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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळगुत्कृष्ट ) स्थितिबंधं तस्याद्धं दशकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणमक्कु हास्यादि १३ आहारकद्वय
*सा १० को २ तीर्थमबी प्रकृतित्रयक्कुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येकं अन्तःकोटीकोटयः अन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुं आ २ ती १ . सुरनारकायुष्यंगळगे स्थितिबंधोत्कृष्टं ओघः त्रयत्रिंशत्सागरोपम
सा अन्तः को २ प्रमाणमक्कुं- सुरायु १ ना १ तिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळगुत्कृष्टस्थितिबंधं त्रीणि पल्यानि त्रिपल्यो
सागरोपम ३३ पमप्रमाणमकुं- ति १ म १ इंतुत्तरप्रकृतिगळु १२० ककं पेन्दीयुत्कृष्टस्थितिबंधंगळु संजिपंचें. ५
- पल्योपम३ द्रियपर्याप्तकोळप्पुवु । एकेंद्रियाद्यसंज्ञिपय॑न्तमादुवक्के मुंदे पेळ्दपरु । तत्तत्प्रकृतिबंधयोग्यनोळेबिदरिंदमुत्कृष्टस्थितिबंधं संसारकारणमप्पुरिंदमशुभमप्पुरिदं । शुभाशुभकम्मंगळगं चतुर्गतिय संक्लिष्टजीवर्गाळदं कट्टल्पडुगुमेंबुदत्य- असा १ घा १९ सा १ स्त्री १ म २ मि १
सा ३० को २ सा १५ को २ सा ७० को २ चारि १६ ह१ अ१ वा१कि १ कु१ अर्द्ध १ स्वा१ना १ न्य१ वज्र १ सा ४० को २ सा २० को २ सा १८ को २ सा १६ को २ सा १४ को २ सा १२ को २ सम १ वज्र १ वि ३ सू३ अरत्यादि ४१ हास्यादि १३ आ २ ती १ सा १० को २ सा १८ को २ सा २० को २ सा १० को २ सा. अन्तः को २ सु १ ना १ तिर्य १ मनु १ अन्तु प्रकृति १२० ॥ सा ३३ पल्या ३
__ अनंतरमी पेन्द शुभाशुभप्रकृतिगळगुत्कृष्ठस्थितिबंधक्के संक्लेशपरिणाममे कारणं । तिर्यग्मनुष्यदेवायुस्त्रयमं कळेदेंदु पेळ्दपरु :तस्या-दशकोटीकोटिसागरोपमाणि । आहारकद्वयतीर्थकृतोरन्तःकोटीकोटिसागरोपमाणि । सुरनरकायुषोः ओघः त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । तिर्यग्मनुष्यायुषोः त्रीणि पल्यानि । अयमत्कृष्टस्थितिबन्धः संज्ञिपर्याप्तस्यैव असंश्यतानामग्ने प्ररूपणात । योग्ये इत्यनेन अयं संसारकारणत्वात् अशुभत्वात् शुभाशुभकर्मणां चातुर्गतिकसंक्लिष्टैरेव बध्यते इत्यर्थः ॥१२८-१३३॥ आयुस्त्रयवजितशुभाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिकारणं संक्लेश एवेत्याह
अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीति इनका बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। हास्य, रति, उच्चगोत्र, पुरुषवेद, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, प्रशस्तविहायोगति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वीका उससे आधा अर्थात् दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। आहारकद्विक और तीर्थकरका अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। देवायु नरकायुका
ओघ अर्थात् तेतीस सागर प्रमाण है। तियञ्चायु और मनुष्यायुका तीन पल्य है। यह उत्कृष्ट २० स्थितिबन्ध संज्ञी पर्याप्तकके ही होता है। एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यन्तका आगे कहा है । 'योग्य' शब्दसे बतलाया है कि यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संसारका कारण और अशुभ है। अतः शुभ और अशुभ कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गतियोंके संक्लेशपरिणामी जीवोंके द्वारा ही बाँधा जाता है ।।१२८-१३३।।
___आगे कहते हैं कि तीन आयुको छोड़कर अन्य शुभ अशुभ सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट है। स्थितिबन्धका कारण संक्लेश ही है
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