्यस्तराशी क्रमेण अष्टो द्वात्रिंशत् ८। ३२ । तुपुनः त्रिगुणगुणहान्या १२ सप्तपंवाशच्चतुःषष्टिभागः किंचिदूनया ७११ द्रव्ये भक्ते १४२२ ४ ६४ जोवयवमध्यं
स्यात् । १२८ । तन्मध्ये जीवा बहु काः इत्युक्तम् । उभयत्थविसेसहोणकमजुत्ता । तेभ्यः यवमध्यजीवेभ्यः तन्मध्यात् अधस्तनोपरितनगुणहानिनिषेकेषु जीवाः तत्तद्गुणहानिविशेषेण हीनक्रमयुक्ता भवंति । तत्तद्विशेष- १५ प्रमाणं तु तत्तद्गुणहानेरादिनिषेके दोगुणहान्या भक्ते, चरमनिषेके वा रूपाधिकगुणहान्या भक्ते भवति । तेन
सात सौ ग्यारहका चौंसठवाँ भाग हुआ। इसका भाग सर्व द्रव्य चौदह सौ बाईस में देनेपर एक सौ अट्ठाईस आया। यही यवाकार रचनाके मध्य में जीवोंका प्रमाण है इसीसे मध्य में जीव बहुत कहे हैं। मध्यसे ऊपर और नीचेके गुणहानि निषेकोंमें अपनी-अपनी गुणहानि में जितना विशेषका प्रमाण है उतना क्रमसे घटता जानना। सो अपनी-अपनी गुणहानिके २० प्रथम निषेकको दो गुणहानिसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो अथवा अन्तिम निषेकको एक अधिक गुणहानि आयामका भाग देनेपर जो प्रमाण हो उतना विशेषका प्रमाण जानना । अतः नीचेकी और ऊपरकी गुणहानिका द्रव्य तथा विशेष क्रमसे आधा-आधा होता है। वही कहते हैं
ऊपरकी गुणहानि पाँच, उनमें पहली गुणहानिके पहले निषेकका प्रमाण एक सौ २५ अठाईस है। उसको दो गुणहानि आठका भाग देनेपर सोलह आये । वही विशेष है। सो एक-एक निषेकमें सोलह-सोलह घटाइए । अन्तके निषेकमें एक कम गुणहानि आयाम १. ब उभय तवतन्मध्यां ।
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३६४
१०
२
४
८
१६
६
७
፡
१०
१२
१४
१६
२०
२४
२८
३२
४०
४८
५६
६.४
८०
९६
११२
१२८
१२८४१३ ४२२२२
१२८४१३
४२२२
१२८४१३
४२१२
१२८४१३
४२
गो० कर्मकाण्डे
१२८४१३
४
१६
८
४
१६ ऋ ११२
१६ ऋ
९६
१६ ऋ
८०
१६ ऋ
६४
ऋ ८
५६
। ऋ ८
४८
ॠ ८
४०
ऋ ८
३२
ॠ ४
२८
ॠ ४
२४
ॠ ४
२० ॠ ४ १६
धन
१२८०४३
४
ॠ ६४
धन
१२८४१३
४२
ॠ ३२
ॠ १६
विशेषहीनक्र मंगळ पूवुर्भयत्रमा विशेषप्रमाणमेनितवकुमेंदोडे हानिविवक्षेइंदं स्वस्वादिनिषेकं गळं१२८ । दोगुणहानियिदं भागिसिदोडे विशेषं बक्कु । १२८ वृद्धिविवक्षैयदं स्वस्वादिनिषेकंगळं ८० रूपाधिकगुणहानियिद भागिसुतं विरलु ८० विशेषं बकुमदु कारणमागि यवमध्यराशियं गुणहानियदं भागिसिदोडे १२८ लब्धं विशेषप्रमाणमक्कु १६ मेर्केदोडा विशेषमं दोगुणहानि
४२
५
८
५ यिदं गुणिसिदो डादिवर्गणाप्रमाणमक्कुमप्युदरिदमा विशेषददं बक्किम स्तनोपरितनगुणहानि द्रव्यंगळर्द्धार्द्धक मंगळ पुर्दारंदमवर aag | अदेतें दोडे :
--
धन
१२८४१३
४२१२
व्येकपदं चयगुणितं भूमौ मुखे च ऋणधनं च कृते । मुखभूमियोगदले पदगुणिते पदधनं भवति ॥
अस्तनोपरितनगुणहानीनां द्रव्याणि विशेषाश्च अर्धार्धक्रमेण भवन्ति । तद्यथा -
प्रमाण विशेष घटानेपर आदि निषेक एक सौ अठाईस, मध्य एक सौ बारह और छियानबे, तथा अन्त निषेक अस्सी हुआ १२८/११२/९६|८०| इन सबको जोड़िए । करणसूत्र है - 'मुंह
होनक्र मंगळवे बुदत्थं मल्लि विशेषंगळु मर्द्धार्द्धक्रमंगळेय
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
यँदी रूगेनपदमात्र १६ । ४ विशेषंगलं । ४८ । भूमियोळु १२८ कलेदोडे शेषमिदु ८० मुखमक्कुमो मुखमं भूमिथुमं कूडिदोर्ड २०८ अष्टोत्तर द्विशतमक्कुमदं दळियिसिदोडे १०४ चतुरुतर. शतम कुमदं पर्दादिदं ४ गुणिसिदोडे १०४ । ४ । पदधनमक्कु ४१६ । इदुपरितनप्रथम गुणहानिद्रव्यमक्कुमिदं संदृष्टिनिमित्तं नाकरिदं केळगेयुं मेगेयुं गुणिसि ४१६ । ४ मूव तरडरिद भेदसिदोडिदु ३२ । १३ । ४ इदं गुणिसिहोडिदु । १२८ । १३ यिल्लि गुणकारभूत त्रयोदशरूपु
४
४
*
३६५
४
गळं रूपाधिकत्रिगुणहानियं माडिरिसिदोडिदु १२८ । ४ । ३ उपरितनप्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुं । तदनंतरो परितनगुणहानिगोळर्द्धाद्ध क्रर्मादिदं योगि चरमगुणहानियो रूपोनोपरितननानागुणहानिप्रमाणद्विकंगळु भागहा रंगळवु १२८ । ४ | ३ अधस्तनगुणहानिगळोळमी प्रकार दिवं ४ । २ । २ । २ । २ यवमध्यदो १२८ । ळोंडु स्वविशेषमं कळेदोडे १२८ - १६ । शेषमधस्तनगुणहानिप्रथमयोगस्थानस्वामिजीवंगळ प्रमाणमक्कु ११२ मिंदरोळ रूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषंगळ १६ । ४ । १०
उपरि प्रथमगुणहानी मुख ८० भूमि १२८ योग २०८ दले १०४ पद ४ गुणिदे ४१६ इदं संदृष्टिनिमित्तं चतुभिरध उपरि संगुण्य ४१६४ द्वात्रिंशता संभेद्य ३२ । १३ । ४ गुणयित्वा १२८ । १३ गुणकारभूतत्रयो
४
४
४
५
दशसु रूपाधिकत्रिगुणगुणहानिकृतेषु १२८ । ४ । ३ प्रथमगुणहानिद्रव्यं स्यात् । इदं उपरि प्रतिगुणहान्यधर्ध
४
--
४।२।२।२।२
क्रमेण गच्छत् चरमंगुणहानौ रूपोनोपरितननानागुणहानिमात्र द्विकैभक्तं स्यात १२८ । ४ । ३ । अधस्तनगुणहानावप्येवम् । यवमध्ये १२८ एकस्वविशेषेऽपनीते १२८ - १६ । अधस्तनप्रथमगुणहान्यादिनिषेकः भूमिः ११२ । १५ भूमिजोगदले पदगुणिदे पदधनं होदि' । यहाँ मुख ८० और भूमि १२८ इनको जोड़ा दो सौ आठ हुए । उन्हें आधा करनेपर एक सौ चार हुए । उन्हें पद अर्थात् गच्छ आयाम चारसे गुणा करनेपर पदधन चार सौ सोलह हुआ । इस प्रकार ऊपरकी प्रथम गुणहानिका सर्वधन चार सौ सोलह जानना । यवमध्य के प्रमाणको एक अधिक तिगुने गुणहानि आयाम से गुणा करें और गुणहानि आयाम से भाग दें। उतना ही प्रथम गुणहानिका द्रव्य होता है । सो २० मध्यका प्रमाण एक सौ अठाईसको तिगुनी गुणहानि बारह में एक जोड़कर तेरह हुए । उससे गुणा करके और आयाम् चारका भाग देनेपर चार सौ सोलह हुए। वही प्रथम गुणहानिका द्रव्य है । आगे एक - एक गुणहानिमें द्रव्यका प्रमाण और विशेषका प्रमाण आधाआधा होता है । एक कम नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर उन्हें परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसका भाग प्रथम गुणहानिके द्रव्यमें देनेपर अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका २५
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५
३६६
गो० कर्मकाण्डे
कळेदोडे मुखमरवत्तनात्कक्कु ६४ । मी मुखमं भूमिमं ११२ । कूडि १७६ । दळिसिदोडेण्वसेंटक्कु । ८८ । मदं पर्दाददं गुणिसिदोडे । ८८ । ४ । इनितक्कुमिदधस्तनप्रथमगुणहानिद्रव्यम वकुमदं संदृष्टिनिमित्तमागिकेळगेयुं मेगेयुं नाल्करिदं गुणिसि ८८ ।४।४ गुण्यभूताप्राशीतियं गुणकारभूतैकञ्चतुष्कदिदं गुणिसि पदिनारिदं भेदिसिदोडिक १६ । २२ । ४ ई राशिय गुणकारभूतद्वाविंशतियं द्विकदिदं भेदिसि गुणकारभूतचतुष्कमं द्विगुणिसिदष्टरूपुर्गादिं गुण्यभूतपदिनारं गुणिसिदोडेकादशगुणितयवमध्यचतुर्भागमक्कु १२८ । ११ मिदरोल ऋणमनिनित
४
४
निक्कोडे
४
रूपाधिकत्रिगुणहानिगुणितयवमध्यचतुर्भागप्रमितमक्कु १२८ ४ । ३ मधोऽधः अर्द्धाद्ध क्रमंग
४
१२८ । २ निक्षिप्ते
४
o
४
अत्र रूपोनगुणहानिमात्रस्त्रविशेषेषु १६ । ४ । अपनीतेषु चरम निषेकः ६४ । मुखभूमियोग १७६ दले ८८ पदगुणिते ८८ । ४ । अधस्तन प्रथमगुणहानिद्रयं स्यात् । इदं संदृष्टिनिमित्तं उपर्यधश्चतुर्भिः संगुण्य ८८ । ४ । ४ १० अष्टाशीतिं गुणकारचतुष्केन संगुण्य षोडशभिभित्वा १६ । २२ । ४ द्वाविशति द्विकेन भित्वा तेन चतुष्कं संगुण्य अष्टभिः षोडशके गुणिते एकादशगुणितयवमध्यवतुर्भागः स्वात् १२८ । ११ अतावति ऋणे
४
४
१२८ । २
४
--
रूपाधिकत्रिगुणगुणहानिगुणितयव मध्य चतुर्भाग: स्यात् १२८ | ४ | ३ | अधो
४
प्रमाण आता है । सो ऊपरकी गुणहानि पाँच में से एक घटानेपर चार रहे। चार जगह दोके अंक रखकर २×२×२४२ परस्पर में गुणा करनेपर सोलह हुए । उसका भाग प्रथम गुण१५ हानिके द्रव्य चार सौ सोलह में देनेपर छब्बीस आये । यही अन्तिम गुणहानिका द्रव्य जानना । तथा नीचेकी गुणहानि तीन में से पहली गुणहानिमें यवमध्य में जो प्रमाण है उसमेंसे एक विशेष घटानेपर प्रथम निषेक होता है । सो यवमध्य एक सौ अठाईस में से विशेषका प्रमाण- सोलह घटानेपर एक सौ बारह रहे । यही आदि निषेकका प्रमाण है । इसमें एक-एक निषेक में एक-एक विशेष घटानेपर अन्तके निषेक में से एक कम गुणहानिका आयाम प्रमाण २० विशेष घटानेपर चौंसठ रहते हैं । सो मुख ६४, भूमि ११२ को जोड़नेपर एक सौ छिहत्तर
१७६ हुए | उसका आधा अठासी ८८ को पद चारसे गुणा करनेपर तीन सौ बावन ३५२ हुए । यही नीचेकी प्रथम गुणहानिका सबै द्रव्य जानना । यत्रमध्य एक सौ अठाईस में ग्यारह से गुणा करके चारसे भाग देनेपर भी तीन सौ बावन होता है । ऊपरकी प्रथम गुणहानिके द्रव्य में यवमध्यको दूना करके चारसे भाग देनेपर जो आवे उतना ऋण जानना । सो यवमध्य एक सौ २५ अठाईसको दूना करके चारसे भाग देनेपर चौसठ आये। इसको ऊपरकी प्रथम गुणहानि के द्रव्य में से घटानेपर नीचे की प्रथम गुणहानिका द्रव्य होता है । तथा ऊपरकी गुणहानि के
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३६७
प्पुत्रंतागुत्तं पोगि चरमाधस्तनगुणहानियोळु रूपोनाधस्तननानागुणहानिप्रमित द्विकंगळु भागहारं
गळ १२८४ । ३ ऋणमुं प्रथमाधस्तनगुणहानियोल निक्षिप्तऋणमं नोडलु गुणहानि प्रति
४ । २ । २
यद्धर्द्धिगळप्पु १२८ । २
४
=
१२८ । २
४ । २
=
१२८ । २ वी ऋगळं संकळिसिदोडे अन्तणं ४।२।२
[5]
गुणगुणियं १२८ । २ । २ आदिविहीणं नात्करिदं ४ समच्छेदमं माडि कळेदोर्ड १२८ । १ । ६ । २
४
१६
ई सर्व्वऋणप्रमाणं गुणहानि गुणितच रमाधस्तनगुणहानिविशेषद होनमप्पयवमध्यराशिप्रमाण
--
मकुं । ११२ । अन्तघणं १२८ । ४ । ३ गुणगुणियं १२८ । १३ । २ आदिविहोणं नाक
४
४
रिदं समच्छेदमं माडि गुणिसि आदियं कछेद शेषमिदु । ७२८ अधस्तनगुणहानिगळ सर्व्वद्रव्यसक्कु । मत्तं अन्तणं १२८ । १३ गुणगुणियं १२८ । १३ । २ आदिविहीणं । ई राशियं पदि
४
४
घोऽयर्विक्रमेण चरमगुणहानौ रूपोनाधस्तननानागुणानिमात्रद्विकैर्भक्तः स्यात् १२८ । ४ । ३ ऋणमपि प्रथम४।२।२ गुणहानिनिक्षिप्तात् प्रतिगुणहान्यर्धार्ध स्यात् । १२८ | २ | १२८ | २ | १२८ । २ संकलिते अतघणं गुण- १०
४
४। २ ४। २ । २
५
1
१५
निषेकोंमें-से नीचेकी गुणहानिके निषेकों में ऊपरकी गुणहानिके चय प्रमाण ऋण होता है । जैसे ऊपरकी गुणहानिका प्रथम निषेक एक सौ अठाईस है । उसमें से चयका प्रमाण सोलह घटानेपर नीचेकी गुणहानिके प्रथम निषेकका प्रमाण होता है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना । तथा प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य आधा-आधा जानना । एक कम नीचेकी गुणहानि प्रमाण दुओंका भाग आदि गुणहानिके द्रव्यमें देनेपर अन्तको गुणहानिका द्रव्य होता है । तथा प्रथम गुणहानिमें जो ऋण कहा है वह भी आगे-आगेकी गुणहानिमें आधा-आधा होता जाता है जैसे ६४।३२।१६ । सो 'अंतधणं गुणगुणियं आदिविहीणं' इस सूत्र के अनुसार अन्तधन चौंसठको गुणकार दोसे गुणा करनेपर और आदि सोलह घटानेपर सबसे नीचेकी गुणहानिमें ऋणका प्रमाण होता है । सो गुणहानि आयाम के प्रमाणसे नीचेकी अन्तिम गुणहानिमें जो विशेषका प्रमाण है उसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना यवमध्यके प्रमाण मेंसे घटानेपर जो प्रभाग हो उतना जानना । सो गुणहानि आयाम चारसे नीचेकी अन्तिम गुहानिके विशेष चारको गुणा करनेपर सोलह हुए । सो यवमध्य में से घटानेपर एक सौ बारह रहे । सो सर्वॠण होता है। चौंसठ, बत्तीस और सोलहको जोड़नेपर भी एक सौ बारह ही होता है । तथा नीचे को और ऊपर की सर्वगुणहानियों का सर्वद्रव्य 'अतधणं गुणगुणिय' इत्यादि सूत्र के अनुसार जोड़नेपर तथा उसमें से उक्त ऋणको घटानेपर शुद्ध द्रव्य चौदह सौ बाईस १४२२ होता है ।
२०
२५
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३६८
.
गो० कर्मकाण्डे
नाररिदं समच्छेदम माडि आदियनदरोळकळेद शेषनिदु । ८०६ । उपरितनगुणहालिगः समस्तधनमक्कुं। कूडिदुभयधनमिदु १५३४ यिदरोळगे अधस्तनगुण हानिगळोळु प्रविष्टऋणमनिनितं ११२ कळेदोड शुद्धद्रव्यप्रमाणमिदु । १४२२ । इन्तु “मज्झेमजीवा बहुगा उभयत्थविसेस
होणकमजुत्ता। हेट्ठिमगणहाणिसळावुवरि सळागा विसेसहिया ॥ एंदी गाथा सूत्रात्थं विशदं ५ गुणियं १२८ । २ । २ आदिविहीणमिति १२८ । १६-२ इदं सर्वऋणं गुणहानिगुणितचरमाधस्तन गुण हानि
विशेषेण हीनयवमध्यराशिमात्रं स्यात--
१६ । ऋ१६ । धन --
११२ १२८ । ४ । ३'
१२८ । ४।३ ४२२२२
ऋ१६
ऋ६४
१२
१२८ । ४।३ ४।२।२।२
ऋ १६
*
५६
घन१२८।४।३
४। २
२४
१२८ । ४ । ३ ४।२।२
१२८ । ४ । ३
४ । २
ovem
ऋ
।
ऋ३२
धन१२८।४।३
४।२।२
२८
१२८
४ । ३
११२ १२८
*
ऋ४
ऋण १६ गुणहानिके निषेकोंमें घटाये जानेवाले विशेषोंका प्रमाण, योगस्थानरूप निषेकोंमें जीवोंका प्रमाण, गुणहानिमें सर्वद्रव्यका प्रमाण, नीचेकी और ऊपरकी गुणहानिमें घटाये जानेवाले ऋणका प्रमाण ये सब दिखाने के लिए आगे यन्त्र लिखते हैं
इस यन्त्रका आशय इस प्रकार जानना
स पर्याप्त सम्बन्धी परिणाम योगस्थान बत्तीस कहे। उनमें ऊपरकी गुणहानिके प्रथम निषेकरूप जो योगस्थान हैं उनके धारक जीव एक सौ अठाईस हैं। उसको यवमध्य कहते हैं। उस स्थानसे पहले और पिछले दो योगस्थानोंके धारी जीव एक सौ
बारह, एक सौ बारह हैं। इसी प्रकार सब योगस्थानों में जीवोंका प्रमाण जानना । जैसे १५ अंकोंके द्वारा कथन दिखाया है वैसे ही यथार्थ कथन जानना।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका माडल्पदुदु । यिल्लियुपरितननानागुणहानिशलाकेगळु अधस्तननानागुणहानिशलाकेगळं नोडल विशेषाधिकंगळेयप्पुबुदुं सिद्धमादुदेंतेदोडधस्तनगुणहानिशलाकेगळु ३। इवं नोडलु उपरितनना. नागुणहानिशलाकेगळयिदु ५ अयिदु । अदु कारणमागि द्विगुणंगळल्लवेरडु रूपुळिदमधिकंगळप्पुदरिदं विशेषाधिकंगळेयप्पुर्वबुदत्थं ॥
एतानि अधस्तनोपरितनगुणहानिद्रव्याणि पृथगंतधनमित्यादिना संकलय्य मेलयित्वा तत्र तदणेऽपनीते शुद्धद्रव्यं तावन्मात्रमेव स्यात् १४२२ । तदानीयते
[अंतघणं गुणगुणियं १२८ । १३ । २ चतुभिः समच्छेद्य संगुण्यादिविहीणं ७२८ अधस्तनगुणहानिसर्व
द्रव्यं स्यात् । पुनः अंतवणं १२८ । १३ गुण २ गुणियं १२८ । १३ । २ षोडशभिः समच्छेद्यादिविहोणं ८०६
उपरितनगुणहानिसमस्तधनं स्यात् । मिलित्वा उभयधनमिदं १५ । ३४ । अत्राधस्तनगुणहानिप्रविष्टऋणे ११२ १० अपनीते शुद्धद्रव्यं स्यात् । १४२२ ] ॥ २४५-२४६ ॥
गुणहानि
६४
| चौथी
५२
विशेष निषेकोंमें जीवों गुणहानिमें |
ऊपरकी प्रथम ऊपरकी प्रथम । नाम का का प्रमाण सर्वद्रव्यका
| नीचेकी गुणहानिके निषेकोंमें- गुणहानिके प्रमाण
प्रमाण प्रथम
से ऋण १६ । सर्वद्रव्यमें ऊपरकी
११२ ऋण ६४ शेष पाँचवीं २६
८० गुणहानि
३५२ ऊपरकी
। ऊपरकी दूसरी ऊपरको द्वितीय
|नीचेकी गणहानिके निपेकोंमें गुणहानिके गुणहानि
ऋण ८ सर्वद्रव्यमें-से| ऊपरकी
गुणहानि
| ऋण ३२ तीसरी १०४
४८
शेष रहे गुणहानि
३२
१७६
ऊपरकी तीसरी ऊपरकी तीसरी दूसरी
नीचे की गुणहानिके निषेकोंमें- गुणहानिके गुणहानि
से ऋण ४ सर्वद्रव्य में ऊपरकी
गुणहानि
ऋण १६ प्रथम ४१६
शेष रहे
। दूसरी
ऊपरकी
२०८
तीसरी ४
२८
२४ २०
८८
गुणहानि
१. कोष्ठकान्तर्गतो पाठः ब प्रतो नास्ति ।
क-४७
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३७०
गो० कर्मकाण्डे अनंतरमर्थसंदृष्टियं तोरिदपरु :
पुण्णतसजोगठाणं छेदासंखस्ससंखबहुभागे।
दलमिगिभागं च दलं दव्वदुगं उभयदलवारा ॥२४७॥
पूर्णत्रसयोगस्थानं च्छेदासंख्यस्यासंख्यबहुभागे। दलमेकभागं च बलं द्रव्यद्वयमुभय५ दलवाराः॥
अर्थसंदृष्टियोळु द्रव्यप्रमाणं पर्याप्तत्रसराशियक्कुं। अवर प्रमाणमुर्मनित दोडे मुन्नं जीवकांडदोळु फेळ्द "आवळिअसंखसंखेणवहिदपवरंगुळेण हिदपवरं। कमसो तसतप्पुण्णा" येदितु त्रसपर्याप्त राशियं संख्यातभाजितप्रतरांगुलभक्तजगत्प्रतरप्रमितमक्कुं ४ योगस्थान द्वींद्रियपर्या
मजोवपरिणाम योगजघन्यस्थानमपतितमिवादियागि व वि १६ ॥ ४।।। संशिपंचेंद्रियपर्याप्त१० जीवपरिणामयोगोत्कृष्टस्थानपर्यन्तमाद सर्वनिरंतरपरिणामयोगस्थानंगळु ।। आदी अंते।
३२ । सुघे ३ ३१ । वढिहिदे ० २ ३१ रूवसंजुदे ठाणा ० २ ३१ एंदितिनितुं योग
यथार्थसंदृष्टया आहद्रव्यं संख्यातभाजितप्रतरांगुलभक्तजगत्प्रतरप्रमित पर्याप्तत्रसराशिः
-द्वींद्रियपर्याप्तपरिणामयोग
जघन्यात् - अपवर्तितात् - अनंतरस्थानमिदं २ आदिकृत्वा प्रागुक्तवृद्धघा वषितानि संज्ञिपर्याप्तपरिणाम
aप ००५
१५ योगोत्कृष्टपयंतानि ८४ व वि १६ । ४ । - । छे उ आदी - १ अंते -
० ०
०३२
शुद्धे -
०३१
वढिहिदे
२ ३१
सर्व-२३१
a a ७५ व वि १६ । ४।-
० ०० ०
.
यथार्थ कथन दिखाने के लिए कहते हैं
जैसे द्रव्यका प्रमाण चौदह सौ बाईस कहा उसी प्रकार संख्यातका भाग प्रतरांगुलमें देनेपर जो प्रमाण आवे उसका भाग जगत प्रतरमें देनेपर जो प्रमाण हो उतना पर्याप्त प्रस जीवोंका प्रमाण है । इसे ही यहाँ द्रव्य जानना। तथा जैसे स्थितिका प्रमाण बत्तीस कहा था उसी प्रकार दो-इन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लगाकर संज्ञी पर्याप्तकके उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान पर्यन्त जितने योगस्थान हैं उतनी स्थिति जानना।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
स्थानंगलिल्लिगे स्थिति येंबुदक्कुमेकें दोडे जवन्यस्थानं मोदगों डुत्कृष्टस्थानपर्यन्तमागि परिणामयोगसमस्त स्थान विकल्पंगळोळे कैकस्थानं प्रति स्वामित्वददं द्वींद्रियादिपर्याप्तत्रस राशि पसल्पडुगुमप्पुर्दारदं छेदासंख्यस्य पल्यच्छेदा संख्यातैकभागद । छे । असंख्यबहुभागे यथायोग्य
a
मप्प असंख्यार्ताददं खंडिसिद बहुभागेयोल छे दळं अर्धमुं
a a
येक भागमुं छे ? बहुभागादुर्धमुं छे
a a
रूव संजुदे
a २३१
a
बहुभागान् छे
a a
a a २
यथाक्रर्मादिदं द्रव्यद्वयं द्रव्यमुं स्थितियुमेंब द्वितयमुं उभयदळवाराः अधस्तनोपरितनदळवारंगळेंबुवु नानागुणहानिशलाकेगळगे पेसर क्कुमी सूत्रददमिन्तु नाल्कुं राशिगळपेळपट्टुवु ॥
एकभागयुतबहुभागादुर्धमेंबुदत्थं छे
2
O
० मत्तमिगिभागं च वळं
a a २
त्वात् । पत्यच्छेदासंख्यातैकभागस्य छे असंख्यातेन उपर्यधोगुणितस्य छे । एकभागं पृथकसंस्थाय छे १ शेष
მ
a a
a a
भागयुतमपराधं छे उपरितननानागुणहानिशलाका भवंति ॥ २४७ ॥
aa२
३७१
a
a a २
इत्यानी विकल्पानि योगस्थानानि स्थितिः, पर्याप्तत्रसराशेः तेषु स्वामित्वेन भक्त्वा दीयमान
मिन्तु
द्वाभ्यां भक्त्वा तत्रैकार्थं छे a अधस्तनानागुणहानिशलाका भवंति । पृथक्स्थापितैक
aa२
ऊपर जो चौरासी स्थान कहे हैं उनमें से दोइन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थानका प्रमाण जगत श्रेणिके असंख्यातवें भागको पिचहत्तर बार पल्यके असंख्यातवें भाग गुणाकरो । अपवर्तन करनेपर जगतश्रेणिका असंख्यातवाँ भाग ही हुआ । उसमें सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग मिलानेपर उसके अनन्तरवर्ती स्थान होता है । उसको आदि देकर संज्ञी पर्याप्तका उत्कृष्ट योगस्थान संदृष्टि अपेक्षा जघन्यसे बत्तीस गुणा और यथार्थ की अपेक्षा पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणा है । वहाँ तक स्थानोंका प्रमाण कहते हैं
दोइन्द्रिय पर्याप्त जघन्य परिणाम योगस्थानसे जो अनन्तर स्थान है वह तो आदि हुआ, और संज्ञी पर्याप्तका उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान अन्त हुआ । 'आदी अंते सुवे हिदे व संजुदे ठाणा' इस सूत्र के अनुसार अन्तमें से आदिको घटाइए। एक-एक स्थान में सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अविभाग प्रतिच्छेदोंकी वृद्धि होती है, अतः उससे भाग दें । जो प्रमाण हो उसमें एक मिलाइए तब त्रस पर्याप्त सम्बन्धी परिणाम योगस्थानोंका प्रमाण होता है । वहीं स्थितिका प्रमाण जानना ।
1
इन स्थानोंके धारक जीव कितने हैं यह बतलाने के लिए कहते हैं
जैसे आठ नाना गुणहानियों में से तीन नीचे को कही थीं, पाँच ऊपरकी कही थीं, उसी प्रकार पल्यके अर्द्ध च्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण समस्त नाना गुणहानि है । उसमें
५
१०
१५
२०
२५
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३७२
गो० कर्मकाण्डे णाणागुणहाणिसला छेदासंखेज्जभागमेत्ताओ।
गुणहाणीणद्धाणं सव्वत्थ वि होदि सरिसं तु ।।२४८॥ नानागुणहानिशलाकाः छेदासंख्यातेकभागमात्राः । गणहानीनामध्वानं सर्वत्रापि भवति सदृशं तु ॥
अधस्तनोपरितनोक्त नानागुणहानिशलाकेगळं कूडि छेदासंख्यातेकभागमात्रंगळप्पुवी नानागुणहानिशलाकेगळिदं स्थितियं त्रैराशिकविधानदिदं भागिसुत्तं विरलु प्र छ प ० ३१ इ १ बंद
लब्धं गुणहान्यायाममक्कु ० ३१ मीयायाममुभयत्राधस्तनोपरितननानागणहानिगळोळ सदृशं
२ छे
aa समानं तु नियमदिदं ॥
अण्णोण्णगुणिदरासी पल्लासंखेज्जभागमेत्तं तु ।
हेट्ठिमरासीदो पुण उवरिल्लमसंखसंगुणिदं ॥२४९।। अन्योन्यगुणितराशिः पल्यासंख्येयभागमात्रस्तु। अधस्तनराशितः पुनरुपरितनोऽसंख्यगणितः॥
___ता उभयनानागुणहानिशलाका मिलिताश्च्छेदासंख्यातैकभागमान्यः । ताभिः स्थिती भक्तायां
प्रछे फ - इ १ लब्धगुणहान्यायामः स्यात् - २ छे ३१ स च अधस्तनोपरितननानागुणहानिषु सदृशः a ०२३१
aaa
१५ समानः तु-नियमेन ॥२४८॥
असंख्यातसे भाग दें। एक भागको पृथक रखकर शेष बहुभागके आधा प्रमाण तो नीचेकी नाना गुणहानि जानना । तथा बहुभागका आधा और अलग रखा एक भाग मिलकर ऊपरकी नाना गुणहानि जानना ॥२४७।।
यही आगे कहते हैं
नीचे और ऊपरकी नाना गुणहानियाँ मिलानेपर पल्यके अर्द्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग हैं। उससे स्थितिमें भाग देनेपर जो प्रमाण आये उतना एक गुणहानि आयामका प्रमाण जानना। जैसे पूर्व में स्थिति बत्तीस कही थी। उसको सर्व नाना गुणहानि आठसे भाग देनेपर चार आये । सो चार एक गुणहानि आयामका प्रमाण है। वैसे ही यहाँ भी जानना ।
गुणहानि आयामका प्रमाण ऊपरकी गुणहानि और नीचेकी गुणहानिमें समान है। एक-एक ६ गुणहानिमें इतने स्थान होते हैं । इस गुणहानि आयामका दूना प्रमाण दोगुणहानिका प्रमाण
है ।।२४८॥
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काँटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३७३ अन्योन्यगुणित राशिः अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्यासंख्यातेकभागमात्र सामान्यदिदमकुं। तु पुनः मत्ते विशेषदिद अधस्तनराशितः अधस्तनान्योन्याभ्यस्तराशियं नोडलु उपरितनः उपार नान्योन्यायस्तराशि असंख्यसंगुणितः असंख्यातसंगुणितमकुं। अधस्तनान्योन्याभ्यस्तराशि प उपरितनान्योन्याभ्यस्तराशि प इन्तुक्तनवराशिगळगे संदृष्टि :
aaa
aa.
द्रध्य ४ स्थिति
३१ गुणहानि । ३१सामान्यनानागुणहानि छ सामान्यान्योन्याभ्यस्त प
aa
उपरि छे
उपरि अन्योन्याभ्यस्त प
०२
अधस्त छ ।
अधस्तनान्योन्याभ्यस्त प
paal
aal?
अनंतरं जघन्यपरिगामयोगस्थानस्थितिमोदल्गो उत्कृष्टपरिणामयोगस्थानस्थितिपयंतं प्रति स्थिति पर्याप्तत्रसराशिविभाजिसत्पडुगुमदत दोडे किंगतिगुणहाणिविभजिदे दब्वे दु जवभज्ज्ञ
एंदु किंचिदूनत्रिगुणहानियिदं द्रव्यं भागिसल्पडुत्तिरलु लब्धं यवमध्यमक्कु ४। गु ३ मी राशियं
दो गुणहानियिद भागिसुत्तं विरलु लब्धं प्रचयप्रमाणमक्कु ४ गु ३ गु २ मी प्रचयमं मत्त दो
जन्योन्याभ्यस्त राशिः पल्यासंख्यातकभागमायः सामान्येन भवेत् प तु-पुनः विशेषेण अधस्तनान्योन्या
भ्यस्तराशितः प उपरितनान्योन्याभ्यस्त राशिरसंख्यातगुणितः स्यात् प । अथ जघन्यपरिणामयोग- , aaa
aa स्थानमादि कृत्वा उत्कृष्टपरिणामयोगस्थानपर्यतेषु स्थितिविकल्पेषु पर्याप्तत्रसराशिविभज्यते तद्यथा
०००
नाना गुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त शि होती है। जैसे नीचेकी आठ और ऊपरकी बत्तीस अन्योन्याभ्यस्त राशि कही थी वैसे ही सामान्यसे पल्य के असंख्यातवें भाग अन्योन्याभ्यस्त राशि है। तथापि नीचेकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे ऊपरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यात गुणी है। अब जघन्य परिणाम योगसे लेकर उत्कृष्ट परिणाम योग पर्यन्त योगस्थानोंमें जीवोंका विभाग अंक संदृष्टिकी तरह इस .. प्रकार जानना
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________________
५
३७४
=
गु २
गुणहानियिदं गुणिसुतं विरलु लब्धं यवमध्यप्रमाणमेयक्कुं ४ गु ३ गुर मेले द्वितीयपुंजं मोदगडु तत्प्रथमगुणानिचरमवर्द्धन्त मेकैक विशेष होनक्रर्मादिदं पोगि चरमदोळु रूपोनगुणहानि
=
गु
मात्रचयंगळ हीनमक्कु ४ गु ३ गुँ २ मा चरमदोळोंदु विशेषमं कलेदोर्ड उपरितनद्वितीय
५
गुणहानिप्रथमजीव राशिप्रमाणमक्कु
द्विगुणिसिदोडे जीवयवमध्य प्रमाणदर्द्ध प्रमितमक्कुं
गु २
गु ३ गु २ । २ मेले मुन्निनंते तद्वितीयगुणहानिचरमपर्यंतं स्वविशेषहीनक्रमदिदं पोगि चरमदोळु रूपोनगुणहानिमात्रचयंगळ हीनमक्कु ।
५
१० स्यात्
गो० कर्मकाण्डे
गु
गु ३ गुँ २ । २ मत्तमा चरमदोळु पूर्वविशेषमनेयोदं कळेदोडे उपरितनतृतीयगुणहानि
५
ग १
प्रथमजीवराशिप्रमाण मक्कु गु३ । २ मिल्लियुं मुन्निनंते संदृष्टिनिमित्तमागि केळगेयु
५
==
=
गु १
गु३ २ मिल्लि संदृष्टिनिमित्तमागि मेगेयुं केळगेयु
५
किचिन्न त्रिगुणगुणहान्या द्रव्ये भक्ते यवमध्यं स्यात् ==
४ गु ३
५
४ गु ३ - गु २
५
मात्रचया होनाः स्युः =
गु २
४ गु ३ - गु २
५
रिद्वितीयपुंजमादि कृत्वा तत्प्रयमगुणहानिचरमपर्यंतं एकैकविशेषहीनक्रमेण गत्वा चरमे रूपोनगुणहानि
तस्मिन् पुनः एकविशेषेऽपनीते उपरितनद्वितीयगुणहानिप्रथमजीव
तच्च दोगुणहान्या भक्तं प्रचयः
स एव पुनः दोगुणहान्या गुणितः यवमध्यं स्यात् ==
गु ४ गु ३- गु २
५
राशिप्रमाणं स्यात् = गु । इदं संदृष्टिनिमित्तं उपर्यधोद्विकेन गुणिते जीवयवमध्याध ४३-२
५
किंचित् न्यून तिगुनी गुणहानि आयामका भाग सर्वद्रव्यको देनेपर यवमध्यका १५ प्रमाण होता है । उसको दो गुणहानिसे भाग देनेपर चयका प्रमाण होता है । चय और विशेषका एक ही अर्थ है । इस चयको दोगुणहानिसे गुणा करनेपर यवमध्यका प्रमाण होता है । ऊपरकी गुणहानि में प्रथम निषेक तो जितना यवमध्यका प्रमाण है उतना है। उससे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३७५
मेलेयु द्विगुणिसिबोर्ड द्वितीयगुणहानिप्रथमद्रव्यमं नोडली तृतीयगुणहानिप्रथमद्रव्यमर्द्ध मक्कु
=
गु २
४ गु ३ गु २।२।२ मिन्तु मेले चयहीनमागुत्तं पोगि चरमदो रूपोन गुणहानिमात्र
=
स्वविशेषंगळुहीन मक्कु ४ गु ३
५
=
गु
गुणहानिप्रथमद्रव्यमक्कु । ४ गु ३ गु २ । २१२ मिल्लियु संदृष्टिनिमित्तमागि केळगेयु मेगेयु
५
द्विगुणिसिदोडे तृतीयगुणहानिप्रथमद्रव्यमं नोडली चतुर्थगुणहानिप्रथम राशिद्रव्यमद्ध मक्कु -1
५
=
गु
४ गु ३ गु २ । २ । २ । २ मिल्लिदं मेले चयहोनमागुत्तं पोगि चरमदोलु रूपोन गुणहानिमात्र
५
मात्रचयहीनाः स्युः
स्यात् =
गु २ उपरि द्वितीयगुणहा निचरमपर्यंतं स्वविशेषहीन क्रमेण गत्वा चरमे रूपोनगुणहानि४गु ३ - गु २२
५
स्यात् =
गु
गु
४ गु ३ - गु २२
५
=
२।२।२ मिल्लियों दु विशेषमं कलेदोडे चतुर्थ
·
===
गु तस्मिन् पुनः एकविशेपेऽपनीते उपरितनतृतीयगुणहानिप्रथमजीव राशिप्रमाणं ४ गु ३- गु २३
५
तच्च उपर्यधो द्वाभ्यां गुणितं स्फुटं द्वितीयगुणहानिमात्र प्रथमद्रव्यार्धं दृश्यते
गु २ उपरि चय होनक्रमेण गत्वा चरमे रूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषा हीनाः स्यु:४. गु ३ - गु २२२
५
गु
४ गु ३ - २२२
५
अविशेषेऽपनीते चतुर्थगुणहानिप्रथमद्रव्यं स्यात्
गु ४ गु ३- गु २२२
५
=
तच्च उपर्यधो
१०
ऊपर द्वितीयादि निषेक एक एक चय हीन जानना । सो एक कम गुणहानिके आयाम प्रमाण चय यवमध्य में से घटानेपर प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकका प्रमाण होता है । उसमें एक. चय घटानेपर यवमध्यसे आधा प्रमाण होता है वही द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक होता है । इससे ऊपर एक-एक चय घटानेपर द्वितीयादि निषेक होते हैं । सो एक कम गुणहानि आयाम प्रमाण चयोंके घटानेपर अन्तिम निषेक होता है । यहाँ प्रथम गुणहानिमें जो घयका प्रमाण था उससे आधा दूसरी गुणहानि में चयका प्रमाण जानना । तथा दूसरी गुणहानिके अन्तिम में से एक चय घटानेपर दूसरी गुणहानिके प्रथम निषेकसे आधा प्रमाण होता है ।
१५
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३७६
गो० कर्मकाण्डे
गु
स्वविशेषगळं होनमक्कु ४ गु ३ गु २।२।२।२ भिन्तु पंचमदिगुणहानिगळाळं तत्तद्गुणहानि प्रथमजीवद्रव्यंगळर्धा क्रमदिदं पोगियुपरितनगुणहानिगळ चरमगुणहानियोळु चरमजीवद्रव्यदोळु उपरितनरूपोननानागुणहानिमात्रद्विकंगळु हारंगळप्पुववनन्योन्याभ्यास माडिदोडे लब्धमुपरि
तनान्योन्याभ्यस्तराशियद्धं हारमक्कुमागि रूपाधिकगुणहानिगुणकारमक्कुं-1४ गु ३ गु २ प
५
००२ ५ मत्तमधस्तनगुणहानिगळोळु यवमध्याधस्तनानंतरप्रथमगुणहानिप्रथमजीवद्रव्यं मोदल्गोंडु गुणहामिगुणहानि प्रति समस्तस्थितिद्रव्यदोळु चरमगुणहानिचरमस्थितिद्रव्यपर्यन्तमेकैकस्वस्वगुणहानिप्रचयंगळं ऋणमनिक्किदोडे अधस्तननानागुणहानिशलाकाप्रमितोपरितननानागुणहानिगळ स्थितिद्रव्यंगळोळु समानमक्कुमन्तु ऋणमिक्कल्पडुत्तिरलु अधस्तनप्रथमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमु.
द्विक्रेन गुणितं तृतीयगुणहानिप्रयमद्रव्याध स्फुटं स्यात् = गु२ उपरि चथहीनं सत् चरमे रूपोन
४ गु ३-गु २ २ २ २ ।
७m.
गणहानिमात्रस्वविशेषहीनं स्यात -
गु एवं पंचमादिगुणहानिषु तत्तदगणहानिप्रथमजीवद्रव्याणि ४ गु ३-गु २२२२
अधिक्रमण गत्वा चरमगुणहानौ चरमजीवद्रव्ये रूपोनोपरितननानागुणहानिमाद्विकानि हारा भवंति
तेषामभ्यासे उपरितनान्योन्याम्पस्तराध्यधं स्यात् । गुणकारो रूपाधिकगुणहानिः स्यात् = गु
४ गु ३-गु २ प
पुनरधस्तनगुणहानिषु यवमध्याधस्तनानंतरप्रथमगुणहानिप्रथमजीवद्रव्यमादि कृत्वा गुणहानि गुणहानि प्रति समस्त स्थितिद्रव्येषु चरमगुणहानिचरमस्थितिद्रव्यपयंतेषु एकैकस्वस्वगुणहानिप्रचयप्रमितऋणे निक्षिप्ते अधस्तननानागुणहानिशलाकाप्रमितोपरितननानागुणहानिस्थितिद्रव्येण समानं स्यात् तेन अधस्तनप्रथमगुणहानिप्रथम
वही तीसरी गुणहानिका प्रथम निषेक जानना। यहाँ चयका प्रमाण दूसरी गुणहानिके चयसे आधा जानना । उतना चय घटानेपर द्वितीयादि निषेक होते हैं । इस तरह अन्तकी गुणहानि पर्यन्त जानना। प्रत्येक गुणहानिमें जीवोंका प्रमाण आधा-आधा होता जाता है। नीचेकी गणहानिमें यवमध्यसे नीचे प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकसे लगाकर अन्तकी गणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त प्रत्येक गणहानिके समस्त निषेकोंमें जो-जो ऊपरकी गणहानिके निषेकोंमें प्रमाण कहा है उनमें से अपनी-अपनी गणहानिमें जितना-जितना चयका प्रमाण कहा है जतना-उतना निषेकमें घटानेपर निषेकोंका प्रमाण होता है। वही कहते हैं
२.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३७७ १६ परितनप्रथमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यसमानमक्कु ६ गु३ २ मिल्लिदं केळगेकैकविशेषहोनक्रमदिदं पोगि चरमस्थितिद्रव्यदोछु रूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषंगळु होनमक्कु
११२
४ गु३ गु २ मिल्लियोंदु विशेषमं होन माडिदोडयधस्तनद्वितीयगुणहानियोळु प्रथमस्थितिद्रव्यमुपरितनद्वितीयगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यसमानमक्कु गु ३ २ मिल्लि संदृष्टिनिमित्तं पूर्वदंते केळगैयु मेगेयु द्विगुणिमुत्तं विरलु जीवयमध्यप्रमाणदर्द्धमक्कु ६ गु३ गुं२ ५ मल्लिदं केळगे केळगे स्वविशेषहीनक्रमदिदं पोगि चरमस्थितिद्रव्यदोळु रूपोनगुणहानिमात्रस्व
विशेषंगळु हीनमक्कु ४ गु३ गु२।२ मल्लियोंदु विशेषमं होनमं माडिदोर्ड तृतीयाधस्तन
गुणहानि प्रथमस्थितिद्रव्यमक्कु ४ गु ३ गु२।२ मिल्लियु संदृष्टिनिमित्तमागि केळगेयु
स्थितिट व्यं उपरितनप्रथमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यं च समानं = गु २ इतोऽधः एककविशेषहीनक्रमेण
४ गु ३- गु२
गत्वा चरमस्थितिद्रव्ये रूपोनगणहानिमात्रस्वविशेषा हीयते = ग पुनरेकविशेषेपनीते अधस्तनद्वितीय- १०
४ग ३-गु २
इदं संदृष्टि
गणहानी प्रथमस्थितिद्रव्यमुपरितनद्वितीयगणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यं समानं स्यात् = गु
४ गु ३-गु २
निमित्तं उपर्यधो द्वाभ्यां गुणितं जीवयवमध्यप्रमाणाधं स्यात् = ग २ इतोऽधः विशेषहीनक्रमेण गत्वा
४ गु ३-गु २२
चरमस्थितिद्रव्ये रूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषा हीयंते = गु अत्रकविशेषहीने तृतीयाषस्तनगुण
४ गु ३- गु२२
asarammar
ऊपरकी गुणहानिका प्रथम निषेक यवमध्य प्रमाण है। उसमें से प्रथम गुणहानिमें जितना विशेष (चय ) का प्रमाण कहा है, उतना घटानेपर नीचेकी प्रथम गुणहानिके प्रथम ... निषेकका प्रमाण होता है। तथा ऊपरकी प्रथम गुणहानिके दूसरे निषेकका जो प्रमाण कहा ।
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३७८
गो० कर्मकाण्डे मेलयु द्विगुणिसिदोड उपरितन द्वितीयगुणहानि प्रथमस्थितिद्रव्यार्द्धसमानमागियधस्तनद्वितीयगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यदद्धमात्रमी तृतीयाधस्तनगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमक्कुं । ४ गु ३ गु शरा२ यिदरनंतर स्थितिद्रव्यं मोदल्गोंडेकैकस्वविशेषहोनक्रमदिदं पोगि चरमस्थितिद्रव्यदो रूपोन
-
ग २
गुणहानिप्रमितस्वविशेषंगळ होनमक्कु ।
२।२।२ मिल्लियों दु विशेषमं होनम
माडिदोडे चतुर्थगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमक्कु ४ गु३ [ २।२।२ मिल्लियु संदृष्टिनिमित्तमागि केळगेयु मेगेयु द्विगुणिसिदोर्ड चतुर्थगुणहानिप्रथम स्थितिद्रव्यमुपरितन तृतीयगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यार्द्धसमानमुमागि तृतीयाधस्तनगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यार्द्धमी चतुर्थाधस्तनगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमक्कु ४ गु३ Y २।२।२।२ मल्लिदं केळगे द्वितीयस्थिति
द्रव्यं मोदल्गो डेकैकस्वविशेषहीनक्रमदिदं पोगि चरमस्थितिद्रव्यदोळुरूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषंगळु १० हीनमक्कु । । गु ३ गु २।२।२।२ मिनु पंचमाद्यधस्तनगुणहानिगळोळं तत्तद्गुणहानि
हानिप्रयमस्थितिद्रव्यं भवेत् = गु इदमपि संदृष्टिनिमित्तमुपर्यधो द्वाभ्यां गुणितं उपरितनद्वितीय
४ गु ३- गु २२
गुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्याधसमान अबस्तनद्वितीयगुणहानिद्रव्यार्धमात्रं तृतीयाधस्तनगुणहानिप्रयमस्थितिद्रव्यं स्यात् - . गु २ अधः एकैकस्वविशेषहीनक्रमेण गत्वा चरमस्थितिद्रव्ये रूपोनगुणहानिप्रमितस्व
४ गु ३-गु २२९
विशेषा हीयते -
गु अत्रकविशेषे हीने चतुर्थगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यं स्यात् - ४ गु ३-गु २ २ २ ।
४ गु ३-गु २ २२
१५ इदमपि संदृष्टिनिमित्तं उपर्यधोद्विकेन गुणितं चतुर्थगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यं उपरितनतृतीयगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्याधसमानं अधस्तनततीयगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यार्धमात्रं स्यात -
गु २ इतोधः एकक स्व४ गु ३- गु २ २ २२
है उसमें से प्रथम गुणहानिके चय प्रमाण घटानेपर नीचेकी प्रथम गुणहानिके दूसरे निषेकका प्रमाण होता है । इस तरह प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त जानना। तथा ऊपरकी दूसरी गुणहानिमें जो प्रथम निषेकका प्रमाण कहा था उसमें से दूसरी गुणहानिमें जो विशेष.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३७९ प्रयमस्थितिद्रव्यंगळा क्रमदिदं पोगियधस्तन चरमगुणहानियोळु चरमस्थितिद्रव्यदोलु अधस्तनरूपोन नानागुणहानिमात्रद्विकंगळु हारमागिप्पुववनन्योन्याभ्यासं माडिदोडे लब्धमधस्तनान्योन्या
---
ग
भ्वस्तराश्यर्द्धमागि हारमक्कुं। गुणकारमुं रूपाधिकगुणहानि यक्कु ४ गु ३ गुप , मी
aaa? राशियु मोयधस्तननानागुणहानिगल शलाकाप्रमितोपरितनगुणहानिगळ चरमेगुणहानिचरमस्थितिद्रव्यदोलु समानमक्कुमिन्तुक्ताधस्तनगुणहानिगळगमवर ऋणंगळगमुपरितनगुणहानिगळगं यथाक्रम- ५ दिदं विन्यासरचनाविशेषमिदु :अधस्तनगुणहानि मुखभूमीत्यादि ऋणं उपरितनगुणहानि प्रथम गुण
प्रथमगुणहानि । चरमगुणहानि 3 - गु३ ग. समस्त ऋण ४ गु ३ गु२।२ = --- ग १ | ४ गु ३ गु २
ग २१
aari
॥
FE7
३
Fou
ग
२
ग २प
aa
उपरितन
॥
»3
अधस्तन चरमगुणहानि मुखभूमीत्यादि चरमगुणहानि = --- गु
समस्त ऋण ॥ ४ गु ३ गु२प १- ग३
-गु१ । aaa२ ४ गु ३ ३ गप
४ ग ३ गु२५ । aaa२५
aaa - ग ४ गु ३ गु२५
aaa
ديدي اس
دي في لا م له
प्रथम ग.
6464
००
॥
एवं
विशेषहीनक्रमेण गत्वा चरमस्थितिद्रव्ये रूपोनगुणहानिमात्रस्वविशेषा हीयते -
४गु३-गु २२२२
पंचमाद्यधस्तनगुणहानिषु तत्तद्गुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्याणि अर्धार्धक्रमेण गत्वा अधस्तनचरमगुणहानी चरमस्थितिद्रव्ये रूपोनाधस्तननानागुणहानिमात्रद्विकानि हाराः स्युः । तेषामभ्यासे अधस्तनान्योन्याम्यस्ताधू स्यात् ।।
गुणकारो रूपाधिकगुणहानिः स्यात्
ग अयं राशिः अधस्तननानागणहानिशलाकाप्रमितो४ गु ३-गु २ प
aaa?
का प्रमाण कहा है उतना घटानेपर नीचे की द्वितीय गुणहानिमें प्रथम निषेकका प्रमाण जानना । उसमें-से उतना ही घटानेपर उसके दूसरे निषेकका प्रमाण जानना। इस तरह अन्तके निषेक पर्यन्त जानना । इसी प्रकार तृतीय आदि गणहानिमें भी जानना। नीचेकी गुणहानियोंको रचनामें चयका प्रमाण जोड़ देनेपर नीचेकी गुणहानिका प्रमाण ऊपरकी १५
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३८०
मो० कर्मकाण्डे
मुखभूमीत्यादि
103
४ गु
३ ग २ प२
aai
मुखभूमीत्यादि
--- गु३ ग
103
४ गु ३ गरा
परितनगुणहानिचरमगुणहानिचरमस्थितिद्रव्यसमः । उक्ताधस्तनगुणहानीनां तदृणानामुपरितनगुणहानीनां क्रमेण विन्यासोऽयंअधस्तनप्रथमगुणहानिः मुखभूमीत्यादिनानी- । ऋणं उपरि उपरितनचरमगुणहानिः मुखभूमीत्यादि
गु २ ४ गु ३-गु २ ताधस्तनप्रथमगुण४ गु ३- गु २ गु।
= गु ३ गु हानिद्रव्यं
४ गु ३-गु २ प ४गु ३-गु २ प २
a apų aar
ന്
-
गु
२२
ന
४ गु ३-गु २
३
३- गु २५ ।
aai
उपरितनप्रथमगणहानिः मूखभमीत्यादि
अधस्तनचरमगुण.
मूखभूमीत्यादि
| ऋणं चरमगण =
गु २ गु ३-गु २ प
४ गु ३-गु २ ___aaa २ | ४ गु ३-गु २ प२ ५.
aaai
= गु ३ गु ४ गु ३-गु २।२
aaa!
३-
गु
२
64.
४ग
४ गु ३-गु २ प
aaai
५
गुणहानिके समान हो जाता है । इस तरह जिस-जिस निषेकमें जितना-जितना प्रमाण हो उस-उस योगस्थानमें उतना-उतना जीवोंका प्रमाण होता है।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३८१ अनंतरमी त्रिविधपंक्तिगळ संकलन पेळल्पडुगुमदेतदोर्ड :-अधस्तनप्रथमगुणहानिप्रथम
स्थित्तिद्रव्यमिछु ई गरे । ३ तच्चरमस्थितिव्यमिदु गु १२ मुखभूमोजोग
४ गु ३
गु २ दळे ४ ग
= --- गु३ गु २।२ पदगुणिदे ४ गु ३ गु २।२
पदधणं होदि
--
गु २
एंविदधस्तनप्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुमघस्तनचरमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमिदु ४ गु ३ गु२ प.
daai
- -- ग३ ग २ तच्चरमस्थितिद्रव्यमिदु ४ गु ३ गु२२ मुखभूमोजोगदळे पदगुणिदे पदधनं होदि येंदु ५
ग३ ग तंद घनमिदु । अधस्तनचरमगुणहानि द्रव्यमक्कु ४ गु ३ गु२५२
aaa?
अंतधणं गुणगुणियं
३
अपत्तितमिदु ४
%3D ४
- गई ३
ग
३ ₹
आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजियं एंदु आदियं कळेदोडे
तेषां संकलनोच्यते-अधस्तनप्रथमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमिदं = गु २ तच्चर मस्थितिद्रव्य
४ गु ३-गु २
॥
पदधणं
= गु ४ गु ३-गु २
मुहभूमीजोगदले- -
गु ३ पदगुणिदे = गु ३ गु ४ गु ३-गु २ । २ .
४ गु ३-गु २२
3
होदि इति तदधस्तनप्रथमगुणहानिद्रव्यं स्यात् । अधस्तनचरमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमिदं
१०
महभूमीजोगदले पदगुणिदे
गु २
तच्चरमस्थितिद्रव्यमिदं = ४गु ३- २१
४ गु ३-गु २५ aaai
aaai
पदधणं होदि इत्यधस्तनचरमगुणहानिद्रव्यं भवति - गु ३ गु अंतधणं गुणगुणियं = गु ३ गु २
४ गु ३-गु २ प २
४ गु ३-गु २ । २ aaa?
गुणहानियों में सब द्रव्यको जोड़नेके लिए 'मुह भूमि जोगदले पदगुणिदे पदधणं होदि' इस सूत्रके अनुसार मुख हुआ अन्तिम निषेक, भूमि हुई आदि निषेक, दोनोंको जोड़कर
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________________
५
३८२
२
ऋणमेनिते दोर्ड प्रथमाधस्तनगुणहानियोळु गच्छमात्रस्व विशेषंगळवकुं ।
गु ३
= गु
--
स्तनगुणहानियोळं गच्छमात्रस्वविशेषंगलक्कु ४ गुँ ३ गु २ प
५
३ प
aaa२५ इदु अधस्तनगुणहानिगळ समस्तधनमक्कुमी धनदोळिद्द
aaa२
मन्तागुत्तं विरलन्तधणं
aaa२
गुणगुणियं आदिविहोणं रूऊणुतरभजियमेंदु तंद समस्ताधस्तनगुणहानिगळ ऋणमिनितक्कु ।
ܘ ܂
प
aaa२प
aaa२
गो० कर्मकाण्डै
गुणहानावपि तावंतः स्युः =
२
उपरितनप्रथमगुणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमिदुगु गु तद्
३ २
गुणंहानिचरमस्थितिद्रव्यभिदुर्गुळे३ गुरे मुखभूमोजोगवळें पबगुणिवे पबघणं होदि एंडु
गु ३ प प aaaaaa
५
अपवर्तितं = गु ३ आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजियं
४ गु ३-२
५
धनं स्यात् । अत्रस्थं ऋणं तु प्रथमाधस्तनगुणहानौ गच्छमात्रस्वविशेषाः स्युः
गु ४३-२ गुप
५
१० मित्यधस्तनसर्व गुणहानिऋणं स्यात्
=
aaa२
४ गु ३ ५
द्रव्यमिदं = गु २ तच्चरमस्थितिद्रव्यमिदं४ गु ३ - गु २
५
=
४ गु ३-२
५
प a a a
=
गु ४ गु ३ गु रँ चरमाध ४.गु ३ गु
प aaa
गु ४ गु ३-गु २
५
-
गु ४ गु ३ - गु २
५
अंतधणं गुणगणियं आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजिय
इत्यघस्तनगुणहानि सर्व
चरमाघस्तन
उपरितनप्रथमगुणहातिप्रथम स्थिति
आधा करें। फिर उसे गुणहानिके आयामसे गुणा करें। जो-जो प्रमाण हो उतना उतना अपनी-अपनी गुणहानिमें सब द्रव्यका प्रमाण जानना । सो प्रथम गुणहानिके सब द्रव्य से दूसरी गुणहानिका द्रव्य आधा है। इस तरह उत्तरोत्तर गुणहानिका द्रव्ये आधा-आधा १५ जानना । सब गुणहानियोंके द्रव्यको जोड़नेके लिए 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्र के अनुसार प्रथम गुणहानिका द्रव्य अन्तधन, उसको गुणकार दोसे गुणा करो। उसमें अन्तिम गुणहानि
मुहभूमी जोगदले पदगुणिदे पदधणं -
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३८३
३८३
--
ग ३ग १
तंदुपरितनप्रथमगुणहानिद्रव्यमिदु ४ गु ३ गु २२ उपरितनचरमगुणहानिप्रथमस्थिति
॥
४ गु ३ग
मस्थिति
६
aai
aa?
सध्यमिङ पु म पु २ ५. , तवगुणहानिचरमस्थितिव्यमितु पुनरिए कुलसुगीजोगायो कि पवगुणित पयर्ण होव एंड के सिर पर संब
aa२
- गु३ ग २
चरमोपरितनगुणहानि द्रव्यमक्कुं। मत्तमंतधणं गुणगुणियं
२।२ अपत्तितमिदु
- गु३ प ४ गु ३ ३ आदिविहीणं रूऊणुत्तर भजियमेंदु आदियं कळेदोडे ४ गु ३२ २
,
५
aap
यिदु उपरितनगुणहानिगळ समस्तधनमक्कुमिन्तुक्तमूरु राशिगळं क्रमदिदं स्थपिसल्पडुत्तिरलु उपरि
होदीति उपरितनप्रथमगणहानिद्रव्यमिदं
- ग३ग
उपरितनचरमगणहानिप्रथमस्थितिद्रव्यमिदं ४ गु ३ - गु २।२।।
= गु २ ४ गु ३-गु २५
००२
तच्चरमस्थितिद्रव्यमिदं =
मुहभूमीजोगदले =
गु ३ ४ गु ३-गु प २
४ गु ३-गु २५ २ aai
aa२
५
पदगुणिदे पदधणं
गु ३ गु १ इत्युपरितनचरमगुणहानिद्रव्य भवति । पुनः अंतधणं गुण
२।२प
aai
१
गुणियं - गु ३ गु २ अपवर्तितं = गु ३ आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजियं = गु ३. प ४गु ३-गु२ । २ ४ गु ३-२
४गु ३-२१ aa ५ aa
गु ३-गु२। २४
२ -
३
-२५
के द्रव्य आदि धनको घटाकर एकका भाग देनेपर ऊपर और नीचेकी सब गुणहानियोंके द्रव्यका प्रमाण होता है। नीचेकी गुणहानियोंमें जो अपना-अपना विशेष प्रमाण घटाया है उसको गुणहानि आयामसे गुणा करनेपर अपनी-अपनी गुणहानिमें घटाये गये विशेषका प्रमाण होता है । सब घटाये गये ऋणको जोड़ने के लिए 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्रके
.
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३८४
तनगुणहानिद्रव्य मुमधस्तनगुणहानिद्रव्य मुमल्लिय ऋणमुमिन्तुरपुंवु
अधस्तन धन
गु प
३२
उपरि
धनं - - गु ३ ४ गु३ - २प
५
=
11
स्वर
४ गु ३२
५
ई मूरुं राशिगळ तंतम् ऋणरूपुगळं तंतम्म केळगेस्थापिसिदोडे यथाक्रमविदम तिप्पुंवु :
-:
= गु ३
aa प
४ गु ३- २ प
५
१
= ३
४ गु ३
५
aa
०
१
२ प
गु ३
a a
aa
ग ३
इसी है इनकी के द्वार
३ २
aa
aaa
३ प
मत्तमी मूरु राशिगळनपववतसि स्थापिसिदोडितिर्पुवु
aa ४ गु ३ २
प
५ इत्युपरितनगुणहानि सर्वधनं स्यात् । उत्तरराशित्रयं क्रमेणेदं - उपरिनधनं - = गु ३
.
4
aa
a
प
aa
गो० कर्मकाण्डे
प
aaa
ॠण मिदु =
ऋणं
अधस्त
=
प
aa प
१
aaa
१
गु ३
४ गु ३- २ प
५
= गु ३
४ गु ३
५
प
४ aaa
५
प
४ गु -३प aaa
५
a aa
०
प
aaa
aaa
१
२ प
| उपरितन
धन
aaa
३ प
ॠण =
॥ॐ ॐ
aaa
गु ३
गु ३ aaa प
ऋणं
=
aaa
प
४ गु ३-२ aa
५
aa
१७५१
४ गु ३ - प ५
स्वस्व ऋणरूपे स्वस्वाधः स्थापिते एवं -
aaa
०
=
१
४ गु ३ - प
५.
प
aa २
प
aa
aaa
प
მ მ მ
aaa
अघस्तन
अनुसार प्रथम गुणहानिके ऋणको गुणकार दोसे गुणा करके तथा अन्तिम गुणहानि के ऋणको उसमें से घटाकर एकका भाग देनेपर जो प्रमाण हो उतने ऋणके प्रमाणको ऊपरकी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३८५
३ २५
aaa
aa
aaa
उभयधनराशिगळं कूडिसियपत्तिसियधिकरूपं केळगे स्थापिसिदोडिद् ४ ग ३ '
केळगे
स्थापिसिद अधिकपिगे प्रथमऋणं समानमेंदु शोधिसि कळेदु मत्तं ऋणस्य ऋणं राशेर्द्धनं भवति ये'दु प्रथमऋणदऋणमं द्विदिदं समच्छेदम माडिदुदनिदं ४ गु ३ ५२ अधस्तनगुणहानि
--
२
aaa
ग
३
द्वितीयऋणरूपिनोळ शोधिसिदोडिदु
२ प ई द्वितीयाधस्तनगुणहानि ऋणरूपि
aaa
अपवतिते एवं
ऋणं
م ده ده
गु ३
३-
२
= गु३ १
गु ३- २५
مه وه دي
४ गु ३-
२५
४ गु ३-प
aaa
aa
a
a
a
उभयधने संयोज्य अपवर्तिते अधिकरूपमधः संस्थाप्य = ग ३ = १-तेन प्रथमऋणं समानमिति
४ गु ३-४ गु ३
देयं पुनः ऋणस्य ऋणं राशेर्धनमिति प्रथमऋणस्य ऋणं द्वाभ्यां समच्छिद्य =
२ अधस्तनगुण४ गु-प २
aaa गुणहानिके द्रव्यमें घटानेपर अथवा नीचेकी गुणहानिके द्रव्यमें मिलानेपर नीचे और ऊपरकी गुणहानियोंका द्रव्य समान हो जाता है । तथा ऊपर और नीचेकी सर्वगुणहानियोंके सब
- क-४९
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३८६
गो० कर्मकाण्डे
नोळ उपरितनगुणहानिऋणरूपमसंख्या तकभागमक्कुमेददं साधिकं माडिदोडे शेषऋणमिनितक्कु ।
गु ३ । १ गु ३ प २
रूपस्यासंख्यातैकभागमनुभयधनयुतियोळु गुणकारभूत त्रिगुणहानियो
aaa
=
fafari माडि ४ गु
५
गु ३
मिदं
१० साधिकीकृत्य
५
सर्व्वद्रव्यप्रमाणं पर्याप्तत्रसराशियक्कु ४ मी संकलन विधानदोळ ग्रंथकारनप्पाचार्य्यनधस्तन५ गुणहानिगळोळु संकलनानिमित्तमागि ऋणमनधस्तनप्रथमगुण हानिप्रथम स्थितिद्रव्यमप्यन्तु यवमध्यप्रमितऋणमनोमे॑र्ये यिक्कि १२८ चरमाधस्तनगुणहानि चरमस्थितिद्रव्यमनिनितं १६ धनमं माडि संकलिसिन कारणमागियधस्तनप्रथमादिगुणहानिगळ प्रथमचरम स्थितिद्रव्यंगळ रूपहीनंगळं गुणहानिमात्र गुणकारंगळागि ऋणरहितंगळु सूचिसल्पट्टुवु:
हानिद्वितीयऋणरूपे संशोध्यं
ग २
=
गु ३ ४ गु ३ ५
३
ग ३
=
०००
=
ज्
किंचिदून त्रिगुणहानिगे किंचिदून त्रिगुणहानियनपर्वात्तसिदोडे
१
प २
aaa
गु ३
४ गु ३- २ प
५
पी ...
४ गु ३ गु २
aaa
५
---
गु २ गु ३ गु २२
०००
s ܡI
ܡII
गु २ प
o
aaa २
गु २
गु ३ गु २ प
aaa २
इदं पुनः उपरितनगुणहानिऋणेन स्वासंख्यातैकभागेन
उभयधने गुणकारभूत त्रिगुणगुणहानी किंचिदूनयित्या गु ३
४ गु ३
५
→>>
=
- अपवर्तिते सर्वद्रव्यं पर्याप्तत्र सराशिः स्यात् । ४ अत्र ग्रंथकारेण अघस्तनगुणहानिषु संकलनार्थं अधस्तन प्रथमगुणहानिप्रथम स्थितिद्रव्यभूतयवमध्यप्रमितमृणं युगपदेव निक्षिप्य । १२८ । चरमाघस्तनगुणहानिचरम स्थितिद्रव्यमिदं । १६ । धनं कृत्वा संकलितं ततोधस्तनप्रथमादिगुणहानीनां प्रथमस्थितिद्रव्याणि रूपोनानि चरमस्थितिद्रव्याणि गुणहानिमात्रगुणकाराणि ऋणरहितानि सूचितानि -
१५ द्रव्यको जोड़नेपर पर्याप्त त्रस जीवों का प्रमाण होता है । इस प्रकार पर्याप्त सम्बन्धी परिणाम योगस्थानों में पर्याप्त त्रस जीवोंका प्रमाण जानना । सो ऊपरकी गुणहानिका प्रथम निषेकरूप
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३८७
अनु कारणमागि वृत्तिकारं पेद संकलने ग्रंथकारन संकलनेयोळु विरोधिसत्पडुगुमे दु भ्रांतिसल्वेडेकेदोर्ड धनऋणंगळगे होनाधिकभावमिल्लप्पुदरिदं ।
अनंतरमुक्त द्वींद्रियपर्य्याप्तजीव जघन्यपरिणामयोगस्थानं मोदल्गोडु संज्ञिपंचेंद्रियपय्र्याप्तजीवोत्कृष्ट परिणामयोगस्थानावसानमादनिरंतरतमागि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रजघन्यस्पर्द्धकंदादृशवृद्धिर्वाद्धतंगळप्प समस्तयोगस्थानंगळोळ जघन्यस्थानमादिया गेकैकस्थानंगळगे स्वामिगळु यवाकाररचनेयप्पंतु स्वस्थानदोळु चयाधिकंगळं परस्थानदोळ द्विगुणंगळं चयाषिकंगळं मागुतं पोगि यवमध्यदोळ सर्वोत्कृष्टंगळुमल्लिदं मेले स्वस्थानदोळु चयहोनंगळु परस्थानदोळु द्विगुणहीनंगळं चयहीनं हीनंगळुमागुत्तं पोगि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानदोलु सर्व्वतस्तोकं गळागिद्द जीवंगळु तंतम्मयोगस्थानददमे तप्प प्रदेशबंधमं माळमुर्वेदोडे त्रैराशिक सिद्धमप्प समयप्रबद्ध जयवृद्धिप्रमाणमं निरूपिसिदपरु :
गु २ ४ गु ३- गु २
५
०
ܕܚܢ
गु
००४ गु ३ - गु २
५
= गु २
४ गु ३-गु २ । २
५
=
गु
००४ गु ३ - गु२।२
०
= गु
०००४ गु ३ - गु २ प
o
O
O
०
O
G
गु
४ गु ३ - गु २ प
aaa २
aaa२
तर्चनेन वृत्तिकारोक्तसंकलना विरुध्यते तन्न । धनर्णयोर्हीनाधिक्याभावात् ।। २४९ ।। अथोक्तं द्वींद्रियपर्य्याप्तपरिणामयोगोत्कृष्टपर्यंतेषु निरंतरं सूच्यंगुला संख्येयभागमात्र जघन्यस्पर्धकवृद्धया वर्धितेषु समस्तयोगस्यानेषु जघन्यादेकैकस्थानस्वामिनः यवाकाररचनारूपेण स्वस्याने चयाधिकाः परस्याने द्विगुणहीनाश्च भूत्वा सर्वोत्कृष्टयोगस्थाने सर्वतः स्तोकाः ते रचिता जीवाः स्वस्वयोगस्थानेन कियंतं प्रदेशबंधं कुर्वतीति प्रश्ने तद्वृद्धिप्रमाणमाह
योगस्थानोंके धारक जीव बहुत हैं। उसके नीचे या ऊपर जो योगस्थान हैं उनके धारक जीव पूर्वोक्त क्रमानुसार थोड़े-थोड़े हैं । इसीसे यवके आकार रचना कही है || २४९ ||
५
१५
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३८८
गो० कर्मकाण्डे इगिठाणफड्ढयाओ समयपबद्धं च जोगवडढी च ।
समयपबद्धचय8 एदे हु पमाणफल इच्छा ॥२५०।।
एकस्थानस्पटुकानि समयप्रबद्धश्च योगवृद्धिश्च । समयप्रबद्धचयात्थमेताः खलु प्रमाण५ फलेच्छाः ॥
जघन्ययोगस्थानस्पर्द्धकंगळ समयप्रबद्धमुं योगवृद्धियुं समयप्रबद्धचयनिमित्तमागिक्रमदिवं प्रमाणफलेच्छाराशिगळप्पुवु प्र व वि १६ । ४ - फस | इ व वि १६।४।२ |
अन्तागुतं विरलु लब्धं समयप्रबद्धवृद्धिप्रमाणमिनितक्कु स २ मिनितु वृद्धि निरंतरक्रम
दिदमागुत्तं पोगियों दो डेयोळु जघन्यसमयप्रबद्धं द्विगुणमुं चतुर्गुणमष्टगुणमी क्रमविदं द्विगुणद्विगुणमागुत्तं पोगि पोगि चरमदोळ पल्यच्छेवासंख्यातेकभागगुणितमक्कुमेल्लि योगस्थानं द्विगुणमक्कुमल्लि समयप्रबद्धमुं द्विगुणमक्कुमेल्लि योगस्थानं चतुर्गुणमक्कुमल्लि समयप्रबद्धं चतुर्गुणमक्कुमी क्रमदिदं पोगि चरमदोळु योगस्थानमुं छेवासंख्यातैकभागगुणितमादोडल्लि समयप्रबद्धमुं तावन्मात्रगुणितमेयक्कुमेंबुदत्यं ।।
तवींद्रियपर्याप्तस्य जघन्यपरिणामयोगस्थानस्पर्धकानि समयप्रबद्धः योगवृद्धिश्चामी त्रयः समयप्रबद्धचयनिमित्तं क्रमेण प्रमाणफलेच्छाराशयो भवति । प्र-ववि १६ ४-।फ-स । इव वि १६४२
१५ इति लब्धसमयप्रबद्धवृद्धिप्रमाणेन स २ जघन्यसमयप्रबद्धो निरंतरं वधित्वा वधित्वा यत्र योगस्थानं द्विगुणं
तत्र द्विगुणः, यत्र चतुर्गुणं तत्र चतुर्गुणः एवं गत्वा चरमे छेदासंख्यातगुणः ॥२५०।।
आगे इन योगस्थानोंके धारी जीव कितना-कितना प्रदेशबन्ध करते हैं इस प्रश्नके समाधानके लिए समयप्रबद्धकी वृद्धिका प्रमाण कहते हैं
. दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धक, समयप्रबद्ध और योगोंकी वृद्धि ये तीन एक-एक योगस्थानमें समयप्रबद्धकी वृद्धिका प्रमाण लानेके लिए क्रमशः प्रमाण, फल और इच्छाराशिरूप होते हैं। जघन्य परिणाम योगस्थानमें श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक पाये जाते हैं। यह प्रमाण राशि है। और इस जघन्य योगस्थानके द्वारा जो जघन्य समयप्रबद्ध प्रमाण प्रदेशोंका बन्ध होता है वह फलराशि हुई। और एक-एक योगस्थानमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक बढ़ते हैं यह इच्छाराशि हुई। सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशिका भाग देनेपर को लब्धराशि आयी उतना-उतना अधिक प्रदेशोंको लिये हुए ऊपरके एक-एक योगस्थानमें समयप्रबद्ध बँधता है । अर्थात् जघन्य योगस्थानसे तो जघन्य समयप्रबद्ध बँधता है उसके अनन्तरवर्ती योगस्थानसे इतने अधिक प्रदेशों को लिये हुए समयप्रबद्ध बँधता है । इस तरह निरन्तर बढ़ते-बढ़ते जहाँ
योगस्थान दूना होता है वहाँ समयप्रबद्ध भी दूना बंधता है। जहाँ वह चौगुना होता है ३० वहाँ समयप्रबद्ध भी चौगुना बँधता है। इस प्रधार संज्ञी पर्याप्तकका उत्कृष्ट योगस्थान
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कारवृति जविस दादा का
३८९ iiiप्रियच्यांतजीवजघन्ययोगस्थानं मोदलागि संजिपर्याप्तोत्कृष्टयोगस्थानपय्यंतमबात द्धिपि नत्र योगस्थानंगळ क्रमसंगाथापंचकदिदं पेन्दपरु :
बीइंदियपज्जत्तजहण्णढाणा दु सणिपुण्णस्स ।
उक्कस्सट्टाणोत्ति य जोगट्ठाणा कमे उड्दा ।।२५१॥ प्रों द्रियपप्तिजघन्यस्थानात्संक्षिपूर्णस्योत्कृष्टस्थानपय्यंतं च योगस्थानानि क्रमेण वृद्धानि ॥ ५
द्रयपर्याप्तजीव जघन्यपरिणामयोगस्थानमादियागि संज्ञिपर्याप्तजीवोत्कृष्टपरिणामयोगस्थानपर्यतं परिणामयोगस्थानंगळं अवस्थितवृद्धिक्रमदिदमे पेल्पटुवु । अन्तु पेल्पट्ट स्थानंगलोजः
सेढियसंखेज्जदिमा तस्स जहण्णस्स फड्ढया होति ।
अंगुलअसंखभागा ठाणं पडि फड्ढया उड्ढा ॥२५२।। श्रेण्य संख्याकभानप्रमितानि तस्य जघन्यस्य स्पर्द्धकानि भवति । अंगुलासंख्यभागप्रमितानि स्थानं प्रति स्पद्धंकानि वृद्धानि ॥
तस्य द्वींद्रियपर्याप्त जीवजघन्यपरिणामयोगस्थानक्के स्पर्द्धकंगळुश्रेण्यसंख्यातेकभागमात्रंगळप्पुवु । ववि। १६ । ४।। तज्जघन्यस्थानानंतरस्थानविकल्पं मोदल्गोंडु स्थानं प्रति सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्द्धकंगळ पेल्पटुवंतु पेल्प? :
तत्र छेदारीख्यातगुणः इतीम क्रमं गाथापंचकेनाह
दींद्रियपर्याप्तजीवपरिणामयोगजघन्यस्थानात् संज्ञिपर्याप्ततदुत्कृष्टस्थानपर्यंतं परिणामयोगस्थानानि अवस्थित वृद्धिक्रमेण वृद्धानि संति ॥२५१॥
तेषु द्वोद्रियपर्याप्तजघन्यपरिणामयोगस्यानं श्रेण्यसंख्येयभागमात्रस्पर्धकं । व वि १६ ४ - । तदनंतर
शिलामादि कृत्वा प्रतिस्थानं सूच्चंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्धकानि वर्धन्ते ॥२५२॥ जघन्य योगस्थानसे पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवाँ भाग गुणा होता है। तो उससे जो समयप्रबद्ध बँधता है वह जघन्य समयप्रबद्धसे पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणा होता है ॥२५०॥
आगे उक्त कथनको पाँच गाथाओं से कहते हैं
दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संज्ञीपर्याप्तकके उत्कृष्ट २५ परिणाम योगस्थान पर्यन्त परिणाम योगस्थान क्रमसे समान वृद्धिको लिये हुए बढ़ते हैं ॥२५॥
उनमें से दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थानके स्पर्धक जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं । उसके अनन्तरवर्ती स्थानसे लेकर प्रत्येक स्थानमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक बढ़ते हैं। अर्थात् जघन्य स्पर्धकके जितने अविभाग ३० प्रतिच्छेद हैं उन्हें सूच्यंगुलके असंख्यात भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने-उतने अविभाग प्रतिच्छेद एक-एक योगस्थानमें बढ़ते हैं ।।२५२।।
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३९०
ध्रुववृद्ध्या वर्द्धमानानि द्विगुणद्विगुणक्रमेण जायमानानि । चरमे पल्यच्छेदा संख्येयभागो गुणो भवति ॥
धृव वृद्धिदंवद्ध मानंगळप्प योगस्थानंगळ द्विगुणद्विगुणंगळागुत्तं पोगि चरमदोलु संज्ञिपंचेंद्रियपर्व्याप्तजीवोत्कृष्टपरिणामयोगस्थानदोळ पल्यच्छेदासंख्यातैकभागगुणकारमकुं । संदृष्टि
इदु :
योगस्थानं
समयप्रबद्ध
० २२
स २३१
गो० कर्मकाण्डे
धुववड्डीवीड्ढतो दुगुणं दुगुणं कमेण जायंते । चरिमे पल्लच्छेदाऽसंखेज्जदिमो गुणो होदि ॥ २५३॥
योगस्थान
व वि १६ । ४ a
समय प्रबद्ध
स
२।१
a
aa
aa
स २२ स २।२
स २।२
२।२
a
व वि १६४
स
२ । १ । २
a
a
a
a a
स
२२
-
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स २
स २
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२ १ २ । २
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० ० ० २२२
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a - २ a
aooo स २ । २
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स ००० स २a
० ०
स २
स २
● ० ० स । २२२
ध्रुववृद्धया वर्धमानयोगस्थानानि द्विगुणद्विगुणानि भूत्वा चरमे संज्ञिपर्यातोत्कृष्ट परिणामयोगस्थाने पल्यच्छेदा संख्यातैकभागमात्रो गुणकारः स्यात् । संदृष्टिः
२ ।१
a
-
२
स२|१| स२।२००
२।२
000000000
२ । २ a
३ ।२
a
स २ ।१ स २ । २
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-
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स । २ स २०० । स शरा
छे०००
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००० स छे०००० स । २
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२०००३२।२
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स २० ००स २२
छे
aa
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२ । १
a
- २२
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स २ । १ →
इस प्रकार ध्रुव अर्थात् एक समान वृद्धिसे बढ़ते-बढ़ते जघन्य योगस्थान दूना होता है. फिर उससे भी दूना होता है । इस तरह क्रमसे दुना दूना होते अन्तके संज्ञों पर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानका गुणकार पल्यके अर्द्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता
aa
स २ । २
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अनंतरमी निरंतरस्थानविकलांगळे नितक्कुमेंदोडे ऐळदपरु :
आदी अंतेसुद्धे वहिदे रुवसंजुदे ठाणा |
सेठ असंखेज्जदिमा जोगट्ठाणा निरंतरगा || २५४॥
आदावन्ते शुद्धेवृद्धिहृते रूपसंयुते स्थानानि । श्रेण्यसंख्येयानि योगस्थानानि निरंतराणि ॥ आदियप्प जघन्यस्थानमनन्त स्थानदोलु कळेयल्पडुत्तं विरलु शेषममल्लिगे पच्चिद पेर्चु- ५
गेय प्रमाणमक्कु
१६ । ४
a
-
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छे प्रमाणराशिभूतवृद्धिप्रमार्णादिदं भागिसुत्तं विरलु लब्धं सर्वाधिस्थान संख्येयक्कु
a a
0
6
छे मदं त्रैराशिक विधानदिदं । प्र व वि १६ । ४ । २ । फ स्था १ | इववि
a a
मदरो जघन्यस्थानमं कूडुत्तं विरल समस्तनिरंतरयोगस्थानंगळ प्रमाणमिनितक्कु छे
a al Ra
a
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३९१
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स २२|००० स २२२
०
००छे०००० -छे a a २
aa
।। २५३ ॥ ते स्थानविकल्पाः कति ? इति चेदाह -
आदौ जघन्यस्थाने व वि १६४ - । अंते उत्कृष्टस्थाने व वि १६४ - छे शुद्धे शोधिते सति शेषे १०
a
aa
००० स छे ०००० स छे a २
a
ववि १६४ - छे सूच्यंगुला संख्येभागजघन्य स्पर्धकवृद्धया भवते सवृद्धिकस्थानानि । अत्र जघन्यस्थाने निक्षिप्ते
aa
है । अर्थात् जघन्य योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणको पल्य के अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने सर्वोत्कृष्ट योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं || २५३॥
समस्त निरन्तर योगस्थानोंका प्रमाण कहते हैं
आदि जघन्य स्थानको अन्त उत्कृष्ट स्थानमेंसे घटाइए । अर्थात् अन्तके उत्कृष्ट स्थानके जितने अविभाग प्रतिच्छेद हैं उनमें से जघन्य स्थानके अविभाग प्रतिच्छेदों को घटानेपर जो प्रमाण आवे उसे वृद्धिसे भाग दें । सो एक-एक स्थान में सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग
१५
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गो० कर्मकाण्डे मिवु श्रेण्यासंख्यातेकभागप्रमितंगळेयप्पुवु ॥ अनंतरमंतरगतस्थानंगळे नितक्कुमेंदोडे पेळ्दपरु :
अंतरगा तदसंखेज्जदिमा सेढियसंखभागा हु।
सांतरणिरंतराणि वि सव्वाणि वि जोगठाणाणि ।।२५५।। अन्तरगतानि तदसंख्यातेकभागप्रमितानि खलु । सांतरनिरंतराण्यपि सण्यिपि योग. स्थानानि ॥
अंतरगतयोगस्थानंगळु निरंतरयोगस्थानंगळ असंख्यातेकभागमात्रंगळप्पुर्व - छे तादोर्ड
aara
श्रेण्यसंख्यातक भागप्रमितंगळेयक्कुं। सान्तरनिरंतराण्यपि.सांतरनिरंतरस्थानंगळु तदसंखेज्जविमा
अंतरगतस्थानविकल्पंगळ असंख्यातेकभागमक्कु _छे ..
मादोडमवू श्रेण्यसंख्यातकभाग
a alala
१. मात्रंगळेयक्कुं। सर्वाण्यपि योगस्थानानि ई निरंतर सान्तर सांतरनिरंतरंगळेब त्रिविधयोग
समस्तनिरंतरयोगस्थानानि -२ छे एतानि श्रेण्यसंख्यातकभागमात्राण्येव - ॥२५४॥
a aa
अंतरगतयोगस्थानानि निरंतरयोगस्थानानामसंख्यातकभागोऽपि -२ छ श्रेण्यसंख्यातकभाग एव ।
aaaa
श्रेण्यसंख्यातकभाग एव । तानि त्रिवि
सांतरनिरंतराण्यपि अंतरगतानामसंख्यातकभागोऽपि -
aaaa
wwwww
स्पर्धकोंके जितने अविभाग प्रतिच्छेद हों उतनी वृद्धि होती है उससे भाग दें। जो प्रमाण १५ आवे उतनी वृद्धि सहित स्थान जानना। उनमें एक जघन्य योगस्थान मिलानेपर जो प्रमाण हो, उतने सर्व निरन्तर योगस्थान होते हैं । वे स्थान जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं ॥२५४॥
___ अन्तरगत योगस्थान निरन्तर योगस्थानोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेपर भी जगतश्रेणिके असंख्यात माग ही हैं। सान्तर निरन्तर मिश्ररूप योगस्थान अन्तरगत योग
स्थानोंके असंख्यातवें भाग हैं। फिर भी वे जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं। निरन्तर, २० सान्तर और निरन्तरसान्तर ये तीनों योगस्थान मिलकर भी जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
स्थानंगळं कूडियुं श्रेण्यसंख्यातकभागप्रमितंगळेयप्पुवु । छे । यिन्तुक्त सर्वयोगस्थागळो
alla
५
ळाद्यंतस्थानंगळं पेन्दपरु :
सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स पढमे जहण्णओ जोगो ।
पज्जत्तसण्णिपंचिंदियस्स उक्कस्सओ होदि ॥२५६।। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य प्रथमे जघन्यो योगः। पर्याप्तसंजिपंचेंद्रियस्योत्कृष्टो भवति ॥
अन्तुक्तसवयोगस्थानंगळगे मुन्नं पेन्द विशेषगविशिष्टनप्प सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तजीवनचरमभवप्रथमसमयदोळावुदो दुपपादयोगजघन्यस्थानमदादियकहुँ । पर्याप्त संज्ञिपंचेंद्रियजीवपरिणामयोगोत्कृष्टस्थानमदवसानस्थानमक्कु-॥ मनन्तरमिन्तु पेळल्पट्ट प्रकृतिबंधस्थितिबंधमनुभागबंध प्रदेशबंध ब चतुम्विधबंधगळगे कारणंगळं पेळ्दपरु :
जोगा पयडिपदेसा ठिदियणुभागा कसायदो होति ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधढिदिकारणं णत्थि ॥२५७।। योगात्प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतो भवतः । अपरिणतोच्छिन्नेषु च बंधस्थितिकारणं नास्ति ॥
घानि मिलित्वापि सर्वाणि श्रेण्यसंख्यातकभागमात्राण्येव- -छे ।
ara a
॥ २५५ ॥ एतेषु आद्यंत
स्थाने आह
उक्तविशेषणविशिष्टं सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तस्य चरमभवप्रथमसमये यदुपपादयोगजघन्यस्थानं तदाद्यं भवति । पर्याप्तसंज्ञिपंचेंद्रियस्य परिणामयोगोत्कृष्टस्थानं तदंत्यं भवति ॥ २५६ ।। उक्तचतुर्विधबंधानां कारणान्याह
२०
हैं। इसका कारण यह है कि असंख्यातके बहुत भेद हैं। अतः यथायोग्य असंख्यातका भाग जानना ॥२५५॥
आगे इन योगस्थानों में आदिस्थान और अन्तस्थान कहते हैं
उक्त सब योगस्थानों में सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके अन्तिम क्षुद्रभवके पहले समयमें जो जघन्य उपपाद योगस्थान होता है वह आदिस्थान है। और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जो उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान है वह अन्तिमस्थान है ।।२५६।।
आगे चार प्रकारके बन्धके कारण कहते हैंक-५०
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गो० कर्मकाण्डे योगात् योगदिदं प्रकृतिप्रदेशौ भवतः प्रकृतिबंधमुं प्रदेशबंधमुमप्पुवु । स्थित्यनुभागौ स्थितिबंधमुमनुभागबंधमुमेरडु कषायतो भवतः कषायस्थानोददिदमप्पुवु । अपरिणतजघन्यदिदमेकसमयमुत्कृष्टदिदमन्तर्मुहूत्तंकालपर्यन्तं कषायस्थानोदयापरिणतनप्प उपशांतकषायनोळं उच्छिन्नेषु
च क्षपितकषायरुगळप्प क्षीणकषायनोळं सयोगकेवलिजिननोळं बंधस्थितिकारणं नास्ति तात्५ कालिकबंधक्के स्थितिबंधकारणमिळ । न शब्ददिंदमयोगिकेवळिजिननोळं प्रकृतिप्रदेशबंध. कारणमप्प योगमुं स्थित्यनुभागबंधकारणमप्प कषायस्थानोदयमुमिल्ल ॥
___अनंतरं योगस्थानप्रकृतिसंग्रहस्थितिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायअनुभागबंधाध्यवसायकर्मप्रदेशमें विवक्कल्पबहुत्वमं पेळ्दपरु गाथासूत्रदिदं :
सेढिअसंखेज्जदिमा जोगट्ठाणाणि होति सव्वाणि ।
तेहिं असंखेज्जगुणो पयडीणं संगहो सव्वो ॥२५८॥ श्रेण्यसंख्येय भागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति सर्वाणि । तैरसंख्येयगुणः प्रकृतीनां संग्रहः सव्वाः ॥
प्रकृतिप्रदेशबंधी योगाद्भवतः । स्थित्यनुभागबंधौ कषायतो भवतः । जघन्यतः एकसमय उत्कृष्टतो. ऽन्तर्मुहुर्त अपरिणतकषायस्थानोदयोपशांतकषाये क्षपितकषायक्षोणकषायसयोगयोश्च तात्कालिकबंधस्य स्थिति१५ बंधकारणं नास्ति । चशब्दादयोगकेवलिनि प्रकृतिप्रदेशबंधकारणं योगः स्थित्यनुबंधकारणं कषायस्थानोदयश्च
नास्ति ॥२५७॥ अथ योगस्थानप्रकृतिसंग्रहस्थितिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायानुभागबंधाध्यवसायकर्मप्रदेशानामल्पबहुत्वं गाथात्रयेणाह
प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होते हैं । अर्थात् जैसा शुभ या अशुभ योग होता है वैसा ही प्रकृतिबन्ध होता है और जैसा योगस्थान होता है वैसा ही समयप्रबद्ध बँधता है। २० अतः ये दोनों बन्ध योगसे होते हैं। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं। जैसी
कषाय होती है वैसी ही यथायोग्य स्थिति और अनुभाग बँधते हैं। जघन्यसे एक समय
और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त काल तक जिसमें कषाय स्थान उदयरूप नहीं है ऐसे उपशान्त कषाय और कषायरहित क्षीणकषाय और सयोगकेवलोके जो प्रतिसमय बन्ध होता है
उसके स्थितिबन्धका कारण नहीं है। 'च' शब्दसे अयोगकेवलीमें प्रकृति और प्रदेशबन्धका २५ कारण योग तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय दोनों ही नहीं हैं अतः उसके बन्ध नहीं होता ।।२५७॥
आगे योगस्थान, प्रकृतिसंग्रह, स्थितिभेद, स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान और कर्मों के प्रदेश, इनका अल्पबहुत्व तीन गाथाओंसे कहते हैं
१.ब न स्तः
।
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जीवतत्त्वप्रदीपिका
निरंतरं,सांतर,निरंतर,सांतरभेदभिन्न सर्वयोगस्थानगळु श्रेण्यसंख्येयभागंगळप्पु. ३१ ।
२।
।
वरिंदमुमसंन्यातलोकगुणं सर्वप्रकृतिसंग्रहमक्कु== २ मोयुत्तरोत्तरप्रकृतिसंख्ययेतादुदे. दोडे पेळल्पडुगुमदेतेंदोडे मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानावरणीयमेंदु ज्ञानावरणीयदुत्तरप्रकृति. गळ ५ अप्पुवु । अवरोळु श्रुतज्ञानावरणीयोत्तरोत्तरप्रकृतिगळसंख्यातलोकप्रमितंगळप्पुवेतेदोडे मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानमेंदु ज्ञानपंचकरके प्रत्येकं भेदप्रभेदंगळु जीवकांडदोळ्पेळल्पट्ट ५ प्रकारदिदमिवरोळु पर्यायश्रुतज्ञानमादियागि लोकबिंदुसारपूर्वश्रुतज्ञानमवसानमाद समस्तश्रुतज्ञानविकल्पंगळु पर्याय अक्षर पद संघातप्रतिपत्ति अनुयोग प्राभृतक, प्राभृतकप्राभृतक वस्तु पूर्वमेंब पत्तं भेदंगळुमवर समासंगळं सहितमागि अक्षरानक्षरात्मक क्षायोपशमिकश्रुतज्ञानविकल्पंगळुमसंख्येयलोकमानंगळप्पुवु=a2a \१। एनितु ज्ञानविकल्पंगळप्पुवनितेयावरणविकल्पंगळप्पुवल्लि विशेषमुंटदाबुददोडे पर्यायज्ञानं निरावरणज्ञानमक्कुमेंकेंदोडदु सर्वनिकृष्टज्ञानमप्पुरिदमदक्का- १० वरणमुटक्कुमप्पोडे जीवाभावमागिबद्दुमदुकारणमागिरूपोनश्रुतज्ञानविकल्पमात्रबृतज्ञानावरणंगळुत्तरोत्तरप्रकृतिगळप्पुवु । श्रुतं मतिपूर्वमें दितु मतिज्ञानविकल्पंगळु श्रुतज्ञानविकल्पप्रमितंगळगुरदं तदावरणंगळुमुत्तरोत्तरप्रकृतिगळु तावन्मात्रंगळेयप्पुवु । ==a ।१ । देशावधि परमावधिज्ञानमेंबरडुमवधिज्ञानंगळं सविकल्पज्ञानंगळप्पुरिदं देशावधिज्ञानविकल्पंगळु विषयभेददिदं त्रैराशिकसिद्धंगळप्पुवा त्रैराशिकमेंतदोडे एकप्रदेश क्षेत्रदोळु वृद्धियागुत्तं विरलु सूच्यंगुलासंख्या- १५ तैकभागद्रव्यविकल्पंगळप्पुवागळु घनांगुलासंख्यातकभागोनलोकमात्रप्रदेशंगळु क्षेत्रदोळ वृद्धिया
निरंतरसांतरतदुभयभेदभिन्नसर्वयोगस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागमात्राणि । २ ३१० एभ्योऽसंख्यात
लोकगुणः सर्वप्रकृतिसंग्रहः । = a = ३२ तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य उत्तरप्रकृतयः पंच तत्र श्रुतावरणानि पर्यायज्ञानस्य निरावरणत्वात असंख्यातलोकषट्स्थानवद्धिवधितपर्यायसमासादिभेदमात्राणीत्येतावंति === a 'श्रुतं मतिपूर्व' इति मत्यावरणान्यपि तावंति = a = a देशावध्यावरणानि धनांगुलासंख्येयभागोने लोके सूच्यं- २०
निरन्तर, सान्तर और निरन्तरसान्तरके भेदसे भिन्न सब योगस्थान जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं। उनसे असंख्यात लोक गुना सब प्रकृतियोंका समूह है। अर्थात् सब योगस्थानोंके प्रमाणको असंख्यात लोकसे गुणा करनेपर कर्मोंकी प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। वही कहते हैं
___ ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं। उनमें से श्रुतज्ञानावरणमें पर्यायश्रुत-२५ ज्ञानके निरावरण होनेसे असंख्यात लोकबार षट्स्थान वृद्धिसे वधित पर्याय समास आदि भेदोंके आवरणकी अपेक्षा असंख्यात लोकको असंख्यात लोकसे गुणा करनेपर जो राशि हो उतने श्रुतज्ञानावरणके भेद हैं। तथा श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अतः उतने ही मतिज्ञाना
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a
a
गो० कर्मकाण्डे दल्लिगेनितु द्रव्यविकल्पंगळापुर्वेदितु त्रैराशिकमं माडुत्तं विरलु प्र। १ वृ। फ। २। इ ३ ६ व लब्धं देशावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पंगळ प्रमाणमक्कुमा द्रव्यविकल्पंगळे नितनित देशावधिज्ञानविकल्पंगळप्पुवु = ६ । २ परमावधिज्ञानविकल्पंगळु परमावहिस्सभेदासगओगाहणवियप्पहदतेऊ
यदितु तेजस्कायिक जीवावगाहनविकल्पंगळिदं गुणिसल्पटु तत्तेजस्कायिकजीवराशिप्रमाणमक्कु ५ = ०६० सर्वावधिज्ञानं निविकल्पकमप्प क्षायोपशमिकज्ञानमप्पुरिदमेकविधयक्कु १ । सर्वावधिदेशावधिज्ञानविकल्पंगळं परमावधिज्ञानविकल्पंगळोळु साधिकम माडिदोडे मतिज्ञानविकल्पंगळं नोडलुमसंख्यातगुणहीनमकुं। = तावन्मानंगळे तदारणोत्तरोत्तरप्रकृतिगळप्पुवु । मनःपर्ययज्ञानविकल्पंगळुमसंख्यातकल्पप्रमितंगळप्पुवु । क । तावन्मानंगळे तदावरणोत्तरोत्तरप्रकृतिगळप्पु । केवलज्ञानं क्षायिकनिम्विकल्पकज्ञानमप्पुरिदं तदावरणमुमेकविधमेयक्कुं। केवल. ज्ञानावरणमनःपर्ययज्ञानावरणावधिज्ञानावरणोत्तरोत्तर प्रकृतिगळं तंदु श्र तज्ञानावरणोत्तरोत्तरप्रकृतिगोळु साधिक माडि मतिज्ञानावरणोत्तरोत्तरप्रकृतिगळोळ कूडिदोडे साधिकद्विगुणमक्कु =a = a २ मप्पुरिदं । सर्वप्रकृतिगळं नामप्रत्ययंगळप्पुरिवं पूर्वशरीराकाराविनाशो यस्यो.
गुलासंख्येयभागगुणिते सैके सति यत्प्रमाणं ताति- = ६।२ परमावष्यावरणानि स्वावगाहविकल्पहततेजस्का
aa
यिकराशिमात्राणि =६० सर्वावध्यावरणमेकं । मनःपर्ययज्ञानावरणान्यसंख्यातकल्पमात्राणि । क
१५ केवलज्ञानावरणमेकं १ मिलित्वा सर्वज्ञानावरणानि अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानावरणाधिकश्रुतावरणयुतमत्यावरणके भेद हैं।
अवधिज्ञानावरणमें, घनांगुलके असंख्यातवें भागसे हीन लोकको सूच्यंगुलके असंख्यातवे भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक मिलानेपर देशावधिके भेद होते
हैं अतः देशावधि अवधिज्ञानावरणके भेद भी इतने ही हैं। अग्निकायके जीवोंके प्रमाणको २० उनकी शरीरके अवगाहनाके भेदोंसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने परमावधिके भेद
हैं। अतः परमावधिज्ञानावरणके भी इतने ही भेद हैं। सर्वाधिका एक ही भेद है अतः सर्वावधिज्ञानावरणका भी एक ही भेद है। बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कल्पकालको असंख्यातसे गुणा करनेपर मनःपर्ययज्ञानके भेद होते हैं। अतः मनःपययज्ञानावरणके भी
इतने ही भेद हैं। केवलज्ञानावरण एक होनेसे केवलज्ञानावरण भी एक है। ये सब २५ मिलकर अवधिज्ञानावरण मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण
सहित मतिज्ञानावरण, प्रमाण ज्ञानावरणकी उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेद होते हैं।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दयाद्भवति तदानुपूर्व्यनाम एंदितु नामतः सिद्धमप्प क्षेत्रविपाकी सामान्यानुपूर्व्यनामकम नारकानुपूज्यं तिर्यगानुपूव्यं मनुष्यानुपूव्यं देवानुपूयं मेंदितु चतुर्विधमक्कुमल्लि नारकानुपूर्व्य नामकम्म नरकक्षेत्रविपाकियप्पुरिदं नरकक्षेत्रदोदयिसुगुमा नरकक्षेत्रप्माणमेनितंदोडे नारकरेल्ललं असपंचेंद्रियपर्याप्तजीवंगळेयप्पुरिदमा नरकक्षेत्र त्रसनाळदोळेयागल्येळकुमप्पुरिदं
सनालप्रमितमेकैकरज्जु भुजकोटिप्रमितमुष्ट्रादिमुखाकारदोळुपरितलोपपादस्थानदोसल्लदै मते- ५ ल्लियुं बिलदोळुत्पत्तियिल्लप्पुरिदं प्रमाणसूच्यंगुलासंख्यातैकभागायामगुणितमप्प नरकक्षेत्रदोळेतप्प जीवंगळु बंदु पुटुगुम दोडे तिय्यंग्मनुष्यपंचेंद्रियत्रसपर्याप्तजीवंगळ पूर्वशरीरनं बिटु विग्रहगतियिदं स्वयोग्योत्पत्तिनरकस्थानक्के बांगळ नरकानुयूव्योपयदिदं पूर्वाकारा. विनाशमुंटप्पुरिंदमा तिय॑ग्मनुष्यपंचेंद्रियत्रसपर्याप्तजीवशरीरजघन्याबगाहनद धनागुल संख्यातेक. भागदिदं गुणिसिदोडे प्रथमविकल्पसक्कू =२५६ द्वितीयादिवि इल्पंगळोळेकैकादेशोतरक्रम- १०
४९। मध्यमविकल्पंगळु नडदु संजिपंचेंद्रियपानजीवावगाहनगुणितक्षेत्र चरमविकल्पमा = २। ६७ मिन्तागुत्तं विरलु आदीयंते सुद्धे दढिहिदे रूबसंजुदे ठाणा। एंछ लब्धं सर्धविकल्पंगकि इनितप्पुवु = २६ ७७ तिर्यगानुपूनालकमं तिर्यग्गतिक्षेत्रविपाकियप्पुरिदं तिर्यगायु
४९० । ७
वरणमात्राणि स्युः = a = २ सर्वा प्रकृतयो नामकर्मप्रत्ययाः इति नारकानुपूव्यं नरकक्षेत्रविपाकित्वातत्क्षेत्रमेकरज्जुप्रतरमुष्ट्रादिमुखाकारेभ्योऽन्यत्रोत्पत्त्यभावात् प्रमाणसूच्यंगुल संख्यातकभागायामगुणितं तिर्यम्मनु- १५ व्यपंचेंद्रियपर्याप्तानां तत्र गमनकाले नरकानुपूर्योदयेन पूर्वाफाराविनाशाजघन्यावगाहनांगुलसंख्यातेकभागेन गुणिते प्रथमविकल्पः = २ ६ संख्यातचनांगुलैर्गुणिते चरमः = २ ६ १ आदी अंते सुद्धे इत्यादिना
४९
a
__सब प्रकृतियाँ नामकर्म के निमित्तसे होती हैं। अतः नामकर्मकी प्रकृतियोंमें आनुपूर्वी प्रकृति के उत्तरोत्तर भेद कहते हैं। आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है। अतः क्षेत्रकी अपेक्षा उसके भेद होते हैं । नारकानुपूर्वी नरकक्षेत्र विपाकी है । नरकक्षेत्र एक राजु प्रतरप्रमाण है वहाँ उष्ट्रादि २० मुखाकारोंके सिवाय अन्यत्र उत्पत्ति नहीं होती। अतः प्रमाणरूप सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आयामसे उसे गुणा करें। तथा पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य जब नरकको जाते हैं तब नारकानुपूर्वीका उदय होता है। उससे पहले तिर्यंच या मनुष्य पर्यायमें जो आकार होता है उसका नाश नहीं होता। इससे वहाँ पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्यकी जघन्य अवगाहना तो घनांगुलके संख्यातवें भाग है। उससे पूर्वोक्त क्षेत्रको गुणा २५ करनेपर जो क्षेत्रका प्रमाण हो सो नरकानुपूर्वी का पहला भेद है । उन्हींकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात धनांगुल प्रमाण है । उसको पूर्वोक्त क्षेत्रसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो सो नरकानुपूर्वीका अन्तिम भेद है। 'आदी अंते सुद्धे वडिहिदे रूवसंजुदे ठाणा' इस सूत्रके अनुसार अन्तिम भेदमें जितना क्षेत्रके प्रदेशोंका प्रमाण हो उसमें से पहले भेदके क्षेत्रके प्रदेशोंके
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गो० कर्मकाण्डे स्तिर्यग्गतिनामकर्मोदयसहचरिततिय्यंगानुपूयं तिर्यग्गतिक्षेत्रक्कुदयिसुगुमा तिर्यग्गतिक्षेत्रप्रमाणमेनितेंदोडे तिय्यंचरु स्थावरंगळं त्रसंगळमप्पुरिंदमा जोवंगळगुत्पत्तियोग्यक्षेत्रमुं सर्वलोकमक्कुमी तिर्यग्लोकक्षेत्रदोळ पुटुव जीवंगळमवावुर्वेदोडे सव्वंश्विय नारकरगळं स्थावरत्रसभेदतिय्यंचरुगळं कर्मभूमिपर्याप्तापर्याप्तमनुष्यरुगळं शतारसहस्रारकल्पद्वयावसानमाद देवर्कळं पुटुवरा जीवंगळु शरीरपरित्यागमं माडि विग्रहगतिथिदं तिय्यंग्गतिक्षेत्रवोळ्पुट्टल्वडि बप्पांगळु तिय्यंगायुस्तिय्यंग्गतिनामकर्मोदयसहचरित तिय्यंगानुपूय॑नामकर्मोवदिदं पूर्वशरीरावगाहनाकारापरित्यागभावमप्पुरिंदमा तिय्यचरोळु सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तजीवजघन्या. वगाहनद घनांगुलासंख्यातेकभागगुणिततिर्यग्गतिक्षेत्रं प्रथमविकल्पमक्कं = ६ द्वितीयावि
विकल्पंगळोळेकैकप्रदेशोत्तरक्रमदिदं पूर्वनारकतिर्यग्मनुष्यदेवजीवंगळ शरीरावगाहनविकल्पं. १० गळेल्लमिल्लि मध्यमविकल्पंगळागत्तं पोगि पर्याप्तपंचेंद्रियतिर्यग्जीवोत्कृष्टावगाहनसंख्यातघनां
गुलगुणितप्रमितमदु चरमविकल्पमक्कु =६७ मन्तागुत्तं विरलादी अन्ते सुद्घ वढि हिने स्वसेजुदे
ठाणा येदिती सूत्रेष्टदिदं तंद सर्वावगाहविकल्पगुणितसर्वक्षेत्रविकल्पंगळिनितप्पुवु ३६७० मनुष्यानुपूर्व्यनामकम्मं मनुष्य क्षेत्रविपाकियप्पुरिदं मनुष्यक्षेत्रक्कुदयिसुगुमा मनुष्यक्षेत्रप्रमाणमु
एतावद्विकल्पं स्यात् । = २.६।१।२ तिर्यगानुपूज्यं तिर्यक्षेत्रविपाकीति तत्क्षेत्रं सर्वलोकः । नारकत्रस
४९०१ १५ स्थावरकर्मभूमिमनुष्यसहस्रारपर्यंतदेवानां तत्र गमनकाले आयुर्गतिसहचरिततिर्यगानु पूर्योदयात् सूक्ष्मनिगोद
लब्धपर्याप्तजघन्यावगाहनेन गुणिते प्रथमविकल्पः = ६ उत्कृष्टावगाहनेन गुणिते चरमः = ६ १ आदो अंते
सुद्धे वढिदिदे रूवसंजुदे ठाणा; इत्येतावद्विकल्पं स्यात् = ६ ३ ३ । मनुष्यानुपूव्यं मनुष्यक्षेत्रविपाकित्वात्
प्रमाणको घटानेपर जो शेष रहे उसमें एकसे भाग देकर एक जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतने
नरकानुपूर्वी के उत्तरोत्तर भेद होते हैं। इसी प्रकार तिथंचानुपूर्वी तियंच क्षेत्रविपाकी है । २० सो तिर्यचका क्षेत्र सर्वलोक है। नारकी, त्रस-स्थावर-तिर्यच, कर्मभूमिया मनुष्य तथा
सहस्रार स्वर्ग तकके देव तियंचगतिमें उत्पन्न होते हैं। सो वे आनुपूर्वीके उदयसे पूर्व शरीरके आकारको नहीं छोड़ते । अतः सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातव भाग प्रमाणसे पूर्वोक्त क्षेत्रको गुणा करनेपर तिथंचानुपूर्वोका प्रथम
भेद होता है । तथा उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात धनांगुल प्रमाण है, उससे गुणा करनेपर अन्त२५ का भेद होता है । सो 'आदी अंते सुद्धे इत्यादि सूत्रके अनुसार अन्त में-से आदिको घटाकर
उसे एकसे भाग देकर और उसमें एक मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने भेद तियंचानुपूर्वीके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
४९
मेनिते दोडेमनुष्यरेल्लरु पर्थ्याप्तार्थ्याप्त पंचेंद्रियजीवंगळप्पुदरिदमा जीवंगळ स्वोत्पत्सियोग्यमनुष्यक्षेत्र प्रमाणमुं पंचोत्तर चत्वारिशल्लक्षयोजनवृत्त विष्कं भगुणितत्रसनालप्रतरप्रमितमकुं = ४५ ल_नात्वत्तदु लक्षयोजनसमचतुरस्त्रमेके ग्रहिसल्पदे बोडे मानुषोत्तर पर्व्वतदिदं पोरगणचतुष्कोण मनुष्यक्षेत्र दो मनुष्यगुत्पत्ति यल्लप्पुदरिदं । ई मनुष्यक्षेत्र दोळ पुदुव मनुष्याळावावगतिजरप्परे दोडे षष्ठपृथ्विपर्य्यम्तमाद षट्पत्थ्विगळ नारकरुगळं स्वरत्रसभेदभिन्नकर्मभूमितिय्यंचरु कम्मं भूमिपर्य्याप्तापर्य्याप्तमनुष्यरुगळं सर्व्वार्थसिद्धिविमानावसानमाद देवगतिजरु पुट्टुवरा जीवंगळु शरीरपरित्यागमं माडि विग्रहगतियिदं मनुष्यगतिक्षेत्रदोळपुट्टत्वेति बप मनुष्यानुष्यमनुष्यगतिनामकम्र्मोदयसहचरितमनुष्यानुपूर्व्यनामकम्र्योदर्याददं पूर्व परित्यक्तशरीरावगाहनाकाराsपरित्यागमुंटप्पुर्दारदं तिथ्यंचरोल सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्त जीवशरीरावगाहनाकार- १०
जघन्याधनां गुलाऽसंख्यातैकभागगुणितमनुष्यक्षेत्रं प्रथमविकल्पमक्कुं = ४५ ल ६ द्वितीयादि
४९
a
विकल्पंग मेकैक प्रदेशोत्तरक्रर्माददं चतुर्गतिजरवगाहनाऽकारंगळ मध्यविकल्पंगळागुत्त पोगि पंचेंद्रियपर्याप्त जीवोत्कृष्टावगाहनाकारं संख्यातघनांगुलगुणितप्रमितमिदु चरम विकल्पम =४५ ल । ६७ मिन्तागुत्तं विरल आदी अंते सुद्धे वड्ढिहिदे रूत्रसंजुदे ठाणा एंदी सूत्रेष्टदिदं तंद
४९
३९९
०
मनुष्यानुपूर्व्य विकल्पं गळिनितपुवु = ४५ ल ६७ देवानुपूण्ठमुं देवगतिक्षेत्रविपाकियप्पुर्दारदं १
४९
a
४९
तत्क्षेत्रं तेषां सपर्याप्तापर्याप्तपंचेंद्रियत्वात् उत्पत्तियोग्यमनुष्यक्षेत्रवृत्तविष्कंभगुणितत्रसनालीप्रतरप्रमितं = ४५ ल । तत्समचतुरस्रं कुतो न गृह्यते मानुषोत्तराद्बहिश्चतुः कोणेषु मनुष्याणामनुत्पत्तेः । आद्यषट्पृथ्वीनारकत्रसस्थावर कर्मभूमितिर्यग्मनुष्यदेवानां तत्र गमनसमये तदायुर्गतिसहचरितानुपूर्व्योदयाज्जघन्यावगाहनेन गुणिते प्रथम विकल्पः = ४५ ल ६ उत्कृष्टावगाहनेन गुणिते चरमः = ४५ ल ६ १ आदी अंते सुद्धे इत्यादिना
४९ a
५
होते हैं । मनुष्यगत्यानुपूर्वी मनुष्यक्षेत्र विपाकी है। मनुष्यक्षेत्र मनुष्योंके पर्याप्त अपर्याप्त पंचेन्द्रियपना होने से उनकी उत्पत्तिके योग्य पैंतालीस लाख योजन प्रमाण गोल विष्कम्भसे गुणित सनाली एक राजू प्रतर प्रमाण है । मानुषोत्तरसे बाहर चारों कोनों में मनुष्योंकी उत्पत्ति न होनेसे चौकोर क्षेत्र नहीं कहा है। आदिकी छह पृथिवियोंके नारकी, त्रस, स्थावर, कर्मभूमिया तिथंच और मनुष्य तथा देव मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । वे मनुष्यानुपूर्वीके उदयसे अपना पूर्व आकार नहीं छोड़ते । अतः जघन्य अवगाहना घनांगुलके २५ असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर पहला भेद और उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात घनांगुलसे गुणा करनेपर अन्तिम भेद होता है । अतः 'आदी अंते सुद्धे' सूत्रके अनुसार अन्तमें- से
२०
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४००
गो० कर्मकाण्डे देवगतिक्षेत्रक्कुदयिसुगुमा देवगतिक्षेत्रप्रमाणमेनिते दोडे देवर्कळल्लरु त्रसपर्याप्तपंचेंद्रियजोबंगळेयप्पुरिदं आ जीवंगळगुत्पत्तियोग्य देवगतिक्षेत्र विवक्षितज्योतिर्लोकावसानमादनवशतयोजनगुणिततसनाळप्रतरमक्कं = ९०० शेषदेवक्षेत्रनोळु पुटुव जीवंगळल्पंगळेयप्पुरिदं अविवक्षितमक्कुमो भवनत्रयदेवगतिक्षेत्रदोळु पुटुव जीवंगळावावगतिजरेंदोडे कर्मभोगभूमितिय॑क्पंचेंद्रियपर्याप्तकरुं कर्मभोगभूमिमनुष्यपर्याप्तकरुपुटुवरुळिवबावं जीवंगळपुट्टवेक बोडे तद्गतिक्षेत्रजननकारणाभावविंदनल्लि पुटुव तिर्यग्मनुष्यजीवंगळु शरीरपरित्यागमं माडि विग्रहगतियिदं भवनत्रयदेवगतिक्षेत्रदोळपुट्टपेडि बोगळु देवायुष्यदेवगतिनामकर्मोदयसहचरितदेवानुपूर्व्यनामकर्मोददिदं पूर्व परित्यक्तशरीरावगाहनाकारापरित्यागदिदं, पंचेंद्रियपर्याप्त त्रसजीवशरीरजघन्यावगाहनाकारं धनांगुलसंख्यातेकभागगुणितदेवगतिक्षेत्रमदु प्रथमविकल्पमक्कु = ९०० । ६ द्वितीयादिविकल्पंगळुमेकैकप्रदेशोत्तरक्रमदिदं पोगि तिय्यंक्पंचेंद्रियपर्याप्तत्रसजीवोत्कृष्टावगाहनाकारं संख्यातघनांगुलदिदं गुणिसल्पट्ट क्षेत्रमदु चरमविकल्पमक्कु = ९००।६७ मन्तागुत्तं विरलु आदी
अंते सुद्धेत्यादिसूत्रदिवं तरल्पट्ट लब्धं देवानुपूर्व्यविकल्पंगळिनितप्पु = यो ९००।६।३१
वी
४९
१
M
एतावद्विकल्पं = ४५ ल ६१० देवानुपूयं क्षेत्रविपाकित्वात्तत्क्षेत्रं तेषां त्रसत्वाद्विवक्षितज्योतिर्लोका
१-४९ वसाननवशतयोजनगुणितत्रसनालीप्रतरं =९०० शेषदेवोत्पत्तिक्षेत्र स्तोकत्वान्न विवक्षितं पंचेंद्रियपर्याप्त
तिर्यग्मनुष्याणामेव तत्र गमनकाले देवायुर्गतिसहचरितानुपूर्योदयेन धनांगुलसंख्येयभागेन गुणिते प्रथम विकल्पः = ९०० । ६ संख्यातघनांगुलैर्गुणिते घरमः- = ९०० । ६ १ आदी अंते सुद्धे इत्यादिनानीततावद्विकल्पं
४९
आदिको घटाकर एकका भाग देकर और एक जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतने भेद मनुष्यानुपूर्वीके हैं
देवानुपूर्वी देवक्षेत्रविपाकी है । और देव सब स होते हैं अतः उनका क्षेत्र विवक्षित २० ज्योतिर्लोकके अन्तपर्यन्त नौ सौ योजनसे त्रसनालीके प्रतरक्षेत्रका गुणा करनेपर जो प्रमाण
हो उतना जानना। देवोंका उत्पत्ति क्षेत्र थोड़ा है इससे उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की है। ज्योतिषी देवोंकी ही मुख्यतासे कथन किया है। पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच और मनुष्य ही देवोंमें जन्म लेते हैं। देवगतिमें गमन करते समय देवायु और देवगतिके उदयके साथ
देवानुपूर्वी के उदयसे पूर्व आकारका नाश न होनेसे उनकी जघन्य अवगाहनाको संख्यात २५ घनांगुलसे उक्त क्षेत्रको गुणा करनेपर प्रथम भेद होता है। उत्कृष्ट अवगाहना भी संख्यात
धनांगुल प्रमाण है उससे गुणा करनेपर अन्तिम भेद होता है। सो 'आदी अंते सुद्धे' इत्यादि
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४०१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाल्कुमानुपूव्यंगळगे क्षेत्रविषयभेददिदमुत्तरोत्तरप्रकृतिविकल्पंगळादुर्विव मुन्निन साधिकद्विगुणाऽ संख्यातलोकमतिज्ञानोत्तरोत्तरप्रकृतिगुणकारदो साधिक माडिदोडे प्रकृतिसंग्रहमिनितु प्रमाणक्कु = a 3 ० २ मुळिदुत्तरप्रकृतिगळ उत्तरोत्तर प्रकृतिगळगुपदेशमिल्लद पोटदु । इंतु प्रकृतिसंग्रहरचनानुसारमागि व्याख्यानिसल्पटुदु । बहुश्रु तरुगळिदं शोधिसल्पडुवुदु । अनंतरं स्थितिविकल्पंगळुमनवर स्थितिबंधाध्यवसायंगळगल्प बहुत्वमं पेळ्दपरु :
तेहिं असंखेज्जगुणा ठिदि अवसेसा हवंति पयडीणं ।
ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणा तत्तो असंखगुणा ॥२५९॥ तैरसंख्येयगुणा स्थितिविशेषा भवंति प्रकृतीनां । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि ततोऽसंख्येय गुणितानि भवंति ॥
प्रकृतिगळ सर्वस्थितिविकल्पंगळु तैरसंख्येयगुणितानि भवति तत्प्रकृतिसंग्रहभेदंगळं १० नोडलुमसंख्यातगुणितंगळप्पु । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु ततोऽसंख्येयगुणितानि अशेषस्थितिविकल्पंगळं नोडलुमसंख्येयगुणितंगळप्पुवु अदेते दोडे विवक्षितकज्ञानावरणविशेषोत्तरोत्तरप्रकृतिजघन्यस्थितियन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुमदु संख्यातपल्यप्रमितमक्कु। ५१। मदर द्वितीयादिस्थितिविकल्पंगळु समयोत्तरवृद्धिक्रदिदं पोगि चरमस्थितिविकल्पमदं नोडलु संख्यातगुणमक्कु । प११। मन्तागुत्तं विरलु आदी। ५ । अन्ते। १५
२०
स्यात् = ९०० । ६ ११ अमोभिरानुपूर्वोत्तरोत्तरभेदैः प्रागानीतज्ञानावरणोत्तरभेदेषु साधिकीकृतेषु प्रकृतिसंग्रहः एतावान् स्यात् = a a २ शेषोत्तरप्रकृत्युत्तरोत्तरभेदानामुपदेशो नास्ति । इत्ययं संग्रहो रचनानुसारेण व्याख्यातो बहुश्रुतैः शोधितव्यः ॥२५८॥
तेभ्यः प्रकृतिसंग्रहभेदेभ्यः प्रकृतीनां सर्वस्थितिविकल्पा असंख्यातगुणा भवंति । कुतः ? एकप्रकृतिसूत्रके अनुसार अन्त में-से आदिको घटाकर एकका भाग देकर एक मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने भेद देवगत्यानुपूर्वी के जानना । आनुपूर्वी के इन उत्तरोत्तर भेदोंको पूर्वोक्त ज्ञानावरणके उत्तरोत्तर भेदोंमें मिलानेसे प्रकृति संग्रह होता है। टीकाकारका लिखना है कि शेष प्रकृतियोंके उत्तरोत्तर भेदोंका उपदेश प्राप्त नहीं है। यह प्रकृतिसंग्रह रचनाके अनुसार किया है। बहश्रतोंको इसको शुद्ध कर लेना चाहिए ।।२५८॥
-- प्रकृतिसंग्रहसे प्रकृतियोंकी स्थितिके भेद असंख्यात गुने हैं। क्योंकि जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटाकर एक समयसे भाग दे और उसमें एक मिलानेसे जघन्य स्थितिसे उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त एक-एक स्थिति के संख्यात पल्य प्रमाण भेद होते हैं। यदि एक स्थितिके भेद संख्यात पल्य प्रमाण होते हैं तो पूर्वोक्त सब उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेदोंकी स्थितिके भेद कितने होंगे ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रकृति संग्रहके प्रमाणसे संख्यात पल्य गणे स्थितिके भेद होते हैं। इन स्थितिके भेदोंसे स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुने हैं। जिन ।
क-५१
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४०२
गो० कर्मकाण्डे
५११। सुद्धे । प ११। वढिहिदे रूवसंजुदे ठाण । प ११। एंदितिनितु मेकप्रकृतिस्थितिविकल्पंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु त्रैराशिकं माडल्पडुगुमदत दोडकप्रकृतिविकाल्पक्किनितु स्थितिविकल्पंगळागुत्तं विरलिनितु प्रकृतिविकल्पंगळ्गेनितु स्थितिविकल्पंगळक्कुम दितु माडल्पडुत्तं विरलु
प्र१। फप११
इ = aa२ बंद लब्धं सर्वप्रकृति सस्थितिविकल्पप्रमाणमक्कु
० = a = २ १११ मदु कारणमागि सर्वप्रकृतिविकल्पंगळं नोडलुमवर स्थितिविकल्पंगळु संख्यातपल्यगुणितंगळप्पुरिंदमसंख्यातगुणितंगळेदु पेळल्पटुदी स्थितिविकल्पंगळं नोडलुमिवर स्थितिबंधनिबंधनकषायपरिणामस्थानविकल्पंगळुमसंख्यातलोकगुणितंगळप्पुवद ते दोडे एक
प्रकृतिस्थितिविकल्पंगळगे। प११। स्थितिबंधकारणकषायपरिणामस्थानंगळुमसंख्यातलोक.
प्रमितंगळप्पुववु द्रव्यमक्कु = a मा येकप्रकृतिस्थितिविकल्पंगळु स्थितिये बुदक्कु । ५१ । १० मिवर नानागुणहानिशलाकगळ पल्यच्छेदासंख्यातेकभागमात्रंगळक्कु छे मदक्कन्योन्याभ्यस्त
विकल्पस्य यद्येतावंतः- १११ स्थितिविकल्पाः तदैतावतां 3 a = a २ प्रकृतिविकल्पानां कति
स्थितिविकल्पाः स्युः ? इति त्रराशिकेन संख्यातपल्यैर्गुणितत्वप्रसिद्धः- = a = a | २५११ एम्यः स्थितिविकल्पेभ्यः स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि असंख्यातगुणितानि तद्यथा-एकप्रकृतिस्थितिबंधकारणकषाय
१५
परिणामा असंख्यातलोकाः द्रव्यं = a एकप्रकृतिस्थितिविकल्पाः स्थितिः प ११ नानागुणहानिशलाकाः परिणामोंसे स्थितिबन्ध होता है उनके स्थानोंको स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। इनका कथन अंकसंदृष्टिसे करते हैं
एक प्रकृति के स्थितिबन्धके कारण कषाय परिणाम इकतीस सौ ३१००। यह तो द्रव्य हुआ। उस एक प्रकृति की स्थितिके भेद चालीस ४०। यह स्थिति स्थान हुए। नाना गुणहानि पाँच ५। नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेसे अन्योन्या
भ्यस्त राशि हुई बत्तीस ३२ । एक गुणहानिमें स्थितिका जो प्रमाण है वही गुणहानि आयाम २० है। सो नाना गणहानि शलाकाका भाग सर्व स्थितिमें देनेपर जो प्रमाण हो उतना ही गुण
हानि आयामका प्रमाण जानना । सो नाना गुणहानि पाँच ५ का भाग स्थिति चालीस ४०में
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४०३ राशियुं पल्यासंख्यातकभागमक्कुं ५ गुणहान्यायाममुं नानागुणहानिशलाकाराशिभक्तस्थित्येक
भागमक्कुमो गुणहान्यायाममं द्विगुणिसिदोडे दोगुणहानियक्कु प १ मिन्तागुत्तं विरलु स्थिति
a.
विकल्पंगळोळ सर्वजघन्यस्थितिविकल्पस्थितिबंधनिबंधनकषायाध्यवसायस्थानंगळु सर्वतस्तोकगप्पुवंतादोडमसंख्यातलोकप्रमितंगळप्पुवु = a पदहतमुखमादि धनमें दो राशियं गुणहानियं पदमबुदा पददिदं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमगुणहानियोळादिधनमक्कु = a गु। व्येकपद पददोळेक- ५ रूपं कळदोर्ड रूपोनगुणहानियक्कु । गु । मिदद्धिसिदोर्ड रूपोनगुणहान्यर्द्धमक्कु । गु। मदं चयघ्नं
१
माडिदोडेयिनितक्कु गु। . मी चयमुं वृद्धिविवयिदमादियं रूपाधिकगुणहानियिदं भागिसि.
