________________
१३६
गो कर्मकाण्डे अनंतरं मूलप्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंधमं पेळ्दपरु :
बारस य वेयणीये णामागोदे य अट्ठ य मुहुत्ता ।
भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥१३९।। द्वादश वेदनीये नामगोत्रे चाष्टौ मुहूर्ताः । भिन्नमुहूर्ता तु स्थितिजघन्या शेषपंचानां ॥
वेदनीयवाळु जघन्यस्थितिबंध द्वादशमुहूत्तंगळप्पुवु । नामगोत्रं गळोळु प्रत्येकमष्टमुहूतंगळु जघन्यस्थितिबंधमक्कं । शेषपंचमूलप्रकृतिगळगे तु मते जघन्यस्थितिबंधमन्तर्मुहूर्तमानं प्रत्येकमक्कं । ज्ञा २३ । द २१ । वे। मु १२ । मो २१ आ २२ नाम मु ८ । गोत्र मु ८ । अं२१॥ अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळगे गाथाचतुष्टयदिदं जघन्यस्थितिबंधमं पेदपरु :
लोहस्स सुहुमसत्तरसाणं ओघं दुगेक्कदलमासं ।
कोहतिये पुरिसस्स य अट्ठ य वस्सा जहण्णठिदी ॥१४०॥ लोभस्य सूक्ष्मसप्तदशानामोघः द्वचेक दळमासः । क्रोधत्रये पुरुषस्य चाष्ट वर्षाणि जघन्यस्थितिः॥ अथ मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धानाह
जघन्यस्थितिबन्यो वेदनीये द्वादश मुहूर्ताः, नामगोत्रयोरष्टो, शेषपञ्चानां तु पुनः एकैकोऽन्त१५ महतः ॥१३९।। अथोत्तरप्रकृतीनां गाथाचतुष्टयेनाह
संज्ञा ईषत् है। तथा जैसे उनतालीसमें अनुकृष्टिका एक चय मिलानेपर चालीस होता है। यह दूसरा खण्ड है, उसमें एक चय मिलानेपर तीसरा खण्ड होता है इकतालीस, वैसे ही प्रथम खण्डमें अनुकृष्टिका चय मिलानेपर दूसरा खण्ड होता है । उसमें एक चय मिलानेपर तीसरा खण्ड होता है। इस प्रकार एक कम अन्तिम खण्ड पर्यन्त जितने खण्ड हों उनकी मध्यम संज्ञा है । तथा जैसे अन्तिम खण्ड बयालीस है वैसे ही यहाँ एक-एक चय मिलानेपर अन्तिम खण्डका जो प्रमाण हो उसकी उत्कृष्ट संज्ञा है। इस प्रकार जघन्य स्थिति सम्बन्धी परिणामोंके खण्ड कहे । तथा जैसे दूसरा स्थान एक सौ छियासठ है उसके चार खण्डोंमें ४०, ४१, ४२, ४३ प्रमाण कहा है। वैसे ही यहाँ भी जघन्यसे एक समय अधिक दूसरी
स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानों के खण्डोंका प्रमाण पूर्वोक्त विधानके अनुसार जानना । २५ जैसे अन्तके स्थानमें दो सौ बाईस प्रमाण होता है और उसके खण्डोंका चौवन, पचपन,
छप्पन, सत्तावन, ५४, ५५, ५६, ५७ प्रमाण होता है। उसी प्रकार यहाँ एक एक ऊर्ध्वचय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंका जो प्रमाण होता है, उसके पूर्वोक्त विधानसे खण्ड करनेपर प्रथम खण्डकी ईषत् संक्लेश संज्ञा है। मध्यके खण्डोंकी मध्य संक्लेश संज्ञा है और अन्तके खण्डकी उत्कृष्ट संक्लेश संज्ञा है। अधःकरणकी तरह यहाँ भी नीचेकी स्थितिके कारण अध्यवसाय और उनके ऊपर की स्थितिके कारण अध्यवसायोंमें संख्या, संक्लेश और विशुद्धिसे समानपना जानना । इसीका नाम अनुकृष्टि है ।।१३७-१३८॥
मूल प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं
जघन्य स्थितिबन्ध वेदनीयमें बारह मुहूर्त है, नाम और गोत्रमें आठ मुहूर्त है। शेष ११ पाँच कर्मों में एक-एक अन्तर्मुहूर्त है ।।१३९।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org