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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६४३ ६४३ अणियट्टिगुणहाणे मायारहिदं च ठाणमिच्छंति । ठाणा भंगपमाणा केइ एवं परुर्वेति ॥३९२॥ अनिवृत्तिगुणस्थाने मायारहितं च स्थानमिच्छति। स्थानानि भंगप्रमाणानि केचिदेवं प्ररूपयंति ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळु मायारहितमप्प नाल्कुं स्थानंगळगीकरिसल्पटुवु । स्थानंगळ ५ भगप्रमाणंगळे ये दितु केलंबराचार्यरुगळु पेवरु । अंतागुत्तं विरलु स्थानभंगसंख्येयं गाथाद्वयदिदं पेळदपरु : अट्ठारह चउ अढ मिच्छतिए उवरि चाल चउठाणे । तिसु उवसमगे संते सोलस सोलस हवे ठाणा ॥३९३॥ अष्टादश चतुरष्टौ मिथ्यादृष्टयादित्रये उपरि चत्वारिंशच्चतुः स्थाने त्रिषूपशमकेषूपशांते १० षोडश षोडश भवेयुः स्थानानि ॥ मिथ्यादृष्टियोळं सासादननोळं मिश्रनोळं पूर्वोक्तप्रकारदिदं कदि पदि टुं नाल्कुं एंटुं स्थानंगळप्पुवु। मेले असंयतादि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं नाल्वत्तुं नाल्वत्तुं सत्वस्थानंगळप्पुवु। उपशमकम्मूवरोळमुपशांतकषायनोळं प्रत्येकमनंतानुबंधिसत्वयुतबद्धाबद्धायुष्यरुगळे टुं स्थानं. गळु कुंदि प्रत्येकं षोडश षोडश सत्वस्थानंगळप्पुवु । क्षपकरोल पूर्वोक्तक्रमदिदमपूर्वकरणनोळु १५ स्थानंगळु नाल्कु। अनिवृत्तिकरणनोळु संज्वलनमायारहितचतुःस्थानंगळुगूडि नाल्वत्तु । सूक्ष्मसांपरायनोळुस्थानंगळु नाल्कु। क्षीणकषायनोळु सत्वस्थानंगळे टु। सयोगरोळु सत्वस्थानंगळु नाल्कु । अयोगिकेवालयोळु सत्वस्थानंगळारु अरियल्पडुवुवु ॥ अनिवृत्तिगुणस्थाने मायारहितं स्थानचतुष्कमिच्छंति । स्थानानि भंगप्रमाणातीति केचित्प्ररूपयंति ॥३९२।। एवं सति स्यानभंगसंख्यां गाथाद्वयेनाह मिथ्यादृष्ट्यादिगणस्थानत्रये स्थानानि प्राग्वत क्रमेणाष्टादश चत्वार्यष्टौ भवंति। उपर्यसंयतादित्रतर्ष प्रत्येकं चत्वारिंशच्चत्वारिंशत उपशमकत्रये उपशांतकषाये चानंतानबंधिसत्त्वरहितानि बद्धाबद्धाय मष्टावष्टौ भूत्वा षोडश षोडश, क्षपके तु पूर्वोक्तक्रमेणापूर्वकरणे चत्वारि अनिवृत्ति करणे संज्वलनमायारहितचतुभिश्चत्वारिंशत्, सूक्ष्म सापराये चत्वारि, क्षीणकषायेऽष्टी, सयोगकेवलिनि चत्वारि, अयोगकेवलिनि तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें कोई आचार्य मायाकषायसे रहित चार स्थान २० मानते हैं। तथा किन्हीं का कहना है कि उसमें स्थान भंगोंकी संख्या समान है ॥३९२।। ऐसा होनेपर स्थान और भंगोंकी संख्या कहते हैं मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में स्थान पूर्वोक्त प्रकार अठारह, चार और आठ होते हैं ! आगे असंयत आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येकमें चालीस-चालीस स्थान होते हैं। उपशमश्रेणिके तीन गुणस्थानों में और उपशान्तकषायमें अनन्तानुबन्धीके सत्त्वसे रहित ३० बद्धायु अबद्धायु-सम्बन्धी चार-चार पंक्तियोंके आठ-आठ स्थान होनेसे सोलह-सोलह स्थान होते हैं। क्षपकश्रेणिमें पूर्वोक्त क्रमसे अपूर्ण करणमें चार स्थान हैं। अनिवृत्तिकरणमें छत्तीस स्थान तो पूर्वोक्त हैं और संज्वलन माया रहित चार स्थान जो पहले सूक्ष्म साम्परायमें कहे २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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