दोडे चयमक्कुं। हानिविवक्षेयादोर्ड दोगुणहानियिदमादियं भागिसिदोर्ड चयमक्कुमिल्लि वृद्धिविवक्षितमप्पुरिदं रूपाधिकगुणहानियिदं भागिसल्पटुदें बुदत्थं । गुणो गच्छः गच्छदिव गुणिपल्यच्छेदासंख्येयभागाः छे अन्योन्याम्यस्तराशिः पल्यासंख्यालेकभागः गुणहान्यायामः नानागुणहानि- १०
शलाकाभक्तस्थितिमात्रः .५ ११ अयं द्विगुणितो दोगुणहानिः प ११२ तेषु स्थितिविकल्पेषु सर्व
जघन्यस्यितेनिबंधनकषायाध्यवसायाः सर्वतः स्तोका अपि असंख्यातलोकमात्रा: =
'पदहतमुखमादिधर्म
= a गु 'व्येकपदा गु छ गु
नेन रूपाधिकगुण हानिभक्तादिमात्रचयेन गु
= a गुणो गच्छश्चयधनं
-
२
देनेपर आठ आये। आठ एक गुणहानि आयाम जानना । उसको दूना करनेपर दो गुणहानि आयाम होता है। उन स्थितिके भेदों में से सबसे जघन्य स्थितिके बन्धके कारण कषाया- १५ ध्यवसाय सबसे थोड़े हैं। उनका प्रमाण नौ ९ । 'पदहतमुखमादिधनं' इस सूत्रके अनुसार एक गुणहानि आयाम तो पद हुआ। उससे गुणित मुख अर्थात् आदि स्थान नौ ९ वह आदिधन है ! सो आदिधन ८४९-७२ हुआ। एक अधिक गुणहानिका भाग आदिस्थानको देनेपर जो प्रमाण हो वह चय जानना। सो यहाँ गुणहानिका प्रमाण आठ, उसमें एक अधिक करने पर नौ हुए। उसका भाग आदिस्थान नौमें देनेपर एक आया। वही चय २० जानना। अतः एक-एक स्थानमें एक-एक बढ़ता कषायाध्यवसाय स्थान प्रथम गुणहानि
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४०४
गो० कर्मकाण्डे
सल्पद्रुदादोडे चयधनमक्कुं गु
। गु उभयधनमं कूडिदोडिदु प्रथमगुणहानिद्रव्यमवतु ।
= 3 गु गु ३ द्वितीयादिगुणहानिद्रव्यंगळु द्विगुणद्विगुणंगळागुत्तं पोगि चरमगुणहानियोळु रूपोन
गु।२ नानागुणहानिशलाकाप्रमितद्विकंगळु गुणकारंगळेप्पुववनन्योन्याभ्यास माडिदोडे अन्योन्याम्यस्तराश्यद्धं गुणकारमक्कु 3 गु गु ३५० मिदंतधनमप्पुरिंदमन्तधणं गुणगुणियमेदु द्विगुणक्रम
५ मप्पुरिदं गुणकारमेरडु रूपुगळवारदं गुणिसिदोडेडिदु = a गु गु ३ ५२ अपत्तितमिदु
ग
२ ०२
गु - a गु तयोर्योगः प्रथमगुणहानिद्रव्यं = • गु । गु ३ इदं प्रतिगुणहानिद्विगुणं द्विगुणं भूत्वा चरम
२
१
ग
१
गुणहानौ रूपोननानागुणहानिमात्रद्विकगुणमिति अन्योन्याभ्यस्ताघगुणं स्यात् = 2 गु । गु ३ प. इदं 'अंतधणं
०२
गु २ पर्यन्त जानना। सो व्येकपदार्धघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधन' एक हीनगच्छके आधेको चयसे
गुणा करें। फिर गच्छसे गुणा करें। जो प्रमाण हो उतना सर्व चयधन होता है। यहाँ १० गच्छ आठ में से एक घटानेपर सात रहे। उसका आधा साढ़े तीन । उसे चयके प्रमाण
एकसे गुणा करनेपर साढ़े तीन ही रहे। उसे गच्छके प्रमाण आठसे गुणा करनेपर अठाईस हुए। यह चयधन जानना। आदिधन और उत्तरधन मिलानेपर प्रथम गुणहानिका सर्वद्रव्य होता है । सो आदिधन बहत्तर और उत्तरधन २८ को मिलानेपर १०० हुए। यही
प्रथम गुणहानिका सर्वद्रव्य जानना। आगे प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य दूना-दूना होता है१५ १००, २००, ४००, ८००, १६०० । इस तरह एक कम नानागुणहानि प्रमाण वार दूना-दूना
होता है। सो अन्योन्याभ्यस्त राशिके आधेसे प्रथमको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो सो अन्तका प्रमाण जानना । यहाँ नानागुणहानि पाँच में-से एक घटानेपर चार रहे। सो चार जगह दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर सोलह हुए । इतना ही अन्योन्याभ्यस्त राशि
बत्तीसका आधा प्रमाण है। सोलहसे प्रथम स्थान सौको गुणा करनेपर सोलह सौ हुए। २० इतना ही अन्तिम गुणहानिका द्रव्य जानना । इन सबको जोडिए- १. म°लवनन्यो ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
= गुगु३ । आदिविहीण में वादियं कळेदोडिदु गुगु३प सर्व्वगुणहानिगळ
२ a
२ a
--
गु
सर्व्वधनमक्कुमनंतरं त्रैराशिकं माडल्पडुगुमदे ते बोर्ड :- एक प्रकृतिस्थितिविकल्पंगळिनितक्के स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळिनितागुत्तं विरल इनितु प्रकृतिस्थितिविकल्पंगळगेनितु स्थितिबंधा
ग
O
ध्यवसायस्थानंगळपुर्वेदु त्रैराशिक माडि प्रप १ 2
१-२
गु
सर्वगुणानिधनं स्यात् । एकप्रकृतिस्थितिविकल्पानामेषां प
'
फगुगु३प इ २ प १ 2
१
१-
१- १-गुणगुणियं गुगु३प २ अपवर्तितं = गुगु३प आदिविहोणमिति ० गु । गु३प
a २
१-२
a
गु
a
2
9
गु
ิ
४०५
२०
ज्
१गु २
१-०
यद्येतावंतःगु । गु ३ प
१- २
a
गु
स्थितिबंबाध्यवसायाः तदा एतावतां = a = a२प ११ स्थितिविकल्पानां कति स्थितिबंधाव्यवसायाः
'अंधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणुत्तर भजियं' यह सूत्र जहाँ प्रत्येक स्थानका गुणकार समान होता है उनके जोड़ करनेके लिए है । सो गुणा करते-करते अन्तमें जो प्रमाण आवे उसको गुणकारसे गुणा करके उसमें से आदि घटा दें। जो प्रमाण आवे उसको एक १० हीन उत्तर से भाग देनेपर सर्वधन होता है । यहाँ अन्तस्थानका प्रमाण सोलह सौ १६०० और दूना-दूना किया था, इससे गुणकारके प्रमाण दोसे गुणा करनेपर बत्तीस सौ ३२०० सौ हुए । उसमें आदि का प्रमाण सौ घटानेपर इकतीस सौ रहे । यहाँ दूना-दूना किया है इससे उत्तरका प्रमाण दो हुआ । उसमें से एक घटानेपर एक रहा। उसका भाग देनेपर इसतीस सौ ही रहे । सो पांचों गुणहानिका जोड़ है । इस तरह एक प्रकृतिके स्थितिबन्धके कारण इकतीस सौ
१५
जानना ।
यह तो अंक संदृष्टिसे कहा है । अब यथार्थ कथन करते हैं - एक प्रकृतिके स्थितिबन्धके कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय हैं सो द्रव्य जानना । एक प्रकृतिकी जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त संख्यात पल्य प्रमाण स्थितिके भेद हैं । सो स्थिति स्थान जानना । नानागुणहानि पल्य के अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग मात्र है । अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्य के असंख्यातवें भाग है । नानागुणहा निशलाकाका स्थिति में भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसे गुणहानि आयाम जानना | उसको दोसे गुणा करनेपर दो गुणहानि होती है ।
२०
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________________
५
४०६
गो० कर्मकाण्डे
1
बंद लब्धं सम्यंप्रकृतिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायप्रमाणमक्कु = = ० २ = ० गु गु३ प
२ a
गु
मदु कारणमागि सर्व्वप्रकृतिस्थितिविकल्पंगळं नोडलु स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळमसंख्यात लोकगुणर्म पेळपट्दो स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगनुवृष्टिविधानमुटप्पुदीयल्पबहुत्वकथनदोळ प्रस्तुत मल्लप्पुर्वारदं पेळल्पडदु मुंदे पेळल्पडुगु ।
अनंतरमनुभागबंधाध्यवसायंगळगं कम्मं प्रवेशंगळ्गमल्पबहुत्वमं मुंदण सूत्रदिवं पेदपरु । अणुभागाणं बंधझवसाणमसंखलोगगुणिदमदो । तो अनंतगुणिदा कम्मपदेसा मुणेदव्वा || २६०॥
अनुभागानां बंधाध्यवसायोऽसंख्यलोक गुणितोऽतः । इतोऽनन्तगुणिताः कम्मं प्रदेशा
मन्तव्याः ॥
1
१० स्युः ? इति त्रैराशिकेन एषां २ गुगु३प स्थितिविकल्पेभ्योऽसंख्यातलोकगुणि
२ a
g
१
गु २
1
.. तत्वदर्शनात् । तेषां स्थितिबंधाध्यवसायानामनुकृष्टिविधानमस्त्यपि अत्राप्रस्तुतत्वान्नोक्तम् । अग्रे वक्ष्यति ।। २५९ ।। सब स्थितिके भेदों में जघन्य स्थितिबन्धके कारण कषायाध्यवसाय स्थान सबसे थोड़े हैं । वे असंख्यात लोकमात्र हैं । 'पदहतमुखमादिधनं' अर्थात् आदिस्थानको गच्छसे गुणा करनेपर आदि धन होता है। एक अधिक गुणहानि आयामका भाग आदिमें देनेपर चयका प्रमाण १५ होता है । आदिधन और चयधनको मिलानेपर प्रथम गुणहानिका सर्व द्रव्य होता है। सो प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना होते-होते अन्त में एक कम नानागुणहानि प्रमाण दूना होनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि के आधे प्रमाणसे आदिको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वही अन्तकी गुणहानिका द्रव्य जानना । सो 'अंतधणं गुणगणियं आदिविहीणं रूउणुत्तर भजियं' इस सूत्र - के अनुसार अन्तमें जो प्रमाण हुआ उसको गुणाकार दोसे गुणा करके उसमें से आदिका २० प्रमाण घटावे | उत्तरके प्रमाण दो में एक घटानेपर एक रहा। उससे भाग देनेपर उतना ही
रहा । इस तरह करनेपर जो प्रमाण रहा उसे सर्वगुणहानिका धन जानना । एक प्रकृतिके संख्यात ल्यप्रमाण स्थिति भेद और उनके इतने असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हुए तो सर्व उत्तरोत्तर प्रकृति संग्रहके भेदोंके कितने स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हुए इस प्रकार त्रैराशिक करनेसे स्थितिके भेदोंसे असंख्यात लोक गने होते हैं । इन स्थितिबन्धाध्यवसाय, स्थानों में अधःप्रवृत्तकरण की तरह अनुकृष्टि विधान होता है सो आगे कहेंगे । यहाँ मुख्य कथन न होने से नहीं कहा || २५९ ॥
२५
इन सब स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंसे अनुभागाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक गुने होते हैं । वही कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
अतः तत्सर्व्वस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळं नोडलुमनुभागबंधाध्यवसायस्थानगळुम संख्यातलोकगुणितंगळtya | इतः यिवं नोडलुं कर्म्मप्रदेशंगळ मनंतगुणितंगळप्पुवेदितु मंतव्यंगळप्पुवल्लिजघन्यस्थितिबंधनिबंधनस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगे अनुभागबंधाध्यवसायंगळु असंख्यात लोकगुणितासंख्यात लोकप्रमितंगळु द्रव्यमक्कु = मा जघन्यस्थितिबंध निबंधनासंख्यात लोकमात्रषट्स्थानगत स्थितिबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळुम संख्यात लोकमात्रगळु स्थितियें बुदक्कुं । नानागुणहानिशलाकेगमावल्यसंख्यातैक भागमक्कु २ मी नानागुणहा निशलाकेगळिदं स्थितियं भागदो गुणहान्यायाम मक्कु = मी गुणहान्यायाममं द्विगुणिसिदोडे दोगुणहानियक्कुं = |२
= a
a a
२
२
४०७
aa
aa
नानागुणहानिशलाकेगे द्विकमिनित्तु वग्गितसंवर्ग माडुत्तिरलुमन्योन्याभ्यस्तरा शियुमावल्यसंख्यातैकभागमॆक्कु । २ । मिन्तागुत्तं विरलु संकलितधनं तरल्पडुगुमदे' ते ' दोडे जघन्यस्थिति
a
बंधकारणस्थितिबंधाध्यवसायंगळ जघन्यस्थितिबंधाध्यवसायस्थानदोळनु भागबंधाध्यवसायस्थान - १० विकल्पंगळुम संख्यात लोकप्रमितंगळ स्तोकंगळिवु == मुखमे बुदक्कुं । पदहत मुखमादिधनमें दु मुखमं गुणहानियवं गुणिसिदोडादिधनमक्कुं । == गु । व्येकपदार्द्धधनचयगुणो गच्छः उत्तरधनमें बु गु णहानियोलों रूपं कळेर्दाद्धसि चर्याददं गुणिसि गुणहानियिदं गुणिसिदोडे चयषनमक्कु ।
५
एभ्यः सर्वस्थितिबंधाध्यवसायस्थानेभ्यः अनुभागबंधाध्यवसायस्थानाति असंख्यात लोकगुणितानि । तद्यथाजघन्यस्थितिबंधनिबंधनस्थितिबंधाव्यवसाय संबंध्यनुभागबन्धाध्यवसायाः असंख्यात लोकगुणितासंख्यात लोकमात्राः । १५ द्रव्यं = जधन्यस्थितिबंधाध्यवसाया असंख्यात लोकमात्रषट्स्थानगता अप्यसंख्यात लोकाः । स्थितिः = नानागुणहानिशलाका: आवल्यसंख्यातैकभागः २ ताभिर्भक्तस्थितिगुणहान्यायामः अयं द्विगु
aa
२
a a
णितो दोगुणहानिः २ आवल्यसंख्या तक भागोऽन्योन्याभ्यस्त राशिः २ । अत्र जघन्यस्थितिबंवाध्यव
a
२ aa
सायस्थाने अनुभागबंघाध्यवसाया असंख्यात लोकाः सर्वतः स्तोकाः = a = मुखमित्युच्यते । पदहतमुख
जघन्य स्थितिबन्धके कारण जो कषायाध्यवसाय स्थान हैं उन सम्बन्धी अनुभागा- २० ध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकसे असंख्यात लोकको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने हैं । वही यहाँ द्रव्य जानना । जघन्य स्थितिबन्धके कारण जो स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकवार षट्स्थान वृद्धिको लिये हुए हैं तथापि असंख्यात लोक मात्र ही हैं। उन्हें यहाँ स्थिति स्थान जानना । नानागुणहानि शलाका आवलीको दो बार असंख्यात से भाग दें उतनी हैं । नानागुणहानिका भाग स्थिति स्थान में देनेपर जो लब्ध आवे उतना एक गुण - २५ हानिका आयाम होता है । उसको दूना करनेपर दो गुणहानि होती है । आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि है । यहाँ जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थान में अनुभागाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । वे सबसे थोड़े हैं । उनको मुख कहैं ।
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४०८
गो० कर्मकाण्डे
गु = 3 = । गु मी चयधनमुमनादिधनमुमं कूडिदोडुभयधनमुं प्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुमिवादि
धनमक्कु = ? = गु गु ३ द्वितीयादिगुणहानिद्रव्यंगळु द्विगुणद्विगुणक्रमदिदं पोगि चरम
गुणहानियोलु रूपोननानागुणहानिशलाकामात्रद्विकंगळु (गुणकारंगळप्पुरिदमवनन्योन्याभ्यास माडुत्तं विरलु लब्धमावल्यसंख्यातेकभागप्रमितमप्प अन्योन्याभ्यस्तराश्यद्धं गुणकारमक्कु ५ = a = a गु गु ३ २ मिदन्तधनमप्पुरिंदमन्तधणं गुणगुणियं एंदु अन्तधनम गुणकारदिदं
२२
गुणिसिदोडिदु = 3 3 3 गु गु ३ २ २ अपत्तितमिदु = 3 = 3 गु ३ २ आदिविहीनमें दि
२०२
Pa
ग
= गु तयोयोगः प्रथमगुण
मादिधनं = a = a गु 'व्यकपदानचयगुणोगच्छ उत्तरधन'- ग
२
= गु
१
हानिद्रव्यं = a = गु । गु ३ प्रतिगुणहानि द्विगुणद्विगुणक्रमेण चरमगुणहानौ रूपोननानागुणहानिमात्रद्वि
कगुणितमित्यन्योन्याभ्यस्तराश्यधं गुणकारः स्यात् । =
गु । गु ३ २ इदमंतधणं गुणगुणियं = a
३२
१० 'पदहतमुखमादिधनं' अर्थात् पद-गुणहानि आयामसे मुखको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो,
उसे आदिधन जानना । 'व्येकपदार्धनचयगुणो गच्छ उत्तरधनं'-एक हीन पद जो गुणहानि आयाम है, उसको आधा करें तथा चयसे गुणा करें, जो प्रमाण हो उसको पदसे गुणा करें। ऐसा करनेसे जो राशि आवे उसे चय धन जानो। आदिधन और चयधनको
मिलानेपर प्रथम गुणहानिका सर्वद्रव्य होता है। और आगे क्रमसे प्रत्येक गुणहानिमें दूना१५ दूना होता जाता है । एक हीन नाना गुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर उन्हें परस्परमें गुणा
करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशिका आधा प्रमाण होता है। उससे प्रथम गुणहानिके द्रव्यको गुणा करनेपर अन्तिम गुणहानिका सर्वद्रव्य होता है । तथा 'अंतधणं गुणगुणियं आदि विहीणं रूऊणुलर भजिय', इस सूत्रके अनुसार अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको गुणाकार दोसे गुणा
करें। गुणा करनेसे जो आवे उसमें से प्रथमगुणहानिका द्रव्य घटावें। तथा उत्तर दोमें-से २० एक घटानेपर एक शेष रहा, उससे भाग देनेपर उतना ही रहा। ऐसा करनेसे जो प्रमाण
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
दरोळादियं कळेदोडे = a = a गु गु ३ २ ई राशि जघन्यस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळानुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळप्पुविन्नु त्रैराशिकं माडल्पडुगुमड़ते दोडे एकजघन्यस्थितिविकल्पक्कनुभागबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळिनितागुत्तं विरलिनितु स्थितिविकल्पंगळ्गेनितु अनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळक्कुमेदिन्तु त्रैराशिकं माडुत्तविरलु प्र१५ = a = a गु गु ३।२
२
a
इ = a
२ प ११ बंद लब्धं सर्वस्थितिविकल्पंगळ्गनुभागबंधाध्यवसायस्थानविकल्पं.
गळप्पुवु = = ०२५११ = a = a गु गु ३ २ अदु कारणमागि सर्वस्थितिबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळं नोडलनुभागबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळुमसंख्यातलोकगुणितंळेदु परमा
२a
= a गु । गु ३ २ । २ अपवर्तितं =
२० २
3 2 गु । गु ३ २ आदिविहीणमिति = . =
गु।
a
ग
ग ३।२
जघन्यस्थितेः स्थितिबंधाध्यवसायानां अनुभागबंधाध्यवसायस्थानप्रमाणं स्यात् । एकस्थिति
२a विकल्पस्य अनुभागबंधाध्यवसायस्थानविकल्पा एतावंतः तदा एतावतां स्थितिविकल्पानां कति अनुभागबंधाध्य- १०
वसायस्थानानीति राशिकेन-प्र-१ फ-Basaगु ग ३ २ इ-Bap२प ११
लब्धानां एतावन्मात्रत्वात् = a =
२ प ११
= a = a गु । गु ३ २ एभ्योऽनुभागबंधाध्य१
२a
wwwwwwwwwer
हुआ, उतना सब गुणहानियोंका द्रव्य हुआ। सो जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानसम्बन्धी अनभागाध्यवसाय स्थानोंका इतना प्रमाण होता है। जो एक स्थिति भेदके अनभागाध्यवसाय स्थानके भेद इतने हुए तो पूर्वोक्त सब स्थिति भेदोंके अनभागाध्यवसाय स्थानके कितने भेद हुए । इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर लब्धराशिका जो प्रमाण होता है वह स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंसे असंख्यात गुणा होता है।
क-५२
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४१०
गो० कर्मकाण्डे गमोळपेळल्प१दिन्नु कर्मप्रदेशंगळ प्रमाणमरियल्पडुगुमदेंते दोडमध्यमयोगाज्जितसमयप्रबद्धं द्रव्यमाबाधारहितकर्मस्थितिसंख्यातपल्यं स्थितिषल्यवर्गशलाकार्द्धच्छेदराशिहीनपल्यार्द्धच्छेदराशिनानागुणहानिभाजितस्थितिगुणहानिद्विगुणितगुणहानि दोगुणहानि नानागुणहानिप्रमितद्विक
संवर्गसंजनितस्ववर्गशलाकाभक्तपल्यमन्योन्याभ्यस्तराशियक्कुमिवक्के यथाक्रमदिदमंकसंदृष्टियु५ मर्थसंदृष्टियुमिदु :
द्रव्य ६३०० स्थिति । ४८ नाना ६ | गुणहानि ८ । दोमुण १६ अन्योन्या ६४ | स० प छे-व छ
प ।
। २
। छ व छ । छ-व छ । व अनंतरं त्रिकोणरचनास्वरूपदिदमिई कर्मप्रदेशंगळ संकलितधनं तरल्पडुगुमा त्रिकोणरचनास्वरूपमते दोडनादिबंधनबद्धगलितावशेषसमयप्रबधंगळाबाधारहितोत्कृष्टकर्मस्थितिसप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमितंगळु विवक्षितवर्तमानसमयदोळे कैकनिषेकाधिकक्रमदिदं पोगि चरमसमय
प्रबद्धदोळाबाधारहितोत्कृष्टकर्मस्थितिप्रमितनिषेकंगळप्पुवा समयप्रबद्धचरमगुणहानिचरमनिषेकं १० वसायेभ्यः कर्मप्रदेशाः अनंतगुणाः तद्यथा
अनादिबंधनबद्धगलितावशेषसमयप्रबद्धानां आबाधारहितोत्कृष्टस्थितिः सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमः प्रमिता, विवक्षितवर्तमानसमये एकैकनिषेकाधिकक्रमेण गत्वा चरमसमयप्रबद्धे आबाधारहितोत्कृष्टस्थितिप्रमित
इन अनुभागाध्यवसाय स्थानोंसे कर्म के प्रदेश अर्थात् कर्मपरमाणु अनन्त गुणे हैं। उसे ही अंक संदृष्टिसे दिखाते हैं. एक समयमें जितने परमाणु बँधते हैं उसे समयप्रबद्ध कहते हैं। उनका प्रमाण तेरसठ सौ ६३००। कर्मकी स्थितिका प्रमाण अड़तालीस समय सो स्थिति ४८ । नानागुणहानि ६ । एक-एक गुणहानिमें जितनी स्थिति हो वह गुणहानि आयाम आठ । नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रख उन्हें परस्परमें गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि चौंसठ । गुणहानि
आयामको दूना करनेपर दो गुणहानिका प्रमाण सोलह । एक हीन अन्योन्याभ्यस्त राशि २० त्रेसठका भाग सर्वद्रव्य तेरसठ सौ में देनेपर सौ आया । सो अन्तकी गुणहानिका प्रमाण है।
उससे दूना-दूना द्रव्य प्रथम गुणहानि पर्यन्त होता है । सो आधा अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको गुणा करनेपर प्रथम गुणहानिका द्रव्य आता है। सो बत्तीससे सौको गुणा करनेपर बत्तीस सौ होते हैं यही प्रथम गुणहानिका द्रव्य है। इससे दूसरी आदि
गणहानियोंका द्रव्य आधा-आधा होता है-३२०० । १६००। ८०० । ४०० । २०० । १०० । २५ प्रथम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यको गुणहानि आयामसे भाग देनेपर मध्यधन होता है । सो
बत्तीस सौमें आठसे भाग देनेपर चार सौ आये । यह मध्यधन है। एक हीन गुणहानि आयामके आधे प्रमाणको निषेक भागहाररूप दो गुणहानिमें-से घटानेपर जो प्रमाण रहे उसका भाग मध्यधनमें देनेपर जो प्रमाण आवे सो चयका प्रमाण जानना। सो एक हीन गुणहानि आयाम सातका आधा साढ़े तोनको दो गुणहानि सोलहमें-से घटानेपर साढ़े बारह
३. १. वपमाणि, वि।
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४११
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मोदल्गोंडधोधोनानागुणहानिगळोळु प्रथमगुणहानिप्रथमोदयनिषेकपय॑न्तमिळिदु तत्प्रथमनिषेकमादियागितिय॑क्सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाबाधारहितकर्मस्थिति प्रमितगळितावशेषसमयप्रबद्धगळोळेकैकनिषेकंगळुदयिसलुदयक्केकसमयप्रबद्धमक्कुमा त्रिकोणरचनासंदृष्टियिदु :
चरमगुणहानि
९॥१०॥ ९॥ १०॥ १॥ ९॥ १०॥ १॥ १२॥ ९॥ १०॥ ११॥ १२॥ १३॥ ९ १० ११ १२ १३ १४॥ ९॥ १०॥ ११२॥ १३॥ १४॥ १५॥ ९॥ १०॥ १॥ १२॥ १३॥ १४॥ १५॥ १६॥
० ० ० ० ० ० ० ०
० ० ० ० ० ० ० ० ०००१४४१६०११७६१९२१२०८२२४॥२४०१२५६। ९.०००१६०११७६।१९।२०८।२२४।२४०१२५६।२८८ थ ९।१०) ००० १७६।१२।२०८।२२४।२४०१२५६२८८।३२०॥ ९।१०।१११ ००० १९२।२०८।२२४॥२४०१२५६२८८।३२०१३५२।३८४० ग ९॥ १०॥ ११॥ १२॥ ००० २०८२२४।२४०।२५६।२८८३२०३५२३८४१३८४ाण ९।१०।११॥ १२॥ १३॥ ००० २२४॥२४०।२५६।२८८।३२०१३५२।३८४६४१६। हा ९॥१०॥ १॥ १२॥ १३॥ १४॥ ०००२४०१२५६३२८८०३२०१३५२।३८४६४१६१४४८। ९॥ १०॥ १॥ १२॥ १३॥ १४॥ १५॥ ०००२५६।२८८०३२०१३५२।३८४६४१६१४४८४८०॥ ९.१०॥ ११॥ १२॥ १३॥ १४॥ १५॥१६॥ ०००२८८।३२०१३५२।३८४॥४१६१४४८।४८०.५१२॥
निषेका भवंति । तत्समयप्रबद्धचरमगुणहानिचरमनिषेकादारभ्याधोधो नानागुणहानिषु प्रथमगुणहानिप्रथमोदयनिषेकपर्यतमवतीर्य तत्प्रथमनिषेकमादिं कृत्वा तिर्यगाबाघोनितोत्कृष्टस्थितिप्रमितगलितावशेषसमयप्रबद्धवेकैक- ५ निषेकेषु दीयमानेषु एकनिषेकसमयप्रबद्ध उदेति तत्त्रिकोणरचनासंदृष्टिः
रहे। उसका भाग मध्यधन चार सौमें देनेपर बत्तीस आये । यही प्रथम गुणहानिमें चयका प्रमाण है। इस चयको दो गुणहानिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो सो आदिनिषेक जानना। सो बत्तीसको सोलहसे गुणा करनेपर पाँच सौ बारह प्रथम निषेक जानना । उसमें से एक चय बत्तीस घटानेपर चार सौ अस्सी दूसरा निषेक हुआ। इसी प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त घटाना। प्रथम गणहानिके अन्तिम निषेकमें से प्रथम गुणहानि सम्बन्धी चय घटानेपर प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकसे आधा प्रमाण होता है। वही द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक है । इसमें द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी एक-एक चय घटानेपर द्वितीयादि निषेक होते हैं। प्रथम गुणहानिसे द्वितीय गुणहानिमें चयका तथा निषेकोंका प्रमाण आधा होता है। उसके अन्तिम निषेकमें-से द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी एक चय घटानेपर तीसरी गणहानिका प्रथम निषेक होता है। उसमें एक-एक चय पटानेपर द्वितीयादि । निषेक होते हैं । यहाँ भी चय तथा निषेकोंका प्रमाण दूसरी गुणहानिसे आधा जानना । इसी तरह प्रत्येक गुणहानिमें आधा-आधा होता जाता है। गुणहानि यन्त्र इस प्रकार है
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४१२
गुणहानि | चयका | निषेको का| सर्व द्रव्य
क्रम
प्रमाण
का प्रमाण
प्रमाण ५१२
४८०
प्रथम
गुणहानि
द्वितीय गुणहानि
तीसरी गुणहानि
३२
१६
९००० १६० १७६। १९२ । २०८ २२४। २४० । २५६।२८८ ९।१०।००० १७६।१९२।२०८ २२४ २४० २५६ २८८। ३२०१ ९।१०।११।००० १९२ । २०८ २२४२४०१ २५६ २८८ ३२० । ३५२। ९।१०।११।१२।००० २०८ २२४। २४० । २५६ । २८८। ३२० । ३५२ । ३८४ |
१३
९ १० ११ १२ १३०००२२४।२४० २५६ २८८ ३२० ३५२। ३८४। ४१६। ९ १० ११ १२ १४००० २४० । २५६। २८८। ३२० । ३५२। ३८४१ ४१६। ४४८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १००० २५६। २८८ ३२० ३५२। ३८४। ४१६। ४४८१ ४८० | ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६००० २८८। ३२० ३५२। ३८४ ४१६। ४४८। ४८० | ५१२।
↑
८
४४८
४१६
३८४
३५२
३२०
२८८
२५६
२४०
२२६
२०८
१९२
१७६
१६०
१४४
१२८
१२०
११२
गो० कर्मकाण्डे
१०४
९६
૮૮
८०
७२
३२००
१६००
९
८००
९
१०
९।
१०
११
१० ११ १२
गुणहानि
पंचम गुणहानि
९।
९। १०।
११
१२
१३।
षष्ठम
गुणहानि
४
२
९
१०।
१
१०
११ ।
११।
१२ ।
१२
१३ १४।
१३ १४ १५ ।
१४ १५ १६।
D&FFXXX
६४
६०
५६
५२
४८
४४
४०
३६
३२
३०
२८
२६
२४
२२
२०
१८
१६
१५
१४
Domwood
१३
१२
११
९।
९। १०।
११
१२।
१३।
१०
९
४००
२००
१००
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४१३
इसका आशय इस प्रकार है
समयप्रबद्ध तिरसठ सौ कर्मवर्गणा बन्धरूप हुई। उनका आबाधाकाल रहित शुद्ध स्थिति अड़तालीस समय । पहले समयमें पाँच सौ बारह परमाणु खिरे । पीछे बत्तीस-बत्तीस घटते हुए खिरे। प्रथम गुणहानिके काल में बत्तीस सौ परमाणु खिरे । द्वितीय गुणहानिके प्रथम समय में दो सौ छप्पन खिरे। पीछे सोलह-सोलह घटते हए खिरे। इस तरह द्वितीय ५ गुणहानिमें सर्व परमाणु सोलह सौ खिरे । इस प्रकार प्रत्येक गुणहानिमें आधे-आधे खिरे। इस तरह सब गुणहानियोंमें त्रेसठ सौ परमाणु खिरते हैं। इसी प्रकारसे यथार्थ रूपमें भी जानना। यहाँ मोहनीय कर्म की अपेक्षा दिखाते हैं
मोहनीय कर्मके परमाणु एक समयप्रबद्धमें जितने बँधते हैं उतना द्रव्यका प्रमाण जानना। मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर । उसमें-से आबाधा काल घटाने- १० पर जो प्रमाण रहे उसमें जितने समय हो उतनी स्थिति जानना। पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंको पल्यके अर्धच्छेदोंमें-से घटानेपर जो शेष रहे उतना नानागुणहानि शलाकाका प्रमाण है । इसका भाग उक्त स्थितिमें देनेपर जो प्रमाण आवे उतना एक गुणहानि आयामका प्रमाण जानना । उसको दूना करनेपर दो गुणहानि आयाम होता है। नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण होता है। सो १५ ऊपर अंकसंदृष्टिमें जैसा कहा है तदनुसार करते हुए गुणहानियों में और निषेकोंमें जितना द्रव्यका प्रमाण आवे सो जानना । सो आबाधाकाल बीतनेपर प्रथम समयमें तो प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकमें जितना द्रव्यका प्रमाण हो, उतने परमाणु खिरते हैं। दूसरे समयमें दूसरे निषेकमें जितना द्रव्यका प्रमाण है उतने परमाणु खिरते हैं।
इस प्रकार एक गुणहानिके जितने समय होते हैं उतने समयों में प्रथम गुणहानिका २० जितना द्रव्य होता है उतने परमाणु खिरते हैं। इसी क्रमसे प्रत्येक गुणहानिमें आधे-आधे खिरते हैं। सर्वगुणहानियों में सम्पूर्ण समयप्रबद्ध इस क्रमसे खिर जाता है। इस प्रकार जो समयप्रबद्ध बँधता है उसकी निर्जरा होनेका यह विधान है। तथा प्रतिसमय एक समयप्रबद्ध नधीन बँधता है। जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि होनेसे पूर्वोक्त प्रकारसे प्रतिसमय बन्ध और निर्जरा होते हुए भी जीवके कुछ कम डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध २५ सदा सत्तामें रहता है। अर्थात् गुणहानि आयामके प्रमाणको ड्योढा करनेपर जो प्रमाण हो उसमें कुछ प्रमाण कम करके उससे समयप्रबद्धके प्रमाणको गा करनेपर जो प्रमाण आवे उतने कर्म परमाणुओंकी सत्ता जीवके सदा रहती है।
प्रति समय एक-एक समयप्रबद्धका बन्ध और एक-एक समयप्रबद्धका उदय होते रहते डेढ़ गुणहानि गुणित · समय प्रबद्धकी सत्ता कैसे रहती है और कैसे एक समयप्रबद्धका ३० उदय होता है, इस बातको अंक संदृष्टिके द्वारा त्रिकोण रचना करके दिखाते हैं
इस रचनामें नीचेकी पंक्तिमें नौ आदि आठ निषेक लिखे हैं। बीचके बत्तीस निषेक न लिखकर बिन्दीके चिह्न दिये हैं फिर दो सौ अठासी आदि निषेक लिखे हैं। इसी प्रकार ऊपरकी पंक्तियोंके बीच में भी बिन्दियोंके चिह्नसे बीचके निषेक जानना। आठ पंक्तियोंके ऊपर बिन्दीके चिह्नों द्वारा बत्तीस पंक्तियाँ एक-एक निषेक घटते हुए जाननो। जीवकाण्डके ३५ योगमार्गणा अधिकारमें यह त्रिकोण रचना सम्पूर्ण दी गयी है। यहाँ संक्षेपमें लिखनेके कारण बीचमें बिन्दियोंके चिह्न दिये हैं।
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४१४
गो० कर्मकाण्डे
३२० ३५२३
११
००० १६०
२०८
२२४
४२४० | ९ १० ११ १२ ०००
१० २०८, २२४ ९/१०/११/१२ ००/ २२४ २४० ९ १०१११२/१३/१४ ००० २४० २५६
३५२/ ३८४.४१६ ४४८ १०/११/१२/१३/१४/१५/ ००० २५६ २८८ ३२० ३५२ ३८४ ४१६ ४४८ ४८० ९ १०१११२/१३/१४/१५/१६/ ०००/ २८८ ३२०/ ३५२ ३८४ ४१६/ ४४८ ४८० ५१२|
इस त्रिकोण रचनाका अभिप्राय इस प्रकार है-वेसठ सौ परमाणु प्रमाण जो समयप्रबद्ध बँधा, आबाधाकाल छोड़कर वह अड़तालीस समयकी स्थितिमें क्रमसे इस प्रकार खिरता है-५१२।४८०।४४८१४१६।३८४१३५२।३२०१२८८ । यह प्रथम गुणहानि हुई । २५६।२४०
२२४।२०८।१९२।१७६।१६०११४४। यह दूसरी गुणहानि हुई। १२८।१२०।११२१०४।१६।८८८० ५ ७२। यह तीसरी गुणहानि हुई । ६४।६०५६३५२।४८।४४।४०३६। यह चतुथे गुणहानि हुई ।
३२।३०।२८।२६।२४।२२।२०१८ । यह पंचम गुणहानि हुई। १६।१५।१४।१३।१२।११।१०।९। यह षष्ठम गुणहानि हुई। इन छहों गुणहानियोंमें त्रेसठ सौ परमाणु इस प्रकार खिरते हैं। जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए आबाधा अधिक अड़तालीस समय हो गये, उससे लगाकर
इससे पहले जितने समयबद्ध बंधे थे उनसे तो कोई प्रयोजन नहीं रहा, क्योंकि उनका १० कोई भी निषेक सत्तामें नहीं रहा। सब उदयमें आकर खिर गये। जिस समयप्रबद्धका
बन्ध हुए आबाधा अधिक सैंतालीस समय हुए हैं उसके सैतालीस निषेक तो खिर गये । एक अन्तका निषेक रहा। सो त्रिकोण रचनामें नौ परमाणु रूप अन्तका निषेक ऊपर लिखा है। उसके नीचे जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए आबाधा अधिक छियालीस समय हुए उसके
छियालीस निषेक तो खिर गये दो निषेक सत्तामें रहे। सो त्रिकोण रचनामें नौ और दस १५ परमाणुके दो निषेक लिखे। उसके नीचे जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए आबाधा अधिक
पैंतालीस समय हुए उसके पैंतालीस निषेक खिर गये तीन निषेक सत्तामें रहे। सो त्रिकोण रचनामें नौ, दस और ग्यारह परमाणुके तीन निषेक लिखे। इसी प्रकार जिस-जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए एक-एक समय कम हुआ है उसके एक-एक घटते हुए समयप्रबद्ध तो खिर
गये, शेष एक-एक अधिक निषेक सत्तामें रहे । उनको नीचे-नीचे लिखा। जिस समयप्रबद्धका २. बन्धहए आबाधा अधिक एक समय हुआ हो उसका एक निषेक तो खिर गया शेष सैतालोस
निषेक रहे। वे नौ से लगाकर चार सौ अस्सी परमाणुके निषेक पर्यन्त लिखे हैं। उसके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ई त्रिकोणरचनय चरमगुणहानिधनं तरल्पडुगुमदत दोडे चरमनिषेकमो दु९ अनंतराधस्तन द्विचरमनिषेकंगळेरडु ९।१०। तदनंतराधस्तन त्रिचरमनिषेकंगळु मूरु ९ । १० । ११ । इंतेकैकनिषेकंगळ द्विकंगळधिकंगळागुतं पोगि चरमगुणहानि प्रथमनिषेकदोळु नानासमयप्रबद्ध प्रतिबद्धनिषेकंगळु गुणहानिप्रमितंगळप्पुवु। ९। १०। ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । यितिरुत्तं विरलु चरमनिषेकसमानमप्पंतु अधस्तनाधस्तननिषेकंगळोळिई चरमगुणहानिचयंगळं ५ तेगदु तेगदु तंतम्म सशनिषेकसंख्यगळ पाश्चंदोळु स्थापिसुत्तं विरलु चरमगुणहानियोळु सदृश. निषेकंगळु गच्छामितंगळागुत्तं पोपुवु। तत्तच्चयंगळं रूपोनगच्छसंकलनप्रमितंगळागुत्तं पोपुवप्पुदरिदं द्विकवारसंकलनक्रमंगळप्पुवु । संदृष्टिः
एकवार द्विकवार
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।१।६ ।१।१०
१।१५
१।२८
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अस्याश्चरमगुणहानौ चरमनिषेक: एकः ९ । अस्याधस्तनो द्विचरमनिषको द्वौ ९ । १० । त्रिचरमास्त्रयः ९ । १०। ११ । एवमेकैकाधिकक्रण तत्प्रथमनिषेके नानासमयप्रबद्धप्रतिबद्धा गुणहानिमात्राः स्यः ९। १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । अत्र चरमनिषेकसमानं यथाभवति तथा अधस्तनांधस्तननिषेकस्थितचरमगुणहानिचयान् पृयक्कृत्य स्वस्वसदृशनिषेकसंख्यापार्वे स्थापितेषु सदृशधनिकानि गच्छप्रमितानि
नीचे अन्त में जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए अबाधाकाल ही हुआ है और एक भी निषेक नहीं खिरा, उसके नौ से लगाकर पाँच सौ बारह पर्यन्त सब अड़तालीस निषेक सत्तामें हैं वे लिखे हैं। इस तरह त्रिकोण रचनामें गलनेके बाद जो शेष निषेक रहे वे क्रमसे लिखे हैं। .. इस सब त्रिकोण रचनाका जोड़ देनेपर जो प्रमाण हो उतनी सत्ता जीवके सदा रहती है। " इसके जोड़नेका विधान इस प्रकार जानना
ऊपर जो त्रिकोण रचना दी है उसकी चरमगुणहानिमें चरम निषेक एक ९ है । उसके नीचे द्विचरम निषेक दो हैं ९।१०। इसी तरह त्रिचरम निषेक तीन है ९।१०।११। इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे प्रथम निषेकमें नाना समय प्रबद्धोंसे प्रतिबद्ध निषेक गुणहानि प्रमाण होते हैं ९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६ । यहाँ जोड़नेके लिये सबको चरमनिषेक ९ के २० समान करनेके लिए नीचे-नीचेके निषेकोंमें स्थित अन्तिम गुणहानिके चयोंको पृथक करके उन्हें अपनी-अपनी समान निषेक संख्या के पास में स्थापित करो।
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४१६
गो० कर्मकाण्डे
ई येरडं पंक्तिगळं संकलिसिदोडे यथाक्रमदिदमिन्तिप्र्पुवु ८।८।८ उभयधनयुतियिनितक्कुं ८।८।८।४।१ अनंतरं द्विचरमगुणहानिद्रव्यं 'तरल्पडुगुमदेत दोडे द्विचरमगुणहानिचरमनिषेकदोळु नानासमयप्रबद्ध प्रतिबद्धनिषेकंगळु चरमगुणहानिप्रथमनिषेक
नानासमयप्रबद्धप्रतिबद्धनिषेकंगळनितुं तच्चरमनिषेकद्विगुणप्रमितमो दु निषेकमुमधिकमक्कुं। ५ ९।१० । ११ । १२ । १३ । १४। १५ । १६। १८। तदनंतराधस्तननिषेकदोळु तावन्मात्रंगळं द्विचरमगुणहानिविशेषाधिकतच्चरमनिषकमोंदधिकमक्कुं। ९। १०। ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८। २० । इंतु पूर्वपूर्वमं नोडलेकैकद्विचरमगुणहानिविशेषयुतमेकैकनिषेकाधिक क्रमदिदं पोगि द्विचरमगुणहानिप्रथमनिषेकदोळु नानासमयप्रबद्धप्रतिबद्धनिषेकंगळु गच्छमात्रंगळि
चयाश्च रूपोनगच्छसंकलनमात्रतया द्विकवारसंकलनक्रमा भवंति-९। ।
११ अस्मिन् पंक्तिद्वये संकलिते
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९५ ११०
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१- १- ० १
१- २१० एवं ८।८।८१।८।८।८ उभयधनयुतावेवं ८।८। ८ ४ तथा द्विगुणहानौ चरमे नानासमय
प्रबद्धप्रतिबद्धाः चरमगुणहानिप्रथमनिषेका द्विगुणतच्चरमनिषेकाधिकाः ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५। १६ । १८। तदनंतराधस्तनैतावंतोऽपि द्विचरमगुणहानिविशेषाधिकै कनिषेकाधिकाः स्युः ९ । १० । ११।१२।१३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । एवमेकैकद्विचरमगणहानिविशेषाधिकैकनिषेकाधिकक्रमेण
अतः अन्तिम गुणहानिका अन्तिम निषेक ९ लिखकर उसके आगे एक से एक अधिक १५ लिखो। दूसरीमें अन्तमें शून्य लिखो । पीछे संकलन रूप प्रमाण लिखो
९x१० । ९४२१४१
नौको एकसे गुणा करने पर पहला जोड़ नौ हुआ। २४३१४३ | नौ दूना अठारह और एक एकम एक। दोनों मिल उन्नीस हुए। १४४१४६।
सो ९+ १० मिलकर उन्नीस होते हैं २।। ९४५१४१० . २x६१४१५/
नौ ती सत्ताईस और एक तिया तीन । दोनों मिल तीस हुए ९+७१४२१|| सो ९+ १० + ११ मिलकर तीस होते हैं। excixac
इसी प्रकार सबसे अन्तमें नौ अढे बहत्तर और अठाईस इकम अठाईस । दोनों मिलकर सौ हुए। सो अन्तिम गुणहानिके सब निषेकोंका जोड़ सौ होता है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४१७
aaga । ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । यितिरुत्तिद्दं त्रिकोण रचनाद्विचरमगुणहानिचरम निषेकदोळु नानासमयप्रबद्ध प्रतिबद्धनिषेकंगळोळ सर्वोत्कृष्टनिषेकमिदु । १८ ॥
ई निषेकमादियागि तत्सदृशनिषेकंगळप्पन्तु तदधस्तनाधस्तन निषेकंगळोळिरुति विशेषगळं मुम्निनंते ते गते तंतम्म सदृशनिषेकंगळ पार्श्वदोलु पृथक् पृथक् स्थापिसुतं विरलु मुन्निनंते ५ सदृश निषेकंगळु गच्छमात्रंगळागुत्तं पोपुवु । तद्विचरमगुणहानिविशेषंगळं रूपोनगच्छसंकलनप्रमितंगळप्पुवप्पुदरिदं द्विकवार संकलनाक्रममागि द्विचरमगुणहानिद्विचरमनिषेकं मोवल्गों डु प्रथमनिषेकपर्यन्तं पोगि यिती तेरदिनिरुत्तिष्वु ।
१ ०
गत्वा द्विचरमगुणहानिप्रथम निषेके नानासमयप्रबद्धप्रतिबद्धाः गच्छमात्राः स्युः । ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० | २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । अत्र द्विचरमगुणहानी चरमे नानासमय प्रबद्धप्रतिबद्धनिषेकेषु उत्कृष्टोऽयं । १८ । इदमादि कृत्वा तत्सदृशा निषेका यथा भवंति तथा तदधस्तनाघस्तन निषेकस्थितिविशेषान् प्राग्वदपनीयापनीय स्वस्वसदृश निषेकपार्श्वे स्थापितेषु प्राग्वत् सदृशधनिका गच्छमात्रक्रमेण विशेषा रूपोनगच्छसंकलनमात्रक्रमेण द्विकवारसंकलनक्रमा भूत्वा द्विचरमगुणहानिप्रथमनिषेकपर्यंतं गत्वा इत्थं तिष्ठति -
१९।२ १९ । २
९।२
३
९।२
४
६
२
१५
९।२ ५ १९।२ ९ । २ ७ २ २१ १९।२
८
२
२८
०
९×२ x १ ९४२x२२× १ १x२४३२४३ १x२४४ २x६ ९२४५२x१० १x२x६२x१५/ ९×२×७२×२१ | १x२४८२x२८
क - ५३
९ २ १ ०
९ २२२१
९ २३ २३
९ २४ २६
द्वितीयादि गुणहांनिमें भी प्रथम गुणहानिका सर्वद्रव्य तो पूर्ववत् जानना किन्तु दोनों पंक्तियों में पहलेसे दूना-दूना प्रमाण जानना । यथा
९२५२१०
९ २६ २ १५
९ २७२ २१ ९ २८२ २८
दूना अठारह और अठारह एकम अठारह | यह पहला निषेक हुआ। नौ दूना अठारह । अठारह दूना छत्तीस और दो एकम दो । दोनों मिलकर अड़तीस हुए। सो १८+२० मिलकर अड़तीस होते हैं । इसी तरह अन्तमें नौ दूना अठारह । अठारह अट्ठे एक सौ चवालीस । और अठाईस दूना छप्पन । दोनों मिलकर दो सौ हुए । यही दूसरी गुणहानिके सब निषेकोंका जोड़ होता है ।
१०
१५
२०
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४१८
गो० कर्मकाण्डे _ यिवर संकलितधन संदृष्टिगलु ८।२।८।८।८।८।८।२ उभयधनयोगमिबु :८।८।८।४।२ यिल्लियुत्तरधनमिनितक्कु । १०० । ८ । मेकेदोडे सर्वत्र गुणहान्यामदोर्छ । ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । एतावन्मात्रनिषेकंगळोळवप्पुरिवं । मत्तं त्रिचरमगुणहानिनानासमयप्रबद्धनिषेकात्मक चरमनिषेकदोळु उपरितनगुणहानिप्रथमनिषेकभेवंगळ चरमगुणहानिचतुग्गुण चरमनिषेकमुमो दक्कुं। ९। १०। ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । अनन्तराधस्तननिषेकवोळु तावन्मात्रनिषे. कंगळु तत्रिचरमगुणहान्येकविशेषयुततच्चरमनिषेकमुमो दक्कु । ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४०। मिन्तु त्रिचरमगुणहानि
त्रिचरम निषेकादिगळोळु तद्गुणहानिविशेषयुतैकैकनिषेकाधिकक्रमदिदं पोगि तत्त्रिचरमगुणहानि. १० प्रथमनिषेकदोळिनितु नानासमयप्रबद्धनिषेकंगळक्कु । ९। १०। ११ । १२ । १३ । १४ । १५ ।
१६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२१ ५६ । ६० । ६४ । मिन्तिरुत्तिरलो त्रिचरमगुणहानिचरमनिषेकदोळु चतुग्गुणचरमगुणहानिचरमनिषेकमा दि१- १- 0 १-
- २अनयोः संकलने संदृष्टिः- ८ । २ । ८ । ८ । ४ ।। ८।८। ८ । २ उभययुतिः । ८ । ८। ८ । ४ । २ अत्रोत्तरधनं त्वेतावत् १००। ८ । कुतः ? सर्वत्र गुणहान्यायामे ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । एतावतां निषेकाणां सद्भावात् । पुनः त्रिचरमगुणहानौ चरमनिषेके उपरितनगुणहानिप्रथमनिषकाः सर्वे चरमगुणहानिचतुर्गुणचरमनिषेकश्चैक: ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । अनंतराधस्तने तावंतः त्रिचरमगुणहान्येकविशेषाधिकतच्चरमनिषेकश्चैकः । ९। १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८। २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३०। ३२ । ३६ । ४० । एवं विचरमगुणहानित्रिचरमादिनिषेकेषु तद्गुणहानिविशेषयुत कनिषेकाधिकक्रमेण गत्वा तद्गुणहानिप्रयमनिषेके एतावंतः नानासमयप्रबद्धप्रतिबद्धविशेषाः स्युः ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५। १६ । १८।२०। २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४०। ४४। ४८ । ५२। ६० । ६४ ।
२
२०. तदा
_ इस दूसरी गणहानिमें प्रथम गणहानिका द्रव्य सर्वत्र एक-एक स्थानपर मिलनेपर त्रिकोण रचनाका जोड़ होता जाता है । जैसे प्रथम गुणहानिका द्रव्य सौ मिलानेपर एक सौ
अठारह होते हैं। उसके नीचे अड़तीसमें मिलानेपर एक सौ अड़तीस होते हैं। इसी तरह २५ सर्वत्र जानना।
इसका कारण यह है कि सर्वत्र गुणहानि आयाममें ९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६ । ये निषेक होते हैं । इसी प्रकार त्रिचरम गुणहानिके अन्तिम निषेकमें ऊपरकी गुणहानिके प्रथम निषेक सब और अन्तिम गुणहानिका एक अन्तिम निषेक होता है-९।१०।११।१२।१३।१४।१५।
१६॥१८२०॥२२॥२४॥२६॥२२॥३०॥३२॥३६। इसके अनन्तर नीचे ये सब और त्रिचरम गणहानिसे . एक विशेष अधिक चरम निषेक होता है-९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६।१८।२०।२२।२४।२६।२८।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४१९ रुत्तिक्कु ।९।४। तत्समानंगळप्पंतु तत्तधस्तननिषेकंगळोळिरुत्तिई तत्त्रिचरमगुणहानिविशेषंगळं तेगदु तगदु पृथक् पृथक् स्थापिसुत्तं विरलु
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यितिप्पुविवं संकलिसुत्तं विरलु ८।८।८।
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उभयधनयुतियुमि
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नितक्कु ८।८।८।४ । ४ मिल्लियुत्तरधनमिनितक्कु । ३०० । ८ । मत दोडे सर्वत्र गुणहान्यामदोर्छ । ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३०। ५ ३२ । एतावन्मात्रनिषेकंगळोळवप्पुरदं यितु चतुश्चरमादिगुणहानिगळोळ आदिधनंगळुभुत्तरयाधनंगळधोऽधोद्विगुणद्विगुणक्रमंगळागुत्तलुमुत्तरधनंगळु मुपरितनगुणहान्युत्तरधर्दिवमधिकंगळागुत्तं पोगि सर्वाधस्तनप्रथमगुणहानिचरमनिषेकदोळु नानासमयप्रबद्धनिषेकंगळुमेतावन्मानंगळप्पुव ।
अत्र त्रिचरमगुणहानौ चरमनिषेके चतुर्गुणचरमगुणहानिचरमनिषेक एकः। ९।४ । तत्समामा यथाभवंति तथा तदधस्तननिषेकस्थिताः त्रिचरमगणहानिविशेषानपनीयापनीय पथकस्थापितेषु एवं तिष्ठन्ति
९ ।
४ ।
१
९ । ४। ३४। ३ ९ । ४ । ४
४।१० ९ । ४ । ६ । ४।१५]
९। ४ । ७ | ४ । २१ । ९ । ४ । ८ ४ २८
१- १- । १- २एतेषु संकलितेषु ८८८४८८८ ४ उभयधनयुतिरियं ८८।८ ४।४। अत्रोत्तरघनं तु
३०३२।३६।४०। इस प्रकार त्रिचरम गुणहानिके त्रिचरम आदि निषेकोंमें उस-उस गुणहानिके विशेषसे युक्त एक-एक निषेकके क्रमसे जाकर उस गुणहानिके विशेषमें इतने नाना समय प्रतिबद्धोंसे प्रतिबद्ध विशेष होते हैं-९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६।१८।२०।२२।२४,२६,२८॥३०॥ ३२॥३६॥४०॥४४।४८।५२।६०।६४। यहाँ विचरम गणहानि के अन्तिम निषेकमें चरम गुणहानिका १५ एक चरम निषेक चतुर्गणा है ९x४। उसके नीचेके निषेक उसीके समान करनेके लिए
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४२०
गो० कर्मकाण्डे ९।१०।११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ ॥ २८ ॥३० । ३२। ३६ ॥ ४०॥४४॥४८॥ ५२। ५६ । ६०। ६४॥ ७२। ८०। ८८ । ९६ । १०४ । ११२ । १२० । १२८ । १४४। १६०। १७६ । १९२। २०८ । २२४ । २४० । २५६ । २८८ । अनन्तराधस्तननिषेकंगळोळेकैकचयोत्तरेकैकसमयप्रबर्द्धकैकनिषेकाधिकक्रमविदं पोगि त्रिकोणरचनासधिस्तनप्रथमगुणहानि प्रथमनिषेकदोळु आबाधारहितोत्कृष्टकर्मस्थितिमात्र सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमितनानासमयप्रबद्धगळितावशेषयथास्थितनिषेकंगळेतावनमात्रंगळप्पुबु । ९। १०। ११ । १२ । .१३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२ । ५६ । ६०।६४।७२। ८०। ८८। ९६ । १०४ । ११२ । १२० । १२८ । १४४ । १६० ।
१७६ । १९२। २०८ । २२४ । २४० । २५६ । २८८ । ३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ ॥ ४८०। १० ५१२ । मिन्तिरत्तं विरलुमी त्रिकोणरचनाप्रथमगुणहानिधनं तरल्पडुगुम दोडे चरमनिषेकदोलु
नानासमयप्रबद्धनिषेकव्यक्तिगळोळु सर्वोत्कृष्टनिषेकं अन्योन्यभ्यस्तराश्यद्धंगुणितचरमगुणहानि चरमनिषेकप्रमितमक्कुं। ९। ३२ । तत्सदृशमप्पंतु तवधस्तननिषेकंगळोळिरतिई प्रथमगुणइयत् ३००। ८ । कुतः ? सर्वत्र गुणहान्यायामे ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ ।
२० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । एतावतां निषेकाणां सद्भावात् । एवं चतुश्चरमादिगुणहानिषु १५ आधुत्तरधनानि अधोधो द्विगुणद्विगुणक्रमाणि अपि उत्तरधनानि उपरितनगुणहान्युत्तरधनाधिकानि भूत्वा
सर्वाधस्तनप्रथमगुणहानिचरमनिषेके नानासमयप्रबद्धनिषेका एतावंतः ९। १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८। २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४० । ४४ । ४८। ५२ । ५६ । ६०। ६४ । ७२।८०।८८।९६ । १०४। ११२ । १२८। १४४ । १६० । १७६ । १९२ । २०८ । २२४ । २४० । २५६ । २८८ । अनंतराधस्तननिषेकेषु एकैकचयोत्तरैकसमयप्रबद्धकै कनिषेकाधिकक्रमण गवा त्रिकोणरचनासर्वाधस्तनप्रथमगुणहानिप्रथमनिषेके आबाधारहितोत्कृष्टकर्मस्थितिमात्रासप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमितनानासमयप्रबद्धगलितावशेषनिषेका एतावंतः । ९।१०।११ । १२ । १३-१४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३०। ३२ । ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२ । ५६ । ६० । ६४ । ७२ । ८० । ८८ । ९६ । १०४ । ११२ । १२० । १२८ । १४४ । १६० । १७६ । १९२ । २०८ । २२४ । त्रिचरम गुणहानिके विशेषोंको उसमें से निकालकर पृथक् स्थापित करनेपर यह स्थिति हुई
९४४४ ९४४४२४४१ ९x४४३/४४३ ९x४४४
४४६ ९x४४५ १० ९x४४६ ४४१५ ९x४४७४४२१॥
९x४४८ ४४२८ २५
यहाँ उत्तरधन तीन सौ है। जैसे नौ चौका छत्तीसमें तीन सौ जोड़नेपर तीन सौ छत्तीस तृतीय गुणहांनिकी प्रथम पंक्तिका जोड़ होता है। तीन सौ उत्तरधन होने का कारण यह है कि सर्वत्र गुणहानि आयाममें ९।१०।१२।१२।१३।१४।१५।१६।१८।२०।२२।२४।२६।२८।३०।
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका हानिचयंगळं तेगतेगदु पृथक्स्थापिसुत्तं विरलु
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मिन्तिरुत्तिऍविवं संकलिमुत्तं विरलुभयराशिगर्कितिप्पुवुः ४।८।६।३२ ८।८।
८।३२ मीयुभयधनयुति इनितक्कु ८।८।४।३२ मिल्लियुत्तरधनमुमिनितक्कु । ३१००। ८। मेंतेंदोडे सर्वत्र प्रथमगुणहान्यायामदोळिनितिनितु निषेकंगळु ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५। १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२ । ५६। ५ ६०। ६४ । ७२। ८०। ८८९६ । १०४।११२ । १२० । १२८ । १४४ । १६० । १७६ । १९२। २४० । २५६ । २८८ । ३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ । ४८० । ५१२ । एवं सति तत्त्रिकोणरचनाधनमानीयते
अथ प्रथमगुणहानी चरमनिषेके नानासमयप्रबद्धनिषेक व्यक्तिषु सर्वोत्कृष्टचरमनिषेकः अन्योन्याभ्यस्तराश्यर्धगुणितचरमगुणहानिचरमनिषेकप्रमितः । ९ । ३२ । तत्सदृशा यथाभवंति तथा तदधस्तननिषेकस्थितिप्रथम- १० गुणहानिचयानपनीयापनीय पृयकस्थापितेषु एवं तिष्ठति ।
९। ३२१। ० ९। ३२२ । ३२ । १ ९ । ३२३ । ३२ । ३ ९। ३२४ । ३२ ।'६ ९। ३२ ५। ३२ । १० ९ । ३२ ६ । ३२ । १५ ९ । ३२७। ३२ । २१ ९। ३२८।३२ । २८
१- २एतेषु संकलितेषु उभयराशी एवं ८ । ८।८
३२ । उभययुतिः ।।८। ४। ३२ अत्रोत्तरधनं तु । एतावत् ३१००१८ कुतः ? सर्वत्र प्रथमगुणहान्यायाम एतावतामेतावतां निषेकाणां३२॥ इतने निषेक पाये जाते हैं और इन सबका जोड़ तीन सौ है। इसी प्रकार चतुश्चरमादि । गुणहानियोंमें आदिधन और उत्तरधन नीचे-नीचे क्रमसे दुगुने-दुगुने होते जाते हैं । किन्तु
१
२
१. व यथा संभवति ।
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गो० कर्मकाण्डे २०८ । २२४ । २४०। २५६ । वोळवप्पुरिदं। इन्तुक्तसव्वगुणहानिगळ धनंगळुमुत्तरधनंगळुमितिक्कु
1८.४१
१००।८
८।४।२ ६
८।
४।
४
३००।८
८।८।
४।
८
७००।८
।४।१६
१५००।८
८।८।४।३२
३१००।८
९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ ।
३६ । ४० । ४४ । ४८। ५२ । ५६ । ६० । ६४ । ७२ । ८०। ८८। ९६ । १०४ । ११२ । १२८ । ५ १४४ । १६० । १७६ | १९२ । २०८ । २२४ । २४० । २५६ । सद्भावात् । तानि सर्वगुणहान्यायुत्तर
धनानि इमानि
२८।४।१
१- ८।
६ ८
८ । ४ । २ २८।४।४
१०० । ८ ३०० ।८ ७०० । ८ १५०० । ८ ३१००।८
८ । ८
८ । ४।८
८।
८
८। १- ८ ।
८। ६ ८
८ । ४।१६ २८ । ४।३२
उत्तरधनमें ऊपरकी गणहानियोंको उत्तरधन अधिक-अधिक होता जाता है ।
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४२३
. कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मो धनं संकलिसल्पडुगुमदेत दोडे प्रथमपंक्तियं अन्तधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजियमे दु गुणसंकलितधनमं तंदोडिनितक्कु ८।८।८।४।६। ३ मुत्तरधनमं संकळिसुवडे ऋणमनिक्किदल्ळदे संकलिसल्बारदप्पुरिदं द्विचरमगुणहान्युत्तरधनप्रमित १००।८। मं सर्वत्रनानागुणहानिगळोळु गुणहानिप्रतियिक्कि संकलिसिदोडुत्तरधनमिनितकुं। ६३००।८ । ऋणंगळु नानागुणहानिमात्रद्विचरमगुणहान्युत्तरधनप्रमितमक्कु । १००। ८।६। मिन्तुक्त मूरुं राशिगळु ५। यथाक्रमदिदमिन्तिप्पुवु। ८।८।८। ४ । ६३ । ६।३००। ८ । १००। ८।६। ई मूरुं राशिगळं समयप्रबद्धविदं प्रमाणिसिदोडिन्तिरुत्तिप्प्यु । संदृष्टि :. आदि
उत्तर ऋण ।६।३।६३००८ | १००।८।६। इल्लियपत्तित शतषट्कविधा ददिई
६३००
८।८८४ ६३००१६
६३००। १ २ स।८८।८।४ सव।८ |१००६
|
स
|८.
६
इदं संकलयति-अत्र प्रयमपंक्ती अंतवणं गुणगुणियं' इत्यादिना संकलितायां आदिधनमेतावत् ८ । ८
२
८ । ४ । ६३ द्वितीयपंक्ती सर्वत्र द्विचरमगुणहान्युतरवन प्रमितं १०० । ८ ऋणं प्रक्षिप्य संकलितायामुत्तर- १०
६
धनमियत् । ६३००। ८ । तानि ऋणानि एतावंति १०० । ८ । ६ । उक्तराशयः त्रयः क्रमेण अमी
। १- २८८।८४।६३ उत्तरधनं तद णं
६३००।८ १००८।६ आदिधनं समयप्रबद्धन प्रमाणिता एवं
१- २| ८८।८।४। ६३ । ६३००८१००।८।६ ६३०० । ६
६३०० ६३०० १- २- । स ८ । स ८ ।६ | स ८८।८।४
इस प्रकार अन्तिम गुणहानि पर्यन्त दोनों पंक्तियों में दूना-दूना प्रमाण रखकर तथा उन दोनों पंक्तियोंके एक-एक स्थानका प्रमाण मिलानेपर तथा पहले हुई गुणहानियोंका सवेद्रव्य मिलानेपर जो प्रमाण हो उतना-उतना त्रिकोण रचनामें पंक्तियोंका जोड़ होता है । यह .. जोड़ इस प्रकार जानना।
९।१९।३०१४२।५५।६९।८४।१००।११८।१३८।१६०११८४।२१०।२३८।२६८।३००।३३६। ३७६।
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४२४
गो० कर्मकाण्डे
१२ al८।८।४ अधिकरूपं
प्रथा
स
"
२.सा८1८।४
-३ ८०१
८३
।८। ४।१ - ३ ३ प्रथमद्विकर्म
उभयत्रीपरिस्थितद्रिरूपं स्वस्वाधः स्थापिसि ।८।८।४।८४१
८०३ स ०८/२ | सव।२
| ८३
1८३
८३॥ केळ्गेयुं मेगेयुं त्रिगुणिसियल्लि नाल्कु रूपंको डु मेलिक्कियपतितमिदु ८।४ विशेषमिदनु स ।।८।२ परितनपावदोळु स ० । ८।४ विदरोळु कूडल्पडुगुमन्तु फूडुत्तविरलु इनि दा३।३।३
३। ३
१-२अत्र शतषटकविधानेन अपवर्तितं प्रथमधनमिदं-स।८८४।
अधिकरूपं पावें स्थाप्यं
८।३।३
स ।।८।८। ४ । स ८४ उभयत्र उपरिस्थितं रूपद्वयं स्वस्वाधः स्थाप्यं
८।३। ३
८।३।३
स
८।८
४
८३ । ३ स८। २
स।८।४ १८। ३। ३ स । २
८।
३.
३
८।३। ३ प्रथमद्विकं स ० ८। २ अघ उपर्यपि त्रिभिः संगुण्य रूपषट्के रूपचतुष्टयं स्वीकृत्य स्वोपरितनराशौ
८।३।३
४२०१४६८।५२०१५७६६३६१७००/७७२।८५२।९४०।१०३६।११४०।१२५२।१३७२। १५००।१६४४।
१८०४।१९८०।२१७२।२३८०१२६०४।२८४४।३१००।३३८८।३७०८। ४०६०। ४४४४। ४८६०॥ ५३०८। १० ५७८८।६३००।
_ विशेषार्थ-त्रिकोण रचनामें अड़तालीस पंक्तियाँ हैं उन सबका जोड़ ऊपर दिया है। पहली पंक्ति में प्रथम गुणहानिका अन्तिम निषेक नौ है उसका जोड़ नौ है। दूसरी पंक्ति में १. ब उपर्यधः त्रि।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
४२५ तामिवरोळ, स०५८॥ १४ द्वितीयद्विकमनिद स ० । २ नोभत्तरिद केळ्गेयु मेगेयुं गुणिसि३ ३।३
३।३ यदरोळु पदिनाल्कुरूपुगळं को कूडुत्तं विरलु इनितक्कु स ।। ८१३ । १४ मिदनपत्तिसिदोडिदु ।
८।३ २१ स ३ । १४ मतं पविनाल्कु रूपं कळंदुळिद ८३ । ३।३। शेषमिदु स ० ४ यिदनेकरूपा.
गु३ २१ संख्येयभागमं । । । तंदु भागहारोळेकरूपहोनत्वमनवगणिसि पदिनाल्कुरूपुगळनिष्पत्ते-रोळप. ५ वत्तिसिदोडेकरूपार्द्धमक्कु । २ मिदरोळु साधिकम माडि २ दिदं। ऋणमिदु ८॥६ व तु.
२१
स०८।८।४ त्रिभिः समच्छिन्ने स।८।८।३। ४ निक्षिप्य स८।८।३। ४ अपतिते एवं
८।३। ३
८३।३।
३ १ - ८३ । ३ । ३ स।८।४ शेषमिदं स०८।२ उपरितनपार्श्वे स०८४ निक्षिप्तं तदिदं स ० ८१४ द्वितीयद्विकात्
३।३
८३३
८३३३
स . २ उपर्यधो नवगुणितात् स ० १८ तद्गृहीतचतुर्दशरूपैर्युतं स ।। ८ । ३ । १४ अपवर्तितं स । १४
२७
८।३।३ ८।३।४।९
८ ३ २७ पुनर्भागहारे एकरूपहीनत्वमवगणय्य चतुर्दशभिरपवर्तितमेकरूपाधं स्यात् स ।। १ इदं चतुर्दशरूपापनीतशेषेण १० नौ और दस है उसका जोड़ उन्नीस है। उसमें ग्यारह जोड़नेपर तीसरी पंक्तिका जोड़ तीस होता है। उसमें बारह जोड़नेपर चौथी पंक्तिका जोड़ बयालीस होता है। इस तरह पूर्वपूर्वकी पंक्तिके जोड़में आगे-आगेका एक-एक निषेक जोड़नेसे आगे-आगेकी पंक्तिका जोड़ आता जाता है। अन्तिम पंक्तिमें सब अड़तालीस निषेक होनेसे उसका जोड़ सठ सौ है।
इन सब पंक्तियोंके जोड़ोंको जोड़नेपर त्रिकोण रचनाका जोड़ होता है। यह जोड़ १५ इकहत्तर हजार तीन सौ चार ७१३०४ होता है। सो यह सब जोड़ किंचित् न्यून डेढ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण जानना। गुणहानि आयामका प्रमाण आठ है। उसको ड्योढ़ा करनेपर बारह हुए। उसे त्रेसठ सौसे गुणा करनेपर पचहत्तर हजार छह सौ हुए। किन्तु यहाँ इकहत्तर हजार तीन सौ चार ही है। इससे गुणकारमें किंचित् न्यून कहा है।
__ जैसे अंक सदृष्टिमें कहा है वैसे ही अर्थ संदृष्टि द्वारा भी जानना। कन्नड़ तथा २० तदनुसारी संस्कृत टीकामें अर्थसंदृष्टि और अंकसंदृष्टि द्वारा जोड़नेका विधान विस्तारसे कहा है। उससे समझ लेना चाहिए ।
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१०
४२६
रूपदमितुटक्कु प१ । छे व छे
व
९
मक्कु । व १ | मिदरोळु किंचिदूनं माडि । व 2-1 प्रथमधन मिरोळ स।८।४ गुणहान्यादशैकभागमं ऋणमनिक्कि स२।८।९ अपर्वात्तसि गुणहान्यर्द्धमं तंदु उत्तरधनदोलेकगुणहानियो कूडुतं विरलु यर्द्धगुणहानिमात्रसमय प्रबद्धंगळप्पुववरोल किचिडूनपल्या संख्यातवर्ग'लाकाराशियं साधिकं माजिद गुणहान्यष्टादशैकभागमात्रद्वितीयऋणदोळ साधिकं माडि स ० ८१
१८
१८
-8
किचिदूनमं माडिदोडे जीवप्रदेशं गळु सर्व्वदा सत्वरूपदिनिद्द कर्म्मप्रदेशंगळु किंचिदून द्वयगुणज्ञानिमात्रसमयप्रबद्ध गळ सर्व्वंस्थित्यनुभागबंधाव्यवसायस्थानंगळं नोडलुमनंतगुणितंगळे वरि
८ । ३२७
गो० कर्मकाण्डे
I
२
स Đ । ४ एकरूपासं ख्यातैकभागेन स । १ साधिकीकृत्य स १ ऋणेऽस्मिन् स ६ वस्तुत
a
६३
छे व छे । प
अपवत्तसिदोडे संख्यातपल्य वर्गाशिलाका प्रमित
13
छे व छे प
२
ईदृशे स प १ अपवर्तिते संख्यातं वर्गशलाकामात्रे स व अपनयेत् स । १ । प्रथमधने स८४
९
a
छे व छे गुणान्यष्टादर्शक भागं स । ८ । १ ऋणं निक्षिप्य स । ८ । ९ अपवर्त्य उत्तरषने एकगुणहानौ निक्षिप्ते १८ द्वय गुणहानिमात्र समयबद्धाः स्युः । एते किंचिदूनपत्यसंख्यात वर्गशलाकाधिक गुणहान्यष्टादर्शक भागद्वितीयऋणेन
१८
1
८१ किंचिदूनिता एकजीव प्रदेशेषु सर्वदा सत्त्वस्थितकर्मप्रदेशाः किंचिन्न्यूनद्वय र्ध गुणहानि गुणितसमय
१८
इस प्रकार किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण कर्मोंकी सत्ता जीव सदा पायी जाती है । सो गुगहानि आयाम के समयोंके प्रमाणको ड्योढ़ा करके उसमें१५ से पल्यकी संख्यात वर्गशलाका प्रमाण अधिक गुणहानि आयामका अठारहवाँ भाग घटाकर
जो शेष रहे उससे समयबद्धको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने कर्म परमाणु जीवके सदा रहते हैं । इसीसे सब स्थिति सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंसे कर्म प्रदेश अनन्तगुणे हैं ।
जैसे प्रतिसमय एक समयप्रबद्ध बँधता है । उसी प्रकार एक समयप्रबद्ध प्रतिसमय २० उदयरूप होकर खिरता है, सो एक समय में एक समयप्रबद्धका खिरना कैसे होता है, यह कहते हैं
वर्तमान विवक्षित समय में जिस समय प्रबद्धका बन्ध हुए आबाधा काल ही पूरा हुआ हो और एक भी निषेक न खिरा हो उसका तो पाँच सौ बारह रूप प्रथम उदय होता है । शेष निषेक आगामी समयों में क्रमसे उदयमें आवेंगे ।
निषेकका ही
I
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४२७
कोटवृत्ति जोवतत्त्वदापका यल्पडुववेंदु पेलल्पटुदु । यि प्रदेशबंध सोगमागि पेल्पटुरनंतरं चतुविधबंधमं पे प्रकृत्युदयप्रकरणमं पेळलुपत निसि प्रथमदोजु गुगुणास्थानदो पेळल्बेडि बोलवुप्रतिगगे उदयनियमगुणस्थानंगळं पेपरु :--
आहारं तु पमत्ते तित्थं केवलिणि मिस्सयं मिस्से ।
सम्मं वेदगसम्मे मिच्छदुगदेव आणुदओ ।।२६१॥ आहारस्तु प्रमते तीत्थं केवलिनि मिश्रकं मिश्रे। सम्यक्तं वेदकसम्यग्दृष्टौ मिथ्यादृग्वयासंयतेम्वेवानुपूयोदयः॥
तु प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नचतुविधबंधस्वरूपनिरूपणानंतरं मत्त प्रमत्ते प्रमत्तसंयतनो आहारः आहारकशरीरतदंगोपांगतामकर्मद्वयोदयमक्कुं। केवलिनि केलिगकोळे तीर्थ तीर्थकरनामकम्ोदयमक्कुं । मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोळे मिश्र मिश्रकर्मोदयनक। १० प्रबद्ध मात्राः स । १२ - सर्वस्थित्यनुभागबंधाध्यवसायस्थानेभ्योऽनंतगुणा इति ज्ञातव्यं ॥ २६० ॥ एवं प्रदेशबंध प्ररूप्य इदानीमुदयप्रकरणमुपक्रमते
तु पुनः च विधबंधनिरूपणानंतरं गुणस्थानेषु उदयनियममाह-आहारकशरीरतदंगोपांगोदयः प्रमत्त
जिस समयप्रवद्धका बन्ध हुए आबाधाकाल पूरा होकर एक समय हुआ हो और जिसका एक निपेक पहले तिर गया हो उसका चार सौ अस्सी रूप दूसरा निपेक वर्तमान १५ समय में उदयमें आता है। शेष छियालीस निषेक आगामी समयोंमें क्रमसे उदय में आवंगे। जिस समयप्रवद्धका बन्ध हुए आबाधा काल और दो समय हुए हों तथा दो निषेक पूर्व में खिर चुके हों उसका चार सौ अड़तालीस रूप तीसरा निषेक बर्तमान समय में खिरता है। शेष पैंतालीस निषेक आगामीमें क्रमसे खिरेंगे। इसी तरह क्रमानुसार जिस-जिस समयप्रवद्धका बन्ध पहले-पहले हआ है उसका पिछला-पिछला निषेक वतमान कालमें उदय आता २० है। शेष निषेक आगामी समयों में क्रमसे उदयमें आते हैं। अन्त में जिस समयप्रबद्धका बन्ध हुए. आवाधाकाल और सैंतालीस समय हुए हों तथा जिसके सैंतालीस निषेक पूर्व में उदयमें आ चुके हों उसका अन्तिम निषेक नौ वर्तमानमें उदयमें आता है। उसका कोई निषेक शेष नहीं रहा। उससे पहले जो समयप्रबद्ध बँधे थे उनके सर्वनिषेक इसी क्रमसे पूर्वमें खिर चुके । अतः उनसे कोई प्रयोजन नहीं रहा। इस प्रकार वर्तमान विवक्षित एक २५ समयमें पाँच सौ बारह से लेकर नौ तक सब निषेक एक समय में उद यमें आते हैं। ये सब मिलकर एक समयप्रबद्ध होता है। इस प्रकार एक-एक समय में समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणु खिरते हैं और एक समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणु नवीन बँधते हैं। तथा किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध सत्तामें रहते हैं। जैले अंकसंदृष्टि द्वारा कथन किया है वैसे ही अर्थसंदृष्टि द्वारा जानना। इसीसे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंसे कर्म परमाणु अनन्तगुणे ३० कहे हैं ।।२६० । प्रदेशबन्धके साथ बन्धका निरूपण समाप्त होता है।
आगे उदयका निरूपण करते हैंचार प्रकार बन्धका कथन करने के अनन्तर गुणस्थानोंमें उदयका नियम कहते हैंआहारक शरीर और आहारक अंगोपांगका उदय प्रमत्त गुणस्थानमें ही होता है।
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गो० कर्मकाण्डे
वेदकसम्यग्दृष्टौ वेदकसम्यग्दृष्टियोळु, वेदकसम्यग्दृष्टिसामान्यग्रहणदिदमसंयतादि नाल्कु गुण. स्थानंगळगे ग्रहणमक्कुं । सम्यक्त्वसहचरितत्वदिदं । सम्यक्त्वप्रकृतिगं सम्यक्त्वव्यपदेशमयकुमदु कारणमागि असंयतादिनाल्कं गणस्थानदोळे सम्यक्त्वप्रकृत्युदतमकुं।
मिथ्यादृग्यासंयतेष्वेव मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि यब मूलं गुण५ स्थानंगळोळे आनुपूर्योदयः आनुपूर्व्यनामकर्मोदयमकुमी प्रकृतिगळ्गी गुणस्थानंगळोळल्लन्यत्र गुणस्थानांतरंगळोळुदयमिल्ले बो नियममरियल्पडुगु-।
__ मनंतरं मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिगळे बो मूलं गुणस्थानंगळोळे आनुपूर्योदयमेंब नियममप्पुरिदं सासादनसम्यग्दृष्टियोळु नारकानुपूाद्यानुपूर्व्य चतुष्कोदयप्रसंगमादोडे विशेषमं सासादनंगे पेळ्दपरु :
णिरयं सासाणसम्मो ण गच्छदित्ति य ण तस्स णिरयाणू ।
मिच्छादिसु सेसुदओ सगसगचरिमोत्ति णायव्यो ॥२६२॥ नरकं सासादनसम्यग्दृष्टिन्न गच्छतीति च न तस्य नारकानुपूव्यं । मिथ्यादृष्टयादिषु शेषोदयः स्वस्वचरमपर्यन्तं ज्ञातव्यः॥
नरकं नरकगतियं सासादनसम्बग्दृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिजीवं न गच्छतीति च पुगर्ने दितु १५ न तस्य नरकानुपूठव्यं सासावननोळानरकानुपूर्व्यनामकर्मोदयमिल्लमदक्के नियममो सूत्रमयक्कु
मुळिदंतल्ला प्रकृतिगळ्गुदयं मिथ्यादृष्टयादिचतुर्दशगुणस्थानंगळोळु स्वस्वचरमपय्यंतं तंतम्मुदयगुणस्थानंगळ चरमपर्यन्तं ज्ञातव्यः ज्ञातव्यमक्कुं॥
संयते एव । तीर्थोदयः केवलिन्येव । मिश्रप्रकृत्युदयः सम्यग्मिथ्यादृष्टावेव । सम्यक्त्वप्रकृत्युदयः वेदकसम्यग्दृष्टा२० वेव असंयतादिचतुर्गुणस्थानेषु । आनुपूर्योदयः मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेष्वेव अन्यत्र तेषामुदयाभावात् ॥२६१॥ आनुपूर्योदयं पुनर्विशेषयति
___ नरकगति सासादनसम्यग्दृष्टिनं गच्छति इति हेतोः तस्य सासादनस्य नारकानुपूर्योदयो नास्ति । शेषसर्वप्रकृत्युदयः मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषु स्वस्वोदयस्थाने चरमसमयपर्यंत ज्ञातव्यं ।। २६२ ॥
तीर्थकर प्रकृतिका उदय सयोगकेवली और अयोगकेवलीके ही होता है। मिश्र मोहनीयका २५ उदय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है । सम्यक्त्व मोहनीयका उदय असंयत आदि
चार गुणस्थानोंमें वेदक सम्यग्दृष्टीके ही होता है। आनुपूर्वीका उदय मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत गुणस्थानों में ही होता है अन्य गुणस्थानों में इनका उदय नहीं होता ॥२६१॥
आनुपूर्वीके उदयके विषयमें विशेष नियम कहते हैं
सासादन सम्यग्दृष्टि मरकर नरकगतिको नहीं जाता, इस कारणसे सासादन सम्य३० ग्दृष्टि के नरकानुपूर्वीका उदय नहीं होता। शेष सब प्रकृतियोंका उदय मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अपने-अपने उदय स्थानके अन्तिम समय पर्यन्त जानना चाहिए ।।२६२॥
विशेषार्थ-इस उदय प्रकरणमें भी व्युच्छित्ति, उदय, अनुदय तीन प्रकारसे कथन किया है। जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही हो उन प्रकृतियोंका उस गुणस्थानके अन्त तक उदय जानना और उससे ऊपरके गुणस्थानोंमें उनका अनुदय
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४२९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानगळोळुदयव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं पक्षांतरोतक्रममनंगीकरिसि पेन्दपर :
दसचउरिगि सत्तरसं अट्ठय तह पंच चेव चउरो य ।
छच्छक्कएक्कदुगदुर्ग चोदस उगुतीस तेरसुदयविही ॥२६३॥ वश चतुरेक सप्तदशाष्ट च तथा पंच चैव चत्वारः। षट् षडेक द्विद्वि चतुर्दशैकान्नत्रिंशत्रयो- ५ दशोदयविधिः॥
अभेदविवक्षेयिनुदय प्रकृतिगळ नूरिप्पत्तरड १२२ प्पुववरोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु वश पत्तु १० चतुः सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु नाल्कु ४ । मिश्रगुणस्थानदोळु एक ओंदु १ । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु सप्तदश पदिनेछु १७ । देशसंयतगुणस्थानदोळ अष्ट च एंटु ८। प्रमत्तगुणस्थानदोळ पंच अय्दु ५। अप्रमत्तगुणस्थानदोळु चत्वारः नाल्कु ४। अपूर्वकरणस्थान- १० वोळु षट् आरु ६। अनिवृतिकरणगुणस्थानदोळ एक ओंदु १। उपशांतकषायगुणस्थानदोळु द्वि एरडु २। क्षीणकषायगुणस्थानदो द्वि चतुर्दश एरडुं २ । पदिनाल्कु १४ । सयोगि केवलियोळु
अथ गुणस्थानेषु व्युच्छित्ति पक्षांतरक्रमेणाह
अभेदविवक्षया उदयप्रकृतिषु द्वाविंशत्युत्तरशते उदयविधिः उदयव्युच्छित्तिः उक्तगुणस्थानादुपर्युदयाभावः । स मिथ्यादृष्टी दश । सासादने चतस्रः । अस्मिन् पक्षे एकेंद्रियस्थावरद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियनामकर्मणां १५ मिथ्यादृष्टावेव उदयच्छेदकथनात् । मिश्रे एका, असंयते सप्तदश, देशसंयतेऽष्टौ, प्रमत्ते पंच, अप्रमत्ते चतस्रः, अपूर्वकरणे षट्, अनिवृत्तिकरणे षट्,, सूक्ष्मसापराये एका, उपशांतकषाये हे, क्षीणकषाये द्वे चतुर्दश च, उदयका अभाव जानना। तथा जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका उदय और जितनी प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही हो उस गुणस्थानकी उदय प्रकृतियों में-से उसी गुणस्थानमें व्युच्छिन्न हुई प्रकृतियोंका प्रमाण जानना। इसमें इतना विशेष है कि यदि कोई प्रकृति २० ऊपरके गणस्थानमें उदयमें आनेवाली है और विवक्षित गुणस्थानमें उसका उदय नहीं है तो उसे उदयमें-से घटा देना चाहिए। और यदि पहले गणस्थानमें जिसका उदय न था और विवक्षित गुणस्थानमें उसका उदय हो तो उसे उदय में मिला देना चाहिए । यह तो हुई उदयकी बात । जितनी प्रकृतियोंका मूलमें उदय कहा हो उनमें-से विवक्षित गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका उदय कहा हो, उनसे शेष जो प्रकृति रहें उनका उस विवक्षित गुणस्थानमें २५ अनुदय जानना इस प्रकार व्युच्छित्ति, उदय और अनुदयका स्वरूप जानना ॥२६२॥
आगे गुणस्थानोंमें व्युच्छित्ति पक्षान्तर अर्थात् यतिवृषभाचार्यके मतानुसार कहते हैं
अभेद विवक्षासे उदय प्रकृतियाँ एक सौ बाईस हैं। उनके उदयकी अवधिको उदयव्युच्छित्ति कहते हैं । अर्थात् जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही है, उनका उदय उसी गुणस्थान पर्यन्त होता है उससे ऊपर उनका उदय नहीं होता।
___ सो मिथ्यादृष्टि में दसकी और सासादनमें चारकी व्युच्छिति जानना। क्योंकि इनके मतानुसार एकेन्द्रिय, स्थावर, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, और चौइन्द्रिय नामकर्मकी उदयव्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टि में कही है।
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गो० कर्मकाण्डे
एकान्तत्रिंशत् ओ दुगुंदे मूवत्तु २९ । अयोगिकेवलियोछ त्रयोदश पविमूरु १३ । यिन्तु प्रकृतिगळुदयविधानमवक्कु-। मितुक्तप्रकृतिगळगे तत्तद्गुणस्थानचरमदो दयव्युच्छित्तियेबुदय॑मो पक्षदोळु एकेंद्रियजाति नामकर्ममुं स्थावरनामकर्ममुं द्वींद्रिय त्रोंद्रिय चतुरिंद्रियजातिनामकम्मंगळुमें बी प्रकृतिपंचकोदयं सासादनसम्यग्दृष्टियोळिल्लेके दोडे आप्रकृतिगल्गुदयव्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टियोळक्कुमप्पुरिदं। उपरितनगुणस्थानेषूदयाभाव उदयव्युच्छित्तिरिति उपरितनगुणस्थानदो दयाभावमक्कुमप्पोडा प्रकृतिगळगे केळगणगुणस्थानदोलुदयक्के विद्यमानदिदमुदयव्युच्छित्तिाकैद व्यपदेशमक्यु । सयोगिकेवलिगुणस्थानदोळेकान्नत्रिंशत्प्रकृतिगल्गुदयव्युच्छित्तियेतेंदोडी पक्षोळु नानाजीवापेक्षयिदं सदसवेद्यंगळगुदय सद्भावदिदमों दक्कं व्युच्छित्तियिल्लप्पुरिद मोंटुगुंदे मुक्त प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तियक्कुमदु कारणमागि अयोगिकेवलियोळ येकतरोदयमागुत्तं विरलु तकदादो पदिमूरु प्रकृतिगळ्गुदय मक्कुमितागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टियो दयप्रकृतिगळु नूरपदिनेछु ११७ । अनुदय प्रकृतिगळु तीर्थमुमाहारद्वय, मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेंबी अय्दुं प्रकृतिगळप्पुवु ५। सासादनसम्यग्दृष्टियोळु नरकानुपूर्धसहितमागि पन्नोंदु प्रकृतिगळ्कूडिवनुदय प्रकृतिग पदिनारप्पुवु १६। उदयप्रकृतिगळु नूरारु १०६ । मिश्रगुणस्थानदोळु शेषानुपूव्यंत्रि
तयमुमनंतानुबंधिचतुष्कं गूडिदेठं प्रकृतिगळु सहितमागि अनुदयप्रकृतिगळिप्पत्त मूरप्पुववरोळु १५ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं तेगेदुदयदोळु कूडिदोडनुदयंगलिप्पत्तेरडु २२ । उदय प्रकृतिगळु नूरु १०० ।
असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानोळु मिश्रप्रकृतियं तेगदनुदयंगळोळु कूडिदोडिप्पत्तमूरवरोळ सम्यक्त्वप्रकृति युमनानुपूर्व्यचतुष्टयमुमं तेगेदुदयप्रकृतिगळो कूडिदोडे अनुदयंगळु पदिनेंटु १८ । उदयसयोगकेवलिन्येकान्नत्रिंशत् कुतः सदसद्वेद्योदययो नाजीवापेक्षया एकस्यापि व्युच्छित्यभावात् । अयोगकेव.
लिनि त्रयोदश । एवं सति मिथ्यादृष्टावुदयः सप्तदशोतरशतं । अनुदयः तीर्थाहार कद्वयमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतयः २० पंच । सासादने नारकानुपूव्यं न इत्येकादश मिलित्वा अनुदयः षोडश, उदयः षडुत्तरशतं । मिश्रेऽनुदयः
आगे मिश्रमें एक, असंयतमें सतरह, देशसंयतमें आठ, प्रमत्तमें पाँच, अप्रमत्तमें चार, अपूर्वकरणमें छह, अनिवृत्तिकरणमें छह, सूक्ष्म साम्परायमें एक, उपशान्त कषायमें दो, क्षीण कषायमें दो और चौदह, तथा सयोग केवलीमें उनतीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती
है। क्योंकि सयोग केवलीमें नाना जीवों की अपेक्षासे सातावेदनीय और असातावेदनीय में२५ से एककी भी व्युच्छित्ति नहीं होती। अयोगकेवलीमें तेरह की व्युच्छित्ति होती है।
१. इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उदय एक सौ सतरह । तीर्थकर, आहारकद्विक, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयको उदय न होनेसे अनुदय पाँचका।।
२. सासादनमें उदय एक सौ छह । क्योंकि मिथ्यात्वमें दसकी व्युच्छित्ति हुई। और नरकानुपूर्वी का उदय न होनेसे ५ + १०+१=सोलह का अनुदय ।।
३. मिश्रमें उदय सौ का । यहाँ आनुपूर्वोका उदर नहीं होता। तथा मिश्रमोहनीयका उदय होता है । अतः सासादनमें अनुदय सोलह और उदय व्युच्छित्ति चार तथा तीन आनुपूर्वीका अनुदय, सब मिलकर १६+ ४ + ३ = २३ हुईं। उनमें से मिश्रमोहनीय उदयमें आयी। अतः शेष बाईसका अनुदय रहा।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५
प्रकृतिगळु नूर नाळ १०४ | देशसंयत गुणस्थानदोळु पदिने प्रकृतिगळकूडिदनुदयप्रकृतिगळु मूवत्त ३५ । उदयप्रकृतिग एण्भतए ८७ । प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळ येंदुगू डिदनुदय प्रकृतिग नात्वत्तमूरवरोछु आहारकद्वितयमं तेगेदुदयंगळोळु कूडिदोडनुदयप्रकृतिगळु नावतो ४१ । उदयप्रकृतिगळे भक्तों दु ८१ । अप्रमत्तगुणस्थानदोलु अथ्दुगू डिदनुदयप्रकृतिगळु नात्वत्तारु ४६ । उदयप्रकृतिगळु एप्पत्ताम ७६ । अपूर्व्वकरण गुणस्थानदो नालकुगू डिदनुदयप्रकृतिगळय्वत्तु ५० । उदयप्रकृतिगळेप्पत्तेरडु ७२ । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळा रुगू डिदनुदय प्रकृतिगळध्वत्ता ५६ । उदयप्रकृतिगळरुवत्तारु ६६ । सूक्ष्मसांवराय गुणस्थानदोळारुगू डिदनुदयप्रकृतिगळरुवत्तेरडु ६२ । उदयप्रकृतिगळरुवत्तु ६० । उपशांतकषायगुणस्थानदोळेक प्रकृतिगू डिदनुदय प्रकृतिगळरुवत्तमूरु ६३ । उदयप्रकृतिगळवतो भत्तु ५९ । क्षीणकषायगुणस्थानदोळेरड गूडिदनुदयप्रकृतिगळरुवत्त ६५ । उदयप्रकृतिगळवळ ५७ । सयोगकेवलिगुणस्थानदोळु पदिनारुगू डिदनुदयप्रकृतिगळेण्भत्तोंदव- १० तीर्थंकर नामक कळेदुदयप्रकृतिगोठ कूडिदोडनुदयप्रकृतिगळेण्भत्तु ८० । उदयप्रकृतिगळु नाल्वत्तेरडु ४२ । अयोगिकेवलिगुणस्थानदोळोंदु गुंदे मूवत्तुगुडिदनुदयप्रकृतिगळु नूरो भत्त १०९ । उदयप्रकृतिगळु पदिमूरु १३ ॥ यितुक्तोदयव्युच्छित्युदयानुदय प्रकृतिगळगे मिथ्यादृष्टयादि चतुर्द्दशगुणस्थानंगळोळु यथाक्रर्मादिदं संदृष्टिः
शेषानुपूर्व्यत्रयेण अनंतानुबंधिचतुष्कं मिलित्वा सम्यग्मिथ्यात्वोदयाद्वाविंशतिः । उदयः शतं । असंयतेऽनुदयः १५ मिश्रप्रकृतिमिलित्वा सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयादष्टादश । उदयश्चतुरुत्तरशतं । देशसंयते सप्तदश मिलित्वा अनुदयः पंचत्रिंशत् । उदयः सप्ताशीतिः । प्रमत्तेऽष्टौ मिलित्वाऽनुदयः आहारकद्वयोदयादेकचत्वारिंशत् । उदय एकाशीतिः । अप्रमत्ते पंच मिलित्वा अनुदयः षट्चत्वारिंशत् । उदयः षट्सप्ततिः । अपूर्वकरणे चतस्रो मिलित्वा अनुदयः पंचाशत् । उदयो द्वासप्ततिः । अनिवृत्तिकरणे षम्मिलित्वा अनुदयः षट्पंचाशत् । उदय षट्षष्टिः ।
४३१
४. असंयत में एक सौ चारका उदय है क्योंकि यहाँ चारों आनुपूर्वी और सम्यक्त्व २० मोहनीका उदय है अतः ये चार उदयमें आ गयी और मिश्रमोहनीयकी मिश्रमें ही व्युच्छित्ति हो गयी । अतः अनुदयमें अठारह रहीं । २२ + १ = २३ - ५=१८ ।
५. देशसंयत में उदय सतासीका । क्योंकि असंयत में १८ का अनुदय था और सत्तरहकी व्युच्छित्ति हुई । अतः दोनों मिलकर १७ + १८ - ३५ पैंतीसका अनुदय रहा ।
६. प्रमत्तमें उदय इक्यासीका और अनुदय इकतालीस; क्योंकि देशसंयत में पैंतीसका २५ अनुदय और आठकी व्युच्छित्ति हुई तथा यहाँ आहारकद्विका उदय है अतः ३५ + ८ = ४३ - २ = ४१ रहीं ।
७. अप्रमत्तमें उदय छिहत्तर और अनुदय छियालीस, क्योंकि प्रमत्त में अनुदय इकतालीसा और व्युच्छित्ति पाँच की। दोनों मिलकर छियालीस हुई ।
८. अपूर्वकरणमें उदय बहत्तर और अनुदय पचास का, क्योंकि अप्रमत्तमें अनुदय ३० छियालीस और व्युच्छित्ति चार मिलकर पचास हुई ।
९. अनिवृत्तिकरण में उदय छियासठ और अनुदय छप्पन; क्योंकि अपूर्वकरण में छह की व्युच्छित्ति हुई ।
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'गो० कर्मकाण्डे
| ० मि । सा । मि | अ दे प्र| अ अ असू । उक्षी स | अ। व्यु | १४१ । १७/८५४६/६/१२/१६ २९/१३ |
उ। ११७ १०६ १०० १०४८७८१७६७२६६/६०५९ ५७ ४२ १३ | अ ५/१६ । २२ १८३५४१४६५०५६६२६३ ६५ ८० १०९/
उदयप्रकृतिगळगुदीरणयुटप्पुरिदमुदीरणारचनेयोळु प्रमत्तगुणस्थानपय्यंतमुदयव्युच्छित्तिउदयानुदयप्रकृतिगळ्गमुदीरणाव्युच्छित्युदोरणानुदीरणाप्रकृतिगळ्गं विशेषमिल्ल । प्रमत्तगुणस्थानदोळे मनुष्यायुष्यसदसवेद्यंगळेब मूरुं प्रकृतिगळ्गुदीरणयुटु । अदु कारणमागियप्रमत्त. गुणस्थानदोळप्पत्तरुमुदीरणाप्रकृतिगळोळा मूरु प्रकृतिगळं कळेदनुदोरणाप्रकृतिगळोळ्कूडिदोडनुदोरणाप्रकृतिगळु नाल्वत्तो भत्तु ४९ । उदीरणाप्रकृतिगळेप्पत्तमूरु ७३ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोलु नाल्कुगूडिबनुदीरणा. प्रकृतिगळय्वत्तेमूरु ५३ । उदीरणाप्रकृतिगळवतों भत्तु ६९ । अनिवृत्ति. करणगुणस्थानदोळारुगूडिदनुदीरणाप्रकृतिगळय्वत्तों भत्तु ५९ । उदीरणाप्रकृतिगळु अरुवत्तमूर ६३ । सूक्ष्मसापरायगुणस्थानदोळु आरुगूडिदनुदीरणाप्रकृतिगळरुवत्तैदु ६५ । उदीरणाप्रकृतिसूक्ष्मसांपराये षट् संयोज्यानुदयो द्वाषष्टिः उदयः षष्टिः । उपशांतकषाये एका संयोज्य अनुदयः त्रिषष्टिः । उदयः एकान्नषष्टिः । क्षोणकषाये द्वे संयोज्य अनुदयः पंचषष्टिः उदयः सप्तपंचाशत् । सयोगकेवलिनि षोडश संयोज्य अनुदयः तीर्थकरत्वोदयादशीतिः उदयः द्वाचत्वारिंशत् । अयोगकेवलिनि एकान्नत्रिशन्मिलित्वा अनुदयः नवोत्तरशतं । उदयः त्रयोदश ।
___ उदीरणारचनायां तु प्रमत्तगुणस्थानपर्यतं उदयानुदयव्युच्छित्तय एव उदोरणानुदीरणाव्युच्छित्तयः किंतु मनुष्यायुःसदसवेद्यानां उदीरणा प्रमत्ते एवास्ति तेन अप्रमतेऽनुदीरणा एकान्नपंचाशत्, उदीरणा १५ त्रिसप्ततिः । अपूर्वकरणे चतस्रो मिलित्वा अनुदीरणा त्रिपंचाशत्, उदीरणा एकोनसप्तति अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदीरणा एकोनषष्टिः । उदीरणा त्रिषष्टिः । सूक्ष्मसाम्पराये षट् संयोज्य अनुदीरणा पंचषष्टिः,
१०. सूक्ष्म साम्परायमें उदय साठका क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें छहकी व्युच्छित्ति हुई। अतः अनुदय बासठका।
११. उपशान्त कषायमें उदय उनसठ और अनुदय तिरसठ, क्योंकि सूक्ष्म साम्परायमें २. एककी व्युच्छित्ति हुई।
१२. क्षीण कषायमें उदय सत्तावन और अनुदय पैंसठ;, क्योंकि उपशान्त कषायमें दो की व्युच्छित्ति हुई।
१३. सयोगीमें उदय बयालीस, अनुदय अस्सी; क्योंकि क्षीणकषायमें सोलहकीव्युच्छित्ति हुई और एक तीर्थकर प्रकृति उदयमें आ गयी । अतः ६५ + १६ % ८१ - १८० रहीं।
१४. अयोग केवलीमें उदय तेरह, अनुदय एक सौ नौ; क्योंकि सयोगीमें उनतीसकी २५ व्युच्छित्ति हुई अतः ८७+ २९ = १०९ हुई।
__उदीरणाकी रचनामें प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त तो उदय, अनुदय और व्युच्छित्तिके समान ही उदीरणा, अनुदीरणा और उदीरणा व्युच्छित्ति जानना। किन्तु मनुष्यायु, सातावेदनीय. असातावेदनीयकी उदीरणा प्रमत्तमें ही होती है। अतः अप्रमत्तमें अनुदीरणा उनचासकी और उदीरणा तिहत्तरकी जानना । यहाँ चारको व्युच्छित्ति होनेसे अपूर्वकरणमें उदीरणा उनहत्तर की और अनुदीरणा तिरपन । यहाँ छह की व्युच्छित्ति होनेसे अनिवृत्तिकरणमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळय्वत्तेछ ५७। उपशांतकषायगुणस्थानदोळो दुगूडिदरुवत्तारुप्रकृतिगळनुदोरणाप्रकृतिगळु ६६ । उदीरणाप्रकृतिगळय्वत्तारु ५६ । क्षीणकषायगुणस्थानदोळु मेरडु गूडिदनुदोरणाप्रकृतिगळरुत्तेटु ६८ । उदीरणाप्रकृतिगळवत्तनाल्कु ५४। सयोगिकेवलिगणस्थानदौळु पदिनारुगूडि. दनुदीरणाप्रकृतिगळु एण्भत्तनाल्कु ८४ । अवरोळु तीर्थमों दं कळेदुदोरणा प्रकृतिगळोळ कूडिदोडनुदोरणाप्रकृतिगळेभत्तमूरु ८३ । उदीरणाप्रकृतिगळु ओंदुगंदे नाल्वत्तु ३९ । अयोगिगुणस्थान- ५ दोळु ओंदु गुंदे नाल्वत्तु प्रकृतिगळ्कूडियनुदीरणाप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तेरडु १२२। उदीरणाप्रकृतिगळिल्ल । यितुक्तोदीरणा त्रिभंगिसंदृष्टि :
०० मि सा मि अ दे प्र अ अ अ सू उक्षी स व्युच्छि १० ४ १ | १७८८ ४, ६ ६ १ २१६/३९ ।
| ११७ १०६ १०० १०४,८७८१ ७३ ६९ ६३ ५७५६५४३९/ अनु । ५ १६ २२ १८ ३५/४१ ४९ ५३ ५९ ६५/६६६८८३ १२२
अनंतरं भूतवल्याचार्य्यपक्षदोळुदयप्रकृतिगळ्गे मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळ दयव्युच्छित्तिप्रकृतिगळ पेन्दपरु :
पण गवइगि सत्तरसं अड पंच य चउर छक्क छच्चेव ।
इगि दुग सोलस तीसं वारस उदये अजोगंता ।।२६४॥ पंच नवैक सप्तदशाष्ट पंच च चतुः षट् षडेवैक द्वि षोडश त्रिंशद्वादशोदयेऽयोग्यताः॥
उदो
उदीरणा सप्तपंचाशत् । उपशांतकषाये एका संयोज्य अनुदोरणा षट्षष्टिः, उदारणा षट्पंचाशत् । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदीरणा अष्टषष्टिः, उदीरणा चतुःपंचाशत् । सयोगकेवलिनि षोडश संयोज्य अनुदीरणा तीर्थकृत्त्वोदीरणात् त्र्यशीतिः, उदीरणा एकान्नचत्वारिंशत् । अयोगिनि एकान्नचत्वारिंशतं संयोज्य अनुदीरणा १५ द्वाविंशत्युत्तरशतं । उदीरणा नहि ॥ २६३ ॥ अथ भूतबल्याचार्यादिप्रवाह्योपदेशेनाह
उदीरणा तरेसठ, अनुदीरणा उनसठ। यहाँ छहकी व्युच्छित्ति होनेसे सूक्ष्म साम्परायमें उदीरणा सत्तावन, अनुदीरणा पैंसठ। यहाँ एककी व्युच्छित्ति होनेसे उपशान्त कषायमें उदीरणा छप्पन, अनुदीरणा छियासठ । यहाँ दोकी व्युच्छिति होनेसे क्षीणकषायमें उदीरणा चौवन, अनुदीरणा अड़सठ । यहाँ सोलहकी व्युच्छित्ति होनेसे और सयोगकेवलीमें तीर्थकरके उदयमें आनेसे उदीरणा उनतालीस और अनुदीरणा तिरासी।
सयोगकेवलीमें उनतालीसकी व्युच्छित्ति होनेसे अयोगकेवलीमें उदीरणा नहीं है। केवल अनुदीरणा ही होती है उसकी संख्या एक सौ बाईस है ।।२६३।।
अब आचार्य भूतबलीके उपदेशानुसार उदय व्युच्छित्ति कहते हैंक-५५
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गो० कर्मकाण्डे ___उदये स्वभावाभिव्यक्तिरुदयस्तस्मिन् स्वकार्य्यमं माडिकर्मरूपपरित्यागमुदयमें बुदक्कु. मंतप्प कर्मोदयदोळु भूतबल्याचार्यादिप्रवाह्योपदेशदोळ मिथ्यादृयाद्ययोगकेवलिगुणस्थानपर्यन्तमुदयव्युच्छित्तिप्रकृतिगळुमय्दु- मो भत्तु-। मोदु। पदिनळ-। मेंदु। मग्दुं । नाल्कु-। मारु-। मारु-। मोदु । मेरडुं । पदिनाएं। मूवत्त। पन्नेरहूं यथाक्रमदिदमप्पुववाउवेदोडे टु गाथासूत्र५ गाळदं पेन्दपरु :
मिच्छे मिच्छादावं सुहुमतियं सासणे अणेइंदी ।
थावरवियलं मिस्से मिस्सं च य उदयबोच्छिण्णा ॥२६॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वातापं सूक्ष्मत्रयं सासादनेनंतानुबंध्येकेद्रियं स्थावरविकलं मिश्रे मित्रं च चोदयव्युच्छिन्नाः॥
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ मिथ्यात्वमातपनामकर्ममुं सूक्ष्मनामकर्ममुमपर्याप्तनामकर्ममुं साधारणनामकर्ममुंमबी अय्दु प्रकृतिगळुदथव्युच्छित्तिगळप्पुवु । ५॥ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु अनंतानुबंधिचतुष्टयमुभेकेंद्रियजातिनामकर्ममुं स्थावरनामकर्ममुं स्थावरनामकर्ममुं द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियजातिनामकम्मंगमिताभत्तुप्रकृतिगादयव्युच्छित्तिगळप्पुवु ।९॥
मियगुणस्थानदोळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियों दुदयव्युच्छित्तियक्कुं।१॥
स्वभावाभिव्यक्तिः उदयः, स्वकायं कृत्वा कर्मरूपपरित्यागो वा । तस्मिन् अंता व्युच्छित्तयः गुणस्थानेषु क्रमशः पंच नव एका सप्तदश अष्टौ पंच चतस्रः षट् षट् एका द्वे षोडश त्रिशत् द्वादश स्युः ॥ २६४ ॥ ताः काः ? इति चेदष्टगाथासूत्रैराह
मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने मिथ्यात्वमातपः सूक्ष्ममपर्याप्तं साधारणं चेति पंच प्रकृतयः उदयतो व्युच्छिन्ना भवंति । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं एकेंद्रियं स्थावरं द्वींद्रियं त्रोंद्रियं चतुरिंद्रियं चेति नव । मिश्ने सम्यग्मि२० थ्यात्वमित्येका ।। २६५ ॥
अपने अनुभागरूप स्वभावकी अभिव्यक्तिको उदय कहते हैं। अपना कार्य करके कर्मरूपताको छोड़नेका नाम उदय है। और उदयके अन्तको उदय व्युच्छित्ति कहते हैं। अर्थात् जिस गुणस्थानमें जिस प्रकृतिकी उदय व्युच्छित्ति कही है उसके ऊपर उसका उदय नहीं
होता। वह उदय व्युच्छित्ति गुणस्थानों में क्रमसे पाँच, नौ, एक, सतरह, आठ, पाँच, चार, २५ छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह प्रकृतियों की होती है ।।२६४।।
__ आगे अठारह गाथाओंके द्वारा उन प्रकृतियों को कहते हैं
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्व, आनप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण ये पाँच प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, दो इन्द्रिय
तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जाति, ये नौ प्रकृलियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। मिश्रमें एक ३० सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति उदयसे व्युच्छिन्न होती है ।।२६५।।
विशेषार्थ-पूर्वपक्षानुसार मिथ्यात्वमें दसकी और सासादनमें चारकी उदय व्युच्छित्ति कही थी । यहाँ मिथ्यात्व में पाँचकी और सासादनमें नौकी व्युच्छित्ति कही है । पूर्वपक्षानुसार एकेन्द्रिय, स्थावर, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियका उदय मिथ्यादृष्टि के
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अयदे विदियकसाया वेगुव्वियछक्क णिरयदेवाऊ ।
मणुवतिरियाणुपुव्वी दुब्भगणादेज्ज अज्जसयं ॥ २६६ ॥
असंयते द्वितीयकषायवैक्रियिकषट् नरकदेवायुः । मानवतिर्य्यगानुपूयं भंगानादेया
यशः ॥
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असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभकषायंगळं वैक्रियिक- ५ शरीरतदंगोपांगद्वयमुं नरकगतितत्प्रायोग्यानुपूर्व्यद्वयमुं देवगतितत्प्रायोग्यानुपूर्व्यद्वय नरकायुष्यमुं देवायुष्यमुं मनुष्यानुपूव्यंभुं तिर्य्यगानुपूर्यमुं दुर्भगनाममुमनादेयनामशुमयशस्कोत्तिनाममुब पदिने प्रकृतिगळुदय व्युच्छित्तिगळवुवु १७ ।
देसे तदियकसाया तिरिया उज्जोवणीच तिरियगदी । छट्ठे आहारदुगं थीणतियं उदयवोच्छिण्णा || २६७॥
देशसंयते तृतीयकषायास्तिर्य्यगाथुरुद्योतनी चैग्गनतिथ्यंगति षष्ठे आहारद्विकं स्त्यानगृद्धित्रयमुदयव्युच्छिन्नाः ॥
देशसंयत गुणस्थानदो
प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभकषायंगळु तिर्य्यगायुष्य मुमुद्योतनाममुं नोचैत्रमुं तिर्य्यग्गतियुम बेटं प्रकृतिगळुदय व्युच्छित्तिगळप्पुवु । ८ । षष्ठगुणस्थानवत्तप्रमत्तसंयतनोळु आहारकशरीरत दंगोपांगद्वयमुं स्त्यानगृद्धिनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचला त्रयमुमित १५ प्रकृतिगळ व्युच्छित्तिगलप्पु ॥५॥
अपमत्ते सम्मत्तं अंतिमतियसंहदी अपुव्वम्मि |
छच्चेव णोकसाया अणियट्टीभागभागे || २६८॥
अप्रमत्ते सम्यक्त्वमंतिमंत्रयसंहननमपूर्व्वे । षट् चैव नोकषायानिवृत्तेर्भागभागेषु ॥
असंयते प्रत्याख्यानावरणचतुष्के वैक्रियिकशरीरतदंगोपांगनरक देवगतितदानुपूर्व्याणि नरकदेवायुषी २० मनुष्य तिर्यगानुपूर्व्वे दुर्भगमनादेयमयशस्कीतिश्चेति सप्तदश ।। २६६ ।।
देशसंयते प्रत्यारूपानावरणचतुष्कं तिर्यगायुरुद्योती नीचैर्गोत्रं तिर्यगायुश्चेत्यष्टौ । षष्ठगुणस्थाने आहारकशरीरत दंगोपांगस्त्यानगृद्धि निद्रानिद्वाप्रचलाप्रचलाश्चेति पंच व्युच्छिन्नाः इति मध्यदीपकत्वादन्यत्रापि ग्राह्यं ॥ २६७ ॥
१०
ही होता है सासादनके नहीं होता । यहाँ सासादनमें भी इनका उदय माना है, यही अन्तर २५ है || २६५।।
असंयत में अप्रत्याख्यानावरण चार, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकायु, देवायु, मनुष्यानुपूर्वी, तियंचानुपूर्वी, दुभंग, अनादेय, अयशस्कीर्ति ये सतरह उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं || २६६ ॥
३०
देशसंयत में प्रत्याख्यानावरण चार, तिर्यंचायु, उद्योत, नीचगोत्र, और तिर्यंचगति ये आठ तथा छठे गुणस्थानमें आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा,
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४३६
गो० कर्मकाण्डे अप्रमत्तगुणस्थानदोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमर्द्धनाराचकीलितासंप्राप्तसृपाटिकासंहननत्रितयमु. में बो नाल्कुं प्रकृतिगळुदयब्युच्छित्तिगळप्पुवु ४॥ अपूर्वकरणगुणस्थानचोळु हास्यरत्यरलिशोकभयजुगुप्सगळे बोयारे नोकषायंगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु ६॥
__अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदो प्रकृतिविनाशनक्रममनपेक्षिसि सटे भागेयुमवेद भागेय ५ क्रोधादिककषाय भागेगळोळं ।
वेदतियकोहमाणं मायासंजलणमेव सुहुमंते ।
सुहुमो लोहो संते वज्जं पारायणारायं ॥२६९॥ वेदत्रयक्रोधमानमायासंज्वलनमेव सूक्ष्मांते । सूक्ष्मो लोभः शान्ते वज्रनाराचनाराचं ॥
सवेदभागेयोळु बेदत्रयं स्त्रीपुन्नपुंसकंगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । ३॥ अवेद भागेयोळ १० यथाक्रमदिदं क्रोधसंज्वलनमुं मानसंज्वलनमुं मायासंज्वलनमुमेंबीयारं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्ति
गळप्पुव । ६ । अल्लिये बादरलोभोदयव्युच्छित्तियक्कुं॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानचरमसमयदोल सूक्ष्मकृष्टिगत लोभकषायोदयव्युच्छित्तियक्कुं।१॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळ वज्रनाराचनाराचशरीरसंहननद्वयमुदयव्युच्छित्तियप्पुवु । २॥
खीणकसायदुचरिमे गिद्दापयला य उदयवोच्छिण्णा ।
णाणंतरायदसयं दसणचत्तारि चरिमम्मि ॥२७०॥ क्षीणकषायद्विचरमे निद्रा प्रचला चोदयव्युच्छिन्ने। ज्ञानांतरायवशकं वर्शनचत्वारि चरमे॥
अप्रमत्ते सम्यक्त्वप्रकृतिः अर्धनाराचकीलितासंप्राप्तसृपोटिकासंहननानि चेति चतस्रः। अपूर्वकरणे हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साः षट् । अनिवृत्तिकरणगुणस्थाने प्रकृतिविनाशक्रममपेक्ष्य सवेदावेद२० भागयोः ॥ २६८ ॥
सवेदभागे वेदत्रयं, अवेदभागे क्रमेण क्रोषसंज्वलनं मानसंज्यलनं मायासंज्वलनं चेति षट् । बादरलोभोऽपि तत्रैव । सूक्ष्मसांपरायचरमसमये सूक्ष्मकृष्टिगतलोभः । उपशांतकषाये वज्रनाराचनाराचसंहनने द्वे ॥ २६९ ॥
प्रचलाप्रचला ये पाँच उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। यहाँ आया 'व्युच्छिन्न' शब्द मध्यदीपक २५ होनेसे आगे भी लगा लेना चाहिए ॥२६७॥
___ अप्रमत्तमें सम्यक्त्व प्रकृति, अर्धनाराच, कीलित और असम्प्राप्तसृपाटिका संहनन ये चार तथा अपूर्वकरणमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग और अवेद भाग हैं ।।२६८॥
सवेद भागमें तीनों वेदोंकी व्युच्छित्ति होती है और अवेद भागमें क्रमसे क्रोध३. संज्वलन, मानसंज्वलन और मायासंज्वलनकी व्युच्छित्ति होनेसे अनिवृत्तिकरणमें छहकी
न्युच्छित्ति होती है तथा बादर लोभकी व्युच्छित्ति भी अनिवृत्तिकरणमें ही होती है। सूक्ष्म साम्परायके अन्तमें सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त लोभकी व्युच्छित्ति होती है । -उपशान्त कषायमें वज्रनाराच और नाराचसंहननकी व्युच्छित्ति होती है ।।२६९॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४३७ क्षीणकषायगुणस्थानद्विचरमसमयदोळु निद्राप्रचलगळेरडं व्युच्छित्तिगळप्पुव । २॥ चरमसमयदोळु ज्ञानावरणपंचकमंतरायपंचकदर्शनावरणचतुष्टयमेंब पदिनाल्कुं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । १४॥
तदियेक्कवज्जणिमिणं थिरसुहसरगदिउरालतेजदुगं ।
संठाणं वण्णागुरुचउक्कपत्तेय जोगम्मि ॥२७१॥ तृतीयैकवज्रनिर्माणं स्थिरशुभस्वरगत्यौदारिकतैजसद्विकं । संस्थानं वर्णागुरुचतुष्कं प्रत्येक योगिनि ॥
सयोगकेवलिगुणस्थानदोळु वेदनीयदोळों, वज्रऋषभनाराचसंहननमुं निर्माणनाममुं स्थिरास्थिरद्विकमुं शुभाशुभद्विकमुं सुस्वरदुस्वरद्विक, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्विकमुं औदारिकशरीरतदंगोपांगनामद्विकमुं तैजसकार्मणशरीरद्विकमुं संस्थानषटकमुं वर्णचतुष्कमु अगुरुलघूपधा- १० तपरघातोच्छ्वासचतुष्कमुं प्रत्येकशरीरमुमिन्तु मूवत्तु प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । ३०॥
तदिएक्कं मणुवगदी पंचिंदियसुभगतसतिमादेज्जं ।।
जसतित्थं मणुवाऊ उच्चं च अजोगिचरिमम्मि ॥२७२॥ तृतीयैकं मनुष्यगतिः पंचेंद्रियसुभगत्रसत्रिकादेयं । यशस्तीर्थ मनुष्यायुरुच्चं चायोगियरमे ।
अयोगिगुणस्थानचरमसमयदोळु वेदनीयद्वयदोळोई मनुष्यगतियु पंचेंद्रियजातियुं सुभग- १५ नाममुं त्रसबादरपर्याप्त त्रयमुमादेयनाममुं यशस्कोत्तिनाममुं तीर्थकरनाममुं मनुष्यायुष्यमुमुच्चै:त्रमुमिन्तु पन्नेरडुं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । १२॥ सर्वत्रसर्वकम्मंगळिगे नानाजीवापेक्षे
क्षीणकषायगुणस्थानद्वि चरमसमये निद्राप्रचले उदयव्युच्छिन्ने । चरमसमये पंचज्ञानावरणपंचांतरायचतुर्दर्शनावरणानि ॥ २७० ॥
सयोगकेवलिगुणस्थाने वेदनीयैकतरं वज्रवृषभनाराचं निर्माणं स्थिरास्थिरे शुभाशुभे सुस्वरदुःस्वरौ २० प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतौ औदारिकतदंगोपांगे तैजसकार्मणे संस्थानषट्कं वर्णचतुष्कं अगुरुलधूपघातपरघातोच्छ्वासाः प्रत्येकशरीरं चेति त्रिंशत् ॥ २७१ ॥
अयोगिगुणस्थानचरमसमये वेदनीयकतरं मनुष्यगतिः पंचेंद्रियं सुभगं त्रसबादरपर्याप्तानि आदेयं
क्षीणकषायके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचला उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं । अन्तिम समयमें पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दशनावरण उदयसे व्युच्छिन्न २५ होती हैं ॥२७॥
सयोगकेवली गुणस्थानमें दोनों वेदनीयमें-से कोई एक वेदनीय, वनवृषभनाराच संहनन, निर्माण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस, कार्मण, छह संस्थान, वर्णादिचार, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ्वास, प्रत्येकशरीर इन तीसकी व्युच्छित्ति होती ३० है ॥२७॥
अयोगी गुणस्थानके अन्त समयमें दोनों वेदनीयमें से एक, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थकर, उच्चगोत्र ये बारह व्युच्छिन्न होती
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गो कर्मकाण्डे यिदं व्युच्छित्तियं पेन्दु सयोगायोगरोळं तदिएक्कं तदियेक्कमेदितु आवुदोंदु कथनमदेकजीवं प्रति साताऽसातंगळगऽन्यतरोदयव्युच्छित्तियागुत्तं विरलु सातदोडनागलसातदोडनागलि मेणु तीसं बारस एंबुदक्कुं । सातासातोदयंगळगे नानाजीवापेयि सयोगकेवलियोंदक्कं व्युच्छित्ति यिल्लेंदितल्लि
सयोगायोगिगळोळुगुतीसतेरसुदयविही येदितु पेळल्पटुदु॥ किं । इंतागुत्तं विरलु नानाजीवंगळं ५ कुरुत्तु तदुभयोदयसंभवमप्पुरिदं प्राक्तनगुणस्थानदंत सयोगकेवलियोळमेकजीवं प्रति आ एरउर परावर्तनोदयशंके यावनोवनोळक्कुमदं निवारिसल्वेडियं पेळ्दपरु :
णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्मि जदो ।
तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं ॥२७३॥
नष्टौ च रागद्वेषौ इंद्रियज्ञानं च केवलिनि यतस्तेन तु सातासातजसुखदुःखं नास्तीद्रियजं १० केवलिनि ॥
सयोगकेवलिभट्टारकनोळु रागद्वेषौ नष्टौ रागद्वेषंगळेरडु नष्टंगळेके दोडे रागहेतुगळ मायाचतुष्कर्मु लोभचतुष्कमु वेदत्रितयमुं हास्यरति येंब त्रयोदशप्रकृतिगळं, द्वेषहेतुगळप्प क्रोधचतुष्कर्मुमानचतुष्कनुमरतिलोकभयजुगप्सेगळंब द्वादशप्रकृतिगळं निरवशेषमागि क्षपिसल्पटुवप्पु. दरिदं यिद्रियज्ञानं च नष्टं यिद्रियज्ञानमुं नष्टमादुदेके दोडे मतिश्रुतज्ञानंगळु परोक्षंगळु क्षायोपशमिकंगळप्पुरिदं युगपत्सकलाावभासिकेवलज्ञानोपयोगमुळ केवलियोनु परोक्षज्ञानंगळं क्षायोपयशस्कोतिः तीर्थकरत्वं मनुष्यायुः उच्चैर्गोत्रं चेति द्वादश एता व्युच्छित्तयो नानाजीवापेक्षयैवोक्ताः । सयोगायोगयोस्तु एक जीवं प्रति असाते साते वा व्युच्छिन्ने त्रिशत द्वादश नानाजीवं प्रति उभयच्छेदाभावात् एकान्नत्रिंशत् त्रयोदश ज्ञातव्याः ।। २७२ ॥ अथ पूर्वगुणस्थानवत् सयोगेऽप्येकजीवं प्रति तदुभयोदयो भविष्यतीति शंका निराकरोति
यतः घातिकर्मविनाशात् सयोगकेवलिनि रागहेतुमायाचतुष्कलोभचतुष्कवेदत्रयहास्यरतोनां द्वेषहेतुक्रोधचतुष्कमानचतुष्कारतिशोकभयजुगुप्सानां च निरवशेषक्षयात् रागद्वेषौ नष्टौ । युगपत्सकलावभासिनि हैं । यह व्युच्छित्ति नाना जीवोंकी उपेक्षा कही है। सयोगी अयोगी गुणस्थानमें एक जीवकी अपेक्षा साता या असाताकी व्यु च्छित्ति कही है। अतः उनमें तीस और बारहकी व्यच्छित्ति
एक जीवकी अपेक्षा कही है । नाना जीवोंकी अपेक्षा उनतीस और तेरहकी व्युच्छित्ति है ।।२७२।। २५ पूर्वके गुणस्थानोंकी तरह सयोगकेवलीमें भी एक ही जीवके साता और असाता दोनोंका उदय होगा, इस शंकाको दूर करते हैं
क्योंकि संयोगकेवलीके घातिकर्मों का विनाश हो गया है अतः रागके कारण चार प्रकारकी माया, चार प्रकारका लोभ, तीन वेद, हास्य-रतिका तथा द्वेषके कारण चार प्रकार
का क्रोध, चार प्रकारका मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका पूर्णरूपसे क्षय होनेसे ३. उनके राग और द्वेष नष्ट हो चुके हैं। तथा एक साथ सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले
केवलज्ञानके प्रकट होनेपर परोक्ष तथा क्षायोपशमिक रूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्भव नहीं हैं ॥२७२।।
.. अतः केवलीके इन्द्रियज्ञान भी नष्ट हो चुका है। इस कारणसे केवलीके साता और असाताके उदयसे उत्पन्न होने वाला सुख-दुःख नहीं होता; क्योंकि वह सुख-दुःख इन्द्रिय
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
४३९ शमिकंगळुपयोग विरुद्धमप्पुरिदं यतः आवुदोंदु घातिकर्मविनाशमाद कारणदिदं । तेन अदु कारणदिदं । तुमने सातासातजसुखदुःखं सातासातोदयजनितसुखमुं दुःखमुं नास्ति इल्लेकेंदोडे इंद्रियज इंद्रियजत्वात् तत्सातासातवेदोदयजनितसुखदुःमिद्रियजनितमपुरिदं । सहकारिकारणमोहनीयाभावदिदमा सातासातोदयं विद्यमानवादोडे स्वकार्यकारियल्तें बुदत्यं ॥ अनंतरमा इंद्रियजनितसुखदुःखकारणमो दुमिल्लेंबुदक्कुपपत्तियं तोरिदपरु :
समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स ।
तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणमदि । २७४॥ समयस्थितिको बंधः सातस्योदयात्मको यतस्तस्य। तेनासातस्योदयः सातस्वरूपेण परिणमति ॥
पतस्तस्य सातस्य बंधः समयस्थितिकः आवुदो दुकारदिदमा सातवेदनीयबंधं समयस्थिति- १० कमप्पुदरिदं उदयात्मकमेयक्कुमदु कारणमागि सयोगकेवलियोळसातवेददुदयं सातस्वरूपदिद परिणमिसुगुमेकदोडे विशिष्ट विशुद्धनप्प सयोगभट्टारकनोदपिसुत्तं विर्द असातवेदमनंतगुणहीन. शक्तिक, स्वसहायरहितमुमप्पुदरिनव्यक्तोदयमक्कुमदुवुमनंतगुणानुभागयुत तात्कालिकोदयात्मक सातबंधमुंटप्पुदरिदं तत्स्वरूपदिदं परिणमिसुगुमप्यु। यत्तलानुमसातस्वरूपदिदं सातमुदयिसुगु: मागळ सातक्क द्विसमयस्थितिकत्वमक्कुमन्यथा असातक्कये बंधप्रसंगमक्कुं॥ . मतिश्रुतयोः परोक्षयोः क्षायोपशमिकयोरसंभवात् इंद्रियज्ञानं च नष्टं तेन कारणेन तु-पुनः सातासातोदयजं सुखदुःखमपि नास्ति । कुतः? तस्येंद्रियजत्वात । सहकारिकारणमोहनी.भावे तदूदयो विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थः ।। २७ ।। तस्य तदकारणत्वे उपपत्तिमाह -
यतस्तस्य केवलिनः सातवेदनीयस्य बंधः समयस्थितिकः ततः उदयात्मक एवं स्यात् । तेन तत्रासातोदयः सातस्वरूपेण परिणमति । कुतः ? सातस्वरूपे परिणमनस्य विशिष्टशद्धे तस्मिन् असातस्य अनंतगुणहीनशक्तित्व- २० सहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनं गुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसंगात अन्यथा असातस्यैव बंधः प्रसज्यते ।। २७४ ॥
जन्य होता है। इसका अर्थ यह है कि वेदनीयका सहकारी कारण मोहनीय कर्म है। उसके अभावमें वेदनीयका उदय होते हुए भी वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता ॥२७३॥ २५
वेदनीयका उदय अपना कार्य करने में क्यों असमर्थ है, इसमें उपपत्ति देते हैं
क्योंकि केवलीके सातावेदनीयका बन्ध एक समयकी स्थितिको लिए हुए होता है अतः वह उदयरूप ही है। इस कारणसे केवलीमें असाताका भी उदय सातारूपसे परिणमन करता है। क्योंकि केवलीमें विशेष विशद्धता होनेसे असाता वेदनीयकी अनुभाग शक्ति अनन्तगुणी हीन हो जाती है तथा मोहकी सहायता भी नहीं रहती। इससे असातावेदनीय- ३० का उदय अव्यक्त रहता है । तथा बँधनेवाले सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा होता है। क्योंकि केवलीके विशुद्धि विशेष है और विशुद्धतासे अनुभाग अधिक होता है। इसीसे असाताका भी उदय सातारूपसे परिणमन करता है। किन्तु साताका उदय असातारूप
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गो० कर्मकाण्डे एदेण कारणेण दु सादरसेव दु णिरंतगे उदओ।
तेणासादणिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्थि ॥२७॥ एतेन कारणेन तु सातस्यैव तु निरंतरोदयः। तेनासातनिमित्ताः परीषहा जिनवरे न संति ॥
इदु कारणदिदं तु मते सातबंधमुदयात्मकमप्पुरिदं सातकेये निरंतरोदयमक्कुमदरिदम सातदुदयजनितैकादश परीषहंगळु क्षुत् पिपासा शीत उष्ण दंश मशक चा शय्या वध रोग तृणस्पर्शमलमें बिवु जिनवरे न संति जिनस्वामियोळु घर्सियसवु। अंतादोडकादश जिने 'वेदनोये शेषा' येंदु असातवेदनीयोदयसंभूतकादश परीषहंगळ जिनरोळे ते दोडे घादिव्व वेयणीयं मोहस्स
बळेण घाददे जीवं ये बो वादिदं मोहनीयकर्मबलसहायरहित वेदनीयं फलवंतमले दितुमेका१. दशपरोषहंगळं जिगवरे गत्थि येबी वाक्यविशेषदिदमु निश्चयनयदिदं जिनरोळो दुं परीषहमिल्लो दुटु कारणभूतासातवेदनोयोदयसद्भावदिदमुपचारदिदं कार्यरूपमप्प परीषहास्तित्वं ॥
अनंतरमभेदविवक्षेयिंदमुदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्त रडु १२२। मिध्यादृष्टियागि चतुर्दशगुणस्थानंगळोळ संभवंगळु पेळल्पडुगुमदेते दोडे -मिथ्यादृष्टियोळुदयप्रकृतिगळु नूर हदिनेळु
११७ । अनुदयंगळु तीर्थमुमाहारद्वयमु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमें दिवय्दु ५। १५ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्तिगळयदुगुडिदनुदयप्रकृतिगळु पत्त नरकम
सासादनं पुगनप्पुरिदं नरकानुपूयं मुसहितमागि पन्नोंदु ११ । उदयप्रकृतिगळु नूर पन्नोंदु १११। मिश्रगुणस्थानदोळो भत्तुगुडिदनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तुं शेषानुपूव्यंगळ मूरुं कूडिप्पत्त
एतेन उक्तकारणेन तु पुनः सातस्यैव निरंतरोदयः स्यात् । तेनासातोदयजनिताः परीषहाः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलाख्या जिनवरे न संति । 'एकादश जिने' 'वेदनीये शेषाः' इति २० सूत्रेणापि कारणे कार्योपचारेणवोक्तत्वात् मुख्यतस्तेषामभावात् ।
___ अथाभेदविवक्षया उदये द्वाविंशत्युत्तरशतं १२२ । तत्र मिथ्यादृष्टावुदयः सप्तदशोत्तरशतं, अनुदयः तीर्थकरत्वाहारकद्वयसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतयः पंच । सासादने पंच नारकानुपूव्यं च मिलित्वा अनुदयः परिणमन करता है, ऐसा कहना शक्य नहीं; क्योंकि ऐसा कहनेसे साताका स्थितिबन्ध दो समय मानना होगा । अन्यथा असाताका ही बन्ध प्राप्त होगा ।।२७४।।
उक्त कारणसे केवलीके निरन्तर साताका ही उदय रहता है। अतः असाताके उदयसे २५
उत्पन्न होनेवाली क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श
और मल परीषह केवलीमें नहीं होती। तत्त्वार्थ सूत्र में भी जो 'एकादश जिने' 'वेदनीये शेषाः' --ऐसा कहा है वह कारणमें कार्यका उपचार करके ही कहा है। मुख्यरूपसे उनका केवलीमें अभाव है।
अभेद विवक्षासे उदय प्रकृतियाँ एक सौ बाईस हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि में उदय एक सौ सतरह ११७, अनुदय तीर्थकर, आहारकद्विक, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति पाँच । सासादनमें उक्त पाँचमें पाँच व्युच्छित्ति और एक नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय ग्यारहका ११, उदय एक सौ ग्यारहका। और उदय व्युच्छित्ति नौ। अतः ११+९
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मूररोळ, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं तेगवुदयप्रकृतिगळोळ, कूडुतं विरलनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तेरडु २२ । उदयप्रकृतिगळ नूरु १०० ॥ असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोगों दुगुडिदनुदयप्रकृतिगछिप्पतमूररोळ . नाल्कानुपूव्यंगळं सम्यक्त्वप्रकृतियुमं तगदुदयप्रकृतिगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळु पदिने टु १८। उदयप्रकृतिगळ नूर नाल्कु १०४ ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळु पदिने गुडिदनुदयप्रकृतिगलु मूवत्तरदु ३५ । उदयप्रकृतिगळे भत्तळ ८७। प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळु एंटुगूडिदनुदयप्रकृतिगळु ५ नाल्वत्तमूरवरोळ आहारकद्वितयमं तेगदुदयप्रकृतिगळो कूडुत्तं विरलु अनुदयप्रकृतिगळु नाल्वत्तोंदु ४१। उदयप्रकृतिगळेग्भत्तोंदु ८१। अप्रमत्तगुणस्थानदो अगुडिदनृदयप्रकृतिगळु नाल्वत्तारु ४६। उदयप्रकृतिगळेप्पत्तारु ७६ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडिदनुदयप्रकृतिगळ मय्यत्तु ५० । उदयप्रकृतिगळेप्पत्त रडु ७२। अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडिदनुदयप्रकृतिगळय्वत्तारु ५६ । उदयप्रकृतिगळस्वत्तारु ६६ । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळ आरुगूडि- १० बनुदयप्रकृतिगळरुवत्तरडु ६२ । उदयप्रकृतिगळ अरुवत्त ६०।
उपशांतकषायगुणस्थानदोळोदु गृडिदनुदयप्रकृतिगळरुवत्त मूरु ६३। उदयप्रकृतिगळय्वत्तों भत्तु ५९ ॥ क्षोणकषायगुणस्थानदोळेरडु गुडिदनुदयप्रकृतिगटरुवत्तम्दु ६५ । उदयप्रकृतिगळस्वत्तळ ५७॥
सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ पदिना रगडिदनुदय प्रकृतिगळेभत्तोंदवरोळ तीत्थंकर. १५ नामप्रकृतियंतगदुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलु अनुदयप्रकृतिगळे णभत्तु ८० । उदयप्रकृतिगळ नाल्वत्तेरडु ४२॥ अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ मूवत्तुगृडिदनुदयप्रकृतिगळ नूर पत्त एकादश, उदयः एकादशोत्तरशतं । मिश्रेऽनुदयः नव शेषानुपूर्वत्रयं च मिलित्वा सम्यग्मिथ्यात्वोदयात् द्वावितिः उदयः शतं । असंयतेऽनुदयः एकां निक्षिप्य चतुरानुसम्यक्त्वप्रकृत्युदयादष्टादश । उदयः चतुरुत्तरशतं । देशसंयतेऽनुदयः सप्तदश मिलित्वा पंचत्रिंशत् । उदयः सप्ताशीतिः। प्रमत्तेऽनुदयोऽष्टौ मिलित्वा आहारद्रयो- २० दयादेक वत्वारिंशत् । उदयः एकाशीतिः । अप्रमत्तेऽनुदयः पंच संयोज्य षट् चत्वारिंशत् । उदयः षट्सप्ततिः । अपूर्वकरणेऽनुदयः चतस्रः संयोज्य पंचाशत् । उदयः द्वासप्ततिः । अनिवृत्तिकरणेऽनुदयः षट् संयोज्य षट्पंचाशत् । उदयः षट्षष्टिः । सूक्ष्मसापराये षट् निक्षिप्य अनुदयो द्वापष्टि, उदयः षष्टिः । उपशांतकषाये एका संयोज्यानुदयस्त्रिषष्टिः । क्षीणकषाये द्वे निक्षिप्य अनुदयः पंचषष्टिः । उदयः सप्तपंचाशत । सयोगकेवलिनि
और शेष तीन आनुपूर्वीका अनुदय तथा सम्यक् मिथ्यात्वका उदय होनेसे मिश्रमें अनुदय २५ बाईस और उदय सौ १०० । तथा व्युच्छित्ति एक । असंयतमें चार आनुपूर्वी और सम्यक्त्व मोहनीयका उदय होनेसे अनदय अठारह, उदय एक सौ चार । यहाँ व्युच्छित्ति सतरह की होनेसे देशसंयतमें अनुदय पैंतीस और उदय सत्तासी है। यहाँ व्युच्छित्ति आठकी है।। अतः प्रमत्तमें ३५ + ८ = ४३ में-से आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय इकतालीस, उदय इक्यासी है । यहाँ व्युच्छित्ति पाँच है। अत: अप्रमत्तमें अनदय छियालीस और उदय छिहत्तर ३० है। यहाँ व्युच्छित्ति चार है। अतः अपूर्वकरणमें अनुदय पचास और उदय बहत्तर । यहाँ व्युच्छित्ति छह है। अतः अनिवृत्तिकरणमें अनुदय छप्पन, उदय छियासठ । यहाँ व्युच्छिति छह है। अतः सूक्ष्म साम्परायमें अनुदय बासठ, उदय साठ और व्युच्छित्ति एक। अतः
क-५६
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गो० कर्मकाण्डे
११० । उदयप्रकृतिगळ पन्नेरडु १२ ॥ यितुक्त मिथ्यादृष्टयादि चतुर्द्दशगुणस्थानंगळोळ, दय व्युच्छित्ति उदयानुदयप्रकृतिगळगे यथाक्रर्मादिदमयोगिकेवलिगुणस्थानपर्यन्तं संदृष्टिरचने :
Ai
मि सा
क्षी अ अ अ सू उ
स अ
मि अ
१७ ८ ५
४ ६ ६ १२ १६ ३०
१२
व्यु ५ ९ १ ११७ १११ १०० १०४ ८७ ८१ ७६ ७२६६६०५९ ५७ ५ ११ २२ १८ ३५ ४१ ४६ ५०५६६२६३ ६५
४२
१२
८० ११०
२०
०
उ
अ
दें Я
अनंतरमुदयप्रकृतिगळ संख्येयं गुणस्थानंगळोळ, पेदपरु :
सत्तर सेक्कारखच दुसहियसयं सगिगिसीदि छदु सदरी । छावट्टि सट्ठि णवसगवण्णास दुदालबारुदया || २७६ || दशैकादशखचतुः सहितशतं सप्तैकाशीतिः षद्विसप्ततिः । षट्पष्टिः षष्टि नव सप्तपंचाशद्विचत्वारिंशद्वादशोदयाः ॥
मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळ, यथाक्रर्मादिदं समैकादशशून्यचतुरधिकशतंगळ सकाधिकाशीतिगळ षद्विकोत्तरसप्ततिगळ षट्षष्टियुं षष्टियु नवसप्ताधिक पंचाशत्प्रकृतिगळ १० द्विचत्वारिंशद्वादशप्रकृतिगळ ु दयंगळवु ।
अनंतर मनुदय प्रकृतिगळ' पेदपरु :
पंचेक्कारसबावीसट्ठारसपंचतीस इगिछादालं |
पणं छप्पण्णं बितिपणसट्ठी असीदि दुगुणपणवण्णं ॥ २७७॥ पंचैकादशद्वाविंशत्यष्टादशपंचत्रिंशदेकषट्चत्वारिंशत् पंचागत् षट्पंचाशत दित्रिपंचषष्ट्य
१५ शीतिद्विगुणपंचपंचाशत् ॥
षोडश संयोज्य तीर्थकरोदयादनुदयः अशीतिः । उदयः द्वाचत्वारिंशत् । अयोगकेवलिनि त्रिशतं संयोज्यानुदयः दशोत्तरशतं । उदयः द्वादश ।। २७५ || अमूनुक्तोदयानुदयान् गाथाद्वयेनाह-
मिथ्यादृष्टया दिगुणस्थानेषु यथाक्रमं सप्तदशैकादशशून्य चतुरधिकशतानि सप्तैकाशीतिः षट्वयुत्तरसप्ततिः षट्षष्टिः नवसप्ताधिकपंचाशतौ द्विवत्वारिंशत् द्वादश प्रकृतयः उदये भवंति ॥ २७६ ॥
उपशान्त कषाय में अनुदय तिरसठ, उदय उनसठ और व्युच्छित्ति दो । अतः क्षीणकषाय में अनुदय पैंसठ, उदय सत्तावन, व्युच्छित्ति सोलह । किन्तु तीर्थंकरका उदय होनेसे सयोगकेवली में अनुदय अस्सी और उदय बयालीस, व्युच्छित्ति तीस । अतः अयोगकेवली में अनुदय एक सौ दस और उदय बारह है ।। २७५ ।।
ऊपर कहे उदय और अनुदयको दो गाथाओंसे कहते हैं -
२५
मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें क्रमसे एक सौ सतरह, क सौ ग्यारह, एक सौ, एक सौ चार, सतासी, इक्यासी, छिहत्तर, बहत्तर, छियासठ, साठ, उनसठ, सनावन, बयालीस और बारह प्रकृतियोंका उदय होता है ॥२७६॥
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
आ मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळनुदयप्रकृतिगळ, यथाक्रर्मादिदं पंचैकादशद्वाविशत्यष्टादश पंचोत्तर त्रिशदेकषडधिक चत्वारिंशत्पंचाशत् षट्पंचाशत् द्वित्रिपं याधिकषष्ट्यशीति द्विगुणपंचाधिक पंचाशत्प्रकृतिगळप्पुवु
अनंतर मुदय प्रकृतिगळगुदीरणेयं पेदपरु :
च ॥
उदयसुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो । मोत्तूण तिणि ठाणं पमत्त जोगी अजोगी य ॥२७८॥
उदयस्योदीरणायाश्च स्वामित्वतो न विद्यते विशेषः मुक्त्वा त्रिस्थानं प्रमत्तयोग्ययोगिनां
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उदक्कमुदीरणगं स्वामित्वदिदं विशेष मिल्ल । प्रमत्तसयोगायोगिगळ त्रिस्थानमं बिट्टु ई मूह गुगल्यानं पोळं, विशेष सुंटल्लदन्यत्र सर्व्वगुणस्थानं गळोळ वयक्कमुदीरणेगं स्वामित्वदयं १० विशेषमिल्ले बुदत्थं ॥
अनंतरमा त्रिस्थानदोळु विशेषमावुदे दोडे पेदपरु :
तीसं बारस उदयच्छेदं केवलिणमेगदं किच्चा | सादमसादं च तहिं मणुवाउगमवणिदं किच्चा || २७९ ॥
त्रिशद्वावशोदयोच्छेदं केवलिनोरेकीकृत्य । सातमसातं च तस्मिन्मनुष्यायुष्यं चापनोतं १५
कृत्वा ॥
केवलिनोः सयोगायोगकेवलिगळ उदयोच्छेदं उदयव्युच्छित्तियं त्रिंशद्वादश सूवत्तु पन्नेरडुगळ, एकीकृत्य कूडि तस्मिन् अदरोळ ४२ । सातमसातं च सातप्रकृतियुमसातप्रकृतियुमं मनुष्यायुष्यं मनुष्यायुष्यकमुमे व सूरु प्रकृतिगळिदमपनीतं कृत्वा कळ यत्पदं माडि ३९ ॥
तेषु अनुदयः यथाक्रमं पंचकादशद्वाविंशत्यष्टादशपंचत्रिंशदे षडधिकचत्वारिंशत्पंचाशत्षट्पं चाशदित्रिपंचाधिकषष्टी तिद्विगुणपंचपंचाशत्प्रकृतयो भवति ॥ २७७ ॥ अथोदयप्रकृतीनामुदोरणामाह
उदरास उदीरणायाश्च स्वामित्वाद्विशेषो न विद्यते प्रमत्तयोग्ययोगित्रयं मुक्त्वा अन्यत्र विशेषो नेत्यर्थः ॥ ॥ तत्र को विशेषः ? इति चेदाह --
सयाग योगयोः उदयव्युच्छित्ति त्रिंशद्वादश एकीकृत्य ४२ तत्र सातासातमनुष्यायूंषि अपनेतव्यानि ७९ ॥
मिध्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें क्रमसे पाँच, ग्यारह, बाईस, अठारह, पैंतीस, इकतालीस, छियालीस पचास, छप्पन, बासठ, तिरसठ, पैंसठ, अस्सी और एक सौद प्रकृतियोंका अनुदय होता है ॥२७७ ॥
आगे उदय प्रकृतियों की उदीरणां कहते हैं
उदय और उदीरणाके स्वामीपने में कोई अन्तर नहीं है । प्रमत्त, सयोगी और अयोगी इन तीन गुणस्थानों को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में उदय के समान ही उदीरणा जानना ॥२७८॥
इन गुणस्थानों में विशेषता कहते हैं
योगी और अयोगीमें उदय व्युच्छित्ति क्रमसे तीस और बारह है । उनको एकत्र करके उनमें से साता, असाता और मनुष्यायु घटाइए ॥ २७९ ॥
२०
२५
३०
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गो० कर्मकाण्डे अवणिदतिप्पयडीणं पमत्तविरदे उदीरणा होदि ।
स्थित्ति अजोगिजिणे उदीरणा उदयपयडीणं ॥२८॥ अपनीतत्रिप्रकृतीनां प्रमत्तविरते उदोरणा भवति । नास्तीत्ययोगिजिने उदीरणा उदय
प्रकृतीनां ॥
५ अयोगिकेवलिजिननोलदयप्रकृतिगगुदोरणेयिल्लप्पुरिदं सयोगायोगिकेवळिगळ मूवत्तं
पन्नेरडुमुदयव्युच्छित्तियं कूडि नाल्वत्तरडरो सातासातप्रकृतिगळं मनुष्यायुष्यमुं कळेदु वप्पुदरिदमा कळंदु मूरुं प्रकृतिगछ प्रमत्तसंयतनोळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु । अदु कारगमागि प्रमत्तसंयतनोळे टु प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु। शेष मूवतो भत्तु प्रकृतिगळुदीरणे सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळक्कुं । ३९॥
अप्रमत्ताविगुणस्थानंगळोळामुळं प्रकृतिगळगुदीरणेयिल्लेकेंदोडे प्रमादरहितरप्पुरिद संक्लिष्टरोळल्लदा मूरुं प्रकृतिगळगुदीरणे घटिसदप्पुरिदमी विशिष्टशुद्धरोळु तदुदोरणगसंभवमप्पुरिदं ॥ अनंतरं मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळो दीरणाव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं पेन्दपरु :
पण णव इगि सत्तरसं अट्ठट्ठ य चदुर छक्क छच्चेव ।
इगिदुग सोल्लगुदालं उदीरणा होंति जोगंता ॥२८१।। पंच नवैकसप्तदशाष्टाष्टौ च चतुः षट्कं षट्चैव । एक द्विकषोडशैकान्नचत्वारिंशदोरणा भवंति योग्यताः॥
मिथ्यावृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानमवसानमादत्रयोदशगुणस्थानंगळोळ यथाक्रमविंदमुदीरणा व्युच्छित्तिप्रकृतिगळ पंच नव एक सप्तदश अष्ट अष्ट चतुः षट्क २० षट् च एक द्विक षोडश एकान्नचत्वारिंशत् प्रकृतिगळप्पुवंतागुत्तं विरलुदोरणाप्रकृतिगळुमनु.
