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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
देवाउगं पमत्तो अहारयमप्पमत्तविरदो दु ।
तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्म समज्जेइ || १३६॥
देवायुः प्रमत्तः आहारकमप्रमत्तविरतस्तु । तीर्थंकरं च मनुष्योऽविरत सम्यग्दृष्टिः
समज्जयति ॥
देवायुष्योत्कृष्टस्थितिबंधमं प्रमत्तसंयतं माळपनेके दोडे देवायुष्यमप्रमत्तसंयतनो व्युच्छि त्तियक्कुमप्पोडमल्लियुत्कृष्ट स्थितिबंध मागदे के 'दोडे – तीव्र विशुद्ध नप्प सातिशयाप्रमत्तंगायुबंधयोग्य परिणामं संभविसदु । निरतिशयाप्रमत्तनोळुमुत्कृष्टायुस्थितिबंधं संभविसददु कारणदि प्रमत्तसंयतने देवायुष्योत्कृष्ट स्थितिबंधमनप्रमत्तगुणस्थानाभिमुखं विशुद्धं माळपनप्पुदरिदं । आहारकद्वयोत्कृष्टस्थितिबंधमं तु मते प्रमत्तगुणस्थानाभिमुखनप्प संक्लिष्टाप्रमत्तं माळकुमेकें दोडा स्त्रितयवज्जित सर्व्वक मंगळ गुत्कृष्टस्थितिबंधमुत्कृष्ट संक्लेशपरिणार्मादिदमेयक्कुमप्युदरिदं । तीत्थंकरनामकर्मक्कुत्कुष्टस्थितिबंधमं नरकगतिगमनाभिमुखनप्प मनुष्यासंयतसम्यग्दृष्टिये माकुं ॥
अनंतरमा ११६ प्रकृतिगळ गुत्कृष्टस्थितितिबंधमं माळप मिथ्यादृष्टिगळं गाथाद्वयविवं पेलवपद :
तिरिया सेसाउं वेगुव्वियछक्कवियल सुडुमतियं । सुरणिरया ओरालियतिरियदु गुज्जीवसंपत्तं ॥ १३७॥ देवा पुण एइंदिय आदावं थावरं च सेसाणं ।
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उक्कस्ससंकिलिष्ठा चदुगदिया ईसिमज्झिमया || १३८ || गाथाद्वयं नरतिय्यं शेषायुर्वे क्रियिकषट्कविकल सूक्ष्मत्रयं । सुरनारकाः औदारिकतियं द्विकोधोताऽसंप्राप्तं ॥
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देवायुः उत्कृष्टस्थितिकं प्रमत्त एवाप्रमत्तगुणस्थानाभिमुखो बध्नाति । अप्रमत्ते तद्व्युच्छित्तावपि तत्र सातिशये तीव्रविशुद्धत्वेन तदबन्धात् निरतिशये च तदुत्कृष्टासंभवात् । तु पुनः आहारकद्वयं उत्कृष्टस्थितिकं अप्रमत्तः प्रमत्त गुणस्थानाभिमुखः संक्लिष्ट एव बध्नाति आयुस्त्रयवर्जितानां उत्कृष्टस्थितेः उत्कृष्टसंक्लेशेन इत्युक्तत्वात् । तीर्थंकरं उत्कृष्टस्थितिकं नरकगतिगमनाभिमुखमनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टिरेव बघ्नाति ॥१३६॥ शेषाणां ११६ उत्कृष्टस्थितिबन्धक मिथ्यादृष्टीन् गाथाद्वयेनाह
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देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्तगुणस्थानके अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि ही बाँधता है । यद्यपि देवा के बन्धकी व्युच्छित्ति अप्रमत्तमें ही होती है तथापि सातिशय अप्रमत्तके तो विशुद्ध परिणाम होनेसे देवायुका बन्ध ही नहीं है और निरतिशय अप्रमत्तके बन्ध तो होता है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । आहारकद्वयकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख संक्लेश- परिणामी, अप्रमत्त ही बाँधता है; क्योंकि तीन आयुको छोड़ शेष कर्मोंकी उत्कृष्टस्थिति उत्कृष्ट संक्लेशसे बँधती है ऐसा कहा है। तीर्थंकरकी उत्कृष्ट स्थिति ३० नरकगति में जाने अभिमुख असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही बाँधता है क्योंकि तीर्थंकरका बन्ध करनेवाले जीवोंमें उसीके तीव्र संक्लेश होता है || १३६ ||
शेष एक सौ सोलह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक मिध्यादृष्टियोंको दो गाथाओंसे कहते हैं
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