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प्रस्तावना
विषय और दुःखादिको प्राप्त करता है । तथा कुछ धर्मसहित किन्तु प्रकृष्ट अधर्ममूलक कामोंके करने से प्रेतयोनि, तिर्यग्योनि वगैरह स्थानों में अनिष्ट शरीर, इन्द्रियविषय और दुःखादिको प्राप्त करता है । इस प्रकार अधर्मसहित प्रवृत्तिमूलक धर्म से देव, मनुष्य, तिथंच और नरकों में ( जन्म लेकर ) पुनः पुनः संसारबन्ध करता है ।'
न्यायमंजरीकारने भी उक्त मतको ही व्यक्त करते हुए कहा है- 'देव, मनुष्य और तिर्यग्योनि में जो शरीरको उत्पत्ति देखो जाती है, प्रत्येक वस्तुको जानने के लिए जो ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, और आत्माका मनके साथ जो सम्बन्ध होता है वह सब प्रवृत्तिका ही परिणाम है। सभी प्रवृत्तियां क्रियारूप होनेसे यद्यपि क्षणिक हैं किन्तु उनसे होनेवाला आत्मसंस्कार, जिसे धर्म या अधर्म कहा जाता है, कर्मफलभोग पर्यन्त स्थिर रहता है ।'
इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों के उक्त मन्तव्योंसे यह स्पष्ट है कि कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्तिका है । यद्यपि वह क्षणिक है किन्तु उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादि है । इसीका नाम संस्कार है । किन्तु जैनदर्शन में कर्ममात्र संस्काररूप नहीं है । उसका स्वरूप आगे कहते हैं
जैनदर्शन में कर्मका स्वरूप
जैन दर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं - एक द्रव्यकर्म और दूसरा भावकर्म । यद्यपि अन्य दर्शनों में भी इस प्रकारका विभाग पाया जाता है और भावकर्मकी तुलना अन्य दर्शनोंके संस्कारके साथ तथा द्रव्यकर्म की तुलना योगदर्शनको वृत्ति और न्यायदर्शनकी प्रवृत्तिके साथ की जा सकती है तथापि दोनों में मौलिक अन्तर है, जैन दर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी, द्वेषी जीवकी क्रियाका निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध पानीकी तरह उसके साथ घुल-मिल जाता है । यह पदार्थ है तो भौतिक किन्तु उसका कर्मनाम इसलिए रूढ़ हो गया; क्योंकि वह जीवके कर्म अर्थात् मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ आकृष्ट होकर जीवके साथ बंध जाता है ।
आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेषसे आविष्ट जीवकी क्रियाको कर्म कहते हैं और इस कर्म क्षणिक होने पर भी तज्जन्य संस्कारको स्थायी मानते हैं वहीं जैनदर्शनका मत है कि रागद्वेषसे आविष्ट जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ एक प्रकारका द्रव्य आत्माकी ओर आकृष्ट होता है और उसके राग-द्वेष रूप परिणामोंका निमित्त पाकर आत्मा के साथ बन्धको प्राप्त होता है तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्माको अच्छा या बुरा फल मिलने में निमित्त होता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है— आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय में कहा है ----
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकाहिं सव्वदो लोगो । सुमेहि बादरेहिं य णंताणंतेहि विविहेहि ॥ ६४ ॥
अत्ता कुणदि सहावं तत्य गदा पोग्गला सभावेहि । गच्छंति कम्मभावं अण्णोष्णागाहमवगाढा ॥ ६५ ॥
अर्थ —यह लोक सर्वत्र सब ओरसे अनन्तानन्त विविध प्रकारके सूक्ष्म और बादर कर्मरूप होने योग्य पुद्गलोंसे ठसाठस भरा है। जहाँ आत्मा है वहाँ भी ये पुद्गल काय वर्तमान रहते हैं । संसार अवस्था में प्रत्येक आत्मा अपने स्वाभाविक चैतन्य स्वभावको न छोड़ते हुए अनादि कालसे कर्मबन्धनसे बद्ध होने के कारण अनादि मोह, राग-द्वेष आदि रूप अविशुद्ध ही परिणाम करता रहता है । वह जब जहाँ मोक्षरूप, रागरूप, द्वेषरूप अपने भाव करता है तब वहीं उसके उन भावोंको निमित्त करके जीवके प्रदेशोंमें परस्पर
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