अयोगिजिने उदयप्रकृतीनां उदोरणा नास्ति इति तदपनीतप्रकृतित्रयस्य प्रमत्तसंयते व्युच्छित्तिर्भवति ततः कारणात् प्रमत्तेऽष्टौ व्युच्छिद्यते । शेषैकोनचत्वारिंशदुदीरणा सयोगे एव नाप्रमत्तादिषु तत्त्रयोदोरणास्ति अप्रमत्तादित्वात् । संक्लिष्टेभ्योऽन्यत्र तदसंभवाच्च ।। २८० ॥ अथोदीरणाव्युच्छित्तिमाह
सयोगपर्यंतत्रयोदशगुणस्थानेषु यथाक्रम उदीरणाव्युच्छित्तिः पंचनवकसप्तदशाष्टाष्ट चतुःषट्कषट्कैक२५ अयोग केवलीमें उदय प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं होती। इसलिए घटायी हुई तीन
प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति प्रमत्तसंयतमें होती है। अतः प्रमत्तसंयतमें आठकी उदीरणा व्युच्छित्ति होती है । बयालीसमें से तीन घटानेपर शेष रही उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति सयोगकेवलीमें ही होती है। उन तीनकी उदीरणा अप्रमत्त आदि गुणस्यानोंमें
नहीं होती, क्योंकि वे अप्रमत्तादि रूप हैं। इनकी उदीरणा संक्लेश परिणामोंसे होती है, ३. संक्लेश परिणामोंके बिना इनकी उदीरणा नहीं होती ॥२८॥
आगे उदीरणा व्युच्छित्ति कहते हैंमिध्यादृष्टिसे लेकर सयोगी पर्यन्त तेरह गुणस्थानोंमें क्रमसे उदीरणा व्युच्छित्ति पाँच,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४४५ दीरणा प्रकृतिगळं योजिसल्पडुगुमदेंतेंदोडे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोलुदोरणाप्रकृतिगळु नूरहदिनेळ ११७ । अनुदोरगाप्रकृतिगळ तीर्थमुमाहारकद्विकमुं सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं सम्यक्त्वप्रकृतिगळंब पंचप्रकृतिगलनुदोरणाप्रकृतिगळप्पुबु । ५॥ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळ मिथ्यादृष्टिय
दोरगापुच्छित्तिगळयदुगूडिदनुदीरणा प्रकृतिगळ पत्तु । नारकापूय॑मुं सहितमागि पन्नों दु ११ । उदोरगाप्रकृतिाळ, नूरपन्नोंदु १११॥ सम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थानदोळ ओभत्तुगूडिदनुदीरणा ५ प्रकृतिगळ, इप्पत्तु । शेषानुपूव्यंगळ, मूरुसहितमागि अनुदीरणाप्रकृतिगळ पिप्पत्तमूरवरोळ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं कउंदुदोरणाप्रकृतिगळोळ कूडुतं विरलु अनुदोरणा प्रकृतिगळिप्पत्तेरडु २२ । उदोरणाप्रकृतिगळ १००॥ असंयतसम्याष्टिगुणस्थानदोळोंदु गूडियनुदोरणाप्रकृतिगलिप्पत्तभूवरोळ, सम्यक् प्रकृतियुमानुपूर्व्यचतुष्कमुमं कळे दीरणाप्रकृतिगळो कूडुत्तं विरलु अनुदोरणाप्रकृतिगळ पदिनेंटु १८ । उदोरगाप्रकृतिगळ नूरनाल्कु १०४ ॥ देशपयत गुणस्थानदोळ १० पदिनेळ गूडियनुदोरणाप्रकृतिगळ मूवत्तरद ३५ । उदोरणाप्रकृतिगळे भतेळ, ८७॥ प्रमत्तगुणस्थानदोळ. सातासातमनुष्यायुष्यं गूडिनुदोरगाव्युच्छित्तिप्रकृतिगऊंटु ८ ॥ देशसंयतनुदीरणाव्युच्छित्तिगजेंटुगूडिदातननुदोरणाप्रकृतिगळ मूवत्तरदं गूडि नाल्वत्तमूरवरोळु आहारकद्विकर्म कळे दुदीरगाप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलु अनुदोरणाप्रकृतिगळ नाल्वत्तोदु ४१ । उदीरणा
द्विकषोडशे कान्नचत्वारिंशत्प्रकृतयः स्युः । तस्यां सत्यां मिथ्यादृष्टिगुणस्याने उदोरणा सप्तदशोत्तरशतं । १५ अनुदोरणा तीर्थ कृदाहारकद्विकसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वानि पंच । सासादनेऽनुशेरणा मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्ति नारकानुपूयं च मिलित्वा एकादश । उदोरणा एकादशोत्तरशतं । सम्यग्मिथ्या दृष्टौ अनुदोरणा नब शेषानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा सम्परिपथ्यात्वोदोरणावाविंशतिः । उदोरणा शतं । असंयते अनुदोरणा एकां निक्षिप्य सम्पत्वानुपूर्वी व तुकोदोरणादष्टादश । उदीरणा चतुरुत्तरशतं । देश संयतेऽनुदोरणा सप्तदश संयोज्य पंचत्रिंशत् । उदी रण। सप्ताशीतिः । प्रमत्तेऽनुदीरणा अष्टी मिलित्वा आहारकद्विकोदोरणादेकचत्वारिंशत् । उदीरणा २० नौ, एक, सतरह, आठ, आठ, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह तथा उनतालीस प्रकृतियोंकी होती है।
१. इस प्रकार व्युच्छित्ति होने पर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उदीरणा एक सौ सतरह, अनुदीरणा तीथकर, आहारकद्विक, सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति पाँच की।
२. सासादनमें । अनुदीरणा मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति पाँच और नरकानुपूर्वीकी यहाँ २५ उदीरणा न होनेसे ५+५+ १ मिलकर ग्यारह । उदीरणा एक सौ ग्यारह । व्युच्छित्ति नौ।
३. सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा होनेसे तथा शेष तीन आनुपूर्वोकी उदोरणा न होनेसे अनुदीरणा ११+९+ ३-२३ – १ बाईस । उदीरणा सौ । व्युच्छित्ति एक।
४. असंयतमें सम्यक्त्व प्रकृति और चारों आनुपूर्वियोंकी उदीरणा होनेसे २२+ १ = २३ - ५ = अनुदीरणा अठारह । उदीरणा एक सौ चार, व्युच्छित्ति सतरह ।
५. देशसंयतमें अनुदीरणा १८+ १७ = पैंतीस । उदीरणा सत्तासी, व्युन्छित्ति आठ।
६. प्रमत्तसंयतमें आहारकद्विककी उदीरणा होनेसे अनुदीरणा ३५ +८= ४३ -२इकतालीस । उदीरणा इक्यासी, व्युच्छित्ति आठ ।
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४४६
गोकर्मकाण्डे प्रकृतिगळे णभत्तो दु ८१ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोळे दुगूडियनुदोरणाप्रकृतिगळ नाल्वत्तो भत्तु ४९ । उदोरणाप्रकृतिगळे प्पत्त मूरु ७३ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदोरणाप्रकृतिगळप्वत्तमूरु ५३॥ उदोरणाप्रकृतिगळरुवत्तों भत्तु ६९ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळ आरुगूडियनदोरणाप्रकृतिगळय्वत्तो भत्तु ५९ । उदीरणाप्रकृतिगळरुवत्त मूरु ६३ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळारुगूडियनुदीरणाप्रकृतिगळरुवतम्दु ६५ । उदीरणाप्रकृतिगळे वत्त एळ ५७॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळ ओदुगूडियनुदोरणाप्रकृतिगळरुवत्तारु ६६ । उदोरणाप्रकृतिगळ अय्वत्तारु ५६ ॥ क्षीणकषायगुणस्थानदोळ येरडुगूडियनुदोरणाप्रकृतिगळ अरुवत्तेंटु ६८ । उदीरणाप्रकृतिगळग्वत्तनाल्कु ५४ ॥ सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ पदिनारुगूडियनुदोरणाप्रकृतिगळे भत्तनाल्कवरोळ तीर्थमं कळे दुदीरणाप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलु अनुदोरणाप्रकृतिगळे भत्त मूम ८३ । उदीरणाप्रकृतिगळ मूवत्तो भत्तु ३९ ॥ अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ मूवत्तो भत्तु. गूडियनुदोरणाप्रकृतिगळ नूरिप्पत्तेरडु १२२ । उदीरणाप्रकृतिगळिल्लुदोरणे ये बुदेने दोडपक्वपाचनमुदीरणा ये दुदोरणालक्षणमप्पुरिदं दीर्घिकालदोळल्लदुदयिसदग्रनिषेकंगळ द्रव्यमनपकर्षि. सिको डल्पस्थितिकंगळप्पधस्तननिषेकंगळोळमुदयावळियोळ पुगिसि उदयमुखदिनवर फलमननुभविसियनंतरसमयदोळ दितनिषेकं कर्मस्वरूपमं त्यजिसि पुद्गलांतररूपदिदं परिणमिसुवंतु माळकुम बुदत्थं ॥
१०
mmsrwarwwwwmorammammommmmarrrrrrrrrrroran
एकाशीतिः । अप्रमत्तेऽनुदीरणा अष्टो मिलित्वा एकान्नपंचाशत् । उदोरणा त्रिसप्ततिः । अपूर्वकरणेऽनुदोरणा चतस्रो मिलित्वा त्रिपंचाशत् उदीरणा एकान्नषष्टिः । अनिवृत्तिकरणेऽनुदोरणा षट् संयोज्य एकान्नषष्टिः । उदीरणा त्रिषष्टिः। सूक्ष्मसांपराये नुदोरणा षट् संयोज्य पंचषष्टिः । उदीरणा सप्तपंचाशत् । उपशांतकषायेs.
नुदीरणा एका संयोज्य षट्षष्टिः उदीरणा षट्पंचाशत् । क्षोणकषायेऽनुदोरणा द्विसंयोज्य अष्टषष्टिः, उदीरणा २० चतुःपंचाशत् । सयोगकेवलिन्यनुदीरणा षोडश संयोज्य तीर्थकृदुदोरणात् त्र्यशीतिः, उदोरणा एकान्नचत्वा
रिंशत् । अयोगकेवलिनि अनुदोरणा एकोन्नचत्वारिंशत् मिलित्वा द्वाविंशत्युत्तरशतं, उदोरणां नास्ति । उदोरणा नाम अपक्वपाचनं दोर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकानपकृष्य अल्पस्थितिकाघस्तननिषेकेषु उदयावल्यां
७. अप्रमत्तमें अनुदीरणा ४१ + ८ = उनचास । उदीरणा तिहत्तर । व्युच्छित्ति चार । ८. अपूर्वकरणमें अनुदीरणा ४९+ ४ = तरेपन । उदीरणा उनसठ । व्युच्छित्ति छह । ९. अनिवृत्तिकरणमें अनुदीरणा ५३ +६= उनसठ, उदीरणा तिरसठ । व्युच्छित्ति छह । १०. सूक्ष्म साम्परायमें अनुदीरणा ५९+६=पैंसठ, उदीरणा सत्तावन । व्युच्छित्ति एक। ११. उपशान्त कषायमें अनुदीरणा ६५ +१=छियासठ। उदीरणा छप्पन । व्युच्छित्ति दो। १२. क्षीणकषायमें अनुदीरणा ६६+२=अड़सठ। उदीरणा चौवन । व्युच्छित्ति सोलह ।
१३. सयोगकेवलीमें तीर्थंकर प्रकृतिकी उदीरणा होनेसे अनुदीरणा ६८ + १६ = ३. ८४ - १ = तेरासी । उदीरणा उनतालीस । व्युच्छित्ति उनतालीस।
१४. अयोगकेवलीमें अनुदीरणा ८३ + ३९ = एक सौ बाईस ।. उदीरणा नहीं है। उदीरणाका अर्थ है अपक्वपाचन । अर्थात् दीर्घकालमें उदयमें आनेवाले कर्म परमाणुमें-से अग्रिम निषेकोंका अपकर्षण करके, अल्पस्थितिवाले नीचेके निषेकों में देकर उदयावलीमें लाकर
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अनंत रमुक्तोदीरणानुदीरणा प्रकृतिगळ संख्येयं गाथाद्वर्याददं पेळदपरु :सत्तर सेक्कारख चंदु सहियसयं सगिगिसीदितिय सदरी ।
वतिणिसट्ठि सगछक्कत्रण्ण चउवण्णमुगुदालं ॥ २८२ ॥
सप्तदशैकादशख चतु:सहितशतं सप्तैकाशीतिः त्रिसप्ततिन्नव त्रिषष्टिः सप्त षट्पंचाशत् चतुःपंचाशदेकान्न चत्वारिंशत् मिथ्यादृष्ट्यादिसयोग केवलिभट्टारक गुणस्थानमवसानमाद पदिमूरुंगुणस्थानंगळोळ यथाक्रर्मादिदमुदीरणाप्रकृतिगळ, सप्तदश एकादश शून्य चतुःसहित शतंगळ, सप्ताशीतिएकाशीतित्रिसप्रति नवषष्टि त्रिषष्टि सम्पंचाशत् षट्पंचाशत् चतुःपंचाशत् एकान्नचत्वारिंशत्संख्याप्रमितंगळवु ॥
9
पंचेक्कारसबावीसट्ठारस पंचतीस इगिणवदालं ।
तेणे कुणसट्ठी पणछक्कड सहि तेसीदी || २८३ ॥
पंचैकादश द्वाविंशत्यष्टादश पंचत्रिंशदेकनव चत्वारिंशत्त्रिपंचाशदेकान्नषष्टि पंच षडष्टषष्टिस्त्रयशीतिः ॥
मिथ्यादृष्टद्याविगुणस्थानंगळोळ, अनुदीरणाप्रकृतिंगलु यथाक्रर्मादिदं पंच एकादश द्वाविंशति अष्टादश पंचत्रिंशत् एकचत्वारिंशत् नवोत्तरचत्वारिंशत् त्रिपंचाशत् एकान्नषष्टि पञ्चषष्टि षट्षष्टि अष्टषष्टि त्र्यशीतिसंख्याप्रमितंगलप्पु ।
मि सा मि
अ द प्र अ अ अ सू उ क्षी स अ
६ ६ १
उदीरणा ठ.
५ ९ १ १७ ८ ८ ४
૪૪૭
२
उदीरणा ११७ १११| १०० १०४८७८१| ७३ ६९ ६३५७ ५६ ५४ अनुदीरणा ५ ११ २२ १८ ३५ ४१ ४९
५३
६५ ६६
६८
१६ ३९
G
३९ |
८३ १२२
दत्त्वा उदयमुखेन अनुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणामयतीत्यर्थः ॥ २८१ ॥ अथोक्तोदोरणानुदीरणाप्रकृतिसंख्याः गाथाद्वयेनाह -
चतुर्दशगुणस्थानेषु यथाक्रमं सप्तदशैकादशशून्यचतुः सहितशतानि सप्ताशीतिरेकाशी तिस्त्रि सप्त तिर्नवषष्टिः त्रिषष्टिः सप्तपंचाशत्षट्पंचाशच्चतुः पंचाशदेकान्नचत्वारिंशदुदीरणा भवति । पंचैकादशद्वाविशत्यष्टादशपंचत्रिंशदेकचत्वारिशन्नवोत्तरचत्वारिंशत्त्रिपंचाशदेकान्नषष्टिपं चषष्टिषट्षष्टयष्टषष्टित्र्यशीतिसंख्या च अनुदीउदयरूपसे उनको भोगकर, कर्मरूपसे छुड़ाकर अन्य पुद्गलरूपसे परिणमाता है । आगे दो गाथाओंसे उदीरणा और अनुदीरणा प्रकृतियोंकी संख्या कहते हैंमिध्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थानोंमें क्रमसे एक सौ सतरह, एक सौ ग्यारह, एक सौ, एक सौ चार, सतासी, इक्यासी, तिहत्तर, उनहत्तर, तरेसठ, सत्तावन, छप्पन, चौवन, और उनतालीस की उदीरणा होती है ।। २८२||
O
५
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१५
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यितु गुणस्थानदोलुदयत्रिभंगियुमुदीरणात्रिभंगियु पेललपट्टुदिन्ननंतरं गत्यादिमार्गणेगलोदय त्रिभंगियं पेललुपक्रमिसि गत्यादिगलोलु पेळव क्रर्माद पेळदपरु :
गदियादिसु जोग्गाणं पयडिप्पहुडीण मोघसिद्धाणं । सामित्तं णेदव्वं कमसो उदयं समासेज्ज || २८४ ॥
गो० कर्मकाण्डे
गत्यादिषु योग्यानां प्रकृतिप्रभृतीनामोघसिद्धानां । स्वामित्वं नेतव्यं क्रमशः उदय समाश्रित्य ॥
गत्यादिमागंणेगळोळु योग्यंगळप प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशंगनो गुणस्थानदोळ पेळ सिद्धंगळtyaक्के स्वामित्वमागमोक्तक्रमदिदमुदयमनाश्रयिसि नडसल्पडुगुमदे तें वोडे अल्लि मुनं परिभाषेयं गाथापंचकदिदं पेदपरु :
दि आआउदओ पदे भूपुण्णवादरे ताओ । उच्चदओ णरदेवे थीण तिगुदओ गरे तिरिये ॥ २८५ ॥
त्यानुपूर्व्यायुरुदयः सपदे भूपूर्णबादरे आतपः । उच्चोदयो नरदेवयोः स्त्यानगृद्धित्रयोदय नरे तिरश्चि ॥
रणा भवति ।। २८२-८३ ॥ एवं गुणस्थानेषूदयोदीरणा त्रिभंगीमुक्त्वा इदानीं गत्यादिमार्गणासु उदयगि १५ वक्तुमनास्तावद्गत्यादिषु तत्क्रममाह -
गत्यादिमार्गणा योग्यानां प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशानां गुणस्थान सिद्धानां स्वामित्वमागमोक्तक्रमेणोदमाश्रित्य नेतव्यं ॥ २८४ ॥ तत्र तावलरिभाषां गाथापंचकेनाह
मि. सा. | मि.
५
९ ५
उदी. व्यु. उदीरणा | ११७ | १११ | १०० | अनुदीरणा ५ | ११ | २२ |
उदयत्रिभंगी रचना
अ. | सू. | उ. | क्षी.
अ
अ. १७
दे. | प्र. अ. | अ. ८ ।८ ४ ६ १ । २ १६ | ३९ १०४ | ८७ | ८१ | ७३ | ६९ | ६३ | ५७ | ५६ | ५४ ३९ १८ | ३५ | ४१ | ४९ | ५३ | ५९ | ६५ | ६६ | ६८
तथा पाँच, ग्यारह्, बाईस, अठारह, पैंतीस, इकतालीस, उनचास, तरेपन, उनसठ, पैंसठ, छियासठ, अड़सठ, तथा तेरासीको अनुदीरणा होती है || २८३||
अ. ० ०
८३ |१२२
इस प्रकार गुणस्थानोंमें उदयत्रिभंगी और उदीरणा त्रिभंगी कहकर अब गति आदि मार्गणाओं में उदयत्रिभंगी कहनेका विचार रखकर प्रथम गति आदिमें उदयका क्रम कहते हैं
गुणस्थानों में सिद्धयोग्य प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभागका - स्वामीपना गति आदि २५ मार्गणाओं में आगम के अनुसार उदयकी अपेक्षा लाना चाहिए || २८४ ॥
प्रथम पाँच गाथाओंसे परिभाषा कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४४९ विवक्षितभवप्रथमसमयदोळे गत्यानुपूठायुरुदयः विवक्षितगतितदानुपूवळ तत्संबंध्यायुष्योदयं सपदे सशस्याने ओम्मोंदळेकजीवनोळुदयिसुगुम बुदथं । भूपूर्णबादरे आतपः पृथ्वीकायिकबादरपर्याप्तकजीवनोळ आतपनामकर्मोदयमकुं । उच्चोदयो नरदेवयोः उच्चैगर्गोत्रकर्मोदयं मनुष्यरोळं देवकळेनितुभेदमनितरोळमक्कुं। स्त्यानगृद्धित्रयोदयो नरे तिरश्चि स्त्यान
गृद्धि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलावरणत्रयोदयं मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमुदयिसुगुमितरगतिद्वयदोळु- ५ दमिल्ले बुस्थ । अल्लियं :
संखाउगणरतिरिये इंदियपज्जत्तगादु थीणतियं ।
जोग्गमुदेदु वज्जिय आहारविगुव्वणुठ्ठवगे ॥२८६॥ संख्यातायुनरतिरश्चोरिद्रियपर्याप्तस्तु स्त्यानगृद्धि त्रयं । योग्यमुदेतुं वज्जित्वाहार विकुर्वणोत्थापके ॥
तु मत्ते संख्यातवर्षायुष्यरप्प कर्मभूमिसंभूत मनुष्यतिथ्यचरुगळोळि द्रियपाप्तियिद मेले स्त्यानगृद्धि त्रयमुदयिसल्के योग्यमक्कुमल्लियं मनुष्यरोळुमाहारकऋद्धियुं वैक्रियिकऋद्धियुमिल्लदरोळे तदुदयमरियल्पडुगुं।
अयदापुण्णे ण हि थी-संढो वि य धम्मणारयं मुच्चा ।
थीसंढयदे कमसो णाणुचऊ चरिमतिण्णाणू ।।२८७॥ असंयतापूर्णे न हि स्त्री, षंडोपि च धर्मनारकं मुक्त्वा । स्त्रीषंढाऽसंयते क्रमशो नानुसूयं चत्वारि चरम त्रीण्यानुपूाणि ॥
विवक्षितभवप्रथमसमये एव तद्गतितदानुपूर्व्यतदायुष्योदयः सपदे सदृशस्याने युगपदेवैकजीव उदेतीत्यर्थः । भूकायिकबादरपर्याप्ते एव आतपनामोदयः उच्च र्गोत्रोदयो मनुष्ये सर्वदेवभेदे च । स्त्यानगृद्धित्रयोदयो मनुष्ये तिरश्चि च नेतरत्रेत्यर्थः ।। २८५ ॥ तत्रापि
तु पुनः संख्यातवर्षायुष्के कर्मभूमिमनुष्यतिरश्चि इंद्रियपर्याप्तरुपरि स्त्यानगृद्धित्रयमुदययोग्यं । तत्रापि मनुष्ये आहारकधिवैक्रियिकद्धर्यभावे एव ॥ २८६ ।।
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विवक्षित भवके प्रथम समय में ही उस भव सम्बन्धी गति, आनुपूर्वी और आयका उदय एक साथ ही एक जीवके होता है और वह समान रूपसे होता है अर्थात् तीनों भी एक ही गति सम्बन्धी होते हैं। जिस गतिका उदय होगा उसी गति सम्बन्धी आयु और आन- २५ पूर्वीका भी उदय होगा। तथा बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवके ही आतप नामकर्मका उदय होता है। उच्चगोत्रका उदय मनुष्य और सब प्रकारके देवों में होता है। स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओंका उदय मनुष्य और तिर्यंचों में होता है, अन्यत्र नहीं होता ॥२८५।।
संख्यात वर्षकी आयवाले कर्मभूमिया मनुष्यों और तिर्यंचोंमें इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् स्त्यानगृद्धि आदि तीन उदय होनेके योग्य हैं। किन्तु मनुष्यों में भी आहारक- ३० ऋद्धि और वैक्रियिकऋद्धिकी उत्थापना करनेके कालमें स्त्यानगुद्धि आदि तीनका उदय नहीं होता ॥२८६||
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४५०
गो० कर्मकाण्डे निवर्त्यपर्याप्तकनप्पऽसंयत सम्यग्दृष्टियोळु स्त्रीवेदोदयं न हि यिल्लेकेदोडा असंयतसम्यगदृष्टि स्त्रीयागि पुट्टनप्पुरिवंमत्तमपर्याप्तासंयतसम्यग्दष्टियोळ बंडोपि च न हि षंडवेदोदयमुमिल्लेके दोडातं षंडनागियुं पुट्टनप्पुरिंदमिदुत्सर्गविधियप्पुरिदं प्रारबद्धनरकायुष्यनप्प मनुष्य
तिय्यंचाऽसंयतसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वमं विराधिसद धर्म योनु नारकनागि पुटुगुमप्पुरिदमल्लिय ५ घमय नारकापर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टियं बिटु शेषापर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळोळ एंडवेदोदयमिल्लदु कारणवागि स्त्रोवेदिगळं पंडवेदिगळुमप्पसंयतसम्यग्दृष्टिगळोळु यथाक्रमदिंदमानुपूर्व्यचतुष्टयमुमं नरकानुपूर्व्यमं कळेदु चरमानुपूठव्यंत्रितयमुमुदयमिललेके दोडानुपूर्यमुत्तरभवप्रथमसमयदोळुदयिसुगुमप्पुरिदमा कालदोळा स्त्रीवेदोदयमुं नपुंसकवेदोदयमुमुळळ जीवंगळु स्त्रीयु षंडरुमक्कुमप्पुरिदं ॥
इगिविंगलथावरचऊ तिरिये अपुण्णो णरे वि संघडणं ।
ओरालदु णरतिरिए वेगुव्वदु देवणेरइये ॥२८८॥ एकविकलं स्थावर चत्वारि तिरश्चि अपूर्ण नरे पि संहननमौदारिकद्वयं मरतिरश्चोव्व क्रि. यिकद्वयं देवनारकयोः॥
एकेंद्रियजातिनामकर्ममु द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियजातिनामत्रितय, स्थावरसूक्ष्मापर्याप्त१५ साधारणचतुष्कममें बो प्रकृतिगळुदयं तिर्यग्गतिजरप्प तिय्यचरोळे युदयिसुगुं। अपर्याप्तनाम
कम्म मनुष्यगतिजरप्प मनुष्यरोळमुदयिसुगुं। संहननषट्कमुमौवारिकद्वयमुं मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमुदयिसुगुं । वैक्रियिकद्वयं सुररोळं नारकरोळमदयिसुगुं।
निर्वृत्त्यपर्याप्तासंयते स्त्रीवेदोदयो नहि असंयतस्य स्त्रीत्वेनानुत्पत्तेः । षंढवेदोदयोऽपि च नहि पंढत्वेनापि तस्यानुत्सत्तेः । अयमुत्सर्गविधिः प्रारबद्धनरकायुस्तिर्यग्मनुष्ययोः सम्यक्त्वेन समं धर्मायामुत्पत्तिसंभवात् २० तेन असंयते स्त्रीवेदिनि चतुर्णा, षंढवेदिनि त्रयाणां चानुपूर्वीणां उदयो नास्ति ॥ २८७ ॥
एकद्वित्रिचतुरिंद्रियजातिनामकर्मस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानि तिर्यक्षु एव उदययोग्यानि अपर्याप्तमनुष्येऽपि । संहननषट् कमोदारिकद्वयं च तिर्यग्मनुष्येष्वेव । वैक्रियिकद्वयं सुरनारकेष्वेव ॥ २८८ ॥
नित्यपर्याप्तक असंयतमें स्त्रीवेदका उदय नहीं होता, क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री पर्यायमें जन्म नहीं लेता। निवृत्यपर्याप्तक असंयतमें नपुंसक वेदका भी उदय २५ नहीं होता क्योंकि वह मरकर नपुंसक उत्पन्न नहीं होता। किन्तु यह उत्सर्ग विधि है।
क्योंकि जिस मनुष्य या तियेचने पहले नरकायुका बन्ध किया है वह यदि सम्यक्त्व के साथ मरण करता है तो उसकी उत्पत्ति घर्मा नामक प्रथम नरकमें होती है। अतः असंयत स्त्रीवेदीके चारों आनुपूर्वीका और असंयत नपुंसकवेदीके नरक बिना तीन आनुपूर्वीका उदय नहीं होता ॥२८७||
एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जाति नामकर्म तथा स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण तिर्यंचोंमें ही उदय योग्य हैं। किन्तु अपर्याप्त प्रकृति मनुष्योंमें भी उदययोग्य है । छह संहनन, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग तिथंच और मनुष्यों में ही उदय योग्य है । तथा वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक अंगोपांग देवों और नारकोंमें ही उदय योग्य है ।।२८८।।
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४५१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वदीपिका तेउतिगूणतिरिक्खेसुज्जोवो बादरेस पुण्णेसु ।
सेसाणं पयडीणं ओषं या होदि उदओ दु ॥२८९।। तेजस्त्रिकोनतिर्यभूद्योतो बादरेषु पूर्णेषु । शेषाणां प्रकृतीनाभोघवद्भवत्युदयस्तु ।
तेजस्कायिक मुं वायुकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक गुमें बी जीवत्रितयोनतियंचरु बादरपामजोवंगळोळद्योतनामकर्ममुदयिसुगुं। तु मत्से शेषप्रकृतिगळुदयक्रमं गुणस्थानदोळु ५ पेन्दतयक्कु-। मनंतरमी परिभाषासूत्रपंचकप्रणीतप्रकृत्युदयनियममं मनदोलय धारिसिदा तंगे नरकादिगतिचतुष्टयदोळुदयप्रकृतिगळं पेळल्वैडि मुन्नं नरकगतियो दययोग्यप्रकृतिगळं पेळ्दपरु :
थीणतिथीपुरिसूणा घादी णिरयाउणीचवेयणियं ।
णामे सगवचिठाणं णिरयाणू णारयेसुदया ।।२९०।। स्त्यानगृद्धित्रयं स्त्रीपुरुषोनानि घातीनि नरकायुन्।चवेदनीयं नाम्नि स्ववाविस्थानं १० नारकानुपूर्व्यनारकेषूदयाः॥
स्त्यानगृद्धित्रय स्त्रीवेद पुंवेदमें बी पंचप्रकृतिगळं कळेदु शेषघातिग नालवत्तरघु ४२ । नारकायुज्युमुं १। नीचेग्ोत्रमुं १ सातासातवेदनीयद्वितयमुं २। नामकर्मदोळु नारकरुगळ भाषापर्याप्तिस्थानदिप्पत्तों भत्तुप्रकृतिगळं २९ । नारकासुपूर्व्यमुमें ब षडुत्तरसप्ततिप्रकृतिगळु नारकगुदययोग्यप्रकृतिगळप्पुवु ७६ ॥
अनंतरं नारकरुगळभाषापाप्तिस्थानद यिप्पत्ती भत्तु प्रकृतिगज्वावु दोडे पेळ्दपरु :
तेजोवायुसाधारणवनस्पत्यूनशेषबादरपर्याप्ततिर्यक्षु उद्योतः । तु-पुनः शेषप्रकृत्युदयक्रमो गुणस्थानवद् भवेत् ॥ २८९ ॥ एवं पंवपरिभाषा सूरुदयनियमं परिज्ञाप्य चतुर्गतिषु उदयप्रकृतोर्वक्तुं प्राक् नरकगतावाह
स्त्यानगृद्धि त्रयस्त्रीपुंवेदोनघातीनि द्वाचत्वारिंशत् । नरकायुर्नीचगोत्रसातासातवेदनीयानि नामकर्मणि २० नारकभापापर्याप्तिस्थानस्यै कान्नत्रिंशत् नारकानुसूयं चेति षट्सप्ततिारकोदययोग्यानि ।। २९० ॥ तदेकान्नत्रिंशतमाह
तेजस्काय, वायुकाय, साधारण वनस्पतिकायके सिवाय शेष बादर पर्याप्त तिर्यंचोंमें उद्योत प्रकृतिका उदय होता है। शेष प्रकृतियोंके उदयका अनुक्रम गुणस्थानवत् जानना ।।२८९॥
इस प्रकार पाँच परिभाषा सूत्रोंसे उदयका नियम कहकर चार गतियोंमें उदयप्रकृतियोंका कथन करनेके लिए पहले नरकगतिमें कहते हैं
___ स्त्यानगृद्धि आदि तीन, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बिना घातिकर्मीकी शेप बयालीस प्रकृतियाँ, नरकाय, नीचगोत्र, साता और असाता वेदनीय, तथा नारकी जीवोंके भाषापर्याप्तिके स्थानमें होनेवाली नामकर्म की उनतीस प्रकृतियाँ और नरकानुपूर्वी, ये छिहत्तर ३० प्रकृतियाँ नरकगतिमें उदय योग्य हैं ।।२९०।।
उन उनतीस प्रकृतियोंको कहते हैं
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४५२
गो० कर्मकाण्डे वेगुब्बतेजथिरसुहृदुग दुग्गदिहुडणिमिणपंचिदी ।
णिरयगदि दुब्भगागुरुतसवण्णचऊ य यांचठाणं ।।२०१॥ वैक्रियिकतेजः स्थिरशुभद्विकं दुर्गति हुंडनिर्माणपंचेद्रियनरकांत दुर्भगागुरुत्रसवर्णचतुष्टयानि च वचः स्थानं ॥
वैक्रियिकद्विकमु २। तैजसद्विकमुं २ स्थिरद्विकमुं २ शुभगद्विक २। अप्रशस्तविहायो. गतियुं १ इंडसंस्थानमुं १ निम्गिनामनु १ । पंचेद्रियजातिनाममुं १ दुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कोत्तिचतुष्कमु ४ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छ्वासचतुष्क, ४ सबादरपप्तिप्रत्येक शरीरचतुष्क ४ । वर्णगंधर सस्पर्शचतुष्कर्मु ४ । इन्तु थिप्पत्तो भत्तुप्रकृतिाळु २९ नारकर वचः पदाप्तिस्थानदोळप्पु वु। अनंतरं घम्र्मेय नारक दयव्युच्छित्तिगळं पेळदपरु :
मिच्छमणंतं मिस्सं मिच्छादिदिए कमा छिदी अयदे ।
बिदियकसाया दुब्भगणादेज्जदुगाउणिरयचऊ ।।२९२।। मिथ्यात्वमनंतानुबंधिनो मिश्रं मिथ्यादृष्टयादित्रये क्रमाच्छित्तिरसंयते । द्वितीयकषाया दुर्भगानादेयविकायुन्नारक चत्वारि ।। १५ मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्व उदयव्य च्छित्तियक्कुं। सासादननोलु अनंतानुबंधिकषाय
चतुष्टयमुदयव्युच्छित्तियक्कुं। मिश्रनोळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियवकु-। मिन्तुक्तक्रमदिदमसंयतसम्यग्दृष्टियोळु द्वितीयकषायोदयमुं बुर्भगममनादेयमुमयशस्कोत्तियुं नरकायंमुष्य नरकगतियुं तत्प्रायोग्यापूर्व्यमुं बैक्रियिकशरोरनाममुं तदंगोपांगनाममुमितु कूडि पन्नर प्रकृतिगळुदयव्युच्छितियप्पुवु ।
वैक्रियिकद्विकं तैजसद्विक स्थिरद्विकं गुभद्विकं अप्रशस्तविहायोगतिः हंडसंस्थान निर्माणं पंचेंद्रियं नरकगतिः दुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कीर्तयः अगुरुल धूपघातपरघातोच्छ्वासाः बसबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीराणि वर्णगंधरसस्पर्शाश्च इत्येकान्नत्रिशन्नारकाणां वचःपर्याप्तिस्थाने भवंति ।। २९१ ।। अथ घर्मानारकोदयव्युच्छित्तिमाह
__ मिथ्यात्वं अनंतानुबंधिचतुष्कं सम्यग्मिथ्यात्वं च क्रमेण मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानत्रये व्युच्छित्तिः ।
२५ वैक्रियिकद्विक, तैजस कार्माण, स्थिर अस्थिर, शुभ अशुभ, अप्रशस्त विहायोगति,
हुण्डक संस्थान, निमोण, पंचेन्द्रिय, नरकगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीति ये चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास ये चार, त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येक ये चार, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये चार इस प्रकार ये उनतीस प्रकृतियाँ नारकी जीवोंके वचन पर्याप्ति के स्थानमें उदयमें आती हैं ॥२९१।।।
आगे घर्मा नामक प्रथम नरकमें उदय व्युच्छित्ति कहते हैं
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी तथा मिश्रमें सम्य मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। और असंयतमें
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
४५३ यितु व्तुच्छित्तिगळागुत्तं बिरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळनुदयप्रकृतिग मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतिम बेरडु प्रकृतिगळतुदयंगळप्पुवु २। उदयप्रकृतिगळेप्पत्त नाल्कु ७४ ॥ सासादनगुणस्थानदोळोदु मिथ्यात्वं गूडिदनुदयप्रकृतिगळु मूरवरोळु नरकानुपूयमं कूडिदोडनदय. प्रकृतिगळु ४ । उदयप्रकृतिगळु नरकानुपूर्व्यरहितमेप्पत्तरडु ७२ । मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कुगूडियनुप्रकृतिगळेटरोळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं कळेदुदयदो कूडुत्तं विरलु अनुदयकृतिगळेछ । ५ उदयप्रकृतिगळरुवत्तो भत्तु ६९ । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु ओं दुगूडियनुदयप्रकृतिगळे टवरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियुमं नारकानुपूर्व्यमुमं कळेदुदयदोळ कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगारु ६ । उदयप्रकृतिगळेप्पत्तु ७०। यितु धयनारकग्गुंदयव्युच्छित्युदयानुदयप्रकृतिगळ्गे मिथ्यादृष्टयादि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळु संवृष्टिः
गुणस्थान मि | सा । मि | | व्यु । १ ४ १ १२
उ । ७४ | ७२ ६९ ।
अ । २ ४ अनंतरं द्वितीयादि षट् पृथ्विगळोळु प्रकृत्युदयानुदयोदयव्युच्छित्तिगळं पेळ्दपर :- १०
बिदियादिसु छसु पुढविसु एवं णवरि य असंजदट्ठाणे।
णत्थि णिरयाणुपुवी तिस्से मिच्छेव वोच्छेदो ॥२९३॥ द्वितीयादिषु षट्पृथ्वीष्वेवं नवीनमसंयतस्थाने। नास्ति नारकानुपूज्यं तस्य मिथ्यादृष्टावेव व्युच्छित्तिः॥
असंयते द्वितीयकषायचतुष्कदुर्भगानादेयायशस्कीतिनारकार्युनरकगतितदानुपूयंवैक्रियिकशरीरतदंगोपांगानि १५ द्वादश । एवं सति मिथ्यादृष्टावनुदयः मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती उदयः चतुःसप्ततिः । सासादनेऽनुदयः मिथ्यात्वनरकानपूष्ये मिलित्वा चतस्रः, उदयः द्वासप्ततिः । मिश्रेऽनुदयः चतस्रः संयोज्य सम्यग्मिथ्यात्वोदयात सप्त, उदयः एकान्नसप्ततिः। असंयतेऽनुदयः एकां निक्षिप्य सम्यक्त्वप्रकृतिनारकानुपूर्योदयात् षट्, उदयः संप्ततिः ॥ २९२ ।। अथ द्वितीयादिपृथ्वीष्वाह
अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीर्ति, नरकायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, २० वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग इन बारहकी व्युच्छित्ति होती है।
। ऐसा होनेपर मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें अनुदय मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका, उदय चौहत्तरका । सासादनमें मिथ्यात्व और नरकानुपूर्वी मिलकर चारका अनुदय । उदय बहत्तर । चारकी व्युच्छित्ति।
३. मिश्रमें-सासादनमें व्युच्छित्ति चार और अनुदय चारमें-से सम्यक् मिथ्यात्वका ११ उदय होनेसे अनुदय सात, उदय उनहत्तर, व्युच्छिति एक ।।
४. असंयतमें-मिश्रमें एककी व्युच्छित्ति और अनुदय सातमें-से सम्यक्त्व प्रकृति और नरकानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय छह, उदय सत्तर ।।२९२।।
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गो० कर्मकाण्डे
वंशे मोदलागि पृथ्विगळलं घम्मेयोळु पेदंते उदययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तारु ७६ ॥ असंयतगुणस्थानदोळु विशेषमंटदावुदे दोडे नरकानुपूर्योदय मिल्लेकें दोडे असंयतसम्यग्दृष्टिप्राग्बद्धनारकायुष्यनादोडं द्वितीयादि पृथ्दिगलो पुट्टनदुकारणदिदमा नारकानुपठवर्यमं तंदु मिथ्यादृष्टियो व्युच्छित्तियं माडुतं विरल मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ दयव्य च्छित्तिप्रकृतिगळेरड २ ५ उदयप्रकृतिगळेप्पत्त नाकु ७४ । अनुदयप्रकृतिगळु । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुं सम्यक्त्व प्रकृतियुमेंबेरडु प्रकृतिगळप्पुवु २। सासादन गुणस्थानदोलु एरडुगू डिदनुदयप्रकृतिगळु नात्कु ४ । उदयप्रकृतिगळेप्पत्तेरडु ७२। मिश्रगुणस्थानदोळ नाल्कु गूडियनुदयप्रकृतिगळे टवरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगळो कूडुतं विरलनुदयप्रकृतिगळेळ ७ । उदयप्रकृतिगळरुवत्तो भत्तु ६९ । असंयत गुणस्थानदोळो दुगूडिदनुदय प्रकृतिगळे दवरोळु सम्यक्त्व प्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगोळु १० कूडुतं विरलनुदयप्रकृतिगळेलु उदयप्रकृतिगलरुवत्तो भत्तु ६९ । यितु वंशादि षट् पृथ्विगळ मिथ्यादृष्ट्यादि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळुक्तोदयव्युच्छित्ति उदयानुदयप्रकृतिगणे संदृष्टि :
:
४५४
मि सामि अ
---
व्यु २ ४ १ ११
उ
७४ ७२६९६९ २४ ७७
अ
अनंतरं तिर्यग्गतियोदययोग्यप्रकृतिगळं पेळदपरु :
०
वंशादिषु षट् पृथ्वीषु धर्मावत् षट्सप्ततिः उदययोग्याः । अयते नारकानुपूर्योदयो नहि प्राग्बद्धनरकाकस्यापि सम्यग्दृष्टेस्वत्रानुत्पत्तेः । ततः नारकानुपूर्व्येण सह मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः द्वयम् । उदयः चतुः१५ सप्ततिः । अनुदयः सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृती । सासादने द्वयं संयोज्य अनुदयः चतस्रः । उदयः द्वासप्ततिः ।
मिश्रेऽनुदयः चतस्रः संयोज्य मिश्रप्रकृत्युदयात्सप्त, उदयः एकान्नसप्ततिः । असंयतेऽनुदयः एका संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात् सप्त । उदयः एकान्नसप्ततिः ॥ २९३ ॥ अथ तिर्यग्गतावाह -
आगे द्वितीयादि पृथिवियों में कहते हैं
वंश आदि पृथ्वियों में घर्मा के समान उदय योग्य प्रकृतियाँ छिहत्तर । किन्तु असंयत २० गुणस्थान में नरकानुपूर्वका उदय नहीं होता, क्योंकि जिसने पूर्व में नरकायुका बन्ध किया है. ऐसा सम्यग्दृष्टी भी वंशा आदिमें उत्पन्न नहीं होता । इसलिए मिध्यादृष्टी गुणस्थानमें नुपूर्वीकी व्युच्छित्ति होनेसे दोकी व्युच्छित्ति होती है और उदय चौहत्तर तथा अनुदय सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिका होता है । इन दोमें दोकी व्युच्छित्ति मिलानेसे सासादनमें अनुदय चारका और उदय बहत्तरका । सासादनमें चारकी व्युच्छित्ति में चारका २५ अनुदय जोड़ने से आठ होते हैं। इसमें से मिश्र प्रकृतिका उदय होनेसे मिश्रगुणस्थान में अनुदय सातका और उदद्य उनहत्तरका | मिश्र में एककी व्युच्छित्ति है उसमें सात मिलानेसे आठ होते हैं। इसमें से सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे असंयत में अनुदय सातका और उदय उनहत्तरका है ||२९३ ।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका तिरिए ओघो सुरणिरयाऊ उच्चमणुदुहारदुगं । ayoछक्कतित्थं णत्थि हु एमेव सामण्णे ॥ २९४॥
तिरश्चि ओघः सुरनरनरकायूंषि उच्च मनुष्यद्विकमाहारद्विकं । वैक्रियिकषट्कं तीर्थं नास्ति खलु एवमेव सामान्ये ॥!
तिर्घ्यग्गतितिथ्यंरोऴ सामान्यदिदं गुणस्थानदोलु पेदंतेयक्कु मदु कारण मागि नूरिप्पत्तेरडुदय प्रकृतिगळप्पुववरोळ देवायुष्यम् १ | मनुष्यायुष्यम् नारकायुष्यम् १ | उच्चैग्गत्रमुं मनुष्यद्विकमुं २ आहारकद्विकमु २ वैक्रियिकषट्कर्मु ६ । तीत्थंकरनामभु १ में ब पदिनहुं १ प्रकृतिगळगुदयमिल्लेक'दोडे तिर्घ्यग्गतिजरोळा पदिनै प्रकृतिगगुदयं विरुद्धमपुर्वारदमवं कळे बोडुदय योग्यप्रकृतिगळ नूरेल १०७ । सामान्यतिथ्यंचरुं पंचेंद्रियतिय्यंचरुं पय्र्याप्ततिर्घ्यचरुं योनिमतितिथ्यंचरुं लब्ध्यपर्याप्ततियंचरुमे व पंचविधतिय्यंचरोळु सामान्यतिथ्यंचरगळणे नरे प्रकृतिगळु दययोग्यंगळप्पुवु १०७ । तिर्य्यगतिजग्गे गुणस्थानपंचकमक्कुमल्लि मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानदो तिरिए ओघ ये बिदरिदं पणणवेत्यादिउदयव्युच्छित्ति गळरियल्पडुगुमप्पुदरिदं । मिथ्यादृष्टियो व्युच्छित्तिगळ ५ । उदयप्रकृतिगळु नरय्दु १०५ । अनुदयप्रकृतिगळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियु में बेरडेयक्कुं २ । सासादनगुणस्थानदोळय्दु गुडियनुदय प्रकृति गळु ७ । उदयप्रकृतिगळु नूरु १०० । उदयभ्युच्छित्तिगळो भत्तु ९ । मिश्र गुणस्थादोलो' भत्तुगूडिदनुदयप्रकृतिगळु पविना
तिर्यग्गतावोधः गुणस्थानवत् द्वाविंशत्युत्तरशतं । तत्र देवमनुष्यनरकायूंषि उच्चैर्गोत्रं मनुष्यद्विकमाहारद्विकं वैक्रियिकषट्कं तीर्थंकरत्वं चेति पंचदश न इत्युदययोग्याः सप्तोत्तरशतं । १०७ । सामान्यतिर्यक्षु एवमेव सप्तोत्तरशतमेव । गुणस्थानानि पंच । तिरियो ओघ इति पणणवेत्यादि व्युच्छित्तयः तेन मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः पंच । उदयः पंचोत्तरशतं । अनुदयः मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती । सासादने अनुदयः पंच संयोज्य सप्त ।
७४
द्वितीयादि नरक रचना
मि.
सा. मि. अ.
२ ४ १ ११ ७४ ७२ ६९
६९
२ ४ ७
७
२ ४
४५५
प्रथम नरक रचना
मि. सा. | मि. अ.
१
४ १
१२
७२ ६९ ७०
७
आगे तियंचगति में कहते हैं
तिर्यंचगति में ओघ अर्थात् गुणस्थानों की तरह उदययोग्य एक सौ बाईस में से देवायु, २० मनुष्यायु, नरकायु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, देवगति, देवानुपूर्वी तथा तीर्थंकर इन पन्द्रहका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ सात हैं ।
सामान्य तिर्यंचों में इसी प्रकार उदय योग्य प्रकृतियाँ एक सौ सात हैं। तथा गुणस्थान पाँच हैं ।
१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदय एक सौ पाँच, अनुदय दो मिश्र और सम्यक्त्व | व्युच्छित्ति पाँच ।
५
१०
१५
२५
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४५६
गो० कर्मकाण्डे रवरोळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगोळु कूडियुदयंगळोळु तिय्यंगानुपूय॑मं तेगडु अनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळु पदिनारु १६। उदयप्रकृतिगळ तोभत्तोंदु ९१ । उदयव्युच्छित्तियु मिश्रप्रकृतियों देयक्कुं १ | असंयतगुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतिगूडिदनुदयप्रकृतिगळु पदिनेलवरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं तिय्यंगानुपूर्व्यमुमं कळेदुदयप्रकृयिगळोळु कूडिदोडनुदयप्रकृति५ गळु पदिनम्दु १५ । उदयप्रकृतिगळु तोभत्तेरडु ९२। उदयव्युच्छित्तिगळु द्वितीयकषायचतुष्क,
४। तिर्यगानुपूर्व्यमुं १ । दुर्भगनाममु १ मनादेयनाममुं मयशस्कोत्तिनामभु १ मितेंटु प्रकृतिगळपुवु । ८ देशसंयतगुणस्थानदोळा येंटुगूडियनुदयप्रकृतिगळिप्पतमूरु २३। उदयप्रकृतिगळे भत्तनाल्कु ८४ । उदयव्युच्छित्तिगळु मुन्नं गुणस निदोळु पेळ्द तृतीयकषायचतुष्कमुं ४ तिर्यगायुष्य. मुमुद्योतमुं नोचैरर्गोत्रमुं तिर्यग्गतिमें.टुं प्रकृतिगळप्पुवु ८ । संदृष्टि :
सामान्य तियंच १०७ अमि | सा मि | अ दे | व्यु । ५ । ९ १ ८ ८
१०५ १०० ९१ ९२ / ८४ |
| अ २ | ७ | १६ | १५ | २३ | ___ अनंतरं पंचेंद्रिय तिय्यंचरोळं तत्पर्याप्तकरोळं पेळ्दपरु :
उदयः शतं । व्युच्छित्तिनव । मिश्रगुणस्यानेऽनुदयः नव तिर्यगानुपूयं च संयोज्य सम्यग्मिथ्यात्त्रोदयात् षोडश । उदयः एकनवतिः । व्युच्छित्तिरेका । असंयतेऽनुदयः मिश्रं संयोज्य सम्यक्त्वतिर्यगानुपूर्योदयात् पंचदश । उदयः द्वानवतिः। व्युच्छित्तिः द्वितीयकषायचतुष्कतिर्यगानुपूर्व्यदुर्भगानादेयायशस्कीर्तयोऽष्टौ। देशसंयते
अनुदयः अष्टो संयोज्य त्रयोविंशतिः । उदयः चतुरशीतिः । व्युच्छित्तिः गुणस्थानोक्ता अष्टौ ।। २९४ ॥ अथ १५ पंचेंद्रियतत्पर्याप्तकयोराह
२. मिथ्यादृष्टिके अनुदय और व्यच्छित्तिको मिलानेसे सासादनमें अनुदय सात, उदय सौ, ब्युच्छित्ति नौ।
३. सासादनके अनुदय और व्युच्छित्तिको मिलानेसे सोलहमें तिथंचानपूर्वीको मिलानेसे तथा सम्यग्मिथ्यात्वका उदय होनेसे मिश्रमें अनुदय सोलह । उदय इक्यानबे । २० व्युच्छित्ति एक।
४. मिश्रमें अनुदय सोलह और व्युच्छित्ति एकको मिलानेसे सतरहमें-से सम्यक्त्व प्रकृति और तिय चानपूर्वीका उदय होनेसे असंयतमें अनुदय पन्द्रह । उदय बानवें । व्युच्छित्ति अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, तियेचानु, दुभंग, अनादेय, अयशस्कीति इन आठ की।
__५. असंयतके अनुदय पन्द्रह और व्युच्छित्ति आठको जोड़नेसे देश संयतमें तेईसका २५ अनदय । उदय चौरासी। व्यच्छिति पंचम गुणस्थानमें कहीं आठ ।।२९४॥
अब पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पर्याप्तक तिर्यंचोंमें कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका थावरदुगसाहारणताविगिविगलूण ताणि पंचक्खे ।
इत्थि अपज्जत्तूणा ते पुण्णे उदयपयडीओ ॥२९५॥ स्थावरद्वयसाधारणातपैकविकलोनानि तानि पंचाक्षे । स्व्यपर्याप्तोनानि तानि पूणे उदयप्रकृतयः॥
स्थावरसूक्ष्मद्वयमुं २ । साधारणशरीरनाममुं १ । आतपनाममुं१। येकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रोंद्रिय ५ चतुरिद्रियजातिनामचतुष्टयमु ४ मितेंटु प्रकृतिळिंदमूनितमप्पमुं पेळ्द सामान्यतिर्यंचरुगळगुदययोग्यंगळु नूरेळं प्रकृतिगळे पंचेंद्रियतिथ्यंचरुगळगुदययोग्यप्रकृतिगळु तो भत्तो भत्तप्पवु । ९९ ॥ अल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ मिथ्यात्वमुमपर्याप्तनाममुमेरडुमुदयब्युच्छित्तिगळु २। उदयप्रकृतिगळु तों भत्तेळु ९७ । मिश्रप्रकृतियं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेंबेरडुमनुदय प्रकृतिगळप्पुवु २। सासादनगुणस्थानदोलुदयव्युच्छित्तिगळनंतानुबंधिचतुष्कमक्कुं ४ । उदय प्रकृतिगळ तो भत्तय्दु ९५। १० एरडुगूडिदनुदय प्रकृतिगळु नाल्कु ४ । मिश्रगुणस्थानदो मिश्रप्रकृतियो देयुक्यव्युच्छित्तियक्कु १। मुदयप्रकृतिगळु तो भत्तोंदु ९१ । नाल्कुगूडियनुदयप्रकृतिगळेंटु ८ । असंयतगुणस्थानदोळ दय. व्युच्छित्तिाळेटु ८ । ओ दुगूडियनुदयप्रकृतिगळो भतरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियुमं तिर्यगानुपूर्व्यमुमं कळे दुदयदोळ कडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळे ७। उदयप्रकृतिगळ तो भत्तेरडु ९२ । देशसंयत. गुणस्थानदोळ दयव्युच्छित्तिगटु ८। अनुवयंगळे टुगूडि पदिनय्दु १५। उदयप्रकृतिगळे भत्त १५ नाल्कु ८४ । संदृष्टि :
स्थावरसूक्ष्मसाधारणातपैकेंद्रियद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियोनसामान्धतिर्यगुक्ताः पंचेंद्रियतिरश्चि उदययोग्याः एकोनशतं । तत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः मिथ्यात्वापर्याप्तं २ उदाः सप्तनवतिः । अनुदयः मित्रसम्यक्त्वप्रकृती। सासादने व्युच्छित्तिरनंतानुबंधिचतुष्कं । उदयः पंचनवतिः । द्वयं संयोज्य अनुदयः चतस्रः । मिश्रे मिश्रं व्युच्छित्तिः । उदयः एकनवतिः, चतस्रः संयोज्य अनुदयोऽष्टौ । असंयते व्युच्छित्तिः अष्टौ एकां २० निक्षिप्यानुदयः सम्यक्त्वतिर्यगानुपर्योदयात्सप्त । उदयः द्वानवतिः । देशसंयते व्युच्छित्तिरष्टौ, अनुदयः अष्टौ
सामान्य तियेचके उदय योग्य एक सौ सातमें-से स्थावर, सूक्ष्म, सधारण, आतप, एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियको घटानेपर पंचेन्द्रिय तियच में उदय योग्य निन्यानबे ९९ हैं। उनमें-से
१. मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति दो, मिथ्यात्व और अपर्याप्त | उदय सत्तानबे । अनुदय दो २५ मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति ।
२. मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति दो और अनुदय दोको मिलानेसे सासादनमें अनुदय चार । उदय पंचानबें। व्यच्छित्ति अनन्तानुबन्धी चार ।
३. सासादनमें अनुदय चार और व्युच्छित्ति चारको मिलाने से तथा मिश्र प्रकृतिका उदय और तिर्यंचानुपूर्वीका अनुदय होनेसे मिश्रमें अनुदय आठ। उदय इक्यानबे। व्युच्छित्ति ३० एक मिश्रप्रकृति की।
४. मिश्रमें अनुदय आठ और व्युच्छित्ति एकको मिलानेसे नौ हुए । उनमें-से सम्यक्त्व और तियंचानुपूर्वीका उदय होनेसे असंयतमें अनुदय सात । उदय बानबे । व्युच्छित्ति आठ। Jain Education Interna c
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गो० कर्मकाण्डे
पंचेंद्रिय ९९
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स्त्रीवेदमु १ मपर्याप्तमुं १ रहितमप्प पंचेंद्रिययोग्यप्रकृतिगळे पर्याप्त पंचेंद्रियोदययोग्यप्रकृतिगळु तो भत्ते ९७ । अल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदो क्रुदयव्युच्छिसिमिध्यात्वप्रकृतियों देवकुं १ | अनुदयप्रकृति सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुमरडप्पुवु २ । उदयप्रकृतिगळ, तो भत्त ९५ । सासादन गुणस्थानदोदयव्युच्छित्तिगळनंतानुबंधिकषाय चतुष्कमे ४ यवकुं । ओं दुगूडिदनदय ५ प्रकृतिगळ, मूरु ३ । उदयप्रकृतिगळ, तो भत्तनात्कु ९४ । मिश्रगुणस्थानदोळ दयव्युच्छित्ति मिश्रप्रकृतियों देवकुं १ | नालकुगू डिदनुदयप्रकृतिगळे करोल, मिश्रप्रकृतियं कळ दुदयप्रकृतिगळोल कूडियुदय प्रकृतिगलोलु तिर्य्यगानुपूर्व्यमं कलेदनुदय प्रकृतिगलोलु कूडुतं विरलनुदय प्रकृतिगलेलु ७ । उदयप्रकृतिगलु तो भत्तु ९० । असंयतगुणस्थान दोलुदयव्युच्छित्तिगले टु ८ । ओ दुगू दिनुदयप्रकृतिगलें टरोलु सम्यक्त्व प्रकृतियुगं तिर्य्यगानुपूर्यं मं कलेदुदयप्रकृतिगलोलु कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगलारु ६ । उदयप्रकृतिगलु तो भत्तो हु ९१ । देश संयत गुणस्थान दोलुदयव्युच्छित्तिगलें टु ८ ।
४ ८
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८ ८
९५ ९१ ९२ ८४
१५
निक्षिप्य पंचदश, उदयश्चतुरशीतिः ।
स्त्री वेदार्या सोनपंचेंद्रिय तिर्यगुक्तास्तत्पर्याप्तस्य उदययोग्याः सप्तनवतिः । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्ति: मिथ्यात्वं । अनुदयः सम्यक्त्वमिश्रप्रकृती । उदयः पंचनवतिः । सासादने व्युच्छित्तिरनंतानुबंचिचतुष्कं । एक संयोज्य अनुदयस्तिस्रः । उदयश्चतुर्नवतिः । मिश्रे व्युच्छित्तिः मिश्रं । अनुदयः चतुष्कं तिर्यगानुपूर्व्यं च संयोज्य मिश्रोदयात् सुत । उदयः नवतिः । असंयते व्युच्छित्तिः अष्टौ । अनुदयः एकां संयोज्य सम्यक्त्वतियंगानुपूर्योदयात् षट्, उदयः एकनवतिः । देशसंयते व्युच्छित्तिः अष्टौ । अनुदयः अष्ठौ संयोज्य चतुर्दश ।
५. असंयतके अनुदय सात और व्युच्छित्ति आठको मिलानेसे देशसंयत में अनुदय पन्द्रह | उदय चौरासी । व्युच्छित्ति आठ ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचके उदय योग्य निन्यानबे में से स्त्रीवेद और अपर्याप्तको घटानेपर पंचेन्द्रियपर्याप्त तिर्यंचके उदय योग्य सत्तानवे ।
१. मिथ्यादृष्टि में व्यच्छित्ति एक मिथ्यात्व । अनुदय दो सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति उदय पंचानवे ।
२. सासादन में अनुदय तीन । व्युच्छित्ति अनन्तानुबन्धी चतुष्क । उदय चौरानवे । ३. सासादनके अनुदय तीनमें उसकी व्युच्छित्ति चारको मिलानेसे तथा उसमें तिचानुपूर्वीको जोड़ने और मिश्र के उदय में आनेसे मिश्रगुणस्थान में अनुदय सात । उद्य । व्युच्छित्ति एक मिश्र की ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एंटु गूडियनुदयप्रकृतिगलु पदिनाल्कु १४ । उदयप्रकृतिगलग्भत्तमूरु ८३ । संदृष्टि :
पर्याप्तपंचेंद्रिय ९७
०मि सा | मि व्युच्छि
उदी
~~~
पुंसंदूणिस्थिजुदा जोणिणिए अविरदे ण तिरियाणू ।
पुण्णिदरे थी थीणति परघाददु पुण्णउज्जोवं ॥२९६॥ पुंषंढोनस्त्रीयुताः योनिमत्यामविरते न तिर्यगानुपूयं पूर्णेतरस्मिन् स्त्री स्त्यानगृद्धित्रय ५ परघातद्वय पूर्णोद्योतं ॥
योनिमतितियंचरोदययोग्यप्रकृतिगळु पंचेंद्रियपर्याप्ततियंचरुगळ योग्य प्रकृतिगळ तो भत्तेळरोळु पुवेदमुमं षंढवेदमुमं कळेदु स्त्रीवेदमुमं कूडुत्तं विरलु तो भत्तारु प्रकृतिगळप्पुवु ९६। अल्लि मिश्यावृष्टिगुणस्थानदोळुदयव्युच्छिति मिथ्यात्वप्रकृतियों देयकुं १। सासादननोळ दयव्युच्छित्तियनंतानुबंधिचतुष्टयमुं ४ तिय्यंगानुपूर्व्य, कूडियय्दप्पुवु । ५। एक दोडे १० जोणिणिए अविरदे ण तिरियाणू एंदु तिय्यंगानुपूठव्यं सासादननोले व्युच्छित्तियागलुवेळकुमप्पुदरिदं । मिश्रनोळुदयम्युच्छित्ति मिश्रप्रकृतियों देयकुं १। असंयतननोळु व्युच्छित्तिगळु उदयस्यशीतिः ॥ २९५ ॥
___ योनिमत्तियक्षु उदययोग्याः पंचेंद्रियपर्याप्तोक्तसप्तनवत्यां पुषंढवेदावपनीय स्त्रोवेदे निक्षिप्ते षण्णवतिभवति । तत्र व्युच्छित्तयः मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं तिर्यगानुपूज्यं चेति पंच । १५ कुतः ? अविरदे णतिरियाण्वित्युक्तत्वात् । मिश्रे-मित्रं । असंयते तिर्यगानुाभावात् सप्त । देशसंयते गुण
४. मिश्रके अनुदय सात और व्युच्छित्ति एकको मिलानेसे आठ में-से सम्यक्त्व और तिर्यंचानुपूर्वी का उदय होनेसे असंयतमें अनुदय छह । उदय इक्यानबे । व्युच्छित्ति आठ।
५. असंयतके अनुदय छह में उसकी व्युच्छित्ति आठ जोड़नेसे देशसंयतमें अनुदय चौदह । उदय तेरासी । व्युच्छिति आठ ।।२९५।।
पंचेन्द्रिय पर्याप्तके उदययोग्य सत्तानबेमें-से पुरुष वेद और नपुंसक वेदको घटाकर स्त्रीवेदको जोड़नेसे योनिमत तियंचमें उदय योग्य छियानबे होती हैं। उनमें से ।
१. मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति मिथ्यात्वकी। अनुदय दो सम्यक्त्व और मिश्र । उदय चौरानबे।
२. सासादनमें अनुदय तीन । उदय तिरानबे । व्युच्छित्ति पाँच अनन्तानुवन्धी चार २५
२०
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गो० कर्मकाण्डे
५
तिर्य्यगानुपूर्व्यरहितमपुर्दारदमेळ प्रकृतिगळप्पु ७ ॥ देश संयतनोऴदय०युच्छित्तिगळु त गुणस्थानदो पेटे प्रकृतिगळवु ८ ॥ यितु व्युच्छित्तिगळरियल्पडुत्तं विरलु योनिमति तिरश्चि मिध्यादृष्टियोळानुदयप्रकृतिगळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्व प्रकृतियुक्कु २ । उदयप्रकृतिगळु तो भरूनात्कु ९४ । सासादनगुणस्थानदोळ ओ बुंगूडियनुदयप्रकृतिगळ, मूरु ३ । उदयप्रकृतिगळु तोभतमूरु ९३ । मिश्रगुणस्थानदोळय् बुगू डियनुदयप्रकृतिगळे टरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगळोळ कूडुतं विरलनुदयप्रकृतिगळे ७ । उदयप्रकृतिगळभत्तो भत्तु ८९ । असंयतंगुणस्थानदोळो दुगू डियनुदय प्रकृतिगळे टळु सम्यक्त्व प्रकृतियं कले दुदयप्रकृतिगलोलु कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगलेलु ७। उपदप्रकृतिगळेण्भत्तो भत्तु ८९ । देशसंयत गुणस्थानवोळेळ गूडियनुदयप्रकृतिगलु पदिनाकु १४ । उदय प्रकृतिगलेण्भत्तेरडु ८२ । संदृष्टि :
योनिमत्तिय्यंच ९६
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९४ ९३ ८९
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पूर्णेतरस्मिन् लब्ध्यपर्य्याप्तपंचेद्रियतिर्यंचरोळुदययोग्यप्रकृतिगळ, योनिमतितिरश्चियोळु पेदुदययोग्यप्रकृतिगळ्तो भत्ताररोळ स्त्रीवेदमुमं स्त्यानगृद्धित्रितयमुमं परघातनाममुमुच्छ्वासस्थानोक्ता अष्टौ । एवं सति मिथ्यादृष्टावनुदयः मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती । उदयः चतुर्नवतिः । सासादनेऽनुदयः एकां संयोज्य तिस्रः । उदयस्त्रिनवतिः । मिश्रेऽनुदयः पंच संयोज्य मिश्रोदयात् सप्त । उदयः एकान्ननवतिः । असंयतेऽनुदयः एका संयोज्य सम्यक्त्वोदयात्सप्त । उदयः एकान्ननवतिः । देशसंयतेऽनुदयः सप्त संयोज्य चतुर्दश, उदयो द्वयशीतिः ।
८
लब्ध्यपर्याप्तपंचेंद्रियतिरश्चि उदययोग्या योनिमत्तिर्यगुक्तषण्णवत्यां स्त्रीवेदः स्त्यानगृद्धित्रयं परघातः और तिर्यचानुपूर्वी । क्योंकि पूर्व में कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टी मरकर स्त्रीतिर्यंच नहीं होता ।
३. सासादनके अनुदय तीनमें उसकी व्युच्छित्ति पाँच मिलानेसे आउमें-से मिश्रका उदय होनेसे मिश्रमें अनुदय सात । व्युच्छिति एक मिश्र । उदय नवासी ।
४. असंयत में अनुदय सात; क्योंकि मिश्र अनुदयमें गयी और सम्यक्त्व प्रकृति उदय मैं आ गयी । उदय नवासी । तियंचानुपूर्वीके न होनेसे व्युच्छिति सात ।
५. असंयतके अनुदये सात में उसकी व्युच्छित्ति सात जोडले देशसंयतमें अनुदय २५ चौदह । उदय बयासी । व्युच्छित्ति आठ ।
योनिमत तिर्यंचके उदययोग्य छियानबे में स्त्रीवेद, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त, उद्योत, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, यशस्कीर्ति,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाममुमं पर्याप्तनाममुमं उद्योतनाममुमं ॥
सरगदिदु जसादेज्ज आदीसंठाणसंहदी पणगं ।
सुभगं सम्मं मिस्सं हीणा तेअपुण्णसंढजुदा ॥२६७। स्वरगतिद्वयं यशस्कादेयमाद्यसंस्थानसंहननपंचकं सुभगं सम्यक्त्वं मित्रं होनास्ताः . अपूर्णषंढयुताः॥
सुस्वरदुस्वरद्वयमुं २ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयमुं २ यशस्कोत्तियु१ आदेयनाममुं १ आद्यसंस्थानपंचकमुं ५ आद्यसंहननपंचकमुं ५ सुभगनाममुं १ सम्यक्त्वप्रेकृतियु१ मिश्रप्रकृलियु १ मितिप्पत्तेळ २७ प्रकृतिगळ कळ दपर्याप्तनाममुमं पंढवेदमुमं कूडुत्तं विरलेप्पत्तोंदु प्रकृतिगळ दययोग्यंगळप्पु ७१ वेक दोडे लब्ध्यपर्याप्तकजीवनोळी कळ द- प्रकृतिगळ दययोग्यंगळल्लप्पुरिदं। लब्ध्यपर्याप्तजीवंगळनितुं मिथ्यादृष्टिगळे यप्पुरिदमा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमो दे- १० यक्कुं। अनंतरं मनुष्यगतियोळुदययोग्यप्रकृतिगळ पेळ्दपरु :
मणुवे ओघो थावर-तिरियादावदुग-एयवियलिंदी ।
साहरणिदराउतियं वेगुब्बियछक्क परिहीणो ।।२९८॥ मानवे ओघः स्थावरतियंगातपद्वयकविकलेंद्रियसाधारणेतरायुस्त्रितयं वैक्रियिकषट्क- १५ परिहीनः॥
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm उच्छ्वासः पर्याप्त उद्योतः ॥ २९६ ॥
सुस्वरदुःस्बरद्वयं प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती यशस्कोतिः आदेयं आद्यपंचसंस्थानपंचसंहनानि सुभगं सम्यक्त्वमिश्रप्रकृती चेति सप्तविंशतिमपनीय अपर्याप्तषटकवेदयोनिक्षेपे एकसप्ततिः उदययोग्या भवति । गुणस्थानमाद्यमेव ॥ २९७ ॥ मनुष्यगतावाह
२०
आदेय, आदिके पाँच संस्थान, आदिके पाँच संहनन, सुभग, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्रप्रकृति, ये सत्ताईस घटाकर अपर्याप्त और नपुंसक वेद मिलानेसे उदययोग्य इकहत्तर होती हैं। गुणस्थान एक प्रथम ही होता है ॥२९६-२९७।।
सामान्य तिथंच रचना १०७ पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच ९७ योनिमती तिथंच रचना ९६ | मि. सा. मि. अ_ दे. || मि. सा. मि. अ. दे. | मि. सा| मि. अ. दे.
|१०५ १०० ९१ ९२८४९५ ९४ | ९० / ९१ ८३ | | ९४ ९३/८९८९८२
आगे मनुष्यगतिमें कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे मनुष्यगतियोळ मनुष्यरं चतुम्विधमप्परल्लि सामान्यमनुष्यरोळ दययोग्यप्रकृतिगळ, सामान्योदयप्रकृतिगळ नूरिप्पत्तरडरोळ १२२ स्थावरद्वयघु २ तिर्यग्गतिद्वयमुं २ आतपद्वितयमुं २ एकेंद्रिय द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियजातिचतुष्कर्मु ४ साधारणशरीरनाममुं १ नरकतिग्देवाय ध्यबितरायुस्त्रितयमु३। वैक्रियिकषट्कमु ६ में वी विंशतिप्रकृतिगळ २० कळेद शेषप्रकृतिगळ नूरेरडप्पु १०२ वल्लि :
मिच्छमपुण्णं छेदो अणमिस्सं मिच्छगादितिसु अयदे ।
बिदियकसायणराणू दुब्मगअणादेज्ज अज्जसयं ॥२९९। मिथ्यात्वमपूर्ण छेदोऽनंतानुबंधिमिश्रं मिथ्यादित्रिषु असंयते । द्वितीयकषायनरानुपूर्व्य दुर्भगानादेयायशस्कोत्तिः ॥
मिथ्यादृष्टिगुणस्यानदोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुभपर्याप्तनाममुमें बेरडु छेदः व्युच्छित्तियक्कु सासादननोळ अनंतानुबंधिकषायचतुष्कं छेदमकुं । मिश्रनोळ मिश्रप्रकृतियों दे छेदमक्कु १। मितु मिथ्यादृष्टयादि मुरुगुणस्थानंगळोळ छेदमरियल्पडुगुमसंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्कर्मु ४ मनुष्यानुपूर्व्यमुं १ दुर्भगनाममुं १ अनादेयनाममु१ अयशस्कोत्तिनाममु १ मितेंटु प्रकृतिगळ छेदमक्कु ॥
देसे तदियकसाया णीचं एमेव मणुससामण्णे।
पज्जत्तेवि य इत्थीवेदापज्जत्तपरिहीणो ॥३०॥ देशवते तृतीयकषाया नीचमेवमेव मनुष्यसामान्ये । पर्याप्तेपि च स्त्रोवेदाऽपर्याप्त परिहीनं ॥
१५
मनुष्याश्चतुर्विधाः तत्र सामान्यमनुष्ये उदययोग्या: सामान्योदयप्रकृतिषु १२२ स्थावरद्वयं तिर्यग्गति२० द्वयं आतपद्वयं एकेंद्रियादिजातिचतुष्कं साधारणशरीरं नरकतिर्यग्देवायूंषि वैक्रियिकषटकं चेति विंशतिमपनीय शेषद्वयुत्तरशतं १०२ ॥ २९८ ॥ तत्र
मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वमपर्याप्तं चेति द्वयं व्युच्छित्तिः । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं मिश्रे मिश्रप्रकृतिः । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं मनुष्यानुपूयं दुर्भगमनादेयमयशस्कोतिश्चेत्यष्टौ ।। २९९ ।।
मनुष्यके चार भेद हैं । उनमें सामान्य मनुष्यमें उदय योग्य सामान्य उदय प्रकृति २५ १२२ में-से स्थावर सूक्ष्म, तियंचगति, तिथंचानुपूर्वी, आतप उद्योत, एकेन्द्रिय आदि चार
जाति, साधारण शरीर, नरकायु, तिथंचायु, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, देवगति देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग ये बीस घटानेपर शेष एक सौ दो उदय योग्य है ।।२९८॥
तहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्व और अपर्याप्त दोकी व्युच्छित्ति होती है ।
सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार की, मिश्र मिश्रमोहनीय की, असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, मनुष्यानुपूर्वी, दुभंग, अनादेय अयशस्कीर्ति इन आठकी व्युच्छित्ति होती है ॥२९९॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देशसंयतनोळ तृतीयकषायचतुष्क ४ मुनोचैग्र्गोत्रम् १ में बय्दु प्रकृतिग छेदमक्कु ५। मेले प्रमत्तसंयतम्बोंदलगोंडु ई प्रकारदिदं सामान्यमनुष्यरोलु छेदमयोगिकेलिभट्टारकपय्यंतमरितल्पडुगुं। संदृष्टि:
____सामान्यमनुष्ययोग्याः १०२ ॥ ० मि | सा मि अ. दे। प्र अ अ म सूउ क्षीस ! अ |
५ ४६६ १२ १६ | ३० १२ उ ९७ ९५ ९१ ९२ ८४ ८५। ७६ ७२६६६० ५९ ५७ ४२ १२ | अ ५।७१ १०। १८२१ | २६ ३० ३६४२ ४३ ४५ ६० २०
इल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियु आहारकद्वयमुं २ ५ तीर्थकरनाममुमदुमनुदयप्रकृतिगळप्पुवु ५ । उदयप्रकृतिगळ तो भत्तेळ, ९७ । सासादनगुणस्थानदो एरडुगूडियनुदयप्रकृतिगळेळ ७। उदयंगळ ९५ तो भत्तय्दु । मिश्रगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडिदनुदयप्रकृतिग पन्नों दरोळ मिश्रप्रकृतियं कलेदुदयप्रकृतिगळो कूडिमनुष्यानुपूर्व्यमनुदयप्रकृतिगळोळ कलेदनुदयंगळोळ कूडुत्तविरलनुदयप्रकृतिगळ पन्नों दु ११ । उदयप्रकृतिगळुतो भत्तो दु९१। असंयत गुणस्थानदोळो दु गूडियनुदयप्रकृतिगळ पन्नेरडरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियुमं- १० मनुष्यानुपूर्व्यमुमं कळेदुदयप्रकृतिगळो कूडुत्त विरलनुदयप्रकृतिगळु पत्तु १०। उदयप्रकृतिगळुतो भत्तेरडु ९२ । देशसंयतगुणस्थानदो दुगुडियनुदयप्रकृतिगळु पदिने टु १८ । उदयप्रकृति
देशसंयते तृतीयकषायचतुष्कं नीचर्गोत्रं चेति पंच । उपरि प्रमत्तादिषु 'पंच य, च उरछकाछच्चेव इगिदुगोल सतीसंवारसेति' प्रागुक्त एय छेदो ज्ञातव्यः । तत्र मिथ्यादृष्टौ अनुदयः मिथसम्यात्वाहारकद्वयतीर्थकरत्वानि ५, उदयः सप्तनवतिः । सासादने द्वे मिलित्वा अनुदयः सप्त । उदयः पंचनवतिः । मिथे अनुदयः १५ चतुष्कं मनुष्यानुपूयं च मिलित्वा मिश्रोदयादेकादश । उदयः एकनवतिः । असंयते अनुदयः एक मिलित्वा सम्यक्त्वप्रकृतिमनुष्यानुपूर्योदयाद् दश । उदयः दानवतिः । देशसंयते अष्टौ संयोज्य अनुदयः अष्टादश उदयश्च
_ देशसंयत में तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय चार और नीचगोत्रकी व्युच्छित्ति होती है। आगे प्रमत्तादिमें पूर्व में कही व्युच्छित्ति जानना।
१. मिथ्यादृष्टि में अनुदय मिश्रप्रकृति, सम्यक्त्व प्रकृति, आहारक शरीर, आहारक २० । अंगोपांग और तीर्थकर ये पाँच । उदय सत्तानबे।
२. सासादनमें इन पाँच में दो व्युच्छत्ति मिलनेसे अनुदय सात । उदय ९५ ।
३. सासादनके अनुदय सातमें उसकी चार व्युच्छित्ति मिलानेपर ग्यारहमें मनुष्यानुपूर्वीके अनुदयमें जानेसे और मिश्रके उदयमें अपनेसे मिश्रमें अनुदय ग्यारह । उदय इक्यानबे । व्युच्छित्ति एक ।
२५ ४. मिश्रके अनुदय ग्यारहमें उसकी एक व्युच्छित्ति मिलनेसे बारहमें सम्यक्त्व प्रकृति और मनुष्यानुपूर्वीका उदय होनेसे असंयतमें अनुदय दस । उदय बानबे । व्युच्छित्ति आठ ।
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गो० कर्मकाण्डे गळेभत्तनाल्कु ८४। प्रमत्तगुणस्थानदोळु अय्दुगूडियनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तमूररोळाहारकद्वयमं कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तोंदु २१ उदयप्रकृतिगळेणभत्तोदु ८१ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळग्दुगूडियनुदयप्रकृतिगळिप्पत्ता: २६ उदयप्रकृतिगळेप्पत्तारु ७६ । अपूर्वकरण गुण
स्थानदोळु नाल्कुगूडियनुदयप्रकृतिगळु मूवत्तु ३०। उदयप्रकृतिगळु एप्पत्तरडु ७२ । अनिवृत्तिकरण५ गुणस्थानदोळारुगूडियनदयप्रकृतिगळ मुवत्तारु ३६ उदयप्रकृतिगळरुवत्तारु ६६। सूक्ष्मसांपरायगण
स्थानदोळारुगूडियनुदयप्रकृतिगळु नाल्वत्तेरडु ४२। उदयप्रकृतिगळरुवत्तु ६० । उपशांतकषायगुणस्थानवोळो दुगूडियनुदयप्रकृतिगळु नाल्वत्तमूरु ४३ । उदयप्रकृतिगळय्वत्तो भतु ५९ । क्षीणकषाय. गुणस्थानदोरडुगूडियनुदयप्रकृतिगळुनाल्वत्तग्दु ४५ । उदयप्रकृतिगळ बत्तेळ ५७। सयोगकेवलि
भट्टारकगुणस्थानदोळु पदिनारुगूडियनुदयप्रकृतिगळरुवत्तोंदरोळ तीर्थकरनाममं कळेदुदयंगळोळु १० कूडुत्तं विरलनुदयंगळरुवत्तु ६० । उदयंगळु नाल्वत्तेरडु ४२। अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थान:
दोळु मूवत्तुगूडियनुदयप्रकृतिगळ तो भत्तु ९० । उदयंगळ पन्नेरडु १२। पज्जत्तेवियपर्यापकमनुष्यरोळं स्त्रीवेदमुमनपर्याप्तनाममुमं सामान्यमनुष्ययोग्यप्रकृतिगळ, नूरेरडरोळ कळेयुत्तं विरलु शेषनूरुं प्रकृतिगळ पर्याप्तमनुष्योदययोग्यप्रकृतिगळप्युवु १००॥ अल्लि मिथ्यादृष्टि
तुरशीतिः । प्रमत्ते अनुदयः पंच संयोज्य आहारकद्वयोदयादेकविंशतिः। उदयः एकाशीतिः । अप्रमत्तेऽनुदयः १५ पंच संयोज्य षड्विशतिः । उदयः षट्सप्ततिः । अपूर्वकरणे चतस्रो मिलित्वा अनुदयस्त्रिशत् । उदयः
द्वासप्ततिः । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदयः षट्त्रिंशत् । उदयः (षट्-)षष्टिः । सूक्ष्मसापराये षट् संयोज्य अनुदयः द्वाचत्वारिंशत् । उदयः षष्टिः। उपशांतकषाये एका संयोज्य अनुदयः त्रिचत्वारिंशत् । उदयः एकान्नषष्टिः । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदयः पंचचत्वारिंशत् उदयः सप्तपंचाशत् । सयोगेनुदयः षोडश
संयोज्य तीर्थकरत्वोदयात् षष्टिः । उदयः द्वाचत्वारिंशत । अयोगे त्रिशतं संयोज्य अनुदयः नवतिः । उदयो २० द्वादश । तथा पर्याप्तमनुष्येऽपि च स्त्रीवेदापर्याप्तोनसामान्यमनुष्योक्तप्रकृतपः उदययोग्या भवंति । १०० ।
५. असंयतके अनुदय दसमें उसकी आठ व्युच्छित्ति मिलानेसे देशसंयतमें अनुदय अठारह । उदय चौरासी। व्युच्छित्ति पाँच ।
६. देशसंयतके अनुदय अठारहमें उसकी पाँच व्युच्छित्ति मिलानेसे तेईस हए । उनमेंसे आहारकद्विका उदय होनेसे प्रमत्तमें अनुदय इक्कीस । उदय इक्यासी । व्युच्छित्ति पाँच ।
७. अप्रमत्तमें अनुदय २१ + ५ - छब्बीस । उदय छिहत्तर । व्युच्छित्ति चार । ८. अपूर्वकरणमें अनुदय २६ + ४ = तीस । उदय बहत्तर । व्युच्छित्ति छह । ९. अनिवृत्तिकरणमें अनदय ३०+६= छत्तीस । उदय छियासठ । व्युच्छित्ति छह । १०. सक्ष्म साम्परायमें अनुदय ३६+६% बयालीस । उदय साठ । व्युच्छित्ति एक । ११. उपशान्तकषायमें अनुदय ४२+ १ = तेंतालीस । उदय उनसठ । व्युच्छिति दो। १२. क्षीणकषायमें अनुदय ४३+२= पैंतालीस । उदय सत्तावन । व्युच्छित्ति सोलह ।
१३. संयोगीमें अनुदय तीर्थकरका उदय होनेसे ४५+५६= ६१ -१=साठ। उदय बयालीस । व्युच्छित्ति तीस ।
१४. अयोगीमें अनुदय ६० + ३० = नब्बे । उदय बारह । व्युच्छित्ति बारह । तथा पर्याप्त मनष्यमें भी सामान्य मनुष्य में उदय योग्य । एक सौ दोमें-से स्त्रीवेद और अपर्याप्तको
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
४६५ गुणस्थानदोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों के छेदमक्कुं १। सासादननोळ नाल्के ४। मिश्रनोळो दे १ असंयतनोळेटु ८। देशसंयतनोळयदु ५। प्रमत्तसंयतनोळय्हु ५। अप्रमत्तेसंयतनोळु नाल्कु ४। अपूर्वकरणनोळारु ६ अनिवृत्तिकरणनोळय्टु ५ एक दोडे-स्त्रोवेवंकळेदुदपुरिवं मेलेल्लेडयोळं सामान्यमनुष्यनाळतंतयक्कुमितु च्छेदंगळरियल्पडुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतियु आहारद्विकमुं तोत्थंकरनाममुमित, प्रकृतिगळनुदगंगळप्पुवु ५। ५ उदयप्रकृतिगळ तो भत्तयदु ९५ । सासादनगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयप्रकृतिगळारु ६। उदयप्रकृतिगळु तो भत्तनाल्कु ९४ । मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कुगूडियनुदयप्रकृतिगळ पत्तरोळ मिश्रप्रकृतियं कळेदुवयप्रकृतिगळोळ कूडि मनुष्यानुपूय॑मनुक्यप्रकृतिगळोळु कळेवनुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळु पत्तु १०। उदयप्रकृतिगळुतों भत्तु ९०। असंयतगुणस्थानदोळ ओंडु गुडियनुवयंगळु पन्नों दरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं मनुष्यानुपूय॑ममं कळेदुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं १० विरलनुदयंगळों भत्तु ९। उदयंगळ तो भत्तोंदु ९१ । देशसंयतगुणस्थानदोळे टु गुडियनुदयप्रकृति. गळु पदिनेलु १७ । उदयंगळे भत्तमूरु ८३ । प्रमत्तसंयतनोळय्दुगुडियनुदयप्रकृतिमलिप्पत्तेरडरोळ,
तत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः मिथ्यात्वं, सासादने चतस्रः, मिथे एका, असंयते अष्टो, देशसंयते पंच, प्रमत्ते पंच, अप्रमत्ते चतस्रः, अपूर्वकरणे षट्, अनिवृत्तिकरणे पंचव स्त्रीवेदस्यापनयनात् । उपरि सर्वत्रापि सामान्यमनुष्यवत् छेदो ज्ञातव्यः । एवं सति मिथ्यादृष्टी अनुदयः मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्विकतीर्थकरत्वानि ५ । उदयः १५ पंचनवतिः । सासादने एका संयोज्य अनुदयः षट् । उदयः चतुर्नवतिः। मिश्रे अनुदयः चतुष्कं मनुष्यानुपूव्यं व मिलित्वा मिश्रप्रकृत्युदयाद्दश । उदयो नवतिः। असंयते अनुदयः एकां निक्षिप्य सम्यक्त्वप्रकृतिमनुष्यानुपूर्योदयान्नव । उदय एकनवतिः । देशसंयते अष्टौ संयोज्य अनुदयः सप्तदश । उदयस्व्यशीतिः । प्रमत्ते
घटानेपर उदययोग्य सौ । व्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, सासादनमें चार, मित्रमें एक, असंयतमें आठ, देशसंयतमें पाँच, प्रमत्तमें पाँच, अप्रमत्तमें चार, अपूर्वकरणमें २० छह, अनिवृत्तिकरणमें भी पाँच क्योंकि स्त्रीवेद उदयमें नहीं है। ऊपर सर्वत्र सामान्य मनुष्यके समान व्युच्छित्ति जानना । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में अनुदय मिश्र, सम्यक्त्व, आहारकद्विक, तीर्थंकर इन पाँचका । उदय पिचानबे । व्युच्छित्ति एक ।
२. सासादनमें अनुदय पाँच में एक मिलानेसे छह । उदय चौरानबे ।
३. मिश्रमें छहमें चार मिलानेसे तथा मिश्रके उदयमें आने और मनुष्यानुपूर्वीके अनुनयमें जानेसे अनुदय दस । उदय नब्बे ।
४. असंयतमें दसमें एक मिलानेसे तथा सम्यक्त्व प्रकृति और मनुष्यानुपूर्वोके उदयमें आनेसे अनुदय नौ । उदय इकानबे ।
५. देशसंयतमें नौमें आठ मिलानेसे अनुदय सतरह । उदय तेरासी ।
३०
१. म मत्तनोलु ४। Jain Education Internal
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४६६
गो० कर्मकाण्डे आहारकद्वयमं कळदुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तु २०। उदयप्रकृतिगळण्भत्तु ८०।
अप्रमत्तगुणस्थानदोळवु गूडियनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तनु २५ । उदयप्रकृतिगळे प्पत्तबु ७५ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तो भत्तु २९ । उदयप्रकृतिगळे प्पत्तोंतु ५ ७१ । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयप्रकृतिगळ मूवतय्दु ३५ । उदयंगळमवत्तय ६५ ।
सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळय्गूडियनुदयप्रकृतिगळ, नाल्वत्तु ४०। उदयप्रकृतिगळरुवत्तु ६०। उपशांतकषायगुणस्थानदोळो दुगूडियनुवयप्रकृतिगळु नाल्वतोवु ४१। उदयंगळय्वत्तो भत्त, ५९ । क्षीणकषायगुणस्थानदोळरडुगूडियनुदयप्रकृतिगळ. नाल्वत्तुमूर ४३। उदयंगळ यवत्तळ ५७।
सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ पदिनारडियनुदयंगळस्वत्तो भतरोळ तीर्थमं कलेनुवयबोळ १० कूडलनुदयंगळय्वत्तटु ५८। उदयंगळ नाल्वत्तरडु ४२ । अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ मूवत्तु गुड़ियनुदयंगळु एभत्ते टु ८८ । उदयंगळ पन्नेरडु १२। संदृष्टिः
पर्याप्तमनुष्ययोग्यं १००॥
उ
। ९५ ९४ | ९० / ९१ ८३९८० ७५ / ७१ ६५/६० | ५९ ५७ / ४२ | १२ ५ ६ | १०, ९ १७/२० २५ २९ ३५/ ४०४१ ४३ ५८ ८८
अ
अनुदयः पंच संयोज्य आहारकद्वयोदयाविंशतिः । उदयः अशीतिः । अप्रमत्ते पंच संयोज्य अनुदयः पंचविंशतिः। उदयः पंचसप्ततिः। अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्य अनुदयः एकान्नत्रिंशत् । उदयः एकसप्ततिः । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदयः पंचत्रिंशत् । उदयः पंचषष्टिः । सूक्ष्मसांपराये पंच संयोज्य: अनुदयः चत्वारिंशत् । उदयः षष्टिः । उपशांतकषाये एका संयोज्य अनुदयः एकचत्वारिंशत् । उदय; एकान्नषष्टिः । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदयः त्रिचत्वारिंशत् । उदयः सप्तपंचाशत् । सयोगे अनुदयः षोडश संयोज्य तीर्थोदयादष्टापंचाशत् । उदयः द्वाचत्वारिंशत् । अयोगे त्रिशतं संयोज्य अनुदयः- अष्टाशीतिः, उदयो द्वादश ।। ३०० ।।
६. प्रमत्तमें पाँच मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय बीस । उदय अस्सी। व्युच्छित्ति पाँच।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय पच्चीस । उदय पिचहत्तर । व्युच्छित्ति चार । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय उनतीस । उदय इकहतर । व्युच्छित्ति छह । ९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय पैंतीस । उदय पैंसठा म्युच्छित्ति पाँच । १०. सूक्ष्म साम्परायमें पाँच मिलाकर अनुदय चालीस । उदय साठ । व्युच्छित्ति एक ! ११. उपशान्त कषायमें एक मिलाकर अनुदय इकतालीस। उदय उनसठ । व्युच्छित्ति दो।
२५
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
૪૬૭ मणुसिणि एत्थीसहिदा तित्थयराहारपुरिससंदणा।
पुण्णिदरेव अपण्णे सगाणुगदिआउगं णेयं ॥३०१॥ मनुष्यां स्त्रीसहितास्तीर्थकराहारपुरुषषंढोनाः । पूर्णेतर इव अपूर्णे स्वानुपू०व्यंगत्यायुर्जेयं॥
मानुषियोळुदययोग्यप्रकृतिगळु तो भतारप्पुर्वते दोडे पर्याप्तमनुष्यनोलु पेन्दुदययोग्यप्रकृतिगळ्नूररोळ स्त्रीवेदमुं कूडि तीर्थकरनाममुमनाहारकद्वयमुमं पुरुषवेदमुमं षंढवेदमुमनितय्दु ५ प्रकृतिगळं कळेदोडे तावन्मात्रमयप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टियोदयच्छेदं मिथ्यात्वप्रकृतियों देयक्कुं १। सासादननोळनंतानुबंधिचतुष्टयमुमसंयतनोळ मनुष्यानुपूर्योदयमिल्लप्पुदरिनविल्लि व्युच्छित्तियक्कुमंतग्दु ५। मिश्रनोळ मिश्रप्रकृतियों के छेदमक्कु-१। मसंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्टयमुं ४ दुर्भगमुमनादेयमुमयशस्कोत्तियुमितेळ, प्रकृतिगढ दयच्छेदमकुं।७। देशसंयतनोळ तृतीयकषायचतुष्कमुं ४ नोचैगर्गोत्रमुर्मितम्, प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियेप्पुवु । ५। १०
____ मानुष्युदययोग्यप्रकृतयः षण्णवतिः पर्याप्तमनुष्योक्तशते स्त्रीवेदं निक्षिप्य तीर्थकरत्वाहारकद्वयपुंषंढवेदानामपनयनात् । तत्र मिथ्यादृष्टी उदयव्युच्छेदो मिथ्यात्वं । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं मनुष्यानुपूव्यं च असंयतेऽनुदयात् । मिश्रे मिश्रप्रकृतिः । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कदुभंगानादेयायशस्कीर्तयः । देशसंयते तृतीयकषायचतुष्कं नीचर्गोत्रं च । प्रमत्ते स्त्यानगृद्धित्रयमेव । अप्रमत्तापूर्वकरणयोः गुणस्थानवत् चतुःषट् । अनिवृत्तिकरणभागभागेषु क्रमेण स्त्रीवेदसंज्वलनक्रोधमानमायाः । सूक्ष्मसांपराये सूक्ष्मलोभः । उपशांतकषाये वज्रनाराचं नाराचं । क्षीणकषाये षोडश । सयोगे त्रिंशत् । अयोगे तीर्थकृत्त्वाभावात् एकादश । एवं सति मिथ्यादृष्टी - १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय तैतालीस । उदय सत्तावन । व्युच्छित्ति सोलह ।
१३. सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय अंठावन । उदय बयालीस । व्युच्छित्ति तीस ।
१४. अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय अठासी । उदय बारह ।।३००॥
मानुषीके उदययोग्य प्रकृतियाँ छियानवे । क्योंकि पर्याप्त मनुष्यके कही गयी सौ प्रकृतियोंमें-से तीर्थंकर, आहारकद्विक, पुरुषवेद और नपुंसकवेद घटाकर स्त्रीवेद मिलानेसे छियानवे होती हैं । उसमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वको उदय व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मनुष्यानुपूर्वी की व्युच्छित्ति होती है, क्योंकि यहाँ असंयतके मनुष्यानुपूर्वीका उदय नहीं होता। मिश्रमें मिश्र प्रकृतिकी व्युच्छित्ति होती है। असंयतमें २५ दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति । देशसंयतमें तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और नीच गोत्र । प्रमत्तमें स्त्यानगृद्धि आदि तीन । अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें गुणस्थानोंकी तरह चार और छह । अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें स्त्रीवेद और अवेदभागमें संज्वलन क्रोध मान माया ।
सूक्ष्म साम्परायमें सूक्ष्म लोभ । उपशान्त कषायमें वज्रनाराच नाराच । क्षीणकषायमें सोलह । सयोगीमें तीस और तीर्थकरका अभाव होनेसे अयोगीमें ग्यारह । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टिमें अनुदय मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका । उदय चौरानबे ।
२. सासादनमें एक मिलानेसे अनुदय तीन । उदय तिरानबे । व्युच्छित्ति पाँच । १. मगलेयप्पु । २. मत्तिगलु ५ ।
२०
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गो० कर्मकाण्डे प्रमत्तसंयतनोळ, स्त्यानगृद्धि त्रयमेयुदयव्युच्छित्तियक्कु-३ । मप्रमत्तनोळमपूर्वकरणनोळं गुण. स्थानदोळपेन्द नाल्कु ४ मारु ६ मुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु। अनिवृत्तिकरणन भागभागे गळोळु स्त्रीवेदमुं १ संज्वलनक्रोधमुं १ संज्वलनमानमुं १ संज्वलनमाययुमितु नाल्डं ४ प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियप्पुवु। सूक्ष्मसांपरायनोळ सूक्ष्मलोभमोदे व्युच्छित्तियक्कु १ मुपशांतकषायनोळ, वज्रनाराचनाराचशरीरसंहननद्वितयमुदयव्युच्छित्तियक्कुं२।।
__ क्षीणकषायनोळु गुणस्थानदोपळ्द निद्रेयु १ प्रचलेयु१ज्ञानावरणपंचकेमु ५ मंतराय. पंचकमुं ५ दर्शनावरणचतुष्टयमु ४ मिन्तु पदिनाएं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्ति गळप्पुवु १६ । सयोगिकेवलिभट्टारकनोळु गुणस्थानदोळपेळ्द ३० मूवत्तुं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । ३० । अयोगि
केवलिभट्टारकनोळन्यतरवेदनीयादि पन्नोंदु प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तिगळप्यु ११ वे दोडे मानुषि१. योळ तीर्थोदयमिल्लप्पुरिदं । यितुदयम्युच्छित्तिगळरियल्पडुत्तं विरलल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान
दोळु मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतियुमेरडुमनुदयंगळु २। उदयंगळ तो भत्त नाल्कु प्रकृतिगळु, ९४। सासादनगुणस्थानदोळों दुगूडियनुदयंगळु मूरु ३। उदयंगळुतोंभत्तुमूरु ९३ । मिश्रगुणस्थानदोळु अदुगूडियनुदयप्रकृतिगळेटरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयदोळ कूडुत्तं विरलनुदय. प्रकृतिगळेळु ७ उदयप्रकृतिगळेणभत्तोंभतु ८९ । असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळेटरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियं कलेदुदयंगलोलु कूडुत्तं विरलनुदयंगलेलु ७ उदयंगलेभत्तो भत्तु ८९ । देशसंयतगुणस्थानदोलेलुगूडियनुदयप्रकृतिगळ पदिनाल्कु १४ । उदयंगलमत्तरडु ८२। प्रमत्तगुणस्थानदोळदुगूडियनुदयंगळो दुगुंदिप्पतु १९ । उदयंगलप्पत्ते लु ७७ । अप्रमत्तगुणस्थानदोलु मुरुगूडियनुदयंगळिप्पत्तरडु २२। उदयंगळेप्पत्तनाल्कु-७४ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयं
गलिष्पत्तारु २६ । उदयंगळेप्पत्त ७० । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळ. मूवते. २० अनुदयः मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती। उदयः चतुर्नवतिः। सासादने एक संयोज्यानुदयः त्रीणि । उदयः त्रिनवतिः ।
मिश्रे अनुदयः पंच संयोज्य मिश्रप्रकृत्युदयात्सप्त । उदयः एकान्ननवतिः । असंयते अनुदयः एका संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात्सप्त। उदयः एकान्ननवति । देशसंयते सप्त संयोज्य अनदयः चतुर्दश उदयः द्वयशीतिः । प्रमत्ते पंच संयोज्य अनुदयः एकान्नविंशतिः । उदयः सप्तसप्ततिः । अप्रमत्ते त्रीणि संयोज्य अनुदयः द्वाविंशतिः उदयः चतुःसप्ततिः । अपूर्वकरणे चत्वारि संयोज्य अनुदयः षड्विंशतिः । उदयः सप्ततिः ।
३. मिश्रमें पाँच मिलाकर मिश्रप्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय सात । उदय नवासी।
२५ व्यच्छित्ति एक ।
४. असंयतमें एक मिलानेसे तथा सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय सात । . उदय नवासी । व्युच्छित्ति सात ।
५. देशसंयतमें सात मिलाकर अनुदय चौदह । उदय बयासी। ६. प्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय उन्नीस । उदय सतत्तर । व्यु. तीन । ७. अप्रमत्तमें तीन मिलाकर अनुदय बाईस । उदय चौहत्तर । व्यु. चार ।
८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय छब्बीस । उदय सत्तर । व्यु. छह । १. म कमुमय्दु ५।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४६९ रडु ३२। उदयंगळवत्तनाल्कु ६४ । सूक्ष्मसाएरायगुणस्थानदोलु नाल्कुगूडियनुदयंगळु मूवत्तारु ३६। उदयंगळरुवत्त ६० । उपशांतकषायगुणस्थानदोलो दुगूडियनुदयंग मूवत्तेळु ३७। उदयंगळय्वत्तो भत्तु ५९ । क्षोणकषायगुणस्थान रडु यूनियनुदयप्रकृतिगलु मूवतो भत्तु ३९ । उदयं. गळय्वत्तेळु ५७ । सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोलु पविनारुगूडियनुदयंगलय्वत्तदु ५५ । उदयगलु नाल्वत्तोंदु ४१ । अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ्मूवत्तुगूडियनुदयंगळेभत्तय्टु ८५ । उदयं- ५ गलु पन्नों वे ११ के दोडे तीर्थोदयमिल्लप्पुरिदं संदृष्टि :
योनिमतिमनुष्योदययोगप्रकृतिगळ ९६ | • मि | सा | मि | अ | दे| प्र अ अ अ 'सू उ क्षी | स अ |
उ । ९४ ९३ ८९ ८९ ८२७७ ७४ ७० ६४६० ५९ ५७ ४१ ११ | अ । २।३। ७। ७ | १४ | १९ | २२ २६३२३६३७ ३९ | ५५ । ८५ ।
पूर्णेतरववपूर्णे स्वानुपूयंगत्यायुर्जेयं। मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टियोलुक्ययोग्यप्रकृतिगळं तिय्यंचमिथ्यादृष्टिलब्ध्यपप्तिकनोलु पेन्दते एप्पत्तो दु ७१ प्रकृतिगळप्पु वल्लि तिर्यगानुपूर्व्यमं तिर्यम्गतिनाममं तिय्यंगायुष्यमुमं कलेबु मनुष्यानुपूय॑ममं मनुष्यगतिनाममं मनुष्या- १० युष्यमं कूडबुबी विशेषमरियल्पडु'।
अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदयः द्वात्रिंशत् । उदयः चतुःषष्टि । सूक्ष्मसांपराये चत्वारि संयोज्य अनुदयः षत्रिंशत् । उदयः षष्टिः। उपशांतकषाये एका संयोज्य अनुदाः सप्तत्रिंशत् । उदयः एकान्नषष्टिः । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदयः एकान्नचत्वारिंशत् । उदयः सप्तपंचाशत् । सयोगे षोडश संयोज्य अनुदयः पंचपंचाशत् । उदयः एकचत्वारिंशत् । अयोगे त्रिशतं संयोज्य अनुदयः पंचाशीतिः । उदयः एकादश १५ तीर्थाभावात् ।
मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ते उदयप्रकृतयः तिर्यग्लव्यपर्याप्तवदेकसप्ततिः। तत्र तिरश्चः आन नहि । मनुष्यस्य तानि ज्ञातव्यानि ॥ ३०१॥
ANNNNNNNN
२०
९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय बत्तीस । उदय चौंसठ । व्यु. चार । १०. सूक्ष्मसाम्परायमें चार मिलाकर अनुदय छत्तीस । उदय साठ । व्यु. एक। ११. उपशान्त कषायमें एक मिलाकर अनुदय सैतीस । उदय उनसठ । व्यु. दो। १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय उनतालीस । उदय सत्तावन । व्यु. सोलह । १३. सयोगीमें सोलह मिलाकर अनुदय पचपन । उदय इकतालीस ।
१४. अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय पचासी। उदय ग्यारह क्योंकि तीथंकरका अभाव है।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकमें उदय प्रकृतियाँ लब्ध्यपर्याप्तककी तरह इकहत्तर। इतनी विशेषता है कि यहाँ तियंचानुपूर्वी, तिथंचगति और तिर्यंचायुके स्थानमें मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यगति और मनुष्यायुका उदय होता है ॥३०१|nal Use c
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४७०
गा० कर्मकाण्ड
अनंतरं भोगभूमिजमनुष्यरोळ तियोचरोलमुदययोग्यप्रकृतिगळं गाथाद्वर्याददं पेळदपरु :
मणुसोघ वा भोगे दुब्भगचउणीच-संढ-थीणतियं । दुग्गदितित्थमपुण्णं संहदि-संठाणचरिमपणं ॥३०२॥ हाग्दुहीणा एवं तिरिये मणुदुच्चगोदमणुवाउं ।
अवणिय पक्खिव णीचं तिरियदु-तिरियाउ-उज्जोवं ॥३०३॥ मनुष्योधवद्भोगे दुर्भगचतुर्नीचषंढस्त्यानगृद्धित्रयं दुर्गतितीर्थमपूर्ण संहननसंस्थान चरम पंच॥
आहारद्वयहीनाः एवं तिरश्चि मनुष्यद्वयोच्चैग्र्गोत्रमनुष्यायुरपनीय प्रक्षिप नीचं तिय॑ग्द्वय तिर्यगायुरुद्योतं ॥
भोगभूमिजमनुष्यरुगळ्गुदययोग्य प्रकृतिगळ नूरिप्पत्तरउरोलु १२२ । स्थावरद्विकमुं २ । तिर्यग्द्विकमुं२। आतपद्विक, २ मेकेंद्रियमुं १। विकलत्रयमुं ३ साधारणशरीरनामम् १ मितरायुस्त्रितय, वैक्रियिकषट्कमु ६ मितिप्पत्तं प्रकृतिगळं २० कळेदु मनुष्यौघदोळु नूरेरडेतते इल्लियुमवरोळु दुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कोतियु नोचैर्गोत्रमुं पंढवेदमुं स्त्यानगृद्धित्रितयमुम
प्रशस्तविहायोगतियु तीत्थंकरनाममुमपर्याप्तनाममुं चरमसंहनन पंचकमु चरमसंस्थान पंचकमुं १५ माहारकद्वयमुर्मितिप्पत्तनाल्कु प्रकृतिगळु २४ भोगभूमिमनुष्यरो दयिसुववल्लप्पुदरिदमिवं कळदोडे
प्पत्तेंटु प्रकृतिगठप्पुवु ७८ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों दे छेदमक्कुं १। सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमे छेदमक्कुं ४ । मिश्रनोळु मिश्रप्रकृतियों दे १ च्छेदमक्कु १ मसंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्टयं मनुष्यानुपूर्व्यमुमतय्, प्रकृतिगळ्गे व्युच्छित्तियक्कु ५ मंतागुत्त विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदो मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतियुमितरडु प्रकृतिगळनुदयंग २। उदयं
अथ भोगभूमिमनुष्यतिरश्चोर्गाथाद्वयेनाह
भोगभूमिमनुष्याणां मनुष्योधवदिति द्वयुतरशतं । तत्रापि दुभंगदुःस्वरानादेयायशस्कोतिनीच र्गोत्रषंढवेदस्त्यानगृद्धित्रयाप्रशस्तविहायोगतितीर्थ करत्वापर्याप्तचरमपंचसंहननपंचसंस्थानाहारकद्वयं न इत्युदययोग्यप्रकृतयः अष्टसप्ततिः । तत्र मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं छेदः । सांसादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्रे मिश्रप्रकृतिः ।
योनिमन्मनुष्य रचना ९६ | मि. | आ. | मि. । अ. | दे. । प्र. । अ. अ. अ. सू. । उ. क्षी. स. अ.| | १४ | ९३ | ८९ | ८९ ८२ ७७ ७४ ७० | ६४ | ६० | ५९ | ५७ | ४१ ११ ।
। ३। ७। ७ | १४| १९ । २२ २६ ३२ | ३६ ३७ | ३९ ५५ ८५ आगे दो गाथाओंसे भोगभूमिके मनुष्य और तिर्यंचोंमें कहते हैं
भोगभूमिके मनुष्योंमें सामान्य मनुष्य की तरह एक सौ दो उदययोग्य हैं। किन्तु उन एक सौ दोमें-से भी दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, नीचगोत्र, नपुंसकवेद, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, अप्रशस्तविहायोगति, तीर्थंकर, अपर्याप्त, अन्तके पाँच संहनन और
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४७१
गळप्पलारु ७६ । सासावनगुणस्थानदोळो दुगूडिय नुदयंगळ मूरु ३ । उदयंगळेप्पत्तय्दु ७५ । मिश्रगुणस्थानवोळ, नास्कुगू डियनुवयंगळरोळ, मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगोळु कूडिमत्तमुदयंगळोळु मनुष्यानुपूव्वयंमं कळेवनुवयंगळोळ कूडत्त विरलनुदयंगळेळ. ७ । उदयंगळे पत्तों दु ७१ । असंयतगुणस्थानवोलोवु गुडियनुवयंगळे टळु सम्यवत्वप्रकृतियुमं मनुष्यानुपूर्यमुमं कळेदुदयंगोल कूडुत्त विरलनुदयंगळारु ६ उदयंगळेप्पत्त े रडु ७२ संदृष्टिः
मि सा मि अ
व्यु
उ
१
अ
५
७६
२
“एवं तिरश्चि मनुष्यद्वयोच्चैर्गोत्रमनुष्यायुष्य" में 'बी नाल्कुं प्रकृतिगळं कळेदु नीचैर्गोत्रमुं तिष्यंग्यमुं तिष्यंगायुष्य मुमुद्योत मुमेव प्रकृतिपंचकर्म कूटुतं विरलु भोगभूमितिध्यंचरोळदययोग्यप्रकृतिगळं पत्तो भत्तु ७९ । मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियोंदे व्युच्छित्तिक्कु १ । सासावननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमे व्युच्छित्तियक्कु ४ । मिश्रनोल मिश्रप्रकृतियोदे व्युच्छित्तियक्कु - १ । मसंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्कमुं तिर्य्यगानुपूर्यमुमितय्दे प्रकृतिगळु व्युच्छित १० येक्कु ५ । मितागुतं विरला मिथ्यादृष्टिगुणस्थानबोळं मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेर डुमनुबयंगळु २ उवयंगलेप्पत्तेळु ७७ । सासादनगुणस्थानवोलो दुगूडियनुदयंगळ ३ ।
उदयंगळेपत्तारु
७५ ७१ ७२
५
असंयते द्वितीयकषाय वतुष्कं मनुष्यायुश्च ५ । तथासति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती अनुदयः । उदये षट्सप्ततिः । सासादने एकां संयोज्य अनुदये त्रीणि । उदये पंचसप्ततिः । मिश्र अनुदये चतुभिर्मनुष्यानुपूव्यं संयोज्य मिश्रोदयात्सप्त । उदये एकसप्ततिः । असंयते अनुदयः एकां संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृति मनुष्यानुपूर्योदयात् १५ षट् । उदये द्वासप्ततिः ।
पाँच संस्थान तथा आहारकद्विकका उदय न होनेसे उदययोग्य प्रकृतियाँ अठहत्तर हैं । वहाँ मिध्यादृष्टि में मिथ्यात्वको व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुवन्धी चार, मिश्र में मिश्रप्रकृति और असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण चार मनुष्यायु इन पाँचकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर -
२०
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुदय । उदय छिहत्तर । व्यु. १ । २ सासादन में एक मिलाकर अनुदय तीन । उदय पचहत्तर । व्युच्छित्ति चार । ३. मिश्र में सासादनमें अनुदय तीनमें चार व्युच्छित्ति तथा मनुष्यानुपूर्वी मिलाकर तथा मिश्रका उदय होनेसे एक घटाकर सातका अनुदय है। उदय इकहत्तरका ।
४. असंयतमें एक मिलाकर तथा सम्यक्त्व प्रकृति और मनुष्यानुपूर्वीका उदय होनेसे २५ दो घटाकर अनुदय छह । उदय बहत्तर |
१. म "यंगलं कलेदु नीचैग्गोत्र तिथ्यंद्विक तिगायुरुद्योतमुमेब । २. म यक्कु मियां ।
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४७२
गो० कर्मकाण्डे ७६ । मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कुगूडियनुदयंगळेळरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळु कूडि मत्तमुदयंगलोलु तिर्यगानुपूर्व्यमं कळे दनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुवयंगळेलु ७। उदयंगलेप्पत्तर ७२। असंयतगुणस्थानदळो दुगूडियदयंगळे रोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं तिय्यंगानुपूर्व्यम कळेनुदयंगळोलु विरलनुदयंगळारु ६। उदयप्रकृतिगळेपत्त मूरु ७३ । संदृष्टिः
भोगभूमि तिय्यंच योग्य ७९
सा
T
७७
७
एवं तिरश्चि मनुष्यद्वयोच्चैर्गोत्रमनुष्यायूंष्यपनीय नीचर्गोत्रतिर्यग्द्वयतिर्यगायुरुद्योतेषु निक्षिप्ते भोगभूमिर्तियक्षु उदययोग्या एकोनाशीतिः । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्रे मिश्रप्रकृतिः। असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं तिर्यगायुश्च ५। एवं सति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वे
अनुदयः । उदये सप्तसप्ततिः । सासादने एका संयोज्य अनुदये त्रयं । उदये षट्सप्ततिः । मिश्रे अनुदयः १० चतुर्भिस्तियंगानुपूव्यं संयोज्य मिश्रोदयात्सप्त । उदयो द्वासप्तति । असंयते अनुदयः एका संयोज्य सम्यक्त्व
प्रकृतितिर्यगानुपूर्योदयात् षट् उदयः त्रिसप्ततिः ॥ ३०२ ॥ ३०३ ॥
__ इसी प्रकार तिर्यंचमें मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और मनुष्यायु घटाकर नीचगोत्र तियंचगति तियं चानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योत मिलानेपर भोगभूमि तियंचोंमें
उदययोग्य उन्यासी ७९ हैं। उनमें मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है । सासादन१५ में अनन्तानुबन्धी चार, मिश्रमें मिश्रप्रकृति और असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार तथा तिर्यंचायु पाँचकी व्युच्छित्ति होती है । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्वका अनुदय । उदय सतहत्तर । व्युच्छित्ति एक । २.सासादनमें एक मिलाकर अनुदय तीन । उदय छिहत्तर । व्युच्छित्ति चार ।
३. मिश्रमें तीनमें चार व्युच्छित्ति और तियं चानुपूर्वी मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे १. अनुदय सात । उदय बहत्तर । व्युच्छित्ति एक ।
४. असंयतमें सातमें एक मिलाकर सम्यक्त्व प्रकृति और तियंचानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय छह । उदय तिहत्तर ॥३०२-३०३।। भोगभूमि मनुष्य रचना ७८
भोगभूमि तियंच रचना ७९ | मि. सा. | मि. अ.
| मि. सा. | मि.| अ. | १४ १ ५
३ । ७२ | ७३
-७१
95
७५
७२
७७
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरं देवगतियोळदययोग्यप्रकृतिगळ पेन्दपरु :
भोगं व सुरे णरचउणराउबज्जूण सुरचउसुराउं ।
खिव देवे वित्थी इथिम्मि ण पुरिसवेदो य ॥३०४॥ भोगवत्सुरे नर जतुर्णरायुज्रोनं सुरचतुः सुरायुः। क्षिप देवे नैव स्त्री स्त्रियां न पुरुषवेदश्च ॥
भोगभूमिजरोल पेन्दते सुररोळभुदययोग्यप्रकृतिगळेपत्ते टप्पुववरोळ मनुष्यगतिद्वयममौदारिकद्वयमुमेंब नरचतुष्टयमुमं नरायुष्यमुमं वज्रऋषभनाराचशरीरसंहननंमुमंतारुं प्रकृतिगोळं करेंदोत्तरटवरोल देगतिद्वितयं वैक्रियिकद्वितयमुमेंब सुरचतुष्कमुं सुरायुष्यमिते, प्रकृतिगळं कूडत्तं विरलु सामान्यदेवोदययोग्य प्रकृतिगळेप्पत्तेळु ७७। अल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों दे व्युन्छित्तियक्कुं १। सासादननोळन्तानुबंधिकषायचतुष्टयमे व्युचित्तियक्कुं १० ४। मिश्रनो मिश्रप्रकृतियों दे छेदमकुं १। असंयतनोछु द्वितीयकषाय चतुष्क, सुरचतुष्कमुं सुरायुष्यमुमितों भत्त ९ प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिपप्पुनितागुत्तं विरलु मिथ्यादष्टिगणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेरडुमनुदयंगळु २। उदयंगळेप्पत्तय्दु ७५ । सासादनगुणस्थानदोळो दु गुडियनुदयंगळ पूरु ३ । उदयप्रकृतिगळेपत्त नाल्कु ७४। मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कुगुडियनुव यंगळेळरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळ कूडिदेवानुपूळ्यमं उदयंगळोळ, कळेवनुदयंगळोळ कुडुत्तं विरलनुदयंगळेळ ७। उदयप्रकृतिगळेपत्तु ७०। असंयतगुणस्थानदोळो दु. गूडियनुदय प्रकृतिगळे टरोलु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं देवानुपूय॑मुमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनु
अय देवगताबाह
सुरेषु भोगभूमिवदिति अष्टसप्ततिः । तत्र मनुष्यगतिद्वयौदारिकद्वयनरायुर्वज्रऋषभनाराचसहनान्यपनीय देवगतिद्वयवैक्रियिकद्वयसुरायुस्सु निक्षिप्तेषु सामान्यदेवोदययोग्याः सप्तसप्ततिः । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं २० व्युच्छित्तिः । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्रे मिश्रं । असंयते द्वितीयकषाय चतुष्कसुरचतुष्कसुरायूंषि । एवं सति मिथ्यादृष्टौ अनुदये मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती। उदये पंचसप्ततिः । सासादने एका संयोज्य अनुदयस्तिस्रः ।
आगे देवगतमें कहते हैं
देवोंमें भोगभूमिकी तरह अठहत्तर उदययोग्य है। किन्तु उनमें-से मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्याय, वर्षभनाराच संहनन घटाकर २५ देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग और देवायु मिलानेसे सामान्यदेवमें उदययोग्य सतहत्तर ७७ होती हैं। उनमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, मिश्रमें मिश्र, असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण चार, देवायु, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक अंगोपांगकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टिमें मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुदय । उदय पचहत्तर।
२. सासादनमें एक मिलाकर अनुदय तीन । उदय चौहत्तर । व्युच्छिति चार । १ म मुमनितारं प्रकृतिगलं कले।
क-६०
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४७४
__ गो० कर्मकाण्डे दयंगळारु ६ उदयंगळेपत्तोंदु संदृष्टि :
देवसामान्ययोग्य ७७
| मि सा | मि | अ | व्युच्छि
उदी | ७५ ७४ ७० ।
| अनु२३/ ७६ यिल्लि देवगतियोळ देवक्कळोलु पुंवेदोदयमे देवियरोळ स्त्रीवेदोदयमे नियतोदयमक्कुमप्पुरिदं देवक्कळोळ स्त्रीवेदमं कळेदोड सौधर्माद्युपरिमवेयकावसानमाद सुररोळु दययोग्य ५ प्रकृतिगळेप्पत्तारु ७६ । यिल्लियुं सामान्यसुररोळावुदोंदु कथनमदिल्लियुमरियल्पडुगुं सुगमं । संदृष्टि :
सोधाधुपरिमप्रैवेयकयोग्य ७६
सा
-
अ
उदये चतुःसप्ततिः । मिश्रे अनुदयः चतुभिर्देवानुपूयं संयोज्य मिश्रोदयात् सप्त । उदये सप्ततिः। असंयते अनुदय एका संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृतिदेवानुपूर्योदयात् षट् । उदये एकसप्ततिः ।
देवेषु पुंवेदस्यैवोदयः । देवीषु स्त्रीवेदस्यैवेति नियमात् स्त्रीवेदेऽपनीते सौधर्माद्युपरिमवेयकावसाने - १० श्ययोग्यप्रकृतयः षट्सप्ततिः । अन्यत्सर्व सामान्यसुरवत् ज्ञातव्यं । संदृष्टिः
___सौधर्माद्यपरिमनवे = यो ७६ व्यु | १ ४ १ । ९
उ | ७४ | ७३ | ६९ | ७०
अ
२ मि ३ सा ७ मि| ६ अ
३. मिश्रमें चार और देवानुपूर्वी मिलाकर तथा मिश्रका उदय होनेसे अनुदय सात । उदय सत्तर । व्यु. एक ।
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व प्रकृति और देवानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय छह । उदय एकहत्तर । तथा देवोंमें पुरुषवेदका ही उदय होता है और देवांगनाओंमें स्त्री
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्व प्रदीपिका
अनुदिशानुत्तर चतुर्द्दश विमानंगळोळु पेदपरु :
अविरदठाणं एक्कं अणुद्दिसादिसु सुरोघमेक हवे | भवणतिकपित्थीणं असंजदे णत्थि देवाणू || ३०५ ॥ अविरतस्थानमेकमनुदिशादिषु सुरौध एव भवेत् । भवनत्रयकल्पस्त्रीणामसंयते नास्ति
देवानुपूव्यं ॥
अनुदिशानुत्तर विमानं गळोळ, असंयत गुणस्थानमा देयक्कुम पुर्दा रिदमुदययोग्यप्रकृतिगळेप्पतेय ७० । भवनत्रयदेव देवियर्ग कल्पजस्त्रीयगं सुरौघमेयक्कुमदुकारर्णादिदमुदययोग्यप्रकृतिगलेप्पत्तेळरोळु ७७ देववर्कळगेल्लं पुंवेदमं देवियर्गेल्लं स्त्रवेदमेयक्कुमटु कारणदिदं विवक्षित देवदेवियरोळुदयप्रकृतिगळेप्पत्तारु ७६ । ई भवनत्रयजरोळं कल्पजस्त्रीयरोळं सम्यग्दृष्टिगपुट्ट - रप्पुदरिदमैसंयत गुणस्थानदोळु देवानुपूर्व्यमं कळेदु सासादननोळुदयव्युच्छित्तियं माडुतं विरल १० सासादनसम्यग्दृष्टियोळुदयव्युच्छित्तिगळ ५ । असंयतसम्यग्दृष्टियोळु दयभ्युच्छित्तिगळे टु ८ । शेषकथनमनितुं सुगम मक्कुं । संदृष्टि
भवन ३ कल्प स्त्रीयोग्य ७६
मिसा
मि अ
०
उ
अ
१
५
७४ ७३
२
३
१
६९ ६९
४७५
७
॥ ३०४ || अनुदिशांदिष्वाह
अनुदिशानुत्तरचतुर्दश विमानेषु असंयत गुणस्थानमेव स्यात् । तेन उदययोग्याः सप्ततिरेव । भवनत्रयदेव - १५ देवीनां कल्पस्त्रीणां च सुरौव एव इत्युदययोग्याः सप्तसप्ततिः ॥७७॥ केवलदेवेषु देवीषु वा षट्सप्ततिः ॥ ७६ ॥ भवनत्रये कल्पस्त्रोषु च सम्यग्दृष्ट्य तुत्पत्तेरसंयत गुणस्याने देवानुपूव्यं नास्तीति प्रासादने व्युच्छित्तिः पंत्र ५ । असंयते अष्टौ ८ । शेषं सर्वं सुगमं ।
५
वेदका ही उदय होता है । अतः देवोंमें स्त्रीवेद के बिना सौधर्मसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक पयन्त स्त्रीवेद के बिना छिहत्तर उदययोग्य है । अन्य सब सामान्य देवोंकी तरह जानना ॥ ३०४ ॥ अनुदिश आदि में कहते हैं
नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में एक असंयत गुणस्थान ही होता है अतः वहाँ उदययोग्य सत्तर ही हैं । भवनत्रिकके देव और देवियों में तथा कल्पवासी देवांगनाओं में सामान्यदेवकी तरह उदययोग्य सतहत्तर ७७ हैं। केवल देव और देवियोंमें उदययोग्य छिहत्तर हैं । भवनत्रिक और कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि मरकर जन्म नहीं लेता इसलिए २५ असंयत गुणस्थानमें देवानुपूर्वीका उदय नहीं होता । उसकी व्युच्छित्ति सासादन में होनेसे
२०
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४७६
गो० कर्मकाण्डे अनंतरमिद्रियमार्गयोदययोग्यप्रकृतिगळं गाथात्रयदिदं पेळ्दपरु :
तिरिय अपुण्ण केणे परवादाचउक्क-पुण्ण-साहरणं ।
एइंदियजसथीणतिथावरजुगलं च मिलिदव्वं ॥३०६॥
तिर्यगपूर्णवदेकेंद्रिये परघातचतुष्कपूर्णसाधारणमेकेंद्रिययशः स्त्यानगृद्धित्रितयस्थावरगळ __ ५ च मिलितव्यं ॥
रिणमंगोवंगतसं संहदिपंचक्खमेवमिह वियले ।
अवणिय थावरजुगलं साहरणेयक्खमादावं ॥३०७।। ऋणमंगोपांगत्रतसंहननपंचेंद्रियमेवमिह विकले। अपनीय स्थावरयुगलं साधारणकाक्षमातपं ॥
खिव तसदुग्गदिदुस्सरमंगोवंगं सजादिसेवढे ।
ओघं सयले साहारणिगिविगलादावथावरदुगूणं ।।३०८।। लिप त्रसदुग्गतिदुःस्वरमंगोपांगं स्वजाति सृपाटिकासंहननं ओघः सकले साधारणै कविकला. तपस्थावरद्विकोनः॥
भवनत्रयकल्पस्त्रीयोग्य ७६
व्यु | १
मि | सामि
|
अ
३०५ । अथेंद्रियमार्गणायां गाथात्रयेणाह
पाँचकी व्युच्छित्ति होती है और असंयतमें आठकी व्युच्छित्ति होती है। शेष सब सुगम है ।।३०५।। सौधर्मादि उपरिग्रै० ७६
भवनत्रिक-कल्पस्त्री-७६ सा. | मि. अ.
व्य.
व्यु.
उदय
७४
उदय
।
अनुदय
إس
अनुदय
आगे तीन गाथाओंसे इन्द्रिय मार्गणामें कहते हैं
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४७७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
एकेंद्रिये एकेंब्रियमार्गणेयोदययोग्यप्रकृतिगळु तिर्य्यगपर्याप्त पंचेंद्रियजीवंगळगे पेपतोंदु ७१ प्रकृतिगळप्पुववरोळ परघातातपोद्योतोच्छ्वास में ब परघातचतुष्कमुमं पर्याप्तनाममु साधारणशरीरनाम मुमनेकेद्रियजातिनाममुमं यशस्कीत्तिनाममुमं स्त्यानगृद्धित्रयमुमं स्थावरमुमं सूक्ष्ममुर्मानतु पविमूरुं प्रकृतिगळं १३ कूडिदोडेण्भत्तनात्कप्पुव ८४ वरोळु मत्ते ऋणं अंगोपांग श्रसनाममुं सृपाटिका संहननमुं पंचेद्रियजातिनाम में ब नाल्कु प्रकृतिगलप्पु ४ वर्ष कळदोडे भत्तु ५ प्रकृतिगळवु । यिल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुमातपनाममुं सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरमेंब सूक्ष्मत्रयमुमिंतु तन्न गुणस्थानदोळ पेद प्रकृतिपंचकर्मु मत्तं स्त्यानगृद्वित्रितयमुं परघातनाममुं उद्योतनाममुच्छ्वासनाम मुमितारु ६ प्रकृतिगळु सासादननोदय मिल्लप्पुदरिंद मिथ्या दृष्टियोळवं कूडिदोडुवयव्युच्छित्तिगळु पनो' देयतु ११ । सासादननोळनंतानुबंधिचतुष्कममेकेंद्रिय जातिनाममुं स्थावरनाम मुमितारुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं । ६ । यिल्लि मिथ्या दृष्टि- १० गुणस्थानदोळनुदयं शून्यमक्कुमुदयप्रकृतिगळेण्भत्तु ८० । सासादनगुणस्थानदोळनुदयंगळु पन्नों दु ११ उवयंगळरुवत्तो भत्तु ६९ । संदृष्टि :
--
एकेंद्रिय योग्य ८०
मि. सा.
११ ६
६९
o
व्यु
उ
अ
८०
०
११
एकेंद्रियमाणायां उदययोग्याः तिर्यगपर्याप्त पंचेंद्रिय वदित्येकसप्ततिः । तत्र परघातातपोद्योतोच्छ्वासपर्याप्तसाधारणैकेंद्रिया यशस्कीर्तिस्त्यानगृद्धित्रयस्थावर सूक्ष्माणि मेलयित्वा अंगोपांग ससृपाटिका संहननपंचेंद्रिये १५ ध्वपनी तेष्वशीतिः स्युः । तत्र मिच्छादावं सुमतियमिति पंच पुनः स्त्यानगृद्धित्रयपरघातोद्योतोच्छ्वासाः सासादनानुदयात् षट् च मिथ्यादृष्टो व्युच्छित्ति: ११ । सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं केंद्रियस्थावराणि षट् । तथासति मिथ्यादृष्टो अनुदयः शून्यं । उदयः अशीतिः ८० । सासादने अनुदये एकादश ११ । उदये एकोनस
एकेन्द्रिय मार्गणा में. उदय योग्य तिर्यंचलब्ध्यपर्याप्तकी तरह इकहत्तर ७१ । किन्तु उसमें परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, पर्याप्त, साधारण, एकेन्द्रिय, अयशस्कीर्ति, स्त्यानगृद्धि २० आदि तीन, स्थावर और सूक्ष्म मिलाकर औदारिक अंगोपांग, त्रस, सृपाटिका संहनन और पंचेन्द्रिय घटाने पर अस्सी होती हैं । उसमें मिथ्यादृष्टिमें ग्यारहकी व्युच्छित्ति होती हैमिध्यात्व, आताप और सूक्ष्म आदि तीन ये पाँच तथा स्त्यानगृद्धि आदि तीन, परघात, उद्योत, उच्छ्वासका सासादनमें अनुदय होने से छहकी व्युच्छित्ति भी मिध्यादृष्टि में होती है । सासादन में अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर छहकी व्युच्छित्ति होती है । ऐसा होनेपर २५ मिथ्यादृष्टि में अनुदय शून्य, उदय अस्सी ८० । सासादन में अनुदय ग्यारह ११ । उदय
उनहत्तर ६९ ।
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गो० कर्मकाण्डे
एवमिह वियळे विकलत्रयदोळमिते एणभत्तुं ८० । प्रकृतिगळुक्ययोग्यंगळप्पुवहिल स्थावरमुं सूक्ष्ममुं साधारणशरीरमेकद्रियजातिनाममुमनातपनाममुमित ५ प्रकृतिगळं कळेदोडे पत्तदप्पु ७५ ववरोळु त्रसनाममुमं अप्रशस्तविहायोगतियुमं दुःस्वरनाममुं अंगोपांगनाममुमं स्वजातिनाममुं पाटिकासंहननमुनतारुं ६ प्रकृतिगळं प्रक्षेपिसुत्त विरलेण्त्तों दुदयप्रकृतिगळु दय५ योग्यंगळप्पु ८१ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुमपर्याप्तनाममुं स्त्यानगृद्धित्रितयमुं परघातमुच्छ्वासमुद्योतमप्रशस्त विहायोगतियुं दुःस्वरनाम मुमितु पत्तुं प्रकृतिगो सासादननोळुदय मिल्लप्पुरमा प्रकृतिगळ, मिथ्यादृष्टियोळ, व्युच्छित्तिगळप्पुवु १० । सासादननोळु अनंतान बंधिचतुष्क्रमुमं द्वोंद्रियादिजातिनामनामत्रितयदोळु स्वजातिनाममों दं तु पंच प्रकृतिगदयव्युच्छित्तियप्पु ५ वंतागुतं विरल मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळनुदयं शून्यमुदयंगळे भत्तों दु ८१ । १० सासादन- गुणस्थानदोळनुदयंगळ पत्तुं १० उदयंगळे पत्तों दु ७१ । संदृष्टि
विकले ३ यो० ८१
० मि सा
४७८
२०
व्यु
उ
१०
८१ ७१
सतिः ६९ । एवमिह वियले विकलत्रये अशोति संस्थाप्य तत्र स्थावर सूक्ष्मसाधारणैकेंद्रियातपानपनीय त्रसाप्रशस्त विहायोगतिदुः स्वरांगोपांगस्वजातिसृपाटिकासंहननेषु प्रक्षिप्तेषु एकाशीतिरुदययोग्या भवति । तत्र मिथ्यात्वपर्याप्तस्त्यानगृद्धित्रयं पुनः परघातोच्छ्वासोद्योता प्रशस्तविहायोगतिदुः स्वराः सासादने अनुदयात् मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः । १० । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं स्वैकतरजातिश्चेति पंच । एवं सति मिथ्यादृष्टा१५ वनुदये शून्यं । उदये एकाशीतिः ८१ । सासादने अनुदये १० । उदये एकसप्ततिः ७१ ।
अ ० १०
इसी प्रकार विकलत्रय में अस्सी में से स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, एकेन्द्रिय और आतपको घटाकर त्रस, अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर औदारिक अंगोपांग, सृपाटिका संहनन और अपनी-अपनी जाति ( दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय ) मिलानेपर उदययोग्य इक्यासी होती हैं।
विकलत्रय में मिध्यात्व और अपर्याप्त तथा स्त्यानगृद्धि आदि तीन, परघात, अछ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वरका सासादनमें अनुदय होनेसे मिध्यादृष्टि में व्युच्छित्ति दस १० । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार और अपनी-अपनी जाति इस तरह पाँच । ऐसा होनेपर मिध्यादृष्टि में अनुदय शून्य । उदय इक्यासी । सासादन में अनुदय इस और उदय इकहत्तर ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सकलेंद्रियंगळोळु ओघः सायान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पतेरडरोळु १२२ साधारणैकेंद्रिय विकलत्रयातपस्थावर सूक्ष्ममें बेंटुं ८ प्रकृतिगळं कळेदोडुदययोग्यप्रकृतिगळ नूरपदिनाकप्पु ११४ वल्लि पंचेद्रियत्वं चतुर्गतिसाधारणमप्पुदरिदं चतुर्द्दशगुणस्थानंगळप्पुवल्लि मिध्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वमुमपर्य्याप्तनाममुम बेरडं प्रकृतिगळगुदयच्छेद मक्कुं २ । सासावननोळनंतानुबंधिचतुष्कमे छेवमक्कुं ४ । मिश्रनोळं मिश्रप्रकृतिये च्छेद मक्कु - १ मसंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्टयादिपदिने ५ प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तयक्कुं १७ | देशसंयतनोळ एंदु प्रकृतिगळगुदयच्छेद मक्कुं ८ । मेले प्रमत्तादि नवगुणस्थानंगळोळु सामान्यगु णस्थानदोळपेळदंतय्युं ५ नाल्कु ४ मारु ६ मा ६ मोदु १ मेरडु २ पदिनारुं १६ मूवत्तुं ३० पनेरहुं १२ प्रकृतिगणे यथाक्रर्मादिदमुदयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्तप्रकृति माहारकद्वयमुं तीर्थं मुमित प्रकृतिगळगनुदयम#कुं ५ । उदयप्रकृतिगळ नूरों भत्तु १०९ । सासादनगुणस्थानदोळ एरड गूडियनुदय १० प्रकृतिगळेळ ७ । अवरोळु नरकानुपूर्यं मनुदयंगळोळ कलेवनुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुवयंगळे दु ८ । उवयंगळु नूरारु १०६ । मिश्रगुणस्थानवोळ नाल्कु गुडिदनुदयंगल पतेरडरोल शेषानु पूळयंगळ सूरुमनुदयंगळोळ कळेदनदयंगळोळ 'कूडुत्तंमनुदयंगळोळु मिश्रप्रकृतियनुयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळु पदिनाक १४ । उदयंगळ नूरु १०० । असंयत गुणस्थानदोळो दुगू डिदनुदयंगळु पदिनय्द
सकलेंद्रियेषु ओघः द्वाविंशत्युत्तरशतं १२२ । तत्र च साधारण केंद्रियविकलत्रयातपस्थावर सूक्ष्मेष्व- १५ पनीतेषु उदययोग्यं चतुर्दशोत्तरशतं ११४ । गुणस्थानानि चतुर्दश । तत्र मिध्यादृष्टौ मिथ्यात्वापर्याप्तद्वयं छेदः २ । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्र मिश्र प्रकृतिः १ । असंयते द्वितीयकषायचतुष्का दिसप्तदश १७ । देशसंयतेऽष्टौ । प्रमत्तादिषु गुणस्थानवत् पंच ५ चत्वारि ४ षट् ६ षट् ६ एवं १ द्वे २ षोडश १६ त्रिंशत् ३० द्वादश १२ । तथासति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वय तीर्थ करत्वाऽनुदयः । उदये नवोत्तरशतं १०९ । सासादनेऽनुदयः द्वयं नारकानुपूव्यं च मिलित्वा अष्टो ८ । उदयः षडुत्तरशतं १०६ । मिश्रेऽनुदयः चत्वारि २० ४ शेषानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रप्रकृत्युदयाच्चतुर्दश १४ । उदये शतं । असंयते अनुदयः एकां संयोज्य
पंचेन्द्रियोंमें गुणस्थानकी तरह उदय योग्य एक सौ बाईस १२२ में से साधारण, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म घटानेपर उदययोग्य एक सौ चौदह ११४ । गुणस्थान चौदह । मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्व और अपर्याप्त दोकी व्युच्छित्ति २ । सासादन में अनन्तानुबन्धी चार ४ । मिश्र में मिश्र प्रकृति १ । असंयत में अप्रत्याख्यानावरण आदि २५ सतरह १७ । देशसंयत में आठ ८ । प्रमत्त आदिमें गुणस्थानकी तरह पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस, बारह । ऐसा होनेपर -
४७९
१. मिध्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व, अहारकद्विक और तीर्थकरका अनुदय । उदय एक सौ नौ १०९ । व्युच्छित्ति दो ।
३०
२. सासादन में पाँच में दो और नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय आठ । उदय एक सौ छह १०६ | व्यु० ४
३. मिश्रमें आठमें चार तथा शेष तीन आनुपूर्वी मिलकर मिश्रप्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय चौदह । उदय सौ । व्यु. एक ।
१. म कूडिमत्त मनुदयंग ।
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४८०
रोळु चतुर्गतिगळोळमसंयतसम्यग्दृष्टि पुट्टुगुमप्पुदरदमानुपूर्व्यचतुष्कमुमं सम्यक्त्व प्रकृतियुर्मान - तदु प्रकृतिगळं कळेदुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळु पत्तंं १० । उदयप्रकृतिगळु नूरनालकु १०४ देशसंयत गुणस्थानदोळु पदिनेछु गूडियनुदयंगळिष्पत्तेळ, २७ । उदयंळे भत्तेळ ८७ । प्रमत्तगुणस्थानदोळ, एंदुगूडियनुदय प्रकृतिगळ सूवत्तय्दरोळाहारकद्वयमं कळेदुदयंगलोल कूडुत्तं ५ विरलनुदबंगळु मूवत्तमूरु ३३ । उदयंगळेण्भत्तों दु ८१ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळ, अय्दुगू डियनुदयंगळ मूवते टु ३८ | उदयंगळेप्पत्तारु ७६ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोळु नाल्कुगू डियनुदयंगळ नात्वत्तेरडु ४२ । उदयंगळेप्पत्तेरडु ७२ । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानदोळा रुगूडियनुदयप्रकृतिगळ नातं ४८ | उदयगळवत्ता ६६ । सूक्ष्मसांपराप्रगुणस्थानदोळा रुगू डियनुदयंगळवत्त नालकु ५४ । उदयंगळरुवत्तु ६० । उपशांतकषाय गुणस्थानदोळों दुगूडियनुदमंगळवत्तदु ५५ । उदयंगळ१० व्वत्तो भत्तु ५९ | क्षीणकषायगुणस्थानदोळ, एरडुगूडियनुदयंगळय्वत्तेल, ५७ । उदयंगमय्वत्ते
गो० कर्मकाण्डे
५७ । सयोगिकेवलिभट्टारकनोळ, पदिनारुगूडियनुदयंगळे प्पत्तमूररोळ तीर्थंकरनाममं कळेदुदयंगोल, कूडुत्तं विरलनुदयंगळेप्पत्तेरडु ७२ । उदयंगळ, नाल्वत्तेरडु ४२ । अयोगिकेवलिभट्टारक
चतुरानुपूर्व्यसम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्दश १० । उदयः चतुरुत्तरशतं १०४ | देशसंयते सप्तदश संयोज्यानुदयः सप्तविंशतिः २७ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्ते अनुदयः अष्ट संयोज्य आहारकद्वयोदयात्त्रयस्त्रिंशत् ३३ | उदय १५ एकाशीतिः । ८१ । अप्रमत्ते पंच संयोज्य अनुदयोऽष्टात्रिंशत् ३८ । उदयः षट्सप्ततिः ७६ | अपूर्वकरणे चत्वारि संयोज्य अनुदयः द्वाचत्वारिंशत् ४२ । उदय: द्वासप्ततिः ७२ । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदयः अष्टाचत्वारिंशत् ४८ । उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसां पराये षट् संयोज्य अनुदयः चतुः पंचाशत् ५४ । उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एकां संयोज्य अनुदये पंचपंचाशत् ५५ । उदये एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदये सप्तपंचाशत् ५७ । उदयेऽपि सप्तपंचाशत् ५७ | संयोगे अनुदयः षोडश २० संयोज्य तोर्थकरत्वोदयाद् द्वासप्ततिः ७२ । उदवें द्वाचत्वारिंशत् ४२ । अयोगे त्रिशतं संयोज्य अनुदये
३०
४. असंयतमें एक मिलाकर तथा चारों आनुपूर्वी और सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होने से अनुदय दस । उदय एक सौ चार । व्यु. सतरह ।
५. देशसंयत में सतरह मिलाकर अनुदय सत्ताईस । उदय सतासी । व्यु. आठ ।
६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर अनुदय तैंतीस, क्योंकि आहारकद्वयका उदय है । उदय २५ इक्यासी । व्यु. पाँच ।
७. अप्रमत्त में पाँच मिलाकर अनुदय अड़तीस । उदय छिहत्तर । व्यु. चार ।
८. अपूर्वकरण में चार मिलाकर अनुदय बयालीस । उदय बहत्तर । व्यु. छह । ९. अनिवृत्तिकरण में छह मिलाकर अनुदय अड़तालीस । उदय छियासठ । १०. सूक्ष्मसाम्पराय में छह मिलाकर अनुदय चौवन । उदय साठ । व्यु. एक । ११. उपशान्तकषाय में एक मिलाकर अनुदय पचपन । उदय उनसठ । व्यु. दो । १२. क्षीणकषाय में दो मिलाकर अनुदय सत्तावन । उदय भी सत्तावन । व्यु. सोलह । १३. सयोगीमें सोलह मिलाकर अनुदयं बहत्तर क्योंकि तीर्थकरका उदय है । उदय बयालीस । व्यु. तीस |
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
४८१ गुणस्थानदोळ, मूवत्तुगूडियनुदयप्रकृतिगळ नूरेरडु १०२। उदयंगळ, पनेरडु १२ । संदृष्टि :
सकलेंद्रिययोग्य ११४
दे
उ
--------------------- व्यु । २ ४ १ १७ / ८५.४६६१ २१६३० १२
उ १०९ १०६ १०० १०४ ८७८१७६७२६६६०५९५७४२/ १२ / | अ । ५ १ ४ १० २७३३३८४२४८५४५५/५७७२१०२ । अनंतरं कायमार्गणेयो दययोग्यप्रकृतिगळं द्वयर्द्धगाथासूत्रदिदं पेन्दपरु :
एयं वा पणकाए ण हि साहारणमिणं च आदावं ।
दुसु तद्दुगमुज्जोवं कमेण चरिमम्मि आदावं ॥३०९।। एकेंद्रियवत्पंचकाये न हि साधारणमिदं चातपः द्वयोस्तद्वयमुद्योतः क्रमेण चरमे आतपः॥
एकेंद्रियवत्पंचकाये एकेंद्रियमार्गयोळ पेळदंते अय्, कायमार्गणेगळोळुदययोग्यप्रकृतिगळे भत्तप्पुवु ८० । अदेंते दोडे सामान्योदयप्रकृतिगळ १२२। नूरिप्पत्तेरडरोळु नारकायुष्यमुमं १। देवायुष्यमुमं १। मनुष्यायुष्यमुमं १। उच्चैर्गोत्रमुमं १ मनुष्यद्विकमुमं २। आहारकद्विकमुमं २ । वैक्रियिकषटकमुमं ६ । तीर्थमुमं १। विकलत्रयमुमं ३ । स्त्रीवेदमुमं १ । पुरुषवेदमुमं १० १ । स्वरद्वयमुमं २। विहायोगतिद्वयमुमं २। आदेयनाम मुमं १ । संस्थानाद्यपंचकमुमं ५। संहननषट्कमुमं ६ । सुभगनाममुमं १। सम्यक्त्वप्रकृतियुमं १। मिश्रप्रकृतियुमं १। औदारिकांगोपांगमुमं १। त्रसनाममुमं १। पंचेंद्रियजातिनाम मुम १ मनितु नाल्वत्तेरडु प्रकृतिगळं कळे दोडेतावन्मात्रं. गप्पुरिदं। अल्लि साधारणमं कळेदोडे पृथ्वीकायिकोदययोग्यप्रकृतिगळेप्पतो भत्तप्पुवु ७९ ।
(८०) मत्तमा एगभत्तुप्रकृतिगळोळ ई साधारणमुमं आतपनाममुमं कळेदोडकायिकोदययोग्यप्रकृति- १५ । द्वयुत्तरशतं १०२ । उदयो द्वादश । ३०६-३०८ ॥ अथ कायमार्गणायामाह
एकेंद्रियमार्गणावत् पंचकायमार्गणायामशीतिः ८० । तत्र साधारणेऽपनीते पृथ्वीकायिकोदययोग्या
१४. अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय एक सौ दो । उदय बारह ॥३०६-३०८।। विकलत्रय रचना
सकलेन्द्रिय योग्य ११४ मिसा | मि. सा. | मि. | अ. | दे. प्र. अ. अ. अ. सू. उ. क्षीस. अ. | १० २ ४१ १७८५ ४ ६ ६ १२ १६३० १२ |
१७१ | १०२ १०६ १०० १०४ ८७ ८१ ७६ ७२ ६६ ६०५९५७४२ १२ |०१८
| ५ ८।१४ | १० | २७ | ३३ | ३८ | ४२ | ४८ ५४५५५७७२१०२ | आगे कायमार्गणामें कहते हैं
एकेन्द्रिय मार्गणाकी तरह पाँच कायमार्गणामें उदययोग्य अस्सी ८० । उसमें-से _Jain Education interna-६१
२०
। उसमें
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गो० कर्मकाण्डे
(८०) गळेपत्तें टप्पुवु ७८ । मत्तमा एभत्तं प्रकृतिगळोळु असाधारणातपद्वयसहितमागि उद्योतनाममुमं कळेदोडे तेजस्कायिकवायुकायिकमेंबेरडेडेयोळमेप्पतछमप्पत्तेल प्रकृतिगळुदययोग्यंगळवु। ते ५७। वा ७७ । मत्तं कमेण चरिमम्मि आदावं ण हि वणस्पतिकायिकंगळोळाए भत्तरोळातप. नाममों दं कलेदोडुदययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तो भत्तप्पुवु ७९ । अंतागुत्तं विरलु पृथ्वीकायिकोदययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तो भत्तु ७९ । गुणस्थानंगळेरडप्पुर्वे तेंदोडे " हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेजदुगे एंदितु पारिशेषिक न्यायदिदं पृथ्वोकायिकंगळोळं अप्कायिकंगळोळं वनस्पतिकायिकगळोळं सासादनसम्यग्दृष्टि पुटुगुमप्पुरिदमल्लि पुटुवसासादनंगवस्थानकालमुत्कृष्टदिदमारा. वलि जघन्यदिदमेकसमयमेयप्पुरिदं तद्गुणस्थानदो दययोग्यमल्लद मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ आतप. नाममुं १ सूक्ष्मनाममुं १ अपर्याप्तनाममुमेंब नाल्कुं ४ प्रकृतिगळ यिद्रियपर्याप्तियिदं मेलुदयिसुव स्त्यानगृद्धित्रयमुं ३। उच्छ्वासपर्याप्तियिदं मेलुदयिसुव उच्छ्वासनाममुं १ शरीरपर्याप्तियिदं मेलुदयिसुव परघातनाममु १ मुद्योतनाममुं १ मितु पत्तुं प्रकृतिगळगं मिथ्यादृष्टियोळुदव्युच्छित्तियक्कुं १० । सासादननोळु अनंतानुबंधिचतुष्कमुं ४ एकेंद्रियजातिनाममुं १ स्थावरनाममु १ मिताएं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कु ६ मंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळनुदयं शून्यमुदयप्रकृतिगळेप्पत्तों भत्तु ७९ । सासादनगुणस्थानदोळनुदयंगळु पत्तु १० उदयंगळरुवत्तो भत्तु ६९ । संदृष्टि :
१५ एकान्नाशीतिः । ७९ । पुनस्तत्राशोत्यां साधारणातपद्येऽपनीतेऽप्कायिकोदययोग्या अष्टसप्ततिः ७८ । पुनस्तत्रा
शीत्यां साधारणातपोद्योतत्रयेऽपनीते तेजोवातकायिकयोरुदययोग्याः सप्तसप्ततिः ७७ । पुनः क्रमेण चरिमम्हि आतपेऽमनीते वनस्पतिकायिके उदययोग्याः एकान्नाशीतिः ७९ । तथासति पृथ्वी कायिकोदययोग्या एकान्नाशीतिः ७९ । गुणस्थानद्वयं कुतः ? णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगे य तेउदुगे । इति पारिशेष्यात् पृथ्व्य
प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः । तत्रोत्पन्नसासादनस्य तदगणस्थाने उदययोग्यानि मिथ्यात्वातपसूक्ष्मा२० पर्याप्तानि इंद्रियपर्याप्त्युपर्युदययोग्यस्त्यानगृद्धित्रयं उच्छ्वासपर्याप्त्युपर्युदययोग्योच्छ्वासः शरीरपर्याप्त्युपर्युदय
योग्यपरघातोद्योती एवं दश मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः १० । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं एकेंद्रियस्थावरं साधारण घटानेपर पृथ्वीकायिक में उदययोग्य उन्यासी ७९ । पुनः अस्सीमें-से साधारण और आतप घटानेपर अप्कायिकमें उदययोग्य अठहत्तर । पुनः अस्सीमें-से साधारण, आतप और
उद्योत घटानेपर तेजकाय और वायुकायमें उदययोग्य सतहत्तर । पुनः क्रमसे अन्तिममें २५ आतप घटानेपर वनस्पतिकायिक में उदययोग्य उन्नासी। ऐसा होनेपर पृथ्वीकायिकके
उदययोग्य उन्नासी। गुणस्थान दो क्योंकि आगममें कहा है कि सासादन मरण करके अपर्याप्तक, साधारणकाय, सूक्ष्मकाय, तेजकाय और वायुकायमें उत्पन्न नहीं होता। अतः वह पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पति में ही उत्पन्न होता है। उनमें उत्पन्न सासादनके उस गुणस्थानमें ये दस प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं हैं-मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त ये चार । तथा सासादन तो नित्यपर्याप्त दशामें ही रहता है और स्त्यानगृद्धि आदि तीन इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होनेपर ही उदययोग्य होती हैं। इसी तरह उच्छवासका उदय भी उच्छवास पर्याप्ति पूर्ण होनेपर ही होता है । परघात और उद्योत शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर ही उदययोग्य है अतः इन छहका उदय भी यहाँ सासादनमें नहीं होता। इससे इनकी
y
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका
पृथ्वी० यो० ७९
मि सा
१०. ६
०१०
व्यु
उ ७९ ६९
० १०
अकायिको दययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तेदु ७८ । मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ सूक्ष्मनाममुं १ अपर्याप्तनाममुं १ स्त्यानगृद्धित्रयमुं ३ परघातनाममुं १ उद्योतनाममुं १ उच्छ्वासनाममु १ मितोभत्तुं ९ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं । सासादननोळनंतानुबंधिचतुष्कमुं नाल्कु ४ एकेंद्रिय - जातिनाममुं १ स्थावरनाममुं १ मितारुं ६ प्रकृतिगळगुदययव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळनुदयं शून्य मुदयप्रकृतिगळेंप्पत्ते दु ७८ । सासादनगुणस्थानदोळनुदयंगळोभत्तु ९ । उदयंगळरुवत्तो भत्तु ६९ । संदृष्टि :
५
---
अ
अ० यो० ७८
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६९
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चेति षट् ६ । तथासति मिथ्यादृष्टावनुदयः शून्यं । उदयः एकान्नशीतिः ७९ सासादने अनुदयो दश १० । उदयः एकान्नसप्ततिः ६९ अप्कायिकोदययोग्याष्टसप्तत्यां ७८ मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः मिथ्यात्वं सूक्ष्मम पर्याप्तं त्यानगृद्धित्रयं परघातोद्योतोच्छ्वासाश्चेति नव । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कै केंद्रियस्थावराणि षट् । तथासति मिथ्यादृष्टावनुदयः शून्यं उदयोऽष्टसप्ततिः ७८ । सासादने अनुदयः नव ९ । उदयः एकान्नसप्ततिः ६९ ।
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व्युच्छित्ति मिध्यादृष्टि गुणस्थान में होती है । अतः मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति दुस । सासादन में अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय और स्थावर छह । ऐसा होनेपर मिध्यादृष्टि में अनुदय शून्य । उदय उनासी ७९ । सासादनमें अनुदय दस । उदय उनत्तर ६९ ।
अकायिक में उदययोग्य अठत्तर ७८ । मिध्यादृष्टि में व्युच्छित्ति मिथ्यात्व, सूक्ष्म अपर्याप्त, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, परघात, उद्योत, उच्छ्वास इन नौकी । सासादन में १५ अनन्तानुबन्धी चार एकेन्द्रिय स्थावर छह । ऐसा होनेपर मिध्यादृष्टिमें अनुदय शून्य । उदय अठहत्तर ७८ । सासादन में अनुदय नौ ९ । उदय उनहत्तर ६९ ।
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४८४
गो० कर्मकाण्डे अप्कायिकयोग्य ७८ तेजस्कायिकोदययोग्यप्रकृतिगळेप्पते ७७ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमो देवायुकायिकोदययोग्यप्रकृतिगळ मेप्पत्तेळ ७७ । यिल्लियु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमोदे वनस्पतिकायिकोदययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तो भत्तु ७९ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियुं १। सूक्ष्म
नाममुं १ अपर्याप्तनाममुं १ साधारणनाममुं १ स्त्यानगृद्धित्रितयमुं३। परघातनाममुं १। उच्छ्वास५ नाममुं १ उद्योतनाममुं १ यितु पत्तुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १० । सासादननोज अनंतानु
बंधिचतुष्कमुमं ४ एकेंद्रियजातिनामम १ स्थावरनाममं १ मितारुं ६ प्रकृतिगळगुवयव्युच्छित्तियक्कु ६ मंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळनुदयं शून्यमुदयं गळेप्पत्तो भत्तु ७९ । सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळनुदयप्रकृतिगळु पत्तु १० । उदयप्रकृतिगळरुवत्तो भत्तु ६९ । संदृष्टि :
वनस्पतियोग्य ७९
मि | सा
०
१०
अनंतरं त्रसकायमार्गणेयो दययोग्यप्रकृतिगळं पेन्दपरु :
तेजोवातकायिकोदययोग्याः सप्तसप्ततिः ७७ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं । वनस्पति कायिकोदययोग्यैकान्नाशीत्यां मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वसूक्ष्मापर्याप्त साधारणस्त्यानगुद्धित्रयरघातोच्छ्वासोद्योताः व्युच्छित्तिः १० । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कैकेंद्रियस्थावराणि ६९ तथासति मिथ्यादृष्टावनुदयः शून्यं उदयः एकान्नाशीतिः ७९ । सासादनेऽनुदयः दश १० । उदयः एकान्नसप्ततिः । ६९ ॥ ३०९ ॥ अथवसकायमार्गणायामाह
तेजकायिक, वायुकायिकमें उदययोग्य सतहत्तर ७७। गुणस्थान मिथ्यादृष्टि एक ।
वनस्पतिकायिकमें उदययोग्य ७९ उन्यासी । मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, परघात, उद्योत, उच्छ्वास इन दसकी व्युच्छित्ति । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार स्थावर सूक्ष्म छहकी व्युच्छित्ति । ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टिमें अनुदय शून्य । उदय उन्यासी ७९ । सासादनमें अनुदय दस १० । उदय उनहत्तर ६९ ॥३०९॥
पृथ्वीकाय रचना ७९ अप्काय रचना ७८ तेजोवातकाय रचना ७७ | मि. सा.
मि.
२०
मि
.
सा.
१०
७७
। १०
आगे त्रसकाय मार्गणामें कहते हैं
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४८५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ओघं तसे ण थावरदुग-साहरणेयतावमथ ओघं ।
मणवयणसत्तगे ण हि ताविगिविगलं च थावराणुचऊ ॥३१०॥ ओघस्त्रसे न स्थावरद्विक साधारणैकेंद्रियातपं अथ ओघः। मनोवचनसप्तके न हि आतपैक विकलेंद्रियं च स्थावरानुपूयं चत्वारि ॥
त्रसकायमार्गणेयोदययोग्यप्रकृतिगळु नूर पविनेळ ११७ पुवदेते दोर्ड केवलमेकेंद्रियोदययोग्यंगळप्प स्थावरनाममुं १ सूक्ष्मनाममुमं १ साधारणशरीरनाममुमं १ एकेंद्रियजातिनाममुमं १ आतपनाममुमं १ नितम्वु ५ प्रकृतिगळं सामान्योदयप्रकृतिगळ नूरिप्पत्तेरडरोळ कळेदोडे तावन्मानंगळप्पुरिदं। चतुर्गतिसाधारणमप्पुरिदं त्रसकायमार्गयोळ गुणस्थानंगळ पदिनाल्कुवप्पुवल्लि १४ मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुमपर्यापनाममुर्मितरडे प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं २। सासादननोळ अनंतानुबंधिचतुष्कमु ४ विकलत्रयमु ३ मितेप्रकृतिगळगुदय- १० व्युच्छित्तियक्कुं ७ । मिश्रनोळ मिश्रप्रकृतियों दे व्युच्छित्तियक्कं १। असंयतमोदल्गोंडु मेलेल्लडेयोळ गुणस्थानदोळ, पेन्दंतेयुदयव्युच्छित्तिगळ, पदिने एंटुमय् नाल्कुमारुमारुमो दुमेरपुं . पदिनारुं मूवत्तुं पन्नेरडुगळप्पुवंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळ, मिश्रप्रकृतियु १ सम्यक्त्वप्रकृतियुं १ आहारकद्विकमु२ तीर्थमु १ मितव्दु प्रकृतिगळ्गनुदयमक्कं ५ । उदयंगळ । नूर पन्नेरडु ११२। सासादनगुणस्थानदोलेरडु गूडियनुदयंगळेळरोळ, नारकानुपूळमनुदयंगळोळ १५ कळ दनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगलेंटु ८ । उवयंगळ नूरों भत्त १०९ । मिश्रगुणस्थानदोलेळ गूडियनुदयंगळ पदिनम्दरोळ शेषानुपूळ्यंत्रयमं कूडुत्तमल्लि मिश्रप्रकृतियं कळे दुदयंगळोळ कडुत्तं विरलनुदयंगळु पदिनेळ १७ । उदयंगळ नूरु १०० । असंयतगुणस्थानवोळों दुगूडियनु
त्रसकायिकोदययोग्यं सप्तदशोत्तरशतं ११७ । कुतः ? स्थावरसूक्ष्मसाधारणैकेंद्रियातपानामेकेंद्रियेष्वे. वोदयात् । गुणस्थानानि चतुर्दश १४ । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वापर्याप्तद्वयं व्युच्छित्तिः सासादनेऽनंतानुबंधि- २० वतुष्कं विकलत्रयं च । मिश्रे मिश्रं १ । असंयतादिषु गुणस्थानबत् सप्तदशाष्ट पंच चत्वारि षट् षडेकं द्वे षोडश त्रिंशत् द्वादश । तथासति मिथ्यादृष्टावनुदयः मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वयतीर्थकरत्वानि ५। उदयः द्वादशोत्तरशतं ११२ । सासादने अनुदयः द्वे नरकानुपूज्यं च मिलित्वा अष्टो ८ । उदयः नवोत्तरशतं । मिश्रे अनुदयः
त्रसकायिकमें उदययोग्य एक सौ सतरह ११७ । क्योंकि स्थावर, सूक्ष्म, साधारण एकेन्द्रिय और आतपका उदय एकेन्द्रियों में ही होता है। गुणस्थान चौदह १४। उनमें-से मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्व और अपर्याप्तकी व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धो चार और विकलत्रय । मिश्रमें मिश्र । असंयत आदिमें गुणस्थानोंकी तरह सतरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस, बारह । ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टिमें मिश्र सम्यक्त्व, आहारकद्विक और तीर्थकर पाँचका अनुदय । उदय एक सौ बारह ११२ । सासादनमें दो और नरकानुपूर्वी मिलकर अनदय आठ । उदय एक सौ नौ । मिश्र में सात और शेष तीन आनुपूर्वी मिलाकर तथा मिश्र प्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय ८+७+३ = १८ - १८ १. म कूडिमत्तमल्लि ।
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गो० कर्मकाण्डे दयंगळ, पदिनेटरोळ, सम्यक्त्वप्रकृतियुमं आनुपूव्यंचतुष्कमुमं ४ कळ दुदयंगळोळ, कूडुत्त विरलनुदयंगळ, पदिमूरु १३। उदयंगळ नूर नाल्कु १०४ । देशसंयतगुणस्थानदोळ पदिनेलुगूडियनुदयंगलु ३० मूवत्त, उदयंलण्भत्तेलु ८७ । प्रमत्तगुणस्थानं मोदल्गोंडु मेलेल्लेडयोलनु. दयोदयंगलु गुणस्थानकोळपेन्दतेयप्पुवु । संदृष्टि :--
त्रसकाय योग्य० ११७
"
|
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| उ ११२ १०९ १०० १०४ ८७८२७६७२६६/६०५९५७४२ १२ | अ । ५। ८ । १७ | १३ ३०३६/४१४५५१/५७५८६०७५/१०५ |
अथ मनोवचनसप्तके ओघः सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगंगलु नाल्कुं सत्यासत्योभयवाग्योगंगलु मूरुमितेलु ७ योगंगगुदययोग्यप्रकृतिगलु सामान्योदयप्रकृतिगलु नूरिप्पत्तेरडप्पु १२२ ववरोलातपनाममुमेकेंद्रियजातियुं विकलत्रयमुं स्थावरमुं सूक्ष्ममं अपर्याप्तनाममुं साधारण
सप्त शेषानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रप्रकृत्युदयात् सप्तदश १७ । उदयः शतं १००। असंयते अनुदयः १० एका संयोज्य सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयात् त्रयोदश १३ । उदयश्चतुरुत्तरशतं । १०४ । देशसंयते सप्तदश संयोज्य अनुदयः त्रिंशत् ३० । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्तादिषु अनुदयोदयौ गुणस्थानवत् । संदृष्टिः
त्रसकाययोग्य ११७ । मि | सा। मि । म | दे । प्र | अ अ अ | सू । उ । क्षी । स | अ व्यु २ । ७ १ १७८ ५४६ ६ १ २ । १६ । ३० | १२ | र ११२ | १०९ | १०० १.४ ८७ ८१ ७६ ७२ | ६६ ६० / ५९ | ५७ | ४२ । १२ ।
| ४१ । ४५ । ५१ । ५७ ५८। ६० । ७५ | १०५ | अथ सत्यादिषु चतुर्ष मनोयोगेषु त्रिषु वाग्योगेषु च ओघः १२२, तत्र आतपैकेंद्रियविकलत्रयस्थावरसतरह । उदय सौ। असंयतमें एक मिलाकर तथा सम्यक्त्व प्रकृति और चारों आनुपूर्वीका १५ उदय होनेसे अनदय तेरह । उदय एक सौ चार। देशसंयतमें सतरह मिलाकर अनदय तीस। उदय सतासी। प्रमत्तादि गुणस्थानों में अनुदय और उदय गुणस्थानवत् जानना ॥३१०।।
__ त्रसकाययोग्य ११७
प्र. अ. | मि. | अ. सू. उ. क्षी| स. अ. |
म.
सा.
मि.
अ. |
ड.
अन.
०/ १०४ ८७ ८१ | ७६ । ७२ | ६६ | ६० ५९५७ ४२ १२ | ५
३०३६ । ४१ । ४५ । ५१ । ५७/५८/६० ७५ १०५ | योगमार्गणामें सत्य आदि चार मनोयोगोंमें और सत्य असत्य उभय वचनयोगमें
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४८७ . . शरीरमुब स्थावरचतुष्टयमं आनुपूर्व्यचतुष्क मुमितु पदिमूरुं प्रकृतिगलं कळेदोडे नूरो भत्त प्रकृतिगळुदययोग्यंगलप्पु १०९ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों देयुदयव्युच्छित्तियक्कं १। सासादनोळु अनंतानुबंधिचतुष्टयमुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ । मिश्रनो मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १। असंयतनोळु भाषापर्याप्तियिदं मेलणयोगंगळप्पुरिदं नाल्कुमानुपूण्व्यंगळं कळेदु शेष पदिमूरुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १३। देशसंयतनोळु तृतीयकषायचतुष्कर्मु तिर्यगा- ५ युष्यमुं उद्योतनाममुं नोचैर्गोत्रमुं तिर्यग्गतिनाममुमितेष्टुं प्रकृतिगळगुदद्यव्युच्छित्तियककुं ८। प्रमत्तगुणस्थानं मोदलागि सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानपयंतं पंच य चउरं छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस तोसमें दितुदयव्युच्छित्तिगठप्पुवयोगिकेवलिगुणस्थानदोळु योगमिल्लप्पुरिदमल्लिय पन्नेरडं प्रकृतिगळ्ग सयोगिकेवलिगुणस्थानदोळुदयव्युच्छित्तियक्कुमदु कारणमागि सयोगकेवळि. गुणस्थानवोदयब्युच्छित्तिगळु नाल्वत्तरडुप्रकृतिगळप्पुवु ४२। अंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टि- १० गुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतियुं तीर्थमुमाहारकद्वयमुमितन्दु प्रकृतिगळ्गनुदयमक्कुं ५ । उदयंगळु नूर नाल्कु १०४ ॥ सासादनगुणस्थानदोको दुगुडियनुदयंगळु आरु ६। उदयंगळु नूर मूरु १०३। मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कु गूडियनुदयंगळु हत्तरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगलोलु कूडुत्तं विरलनुदयंगळो भत्तु९ उदयंगळु नूरु १००। असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळु हत्तरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियं कळेदुदर्यगळोळु कूडुतं विरलनुदयंगळों भत्तु ९ । उदयंगळु नूरु १०० ॥ देश- १५ संयतगुणस्थानदोळु पदिमूरुगूडियनुदयंगळिप्पत्तरंडु २२ । उदयंगळे भत्तेलु ८७। प्रमत्तगुणस्थानसूक्ष्मपर्याप्तसाधारणचतुरानुपूाणि उदययोग्यानि नेति नवोत्तरशतं ॥ १०९ ॥ तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं ४ । मिश्रे मिश्रं १। असंयते भाषापर्याप्तेम्परि योग्यसंभवात् आनुपूर्व्यचतुष्कं विना त्रयोदश १३ । देशसंयते तृतीयकषाय चतुष्क तिर्यगायुरुद्योतनोचैर्गोत्रतिर्यग्गतयोष्टौ ८ । प्रमत्तादिसयोगपयंतं पंचयचउरछक्कछच्चेव इगिद्गसोलसतीसमिति । अयोगे योगाभावात् तद्द्वादशानां सयोगे २० एव व्युच्छित्तचित्वारिंशत् । ४२ । तथासति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वतीर्थाहारकद्वयमनुदयः ५। उदयः चतुरुत्तरशतं १०४ । सासादने एकसंयोगादनुदयः षट् ६ उदयः ञ्युत्तरशतं १०३ । मिश्रेऽनुदयः चतुष्कं गुणस्थानकी तरह एक सौ बाईसमें-से आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और चार आनुपूर्वी इन तेरह के उदय बिना उदययोग्य एक सौ नौ १०९ । मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार । मिश्रमें २५ मिश्र । असंयतमें चार आनुपूर्वीके बिना तेरह, क्योंकि आनुपूर्वीका उदय तो नवीन भवको गमन करते समय होता है और मनोयोग वचनयोग अपनी पर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात होते हैं। इससे यहाँ आनुपूर्वीका उदय नहीं कहा। देससंयतमें तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय चार तिर्यंचायु उद्योत नीचगोच और तियंचगति ये आठ ८। प्रमत्तसे सयोगीपर्यन्त क्रमसे पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह । अयोगकेवलीमें योगका अभाव ३० होनेसे उसमें व्युच्छिन्न होनेवाली बारह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति सयोगकेवलीमें ही होनेसे सयोगीमें बयालीसकी व्युच्छित्ति जानना।
ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व, तीर्थकर, आहारकद्वय पाँचका अनुदय । उदय एक सौ चार १०४ । सासादनमें एक मिलनेसे अनुदय छह । उदय एक सौ तीन १०३ ।
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४८८
गो० कर्मकाण्डे दोळे टुगूडियनुदयंगळु मूवतरोळाहारकद्वयम कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगलिप्पत्ते टु २८ । उदयंगले भत्तोंदु ८१ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानमादियागि यथायोग्यमागियमनुदयंगलुमुदयप्रकृतिगलुमी प्रकारदिदं नडेसुत्त विरलु रचनेयितुटक्कं संदृष्टि :
मनो ४ वा ३ योग्यप्रकृति नूरवो भत्त १०९ ॥ | • मि सा | मि | अ दे प्र अ अ अ | सू उ क्षोस |
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उ १०४ १०३ १०० १०० ८७८१७६७२६६६० ५९५७४२ । अ ५। ६ ९ ९ २२२८३३ ३७४३/४९५०५२ ६७ / अनुभयवारयोगदोलुमौदारिककाययोगदोलमुदययोग्यप्रकृतिगलं पेन्दपरु :
अणुभयवचि वियलजुदा ओघमुराले ण हारदेवाऊ ।
वेगुव्वछक्कणरतिरियाणु अपज्जत्तणिरयाऊ ॥३११॥ अनुभयवाचि विकलयुत ओघः औदारिके नाहारदेवायुइँक्रियिकषट् नरतिर्यगानुपूठापर्याप्त नरकायः॥ १० संयोज्य मित्रोदयान्नव ९ उदयः शतं । १०० । देशसंयते त्रयोदशसंयोगे अनुदयो द्वाविंशतिः २२ । उदयः
सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्ते अष्ट संयोज्य आहारकद्वयोदयादनुदयः अष्टविंशतिः २८ । उदयः एकाशीतिः ८१ । अप्रमत्तादिषु अनुदयोदययोरेवं गच्छतोः संदृष्टिः
मनो ४ वा ३ योग्यप्रकृतयः १०९ । मि | सा | मि | अ । दे | प्र | ब | अ | अ | स | उ । क्षा | स १ । ४ । १ । १३ | ८ | ५ | ४ ६ | ६ | १ | २ । १६ । ४२ १०४|१०३१००/१००/८७/८१ | ७६ | ७२६६/६०। ५९| ५७ । ४२
५ । ६ । ९ । ९ । २२ | २८/३३ | ३७ | ४३ | ४९ / ५० | ५२ । ६७ ॥ ३१० । अनुभयवागौदारिककाययोगयोराह
१५ मिश्रमें चार मिलनेसे तथा मिश्रका उदय होनेसे अनुदय नौ ९। उदय सौ १०० । देशसंयतमें
तेरह मिलनेपर अनुदय बाईस २२ । उदय सत्तासी ८७। प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय अट्ठाईस २८ । उदय इक्यासी ८१ । अप्रमत्तादिमें अनुदय और उदय इसी प्रकार जानना ॥३१०॥
मनोयोग ४ वचनयोग ३ योग्य प्रकृतियाँ १०९ ___ मि. । सा. | मि. | अ. | दे. प्र.अ. अ. अ. स. उ. क्षी. स.
| १ ४ १ | १३ ८ ५/४ ६ ६ १ २ उदय. १०४ १०३/ १००१००८७८१/७६ ७२ | ६६ ६० | ५९ | ५७ अन्. ५ ६ ९ ९ २२२८/३३ ३७ ४३ | ४९ | ५० ५२ । ६७ .
व्य.
४२
| ४२
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४८९
अनुभयवाचि अनुभयवाग्योगदोळु विकलेंद्रियजातिनामत्रितयमं कूडि नूर पन्नेरडं प्रकृतिगळुदययोग्यंगळपूर्व के दोडनुभयवाग्योगं विकलत्रय जीवंगळ्गमुंटपुदरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियों वक्कमुदयव्युच्छित्तियक्कुं १ । सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्टयक्कुद..
कमुदयमपुर्दारवमेळ प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियक्कुं ७ ॥
मिश्रनो मिश्रप्रकृतियों बक्कमुदयव्युच्छित्तियक्कुं १ । असंयतनोळु पविमूरुं प्रकृतिगगुदयव्यु- ५ च्छित्तिक्कु १३ ॥ देशसंयता दिगुणस्थानंगळोळड पंच य चउर छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस बादाल प्रकृतिगळगे यथाक्रमविदमुदयन्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरल मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ मिश्रप्रकृत्यादि पंचप्रकृतिगानुदयमकं ५ । उदयंगळु नूरे १०७ । सासादनगुणस्थानदोळ ओदु गुडियनुवयंगळा ६ जवयंगळ नूरारु १०६ । मिश्रगुणस्थानबोळेळु गडियनुदयंगळु पविमूररोळ मिश्रप्रकृतियं कळेवुदयंगोल कूडुतं विरलनुदयंगळ पन्नेरड्डु १२ उदयंगळु नूरु १०० ।
* ...
10 ...
असंयत गुणस्थानवोळोंदु गुडियनदयंगळु पदिभूररोलु सम्यक्त्वप्रकृतियं कळवुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पन्नेरडु १२ । उदयंगळ, तूरु १०० | देशसंयत गुणस्थानदोळ परिसूदगूडियनुदयंगळिप्पस २५ । उबसंगळेण्भत्तेळु ८७ । प्रमत्तगुणस्थानदोळे दुगूडि यनुवयंगळ मूवत्तमूररोळ, आहारकद्वयमं कळेदुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळु मुवत्तों दु ३१ । उदयंगळेण्भत्तों दु ८१ । अप्रमत्त गुणस्थानवोळय्दुगूडि यनुदपंगळ, मूवत्तारु ३६ । उदयंगळेप्पत्तारु ७६ । अपूर्वकरण
१५
अनुभवायोगे विकलेंद्रियत्रये मिलितं द्वादशोत्तरशतं उदययोग्यं विकलत्रयजीवेष्वपि तद्योगसंभवात् । तत्र मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः १ । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं विकलत्रयं च ७ । मिश्र मिश्र १ । असंयते त्रयोदश १३ । देशसंयतादिषु अष्ट पंच चत्वारि षट् षडेकं द्वे षोडश द्वाचत्वारिंशत् । तथा सति मिथ्यादृष्टी मिश्रप्रकृत्यादिपंचकमनुदयः, उदयः सप्तोत्तरशतं १०७ । सासादने एक संयोज्य अनुदयः षट् ६ । उदयः षडुत्तरशतं १०६ । मिश्र सप्त संयोज्य मिश्रोदयादनुदयो द्वादश १२ । उदयः शतं १०० । असंयते एकं संयोज्य सम्यक्त्वोदयादनुदयः द्वादश १२ । उद्रयः शतं १०० | देशसंयते त्रयोदश संयोज्य अनुदयः पंचविंशतिः २५ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्ते अष्टौ संयोज्य आहारकद्वयोदयादनुदयः एकत्रिंशत् ३१ । उदयः एकाशीतिः
२०
अनुभय बचनयोग में तीन विकलेन्द्रिय मिलानेपर उदययोग्य एक सौ बारह क्योंकि विकलत्रय जीवों में अनुभय वचनयोग होता है । वहाँ मिध्यादृष्टिमें मिथ्यात्वको व्युच्छित्ति होती है । सासादन में अनन्तानुबन्धी चार और विकलत्रय इस तरह व्युच्छित्ति सात । मिश्र में मिश्र एक । असंयतमें तेरह १३ | देशसंयत आदिमें क्रमसे आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, बयालीस । ऐसा होनेपर -
२५
१. मिध्यादृष्टि में मिश्र प्रकृति आदि पाँचका अनुदय । उदय एक सौ सात । व्यु. एक । २. सासादनमें एक मिलाकर अनुदय छह । उदद्य एक सौ छह १०६ । व्यु. सात । ३. मिश्रमें सात मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे अनुदय बारह । उदय सौ | ४. असंयत में एक मिलाकर सम्यक्त्वका उदय होनेसे अनुदय बारह । उदय सौ । ५. देशसंयत में तेरह मिलाकर अनुदय पच्चीस । उदय सत्तासी । ६. प्रमत्त में आठ मिलाकर आहारकद्वयका उदय होनेसे अनुदय इकतीस | उदय
इक्यासी ।
क- ६२
३०
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४९०
गो० कर्मकाण्डे गुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयंगळ, नाल्वत्तु ४०। उदयंगळेप्पत्तरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणमुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तारु ४६ । उदयंगळरुवत्तारु ६६ । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थान. दोळारुगूडि यनुदयंगळय्वत्तरडु ५२। उदयंगळरुवत्तु ६०॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळोंदु
गूडिय नुदयंगळु अय्वत्तमूरु ५३ । उदयंगळय्वत्तो भत्त ५९ । क्षीणकषायगुणस्थानदो रडुगूडियनु ५ दयंगळय्वत्तदु ५५ । उदयंगळय्वत्तेळु ५७ ॥ सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळु पविनारुगूडियनुदयंगळेप्पत्तों दरोळु तीर्थमं कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ एप्पत्तु ७०। उदयंगळ नालवत्तरडु ४२ । संदृष्टि :
___ अनुभयवाग्योग प्र० ११२॥ | • मि | सा | मि | अ| दे | प्र अ अ अ 'सू उक्षी स ।
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| व्यु ।
१
।
| उ_ १०७ १०६ १०० १०० ८७ 1 ८१
६। १२ । १२ | २५ । ३१
७६
५९ ५७ । ४. ३६ ४०४६५२५३ ५५ । ७०
८१। अप्रमत्ते पंच संयोज्य अनुदयः षट्त्रिंशत् ३६ । उदयः षट्सप्ततिः ७६ । अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्य
अनुदयः चत्वारिंशत् ४० । उदयः द्वासप्ततिः ७२ । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्य अनुदयः षट्चत्वारिंशत् ४६ । १० उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांपराये षट् संयोज्य अनुदयः द्वापंचाशत् ५२ उदयः षष्टिः ६०। उपशांतकषाये
एका संयोज्य अनुदयः त्रिपंचाशत् ५३ उदयः एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्य अनुदयः पंचपंचाशत् ५५ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ । सयोगे षोडश संयोज्थ तीर्थकरत्वोदयात् अनुदयः सप्ततिः ७० । उदयः द्वाचत्वारिंशत् ४२ ।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय छत्तीस ३६ । उदय छियत्तर ७६ । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय चालीस ४० । उदय बहत्तर ७२ । ९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय छियालीस । उदय छियासठ। १०. सूक्ष्म साम्परायमें छह मिलाकर अनुदय बावन । उदय साठ ६०। ११. उपशान्तकषायमें एक मिलाकर अनुदय तिरपन । उदय उनसठ ५९ । १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय पचपन ५५ । उदय सत्तांवन ५७ । १३. सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय सत्तर ७० । उदय बयालीस १२।
अनुभय वचनयोगमें ११२ | मि. सा. | मि. | अ. | दे. प्र. अ. अ. अ. | सू. उ. मी. | स. |
२०
।
| उदय | १०७ १०६ १०० १०० ८७ ८१ ७६७२ ६६ | ६० ५९
अनुदय | ५|६| १२|१२|२५| ३ ३६४ ,६ र ५३
५७ । ४२ | ५। ७०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४९१
५
औदारिके ओघः औदारिककाययोगदोळ, सामान्योदय प्रकृतिगळ नूरित्पत्तेरडप्पु १२२ daरोळ, आहारकद्वयमुं देवायुष्यमुं वैक्रियिकषट्कनुं मनुष्यानुपूर्व्यमुं तिर्य्यगानुपूर्व्यमुं १ अपर्याप्रनाममुं नरकायुष्यमुं कूडि पदिमूरुं प्रकृतिगळं कळेयुत्तं विरलु शेषं नूरो भत्तु प्रकृतिगळौदारिककाययोगयोग्योदय प्रकृतिगळप्पु १०९ वल्लि तिर्य्यग्मनुष्यगतिद्वय संबंधियोगमपुर पदिमूरुं गुणस्थानं गळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोपय्र्याप्तनामवज्जितचतुःप्रकृतिगळ गुदयव्युच्छित्तियक्कं । सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्क मेकेंद्रियस्थावर विकलत्रयंगळे बो भत्तुं प्रकृतिगळं वयव्युच्छित्तिक्कु । ९ ॥ मिश्रनोळु मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कं । १ ॥ असंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्टयमुं दुभंगत्रयमुमितु एळु प्रकृतिगळ्गुदय व्युच्छित्तियक्कुं ७ ॥ देशसंयतनोळ तृतीयकषायचतुष्कमं तिर्य्यगायुष्यमुं उद्योतनाममुं नीचैर्गोत्रम् तिर्य्यग्गतिथुर्म' बेटु' प्रकृतिगळ गुवयव्युच्छित्तिक्कु ८ ॥ प्रमत्तगुणस्थानदोळु आहारकद्वयोदयमिल्लेके बोर्ड औदारिककाययोग- १० प्रवृत्तंगाहारक काययोगप्रवृत्तियिल्लप्पुर्दारदं स्त्यानगृद्धित्रयक्कुदयव्युच्छित्तियक्कु ३ । अप्रमत्ताविगुणस्थानंगळोळु यथाक्रर्मादिदं चउर छक्छ छच्चेव इगि दुग सोळस बादाळ प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळाहारकद्वयवजितानुदयंगळ मिश्रप्रकृतिसम्यक्त्व प्रकृतितीर्थनाममुमितु मूरु प्रकृतिगळप्पुवु । ३ । उदयप्रकृतिगळु नूरारु १०६ ॥ सासावन गुणस्थानवोळ, नालकुगू डियनुदयंगळेळ ७ उदयंगळ नररडु १०२ ॥ मिश्रगुणस्थानवोळो भत्तु- १५
औदारिककाययोगे द्वाविंशत्युत्तरशतमध्ये १२२ आहारकद्वयं देवायुः वैक्रियिकषट्कं मनुष्यतियंगानुपूर्व्ये अपर्याप्तं नरकायुश्च उदययोग्यं नेति नवोत्तरशतं १०९ । गुणस्थानानि त्रयोदश । तत्र मिध्यादृष्टी अपर्याप्तवजितव्युच्छित्तिः चत्वारि ४ । सासादने अनंतानुबंधि चतुष्कै केंद्रियस्थावरविकलत्रयाणि नव । मिश्र मिश्रं । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं दुर्भगत्रयं च । देशसंयते तृतीयकषात्रचतुष्कतिर्यगायुरुद्योतनीचैर्गोत्र तिर्यग्गतयोऽष्टौ । अस्मिन् योगे आहारकयोगप्रवृत्तिर्नास्तीति प्रमत्ते स्त्यानगृद्धित्रयं । अप्रमत्तादिषु क्रमेण 'चउरछक्क- २० छच्चेव इगिदुगसोलसवादाल' एवं सति मिथ्यादृष्टावनुदयः मिश्रसम्यक्त्वतीर्थंकरत्वानि ३ । उदयः षडुत्तरशतं १०६ । सासादने चतस्रः संयोज्य अनुदयः सप्त ७ । उदयो द्वयुत्तरशतं १०२ । मिश्रे नव संयोज्य मिश्रोदया
औदारिक काययोग में एक सौ बाईस में से आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, अपर्याप्त, नरकायु उदययोग्य नहीं हैं अतः एक सौ नौ १०९ २७ उदययोग्य हैं । गुणस्थान तेरह । उनमें से मिथ्यादृष्टि में अपर्याप्तको छोड़ चारकी व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर और विकलत्रय नौको व्युच्छित्ति है । मिश्र में मिश्र । असंयत में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, दुर्भाग आदि तीन । देश संयत में प्रत्याख्यानावरण कषाय चार, तिर्यंचायु, उद्योत तिर्यंचगति, नीचगोत्र ये आठ । औदारिक काययोग में आहारक काययोगकी प्रवृत्ति न होनेसे प्रमत्तमें स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी व्युच्छित्ति होती है । अप्रमत्तादिमें क्रमसे चार, छह, छह, एक, दो, सोलह और बयालीस की व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर -
I
३०
१. मिध्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व और तीर्थंकर तीनका अनुदय । उदय १०६ । २. सासादनमें चार मिलाकर अनुदय सात । उदय एक सौ दो १०२ ।
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४९२
गो० कर्मकाण्डे गूडियायप्रतिगळ, पदिनाररोळु मिश्रप्रकृतियं कलेदुदयंगळोळु कडुत्तं विरलनुदयंगळ, पदिनय्दु १५ । उदयंगळ तो भत्त नाल्कु ९४ ॥ असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुवयंगळु पदिनाररोळु सम्यक्त्वप्रकृतियं कलेदुदधप्रकृतिगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ, पदिनय्दु १५। उदयंगळ, तो भत्तनाल्कु ९४। देशसंयतगुणस्थानदोळेळ गूडियनुदयंगळिप्पत्तरडु २२ । उदयंगळेभत्तेळ ८७। प्रमत्तगुणस्थानदोळे दुगूडियनुदयंगळ मूवत्तु ३० । उदयंगळेप्पत्तो भत्तु ७९ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळ मूगगूडियनुदयंगळ मूवत्तमूरु । ३३ । उदयंगळेप्पत्तारु ७६ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयंगळ मूवत्तळ ३७। उदयंगळप्पत्तरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तमूरु ४३ । उदयंगळरुवत्तारु ६६ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळारुगूडियन
व्यंगळ नाल्वत्तो भत्तु ४९ । उदयंगळरुवत्तु ६०॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंग१० ळय्वत्तु ५० । उदयंगळय्वत्तो भत्तु ५९॥ क्षीणकषायगुणस्थानदोरडुगूडिदनुदयंगळयवत्तरडु ५२ ।
उदयंगळय्वत्तेळ ५७॥ सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळु पदिनारुगूडियनुदयंगळ रुवत्तेंटरोळ तीर्थमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळरुवत्तेलु ६७ । उवयंगळु नाल्वत्तेरडु ४२ । संदृष्टि : दनुदयः पंचदश १५ । उदयः चतुर्नवतिः ९४ । असंयते एका संयोज्य सम्यक्त्वोदयादनुदयः पंचदश १५ । उदयः चतुर्नवतिः ९४ । देशसंयते सप्त संयोज्य अनुदयः द्वाविंशतिः २२ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्ते अष्ट संयोज्य अनुदयः त्रिंशत् ३० । उदयः एकोनाशीतिः । अप्रमत्ते तिस्रः संयोज्य अनुदयः त्रयस्त्रिशत् ३३ । उदयः षट्सप्ततिः ७६ । अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्य अनुदयः सप्तत्रिशत ३७ । उदयः द्वासप्ततिः ७२ । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्यानुदयः त्रिचत्वारिंशत् ४३ । उदयः षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांपराये षट् संयोज्य अनदयः एकान्नपंचाशत ४९। उदयः षष्टिः ६.। उपशांते एका संयोज्य अनुदयः पंचाशत ५० उदयः
एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्यानुदयो द्वापंचाशत् ५२ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ । सयोगे षोडश २० संयोज्य तीर्थोदयादनुदयः सप्तषष्टिः ६७ । उदयः द्वाचत्वारिंशत् ४२ । ३११ ।
३. मिश्रमें नौ मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे अनुदय पन्द्रह १५। उदय चौरानबे ९४ । ४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्वका उदय होनेसे अनुदय पन्द्रह । उदय चौरानबे। ५. देशसंयतमें सात मिलाकर अनुदय बाईस २२ । उदय सत्तासी ८७ । व्युच्छित्ति आठ। ६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर अनुदद्य तीस ३० । उदय उन्यासी ७९ । व्युच्छित्ति तीन । ७. अप्रमत्तमें तीन मिलाकर अनुदय तैतीस ३३ । उदय छियत्तर ७६ । व्युच्छित्ति चार । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय सैंतीस ३७ । उदय बहत्तर ७२ । व्युच्छित्ति छह । ९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय तैंतालीस ४३ । उदय छियासठ । व्युच्छित्ति
छह । १०. सूक्ष्म साम्परायमें छह मिलाकर अनुदय उनचास ४९/ उदय साठ । व्युच्छित्ति एक । ११. उपशान्तमें एक मिलाकर अनुदय पचास । उदय उनसठ ५९ । व्युच्छित्ति दो। १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय बावन । उदय सत्तावन । न्युच्छित्ति सोलह । १३. सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय सड़सठ ६७ ।
उदय बयालीस ॥३११।।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका औदारिककाययोगोदययोग्य प्रकृतिगळ, १०९ । सा | मि | अ दे प्र अ अ अ सू
।
०
मि
उ
क्षी | स
। उ १०६ १०२ | ९४ ९४ ८७.७९ ७६ | ७२ ६६/६० | ५९ ५७ / ४२
अ ३, ७ | १५ | १५ २२३० ३३ ३७ ४३, ४९ ५० | ५२ अनंतरमौदारिकमिश्रकाययोगदोळुदययोग्यप्रकृतिगळ गाथाद्वयदिदं पेन्दपरु :
तम्मिस्सेऽ पुण्णजुदा ण मिस्सथीणतियसरविहायदुगं ।
परघादचऊ अयदे णादेज्जदुदुभगं ण संढित्थी ॥३१२॥ तन्मिश्रे अपूर्णयुता न मिश्रस्त्यानगृद्धित्रितयस्वरविहायोगतिद्वयं। परघातचतुष्कमसंयतेऽ- ५ नादेयद्विकदुर्भगं न षंढस्त्रीवेदौ ॥
साणे तेसिं छेदो वामे चत्तारि चोदसा साणे ।
चउदालं वोच्छेदो अयदे जोगिम्मि छत्तीसं ॥३१३॥ सासादने तासां छेदो वामे चतस्रः चतुदंश सासादने । चतुश्चत्वारिंशद्विच्छेदोऽसंयते योगिनि षत्रिंशत् ॥
तन्मिश्रे अपूर्णयुताः औदारिकमिश्रकाययोगिगळोळौदारिककाययोगिगळोळु पेळ्व नूरो भत्तु प्रकृतिगळोळु अपर्याप्त नाममं कूडि नूरहतुप्रकृतिगळप्पुववरोळु मिश्रप्रकृतियुं स्त्यानगृद्धित्रितयमुं स्वरद्विकमुं विहायोगतिद्विकमुं परघातातपोद्योतोच्छ्वासचतुष्कमुमितु पन्नेरडुं प्रकृतिगळं कळेदु शेषउदयप्रकृतिगळु तो भत्ते टुदययोग्यप्रकृतिगळप्पुवु ९८ । गुणस्थानंगळं नाल्कप्पुवु ४ । सामान्योअथौदारिकमिश्रकाययोगस्य गाथाद्वयेनाह
१५ तन्मिश्रयोगे औदारिकयोगोक्तनवोत्तरशते अपर्याप्ति निक्षिप्य मिश्रप्रकृतिः स्त्यानगृद्धित्रयं स्वरद्विकं विहायोगतिद्विकं परघातातपोद्योतोच्छ्वासाश्चेति द्वादशस्वपनीतेषु अष्टानवतिरुदययोग्याः ९८ । गुणस्थानानि
_औदारिक काययोग रचना । मि. सा. | मि. | अ. दे. | प्र. अ. अ. अ. | सू. उ. झी| स. | व्यु. ४ ९१ ७८ ३४ ६ ६ १ २ १६, ४२ | | उदय | १०६ १०२ ९४ ९४ ८७ | ७९ ७६ ७२ ६६ ६० ५९ ५७ ४२ | | अनुदय ३ ७ १५। १५ २२ ३० ३३ ३७ ४३ | ४९ ५० ५२ ६७ |
औदारिक मिश्रकाययोगमें दो गाथाओंसे कहते हैं__ औदारिक मिश्रकाययोगमें औदारिकयोगमें कहीं एक सौ नौमें अपर्याप्ति मिलाकर २० मिश्र प्रकृति, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति,
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४९४
गो० कर्मकाण्डे दपप्रकृतिगळु नूरिप्पतरडरोळाहारकद्विक, २। देवायुष्यमु १। वैक्रियिकषट्कमु ६ । मनुष्यतिर्यगानुपूर्व्यद्वितयमु २ नरकायुष्यमुं १ । मिश्रप्रकृतियु१। स्त्यानगृद्धित्रितयमुं ३ । स्वरद्वयमुं २। विहायोगतिद्वयमुं २ परघातचतुष्कमु ४ मितु चतुविशतिप्रकृतिगळं कळेदु शेषतों भत्तेंदु
प्रकृतिगळे बुदत्य । ई प्रकृतिगळिप्पत्तनाल्कुमेककळदुवे दोडे नरकगति देवगतिसंबंधिगळं पर्याप्त५ काल संबंधिगळं विग्रहगत्युदययोग्यंगळुमप्पुदरिनो औदारिकमिश्रकाययोगिगळगुदययोग्यंगळल्तप्पु
दरिदं । असंयते असंयतगुणस्थानदोळनादेयायशस्कोत्तिदुर्भगषंढस्त्रीवेदंगळे बी पंचप्रकृतिगळगुदयमिल्ला प्रकृतिगळ्गे सासादननोळुदयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टियोळु पर्याप्तियिदं मेलुदयिसुगुमप्पुरिदमातपनाममं कळेदु शेषमिथ्यात्वप्रकृतिसूक्ष्मत्रितयमंतु नाल्कुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियकुं ४ । चतुर्दश सासादने सासादननोळु अनंतानुबंधिकषायचतुष्कमुमेकेंद्रिय स्थावरविकलत्रय अनादेय अयशस्कोत्ति दुब्र्भगषंढवेद स्त्रीवेदमें ब चतुर्दशप्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं १४ । असंयतनो द्वितीयकषायचतुष्टयमुं ४ । देशसंयतादिक्षीणकषायपर्यंतमादगुणस्थानत्तिगळौदारिकमिश्रकाययोगमिल्लप्पुरिदमा गुणस्थानंगळोळु यथाक्रमदिद देशसंयतनो द्योतज्जितसप्तप्रकृतिगळ७ प्रमत्तनोलु एनुमिल्लेके दोडे आहारतिक, स्त्यानगृद्धित्रितयमुं कळेदुवप्पु
दरिदं । अप्रमत्तनोळु नाल्कु ४। अपूर्वकरणनोळारु ६। अनिवृत्तिकरणन पंढस्त्रीवेदद्वयरहित१५ चत्वारि ४ । सामान्योदय प्रकृतिषु आहारकद्विकं देवायुर्वेक्रियिकषट्क मनुष्यतिर्यगानुपूर्ये नरकायुः मिश्रप्रकृतिः
स्त्यानगृद्धि त्रयं स्वरद्वयं विहायोगतिद्वयं परघातचतुष्कं चेति चतुर्विशतिः कुतो नेति चेत् नरकदेवगतिपर्याप्तकालविग्रहगतिसम्बन्धिनीनामत्रानुदयात् । असंयते अनादेयायस्कीतिदुर्भगषंढस्त्रीवेदानामुदयो नहि सासादने एव व्युच्छित्तेः । तथासति मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं सूक्ष्मत्रयं च व्युच्छित्तिः आतपस्य पर्याप्तेरुपर्युदयात् । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं एकेन्द्रियस्थावरविकलत्रयानादेयायशस्कोतिदुर्भगषंढस्त्रोवेदाश्चेति चतुर्दश. १४ । असंयते स्वस्य द्वितीयकषायचतुष्कं तथा क्षीणकषायांतेषु अस्य योगस्याभावाद्देशसंयतस्योद्योतं विना सप्त । प्रमत्तस्य परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास ये बारह घटानेपर उदययोग अठानबे ९८ । गुणस्थान चार।
___ शंका-सामान्य उदय प्रकृतियोमें-से आहारकद्विक, देवायु, वैक्रियिकषट् , मनुष्यानुपूर्वी, तियेचानुपूर्वी, नरकायु, मिश्रप्रकृति, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, सुस्वर, दुःस्वर, दो २५ विहायोगति, परघातादि चार, इन चौबीसका उदय यहाँ क्यों नहीं है ?
समाधान-यहाँ नरकगति, देवगति, पर्याप्तकाल और विग्रहगति सम्बन्धी प्रकृतियोंका उदय नहीं होता।
___ असंयतमें अनादेय, अयशस्कीति, दुर्भग, नपुंसक और स्त्रीवेदका उदय नहीं होता। अतः उनकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही हो जाती है। ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व और सूक्ष्म आदि तीनकी व्युच्छित्ति होती है क्योंकि आतपका उदय पर्याप्ति पूर्ण होनेपर होता है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, विकलत्रय, अनादेय, अयशःकीति, दुभंग, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद इन चौदहकी व्युच्छित्ति है। असंयतमें अपनी अप्रत्याख्यानावरण कपाय चार तथा क्षीणकपाय गुणस्थान पर्यन्त औदारिक मिश्रयोगका अभाव
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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चतुः प्रकृतिगळु ४ सूक्ष्मसांपरायनों दु लोभमुं १ उपशांतकषायन वज्रनाराचनाराचद्वयमुं २ | क्षीणकषायन पदिनारुं १६ यितसंयतनोळु चतुश्चत्वारिंशत्प्रकृतिगळ गुदयव्युच्छित्तियक्कु ४४ । योगिनि षट्त्रंशत् सयोगिकेवलिभट्टारकंगे कवाटसमुद्घातदोळौदारिकमिश्रकाययोगमुंटपुर्दारदमल्लि नात्वत्तेरडुं प्रकृतिगळोळु स्वरद्विकमुं विहायोगतिद्विकमुं परघातमुमुच्छ्वासमुमितारु प्रकृतिंगळगुदय मिल्लप्पुद रिदमवं कवाटसमुद्घातयोगियोळु कळेदु शेषप्रकृतिगळ, मूवत्तारक्कुदय
छत्तियक्षु ं गुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुं तीर्थ करनाम मुमेर डुमनुवयंगळप्पुवु । उदयंगळु त्तो भत्तारु ९६ । सासादनगुणस्थानदोळ, नात्कुगूडिदनुदयंगळारु ६ । उद मंगळ तो भत्तेर ९२ ॥ असंयतगुणस्थानदोळ पदिनात्कुगू डियनुदयंगळिप्पत्तरोळु सम्यक्त्व - प्रकृतियं कळवुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ हत्तो भत्तु । १९ । उदयंगळेप्यत्तो भत्तु ७९ ॥ सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळु नाल्वत्तनात्कुगूडियनुदयंगळरुवत्त मूररोळ तीर्थंकरनाममं कळेदु- १० बयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयप्रकृतिगरुवत्तेरडु ६२ । उदयप्रकृतिगळ, मूवत्तारु ॥३६॥ संदृष्टि : औदारिक मिश्र० योग्य ९८ ।
O मि सा अ
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उ
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४ १४ ४४
३६
९६ ९२ ७९ ३६
६ १९ ६२
स
२
आहारकद्वयस्त्यानगृद्धित्रयं विना शून्यं । अप्रमत्तस्य चतस्रः । अपूर्वकरणस्य षट् । अनिवृत्तिकरणस्य षंढस्त्रीवेदी विना चतस्रः सूक्ष्मसांपरायस्य लोभः उपशांतकषायस्य वज्रनाराचनाराचद्वयं । क्षीणकषायस्य षोडश चेति चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । योगिनि षट्त्रिंशत् । कपाटसमुद्घातकाले स्वरद्र्यविहायोगविद्वय परघातोच्छ्वा- १५ सानामनुदयात् । तथासति मिथ्यादृष्टौ सम्यक्त्वं तीर्थं चानुदयः, उदयः षण्णवतिः । सासादनेऽनुदयः चतुःसंयोगात् षट् । उदयः द्वानवतिः ९२ । असंयते चतुर्दश संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात् अनुदयः एकान्नविंशतिः १९ । उदयः एकान्नाशीतिः ७९ । सयोगे अनुदये चतुः चत्वारिंशतं संयोज्य तीर्योदयात् द्वाषष्टिः ६२ । उदयः होनेसे देशसंयतकी उद्योतके बिना सात, प्रमत्तकी आहारकद्वय और स्त्यानगृद्धि आदि तीन न होनेसे शून्य, अप्रमत्तकी चार, अपूर्वकरणकी छह, अनिवृत्तिकरणकी नपुंसक वेद स्त्रीवेद के बिना चार, सूक्ष्म-साम्परायका लोभ, उपशान्तकपायकी वज्रनाराच, नाराच दो, क्षीणकषायकी सोलह इस प्रकार चवालीसकी व्युच्छित्ति होती है । सयोगीमें छत्तीस की व्युच्छित्ति होती है; क्योंकि औदारिक मिश्रयोग कपाट समुद्घातके समय होता है और उस समय सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति, परघात और उच्छ्वासका उदय नहीं होता |
२०
ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टिमें सम्यक्त्व और तीर्थंकरका अनुदय, उदय लियानबे । सासादनमें चार मिलानेसे अनुदय छह, उदय बानवे । असंयत में चौदह मिलानेसे तथा सम्यक्त्व
५
२५
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गो० कर्मकाण्डे अनंतरं वैक्रियिककाययोगिगळगदययोग्यप्रकृतिगळं पेळ्दपरु :
देवोघं वेगुव्वे ण सुराणू पक्खिवेज्ज णिरयाऊ ।
णिरयगदिहुंडसंद दुग्गदि दुब्भगचउण्णीचं ॥३१४॥ देवौधो वैक्रियिके न सुरानुपूज्यं प्रक्षिपेन्नरकायुनरकगतिहंडपंढं दुर्गतिदुभंग चतुर्नीचं ॥
देवौधो वैक्रियिके वैक्रियिककाययोगदोळु सामान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तेरडु १२२। आ नूरिप्पत्तेरडरोळु स्थावरद्विकमु २। तिर्यरिद्वकमुं २ । आतपद्विक, २। एकेंद्रियजातिनाममुं १ । विकलत्रयमु३ । साधारणशरीरमु१। मनुष्यायुष्यमु१। तिर्यगायुष्यमु१। नरकायुष्यमु१। नारकटिकमु२। अपर्याप्तनाममु१। आहारकद्विकमु२। तीत्थंकरनाममुं१। पंडवेदमु१।
दुर्भगचतुष्कमु४ । नोचैर्गोत्रमु१। स्त्यानगृद्धित्रितयमु३। अप्रशस्तविहायोगतियु१। संहनन१० षट्कमु६। चरमसंस्थानपंचकमु५। औदारिकद्विकमु२। मनुष्यद्विकमु २। मितु नाल्वत्तस्यूँ
प्रकृतिगळ ४५ । कळेदुशेषमेप्पत्तेळ प्रकृतिगळ देवगतिसामान्योदययोग्यप्रकृतिगळप्पुबु ७७ । देवौघो वैक्रियिके देवगतिसामान्योदययोग्यप्रकृतिगळेप्पत्तळरोळ देवानुपूय॑मं कळेदेपत्ताररोळ नरकायुष्यमु१ नरकगतियु१ हुंडसंस्थानमु१ षंढवेदमु१ अप्रशस्तविहायोगतियु।। दुभंग
चतुष्क, ४ । नोचैग्र्गोत्रमुं-१ मितुं पत्तु प्रकृतिगळे १० प्रक्षिपेत् कूडुवुदंतु कूडुत्तं विरलु वैक्रियिक१५ काययोगोदययोग्यप्रकृतिगळे भत्तारु ८६ । अल्लि मिथ्यादृष्टियो मिथ्यात्वप्रकृतियों दक्कुदय
व्युच्छित्तियकुं १॥ सासादननोळु अनंतानुबंधिचतुष्टयक्कुदयव्युच्छित्तियक्कु ४ ॥ मिश्रनोळु मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कु १ मसंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्क{ ४ देवगतियु१ नरकगतियु१ वैक्रियिकद्विकमुं२। नारकायुष्यमुं १ देवायुष्यमुं १ दुभंगत्रयमु ३ मितु पदिमूरुं प्रकृतिगळगुदय
व्युच्छित्तियक्कु १३ । मंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियु२० मितरडुं १ प्रकृतिगळ्गनुदयमक्कुं। उदयंगळे भत्तनाल्कु ८४। सासादनगुणस्थानदोळो दुगुडियनुषट्त्रिंशत् ३६ । ३१२ । ३१३ । अथ वैक्रियिककाययोगस्याह
देवगतिसामान्योक्तसप्तसप्तत्यां देवानुपूर्व्यमपनीय नरकायुः नरकगतिहुंडसंस्थाने पंढवेदः अप्रशस्तविहायोगतिर्दुभंगचतुष्कं नोचैर्गोत्रं चेति दशसु प्रक्षिप्तेषु वैक्रियिककाययोगोदययोग्याः षडशीतिः ८६ । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिमिथ्यात्वं १ सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्रे मिश्रं । असंयते द्वितीयकषायचतुष्क
-
-
-
२५ प्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय उन्नीस । उदय उन्यासी ७९ । सयोगीमें अनुदय में चवालीस मिलानेसे तथा तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय बासठ ६२। उदय छत्तीस ३६ ॥३१२-३१३।।
आगे वैक्रियिक काययोगमें कहते हैं
देवगति सामान्यमें कही गयीं सतहत्तर प्रकृतियोमें-से देवानुपूर्वीको घटाकर नरकायु, नरकगति, हुण्डसंस्थान, नपुंसकवेद, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:, कीर्ति और नीचगोत्र मिलानेपर वैक्रियिक काययोगमें उदययोग्य छियासी ८६ हैं। उसमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार । मिश्रमें मिश्र । असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण चार, देवगति, नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग,
३०
i
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
४९७
वयंगळु मूरु ३ । उदयंगळे भत्त मूरु ८३ । मिश्रगुणस्थानदोळ, नालकुगूडियनुदयंगळेळरोळु मिश्रप्रकृतियं कळे बुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळारु ६ । उदयंगळेणभत्तु ८० ॥ असंयतगुणस्थानदोळो बुगू डियनुदयंगळेळरोळु सम्ययत्वप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुवयंगळाद ६ । उदयंगळेभत्तु ८० |
वैक्रियिककाययोग्य ८६
०
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१ ४
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उ ८४ ८३ ८०
अ २ ३ ६
अनंतरं वैक्रियिकमिश्रकाययोगयोग्योदयप्रकृतिगळं द्वचर्द्धगाथासूत्रददं पेव्वपरु :वेगुव्वं वा मिस्से ण मिस्स परघाद - सरविहायदुगं ।
साणे ण हुं डढं दुब्भगणादेज्ज अज्जस्यं ॥ ३१५ ॥
वैfotusaन्मिश्रेन मिश्र परघातस्वरविहायोगतिद्विकं । सासावने न हुंडषंढं वुडभंगानादेयायशः ॥
णिरयगदि आउणीचं ते खित्तयदेवणिज्ज थीवेदं । छगुणं वाहारेण थीणतिय - संढथीवेदं ॥ ३१६॥
नरकगतिरायुनचं ताः क्षिप्त्वाऽसंयतेऽपनयेत् । स्त्रीवेदं षष्ठगुणवदाहारे न स्त्यानगृद्धित्रयं पंढस्त्री वेदं ॥
१
१३
८०
देवनरकगति वै क्रियिकद्विकदेवनार का युदुभंगत्रयाणि १३ । एवं सति मिथ्यादृष्टौ मिश्रं सम्यक्त्वं चानुदयः २ । उदयश्चतुरशीतिः ८४ । सासादने अनुदये एकसंयोगात्त्रयं ३ उदयस्त्र्यशीतिः ८३ । मिश्रे चत्वार्यनुदये संयोज्य १५ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदयात् षट् ६ । उदयः अशीतिः ८० । असंयते अनुदये एकां संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात् षट् । उदयः-अशीतिः ८० ॥ ३१४ || अथ वैक्रियिकमिश्रयोगस्य द्वयर्धगाथासूत्रेण बाह
देवायु, नरकायु, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय तेरह १३ की व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर१. मिथ्यादृष्टिमें मिश्र और सम्यक्त्वका अनुदय । उदय चौरासी ८४ ।
२. सासादनमें एक मिलाकर अनुद्य तीन । उदय तेरासी ८३ ।
२०
३. मिश्र में चार मिलाकर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुदय होनेसे अनुदय छह | उदय अस्सी ।
४. असंयत में एक मिलाकर सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय छह । उदय अस्सी ८० ||३१४॥
डेढ़ गाथासे वैक्रियिक मिश्रयोगमें कहते हैं—
१०
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गो० कर्मकाण्डे
वैक्रियिकवन्मिने वैक्रियिककाययोगदोळेतते वैक्रियिकमिश्रकाययोगदोळमेण्भत्तारप्युववरोळु मिश्रप्रकृतियु१। परघातद्विक, २। स्वरद्विक, २। विहायोगतिद्विक, २। मितेलं प्रकृतिगळ न नास्ति यिल्लदु कारणमागियवं कळेयुत्तिरलु येप्पत्तों भत्तु प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पु
७९ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियों दे व्युच्छित्तियक्कुं १॥ सासादने सासादननोळ, ५ हुंडसंस्थानमु षंडवेदमु दुभंगत्रयमु३ नरकगतियु१ नरकायुष्यमु१ नोचैग्र्गोत्रमु१ । मिते टुं प्रकृतिगळुदयमिल्लेक दोडे:
णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदित्ति य यब नियममुंटप्पुदरिनी वैक्रियिकमिश्रकाययोगिनारकं सासादननिल्लप्पुरिदमवनातनोळनदयंगळं माडि यसंयतनोळ कूडुवुदु मत्तमसंयतनुदय
प्रकृतिगळोळु स्त्रीवेदमुं कळेदु सासादननोदयव्युच्छित्तियं माडुत्तं विरलु सासादननोळनंतानुबंधि १० चतुष्टयमु स्त्रीवेदमं मितय्दुं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तियक्कुं ५। असंयतनोळ द्वितीयकषायच
तुष्कमु४। वैक्रियिकद्विकमु२। नरकगतियु १ नरकायुष्यमु१। देवगतियुं १ देवायुष्यमु१। दुभंगत्रयमु३। मितु पदिमूरु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु १३। मंतागुतं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ सम्यक्त्वप्रकृतिगनुदयमकुं १। उदयप्रकृतिगळेपत्तेटु ७८ । सासादनगुण
स्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळेरडु २। मत्तंमु पेळ्द हुंडसंस्थानाद्यष्टप्रकृतिगळनुदयदोळ कळेदनु१५ दयदोळ कुडुत्तं विरलनुदयंगळु पत्तु १०। उदयंगळरवत्तों भत ६९ ॥ असंयतगुणस्थानदो
वैक्रियिकयोगवत्तन्मिश्रयोगे इति षडशोत्यां मिश्रं परघातद्विक स्वरद्विकं विहायोगतिद्विकं चेत्येकोनाशीतिरुदययोग्याः ७९ । तत्र मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः। सासादने नरकगमनाभावात् हुंडसंस्थानपंढवेददुर्भगत्रयनरकगतिनरकायुर्नीचर्गोत्राण्यनुदयं कृत्वा असंयते निक्षिप्य असंयतोदयाच्च स्त्रीवेदमनंतानुबंधिचतुष्क
च व्युच्छित्ति कुर्यात् ५। असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं वैक्रियिकद्विकं देवनारकगती तदायुषो दुभंगत्रयं चेति २० त्रयोदश । तथासति मिथ्यादृष्टावनुदयः सम्यक्त्वप्रकृतिः १ उदयः अष्टसप्ततिः ७८ । सासादनेऽनुदयः सम्यक्त्वप्रकृती मिथ्यात्वं प्रागुक्तहुंडसंस्थानाद्यष्टकं च मिलित्वा दश १० । उदयः एकान्नसप्ततिः ६९ । असंयते
वैक्रियिक मिश्रयोगमें क्रियिक योगकी तरह छियासी प्रकृतियां हैं किन्तु उसमें से मिश्र, परघात, उच्छ्वास, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति ये सात न होनेसे
उदययोग्य उन्यासी ७९ हैं। उसमें मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है । सासादन २५ मरकर नरकमें नहीं जाता इसलिए सासादनमें हुण्ड संस्थान, नपुंसकवेद, दुर्भग, दुःस्वर,
अनादेय, नरकगति, नरकायु और नीचगोत्रका उदय नहीं होता। इसलिए इन्हें असंयतमें रखना । वहीं इनका उदय होता है। अतः सासादनमें स्त्रीवेद और अनन्तानुबन्धी चार मिलकर पाँचकी व्युच्छित्ति होती है । असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, वैक्रियिक
शरीर, वे क्रियिक अंगोपांग, देवगति, नरकगति, देवायु, नरकायु, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय इन ३० तेरहकी व्युच्छित्ति होती है । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टिमें अनुदय सम्यक्त्व प्रकृति एक । उदय अठहत्तर ।
२. सासादनमें सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और पूर्व में कही हुण्डसंस्थान आदि आठ मिलकर अनुदय दस । उदय उनहत्तर ६९ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ळय्दुगूडियनुदयंगळु पदिनय्दरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं हुंडसंस्थानाधष्टप्रकृतिगळ मंतु ओंभत्तं प्रकृतिगळं कळेदुवयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुवयंगळारु ६ । उदयंगळेप्पत्त मूरु ७३ । संदृष्टि :
वै० मि० योग्य ७९ • मि | साम
अ
उ
७
८
६९७३
अ १ १० षष्ठगुणवदाहारे आहारककाययोगदोलुदययोग्यप्रकृतिगर्छ प्रमत्तगुणस्थानदोळु पेळदेण्भत्तों दे प्रकृतिगळप्पुववरोळु स्त्यानगृद्धित्रितयमु.३ षंढवेदनु १ स्त्रीवेदमु१।
दुग्गदिदुस्सरसंहदि ओरालदु चरिमपंचसंठाणं ।
ते तम्मिस्से सुस्सर परघाददुसत्थगदिहीणा ॥३१७॥ दुग्गतिदुस्वरसंहननौवारिकद्विक चरम पंचसंस्थानं । ताः तन्मिश्रे सुस्वरपरघातद्विकशस्तगतिहीनाः॥
अप्रशस्तविहायोगतियुं १ । दुःस्वरनाममुं १ । संहननषट्कमु ६ औदारिकद्विक, २। चरम- १० पंचसंस्थानंगळु ५ मितु विशतिप्रकृतिगळाहारककाययोगिप्रमत्तसंयतनोळु दयायोग्यंगळप्पुरिदमवं कळदोडे शेषमस्वत्तोंदु प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु ६१ । तास्तन्मिभे आहारकमिश्रकाययोगिप्रमतसंयतनोळा प्रकृतिगळरुवत्तो देयप्पुवरोळ सुस्वरमुमं १ परघातोच्छ्वासद्वितयमुमं २। प्रशस्तविहायोगतियु १। मनितु नाल्कुं प्रकृतिगळं कळेदोडे शेषप्रकृतिगळय्वत्तेळुदययोग्यंगळप्पुवु ५७॥
अनुदयः पंच मिलित्वा सम्यक्त्वप्रकृतिहुंडसंस्थानाद्यष्टकोदयात् षट् ६ । उदयस्त्रिसप्ततिः ७३ । आहारक- १५ काययोगे षष्ठगुणस्थानोक्तकाशीत्यां ८१ स्त्यानगृद्धित्रयं षंढवेदः स्त्रीवेदः नास्ति ॥ ३१५-३१६ ॥
अप्रशस्तविहायोगतिः दुःस्वरं संहननषट्कमौदारिकद्विकं चरमपंचस्थानानीति विंशतिर्नेत्युदययोग्याः एकान्नषष्टिः ६१ । तन्मिश्रयोगे ता एवैकषष्टिः सुस्वरपरघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगत्यूनाः सप्तपंचाशद्भ
३. असंयतमें मिथ्यात्व और सासादनमें व्युच्छित्ति पाँच मिलकर अनुदय छह । क्योंकि यहाँ सम्यक्त्व प्रकृति और हुण्ड संस्थान आदि आठका उदय है । अतः उदय तिहत्तर ।
आहारक काययोगमें छठे गुणस्थानमें उदययोग्य इक्यासी ८१ में-से स्त्यानगृद्धि आदि तीन, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर, संहनन छह, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, अन्तके पांच संस्थान ये बीस उदय योग्य नहीं हैं। अतः उदययोग्य इकसठ । आहारक मिश्रयोगमें इकसठमें-से सुस्वर, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगतिका उदय न होनेसे उदययोग्य सत्तावन हैं ॥३१५--३१६।।
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५००
गो० कर्मकाण्डे अनंतरं कार्मणकाययोगोदययोग्यप्रकृतिगळं गाथाद्वदिदं पेळदपक :
ओघ कम्मे सरगदिपत्तेयाहारुरालदुग मिस्सं ।
उवघादपणविगुव्वदु थीणतिसंठाण-संहदी पत्थि ॥३१८॥
ओघः कार्मणे स्वरगतिप्रत्येकाहारौदारिक द्विकमिश्रं उपघातपंचवैक्रियिकद्विकस्त्यानगृद्धि५ त्रितयसंस्थानसंहननं नास्ति ॥
कार्मणे ओघः कार्मणकाययोगदोळु सामान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तेरडप्पुवयरोळ सुस्वर . दुस्वरद्विक, २। प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्विकमुं २। प्रत्येकसाधारणशरीरद्विकमुं २ । आहारकाहारकांगोपांगद्विकमुं २। औदारिकौदारिकांगोपांगद्विकमुं२। मिश्रप्रकृतियु१। उपघातपरघाता
तपोद्योतोच्छ्वासपंचकमुं५ वैक्रियिकशरोरतदंगोपांगद्विक, २ । स्त्यानगृद्धिनितयमुं ३ । संस्थान१० षटकमुं६। संहननषट्कमु ६ मितु मूवत्तमूरं प्रकृतिगळं ३३ कळेदोडे शेषप्रकृतिगळण्भतो भत्तु
दययोग्यंगळप्पुवु ८९ वलि । अनादिसंसारदोळु विग्रहगतियोळमविग्रहगतियोळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिगुणस्थानमवसानमागि पदिमूरुं गुणस्थानंगळोळु कार्मणशरीरक्के निरंतरोदयमुंटागुत्तं विरलु विग्रहगतौ कर्मयोगः एंदितु सूत्रारंभमेके दो सिद्ध सत्यारंभो नियमाय
एंदु विग्रहगतौ कर्मयोग एव नान्यो योगः एंदितीयवधारणमरियल्पडुगुमदु कारणमागि पूर्वभव१५ शरीरत्यादिदमुत्तरभवविग्रहग्रहणार्थमागि गतिविग्रहगतियप्पुरिंदमा विग्रहगतियोळ वत्तिसुवरु
मिथ्यादृष्टि सासादनासंयतसम्यग्दृष्टिगळेब मूलं गुणस्थानतिगळागळे वेळकुमा विग्रहगतियोळु
२०
वंति । ५७ ॥३१७॥ अथ कार्मणयोगस्य गाथाद्वयेनाह
___ कार्माणयोगे उदयप्रकृतयः द्वाविंशत्युत्तरशते सुस्वरवरे प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती प्रत्येकसाधारणे आहारकतदंगोपांगे औदारिकतदंगोपांगे मिश्रप्रकृतिः उपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासाः वैक्रियिकतदंगोपांगे स्त्यानगृद्धित्रयं संस्थानषट्कं संहननषट्कं च नेत्येकान्ननवतिः ८९ ।
ननु अनादिसंसारे विग्रहाविग्रहगत्योमिथ्यादृष्टयादिसयोगांतगुणस्थानेषु कार्मणस्य नितरोदये सति "विग्रहगतो कर्मयोगः' इति सूत्रारंभः कथं ? सिद्धे सत्यारभ्यमाणो विधिनियमायेति विग्रहगतो कर्मयोग एव
आगे दो गाथाओंसे कार्मण काययोगमें कहते हैं
कार्मण काययोगमें सामान्य उदययोग्य एक सौ बाईसमें-से सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त १. और अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक, साधारण, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, औदारिक
शरीर, औदारिक अंगोपांग, मिश्रप्रकृति, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, संस्थान छह, संहनन छह इन तैतीसका उदय न होनेसे उदययोग्य लवासी ८९ ।।
शंका-अनादि संसारमें विग्रहगति हो या अविग्रह गति हो उनमें मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवली पर्यन्त सब गुणस्थानों में कार्मणका निरन्तर उदय रहता है। तब तत्त्वार्थ सूत्र३० में विग्रहगतिमें कर्मयोग होता है ऐसा कथन क्यों किया ?
समाधान-'सिद्ध होते हुए भी जो विधि आरम्भ की जाती है वह नियमके लिए होती १. व सत्यारम्भो नि ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५०१ वत्तिसद सयोगकेवलि भट्टारकगुणस्थानमिल्लि तक्कुमें दडे 'कर्मयोगो विग्रहगतावेव' एंबो नियममिल्लप्पुरिदमा. विग्रहगतियोळ वत्तिसद प्रतरलोकपूरणत्रिसमयसमुद्घातसयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानवोळं कार्मणकाययोगमयक्कुमप्पुरिदमी कार्मणकाययोगदोळ नाल्कुं गुणस्थानंगळप्पुवल्लि मिथ्यावृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियु१। सूक्ष्मनाममुं १। पर्याप्तनाममुमितु मूरुं प्रकृतिगळ्गुदयम्युच्छित्तियक्कुं ३ । सासादननोळ पेळ्दपरु :
साणे थीवेदछिदी णिरयदुणिरयाउगं ण तियदसयं ।
इगिवण्णं पणवीसं मिच्छादिसु चउसु वोच्छेदो ॥३१९॥ सासादने स्त्रीवेदच्छेदः नरकद्विकनरकायुनं त्रिकं दशकमेकं पंचाशत्पंचविंशतिम्मिथ्याविषु चतुर्पु विच्छेदः॥
सासादनसम्यग्दृष्टियोळनंतानुबंधिचतुष्टयमु ४ मेकेंद्रियजातिनाममुं १। स्थावरनाममुं १ विकलत्रयमुं ३ स्त्रीवेवमुमितु पत्तुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कु १०।
असंयतनोळु वैक्रियिकद्विकज्जितमागि पदिनय्दुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १५ । मेळे देशसंयताविक्षीणकषायावसानमाद गुणस्थानत्तिगळोळ केवलकार्मणकाययोगमिल्लप्पुदरिदमा वेशसंयतनोळुद्योतरहितप्रकृतिसप्तकमु ७। आहारकद्वितयमुं२। स्त्यानगृद्धित्रयमु ३ मी योगदोळ कलेदुवप्पुरिदं प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळ शून्यमक्कु । मप्रमत्तगुणस्थानदोळंतिम- १५ संहननत्रयज्जितसम्यक्त्वप्रकृतियोंदु १ अपूर्वकरणन षण्नोकषायंगळं ६ अनिवृत्तिकरणन स्त्रीवेदं नान्यो योगः, इत्यवधारणार्थः। तेन पूर्वभवशरीरं त्यक्त्वोत्तरभवग्रहणाथं गच्छताऽपि तत्र मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतगुणस्थानानि स्युः । तर्हि सयोगगुणस्थाने कथं कर्मयोगः ? विग्रहगतावेवेत्यनियमात् प्रतरलोकपूरणत्रिसमयेऽपि तत्संभवात् ॥ ३१८ ॥
तन्मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्गुणस्थानेषु व्युच्छित्तिः - मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं सूक्ष्ममपर्याप्तं चेति त्रयं । २० सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं एकेंद्रियं स्थावरं विकलत्रयं स्त्रीवेदश्चेति दश । असंयते वैक्रियिकद्विकं विना है' इस नियमके अनुसार यह कथन 'विग्रहगतिमें कार्मणयोग ही होता है, अन्य योग नहीं होता' यह अवधारण करनेके लिए किया है।
शंका-पूर्वभवका शरीर त्यागकर आगामी भव धारण करने के लिए जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं। विग्रहगतिमें मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत गुणस्थान होते २५ हैं। तब सयोगकेवली गुणस्थानमें कार्मणयोग कैसे है ?
समाधान-विग्रहगतिमें ही कार्मणयोग होता है ऐसा नियम नहीं किया है अतः प्रतर और लोक पूरण समुद्घातके तीन समयोंमें कार्मण योग होता है ॥३१८॥
उसमें मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें व्युच्छित्ति इस प्रकार है
मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, सूक्ष्म अपर्याप्त इन तीनकी होती है। सासादनमें अनन्तानु- ३० बन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, विकलत्रय, स्त्रीवेद दसकी होती है। असंयतमें वैक्रियिकके
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५०२
गो० कर्मकाण्डे सासादननोळ व्युच्छित्तियादुदप्पुरिदं तज्जितप्रकृतिपंचक, ५ । सूक्ष्मसांपरायन लोभमोदूं १ । उपशांतकषायन येरडुं वज्रनाराचनाराचसंहननंगळ २ कळेदुवप्पुरिंदमल्लि शून्यमक्कुं। क्षीण. कषायन पदिनारु १६ मितु गूडियसंयतसम्यग्दृष्टियोळु एकपंचाशत्प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं
५१। सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ नाल्वत्तेरडं प्रकृतिगळोळ वज्रर्षभनाराचसंहननमुं १ ५ स्वरद्विकमु २। विहायोगतिद्विकमु२। औदारिकद्विकमु २। संस्थानषट्कमु६। उपघात
परघातोच्छ्वासत्रितयमु३। प्रत्येकशरीरमु १ मितु पदिने© १७ प्रकृतिगळं कळेनु शेषपंचविशतिप्रकृतिगळगुदय व्युच्छित्तियक्कं २५ । अंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ सम्यक्त्वप्रकृतियु तीर्थमुमेरडुमनुदयंगळ २ उदयंगळे भत्तेलु ८७ । सासादनगुणस्थानदोळ मूरु गूडियनु
दयंगळयदप्पुववरोळ णिरयदुणिरयाउगं णत्थि एंदु नरकद्विकमुमं नरकायुष्यमुमनितु मूर३ १० प्रकृतिगळनुदयप्रकृतिगळोळ कळेदु अनुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळे ८ । उवयंगळे.
भत्तोंदु ८१। असंयतगुणस्थानदोळ पत्त गूडियनुदयंगळु पदिनेटरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियुमं नरकद्विकमुमं नरकायुष्यमुमनितु नाल्कुं प्रकृतिगळ कळेदुदयंगळोळ, कूडुत्तं विरलनुदयंगळे पदि. नाल्कु १४ । उदयंगळेप्पत्तय्दु ७५ । सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळेकपंचाशत्प्रकृतिगळ्कूडि
स्वस्य पंचदश । पुनः क्षीण कषायांतानां केवलतद्योगाभावादुद्योतं विना सप्त । आहारकद्विकस्त्यानगृत्रियं १५ विना शून्यं अंतिमसंहननत्रयं विना सम्यक्त्वप्रकृतिः षण्णोकषायाः स्त्रीवेदस्य सासादने छेदात् पंच, लोभः
वज्रनाराचनाराचाभावात् शून्यं षोडश च मिलित्वा एकपंचाशत् । सयोगे वज्रर्षभनाराचसंहननस्वरद्विकविहायोगतिद्विकोदारिकद्विकसंस्थानषट्कोपघातपरधातोच्छ्वासप्रत्येकशरीराणि राशो नेति पंचविंशतिः । तथा सति मिथ्यादृष्टौ सम्यक्त्वतीर्थकृत्त्वे अनुदयः २ । उदयः सप्ताशीतिः। सासादने अनुदयः त्रयं 'णिरयदु णिरयाउगं णत्थीति त्रयं च मिलित्वाष्टौ। उदयः एकाशीतिः । असंयते दश मिलित्वा सम्यक्त्वनरकद्विकनरकायुरुदयाच्चतुबिना अपनी शेष पन्द्रह । पुनः क्षीणकषाय पर्यन्त कार्मण काययोग नहीं होता इससे ऊपरके गुणस्थानों की व्युच्छित्ति यहाँ ही करनी चाहिए। सो देशविरतकी उद्योत बिना सात, प्रमत्तकी आहारकद्विक और स्त्यानगृद्धि आदि तीनके न होनेसे शून्य, अप्रमत्तकी तीन संहननके बिना केवल एक सम्यक्त्व प्रकृति, अपूर्वकरणकी छह नोकषाय, अनिवृत्तिकरणकी पाँच क्योंकि
स्त्रीवेदकी व्युच्छित्ति सासादनमें हो जाती है, सूक्ष्मसाम्परायका लोभ, उपशान्त मोह सम्बन्धी २५ वज्रनाराच और नाराचका अभाव होनेसे शून्य, क्षीणकषायकी सोलह इस तरह सब मिलकर
असंयतमें इक्यावनकी व्युच्छित्ति होती है । सयोगीमें बयालीसमें-से वर्षभनाराच संहनन, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, छह संस्थान, उपघात, उछ्वास और प्रत्येक शरीरके न होनेसे पच्चीसकी व्युच्छित्ति होती है ।
ऐसा होनेपर३० १. मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्व और तीर्थकर दोका अनुदय । उदय सत्तासी। व्यु. तीन ।
२. सासादनमें नरकगतिद्विक और नरकायुका उदय न होनेसे पाँचमें तीन मिलाकर आठका अनुदय । उदय इक्यासी।
३. असंयतमें दस मिलाकर सम्यक्त्व, नरकद्विक और नरकायुका उदय होनेसे अनुदय चौदह । उदय पचहत्तर ।
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५०३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका यनुदयंगळय्व तय्दरनोळ तीर्थमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळरुवत्तनाल्कु ६४। उवयंगळिप्पत्तयडु २५ । संदृष्टि :
काभण काय यो० योग्य ८९ ० मिसा
५१
७५ । २५
अ
अनंतरं वेदमार्गणेयं पेपरु :
मूलोघं पुंवेदे थावरचउणिरयजुगलतित्थयरं।
इगिविगलं थीसंढं तावं णिरयाउगं णस्थि ॥३२०॥ मूलोघः पुंवेदे स्थावरचतुन्नरकयुगळ तीत्थंकरं। एकविकलं स्त्रीषंढमातपो नरकायुञ्जस्ति ।
पुंवेददोळु मूलौघं नरिप्पत्तेरडरोळ १२२ स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणचतुष्क, ४ । नरकद्विकमुं २ तीर्थरनाममुं १ । एकेंद्रियजातियुं १ । विकलत्रयमुं३ । स्त्रीवेदमुं १ षंढवेदमुं १ मातप. नाममुं १ नरकायुष्यमुमंतु पदिनदु १५, प्रकृतिगळुदयमिल्लद कारणमवं कळेदु शेषतरेळ १० प्रकृतिगलुदययोग्यंगळप्पु १०७ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतिगों दक्कुदयव्युच्छित्तियाकुं दश १४ । उदयः पंचसप्ततिः । सयोगे अनुदयः एकपंचाशतं मिलित्वा तीर्थोदयाच्चतुःषष्टिः ६४ । उदयः पंचविंशतिः ॥ ३१९ ॥ अथ वेदमार्गणायामाह
पुंवेदे मूलौघः द्वाविंशत्युत्तरशतं । तत्र स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानि नरकद्विकं तीर्थकरत्वमेकेंद्रियं विकलत्रयं स्त्रोषंढवेदी आतपो नरकायुर्नेति सप्तोत्तरशतमुदययोग्यं १०७ । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं १५
१३ सयोगीमें इक्यावन मिलाकर तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय चौंसठ। उदय पच्चीस ॥३१९।।
औदारिक मिश्रकाययोग ९८ वैक्रियिक मिश्र ७९ कार्मणकाययोग ८९ | मि. सा. अ. | स.! | मि. | सा. अ. | मि. सा| अ. स. | | ४ १४४४ ३६१ ५ १३ ३ १०५१ २५
। ७५ । २ ६. १९ ६२
८१४६४ अब वेदमार्गणामें कहते हैं
पुरुषवेदमें गुणस्थानकी तरह एक सौ बाईसमें-से स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, २० नरकद्विक, तीर्थकर, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, आतप और नरकायु इन
| २५
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५०४
गो० कर्मकाण्डे १॥सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्कक्कुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४॥ मिश्रनोळ मिश्रप्रकृतियुदयव्युच्छित्तियक्कुं १। असंयतनो द्वितीयकषायचतुष्क, ४ वैकियिकद्विक, २। सुरद्विक, २ सुरायुष्यमु१। मनुष्यानुपूर्व्यमु१ । तिर्यगानुपूर्व्यमु१ । दुर्भगानादेयायशस्कोत्तित्रितयमु ३ मितु पदिनाल्कुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कु १४ ॥ देशसंयतं मोदलागियपूर्वकरणगणस्थान५ पय्यंतमड ८ पंच य ५ चउर ४ छक्क ६ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु। मनिवृत्तिकरण सवेद
प्रथमभागेयोळु पुंवेदमु१। संज्वलनक्रोधमु१। संज्वलनमानमु१। संज्वलनमाययु १ मितु नाल्कु४। सूक्ष्मसांपरायन लोभमुं १। उपशांतकषायन वज्रनाराचसंहननद्विलयमु२। क्षीणकषायन पदिनार १६। सयोगायोगिकेवलिभट्टारकद्वितयतीर्थरहित नाल्वत्तोंदु प्रकृतिगळ,
कडियनिवृत्तिकरणनोळुदयव्युच्छित्तिगळरुवत्तनाल्कु ६४। एक दोडे पुंवेदोक्यमेल्लिवर{टल्लिवरमा १० मार्गणेयप्पुरदं मेलण प्रकृतिगळेल्लमनिवृत्तिकरणनोळे ब्युच्छित्तिगळप्पुवप्पुरिदं । मिथ्या
दृष्टिगुणस्थानदोळ मिश्रप्रकृतियं सम्यक्त्वप्रकृतियमाहारकद्वयमुमितु नाल्कुप्रकृतिगळगनुदय. मक्कुं ४ । उदयंगळ नूर मूरु १०३। सासादनगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळय्दु ५। उदयप्रकृतिगळु नूररडु १०२। मिश्रगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयंगळो भत्तरोळु मिश्रप्रकृतियं
कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पन्नों दु ११ । उदयंगळ तो भत्तारु ९६ । असंययगुणस्थान. १५ दोळो दुगूडियनुदयंगळ, पन्नेरडरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं १ तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूटव्यंगल मूरुम
व्युच्छित्तिः १ । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं ४ । मित्रे मिथं । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं वैक्रियिकद्विकं सुरद्विकं सुरायुः मनुष्यतिर्यगानुपू] दुभंगानादेयायशस्कीर्तयश्चेति चतुर्दश १४ । देशसंयतादिचतुषु क्रमेणाष्टौ पंच चत्वारि षट् । अनिवृत्तिकरणसवेदप्रथमभागे पुंवेदसंज्वलनक्रोधमानमायाः सूक्ष्मलोभः वज्रनाराचनाराचे षोडश तीर्थकरत्वं विनकचत्वारिंशच्चेति चतुःषष्टिः ६४। मिथ्यादृष्टौ मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वयान्यनुदयः ४ उदयः व्युत्तरशतं । १०३ । सासादने एका संयोज्य अनुदयः पंच ५ । उदयो द्वयुत्तरशतं १०२। मिश्रेऽनुदयः चतुष्कमानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रोदयादेकादश ११ । उदयः षण्णवतिः । ९६ । असंयतेऽनुदयः एक पन्द्रहका उदय न होनेसे उदय योग्य एक सौ सात हैं। उसमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार । मिश्रमें मिश्र । असंयतमें अप्रत्या
ख्यानावरण कषाय चार वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु, मनुष्यानु२५ पूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति ये चौदह १४ । देशसंयत आदि चार
गुणस्थानोंमें क्रमसे आठ, पाँच, चार और छह । अनिवृत्तिकरणके प्रथम सवेद भागमें पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान माया, सूक्ष्म लोभ, वज्रनाराच नाराच संहनन, क्षीणकषाय सम्बन्धी सोलह और तीर्थकरके बिना केवली सम्बन्धी इकतालीस इन चौंसठकी व्युच्छित्ति
होती है क्योंकि अनिवृत्तिकरणके सवेद भागसे आगे वेदका उदय न होनेसे वेदमैं नौ ३० ही गुणस्थान होते हैं । अत:
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व और आहारकद्विक चार ४ का अनुदय। उदय १०३। २. सासादनमें एक मिलाकर अनुदय पाँच । उदय एक सौ दो १०२ ।
३. मिश्रमें अनुदय चार और तीन आनुपूर्वी मिलकर मिश्रका उदय होनेसे ग्यारह ११। उदय छियानबे ९६ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५०५ नंतु नाल्कु प्रकृतिगळं कळेदुदयंगळोळ कूडिदोडनुदयंगळेदु ८। उदयंगळ तो भो भत्त ९९ ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळ पदिनाल्कुगूडियनुदयंगळिप्पत्तरडु २२। उदयंगळेग्भत्तग्दु ८५ । प्रमत्तसंयतगुणस्थानदो टुगूडियनुदयंगळ मूवत्तरोळाहारकद्वयमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळिप्पत्ते'टु २८। उदयंळेप्पत्तो भत्तु ७९॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोळय्दुगूडियनुदयंगळ मूवत्तमूरु ३३ । उदयंगळेप्पत्तनाल्कु ७४ ॥ अपूर्वकरगगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनदयंगळ मूवत्तळ ३७। ५ उदयंगळेप्पत्त ७० ॥ अनिवृत्तिकरगगुणस्थानदोळ प्रथमसवेदभागेयोळारुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तमूरु ४३। उदयंगळरुवत्तनाल्कु ६४ ॥ संदृष्टि :
पुवेदयोग्यं १०७।
७०
| उ १०३ १०२ ९६ / ९९ ८॥
१९८१९७४४०६४ | अ। ४ ५ ११ ८ २२२८३३३७४३/ अनंतरं स्त्रीवेददोळदययोग्यंगळं षंडवेदक्क सहितमागि पेन्दपरु :
मिलित्वा सम्यक्त्वतिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्योदयादष्टौ। उदयो नवनवतिः । देशसंयते चतुर्दश संयोज्यानुदयो ,. द्वाविंशतिः २२ । उदयः पंचाशीतिः । ८५ । प्रमत्तेऽष्ट संयोज्याहारकद्वयोदयादनुदयोऽष्टाविंशतिः २८ । उदय एकोनाशीतिः ७९ । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदयस्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । उदयः चतुःसप्ततिः । ७४ । अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्यानुदयः सप्तत्रिंशत् ३७ । उदयः सप्ततिः ७० । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे षट् संयोज्यानुदयः त्रिचत्वारिंशत् ४३ । उदयः चतुःषष्टिः । ६४ । ३२० । अथ स्त्रीषंढवेदयाराह
४. असंयतमें अनदय एक मिलाकर सम्यक्त्व, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानु- " पूर्वीका उदय होनेसे आठ ८ । उदय निन्यानबे ।
५. देशसंयतमें चौदह मिलाकर अनदय बाईस २२ । उदय पिचासी।
६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय अठाईस २८ । उदय उनासी।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय तैंतीस ३३ । उदय चौहत्तर ७४ । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय सैतीस ३७ । उदय सत्तर ७०।
९. अनिवृत्तिकरणके सवेद भागमें छह मिलाकर अनुदय तेतालीस। उदय चौंसठ ६४ ॥३२०॥
पुरुषवेद रचना १०७ | मि. सा. | मि. । अ. | दे. प्र. | अ. अ. अ. |
| ७९ । ७४ । ७० | ६४
३३ | ३७ ४३
८
क-६४
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५०६
गो० कर्मकाण्डे इत्थीवेदेवि तहा हारदु-पुरिसूणमित्थिसंजुत्तं ।
ओघं संढे ण हि सुरहारदुथीपुंसुराउतित्थयरं ॥३२१॥ स्त्रीवेदेपि तथा आहारकद्विक पुरुषोन स्त्रीवेदसंयुतं । ओघः षंढे न हि सुराहारद्वय स्त्रीपुरुषसुरायुस्तीर्थकरं ॥ स्त्रीवेदेपि तथा स्त्रीवेददोळं पुरुषवेददोळ पेन्द नूरेनें प्रकृतिगळप्पुववरोळाहारकद्विकं पुंवेदमंतु मूरुं प्रकृतिगळ कळेदु स्त्रीवेदमं कूडुत्तं विरलुदययोग्यप्रकृतिगळ. नूरप्दु १०५ । मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वमोदे व्युच्छित्तियक्कु १। 'सासादननोळनंतानुबंधि कषायचतुष्टयमु ४ देवमनुष्यतिर्म्यगानुपूर्व्यत्रयमु ३ मितेळ प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियक्कु । मिश्रनोळ, मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कु १। असंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्कमु४ देवगतियु १ वैक्रियिकद्विकमु२। देवायुष्यमु१ दुभंगानादेयायशस्कोत्तित्रयमु ३ मितु पन्नों दुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ११ । देशसंयतनोळ तन्न गुणस्थानदोळपेन्देंटुप्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कं ८॥ प्रमत्तसंयतनोळाहारकद्विकमिलेल्के दोडो स्त्रीवेदोदयसंक्लिष्टरोळाहारकऋद्धिपुट्टदप्पुरिदं । स्त्यानगृद्धि त्रयक्कुदयव्युच्छित्तियक्कुं ३ । अप्रमत्तनोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमंतिमसंहननत्रयमु ३ मंतु नाल्कं ४ प्रकृतिगळ्कुदयव्युच्छित्तियकुं ४ । अपूर्वकरणनोळ षण्नोकषायंगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं
६ । अनिवृत्तिकरणनोळरुवत्तनाल्कु प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ६४। मंतागुत्तं विरलु मिथ्या१५ दृष्टिगुणस्थानदोळ मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमें बेरडं प्रकृतिगळगुदयमक्कुं २। उदयंगळु नूर
मूरु १०३ । सासादनगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळु मूरु ३। उदयंगळ नूरेरडु १०२। मिश्रगुणस्थानदोळेगडियनुदयंगळ हत्तरोळ मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगलोलु कूडुत्तं विरलनुदयंगळों
स्त्रीवेदेऽपि तथा पुंवेदोक्तं सप्तोत्तरशतं । तत्र चाहारकद्विकं पुंवेदं चापनीय स्त्रीवेदे निक्षिप्ते उदययोग्याः पंचोत्तरशतं १०५ । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः। सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं देव२० मनुष्यतिर्यगानुपूर्व्याणि चेति सप्त ७ । मिश्रे मिश्रं १। असंयते द्वितीयकषायाः देवगतिः वैक्रियिकद्वयं देवायुः
दुभंगानादेय यशस्कीर्तयश्चेत्येकादश ११ । देशसंयते स्वकीयाष्टो ८ । प्रमत्ते संक्लिष्टत्वादाहारकर्यनुद्गमात् स्त्यानगद्धित्रयमेव ३ । अप्रमत्ते सम्यक्त्वमंतिमसंहननत्रयं च । ४ । अपूर्वकरणे षण्णोकषायाः ६ । अनिवृत्ति. करणे चतुःषष्टिः ६४ । तथासति मिथ्यादृष्टी मिश्रं सम्यक्त्वं चानुदयः २ । उदयस्व्युत्तरशतं १०३ । सासादने
आगे स्त्रीवेद और नपुंसक वेदमें कहते हैं
स्त्रीवेद में भी पुरुषवेदकी तरह एक सौ सातमें-से आहारकद्विक और पुरुषवेदको घटाकर स्त्रीवेदं मिलानेपर उदय योग्य एक सौ पाँच हैं। वहाँ मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार तथा देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी मिलकर सास । मिश्रमें मिश्र । असंयतमें दूसरी कषाय चार, देवगति, वैक्रियिकद्विक, देवायु,
दुर्भग, अनादेय, अयशाकीर्ति ये ग्यारह । देशसंयतमें अपनी आठ। प्रमत्तमें संक्लेश परिणाम ३० होनेसे स्त्रीवेदके साथ आहारक ऋद्धिका उदये न होनेसे स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी ही
व्यच्छित्ति होती है। अप्रमत्तमें सम्यक्त्व और अन्तके तीन संहनन चार । अपूर्वकरणमें छह नोकषाय । अनिवृत्तिकरणमें चौंसठ ६४ । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्व दोका अनुदय । उदय एक सौ तीन ।
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५०७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भत्तु ९ । उ बंगळु तोभत्तारु ९६। असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळु हत्तरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळो भत्तु ९ । उदयंगळु तो भत्तारु ९६ ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळ पन्नों दुगूडियनुदयंगळिप्पत्तु २०। उदांगळेण्भत्तय्छु ८५ । प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळे टु गूडियनुवयंगळिप्पत्तेंटु २८ । उदयंगळेप्पत्तेळ, ७७ अप्रमत्तगुणस्थानदोळ मूगूडियनुदयं. गळ मूवत्तोंदु ३१ । उदयंगळेप्पत्तनाल्कु ७४ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्छुगूडियनुदयं- ५ गळ मूव तण्टु ३५ । उदयंगळप्पत्तु ७० । अनिवृत्तिकरणन सवेदभागेयोळारुगूडियनुदयंगळु नाल्वत्तोंदु ४१ । उदयंगळरुवत नाल्कु ६४ । संदृष्टि:
___ स्त्रीवेदयोग्यं १०५
---------------
| व्यु ! १ ७ / १ ११८.३/४६
| अ। २।३। ९ ९ २०२८/३१३५/४० ओघः षंढे पंढवेददो सामान्योदयंगळ, नूरिप्पत्तेरडरोळ १२२ सुरद्विकमुं २ आहारकद्विकमुं २ । स्त्रीवेवमुं १। पुंवेदमुं १ । देवायुष्यमु१। तोत्थंकरनाममुमितेंदु ८ प्रकृतिगळ कळेदु १० नूर पदिनाल्कु प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पु ११४ ववरोल मिथ्यादृष्टियोलु मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ एक संयोज्य अनुदयः त्रयं ३। उदयो द्वयु त्तरशतं १०२। मिश्रेऽनुदयः सप्त संयोज्य मिश्रोदयान्नव ९ । उदयः षण्णवतिः ९६ । असंयते एक संयोज्य सम्यक्त्वप्रकृत्युदयान्नव । उदयः षण्णवतिः । देशसंयते एकादश संयोज्य अनुदयो विशतिः २० । उदयः पंचाशीतिः ८५ । प्रमत्तेऽष्टसंयोज्यानुदयोऽष्टाविंशतिः २८ । उदयः सप्तसप्ततिः ७७ । अप्रमत्ते त्रयं संयोज्यानुदयः एकत्रिंशत् ३१ । उदयश्चतुःसप्ततिः ७४ । अपूर्वकरणे चतुष्कं १५ संयोज्य अनुदयः पंचत्रिंशत् ३५ । उदयः सप्ततिः ७० । अनिवृत्तिकरणसवेदभागे षट् संयोज्य अनुदय एकचत्वारिंशत् ४१ । उदयश्चतुःषष्टिः ।
ओघः षंढे-तत्र सुरद्विकमाहारकद्विकं स्त्रीवेदः पुंवेदो देवायुस्तीर्थकरत्वं च नेति चतुर्दशोत्तरशतमुदय२. सासादनमें अनुदय दोमें एक मिलाकर तीन । उदय एक सौ दो। ३. मिश्र में सात मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे अनुदय नौ । उदय छियानवे ९६। २० ।
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय नौ। उदय छियानबे । व्यच्छित्ति ग्यारह ।
५. देशसंयतमें ग्यारह मिलाकर अनुदय बीस । उदय पिचासी । व्यु. ८।। ६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर अनदय अठाईस । उदयं सतहत्तर ७७ । व्यु.३ । ७. अप्रमत्तमें तीन मिलाकर अनुदय इकतीस ३१ । उदय चौहत्तर ७४ । व्यु. ४। २५ । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय पैंतीस ३५ । उदय सत्तर ७० । व्यु. ६। ९. अनिवृत्तिकरणके सवेद भागमें छह मिलाकर अनुदय इकतालीस । उदय ६४ । नपुंसकवेद में गुणस्थानवत् एक सौ बाईसमें से देवगति, देवानुपूर्वी, आहारकद्विक,
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५०८
गो० कर्मकाण्डे
आतपमुं १ सूक्ष्मत्रयमुं ३ मितदुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कं ५ । सासादनोनलनंतानुबंधिचतुष्कं ४ । एकेंद्रियजातियुं १ । स्थावरमुं १ | विकलत्रयमुं ३ | मनुष्यानुपूर्व्यमुं १ । तिर्य्यगानु१ मितुपनों प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं ११ । मिश्रनोल मिश्रप्रकृतियों वे व्युच्छित्तियक्कु १ । असंयतनोळु द्वितीयकषायमुं नाल्कु ४ वैक्रियिकद्विकमुं २ नरकद्विकमुं २ | नरकायुष्यमुं ५१ । दुभंगत्रयम् ३ मितु पत्तेरंडुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कं १२ । देशसंयत गुणस्थानवोळ तन्न गुणस्थानदे टुं प्रकृतिगन्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ८ ॥ प्रमत्त संयतनोळ स्त्यानगृद्धित्रयक्कुदयव्युच्छित्तिक्कुं ३ ॥ अप्रमत्तनोळु तन्न गुणस्थानद सम्यक्त्वप्रकृतियुतिमसंहननत्रयमुमितु नालकु प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ॥ अपूर्व्वकरणनोळु षण्णोकषायंगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ६ ॥ अनिवृत्तिकरणन षंढवेदभागेयोळु अरुवत्त नालकुंप्रकृतिगळ गुदयव्युच्छित्तियक्कु ६४ । मिलान्तं १० विरलु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळु मिश्रसम्यक्त्व प्रकृतिद्वयमनुदयमक्कुं २ । उदयंगळ, नूर हन्नरडु ११२ । सासादनगुणस्थानदोळ, अय्दु गूडियनुदयंगळेळ, मत्तं नरकानुपूयं मनुवयंगळोळ कळेदनुदयंगळोळ, कूडुत्तं विरलनुदयंगळे'टु ८ उदयंगळ, नूरारु १०६ । मिश्रगुणस्थानदोळ पनों दुगूडियनुदयंगळ, हत्तो भत्तरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळु पविनें टु १८। उदयंगळ, तो भत्तारु ९६ ॥ असंयत गुणस्थानदोळों दुगूडियनुदयंगळ, हत्तों भत्तरोळ १५ सम्यक्त्वप्रकृतियुं नरकानुपूण्यंमं कळे दुदयंगलोळ कूडुतं विरलनुदयंगल, पदिने लु १७ । उदयं
योग्याः ११४ । तत्र मिथ्यादृष्टी मिध्यात्वमातपः सूक्ष्मत्रयं चेति व्युच्छित्तिः पंच । सासादने अनंतानुबंधचतुष्कमेकेंद्रियं स्थावरं विकलत्रयं मनुष्यतियंगानुपूर्व्ये चेत्येकादश ११ । मिश्र मिश्र १ । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं वैक्रियिकद्विकं नरकगतिः तदानुपूर्व्यं नरकायुर्दुर्भगत्रयं चेति द्वादश १२ । देशसंयते स्वकीयाष्टी ८ । प्रमत्ते स्त्यानगृद्धत्रयं ३ । अप्रमत्ते सम्यक्त्व प्रकृतिः अंतिमसंहननत्रयं च ४ । अपूर्वकरणे षष्णोकषायाः ६ । २० अनिवृत्तिकरणे षंढवेदभागे चतुःषष्टिः । ६४ । एवं सति मिथ्यादृष्टो मिश्रसम्यक्त्वद्वयमनुदयः उदयो द्वादशोत्तरशतं । ११२ । सासादनेऽनुदयः पंच नारकानुपूर्व्यं च मिलित्वाष्टौ ८ । उदयः षडुत्तरशतं १०६ । मिश्रनुदय एकादश मिलित्वा मिश्रप्रकृत्युदयादष्टादश १८ । उदयः षण्णवतिः ९६ । असंयते एकां संयोज्य
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, देवायु और तीर्थंकर न होने से उदययोग्य एक सौ चौदह ११४ । वहाँ मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, आतप और सूक्ष्मादि तीन मिलकर पाँचकी व्युच्छित्ति है । २५ सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, विकलत्रय, मनुष्यानुपूर्वी, तियंचानुपूर्वी
३०
ग्यारह | मिश्र मिश्र । असंयतमें दूसरी कषाय चार, वैक्रियिकद्विक, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, दुर्भग आदि तीन सब बारह १२ । देशसंयत में आठ । प्रमत्त में स्त्यानगृद्धि आदि तीन । अप्रमत्तमें सम्यक्त्व प्रकृति, अन्तिम तीन संहनन सब चार । अपूर्वकरणमें छह नोकषाय । अनिवृत्तिकरणके नपुंसक वेद भागमें चौंसठ ६४ | ऐसा होनेपर -
१. मिध्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्वका अनुदय । उदय एक सौ बारह । २. सासादनमें पाँच तथा नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय आठ । उदय एक सौ छह । ३. मिश्र में अनुदय ग्यारह मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे अठारह । उदय ९६ ।
१ व भागे चतुभागे चतुः ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५०९ गळु तो भत्तेछु ९७ । देशसंयत गुणस्थानदोळु पन्नेरडुगूडियनुदयंगळिप्पत्तो भत्तु २९ । उदयंगळे
भत्तय्टु ८५ । प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळे टुगूडियनुदयंगळ मूवत्तेळु ३७ । उदयंगळेप्पत्तळु ७७ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानोछ गूडियनुदयंळ नाल्वत्तु ४० । उदयंगळु येप्पत्तनाळकु ७४ । अपूर्वकरणगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयंगळु नाल्वत्तनाल्कु ४४ । उदयंगळेप्पत्तु ७० । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारु गूडियनुदयंगळय्वत्तु ५० । उदयंगलरुवत्त नाळकु ६४ । संदृष्टि :
षडयोग्यं ११४ | ० मि | सामि | अदे प्रअ अ अ | व्यु ५ ११ / ११२८३
उ ११२ १०६ / ९६ ९७८५/७७७४/७०६४
| अ २ ८ १८ १७ २९३७४०४४५० अनंतरं कषायमागणयोदययोग्यप्रकृतिगळं पेळ्दपरु:
ल
सम्यक्त्वप्रकृतिनरकानुपूर्योदयादनुदयः सप्तदश १७ । उदयः सप्तनवतिः । ९७ । देशसंयते द्वादश संयोज्यानुदयः एकान्नत्रिंशत् २९ । उदयः पंचाशीतिः ८५ । प्रमत्तसंयतेऽष्ट संयोज्यानुदयः सप्तत्रिंशत् ३७ । उदयः सप्तसप्ततिः ७७ । अप्रमत्ते त्रयं संयोज्यानुदयश्चत्वारिंशत् ४० । उद्यश्चतुःसप्ततिः ७४ । अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्य अनदयश्चतश्चत्वारिंशत ४४ । उदयः सप्ततिः ७० । अनिवत्तिकरणे षट् संयोज्यानदयः पंचाशत ५० उदयश्चतुःषष्टि । ६४ । ३२१ । अथ कषायमार्गणायामाह
१०
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व प्रकृति और नरकानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय सतरह । उदय सत्तानवे । व्यु. १२ ।
५. देशसंयतमें बारह मिलाकर अनुदय उनतीस २९ । उदय पिचासी। ६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर अनुदय सैतीस । उदय सतहत्तर ७७ । व्यु.३ । ७. अप्रमत्तमें तीन मिलाकर अनुदय चालीस ४० । उदय चौहत्तर ७४ । व्यु. ४ । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय चवालीस ४४ । उदय सत्तर ७० । व्यु.६ ९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय पचास ५० । उदय चौंसठ ॥३२१॥ स्त्रीवेद रचना १०५
नपुंसकवेद रचना ११४ | मि. सा. मि अ. दे.प्र. अ.अ.अ.
२०
| मि. सा. मिअ. दे. प्र.अ.अ.अ.
--
६६४
११२ १०६
१०३ १०२९६९६८५७७/७४७०६४
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२१ १२०२८३१३५४१|| . कषाय मार्गणामें कहते हैं
२८ १८१७२९३७४०४४/५०
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५
५१०
गो० कर्मकाण्डे
तित्थरमाणमाया लोह चउक्कूणमोघमिह कोहे । अणरहिदे णिगिविगलं तावअण कोहाणुथावरचउवकं ॥ ३२२ ॥ |
तीर्थंकरमानमायालो भचतुष्कोन ओघ इह क्रोधे । अनंतानुबंधि रहितेनैकविकलत्रयातपातानुबंषिक्रोधानुपूर्व्यस्थावर चतुष्कं ॥
इह ई क्रोधकषायमार्गणेयोळ सामान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तेरडरोळ १२२ पितर कषायद्वादशप्रकृतिगळं तीर्थंकरनामम् १ मितु पविमूरुं प्रकृतिगळं कळेडु शेष नूरो भत्तु १०९ प्रकृतिगळु दयययोग्यंगळवु १०९ ।
अoिळ मिथ्यादृष्टियोळु तन्न गुणस्थानद पंचप्रकृतिगळवयव्युच्छित्ति यक्कुं ५ । सासादननोळनंतानुबंधि क्रोधमुं १ एकेंद्रियजातियुं १ स्थावरजाभमुं १ विकलत्रयमु ३ मितारु प्रकृतिगळ्गु१० वयव्युच्छित्तियक्कुं ६ | मिश्रनोळ, मिश्रप्रकृति गुदयव्युच्छित्तियक्कुं १ । असंयतनोळप्रत्याख्यानक्रोधमुं १ वैक्रियिकषट्कमुं ६ मनुष्यानुपूर्व्यमुं १ तिर्य्यगानुपूण्यमुं १ । सुरायुष्यमुं १ नारकायुष्यमुं १ दुभंगत्रयमुं ३ मितु पदिनाळकुं प्रकृतिगगुदयव्युच्छित्तियक्कं १४ देशसंयतनोळ प्रत्याख्यानक्रोधमुं १ तिगायुष्यमुं १ उद्योतमुं १ नीचैग्गत्रमुं २ तिर्व्यग्गतिमुं २ मितदुं प्रकृतिगळगुदयभ्युच्छित्तिक्कं ५। प्रमत्तसंयतनोळाहा एकद्वयमुं २ स्त्यानगृद्धित्रय ३ मत प्रकृति१५ गळगुदयव्यच्छित्तियक्कु ५ । अप्रमत्तनोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुं २ अंतिम संहननत्रितयमुं ३ मितु नाळ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ॥ अपूर्वकरणनोळ नोकषायषट्कक्कुदयव्युच्छित्तियक्कं ६ ॥ अनिवृत्तिकरणन प्रथमभागवेदत्रयमुं ३ । द्वितीयक्रोधकषाय भोगेयोळ, संज्वलनक्रोधमुं १ मंतु नात्कु ४ सूक्ष्मसांपरायन लोभं कलेदुदप्पुवरवमल्ळि शून्यमुं उपशांतकषायन वज्रनाराचनाराच
२५
इह क्रोधकषायमार्गणायां सामान्योदयः इतरद्वादशकषायतीर्थन्यूनः तेन नवोत्तरशतं भवति । तत्र २० मिथ्यादृष्टौ स्वकीया पंव व्युच्छित्तिः । सासादनेऽनंतानुबंधिक्रोधः एकेंद्रियं स्थावरं विकलत्रयं चेति षट् ६ । मिश्र मिश्र १ । असंयतेऽप्रत्याख्यानक्रोधो वैक्रियिकषट्कं मनुष्य तिर्यगानुपूर्व्ये सुरनारकायुषी दुभंगत्रयं चेति चतुर्दश १४ | देशसंयते प्रत्याख्यानक्रोधः तिर्यगायुरुद्योतो नीचंर्गोत्रं तिर्यग्गतिश्चेति पंच ५ । प्रमत्तसंयते आहारकद्वयं स्त्यानगृद्धित्रयं चेति पंच ५। अप्रमत्ते सम्यक्त्वमंतिमसंहननत्रयं चेति चतुष्कं ४ । अपूर्वकरणे नोकषायषट्कं ६ | अनिवृत्तिकरणे प्रथमभागस्य वेदत्रयं । द्वितीयभागस्य संज्वलनक्रोधः । सूक्ष्मसांपरायस्य
क्रोध कषाय मार्गणा में सामान्य उदय एक सौ बाईसमें से अन्य बारह कषाय और तीर्थंकर घटानेपर एक सौ नौ १०९ है । उसमें मिध्यादृष्टी में अपनी पाँचकी व्युच्छित्ति है । सासादन में अनन्तानुबन्धी क्रोध, एकेन्द्रिय, स्थावर और विकलत्रय छह । मिश्रमें मिश्र । असंयतमें अप्रत्याख्यान क्रोध, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिकद्विक, मनुष्यानुपूर्वी, तिथं चानुपूर्वी, देवायु, नरकायु, दुभंग आदि तीन चौदह १४ | देशसंयत में ३० प्रत्याख्यान क्रोध, तियंचायु, उद्योत, नीचगोत्र और तियंचगति पाँच । प्रमत्तसंयत में आहारकद्विक, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, पाँच । अप्रमत्तमें सम्यक्त्व, अन्तिम तीन संहनन सब ४ । १. कषाये |
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कर्णाटवृति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५११ संहननद्वयमुं२। क्षीणकषायन पदिनारुं १६ सयोगायोगकेवळिगळ तीर्थरहितमप्प नाल्वत्तोंदु प्रकृतिगळु ४१ अंतरुवत्तमूलं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कं ६३। अंतागुत्तं विरळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोलु मिश्रप्रकृतियुं १ सम्यक्त्वप्रकृतियु.१। आहारकद्विक, २ मितु नाळकुं प्रकृतिगळनुदयंगळप्पुवु ४। उदयंगळु नूरय्दु १०५ । सासादनगुणस्थानदोळय्दु गूडियनुवयंगळो भत्तरोळ नरकानुपूर्व्यमनुदयदोळकळेदनुदयंगळोळु कूडिदोडनुदयंगळु पत्तु १०। उदयंगळ, तो भत्तों भत्तु ९९ । मिश्रगुणस्थानदोलारुगूडियनुदयंगळ पदिनाररोल मिश्रप्रकृतियं कलेदुदयंगलळोळ कूडि मतमुदयंगळोळ शेषानुपूर्व्यत्रितयमं कलेदनुवयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगलु पदिनेटु १८ । उदयंगळ तो भत्तो छ ९१। असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळु पत्तो भत्तरोळ सम्यक्त्वप्रकृतियुमानुपूर्व्यचतुष्कमंतप्दु प्रकृतिगळं गलेदुदयंगलोळ, कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पदिनाळ्कु १४। उदयंगळ तो भत्तय्दु ९५ ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळ पदिनाकुगूडियनुदयंगलिप्पत्ते टु २८ । १० उदयंगळभत्तोंदु ८१॥ प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळय्दुगूडियनुदयंगळु मूवत्तमूररोळ आहारकद्वयमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळ मूवत्तो दु ३१ । उदयंगळु एप्पत्तेटु ७८ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोळय्गूडियनुदयंगळ ३६ मूवत्तारु । उदयंळप्पत्त मूरु ७३॥ अपूर्वकरणगुणस्थानलोभापनयनात् शून्यं । उपशांतकषायस्य वज्रनाराचनाराचौ। क्षीणकषायस्य षोडश । सयोगस्य तीर्थ विनकचत्वारिंशच्चेति त्रिषष्टिः ६३ । तथासति-मिथ्यादृष्टौ मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्विकान्यनुदयः । उदयः १५ पंवोत्तरशतं १०५ । सासादने पंच नरकानुपूज्यं चेत्यनुदयो दश १० । उदयः एकान्नशतं ९९ । मिश्रे अनुदयः षट शेषानपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रादयादष्टादश १८ उदय एकनवतिः । असंयते एक संयोज्य सम्यक्त्वानपूयं चतुष्कोदयाच्चतुर्दश, उदयः पंचनवतिः ९५ । देशसंयते चतुःसंयोज्यानुदयेऽष्टाविंशतिः । उदयः एकाशीतिः । ८१ । प्रमत्तसंयते पंच संयोज्याहारकद्विकोदयादेकत्रिंशत् ३१ । उदयोऽष्टासप्ततिः । ७८ । अप्रमत्ते पंच
अपूर्वकरणमें नोकषाय छह । अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें तीन वेद । दूसरे भागमें संज्वलन २० क्रोध । सूक्ष्म साम्परायके लोभको मूलमें न रखनेसे शून्य, उपशान्त कषायके वनाराच नाराच, क्षीण कषायकी सोलह, सयोगीकी तीर्थकरके बिना इकतालीस ये सब ६३ । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र सम्यक्त्व और आहारकद्विकका अनुदय । उदय एक सौ पाँच।।
२. सासादनमें पाँच और नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय दस । उदय निन्यानबे। २५ । व्यच्छित्ति छह ।
३. मिश्रमें छह और तीन आनुपूर्वी मिलाकर मिश्रप्रकृतिका उदय होनेसे अनुदय अठारह १८ । उदय इकानबे ९१ ।
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व और चार आनुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय चौदह । उदय पिचानवे ९५। व्यु. १४ ।
५. देशसंयतमें चौदह मिलाकर अनुदय अठाईस । उदय इक्यासी ८१ ।
६. प्रमत्त संयतमें पाँच मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय इकतीस ३१ । उदय अठहत्तर ७८।
३०
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गो० कमकाण्डे
दोळ नाळकुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तु ४० । उदयंगळरुवत्तो भत्त ६९ ॥ अनिवृत्तिकरणन द्वितीयक्रोधकषायभागेयोळ आरुगूडियनुदयंगलु नाल्वत्तारु ४६ । उदयंगलरुवत्तमूरु ६३ । अनंतानुबंधिरहिते अनंतानुबंधिरहितनोलु एकेंद्रियजातिनाममुं १ विकलत्रयमु ३ मातपनाममु १ अनंतानुबंधिक्रोधमु १ मानुपूर्व्यचतुष्कमु ४ स्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणचतुष्कमु ४ मितु पदिनाकु प्रकृतिगळ मिथ्यादृष्टियुदयप्रकृतिगळ नूरयदरोळ १०५ कळेदु शेष तो भत्तो दु प्रकृतिगळनंतानवंधिरहितमिथ्यादृष्टियोदयप्रकृतिगळप्पुवु ९१ । संदृष्टि :
क्रोधमानमायेगळ्गे योग्य १०९ | • मि सा | मि | अ दे प्र अ अ अ | व्युच्छि ५६ ११४ पापा ६/६३ उद १०५ ९९ ९१ ९५ ८१७८७३ ३९ ६३ | अनु। ४ १० | १८ | १४ २८३१३६४० ४६ |
लो ४ यो १०९
| अ । ४ । १०/ १८१४२८३१३६ ४० ४६४६
संयोज्यानुदयः षट्त्रिंशत् ३६ । उदयः त्रिसप्ततिः ७३ । अपूर्वकरणे चतुष्कं संयोज्यानुदयश्चत्वारिंशत् ४० । उदय एकान्नसप्ततिः ६९। अनिवृत्तिकरणे द्वितीयक्रोधकषायभागे षट् संयोज्यानुदयः षट्चत्वारिंशत ४६ । उदयस्त्रिषष्टिः । अनंतानुबंधिरहिते तु एकेंद्रियविकलत्रयातपानंतानुबंधिक्रोधानुपूर्व्यचतुष्कस्थावरसूक्ष्मापर्याप्त
१०
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय छत्तीस ३६ । उदय तिहत्तर ७३ । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय चालीस ४० । उदय उनहत्तर ६९ ।
९. अनिवृत्तिकरणमें दूसरे क्रोधकषाय भागमें छह मिलाकर अमुदय छियालीस । १५ उदय त्रेसठ।
अनन्तानुबन्धि रहित क्रोधमें मिथ्यादृष्टिमें उदययोग्य एक सौ पाँच में से एकेन्द्रिय, विकलत्रय, आतप, अनन्तानुबन्धी क्रोध, आनुपूर्वी चार, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण ये चौदह नहीं होती। अतः उदय प्रकृतियाँ इक्यानबे ९१ हैं।
विशेषार्थ-जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें आता है
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एवं माणादितिये मदिसुद अण्णाणगे दु सगुणोघं ।
वेभंगेवि पताविगिविगलिंदी थावराणुचऊ ॥३२३।। एवं मानादित्रये मतिश्रताज्ञानके तु स्वगुणोघः। विभंगेपि नातापैकविकलेंद्रियस्थावरानुपूयं चत्वारि ॥
एवं मानादित्रये क्रोधचतुष्कदोळेतते मानचतुष्कदोळं मायाचतुष्कदोमितरकषाय- ५ द्वादशप्रकृतिगळु तोर्थमुमंतु पदिमूलं प्रकृतिगळं कळेदु नूरों भत्तु नूरो भत्तु गळप्पुवु। १०९ । १०९ । अदु कारणमागि क्रोधदोळे रचने पेळल्पटुद । लोभमककुमंते यितरकषायद्वावशप्रकृतिगळ तीर्थमुं कळेदु योग्यंगळु नरोभत प्रकृतिगळप्पुवु १०९ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानावसानमागि पत्तु गुणस्थानंगळप्पुवु। मतिश्रुताऽज्ञानयोस्तु मते कुमतिकुश्रुतज्ञानंगळोळु सामान्यदिदं पेळ्द नरिप्पत्तेरडरोळाहारकद्विक, २ तीर्थमुं १ मिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिगळु २ मंतर, कळेदु शेष- १० प्रकृतिगळुदययोग्यंगळ नूर हविने ११७ मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियु १ आतपनाममुं १ सूक्ष्मत्रयमुं ३ नरकानुपूय॑मु १ मंतारं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं ६। सासादननोळ तन्न साधारणानि मिथ्यादृष्टयुदयपंचोत्तरशते नेत्येकनवतिरुदयप्रकृतयो भवंति ॥३२२॥
एवं क्रोषचतुष्कवन्मानचतुष्के मायाचतुष्के च द्वादश, इतरकषायतीर्थ नेति नवोत्तरशतं तेन तद्रचना क्रोधरचनैव ज्ञातव्या । लोभेऽपि तथैव तत्त्रयोदशप्रकृत्यभावात् उदययोग्यं नवोत्तरशतं । सूक्ष्मसांपरायांतानि १५ गुणस्थानानि । १०९ । कुमतिकुश्रुतज्ञानयोः पुनः द्वाविंशत्युत्तरशते आहारकद्वयतीर्थमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतयो नेति उसके कुछ काल तक अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। उसके उस कालमें इक्यानवे प्रकृतियोंका उदय होता है ॥३२२।।
क्रोधकषाय रचना १०९ | मि. सा. | मि. | अ. | दे. प्र. अ. अ. | अ. |
|४|१०| १८ | १४ | २८/३१ ३६ ४० | ४६ ।
क्रोधचतुष्ककी तरह मानचतुष्क और माया चतुष्कमें भी अन्य बारह कषाय और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ नौ हैं । अतः उनकी रचना क्रोध कषायकी रचनाकी २० तरह ही जानना । लोभमें भी तेरह प्रकृतियोंका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ नौ हैं। किन्तु गुणस्थान सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त होते हैं।
कुमति और कुश्रुतज्ञानमें एक सौ बाईसमें-से आहारकद्विक, तीर्थंकर, मिश्र और
१. | मि
क-६५
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गो० कर्मकाण्डे
गुणस्थानदोभत्तु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ९ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळनुबयंगळिल्लं । उदयंगळु नूर हदिर्नळु ११७ । सासादनगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळारेपप्पु ६ । उदयंगळ नूर नोंदु १११ । संदृष्टि :
**
५१४
२०
२५
कु० कु० योग्य ११७
० मि सा
व्यु
अ ०
विभंगे विविभंगज्ञानवोळं आतपनाममुं १ । एकेंद्रिय जातिनाममुं १ । विकले द्रियत्रयमुं ५ ३ । स्थावर सूक्ष्मापर्य्याप्त साधारणचतुष्कमुं ४ आनुपूवयंचतुष्कमु ४ मंतु पविमूरप्रकृतिगळसं पेव्व कुमतिकुश्रुतज्ञानयोग्यंगळ नूर हदिनेळरोळ ११७ कळेदोडे नूर नाल्कुं प्रकृतिगळदययोग्यं गळप्पुवु १०४ ॥ मिथ्यादृष्टियो मिथ्यात्वमो दे व्युच्छित्तियक्कु १ । सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्टय क्कुदयव्युच्छित्तियक्कु ४ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळनुदयमिल्ल । उबयंगळ नूर नालकु १०४ ॥ सासादनगुणस्थानदोनों दनुदयमक्कु १ । उदयंगळ नूर मूरु १०३ ॥ संदृष्टि
:
९
१० सप्तदशोत्तरशतमुदययोग्यं । ११७ । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वातपसूक्ष्मत्रयनारकानुपूर्व्याणि व्युच्छित्तिः ६ । सासादने स्वस्य नव ! मिथ्यादृष्टावनुदयो नास्ति । उदयः सप्तदशोत्तरशतं । ११७ । सासादनेऽनुदयः षट् ६ । उदय एकादशोत्तरशतं १११ ।
उ ११७ १११
विभंगेऽप्येवमेव तथापि नातपैकेंद्रिय विकलत्रयस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानुपूर्व्यचतुष्कानीति चतुरुतरशतमुदययोग्यं । १०४ । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः । सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं ४ । मिथ्यादृष्टा१५ वनुदयो नास्ति । उदयः चतुरुत्तरशतं १०४ । सासादने एकमनुदयः १ । उदयस्त्रयुत्तरशतं १०३ ॥ ३२३ ॥
सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ सतरह ११७ हैं । उनमें मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्मादि तीन और नरकानुपूर्वी इन छहकी व्युच्छित्ति होती है ! सासादन में अपनी नौकी व्युच्छित्ति होती है ।
१. मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें अनुदय नहीं है। उदय एक सौ सतरह ११७ । २. सासादनमें अनुदय छह । उदय एक सौ ग्यारह १११ ।
विभंग में भी ऐसा ही जानना । किन्तु आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और चार आनुपूर्वीका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ चार १०४ । मिध्यादृष्टिमें मिध्यात्वकी और सासादन में अनन्तानुबन्धी चारकी व्युच्छित्ति होती है। मिथ्यादृष्टिमें अनुदय नहीं है । उदय एक सौ चार १०४ ।
सासादनमें एकका अनुदय । उदय एक सौ तीन १०३ || ३२३||
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
विभंगयोग्य १०४
olo मि सा
व्यु १ ४
उ १०४ १०३
अ
० १
सणाणपंच यादी दंसणमग्गणपदोत्ति सगुणोघं । मणपज्जवपरिहारे णवरि ण संढित्थिहारदुगं ॥ ३२४॥
संज्ञानपंचकादिदर्शनमार्गणापदपथ्यंतं स्वगुणौघः । मनःपर्य्ययपरिहारयोः नवीनं न षंडस्त्रया
हारद्विकं ॥
सम्यग्ज्ञानपंचकादि दर्शनमार्गणास्थानपर्यंतं स्वगुणौघमेयक्कुम दे ते दोर्ड मति तावधि - ५ ज्ञानत्रितयंगळोळ संयतादिक्षीणकषायगुणस्थानपर्यंतं नवगुणस्थानंगळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टि • गुणस्थानदुदयव्युच्छित्तिगळय्दु ५ सासादनननवकमुं ९ । मिश्रन मिश्रप्रकृतियुं १ | तीर्थंकरनामभु १ मितु पदिनारुं प्रकृतिगळं कळेद शेषनूरारु प्रकृतिगळुवययोग्यंगळप्पुवु । १०६ । अल्लि असंयतनोळ तन्न गुणस्थानदोळु पेद द्वितीयकषायादिपदिनेळ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु १७ । वेशसंयतादिगळोळु अंड पंच य चउर छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस प्रकृतिगऴ्गुदयव्युच्छित्तियप्पू- १०
कुमति-कुश्रुत रचना
मि. सा.
६ ९
११७ १११
० ६
५१५
संज्ञानपंचकाद् दर्शनमार्गणापर्यंतं स्वगुणौघ एव तद्यथा - मतिज्ञानादित्रये गुणस्थानानि असंयतादीनि नव । उदयप्रकृतयः मिथ्यादृष्ट्यादित्रयस्य व्युच्छित्तिः पंचदश तीर्थकरत्वं च नेति षडुत्तरशतं १०६ । तत्रासंयते स्वस्य सप्तदश व्युच्छित्ति: १७ । तत्र देशसंयतादिषु 'अडपंचयच उरछक्क छच्चेव इगिदुगसोलस' तथासति
विभंग रचना मि. सा.
१ ૪ १०४ १०३ १
०
पाँच सम्यग्ज्ञानसे लेकर दर्शनमार्गणा पर्यन्त अपने गुणस्थानवत् जानना । जो इस प्रकार है
१५
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञानमें गुणस्थान असंयतसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त नौ | उदययोग्य एक सौ बाईस में से मिध्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में व्युच्छित्ति ५+९+१= पन्द्रह और तीर्थंकरका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ छह १०६ ।
वहाँ असंयतमें अपनी सतरह की व्युच्छित्ति होती है । देशसंयत आदिमें आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह की व्युच्छित्ति है ।
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५१६
गो० कर्मकाण्डे
वंतागुत्तं विरलसंयत गुणस्थानदोळाहारकद्विकक्कनुदमक्कुं २ । उदयंगळ, नूर नाल्कु १०४ ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळ, पविने मूडियनुवयंगळ हत्तों भत्तु १९ । उदयंगळे भत्तेळ ८७ । प्रमत्तसंयतगुणस्थानबोळे 'दुगूडियनुदयंगळिप्प तेळरोळ २७ आहारकद्विकमं कळेदुदयंगळो कूत्तं विरलनुदयंगळिष्पत्तय्दु २५ । उदयंगळे भत्तों दु ८१ । अप्रमत्त गुणस्थानदोळ दुगुडियनुदयंगळ मूवत्तु ३० । ५ उदयंगळेप्पत्तारु ७६ ॥ अपूवंकरण गुणस्थानदोळ, नाल्कु गुडियनुदयंगळ, मूवत्त नाल्कु ३४ । उदयंगळेप्पत्तेरडु ७२॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तु ४० । उदयंगळरुवत्ताद ६६ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळा रुगू डियनुदयंगळ नात्वत्तारु ४६ । उदयंगळरुवत्तु ६० ॥ उपशांतकषाय गुणस्थानबोळो बुगूडियनुवयंगळ नात्वत्तेळ ४७ । उदयंगळय्वत्तो भत्तु ५९ ॥ क्षीणकषायगुणस्थानदोळेर गूडियनुदयंगळ, नाल्वत्तो भत्तु ४९ । उदयंगळय्वत्तेळ ५७ । संदृष्टि : मति तावधि यो० १०६
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उ १०४ ८७ ८१ अ २ १९ २५ ३० ३४४०४६ ४७ ४९
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१० असंयते आहारकद्विकमनुदयः २ उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ । देशसंयते सप्तदश संयोज्यानुदयः एकान्नविंशतिः । उदयः सप्ताशीतिः । ८७ । प्रमत्तेष्टी संयोज्याहारकद्विकोदयादनुदये पंचविंशतिः २५ । उदय एकाशीतिः । ८१ । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदयस्त्रिंशत् ३० । उदयः षट्सप्ततिः ७६ । अपूर्वकरणे चतस्रः संयोज्यानुदयश्चतुस्त्रिशत् ३४ । उदयो द्वासप्ततिः । अनिवृत्तिकरणे षट्संयोज्यानुदयश्चत्वारिंशत् ४० । उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांपराये षद् संयोज्यानुदयः षट्चत्वारिंशत् ४६ । उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एकां १५ संयोज्यानुदयः सप्तचत्वारिंशत् ४७ । उदय एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्यानुदयः एकान्नपंचाशत् ४९ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ ।
४. असंयतमें आहारकद्विकका अनुदय । उदय एक सौ चार १०४ । ५. देशसंयत में सतरह मिलाकर अनुदय उन्नीस । उदय सत्तासी ८७ ।
६. प्रमत्त में आठ मिलाकर आहारकद्विका उदय होनेसे अनुदय पच्चीस | उदय २० इक्यासी ८१ ।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय तीस ३० । उदय छिहत्तर ७६ ॥
८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय चौतीस ३४ । उदय बहत्तर ७२ । ९. अनिवृत्तिकरण में छह मिलाकर अनुदय चालीस । उदय छियासठ । १०. सूक्ष्म साम्पराय में छह मिलाकर अनुदय छियालीस । उदय साठ । ११. उपशान्त कषायमें एक मिलाकर अनुदय सैंतालीस । उदय उनसठ । १२. क्षीणकषाय में दो मिलाकर अनुदय उनचास । उदय सत्तावन ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
५१७ मनःपर्ययज्ञानोळ मगपज्जवे णवरि ण संढित्थी हारदुर्ग एदितु नाल्डु प्रकृतिगळं प्रमत्तसंयतनुदयप्रकृतिगळे भत्तों दरो ८१ कळेदोडदययोग्य प्रकृतिगळेपत्तेलु ७७ । गुणस्थानंगळु प्रमत्तादिसप्तप्रमितंगळप्पुवल्लि प्रमत्तसंयतनोळु स्त्यानगृद्धित्रयंक्कुदयव्युच्छित्तियक्कुं ३ ॥अप्रमत्तसंयतनोळु तन्न गुणस्थानद नाल्कुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ।। अपूर्वकरणनोळु तन्न गुणस्थानद षण्नोकषायंगळुदयव्युच्छित्तियक्कुं६॥ अनिवृत्तिकरणनोळु पुंवेदमुं संज्वलनक्रोधादित्रितयमुमंतु नाल्कुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कु । ४॥ सूक्ष्मसांपरायनोळु सूक्ष्मलोभक्कुदयव्युच्छित्तियक्कुं १। उपशांतकषायनोळु तन्न गुणस्थानद वज्रनाराचनाराचद्वयक्कुदयव्युच्छित्तियक्कु २॥ क्षीणकषायनोळु तन्न गुणस्थानद द्विचरमसमयदोळु निद्राप्रचलेगळं २ चरम समयदोळ ज्ञानावरणपंचकमु-५। मंतरायपंचकमुं ५ दर्शनचतुष्कमुं नाल्कु ४ मंतु पदिनारुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कु । १६ । मंतागुतं विरलु प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळनुदयं शून्यं उदयंगळप्पत्तेळु ७७॥ १० अप्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळनुदयंगळु मूरु ३। उदयगळेप्पत्तनाल्कु ७४ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोळु नाल्कुगूडियनुदयंगळेळु ७। उदयंगळेप्पत्तु ७० ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळु पदिमूरु १३। उदयंगळरुवत्त नाल्कु ६४ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळु नाल्कुगूडियनुदयंगळ पदिनेछ १७ । उदयंगळु अरुवत्तु ६० ॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळोदुगूडियनुदयंगळु हदिनंटु
मनःपर्ययज्ञाने-संढित्योहारदुगु णेति तच्चतुष्के प्रमत्तोदयकाशोत्यामपनीते सप्तसप्ततिः ७७ । गुणस्था- १५ नानि प्रमत्तादीनि सप्त । तत्र प्रमत्ते स्त्यानगृद्धित्रयं व्युच्छित्तिः ३ । अप्रमत्ते स्वस्य चतुष्कं ४ । अपूर्वकरणे षण्णोकषायाः ६ । अनिवृत्तिकरणे पुंवेदः संज्वलनक्रोधादित्रयं च ४ । सूक्ष्मसांपराये सूक्ष्मलोभः । उपशांतकषाये वज्रनाराचनाराचद्वयं २ । क्षीणकषाये द्विचरमसमये निद्राप्रचले, चरमे ज्ञानावरणपंचकं अंतरायपंचक दर्शनावरणचतुष्कं च मिलित्वा षोडश १६ । एवं सति प्रमत्तेऽनुदयः शून्यं । उदयः सप्तसप्ततिः ७७ । अप्रमत्तेऽनुदयस्त्रयं ३। उदयश्चतुःसप्ततिः ७४ । अपूर्वकरणे चतुष्कं संयोज्यानुदयः सप्त ७ । उदयः सप्ततिः २० ७० । अनिवृत्तिकरणे पसंयोज्यानुदयस्त्रयोदश १३ । उदयश्चतुःषष्टिः ६४ । सूक्ष्मसांपराये चतुष्कं संयोज्या
मनःपर्ययज्ञानमें प्रमत्त संयममें उदययोग्य इक्यासीमें-से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और आहारकद्विकका उदय न होनेसे उदययोग्य सतहत्तर ७७। गुणस्थान प्रमत्तादि सात । उनमें से प्रमत्तमें स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी व्युच्छित्ति । अप्रमत्तमें अपनी चारकी व्युच्छित्ति । अपूर्वकरणमें छह नोकषाय । अनिवृत्तिकरणमें पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध आदि तीन । सूक्ष्म २५ साम्परायमें सूक्ष्मलोभ । उपशान्तकषायमें वज्रनाराच और नाराच । क्षीण कषायमें द्विचरम समयमें निद्रा प्रचला, चरम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय मिलकर सब सोलह १६ । ऐसा होनेपर----- ६. प्रमत्तमें अनुदय शून्य । उदय सतहत्तर ७७ । ७. अप्रमत्तमें अनुदय तीन । उदय चौहत्तर ७४ ।
३. ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय सात । उदय सत्तर ७० । ९. अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय तेरह । उदय चौसठ ।
१. ब. मनःपर्ययज्ञानिनां ।
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५१८
गो० कर्मकाण्डे १८ । उदयंगळय्वत्तो भत्तु । ५९ ॥ क्षीणकषायगुणस्थानदोळेडगूडियनुदयंगलिप्पतु २० । उदयंगळयवत्तेळु ५७॥ संदृष्टि-मनःपर्यायज्ञानयोग्य ७७ । • प्र अ |
अ | असू उक्षी |
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३
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उ ७७ | ७४ ७० ६४ ६० | ५९ / ५७
अ ० ३ | ७ | १३ | १७ | १८ | २० केवलज्ञानदोळु योग्योदय प्रकृतिगळु नाल्वत्तरडु ४२ । गुणस्थानद्वितयमल्लि सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळुदयन्युच्छित्तिगळु मूवत्तु ३० । अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ पन्नेरडु ५ १२ । संदृष्टिः-केवलिद्वययोग्य ४२ ।
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३०
नुदयः सप्तदश १७ । उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एक संयोज्यानुदयोऽष्टादश १८ । उदय एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीण कषाये द्वे संयोज्यानुदयो विंशतिः २० । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ ।
केवलज्ञाने उदययोग्या द्वाचत्वारिंशत् ४२ । तत्र सयोगे व्युच्छित्तिः त्रिंशत् । अयोगे द्वादश । संदृष्टिः--
केवलिद्वययोग्यः ४२
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१०. सूक्ष्म साम्परायमें चार मिलाकर अनुदय सतरह । उदय साठ ६० । ११. उपशान्त कषायमें एक मिलाकर अनुदय अठारह । उदय उनसठ । १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय बोस । उदय सत्तावन ।
केवलज्ञानमें उदययोग्य बयालीस । उसमें से सयोगीमें व्युच्छित्ति तीस । अयोगीमें बारह।
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५१९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संयममार्गयोळु सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमवयदोळ योग्यंगळ प्रमत्तगुणस्थानदेण्भतोंदु प्रकृतिगळप्पु ८१ वल्लि गुणस्थानंगळं नाल्कु। प्रमत्तसंयतादिव्युच्छित्तिगळु पंच य चउर छक्क छच्चेव एंवी उदयव्युच्छित्तिगर्छ । प्रमत्तगुणस्थानदोळनदयं शून्यमक्कुं। उदयंगळे भत्तोंदु ८१॥ अप्रमत्तगुणस्थान दोळय्दु प्रकृतिगळनुदयंगळु ५ । उदयंगळेप्पत्तार ७६ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोलु नाल्कूगूडियनुवयंगळो भत्तु ९ । उदयंगळेप्पत्तरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळारु- ५ गूडियनुक्यंगळु पदिनय्दु १५ । उदयंगळरुवत्तारु ६६ । संदृष्टि । सा० छे० योग्य ८१ ।
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७६
७२
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परिहारविशुद्धिसंयमबोळ परिहारे णवरि ण संडिथिहारदुगं एंदिती नाल्कुं प्रकृतिगळं कळेदु शेषप्रकृतिगळेप्पत्तेदययोग्यगळं ७७ । प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वितयमेयक्कं संदृष्टि :
संयममार्गणायां सामायिकछेदोपस्थापनयोरुदययोग्याः प्रमत्तस्यैकाशीतिः ८१ । गुणस्थानानि प्रमत्तादीनि चत्वारि । व्युच्छित्तयः पंचयचउरछक्कछच्चेव । प्रमत्तेऽनुदयः शून्यं । उदय एकाशीतिः ८१ । अप्रमत्ते- १० अनुदयः पंच ५। उदयः षट्सप्ततिः ७६ । अपूर्वकरणे चतुष्कं संयोज्यानुदयो नव ९। उदयो द्वासप्ततिः । ७२ । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोण्यानुदयः पंचदश १५ उदयः षट्षष्टिः ६६ । परिहारविशुद्धी पंढित्थीहारदुर्ग णेति तच्चतुष्केपनीते सप्तसप्ततिरुदयोग्याः ७७ । प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थाने द्वे । संदृष्टिः
सम्यग्ज्ञानत्रय रचना १०६ | अ. दे.प्र.अ.अ.अ.स.
मनःपययज्ञान रचना ७७ प्र.अ अ. अ. | सू. ब.
केवलज्ञान रचना ४२ क्षी. |
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४२
| १०४८७८२७६७२६६६०५९५७ ७७७४/७० ६४ । ६० ५९ ५७ | २ १९२५/३०३४४०४६४७४९ |०३७ १३ । १७ । १८ । २० ।
संयममार्गणामें सामायिक और छेदोपस्थापनामें उदययोग्य प्रमत्तसंयमकी इक्यासी ८१ । गुणस्थान प्रमत्त आदि चार । व्युच्छित्ति क्रमसे पाँच, चार, छह, छह । प्रमत्तमें अनुदय १५ शून्य । उदय इक्यासी। अप्रमत्तमें अनुदय पाँच, उदय छिहत्तर। अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय नौ। उदय बहत्तर ७२। अनिवृत्तिकरणमें छह मिलाकर अनुदय पन्द्रह । उदय छियासठ ६६ ।
परिहार विशुद्धिमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और आहारकद्विकका उदय न होनेसे उदययोग्य
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गो० कर्मकाण्डे
परिहारयो ७७
सूक्ष्मसांपरायसंयमोदययोग्यप्रकृतिगळरुवत्तु ६०। सूक्ष्मसापराय गुणस्थानमो देयक्कं । यथाख्यातसंयमोदयप्रायोग्य प्रकृतिगळ उपशांतकषायगुणस्थानदय्वत्तो भतरोळ तीर्थमंडिया वत्तु प्रकृतिगळप्पुवु ६० गुणस्थानंगळ नाल्कप्पुवल्लियुपशांतकषायनोळु वज्रनाराचशरीरसंहननद्वयक्कुदयव्युच्छित्तियक्कं २॥क्षीणकषायनोळु तन्न गुणस्थानद पदिनारं प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तियक्कु ११६ ॥ सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ तवगुणस्थानव मूवत्तुं प्रकृतिगळ्गुवव्युच्छित्तियक्कुं ३० ॥ अयोगिकेवलिभट्टारकनोळं तद्गुणस्थानद पन्नेरडं प्रकृतिगळगुवयम्युच्छित्तियक्कुमंतागुतं विरलुपशांतकषायगुणस्थानदोळ तोयमों दनुदयमकुं १। उदयंगळवतोभत्तु ५९॥ क्षीणकषायगुणस्थानदोळेरडुगूडियनुदयंगळु ३ । उदयंगळय्वत्तेळु ५७॥ सयोगिकेवलिभटूटारकगुणस्थानदोळ परिनारुगूडियनुदयंगळु हत्तो भत्तरोळु तीर्थमं कळवुदय प्रकृतिगळोळ कूडुत्तं
१ परि = यो ७७
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। ३ | ७७
४ ७४
सूक्ष्मसांपरायस्योदयः षष्टिः ६० । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानम् । यथाख्यातसंयमस्योदयः उपशांतकषायस्य एकान्नषष्टयां तीर्थ मिलित्वा षष्टिः ६० । गुणस्थानान्युपशांतकषायादीनि चत्वारि । तत्रोपशांतकषाये वजनाराचनाराचद्वयं व्युच्छित्तिः । क्षीणकषाये षोडश । सयोगे त्रिंशत् । अयोगे द्वादश । तथा सति उपशांतकषाये तीर्थमनुदयः १ । उदय एकान्नषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्यानुदयस्त्रयं । ३ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ ।
सतहत्तर ७७। गुणस्थान दो प्रमत्त और अप्रमत्त। सूक्ष्मसाम्परायमें उदय साठ। एक गुण__ स्थान सूक्ष्म साम्पराय । यथाख्यातसंयममें उपशान्तकषायमें उदययोग्य उनसठमें तीर्थकर १५ मिलाकर उदययोग्य साठ । गुणस्थान उपशान्तकषाय आदि चार । उनमेंसे उपशान्त कषायमें वनाराच और नाराच दोकी व्युच्छित्ति । क्षीण कषायमें सोलह । सयोगीमें तीस । अयोगीमें बारह । ऐसा होनेपर
उपशान्तकषायमें तीर्थकरका अनुदय । उदय उनसठ ५९ । क्षीणकषायमें दो मिलाकर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
विरलनुवयंगळु पविनेदु १८ । उदयंगळ नात्वत्तेरडु ४२ ॥ अयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ मूवत्तुगू डियनुदयंगळ नात्वतें टु ४८ । उदयंगळ पन्नेरडु १२ ॥ संदृष्टि :
यथाख्यात योग्य ६०
०
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उ क्षी स अ
१६
५९ ५७
१ ३
१२
४२
१२
१८ ४८
३०
५२१
देश संयमदोळ देशसंयत गुणस्थान दुदयप्रकृतिगळे भत्तेळु ८७ उदययोग्यंगळवु ॥ गुणस्थानमा देशसंयत गुणस्थानमो देयक्कुं । असंयमदोळ तीर्थंकर नाममुमाहारकद्वयमुममंतु मूरुं ५ प्रकृतिगळं कळेदु शेषप्रकृतिगळ नूर हतो भत्तुदययोग्यंगळवु ११९ वल्लि मिथ्यादृष्टयादियागि नाकुं गुणस्थानंगळप्पुवल्लि तंतम्म गुणस्थानद पण णव इगि सत्तरस प्रकृतिगळ्मे यथासंख्य मागियुदय व्युच्छित्तिगळप्पुवंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेर डुमनुदयंगळु २ । उदयंगळु तरहदिनेछु ११७ । सासादन गुणस्थानबोळय्दुगूडियनुदयंगळेळरोळ नरकानुपूर्व्यमनुवयंगळोळ कळेवनुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळे टु ८ । उदयंगळ १० नूर नोंदु १११ ॥ मिश्र गुणस्थानवोळो भत्तं गूडियनुवयंगळ हदिनेळरोळ मिश्रप्रकृतियं कळे दुवयंगळोळ कूटि मत्तमुदयंगळोळ शेषानुपूळ्यंत्रयमं कळंबमुदयंगळोळ फूडुतं विरलनुबयंगळु हत्तों भत्तु १९ । उदयंगळ नूरु १०० । असंयतगुणस्थानबोळो वुगू डियनुवयंगळिप्पसरोळ सम्यक्त्व
सयोगे अनुदयः । षोडश संयोज्य तीर्थोदयादष्टादश १८ । उदयो द्वाचत्वारिंशत् ४२ । अयोगे त्रिशत् संयोज्यानुदयोऽष्टाचत्वारिंशत् ४८ । उदयो द्वादश १२ । देशसंयमे तद्गुणस्थानस्य सप्ताशीतिरुदययोग्याः ८७ । १५ गुणस्थानं तदेव । असंयमे तीर्थ करत्वमाहारकद्वयं विना शेषकान्नविंशत्युत्तरशतमुदययोग्यं ११९ । मिथ्यादृटयादिगुणस्थानानि चत्वारि । व्युच्छित्तयः 'पणणव इगिसत्तरसं' । तथा सति मिथ्यादृष्टो मिश्रं सम्यक्त्वं चानुदयः । उदयः सप्तदशोत्तरशतं ११७ । सासादनेऽनुदयः पंच नरकानुपूव्यं च मिलित्वाष्टौ ८ । उदय एकादशोत्तरशतं १११ । मिश्रेऽनुदयो नव शेषानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रोदयादेकान्नविंशतिः १९ ।
अनुदय तीन । उदय सत्तावन । सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थंकरका उदय होनेसे अनुदय २० अठारह । उदय बयालीस । अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय अड़तालीस ४८| उदय बारह १२ ।
देशसंयम में उसी गुणस्थानमें उदययोग्य सतासी । वही एक गुणस्थान होता है । असंयम में तीर्थंकर और आहारकद्विक बिना उदय योग्य एक सौ उन्नीस । गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि चार । व्युच्छित्ति क्रमसे पाँच, नौ, एक, सतरह । ऐसा होने पर मिध्यादृष्टिमें २५ मिश्र और सम्यक्त्वका अनुदय । उदय एक सौ सतरह । सासादनमें पाँच और नरकानुपूर्वी मिलाकर अनुदय आठ । उदय एक सौ ग्यारह । मित्रमें नौ और शेष तीन आनुपूर्वी मिलकर,
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५२२
गो० कर्मकाण्डे प्रकृतियुमं आनुपूय॑चतुष्क मुमितय्दुं प्रकृतिगळं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुवयंगळ, पदिनय्दु १५। उदयंगळ, नूर नाल्कु १०४॥ संदृष्टि :
असं० योग्य ११९ ॥
मि सा | मि अ।
उ ११७ १११.१००१०४
| | २ ८ १९ । १५/ दर्शनमार्गयोळ चतुर्दर्शनयोग्योदयप्रकृतिगळु सामान्योदययोग्यप्रकृतिगळ नूरिप्पत्तरडरोळ :
चक्खुम्मि ण साहारणताविगिबितिजाइ थावरं सुहुमं ।
किण्णदुगे सुगुणोघं मिच्छे णिरयाणु वोच्छेदो ॥३२५।। चक्षुषि न साधारणातपैकद्वित्रिजातिस्थावरं सूक्ष्मं कृष्णद्विके स्वगुणौघः मिथ्यावृष्टौ नारकानुपूठय॑व्युच्छेदः॥
साणे सुराउ सुरगदिदेवतिरिक्खाणु वोच्छिदी एवं ।
काओदे अयदगुणे णिरयतिरिक्खाणुवोच्छेदो ॥३२६॥ सासादने सुरायुः सुरगतिदेवतिर्यगानुपूविव्युच्छित्तिरेवं । कापोते असंयतगुणस्थाने निरयतिय्यंगानुपूर्वोव्युच्छित्तिः ॥
साधारणनाममुं १। आतपनाममुं १। एकेंद्रियजातियु१। द्वींद्रियजातियुं १। त्रींद्रियजातियु१ । स्थावरनाममुं १ । सूक्ष्मनाममुं १ । तीर्थकरनाममुं १ मितेंटु ८। नन संति ये दिवं १५. उदयः शतं १०० । असंयते एक मिलित्वा सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयात्पंचदश १५ । उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ ।। ३२४ ।
दर्शनमार्गणायां चक्षुर्दर्शने साधारणमातप एकेंद्रियं द्वींद्रियं त्रींद्रियं स्थावरं सूक्ष्मं तीर्थकरत्वं च नेति मिश्रका उदय होनेसे अनुदय उन्नीस । उदय सौ। असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व और आनुपूर्वी चारका उदय होनेसे अनुदय पन्द्रह । उदय एक सौ चार ॥३२४॥
दर्शनमार्गणामें चक्षुदर्शनमें साधारण, आतप, एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, सामायिक छेदोप. ८१ परि. वि. ७७ यथाख्यात ६० असंयम ११९
प्र.अ.अ.अ. प्र. अ. उ. क्षी| स. अ. | मि. सा. मि. अ. | व्यु. ५४ ६६३४ | उदय ८१७६७२६६ ७७७४ ५९/५७ ४२ १२ | ११७ १११ १०० १०४ | अनु. ५९१५
१९।१५
२.
१२
१३ १८. ४८
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
कळेयलु शेष नूर पदिनालकुं प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु ११४ । गुणस्थानंगळं मिथ्यादृष्टियादियागि क्षीणकषायावसानमागि परवल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुमपर्य्याप्तनाम मुमितेर प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कुं २ ॥ सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्कर्मु ४ चतुरिद्रियजातिनाममुमित ५ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियवकुं ५ ॥ मिश्रं मोवल्गोडु क्षीणकषाय गुणस्थानपय्यंतं यथासंख्यमागि इगि सत्तरसं अडपंचय चउर छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस प्रकृतिगळगुवयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरल मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, मिश्रप्रकृतियुः सम्यक्त्व प्रकृतियुमाहारकद्वयमुमितु नात्कं प्रकृतिगळ्गनुवयमक्कुं ४ । उदयंगळ नूर हत्तु ११० ॥ सासादन गुणस्थानवोळे रडुडियनुदयंगळाररोळ नरकानुपूर्व्यमनुदयप्रकृतिगळोळ, कळेवनुवयंगळोळ, कूडुतं विरलनुवयंगळेळु ७ । उदयंगळ, तूरेल १०७ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळगूडियनुदयंगळ पन्नेरडरोळु मिश्र - प्रकृतियं कळेदुदयंगळोळ. कूडि मत्तमुदयप्रकृतिगळोळ शेषानुपूढव्यं त्रयमं कळेदनुदयंगळोळ कूत्तं १० विरलनुवयंगळु पविनाल्कु १४ । उदयंगळ नूरु १०० । असंयत गुणस्थानवोलो दुगूडियनुदयंगळ पविनम्बरो सम्यक्स्वप्रकृतियुमं आनुपूर्ये चतुष्कमुमनंतम्वं प्रकृतिगळ कळेबुवयगंळोळु कूड़तं विरलनुदयंगळं पत्तु १० । उदयंगळ नूर नाल्कु १०४ ॥ देशसंयत गुणस्थानबोळु पदिनेऴुगूडियनुवयंगळिष्पत्तेळु २७ । उदयंगळेणभत्तेळ ८७ ॥ प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळे दुगूडियनुदयंगळ सूवत्तय्दरोळाहारकद्वयमं कळेबुवयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळु मृवत्समूरु ३३ । उवयंगळेण्भत्तोंटु ८१ ॥ १५
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५२३
चतुर्दशोत्तरशत मुदययोग्यं ११४ । गुणस्थानानि मिध्यादृष्ट्यादीनि द्वादश १२ । तत्र मिथ्यादूष्टौ मिथ्यात्वापर्याप्त व्युच्छित्तिः २ । सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं चतुरिद्रियं च ५। मिश्रात् क्षीणकषायपर्यंत इगिसत्तरसं अडपंचयचउरछक्कछच्चे व इगिदुगसोलस व्युच्छित्तयः । तथा सति मिथ्यादृष्टी मिश्र सम्यक्त्वं आहारकद्वयं चानुदयः, उदयो दशोत्तरशतं ११० । सासादने द्वे नरकानुपूव्यं च मिलित्वानुदयः सप्त ७ । उदयः सप्तोत्तरशतं १०७ । मिश्रनुदयः पंच शेषानुपूर्व्यत्रयं च मिलित्वा मिश्रोदयाच्चतुर्दश १४ । उदयः शतं १०० । २० असंयतेऽनुदयः एकं संयोज्य सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयाद्दश १० । उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ । देशसंयते सप्तदश संयोज्यानुदयः सप्तविंशतिः २७ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्तेऽष्ट संयोज्याहारकद्वयोदयादनुदयस्त्र
स्थावर, सूक्ष्म और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ चौदह १९४ हैं । गुणस्थान मिध्यादृष्टि आदि बारह हैं । उनमें से मिथ्यादृष्टिमें मिध्यात्व और अपर्याप्त दोकी व्युच्छित्ति होती है । सासादन में अनन्तानुबन्धी चार और चौइन्द्रिय पाँच । मिश्र से क्षीणकषायपर्यन्त २५ क्रमसे एक, सतरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो और सोलहकी व्युच्छिति
I
है।
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व और आहारकद्विकका अनुदय है । उदय एक सौ
५
दस ११० ।
२. सासादनमें दो और नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय सात । उदय एक सौ सात । ३. मिश्र में अनुदय पाँच और शेष तीन आनुपूर्वी मिलकर तथा मिश्रका उदय होनेसे चौदह १४ । उदय एक सौ १०० ।
४. असंयत में अनुदय एक मिलाकर सम्यक्त्व और चारों आनुपूर्वीका उदय होनेसे दस १० । उदय एक सौ चार १०४ ।
३०
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________________
५
१०
गो० कर्मकाण्डे
अप्रमत्तगुणस्थानं मोदगो डु क्षीणकषायगुणस्थानपय्र्यंतं केलगण गुणस्थानं गळु दयव्युच्छित्तिगळुमननुदयंगमं कूडिदोडे मेलण मेलण गुणस्थानदप्रकृतिगळ कुं । केळगण गुणस्थानदुदयव्युच्छित्तिगळं कळेदुदयप्रकृतिगळु मेलण गुणस्थानदुदयप्रकृतिगळपुर्वे व व्याप्तियरियल्पडुगुं । संदृष्टियोळी व्याप्तियतिव्यक्तमल्लि भाविसुवुदु ॥ संदृष्टि :
:―
चक्षुर्द्दर्शनयोग्य ११४
अ दे प्र अ
५२४
उ
०
अ
व्यु
उ
अ
यु.
व्यु.
उ.
मि सा मि
मि
२
५
सा मि
१
१७ ८५ ४
११० १०७ | १०० १०४ |८७८१| ७६
७२ ६६ ६० ५९ ५७
४ ७ १४ १० २० ३३ ३८ ४२ ४८ ५४ ५५ ५७
यत्रिशत् ३३ उदयः एकाशीतिः ८१ । अप्रमत्ताक्षीणकषायपर्यंत मधस्तनव्युच्छित्त्यनुदययोग उपरितनानुदयः स्यात् । अधस्तनव्युच्छित्तौ स्वोदयेऽपनीतायामुपरितनोदयः स्यात् इति व्याप्तिर्ज्ञातव्या । संदृष्टि :
चक्षुर्दर्शनोदययोग्यः ११४ ॥
२ ५.
१
११० १०७ १००
४
अ
द
१७
१०४
८७ ७ १४ १० २७
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अ अ
६ ६
८ ५
४
६
७६ ७२
८१ ३३ ३८ ४२
trc
अ
१
उ क्षी
अ सू
६
१
६६
६०
४८ ५४
१६
५. देशसंयत में सतरह मिलाकर अनुदय सत्ताईस । उदय सत्तासी ।
६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय तैंतीस ३३ | उदय
इक्यासी ८१ ।
७. अप्रमत्तसे क्षीणकषाय पर्यन्त नोचेकी व्युच्छित्ति और अनुदयको मिलाने पर ऊपरका अनुदय होता है । और नीचेकी व्युच्छित्तिको अपने उदय में घटानेपर ऊपरका उदय होता है । ऐसी व्याप्त जानना चाहिये । उसकी संदृष्टि
चक्षुदर्शनमें उदययोग्य ११४
सू. उ.
४
६
६
१
मि. सा. मि. / अ. दे. प्र. अ. अ. अ. २ ५ १ १७ ८ ५ ११० १०७ १०० १०४ ८७ ८१ अनु. । ४ ७ १४ १० २७ ३३
७६ ७२
६६ ६०
३८
४२
४८
उ क्षी
२
१६
५९ ५७
५५ ५७
२
५९
५४ ५५
श्री.
१६
५७
५७
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
___ ५२५ अचक्षुद्देशनमार्गयोळु तीर्थकरनामरहितसामान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तोंदु १२१ । गुणस्थानंगळु मिथ्यादृष्टिमोवलागि पन्नेरडं गुणस्थानंगळप्पुवु । मिथ्यादृष्टयादिगळोळु यथाक्रमदिदमुक्यव्युच्छित्तिगळ पण णव इगि सत्तरसं अड पंच य चउर छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस प्रकृतिगळप्पुवंतागुतं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमाहारकद्वयमुमंतु नाल्कुं प्रकृतिगळानुवयमक्कुं । ४ । उदयंगळ. नूरहदिनेळ ११७ । सासादननोळय्दुं ५ कूडियनुवयंगळ ओ भत्तरोळ, नरकानुपूज्यमनुदयंगळोळु कळे वनुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पत्तुं १० । उदयंगल नूर हन्नोंदु १११ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळो भत्तुगूडियनुदयंगळ हत्तो भत्तरोळ मिश्रप्रकृतियं कळदुदयंगळोळु कूडिमत्तमुदयप्रकृतिगळोळानुपूयंत्रितयमं कळे दनुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळिप्पत्तोंदु २१ । उदयंगळ नूरु १०० ॥ असंयतगुणस्थानदोळ ओ दुगूडियनुक्यंगळ यिप्पत्तेरडरोळ. सम्यक्त्वप्रकृतियुमनानुपूळ्यचतुष्कमुमनंतु पंचप्रकृतिगळं कळेदुदय- १० प्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरळनुदयंगळु पविनेळ १७। उदयंगळ नूर नाल्कु १०४ ॥ देशसंयतगुणस्थानवोळ. पदिनेळ गूडियनवयंगळ मूवत्तनाल्कु ३४ । उवयंगळे भत्तेळ ८७ । प्रमत्तगुणस्थानबोलेंटुगूडियनुवयंगळ नाल्वत्तेरडरोळ आहारकद्विकर्म कळे दुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळ, नाल्वत्तु ४० । उवयंगळ येंभत्तोंदु ८१॥ अप्रमत्तगुणस्थानं मोदल्गोंडु क्षीणकषायगुण
अचक्षुर्दर्शने तीर्थकरत्वं नेत्युदयप्रकृतयः एकविंशत्युत्तरशतं १२१ । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि १५ द्वादश, व्युच्छित्तयः 'पण्णवइगिसत्तरसं अइपंचयचउरछक्कछच्चेव इगिदुगसोलस' एवं सति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वयान्यनुदयः ४ । उदयः सप्तदशोत्तरशतं ११७ । सासादनेऽनुदयः पंच नारकानुपूज्यं च मिलित्वा दश १०। उदय एकादशोत्तरशतं १११ । मिश्रेऽनुदयो नवानुपूयंत्रयं च मिलित्वा मिश्रोदयादेकविंशतिः २१ । उदयः शतं १०० । असंयतेऽनुदय एका संयोज्य सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयात्सप्तदश १७ । उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ । देशसंयते सप्तदश संयोज्यानुदयश्चतुस्त्रिशत् ३४ उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्तेऽष्ट २० संयोज्याहारकद्विकोदयादनुदयश्वत्त्वारिंशत् । उदय एकाशीतिः ८१ । अप्रमत्तात् क्षीणकषायपर्यंतमनुदयः
अचक्षुदर्शनमें तीथंकरका उदय न होनेसे उदय प्रकृतियाँ एक सौ इक्कीस १२१ हैं । गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि बारह । व्युच्छित्ति क्रमसे पाँच, नौ, एक, सतरह, आठ, पाँव, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टिमें मिश्र, सम्यक्त्व और आहारकद्विकका अनुदय ४ । उदय एक सौ २५ । सतरह।
२. सासादनमें अनुदय पाँच और नरकानुपूर्वी मिलकर दस १० । उदय एक सौ ग्यारह ।
३. मिश्र अनुदय नौ और तीन आनुपूर्वी मिलकर मिश्रका उदय होनेसे इक्कीस । उदय सौ १००।
४. असंयतमें अनुदय एक मिलाकर सम्यक्त्व और चार आनुपूर्वीका उदय होनेसे ३० सतरह १७ । उदय एक सौ चार १०४ ।
५. देशसंयतमें सतरह मिलाकर अनुदय चौंतीस ३४ । उदय सतासी ८७ । ६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय चालीस । उदय ८१।
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५२६
गो० कर्मकाण्डे स्थानपथ्यंतमनुदयंगळ यथाक्रमदिव नाल्वत्तय्दु ४५ । नाल्वत्तो भत्तु ४९ । अय्वत्तन्दु ५५ । अरुवत्तोंदु ६१। अरुवत्तेरडु ६२। अरुवत्तनाल्कु ६४ मप्पुवु। उदयंगळ छसदरिदुसदरि छावट्ठिसट्ठी णव वण्णास सगवण्णास मुमप्पुवु । संदृष्टिरचने। अचक्षुदर्शनयोग्य १२१ ।
------- उ ११७ | १११ १०० १०४ ८७८१७६/७२६६/६०५९५७
। ४ । १०/ २१ | १७ ३४४०४५/४९/५५६१/६२/६७ अवधिदर्शनमाग्गंणयोळु अवधिज्ञानदोळेतते मिथ्यादृष्टिय अय्, ५ सासावननों भत्तुं ९ ५ मिश्रनों दुं १ तीर्थमु १ मंतु पदिनारु १६ प्रकृतिगळं कळदुळिद नरारं प्रकृतिगळ दययोग्यंगळप्पु
१०६ । अल्लियसयतादिगुणस्थानंगळो भत्तप्पुवसंयतं मोदलागि यथाक्रमविवमुदयव्युच्छित्तिगळ, सत्तरसं अड पंच य चउर छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस प्रकृतिगळप्पुवंतागुत्तं विरलसंयतगुणस्थानं मोदल्गोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपयंतं यथाक्रमदिदगनुदयंगळे रडु २। पत्तों भत्तु १९ । यिप्पत्तन्दु
२५ । मूवत्तुं ३० । मूवत्तनाल्कु ३४ । नाल्वत्तुं ४० । नाल्वत्तारुं ४६ । नाल्वत्तेळ४७। नाल्वत्तों१० भत्तुं ४९ । प्रकृतिगळप्पुवु। उदयंगळ चदुसहियसयं नूरनाल्कु १०४ । सगसीदि ८७ । इगिसोदि
पंचचत्वारिंशत् ४५ । एकान्नपंचाशत् ४९ । पंचपंचाशत् ५५ । एकषष्टिः। द्वाषष्टिः ६२ चतुःषष्टिः ६४ । उदयाः छसदरीदुसदरीछावट्ठिसट्ठिणववण्णाससगवण्णास ।
अवधिदर्शनमार्गणायां अवधिज्ञानवत् षडुतरशतमुदययोग्यं । गुणस्थानानि नव । व्युच्छित्तयः सत्तरसं अडपंचयचउरछक्कछच्चेवइगिदुगसोलस। तथा सति अनुदयाः द्वयं २। एकोनविंशतिः १९ । पंचविंशतिः १५ २५ । त्रिंशत् ३० । चतुस्त्रिशत् ३४ । चत्वारिंशत् ४० । षट्चत्वारिंशत् ४६ । सप्तचत्वारिंशत् । ४७ ।
अप्रमत्तसे क्षीणकषाय पर्यन्त अनुदय क्रमसे पैतालीस ४५, उनचास ४९, पचपन ५५, इकसठ ६१, बासठ ६२, चौंसठ ६४ । उदय क्रमसे छियत्तर ७६, बहत्तर ७२, छियासठ ६६, साठ ६०, उनसठ ५९, सत्तावन ५७ । संदृष्टि
अचक्षुदर्शन रचना १२१ | मि. सा. | मि. | अ. | दे. | प्र. | अ. | अ. | अ. | सू. उ. | झी. |
|४|१०|२१ १७ | ३४ ४० ४५ ४९ । ५५ ६१ । ६२ । ६४ |
अवधिदर्शन मार्गणामें अवधिज्ञानकी तरह एक सौ छह उदययोग्य हैं। गुणस्थान २० चारसे बारह तक नौ होते हैं । व्युच्छित्तियाँ क्रमसे सतरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, __ दो, सोलह । ऐसा होनेपर अनुदय क्रमसे दो २, उन्नीस १९, पच्चीस २५, तीस ३०, चौंतीस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५२७ ८१ । छसदरी ७६ । दुसदरी ७२। छावट्ठी ६६ । सट्ठी ६० । णववण्णास ५९ । सगण्यास १७ । प्रकृतिगळप्पुवु । संदृष्टि । अवधिदर्शनयो० १०६ :
व्यु
१७ ८ ५ ४६६, १२१६
अ। २।१९ २५ ३०३४Blture केवालदर्शनमाग्गंणेयोळ केवलज्ञानमार्गणेयोळे तंतेयक्कुमल्लियुदअयोग्यंगळु नाल्वत्तेरडु प्रकृतिगळापुव ४२ । सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानद्वयमकुं। संदृष्टि । केवलदर्शनयोग्य ४२
स
।
३० | १२
४२ । १२
५
एकान्नपंचाशत् ४९ । उदयाः चदुसहियसयं १०४ । सगसीदि ८७ । इगिसीदि ८१ । छसदरी ७६ । दुसदरी ७२ । छावठ्ठि ६६ । सठि ६० । णवपण्णास ५९। सगवण्णास ५७ । केवलदर्शने केवलज्ञानवत् । संदृष्टि :
केवलदर्शनयोग्य ४२
३४, चालीस ४०, छियालीस ४६, सैतालीस ४७, उनचास ४९ । उदय क्रमसे एक सौ चार १०४, सत्तासी ८७, इक्यासी ८१, छियत्तर ७६, बहत्तर ७२, छियासठ ६६, साठ ६०, उनसठ ५९, सत्तावन ५७ । केवलदशनमें केवलज्ञानकी तरह जानना। संदृष्टि
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गो० कर्मकाण्डे
लेश्यामार्गणेयोळ किन्हदुगे सगुणोघं मिच्छे णिरयाणु बोच्छेदो एंदितु कृष्ण नील लेश्याद्वयमागंणेयोळ' तीत्थं मुमाहारकद्वय मुमितु मूरुं प्रकृतिळगळं कळेबुळिव सामान्योदय प्रकृतिगळ नूरहतो भत्तु प्रकृतिगळप्पुवु ११९ । मिथ्यादृष्ट्यादि चतुर्गुणस्थानंगळप्पुवेकें दोडयदोत्ति छलेस्साओ एंदितु पेळपट्टुदप्पुरिदं । मिथ्यादृष्टियोळ, तन्न प्रकृतिगपंचकर्मु नरकानुपूर्व्यमुमंतारुं प्रकृति५ गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ६ । एकेंदोडे णिरयं सासण सम्मो ण गच्छदि एंदु सासादननोळा 'नरकानुपूर्योदयमल्ल | मिश्रनोळावा नुपृव्यंगळगमुदवमिल्लप्पुदरिनल्लियुं नरकानुपूर्योदय मिल्ल । असंयतसम्यग्दृष्टि द्वितीयाविपृथ्विगळोळ, पुट्टनप्पुदरिदमी तृतीयाविपृथ्वी संबंधि नीलकृष्ण लेश्या - द्वयमागंणेयोळसंयतंगे नरकानुपूर्योदयमिल्लदु कारणमागि मिथ्यादृष्टियोळे तदुदयव्युच्छित्तियक्कुमप्पुर्दारदं ॥ सासादननोळ, तन्न गुणस्थानदों भत्तु ९ असंयतनत्तण बंद सुरद्विकमुं २ । १० सुरायुष्यमुं १ । तिय्यंगानुपूर्व्यमुमितु त्रयोदशप्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्फुं १३ ॥ मिश्रनोळ मिश्रप्रकृति गुदयन्युच्छित्तियक्कु १ ॥ असंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ । नरकगतिनाममुं १ नरकायुष्यमुळे १ वैक्रियिकद्वयम् २ मनुष्यानुपूव्यं मुं १ । दुभंगत्रयम् ३ मितु पन्नेरडु प्रकृतिगगु१२ ॥ तिर्य्यगानुपूर्योदयमसंयतनोळे किल्ले दोर्ड भोगापुण्गगसम्मे काउस्स
छत्त
५२८
लेश्यामार्गणायां कृष्णनीलयोस्तीर्थ कृदाहारकद्वयं च नेत्युदययोग्यप्रकृतयः एकान्नविंशतिशतं । गुण१५ स्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि चत्वारि । कुतः ? 'अयदोत्ति छल्लेस्सामो' इत्युक्तत्वात् । मिथ्यादृष्टी स्वस्य पंच नरकानुपूव्यं च व्युच्छित्तिः ६ सासादनस्य नरकगमनाभावात् । मिश्रस्यानुपूर्व्यानुदयात्, असंयतस्य द्वितीयादि पृथ्वीष्वनुत्पत्तेश्व तदानुपूर्व्यस्थात्रैव छेदात् । सासादने स्वस्य नव असंयतागतसुरद्विकसुरायुस्तियंगानुपूर्व्याणि च १३ । मिश्र मिश्रं १ । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं नरकगतिस्तदायुर्वे क्रियिकद्वयं मनुष्यानुपूव्यं केवलदर्शन ४२
अवधिदर्शन रचना १०६
सू. उ.
क्षी.
स. अ.
६
१
२ १६
३०
१२
अ. दे. प्र. अ. अ. अ. १७ ८ ५ ४ ६ १०४ ८७ ८१ ७६ ७२ ६६ २ १९ २५ ३० ३४ ४० ४६ ४७ ४९
६०
५९ ५७
४२ १२
लेश्या मार्गणा में कृष्ण और नीलमें तीर्थंकर और आहारकाद्विकका उदयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ उन्नीस । गुणस्थान मिध्यादृष्टि आदि चार; कहा है कि असंयत गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्या होती हैं ।
२०
मध्यादृष्टि में अपनी पाँच और नरकानुपूर्वी मिलकर व्युच्छित्ति छह । क्योंकि सासादन तो मरकर नरक में नहीं जाता। मिश्र में आनुपूर्वीका उदय नहीं होता, और असंयत मरकर दूसरे आदि नरकोंमें उत्पन्न नहीं होता । इसलिए नरकानुपूर्वीकी व्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टिमें ही होती है । सासादनमें अपनी नौ तथा असंयत सम्बन्धी देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु और तिचानुपूर्वी मिलकर तेरह १३ । मिश्र में मिश्र एक । असंयत में दूसरी कषाय चार, नरकगति, नरकायु, वैक्रियिकद्विक, मनुष्यानुपूर्वी, दुर्भग आदि तीन सब बारह १२ ।
२५
१. म ंगल ।
० ३०
उदय न होनेसे क्योंकि आगम में
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोषिका
५
जहणियं हवे णियमा एंडु तिर्य्यगानुपूर्व्यादयनिल्ल । देवनारक सम्यग्दृष्टिगळ, कर्मभूमियो पुट्टुवरादोडं तिर्य्यग्गतियो पुट्टरु | मनुष्यानुपूर्योदयम संंयतसम्यग्दृष्टियोळे तेंदोडे नरकदिव बर्फ सम्यग्दृष्टिगे कर्मभूमियोत्पत्ति नियम मुंटप्दरिदं तन्मनुष्यभवप्रथम काल दोळंतर्मुहूर्तपतं भवश्येदरिदं मनुष्यानुपूर्योदयं कृष्णनोललेश्याऽसंयतनोळक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोलु मिश्रसम्यक्त्व प्रकृतिगळगुदयमक्कुं २ उदयंगळ नूर पदिनेछु ११७ ॥ सासादन गुणस्थानदोळा रुगू डियनुदयंगळे टु ८ । उदयंगळ नूर हन्नों दु १११ । मिश्र गुणस्थानदोळ पविमूरुगू डियनुदयंगळिप्पत्तो दरोळ कूडिमत्तमुदयप्रकृतिगलोळु मनुष्यानुपूर्व्यमं कळे दनु उदयंगकोळ कुडूतं विरलनुदयंगळिपत्तों दु २१ । उदयंगळ, तो भतेंदु ९८ ॥ असंयत गुणस्थानदोळों दु गूडियनुदयंगळिप्पत्तेरडरो सम्यक्त्व प्रकृतियुमं मनुष्यानुपूर्व्यं मुमं कळेदुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळियत्तु २० । उदयंगळु तो भत्तो भत्तु ९९ । संदृष्टि
:
कृ० नी० यो ११९
मि सा मि अ
१२
११७ १११ ९८ ९९
२ ሪ २१ २०
०
व्युच्छि
उद
अनु
१३ १
५२९
दुभंगत्रयं च १२ । तियंगानुपूव्यं कुतो न ? 'भोगापुष्णगसम्मे काउस्स जहण्णियं हवे' इति नियमात् देवनारकासंयतस्य तु तिर्यक्ष्वनुत्पत्तेः । मनुष्यानुपूव्यं कथं स्यात् ? नरकादागच्छत्सम्यग्दृष्टेः कर्मभूम्युत्पत्तिनियमात्तद्भवप्रथमकालांतर्मुहूर्तं पूर्वभवलेश्यासद्भावात् । एवं सति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वेऽनुदयः, उदयः सप्तदशोत्तरशतं ११७। सासादने षट् संयोज्यानुदयोऽष्टौ ८ । उदय एकादशोत्तरशतं १११ | मिश्रेऽनुदयः त्रयोदश मनुष्यानुपूब्यं मिलित्वा मिश्रोदयादेकविंशतिः २१ । उदयोऽष्टानवतिः ९८ । असंयतेऽनुदय एकं मिलित्वा सम्यक्त्वमनुष्यानु- १५
शंका- यहाँ तिर्यचानुपूर्वी क्यों नहीं है ?
समाधान-आगम में कहा है- 'भोगभूमियाँ निर्वृत्यपर्याप्तक सम्यग्दृष्टिके कापोत लेश्याका जघन्य अंश होता है,' ऐसा नियम होनेसे देव और नारक असंयत तियंचों में उत्पन्न नहीं होता ।
शंका- तब मनुष्यानुपूर्वीका उदय यहाँ कैसे सम्भव है ?
समाधान - नरकसे आनेवाला सम्यग्दृष्टी नियमसे कर्मभूमिके मनुष्यों में उत्पन्न होता है और उसके भवके प्रथम अन्तर्मुहूर्त कालमें पूर्व भवकी लेश्या रहती है इससे यहाँ असंयत में मनुष्यानुपूर्वीका उदय सम्भव है । ऐसा होनेपर -
१. मिध्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्व दोका अनुदय । उदय एक सौ सतरह । २. सासादन में छह मिलाकर अनुदय आठ ८ । उदय एक सौ ग्यारह १११ ।
१०
२०
२५
३. मिश्र में अनुदय तेरह और मनुष्यानुपूर्वी मिलकर मिश्रका उदय होनेसे इक्कीस २१ । उदय अठानवे ९८ ।
Jain Education Internatioक - ६७
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५३०
कपोत लेश्या मागणेयोक्रुदययोग्यंगळ कृष्णनीललेश्याद्वयदोळे तंते नूर हत्तोंभत्तु ११९ । मिथ्यादृष्ट्यादि नाकु गुणस्थानंगळवु । मिथ्यादृष्टियोळ तन्न गुणस्थानद प्रकृतिपंचकक्कुदयव्युच्छित्तिक्कं ५ ॥ सासादननोळं तन्न गुणस्थानद नवप्रकृतिगळ ९ । असंयतन तणिबंद सुर द्विकमुं २ सुरायुष्य १ मंतु पनरडु प्रकृतिगळगुदयव्यच्छित्तियक्कु १२ ॥ मिश्रनोळ, मिश्रप्रकृति५ गुदयव्युच्छित्तिवकुं ॥ असंयतनोळु द्वितीयकषाय चतुष्कमुं ४ नरकद्विकमुं २ | नरकायुष्यमुं १ वैक्रियिकद्विक २ । तिग्मनुष्यानुपूर्व्यद्विक २ दुब्र्भगत्रयम् ३ मंतु पदिनाळ्कुं प्रकृतिगळ गुदयव्युच्छित्तिक्कुं १४ | मंतागुत्तं विरलुं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ मिश्रसम्यक्त्व प्रकृतिद्वयक्कनुदयमक्कुं २ | तूर हदिनेछु प्रकृतिगळगुदयमव कु ११७ ॥ सासादनगुणस्थान दोळ खुगूडियनुदयंगळेळ रोळ नरकामनुयंगकोळ कळेवनुवमंगलो कूडुतं विरलनुवयंगळे ८ उदयंगळ, तूर १० नोंदु १११ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळ, पन्नरडुगूडियनुदयंगळिप्पत्तरोळ, मिश्रप्रकृतियं कळेदुदगळोळ कुडुत्तमुदयप्रकृतिगळोळ, आनुपूर्व्यद्वयमं २ कळेदनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंग लिप्वत्तोडु २१ । उदयंगळु तोभतेंदु ९८ ॥ असंयतगुणस्थानदोळो दुगूडियनुदयंगळिप्पत्तेरडरोळ् सम्यक्त्वप्रकृतियुं मूरानुपूव्यंगळुमंतु नाकु प्रकृतिगळं कळेदुदयप्रकृतिगळोळ, कुडुत्तं विरलनुवयंगळ, पदिनेंदु १८ । उदयंगळ नूरों दु १०१ ॥ संदृष्टि :
मो० कर्मकाण्डे
१५ पूर्योदयाद् विंशतिः २० । उदय एकान्नशतं ९९ ।
कपोतश्यायामुदययोग्यं कृष्णनीलवदेकान्नविंशतिशतं ११९ । गुणस्थानानि आद्यानि चत्वारि । तत्र मिथ्यादृष्टी निजपंच व्युच्छित्तिः । सासादने स्वकीयनवा संयतागतसुरद्विकसुरायुषी च १२ । मिश्र मिश्र १ | असंयते द्वितीयकषायचतुष्कं नरकद्विकं तदायुर्वेक्रियिकद्विकं तिग्मनुष्यानुपूर्व्यं दुर्भगत्रयं च ११४ । एवं सति मिथ्यादृष्टी मिश्रसम्यक्त्वे अनुदयः उदयः सप्तदशोत्तरशतं ११७ । सासादने पंच नरकानुपूर्व्यं च २० मिलित्वाऽनुदयोऽष्टौ ८ । उदय एकादशोत्तरशतं १११ । मिश्रेऽनुदयो द्वादशानुपूर्व्यद्वयं च संयोज्य मिश्रोदयादेकविंशतिः २१ । उदयोऽष्टानवतिः ९८ । असंयतेऽनुदयः एकं संयोज्य सम्यक्त्वानुपूर्व्य त्रयोदयादष्टादश १८ । उदय एकोत्तरशतं १०१ ।
३०
४. असंयत में अनुदय एक मिलाकर सम्यक्त्व और मनुष्यानुपूर्वीका उदय होने से बीस २० | उदय निन्यानबे ९९ ।
२५
कापोत लेइया में उदययोग्य कृष्ण-नीलकी तरह एक सौ उन्नीस । गुणस्थान आदिके चार | उनमें से मिथ्यादृष्टिमें अपनी पाँचकी व्युच्छित्ति । सासादनमें अपनी नौ तथा असंयत सम्बन्धी देवगति, देवानुपूर्वी और देवायु मिलाकर १२ ।
मिश्र मिश्र एक । असंयत में दूसरी कषाय चार, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, वैकिकिद्विक, तिचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, दुभंग आदि तीन सब चौदह । ऐसा होनेपर | १. मिथ्यादृष्टि में मिश्र और सम्यक्त्वका अनुदय । उदय एक सौ सतरह ११७ ।
२. सासादन में पाँच और नरकानुपूर्वी मिलाकर अनुदय आठ ८ । उदय एक सौ
ग्यारह ।
३. मिश्र में अनुदय बारह और दो आनुपूर्वी मिलाकर तथा मिश्रका उदय होनेसे इक्कीस २१ । उदय अठानबे ९८ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कपोत यो० ११९ ।
गु- मि सा मि
अ
व्यु
५ १२ १ १४
उ ११७ १११ ९८ १०१
अ २ ८ २१ १८
भवनत्रयदेव कंळ निबर्गमपर्याप्तकालवोळ, अशुभलेश्यात्रयमे शरीरपर्याप्तियिदं मेले तेजोलेश्याजघन्य शिमेयपुर्दारवमशुभलेश्य त्रयासंयतसम्यग्दृष्टिभवनत्रयदोळ, पुट्टप्पुदरिदं देवद्विकमुं १ देवायुष्यमुं १ सांसादनसम्यग्वृष्टियोळुदयव्युच्छित्तियादुवे के दोडे अशुभलेश्यात्रय सासावनना भवनत्रयदोळ, पुटुवनप्पुर्वारवमंते पेळपट्टुवु ॥
५३१
साणे सुरासुरग दिदेव तिरिक्खाणु वोच्छिदी एवं । काओदे अयदगुणे णिरयतिरिक्खाणुवोच्छेदो ॥ ३२६ ॥
सासवने सुरायुः सुरगति देवगति तिर्य्यगानुपूर्व्यव्युच्छित्तिरेवं । कापोते असंयतगुणं नरकतियंगानुपूळयंव्युच्छेवः ॥
अबु कारणमागि कृष्णनीललेश्याद्वय सासादननोळ, सुरायुष्यमुं सुरगतियुं देवानुपूर्व्यभुं तिर्य्यगानुपूर्व्यमुं मंतु नाल्कुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरला सासादननोळ १० पविमूरुं प्रकृतिगगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १३ ॥ एवं काओदे कपोतलेश्ययोळमित नूर हत्तो भत्तं प्रकृतिगळवययोग्यंगळप्पु ११९ । कपोलेश्याऽसंयत गुणस्थानदोळु नरकानुपूर्यमुं
भवनत्रयदेवानामपर्याप्तकाले अशुभलेश्यात्रयं । पर्याप्तेरुपरि तेजोलेश्याजघन्यांशः । अशुभलेश्यात्रयासंयतानां भवनत्रयाऽनुत्पत्तेर्देवद्विकं देवायुः सासादने व्युच्छित्तिः तादृक् सासादनानां तत्रोत्पत्तेः ॥ ३२५॥ तथैवाह
५
१५
ततः कारणात्कृष्णनीलयोः सासादने सुरगत्यायुर । नुपूव्यंतिर्यगानुपूर्व्याणि व्युच्छित्तिरेवं सति त्रयोदश
४. असंयत में अनुदय एक मिलाकर तथा सम्यक्त्व और तीन आनुपूर्वीका उदय होनेसे अठारह १८ | उदय एक सौ एक १०१ ।
भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्या होती हैं । और पर्याप्त होनेपर तेजोलेश्याका जघन्य अंश होता है। तीन अशुभलेश्यावाले असंयत २० सम्यग्दृष्टी मरकर भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए देवगति, देवानुपूर्वी और देवायुकी व्युच्छित्ति सासादनमें कही है; क्योंकि अशुभलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक में उत्पन्न हो सकते हैं || ३२५||
वही कहते हैं
इसी कारण से कृष्ण और नीलमें सासादन गुणस्थान में देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु, २५ और तिचानुपूर्वीकी व्युच्छित्ति होने से तेरहकी व्युच्छित्ति होती है ।
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गो० कर्मकाण्डे
तिर्यगानुपूर्व्यमुमेरडु मुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवंतागुत्तं विरला कपोतलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टिप्रथमपृथ्वियोळ पुटुवनप्पुरिदं द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ नरकद्विकमु २ वैक्रियिकद्विक, २ नारकायुष्य, १ तिय्यंगानुपूठव्यं, १ दुभंगत्रय, ३ मनुष्यानुपूठय॑मुमंतु पदिनाल्कुं प्रकृतिगगुक्यव्युच्छित्तियक्कु दिंतु पेळल्पटुदप्पुरिदं । अनंतरं शुभलेश्यात्रयमार्गणेयोदययोग्यप्रकृतिगळं पेळ्वपरु :
तेउतिए सगुणोघं णादाविगिविगल थावरचउक्कं ।
णिरयदुतदाउतिरियाणुगं णराणू ण मिच्छदुगे ॥३२७।। तेजस्त्रये स्वगुणौधः नातापैकविकलस्थावरचतुष्कं । नरकद्वयतदायुस्तिय्यंगानुपूव्यं नरानुपूव्यं न मिथ्यादृष्टिद्विके ॥
तेजःपद्मशुक्ललेश्यात्रयमार्गयोळ स्वगुणौधमक्कुमल्लियातपनाममुं १ एफेंद्रियजातियुं १ विकलत्रयमुं ३ स्थावरमुं १। सूक्ष्ममुं १ अपर्याप्तमुं १ साधारणशरीरमुं १ नरकद्विकमुं २। नरकायुष्यमुं १। तिर्यगानुपूज्य मुं १ यिंतु पदिमूरुं प्रकृतिगळं कळदु शेष नूरों भत्तुं प्रकृतिगळु. दय योग्यंगळप्पुवल्लि। तेजःपनलेश्यामार्गणाद्वयवोळु तीर्थमं कळेदु योग्यप्रकृतिगळ नूरेंटु
१३ । एवं कपोतलेश्यायामपि एकान्नविंशतिशतमुदययोग्यं भवति ११९ । तदसंयते गुणस्थाने नरकतिर्यगानु१५ पूर्ये व्युच्छित्तिरेवं सति तदसंयतप्रथमपृथ्व्यामुत्पद्यते तेन द्वितीयकषायचतुष्कं नरकद्विकर्व क्रियिकद्विकं नारकायुस्तिर्यगानुपूयं दुर्भगत्रयं मनुष्यानपूयं चेति चतुर्दश व्युच्छित्तिरित्युक्तं ॥३२६॥ अथ शुभलेश्यात्रयस्याह
तेजःपद्मशुक्ललेश्यासु स्वगुणोघः। तत्रातप एकेद्रियं विकलत्रयं स्थावरं सूक्ष्ममर्याप्तं साधारणं नरकद्विकं तदायुस्तियंगानुपूयं च नेति नवोत्तरशतमुदययोग्यं भवति । तेत्रापि तेजःपद्मयोस्तीर्थकरत्वं नेत्यष्टोत्तरशतं
इसी प्रकार कापोत लेश्यामें भी उदययोग्य एक सौ उन्नीस ११९ हैं। वहाँ असंयत २० गुणस्थानमें नरकानुपूर्वी और तियंचानुपूर्वीकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर कापोत
लेश्यावाला असंयत प्रथम नरकमें उत्पन्न होता है अतः दूसरी कषाय चार, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियिकद्विक, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग आदि तीन और मनुष्यानुपूर्वी इन चौदहकी व्युच्छित्ति कही है ॥३२६।। कृष्णनील रचना ११९
कापोत रचना ११९ | | मि. सा. | मि. | अ. | | | मि. सा. | मि. अ. | | व्यु. ६ १३ | २ | १२ | | उदय ११७ १११ ९८ ९९ उदय ११०/ ११२ २८ १०१
| अनु. २| ८|२११८ आगे तीन शुभ लेश्याओंमें कहते हैं
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यामें अपने गुणस्थानवत् जानना। उनमें आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु और तिर्यंचानुपूर्वीका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ नौ हैं। उनमें भी तेजोलेश्या और पन
अनुदया २
२५ .
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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१०८ । मिथ्यादृष्टघावि सप्तगुणस्थानं गळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों देयुदयव्युच्छित्तियकुं १ । सासादननोलु अनंतानुबंधिकषायचतुष्क मुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ॥ मिश्रनोळु मिश्रप्रकृतियों वक्कुदयव्युच्छित्तियक्कु १ मसंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ सुरचतुष्कमुं ४ सुरायुष्यमुं १ मनुष्यानुपूर्व्यमुं १ दुभंगत्रयम् ३ मंतु त्रयोदशप्रकृतिगळगुदय व्युच्छित्तियक्कुं १३ ॥ देशसंयतनोळु तृतीयकषायमुं तिर्य्यगायुष्यमुं १ उद्योतमुं १ नीचैर्णोत्रमुं १ तिर्य्यग्गतिषु १
५
प्रकृतिगव्युच्छित्तियक्कुं ८ ॥ प्रमत्तसंयतनोळाहारद्विकमुं २ | स्त्यानगृद्धित्रयम् ३ संतु पंचप्रकृतिगळगुदय०युच्छित्तियक्कं ५ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळ सम्यक्त्वप्रकृतिमंतिमसंहननत्रयमुमंतु नाकु' प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ४ मंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियु सम्यक्त्वप्रकृतियु आहारकद्विकमुं २ णराणू ण मिच्छ वुगे येंदु मनुष्यानुपूर्व्यमु १ मंतर प्रकृतिगळगनुवयंगळक्कु ं ५ । उदयंगळ, नूर मूरु १०३ ॥ सासादन गुणस्थानदोळों दुगूडियनुदयंगळारु ६ । १० उदयंगळ, नूरेरडु १०२॥ मित्रगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुबयंगळ हत्तरोछु मिश्रप्रकृतियं कळेबुवांगळोळ, कूडि मत्तमुदयंगळोळ देवानुपूर्व्यमं कळेदनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पत्तु १० । उवयंगळ तो भत्ते दु ९८ ॥ असंयत गुणस्थानदोळो बुगूडियनुदयंगळ पन्नों दरोळ, सम्यक्त्वप्रकृतिधुमं मनुष्यानुपूर्व्यमं देवानुपूर्व्यमुमनंतु मूरुं प्रकृतिगळं कळेदुदयंगळोळ
१०८ | गुणस्थानानि सप्ताद्यानि । तत्र मिध्यादृष्टी मिध्यात्वं व्युच्छित्तिः १ । सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं ४ । १५ मिश्र मिश्र १ । 'असंयते द्वितीयकषायाः सुरद्विकं वैक्रियिकद्विकं सुरायुमनुष्यानुपूर्व्यं दुभंगत्रयं चेति त्रयोदश । देशसंयते तृतीयकषायास्तिर्यगायुरुद्योतो नीचगत्रं तिर्यग्गतिश्चेत्यष्टौ ८ प्रमत्ते आहारकद्विकं स्त्यानगृद्धियं चेति पंच ५ । अप्रमत्ते सम्यक्त्वमंतिमसंहननत्रयं चेति चत्वारि ४ । एवं सति मिथ्यादृष्टी मिश्रं सम्यक्त्वमाहारकद्विकं 'णराणूण मिच्छदुये' इति मनुष्यानुपूर्व्यं चेति पंचानुदयः ५ उदयस्त्रयुत्तरशतं १०३ । सासादने एकं संयोज्यानुदयः षट् उदयो द्वयुत्तरशतं १०२ । मिश्रेऽनुदयः चतुष्कं देवानुपूव्यं च मिलित्वा मिश्रोदयाद्दश १० । २० उदयोऽष्टानवतिः ९८ । असंयतेऽनुदये एकं संयोज्य सम्यक्त्वमनुष्यदेवानुपूर्योदयादष्टो ८ । उदयः शतं १०० ।
श्यामें तीर्थंकरका उदय होनेसे एक सौ आठका उदय है । गुणस्थान आदिके सात होते हैं । उनमें मिध्यादृष्टि में मिध्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार । मिश्र में मिश्र । असंयत में दूसरी कषाय चार, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिकद्विक, देवायु, मनुष्यानुपूर्वी, दुभंग आदि तीन सब तेरह १३ । देशसंयतमें तीसरी कषाय चार, तिर्यंचायु, २५ उद्योत, नीचगोत्र, तियंचगति आठ । प्रमत्तमें स्त्यानगृद्धि आदि तीन आहारकद्विक १ । अप्रमत्तमें सम्यक्त्व और अन्तके तीन संहनन सब चार । ऐसा होनेपर -
१. मिध्यादृष्टिमें मिश्र, सम्यक्त्व, आहारकद्विक और मनुष्यानुपूर्वी मिलकर अनुदय पाँच । उदय एक सौ तीन १०३ ।
२. सासादन में एक मिलाकर अनुदय छह । उदय एक सौ दो १०२ ।
३०
३. मिश्रमें अनुदय चार और देवानुपूर्वी मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे दस १० । उदय अठानबे ९८ ।
४. असंयतमें अनुदय एक मिलाकर सम्यक्त्व, मनुष्यानुपर्वी, देवानुपूर्वीका उदय होनेसे आठ ८ । उदय सौ १०० ।
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गो० कर्मकाण्डे
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कूडुत्तं विरलनुदयंगळ दु८ । उदयंगळ नूरु १०० | देशसंयत गुणस्थानदोळ, परिगडियनुवयंगळिपत्तों २१ उदयंगळे भित्तेळ ८७ । प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळे 'दुगूडियनुदयंग ळिप्पत्तों भत्तु अवरोळाहारकद्विकमं कळ दुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंग ळिप्पत्तेल, २७ उदयंगले भत्तों वु ८१ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोलय्बुगूडियनुदयंगल मूवत्तेरडु ३२ ॥ उदयंगलेप्पत्तारु ७६ ॥ संदृष्टि
:
तेज० पद्म० योग्य १०८ ।
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उ १०३ १०२ ९८ १०० ८७
८१ ७६
अ ५ ६ १० ८ २१ २७ ३२
शुक्ललेश्यामागंणणेयोळ, योग्यप्रकृतिगळ, नूरो भत्तु १०९ । मिध्यादृष्टिगुणस्थानं मोबलागि पविमूरुं गुणस्थानं गळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोळ, मिथ्यात्व प्रकृतियों बेयुवयव्युच्छित्ति १ । सासादननोळनंतानुबंधिकषाय चतुष्कमुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ॥ मिश्रनो मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तिक्कु १ ॥ असंयतगुणस्थानदोळ, द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ सुरचतुष्कमुं ४ सुरायुष्यमुं १ मनुष्यानुपूर्व्यमुं १ दुभंगत्रयमुमितु पदिमूरुं प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियक्कु १३ ॥ देशसंयतादि१० गुणस्थानं गळोळ, यथाक्रर्मादिदं अडपंचय चउर छक्क छच्चेव इगिदुगसोळस वुदाळ प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, मिश्रप्रकृति सम्यक्त्व प्रकृति आहारद्विक तीर्थंकरनाम णराणू ण मिच्छदुगे एंदु मनुष्यानुपूर्व्यमुमंतु षट्प्रकृतिगळनुदयंगळ, ६ उदयंगळ,
Я
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देशसंयते त्रयोदश संयोज्यानुदयः एकविंशतिः २१ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्तेष्ट संयोज्याहारकद्विकोदयादनुदयः सप्तविंशतिः २७ । उदय एकाशीतिः । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदयो द्वात्रिंशत् ३२ । उदयः १५ षट्सप्ततिः ७६ ।
शुक्ललेश्यायां – उदययोग्यं नवोत्तरशतं १०९ । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि त्रयोदश १३ । तत्र मिथ्यादृष्टी मिथ्यात्वं व्युच्छित्तिः । सासादनेऽनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्र मिश्रं । असंयते द्वितीय कषाय चतुष्कं सुरचतुष्कं सुरायुर्मनुष्यानुपूव्यं दुर्भगत्रयं चेति त्रयोदश १३ | देशसंयतादिषु यथाक्रमं 'अडपंचयचउर छक्क छच्चेव
५. देशसंयत में तेरह मिलाकर अनुदय इक्कीस २१ । उदय सत्तासी ८७ ।
६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय सत्ताईस, उदय इक्यासी ८१ ।
७. अप्रमत्तमें पांच मिलाकर अनुदय बत्तीस ३२ । उदय छियत्तर ७६ ।
शुक्ललेश्या में उदययोग्य एक सौ नौ १०९ । गुणस्थान मिथ्यादष्टि आदि तेरह | मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार मिश्र में मिश्र । २५ असंयतमें दूसरी कषाय चार, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, देवायु, मनुष्यानुपूर्वी, दुभंग आदि तीन ये तेरह । देशसंयत आदि में क्रमसे आठ, पाँच, चार, छह,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
५३५ नूर मूरु १०३ । सासादनगुणस्थानदोळ ओ दुगूडियनुदयंगळेळ ७ । उदयंगळु नूरेरडु १०२ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळ नाल्कुगूडियनुदयंगळ पन्नों दरोळ मिश्रप्रकृतियं कलेदुदयंगळोळ कूडि मत्तमुदयप्रकृतिगोळ देवानुपूर्व्यम कळे दनुदयंगोळ कुडुत्तं विरलनुदयंगळ पन्नोंदु । उदयंगळु तो भत्तेंटु ९८ ॥ असंयतगुणस्थानोळोंदु गुडियनुदयंगळ पन्नेरडरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं देवानुपूर्व्यमं मनुष्यानुपूर्वमनंतु मूरुं प्रकृतिगळ कळे दुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळो भत्तु ९। ५ उदयंगळ, नूरु १०० ॥ देशसंयतगुणस्थानदोळ पदिमूरुगूडियनुदयंगळिप्पत्तरडु २२ । उदयंगळे भत्तेळ ८७ ॥ प्रमत्तगुणस्थानदोळे टु गूडियनुदयंगळु मूवत्तरोळु आहारद्विकर्म कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळिप्पत्तेटु २८ । उदयंगळे भत्तोंदु ८१॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोळय्दु गूडियनुदयंगळु मूवत्तमूरु ३३ उदयंगळेप्पत्तारु ७६ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थानदोलु नाल्कु गुडियनुदयंगळ मूवत्तळ ३७ । उदयंगळ पत्तेरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळ आरुगूडियनुवयंगळ नाल्वत्तमूरु ४३ । १० उदयंगळरुवत्तारु ६६ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळारुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तो भत्तु ४९ उदयंग ळरुवत्तु ६० ॥ उपशांतकषाय गुणस्थानदोळोंदु गूडियनुदयंगळय्वत्तु ५० । उदयंगळम्तो भत्तुइगिदुगसोलसवादालं' । एवं सति मिथ्यादृष्टौ मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्विकतीर्थकरत्वानि ‘णराणू ण मिच्छङ्कगे' इति मनुष्यानुपूज्यं चेत्यनुदयः ६ । उदयस्व्युत्तरशतं १०३ । सासादने एक संयोज्यानुदयः सप्त ७ । उदयो द्वयुत्तरशतं १०२ । मिश्रेऽनुदये चतुष्कं देवानुपूव्यं च संयोज्य मिश्रोदयादेकादश उदयोऽष्टानवतिः ९८ । असंयते एकं १५ संयोज्य सम्यक्त्वदेवमनुष्यानुपूर्योदयान्नव ९ उदयः शतं १०० । देशसंयते त्रयोदश संयोज्यानुदयो द्वाविंशतिः २२ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ । प्रमत्तेऽष्टी संयोज्याहारकद्विकोदयादनुदयोऽष्टाविंशतिः २८। उदय एकाशीतिः ८१ । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदयस्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । उदयः षट्सप्ततिः ७६ । अपूर्वकरणे चतुष्कं संयोज्यानुदयः सप्तत्रिंशत् ३७ । उदयो द्वासप्ततिः ७२। अनिवृत्तिकरणेऽनुदयस्त्रिचत्वारिंशत् ४३ । उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांपराये षट्संयोज्यानुदय एकान्नपंचाशत् ४९ । उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एक संयोज्यानुदयः २० छह एक, दो, सोलह तथा बयालीस । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में मिश्र, सम्यक्त्व, आहारकद्विक, तीर्थकर, मनुष्यानुपूर्वी, इन छहका अनुदय । उदय एक सौ तीन ।
२. सासादनमें एक मिलाकर अनुदय सात । उदय एक सौ दो।
३. मिश्रमें अनुदय चार और देवानुपूर्वी मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे ग्यारह । २५ उदय अठानबे।
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय नौ । उदय एक सौ १०० ।
५. देशसंयतमें तेरह मिलाकर अनुदय बाईस २२ । उदय सत्तासी ८७ ।
६. प्रमत्तमें आठ मिलाकर आहारकद्विकका उदय होनेसे अनुदय अठाईस। उदय ३० इक्यासी।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय तेतीस । उदय छियत्तर । ८. अपूर्वकरणमें चार मिलाकर अनुदय सैतीस ३७ । उदय बहत्तर ७२। ९. अनिवृत्तिकरणमें अनदय तैंतालीस ४३ । उदय छियासठ ६६ ।।
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गो० कर्मकाण्डे ५९ । क्षीणकषायगुणस्थानदोळ रडु गूडियनुदयंगळय्वत्तेरडु ५२ । उदयंगळवतळ ५७ ॥ सयोगि. केवलिभट्टारकगुणस्थानदोळ, पदिनारुगृडियनुदयंगळरुवत्तेटरोळ, तीर्थप्नं कळ दुवयंगळोळ, कूडुत्तं विरलनुदयंगळरुवत्तळ ६७ । उदयंगळ नालवत्तर ४२ । संदृष्टि :
शुक्ललेश्यायोग्य १०९ | मि | सा | मि | अ दे । प्र अ | अ अ । सू । उ । क्षी | स
१ । ४ । १ । १३८ ५ । ४। ६।६ | १ | २ | १६ । ४ उ १०३।१०२। ९८ | १००/८७/८१ ७६/७२/६६/६० ५९ | ५७ । ४२ | अ ६ । ७ । ११ । ९ । २२ | २८ | ३३ | ३७ | ४३ । ४९ | ५० | ५२ । ६१
भव्विदरुवसमवेदगखइए सुगुणोघमुवसमे खइए । ___ण हि सम्ममुवसमे पुण णादितियाणू य हारदुगं ।।३२८॥
भव्धेतरोपशमवेदकक्षायिके स्वगुणौधः उपशमे क्षायिके न हि सम्यक्त्वमुपशमे पुनर्नादित्रयानुपूव्यं चाहारकद्विकं ॥
भव्यमार्गणेयोलभितरमभव्यमार्ग¥योमुपशमसम्यक्त्वमार्गणेयोळं वेदकसम्यक्त्वमार्गयोळं क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणयोळं स्वगुणौघमक्कुमुपशमदोळं सम्यक्त्वप्रकृतियिल्लेके दोडे उपशमसम्यक्त्वदोळ दर्शनमोहत्रयक्के प्रशस्तोपशममुंटप्पुरिदमुदयक्के बारदु। क्षायिकसम्यक्त्वदोळ दर्शनमोहत्रयं क्षपियिसल्पटुदप्पुरिद नष्टमादुदप्परिदं। मत्तमुपशमसम्यक्त्वदोळ पंचाशत् ५० । उदयः एकान्तषष्टिः ५९ । क्षीणकषाये द्वे संयोज्यानुदयो द्वापंचाशत् ५२ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ । सयोगे षोडश संयोज्य तीर्थकरत्वोदयादनुदयः सप्तषष्टिः ६७ । उदयो द्वाचत्वारिंशत् ४२ ॥ ३२७ ॥
भव्याभव्योपशमवेदकक्षायिकसम्यक्त्वमार्गणासु स्वगुणोघः किंतु उपशमसम्यक्त्वे दर्शनमोहस्य प्रशस्तो
१०. सूक्ष्म साम्परायमें छह मिलाकर अनदय उनचास ४९ । उदय साठ ६०। ११. उपशान्त कषायमें एक मिलाकर अनुदय पचास ५० । उदय उनसठ ५९ । १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय बावन ५२ । उदय सत्तावन ५७ ।
१३. सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थंकरका उदय होनेसे अनुदय सड़सठ । उदय २० बयालीस ॥३२७॥ तेज-पद्मलेश्या १०८
शुक्ललेश्या १०९ | मि. सा. मि अ. दे. प्र. अ. | मि. सा. मि अ. दे. प्र. अ.अ.अ. सू. उ. झी स.
- ---- - - - - - - | १ ४ ११३८५४ | १०३ १०२९८ १००८७८१७६/ | १०३ १०२ ९८ १००८७८१,७६७२६६६०५९/५७ ४२ | ५ ६१०८ २१२७३२ । ६ ७११ ९ २२२८३३,३७४३/४९५०५२६५
भव्य, अभव्य, उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व मार्गणाओंमें अपने-अपने गुणस्थानवत् जानना। किन्तु उपशम सम्यक्त्वमें दर्शनमोहका प्रशस्त उपशम
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५३७ नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूयंत्रयमुमाहारकद्विकमुमिल्लेके दोडे' प्रथमोपसम्यक्त्वदोळ प्राग्बद्धनरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यरादोडं मरणमिल्लेके दोड:
मिस्साहारस्सयाखवगा चडमाणपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥ अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्त अंतोत्ति त्थि मरणं तु।
कवकरणिज्जं जाव दु सवपरट्ठाण अठ्ठपदा ॥ निवृत्यपर्याप्रकरुं आहारकर्मिश्रकायरं क्षपकरुगळुमुपशमश्रेण्यारोहणप्रथमभागापूर्वकरणरुं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळं सप्तमश्वियगुणप्रतिपन्नरुगळं न मरंति मरणमनेदरु । अनंतानुबंधियं विसंजोयिसि मिथ्यात्वमं पोद्दिदवग्गळ्गमंतर्मुहूतपय्यंत मरणमिल्ल । दर्शनमोहक्षपकंगे कृतकृत्यत्वमन्नेवर मन्नेवरं मरणमिल्ल। तु शब्ददिदं बद्धदेवायुष्यरुगळुपशमश्रेण्या- १० रोहणमं माडि मतमवतरणदोलुपशांतकषायगुणस्थानाद्यपूर्वकरणगुणस्थानावसानदोळ मरणमादोडे देवासंयतरप्पर० कारणदिवः प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळ नरकतिर्यगमनुष्यानुपूर्यो. पशमात् क्षायिकसम्यक्त्वे च क्षयात् सम्यत्वप्रकृतिन । पुनः उपशमसम्यक्त्वे नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूयाहारकद्विकमपि न, प्राग्बद्धतदायुषामपि तत्रामरणात् ।। ३२८ ।।
निर्वृत्यपर्याता आहारकमिश्रकायाः क्षपका उपशमश्रेण्यारोहकप्रथमभागापूर्वकरणाः प्रथमोपशम. १५ सम्यक्त्वाः सप्तमपृथ्वीगुणप्रतिपन्नाश्च न म्रियते । अनंतानुबंधिकषायान्विसंयोज्य मिथ्यात्वं प्राप्तस्यांतर्मुहूर्तपर्यतं दर्शनमोहक्षपके च कृतकृत्यत्वं यावत्तावन्मरणं नास्ति । तुशब्दाबद्धदेवायुष्का उपशमश्रेण्यवतरणेऽपूर्वकरणगुणस्थानावसाने नियंते तदा देवासंयता एव जायते ततो न प्रथमोपशमसम्यक्त्वे नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूर्योहोनेसे और क्षायिक सम्यक्त्वमें क्षय होनेसे सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय नहीं होता। पुनः उपशम सम्यक्त्वमें नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी तथा आहारकद्विकका उदय २० नहीं होता, क्योंकि पूर्व में जिन्होंने इन आयुओंका बन्ध किया है उनका भी उपशम सम्यक्त्व. में मरण नहीं होता ॥३२८॥
वही कहते हैं
नित्यपर्याप्त अवस्थावालोंका, आहारक मिश्रकायवालोंका, क्षपक श्रेणीवालोंका उपशमश्रेणिपर चढ़े हुए अपूर्वकरणके प्रथम भागवालोंका, प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टियोंका, और २५ सातवें नरकमें ऊपरके गुणस्थानों में स्थित जीवोंका मरण नहीं होता। तथा अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके जो पीछे मिथ्यात्वमें आता है उसका एक अन्तर्मुहूर्त तक मरण नहीं होता। दर्शन मोहका क्षय करनेवालेके जबतक कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिपना होता है तबतक मरण नहीं होता । 'तु' शब्दसे जिन्होंने पूर्व में देवायुका बन्ध किया है वे उपशम श्रेणी से उतरनेपर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त मरते हैं तो मरकर असंयत सम्यग्दृष्टि देव ही होते ३० हैं। अतः प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी का उदय १. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळु नरकतिय॑ग्मनुष्यानुपूर्व्यत्रयमिल्लदोडं प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळीयानुपूळ्य॑त्रयं षटिसर्द एंदोडे पेल्दपरु-कृतकृत्यवेदकस्य प्रथमांतर्मुहूर्त पय्यंत मरणं नास्ति । गुणस्थानच्युतिर्गतिच्युतिरित्युभयं । सन्वपरमट्ठाणं । २. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळे बुदु सुपाठं ॥ ३. व तं मरणं नास्तीति द ।
क-६८.
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५
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गो० कर्मकाण्डे
वयमिल्ल। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वबोलाबोर्ड देवायुष्यमं बिट्टु शेषायुष्यंगळ सत्त्वमिल्लेर्क बोर्ड उपशमश्रेण्या रोहण निमित्तमागि सातिशयाप्रमत्तसंयतं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमं कैकोळगुमप्पुर्दारव मणुवत्र महव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु में दी नियम मुंढप्पु दरिदमा सूरु मायुष्यंगळगे सत्वमिल्ल कारणविंदमा मूरु मानुपृष्ठयंगळ्गुदयमिल्ल । प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं, द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोलमाहारकऋद्धिप्रातरिल्लप्पुर्दारवमाहारक द्विकषक मुवयमिल्ळे वरिउदितरियल्पडुत्तं विरलु भव्य मागणेयाळु मूलौघमप्पुदरिदमुदययोग्यप्रकृतिगळु नूरिपत्तेरडु १२२ गुणस्थानं गळु मल्लि पविनालकुमga | मिथ्यादृष्टचाविगुणस्थानंगळोळ यथाक्रर्मादिदमुदयव्युच्छित्तियुवयानुदयप्रकृतिगळु मुन्नं गुणस्थानवोळ पेवंत रचनाविशेषमं माडुत्तं विरलु संदृष्टि :―
भव्य मा० योग्य १२२ ।
मि सा मि अ
व्यु ५ ९ १ १७
०
उ ११७ १११ १०० १०४
अ
व्यु
5
अ
:
५ ११
२२
८
.५
९ १ १७
११७ १११ | १०० | १०४
५ ११ २२ १८
प्र अ
५
८७ ८१
१८ ३५ ४१
८
५
८७
८१
३५ ४१
20
४
७६
४६
अ
६
७२
५०
अ सू उ क्षी स अ
६ १ |
१६
३०
१२
६६ ६०५९ ५७
५६ ६२ ६३ ६५
दयः । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वेपि देवायुविना न शेषायुः सत्त्वं उपशमश्रेण्यारोहणार्थं सातिशयाप्रमत्तेनैव १० तत्सम्यक्त्वस्य स्वीकरणात् 'अणुवदमहम्बदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु' इति नियमात् न तदानुपूर्व्यत्रयस्य सत्वं । तत उदयोऽपि न । उभयोपशमसम्यक्त्वे आहारकद्ध प्राप्ते न तद्द्द्विकोदयः । तथा सति भव्यमार्गणायां मूलोध इत्युदययोग्यं द्वाविंशत्युत्तरशतं । गुणस्थानानि चतुर्दश । व्युच्छित्यादि गुणस्थानवत् । संदृष्टि
--
भव्यमार्ग = योग्य १२२ ।
४२ १२
४
६
१
६ ७२ ७६ ६६ ५० ५६ ६२
६०
४६
८० ११०
२ १६ ३० १२
५९ ५७ ४२ १२ ६३ | ६५ ८० ११०
नहीं होता । द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें भी देवायुके विना शेष आयुका सत्त्व नहीं होता; क्योंकि उपशम श्रेणिपर आरोहण करने के लिए सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव ही १५ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको स्वीकार करता है । और अणुव्रत महाव्रत देवायुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध करनेवाले के होते नहीं, ऐसा नियम है। अतः उपशम सम्यक्त्व में देव विना तीन आनुपूर्वी का सत्व नहीं होता। इसीसे उदय भी नहीं होता । दोनों ही उपशम सम्यक्त्वों में आहारकऋद्धि प्राप्त नहीं होती। अतः उपशम सम्यक्त्वमें आहारकद्विकका उदय नहीं होता ।
ऐसा होनेपर भव्य मार्गणा में उदययोग्य एक सौ बाईस । गुणस्थान चौदह । २० व्युच्छित्ति आदि गुणस्थानवत् जानना । संदृष्टि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अभव्यमार्गणेयो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमा देयककुमल्लि सामान्योदययोग्यप्रकृतिगळु नूर दिने ११७ । उपशमसम्यक्त्वमार्गणेयोलसंयतनोळदयप्रकृतिगळु नूर नाल्करोळु णादि तियाणू य हारदुगमेंदु नरकातर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यत्रयमुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमंतु नाल्कुं प्रकृतिगळं कळेदु शेष नूरु प्रकृतिपत्र दययोग्यंगळप्पुवु १०० ॥ असंयताद्यष्टगुणस्थानंगळप्पुवल्लियसंयतनोळु द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ सुरचतुष्क, ४ सुरायुष्य, १ नरकायुष्यमुं १ नरकगतिनाममुं ? ५ दुर्भगत्रमु ३ मंतु पदिनाल्कं प्रकृतिगळगुवयव्युच्छित्तियक्कुं १४ । यिल्लि प्रथमोपशमसम्यक्त्वापेयिदं नरकगतियुं तदायुष्यमरियल्पडुगुं ॥ देशसंयतनोळु तृतीयकषायचतुष्कमु ४ तिय्यंगायुष्यमु१ उद्योतमु१ नोचैग्र्गोत्रमु१ तिर्यग्गतियु१ गते टुं प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कु ८ मिल्लियुप्रथमोपशमसम्यक्त्वापेक्षेयिदमी तिय्यंगायुराविप्रकृतिचतुःकोवयमरियल्पडुगुं ॥ प्रमत्तसंयतनोळु उभयोपशमसम्यक्त्ववोळमाहारकऋद्धिप्राप्तरिल्लप्पुवरिनाहारकठयमं कळेदु स्त्यान- १० गृद्धित्रयक्क युदयव्युच्छित्तियक्कु ३॥ अप्रमत्तसंयतनोळु सम्यक्त्वप्रकृतिगुदयमिल्लप्पुरिदमवं
___ अभव्यमार्गणायामेकं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं । उदयप्रकृतयः सप्तदशोत्तरशतं ११७ । उपशमसम्यक्त्वमागंणायामसंयतोदये चतुरुत्तरशते ‘णादितियाणूयहारदुगं' इत्याद्यानुपूर्व्यत्रयं सम्यक्त्वप्रकृतिश्च नेति शतमुदययोग्यं १०० । गुणस्थानान्यसंयतादीन्यष्टौ । तत्रासंयते द्वितीयकषायचतुष्कं सुरनारकायुषी नरकगतिर्देवगतिद्विकं । वैक्रियिकाद्वकं दुर्भगत्रयं चेति चतुर्दश व्युच्छित्तिः १४ । अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वापेक्षया नरकगतित- १५ दायुषी ज्ञातव्ये । देशसंयते तृतीयकषायाः तिर्यगायुरुद्योती नीचैर्गोत्रं तिर्यग्गतिश्चेत्यष्टौ । अत्रापि तदपेक्षयैव तिर्यगायुष्यादिचतुष्कं ज्ञातव्यं । प्रमत्तसंयते उभयोपशमसम्यक्त्वेऽप्याहारकर्द्धघप्राप्तस्तद्वयाभावात् स्त्यानगृद्धित्रयं
भव्यमार्गणायोग्य १२२ सा. | मि. अ. | दे. प्र. अ. अ. अ. सू.
।
। मि.
उ. |क्षी स.
अ. |
| उदय ११७ १११ १०० १०४ ८७ / ८१ ७६७२६६ ६० ५९ ५७ ४२ १२ | अनुदय ५ ११ २२ १८ ३५ ४१ ४६५०५६ ६२ ६३ ६५ ८० | ११०
अभव्यमार्गणामें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। उदय प्रकृतियाँ एक सौ सतरह ११७।
उपशम सम्यक्त्व मार्गणामें असंयतमें उदययोग्य एक सौ चारमें से आदिकी तीन २० आनुपूर्वी और सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय न होने से उदययोग्य सौ हैं। गुणस्थान असंयत आदि आठ हैं। उनमें से असंयतमें दसरी कषाय चार, देवायु, नरकायु, नरकगति, देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिकद्विक और दुर्भग आदि तीन इन चौदहकी व्युच्छित्ति होती है। यहाँ नरकगति और नरकायु प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षासे जानना। देशसंयतमें तीसरी कषाय चार, तिर्यंचायु, उद्योत, नीच गोत्र और तियेच गति आठकी व्युच्छिति । यहाँ भी । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा ही तियंचायु आदि चार जानना। प्रमत्तसंयतेने दोनों ही उपशम सम्यक्त्वमें आहारकऋद्धिका उदय न होनेसे आहारकद्विकका अभाव है। अतः
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गो० कर्मकाण्डे
कळेवु चरम संहननत्रयक्कुवयव्युच्छित्तियक्कु ३ ॥ अपूव्वं करणनो षण्नोकषायंगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ६ | अनिवृत्तिकरणनोळु वेदत्रयमुं संज्वलनक्रोधावित्रयमुमंता प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तिपक्कु ६ ॥ सूक्ष्म सांवरायनोळ सूक्ष्मलोभक्कुदयव्युच्छित्तियक्कु १ ॥ उपशांत कषायनोळ वज्रनाराच नाराचसंहनन द्विकक्कुदय व्युच्छित्तियक्कु २ मंतागुत्तं विरलसंयतगुणस्थानदोळनुदयं५ शून्यमेके बोर्ड सम्यक्त्वप्रकृतियुमाहारकद्वयमुं २ तीर्थमुं राशियोळकळेदुवपुरिव उदयंगळ नूर ॥ वेशसंयत गुणस्थानबोळ, पदिनात्कुगूडियनुदयंगळ, पदिनाकयप्पु १४ । उदयंगळेणभत्तारु ८६ ॥ प्रमत्तसंयत गुणस्थानवोळे दुगूडियनुदयंगळिप्तेरडु २२ । उदयंगळे पत्ते दु ७८ ॥ अप्रमत्तगुणस्थानदोळ सूरु गडियनुवयंगळिप्पत्तय् २५ । उवयंगळे प्पत्तय्वु ७५ । अपूर्वकरण गुणस्थानदोळ मूरु गूडियनुदयंगळपत्ते २८ । उवयंगळे प्पत्तेरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळा रुगू डियनु१० वयंगळ मूवत्तनात्कु ३४ । उदयंगळस्वत्तारु ६६ ॥ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानबोळारुगू डियनुदयंगळ नात्वत्तु ४० । उदयंगळरुवत्तु ६० ॥ उपशांतकषायवीतरागछ्द्यस्थगुणस्थानदोळ, मो दुगूडियनदयंगळ नावत्तों प्रकृतिगळवु ४१ । उदयप्रकृतिगळय्वत्तो भत्तप्पुवु ५९ । संदृष्टि :
व्युच्छित्तिः ३ । अप्रमत्ते सम्यक्त्व प्रकृत्यभावाच्चरमसंहननत्रयं ३ । अपूर्वकरणे षण्णोकषायाः ६ । अनिवृत्तिकरणे वेदत्रयं संज्वलनक्रोधादित्रयं च ६ । सूक्ष्मसांपराये सूक्ष्मलोभः । उपशांतकषाये वज्रनाराचनाराचद्विकं । १५ एवं सत्यसंयतेऽनुदयः शून्यं सम्यक्त्वाहारकद्वयतीर्थापनयनात् । उदयः शतं १०० | देशसंयतेऽनुदयश्चतुर्दश १४ उदयः षडशीतिः ८६ । प्रमत्तेऽष्टौ संयोज्यानुदयो द्वाविंशतिः २२ । उदयोऽष्टसप्ततिः ७८ । अप्रमत्ते त्रयं संयोज्यानुदयः पंचविंशतिः २५ । उदयः पंचसप्ततिः । अपूर्वकरणे त्रयं संयोज्यानुदयोऽष्टाविंशतिः २८ । उदयो द्वासप्ततिः ७२ । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्यानुदयश्चतुस्त्रिशत् ३४ । उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांप षट् संयोज्यानुदयश्चत्वारिंशत् ४० । उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एकां संयोज्यानुदय एकचत्वारिंशत् ४१ । उदय एकान्नषष्टिः ५९ ।
२०
२५
३०
स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी व्युच्छित्ति होती है । अप्रमत्तमें सम्यक्त्व प्रकृतिका अभाव होने से अन्तके तीन संहनन की व्युच्छित्ति है । अपूर्वकरण में छह नोकषाय । अनिवृत्तिकरण में तीन वेद और तीन संज्वलनकषाय । सूक्ष्म साम्पराय में सूक्ष्मलोभ । उपशान्त कषायमें वज्र नाराच और नाराच संहननकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होने पर
४ असंयत में अनुदय शून्य क्योंकि सम्यक्त्व, तीर्थंकर और आहारक द्विक नहीं है । उदय सौ १०० ।
५ देश संयत में अनुदय चौदह १४ । उदय छियासी ८६ ।
६ प्रमत्त में आठ मिलाकर अनुदय बाईस २२ । उदय अठहत्तर ७८ ।
७ अप्रमत्त में तीन मिलाकर अनुदय पचीस । उदय पचहत्तर ७५ ।
८ अपूर्वकरण में तीन मिलाकर अनुदय अठाईस २८ । उदय बहत्तर ७२ ॥ ९. अनिवृत्तिकरण में छह मिलाकर अनुदय चौंतीस ३४ । उदय छियासठ । १०. सूक्ष्मसाम्पराय में छह मिलाकर अनुदय चालीस ४० । उदय साठ ६० । ११. उपशान्तकषाय में एक मिलाकर अनुदेय इकतालीस ४१ । उदय उनसठ ५९ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
उपशमसम्यक्त्वयोग्यप्रकृतिगळु १०० ।
०
उ
अ
अ अ अ सू उ
१४
८ ३
३ ६ ६ १२
१००
८६ ७८ ७५ ७२६६६०५९
० १४ २२ २५ २८३४४०४१
अ
वेदकसम्यक्त्वमार्गणैघोळ स्वगुणौघमप्युदरिदं मिथ्यादृष्टिय प्रकृतिपंचकमुं ५ सासादननवमं ९ मिश्रन मिश्रमुं १ तोत्थंमु १ मितु पदिनारुं प्रकृतिगळं कळेदु शेषस्व गुणौघमुदययोग्यप्रकृतिगळ् नूरारु १०६ । असंयतादिनात्कुं गुणस्थानं गळप्पुवल्लि असंयत कृतकृत्य वेदकंगे चतुर्गतित्व टप्पुरिदं । तदपेक्षेयि तद्गुणस्थानदोळिप्पं नालकानुपूव्यंगळगूड पदिने प्रकृतिगळगुदय व्युच्छित्तियक्कं १७ ॥ देशसंयतनो तन्न गुणस्थानवें टु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु ५ ८ ॥ प्रमत्तसंयतनळु आहारकऋद्धिटप्पुर्दारदं तम्न गुणस्थानदप्रकृतिपंचकक्कुदययव्युच्छित्तियक्कु' ५ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळ तन्न गुणस्थानद नात्कु ४ मेर्ल वेदकसम्यक्त्व मिल्लप्पुरमपूर्वकरणनारु ६ अनिवृत्तिकरणनारु ६ सूक्ष्मसांपरायनोदु उपशांतकषायनरडुं २ क्षीणकषायन पविना १६ सयोगकेवलि भट्टारक सूवत्तु ३० अयोगिकेवलिभट्टारकन पन्नों दु ११ मंतु एप्पत्तारुं प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कु ७६ । मंतागुत्तं विरलसंयतगुणस्थानदोळाहारकद्विकक्कनुदय- १० मक्कु २ मुदयंगळ, तूर नाल्कु १०४ । देशसंयत गुणस्थानदोळ, पदिनेळ गुडियनुदयंगळु पत्तों भत्तु १९ । उवयंगळेण्भत्तेळ. ८७ ॥ प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळे 'दुगूडियनुदयंगळिप्प सेंळरोळाहारक
५४१
वेदकसम्यक्त्वमार्गणायां स्वगुणौघः इति मिथ्यादृष्ट्यादित्रयस्य पंचनवैकतीर्थं च नेत्युदययोग्यं षडुत्तरशतं १०६ । असंयतादिचतुर्गुणस्थानानि । तत्रासंयते कृतकृत्यवेदकस्य चतुर्गतिषु संभवात्तदपेक्षया चत्वार्यानुपूर्व्याणीति सप्तदश व्युच्छित्तिः । देशसंयतेऽष्टौ ८ । प्रमत्ते आहारकविसद्भावात्पंच | अप्रमत्ते चतस्रः । उपरितनाश्च षट्षडेका द्वे षोडश त्रिशदेकादश मिलित्वा षट्सप्तति । ७६ । अपूर्वकरणादिषु तत्सम्यक्त्वाभावात् । एवं सत्यसंयते आहारक द्विकमनुदयः । उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ । देशसंयते सप्तदश
बेदक सम्यक्त्व मार्गणामें अपने गुणस्थानवत् जानना । मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में जिनकी व्युच्छित्ति होती है वे पाँच, नौ और एक तथा तीर्थकरके न होनेसे उदय योग्य एक सौ छह १०६ हैं । असंयत आदि चार गुणस्थान होते हैं । उनमें से असंयतमें २० कृतकृत्य वेदक मरकर चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है अतः उसकी अपेक्षासे चारों आनुपूर्वीका उदय होता है। इससे असंयतमें व्युच्छित्ति सतरह १७ । देश संयत में आठ ८ । प्रमत्तमें आहारक ऋद्धि सम्भव होनेसे पाँच ५। अप्रमत्त में चार तथा ऊपर के गुणस्थानोंकी छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और ग्यारह मिलकर छियंत्तर | क्योंकि अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में वेदक सम्यक्त्व नहीं होता। ऐसा होने पर - ४. असंयतमें आहारकद्विकका अनुदय । उदय एक सौ चार १०४ ।
२५
१५
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१०
गो० कर्मकाण्डे
५४२
द्विकi कळेदुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुदयंगळिप्पत्तय्दु २५ । उदयंगळे भत्तोंदु ८१ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळ दुगू डियनुदयंगळ, भूवत्तु ३० । उदयंगळे प्पत्तारु ७६ ॥ संदृष्टि :
वेदक योग्य १०६
० अ दे Я
व्यु
१५
१७ ८ ५
७६
१०४८७ ८१
७६
अ २ १९ २५ ३०
क्षायिक सम्यक्त्वमार्गर्णयाळु मिथ्यादृष्टि ५ सासादनन ९ मिश्रन १ सम्यक्त्वप्रकृति १ अंतु पदिनारुं प्रकृतिगळं कळेदु शेषनूरारुं प्रकृतिगळु दययोग्यंगळप्पुवु १०६ । अल्लि असंयतादि पन्नों दु ५ गुणस्थानं गळgवल्लि असंयतनोळु तन्न गुणस्थानद पदिनेळं :
अ
उ
खाइयसम्मो देसो पर एव तदो तहिं ण तिरियाऊ ।
उज्जीवं तिरियगदी तेसिं अयदम्मि वोच्छेदो ।। ३२९ ।।
क्षायिकसम्यग्दृष्टिद्देश संयतो नर एव ततस्तस्मिन्न तिर्य्यगायुरुद्योतस्तिर्य्यग्गतिस्तैरसंयते
-:
व्युच्छेदः ॥
क्षायिक सम्यग्दृष्टियप्प देशसंयतं मनुष्यनेयप्पुर्दारदमल्लि तिर्य्यगायुष्यमुमुद्योतनाममुं तिर्य्यग्गतियुमंतु मूरुं प्रकृतिगळ्गुदयमातनोळिल्लडु कारण मागियसंयत गुणस्थान वोळा सूरुं प्रकृतिगळद व्युच्छित्तियक्कुमप्पुर्दारवमउ सहितमा गिप्पत्तु प्रकृतिगळगुवयव्युच्छित्तियक्कु २० ॥
२० उदय ८१ ।
संयोज्यानुदय एकान्नविंशतिः १९ । उदयः सप्ताशीतिः ८७ ।
प्रमत्तेनुदयेऽष्टसंयोज्याहारकद्विकोदयात्
पंचविंशतिः २५ । उदय एकाशीति ८१ । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदयस्त्रिशत् ३०, उदयः षट्सप्ततिः ७६ । क्षायिक सम्यक्त्वमार्गणायां मिथ्यादृष्ट्यादित्रयस्य पंचदश सम्यक्त्वं च नेत्युदययोग्यं षडुत्तरशतं १०६ । असंयताद्येकादश गुणस्थानानि । तत्रासंयते स्वस्य सप्तदश १७ ॥ १–२ ॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एव ततः कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योत स्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न
५. देशसंयत में सतरह मिलाकर अनुदय उन्नीस १९ । उदय सत्तासी ८७ । ६. प्रमत्तमें अनुदय आठ मिलाकर तथा आहारकद्विकका उदय होनेसे पच्चीस ।
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय तीस ३० । उदय छियत्तर ७६ ।
क्षायिक सम्यक्त्व मार्गणा में मिध्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में व्युच्छिन्न हुई पन्द्रह तथा सम्यक्त्व प्रकृति के न होनेसे उदय योग्य एक सौ छह १०६ । असंयत से लेकर ग्यारह गुणस्थान होते हैं । असंयत में अपनी सतरह || ३२८||
२५
देश संयत गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टो मनुष्य ही होता है, तिर्यंच नहीं होता । इस कारण से पंचम गुणस्थान में तिर्यचायु, उद्योत और तिर्यंचगति इन तीनका उदय यहाँ
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५
वेशसंयतनोळा मूरुं प्रकृतिगळं कळेदुवपुर्वारदं तृतीयकषायचतुष्कमुं ४ नीचैर्गोत्र मुमंत प्रकृतिगगुदयव्युच्छित्तियक्कुं ५ ॥ प्रमत्तसंयतनोळु तन्न गुणस्थानद पंचप्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ५ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळु सम्यक्त्वप्रकृति क्षपिसिल्पदपुरिदमदं कळेदु शेष मूरुं प्रकृतिगळ गुदय व्युच्छित्तियक्कुं ३ ॥ अपूर्वकरणं मोदल्गोंडु छक्क छच्चेव इगि दुग सोळस तीसं बारस प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु असंयतगुणस्थानदोळाहारकद्विकमुं २ तीर्थमुमनुदयमक्कुं ३ ॥ उदयंगळु नूर मुरु १०३ ॥ देशसंयतनोळिप्पतुगू डियनुदयंगळिप्पत्तमूरु २३ ॥ उदयंगळे त्तमूरु ८३ ॥ प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळय्कु गूडियनुदयंगळिप्पत्ते टरोल आहारकद्विकमं कळेदुदयंगळो कूडुतं विरलनुदयंगलिप्यत्तारु २६ । उदयंगळेण्भतु ८० ॥ अप्रमत्तगुणस्थानदो गुडियनुदयंगळु मूवत्तों दु ३१ । उदयंगळेप्पत्त ७५ ॥ अपूर्व्वकरण गुणस्थानदोळ मूरुमूडियनुदयंगळ मूवत्तनात्कु ३४ उदयंगळेप्पत्तेरडु ७२ ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळा रुगूडियन- १० वयंगळु नाल्वन्तु ४० । उदयंगळरुवत्तारु ६६ ॥ सूक्ष्मसां पराय गुणस्थानदोळारु गुडियनुदयंगळ नात्वत्तारु उदयंगळरुवत्तु ६० ॥ उपशांतकषायगुणस्थानवोळो बुगूडियनुवयंगळ नाव तेल ४७ । उबयंगळय्वत्तो भत्तु ५९॥ क्षीणकषायगुणस्थानवोळे रडु डुगूडियनुदयंगळ नाल्वत्तो भत्तु ४९ ।
संति तेन तत्त्रयस्य तत्सप्तदशभिः सहासंयत गुणस्थाने एव व्युच्छित्तिः २० | देशसंयते तत्त्रयाभावात् तृतीयकषाया नीचैर्गोत्रं चेति पंचैव ५ । प्रमत्ते स्वस्य पंच ५ । अप्रमत्ते सम्यक्त्व प्रकृतेः क्षपितत्वात्त्रयं । अपूर्व- १५ करणादिषु 'छक्कछच्चेव इगिदुगसोलसतीसंवारस' एवं सत्यसंयते आहारकद्विकं तीर्थं चानुदयः । उदयस्त्र्युत्तरशतं १०३ । देशसंयते विशति संयोज्यानुदयस्त्रयोविंशतिः २३ । उदयस्थ्यशीतिः ८३ । प्रमत्ते पंच संयोज्याहारकद्विकोदयादनुदयः षड्विंशतिः २६ । उदयोऽशीतिः ८० । अप्रमत्ते पंच संयोज्यानुदय एकत्रिंशत् ३१ । उदयः पंचसप्ततिः ७५ । अपूर्वकरणे तिस्रः संयोज्यानुदयश्चतुस्त्रिंशत् उदयो द्वासप्ततिः । अनिवृत्तिकरणे षट् संयोज्यानुदयश्चत्वारिंशत् ४० । उदयः षट्षष्टिः ६६ । सूक्ष्मसांपराये षट् संयोज्यानुदयः षट्चत्वारिंशत् ४६ । २० उदयः षष्टिः ६० । उपशांतकषाये एकां संयोज्यानुदयः सप्तचत्वारिंशत् ४७ । उदय एकान्नषष्टिः ५९ ।
नहीं होता । अतः इन तीनोंकी व्युच्छित्ति भी सतरहके साथ असंयत गुणस्थान में होती है अतः असंयत में व्युच्छित्ति बीस २० है । और देशसंयतमें इन तीनका अभाव होनेसे तीसरी कषाय चार और नीचगोत्र इन पाँचकी व्युच्छित्ति होती है । प्रमत्तमें अपनी पाँच । अप्रमत्तमें सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय हो जानेसे तीन । अपूर्वकरण आदिमें क्रम से छह, २५ छह, एक, दो, सोलह, तीस, बारह ।
४. असंयत में आहारक द्विक और तीर्थंकरका अनुदय । उदय एक सौ तीन । ५. देश संयत में बीस मिलाकर अनुदय तेईस २३ । उदय तेरासी ८३ ।
६. प्रमत्तमें पाँच मिलाकर आहारक द्विकका उदय होनेसे अनुदय छब्बीस २६ । उदय अस्सी ८० ।
३०
७. अप्रमत्तमें पाँच मिलाकर अनुदय इकतीस ३१ । उदय पिचहत्तर । ८. अपूर्वकरण में तीन मिलाकर अनुदय चौंतीस | उदय बहत्तर ७२ | ९. अनिवृत्तिकरण में छह मिलाकर अनुदय चालीस । उदय छियासठ । १०. सूक्ष्मसाम्पराय में छह मिलाकर अनुदय छियालीस | उदय साठ |
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गो० कर्मकाण्डे
उदयंगळय्वत्तेळु ५७॥ सयोगकेवलि गुणस्थानदोळ, पदिनार गूडियनुवयंगळरुवत्तय्बरोळ तीर्थंकर नाममं कळेदुदयंगळोळ कूडुतं विरलनुवयंगळरुवत्तनात्कु ६४ । उदयंगळु नाल्वर्त्तरडु ४२ ॥ अयोगिकेवलि भट्टारकगुणस्थानदोळ मूव त्तुगूडियनुवयंगळु तो भत्तनात्कु ९४ ।। उदयंगळु पर्नरडु १२ । संदृष्टि :
५४४
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२०
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३
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२३
क्षायिक यो० १०६ ।
x
अ. दे. प्र. २० ५ ५ १०३ ८३ ८० ३ २३ २६
५
८०
२६
५ क्षीणकषाये द्वे संयोज्यानुदय एकान्नपंचाशत् ४९ । उदयः सप्तपंचाशत् ५७ । सयोगे षोडश संयोज्य तीर्थोदयादनुदयः चतुःषष्टिः, उदयो द्वाचत्वारिंशत् । अयोगे त्रिशतं संयोज्यानुदयश्चतुर्णवतिः ९४ । उदयो
द्वादश १२ ॥ ३२९ ॥
अ अ अ सू उ क्षीस अ
३
६ १२ १६३० १२
७२
६०५९५७४२१२
३४ ४० ४६ ४७ ४९ ६४ ९४
११. उपशान्तकषायमें एक मिलाकर अनुदय सैंतालीस । उदय उनसठ ।
१२. क्षीणकषाय में दो मिलाकर अनुदय उनचास । उदय सत्तावन ।
१३. सयोगी में सोलह मिलाकर तीर्थंकरका उदय होनेसे अनुदय चौसठ ६४ | उदय
बयालीस |
उपशम सम्यक्त्व रचना १००
अ. दे. प्र. अ. अ. अ. सू. उ. १४ ८ ३ ३ ६ १ २ १०० ८६ ७८ ७५ ७२ ६६६०५९ ० १४ २५ २८३४४० ४१
७५
३१
१४. अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय चौरानवे । उदय बारह ||३२९||
वेदक सम्यक्त्व रचना १०६
दे. प्र. अ.
