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________________ ६४४ गो० कर्मकाण्डे पण्णेक्कारं छक्कदि वीससयं अट्ठदाल दुसु तालं । वीसडवण्णं वीसं सोलट्ठ य चारि अटेव ॥३९४॥ पंचाशदेकादश षट्कृतिविंशत्युत्तरशतं अष्टचत्वारिंशद्वयोश्चत्वारिंशत् विंशतिरष्टापंचाशत् विंशतिः षोडशाष्ट चतुरष्टावेव ॥ मिथ्यादृष्टियोलु पूर्वोक्तपंचाशद्भगंगळेयप्पुवु । सासादननोळ पूर्वोक्तद्वादश भगंगळोजु अबद्धायुःसत्वस्थानदोळु मरणमादोडे देवापर्याप्तकने ब भंगमं कळे देकादश भंगंगठप्पुवु। एकेदोडा द्वितीयोपशनसम्यग्दृष्टिबद्धदेवायुष्यंगे सासादन गुणस्थानमं पोदिदोडल्लि मरणभिल्ले दु पेळवाचार्य्यर पक्षमंगीकृतमप्पुरिदं । मिश्रगुणस्थानदोछ मुंपेन्द षट्त्रिशद्भगंगळे यप्पुवु । असंयतनोळं मुंपेळ्द विंशत्युत्तरशत भंगंगळप्पुवु। देशसंयतनोळ पूर्वोक्ताप्टाचत्वारिंशभंग१० गळप्पुवु । प्रमत्ताप्रमतसंयतरुगळो पूर्वोक्तचत्वारिंशच्चत्वारिंशद्भगंगळेया वु। अपूर्वक`रणनोपशमश्रेणिय पदिनारुभंगंगळं क्षपकश्रेणिय नाल्कुं भंगंगळु गूडि विंशतिभंगंगळप्पुवु । अनिवृत्तिकरणनोळुपशमश्रेणिय पदिनारुं भंगंगळु क्षपकश्रेणिय मायारहित चतुभंगगळु गूडि नाल्वत्तुं नपुंसकवेदमं क्षपिसिदेडयो नाल्कुं स्थानंगळोळु तीर्थरहितद्वितीयचतुर्थस्थानंगळोळु स्त्रीषंडवेदसत्वकृतभंगंगळे रडप्पुवंतु अष्टापंचाशद्भगं गळप्पुवु । सूक्ष्मसांपरायनोपशमधेणिय १५ षोडश भंगंगळं क्षपकश्रेणिय चतुर्भगंगळु कूडि विंशतिभंगंगळप्पुवु। उपशांतकषायनोळु पशमश्रेणिय पदिनारे भंगंगळप्पुवु । क्षीणकषायनोळ द्विचरमचरमसमयसंबधिसत्वस्थान. २० षट् ।।३९३॥ ते पूर्वोक्तभंगा मिथ्यादृष्टौ पंचाशत् । सासादने द्वादश स्वबद्धायुःस्थानमध्यवर्तिदेवापर्याप्त मेदमुद्वृत्त्यैकादश, द्वितीयोपशमसम्यग्दष्टेबंद्धदेवायष्कस्य सासादने मरणं नास्तीति पक्षांगीकरणात । मिश्रे पटत्रिंशत । असंयते विंशत्युत्तरशतं । देशसंयतेऽष्टाचत्वारिंशत् । प्रमत्ताप्रमत्तयोश्वत्वारिंशत् चत्वारिंशत् । अपूर्वकरणे उपशमके षोडश, क्षपके चत्वारः, मिलित्वा विशतिः । अनिवृत्तिकरणे उपशमके षोडश, क्षपके पतिशत । मायारहिताः चत्वारः । नपुंसकवेदे क्षपणास्थानस्य चतुर्दा स्थानेषु तीर्थ रहितद्वितीय चतुर्थयोः स्त्रीपंढवेदकृतौ थे वे अनिवृत्तिकरणमें ही माननेसे चालीस स्थान हैं। सूक्ष्मसाम्पराय में चार, क्षीणकपायमें आठ, सयोग केवलीमें चार और अयोगकेवलीमें छह पूर्वोक्त स्थान होते हैं ॥३९३॥ २५ मिथ्यादृष्टि में पूर्वोक्त भंग पचास हैं। सासादनमें बारह हैं। उनमें से बद्धायुस्थानमें देव अपर्याप्तक भेद निकाल देनेसे ग्यारह भंग होते हैं। क्योंकि जिस द्वितीयोपशम सम्यगदृष्टी जीवके देवायुका बन्ध हुआ है उसका सासादनमें मरण नहीं होता इस पक्षको स्वीकार करनेसे ग्यारह भंग कहे हैं। मिश्रमें छत्तीस, असंयतमें एक सौ बीस, देशसंयतमें अड़तालीस, प्रमत्त और अप्रमत्तमें चालीस-चालीस. उपशमक अपूर्वकरणमें सोलह, क्षपकमें चार, ३० मिलकर बीस । अनिवृत्तिकरण उपशमकमें सोलह, क्षपकमें छत्तीस पूर्वोक्त तथा चार माया रहित, तथा नपुंसक वेदकी आपणाके चार स्थानों में से तीर्थकर रहित दूसरे और चौथे स्थानमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके बदलनेसे दो-दो भंग हुए। इस तरह १६ + ३८ + ४ सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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