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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३७ लोभकषायक्केयु सूक्ष्मसांपरायन बंधप्रकृतिगळु १७ क्कं मूलप्रकृतिगळ्गे पेळ्दोघं जघन्यस्थितिबंधमक्कुं। क्रोधमानमायात्रयक्के यथाक्रमदिवं द्विमासमुमेकमासमुमद्धमासमुमक्कुं। पुरुषवेवक्के जघन्यस्थितिबंधमष्टवषंगळप्पुवु ॥ तित्थाहाराणंतोकोडाकोडीजहण्णठिदिबंधो । खवगे सगसगबंधणछेदणकाले हवे णियमा ॥१४॥ तोहाराणामतःकोटोकोटिर्जघन्यस्थितिबंधः । क्षपके स्वस्वबंधच्छेदनकाले भवेन्नियमात् ॥ - तीर्थनामप्रकृतिगमाहारद्वयक्कं जघन्यस्थितिबंधमन्तःकोटीकोटिसागरोपममक्कुमी प्रकृतिगळ्गे जघन्यस्थितिबंधंगळ क्षपकरोळु तंतम्म बंधव्युच्छित्तिकालदोळे तंतम्म गुणस्थानचरमदोळे नियमदिवमप्पुवु॥ भिण्णमुहत्तो णरतिरिआऊणं वासदससहस्साणि । सुरणिरय आउगाणं जहण्णओ होदि ठिदिबंधो ॥१४२॥ भिन्नमुहूर्तो नरतियंगायुषोः वर्षदशसहस्राणि। सुरनारकायुषोः जघन्यो भवति स्थितिबंधः॥ मनुष्यायुष्यकं तिय्यंगायुष्यक्कं जघन्यस्थितिबंधमन्तर्मुहूर्तमक्कुं। सुरायुष्यक्कं नरकायु- १५ व्यक्कं जघन्यस्थितिबंध दशसहस्त्रवर्षगळप्पुवु ॥ सेसाणं पज्जत्तो बादरएइंदियो विसुद्धो य । बंधदि सव्वजहण्णं सगसग उक्कस्सपडिभागे ॥१४३॥ शेषाणां पर्याप्तो बादर एकेन्द्रियो विशुद्धश्च बध्नाति सर्वजघन्यां स्वस्वोत्कृष्टप्रतिभागे। लोभस्य सूक्ष्मसांपरायबन्धसप्तदशानां च जघन्यस्थितिबन्धः मूलप्रकृतिवद्भवति, क्रोधस्य द्वौ मासौ, २० मानस्यैकमासः, मायाया अर्धमासः, वेदस्याष्टवर्षाणि ॥१४०॥ तीर्थकराहारकद्विकयोरन्तःकोटीकोटिसागरोपमाणि । अयं जघन्य स्थितिबन्धः सर्वोऽपि क्षपकेषु स्वस्वबन्धव्युच्छित्तिकाले एव नियमाद् भवति ॥१४१॥ नरतिर्यगायुषोर्जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तो भवति, सुरनारकायुषोः दशसहस्रवर्षाणि ॥१४२॥ mmm आगे उत्तर प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध चार गाथाओंसे कहते हैं लोभ और सूक्ष्म 'साम्परायमें बँधनेवाली सतरह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध मूल प्रकृतिकी तरह होता है । अर्थात् यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका आठ मुहूर्त, सातावेदनीयका बारह मुहूर्त, शेषका एक-एक अन्तर्मुहूत जानना । क्रोधका दो मास, मानका एक मास, मायाका अर्धमास और पुरुषवेदका आठ वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है ।।१४०॥ तीर्थकर और आहारकद्विकका अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यह सब जघन्य- ३० स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणीवालोंके अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके काल में नियमसे होता है ।।१४१॥ मनुष्यायु और तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा देवायु, नरकायुका दस हजार वर्ष होता है ।।१४२॥ क-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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