अ. १७ . ५ ४ १०४ ८७ ८१ २ १९ २५ ३०
७६
क्षायिक सम्यक्त्व रचना १०६
अ. अ. अ. सू. उ. ३ ६ ६ १ ७५ ७२ | ६६ ३१
६०
३४ ४०
४६
स. अ.
श्री. २ १६ ३० १२
१२
९४
५९
४७
५७ ४२
४९
६४
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
५४५ सेसाणं सगुणोघं सण्णिस्स वि णत्थि ताव साहरणं ।
थावर-सुहुमिगिविगलं असणिणो वि य ण मणुदुच्चं ॥३३०॥ शेषाणां स्वगुणौधः संजिनश्च नास्त्यातप साधारणं । स्थावरसूक्ष्मैकविकलमसंजिनोपि च न मनुष्यद्वयोच्चं ॥
शेषमिथ्यादृष्टिसासादन मिश्ररुचिगळ्गे स्वगुणौघमक्कुमल्लि मिथ्यारुचिगळ्गे मिश्रप्रकृति- ५ सम्यक्त्वप्रकृति आहारकद्रयतीर्थकर नाममंतम्, प्रकृतिगळं कळेदु नूरपदिनेछं प्रकृतिगळुवययोग्यंगळप्पुवु ११७ ॥ सासादनरुचिगळ्गा प्रकृतिपंचकमु ५. मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणत्रयमुमातपनाममुं नरकानुपूर्व्यमुमंतु पन्नोंदु प्रकृतिगळं कळेदु नूर पन्नोंदु प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु १११ । मिश्ररुचिगळ्गा पन्नों दुं प्रकृतिगळोळु मिश्रप्रकृतिय कळेदु शेष पत्तुं प्रकृतिगळं १० । अनंतानुबंधिचतुष्क मुं ४ । एकेंद्रियजातियुं १ स्थावरनाममुं १ विकलत्रयमुं३ तिय्यंगानु- १० पूय॑मुं १ मनुष्यानुपूयमुं १ देवानुपूय॑मु १ मितिप्पत्तेरडु प्रकृतिगळं कळेदु शेष नूरुं प्रकृतिगलुदययोग्यंगळप्पुवु १०० संज्ञिमाग्नणयोळ आतपनाममुं १ साधारणशरीरनाममु१ स्थावर. नाममुं १ सूक्ष्मनाममु १ मेकेंद्रियजातिनाममुं १ विकलेंद्रियजातित्रयमु ३ तीर्थकरनाममुमि तो भतं प्रकृतिगळं कळे दु शेष नूर पदिमूरुं प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु ११३ ॥ मिथ्यावृष्टयादि. पन्नेरडुं गुणस्थानंगळप्पुवे दोड सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानंगळगे संज्ञित्वमिल्लेके दोडे "संजिनः १५ समनमस्काः" एंदितु समनस्क रल्लप्पु दरिदं । अंतादोडऽमनस्करेकल्ले बोर्ड तिय्यंचरुगळ्गल्लवमनस्कव्यपदेशमिल्लप्पुरदं । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियु १ अपर्याप्तनाममु १ मितेरई Arrrrrrrrrrrrrrrr
शेषाणां मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्ररुचीनां स्वगुणोषः। तत्र मिथ्यारुचीनां मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वयतीर्थकरत्वानि नेत्युदययोग्यं सप्तदशोत्तरशतं ११७ । सासादनरुचीनां तत्पंचकं मिथ्यादृष्टिः व्युच्छित्तिपंचकं नरकानुपूयं च नेत्येकादशोत्तरशतं १११ । मिश्ररुचीनां मित्रं विना ता एव दश पुनः अनंतानुबंधिचतुष्कमेकें. २० द्रियं स्थावरं विकलत्रयं तिर्यग्मनुष्यदेवानुषाणि च नेति शतं १००।
संज्ञिमार्गणायामातपसाधारणस्थावरसूक्ष्म केंद्रियविकलायतीर्थकरत्वानि नेति त्रयोदशशतमदययोग्यं । ११३ । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि द्वादश । सयोगायोगो न संजिनी भावमनोरहितत्वात । नाप्यसंज्ञिनो
शेष मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र सम्यक्त्वमें अपने-अपने गुणस्थानवत् जानना। उनमें से मिथ्यारुचिमें मिश्र, सम्यक्त्व, आहारकद्विक और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ सतरह ११७ हैं। सासादनरुचिमें वे पाँचों, मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति पाँच और नरकानुपूर्वी नहीं होनेसे उदय योग्य एक सौ ग्यारह हैं । मिश्ररुचिमें मिश्रके बिना दस ऊपर कही तथा अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय स्थावर, विकलत्रय, तिथंचानपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी ये बाईस न होनेसे उदय योग्य सौ हैं। इन सबमें अपना-अपना एक ही गुणस्थान होता है।
संज्ञीमार्गणामें आतप, साधारण, स्थावर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, विकलत्रय और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ तेरह हैं । गुणस्थान मिथ्यादृष्टिसे लेकर बारह हैं। सयोगकेवली और अयोगकेवली संज्ञी नहीं हैं क्योंकि उनके भावमन नहीं होता। और न वे असंज्ञी हैं
क-६
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५४६
गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिगळगुदयव्युच्छितियक्कुं २॥ सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्कषकुदयव्युच्छित्तियक्कुं ४ ॥ मिश्रनो मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कुं १ असंयतं मोदल्गोंडु क्षीणकषायावसानमाद गुणस्थानंगळोळु सत्तरस १७ अड ८ पंचय ५ चउर ४ छक्क ६ छच्चेव ६ इगि १ दग २ सोळ.स १६ प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवु । मत्तं सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानद्वयव नाल्वत्तेरडुं प्रकृतिगळोळु तोय॑मं कळेदु शेष नाल्वत्तोदु प्रकृतिगळ्गे क्षीणकषायगुणस्थानदोळुदय व्युच्छितियक्कुमंतागुत्तं विरला क्षीणकषायगुणस्थानदोळय्वत्तेलु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु-५७ । मल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदौल मिश्रप्रकृतियं १ सम्यक्त्वप्रकृतियु १ माहारकद्विकमु २ मंतु नाल्कु प्रकृतिगळ. 'नुवामपकु ४ । उदयंगळु नूरों भत्तु १०९ ॥ सासादनगुणस्थानदोळेरडुगूडियनुवयंगळाररोळु ६
गरम हुनुपूर्व्यमनुदयंगळोळु कळे दनुनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळेळु ७। उदयंगळ नूराम १० १०६ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळ नाल्कु गूडियनुवयंगळु पन्नों दरोळ, मिश्रप्रकृतियं कळेवुदयंगळोळ
कूडि मत्तमुदयप्रकृलिगळोळ तिय्यंग्मनुष्यदेवानुपूर्व्यत्रयमं कळेदनुदयंगळोळु कूडुत्तं विरलनुदयंगळ पदिमूरु १३ । उदयंगळ नूरु १०० ॥ असंयतगुणस्थानबोळो दुगूडियनुवयंगळु पदिनाल्करोळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमनानुपूय॑चतुष्कमुमनंत, प्रकृतिगळ कळेदुदयप्रकृतिगळोळु कूडुत्तं विरल
नुवयंगळो भत्तु ९। उदयंगळु नूर नाल्कु १०४॥ देशसंयतगुणस्थान मोदल्गो डु यो प्रकार१५ दिननुदयोदयंगळं यथाक्रमदिदमिप्पत्तारुमण्भत्तेळु ८७॥ मूवत्तेरडु ३२ मेण्भत्तोंदु ८१ । मूवत्तेळु
तियंग्भ्योऽन्यत्र तद्व्यपदेशाभावात् । तत्र मिथ्यादृष्टो मिथ्यात्वमपतिं चेति द्वयं व्युच्छित्तिः । सासादनेऽनंतानुबंधिचतकं ४ । मिश्रे मिश्रं १। असंयतादिषु 'सत्तरसं अडपंचयचउरछक्कछच्चेव इगिद्गसोलस' सयोगायोगस्य विना तीर्थकरत्वमेकचत्वारिंशत । ४१ । एवं सति मिथ्यादृष्टौ मिश्रं सम्यक्त्वमाहारकद्विकं चानुदयः
४ उदयो नवोत्तरशतं १०९। सासादने द्वे नरकानुपूज्यं च मिलित्वानुदयः सप्त ७ । उदयः षडुत्तरशतम् २० १०६ । मिश्रेऽनुदयश्चतस्रः तिर्यग्मनुष्यदेवानुमाणि च संयोज्य मिश्रोदयात्त्रयोदश ।१३। उदयः शतं ।१००।
असंयते एका संयोज्य सम्यक्त्वानुपूर्व्यचतुष्कोदयादनुदयो नव ९ । उदयश्चतुरुत्तरशतं १०४ । देशसंयतादिष्वेवक्योंकि असंही व्यपदेश तियंचोंमें ही होता है, अन्यत्र नहीं होता। उनमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्व और अपर्याप्त दो की व्युच्छित्ति है। सासादनमें अनन्तानबन्धी चार ४ ।
मिश्रमें एक मिश्र । असंयतादिमें क्रमसे सतरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, २५ सोलह तथा सयोगी अयोगीकी तीथंकर बिना इकतालीस मिलाकर १६ + ४१ - सत्तावन । ऐसा होने पर
१. मिथ्यादृष्टिमें मिश्र, सम्यक्त्व और आहारकद्विक चारका अनुदय । उदय एक सौ नौ १०९।
२. सासादन में दो और नरकानपूर्वी मिलाकर अनुदय सात । उदय एक सौ छह ।
३. मिश्रमें अनुदय चार और तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी मिलाकर २० मिश्रका उदय होनेसे तेरह १३ । उदय सौ १००।
४. असंयतमें एक मिलाकर सम्यक्त्व और चार आनुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय नौ ९ । उदय एक सौ चार १०४ ।
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कणाटवृत्ति जावतत्त्वप्रदीपिका
५४७ मेप्पतारुं ३७ । ७६। नालवतो दुप्पत्तरड ४१ । ७२। नाल्वत्तेळुमरुवत्तारु ४७ । ६६ । अय्वत्तमूरु मरुवत्तु ५३ । ६०। अय्वत्तनाल्कुमय्वत्तो भत्तु ५४ । ५९ । अय्यत्तारुमय्वत्तेळ ५६ । ५७ । प्रकृतिगलप्पुवु । संदृष्टि :
संज्ञि यो० ११३ | • मि सा मि| अ दे प्र अ अ अ सू उक्षी
| उ १०९ १०६ १०० | १०४८७८१७६७२६६/६०५९५७
- -- -- - - - - | अ ४ ७ । १३ | ९ २६३२३७४१४७५३५४५६ असणिणोवि य ण मणुदुच्चं ॥
वेगुव्वछ पणसंहदिसंठाण सुगमण सुभग आउतियं ।
आहारे सगुणोघं गवरि ण सव्वाणुपुब्बीओ ॥३३१॥ वैक्रियिकषट्पंचसंहनन संस्थान सुगमन सुभगायुस्त्रयं ३। आहारे स्वगुणौघः नविनं न सर्वानुपूाणि ॥
असंज्ञिमार्गणेयोळु मनुष्यद्विकमु २। मुच्चैग्र्गोत्रभु १ वैक्रियिकषट्कममारु ६ माद्यसंहननपंचकमु ५ माद्यसंस्थानपंचकमुं५ प्रशस्तविहायोगतियुं १ सुभगत्रयमु ३ । नरकमनुष्यदेवायुस्त्रयमुं १०
मनुदयोदयो यथाक्रमं षड्विंशतिः सप्ताशीतिः २६, ८७ । द्वात्रिंशत् ९काशीतिः ३२, ८१ । सप्तत्रिंशत् षट् सप्ततिः । ३७१७६ । एकचत्वारिंशद् द्वासप्ततिः ४११७२ । सप्तचत्वारिंशत् षट्षष्टिः ४७ । ६६ । त्रिपंचाशत् षष्टिः ५३ । ६० । चतुःपंचाशत एकान्नषष्टिः । ५४ । ५९ । षट्पंचाशत् सप्तपंचाशत् । ५६ । ५७ ॥३३०॥
असंज्ञिमार्गणायां मनुद्विकमुच्चैर्गोत्रं वैक्रियिकषट्कमाद्यसंहननपंचकम घसंस्थानपंचकं प्रशस्तविहायो
५. इसी प्रकार देशसंयत आदिमें अनुदय और उदय क्रमसे २६, ८७। बत्तीस ३२, १५ इक्यासी ८१। सैतीस ३७, छियत्तर ७६ । इकतालीस ४१, बहत्तर ७२। सैतालीस ४७, छियासठ ६६ । तिरपन ५३, साठ ६०। चौवन ५४, उनसठ ५९ । छप्पन ५६, सत्तावन ५७ जानना ॥३३०॥
संज्ञीमार्गणारचना ११३ । । मि. सा. मि. अ. दे. । प्र. अ. अ. अ. सू. उ. श्री.
| उ. | १०२ १०६ १०० १०४ ८७ ८१ ७६ | ७२ ६६ ६० | ५९ ५७ अनु. ४ ७ । १३ ९ २६ २३ ३७ । ४१ | ४७ । ५३ ५४ / ५६ |
असंज्ञी मार्गणामें मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, आदिके पाँच संहनन, आदिके पाँच संस्थान, २०
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५४८
गो० कर्मकाण्डे
३ यितिप्पत्तारं प्रकृतिगळं २६ दृष्टिय नूर पदिने प्रकृतिगोल कळवु शेष तो भत्तों दु प्रकृतिगळ, दययोग्यंगळवु ९१ । गुणस्थानंगळ मिथ्यादृष्टिसासादन गुणस्थानंगळे रडेयपुवल्लि मिथ्यादृष्टियो मिथ्यात्व प्रकृतियं १ आतपनाम १ सूक्ष्मत्रयम् ३ मितदुं प्रकृतिग ५ स्त्यानयानगृद्धित्रयमुं ३ परधातोद्योतोच्छ्त्त्रयमुं ३ दुःस्वरसु १ मप्रशस्त विहायोगतियु १ मितेंदु ५ प्रकृतिग सासादननोलुदयमिल्लेक दोडा सासादनन भवप्रथमदोळु का जघन्यदिद मेकसमयमुत्कृष्टदिदमारावळिकालमप्युर्दारमा प्रकृत्यष्टकं तंतम्म पर्थ्यातिर्थिदं मेलल्ल दुदयि सदप्पुदरिनातनोळा प्रकृतिळगुदय मिल्लप्पुर्दारदं मिथ्यादृष्टियोदयव्युच्छित्तिगळेप्पुवंतागुत्तं विरला मिथ्यादृष्टियोदयव्युच्छित्तिगळ पदिमूरु १३ ॥ सासादननोळ, तन्न गुणस्थानदों भत्तु प्रकृतिगळगुदपव्युच्छित्तिय कु- ९ मंतागुत्तं विरला मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळनुदयं शून्यमुदयंगळ १० तो भत्तों ९१ । सासादनगुणस्थानदोळ, पदिमूरुं प्रकृतिगानुदयमक्कुं १३ । उदयप्रकृतिगळपत्तं ७८ ॥ संदृष्टिः
संज्ञियो० ९१ ।
० मि सा
घ्यु १३ ९
उ
अ
९१ ७८
० १३
गतिः सुभगत्रयं नरकमनुष्यदेवायूंषि च मिथ्यादृष्टिः सप्तदशोत्तरशते नेत्ये कनवतिरुदययोग्याः ९९ । गुणस्थानद्वयं । तत्र मिथ्यादृष्टौ स्वस्य पंच पुनः स्त्यानगृद्धित्रयपरघातोद्योतोच्छ्वासदुःस्वराप्रशस्त विहायोगतीनां पर्याप्तेरुपर्युदयनियमात्, सासादने स्तोककालत्वात्तदघटनात् ता अष्टौ च व्युच्छित्तिः । १३ । सासादने स्वस्य १५ नव ९ । तथा सति मिथ्यादृष्टावनुदयः शून्यं । उदय एकनवतिः ९१ । सासादने त्रयोदश संयोज्यानुदयः
त्रयोदश १३ । उदयोऽष्टसप्ततिः ७८ ।
प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुवर, आदेय, नरकायु, मनुष्यायु, देवायु ये छब्बीस प्रकृतियाँ मिथ्यादृष्टि के उदय योग्य एक सौ सतरह में से नहीं होतीं । अतः उदय योग्य इक्यानवें ९१ हैं । गुणस्थान दो हैं । उनमें से मिथ्यादृष्टि में अपनी पाँच और स्त्यानगृद्धि आदि तीन, २० परघात, उद्योत, उच्छ्वास, दुःखर, अप्रशस्त विहायोगति ये प्रकृतियाँ पर्याप्ति पूर्ण होनेके
बाद उदयमें आती हैं और सासादनका काल थोड़ा होनेसे वहाँ इनका उदय सम्भव नहीं है अतः इन आठकी व्युच्छित्ति मिलकर तेरहकी होती है। सासादन में अपनी नौ । ऐसा होने पर मिध्यादृष्टि में अनुदय शून्य । उदय इक्यानवें ९१ । सासादन में तेरह मिलाकर अनुदय तेरह | उदय अठहत्तर ७८ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५४९
आहारे स्वगुणौघः आहारमार्गणेयोळ, सामान्योदयप्रकृतिगळ, नूरिप्पत्तेरडरोळ, १२२ नाल्कुमानुपूव्यंगळं कळेदु शेष नूर पदिने टुं प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पु ११८ वल्लि मिथ्यादृष्ट्यादि पदिभूरुं गुणस्थानंगळप्पुवु । मिथ्यादृष्टियोळ, तन्न गुणस्थानदखुं प्रकृतिगळ्गुदयव्युच्छित्तियक्कुं ५ । सासादननोळ, तन्न गुणस्थानदों भत्तं प्रकृतिगळ्गुवयव्युच्छित्तियक्कुं ९ ॥ मिश्रनोळ, मिश्रप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियक्कु १ । असंयतनोळानुपूर्व्यचतुष्टयमं कळेदुळिद पदिमूरुं प्रकृतिगळगुवयव्युच्छित्तियक्कुं १३ ॥ वेशसंयतादिगळोळ अड ८ । पंच य ५ चउर ४ छक्क ६ छच्चेव ६ इगि १ दुग २ सोळस १६ बादाळ ४२ प्रकृतिगळगुदयभ्युच्छित्तियक्कुमंतागुतं विरल मिध्यादृष्टिगुणस्थानबोळ, तीर्थं मुमाहः कद्विकमुं २ मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमितय्युं प्रकृतिगळगनुदयमक्कु : उदयप्रकृतिगळु नूर पविमूरुं ११३ । सासादनगुणस्थानवोळखु गूडियनुदयंगळ हत्तु १० । उवयंगळ नरेंदु १०८ । मिश्रगुणस्थानदोळों भत्तु गुडियनुदयंगळ हत्तो भत्तरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगळोळु कूडुतं विरलनुदयंगळ हविनेदु १८ । उदयंगळु नूरु १०० ॥ असंयतगुणदोळो दुगूडियनुवयंगळ हत्तो भत्तरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियं कळेदुदयप्रकृतिगळोळ कूडुत्तं विरलवयंगळ हदिने टु १८ | उदयंगळु नूर १०० ॥ देशसंयतादि सयोगिकेवलिपय्र्यंतं यथासंख्यमागियनुवयंगळुमुदयंगळु मृवत्तों तु मेणेण्भत्तेळु ३२ । ८७ । मूव तेळ मेण्भतो दु ३७ । ८१ ॥ नात्वत्तेरडुमेप्पत्तारुं ४२।७६ । नाल्बत्तारमेप्पत्तेरडु ४६ । ७२ । अय्वते रडुमरवत्तारु ५२/६६ ॥ अवटु- १५ मरुत्तु ५८ । ६० । मय्वत्तो भत्तु मय्यत्तो भत्तु ५९ ॥ ५९ | अरुवत्तों दु मय्वत्तेऴु ६१ । ५७ ।
५
१०
आहारमार्गणायां-द्वाविंशत्युत्तरशते चतुरानुपूव्यं नेत्यष्टादशोत्तरशतमुदययोग्यं । ११८ । गुणस्थानानि त्रयोदश १३ । तत्र मिध्यादृष्ट्यादित्रये स्वस्य पंच नवेकं व्युच्छित्तिः । असंयते त्रयोदश १३ । आनुपूर्व्यचतुष्टयस्यापनीतत्वात् । देशसंयतादिषु - 'अडपं चयच उरछक्क छच्चेव इगिदुगसोलसवादाल' एवं सति मिथ्यादृष्टी तीर्थमाहारकद्विकं मिश्रं सम्यक्त्वं चेति पंचानुदयः ५ । उदयस्त्रयोदशशतं ११३ । सासादने पंच २० संयोज्यानुदयो दश १० उदयोऽष्टोत्तरशतं १०८ । मिश्र नव संयोज्य मिश्रोदयादनुदयोऽष्टादश १८ । उदयः शतं १०० । असंयते एकां संयोज्य सम्यक्त्वोदयादनुदयोऽष्टादश १८, उदयः शतं १०० | देशसंयतादिष्वनुदयोदय एकत्रिंशत् ३१ । सप्ताशीतिः ८७ । सप्तत्रिंशत् ३७ । एकाशीतिः ८१ । द्वाचत्वारिंशत् ४२ । षट्सप्ततिः ७६ । षट्चत्वारिंशत् ४६ । द्वासप्ततिः ७२ । द्वापंचाशत् ५२, षट्षष्टिः ६६ ॥ अष्टपंचाशत्
आहारमार्गणा में एक सौ बाईस में से चार आनुपूर्वी न होनेसे उदय योग्य एक सौ २५ ११८ | गुणस्थान तेरह । मिध्यादृष्टि आदि तीनमें अपनी पाँच, नौ और एककी व्युच्छित्ति है । असंयत में तेरह क्योंकि चार आनुपूर्वी नहीं हैं। देशसंयत आदिमें क्रमसे आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, बयालीस । ऐसा होने पर मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकर, आहारकद्विक, मिश्र, सम्यक्त्व, पाँचका अनुदय । उदय एक सौ तेरह ११३ । सासादनमें पाँच मिलाकर अनुद्रय दस । उदय एक सौ आठ । मिश्रमें नौ मिलाकर मिश्रका उदय होनेसे ३० अनुदय अठारह । उदय सौ १०० । असंयत में एक मिलाकर सम्यक्त्वका उदय होने से अनुदय अठारह, उदय सौ १०० । देश संयत आदि में अनुदय और उदय क्रमसे इकतीस ३१, सतासी ८७ । सैंतीस ३७, इक्यासी ८१ । बयालीस ४२, छियत्तर ७६ । छियालीस ४६,
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५५०
गो० कर्मकाण्डे एप्पत्तारु नाल्वत्तेरडु ७६।४२ । प्रकृतिगळप्पुवु । संदृष्टि :
आहारमार्गणा यो० ११८॥ | मि सा | मि अ दे प्र अ अ अ सू ।उ | क्षी
"
"
७६
उ ११३ १०८ / १०० १०० ८७८१ ७६ | ७२ ६६/६० | ५९ अ ५ / १० / १८ १८ ३१३३ ४२ | ४६ ५२, ५८ ५९ |
कम्मेवाणाहारे पयडीणं उदयमेवमादेसे ।
कहियमिणं बलमाहवचंदच्चियणेमिचंदेण ॥३३२॥ कार्मणे इवानाहारे प्रकृतीनामुदय एवमादेशे। कथितोयं बलमाधवचंद्राच्चितनेमिचंद्रेण ॥
कार्मणे यिवानाहारे अनाहारमार्गणेयोल कार्मणकाययोगदोळे तंते स्वरद्विक, २ विहायोगतिद्विकमुं२ प्रत्येकसाधारणद्विकमुं २ आहारकद्विकमुं २ मौदारिकद्विक, २ मिश्रप्रकृतियु १ मुपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासपंचकमु ५ । वैक्रियिकद्विकमुं२स्त्यानगृद्धित्रयमुं ३ संस्थानषट्कमुं ६। संहननषटकमु ६ मितु मूवत्तमूरु ३३ प्रकृतिगळं कळेदेण्भत्तो भत्तप्रकृतिगळुवययोग्यंगळप्पुबु
८९ ॥ गुणस्थानंगळ मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतसयोगायोगिकेवलिगुणस्थानमें दितय्, ५ गुणस्थानं१० गळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियुमपर्याप्त नाममु सूक्ष्मनाममुमितु मूरु प्रकृतिगळ्गु
दयव्युच्छित्तियक्कुं ३। सासादननोळनंतानुबंधिकषायचतुष्कमु ४ मेकेन्द्रियजातिनाममु१ स्थावर नाममु१ विकलत्रयमु ३ मितो भत्तं प्रकृतिगर्छ। स्त्रीवेदमिल्लिये व्युच्छित्तियक्कुमके दोडs५८ । षष्टिः, ६० । एकान्नषष्टिरेकान्नषष्टिः ५९ । ५९ । एकषष्टिः सप्तपंचाशत् । ६१ । ५७ । षट्सप्ततिषित्वारिंशत । ७६ । ४२ ।। ३३१ ।।
अनाहारमार्गणायां कार्मणकाययोगवत्स्वरविहायोगतिप्रत्येकाहारकोदारिकद्विकानि मिश्रप्रकृत्युपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासा वैक्रियिकद्विकं स्त्यानगृद्धित्रयं संस्थानषट्कं संहननषट्कं च नेत्येकान्ननवतिरुदययोग्याः ८९, गुणस्थानानि पंच। तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वापर्याप्तसूक्ष्माणि व्युच्छित्तिः ३ । सासादनेबहत्तर ७२ । बावन ५२, छियासठ ६६ । अठावन ५८, साठे ६० । उनसठ ५९, उनसठ ५९ । इकसठ ६१, सत्तावन ५७ । छियत्तर ७६, बयालीस ४२ ॥३३१।।
___अनाहार मार्गणामें कार्मणकाययोगकी तरह सुस्वर दुस्वर, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक, साधारण, आहारकद्विक, औदारिकद्विक, मिश्रप्रकृति, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, वैक्रियिकशरीर अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, छह संस्थान, छह संहनन ये तेतीस न होनेसे उदय योग्य नवासी ८९ हैं । गुणस्थान पाँच हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व, अपर्याप्त, सूक्ष्म तीनकी व्युच्छित्ति है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५५१ संयतं स्त्रीयागि पुट्टनप्पुरिदमंतु पत्तं प्रकृतिगळगुदयच्छितियक्कुं १०॥ असंपतनोळ, वैक्रियिकद्वितयरहितमागि तन्न गुणस्थानदोळ, पंचदशप्रकृतिगळ १५ उद्यातरहितमागि देश. संयतनोळेळ७ प्रमत्तनल्लि शून्यमप्रमत्तन सम्यक्त्वप्रकृतियुं १ अपूर्वकरणन नोकषायषट्क, ६ अनिवृत्तिकरणन स्त्रीवेदरहितप्रकृतिपंचकमुं ५ सूक्ष्मसांपरायन लोभमुं १ उपशांतकषायनोळ शून्यं क्षीणकषायन पदिनारु १६ मितिगिवण्णप्रकृतिगळ्गदयव्युच्छितियक्कु ५१ । सयोगकेवलि ५ योळ वेदनीयमो दु निर्माणनाममु १ स्थिरास्थिरद्विकमु२ शुभाशुभद्विकमु२ तैजसकार्मण. द्विकमु२ वर्णचतुष्कमु ४ अगुरुलघुकमु १ मितु पदिमूरु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु १३ ॥ अयोगिकेवलियोळ वेदनीयमोंदु १ मनुष्यगतिनाममु१ पंचेंद्रियजातिनाममु१ सुभगनाममु१ त्रसत्रयमु ३ मादेयनाममु१। यशस्कोत्तिनाममु१ तीर्थकरनाममु१ मनुष्यायुष्यमु१ उच्चै. गर्गोत्रमु१ मेंब पन्नेरडुं प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियक्कु १२॥ ____ अंतागुत्तं विरला मिथ्थादृष्टिगुणल्यानदोळ, सम्यक्त्वप्रकृतियु१ तीत्थंकरनाममु १ मितरडं प्रकृतिगळ्गनुदयमक्क २। उदयप्रकृतिगळे भत्तेळ ८७ । सासादनगुणस्थानदोळ मूरु गूडियनुदयंगळय्दरोळ, नरकद्विकमुमं नरकायुष्यमुमनुदयप्रकृतिगळोळ कळे दनुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलदयंगळे टु ८। उदयंगळ भत्तोंदु ८१ ॥ असंयतगुणस्थानदोळ पत्तुगूडियनुदयंगळ पदिनेटरोळ १८ सम्यक्त्वप्रेकृतियुमं तिय॑ग्मनुष्यदेवानुपूयंत्रितयमुम ३ मंतु नाल्कु प्रकृतिगळ १५ कळे दुदयप्रकृतिगळोळ, कडुत्तं विरलनुदयंगळ पदिनाल्कु १४ उदयंगळे पत्तटु ७५ ॥ सयोगअनंतानुबंधिचतुष्कमेकेन्द्रियं स्थावरं विकलत्रयं स्त्रीवेदश्चेति दश १० । असंयते वैक्रियिकद्विकं विना पंचदश उद्योतं विना सप्त शून्यं सम्यक्त्वप्रकृतिः नोकषायषट्कं स्त्रीवेदं विना पंच सूक्ष्मलोभः शून्यं षोडश चेत्येकपंचाशत् । ५१ । सयोगे सातासातैकतरनिर्माणस्थिरास्थिरशुभाशुभतैजसकार्मणानि वर्ण चतुष्कमगुरुलघुकं चेति त्रयोदश १३ । अयोगे स्वस्य द्वादश १२ । एवं सति मिथ्यादृष्टौ सम्यक्त्वं तीथं चानुदयः । उदयः सप्ताशीतिः २० ८७ । सासादनेऽनुदयस्त्रयं नरकद्विकं नरकायुश्च मिलित्वाष्टो ८। उदय एकाशीतिः ८१ । असंयते दश संयोज्य सम्यक्त्वतिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्योदयादनुदयश्चतुर्दश १४ । उदयः पंचसप्ततिः ७५ । सयोगे एकपंचाशतं चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, विकलत्रय और स्त्रीवेद दसकी व्युच्छित्ति है। असंयतमें वैक्रियिकद्विकके बिना पन्द्रह, उद्योतके बिना सात, शून्य, सम्यक्त्वप्रकृति, छह नोकषाय, स्त्रीवेद बिना पाँच, सूक्ष्म लोभ, शून्य, सोलह ये सब मिलकर इक्यावन ५१ । सयोगीमें साता या असाता, २५ निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णादि चार, अगुरुलघु ये तेरह । अयोगीमें अपनी बारह । ऐसा होनेपर
१. मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्व और तीर्थंकरका अनुदय । उदय सत्तासी ८७।
२. सासादनमें अनुदय तीन नरकगति नरकानुपूर्वी, नरकायु मिलकर आठ । उदय इक्यासी ८१ ।
३० ४. असंयतमें दस मिलाकर सम्यक्त्व, तियंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वीका उदय होनेसे अनुदय चौदह १४ । उदय पचहत्तर ७५ । १. म युमं नारकटिकमुमं नरकायुष्यमुममंतु ।
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१०
१५
५५२
गो० कर्मकाण्डे
केवल गुणस्थानदोळय्वत्तो दुगूडियनृदयंगळरुवत्तथ्दरोळ तीर्थकरनाममं कळे वुदयप्रकृतिगोळ कूडुत्तं विरलनुदयंगळरुवत्तनात्कु ६४ उदयप्रकृतिगळिप्पत्त २५ । अयोगिकेवलिगुणस्थानदोळ. पदरुगूडियनुदयंगळ पत्तेळ ७७ । उदयंगळ पन्नेरड्डु १२ । संदृष्टि :
अनाहार यो० ८९
२०
o
अ
एवमादेशे इंतु मार्गणास्थानदोळ प्रकृतीनामुदयः प्रकृतिगळ दयं । अयं इदु । बलमाधव५ चंद्राच्चतनेमिचंद्रेण प्रत्यक्षवंदकरप्प बलदेवनुं नारायणनुमेदिवर्गीऴदर्माच्चसल्पट्ट नेमितीत्थंकरपरमदेवनिदं । कथितः पेळल्पट्टुवु । बलदेवष्णोनि श्रीमाधवचंद्र त्रैविद्यदेवनिद मुमचिचसल्पट्ट नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवत्तिर्गादिमुं मेणु पेलल्पट्टदु । उदयप्रकरणं समाप्तमादु ॥
सारत्रयनेत्रत्रयमारोलु गोम्मटद वृत्तिमणिदर्पणमा | मारहरंगल्लदे पेलसारमे जात्यंधकंगे दृद्वितयं ॥
गंभीररचनेगल परिरंभणेयं बिडिसितोरिदुदने बुधर्मा । रंभिसि गोम्मटवृत्ति सुदंभोलियिनोडयि मोहवज्राचक्रमं ॥
उ
"
मि । सा अ स अ
३ १० ५१
१३
१२
८७
८१ ७५
२५ १२
२ ሪ १४ ६४ ७७
१. चाउंडरायनि ।
संयोज्य तोर्थोदयादनुदयश्चतुःषष्टिः ६४ उदयः पंचविशतिः २५। अयोगे त्रयोदश संयोज्यानुदयः सप्ततिः ७७ । उदयो द्वादश । एवं मार्गणास्थाने उदयः, बलदेव नारायणाचितने मितीर्थ करेण बलदेव भ्रातृश्रीमाषवचंद्र त्रैविद्यदेवाचितनेमिचंद्र सैद्धांतचक्रवर्तिना वा कथितः । इत्युदयप्रकरणं समाप्तं ॥ ३३२ ॥
१३-१४ सयोगीमें इक्यावन मिलाकर तीर्थंकरका उदय होनेसे अनुदय चौंसठ ६४ । उदय पचीस २५ । अयोगीमें तेरह मिलाकर अनुदय सतहत्तर ७७ । उदय बारह १२ ।
इस प्रकार मार्गणास्थानमें उदयका कथन बलदेव और नारायणसे पूजित नेमिनाथ तीर्थंकरने अथवा बलदेव भाई और श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव से पूजित नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने किया ||३३२||
-:
उदय प्रकरण समाप्त
आहारक रचना ११८
मि.
सा. | मि.
अ. दे. प्र. अ. अ. अ. सु. उ. श्री. स. ५ ९ १ १३ ८ ५ ४ ६ ६ १ २ १६ ४२ ११३ १०८ १०० १००८७८१७६७२६६६०५९ ५७ ४२
५ १० १८ १८ ३१३७४२४६५२५८५९ ६१ ७६
अनाहारक रचना ८९
व्यु.
उ.
अ.
मि. | साअ. म. अ.
३ १० ५१ १३१२
८७ ८१७५२५ १२
२
८|१४६४७७
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिधः अनंतर प्रकृतिसत्वम गुणस्थानदोळ पेळ्दपरु :--
तित्थाहारा जुगवं सव्वं तित्थं ण मिच्छगादितिये ।
तस्सत्तकम्मियाणं गुणठाणं ण संभवइ ॥३३३३॥ तीर्थाहारा युगपत्स तोत्र्भ न मिथ्पादृष्टयात्रिये । तत्सत्त्वकम्र्मणां तद्गुणस्थानं न संभवति ॥
तोहारा युगपन्न तीर्थकरनाममुनाहारकद्वयमुं मिथ्यादृष्टियोळ एकजीवापेक्षयिद युगपत्सत्वमिल्ल । अदेते'दोडे तीर्थसत्यमुळठनोळाहारकद्वयसत्वमिल्ल। आहारकद्वयसत्वमळळ. नोळु तीर्थसत्वमिल्ल । उभयसत्वमुळ्ळ जीवनी मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोनप्युरिदं । नानाजीवापेशयि युगपत्सत्वमुंटु । अदु कारणमागि मिथ्यादृष्टियोल नूरजाल्वत्ते टुं प्रकृतिजिगे सत्यमबहुँ १४८ ॥ सासावननोज, सनं न तीर्थमुभाहार कद्वयमुकजीवापेक्षयिषमुं नानाजीवापेक्ष. १० यिदमुं युगपरक्रमदिदमुं सत्वमिल्ल । मिश्रनोळ तीत्यनामसत्त्वं न यिल्लेके घोडे तत्सत्वकर्मणां आ तीाहारकद्वयसत्वयुतजीवंगळो तद्गुणस्थानं न संभवति तीर्थाहारकद्वयं गुगपरसंभविसुष मिथ्यावृष्टिगुणस्थानमुं तीत्थंमुमाहारकद्वयमुं संभविसुव सासावनगणस्थानमु तोत्थं संभविसुव मिश्रगुणस्थानमुं संभविसवप्पुक्दुकारणमागि मिथ्यादृष्टियोछ नूरनाल्वत टु प्रकृतिसत्यम १४८ । सासावननोळ नूरनाल्वत्तम्वु प्रकृतिसत्वम १४५ । मिश्रलोळु नूरनाल्व तेलु प्रकृतिसत्वभुमक्कुं १४७॥ १५
अथ प्रकृतिसत्त्वं गुणस्थानेष्वाह
मिध्यादृष्टी तीर्थकृत्त्वसत्त्वे आहारकद्वयसत्त्वं न, आहारकद्वयसत्त्वे च तीर्थकृस्वसत्त्वं न, उभयसत्त्वे तु मिथ्यात्वाश्रयणं न । तेन तद्वयं तत्र युगपदेकजीवापेक्षया न । नानाजीवापेक्षयास्ति (ततोऽष्टचत्वारिंशदुत्तरशतंसत्त्वं ) । सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयाऽनेकजोवापेक्षया च क्रमेण युगपहा सत्त्वं नेति (पंचचत्वारिंशदुत्तरशतं १४५ )। मिश्रे तीर्थकरत्वसत्त्वं न ( सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतं सत्त्वं १४७ )। कुतः ? तत्सत्त्वकर्मणां २० जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् ॥ ३३३ ॥
आगे गुणस्थानों में प्रकृतियोंकी सत्ता कहते हैं
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जिसके तीर्थकरकी सत्ता होती है उसके आहारकद्विककी सत्ता नहीं होती और जिसके आहारकद्विककी सत्ता होती है. उसके तीर्थकरकी सत्ता नहीं होती। जिसके दोनोंकी सत्ता होती है वह मिथ्यात्वमें आता ही नहीं। इसलिए ये दोनों २५ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक साथ एक जीवकी अपेक्षा नहीं हैं। किन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थंकर और आहारकद्विक दोनोंकी सत्ता होनेसे सत्त्व एक सौ अड़तालीस १४८ है । सासादनमें ये दोनों ही एक जीव और नाना जीवकी अपेक्षा क्रमसे या एक साथ नहीं रहते अतः वहाँ सत्त्व एक सौ पैतालीस । मिश्रमें तीर्थकरकी सत्ता न होनेसे सत्त्व एक सौ सैंतालीस; क्योंकि जिनके इन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है उनके ये ३० गुणस्थान नहीं होते ॥३३३॥
१. कोष्ठान्तर्गतः पाठो नास्ति ब प्रतो ।
क-७०
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५५४
गो० कर्मकाण्डे
चत्तारिवि खेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं ।
अणुवदमहव्वदाइंण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥३३४॥ चतुर्णा क्षेत्राणामायुबंधेन भवति सम्यक्त्वं । अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुमक्त्वा ॥
चतुर्गतिगळायुबंधमादुदरिंदम जीवक्के सम्यक्त्वमक्कु मल्लि देवगतिगायुबंधमागिई ५ जीवक्कणुव्रतमहाव्रतंगळु संभविसुक्वा देवायुष्यमं बिटुलिद नरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळु बंधमाव
भुज्यमान तिव्यंचनणुव्रतमं पडेयल्नेरेयं । भुज्यमानमनुष्यनादोडणुवतमहावतंगळं पडेयल्ने यनेके दोडा गतित्रयबध्यमानायुष्यरुगळ्गे अणुव्रतमहाव्रतपरिणामकारणविशुद्धिकषायपरिणामस्थानोदयंगळु संभविसवप्पुरिदं ॥
णिस्यतिरिक्खसुराउग सत्ते ण हि देससयलवदिखवगा ।
अयदचउक्कं तु अणं-अणियट्टीकरणचरिमम्मि ॥३३५॥ नरकतिर्यग्देवायःसत्त्वे न हि देशसकलवतिक्षपकाः असंयतचतुष्कं त्वनंतानुबंधिनोऽनिव. तिकरणचरमे ॥
नरकायुष्यसत्वम तिर्म्यगायुष्यसत्वमुं देवायुष्यसत्व, भुज्यमानबध्यमानोभयप्रकारदिवं सत्वमुंटागुत्तं विरलु यथासंख्यमागि देशवतिगळुसकलवतिगढ़ क्षपकरुं न हि इल्ल । तु मत्तम
चतुर्णा क्षेत्राणां गतीनां संबंध्यायुबंधेनापि जीवस्य सम्यक्त्वं भवति । तत्र देवगत्यायुर्मुक्त्वा शेषकतरगतिबद्धायुष्कस्तिर्यङ् अणुव्रतं मनुष्योऽणुव्रतं महाव्रतं वा न लभते तेषां तत्तद्वतपरिणामकारणविशुद्धकषायपरिणामस्थानोदयासंभवात् ॥ ३३४ ॥
नरकतिर्यग्देवायुस्सु भुज्यमानबध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेषु सत्सु यथासंख्यं देशवताः सकलव्रताः क्षपका
चारों क्षेत्र अर्थात् गति सम्बन्धी आयुका बन्ध करनेपर भी जीवके सम्यक्त्व हो सकता है । किन्तु देवगति सम्बन्धी आयुको छोड़कर शेष गतियों में से किसी एक गतिकी आयुका बन्ध करनेवाले तिर्यचके अणुव्रत और मनुष्यके अणुव्रत अथवा महाव्रत नहीं हो सकते; क्योंकि उनके उन-उन व्रतरूप परिणामोंके कारण विशुद्ध कषाय स्थानोंकी उत्पत्ति असम्भव है।
__ विशेषार्थ-यदि पहले चारों आयुमें-से किसी भी आयुका बन्ध हो चुका हो और पीछे सम्यक्त्वको धारण करे तो उसमें कोई दोष नहीं है। ऐसा हो सकता है। किन्तु यदि २५ पहले नरकायु या तिथंचायु या मनुष्यायुका बन्ध हुआ हो तो पीछे अणुव्रत या महाव्रत धारण
नहीं कर सकता। एक देवायुका बन्ध पहले हुआ हो तो अणुव्रत महाव्रत धारण करना सम्भव है। इसका कारण यह है कि अन्य आयुका बन्ध कर लेनेवाले जीवोंके ऐसे विशुद्ध परिणाम नहीं होते जो व्रत परिणामके कारण होते हैं। यह कथन परभवकी आयुका बन्ध
कर लेनेवालोंकी दृष्टिसे है। परभवकी आयुका बन्ध जिसने नहीं किया है वह तो उसी ३० भवसे मोक्ष भी जा सकता है ।।३३४॥
जिस वर्तमान आयुको जीव भोगता है उसे मुज्यमान कहते हैं और परभवकी जो आयु बाँधी उसे वध्यमान कहते हैं। भुज्यमान और बध्यमान दोनों प्रकारकी नरकायु,
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कर्णाटवृत्ति जावतत्वप्रदीपिका
नताधि कषायंगळनु । असंयतचतुष्कं असंयतसम्यग्दृष्टियादियागि नाकुं गुणस्थानवत्तगळ । अनिवृतिकरणचरमे अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयक्क द्वादशरुषायनोकषाय स्वरूपकरण विसंयोजनविधानबोळ, बोरकोळव करणलब्धियोळधःप्रवृत्तापूर्थ्यानिवृत्तिकरणपरिणामंगळोळा व्युच्छित्यनिवृत्तिकरण चरमसमयवोलु :--
जुगवं संजोगित्ता पुणोवि अणियट्टिकरणवहुभागं । बोलिय कमसो मिच्छं मिस्सं सम्मं खवेइ कमे ||३३६ ॥
५५५
युगपद्विसंयोज्य पुनरप्यनिवृत्तिकरणबहुभागं । नीत्वा क्रमशो मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वं क्षपयति क्रमे ॥
०
अनंतानुबंधिकषायचतुष्कमनक्रमविंदं युगपदोम्मों दलोळे' मनिवृत्तिकरणपरिणाम कालांतमुहूर्तच रमसमयदोळं परप्रकृतिरूपविदं विसंयोजिसि अंतर्मुहूर्तकालं विश्रमिति । पुनरपि मत्तमनंतानुबंधिविसंयोजनविधानदोळे तंत' दर्शनमोहक्षपणोद्योगदो, दोरेको करणलब्धियोळधःप्रवृत्तापूर्व्वानिवृत्तिकरणंगळोळा व्युत्पत्यनिवृत्तिकरण कालांतर्मुहूर्त्त संख्यात बहुभागमं
२१ ४ कळिदेकभागावशेषमादागळा प्रथमसमयं मोकळ्गोंडु मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वप्रकृति में ब दर्शन मोहत्रयमं यथाक्रर्माद क्षपियिसुगुमंतु क्षपियिसि असंयतावियावा नाल्कुं गुणस्थानवत्तगळ
४
नैव स्युः। तु–पुनः, असंयतादिचतुर्गुणस्थानवर्तिनोऽनिवृत्तिकरणपरिणाम कालांतर्मुहूर्त चरमसमयेऽनंतानुबंधि- १५ कषाय चतुष्कं - ।। ३३५ ।।
युगपदेव विसंयोज्य द्वादशकषायनोकषायरूपेण परिणमय्य अंतर्मुहूर्तकालं विश्रम्य पुनरप्यनंतानुबंधि विसंयोजनवद्दर्शनमोहक्षपणोद्योगेपि स्वीकृतकरणलब्धावत्रः प्रवृत्तापूर्वाऽनिवृत्तिकरणेषु तदुत्पत्यनिवृत्तिकरण
१०
कालांतर्मुहूर्तसंख्यातबहुभागं २१४ अतीत्यैकभागे प्रथमसमयात्प्रभृतिमिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतीः क्रमेण क्षप
४
ܐ
२०
तियं वायु और देवायुका सत्व होनेपर क्रमसे देशत्रत, महाव्रत और क्षपकश्रेणी नहीं होती । अर्थात् मुज्यमान या बध्यमान रूपसे नरकायुका सत्त्र होनेपर अणुव्रत नहीं हो सकते । मुज्यमान और बध्यमान रूपसे तिर्यंचायुका सत्त्व होनेपर महाव्रत नहीं हो सकते। और भुज्यमान या बध्यमान रूपसे देवायुका सत्व होनेपर क्षपकश्रेणी नहीं होती ।
२५
असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहनीय तीन इन सातों की सत्ताका नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टी होता है । सो कैसे नाश करता है यह कहते हैं- - प्रथम तीन करण करता है। उनमें से अनिवृत्तिकरणके अन्तर्मुहूर्त कालके अन्त में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक साथ विसंयोजन करता है उन्हें बारह कषाय और नोकषायरूप परिणमाता है । विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करता है । फिर दर्शनमोहको नष्ट करनेके लिए पुनः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति - करण करता है । अनिवृत्तिकरण के काल अन्तर्मुहूर्त में संख्यातसे भाग दें । संख्यात बहुभाग प्रमाण काल बीत जानेपर जब एक भाग काल शेष रहे तब उसके प्रथम समयसे लगाकर
1
३०
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गो० कर्मकाण्डे क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्परंतागुत्तं विरलु । तोहारकंगळगक्रमदोळु सत्वरहितमागि एकजीवापेक्षयिद क्रमविवं सत्वमक्कुमदेते वोडाहारकद्वयमनुद्वेल्लनं माडिव मिथ्यादृष्टि बद्धनरकायुष्यनसंयत. नागि तीर्थमं कट्टि द्वितीयतृतीयपृथ्वीगळ्गे पोपागळु सम्यक्त्वमं विराधिसुगुमप्पुरिवं ॥ नाना. जीवापेक्षेयिनक्रमदि मिथ्यादृष्टियोळ नूर नाल्वतंटुं प्रकृतिगळिगे सत्वमकुं । १४८ । सासावननोळा प्रकृतित्रयक्के क्रमाक्रमवोळं सत्वमिल्लप्पुरिदं नूरनाल्वत्तय्तु प्रकृतिगळगेये सत्वमक्कु १४५ ॥ मिश्रनोळ तीर्थसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तेलु प्रकृतिगळ्गे सत्वमक्कुं १४७ । असंयतसम्यग्दृष्टियोळु सप्तप्रकृतिगळ सत्वमनुळ्ळवगर्ग नूरनाल्वत्तेतु प्रकृतिसत्वमक्कुं १४८ । देशसंयतनोळुमंत नरकायुज्जित नूरनाल्वत्तेनु प्रकृतिसत्वमक्कु १४७ ॥ प्रमत्तसंयतनोळमंते नरकतिर्य
गायुयरहितमागि नूरनाल्वतार प्रकृतिसत्वमक्कुं १४६ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळमंते नूरनाल्यत्तार १० प्रकृतिसत्वमकुं १४६ । मत्तमसंयतादिचतुर्गुणस्थानत्तिगळु तद्भवकर्मक्षयभागिगळु क्षपकश्रेण्या
यति । ततः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भवति । तथा सति मिथ्यादष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुद्वल्य नरकायुबंध्वा:संयतो भूत्वा तीर्थ बद्ध्वा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्यादृष्टिर्भवतीत्येकजीवे क्रमेण नानाजीवे युगपत्ती
हाराः स्युः इति तत्र सत्त्वमष्टचत्वारिंशदुत्तरशतं १४८ । सासादने क्रमाक्रमाम्यां तदसत्त्वात् पंचचत्वारिंश
दुत्तरशतं १४५ । मिश्रे तीर्थकृदसत्त्वात्सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतं । असंयते सप्तप्रकृतिसत्त्वजीवानामष्टचत्वारिंश१५ दुत्तरशतं । १४८ । देशसंयते तेषामेव नरकायुरसत्त्वात्सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतं १४७ । प्रमत्तसंयते तेषामेव
नरकतिर्यगायुरसत्त्वात् षट्चत्वारिंशदुत्तरशतं १४६ । अप्रमत्तेऽपि तथैव षट्चत्वारिंशदुत्तरशतं १४६ । पहले मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय करता है, उसके पश्चात् मिश्रका और उसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करता है । तब क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि आदि
गुणस्थानों में सत्ता कहते हैं२० मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक ही जीवके आहारकद्विक और तीर्थकरका सत्त्व क्रमसे
कैसे पाया जाता है यह कहते हैं। किसी जीवने ऊपरके गुणस्थानों में आहारकका बन्ध किया। पीछे मिथ्यात्व गुणस्थानमें आकर आहारकद्विकका उद्वेलन कर दिया। पीछे नरकायुका बन्ध करके असंयत गुणस्थानमें जाकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया। पश्चात् दूसरे या
तीसरे नरकमें जानेके समय मिध्यादृष्टि हो गया। इस प्रकार एक ही जीवके मिथ्यात्व २५ गुणस्थानमें क्रमसे पहले आहारकद्विकका और उसकी उद्वेलना-बन्धका अभाव करने के
पश्चात् तीर्थंकरका सत्व होता है। किन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षा एक साथ दोनोंका सत्त्व पाया जाता है। किसी जीवके आहारकद्विकका सत्त्व पाया जाता है और किसीके तीर्थकरका सत्त्व पाया जाता है। इस तरह मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थकर और आहारकद्विकका सत्त्व
भी पाया जानेसे सत्त्व एक सौ अड़तालीस है। ___३० सासादनमें आहारकद्विक और तीर्थकरका सत्त्व किसी भी प्रकारसे नहीं है।
अतः सत्त्व एक सौ पैंतालीस है। मिश्रमें तीर्थंकरका सत्त्व न होनेसे सत्त्व एक सौ सैतालीस है। असंयतादिमें जिन उपशम और क्षयोपशम सम्यग्दृष्टी जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्क और तीन दर्शनमोहकी सत्ता पायी जाती है उनकी अपेक्षा असंयतमें एक सौ
अड़तालीसका सत्त्व है । देशसंयतमें नरकायुके बिना एक सौ सैतालीस, प्रमत्तमें नरकायु ३५ तियंचायुके बिना एक सौ छियालीस तथा अप्रमत्तमें भी एक सौ छियालीसका सत्त्व है।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
५५७
रोहणं मापवग पूर्व्वकरणगुणस्थानवोळ, नूर मूवते टु प्रकृतिसत्यमक्कु - १३८ । मेके दोडे अबद्धायुष्यरप्प भुज्यमानमनुष्यायुष्यरु असंयतादि चतुग्र्गुणस्थानं गळोळेल्लिया वोडं सप्तप्रकृतिगळ' डिसि क्षपकश्रेण्या रोहणमं माळपरप्पुर्वारवमपूव्वं करणगुणस्थानदोळ सप्तप्रकृतिगळ नरकतिध्येदेवायुष्यत्रयमुमंतु दशप्रकृतिगळगसत्वमक्कुं १० ॥
मच्छे सासण मिस्से सुष्णं एक्केक्कगं तु बिट्ठाणे | विरदापमत्त पुढचे सुगडसुरणं च बोच्छिष्णा ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानं मोवल्गोड मेलण गुणस्थानंगळोळु क्षपियिसुव प्रकृतिगळ क्रममं
पेदपरु :
सोलट्ठेक्किगिछक्कं चदुक्कं बादरे अदो एक्कं । खीणे सोलमजोगे बाबत्तरि तेरुवंतंते ॥ ३३७॥
१०
षोडशाकषट्कं चतुष्कं बादरेऽतः एकं । क्षीणे षोडशायोगे द्वासप्ततिस्त्रयोदशोपांतेंते ॥ बादरे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवोलु क्रर्मादिदं षोडश अष्ट एक एक षट्कं चतुष्कं नाक डे - योलो दो दक्के सत्वव्युच्छित्तियक्कुं । १ । १ । १ । १ । अतः अल्लिदं मेले सुहमे सूक्ष्मसांपरायनोळ एकं ओ दु सत्वव्युच्छित्तियक्कुं १ । क्षीणे षोडश क्षीणकषायनोळु पदिनारुं प्रकृतिगळु सत्वव्युच्छि - तिय १६ ॥ सयोगकेवलियो सत्वव्युच्छित्तिशून्यमक्कुमयोगकेवलियोळ उपांते द्विचरमसमय- १५ बोळ द्वासप्रतिप्रकृतिगळु सत्वव्युच्छित्तिंगळप्पुवु ७२ । अंते चरमसमयवोळ त्रयोदश पविमूखं प्रकृतिगळ सत्वव्युच्छित्तियप्पु १३ ।
५
क्षपकश्रेण्यारूढानामपूर्वकरणेऽष्टत्रिंशदुत्तरशतं । १३८ । सप्तप्रकृतीनामसंयतादिचतुर्गुणस्थानेष्वेकत्र क्षपितानरकतिर्यग्देवायुषां चाबद्धायुकत्वेनासत्त्वात् ॥ ३३६ ॥ अनिवृत्तिकरणादिषु क्षययोग्यानां क्रममाह
अनिवृत्तिकरणगुणस्थाने क्रमेण षोडशाष्टावेकमेकं षट्कं चतुष्ककं सत्त्वव्युच्छित्तिः । अत उपरि सूक्ष्म- २० सांपरायेप्येकं । क्षीणे षोडश । सयोगे शून्यं । अयोगे द्विचरमसमये द्वासप्ततिः, चरमसमये त्रयोदश ॥ ३३७ ॥
किन्तु इन गुणस्थानोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टीके सात-सात प्रकृति कम होती है। अपूर्वकरणादिमैं दो श्रेणी है - एक क्षपकश्रेणि और एक उपशमश्रेणि । प्रथम क्षपक श्रेणिकी अपेक्षा कहते हैंजिसके परभवकी आयुका बन्ध नहीं होता वही जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहण करता है। अतः उसके नरक, तिर्यंच, देव तीन आयुका सत्व नहीं होता । तथा असंयतादि गुणस्थान में २५ सात प्रकृतियोंका क्षय करके वह क्षायिक सम्यग्दृष्टी होता है । इस तरह दस प्रकृतियों का सत्त्व न होनेसे अपूर्वकरणमें एक सौ अड़तीस सत्त्व होता है ।। ३३५ - ३३६॥
आगे अनिवृत्तिकरण आदि में क्षययोग्य प्रकृतियोंको कहते हैं
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें क्रमसे सोलह, आठ, एक, एक, छह, और चार स्थानों में एक-एक प्रकृत्तिकी सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। उससे ऊपर सूक्ष्म साम्पराय में एक, क्षीण ३० कषाय में सोलह, सयोगीमें शून्य, अयोगी में द्विचरम समय में बहत्तर और अन्त समय में तेरह की सत्त्व व्युच्छित्ति होती है ||३३७॥
१. म प्रतौ नास्तीयं गाथा । २, म ।
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५५८
२०
गो० कर्मकाण्ड
आ षोडशादिप्रकृतिगळवाउवे दोर्ड पेलवपरु :--
नरकतिर्य्यद्विक विकलं स्त्यानगृद्धित्रिकोद्योताल पैकेंद्रियाणि । साधारण सूक्ष्मस्यावर५ षोडशमध्यमकषायाष्टौ ॥ नरकद्विक २ । तिग्कि २ | विकलेंद्रियत्रितनुं ३ | स्त्यानगृद्धित्रयमुं ३ | उद्योतनाममुं १ | आतपसुं १ | एकेंद्रियजातिनाममुं १ साधारणशरीरनागमुं १ । क्ष्ननाममुं १ स्थावरनामम् १ मितु षोडशप्रकृतिगळधुवु । मध्यनकषायाष्टौ अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानमध्यमकषायाष्टकमक्कु ॥ ८ ॥
२५
रियनिरिक्खद् वियलं थीणतिगुज्जोब-ताब- एहंदी | साहरणसुहुमथावर सोलं मज्झिमकसायट्ठे || ३३८॥
ढस्त्रीषटुकषायाः पुरुषः क्रोधश्च मानं माया च । स्थूले सूक्ष्मे लोभः उदयवद्भवति क्षीणे ॥ क्रमदिदं षंढवेदमुं स्त्रीवेदमु नोकषायषट्कम् पुंवेद संज्वलनक्रोधमु संज्वलनमानमु संज्वलनमायेयुमिवु स्थूले अनिवृत्तिकरणनो व्युच्छित्तिप्रकृतिक्रम । सूक्ष्मे सूक्ष्मसांप रायनोळु लोभः सूक्ष्म संज्वलनलोभमो दे सत्वव्युच्छित्तियक्कुं । क्षीणे क्षीणकषायनोळु उदयवद्भवति १५ उदयदोळ, पेळद षोडशप्रकृतिगळु सत्वव्युच्छित्तिप्रकृतिगळप्पुवु । सयोग के वलियोळ सत्वव्युच्छित्ति • शून्यमप्पुर्दारदमयोगिकेवलिगुणस्थाननदुपांतांतदोळ सत्वव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं गाथाद्वयदवं पेदपरु ।
संढित्थिछक्कसाया पुरिसो कोहो य माण मायं च । थूले सुहुमे लोहो उदयं वा होदि खीणम्मि ||३३९॥
ताः षोडशादिप्रकृतयः का ? इति चेदाह -
नरकद्विकं तिर्यद्विकं विकलत्रयं स्त्यानगृद्धित्रयमुद्योतः आतपः एकेंद्रियं साधारणं सूक्ष्मं स्थावरं चेति षोडश । अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान कषाया अष्टौ ८ ।। ३३८ ॥
क्रमेण षंढवेदः स्त्रीवेदो नोकषायषट्कं पुंवेदः संज्वलनक्रोधः संज्वलनमान: संज्वलनमाया एताः स्थूले अनिवृत्तिकरणे व्युच्छिन्ना भवंति । सूक्ष्मसां पराये सूक्ष्मसंज्वलन लोभः, क्षीणकषाये उदयवत्षोडश, सयोगे
विशेषार्थ - जहाँ जिन प्रकृतियोंकी सत्व व्युच्छित्ति होती है उससे ऊपर उन प्रकृतियोंकी सत्ताका अभाव होता है ।
आगे उन सोलह आदि प्रकृतियोंको कहते हैं
कति नरकापूर्वी, तियंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, विकलत्रय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर इन सोलहकी व्युच्छित्ति अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में होती है । अप्रत्याख्यान कषाय चार और प्रत्याख्यान कषाय चार इन आठ मध्यम कषायों की दूसरे भागमें व्युच्छिति होती है ||३३८ ||
नपुंसक वेद की तीसरे भाग में, स्त्रीवेदकी चौथे भाग में, छह नोकषायों की पाँचवें भाग३० में, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमायाको उठे, सातवें, आठवें और नवभाग में क्रम से व्युच्छित्ति होती है । इस प्रकार छसीसकी व्युच्छित्ति स्थूल अर्थात् अनिवृत्तिकरण में होती है। सूक्ष्म साम्पराय में सूक्ष्मलोभकी व्युच्छित्ति है। क्षीणकषाय में
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका देहादीफस्संता थिरसुहसरसुरविहायदुगदुभगं । णिमिणं जसणादेज्ज पत्तेयापुण्ण अगुरुचऊ ॥३४०॥ अणुदयतदियं णोचमजोगिदुचरिमम्मि सत्तवोच्छिण्णा ।
उदयगवार गराणू तेरस चरिमम्मि वोच्छिण्णा ॥३४१॥ देहाविस्पर्शाताः स्थिरशुभस्वरसुरविहायोगतिद्विक दुर्भगं निर्माणायशस्कोर्त्यनादेयं ५ प्रत्येकापूर्ण अशुरुचतस्त्रः॥
अनुदयतृतीयं नीचप्रयोगिद्विचरमे सत्त्वव्युच्छितघः। उदयगतद्वादशनरानुपूव्यं त्रयोदश चरमे व्युच्छिन्नाः ॥
देहादिस्पर्शाताः शरीरपंचक, ५ बंधनयंबकमुं ५ संघातपंचकमुं ५ संस्थानषटकमुं६। अंगोपांगत्रितयमुं ३। संहननषद्कम ६। वर्ण,पंचक५। गंधद्विकमु२। रसपंचकमु५। १० स्पर्शाष्टकमु ८। स्थिरद्विक, २। शुभद्विकमु२। स्वरद्वकमु२। सुरद्विकमु२। विहायोगतिद्विक २। दुर्भगनाम, १ । निर्माणनाममु१ अयशस्कोत्तियुं अनादेयमु१ प्रत्येकशरीरम १ अपर्याप्तनाम, १ अगुरुलघूपघातपरवातोच्छ्वासचतुष्क, ४ । अनुदयवेदनीय, १ नोचैग्र्गोत्रमु १ मितप्पत्तर९ प्रकृतिगळयोगिद्विचरमसमयसत्वव्युच्छित्तिगळप्पुवु। चरमसमयवसत्वव्युच्छित्तिप्रकृतिगळु ताणस्थानदोयिसुत्तिई 'तृतीयकादि द्वादश प्रकृतिगछु मनुष्यानुपूर्व्यमुर्मितु १५ पदिमूरुं प्रकृतिगळप्पुवु । अंतागुत्तं विरलनिवृत्तिकरणन प्रथमभागदोळ असत्वंगळु पत्तु १०। सत्वप्रकृतिगळ नूर मूवत्तें टु १३८ । आद्वितीयस्थानदोळ पदिनारुगूडियसत्वप्रकृतिगळ
शून्यं ॥ ३३९॥
पंचशरीरपंचबंधनपंचसंघातषट्संस्थानभ्यंगोपांगषट्संहननपंचवर्णद्विगंधपंचरसाष्टस्पर्शाः स्थिरशुभसूस्वरसुरविहायोगतिद्विकानि दुर्भगं निर्माणमयशस्कोतिरनादेयं प्रत्येकमपर्याप्तमगुरुलधूपघातपरघातोच्छ्वासा २० अनुदयवेदनोयं नीचर्गोत्रं चेति द्वासप्ततिरयोगिद्विचरमसमये सत्त्वव्युच्छित्तिः। घरमसमये उदयगततृतीयफादिद्वादश; मनुष्यानुपूज्यं चेति वयोदश । एवं सत्यनिवृत्तिकरणप्रथमभागे असत्त्वं दश सत्वमष्टात्रिंशदुत्तरशतं,
उदय व्युक्छित्तिकी तरह पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा और प्रचला इन सोलहकी सत्त्व व्युच्छित्ति है । सयोगीमें सत्त्व व्युच्छित्ति नहीं है ॥३३९।।
पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, २५ पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, देगति, देवानुपूर्वी, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, निर्माण, अयशस्कीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपवात, परघात, उच्छ्वास, जिसका उदय न हो वह एक वेदनीय और नीच गोत्र इन बहत्तरकी अयोगके वलीके द्विचरम समयमें सत्त्व व्युच्छित्ति होती है । अन्तिम समयमें जिनका उदय अयोगीमें होता है वह कोई एक वेदनीय, मनुष्य- १० १. तदियेक मणु गदि बिदिय सुभग तसतिग देज्ज ।
जसतित्थं मणुमा उच्च न्न अजोगिचरिमाम्ह ॥
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५६०
गो० कर्मकाण्डे यिप्पत्तारु २६ । सत्वंगळु नूरिप्पत्तरडु १२२ । तृतीयस्थानदोळे दुगूडियसत्वंगळु मूवत्तनाल्कु ३४। सत्वप्रकृतिगळ नरहदिनाल्कु ११४ । चतुयस्थानदोळ ओदु गुडियसत्वंगळ मूवत्तय्यु ३५ । सत्वंगळ नरहदिमूरु ११३। पंचमस्थानदोळोंदु गुडियसत्वंगळ मूवत्तारु ३६ । सत्वप्रकृतिगळ
११२ ॥ षष्ठस्थानवोळारुगूडियसत्वंगल नाल्वत्तरछु ४२। सत्वंगळ नूरारु १०६ सप्तमस्थानरो५ कोदु गुडियसत्वंगळु नाल्वत्तमूरु ४३ । सस्वंगळ नूरवु १०५ ॥ अष्टमस्थानवोळो वुगूडियसत्वंगळु
नाल्वत्तनाल्कु ४४ । सत्वंगळु नूर नाल्कु १०४ ॥ नवमस्थानशेठो वुगूडियसत्वंगळु नाल्वत्तरदु ४५ । सत्दंगळु नूर मूरु १०३ सूक्ष्मसागरायगुणस्थानदोनोंदु गूडियसत्वंगळ नाल्वत्तारु ४६ । सत्वंगळ नूर येरडु १०२॥ क्षीणकषायगुणस्थानवोळ सूक्ष्मलोभगूडियसत्वंगळु नाल्वत्तेळु ४७ । सत्वंगळु
नूरोंदु १०१ ॥ सयोगकेवलिगुणस्थानको पदिनारुगूडियसत्वंगळु अरुवत्तमूरु ६३। सत्वंगळेभ१० तय्दु ८५ । अयोगिकेवलिगुणस्थानद्विचरमसमयपथ्यंतमसत्यप्रकृतिगळु मरवत्तमूरु ६३ । सत्व
प्रकृतिगळे भत्तय्दु ८५॥ चरमसमयदोळे पत्तेरगडि नूर मूवत्तव सत्वंगलु १३५ ॥ सत्वंगळ पविमूरु १३ ॥संदृष्टि :
तद्वितीयस्थाने षोडश संयोज्यासत्त्वं षड्विंशतिः सत्त्वं द्वाविंशत्युत्तरशतं । तृतीयस्थानेऽष्टो संयोज्यासत्त्वं
चतुस्त्रिशत्, सत्त्वं चतुर्दशोत्तरशतं । चतुर्थस्थाने एकां संयोज्यासत्त्वं पंचत्रिंशत्, सत्त्वं त्रयोदशोत्तरशतं । १५ पंचमस्थाने एका संयोज्यासत्त्वं षट्त्रिंशत्, सत्त्वं द्वादशोत्तरशतं । षष्ठस्याने षट्संयोज्यासत्त्वं दाचत्वारिंशत्,
सत्त्वं षडुत्तरशतं । सप्तमस्थाने एकां संयोज्यासत्त्वं त्रिचत्वारिंशत्, सत्त्वं पंचोत्तरशतं । अष्टमस्थाने एकां संयोज्यासत्त्वं चतुश्चत्वारिशत्, सत्त्वं चतुरुत्तरशतं । नवमस्थाने एकां संयोज्यासत्त्वं पंचचत्वारिंशत्, सत्त्वं व्युत्तरशतं । सूक्ष्मसांपराये एका संयोज्यासत्त्वं षट्चत्वारिंशत् सत्त्वं द्वयुत्तरशतं । क्षोणकषये सूक्ष्मलोभं
सयोज्यासत्त्वं सप्तचत्वारिंशत् । सत्त्वमेकोत्तरशतं। सयोगे षोडश संयोज्यासत्त्वं त्रिषष्टिः सत्त्वं पंचाशीतिः । २० अयोगे द्विचरमसमयपर्यंतमसत्त्वं त्रिषष्टिः सत्त्वं पंचाशीतिः, चरमसमये द्वासप्तति संयोज्यासत्त्वं पंचत्रिशदुत्तर
शतं, सत्त्वं त्रयोदश । ॥ ३४०-३४१ ॥
गति पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशस्कीति, तीर्थकर, मनुष्यायु, उच्चगोत्र और मनुष्यानुपूर्वी इन तेरहको सत्त्व व्युच्छित्ति होती है । ऐसा होनेपर
___ अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें असत्त्व दस । सत्त्व एक सौ अड़तीस । उसके दूसरे २५ भागमें सोलह मिलाकर असत्त्व छब्बीस, सत्त्व एक सौ बाईस । उसके तीसरे भागमें आठ
मिलाकर असत्त्व चौंतीस, सत्त्व एक सौ चौदह । उसके चौथे भागमें एक मिलाकर असत्त्व पैंतीस, सत्त्व एक सौ तेरह । उसके पाँचवें भागमें एक मिलाकर असत्त्व छत्तीस, सत्त्व एक सौ बारह । उसके छठे भागमें छह मिलाकर असत्त्व बयालीस, सत्त्व एक सौ छह । उसके
सातवें भागमें एक मिलाकर असत्त्व तैतालीस, सत्त्व एक सौ पाँच । उसके आठवें भागमें ३० एक मिलाकर असत्त्व चवालीस, सत्त्व एक सौ चार । उसके नौंवें भागमें एक मिलाकर
असत्त्व पैंतालीस, सत्त्व एक सौ तीन । सूक्ष्म साम्परायमें एक मिलाकर असत्त्व छियालीस, सत्त्व एक सौ दो। क्षीणकषायमें एक सूक्ष्म लोभ मिलाकर असत्त्व सैतालीस, सत्त्व एक सौ एक। सयोगीमें सोलह मिलाकर असत्त्व त्रेसठ, सत्त्व पिचासी । अयोगीके द्विचरम समय
|
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मिसा | मि। अवे प्रअ अ अ. • • •
व्यु ० ० ०।१।१ । ०। ८ । ० | १६ ८ । १ । १ । ६ । १ । १ । १ उ१४८/१४५/१४७१४८/१४७/१४६/१४६/१३८१३८/१२२/११४/११३/११२/१०६/१०५।१०।।
| ० ३ | १ |.० १ २ २|१०|१०|२६|३४| ३५/३६ ४२) ४३, ४४/
० सू । क्षीस
१०३ १०२ १०१ ८५ ८५, १३ | ४५ ४६ ४७ ६३ ६३ १३५
अनंतरमुक्तसत्वासत्वंगळं पेळदपरु :
णमतिगिणभइगि दोदोदसदससोलहगादिहीणेसु ।
सत्ता हवंति एवं असहायपरक्कमुद्दिदं ॥३४२॥ नभस्त्र्येकनभ एक विद्वि दश वश षोडशाष्टकादिहोनेषु। सत्वानि भवत्येवमसह यपराक्रलोद्दिष्टं ॥ ... नमः मिथ्यादृष्टियोळु असत्वं शून्यमक्कुं। त्रि सासादननोळसत्वं मूरक्कुं ३ । एक मिश्रनोळो वक्कुं १। नभः असंयतनोळसत्वं शून्यमकुं१। एकदेशसंयतनाळु असत्वमा देयकु१। द्वि प्रमत्तसंयतनोळसत्वमेरडक्कु २। द्वि अप्रमतसंयतनोळसत्यमेरडक्कु२। वश अथर्वकरणनोळसत्वं पत्तु १०। दश अनिवृत्तिकरणन प्रयमभागदोळसत्वं पत्तु १०। षोडशाष्टकाविहीनेषु अनिवृत्तिकरणद्वितीय तृतीयादिभागादिगळोळ षोडशाष्टकादिगळोळु होनंगळागुत्तं विरलु सत्वानि १० भवंति सत्वंगळु पूर्वोक्तक्रमदिवमप्पु वितसनायपराक्रमनप्प श्रीवीरवद्धमानस्वामिदिवं पेळल्पटुअयोक्तसत्त्वासत्त्वे प्राह
मिथ्यादृष्टावसत्त्वं शून्यं । सासादने त्रिकं । मिश्रे एकं । असंयते शून्यं । देशसंयते एकं । प्रमत्ते द्वयं । अप्रमत्ते द्वयं अपूर्वकरणे दश । अनिवृत्तिकरणप्रथमभागे दश । द्वितीयतृतीयादिभागेषु षोडशाष्टका दिही देषु पूर्वोक्तक्रमेण सत्त्वानि स्युरित्यसहायपराक्रमेण वर्धमानस्वामिना प्ररूपितं । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानोक्तषोडशा- १५ पर्यन्त असत्त्व सठ, सत्त्व पिचासी। अन्तिम समयमें बहत्तर मिलाकर असत्त्व एक सौ पैतीस, सत्त्व तेरह ॥३४०-३४१॥ आगे उक्त सत्त्व-असत्त्वको कहते हैं
___ असत्व मिथ्यादृष्टि में शन्य, सासादनमें तीन, मिश्रमें एक, असंयतमें शून्य, देशसंयतमें एक, प्रमत्तमें दो, अप्रमत्तमें दो, अपूर्वकरणमें दस, अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें दस, दप्तरे तीसरे आदि भागोंमें सोलह. आठ आदि मिलानेपर असत्त्व होता है। सो २० सत्त्व प्रकृतियोंमें-से असत्त्व प्रकृतियोंको घटानेपर उस-उस गुणस्थानमें सत्त्व प्रकृति पूर्वोक्त
क-७१
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५६२
गो० कर्मकाण्डे वनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोलु पेळल्पट्ट षोडशाष्टकाविसत्वव्युच्छित्तिगळ क्षपणाविधानरचना। संदृष्टि :
१६८ ११
११
पिल्लि बावरसंज्वलनलोभमनिवृत्तिकरणानवं क्षपियिसल्पटुदेंते दोडे सूक्ष्मकृष्टिकरणमनिवृत्तिकरणनोळक्कुमदरुवयं सूक्ष्मसांपरायनोळक्कुम बी विशेषमरियल्पडगुं। ई क्षपणाविधान५ दोळक्यवंतमप्प पुवेदादिगळ्गोंदु निषेकमा समयकालस्थितियक्कुमरडु निषेकंगळेरडे समय
कालस्थितिगप्पुवित्यादि । मत्तमनुदयंगळप्प नपुंसकवेदाविकर्मप्रकृतिगळ क्षपितावशेषोच्छिष्टावलिमात्रनिषेकंगळ्गे परमुखोवयत्वविच समयाधिकावलिमात्रसमयस्थितियक्कुमे ते दोडों निषेक
ष्टकादिसत्त्वव्युच्छित्तीनां क्षपणाविधानरचनासंदृष्टिः ।
१०१
अत्रानिवृत्ति करणे बादरलोभं क्षपयति सूक्ष्मकृष्टीः करोति । ताः कृष्टयः सूक्ष्मसापराये उदयंतीति १० ज्ञातव्यं । अस्मिन् क्षपणाविधाने उदयागतवेदादीनामेकनिषेकः एकसमयस्थितिकः । द्वौ निषेको द्विसमय
स्थितिकावैवं क्रमः । अनुदयगतनपुंसकवेदादीनां च क्षपितावशेषोच्छिष्टस्य समयाधिकावलिः स्थितिः स्यात्,
क्रमानुसार जानना । ऐसा असहाय पराक्रमके धारी श्री वर्धमान स्वामीने कहा है। यहाँ अनिवृत्तिकरणमें बादर लोभका क्षपण करता है। उस लोभकी सूक्ष्मकृष्टि करता है । वे सूक्ष्मकृष्टियाँ सूक्ष्मसाम्परायमें उदयमें आती हैं ऐसा जानना। इस भपणाविधानमें उदयमें आये पुरुषवेद आदिका एक निषेक तो एक समयकी स्थितिवाला होता है। दो निषेक दो समयकी स्थितिवाले होते हैं। ऐसा क्रम जानना। जिनका उदय नहीं है उन नपुंसकवेद आदिकी क्षयके बाद अवशेष उच्छिष्ट रही सर्वस्थिति एक समय अधिक आवली प्रमाण है क्योंकि वहाँ एक निषेक दो समयकी स्थितिवाला है। दो निषेक तीन समयकी स्थितिवाले हैं इत्यादि क्रम पाया जाता है अतः उच्छिष्टावलीसे एक समय अधिक स्थिति जानना। उदयको अप्राप्त
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिका
मेर समयकाल स्थितियक्कुमेरडु निषेकंगळ मूरु समयकाल स्थिति गलप्पुवित्याविक्रममुंटप्रवमनुदयंगळगे परमुखोदयत्वविदं समसमयोवयनिषे कंगळों दोदु निषेकंगळु स्थितोत्क संक्रमविद संक्रमिसि पोपुर्व बिंतु स्वमुखोदय पर मुखोदयविशेषमरियल्पडुगुं । संदृष्टि :
से
४
१४
अनंतरमेकविंशति चारित्र मोहनीयोपशमविधानक्रममं पेव्वपरु :
खवणं वा उबसमणे णवरि य संजलण पुरिसमज्झम्मि | मझिम दो दो कोहादीया कमसोवसंता हु ||३४३ ॥
क्षपणे वोपशमने नवीनं संज्वलनपुरुषमव्ये, मध्यम द्वौ द्वौ क्रोधावि कषायौ क्रमश उपशांती खलु ॥
एकनिषेको द्विसमयस्थितिकः द्वौ निषेकी त्रिसमयस्थितिकाविति क्रमस्य सद्भावात् । अनुदयगतानां परमुखोदयत्वेन समयसमयोदया एकैकनिषेकाः स्थितोक्तसंक्रमेण संक्रम्य गच्छंतीति स्वमुख पर मुखोदय विशेषोऽवं मंतव्यः । १० संदृष्टिः
१. बवगंतव्यः ।
૪
४
५६३
॥ ३४२ ॥ अथैकविंशतिचारित्र मोहनीयोपशमविधानक्रममाह
नपुंसक वेद आदिका परमुख उदयके द्वारा समान समय में उदयरूप एक-एक निषेक कहे क्रमानुसार संक्रमण रूप होता है। इस प्रकार स्वमुख और परमुख उदयमें विशेष जानना । जो प्रकृति अपने रूपमें ही उदयमें आती है उसमें स्वमुख उदय है । जो प्रकृति अन्यरूप हो १५ उदय में आवे वहाँ परमुख उदय है ||३४२ ||
आगे चारित्र मोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंके उपशम करनेका विधान कहते हैं
४
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गो० कर्मकाण्डे क्षपणाविधानदोळु पेदंते उपशमनविधानदोळं सत्वमक्कु। विशेषमुंटवावुदेवोर्ड संज्वलनकषायपुंवेदोपशमनमध्यदोळ मध्यमंगळप्प अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधाविकषाययद्वयंगळुपशमिसल्पडुवुवु क्रमदिदमदेवोडे पुरुषवेदोपशमनानंतरं पुंवेदनवकबंध सहितमागि
मध्यमक्रोधकषायद्वयमुपशमिसल्पडुगुं। तदनंतरं संज्वलनक्रोधमुपशमिसल्पगुमनंतरमा संज्वलन५ क्रोधनवकबंधसहितमागि मध्यममानकषायतिकमुपशमिसल्पड़गुं। तदनंतरमा संज्वलनमानमुपशमिसल्पडुगु। मनंतरमा मानसंज्वलन नवकबंधसहितमागि मध्यममायाकषायद्वयमुपशमिसल्पङगुं। तदनंतरं मायासंज्वलनकषायमुपमिसल्पडुगुं। मनंतरं मायासंज्वलन नवकबंषसहितमागि मध्यमलोभकषायद्वय मुपशमिसल्पड़गुं । तदनंतरं संज्वलनबादर लोभमुपशमिसल्पङगुमें बी
विशेषमिनितपोसतु। मोहनीयकर्ममो दक्कल्लवुळिवेळं कमंगळपशमविधानमिल्लप्पुरिवं १० नपुंसकवेदादिगळगुपशमविधानमरियल्पडुगु । संदृष्टि :
क्षपणावदुपशमविधानेऽपि सत्त्वं स्यात् । किंतु संज्वलनकषायवेदमध्ये मध्यमा अप्रत्याख्यानप्रत्यास्थानाः द्वौ द्वौ क्रोधादयः क्रमेणोपशांताः खलु । तद्यथा-वेदोपशमनानंतरं तन्नवकबंधेन समं मध्यमक्रोषदयमुपशमयति । तदनंतरं संज्वलनक्रोधमुपशमयति । तदनंतरं तन्नवकबंधेन समं मध्यममानद्वयमुपशमयति । तदनंतरं संज्वलनमानमुपशमयति । तदनंतरं तन्नवकबंधेन समं मध्यममायाद्वयमुपशमयति । तदनंतरं संज्वलनमायामुपशमयति । तदनंतरं तन्नवकबंधेन समं मध्यमलोभद्वयमुपशमयति । तदनंतरं संज्वलनबादरलोभमुपशमयति इति विशेषो मोहनीयस्यैव शेषकर्मणामुपशमनविधानाभावात् । नपुंसकवेदादीनामुपशमविषाने संदृष्टिः
क्षपणाकी तरह ही उपशम विधानका भी क्रम है। किन्तु विशेष इतना है कि संज्वलन कषाय और पुरुषवेदके मध्य में मध्यके अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान दो-दो क्रोधादिका २० क्रमसे उपशम होता है । वही कहते हैं
नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह और पुरुषवेदका क्रमसे उपशम होता है। पीछे पुरुषवेदका उपशम करनेके अनन्तर जो नवीन बन्ध हुआ उस सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोधके युगलका उपशम करता है।
___ तत्काल पुरुषवेदका जो नवीन बन्ध हुआ उसके निषेक पुरुषवेदका उपशमन करनेके २५ कालमें उपशम करने योग्य नहीं हुए थे। क्योंकि अचलावलीमें कर्मप्रकृतिको अन्यरूप परिण
माना अशक्य होता है। इससे पुरुषवेदके निषेक मध्यम क्रोधयुगलका उपशम करनेके कालमें उपशम किये जाते हैं। इसी प्रकार संज्वलन क्रोधादिके भी नवकबन्धका स्वरूप जानना। अनन्तर संज्वलन क्रोधका उपशम करता है। उसके अनन्तर उस संज्वलन क्रोधके नीन
बन्ध सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान मान युगलका उपशम करता है। उसके अनन्तर ३० संज्वलन मानका उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन मानके नवीनबन्ध सहित
मध्यम अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान मायायुगलका उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन मायाका उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन मायाके नवीनबन्ध सहित मध्यम अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान लोभको उपशमाता है। उसके अनन्तर बादर संज्वलन लोभको उपशमाता है। यह विशेष केवल मोहनीय कर्मका ही जानना, क्योंकि मोहनीयके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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षं स्त्री नो६ पुं क्रोर क्रो१ मा२ मा१ : या२ या
लो२ लो ११
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MAJI
णिरयादिसु पयडिढिदि-अणुभागपदेस-भेदभिण्णस्स ।
सत्तस्स य सामित्तं णेदव्वमदो जहाजोग्गं ॥३४४॥ नरकादिषु प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेवभिन्नस्य । सत्वस्य च स्वामित्वं नेतव्यमितो यथायोग्यं ॥
नरकगत्यादिमागंणास्थानंगळोळ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदविवं चतुविधमप्प सत्वक्के ५ स्वामित्वमिल्लिदं मेले यथायोग्यमागि नेतव्यमकुं। अनंतरं परिभाषयं पेन्दपरु:
तिरिये ण तित्थसत्तं णिरयादिसु तिय चउक्क चउ तिण्णि ।
आऊणि होति सत्ता सेसं ओघादु जाणेज्जो ॥३४५॥ तिरश्चि न तोत्यसत्वं नरकादिषु प्रयचतुष्क चतुस्त्रीणि । आयूंषि भवंति सत्वानि शेषमो- १० घात् ज्ञातव्यं ॥
षं । स्त्री । नो ६ । पुं १ | क्रो २ | क्रो १ | मा २ | मा १ | या २ | या १ । लो२ | लो१
.
इतः परं नरकगत्यादिमागंणासु प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नस्य चतुर्विधसत्त्वस्य स्वामित्वं यथायोग्यं नेतव्यं ॥३४४॥ अथ परिभाषामाह
सिवाय अन्य कर्मोंका उपशम नहीं होता। इस प्रकार उपशम श्रेणिमें मोहको उपशमाता है उसकी सत्ताका नाश नहीं होता। अतः अपूर्वकरणसे पशान्त गुणस्थान पर्यन्त उपशम १५ श्रेणिवालेके नरकायु तिथंचायु बिना एक सौ छियालीसकी सत्ता रहती है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणिवालेके एक सौ अड़तीसकी सत्ता अपूर्वकरणसे उपशान्त कषाय पर्यन्त रहती है। तथा जिसके आयुबन्ध नहीं हुआ हो उस क्षायिक सम्यग्दृष्टीके असंयत आदि चार गुणस्थानोंमें भी एक सौ अड़तीस ही की सत्ता होती है ॥३४३॥
यहाँसे आगे नरक गति आदि मार्गणाओंमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश चार २० प्रकारके भेदसे भिन्न कमोंके सत्वको यथायोग्य घटाना चाहिए ॥३४४॥
__ आगे परिभाषा कहते हैं
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गो० कर्मकाण्डे तिर्यचनोळ तीर्थसत्वमिल्ल । नरकगतियोळ देवायुष्यं पोरगागि भुज्यमान नरकायुष्यसहितमागि बद्धयमानतिर्यग्मनुष्यायुष्यद्विकं गूडि मूरायुष्यं सत्वमक्कु३। तिर्यग्गतियोळ भुज्यमानतिर्यगायुष्यं सहितमागि बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळु नाल्कु सत्वंगळपर्नु ४॥ मनुष्यगतियोळ, भुज्यमानमनुष्यायुष्यं सहितमागि बध्यमान नरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळ नाल्कु सत्वंगळक्कु । देवगतियोळ भुज्यमानदेवायुष्यं सहितमागि बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुष्यगुडि मूरायुष्यंगळ सत्वंगळक्कुं ३॥ शेषप्रकृतिसत्वं सव्वं गुणस्थानदत्तणिदं ज्ञातव्यमक्कं । अनंतरं नरकगतियोळ सत्वप्रकृतिगळ पेन्दपरु :
ओघ वा रइए ण सुराऊ तित्थमत्थि तदियोति ।
छट्टित्ति मणुस्साऊ तिरिए ओघं ण तित्थयरं ॥३४६।। _ओघवन्नैरपिके न सुरायुस्तोत्थंमस्ति तृतीया पर्यंत । षष्ठी पर्यंत मनुष्यायुस्तिरश्च्योघो न तीर्थकरं ॥
नारकनो गुणस्थानदोळु पेळ्द देवायुज्जितसव्र्वकम्मप्रकृतिगढ़ नूर नाल्वत्तेळमक्कु १४७। मल्लि तृतीयपृथ्वीपथ्यंतं तीर्थसत्वमुंदु । चतुर्थादिपृथ्विीगळोळ तीर्थरहितमागिया
नूर नाल्वत्तारुं प्रकृतिगळ्गे १४६ सत्वमक्कुं। आरनेय मघविपय्यंतं मनुष्यायुष्यं सत्वमुंटु । १५ माघवियोळु मनुष्यायुवज्जित नूरनाल्यत्तय्दु प्रकृतिगळ सत्वमक्कं १४५॥ अल्लि घावि मूरुं
तिर्यग्जीवे तीर्थकृत्त्वसत्त्वं न स्यात् । नरकगतो भुज्यमाननरकायुर्बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति त्रयमेव, न देवायुः । तिर्यग्गतौ भुज्यमानतियंगायः बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायूषोति चत्वारि । मनुष्यगतौ भुज्य. मानमनुष्यायुर्बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायूंषीति चतुष्कं । देवगतौ भुज्यमानदेवायुर्बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी इति त्रयं । शेषप्रकृतिसत्त्वं सर्व गुणस्थानवज्ज्ञातव्यं ॥३४५।। अथ नरकगती सत्त्वमाह
नारके गुणस्थानवन्न देवायुरिति सप्तचत्वारिंशच्छतं । तत्रापि तृतीयपृथ्वीपयंतं तीर्थसत्त्वमस्ति न चतुर्थ्यादिष्विति षट्चत्वारिंशच्छतं । तत्रापि षष्ठपृथ्वीपयंतं मनुष्यायुःसत्त्वमस्ति न माघज्यामिति पंचचत्वा
तिर्यच जीवमें तीर्थंकर प्रकृतिका सत्व नहीं होता। नरकगतिमें मुज्यमान नरकायु, बध्यमान तियंचायु अथवा मनुष्यायु इस प्रकार तीन आयुका ही सत्त्व होता है, देवायुका
नहीं। तियंचगतिमें मुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु, देवायु इस २५ प्रकार चारों आयुका सत्त्व होता है। मनुष्यगतिमें मुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु
तियचायु, मनुष्यायु, देवायु, इस प्रकार चारों आयुका सत्त्व है। देवगतिमें मुज्यमान देवायु बध्यमान तियंचायु या मनुष्यायु इस प्रकार तीन आयुका सत्त्व है।
विशेषार्थ-जिस आयुको जीव भोग रहा है उसे मुज्यमान कहते हैं । और आगामी भवमें उदय आनेके योग्य जिस आयुका बन्ध होता है उसे बध्यमान कहते हैं। शेष ३० प्रकृतियोंका सत्त्व गुणस्थानोंमें जैसा कहा है उसी प्रकार जानना ॥३४५।।
आगे नरकगतिमें सत्ता कहते हैं
नरकगतिमें गुणस्थानवत् जानना। वहाँ देवायुका सत्त्व नहीं है, इससे सत्त्व योग्य एक सौ सैंतालीस है। तथा तीर्थंकरका सत्त्व तीसरी पृथ्वी पर्यन्त होता है, अतः
२.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पृत्थिगोळु योग्यसत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तेळप्पु १४७ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळसत्वं शून्यं सत्वं नूर नाल्वत्तेळु १४७। सासादननोळ तोत्थंमुमाहारकटिकमुसत्वमक्कु। सत्यप्रकृतिगळ, नूर नाल्वत्तनाल्कु १४४ । मिश्रगुणस्थानदोळु तीर्थमों दे असत्वमक्कं १ । सत्वगळ नूर नाल्वत्तार १४६ । असंयतगुणस्थानदोळु असत्वं शून्यमक्कुं। सत्वंगळु तीर्थमुमाहारकद्वय, सहितमागि नूरनाल्वत्तेळ, १४७ । संदृष्टि :
घम्मे वंसे मेघयोग्य १४७ । • मिसा | मि अ
सत्व १४७ १४४ १४६ १४७ |
अस
०
३
१
.
अंजनेयादियागि मघवि पर्यंत मूलं पृथ्विगळोळ योग्यसत्वप्रकृतिगळ तीर्थ, देवायुष्य, पोरगागि योग्यसत्वप्रकृतिगळ. नूरनाल्वत्तारप्पु १४६ वल्लि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानोमसत्वं शून्यं । सत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तारु १४६ ॥ सासावनगुणस्थानदोळाहारकद्विकमसत्वमक्कु २। सत्वंगळु नूरनाल्वत्तनाल्कु १४४ । मिश्रगुणस्थानदोळ आहारकतिकं सहितमागि नूरनाल्वत्तारु सत्वप्रकृतिगळक्कुं १४६ । असंयतगुणस्थानवोळसत्वं शून्यं । सत्वप्रकृतिगळ, नूरनाल्वत्तारु १४६ । १० संदृष्टि :
ma
रिंशच्छतं । तत्र धर्मादित्रयसत्त्वे १४७ । मिथ्यादृष्टावसत्त्वं शून्यं । सत्त्वं सर्व । सासादने तीर्थाहारद्वयं असन्त्वं । सत्त्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । मिश्रे तीर्थमसत्त्वं सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । असंयते असत्त्वं शून्यं, सत्त्वं सर्व १४७।
अंजनादित्रयसत्त्वे १४६ मिथ्यादृष्टावसत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्व १४६ । सासादने आहारकद्विकमसत्त्वं सत्त्वं १५ च चतुश्चत्वारिंशच्छतं । मित्रे असत्त्वं शून्यं सत्त्वमाहारकद्वयसद्भावात् सर्व १४६ । असंयते असत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्व १४६ ।
चतुर्थ आदि पृथिवियों में सत्त्व एक सौ छियालीस है। वहाँ भी मनुष्यायुका सत्त्व छठी पृथ्वी तक है अतः सातवीं माघवी पृथ्वीमें एक सौ पैंतालीसका सत्त्व है। इस प्रकार धर्मा आदि तीन पृथिवियोंमें सत्त्व एक सौ सैंतालीस है। सो मिथ्यादृष्टिमें असत्त्व शून्य है २० अर्थात् नहीं है। सत्व एक सौ सैंतालीस । सासादनमें तीर्थंकर और आहारकद्विकका असत्व । सत्त्व एक सौ चवालीस । मिश्रमें तीर्थकरका असत्त्व, सत्त्व एक सौ छियालीस । असंयतमें असत्त्व शून्य, सत्त्व एक सौ सैतालीस ।
__ अंजना आदि तीन पृध्वियोंमें सत्त्व एक सौ छियालीस । मिध्यादृष्टिमें असत्त्व शन्य, सत्त्व एक सौ छियालीस । सासादनमें आहारकद्विकका असत्त्व, सत्व एक सौ चवालीस। २ मिअमें असत्त्व शून्य, सत्त्व आहारकद्विककी सत्ता होनेसे सब १४६ । असंयतमें असत्व
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गो० कर्मकाण्डे अंज।म। यो० १४६ मि | सामि | अ
सत्व १४६ १४४ १४६ १४६
अस | ०२ • • माघवियोळ. मनुष्यायुष्यमुं तीत्यमुं देवायुष्यमुं पोरगागि नूर नाल्बत्तय्, योग्यसत्व. प्रकृत्तिगळक्कु १४५ ॥ मल्लि मिथ्यावृष्टियोळसत्वं शून्यं । सत्वंगळ नूरनाल्वत्तम्वु १४५ । सासावननोळाहारकद्वयमसत्वं २। सत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तमूरु १४३ ॥ मिश्रगुणस्थानदोळ
सत्वं शून्यं । सत्वप्रकृतिगळ नूरनाल्वत्तवु १४५ ॥ असंयतगुणस्थानवोळ असत्वं शून्यं । सत्व. ५ प्रकृतिगळु नूरनाल्वत्तय्दु १४५ । संवृष्टि :
माधवि योग्यं १४५ | • मि | सा | मि ||
-
--------
अ . २ ० ० तिरश्च्योधो न तीर्थकर तिर्यग्गतियोळ तीत्यरहितसामान्यसत्वप्रकृतिगळ नर नाल्वतेळप्पु १४७ बल्लि सामान्यपंचेंद्रियपर्याप्त योनिमतितियंचरुगळ्गे योग्यसत्वप्रकृतिगळ नूरनाल्वत्तेळु १४७। अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ असत्वं शून्यं । सत्वप्रकृतिगळ नूरनाल्वत्तेळ,
माधवीसत्त्वे १४५ मिध्यादृष्टावसत्त्वं शून्यं, सत्त्वं सर्व १४५ । सासादने आहारकद्वयमसत्त्वं सत्त्वं १. त्रिचत्वारिंशच्छतं । मिश्रेऽसत्त्वं शून्यं, सत्त्वं सर्व १४५ । असंयतेऽसत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्व १४५ ।
तियंग्गती बोधो, न तीर्थकरमिति सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टी असत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्व शून्य, सत्त्व सब १४६ । माघवीमें सत्त्व १४५ । मिथ्यादृष्टि में असत्त्व शून्य, सत्त्व सब १४५ । सोसादनमें आहारकद्वयका असत्त्व, सत्त्व एक सौ तैंतालीस । मिश्रमें असत्त्व शन्य, सत्व सब एक सौ पैंतालीस । असंयतमें असत्त्व शन्य, सत्त्व एक सौ पैंतालीस । धर्मादि १४७
अंजनादि १४६ माधवी १४५ ___ मि. सा. मि. | अ.| मि. सा. मि. अ.|| मि. सा. मि. | अ. | सत्त्व १४७ १४४, १४६ १४७ | १४६१४४ १४६ १४६ | १४५ १४३ १४५ १४५ | असत्व | २| | ०२ . . . २ .
तिथंचगतिमें तीर्थकरके न होनेसे सत्त्व एक सौ सैंतालीस। वहाँ मिथ्यादृष्टि में असत्त्व शून्य, सत्त्व एक सौ सैंतालीस । सासादनमें आहारकद्विकका असत्व, सत्त्व एक
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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१४७ । सासादननो, आहारकद्विकमसत्यं २ । सत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तय्वु १४५ ॥ मिश्रगुणस्थानदोसत्वं शून्यं । सत्यप्रकृतिगळ, नूरनात्वत्ते १४७ । असंयतगुणस्थानदोळ, नरकायुष्य मुं मनुष्यायुष्यमुं सत्वव्युच्छित्तियक्कुमेके दोडे आ प्रकृतिद्वयसत्त्रमुळ्ळनोळणुव्रतं घटि इसवरदं । देशसंयतनाळा प्रकृतिद्वयक्के सत्व मिल्लप्पुदरिदं असत्वं शून्यं । सत्वंगळ, नूर नाल्वत्तेळु १४७ । देशसंयतनो व्युच्छित्तिद्वयमसत्वमक्कुं २ । सत्यप्रकृतिगळ नूरनावत्तदु १४५ । संदृष्टि :
५
७
०
व्यु
२ १
१४७ / १४५ १४७ १४७ १४५
० २ ०
० २
एवं पंचतिरिक्खे पुणिदरे णत्थि णिरयदेवाऊ ।
ओघं मणुसति सुवि अपुण्णगे पुण अपुण्णेव ॥ ३४७॥
एवं पंचतिक्षु पूर्णेतरस्मिन्नस्तः नरकदेवायुषी ओघो मनुष्यत्रयेष्वप्य पूष्णके पुनरपूर्णक इव ॥
उ
सा । सं । प । योनि योग्य १४७
मि सा मि अ
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०
०
एवं पंच तिय्यंक्षु ई सामान्यतिय्र्यचंगे पेदंते सामान्य पंचेंद्रितपर्य्याप्तक योनिमतिअपर्याप्त - १० कब पंचप्रकार तिय्यंचरुगळनिर्गमक्कुमल्लि लब्ध्यपर्य्याप्तकतिच नरकायुष्यमुं देवायुव्यमुं तिर्य्यग्गतियो सत्वविरुद्धमप्प तीर्थं मुमितुमूरुं प्रकृतिगळं कळवु शेष तूर नालबत्त प्रकृतित्वमकुं १४५ । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमा देयक्कु १ मेदोडे 'महिसासणो अपुणे ब
१४७ | सासादने आहारकद्विकमसत्त्वं गत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं । मिश्रे असत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्व १४७ | असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्तिः, तत्सत्त्वेऽणुव्रताघटनात् । असत्वं शून्यं सस्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । देशसंयते सद्वयमसत्त्वं सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं ॥ ३४६॥
एवं तिर्यग्वत्सामान्यपंचेंद्रियपर्याप्तयोनिमदपर्याप्तपंचविघतिर्यक्ष्वपि भवति । तत्र लब्ध्यपर्याप्ते तु नरकदेवायुषी अपि नेति सत्वं पंचचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानं मिध्यादृष्टिरेव । कुतः ? 'णहि सासणो अपुण्णे' इति
१. भुज्यमानतिर्य्यगायुविच्छित्तिः ॥ Jain Education Internationa क - ७२
पैंतालीस | मिश्र असत्व शून्य, सत्त्व एक सौ सैंतालीस । असंयत में नरकायु और मनुष्यायुकी व्युच्छित्ति होती है क्योंकि उनके सत्व में अणुव्रत नहीं होते । अत्र शून्य, २० सत्व एक सौ सैंतालीस | देशसंयत में नरकायु मनुष्यायुका असत्त्व, सत्त्व एक सौ पैंतालीस ||३४६||
इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, योनिमत्तियंच और अपर्याप्ततिर्यंचों में जानना । इतना विशेष है कि लब्ध्यपर्याप्त तियंच में नरकायु
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गो० कर्मकाण्डे
नियममुंटप्पुदरंदं । मनुष्य त्रयेष्वप्योघः मनुष्यगतियो सामान्य मनुष्यर्थ्यातक मनुष्य योनिमतिमनुष्य ब मूरुं तरद. मनुष्यरोछु, योनिमतिमनुष्यरो अपकर्गे विशेषमुपुर्दारमा जोगळं बिट्टु सामान्य मनुष्यरुगळगं पर्याप्तमनुष्यरुगळगं योग्य सत्व प्रकृतिगळ नूरनात्वते ट १४८ वल्लि मिथ्यादृष्टिसुणस्थानदोलु नानाजीवापेझेयिदं नूरनात्वतेंदु प्रकृतिसत्वमक्कु १४८ । सासादन ५ गुणस्थानदोळ तीर्थमुमाहारद्विकं पोरगागि नूरनात्वत्तदु प्रकृतिसत्वमक्कु १४५ ॥ मिश्रगुणस्थानदो तीत्थं पोरगागि तूर नावत्ते प्रकृतिसत्वमक्कु १४७ | असंयत गुणस्थानदो नू - नात्वत्ते टु प्रकृतिसत्वमक्कु १४८ । देशमंयतनो नरकायुष्यमुं तिर्घ्यगायुष्यमुं बद्धयमानमनुष्यायुष्यमुं पोरगागि नूर नाल्व तारु प्रकृतिसत्वमक्कु १४६ । प्रमत्तसंयतनोळमंते नूरनाल्त्तारं प्रकृतिसत्यमक्कुं १४६ । अप्रमत्तसंयतनोळमंते नूर नाल्वत्तारं प्रकृतिसत्वमक्कुं १४६ । क्षपक. १० श्रेण्यपूर्वकरणनो भुज्यमानमनुष्यायुष्यं पोरगागि शेषमूरायुष्यंगळं सप्तप्रकृतिगळं कडिपत्तुं प्रकृतिगळ्वज्जितमागि नूर मूवत्तेढुं प्रकृतिसत्वमत्रकुं - १३८ । मुपशमश्रेण्यपेक्षेयिदं नरकतियंगायुद्वयरहितं नूरनात्वत्तार्रु १४६ क्षायिक सम्यक्त्वमं कुरुत्तु नूर मूवर्त्तदुं प्रकृतिसत्यमक्कु १३८ । उपशमकश्रेणियो क्षपकश्रेणियोळं दर्शनमोहक्षपर्णयिल्लप्पुदरिदं । श्रेणियिदं केळगण अबद्धायुष्यरप्प मनुष्यासंयत देशसंयतप्रमताप्रमत्तरोळ नूर मूवर्तदुं प्रकृतिसत्वरोलरेक दोडा नाकु गुण१५ स्थानवोळेल्लियादोडं दर्शनमोहक्षपर्णयक्कुमप्यदरिदं । अपूर्वकरण गुणस्थानदिवं मेलण गुणस्थानवनयनिवृत्तिकरणनोळमंते क्षपक श्रेण्यपेक्षपल्लवुपशमश्रेण्यपेक्षयदं नूरनात्वत्तारु १४६ नूर नियमात् । मनुष्यगती सामान्यपर्याप्तकयोनिमत्त्रिविधमनुष्येष्वोघः किंतु योनिमत्क्षपकेष्वेव विशेषः, तेन शेषद्वये सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ नानाजीवापेक्षया सत्त्वं सर्वं । सासादने तीर्थाद्वारा नेति पंचचत्वारिशच्छतं । मिश्र तीर्थं नेति सप्तचत्वारिंशच्छतं । असंयते सर्वं । देशसंयते प्रमत्ताप्रमत्तयोश्च न नरकतिर्यगायुषी बध्यमानदेवायुर्भुज्यमानमनुष्यायुश्चेति षट्चत्वारिंशच्छतं । क्षपकापूर्वं करणे भुज्यमानमनुष्यायुरस्तीति शेषायुस्त्र यसप्तप्रकृत्यभावादष्टत्रिंशच्छतं । उपशमश्रेण्यपेक्षया नरकतिर्यगायुरभावात् षट्चत्वारिंशच्छतं । क्षायिकसम्यक्त्वं प्रत्यष्टत्रिंशच्छतं । अबद्धायुर्मनुष्यासंयतादिचतुर्ष्वपि तत्प्रत्यष्टत्रिंशच्छतं । अनिवृत्तिकरणे उपशमऔर देवा भी न होनेसे सत्व एक सौ पैंतालीस । और गुणस्थान मिध्यादृष्टि ही होता है, क्योंकि 'ण हि सासणो अपुण्णे' इस नियम के होनेसे उसमें सासादन गुणस्थान नहीं होता । मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, पर्याप्तक मनुष्य और योनिमत् मनुष्यों में गुणस्थानवत् जानना । किन्तु योनिमत् मनुष्योंमें क्षपक श्रेणीमें ही विशेष है । शेष दोनों में सत्त्र एक सौ अड़तालीस | उनमें मिथ्यादृष्टि में नाना जीवोंकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंका सत्व है । सासादन में तीर्थंकर और आहारकद्विक न होनेसे सत्त्व एक सौ पैंतालीस । मिश्र में तीर्थंकर के न होनेसेस एक सौ सैंतालीस । असंयत में सबका सत्व है । देशसंयत और प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानों में नरकायु तिर्यंचायुका सत्त्व न होनेसे सत्व एक सौ छियालीस । वहाँ ३० बध्यमान देवायु और भुज्यमान मनुष्यायुका ही सत्त्व होता है ।
२०
२५
५७०
क्षपक अपूर्वकरण में केवल भुज्यमान मनुष्यायुका ही सत्त्व होनेसे शेष तीन आयु और क्षायिक सम्यक्त्व होनेसे मोहनीय की सात प्रकृतियों के न होनेसे सत्त्व एक सौ अड़तीस । उपशम श्रेणिकी अपेक्षा नरकायु तिर्यंचायुका असत्त्व होनेसे सत्त्व एक सौ छियालीस और
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५७१ मूवत्तें टु १३८ प्रकृतिसत्वमक्कु । क्षपकश्रेण्यपेयिदं प्रयमभागदोळु नूर मूवत्तेदु प्रकृतिसत्वमक्क १३८ । द्वितीयभागदोळ नूरिप्पत्तरडु प्रकृतिसत्वमक्कु १२२ । मेके दोडे आ प्रथमभागचरमसमयदो षोडश प्रकृतिगळ क्षपिसल्पटुवप्पुरिदं । तृतीयभागदोळमत मध्यमाष्टकषायरहितमागि नूर पदिनाल्कु प्रकृतिसत्वमक्कु ११४ । चतुर्थभागदोजु षंढवेदरहितमागि नूर पदिमूरु प्रकृतिसत्वमक्कु ११३। पंचमभागदो स्त्रीवेदरहितमागि नूर हन्नरडु प्रकृतिसत्वमक्कु ११२। ५ षष्ठभागदोळु षण्णोकषायज्जित नूरारुं प्रकृतिसत्वमक्कु १०६ । सप्तमभागदोछ पुंवेदरहित. मागि नूरय्दु प्रकृतिसत्वमक्कु १०५ ॥ अष्टम भागदोळ संज्वलनक्रोधज्जितचतुरुत्तरशतप्रकृतिसत्वमक्कु १०४ ॥ नवमभागदोळु संज्वलनमानरहितत्र्यधिकशतप्रकृतिसत्वमक्कु १०३ । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळ संज्वलनमायारहितमागि नूरेरडु प्रकृतिसत्वमक्कु १०२। मुपशमश्रेण्यपेयिंदं नूर नाल्वत्तार १४६ नूरमूवत्तेंदु १३८ प्रकृतिसत्वमक्कु । मुपशांतकषायगुणस्थानदोळ १० नूर नाल्वत्तारुं १४६ नूर मूवत्तें'टु १३८ प्रकृतिसत्वमक्कु। क्षीणकषायनोळु संज्वलनलोभरहित. मागि नूरोंदु प्रकृतिसत्वमक्कुं १०१। सयोगिकेवलियोळु निद्राप्रचलादि षोडशप्रकृतिरहितमागि ण्यपेक्षया षट्चत्वारिंशच्छतं अष्टत्रिशच्छतं च क्षपकश्रेण्यपेक्षया प्रथमभागे अष्टत्रिशच्छतं द्वितीयभागे द्वाविंशतिशतं षोडशानां तत्प्रथमभागचरमसमये एव क्षपणात् । तृतीयभागे मध्यमाष्टकषायाभावाच्चतुर्दशशतं । चतुर्थभागे पंढवेदाभावात्तत्त्रयोदशशतं । पंचमभागे स्त्रीवेदाभावाद् द्वादशशतं । षष्टमभागे षण्णाकषाया- १५ भावात् षंडुत्तरशतं । सप्तमभागे पुंवेदाभावात्पंचोत्तरशतं । अष्टमभागे संज्वलनक्रोधाभावाच्चतुरुत्तरशतं । नवमभागे संज्वलनमानाभावात्त्युत्तरशतं । सूक्ष्मसांपरांयें संज्वलनमायाऽभावात् द्वयुत्तरशतं । उपशमश्रेण्यपक्षेया षट्चत्वारिंशच्छतं अष्टचत्वारिंशच्छतं च । उपशांतकषाये द्वाचत्वारिंशच्छतं, अष्टत्रिशच्छतं च । क्षीणकषाये संज्वलनलोभाभावादेकोत्तरशतं । सेयोगे निद्राप्रचलादिषाडशाभावात् पंचाशीतिः । अयोगे द्विचरमसमक्षायिक सम्यग्दृष्टीके एक सौ अड़तीस । जिस मनुष्यने परभवकी आयु नहीं बाँधी है और २० क्षायिक सम्यग्दष्टी है उसके असंयत आदि चार गणस्थानों में भी एक सौ अडतीसका सत्त्व होता है। अनिवृत्तिकरणमें उपशम श्रेणिकी अपेक्षा सत्त्व एक सौ छियालीस और एक सौ अतीस । क्षपकणिकी अपेक्षा प्रथम भागमें एक सौ अड़तीस। और इस प्रथम भागके अन्तिम समयमें सोलह प्रकृतियोंका क्षय होनेसे दूसरे भागमें सत्त्व एक सौ बाईस । और इस दूसरे भागके अन्तिम समयमें मध्यकी आठ कषायोंका क्षय होनेसे तीसरे भागमें सत्त्व २५ एक सौ चौदह । इसी प्रकार चतुर्थ भागमें नपुंसक वेदका अभाव होनेसे सत्त्व एक सौ । तेरह । स्त्रीवेदका अभाव होनेसे पंचम भागमें सत्त्व एक सौ बारह । छह नोकषायोंका अभाव होनेसे छठे भागमें सत्त्व एक सौ छह । पुरुषवेदका अभाव होनेसे सातवें भागमें एक सौ पाँच । संज्वलन क्रोधका अभाव होनेसे आठव भागमें एक सौ चार । संज्वलन मानका अभाव होनेसे नवम भागमें एक सौ तीन ।
__ सूक्ष्म साम्परायमें संज्वलन मायाका अभाव होनेसे एक सौ दो। उपशमश्रेणिकी अपेक्षा सत्त्व एक सौ छियालीस और एक सौ अड़तीस । उपशान्त कषायमें एक सौ छियालीस और एक सौ अड़तीस । क्षीण कषायमें संज्वलन लोभका अभाव होनेसे एक सौ एक । १. व षट्चत्वा । २. ५ सयोगे अयोगे।
३०
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५७२
गो० कर्मकाण्डे येण्भत्तरद प्रकृतिसत्वमक्कु ८५ । अयोगिकेवलिद्विचरमसमयदोळु तावन्मात्रमे योभत्तबु प्रकृतिसत्वमक्कु ८५। चरम समयदोळ एप्पत्तरडु प्रकृतिरहितमागि पदिमूर प्रकृतिसत्वमकुं १३ । संदृष्टि-मनुष्यसामान्यपर्याप्तकयोग्य सत्वप्रकृतिगळु १४८ ।
सा | मि अ
स १४८ १४५ १४७ | १४८ १४६ १४६, १४६ १३८ | अ ० ३ १ २ २ २ | १०|
। अनि १६ । ८ १ १६ १/११ | उ १४६ । १३८ । उ १३८।१४६ । क्ष १३८ । १२२ ११४ ११३) ११२१.६१०५/१०४ २ । १०
| २६३४ | ३५ । ३६ । ४२ । ४३ ४४ १. सू- १ उ क्षी सयोग अयो अयो । सिद्ध।
"७२ । १३ | १०३। उ १३८।१४६।१०२ । १३८।१४६ । १०१ । ८५ । ८५ | १३| | ४५ / १० २। ४६ ।१०।२ । ४७ । ६३ । ६३ | १३५ | १४८
योनिमतिमनुष्यनोळ विशेषमाउदोडे भपकश्रेणियोळ तीर्थसत्वमिल्ला । तीयकर५ सत्वप्रमत्तनोळु सत्वव्युच्छित्तियक्कुं। अपूर्वकरणनोळ सत्वप्रकृतिगळु नूरमूवत्तेल १३७ ।
असत्वं पत्तं १०। अनिवृत्तिकरणनोळु प्रथमभागवोळं सत्वंगळ १३७ । असत्वंगळ १०॥ द्वितीयभागदोलु षोडश प्रकृतिगळुगूडियसत्वंगळ इप्पत्ताह २६ । सत्वंगळ नूरिप्पत्तोदु १२१॥ यांतं च निद्राप्रचलादिषोडशाभावात्पंचाशीतिः । चरमसमये द्वाससत्यभावात्त्रयोदश ।
योनिमन्मनुष्ये तु क्षपकश्रेण्यां न तीर्थ, तीर्थसत्त्ववतोऽप्रमत्तादुपरि स्त्रीवेदित्वासंभवात् । अपूर्वकरणे १० सत्त्वं सप्तत्रिंशच्छतं । असत्त्वं दश । अनिवृत्तिकरणे प्रथमभागे सत्वं सप्तत्रिशच्छतं । असत्वं दश । द्वितीयमाने
सयोगकेवलीमें निद्रा प्रचला आदि सोलहका अभाव होनेसे पचासी। अयोग केवलीके द्विचरम समयमें निद्रा प्रचलादिके न होनेसे पिचासी। अन्तिम समयमें बहत्तरके न होनेसे सत्त्व तेरह ।
योनिमत् मनुष्य में क्षपक श्रेणिमें तीर्थकरका सत्व नहीं होता; क्योंकि जिनके तीर्थकर १५ सत्ता होती है उनके अप्रमत्त गुणस्थानसे ऊपर स्त्रीवेदपना नहीं होता। अतः अपूर्वकरणमें
१. भावस्त्री य बुदस्थ यिल्लि तात्पर्य्यमेन दोर्ड तित्ययरो दवभाववैवी एंगी पचनदि परमभवतीत्थंकरं भावदोळं स्त्रीयल्लनप्पुरि क्षपकश्रेणियोल भावस्त्रोगे तीर्थकरसम्वमिल्ले बुदु युक्तमितागुत्तिरला भावस्त्रीयप्प अप्रमत्तनोळ तीर्थकरसत्वव्युच्छित्तियतु घटियिसुगुम दोडे तृतीयजन्मदाळ तीर्थकर मामवधर्म माळ्पजीवं द्रव्यदोनु पुंवैदिये भावदोळ, पुंवैदियं स्त्रीवेदियुमप्पनप्पुरिव दरिबुदु ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५७३ तृतीयभागदोळु अष्ट प्रकृतिगळुगूडियसत्वंगळु मूवत्त नाल्कु ३४ । सत्वंगळु नूर हदिमूरु ११३ । चतुर्थभागदोळ ओंदु गूडियसत्वंगळ, मूवत्तय्दु ३५ । सत्वप्रकृतिगळ नूर हन्नेरडु ११२। पंचमभागदोळो दुगूडियसत्वंगळु मूवत्तारु ३६ सत्वंगळ नूर हन्नोंदु १११ । षष्ठ भागदोळ आरुगूडियसत्वंगळ नाल्वत्तेरडु ४२। सत्वंगळु नूरटु १०५ । सप्तमभागदोळो दुगूडियसत्वंगळु नाल्वत्तमूरु ४३ । सत्वंगळ नूरनाल्कु १०४ । अष्टमभागदोळो दुगूडियसत्वंगळ नाल्वत्तनाल्कु ५ ४४ । सत्वप्रकृतिगळु नूर मूरु १०३ । नवमभागदोळों दुगूडियसत्वंगळु नाल्वत्तयदु ४५। सत्वप्रकृतिगळ, नूरेरडु १०२। सूक्ष्मसांपरायनोळ, लोभव्युच्छित्तियक्कुं। असत्वंगळ संज्वलनमायगूडि नाल्वत्तारु ४६। सत्वंगळ नूरोंदु १०१। क्षीणकषायनोळ लोभगूडियसत्वंगळ नाल्वत्तळ, ४७। सत्वंगळ नूरु १००। सयोगकेवलियोळ, हदिनारुगूडियसत्वंगळ अरुवत्तमूरु ६३ । सत्वंगळ येण्भत्तनाल्कु ८४ । अयोगिकेवलिय द्विचरमसमयदोळ असत्वंगळरुवत्त मूरु ६३। १० सत्वंगळे भत्तनाल्कु ८४ । चरमसमयदोळसत्वंगळ येप्पत्तरडुगूडि नूर मूवत्तदु १३५ । सत्वंगळ पन्नेरडु १२ । संदृष्टि :
षोडश संयोज्यासत्त्वं षड्विंशतिः । सत्त्वमेकविंशतिशतं । तृतीयभागे अष्ट संयोज्याऽसत्त्वं चतुस्त्रिशत् सत्त्वं त्रयोदशशतं । चतुर्थभागे एक संयोज्यासत्वं पंचत्रिंशत् सत्वं द्वादशशतं । पंचमभागे एक संयोज्यासत्त्वं षट्त्रिंशत् सत्त्वमेकादशशतं । षष्ठभागे षट् संयोज्यासत्त्वं द्वाचत्वारिंशत सत्त्वं पंचोत्तरशतं । सप्तमभागे एक संयोज्यासत्त्वं १५ त्रिवत्वारिंशत्, सत्त्वं चतुरुत्तरशतं । अष्टमभागे एक संयोज्यासत्त्वं चतुश्चत्वारिंशत्, सत्त्वं व्युत्तरशतं । नवमभागे एकं संयोज्यासत्त्वं पंचचत्वारिंशत्, सत्त्वं द्वयुत्तरशतं । सूक्ष्मसांपराये लोभव्युच्छित्तिः, असत्त्वं संज्वलनमायां संयोज्य षट्चत्वारिंशत्, सत्त्वमेकोत्तरशतं । क्षीणकषाये लोभं संयोज्यासत्त्वं सप्तचत्वारिंशत, सत्त्वं शतं । सयोगे षोडश संयोज्यासत्त्वं त्रिषष्टिः, सत्त्वं चतुरशीतिः । अयोगे द्विचरमसमये असत्त्वं त्रिषष्टिः, सत्त्वं चतुरशीतिः । चरमसमयेऽसत्त्वं द्वासमति संयोज्य पंचत्रिशदुत्तरशतं, सत्त्वं द्वादश ।
२०
सत्व एक सौ सेतीस, असत्त्व दस। अनिवृत्तिकरण में प्रथम भागमें सत्त्व एक सौ सैतीस । असत्त्व दस । दूसरे भागमें सोलह मिलाकर असत्व छब्बीस, सत्त्व एक सौ इक्कीस । तीसरे भागमें आठ मिलाकर असत्त्व चौंतीस, सत्त्व एक सौ तेरह । चतुर्थ भागमें एक मिलाकर असत्त्व पैतीस, सत्व एक सौ बारह । पंचम भागमें एक मिलाकर असत्व छत्तीस, सत्त्व एक सौ ग्यारह । छठे भागमें छह मिलाकर असत्त्व बयालीस, सत्व एक सौ पाँच । २५ सप्तम भागमें एक मिलाकर असत्त्व तैतालीस, सत्त्व एक सौ चार । अष्टम भागमें एक मिलाकर असत्त्व चवालीस, सत्त्व एक सौ तीन । नवम भागमें एक मिलाकर असत्त्व पैंतालीस, सत्त्व एक सौ दो। सूक्ष्म साम्परायमें लोभकी व्युच्छित्ति होती है। तथा संज्वलन मायाको मिलाकर असत्त्व छियालीस, सत्त्व एक सौ एक । क्षीण कषायमें लोभ मिलाकर असत्त्व सैंतालीस, सत्त्व सौ। सयोगीमें सोलह मिलाकर असत्त्व त्रेसठ, सत्त्व चौरासी । अयोगोके ३० द्विचरम समयमें असत्त्व वेसठ, सत्त्व चौरासी। अन्तिम समयमें बहत्तर मिलाकर असत्त्व एक सौ पैतीस, सत्त्व बारह ।
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५७४
गो० कर्मकाण्डे योनिमति क्षपकयोग्य प्रकृतिगळु १३७ ।
सूक्षी समो
सयो
स
१३७ १३७ १२१ ११३ ११२ १११ १०५ १०४ १०३ १०२ १०१ १०० ८४
१० / २६ , ३४ | ३५ ३६ | ४२ | ४३ / ४४ ४५ | ४६ ४७
१०
अयोगि केवलि
७२
८४ १२
अपुण्णगे पुण अपुण्णेव मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तनोळ तिय॑चलब्ध्यपर्याप्तंगे पेन्दंते तीर्थमुं नरकायुष्यमुं देवायुष्यमुं रहितमागि नूरनाल्वत्तप्दु प्रकृतिसत्वमुं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमुमक्कुं। मि १४५॥
अनंतरं देवगतियोळ पेन्दपरु :
लब्ध्यपर्याप्तकमनुष्ये पुनस्तिर्यग्लब्ध्यपर्याप्तकवत्तीर्थनरकदेवायूंषि नेति सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं गुणस्थानं मिथ्यादृष्टिरेव ॥३४७॥ अथ देवगतावाह--
मनध्य १४८ सत्त्व | | मि. सा. | मि. । अ. | दे. | प्र. | अ. | अ. | अ. | अ. । । | व्यु. ००० ०१।०८।१६। ८१।१।। | स. १४८१४५ १४७, १४८/१४७ १४६ १४६ १३८ १३८ १२२ ११४ ११३/7 |प्र. । । ३। १ ० १ २ २ | १० | १० | २६ | ३४ | ३५ | । । । । । । सू. । उ. | उ. । क्षी. स. अ. अ. |
१ । १ १ ११२ १०६, १०५ १०४ १०३ १०२ १४६ १३८ १०५ ८५ ८५ १३
३६ । ४२ ४३ | ४४ | ४५ / ४६ । २ । १० । ४७ | ६३ ३३ १३५ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यमें तिथंच लब्ध्यपर्याप्तककी तरह तीर्थकर नरकायु और देवायुका सत्त्व न होनेसे सत्व एक सौ पैंतालीस, गुणस्थान मिथ्यादृष्टि ही होता है ॥३४७।।
देवगतिमें कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका
ओघं देवेण हि णिरयाऊ सारोति होदि तिरियाऊ । भवणतियक्कप्पवासियइत्थीसु ण तित्थयरसत्तं ॥ ३४८ ॥
ओघो देवेन हि नरकायुः सहस्रारपर्यंतं भवति तिर्य्यगायुः । भवनत्रयकल्पवासिस्त्रीषु न तीर्थकर सत्वं ॥
देवगतिय सौधर्मादिसहस्रारकल्पपर्यंतं द्वादश कल्पंगळोळु योग्यसत्वप्रकृतिगळु नरकायुब्र्वज्जित मागि सामान्यसत्यप्रकृतिगळ नूरनात्वत्तेनुं योग्यंगळ १४७ । अल्लि मिथ्यादृष्टियो तत्थं सत्यम कदोडे 'किण्ह दुग सुह तिलेस्सिय बामे विण तित्थयरसत्तमें ब नियममुंटपुर्दारवं सत्यंग तूर नाश्वत्तारु १४६ । असत्व १ । सासादननोलु तीर्थंकरमुमाहारकद्विकमुमसत्वमकुं ३ । सत्प्रकृतिपळु नूर नालबत्तनात्कु १४४ । मिश्र गुणस्थानदोळ तीर्थमसत्वमक्कुं १ । सत्यंग तूर नात्वत्तारु १४६ | असंयतगुणस्थानदो नूर नात्वत्तेळु सत्वमक्कु १० १४७ | मसत्यं शून्यं । संदृष्टि
:--
सौधर्मादिकल्प योग्य १४७ ।
मि सा मि अ
१४६ १४४ १४६ १४७ १ ३ १ ०
५७५
व्यु
स
अ
आनतादि चतुःकल्पंगळोळं नवग्रैवेयकंगळोळं नरकतिर्य्यगायुर्द्वयरहितमागि सत्वयोग्यंगळु नूर नाल्वत्तारु प्रकृतिगळप्पु १४६ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ तीर्थमसत्वमक्कुं १ । सत्वं नूर
देवगत ओघः किंतु नरकायुर्नहि पुनः सहस्रारपर्यंतमेव तिर्यगायुरस्ति न तत उपरि, तेन सौधर्मादिसहस्रारपर्यंतं द्वादशकल्पेषु सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । तत्र मिध्यादृष्टौ तीर्थं न 'किण्हदुगसुहतिलेस्सय १५ वामेवि ण तित्ययरसत्त' मिति नियमात् सत्त्वं षट्चत्वारिशच्छतं, असत्त्वमेकं । सासादने तीर्थाहारा असत्त्वं । सत्त्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । मिश्रे तीर्थमसत्वं सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । असंयते सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं, असत्त्वं शून्यं ।
आनतादिचतुः कल्पेषु नवग्रैवेयकेषु च नरकतिर्यगायुषी नेति सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्या दृष्टा
देवगतिमें नरकायका सत्त्व नहीं है तथा सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त ही तिचायुका सत्व २० रहता है | अतः सौधर्मसे लेकर सहस्रार पर्यन्त बारह स्वर्गो में सत्त्व एक सौ सैंतालीस । वहाँ मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता; क्योंकि ऐसा नियम है कि कृष्ण, नील तथा तीन शुभलेश्या में मिध्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरका सत्व नहीं होता । अतः सत्व एक सौ छियालीस । असत्त्व एक । सासादन में तीर्थंकर और आहारकद्विकका असत्व, सत्त्व एक सौ चवालीस | मिश्र में तीर्थंकरका असत्त्व. सत्त्व एक सौ छियालीस । असंयत में सत्त्व एक २५ सौ सैंतालीस असत्त्व शून्य ।
आनत आदि चार स्वर्गो में और नौ ग्रैवेयकों में नरकायु तिर्यंचायुका सत्त्व न होनेसे
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५७६
गो० कर्मकाण्डे
नात्वत्तर १४५ । सासादन गुणस्थानदोळु तीर्थंकर माहारकद्विकमुमसत्वंगळवु ३ । सत्बंगळु तूर नावत् १४३ । मित्रगुणस्थानळु तीत्थंम सत्वमक्कु १ । सत्वंगळु नूरनावत्तदु १४५ ॥ असंयतादोसत्वं शून्यमत्रकं । । सत्बंगळु नर नावतारु १४६ ६ संदृष्टि :
आनतादि १३ योग्य १४६ ।
मि सा
मि अ
व्यु
स १४५ १४३ १४५ १४६
२०
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अनुदिशानुत्तर चतुर्द्दशविमानंगळ सम्यग्दृष्टिगळोळु नरकतिर्य्यगायुर्द्वयमं कळंदु सत्वयोग्यं५ गळु नूर नालबत्ता रु १४६ । भवनत्रयदोळं कल्पजस्त्रीयरोळं तीर्थंकरत्वमुं नरकायुष्यमुं रहितमागि योग्य सत्वंग नूर नात्वत्तारवु १४६ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळु सत्वंगळ नूर नाल्वत्तारु १४६। असत्वंगळ शून्यं । सासादन गुणस्थानदोळाहारकद्विकमसत्वमक्कु २ । सत्बंगळ नूरनात्वत्तनात्कु १४४ । मिश्र गुणस्थानदोळ असत्वं शून्यं । सत्वंगळ नूर नाल्वत्तारु १४६ ॥ असंयतगुणस्थानदोळसत्वं शून्यं । सत्यप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तारु १४६ ॥ संदृष्टि ।
भवनत्रय कल्पज स्त्री यो० १४६ ।
व्यु मि
मि अ
१४६ १४४ १४६ १४६
स
१
अ
१ ०
सा
० २ ०
१० वसवं तीर्थं सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं । सासादने असत्त्वं तीर्थाहाराः सत्त्वं त्रिचत्वारिशच्छतं । मिश्र तीर्थमसत्त्वं सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं । असंयते असत्त्वं शून्यं सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं ।
०
नवानुदिशपंचानुत्तरविमानसम्यग्दृष्टिषु नरकतिर्यगायुषी नेति सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । भवनत्रयदेवेषु कल्पस्त्रीषु च तीर्थनरकायुषी नेति सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं तदेव असत्त्वं शून्यं । सासादने आहारकद्विकमसत्त्वं, सत्त्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । मिश्रासंयतयोरसत्त्वं शून्यं, सत्वं षट्चत्वारिंशच्छतं
१५ सत्व एक सौ छियालीस । वहाँ मिथ्यादृष्टिमें तीर्थंकरका असत्त्व, सत्त्व एक सौ पैंतालीस । सासादन में तीर्थंकर और आहारकद्विकका असत्त्व, सत्त्व एक सौ तैंतालीस । मिश्र में तीर्थंकरका असत्त्व, सत्त्व एक सौ पैंतालीस । असंयतमै असत्त्व शून्य, सत्त्व एक सौ छियालीस । नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासीदेव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं । उनके नरकायु तियंचायका सत्व न होनेसे सत्त्व एक सौ छियालीस । भवनत्रिक देवोंमें और कल्पवासी देवांगनाओंमें तीर्थंकर और नरकायु न होनेसे सत्व एक सौ छियालीस । वहाँ मिथ्यादृष्टि में
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अनंतरामद्रियमाणेोळं काय मार्गणेयोळं प्रकृतिगळं पेदपरु :ओघं पंचक्खत से सेसिंदियकायगे अपुण्णं वा ।
उदुगे ण णराऊ सव्वत्थुव्वेल्लणा वि हवे ।। ३४९ ।।
ओघं पंचाक्षत्र से शेषेंद्रियकायिके अपूर्णवत् । तेजोद्विके न नरायुः सर्व्वत्रोद्वेल्लनापि भवेत् ॥ विद्रियमाणेयोल कायमागणियोळं यथासंख्यमागि पंचाक्षदोळं जसकायिकदोळ ं ओघः सामान्यगुणस्थानदोळ, पेव्दक्रमम+कुमदु कारणदिदं योग्यसत्वप्रकृतिगळ नूर नावत्ते टमप्पुवु १४८ । अल्लि मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्द्दशगुणस्थानंगळप्पुवु ॥ संदृष्टि :
:
मि. सा.
