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________________ गो० कर्मकाण्ड महाराज ! इसी तरह सभी मनुष्योंके अपने-अपने कर्म भिन्न-भिन्न होनेसे वे सभी एक तरहके नहीं है । कोई कम आयुवाले, कोई दीर्घ आयुवाले होते हैं । भगवान् (बुद्ध) ने भी कहा है-हे मानव ! सभी जीव अपने कर्मोंसे ही फलका भोग करते हैं । सभी जीव कर्मों के आप मालिक हैं। अपने कर्मो के अनुसार ही नाना योनियोंमें उत्पन्न होते हैं। अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म ही से ऊंचे और नीचे होते हैं । -मिलिन्द प्रश्न, पृ. ८०-८१ । इसी तरह ईश्वरवादी भी मानते हैं। न्यायमंजरीकार (पृ. ४२ ) ने कहा है-"संसारमें कोई सुखी है, कोई दुःखी है, किसीको खेती आदि करनेपर विशेष लाभ होता है, किसीको उलटी हानि होती है। किसीको अचानक सम्पत्ति मिल जाती है, किसोपर बैठे-बैठाये बिजली गिर जाती है। ये सब बातें किसी दृष्ट कारणको वजह से नहीं होती, अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए।" अन्य दर्शनों में कर्मका स्वरूप ___ उक्त कर्मसिद्धान्तके विषयमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फलदानके सम्बन्धमें मतभेद है-परलोकवादी सभी दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य कर्तापर अपना संस्कार छोड़ जाता है। उस संस्कारको नैयायिक और वैशेषिक धर्म या अधर्मके नामसे कहते हैं । योगे उसे कर्माशय कहते हैं और बौद्ध उसे अनुशय आदि कहते हैं । बौद्धग्रन्थ मिलिन्द प्रश्न (पृ. ३९ ) में लिखा है"( मरने के बाद ) कौन जन्म ग्रहण करता है और कौन नहीं ? जिनमें क्लेश (चित्तका मैल) लगा है वे जन्म ग्रहण करते हैं। और जो क्लेशसे रहित हो गये हैं वे जन्म ग्रहण नहीं करते । भन्ते ! आप जन्मग्रहण करेंगे या नहीं ? "महारोज ! यदि संसार की ओर आसक्ति लगी रहेगी तो जन्मग्रहण करूंगा । और यदि आसक्ति छूट जायेगी तो नहीं करूंगा।" __ योगदर्शनमें कहा है-पांच प्रकारको वृत्तियाँ होती हैं जो क्लिष्ट भी होती हैं और अक्लिष्ट भी होती हैं । जिन वृत्तियोंका कारण क्लेश होता है और जो कर्माशयके संचयके लिए आधारभूत होती हैं उन्हें क्लिष्ट र्थात् ज्ञाता अर्थको जानकर उससे राग या द्वेष करता है और ऐसा करनेसे कर्माशयका संचय होता है। इस प्रकार धर्म-अधर्मको उत्पन्न करनेवाली वृत्तियां क्लिष्ट होती है। क्लिष्ट जातीय अथवा अक्लिष्ट जातीय संस्कार वृत्तियोंसे होते हैं और वृत्तियाँ संस्कारसे होती हैं। इस प्रकार वृत्ति और संस्कारका चक्र सर्वदा चलता रहता है। १-५ व्यास भाष्य । सांख्यकारिका ( ६७ ) में कहा है 'धर्म-अधर्मको संस्कार कहते हैं। उसीके निमित्तसे शरीर बनता है । सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होने पर धर्मादि पुनर्जन्म करने में समर्थ नहीं रहते । फिर भी संस्कारवश पुरुष ठहरा रहता है। जैसे कुलालके दगडका सम्बन्ध दूर हो जाने पर भी संस्कारवश चाक घूमता है।' प्रशस्तपाद भाष्य (पृ. २८०-२८१ ) में कहा है 'राग और द्वेषसे युक्त अज्ञानी जीव कुछ अधर्म सहित किन्तु प्रकृष्ट धर्ममूलक कामोंके करनेसे ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक, पितृलोक और मनुष्यलोकमें अपने आशयके अनुरूप इष्टशरीर, इन्द्रिय१. 'स कर्मजन्यसंस्कारो धर्माधर्म गरोच्यते-न्यायम, ( उत्तर भाग) पृ. ४४ । २. क्लेशमूलः कर्मा शयः ॥ २-१२ ॥ योग द.। ३. 'मूलं भवस्यानुशयः' -अभिधर्म.१-१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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