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गो० कर्मकाण्डे
सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणमक्कु २० मिथ्या १ चरित्रमोहे च चत्वारिंशत् चारित्रमोहनीयक्कु
सा ७० को २ त्कृष्ट स्थितितिबंधं चत्वारिंशत्सागरोपमकोटीकोटिप्रमितमक्कुं चारि० कषा १६ संस्थानसंह
सा ४० को २॥ नननानां संस्थानसंहननंगळोळगे चरमस्यौघः कडेय हुंडसंस्थानासंप्राप्तसृपाटिकासंहननमेंब प्रकृतिद्वयदकुत्कृष्टस्थितिबंधमूलप्रकृतिगळोळपेन्द ओघं विशति कोटीकोटिसागरोपमप्रमाणमकुंहुँ १ असं १ शेषसंस्थानसंहननंगळगे आदिपथ्यंतं समचतुरस्रसंस्थानबज्रऋषभनाराचसंहननसा २० को २ पर्यन्तं द्विकद्विकंगलोळक्रमदिदमुत्कृष्टस्थितिबंधं विहीनः द्विकोटीकोटिसागरोपमविहीनमप्पोघमक्कुं- वाम १ की १ कु१ अर्द्ध १ स्वाति १ नाराच १ न्य १ वज्र १ सम १ वज्र व १
सा १८ को २ सा १६ को १ सा १४ को २ सा १२ को २ सा १० को २ विकलानां सूक्ष्मत्रयाणां च विकलत्रयंगळगं सूक्ष्मत्रयंगळ्गमुत्कृष्टस्थितिबंधमष्टादशकोटीकोटि साग१० रोपम प्रमाणमक्कुं वि ३ सू ३ अरति शोक षंढवेद तिर्यग्द्विकभयद्विक नरकद्विक लैजसद्विक
सा १८ को २ औदारिकद्विक वैक्रियिकद्विक आतपद्विक नीचैग्र्गोत्र सचतुष्क-(वर्णचतुष्क अगुरुलघुचतुष्क ) एकेद्रियजाति पंचेंद्रियजाति स्थावरनाम निर्माणनाम असद्गमननाम अस्थिर षटकमुमेंबी ४१ प्रकृतिगळुत्कृष्टस्थितिबंधं विशतिः कोटीकोटयः विशतिकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणं प्रत्येकमक्कुंअरत्यादि ४१ हास्य रति उच्चैगर्गोत्र पुरुषवेद स्थिरषट्क शस्तगमन देवद्विकमुमेंबी १३ प्रकृतिसा २ को २०
१५ बन्धे एकविधत्वात तत्र सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाणि ७० । चारित्रमोहनीयषोडशकषायेषु चत्वारिंशत्कोटी
कोटिसागरोपमाणि । संस्थानसंहनानां चरमसंस्थानसंहननस्य मूलप्रकृतिवद् विशतिकोटीकोटिसागरोपमाणि । शेषसंस्थानसंहननानां समचतुरस्रसंस्थानवजवृषभनाराचसंहननपर्यन्तं द्विद्विकोटीकोटिसागरोपमविहीन ओघः । विकलत्रयाणां चाष्टादशकोटीकोटिसागरोपमाणि । अरतिशोरुषंढवेदतिर्यग्द्विकभयद्विकनरकद्विकर्तजसद्विकोदा
रिकद्विकवक्रियिकद्विकातपद्विकनीचैर्गोत्रत्रसचतुष्कवर्णचतुष्कागुरुलघुचतुष्कैकेंद्रियपञ्चेन्द्रियस्थावर निर्माणासद्गम - २० नास्थिरषटकानां विंशतिकोटीकोटिसागरोपमाणि हास्यरत्युच्चैर्गोत्रपुंवेदस्थिरषट्कप्रशस्तगमनदेवद्विकानां
सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। चारित्र मोहनीयकी सोलह कषायोंका चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। संस्थान और संहननोंमें-से अन्तिम संस्थान और अन्तिम संहननका मूलप्रकृति नामकर्मकी तरह बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। शेष संस्थान और संहननोंका समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन पर्यन्त दो-दो कोडाकोड़ी सागर घटता हुआ है अर्थात् वामन संस्थान और कीलित संहननका अठारह, कुब्ज संस्थान और अर्धनाराच संहननका सोलह, स्वातिसंस्थान और नाराच संहननका चौदह, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और वज्रनाराच संहननका बारह, तथा समचतुरस्त्र संस्थान और वज्रवृषभ नाराच संहननका दस कोडाकोड़ी सागर है। विकलत्रयका अठारह कोड़ाकोड़ी
सागर प्रमाण है। अरति, शोक, नपुंसकवेद, तियश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, भय, जुगुप्सा, ३० नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तैजस, कार्मण, औदारिक, औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर
व अंगोपांग, आतप, उद्योत, नीचगोत्र, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात परघात उच्छ्वास, एकेन्द्रिय, पश्चेन्द्रिय, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्त विहायोगति,
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