मि. अ १ द १ प्र० अ८ अ० अ १६ ८
१ ६
स १४८ १४५ १४७ १४८ १४७ १४६ १४६ १३८ १३८ | १२२ | ११४ ११३ ११२
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| १४८ | १४५ | १४७ | १४८ | १४७
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सू १ उ०
| १०२ | ४६ ४६ २
॥ ३४८ ॥ अथेंद्रिय मार्गणायामाह -
इंद्रिय काय मार्गणयोः पंचाक्षे त्रसे च ओघः - इति सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानि चतुर्दश । तद्रचना सामान्योक्तव ज्ञातव्या । संदृष्टिः
पंचेंद्रिय कायिकयोर्योग्याः सत्त्वप्रकृतयः १४८ ।
क- ७३
१
१
१
१
११२/१०६ / १०५ | १०४ |१०३ | ४२ | ४३ | ४४ | ४५
३
दे१ प्र. अ८ अ. अ१६ अ८ १
| १४६ | १४६ | १३८ | १३८ |१२२ |११४ २ २ १० १० २६ ३४
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मि. सा. मि. अ.
1
सत्त्व १४६ १४५ १४६ १४७ असत्व १ ३ । १
१३८ | १०१ १० ४७
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| १०२ | १४६ | १३८ |१०१ ४६ | २ १० ४७
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०
क्षी १६० अ ७२ १३
८५ | ८ | १३ ६३ | १३५
६३
·
क्षी १६ स.
सत्व एक सौ छियालीस, असत्त्व शून्य । सासादन में आहारकद्विकका असत्त्व, सत्व एक सौ चवालीस । मिश्र और असंयत में असत्त्व शून्य, सत्त्व एक सौ छियालीस || ३४८|| आनतादि नवप्रैवेयक १४६
सौधर्मादि द्वादश में १४७
मि. सा. मि. अ.
१४५
१४६
१४५ १४३
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५७७
८५।८१
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S.N
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१३
१३५
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५७८
गो० कर्मकाण्डे शेषंद्रियकायिके अपूर्णवत् एकेंद्रियविकलत्रयपृथ्विकायिक अप्कायिक वनस्पतिकायिकगळोळ लब्ध्यपर्याप्तकंगे पेळदंते तीर्थकरत्वमुं नारकायुष्यमुं देवायुष्यमुं रहितमागि योग्य. सत्वप्रकृतिगळ, नूर नाल्वत्तय्दप्पु १४५ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळु सत्वंगळ नूर नाल्बत्तय्दु १४५ ।
असत्वं शून्यं ॥ सासादननोळाहारकद्वयमसत्वमक्कं २। सत्वंगळ नूर नाल्वत्तमूरु । १४३ ॥ ५ संदृष्टि:
ए। वि ३। पु । अव । योग्य १४५ ।
| ० मि | सा
स १४५ १४३
| अ ० २ तेजोद्विके न नरायुः तेजस्कायिकंगळोळु वायुकायिकंगळोळं मनुष्यायुष्यं सत्वमिल्लदु कारणमगि योग्यसत्वप्रकृतिग नूर नाल्वत्तनाल्कप्पु १४४ वल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमो दयक्कुमेके दोडे-ण हि सासणो अपुण्णे साहारण सुहुमगे य तेउदुगे ये बो नियममुंटप्पुरिदं । सर्वत्रोद्वे.
ल्लनापि भवेत् यिद्रियमार्गयोळं कायमार्गयोळं सर्वत्र परप्रकृतिस्वरूपपरिणमनलक्षण१० मुद्वेल्लनमुमरियल्पडुगु। मुवेल्लनमें बुदेन दोडे नेणुतुदियिदं हुरि बिच्चि नेण्क डुवते पदिमूरुं
शेषकद्वित्रिचतुरिंद्रियपृथ्व्यब्वनस्पतिकायिकेषु लब्ध्यपर्याप्तवत्तीर्थन रकदेवायुरभावात् सत्त्वं पंचचत्वारिशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं, असत्त्वं शून्यं । सासादने आहारकद्वयमसत्त्वं, सत्त्वं त्रिचत्वारिंशच्छतं ।
तेजोद्विके मनुष्यायुर नेति सत्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेकमेव । ‘णहि १५ सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुर्ग' इति नियपात् । सर्वत्र इंद्रियमार्गणायां कायमार्गणायां चोद्वेल्लनापि
इन्द्रिय मार्गणामें कहते हैं
इन्द्रिय और कायमार्गणामें पंचेन्द्रिय और त्रसकायमें गुणस्थानवत् सत्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान चौदह । उनमें सब रचना गुणस्थानोंकी तरह ही जानना। शेष
एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पृथ्वी अप् वनस्पतिकायिकोंमें लब्ध्यपर्याप्तककी २० तरह तीर्थकर नरकायु और देवायुका अभाव होनेसे सत्त्व एक सौ पैंतालोस । वहाँ मिथ्या
दृष्टिमें मत्त्व एक सौ पैंतालीस, असत्व शून्य । सासादनमें आहारकद्वयका असत्त्व, सत्त्व एक सौ तैंतालीस।
तेजकाय वायुकायमें मनुष्यायु भी नहीं होती अतः सत्त्व एक सौ चवालीस। उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है क्योंकि ऐसा नियम है कि लब्ध्यपर्याप्तक, साधारण२५ वनस्पति, सूक्ष्मकाय, तेजकाय वायुकायमें सासादन गुणस्थान नहीं होता। तथा सर्वत्र इन्द्रिय
मार्गणा और कायमार्गणामें उद्वेलना भी होती है । जैसे रस्सीको बलपूर्वक उधेड़नेसे उसका रस्सीपना नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिन प्रकृतियोंका बन्ध किया था उनको उद्वेलन भाग
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५७९ प्रकृतिगळु संक्लिष्ट जीवंगाळदमुवेल्लन भागहारदिदमपकर्षिसिकोड परप्रकृतिस्वरूपमप्पंतु माडि कडिसल्पडुगुमदनुवेल्लनमें बुदु । आ उद्वेल्लनप्रकृतिगळाउदोडे पेळ्दपरु:
हारदु सम्म मिस्सं सुरदुग णारयचउक्कमणुकमसो।
उच्चागोदं मणुदुगमुत्वेन्लिज्जति जीवेहिं ॥३५०।।। मुंदे विस्तरमागियुवेल्लनविधानं पेळल्पडुगुमीसत्व प्रकरणदोळु प्रसंगायातमप्पुरिदमा- ५ हारकद्विक, सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुं सुरद्विकमुं नारकचतुष्कमुं उच्चैग्र्गोत्रमुं मनुष्यद्विकमुमेंब पदिमूरुं प्रकृतिगळुक्तक्रमदिदं जीवंगाळदमुवेल्लनविधानदिदं केडिसल्पडुवुवावाव जीवंगळावाव प्रकृतिगळगुवेल्लनमं माळ्पुर्व दोडे पेन्दंपरु :
चदुगदिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पि तिणि तेउदुगे ।
सिय अस्थि णत्थि सत्तं सपदे उप्पण्णठाणेवि ॥३५१॥ चतुर्गतिमिथ्यादृष्टौ चतस्रः एकविकले षडपि तिस्रस्तेजोद्विके स्यादस्ति नास्ति सत्त्वं स्वपवे उत्पन्नस्थानेपि ॥
चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टियोळ नाल्कु। एकेंद्रियविकलत्रयंगळोळारु। तेजोद्विकदोळु मूरुप्रकृतिगळ । स्वस्थानदोळमुत्पन्नस्थानदोळं स्यात्सत्वंगळं स्यादसत्वंगळुमप्पुवदेतेंदोडे तोत्यंकरत्वमुं नरकायुष्यमुं देवायुष्यमुं सत्वमिल्लद चतुर्गतिय संक्लिष्टमिथ्यादृष्टि जीवनाहारक. १५ द्विकमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ नूरनाल्वत्तमूर प्रकृतिगळ सत्वमक्कु-१४३। मवरोळ. भवेत् बल्वेजरज्जुभावविनाशवत् प्रकृतेरुवेल्लनभागहारेणापकृष्य परप्रकृतितां नीत्वा विनाशनमुद्वेल्लनं ॥३४९॥ ताः प्रकृतीराह
उद्वेल्लनविषानं विस्तरेण वक्ष्यमाणमप्यत्र प्रसंगायातं आहारद्विकं सम्यक्त्वप्रकृतिः मिश्रप्रकृतिः सुरद्विक नारकचतुष्कं उच्चैर्गोत्र मनुष्यद्विकं चेति त्रयोदश प्रकृतयः क्रमेणोद्वेल्ल्यंते ॥३५०॥ कै वैः का इति चेदाह- २०
चतुर्गतिमिथ्यादृष्टी चतस्रः । एकविकलेंद्रियेषु षट् । तेजोद्विके तिस्रः । स्वस्थाने उत्पन्नस्थाने च सत्त्वं स्यादस्ति स्यान्नास्ति । तद्यथाहारके द्वारा अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूप करना और इस प्रकारसे उनको नष्ट करनेका नाम उद्वेलन है ॥३४९|
आगे उद्वेलना प्रकृतियों को कहते हैं
आगे उद्वेलनाका विधान बिस्तारसे कहेंगे। फिर भी यहाँ प्रसंगवश कहते हैं। आहारकद्विक, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ये तेरह प्रकृतियोंकी क्रमसे उद्वेलना की जाती है ।।३५०॥
कौन जीव किस प्रकृतिकी उद्वेलना करता है, यह कहते हैं
चारों गतिके मिथ्यादृष्टि जीवोंके चार, एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके छह और तेजकाय वायुकायके तीन प्रकृतियाँ स्वस्थान और उत्पन्न स्थानमें कोई प्रकारसे हैं और कोई प्रकारसे १. व वल्वरजोरयादुद्वलेनेनैव प्रकृते ।
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५८०
गो० कर्मकाण्डे
सम्यक्त्वप्रकृतियनुवेल्लनमं माडिदोडे नूर नाल्वत्तरडु सत्वमक्कु १४२। मवरोळ, सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियनुवेल्लनमं माडिदोडे नूरनाल्वनोदु प्रकृतिसत्वमक्कु १४१ मितु स्वस्थानबोळ चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टिगळोळ द्वेलनमं माडिव पक्षदोळ सत्वंगळप्पुवुद्वेल्लनमं माडद पक्षदोळ नूर नाल्वत्तय्दु
प्रकृतिसत्वमक्कु १४५ । मुत्पन्नस्थानदोळे केंद्रिय द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रिय पृथ्विकायिक अप्कायिक५ वनस्पतिकायिक ब सप्तस्थानदोळं नूर नाल्वत्तय्, नूर नाल्वत्तमूरुं नूर नाल्वत्तेरडुं नूर नाल्वत्तों दूं प्रकृतिसत्वमप्पुवु । आल्ल एक विकलत्रयंगळु सुरद्विकमनुद्वेल्लनमं माडिद पक्षदोलु स्वस्थानदोळ नूरमूवत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वमकुमवरोळु नारकचतुष्टयमनुद्वेल्लनमं माडिद पक्षदोळु स्वस्थानदोळ नूर मूवतय्दु प्रकृतिसत्वमक्कु-१३५ । मुत्पन्नस्थानदोळ तेजस्कायिक वायुकायिकंगळोळ
मनुष्यायुष्यं रहितमागि नूर नाल्वतनाल्कुं नूर नाल्वत्तेरडुं नूर नाल्वत्तोढुं नूर नाल्वत्तुं नूर१० मूवत्तटुं नूर मूवत्तनाकुं सत्वंगळप्पुवल्लि उच्चैग्ोत्रमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ नूर
मूवत्तमूरु प्रकृतिगळ, स्वस्थानदोळ सत्वमक्कुमवरोळ नरकद्विकमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ. नूर मूवत्तोंदु प्रकृतिगळ स्वस्थानदोळ सत्वमक्कुमुत्पन्नस्थानदो केंद्रियादिसप्तस्थानंगळोळ नूर मूवत्तमूरुं नूर मूवत्तोंसत्वमप्पुवु । संदृष्टि :
तीर्थकग्नरकदेवायुरसत्वचातुर्गतिकसंक्लिष्टमिथ्यादृष्टेराहारकद्विके उद्वेल्लिते त्रिचत्वारिंशच्छतं सत्त्वं । १५ पुनः सम्यक्त्वप्रकृतावुद्वेल्लितायां वाचत्वारिंशच्छतं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतावुद्वेल्लितायां एक चत्वारिशच्छतं,
स्वस्थाने स्यात् । अकृतोद्वेल्लनस्य तस्य पंचचत्वारिंशच्छतमेव । उत्पन्नस्थाने एकद्वित्रिचतुरिद्रियपृथ्व्यब्वनस्पतिकायिकेषु तानि चत्वारि सत्वानि । पुनः सुरद्विके उद्वेल्लिते स्वस्थाने एकोनचत्वारिंशच्छतं । पुनरिकचतुष्के उल्लिते स्वस्थाने पंचत्रिशच्छतं । उत्पन्नस्थाने तेजोद्विके मनुष्यायुर भावाच्चतुश्चत्वारिंशच्छतं
द्वाचत्वारिंशच्छतं एकचत्वारिंशच्छतं चत्वारिंशच्छतं अष्टात्रिंशच्छतं चतुस्त्रिशच्छतं च । पुनः स्वस्थाने २. नहीं हैं। अर्थात् यदि उद्वेलना न हुई तो इनका सत्त्व होता है और उद्वेलना हुई तो सत्त्व
नहीं होता; जिसके तीर्थकर, नरकायु देवायुका सत्त्व नहीं है ऐसे चारों गति के संकिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीवके आहारकद्विककी उद्वेलना करनेपर एक सौ तैंतालीसका सत्त्व होता है। पुनः सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर एक सौ बयालीसका और मिश्रमोहनीय
की उद्वेलना करने पर एक सौ इकतालीसका सत्त्व स्वस्थानमें होता है। उद्वेलना न करनेपर २५ उसके एक सौ पैंतालीसका ही सत्त्व होता है। उत्पन्न स्थानमें एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,
चौडन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकायमें वे चारों सत्त्व एक सौ पैंतालीस. एक सौ तैंतालीस, एक सौ बयालीस, एक सौ इकतालीस होते हैं। पुनः देवगति देवानुपूर्वीकी उद्वेलना करनेपर स्वस्थानमें एक सौ उनतालीसका सत्त्व होता है। पुनः नारक चतष्ककी
उद्वेलना करनेपर स्वस्थानमें एक सौ पैंतीसका सत्त्व होता है। उत्पन्न स्थानमें तेजकाय ३० वायुकायमें मनुष्यायुका भी सत्व न होनेसे बिना उद्वेलना हुए सत्त्व एक सौ चवालीस,
आहारकद्विककी उद्वेलना होनेपर एक सौ बयालीस, सम्यक्त्वके उद्वेलना होनेपर एक सौ इकतालीस, मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना होनेपर एक सौ चालीस, देवद्विककी उद्वेलना होनेपर एक सौ अड़तीस, नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर एक सौ चौंतीसका सत्त्व होता है । पुनः स्वस्थानमें उच्चगोत्रकी उद्वेलना करनेपर तेजकाय वायुकायमें सत्त्व एक सौ तेतीस होता है,
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ए। द्वि। त्रि। च । पृ। अ।व। योग्य १४५
__० ० ० ० ० स्वस्थान आ६ सं१ मि १ मि १ सु २ नार ४
उत्पन्न ॥ .४५ १४३ १४२ १४२ १४१ १३९ १३५ । १३३ | १३४
| तेजो द्विक योग्य १४४ _ - * अ २. सं १ मि ? सु २ ना ४ उ १ म २
१४४ १४२ | १४१ १४०/१३८ १३४ | १३३ १३१ अनंतरं योगमार्गयोळ सत्वप्रकृतिगळं पेळ्दपरु :
पुण्णेक्कारसजोगे साहारय मिस्सगे वि सगुणोघं ।
वेगुम्वियमिस्सेवि य णवरि ण माणुस तिरिक्खाऊ ॥३५२।। पूर्णैकादशयोगेष्वाहारकमिश्रकेऽपि स्वगुणौधः वैक्रियिकमिश्रेऽपि च नवीनं न मानुषतिर्यगायुषी॥
पूर्णैकादशयोगेषु नाल्कु मनोयोगंग नाल्कु वाग्योगंगळु मौदारिक वैक्रियिकाहारकमुब पर्याप्तकादश योगंगळोळमाहारकमिश्रकाययोगदोळं स्वगुणौवमक्कुमल्लि मनोवागौदारिकमें बों. भत्तुं योगंगळोळु सत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वत्तटु १४८ गुणस्थानंगळं मिथ्यादृष्टिमोदलागि पदिमुरुं गुणस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि :उच्चैर्गोत्रे उद्वेल्लिते त्रयस्त्रिशच्छतं । पुनः नरकद्विके मनुष्यद्विके (?) उद्बोल्लते एकत्रिशच्छतं इदमंत्यसव्वद्वयं १० उत्पन्नस्थानेऽप्येकेंद्रियादिसप्तस्वप्यस्ति ॥३५१॥ अथ योगमार्गणायामाह
पूर्ण कादशयोगेषु चतुर्मनश्चतुर्वागौदारिकवैक्रियिकाहारकयोगेषु आहारकमिश्रे च स्वगुणौषः इत्याद्येषु नवसु सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानानि त्रयोदश । तस्य संदृष्टिः
और मनुष्य द्विककी उद्वेलना होनेपर एक सौ इकतीसका सत्त्व होता है। ये अन्तके दोनों सत्त्व एक सौ तैतीस और एक सौ इकतीस उत्पन्न स्थानमें एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, १५ चौइन्द्रिय, पृथ्वी, अप , वनस्पतिकायमें भी होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर दो सत्त्व कहे हैं-स्वस्थान सत्त्व और उत्पन्न स्थानमें सत्त्व । विवलित पर्यायमें उद्रेलनाके बिना या उद्वेलना होनेसे जो सत्त्व होता है वह स्वस्थान सत्त्व है। और उस सत्त्वके साथ आगामी पर्यायमें जो उत्पत्ति होती है वहाँ उस सत्त्वको उत्पन्न स्थानमें सत्त्व कहते हैं।
आगे योग मागणामें कहते हैं
चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक वैक्रियिक आहारक इन ग्यारह पूर्णयोगमें तथा आहारकमिश्रमें अपने-अपने गुणस्थानोंकी तरह जानना। इनमेंसे आदिके नौ योगोंमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस है और गुणस्थान बारह अथवा तेरह होते हैं। उसकी रचना
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५८२
व्यु मि० सा० मि०
स | १४८ | १४५ | १४७ अ ० ३
१
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←
अ १
आहारक काययोगदोळं तन्मिश्रकाययोगदोळं नरकतिथ्यंगायुर्द्वयवज्जितमागि प्रमत्तसंयतनोळ नूरनावतार सत्यमक्कु १४६ । वैक्रियिककाययोगदोळ नूर नाल्वत्ते टु प्रकृतिगळ सत्यमक्कु १४८ महिल मिथ्यादृष्टि नूरवात्पत्ते टु प्रकृतिसत्व मक्कुमेक दोड तोत्थंसत्वयुक्तं तृतीय पृथ्विपथ्यंतं गमनमुपुर्दारदं । सासादननोळु नूर नात्वतथ्दु प्रकृतिसत्वमक्कु १४५ | मसत्वंगळु मूरु ५ ३ । मिश्रनो नूरनात्वते सत्वमक्कु १४७ मसत्वमोंदु १ । असंयतनोळु नूर नाल्वते टु सत्वमक्कु । १४८ । संदृष्टि : वैक्रियिक काययोग्य १४८
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मनो ४ । वाग्योग ४ । औदारिक काययोग १ | योग्य १४८ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
वैक्रियिकमिश्रकाययोगदोळु मिथ्यादृष्टियोळु तिर्य्यग्मनुष्यायुर्ध्वज्जितमागि नूरनावतार प्रकृतिसत्वमक्कु १४६ | मल्लियुमसत्वं शून्यमक्कुं । सासादनतोलु नरकायुर्ब्रज्जितभगि मुन्निन मूरुं प्रकृतिगळगूडियसत्वंगळु नाल्कु ४ । सत्बंगळु नूरनात्वतरडु १४२ । असंयतनोळ नूरनात्वत्तारु प्रकृतिसत्वमकुं । संदृष्टि :
वै० मि० का० योग्य १४६
० मि सा अ
स १४६ १४२ १४६
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O ४
o
औवारिक मिश्रकाययोगवोळ सत्यप्रकृतिगळं पेळदपरु :1
ओराल मिस्स जोगे ओघं सुरणिरय आउगं णत्थि । तमिस्वामगेण हि तित्थं कम्मेवि सगुणोघं ॥ ३५३ ॥
५८३
औवारिक मिश्रयोगे ओधः सुरनारकायुर्नास्ति । तन्मिश्रवामे न हि तीत्थं कार्म्मणेऽपि स्वगुणैौघः ॥
औवारिक मिश्रकाययोगदोळु सामान्य सत्यप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्ते टरोळ सुरनारकायुर्द्वयमं १० कळवु शेष नूरनात्वत्ताद प्रकृतिसत्वमक्कु १४६ । मल्लि मिथ्यादृष्टियोळ तीर्थंकर सत्वमिल्लेके बोर्ड तीर्थसत्वमुळ जीवनौदा रिकमिश्रकाययोगि तीर्थंकरकुमारनप्पुदरिदं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं
५
असत्वं त्रयं । मिश्रे सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं असत्वमेकं । असंयते सत्त्वं सर्व ।
तन्मिश्रयोगे तिर्यगमनुष्यायुषी नेति मिध्यादृष्टो सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं असत्त्वं शून्यं । सासादने नरकायुस्तत्त्रयं च नेत्यसत्वं चत्वारि सत्वं द्वाचत्वारिंशत् शतं । असंयते सत्त्वं षट्चत्वारिंशत् शतं ॥ ३५२ ।। १५ atarfreमिश्रयोगस्याह
tarfreमिश्रयोगे सामान्यसत्त्वं किंतु सुरनारकायुषी न स्तः इति षट्चत्वारिंशत् शतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं पंचचत्वारिंशत् शतं तन्मिश्रवामे तीर्थ नहीत्युक्तत्वात् । असत्वमेकं । सासादने असत्त्वं त्रयं, तीन । मिश्रमें सरव एक सौ सैंतालीस, असत्व एक । असंयत में सबका सत्त्व है ।
२०
वैक्रियिक मिश्रयोगमें तिर्यचायु मनुष्यायुका सत्व नहीं होता। अतः मिथ्यादृष्टि में सरब एक सौ छियालीस, असत्त्व शून्य । सासादनमें नरकायु तथा आहारकद्विक और तीर्थकरके न होनेसे असश्व चार, सत्त्व एक सौ बयालीस । असंयत में सत्त्व एक सौ छियालीस ||३५२||
औदारिक मिश्रयोग में कहते हैं
औदारिक मिश्रयोग में सामान्यवत् सत्य है । किन्तु देवायु नरकायुके न होनेसे एक २५ सौ छियालीसका सत्व है । वहाँ मिध्यादृष्टिमें सत्व एक सौ पैंतालीस, क्योंकि औदारिक मिश्र में मिथ्यादृष्टिके तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता, ऐसा कहा है । अतः असत्त्व एक ।
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गो० कर्मकाण्डे
संभविसदप्पुरिदं तन्मिश्रवामे न हि तीर्थम दितु पेळल्पटुदु । अल्लि नूर नाल्वत्त सत्वमक्कु १४५ । मसत्वमों दु । सासादननोळ असत्वं मूरु ३ । सत्वंगळु नूर नाल्वत्तमूरु १४३। असंयतनोळ सत्वं नूर नाल्वत्तारु १४६ । सयोगकेवलियोनु सत्वंगळेण्भतय्दु ८५ । असत्वंगळस्वत्तोंदु ६१ । संदृष्टि :
औ० मि० योग्य १४६ ।
० मि सा स १४५ १४३ १४६ |
अती १ ३ ० ६१ | कामणे स्वगुणौघः कार्मणकाययोगदोळु चतुर्गतिसाधारणमप्पुरिदं भुज्यमाननाल्कायुष्यंगळ संभविसुबवापुरिदं सत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वत्तें'टु १४८ । मिथ्यादृष्टियोळु नूरनाल्वत्तेंटु १४८ । सासादननोळ नूरनाल्वत्तनाल्कु १४४ । सत्वमसत्वंगळु तीर्थमुमाहारकद्विक, नरकायुष्यमुं नाल्कप्पुवु ४। असंयतनोळ सत्वंगळु नूर नाल्वत्तटु १४८ । सयोगकेवलियोळ सत्वंगळे भत्तय्दु ८५ । असत्वंगळरुवत्तमूरु ६३ । संहष्टि :
___ कार्मणकाययोग्य १४८ ।
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| स १४८ १४४ १४८ / ८५ ||
अ. ४०६३ | अनंतरं वेदादिमागणेगळोलु सत्वप्रकृतिगळं व्याप्तियागि पेळ्वपरु :सत्त्वं त्रिचत्वारिंशत् शतं । असंयतेऽसत्त्वं शून्यं सत्त्वं षट्चत्वारिंशत् शतं । सयोगे सत्त्वं पंचाशीतिः । असत्त्वमेकषष्टिः ।
कार्मणयोगे चतुर्गतिभुज्यमानायुःसंभवात् मिथ्यादृष्टौ सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं, सासादने सत्त्वं चतुश्चत्वारिंशत् शतं, असत्त्वं तीर्थाहारनरकायूंषि । असंयते सत्वमष्ट चत्वारिंशत् शतं । सयोगे सत्त्वं पंचाशीतिः। असत्त्वं त्रिषष्टिः ॥३५३।। अथ वेदमार्गणादिष्वाह
सासादनमें असत्त्व तीन, सत्त्व एक-सौ तैतालीस । असंयतमें असत्त्व शून्य, सत्त्व एक सौ छियालीस । सयोग केवलीमें सत्त्व पिचासी, असत्त्व इकसठ।
__कार्मणकाय योगमें चारों गति सम्बन्धी भुज्यमान आयुका सत्त्व सम्भव है अतः मिध्यादृष्टि में सत्त्व एक सौ अड़तालीस । सासादनमें सत्व एक सौ चवालीस । असत्त्वमें तीर्थकर, आहारकद्विक, नरकायु ये चार । असंयतमें सत्व एक सौ अड़तालीस । सयोगीमें सत्त्व पिचासी, असत्त्व त्रेसठ ॥३५३।।
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका वेदादाहारोत्ति य सगुणोघं णवरि संढथीखवगे।
किण्हदुगसुहतिलेस्सियवामेवि ण तित्थयर सत्तं ॥३५४॥ वेदादाहारपयंतं स्वगुणौघः नवीनं पंढरीक्षपके । कृष्णद्विकशुभत्रयलेश्यावामेपि न तीर्थकर सत्वं ॥ ____ वेदत्रयोळु पुंवेदमार्गणेयो सत्वप्रकृतिगळ नूर नाल्वत्तं'टु १४८। मिथ्यादृष्टि ५ मोदल्गोंडु सामान्यदिदं पदिनाल्कु गुणस्थानंगळप्पुल्लि गुणस्थानदोळ्पेळदंते सत्वप्रकृतिगळक्कुं। पंढस्त्रीक्षपके षंढवेदमागंणेयोळं स्त्रीवेदमागणेयोळं गुणस्थानदोळ्पेळवंते नूर नाल्वत्तंटु प्रकृतिसत्वमल्लि क्षपकश्रेणियोळ तीर्थकरसत्वमिल्लेके दोडे तीर्थकरसत्वमुळ्ळजीवं तवेदोदयसंक्लेशदिदं क्षपकश्रेणियनेरुवुदिल्लदु कारणमागियपूर्वकरणंगे तीर्थरहितमागि नूर मूवत्तेनु प्रकृतिसत्वमक्कुं। शेष विधानमिनितुमनिवृतिकरणादिगळोळु गुणस्थानदोळ पेक्रदंते सत्वप्रकृति- १० गळ ओंदुगुंदियप्पुवु । संदृष्टियु गुणस्थानदोळपेन्दतयप्पुरिदं बरयल्पटुबिल्ल । कषायमार्गणयोळ क्रोधमानमायाकषायंगळ्गनिवृत्तिकरणगुणस्थानपर्यतमो भत्तुं गुणस्थानंगळप्पुवु । योग्यmmmm
__ वेदमार्गणातः आहारमार्गणापर्यंत स्वगुणौधः इति पुंवेदे सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । गुणस्थानानि चतुर्दश । रचना गुणस्थानोक्तव ।
___षंडस्त्रीवेदयोः सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं किंतु क्षपकश्रेण्यां न तीर्थकरसत्त्वं तत्सत्त्वे तदुदयसंक्लिष्टस्य १५ तत्रारोहणाभावात्, तेनापूर्वकरणादिषु सत्त्वमेकैकहीनं स्यात् ।
वैक्रियिक काययोग १४८ वैक्रियिक मिश्र १४६ औदारिक मिश्र १४६ । । मि. | सा. | मि. | अ. | | मि. | सा. | अ. | | मि. सा. | अ. सयो. सत्त्व १४८ १४५ १४७ १४८ | १४६ १४२ १४६ | १४५ १४३, १४६/८५ →
कामेण १४८ मि. सा. अ. स.| १४८ १४४ १४८ ८५
६३ | आगे वेदमार्गणा आदिमें कहते हैं
वेदमार्गणासे आहारमार्गणा पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थानवत् जानना। पुरुषवेदमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान चौदह । रचना गुणस्थानवत् । नपुंसक स्त्रीवेदमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । किन्तु क्षपक श्रेणी में तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता; क्योंकि तीर्थकरका । सत्त्व होनेपर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके उदयके साथ संक्लेश परिणामी जीव क्षपक श्रेणीपर आरोहण नहीं कर सकता। अत: अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें सत्त्व एक-एक
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गो० कर्मकाण्डे
सत्यप्रकृतिगळु नूर नाव ते दु १४८ । लोभकषाय मार्गणेयोळमंते सत्यप्रकृतिगळु नूरनात्बतें' टु १४८ । मिथ्यादृष्टघावि सूक्ष्मसांप (पपर्यंतं गुणस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टियुं विशेष मिल्लप्पुर्वार गुणस्थानदोळ पेळवतेयक्कुं । ज्ञानमार्गणेयोल कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानंगलोळु सत्यप्रकृतिगळु नूर नावर्त्त १४८ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ, असत्वं शून्यं सत्वप्रकृतिगळ, नूर नावर्त्तदु ५ १४८ । सासादननोळ असत्वं मूरु ३ । सत्वप्रकृतिगळ, नूरनावत्तदु १४५ । मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयदोळ सत्वप्रकृतिगळ, नूर नावर्त्तटु १४८ । गुणस्थानंगळ असंयताविनवकमक्कुमल्लि गुणस्थानदोळ, वेळ संदृष्टिरियल्पडुगुं । मनःपय्यंयज्ञानमार्गणेपोळ, नरकतिर्य्यगायुष्यं पोरगागि योग्यत्वप्रकृतिगळ १४६ । प्रमत्तसंयतादि सप्तगुणस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टियुं गुणस्थानदोळपे यक्कुं । केवलज्ञानमाळ योग्य सत्यप्रकृतिगळ भत्तय्डु ८५ । १० सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानद्वयमक्कुं । गुणस्थानातीतरप्प सिद्धरमोळरु ॥ संयममार्गणेघोळ. असंयमयोग्यप्रकृतिगळ नूर नाल्वर्त्त दु १४८ । अल्लि मिथ्यादृष्ट्यादियागि चतुग्र्गुणस्थानंगळवु । संदृष्टि :
१५
०
स
अ
असंयमयोग्य १४८
मि
सा मि असं
| १४८ | १४५ | १४७ १४८ ० ३ । १ । ०
कषायमार्गणायां सत्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । गुणस्थानानि क्रोधादित्रयेऽनिवृत्तिकरणांतानि नव । लोभे सूक्ष्मसांपरायांतानिळे दश संदृष्टिर्गुणस्थानवत् ।
ज्ञानमार्गणायां कुमतित्रये सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । तत्र मिध्यादृष्टावसत्त्वं शून्यं सत्त्वं सर्वं । सासादनेऽसत्त्वं त्रयं । सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं । मतित्रये सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं गुणस्थानान्यसंयतादीनि नव । दृष्टिस्तदुक्तव । मन:पर्यये नरकतिर्यगायुरभावात्सत्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानि प्रमत्तादीनि सप्त, संदृष्टिस्तद्वत् । केवलज्ञाने सत्त्वं पंचाशीतिः संयोगायोगगुणस्थानद्वयं । गुणस्थानातीताः सिद्धाः ।
संयममार्गणायामसंयमे सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि चत्वारि । संदृष्टिस्त
२० हीन होता है । कषाय मार्गणा में सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान क्रोध, मान, मायामें अनिवृत्तिकरणपर्यन्त नौ । लोभमें सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त दश । रचना गुणस्थानवत् जानना | ज्ञानमार्गणा में कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान में सत्त्व एक सौ अड़तालीस । वहाँ मिथ्यादृष्टिमें असत्त्व शून्य, सत्व में सब । सासादनमें असत्त्व तीन, सत्व एक सौ पैंतालीस । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान असंयत आदि नौं । रचना गुणस्थानवत् । मनःपर्यय में नरकायु तिर्यंचायुका अभाव होनेसे सत्व एक सौ छियालीस । गुणस्थान प्रमत्त आदि सात । रचना गुणस्थानवत् । केवलज्ञान में सत्त्व पचासी । दो गुणस्थान सयोग केवली और अयोगकेवली । सिद्धोंके कोई गुणस्थान नहीं होता ।
२५
१. वनि रचना गुणस्थानोक्ता । २. व गुणस्थाने सयोगायोगे ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५८७ देशसंयमवोळ सत्वप्रकृतिगळ नरकायुष्यं पोरगागि नूर नाल्वत्तेळ १४७ । देशसंयतगुणस्थानमो देयक्कुं। सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमद्वयदोळ, नरकतिर्यगायुयरहितमागि नूर नाल्वत्तारु सत्वप्रकृतिगळप्पुवु १४६ । प्रमत्तसंयतादि नाल्कु गुणस्थानंगळप्पुवु। संदृष्टियु गुणस्थानदोळ पळवंतयक्कुं। परिहारविशुद्धिसंयमदोळ सत्वप्रकृतिगळ नरकतिर्यगायुद्वयं पोरगागि योग्यसत्वंगळ नूरनाल्वत्तारु १४६ । 'परिहारं पमदिवरे' एंदु प्रमत्ताप्रमत्तसंयतगुण- ५ स्थानद्वयमेयप्पुदु। सूक्ष्मसांपरायसंयतदोळु सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानमोवेयक्कं। सत्वप्रकृतिगळ नूरर १०२। यथाख्यातसंयममार्गयोळ नाल्कुगुणस्थानंगळप्पुवल्लि उपशांतकषायनोळ, सत्वप्रतिगळ नूर नाल्वत्तारु १४६ नूरमूवत्तेटुमप्पुवु १३८ । क्षीणकषाय वीतरागच्छास्थनोळ सत्वंगळ नूरोदु १०१। सयोगिकेवलिभट्टारकनोलु एभत्तन्दु सत्वप्रकृतिगळु ८५ । अयोगिकेवलिभट्टारकनविचरमसमयवो सत्वप्रकृतिगळे भत्तय्बु ८५ । चरमसमयदोळु पविभूल १३। १० संदृष्टि :
यथाख्यात योग्य १४६ ० उ क्षी१६ स० म ७२ १३ स १४६ १३८ /१०१ । ८५ । ८५ | १३
अ ० ८ । ४५ । ६१ । ६१ [१३३ वर्शनमार्गणेयोल चक्षुरचक्षुद्देशनद्वयदोळ नूरनाल्वत्तें टु सत्वप्रकृतिगळ, १४८ । मिथ्यादृष्टयादि द्वावशगुणस्थानंगळोळं गुणस्थानवोळ पेन्वंत सत्वप्रकृतिगळप्पुवु। अवधिवशनदोळु
दुक्तव । देशसंयते सत्त्वं नरकायुरभावात्सप्तचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानं तन्नाम । सामायिकछेदोपस्थापनयोर्नरकतिर्यगायुषी नेति सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं गुणस्थानानि प्रमत्तादोनि चत्वारि । संदृष्टिस्तदुक्तैव । परिहार- १५ विशुद्धो सत्त्वं तदायुद्वयाभावात् षट्चत्वारिंशच्छतं गुणस्थानं प्रमत्ताप्रमत्तद्वयं । सूक्ष्मसापराये गुणस्थानं तलामैव सत्त्वं द्वघुत्तरशतं । यथाख्याते गुणस्थानानि चत्वारि तत्रोपशांतकषाये सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं अष्टत्रिशच्छतं च । क्षीणकषाय एकोत्तरशतं। सयोगे पंचाशीतिः । अयोगे द्विचरमसमयांतं पंचाशीतिः, परमसमये त्रयोदश ।
संयममार्गणामें असंयममें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि २० चार । रचना गुणस्थानवत् । देशसंयतमें सत्त्व नरकायुका अभाव होनेसे एक सौ सैंतालीस गणस्थान एक देशसंयत ही होता है। सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें नरकायु तिर्यचायु. के न होनेसे सत्त्व एक सौ छियालीस । गुणस्थान प्रमत्त आदि चार । रचना गुणस्थानवत् । परिहार विशुद्धि संयममें भी नरकायु तियंचायुका अभाव होनेसे सत्त्व एक सौ छियालीस । गुणस्थान दो प्रमत्त और अप्रमत्त । सूक्ष्म साम्परायमें गुणस्थान एक सूक्ष्म साम्पराय नामक २५ होता है। सत्त्व एक सौदो। यथाख्यात संयममें गणस्थान चार । उनमें से उपशान्त कषायमेंसरव एक सौ छियालीस और एक सौ अड़तीस । क्षीणकषायमें सत्त्व एक सौ एक । सयोगीमें सस्व पिचासी। अयोगीमें द्विचरम समयपर्यन्त पिचासी, अन्तिम समयमें तेरह ।
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५८८
गो० कर्मकाण्डे योग्यसत्वप्रकृतिगळ, नूरनाल्वत्तें' टप्पुवु १४८॥ अल्लि असंयताविनवगुणस्थानंगळप्पुवल्लि गुणस्थानदाळ पेन्दते सत्वप्रकृतिगळप्पुवु । केवलदर्शनमार्गयोळु केवलज्ञानवंते सत्वप्रकृतिगळप्पुवु । सयोगायोगिगुणस्थानद्वितयमक्कं । लेश्यामाग्र्गयोळ "किण्ह दुग वामे ण तित्थयरसतं"
एंदितु कृष्णनीललेण्याद्वयदोळु सत्वप्रकृतिगळ नूर नाल्वत्ते टप्पुवु १४८ ॥ अल्लि मिथ्यादृष्टयावि ५ नाल्कु गुणस्थानंगळप्पुवल्लि मिथ्याष्टियोळ तीर्थमसत्वमक्कु। सत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत
ळप्पु १४७ । वे दोड तीर्थसत्वयुक्तमनुष्यासंयतंगशुभलेश्यात्रयदोलु तीर्थबंधप्रारंभमिल्लमत्तलानुं बद्धनरकायुष्यंगे द्वितीयतृतीयपृथ्विगळोळु पुटुवडे सम्यक्त्वमं किडिसि मिथ्यादृष्टियागि कपोतलेर्यायदं पोकुमप्पुरिदमी कृष्णनीललेश्यावयबोळ मिध्यादृष्टि तीर्थसत्वमुळ्ळनिल्ले. दरियल्पडुगुं। संदृष्टि :
कृ० नी० योग्य १४८ | • मिसा | मि ||
स १४७/१४५ |१४७ १४८ अ । ती १।३ ती १ ० ।
१० दर्शनमार्गणायां चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानान्याधानि द्वादश । संदृष्टिस्त
दुक्तैव । अवधिदर्शने सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं गुणस्थानान्यसंयतादीनि नव । रचना तदुक्तैव । केवलदर्शने तज्ज्ञानवत् ।
लेश्यामार्गणायां कृष्णनीलयोः सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि चत्वारि। तत्र किण्हदुगवामे ण तित्थयरसत्तमितिमिथ्यादृष्टो सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । १ बदनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्योः कपोतलेश्ययैव गमनात् । संदृष्टिः
कृष्ण नी= योग्य १४८
व्यु मि : सा | मि स | १४७ १४५/ १४७ १४८ अ । ती ३ / ती १ .
दर्शन मार्गणामें चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान आदिके बारह । रचना गुणस्थानवत् । अवधिदर्शनमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान असंयत आदि नौ । रचना गुणस्थानवत्। केवलदर्शनमें केवलज्ञानकी तरह जानना।।
लेश्यामार्गणामें कृष्ण और नीलमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान मिध्यादृष्टि २० आदि चार । कृष्ण नीलमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थंकरको सत्ताका अभाव कहा है,
क्योंकि तीन अशुभ लेश्याओंमें तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। तथा जिसने नरकायुका बन्ध किया है वह मरकर दूसरी तीसरी पृथ्वीमें यदि जाता है वो कपोतलेश्यासे ही जाता है।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
कपोत लेश्या मागंणेयो, योग्यसत्वप्रकृतिगळ, तूर नाल्वर्त्तटु १४८ । गुणस्थानंगळ नाकप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टियोळ, सत्वंगळ, नूर नाग्वत्ते दु १४८ । सासादननोळ, नूर नावत्तदु १४५ । मिश्रनो नूर नात्वत्तळ १४७ ॥ असंयतनोळ सत्वंगळ, नूर नावत्ते टु १४८ । संदृष्टि:
कपोतयोग्य १४८ ।
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मि सा मि
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११४८ | १४५ | १४७ | १४८
| ३ |१
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०
तेजःपद्मलेश्यामार्गेणाद्वयदोळु सत्यप्रकृतिगळ, तूर नात्वतें ट १४८ । गुणस्थानंगळेळप्पुत्रल्लि "सुहतिलेस्सिय वामे विण तित्थयरसतं" ये दितु तेजःपद्मलेशयामिथ्यादृष्टियो ती त्यंसत्व मिल्लेकें दोडे नरकगतिगमनाभिमुखसंक्लिष्टजी बंगलगल्लदे सम्यक्त्वविराधनेयिल्ल कारणमागि शुभलेश्यात्रययुक्तं सम्यक्त्वविराधनेयिल्लप्पुरमी शुभलेश्याद्वयदोळ तीर्थसत्वमुळ्ळ मिथ्यादृष्टियिल्ले दरियत्वडुगुमप्पुर्दारदं सत्वप्रकृतिगळु नूरनात्वत्तेळ, १४७ । सासादननोळ. सत्वंगळु नूर नावत्तदु १४५ । मिश्रनोलु सत्वप्रकृतिगळ, नूरनात्वत्तेळु १४७ । असंयत- १० नोळ सत्बंगळु नूरनावत्ते टु १४८ । देश संयतनोंळ, सत्यंगळ, नरकायुष्यं पोरगागि नूरनावत्तेळ १४७ । प्रमत्तसंयतनोळ, नरकतिर्ध्वगायुर्द्वयं पोरगागि सत्वंगळु नूर नाल्वत्तारु १४६ । अप्रमत्तनोळ सत्वंगळ, नूर नाल्वत्तारु १४६ । संदृष्टि
:
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कपोतश्यायां मिथ्यादृष्टौ सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । सासादने पंचचत्वारिंशत् शतं । मिश्र सप्तचत्वारिंशत् शतं । असंयते सर्वं । तेजःपद्द्मलेश्ययोः सत्वमष्टचत्वारिंशत् शतं गुणस्थानानि सप्त । तत्र १५ सुहतिय लेस्सियवामेविण तित्थयरसत्तमिति तन्मिथ्यादृष्टो तीर्थसत्त्वं नास्ति, कुतः ? नरकगमनाभिमुख संक्लिष्टेम्योऽन्येषां सम्यक्त्वविराधनाभावेन शुभलेश्यात्रयं तद्विराधनासंभवात् । तेषु तन्मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं सप्तचत्वारिंशत् शतं । सासादने पंचचत्वारिंशत् शतं । मिश्रे सप्तचत्वारिंशच्छतं । असंयते अष्टचत्वारिच्छतं देशसंयते नरकायुविना सप्तचत्वारिशच्छतं । प्रमत्ते नरकतिर्यगायुषी विना षट्चत्वारिंशत् शतं । अप्रमत्तेऽपि तथैव षट्चत्वा
५
अतः कृष्णनील में मिध्यादृष्टि गुणस्थान में एक सौ सैंतालीसका सत्व होता है। कपोत लेश्या में २० मिध्यादृष्टि में सत्व एक सौ अड़तालीस । सासादन में सत्त्व एक सौ पैंतालीस । मिश्र में सत्त्व एक सौ सैंतालीस । असंयत में एक सौ अड़तालीस ।
तेज और पद्मश्यामें सत्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान सात । आगम में कहा है कि शुभ तीन लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता, अतः मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकर की सत्ता नहीं है क्योंकि जो तीर्थंकरकी सत्तावाला नरक जानेके अभिमुख २५ होता है उसके ही सम्यक्त्वकी विराधना होती है । अतः तीन शुभलेश्याओं में सम्यक्त्वकी विराधना संभव नहीं है। इससे मिथ्यादृष्टि में सत्त्व एक सौ सैंतालीस । सासादनमें एक सौ पैंतालीस । मिश्र में एक सौ सैंतालीस । असंयत में एक सौ अड़तालीस | देशसंयत में नरकायुके बिना एक सौ सैंतालीस । प्रमत्त में नरकायु तिर्यंचायुके बिना एक सौ छियालीस । अप्रमत्तमें
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गो० कर्मकाण्डे
तेजःपद्म० योग्य १४८।
स १४७ १४५ १४७ १४८ १४७ १४६ १४६
शुक्ललेश्यामार्गणेयोळ योग्यसत्वंगळ १४८ । गुणस्थानंगळु मिथ्यादृष्टयावियागि पविमूरप्पु वल्लियुं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळ तीर्थसत्वमिल्ल । कारणं मुंपेन्दुदेयकं । सत्वंगळ नूरनाल्वतेलु १४७ । सासादनादि गुणस्थानंगळोळु गुणस्थानवोपेन्दंतैयक्कं । संदृष्टि :--
शुक्ललेश्यायोग्य १४८ | व्यु | मि | सा | मि अ १ दे १ प्र अ ८ अ अ १६ ८ | १ ||
-१४०-१४५ १४७ १४८ १४७ १४६ १४६ १३८ १३८ १२२ ११४/११/
|६ | १ | १ | १ | १ | १ | उ ० क्षो १६ स | | ११२ १०६ १०१ १०४ १०३ १०२ १४६ १०१ ८५
| ३६ | ४२ ४३ । ४४ ४५ | ४६ । २ । ४७ ६३ भव्यमार्गणेयोळ गुणस्थानदोळु पेळवंत योग्यसत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वत्तेंदु १४८ । ५ गुणस्थानंगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । संदृष्टियुं गुणस्थानदोळपेन्दतैयक्षं विशेषमिल्ल ॥ रिंशत् शतं ।
शुक्ललेश्यायां सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि त्रयोदश । तत्रापि मिथ्यादृष्टो तीर्थासत्वात् सत्त्वं सप्तचत्वारिंशत् शतं । सासादनादिषु गुणस्थानोक्तैव संदृष्टिः ।। भव्यमार्गणायां सत्त्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । गुणस्थानानि चतुर्दश, संदृष्टिस्तदुक्तैव ॥३५४॥
m १० भी उसी प्रकार एक सौ छियालीस ।
शुक्ल लेश्यामें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि तेरह । यहाँ भी मिथ्यादृष्टि में तीर्थकरका असत्त्व होनेसे सत्त्व एक सौ सैंतालीस । सासादन आदिमें रचना गुणस्थानवत् जानना।
भव्य मार्गणामें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान चौदह । रचना गुण१५ स्थानवत् ॥३५४॥
१. व सासादनादी गुणस्थानवत् ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अभव्यमार्गणयोल पेळ्दपरु :--
अभव्वसिद्धे णत्थि है सत्तं तित्थयरसम्ममिस्साणं ।
आहारचउक्कस्सवि असण्णिजीवे ण तित्थयरं ॥३५५॥ अभव्यसिद्धे नास्ति खलु सत्वं तीर्थंकरसम्यक्त्वमिश्राणामाहारचतुष्कस्याप्यसंशिजीवे न तीर्थकरं॥
अभव्यमार्गणेयोळ तीर्थकरसम्यक्त्वमिश्राहारकचतुष्टयमें बेळं प्रकृतिगळणे सत्वमिल्लेके दोर्ड अभव्यजीवंग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राभिव्यक्तिसर्वकालदोळं संभविसवप्पुरिवं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमो वैयक्कं । १४१॥ सम्यक्त्वमार्गणेयोळु मिथ्यारुचिगळ्गे सत्वप्रकृतिगळ नूरनाल्वतंटु १४८ । सासादनरुचिगळ्गे सत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वत्तवु १४५ । मिश्ररुचिगळ्य सत्वप्रकृतिगळु १४७ । उपशमसम्यक्त्वदोलु सत्वप्रकृतिगळ नूरनाल्वत्ते टप्पुवु । अल्लि असंयत- १० गुणस्थानमावियागि उपशांतकषायगुणस्थानावसानमागि ये टुं गुणस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि :--
उपशमसम्यक्त्वदोळु योग्य १४८
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| स १४८ १४७ १४६ | १४६/ १४६ / १४६ १४६ १४६
अ ०२२-२२२२
अभव्यमार्गणायां तीर्थकरसम्यक्त्वमित्राणामाहारकचतुष्कस्य च सत्त्वं नास्ति, तस्य सम्यग्दर्शनाद्यभिव्यक्तेः सर्वकालेऽप्यसंभवात् । गुणस्थानं मिथ्यादृष्टिसंशं । सत्त्वमेकचत्वारिंशच्छतं ।
सम्यक्त्वमार्गणायां-मिथ्यारुचीनां सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । सासादनरुचीनां पंचचत्वारिंशच्छतं । मिश्ररुचीनां सप्तचत्वारिंशच्छतं । उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचत्वारिंशच्छतं। तत्रासंयतायुपशान्तकषायान्तान्यष्टौ १५ गुणस्थानानि । संदृष्टिः
उपशमसम्यक्त्वयोग्य १४८
___ अभव्य मार्गणामें तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और आहारक शरीर अंगोपांग, बन्धन संघातका सत्त्व नहीं होता; क्योंकि उसके सम्यग्दर्शन आदिकी अभिव्यक्ति कभी भी नहीं होती। गुणस्थान एक मिथ्यादृष्टि होता है । सत्त्व एक सौ इकतालीस । १. सर्वदापि तस्य सम्यग्दर्शनाभिव्यक्त्यभावात् ।
२०
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१९२
गो० कर्मकाण्डे वेदकसम्यक्त्वमार्गणयोळु सत्वप्रकृतिगळु नूर नाल्वत्तं टु असंयताविचतुर्गुणस्थानंगळप्पुवु। संदृष्टि :--
वेदक सम्यक्त्वयोग्य १४८। | व्यु अ१ दे १ | प्र अ |
स १४८ १४७ १४६ १४६
अ०
क्षायिकसम्यक्त्वमागणयोल सत्वप्रकृतिगळु सतप्रकृतिरहितमागि नूरनाल्वत्तों वप्पुवु १४१ । अल्लि असंयतनोलु नरकायुष्य, तिर्यगायुष्यमुं सत्वव्युच्छित्तियप्पुवेके दोडे क्षायिक५ सम्यग्दृष्टि देशसंयतं मनुष्यनेयप्पुदु कारणमागि सत्वंगळु नूर नाल्वत्तोंदु । देशसंयतनोळ सत्वप्रकृतिगळु नूर मूवत्तों भत्तु १३९ । अप्रत्तमसंयतनोळु क्षपकश्रेण्यपेक्षेयिंदं देवायुष्यं सत्वव्युच्छित्तिमक्कु १ । सत्वप्रकृतिगळु नूर मूवत्तो भत्तु १३९ । अपूर्वकरणनोळुभयश्रेण्यपेयिंदं सत्वंगळ नूर मूवत्तेंदु१३८ । अनिवृत्तिकरणं मोदल्गोंडु गुणस्थानदोळपेन्दते सत्वंगळप्पुवु । संदृष्टि :वेदकसम्यक्त्वे सत्त्वमष्टचत्वारिच्छतं । असंयतादिचतुर्गुणस्थानानि । संदृष्टिः--
वेदकयोग्य १४८ व्यु अ१ दे१ प्र० स १४८ १४७ १४६ १४६
अ. १२ क्षायिकसम्यक्त्वे सत्त्वं सप्तप्रकृत्यभावादेकचत्वारिंशच्छतं । तत्रासंयते नरकतिर्यगायुषी व्युच्छित्तिः । कृतः? क्षायिकसम्यग्दष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एवेति कारणात । सत्त्वमेकचत्वारिंशच्छतं । देशसंयते एकान्नचत्वारिशच्छतं । प्रमत्तऽप्येकान्नचत्वारिंशच्छतं । अप्रमत्त क्षपकश्रेण्यपेक्षया देवायय॑च्छित्तिः। सत्त्वमेकोनचत्वारिशच्छतं । अपूर्वकरणे उभयश्रेण्यपेक्षयाऽष्टत्रिशच्छतं । अनिवृत्तिकरणादिषु गुणस्थानवत् ।
सम्यक्त्व मार्गणामें मिथ्यारुचि जीवोंमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । सासादन रुचि जीवोंमें तीर्थकरके विना एक सौ सैंतालीस । उपशम सम्यक्त्वमें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । वहाँ असंयतसे लेकर उपशान्त कषाय पर्यन्त आठ गुणस्थान होते हैं। वेदक सम्यक्त्वमें सत्त्व एक सौ अडतालीस गणस्थान असंयत आदि चार । क्षायिक सम्यक्त्वमें सत्त्व एक सौ इकतालीस क्योंकि मोहनीय सम्बन्धी सात प्रकृतियोंका अभाव है। वहाँ असंयत गुणस्थानमें नरकायु तिर्यंचायुकी व्युच्छित्ति होती है क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत
मनुष्य ही होता है। सत्त्व एक सौ इकतालीस । देशसंयतमें सत्त्व एक सौ उनतालीस । " प्रमत्तमें भी एक सौ उनतालीस । अप्रमत्तमें झपकश्रेणीकी अपेक्षा देवायुकी व्युच्छित्ति
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
क्षायिकसम्यक्त्वयोग्य १४१ । | व्यु | अ २ दे प्र अ १ अ अ १६ ८ ११६ ११ ।
स ।१४१ । १३९/१३९ ।१३९ /१३८ |१३८ ।१२२ | ११४/ ११३। ११२। १०६/ १०५ | अ ० । २ २ २ | ३| ३ |१९ । २७२८ । २९ । ३५ । ३६
| १, १ सू१ उ. क्षी१६ स अ ७२ १३ -१०४ १०३ १०२१३८| १०१/ ८५ । ८५ । १३
३७ । ३८ | ३९ | ३ | ४० | ५६ । ५६ १०८ संज्ञिमार्गयोछु सामान्यसत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वते टु १४८। अल्लि मिथ्यादृष्टयादि यागि पन्नेर९ गुणस्थानंगळप्पुवुळिदंतेनुं विशेषमिल्ल ॥ असंज्ञिमागंणयोछ असग्णिजीवे ण तित्थयरमें वितु तीर्थसत्वं पोरगागि नूर नाल्वत्तेलु सत्यप्रकृतिगळप्पुवु नूरनाल्वतेल १४७ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ सत्वंगळु नूरनाल्वत्तेछु १४७ सासादननोळ नूरनाल्वत्तेनु १४५ ॥ आहारमार्गणयोल पेळ्दपरु । सत्वप्रकृतिगळु नूरनाल्वत्ते टप्पुवु १४८ । वल्लि मिथ्यादृष्टयादि- ५ यागि सयोगिकेवलिगुणस्थानपर्यंतं पदिमूलं गुणस्थानंगळप्पुवु मतोंदु विशेषमिल्ल । गुणस्थानदोम्पेन्दत संदृष्टियुमक्कुं। अनाहारमार्गणयोळ पेन्दपरु :--
कम्मेवाणाहारे पयडीणं सत्तमेवमादेसे ।
कहियमिणं बलमाहवचंदच्चियणेमिचंदेण ॥३५६॥ कार्मणमिवानाहारे प्रकृतीनां सत्वमेवमादेशे। कथितमिदं बलमाधवचंद्राच्चितनेमि. १० चंद्रेण ॥
संज्ञिमार्गणायां सामान्यसत्त्वमष्ट चत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि द्वादश विशेषो न ।
असंज्ञिमागंणायां 'ण तित्थयरमिति सत्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । मिथ्यादृष्टावपि तथा । सासादने पंचचत्वारिंशच्छतं ।
आहारमार्गणायां-सत्त्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । गुणस्थानानि सयोगांतानि त्रयोदश। विशेषो १५ नास्ति ॥३५५॥
अनाहारमार्गणार्या कार्मणयोगवत्, संदृष्टिः
होती है। सत्त्व एक सौ उनतालीस । अपूर्वकरणमें उपशमश्रेणी तथा क्षपक श्रेणीकी अपेक्षा एक सौ अड़तीसका सत्त्व । अनिवृत्तिकरण आदिमें गुणस्थानवत् जानना।
संज्ञी मार्गणामें सामान्यसे सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि २० बारह । अन्य कोई विशेष नहीं है। असंज्ञिमार्गणामें तीर्थकर न होनेसे सत्त्व एक सौ । सैंतालीस । मिथ्यादृष्टि में भी सत्त्व एक सौ सैंतालीस । सासादनमें एक सौ पैंतालीस ।।
___ आहारमार्गणामें सत्त्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान सयोगीपर्यन्त तेरह । कोई विशेष नहीं है ॥३५५॥
क-७५
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५९४
गो० कर्मकाण्डे कम्मेवि सगुणोधर्म दितु कार्मणकाययोगदोळ पेळ्वंतनाहारमार्णयोळ सत्वप्रकृतिगळप्पुवु । संदृष्टि :
| व्यु मिसा | अस७२ अ १३ स १४८ १४४ १४८ ८५ ८५ | १३ |
अ । ० ४० ६३ | ६३ । १३५/ यितुक्तप्रकारविंदं मार्गणास्थानदोळ प्रकृतिगळ सत्वमिदु प्रत्यक्षवंदकरप्प बलदेववासुदेवरुळिदच्चिसल्पट्ट नेमिचंद्रतीर्थकर परमभट्टारकरिद पेळल्पदुदु । मेणाबलदेवणनिदं श्रीमाधव५ चन्द्र विद्य देवरुळंदमुं पूजिसल्पट्ट नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रत्तिळिदं पेळल्पटुतु ॥
सो मे तिहुवणमहिओ सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो।
दिसदु वरणाणलाई बुहजणपरिपत्थणं परमसुद्धं ॥३५७॥ स मे त्रिभुवनमहितः सिद्धो बुद्धो निरंजनो नित्यः। दिशतु वरज्ञानलाभं बुधजनपरिप्रात्थितं परमशुद्धं ॥
अनाहारयोग्य १४८
& feroferoferc, calculez
एवं मार्गणास्थाने प्रकृतिसत्त्वमिदं प्रत्यक्षवंदारुम्यां बलदेववासुदेवाभ्यामचितनेमिचंद्रतीर्थकरेण अथवा बलदेवभ्रात्रा श्रीमाधवचंद्रत्रविद्यदेवेनाचितनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तिना निरूपितं ॥३५६॥
स मे त्रिभुवनमहितः सिद्धो बुद्धो निरंजनो नित्यः दिशतु वरज्ञानलाभं बुधजनपरिप्रार्थितं परमशुद्धं ॥३५७॥
अनाहार मार्गणामें कार्मणकाययोगकी तरह जानना । इस प्रकार मार्गणास्थानमें १५ यह प्रकृतियोंका सत्त्व प्रत्यक्ष वन्दना करनेवाले बलदेव और वासुदेवसे पूजित नेमिचन्द्र
तीर्थकरने कहा है। अथवा बलदेव भ्राता और श्री माधवचन्द्र विद्यदेवसे अर्चित नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने कहा है ॥३५६।।
वे श्री नेमिनाथ भगवान् जो तीनों लोकोंके द्वारा पूजित हैं, सिद्ध, बुद्ध, निरंजन और नित्य हैं मुझे वह परम शुद्ध उत्कृष्ट ज्ञान दें, जो ज्ञान ज्ञानीजनोंके द्वारा प्रार्थनीय है, ज्ञानी२० जन जिसे चाहते हैं ।।३५७।।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
५९५ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविवद्वंदवंदनानंदित पुण्यपुंजायमान श्रीमद्राय राजगुरु मंडलाचाय॑महावादवादीश्वररायवादीपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमद्धर्मभूषण भट्टारकदेवप्रिय सधर्मर्नु श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्तिश्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळु कर्मकांडबंधोदयसत्वयुक्तस्तवं महाधिकारं प्ररूपितमादुदु ॥
इत्याचार्यनेमिचद्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां
कर्मकांडे बंधोदयसत्त्वप्ररूपणो नाम द्वितीयोऽधिकारः ॥२॥
१०
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् भहन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णी- के द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत
बन्धोदय सस्वनिरूपण नामक दूसरा अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥२॥
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अथ सत्त्वस्थानमंगाधिकारः ॥३॥
णमिऊण वड्डमाणं कणयणिहं देवरायपरिपुज्जं ।
पयडीण सत्तठाणं ओघे भंगे समं वोच्छं ॥३५८॥ नत्वा वर्द्धमानं कनकनिभं देवराजपरिपूज्यं । प्रकृतीनां सत्वस्थानं ओघे भंगे समं वक्ष्यामि ॥
कनकवर्णनुं देवराजपरिपूज्यनुमप्प श्रीवीरवर्द्धमानस्वामियं नमस्कारमं माडि प्रकृतिगळ ५ सत्वस्थानमं गुणस्थानंगळ भंगसहितमागि पेन्दपनु ।
कि स्थान को वा भंगः एंदित दोड संख्याभेदेनैकस्मिन्जीवे युगपत्संभवत्प्रकृतिसमूहः स्थानं । अभिन्न संख्यानां प्रकृतीनां परिवर्तन भंगः । संख्याभेदेनैकत्वे प्रकृतिभेदेन वा भंगः एंदितु स्थानलक्षणमुं भंगलक्षणमुमरियल्पडुगुं । गुणस्थानोळ स्थानभंगंगळं पेळ्व प्रकारमं पेळ्दपरु:
कनकवणं देवराजपरिपूज्यं श्रीवोरवर्धमानस्वामिनं नत्वा प्रकृतीनां सत्त्वस्थानं गुणस्थानेषु भंगसहितं वक्ष्यामि । कि स्थानं? को वा भंगः ? संख्वाभेदेनैकस्मिन जीवे युगपत्संभवत्प्रकृतिसमूहः स्थानं । अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीनां परिवर्तन भंगः, संख्याभेदेनैकत्वे प्रकृतिभेदेन वा भंगः ॥३५८॥ गुणस्थानेषु स्थानभंगप्रतिपादनप्रकारमाह
. २०
स्वर्णके समान रूपरंगवाले और देवोंके राजा इन्द्र के द्वारा पूजनीय श्री वर्धमान स्वामीको नमस्कार करके प्रकृतियोंके सत्त्वस्थानको गुणस्थानों में भंगके साथ कहूँगा। स्थान १५ किसे कहते हैं और भंगका क्या स्वरूप है यह कहते हैं
एक समय में एक जीवके संख्या भेदको लिये हुए जो प्रकृतियोंका समूह पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं। और समान संख्यावाली प्रकृतियों में जो प्रकृतियोंका परिवर्तन होता है उसे भंग कहते हैं । अथवा संख्या भेदसे समानता रहते हुए भी प्रकृति भेद होनेसे भंग होता है ।।३५८॥
विशेषार्थ-एक जीवके एक कालमें जितनी प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है उनके समूहका नाम स्थान है। सो जहाँ अन्य-अन्य संख्याको लिये प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है वहाँ अन्य-अन्य स्थान कहा जाता है। जैसे किन्हों जीवोंके एक सौ छियालीसकी सत्ता पायी जाती है और किन्हीं जीवोंके एक सौ पैतालीसकी सत्ता पायी जाती है तो यहाँ दो
स्थान हुए । इसी प्रकार सर्वत्र जानना। और जहाँ एक ही स्थानमें प्रकृतियाँ बदल जाती हों २५ तो उसे भंग कहते हैं। जैसे किन्हीं जीवोंके मनुष्यायु और देवायुके साथ एक सौ पैंतालीस
प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है किन्हीं जीवोंके तियचाय नरकायुके साथ एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है। सो यहाँ स्थान तो एक ही हुआ क्योंकि संख्या समान है। १. सत्त्वस्थाननिरूपणा-संख्याप्रकृतिभ्यां भेदे स्थानं । २. संख्यकत्वे प्रकृतिभेदे भंगः।
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
आउघाणभेदमकाऊण वण्णणं पढमं । भेद्रेण य मंगसमं परूवणं होदि विदियम्मि || ३५९ ||
आयुबंधाबंधन भेदन कृत्वा वर्णनं प्रथमं । भेदेन च भंगसमं प्ररूपणं भवति द्वितीयस्मिन् ॥ आयुब्बंधाबंधभेदमं माडदे प्रथमवर्णनमक्कुं । द्वितीयदोळायुर्व्वधावंधभेददोडने भंगसहितमार्गि प्ररूपणमक्कुमल्लि प्रथमपक्षो पेदपरु :---
सव्वं तिगेग सव्वं चेगं छसु दोणि चउसु छद्दस य दुगे । छगदाल दोसु तिसट्ठी परिहीण पर्याडिसत्तं जाणे ॥ ३६० ॥
५९७
सव्वं त्रिकैकं स चैकं षट्तु द्वे चतुर्षु षट् दशकं द्विके । षट् सप्तचत्वारिंशत् द्वयोस्त्रिषष्टि परिहीन प्रकृतिसत्वं जानीहि ॥
मियादृष्टियोळु सव्यं तूर नात्वते प्रकृतिसत्वमक्कुं । सासादननोळ तीर्थमुमाहारक - १० द्विकमेब त्रिहीनस प्रकृतिसत्वमत्रकुं । मिश्रनोळ, तीत्थंरहितमागि सप्रकृतिसत्वमकुं । असंयतनळ, सव्र्व्वं नूरनात्वत्तेढुं प्रकृतिसत्यमक्कुं । देशसंयतनोळ एकं नरकायुष्यं रहितमागि सर्व्वप्रकृतिसत्वमक्कुं । षट्सु द्वे प्रमत्ताप्रमत्तरुगळु मुपशलका पूर्व करणानिवृत्तिकरण सूक्ष्म सांपरायोपांत कषाय बारुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं नरकतिर्य्यगायुष्य में बेरडु प्रकृतिहीनसय्वंप्रकृतिसत्वमक्कुं । चतुर्षु षट् मत्तमुपशमका पूर्व्वानिवृत्तिसूक्ष्मसां परायोपशांतकषायर ब नाकुं १५
आयुबंधा बंधभेदमकृत्वा प्रथमं वर्णनं भवति । द्वितीयस्मिन्नायुबंधा बंषभेदेन सह भंगसहितं प्ररूपणं भवति ।। ३५९ ।। तत्र प्रथमपक्षे प्राह
मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं सर्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । सासादने तदेव तीर्थाहारकद्विकहीनं । मिश्र तीर्थहीनं । असंयते सवं । देशसंयते नरकायुर्हीनं । प्रमत्तादिषु षट्सु नरकतिर्यगायुर्हीनं । पुनरपूर्वकरणादिषु चतुर्षु
५
२०
किन्तु भंग अन्य हुआ क्योंकि प्रकृति बदल गयी है । पहले में मनुष्यायु देवायुकी सत्ता है। और दूसरे में तिर्यंचायु नरकायुकी सत्ता है । इसी प्रकार सर्वत्र अन्य अन्य प्रकृतियों की संख्या होनेसे स्थान भेद होता है । और एक ही स्थानमें कोई प्रकृति अन्य-अन्य होनेसे भंग भेद होता है || ३५८||
आगे गुणस्थानों में स्थान और भंगके भेदोंका प्रकार कहते हैं
२५
आयुके बन्ध अथवा अबन्धका भेद न करके पहला वर्णन है और दूसरे वर्णन में आयुके बन्ध और अबन्धके भेदके साथ भंगसहित वर्णन है || ३५९ ||
उनमें से प्रथम पक्षका वर्णन करते हैं—
मिथ्यादृष्टि में सत्त्व सब एक सौ अड़तालीस है । सासादन में तीर्थंकर और आहारकसे बिना एक सौ पैंतालीसका सत्त्व है। मिश्रमें तीर्थंकरके बिना एक सौ सैंतालीस का सत्व है । असंगत में सब एक सौ अड़तालीसका सत्व है । देशसंयत में सरकायुके बिना एक ३० सौ सैंतालीसका सत्व है । प्रमत्त आदि छह गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा नरकायु तिचा के बिना एक सौ छियालीसका सत्व है । पुनः अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में
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गो० कर्मकाण्डे
गुणस्थानंगळोळ, नरकतिय्यंगायुष्यंगळ, मनंतानुबंधिचतुष्टय में बारुं रहितमागि प्रत्येकं सप्रकृतिसत्वमक्कुं । दशकद्विके क्षपकापूर्व्वकरणानिवृत्तिकरणरे बेरडुं गुणस्थानंगळोळ. प्रत्येकं नरकतिथ्यंग्देवायुष्यंगळ, सप्तप्रकृतिगळ मंतु दश प्रकृतिहीनस प्रकृति सत्वमक्कुं । द्वयोः षट् सप्तचत्वारिंशत् सूक्ष्मसांपराय क्षीणकषायरें बेरडं गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं सोळट्टेविकगि छक्कं ५ चदुक्कर्म व नात्वत्तारुं लोभसहितमागि नात्वत्तेळु होनमागि सर्व्वप्रकृतिसत्यमक्कुं । द्वयोस्त्रिषष्टिपरिहोनप्रकृतिसत्वं सयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयदोळ घातिगळ नात्वते । नामकम्मंदोळु पदिमूरु आयुष्यंगळु मूरिंतु त्रिषष्टिहीनप्रकृतिसत्वं प्रत्येकमक्कुं । च शब्द दिदमयोगकेवलिचरमसमयदोळु नूर मूवत्तय्डु प्रकृतिहीनमागि पदिमूरु प्रकृतिसत्वमक्कुर्म दितु त्वं जानीहि शिष्य नोनरिये दु संबोधिसल्पटुडु । आ होन प्रकृतिगळं पेव्वपरु
२०
५९८
सासण मिस्से देसे संजमदुग सामगेसु णत्थी य ।
तित्थाहारं तित्थं णिरयाऊ णिरयतिरियआउ अणं ॥ ३६१ ।। सासादनमिश्रयोद्देशसंयते संयतद्विकोपशमकेषु नास्ति च । तोर्त्याहारं तीत्थं नरकायुन्नरक तिर्यगायुरनंतानुबंधिनः ॥
सासादननोळं मिश्रनोळं देशसंयतनोळं संयतद्विकदोळमुपशमकरोळं होनप्रकृतिगळ १५ यथाक्रर्मादिदं तीर्थाहारत्रिकमुं तीर्त्यमुं नरकायुष्यमुं नरकतिर्य्यगायुर्द्वयमुं नरकतिथ्यंगायुष्यंगळम
३०
---
नरकतिर्यगायुरनंतानुबंधिचतुष्कहीनं । क्षपकापूर्वकरणादिद्वये नरकतिर्यग्देवायुः सप्त प्रकृतिहीनं । सूक्ष्मसां पुराये सोलट्ठक्क छिक्कं चदुक्कमिति षट्चत्वारिंशता हीनं । क्षीणकषाये लोभसहितया हीनं । सयोगायोगयोः घातिसप्तचत्वारिंशता नामकर्मत्रयोदशभिरायुस्त्रयेण च हीनं । चशब्दादयोगिचरमसमये पंचत्रिंशच्छतहीनं जानीहि ॥ ३६० ॥ ता अपनीतप्रकृतीराह
सासादने मिश्र देशसंयते संयतद्विके उपशमके चापनीतप्रकृतयः क्रमेण तीर्थाहारत्रयं तीर्थं नरकायुष्यं नरकतिर्यगायुर्द्वयं नरकतिर्यगायुषी अनंतानुबंधिचतुष्कं चेति षट् । चशब्दात् क्षपकेषु दस य दुगे इत्यादिनोक्त
नरकायु, तिर्यचायु और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करने की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना एक सौ बयालीसका सत्त्व है। क्षपक अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें नरकायु, तिर्यंचायु, देवायु तथा मोहनीयकी सात प्रकृतियोंके बिना एक सौ अड़तीसका सत्त्व २५ है । सूक्ष्म साम्पराय में अनिवृत्तिकरण में व्युच्छिन्न हुई सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक, एकके बिना एक सौ दाका सत्त्व है । क्षीणकषाय में लोभ सहित सैंतालीस बिना एक सौ एकका सत्त्व है । सयोगी अयोगी में घातिकर्मों की सैंतालीस, नामकर्मकी तेरह और तीन आयुके बिना पिचासीका सत्व है । 'च' शब्दसे अयोगीके अन्तिम समय में एक सौ पैंतीस बिना तेरहका सत्व है || ३६०॥
घटी हुई प्रकृतियोंके नाम कहते हैं
सासादन, मिश्र, देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्त संयत, और उपशम श्रेणीमें घटायी हुई प्रकृतियाँ क्रमसे तीर्थंकर और आहारकद्विक ये तीन तीर्थंकर, नरकायु, नरकायु और
१. योगयोः सप्तचत्वारिंशदधाति त्रयोदशनामध्यायुः हीनं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नंतानुबंधिचतुष्कमुमंतारुं प्रकृतिगळप्पुवु । च शब्दविवक्षपकरोळु दसयदुगे एंदितिवु मोवलागि होनप्रकृतिगळरियल्पडुवुवु | संदृष्टि :व्यु मि० सा० मि० अ दे | प्र अ अ उ अक्ष अनिवृत्ति० उ० अक्ष
स| १४८ | १४५ | १४७/१४८/१४७/ १४६ | १४६ /१४६/१४२ १३८ १४६ । १४२ । १३८ | अ ० । ३ । १ । ० । । २ । २ । २ ६ । १०। २ । ६ । १० |
|१४६ | १४२ | १०२ | १४६ | १४२ | १०१। ८५ । ८५ । १३
| २ | ६ | ४६ । २। ६ । ४७ । ६३ । ६३ ।१३५ । अनंतरं गुणस्थानदोळु स्थानसंख्येयं गाथाद्वदिदं पेळ्दपरु :
बिगुणणव चारि अट्ट मिच्छतिये अयदचउसु चालीसं । तिसु उवसमगे संते चउवीसा होति पत्तेयं ॥३६॥ चउछक्कदि चउ अटुं चउ छक्क य होंति सत्तठाणाणि ।
आउगबंधाबंधे अजोगिअंते तदो भंगं ॥३६२॥ द्विगुणनव चतुरष्टौ मिथ्यादृष्टि त्रिके असंयतचतुर्षु चत्वारिंशत् त्रिषूपशमकेषूपशांते छ चतुविशतिभवंति प्रत्येकं ॥
चतुःषट्कृति चतुरष्टौ चतुः षट् च भवंति सत्वस्थानानि। आयुब्बंधाऽबंधे अयोग्यंते १.. ततो भंगः॥
द्विगुण नव मिथ्यादृष्टियोळु अष्टादश स्थानंगळप्पुवु। चतुःसासादनगुणस्थानदोळु नाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु। अष्टौ मिश्रगुणस्थानदोळे सत्वस्थानंगळप्पुवु। असंयतचतुर्षु चत्वारिंशत असंयतादि नाल्कुगुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं नाल्वत्तु नाल्वत्तु सत्वस्थानंगळप्पुवु । त्रिषूपशमकेषूपशांते च अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायरेंब मूवरुमुपशमकरोळमुपशान्तकषायनोळं प्रत्येकं १५ चतुविशतिः प्रत्येकमिप्पत्तनाल्कु इप्पत्तु नाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु। चतुःक्षपकश्रेणियोळपूर्वप्रकृतयोऽपि ज्ञातव्याः । अथ गुणस्थानेषु स्थानसंख्या गाथाद्वयेनाह
मिथ्यादृष्टौ सत्त्वस्थानान्यष्टादश, सासादने चत्वारि, मिश्रेऽष्टी, असंयतादिषु चतुर्पा प्रत्येकं चत्वारिंशत्, तियंचायु दो, तथा नरकाय तिथंचायु, अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह जानना। 'च' शब्दसे आपकश्रेणी में 'दस य दुगे' इत्यादि पूर्वोक्त प्रकारसे घटायी गयी प्रकृतियां जानना ॥३६१॥
२० आगे गुणस्थानोंमें स्थानोंकी संख्या दो गाथाओंके द्वारा कहते हैं
मिथ्यादृष्टिमें सत्त्वस्थान अठारह, सासादनमें चार, मिश्रमें आठ, असंयत आदि चार गुणस्थानों में प्रत्येकमें चालीस, उपशम श्रेणीके तीन गुणस्थानोंमें तथा उपशान्त कषायमें १. ब तान्यायुर्वन्धाबन्धविवक्षायामयोग्यंतगुणस्थानेषु सत्त्वस्थानान्याह ।
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६००
गो० कर्मकाण्डे करणनोळ नाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु । षट्कृति अनिवृत्तिकरणगुणस्यानदोळ मूवतार सत्वस्थानंगळप्पुवु । चतुः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळु नाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु । अष्टौ क्षीणकषायगुणस्थानदोळे टु सत्वस्थानंगळप्पुवु । चतुः सयोगकेवलिगुणस्थानदोळ नाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु । षट् ।
भवंति सत्वस्थानानि अयोगिगुणस्थानदोळारु सत्वस्थानंगळप्पुवितायुबंधाऽबंधविवक्षयोळयोगि५ केवलि गुणस्थानावसानमाद गुणस्थानंगळोलु सत्वस्थानंगळ संख्ये पेळल्पढ्दु । ततो भंगः अल्लिर बळिककमा पेन्द सत्वस्थानंगळ्गे भंगसंख्य पेळल्पडुगुं :
पण्णास बार छक्कदि वीससयं अट्ठदाल दुसु तालं ।
अडवीसा बासट्ठी अडचउवीसा य अट्ठ चउ अट्ठा ॥३६४॥
पंचाशत् द्वादश षट्कृति विंशत्युत्तरशतमष्ट चत्वारिंशद्वयोश्चत्वारिंशदष्टाविंशतिषिष्टि१० रष्ट चतुरुत्तविंशतिश्चाष्टचतुरष्टौ ॥
पंचाशत् मिथ्यादृष्टियोळ्पदिन टु स्थानंगळगय्वत्तु भंगंगळप्पुवु । द्वादश सासावनन नाल्कुं स्थानंगळ्गे पन्नेरडु भंग गळप्पुवु । षट्कृति मिश्रने टुं स्थानंगळगे षट्त्रिंशद्भगंगळप्पुवु । विंशत्युत्तरशतं असंयतन नाल्वत्तुं स्थानंगळगे नरिप्पत्तु भंगंगळप्पुवु । अष्टचत्वारिंशत् देशसंयतन नाल्वत्तु
सत्वस्थानंगळगे नाल्वत्तेंटु भंगंगळप्पुवु । द्वयोश्चत्वारिंशत् प्रमताप्रमतरुगळ नाल्वत्तुं नाल्वत्तुं १५ सत्वस्थानंगळ्गे नाल्वत्तं नाल्वत्तं भंगंगळप्पुवु। अष्टाविंशतिः अपूर्वकरणनुभयश्रेणिय इप्पत्तेंदु
सत्वस्थानंगळ्गिप्पत्ते टु भंगंगळप्पुवु। द्विषष्टिः अनिवृत्तिकरणनुभयश्रेणिय अरुवत्तुं स्थानंगळ्गवंत. विपशमकेषुपशांते च प्रत्येक चतुर्विंशतिः, क्षपकापूर्वकरणे चत्वारि, अनिवृत्तिकरणे षट्त्रिंशत्, सूक्ष्मसापराये चत्वारि, क्षीणकषायेऽष्टी, सयोगे चत्वारि, अयोगे षट् । एवमायुबंधाबंधविवक्षायामयोग्यंतगुणस्थानेषु सत्त्व
स्थानान्यक्तानि ॥३६२-३६३॥ ततोऽग्रे तेषां भंगसंख्यामाह२० मिथ्यादृष्टावष्टादशस्थानानां भंगा: पंचाशत् । सासादनस्य चतुर्णा द्वादश । मिश्रस्याष्टानां षत्रिंशत् ।
असंयतस्य चत्वारिंशतो विंशत्युत्तरशतं । देशसंयतस्य चत्वारिंशतोऽष्टचत्वारिंशत् । प्रमत्तस्याप्रमत्तस्य। चत्वारिंशतश्चत्वारिंशत् । उभयश्रेण्यपूर्वकरणस्याष्टाविंशतेरष्टाविंशतिः । उभय श्रेण्यनिवृत्तिकरणस्य षष्टेषिष्टिः।
प्रत्येकमें चौबीस सत्त्वस्थान होते हैं। क्षपकश्रेणीमें अपूर्वकरणमें चार, अनिवृत्तिकरणमें
छत्तीस, सूक्ष्म साम्परायमें चार, क्षीणकषायमें आठ, सयोगीमें चार और अयोगीमें छह . २५ सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार आयुके बन्ध और अबन्धकी विवक्षामें अयोगी पर्यन्त चौदह गुणस्थानोंमें सत्त्वस्थान कहे ॥३६२-३६३॥
आगे इन स्थानोंके भंगोंको संख्या कहते हैं
मिथ्यादृष्टिमें अठारह स्थानोंके पचास भंग होते हैं। सासादनके चार स्थानोंके बारह भंग होते हैं । मिश्रके आठ स्थानोंके छत्तीस भंग होते हैं । असंयतके चालीस स्थानोंके ३० एक सौ बीस भंग होते हैं। देशसंयतके चालीस स्थानोंके अड़तालीस भंग होते हैं।
प्रमत्त और अप्रमत्तके चालीस स्थानोंके चालीस भंग होते हैं। दोनों श्रेणियों सम्बन्धी अपूर्वकरणके अठाईस स्थानोंके अठाईस भंग होते हैं। दोनों श्रेणी सम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६०१ र भगंगऊप्पुवु । अष्टाविंशतिः सूक्ष्मतापरायनुभयश्रेणिय इप्पत्ते टु सत्वस्थानंगळिगप्पत्तेंदु भंगंगळप्पुवु। चतुर्विशतिः उपशांतकषायन इप्पत्तनाल्कुसत्वस्थानंगळिगप्पत्तनाल्कुभंगंगळप्पुवु । अष्ट क्षीणकषायने टुं सत्वस्थानंगळ्गेटु भगंगळप्पु । चतुःसयोगिकेवलिय नाल्कु सत्वस्थानंगळ्गे नाल्कु भैगंगळप्पुषु । अष्टौ अयोगिकेवलिय आरं सत्वस्थानंगळ्गे टुं भंगंगळप्पुवु । संवृष्टिः| मि | सा | मि | अ | वे | प्र | अ | अपू अनि | सू | उ क्षीस अ स्थानं १८४ | ८/४०/४०४०/४० २४।४ २४१३६२४।४ | २४ ८४६ भंगः ५०/ १२ / ३६ | १२० ४८ ४० | ४० | २८ / ६२ २८ २४ ८ १४८ |
'अनंतरं मिथ्यावृष्टियोळु पदिने टुं स्थानंगळ्गे प्रकृतिसंख्येयनायुब्बंधाबंधविवर्तयिवं ५ पेक्रदपरु:
दुतिछस्सत्तहणवेक्करसं सत्तरसमूणवीसमिगिवीसं ।
हीणा सव्वे सत्ता मिच्छे बद्धाउगिदरमेगूणं ॥३६५॥ द्वित्रिषट्सप्ताष्टनवैकादशसप्तदशैकानविंशत्येकविंशतिहीनाः। सर्वसत्वानि मिथ्यावृष्टी बद्धायुषीतरस्मिन्नेकोनं ॥
___ बद्धायुषि मिथ्यादृष्टौ बद्धायुष्यनप्प मिथ्यादृष्टियोल द्विहीन त्रिहीन षड्ढीन सतहोनाष्टहोन नवहीनकादशहीन सप्तदशहीनकानविंशतिहीनेकविंशतिहीनसव्वं प्रकृतिसत्वमागुत्तं विरलु सत्वस्थानंगळु पत्त १० । अबद्घायुष्यनोळु मत्तों दोंदु प्रकृतिहीनमागुत्तं विरलु सत्वस्थानंगळवं
-
१५
उभयश्रेणीसूक्ष्मसांपरायस्याष्टाविंशतेरष्टाविंशतिः। उपशांतकषायस्य चतुर्विशतेश्चतुविशतिः। क्षीणकषायस्याष्टानामष्टो । सयोगकेवलिनश्चतण चत्वारः। अयोगिनः षण्णामष्टौ ॥३६४॥ अथ मिथ्यादृष्टावष्टादशस्थानानां प्रकृतिसंख्यामायुबंधाबंधविवक्षयाह
बद्धायुष्के मिथ्यादृष्टौ द्वित्रिषट्सप्ताष्टनवैकादशसप्तदशैकान्नविंशतिभिः पृथहीने सत्वे स्थानानि दश ।
साठ स्थानों के बासठ भंग होते हैं । दोनों श्रेणीसम्बन्धी सूक्ष्मसाम्परायके अठाईस स्थानों के अठाईस भंग होते हैं । उपशान्तकषायके चौबीस स्थानोंके चौबीस भंग होते हैं। क्षीणकषायके आठ स्थानोंके आठ भंग होते हैं । सयोगकेवलीके चार स्थानोंके चार भंग होते हैं। २० अयोगकेवलीके छह स्थानोंके आठ भंग होते हैं ॥३६४॥
आगे मिथ्यादृष्टि में अठारह स्थानोंकी प्रकृति संख्यामें आयुके बन्ध और अबन्धकी विवक्षापूर्वक कहते हैं
__ जिसके आगामी आयुका बन्ध हुआ है उसे बद्धायु कहते हैं और जिसके आगामी आयुका बन्ध नहीं हुआ उसे अबद्धायु कहते हैं । बद्धायु मिथ्यादृष्टिके सर्व सत्त्वरूप एक सौ २५ अड़तालीस प्रकृतियोंमें-से दो प्रकृति हीन पहला स्थान है। इसी प्रकार द्वितीयादि स्थान - क्रमसे तीन, छह, सात, आठ, नौ, ग्यारह, सतरह, उन्नीस और इक्कीस प्रकृति हीन होते हैं।
क-७६
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५
१०
६०२
पत्तु १० । अंतुं कूडि सत्वस्थानंगळिप्पत्तरोळ पुनरुक्तस्थानद्वयमं कळे शेष सत्त्रस्थानंगळु
पदिने टप्पू । संदृष्टिः
अबद्धायुष्क मि० ८
०
२
०
०
०
०
८ ९ ११ १७ १४१ १४० १३७ १३१
१३९
१४६१४५ १४२ भं १ ५ १
५ ५ ५
१ १
अबद्धायुष्क मि० १४५ १४४ १४१ १४० १३९ १३८ १३६ १३०
०
३
गो० कर्मकाण्डे
O
६
O
6)
भं
१ ૪ १ ૪ ४ ४
इल्लि द्वित्र्यादिहीन प्रकृतिगळं गाथाद्वर्याददं पेळदपरु :तिरिया उगदेवा उगमण्णदराउगदुगं तहा तित्थं देवतिरिया उसहियाहारचउक्कं तु छच्चेदे ॥ ३६६ ॥ आउदुगहारतित्थं सम्मं मिस्सं च तह य देवदुगं । णारयछक्कं च तहा णराउउच्चं च मणुवदुगं ॥ ३६७ || तिर्य्यगाद्देवायुरन्यतरायुद्विकं तथा तोत्थं ।
१. आहारकशरीरबंधनसंघात अंगोपांगर्म ब ।
०
१९
४
१२९
१
१२९
षट् चैताः ॥
आयुर्द्वयाहारतोत्थं सम्यक्त्वं मिश्रं च तथा च देवद्विकं । नारकषटुकं च तथा नरापुरच्चं च मानवद्विकं ॥
तिर्य्यगायुष्यमुं देवायुष्यमुर्म बेरड्डुं अन्यतरायुद्विकमुं तीत्थं मुर्म व सूरुं देवायुष्यमुं तिथ्यंगायुष्यमुमाहारचतुष्टय बाएं, अन्यतरायुर्द्वयं तीत्थंमाहारचतुष्टयम बेलुं सम्यक्त्व प्रकृतिसहितमर्पटु मिश्रप्रकृतिसहितमप्पो भत्तुं देवद्विकसहितमप्प पन्नों दुं नारकषट्कसहितमप्प पविने
२. ब ताः हीनप्र ।
२१
१२७
१
१२७
१५ अबद्धायुष्के पुनरेकैकस्मिन् होने दश । एवं विंशतिस्थानेषु पुनरुक्तद्वयेऽपनीतेऽष्टादश भवंति ॥ ३६५॥ तौः अपनी प्रकृतीर्गाथाद्वयेनाह---
तिर्यग्देवायुषी अन्यतरायुषी तीर्थं चेति देवतिर्यगायुषी आहारकचतुष्कं चेति अन्यतरायुषी तीर्थमाहा
२ | पुनरुक्त | पुनरुक्त
ये दस स्थान तो बद्धायुके हैं। अबद्धायुके इनमें से एक-एक अधिक प्रकृति हीन स्थान होते हैं यह भी दस होते हैं । इस प्रकार बीस स्थानों में से दो पुनरुक्त स्थान घटानेपर मिथ्यादृष्टि में २० सब अठारह स्थान होते हैं || ३६५||
आगे घटायी गयी प्रकृतियोंके नाम कहते हैं
देव तिय्यं गायुः सहिताहारचतुष्कं तु
किसी जीव के तियंचायु-देवायुके बिना एक सौ छियालीसका सत्त्व होता है । किसीके मुज्यमान बध्यमान दो आयुके बिना कोई दो आयु और तीर्थकरके बिना एक सौ पैंतालीस
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१०
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नरायुष्यमुमुच्चैर्गोत्रमुं सहितमागि हतो भत्तु मनुष्यद्विकसहितमादिप्पत्तोंदु रहितमाद सर्वसत्व प्रकृतिगळु सत्वस्थानमक्कुमंतु बद्धायुष्यनोळु सत्वस्थानंगळु पत्तु १०। अबद्धायुष्यनोळु भुज्यमानायुष्यमो दे सत्वमप्पुदरिना पत स्थानंगळ प्रकृतिगळोळो दो दायुष्यमं कळेदु शेषप्रकृतिगळ सत्वस्थानंग पत्तु १०। अंतिप्पत्तु सत्वस्थानंगळोळु पुनरुक्तस्थानंगळ मुंवे पेळल्पडुवववं कळेदु शेषसत्वस्थानंगळ पदिने टप्पु १८ ववक्क भंगंगळय्वत्तप्पुवदेत दोर्ड रचनेयो पेळ्द भंगंगळगनु- ५ सारियागि परमगुरूपदेशदिदं भंगंगळु पेळल्पडुववल्लि प्रारबद्ध नरकायुष्यनप्प मनुष्य मिश्यादृष्टि गृहीतवेदकसम्यक्त्वनसंयतगुणस्थानत्ति केवलिद्वयोपांतदोळु षोडशभावनापरिणतं तीत्थंकरपुण्यबंधमं प्रारंभिसि तीर्थसत्कर्मनागि मरणकालदोळ भुज्यमानमनुष्यायुष्यमंतर्मुहूर्त्तमात्रावशेषमादागळु सम्यग्दर्शनमं विराधिसि मिथ्यादृष्टियादातंगे तिय्यंगायुष्यमुं देवायुष्यमुं रहितमागि रचतुष्कं चेति ता एव सप्त, सम्यक्त्वप्रकृत्याष्टो, पुनर्मिश्रप्रकृत्या नव, देवद्विकेनैकादश, नारकषट्केन सप्तदश, नरायुरुच्चैर्गोत्राम्यामेकान्नविंशतिः, मनुष्यद्विकेनकविंशतिः, तेषामष्टादशस्थानानां पंचाशद्भगाः रचनानुसारेण परमगुरूपदे शैनोच्यते
तत्र कश्चित् प्रारबद्धनरकायुर्मनुष्यो मिथ्यादेष्टिगृहीतवेदकसम्यक्त्वोऽसंयतः केवलिद्वयोपांते षोडशभावनाभिस्तीर्थबंध प्रारम्य तत्सकर्मा भूत्वा मरणकाले भुज्यमानायुष्यंतर्मुहूर्तेऽवशिष्टे मिथ्यादृष्टितिस्तस्य का सत्त्व होता है। किसीके देवायु, तियंचायु और आहारक चतुष्कके बिना एक सौ बयालीसका सत्त्व होता है। किसीके कोई दो आयु, आहारक चतुष्क और तीर्थंकरके बिना एक सौ इकतालीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त सात और सम्यक्त्व मोहनीयके बिना एक सौ चालीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त आठ और मिश्र मोहनीयके बिना एक सौ उनतालीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त नौ और देवगति-देवानुपूर्वी बिना एक सौ सैतीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त ग्यारह तथा नरकगति, नरकानुपूर्वी, . वैक्रियिक शरीर, अंगोपांग बन्धन संघात, इस नारकषटकके बिना एक सौ इकतीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त सतरह, नरकायु, उच्चगोत्र इन उन्नीसके बिना एक सौ उनतीसका सत्त्व होता है। किसीके पूर्वोक्त उन्नीस और मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वीके बिना एक सौ सत्ताईसका सत्त्व होता है। इस प्रकार ये दस स्थान बद्धायुके जानना। अबद्धायुके केवल मुज्यमान आयुकी ही सत्ता होती है, बध्यमान आयुकी सत्ता नहीं होती। अतः पूर्वोक्त सत्त्वमें . एक-एक बध्यमान आयु हीन करनेसे अबद्धायुके भी दस स्थान होते हैं। उनमें से दो पुनरुक्त । स्थान घटानेपर मिथ्यादृष्टिमें अठारह स्थान होते हैं। अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक जीवके एक कालमें उक्त प्रकारसे प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है। इससे भिन्न प्रकारसे कभी भी नहीं पायी जाती। अब इन अठारह स्थानोंके पचास भंग परमगुटके उपदेशानुसार कहते हैं
___३० जिसने पहले नरकायुका बन्ध किया है वह मिथ्यादृष्टि मनुष्य वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके असंयत गुणस्थानवर्ती होकर केवली श्रुतकेवलीके पास में सोलह भावनाओंके
१. व देशादुच्यते । २. ब°ष्टिः वेदकसम्यग्दृष्टी संयतो भूत्वा । ३. ब तत्सत्व सन् मरणे मुं।
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६०४
गो० कर्मकाण्डे
नूरनाल्वत्तारु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कु । मिदोंदे भंगमेके दोर्ड बध्यमानेतर ":" तिर्थ मनुष्यायुध्यनप्प भुज्यभानमनुष्यायुष्यंगसंयतसम्यग्दृष्टिगे तीर्थबंधप्रारंभं निधनदिदमिल्लेश दोडे तित्थयरबंधपारंभया णरा के बळिदुगंते एंब नियममुंटप्पुरिदं ।' बध्यमानदेवायुष्यनप्प मनुष्याऽ. संयतादि नाल्कुं गुणस्थानत्तिगने सम्यग्दर्शनच्युतिमिल्ल । भुज्यमाननार के बध्यमानमनुष्यायुष्यं मिथ्यादृष्टियल्लनेके दोडे षण्मासावशेषमात्तिरलु बद्धमनुष्यायुष्यंगे गधितरणकल्याणमुंटप्पुदरिदमदु कारणमागि भंगो दे सिद्धमक्कु । मा जीवं नारकनागि पर्याप्रिोरेबन्न तहसकालपय्यंतं पिथ्यादृष्टियागिककुमब द्वायष्यनप्पुरिदं । भुज्यमाननर कायष्यमल्लवितरतिर्थमनुष्यदेवायऽयंगल मूरुं रहितमागि नर नाल्बतन्दु प्रकृतिसत्वस्यान नक्कुमिदो दे शंगं । संदृष्टि :--
तिर्यग्देवायुरभावात्षट्चत्वारिंशच्छतं सत्त्वस्थानं भवति । (१) अस्य तु भंगः बध्यमानतिग्मनुष्णातुर्भुज्यमानमनुष्यायु संयतयोस्तीर्थबंधप्रारंभाभावात्, (२) बध्यमानदेवायुर्मनुष्यासंयतादि चतुर्गा सम्मान प्रत्यभावात् । (३) भुज्यमाननारकबध्यमानमनुष्या युपोमिथ्यादृष्टिर्मास्ति कुतः ? षण्मासावशेपे संभात्तीर्थ सत्यस्य तदा गर्भावतरणकल्याणसद्भावात् मिथ्यादृष्टित्वाघटनाच्चैक एव । स एव जोबो नार को भूलकर पर्याप्तिानपात्यमुंहूतं मिध्यादृष्टिर्भूत्वा तिष्ठति तस्याबद्धांपुष्कृत्वाद्भज्यमानायुष्यादित रेषामभावात्पंचचत्वारिंशतं सत्त्वस्वानं भवति । तत्रापि भंग एक एव । दृष्टि:
२०
१५ द्वारा तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ कर तीर्थकरकी सत्तावाला होकर मरणकाल आनेवर
भुज्यमान आयु में एक अन्तमुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यादृष्टि हुआ। उस जीव के तियं चायु और देवायुका अभाव होनेसे एक सौ छियालीस प्रकृतिस्वरूप सत्त्व स्थान होता है। यहाँ भंग एक ही होता है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जिस असंयत सम्यग्दृष्टी मनुष्यने तियं चाय या मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता।
और जिसने देवायुका बन्ध कर लिया है वह असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वमें नहीं आता। तथा मुज्यमान नरकायु और बध्यमान मनुष्यायु मिथ्यादृष्टि नहीं होता क्योंकि जिसके तीर्थंकरकी सत्ता है ऐसा नारफी नर कायुके छह मास शेष रहनेपर उसका गभोवतरण कल्याणक होता है तब वह सम्यक्त्व से च्युत
होकर मिथ्यादृष्टि नहीं होता । अतः एक सौ छियालीसके सत्त्वमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्य२५ मान नरकाय यह एक ही भंग होता है। तथा अबद्धायके मुज्यमान एक आय का सत्त्वके
सिवाय अन्य आयुका सत्त्व सम्भव नहीं है अतः देवायु, मनुष्यायु, तियं चायुके बिना एक सौ पैंतालीसका सत्तस्थान होता है । उसमें भी मुज्यमान नरकायु यह एक ही भंग होता है। क्योंकि वही मुज्यमान नरकायु तथा तीथंकरकी सत्ताबाला मनुष्य जब मरकर नरकमें
उत्पन्न होता है तब उसके निवृत्यपर्याप्तक अवस्थामें एक अन्तर्मुहूतं पर्यन्त मिथ्यादृष्टिपना ३० रहता है। उस अवस्थामें अबद्धायु होनेसे भुज्यमान एक नरकायुके सत्त्वके सिवाय अन्य
तीन आयुका सत्त्व न होनेसे एक सौ पैतालीसका सत्त्व होता है, अन्यके नहीं होता।
१. बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्यदोलु तीर्थसत्वं दोरेकोल्लदेंदुमुंदे तावे पेल्दपरप्पुरिदमिल्लियुमदे तात्पर्य । २. ब°ष्टित्वा भावावेकभंगमेव । स एव जीवो।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अब १४५
मत्तं द्वितीयबध्यमानायुस्थानदोळु चतुर्गतिगळ विवक्षित भुज्यमानबध्यमानायु'यमल्ल• वितरायुद्धयमुं तीर्थमुमितु मूरु रहितमागि नूरनाल्वत्तदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु पन्नरड भंगंगळप्पुवदेतेंदोडे भुज्यमाननारकं बध्यमानतिर्यगायुष्य- १। भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं १। भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमाननारकायुष्यनु १। भुज्यमानतियंचं बध्यमानतिय॑गायुष्यनु १। भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु १। भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमानदेवायुष्यनु १। भुज्य. ५ मानमनुष्यं वध्यमाननरकायुष्यनु १। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानतिय्यंगायुष्यनु १। भुज्यमान. मनुष्यं बध्यमानमनुष्यनु १। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानदेवायुष्यनु १। भुज्यमानदेवं बध्यमान तिर्यगायुष्यनु १ । भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यनु १ में दितु द्वादश भंगंगळप्पुवु। संदृष्टिः
| बध्यमान तिमन ति म दे न ति म वेतिम | | भुज्यमान ना ना तितितिति म म म म दे दे |
बध्यमान
ब
१४६
पुनः द्वितीयं बध्यमानायुःस्यानं चतुर्गतिविवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुयाच्छेषायुयतीर्थाभावात्पंचचत्वारिंशच्छतप्रकृतिकं । तत्र भंगाः भुज्यमाननारकबध्यमानतिर्यगायुः १ भुज्यमाननारकबध्यमानमनुष्यायुः १० २ भुज्यमानतिर्यग्बध्यमाननरकायुः ३ भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानतिर्यगायुः ४ भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुष्यायुः ५ .भज्यमानतिर्यग्बध्यमानदेवायः ६ भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननारकायः ७ भज्यमानमनष्यबध्यमान ८ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानमनुष्यायुः ९ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुः १० भुज्यमानदेवबध्यमानतिर्यगायुः ११ भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्यायुश्चेति १२ द्वादश भवंति ।
बद्धायुका दूसरा स्थान चारों आयुओंमें-से मुज्यमान और बध्यमान दो आयुके सिवाय १५ शेष दो आयु और तीर्थंकर इन तीनके बिना एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंके सत्त्वरूप होता है। वहाँ बारह भंग इस प्रकार हैं-१ मुज्यमान नरकायु बध्यमान तियंचायु, २ भुज्यमान नरकायु बध्यमात मनुष्यायु, ३ मुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकायु, ४ भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु, ५ मुज्यमान नियंचायु बध्यमान मनुष्यायु, ६ मुज्यमान तियंचायु बध्यमान देवायु, ७. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु, ८ भुज्यमान मनुष्यायु बध्य- २० मान तियेचायु, ९. मुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु, १० भुज्यमान मनुष्याचु बध्यमान देवायु, ११ भुज्यमान देवायु बध्यमान तियंचायु, १२ भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्याय ।
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६०६
गो० कर्मकाण्ड ई द्वादश भंगंगळोलु भुज्यमानतिर्यगायुष्यमुं बध्यमानतिर्यगायुष्यभंगमुं भुज्यमानमनुष्यायुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यभंगमुमिवरडुं पुनरुक्तभंगंगळु । भुज्यमानतियंचं बध्यमान. नरकायुष्य- १। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननरकायुष्यनुं १ । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानतिर्यगा.
युष्यनु १। भुज्यमानदेवं बध्यमानतिर्यगायुष्यनुं १। भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु १ ५ मितय्, भंगंगळु समंगळु। पुनरुक्तसमविहीनंगळ भंगंगळप्पुरिदं शेषभुज्यमाननारकं
बध्यमानतिप्यंगायुष्यनु १। भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु १। भुज्यमानतिय्यंच बध्य. मानमनुष्यायुष्यनु १। भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमानदेवायुष्यनु १। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानदेवायुष्यनु १ मेंबय्दु ५ भंगंगळ्गे ग्रहणमक्कुं। संदृष्टिः
बध्यमान तिमम दे भुज्यमान ना नाति तिम
बध्यमा. ति म नाति म दे ना तिमदेति
भुज्यमा. ना ना ति ति ति ति म म म म । एतेषु भुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुर्भुज्यमानबध्यमानमनुष्यायुषोः पुनरुक्तत्वात् भुज्यमानतियंग्बध्यमान१० नरकायुः १-भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननरकायुः २-भुज्यमानमनुष्यबध्यमानतिर्यगायुः ३-भुज्यमानदेवबध्यमानतिर्यगायुः ४-भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्यायुषां समत्वाच्च शेषा: पंचैव ग्राह्याः । संदष्टि:
| बध्य ति मम दे दे |
इस प्रकार बारह भंग होते हैं । इनमें-से भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तिथंचायु तथा भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु ये दो भंग पुनरुक्त हैं क्योंकि दोनों भंगोंमें भुज्यमान
और बध्यमान प्रकृति एक-सी है। शेष दशमें-से भुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकाय १५ और मुज्यमान नरकायु बध्यमान तियंचायु ये दो भंग समान हैं क्योंकि दोनों में ही नरकायु
और तिर्यंचायुकी सत्ता है। इसलिए दोनों में से एक ही भंग लेना। इसी प्रकार मुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु और भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु ,इन दो भंगोंमें समानता है। भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान तिर्यंचायु और मुज्यमान तियचायु बध्यमान
मनुष्यायु इनमें भी समानता है। मुज्यमान देवायु बध्यमान तिथंचायु और भुज्यमान २० तिर्यंचायु बध्यमान देवायुमें समानता है, मुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु और मुज्यमान
मनुष्यायु बध्यमान देवायुमें समानता है। अतः एक एक ही भंग गिननेसे पाँच भंग जानना।
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कर्णाटवृत्ति जीवत्तत्त्वप्रदीपिका
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अबध्यमान द्वितीयसत्वस्थानदोळ अबध्यायुष्यनं कुरुतु विवक्षितायुष्यमोवं कळेदु नूर नाल्वत्तनाल्कु प्रकृतिसत्वस्थानक्के भुज्यमाननारकतिर्य्यग्मनुष्य देवनुमेंब नाकुं भंगंगळtyवल्लि प्रत्येक मितरास्त्रयमुं तीत्थंमुं रहितमागि नूर नाल्वत्तनाल्कु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुं । संदृष्टि :
--
बध्यमान
अबध्यमान
स्वामियप्प मिथ्यादृष्टिजीवं
५
तृतीयबध्यमानाः स्थानबोळमुन्नमप्रभत्तगुणस्थान मं पोद्दियाहारक चतुष्टयमनुपाज्जिसर्व सत्वरहितं मेणऽप्रमत्त गुणस्थान मं पोद्दिदोनाहारकचतुष्टयमनुपाज्जसि क्रर्मादिदं मिथ्यादृष्टिधागियाहारकचतुष्टयमनुद्वेल्लनमं माडितत्सत्वरहितजीवं मेणु मनुष्यं बद्धनरकायुष्यं गृहीत वेद रुसम्यक्त्वनसंयतसम्यग्दृष्टिकेवलिद्वयोपांतदोळ षोडशभावनापरिणतं तीत्थंकरपुण्यबंधमं प्रारंभिसि तोत्थंकर सत्कम्र्मनागि मरणकालवोळ भुज्यमानमनुष्यायुष्यमंतम् मुहूर्त मात्रावशेषमा गुत्तिरलु द्वितीयादितृतीय पृत्थ्विपय्र्यंतं जिगमिषुमिथ्यादृष्टियागि वत्तिप- १० तदबध्यमानायुः स्थानं तदेकं बद्धायुविना चतुश्चत्वारिंशच्छत प्रकृतिकं । तस्य भंगारचतुर्गतिभुज्यमानायुर्भेदाच्चत्वारः । संदृष्टिः
बध्य
अब
१४५ ५
१४५ ५ १४४
४
१४४
४
कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः प्रागप्रमत्तगुणस्थानं गत्वाऽनुपाजिताहारकचतुष्टयतया तदसत्त्वाऽथवा उपार्ज्यं क्रमेण मिथ्यादृष्टिर्भूत्वोद्विल्य तदसत्त्वः सन् मनुष्यो बद्धनरकायुर्गृहीत वेदकसम्यक्त्वोऽसंयतः केवलिद्वयोपांते षोडशभावनाभिस्तीर्थकर युग्यबंधं प्रारभ्य तत्सकर्मा भूत्वा मरणे भुज्यमानायुष्यं तर्मुहूर्तेऽवशिष्टे द्वितीयतृतीय पृथ्व्योर्ग- १५
• अबद्धायु के दूसरे स्थान में एक सौ पैंतालीस में से एक बध्यमान आयुकी सत्ता घटाने से एक सौ चवालीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होता है। इसमें मुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार भंग जानना ।
कोई मिध्यादृष्टि जीव पहले अप्रमत्त गुणस्थान में गया किन्तु वहाँ उसने आहारक चतुष्कका बन्ध नहीं किया । अतः उसके आहारक चतुष्कका सत्त्व नहीं है । अथवा अप्रमत्त २० गुणस्थानमें आहारक चतुष्कका बन्ध करके पीछे मिध्यादृष्टि होकर आहारक चतुष्ककी उद्वेलना कर दी। अतः उसके भी आहारक चतुष्कका सत्व नहीं रहा । ऐसा मनुष्य पहले नरकायुका बन्ध करके पीछे वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके असंयत गुणस्थानवर्ती होकर Sharda निकट सोलह भावनाके द्वारा तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करके तीर्थंकर
२५
१. ब अवध्यमानद्वितीयसत्वस्थाने चाबद्धायुष्कं प्रति विवक्षितैकैकायुरभावाच्चतुश्चत्वारिंशत्शतम् । तद्भगांश्चत्वारः ।
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गो० कर्मकाण्डे
निदोदे भंगमक्कु । मातंगे तिर्य्यगायुष्यमुं देवायुष्य मुमाहारकचतुष्टय मुमिताएं प्रकृतिरहितमा गि नूरनाल्वर्त्तरडु प्रकृतिसत्वस्थान मक्कुमितरबद्धतिर्य्यग्मनुष्यायुष्यरोळ तीर्थसत्वं दो रेकोळवु । बद्धदेवायुष्यं तीर्थंकर सत्कर्मनादोर्ड सम्यक्त्वच्युतिथिल्ल । मनुष्य नल्लवित रंगतित्रयदोळ तीर्थंकरबंधप्रारंभ मिल्लप्पुदरिदं नरकगतियोळं देवगतियोळं तीत्थंकरबंधमसंयतरुगळोळ तु पेळल्५ पट्टु नल्वेड । . तीथंबंधप्रारंभं मनुष्यगतियोळेयक्कं । सम्यक्त्वच्युतियिल्लविद्दडुत्कृष्टददं तीर्थंनिरंतरबंधाद्धे । अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वकोटिद्वयाधिक त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमितमक्कुमपुरिदं । अल्लि अबद्धायुष्यनं कुरुत्तु मनुष्यायुष्यमं कळेदु भुज्यमाननारकं द्वितीय तृतीय पृथ्विोपप्रकालदोळु मिथ्यादृष्टियप्पुवरिदमातनोल तिर्य्यगायुष्यमुं मनुष्यायुष्यमुं देवायुष्यमुमाहारकचतुष्टयमुं रहितमागि नूरनात्वत्तों दु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमदोदे भंगमकुं ।
१० संदृष्टि:
मिष्यमान मिथ्यादृष्टिः स्यात् तस्य तृतीयं बध्यमानायुः स्थानं तिर्यग्देवायुराहारकचतुष्काभावाद्वाचत्वारिशच्छतकं भवति । तस्य भंग एक एव बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्क्रयोस्तीर्थं स त्वाभावात् । बद्धदेवायु के तत्सत्त्वेऽपि सम्यक्त्वप्रच्युत्यभावाच्च । तर्हि मनुष्य एव तत्प्रारंभे, देवनारकासंयतेऽपि तद्बंधः कथं ? सम्यक्त्वाप्रच्युता - वुत्कृष्टत निरंतर बंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वको टिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभ१५ वात् । तदबद्धायुः स्थानं मनुष्यायूरहितमिति तिर्यग्मनुष्यदेवायुराहारकचतुष्काभावादेकचत्वारिंशच्छतकं । तस्य द्वितीयतृतीय पृथ्य पर्याप्तनारकमिथ्यादृष्टेरेव संभवाद् भंग एकः । संदृष्टिः
२०
२५
३०
की सत्तासहित हो । तथा भुज्यमान आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर दूसरे-तीसरे नरक में जाने योग्य मिध्यादृष्टि हो। उस जीवके तीसरा बद्धायु स्थान तिर्यंचायु, देवायु और आहारक चतुष्क बिना एक सौ बयालीस प्रकृतिरूप होता है । उसमें भंग एक ही होता है । क्योंकि जिसने तिचायु या मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकरका बन्ध नहीं होता । और जिसने देवायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकर की सत्ता हो सकती है किन्तु वह सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिध्यादृष्टि नहीं होता ।
शंका- यदि मनुष्य ही तीर्थंकर के बन्धका प्रारम्भ करता है तो देव और नारक असंयत सम्यग्दृष्टीके तीर्थंकरका बन्ध कैसे कहा है ?
समाधान - तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ तो मनुष्यके ही होता है। पीछे यदि सम्यक्त्व से भ्रष्ट न हो तो तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट निरन्तर बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षहीन दो पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागर प्रमाण होनेसे देव नारकी असंयत सम्यदृष्टीके भी उसका बन्ध सम्भव है ।
तीसरा अबद्धायु स्थान तीन आयु और आहारक चतुष्क बिना एक सौ इकतालीस प्रकृति रूप है क्योंकि इसमें मनुष्यायुका भी सत्त्व नहीं है । सो तीर्थंकरकी सत्तावाला मनुष्य जिसने पहले नरकाका बन्ध किया था मिथ्यादृष्टि होकर मरण करके दूसरे-तीसरे नरक में जाकर अपर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टि ही रहता है। उसके भुज्यमान नरकायुरूप एक ही भंग होता है । चौथा बद्धायुस्थान विवक्षित भुज्यमान बध्यमान आयुके बिना शेष दो आयु, आहारक चतुष्क और तीर्थंकरका अभाव होनेसे एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप होता है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
बध्यमान | १४२ १
अबध्यमान १४१
१
चतुर्थबध्यमानायुष्यस्थानदोळ
विवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुर्द्धय मल्लदन्यतरायुद्ध यमुमाहारकचतुष्टयमुं तोत्थंकरमुं रहितनागि नूर नात्वत्तोदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु सुपेव्व द्वादश भंगंगळोळ पुनरुक्तसमभंगविहीन पंचभंगंगळप्पु ५ वल्लियुमबद्धायुष्यनं कुरुत्तु गतिचतुष्टयंगळो. छितरायुस्त्रयमुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्त्यमुरहितमागि नूरनात्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोळ चतुग्र्गतिजर भेदिदं नाकुं भंगंगळप्पु । संदृष्टि:
बध्यमान | १४१
५
अबध्यमान
ब
पंचमबध्यमानायुस्थानदोल विवक्षित
बध्यमानायुर्द्वयमल्लदितरायुर्द्वयमं
आहारकचतुष्टयमुं तीर्त्यमुं सम्यक्त्व प्रकृतियुमितेंदु प्रकृतिगळु रहितमाद नूरनात्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोमुं पेद द्वादशभंगंगळोळु पुनरुक्तसमविहीन पंचभंगंगळप्पु ५ वल्लि अबद्धायुष्यनं कुरुतु गतिचतुष्टयंगळोळित रात्रयमुमाहारचतुष्टयमुं तीर्त्यमुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमितो भ
अ
१४०
४
भुज्यमान
अ
| १४२
१ ११४१ | १
चतुर्थं बध्यमानाः स्थानं विवक्षितभुज्यमान वध्यमानायुयमित रायुर्द्वयाहारचतुष्कतीर्थाभावादेकचत्वा- १० रिशच्छतकं । तत्र प्रागुक्तद्वादशभंगेषु पुनरुक्तसमभंगान्विहाय पंच भंगा भवंति । तदबद्धायुः स्थानं इतरायुस्त्रयाहारकचतुष्कतीर्थाभावाच्चत्वारिंशच्छतकं । तत्र चातुर्गतिकभेदाद् भंगाश्चत्वारः । संदृष्टि : :--
ब
१४१
६०९
| १४०
४
पंचमं बध्यमानायुः स्थानं विवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुयमितरायुर्द्वयाहारक चतुष्कतीर्थं सम्यक्त्वप्रकृ त्यभावाच्चत्वारिंशच्छतकं । तत्र प्राग्वगाः पंच | तदबद्धायुः स्थानं एकान्नचत्वारिंशच्छतकं । तत्र वहाँ पूर्वोक्त बारह भंगों में से पुनरुक्त सात भंगोंको छोड़ पाँच भंग होते हैं। चौथा अबद्धायुस्थान भुज्यमान बिना तीन आयु आहारक चतुष्क तीर्थंकर के बिना एक सौ चालीस प्रकृतिरूप होता है । उसमें मुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते हैं ।
पाँचवाँ बद्धास्थान विवक्षित भुज्यमान बध्यमान आयुके सिवाय शेष दो आयु आहारक चतुष्क, तीर्थंकर और सम्यक्त्व मोहनीयका अभाव होनेसे एक सौ चालीस प्रकृतिरूप है । उसमें पूर्वोक्त बारह भंगोंमें से पाँच भंग होते हैं । पाँचवाँ अबद्धायस्थान
.क-७७
१५
२०
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६१०
गो० कर्मकाण्डे
प्रकृतिरहितमाद नूरमूवत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानवोल चतुर्गतिजरभेवदि नाल्कु भैगंगळप्पुषु ।
संदृष्टिः
बध्यमान
। १४० ।
अबध्यमान । १३९ ।
षष्ठबध्यमानस्थानदोळु विवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुयमल्लवितरायुर्वितयमुमाहारकचतुष्टयमुं तोत्थंमुं सम्यक्त्वप्रकृतिय मिश्रप्रकृतियु मितों भत्तं प्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्तों. ५ भतु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि पुनरुक्तसमविहीनचतुर्गतिसंबंधि भंगंगळय्नु ५ मप्पुवल्लि
अबद्धायुष्यनं कुरुत्तु चतुर्गतिय विवक्षितभुज्यमानायुष्यमल्लवितरायुस्त्रयमुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्थमुं सम्यक्त्वप्रकृतियु मिश्रप्रकृतियं मितु वशप्रकृतिरहितमागि नूर मूवत्तेदु प्रकृतिसत्वस्थानबोलु चतुर्गतिजर भेददिदं नाल्कुभंगंगळप्पुवु । संदृष्टिः
बध्यमान
अबध्यमान
। १३८
चातुर्गतिकभेदाळ्गाश्चत्वारः । संदृष्टि
४०
अ
१०
षष्ठं बध्यमानायुःस्थानं विवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुयामितरायुटिकाहारकचतुष्कतीर्थसम्यक्त्वमियाभावादेकान्नचत्वारिंशच्छतकं । तत्र प्राग्वद्धंगाः पंच । तदबद्धायुःस्थानमष्टत्रिशच्छतकं । तत्र चातुर्गतिकभेदाभंगाश्चत्वारः । संदृष्टिः
ब १३९
अ ११३८
पूर्वोक्त एक सौ चालीसमें से बध्यमान आयुके बिना एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप होता है। उसमें चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते हैं।
छठा बद्धायुस्थान विवक्षित भुज्यमान बध्यमान आयुके बिना शेष दो आय आहारकचतुष्क, तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीयका अभाव होनेसे एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप है। उसके भंग पूर्ववत् पाँच हैं। छठा अबद्धायु स्थान पूर्वोक्त एक सौ उनतालीसमेंसे बध्यमान आयु बिना एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप है। भंग चार आयुकी अपेक्षा चार
|
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सप्तमबध्यमानायु:स्थानदोळु देवद्विकमनुवेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रयजीवंगे भुज्यमानतिर्यगायुर्बध्यमानमनुष्यायुष्यमुमल्लवितरनारकदेवाद्वितयमुमाहारकचतुष्टयमुं तोत्यमुं सम्यक्त्वप्रकृतियं मिश्रप्रकृतियं देवद्विकमु यिंत पन्नोंदु प्रकृतिरहितमागि नूर मूवत्तैळु प्रकृतिसत्वस्थानदोळ भुज्यमानकेंद्रियविकलत्रयविशिष्टतिर्यगायुष्यं बध्यमानतिय्यंगायुष्यनु भुज्यमानतिय्यंगायुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुमें बरई भंगंगळोळ पुनरुक्तभंगमं कळेवोडो वे भंगमक्कु- ५ मल्लि अबद्धायुष्यंगे विरक्षितभुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रयमुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्थमुं सम्यक्त्वप्रकृतियु मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमुमंतु पन्नेरडु प्रकृतिरहितमागि नूरमूवत्तारु प्रकृतिसत्व. स्थानदोळु :
उज्वेल्लिददेवदुगे बिदियपदे चारि भंगया एवं । सपदे पढमो बिदियो सो चेव गरेसु उप्पण्णे ॥३६८॥ वेगुव्वद्वय रहिदे पंचिंदियतिरियजादिसुववण्णे।
सुरछब्बंधे तदियो गरेसु तब्बंधणे तुरियो ॥३६९॥ उद्वेल्लनमं देवद्विकक्के माडिवेकेंद्रियविकलत्रयमिथ्यादृष्टिय द्वितीयपदमप्प अबद्धायुष्यस्थानवोळु ई प्रकारदिवं नाल्कु भंगंगळप्पुवाव प्रकारविवर्म दोर्ड देवतिकमनवेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रय भववोळु प्रथम भंगमक्कुमा जीवं मनुष्यनागि पुट्टि अपर्याप्तकालदोळ "ओराळे वा १५ मिस्से ण हि सुरणिरयाउहारणिरयदुर्ग। मिच्छतुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरवे अत्थि ॥
एंब नियममुंटप्पुरिदमा मिथ्यावृष्टि सुरचतुष्कर्म कट्टनप्पुरिदमल्लि द्वितीयभंगमक्कुमे. के दोर्ड संख्यैकत्वमुं' प्रकृतिभेवममुंटप्पुरिवं वैक्रियिकाष्टकमनुद्वेल्लनमं माविदंतप्प एकेंद्रियविक
सप्तमं बध्यमानायुःस्थानमुद्वेल्लितदेवद्विकैकेंद्रियविकलत्रयजीवस्य भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुष्यायुषी त्यक्त्वा नारकदेवायुराहारकचतुष्कतीर्थसम्यक्त्व मिश्रदेवद्विकाभावात्सप्तत्रिंशच्छतक । तत्र भंगः भुज्यमानैकेंद्रिय- २० विकलत्रयविशिष्टतिर्यग्वध्यमानतिर्यगायुष्कः भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुष्यायुष्कश्चेति द्वयोः . पुनरुक्तमेकं विनकः ॥ ३६६-३६७ ॥ होते हैं। सातवाँ बद्धायुस्थान जिनके देव द्विककी उद्वेलना हुई है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवोंके मुज्यमान तिथंचायु बध्यमान मनुष्यायु बिना शेष देवायु नरकायु आहारक चतुष्क, तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, देवद्विकका अभाव होनेसे एक सौ सैंतील २५ प्रकृतिरूप है। वहाँ भंग मुज्यमान एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय सम्बन्धी तिथंचायु बध्यमान तियं चायु तथा भुज्यमान तिर्यंचायु बध्यमान मनुष्याय ये दो होते हैं। उनमें से मुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु पुनरुक्त है। अतः एक ही भंग है ।।३६६-३६७॥ १. यिल्लि संख्यैकत्वमे ते दोडे आ जीब मनुष्यनागि पट्टि अल्लि अपर्याप्तकाल दोळु सुरचतुष्कर्म कट्टनप्पुरि पूर्वदल्लिउद्वेल्लनमं माग्दि सुरद्विकक्के तात्कालिकसत्वं घटिसदु । पूर्वदल्लि कट्टिद क्रियिकद्विक ३० सत्वमुंटप्पुरि संख्यैकत्वमुंटु । प्रकृतिभेदम ते दोडे अल्लि तिर्यगायुष्यं भुज्यमानमिल्लि मनुष्यायुष्यमेव
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गो० कर्मकाण्डे लत्रयजीवं बद्धतिय॑गायुष्यं पंचेंद्रियतिर्यग्जातियोळु बंदु पुट्टि पर्याप्तियिद मेळे सुरषट्कर्म कटुत्तं विरलु नरकद्विकमनागळकटुवनल्लनप्पुरिंदमल्लि संख्यैकत्वमुं प्रकृतिभेदमुमुटप्पुरिदं तृतीयभंगमक्कु मा वैक्रियिकाष्टकमनुद्वेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रयजीवं बद्धमनुष्यायुष्यं
मनुष्यरोळु बंदु पुट्टि पर्याप्तियिद मेले सुरषट्कर्म कटुत्तं विरलु संख्यैकत्वमुं प्रकृतिभेदमुमुंटप्पु५ दरिद चतुर्थभंगंगळवकुम दितु नाल्कु भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :
बध्य०
१३६
अबध्य०
अष्टमबध्यमानायुःस्थानदोछ नारकषट्कमनुढल्लनमं माडिदेतप्पेकेंद्रियविकलत्रयजीवंगे भुज्यमानतिर्यगायुबंध्यमानमनुष्यायुष्य मल्लदितरसुरनारकायुद्धय मुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्थमुं
तद्वितीयेऽश्रद्धायुःस्थाने षट्त्रिंशच्छतकोद्वेल्लितदेवद्विकस्यैकेंद्रियविकलत्रयमिथ्यादृष्टेः तस्मिन्नेव भवे भंग एकः । पुनस्तस्यैव मनुष्येषूत्पन्नस्यापर्याप्त काले मिथ्यादृष्टित्वात्सुरचतुष्कस्याबंधाद् द्वितीयः, संख्यैकत्व१. प्रकृतिभेदयोस्सद्भावात् । पुनस्तस्यैव वैक्रियिकाष्टके उद्वेल्लिते पंचेंद्वियतिर्यग्जातावुत्पन्नस्य पर्याप्तरुपरि सुरषटकबंधेन नरकद्विकस्याधात्तृतीयः । मनुष्येषूत्पन्नस्य सुरषट्कबंधे चतुर्थः । एवं चत्वारो भंगा भवति ।
सातवाँ अबद्धायुस्थान एक सौ छत्तीस प्रकृतिरूप है। जिसके देवद्विककी उद्वेलना हुई है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय मिथ्यादष्टि जीवके उसी पर्यायमें आहारक चतुष्क,
तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, देवगति, देवानुपूर्वी तथा भुज्यमान तियंचायु १५ विना शेष तीन आयु इन बारह के बिना एक सौ छत्तीसका सत्त्व पाया जाता है। अतः एक
भंग तो यह हुआ। पुनः वही देवद्विककी उद्वेलना करनेवाला एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव मरकर मनुष्यपर्यायमें उत्पन्न हुआ। वहाँ अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यादृष्टि होनेसे सुरचतुष्कका बन्ध नहीं होता । अतः पूर्वोक्त नौ और भुज्यमान मनुष्यायु बिना तीन
आयु, इस तरह बारह बिना एक सौ छत्तीसका सत्त्व होता है यह दूसरा भंग है। दोनोंमें २० संख्या समान होते हुए भी प्रकृतिभेद होनेसे भंग है। पुनः जिसके वैक्रियिक अष्टककी
उद्वेलना हुई है ऐसा वही एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्त अवस्थामें देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, बन्धन, संघात इस सुरषट्कका बन्ध किया और नरकगति नरकानुपूर्वीका बन्ध नहीं किया। वहाँ
आहारक चतुष्क, तीर्थंकर, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, नरकगति, नरलानुपूर्वी ये नौ २५ और भुज्यमान तिर्यंचायु बिना शेष तीन आयु इन बारह बिना एक सौ हत्तीसका सत्त्व
पाया जाता है। यह तीसरा भंग है। पुनः वही जीव मरकर मनुष्यपर्याय में उत्पन्न
भेददिदं ॥ सुरगति सुरगत्यानुपूर्व्य वैक्रियिक तदंगोपांगबंधनसंघातरूप सुरषट्क । बंधन संघात द्वयसहित वैक्रियिकषट्क मुंपेल्द पदिमूरुवेल्लनप्रकृतिगळोळु वैक्रियिकवैक्रियिकांगोपांगद्वयदोळ वैक्रियिकबंधनसंधातमंतर्भावि ये बुदत्यं ।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमुं नारकषट्कमुमंतु सप्तदश प्रकृतिसत्वरहितभागि नूरमूव - तो प्रकृतिसत्वस्थानदोळु भुज्यमानतिथ्यंचं बध्यमानतिर्य्यगायुष्यं भुज्यमानतिथ्यंचं बध्यमानमनुष्यायुष्य व भंगद्वपदोळ पुनरुक्तभंग मनोदं कळें दोडोदे भंगमक्कुमल्लि अबद्धायुष्यनं कुरुतं भुज्यमानतिर्य्यगायुष्य मल्लदितरमनुष्यायुष्यं देवायुष्यं नारकायुष्यमाहारकचतुष्टयं तीत्थं सम्यक्वप्रकृति मिश्रप्रकृति सुरद्विक नारकषट्कमुमंतष्टादश प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमृवत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि:--
नारकछक्कुब्वेल्ले आउगबंधुज्झिदे दुभंगा है |
इगिविगले सिगिभंगो तम्मि णरे विदियमुप्पण्णे ॥ ३७० ॥
नारकषट्कमनुद्रेलनमं माडिदेकेंद्रिय विकलत्रयजी बंगबंद्वायुष्यंगेरडु भंगंगळप्पुर्वते दोर्ड-एक विकलत्रयद स्वस्थानदोळोदु भंगमक्कुमा जीवमनुष्यायुष्यमं कट्टि मनुष्यरोळ बंदु पुट्टि १० तद्भवप्रथम कालदो तावन्मात्र प्रकृतिसत्वनप्पुदरिदमुं मनुष्यायुष्यप्रकृति भेददिदमुं द्वितीय भंगमक्कुं । संदृष्टि-
दृष्टि:
ब
अ
| १३७
१
|१३६
४
अष्टमे बध्यमानायुः स्थाने नारकषट्के उद्वेल्लिते एकेंद्रिय विकलत्रयजीवस्य भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुव्यायुर्म्यामितरसुरनार कायुराहारकचतुष्कतीर्थ सम्यक्त्व मिश्र देव द्विकनारकषट्काभावादेकत्रिंशच्छत के भंगः भुज्य - १५ मानबध्यमान तिर्यगायुष्कभुज्यमानतिर्यग्वध्यमानमनुष्यायुष्कश्चेति भंगद्वये पुनरुक्तमेकं त्यक्त्वैकः ॥ ३६८-३६९॥
हुआ । वहाँ सुरषट्कका बन्ध होनेपर पूर्वोक्त नौ और भुज्यमान मनुष्यायु बिना तीन आयु, इस प्रकार बारह बिना एक सौ छत्तीसका सत्त्व होता है। यह चौथा भंग है । इस प्रकार चार भंग हुए । यहाँ सब भंगोंमें संख्या १३६ समान है अतः स्थान एक ही कहा है । और प्रकृति बदलने से चार प्रकार पाये जाते हैं अतः भंग चार कहे हैं ।
५
आठवाँ अबद्धायुस्थान एक सौ तीस प्रकृतिरूप है । उसमें दो भंग हैं । नारकषट्ककी खेलना किये एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवके तिर्यचायु बिना तीन आयु तथा आहारक चतुष्क
आठवाँ बद्धास्थान नारकषट्ककी द्वेलना होनेपर एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय उजीवके होता है । सो भुज्यमान तियंचायु बध्यमान मनुष्यायु बिना देव नरक दो आयु, आहारक चतुष्क, तीर्थंकर, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, बन्धन संघात ये नारकषटूक, इन सतरह बिना एक सौ इकतीस प्रकृतिरूप जानना । वहाँ भंग दो भुज्यमान तिर्यंचायु बध्यमान तियंचायु, भुज्यमान २५ तिर्यंचायु बध्यमान मनुष्यायु । इनमें से भुज्यमान तिर्यंच बध्यमान तियंच पुनरुक्त है । अतः एक ही भंग है || ३६८-३६९॥
२०
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बध्यमान
१३०
अबध्यमान
उच्चैर्गोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिव तेजस्कायिकवायुकायिकजीवंगळ नवमबद्घायुष्यसत्वस्थानदोजु भुज्यमानतेजस्काय वायुकाय विशिष्टतिर्यगायुष्यम बध्यमानतिर्यगायुष्यमुमल्लवितर. नारकमनुष्यदेवायुस्त्रितयमुमाहारकचतुष्टयम तीर्थमु सम्यक्त्वप्रकृतियु मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमु नारकषट्कमुमुच्चैगर्गोत्रमुमेंब हत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरिप्पत्तों भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदो भुज्यमानम बध्यमान, तिर्यगायुष्यमप्प तेजोवायुकायिकजीवंगळ भंगमा वैयक्कुमदुवं पुनरुक्तभंगमादोडं ग्राह्यमादुदु । अल्लि अबद्धायुष्यनोळाऽऽबद्धायुष्यनोळ पेळ्व सत्वरहित प्रकृतिगळु हत्तों भत्तु मी जीवनोळं सत्वरहितंगळागि नूरिप्पत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमा तेजोवायकायिकजीवंगळ स्वस्थानभंगमो देयक्कुमदु पुनरुक्तभंगत्वदिदमग्राह्यमक्कु । संदृष्टि :--
बध्यमान । १२९
अबध्यमा
१२९ | पुनरुक्त
तदबद्धायुःस्थाने त्रिंशच्छतके भंगः, नारकषट्कोद्वेल्लितैकेंद्रियविकलत्रयजीवे एकः । तु-पुनस्तस्मिन्नेव १. जोवे मनुष्येषत्पन्ने प्रथमकाले द्वितीयः । एवं द्वो भंगौ खलु स्फुटं मनुष्यायुषो भेदात् । संदृष्टिः
३०
उच्च र्गोत्रोद्वेल्लिततेजोवातकायिकयोनवमं बद्धायुःस्थानं तत्कायविशिष्टभुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुा. मितरायुस्त्रयाहारकचतुष्टयतीर्थसम्यक्त्वमिश्रदेवद्विकनारकषट्कोच्चैर्गोत्राभावात् एकान्नत्रिंशच्छतकं । तत्र भुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुष्कतेजोवातकायिकभंग एकः । सोऽयं पुनरुक्तोऽपि ग्राह्यः । तदबद्धायुःस्थानमेकान्न
त्रिशच्छतकं तत्र तेजोवातयोः स्वस्थानभंग एकः स न ग्राह्यः पुनरुक्तत्वात् । संदृष्टिः१५ आदि पन्द्रहके बिना एक सौ तीसका सत्त्व होता है। अतः यह एक भंग हुआ। वही
एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीव मरकर मनुष्य हुआ। वहाँ अपर्याप्तकालमें मनुष्यायुके बिना तीन आयु और आहारक चतुष्क आदि पन्द्रह के बिना एक सौ तीसका सत्त्व पाया जाता है। यह दूसरा भंग हुआ।
" नौवाँ बद्धायुस्थान उच्चगोत्रकी उद्वेलना होनेपर तेजकाय वायुकायमें होता है। सो २० पूर्वोक्त एक सौ तीसमें-से उच्चगोत्रका अभाव होनेसे एक सौ उनतीस प्रकृतिरूप होता है।
यहाँ भंग एक भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु । यह पुनरुक्त है। किन्तु यहाँ कोई अन्य भंगका प्रकार न होनेसे इसीको ग्रहण किया है । नौवाँ अबद्धायुस्थान भी एक सौ उनतीस प्रकृतिरूप है । अतः बद्धायुस्थानके समान होनेसे पुनरुक्त है । अतः इसका प्रहण नहीं करना।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मनुष्यद्विकमनुद्वेल्लनमं माडिव तेजस्कायिक वातकायिक जीवंगळ वशमबद्धायुष्यसत्व. स्थानवोळुच्चैग्र्गोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिव जीवंगळ्णे पेळ्व सत्वरहितप्रकृतिगळु हत्तो भत्तुं मनुष्यद्विकमुं कूडिप्पत्तोंदु प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूरिपत्तेलु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमानमुं बध्यमान, तिघ्यंगायुष्यमाप तेजोवायुकायिकजीवन स्वस्थानभंगमा देयक्कुमदुर्बु पुनरुक्तभंगमादोडं प्राह्यमक्कुं। अल्लि अबद्धायुष्यनोळा बद्धायुष्यनोळ पेळ्द यिप्पतोदु प्रकृतिगळु ५ सत्वरहितमागि नरिप्पत्तेळु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुम। तेजोवायुकायिकजीवस्वस्थानभंगमों देयक्कुमदुवु पुनवक्त भंगमगाह्ममक्कुं। संदृष्टि :
बध्यमान १२७
अबध्यमान १२७
पुनरुक्त ई पेन सत्वस्थानंगळु पविनेटरोळं पुनरुक्तप्तमभंगंगळं कळेदु शेषभंगंगळं संख्येयं पेळवपरु :
ब
१२९
अ १२९
पुनरु. मनुष्यद्विकोद्वेल्लिततेजोवायुकायिकयोदशमं बद्धायुःस्थानं तद्विकेनोच्चैर्गोत्रोद्वेल्लितस्योक्ततदसत्त्वस्या- १० भावात्सप्तविंशतिशतकं । तत्रापि भुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुष्कतेजोवायुकायिकभंग एकः स च पुनरुक्तोऽपि प्रायः । तदबवायुःस्थानं तदेकविंशतेरभावात्सप्तविंशतिशतकं । तत्र तत्तेजोवायुकायिक स्वस्थानभंग एकः, स
पुनरुक्तत्वान्न ग्राह्यः । संदृष्टि:
बध्य
१२७
अब १२७
पुमरु. ॥३७०॥ अयोक्ताष्टादशसत्त्वस्थानभंगान् पुनरुक्तसमभंगेभ्यः शेषान् संख्याति
दसौं बद्धायुस्थान मनुष्यद्विककी उद्वेलना होनेपर तेजकाय वायुकायके जीवके होता १५ है। सो पूर्वोक्त एक सौ उनतीसमें-से मनुष्यगति मनुष्यानुपूर्वीके बिना एक सौ सत्ताईस प्रकृतिरूप जानना । यहाँ एक ही भंग है। वह पुनरुक्त है फिर भी ग्राह्य है। क्योंकि पूर्व पुनरुक्त भंग अबद्धायु स्थानमें गभित हो गये थे अतः उनको ग्रहण नहीं किया था। यहाँ अवद्धायुस्थानका ही प्रहण नहीं किया है। अतः पुनरुक्त भंगको ग्रहण किया है।
दसवाँ अबद्धायुस्थान भी उसी प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतिरूप है । सो इस बद्धायु-२० स्थान और अबद्धायुस्थानमें संख्या या प्रकृतियोंको लेकर भेद नहीं है। अतः यह स्थान प्रहण नहीं करना ॥३७०॥
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१०
१५
२५
गो० कर्मकाण्डे
विदिये तुरिये पणगे छडे पंचैव सेसगे एक्कं । विदिचउपण छस्सत्तयठाणे चत्तारि अट्ठगे दोणि ॥ ३७१ ॥ |
द्वितीये तुरीये पंचमे षष्ठे पंचैव शेष के एकः । द्वितीयचतुर्थ पंचमषष्ठसप्तमस्थाने चत्वारोऽ
ष्टमे द्वौ ॥
३०
६१६
द्वितीयचतुर्थपंचमषष्ठबद्धायुरचतुः सत्वस्थानंगळोळ प्रत्येकं पंच पंच भंगंगळवु । शेषप्रथमतृतीय सप्तमाष्टमनवमदशमस्थानषट्कवोळु प्रत्येकमेकैकभंगं मक्कुमबद्धायुः सत्वस्थानंगळे टरोळ द्वितीयचतुर्थ पंचमषष्ठसप्तमस्थानं गळय्दरोळ प्रत्येकं नाकु नाल्कु भंगंगळप्पुवष्टमसत्वस्थानदोळ एरडु भंगंगळवु । शेषप्रथमतृतीयस्थानद्वयदोळु प्रत्येकमेकैकभंगमव कुमंतु कूडि सत्वस्थानंगल मिथ्यादृष्टियोळ, पदिने टप्पुवरोळ भंगंगळु पंचाशत्प्रमितंगळप्पु 1
अनंतरं सासादन गुणस्थानदोळं मिश्रगुणस्थानवोळ बद्धाबद्धायुष्यरुगळं विवक्षिसिकोंडु सत्वस्थानंगळमनवर भंगंगळ संख्येयुमं गाथाचतुष्टर्याददं वेदपरु :
द्वितीये चतुर्थे पंचमे षष्ठे बद्धायुष्कसत्त्वस्थाने पंच पंच भंगा भवंति । शेषप्रथमतृतीय सप्तमाष्टमनवमदशमेकैक एव । अवद्वायुः स्थानेषु च द्वितीये चतुर्थे पंचमे षष्ठे सप्तमे चत्वारश्चत्वारः, अष्टमे द्वौ, शेषप्रयम२० तृतीययोरेकैकः एवं मिथ्यादृष्टौ सत्त्वस्थानान्यष्टादश । भंगा: पंचाशत् ।। ३७१ ॥ अथ सासादन मिश्रयोः स्थानभंगसंख्यां गाथाचतुष्केणाह
सासादने सप्तभिर्हीनं त्रिभिर्होनं च सर्वसत्त्वं बद्धायुष्कस्य । मिश्र त्रिभिः सप्तभिः सप्तभिरेकादश
सत्ततिगं सासाणे मिस्से तिग सत्त सत्त एयारा ।
परिहीण सव्वसत्तं बद्धस्सियरस्स एगूणं ॥ ३७२ ॥
सप्तकमासासादने मिश्र त्रिकसप्तसप्तैकादश । परिहीण सधंसत्वं बद्धस्येतस्यैरकोनं ॥
सासादनसम्यग्दृष्टियो सप्तप्रकृतिसत्वमुं त्रिप्रकृतिसत्वमुं परिहीनस प्रकृतिसत्वस्थान द्वयमक्कु । मिश्रनोळु त्रि सप्त सप्त एकादश प्रकृति सत्वर हित सर्व्वं प्रकृतिसत्वस्थानचतुष्टयमिवु बद्धायुष्यरोळryवु । इतरस्य अबद्धायुष्यंगे अवरोळु प्रत्येकमेकैकप्रकृतिसत्य हीनमक्कुमा सासादन
पूर्व में कहे अठारह स्थानोंके पुनरुक्त और समान भंगोंके बिना जो भंग कहे हैं उनकी संख्या कहते हैं—
दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे बद्धायुष्क स्थान में पाँच-पाँच भंग होते हैं शेष पहले, तीसरे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें बद्धायुस्थान में एक-एक भंग होता है। अबद्धायुस्थान में दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे सातवेंमें चार-चार, आठवें में दो, शेष पहले और तीसरे में एक-एक भंग होता है । इस प्रकार मिध्यादृष्टि गुणस्थान में स्थान अठारह और भंग पचास होते हैं ||३७१ ||
आगे सासादन और मिश्र गुणस्थान में स्थानों और भंगोंकी संख्या चार गाथाओं द्वारा कहते हैं
सासादनमें बद्धायुष्क के सर्व सत्व में से सात हीन और तीन हीन दो स्थान होते हैं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टिगळ सत्वस्थानभंगंगळगे संदृष्टि :बध्य. ० । सासादनगे। मिश्रगे ।
.
. । ० ।
०
।
०
बध्य. १४१ । १४५
। १४५
१४१ । १४१ । १३७
अबध्य. १४०। १४४
१४४
१४० । १४० । १३६
सासादनंगे सत्वरहितप्रकृतिगळं पेन्दपरु :
तित्थाहारचउक्कं अण्णदराउगदुगं च सत्तेदे ।
हारचउक्कं वज्जिय तिण्णि य केई समुट्ठि॥३७३॥ तीर्थाहार चतुष्कमन्यतरायद्विकं च सप्तैतानि । आहारकचतुष्कं विवर्य त्रीणि च कैश्चित- ५ समुद्दिष्टं ॥
तीर्थमुमाहारकचतुष्टयमुं विवक्षितभुज्यमानबध्यमानायुद्वंयमल्लदितरायुद्धयमुमंतु एळं प्रकृतिगळ सासादननोळसत्वरहितप्रकृतिगठप्पुवु । अवरोळाहारकचतुष्टयमुं वजिसि तीर्थमुमितरादितयमुं मूरे प्रकृतिगळ सत्वरहितंगठाहारकचतुष्टयमुं सत्वप्रकृतिगळप्पु दु केलंबराचार्यरुगळिदं पेळल्पटुदु ॥ मिश्रनोळु सत्वरहितप्रकृतिगळं पेळ्दपरु :
'तित्थण्णदराउदुगं तिण्णिवि अणसहिय तह य सत्तं च ।
हारचउक्के सहिया ते चेव य होंति एयारा ॥३७४॥ तीर्थान्यतरादिकं त्रीण्यप्यनंतानुबंधिसहितं । तथा च सप्त च आहारक चतुष्केग सहि. तानि तानि चैव भवंत्येकादश ॥
भिश्च हीनं भवति । अबद्धायुष्कस्य पुनरेकैकहीनं भवति ॥ ३७२ ॥ सासादनस्य होनप्रकृतीराह
तीर्थमाहार चतुष्टयं विवक्षितभुज्यमानबध्यमानाम्यामितरायुषी चेति सप्त। तत्राहारकचतुष्के वजिते तिस्रः तच्चतुष्कसत्त्वं तु कैश्चिदेवोद्दिष्टं ॥ ३७३ ॥ मिश्रस्य ता आहमिश्रमें तीन, सात, सात और ग्यारहसे हीन चार स्थान होते हैं। अबद्धायुके स्थान बद्धायुके स्थानमें से एक-एक बध्यमान आयुसे हीन होते हैं ॥३७२।।
सासादनमें घटायी गयी प्रकृतियोंको कहते हैं
सासादनमें तीर्थकर, आहारक चतुष्क, भुज्यमान और बध्यमानके बिना शेष दो आयु इन सात के बिना एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थान होता है। उन सात आहारक चतुष्कको छोड़ देनेपर तीन प्रकृतिहीन दूसरा स्थान एक सौ पैतालीस रूप होता है। इस एक सौ पैंतालीसमें जो आहारक चतुष्कका सत्त्व कहा है वह कुछ आचार्योंके २५ मतानुसार कहा है। अन्यथा पूर्व में सासादन गुणस्थानमें आहारकका सत्त्व नहीं कहा है ॥३७३॥
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६१८
गो० कर्मकाण्डे तीर्थमुमन्यतराद्विकमुमितु मूरुं प्रकृतिगळं मत्तमनंतानुबंधिकषायचतुष्टयं सहितमागि एळं प्रकृतिगळ तथा च अहंगे. आहारकचतुष्टयदोडने युमेळं प्रकृतिगळुमा अनंतानुबंधिकषाय चतुष्टयं सहितमागि एकादश प्रकृतिगर्छ सत्वरहितमागि नाल्कुं सत्वस्थानंगळप्पुवु॥ अनंतरमा बद्धाबद्धायुष्यरुगळ सत्वस्थानंगळोळु भंगंगळ संख्येयं पेळ्वपरु :
साणे पण इगि भंगा बद्धस्सियरस्स चारि दो चेव ।
मिस्से पण पण भंगा बद्धस्सियरस्स चउ चउ णेया ॥३७५॥ सासादने पंचैक भंगा बद्धस्येतरस्य चत्वारो द्वौ चैव । मिश्रे पंच पंच भंगा बद्धस्येतरस्य चत्वारश्चत्वारो ज्ञेयाः॥
___सासावननोळ बद्घायुष्यंगैदुमोदु भंगंगळप्पुवु । इतरनप्प अबद्धायुष्यंग नाल्कुमरडं १. भगंगळप्पुवु। मिश्रनोळु बद्धायुष्यंगय्वन्दु भंगंगळप्पुवु । इतरनप्प अबद्घायुष्यंगे नाल्कु नाल्कुं
भंगंगळप्पुवु । अदेते दोडे पेळल्पडुगुं। चतुर्गतिय सासादननप्पुरिदं विवक्षित भुज्यमान बद्धयमानायुर्वयमल्लवितरायुद्वितयमुं तोत्थंमुमाहारकचतुष्टयक चतुष्टयमुमितेळ प्रकृतिगळ रहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळ मुंपेळ्द चतुर्गतिबद्धायुष्यरुगळ द्वादश भंगंगळोळु
पुनरुक्त समभंगंगळं कळदु शेष पंच भगंगळप्पुवु । अल्लि अबद्धायुष्यं चतुर्गतिजनप्पुरिदं विवक्षित १५ भुज्यमानायुष्यमल्लवितरायुस्त्रितयमु तीर्थमुमाहारकचतुष्टयमुमते टुं प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि
नूरनाल्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु नाल्कुं गतिय भुज्यमानायुश्चतुष्टय भेदविदं नाल्कु भंगंगळप्पुq ।
तीर्थमन्यतरायुषी चेति तिस्रः । ता एव पुनः अनतानुबंधिचतुष्केण सप्त वा आहारकचतुष्केण सप्त । अमूः पुनः अनंतानुबंधिचतुष्केणैकादश भवंति ॥ ३७४ ॥ अथ तेषु स्थानेषु भंगसंख्यामाह
सासादने भंगाः पंचको बतायुष्कस्य । इतरस्य चत्वारो द्वौ। मिश्रे पेंच पंच बद्धायुष्कस्य । इतरस्य २० चत्वारश्चत्वारः । तद्यथा-एकचत्वारिंशच्छतप्रकृतिके चतुर्गतिबद्धायुषां द्वादशभंगेषु सप्त पुनरुक्तान्विना पंच
आगे मिश्रगुणस्थानमें घटायी गयी प्रकृतियोंको कहते हैं-..
मिश्रमें तीर्थकर और भुज्यमान बध्यमान बिना दो आयुके एक सौ पैंतालीस रूप प्रथम स्थान है । तीन ये और अनन्तानुबन्धी चतुष्क अथवा आहारक चतुष्क बिना एक सौ
इकतालीस प्रकृतिरूप दूसरा और तीसरा स्थान है। तथा तीन पूर्वोक्त, चार अनन्तानु२५ बन्धी और आहारक चतुष्क इन ग्यारह के बिना एक सौ सैंतीस रूप चतुर्थ स्थान है। ये बद्धायुके स्थान हैं। इनमें एक-एक बध्यमान आयु घटानेपर अबद्धायुके स्थान होते हैं ॥३७४।।
आगे इनमें भंगोंकी संख्या कहते हैं
सासादनमें बद्धायुके भंग पाँच और एक होते हैं। अबद्धायुके चार और दो होते हैं। मिश्रमें बद्धायुके पाँच-पाँच भंग होते हैं। अबद्धायुके चार-चार भंग जानना। वह इस ३० प्रकार होते हैं
सासादनमें एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थानमें चारों गतिके बद्धाय जीवोंकी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६१९
आ सासादन द्वितीयबद्धायुष्य सत्वस्थानदोळ तीर्थमुमन्यतरायुद्वितयमुमंतु त्रिप्रकृतिगळ सत्वरहितमागि नूरनावत्तदु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमेदिताहारकचतुष्टयसत्यमुळ्ळ सासादननुमोळने बाचार्यर पक्षदोल भंगनों देयक्कुम दे 'तें दोडे बद्धदेवायुष्यनुपशमसम्यग्दृष्टि आहारकचतुष्टय मनप्रमत्तगुणस्थानदोळ पाजिसि बळिक्कं सम्यक्त्वविराधकनादोडल्लियों दें भंगमक्कुमा अबद्धायुष्यनोल भुज्यमानमनुष्यायुष्यनुपशमसम्यग्दृष्टि आहारकचतुष्टयमनुपाजिसि अनंतानुबंधकषायोदयदिदं सासादननाडोळियों दु भंगमक्कुं मुन्नं बद्धदेवायुष्यंर्ग मरणमादोडे भुज्यमानदेवायुष्यनोको संगमकुं | अंतु अबद्धायुष्यनोळे रडु भंगमध्वु । संदृष्टि :
:
बद्ध
अबद्ध
मनो प्रथम बद्धायुः सत्वस्थानदोळु विवक्षितभुज्यमान बद्धयमानायुर्द्वयमल्लवितरायुद्वितयमुं तीर्थमुमंतु प्रकृतिसत्वर हितमागि नूरनात्वत्तय्वु प्रकृतिसत्वस्थानं मुं पेव्व द्वादशभंगंगळोळु पुनरुक्तसमभंगंगळं कळेदु शेषमपुनरुक्तभंगंगळय्दप्पुववल्लि अबद्धायुः सत्वस्थानदो लु १०
१४५
१
भंगाः । अबद्धायुष्कस्य चत्वारिंशच्छतप्रकृति के चतुर्गतिभुज्यमानायुर्भेदाच्चत्वारो भंगाः ।
द्वितीये बद्धायुःस्थाने पंचचत्वारिंशच्छतप्रकृति के बद्धाहारचतुष्कस्य कस्यचित्सासादनत्वप्राप्तिरित्युपदेश । श्रयणादेको भंगः । तदबद्धायुष्के भुज्यमानमनुष्यायुष्कस्योपशमसम्यग्दृष्टे रजिताहारकचतुष्कस्थानंतानुबंध्युदयाज्जातसासादनस्यैको भंगः । प्रावद्धदेवायुष्कस्य मृत्वा जातभुज्यमानदेवायुष्कस्यैको भंगः, एवं द्वौ ।
संदृष्टि
१५
ब
१४४
२
अ
| १४५
१
१४४ २
मित्रे प्रथमे बद्धायुः स्थाने पंचचत्वारिंशच्छतप्रकृति के प्राग्वद्द्वादशभंगे सप्तपुनरुक्तान्विना पंच भंगाः । अपेक्षा बारह भंगोंमें से सात पुनरुक्त भंग के बिना पाँच भंग होते हैं। अबद्धायुष्कके एक सौ चालीस प्रकृतिरूप स्थान में चारों गति सम्बन्धी भुज्यमान आयुके भेदसे चार भंग होते हैं । दूसरे बद्धायुस्थान में जो एक सौ पैंतालीस प्रकृतिरूप है, जिसने आहारक चतुष्कका बन्ध किया है ऐसे किसी जीवको सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति होती है इस उपदेशका आश्रय २० लेकर एक भंग कहा है । उसके अबद्धायु स्थान में दो भंग इस प्रकार हैं-- भुज्यमान मनुष्यायुवाला उपशम सम्यग्दृष्टि आहारक चतुष्कका बन्ध करके मरकर सासादन हुआ सो एक भंग तो यह हुआ । पूर्वमें जिसके देवायुका बन्ध हुआ था ऐसा उपशम सम्यग्दृष्टी आहारक चतुष्कका बन्ध करके मरकर देव हो सासादन हुआ । वहाँ भुज्यमान देवायुका सत्त्व होने से दूसरा भंग हुआ ।
२५
मिश्र गुणस्थान में बद्धायके चारों स्थानों में पूर्वोक्त प्रकारसे बारह भंगों में से पाँच-पाँच
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६२०
गौ० कर्मकाण्डे
विवक्षितभुज्यमानायुष्यमों दल्लदितरायुस्त्रितयं तीर्थमुमंतु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तु नूरनाल्वत्तु नाल्कु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुं। चतुर्गतिजरुगळ भेददि नाल्कु भंगमक्कु । संदृष्टि :
१४५
१४४
द्वितीयबद्धायुःसत्वस्थानदोळु विवक्षितभुज्यमानबद्धयमानायुद्वितयमुं तीर्थमुमनंतानुबंधि कषायचतुष्टयमुमंतु सप्तप्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु मुंपेन्द पुनरुक्तसमभगंगळं कळेदु शेषपंचभंगंगठप्पुवल्लि अबद्धायुष्यनोळु विवक्षित भुज्यमानायुष्यमों. दल्लदितरायुस्त्रितय, तीर्थमुमनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमुमंतेष्टुं प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूर नाल्वत्त प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि नाल्कुं गतिगळ भेददिदं नाल्क भगंगळप्पुवृ । संदृष्टि :
|ब १४१
अ
१४०
तृतीयबध्यमानायुः सत्वस्थानदोळु तीर्थमुं भुज्यमानबध्यमानायुद्वितयमल्लादतरायुर्वितयमुमाहारकचतुष्टयमुमंतेलं प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तो दुं प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि १० पुनरुक्तसमविहीनपंचभंगंगळप्पुवल्लि अबद्धायुष्यसत्वस्थानदोळु भुज्यमानायुः सत्वमल्लदितरायु
स्त्रयमुं तीर्थमु आहारक चतुष्टयमुमंत टु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तुप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि गतिचतुष्टयभेददिदं नाल्कुं भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :
अबद्धायुःस्थाने चतुर्गतिकभेदाच्चत्वारो भंगा। संदृष्टिः
भ
४
न
एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थबद्धाबद्धायुःस्थानेष्वपि पंच चत्वारो भंगा ज्ञातव्याः । अत्र मिश्रेऽनंतानुबंध्यसत्त्वं १५ कथमिति चेत् असंयतादिचतुर्वेकत्र करणत्रयेण तच्चतुष्कं विसंयोज्य दर्शनमोहक्षपणानभिमुखस्य संक्लिष्ट
भंग होते हैं। अबद्धायुके चारों स्थानोंमें भुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार-चार भंग होते हैं। __ शंका-मिश्रमें अनन्तानुबन्धीका असत्त्व कैसे है ?
समाधान-असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एकमें तीन करणोंके द्वारा २० अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन किया। उसके पश्चात् दर्शनमोहनीयकी क्षपणा तो न कर
सका और संक्लेश परिणामके द्वारा मिश्र मोहनीयके उदयसे मिश्र गुणस्थानवर्ती हुआ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
ब१४१
अ १४०
मिश्र चतुर्थबध्यमानायुःसत्वस्थानदोळु तीर्थमितरायुद्वितयमुमाहारकचतुष्टयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतु पन्नों, प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तेनु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुं। भंगंगळुमपुनरुक्तंगळुमय्दप्पुवल्लि अबद्धायुः-सत्वस्थानदोळ तीत्थंभुमितरायुस्त्रयमुमाहारकचतुष्टयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतु द्वादश प्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्तारु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु गतिचतुष्टय भेदविदं नाल्कुंभंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :
|ब १३७
अ१३६
१०
ई मिश्रनोळनंतानुबंधिसत्वरहितत्वमे ते दोडे असंयतादि नाल्कुं गुणस्थानतिगळ अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमं करणत्रयकरणपूर्वकं विसंयोजनम माडिदवर्गळ दर्शनमोहनीयमं क्षपि. मिसलभिमुखरल्लरवर्गळु संक्लिष्टपरिणामदिदं सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युददिदं मिश्रगुणस्थानमं पोहियल्लियुमनंतानुबंधिकषायचतुष्टयं सासादननोळ बंधव्युच्छित्तिगठादुवप्पुरिंदमनंतानुबंधिरहितत्वं मिश्रनोळरियल्पडुगुं।
इंतु सासावन मिश्ररुगळ्गे सत्वस्थानंगळ भेदंगळुमनवर भंगंगळुमं पेन्दनंतरं असंयतगुण. स्थानबोळ मुंपेळ्ब नाल्वत्तुं स्थानंगळगुपपत्तियमनवर भंगंगळु नूरिप्पतक्कं. गाथाषट्कदिदं पेळवपर:
दुग छक्क सत्त अळं णवरहियं तह य चउपडि किच्चा ।
णममिगि चउ पणहीणं बद्धस्सियरस्स एगूणं ॥३७६।। द्विकषट्कसप्ताष्टौ नवरहितं तथा च चतुः प्रति कृत्वा । नभ एक चतुः पंचहीनं बद्धस्येतरस्यैकोन॥
परिणामेन सम्यमिथ्यात्वोदयात्तत्र गमनात् । तदधस्य सासादने एव च्छेदात् ।। ३७५ ॥ अथासंयतोक्तचत्वारिंशस्थानानामुत्पत्ति तद्विशत्युत्तरशतभंगांश्च गाथाषट्केनाहउसके अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नहीं होता। नवीनबन्ध हो तो सत्त्व हो, किन्तु नवीनबन्धकी २० व्युच्छित्ति तो सासादनमें ही हो जाती है ॥३७५॥
___ आगे असंयत गुणस्थानमें कहे चालीस स्थानोंकी उत्पत्ति और उनके एक सौ बीस भंगोंको छह गाथाओंसे कहते हैं
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६२२
गो० कर्मकाण्डे द्विकषट्कसप्ताष्टनवप्रकृतिरहितपंचसत्वस्थानंगळं तिर्यकक्रमदिनिरिसि मत्तमा प्रकारविंद कळकळगे तिर्यक्कागि नाल्कुं पंक्तियं माडि प्रथमपंक्तियोळु शून्यमनम्वु स्थानंगळोळ कळेवुदु । द्वितीयपंक्तिय पंचस्थानंगळोळु प्रत्येकमों दो कळेवुदु । तृतीयपंक्तिय पंचस्थानंगळोळु प्रत्येक नाकुं नाल्क कळेदु चतुर्थपंक्तियो पंचमस्थानंगळोळु प्रत्येकं अय्वरकळवुवंतु कळेव नाल्कुं पंक्तिगळोळु बद्धायुष्यंगे सत्वस्थानंगाळप्पत्तप्पुवबद्धायुष्यंगे प्रथमद्वितीयतृतीयचतुत्यपक्तिय पंच पंच सत्वस्थानंगळोलु प्रत्येकमा दोंदं कळेदु तंतम्म पंक्तिगळ कळगे केळगे स्थापिसुत्तं विरलु सत्व. स्थानंगळिप्पत्तप्पुवु । अंतु असंयतंग सत्वनंगळ नाल्वत्तप्पुवु । यिलिल प्रथमपंक्तिद्वयमुं तृतीयपंक्तिद्वयमु सतीर्थस्थानंगळप्पुवितर द्वितीयपंक्तिद्वयमुं चतुर्थपंक्तिद्वितयमुं तीर्थरहितस्थानंगळे दु पेळ्दपरु :
तित्थाहारे सहियं तित्थूणं अह य हारचउहीणं ।
तित्थाहारचउक्केणूणं इदि चउपडिट्ठाणं ॥३७७।। तोहारसहितं तीर्थोनमथ चाहारचतुर्थीनं । तीहारकचतुष्केणोनमिति चतुः प्रतिस्थानं ॥
द्विकषट्कसप्ताष्टनवप्रकृतिरहितपंचस्थानानि तिर्यक्रमेण विन्यस्य पुनस्तथैवाघोषः चतुःपंक्तोः कृत्वा १५ प्रथमपंक्ती पंवस्थानेषु शून्यमपनयेत् । द्वितीयपंक्तो एकैकं, तृतीयपंक्तो चतुष्कं चतुष्क, चतुर्थपंक्तो पंच पंच ।
एवं बद्धायुष्कस्य विंशतिः सत्त्वस्थानानि । अबद्धायुष्कस्य तथा पंचपंक्तीनां पंच पंच सत्त्वस्थानेषु प्रत्येकमेककमपनीय स्वस्वाधःस्थापितेषु विंशतिः, मिलित्वा असंयतस्य चारिंशद्भवंति ॥ ३७६ ॥ अथोक्तपंक्तिचतुष्के तोहारयुतायुतत्वेन विशेषमाह
दो, छह, सात, आठ, नौ प्रकृति रहित पाँच स्थानोंको बराबर-बराबर लिखकर पुनः २. उसी प्रकार नीचे-नीचे पाँच स्थानोंकी चार पंक्तियाँ लिखो। उनमें से प्रथम पंक्तिके पाँच
स्थानों में शून्य घटाओ। अर्थात् वे पाँचों स्थान ज्योंके त्यों दो, छह, सात, आठ और नौ प्रकृति रहित होते हैं। दूसरी पंक्तिमें-से एक-एक प्रकृति और घटाओ। अर्थात् वे पाँचों स्थान तीन, सात, आठ, नौ, दस रहित जानना। तीसरी पंक्तिके पाँचों स्थानों में से चार
चार प्रकृति घटाना। अर्थात् वे पाँचों स्थान छह, दस, ग्यारह, बारह, तेरह प्रकृति रहित २५ जानना। चौथी पंक्तिमें पाँच-पाँच प्रकृति घटाना । अतः वे पाँचों स्थान सात, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह प्रकृति रहित होते हैं।
इस प्रकार बद्घायुके बीस स्थान होते हैं। इसी प्रकार अबद्धायुको चार पंक्तियोंके पाँच-पाँच सत्त्वस्थानों में से प्रत्येकमें बध्यमान आयुरूप एक-एक प्रकृति घटानेपर बीस स्थान होते हैं । सब मिलकर असंयतमें चालीस सत्त्वस्थान होते हैं ॥३७६।।
आगे चारों पंक्तियोंमें तीर्थकर और आहारक चतुष्ककी अपेक्षा जो विशेष है उसे ३०
कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
प्रथम पंक्तिद्वयदस्थानपंचकद्वयं तीर्थमुमाहारकचतुष्टयमुं सहितमवकुं । द्वितीयपंक्तिद्वयव स्थानपं वकद्वयं तीर्थंकर प्रकृतिसत्व रहित मक्कुमाहारकचतुष्टयसहित मक्कुं । तृतीयपंक्तिद्वयद स्थानपंचकद्वयं तीर्थंकर प्रकृतिसत्वसहित मक्कुमा हारकचतुष्टयरहितमक्कुं । चतुर्थ पंक्तिद्वयस्थानपंचकद्वयं तीर्थंकरमुमाहारकचतुष्टयमुं सत्वरहितमक्कुमंतु चतुः प्रतिस्थानमरियल्पडुगुं ॥
अनंतरं दुगछक्कादि सत्वहीन प्रकृतिगळं पेळदपरु :
अण्णदर आउसहिया तिरियाऊ ते च तह य अणसहिया । मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण खविदे हवे ठाणा || ३७८ ||
अन्यतरायुः सहितं तिथ्यं वायुस्ते च तथा चानंतानुबंधिसहितं मिथ्यात्वं मित्रं सम्यक्त्वं क्रमेण क्षपिते भवेत् स्थानं ॥
६२३
अन्यतरायुष्यमों दु सहितमाइ तिर्य्यगायुष्यमा येरडुमनंतानुबंधिसहितमादारु मी या १० मिथ्यात्वमं कूडि येळ मी येळं मिश्रप्रकृति गूडि येंदु ई येंटुं सम्यक्त्वप्रकृतिगूडि ओ भत्तुं प्रकृतिगळु रहितंगळवु । संदृष्टि :
--
५
प्रथम पंक्तिद्वयस्य स्थानपंचकद्वयं तीर्थाहारकचतुष्कसहितं भवति । द्वितीयपंक्तिद्वयस्य स्थानपंचकद्वयं तीर्थरहितमाहारकचतुष्टयसहितं भवति । तृतीयपंक्तिद्वयस्य स्थानपंचकद्वयं तीर्थसहितमाहारकचनुष्टयरहितं भवति । चतुर्थ पंक्तिद्वयस्य स्थानपंचकद्वयं तीर्थंकराहारकचतुष्टय रहितं भवति । एवं चतुः प्रकृतिकं स्थानं १५ ज्ञातव्यं ।। ३७७ ।। अथ दुगछक्कादिहीनप्रकृतीराह
तिर्यगायुरन्यतरायुः सहितं तद्वितीयमनंतानुबंधिसहितं तत्षट्कं मिथ्यात्वसहितं तत्सप्तकं मिश्रसहितं तदष्टकं सम्यक्त्वसहितनवकमित्यपनीतप्रकृतयो भवति ।। ३७८ ।। अथ भंगान् गाथाद्वयेनाह -
बद्धा और अबद्धायुकी प्रथम दो पंक्तियोंके जो पाँच-पाँच स्थान हैं वे तीर्थंकर और २० आहारक चतुष्क सहित हैं । बद्धायु और अबद्धायुकी दूसरी दो पंक्तियोंके पाँच-पाँच स्थान तीर्थंकर रहित किन्तु आहारक चतुष्क सहित हैं । बद्धायु और अबद्धायुकी तीसरी दो पंक्तियोंके पाँच-पाँच स्थान तीर्थकर सहित किन्तु आहारक चतुष्टय रहित हैं । बद्धायु और अबद्धायुकी चतुर्थ दोनों पंक्तियोंके पाँच-पाँच स्थान तीर्थंकर तथा आहारक चतुष्कसे रहित हैं । अर्थात् प्रथम पंक्तिसे शून्य घटानेसे मतलब है कि उसमें तीर्थंकर और आहारक चतुष्क २५ हैं। दूसरी में एक घटानेसे मतलब है कि उसमें तीर्थंकर नहीं है, तीसरी में चार घटाने से मतलब है कि उसमें आहारक चतुष्क नहीं है और चौथी में पांच घटानेसे मतलब है कि उसमें तीर्थंकर भी नहीं है और आहारक चतुष्क भी नहीं है || ३७७ ||
इसे नीचे रचना द्वारा स्पष्ट किया जाता है। प्रत्येक कोठे में ऊपर प्रकृतियोंका प्रमाण है. उसके नीचे भंगोंका प्रमाण है ।
३०
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गो० कर्मकाण्डे
सतीर्थ ॥० | बंध ॥
सतीत्थं ॥
| अबंध।
१४०
अतीत्थं ॥० | बंध।
अतीत्थं ॥० | अबंध ॥
सतीत्थं ॥ ० बच॥ र
सतीत्थं ॥० बंध ॥
| सतीत्यं ॥ ० अबंध ॥ १३
सतीत्यं ॥ ० | अबंध।
अतीत्यं ॥
| बंध॥
| अतीर्थ ॥ ० अबंध ॥ १४० १३६ १३५ । १३४ १२२
अतीर्थ ॥० अबंध॥
बद्धायुस्थान २०, भंग ६०
अबद्धायुस्थान २०, भंग ६०
१४५ १४१ १४० १३९ ।१३८ ती. आ. सहित १४६ १४२ ।१४१ ।१४० १३९
" | २ | २ | २ २ । २ ३ ३ १ ३ | ३
|१४५ १४१ १४० १३९ |१३८ । १४४ १४० १३९ ।१३८ १३७ तीर्थ.
ताथा राहत ५ ।५ । ३ ३ ४ आहारक रहित
१४२ ११३८ १३७ |१३६ /१३५ १४१ /१३७ ११३६ ।१३५ १३४ | २ ।२ ।२ । २
। ३ । १ । ३ । ३
१४० १३६ /१३५ १३४ १३३ ती. आ. रहित १४१ १३७ /१३६ /१३५ १३४
राहत | ५ ।५ । ३ । ३ ।४ । ४ । ४ । १ । ४ । ४ आगे दो, छह आदि घटायी प्रकृतियोंको कहते हैं
तियंचायु और कोई एक अन्य आयु ये दो प्रकृति जानना । दो ये और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह जानना। इनमें मिथ्यात्व मोहनीय मिलानेसे सात जानना। मिश्र
मोहनीय मिलानेसे आठ जानना। सम्यक्त्व मोहनीय मिलानेसे नौ जानता। ये घटाई ५ गयी प्रकृतियाँ हैं। अर्थात् बद्धायुकी प्रथम पंक्तिका प्रथम स्थान दो आय बिना एक सौ
छियालीस प्रकृतिरूप है। दूसरी पंक्तिका प्रथम स्थान तीर्थंकर बिना एक सौ पैतालीस प्रक्रतिरूप है। तीसरी पंक्तिका प्रथम स्थान आहारक चतुष्क बिना एक सौ बयालीस प्रकृतिरूप है। चौथी पंक्तिका प्रथम स्थान आहारक चतुष्क और तीर्थकर बिना एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप है। इनमें बध्यमान आयुरूप एक प्रकृति और घटानेपर अबद्धायुके चार स्थान होते हैं । इस प्रकार आठ स्थान हुए। इन सबमें अनन्तानुबन्धी चतुष्करूप चार प्रकृतियोंके घटानेपर दूसरे आठ स्थान होते हैं। उनमें से भी मिथ्यात्व घटानेपर तीसरे आठ स्थान
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अनंतरं भंगंगळं गाथात्रयदिदं पेदपरु :
आदिमपंचट्ठाणे दुगदुगभंगा हवंति बद्धस्स ।
इयरसविणादव्वा तिगतिग इगि तिणि तिण्णेव ॥ ३७९ ||
आदिमपंचस्थाने द्विकद्विकभंगा भवंति बद्धस्य । इतरस्यापि ज्ञातव्याः त्रिकत्रिकैकत्रित्रयः ॥ मोदल पंचस्थानदोळेरडेरडु भंगंगळपुष्व । बद्धायुष्यंगे यितराबद्धायुष्यंगे मूरु मूरुं ओंदु ५ मूरुमूरुं भंगंगळरियल्पडुवुवु ॥
विदियस्स वि पणठाणे पण पण तिग तिण्णि चारि बद्धस्स । इयरस्स होंति या चउ चउ इगि चारि चत्तारि ||३८० ||
द्वितीयस्यापि पंचस्थाने पंच पंच त्रिकत्रयश्चत्वारो बद्धस्येतरस्य भवंति ज्ञेयाश्चतुश्चतुरेक
श्चत्वारश्चत्वारः ॥
द्वितीयपंक्ति पंचस्थानं गलोल बद्वायुष्यंगे क्रमदिदं पंच पंच त्रिकत्रिकचतुब्भंगंगळपुवित रंगबद्धायुगे चतुश्चतुरेक चतुश्चतुर्भगंगळ ज्ञातव्यंगळ ॥
आदिल दस सरिसा भंगेण य तदिय दसय ठाणाणि । बिदियस चउत्थस्स य दस ठाणाणि य समा होति ॥ ३८१ ||
६२५
आद्यतनदशसु सदृशानि भंगेत व तृतीयदशकस्थानानि । द्वितीयायाश्चतुर्थ्याश्च दश - १५ स्थानानि च भंगैः समानि भवंति ॥
प्रथमपंचस्थानेषु बद्धायुष्कस्य द्वौ द्वौ भंगौ भवतः । अबद्धायुष्कस्य च त्रयस्त्रयः एकस्त्रयस्त्रयो भवंति || ३७९ ॥
द्वितीयपंक्तेः पंचस्थानेषु बद्धायुष्कस्य पंत्र पंच त्रयस्त्रयश्चत्वारो भंगा भवंति । इतरस्य चत्वारश्चत्वार एकश्चत्वारश्चत्वारो भवंति ॥ ३८० ॥
आद्येषु बद्धावद्धायुष्कदशस्यानेषूक्तभंगैः तृतीयबद्धाबद्धायुष्कदशस्थानभंगाः समानाः । द्वितीयपंक्तेर्वद्धाबद्धायुष्कदशस्थानोक्तभंग: चतुर्थ पंक्तेर्वद्धाबद्धायुष्कदशस्थानभंग ः समानाः । एवमसंयतस्य चत्वारिंशत्स्थानेषु होते हैं । उनमें से भी मिश्रमोहनीय घटानेपर चौथे आठ स्थान होते हैं। उनमें से भी सम्यक्त्व मोहनीय घटानेपर पाँचवें आठ स्थान होते हैं। इस तरह सब मिलकर असंयतमें चालीस सत्त्वस्थान होते हैं || ३७८ ||
आगे दो गाथाओंसे इनमें भंग कहते हैं
प्रथम पंक्ति सम्बन्धी बद्धायुके पाँच स्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं । अबद्धायुके पाँच स्थानों में क्रम से तीन-तीन, एक, तीन-तीन भंग होते हैं ||३७९ ||
१०
२०
दूसरी पंक्ति सम्बन्धी बद्धायुके पाँच स्थानों में क्रमसे पाँच-पाँच, तीन-तीन, चार भंग होते हैं । अवद्धाय पाँच स्थानों में क्रमसे चार-चार, एक, चार भंग होते हैं ॥ ३८० ॥
३०
पहली पंक्ति सम्बन्धी पाँच बद्धायु और पाँच अबद्धायुके दस स्थानों में जो भंग कहे हैं। उन्हीं के समान तीसरी पंक्तिके दस स्थानोंमें भंग जानना । तथा दूसरी पंक्ति सम्बन्धी पाँच
क- ७९
२५
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गो० कर्मकाण्डे
आद्यतनबद्धाबद्धापुष्यरुगळ दशस्थानंगळोळु पेळद भंगंगळोडर्न तृतीयबद्धाबद्धायुष्यरुगळ दशस्थानंगळ भंगंगळ समानंगळप्पुवु । द्वितीयपंक्तिय बद्धाबद्धायुष्यरुगळ कास्थानंगळोळ पळव भंगंगळोडने चतुर्थ पंक्तिबद्धाबद्वायुष्यरुगळ वशस्थानंगळ भंगंगळु समानंगळवु । इंतसंयतन नाल्वत्तुं स्थानंगळोळु नूरिष्पत्तु भंगंगळप्पुववर भेदं पेळल्पडुगुमदे ते बोर्ड - बद्धायुष्यनप्प असंयतन ५ प्रथम पंक्ति पंचस्थानं गळु सतीर्थस्थानंगलप्पुवरिदं भुज्यमानबध्यमानायुर्द्वयमल्लवितरायुष्यमों कुं तीर्थसत्व मुल्लंगे तिगायुष्य सत्व मिल्लप्पुदरिदं तिर्य्यगायुष्यमुमंतु प्रकृतिद्वयर हितमागि नूरनाल्व - तारु प्रकृतिसत्वस्थानदो भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननरकायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानदेवायुष्यनु । भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं । भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यनु । में वितु नालकुं भंगंगळोळु समभंगंगळप्प कडेयबेरडुं भंगंगळं बिट्टु भंगद्वयमक्कुमत्तमा स्थानदोळु अनंतानुबंधि १० चतुष्टयमं विसंयोजिसिदातंगे अन्यतरायुष्यमों दु तिय्यंगायुष्यमुमनंतानुबंषिचतुष्कमुमंतु षट् प्रकृतिरहितमागि नूरनात्वतेरडु प्रकृतिसत्वस्थानदोळं भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननारकायुष्यनु । विशत्यत्तरशतं भंगा भवंति । तद्भेद उच्यते
बद्धायुष्कस्यासंयतस्य प्रथमपंक्तिपंचस्थानानां सतीर्थत्वात्तिर्यगायुषा भुज्यमानबध्यमानम्या मितरायुषा च रहितषट्चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भंगा: भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननरकायुष्कः १ भुज्यमानमनुष्यबध्यमान१५ देवायुकः २ भुज्यमाननारकबध्यमान मनुष्यायुष्कः ३ भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्यायुष्कश्चेति चतुर्षु समद्वये त्यक्ते द्वौ भंगौ भवतः । तथा विसंयोजितानंतानुबंधिनस्तच्चतुष्कस्यान्यतरायु स्तियंगायुषोश्चाभावाद् द्वाचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितमिथ्यात्वस्य तस्यैकचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितमिश्रस्य चत्वारिशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितसम्यक्त्व प्रकृते रेकान्नचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि तौ भुज्यमानमनुष्यबध्यमान
६२६
बद्धा और पाँच अबद्धायु के दस स्थानों में जो भंग कहे हैं उन्हींके समान चौथी पंक्ति के दस २० स्थानों में भंग जानना । इस तरह असंयतके चालीस स्थानोंमें एक सौ बीस भंग होते हैं।
अब उन भंगों को कहते हैं
1
बद्धायु असंयत सम्यग्दृष्टीके पहली पंक्ति सम्बन्धी जो पाँच स्थान हैं वे तीर्थंकर प्रकृति सहित हैं । और तिर्यंच में तीर्थंकरकी सत्ता नहीं होती । अतः प्रथम पंक्तिके प्रथम स्थानमें भुज्यमान या बध्यमान तिर्यंचायु और एक कोई अन्य आयुके बिना एक सौ २५ छियालीस प्रकृतिरूप है । उसमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु, भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु, भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु, भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु ये चार भंग होते हैं । इनमें से भुज्यमान मनुष्यायु और बध्यमान नरकायु तथा भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु भंग समान होनेसे पुनरुक्त है। तथा भुज्यमान मनुष्याय बध्यमान देवायु और बध्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु यह भंग भी समान ३० होने से पुनरुक्त है । अतः दो भंगों के पुनरुक्त होनेसे शेष दो भंग होते हैं। प्रथम पंक्तिका दूसरा स्थान जिसके अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन हुआ उसके अनन्तानुबन्धी चार, तिचा और एक अन्य आयु इन छह बिना एक सौ बयालीस प्रकृतिरूप है। जिसके मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय हुआ है उसके एक सौं इकतालीस प्रकृतिरूप तीसरा स्थान है, जिसके मिश्र मोहनीयका क्षय हुआ है उसके एक सौ चालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६२७
भुज्यमानमनुष्यनु बध्यमानदेवायुध्यन व भंगद्वयमक्कु । मा स्थानदोळ मिथ्यात्व प्रकृतियं क्षपिसि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियं क्षपिसुत्तिप्पं भुज्यमानमनुष्यंगे अन्यतरायुष्यमोदु तिर्य्यगायुष्यमुं अनंतानुबंधिचतुष्क मिथ्यात्वप्रकृतियुमंतु सप्तप्रकृतिसत्वर हितमागि नूर नाल्वत्तोदु प्रकृतिसत्व स्थानमक्कु मल्लियुमा भंगद्वयमक्कुमा स्थानदोळु मिश्रप्रकृतियं क्षपिसि सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपित्तमिसंगित रायु स्तिय्यंगाद्वितयमुं अनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियं मिश्रप्रकृतियुमंतें दुं ५ प्रकृतिरहितमागि नूरनात्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु मुंपेळबेरडे भंगंगळवु । आ स्थानदोळु सम्यक्त्व प्रकृतियं क्षपिसिदा तंगन्यतरायु स्तियंगाद्विक मुमनंतानुबंषिचतुष्टयमुं दर्शनमोहनीयत्रितयमुमंतु नवप्रकृतिरहित मागि नूर मूवत्तो भत्त् प्रकृतिसत्वस्थानदोळं मुंपेन्द भुज्यमानमनुष्यं बद्धनरकवेवायुष्यभेददेरेडे भंगंगळप्पुवीबद्घायुष्यन स्थानपंचकद केळगण अबद्धायुष्यन पंक्तिय
नरकायुःभुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुश्चेति द्वौ द्वौ भंगो भवतः । तदधस्तनाबद्धायुष्कपंक्ती पंचस्थानेषु १० पंचचत्वारिंशच्छत के विसंयोजितानंतानुबंधिनः एकचत्वारिंशच्छतस स्वस्थाने भुज्यमाननारकमनुष्यदेवायुर्भेदात्त्रयो भंगाः । क्षतिमिथ्यात्वस्य चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यमानमनुष्याणामेको भंग: । क्षपितमिश्रस्यैकान्नचत्वारिशच्छत के भुज्यमानन रकमनुष्यदेवायुर्भेदात्त्रयो भंगाः कृतकृत्यवेदकतीर्थसत्त्वमनुष्यस्य गतिद्वयजननसंभवात् । क्षपितसम्यक्त्वप्रकृतेरष्टत्रिंशच्छतकेऽपि त एव त्रयो भंगा । असौ क्षायिकसम्यग्दृष्टिः तस्मिन्नेव भवे घातीनि
तथा २०
और जिसके सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय हुआ है उसके एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप १५ पाँचवाँ स्थान है । इन चारों स्थानों में भी पूर्ववत् भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु और भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु ये दो दो ही भंग होते हैं। अबद्धायुके प्रथम पंक्ति सम्बन्धी पाँच स्थानों में प्रथम स्थान एक सौ पैंतालीस प्रकृतिरूप और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होनेपर दूसरा स्थान एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप है । इन दोनों स्थानोंमें भुज्यमान नरकायु मनुष्यायु और देवायुकी अपेक्षा तीन भंग है । मिथ्यात्वका क्षय होनेपर तीसरा स्थान एक सौ चालीस प्रकृतिरूप है । उसमें भुज्यमान मनुष्यायु एक ही भंग होता है । मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है । उसमें भुज्यमान नरकायु, मनुष्याय देवायुकी अपेक्षा तीन भंग हैं। क्योंकि तीर्थंकर की सत्तावाला कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी मनुष्य मरकर नरक और देवगति में उत्पन्न हो सकता है । अतः देवगति और नरकगति में भी इस प्रकारका सत्वस्थान सम्भव है । २५ सम्यक्त्व मोहनीयका अभाव होनेपर एक सौ अड़तीसका सत्तारूप पाँचवाँ स्थान होता है । यहाँ भी भुज्यमान नरकायु मनुष्यायु और देवायुकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। मनुष्यायु सहित एक सौ अड़तीस सत्त्वस्थानवाला यह क्षायिक सम्यग्दृष्टी यदि उसी भव में घातिया कर्मों को नष्ट कर केवली होता है तो उसके गर्भ और जन्मकल्याणक न होकर तप आदि तीन
१. इल्लि क्षायिकनपुर्दार भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यायुष्यमुमे व ३० भंगंगळु कूडि नाल्कु भंगंगळुळडं समभंगंगळे एंदु एरडु भंगंगळ तेगदु येरडे भंगंगळे बदथं । षट्सप्ताष्टप्रकृतिरहितस्थानदोळ, नाल्कु भंगगळिर्ग संभवमिल्लप्पुदरिदेरर्ड भंगंगळ । एक दोडे अनंतानुबंघिय - मिथ्यात्वप्रकृतियनुर्कडिसि मिश्रप्रकृतियं केडिसद मुन्न मरण मिल्लप्पुर
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६२८
गो० कर्मकाण्डे स्थानपंचकदोळ पेळल्पडुगुं । तिय्यंगायुद्धज्जितविवक्षितभुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रितयं "हितागि नूरनाल्वत्तरदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु भुज्यमाननारकं मनुष्यं देवनब भेददिदं मूरु भंगंगळप्पुवनंतानुबंधिचतुष्क, विसंयोजनमं माडिदातंगेळु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनेब भेदिदं भंगत्रयमक्कुं। मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसिवातंगेटु प्रकृतिरहितमागि नूरनाल्वत्त प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लिभुज्यमानमनुष्यनों दे भंगमक्कुं। मिश्रप्रकृतियं क्षपिसिदातंगे नवप्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्तो भतु प्रकृतिसत्व स्थानमक्कुमल्लियुं तियंग्गतिवज्जितमागि भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनेब भेवदिदं भंगत्रयमक्कुमेके बोर्ड कृतकृत्यवेदकंगे सतीत्थंगे मनुष्यंगे गतिद्वयजनन संभवमुंटप्पुरिदं। सम्यक्त्व प्रकृतियं क्षपिसिवंगयुं भुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुत्रितयमुमतानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्वादिवर्शनमोहनीयत्रयमुमंतु दशप्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तें टु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनें ब भेददिदं भंगत्रयमक्कुमी अबद्धायुष्यनप्प सतीर्थनप्प क्षायिकसम्यग्दृष्टि तद्भवदोळ घातिगळं केडिसिदोर्ड गर्भावतरणकल्याणमुं जन्माभिषवणकल्याणमुमिल्ल । अथवा तृतीयभवदोळ घातिगळं के डिसुवडे नियमदिदं देवायुष्यमं कट्टि देवनक्कु
मातंगे पंचकल्याणंगळुमोळवु। बद्धनरकायुष्यनप्प सतीत्थंगेयुं नारकनागि प्रथमद्वितीयतृतीय१५ पृथ्विगळोळिणंगविंगळु भुज्यमाननरकायुष्यावशेषमादागळु तीर्थकरविशिष्टमनुष्यायुष्यमं
हंति तदा गर्भावतरणजन्माभिषवणकल्याणे न स्यातां । अथ तृतीय भवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बध्वा देवो भवेत् तस्य पंच कल्याणानि स्युः । यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्वः स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते । तस्य षण्मासावशेषे बद्ध मनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवति । द्वितीयपंक्त बद्धायुःपंचस्थानेषु विवक्षितभुज्यमानबध्यमानाम्यामितरायुयतीर्थाभावात्पंचचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने विसंयोजितानंतानुबंधिन एकचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने च तीर्थासत्त्वाच्चातुर्गतिसंबंधिद्वादशभंगेषु समभंगेषु समपुनरुक्तान्विना पंच । क्षपितमिथ्यात्वस्य चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यमानमनुष्यस्य बध्यमान.
monwwwwwwwwwwwww
ही कल्याणक होते हैं। यदि तीसरे भवमें घातिकमौंको नष्ट करता है तो नियमसे देवायुको बाँधता है। वहाँ देवायु सहित एक सौ अड़तीसका सत्त्व पाया जाता है। मनुष्य पर्यायमें
जन्म लेनेपर उसके पाँच कल्याणक होते हैं। किन्तु जिसने मिथ्यात्वमें नरकायुका बन्ध २५ किया है और उसके तीर्थंकरका सत्त्व है तो वह प्रथम द्वितीय या तृतीय नरकमें उत्पन्न होता
है उसके एक सौ अड़तीसका सत्त्व होता है। उसकी आयुमें छह महीना शेष रहनेपर मनुष्यायुका बन्ध होता है तथा नरकमें नारकियों द्वारा किये जानेवाले उपसर्गका निवारण और पंचकल्याणक होते हैं।
दूसरी पंक्ति सम्बन्धी बद्धायुके पाँच स्थानों में विवक्षित भुज्यमान और बध्यमान बिना ३० दो आय और तीर्थंकरके बिना एक सौ पैंतालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थान है । अनन्तानुबन्धीका
विसंयोजन होनेपर एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप दूसरा स्थान है। इन दोनों स्थानों में तीर्थकर प्रकृतिका अभाव होनेसे चारों गति सम्बन्धी बारह भंगों में समभंग और पुनरुक्त भंगके बिना पाँच-पाँच भंग जानना। मिथ्यात्वका क्षय होनेपर एक सौ चालीस प्रकृतिरूप
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६२९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका कट्टिदंगे नारकोपसर्गनिवारणमुं गर्भावतरणादिकल्याणंगळुमप्पुवु। द्वितीयपंक्तिय बहायुष्यन सत्वस्थानपंचकंगळोछु तोर्थमुं विवक्षितज्यमानबध्यमानायुद्वितयमुमल्लदितराद्वितयमुमंतु त्रिप्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्ता प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि तीर्थरहितस्थानमप्युदरिद चतुर्गतिसंबंधि द्वादशभंगंगळोळु पुनरुक्तसमभंगळेळं कळे दु शेषपंचभंगंगलप्पुवु । अनंतानुबंधिविसंयोजनमं माडिदातंगे तीर्थमुमन्यतरायुद्वितयमुं अनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतेलु सत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुमा पंचभंगंगळप्पुवु। मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसि मिश्रप्रकृतियं क्षपियिसुत्तिप्पात मनुष्यनेयप्पुरिंदमातंगे तीर्थमुमितरायुद्वितयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वमुमंते टुं प्रकृतिरहितमागि नूर नाल्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि भुज्य. मानमनुष्यंगे बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवनेब भेददिदं नाल्कु भंगंगळोळु पुनरुक्तभंगमोवं कळेदु शेषभंगंगळु मूरप्पुवु। मिश्रप्रकृतियुमं क्षपिसि सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसुत्तिर्प कृतकृत्य- १० वेदकंगं तीर्थमुमितरायुद्वितयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियु कूडि नव प्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवतोभत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमानमनुष्यं बद्धनरकतिय्यंग्मनुष्यदेवायुष्यभेददिवं नाल्कु भंगंगळोळु पुनरुक्तमं कळेदु मूरु भंगंगळप्पुवु । सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसि क्षायिकसम्यग्दृष्टियाद तीर्थरहितंगे तीत्यमुमितरायुद्वितयमुमतानुबंधि चतुष्टयमुं दर्शनमोहनीय त्रयमुमंतु दशप्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्त टुं प्रकृतिसत्वस्थान. १५ मक्कुमल्लिभुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं । भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमानदेवायुष्यनु। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननरकायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानतिर्यगायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यनु बध्यमानदेवायुष्यनु । भुज्यमानदेवं बध्यमान. मनुष्यायुष्यनुमेंब सप्तभंगंगळोळु मुज्यमानमनुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनेब पुनरुक्तभंगमुमं नरकतिर्यक्मनुष्यदेवभेदेन चतुर्यु भंगेषु पुनरुक्तमेकं विना त्रयः । क्षपितमिश्रस्यैकान्नचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि त एव त्रयः । क्षपितसम्यक्त्वप्रकृतेरष्टत्रिशच्छतसत्त्वस्थाने भज्यमाननारकबध्यमानमनुष्यायुष्कः १ भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानदेवायुष्क: २ भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननरकायुष्कः ३ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानतिर्यगायुष्कः ४ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानमनुष्यायुष्कः ५. भुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुष्कः ६ भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्या
तीसरा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु और बध्यमान नरकायु तिर्यंचायु मनुष्यायु देवायुके भेदसे चार भंग होते हैं। उनमें-से भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु भंग एक २५ ही प्रकृति होनेसे पुनरुक्त है । उसके बिना तीन भंग होते हैं। मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है। वहाँ भी उसी प्रकार तीन भंग होते हैं । सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप पाँचवाँ स्थान है। वहाँ भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु १ भुज्यमान तिर्यंचायु बध्यमान देवायु २ भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु ३ भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान तिर्यंचायु ४ भुज्यमान मनुष्याय ३० बध्यमान मनुष्यायु ५, भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु ६, भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु इन सात भंगोंमें पाँचवाँ भंग पुनरुक्त है क्योंकि एक ही मनुष्यायु है। पहला भंग
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गो० कर्मकाण्डे भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु । भुज्यमानदेवं बध्यमानमनष्यायुष्यनुमें बेरडं समभंगंगळु मंतु मूरं भंगंगळं कळेदु शेषभंगंगळ नाल्कु अप्पुवु। शेषेपंचभंगंगळऽसंभवंगळप्पुवु : संदृष्टि :
ब ति । म न । ति । म । न । ति । म। ति । म | भु ना । ना ति।ति।ति।तिम ।म।माम दे। दे
| * । स ।।।+।+।+ : ।स
आ द्वितीयपंक्तिय केळगण अबद्धायुष्यरुगळ सत्वस्थानपंचक दोळु विवक्षित भुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रितयमुं तीर्थकूडि नाल्कु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूर नाल्वत्तनाल्कु प्रकृति५ सत्वस्थानमक्कु । मल्लि नाल्कुं गतिजर भेददिदं नाल्कुं भंगंगळप्पुवु । भज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रितपमुं तीर्थमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतु अष्टप्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कु मल्लियुं चतुर्गतिजर भेरिदं नाल्कु भंगंगळप्पुवु । मिथ्यात्वमं क्षपिसिद सत्वस्थानदोळु भुज्यमानमनुष्यायुष्यमल्लवितरायुस्त्रितय, तीर्थमुमतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वममंतु नव
प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तो भत्त प्रकृतिसत्वस्थानमकुमल्लि भुज्यमानमनुष्यनल्लदितरगति. १० त्रयजरल्लप्पुरिंदमोद भंगमक्कुं। मिश्राकृतियुमं क्षपिसि सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपियिसुत्तितर्नु
कृतकृत्यवेदकनुं मेणातंगे अन्यतरायुस्त्रितय, तोत्थंमुमनंतानुबंधिचतुष्कर्मु मिथ्यात्वप्रकृतियुं युष्कश्चेति ७ सप्तभंगेषु पंचमः पुनरुक्तः, प्रथमसप्तमौ च समाविति चत्वारः। शेषाः पंच न संभवंति । संदृष्टिः
tr
| • • • • • • • • • • स |
तदघस्तनाबद्धायुष्कपंचस्थानेषु विवक्षितभुज्यमानादितरायुस्त्रयतीर्थाभावे चतुश्चत्वारिच्छतसत्त्वस्थाने १५ विसंयोजितानंतानुबंधिचतुष्कस्य चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने चतुर्गतिजभेदाच्चत्वारः । क्षपितमिथ्यात्वस्यैकान्न
चत्वारिच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यमानमनुष्यादितरगतित्रयजाभावादेकः । क्षपितमिश्रस्याष्टात्रिंशच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यऔर तीसरा भंग तथा सातवाँ और छठा भंग समान है। इन तीनके बिना चार भंग होते हैं। चारों गति सम्बन्धी जो बारह भंग कहे थे उनमें से पाँच भंग यहाँ नहीं होते। दूसरी पंक्ति
सम्बन्धी अबद्धायुके पांच स्थानोंमें-से भुज्यमान आयु बिना तीन आयु और तीर्थंकर बिना २० एक सौ चवालीस प्रकृतिरूप पहला स्थान है। अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होनेपर एक सौ
चालीस प्रकृतिरूप दूसरा स्थान है। इन दोनोंमें भुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार-चार १. मुंपेल्द द्वादश भंगंगळोळ घटियिसुववृ । अव्दु घटियिसव बुदथं ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६३१ प्रिकृतियुमितु वशप्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूर मूवत्तंटु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि भुज्यमालमनुष्यतुं कृतकृत्यापेक्षेयिदं नारकनुं तिय्यंचनुं देवनुमब नाल्कुं भंगंगळप्पुबु । सम्यक्त्वप्रकृतियुमं क्षपिसिव क्षायिक सम्यग्दृष्टिगे यितरायुस्त्रितयमुं तीर्थमुमनंतानुबंधिचतुष्क, दर्शनमोहनीयत्रयमंतु पन्नोंदु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तेनु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं चतुर्गतिजरुगळ भेवविदं नाल्कुं भंगंगळप्पुवु। इंतु प्रथमपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु त्रयोविंशति भंगंगळप्पुवु। ५ द्वितीयपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु सप्तत्रिंशद्भगंगळप्पुवु । इतरतृतीयपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु प्रथमपंक्तिद्वय दशस्थानं गळो पेळदंत त्रयोविंशति भंगंगळप्पुवु। चतुर्थपंक्तिद्वयद दशस्थानंगळोलु द्वितीयपंक्तिद्वयद वंशस्थानंगळोळु पेळ्द सप्तत्रिंशद्भगंगळप्पुवंतसंयतगुणुस्थानदोळु सत्वस्थानंगळु नाल्वत्तरोळ पुनरुक्त समविहीनभंगंगळु नूरिप्पत्तप्पुवु॥ अनंतरं देशसंयतादि गुणस्थानत्रयदोळु भंगगळं पेळपरु :
देसतिएसुवि एवं भंगा एक्केक्क देसगस्स पुणो ।
पडिरासि बिदियतुरियस्सादीबिदियम्मि दो भंगा ॥३८२॥ देशवतादित्रयेष्वेवं भंगा एकैके देशवतस्य पुनः। प्रतिराशि द्वितीयतुरीयस्यादौ द्वितीये वो भगो॥
मानमनुष्यः कृतकृत्यवेदकनारकतिर्यग्देवाश्चेति चत्वारः । क्षायिकसम्यग्दृष्टः सप्तत्रिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि चतु- १५ . सुगंतिजभेदाच्चत्वारः । एवं इतरतृतीयपंक्तिद्वयदशस्थानेषु प्रथमपंक्तिद्वयदशस्थानवत्त्रयोविंशतिर्भूत्वा चतुर्थपंक्तिद्वयदशस्थानेषु द्वितीयपंक्तिद्वयदशस्थानवत्सप्तत्रिंशद्भूत्वा चासंयते चत्वारिंशत्सत्त्वस्थानेषु समपुनरुक्तान्विना विंशत्युत्तरशतं भंगाः स्युः ॥३८१॥
देशसंयतादित्रये प्रतिस्थानमेकको भंगः । देशसंयते पुनद्वितीयपंक्तिद्वयस्य चतुर्थपंक्तिद्वयस्य च बद्धाबदायुषोः प्रथमद्वितीयस्थानयोहों द्वौ भंगो । तथाहि
भंग होते हैं। मिथ्यात्वका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप तीसरा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु एक ही भंग होता है। मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु और कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षा भुज्यमान नरकायु तिर्यंचायु देवाय इस प्रकार चार भंग होते हैं। सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर क्षायिक सम्यग्दृष्टीके एक सौ सैंतीस प्रकृतिरूप पाँचवाँ २५ स्थान है । वहाँ भुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते हैं।
____ तीसरी पंक्ति में पहली पंक्तिके बद्धायु अबद्धायुरूप दस स्थानोंमें आहारक चतुष्कको घटानेपर दस स्थान होते हैं। उनमें प्रथम पंक्तिकी तरह तेईस भंग जानना। चौथी पंक्तिमें दूसरी पंक्तिके बद्धायु अबद्धायु रूप दस स्थानोंमें आहारक चतुष्करूप चार-चार प्रकृति घटानेपर दस स्थान होते हैं। उनमें दूसरी पंक्तिकी तरह सैंतीस भंग होते हैं। इस प्रकार ३० असंयतमें सब मिलकर चालीस सत्त्वस्थान और एक सौ बीस भंग होते हैं ॥३८१।।
देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त इन तीन गुणस्थानों में असंयतकी तरह ही चालीस-चालीस स्थान होते हैं। और प्रत्येक स्थानमें एक-एक भंग होता है। विशेष इतना है कि देशसंयतमें
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६३२
गो० कर्मकाण्डे देशसंयतगुणस्थानदोळं प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळमप्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळं प्रतिस्थानमेकैकभंगंगळप्पुवु । देशसंयतगुणस्थानदोळु मत्ते द्वितीयपंक्तिद्वयद चतुत्थंपंक्तिद्वयव बद्धाबद्धायुष्यरुगळ प्रथम द्वितीयस्थानंगळोळु एरडेरडु भंगंगळप्पुवु । अदेंतेंदोडे देशसंयतादिगुणस्थानत्रयवोळम. संघतगुणस्थानदो पेन्दंते दुग छक्क सत्त अट्ठ णव रहिय मेंदु तिर्म्यगायुष्यमुं नरकायुष्यममंतेरडु मा येरडुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतारुमा आरं मिथ्यात्वप्रकृतियुमंतेळुमा एलु मिश्रप्रकृतियुमंते टुमा एंटु सम्यक्वप्रकृतियुमंतों भत्तु प्रकृतिगल क्रमदिदं सत्वरहितंगळागि नूर नाल्वत्तार नूरनाल्वत्तेरडुं नूरनाल्वतोदु नूरनाल्वत्तु नूरमूवत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानंगळक्कुमेके दोडे असंयतादि नाल्कुगुणस्थानत्तिगळु दर्शनमोहनीय क्षपणाप्रारंभकरप्पुरिदमा पंचसत्वस्थानंगळं तिर्यक्कागि केळगे केळगे चतुः प्रतियं माडि स्थापिसिदोडे बद्घायुष्यंगे सत्वस्थानंगळप्पुवल्लि १० मत्तो वो दायुष्यंगळं कुंदिसियवर केळगे कळगे स्थापिसिदोडबद्धायुज्यंगे स्थानंगळप्पुवल्लि
प्रथमपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु तीर्थमुमाहारकचतुष्टयमुं सत्वमुंटप्पुरिदं शून्यमं कळेदु द्वितीयपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु प्रत्येकं तीर्थमो दं कळेदु तृतीयपंक्तिद्वयदशस्थानंगळोळ तीर्थमनिरिसियाहारचतुष्कर्म कळेदु चतुर्थपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु तीर्थमुमाहारचतुष्कमुममंतु प्रकृतिपंच
कम कळेदु स्थापिसिटुं पंक्तिगळ बद्धायुष्यरुगळ पंचपंच स्थानंगळोळु प्रत्येकं भुज्यमानमनुष्यं १५ बद्धदेवायुष्यने बोदो दे भंगंगळप्पुवे दोडे भुज्यमानमनुष्य देशसंयतादिगळगे देवायुष्यं बध्यमानमल्लदितरायुस्त्रितयं बध्यमानायुष्यमादोडे देशवतमुं महाव्रतमुमिल्लप्पुरिदं । अबद्धायुष्यरुगळ पंच
तद्गुणस्थानत्रयेऽप्यसंयतवद् दुगछक्कसत्तभट्टनव प्रकृतयो हीना भूत्वा पंचस्थानानि तिर्यगधोधश्चतु:प्रतिकं कृत्वा स्थाप्यानि बद्धायुष्कस्य भवंति । तत्र पुनरेकैकायुरपनीय तेषामधःस्थापितेष्वबद्घायुष्कस्य भवति ।
ता प्रथमपंक्तिद्वयदशस्थानेषु तीर्थाहारा: संतीति शून्यमपनीय द्वितीयपंक्तिद्वयदशस्थानेषु तीर्थमनोय २० तृतीयपंक्तिद्वयदशस्थानेषु तन्निक्षिप्याहारकचतुष्कमपनीय चतुर्थपंक्तिद्वयदशस्थानेषूभयमपनीय स्थापिताष्टपंक्तीनां
बद्धायुष्कपंचपंचस्थानेषु प्रत्येकं भुज्यमानमनुष्यबद्धदेवायुरित्येक एव, इतरायुस्त्रये बध्यमाने देशमहावताभावात् । अबद्धायुष्कपंचपंचस्थानेषु भुज्यमानमनुष्य इत्येक एव । पुनर्देशसंयते तीर्थरहित द्वितीयपंक्तिद्वयदशस्थानेषु बद्घायु और अबद्धायुकी दूसरी दो पंक्ति और चौथी दो पंक्तिके पहले और दूसरे स्थानमें
दो-दो भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं२५ देशसंयत आदि तीन गुणस्थानों में असंयतकी तरह दो, छह, सात, आठ, नौ प्रकृति ' रहित पाँच स्थान बरोबर लिखकर उनके नीचे-नीचे चार पंक्ति बद्धायुकी करो। और उनके
नीचे बध्यमान एक-एक आयु घटाकर चार पंक्ति अबद्धायुकी करो। उनमेंसे पहली पंक्ति तीर्थकर आहारक सहित है । दूसरी पंक्तिमें तीर्थंकर प्रकृति घटाना। तीसरी पंक्ति में तीथंकर मिलाकर आहारक चतुष्क घटाना । चौथी पंक्तिमें तीर्थकर और आहारक चतुष्क घटाना । इस प्रकार बद्धायु अबद्धायुकी आठ पंक्तियोंके चालीस स्थान हुए। उनमें से जो बद्धायुके बीस स्थान हैं उनमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु यह एक-एक ही भंग होता है। क्योंकि अन्य तीन आयुके बन्धमें देशव्रत और महाव्रत नहीं होते। तथा अबद्धायुके जो बीस स्थान हैं उनमें भुज्यमान मनुष्यायु यह एक-एक ही भंग होता है। किन्तु इतना विशेष है कि
m
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६३३ पंच स्थानंगळोळु भुज्यनामनुष्यने बोडोद भंगंगळप्पुवु । मतं देशसंयत गुणस्थानदो तीत्यरहितंगप्प द्वितीपंक्ति शस्थानंगको चर्यपंक्तिद्वयदशस्थानंगळोठमवर प्रथम द्वितीयस्थानद्वयंगळोळु शुजालान मनुष्यं बबुदेवायुष्यनु भुज्यमानतिय्यंचं बद्धदेवायुष्यने बेरडेरडं भंगंगळं भुज्यमानमनुष्यं भुज्यनातिपंचगुजियरडेरई भंगलप्पु । यितागुतं विरलु देशसंयतन नाल्वतं स्थानंगळगे नास्वागतु : जालसंयतंगं नाल्वत्तं स्थानंगळगे नाल्वत्ते भंगंग- ५ ळप्पुवु । अप्रपतसंपतंगे नाल्यानुं स्थानंगळो नाल्यते भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :देशयतंगे
प्रयतसंयतंग
सतीर्य |ब १५६ १४२ १४
अ १४५
अतीर्थ
१४५
सतीर्थ
ब१४२ १३८ १३७
अतीर्य
|ब १४१
१३७ १३६
१४१
चतुर्थपंक्तिद्वयदशस्थानेषु च प्रथमद्वितीयस्थानयोर्भुज्यमानमनुष्यबद्धदेवायुष्कभुज्यमानतिर्यग्बद्धदेवायुको भुज्यमानमनुष्यभुज्यमानतिर्यचौ च भवतः । एवं सत देशसंयस्य चत्वारिंशस्थानानामष्टचत्वारिंशद्धंगा भवंति । तथा प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तु चत्वारिंशत्म्पानानां चत्वारिंशदेव भवंतीति ज्ञातव्यं ॥३८२॥ १०
देशसंयतमें तीर्थंकर रहित दूसरी पंक्तिके दस स्थानों में-से और चौथी पंक्तिके दस स्थानों में. से पहले और दूसरे दो स्थानों में दो-दो अंग होते हैं। सो बद्धायुकी दूसरी और चौथी पंक्तिके पहले और दूसरे स्थानमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु, भुज्यमान तिथंचायु बध्यमान देवायु ये दो-दो भंग होते हैं। तथा अबद्धायुकी दूसरी और चौथी पंक्तिके पहले
और दूसरे स्थानमें भुज्यमान मनुष्यायु और भुज्यमान तियंचायु ये दो-दो भंग होते हैं। इस १५ प्रकार देशसंयतमें चालीस स्थानों के अड़तालीस भंग होते हैं। किन्तु प्रमत्त और अप्रमत्तमें चालीस-चालीस स्थानोंके चालीस-चालीस भंग हैं ॥३८२॥
क-८०
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६३४
१५
गो० कर्मकाण्डे
०
२
ब १४६
१
अ १४५
१
ब ५४५
१
अ १४४
१
ब १४२
१
अ १४१
१
ब १४१
१
अ १४०
१
अप्रमत्तसंयतंग
०
०
०
६ ७ ८
१४२ | १४१ १४०
१३९
१ १ १ १
१४१ १४० १३९ १३८
१
१ १ १
| १४१
१
१४०
१
०
९
१४० १३९ १३८
१
१ १
१३९ १३८ १३७
१ १ १
| १३८ १३७ |१३६ १३५
१
१ १ १
१३७ १३६ १३५ १३४
१
१
१ १
१३७ १३६
१ १
१३५
१
१३६ १३५ ९३४
१
१
१३४
१
गळे. ब
अनंतरमुपशमकरुगळप्प अपूवकरणानिवृत्तिकरण सूक्ष्म सां परायोपशांत कषायरु नाकुं गुणस्थानवत्तगळोळ बद्धाबद्धायुष्यरुगळ सत्वस्थानं गळु मनवर भंगंगळुमं पेळल्वेडि मोलोळ करणंगे पेपरु :
१३३
१
दुगच्छतिण्णिवग्गेणूणाsपुव्वस्स चउपडि किच्चा ।
भमिगि चउपणहीणं बद्धस्सियरस्स एगूणं ||३८३ ॥
द्विषट्कत्रिवर्गेणोनम पृथ्र्वकरणस्य चतुः प्रति कृत्वा । नभ एक चतुःपंचरहितं बद्धस्येतर
स्यैकोनं ॥
अपूर्व्यंकरणस्य उपशमकापूर्व्वकरणंगे द्विकषट्कत्रिवर्गमात्र प्रकृतिर्गाळदमूनमप्य सत्वस्थानत्रितयमं चतुःप्रतिकमं माडि प्रथम पंक्तियो शून्यमं द्वितीयपंक्तियोळ तीर्थमोदं तृतीयपंक्तियो १० आहारकचतुष्टयमं चतुर्त्यपंक्तियोळाहारकचतुष्टयम् तीर्थमुमंतदुं कळेदोर्ड बद्धायुरुग सत्वस्थानंगळप्पुवबद्धायुष्य रुगळगे आ नाकु पंक्तिगळ तंतम्म केळगों दोंदु आयुष्यमं कुंदिसि अथोपशमकचतुष्के वक्तुं तावदपूर्वकरणस्याह
उपशमका पूर्वकरणस्य द्विकषट्कत्रिवर्गोन स्थानत्रयं चतुःप्रतिकं कृत्वा प्रथमपंक्तौ शून्ये द्वितीयपंक्ती तीर्थे तृतीयपंक्तावाहारकचतुष्के चतुर्थपंक्तावुभयस्मिश्चापनीते बद्धायुष्काणां सत्त्वस्थानानि भवति । अबद्धाआगे उपशमश्रेणिके चार गुणस्थानों में कहने के लिये प्रथम अपूर्वकरण में कहते हैंउपशमक अपूर्वकरण में दो, छह और तीनका वर्ग नौ इन प्रकृतियोंसे रहित तीन स्थानोंकी चार पंक्तियाँ करो । पूर्ववत् प्रथम पंक्ति में शून्य घटाना । दूसरी पंक्ति में एक
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६३५ स्थापिसिदोडवि नाल्कु पंक्तिगळप्पुवंते टु पंक्तिगळ्गे प्रतिपंक्ति प्रकृतिसत्वस्थानंगळ मूरु मूरागुत्तं विरलिप्पत्तनाल्कु सत्वस्थानंगळप्पुवु ॥ अनंतरं सत्वरहितप्रकृतिगळुमं भंगंगळुमं पेळ्दपरु :
णिरयतिरियाउ दोण्णिवि पढमकसायाणि दंसणतियाणि ।
हीणा एदे णेया भंगा एक्केकगा होंति ॥३८४॥
नरकतिर्यगायुद्धयमपि प्रथमकषाया दर्शनमोहनीयत्रयाणि हीनान्येतानि ज्ञेयानि भंगा ' एकैके भवंति ॥
नरकायुष्यमु तिर्यगायुष्यमुमे बरडुमा येरडं प्रथमकषायंगळु नाल्कुमंतार मा आरं प्रकृतिगळं दर्शनमोहनीयत्रयमुमंत्तों भत्तुं प्रकृतिगळु हीनमागि क्रमदिदं नूरनाल्वत्तारुं नूरनाल्वत्तेरडुं नूर मूवत्तो भत्तं प्रकृतिसत्वस्थानत्रितयमप्पुबै दरियल्पडुवुवु । बद्धायुः स्थानपंक्तिगळु नाल्करोळु १० भुज्यमानमनुष्यं बद्धदेवायुष्यने बोदो दे भंगंगलरियल्पडुवुवु । आ पंक्तिचतुष्टयद तंतम्म केळगण अबद्धायुःस्थानत्रितयचतुःपंक्तिगळोळु भुज्यमानमनुष्यने ये बो दोदे भंगमागुत्तिरलिप्पत्तनाल्कुं स्थानंगळिगप्पत्तनाल्के भंगंगळप्पुपृ॥ युष्काणां तच्चतुःपंक्तीनां स्वस्याधः एककस्मिन्नायुष्यपनीते चतुःपंक्तयो भवंति । एवमष्टपंक्तीनां प्रत्येक त्रीणि त्रीणि भूत्वा चतुर्विशतिस्थानानि भवंति ॥३८३॥ अथ ता हीनप्रकृती भंगांश्चाह
नरकतिर्यगायुषी तच्च प्रथमकषायचतुष्कं च तानि च दर्शनमोहत्रयं च अमूनि क्रमेण षट्चत्वारिंशच्छतद्वाचत्वारिंशच्छतैकान्नचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थानेष्वपनेतव्यानि । बद्धायुःस्थानपंक्तिचतुष्के भुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुरित्येकैक एव भंगः । तत्पंक्तिचतुष्कस्याधः अबद्धायुःस्थानत्रयचतुःपंक्तिषु भुज्यमानमनुष्य इत्येकक एव भंगः । एवं सति स्थानानि भंगाश्च चतुर्विंशतिर्भवंति ॥३८४॥ तीर्थंकर प्रकृति घटाना। तीसरी पंक्ति में आहारक चतुष्क घटाना। चौथी पंक्तिमें तीर्थंकर २०
र आहारक चतुष्क घटाना। इस तरह बद्धायके बारह स्थान हए। और अबद्धायकी चारों पंक्तियों में सब स्थानों में एक-एक बध्यमान आयु घटानेपर बारह स्थान होते हैं। इस प्रकार आठ पंक्तियोंके तीन-तीन स्थान होनेसे सब चौबीस स्थान होते हैं ॥३८३।।
आगे उन घटायी गयी प्रकृतियोंके नाम और भंग कहते हैं
नरकाय तिर्यंचाय घटानेपर एक सौ छियालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थान होता है। दो २५ ये आय और अनन्तानबन्धी चतष्क घटानेपर एक सौ बयालीस रूप दसरा स्थान होता है। ये छह और तीन दर्शनमोह इन नौ को घटानेपर एक सौ उनतालीस रूप तीसरा स्थान होता है। इन तीनों स्थानोंकी पूर्ववत् चार पंक्ति करो। तब बद्धायुके बारह स्थान हुए। इन सबमें एक-एक बध्यमान आयु घटानेपर अबद्धायुके बारह स्थान होते हैं। इन चौबीस स्थानोंमें भंग एक-एक ही है। बद्धायुके स्थानोंमें तो भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु यह एक भंग ३० है। अबद्धायु स्थानोंमें भुज्यमान मनुष्यायु यह एक ही भंग होता है। इस प्रकार उपशम अपूर्वकरणमें चौबीस स्थान चौबीस भंग होते हैं ॥३८४॥
इसी प्रकार उपशमक अपूर्वकरणकी तरह उपशम श्रेणिके अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म
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६३६
गा. कर्मकाण्डे एवं तिसु उवसमगे खवगापुव्वम्मि दसहि परिहीणं ।
सव्वं चउपडि किच्चा णममेक्कं चारि पण हीणं ॥३८५।। एवं त्रिषूपशमकेषु क्षपकापूर्वकरणे दाभिः परिहीनं । सवं चतुः प्रति कृत्वा नभ एक चत्वारि पंचहीनं ॥
___ इंतुपशमकापूर्वकरणंगे पेन्दत शेषोपशमकानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषायतगळेब नाल्कुं गुणस्थानतिगळगं प्रत्येकभिप्पत्तनाल्कुइप्पाननाj सत्यस्थानंगळुमिप्पत्तनाल्कुमिप्पत्तनाल्कु भंगंगळुमप्पवितुपशमणियो/ नाल्कु गुणस्थानतिगळ सत्वस्थानंगळगं भंगगळ्गं संदृष्टि इदु:
१४ । २४ । २४ । २४। २४ । २४ । २४ । २४ ।
उपशमकचत
बद्ध
१३
अब
१
१३
१३
अब
१
१३८
१३५
३७
१३४
४ अब
०बद्ध
१३६ ५ अब क्षपकापूर्वकरणे क्षपकश्रेणियोळु अपूर्वकरणंगे भुज्यमानमनुष्यायुष्यमल्लदितरायुस्त्रितय. १. मुमनंतानुबंधिकषायचतुष्क, दर्शनमोहनीयत्रयमुमंतु दशप्रकृतिगळिदं परिहीनमागि नूर मूवत टु प्रकृतिस्थानमयक्कुमेके दोडसंयतादि नाल्कु गुणस्थानत्तिगळे प्रथमकषायचतुष्टयविसंयोजकहें
एवमुपशमकापूर्वकरणवत् अनिवृत्तिकरणाद्युपशमकत्रयेऽपि स्थानानि भंगाश्च चतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिर्भवंति । क्षपकापूर्वकरणे भुज्यमानमनुष्यायुष्यादितरायुस्त्रयानंतानुबंधिचतुष्कदर्शनमोहत्रयाभावात्सत्त्वस्थानसाम्पराय और उपशान्त मोह नामक गुणस्थानों में भी स्थान और भंग चौबीस-चौबीस
१५ होते हैं।
क्षपक अपूर्वकरणमें भुज्यमान मनुष्यायु बिना तीन आयु-अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तीन दर्शनमोह इन दस रहित एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप एक ही सत्त्वस्थान होता है। उसकी
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कर्णाटवृत्ति जीवतस्थप्रदीपिका
६३७ दर्शनमोहनीयत्रयक्षपणाप्रारंभकरुमप्पुरिदमा शप्रकृतिगळु क्षपकोणियिदकेळगे कसिल्पटुवप्पुरिदमपूर्वकरणनोळु नूरमूवत्तंटे प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमदं चतुःप्रतिकर्म माडि प्रथमस्थानदोळु तीर्थमाहारकचतुष्टयमुं सत्वमुंटें'दु शून्यमं कळेदु द्वितीयस्थानबोळु तीर्थमिल्लाहारक चतुष्टयसत्वमुंटे दो दं कळेदु तृतीयस्थानदोलु तीर्थमुटाहारकचतुष्टयभिल्ले दु नाल्कं कळेदु चतुर्थसत्वस्थानदोळु तीर्थमुमाहारकचतुष्टय मुमिल्ले दरदुभं कळेदु प्रकृतिसत्वस्थाांगळ, नूर- ५ मूवत्ते] नूर मूवत्तेनूरमूवत्तनाल्कुनूरमूवत्तमूरुं प्रकृतिसत्वस्थानंगळ, नाल्केयप्पुवु । ई नाल्कु स्थानंगळोळ भुज्यमानमनुष्यने बोदो दे भंगमानुत्तिरलु नाल्कुस्थानंगळ्गं नाल्के भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :
| क्ष० अपू]
१३८
१३७
१३४
१३३
एदे सत्तट्ठाणा अणियट्टिस्सवि पुणो वि खविदेवि ।
सोलस अट्ठक्केक्कं छक्केक्कं एक्कमेक्क तहा ।।३८६।। एतानि सत्वस्थानानि अनिवृत्तेरपि पुनरपि क्षपितेपि षोडशाष्टकैकं षष्टकमेकमेकं तथा।
ई क्षपकानिवृत्तिकरणंगे पेळद नाल्कु सत्वस्थानंगळ क्षपकानिवृत्तिकरणंगमप्पुवु । मत्तं षोडश अष्ट एक एक षट्क एक एक एक प्रकृतिगळ क्षपियिसल्पडुत्तं विरलु क्रमदिद नूरिप्पत्तेरडु मष्टात्रिंशच्छतकं स्यात् । तच्चतुःप्रतिकं कृत्वा प्रयमे तो हारः समस्तीति शून्यमपनयेत्, द्वितीये तोर्थ, तृतीये आहारकचतुष्क, चतुर्थे उभयं एवं सत्त्वस्यानानि अष्टात्रिंशच्छतकसप्तत्रिंशच्छतकचतुस्त्रिशच्छतकत्रयस्त्रिशच्छत- १५ कानि चत्वारि तेषु प्रत्येकं भुज्यमानमनुष्यायुरेवेति भंगा अपि चत्वारः ॥३८५।।
एतानि क्षपकापूर्वकरणोक्तचत्वारि स्थानानि क्षपकानिवृत्तिकरणस्यापि भवंति पुनः षोडशाष्टककेषु षट्ककककेषु क्षपितेषु क्रमेण द्वाविंशतिशतकचतुर्दशशतकत्रयोदशशतकद्वादशशतकषडुतरशतकपंचोत्तरशतकचतु
चार पंक्ति करना । प्रथममें तीर्थकर और आहारक चतुष्क हैं अतः शून्य घटाना। दूसरीमें तीर्थंकर, तीसरीमें आहारक चतुष्क, चौथीमें दोनों घटानेपर एक सौ अड़तीस, एक सौ २० सैतीस, एक सौ चौंतीस और एक सौ तैतीस प्रकृतिरूप चार स्थान होते हैं। उनमेंसे प्रत्येकमें भुज्यमान मनुष्यायु एक-एक ही भंग होता है । अतः भंग भी चार ही हैं ॥३८५।।
क्षपक अपूर्वकरणमें जो ये चार स्थान कहे हैं ये क्षपक अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं। फिर सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक प्रकृतियोंका क्षय करनेपर एक सौ बाईस, एक सौ चौदह, एक सौ तेरह, एक सौ बारह, एक सौ छह, एक सौ पाँच, एक सौ चार, एक २५
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६३८
गो० कर्मकाण्डे नूरपदिनाकुनूरपदिमूरु नूरपन्नेरडं नूरारुं नूरदुनूरनाल्कुं नूरमूर प्रकृतिसत्वस्थानंगळप्पुववं प्रत्येकं चतुःप्रतिक माडि णभमेक्कं चारि पण परिहीणमेंदु स्थापिसुतं विरल संवृष्टिरचन यितिवर्क
स १३८ १२२ ११४ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ अ१ १२१ ११३ १३२ १११ १०५ १०४ १०३ १०२ स १३४ ११८ ११० १०९ १०८ १०२ १०१ १०० / ९९
अ १३३ ११७ १०९ ११० १०७ १०१ १०० / ९९ / ९८ अनंतरं अनिवृत्तिकरणन मूवत्तारु प्रकृतिसत्वस्थानंगळोळ, भंगंगळ गाथाद्वदिवं पेळ्दपरु:
भंगा एक्केक्का पुण णउस्सयक्खविदचउसु ठाणेसु ।
बिदियतुरियेसु दोदो भंगा तित्थयरहीणेसु ॥३८७॥ भंगा एकैके पुनर्नपुंसकक्षपित चतुर्दा स्थानेषु । द्वितीयतुय॑यो छौ द्वौ भंगो तोचकर होनयोः॥
ई क्षपकानिवृत्तिकरणसत्वस्थानंगळु मूवत्ताररोलं भंगंगळु प्रत्येकमो दो अयप्पुल्लि १० नपुंसकवेदमं क्षपिसिदे नाल्कुं सत्वस्थानंगळोळ तीर्थकरसत्वरहिंगळप्प द्वितीयचतुत्यस्थानवोळेर
डेरडु भंगेंगळप्पुव ते दोर्ड पेवपर:रुत्तरशतकव्युत्तरशतकान्यपि भवति । तानि सर्वाणि चतुःप्रतिकानि कृत्वा णभमेक्कचारिपणहीणमिति स्थाप्यानि ॥३८६॥ अमीष षटत्रिंशत्सत्त्वस्थानेष भंगान गाथाद्वयेनाह
एतेषु क्षपकानिवृत्तिकरणस्य षट्त्रिंशत्सत्त्वस्थानेषु भंगः एकैकः तत्र क्षपितनपुंसकवेदचःस्थानेषु १५ तीर्थकरत्वोनद्वितीयचतुर्थयोद्वौं द्वौ ॥३८७।। तद्यथा-.
सौ तीन रूप आठ स्थान होते हैं। इनकी चार पंक्ति करके प्रथम पंक्तिमें शून्य, दूसरीमें तीर्थकर, तीसरीमें आहारक चतुष्क, चौथीमें तीर्थंकर आहारक चतुष्क घटाना। इस प्रकार चारों पंक्तियों के बत्तीस स्थान हए। चार अपूर्वकरणवाले स्थान मिलानेपर क्षपक अनिवृत्ति करणमें छत्तीस स्थान होते हैं ॥३८६।।
क्षपक इन अनिवृत्तिकरणके छत्तीस स्थानोंमें दो गाथा द्वारा भंग कहते हैं
क्षपक अनिवृत्तिकरणके छत्तीस स्थानों में एक-एक भंग होता है किन्तु इतना विशेष है कि जहाँ नपुंसक वेदका क्षय कहा है उन चार पंक्ति सम्बन्धी चार स्थानोंमें तीर्थंकर रहित दूसरी और चौथी पंक्ति सम्बन्धी दो स्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं ॥३८७॥
उन्हें ही कहते हैं२५ १. स्त्रीवेदक्षपणायोग्यचतुथंस्थान । ऊर्ववागिर्द ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका थीपुरिसोदयचडिदे पुव्वं संदं खवेदि थी अत्थि।
संढस्सुदये पुव्वं थोखविदं संढमस्थिति ॥३८८॥ स्त्रीपुरुषोदयचटिते पूर्व षंडं अपयति स्त्रीवेदोस्ति षंडस्योदये पूर्व स्त्रोक्षपितं पंडमस्तोति ॥
स्त्रीवेदोवयदिदमु पुरुषवेदोददिवमुं क्षपकधेणियनेरिदवर्गळ मुन्नं खंडवेवमं क्षपिसुवरु। ५ स्त्रीवेदं सत्वमुंदु । षंडवेदोदयदिदं क्षपकश्रेणियनेरिदोडे मुन्नं स्त्रीवेदं क्षपिसल्पटु षंडवेदं सत्वमुंटे वितरडेरडं भंगंगळप्पुवंतागुत्तं विरलनिवृत्तिकरणंगुभयश्रेणियोळं कूडि द्वाषष्टिभंगंगळप्पुषु । ई पक्षदोळु क्षपकानिवृत्तिकरणंगे मायासत्वरहितस्थानंगळु नाल्किल्ल। चदुसेक्कं बादरे येंदु पेळ्वाचार्यन पक्षदोळनिवृत्तिकरणंगे मायारहितचतुःस्थानंगळुमोळवु । अनंतरं क्षपकसूक्ष्मसांपरायंगं क्षीणकषायंगं सत्वस्थानंगळं पेळ्दपरु :
अणियट्टिचरिमठाणा चत्तारिवि एक्कहीण सुहुमस्स ।
ते इगि दोण्णिविहीणं खीणस्सवि होति ठाणाणि ॥३८९॥ अनिवृत्तिचरमस्थानानि चत्वार्यप्येकहीनानि सूक्ष्मस्य। तान्येकद्विहीनानि क्षीणकषायस्यापि भवंति स्थानानि ॥
क्षपकानिवृत्तिकरणन संज्वलनमानरहितमप्प नाल्कु सत्वस्थानंगळोळ संज्वलनमाययों दु। १५ सत्वरहितंगळादुवादोड सूक्ष्मसांपरायंगे नाल्कुं सत्वस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि :
स्त्रीवेदोदयेन वेदोदयेन वा क्षपकश्रेणिमारूढाः पूर्व षंढवेदं क्षपयंति स्त्रीवेदसत्त्वं स्यात् । षंढवेदोदयेनारूढाः पूर्व स्त्रीवेदं क्षपयंति षंढवेदसत्त्वं स्यात् । तेन द्वौ द्वौ भंगो भवतः। एवं सत्यनिवृत्तिकरणस्योभयश्रेण्योमिलित्वा द्वाषष्टिभंगा भवंति । अस्मिन्पक्षे क्षपकानिवृत्तिकरणस्य मायोनचत्वारि स्थानानि न संति चदुसेक्के वादरे इति पक्षे संति ॥३८८॥ अथ क्षपकसूक्ष्मसांपरायक्षोणकषाययोराह
२० क्षपकानिवृत्तिकरणस्य संज्वलनमानरहितचत्वारि स्थानानि संज्वलनमायाहीनानि भूत्वा सूक्ष्मसांपरायस्य
जो जीव स्त्रीवेद या पुरुषवेदके उदयसे आपकश्रेणि चढ़ते हैं वे पहले नपुंसक वेदका क्षपण करते हैं। उनके पूर्वोक्त दोनों स्थानोंमें स्त्रीवेदका सत्व रहता है। किन्तु जो नपुंसक वेदके उदय के साथ क्षपकश्रेणि चढ़ते हैं वे पहले स्त्रीवेदका क्षपण करते हैं उनके नपुंसकवेदका सत्त्व रहता है। इससे दो स्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं। इस प्रकार क्षपकके छत्तीस स्थानोंके २५ अड़तीस भंग और उपशमकके चौबीस भंग मिलाकर अनिवृत्तिकरणमें बासठ भंग होते हैं। इस पक्षमें क्षपक अनिवृत्तिकरणमें माया रहित चार स्थान नहीं होते। किन्तु 'चदुसेक्के बादरे' इत्यादि गाथा आगे कहेंगे। उस पक्षकी अपेक्षा ये चार स्थान होते हैं। यह कथन आगे करेंगे ॥३८८॥
आगे क्षपक सूक्ष्म साम्पराय और क्षीणकषायमें कहते हैं
भपक अनिवृत्तिकरणमें जो संज्वलन मानरहित चार स्थान कहे थे, उन चार स्थानोंमें-से संज्वलन मायाको घटानेपर सूक्ष्मसाम्परायके चार स्थान होते हैं। वे एक सौ दो, एक
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६४०
गो० कर्मकाण्डे
तान्ये कवि होनानि आ सूक्ष्मसांपरायन ज्वलनावारहितस्थानं नाकं संज्वलनलोभकषायम दरिदं होतंगळादुदादोडे क्षीणकषायंगे हिचरमसमयपर्यंत नाल्तु सत्वस्थानंगलधुवु । संदृष्टि :
सू =
१०२
१०१
९८
९
तानि १० द्वौ द्वौ भंगौ ॥
क्षीण क०
द्विर०
१०१
१००
ई नाकु स्थानंग प्रत्येकं निद्राप्रबलावरणद्वयरहितगळादोडे क्षीणकषायन चरमसमय५ सत्वस्थानंगळ नाटकप्पुवु । संदृष्टि
९७
९६
अनंतर सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानंगळोळु सत्वस्थानंगल पेदपर :ते चोपरिहीणा जोगिस्स अजोगिचरिमगो वि पुणो । बावत्तरिमडसट्ठि दुसु दुसु हीणेसु दुग दुगा भंगा ॥ ३९० ॥ चतुगपरिहीनानि योगिनोऽयोगिचरमेपि पुनद्वसप्ततिमष्टषष्टिं द्वयोर्द्वयो होंनेषु
क्षी चरम
१९९
९८
९५
९४
भवंति । एतानि चत्वारि संज्वलनलोभहीनानि क्षीणकषायद्विवरमसमयपर्यंतं भवंति । एतानि पुनद्राप्रवलारहितानि चरमसमयस्य भवंति || ३८९ || अथ सयोगायोगयोराह -
सौ एक, अठानवे और सत्तानवे प्रकृतिरूप हैं। इन चारों स्थानों में से संज्वलन लोभ घटानेपर एक सौ एक, एक सौ सत्तानवे, छियानबे प्रकृतिरूप क्षीणकपायके द्विचरम समय पर्यन्त चार स्थान होते हैं । इन चारों स्थानों में से निद्रा प्रचलाको घटानेपर निन्यानबे अठानबे, पंचानबे, चौरानबे प्रकृतिरूप क्षीणकषायके अन्तिम समय में चार स्थान होते हैं ।। ३८९ ||
१५
आगे सयोगी-अयोगी में कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६४१ आक्षीणकषायक्षपकन चरमसमयचतुःसत्वस्थानंगळोळ प्रत्येक पविनाल्कुं पविनाल्कुं प्रकृतिगळु क्षपिसल्पटु सत्वरहितंगळागि सयोगकेवलि भट्टारकंगयुमयोगिकेवलि भट्टारकद्विचरमसमयपयंतमुं नाल्कुं नाल्कुं सत्वस्थानंगळप्पु । संदृष्टिः
| अयो० वि०
८५
८५ ८४ ८१
अयोगिकेवलि चरमेपि पुनः अयोगिकेवलि भट्टारकन चरमसमयदोळु तन्न द्विचरमसमयचतुःसत्वस्थानंगळो प्रथमद्वितीयस्थानदोळप्पत्तरडुमनेप्पत्तेरडुमं तृतीयचतुत्यंस्थानद्वयदोळरु- ५ वत्तं टुमरुवत्तेटुं प्रकृतिगळं होनं माडुतिरलु शेषप्रकृतिसत्वस्थानंगळु अयोगिकेवलिचरमसमयदोळु पदिमूलं पन्नरडु पदिमूलं पन्नेरमितु नाल्कुं सत्वस्थानंगळप्पुवल्लि पुनरुक्तस्थानद्वयम बिट्टेरडमपुनरुक्त स्थानंगळप्पुवु चरम ।
अल्लि सातोदयमुळ्ळंगे असातं सत्वमिल्ल । असातोक्यमुळ्ळंगे सातं सत्वमिल्ले वितु द्वौ द्वौ भंगौ भवतः आ एरडेरड भंगंगळप्पुवु । यितु गुणस्थानवोळु प्रकृतिसत्वस्थानंगळु भंग- १० सहितमागि पेळल्पटुवु।
तानि क्षोणकषायचरमसमयस्थानानि चतुर्दशप्रकृतिरहितानि सयोगायोगद्विचरमसमयपर्यंतं च भवति । पुनद्विचरमचतुःस्थानेषु प्रथम द्वितीययो सप्ततो तृतीयचतुर्थयोरष्टषष्टयां चापनीतायां चरमसमये द्वे त्रयोदशात्मके द्वादशात्मके तत्र पुनरुक्तद्वये त्यक्ते द्वे भवतः। तत्र सातोदययुतस्य नासातसत्त्वमसातोदययुतस्य न सातसत्त्वमिति दो द्वौ भंगो भवतः । एवं गुणस्थानेषु सत्वस्थानानि सभंगान्युक्तानि ॥३९०॥
क्षीणकषायके अन्त समय सम्बन्धी चार स्थानों में से ज्ञानावरण पाँच, दर्शनावरण चार और अन्तराय पाँच इन चौदह प्रकृतियोंको घटानेपर पिचासी, चौरासी, इक्यासी और अस्सी प्रकृतिरूप चार स्थान सयोगी तथा अयोगीके द्विचरम समय पर्यन्त होते हैं। पुनः अयोगीके द्विचरम समय सम्बन्धी चार स्थानोंमें-से प्रथम और द्वितीयमें बहत्तर तथा तीसरे और चतुर्थ में अड़सठ प्रकृति घटानेपर तेरह, बारह, तेरह, बारह ये चार स्थान अयोगीके २० अन्तिम समयमें होते हैं । इनमें से दो पुनरुक्त छोड़ देनेपर दो रहते हैं। यहाँ जिसके सातावेदनीयका उदय होता है उसके साताका ही सत्त्व होता है असाताका सत्त्व नहीं होता। और जिसके असाताका उदय होता है उसके असाताका ही सत्त्व होता है साताका नहीं। अतः इन दोनों स्थानों में साता-असाता प्रकृतिके बदलनेसे दो-दो भंग होते हैं। इस प्रकार गुणस्थानोंमें सस्वस्थान भंगसहित कहे ॥३९०॥
क-८१
२५
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६४२
गो० कर्मकाण्डे अनंतरं दुगछक्कतिण्णि वग्गेणूणा एंदितुपशमकरुगळगुपशमश्रेगियोळनंतानुबंधिचतुष्टयसहित स्थानाष्टकंगळु पेळल्पटुवप्पुरिदं तंतम्म पक्षदोळा सत्वस्थानाष्टकंगळिल्ले दित्यादि विशेषंगळुमना स्थानभंगसंख्येगळुमं गाथाचतुष्टयदिदं पेळ्दपरु :
णस्थि अणं उवसमगे खवगापुव्वं खवित्तु अट्ठा य ।
पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केइ णिद्दिष्टुं ॥३९१॥ नास्त्यनंतानुबंध्युपशमके क्षपकाः पूर्व क्षपयित्वाष्टौ च । पश्चात् षोडशादीनां शपणेति कैश्चिन्निदिष्टं ॥
श्रीकनकनंदिसिद्धांतचक्रवत्ति तोत्थं संप्रदायदोपशम श्रेणियोपशमकाल्वरोळमनंतानुबंधिचतुष्टयसत्वयुताष्टस्थानंगळिल्ल। क्षपकरु मध्यमाष्टकषायंगळ मुन्नं क्षपिसि बळिक्क १० षोडशादिप्रकृतिगळ क्षपणेयं माळपर दितु मत्त केलंबराचार्यमाजिदं पेळल्पटु॥
अय दुगछक्कतिण्णिावग्गेणूणेत्युपशमकाना सानंतानुबंधिस्थानाष्टकयुक्तं तत्स्व पक्ष नेत्यादिविशेष तद्भगसंख्यां च गाथाचतुष्केणाह
श्रीकनकनंदिसिद्धांतचक्रवतितीर्थसंप्रदाये चतुरुपशमकेष्वनंतानुबंधिचतुष्कसत्त्वयुतस्यानाष्टकं न स्यात् । क्षपका मध्यमकषायाष्टकं पूर्व क्षपयित्वा पश्चात् षोडशादीनि क्षपयंति इति पुनः कश्चिदुक्तं ॥३९१।।
. १५ क्षीणकपाय ८ स्थान ८ भंग
सयोगी ४ स्थान ४ भंग
अयोगी ६ स्थान ८ भंग
उपान्त अन्त।
| ८० १२ पु. आगे ग्रन्थकार कहते हैं कि पूर्व में जो अनन्तानुबन्धी सहित आठ स्थान उपशम श्रेणिमें कहे हैं वे हमारे मतानुसार नहीं हैं
__ श्री कनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तीके मतानुसार उपशमश्रेणिके चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी चतुष्कके सत्त्व सहित जो बद्धायु और अबद्धायुकी चार पंक्तियों में आठ स्थान कहे हैं वे नहीं होते । अतः चौबीसके स्थानमें सोलह ही स्थान होते हैं। तथा क्षपक अनिवृत्तिकरण पहले तो अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान रूप आठ कषायोंका क्षपण करता है। पीछे सोलह आदि प्रकृतियोंका क्षपण करता है ऐसा किन्हीं आचार्योंका मत है ।।३९१।। १. उपशमकचतुष्कस्य प्रत्येकं चतुर्विंशतिस्थानानि एकस्यां रचनायां संदर्शितानि । तत्र तिर्यक् त्रिस्थाने
प्रथमसत्त्वस्यानं द्विहीनं आयुईयरहितं नत्वनंतानुबंधिचतुष्कराहत एवं व्याख्याने पूर्वोक्तप्रकारेण तस्यायः २५ सप्तसत्त्वस्थानान्यतानुबंधिचतुष्कसहितानि । एवं स्थानाष्टकं अनंतानुबंधिचतुष्कसत्त्वसहितं प्रणीतं इति
यावत् ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६४३
६४३ अणियट्टिगुणहाणे मायारहिदं च ठाणमिच्छंति ।
ठाणा भंगपमाणा केइ एवं परुर्वेति ॥३९२॥ अनिवृत्तिगुणस्थाने मायारहितं च स्थानमिच्छति। स्थानानि भंगप्रमाणानि केचिदेवं प्ररूपयंति ॥
अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळु मायारहितमप्प नाल्कुं स्थानंगळगीकरिसल्पटुवु । स्थानंगळ ५ भगप्रमाणंगळे ये दितु केलंबराचार्यरुगळु पेवरु । अंतागुत्तं विरलु स्थानभंगसंख्येयं गाथाद्वयदिदं पेळदपरु :
अट्ठारह चउ अढ मिच्छतिए उवरि चाल चउठाणे ।
तिसु उवसमगे संते सोलस सोलस हवे ठाणा ॥३९३॥ अष्टादश चतुरष्टौ मिथ्यादृष्टयादित्रये उपरि चत्वारिंशच्चतुः स्थाने त्रिषूपशमकेषूपशांते १० षोडश षोडश भवेयुः स्थानानि ॥
मिथ्यादृष्टियोळं सासादननोळं मिश्रनोळं पूर्वोक्तप्रकारदिदं कदि पदि टुं नाल्कुं एंटुं स्थानंगळप्पुवु। मेले असंयतादि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं नाल्वत्तुं नाल्वत्तुं सत्वस्थानंगळप्पुवु। उपशमकम्मूवरोळमुपशांतकषायनोळं प्रत्येकमनंतानुबंधिसत्वयुतबद्धाबद्धायुष्यरुगळे टुं स्थानं. गळु कुंदि प्रत्येकं षोडश षोडश सत्वस्थानंगळप्पुवु । क्षपकरोल पूर्वोक्तक्रमदिदमपूर्वकरणनोळु १५ स्थानंगळु नाल्कु। अनिवृत्तिकरणनोळु संज्वलनमायारहितचतुःस्थानंगळुगूडि नाल्वत्तु । सूक्ष्मसांपरायनोळुस्थानंगळु नाल्कु। क्षीणकषायनोळु सत्वस्थानंगळे टु। सयोगरोळु सत्वस्थानंगळु नाल्कु । अयोगिकेवालयोळु सत्वस्थानंगळारु अरियल्पडुवुवु ॥
अनिवृत्तिगुणस्थाने मायारहितं स्थानचतुष्कमिच्छंति । स्थानानि भंगप्रमाणातीति केचित्प्ररूपयंति ॥३९२।। एवं सति स्यानभंगसंख्यां गाथाद्वयेनाह
मिथ्यादृष्ट्यादिगणस्थानत्रये स्थानानि प्राग्वत क्रमेणाष्टादश चत्वार्यष्टौ भवंति। उपर्यसंयतादित्रतर्ष प्रत्येकं चत्वारिंशच्चत्वारिंशत उपशमकत्रये उपशांतकषाये चानंतानबंधिसत्त्वरहितानि बद्धाबद्धाय मष्टावष्टौ भूत्वा षोडश षोडश, क्षपके तु पूर्वोक्तक्रमेणापूर्वकरणे चत्वारि अनिवृत्ति करणे संज्वलनमायारहितचतुभिश्चत्वारिंशत्, सूक्ष्म सापराये चत्वारि, क्षीणकषायेऽष्टी, सयोगकेवलिनि चत्वारि, अयोगकेवलिनि
तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें कोई आचार्य मायाकषायसे रहित चार स्थान २० मानते हैं। तथा किन्हीं का कहना है कि उसमें स्थान भंगोंकी संख्या समान है ॥३९२।।
ऐसा होनेपर स्थान और भंगोंकी संख्या कहते हैं
मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में स्थान पूर्वोक्त प्रकार अठारह, चार और आठ होते हैं ! आगे असंयत आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येकमें चालीस-चालीस स्थान होते हैं। उपशमश्रेणिके तीन गुणस्थानों में और उपशान्तकषायमें अनन्तानुबन्धीके सत्त्वसे रहित ३० बद्धायु अबद्धायु-सम्बन्धी चार-चार पंक्तियोंके आठ-आठ स्थान होनेसे सोलह-सोलह स्थान होते हैं। क्षपकश्रेणिमें पूर्वोक्त क्रमसे अपूर्ण करणमें चार स्थान हैं। अनिवृत्तिकरणमें छत्तीस स्थान तो पूर्वोक्त हैं और संज्वलन माया रहित चार स्थान जो पहले सूक्ष्म साम्परायमें कहे
२०
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गो० कर्मकाण्डे
पण्णेक्कारं छक्कदि वीससयं अट्ठदाल दुसु तालं ।
वीसडवण्णं वीसं सोलट्ठ य चारि अटेव ॥३९४॥ पंचाशदेकादश षट्कृतिविंशत्युत्तरशतं अष्टचत्वारिंशद्वयोश्चत्वारिंशत् विंशतिरष्टापंचाशत् विंशतिः षोडशाष्ट चतुरष्टावेव ॥
मिथ्यादृष्टियोलु पूर्वोक्तपंचाशद्भगंगळेयप्पुवु । सासादननोळ पूर्वोक्तद्वादश भगंगळोजु अबद्धायुःसत्वस्थानदोळु मरणमादोडे देवापर्याप्तकने ब भंगमं कळे देकादश भंगंगठप्पुवु। एकेदोडा द्वितीयोपशनसम्यग्दृष्टिबद्धदेवायुष्यंगे सासादन गुणस्थानमं पोदिदोडल्लि मरणभिल्ले दु पेळवाचार्य्यर पक्षमंगीकृतमप्पुरिदं । मिश्रगुणस्थानदोछ मुंपेन्द षट्त्रिशद्भगंगळे यप्पुवु ।
असंयतनोळं मुंपेळ्द विंशत्युत्तरशत भंगंगळप्पुवु। देशसंयतनोळ पूर्वोक्ताप्टाचत्वारिंशभंग१० गळप्पुवु । प्रमत्ताप्रमतसंयतरुगळो पूर्वोक्तचत्वारिंशच्चत्वारिंशद्भगंगळेया वु। अपूर्वक`रणनोपशमश्रेणिय पदिनारुभंगंगळं क्षपकश्रेणिय नाल्कुं भंगंगळु गूडि विंशतिभंगंगळप्पुवु । अनिवृत्तिकरणनोळुपशमश्रेणिय पदिनारुं भंगंगळु क्षपकश्रेणिय मायारहित चतुभंगगळु गूडि नाल्वत्तुं नपुंसकवेदमं क्षपिसिदेडयो नाल्कुं स्थानंगळोळु तीर्थरहितद्वितीयचतुर्थस्थानंगळोळु
स्त्रीषंडवेदसत्वकृतभंगंगळे रडप्पुवंतु अष्टापंचाशद्भगं गळप्पुवु । सूक्ष्मसांपरायनोपशमधेणिय १५ षोडश भंगंगळं क्षपकश्रेणिय चतुर्भगंगळु कूडि विंशतिभंगंगळप्पुवु। उपशांतकषायनोळु
पशमश्रेणिय पदिनारे भंगंगळप्पुवु । क्षीणकषायनोळ द्विचरमचरमसमयसंबधिसत्वस्थान.
२०
षट् ।।३९३॥
ते पूर्वोक्तभंगा मिथ्यादृष्टौ पंचाशत् । सासादने द्वादश स्वबद्धायुःस्थानमध्यवर्तिदेवापर्याप्त मेदमुद्वृत्त्यैकादश, द्वितीयोपशमसम्यग्दष्टेबंद्धदेवायष्कस्य सासादने मरणं नास्तीति पक्षांगीकरणात । मिश्रे पटत्रिंशत । असंयते विंशत्युत्तरशतं । देशसंयतेऽष्टाचत्वारिंशत् । प्रमत्ताप्रमत्तयोश्वत्वारिंशत् चत्वारिंशत् । अपूर्वकरणे उपशमके षोडश, क्षपके चत्वारः, मिलित्वा विशतिः । अनिवृत्तिकरणे उपशमके षोडश, क्षपके पतिशत । मायारहिताः चत्वारः । नपुंसकवेदे क्षपणास्थानस्य चतुर्दा स्थानेषु तीर्थ रहितद्वितीय चतुर्थयोः स्त्रीपंढवेदकृतौ
थे वे अनिवृत्तिकरणमें ही माननेसे चालीस स्थान हैं। सूक्ष्मसाम्पराय में चार, क्षीणकपायमें
आठ, सयोग केवलीमें चार और अयोगकेवलीमें छह पूर्वोक्त स्थान होते हैं ॥३९३॥ २५ मिथ्यादृष्टि में पूर्वोक्त भंग पचास हैं। सासादनमें बारह हैं। उनमें से बद्धायुस्थानमें
देव अपर्याप्तक भेद निकाल देनेसे ग्यारह भंग होते हैं। क्योंकि जिस द्वितीयोपशम सम्यगदृष्टी जीवके देवायुका बन्ध हुआ है उसका सासादनमें मरण नहीं होता इस पक्षको स्वीकार करनेसे ग्यारह भंग कहे हैं। मिश्रमें छत्तीस, असंयतमें एक सौ बीस, देशसंयतमें अड़तालीस,
प्रमत्त और अप्रमत्तमें चालीस-चालीस. उपशमक अपूर्वकरणमें सोलह, क्षपकमें चार, ३० मिलकर बीस । अनिवृत्तिकरण उपशमकमें सोलह, क्षपकमें छत्तीस पूर्वोक्त तथा चार माया
रहित, तथा नपुंसक वेदकी आपणाके चार स्थानों में से तीर्थकर रहित दूसरे और चौथे स्थानमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके बदलनेसे दो-दो भंग हुए। इस तरह १६ + ३८ + ४ सब
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
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गळे टक्कर्म 'टु भंगंगळप्पुवु । सयोगकेबलियोळु नाक भंगंगळप्पुवु । अयोगिकेवलियोळु द्विचरमचरमसमयसत्वस्थानंगळारक्कर्म 'टु भंगंगळप्पुवेके दोर्ड चरमसमयदोळ सातासातसत्व भेददिदमे रडु भंगंगळधिकंगळप्पुरिदं इल्लि संदृष्टि रचनाविशेषमिदु ।
★ मि सा मि
स्थान १८ ४ ८
भंग ५०
अ दे प्र
४० ४० ४०
११ | ३६ | १२०४८४०
सू उ क्षीस अ
४० १६४ १६४० उ १६ । ४ १६८ ४ ४२ ४० २०
२०
१६ ८ ४
अ
अ
अ
५८
एवं सत्ताणं सवित्थरं वण्णियं मए सम्मं ।
जो पढ सुइ भावइ सो पावइ णिब्बुदिं सोक्खं ॥ ३९५ ॥
८
एवं सत्वस्थानं सविस्तरं वण्णितं मया सम्यक् । यः पठति श्रुणोति भावयति स प्राप्नोति निर्वृतेः सौख्यं ॥
इंतु सत्वस्थानं सविस्तर मागि ये मिदं वण्णिसल्पदुदु । सम्यक् अवनोåनोदुगुं केळगुं भावसुगुमा मोक्षसुखमनेदुगुं ॥
वरददिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं । सिरिकणयदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ || ३९६॥
वरेंद्रनंदिगुरोः पार्श्वे त्वा सकलसिद्धांतं । श्रीकनकनंदिगुरुणा सत्वस्थानं समुद्दिष्टं ॥
द्वौ एवमष्टपंचाशत् । सूक्ष्मसांपराये उपशमके षोडश, क्षपके चत्वारः, मिलित्वा विशतिः । उपशांतकषाये षोडश । क्षीणकषाये द्विचरमचरमसमयाष्टस्थानानामष्टी । सयोगे चत्वारः । अयोगे द्विचरमसमयस्थानषट्कस्याष्टो, चरमसमये सातासात सत्त्वभेदेन भंगद्वयस्याधिक्यात् ॥ ३९४॥ |
एवं सवस्थानं सविस्तरं मया वर्णितं सम्यक् यः पठति शृणोति भावयति स मोक्षसुखं प्राप्नोति ।। ३९५ ॥
१०
इस प्रकार मैंने सत्त्व स्थानका विस्तार से सम्यकू वर्णन किया । जो इसे पढ़ता है, सुनता है, भाता है वह निर्वाण सुखको
पाता है || ३९५ ||
१५
मिलकर अठावन भंग होते हैं । सूक्ष्म साम्पराय में उपशमक में सोलह, क्षपकमें चार मिलकर बीस । उपशान्त कषायमें सोलह । क्षीणकषाय में द्विचरम और चरम समय सम्बन्धी आठ स्थानों में आठ । सयोगी में चार । अयोगीमें द्विचरम और चरम समय सम्बन्धी छह स्थानों- २० में आठ भंग; क्योंकि चरम समय में साता और असाताके सत्वके भेदसे दो भंग अधिक होते हैं ||३९४ ||
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५
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गो० कर्मकाण्डे
श्रेष्ठरपिणंदभट्टारक पार्श्वदोलु सकलसिद्धांतमं केल्डु श्रीकनकनंदिसिद्धांत चक्रवत्तिगदिं सत्वस्थानं सम्यक्कागि पेळपट्टुवु ॥
जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खंड साहियं सम्मं ॥ ३९७||
यथा चक्रेण चक्रिणा षट्खंडं साधितं अविघ्नेन । तथा मतिचक्रेण मया षट्खण्डं साधितं सम्यक् ॥
३०
एंतीगळु चक्रदिदं चक्रवर्त्तियि षट्खंडक्षेत्रमविघ्नदिदं साधिसल्पदुदंत मतिचक्रदिदमम्मि जीवस्थानक्षुद्रकबंध | बंधस्वामित्व | वेदनाखंड | वर्गणाखंड | महाबंधर्म व षट्खंडं सिद्धांतशास्त्र सम्यग्विध्नरहित मागि साधिसल्पदुदु ॥
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचा रुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्य पुंजायमान श्रीमद्राय राजगुरुमंडलाचा महावाद वाढीश्वरराय वादीपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवति श्रीमदभयसूरि सिद्धांतचक्रवत श्रीपादपंकजर जोरंजितललाटपट्ट श्रीमत्केशवण्ण विरचित गोम्मटसारकनवृत्ति जीव प्रदीपको कर्मकांडदोळु कनकनंदिषट्त्रिंशत् गाथा गुणस्थानप्रकृति सत्वस्थानभंगस्वरूपनिरूपण महाधिकारं निरूपितमादुदु ॥
सूरिमतल्लिकाश्री मदिद्रनंदिभट्टारकपार्श्वे सकल सिद्धांतं श्रुत्वा श्रीकनकनंदिसिद्धांतचक्रवतिभिः सत्वस्थानं सम्यक् प्ररूपितं ॥ ३९६ ॥
यथा चक्रेण चक्रवर्तिना षट्खण्डक्षेत्रमविघ्नेन साधितं तथा मतिचक्रेण मया जीवस्थानक्षुद्रकबंधबंधस्वामित्ववेदनाखंड वर्गणाखंडम हा बंघभेदषट्खंड सिद्धांतशास्त्रं सम्यक् साधितं ॥ ३९७॥
इत्याचार्यश्रीनेमिचंद्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकांडे कनकनंदिकृत सस्वस्थानभंगप्ररूपणो नाम तृतीयोऽधिकारः ||३||
आचार्यश्रेष्ठ श्री इन्द्रनन्दि भट्टारकके पास सकल सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा सत्त्व स्थान सम्यक्रूपसे कहा गया || ३९६||
जैसे चक्रवर्ती चक्र के द्वारा छह खण्डोंको बिना विघ्नबाधाके साधता है । उसी प्रकार मैंने मतिरूपी चक्र के द्वारा जीवस्थान क्षुद्रकबन्ध, बन्ध स्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड २५ और महाबन्धके भेद से पट्खण्ड रूप सिद्धान्त शास्त्रको सम्यक् रूपसे साधा है || ३९७||
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलों की धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतस्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कनकनन्दि आचार्यकृत
सरवस्थान भंग प्ररूपण नामक तीसरा अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥॥३॥
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भारतीय ज्ञानपीठ के महत्त्वपूर्ण प्रकाशन (धर्म, दर्शन एवं सिद्धान्त ग्रन्थ)
षट्खण्डागम-परिशीलन -पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री समीचीन जैन धर्म -सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री गोम्मटसार (जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड) -आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती -सम्पा. : डॉ. आ.ने. उपाध्ये -अनु. : सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री पंचास्तिकायसार (प्राकृत-अंग्रेजी) -सम्पा.-अनु. : प्रो. ए. चक्रवर्ती समयसार (प्राकृत-अंग्रेजी) -सम्पा.-अनु. : प्रो. ए. चक्रवर्ती षड्दर्शनसमुच्चय (संस्कृत-हिन्दी) -हरिभद्र सूरि -सम्पा.-अनु. : प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य नयचक्र (प्राकृत-हिन्दी) : माइल्ल धवल -सम्पा.-अनु. : पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री योगसारप्राभूत (संस्कृत-हिन्दी) : अमितगति -सम्पा.-अनु. : पं. जुगलकिशोर मुख्तार सर्वार्थसिद्धि (संस्कृत-हिन्दी) -आचार्य पूज्यपाद -सम्पा.-अनु. : पं. फूलचन्द्र शास्त्री तत्त्वार्थवार्तिक (संस्कृत-हिन्दी) भाग 1,2 -भट्ट अकलंक -सम्पा.-अनु. : प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पाहुडदोहा : मुनि रामसिंह -सम्पा. अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
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