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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १६२ । आदिम्मि च य उड्डे पडिसमयधणं तु भावाणं । १६६ । १७० । १७४ । इत्यादि विधानमं जीवकांडदोळेतनुकृष्टिविधानमंते अर्थसंदृष्टियोळुमरियल्पडुगुं ॥ यितव्याः । एवमर्थसंदृष्टावपि रचनां कृत्वा अधःप्रवृत्त करणवदुपरितनस्थितिपरिणामखण्डानां अधस्तनस्थितिपरिणामखण्डैः सह संख्यया संक्लेशविशुद्धिभ्यां च सादृश्यादिकं वक्तव्यमित्यर्थः ॥ १३७-१३८ ।।
जानने। इस प्रकार उत्कृष्टस्थिति पर्यन्त एक-एक चय बढ़ाना चाहिए। जैसे अंक संदृष्टिमें १६२, १६६, १७०, १७४, १७८, १८२, १८६, १९०, १९४, १९८, २०२, २०६, २१०,२१४, २१८, २२२ है वैसे ही जानना। तथा जैसे अंकसंदृष्टिमें तिर्यक् गच्छका प्रमाण चार है वैसे ही यहाँ तिर्यक्गच्छका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण जानना। इस तिर्यगच्छको अनुकृष्टिगच्छ भी कहते हैं। सो जैसे अनुकृष्टिगच्छ चारका भाग ऊर्ध्वरचनामें चयके प्रमाण चार में देनेपर एक आता है। वह एक अनुकृष्टि में चय जानना। वैसे ही यहाँ अनुकृष्टि गच्छका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग कहा। उसका भाग पूर्वोक्त चयके प्रमाणमें देनेपर जो प्रमाण आवे उतना अनुकृष्टिका चय जानना । तथा जैसे अनुकृष्टिके गच्छ चारमें-से एक कम करके उसका आधा करके उसे चयसे तथा गच्छसे गुणा करनेपर छह होते हैं वही अनुकृष्टिका चयधन होता है। उसको अनुकृष्टिके सर्वधन १६२ में-से घटानेपर एक सौ छप्पन १५६ रहे। उसमें अनुकृष्टि के गच्छ चारसे भाग देनेपर उनतालीस ३९ आते । हैं वही प्रथम स्थानका प्रथम खण्ड है। वैसे ही यहाँ अनुकृष्टि गच्छ में से एक घटाकर उसका अधिा करके उसे अनुकृष्टि गच्छके चयसे तथा गच्छसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वही अनुकृष्टिका चयधन जानना। उसे जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंके प्रमाणमें-से घटानेपर जो शेष रहे उसमें अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वह जघन्य स्थितिबन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंका प्रथम खण्ड जानना। इनकी १०
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