SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ गो० जीवकाण्ड होता है । परन्तु प्रमादी रहने में तो धर्म है नहीं। प्रमादसे सुखी रहे वहाँ तो पाप ही होता है इसलिए धर्मके अर्थ उद्यम करना ही योग्य है ऐसा विचारकर करणानुयोगका अभ्यास करना ।' (पृ. २९० - २९१ ) कर्मशास्त्र करणानुयोग से सम्बद्ध है । अतः उसकी उपयोगिता निर्विवाद है । वह अनेक प्रकारके आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारोंकी खान होनेसे उसका महत्त्व अध्यात्मशास्त्र से कम नहीं है । यह ठीक है कि अनेक लोगोंको कर्मप्रकृतियोंको संख्या गणनामें उलझन प्रतीत होती है और इसीसे उन्हें कर्मशास्त्र रुचिकर नहीं लगता । किन्तु इसमें कोई दोष नहीं है, प्रत्युत सांसारिक विषयों में भटकते हुए मनको रोकनेके लिए यह एक अच्छा साधन है । विपाकविचयको इसीसे धर्मध्यानके भेदोंमें गिनाया है । उसके चिन्तनमें एकाग्रता आती है उसका अभ्यासी अपने आत्माके परिणामोंके उतार-चढ़ाव को सरलता से आँककर अपना कल्याण करने में समर्थ होता है । अतः अध्यात्मरसिक मुमुक्षुको अध्यात्मके साथ कर्मशास्त्रका भी अभ्यास करना चाहिये । विषय परिचय तथा तुलना कर्मकाण्डकी गाथा संख्या ९७२ है । उसमें नो अधिकार हैं -- ( १ ) प्रकृति समुत्कीर्तन (२) बन्धोदय सत्त्व (३) सत्त्वस्थानभंग ( ४ ) त्रिचूलिका (५) स्थान समुत्कीर्तन ( ६ ) प्रत्यय (७) भाव चूलिका (८) त्रिकरण चूलिका ( ९ ) कर्म स्थिति रचना | प्रथम खण्ड जीवकाण्डकी प्रस्तावना में हम यह लिख आये हैं कि यह एक संग्रहग्रन्थ है, षट् खण्डागम तथा उसकी घवलाटीकाके आधारपर इसका संकलन हुआ है । कर्मकाण्ड में ग्रन्थकारने अपने सम्बन्ध में लिखा जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं होदि ॥ अर्थात् जैसे चक्रवर्ती चक्र के द्वारा निर्विघ्नता पूर्वक छह खण्डों को साधता है वैसे ही मैंने अपनो बुद्धि रूपी चक्र द्वारा छह खण्डोंको साधा 1 यह छह खण्ड षट्खण्डागम हैं । अतः ग्रन्थकारने मुख्य रूपसे उसीका अनुगम इस ग्रन्थ की रचनायें किया है । किन्तु पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ गोम्मटसार तथा घवलाटीकासे पूर्व में रचा गया था और उसमें भी वही विषय है जो गोम्मटसर में है । अतः उसका भी प्रभाव इस ग्रन्थपर हो सकता है जैसा आगे के विवरणसे प्रकट होगा । १. प्रकृति समुत्कीर्तन - प्रथम अधिकारका नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है । ग्रन्थकारने प्रथम गाथामें प्रकृति समुत्कीर्तनको कहनेकी प्रतिज्ञा की है । षट् खण्डागमके प्रथमखण्ड जीव स्थानकी चूलिकामें तीसरा सूत्र है 'इदाणि पर्याड समुक्कीत्तणं कस्सामो ।' इसका टीकामें अर्थ किया है— प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण । तथा लिखा है कि प्रकृति समुत्कीर्तन को जाने विना स्थान समुत्कीर्तन आदिको नहीं जाना जा सकता। उसके दो भेद हैं- मूल प्रकृति समुत्कीर्तन और उत्तर प्रकृति संमुत्कीर्तन | आगे चूलिका में सूत्रकारने क्रमसे सूत्रोंद्वारा आठों कर्मोंका नाम और फिर प्रत्येकके उत्तर भेदोंका कथन किया है और टीकाकार वीरसेनने अपनी धवला में प्रत्येकका व्याख्यान किया है । और इस तरह प्रकृति समुत्कीर्तन नामक चूलिका के मूल सूत्र छियालीस हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy