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गो कर्मकाण्डे सव्व हिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण ।
विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥१३४॥ सर्वस्थितीनामुत्कृष्टस्तूत्कृष्टसंक्लेशेन विपरोतेन जघन्यः आयुस्त्रयज्जितानां तु ॥
तु मत्ते यो पेळद आयुस्त्रयज्जितानां तिर्यग्मनुष्यदेवायुज्जितंगळप्प सर्वप्रकृतिगळ ५ स्थित्युत्कृष्टंगळु उत्कृष्टसंक्लेशदिदं बंधंगळप्पुवु। तु मते विपरीतेन उत्कृष्टविशुद्धिपरिणामंगळिदं
जघन्यस्थितिबंधंगळप्पुवु। तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळगे उत्कृष्टविशुद्धिपरिणामदिदं उत्कृष्टस्थितिबंधंगळप्पुवु । तद्विपरीतपरिणामदिद जघन्यस्थितिबंधंगळप्पुवुपं११ A
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! अनंतर मुत्कृष्टस्थितिबंधक्के स्वामिगळं पेन्दपरु :. सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो ।
आहारं तित्थयरं देवाउं चावि मोत्तण ॥१३॥ सर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणितः। आहारं तीर्थंकरं देवायुश्वापि मुक्त्वा ।
_ आहारद्विकम तीर्थकरनाममुं देवायुष्यममं कळेदुळिद ११६ रुं प्रकृतिगळ सर्वोत्कृष्ट स्थितिगळ्गे तु मत मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणितः मिथ्यादृष्टिजीवने बंधकने दु अनादिनिधनार्षदोल १५ पेळल्पट्टनु । देवायुराहारद्विकतीर्थमबी ४ प्रकृतिगळ्ग सम्यग्दृष्टिबंधकनेदु पेळल्पट्ट ।
अनंतरं देवायुरादि ४ प्रकृतिगळ्गे बंधकरं पेळ्दपरु :
तु-पुनः तिर्यग्मनुष्यदेवायुर्वजितसर्वप्रकृतिस्थितीनां उत्कृष्ट उत्कृष्ट संक्लेशेन भवति । तु-पुनः तासां जघन्यं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन भवति । तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति ॥१३४॥ उत्कृष्टस्थितिबन्धकमाह
आहारकद्विकं तीर्थ देवायुश्चेति चत्वारि मुक्त्वा शेष ११६ प्रकृतिसर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिरेव बन्धको भणितः तच्चतुर्णा तु सम्यग्दृष्टिरेव ॥१३५॥ तत्रापि विशेषमाह
तिर्यश्चायु मनुष्यायु देवायुको छोड़कर सब प्रकृतियोंकी स्थितिका उत्कृष्टबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है । तथा उनका जघन्यबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामसे होता है। तीनों आयु
का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामसे और जघन्यबन्ध उससे विपरीत परिणामोंसे २५ होता है ।।१३४।।
उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसके होता है, यह कहते हैं
आहारकद्विक, तीर्थकर और देवायु इन चारको छोड़कर शेष एक सौ सोलह प्रकृतियोंकी सर्वोत्कृष्ट स्थितियोंका बन्धक मिथ्यादृष्टिको ही कहा है। किन्तु इन चारका बन्धक सम्यग्दृष्टि ही है ॥१३५।।
उसमें भी विशेष कहते हैं१. बन्धमाह।
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